Book Title: Bhagavana Mahavira aur unka Tattvadarshan
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: ZZZ Unknown
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भगवान महावीर के पच्चीससौवें निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष्य में
भगवान महावीर
और उनका तत्त्व दर्शन
भारतगौरव आचार्यरत्न श्री १०८ देशभूषण जी महाराज विद्यालंकार
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प्रस्तावना
संस्कृत भाषा में सूक्ति है "संताः परार्थतत्परा:" सत्पुरुष सदा प्राणियों का कल्याण किया करते हैं। मराठी में संत तुकाराम की यह सूक्ति है "जगात्र कल्याण संता च विभूति'' विश्व में प्रेम, तत्वज्ञान और संयम की त्रिपथगा में स्नान कर जीवन को परम विशुद्ध बनाने वाले वर्तमान परमहंस, विश्वगौरव, दिगम्बर, तत्वज्ञानी, ब्रह्मयोगी, बालब्रह्मचारी आचार्यरत्न पूज्य श्री देशभूषणजी महाराज को अध्यात्मिक साधना, सरस्वती की समाराधना और साहित्य सेवा अपना अनुपम स्थान रखती हैं।
तरुण वय में मार (काम) को मार लगाकर निर्दोष शीलपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए इन साधराज ने हिंदी, मराठी, बंगाली, तामिल, कन्नड़ आदि अनेक भाषामों का अच्छा ज्ञान प्राप्त करके श्रेष्ठ रचनामों का तलस्पर्शी परिशीलन और चिंतन किया है । इन लोकोपकारी महात्मा ने भारत की राजधानी दिल्ली के भव्य जीवों के पुण्योदय से कई वर्ष यहाँ व्यतीत किये । इनके अद्भत् पवित्र और आकर्षक व्यक्तित्व के कारण विदेशी व्यक्ति भी इनके सम्पर्क को पाकर अपने जीवन को अहिंसापूर्ण मधुर प्रतिज्ञाओं द्वारा सहज ही समलंकृत किया करते हैं। प्राचार्यश्री ने देश के विविध दर्शनों का अहिंसात्मक दृष्टि के साथ अनेकान्त के प्रकाश में परिशीलन किया है। फलतः इनके पुण्य प्रभाव से सभी धर्मों के लोग लाभान्वित होते हैं। हिन्दू धर्म के संतप्रेमी धनकुबेर यी युगल किशोर जी बिड़ला प्राचार्यश्री के प्रति जीवन भर अप्रतिम भक्त रहे।
भारत के साधु चेतस्क तथा पुण्य पुरुष प्रधानमन्त्री श्री लालबहादुर शास्त्री प्राचार्यश्री के जीवन से प्राकर्षित हो उनके प्रति प्रगाह श्रद्धा धारण कर उनसे पाशीर्वाद चाह रहे थे कि प्रधान मन्त्री से बड़ा पद प्राप जैसा निष्कलंक शांतिदायो साधु का जीवन व्यतीत करने का क्या मुझे सौभाग्य प्राप्त होगा?
साधुराज श्री देशभूषणजी की वाणी में मधुरता है । उनका जीवन बड़ा सरल और दिव्य है। वे अपने जीवन का एकएक क्षण प्रात्मचितन, सद्विचार अथवा परमार्थ में लगाते हैं। साधुराज की दृष्टि कवि नवलशाह को रचना वर्द्धमान पुराण भगवान महावीर के जीवन पर प्रकाश डालने वाली प्राप को प्रिय तथा उपयोगी लगी। यह रचना प्रचार्यथी को दिगम्बर जैन खंडेलवाल मन्दिर, वंदवाड़ा, दिल्ली में मिली । महाकवि नवलशाह महाराज छत्रसाल के पौत्र तथा पुत्र सभासिंह के समकालीन थे । कबिवर ने संवत् १८२५ अर्थात् १७६८ ई० में विविध छन्दों में इस महाकाव्य का निर्माण किया।
साधराज के पवित्र हृदय में यह विचार पाया कि भगवान महावीर के परिनिर्वाण के महोत्सव' से सम्बन्धित २५०० वें वर्ष के पावन प्रसंग की स्मृति में उन देवाधिदेव, प्रेम की गंगा प्रवाहित करने वाले भगवान् महावीर की पीयूषषिणो जीविनी प्रकाश में आने पर भव्यात्मानों का कल्याण होगा तथा यह साहित्य के रूप में चिरस्मरणीय स्मारक रहेगा।
हिंदी साहित्य की दृष्टि से रचना का अपना एक विशेष आकर्षण है कि इसमें महावीर प्रभु के जीवन सम्बन्धी घटनामों आदि पर प्रकाश डालने वाले लगभग ४०० अनेक रंगयुक्त चित्र हैं।
महापुरुष की रचना की समालोचना अथवा प्राचार्यों के श्रेष्ठ श्रम का साधारण मनुष्य क्या मूल्यांकन करेगा? यथार्थ में यह ग्रन्थ शिरसा वन्दनीय और शिरोधार्य होते हैं।
परम संयमी जीवन में संलग्न रहने वाले, सदा व्रत उपवास करने वाले प्राचार्य रत्न श्री देशभूषणजी महाराज ने अपार थम उठाकर इस कल्याणकारी रचना को सानुवाद प्रकाश में लाने की जो कृपा की है उसके प्रति प्रत्येक व्यक्ति और साहित्यकार थद्धा से उनके चरणों में सदा प्रणामांजलि अर्पित करेगा।
मातृभाषा कन्नड़ होते हुए भी साधुराज ने राष्ट्रभाषा में विविध ग्रन्थरत्नों का निर्माण संपादन अनुवाद आदि किया है।
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हमें विश्वास है कि प्रत्येक सहृदय साधक और सत्पुरुष इस रचना को पढ़कर जीवन का शोधन कर पंधकार से प्रकाश की ओर प्रगति करेगा अपभ्रंश के महाकवि पुष्पदंत के शब्दों में "दयावढमाणं जिनं वडढमाणं'–दया के द्वारा वर्द्धमान महावीर के जीवन को दृष्टि में रखकर आशा है सुधी जन संतोष समता और शांति का रसास्वादन करेंगे।
भगवं शरणो महाबीरो।
(विद्वत् रत्न, धर्मदिवाकर) सुमेरचन्द विवाकर, बी० ए० एल० एल० वी शास्त्री, त्यायतीर्थ,
दिवाकर सदन, सिवनी, मध्य प्रदेश १सितम्बर १९७३ पर्युषण महापर्व, दिल्ली
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प्रामुख
इस ग्रन्थ की भूमिका लिखने का प्रस्ताव जब मेरे सामने पाया तो स्वभावत: मुझे संकोच हुा । किन्तु जब मैंने इस ग्रन्थ का सुक्ष्म अवलोकन किया तो मुझे बड़ा सन्तोष एवं हर्ष हुमा । हर्ष का कारण यह था कि एक अप्रकाशित जैन रचना प्रकाशित की जा रही है और सन्तोष इसलिए कि वास्तव में यह रचना प्रकाशित करने योग्य थी और जैन हिन्दी काव्य में प्रपना समुचित स्थान बनाने में भाषा, भाव, छन्द और अलंकार सभी दृष्टियों से समर्थ है। इसका सम्पूर्ण श्रेय प्राचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज को है, जिन्हें अप्रकाशित रचनाओं को प्रकाशित कराने की अत्यधिक रुचि है।
प्राचार्य श्री जैन मुनियों के कठोर प्राचार और मर्यादाओं का निर्वाह करते हुए अपने समय का सदुपयोग संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, कानड़ी, तमिल आदि भाषाओं के अनुपलब्ध और अप्रकाशित ग्रन्थों के अनुसन्धान और उनके अनुवाद के लिये करते रहते हैं। उनकी प्रान्तरिक इच्छा और प्रयत्न ऐसे सभी ग्रन्थों को प्रकाशित करने का रहता है। उनकी इसी अातुर इच्छा और समर्थ प्रयत्नों के कारण अबतक अनेक ग्रन्थ प्रकाश में आ चुके हैं । भरतेश वैभव, रत्नाकर शतक, अपराजितेश्वर शतक, धर्मामृत यादि कन्नड़ भाषा के अमूल्य ग्रन्थों का रसास्वादन हिन्दी भाषाभाषी जनता भी कर सकी, यह प्राचार्यश्री की उसी इच्छा सौगा । मरिणामसी प्रकार तमिल, बंगला, गुजराती भाषा के कई ग्रन्थ-रत्नों का हिन्दी में और संस्कृतप्राकृत के ग्रन्थों का इन भाषाओं में अनुवाद करके प्राचार्यश्री ने इन भाषामों पर बड़ा उपकार किया है। मेरी मान्यता है कि विभिन्न भाषाओं के ग्रन्थों का हिन्दी में और हिन्दी रचनाओं का कन्नड़ या अन्य भाषाओं में रूपान्तर करके प्राचार्यश्री ने भाषा गत दूरी को कम करने और विभिन्न भाषाभाषी लोगों में भावात्मक एकता स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। उनके इस योगदान से राष्ट्रीय एकता के पक्ष को बड़ा बल मिला है। इसके लिये समग्न राष्ट्र प्राचार्यश्री का सदा ऋणी रहेगा ।
प्राचार्यश्री के इस प्रयास का एक और उज्ज्वल पक्ष है। उनके इस अध्यवसाय से भारतीय वाङ्मय समृद्ध होता है समग्र भारतीय वाड्मय का मूल्यांकन करते समय जैन साहित्य के महत्व और गौरव को विस्मृत नहीं किया जा सकेगा। इतना ही नहीं; जैन साहित्य को उसके उपयुक्त उच्च स्थान प्राप्त होगा।
प्रस्तुत ग्रन्थ 'वर्धमान पुराण' उनकी इसी इच्छा और प्रयत्न का परिणाम है और यह जैन साहित्य को समृद्ध बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कड़ी है।
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ग्रन्थ-प्राप्ति
प्रस्तुत ग्रन्थ में 'वर्धमान पुराण' भी है । इसके रचयिता कविवर नवलशाह हैं। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित था और ग्रन्थ-भण्डारों की शोभा बढ़ा रहा था । आचार्यश्री जव किसी जिनालय में जाते हैं तो वे वहाँ का शास्त्र-भण्डार अवश्य देखते हैं उनकी दृष्टि और रुचि अप्रकाशित ग्रन्थों का पता लगाने की रहती है और यदि कोई अप्रकाशित उपयोगी ग्रन्थ उपलब्ध हो जाता है तो वे उसके संपादन और प्रकाशन में दत्तचित्त होकर जुट जाते हैं।
एक बार पाप दिगम्बर जैन खण्डेलवाल मन्दिर वैदवाड़ा दिल्ली में आयोजित एक धार्मिक सभा में प्रवचन के लिये पधारे। प्रवचन समाप्त होने पर आपने वहाँ के शास्त्र-भण्डार का अवलोकन किया। उसमें प्रापको प्रस्तुत ग्रन्थ की एक अप्रकाशित बहमूल्य प्रति उपलब्ध हुई। यह प्रति सचित्र थी। आचार्यश्री को इस प्रति को प्राप्ति से अत्यन्त हर्ष हुमा। उन्होंने इस ग्रन्थ को प्रतिलिगि कराई। उसका संशोधन और संपादन किया तथा उसका अनुवाद किया। चित्र अत्यन्त भावपूर्ण,
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प्रभावक और प्राचीनकला द्योतक थे । उनकी संख्या ३५० के लगभग थी। इनके चित्र कैमरे द्वारा लेना, उनके व्लाक तैयार कराना और रंगीन छपाई कराना अत्यन्त श्रमसाध्य, व्ययसाध्य और उपयोगसाध्य काम था। किन्तु प्राचीन कला का उसके मौलिक रूप में संरक्षण करने में ही कला की उपयोगिता है और इसीसे उसका सही मूल्यांकन किया जा सकता है । आधुनिक कला के बहाव में प्राचीन कला की जो उपेक्षा और विडम्बना हो रही है, उससे प्राचीन कला को प्रचार पाने में काफी बाधा पड़ी है। इसलिये भारत की प्राचीन कला का समुचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है। जैन कलाकारों ने कला के प्रत्येक क्षेत्र में अपना पूरा सहयोग दिया है। वास्तु, शिल्प चित्र, भित्ति चित्र, काष्ठ चित्र कला सभी क्षेत्रों में जैन कलाकारों का योगदान परिमाण और सौन्दर्य, संख्या और अभिनवता सभी दृष्टियों से प्रशंसनीय रहा है किन्तु उसका अपेक्षणीय प्रचार भी नहीं हुपा और प्रचारित का सही मूल्यांकन भी नहीं हुआ है।
प्राचार्यश्री ने प्रस्तुत ग्रन्थ के चित्रों को मौलिक रूप में प्रकाशित करके जैनकला की बहुत बड़ी सेवा की है और बे अपनी केवल इस सेवा के कारण ही कलाविदों की श्रद्धा के भाजन बन गये हैं। इन चित्रों को उनके मौलिक रूप में प्रकाशित करने में उसकी मौलिक सूझ-बूझ और कला के प्रति उनकी हादिक लगन के ही दर्शन होते हैं।
अन्ध-परिचर प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'वर्धमान पुराण' है। इसके प्रतिपाद्य विषय का परिचय इसके नाम से ही हो जाता है। इसमें भगवान महावीर के पूर्व भबों और वर्तमान जीवन का परिचय दिया गया है। यह खड़ी बोलो का एक सरल काब्य-ग्रन्थ है। इसके रचयिता कवि का नाम कबिबर नवलशाह है । इस प्रन्थ में कुल १६ अधिकार दिये गये हैं। पुराण-परम्परा के अनुसार इसमें मंगलाचरण के अनन्तर वक्ता और श्रोता के लक्षण प्रथम अधिकार में दिये गये हैं।
द्वितीय अधिकार में भगवान महावीर के पूर्व भवों में से एक भव के पुरुरवा भील द्वारा मद्य मांसादिक के परित्याग, फिर सौधर्म स्वर्ग में देव पद की प्राप्ति, तीसरे भव में चक्रवर्ती भरत के पुत्र के रूप में मरोत्रि को उत्पत्ति और उसके द्वारा मिथ्यामत की प्रवृत्ति, फिर ब्रह्म स्वर्ग में देव पर्याय की प्राप्ति, वहाँ से चयकर जटिल तपस्वी का भव, तत्पश्चात् सौधर्म स्वर्ग की प्राप्ति फिर अग्निसह नामक परिवाजक का जन्म, वहाँ से चयंकर तृतीय स्वर्ग में देव-पद, वहाँ से भारद्वाज ब्राह्मण, पाचवें स्वर्ग में देव पर्याय, फिर असंख्य वर्षों तक निम्न योनियों में भ्रमण यादि का वर्णन किया है।
तृतीय अधिकार में स्थावर ब्राह्मण, माहेन्द्र स्वर्ग में देव, राजकुमार विश्वनन्दी और उसके द्वारा निदान बन्ध, दसवें स्वर्ग में देव', त्रिपृष्ठ नारायण, सातवें नरक में नारकी इन भवों का वर्णन है।
चतुर्थ अधिकार में सिह पर्याय और चारण मनियों द्वारा संबोधन करने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति' फिर सौधर्म स्वर्ग में देव पर्याय, राजकुमारं कनकोज्ज्वल, सातवें स्वर्ग में देव जन्म, राजकूमार हरिण, दसवें स्वर्ग में देव पर्याय का वर्णन मिलता।
पांचवें अधिकार में प्रियमित्र चक्रवर्ती के भव का तथा बारहवें स्वर्ग में देव पद की प्राप्ति का वर्णन है।
छठवें अधिकार में राजा नन्द के भव में तीर्थकर प्रकृति का बन्ध तथा सोलहवें स्वर्ग में अच्युतेन्द्र पद की प्राप्ति का वर्णन है।
सप्तम अधिकार में महाराज सिद्धार्थ के महलों में कुबेर द्वारा तीर्थकर जा नों की वर्षा, माता द्वारा सोलह स्वप्नों का दर्शन, महाबीर तीर्थकर का गर्भावतरण महोत्सव का वर्णन है।
पाठवें और नौवें अधिकार में भगवान के जन्मकल्याणक महोत्सव का भावपूर्ण सरस वर्णन किया गया है।
दसवें अधिकार में प्रभु के बाल्य-जीवन, यौवन में आकर वैराग्य और दीक्षा, कल राजा द्वारा भगवान को प्रथम आहार, चन्दना के हाथों से माहार लेने पर चन्दना का कष्ट दूर होला, घोर तप करते विविध प्रकार के उपसगोको सहते हुए केवलज्ञान की प्राप्ति का वर्णन है।
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ग्यारहवें अधिकार में देवों द्वारा भगवान का केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव मनाने और कुबेर द्वारा रचित समवसरण का वर्णन है।
बारहवें अधिकार में समवसरण में गौतम इन्द्रभूति का आना और सन्देह की निवृत्ति होने पर भक्तिविगलित हृदय से भगवान की स्तुति का वर्णन है।
तेरहवें से पन्द्रहवें अधिकार तक गौतम गणधर द्वारा प्रश्न करने पर भगवान द्वारा तत्त्व निरूपण बतलाया गया है ।
सोलहवें अधिकार में इन्द्र द्वारा प्रार्थना करने पर भगवान का विभिन्न देशों में विहार, गौतम गणधर द्वारा श्रेणिक के पूछने पर उनके तीन पूर्व भवों का वर्णन, अन्त में विहार करते हुए भगवान का पावा में निर्वाण, गौतम स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति और उनका धर्म-तिहार, धर्म उपदेश प्रादि का वर्णन करने के बाद कवि ने अन्त में अपना विस्तृत परिचय दिया है।
___ इस प्रकार महावीर-चरित का वर्णन कवि ने परम्परानुसार किया है। जिस प्रकार जैन पुराणकार चरित्र-वर्णन के माध्यम से जैन धर्म के विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने के अवसरों का पूरा उपयोग करते रहे हैं, उसी प्रकार कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ में उउयोग किया है।
प्रन्थ में प्रयुक्त विभिन्न छन्द-अलंकार कवि नवलशाह ने वर्ण्य विषय के अनुकूल विभिन्न छन्दों और अलंकारों का प्रयोग करके छन्द और अलंकारशास्त्रों पर अपने अधिकार और उनके प्रयोग की प्रतिभा का सफल प्रदर्शन किया है। कवि ने कहीं भी अनावश्यक शब्दाडम्बर नहीं दिखाया, बल्कि उनकी कविता का प्रत्येक शब्द सार्थक, उपयोगी और भावर्गाभत है।
कवि ने अपने इस काव्य ग्रन्थ में जिन छन्दों का प्रयोग किया है, उनके नाम इस प्रकार हैदोहा, छप्पय, चौपाई, सवैया,अडिल्ल, गीतिका, सोरठा, करखा, पद्धरि, चाल, जोगीरासा, कवित्त, त्रिभंगी, चर्चरी छन्दों की कुल संख्या ३८०६ हैं।
ग्रन्थ-रचयिता कवि का परिचय इस ग्रन्थ के रचयिता कवि का नाम नवलशाह है। ये गोलापूर्व जाति में उत्पन्न हुए थे। इनका वेंक चन्देरिया और गोत्र बढ़ था। इनके पूर्वज भीषम साह भेलसी ग्राम में रहते थे। उनके चार पुत्र थे-बहोरन, सहोदर प्रहमन और रतनशाह । एक दिन पिता ने पुत्रों के साथ परामर्श किया कि अब कुछ धार्मिक कृत्य करना चाहिये । हमें जो राज-सम्मान और धन प्राप्त है उसका कुछ उपयोग करना चाहिये। तब दीपावली के शुभ महर्त में उन्होंने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का आयोजन किया, जिसमें दूर-दूर देश से लोग पाकर सम्मिलित हए। उन्होंने जिन बिम्ब विराजमान की; तोरण-ध्वजा-छत्र आदि से सुशोभित किया; प्रागत साधर्मी जनों का सत्कार किया और चार संघ को दान दिया। फिर रथ-यात्रा का उत्सब किया। चार संघ ने मिलकर इनका टीका किया और सबने एकमत होकर इन्हें 'सिंघई' पद से विभूषित किया। यह प्रतिष्ठा वि०सं० १६५१ के प्रगहन मास में हुई थी। उस समय बुन्देलखण्ड में महाराज जुझार का राज्य था।
इनके पूर्वजों ने भेलसी को छोड़कर खटोला गांव में अपना निबास बनाया। इनके पिता का नाम सिंघई देवाराय और माता का नाम भानमता था। सिंघई देवाराय के चार पुत्र थे-नवलशाह, तुलाराम, घासीराम और खमानसिंह । श्री नवलशाह ने इस ग्रन्थ की रचना महाराज छत्रसाल के पौत्र और सभासिंह के पूत्र हिम्दुपति के राज्य में की । उन्होंने और उनके पुत्र ने मिलकर प्राचार्य सकलकीति के 'वर्धमान पुराण' के आधार पर इस ग्रन्थ की रचना की है।
ग्रन्थ में १६ अधिकार रखने का कारण बताते हए कवि ने बद्धी सरस कल्पनामों का प्राधार लिया है। तीर्थकर माता ने सोलह स्वप्न देखे थे, महाबीर ने पूर्वभव में सोलह.कारण भावनाओं का चिन्तन करके तीर्थकर प्रकृति का बन्ध किया था; ऊपर १६ स्वर्ग है। चन्द्रमाकी १६ कलानों के पूर्ण होने पर ही पूर्णमासी होती है। स्त्रियों के १६ ही अंगार बताये गये है' पाठ
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कर्मों का नाश कर श्रावी पृथ्वी (मोक्ष) मिलती है । यह ग्रन्थ भी सोलह माह में ही लिखा गया । इन सब कारणों से ग्रन्थ में १६ अधिकार दिये हैं । वास्तव में कवि की यह कल्पना सुन्दर है ।
इस ग्रन्थ की समाप्ति वि० सं० १८२५ में फाल्गुन शुक्ला पूर्णमासी बुधवार को हुई ।
ग्रन्थ का संकलित भाग
कविवर नवलशाह कृत 'वर्धमान पुराण' के अतिरिक्त इस ग्रन्थ में जो सामग्री दी गई है, वह विभिन्न स्थानों से लेकर संकलित की गई है। इस सामग्री में निम्नलिखित जानकारी सम्मिलित है
जैन धर्म और उसके मुख्य सिद्धान्त, जैन भूगोल, खगोल और अधोलोक का विस्तृत परिचय, कुलकरों और तीर्थंकरों का जीवन इतिहास, भगवान महावीर का काल निर्णय ( पं० जुगलकिशोर मुख्तार, डा० जंकोवो, डा० मुनि नगराज), भगवान महावीर की निर्वाण-भूमि पावापुरी, दैनिक तेज के प्रख्यात संवाददाता श्री धर्मपाल द्वारा लिखित भगवान महावीर का जीवन इंगलिश में, गौतम चरित्र, दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि, महावीर-शासन को विशेषतायें, भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध, सिद्ध भूमियाँ ।
ग्रन्थ का नाम और उसके प्रकाशन का उद्द ेश्य
वर्धमान पुराण और उपर्युक्त संकलित सामग्री को देखते हुए ग्रन्थ का नाम श्री 'भगवान महाबीर श्रौर उनका तत्त्व दर्शन' प्रत्यन्त उपयुक्त प्रतीत होता है । यह ग्रन्थ भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष्य में प्रकाशित किया गया है । इतनी विपुल सामग्री और विशालकाय ग्रन्थ के प्रकाशन का एकमात्र उद्देश्य यही रहा है कि भगवान महावीर और उनके सम्बन्ध में सभी ज्ञातव्य बातें जिज्ञासु जैन और नरकको एक स्थान पर ही उपलब्ध हो जाँय 1 मैं यह कहने की स्थिति में हूं कि यह ग्रन्थ अपने उद्देश्य में सफल सिद्ध हुम्रा है ।
चित्रों के सम्बन्ध में
प्रस्तुत ग्रन्थ में दिये गये चित्रों के सम्बन्ध में भी दो शब्द कहना उचित प्रतीत होता है 'वर्धमान पुराण' की हस्तलिखित प्रति में लगभग ३५० चित्र भी दिये गये हैं। उन सबकी फोटो लेकर और उनके ब्लाक बनाकर वे अपने मूल रूप में ही दिये गये हैं । ये सभी चित्र विषय से सम्बन्धित हैं। इन चित्रों का महत्त्व इस दृष्टि से अधिक बढ़ जाता है कि ये मोलिक रूप में दिये गये हैं । इस प्रकार का प्रयत्न अब तक कभी नहीं किया गया। इसलिये यह प्रयत्न सर्वथा अपूर्व और मौलिक कहा जा सकता है। उनकी कला का मूल्यांकन करते समय इस बात को नहीं भुलाया जायगा, ऐसी अपेक्षा और आशा है ।
इन चित्रों के अतिरिक्त भी अनेक चित्र दिये हैं, जिनकी सूची काफी विस्तृत है। इन चित्रों में जंन भूगोल, खगोल और अधोलोक से सम्बन्धित चित्र अत्यन्त कलापूर्ण हैं और वे नवीन ढंग से तैयार कराये गये हैं। इनके तैयार करने में जिन महानुभावों ने सहयोग दिया और प्रयत्न किया है, वे प्रशंसा और धन्यवाद के पात्र है । उनमें मुख्य नाम हैं— श्रीपन्नालाल जैन प्राचिन कुमारी इन्दु कुमारी सन्तोष और श्री अरुणकुमार ।
इस सम्पूर्ण आयोजन का सम्पूर्ण श्रेय पूज्य श्राचार्य श्री देशभूषण जी महाराज को है और यह सब उनके आशीर्वाद का शुभ परिणाम हैं।
आभार प्रदर्शन
यहाँ मैं उन सभी दानदाताओं का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने इस ग्रन्थ के प्रकाशन में धन या कागज देकर अपना सहयोग प्रदान किया है। (इन दानदाताओं की सूची पृथक से दी जा रही है।) मैं उन सज्जनों का भी आभार स्वीकार करता हूँ, जिन्होंने अपना प्रभूल्य समय और सुझाव देकर अपना सक्रिय सहयोग प्रदान किया । वैद्य प्रेमचन्द्र जी जैन ने इस ग्रंथ के प्रूफ संशोधन और प्रकाशन की व्यवस्था आदि में बड़ा श्रमसाध्य योगदान किया है। श्री भगवानदास जी जैन ने इसकी प्रेस कापी तैयार करने में बड़ा सहयोग किया है। में उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ ।
सन्त में मैं आचार्यश्री के चरणों में अपनी श्रद्धा के कुसुम चढ़ता हुआ उनके दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ।
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बलभन्न जैन
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा वीर नि० सं० २४९८
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कहाँ क्या है
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मंगलाचरण प्रथम अध्याय जैनधर्म का सामान्य स्वरूप-जैनधर्म-द्रव्य-पद्रव्य-जीवद्रव्य-जीव' का लक्षण और उसके भेद-कर्म और उसके भेद-मुक्त जीव-अजीवद्रव्य-पुद्गल-धर्म द्रव्य-अधर्म द्रव्य-प्राकाश द्रव्य - लोकाकाश-अलोकाकाश-कालद्रव्य-सप्ल तत्त्व-अष्ट कर्म-पाक्षिक श्रावक-प्रष्टमूल गुण -सप्त ध्यसनदर्शन प्रतिमा-व्रत प्रतिमा-सामायिक प्रतिमा-सामायिक करने की विधि-प्रोषध प्रतिमा-सचित्त त्याग प्रतिमा-रात्रि भोजन त्याग-ब्रह्मचर्य प्रतिमा-चौबाद-प्रारम्भ त्याग-परिग्रह त्याग–अनुमति त्याग -उद्दिष्ट त्याग-बारह भावना--सोलह कारण भावना-२२ परिषह-बारह प्रकार का तप-गुणस्थान वितीय अध्याय
३६-१८२ जैनाभिमत भूगोल परिचय-वैदिक धर्माभिमत भूगोल-बौद्धाभिमत भूगोल-आधुनिक विश्व परिचयउपरोक्त मान्यताओं की तुलना-जैन भूगोल का कुछ समन्वय-चातुर्दायिक भूगोल परिचय-लोक का लक्षण---गाका हागार-शोर का निस्तार--लोक का वर्णन हरिवंश पुराण के प्राधार पर बातवलयों का परिचय-वातवलय सामान्य परिचय-तीन वालवलयों का अवस्थान क्रम---पृथ्वियों के साथ वातवलयों का स्पर्श-वासबलयों का विस्तार-लोक विभाग निर्देश-- अस व स्थावरलोक निर्देश-अधोलोक सामान्य परिचय-भावन लोक निर्देश-व्यन्तर लोक निदेश-मध्यलोक निर्देश-द्वीप सागर ग्रादि निर्देश -तिर्यग्लोक मनुष्य लोक प्रादि विभाग-ज्योतिष लोक सामान्य निर्देश-ऊबलोक सामान्य परिचयजम्बद्वीप निर्देश-जम्बूद्वीप सामान्य निर्देश- जम्बद्वीप में क्षेत्र पर्वत नदी आदि का प्रमाण-पर्वतों का प्रमाण-नदियों का प्रमाण-द्रह कुण्ड प्रादि-क्षेत्र निर्देश-सुमेरु पर्वत निर्देश सामान्य निर्देश-मेरुका आकार-मेरु की परिधियाँ-बनखण्ड निर्देश-पाण्डक शिला निर्देश- अन्य पर्वतों का निर्देश-द्रह निर्देशकुण्ड निर्देश-जम्ब ब शाल्मली वृक्षस्थल-विदेह के ३२ क्षेत्र-लवण सागर निर्देश-धातको खण्ड निर्देश -कालोद समुद्र निर्देश-पुष्कर द्वीप-नन्दीश्वर द्वीप-कुण्डलवर द्वीप-रुचकवर द्वीप-स्वयंभूरमण समुद्र -क्षेत्र सम्बन्धी प्रमाण-जम्ब द्वीप के पर्वतों के नाम-नाभिगिरि तथा उनके रक्षक देव-विदेह वक्षारों के नाम-गजदन्तों के नाम-यमक पर्वतों के नाम-दिग्गजेन्द्रों के नाम-भरत विजयाई-ऐरावत विजया -विदेह के ३२ विजयाचं-हिमवान्-महा हिमवान्-निषध पर्वत-नील पर्वत-रुक्मि पर्वत-शिखरी पर्वत-विदेह के १६ वक्षार-सौमनस गजदन्त-विधुत्प्रभ गजदन्त-गन्धमादन--माल्यवान् गजदन्तसुमेरु पर्वत के वनों में कटों के नाम व देव-जम्बू द्वीप के द्रहों व वापियों के नाम-महाहृदों के कटों के नाम -जम्बू द्वीप की नदियों के नाम-विदेह क्षेत्र की १२ विभाग नदियों के नाम- लवण सागर के पर्वत पाताल व तन्निवासी देवों के नाम-मानुषोत्तर पर्वत के कूटों व देवों के नाम-नन्दीश्वर द्वीप की वापियो व उनके देव-कुण्डलवर पर्वत के कूटों व देवों के नाम- रूचकवर पर्वत के कूटों व देशों के नाम-दृष्टि संख्या २ की अपेक्षा-पर्वतों प्रादि के वर्ण-द्वीप क्षेत्र पर्वत प्रादि का विस्तार-सागर-पाताल-पर्वत व द्वीप-जम्बूद्वीप के क्षेत्र-धातकी खण्ड के क्षेत्र-पुष्कार के क्षेत्र-जम्बूद्वीप के पर्वतों व कटों का विस्तार -गोल पर्वत-पर्वतीय व अन्य कुट-नदी कुण्ड द्वीप व पाण्डकशिला मादि-अढ़ाई द्वीप की सर्व वेदियाँ -शेष द्वीपों के पर्वतों व कटों का विस्तार-धातकी खण्ड के पर्वत-पुष्कर द्वीप के पर्वत व कट-नन्दीश्वर
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के पर्वत-कुण्डलवर के पर्वत व उसके कूट-रुचकवर पर्वत व उसके कूट-स्वयंभूरमण पर्वत-जम्बू द्वीप के वनखण्ड-धातको खण्ड के वनखण्ड-पुष्कराध द्वीप के वन खण्ड-नन्दीश्वर द्वीप के वन-जम्बू द्वीप की नदियाँ-धातकी खण्ड की नदियाँ-पुष्कर द्वीप की नदियाँ-मध्यलोक की वापियों व कुण्डों का विस्तार-जम्बूद्वीप सम्बन्धी अन्य द्वीप सम्बन्धी-अढ़ाई द्वीप के कमलों का विस्तार
तृतीय अध्याय
१५३-१८६ काल का वर्णन कुलकर-प्रतिधति-सन्मति-क्षेमकर-क्षेमंधर-सीमकर-सीमंधर-विमलबाहन-चक्षुष्मान- १८६-१९० यशस्वी-यभिचन्द्र--चन्द्राभ-मरुदेव-प्रसेनजित–नाभिराय-षोडष भावनाश्री आदिनाथ-भगवान अजितनाथ–श्रीमद्भागवत में श्री आदिनाथ का वर्णन-भगवान संभवनाथ १९०-२८७ भगवान अभिनन्दननाथ-भगवान सुमतिनाथ-भगवान पद्मप्रभु-भगवान सुपार्श्वनाथ भगवान चन्द्रप्रभ-भगवान पुष्पदन्त-भगवान शीतलनाथ भगवान श्रेयान्सनाथ-भगवान वासुपूज्य-भगवान विमलनाथ-भगवान अनन्तनाथ भगवान धर्मनाथ भगवान शान्तिनाथ-भगवान कुन्थु नाथ भगवान परनाथ-भगवान मल्लिनाथ--भगवान मुनिसुव्रतनाथ-भगवान नमिनाथ-भगवान नेमिनाथ-भगवान पार्श्वनाथ
चतुर्थ अध्याय
२६१-५७३ ५७५-५८४ ५८४-५६२ ५६२-५६४ ५६४-५६६ ५६७-५६८ ५६६-६१८
वर्धमान पुराण (कवि नवलशाह कृत)भगवान महावीर-परिचय और निर्वाणकाल (पं० जुगलकिशोर मुख्तार) महावीर का समय काल-निर्णय (डॉ० जैकोबी) महावीर स्वामी का काल-निर्णय (डॉ० मुनि नगराज जी) पावापुरी The Herbinger of world Peace-Lord Mahavir गौतम चरित्र दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि महाबीर शासन को विशेषतायें (श्री अगरचन्द नाहटा) भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध सिद्ध भूमियाँ . यजुर्वेद में भगवान महावीर की उपासना भगवत गीता में तीर्थकर उपासना उपनिषद; विष्णुपुराण में उपासना बौद्ध ग्रन्यों में वीर प्रशंसा महापुरुषों के द्वारा वीर प्रशंसा जैन धर्म और विज्ञान (उर्दू में) महापुरुषों के द्वारा बीर गुणगान अंग्रेजी में ऐतिहासिक काल के कुछ जैन सेनापति प्रजन दृष्टि से प्रष्ट मूल गुण जैन धर्म का प्रभाव पहिसा धर्म और धार्मिक निर्दयता
६४६-७५० ७५१-७५३ ७५४-८०५ ८०६-८१४
५१५
८१५
५१५ ८१६
८१७ ८३८.८४० ८४५-८५६ ८५७-६८८
९८९
८६०
५६६.६११
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क्रम
चित्र-सूची
पृष्ठ संख्या प्रथम अध्याय जल में जीव द्वितीय अध्याय भूलोक-सामान्य लोक-भूमंडल-भूगोल सामान्ग (2)-भूगोल सामान्य (ख)-जम्बु दीप-तीन लोक तीन लोक-अधोलोक-मध्य लोक-ढाई द्वीप-भरत क्षेत्र विजयाचं पर्वत--सुमेरु पर्वत-पाण्डुकबन नन्दन वन व सौमनस वन-इस वन की पुष्करिणी में इन्द्र सभा की रचना-पाण्डुक शिला-नाभि गिरि गज दन्त-यमक व कांचन गिरि–पद्मद्रह-पद्मद्रह का कमल-देव कुरू व उत्तर कुरू-भरत क्षेत्रजम्बू व शाल्मली वृक्ष स्थल-वृक्ष की मूलभूत प्रथमभूमि--विदेह का कच्छा क्षेत्र-सागर तल व पातालजम्बूद्वीप व लवण समुद्र-लवण सागर-उत्कृष्ट पाताल--नन्दीश्वर द्वीप-मानुषोत्तर पर्वत कुण्डलवर पर्वत व द्वीप-रुचकवर पर्वत व द्वीप (क)-रुचकवर पर्वत व द्वीप (ख)-पाण्डुकवन तृतीय अध्याय श्री भगवान ऋषभनाथ और श्री महावीर स्वामी? कल्प वृक्ष-गृहांग कल्प वृक्ष-भाजनांग कल्प वृक्ष-भोजनांग कल्प वृक्ष-पानांग कल्प वृक्ष-वस्त्रांग कल्प वृक्ष-भूषणांग कल्प वृक्ष-मालांग कल्प वृक्ष.-दोपांग कल्प वृक्ष-ज्योतिरांग कल्प वृक्ष-वाद्यांगकल्पवृक्ष कुलकर प्रतिश्रुति-कुलकर सम्मति-कुलकर क्षेमंकर-कुलकर क्षेमन्धर-कुलकर समिकर-कुलकरसीमंधर-कुलकर विमलवाहन-कुलकर चक्षुष्मान-कुलकर यशश्वी-कुलकर अभिचन्द्र-कुलकर चन्द्राभकुलकर मरूदेव-कुलकर प्रसेनजित--कुलकर नाभिराय-कुलकर ऋषभनाथ-कुलकर भरत चक्रवर्ती चतुर्थ अध्याय श्री १००८ भगवान महावीर स्वामो-पंच परमेष्ठी-श्रोता के लक्षण-चौबीस तीर्थकर-श्रुत केवलीपूर्व विदेह प्राकार-भगवत् भक्ति, श्रावक के लिए उपदेश-श्री १००८ भगवान महावीर स्वामी का पूर्वभव पुरूरवा भील-पुरूरवा भौल हिरण का शिकार करते हुए-मुनिराज के द्वारा पुरूरवा को उपदेशमारीचि की परित्राजक दीक्षा-समवशरण रचना-मारीचि कुमार अपने माता-पिता के साथ भगवान ऋषभदेव जी का एक हजार वर्ष तक विहार-क्षुषा तृषा से पीड़ित साघु जन मारीचि आदि की परिव्राजक दीक्षा-अग्निसिंधुकी परिव्राजक दीक्षा-राजा कनकाज्वलको वैराग्य-राजा कनकोज्वल और रानी कनकवती राजा, कनकोज्वल वंदना करते हुए-राजा कनकोज्वल को मुनिराज का उपदेश-कपिल अपनी स्त्री के साथ परियाजक दीक्षा-अग्निमित्र का वराग्य-भारद्वाज ने परिव्राजक दीक्षा ग्रहण कर ली-जरक निगोद की पर्यायें-निगोद जीव का स्थान-गौतम ब्राह्मण अपनी स्त्री के साथ वेश्या, शिकारी, हाथी, गधा, नपुंसक के भव - सांडिल्य अपनी स्त्री के साथ--पुत्र के साथ परिव्राजक दीक्षा - विश्वभूति राजा जैनी रानी के साथ विश्वनन्द, विशाख भूति युद्ध में जाते हुए-विश्वनंदिविशाखनंदि में युद्ध विशाखनदि ने विश्वनंदि का बागोचा मांगा, विश्वनंदि युद्ध जीतकर वापिस पाते हुए 'षडलेश्या-विश्व भूति रानी, और पुत्र विश्वनंदि के साथ-विश्वभूति ने श्रीधर मुनिराज से दीक्षा धारण कर ली-विश्वनंदि ने विशाखनंदि को राज्य का भार प्रदान किया-माहेन्द्र स्वर्ग में थावरक्ष जोव-विश्वभूति रानी और पुत्र के साथ, विश्वनन्दि अपनी रानी के साथ क्रीडा करते हुए -प्रिय मित्र कुमार चक्रवर्ती को विभूति-विश्वनन्दि मुनिराज को गाय ने सींग माराविश्वनंदि मुनिराज ने विशाखनंदि को शाप दिया-विशाखभूति के महल में विशाखनंदि का जन्मोत्सव मुनिराज तप में लीन-विशाख भूति को बैराग्य-विशाख भूति मुनिराज-विशाखभूति मुनिराज तपश्चरण करते हुए-विश्वनन्दि का जीव महाशुक्र स्वर्ग में विशाखनंदि पत्थर की शिला के नीचे छुप गया विश्वनंदि ने मुष्टि प्रहार से शिला को तोड़ दिया-विश्वनंदि ने दीक्षा धारण कर ली-प्रश्वग्रीव का जन्म-प्रकीर्ति का जन्म-ज्वलनजटी, स्त्री और पुत्री के साथ-बलभद्र का वैराग्य बलभद्र का रनि
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घास, नारायण का रनिवास- बलभद्र का वराग्य तथा च नरक का वर्णन मुनिराज का तप और सिंह को उपदेश-जंगल में सिंह हिरण को पकडते हुए मुनिराज का सिंह को उपदेश-समाधिमरण में सिंह- चारण द्विधारी मुनिराज के द्वारा सिंह के पूर्व भय का वर्णन सिंह का जीव सोधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ कनक राजा का विवाह कनकोव्वल का समाधिमरण- कनकोयल ने दीक्षा धारण की कनकोचल मुनिराज तपश्चरण में तीन- राजा कनकोज्वल रानी के साथ-रानी के साथ वंदना पर कनकोयल उपदेश सुनते हुए कनकोयल स्वयं में देव हुआ जिन माता का अभिषेक राजा कमकोज्वल हरिषेण राजा पूजा करते हुए - राजा वज्र सैन- राजा हरिषेण जिन मन्दिर में- हरिषेण का जीव महाशुक्र स्वर्ग में- राजा सुमित्र रानी सुव्रत के साथ प्रिय मित्रकुमार के चौदह रत्न-नन्द राजा ने दीक्षा धारण की— चक्रवर्ती की सेना का वर्णन प्रभु का समवशरण प्रियमित्रकुमार को नवविधि- प्रियमित्रकुमार का जन्म पति की नवनिधि त्रिपृष्ठ की सेना मनित्य भावना धारण भावना-संसार भावना - एव भावना अन्य स्व भावनामयुधि भावना मात्र भावना-संवर भावना - बोधिवतंत्र भावना-धर्म भावना निर्जरा भावना - लोक भावना - राजा नन्द के सुख का वर्णन - राजानंद की सेना का वर्णन - भगवान की सेवा करते हुए देव देवियां श्वर्ती का वैभव राजा नंद का वर्णन - राजा सिद्धार्थ का महल देवियों द्वारा जिन माता की सेवा - जिन माता के रूप का वर्णन कुबेर द्वारा कुंडलपुर की रचना सोलह स्वप्न जिन माता की सेवा करती हुई देवियां राजा के द्वारा देवों का स्वागत- कुंडलपुर में खुशियां मनाई जा रहीं हैं- इन्द्र श्री १००० को जाके लिए हाथी पर ले जाते हुए रानी सुता के स्वप्नों का फल - श्री भगवान महावीर स्वामी के जन्माभिषेक पर देवों का ग्रागमन - भगवान महावीर ने छह मास का तप धारण किया- इन्द्राणी भगवान महावीर को जन्माभिषेक के लिए ले जाती हुई पयोध्या के राजा वचसेन पाण्डक शिला पर इन्द्रों द्वारा भगवान महावीर का जन्माभिषेक भग वान महावीर स्वामी बाल क्रीड़ा करते हुए भगवान महावीर स्वामी दीक्षा हेतु देवों द्वारा ले जाये जा रहे हैं- भगवान महावीर ने बाल्यकाल में मदोन्मत्त हाथी को वश में किया-लोकान्तिक देवों द्वारा भगवान महावीर स्वामी की स्तुति नव ज्योतिर्लोक का वर्णन देवों द्वारा भगवान महावीर की स्तुति - श्री १००८ भगवान महावीर स्वामी का दीक्षा कल्याणक देवों द्वारा भगवान महावीर के वैराग्य की पुष्टिदेवी देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति-दरपुर के राजा कूल के द्वारा स्तुति वीर प्रभु का प्रतापश्री भगवान महावीर का बाल्यकाल -- भगवान के समवशरण की ध्वजायें- जन्म के दश प्रतिशय - ज्ञान के आठ मंगल - भरत का समवशरण - समवशरण में इन्द्र इन्द्राणी द्वारा स्तुति, गौतम का मानं स्तंभ देखते ही मान गलित होना गौतम शिष्यों के साथ समवशरण की ओर जाते हुए सप्तभंगी वर्णन - जिन बालक का मेरु पर्वत पर अभिषेक - ज्योतिषियों की संख्या - श्री १००८ भगवान के चिन्ह-अंतरात्मा बहिरात्मा घातिया कर्मों का महावीर स्वामी द्वारा नाश-पदस्थ ध्यान का वर्णन-पदस्य ध्यान का निरूपण - पदस्थ ध्यान का निरूपण-प्रप्ट कर्म का वर्णन ज्ञानावरण --- दर्शनावरण- वेदनीय मोहनीय बायु -नामगोत्र - अन्तराय -- ऋद्धिधारी मुनि का प्रभाव - बुद्धि, केवल, श्रवधिधारी मुनि मुनि के दर्शन से कुष्ठ ठीक हो गया। सिद्ध भूमियों के चित्र ।
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|| मंगलाचरण || यः सर्वाणि घरा घराणि विधिवव्याणि तेषां गुणान्, पर्यायानपि भूत भावि भवतः सर्वान् सदा सर्वदा । जानीते युगपत् प्रतिक्षणमतः सर्वज्ञ इत्युच्यते, सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते बीराय तस्मै नमः।
जैन धर्म का सामान्य स्वरूप
अन्त रहित इस संसार के भ्रमर रूपी जाल में फंसकर भ्रमण करनेवाले जीव कोटि को कर्मपाश से मुक्त कर नित्य पद जो कि सुखमय है उनमें जो पहुँचनेवाला हैं वही धर्म है । इसी धर्म को भगवान महावीर स्वामी ने प्राणी मात्र के हित के लिए प्रतिपादन किया है :समन्तभद्र प्राचार्य का वचन :
देशयामि समीचीन धर्म कर्मनिवर्हणम् ।
संसारवुःस्वतः सत्वान् यो घरत्युत्तमें सुखे ।। मैं उस समीचीन धर्म का निर्देश करता हूँ जो कर्मों का विनाशक है और जीवों को संसार के दुःख से निकालकर उत्तम-सुख धारण कराता है।
व्याख्या-इस बाक्य में जिस धर्म के स्वरूप-कथन की देशयामि पद के द्वारा प्रतिज्ञा की गई है उसके तीन खास विशेषण हैं-सबसे पहला तथा मुख्य विशेषण है समीचीन, दुसरा कर्मनिवर्हण और तीसरा दुख से उत्तम-सुख का धारण । पहला विशेषण निर्देश धर्म की प्रकृति का द्योतक है और शेष दो उसके अनुष्ठान-फल का सामान्यत: (संक्षेप में) निरूपन करने वाले हैं।
कर्म शब्द विशेषण-शून्य प्रयुक्त होने से उसमें द्रव्यकर्म और भावकर्म रूप से सब प्रकार के अशुभादि कर्मा का समादेश है, जिनमें रागादिक भावकर्म और ज्ञानाबरणादिक द्रव्यकर्म कहलाते हैं । धर्म को कर्मों का निवर्हण-विनाशक बतलाकर इस विशेषण के द्वारा यह सूचित किया गया है कि वह वस्तुतः कर्मबन्ध का कारण नहीं, प्रत्युत इसके बन्ध से छुड़ाने वाला होता है
और जो बन्धन से छुड़ाने वाला होता है। वही दुःख से निकालकर सुख को धारण कराता है, क्योंकि बन्धन में पराधीनता में-सुख नहीं किन्तु दुःख ही दुःख है। इसी विशेषण की प्रतिष्ठा पर तीसरा विशेषण चरितार्थ होता है। और इसीलिए वह कनिवर्हण विशेषण के अनन्तर रक्खा गया जान पड़ता है।
सूख जीवों का सर्वोपरि ध्येय है और उसकी प्राप्ति धर्म से होती है। धर्म सुख का साधन (कारण) है और साधन कभी साध्य (काय) का विरोधी नहीं होता, इसलिए धर्म से वास्तव में कभी दुःख की प्राप्ति नहीं होती, वह तो सदा दुःखों से छडानेवाला ही है। इसी बात को लेकर धी गुणभद्राचार्य ने आत्मानुशासन में निम्न वाक्य के द्वारा सुख का आश्वासन देते हुए उन लोगों को धर्म में प्रेरित किया है जो अपने सुख में बाधा पहुँचने के भय को लेकर धर्म से बिमुख बने
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धर्मः सुखस्य हेतुहेतुर्न विरोधकः स्वकार्यस्य ।
तस्मात्सुखभगभिया माहूर्धर्मस्य विमुखस्त्वम् ।। २० ।। धर्म करते हुए भी यदि कभी दुःख उपस्थित होता है तो उसका कारण पूर्वकृत कोई पापकर्म का उदय ही समझना चाहिये, न कि धर्म ! धर्म शब्द का व्युत्पत्यय अथवा निरुकत्यर्थ भी इसी बात को सूचित करता है और उस अर्थ को लेकर ही तीसरे विशेषण की घटना (सष्टि) की गई है । उसमें सुख का उत्तम विशेषण भी दिया गया है, जिससे प्रकट है कि धर्म से उत्तम सुख की शिवसुख की अथवा यों कहिये कि अबाधित सुख की प्राप्ति तक होती है तब साधारण सुख तो कोई चीज नहीं है वे तो धर्म से सहज में ही प्राप्त हो जाते हैं । सांसारिक दू:खों के छूटते से सांसारिक उत्तम सुखों का प्राप्त होना उसका आनुषंगिक फल है--धर्म उसमें बाधक नहीं और इस तरह प्रकारान्तर से धर्म संसार के उत्तम सुखों का भी साधक है, जिन्हें ग्रन्थ में अभ्युदय शब्द के द्वारा उल्लिखित किया गया है। इसी से दूसरे प्राचार्यों ने धर्मः सर्वसुखाकरो हितकरो इत्यादि वाक्यों के द्वारा धर्म का कीर्तन किया है। और स्वयं स्वामी समन्तभद्र ने यह प्रतिपादन किया है कि जो अपने प्रात्मा को इस (रत्नत्रय) धर्मरूप परिणत करता है उसे तीनों लोकों में "सर्वार्थसिद्धि" स्वयंवरा की तरह वरती है अर्थात् उसके सब प्रयोजन अनायास सिद्ध होते हैं । और इसलिये धर्म करने से सुख में बाधा माती है ऐसा समझना भूल ही होगा।
वास्तव में उत्तम सुख जो परतन्त्रतादि के प्रभावरूप शिव सुख है और जिसे स्वयं स्वामी समन्तभद्र ने शुद्धसुख बतलाया है उसे प्राप्त करना ही धर्म का मुख्य लक्ष्य है.. इन्द्रियसखों अथवा विपयभोगों को प्राप्त करना धर्मात्मा का ध्येय नहीं होता । इन्द्रियसुख बाधित, विषम, पराश्रित, भंगुर, बन्धहेतु और दुःखमिश्रित आदि दोषों से दूषित है। स्वयं स्वामी समन्तभद्र ने इसी श्लोक में कर्मपरवशे इत्यादि कारिका द्वारा उसे कर्मपरतन्त्र, सान्त (भंगुर), दुःखों से अन्तरित-एकरसरूप न रहनेवाला तथा पापों का बीज बतलाया है । और लिखा है कि धर्मात्मा (सम्यग्दष्टि) ऐसे सुख की प्राकांक्षा नहीं करता। और इसलिए जो लोग इन्द्रिय-विषयों में प्रासक्त हैं—फसे हये हैं-अथवा सांसारिक सुख को ही सब कुछ समझते हैं वे भ्रान्त चित्त हैंउन्होंने वस्तुतः अपने को समझा ही नहीं और न उन्हें निराकुलतामय सच्चे स्वाधीन सुख का कभी दर्शन या आभास ही हुआ है।
यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिए कि उक्त तीसरे विशेषण के संघटक वाक्य "संसारदुःखतः सत्वान योधरत्युत्तमे सूखे" में सत्वान पद सब प्रकार के विशेषणों से रहित प्रयुक्त हया है और इससे यह स्पष्ट है कि धर्म किसो जाति या वर्ग-- विशेष के जीवों का ही उद्धार नहीं करता बल्कि ऊंच नीचादि का भेद न कर जो भी जीव-भले ही वह म्लेच्छ, चांडाल, पा, नारकी, देवादिक कोई भी क्यों न हो उसको धारण करता है, उसे ही वह दुःख से निकालकर सुख में स्थापित करता है और उस सुख की मात्रा धारण किये हये धर्म की मात्रा पर अवलम्बित रहती है जो अपनी योग्यतानुसार जितनी मात्रा में धर्माचरण करेगा वह उतनी ही मात्रा में सूखी बनेगा और इसलिए जो जितना अधिक दुःखित एवं पतित है उसे उतनी ही अधिक धर्म की आवश्यकता है और वह उतना ही अधिक धर्म का प्राश्रय लेकर उद्धार पाने का अधिकारी है।
वस्तुतः पतित उसे कहते हैं जो स्वरूप से च्युत-स्वभाव में स्थिर न रहकर इधर-उधर भटकता और विभाव-परिणतिरूप परिणमता है और इसलिए जो जितने अंशों में स्वरूप से च्युत है वह उतने अंशों में ही पतित है। इस तरह सभी संसारी जीव एक प्रकार से पतितों की कोटि में स्थित और उसको श्रेणियों में विभाजित हैं। धर्म जीवों को उनके स्वरूप में स्थिर करने वाला है, उनकी पतितावस्था को मिटाता हुना उन्हें ऊँचे उठाता है और इसलिए पतितोद्धारक कहा जाता है। कप में पड़े हुये प्राणी जिस प्रकार रस्से का सहारा पाकर ऊँचे उठ पाते हैं और अपना उद्धार कर लेते हैं उसी प्रकार संसार के दुःखों में डूबे हुए पतित जीव भी धर्म का प्राश्रय एवं सहारा पाकर ऊंचे उठ पाते हैं और दुःखों से छूट जाते हैं। स्वामी समन्तभद्र 'तो प्रतिहीन (नीघातिनीच) को भी लोक में अतिगुरु (अत्युच्च) तक होना बतलाते हैं ऐसी स्थिति में स्वरूप से ही सब जीवों का धर्म के ऊपर समान अधिकार है और धर्स का भी किसी के साथ कोई पक्षपात नहीं हैप्रन्थकार के शब्दों में धर्म जीवमात्र का बन्धु है तथा स्वाश्रय में प्राप्त सभी जीवों के प्रति समभाव से वर्तता है। इसी दष्टि
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को लक्ष्य में रखते हुये ग्रन्थकार महोदय ने स्वयं ही ग्रन्थ में आगे यह प्रतिपादन किया है कि धर्म के प्रभाव से कुत्ता भी ऊंचा उठकर (अगले जन्म में) देवता बन जाता है और ऊंचा उठा हुअा देवता भी पाप को अपनाकर धर्मभ्रष्ट हो जाने से (जन्मान्तर में) कुत्ता बन जाता है। साथ ही यह भी बतलाया है कि धर्म सम्पन्न एक चाण्डाल का पुत्र भी देव है-आराध्य है और स्वभाव से अपवित्र शरीर भी धर्म (रत्नत्रय) के संयोग से पवित्र हो जाता है। अतः अपवित्र शरीर एवं होन जाति धमत्मिा तिरस्कार का पात्र नहीं-निजू गुप्सा अंग का धारक धर्मात्मा ऐसे धर्मात्मा से घृणा न रखकर उसके गुणों में प्रीति रखता है।
और जो जाति प्रादि किसी मद के पशवी होकर ऐसा नहीं करता, प्रत्युत इसके ऐसे धर्मात्मा का तिरस्कार करता है वह वस्तुत: प्रात्मीय धर्म का तिरस्कार करता है-फलतः आत्म धर्म से विमुख है, क्योंकि धार्मिक के बिना धर्म का कहीं अवस्थान नहीं और इसलिये धार्मिक का तिरस्कार ही धर्म का तिरस्कार है-जो धर्म का तिरस्कार करता है वह किसी तरह भी धर्मात्मा नहीं कहा जा सकता। ये सब रातें समन्तभद्र स्वामी की धर्म-मर्मज्ञता के साथ उनकी धर्माधिकार-विषयक उदार भावनामों की द्योतक हैं और इन सबको दष्टि-पथ में रखकर ही सत्वान् पद सब प्रकार के विशेषणों से सहित प्रयुक्त हुया है।
अब रही समीचीन विशेषण का वात, धर्म को प्राचीन या अर्वाचीन मादि न बतलाकर जो समीचीन विशेषण से विभषित किया है वह बड़ा ही रहस्यपूर्ण है, क्योंकि प्रथम तो जो प्राचीन है वह समीचीन भी हो ऐसा कोई नियम नहीं है। इसी तरह जो अर्वाचीन (नवीन) है वह असमीचीन ही हो ऐसा भी कोई नियम नहीं है। उदाहरण के लिये अनादि-मिथ्यात्व तथा प्रथमोपशम-सम्यक्त्व को लीजिये, अनादि कालीन मिथ्यात्व प्राचीन से प्राचीन होते हुये भी समीचीन (यथावस्थित वस्तुतत्व के श्रद्धानादिरूप में) नहीं है और इसलिये मात्र प्राचीन होने से उस मिथ्याधर्म का समीचीन धर्म के रूप में ग्रहण नहीं किया जा सकता । प्रत्युत इसके, सम्यक्त्व गुण जब उत्पन्न होता है तब मिथ्यात्व के स्थान पर नवीन ही उत्पन्न होता है, परन्तु नवीन होते हुये भी बह समीचीन है और इसलिये सद्धर्म के रूप में उसका ग्रहण है-उसकी नवीनता उसमें बाधक नहीं होती। नतीजा यह निवाला कि कोई भी धर्म चाहे वह प्राचीन हो या अर्वाचीन, यदि समीचीन है तो वह ग्राह्य है अन्यथा ग्राह्य नहीं है। और इसलिये प्राचीन अर्वाचीन से समीचीन का महत्व अधिक है, वह प्रतिपाद्य धर्म का असाधारण विशेषण है, उसकी मौजूदगी में ही अन्य दो विशेषण अपना कार्य भली प्रकार करने में समर्थ हो सकते हैं, अर्थात धर्म के समीचीन (यथार्थ) होने पर ही उसके द्वारा कर्मों का नाश और जीवात्मा को संसार के दुःखों से निकाल कर उत्तम मुख में धारण करना बन सकता है -अन्यथा नहीं। इसी से समीचीनता का ग्राहक प्राचीन और अर्वाचीन दोनों प्रकार के धर्मों को अपना विषय बनाता है अर्थात् प्राचीनता तथा अर्वाचीनता का मोह छोड़कर उनमें जो भी यथार्थ होता है उसे हो अपनाता है। दूसरे, धर्म के नाम पर लोक में बहुत सो मिथ्या बातें भी प्रचलित हो रही हैं उन सबका विवेक कर यथार्थ धर्मदेशना की सूचना को लिये हुये भो यह विशेषण पद है। इसके सिवाय, प्रत्येक वस्तु को समीचीनता (यथार्थता) उसके अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पर अवलम्बित रहती है दूसरे के द्रव्य क्षेत्र काल भाव पर नहीं । द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में से किसी के भी बदल जाने पर वह अपने नस रूप में स्थिर भी नहीं रहती और यदि द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव की प्रक्रिया विपरीत हो जाती है तो बस्तु भी अवस्तु हो जाती है अर्थात् जो ग्राह्य वस्तु है वह त्याज्य और जो त्याज्य है वह ग्राह्य बन जाती है। ऐसी स्थिति में धर्म का जो रूप समोचीन है वह सबके लिये समीचीन ही है और सब अवस्थानों में समीचीन है ऐसा नहीं कहा जा सकता-वह किसी के लिये और किसो अवस्था में असमीचीन भी हो सकता है। उदाहरण के रूप में एक गृहस्थ तथा मुनि को लोजिये, गृहस्थ के लिये स्वदारसन्तोष, परिग्रहपरिमाण अथवा स्थलरूप से हिंसादि के त्यागरूप प्रत समीचीन धर्म के रूप में ग्राह्य हैं-जब कि वे मुनि के लिये उस रूप में ग्राह्य नहीं हैं-एक मुनि महाव्रत धारण कर यदि स्वदार गमन करता है, धन-धन्यादि बाह्य परिग्रहों को परिमाण के साथ रखता है और मात्र संकल्पी हिसा के त्याग का ध्यान रखकर शेष प्रारम्भी तथा विरोधी हिंसानों के करने में प्रवृत होता है तो वह अपराधी है, क्योंकि गहस्थोचित समीचीन धर्म उसके लिये समीचीन नहीं है। एक गृहस्थ के लिये भी स्वदार-सन्तोष व्रत वहीं तक समी
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चीन है जहाँ तक कि वह ब्रह्मचर्यत्रत नहीं लेता अथवा धावक को सातदों श्रेणी पर नहीं चढ़ता, ब्रह्मचर्य व्रत ले लेने या सातवीं श्रेणी चढ़ जाने पर स्वदारगमन उसके लिये भी वजित तथा असमीचीन हो जाता है। ऐसा ही हाल दुसरे धर्मों, नियमों तथा उपनियमों का है। उपनियम प्राय: नियमों की मूलदृष्टि पर से द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की सम्यक योजना के साथ फलित किये जाते हैं, जैसे कि भोज्य पदार्थों के सेवन को काल विषयक मर्यादा जिस तरह सब पदार्थों के लिये एक नहीं होती उसी तरह एक प्रकार या एक जाति के पदार्थों के लिये भी सब समयों सब क्षेत्रों और सब अवस्थाओं की दृष्टि से एक नहीं होती और न हो सकती है । ग्रीष्म या वर्षा ऋतु में उष्ण प्रदेशस्थित एक पदार्थ यदि तीन दिन में विकारग्रस्त होता है तो वही पदार्थ शीतप्रधान प्रदेश में स्थित होने पर उससे कई गुने अधिक समय तक भी विकार को प्राप्त नहीं होता । उष्ण प्रधान प्रदेशों में भी असावधानी से रखा हुप्रा पदार्थ जितना जल्दी विकृत होता है उतनी जल्दी सावधानी से शीतादि को बचाकर रखा हमा नहीं होता । जो पदार्थ वायुप्रतिबंधक पात्रों में तथा बर्फ के सम्पर्क से रक्खा जाता है अथवा जिसके साथ में पारे आदि का संयोग होता है उसके विकृत न होने की काल मर्यादा तो और भी बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में मर्यादा की समीचीनता-असमीचीनता बहुत कुछ विचारणीय हो जाती है और उसके लिये सर्वथा कोई एक नियम निर्धारित नहीं किया जा सकता । अधिकांश में तो वह सावधान पुरुष के विवेक पर निर्भर रहती है, जो सब परिस्थितियों को ध्यान में रखता और वस्तुबिकार सम्बन्धी अपने अनुभव से काम लेता हुया उसका निर्धारण करता है। इन्हीं तथा इन्हीं जैसी दुसरी बातों को ध्यान में रखकर इस ग्रन्थ में धर्म के अंगों तथा उपांगों आदि लक्षणों का निर्देश किया गया है और विशेषणों आदि के द्वारा, जैसे भी सूत्र रूप में बन पड़ा अथवा आवश्यक समझा गया, इस बात को सुझाने का यत्न किया है कि कौन' धर्म, किसके लिये, किस दृष्टि से कैसी परिस्थिति में और किस रूप में ग्राह्य है, यही सब उसकी समीचीनता का द्योतक है जिसे मालूम करने तथा व्यवहार में लाने के लिये बड़ी ही सतर्क दृष्टि रखने की जरूरत हैं । सदृष्टि-विहीन तथा विवेक विकल कूछ त्रियाकाण्डों के कर लेने मात्र से ही धर्म की समीचीनता नहीं सधती।
एक मात्र धर्म देशना अथवा धर्म शासन को लिये हये होने से यह ग्रंथ धर्म शास्त्र पद के योग्य है । और चुकि इसमें वर्णित धर्म का अन्तिम लक्ष्य संसारी जीवों को अक्षय-सूख की प्राप्ति कराना है, इसलिये प्रकारान्तर से इसे सुख-शास्त्र भी कह सकते हैं । शायद इसीलिये विक्रम की ११ वीं शताब्दी के विद्वान प्राचार्य वादिराजसूरि ने अपने पार्श्वनाथ चरित में स्वामी समन्तभद्र योगीन्द्र का स्तवन करते हुये उनके इस धर्मशास्त्र को अक्षयसुखावहः विशेषण देकर अक्षय-सुख का भण्डार बतलाया है।
कारिका में दिये हये देशयामि समीचीनं धर्म इस प्रतिज्ञा वाक्य पर से ग्रन्थ का असली अथवा मूल नाम समीचीन धर्मशास्त्र जान पड़ता है, जिसका आशय है समीचीन धर्म की देशना (शास्त्र) को लिये हुये ग्रन्थ और इसलिये यही मुख्य नाम इस सभाष्य मन्ध को देना यहां उचित समझा गया है, जो कि ग्रन्थ की प्रकृति के भी सर्वथा अनुकूल है। दुसरा रत्नकरण्ड (रत्नों का पिटारा) नाम ग्रन्थ में निर्दिष्ट धर्म का रूप रत्नत्रय होने से उन रत्नों के रक्षणोपायभूत के रूप में है और ग्रन्थ के अन्त की एक कारिका में येन स्वयं बीतकलंकविद्यादृष्टिक्रिया रत्नकरण्ड भावं नीतः" इस वाक्य के द्वारा उस रत्नत्रय धर्म के साथ अपने प्रात्मा को रत्नकरण्ड के भाव में परिणत करने का वस्तु-निर्देशात्मक उपदेश दिया गया है उस पर से भी फलित होता है । दोनों में समीचीन धर्म शास्त्र यह नाम प्रतिज्ञा के अधिक अनुरूप स्पष्ट और गौरवपूर्ण प्रतीत होता है। समन्तभद्र के और भी कई ग्रन्थों के दो-दो नाम हैं, जैसे देवागम का दूसरा नाम प्राप्त मीमांसा, स्तुति-विद्या का दूसरा नाम जिनस्तुतिशतक (जिनशतक) और स्वयम्भू स्तोत्र का दूसरा नाम समन्तभद्र स्तोत्र है और ये सब प्राय: अपने अपने प्रादि-अन्त के पद्यों की दृष्टि को लिये हुये हैं।
ये ही धर्म दस प्रकार के हैं, ये वस्तु स्वरूप भी हैं, सम्यग्दर्शन, शान, चारित्र भी है तथा ये ही धर्म अहिंसा रूप हैं। हन्दी की प्राप्ति करने के लिये अपनी प्रात्मा से रागद्वेष की परिणति छुड़ाकर वीतराग परिणति में जाना होगा। भगवान की
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प्रतिभा अर्थात् मूर्ति तीर्थ जप तप आदि क्रिया उसके धर्म रूप होकर प्रात्म रूप की प्राप्ति के लिये साधन बन जायेंगे । जब तक आत्मा को वीतराग भाव उत्पन्न नहीं होता है तब तक प्रात्मा में लगे हुए राग द्वेष का नाश नहीं होगा। जब तक राग द्वेष परिणति प्रादि में लगे रहेंगे तब तक सद्धर्म की प्राप्ति भी नहीं हो सकती । जब प्रात्मा में सुख उत्पन्न होता है तब आत्मा को पुण्य बन्ध होता है। जब अशुभ उत्पन्न होता है तो प्रात्मा में रागद्वेष पैदा करने वाले अशुभ आदि राग उत्पन्न होते हैं। वो ही कोई अशुभ राग पाप बन्ध का कारण होता है जहाँ सच्चा ज्ञान और चारित्र होता है वहीं धर्म होता है। जब तक मूल कर्म का बन्धन है तब तक आत्मा में पराजय अवस्था मानी जाती है। जब पराजय अवस्था कर्म बन्ध से मुक्त होती है तब वह आत्मा स्वतन्त्र कहलाता है। इसलिए प्रात्मा का प्रबन्ध होना ही ठोक है। वही सच्चा सुख है । ऐसे उत्तम सुख के लिए कारण रूप प्रात्म स्वभाव रूप ऐसा धर्म ही कारण है।
