________________
ही हमें इस ग्रंथ के संपादन की सादर प्रेरणा की है । '
भारतीय विद्या, पुस्तक १, अंक ४, पृष्ठ २९९
इस ग्रंथ का प्रकाशन होने के पश्चात् खरतरगच्छ का ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक इतिहास लिखने का मार्ग प्रशस्त हो गया ।
प्रकाशन का प्रारम्भिक इतिहास
सन् १९५५ में मेरा चातुर्मास महासमुन्द में था । इसी समय युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि को ८०० वर्ष पूर्ण हो गये थे । भारतवर्षीय खरतरगच्छ संघ ने अजमेर में ही अष्टम शताब्दी समारोह मनाने का निर्णय किया। मुझसे अनुरोध किया गया कि मैं इस सम्मेलन में अजमेर अवश्य पहुँचूँ। चातुर्मास पश्चात् विहार करता हुआ मैं कोटा पहुँचा । उसी समय अष्टम शताब्दी समारोह के संचालकों ने मेरे कंधों पर 'खरतरगच्छ का इतिहास' प्रकाशन करने का भार सौंपा। कोटा में कुछ अस्वस्थ रहा, इस कारण विघ्नबाधाएँ उपस्थित हो गईं। तत्पश्चात् इतिहास लेखन का कार्य प्रारम्भ किया । पूर्व अनुवाद को समक्ष रखते हुए संशोधन, सम्पादन, यत्र-तत्र परिवर्तन करना पड़ा। वर्धमानसूरि से जिनपद्मसूरि तक का जीवन चरित का आधार यह ‘खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावली' ही रही और उसके पश्चात् जिनपद्मसूरि से लेकर जिनलाभसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि का इतिहास क्षमाकल्याणोपाध्याय रचित खरतरगच्छ पट्टावली के आधार पर सारांश लेखन किया। लेखन के साथ संशोधन और प्रकाशन कार्य भी मेरे ऊपर था । अतः जैसे-तैसे दो माह के अत्यल्प समय में इस कार्य को सम्पन्न कर अजमेर पहुँचा । अष्टम शताब्दी समारोह १९, २०, २१ मई १९५६ को था अतः उस सम्मेलन के समय कुछ प्रतियाँ ही अजमेर पहुँच पाईं। यह पुस्तक 'खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड' के रूप में दादा जिनदत्तसूरि अष्टम् शताब्दी समारोह स्वागत कार्य समिति, अजमेर से प्रकाशित हुआ ।
मेरे दृष्टि में ही अत्यल्प समय में किया हुआ यह कार्य संतोषजनक नहीं था अतः खरतरगच्छ के विद्वद्न गणि श्री बुद्धिमुनिजी महाराज को भेजा। उन्होंने भी वैदुष्य पूर्ण संशोधन किया। तत्पश्चात् मैंने और साहित्य वाचस्पति भँवरलालजी नाहटा ने इसको सर्वांगीण रूप देने का प्रयत्न किया। रासादि अनेक प्राचीन कृतियों के आधार पर टिप्पण देकर इसे परिमार्जित भी किया। इस सामग्री के आधार पर महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागरजी ने श्री वर्धमानसूरि से लेकर द्वितीय जिनेश्वरसूरि तक का इतिहास 'खरतरगच्छ का आदिकालीन इतिहास' नाम से पुस्तक लिखी और वह प्रकाशित भी हुई।
प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन का इतिहास
साहित्य सेवा करते हुए मेरी वर्षों से अभिलाषा थी कि खरतरगच्छ का एक प्रामाणिक इतिहास प्रकाशित हो, जो आदर्श स्वरूप हो और भविष्य में शोधार्थियों के लिए उपयोगी हो । इसी दृष्टि से वर्षों सामग्री एकत्रित करता रहा और लेखन करता रहा। जीवन के शेष वर्ष भी खरतरगच्छ के
से
साधन,
(३८)
Jain Education International 2010_04
स्वकथ्य
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org