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आचार्य श्री जिनमाणिक्यसूरि । श्री जिनहससूरि जी ने अपने पट्ट पर श्री जिनमाणिक्यसूरि जी को स्थापित किया। इनका जन्म सं० १५४९ में कूकड चोपड़ा गोत्रीय साह राउलदेव की धर्मपत्नी रयणादेवीं की कोख से हुआ। इनका नाम सारंग था। सं० १५६० बीकानेर में ग्यारह वर्ष की अल्पायु में आपने आचार्य श्री जिनहंससूरि के पास दीक्षा ग्रहण की। इनकी विद्वत्ता और योग्यता देख कर गच्छनायक श्री जिनहंससूरि ने स्वयं सं० १५८२ (माघ शुक्ल ५) भाद्रपद वदि त्रयोदशी को पाटण में बालाहिक गोत्रीय शाह देवराज कृत नन्दि महोत्सवपूर्वक आचार्य पद प्रदान करके अपने पट्ट पर स्थापित किया। आपने गूर्जर, पूर्वदेश, सिंध और मारवाड़ आदि देशों में विहार किया। सं० १५९३ माघ शुक्ल प्रतिपदा गुरुवार को बीकानेर निवासी मंत्री कर्मसिंह के बनाये हुए श्री नमिनाथ भगवान् के मन्दिर की प्रतिष्ठा की। सं० १५८२ से सं० १६०८ तक के बहुत से बिम्ब-प्रतिष्ठादि के लेख सम्प्राप्त हैं। पुडदल नगर में प्रतिष्ठित प्रतिमा आगरा के जिनालय में है। सं० १५९५ आषाढ़ सुदि दशमी को आपने पंच नदी की साधन की थी, जिसका महोपाध्याय पुण्यसागर कृत गीत में वर्णन है। अन्तिम कुछ वर्ष आप जैसलमेर विराजे, उस समय गच्छ के साधुओं में शिथिलाचार आ गया था। प्रतिमोत्थापक मत भी प्रसारित होने लगा। शिथिलाचार परिहार कर त्याग मार्ग की ओर प्रवृत्ति होने लगी तथा गच्छ में भी क्रियोद्धार के विचार जाग्रत होने लगे। सं० १६०६ में खरतरगच्छीय श्री कनकतिलकोपाध्याय ने भी क्रियोद्धार नियम प्रचारित किए। परिग्रह त्याग कर क्रियोद्धार करने की तीव्र उत्कण्ठा आपके हृदय में जागृत हुई। बीकानेर में बहुसंख्यक यतिजन थे। वहाँ के मंत्रीश्वर संग्रामसिंह बच्छावत ने गच्छ की रक्षा के लिए आपको विनतीपत्र भेजा। आपके साथ भी सुविहित साधु वर्ग था व बीकानेर में भी त्यागी एवं विद्वान् मुनिगण चातुर्मास करते थे, पर गच्छनायक का प्रभाव कुछ और ही होता है। आप भाव से क्रियोद्धार संकल्पित कर, दादा श्री जिनकुशलसूरि जी के स्तूप के दर्शनार्थ यात्रा करने के हेतु देराउर पधारे । वहाँ गुरुदेव के स्तूप की यात्रा, चरणवन्दन कर जैसलमेर की ओर जाते समय मार्ग में जल के अभाव के कारण पिपासा परिषह उत्पन्न हुआ। रात्रि में थोड़े से जल की सुविधा भी मिली। भक्तों द्वारा उस जल को पीकर पिपासा शान्त कर लेने की प्रार्थना पर आपने दृढ़ता से उत्तर दिया-"इतने वर्षों तक पालन किये हुए चतुर्विधाहार व्रत को क्या आज एक दिन में भंग कर दूं? यह कभी नहीं किया जा सकता।"
___ इस प्रकार शुभ निश्चयों द्वारा व्रत भंग न करके स्वयं अनशन-आराधना द्वारा सं० १६१२ आषाढ़ शुक्ला पंचमी को देह त्याग कर स्वर्ग पधारे।
एक प्राचीन पट्टावली के अनुसार आपने एक ही दिन में ६४ साधुओं को दीक्षा दी, १२ मुनियों को उपाध्याय पद से विभूषित किया। अन्तिम समय में देरावर यात्रा में भी आपके साथ २४ शिष्य थे।
१. उ० क्षमाकल्याण जी की पट्टावली में माता-पिता का नाम शाह जीवराज और पद्मा देवी लिखा है।
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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