जैन धर्मजैन धर्म का अर्थ जिन्होंने पंचेन्द्रिय विषय को जीत लिया है उन्हें जिन कहते हैं उस धर्म को पालन करने वालों को जन कहते हैं। जिन्होंने अरिरज रहस्य यानी कर्म शत्रु को जीत लिया है उनको जिन कहत है। उन्हाने प्राप्त किया जा यात्म स्वरूप उसको पात्म धर्म या जैन धर्म कहते हैं । उन्हीं के कहे हुए मार्ग के अनुसार चलने वाले मानव को जैन कहते हैं । जैन धर्म का अर्थ ज्ञानावरणीय आदि कर्म रूपो जाल को नाश किये हुआ चेतन प्रात्मा को जिन कहते हैं। सम्पूर्ण कर्म रूपी शत्रु को जिन्होंने नाश किया उनको परमात्मा कहते हैं। सर्वज्ञ कहते हैं, ऐसे परिपूर्ण अवस्था में रह कर सच्चे धर्म का निरूपण करने वाला धर्म निश्चय से प्रामाणिक पहलाता है ।
यह जिन धर्म अनेकान्तमयी है अर्थात् जैन धर्म स्याद्वादमयी है जगत के अनेक प्रकार के विकल्पों को पृथक करके तदनन्तर जिस-जिस में जितनी-जितनी शक्ति है इस बात को निर्णय करके समन्वय रूप को देखते हुये सच्चे सार को निचोड़ना जैन धर्म एक दृष्टि होने से दूसरे मुख्य स्यावाद की नींव और अहिंसा रूपी स्तम्भ के ऊपर जैन धर्म स्थापित है। किसो के विचार के साथ अन्याय न होवे और किसी जीव को दुःख न होवे यही जैन धर्म का सार है।
___ इस धर्म के दो भेद हैं—एक वस्तु स्वभाव धर्म है जैसे अग्नि का स्वभाव जलना, वायु का स्वभाव उड़ना उसी प्रकार जीब का स्वभाव चेतन रूप है। दूसरा आचार चारित्र उसको भी धर्म कहते हैं । स्वभाव रूपी धर्म जड़ और चेतन इन दोनों में अपने अपने स्वभाव में हमेशा रहते हैं। स्वभाव से रहित इस जगत में कोई धर्म नहीं है। अर्थात् ये दोनों अनादि काल से परस्पर संबंधित होते पा रहे हैं। भगवान जिनेन्द्र देव दोनों धर्मो का प्रतिपादन करते आ रहे है। वस्तु स्वभाव के भिन्न भिन्न धर्म को दर्शन कहते हैं । इस लक्षण से सिद्धि उत्पन्न होती है । तथा उसकी प्राप्ति होती है उस सिद्धि को प्राप्त करने के लिए आचरण का रूप धारण करना होता है । इससे प्रत्येक धर्म में अपना ही दर्शन रहता है। दर्शन में प्रात्मा क्या है ? परलोक क्या है ? विषम क्या है ? परमात्मा स्वरूप क्या है ? आदि आदि प्रश्नों का विचार रहता है। प्राचरण रूपी धर्म के प्रतिपादन में आत्मा परमात्मा होने के मार्ग को दिखाता हैं । हमेशा विचार करना आचरण के ऊपर होता है। इससे दर्शन धर्म को रूपित करता है इसलिए धर्म के विवेचन में दर्शन को चारित्र का समालोचन करना होता है । जैन दर्शन वस्तु स्वभाव निरूपण के अन्तर्गत होता है । इससे उसको हम धर्म समझते हैं। क्योंकि उस परमात्मा में रहने वाले अन्तर को ज्ञान उत्पन्न होते ही चारित्र का अविलम्बन कर मानों मोक्ष का साधक बन जाता है। उससे जैन धर्म के माने जिनेन्द्र देव के द्वारा उपदेश किया हमा ऐसा विचार तथा उपचार जैन धर्म है, पूर्वापर विरोध रहित है, प्रत्यक्ष प्रमाण से देखने से इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं मिलता है। बस्तु स्वरूप को केवल यथार्थ से निरूपण करता है। शंकर रूप जिनेन्द्र के द्वारा उपदेश दिया हमा सम्पूर्ण जीव को यह हितकारी होता है । सम्पूर्ण मिथ्या मार्ग को जैन धर्म निराकार करता है।
जैन धर्म के अनुसार जगत में प्रत्येक प्राणी अव्यक्त परमात्मा है हर एक मात्मा अपने सहज स्वरूप को जानने के
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बाद परमात्मा बन सकता है। परन्तु कर्म के प्रावरण में भूलकर बन्द होकर ये जीव अपने प्रनन्त वैभव के साथ संसार सागर में भ्रमण करते आ रहे हैं । संसार स्वरूप को कर्म का ढक्कन ऐसा जैन सिद्धान्त ने निरूपण किया है। इतना कह करके चुपचाप नहीं बैठा है परन्तु संसार बंधन से मुक्त होने की अपेक्षा करने वाले समस्त जीवों को भगवान जिनेन्द्र की पदवी प्राप्त करने के लिये अनुकरण करने योग्य प्राध्यात्म मार्ग को भी प्रतिपादन किया है अथवा बता दिया है।
जैन धर्म सृष्टि कर्ता को कभी नहीं मानता है प्रत्येक जीव का गिरना उठना अपने-अपने कारण से होता है। ऐसा जन सिद्धान्त प्रतिपादन करता है। उठने की अपेक्षा करने वाला अपने बल के द्वारा उठ सकता है । इसी प्रकार उनके जन्म
और मरण की स्थिति और भय के द्वारा बाध्य रहते हैं अपने कर्म के अनुसार जन्म लेना जीना मरना होता है। जिस समय कर्म के साथ प्रात्मा का मित्रत्व सम्बन्ध हो जाता है। उससे जगत प्रारम्भ हो जाता है। कर्म के सहवास को प्रात्मा साक्षी पूर्वक त्याग कर देता है उसी समय वह जगत विलय होता है अर्थात् संसार का नाश हो जाता है। एक बार सम्पूर्ण कर्मों को जीतने से या नाश करने से यही जीव जिनेन्द्र होकर उसके बाद सिद्ध पद को प्राप्त होता है। पुनः संसार में लौट कर नहीं पाता।
जैन धर्म की दृष्टि से देखने से प्रत्येक जीव अपने भव भ्रमण के कार्य में सृष्टि का होकर बर्तता है । वही जीव कर्तव्य का कर्ता बन कर र्म से रहित होकर प्रखण्ड सिद्धात्मा की प्राप्ति करने वाला होता है। जन्म जरा और मरण अर्थात् सृष्टिकर्ता स्थिति कर्तव्य ये तीन पद रूपी पदवी को अर्थात् इन तीन कर्मी से जब यह पार हो जाता है तब यह जीव निरंजन पद को प्राप्त होता है।
जीव और अजीद इन दोनों की मित्रता से यह जगत और जगत का व्यापार चलता है। ये दोनों मित्र द्रव्य हैं। इन दोनों का सम्बन्ध अलग अलग करना देवों के हाथ में भी नहीं है और इसको कोई भी एक दूसरे से अलग नहीं कर सकता ये दोनों द्रव्य आकाश में प्राथय को पाकर अनन्त काल से धर्म द्रध्य की सहायता से धर्म करते हुए अधर्म द्रव्य के प्राश्रय से विश्राम करते हैं यह व्यापार हमेशा परम्परा से चला आ रहा है । जीव और अजीव पयाय रूप में परिरमण करने वालों में से हैं ऐसा देखने पर भी तद् रूप जगत स्थायी है।
कल्प काल में भी तीर्थंकर अजीव के कारागार से पाक होकर जगत के व्यापार के रहस्य को कर्म के साथ अपने द्वारा चलाया हया अनेक प्रकार के मायामयी भव्य जीवों को समभाते आ रहे हैं। विश्व जब से है तब से जैन धर्म भी है। जब तक यह विश्व रहेगा तब तक जैन धर्म भी रहेगा। पहले भी तीर्थकर इसी मर्म को समझाते पा रहे हैं और वर्तमान काल में भी रहने वाले हैं अथवा विदेह क्षत्र में प्रभी भी मौजूद हैं भविष्य काल में तीर्थकर आने वाले हैं। भगवान के अवतार को आवन्तर
नता है। संसार में भ्रमण करने वाले चेतन ही हमारे समान कर्म रूपी जाल से पार होकर तीर्थकर होंगे ऐसे अपने अन्दर स्मरण रखना चाहिये अर्थात् मन में ऐसी भावना रखनी चाहिये । एक-एक चेतन देवत्व होने के रहस्य का जिन धर्म ने सम्पूर्ण जगत को उपदेश दिया है। जिनको संसार से मुक्त होना है उसे इस धर्म की परीक्षा करके देखना चाहिये सम्पूर्ण जीव संसार से मुक्त हो करके जिनेन्द्र होने की ही कामना करते हैं ।
गणों के समह को द्रव्य कहते हैं । द्रष्य के स्वभाव में ही सर्व अवस्था में भी जो रहता है उसको गुण कहते हैं। गुणों में जो द्रव्य में ही हमेशा रहते हैं उसको सामान्य गुण कहते हैं। विशेष गुणों को विशिष्ट कहते हैं । अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगूरु लघुत्व और प्रदेसत्व ये छ: द्रव्य सामान्य रूप होकर सर्व द्रव्य में रहते हैं । अर्थात् चेतन जीव के विशिष्ट गुण हैं। विशिष्ट गुण होने के कारण उसके विशेष गुण कहते है।
पदव्य जीव, अजीव दोनों मिलकर जगत की उत्पत्ति करते हैं प्रात्मा कर्म के साथ मिलकर जीवित रहता है क्या ? अजीव द्रव्य पूदगल, धर्म, अधर्म, अाकाश और काल ऐसे ये पाँच है। ये दोनों को जीव के साथ सम्बन्ध करने से छह द्रव्य होते
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हैं। उस द्रव्य की उत्पत्ति विनाश पर्याय रूप में देखने आने पर भी मूल रूप में पवित्र तत्व और अपरिवर्तन रूप है।
जीव व्रख्य जनधर्म में प्रतिपादन किया हया जीव और बेबाक में कहेजा
गरें एक नहीं है। ब्रह्म एक और अद्वितीयते। परमत जैन सिद्धान्तकारों ने अपने सिद्धान्त के अनुसार असंख्यात माना है। जीव और सांख्य मत के पुरुष एक नहीं हैं। क्योंकि जीव नित्य शुद्ध और मुक्त नहीं है । जीव के बन्धन सत्य हैं । जैन अनुयायियों के जीव और न्याय वैशेषिक के पात्मा ये दोनों एक नहीं हैं। क्योंकि जन मत के जीव जड़ नहीं हैं, बल्कि साक्षात् कतृत्व है। जैनियों के जीव और बौद्ध मत का क्षणिक विज्ञान ये दोनों एक नहीं हैं। क्योंकि जीव सद् प सत्य और नित्य पदार्थ है।
इस जीव को जैनाचार्यों ने व्यवहार और निश्चय ऐसे दो भेदों से अबलोकन किया है। शुद्ध निश्चय नय से देखने में जीव अविनाशी, निरूपाधि शुद्ध चैतन्य लक्षण (भाव प्राणों से) जीता है और कलंक रहित केवलज्ञानदर्शनोपयोग मय, अमतिक प्रतीन्द्रिय और शुद्ध बदक स्वभाव बाला, निष्क्रिय लोक और सम्पूर्ण लोकाकाश को व्यापने को शक्ति को रखनेवाला नया असंख्यात प्रदेशवाला है। अर्थात् सर्वव्यापक, निविकल्प और ब्रह्मानन्द में सर्वदा तैरनेवाला है। संसार रहित नित्यानक रूप, अनन्त ज्ञानवैभव से यूक्त सिद्ध तथा स्वभाव से ऊध्र्वगमन करने वाला है। इस प्रकार कर्मरहित जीव के स्वरूप का विवेचन हुआ।
जीवो उवयोगमयो प्रमुत्ति कत्ता सदेह परिमाणो ।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई। यह जीव यद्यपि शुद्ध निश्चय नय से आदि, मध्य और अन्त से रहित, निज तथा अन्य का प्रकाशक, अविनाशो, उपाधि रहित और शुद्ध चैतन्य लक्षणवाला निश्चय प्राण से जीता है, तथापि अशुद्ध निश्चय नय को अपेक्षा अनादि कर्मबन्धन के बश अशद्ध द्रव्य प्राण और भाव प्राण से जीता है । इसलिये जीव है ।"उवयोगमत्रो” यद्यपि शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से पूर्ण निर्मल, केवलज्ञान व दर्शन दो उपयोगमय जीव है, तो भी अशुद्ध नय से क्षयोपशमिक ज्ञान और दर्शन से बना हया है। इस कारण ज्ञानदर्शनोपयोगमय है। "ममूत्ति" यद्यपि जीव व्यवहार से मूर्तिक कर्मों के अधीन होने से स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाली मति के सहित होने के कारण मूर्तिक है, तो भी निश्चय नय से प्रमूर्तिक, इंद्रियों के अगोचर, शुद्ध बुद्ध रूप एक स्वभाव का धारक होने से अमूर्तिक है।
___ "कत्ता' यद्यपि यह जीव निश्चय नय से क्रिया रहित टंकोत्कीर्ण अविचल ज्ञायक एक स्वभाव का धारक है, तथापि व्यवहार नय से मन, वचन, काय के व्यापार को उत्पन्न करने वाले कर्मों से सहित होने के कारण शुभ और अशुभ दोनों कर्मो का करने वाला होने से कर्ता है। "सदेह परिमाणो" यद्यपि यह जीव निश्चय नय से लोकाकाश के प्रमाण असंख्यात स्वाभाविक शुद्ध प्रदेशों का धारक है, तो भी व्यवहार नय से अनादि कर्मबंधवशात् शरोर कर्म के उदय से उत्पन्न, संकोच तथा विस्तार के प्राधीन होने से, घट आदि में स्थित दीपक की तरह अपने देह के बराबर है। "भोत्ता" यद्यपि जीव शुद्ध
1. द्रव्य के लिये अस्तित्व प्राप्ति :१-अस्तित्व :-प्रह द्रव्य का अबिनाशी स्वभाव है । इन शक्ति से ही इस द्रव्य को नित्यत्व प्राप्त हो गया है।
२-वस्तुत्व :--यह शक्ति ही द्रव्य के अर्थ क्रिया कारित्व का कारण हुआ है। घट का अर्थ क्रिया जल धारण होता है। इस जल धारण क्रिया को दस्तुत्व कहते हैं।
३-ट्रध्यत्व:-जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य सर्वदा एक ही समान नहीं रहता और कोई भी एक पर्याय दूसरी पर्याय में बदलती ही रहती है । इस शक्ति को द्रव्यत्त्व कहते हैं।
४-प्रमेयत्व :-द्रव्य किसी एक ज्ञान का विषय होता है प्रमेयत्व गुण से ।
५-अगुरु लघुत्व :-दृश्य में रहने वाला व्यत्व स्थित होकर रह जाय तो ऐसी देखने वाली शक्ति को अगुरु लघु कहते हैं। इस प्रकार शक्ति रहने के कारण से ही एक द्रव्य दूसरे ट्रम्प रूप होने नहीं देता।
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द्रव्याथिक नय से रागादि विकल्प रूप उपाधियों से रहित तथा अपनी आत्मा से उत्पन्न सुख रूपी अमृत का भोगने वाला है, तो भी अशुद्ध नय की अपेक्षा उस प्रकार के सुख और अशुभ कर्म से उत्पन्न दुख का भोगने वाला होने के कारण भोक्ता है। "संसारत्थो" यद्यपि जीव शुद्ध निश्चय नय से संसार रहित और नित्य प्रानन्द एक स्वभाव का धारक है, फिर भी अशुद्ध नय की अपेक्षा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पांच प्रकार के संसार में रहता है, इस कारण संसारत्थो है। "सिद्धो" यद्यपि यह जीव व्यवहार नय से निज प्रात्मा की प्राप्ति स्वरूप जो सिद्धत्व है उसके प्रतिपक्षी कर्मो के उदय से प्रसिद्ध है, तो भी निश्चय नय से अनन्त ज्ञान और अनन्त गुण स्वभाव से सिद्ध है। “सो" वह इस प्रकार के गुणों से युक्त जीव है।" विस्सोडळगई यद्यपि व्यवहार से चार गतियों को उत्पन्न करने वाले कर्मों के उदय वश ऊँचा, नीचा तथा तिरछा गमन करने वाला है। फिर भी निश्चय नय से केवल ज्ञानादि अनन्त गुणों की प्राप्ति स्वरूप जो मोक्ष है, उसमें पहुँचने के समय स्वभाव से ऊध्र्वगमन करने वाला है। यहाँ पर खंडान्वय की अपेक्षा शब्दों का अर्थ कहा गया है तथा शुद्ध प्रशुद्ध नयों के विभाग से नय का अर्थ भी कहा है।
६-प्रदेशत्व :-इस शक्ति से एकेक द्रव्य में सर्वदा एक आकार होकर रहता है। उपयोग का अर्थ-पदार्थ का ज्ञान कर लेने वाले आत्मा की क्रिमा है।
सुख (ब्रह्मानन्द) सत्ता, जान उपयोग आदि ये भाव प्राण है, इन्द्रिय, वल, आयुष्य स्वासोच्छवास से द्रव्य प्राण है। समस्त पदार्थों के अस्तित्व को ग्रहण करने वाली सत्ता को महा सत्ता कहते हैं ।
२-उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम :-ये कम की चार अवस्थायें हैं कम फल देने में सिद्ध होने को उदय कहते हैं। फल देने वाली जो कर्म सत्तायें हैं, उन कारणों में कुछ कम बिना फल दिये हुये ही उपशम होने वाले भाव को उपशम कहते हैं। सम्पूर्ण कर्म नाश होने को क्षय कहते हैं । कुछ नीचे दबकर कुछ भाग कर्मों के उपशम होने को क्षयोपशाम कहते हैं।
औदविकभाव ---उदय में आने वाले चार गति, चार कषाय, तीन विग, मिथ्यादर्शन, अजान, असंयम, असिद्धत्व, छः लेश्या ये २१ भाखों को औदपिक कहते हैं।
औपशमिक भाव-कर्म के क्षय होकर उत्पन्न होने वाले भाव को क्षायिक भाव, कहते हैं। क्षायिक दान क्षायिक लाभ, भोगोपभोग वीर्य, सम्यकत्व चारिख ऐसे भावों को क्षायिक भाव कहते हैं।
क्षायिकीपरामिक-मयोपशम से उत्पन्न होने वाले मति ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान मनः पयज्ञान कुमति, कुश्रुति, विभंग ये तीन शान को अमान कहते हैं । वम अवक्ष अवधि दर्शन ग्रे तीन अयोपशामिक दान लाभ भोगोगभोग और वीर्य ये पांच लब्यि हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व मराम चारित्र संयमासंयम ऐसे १८ प्रकार के क्षयोपशमिक भाव है। पारिगामिक भाव-कर्म के उदयादि निमित्त पाने पर भी आत्मा के साथ अनादि काल से रहने वाले जीवत्व, भव्यत्व, अभन्यत्व ऐसे परिणामी भाव हैं। . स्थावर जीव-परिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बनस्पतिकायिक, ऐसे पांच प्रकार के हैं। मसूर की दाल के समान पश्चिीकायिक जीव हैं। जन बिन्दु के आकार के समान जल कायिक जीव है । सूई को मिलाकर गठडी में बंधे हुये के समान अग्निकायिक जीव है। ध्वजा के आकार के समान वायुकायिक जीव हैं । वृक्ष, भाइ, बेल, बाँस, घास आदि अनेक आकार को धारण कर जीने वाले वनस्पतिकापिक जीव होते हैं। एकेन्द्रिय जीव और भी अनेक प्रकार के है।
२–केवल स्पर्श और रसना इन्द्रिय को प्राप्त हुये शंख अति शीप मोती आदि अनेक प्रकार के दो इन्द्रिय जीव हैं । ३-स्पर्शन, रसना और प्राणेन्द्रिय मात्र को धारण किये हुये चींटी आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं। ४--स्पर्शन, रसना, धारण और चक्ष ये चार इन्द्रियों को धारण करने वाले भ्रमरादि चार इन्द्रिय जीव हैं।
-स्पर्शन, रसना, धारण, वन और श्रोत इन पाँच इन्द्रियों को ग्रहण करने वाले मनुष्य, मृग, पशु, पक्षी, देव, नारक आदि ये पांच इन्द्रियों को धारण करने वाले जीव हैं। इनको पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं। कुछ इन जीवों के हृदय में अष्ट दलकमलाकार
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जीव का लक्षण और उसके भेद जीब का अर्थ है कि--चेतना लक्षणं जीवः ज्ञान दर्शनादि असाधारण चित्त स्वभाव और उसके जो परिणाम प्रादि हैं जानोपयोग और दर्शनोपयोग ऐसे भाव प्राण से हमेशा जीने वाला और पंचेन्द्रिय मन वचन काय प्रायु और स्वासोच्छवास इस प्रकार द्रव्य प्राणों से जीने वाले जीव हैं।
त्रिकाल विषय जीवनानुभाव: जीवः (जीवीति जीवष्यति जीवितपूर्वोवा जीव:)
जोवतीति जीव: त्रिकाल जीवन करने वाले ये जीव हैं। जीव तत्व की सिद्धिको चेतना चैतन्यानुविधायी भाव प्राण और यथाशक्ति दस प्रकार के द्रव्यप्राणों से जीता है । इस प्रकार जीव राशि में सामान्य रूप से दो भेद हैं । एक संसारी और दूसरा मुक्त । संसारी जीव और उसके भेद
आत्मोचित्त कर्मययास प्रात्मनो भावान्रायक्ति संसारः 'परिणामसमूहः प्रारम्भ अनेनसहितम् सारंग संचय तत संसारः । संशरणं संसारः।
इस प्रकार संसार शब्द का सामान्य अर्थ अनेक प्रकार का है। स्वतः संचार करने वाले कर्म के कारण से जन्म जरा मरण के प्राधीन होकर द्रव्य क्षेत्र काल भावभव ऐसे पंच परावर्तनरूप संसार में भ्रमण करने वाले जीव को संसारी जीव कहते हैं।
कर्म और उसके भेद पुद्गल द्रव्य अनुकम के रूप से सम्पूर्ण लोकाकाश में परिपूर्ण भरा हुआ है। कुछ स्कन्द पाहार भाषा-इस प्रकार २३ तरह के वर्ण रूप हैं। कार्माण स्कन्द रूप में रहने वाले इन वर्गणाओं को द्रव्य कर्म से ही बाधा और उसके निमित्त से
-- - -- कमल के समान एक मांस का पिण्ड या टुकड़ा होता है उराको द्रभ्य मन कहते हैं । इस भाव मन को प्राप्त किये हुये जीव के अन्दर ग्रहण और मनन करने की बाक्ति होती है। वे शिक्षण आदि को ग्रहण कर सकते हैं। इन जीवों को सैनी पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं। द्रव्य मन से रहित जीवों को मनन करने की शक्ति नहीं रहने वाले जीवों को असनी पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं।
६–अनेक प्रकार से परम्पर टकराना टूट कर गिरना आदि वाधाओं के अधीन होकर अनेक दुःखों को सहने वाले स्थूल स्थावर एकेन्द्रिय जीवों को वादर, वादर स्थूल कहते हैं। और अग्नि पानी आयुवादि बाधानों के प्राधीन न होने वाले घटा सूक्ष्म शरीर वाले जीवों को सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव कहते हैं।
७-१. आहार, २.घरीर, ३. इन्द्रिय, ४, उच्छवास निश्वास, ५-भाषा और ६-मन ये छः को पर्याप्ति कहते हैं।
८-२ एकेन्द्रिय, ३ विकलेन्द्रिय, २ पंचेन्द्रिय इन सब सात विमान को पर्याप्तक और अपर्यास्तकों से गुणा करने से १४ विभाग होते हैं।
सब्द-बंध (ये दोनों परस्पर चिपके हुये हैं) सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व संस्थान (आकार) भेद, अन्धकार, छाया, धूप, चन्द्रमा की चांदनी, ये सब पुद्गल द्रव्य के पर्याय हैं। रोग भी पुद्गल है।
TWO ETHERS — Ether, mentioned above, is not matter in the Jaina Viem. Matter has various qualities and relations which these two ether do not possess. It is only the Jain philosopliy that believes in these two substances. They are accompanying causes ('helu') respectively of the motion of moving things that are resting, in the sense of not moving. In each case it is the accompanying cavse without which you can not do,
-J.l. by HERBERT WARREN, Page 13 2. TIME:- Time is not a collection of indivisiblein separable parts, as are the other five substances. Time is called a substance only as a matter of convenience. it is really the modification (Paryaya) of a substance. It is that modification of a thing or being by which we koow the anteriority ar posteriority of it, the oldness or newness. And it is a modification which is common to all the other substances. (Dravyas). Time is really the duration of the states of substances.
J. I. by HERBERT WARREN Page 14
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रागद्वेषादि विकार रूप रहने वाले आत्मा के परिणाम को भाव कर्म में कहते हैं। रागद्वेषादि कषाय परिणाम के निमित्त से जीवों के साथ बद्ध होने वाले कार्माणानुभाव को कर्म से ही कार्माण परिणाम को कर्म रूप होकर ग्रात्म प्रदेश में पानी और दूध के समान एक क्षेत्रावगाह होकर रहने वाले को कर्म बंध कहते हैं। इस कर्म बंध के उदय से रागद्वेष आदि की उत्पत्ति श्रीर रागद्वेष श्रादि से उत्पन्न कर्म बंध होकर जीव को संसार में परिभ्रमण के कारण होता है इसी का नाम संसार है । इस कर्म बंध से ज्यादा कर्म रूपी जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश को धूलि यादि उड़कर आवरण करता है उसी प्रकार आत्म स्वरूप को आत्मा के स्वभाव से श्राच्छादन करता है ।
ये कर्म सामान्य रूप से ज्ञानावरणीय, दर्शनावणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय, ऐसे प्राठ प्रकार के
होते हैं ।
१ - जो श्रात्मा के ज्ञानगुणों को प्रच्छादित करता है उसको ज्ञानावरणीय कहते हैं। मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, Bafeज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण ये चार प्रकार के हैं ।
२- जो जीव के ज्ञान दर्शन गुण को प्रकट होने नहीं देता है उसको दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं । यह चक्षुदर्शनावरण, क्षुदर्शनावरण अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा निद्रा, प्रचलाप्रचला इत्यादि रूप से नो प्रकार का है ।
३- जो कर्म के उदय से जीव को श्राकुलता उत्पन्न करता है अर्थात् जो आत्मा के अव्याबाध गुण को घात करता है उसको वेदनीय कर्म कहते हैं । यह साता और साता रूप से दो प्रकार का है।
४ - जो आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र रूप को घात करता है उसको मोहनीय कर्म कहते हैं। ये दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय नाम से दो प्रकार का है। दर्शन मोहनीय के मिथ्यात्व, सम्यकृत्व मिथ्यात्व सम्यक्त्व प्रकृति ऐसे तीन भेद हैं । चारित्र मोहनीय में अनन्तानुबंधि क्रोध, मान, माया, लोभ, ये चार प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार । संज्वलन ये चार १६ कषाय और पांच हास्य, अरति, रति, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद ऐसे कषाय मिलकर - इसके २५ भेद हैं ।
५. - जो कर्म आत्मा को नरक गति तियंच गति मनुष्यगति और देव गति के शरीर में कुछ समय तक बंधन के रूप में रखता है उसको कर्म कहते है। यह प्रायु, तिर्यच आयु, देव आयु, मनुष्य आयु ऐसे चार प्रकार के हैं।
६ - नाम कर्म — आत्मा को नाना प्रकार जैसे शरीर श्रवयवादि रूप को उत्पन्न करने को नाम कर्म कहते हैं इसके ६३
भेद हैं ।
गति चार -नरक, तियंत्र, मनुष्य और देव ।
जाति पांच - एकेन्द्रिय, द्विइन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इंद्रिय और पंचेन्द्रिय ।
शरीर पांच प्रौदारिक, वैक्रियक, आहारक, तेजस और कार्माण ।
अंगोपांग तोन-प्रदारिक, वैक्रियक और बाहारक ( कुल ४+५+५+३=१७)
निर्माण कर्म - अंगोपांगों की रचना करता है।
बंधन नाम कर्म पांच - श्रदारिक, वैक्रियक, आहार, तैजस कार्माण ये शरीर प्रमाण को करता है और जुड़ाता है । संघात कर्म पांच - प्रौदारिक, कार्माण ये शरीर को छिद्र रहित करा देता है ।
संस्थान नाम कर्म छः हैं—सम चतुरस्त्र, न्यग्रोध परिमंडल, स्वाति, कुब्जक, वामन, हुंडक ये शरीर के ग्राकार ऊंचाई प्रादि को करते हैं ।
संहनन छ:- ब्रजवृषभनाराच, वज्रनाराच नाराच, अर्ध नाराच कीलक, असंप्राप्तपादिका ये बंधन कार्यों को करते हैं (ये कुल १७÷१+५+५+६+६=४० }
स्पर्श पाठ— कठोर, कोमल, हल्का, भारी, ठण्डा, गरम, स्निग्ध रूक्ष ये माठ हैं।
वर्ण पांच - काला, नीला, पीला, लाल और हरा ।
रस पांच खट्टा मीठा, नमकीन, तिक्त, चरपरा ये पांच हैं।
आनुपूर्वी चार-नरक तियंच, मनुष्य देव मिलकर (ये ४०+८+ ५ / ६+४=६३) अगुरु, लघु, उपघात, श्रातप और उद्योत विहायोगति ।
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दो मनोज्ञ, अमनोज्ञ, उच्छवास त्रस स्थावर बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक साधारण स्थिर, अस्थिर,गुभ-अशुभ, शुभग अशुभग, सुस्वर, दु:स्वुर, पादेय, यशकीर्ति प्रयशकीर्ति, तीर्थकर
गंध दो-सुगंध और दुर्गध (कुल ये ६३+३०६३) ___ आनुपूर्वी नाम कर्म-मरण के बाद, अगली गति में जाने के पहले अर्थात् मरण के पहले रहा हुआ शरीर के आहार आत्म प्रदेश को रखनेवाले कर्म-विहायोगतिनाम कर्म-इस कर्म के उदय से आकाश में चलने की उठने की शक्ति को उत्पन्न करता है।
तीर्थकर नाम कर्म-यह कर्म जीव को अरहन्त पदवी को प्राप्त करा देता है।
७-जिस कर्म के उदय से परम्परा से उच्च तथा नीच कुल में जन्म होता है उसको गोत्र कर्म कहते हैं । इस प्रकार नीच गोत्र और उच्च गोत्र नाम कर्म के दो भेद हैं।
E-जो कम दान लाभ आदि कार्यों में विघ्न करता है उसको अन्तराय कहते हैं। यह दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगमन्त राय, इस भेद से पांच प्रकार का है।
इन आठों कों में ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय इन कर्म को धातिया कर्म कहते हैं। यह कर्म प्रात्मा के प्रदेशकों को घात करते हैं। शेष कर्म को अघातिया कर्म कहते हैं।
इन आठ कर्मों से बधे हए जीवों को संसारा जीव पाहते हैं । ऐसे संसारी जीव दो प्रकार के हैं एक त्रस और दूसरा स्थावर ।
प्रस जीव के भेदअस नाम कर्म के उदय से जीव को प्राप्त होने वाली पर्याय को त्रस कहते हैं । यह २, ३, ४ और ५ इन्द्रिय जीव हैं इनमें २, ३, ४ इन्द्रिय जीवों को विकलय कहते हैं। पंचेन्द्रिय जीवों में सनी अगनी ऐसे दो भेद हैं। मन सहित पंचेन्द्रिय जीवों में मनुष्य देव नारकीय और तीयं च ये चार भेद हैं । पुनः मनुष्य में आर्य और मलेच्छ ये दो भेद हैं । मन सहित तिर्यंच पंचेन्द्रियों में जल चर थलचर और नभ चर ऐसे तीन भेद हैं। मन रहित तिर्यच पंचेन्द्रियों में भी जलचर, स्थलचर, और नमचर ये तीन भेद हैं । तिर्यच जीव एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक रहते हैं। अलि, कृमि, शंख इत्यादि दो इन्द्रिय जीवों को स्पर्शन और रसन ये दो इन्द्रिय होते हैं और वचन काय श्वासोच्छावास और आयु ऐसे पांच प्राण होते हैं। खटमल, चीटी, बिन्छ आदि तीन इन्द्रिय जीव को एक घ्राण इन्द्रिय ज्यादा होता है। भ्रमर, पंतगा आदि चार इन्द्रिय जीव को चक्षु इन्द्रिय ज्यादा होता है। पानी में रहने वाले सर्प कई जाति के तोते और गोम गिरगिट आदि मनरहित पंचेन्द्रिय जीवको एक ज्यादा धोतींद्रिय होता है इनको ६ प्राण होते हैं । देव नारकी मनुष्य पशु प्रादि मन सहित पंचेन्द्रिय जीव को एक मन होता है इसलिए उसको १० प्राण होते हैं। इस प्रकार जीव को ६ से १० तक प्राण होते हैं और मति थुति अवधि मनः पर्याय केवल कुमति, कुश्रुति, कुअवधि ऐसे पाठ ज्ञानोपयोग और चक्षु, अचक्ष, कंवल ऐसे दर्शनोपयोग इस प्रकार ज्ञान होते हैं।
१-पंचेन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं । २--मतिशान के निमित्त से वस्तु को विशेष रीति से जानने वाले को भूत ज्ञान कहते हैं। ये दोनों ज्ञान सामान्य रूप से कम ज्यादा परिमाण में प्रत्येक जीव में रहते हैं। ३-इन्द्रिय सहायता के बिना प्रास्मिक शक्ति से मुर्तीक पदार्थ को जानने वाले ज्ञान को अवधि ज्ञान कहते हैं।
४-इन्द्रिय सहायता के बिना प्रात्मीक शक्ति से दूसरों के मन में रहने वाले ज्ञान को जानने वाले को मनपर्यय ज्ञान कहते हैं। ये ज्ञान ऋधिधारी मुनि को ही प्राप्त होता है।
५-लोक और प्रलोक में रहने वाले अगोचर वस्तु को और भूत भविष्य और वर्तमान काल की वस्तु को हर समय जानने बाले ज्ञान को केवल ज्ञान कहते हैं। इसमें न जानने वाली कोई वस्तु ही नहीं। ये सर्व जीव पर्याप्त और अपर्याप्त हैं। इसके दो भेद हैं । शक्ति पूर्ण होने को पर्याप्त कहते हैं और अपूर्ण को अपर्याप्त कहते हैं। यह पर्याप्ति आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास भाषा, मन ऐसे छ: भेद है। प्रकृति शरीर पर्याप्ति को अनुकूल होने वाले पुद्गल परमाणु को ग्रहण करके वह गाढ़ और रस भाग रूप से परिणमन करने योग्य शक्ति को पूर्ण होने को आहार पर्याप्ति कहते हैं। उस पुद्गल पिण्ड से हड्डी रक्त आदि भिन्न-भिन्न रूप से परिणमन होने के परिणाम हों ऐसे शक्तिपूर्ण करने को शरीर पर्याप्ति कहते हैं। स्पर्शन रसना आदि इन्द्रिय
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विषय को ग्रहण करने की शक्ति पूर्ण होने को कहते हैं। पेलावास निकालने की शक्ति पूर्ण होने को श्वासोच्छवास पर्याप्त कहते हैं । भाषा वर्णनों से श्रानेवाले पुद्गल का वचन रूप से परिणमन करने की शक्ति को पूर्ण करने वाली शक्तिको भाषा पर्याप्त कहते हैं। मनोवगंणा से उत्पन्न होनेवाले श्रुत अनुभूत विषय को स्मरण करनेवाली शक्ति को पूर्ण होने को मनः पर्याप्त कहते हैं। ये छ: पर्याप्तियों में एकेन्द्रि जीवों को पहले की चार आहार शरीर इन्द्रिय और स्वासोच्छवास ये चार पर्याप्ति रहती हैं। दो इन्द्रिय तीन इन्द्रिय चार इन्द्रिय इनको पाँच पर्याप्त रहती हैं। और मन सहित पंचेन्द्रिय जीव को छः पर्याप्त रहती हैं। पर्याप्त और अपर्याप्त की अपेक्षा से समस्त जीवों में चौदह भेद होते हैं ।
जीव समास
स्थूल (बादल) एकेन्द्रिय सूक्ष्म द्वित्रिचतुरिन्द्रिय मन रहित पंचेन्द्रिय मन सहित पंचेन्द्रिय
पर्याप्त/पर्याप्त
१ + १
१+१
३+३
१+१
१+१
(२)
माता पिता के रक्त और रज वीर्य मिलकर होता है । सम्मूर्छन और गर्भ ये दोनों से उत्पन्न हुये और पोतज ।
(२)
(६)
(२)
(२)
१४
इन चौदह भेदों को जीव समास कहते हैं ।
जन्म के भेद
सम्पूर्ण जीव जन्माधीन हैं। नवीन शरीर धारण करने को जन्म कहते हैं। ये जन्म संमूर्च्छन गर्भ और उत्पादन ऐसे तीन प्रकार के होते हैं 1
मूर्च्छन जन्म- समन्ततो मूर्चनम् संमूर्चनम् ।
माता पिता के वीर्य रक्त सम्बन्ध रहित अपने योग्य क्षेत्र काल और भाव की विशेषता से चारों ओर से पुद्गल वर्गणा को ग्रहण करके शरीर आदि की रचना होने को संमूर्च्छन कहते हैं। यह एक, दो तीन और चार पंचेन्द्रिय जीवों के जन्म अर्थात् देव नारकी और गर्भ जन्म के मनुष्य और तिर्यंच को छोड़कर शेष में सम्मूर्चन जन्म होता हैं ।
गर्भ जन्म - शुक्र शोणित वर्ण: गर्भः
होने वाले जन्म को गर्भ जन्म कहते हैं। यह मनुष्य और तिर्यंच जीव के शरीर को औदारिक शरीर कहते हैं। ये तीन प्रकार के हैं-जरायुज, अण्डज
जरायुज - जाली के समान जीव को घेरा हुआ रहता है उसको जरायुज कहते हैं। इससे उत्पन्न होने वाले जीव को जरायु कहते हैं। उदाहरणार्थ मनुष्य और पशु ।
अण्डज - नख के समान सफेद और कठिन रक्त वीर्य से आच्छादित और गोल रहने वाले उसको प्रण्ड कहते हैं, इससे उत्पन्न होने वाले जीव को अण्डज कहते हैं। उदाहरण हंस कबूतर श्रादि ।
पोत — इसको प्रावरण नहीं है। ऐसे योनि से बाहर श्राते ही हलन चलन चलने फिरने आदि में समर्थ होने बाले जीव को पोत कहते हैं । उदाहरणार्थं सिंह और व्याघ्र । इस प्रकार गर्भ जन्म तीन प्रकार के होते हैं ।
उत्पाद जन्म-उपेत्या पद्येतस्मिन् नित्ययुक्तपाद
जन्म के प्रकार को तैयार होने वाले स्थान को उत्पाद कहते हैं । ये उत्पाद जम्म भवन व्यतंर ज्योतिषि और कल्प 'अर्थात् देव गति में उत्पन्न होने वाले और नरक गति में नारकीय जीवों के जन्म को उत्पाद कहते हैं। ये जीव वहाँ जा करके अन्तर्मुहूर्त में अर्थात् ४८ मिनट के अन्दर यौवन अवस्था को प्राप्त होते जैसे मनुष्य सोते हुये जाग्रत होता है उसी प्रकार इनका जन्म होता है उसको उत्पाद जन्म कहते हैं ।
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स्थावर जीवों के लक्षण--
स्थावर नाम का नाम कर्म है । इस कर्म के तीन प्रकृति हैं स्थावर नाम कर्म के उदय से इस जीव को प्राप्त होनेवाली पर्याय को स्थावर कहते हैं । स्थावर जीव पृथ्वी कायिक, जल कायिक, अग्नि कायिक, वायु कायिक और वनस्पति कायिक इस प्रकार पांच प्रकार के हैं। इन पांच प्रकार के स्थावर जीवों को नियम से स्पर्शन इन्द्रिय रहती है। इनकी एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहते हैं। इन पांच जीवों के शरीर सूक्ष्म और स्थूल रहता है । चने की दाल के समान प्राकारबाले पृथ्वी कायिक जीव है। जल बिन्दु के समान आकार वाले जल कायिक जीव है। सूई की नोक के समान अग्नि कायिक जीव हैं। ध्वजा के प्राकार वाले बाय कायिक जीव हैं । वृक्ष लता, घास इत्यादि अनेक प्रकार के बनस्पति कायिक जीव' हैं। ऐकेन्द्रिय जीव भी अनेक प्रकार के स्पर्शनेन्द्रिय और स्वासोच्छवास इस प्रकार दो मति श्रुत इस प्रकार दो, ज्ञानोपयोग और चक्ष और अचक्ष इस प्रकार दो दर्शनोपयोग ये चार भेद हैं।
इन्द्रिय-जीव के पहचानने प्रादि के साधन को इन्द्रिय कहते हैं। जीव विषय के ज्ञान होने के लिये इन्द्रिय कहते हैं यह नियम से स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु और श्रोत्र इस प्रकार इसके पांच भेद हैं।।
१-स्पर्शन इन्द्रिय-हल्का भारी रूक्ष मदु कठोर ऐसे पाठ प्रकार के स्पर्श को स्पर्शन इन्द्रिय कहते हैं।
२-रसना-खट्टा, मीठा, क्षार, कडुवा, चरपरा इस प्रकार ये पांच रस को जानता है इसको रसना इन्द्रिय कहते हैं।
३-घ्राण इन्द्रिय--सुगन्ध और दुर्गन्ध ये दो को जानता है। ४-चक्ष- श्वेत. पीत हरित, लाल, कृष्ण ऐसे पाँच वर्ण को जामता है। ५-श्रोत्र-शब्द ज्ञान को जानता है।
मुक्त जीव
जीव के सम्पूर्ण कर्मों का नाश करके संसार से पूर्णतया मुक्त होना उसको मोक्ष कहते हैं (सर्व कर्मविप्र मोक्ष मोक्षः) प्रात्मा के जीव से सम्बन्धित ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, वेदनीय वायु, नाम गोत्र, और अन्तराय समस्त पाठ कर्मों के नाश के कारण प्रात्मा के परिणाम को भाव मोक्ष कहते हैं । ये ही कर्म रूपी परमाणु का आत्मा से भिन्न होना उसको द्रव्य मोक्ष कहते हैं। मोक्ष का अर्थ है छूटना। इस शब्द के अर्थात् जन्म जरा मरण रहित और पाठ कर्मों के नाश से क्रमशः स्वयमेव अपने निजात्म का प्रादुर्भाव होने वाले निज शुद्धात्मा का जो स्वभाव है समस्त लोक और अलोक में और उसमें रहने वाले सर्व पदार्थ को और उनके त्रिकालवर्ती अनन्तानन्त पर्यायों को युगपद एक ही समय में देखने और जानने की अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख ऐसे अव्यावाधत्व राम्यक्त दोष से रहित अवगाहन सूक्ष्मत्व लोहे के पिण्ड के समान गुरुत्व और रूई के समान लघुत्व रहित और अनंत बीर्य ये पाठ स्वाभाविक गुणों से युक्त सिद्ध भगवान होते हैं। ये जीव मिट्टी के लेप से लिप्त हा तुम्बी का फल अगर पानी में डाल दिया जाय तो बह मिट्टी हट जायेगी और तुम्बी का फल ऊपर आ जायेगा। इसी प्रकार यह जीव सम्पूर्ण कर्मों से मुक्त होता है। पहले के शरीर से कुछ कम होकर जैसे एरण्ड का बोज सूखने के बाद घप में छिलका हट जाता है और बीज ऊपर उछल जाता है इसी प्रकार यह जोव सम्पूर्ण कर्मों का नाश हो जाने से ऊर्ध्व गमन करके जहाँ तक धर्म द्रव्य है वहां तक जाकर सिद्ध शिला पर शास्वत विराजमान होता है और पुनः लौटकर संसार में नहीं पाता है। यह मुक्तजीब अनुपम, असाधारण, अखण्ड, अनीश्वर और अतीन्द्रिय से स्वाभाविक आत्मोत्थ अनन्त सुख को अनन्त काल तक अनुभव करता है। ये ही मोक्ष का मार्ग है। ये ही मोक्ष अवस्था है ये ही सिद्ध अवस्था कहलाती है, इन्हीं को सिद्ध, बुद्ध, शिव, परमात्मा आदि अनेक प्रकार के नामों से पुकारा जाता है।
अजीव द्रव्य
जीव द्रव्य में रहनेवाले ज्ञान दर्शनादि चेतना लक्षण इन्द्रिय द्रव्य प्राण दर्शन आदि उपयोग रूप भाव प्राण इष्ट अनिष्ट रूप कर्म चेतना सुख दुःख रूप कर्म फल चेतना यह कोई भी लक्षण चेतना रहित अजीव पदार्थ में नहीं रहता है इसी को अजीव कहते हैं। अचेतन कहते हैं । इस अजीव द्रव्य के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांच भेद है। इसमें
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धर्म अधर्म और प्राकाश ये तीन द्रव्य भिन्न-भिन्न रहते हैं । अखण्ड और निष्क्रिया हलन चलन रहित रहते हैं। सम्पूर्ण लोकाकाश में तिल और तेल के समान व्याप्त रहते हैं। ये नित्य और अवस्थित हैं अनादि काल से इसी तरह रहते हैं। इसका कोई कर्ता धर्ता नहीं है। ये अनादि हैं, लोक में जीव अनन्तानन्त हैं, पुद्गल जीव की अपेक्षा से जीव अनन्त गुणे ज्यादा रहते हैं। काल अनुरूप से असंख्यात है जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल से अमुर्तिक हैं। पुद्गल एक ही मूर्तीक है अर्थात रूपी पदार्थ है, धर्म, अधर्म, काल और जीव ये असंख्यात प्रदेशी हैं। आकाश अनन्त प्रदेशी है। लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है। और पुद्गल प्रसंख्यात और अनन्त प्रदेशी है ।
पुदगल पुदगल का अर्थ पुरण और गलन होना अर्थात् लंघन होना और अलग होना इसको पुदगल कहते हैं। क्रिया स्वभाव युक्त वस्तु को पुद्गल कहते हैं। पु का अर्थ जीव और गिल का अर्थ शरीर। पाहार विषय मादि ग्रहण करने वाले क्रिया के उपयोग होने को पुद्गल कहते हैं।
पुद्गल पर्याय के दो भेद हैं-भाषात्मक और प्रभाषात्मक ऐसे शब्द दो तरह का है उनमें भाषात्मक शब्द अक्षरात्मक तथा मनक्षरात्मक रूप से दो तरह का है। उनमें भी अक्षरात्मक भाषा, संस्कृत प्राकृत और उनके अपभ्रश रूप पैशाची ग्रादि भाषामों के भेद से प्राय व म्लेक्ष मनुष्यों के व्यवहार के कारण अनेक प्रकार की है। अनक्षरात्मक भाषा द्वीन्द्रिय आदि तिर्यच जीवों में तथा सर्वज्ञ की दिध्य ध्वनि में है। प्रभाषात्मक शब्द भी प्रायोगिक और वैश्रसिक के भेद से दो तरह का है। उनमें "वीणा" प्रादि के शब्द को तत, ढोल आदि के शब्द को वितत, मंजीरे तथा ताल आदि के शब्द को धन पौर वंसी आदि के शब्द को सुषिर कहते हैं। इस में कहे हुए क्रम से प्रायोगिक (प्रयोग से पैदा होने वाला) शब्द चार तरह का है, विधसा अर्थात् स्वभाव से होने वाला वैश्रसिक शब्द बादल आदि से होता है बह अनेक तरह का है। विशेषशब्द से रहित निज परमात्मा की भावना से छूटे हुए तथा शब्द प्रादि मनोज्ञ अमनोज्ञ पंच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त जीव ने जो सुस्वर तथा दुःस्वर नाम कर्म का बंध किया उस कर्म के उदय के अनुसार यद्यपि जीवन में शब्द दिखता है तो भी वह शब्द के संयोग से उत्पन्न होने के निमित्त से व्यवहार नय की अपेक्षा जीव का शब्द कहा जाता है, किन्तु निश्चय नय से तो वह शब्द पुद्गलमयी ही है। प्रब बंध को कहते हैं-मिट्टी यादि के पिण्ड रूप जो बहुत प्रकार का बंध है वह तो केवल पुद्गल बंध हैं। जो कर्म ? नो कर्म रूप बंध है वह जीव और पुद्गल के संयोग से होने बाला बंध है। विशेष यह है-कर्म बंध से भिन्न जो निज शुद्ध आत्मा की भावना से रहित जीव के अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से द्रव्य बंध है और उसी तरह अशुद्ध निश्चय नय से जो वह रागादिक रूप भावबन्ध कहा जाता है, यह भी शुद्ध निश्चय नय से पुदगल का ही बन्ध है । वेल आदि की अपेक्षा बेर आदि फलों में सूक्ष्मता है और परमाणु में साक्षात् सूक्ष्मता है (परमाणु की सूक्ष्मता किसी की अपेक्षा से नहीं है)। बेर आदि की अपेक्षा बेल आदि में स्थूलता (बड़ापन) है तीन लोक में व्याप्त महास्कन्ध में सबसे अधिक स्थलता है। समचतुरस्त्र, न्यग्रोथ, सातिक, कब्जक, वामन और हंडक ये ६ प्रकार के संस्थान व्यवहार नय से जीव के होते हैं। किन्तु संस्थान शून्य चेतन चमत्कार परिणाम से भिन्न होने के कारण निश्चय नय की अपेक्षा संस्थान पुद्गल का ही होता है जो जीव से भिन्न गोल, त्रिकोन, चौकोर प्रादि प्रगट अप्रगट अनेक प्रकार के संस्थान है, वे भी पुद्गल के ही हैं। गेहं प्रादि के चूर्न रूप से तथा घी, खाण्ड आदि रूप से अनेक प्रकार का "भेद" (खण्ड) जानना चाहिए। दृष्टि को रोकने वाला अन्धकार है उसको "तम" कहते हैं। पेड़ आदि के आश्रय से होने वाली तथा मनुष्य प्रादि की परछाई रूप जो है उसे "छाया" जानना चाहिए। चन्द्रमा के विमान में तथा जुगनू प्रादि तिर्यच जीवों में "उद्योग" होता है। सूर्य के विमान में तथा अन्यत्र भी सूर्यकान्त विशेष मणि प्रादि पृथ्वीकाय में "पातप" जानना चाहिए। सारांश यह है कि जिस प्रकार शुद्ध निश्चय नय से जीव के निज प्रात्मा की उपलब्धि रूप सिद्ध स्वरूप में स्वभाव व्यंजन पर्याय विद्यमान है फिर भी अनादि कर्मबंध के कारण पुद्गल के स्निग्ध तथा रूक्ष गुण के स्थानभूत रागद्वेष परिणाम होने पर स्वाभाविक परमानन्दरूप एक स्वस्थ्य भाव से भ्रष्ट हुए जीव के मनुष्य, नारक मादि
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विभाव-व्यंजन-पर्याय होते हैं, उसी तरह पुद्गल में निश्चय नय की अपेक्षा शुद्ध परमाणु दशारूप स्वभाव-व्यंजन पर्याय के विद्यमान होते हुए भी "स्निग्ध तथा रूक्षता से बन्ध होता है। इस वचन से राग और द्वेष के स्थानीय बंध योग्य स्निग्ध तथा रुक्ष परिणाम के होने पर पहले बतलाये गये शब्द प्रादि के सिवाय अन्य भी शास्त्रोक्त सिकुड़ना, दही, दूध, प्रादि विभाव व्यंजन पर्याय जानना चाहिए।
धर्म द्रव्य गमा परिणत गमल और सीनोंलो गरल सहकारी धर्मद्रव्य है-जैसे मछलियों को गमन में जल सहकारी है। गमन न करते हुए (ठहरे हुए) पुद्गल व जीवों को धर्म द्रव्य गमन नहीं कराता।
चलते हए जीव तथा पुदगलों को चलने में सहकारी धर्म द्रव्य होता है। इसका दृष्टान्त यह है कि जैसे मछलियों के गमन में सहायक जल हैं। परन्तु स्वयं ठहरे हुए जीव पुदगलों को धर्म द्रव्य गमन नहीं कराता। तथंब जैसे सिद्ध भगवान अमूर्त हैं, क्रिया रहित हैं तथा किसी को प्रेरणा भो नहीं करते, तो भी मैं सिद्ध के समान अनन्त ज्ञानादि गणरूप है, इत्यादि व्यवहार से सविकल्प सिद्ध भक्ति के धारक और निश्चय से निविकल्पक ध्यान रूप अपने उपादान कारण से परिणत भव्य जीवों को बे सिद्ध भगवान सिद्ध गति में सहकारी कारण होते हैं ऐसे ही क्रिया रहित, अमूर्त प्रेरणारहित धर्म द्रव्य भी अपने उपादान कारणों से गमन करते हुए जीव तथा पुद्गल को गमन में सहकारी कारण होता है। जैसे मत्स्य प्रादि के गमन में जल प्रालि सहायक कारण होने का लोक प्रसिद्ध दष्टांत है, यह अभिप्राय है।
अधर्म द्रव्य ठहरे हुए पुदगल तथा जीवों को ठहरने में सहकारी कारण अधर्म द्रव्य है। उसमें दृष्टांत-जैसे छाया पथिकों को ठहरने में सहकारी कारण है । परन्तु स्वयं गमन करते हुए जीव व पुद्गलों को अधर्म द्रव्य नहीं ठहराता है। सो ऐसे है-यद्यपि निश्चय नय से आत्म अनुभव से उत्पन्न सुखामृत रूप जो परम स्वास्थ्य है वह निज रूप में स्थिति का कारण है, परन्तु मैं
योनि जोब के उत्पन्न होने के आधार भूत पुदगल स्कन्ध को योनि कहते हैं। यू यति इति योनि-योनि आधार जन्म आधेय योनि के आधार से जीव समर्थन गर्भ उत्पादन जन्म के सम्बन्ध से शरीर आहार इन्द्रियों के योग्य पुद्गल वर्गणा को ग्रहण करते हैं। इसमें आकार योनि और गुण योनि दो भेद हैं। आकार योनि के शंत्रा-वृत कूर्मोख और वंश पत्र ऐसे तीन उपभेद हैं । दांखावृत योनि में गर्भ धारण नहीं होता है । तीन लोक में सर्वश्रेष्ठ ऐसे तीथं कर महापुरुषों का सद्धर्म प्रवर्तक चक्रवर्ती बलभद्र उनके सहोदर आदि का जन्म होता है। अर्थात् दूसरों का जन्म नहीं होता । वंशपत्र योनि में जीव गर्भ जन्म होते है।
१-सचित्र, २-शीत, ३-संभरण, ४-अचित्त, ५-उष्ण, ६-निवृत्त, ७-मित्र अर्थात् सचित्त अचित्त, ८--शीतोष्ण, ६-संबर विवर्त इस प्रकार य र प्रकार हैं। उत्पाद जन्म सम्बन्ध देव नारको जीवों की योनि जीव रहित अचित होता है। कहीं शीत कहीं उष्ण इस प्रकार दो प्रकार के होते है। गर्भ जन्म सम्बन्ध रखने वाले सचित्त चित्त युक्त रूप मिश्र वोनि और सम्पूर्ण जन्म सम्बन्ध रहने वाले सचित्त और अचित्त और मिश्र इस प्रकार गर्भ जन्म और सम्पूर्ण से सम्बन्ध रखने वाले इसी प्रकार तीन प्रकार के होते हैं।
एकेन्द्रिय तेजकायिक के उष्ण योनि देव नारकी और एकेन्द्रिय जीवों को समवृत योनि होती है। विकेन्द्रिय अर्थात् वि, त्रि, चार इन्द्रिय जीवों को खुले रहता है । गर्भ जन्म जीवों की योनि सम्वत्त निवृत्त ऐसे दो रूप मिश्र योनि सम्पूर्ण आदि युगपत होता है। इस प्रकार सामान्य रूप से गुण योनि होती है । इस प्रकार उत्तरोत्तर भेद को कहते हैं। नित्य निगोद
७ लाख पृथ्वी अग्नि तेज वायु
७ लाख प्रत्येक प्रत्येक
इस प्रकार ये २८ लाख होते हैं बनस्पति
१० लाख द्विइन्द्रिय विहन्द्रिय चतुइन्द्रिय
२ लाख प्रत्येक लास देव नारकी तिथंच प्रत्येक के
४ लाख-१२ लाख
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सिद्ध हं. शुद्ध , अनन्तज्ञान प्रादि गुणों का घारक हूं, शरीर प्रमाण हूं, नित्य हूं, असंख्यात प्रदेशी है तथा अमूर्तिक हूं। सिद्ध भक्ति के रूप से पहले सविकल्प अवस्था में सिद्ध भी जैसे भध्य जीवों के लिए बहिरंग सहकारी कारण होते हैं उसी तरह अपनेअपने उपादान कारण से अपने प्राप ठहरते हए जीब पुदगलों को अधर्म द्रव्य ठहरने का सहकारी कारण होता है। लोक व्यवहार से जैसे छाया अथवा पृथ्वी ठहरते हुए यात्रियों आदि को ठहरने में सहकारी होती है उसी तरह स्वयं ठहरते हुए जीव पुदगलों के ठहरने में अधर्म द्रव्य सहकारी होता है। इस प्रकार अधर्म द्रव्य का लक्षण बताया है।
उनको वैक्रियिक शरीर रहता है उज्वल शरीर अलंकार भूषण से सहित गले में पुष्प माला अनविस होते हैं। इस जन्म के जीव को जन्मते ही बहु प्रत्यय अवधि ज्ञान होता है।
प्राकाश का वर्णन प्रकृत्या प्रसन्नताप मगत्वा खलमृताम्
अनुत्सृज्य सताम् व्रतमयतक्त स्वल्पयति तत्वह। आकाशानन्तः प्राकाश अनन्तानन्त प्रदेश से एक अखण्ट द्रव्य इस आकाश के अत्यन्त बीच में ३४३ घन यर्जु प्रमाण क्षत्र प्रवेश का अकृत्रिम नित्य निश्चल स्वयं स्रष्ट स्वभाव से ही निश्चित स्थिति से युक्त अनादि निधन पुरुषाकार लोकाकाश है। जैसे एक मनुष्य दोनों पांव पसार कर दोनों हाथ कमर में फैला कर कटि पर रख कर खड़ा हो जाता है उसी प्रकार यह लोकाकाश का प्राकार है। वेत्रासन के समान अर्थात् वेंत की कुर्सी के नीचे के भाग के समान अधो लोक है। चक्र के समान वर्तुल प्राकार मध्य लोक प्राकार है। मृदंग के समान उर्द्ध लोक का प्राकार है। इधर १४ यर्जु ऊचा कर दक्षिण रज्जु पूर्व पश्चिम में नीचे के भाग में ७ रज्जु विस्तार वहां से कम से कम होते हुए मध्य भाग में एक रज्जु विस्तार है। वहाँ से क्रम से कम होते हुए लोकान्त स्वर्ग में पांच रज्जु विस्तार पुनः वहां से कम होते हुए ऊपर के भाग में १ रज्जु विस्तार रहता है। यह धनोदधि धनवात और तनवात ऐसे विस्तार वाले फिर इन तीन बातों में से स्थित होकर जसे सीख बाँधते हैं उसी प्रकार चारों ओर से घिरा हया है। ये तीन वातवलय प्राकाश के पाश्रय से स्थिर हैं अर्थात् इन तीन लोक के घनोदधि वातवलय का अाधार वनोदधि वातवलय का घनवातवलय का प्राधार धनवातवलय को तन वातवलय का आधार और तन. वातवलय के प्राकाश प्राधार, आकाश को प्राकाश ही स्वयं प्राधार अर्थात् प्राधार और प्राधेय ये दोनों स्वयं आकाश है। इस प्रकार यह अनादि काल से स्वतन्त्र हैं। ये किसी के पाश्रय से नहीं है। इसका कोई भी कर्ता धर्ता नहीं हैं आकाशस्य समागाह अवगाहन शक्ति लेना आकाश है। यह सम्पूर्ण पदार्थ को स्थान देने के कारण प्राकाश कहलाता है। इस प्रकार यह परस्पर आश्रित है । प्रत्येक वातवलय २० हजार योजन विस्तार वाले हैं। तीनों वातवलय ६० हजार योजन विस्तार वाले हैं । घनोदधि वातवलय उड़द के रंग के समान है। घनवातवलय गौ मूत्र के समान है। और तनुषातवलय अति सुक्ष्म वर्ण वाले अभिव्यक्त है इसका वर्णन करना अशक्य है। इस प्रकार से अनादि है इसका कोई कर्ता धर्ता नहीं है इस प्रकार की जिनेन्द्र भगवान की वाणी है । ये जैन सिद्धांत के अनुसार परम्परा अनादि काल से वृद्धि और ह्रास को प्राप्त हुये चले पा रहे हैं। १ लोकाकाश
लोकयन्ते इन्चन्ते जीवादया पदार्थः यत्रासौ लोकाः तदपरो लोका यत्र पुण्यपाप फल लोकनम् स्वलोकः लोकतीति व लोकः।
इस प्रकार लोक का अनेक प्रकार से विवेचन किया गया है। जीवाजीवादि पदार्थ अपने-अपने पर्याय भेद से युक्त जहां देखने में माता है वह लोक है जन्म-मरण जरा पुण्य पाप दुःख सुख का जिसमें जीय को अनुभव होता है उसका नाम लोक है वह अधो मध्य और ऊर्ध्व इस प्रकार तीन प्रकार का है। इस तीन लोक में और उसमें रहने वाले जीवादि पदार्थ को जो अवकाश देने वाले हैं उसको माकाश कहते हैं । इस प्रकार लोकाकाश का वर्णन किया गया है।
इस लोकाकाश के बीच में नीचे से लेकर अन्त तक १४ राज ऊंचा एक रज्जु चौड़ा चतुषकोण आकृति के एक तृष्णा है जिन इन्द्रिय अादि सम्पूर्ण जीव यहीं जन्म लेने के कारण इसे बसना कहते हैं। एकेन्द्रिय जीव मात्र दोनों ठिकाने में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार इस त्रसना में सम्पूर्ण जीव उत्पन्न होकर जन्म-मरण सुख दुःख आदि का अनुभव करते हैं।
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इसके मुख्य भेद-- इसमें सामान्य रूप से दो द्रव्य है। एक जीव और दूसरा प्रजीव |
स्वपर प्रत्योत्पाद विगमपर्यावीर यन्ते द्रव्यन्ति वा सानातिया प्रय्याणि । सद्द्रव्य लक्षणम् उत्पाद व्यय धीव उसम सत् ।
अथवा पयस्थानतरम् द्रव्यतीति द्रव्यम् ।
इसमें अनेक प्रकार के जीव और अजीव मुख्य रूप से पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इस तरह पाँच प्रकार
के हैं ।
२. लोकाकाश
लोकाकाश की अपेक्षा से आकाश व्याप्त है। लोकाकाश के ऊपर रहने वाले आकाश प्रदेश को अलोकाकाश कहते हैं। इसमें केवल एक प्रकाश द्रव्य ही है और दूसरा कोई भी नहीं। और ये अनन्त रूप है ।
काल द्रव्य
द्रव्य परिवर्तन रूप जो है वह व्यवहार रूप काल होता है। यह कैसा है ? परिणाम क्रिया परराव अपरत्व से जाना जाता है, इसलिये परिणाम आदि लक्ष्य है। अब निश्चय काल को कहते हैं जो वर्तना लक्षण काल है वह परमार्थ ( निश्चय) काल है । जो द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक परिणामादि रूप है सो व्यवहार काल है ।
जीव तथा पुदगल का परिवर्तन जो नून तथा जीर्ण पर्याय है उस पर्याय की जो समय घड़ी (चौबीस मिनट) पादि रूप स्थिति है वह घड़ी घण्टा आदि के रूप में द्रव्य पर्याय रूप व्यवहार काल है। ऐसा ही संस्कृतप्राभृत में भी कहा है कि"स्थिति जो वह काल संज्ञक है" सारांश यह है कि द्रव्य की पर्याय से सम्बन्ध रखने वाली जो समय घड़ी घण्टा आदि रूप स्थिति है वह स्थिति ही व्यवहार काल है। यह पर्याय व्यवहार काल नहीं है क्योंकि पर्याय सम्बन्धिनी स्थिति व्यवहार काल है। इसी कारण जीव और पुद्गल के परिणाम रूप पर्याय से देशान्तर में आने जाने रूप से गाय दुहने रसोई करने श्रादि हलन चलन रूप क्रिया से दूर या समीप देश में चमन रूप काल कुत परत्व तथा पश्य से (छोटा बड़ापन) यह काल जाना जाता है। इसलिये व्यवहार काल परिणाम, क्रिया, परत्व तथा अपरत्व लक्षण वाला कहा जाता है ।
द्रव्य रूप निश्चय काल का निरूपण करते हैं
अपने-अपने उपादान रूप कारण से स्वयं परिणमन करते हुये पदार्थों को जैसे कुम्भकार के चाक के भ्रमण में उसके नीचे की कीली सहकारिणी है अथवा शीतकाल में छात्रों को पढ़ने के लिये पनि सहकारी है। उसी प्रकार जो परिणमन में सहायक है उसको वर्तना कहते हैं। वह वर्तना ही है लक्षण जिसका सो ऐसा कालाणु द्रव्य रूप निश्चय काल है । इस प्रकार व्यवहार काल तथा निश्चय काल का स्वरूप जानना चाहिये ।
समय रूप ही निश्चय काल है उस समय से भिन्न कालाणु द्रव्य रूप और कोई निश्चय काल नहीं है। क्योंकि वह देखने में नहीं आता । इसका उत्तर यह है "कि समय तो काल का ही पर्याय है। यदि कोई यह पूछे कि समय काल की पर्याय कैसे है ?"
