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खरतरगच्छ वालों ने नई जमीन लेकर मन्दिर बनवाया और उसमें राजमुनि जी व नयमुनि जी के ग्रन्थों का ज्ञान भंडार स्थापित किया। प्रतिमा की अप्राप्ति से संघ चिन्तित था क्योंकि उत्सव प्रारम्भ हो गया था। फिर उपाध्याय जी, रत्नश्री जी, श्रावक और श्राविका गोमीबाई को प्रतिमा प्राप्त होने व पुष्पादि से पूजा करने का एकसा स्वप्न आया। आचार्यश्री ने बीकानेर जाकर प्रतिमा प्राप्त करने की प्रेरणा दी। सं० १९५५ की प्रतिमा तत्काल प्राप्त हो गई और सानन्द प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। दादा साहब की मूर्ति, पादुकाएँ, राजमुनि जी व सुखसागर जी की पादुकाएँ तथा चक्रेश्वरी देवी की भी प्रतिष्ठा हुई। सं० २००१ का चातुर्मास महीदपुर हुआ। बड़ोदिया पधारने पर उद्यापन व दादा साहब की चरण प्रतिष्ठा हुई। शुजालपुर के मन्दिर में दादा साहब की चरण प्रतिष्ठा की। सं० २००२ का चातुर्मास कर
आसामपुरा, इन्दौर होते हुए मांडवगढ़ यात्रा कर रतलाम पधारे। गरोठ गाँव में दादा साहब की चरण प्रतिष्ठा की। तदनन्तर भाणपुरा, कुर्कुटेश्वर, प्रतापगढ़ व चरणोद पधारे। चरणोद में प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न कराके सं० २००३ का चातुर्मास प्रतापगढ़ में किया। मन्दसोर में चक्रेश्वरी देवी की प्रतिष्ठा कराई। जावरा से सेमलियाजी का संघ निकला, संघपति चाँदमल जी चोपड़ा को तीर्थ माला पहनाई। रतलाम से खाचरोद पधारे। जावरा से प्यारचंद जी पगारिया ने वही पार्श्वनाथ का संघ निकाला। तदनन्तर वहाँ से जयपुर की ओर विहार कर कोटा पधारे। गणिश्री भावमुनि को पक्षाघात हो गया और ज्येष्ठ वदि १५ की रात्रि में उनका समाधिपूर्वक स्वर्गवास हो गया।
सं० २००४ का चातुर्मास श्री जिनमणिसागरसूरि के साथ कोटा में हुआ। भगवतीसूत्र का वाचन किया। अठाई महोत्सव, स्वधर्मी-वात्सल्यादि अनेक धर्मकार्य सेठ केशरीसिंह जी बाफणा ने करवाये। जयपुर पधार कर श्रीमालों के मन्दिर में डेरागाजीखान से आई हुई प्रतिमाएं स्थापित की। सं० २००५ जयपुर और सं० २००६ अजमेर चौमासा कर सं० २००७ ज्येष्ठ सुदि ५ को विजयनगर में चन्द्रप्रभ स्वामी व दादा साहब के चरणों की प्रतिष्ठा की। रतनचंद जी सुचंती की विनती से अजमेर पधारे। बीस स्थानक का उनकी ओर से उद्यापन हुआ। भडगतिया जी के देहरासर में बड़े दादा साहब की प्रतिमा विराजमान की। वहाँ से ब्यावर पधार कर मुलतान निवासी हीरालाल जी भुगड़ी को सं० २००७ आषाढ़ सुदि ९ को दीक्षित कर हीरमुनि बनाया। उपधान तप हुआ। फिर पाली, राता महावीरजी, शिवगंज, कोरटा होते हुए गढ़सिवाणा पधारे। वहाँ से वाकली, तख्तगढ़ होकर श्री केशरमुनि जी की जन्मभूमि चूड़ा पधारे। सं० २००८ ज्येष्ठ वदि ७ को दादा जिनदत्तसूरि प्रतिमा तथा मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, श्री जिनकुशलसूरि और पं० केशरमुनि की पादुकाएँ प्रतिष्ठित की। गढ़सिवाणा चातुर्मास कर नाकोड़ा पधारे। मार्गशीर्ष सुदि १ को दादा श्री जिनदत्तसूरि मूर्ति व श्री कीर्तिरत्नसूरि की जीर्णोद्धारित देहरी में प्रतिष्ठा कराई। वहाँ से डीसा, भीलड़ियाजी, राधनपुर, कटारिया, अंजार होते हुए भद्रेश्वर तीर्थ पहुंचे। वहाँ से मांडवी होते हुए भुज पधार कर संघ का चिर मनोरथ पूर्ण किया।
भुज की दादावाड़ी का लम्बा इतिहास है। इसका प्रयास करने वाले हेमचंद भाई जिस दिन स्वर्गवासी हुए उसी दिन आपने स्वप्न में पुरानी और नई दादावाड़ी सह प्रतिष्ठोत्सव व हेमचंद भाई को देखा । वही दृश्य सं० २००९ माघ सुदि ११ को प्रतिष्ठा के समय साक्षात् हो गया। सूरत से सेठ बालू
संविग्न साधु-साध्वी परम्परा का इतिहास
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