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आपने अस्वस्थता वश काफी अशक्त होने पर भी डाक्टरी इलाज स्वीकार नहीं किया। हवा पानी बदलने की राय थी तो आपको डोली में बैठना मंजूर नहीं था। ज्वर भी फाल्गुन माह से अधिक रहने लगा। चिकित्सकों की आराम करने की राय न मानकर लेखन कार्य चालू रखा और यह कहा कि "मेरी रुचि का विषय है, लिखना बन्द करने पर और भी बीमार पड़ जाऊँगा।" अशाता वेदनीय का उदय था, चिकित्सा लागू नहीं पड़ी। कल्पसूत्र गुजराती अनुवाद के मुद्रण का काम अधूरा था। शिष्यों ने कहा-उसे कौन पूरा करेगा? आपने कहा-"चिन्ता की बात नहीं, उस कार्य के पूरे होने से पूर्व मेरी मृत्यु नहीं होगी।" भविष्यवाणी सफल हुई, स्वर्गवास के दो-तीन दिन पूर्व ही कल्पसूत्र छपकर आ गया, आपने उसे मस्तक से लगाया, ऐसी आपकी अपूर्व ज्ञान भक्ति थी।
श्रावण सुदि ८ सं० २०१९ को पार्श्वनाथ निर्वाण दिवस के दिन आपने भी समाधिपूर्वक देह त्याग दिया। आप एक विरल विभूक्ति थे। आपके चारित्र की प्रशंसा स्वगच्छ और परगच्छ के सभी लोग मुक्त कण्ठ से करते थे। आपने एक मिनट भी व्यर्थ नहीं खोया। साधुजनोचित क्रियाकलाप के अतिरिक्त सारा समय ज्ञान-सेवा में बिताया। अनेक ज्ञान भण्डारों की आपने सूची बनाई। अनेक ग्रन्थों का सम्पादन, संशोधन भी आपने बड़े परिश्रम पूर्वक किया। युगप्रधानाचार्य-गुर्वावली के हिन्दी अनुवाद के संशोधन का कार्य सौंपा गया तो आपने सावधानी पूर्वक पंक्ति-पंक्ति का संशोधन किया। आपके सम्पादित एवं संशोधित ग्रन्थों में प्रश्नोत्तर मंजरी, पिण्डविशुद्धि, नवतत्त्व संवेदन, चातुर्मासिक व्याख्यान पद्धति, प्रतिक्रमण हेतु गर्भ, कल्पसूत्र संस्कृत टीका, आत्मप्रबोध, पुष्पमाला-लघुवृत्ति आदि प्राकृत-संस्कृत ग्रन्थों का उल्लेख किया जा सकता है तथा दादा जिनकुशलसूरि, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि आदि ग्रन्थों के गुजराती अनुवाद के संशोधन में भी आपने पर्याप्त श्रम किया। सूत्रकृताङ्ग सूत्र भाग १-२, द्वादश पर्व कथा के अतिरिक्त जयसोम उपाध्याय के प्रश्नोत्तर चत्वारिंशत् शतक का सम्पादन एवं गुजराती अनुवाद बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ का सम्पादन कर आपने खरतरगच्छ की महान् सेवा की। श्रीमद् देवचन्द्र जी महाराज की रचनाओं के स्वाध्याय और प्रचार की ओर आपकी विशेष रुचि थी। आपका जीवन उन महापुरुषों के पदचिह्नों पर चलने का अप्रतिम उदाहरण था।
(७. मुनि श्री जयानन्द
इनका जन्म सं० १८८० भाद्रपद में मुन्द्रा (भुज-कच्छ) में हुआ। इनके माता-पिता का नाम श्री दामजी भाई और चंचलबाई था। इनका जन्मनाम जयसुख भाई था। मुन्द्रानगर और जिनदत्तसूरि ब्रह्मचर्याश्रम, पालीताणा में इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की। २६ वर्ष की आयु में माघ वदि ६ सं० २०१६ में ये गणि श्री बुद्धिमुनि जी के शिष्य बने।
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खरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम-खण्ड
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