पर्याय "मश्र उप्पण्ण पद्धंसी" इस आगम के वाक्य के अनुसार उत्पन्न होती हैं और नष्ट होती है पर वह पर्याय द्रव्य के बिना नहीं होती । यदि समय को ही काल मान ले तो उस समय रूप पर्याय काल का उपादान कारण भुत द्रव्य भी काल रूप ही होना चाहिये। क्योंकि जैसे ईधन अग्नि श्रादि सहकारी कारण से उत्पन्न पके चावल का उपादान कारण चावल ही होता है अथवा कुम्भकार वाक चीवर आदि बहिरंग निमित्त कारण से उत्पन्न जो मिट्टी की घटपर्याय है उसका उपादान कारण मिट्टी का पिण्ड हो है अथवा नर नारक प्रादि जो जीव की पर्याय हैं उनका उपादान कारण जीव है। इसी तरह समय घड़ी श्रादि काल का भी उपादान कारण काल ही होना चाहिये यह नियम भी इसलिये है कि अपने उपादान कारण के समान ही कार्य होता है ऐसा वचन है। कदाचित् ऐसा हो कि "समय" घड़ी आदि काल पर्यायों का उपादान कारण काल द्रव्य नहीं है, किन्तु समय रूप काल पर्याय की उत्पत्ति के मन्द गति में परिणत पुद्गल परमाणु उपादान कारण है तथा निमित्त रूप काल पर्याय की उत्पत्ति में नेत्रों के पलक का गिरना फीर खुलना अर्थात पलक का गिरना और उठना उपादान कारण है ऐसे ही घड़ी रूप काल
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पर्याय की उत्पत्ति में घड़ी की सामग्री रूप जल की कटोरी और पुरुष के हाथ अदि का व्यापार उपादान कारण है। दिन रूप काल पर्यार.ही उत्सात्ति में सूर्गमा विनामार मारणारे वो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि जिस तरह चावल रूप उपादान कारण से उत्पन्न जो चावल पर्याय है उसके अपने उपादान कारण से प्राप्त गुणों के समान ही सफेद काले आदि वर्ण अच्छी या बूरी गन्ध चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श, मीठा प्रादि रस इत्यादि विशेष गुण दीख पड़ते हैं। वैसे ही पूदगल परमाण मेत्र, पलक, बन्द करना और खोलना जल कटोरी पुरुष व्यापार आदि तथा सूर्य का विम्ब रूप जो उपादान भुत पुदगल पर्याय है उनसे उत्पन्न हुये समय निमिष घड़ी काल दिन आदि जो पर्याय हैं उनको भी सफेद काला आदि गुण मिलना चाहिये । परन्तु समय घड़ी आदि में उपादान कारणों के कोई गुण नहीं दीख पड़ते। क्योंकि उपादान कारण के समान कार्य होता है, ऐसा वचन है । अत: यह कहना व्यर्थ है कि जो प्रादि तथा अन्त में रहित अमूर्त है, नित्य है समय आदि का उपादान कारण भूत है तो भी समय प्रादि भेदों से रहित है और कालाणु द्रव्य रूप है वह निश्चय काल है और जो प्रादि तथा अन्त से रहित है, समय, घड़ी, पहर आदि ब्यबहार के विकल्पों से युक्त है वह उसी द्रव्य काल का पर्याय रूप व्यवहार काल है। सारांश यह है कि यद्यपि यह जीव काल लब्धि के वश से अनन्त सुख का भोक्ता होता है तो भी विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव का धारक जो निज परमात्मा रूप के सम्यक श्रद्धान ज्ञान पाचरण और सम्पूर्ण भाव द्रव्यों की इच्छा को दूर करने रूप लक्षण का धारक तपश्चरण रूप दर्शन ज्ञान चारित्र यथा तप रूप चार प्रकार की आराधना है वह आराधना ही उस जीव के अनन्त सुख की प्राप्ति में उपादान कारण जानना चाहिये । इससे काल उपादान कारण नहीं है । इसलिये वह काल द्रव्य त्याज्य है।
सप्त तत्व मुख्य तत्व दो प्रकार है एक जीव दुसरा मजीव-चेतन और अचेतन की पर्याय को विचार करते समय १ प्राश्रव, २ बंध, ३ संवर. ४ निर्जरा ५ मोक्ष ये पांच तत्व देखने में प्राते हैं। इससे कूल तत्व सात होते है।
पाथव-- पुद्गल द्रव्य का अणु के समूह आत्म प्रदेश को कर्म रूपी होकर बहते हुए जो कर्म आते हैं उसको प्रास्त्रव कहते हैं । जानावरणादि पुदगल कर्म प्रात्म प्रदेश की ओर खींचकर आने के निमित्त कारण ? से जीव के रागादिक विकल्प परिणामों को भावाथव कहते हैं।
जीव के रागादि परिणाम को निमित्त पाकर ज्ञानवरणादि कर्म आत्म प्रदेश में खींचकर आने को द्रव्याश्रव कहते हैं। कर्म समह के स्वरूप को जाने बिना सप्त तत्व का अर्थ ठीक प्रकार से नहीं आता है। इसलिए उन कर्मों की जानकारी कर लेना अत्यावश्यक है।
अष्ट कर्म कर्म पुदगल के मुख्य पाठ विभाग किये गये है। एक-एक विभाग में अनेक विभाग हैं। जैसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, गोत्र, और अन्तराय।
१-ज्ञानावरणी कर्म
श्रात्मा के सहज स्वरूप ऐसे ज्ञान के ऊपर बादल के समान बढ़कर उसको पावरण करता है। इसमें मतिज्ञानावरण श्रतिज्ञानावरण प्रवाधिज्ञानावरण, मन: पर्ययज्ञानावरण, केबल-शानावरण इस प्रकार से पांच भेद हैं। इनमें ज्ञानावरणीय कर्म सब से बलवान होने के कारण प्रात्मा की जानने की शक्ति को प्रावरण कर देता है।
२–दर्शनावणीय कर्म (The perception olstruction)
यह प्रात्मा के दर्शन गुण को प्रावरण करता है । इसमें चक्ष दर्शनावरण और अचक्षु दर्शनावरण, अबधि दर्शनावरण केबलदशनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि ऐसे नो भेद हैं। अर्थात् निद्रा पाना पुन: पुन: निद्रा में उठकर सोना फिर उठना और फिर सोना। निद्रा में नाक मुंह आदि से राल गिरना। स्वप्न में उठकर काम प्रादि करना। बड़बड़ करना । जगने के बाद उनको क्रम से निद्रा निद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि कहते हैं।
३. वेदनीय (Which regulates the experiences of pleasure and pains) ..
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यह कर्म अन्यावाधगुण को घात करता है। इसमें सत्ता असाता वेदनीय ऐसे दो भेद हैं। विषय को ग्रनुकूल करने वाले को माता कहते हैं। विषय सुख को अथवा दुःख को उत्पन्न करने को असाता कहते हैं।
४- मोहनीय कर्म
आत्मा के दर्शन और चारिष गुण को हनन करने वाले कर्म को मोहनीय कर्म कहते हैं।
जिससे सम्यग्दर्शन प्रगट करने में अटकता है । उसको दर्शन मोहनीय कहते हैं। सम्यग्वारित्र की बात करने वाले को चारित्र मोहनीय कहते हैं ।
५ - दर्शन मोहनीय- इसमें मिथ्यात्व इसका उदय जब होता है जीव को अयोग्य के प्रति श्रद्धा उत्पन्न कर देता है । सम्यकत्व मिथ्यात्व जब उसका उदय होता है तो जीव के परिणाम को उत्पन्न कर देता है । उस समय उसके परिणाम को सम्यके सम्यदर्शन होने वाले कर्म को धनाकर्मकहते हैं।
६ मान माया लोभ इनसे
७ – धावक के १२ व्रत के पालने में विधन डालना आत्मा के देश चारित्र को नाश करने वाले कषाय को अप्रत्याख्यान
कहते हैं।
८ नियम व्रत पाने में
राय को प्रत्याख्यान कहते हैं। --चार पूर्ण करने में दिवालने वाले कपाको संयम कहते हैं।
10-Ayuh, the force which determines the duration of the association of the soul with. its Physical body.
11- Namd, or the Group of forces which organize the body and its limbs.
स्पर्श
वर्ण ५ – काला, नीला, लाल, पीला, हरा ।
षट् रस -- खठ्ठा, मीठा, नमकीन, कड़वा, चरपरा, कषायला ।
|
चार आनुपूर्व नरक, लीच, मनुष्य देव
कु
P. XXXIX. Sri C. R. Jain, H. H. D. L.
२ - गति ४, नरक, तियंच, मनुष्य और देव ।
जाति पाँच औदारिक, वैदिक, आहारक, वेदिक, अंगोपांग कार्मारण कुल मे (४+४+४+३ = १७)
निर्मारण कर्म अगोपांग की रचना करता है। बंधन कर्म पाँच प्रकार के हैं- औदारिक वैकियिक अंगोपांग की रचना करता है । आहारक जर कारण ये शरीर का को जुड़ा देता है।
संघात
चोदारिक कार्माण वे शरीर को
रहित रखते हैं।
संस्थान कर्म ६ मयचतुरख ग्योप्रोप परिमण्डल, स्वाति, कुक, वामन, शरीर के आहार को और ऊंचाई को विभाजित
कर देता है।
संहनन वृषभानाच बखगाराच अर्द्धनाराय, कीसक, असम्पाटिका ये ही के बन्धन कार्य को ठीक कर देता है। कुल ये (१७+१+५१-५+६ |- ६=४०)
कठोर, कोमल, इस्का, भारी, ठण्डा, गर्म, स्निग्धा ।
मिलकर (४०+४+६+४६२)
P. XXXIX Sri C. R. Jain, H. H. D. I.
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अगुरुलघु उपघात परघात आतप चार योग पति होती है ।
=
मनोज्ञ अमनोज्ञ उत्छवास बस स्थावर बादर सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त प्रत्मय साधर्म स्थिर अस्थिर शुभ अशुभ शुभ अशुभग सुस्बर दुस्वर प्रायस कीर्ति अवशकीर्ति टीकर दो नन्दुर्गन्ध कुल ६२-२०१३) यहाँ हर कर्म के मांगे नाम कर्म ऐसा समझ लेना चाहिए। अनुपूर्वी नाम कर्म का अर्थ मरणान्तर अथवा पुनर्भव मे आने के पहले अर्थात् विग्रह गति में मरण करने के पहले रहने वाले शरीर आकार के आत्म प्रवेश को रखने वाले कर्म - योग विहायो गति नाम कर्म – यह कर्म आकाश में संचार करने की शक्ति उत्पन्न करा देता है । तीर्थंकर नामकर्म – इस कर्म से जीव को अर्हन्त पद प्राप्त होता है ।
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क्त्व परिणाम ऐसा नहीं कह सकते और मिथ्यात्व भी नहीं कह सकते । सम्यकत्व प्रकृति इस कर्म के उदय से जीव के सम्यकत्व मूल सम्यकत्व उत्पत्ति के नाश होने पर भी उसमें चलने आदि के दोष उत्पन्न हो जाते हैं । इस प्रकार दर्शन मोहनीय कर्म में तीन प्रभेद हैं।
चारित्र मोहनीय - इसके २५ भेद हैं । श्रनन्तानुबंधि क्रोध, मान माया लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ, स्वंज्वलन क्रोध मान, माया, लोभ, ये सोलह कर्मों को कषाय कहते हैं। (४+४ +४+४=१६)
हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री बेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद इन नो भेद को 8 कषाय कहते हैं। ये सोलह कषाय ह कषाय मिलकर के चारित्र मोहनीय कर्म कहलाता है ।
५ - श्रायु कर्म - श्रात्मा को देह रूपी पंजन के मजबूत बंधन में रखने वाले कर्म को ग्रायु कर्म कहते हैं । इसमें नरकायु, तिर्य चायु, मनुष्यायु, देवायु ऐसे चार भेद हैं ।
६ - नाम कर्म - प्रात्मा को नाना प्रकार के शरीर अवयव रूप उत्पन्न करने वाले कर्म को नाम कर्म कहते हैं। इसमें
६३ भेद हैं।
७ - गोत्र कर्म -- इस कर्म में अनादि से चले श्राए हुए प्राचरण स्वरूपी उच्च तथा नीच गोत्र में जन्म होना होता है इसमें दो भेद हैं उच्च तथा नीच ।
८- अन्तराय कर्म - ये कर्म दानादि कार्य में विघ्न करता है। इसमें दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय वीर्यातराय, ऐसे चार भेद हैं।
ज्ञानावरणादि सभी कर्म मिलकर १४८ उत्तर प्रकृति रहते हैं ।
घातिया कर्म - ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, अन्तराय कर्म को घातिया कर्म आदि गुण को वात करते हैं। इन चार कर्मों को जीतने से जीव जिन कहलाता है रहता है।
कहते हैं । ये जीव के सम्यग्चारित्र और उनको संसार का भय नहीं
अघातिया कर्म - वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र, इन चार कर्मों को अघातिया कर्म कहते हैं। ये कर्म जीव के ज्ञानादि अणु जीवों के कर्म को घात नहीं करते हैं। जिनेन्द्र भगवान में यह चारों कर्म रहते हैं। जब भगवान सिद्ध बन जाते हैं तो यह कर्म नष्ट हो जाते हैं ।
बन्ध तत्व - चार प्रकार के होते हैं। ज्ञानावरणीय, कर्म पुद्गल और आत्म प्रदेश दूध और काई के समान रहने को द्रव्य बन्ध कहते हैं
द्रव्य बंघ होने के लिए कारण मिथ्यात्व रागादि रूप ऐसे अशुद्ध चेतना भाव को भाव बंध कहते हैं । ज्ञानावरणादि ८ कर्मों के स्वभाव आत्मा के साथ बंध होने को प्रकृति बंध कहते हैं।
ये जब बंध होता है तब कर्म को आत्म घात करने की शक्ति निर्माण होती है। जब तक कर्म श्रात्मा में रहता है उस अवधि को स्थितिबंध कहते हैं। उदाहरणार्थ मोहनीय कर्म ज्यादा से ज्यादा रहता है तो १७ कीड़ा कोड़ी सागर तक रहेगा और एक अन्तमूर्हत काल तक श्रात्मा के साथ रहता है कर्म के अनुदायक शक्ति को बनाने वाले के लिये प्रनुभाग बंध कहते हैं । प्रात्मा के साथ पहले कर्म के संचार को निर्णय करना ही प्रदेश बंध है ।
मन, वचन, काय, ऐसा योग ही प्रकृति बंध और प्रदेश बंध का कारण होता है । अर्थात् श्रात्म प्रदेश के चलायमान को योग कहते हैं कषाय भाव में कमी ज्यादा होने पर स्थिति और अनुभाग में कभी ज्यादा होती है।
पाक्षिक श्रावक का वर्णन
जिनको जैन धर्म के देव, शास्त्र; गुरु के द्वारा आत्म-कल्याण का स्वरूप वा मार्ग भली भांति ज्ञात तथा निश्चित हो जाने से पवित्रधर्म की तथा श्रावक धर्म ( श्रहिंसादि) की प्राप्ति हो जाती, जिनके मंत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ भावनायें दिन २ वृद्धिरूप होती जाती हैं जो स्थूल सहिंसा के त्यागी हैं ऐसे चतुर्थ गुणस्थानी सम्यग्दृष्टि, पाक्षिक श्रावक कहलाते हैं । इन्हें प्रतादि प्रतिमाओं के धारण करने के अभिलाषी होने से प्रारब्ध संज्ञा भी है। इनके सप्त व्यसनों का त्याग तथा श्रष्ट
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मूलगुण धारण, सातिचार होता है, ये जान-बूझकर प्रतीचार नहीं लगाते, किन्तु बचाने का प्रयत्न करते हैं, तो भी मप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से विवश अतीचार लगते हैं।
पाक्षिक श्रावक आपत्ति आने पर भी पंच परमेष्ठी के सिवाय चक्रश्वरी, क्षेत्रपाल, पद्मावती प्रादि किसी देवी-देवता की पूजा वंदना नहीं करता। रत्मकरंड श्रावकाचार में श्री समंतभद्रस्वामी ने भी सम्यग्यदृष्टि को इनको पूजन-वंदना का स्पष्ट रूप से निषेध किया है।
(नोट) जिन धर्म के भक्त देवों को साधारण महिर जामों जान योचित प्रदर सत्कार पूर्वक यज्ञ (प्रतिष्ठा) आदि कार्यों में उनके योग्य कार्य संपादन करने के लिये सौंपने से सम्यक्त्व' में कोई हानि-बाधा नहीं पा सकती। अब यहां अष्ट मूलगुण और सप्त व्यसन का स्पष्ट वर्णन किया जाता है।
अष्ट मूलगुण कई ग्रन्थों में बड़, पीपल, गूलर (कमर), कठूमर पाकर इन पाँच उदम्बर फलों के (जिनमें प्रत्यक्ष त्रस जीव दिखाई, देते हैं) तथा मद्य, मांस, मधु तीन मकारी के (जो अस जीवों के कलेवर के पिंड हैं) त्याग करने को अष्ट मूलगुण कहा है।
धारण तथा तीन मकार के त्याग को प्रष्ट मूलगुण कहा है। महापुराण में मध की जगह सप्तव्यसन के मूल जुना खेलने की गणना की है। सागारधर्मामृतादि कई ग्रन्थों में मद्य (शराब) मौस, मध. (शहद) इन तीन मकार के त्याग के ३, उपर्युक्त पंच उदम्बर फलों के त्याग का १, रात्रि भोजन के त्याग का नियम वंदना करने का १, जीव दया पालने का १, जल' छानकर पीने का १, इस प्रकार अष्ट मूलगुण कहे हैं। इन सब कहे हये प्रष्ट मलगणों पर जब सामान्य रूप से विचार किया जाता है तो सभी का मत अभक्ष्य, अन्याय मौर नियमन FIIT कराने और धम म लगाने का एक सराखा ज्ञात हाता है। अतएव सबस पाचकह हए त्रिकाल बंदना जी प्रष्ट मलगुणों में इन अभिप्रायों का भली भांति सिद्ध होने के कारण यहां उन्हीं के अनुसार वर्णन किया जाता है।
१. मद्यदोष-मद्य बनाने के लिये, दास्त्र, छुहारे आदि पदार्थ कई दिनों तक सड़ाये जाते हैं, पीछे यन्त्र द्वारा उनसे शराब उतारी जाती है, यह महादुर्गन्धित होती है, इसके बनने में असंख्याते-अनन्त, त्रस-स्थावर जीवों को हिसा होती है। यह मद्य मन को मोहित करती है, जिससे धर्म-कर्म की सुध-बुध नही रहता तथा पच पापी में निश्शक प्रबत्ति होतो कारण मद्य को पंच पाप की जननी (माता) कहते हैं। मद्य पीने से मूर्छा, कम्पन, परिश्रम, पसीना, विपरीतपना, नेत्रों के लाल हो जाने प्रादि दोषों के सिवाय मानसिक एवं शारीरिक शक्ति नष्ट हो जाता है। शराबी धनहान घोर अनि पात्र हो जाता है, शराबी का शरीर प्रतिदिन अशक्त होता जाता है, अनेक राग आ घरते हैं, आय क्षीण होकर के कष्ट भोगता हआ मरता है। प्रत्यक्ष ही देखो! मद्यपी उन्मत्त होकर माता, पुत्री, बहिन आदि की सूधभलकर द्वमा जदवा-सदवा बर्ताव करता है। इस प्रकार मद्यपी स्व-पर को दु:खदाया हाता हुमा, जितन कुछ संसार में साल है, उससे कोई भी व्यसन बच नहीं रहता। एसी दशा में धर्म की शुद्धि तथा उसका सेवन होना सर्वथा असम्भव है। इस लोक में निद्य तथा द:खी रहता है और मरने पर नरक को प्राप्त होकर अति तात्र कष्ट भागता है। वहां उसे संडसियों में मह फाड-फाड़ कर तांबा-शीशा पिलाया जाता है। इस प्रकार मद्य-पान को लोक-परलोक बिगाड़ने वाला जानकर हर भी त्याग देना योग्य है। प्रगट रहे कि चरस, चंडू, अफीम, गांजा, तमाखू, कोकेन मादि नशीली चीज खाना पीना भी मदिरापान के समान धर्म-कर्म नष्ट करने वाली हैं, अतएव मद्य त्यागियों को इनका त्यागना भी योग्य है।
२. मांस दोष-मांस यह त्रस जीवों के वध से उत्पन्न होता है । इसके स्पर्श, प्राकृति, नाम और दुर्गन्ध से ही चित्त में महाग्लानि उत्पन्न होती है । यह जीवों के मूत्र, विष्टा एवं सप्त धातु-उपधातु रूप महा अपवित्र पदार्थों का समूह है। मांस का पिड चाहे सूखा हुआ हो, चाहे पका हुआ हो, उसमें हर हालत में त्रस जीवों की उत्पत्ति होती ही रहती है। मांस भक्षण के लोलपी बेचारे, निरपराध, दीन, मूक पशुओं का वध करते हैं। मांस भक्षियों का स्वभाव निर्दय, कठोर सर्वथा धर्म धारण के योग्य नहीं रहता है। मांस भक्षण के साथ-साथ मदिरापानावि व्यसन भी लगते हैं। मांस भक्षी इस लोक में सामाजिक एवं धर्मपद्धति में निंद्य गिना जाता है, मरने पर नरक के महान दासह दःस्व भोगता है। वहां लोहे के गर्म गोले, संडसियों से
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मुंह फाड़-फाड़ कर खिलाये जाते हैं तथा दूसरे दूसरे नारकीय गृद्धादि मांस भक्षी पशु पक्षियों का रूप धारण कर इसके शरीर को नोचते और नाना प्रकार के दुःख देते हैं । अतएव मांसभक्षण को प्रतिनिध, दुर्गति एवं दुःखों का दाता जान सर्वथा त्याग देना योग्य है।
३. मधु दोष – मधु अर्थात् शहद की मक्खियाँ फूलों का रस चूस चूस कर लातीं उसे उगल कर छते में एकत्र करत और वहीं रहती है, उसी में सन्मूर्छन अण्डे उत्पन्न होते हैं। भील, गौंड आदि निर्दयी नीच जाति के मनुष्य उन छत्तों को तोड़ मधुमक्खियों को नष्ट कर उन ग्रण्डों-बच्चों को बची हुई मक्खियों सहित निचोड़ इस मधु को तैयार करते हैं। यथार्थ यह स जीवों के कलेवर (मांस) का पुज अथवा सत् है । इसमें समय-समय श्रसंख्याते स जीवों की उत्पत्ति होती रहती है । अन्य मतों में भी इसके भक्षण करने का निषेध किया गया है। मधु भक्षण के पाप से नीच गति का बंध और नाना प्रकार के दुखों की प्राप्ति होती है । अतएव उसे सर्वथा त्याग देना योग्य है ।
जिस प्रकार ये तीन मकार अभक्ष्य एवं हिंसामय होने से त्यागने योग्य हैं उसी प्रकार मक्खन भी है। यह महावित मद का उत्पन्न करने वाला और घृणा रूप हैं। तैयार होने पर यद्यपि इसमें अन्तर्मुहुर्त के पीछे त्रस जीवों की उत्पत्ति होना शास्त्रों में कहा है, तथापि विकृत होने के कारण आचार्यों ने तीन मकार के समान इसे भी अभक्ष्य और सर्वथा त्यागने योग्य कहा है ।
४. पंख उदुम्बरकल दोष—जो वृक्ष के काठ को फोड़कर फलें, वे उदुम्बर फल कहलाते हैं । यथा : - ( १ ) गूलर या ऊमर (२) वट या बड़, (३) प्लक्ष या पाकर, (४) कठूमर या अंजीर, (५) पिप्पल या पीपल । इन फलों में हिलते, चलते, उड़ते, सैकड़ों जीव श्रंखों से दिखाई देते हैं। इनका भक्षण निषिद्ध, हिंसा का कारण और श्रात्म परिणाम को मलिन करने बाला है । जिस प्रकार मांसभक्षी के दया नहीं, मदिरापायी के पवित्रता नहीं, उसी प्रकार पंच उदुम्बर फल के खाने वाले के अहिंसा धर्म नहीं होता, अतएव इनका भक्षण त्याग देना योग्य हैं। इनके सिवाय जिन वृक्षों में दूध निकलता हो ऐसे क्षीरवृक्षों के फलों का श्रथवा जिनमें त्रस जीवों की उत्पत्ति होती हो, ऐसे सभी फूलों का सुखी' गोली आदि सभी दशाओं में भक्षण सर्वथा तजना योग्य है । इसी प्रकार सड़ा-धुना अनाज भी अभक्ष्य है, क्योंकि इसमें भी सजीव होने से मांस भक्षण का दोष आता है
जीवों की हिंसा होती है, इसी कारण शास्त्रों में रात्रि को दीपक के प्रकाश में भोजन किया जाय
५. रात्रि भोजन दोष - दिन को भोजन करने की अपेक्षा रात्रि को भोजन करने में राग-भाव की उत्कटता, हिंसा पौर निर्दयता विशेष होती है। जिस प्रकार रात्रि को भोजन बनाने में असंख्याते रात्रि भोजियों को निशाचर की उपमा दी गई है। यहाँ कोई शंका करे, कि तो क्या दोष है? उसका समाधान — दीपक के प्रकाश के कारण बहुत से पतंगादि सूक्ष्म तथा बड़े-बड़े कीड़े उड़कर पाते और भोजन में गिरते हैं। रात्रि भोजन में थरोक ( अनिवारित) महान् हिंसा होती है। रात्रि में अच्छी तरह न दिखने से हिंसा (पाप) के सिवाय शारीरिक नीरोगता में बहुत हानि होती है। मक्खी खा जाने से वमन हो जाती है, कीड़ा खा जाने से पेशाब में जलन होती, केश भक्षण से स्वर का नाश होता, ज्या खा जाने से जलोदर रोग होता, मकड़ी भक्षण से कोढ़ हो जाता यहाँ तक कि विषमरा से भक्षण के आदमी मर तक जाता है।
धर्म संग्रह श्रावकाचार में रात्रि भोजन प्रकरण में स्पष्ट कहा है कि रात्रि में जब देव कर्म, स्नान, दान, होम कर्म नहीं किये जाते (वर्जित) हैं तो फिर भोजन करना कैसे सम्भव हो सकता है ? कदापि नहीं वसुनन्दि श्रावकाचार में कहा है कि रात्रि भोजी किसी भी प्रतिमा का धारक नहीं हो सकता। इसी कारण यह रात्रि भोजन उत्तम जाति, उत्तम धर्म, उत्तम कर्म को दूषित करने वाला, नीच गति को ले जाने वाला जान सर्वथा त्यागने योग्य है ।
६. वेव वन्दना - बीतराग सर्वज्ञ हितोपदेशी श्री महंत देव के साक्षात् वा प्रतिबिम्ब रूप में, सच्चे चित्त से अपना पूर्ण पुण्योदय समझ पुलकित, श्रानन्दित होते हुये दर्शन करने गुणों के चितवन करने तथा उनको श्रादर्श मान अपने स्वभाव, विभावों का चितवन करने से सम्यक्त्व की निर्मलता, धर्म को श्रद्धा चित्त की शुद्धता धर्म में प्रीति बढ़ती है । इस देव वंदना का अन्तिम
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फल मोक्ष है, अतएव मोक्षरूपी महानिधि को प्राप्त करने वाली यह देववन्दना अर्थात् जिनदर्शन पूजनादि प्रत्येक धर्मच्छ पुरुष को अपने कल्याण के निमित्त योग्यतानुसार नित्य करना चाहिये। तथा शक्ति एवं योग्यता के अनुसार पूजन की सामग्री एक द्रव्य अथवा प्रष्ट द्रव्य नित्य अपने घर से ले जाना चाहिये।
जो जिनेन्द्र पूजे फूलन सौं, सुर नैनन पूजा तिस होय,
बंद भावसहित जो जिनवर, बंजनीक त्रिभुवन में सोय । किसी किसी ग्रन्थ में प्रातः, मध्यान्ह और संध्या तीनों काल देव वंदना कही है सो सन्ध्याबन्दन से कोई रात्रि पूजन न समझ लें, क्योंकि रात्रि पूजन का निषेध धर्म संग्रह बावकाचार वसुनन्दिधावकाचारादि ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से किया है तथा प्रत्यक्ष हिंसा का कारण भी है इसलिये सन्ध्या के पूर्वकाल में यथाशक्ति पूजन करना ही सन्ध्यावंदन है । रात्रि को पूजन का बारम्भ करना अयोग्य और अहिंसामयी जिनधर्म के सर्वथा विरुद्ध है अतएव रात्रि को केवल दर्शन करना ही योग्य है।
७. जीत दया-सदा सव प्राणी अपने अपने प्राणों की रक्षा चाहते हैं । जिस प्रकार अपना प्राण अपने को प्रिय है उसी प्रकार किन्द्रीय से लेकर वन्द्रिमा पस्त सभी प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्रिय हैं। जिस प्रकार अपना जरासा भी कष्ट नहीं सह सकते, उसी प्रकार वृक्ष, लट, कोड़ी, मकोड़ो, मक्खी, पशु, पक्षी, मनुष्यादि कोई भी प्राणी दुःख भोगने की इच्छा नहीं करते और न सह सकते हैं। अतएव सब जीवों को अपने समान जानकर उनको जरा भी दुःस्व कभी मत दो, कष्ट मत पहंचायो सदा उन पर दया करो । जो पुरुष दयावान हैं, उनके पवित्र हृदय में धर्म की क्षति कदापि नहीं हो सकती ऐसा जान कर ही पवित्र धर्म ठहर सकता है, निर्दयी पुरुष धर्म के पास नहीं उनके हृदय में धर्म सदा सर्व जीवों पर दया न करना योग्य है। दया पालक के झूठ चोरा, कुशालादि पच पापा का त्याग सहज ही हो जाता है।
८. अलगालन-प्रगट रहे कि अनछने जल की एक बूंद में असंख्यात छोटे छोटे त्रस जीव होते हैं । अतएव जीव' दया के पालन तथा अपनी शारोरिक आरोग्यता के निमित्त जल को दोहरे छन्ने से छानकर पीना यगेय है। छन्ने का कपड़ा स्वच्छ सफेद साफ और गाढ़ा हो । खुरदरा, छेददार, पतला पुराना, मैला फटा तथा प्रोढ़ा पहिना कपड़ा छन्ने के योग्य नहीं। पानी छानते समय छन्ने में गुड़ी न रहे । छन्ने का प्रमाण सामान्य रीति ये शास्त्रों में ३६ अंगुल लम्बा और २४ अंगल चौड़ा है, तथा बर्तन के मुंह से तिगुना दुहरा छन्ना होना चाहिए। छन्ने में रहे हुए जीव' अर्थात जीवाणी (बिलछानी) रक्षापूर्वक उसी जलस्थान में क्षेपे, जिसका पानी भरा हो । तालाब, बावणी, नदो यादि जिसमें पानी भरने वाला जल तक पहुंच जाता है जीवाणी डालना सहज है, कुएं में जीवाणी बहुधा ऊपर से डाल दी जातो है सो या तो वह कुएँ में दोवालों पर गिर जाती है अथवा कदाचित पानी तक भी पहुंच जाय तो उसमें के जीव इतने ऊपर ने गिरने के कारण मर जाते हैं, जिसमे जोवाणी डालने का अभिप्राय अहिंसा धर्म नही पलता । अतएव भंवर कड़ीदार लोटे से कुएं के जल में जीवाणी पहुंचाना योग्य है।
पानी छानकर पीने से जीवदया पलने के शिवाय शरीर भी निरोगी रहता है । वद्य तथा डाक्टरों का भी यही मत है । अनछना पानी पीने से बहुधा मलेरिया ज्वर, नहरुमा प्रादि दुष्ट रोगों की उत्पत्ति होती है । इन उपर्य क्त हानि-लाभों को विचार कर हरएक बुद्धिमान पुरुष का कर्तव्य है कि शास्त्रोक्त रीति से जल छानकर पीवे । उसको मर्यादा दो घड़ी अर्थात ४५ मिनट तक होती है। इसके बाद अस जीव उत्पन्न हो जाने से वह जल फिर अनछने के समान हो जाता है।
इन प्रष्ट मूल गुणों में देव दर्शन, जलछानन और रात्रि भोजन त्याग ये ३ गुण तो ऐसे हैं जिनसे हर एक सज्जन पुरुष जैनियों के दयाधर्म की तथा धर्मात्मापने की पहिचान कर सकता है । अतएव प्रात्महितेच्छु-धर्मात्मानों को चाहिए कि जीवमात्र पर दया करते हुए प्रमाणिकता पूर्वक बर्ताव करके पवित्र धर्म की सर्व जीवों में प्रवृत्ति करें।
सप्त व्यसन दोष वर्णन जहाँ अन्याय रूप कार्य को बार-बार सेवन किये बिना चैन नहीं पड़े, ऐसा शौक पड़ जाना व्यसन कहलाता है अथवा व्यसन नाम आपत्ति (बड़े कष्ट) का है इसलिए जो महान दुःख को उत्पन्न करे, अति विकलता उपजावे तो व्यसन हैं (मलाचार)
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पुनः जिसके होने पर उचित अनुचित के विचार से रहित प्रवृत्ति हो (स्वाद्वादमजरी) वह व्यसन कहलाता है।
स्पष्ट' रहे कि जुआ खेलना, मांसभक्षण करना, मद्यपान करना, वेश्या सेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना, पर स्त्री सेवन, ये सात ऐसे प्रति अन्याय रूप और लुभावने कार्य हैं कि एक बार सेवन करने से इन में प्रति यासक्तता हो जाती है जिससे इनके सेवन किये बिना चैन नहीं पड़ती रात दिन इन्हीं में चित्त रहता है। इनमें उलझना तो सहज पर सुलझना महा कठिन है, इसी कारण इनकी शास्त्रों में व्यसन संज्ञा है यद्यपि चोरी पर स्त्री को, पंच पापों में भी कहा है, तथापि जहाँ इन पापों के करने की ऐसी टेव' पड़ जाय कि राजदण्ड लोकनिन्दा होने पर भी न छोड़े जावें तो व्यसन है और जहाँ कोई कारण विशेष से किंचित लोकनिंद्य वा गृहस्थ धर्म विरुद्ध से कार्य बन जाय सो पाप है।
__यद्यपि इन व्यसनों का नियमपूर्वक त्याग सम्यक्त्व होने पर पाक्षिक अवस्था में होता है, तथापि ये इतने सारे कारक ग्लानि रूप और दुखदाई हैं कि इन्हें उच्चजातीय सामान्य गृहस्थ भी कभी सेवन नहीं करते, इनमें लवलीन मासा पुरुषों को सम्यक्त्व होना तो दूर रहे किन्तु धर्म रुचि, धर्म की निकटता भी होना दुस्साध्य है । ये सप्त व्यसन वर्तमान में नष्ट भ्रष्ट करने वाले और अन्त में सप्त नरकों में ले जाने वाले दूत हैं। इनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है।
१. जुना खेलना-जिसमें हार जीत हो, ऐसे चौपड़ गंजफ़ा मूठ, नक्की आदि खेलना सो जुमा है । यह जुमा सप्त व्यसनों का मूल सर्व पापों का स्थान है। जिनके धन की अधिक तृष्णा है वे जुमा खेलते हैं। जुमारी नीच जाति के साथ भी राज्य के भय से छिपकर मलिन प्रौर शून्य स्थानों में जुआ खेलते हैं अपने विश्वासपात्र मित्र भाई आदि से भी कपट करते हैं। हार जीत दोनों दशाओं में (चाहे धन सम्बन्धी हो चाहे बिना धन सम्बन्धी) अति व्याकुल परिणाम रहते है। रात दिन इसकी मर्छा रहती है। ऐसे लोगों से न्याय पूर्वक अन्य कोई रोजगार धंधा हो नहीं सकता । जीतने पर मद्यपान मांसभक्षण, बेश्यान नादि निंद्य कर्म करते और हारने पर चोरी छल झठ प्रादि का प्रयोग करते हैं। जुना खेलने बालों से कोई दुष्कर्म बचा नहीं रहता। इसी कारण जुए को सप्त व्यसन का राजा कहा है । सट्टे (फटाके) का धंधा, होड़ लगाकर चौपड़ शतरंज प्रादि खेलना यह सब जुपा ही का परिवार है जुभारी पुत्र पुत्री, स्त्री हाट महल, दुकान आदि पदार्यों को जुए पर लगाकर घड़ी भर में दरिद्री नष्ट भ्रष्ट बन बैठता है । इसके खेलमात्र से पांडवों ने जो दुख उठाया सो जगत प्रसिद्ध है।
२. मांस ३ मद्य–इनका वर्णन ३ मकार में हो चुका है । मांस भक्षण से बकराजा और मादक जलमात्र पीने से यादव अति दुःखी और नष्ट भ्रष्ट हुए।
४. वेश्या सेवन-जिस अविवेकिनो ने पैसे के प्रति लालच से वेश्यत्ति अंगीकार कर अपने शरीर को अपनी इज्जत प्राबरू को, अपने पतिव्रत धर्म को नीच लोगों के हाथ बेच दिया ऐसो बेश्या का सेवन महानिंद्य है। यह पैसे की स्त्री, इसके पतियों की गितनी नहीं, रोगी घर, सब दुर्ग णों की रानी है। मांस मदिरा जुमा प्रादि सब प्रकार के दुर्व्यसनों में फसा कर अपने भक्तों को कष्ट आपदा रोगों का घर बनाकर अन्त में निर्धन दरिद्री अवस्था में मरण प्राय करके छोड़ती है । इसके सेवन करने वाले महानीच, घिनावने स्पर्श करने योग्य नहीं। जिनको देश्या सेवान की ऐसी लत पड़ जाती है कि वे जाति पाँति धर्मकर्म की बात तो दूर ही रहे किन्तु मरण भी स्वीकार कर लेते, परन्तु व्यसन को छोड़ना स्वीकार नहीं कर सकते । जो लोग अज्ञानतावश वेश्याव्यसन में फंस जाते हैं, उनकी गृहस्थी, धन, इज्जत, आबरू, धर्म कर्म सब नष्ट हो जाते हैं और वे परलोक में कुगति को प्राप्त होते हैं । इस व्यसन से चारुदत्त सेठ अति विपत्तिग्रस्त हुए थे, यह कथा पुराण प्रसिद्ध है।
५. शिकार बेचारे निरपराधी, भयभीत, जंगलवासी पशु पक्षियों को अपना शौक पूरा करने के लिये या कौतुक निमित्त मारना महा अन्याय और निर्दयता है। गरीब, दोन, अनाथ की रक्षा को करना बलवानों का कर्तव्य है । जो प्रजा की निस्सहाय जीवों की घात से, कष्ट से रक्षा करे, सो ही सच्चा राजा तथा क्षत्रिय है। यदि रक्षक की भक्षक हो जाय तो दीन अनाथ जीव किस से फरियाद करें। ऐसा जानकर बलवानों को अपने बल का प्रयोग ऐसे निध, निर्दय और दृष्ट कार्यो में करना सर्वथा
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अनुचित है। इस शिकार दुव्यसन की ऐसी खोटी लत है कि एक बार इनका चसका पड़ जाने से फिर वही वहीं दिखाई देता है। हर समय इस व्यसन में प्राण जाने का संकट उपस्थित रहता है। जो लोग इस व्यसन को सेवन कर वीर बनना चाहते हैं वे वीर नहीं, किन्तु धर्महीन अविवेकी हैं। वे इस लोक में निंद्य गिने जाते हैं और परलोक में कुगति को प्राप्त होते हैं शिकार व्यसन के कारण ब्रह्मदत्त राजा राज्य भ्रष्ट होकर नरक गया ।
चोरी-पराई बस्तु भूली-बिसरी रक्खी हुई उसकी आज्ञा बिना ले जाना, चोरी है। चोरी करने में प्रासक्त हो जाना चोरी व्यसन कहलाता है, जिनको चोरी का व्यसन पड़ जाता है, वे धन पास होते हुए भी महाकष्ट प्रापदा प्राते हुये भी चोरी करते हैं। ऐसे पुरुष राजदण्ड का दुःख भोग निन्दा एवं कुगति के पात्र बनते हैं। चोरी करने से शिवभूति पुरोहित कष्ट पापदा भोग कर कुगति को प्राप्त हुआ।
७. परस्त्री सेवन–देव, गुरु, धर्म, और पंचों को साक्षी पूर्वक पाणिग्रहण की हुई स्वस्त्री के सिवाय अन्य स्त्री से संयोग (संभोग) करने में आसक्त हो जाना पर स्त्री मेवन व्यसन है। पर स्त्री सेवी धर्म, धन-यौवनादि उत्तम पदार्थों को गंवाते हैं. राजदण्ड, जातिदण्ड, लोकनिन्दा को प्राप्त हो, नरक में जाकर लोहे की तप्त पुतलियों से मिटाये जाते हैं। जैसे जंठन खाकर कूकर-काग प्रसन्न होते हैं वैसे ही पर स्त्री लंपटी की दशा जानो। इस व्यसन की इच्छा तथा उपाय करने मात्र से रावण नरक गया और लोक में अब तक उसका अपयश चला पाता है।
ये सप्त व्यसन संसार परिभ्रमण के कारण रोग, क्लेश, बध बंधनादि के कराने वाले, पाप के बीज, मोक्ष मार्ग में विघ्न करने वाले हैं। सर्व प्रौगुणों के मूल, अन्याय की मूर्ति तथा लोक-परलोक बिगाड़ने वाले हैं। जो सप्त व्यसनों में रत होता है उसके विशुद्ध लब्धि अर्थात् सम्यकत्व धारण होने योग्य पवित्र परिणामों का होना भी सम्भव नहीं, क्योंकि उसके परिणामों में अन्याय से अरुचि नहीं होती। ऐसी दशा में शुभ कार्यों से तथा धर्म से रुचि कैसे हो सकती है ? इसलिये प्रत्येक स्त्री-पुरुष को इन सप्त व्यसनों को सर्वथा तजकर शुभ कार्यों में रुचि करते हुए नियमपूर्वक सम्यवद्धानी बनना चाहिये । और गहस्थ धर्म के उपर्युक्त अष्ट मूलगुण धारण करना चाहिये।
चारित्रधारक गृहस्थ के ११ निलय यानि श्रेणी (प्रतिमाये) हैं।
दर्शन प्रतिमा संसार तथा शरीर, विषय भोगों से विरक्त गृहस्थ जब पाँच उदुम्बर फल (बिना फल के ही जो फल होते हैं। १ बड़, पीपल, ३ पाकर, ४ ऊमर, ५ कठ्मर भक्षण के त्याग तथा ३ मकार (मद्यपान, मांस भक्षण, मध भक्षण) के त्याग के साथ सम्यग्दर्शन (बीतराग देव, जिन वाणी, निर्ग्रन्थ साधु की श्रद्धा) का धारण करना दर्शन प्रतिमा है।
व्रत प्रतिमा हिंसा, असत्य, चोरी कुशील और परिग्रह, इन पांच पापों के स्थूल त्याग रूप अहिंसा, सत्य, पचौर्य, ब्रह्मचर्य परियड परिमाण ये पांच प्रणबत, दिखत, देशव्रत, अनर्थदण्ड प्रत, ये तीन गुणव्रत, सामायिक प्रौषधोपवास भोगोपभोग परिमाण अतिथि संविभाग ये ४ शिक्षाव्रत (५+३+४-१२) हैं। इन समस्त १२ व्रतों का माचरण करना व्रत प्रतिमा है।
संकल्प से (जान बूझकर) दो इन्द्रिय प्रादि स जीवों को न मारना अहिंसा अणव्रत है। राज दण्डनीय, पंचों द्वारा पहनीय, असत्य भाषण न करना सत्य अणुव्रत है। सर्व साधारण जल मिट्टी के सिवाय अन्य व्यक्ति का कोई भी पदार्थ बिना पोन लेना. अचौर्य प्रणवत है। अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय शेष सब स्त्रियों से विषय सेवन का त्याग ब्रह्मचर्य प्रणव्रत है। सोना, चांदी, वस्त्र बर्तन, गाय आदि पशु धन, गेहू आदि धान्य, पृथ्वी, मकान, दासी (नौकरानी), दास (चाकर) तथा और
परिणत पदार्थों को अपनी आवश्यकतानुसार परिमाण करके शेष परिग्रह का परित्याग करना परिग्रह परिमाणवत है। पंच पापों का पांशिक त्याग होने से इनको अणुव्रत कहते हैं।
पर्व, परिचम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य तथा ऊध्वं (पृथ्वी से ऊपर आकाश) और प्रधः (पृथ्वी से नीचे) इन दस दिशामों में आने जाने की सीमा (हद) जन्म भर के लिये करना "दिग्नत" है।
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दिग्नत के भीतर कुछ नियत समय तक आवश्यकतानुसार छोटे क्षेत्र की मर्यादा करना देशवत है। जिन क्रियानों से बिना प्रयोजन व्यर्थ में पाप-अर्जन होता है उन कार्यों का त्याग करना अनर्थ दण्ड व्रत है।
नियत समय तक पंच पापों का त्याग करके एक मासन से बैठकर या खड़े होकर सबसे रागद्वेष छोड़कर, आत्म चिन्तन करना बारह भावनाओं का चिन्तबन करना, जाप करना, सामायिक पाठ पढ़ना, सामायिक है।
अष्टमी और चतुर्दशी के दिन समस्त प्रारम्भ परिग्रह को छोड़कर खाद्य, स्वाद्य, लेह य, पेय इन चारों प्रकार के पाहार का त्याग करना तथा पहले और पीछे के दिन (सप्तमी, नवमी त्रयोदशी, पूर्णिमा) प्रोषध (एकाशन एक बार भोजन) करना प्रोषधोपवास है।
भोग्य (एक बार भोगने योग्य भोजन, लेल प्रादि पदार्थ) तथा उपभोग्य (अनेक बार भोगने योग्य पदार्थ वस्त्र, आभूपण, मकान, सवारी आदि) पदार्थों का अपनी आवश्यकता अनुसार परिमाण करके शेष अन्य सबका त्याग करना भोगोपभोग परिमाण व्रत है।
अपने यहाँ आने की तिथि (प्रतिपदा द्वितीया आदि) जिनकी कोई नियत नहीं होती, ऐसे मुनि, ऐलक, अल्लुक आदि अतिथि व्रती पुरुपों को भक्ति भाव से तथा दीन-दुःखी दरिद्रों को करुणा भाव से साधर्मो गृहस्थों को वात्सल्य भाव से, भोजन कराना, ज्ञान, दान, पौषध दान तथा अभय दान करना अतिथि संविभाग व्रत है । व्रतों का पालन करना व्रत प्रतिमा है।
सामायिक प्रतिमा निर्दोष (अतिचार सहित) प्रात:, दोपहर और सायंकाल कम से कम दो-दो घड़ी (२४ मिनट को एक घड़ी) तक नियम से सामायिक करना, सामायिक प्रतिमा है। सामायिक का मध्यम समय ४ घड़ी और उत्तम समय ६ घड़ी है।
रागद्वेष आदि विकार भाव न आने देकर सबमें समता (समान) भाव रखना सामायिक है । विषय भेद से उसे १ नाम, २ स्थापना, ३ द्रव्य, ४ क्षेत्र, ५ काल, प्रौर ६ भाव, छ: भेद रूप माना गया है।
सामायिक करते समय किसी भी अच्छे नाम से राग न करना, बुरे नाम से द्वषन करना, दोनों में समभाव रहना नाम सामायिक है।
सामायिक के समय किसी सुन्दर चित्र मूर्ति ? स्त्री पुरुष के चित्र, मूर्ति, प्रतिमा आदि पर राग भाव चिन्तवन न करना असुन्दर चित्र मादि के लिए द्वष भाव हृदय में न माने देना, समता भाव रखना स्थापना सामायिक है।
इष्ट अनिष्ट चेतन अचेतन पदार्थों में द्वेष भावना तथा हर्ष भावना न लाकर सामायिक के समय समताभाव रखना द्रव्य सामायिक है।
सामायिक काल में शुभ, मनोहर, रमणीक क्षेत्रों (स्थानों) में राग भाव हृदय में न माने देना और अशुभ स्थानों से द्वेष भाव न आने देना, साम्यभाव रखना क्षेत्र सामायिक है।
शुभ अशुभ कालों के विषय में सामायिक के समय राग द्वेष भाव उत्पन्न न होने देना काल सामायिक है।
सामायिक के समय क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष काम, भय, शोक, आदि दुर्भाव उत्पन्न न होने देना भाव सामायिक है।
सामायिक करने के लिए प्रकार की शुद्धि का ध्यान रखना भी आवश्यक है। वे हैं क्षेत्र, काल, आसन, मन, वचन, काय और विनय ।
मन्दिर, धर्मशाला, बाग, पर्वत, नदीतट, बन आदि कोलाहल रहित तथा जीव-जन्तु आदि रहित स्थान होना क्षेत्र शुद्धि है।
तीन घड़ी रात्रि का अन्तिम समय और तीन धड़ी सूर्योदय समय प्रातःकाल, बारह बजे दिन से तीन बड़ी पहले और पोछे ६ घडी तक एवं तीन घड़ी दिन का अन्त समय में सामायिक के लिए उपयुक्त है यह काल शुद्धि है।
पद्यासन, खड्गासन, मादि दृढ़ ग्रासान में स्थिर होकर चटाई, तख्त शिला पर निश्चल रूप से सामायिक करना मासन
मन को दुर्भावना से शुद्ध रखना मन शुद्धि है।
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सामायिक पाठ, मंत्र आदि के उच्चारण के सिवाय अन्य वचन न बोलना मौन रहना बचन शुद्धि है। हाथ पैर धोकर या स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनना आदि काय शुद्धि है। देव, शास्त्र, गुरु, चैत्य, चैत्यालय प्रादि के लिये विनय भावना रखना विनय शुद्धि है।
सामायिक करने की विधि सबसे पहले पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर मुख करके खड़ा हो फिर नौ बार णमोकार मन्त्र पढ़कर ढोक दे (दंडवत नमस्कार करें)। तदनन्तर उसी तरह खड़े होकर बार णमोकार मन्त्र पढ़कर तीन पावर्त (दोनों जुड़े हये हाथों को बांयी ओर से दाहिनी पोर तीन बार घुमाना) और एक शिरोनति (नमस्कार) करे। तत्पश्चात् दाहिने हाथ को पोर खड़े घम जावे और वार णमोकार मन्त्र पढ़े फिर तीन पावर्त, एक शिरोनति करे। इसके बाद दाहिने हाथ की ओर घम जावे, उस ओर भी बार णमोकार मन्त्र पढ़कर ३ पावर्त, १ शिरोनति करे, तत्पश्चात् दाहिनी ओर घमकर भी बार णमोकार मन्त्र पढ़ कर ३ावर्त, एक शिरोनति करे। यह सब कर लेने के बाद उसी पूर्व या उत्तर दिशा की ओर खड़े होकर या बैठकर सामायिक करे।
सामायिक करते समय अपने मन को एकाग्र करे, प्रात्म चिन्तवन करे कि मैं निरंजन, निर्विकार, सच्चिदानन्द रूप हं. अर्हत सिद्ध भगवान का रूप मेरे भीतर भी है, कर्म का पर्दा हटाते ही मेरा वह शुद्ध रूप प्रगट हो जायेगा, संसार में मेरा कोई भी पदार्थ नहीं, मैं सबसे अलग हैं, सब पदार्थ मुझसे जुदे हैं, संसार में मेरा न कोई मित्र है, न शत्रु समस्त जीवों के साथ मेरा समता भाव है। इत्यादि।
जब तक चित्त ऐसे मात्मचिन्तवन में ठहरे तब तक ऐसा चिन्तवन करता रहे। फिर श्री अमिति गति प्राचार्य-रचित "सत्वेषु मंत्री" आदि ३२ श्लोकों वाला संस्कृत भाषा का सामायिक पाठ पढ़े। प्रथवा "काल अनन्त भ्रम्यो इस जग में' आदि भाषा सामायिक पाठ पढ़े। उसके बाद णमोकार मादि किसी मन्त्र की जाप देवे । जाप के लिये-३५ अक्षरों का णमोकार मन्त्र, १७ अक्षरों का "अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यो नमः, ६ अक्षरों का परहन्तसिद्ध, ५ अक्षरों का असिग्राउसा, ४ अक्षरों का मरहन्त, दो अक्षरों का मन्त्र सिद्ध तथा एक अक्षर का मन्त्र ॐ है। इसके सिवाय और भी अनेक मन्त्र माला फेरने के लिये हैं। जाप देकर समय और सुविधा हो तो भक्तामर आदि पांच स्त्रोत्र, स्वयम्भूस्त्रोत्र, का या एक स्त्रोत्र का पाठ कर ले। अन्त में उसी स्थान में कायोत्सर्ग (हाथ नीचे लम्बे करके निश्चल' खड़ा होना) के रूप में खड़े होकर बार णमोकार मन्त्र पढ़े और ढोक देकर नमस्कार (दण्डवत) करे।
प्रोषध प्रतिमा प्रत्येक अष्टमी तथा चतुर्दशी को सब प्रारम्भ परिग्रह छोड़कर मन्दिर या धर्मशालादि एकान्त शान्त स्थान में आहार पान छोड़कर धर्मध्यान करे, कोई अतिचार न लगने दे। अष्टमी को प्रोषधोपवास करना हो तो सप्तमी को एकासन करे, अष्टमी को उपवास करे और नवमी को दोपहर पीछे भोजन करे। इस तरह सप्तमी के प्राधे दिन के २ पहर रात के ४ पहर, प्रष्टमी दिन रात के ८ पहर और नवमी को दोपहर सब १६ पहर (४८ घंटे) तक खान पान का त्याग करना चाहिये । १६. पहर का प्रोषधापवास उत्कृष्ट है। १२ पहर का मध्यम, (सप्तमी की रात्री के ४ पहर अष्टमी के दिन रात आठ पहर धर्मध्यान से बिताना) है और न पहर का (प्रष्टमी दिन रात के पाठ पहर धर्मध्यान में व्यतीत होना) जघन्य है।
इसमें कोई अतिचार न लगाना चाहिये। दूसरी प्रतिमा का प्रोषधोपवास शिक्षाक्त के रूप में होता है उसमें प्रतिचारों का त्याग नहीं होता। चौथी प्रतिमा में प्रतिचारों का त्याग होता है।
सचित्त त्याग प्रतिमा जीव सहित पदार्थ को सचित्त कहते हैं। जघन्य धावक के भी दो इन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा तथा उनके मांस भक्षण का त्याग होता है। स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग चौथी प्रतिमाधारी तक के स्त्री पुरुषों के नहीं होता। इसी कारण वे छने हुये सचित्त जल (कच्चा पानी) तथा सचित्त वनस्पति (शाक फल आदि) खाते हैं। परन्तु पाँचवी प्रतिमा
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जल में जीव वर्तमान वैज्ञानिकों को सम्मति जल छान कर पीना परम धर्म है।
अहिंसा परमो धर्मः पाठकवृन्द जो ऊपर चित्र देख रहे हैं, वह जल में रहने वाले सुक्ष्मतर ऐसे बारीक जीवों का है जिनको कोई भी मनुष्य साधारण आँखों से नहीं देख सकता। वर्तमान समय के सुप्रसिद्ध विज्ञानवेत्ता कैप्टन स्ववोसंबी" ने इनको दूरबीन (सूक्ष्म दर्शक यन्त्र) से देखकर इनका फोटो लिया है उसी की ययार्थ नकल ऊपर दी गई है। आपने इन सूक्ष्म जन्तुओं की संख्या ३६४५० बतलाई है। यह संख्या पानी के एक सबसे छोटे बिन्दु में होने वाले जीवों की है 1 इलाहाबाद गवर्मेट प्रेस से एक पुस्तक 'सिद्ध पदार्थ विज्ञान" नाम की प्रकाशित हुई है उसमें कंप्टन साहब का पूरा मत दिया है । तथा उपयुक्त फोटो भी वहां दिया है ! अनेक वैज्ञानिकों का अब यह कहना है कि पानी हमेशा छानकर ही पीना चाहिये। क्योंकि बिना छाने पानी पीने से कभी-कभी सूक्ष्म जन्तु पेट में जाकर अनेक भयानक बीमारियाँ उत्पन्न कर देते हैं। अतः इन विषेले रोगोत्पादक जन्तुओं के विष से बचने के लिये छानकर पानी पीना परममावश्यक है। महाराज मनुजी ने पानी छानकर पोने का हो -उपदेश दिया है। यथा-- दृष्टि पूतं न्यसेत्पाद, वस्त्र पूतं जलं पिवेत् ।
मनुस्मृति ०६।४६ अर्थात्-जमीन को देखकर चलो और वस्त्र से छानकर पानी पियो। अन्यथा सूक्ष्म जीवों को मारने के अपराधी बनोगे। श्री स्वामी दयानन्दजी ने भी सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास में पानी छानकर पीने का उपदेश दिया है। प्रतः धाभिक और वैज्ञानिक सभी विद्वानों को सम्मति में पानी छानकर पीना परम कर्तव्य है।
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ग्रहण करने पर उस कच्चे जल का पानी और सवित्त (सजाव' हरी) बनस्पति खाने का त्याग कर देते हैं।
जो जल सचित है वह गर्म कर लेने पर ४ पहर तक अचित्त रहता है और प्रौटा हुमा (खोला हुमा) जल ८ पहर (२४ घंटे) तक अचित्त रहता है । छने हुये जल में बारीक राख या पिसी हुई लौंग, इलायचो, मिर्च आदि चाजें मिलाकर जल का रस, रूप, गन्ध बदल लेने पर दो पहर (छह घंटे तक जल अचित्त (जल कायिक जीव रहित) रहता है, तदनन्तर सचित्त हो जाता है।
शाक फल आदि सचित्त (हरित) वनस्पति सूख जाने पर या अग्नि से पक जाने प्रादि के बाद प्रचित (प्रासुक-वनस्पति काय रहित) हो जाती है।
इस प्रकार पाँचवीं प्रतिमाधारी को अचित्त जल पीना चाहिये तथा चित्त बनस्पति खानी चाहिये । जोभ की लोलपता हटाने तथा जीव-रक्षा की दृष्टि से पांचवीं प्रतिमा का आचरण है।
रात्रि भोजन त्याग खाद्य (रोटी, दाल आदि भोजन), स्वाद्य (मिठाई श्रादि स्वादिष्ट वस्तु) लेह्य (रबड़ी, चटनी आदि चाटने योग्य चीजें) पेय (दूध, पानी, शर्बत प्रादि पीने की चीज), इन चारों प्रकार के पदार्थों का रात्रि के समय कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग करना रानि भोजन त्याग प्रतिमा है।
सर्यास्त से सूर्योदय तक रात में भोजन पान न स्वयं करना, न किसी दूसरे को भोजन कराना पीर न रात में भोजन करने वाले को उत्साहित करना, सराहना करना, अच्छा समझना इस प्रतिमाधारी का प्राचरण है। यदि अपना छोटा पुत्र भूख से रोता रहे तो भी यह प्रतिमाधारो व्यक्ति न उसको स्वयं भोजन करावेगा, न किसो को उसे खिलाने को प्रेरणा करेगा या न कहेगा।
ब्रह्मचर्य प्रतिमा काम सेवन को तीन राग का, मन की अशुद्धता का तथा महान् हिंसा का कारण समझकर अपनी पत्नी से भी मैथुन सेवन का त्याग कर देना ब्रह्मचर्य नामक सातवीं प्रतिमा है। इस प्रतिमा का धारक नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाता है।
नौ बाड़ जैसे खेत में उगे हुये धान्य आदि पशुत्रों से खाने-बिगाड़ने से बचाने के लिये खेत के चारों ओर काँटों की बाड़ लगा दी जाती है उसी प्रकार ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य सुरक्षित रखने के लिये निम्नलिखित ६ नियमों का पाचरण करना आवश्यक है, इनको ब्रह्मचर्य को सुरक्षा करने के कारण बाड़ कहते हैं।
१. स्त्रियों के स्थान में रहने का त्याग । २. राग भाव से स्त्रियों के देखने का त्याग। ३. स्त्रियों के साथ पाकर्षक मीठी बातचीत करने का त्याग । ४. पहले भोगे हुये विषय भोगों के स्मरण करने का त्याग । ५. काम-उद्दीपक गरिष्ठ भोजन न करना। ६. अपने शरीर का शृगार करके आकर्षक बनाने का त्याग। ७. स्त्रियों के बिस्तर, चारपाई, प्रासन आदि का त्याग । ८. काम कथा करने का त्याग । १. भोजन थोड़ा सादा करना जिससे काम जागत न हो। इस प्रतिमा के धारी को सादा वस्त्र पहनने चाहिए । वह घर में रहता हुमा व्यापार आदि कर सकता है।
प्रारम्भ त्याग सब प्रकार के प्रारम्भ का त्याग कर देना प्रारम्भ त्याम नामक पाठवी प्रतिमा है।
आरम्भ के दो भेद हैं-१-घर सम्बन्धी, (चक्की, चूल्हा, अोखली, बुहारी और परीड़ा यानी पानी का कार्य) २-व्यापार सम्बन्धी । जैसे दुकान, कारखाना, खेती आदिक कार्य।
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श्रारम्भ करने में जीव हिंसा होती है तथा चित्त व्याकुल रहता है, कषाय भाव जागृत रहते हैं, श्रतः श्रात्म-शुद्धि और अधिक दया भाव आचरण करने की दृष्टि से इस प्रतिमा का धारी अपने हाथ रसोई बनाना बन्द कर देता है। दूसरों के द्वारा. बनाये हुए भोजन को ग्रहण करता I
परिग्रह त्याग
रुपये, पैसे, सोना चांदी, मकान, खेत, श्रादि परिग्रह को लोभ तथा आकुलता का कारण समझकर अपने शरीर के सादे वस्त्रों के सिवाय समस्त परिग्रह के पदार्थों का त्याग कर देना परिग्रह त्याग प्रतिमा है ।
इस प्रतिमा को धारण करने से पहले वह अपने परिग्रह का धर्मार्थं तथा पुत्र आदि उत्तराधिकारियों में वितरण करके निश्चित हो जाता है । विरक्त होकर धर्मशाला, मठ आदि में रहता है। शुद्ध प्रासुक भोजन करने के लिए जो भी कहे उसके घर भोजन कर आता है, किन्तु स्वयं किसी प्रकार के भोजन बनाने के लिए नहीं कहता । पुत्र आदि यदि किसी कार्य के विषय में पूछते हैं तो उनको अनुमति ( सलाह ) दे देता है ।
अनुमति त्याग
घर गृहस्थाश्रम के किसी भी कार्य में पी हनुमति (जाजत) तथा सम्मति देने का त्याग कर देना अनुमति त्याग
प्रतिमा है ।
इस प्रतिमा का धारक अपने पुत्र आदि को किसी व्यापारिक तथा घर सम्बन्धी कार्य करने की न करने को किसी भी तरह की सम्मति नहीं देता । उदासीन होकर चैत्यालय प्रादि में स्वाध्याय, सामायिक आदि आध्यात्मिक कार्य करता रहता है। भोजन का निमन्त्रण स्वीकार करके घर पर भोजन कर थाता है ।
'उद्दिष्ट त्याग
के समान गोचरी के रूप में जहाँ पर ठीक विधि
अपने उद्देश्य से बनाये गये भोजन ग्रहण करने का त्याग करना उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा है। धावक को यह सर्वोच्च प्राचरण है। इस प्रतिमा का धारक घर छोड़कर मुनियों के साथ रहने लगता है। मुनियों भोजन मिल जावे वहाँ भोजन लेता है। निमन्त्रण से भोजन नहीं करता । इस प्रतिमा के धारक के दो भेद हैं- १. क्षुल्लक, ऐलक ।
जो कौपीन ( लंगोटी) और एक खण्ड वस्त्र (छोटी चादर जो कि सोते समय सिर से पैर तक सारा शरीर न ढक सके) पहनने के लिए रखता है, अन्य कोई वस्त्र उसके पास नहीं होता तथा एक कमंडलु और मोर के पंखों की पीछी रखता है ।
ऐलक - केवल मात्र एक लंगोटी पहनता है अन्य कोई वस्त्र उसके पास नहीं होता ।
यहाँ यह बात ध्यान रखनी चाहिये कि आगे की प्रतिमा धारण करने वाले को उससे पहले की प्रतिमाओं के यम, नियम ग्राचरण करना आवश्यक है।
बारह भावना
शरीर आदि समस्त संसार के प्रपंच श्रात्मा से बाह्य पुद्गल का उसी प्रकार उसके स्वरूप की आलोचना करके इससे विरक्त होकर आत्मा के साधक के लिये सद्धर्म ही एक कल्याण का मार्ग है। ऐसे सम्यक्त्व पूर्वक वैराग्य भावना रखने के लिए अनुप्रेक्षा का विचार करना ही अनुप्रेक्षा है । ये अनुप्रेक्षा १२ प्रकार की है।
१ - प्रनित्य अनुप्रेक्षा - शरीर इन्द्रिय विषय भोग ये सब बिजली के समान क्षणिक हैं। ऐसा विचार करना ।
२ - जन्म मरण व्याधि-- व्यसन से भरा हुआ ऐसे भव संसार से अपने को उद्धार करके कोई रक्षा करने वाले नहीं हैं। एक धर्म ही स्वयं रक्षा करने वाला है। ऐसा विचार करना अशरणानुप्रेक्षा है ।
३ - संसार में कर्माधीन हुआ जीव अनेक प्रकार के संसार रूपी भव में भ्रमण करता है इसी भव भ्रमण से इस जीव को तारने वाली अपनी श्रात्मा ही हैं दूसरा कोई नहीं है। यह संसार अनुप्रेक्षा है ।
४ – अपने द्वारा किये हुये कर्म को आप अकेला ही भोगना पड़ता है दूसरा उसमें कोई भागीदार नहीं होता है ।
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इस कर्म को दूर करने के लिए धर्म ही समर्थ है दूसरा कोई नहीं है। ऐसा विचार करना एकत्व' अनुप्रेक्षा है।
५.–शरीर का प्रात्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है मेरा होकर कभी भी नहीं रहता है। ये जीव अनादि काल मोह के कारण है। यह शरीर ही संसार के मोह में पड़ा है। यह मेरा नहीं है भिन्न रूप से चिन्तवन करना ये अन्यत्व अनुप्रक्षा है।
६- यह शरीर शुक्र और रक्त वीर्य से युक्त है इसका निर्माण इससे ही हुमा है। इससे बढ़कर के और कोई घृणा को चीज नहीं है। ऐसे शरीर सम्बन्धी आलोचना करना अशुचि अनुप्रेक्षा है।
७.—जिस प्रकार गर्म लोहे का गोला यदि जल में रख दिया जाय तो वह अपने चारों ओर के जल को खीच कर सोख लेता है इसी प्रकार क्रोध, मान, हास्य, शोक प्रादि दुर्भावों से संतप्त संसारो जोव' सर्वाङ्ग से अपने निकटवर्ती कार्माण वर्गणाओं को प्राकषित करके अपने प्रदेशों में मिला लेता है, विभाग परिणति के कारण जीव को यह कर्मास्त्रव हुआ करता है ऐसा विचार करना आस्रव अनुप्रेक्षा है।
८-कर्म को बुरा कर जैसे कीचड़ के ऊपर मिट्टी फेंकने के समान कषाय को बुलाकर जो कर्म प्राज तक पाश्रव के द्वारा पाये थे और प्राथव का दरवाजा खुला था, कर्म पाश्रव न पा जाये । इस प्रकार पाने वाले प्रभाव को बन्द करना और बन्द करने का विचार करना ये संवर अनुप्रंक्षा है।
६.-प्रनादिकाल से लेकर अभी तक मेरे प्रात्मा में मित्र के नाते जो कर्म पा करके कर्म पुदगल एक हो गये हैं। उसको परस्पर भेद करने के उपाय को विचार करना निर्जरा अनुप्रेक्षा कहते हैं।
१०.-लोक स्वरूप का चिन्तवन करना लोकानुप्रेक्षा है।
११.-जीवों में मानव पर्याय दुर्लभ है। मनुष्य पर्याय में सद्धर्म की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। उससे रत्नत्रय स्वरूप हो भी तो प्राप्त करना ये अत्यन्त दुर्लभ है । ऐसे विचार करने को बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा कहते हैं।
१२.-समान रूप से सद्जाति में जन्म लेकर सदगदस्थ को प्राप्त होना जम में जैन धर्म प्राप्त करना । पुनः चक्रवर्ती होकर जन्म लेना उसके बाद अहंन्त होकर निर्वाण को प्राप्त करना ये उत्तरोत्तर दुर्लभ है । इस प्रकार ये सभी भाग्य मुझे कब प्राप्त होंगे इसी प्रकार विचार करना धर्म अनुप्रेक्षा है।
जिन वाणी से प्राप्त हुआ जिन धर्म दस प्रकार का है।
१.-उत्तम क्षमा, २-मार्दव, ३-आर्जव, ४-सत्य, ५-शौच ६–संयम, ७-तप, त्याग, ६-आकिंचन, १०-ब्रह्मचर्य ।
इस दस प्रकार के धर्म को पालन करने से निश्चित सुख की प्राप्ति होती है। ये ही मात्मा का धर्म है। इसके अलावा किसी प्रकार से शान्ति नहीं मिल सकती । इसका पालन करना धर्म अनुप्रेक्षा है ।
सोलह कारण भावनायें ये सोलह भावना तीर्थकर पद प्राप्ति होने के कारण इनको कारण भावना कहते हैं। इन भावनाओं को पुनः पुनः चिन्तवन करने से ही धेणिक राजा भविष्य काल प्रथम महापदम तीर्थकर होगा। इस प्रकार शास्त्र में उल्लेख किया गया
१-दर्शन विशुद्धि, २-विनय सम्पन्नता, ३-शीलवतश्वर-अतिचार, अर्थात अहिंसा व्रत आदि में किसी प्रकार दोष न पाना ऐसी भावना करना।
४-अभीक्षण ज्ञानोपयोग अर्थात प्रतिज्ञा में सम्यक्दर्शन के महत्व की भावना करना । ५-संबेग-धर्मानुराग में हमेशा विचार करना। ६-शक्ति का त्याग-शक्ति के अनुसार त्याग करना । शक्ति के बाहर त्याग न करना शक्ति त्याग कहते हैं। ७-शक्ति का तप-अपनी शक्ति के अनुसार तपश्चरण करना ।
८-साधु समाधि-साधु के तपश्चरण करने उपसर्ग प्रादि या उनकी शक्ति के अनुसार आये हुये उपसर्ग को दूर करने का विचार करना ये साधु समाधि है।
६-वैय्यावृति करना- सज्जन तथा साधु पर आने वाले कष्ट को दूर करने का प्रयत्न करना । १०-अर्हन्त भक्ति--पुनः पुनः जिनेन्द्र भगवान के गुणगान करना अथवा भगवान की भक्ति करना।
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११--प्राचार्य भक्ति-प्राचार्य की भक्ति करना प्राचार्य भक्ति कहलाता है। १२- उपाध्याय भक्ति-उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना बहुश्रत भक्ति है। १३-जिन वाणी भक्ति-जिनेन्द्रदेव की वाणी का सत्कार करना। १४–आवश्यक का परिहारिणि छः मावश्यक कर्मों को सावधानी से पालन करना आवश्यक भक्ति है। १५–प्रभावना भक्ति-जैन धर्म का प्रभाव फैलाना मार्ग प्रभाबना है। १६-प्रवचन भक्ति-साधर्मीजन से अगाध प्रेम करना प्रवचन वात्सल्य है।
२२ परिषह इसी प्रकार श्रावक के योग्य मुनि का २२ परिषह का वर्णन किया है। जो निम्न है।
:-क्षण, पिपासा, ३-शीत, ४-उष्ण, ५-दंशमशक, ६-नग्नता, ७ अरति, ८-स्त्री, ह-निषद्या, १०-चर्या, ११-शय्या १२-याक्रोष, १३-बध, १४-याचना, १५-अलाभ, १६-रोग, १७-तृणस्पर्श, १८-मल, १६-सत्कार, पुरस्कार, २०-प्रशा, २१-प्रज्ञान प्रौर २२-प्रदर्शन।
ये २२ परिषह पूर्वोपार्जित कर्मों के उदय से होते हैं। किस कर्म के उदय से कौन सी परिषह होती है, इसका वर्णन
चारित्र-शुद्धात्मभावना में तन्मय होना निश्चय चारित्र है । यह चारित्र व्यवहार और निश्चय भेद से दो प्रकार का है। शुद्ध निश्चय चारित्र जब तक प्राप्त न हो तब तक व्यवहार चारित्र साधनाभूत है।
१-सामायिक-व्रत धारण समिति का पालन, कषाय का निग्रह, इन्द्री निग्रह या सम्पूर्ण परवस्तु से भिन्न प्रात्मस्वरूप का ध्यान करना या मोह ममता का त्याग करना।
२-छेदोपस्थापना-प्रमाद न हो इस प्रकार जागृत होकर व्रत का निरतिचार पालन करना और प्रमाद से हरा दोषों का प्रायश्चित करना या दीक्षा का कम करना खेदोपस्थापना कहते हैं।
3-परिहार विद्धि-पाँच समिति और तीन गुप्ति को पालन करके दोषमुक्त होना परिहार विशुद्धि कहलाती है। ४-संज्वलन-सूक्ष्म लोभकषाय से युक्त संयमी के चारित्र को सूक्ष्मसापंराय चारित्र कहते हैं।
५-यथाख्यात चारित्र ११ और १२वें गूणस्थान में रहने वाले संयमी अर्थात मुनियों में और सयोगकेवली प्रयोग केवलियों में उत्पन्न होने वाले यथास्थित प्रात्मोपलब्धिरूप चारित्र को यथाख्यात चारित्र कहते हैं।
बारह प्रकार का तप छह प्रकार के बाद्य तप और छह प्रकार के अन्तरंग तप हैं।
१-बाह्य तप-अमशन उपवास करना, २-ौमोदर्थ-कुछ कम खाना, ३-व्रतपरिसंख्यान-पाकडी नियम के अनसार यदि विधि मिले तो आहार लेना अन्यथा उपवास करना, ४-रस परित्याग-कोई न कोई रस का त्याग करना. ५: काय-क्लेश-शीतोष्णादि परिषह सहन करना, ६-विविक्त शव्यासन-एकान्त स्थान में बैठना और सोना, ये छह प्रकार के बाह्य तप कहलाते हैं।
अन्तरंग तप-१-प्रायश्चित किये हुए दोषों की निवृत्ति के लिये गुरु के पास जाकर प्रायश्चित मांगना. _ बिनय-अपने से बड़े गुरु अथवा सज्जन पुरुषों का विनय करना, ३-वय्यावृत्य-अशक्त रोगी आदि साधु पुरुषों की सेवा करना, ४--स्वाध्याय-विनय के साथ शास्त्र को पढ़ना, ५- उत्सर्ग-शरीर के ऊपर मोह का परित्याग करना, ६-ध्यानमात्मस्वरूप का चिन्तवन करना ये छह प्रकार के अन्तरंग तय कहलाते हैं।
निर्जरा तत्व-संबर के अनुसार आत्मप्रदेश में पाने वाले कर्मों का रोकना, अर्थात पुनः कर्म पात्म प्रदेश में नमा जायें। इस प्रकार इन कर्म समूहों को पूर्णतया निर्जरा करने का प्रयत्न करना-पुरुषार्थ करना निर्जरा तत्व कहलाता है। अपनी स्थिति पूर्ण हो जाने के पश्चात कर्म अपने आप निकल जाने को सविपाक निर्जरा कहते हैं।
साधक अपनी तपश्चर्या के द्वारा कर्मों की निर्जरा के लिये जो प्रयत्न करता है उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं। इन दो
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साधक अपनी तपश्चर्या के द्वारा कर्मों की निर्जरा के लिये जो प्रयत्न करता है उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं। इन दोनों निर्जराओं से होने वाले आत्मा के परिणाम को भाव निर्जरा कहते हैं। कर्म पुद्गल का आत्म प्रदेश से अलग होने का प्रयत्न करना द्रव्य निर्जरा है।।
मोक्ष तत्व-अपने प्रात्मा में लगे हये संपूर्ण कर्मों के नाश करने वाले प्रात्म परिणाम को भाव मोक्ष कहते हैं। प्रात्मा से संपूर्ण कर्म का अलग होना द्रव्य मोक्ष कहलाता है।
___ आश्रव से आने बाने कर्म के प्रावागमन को रोकना तत्पश्चात् निर्जरा के द्वारा पहले सत्ता में रहने वाले कर्मों का निर्गमन होने के बाद आत्मा सम्पूर्णपने कर्म के संसर्ग से अलग होकर अपने स्वरूप में स्थित होने का नाम मोक्ष है।
नौ पदार्थ-सात तत्व के साथ पाप और पुण्य को मिलाने से पदार्थ होते हैं। शुभ कषायी आत्म परिणाम को शुभयोग कहते हैं । अशुभ यात्म परिणाम को अशुभ योग कहते हैं। शुभ योग से पुण्य और अशुभ योग से पाप आत्मा में प्राकर प्रवेश करता है । एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न समयों में शुभोपयोगी और अशुभोपयोगी होता है । और शुभोपयोग से युक्त आत्मा पुण्यजोवी कहलाता है तथा अशुभयोग से युक्त प्रात्मा पापजीवी कहलाता है।
शुभोपयोग से स्वर्ग और प्रशुभोपयोग से नरक गति मिलती है । इसलिये शुभाशुभ दोनों संसार के लिये कारण होते हैं। अर्थात् पाप और पुण्य संसार बृक्ष को बढ़ाने वाले जड़रूप यानी वृक्ष के मुल के समान ये दोनों है । आत्म साधन अर्थात् शुद्धोपयोग साधन होने पर्यन्त शुभोपयोग कुछ अंश में ठीक है, किन्तु अशुभोपयोग पाप का कारण होने से सर्वदा त्याज्य है।
गुण स्थान गुण स्थानों की संख्या चौदह है। मिच्छोसासण मिस्सो अविरवसम्मो य देसविरदो । विरता पमत्त इदरो अपुष्व प्राणिय सुहमो य॥ उवसंतखोणमोहो सजोग केवलिजिणो प्रजोगी य । चउवस जीवसमाण कमेण सिद्धा य णावरुवा ।। अर्थ-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यक्तत्व, देशविरत, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्प राय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेबली, अयोगकेवली ये १४ गुणस्थान है।
मोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम से तथा योगों के कारण जो जीब' के भाव होते हैं उनको गुण स्थान कहते हैं।
शुद्ध बुद्ध अखण्ड अमूर्तिक, अनन्त गुण-सम्पन्न प्रात्मा का तथा वीतराग सर्वज्ञ ग्रहन्त भगवान् प्ररूपित तत्व, द्रव्य, पदार्थ, अहंतदेव, निग्रन्थ गुरु तथा जिनवाणी की श्रद्धा न होना, मिथ्यात्व गुणस्थान है। यह मिथ्यात्व कर्म के उदय से होता है। एकान्त, विपरीत, विनय, संशय अज्ञान रूप भाव इस गुण-स्थानवों के होते हैं।
मनन्तानुबन्धी–सम्बन्धी क्रोध पत्थर पर पड़ी हई लकीर के समान दीर्घकाल तक रहने वाला, मान पत्थर के स्तम्भ के समान न झुकने वाला, एक दूसरे में गुथी हुई बांस की जड़ों के समान कुटिल माया और मजीठ के रंग के समान अमिट लोभ होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व-वाले व्यक्ति के जब इनमें से किसी भी कषाय का उदय हो जावे तब उसका सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है किन्तु (कम से कम) एक समय और अधिक से अधिक मावली काल प्रमाण जब तक मिथ्यात्व का उदय नहीं हो पाता उस बीच की दशा में जो प्रात्मा के परिणाम होते हैं, वह सासादन गुणस्थान है। जैसे कोई मनुष्य पर्वत से गिर पड़ा हो किन्तु जब तक पृथ्वी पर न पहुँच पाया हो ।
राम्यग्मिथयात्व के उदय से जो सम्यक्त्व और मिथ्यात्व' के मिले हए मिश्रित परिणाम होते हैं जैसे दही और खांड मिला देने पर एक विलक्षण स्वाद होता है जिसमें न दही का स्वाद प्राता है,न केवल खांड़ का ऐसे ही मिथगुण स्थान बाले के न तो मिथ्यारव रूप ही परिणाम होते हैं, न केवल सम्यक्त्व रूप परिणाम होते हैं किन्तु दोनों भावों के मिले हुये विलक्षण परिणाम हुआ करते हैं । इस गुण स्थान में न तो कोई आयु बन्धती है और न मरण होता है, जो आयु पहले बांध ली हो उसी के पनुसार सम्यक्त्व या मिथ्यात्व भाव प्राप्त करके मरण होता है।
अनन्तानुबन्धी, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व और सम्यक प्रकृति इन सात प्रकृतियों के उपशम होने से क्षय
-Nagale
IMAR
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होने से या क्षयोपशम होने से जो उपशम, क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है। किन्तु अप्रत्याख्यानावरण के उदय से जिसको अणव्रत भी नहीं होता वह अविरत सभ्यग्दिष्टि गुणस्थान है। यानि-व्रत रहित सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थान वाला होता है। इस गुणस्थान वाला सांसारिक भोगों को विरक्ति के साथ भोगता है।
सम्यग्दृष्टि जीव की जब सप्रत्याख्यानाबरण कषाय, जिसका क्रोध पृथ्वी की रेखा के समान होता है के क्षयोपशम से अणुनत धारण करने के परिणाम होते हैं तब उसके देशविरत नामक पांचवां गणस्थान होता है । यह पाँच पापों का एक देश त्याग करके ११ प्रतिमानों में से किसी एक प्रतिमा का चारित्र पालन करता हैं।
दसणवय सामाइय पोसह सचित्सराइमते य।
बम्भारम्भपरिगह प्रणमण मुद्दिढ देसविरदो य॥ यानि-दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तविरक्त, रात्रि भोजन त्याग, ब्रह्मचर्य, प्रारम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग ये पाँचवें गुणस्थान बाले की ११ प्रतिमायें (श्रेणियाँ) है।
धुलि की रेखा के समान प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि का क्षयोपशम हो जाने पर जब महानत का आचरण होता है, किन्तु जल रेखा के समान क्रोधादि वाली संज्वलन कषाय तथा नो कपाय के उदय से चारित्र में मैल रूप प्रमाद भी होता रहता है, तब छठा प्रमत्त गुणस्थान होता है। ४ विकथा (स्त्री कथा, भोजन कथा, राष्ट्र कथा, अवनपाल कथा), चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ,) ५ इन्द्रियाँ तथा नींद और स्नेह ये १५ प्रमाद है।
महाव्रती मुनि जब संज्वलन कषाय तथा नोकपाय के मंद उदय से प्रमाद रहित होकर प्रारमनिमग्न ध्यानस्थ होता है, तब अप्रमत्त नामक सातवाँ गुणस्थान होता है। इसके दो भेद हैं। १-स्वरथान अप्रमत्त (जो सासवें गुणस्थान में ही रहता है, ऊपर के गुणस्थानों में नहीं जाता) २-सातिशय जो ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ता है।
मनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ के सिवाय चारित्र मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के उपशम करने के लिए अथवा क्षय करने के लिए श्रेणी चढ़ते समय जो प्रथम शुक्लध्यान के कारण प्रति समय अपूर्व परिणाम होते हैं वह अपूर्ववरण नामक अाठवाँ गुणस्थान है।
अपूर्वकरण गुणस्थान में कुछ देर (अन्तमुहत) ठहर कर अधिक विशुद्ध परिणामों वाला नोंवा अनिवृत्तिकरण गुणस्थान होता है। इसमें समान समयवर्ती मुनियों के एक समान ही परिणाम होते हैं। इस गुणस्थान में हनोकषायों का तथा अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण कषाय सम्बन्धी ऋोध मान माया लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, इन २० चारित्र मोहनीय कर्म प्रकृतियों का उपशय या क्षय होकर केवल स्थल संज्वलन लोभ रह जाता है । इस गुणस्थान का समय भी अन्तमुहूर्त है।
तदनन्तर उससे अधिक विशुद्ध परिणामों वाला सूक्ष्म-साम्पराय नामक १० वां गुणस्थान होता है, इसमें स्थूल संज्वलन लोभ सूक्ष्म हो जाता है।
उपशम श्रेणी चढ़ने वाले मुनि १० वें गुणस्थान में अन्तमुहर्त रहकर तदनन्तर संज्वलन सूक्ष्म लोभ को भी उपशम करके ११वें गुणस्थान उपशान्त मोह में पहुंच जाते हैं। यहाँ पर उनके विशुद्ध यथाख्यात चारित्र हो जाता है. राग, द्वेष, क्रोध प्रादि विकार नहीं रहत, वीतराग हो जाते हैं। परन्तु अन्तमुहर्त पीछे ही उपशम हुआ सक्ष्म लोभ फिर उदय हो जाता है तब उपशांत मोह वाले मुनि उस ११ वें गुणस्थान से भ्रष्ट होकर श्रम से १० बें, व, पाद गुणस्थानों में प्रा जाते हैं।
जो मुनि क्षपक श्रेणी पर चढ़ते है वे १० वें गुणस्थान से सुक्ष्म लोभ का भी भय करके क्षीणमोह नामक १२ 4 गुणस्थान में पहुंच जाते हैं। वहां उन्हें वीतराग पद, विशुद्ध यथाख्यात बारित्र सदा के लिए प्राप्त हो जाता है । उन्हें उस गुणस्थान से भ्रष्ट नहीं होना पड़ता।
८ से १० वें गुणस्थान तक उपशम-थेणी तथा ८ वें गुणस्थान से १२ वें गुणस्थान तक (११वं गुणस्थान के सिवाय) क्षपक श्रेणी का काल अन्तमुहर्त है और उनके प्रत्येक गूणस्थान का काल भी अन्तम हत है अन्तमहत के छोटे-बड़े
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अनेक भेद होते हैं।.
दूसरे शुक्लध्यान एकत्ववितर्क प्रविचार के बल से १२ वे गुणस्थान वाला वीतरागी मुनि जब ज्ञानावरण और दर्शनावरण अन्तराय कर्म का भी समूल क्षय कर देता है तब अनन्तज्ञान (केवल ज्ञान), अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य प्रगट होता है, यह योगकेवली नामक तेरहवां गुणस्थान है। मोहनीय कर्म के नष्ट होने से अनन्त सुख होता है इस तरह केवली महंत भगवान अन्तुष्ट के धारक सर्वज बीतराग होते हैं। उनके भाव मन योग नहीं रहता। काययोग के कारण उनका विहार होता है और वचन योग के कारण उनका दिव्य उपदेश होता है। दोनों कार्य इच्छा बिना स्वयं होते हैं।
आयु कर्म समाप्त होने से कुछ समय पहले जब योग का निरोध भी हो जाता है तब १४ वाँ प्रयोग केवली गुणस्थान होता है । अ इ उ ऋ लृ इन पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतना समय इस गुणस्थान का काल हैं । केवली इस गुणस्थान में से समस्त प्रवाति कमों का नाश करके मुक्त हो जाते हैं ।
मुक्त हो जाने पर द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से रहित होकर सिद्ध अन्तिम शरीर से कुछ कम ग्राकार (मूर्ति) में हो जाते हैं और यात्मा के समस्त गुण विकसित हो जाते हैं। तदनन्तर एक ही समय में ऊर्ध्वगमन करके लोक के भग्र भाग में पहुंचकर ठहर जाते हैं। फिर उनको जन्म-मरण आदि नहीं होता। अनन्त काल तक अपने परम विशुद्ध स्वाधीन सुखानुभव में निमग्न रहते हैं ।
इस प्रकार जैन धर्म का संक्षेप में वर्णन किया गया है। आगे जैन किया जायगा और विषयानुसार जीवसमास का वर्णन किया जायगा भगवान महावीर स्वामी के चरित्र का वर्णन करेंगे ।
३५.
धर्म की परम्परा का परिचय तथा लोक का वर्णन तत्पश्चात संक्षेप में २३ तीर्थकरों का एवं अन्त में
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(
भगवान महावीर
और
उनका तत्व दर्शन
द्वितीय अध्याय
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जनाभिमत भूगोल परिचय
जैसा कि अगले अधिकारों पर से जाना जाता है इस प्रतन्त प्रकाश के मध्य वह अनादि व अकृत्रिम भाग जिसमें जीव पुदगल् प्रादि षट् द्रव्यों का समुदाय दिखाई देता है, वह लोक कहलाता है जो इस समस्त आकाश की तुलना में न के बराबर हैं । लोक नाम से प्रसिद्ध प्रकाश का यह खण्ड मनुष्याकार है तथा चारों मोर तीन प्रकार को वायुनों से वेष्टित है। लोक के ऊपर से लेकर बीचों-बीच एक राज प्रमाण विस्तार युक्त असमाली है, अस जीव इसके बाहर नहीं रहते पर स्थावर जीव सर्वत्र रहते हैं। यह तीन भागों में विभक्त हैं। अधोलोक, मध्यलोक व उर्वलोक । अधोलोक में नारको जोवों के रहने के प्रति दुःखमय रौरव प्रादि सात नरक हैं। जहाँ पापी जीव मर कर जन्म लेते है, और उर्ध्वलोक में करोड़ों योजनों के अन्तराल से एक के ऊपर एक करके १६ स्वर्गों में कल्पवासी विमान हैं । जहां पुण्यात्मा जीव मर कर जन्मते हैं। उनसे भी ऊपर एक भवावतारी लौकान्तिकों के रहने का स्थान है तथा लोक के शीर्ष पर सिद्ध लोक है। जहां कि मुक्त जीव ज्ञान मात्र शरीर के साथ अवस्थित हैं। मध्यलोक में वलयाकार रूप अवस्थित प्रसंख्यातों द्वीप व समुद्र एक के पीछे एक को वेष्टित करते हैं। जम्बू, धातकी पुष्कर
आदि तो द्वीप हैं और लवणोद, कालोद, बारुणोवर, क्षीरवर, इक्षवर, आदि समुद्र हैं । प्रत्येक द्वीप व समुद्र पूर्व की अपेक्षा दुने विस्तार युक्त हैं। सबके बीच में जम्बू द्वीप है। जिसके बोचों बीच सुमेरू पर्वत है। पुष्कर द्वीप के बीचोंबीच वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत हैं। जिसमें उसके दो भाग हो जाते हैं। जम्बू द्वीप, धातकी व पुष्कर का अभ्यन्तर अर्धभाग, ये अढ़ाई द्वीप है।
लोक का वर्णन
( तिलोय पण्ण त्ति) सामान्य जगत् का स्वरूप, उसमें स्थित नारकियों का लोक भवनवासी, मनुष्य, तिर्यंच, व्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पवासी और सिद्धों का लोक, इस प्रकार प्रकृत में उपलब्ध भेदरूप नौ अधिकारों, तथा उस लोक में निबद्ध जीवों को, नयविशेषों का आश्रय लेकर उत्कृष्ट वर्णन से युक्त, भब्धजनों को आनन्द के प्रसार का उत्पादक और जिन भगवान् के मुखरूपी कमल से निकले हुने इस त्रिलोक का वर्णन करेंगे।
अनन्तानन्त अलोकाकाश के बहुमध्य भाग में स्थित, जीवादि पांच द्रव्यों में व्याप्त और जग श्रेणी के घन प्रमाण यह लोकाकाश है ॥ ६ ॥
= १६खख ख । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, और काल ये पांचों द्रब सम्पूर्ण लोकाकाश को व्याप्त कर स्थित हैं ।। ६२ ।। अब यहाँ से आगे श्रेणी के घन प्रमाण लोक का निर्णय करने के लिये परिभाषाएँ अर्थात् पल्योपमादि का स्वरूप कहते हैंपल्लोपम, सागरोपम, सूर्यगुल, प्रतरीगुल, धनांगुल, जगणि , लोकप्र तर, और लोक ४ मे आठ उपमाप्रमाण के भेद है ॥ १३ ॥
पू. । स २ सू. ३ प्र. ४ घ. ५ ज. ६ लोक प्र. ७ लो. ॥ ८ ॥
व्यवहारपल्य, उद्धारपला, और अद्धापल्य ये पल्य के तीन भेद है ? इनमें प्रथम पल्प में संस्था द्वितीय से द्वीप-समुद्रादिक और तृतीय से कर्मो की स्थिति का प्रमाण लगाया जाता है ।। ६४ ।।
सब प्रकार से समर्थ अर्थात् सर्वां'शपूर्ण स्कंध कहलाता है? उसके अर्धभाग को देश और आधे के आधे भाग को प्रदेश पहते हैं। स्कंध
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इनसे आगे मनुष्यों का निवास नहीं है । शेष द्वोपों में तिथंच व भूतप्रेत आदि व्यन्तर देव निवास करते हैं। जम्बू द्वीप में सुमेरू पर्वत के दक्षिण में हिमवान महाहिमवान व निषध तथा उत्तर में नील रुक्मि व शिखरों के ये ६ कुलपर्वत हैं जो इस द्वीप को भरत, हैमवत, हार, विदेह, रम्यक, हैरण्य पर्वत व ऐरावत नाम, वाले सात क्षेत्रों में विभक्त करते हैं। प्रत्येक पर्वत पर एकएक महाहृद हैं जिनमें से दो-दो नदियाँ निकल कर प्रत्येक क्षेत्र में पूर्व व पश्चिम दिशा मुख से बहती हुई लवण सागर में मिल जाती हैं उस क्षेत्र से वे नदियां अन्य सदस्यों परिवार नदियों को अपने में समा लेती हैं। भरत व ऐरावत क्षेत्रों के बीचों बीच एक-एक विजया पर्वत हैं। इस क्षेत्रों को दो-दो नदियाँ व इस पर्वत के कारण ये क्षेत्र छ: छः खण्डों में विभाजित हो जाते हैं । जिनमें मध्यवर्ती एक खण्ड में आर्य जन रहते हैं, और शेष पांच में म्लेच्छ । इन दोनों क्षेत्रों में ही धर्म कर्म व सुख दुःख प्रादि की हानि वद्धि होती हैं, शेष क्षेत्र सदा अबस्थित हैं विदेह क्षेत्र में सुमेरू पर्वत स्पर्शी सोमनस विद्यतप्रभ तथा गन्धामादन व माल्यवान नाम के दो गजदन्ताकार पर्वत हैं। जिनके मध्य देवकुरू उत्तरकुरू नामक दो उत्कृष्ट भोग भूमियाँ हैं यहां के मनुष्य व नियंच बिना कछ कार्य किये प्रति सूख पूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं उनकी आयु भी असंख्यात वर्षो की होती है-इन दोनों क्षेत्रों में जम्ब व शाल्मली नाम के दो वृक्ष हैं। जम्बु वृक्ष के कारण ही इसका नाम जम्बू द्वीप हैं। इसके पूर्व व पश्चिम भाग में से प्रत्येक
के अविभागों अर्थात् जिसके और विभाग न हो सके, ऐम अंश को परमाण, कहते हैं ।। ६५ ।।
जो अत्यन्त तीक्षण शस्त्र से भी छेदा या भेदा नहीं जा सकता, तथा जल और अग्नि आदि के द्वारा नाश को भी प्राप्त नहीं होता, वह परमाण है ॥ ६६ ॥
जिसमें पांच रसों में गे एक रस, पांच वर्षों में से एक वर्ण, दो गन्धों में से एक गन्ध, और स्निग्ध-रक्ष में से एक तथा शीन उष्ण में स एकस प्रकार व गुण हो. और जो स्ता नाम न हो कर भी शब्द का कारण हो एचं स्कंध के अन्तर्गत हो. मे दया वो पपिउन जन परमाणु कहते हैं ।। ६७ ।।
जो द्रव्ध अन्त, आदि एवं मध्य से विहीन हो, प्रदेशों से रहित अर्थात् एक प्रदेशी हो, इन्द्रिय द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता हो और त्रिभाग रहित हो, उसे जिन भगवान परमाणु कहते हैं ।। ६८ ॥
कोकि स्कन्धों के समान परमाण भी पूरतें हैं, और गलते हैं, इसलिए पूरणनालन क्रियाओं के रहने से वे भी पूदगल के अन्तर्गत हैं. ऐसा दृष्टिवाद मंग में निर्दिष्ट है ।। १६ ॥
परमाणु स्कन्ध की तरह सब काल में वर्ण, रस, गन्ध, और स्पर्श, इन गुणों में पूरण-गलन की क्रिया करते हैं, इसीलिए वे पदगल ही हैं ।। १०० ॥
जो नपविशेष की अपेक्षा कथंचित मूर्त व कथंचित् अमूर्त हैं, चार धातुरूप स्कन्ध का कारण है, और परिणमनस्वभाषी हैं, उसे परमाणु जानना चाहिये ।। १०१ ।।
नाना प्रकार के अनन्तानन्त परमाणु-द्रव्यों से उवसन्नासन्न नाम से प्रसिद्ध एक स्कन्ध उत्पन्न होता है ।। १०२ ॥
उबसन्नासन्नों को भी आय से गुणित करने पर मन्नासन्न नाम का स्कन्ध होता है, अर्थात् आठ उवजन्नासन्नों का एक सन्नारान्न नाम का स्कन्ध होता है? आ3 मे मूणित सन्मासन्नों अर्थात् आठ सन्नासन्नों से एमा त्रुटिरेण , और इतने ही (आठ) त्रुटि रेणुओं से त्रसरेण होता है। इम प्रबार पूर्व-पूर्व स्कन्धों से आठ-आठ गुरणे क्रमशः रथरेणु, उत्तम भोगभूमिका बालान, मध्यम भोग भूमिका बालाय, जपन्य भोगभूमिका बालाप, कर्म भूमिका बालाग्र, लोन, ज, जौ और अगुल, ये उत्तरोत्तर स्कन्ध कहे गये हैं।। १०३-१०६ ।।।
अंगल तीन प्रकार का है-उत्सेधागुन, प्रमाणानुल और आत्मांगुल? इनमें से जो अंगुल उपयुक्त परिभाषा से सिद्ध किया गया है, वह सूच्चंगुल है ।। १०७ ॥
पाँच सौ उत्सागुल प्रमाण अवसर्पिणी काल के प्रथम भरन चक्रवर्तीका एक अंगुल होता है, और इसी का नाम प्रमाणांगुल है ॥१०८।। जिस-जिस काल में भरत और ऐरावत क्षेत्र में जो-जो मनुष्प हुबा करते हैं, उस-उस काल में उन्हीं मनुष्यों के अंगुल
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में १६, १६ क्षेत्र हैं। जो ३२ विदेह कहलाते हैं। इनका विभाजन वहां स्थित पर्वत व नदियों के कारण से ही हुआ। प्रत्येक क्षेत्र में भरत क्षेत्रवत् छह खण्डों की रचना है। इन क्षेत्रों में कभी धर्म विच्छेद नहीं होता है । दूसरे तथा तीसरे प्राधे द्वीप में पूर्व ब पश्चिम विस्तार के मध्य एक सुमेरू पर्वत है। प्रत्येक सुमेरू पर्वत सम्बन्धी छ: पर्वत व सात क्षेत्र हैं। जिनकी रचना उपरोक्तवत् है। लवणोद के कारण तल भाग में अनेकों पाताल हैं। जिनमें वायु की हानि वृद्धि के कारण सागर के जल में भी हानि होती है।
पृथ्वी तमोज गर गाशाला में कम से सितारे, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र बुध, शुक्र, बहस्पति मंगल, शनि इन तीनों ज्योतिष ग्रहों के संचार से क्षेत्र अवस्थित हैं। जिनका उल्लंघन न करते हये वे सदा सुमेरू पर्वत की प्रदक्षिणा देते हुये घूमा करते हैं। इसी के कारण दिन रात वर्षा ऋतु आदि की उत्पत्ति होती है। जनाम्नाय में चन्द्रमा की अपेक्षा सूर्य छोटा माना गया है।
का नाम आत्मांगुल है ।। १०६ ।।
उत्सेवांगूल से देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकीयों के शरीर की ऊंचाई का प्रमाण, और चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान व नगरादि का प्रमाण जाना जाता है ।। ११०॥
द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुण्ट, या सरोबर जगती और भरतादिक क्षेत्र इन सबका प्रमाण प्रमाणौगुल से ही हमा करता है ।। १११ ।।
झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट (गाड़ी), हस, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दंदुभि, पीठ, छत्र, मनुष्यों के निवास स्थान व नगर और उद्यानादिकों की संख्या आत्मांगुल से समभता पाहिये ॥ ११२-११३॥
छह अंगुलों का पाद, दो गादों का बिलस्ति, दो वितस्तियों का हाथ, दो हाथों का रिबकू दो रिसकुओं का दण्ड, दण्ड के बराबर अर्थात् चार हाच प्रमाण ही धनुष, मूसल, तथा नाली, और दो हजार दण्ड या धनुषका एक कोपा होता है।
।। ११४-११५ ।। चार कोश का एक योजन होता है। उतने ही अर्थात् एक वोजन विस्तार वाले गोल गहुँ वा गणित शास्त्र में निपुण पुरुषों को धनफल ले आना चाहिये ।। ११६ ॥
समान भील क्षेत्र के व्यास के वर्ग को दस से गुणा करके को रणनपल प्राप्त हो इसका हर गल निकालने पर परिधि वा प्रमाण निकलता है। तथा विस्तार अर्थात् व्यास के चौथे भाग से परिधि को गुणा करने पर उसका त्रिफल निकलता है
तथा उन्नीस योजनों को चौबीस से विभक्त करने पर तीन प्रकार के पल्पों में से प्रत्येक घन क्षेत्रफल होता है। उदाहरण १-योजन व्यास वाले गोल क्षय का घनफल१४१४१०=१०, १०=१६ परिधि +1=1. क्षेत्रफल, १x१-१६ का घनफल,
उत्तम भोग भूमि में एक दिन से लेकर सात दिन तक के उत्पन्न हुए मैन्हें के करोड़ों रोमों के अविभागी खण्ड करके उग खण्डित रोमानों से उस एक योजन विस्तार वाले प्रथम पल्य को (गड्ढे को) पृथ्वी के बराबर अत्यन्त सघन भरना चाहिये ।
ऊपर जो प्रमाण बनफल आया है उसके दण्ड करके प्रमाणाँगुल कर लेना चाहिये । पुनः प्रमाणांगुलों के उत्सेधांगुल करना चाहिये । पुनः जौ, जू, लीख, कर्मभूमि के बालान, जघन्य भोग भूमि के बालाय, मध्य भोग भूमि के बालासा, उत्तम भोग भुमि के दालान उनकी अपेक्षा प्रत्येक को आठ के धन से गुणा करने पर व्यवहारपल्य के रोमों की संख्या निकल आती है।
१४४४४४४. २०००-२०००४२०००x४४४४४ X २४ ४२४४२४४५००४ ५००४ १०० Xxx XXX.XXX-XX.x.x.xxcxcxcxcxcxcxc= ४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४६ ११२१६२००००००००००००००००००
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' भूलोक
चित्र।
सप्त दीप व सप्तसागर पूर्व पूर्त की अपेक्षा उत्तरीतर दूना विरूपाहै
जम्बूद्वीप
स्मा द्वीप र रस. 204 मलट्रीप
प्रितीय
अन्यत्तर पुकराध दीप
जम्बू द्वीप चित्र-२
माननिर पर्वत वायाध पुष्करा दीप
SAWANWAMANAGMARAनी पर्वत
भूलोक के नीचे पाताललोक भूलोक के नीचे लस पाताल है तथा उनक नीच रोष शादी भावान पण चित्र ३
हिरण्यमय
बितान
हरिवर्व KKARANASARAMOROSमकूट पर्वत
Fष
सायी विष्णु भगवान
भारत
४२
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वैदिक धर्माभिमत भूगोल परिचय विष्णु पुराण २२/७ के प्राधार पर कथित भावार्थ) इस पच्ची पर जम्बू प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर ये सात द्वीप तथा लवणोद, इक्षुरस, सुरोद, सपिस्सलिल, दधितोय, क्षीरोद, और स्वादुसलिल ये सात समुद्र हैं। (२/२-४) जो चड़ी के प्राकार रूप से एक दूसरे को वैष्टित करते हैं। ये द्वीप पूर्व पूर्व द्वीप की अपेक्षा दूने विस्तार वाले हैं। (२/४,८८०)
इन सबके बीच में जम्बू द्वीप और उसके बीच में ८४००० योजन ऊंचा सुमेरू पर्वत है। जो १६००० योजन पृथ्वी में धंसा हुआ है। सुमेरू पर्वत से दक्षिण में हिमवान हेमकूट और निषेध तथा उत्तर में नील श्वेत और श्रृगों में ये छ: पर्वत हैं । जो इसको भारतवर्ष, विस्म् हरिजर्ष, हमाल, रम्यक्, हिरण्मय और उत्तर कुरू इन क्षेत्रों में विभक्त कर देते हैं।
नोट :--जम्बूद्वीप की चातुर्दीपक भूगोल के साथ तुलना (दे० प्रागे शीर्षक नं. ८) मेरू पर्वत के पूर्व व पश्चिम में इलायत की मर्यादाभूत माल्यवान व गन्धवान नाम के ये दो पर्वत हैं जो निषध वनील तक फैले हुये हैं। मेरू के चारों मोर पूर्वादि दिशाओं में मन्दर, गन्धदान, वपुल, और सुपार्श्व ये चार पर्वत हैं। इनके ऊपर क्रमशः कदम्ब, जम्बू, पीपल व वट ये चार वृक्ष हैं। जम्बू वृक्ष के नाम से ही यह द्वीप जम्बूद्वीप नाम से प्रसिद्ध है। वर्षों में भारतवर्ष कर्म भूमि है। और शेष भोग भूमियाँ हैं। क्योंकि भारत में हर युग त्रेता द्वीप और वियुग ये चार काल वर्तते हैं। और स्वर्ग मोक्ष के पुरुषार्थ की सिद्धी है। अन्य क्षेत्रों में सदा त्रेता युग रहता है। और वहाँ के निवासी पुण्यवान व प्राधि ब्याधि से रहित होते हैं।
भरत क्षेत्र में महेन्द्र प्रादि छ: कुल पर्वत हैं। जिनसे चन्द्रमा आदि अनेक नदियाँ निकलती हैं। नदियों के किनारों पर कूरू पांचाल आदि और पीण्ड कलिंग आदि लोग रहते हैं। इसी प्रकार प्लक्ष द्वीप में भी पर्वत व उनसे विभाजित क्षेत्र है। वहाँ प्लक्ष नाम का वृक्ष है और सदा प्रेता काल रहता है ? शाल्मल आदि शेष सर्व द्वीपों की रचना प्लक्ष द्वीपवत् हैं। पुष्कर द्वीप के बीचोंबीच वलयाकर मानुषोत्तर पर्वत हैं। जिससे उसके दो खण्ड हो गये हैं। ग्राभ्यंतर खण्ड का नाम धातकी है। यहाँ भोग भूमि है इस द्वीप में पर्वत व नदियां नहीं हैं। इस द्वीप को स्वादूदक समुद्र वेष्टित करता है। इसे ग्रागे प्राणियों का निवास नहीं है।
इस भुखंड के नीचे दस-दस हजार योजन के सात पाताल हैं। अतल, वितल, नितल, गभस्तिमत्, महातल, सुतल, प्रौर पाताल । पातालों के नीचे विष्णु भगवान् हजारों फनों से युक्त शेष नाग के रूप में स्थित होते हये इस भूखंड को अपने सिर पर धारण करते हैं।
अन्त में १८ शून्य, दो, मौर, एक, दो, एक, पांच, नो, चार, सात, सात, साल, एक, तीन, शून्य, दो, आठ, शन्य, तीन शून्य, तीन, छः, दो, पांच, चार, तीन, एक और चार, ये कम से पल्य के अंक है।
सौ सौ वर्षों में एक एक रोम खण्ड से निकालने पर जितने समय में वह गड्ढा खाली हो, उतने काल को व्यवहारपल्योपम कहते हैं । यह व्यवहारसल्य उद्धारपल्य का निमित्त है।
व्यवहारपल्य समाप्त हुआ व्यवहारपल्य को रोमराशि में से प्रत्येक रोम खण्ड को, असंस्पात करोड़ों वर्षों के जितने समय हो उतने खण्ड करके, उनसे दूसरे पल्य को भरकर पुनः एक-एक समय में एक-एक रोम खण्ड को निकाले । इस प्रकार जितने समय वह दूसरा पल्प खाली हो जाये, उतने काल को उदारपल्लोपम समझना चाहिये।
उद्धारपल्य समाप्त हुआ इस उद्धारपल्य से दीप और समुद्रों का प्रमाण जाताजाता है। उदारपल्य को रोम राशि में से प्रत्येक रोम खण्ड के असंख्यात वर्षों के समय प्रमाण खण्ड करके तीसरे गड्ढे के भरने पर और पहले के समान एकएक समय में एक एक रोम खण्ड को निकालने पर जितने समय में वह गड़ा रिक्त हो जाये उतने काल को अद्धापल्योपम कहते हैं ? इस अड्डापल्य से नारकी, तिर्यच, मनुष्य और देवों की आयु तथा क्रमों की स्थिति का प्रमाण जानना चाहिये।
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खि २५
जनलोक
२८
.
.
हस्पति
सामान्य लोक पथ्वी तल और जल के नीचे रौरव, सूकर रोध,
सत्य लोक साल, विशसन, महाज्वाल,
लोयान्तिक देवा तप्तकुम्भ, लवण, विलो१२००.००.००० यो.
19मर हित रुधिररम्मा, वैतरणी, क्रमीश, कृमि भोजन, असि पत्र, बन, कृष्ण लीला, भक्ष १००.00.000 मो.
LAसादि] दारुण, पूयवह, पाप, वहिण ज्वाल, अघःशिरा, संदेश, कालसूत्र, तमस, अवोचि, श्वभोजन, अप्रतिष्ठ, ओर, २००,००.००० मो. अरुचि, आदि महा भयंकर ए ... . . .
| महलाक नरक हैं। जहां पापी जीव १००.००,००० यो.
मदिरा मरकर जन्म लेते हैं। भूमि में एक लादा योजन ऊपर जाकर एक-एक लाख योजन
सन्त Eि के अन्तराल से सूर्य, चन्द्रमा
२००.000 वनक्षत्र, मंडल स्थित हैं।
9. 0:0 0
शनि तथा इनके ऊपर दो-दो लाख | 200.०००यो. योजन के अन्तराल' से बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि,
| 200.000 मो० तथा इसके ऊपर एक-एक
मल लाख योजन के अन्तराल से सप्तऋष व ध्रुव तारे स्थित
20०.००० यो. हैं। इससे एक करोड़ योजन ऊपर महलोक हैं जहाँ कल्पों | 200.०००यो तक जीवित रहने वाले
200.०००मोर कल्पवासी भृग प्रादि सिद्ध गण रहते हैं। इससे दो करोड़ योजन ऊपर अनली
चन्द्र है जहाँ ब्रह्मायों के पुत्र सन
OTHmin कादि रहते हैं 1 पाठ करोड़ योजन ऊपर सत्य लोक है।
पुर्वः लोक
भूलोक जहां वैराज देव निवास करते हैं। १२ करोड़ योजन ऊपर सवलोक हैं। जहां फिर से मरने वाले जीव रहते हैं, इसे ब्रह्म लोक भी
।।
| 1|
२महा जवाब कहते हैं । भूलोक स्वर्गलोक के मध्य में मुनिजनों से
1I.LLIT सेवित भुवलोक है और सुर्च
I ।।। ३लवण तथा प्रव के बीचों बीच में हैं। १४ लाख योजन स्वर्ग
IIIIIIIIIIIIIIIITTETITITIATTTTTTTTTTTTTTTHIMIMMIS4तरणी लोक कहलाता है। ये तीनों लोक कृतक हैं। जनलोक, TAI TATLILI MIMICTIOTTITAUTIE
|| UTI CHIMIT कृतलोक, तपलोक व सत्यलोक ये योजन तक हैं। इन INDIELUMUJURNIRITJJIHO NLUNDE HAR दोनों कृतक व अकृतके मध्य में महलोक हैं । इसलिये यह
वि चि । कृताकृतक है।
म
सर्थ
१००.०००
जरलोक
मसि पावन
४४
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भूमंडल
KALAAM
RIV
G
INNNARA
NNARAY
HERARAM
LEVETA
MKVAL
AARMA
।
S
YYYAV
स00
TODAY
*
*
SOLAPER
भूत
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४. बौद्धाभिमत भूगोल परिचय ५वीं शताब्दी के वसुबन्धकृत अभिधर्मकोश के आधार पर ति. प० । प्र७। (H. L. Jain द्वारा कथित का भावार्थ) लोक के अधोभाग में १६००,००० योजन ऊँचा अपरिमित वायु मण्डल है। इसके ऊपर ११२०,००० योजन ऊंचा जल मण्डल है। इस जलमण्डल में ३२०,००० यो० भुमण्डल है। इस भूमण्डल के बीच में मेरू पर्वत है। आगे ५०,००० योजन विस्तृत सीता (समुद्र) है जो मेरू को चारों ओर से वेष्टित करके स्थित है। इसके आगे ४०,००० योजन विस्तृत युगन्धर पर्वत वलयाकार से स्थित है । इसके प्रागे भी इसी प्रकार एक एक सीता (समुद्र) के अन्तराल में से उत्तरोत्तर प्राधे-आधे विस्तार से युक्त क्रमश: ईषाघर, खदिरक, सुदर्शन, अश्वकर्ण, विनतक और निर्मिधर पर्वत हैं। अन्त में लोहमय चक्रवाल पर्वत है।
उद्धार पल्म समाप्त हुआ। इस प्रकार पल्य समाप्त हुआ। इन दशकोडाकोडी पल्यों का जितना प्रमाण हो उतना पृथक-पृथक एक सागरोपम का प्रमाण होता है। अर्थात् दशकोडाकोडी व्यवहार पल्यों का एक व्यवहारसागरोपम, दशकोडाकोडी उदार पल्लों का एक उद्धारसागरोपम और दशकोडाकोडी अदापल्यों का अद्धासागरोपम होता है।
सागरोपम समाप्त हुआ । अदापल्ल के जितने अर्धच्छेद हों, उतनी जगह गल्म को रखकर परस्पर में गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो उसे सूर्णगुल और प्रहरपला को अर्धच्छेद राशि के असंरुपात में भागप्रमाण धनागुल को रखकर उनके परस्पर गुस्सा करने पर जो राशि उत्पन्न होती है उसे जगत्रेणी कहते हैं।
जगणी -- सू' अं. २
उपयुक्त सूर्यगुल का वर्ग करने पर प्रतरांगुल और जगन्नेणी का वर्ग करने पर जगप्रतर होता है। इसी प्रकार सूय॑गुल का धन करने पर धनांगल और जगश्रेणी को घन करने पर लोक का प्रमाण होता है। जगश्रेणी के सातवें भाग प्रमाण राजू प्रमाण कहा जाता है। प्र. 4. ४., ज.प्र.-घ., अ. ६. घ. लोस.x
___ इस प्रकार परिभाषा समाप्त हुई। सर्वज्ञ भगवान् से अवलोकित यह लोक आदि द्रव्यों और अन्त से रहित अर्थात् अनादिनन्त है, स्वभाव से ही उत्पन्न हुआ है, और जीव एवं अजीव द्रव्यों में व्याप्त है।
जितने आकश में धर्म अधर्म द्रव्य के निमित्त होने वाली जीव और पुदगलों की गति एवं स्थिति हो उसे लोकाकाश समझना चाहिये ।
छहः द्रव्यों के सहित यह लोकाकाश स्थान निश्चय ही स्वयंप्रधान हैं । इसकी सब दिशाओं में नियम से सब लोकाकाश स्थित है।
श्रेणी वृन्द के मान अर्थात जगभेणी के धनप्रमाण से निष्पन्न हुआ यह लोक अधोलोक, मध्यलोक और अध्यलोक के भेद से तीन प्रकार का है।
इनमें से अधोलोक का आकार स्वभाव से वेवासन के सद्श और मध्यलोक का आकार खड़े किये हुये आधे मृदंग के उर्वभाग के समान है।
उर्ध्व लोक का आकार खड़े किये हुये मृदंग के सदश है । अब इन तीनों लोकों के आकार को कहते हैं।
उस सम्पूर्ण लोक के बीच में से जिस प्रकार मुख एक राजु और भूमि सात राजु हो इस प्रकार मध्य में छेदने पर अधोलोक का आकार होता है।
दोनों अर फैले हुए क्षेत्र को उठाकर अलग रख दे, फिर विपरीत क्रम से मिलाने पर विस्तार और उत्मेष सात राजु होता है।
जिस प्रकार मध्य में पांच राजु नीचे और ऊपर क्रम से एक राजु और ऊँचाई सात राजु हो, इस प्रकार खण्डित करने पर नीचे और ऊपर मिले हुये क्षेत्र का आकार अन्तिम लोक अर्थात उज़लोक का आकार होता है। इसको पूर्वोक्त क्षेत्र अर्थात् अधोलोक के ऊपर रखने पर
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निमिधर और चक्रवाल पर्वतों के मध्य में जो समुद्र स्थित है उसमें मेरू की पूर्वादि दिशाओं में क्रम से अर्द्ध चन्द्राकार पूर्व विदेह, शक्छाकार जम्बूद्वीप, मण्डलाकार अवरगोदानीय और समचतुष्कोण उत्तर कुरु ये चार द्वीप स्थित हैं। इन चारों के पाव भागों में दो-दो अन्तर्द्वीप हैं। उनमें से जम्बुद्वीप के पास वाले चमर द्वीप में राक्षसों का और शेष द्वीपों में मनुष्यों का निवास है । जम्बू द्वीप में उत्तर की ओर ६ कीटाद्रि (छोटे पर्वत) तथा उनके प्रागे हिमवान पर्वत अवस्थित है। उसके आगे मनवतृप्त नामक अगाध सरोवर है, जिसमें से गंगा सिन्धु बक्ष और सीता ये नदियाँ निकलती हैं। उक्त सरोवर के समीप में जम्बू वृक्ष है। जिसके कारण दर डीए का "ज" ऐया भागा द्वीप के नीचे २०,००० योजन प्रमाण अवीचि नामक नरक हैं। उसके ऊपर क्रमश: प्रतापन प्रादि सात नरक और हैं। इन नरकों के चारों पाश्वं भागों में कुकूल, कुणप, क्षुरमार्गादिक और खारीदक (असि पत्रवन, श्यामशवलश्व-स्थान, अयः शाल्मली बन और वैतरणी नदी) ये चार उत्सद हैं। इन नरकों के धरातल में पाठ शीत नरक हैं । भूमि से ४०,००० योजन ऊपर जाकर चन्द्र सूर्य परिभ्रमण करते हैं। जिस समय जम्बूद्वीप में मध्याह्न होता है उस समय उत्तर कुरु में अर्द्धरात्रि, पूर्व विदेह में अस्तगमन और अवरमोदानीय में सूर्योदय होता है । मेरू पर्वत की पूर्वादि दिशाओं में उसके चार परिखण्ड (विभाग) हैं, जिन पर कम से यक्ष, मालाधार, सदामद और चातुमहाराजिक देव रहते हैं। इसी प्रकार शेष सात पर्वतों पर भी देवों के निवास हैं । मेरू शिखर पर त्रयस्त्रिंश (स्वर्म) है। इससे ऊपर विमानों में याम तुषित ग्रादि देव रहते हैं। उपरोक्त देवों में चातुर्महाजिक और त्रयस्त्रिंश देव रहते और मनुष्यवत् कामभोग भोगते हैं। याम तुषित आदि क्रमशः प्रालिंगन, पापिसंयोग हसित और अवलोकन से तुषित को प्राप्त होते हैं । उपरोक्त काम धातु देवों के ऊपर रूपधातु देवों के ब्रह्मकायिक मादि १७ स्थान हैं। ये सब क्रमश: ऊपर-ऊपर अवस्थित है । जम्बूद्वीपवासी मनुष्यों की ऊँचाई केवल ३ हाथ है। मागे क्रम से बढ़ती हुई मनन देवों के शरीर की ऊँचाई १२५ योजन प्रमाण है।
५. प्राधनिक विश्व परिचय ति. पं. प्र. ६० । एच० एल० जन का भावार्थ-जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं वह नारंगीबत् चपटा गोल स्वण्ड है । जो सभी अग्नि का गोल था । परन्तु पीछे से जिसका ऊपरी तल ठंडा हो गया। इसके भीतर अब भी ज्वाला धधक रही है।
प्रकृत में खड़े किये हुए ध्वजयुक्त डेढ़ भृदंग के सदृश उस सम्पूर्ण लोक का आकार होता है इसको एकत्र करने पर उस लोक का वहल्य सात राजु और ऊँचाई चौदह राजु होती है । इस लोक की भूमि और मुख का ब्यास पूर्व पश्चिम की अपेक्षा एक ओर क्रमशः सात, एक पांच और एक राजु मात्र होती हैं। तथा मध्य में हानि होती है।
आकाश में स्थित चारों सदृश आकार वाले खंडों को ग्रहण करके उन्हें विचार पूर्वक उभय पक्ष में विपरीत ऋम से मिलना चाहिये। इसी प्रकार अवशेष क्षेत्रों को ग्रहण करके और पूर्व के समान ही प्रतर प्रमाण करके वाइल्य में मिला दें। इस क्रम से जब तक अवशिष्ट क्षेत्र समाप्त न हो जाये तब तक एक-एक प्रदेश वाहल्यरचना एक-एक प्रतर प्रमाण को ग्रहण करना चाहिये ।।
इस प्रकार सिद्ध हुये त्रिलोक स्वरूप क्षेत्र की मोटाई चौड़ाई और ऊंचाई का हम वैसा ही वर्णन करते हैं। जैसा कि दृष्टिवार अङ्ग से निकलता है।
दक्षिण और उत्तर भाग में लोक का आयाम जगश्रेणी प्रमाण अर्थात् सात राजु है। पूर्व और पश्चिम भाग में भूमि तथा मुख का ध्यास करते कम से सात, एक पांच और एक राजु हैं । तात्पर्य है कि लोक की मोटाई सर्वत्र सात राजु है और विस्तार क्रमशः अघोलोक के नीचे सात राजु मध्यलोक में एक राजु, ब्रह्म स्वर्ग पर पांच राजु और लोक के अन्त में एक राजु है । सम्पूर्ण मोक की ऊँचाई चौदह राजु प्रमाण है। मध मृदंग की ऊंचाई सम्पूर्ण मृदंग की ऊंचाई के सश है अर्थात् अर्थ मृदंग सरश अधोलोक जैसे सात राजु ऊंचा है उसी प्रकार पूरणं मृदंग के साथ कम्बलोक भी सात ही राजु ऊंचा है।
क्रम से उघोलोक की ऊंचाई सात राजु, मध्यलोक की ऊंचाई एक लाख योजन और कर्वलोक की ऊंचाई एक लाख पोजन कम सात
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जम्बू वृध
मा सिन्धुपादि दिया का उम स्थान
प्रनवतप्त सशेवर । हिमवन पर्वत ६ की हानि कुट .... .....
जम्मूदीप भरीरोय३१हाप
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"पधात प्रची चार बाल्सिप १२५ साल
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समिम मादि की
2006-10--06:
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वर में अपर की रजा
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स्पधात प्रवीचार अवनी कम उमर रसित वीचार पणियोग प्रबीचार मालिंगन की चार काय प्रवीचार
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भूगोल सामान्य (चित्र क)
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भूगोल सामान्य (चित्र ख)
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ठण्डा हो गया। इसके भीतर अब भी ज्याला धधक रही है। वायु मण्डल धरातल से ऊपर उत्तरोत्तर विरल होते हुये ५०० मील तक फैला हुआ है। पहले इस पर जीवों का निवास नहीं था। पीछे फप से सजीव पापापादि वनस्पति जल के भीतर रहने वाले मत्स्यादि पृथ्वी पर फिरने वाले मेढक यदि सरीसृप पक्षी, स्तनधारी पशु, बन्दर और मनुष्य उत्पन्न हुए। तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार और भी पसंख्य जीव जातियां उत्पन्न हुई भूमि से जल का विस्तार तिगुना है भूभाग में एशिया आदि महाद्वीप तथा अन्य अनेकों क्षुद्र द्वीप हैं। वे सुदूर पूर्व में सम्भवतः परसार में मिले हुये थे। तहाँ "भारत" एशिया का दक्षिण पूर्वी भाग है। जिसके उत्तर में हिमालय और मध्य में विन्ध्याचल, सतपुड़ा आदि पर्वत है। पूर्व व पश्चिम की ओर सागर में गिरने वाली गंगा सिन्धु आदि नदियां हैं। देश के उत्तर में प्रायः चार्य जाति तथा अन्य दिशाओं में द्राविड़ भील कोल तथा धनेक पर्वतीय जातियां (मलेच्छ) रहती हैं। इस भूखण्ड के चारों ओर अनन्त माकाश है जिसमें सूर्य, चन्द्र, तारे आदि दिखाई देते हैं। चन्द्रमा अधिक समीपवर्ती है। तत्पश्चात् क्रमशः शुक्र, बुध, मंगल, बृहस्पति, शनि यदि ग्रह है। इनसे साढ़े नौ करोड़ मील परे सूर्य तथा प्रसंख्यात मील दूर असंख्यों तारे हैं । चन्द्रमा व ग्रह स्व प्रकाशित नहीं हैं, बल्कि सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित हैं । तारे यद्यपि दूर होने के कारण बहुत छोटे दिखाई देते हैं । परन्तु इनमें सूर्य के बराबर या उससे छोटे बहुत ही कम है। प्रायः वे सब सूर्य की अपेक्षा लाखों करोड़ों वृणा बड़े हैं तथा स्वयं जागवल्यमान बड़े सूर्य हैं। इस प्रकार सोक का प्रमाण असंख्य है तथा इस पृथ्वी के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं जीव राशि का अवस्थान नहीं है। पहले मंगल ग्रह नै जीवधारियों की सम्भावना का अनुमान किया जाता था, पर अब किसी भी ग्रह में उनको स्वीकार नहीं किया जाता है ।
में
अ. लो. ७ रा. म. लो. १००००० यो । ऊ. लो. रा. ७ ऋरण १००००० यो । इन तीनों लोकों में से
पृथ्वियां एक-एक राजु के अन्तराल से हैं ।। १५२ ||
थापा वालप्रभा पंकप्रभा धूमप्रभा तमः प्रभा और महातमा सात
विशेषार्थ - ऊपर प्रत्येक पृथ्वी के मध्य का अन्तर जो एक राजु कहा है वह सामान्य कथन हैं विशेष रूप से विचार करने पर पहली और दूसरी पृथ्वी की एक शत्रु में शामिल है अब इन दोनों पृवियों का अन्तर दो साथ बारह हार योजन कम एक राजु होगा। इसी प्रकार आगे भी पुषियों की मुटाई प्रत्येक राजु में शामिल हैं अतएव मुटाई का जहाँ जितना प्रमाण हैं उतना कम एक राजु वहाँ अन्तर जानना चाहिये ।
धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये उपर्युक्त पृथ्वियों के गोत्र नाम हैं ।। १५३।। मध्यलोक के अधोभाग से प्रारम्भ होकर पहिला राजु शर्कराप्रभा पृथ्वी के अधोभाग में समाप्त होता है ।। १५४ ।।
रा. ।
इसके आगे दूसरा राजु प्रारम्भ होकर वालुकाप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है, तथा तीसरा राजु पंकप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है ।। १५५||
रा. २ । ३ ।
इसके अनन्तर चौघा राजु धूमप्रभा के अधोभाग में और पांचवां राजु तमःप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है ।। १५६ ॥
रा. ४ १५ ।
पूर्वोक्त क्रम सेठ राजु महातमः प्रभा के अन्त में समाप्त होता है और इसके आगे सातवां राजु लोक के तलभाग में समाप्त होता
है ।। १५७
रा, ६ । ७ ।
मध्यलोक के ऊपरी भाग से सौधर्म विमान के ध्वजदण्ड तक एक लाख योजन कम डेढ़ राजु प्रमाण ऊंचाई है ॥ १५८ ॥
रा १३ ऋण १००००० यो.
इसके आगे टेड राजु माहेन्द्र और सामरकुमार स्वर्ग के ऊपरी भाग में समाप्त होता है। अनन्तर माथा राजु बह्मोत्तर स्वयं के ऊपरी भाव में होता है।।१५।।
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इसके पश्चात् आधा राजु काविष्ट के ऊपरी भाग में आधा राजु महाशुक के ऊपरी भाग में और बाधा राजु सहवार के ऊपरी भाग में समाप्त होता है ॥ १६० ॥
राई । इ इ । ५०
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६ उपरोक्त मान्यताओं की
तुलना
I
१. जैन व वैदिक मान्यता बहुत अशों में मिलती है जैसे १. चूड़ी के साकार रूप से अनेकों द्वीपों व समुद्रों का एक दूसरे की वेष्टित किये हुये अवस्थान २ जम्बूद्वीप, सुमेरू, हिमवान, निषेध, नील, श्वेत ( रुक्मि ), ( श्रृंगी शिखरी) ये पर्वत भारतवर्ष (भरत क्षेत्र) हरिवर्ष, रम्यक, हिरणाय ( है रण्वत्) उत्तर कुरु ये क्षेत्र, माल्यवान व गन्धमादन पर्वत, जम्नुवृक्ष इन नामों का दोनों मान्यतायों में समान होना। ३. भारतवर्ष में कर्मभूमि तथा अन्य क्षेत्र में प्रेतायुग (भोगभूमि) का अवस्थान। मेरु की चारों दिशाओं में मन्दर यदि चार पर्वत जैनमान्य चार गजदन्त हैं। ४. कुल पर्वतों से नदियों का निकलना तथा आर्य व म्लेच्छ जातियों का अवस्थान ५. प्लक्षद्वीप में प्लक्षवृक्ष जम्बू द्वीप व उसमें पर्वतों व नदियों आदि का सवस्थान वैसा ही है जैसा कि भावकी खण्ड में धातकी वृक्ष व जम्बूद्वीप के समान दुगुनी रचना ६. पुष्कर द्वीप के मध्य वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत तथा उसके अभ्यन्तर भाग में घातकी नामक खण्ड है। ७. पुष्कर द्वीप से परे प्राणियों का अभाव लगभग वैसा ही है जैसा कि पुष्करार्ध से आगे मनुष्यों का प्रभाव ८. भूखण्ड के नीचे पातालों का निर्देश लवण सागर के पातालों से मिलता है। ६. पृथ्वी के नीचे नरकों का अवस्थान । १० ग्राकाश में सूर्य, चन्द्र यादि का अवस्थान क्रम । ११. कल्पवासी तथा फिर से न मरने वाले (लौकारिक) देवों के लोक २ इसी प्रकार जैन व बौद्ध मान्यतायें भी बहुत यांशों में मिलती है। जैसे १. पृथ्वी के चारों तरफ वायु व जल मण्डल का अवस्थान जैन मान्य वातवलयों के समान है। २. नेरु आदि पर्वतों का एक-एक समुद्र अन्तराल से उत्तरोतर वेष्टित वलयाकाररूपेण अवस्थान ३. जम्बूद्वीप, पूर्वविदेह, उत्तरकुर, जम्बूवृक्ष, हिमवान, गंगा, सिन्धु यदि नामों की समानता । ४. जम्बूद्वीप के उत्तर में नौ क्षुद्र पर्वत, हिमवान् महा सरोवर व उनसे गंगा सिन्धु आदि नदियों का निकास ऐसा ही है जैसा कि भरत क्षेत्र के उत्तर में ११ कूटों युक्त हिमवान पर्वत पर स्थित पद्म ग्रह से गंगा सिन्धु व रोहिताया नदियों का निकास ५. जम्बूद्वीप के नीचे एक के बाद एक करके अनेकों नरकों का स्वस्थान ६ पृथ्वी से ऊपर चन्द्र-सूर्य का परिभ्रमण । ७. मेरु शिखर पर स्वर्गो का अवस्थान लगभग ऐसा ही है, जैसा कि मेरु शिखर से ऊपर केवल एक बाल प्रमाण
के
इसके अनन्तर अर्ध राजु आनत स्वर्ग के ऊपरी भाग में और अर्ध राजु आरए स्वर्ग के ऊपरी भाग में पूर्ण होता है। बाद एक राजु की ऊँचाई में जो नौ मदिय और पांच अनुत्तर विमान है। इस प्रकार अलोक में राजू का विभाग कहा गया है ।। १६१-१६२ ॥
रा. ३ । ३ । १ ।
अपने-अपने अन्तिम इन्द्रक विमान सम्बन्धी ध्वजदण्ड के अग्रभाग तक उन उन स्वर्गों का अन्त समझना चाहिये और कल्पातीत भूमि का जो अन्त है वही लोक का भी अन्त है ।। १६३ ।।
अबोलोक के मुख का विस्तार जग श्रेणी का सातवाँ भाग, भूमि का विस्तार जगश्रेणी प्रमाण और अधोलोक के अन्त तक ऊँचाई भी जगणी प्रमाण ही हैं ।। १६४ ।।
रा. १७३७ १
मुख और भूमि के योग को जाया करके पुनः ऊंचाई से गुणा करने पर शासन सय तोक (अधोलोक ) का क्षेत्रफल जानका चाहिये ।। १६५ ।।
१÷७÷२७ २८ रा. क्षे.फ.
लोक को चार से गुणा करके उसमें राहत का भाग देने पर अधोलोक के घनफल का प्रमाण निकलता है और सम्पूर्ण लोक को दो से गुणाकर प्राप्त गुणनफल में सात का भाग देने पर अधोलोक सम्बन्धी आधे क्षेत्र का घनफल होता है ॥ १६६ ॥
३४३४४÷७=१६६ रा. अ. लो. का घ. फ.
३४३X२ - ७६८ रा. अर्द्ध अ. लो. का घ. फ.
अधोलोक में से साली को छेदकर और उसे अन्यत्र रख कर उसका धनफल निकालना चाहिये। इस घनफल का प्रमाण लोक के प्रमाण में उनचास का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना होता है ।। १६७ ।।
रा, ७ X १×१ =७ अ. लो. व. ना. का. फ. ३४३:४६ =७ ।
लोक को सत्ताइस से गुणा कर उसमें उनचास का भाग देने पर अरे लब्ध अवे उतना साली को छोड़ शेष अधोलोक का धनफल
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भ्रन्तर से जन मान्य स्वो के प्रथम "ऋतु' माभक पटल का अबस्थान ८. देवों में कुछ का मैथुन से और कुछ का स्पर्श या अवलोकन मादि से काम भोग का सेवन तथा ऊपर के स्वर्गों में कामभोग का अभाव जैनमान्यतावत् हो है। (दे० देव ।।१।१०) ६. देवों का ऊपर-ऊपर अवस्थान । १०. मनुष्यों की ऊँचाई से लेकर देवों के शरीरों की ऊँचाई तक ऋमिक वृद्धि लगभग जैन मान्यता के अनुसार है। (दे० अवगाहना) । ३-आधुनिक भूगोल के साथ यद्यपि जैन भूगोल स्थूल दृष्टि से देखने पर मेल नहीं खाता पर प्राचार्यों की सुदूरवर्ती सूक्ष्मदृष्टि व उनकी सूत्रात्मक कथन पद्धति को ध्यान में रखकर विचारा जाये तो वह भी बहुत प्रशों में मिलता प्रतीत होता है।
यहाँ यह बात अवश्य ध्यान में रखने योग्य है कि वैज्ञानिक जनों के अनुमान का आधार पृथ्वी का कूछ करोड वर्ष मात्र पूर्व का इतिहास है। जबकि प्राचार्यों की दृष्टि कल्पों पूर्व के इतिहास को स्पर्श करती है। जैसे कि१. पृथ्वी के लिये पहले अग्नि का गोला होने की कल्पना उसका धीरे-धीरे ठण्डा होना और नये सिरे से उस पर जीवों व मनुष्यों की उत्पत्ति का विकास लगभग जनमान्य प्रलय के स्वरूप से मेल खाता है (दे० प्रलय) । २. पृथ्वी के चारों ओर के वायुमण्डल में ५०० मील तक उत्तरोत्तर तरलता जैन मान्य तीन वातावलयोंबत ही है। ३. एशिया आदि महाद्वीप जैन मान्य भरतादि क्षेत्रों के साथ काफी यज्ञ में मिलते हैं (दे० प्रगला शीर्षक) ४. आर्य ब म्लेच्छ जातियों का यथायोग्य अवस्थान भी जैन मान्यता को सर्वथा उल्लंघन करने को समर्थ नहीं। ५. सर्य-चन्द्र आदि के प्रवस्थान में तथा उन पर जीव राशि सम्बन्धी विचार में अवश्य दोनों मान्यताओं में भेद हैं। तहाँ भी सूर्य-चन्द्र मादि में जीवों का सर्वथा अभाव मानना वैज्ञानिकों की अल्पज्ञता का भी द्योतक है, क्योंकि वहाँ रहने वाले जैन मान्य वैक्रियिक शरीरधारी जीव विशेषों को उनकी स्थूल दृष्टि यन्त्रों द्वारा भी स्पर्श करने को समर्थ नहीं है।
समझना चाहिये । और लोक प्रमाण को चार से गुणा कर उसमें सात का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना अस नाली से युक्त पूर्ण अधोलोक का वनफल समझना चाहिये ।। १६ ॥
३४३४२७-४६=१८६ सनाली छोड़ शेष अ. लो. काप. क. ३४३४४ =१९६ पूर्ण ब.लो. का घनफल ।
मृदंग के आकार का जो सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोक है उसे देदकर मिला देने पर पूर्व पश्चिम से वेत्रासन के सदृश अपोलोक का आकार बन आता है ।। १६६॥
ऊर्ध्व नोक के मुख का व्यास जगणी का सातवा भाग है और इरासे पाँचगुणा (५ राजु) उसकी भूमि का ध्यास तथा ऊंचाई एफ जमश्नरणी है ।। १७०॥
रा.१ । ५। ७ । लोक को तीन से गुणा करके उसमें सात का भाग देने पर जो लब्ध आत्रे उतना ऊध्र्वलोक का बनफल है और लोक को तीन से गणा करके उसमें चौदह का भाग देने पर लब्धराशि प्रमाण ऊर्व लोक सम्बन्धी आधे क्षेत्र का फल (घनफल) होता है ।। १७१ ॥
३४३४३:७=१४७ ऊ. लो. घ. फ. ३४३४३:१४=७३३ अई ऊ. लो. घ. फ.
अचलोक से अस नाली को छेदकर और उसे अलग रखकर उसका घनपाल निकाले । इस बनफल का प्रमाग उनपास से विभक्त लोक के बराबर होगा ।। १७२ ॥
३४३:४६७ अ. लो. त्र. ना. घ. फ.
लोक को बीस से गूणा करके उसमें उनचास का भाग देने पर बसनाली को छोड़ बाफी अवलोक का घनफल निकल याता है। लोक को तिगृणा कर उसमें सात का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना वसनाली युक्त पूरणं ऊर्ध्वलोक का घनफल है।। १७३ ॥
३४३४२०-४९=१४० असनाली से रहित क. लो. का ध, फ. ३४३४३:७=१४७ असनाली युक्त ऊ. लो. का घनफल
अवलोक मौर अधोलोक के घनफल को मिला देने पर वह धेशी के बनप्रमाण (लोक) होता है । अब विस्तार में अनुराग
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७. जैन भूगोल का कुछ समन्वय
यद्यपि निश्चित रूप से इस विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता, परन्तु वर्तमान के भूगोल की, जिसका आधार कि इन्द्रिय प्रत्यक्ष है, भी अवहेलना करना था उसे विश्वास योग्य न मानना युक्त नहीं। अतः समन्वयात्मक दृष्टि से विचार कर आचार्य प्रणीत सूत्रों का अर्थ करना योग्य है। ऐसा करने से इस विषय सम्वन्धी अनेकों उलझनें सुलझ सकती हैं और वर्तमान भूगोल के साथ उनका मेल स्पष्ट हो सकता है यथा १. नरक, स्वयों के पटलों को पृथ्वीमयी न समझकर केवल आकाश के भीतर कल्पना किये गये वे क्षेत्र समझने चाहिये जिनमें कि प्राचार्य प्रणीत इन्द्रकों आदि की वह रचना विशेष अवस्थित है |२| नरक व स्वगों के इन्द्रक श्रेणी बद्ध व प्रकीर्णक बिल व विमान इस पृथ्वी की भाँति हा स्वतन्त्र भूखण्ड हैं । तथा ऐसा माना भी गया है । (दे० विमान ) ३. यद्यपि इन पृथ्वियों के घूमने का कोई निर्देश नहीं है पर साथ ही निश्चित रूप से उनके घूमने का कहीं निषेध भी नहीं है । इसलिये उन सभी पृथ्वियों का प्रकृति के नियमानुसार एक-दूसरे के गिर्द घूमना स्वीकार करने में कोई हानि नहीं पड़ती । तथा उनका चक्राकार से अवस्थान भी कुछ इस बात का अनुमान कराता है कि वे पृथ्वियाँ अवश्य नित्य घूम रही हैं । दे० मागे लोक ७ में इन्द्रों व श्रेणीबद्धों की रचना विशेष का आकार ) ४. इनके घूमने का क्रम भी उसी प्रकार का होना चाहिये जैसा कि प्रत्येक भौतिक पदार्थ में एक प्रोटीन के गिर्द अनेकों इलेक्ट्रानों का घूमना अथवा सौर मण्डल में एक सूर्य के गिर्द चन्द्र पृथ्वी ग्रह आदि अनेकों पृथ्वियों का घूमना ५. एक सौरमण्डल में अनेकों पृथ्वियां एक सूर्य के गिर्द घूमती है और वह एक पूरा का पूरा सौर मण्डल किसी दूसरे सौर मण्डल के गिर्द घूमता है और ये दोनों समुदित रूप से किसी तीसरे बड़े सौर मण्डल के गिर्द घूमते हैं इत्यादि। इसी प्रकार यहाँ इन्द्रक सर्वे प्रधान है। इसके गिर्द पत्र के अरों के आकार से स्थित श्रेणीबद्ध को मध्य में करके धनेव प्रकीर्णक मण्डल घूमते हैं एक-एक प्रकीर्णक मण्डल में भी इसी प्रकार की क्षुद्र रचना अनु मान की जाती है । ६. नित्य घूमते रहते भी रे आकाश में निश्चित उपरोक्त अपनी-अपनी सीमा को उल्लंघन नहीं करते, वही
रखने वाले शिष्यों को समझने के लिये अनेक विकल्पों द्वारा भी इसका कथन करता हूँ || १७४ ॥
क. घ. १४७ - अ. घ. १६६ = ३४३ (७७७ ३४३, घ)
अधोलोक के मुख का व्यास श्रेणी का सातवां भाग अर्थात् एक राजु और भूमि का विस्तार श्रेणी प्रमाण (७ रा ) है, तथा उसकी नाई भी खीमा ही है ।। १७५ ।।
भूमि के प्रमाणों में से मुख का प्रत्येक पृथ्वी क्षेत्र की मुख की अपेक्षा वृद्धि
रा, १/७/७/
प्रमाण घटाकर शेष में ऊँचाई के प्रमाण का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना सब भूमियों में से और भूमि की अपेक्षा हानि का प्रमाण किता है ॥१७६॥
७- १ ÷ ७ = वृद्धि और हानि का प्रमाण ।
विवक्षित स्थान में अपनी अपनी ऊँचाई से उस वृद्धि और क्षय के
प्रमाण में से घटाने पर अथवा मुख के प्रमाण में जोड़ देने पर उक्त स्थान में व्यास का प्रमाण निकलता है || १७७ ||
प्रमाण को (3) गुणा करके जो गुणनफल प्राप्त हो, उसको भूमि के
विशेषार्थ – कल्पना कीजिये कि यदि हमें भूमि की अपेक्षा चतुर्थ स्थान के व्यास का प्रमाण निकालना है, तो हाति का प्रभाग जो छह बटे खात (5) है, उसे उक्त स्थान की ऊँचाई से (३) प्राप्त हुये गुणनफल को भूमि के प्रमाण में से घटा देना चाहिये। इस रीति से चतुर्थ स्थान का व्यास निकल आयेगा। इसी प्रकार मुख की अपेक्षा चतुर्थ स्थान के व्यास को निकालने के लिये वृद्धि के प्रमाण (5) को उक्त स्थान की ऊँचाई (४ राजु) से गुणा करके प्राप्त हुये गुणनफल को मुख में जोड़ देने पर विवक्षित स्थान के व्यास का प्रमाण निकल आवेगा । भूमि की अपेक्षा चतुर्थ स्थान का व्यास ।
उदाहरण-- ३३=
भू.
5 × ४ : 33+ मु० डे मुख की अपेक्षा चतुर्थ स्थान का व्यास ।
५.३
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उन पटलों का रूप व अवस्थान है। ये पटल एक के पश्चात् एक करके गणनातीति योजनों के अन्तराल से ऊपर-ऊपर अवस्थित हैं । ७. नरक में उन इन्द्रक आदि भूखण्डों की बिल संज्ञा और स्वर्ग में उन्हीं को विमान संज्ञा देने का कारण यही है कि पहले के निवासी वहाँ अत्यन्त ग्रन्धकार पूर्ण अत्यन्त शीत या अत्यन्त उष्ण अनेकों प्रकार के विषैले व तीक्ष्क्ष दाँत वाले क्षुद्र जीवों से पूर्ण दलदल वाली गुफाओं में रहते हैं और दूसरे के निवासी यहां अत्यन्त सुखमय भवनों में रहते हैं म उपरोक्त पटलों की भाँति मध्य लोक भी एक पटल है। मन्तर इतना ही है कि उपरोक्त पटलों में सारकी देवों की निवासभूत पृथ्वियां हैं और यहाँ मनुष्य व तिचों की निवासभूत हैं। वहाँ वे पृथ्वियां श्रेणीबद्ध व प्रकोशकों के रूप में अवस्थित रहती हुई घूमती हैं और यहां सभी पृथ्वियां एक श्रेणी में अवस्थित रहती हुई घूमती हैं। एक के पश्चात् एक करके उत्तरोत्तर दूने प्रमाण को लिये उनका अवस्थान तथा उनके प्रसंख्यात विरोध को प्राप्त नहीं होती। १. विवाद पड़ता है उनके शाकार के विषय में भारतीय दर्शनकार उन्हें वलयाकार मानते हैं। जबकि वैज्ञानिक नारंगीवत गोल । सो इसका भी समन्वय इस प्रकार किया जाता है कि द्वीप रूप से निर्दिष्ट उन्हें भूखण्ड न मानकर भूखण्डों का संचार क्षेत्र मान लिया जाये। जम्बू द्वीप सुमेरु के गिर्द, पातकी खण्ड जम्बूद्वीप के गिर्द और इसी प्रकार आगे-आगे के द्वीप पूर्व-पूर्व के द्वीप के गिर्द घूम रहे हैं। सुमेरु के गिर्द लट्टू की भांति घूमने से जम्बूद्वीप का संचार क्षेत्र जम्बुद्वीप प्रमाण ही है, परन्तु अगले द्वीपों का संचारक्षेत्र पूर्व-पूर्व द्वीप के गिर्द वलयाकार रूप बनता हैं । इन संचार क्षेत्रों का विष्कम्भ या विस्तृत अपनी-अपनी पृथ्वी के बराबर होना स्वाभाविक है। सुमेरु पर्वत व उस उस पृथ्वी के बीच जो अन्तराल है वही इन बसों की सूची का प्रमाण है। यद्यपि यह अनुमान प्रमाण भूल नहीं कहा जा सकता है, पर प्रत्यक्षदृष्ट याधुनिक भूगोल के साथ जैन भूगोल की संगति बैठाने के लिये इसमें कुछ विरोध भी नहीं है । १०. द्वीपों के मध्यवर्ती सागरों का निर्देशा वास्तव में जलपूर्ण सागर रूप प्रतीत नहीं होता, बल्कि उन द्वीपों के मध्यवर्ती अन्तरालों में स्थित पन वनोदधि वातरल रूप प्रतीत होता है। बलवाकार संचार क्षेत्रों के मध्य रहने वाले उस अन्तराल का भी वलयाकार होना
श्रेणी में उनंचास का भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे कम से भाऊ जगह रखकर व्यास के निमित्त गुणा करने के लिये आदि में गुणकार सात है। पुनः इसके आगे कम से यह यह गुणाकार की वृद्धि होती गई है
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सात के घन अर्थात् तीन सौ तेतालीस से भाजित लोक को क्रम से सात जगह रख कर अघोलोक के सात क्षेत्रों में से प्रत्येक क्षेत्र के घनफल को निकालने के लिये आदि में गुणकार दश और फिर इसके आगे कम से छह-छह की वृद्धि होती गई है | ॥१७६॥
लो. प्र. ३४३, ३४३७११, ११०, ११६, १८२२ १४२६ १३४, १x४०, १५४६ ।
विशेषार्थ मुख
और भूमि को जोड़कर उसे आधा करने पर प्राप्त हुये प्रमाण को विवक्षित क्षेत्र की ऊँचाई और मोटाई से गुणा करने पर विषम क्षेत्र का धनफल निकलता है । इस नियम के अनुसार उपर्युक्त सात पृथ्वियों का घन फल निम्न प्रकार है ।
मु. +भू, ३२१७६
१० रा,
प्र. पृथ्वी क्षेत्र का घ. फ. द्वितीय पृथ्वी क्षेत्रका तृतीय पृथ्वी क्षेत्र का घ.फ. पृथ्वी क्षेत्रका
पं. पृथ्वी का प. फ.
पृथ्वी क्षेत्रका
स. पृथ्वी क्षेत्रका
१६
T
६ - २२४१४७२२ रा ११७-२० २१२४ रा ११x४ रा. ११० ४६,
६४४
पूर्व और पश्चिम से लोक के अन्त के दोनों पार्श्व भागों में तीन, दो मोर एक राजु वेदा करने पर ऊँचाई क्रम से एक जग श्रेणी, श्रेणी के तीन भागों में से दो भाग, और श्रेणी के तीन भागों में से एक भाग मात्र हैं ।। १८०||
XV
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यक्ति संगत है।११. मध्यलोक की उपरोक्त सर्व पथिचियों को पथक-पथक रूप से नारंगीवत गोल मान लेने पर भी मध्यलोक का समुदित चपटा थाली के आकार वाला रूप विरोध को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि उक्त संचार क्षेत्रों को समुदित रूप का वही आकार है। (१२) इस पृथ्वो को ही जम्बूद्वीप मानकर इसमें भारत आदि क्षेत्रों का हिमवान पर्वतों का अवस्थान भी यथायोग्य रूप में फिर बैठाया जा सकता हैं। भले ही शब्दशः व्याख्या का मेल बैठ जाता है। परन्तु ऐसा करने के लिये हमें भौगोलिक इतिहास पर दृष्टि डालनी होगी कि किस-किस समय में इनके नाम क्या-क्या रहे हैं, किस प्रकार से उस मान्यता ने बदलकर यह रूप धारण कर लिये । प्रकृति के परिवर्तन की अटूट धारा में कब-कब व किस-किस प्रकार पहले-पहले पर्वत आदि भूगर्भ में समा गये और नये उत्पन्न हो गये इत्यादि । इस विषय का कुछ स्पष्टीकरण चातुर्दीपिक भूगोल नाम के अगले शीर्षक के अन्तर्गत दिया गया है।
चातुर्दीपिक भूगोल परिचय (ज. प. । प्र.१.८ । एच. एक जन का भावाय) १. फाशी नागरी प्राचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित सम्पूर्णानन्द अन्य में दिये गये, श्री रामकृष्ण दास जी के एक लेख के अनुसार, वैदिक धर्म मान्य सप्तद्वीपक भूगोल (दे० शीर्षक न०३) की अपेक्षा चातुपिक भूगोल अधिक प्राचीन है। इसका अस्तित्व अब भी वायु पुराण में कुछ-कुछ मिलता है। चीनी यात्री मेगस्थनीज के समय में भी यही भूगोल प्रचलित था, क्योंकि वह लिखता है कि भारत के सीमान्त पर तीन और देश माने जाते हैं-सीदिया, बैक्ट्रिया तथा एरियाना। सोदिया से उसके भद्राश्व व उत्तरकुरु तथा बैंक्ट्रिया व एरियाना से केतुमालद्वीप अभिप्रेत हैं। प्रशोक के समय में भी यही भूगोल प्रचलित था, क्योंकि उसके शिला लेखों में जम्बू द्वीप भारतवर्ष की संज्ञा है। महाभाष्य में आकर सर्व प्रथम सप्तद्वीपिक भूगोल की चर्चा है। अतएव वह अशोक तथा महाभाष्य काल के बीच की कल्पना जान पड़ती है। २. सप्तद्वीपिक भूगोल की भांति यह चातुर्ती पिक भूगोल कल्पना मात्र नहीं है, बल्कि इसका प्राधार वास्तविक है। उसका सामंजस्य आधुनिक भूगोल से हो जाता है। ३. चातुदींपिक भूगोल में जम्बूद्वीप पृथ्वी के चार महाद्वीपों में से एक है और भारतवर्ष जम्बूद्वीप का ही दूसरा नाम है। वहीं सप्तद्वीपक भूगोल में जाकर इतना बड़ा हो जाता है कि उसकी बराबरी वाले अन्य तीन द्वीप (भद्राश्व, केतुमाल व उत्तरकुरु) उसके वर्ष बनकर रह जाते हैं। और भारतवर्ष नाम वाला एक अन्य वर्ष (क्षेत्र) भी उसी के भीतर कलिगत कर लिया जाता है। ४. चातुर्तीपी भूगोल का भारत (जम्बूद्वीप) जो मे तक पहंचता है. सप्तद्वीपिक भूगोल में जम्बूद्वीप के तीन वर्षों या क्षेत्रों में विभक्त हो गया है-भारत वर्ष, किंपुरुष व हरिबर्ष । भारत का वर्ष पर्वत हिमालय है। किंपुरुष हिमालय के परभाग में मंगोलों की बस्ती है, जहाँ से सरस्वती नदी का उद्गम होता है तथा जिसका नाम आज भी कन्नौर में प्रवशिष्ट है। यह वर्ष पहले तिब्बत तक पहुंचता था, क्योंकि वहां तक मंगोलों की बस्ती पायी जाती है । तथा इसका वर्ष पर्वत हेमकूट है, जो कतिपय स्थानों में हिमालयान्तर्गत ही वणित हुया है। (जैन मान्यता में किंपुरुष के स्थान पर हैमवत और हिमकूट के स्थान पर महा हिमधान का उल्लेख है। हरिवर्ष से हिरात का तात्पर्य है जिसका पर्वत निषध है, जो मेरु तक पहुचता है । इसी हरिवर्ष का नाम अवेस्ता में हरिवर जी मिलता है। ५. इस प्रकार रम्यक, हिरण्यमय
और उत्तर कुरु नामक वर्षों में विभक्त होकर चातुर्दीपिक भूगोल वाले उत्तरकुरु महाद्वीप के तीन वर्ष बन गये हैं। ६. किन्तु पूर्व और पश्चिम के भद्राश्व व केतुमाल द्वीप यथापूर्व दो के दो ही रह गये। अन्तर केवल इतना ही है कि वे यहां दो महाद्वीप
(१) भूजा और प्रतिभूजा को मिलाकर आधा करने पर जो व्यास हो, उसे ऊंचाई और मोटाई से गुणा करना चाहिए। ऐसा करने से त्रिकोण क्षेत्र का घनफल आता है।
(२) एक लम्बे बाह को व्यास के आधे से गुणा करके पुनः मोटाई से गुणा करने पर एक लम्बे बाहयुक्त क्षेत्र के धनफल का प्रमाण आता है ।।१८१||
लोक में च्यालीस का भाग देने से, चौदह का भाग देने से, और लोक को पांच से गुणा करके उसमें व्यालीस का भाग देने से क्रमशः उन तीनों अभ्यान्तर क्षेत्रो का धनफल निकलता है।
॥१८॥ ३४२ :-४२= प्र. अ. क्षेत्रफल का पन प, ३४३:१४=२४ दि, अक्षेत्र का धनफल ३४३४५: ४२=४० तृ प्रक्षेत्र का घनफल।
इस समस्त घनफल को मिलाकर और उसे दुगुना करके इसमें ममम क्षेत्र के घनफल को जोड़ देने पर चार से गुणित और सात से माणित लोक के बराबर संपूर्ण अधोलोक के घनफल का प्रमाण निकल आता है । ॥१३॥ ... +२ +४. ७३% ७३४२=१४७, १४७+ ४६=१९६ पूर्ण अ. लो का घनफल बराबर ३४३४४७ रा.
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न होकर एक द्वीप के अन्तर्गत दो वर्ष या क्षेत्र हैं। साथ ही मेरु को मेखलित करने वाला, सप्तद्वीपिक भूगोल का इलावृत भी। एक स्वतन्त्र वर्ष बन गया है। ७. यों उक्त चार द्वीपों से पल्लवित भारवर्ष प्रादि तीन दक्षिणी, हरिवर्ष आदि तीन उत्तरी, भद्राश्व व केतुमाल ये दो पूर्व व पश्चिमी तथा इलावत नामक केन्द्रीय वर्ष जम्बूद्वीप के नौ वर्षों की रचना कर रहा है। . (जैनाभिमत भुगोल में है की बजाय १० वर्षों का उल्लेख है। भारतवर्ष किंपुरुष व हरिवर्ष के स्थान पर भरत हेमबत व हरि ये तीन मेरू के दक्षिण में हैं। रम्यक, हिरण्यमय तथा उत्तर कुरु के स्थान पर रम्यक हरण्यवत व ऐरावत ये तीन मेरु के उत्तर में हैं। भद्राश्व व केतुमाल के स्थान पर पूर्व विदेह व पश्चिम विदेह ये दो मेरु के पूर्व व पश्चिम में हैं। तथा इलावत के स्थान पर देवकूरु व उत्तरकुरु ये दो मेरु के निकटवर्ती हैं। यहां वैदिक मान्यता में तो मेरु के चौगिर्द एक ही वर्ष मान लिया गया
धिक धीम
र शैविया)
MARA Joissert HAM नीम पर
परिम
म.44) ॐ सोन)
IMGE (मनोमा)
वर्तमान कमीर BreysaA
पित
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INDERIAnd HAMANEval
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नोट:-
*मार जीप भारी मात्र है -मेरमनीले भारत सीमा पर सिटिका
और रिपागदीप पहिचत है
और जैन मान्यता में उसे दक्षिण व उत्तर दिशा वाले दो भागों में विभक्त कर दिया है। पूर्व व पश्चिमी भद्राश्व व केतुमाल द्वीपों में वैदिकजनों ने दोत्रों का विभाग न दर्शाकर अखण्ड रक्खा, पर जैन मान्यता में उसके स्थानीय पूर्व व पश्चिम विदेहों को भी (१६, १६ क्षेत्रों में विभक्त कर दिया गया) ६. मेरु पर्वत वर्तमान भूगोल का पामीर प्रदेश है । उत्तरकुरु पश्चिमी तुर्किस्तान है। सीता नदी यारकन्द नदी है।
निषध पर्वत हिन्दुकुश पर्वतों की श्रृंखला है। हैमवत भारतवर्ष का ही दूसरा नाम रहा है। (दे० वह-बह नाम)। लोक सामान्य निर्देश
१. लोक का लक्षण दे०काश २३ (१.पाकाश के जितने भाग में जीव पुदगल आदि षट द्रव्य देखे जांय सो लोक है और उसके चारों तरफ शेप अनन्त माकाश अलोक है, ऐसा लोक का निरुक्ति अर्थ है। २. अथवा षट् द्रव्यों का समवाय लोक है)।
दे० लोकान्तिक ।। (२. जन्म-जरामरण रूप यह संसार भी लोक कहलाता है।)
रा, बा. ११२११०-१३१४५५।२० यत्र पुण्यपापफललोकनं स लोकः ।१०। कः पूनरसौ। पात्मा । लोकति पश्यत्युप लभते प्रनिति लोकः ११११ सर्वज्ञेनानन्ताप्रतिहदकवलदर्शने लोक्यते यः स लोकः । तेन धर्मादीनामपि लोकत्वं सिद्धम् ।१३जहां पूण्य व पाप का फल जो सुख-दुःख वह देखा जाता है सो लोक है इस व्युत्पत्ति के अनुसार लोक का अर्थ प्रात्मा होता है। जो पदार्थों को देखे व जाने सो लोक इस व्युत्पत्ति से भी लोक का अर्थ प्रात्मा है। प्रात्मा स्वयं अपने स्वरूप का लोकन कर
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ता है अतः लोक है। सर्वज्ञ के द्वारा अनन्त व अप्रति:त केबलदर्शन से जो देखा जाये सो लोक है। इस प्रकार धर्म ग्रादि द्रव्यों का भी लोकपना सिद्ध है।
पराक्त) तीनों में से अधो
२. लोक का प्राकार तित 11१७-१३८ देटिठमलोयायारो बेत्तासणसणिही सहावेण । मज्झिमलोयायारो उब्भियमर अद्धसारिच्छो उवरिम लोयारी उब्भिय मर वैणिहोइ सरिसत्तो। संठाणो एदाणं लोयाण एहि साहेमि ।१३८। इन (उपरोक्त) तीनों में से अधोलोक का आकार स्वभाव से वेत्रासन के सदश है, और मध्य लोक का प्राकार खड़े किये हये आधे मृदंग के ऊर्ध्वभाग के समान है ।१३। ऊध्वं लोक का आकार ले किये हुये मृदंग के सदृश है ।१३८। (ध ४११.३.२। गा०६।११) (वि. सा. ६) : (ज.प. 18): (द्र. सं 1 टी.री.।३।११२१११) । घ. ४।१.३.२।गा. ७११ तलस्वख संठाणो ।७। - यह लोक ताल वृक्ष के याकार वाला है।
जग प्र । २४ प्रो० लक्ष्मीचन्द-मिस्र देश के गिरजे में बने हये महास्तुप से यह लोका काश का प्राकार किंचित समानता रखता प्रतीत होता है।
का प्राकार खड़े किये
का आकार सड़े किये हुये प्रदेश
-- - -
-.
.
३. लोक का विस्तार ति १ १।१४६-१६३ मेढिपमाणायामं भागेसु दक्खिणुत्तरेषु पूढे । पुवावरेसु वासं भूमिमुहे सत्त येवकपचेक्का ।१४६। चोइस रज्जुपमाणो उच्छेहो होदि सयललोगस्स ! अद्धमुरज्जस्सुदबो समग्गमुखोदयसरिच्छो ।१५० हेट्ठिम मज्झिमउबरिमलो उच्छेहो कमेण रज्जूवो । सतय जोयणलक्खं जोयणलक्खूणसगरज्जू ।१५१॥ इह रयणसकरात्रालुपंकषमतममहातमादिपहा। मुरबद्धिम्मि महीनो सत्त च्चिय रज्जु अन्तरिया ।१५२। धम्मावंसामेघाजणरिट्ठाण उब्भमघवीयो माघविया इय ताणं पूतवीण गोत्तणामाणि ।१५३। 1 मज्झिम जगस्सहेदिठमभागादो णिग्गदो पढमरज्ज । सक्करपहपुतवीए हेठिमभागम्मि णिठ्ठादि ।१५४! तत्तो दोईद रज्जू वालुवपहहेट्ठि समप्पेदि । तह य तइज्जा रज्जू पंकपहहेवस्य भागम्मि ।१५५। धूमपहाए हेदिमभागम्मि समपदे तुरिय रज्जू । तह पंचमिया रज्जू तमप्पहाहेट्ठिमपएसे 1१५६१ महतमहेमियंते छट्ठी हि समप्पदे रज्ज तत्तो सत्तमरज्ज़ लायस्स तलम्मि गिट्ठादि ।१५७। मभिमजगस्य उवरिमभागाद दिवढरज्जपरिमाणं । इगिजोयण लक्षणं सोहम्मविमाण धयदंडे 1१५८। वच्चदि दिवइवरज्जू माहिंदसणकुमार उबारम्मि । गिट्ठादि प्रद्धरज्जू बभुत्तर उडढभागम्मि ११५६॥ अवसादि प्रद्धरज काविठ्ठस्सोबरिटउभागम्मि। स च्चि सहसुक्कोवरि सहसारोवरि अ स रुचय ।१६०। तत्तोय प्रवरज्ज आणदकप्पस्स उरिम-पएसे । स य पारणस्य कप्पस्स उरिम भागम्मि गेबिज्ज ।१६१। तत्तो उवरिमभागे गवाणतरो होति एक्करज्जूयो । एवं उरिमलोए रज्जुविभागो समुद्दिद ।१६। णियणिय चरिमिदयधयदंडग्ग कम्प मिनवसाणं कप्पादीदमहीए विच्छेदो लोयविच्छेदो ।१६।
.
दक्षिण और उत्तर भाग में लोक का पायाम जग श्रेणी प्रमाण अर्थात् सात राजू है। पूर्व और पश्चिम भाग में भूमि प्रौर मुख का व्यास क्रम से सात एक, पांच और एक राज है। तात्पर्य यह है कि लोक की मोटाई सर्वत्र सात राजू है और विस्तार ऋम से लोक के नीचे सात राज, मध्यलोक में एक राज् ब्रह्म स्वर्ग पर पाँच राज और लोक के अन्त में एक राजू है। १२) सम्पूर्ण लोक की ऊंचाई १४ राजू प्रमाण है। अर्द्ध मृदंग की ऊंचाई सम्पूर्ण मृदंग की ऊँचाई के सदृश है। अर्थात् अर्द्धमृदंग सदश अधोलोक जैमे सात राज ऊंचा है। उसी प्रकार ही पूर्ण मृदंग सदृश ऊर्ध्वलोक भी सात ही राजू ऊंचा है।१५०। क्रम से प्रघोलोक की ऊंचाई सात राज, मध्यलोक की ऊंचाई १००,००० योजन और ऊर्ध्वलोक की ऊंचाई एक लाख योजन कम सात राज है। 1१५१ (ध, ४११, ३, २। गा. ८।११), (त्रि. सा. १३३)(ज. प.।४।११, १६.१७) । ३. तहाँ भी तीनों लोकों में से अर्द्धमृदंगाकार अधोलोक में रत्नप्रभा, शक्राप्रमा, बालुकाप्रमा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमप्रभा ये सात पृथ्वीयां एक राज के अन्तराल से हैं 1१५२१ घर्मा, वंशा, मेघा, अजना, अरिष्टा मधवी और माधवी ये इन उपर्युक्त पृथ्वियों के अपरनाम है।।१५। मध्यलो के अधोभाग से प्रारम्भ होकर पहला राजू शर्कराप्रभा पृथ्वी के अधोभाग में समाप्त होता है । १५४॥ इसके प्रागे दूसरा राजू प्रारम्भ होकर बालुकाप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है। तथा तीसरा राजू पंकप्रभा के अधोभाग में ११५॥ चौथा धूमप्रभा के अधोभाग में, पांचवां तमः प्रभा के अधोभाग में ।१५६। और छठा राजू महातमःप्रभा के अन्त में
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समाप्त होता है। इसमे आगे सातवाँ राजू लोक के तलभाग में समाप्त होता है।१५७। (इस प्रकार अधोलोक की ७ राजू ऊंचाई का विभाग है।) ४. रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन भागों में से खरभाग १६,००० यो पंक भाग ८४,००० योजन और अबृहल भाग ८०,००० योजन मोटे हैं । दे. रत्नप्रभा/२। ५. लोक में मेरु के तलभाग से उसको चोटी पर्यन्त १००,००० योजन ऊँचा व राजू प्रमाण विस्तार युक्त मध्यलोक है। इतना ही तिर्यक्लोक है। (दे तिर्यच!३/१)। मनुष्यलोक चित्रा पृथ्वी के ऊपर से मेरु की चोटी तक १६००० योजन विस्तार तथा प्रहाई दीप प्रमाण ८५.००.००० योजन विस्तार युक्त है। (दे मनष्य/४) ६ (चित्रा पथ्वी के नीचे खर व पंक भाग में १००,००० यो० तथा चित्रा पृथ्वी के ऊपर मेरु की चोटी तक ६६००० योजन ऊंचा और एक राजप्रमाण विस्तार युक्त भावनलोक है। -दे. लोक/२/९ । इसी प्रकार व्यन्त र लोक भी जानना । दे. लोक/२/१० । चित्रा पृथ्वी से ७६० योजन ऊपर जाकर ११० योजन बाहुल्य व १ राजू विस्तार युक्त ज्योतिष लोक है । दे.ज्योतिष /२/१)। ७. मध्यलोक के ऊपरी भाग से सौधर्म बिमान का ध्वजदण्ड १००,००० योजन कम १३ राजू प्रमाण ऊँचा है। १५८। इसके प्रागे है ११ राज माहेन्द्र व सनत्कुमार स्वर्ग के ऊपरी भाग में, १/२ राजू ब्रह्मोत्तर स्वर्ग के ऊपरी भाग में प्राधा राज कापिष्ठ के ऊपरी भाग में, प्राधा राजू महाशुक्र के ऊपरी भाग में, १२ राजू सहस्रार के ऊपरी भाग में ।१६१। १२ राजू आनत के ऊपरी भाग में और १/२ राज आरण-अच्यूत के ऊपरी भाग में समाप्त हो जाता है । १६१ । उसके ऊपर एक राजू की ऊँचाई में नवयक, नव अनुदिश, और ५ अनत्तरश्मिान हैं। इस प्रकार अवलोक में ७ राजू का विभाग कहा गया ।१६। अपने-अपने अन्तिम इन्द्रक-विमान सम्बन्धी ध्वजदण्ड के अग्रभाग तक उन-उन स्वर्गों का अन्त समझना चाहिये । और कल्पातीत भूमिका जो अन्त है। वही लोक का भी अन्त है । १६३८. (लोकशिखर के नीचे ४२५ धनुष और २१ योजन मात्र जाकर अन्तिम सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक स्थित है (दे. स्वर्ग ५/१) सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक के वजदण्ड से १२ योजन मात्र ऊपर जाकर अष्टम पृथ्वी है। वह ८ योजन मोटी व एक राज प्रमाण विस्तत है। उसके मध्य ईपत प्रारम्भार क्षेत्र है। वह ४५००,००० योजन विस्तार युवत है। मध्य में ८ योजन और सिरों पर केवल अंगुल प्रमाण मोटा है। इस प्रष्टम पृथ्वी के ऊपर ७०५० धनुष जाकर सिद्धि लोक है दे. मोक्ष/१७) ।
राज के सातवें भाग को तीन, वः दो, पाँच, एक, चार और सात से गुणा करने पर वंशा आदिक में स्तम्भों के बाहर छोटी भुजाओं के विस्तार का प्रमाण निकलता है।
333 रा० लोक के अन्त तक अब भाग सहित पांच धनराजु और सातवीं पृथ्वी लक ढाई धनराजु प्रमारण घनफल होना है।
+४:२४१४७=१३ घनराजु; Ex-२४१४७:: घ० रा० अरची पनी तक वाह्य और आभ्यन्तर दोनों क्षेत्रों का मिन घन फल दो से विभक्त तेरह घगराज प्रमाण है।
: २१४७...१३ घरा०
छुटवौं पृथ्वी तक जो बाह्य क्षेत्र का धनफल एक बेटे छह (२) धनराजु होता है, उसे उपयुक्त दोनों क्षेत्रों के जोड़ रूप घनफल (13) ० रा में से घटा देने पर शेष एक विभाग (1) सहित छह धनराजु प्रमाण अभ्यन्तर क्षेत्र का धनफल समझना चाहिये।
२४x७:. घ. रा० बाह्य क्षेत्र का घनफल;
4. घ. 'रा० अभ्यन्तर क्षेत्र का घनफल ।
धूमप्रभा पर्यन्त धनवफल का जोड़ साडे तीन घनराजु बतलाया गया है। और पंकप्रभा के अन्तिम भाग तक एक त्रिभाग (3) कम एक धनराज प्रमाण घनफल है ।
+3:२४१४७.३० रा०+२४२-४७- प० रा. बाह्य क्षेत्र का घन फल । चतुर्थ पृथ्वी पर्यन्त अभ्यन्तर भाग में धनफल का प्रमाण एक बटे छह (2) कम सात धनराज है।
+5:२४१४७-3=४० रा. अभ्यन्तर क्षेत्र का बनफल | अर्थ (६) धनराजु को नौ से गुणा करने पर जो गुणफल
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लोक का वर्णन
( हरिवंश पुराण के आधार पर )
सब ओर से जिसका अनन्त विस्तार है, जिसके अपने प्रदेश भी अनन्त हैं तथा जो अन्य द्रव्यों से रहित है वह लोका
काश कहलाता है । यतञ्च उसमें जीवाजीवात्मक अन्य पदार्थ नहीं दिखाई देते हैं इसलिए वह अलोकाकाश इस नाम मे प्रसिद्ध है। गांत और स्थिति में निमित्तभूत धर्मास्तिकाय प्रपर्मास्तिकाय का प्रभाव होने से अलोकाकाश में जीव और पुद्दत की न गति ही है और न स्थिति ही है । उस अलोकाकाश के मध्य में असंख्यात प्रदेशी तथा लोकाकाश से मिश्रित श्रनादि लोक स्थित है | काल द्रव्य तथा अपने अवान्तर विस्तार से सहित अन्य समस्त पंचास्तिकाय यतश्च इसमें दिखाई देते हैं इसलिए यह लोक कहलाता है । यह लोक नीचे ऊपर के मध्य में वेत्रासन मृदंग और बहुत बड़ी झालर के समान है अर्थात् अधोलोक वैत्रामनठा के समान है, ऊर्ध्व लोक मृदंग के तुल्य है और मध्यलोक जिसे तिर्यक् लोक भी कहते हैं झालर के समान है। नीने श्राधा जाय तो गा आकार होता है जैसा ही लोक का साकार है किन्तु विशेषता यह कि
उस पर यदि पूरा
यह लोक चतुरस्त्र प्रर्थात् चौकोर है। अथवा कमर पर हाथ रख तथा पैर फैलाकर अचल स्थिर खड़े हुए मनुष्य का जो ग्राकार है उसी बाकार को यह लोक धारण करता है। अपने विस्तार की अपेक्षा मधोलोक मीचे सात र प्रमाण है, फिर फम-कम से प्रदेशों में हानि होते-होते मध्यम लोक के यहाँ एक रज्जु विस्तृत रह जाता है । तदनन्तर उसके आगे प्रदेश हानि होते-होते ब्रह्मब्रह्मोत्तरस्वर्ग के समीप पाँच रज्जु प्रमाण है । तदनन्तर उसके आगे प्रदेश हानि होते-होते लोक के अन्त में एक रज्जु प्रमाण विस्तृत रह जाता है। तीनों लोकों की लम्बाई चोवह रज्जु प्रमाण है। सात रज्जु सुमेरू पर्वत के नीचे और सात रज्जु उसके ऊपर है। चित्रा पृथिवी के अधोभाग से लेकर द्वितीय पृथिवी के ग्रन्त तक एक रज्जु समाप्त होती है, इसके आगे तृतीय पृथिवों केर तक द्वितीय रज्जु चतुर्थ पृथिवो केन्द्र तक पंचम रज्जु सप्तम पृथिवी के अन्त तक पष्ठ रज्जु धौर जोक के यन्त तक सप्तम रज्जु समाप्त होती है अर्थात् चित्रा पृथ्वी के नीचे छह रज्जु की लम्बाई तक सात पृथ्वियां और उसके नीचे एक रज्जु के विस्तार में निगोद तथा बातवलय हैं। यह तो चित्रा पृथ्वी के नीचे का विस्तार बतलाया अब इसके ऊपर ऐशान स्वर्ग तक डेढ़ रज्जु उसके आगे माहेन्द्र स्वर्ग के अन्त तक फिर डेढ़ रज्जु, फिर कापिष्ट स्वर्ग तक एक रज्जु तदनन्तर सहस्त्रार स्वर्ग तक एक रज्जु, उसके आगे श्रारण अच्युत स्वर्ग तक एक रज्जु और उसके ऊपर ऊर्ध्व लोक के अन्त तक एक रज्जु इस प्रकार कुल सप्त रज्जु समाप्त होती है ।
चित्रा पृथिवो के नीचे प्रथम रज्जु के अन्त में जहां दूसरी पृथिवी समाप्त होती है वहां लोक के जानने वाले यात्रायें अरे का विस्तार एक रज्जु तथा द्वितीय रज्जु के सात भागों में से छह भाग प्रमाण बतलाया है द्वितीय रज्जु के अन्त में जहां तीसरी पृथिवी समाप्त होती है वहां अधोलोक का विस्तार दो रज्जु पूर्ण और एक रज्जु के सात भागों में से पांच भाग प्रमाण बतलाया है। तृतीय रज्जु के अन्त में जहां चौथी पृथ्वी समाप्त होती है वहां अधोलोक का विस्तार तीन रन्जु धौर एक रजु के सात भागों में से चार भाग प्रमाण बतलाया है। चतुर्थ रज्जू के अन्त में जहां पांचवीं पृथिवी समाप्त होती है, वहां घोलोक का विस्तार चार रज्जु और एक रज्जु के सात भागों से तीन भाग प्रमाण कहा गया है, पंचम रज्जु के अन्त में जहां पृथ्वी समाप्त होती है, वहाँ अधोलोक का विस्तार पाँच रज्जु श्रीर एक रज्जु के सात भागों में से दो भाग प्रमाण बत लाया है, पष्ठ रज्जु के अन्त में जहां सातवीं पृथ्वी समाप्त होती है वहां अधोलोक का विस्तार छह रज्जु धीर एक रक्
के
प्राप्त हो, उतना तीतरी पृथ्वी पर्यन्त क्षेत्र के घनफल का प्रमाण है, और दूसरी पृथ्वीपर्वत क्षेत्र का घनकल डेढ़ घनराजु प्रमाण लाने के लिये उसे दुगुना करना चाहिये ।
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लोक का वर्णन
लोक लोक प्राकाश माहिं थिर निराधार जानों । पुरुष रूप कर कटी भये षट् द्रव्यनसों मानो । इसका कोई न करता हरता अमित धनादि है। जीवपुद्गल नावे या में, कर्म उपाधी है। पाप पुण्य सौ जीव जगत में, नित सुख दुख भरता । अपनी करनी आप भरे, सिर थॉरन के धरता । मोह कर्म को नाश मेटकर, सब जग की श्रासा । निजपद में घिर होय, लोक के सीस करो बासा ||
5× ÷ १×१० रा० : ३:२×१×० =
०रा०
योग - १३+३+३+5+2+3+4+ई+३ = 45, 4 x २ = ३७६ = ६३ घनराजु |
उपर्युक्त घनफल को दुगुणा करने पर दोनों (पूर्व-पश्चिम ) तरफ का कुल घनफल त्रेसठ घनराजु प्रमाण होता है। इसमें सब अर्थात् पूर्ण तक राजु प्रमाण विस्तार वाले समस्त ( ११ ) क्षेत्रों का घनफल जो एक सौ तेतीस घनराजु है, उसे जोड़ देने पर चार कम दो सौ अर्थात् एक सौ छियानवे धनराजु प्रमाण कुल अधोलोक का घनफल होता हैं।
६६÷१३३ = १६६ धनराजु ।
लोक के नीचे व ऊपर मुख का विस्तार एक एक राजु, भूमि का विस्तार पांच राजु और ऊंचाई ( मुख से भूमि तक ) जग श्रेणी के अर्द्ध भाग अर्थात् साढ़े तीन राजु मात्र है ।
ऊपर नीचे १, भूमिभूमि से नीचे ३३
प १३ राजु
भूमि में से मुख के प्रमाण को घटाकर शेष में ऊंचाई का
भाग देने पर जो लब्ध आये, उतना प्रत्येक राजु पर मुख की अपेक्षा वृद्धि और भूमि की अपेक्षा हानि का प्रयास होता है। वह प्रमाण सात से विभक्त याठ अंकमात्र अर्थात् आठ बटे सात होता है ।
१.५-१-४४
प्रत्येक राजपुर क्षय और वृद्धि का प्रमाण
भूमि १. उस
और वृद्धि के प्रभास को इच्छानुसार अपनी-अपनी ऊंचाई से गुणा करने पर जो कुछ प्राप्त हो उसे भूमि में से कम करने अथवा मुख में जोड़ देने पर विवक्षित स्थान में व्यास का प्रमाण निकलता है।
उदाहरण – सनत्कुमार माहेन्द्र कल्प का विस्तार
ऊँचाई राजु ३, (३) ११४ राजु । अगवा भूमि
की सीचाई रा ६ २ (१×3) 11४3 रा
श्रेणी को आठ से गुणा करके उसमें उन्नचास का भाग देने पर जो लब्ध श्रावे, उतना ऊर्ध्वं लोक के व्यास की वृद्धि और हानि
प्रमाण है ।
७X८-५६, ५६९४६: 5 क्ष० वृ० का प्रमाण ।
के सातवें भाग को क्रम से दश स्थानों में रखकर उसको यात उन्नीस एकतीस ती दक्तीस सत्ताईस ईसी फड और साल से गुणा करने पर ऊपर के क्षेत्रों का व्यास निकलता है ।
दश उपरिम क्षेत्रों के अधोभाग में विस्तार का क्रम
६०
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श्री सुविहि गर जी महाराम
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ऊपर
तीन लोक
120.0000.
50.000 . 21000 गा.
को - कोश
संकेत: यो
माजी
योजन
नी
सित मक-३२१६२२४१
धनुष
ला- जया जननी साफ
सासार
बहाशुभ
स्व
उज
५
राज
...
X
रयोसर
A ਜਾਣ।
-
जासहरमन
स
रेशान
बोकके बहुमध्य भागमें लम्वायमान
राज
--
- जरा नाली -१३ राजू ३२१६२२४१३धनुष
लोक सामान्य राज
मतभरकम 110THENEVI
UCHWNICH
कमा
म
KHIMPUR *मासबलरा
nिas
२०.००० यो २००००
-
मोक के जाया लाजिलय- - ४ मोत के नीचे वाले एक राम प्रमाण कलकल नामक स्यावर लोक को चारों ओर से घेरकर अगास्थित ६०००० घो- मोटा वातवलय।
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सात भागों में से एक भाग प्रमाण है तथा सप्तम रज्जु के अन्त में जहाँ लोक समाप्त होता है वहाँ अधोलोक का विस्तार सात रज्जु प्रमाण कहा गया है।
चित्रा पृथिवी के ऊपर डेढ़ रज्जु की ऊंचाई पर जहां दूसरा ऐशान स्वर्ग समाप्त होता है वहां लोक का विस्तार दो रज्जु पूर्ण और एक रज्जु के सात भागों में से पांच भाग प्रमाण कहा गया है। उसके ऊपर डेढ़ रज्जु और चलकर जहां माहेन्द्र स्वर्गं समाप्त होता है, वहाँ लोक का विस्तार चार रज्जु श्रोर एक रज्जु के सात भागों में से तीन भाग प्रमाण बताया गया है । उसके आगे आधी रज्जु और चलकर जहाँ ब्रह्मोत्तर स्वर्ग समाप्त होता है। वहां लोक का विस्तार पाँच रज्जु प्रमाण कहा गया है। उसके ऊपर साधी रज्जु और चलकर जहाँ कापिष्ट स्वर्ग समाप्त होता है वहां लोक का विस्तार चार रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में के तीन भाग प्रमाण बतलाया गया है। उसके भागे प्राधी रज्जु चलकर जहां महाशुक स्वर्ग समाप्त होता है वहाँ लोक का विस्तार तीन रज्जु श्रीर एक रज्जु के सात भागों में से छह भाग प्रमाण कहा गया है। इसके ऊपर श्राधी रज्जु चलकर जहां सहस्रार स्वयं का अंत आता है वहां लोक का विस्तार तीन रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से दो भाग प्रमाण बतलाया गया है। इसके प्रागे साधी रज्जु और चलकर प्राणत स्वर्ग का मन्त्र आया है वहां लोक का विस्तार दो रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से पांच भाग प्रमाण बतलाया हैं इसके ऊपर थाधी रज्जु और चलकर जहां अच्युत स्वर्ग समाप्त होता है वहां लोक का विस्तार दो रज्जु और एक रज्जु के सात भागों में से एक भाग प्रमाण बतलाया है श्रीर इसके श्रागे सातवीं रज्जु के अन्त में जहां लोक को सीमा समाप्त होती है वहां लोक का विस्तार एक रज्जु प्रमाण कहा गया है। तीनों लोकों में प्रधोलोक तो पुरुष की जंघा तथा नितम्ब के समान है, तिर्यग्लोक कमर के सदृश है, माहेन्द्र स्वर्ग का अन्त मध्य प्रर्थात् नाभि के समान है, ब्रह्म ब्रह्मांतर स्वर्ग छाती के समान है, तेरयां, चौदहवां स्वर्ग भुजा के समान है, शारण अच्युत स्वर्ग स्कन्ध के समान है, मन वेधक ग्रीवा के समान है, अनुदि उन्नत दादी के समान है. पंचानुत्तर विमान मुख के समान है, सिद्ध क्षेत्र ललाट के समान है और जहां सिद्ध जीवों का निवास है ऐसा श्राकाश प्रदेश मस्तक के समान है। जिसके मध्य में जीवादि समस्त पदार्थ स्थित हैं ऐसा यह लोक रुपी पुरुष अस्य ही है-अकृत्रिम ही है। घनोदधि, घनवात श्रीर दानवलय तनुवात तीनों बाल इस लोक को सब ओर से घेरकर स्थित है आदि का पनोदधि गोमूत्र के वर्ग के समान हैं, बीच का पनवात वलय के समान वर्ण वाला है और अन्त का तनुवायवलय परस्पर मिले हुए अनेक वर्णोंवाला है। ये वातवलय दण्ड के आकार लम्बे है, चनोभूत है, ऊपर नीचे तथा चारों ओर स्थित है, पंचलाकृति है तथा लोक के अन्त तक वेष्टित हैं अधोलोक के नीचे तीनों बलयों में से प्रत्येक का विस्तार बीस-बॉस हजार योजन है, और लोक के ऊपर तीनों वातत्रलय कुछ कम एक योजन विस्तार वाले हैं अधोलोक के नीचे तीनों वातवलय दण्डाकार हैं और ऊपर चलकर जब ये दण्डाकार का परित्याग करते हैं अर्थात् लोक के आजूबाजू में खड़े होते हैं तब क्रमशः सात पांच और चार योजन विस्तार वाले रह जाते हैं। तदनन्तर प्रदेशों में हानि होते-होते मध्यम लोक के यहां इसका विस्तार क्रम से पांच, चार और तीन योजन रह जाता है तदनन्तर प्रदेशों प्रदेश में वृद्धि होने से ब्रह्म ब्रह्मोत्तर नामक पांचवे स्वर्ग के अन्त में क्रमश: सात, पांच और चार योजन विस्तृत हो जाते हैं। पुनः में हानि होने से मोक्ष स्थान के समीप क्रम से पांच, चार और तीन योजन विस्तृत रह जाते हैं । तदनन्तर लोक के ऊपर पहुँच कर नोवधि दातवलय बाधा योजन अर्थात् दो होस, धनदात वलय उससे साधा अर्थात् एक कोंस और तनुवासवलय उससे कुछ कम अर्थात् पन्द्रह से पचहत्तर चतुष प्रमाण विस्तृत है। तीनों वातवलयों से घिरा हुआ यह लोक ऐसा जान पड़ता है मानी महालोक जीतने की इच्छा से कवचों से ही प्रावेष्टित हुआ हो।
ये
इस लोक में पहली रत्नप्रभा दूसरी शर्कराभा, तीसरी बाजुका प्रभा पांधी का पांचवी धूमप्रभा छटवीं तमः प्रभा और सातवीं महतमः प्रभा ये सात भूमियां हैं। ये सातों भूमियां तीनों वातवलयों पर अधिष्टित तथा क्रम से नीचे नीचे स्थित हैं । अन्त में चलकर ये सभी अधोलोक के नीचे स्थित, धनोदधिवातवलय पर अधिष्ठित हैं। इन पृथ्वियों के
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हदि नाम क्रम से धर्मा, वंशा, मधा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माधवी भी हैं पहिली रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है तथा खर भाग पंकभाग और अब्बुल बहल भाग इन तीन भागों में विभक्त है। पहला खर भाग सोलह हजार योजन मोटा है, दूसरा पंक भाग चौरासी हजार योजन मोटा है और तीसरा अब्बल भाग अस्सी हजार योजन मोटा हैं। पंक भाग को राक्षसों तथा असुरकुमारों के रत्नमयी देदीप्यमान भवन' यथा क्रम से सुशोभित कर रहे हैं। तथा खर भाग को नौ भवनवासियों के महाकान्ति से युक्त, स्वयं जगमगाते हुए नाना प्रकार के भबन अलंकृत कर रहे हैं। खर भाग के १ चित्रा, २ बज्रा, ३वड्र्य, ४ लोहितांक, ५ भसारगल्ब, ६, गोमेद, ७ प्रवाल, ८ ज्योति, रस, १० अंजन, ११ अजनमूल, १२ प्रग, १३ स्फटिक, १४ चन्द्राभ, १५ वर्चस्क और १: बहुशिलामय ये सोलह पटल हैं। इनमें से प्रत्येक पटल की मोटाई एक हजार योजन है तथा देदीप्यमान खर भाग इन सोलह पटल स्वरूप ही है। पंक भाग से शेष छह भूमियों का अपना अपना अन्तर अपनी-अपनी मोटाई से कम से कम एक एक रज्जु प्रमाण है। समस्त तत्वों को प्रत्यक्ष देखने वाले श्री जितेन्द्र देव ने द्वितीयादि पृथ्वियों की मोटाई क्रम से बत्तीस हजार, मट्ठाईस हजार, चौबीस हजार, वीस हजार और सोलह हजार और पाठ हजार, योजन बतलाई है।
प्रथम पृथ्वी में असुरकुमार आदि दसभवन बासी देवों के भवनों की संख्या निम्न प्रकार जानना चाहिए-असुरकुमारों के चौसठ लाख, नाग कूमारों के चौरासी लाख गरुडकुमारों के बहत्तर लाख, दीपकुमार उदधिकुमार, मेघकुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और विद्युत कुमार इन छह कुमारों के छिहत्तर लाख तथा वायुकुमारों के छियानवें लाख भवन हैं। ये सब-भबन श्रेणि रूप से स्थित हैं तथा प्रत्येक में एक एक चैत्यालय है । पृथ्वी के नीचे भूलों के चौदह हजार और राक्षसों के सोलह हजार भवन यथाक्रम से स्थित हैं। जहां मणिरूपी सूर्य की निरन्तर प्राभा फैली रहती है ऐसे पाताल लोक में अमुरकुमार, सुपर्णकुमार उदधिकुमार, स्तनितकुमार, विद्युत्कुमार, दिक्कुमार अग्निकुमार, और वायुकुमार ये दस प्रकार के भवनवासी देव यथायोग्य अपने-अपने भवनों में निवास करते हैं। उनमें असुर कुमारों की उत्कृष्टयायु कुछ अधिक एक सागर, नागामारों की तीन पल्य सुवर्णकुमारों की पढ़ाई पल्य हीपकुमारों को दो पल्य और शेष छह कुमारों की डेढ़ पल्य प्रमाण हैं.। असुरकुमारों को ऊंचाई पच्चीस धनुष, शेष नौ प्रकार के भवनवासियों तथा व्यन्तरों की दस धनुष और ज्योतिषी देवों की सात धनुष हैं। सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के देवों की ऊंचाई सात हाथ है। उसके प्रागे एक तथा प्राधा हाथ कम होते होते सर्वार्थसिद्धि में एक हाथ की ऊंचाई रह जाती है। भावार्थ पहले दूसरे स्वर्ग में सात हाय, तीसरे चोये स्वर्ग में छह हाथ, पांचवें, छठवें सातवे आठवें स्वर्ग में पांच हाथ, नौवें, दसवें, ग्यारहवं, बारहवें स्वर्ग में चार हाथ तेरहवं, चौदहवें में साढ़े तीन हाथ, पन्द्रहवें सोला स्वर्ग में तीन हाथ, अधोवेयकों में अढ़ाई हाथ, मध्यम अवेयकों में दो हाथ, उपरि वेयकों में तथा अनुदिश विमानों में डेढ़ हाय और अनुत्तर विमानों में एक हाथ ऊंचाई है। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! अब इसके आगे संक्षेप से रत्नप्रभा आदि सातों भूमियों के विलों का यथाक्रम से वर्णन करेंगे।
घर्मा नामक पहिली पृथ्वी के अब्बहल भाग में ऊपर नीचे एक एक हजार योजन छोड़कर नारकियों के विल हैं । यही क्रम शेष पृथ्बियों में भी समझना चाहिये। किन्तु सातवीं पृथ्वी में पैतीस कोश के विस्तार वाले मध्य देश में विल हैं। पहिली पृथिवी में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पांचवीं में तीन लाख, छठवीं
उदाहरण-१. सौ ई०१७-१ राजु
२ सा० मा १६= =२४रा०; ३. ब्रह्म ब्रह्मो,३३१४३ रा०; ४ ला० का०३३५ ३ रा० ५. शु० म०३१ = = रा० ६. २० स०२७-२ =२४ रा०; ७. अ० प्रा०२३-२४ =३, रा०; ६. आ० अ०१६= =२४ रा० ६. बवयकादि ११५ - १-२ रा०; १०. लोकान्त में ७=१ रा.
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में पांच कम एक लाख, सातवों में पाच और सातों में तब मिलाकर चौरासी लाख बिल हैं। उन पवियों में क्रम से तेरह, ग्यारह, नौ सात, पांच, तीन और एक प्रस्तार अर्थात् पटल हैं। घर्मा पृथिवी के तेरह प्रस्तारों में क्रम से निम्नलिखित तेरह इन्द्रक विल हैं।-१. सीमन्तक २. नारक ६. रोरुक ४. भ्रान्त ५. उद्भ्रान्त, ६. सभ्रान्त, ७: असंभ्रांत ८. विभ्रांत ६ त्रस्त, १०ः असित,११. वक्रान्त, १२. अवक्रान्त और १३: विक्रान्त।
श्री जिनेन्द्र देव ने बंशा नामक दूसरी पृथ्वी के प्रस्तारों में निम्नाकित ग्यारह इन्द्रक बिल बताए हैं। -१. तरक २. स्तनक, ३. मनक, ४. वनक, ५. घाट, ६. संघाट, ७. जिह्व. ८. जिह्वक, ६. लोल, १०. लोलुप और ११. स्तन लोलुप ।
तीसरी मेघा पृथ्वी के नौ प्रस्तारों में निम्न प्रकार नौ इन्द्रक बिल बतलाये हैं-१. तप्त, २. तपित, ३. तपन ४. . तापन, ५. निदाघ, ६. प्रज्वलित ७. उज्वलित, ८. संज्वलित ६. संप्रज्वलित । चौथी पृथिवी के सा निम्नलिखिति सात इनके दिल हैं- १. प्रार, .. तार ३. मार ४ बरक ५ ६मक ६ खंड ७ खडखड ।
पांचवी पृथ्वी के पांच प्रस्तारों में निम्नलिखित पांच इन्द्रक विल हैं।- १. तम २ भ्रम ३ झष ४ अन्त ५ तामिस्त्र ये इन्द्रक विल नगरों के प्रकार के हैं।
छठी पथ्वी में १. हिम २ बर्दल ३ लल्लक ये तीन इन्द्रक विल हैं। सातों पृश्चियों के सब इन्द्रक मिलकर उनचास हैं। ऊपर से नीचे की ओर प्ररे क पृथ्वी में दो दो कम हो जाते हैं । और नीचे से ऊपर की ओर प्रत्येक पृथ्वी में दो-दो अधिक हो जाते हैं।
प्रथम पथ्वी के प्रथम प्रस्तार सम्बन्धी सीमन्तक इन्द्रक विल की चारों दिशाओं में प्रत्येक में उनचास श्रेणिबद्ध विल हैं और ये परस्पर बहुत भारी अन्तर को लिये हुए हैं।
इसी सीमन्तक विल की चार विदिशाओं में प्रत्येक में अड़तालीस श्रेणीबद्ध विल हैं। इन श्रेणियों तथा श्रेणीबद्ध बिलों के सिवाय बहुत से प्रकीर्णक विल भी हैं। इन सीमन्तक आदि नरकों में नीचे नीचे क्रम-क्रम से एक एक विल कम होता जाता है। इस प्रकार सातवीं पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नामक इन्द्रक की चार दिशाओं में एक के केवल चार विल हैं वहां न श्रेणी है और न प्रकीर्णक विल हैं। इस प्रकार प्रथम पृथिवी के प्रथम सीमन्तक इन्द्रक की चार दिशायों में एक सौ छियानवे चार विदिशाओं में एक सौ बानवे और सब मिलकर तीन सौ अठासी श्रेणीबद्ध विल है। दूसरे प्रस्तार के नारक इन्द्रक को चार दिशामों में एक सौ बानवे चार विदिशाओं में एक सौ अठासी और सब मिलकर तीन सौ अस्सी श्रेणीबद्ध विल हैं। तीसरे प्रस्तार के रोरुक इन्द्रक की चार दिशाओं में एक सौ अठासी, चार विदिशामों में एक सौ चौरासी और सब मिलाकर तीन सौ बहत्तर श्रेणीबद्ध विल हैं। चौथे प्रस्तार के भ्रान्त नामक इन्द्रक की चार दिशाओं में एक सौ चौरासी और विदिशाओं में एक सो अस्सी
उनतालीस, पचहत्तर, तेतीस, फिर तेतीस, उनतीस, पच्चीस, इक्कीस, सत्तरह और बाईस, इनमें से प्रत्येक को चमराज के प्रभार गुणा करने पर मेरु-तल से ऊपर ऊपर कम से घनफल का प्रमाण आता है।
उदाहरण-'मुहभूमि जोग दले' इत्यादि के नियम के अनुसार मौधर्मादिक का घनफल इस प्रकार है--
(१) +9:२४३४७= =१६३० (२)-31-32x1x७=१ :३७६ रा. (३)-11-४२x६४७=१४ -१६ रा० (४) +4:२४x७ -३३- १६३ रा० (५) 39-२४-२४३४७.३६ - १४३ रा. (६) २७+२-२४३४७=१५. : १२६ रा. (७) 12-२४३४७-२१-१०: रा (८) 15+१४:२४x७=१ = रा. (8) +3-२४१४-७-११ रा
योग 3
++--
+३+२
-३+२+३=१४७ रा. कुल ।
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और सब मिलकर तीन सौ चौसठ श्रेणीबद्ध विल हैं। पांचवे प्रस्तार के उद्भ्रान्त नामक इन्द्रक विल को चार दिशाओं में एक सौ अस्सी विदिशात्रों में एक सौ छियत्तर और सब मिलाकर तीन सौ छप्पन श्रेणी बद्ध दिल हैं। छठवें प्रस्तार के संभ्रान्त नामक इन्द्रक विल की चार दिशाओं में एक सौ छियत्तर विदिशामों में एक सौ बहत्तर और सब मिलाकर तीन सौ अड़तालीस थेणी बद्ध बिल हैं । सातवें प्रस्तार के असंभ्रान्त नामक विल की चारों दिशाओं में एक सौ बहत्तर विदिशामों में एक सौ अउसठ और सब मिलाकर तीन सौ चालीस श्रेणी बद्ध बिल हैं। पाठवें प्रस्तार के विभ्रान्त नामक इन्द्रक विल की चार दिशाओं में एक सौ अडसठ विदिशाओं में एक सौ चौसठ और सब मिलाकर तीन सौ बत्तीस श्रेणी वद्ध विल है। नौवे प्रस्तार के त्रस्त नामक इन्द्रक बिल की चार दिशाओं में एक सौ चौसठ, बिदिशाओं में एक सौ साठ और सब मिलाकर तीन सौ चौबीस श्रेणी वद्ध बिल हैं। दसवें प्रस्तार के त्रसित नामक इन्द्रक विल की चार दिशाओं में एक सौ साठ, विदिशाओं में एक सौ छप्पन और सब मिलाकर तीन सौ सोलह श्रेणी बद्ध विल हैं। ग्यारहवें प्रस्तार के वक्रान्त नामक इन्द्रक विल की चार दिशाओं में एक सौ छप्पन, विदिशाओं में एक सौ बावन, और सब मिलाकर तीन सौ पाठ श्रेणीबद्ध बिल हैं।
बारहवें प्रस्तार के अवक्रान्त नामक इन्द्रक विल की चार दिशाओं में एक सौ बावन, विदिशाओं में एक सौ अड़तालीस सौर सब मिलाकर तीन सौ श्रेणी बद्ध बिल हैं। और तेरहवें प्रस्तार के बिक्रान्त नामक इन्द्रक विल को चारों दिशाओं में एक सौ अडतालीस विदिशाओं में एक सौ चौवालीस और सब मिलाकर दो सौ बानवें श्रेणीबद्ध विल हैं। इस प्रकार तेरहों प्रस्तारों के समस्त श्रेणी बद्ध बिल चार हजार चार सौ बीस इन्द्रक बिल तेरह और श्रेणीबद्ध तथा इन्द्रक दोनों मिलाकर चार हजार चार सौ तेतीस विल हैं । इनके सिवाय उनतीस लाख पचानवे हजार पांच सौ सड़सठ प्रकीर्णक दिल हैं । इस प्रकार सब मिलाकर प्रथमपृथ्वी में तीस लाख विल हैं।
द्वितीय पृथ्वी के प्रथम प्रस्तार के स्तरक नामक इन्द्रक विल की चारों दिशाओं में एक सौ चौवालीस, विदिशामों में एक सौ चालीस और सब मिलाकर दो सौ चौरासी श्रेणी बद्ध बिल हैं। द्वितीय प्रस्तार के स्तनक नामक इन्द्रक विल की चारों दिशाओं में एक सौ चालीस विदिशाओं में एक सौ छत्तीस और सब मिलाकर दो सौ छियत्तर थेणी बद्ध बिल हैं। तृतीय प्रस्तार के मनक नामक इन्द्रक विल की चारों दिशामों में एक सौ छत्तीस विदिशाओं में एक सौ बत्तीस और सब मिलाकर दो सौ पडसठ श्रेणी बद्ध विल हैं। चतुर्थ प्रस्तार के वनक नामक इन्द्रक विल की चारों दिशाओं में एक सौ बत्तीस, विदिशाओं में एक सौ अद्राईस और सब मिलाकर दो सौ साठ श्रेणी बद्ध बिल हैं। पंचम प्रस्तार के घाट नाकक इन्द्रक बिल की चारों दिशायों में एक सौ अठाईस, विदिशामों में एक सौ चौवीस और सब मिलाकर दो सौ बाबन विल श्रेणी बद्ध हैं । षष्ट प्रस्तार के संघाट नामक इन्द्रक बिल की चारों दिशाओं में एक सी चौवीस, बिदिशाओं में एक सौ वीस और सब मिलाकर दो सौ चौवालीस श्रेणी बद्ध विल है। सप्तम प्रस्तार के जितनामक इन्द्रक की चारों दिशाओं में एक सौ बीस, विदिशामों में एक सौ सोलह और सब मिलाकर दो सौ छत्तीस श्रेणी वद्ध विल हैं । अष्टम प्रस्तार के जिह्व नामक इन्द्रक की चारों दिशाओं में एक सौ सोलह विदिशामों में एक सौ बारह और सब मिलाकर दो सौ अट्ठाईस श्रेणी बद्ध विल हैं। नवम प्रस्तार के लोल
ब्रह्म स्वर्ग के समीप पूर्व-पश्चिम भाग में एक और दो राजु प्रवेश करने पर क्रम से नीचे ऊपर चार और दो से भाजित जगणी प्रमाण स्तंभा की ऊंचाई है।
स्तम्भोत्रोध-१रा. के प्रदेश में रा. २ रा. के प्रदेश में रा.
छप्पन से भाजित लोक को दो जगह रखकर उसे क्रम से एक और तीन से गुणा करने पर उपयुक्त अभ्यन्तर क्षत्रों का घनफल निकलता है।
३४३:५६४१:23; ३४३५६४३=१५६ ५. फ.
इस घनफल को मिलाकर और उसको चार से मुणाकर उसमें मध्य क्षेत्र के घनफल को मिला देने पर पूर्ण ऊर्ध लोक का पनफल होता है । वह घनफल तीन से गुरिणत और सात से भाजित लोक के प्रमाण है।
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नामक इन्द्रक की चारों दिशाओं में एक सौ बारह, विदिशाओं में एक सौ पाठ और सब मिलाकर दो सौ बीस श्रेणी बद्ध विल हैं । दशम प्रस्तार के लोलप नामक इन्द्रक की चारों दिशाओं में एक सौ पाठ, विदिशाओं में एक सौ चार और सब मिलाकर दो सौं बारह श्रेणीवर विक हैं। और एकादश प्रस्तार के स्तन लोलुप नामक इन्द्रक की चारों दिशाओं में एक सौ चार विदिशास्त्रों में सौ और सब मिलाकर दो सौ चार थेणी वद्ध विल हैं। इस प्रकार इन ग्यारह प्रस्तारों के श्रेणी बद्ध विल दो हजार छ: सौ चौरासी इन्द्रक और बिल ग्यारह हैं । तथा दोनों मिलाकर दो हजार छह सौ पचानवें हैं । तथा प्रकीर्णक विल चौबीस लाख संतानवें हजार तीन सौ पांच है । इस तरह सब मिलकर पच्चीस लाख विल हैं।
तीसरी पृथ्वी के पहले प्रस्तार सम्बन्धी तप्त नामक इन्द्रक विल की चारों दिशाओं में सौ, विदिशाओं में छियानवें और और सब मिलाकर एक सौ छियानवें श्रेणीबद्ध विल हैं। दूसरे प्रस्तार के तपित नामक इन्द्रक की चारों दिशायों में छियानवें विदिशाओं में वानवें, और दोनों को मिलाकर एक सौ अठासी श्रेणीबद्ध विल हैं। तीसरे प्रस्तार के तपन नामक इन्द्रक की चारों दिशामों में बानवें, विदिशामों में अठासी और दोनों के मिलाकर एक सी अस्सी श्रेणी बद्ध विल हैं। चौथे प्रस्तार के तापन नामक इन्द्रक की चारों महा दिशामों में अठासी,विदिशामों में चौरासी और सब मिलाकर एक सौ बहत्तर श्रेणी बद्ध दिल है। पाचवें प्रस्तार के निदाघ नामक इन्द्रक विल की चारों दिशामी में अस्सी और दोनों के मिलाकर एक सौ चौसठ श्रेणीबद्ध बिल हैं। छठवे प्रस्तार के प्रज्वलित नामक इन्द्रक की चारों दिशामों में अस्सी, विदिशाओं में छिहत्तर और दोनों के मिलाकर एक सी छप्पन श्रेणीबद्ध विल है। सातवें प्रस्तार के उज्यालित नामक इन्द्रक की चारों दिशामों में छिहत्तर विदिशानों में वहत्तर और दोनों मिलाकर एक सौ अड़तालीस श्रेणीबद्ध विल है। पाठवें संज्वलित नामक इन्द्रक की चारों दिशाओं में बहत्तर विदिशाओं में अड़सठ और दोनों के मिलकर एक सौ चालीस श्रेणी बद्ध विल हैं। पीर नौवें प्रस्तार के संप्रज्वलित नामक इन्द्रक की चारों दिशाओं में अड़सठ विदिशामों में चौसठ और दोनों के सब मिलाकर एक सौ बत्तीस श्रेणी बद्ध बिल हैं। इस प्रकार नौ प्रस्तारों के समस्त श्रेणीबद्ध विल एक हजार चार सौ छिहत्तर हैं। इनमें नौ इन्द्रक विलों की संख्या मिलाने पर एक हजार चार सौ पचासी विल होते हैं। पहली पृथ्वी में चौदह लाख अठानवें हजार पांच सौ पन्द्रह प्रकीर्णक हैं और सब मिलाकर पन्द्रह लाख बिल हैं।
चौथी पथ्वी के पहले प्रस्तार सम्बन्धी प्रार नामक इन्द्रक की चारों दिशामों में चौसठ, विदिशाओं में साठ और दोनों के मिलाकर एक सौ चौबीस श्रेणीबद्ध विल है। दूसरे प्रस्तार के तार नामक इन्द्रक की चारों दिशाओं में साठ, विदिशापों में छप्पन और दोनों के मिलाकर एक सौ सोलह श्रेणीबद्ध विल है। तीसरे प्रस्तार के मार नामक इन्द्रक की चारों महा दिशामों मैं छप्पन, विदिशामों में बावन और दोनों मिलाकर एक सौ आठ श्रेणीबद्ध विल हैं। चौथे प्रस्तार के वचक नामक इन्द्रक की चारों महादिशात्रों में बावन, विदिशामों में अड़तालीस और दोनों के मिलाकर एक मी श्रेणीबद्ध विल हैं। पांचवें प्रस्तार के तमक नामक इन्द्रक की चारों महा दिशाओं में अड़तालीस विदिशायों में चवालीस और दोनों को मिलाकर सब बानवे श्रेणि बद्ध विल है। छठवें प्रस्तार के खण्ड नामक इन्द्रक की चारों दिशाओं में चवालीस विदिशाओं में चालीस और दोनों के मिला कर चौरासी श्रेणी बद्ध विल हैं । और सातवें प्रस्तार के खड खड नामक इन्द्रक की चारों महादिशाओं में चालीस विदिशाओं में छत्तीस और दोनों को मिलाकर छियत्तर आणि बद्ध विल है। इस प्रकार चौथीभूमि में सात इन्द्रक बिलों की संख्या मिलाकर सब इन्टक और श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या सात सौ सात है। इनके सिवाय नी लाख निन्यावे हजार दो सौ तिरानवें प्रकीर्णक
- - - - - --- ६+१८३ =२४६; २४३४४=१८; १८+४६-- १४० रा.। बराबर २४३४३:७ रा.।। सोधर्म और ईशान स्वर्ग के ऊपर लोक के एक पाव भाग में छोटी भुजा का विस्तार सात से विभक्त छह राजुप्रमाण है। माहेन्द्र स्वर्ग के ऊपर अन्त में सात से भाजित पांच राजु और बह्मस्वर्ग के पास उनचास से भाजित और सात से गुणित जग श्रेणी
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विल हैं । तथा सब मिलाकर दस लाख विल हैं।
पांचवीं पृथ्वी सम्बन्धी प्रस्तार के तम नामक इन्द्रक की चारों महा दिशामों में छत्तीस, बिदिशामों में बत्तोस और दोनों के मिलाकर अडसठ श्रेणीबद्ध विल हैं। दूसरे प्रस्तार में भ्रम नामक इन्द्रक की चारों महादिशानों में बत्तीस विदिशाम्रो में अट्ठाईस, और दोनों के मिलाकर साठ श्रेणीबद्ध बिल है। तीसरे प्रस्तार के ऋषभनामक इन्द्रक की चारों महा दिशाओं में अट्ठाईस विदिशानों में चौबीस और दोनों मिलाकर बावन श्रेणीबद्ध विल है। चौथे प्रस्तार के अन्घ्रनामक इन्द्रक की चारों -दिशाओं में चौबीरा, विदिशामों में बीस और दोनों के मिलाकर चवालिस श्रेणी बद्ध विल है। और पांचवें प्रस्तार के तमिस्त्र नामक इन्द्रक की चारों दिशाओं में बीस, विदिशाओं में सोलह और दोनों के मिलाकर छत्तीस श्रेणि बद्ध विल हैं। इस प्रकार पांचवीं पृथ्वी में पांच इन्द्र क बिल मिलाकर समस्त इन्द्रक और श्रेणिवद्ध बिलों की संख्या दो सौ पंसठ है। तथा दो लाख निन्यानवें हजार सात सौ पैंतीस प्रकीर्णक विल हैं। और सब मिल कर तीन लाख विल है।।
छठवी पृथ्वी सम्बन्धि प्रथम प्रस्तार के हिम नामक इन्द्रक की चारों महा दिशाओं में सोलह विदिशाओं में बारह और दोनों के मिलकर अट्ठाईस श्रेणी बद्ध विल है।
दूसरे प्रस्तार के बईल नामक इन्द्रक की चारों महा दिशाओं में बारह विदिशाओं में प्राट और दोनों के मिलकर बीस श्रेणीबद्ध विल हैं। और तीसरे प्रस्तार के लल्लक नामक इन्द्रक की चारों महा दिशाओं में आठ विदिशाओं में चार और दोनों के मिलकर बारह श्रेणी बद्ध विल हैं । इस प्रकार छठी पृथ्वी के तीन प्रस्तारों में तोन इन्द्रक की संख्या मिलकर वेसठ इन्द्रक और श्रेणीबद्ध विल हैं। तथा निन्यानवे हजार नौ सौ बीस मीणंक हैं। प्रो समापनास लाख विल हैं। ये सभी विल प्राणियों के लिये दुःख से सहन करने के योग्य हैं।
सातवीं पृथ्वी में एक ही प्रस्तार है और उसके बीच में अप्रतिष्ठान नामक इन्द्रक है उसकी चारों दिशाओं में चार श्रेणो बद्ध विल हैं। इसकी विदशानों में बिल नहीं है । तथा प्रकीर्णक बिल भी इस पृथ्बों में नहीं हैं। एक इन्द्रक और चार श्रेणी बद्ध दोनों मिलकर पांच विल हैं।
प्रथम पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में जो सीमन्तक नाम का इन्द्रक बिल है उसकी पूर्व दिशा में काइक्ष, पश्चिम दिशा में महाकाक्ष, दक्षिण दिशा में पिपास और उत्तर दिशा में अतिपिपास नाम के चार प्रसिद्ध महानरक है। ये महानरक इन्द्रक विल के निकट में स्थित हैं तथा दुर्वर्ण नाकियों से व्याप्त हैं। दुसरी पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में जो तरका नाम का इन्द्रक विल है। उसकी पूर्व दिशा में अनिच्छ, पश्चिम दिशा में महानिच्छ, दक्षिण दिशा में विन्ध्य और उत्तर दिशा में महाविन्ध्य नाम के प्रसिद्ध महानरक स्थित हैं । तोसरी पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में जो तप्त नाम का इन्द्रक विल है उसको पूर्व दिशा में दुःख, पश्चिम दिशा में महादुःख, दक्षिण दिशा में वेदना और उत्तर दिशा में महाबेदना नाम के चार प्रसिद्ध महानरक हैं। चौथी पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में जो प्रार नाम का इन्द्रक विल है, उसकी पूर्व दिशा में निःसृष्ट, पश्चिम दिशा में अतिनिः सृष्ट, दक्षिण दिशा में निरोध और उत्तर दिशा में महानिरोध नाम के चार प्रसिद्ध महानरक हैं। पांचवों पृथिवी के प्रथम प्रस्तार में जो तम नाम का इन्द्रक है उसकी पूर्व दिशा में निरुद्ध पश्चिम दिशा में अतिनिरुद्ध दक्षिण में विमर्दन और उत्तर में महाविमदन नाम के चार प्रसिद्ध महानरक स्थित हैं। छठवी पाथवी के प्रथम प्रस्तार में जो हिम नाम का इन्द्र कविल है उसकी पूर्व दिशा में नील
प्रमाण छोटी भुजा का प्रमाण है।
मा. कल्प रा. ब्र. कल्प. श्रे. ४७.७४. रा. ।
कारि स्वर्ग के ऊपर, जल में सात रो भाजित पांच राज, और शुभ के ऊपर अन्त में सात से भाजित और तीन स गुणित ग. अमाप छोटी भुजा का विस्तार है। का. रा. शु. ग..1
सहस्रार के ऊपर अन्त में सात में भाजित एक राजु प्रमाण और प्राणत के ऊपर अन्त में सात से भाजित छह राजुप्रमाण छोटी भुजा का विस्तार है।
म. रा. प्रा. रा.है। आरण और अच्युत स्वयं के पास अन्तिम इन्धक विमान के ध्वज-दन्डक के समीप छोटी भुजा का विस्तार गात से भाजित चार राजु
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पश्चिम दिशा में महानील दक्षिण में पंक बौर उत्तर में महापंक नाम के चार प्रसिद्ध महानरक स्थित है और सातवीं पृथिवी में जो प्रतिष्ठान नाम का इन्द्रक है उसकी पूर्व दिशा में काल, पश्चिम दिशा मे महाकाल, दक्षिण दिशा में रौरव र उत्तर दिशा में महारीरव नाम के चार प्रसिद्ध महानरक हैं। इस प्रकार सातों पृथिवियों में तेरासी लाख नव्ये हजार तीन सौ सेनालोस प्रकीर्णक, नौ हजार छह सौ निवद्ध दिल उनंचास इन्द्रक और सब मिलाकर चौरासी लाख बिल हैं।
प्रथम पृथिवी के बिलों में छह लाख दिल संख्यात योजन विस्तार बाजे हैं। और चौरासी लाख बिल संख्यात योजन विस्तार वाले हैं। उसके नीचे दूसरी पृथिवी में पांच लाख संस्थात योजन विस्तार वाले और बारह वाख असंख्यात योजन विस्तार वाले बिल हैं। पोथी पृथिवो में दो लाख विस संख्यात योजन विस्तार वाले है और साठ लाख ख्यात योजन विस्तार वाले हैं। पांचवीं पृथिवी में साठ हजार विल संख्यात योजन विस्तार वाले हैं और दो लाख चालीस
हजार बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। छठवीं पृथिवी में उन्नीस हजार नौ सौ निम्यान विल संख्यात योजन विस्तार बाते हैं और उत्पासी हजार नौ सौ छियानवे बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। सातवीं पृथिवों में एक बीका इन्द्रक बिल संख्यात योजन विस्तार वाला है और चारों दिशाओं के चार विल संख्या योजन विस्तार वाले हैं। खातों पृथिवियों में जो इन्द्रक दिल है ये सब संख्यात योजन विस्तार वाले हैं तथा जिव वित्त असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं और प्रकीर्णक जिलों में कितने ही योजन विस्तार वाले तथा कितने ही असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं इस तरह
उभय विस्तार वाले हैं।
अब सातों पृथिवियों के उनंचास इक दिलों का विस्तार कहते हैं उनमें से प्रथम पृथिवी के सोमन्तक इन्द्रक का विस्तार पैंतालीस लाख योजन है। दूसरे नारक इन्द्रक का विस्तार चवालीस लाख याठ हजार तीन सौ तेतीस योजन तथा एक योजन के तीन भागों में से एक भाग प्रमाण है तीसरे रौरव इन्द्रक का विस्तार तैंतालीस लाख सोलह हजार छह सौ सड़सठ योजन और एक भोजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है। चोथे भ्रान्त नामक इन्द्रक का विस्तार सब ओर से बयालीस लाख पच्चीस हजार योजन है। पांचवें उद्द्घान्त नामक इन्द्रक का विस्तार इकतालीस लाख तीस हजार तीन सौ तेतीस योजन मीर एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण हैं। छठवें सम्भ्रान्त नामक इन्द्रक का विस्तार चालीस लाख इकतालीस हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण हैं। सातवें असम्भ्रान्त इन्द्रक का विस्तार सब ओर से उनतालीस लाख पचास हजार योजन है। आठवें विभ्रान्त नामक इन्द्रक का विस्तार पड़तालीस लाख अठावन हजार तीन सौ तैंतीस योजन के तीन भागों में से एक भाग प्रमाण है। नौवें त्रस्त नामक इन्द्रक का विस्तार संतीस लाख छियासठ हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है। दशवं त्रसित नामक इन्द्रक का विस्तार छत्तीस लाख पचहत्तर हजार योजन है। ग्यारहवें वक्रान्त नामक इश्क का विस्तार पैंतीस लाख तेरासी हजार तीन सौ तंतीस पोजन मोर एक योजन के तीन भागों में से एक भाग प्रमाण है। बारहवे एकानवे हजार छह सौ छयासठ योजन और एक योजन के तीन इन्द्रक का विस्तार चौतीस लाख योजन है ।
द्वितीय पृथिवी के पहले स्तरक नामक इन्द्रक का विस्तार तैंतीस लाख आठ हजार तीन सौ तैतीस योजन और एक
प्रमाण है ।
भवान्य नामक इन्द्रक का विस्तार सर से तीस लाख भागों में से दो भाग प्रमाण है। और तेरहवें विक्रान्त नामक
आ. अ. रा.
सौधर्म युगल तक त्रिकोण क्षेत्र का घनफल अर्थ राजु से कम पांच घनराजु प्रमाण है ( सनत्कुमारयुगलतक बाह्य और आभ्यन्तर दोनों क्षेत्रों का मिथ घनफल साढ़े तेरह घनराजुप्रमाण है ।) इस मिश्र धनफल में से बाह्य त्रिकोण क्षेत्रका घनफल (२) कम कर देने पर आठ से भाजित तेरासी धनराजुप्रमाण अभ्यन्तर क्षेत्र का घनफल होता है। : २४३७ = = घ. फ. ( शोधमं) २४ X ७ = सनक तक बा० क्षे० ० का० घ० फ० 1 +5 ÷ २४३×७= ३७ बा० और आ० क्षेत्र का मिश्र घनफल ३७ २४ आ० क्षेत्र का घनफल ।
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न के तीन भागों में से एक भाग प्रमाण है दूसरे स्तनक नामक इन्द्रक का विस्तार बत्तीस लाख तोलह हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग है। तीसरे मनक इन्द्रक का विस्तार इकतोस लाख पचवोस हजार योजन है। चौथे बनक इन्द्रक का विस्तार तीस लाख तैतीस हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है। पांचवे घाट नामक इन्द्रक का विस्तार उनतीस लाख इकतालीस हजार छ: सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है । छठवें संघाट नामक इन्द्रक का विस्तार अट्ठाईस लाख पचास हजार योजन है। सालवे जिह्व नामक इन्द्रक का विस्तार सत्ताईस लाख अठावन हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है। पाटवें जिहक इन्द्रक का विस्तार छब्बीस लाख छियासठ हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है। नौवे लोल इन्द्रक का विस्तार पच्चीस लाख पचहत्तर हजार योजन है। दसवें लोलुप नामक इन्द्रक का विस्तार चौबीस लाख तेरासी हजार तीन सौ ततोस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है। और म्यारवें स्तनलोलुप इन्द्रक का बिस्तार तेईस लाख एकान हजार छह सौ छियासठ योजन मीर योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है।
तीसरी पथिवी के पहले तप्त नामक इन्द्रक का विस्तार तेईस लाख योजन है । दूसरे वसित इन्द्रक का विस्तार बाईस लाख पाठ हजार तीन सौ तंतोस योजन और एक योजन के तीन भागों के एक भाग प्रमाण है। तीसरे तपन इन्द्रक का विस्तार इक्कीस लाख सोलह हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है। चौथे तापन नामक इन्द्रक का विस्तार मुनियों ने बीस लाख पच्चीस हजार योजन कहा है। पांचवें निदाघ नामक इन्द्रक का विस्तार उन्नीस लाख तैतीस हजार तीन सौ तैतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है। छठवें प्रज्वलित इन्द्रक का विस्तार अठारह लाख इकतालीस हजार छह सौ छियासठ योजन है और एक योजन के तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है। सातवें उज्दलित इन्द्रक का विस्तार तत्वदर्शी आचार्यों ने सत्रह लाख चालीस हजार योजन बतलाया है। पाठवें संज्वलित इन्द्रक का विस्तार सोलह लाख अठावन हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है। और नौवें संप्रज्वलित इन्द्रक का विस्तार पन्द्रह लाख छियासठ हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है।
चौथी पथिवी के पार नामक पहले इन्द्रक का विस्तार सब पोर चौदह लाख पचत्तर हजार योजन कहा है। दूसरे तार इन्द्रक का विस्तार तेरह लाख तेरासो हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तोन भागों में एक भाग प्रमाण है। तीसरे तार नामक इन्द्रक का विस्तार बारह लाख एकानवें हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तोन भागों में दो भाग प्रमाण है। चौथे तत्व इन्द्रक का विस्तार बारह लाख योजन है। पांचवें तमक इन्द्रक का विस्तार ग्यारह लाख साठ हजार तीन सौ तेतीस योजन एक योजन के तीन भागों में एक प्रमाण है। छठवें वाद इन्द्रक का विस्तार दश लाख सोलह बजार छ सो छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग है । और सातवें खडखड नामक इन्द्रक का विस्तार
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बगोलर स्वर्ग के नीचे और ऊपर प्रत्येक क्षेत्र का घनफल तीन घनराजु प्रमाण है। लांतव स्वर्ग तक दो घनरा और शुक्र कल्प तक एक धनराजु प्रमाण घनफल है।
वयोतर कल्प के नीचे व ऊपर बा० क्षे० का घ. फ.-४ २४७=३ घ, राजू मां का दा. क्षे. का घ, फ...1-3-२xix २७. रा.गु. के.बा.क्षे. का घ. फ.8+५:२x२x७=१ प. रा.।।
तार स्त्र तक उभय' अर्थात याभ्यन्तर और बाह्य क्षेत्र का धनकल अट्टानवे से भाजित लोक के प्रमाण है । तथा इसके बाह्य क्षेत्र का चयफल धनराजु का अष्टमांश है। ।२४:४७.--"३४३+१0I
घ. रा. कल्प के उभय क्षेत्र का धनफल :२४x७ - ब्राह्य क्षेत्र का धनफल ।
उ पके घनकल में से बाह्य क्षेत्र के पनफन को घटा देने पर जो शेष रहे उतना आम्यन्तर क्षेत्र का घनफल होता है।
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जानकार प्राचार्यों ने नौ लाख पच्चीस हजार योजन कहा है।
पांचवी पृथिवी के पहले तम नामक इन्द्रक का विस्तार पाठ लाख तैतीत्त हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग है। दूसरे भ्रम इन्द्रक का विस्तार सात लाख इकतालीस हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों दो भाग है। तीसरे झष इन्द्रक का विस्तार छ: लाख पचास हजार योजन चौये अन्ध इन्द्र क का पांच लाख अंठावन हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण वणित है।
और पांचवे तिमिस्र नामक इन्द्र का विस्तार चार लाख छियासठ हजार छ: सौ छियासठ योजन पार एक योजन के तीन भागों में दो भाप प्रमाण है।
छठवी पृथ्वी के पहले हिम नामक इन्द्रक का विस्तार निर्मल केवल ज्ञान के धारी परहन्त भगवान ने तीन लाख पचहत्तर हजार योजन बतलाया है। दूसरे वर्दल इन्द्रक का विस्तार दो लाख तेरासी हजार तीन सौ तैतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है। और तीसरे लल्लक इन्द्रक का विस्तार एक लाख एकान हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण हैं।
सातवीं पृथ्वी में केबल अप्रतिष्ठान नाम का एक ही इन्द्रक है तथा वस्तु के विस्तार को जानने वाले सर्वज्ञ देव ने उसका विस्तार एक लाख योजन बतलाया है।
धर्मा नाम पहली पृथ्वी के इन्द्रक बिलों की मुटाई एक कोश श्रेणी बद्ध बिलों की एक कोश के तीन भागों में एक भाग और प्रकीर्णक विलों की दो कोश एक कोश के तीन भागों में एक भाग प्रमाण हैं। दूसरी बंशा पृथ्वी के इन्द्रक बिलों की मटाई डेढ़ कोश, श्रेणी बद्धों की दो कोश और प्रकीर्णकों की साढ़े तीन कोश है। तीसरी मेधा पृथ्वी के इन्द्रक को मुटाई दो कोश, श्रेणी बद्धों की दो कोश और एक कोश के तीन भागों में दो भाग हैं। चौथी अंजना पृथ्वी के इन्द्रकों को मुटाई अड़ाई कोश, श्रेणी बद्धों को तीन कोश और एक कोश के तीन भागों में एक भाग तथा प्रकीर्णकों की पांच कोश और एक कोश के छह भागों में पांच भाग पांचवीं अरिष्ठा पृथ्वी के इन्द्रकों को मुटाई तोन कोश, श्रेणी बद्धों को चार और प्रकीर्णको की सात कोश है। छठवी मघवा पृथ्वी के इन्द्रकों की मुटाई साढ़े तीस कोश, धेणी बद्धों की चार कोश और एक कोश के तीन भागों में दो भाग तथा प्रकोणकों की पाठ और एक कोश के पाठ भागों में छह भाग प्रमाण है। एवं माघवी नामक सातवीं पृथ्वी के अप्रतिष्ठान इन्द्रक की मुटाई चार कोश श्रेणी बद्धों की पांच कोश और एक कोश के तीन भागों में एक भाग है। सातवीं पृथ्वी में प्रकीर्णक बिल नहीं है।
अब बिलों का परस्पर अन्तर कहते हैं प्रथम पृथ्वी के इन्द्रक विलों का अन्तर बुद्धिमान पुरुषों को चौसठ सौ निन्यानवे योजन (छः हजार चार सौ निन्यावें योजन) दो कोश और एक कोश के बारह भागों में से ग्यारह भाग जानना चाहिये । श्रेणी बद्ध विलों का चौसठ सौ निन्यानवें योजन दो कोश और एक कोश के नौ भागों में पांच भाग हैं। तथा प्रकीर्णक विलों का अन्तर चौसठ सौ निन्यानवें योजन मो कोश और एक कोश के छत्तीस भागों में सत्रह भाग प्रमाण हैं। द्वितीय पृथ्वी के इन्द्रक विलों का अन्तर बहुश्रुत विद्वानों ने दो हजार नौ सौ निन्यानवें योजन और चार हजार सात सौ धनुष कहा है। श्रेणी बद्ध विलों का अन्तर दो हजार नौ सौ निन्यानवें योजन और तीन हजार छह सौ धनुष है। एवं प्रकीर्णक विलों का भी पारस्परिक अन्तर उतना ही अर्थात दो हजार नौ सौ निन्यानवें योजन और तीन सौ धनुष हैं। तीसरी पृथ्वी में इन्द्रक विलों का विस्तार
वह सत्ताईस से गुणित और और आठ से भाजित धनराजू के प्रमाण हैं।-1-२३ =३३ प. राश कल्प के अभ्यान्तर क्षेत्र का घनफल ।
धनराजु को क्रमशः दाई और दो से गुणा करने पर जो गुणनफल प्राप्त हो, उतना शेष दो स्थानों के घनफल का प्रमाण है। इस सब घनफल को जोड़कर और उसे दुगुणा कर संयुक्त रूप से रखना पाहिए। 16:२४/७ :-- घ रा आनन कल्प के ऊपर का घ० फ० |
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बत्तीस सौ योजन और पैतीस सौ धनुष प्रमाण है। श्रेणी गत विलों का अन्तर विद्वानों ने बत्तीस सौ योजन और दो हजार धनुष बतलाया है । तथा प्रकीर्णकों का अन्तर बत्तीस सौ पडतालीस योजन और पचपन सौ धनुष कहा है। चौथी पृथ्वी में इन्द्रक विलों का विस्तार छत्तीस सौ पैसठ योजन और पचहत्तर सौ धनुष प्रमाण है। थेणी बद्ध विलों का अन्तर छत्तीस सौ धनुष और एक धनुष के नौ भागों में से पांच भाग प्रमाण है । तथा प्रकीर्णक विलों का बिस्तार छत्तीस सौ चौसठ योजन, सतहत्तर सौ बाईस धनुष और एक धनुष के नौ सालों में दो भाषा है यो गृथ्वी के इन विलों का अन्तर भेद तथा अन्तरों का विस्तार जानने वाले प्राचार्यों ने चार हजार चार सौ निन्यानवें योजन और पांच सौ धनुष बतलाया है। श्रेणी बद्ध बिलों का अन्तर चार हजार चार सौ ग्रठानवे योजन और छह हजार धनुष है। तथा प्रकीर्णक बिलों का अन्तर चार हजार चार सौ सत्तानवे योजन और छह हजार पाँच सौ धनष है। छटवीं पथिवी के इन्द्रक बिलों का अन्तर छह हजार नामा योजन और पचपन सौ धनुष प्रमाण है घणी बद्ध बिलों का अन्तर छ: हजार नौ सौ अट्टानवें योजन और दो हजार धनुष है । तथा प्रकीर्णक विलों का अन्तर छःहजार नौ सौ छियानवें योजन और सात हजार पाँच सौ धनुष । सातवीं पृथ्वी में इन्द्रक विल का अन्तर ऊपर-नीचे तीन हजार नौ सौ निन्यानवें योजन और एक गव्यूति अर्थात दो कोदा प्रमाण है । तथा इसी सातवीं पृथ्वी में श्रेणिबद्ध विलों का अन्तर तीन हजार नौ सौ निन्यानवें योजन और एक कोश के तीन भागों में एक प्रमाण है ऐसा निश्चय है।
__ अब सातों पृथ्वीयों में जघन्य तथा उत्कृष्ट प्रायु का वर्णन करते हैं-पहली पृथ्वी के प्रथम सीमन्तक नामक प्रस्तार मैं नारकियों की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट नब्बे हजार वर्ष की कही गई है। दूसरे नारक नामक इन्द्रक में कुछ अधिक नब्बे हजार वर्ष की जघन्य स्थिति और नब्बे लाख वर्ष की उत्कृष्ट स्थिति है । रौरव नामक तीसरे प्रस्तार में एक समय अधिक नब्बे लाख की जघन्य स्थिति है । और असंख्यात करोड़ वर्ष की उत्कृष्ट स्थिति है। भ्रान्त नामक चौथे प्रस्तार में एक समय अधिक असंख्यात करोड़ वर्ष की जघन्य स्थिति और सागर के दसवें भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है । उदभ्रान्त नामक पाचवें प्रस्तार में एक समय अधिक सागर के दसवां भाग स्थिति है और एक सागर के दश भागों में दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति तत्वज्ञ पुरुषों ने मानी है। संभ्रान्त नामक छठवें प्रस्तार में एक सागर के दश भागों में दो भाग तथा एक समय जघन्य स्थिति है और उत्कृष्ट स्थिति सागर के दश भागों में तीन भाग प्रमाण है। असम्भ्रान्त नामक सातवें प्रस्तार में जघन्य स्थिति सागर के दस भागों में समयाधिक तीन भाग है। और उत्कृष्ट स्थिति सागर के दस भागों में चार भाग प्रमाण है। विभ्रांत नामक पाठवें प्रसार में जघन्य स्थिति एक समय अधिक सागर के दस भागों में चार भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति सागर के दस भागों में पांच भाग प्रमाण है। त्रस्त नामक नौवें प्रस्तारमें एक समय अधिक सागर के दश भागों में पांच भाग प्रमाण जघन्य स्थिति है और सागर के दस भागों में छह भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट है। त्रसित नामक दसवें प्रस्तार में जघन्य
४:-२४१४७=है। घ. रा. आरण कल्प के उपरिम क्षेत्र का घ क । सब घनफल का योग--
+३५-1-53++++++ +11 ,42४२-- --७० घ. रा.।
इसके अतिरिक्त दल (अर्ध) राजुओं का घनफल-अठ्ठाईस घनराजु और मध्यम क्षेत्र (बसनाली) का घनफल उनचास से गुणित एक धनराजु प्रमाण अर्थात उनचास धनराजु प्रमाण है।
दल राजुओं का घ. फ.-दलराजु ८-३ ४७.:. २८ घ. रा. मध्य क्षेत्र का घ. फ.---१४७४७.४६ प. रा.
पूर्व में वर्णित इन पृथिवियों का घनफल ससर पनराजु प्रमाण होता है। इस प्रकार इन तीनों राशियों का योग एक सौ सैतालीस धनराज है, जो सम्पूर्ण अध्वंलोक का धनफल समझना चाहिये ।
दल रा. घ. फ. २८+म.शे. घ. फ. ४६+पूषित क्षेत्रों का घ. फ. ५०=१४७ व. राजु कुल ज. लो. का घ. फ। सम्पूर्ण लोक सामान्य, दो चतुरस्र अर्थात कवयित और तियंगायत चतुरस्त्र, यवमुरज, यवमध्य, मन्दर, दूष्य मौर गिरगकटक, इस
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स्थिति एक समय अधिक सागर के दस भागों में छह भाग उत्कृष्ट स्थिति सागर के दश भागों में सात भाग प्रमाण है। वक्रान्त नामक ग्यारहवें प्रस्तार में जघन्य स्थिति एक समय अधिक सागर के दश भागों में सात भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति सागर के दश भागों में दस भागों में आठ भाग प्रमाण है । अबक्रान्त नामक बारहवें प्रस्तार में एक समय अधिक सागर के दश भागों में पाठ भाग प्रमाण जघन्य स्थिति है और एक सागर के दश भागों में नौ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति विद्वानों ने कही है। विक्रान्त नामक तेरहवें प्रस्तार में जघन्य स्थिति एक सागर के दश भागों में समयाधिक नो भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति सागर के दश भागों में दशों भाग अर्थात एक सागर प्रमाण है। इस प्रकार धर्मा नामक पहली पृथ्वी के तेरह प्रस्तारों में जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति का कथन किया अब दूसरी पृथ्वी के ग्यारह प्रस्तारों में स्थिति का वर्णन करते हैं।
दूसरी पृथ्वी के स्तरक नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों की जघन्य प्रायु एक समय अधिक एक सागर पौ स्थिति एक सागर तया एक तार र माशों में दो अंश प्रमाण है। स्तनक नामक दूसरे प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है तथा एक सागर पूर्ण और एक सागर के ग्यारह भागों में चार भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है। मनक नामक तीसरे प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और एक सागर पूर्ण तथा एक सागर के म्यारह भागों में छह भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है। वनक नामक चौथे प्रस्तार में विद्वानों ने यही जघन्य स्थिति एक सागर पूर्ण और एक सागर के ग्यारह भागों में पाठ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही है । विघाट नामक पांचवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति तथा एक सागर पूर्ण और एक सागर के ग्यारह भागों में दश भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति विज्ञ पुरुषों ने प्रकट की है--बतलाई है। संघाट नामक छठवें इन्द्रक अथवा प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है ओर दो सागर पूर्ण तथा एक सागर के ग्यारह भागों में एक भागप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है। जिल्ल नामक सातवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और दो सागर पूर्ण तथा एक सागर के ग्यारह भागों में तीन भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है। जिह्वक नामक पाठवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति है और दो सागर पूर्ण तथा एक सागर के ग्यारह भागों में पाँच भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है । लोल नामक नौवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति तथा दो सागर पूर्ण और एक सागर के ग्यारह भागों में सात सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति जानना चाहिये । लोलुप नामक दसवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति और दो सागर पर्ण तथा एक सागर के ग्यारह भागों में नौ भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है। एवं स्तनलोलुप नामक ग्यारहवें प्रस्तार में यही जघन्य स्थिति और तीन सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है। इस तरह वंशा नामक दूसरी पृथ्वी में सामान्य रूप से तीन सागर प्रमाण स्थिति प्रसिद्ध है।
तीसरी पृथ्वी के तप्त नामक प्रथम इन्द्रक में तीन सागर जघन्य पीर तीन सागर पूर्ण तथा एक सागर के नौ भागों में चार भाग प्रमाण जघन्य स्थिति है। तपित नामक दूसरे इन्द्रक में यही जघन्य तथा तीन सागर पूर्ण और एक सागर के नौ भागों में पाठ भाग प्रमाण उत्कृप्ट स्थिति वर्णन करने योग्य है । तपन नामक तीसरे इन्द्रक में यही जघन्य और चार सागर पर्ण तथा एक सागर के नौ भागों में तीन भाग पूर्ण उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। तापन नामक चौथे इन्द्रक में यही जघन्य
प्रबार पाठ भेद रूप है।
सामान्य लोक जग धेशी के बनमात्र है। आयात चतुरस क्षेत्र के वेध, कोटि और भुजा, ये तीनों कम से जगणी, जगधेरणी का अई भाग अर्थात् साढ़े तीन राजु और जगनेणी से दुगुणा अर्थात चौदह राजुप्रमाण है।
सामान्य लोक-७४७४७ आयत च का वेष ७ रा. कोटि = ३१० भुजा ७४२-१४ ग०। लोक को सत्तर से भाजित कर नब्ध राशि को पच्चीस से गुणित करने पर यथमुरज क्षेत्र में यवका प्रमाण आता है।
नौ से गणित लोक में चौदह का भाग देने पर रज क्षेत्र का पनफल आता है। इन दोनों के घन फल को जोड़ने से जम श्रेणी घन रूप सम्पूर्ण यवमुरज क्षेत्र का धनफल होता है।
तीन-३४३ : ७०४ २५ - १२२३ पद का प. फ. ३४३४६ - १४:२२०३ मुरज क्षेत्र का प. फः १२२३+२२०३-३४३ घमराजु सम्पूर्ण य.मु.क्षेत्र का घ. फ=७४७४७ पनराजु ।
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स्थिति और चार सागर पूर्ण तथा एक सागर के नौ भागों में सात भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है। निदाघ नामक पाँचवें इन्द्रक में यही जघन्य और पाँच सागर पूर्ण तथा एक सागर के नौ भागों में दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति वर्णन की गई है । प्रज्वलित नामक छठव इन्द्रक में यही जघन्य स्थिति तथा पाँच सागर के नौ भागों में छह भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है। प्रज्वलित इन्द्रक की जो उत्कृष्ट स्थिति है। वही उज्वलित नामक सातवें इन्द्रक की जघन्य स्थिति है। तथा छ: सागर पूर्ण और एक सागर के नौ भागों में एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है। उज्वलित इन्द्रक में जो उत्कृष्ट स्थिति है वही संज्वलित नामक पाठवें इन्द्रक को जघन्य स्थिति है तथा छह सागर पूर्ण और एक सागर के नौ भागों में पाँच भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है। संप्रज्वलित नामक नाव इन्द्रक में यह जघन्य स्थिति और सात सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है। इस तरह तीसरे नरक में सामान्य रूप से सात सागर की स्थिति प्रसिद्ध है।
ऊपर संप्रज्वलित नामक इन्द्रक में जो सात सागर की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है वह चौथी पृथ्वी के पार नामक प्रथम इन्द्रक में जघन्य स्थिति कही गई है तथा सात सागर पूर्ण और एक सागर के सात भागों में से तीन भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है। और इन्द्रक में जो उत्कृष्ट स्थिति कही गई है वही तार नामक दूसरे इन्द्रक में जघन्य स्थिति बतलाई गई है , तथा सात सागर पूर्ण और एक सागर के सात भागों में से छ: भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। तार इन्द्रक में जो उत्कृष्ट स्थिति कही गई है वही मार नामक तीसरे इन्द्रक में जघन्य स्थिति बतलाई गई है और पाठ सागर पूर्ण तथा एक सागर के सात भागों में दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। मार इन्द्रक में जो उत्कृष्ट स्थिति कही गई है वही बचंस्क नामक चौथे इन्द्रक में जघन्य स्थिति बतलाई है और पाठ सागर पूर्ण तथा एक सागर के सात भागों में पांच भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। वर्चस्क इन्द्रक में जो उत्कृष्ट स्थिति कही गई वही तमक नामक पांचवें इन्द्रक में जघन्य स्थिति बतलाई गई है और ना सागर पूर्ण तथा एक सागर के सात भागों में एक सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। तमक इन्द्रक में जो उत्कृष्ट स्थिति कही गई है बही खड नामक छठवें इन्द्रक में जघन्य स्थिति बतलाई गई है और नौ सागर पूर्ण तथा एक सागर के सात भागों में चार भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति प्रदर्शित की गई है । खड इन्द्रक में जो उत्कृष्ट स्थिति कही गई है वही खडखड नामक सातवें इन्द्रक में जघन्य स्थिति बतलाई गई है और दश सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। इस प्रकार चौथी पृथ्वी में सामान्य रूप से दश सागर स्थिति प्रसिद्ध है।
ऊपर जो स्थिति कही गई है वही पांचवीं पृथ्वी के तम नामक प्रथम इन्द्रक में जघन्य स्थिति बतलाई गई है । और ग्यारह सागर पूर्ण एक सागर के पांच भागों में दो भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। भ्रम नामक दूसरे इन्द्रक में यही जघन्य स्थिति कही गई है और बारह सागर पूर्ण तथा एक सागर के पांच भागों में चार भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है।
झष नामक तीसरे इन्द्रक में यही जघन्य स्थिति कही गई है और चौदह सागर पूर्ण तथा एक सागर के पांच भागों
गव मध्य क्षेत्र में एक यवका धनफल गैतीस के आधे साढ़े सत्तरह से भाजित लोक प्रमाण है इसको पैतीस के आधे साढ़े सत्तरह से गुणा करने पर जग श्रेणी के धन प्रमाण सम्पूर्ण यवमध्य क्षेत्र का धनफल निकलता है।
३४२:३५ १६ एक यथ का घनफल : १६३४३५=३४३ घनराजु सम्पूर्ण । य. म. क्षेत्र का घ. फ. xaxच. रा.
चार, दो, मीन, फत्तीस, तीन और तेईस से गुणित, तथा कम से तीन, तीन, दो, छह, दो और छह से भाजित राजुप्रमाण मन्दर क्षेत्र की ऊंचाई है।
मन्दराकार लोक की ऊंचाई काम राजुओं में
पन्द्रह से गणित और छप्पन में भाजित राजुप्रमाण चूलिका के प्रत्येक तटों का विस्तार है। उस प्रत्येक अन्तर्वर्ती करपकार अर्थात त्रिकोण खण्डित क्षेत्र से चूलिका सिद्ध होती है ।
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एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है। अंध नामक चौथे इन्द्रक में सत्यवादी जिनेन्द्र भगवान ने यही जघन्य स्थिति कही है और पन्द्रह सागर पूर्ण तथा एक सागर के पांच भागों में तीन भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है। तमिस्र नामक पांचवें इन्द्रक में यही जघन्य स्थिति मानी जाती है और सत्रह सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलाई जाती है। इस प्रकार पांचवीं पृथिवी में सामान्य रूप से सत्रह सागर की मायु प्रसिद्ध है।
छठवीं पथिवी के हिम नामक प्रथम इन्द्रक में सत्रह सागर प्रमाण जघन्य स्थिति कही गई है और अठारह सागर पूर्ण तथा एक सागर के तीन भागों में दो भाग उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है। बदल नामक दूसरे इन्द्रक विल में यही जघन्य स्थिति कही गई है और बीस सागर पूर्ण तथा एक सागर के तीन भागों में एक भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है। मुनियों में श्रेष्ठ गणधरादि देवों ने लल्लक नामक तीसरे इन्द्रक में यही जघन्य स्थिति कही है तथा बाईस सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है इस प्रकार छठवीं पृथिवी में सामान्य रूप से बाईस सागर प्रमाण पायु कही गई है। . सातवीं पथिवी में केवल एक अप्रतिष्ठान नाम का इन्द्रक है सो उसमें यही जघन्य स्थिति वत्तलाई गई है और जो उत्कष्ट स्थिति है वह तैतीस सागर प्रमाण है इस प्रकार सातवीं पृथिवी में सामान्य रूप से तैतीस सागर प्रमाण प्राय प्रसिद्ध है अब नारकियों के शरीर की ऊचाई का वर्णन किया जाता है--
पहली पथिवी के सीमन्तक नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊंचाई तीन हाथ है। तरक नारक दूसरे प्रस्तार में एक धनूष एक हाथ तथा साढ़े आठ अंगुल है। रोरुक नामक तीसरे प्रस्तार में एक धनुष तीन हाय तथा सत्रह मंगुल है। भ्रान्त नामक चौथे प्रस्तार में दो धनुष दो हाथ और डेढ़ अंगुल है । उद्भ्रान्त नामक पांचवें प्रस्तार में तीन धनुष और दश अंगल है। संभ्रात नामक छठवें प्रस्तार में तीन धनुष दो हाथ और साढ़े अठारह अंगुल है। असंभ्रान्त नामक सातवें प्रस्तार में विशद ज्ञान के धारी प्राचार्यों ने नारकियों के शारीर की ऊंचाई चार धनुष, एक हाथ और तीन अंगुल बललाई है। भ्रान्ति रहित प्राचार्यों ने विभ्रान्त नामक पाठवें प्रस्तार में नारकियों के शरीर का उत्सेष चार धनुष तीन हाथ और साढ़े ग्यारह अंगल प्रमाण कहा है। त्रस्त नामक नौवें प्रस्तार में पांच धनुष एक हाथ और बीस अंगुल ऊंचाई कही गई है। जहां प्राणी भयभीत हो रहे हैं ऐसे त्रसित नामक दसवें प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊंचाई चतुर आचार्यों ने छह धनुष और साढ़े चार अंगूल प्रमाण बतलाई है। वक्रान्त नामक ग्यारहवें प्रस्तार में श्रेष्ठ वक्ताओं ने नारकियों का शरीर छः धनुष दो हाथ और तेरह अंगुल प्रमाण कहा है । प्रवक्रान्त नामक बारहवें प्रस्तार में विद्वान प्राचार्यों ने नारकियों की ऊंचाई सात धनुष और मादेवकीस अंगूल कही है। और विक्रान्त नामक तेरहवें प्रस्तार में सात धनुष तीन हाथ तथा छ: अंगुल प्रमाण ऊंचाई है। इस प्रकार बुद्धिमान आचार्यों ने प्रथम पृथिवी में ऊचाई का वर्णन किया है।
दसरी पथिवी के स्तरक नामक पहले प्रस्तार में नारकियों की ऊंचाई पाठ धनुष, दो हाथ, दो अंगुल और एक अंगल के
चलिका की भूमि का विस्तार पंतालीस से गुरिणत और छप्पन से भाजित एक राजू प्रमाण ( राजु) है। उसी चूलिका की पाई हेतु राजु (१३) और मुस्खविस्तार भूमि के विस्तार का तीसरा भाग अर्थात तृतीयांस (४) है।
भमि में से मुख को घटाकर शेष में ऊंचाई का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना भूमि की हानि और मुख की अपेक्षा अति का प्रमाण छह राजु मुख, का प्रमाण एक राजु और के चाई का प्रमाण दुगुरिणत घेणी अर्थात चौदह राजू है।
उदाहरण -६-१:१४= हा. वृ. का प्रमाण प्रत्येक राजु पर।
हानि और बृद्धि का वह प्रमाण चौदह से भाजित पांच अर्थात एक राजु के चोदह भागों में पांच भाग मात्र है। इस भय वद्धि के प्रमाण को अपनी अपनी ऊंचाई से गुणा करके विविक्षित पृथिवी के (क्षेत्र के) विस्तार को ले आना चाहिये ।
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ग्यारह भागों में दो भाग प्रमाण मानी जाती है। स्तनक नामक दूसरे प्रस्तार में नारकियों का उत्सेध जो धनुष बाईस अंगल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में चार भाग प्रमाण कहा गया है। मनक नामक तीसरे प्रस्तार में नी धनुष तीन हाथ अठारह अंगुल तथा एक अंगुल के ग्यारह भागों में छह भाग प्रमाण ऊंचाई बतनाई है। वनक नामक चौथे प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊंचाई दश धनुष दो हाथ चौदह अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में पाठ भाग, प्रमाण मानी जाती है । घाट नामक पांचवें प्रस्तार में ग्यारह धनुष, एक हाथ, दस अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में दश भाग शरीर को ऊंचाई कही गई है। संघाट नामक छठवें प्रस्तार में नारकियों की ऊंचाई बारह धनुष सात अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में एक भागप्रमाण कही गई है।
जिह्व नामक सातवें प्रस्तार में बारह धनुष, तीन हाथ, तीन अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में तीन भाग प्रमाण ऊचाई है। जिह्वक नामक पाठवें प्रस्तार में तेरह धनुष, एक हाथ, तेईस अंगुल और एक अंगुल के पांच भागों में एक भाग प्रमाण ऊंचाई इष्ट है। लोल नामक नौब प्रस्तार में चौदह घनुप, उन्नीस अंगुल प्रोर एक अंगुल के ग्यारह भागों में सात भाग प्रमाण ऊंचाई है । लोलुप नामक दशवें प्रस्तार में चौदह धनुष तीन हाथ पन्द्रह अंगुल और एक अंगुल के ग्यारह भागों में नौ भाग प्रमाण ऊंचाई है । और स्तनलोलुप नामक ग्यारहवें प्रस्तार में पन्द्रह धनुष, दो हाथ और बारह अंगुल ऊंचाई इष्ट है । इस प्रकार दूसरी पृथ्वी में नारकियों के शरीर की ऊंचाई का वर्णन किया है।
तीसरी पथ्वी के तप्त नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊंचाई सत्रह धनुष, एक हाथ दश अंगुल और एक अंगुल के तीन भागों में दो भाग प्रमाण कही गई है। स्पष्ट ज्ञान रूपी इष्ट दृष्टि को धारण करने वाले प्राचार्यों ने तपित नामक दूसरे प्रस्तार में नारकियों को ऊचाई उन्नीस धनुष नौ अंगुल और एक अंगुल के तीन भागों में एक भाग प्रमाण बतलाई है। सिरों ने सनम तीनो परतार में नारियों के शरीर का उत्सेध बीस धनुष तीन हाथ और आठ अंगुल प्रमाण बतलाया है। तापन नामक चौथे प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊंचाई बाईस धनुष दो हाथ छ: अंगुल और एक अंगल के तीन भागों में दो भाग प्रमाण कहीं। निदाघ नामक पांचवें प्रस्तार में चौबीस धनुष, एक हाथ, पांच अंगुल के तीन भागों में एक . भाग प्रमाण ऊचाई विद्वानों ने बतलाई है। जिनकी प्रात्मा ज्ञान के द्वारा देदीप्यमाम है ऐसे प्राचार्यों ने प्रोज्जवलिन नामक छठवें प्रस्तार में नारकियों की ऊंचाई छब्बीस धनुष और चार अंगुल प्रमाण बतलाई है। आगम ज्ञान से सुशोभित विद्वज्जनों ने उज्वलित नामक वें प्रस्तार में नारकियों का शरीर सत्ताईस धनुष, तीन हाथ, दो अंगुल और एक अंगुल के तीन भागों में दो भाग प्रमाण ऊंचा कहा है । विद्वानों को संज्वलित नामक आठवें प्रस्तार में नारकियों की ऊंचाई उन्तीस धनुष, दो हाथ एक अंगुल के तीन भागों में एक भाग प्रमाण जानना चाहिए। और संप्रज्वलित नामक नौवें प्रस्तार में ऊंचाई का प्रमाण इकतीस धनुष तथा एक हाथ प्रमाण कहा जाता है । इस प्रकार तीसरी पृथ्वी में नारकियों की ऊंचाई का वर्णन किया।
मेश के सदश लोक में, ऊपर-ऊपर सात स्थानों में राजु को रखकर विस्तार को लाने के लिए गुणकार और भागहारों को कहता हूँ।
नीचे से तीन स्थानों में इक्कीस स विभक्त एक सौ छब्बीरा, एक सौ सोलह और एक सौ ग्यारह गुणकार है । । ७४१२६ १२६ , ७४११६ ११६७X१११ १११
१४७ २१ इसके आगे चार स्थानों में कम से चौरासी से विभक्त एक कम चार सौ (३६६), दो सौ चवालीस, एक कम दो सौ (१६६) और चौरासी, ये चार गुणकार हैं ।
७४३६६३६६७४२४४२४४.७४१६६ १९६७X८४८४
५८८ ८४ ५८८८४५८८८४५५५८४
मन्दर के सदश लोक में घनफल साने के लिये नीचे से सात स्थानों में धनराजु को रखकर गुणकार और भागहारों को कहते हैं।
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चौथी पृथ्वी के पार नामक प्रथम प्रस्तार में पैतीस धनुष, दो हाथ, बीस अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में चार भाग प्रमाण ऊंचाई कही गई है। तार नामक दूसरे प्रस्तार में चालोस धनुष, सत्रह अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में एक भाग प्रमाण नारकीयों की ऊचाई है। मार नामक तीसरे प्रस्तार म चवालोस धनुष, दो हाथ, तेरह अमुल पार एक अंगुल के सात भागों में पांच भाग प्रमाण ऊँचाई मानी गई है। वर्चस्क नामक चौथे प्रस्तार में विद्वानों ने शरीर को ऊचाई उन्नचास धनुष, दश अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में दो भाग प्रमाण बतलाई है। तमक नामक पाँचवं प्रस्तार में त्रेपन धनुष, दो हाथ, छ: अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में छ: भाग प्रमाण ऊचाई कही गई है। षड नामक छठवें प्रस्तार में अठावन धनुष, तीन, अंगुल और एक अंगुल के सात भागों में तीन प्रमाण ऊंचाई प्रकट की गई है। और षडपड नामक सातवें प्रस्तार में बासठ धनुष, दो हाथ ऊंचाई प्रसिद्ध है। इस प्रकार चौथी पृथ्वी में विद्यमान नारकियों की ऊचाई का वर्णन किया है।
पाँचवीं पृथ्वी के तप नामक प्रथम प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊंचाई पचहत्तर धनुप बतलाई है। भ्रम नामक दूसरे प्रस्तार में सत्तासी धनुष और दो हाथ है। झष नाम है तीसरे प्रस्तार में नारकियों के शरीर की ऊंचाई सौ धनुष कही गई है। अन्न नामक चौथे प्रस्तार में एक सौ बारह धनुष तथा दो हाथ है। और तमिस्र नामक पांचवें प्रस्तार में एक सौ पच्चीस धनुष है इस प्रकार पांचवीं पथ्वी में विद्वानों ने ऊंचाई का वर्णन किया है।
छठवीं पृथ्वी के हिम नामक प्रथम प्रस्तार में नारकीयों के शरीर की ऊंचाई एक सौ छयासठ धनुष, दो हाथ तथा सोलह अंगुल बतलाई है। घर्दल नामक दूसरे प्रस्तार में शास्त्ररूपी नेत्रों के धारक विद्वानों ने भाकियों की ऊंचाई दो सौ पाठ धनुष, एक हाथ और छ: अंगुल प्रमाण देखी है और लल्लक नामक तीसरे प्रस्तार में नारकियों की ऊंचाई दो सौ पचास धनुष बतलाई है। इस प्रकार कृतकृत्य सर्वज्ञ देव ने छठवीं पृथ्वी में ऊंचाई का वर्णन किया है। सातवी पृथ्वी में एक ही प्रप्रतिष्ठान नाम का प्रस्तार है सो उसमें सन्देहरहित ज्ञान के धारक प्राचार्यों ने नारकियों की ऊचाई पांच सौ धनुष प्रमाण निश्चित की है।
प्रथम पृथ्वी को आदि लेकर उन सातों पृथ्वीयों में यथाक्रम से अवधिज्ञान का विषय इस प्रकार जानना चाहिये । पहली पृथ्वी में प्रवधि ज्ञान का विषय एक योजन अर्थात् चार कोश, दुसरी में साढ़े तीन कोश, तीसरी तीन कोश में चौथी में अड़ाई कोश, पांचवीं में दो कोश, छठवीं में बँढ़ कोश और सातबी में एक कोश प्रमाण है। प्रथम पृथ्वी सम्बन्धी पहले पटल की मिट्टी को दुर्गन्ध प्राध कोश तक जाती है और उसके नीचे प्रत्येक पटल के प्रति प्राधा-राधा कोश अधिक बढ़ती जाती है। पहलो और दूसरी
चार सौ चौरासी, दो सौ सत्ताईस, एक कम चार सौ अर्थात् तीन सौ निन्यानवे, सड़सठ कम बीस हजार, एक कम दो सौ, नौ अधिक पैसठ सौ और पैतालीस, वे क्रम से सात स्थानों में सात गुणकार हैं।
नौ, नौ, आठ, बारह का वर्ग, आठ, एक सौ चवालीस और आट, ये म से सात स्थानों में सात भागहार हैं। ३४३४४८४.४४८ . ३४३ ४ २२७...२२७ .
३४३४- २४३ ३४३ ४ ३६६.३९६३४३ ४ १९६३३_१९६३३ ; ३४३४८
३४३४१४४ ३४३४१६९. ६. ३४३४६५०६.६५०६.
३४३४१४४ ॥
४५...४६३६२ -३४३ घनराजू ।
का पतफान पाच ये जामिनावर दोनों युवाओं का उनका सा
दृष्य क्षेत्र को बाहरी दोनों भुजाओं का वनफल सात से भाजित और दो से गुणित लोक प्रमाण होता है। तथा भीतरी दोनों भुजाओं का घनफल पांच से भाजित और दो से गुणित तोक प्रमाण है।
उदाहरण-या उभय दाहुओं का घ. फ. ३४३-७४२४६८ रा. अभ्य, उ. बाहुओं का घ. फ. ३४३ :-२४१३७, रा.।
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पृथिवी में रहने वाले नारकी कापोत लेश्या से युक्त हैं। तीसरी पृथ्वी के ऊध्र्व भाग में रहने वाले कापोत लेश्या से और आधाभाग में रहने वाले नील लेश्या से सहित हैं। चौथी के ऊपर नीचे दोनों स्थानों पर तथा पांचवों पृथ्वी के ऊपरी भाग में नील लेण्या से युक्त हैं और अधोभाग में कृष्ण लेश्या से सहित हैं। छठवों पृथ्वी के ऊव भाग में कृष्ण लेश्या से, अधोभाग में परमकृष्ण लेश्या से और सातवीं पृथ्वी के ऊपर नीचे दोनों ही जगह रहने वाले परमकृष्ण लेश्या से संक्लिष्ट हैं। अर्थात सक्लेश को प्राप्त होते रहते हैं। प्रारम्भ की चार भूमियों में रहने वाले नारकी उष्ण स्पर्श से, पांचवीं भूमि में रहने बाले उष्ण और शीत दोनों स्पशों से तथा अन्त की दो भूमियों में रहने वाले केवल शोत स्पर्श से ही पोड़ित रहते हैं। प्रारम्भ का तीन पवियों में नारकियों के उत्पत्ति स्थान कुछ तो ऊट के प्राकार हैं। कुछ के भी कुछ कुस्थली मुद्गर और नाड़ो के आकार हैं। चौथी और पांचवीं पृथ्वी में नारकियों के जन्म स्थान अनेक तो गोके आकार हैं. प्र.क हाथी घोड़े आदि जन्तुओं तथा धोंकनी, नाव और कमलपूट के समान हैं। अन्तिम दो भूमियों में कितने ही खेत मे समान, बितने ही झालर और कटोरों के समान और कितने ही मयरों के आकार वाले हैं। व जन्मस्थान एक कोश, दो कोश, तीन कोवीर एक योजन विस्तार से सहित हैं। उनमें जो उत्कृष्ट स्थान है वे सौ योजन तक चौड़े कहे गये हैं। उन समस्त उत्पत्ति स्थानों की ऊंचाई अपने विस्तार से पंचगनी के ऐसा वस्तु स्वरूप को जानने वाले प्राचार्य जानते हैं। समस्त इन्द्रक विल तीन द्वारों से युक्त तथा तोन कोणों वाले हैं। इसके सिवाय जो श्रेणी वद्ध और प्रकोणक निगोद हैं उनमें कितने ही दो द्वार वाले दुकोने कितने ही तीन द्वार वाले तिकोने, कित सोपानद्वार वाले पंचकोने और कितने ही सात द्वार वाले सतकोने हैं। इनमें संख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का अपना जघन्य अन्तर छ: कोश और उत्कृष्ट अन्तर बारह कोश है। एवं असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों का उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात योजन तथा जघन्य अन्तर सात हजार योजन है।
घमा नामक पहली पृथ्वी के उत्पत्ति स्थानों में उत्पन्न होने वाले नारको जीव जन्म काल में जब नीचे गिरते हैं. तब सात योजन सवा तीन कोश ऊपर आकाश में उछल कर पून: नीचे गिरते हैं। दूसरी वंशा पृथ्वी के निगोदों में जन्म लेने वाले नारकी पन्द्रह योजन अढ़ाई कोश प्रकाश में उछल कर नीचे गिरते हैं तीसरी मेधा पृथ्वी में जन्म लेने वाले जीव इकत्तीस योजन एक कोश प्रकाश में उछल कर नीचे गिरते हैं। चौथी अंजना पृथ्वी के निगोदों में जन्म लेने वाले जीव बासठ योजन दो कोश उछलकर नीचे गिरते हैं और तीव्र दुख से दु:खी होते हैं। पाँचबों पृथ्वी के निगोदों में जन्म लेने वाले नारकी प्रत्यन्त दुःखी हो एक सौ पच्चीस योजन आकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं। छठवीं पृथ्वी में स्थित निगोदों में जन्म लेने वाले जीव
--- ---- असी क्षेत्र में उसके लघु बाहु का धनफल छह से गुणित और पंतीस से भाजित लोकप्रमाण, तथा यवक्षत्र का घनफल सात से विभक्त लोक प्रमाण है।
लघु बाहु का ध० फ० ३४३४६-३५ =५०रा० यत्र क्षेत्र का प० फ०-३४३.७...४६ रा० दूष्य मेष का समस्त घ० फ. ६८-|-१३७1-1-1 -४६ -३४३ रा० ।
इसको पैतीस से गुणा करने पर श्रेणी के घन प्रमाण कुल गिरिकट क्षेत्र का मिश्र घनफल होता है ।
इस उपयुक्त लोक क्षेत्र मे सात का भाग देकर लब्ध राशि को चार से गुणा करने पर सामान्य अधोलोक का घनफल होता है । आयत चतुरनक्षेत्र में भुजा श्रेणी प्रमाण सात राजु, कोटी चार राजु और इतना ही (सात राजु) वेध भी है। बहुत से यवों यस्त मुरज क्षेत्र में अवक्षेत्र और मुरजक्षेत्र दोनों ही नियम से होते हैं। उस ययमुरज क्षेत्र का घनफल चौदह से भावित और तीन से गुरिणत लोक प्रमाण तथा मुरज क्षेत्र का धनफल चौदह से भाजित और पांच से गुरिणत लोक प्रमाण है।
उदाहरण --(१) एक गिरकट का १० फ० रा ( होता है ।) -३५-.३४३ रा० समस्त गिरिकट का घनफाल । (२) सामान्य अधोलोक का धनफल ३४३७४४-१६६ रा आयात चतुरस्र अधोलोक में भुजा ७ रा० कोटि ४ रा० और वेष राज
७ -१९६ राज. प. फ० । (४) बमुरजाकार अघोल कि में प्रवक्षेत्र वा घाफ०३४३:१४४३--.७३३ रा० मरज क्षेत्र
भ
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दो सौ योजन प्राकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं। और सप्तमी पथ्वी में स्थित निगोदों में उत्पन्न हए जीव पांच सौ धनुष ऊंचे उछलकर पृथ्वी तल पर नीचे गिरते हैं। तीसरी पृथ्वी तक असुरकुमार देव नारकियों को परस्पर लड़ाते हैं। इसके सिवाय वे नारकी पुराने बैर भाव' को जानकर स्वयं भी लड़ते रहते हैं। विक्रिया शक्ति के द्वारा अपने शरीर से ही उत्पन्न होने वाले भाले, तथा शूल यादि नाना शस्त्रों से उन नारकियों के खण्ड-खण्ड कर दिये जाते हैं और परस्पर एक दूसरे को पीड़ा पहुंचाते हैं । खण्ड-खण्ड होने पर भी पारे के समान उनके शरीर के टुकड़ों का पुन: समूह बन जाता है और जब तक उनकी आयु की स्थिति रहती है तब तक उनका मरण नहीं होता। ये नारकी पूर्वकृत पाप कर्म के उदय से निरन्तर एक दूसरे के द्वारा दिये हुए शारीरिक एवं मानसिक दुःख को सहते रहते हैं। ये खारा गरम तथा अत्यन्य तीक्ष्ण वैतरणी नदी का जल पीते हैं और दुर्गन्धि युक्त मिट्टी का अाहार करते हैं इसलिए निरन्तर असह्य दुःख भोगते रहते हैं। रात-दिन नरक में पचने वाले नारकियों को निमेष मात्र भी कभी सुख नहीं होता। उन नारकियों के निरन्तर प्रत्यन्त अशुभ परिणाम रहते हैं। तथा नपुंसक लिंग और हुण्डक संस्थान होता है। जो आगामी काल में तीर्थकर होने वाले हैं तथा जिनके पाप कर्मों का उपशम हो चुका है। देव लोग भक्तिवश छ: माह पहले से उपसर्ग दूर कर देते हैं। अन्तर के जानने वाले प्राचार्यों ने प्रथम पृथ्वी में नारकियों की उत्पत्ति का मन्तर अड़तालीस घड़ी बतलाया है। और नीचे की छह भूमियों में कम से एक सप्ताह, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास और छह माह का विरह-अन्तरकाल कहा है। जो तीन मिथ्यात्व से युक्त हैं तथा बहुत प्रारम्भ और बहुत परिग्रह के धारक हैं ऐसे तिर्यन और मनुष्य उन पृथ्वियों को प्राप्त होते हैं अर्थात उनमें उत्पन्न होते हैं । असंज्ञी पंचेन्द्रिय पहली पृथ्वी
सरकने वाले दसरी पथ्वी, तक पक्षी तीसरी तक, सर्प चौथी तक, सिंह पांचवीं तक, स्त्रियां छठवीं तक और तीव्र पाप करने वाले मत्स्य तथा मनुष्य सातवीं पृथ्वी तक जाते हैं। सातवीं पृथ्वी से निकला हुआ जीव यदि पुनः अव्यवहित रूप से सातवों में जावे तो एक बार, छठवीं से निकला हुआ छठवीं में दो बार, पांचवीं से निकला हुआ चौथो में चार बार, तोसरी से निकला हा तीसरी में पाँच बार, दुसरी से निकला हुआ दूसरी में छह बार और पहली से निकला हुआ पहली में सात बार तक उत्पन्न हो सकता है। सातवों पृथ्वी से निकाला हुआ प्राणी नियम से संज्ञी तिर्यञ्च होता है तथा संख्यात वर्ष की पाय का धारक हो फिर से नरक जाता है। छठवीं पश्वी से निकला हुआ जीव संयम को प्राप्त तो हो सकता है पर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। चौथी पृथ्वी से निकला हुमा मोक्ष प्राप्त कर सकता है परन्तु निश्चय से तीर्थकर नहीं हो सकता। तीसरी
- - - - -- --- --------- का घ० फा० ३४३:१४४५-१२२२ रा०; १२२ । ७३६. .१९६ रा० समस्त यवगुरज क्षेत्र का घ. फ० ।
चाकार क्षेत्र में एक यब का घनफल ब्यालीस से भाजित लोक प्रमाण है। उसको चौबीस से गुणा करने पर सात से भाजित और चार से गणित लोक प्रयाण समरत यबमध्य क्षेत्र का घनफल निकलता है। ३४३ - ४२० . ८२३ राजु एक पब का घ० फ० ८३ ४२४ = ३४३-७४४=१६६ रा. य० म० का घ००।
मन्दर के सदृदा आगाम वाले क्षेत्र में ऊपर ऊपर-ऊंचाई कम से एक राजु के चार भागों में से तीन भाग, बारह भागों में से सात भाग, बारह से भाजित तेतालीस राजु, राजु के बारह भागों में से सात भाग और डेड राजुमार है। ३(१+ +12-1- +3= ७ रा० ।
मन्दर सदश क्षेत्र में तटभाग के विस्तार में से अट्ठाईस से विभवत जग श्रेणी प्रमाण चार तटवर्ती करणाकार खण्डित क्षेत्र से चूलिका होती है। राजु प्रत्येक खण्डित क्षेत्र प्रमाण ।
इस चूलिका के मुख का विस्तार अट्ठाईस से विभक्त जग श्रेणी प्रमाण, भूमिका विस्तार इससे तिगृणा और ऊंचाई बारह से भाजित जग श्रेणी मात्र है।
चूलिका का मुख भूमि (२६) ऊंचाई रा० अहानब से विभक्त जग श्रेणी को ऊपर-ऊपर सात स्थानों में रखकर विस्तार को लाने के हेतु गुणकार कहता है।
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निकला हुआ जीव सम्यग्दर्शन की शुद्धता से तीर्थकर पद प्राप्त कर सकता है। नरकों से निकले हुए जीव बलभद्र, नारायण
और चक्रवती पद छोड़कर ही मनुष्य पर्याय प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् मनुष्य तो होते हैं पर बलभद्र नारायण ओर चक्रवर्ती नहीं हो सकते । गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक इस प्रकार मैंने संक्षेप से तेरे लिए अधोलोक के विभाग का वर्णन किया । अब तू तिर्यग्लोक-मध्यम लोक के विभाग का वर्णन सुन ।
बुद्धिमान मनुष्य सब समय, सर्वत्र व्याप्त रहने वाले, जिनेन्द्र भगवान के बचन रूपी उत्तम दीपकों की सामर्थ्य रो सूर्य और चन्द्रमा के अगोचर अधोलोक के अन्धकार को नष्ट कर वस्तु के यथार्थ स्वरूप को देखते हुए प्रभुत्व को प्राप्त होते हैं इसमें क्या पाश्चर्य है ? क्योंकि तीन लोक में जिनेन्द्र रूपी सूर्य के द्वारा प्रकाश के उत्पन्न होने पर अन्धकार का सद्भाव कहाँ रह सकता है?
४. वातवलयों का परिचय १. वातवलय सामान्य परिचय
ति. प./१/२६८ गोमुत्तमुग्गवणा घणोदधी तह धणाणिलो वाऊ। तणुवादो बहुवण्णोरुक्खस्य तयं ब बलयतियं 1२६८=गोमुत्र के समान वर्णवाला घनोदधि, मूग के समान वर्णवाला बनवात तथा अनेक वर्णवाला ननुवात । इस प्रकार व तीनों वातवलय वृक्ष की त्वचा के समान (लोक को घेरे हये) हैं।२६८। (रा. वा. /३/१/८/१६०/१६) : (चि. सा./१२३) :
२. तीन वातवलयों का सबस्थान क्रम
ति. प./१/२६६ पढमो लोयाधारो घणोबही इह घणाणिलो तत्तो। तत्परदो तणुवादो अंतम्मि णहं णिवाधारं ।२६६। =इनमें से प्रथम घनोवधि वातवलय लोक का आधार भूत है, इसके पश्चात् धनवातवलय, उसके पश्चात् तनुबातवलय और फिर अन्त में निजाधार आकाश है ।२६९। (स. सि./३/१/२०४३) : (रा. वा./३/१/८/१६०/१४) : (तत्वार्थ वृत्ति/३/१/ श्लो. १-२/११२) ।
तत्वार्थ वत्ति /३/१/१११/१६ सर्वाः सप्तापि भूमयो घनवातप्रतिष्ठा वर्तन्ते । स च धनवात: अम्बुवातः प्रतिष्ठोऽस्ति । स चाम्बुवातस्तनुवातस्तनप्रतिष्ठो वर्तते । स च तनुवातः प्राकाश प्रतिष्ठो भवति । आकाशस्यालम्बनं किमपि नास्ति । =ष्टि नं. २. ये सभी सातों भूमियां धनवात के पाश्रय स्थित हैं। वह घनवात भी अम्बू (धनोदधि) वात के आश्रय स्थित है और वह अम्बुवात तनुवात के पाश्रय स्थित है। वह तनुवात आकाश के प्राश्रय स्थित है, तथा प्रकाश का कोई भी आलम्बन नहीं है।
३. पृथ्वियों के साथ वातवलयों का स्पर्श ति.प./२/२४ सत्तच्चिय भूमीग्रो णवदिसभाएण घणोवहिविलग्मा । अट्ठमभूमीवसदिस भागे घणोवहिं छिवदि।२४|
ति.प.८/२०६-२०७ सोहम्मदुगबिमाणा घणस्सस्वस्स उबरि सलिलस्स चेतेपवणोवरि माहिन्द सणकूमाराणि ।२०६। बम्हाई चत्तारो कप्पा चेद्वति सलिलवादूळ पाणदपाणदपहुदो सेसा सुद्धम्भि गयणयले ।२०७४ - सातों (नरक) पृथ्वियाँ
अट्ठागबे, बानब, नवासी, न्वासी, उनतालीस, बत्तीस और चौदह, ये कम से उक्त सात स्थानों में सात गुणकार हैं। पूर्वोक्त ऊंचाई क्रम से विस्तार का प्रमाण-४६८; १४६२१४८९; TEX८२१८४३६८४३२१४१४ । नीचे से ऊपर सात स्थानों में धनराजु को रखकर घनफल जानने के लिये गुणकार को कहता हूँ।
उक्त सात स्थानों में पंचान, एक सौ इक्यासी, दो सौ सतासी, पांच हजार दो सौ तीन, अट्ठाईस, उनहत्तर और उनचास, ये सात गुणकार, तथा चार, चार का वर्ग (१६), बारह, अड़तालीस, तीन, चार और चौवीस, ये सात भागहार है।
पूर्वोक्त ऊंचाई के क्रम से घनफल का प्रमाण
Sx+4+8+५११३-२+ + १६६ रा० द्रुष्व क्षेत्र में चौदह से भाजित और तीन से गुणित लोक प्रमाण बाह्य उभय वाहओं का और पाँच से विभक्त लोक प्रमाण आभ्यन्तर दोनों बाहुओं का धनकल है।
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ऊर्ध्व दिशा को छोड़कर शेष नौ दिशाओं में घनोदधि वातवलय से लगी हुई हैं, परन्तु पाठवों पृथ्वा दशों दिशाओं में ही बातवलय को छूती है ।२४। सौधर्म युगल के विमान घनस्वरूप जल' के ऊपर तथा माहेन्द्र व सनत्कुमार कल्प के विमान पवन के ऊपर स्थित हैं।२०६। ब्रह्मादि चार कल्प जल व वायु दोनों के ऊपर, तथा मानत प्राणत आदि शेप विमान सुद्ध आकाश तल में स्थित हैं ।२०७॥
४. वातवालयों का विस्तार
ति. प./१२७०.२८१ जोयणबोससहस्सा वह तम्मारुदाण पत्तेककं । अखिदीणं हेठेलोपतले उवरि जाव इगिरज्जू ।२७०। सगपण चउजोयणयं सत्तमणारयम्मि पुहविषणधीए। पंचच उतियामाणं तिरीयसेत्तस्स पणिधीए ।२७१। सगपंचचउसमाणा पणिधीए होति बम्हकप्पस्स 1 पणच उतिय जोयणया उरिमलोयस तम्मि ।२७२। कोसद्गमेक्ककोस किंचणवक च लोयसिहरम्मि । ऊणपमाणं दंडा च उस्सया पंचवस जुदा ।२७३।
तीसं इगिदालदले कोसा तियभाजिदा य उणवणणा । सत्तमखिदिपणिधोए बम्हजुदे बाउबलतं ।२५०।दो छन्नारस भागभहियो कोमो कमेण बाउघर्ण । लोयउवरिम्मि एवं लोय विभायम्मि पण्णत्तं।२८११दष्टि नं० १-आठ पश्चियों के नीचे लोक के तल भाग से एक राज की ऊँचाई तक इन वायु मण्डलों में से प्रत्येक को मोटाई २०,००० योजन प्रमाण है। ।२७०१ सातवें नरक में पक्षियों के पार्श्व भाग में कम से इन तोनों वातबलयों को मोटाई ७, ५ और ४ तथा इसके ऊपर तिर्यग्लोक (मध्यलोक) के पाश्वभाग में ५, ४ और ३ योजन प्रमाण है 1२७१। इसके आगे तोनों वायत्रों की मोटाई ब्रह्म स्वर्ग के पार्व भाग में क्रम से ७,५और ४ योजन प्रमाण, तथा ऊध्वं लोक के अन्त में (पाव भाग में) ५, ४ और ३ योजन प्रमाण है।७। लोक के शिखर पर (गार्व भाग में) उक्त तीनों वातवलयों का बाहल्य क्रमशः २ कोस, १ कोस और कुछ कम १ कोस है। यहां कुछ कम का प्रमाण २४२५ धनुष समझना चाहिये ।२७३। (शिखर पर प्रत्येक की मोटाई २०,००० योजन है
दे. मोक्ष ) (त्रि. सा./१२४-१२६) १. दृष्टि नं. २.-सात पृथ्वी और ब्रह्म युगल के पावभाग में तीनों बायों की मोटाई क्रम से ३०, ४१/२ और ४६/३ कोस हैं ।।२८०। लोक शिखर पर तीनों बातबलयों को मोटाई क्रम से १३, ११ और ११ कोस प्रमाण है। ऐसा लोक विभाग में कहा गया है।२८१।१-विशेष दे. चित्र सं १ ।
५. लोक के आठ रुचक प्रदेश रा. वा./१/२०/१२/७६/१३ मेरुप्रतिष्ठावचवडूर्यपटलान्तरुचकसस्थिता अष्टावाकाशप्रदेशलोकमध्यम् । --मेरु ।
इसी क्षेत्र में नप बाहओ का घनफल तीन में गुरिणत और पतीरा से भाजिन लोक प्रमाण तथा यवक्षेत्र का घनफल चौदह से भाजित लोक प्रमाण है।
दुष्य क्षेत्र में-३४३-:-१४४७३६ बाह्य बाहुओ का घनफल ३४.५ ६८३ १० बा० का प. फ. ३४३-३:३५-२६१ल. बा० का ध० फ० ३४३ ४ १४ = २४, यव क्षेत्र का प. फ. ७३३.६८+ २६ २४३ =१६६ ।
रा, अधोलोक सम्बन्धी कुल दूध क्षेत्र का घनफल ।
एक गिरिकट क्षेत्र का धनकल चौरासी से भाजित लोक प्रमाण है। इसको अड़तालीस से गुणा करने पर कुल गिरिकट क्षेत्र का धनफल होता है । ३४३.८४= ४२५ एक गिरिकट का घ. फ. ४१३४४६. १६६ सम्पूर्ण गिरिकट का प.फ.
इस प्रकार आठ भेद रूप इस अधोलोक का वर्णन किया जा चुका है । अत्र वहां से आगे जाउ प्रकार के ऊर्ध्व लोक का निरूपण करते हैं।
सामान्य उवलोक का घनफल सात से भाजित और तीन से गुणित लोक के प्रमाण अर्थात् एक सौ सैतालीस राजु मात्र है। ३४१ : ७४३:१४.७ रा. सामान्य अर्व लोक का घनफल ।
द्वितीय ऊर्वायत चतुरस्र क्षेत्र में वेध और भुजा जग श्रेणी प्रमाण, तथा कोटि तीन राजुमात्र है। ७४७४३-१४७ कु. आयत क्षेत्र का घनफल ।
तीसरे तिर्यगायत चतुरन्न क्षेत्र में भुजा और कोटि श्रेणी प्रमाण, तथा वेष तीन राजु मात्र है। बहुत में यबो युक्त मुरज क्षेत्र में बह और मरज रूप होता है। इसमें से यव क्षेत्र का घनफल सात से भाजित लोक प्रमाण और मुरज क्षेत्रका घनफल सात रो भाजित और
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पर्वत के नीचे वज व वैड्यं पटलों के बीच में चौकोर संस्थान रूप से अवस्थित प्राकाश के पाठ प्रदेश लोक का मध्य है।
६. लोक विभाग निर्देश
ति.प./१/१३६ सयलो एस य लोओ णिपणो सेदिविंदमाणेण । तिवियप्पो णादब्बो हेटिठममझिल्लउडढ भएण। । १३६ । श्रेणी वृन्द के मान से अर्थात् जग श्रेणी के धन प्रमाण से निष्पन्न हुआ यह सम्पूर्ण लोक, अधोलोक, मध्यलोक और कललोक के भेद से तीन प्रकार का है । १३६ । (बा. अ./३६) : (घ. १३/५, ५, ५०/२८८/४) ।
१७. त्रस व स्थावर लोक निर्देश
(पूर्वोक्त वेत्रासन व मृदंगाकार लोक के वह मध्य भाग में, लोक शिखर से लेकर उसके अन्त पर्यन्त १४ राजू लम्बी व मध्य लोक समान एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त नाड़ी है । त्रस जीव इस नाड़ी से बाहर नहीं रहते इसलिये यह अस नाली नाम से प्रसिद्ध है। परन्तु स्थाबर जोव इस लोक में सर्वत्र पाये जाते हैं। तहां भी सूक्ष्म जीव तो लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हैं, पर बादर जीव केवल असनाली में होते हैं उनमें भी तेजस्कायिक जीव केवल कर्मभूमियों में ही पाये जाते हैं अथवा अधोलोक व भवनवासियों के विमानों में पांचों कायों के जीव पाये जाते हैं, पर स्वर्गलोकमहीं।
८. अधोलोक सामान्य परिचय
(सर्व लोक तीन भागों में विभक्त है-अथो, मध्य व ऊर्ध्व-दे. लोक/२/२ मेरु तल के नीचे का क्षेत्र अधोलोक है, जो वेत्रासन के आकार वाला है। राज ऊंचा व ७ राज मोटा है। नीचे ७ राज व ऊपर राज प्रमाण चौडा से लेकर नीचे तक क्रम से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्र भा, तमप्रभा व महातमप्रभा नाम की ७ पृथ्वियां लगभग एक राजू अन्तराल से स्थित हैं। प्रत्येक पृथ्वी में यथा योग्य १३, ११ प्रादि पटल १००० योजन अन्तराल से अवस्थित हैं। कल पटल ४६ हैं। प्रत्येक पटल में अनेकों बिल या गुफायें हैं । पटल का मध्यवर्ती बिल इन्द्रक कहलाता है। इसकी चारों दिशामों व विदिशामों में एक घणो में अवस्थित बिल धेणीबद्ध कहलाते हैं और इनके बीच में रत्नराशिवत् विखरे हये बिल प्रकीर्णक कहलाते हैं । इन बिलों में नारको जीव रहते हैं। (दे. नरक/५] । सातों पृथ्वियों के नीचे अन्त में एक राजू प्रमाण क्षेत्र खाली हैं । (उसमें केवल निगोद जीव रहते हैं) -दे, लोक/३/१४ । (विशेष देखो, नरक/५)
६. भावनलोक निर्देश उपरोक्त सात पृथ्वियों में जो रत्नप्रभा नाम को प्रथम पृथ्वी है, वह तीन भागों में विभक्त है-खरभाग, पंकभाग व
दो से गुरिणत लोक के प्रमाण है । ७४७४ ३ =१४७ ति. आयात क्षे. का घ. फ. यव मुरज में ३४३ : ७४४६ प.क्षे. घ. फ. ३४३-७४ २ -६८ .क्षे. का . फ. ४६+६=१४७ समस्त य, मु. क्षे. का घ. फ. ।
पवमध्य क्षेत्र में एक यव का धनफन अठाईस से भाजित लोक प्रमाण है। इसको बारह से गुरषा करने पर सम्पूर्ण यव मध्य क्षेत्र का पतफल निकलता है। ३४३-२८=१२३ एक यव का घ. फ. १२१x१२-१४७ रा. सम्पूर्ण य. म. क्षे. का घ. फ, ।
मन्दरसदश आकार वाले ऊर्ध्व क्षेत्र में जार-ऊपर ऊंचाई कम से तीन से भाजित दो राजु, तीन से भाजित एक राजु, चार से भाजित तीन राजु और, बारह से भाजित इकतीस राजु, चार से भाजिन तीन राजु और बारह से भाजित तेईस राजु मात्र है।
111111३+ ७ राजु ।
अट्ठा नवे से विभक्त और तीन से गुरिणत जगणी प्रमाण तटों का विस्तार है । ऐसे वार तटवर्ती करणाकार खण्डित क्षेत्र से चूलिका होती है।
प्रत्येक तट का विस्तार- ४३-11--राजु ।
उस चूलिका की भूमि का विस्तार तील तटों के प्रमाण, मुख का विस्तार इसका तीसरा भाग, तथा ऊंचाई चार से भाजित और तीन से गुणित राजु मात्र है।
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अब्बुहल भाग । खरभाग भी चित्रा, वैडूर्य, लोहितांक प्रादि १६ प्रस्तारों में विभक्त है। प्रत्येक प्रस्तार १००० योजन मोटा है। उनमें चित्रानाम का प्रथम प्रस्तर अनेकों रत्नों व धातुमों को खान है। (दे. रत्नप्रभा)। तहां खर व पंक भाग में भाव नवासी देवों के भवन हैं और अब्युहल भाग में नरक पटल है, (दे. भवन ४/१) इसके अतिरिक्त तियक लोक में भी यत्र तत्र सर्वत्र उनके पूरे, भवन व प्रावास हैं। ... (दे. व्यंतर ४४१, ५) । (विशेष दे. भवन!४)।
१०. ध्यन्तरलोक निर्देश
चित्रा पृथ्वी के तल भाग से लेकर सुमेरु को चोटी तक तिर्यगलोक प्रमाण विस्तृत सर्व क्षेत्र व्यन्तरों के रहने का स्थान है। इसके अतिरिक्त खर पकभाग में भी उसके. भवन हैं। मध्य लोक के सर्व द्वीप समुद्रों को बेदिकामों पर, पर्वतों के कटों पर, नदियी के तटों पर इत्यादि अनेक स्थलों पर यथा योग्य रूप में उनके पुर, भवन व आवास हैं। (विशेष दे० व्यन्तर/४) ।
११. मध्य लोक निर्देश १.द्वीप सागर ग्रादि निर्देश
ति. प./५/--१०, २७, सनने दीवस मुद्दा संखादीदा भवंति समबट्टा । पढमो दीओ उवही चरिमो मज्झम्भि दीउवही । चित्तोवरि बहुमज्झ रज्जूपरिमाणदोहविक्खने। चेट्टति दोवउवहो एस्केक्क बेदिऊणं हु परिदो ।६। सब्वे विवाहिणीसा चित्तखिदि खंडिदूण चेटठति । वजनखिदोए उवरि दोवा वि हु उरि चित्ताए।१०। जम्बूदोवे लवणो उवही कालो त्ति घादईसंडे पवसेसा वारिशिही वतन्वा दीवस पणामा ।२८-१. सब द्वीप समुद्र असंख्यात एवं समवृत्त है। इनमें से पहला द्वीप, अन्तिम समुद्र और मध्य में द्वीप समुद्र हैं ।। चित्रा पृथ्वी के ऊपर बहुमध्य भाग में एक राजु लम्बे-चौड़े क्षेत्र के भीतर एक एक को चारों ओर से घेरे हुये द्वीप व समुद्र स्थित है। सभी समुद्र चित्रा पृथ्वी खण्डित कर वजा पृथ्वो के ऊपर, और सब द्वीप चित्रा. पृथ्वी के ऊपर स्थित है ।१०। (म् ग्रा/१०७६), २, जम्बूद्वीप में लवणोदधि मोर धातको खण्ड में कालोद नामक समुद्र है। शेष संमन्द्रों के नाम द्वीपों के नाम के समान ही कहना चाहिये।
नि, सा/६ वज्जभय मूलभागा वेलुरियकया इरम्मा सिहरजदा। दीको वहोणमते पायारा होंति सम्वस्थ ।१६।सभी द्वोपब समुद्रों के अन्त में परिधि रूप से बडूपमयो वेदिका होता है, जिनका मूल ब्रजमयो होता है तथा जो रमणीक. शिखरों से संयुक्त हैं। [विशेष दे, लोक/३-४]
मोट-(द्वीप समुद्रों के नाम व समुद्रों के जल का स्वाद–दे. लोक/५) भूमिविस्तार-४४३= मुखविस्तार:-=३ऊंचाई राजु० । सात स्थानों में ऊपर इक्कीस से विभक्त राजु को रख कर विस्तार के निमित्त भूत गुणकार को कहता हूं। एक सी पांच सतानवें, तिरानवें, चौरासी, तेरेपन, वनालीस और इक्कीस, ये उपयुक्त सात स्थानों में सात गुणाकार है।
१२ ६ ,३६, रा.। . . . सात स्थानों में नीचे से ऊपर धनराजु को रखकर पनफल जानने के लिए गुणकार और भाग हारों को कहता हूँ।
इन सात स्थानो में कम से दो सौ दो, पंचान, इक्कीस, बवानीस सौ सैतालीस, ग्यारह, चौदह सौ पंचानवें और नौ ये सात गुणकार हैं। तथा भागहार ग्रहां नौ, नौ, एक, बहत्तर एक, बहत्तर और चार हैं । २१२-124738+ +१३+8=१४७ राजु मन्दर क्षेत्र का घनफल ।
दूष्य क्षेत्र की बाहिरी उभय भुजाओं का पनफल चौदह से भाजित और तीन से गुणित लोक प्रमाण; तथा अभ्यन्तर दोनो भुजाओं का धनफल चौदह से भाजित और दो रो गुणित लोक प्रमाण है।
दृष्य क्षेत्र में-३४३-१४४३७३१ बा, उ, भु, ध, फ, ३४३, १४४२४६ अ, क्षे, प, फ,। । इस दुष्य क्षेत्र के सब क्षेत्रों का घनफल चौदह से भाजित लोक प्रमाण है। अब यहां से आगे अनुकम से गिरिकट खण्ड को
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२. तिलोक मनुष्यलोक आदि विभाग
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ध. ४ / १, ३, १ / २ / ३ देस भेएण तिविहो, भंदर त्रिलियादो, उरिमुह लोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरि चिरणों मज्जलोगोति । देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है। मन्दराचल (सुमेरु पर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है । मन्दराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है । मन्दराचल से परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्य लोक है । ३/५/१ पर्यन्तस्तिलोको व्यवस्थित लक्षितावधि मेोजनला ११ अनुयायलय के अन्तभाग तक तिर्यग्लोक अर्थात मध्य लोक स्थिर है । मेरु पर्वत एक लाख योजन विस्तार वाला है । उसो मेरु पर्वत द्वारा ऊपर तथा नीचे इस तिर्यग्लोक को अवधि निश्चित है | १| इसमें असंख्यात द्वीप, समुद्र एक-दूसरे को वेष्टित करके स्थित हैं, यह सारा का सारा तिर्यग्लोक कहलाता है, क्योंकि तियेच जीव इस क्षेत्र में सर्वत्र पाये जाते हैं । २, उपरोक्त तिर्यग्लोक के मध्यवर्ती जम्बूद्वीप से लेकर मानुषोत्तर पर्वत तक बढाई द्वीप व दो सागर से रुद्ध ४५,००,००० योजन प्रमाण क्षेत्र मनुष्य लोक क्षेत्र मनुष्य लोक है। देवों आदि के द्वारा भी उनका मानुषोत्तर पर्वत के पर भाग में जाना सम्भव नहीं है । ३. मनुष्य लोक के इन लड़ाई द्वोपों में से जम्बू द्वीप में ? और घातकों व पुष्करा में दो-दो मेरु हैं। प्रत्येक मेरु सम्बन्धी ६ कुलवर पर्वत होते हैं. जिनसे 'वह द्वीप ७ क्षेत्रों में विभक्त हो जाता है । मेरु के प्रणिधि भाग में दो कुरु तथा मध्यवर्ती विदेह क्षेत्र के पूर्व व पश्चिमवर्ती दो विभाग होते हैं । प्रत्येक में वक्षारं पर्वत, ६ विभंगा नदियाँ तथा १६ क्षेत्र हैं। उपरोक्त ७ब इन ३२ क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो प्रधान नदियां हैं ७ क्षेत्रों में से दक्षिणी व उत्तरीय दो क्षेत्र तथा ३२ विदेह इन सब के मध्य में एक एक विजयार्ध पर्वत है, जिन पर विद्याधरों की बस्तियाँ हैं । ४. इस अढ़ाई द्वीप तथा अन्तिम द्वीप सागर में ही कर्म भूमि है, अन्य सर्व द्वीप व सागर में सर्वदा भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। कृष्यादि षट्कर्म तथा धर्म कर्म सम्बन्धी अनुष्ठान जहां पाये जाते हैं वह कर्मभूमि है, और जहाँ जीव बिना कुछ किये प्राकृतिक पदार्थों के शाश्रय पर उत्तम भोग भोगते हुये सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करें वह भोगभूमि है। पढ़ाई द्वीप के सर्व क्षेत्रों में भी सर्व विदेह क्षेत्रों में त्रिकाल उत्तम प्रकार की कर्मभूमि रहती है। दक्षिण व उत्तरी दो-दो क्षेत्रों में काल परिवर्तन होता है । तीन कालों में उत्तम, मध्यम, व जघन्य भोगभूमि और तोन कालों में उत्तम मध्यम व जघन्य कर्मभूमि रहती है। दोनों कुरूपों में सदा उत्तम भोगभूमि रहता है, इनके धागे दक्षिण व उत्तर क्षेत्रों में सदा मध्यम भोग भूमि और उनसे भी आगे के शेष दो क्षेत्रों में सदा जघन्य भोगभूमि रहती है। मोगभूमि में जीव की आय शरीरोत्सेध दल व सुख कम से वृद्धिगत होती है और कर्मभूमि में क्रमशः हानिगत होता है। ५. मनुष्य लोकव अन्तिम स्वयं दोष व सागर को छोड़कर शेष सभी द्वीप सागरों में विकलेन्द्रिय व जलचर नहीं होते हैं। इस प्रकार सर्व हो भोग भूमियों में भी वे नहीं होते हैं । वैर वश देवों के द्वारा ले जाये गये वे सर्वत्र सम्भव है ।
कहता हूँ।
३४३ :- १४- २४३ द्रूष्य क्षेत्र के य, क्षे, काघ, फ, ७३३१-४९ + २४ = २४७ सम्पूर्ण हाथ क्षेत्र का ध, फ,
एक गिरि कट का घनफल छप्पन से भाजित लोक प्रमाण हैं। इसको चौबीस से गुणा करने पर सात से भाजित और तीन से गुणित लोक प्रमाण सम्पूर्ण गिरिकट क्षेत्र का घनफल आता है ।
३४४ - ५६= ६६ एक भि. का घ. फ. ६३X२४ = १४७ रा. (३४३ ÷ ७४३) सम्पूर्ण गि क्षे. घ. फ.
सामान्य, अधः और ऊर्ध्व के भेद से जो तीन प्रकार का जग अर्थात लोक है, उसको आठ प्रकार से कह कर अब वातवलयों के पृथक्
पृथक आकार को कहता हूं ।
गोमूत्र के समान वर्ण वाला घनोदधि, मूंग के समान वर्णवाला घनवास तथा अनेक वर्णवाला तनुवात, इस प्रकार के ये तीनों वातवलय वृक्ष की त्वचा के समान (लोक को घेरे हुए) हैं
इनमें से प्रथम घनोदधिवातवलय लोक का आधार भूत है। इसके पश्चात् घनवातवलय, उसके पश्चात् तनुवात वलय और फिर अन्त में निजधार आकाश है ।
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मध्यलोक सामान्य
द्वीप सागरों के नाम संकेक यो० योजन
उत्तर
पश्चिम
स्वंयभू र
दक्षिण
काफिर महिन्द्र वर घीप
तीसर जम्बू द्वीप स एक द्वीप सागर 9 सरकती समय
वर वर ही कुणीतर
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दरवर
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मसल गन्तिम देते तक वातवलय स्पर्शो स्वयंभूरमण सम
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१२. ज्योतिष लोक सामान्य दिवेश
पूर्वोक्त चित्रा पृथ्वी से ७६० योजन ऊपर जाकर ११० योजन पर्यन्त आकाश में एक राजू प्रमाण विस्तृत ज्योतिष लोक है। नीचे से ऊपर की ओर क्रम से तारागण, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, शनि व शेष अनेक ग्रह अवस्थित रहते हए अपने-अपने योग्य संचार क्षेत्र में मेरु की प्रदक्षिणा देते रहते हैं। इनमें से चन्द्र इन्द्र है और सूर्य प्रतीन्द्र। १ सूर्य, EE ग्रह, २८ नक्षत्र व ६६९७५ तारे, ये एक चन्द्रमा का परिवार है। जम्बू द्वीप में दो, लवण सागर में ४, धातकी खण्ड में १२, कालोद में ४२ और पूष्कराध में ७२ चन्द्र हैं। ये सब तो चर अर्थात चलने वाले ज्योतिष विमान हैं। इससे ग्रागे पुष्कर के परार्ध में ७ पुष्करोद में ३२, वारुणीवर द्वीप में ६४ और इससे आगे सर्व द्वीप समुद्रों में उत्तरोत्तर दुगुने चन्द्र अपने परिवार सहित स्थित हैं। ये अचर ज्योतिष विमान है। [दे. ज्योतिष/२]
१३. कललोक सामान्य परिचय
समेरू पर्वत की चोटी से एक वाल मात्र अन्तर से ऊर्च-लोक प्रारम्भ होकर लोक शिखर पर्यन्त १००४०० योजन कम ७ राजु प्रमाण ऊर्ध्वलोक है। उसमें भी लोक शिखर से २१ योजन ४२५ धनुष नीचे तक तो स्वर्ग है और उससे ऊपर लोक शिखर पर सिद्ध लोक है। स्वर्ग लोक में आर-ऊपर स्वर्ग पटल स्थित हैं। इन पटलों में दो विभाग_कल्लत कल्पातीत । इन्द्र सामानिक प्रादि १० कल्पनाओं युक्त देव कलावासी हैं और इन कल्पनामों से रहित अहमिन्द्र कल्पातीत विमानवामी । पाठ युगलों रूप से अवस्थित कल्प पटल १६ हैं-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, पानत, प्राणत, पारण, और अच्युत । इनसे ऊपर ग्रेवेयेक, अनुदिश व अनुत्तर ये तीन पटल कल्पातीत हैं। प्रत्येक पटल लाखों योजनों के अन्तराल से ऊपर-ऊपर अवस्थित है। प्रत्येक पटल में प्रसंख्यात योजनों के अन्तराल से अन्य क्षुद्र पटल हैं। सर्व पटल मिलकर ६३ है। प्रत्येक पटल में विमान हैं। नरक के बिलोंवत् ये विमान भी इन्द्रक श्रेणीबद्ध ष प्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकारों में विभक्त हैं। प्रत्येक क्षुद पटल में एक-एक इन्द्रक है और अनेकों श्रेणीबद्ध व प्रकीर्णक । प्रथम महापटल में ३३ और अन्तिम में केवल एक सवार्थसिद्धि नाम का इन्द्रक है, इसकी चारों दिशाओं में केवल एक-एक श्रेणीबद्ध है। इतना यह सब स्वर्गलोक कहलाता है [नोट:-चित्र सहित विस्तार के लिये दे. स्वर्ग साथ सिद्धि विमान के ध्वज दण्ड से २६ योजन ४२५ धनुष ऊपर जाकर सिद्ध लोक है। जहां मुक्तजीव' अवस्थित हैं । तया इसके आमे लोक का अन्त हो जाता है। दे. मोक्ष/१/७]
आठ पृवियों के नीचे लोक के तल भाग में एक राजु की ऊंचाई तक इन वायु मण्डलों में भे प्रत्येक की मुटाई बीस हजार योजन प्रमाण है।
घ. उ. २००००+घ. २००००-त. २०००० = ६०००० यो. लोक के तल भाग में एक राजु कार तक वातवलयों की मुटाई।
सातवें नरक में पृथ्वी के गार्श्वभाग में कम से इन तीनों वातबलबों को मुटाई सात, पांच और चार तथा इसके ऊपर तिर्थग्लोक (मध्य लोक) के पार्श्वभाग में पांच, सार और तीन योजन प्रमाण है।
सातती पृथ्विी के पास तीनों वातवलयों की मुटाई-ब.उ. ७+घ+त ४ -१६ योजन मध्य लोक के पास प. उ.५+५४+ त ३=१२ योजन।
इसके आगे तीनों वायुओं की मुटाईबहा स्वर्ग के पाव भाग में क्रम से सात, पांच और चार योजन प्रमाण, तथा ऊर्ध्व लोक के अन्त में (पाच भाग में) पांच, चार और तीन योजन प्रमाण है। ब्रह्म स्वर्ग के पास यो', ५,४; लोक के अन्त में यो० ५,४, ३ ।
लोक के शिखर पर उक्त तीनों वातवनयों का बाहय क्रमशः दो कोस और कुछ कम एक कोस है। यहां तनुवातवलय की मुटाई जो एक कोस से कुछ कम बतलाई है, उस कमी का प्रमाण चार सौ पच्चीस धनुप है !
लोक शिखर पर घनोदधिवात की मुटाई को २ धन वा० कोत. व० धनुष कम १. (धनुष १५७५)
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। ३. जम्बूद्वीप निर्देश . १. जम्बूद्वीप सामान्य निर्देश
त. सू./३/९-२३ तन्मध्ये मेरुनाभिवृत्तो योजनशतशहस्त्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः ।।। भरतहमवतरिविदेहरम्यकहरण्यवत्तै रावतवर्षाः क्षेत्राणि ।१०। तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमबन्निषधनीलरूक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः । ।११॥ हेमानतपनीयबैडूर्यरजतहेममयाः ।१० मणिविचित्रमा उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः ।१३। पद्ममहापद्मतिगिछकेसरिमहापुण्डरीकपुण्डरीका हृदास्तेषाभूपरि।१४। तनमध्ये योजनं पुष्करम्।१७। तद्विगणद्विगुणाहदा: पुष्कराणि च।१८। तन्निबासिन्यो देव्यः श्रीहीधुतिकोतिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः ससामानिकपरिषत्काः ।१९। गंगासिन्धरोहिद्रोहितास्याहरिदहरिकान्तासीतासीतो दानारीनरकान्तासुवर्णपकूलारक्तारक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः ।२०। द्वयोद्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः ।२१। शेषास्वपरगाः ।२२। चतुदर्शनदीसहस्त्रपरिवृता गंगासिन्ध्वादयो नद्यः ।२३।।। १. उन सब [पूर्वोक्त असंख्यात द्वीप समुद्रों-दे लोक/२/११] के बीच में गोल और १००,०० योजन विष्कम्भवाला जम्बुद्वीप है। जिसके मध्य में मेक पर्वत है [ति. प./४/११ व ५/-]; हि. प./५/२]; (ज.प./१/२०)। २. उसमें भरतवर्ष, हेमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष ये सात क्षेत्र हैं उन क्षेत्रों को विभाजित करने वाले और पूर्व-पश्चिम लम्बे ऐसे हिमवान. महाहिमवान, निषध नील, रुक्मी और शिखरी ये छह वर्षधर या कुनालक पर्वत हैं ।११३ (ति.प./४/80-६४); (ह. पु./५/१३-१५); (ज. प. २२ व ३२); (त्रि, सा. ५६४) । ३. ये छहों पर्वत ऋम से सोना, चाँदी, तपाया हुआ सोना, बंडूर्यमणि, चाँदी और सोना इनके समान रंगवाले हैं।१२। इनके पाश्वभाग मणियों से चित्र विचित्र हैं तथा ये ऊपर, मध्य और मूल में समान विस्तार वाले हैं ।१३। (ति. प. ४६४-६५); (त्रि सा. ५६६) । ४. इन कुलाचल पर्वतों के ऊपर क्रम से पद्म, महापदम्, तिगिछ, केसरी महापूण्डरीक और पुण्डरीक, ये तालाब हैं ।१४। ह. पु./२/१२०-१२१); (ज. प./३/६६) 1५. पहिला जो पद्म नाम का तालाब है उसके मध्य एक योजन का कमल है (इसके चारों तरफ अन्य भी अनेकों कमल हैं-दे मागे लोक /३१) इससे आगे के हृदयों में कमल हैं। वे तालाब व कमल उत्तरोत्तर दूने विस्तार वाले हैं। १७-१८ । (ह.पु./५/१२६); (ज. प./३/६६)। ६. पद्म हुदको आदि लेकर इन कमलों पर क्रम से श्री, हो धृति, कीति, बुद्धि और लक्ष्मो ये देवियाँ, अपने-अपने सामानिक, परिषद् आदि परिवार देवों के साथ रहती हैं-(दे व्यंतर /-३) ।१९। (ह. पु. १५/१३०) । ७. (उपरोक्त पद्म प्रादि द्रहों में से निकलकर भरत प्रादि क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो करके क्रम से) गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता सीतोदा, नारी-नरकान्ता,
. .तिर्यकक्षेत्र के पाश्वं भाग में स्थित तीनों बायुओं के बाहत्य को मिलाकर जो योगफल प्राप्त हो, उसको सालवी पृथ्वी के पावं भाग में स्थित वायों के वाहल्य में से घटा कर शेष में छह प्रमाण राजुओं का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतनी सातवीं पृथ्वी से लेकर मध्य लोक तक प्रत्येक प्रदेश-क्रम से एक राज़ पर वायु की हानि और वृद्धि होती है।
७वीं प० के पास वातवलयों का बाहल्य ७-:.-५ :- ४ १६, ५:४३-१२, १६-१२:-६ . प्रति प्रदेश कम से एक राजु पर होने वाली हानि वृद्धि का प्रमाण ।
अरतालीस, छयालीस, चालीस, अडतीस और छत्तीस में तीन का भाग देने पर जो लब्ध आवे, उतना कम से नीचे से लेकर सब पार्व -भागों में (सात पृथ्विपों के पा० भा० में) वातघलयों का बाहुल्य है।
सान पृध्वियों के पार्श्व भाग में स्थित वातवलयों का बाहल्यसप्तम पृ० ४ षठ पृ० स पं० पृ०१४ च० पृ० १३. तृ० पृ द्वि० पृ. प्र० पृ०. यो.
ऊर्व लोक में निश्चय से एक जग श्रेणी से भाजित आठ योजन-प्रमाण बृद्धि-प्रमाण को इच्छा से गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो, उसको भूमि में से कम कर देना चाहिये और मुख में मिला देना चाहिये । (ऐसा करने से अचं लोक में अभीष्ट स्थान के वायु मण्डलों की
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सुवर्णकला-रूप्यकूला रक्ता रक्तोदा नदियाँ बहुतो हैं ।२०। (ह. पु./५/१२२-१२५) । (तिनमें भी गंगा सिन्धु व रोहितास्या ये तीन पद्यद्रह से रोहित व हरिकान्ता महापद्य द्रह से हरित व सीतोदा तिगिछ द्रह से, सीता वनरकान्ता केशरी द्रह से नारी व रूप्यकूला महापुण्डरीक से तथा सुवर्णकला, रक्ता व रक्तोदा पुण्डरीक सरोवर से निकली हैं-(ह. पु./५/१३२-१३५)1 ८. उपरोक्त युगलरूप दो-दो नदियों में से पहली पहली नदी पूर्व समुद्र में गिरती हैं और पिछली-पिछली नदी पश्चिम समुद्र में गिरती हैं।२१-२२।(ह. पु. ५/१६०); (ज. प./३/१९२-१९३) । गंगा सिन्धु प्रादि नदियों की चौदह चौदह हजार परिवार नदिया। (यहां यह विशेषता है कि प्रथम गंगा सिन्धु' युगल में से प्रत्येक की १४०००, द्वि युगल में प्रत्येक को २५००० इस प्रकार सीतोदा नदी तक उत्तोत्तर दूनी नदियां हैं । तदनन्तर शेष तीन युगलों में पुन: उत्तरोत्तर आधी-पाधी हैं । (स. सि./३/२ /२२०/१०): (रा वा ३/२३/३/१६/१३) (ह पु/५/२७५-२७६) ।
ति. प /४गा का भावार्थ-१० यह द्वीप एक जगती करके वेष्टित है ।१५। (ह पु/५/३) (ज प/१२६)। ११ इस जगती की पुवादि चारों दिशाओं में विजय बैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के चार द्वार हैं ।४१-४२। (रा. वा./३/६/१। १७०/२९); (ह. पु. ५/३६०); (त्रि. सा./८६२); (१३८, ४२) । १३ इनके अतिरिक्त यह द्वीप अनेकों वक उपवनों, कुण्डों गोपुर द्वारों, देव नगरियों व पर्वत, नदो सरोवर, कुण्ड प्रादि सबकी वेदियों करके शोभित हैं 18२-१३।१४ (प्रत्येक पर्वत पर अनेकों कूट होते हैं (दे० प्रागे उन पर्वतों का निर्देश) प्रत्येक पर्वत व कूट नदी, कुण्ड, द्रह, ग्रादि वेदियों करके संयुक्त होते हैं(दे० अगला शाषक) प्रत्येक उत, कुण्ड, द्रई कूटों पर भवनवासो व व्यन्तर देवों के पुर, भवन व प्रावास हैं-(दे० व्यन्तर/४ प्रत्येक पर्वत आदि के ऊपर तथा उन देवों के भवनों में जिन चैत्याला होते हैं । (दे० चैत्यालय ३/२)।
मुटाई का, प्रमाण निकल आता है)।
उदाहरण-भूमि की अपेक्षा सान• माहेन्द्र कल्प के पास बातथलयों की मुटाई.-१६ (६x२): १५ यो० अथवा १२+15x =१५३ यो मुख की अपेक्षा।
मेरुतल से कार को नया सिद्ध क्षेत्र के पार्श्व भाग में चौराली, छयानवें, एक सौ आठ, एक सौ बारह और फिर इसके प्रागे सात स्थानों में उक्त एक सौ बारह में से (११२) उत्तरोतर चार चार कम संस्था को रखकर प्रत्येक में सात का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना दातवलयों की मुटाई का प्रमाण है।
___अर्व लोक में वातवलयों का बाहल्य-(१)मेरुतल से ऊपर सौ० ई० के अधोभाग में ; (२) सौ० ई. के उपरि भाग में । (३) सा० मा० 436 (४) अग्रम्हो014 (५) ला० का 18 (६) शु० महा शु018 (७) शा० स० (4) आ. प्र. (E) आ० अ० १३ (१०) श्रे. (११) सिद्ध क्षेत्र
सातवों पृथ्वी और ब्रह्मयुगल के पाव भाग में तीनों दस्युओं की मुदाई क्रम से तीस, इकतालीस के आधे और तीन से भाजित उन्नचास कोस है । व. ड० ३०, घ ४ तनु कोश ।
लोक के ऊपर शिखर पर तीनों वातवलयों की मुटाई कम से दूसरे भाग से अधिक एक कोस, छठवें भाग से अधिक एक कोस और बारहवें भाग से अधिक एक कोस हैं ऐसा लोक विभाग में कहा गया हैं। पाठान्तर । ५० इ० १३५६ १५. तनु १५ कोस ।
यहाँ वायु से रोके गये क्षेत्र, आठों पृथ्बियों और शुद्ध आकाश प्रदेश के धनकल को लवमात्र अर्थात् संक्षेप में कहते हैं।
अब लोकगर्यन्त में स्थित बातवलयों से रोके गये क्षेत्रों के निकालने के विधान को कहते हैं- लोक के नीचे तीनों वायुओं में से प्रत्येक वायु का बाहम बीस हजार योजन प्रमाण है । इन तीनो वायुओं को इकट्ठा करने पर साठ हजार योजन बाहल्य प्रमाण जगप्रतर होता है। यहां विशेषता सिर्फ इतनी है कि लोक के दोनों ही अन्तों अर्थात पूर्व-पश्चिम के अन्तिम भागों में साठ हजार योजन की ऊंचाई तक क्षेत्र पद्यपि हानि रूप है, फिर भी उसे न जोड़कर साठ हजार योजन वाहल्य वाला जगप्रतर है इस प्रकार संकल्प पूर्वक उसको छेद कर पुथक स्थापित करना चाहिए । यो ६००००x४६ |
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नं०
१.
३.
४.
५.
७.
I
२. जम्बूद्वीप में क्षेत्र पर्वत नदी आदि का प्रमाण १ क्षेत्र नगर प्रादि का प्रमाण
नाम
महाक्षेत्र
कुरुक्षेत्र
कर्मभूमि
भोगभूमि
श्रार्यखण्ड
म्लेच्छखण्ड
राजधानी
विद्याधरों के नगर
गणना
२
३४
३४
१७०
**
२७४०
(३७५०)
१२०००० X ४६
في
भरत हैमवत्यादि ।
देव व उत्तर कुरु ।
भरत, ऐरावत व ३२ विषे
विवरण
हैमवत्, हरि, रम्यक थ हैरण्यवत तथा दोनों कुरुक्षेत्र ।
प्रतिकर्मभूमि एक
अन्तर एक राजु उत्सेध, सात राजु आयाम और साठ हजार योजन बाहुल्य वाले वातवलय की अपेक्षा दोनों पार भागों में स्थित बात क्षेत्र को वृद्धि से अलग करके जगप्रतर प्रमाण से सम्बद्ध करने पर सात से भाजित एक लाख बीस हजार योजन बाहल्म प्रमाण जगभर होता है ।
प्रति कर्मभूमि पांच
प्रति कर्मभूमि एक
भरत ऐरावत के विजयाथों में से प्रत्येक पर ११५ तथा ३२ विदेहों के विजयात्रों में से प्रत्येक पर ११० (दे० विद्याधर
इसको पूर्वोक्त क्षेत्र के ऊपर स्थापित करने पर पांच लाख चालीस हजार योजन के सातवें भाग बाहल्य प्रमाण जगावर
होता है।
(६०००० × ७) + १२००००–५४००००–४६
१
の
मुख
इसके आगे इतर दो दिशाओं अर्थात् दक्षिण और उत्तर की अपेक्षा एक राजु उत्सेध रूप तल भाग में सात राज्जु श्रायामरूप, में सातवें भाग से अधिक छह राजु विस्तार रूप और साठ हजार योजन बाहुल्यरूप वायुमण्डल की अपेक्षा स्थित बात क्षेत्र के जगतर प्रमाण से करने पर पचपन लाख बीस हजार योजन के तीन सौ तेतालीसवें भाग बाहुल्य प्रमाण जगप्रतर होता है । ५५२०००० X ४९ _ ५५२०००० X ४६
+9 ३××६०००.
७४४६
३४३
इस उपर्युक्त घनफल के प्रमाण को पूर्वोक्त क्षेत्र के ऊपर रखने पर तीन करोड़ उन्नीस लाख अस्सी हजार योजन के तीन सौ नेतालीसवें भाग बाहृत्य प्रमाण जगप्रतर होता है ।
५४०००० ५५२०००० ३४३
+
३१६८०० X ४६ ३४३
७
इसके अनम्बर सात राजु विष्कंभ, तेरह राजु श्रायाम तथा सांसह बारह ( सोलह एवं बारह) पोजन बाहूल्य रूप अर्थात् सान
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२ पर्वतों का प्रमाण
नाम
गणना
विवरण
मेरु
जम्बूद्वीप के बीचों-बीच ।
हिमवान् आदि ।
कुलाचल विजया
प्रत्येक कर्मभूमि में एक ।
वृषभगिरि
नाभिगिरी
वक्षार
गजदन्त
प्रत्येक कर्मभूमि के उत्तर मध्य म्लेच्छ खण्ड में एक । हैमवत, हरि, रम्यक व हैरण्यवत क्षेत्रों के बीचों-बीच । पूर्व व अपर बिदेह के उत्तर व दक्षिण में चार-चार । मेरु की चारों विदिशाओं में। विदेह क्षेत्र के भद्रशालवन में व दोनों करुषों में सीसा व सीतोदा नदी के दोनों तटों पर । दो कुरुषों में सीता व सीतोदा के दोनों तटों पर। दोनों कुरुषों में पांच-पांच द्रहों के दोनों पार्श्व भागों में दस-दस।
दिग्गजेन्द्र
यमक
कांचनगिरि
११
पृथ्वी के पाश्र्व भाग में सोलहू. मध्य लोक के पाश्च भाग में बारह, ब्रह्मास्त्र के पार्श्व भाग में सोलह, और सिद्ध लोक के, पार्श्व भाग में बारह योजना के वाहल्य रूप वातवलय की अपेक्षा दोनों ही पाच भागों में स्थित वात क्षेत्र को जगप्रतर प्रमाए से करने पर एक सौ चौंसठ योजन कम अझरह योजना के तीन सौ तेतालीसवें भाग बाहल्य प्रमाण होता है।
१३४७४१४४२-२५४.१७६३६४४६ गुनः सातवे भाग से अधिक छह राजु मूल में विस्तार रूप, छह राजु उत्सेध रूप, मुग्म में एक राजु विस्तार रूप और सोलह, प्रारह योजन बाहल्य रूप (सातवीं पृथ्वी और मध्य लोक के पाश्वं भाग में) वातवलय की अपेक्षा दोनों ही पाव भागों में स्थित वात क्षेत्र को जगातर प्रमाण गे करने पर बयालिस सौ पोजन के तीन सौ तेतानीमवें भाग बाहल्य प्रमाण जगप्रतर होता है। 3+:3xx१४४६:४२००X४६ ४२०००x४६
७X४६ ३४३ अान्तर एक, पाँच व एक राजु तिष्कम रूप (कम से मध्य' लोक, ब्रह्म स्वर्ग और सिद्ध क्षेत्र के पावभाग में सात राजू उत्सेध रूप, और क्रममामध्य लोक, ब्रह्म स्वर्ग एवं सिद्ध लोक के पार भागों में स्थित वात क्षेत्र को जगप्रतर प्रमाण से करने पर पांच सौ अठासी भोजन के एक कम पचासवें अर्थात उनचासवें भाए बाहय प्रमाण जगप्रसर होता है।
५-१९४७४२४१४ :५८८ । ४६x४६ ऊपर एक राजु विस्तार रूप, सात राजु प्रायमरूप और कुछ एक योजन बाहल्य रूप पातबलय की अपेक्षा स्थित यात क्षेत्र को
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३ नदियों का प्रमाण
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-...
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प्रत्येक
नाम
गणना
अल प्रमाण
विवरण
का
परिवार
गंगा-सिन्धु
१४०००
भरत क्षेत्र में
२८००२ ५६००२
२८०००
रोहित-रोहितास्या हरित-हरिकान्ता
हैमवत क्षेत्र में हरि क्षेत्र में
५६०००
११२००२
नारी-भरकान्ता
५६०००
११२००६
रम्यक क्षेत्र में
२८०००
५६००२
है रण्य वन क्षेत्र में
-
सुवर्णकूला व रूप्यकूला रक्ता-रक्तोदा
१४०००
ऐरावत क्षेत्र में
-
.
-..-
-
-
छह क्षेत्रों की कुल नदियाँ
__
३१२०१२
सीता-सीतोदा
८४०००
१६८००२
दोनों कुरुत्रों में ३२ विदेहों में
क्षेत्र नदियों
० रा
५६६०६४
विभंगा
१२ ।
१०६४०७८
ह.यु.व.ज. प की अपेक्षा
विदेह की कुल नदियाँ जम्बूद्वीप की कुल नदी
१४५६०६०
विभंगा
२८०००
जम्बूद्वीप की कुल नदी
१७६२०१०
ति. प. की अपेक्षा
पर प्रमाया से करने पर तीन सौ ती थोजन के दो हजार दो सौ चालीसवें भाग बाहल्प प्रमाण जगप्रसर होता है।
हात हा १४७४ -२४४६ इस सबको इकट्ठा करके मिला देने पर एक हजार चौबीस करोड़, उन्नीस लाख, तेरासी हजार, चार सौ सतासी योजनों में एक . लाख नौ हजार मात सौ आठ का भाग देने पर लब्ध एक भाग बाहल्य प्रमाण जगप्रनर होता है। ३११८००००।१७८३६ । ४२००५८ । ३०३_१०२४१०८३४८७
xx २४३ ३ ४३ । ३४३ ४६ २२४० १०६७६०
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नाम
गणना
विवरण व प्रमाण
द्रह
कुलाचलों पर ६ तथा दोनों कुरु में १०-(प. प. ११६७)।
१७६२०१०
नदियों के बराबर (ति.प. ४॥२३८६)।
वृक्ष
जम्बू व शाल्मली (ह. पु. ५)।
गुफाएँ
4.
३४ विजया! की (ह. पु. १५११०)।
वन
अनेक
मेर के ४ वन भद्रशाल नन्दन, सौमनस, ब पाण्डक । पूर्वापर विदेह के छोरों पर देवारण्यक व भूतारण्यक । सर्व पर्वतों के शिखरों पर, उनके मूल में नदियों के दोनों पाव भागों में इत्यादि।
कूट
चैत्यालय
अनेक
बेदियां
अनेक
(ति. प. ४।२।२३९६)। कुण्ड, वनसमूह, नदियां, देव, नगरियां, पर्वत, तोरण द्वार, द्रह दोनों वृक्ष प्रायं खण्ड के तथा विद्याधरों के नगर पादि सब पर चैत्यालय हैं-(दे० चैत्यालय)। उपरोक्त प्रकार जितने भी कुण्ड आदि तथा चैत्यालय आदि हैं उतनी ही उनकी वेदियां हैं। (ति. प. ॥४॥२३८८-१३६०)। जम्बू द्वीप के क्षेत्रों की सर्व पर्वतों की द्रहों की पद्मादि द्रहों की
(ज. प. शा६०-६७) | कुण्डों की
गंगादि महानदियों की
५२००
कुण्डज महानदियों की
कमल २२४१८५६ । कुल द्रह = १६ और प्रत्येक द्रह में कमल-१४०११६= (दे०
आगे द्रनिदेश) अब आठों पृथ्वियों के अघस्तन भाग में वायु से अवरुध क्षेत्र का घनफल कहते हैंइन आठों पृध्वियों में से प्रथम पृथ्वी के अपस्तन भाग में अवरुद्ध वायु के क्षेत्र का धनफल कहते हैं—एक राजु वि.कम सात राजु
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३. क्षेत्र निर्देश
१ जम्बूद्वीप के दक्षिण में प्रथम भरतक्षेत्र जिसके उत्तर में हिमवान पर्वत और तीन दिशाओं में लवण सागर है । इसके बीचों-बीच पूर्वापर लम्बायमन एक विजयार्थ पर्वत है। इस के पूर्व में गंगा और पदिनम में सिंधु नदी बहती हैं। ये दोनों नदियाँ हिमवान के मूल भाग में स्थित गंगा व सिंधु नाम के दो कुडों से निकलकर पृथक्-पृथक् पूर्व व पश्चिम दिशा में उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर बहती हुई विजया को दो गुफा में से निकल कर दक्षिण क्षेत्र के अर्धभाग तक पहुंचकर और पश्चिम की मोर मुड़ जाती हैं । और अपने-अपने समुद्र में गिर जाती हैं। इस प्रकार इन दो नदियों व विजया से विभक्त इस क्षेत्र के छ: खण्ड हो जाते हैं। विजया को दक्षिण के तीन खण्डों में मध्य का खण्ड आर्यखण्ड है और शेष पांच वण्ड मलेच्छ खण्ड हैं । आर्यखण्ड के मध्य (१२x६) योजन विस्तृत विनीता या अयोध्या नाम की प्रधान नगरी है।
जो चक्रवर्ती की राजधानी होती है। विजया के उत्तर वाले तीन खण्डों में मध्य वाले मलेच्छ खण्ड के बीचों बीच वृषभगिरि नाम का एक गोल पर्वत है जिस पर दिग्विजय करने पर चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है।
इसके पश्चात हिमकान के उतर जपा महादिमाशन के हसिम में दूसरा हेमवत क्षेत्र है। इसके बहुमध्य भाग में एक गोल शब्द नाम का नाभिगिरि पर्वत है। इस क्षेत्र के पूर्व में रोहित और पश्चिम में रोहितास्या नदियां बहती हैं। ये दोनों ही नदियां नाभिगिरि के उत्तर व दक्षिण में उससे दो कोश परे रहकर ही उसको प्रदक्षिणा देतो हुई अपनी-अपनी दिशामों में मड़ जाती हैं और अन्त में अपनी-अपनो दिशा वाले सागर में गिर जाती हैं। इसके पश्चात् महाहिमवान के उत्तर तथा निषध पर्वत के दक्षिण में तीसरा हरिक्षेत्र है । नोल' के उत्तर में ओर रुक्मि पर्वत के दक्षिण में छठा हैरण्यवत् पांचवां रम्यक् क्षेत्र है पुनः रुक्मि के उत्तर व शिखरी पर्वत के दक्षिण में क्षेत्र है तहां विदेह क्षेत्र को छोड़कर इन चारों का कथन हेमवत् के समान है । केबल नदियों व नाभिगिरि पर्वत के नाम भिन्न हैं। निषध पर्वत के उत्तर व नील पर्वत के दक्षिण में विदेह क्षेत्र स्थित है। इस क्षेत्र को दिशाओं का यह विभाग भरत क्षेत्र की अपेक्षा है सूर्योदय की अपेक्षा नहीं क्योंकि वहाँ इन दोनों दिशानों में सूर्य का उदय व अस्त दिखाई देता है। इसके बहमध्य भाग में सुमेरू पर्वत है। ये क्षेत्र दो भागों में विभक्त हैं। कुरुक्षेत्र व विदेह । मेरू पर्वत को दक्षिण व निषध के उत्तर में देव कुरू है। मेरू के उत्तर व नील के दक्षिण में उत्तर कुरू है। मेरू के पूर्व व पश्चिम भाग में पूर्व व अपर विदेह हैं। जिनमें पृथक-पृथक् सोलह-सोलह क्षेत्र है। जिन्हें ३२ विदेह कहते हैं। सबसे अन्त में शिखरी पर्वत के उत्तर में तीन तरफ
लम्बाई और मा हजार योजन वाहत्व वाला प्रथम पृथ्वी का बातरुद्र क्षेत्र है। इसका घनकाल अपने बाल्य अर्थात साठ हजार योजन के सातवें भाग हिल्य प्रमाण जगप्रतर होता है ।
१४७४६००००x४६४६x६०००
दुसरी पृथ्वी के अधस्तन भाग में वातरुद्ध क्षेत्र के घनफन को कहते हैं सातवें भाग कम दो राजु विष्कम्भवाला, सात राजु आदत और साठ हजार योजन बाल्प वाला द्वितीय पृथ्वी का वातरुद्ध क्षेत्र है। उसका घनफल मात लाख अस्सी हजार योजन के उन्नचासर्व भाग दाहल्यप्रमाण जगप्रतर होता है।
१.१३.६०००० _७४७८००००४७७८००००x४ 550१७४७
तीसरी पृथ्वी के अघस्तन भाग में वातरुद्ध क्षेत्र के अनफल को कहते हैं-दो बटे सात भाग (3) कम तीन राजु विष्कम्भयुक्त, सात राजु लम्बा और साठ हजार योजन बाल वाना तृतीय पृथ्वी का वातरुद्ध क्षेत्र है। इसका घनफल ग्यारह लाख चालीस हजार योजन के उन्नचासवें भाग वाहत्य प्रमाण जगततर होता है।
{
१९६0000_.७X११४००००४७_११४०००० X ४६
४६
चौथी पृथ्वी के अघस्तन भाग में यालरुद्ध क्षेत्र के घनफल को कहते हैं-चतुर्थ पृथ्वी का वातावद्ध क्षेत्र तीन वटे सात भाग (3)
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से लवण सागर के साथ स्पर्शित सातवां ऐरावत क्षेत्र है। इसका सम्पूर्ण कथन भरतक्षेत्र वत है। केवल इसकी दोनों नदियों के नाम भिन्न है।
४. कुलाचल पर्वत निर्देश
भरत व हेमवत इन दोनों क्षेत्रों को सीमा पर पूर्व पश्चिम लम्बायमान प्रथम हिमवान पर्वत है। इस पर ११ कट हैं। पूर्व दिशा के कूट पर जिनायतन और शेष कूटों पर यथायोग्य नामधारी व्यन्तर देव व देवियों के भवन हैं। इस पर्वत के शीर्ष पर बीचों-बीच पद्म नाम का हृद हैं। तदन्तर हमवत् क्षेत्र के उत्तर व हरिक्षेत्र के दक्षिण में दूसरा महाहिमवान् पर्वत है। इस पर पूर्ववत् आठ कूट है । इसके शीर्ष पर पूर्ववत् महापद्म नाम का द्रह है। तदन्तर हरिवर्ष के उत्तर व विदेह के दक्षिण में तीसरा निषध पर्वत हैं। इस पर्वत पर पर्ववत् । कूट हैं। इसके शीर्ष पर पूर्ववत् तिगिछ नाम का द्रह हैं। तदनन्तर विदेह के उत्तर तथा रम्यक क्षेत्र के दक्षिण दिशा में दोनों क्षेत्रों को विभक्त करने वाला निषध पर्वत के सदृश चौथा नील पर्वत है। इस पर पूर्ववत् ६ कुट हैं ।
भरत क्षेत्र -
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लवण
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- -- ---- -..-- - - -- -- -- कम चार राजु विस्तार वाला सात राजु लम्बा और साठ हजार योजन मोटा है। इसबा घनफल पन्द्रह लाख योजन के उन्नचासवें भाग बाहल्य प्रमाण जगप्रतर होता है।
१४४७.६००००-७X१५०००००४ (१)... १५००००० X४६ पांचवीं पृथ्वी के अधस्तन भाग में अवरुद्ध वातक्षेत्र के धनफल को कहते हैं-पांचयी पृथ्वी के प्राधे भाग में बातावद्ध क्षेत्र चार बठेमात भाग (3) कम पांच विस्तार रूप, सात राजु लम्बा और साठ हजार योजन मोत है । इसका घनफल अठारह लाख साठ हजार योजन के उनचासवें भाग बाल्य प्रमाण जगपतर होता है। १४७४६००००-७४१८६००००४७.१०६०००.XYE
X पठी पथ्वी के अधस्तन भाग में वातावरुद्ध क्षेत्र के वफल को कहते हैं--पांच बटे सात भाग (1) कम छह राज विस्तार दान सात राज लंबा और साठ हजार योजन त्राहल्य वाला छठी पृथ्वी के नीचे वातरुद्ध क्षेत्र हैं। इसका घनफल बाईस लाख बीस हजार योजन के
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विजया पर्वत निर्देश
भरतक्षेत्र के मध्य में पूर्व पश्चिम लम्बायमान विजया पर्वत है भूमि तल ते १० योजन ऊपर जाकर इसकी उत्तर व है. दक्षिण दिशा में विद्याधर नगरों की दो श्रेणियां हैं। तहां दक्षिण श्रेणी में ५५ और उत्तर श्रेणी में ६० नगर हैं। इन श्रेणियों
से भी १० योजन ऊपर जाकर उसी प्रकार दक्षिण व उत्तर दिशा में अभियोग देवों को श्रेणियां हैं। इसके ऊपर है ट हैं। पूर्वदिशा के कूट पर सिद्धायतन है और शेष पर यथायोग्य व्यन्तर व भवनवासी देव रहते हैं। इसके मूल भाग में पूर्व व पश्चिम दिशानों में तमिस्त्र व खण्डप्रपात नाम की दो गुफाएं हैं, जिनमें क्रम से गंगा व सिन्धु नदी प्रवेश करती हैं । रा. वा प, त्रि. सा. के मत से पूर्व दिशा में गंगा प्रवेश के लिए खण्ड प्रपात और पश्चिम दिशा में सिन्धु नदी के प्रवेश के लिए तमिस्त्र गुफा है। इन गुफानों के भीतर बहमध्य भाग में दोनों तटों से उन्मग्ना व निमग्ना नाम वो दो नदियां निकलती हैं जो गंगा और सिन्धु में मिल जाती हैं। इसी प्रकार ऐरावत क्षेत्र के मध्य में भी एक विजया है, जिसका सम्पूर्ण कथन भरत विजयार्धवत् है । कटों व तन्निवासी देवों के नाम भिन्न हैं । विदेह के ३२ क्षेत्रों में से प्रत्येक के मध्य पूर्वापर लम्बायमान विजया पर्वत है। जिनका सम्पूर्ण वर्णन भरत विजयावत् हैं। विशेषता यह कि यहां उत्तर व दक्षिण दोनों श्रेणियों में २५.५५ नगर हैं। इनके ऊपर भी ६.६ कूट हैं। परन्तु उनके व उन पर रहने वाले देवों के नाम भिन्न हैं।
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उन्नचासवें भाग बाहल्य प्रमाण जगप्रतर होता है।
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७४७४६ सातवी पृथ्वी के अधो भाग में वातरुम क्षेत्र के बनफल को कहते हैं सातवीं पृथ्वी के नीचे वातावरुद्ध क्षेत्र छह बटे सात भाग (3) कम सात राजु विस्तार वाला, सात राजु लंबा और सार हजार योजन के उनचासवें भाग बाहल्य प्रमाण जगप्रतर होता है।
...७४२५८००००४७.२५८००००x४६ 3.XX६००००=-
७४.
४६ अष्टम पत्री के अघस्तन भाग में वातावरुद्ध क्षेत्र के घनफल को कहते हैं अष्टम पृथ्वी के अघस्तन भाग में वातावरुद्ध क्षेत्र सात राज लंबा, एक राज विस्तार मुक्त और साथ हजार योजन बाहल्य' वाला है। इसका घनफल अपने बाहल्य के सातवें भाग बाहल्य प्रमागा अगप्रतर होना है।
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६५
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६ - सुमेरु पर्वत निर्देश
१. सामान्य निवेश
विदेहक्षेत्र के बहू मध्य भाग में सुमेरु पर्वत है। यह पर्वत तीर्थकरों के जन्माभिषेक का व्यानरूप माना जाता है। क्योंकि इसके शिखर पर पाण्डुक वन में स्थित पाण्डुक प्रादि चार शिलाओं पर भरत, ऐरावत तथा पूर्व व पश्चिम विदेहों के सर्व तीर्थकरों का देव लोग जन्माभिषेक करते हैं। यह तीन लोकों का मानदण्ड है, तथा इसके मेरु, सुदर्शन, मन्दर प्रादि अनेकों नाम हैं।
२. मेरु का आकार
यह पर्वत गोलाकार वाला है। पृथ्वी तल पर १०,००० पंोजन विस्तार तथा ६२,००० योजन उत्सेध वाला है। क्रम से हानि रूप होता हुआ इसका विस्तार शिखर पर जाकर १००० योजन रह जाता है। इसकी हानि का क्रम इस प्रकार है— क्रम से हानि का रूप होता हुआ पृथ्वीतल से ५०० योजन ऊपर जाने पर नन्दन वन के स्थान पर यह चारों शोर से युगपत ५०० योजन संकुचित होता है । तत्पचात् ११००० योजन समान विस्तार से जाता है। पुनः १५५०० योजन क्रमिक हानि रूप से जाने पर, सीमनस बन के स्थान पर चारों ओर से ५०० यो० संकुचित होता है। यहां से ११००० योजन तक पुनः विस्तार से जाता है उसपर २००० यो० क्रमिक हानिरूप से जाने पर पाण्डुक बन के स्थान पर चारों पोर से युगपत् ४९४ योजन संकुचित होता है। इसका वाहा विस्तार भद्रपाल यादि वनों के स्थान पर कम से १००,००.९५४,४२७२६ तथा १०० योजन प्रमाण है। इस पर्वत के शीश पर पाण्डुक वन के बीचोंबीच ४० योजन ऊंची तथा १२ योजन मूल विस्तारयुक्त भूमिका है। सुपर्वत
६६००००
+229
का ४०. +1.
AM
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--
५०० द
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९६
चूलिका
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-मेष की परिधियां--
नीचे से ऊपर की ओर इस पर्वत की परिधि सात मुख्य भागों में विभाजित है-हरितालमयी, वैड्यमयी, सर्वरत्नमयी, वचमयी, मद्यमयी और पद्ममयी पौर पद्मरागमयी अर्थात् लोहिताक्षमयो। इन छहों में से प्रत्येक १६५०० योजन ऊंची है। भूमितल अवगाही सप्त परिधि (पृथ्वी उपल' बालुका ग्रादि रूप होने के कारण) नाना प्रकार है। दूसरी मान्यता के अनुसार ये सातों परिथियां क्रम से लोहिताक्ष, पद्म, तपनीय, बंदर्य, वज्र, हरिताल और जाम्ब नद-सुवर्णमयी हैं। प्रत्येक परिधि की ऊंचाई १६५०० योजन है। पृथ्वी तल के नीचे १००० योजन पृथ्वी, उपल बालुका और शर्करा ऐसे चार भाग रूप हैं। तथा ऊपर चूलिका के पास जाकर तोम काण्डकों रूप है। प्रथम काण्डक सर्वरत्नमयी, द्वितीय जाम्बूनदमयी और तीसरा काण्डक चूलिका का है जो बंडूर्यमयी है।
४-वनखण्ड निर्देश
१-सुमेरु पर्वत के तल भाग में भद्रशाल नाम का प्रथम वन है जो पांच भागों में विभक्त है-भद्रशाल, मानुषोत्तर, देवरमण, नागरमण और भुतरमण। इस वन को चारों दिशाओं में चार जिन भवन हैं। इनमें से एक मेरु से पूर्व तथा सीता नदी के दक्षिण में है। दूसरा मेस की दक्षिण व सीतादा के पूर्व में है। तोसरा मेरु से पश्चिम तथा सीतोदा के उत्तर में है और चौथा मेरुं के उत्तर व सीता के पश्चिम में है। इन चैत्यालयों का विस्तार पाण्डक वन के चैत्यालयों से चौगुना है। इस वन में मेर को चारों तरफ सीता व गीतोना नदी के दोनों तटों पर एक-एक करके पाठ दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं।
२-भद्रशाल बन से ५०० योजन ऊपर जाकर मेरु पर्वत की कटनी पर द्वितीय वन स्थित है। इसके दो विभाग हैंनन्दन व उपनन्दन । इसकी पूर्वादि चारों दिशाओं में पर्वत के पास क्रम से मान, धारण, गन्धर्व द चित्र नाम के चार भवन हैं जिन में कम से सौधर्म इन्द्र के चार लोकपाल सोम, यम, वरुण व कुबेर क्रीड़ा करते हैं। कहीं-कहीं इन भवनों को मुफानों के रूप में बताया जाता है। यहां भी मेरु के पास चारों दिशाओं में चार जिन भवन हैं। प्रत्येक जिन भवन के प्रागे दो-दो कूट हैंजिन पर दिक्कुमारी देवियों रहती हैं। ति. प. की अपेक्षा से पाठ कट इस वन में न होकर सौमनस वन में है। चारों दिशाओं में सौमनस वन की भांति चार-चार करके कूल १६ पुष्करिणियां हैं। इन बन की ईशान दिशा में एक बलभद्र नाम का कूट है जिसका कथन सौमनस वन के बलभद्र कूट के समान है। इस पर बलभद्र देव रहता है।
३-नन्दन वन से ६२५०० योजन ऊपर जाकर सुमेरु पर्वत पर तीसरा सौमनस वन स्थित है । इसके दो विभाग
इस सनको कट्टा मिलाने पर निम्न प्रकार कुन घनफल होता है। ४२००००। ७८००० . ११४००००.१५
२५८००००४२०
४६
१०९२०००००:४६
४६
इस प्रकार बानावरुद्ध क्षेत्र के घाफत का वर्णन समाप्त हुआ।
आठ परिक्षयों में से प्रत्येक पृथ्वी के परफल को संक्षेप में कहते हैं इनमें से प्रथम पृथ्वो एक राजु विस्तृत, सात राज लंबी, और बीस हजार कम दो लास, अर्थात् एक लाख अस्सी हजार योजन मोटो है । इसका घनफल अपने वाहत्य (१०००० यो०) के सातवे भाग बाल प्रमाण जगनतर होता है।
७४१८००००४७,१८००००x४६ १४७१८००००/
दुपरी पृथ्वी सातों भाग कम दो राज विस्तार बाली सात राजु आयत और बत्तीस हजार योजन मोटी है। इसका धनफल चार लाख सौरह हजार योजन व उमंचासवें भाग बाहत्य प्रमाण जगातर है।
७.३२००० ७X४१६०००४७४१६०००x४६
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सविलाय.JA
शीयंकाँका जम्यानि
आकाशला
हैं-सौमनस व उपसौमनस । इसकी पूर्वादि चारों दिशाओं में मेरु के निकट वन, वनमय, सुवर्ण व सुवर्णप्रभ नाम के चार पुर हैं, इनमें भी नन्दन वन के भवनोंवत सोम प्रादि लोकपाल क्रीड़ा करते हैं। चारों विदिशाओं में चार-चार पुष्करिणी हैं। पूर्वादि चारों दिशाओं में चार जिन भवन हैं प्रत्येक जिन मंदिर सम्बन्धी बाह्य कुटों के बाहर उसके दोनों कोनों पर एक-एक करके कुल आठ कूट हैं जिन पर दिक्कुमारी देवियां रहती है। इसकी ईशान दिशा में बलभद्र नाम का कुट है जो ५०० योजन तो वन
के भीतर है पोर ५०० योजन उसके बाहर ग्राकाश में निकला हुआ है। इस पर बलभद्र देव रहता है। मतान्तर की अपेक्षा इस वन में पाठ कूट
ब बलभद्र कूट नहीं हैं। ਤੂਨਰਸ पाण्डक वन:
४-सौमनस धन से ३६००० योजन ऊपर जाकर मेरु के शीर्ष पर चौथा पाण्डक वन है। जो चूलिका को वेष्टित करके शीर्ष पर स्थित
है। इसके दो विभाग हैं.–पाण्डक व उपपाण्डुक । इसके चारों दिशाओं में स्ट्रिभाव
लोहित भवत लोहित अंजन हरिद्र और पाण्डुक नाम के चार भवन हैं जिनमें सोम आदि
लोकपाल क्रीड़ा करते हैं। चारों विदिशामों में चार-चार करके १६ पुष्करिणियां हैं । वन के मध्य चलिका की चारों दिशाओं में चार जिन भवन हैं । वन की ईशान प्रादि दिशाओं में अर्ध चन्द्राकार चार शिलाएं हैंपाण्डक शिला, पाण्डकाबला शिला, रक्तकबला शिला और रक्तशिला।
रा. वा. के अनुसार ये चारों पूर्वादि दिशाओं में स्थित हैं। इन शिलामों सादेन
पर क्रम से भरत, अपरविदेह, ऐरावत और विदेह के तीर्थंकरों का जन्मा भिषेक होता है।
NHAailer
विवह मैं तीर्थकर
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30/
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कार्यकर
अपर विहान
अंजन भवन
तीसरी पृथ्वी दो वटे तीन राजु विस्तार वाली सात राजु आयत और अट्ठाईस हजार योजन मोटी है। इसका घनफल पांच लाख बत्तीसहजार वोजन के उनचासर्व भाग बाहल्प प्रमाण जगप्रतर होता है।
१९४७२८०००.७X ५३२०००४७_५३२०००४ ४६ ७४११ ७xs
४६
चतुर्थ पृथ्वी तीन बटे सात कम चार राजु विस्तार वाली सात राजु लम्बी और चौबीस हजार योजन मोटी है। इसका घनफल छः लाख योजन के उनचासवें भाग बाहल्य प्रमाण जगप्रतर होता है।
२५
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२४००० ७४६०००००४७ ६०००००X४६ X-X X - X- -- - ----
पांचवीं पृथ्वी चार वटे सात भाग (४) कम पांच राजु विस्तार युक्त, सात राजु लम्बी और बीस हजार योजन मोटी है। इसका पनफल छह लाख बीस हजार योजन के उनचासवें भाग बाहल्य प्रमाण जगप्रतर होता है।
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७४७४४
छठी पृथ्वी (8) कम छह राजु विस्तार वाली, सात राजु बायत, और सोलह हजार योजन बाहल्य वाली है। इसका घनफल पांच लाल बान हजार योजन के उनचासवें भाग बाहल्य प्रमाण जगप्रलर होता है।
७४५६२०००४७.५६२०००x४६
७४७----१०००X४६
सातवीं पृथ्विी छह बटे सात भाग (6) कम सात राजु विस्तार वाली, सातराजु आयत, और आठ हजार योजन बाहल्यवाली है।
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नन्दन व सौमनस वन - (धि स०१)
THI दिक्कुमारी देविका
IKARAai..!
:/मणिभदया
बलरा
मलिन बोल
CHAधेर ।
it Ke श्री महिनामीकि ...
MEANING
कान्ता यी महिला की
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दिक्कुमारी देविया
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... दिमामारी द्रविया
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१-हि.शिनेबलमटू कूट नन्दन उनमें ही है, नया उसका विस्तार ऊंचाई १००,१०० योजन है। २-हि-दैधिले कुवेर आदि लोकपालों के भवनों को ४ गुफाएं कहा गया है। ३-प्रथम हापसे चैत्यालयाके कोनोंवाले कुट सौमस बरमें हैं और दि पिसे गन्दा वनमे। -पूर्व रिशको आदि लेकर सोम आदि लोकपालांक ४ कटोके नाम प्रथम हपिसे यश मान,धारण.. मानधर्व व चित्र हैं, तथा दिपिसे बज़, बज़मय, स्वर्ण व स्वीप्रभ है।
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इस वन की पुष्करिणी में इन्द्रसभा की रचना
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६- पाण्डुरुशिला निर्देश
८
पाण्डुक खिला १०० योजन लम्बी ५० योजन चौड़ी है, मध्य में योजन ऊँची है और दोनों ओर फमशः हीन होती गयी है। इस प्रकार यह अर्धचन्द्राकार है। इसके बहुमध्य बेट में तीन पीठ युक्त एक सिंहासन है और सिंहासन के दोनों पाव भागों में तीन पीठ युक्त ही एक भद्रासन है। भगवान के जन्माभिषेक के अवसर पर सोधने व ऐक्षानेन्द्र दोनों इन्द्र भद्रासनों पर स्थित होते हैं मीर भगवान् को मध्य सिंहासन पर विराजमान करते हैं।
७- म्रन्य पर्वतों का निर्देश
१- भरत, ऐरावत व विदेह इन तीन को छोड़कर शेष हैमवत आदि चार क्षेत्रों के बहुमध्य भाग में एक-एक नाभिगिरि हैं। ये चारों पर्वत ऊपर नीचे समान गोल प्राकार वाले है।
पाण्डुक शिला
'सिंहामन
(भद्रासन भी इसके तुल्य है।
भदासन +
१०० यौ०
८ यो०
२५०६०
सिंहारात
आठवीं पृथ्वी सात राजु बाहय प्रमाण जगप्रत्तर होता है
।
नाभि गिरि
स्वाति देवका विहार स्थान
२०
८०००
songate
७XX६ ८
७ X १X५
१७
इस सबको मिलाने पर निम्न प्रकार प्रमाण होता है१२६०००० ४१६००० ५३२००० + * ४६ ६२०००० ५५.२००० १४४००० + ४६
+ ૪
+
YE
४६
IVELUL
५००० ६०
२ - मेरु पर्वत की विदिशाओं में हाथी के दांत के आकार वाले चार गजदन्त पर्वत हैं। जो एक ओर तो निषेध व नीत चालकों को श्रीर दूसरी तरफ मेघ को स्पर्श करते हैं। वहां भी मेरा पर्वत के मध्य प्रदेश में केवल एक-एक प्रदेश उससे संलग्न है ति० प० के अनुसार इन पर्वतों के परभाग मशाल वन की वेदी को स्पर्श करते हैं, क्योंकि वहां उनके मध्य का योजन के उनंचासवें भाग बाहुल्य प्रमाण जगप्रतर होता है ।
| ४३ 9 X X ७ १
७३४४४००० ४४९
-४६
१००
३४४००० X ४६
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७७
आयत, एक राजु विस्तार वाली और आठ योजन मोटी है। इसका घनफल सातवें भागसहित एक न
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दृष्टि नं.१
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६००००० ४
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दृष्टि नं.
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+
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अन्तराल ५३००० योजन बताया गया है । तथा सग्मायणी के अनुसार उन बेदियों से ५०० योजन हटकर स्थित हैं, क्योंकि वहां उनके मध्य का अन्तराल ५२००० योजन बताया है। (दे० लोक ६ में देवकुरू व उत्तरकुरू का विस्तार)। अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार उन वायव्य आदि दिशाओं में जो जो भी नाम वाले पर्वत हैं, उन पर क्रम से ७, ६, ७, ६ कर हैं। मतान्तर से इन पर कम से ७, १०,७, ६, बूट हैं। .
ईशान व नैऋत्य दिशा वाले विद्युत्यप्रभ व माल्यवान गजदन्तों के मूल म सोता व सोतोदा नदियों के निकलने के लिए एक गुफा होती है।
३-देवकूह व उत्तरकूरू में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर एक यमक पर्वत है। ये गोल आकार वाले हैं। इन पर इनके नाम वाले व्यन्तर देव सपरिवार रहते हैं। उनके प्रसादों का सर्व कथन पद्मद्रह के कमलोंवत है।
४-उन्हीं देवकरू व उत्तरकुरू में स्थित ग्रहों के दोनों पार्श्व भागों में कांचन शैल स्थित है। ये पर्वत गोल प्राकार वाले हैं। इनके ऊपर कांचन नामक व्यन्तर देव रहते हैं।
गजदन्त मोर दृष्टिनापी अपना ऊंचाई
दोनो तरफ 12 या है।
नील पर्वत
यमक व कांचन गिरि यमक देव जी
दाण्टिनं.२
कांचन देवजह
यो.
१००० यो.
५-देवकूरू व उत्तरकुरू के भीतर व बाहर भद्रशाल बन में सीतोदा व सीता नदी के दोनों तटों पर पाठ दिग्गजेन्द्र पर्वत है। ये गोल आकार वाले हैं। इन पर तम व वैश्रवण नामक बाहन देवों के भवन हैं। उनके नाम पर्वतों वाले ही हैं।
-पूर्व व पश्चिम विदेह में सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ उत्तर दक्षिण लम्बायमान, ४,४ करके कूल १६ वक्षार पर्वत हैं। एक ओर ये निषध व नील पर्वतों को स्पर्श करते हैं और दूसरी ओर सीता व सीतोदा नदियों को।
उपवत इन दोनों क्षेत्रों के (वातावरुद्ध क्षेत्र और आय भूमियों के) घनफल को मिलाकर उसे सम्पूर्ण लोक में से घटा देने पर अपशिष्ट शुद्ध आकाश का प्रमाण होता है ।
केवल ज्ञान रूपी तीसरे नेत्र के धारक, चौतीस अशिवाय रूपी विभुलि से सम्पन्न, और तीनों लोकों द्वारा नमस्करणीय, ऐसे नाभेय जिन अति वृषभ जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ।
नारक लोक का निरूपण
ही घर में रहने वाल अर्थात नारकियों की निवास-भूमियों का वर्णन, परिमाण अर्थात नारकियों को संस्था, आय का .माण, शरीर चाईका प्रमाण, अवधिज्ञान का प्रमाण, गुण स्थानादिकों का निर्णय, नरकों में उत्पद्यमान जीवों की अवस्था, जम्म और मरण के अन्तर
एक समय में उत्पन्न होने वाले और मरने वाले जीवों का प्रमाण, नरक से निकलने वाले जीवों का वर्णन, नरक गति
के बंधक परिमारणों का विचार, जन्म स्थानों का कयन, नाला दुःखों का स्वरूप, सम्यग्दर्षान पहण के कारण, और नरक में उत्पन्न:: मेले के कारणों का कथन, इस प्रकार ये पन्द्रह अधिकार तीर्थङ्कर के वचन से निकले इस नारक प्रजस्तिनामक महाधिकार में संभोर में गये हैं।
जिस प्रकार वृक्ष के ठीक मध्य भाग में सार हुआ करता है, उसी प्रकार लोक के बहु मध्य भाग अर्थात बीच में एक
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प्रत्येक वक्षार पर चार-चार कट हैं, नदी की तरफ सिद्धायतन है और शेष तटों पर व्यन्तर देव रहते हैं। इन कटों का सर्व कथन हिमवान पर्वत के कूटोंवत है।
७-भरत क्षेत्र पाँच म्लेच्छ खण्डों में से उत्तर वाले तीन के मध्यवर्ती खण्ड में बीचों बोच एक वृषभ गिरि है, जिस पर दिग्विजय के पश्चात् चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है। इसी प्रकार विदेह के ३२ क्षेत्रों में से प्रत्येक क्षेत्र में भी जानना।
८-द्रह निर्देश
१-हिमवान पर्वत के शीष पर बीचों-बीच पद्म नाम का द्रह है इसके तट पर चारों कोनों पर तथा उत्तर दिशा में ५ कट हैं और जल में आठों दिशाओं में आठ कूट है। हृद के मध्य में एक बड़ा कमन है, जिसके ११००० पत्ते हैं इस कमल पर श्री देवी रहती है। इस प्रधान कमल की दिशा विदिशामों में उसके परिवार के अन्य भी अनेकों कमल हैं। कुल कमल १४०११६ हैं । तहां वायव्य उत्तर व ईशान दिशाओं में कुल ४००० कमल उसके सामानिक देवों के हैं। पूर्वादि चार दिशाओं में से प्रत्येक के ४००० (कुल १६०००) कमल आत्म रक्षकों के हैं । आग्नेय दिशा में ३२००० कमल आभ्यन्तरपारिषदों के, दक्षिण दिशा में ४०,००० कमल मध्यम परिषदों के नैऋत्य दिशा में ४८,००० कमल बाह्य पारिषदों के हैं। पश्चिम में ७ कमल सप्त अनीक महत्तरों के हैं । तथा दिशा व विदिशा के मध्य पाठ अन्तर दिशामों में १० बास्त्रिशों के हैं। इसके पूर्व पश्चिम ब उसरों द्वारों से क्रम से गंगा, सिन्ध व रोहितास्या नदी निकलती हैं।
२- महाहिमवान् आदि शेप पांच कुलाचलों पर स्थित महापद्म, तिगिछ, केसरी महापुण्डरीक और पुण्डरीक नाम के ये पांच द्रह हैं । इन हृदों का सर्व कथन कूट कमल आदि का उपरोक्त पद्मद्रवत् ही जानना । विशेषता यह कि तन्निवासिनी देबियों के नाम क्रम से ही, पति, कौति बुद्धि और लक्ष्मी है। तथा कमलों की संख्या तिगिछ तक उत्तरोत्तर दूनी है। केसरी की तिगिछवत्, महापुण्डरोक को महापद्मवत और पुण्डरीक को पद्मवत है। अन्तिम पुण्डरीक द्रह से पद्मद्रहवत् रक्ता रक्तोदा सुवर्णकला ये तीन नदियां निकलती हैं और शेष द्रहों से दो-दो नदियां केवल उत्तर व दक्षिण द्वारों से निकलती हैं। (ति, प, में महापुण्डरीक के स्थान पर रूक्मिपर्वत पर पुण्डरीक के स्थान पर शिखरी पर्वत पर महापुण्डरीक द्रह कहा है-)
राजु लम्बी-चौड़ी और कुछ कम तेरह राजु ऊंचो पसनाली (सजीयों का निवास क्षेत्र) है।
असनाली को जो तेरह राजु से कुछ कम ऊंचा बतलाया गया है, उस कमी का प्रमाण यहां तीन करोड़, इक्कीस लाख, बासठ हजार दो सौ इकतालीस धनुष और एक धनुष के तीन भागों में से दो भाग अर्थात है असनाली की ऊंचाई-३२१६२२४१३ धनुष कम १३ राजु.।
अयवा-उपपाद और मारणांतिक समुद्घात में परिणत त्रस तथा लोक पूरण समुद्रात को केबली का आश्रय करके सारा लोक ही असनाली है।
विशेषार्थ-विवक्षित भव के प्रथम समय में होने वाली पर्याय की प्राप्ति को उपपाद कहते हैं। वर्तमान पर्यायसम्बन्धी आयु के अन्तिम अन्म हत में जीव के प्रदेशों के आगामी पर्याय के उत्सत्ति स्थान तक फैल जाने को मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं। जब आयु कर्म की स्थिति सिर्फ अन्तम हत ही बाकी हो, परन्तु नाम गोत्र और वेदनीय कर्म की स्थिति अधिक हो, तब सयोग केवली दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण , समदघात को करते हैं। ऐसा करने से उक्त तीनों को की स्थिति भी आयु कर्म के बराबर हो जाती है। इन तीनों अवस्थाओं में वस जीव सनाली के बाहर भी पाये जाते हैं ।
अधोलोक में सबसे पहिली रत्नप्रभा पृथ्वी है। उसके तीन भाग हैं-खरभाग, पंकभाग और अबहुल भाग 1 इन तीनों भागों का बाहल्य क्रमशः सोलह हजार, चौरासी हजार, और अस्सी हजार योजन प्रमाण है।
खरभाग १६०००, पंकभाग ८४००० अब्बहल भाग ८०००० योजन ।
- इनमें से खरभाग नियम से सोलह भेदों से सहित है । ये भेद चित्रादिक सोलह पृथ्वी रूपी है इनमें से चित्रा पृथ्वी अनेक प्रकार है।
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३–देव कुरू व उत्तर कुरू में दस द्रह हैं। अथवा दूसरी मान्यता से २० द्रह हैं। इनमें देवियों के निवासभूत कमलों पादि का सम्पूर्ण कथन पनद्रहवन जानना । ये द्रव नवी के पोता व निकास के तारों से संयुक्त हैं।
४-सुमेरु पर्वत के नन्दन, सौमनस व पाण्डक वन में १६, १६ पुष्करिणी हैं जिनमें सपरिवार सौधर्म व ऐशानेन्द्र क्रीड़ा करते हैं । तहां मध्य में इन्द्र का आसन है। उसकी चारों दिशाओं में चार आसन लोकपालों के हैं, दक्षिण में एक प्रासन प्रतीन्द्र का, अग्रभाग में आठ प्रासन अग्रम हिषियों के, वायव्य और ईशान दिशा में ८४,००,००० आसन सामानिक देवों के, आग्नेय दिशा में १२,००,००० पासन अभ्यन्तर पारिषदों के १४,००,००० पासन मध्यम पारिषदों के, नैऋत्य दिशा में १६,००,००० आसन बाह्य पारिषदों के, तथा उसी दिशा में ३३ प्रासन त्रास्त्रिशों के, पश्चिम में छह मासन महत्तरों के और एक प्रासन महतरिका का है। मूल मध्य सिंहासन के चारों दिशाओं में ४००० आसन अंगरक्षकों के हैं। (इस प्रकार कुल सन १२६८४०५४ होते हैं।
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यहां पर अनेक प्रकार के वर्षों से युक्त महीतन, शिलातल, उपपाद, वातु, शक्कर, शीशा, चांदी, सुवर्ण, इनके उत्पत्ति स्थान, वज्र तथा अयस् (लोहा) तारा (पु) (रांगा), सस्यक (मरिणशिला, हिंगुन (सिंगरफ), हरिताल, अंजन, प्रवाल (मुंगा), गोमेदक (मरिण-विशेष), रुचक कदंब (धातु विशेष) ताम्र वालुका (लाल रेत), स्फटिक मणि, जलकान्त मणि, सूर्यकान्त मणि, चन्द्र प्रभ (चन्द्रकान्त मणि), वयं मणि, मेह चन्द्राश्म, लोहितांक (लोहितान), बंबय (पप्नक ?), बगमोच (?), और सारंग इत्यादि विविध वर्ण वाली धातुएं हैं। इसलिये इस पृथ्यी का चित्रा इस नाम से वर्णन किया गया है ।
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. .. ६-कुण्ड निर्देश
१-हिमवान् पर्वत के मूल भाग से २५ योजन हटकर गंगा कुण्ड स्थित है । उसके बहुमय भाग में एक दोष है, जिसके मध्य में एक शैल है । शेल पर गंगा देवी का प्रासाद हैं। इसी का नाम गंगाकुट है। उस कट के ऊपर एक जिन प्रतिमा है, जिसके शीश पर गंगा की धारा गिरती हैं।
पद्मद्रहका मध्यवर्ती कमल
- २-उसी प्रकार सिन्ध प्रादि शेष नदियों के पतत स्थानों पर भी अपने-अपने क्षेत्रों में अपने पर्वतों के नीचे सिन्ध कुण्ड जानने चाहिये। इनका सम्पूर्ण कथन उपरोक्त गंगा कुण्डवत् है विशेषता यह कि उन कुण्डों के तथा तन्निवासिनी देवियों के नाम अपनीअपनी नदियों के समान हैं । भरत ग्रादि क्षेत्रों में अपने-अपने पर्वतों उन कुण्डों का अन्तराल भी क्रम से २५, ५०, १००,२००,१००, ५०, २५.योजन है। विदेहों में गंगा सिन्धु रक्ता रक्तोदा नामवाली ६४ नदियों के भी अपने-अपने नाम वाने कुण्डनील निषध पर्वत है जिनका कथन गंगा कुण्डवत है।
देवत:
१० नवी निर्देश
१-हिमवान् पर्वत पर पद्यद्रह के पूर्व द्वार से गंगा नदी निकलती है। द्रह की पूर्व दिशा में इस नदी के मध्य एक कमलाकार कूट है, जिसमें बला नाम को देव रहती है । द्रह से ५०० योजन मागे पूर्व दिशा में जाकर पर्वत पर स्थित गंगाकूट ११२
योजन इधर ही इधर रहकर दक्षिण को प्रोर मुड़ जाती है, और पर्वत के ऊपर ही उसके अर्ध विस्तार प्रमाण अर्थात् ५२३. योजन पागे जाकर वृषभाकार प्रणाली को प्राप्त होती है । फिर उसके मुख में से निकलती हुई पर्वत के ऊपर से अधोमुखी होकर उसको धाग नीचे गिरती है। वहां पर्वत के मूल से २५ योजन हटकर वह गंगा कुण्ड में स्थित गंगाकुट के ऊपर गिरती है। इस गंगा कुण्ड के दक्षिण द्वार से निकल कर वह उत्तर भारत में दक्षिण मुखी बहती हुई विजया की तमिस्त्र गुफा में प्रवेश करती है। उस गुफा के भीतर वह उन्मग्ना वनिमग्ना नदी को अपने में समाती हई । गफा के दक्षिण द्वार से निकल कर वह दक्षिण भारत में उसके आधे विस्तार तक अर्थात ११६ योजन तक दक्षिण को मोर जाती है । तत्पश्चात् पूर्व की ओर मुड़ जाती है और मागध तीर्थ के स्थान पर लवण सागर में मिल जाती है । इसकी परिवार नदियां कुल १४००० हैं। ये सब परिवार नदियां म्लेच्छ खण्ड में ही होती हैं आर्यखण्ड में नहीं।
२-सिन्ध नदी का सम्पूर्ण कयन गंगा नदीबत है। विशेष यह कि पनद्रह के पश्चिम द्वार से निकलती है। इसके भीतरी कमलाकारकूट में लवणा देवी रहती है। सिन्धु कुण्ड में स्थित सिन्धुकूट पर गिरती है । विजयाध की खण्डप्रपात मुफा को
इस चित्रा पृथ्वी की मुटाई एक हजार योजन है। इसके नीचे क्रम से चौदह अन्य पृश्चियां स्थित हैं।
वड्यं, लोहितांक (लोहिताश), असारगल्ल (मसार-फल्पना), गोमेधक, प्रवाल, ज्योतिरस, अंजन अंजनमूल, अंक, स्फटिक, बन्धन, वर्चगत (सर्वार्थका), बहुल (बकुल) और शैल, वे उन उपयुक्त चौदह पुध्वियों के नाम हैं। इनमें से प्रत्येक की मुटाई एक हजार योजन है।
इन पश्चिवों के नीचे एक पाषाण नाम की (सोलहवीं) पृथ्वी है, जो रत्नर्शल के समान है। इसकी मुटाई भी एक हजार योजन, प्रमाण है। ये सब पृथ्वियां बासन के सदृश स्थित हैं।
इसी प्रकार पंक बहुल भाग भी है जो पंक से परिपूर्ण देखा जाता है । तथैव अबहुलभाग जल स्वरूप के आश्रय से है।
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प्राप्त होती है अथवा रा-वा व, नि. सा. की अपेक्षा तमिस्त्र गुफा को प्राप्त होती है। पश्चिम की ओर मुड़कर प्रभास तीर्थ के स्थान पर पश्चिम लवण सागर में मिलती है । इसकी परिवार नदियाँ १४००० हैं।
३--हिमवान् पर्वत के ऊपर पद्मद्रह के उत्तर से रोहितास्या नदी निकलती है जो उत्तरमुखी ही रहती हुई पर्वत के ऊपर २७६ योजन दलकर पर्वत के उत्तरी किनारे को प्राप्त होती है, फिर गंगा नदीवत् ही धार बनकर नीचे रोहितास्या कुण्ड में स्थित रोहितास्याकूट पर गिरती है। कुण्ड के उत्तरी द्वार से निकल कर उत्तरमुखी ही रहती हुई वह हेमबत क्षेत्र के मध्य स्थित नाभिगिरि तक जाती है। परन्तु उससे दी कोस इधर ही रहकर परिचम को प्रोर उसकी प्रदक्षिणा देती हई पश्चिम दिशा में उसके प्रधं भाग के सम्मुख होती है। वहां पश्चिम दिशा की ओर मुड़ जाती है और क्षेत्र के अर्ध पायाम प्रमाण क्षेत्र के बीचोंबीच बहती हुई अन्त में पश्चिम लवण सागर में मिल जाती है । इसकी परिवार नदियों का प्रमाण २८००० है। महाहिमवान पर्वत के ऊपर महापद्म हृद के दक्षिण द्वार से रोहित नदी निकलती है । दक्षिण मुखी होकर १६०५५. योजन पर्वत के ऊपर जाती है। वहां से पर्वत के नीचे रोहितकण्ड में गिरती है और दक्षिण मुखी बहती हुई रोहितास्यावत् ही हैमवत क्षेत्र में, नाभिगिरि से २ कोस इधर रहकर पूर्व दिशा की ओर उसकी प्रदक्षिणा देती है। फिर वह पूर्व की पोर मुडकर क्षेत्र के बीच में बहती हुई अन्त में पूर्व लवण सागर में गिर जाती है। इसकी परिवार नदियाँ २८००० हैं। महाहिमवान पर्वत के ऊपर महापद्म हद के उत्तर द्वार से हरिकान्ता नदी निकलती है। वह उत्तर मुखी होकर पर्वत पर १६०५५. योजन चलकर हरिकान्ता कुण्ड में गिरती है। यहां से उत्तरमुखी बहती हुई हरिक्षेत्र के नाभिगिरी को प्राप्त हो उससे दो कोस इधर ही रहकर उसकी प्रदक्षिणा देती हई पश्चिम की ओर मुड़ जाती और क्षेत्र के बीचोबीच बहती हुई पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है। इसकी परिवार नदियाँ ५६००० हैं। निषध पर्वत के तिगिछद्रह के दक्षिण द्वार से निकलकर हरित नदी दक्षिणमुखी ही ७४२११ योजन पर्वत के ऊपर जा, नीचे हरित कुण्ड में गिरती है । वहाँ से दक्षिण मुखी बहती हुई हरिक्षेत्र के नाभिगिरि को प्राप्त हो उससे दो कोस इधर ही रहकर उसकी प्रदक्षिणा देती हुई पूर्व की ओर मुड़ जाती है और क्षेत्र के बीचोंबीच बहती हुई पूर्व लवण सागर में गिरती है। इसकी परिवार नदियां ५६००० हैं। निषध पर्वत के तिगिछहद के उत्तर द्वार से सीतोदा, नदी निकलती है, जो उत्तरमुखी ही पर्वत के ऊपर ७४२११ योजन जाकर नीचे विदेह क्षेत्र में स्थित सीतोदा कुण्ड में गिरती है। वहां से उत्तरमुखी बहती हुई वह सुमेरु पर्वत तक पहुँचकर उससे दो कोस इधर ही पश्चिम की ओर उसकी प्रदक्षिणा देती विद्युतप्रभ गजदन्त की गुफा में से निकलती है। सुमेरु के अर्थ भाग के सम्मुख हो वह पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। और पश्चिम विदेह के बीचोंबीच बहती हई अन्त में पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है। इसकी सर्व परिवार नदियां देवकरू में ८४००० पीर पश्चिम विदेह में ४४८०३८ (कुल ५३२०६८) है। लोक ३।१ की अपेक्षा ११२००० हैं । सीता नदी का सर्व
.. - - इस प्रकार क्योंकि यह पृथ्वी बहुत प्रकार के रत्नों से भरी हुई दोभायमान होती है, इसलिए निमुण पुरुषों ने इसका 'रस्न प्रभा' यह सार्थक नाम कहा है।
रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे शतप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा और तमस्तमः प्रभा और महातमःप्रभा, ये शेष यह पवियाँ क्रमशः शक्कर, वाग्नु, कीचड़ धूम, अधवार और महान्धकार की प्रभा से सहयरिन हैं, नमीलिए इनके भी उगर्य बत नाम सार्थक हैं।
इन छह अबस्नन पृश्चियों की मुटाई कम से बत्तीस हजार, मट्टाईस हजार, चौबीस हजार, बीस हजार, सोलह हजार और आठ हजार योजन प्रमाण है।
श. प्र. ३२०००, वा. प्र. २८०००, पं० प्त. २४००० पू० प्र. २००००, त. प्र. १६०००, म. प्र. ८००० योजन ।
छयासह चौसठ, साठ उनसठ, अट्टावन, और चोब्बन, इनके दुगुने हजार अर्थात् एक लाख बत्तीस हजार, एक लाख अट्टाह हजार, एक लाख बीस हजार, एक लाख अठारह हजार, एक लाख सोलह हजार, और एक लाख साठ हजार, योजन प्रमासा उन अधस्तन छह पश्वियों की मुटाई है।
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कथन सीतोदावत जानना। विशेषता यह कि नील पर्वत के केसरी द्रह के दक्षिण द्वार से निकलतो है। सौता कण्ड में गिरती हैं। माल्यवान् गजवन्त की गुफा से निकलती है। पूर्व विदेह में से बहती हुई पूर्व सागर में मिलती है। इसकी परिवार नदियां भी सीतोदावत् जानना । नरकान्ता नदी का सम्पूर्ण कथन हरितवत है। विशेषता यह है कि नीलपर्वत के केसरी द्रह के उत्तरद्वार के निकलती है। पश्चिमी रम्यक् क्षेत्र के बीच में से बहती और पश्चिम सागर में मिलती है। नारी नदी का सम्पूर्ण कथन हरिकान्तावत है। विशेषता यह है कि रुक्मि पर्वत के महापुण्डरोक द्रह के दक्षिण द्वार से निकलती है और पूर्व रम्यक् क्षेत्र में
ई पूर्ण सागर में मिलती है । रूप्यकूला नदी का कथन रोहितनदीवत् है । विशेषता यह है कि रुक्मि पर्वत के महापुण्डरीक हुद के उत्तर द्वार से निकलती है। और पश्चिम हरण्वत क्षेत्र में बहती हुई पश्चिम सागर में मिलती है। सुवर्णकुलानदी का सम्पूर्ण कथन रोहितास्यावत है। विशेषता यह है कि शिखरी के पुण्डरीक हुद के दक्षिण द्वार से निकलती है और पूर्वी हरण्य वत् क्षेत्र में बहती हुई पूर्व सागर में मिल जाता है। रक्ता वा रक्तोदा नदी का कथन गंगा व सिन्धुवत है। विशेषता यह कि शिखरी पर्वत के महापुण्डरीक हृद के पूर्व और पश्चिम द्वार से निकलती है। इनके भीतरी कमलाकार कुटों के नाम रक्ता रक्तोदा हैं। ऐरावत् क्षेत्र के पूर्व व पश्चिम में बहती है विदेह के ३२ क्षेत्रों में भी गंगानदी की भाँति गंगा सिन्धु वा रक्ता रक्तोदा नाम की क्षेत्र नदियां है इनका कथन गंगा नदीवत् जानना। इन नदियों को भी परिवार नदियां चौदह चौदह हजार हैं। पूर्व व पश्चिम विदेह में से प्रत्येक में सीता वा सीतोदा के दोनों तरफ तीन तीन करके कुल १२ विभंगा नदियाँ हैं। ये सब नदियां निषध वा नील पर्वत से निकलकर सीतोदा वा सीता नदियों में प्रवेश करती हैं। ये नदियाँ जिन कुण्डों से निकलती हैं वे निषध व नील पर्वत के ऊपर स्थित हैं। प्रत्येक नदी का परिवार २८००० नदो प्रमाण है।
११. देवका वनरक रिर्ट
जम्बूद्वीप के मध्यवर्ती चौथे नम्बर बाले विदेह क्षेत्र के बहमध्य प्रदेश में सुमेरु पर्वत स्थित है। उसके दक्षिण व निषध पर्वत की उत्तर दिशा में देवकूर व उसकी उत्तर व नौल पर्वत की दक्षिण दिशा में उत्तरकुर स्थित है। सुमेरु पर्वत पर चार गजदन्त पर्वत हैं जो एक ओर तो निषध व नील कुचाचलों को स्पर्श करते हैं और दूसरी ओर सुमेरु को । अपनी पूर्व व पश्चिम दिशा में ये दो कुरू इनमें से ही दो दो गजदन्त पर्वतों से घिरे हुये हैं। तहां देवकुरू में निषध पर्वत से १०० योजन उत्तर में जाकर सीतोदा नदी के दोनों तटों पर यमक नाम के दो जल हैं जिनका मध्य अन्तराल ५०० यो. है। अर्थात् नदी के तटों से नदी के अर्ध विस्तार से हीन २२५ यो० हटकर है। इसी प्रकार उत्तरकुरू में नील पर्वत के दक्षिण में सौ योजन जाकर सीता नदी के दोनों तटों पर दो यमक हैं। इन यमकों से पांच सौ योजन उत्तर में
श.प्र. १३२००० वा. प्र० १२८००० ५० प्र. १२०००० पू. प्र. ११८००० त. प्र. ११६००० म. प्र. १०००० यह पाठान्तर अर्थात मतभेद है।
सातों परिवया उर्ध्व दिशा को छोड़ दोष नौ दिशाओं में घनोदधि वातबलय से लगी हुई हैं। परन्तु आठवौं पृथ्विी दशों दिशाओं में ही घनोदधि वाजवलय को छूती हैं।
उपर्य क्त पृथ्वियों पूर्व और पश्चिम दिशा के अन्तराल में वेत्रासन के सदृश आकार वाली है। तथा उत्तर और दक्षिण में समान रूप से दीर्घ एवं अनादिनिधन है।
सर्व गृथ्वियों में नारकियों के बिल कुन चौरासी लाख हैं । अब इसमें से प्रत्येक पृथ्विी का आश्रय करके उन बिला के प्रमाण का निरूपण करते हैं । समस्त पवियों के बिल' ८४०००००।
रत्नप्रभा आदिक पुध्वियों में क्रम से तीस लाख पक्वीस लाख, पन्द्रह लाख, दश, तीन लाख, पांच एक कम एक लास और केवल पाँच ही चारकियों को दिल हैं।
बिल सँख्या-र.प्र. ३००००००। श.प्र. २५०००००। वा.प्र. १५०००००। पं.प्र. १०००.०० | ५. प्र. २०००००त. प्र. RE६९५म. प्र. ५-८४०००००० ।
सातवीं पश्चिी के तो कोक मध्य भाग में ही नारकियों के दिल हैं, परन्तु अबहुल भाग पर्यन्त शेष छह पध्वियों में नीचे व ऊपर एक एक हजार योजन छोड़कर पटनों के क्रम से नारकियों के बिल हैं।
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देवकुरुव उत्तर कुरु
मोर :- १. वि
जरा हृद..... भोलानंद
-23 7988⋅
नील पर्वत
जम्बू वृक्ष स्थल
गंधमादन
-0
47>-| OR:
उत्तर कुरु
४ गुहार प्रवेष के बनों पादर्य भागों में
मान्यज्ञान वैर्यदल, सौमनस रजलवत् श्वेत विद्युतप्रभतीयवत् रक्तादन व बनबेरी म अस्थान कप अन्तर
स्कूटी प्रमाणान्तर- (०५४) । गाओं५ कुल २०० क १०)
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जाकर देवकुरू की सीतोदा नदी के मध्य उत्तर-दक्षिण लम्बायमान पाँच द्रह हैं । मतान्तर से कुलाबल से ५५० यो- दूरी पर पहला द्रह है। ये द्रह नदियों के प्रवेश व निकास द्वारों से संयुक्त हैं। अन्तिम द्रह से २०६२,२. यो. उत्तर में जाकर पूर्व व पश्चिम गजदन्तों पर वन की वेदी आ जाती है। इसी प्रकार उत्तरकुरू में भी सीता नदी के मध्य ५ द्रह हैं। उनका सम्पूर्ण वर्णन पूर्ववत है। इस प्रकार दोनों कुरूमों में कुल दस व्रह हैं । परन्तु मतान्तर से बीस हैं। मेरु पर्वत को चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में पाँच हैं उपरोक्त बत् ५०० यो अन्तराल से सीता व सीतोदा नदी में हो स्थित हैं। इनके नाम ऊपर वालों के समान हैं । दस द्रह वाली प्रथम मान्यता के अनुसार प्रत्येक द्रह के पूर्व व पश्चिम तटों पर दस दस करके कुल २०० कांचन शैल हैं । पर बोस द्रहों वाली दूसरी मान्यता के अनुसार प्रत्येक द्रह के दोनों पार्श्व भागों में पांच पांच करके कुल २०० कांचन खेल है। देवकुरू व उत्तरकुर के भीतर बन में सीतोदा व सीता नदी के पूर्व व पश्चिम तटों पर तथा इन कुरू क्षेत्रों के बाहर भद्रशाल वन में उक्त दोनों नदियों के उत्तर व दक्षिण तटों पर एक एक करके कुल आठ दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं, देवकुरू में सुमेरु के दक्षिण भाग में सीतोदा मदी के पश्चिम तट पर तथा उत्तरकुरू को सुमेरु के उत्तर भाग में सीता नदी के पूर्व तट पर तथा इसी प्रकार दोनों कुरुषों से बाहर मेरु के पश्चिम में सीतांदा के उत्तर तट पर और मेरु की पूर्व दिशा में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक एक करके चार त्रिभुवन चूडामणि नाम बाले जिन भवन है । निषध व नील पर्वतों से संलग्न सम्पूर्ण विदेह क्षेत्र के विस्तार समान लम्बो दक्षिण उत्तर लम्बायमान भद्रशाल' बन की वेदी है । देवकुरू के निषध पर्वत के उत्तर में विद्युत्प्रभ गजदन्त के पूर्व में सीतोदा के पश्चिम में और सुमेरु के नैऋत्य दिशा में शाल्मली बक्षस्थल है। सुमेरु की ईशान दिशा में नील पर्वत के दक्षिण में माल्यवन्त गजदन्त के पश्चिम में सीता नदी के पूर्व में जम्बू बृक्ष स्थल है।
१२ जम्बू व शाल्मत्नी वृक्षस्यल
१. देवकर व उत्तरकुरु में प्रसिद्ध शाल्मली व जम्बवृक्ष है। ये वृक्ष सामान्य ज्ञान पथिर्व मयी हैं। तहां शाल्मली या जम्बवृक्ष का सामान्य स्थल ५०० योजन विस्तार युक्त होता है। तथा मध्य में आठ योजनौर किनारों पर २ कोस मोटा है। मतान्तर की अपेक्षा वह मध्य में १२ योजन और किनारों पर २ कोस मोटा है।
२, यह स्थल चारों ओर से स्वर्णमयी वेदिका से वेष्ठित है। इसके बहुमध्य भाग में एक पीठ है, जो पाठ योजन ऊंचा है तथा मूल में १२ और ऊपर ४ योजन विस्तृत है । पीठ के मध्य में मूलवृक्ष है, जो कुल साठ योजन ऊंचा है। उसका स्कन्ध दो योजन ऊंचा तथा एक कोस मोटा है।
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पहली पृथ्वी से लेकर दूसरी, तीसरी, चौयो और पांचवीं पृथ्वी के चार मागों में से तीन भागों (C) में स्थित नारकियों के बिन अत्यन्त उष्ण होने से यहां रहने वाले जीवों को तीन गर्मी की पीड़ा पहुंचाने वाले हैं।
पाँचवीं पृथ्वी के अवशिष्ट चतुर्थ भाग में, तथा छठी और सातवीं पृथ्वी में स्थित नारकियों के वित अत्यन्त शोत होने से वहाँ रहने वाले जीवों को भयानक शीत की बेदना करने वाले हैं।
भारकियों के उपयुक्त चौरासी लाख बिलों में से ध्यासी लाख पच्चीस हजार बिल उष्ण, और एक लाख पचहत्तर हजार बिल अत्यन्त कोत हैं।
उष्ण बिल ८२२५०००, शीश विल १७५०००।
यदि उष्ण बिल में मेरु के बराबर लोहे का शीतल पिण्ड डाल दिया जाय, तो वह तल प्रदेश तक न पहुंच कर बीच में ही मैन के टकड़े के समान पिघल कर नष्ट हो जायगा । तात्पर्य यह है कि इन बिलों में उष्णता की वेदना अत्यधिक है।
इसी प्रकार, यदि मेरु पर्वत के बराबर, लोहे का उष्ण पिण्ड शीत विल में डाल दिया जाय, तो बहनत प्रदेश तक न पहुंच कर बीच ही में नमक के टुकड़े के समान विलीन हो जावेगा।
१०६
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पीठ पर स्थितमूल वृक्ष
३, इस वृक्ष की चारों दिशाओं में छह-छह योजन
लम्बी तथा इतने अन्तराल से स्थित चार महाशाखाएं हैं। jधारी या
शाल्मली वृक्ष की दक्षिण शाखा पर और जम्बवृक्ष की उत्तर शाखा पर जिनभवन हैं। शेप तीन शाखामों पर व्यन्तर देवों के भवन हैं । तहां शाल्मली वृक्ष पर वेणु व बेणुधारी तथा जम्ब वृक्ष पर इस द्वीप के रक्षक प्रादृत व अनादृत नाम के देव रहते हैं।
४, इस स्थल पर एक के पीछे एक करके ११ वेदियां हैं, जिनके बीच बारह भूमियों हैं। यहां पर है. पु. में वापियों आदि वाली ५ भूमियों को छोड़कर केवल परिवार वृक्षों वाली ७ भूमियां बतायी हैं। इन सात भूमियों में आदृत युगल या वेणु युगल के परिवार देवों के वृक्ष हैं।
५, तहां प्रथम भूमि मध्य में उपरोक्त मूलवृक्ष स्थित
है। द्वितीय में वन वापिकाएं हैं। तृतीय की प्रत्येक दिशा में
पीन रजतनी नर, शाल्गली क्षम
२७ करके कुल १०८ वृक्ष महामान्यों अर्थात् प्रायस्त्रियों के हैं। चतुर्थ की चारों दिशाओं में चार द्वार हैं, जिन पर स्थित
वृक्षों पर उसकी देवियां रहती हैं। पांचवीं में केवल वापियां हैं । छटी में वनखण्ड है। सातवीं की चारों दिशाओं में कुल १६००० वृक्ष अंगरक्षकों के हैं। अष्टम की वायव्य ईशान व उत्तर दिशा में कुल ४००० वृक्ष सामानिकों के है। नवम को आग्नेय दिशा में कुल ३२००० वृक्ष आभ्यन्तर परिषदों के हैं । दसवीं की दक्षिण दिशा में ४०००० वृक्ष मध्यम पारिषदों के हैं। ग्यारहवों को नैऋत्य दिशा में ४८००० वृक्ष बाह्य पारिषदों के हैं। बाहरवीं की पश्चिम दिशा में सात वृक्ष अनीक महत्तरों के हैं । सब वृक्ष मिलकर १४०१२० होते हैं।
२ यो
मिनमा दक्षिण स्पत पर और जन्य वन में
कराया पर
६, स्थल के चारों ओर तीन वन खण्ड हैं । प्रथम की चारों दिशाओं में देवों के निवासभूत चार प्रासाद है । विदिशानों में से प्रत्येक में चार-चार पुष्करिणी की चारों दिशाओं में पाठ-पाठ कूट हैं । प्रत्येक कूट पर चार-चार प्रासाद हैं। जिन पर उन बादत प्रादि देवों के परिवार देव रहते हैं। इस प्रकार प्रासादों के चारों तरफ भी आठ कूट बता आदृत युगल या वेणु युगल का परिवार रहता है।
बकरी, हाबी, भंस, घोड़ा, गधा, अंट. विल्ली, सर्प और अनुष्पादिव के महे हुए गरीरों के गन्ध की अपेक्षा वे नाहीयों के दिल अनन्तगुणी दुर्गन्ध से युक्त हैं।
__ स्वभावत: अधकार से परिपूर्ण ये नारकियों के बिल कनक (कौशेयक या कच), कृपाण, चरिका, खदिर (खैर) की आग, अति तीक्ष्ण सुई और हाथियों की चिक्कार से अस्थन्त भयानक है ।
बेनारकियों के बिल इन्द्रक, अरणीबद्ध और प्रकीर्णक वो भेद से तीन प्रकार के हैं ये सब ही नरकबिल नारकियों को भयानक दुख करते हैं।
विशेषार्थ--जो अपने पटल के सब बिनों के बीच में हो वह इन्द्रक बिल कहलाता है, चार दिशा और चार विदिशाओ में जो वि। पंक्ति से स्पित होते हैं, उन्हें श्रेणीबद्ध कहो हैं श्रेणी-चंद्र विरों के बीच में इधर-उपर रहने वाले विलों को प्रकोणक समझना चाहिपे ।
रत्नप्रभा भादिक पृध्वियी में कम से तेरह पारह, नौ, सात, पांच, तीन और एक, इस प्रकार कुल उन्लचास इन्द्रक बिल हैं ।
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१३. विदेह के ३२ क्षेत्र
१. पूर्व पाकीदमान ता की वेदियों से आगे जाकर सीता व सीतोदा नदी के दोनों तरफ चार-चार यक्षारगिरि और तीन-तीन विभंगा नदियां एक वक्षार व एक विभंगा के श्रम से स्थित हैं। इन वक्षार व विभंगा के कारण उन नदियों के पूर्व व पश्चिम भाग पाठ-पाठ भागों में विभक्त हो जाते हैं। विदेह के ये ३२ खण्ड उसके ३२ क्षेत्र कहलाते हैं।
२. उत्तरीय पूर्व विदेह का सर्वप्रथम क्षेत्र कच्छा नाम का है। इनके मध्य में पूर्वापर लम्बायमान भरत क्षेत्र के विदेहका कच्या क्षेत्र विजयावत् एक विजयाध पर्वत है। उसके उत्तर में स्थित नील
कर start fryके ज्यारघर लागला-दिया करते है। । पर्वत को बन वेदी के दक्षिण पार्श्वभाग में पूर्व व पश्चिम दिशाओं में कुण्ड है, जिनसे रक्ता व रक्तोदा नाम की दो नदियां निकलती हैं । दक्षिणमुखी होकर बहती हई बे विजयाध
--014% -!-unti -|-- की दोनों गूफानों में से निकल कर नीचे सीता नदी में जा मिलती हैं। जिसके कारण भरत क्षेत्र की भांति यह देश भी छह खण्डों में विभक्त हो गया है। यहां भी उत्तर म्लेच्छ खण्ड के गच्छ साधु नेच्छाबाद ।। लेच्य खण्ड मध्य एक पगिरि है, जिस पर दिग्विजय के पश्चात चक्रवर्ती
वाप्रपात अपना नाम अंकित करता है, इस क्षेत्र के प्रायखण्ड की प्रधान नगरी का नाम क्षेमा है। इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में दो नदियां
क खण्ड माग पडलेच्छ खण्ड व एक विजया के कारण छह-छह खण्ड उत्पन्न हो गये हैं। बिशेष यह है कि दक्षिण वाले क्षेत्रों में गंगा सिन्ध नदियां बहती हैं। मतान्तर से उत्तरीय क्षेत्रों में गंगा सिन्ध व दक्षिणी क्षेत्रों E-PH .
.-FFre.. में रक्ता रक्तोदा नदियाँ हैं।
३. पूर्व व अपर दोनों विदेहों में प्रत्येक क्षेत्र के सीता सीतोदा नदी के दोनों किनारों पर आर्यखण्डों में मागध, बरतन पौर प्रभास नाम वाले तीन-तीन तीर्थस्थान हैं।
४. पश्चिम विदेह के अन्त में जम्बूद्वीप की जगती के पास सीतोदा नदी के दोनों ओर, भूतारण्यक बन है। इसी प्रकार पूर्व विदेह के अन्त में जम्बू द्वीप को जगती के पास नदी के दोनों ओर देवारण्यक बन हैं।
४. अन्य द्वीप सागर निर्देश१. लवण सागर निश
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इन्द्रक बिल-र.प्र.१३, पा. प्र. ११, बा. प्र. पं.प्र. ७,धू.प्र. ५,त.प्र. ३, म. प्र.११
पहिले इन्द्रक बिल के आथित दिशाओं में उन्नचास और विदिशाओं में अड़तालीस श्रेणबिद्ध बिल हैं। इसके आगे द्वितीयादिक इन्द्रक बिलों के आश्रित रहने वाले श्रेणीबद्ध बिलों से एक-एक बिल कम होता गया है । (देखो मूल की सदृष्टि)।
उक्त सात भुमियों में रह को आदि लेकर एक पर्यन्त कुल मिलकर उनचास इन्द्रक बिल है।
पहिला सीमन्तक तथा द्वितीयादि निरय रोरुक, भ्रान्त, उदभ्रान्त, संभ्रात, असंभ्रान्त तप्त, प्रसित, बक्रान्त, अबक्रान्त, और विक्रान्त, इस प्रकार, ये तेरह इन्द्रक बिल प्रथम पृथ्वी में हैं। स्तनक, तमक, मनक, बनक, धात संत्रात जिहा, जिह्वक, लोल, लोलक और स्तनलोलुक, ये ग्यारह इन्द्रक बिल द्वितीय' पृथ्वी में है।
तप्त, शीत, तपन, तापन, निदाघ, प्रज्वलित, उज्जवलित, संज्वलित, संप्रज्वलित ये नौ इन्द्रक विल ततीय पृथ्वी में हैं। आर, मार, तार, तत्व (चर्चा), तमक, बाद और खडखट, ये सात इन्द्रक दिल चतुर्थ पृथ्वी में हैं। लमक, भ्रमक, झषक, याबिल (अन्ध्र) और तिमिश्र वे पांच इन्द्रक विल धूम' प्रभा पृथ्वी में हैं । छठी पृथ्वी में हिम, बर्दल और लल्लक
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सागर तलव पाताल
पाटन २
पूर्णमा क्त जमतल जमि ma.----.-८. काम ' २०.९०यो...
अवम्मित जल तल -:S
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वित्रा मशेदी
साखर भागका दूसरा पटल
१. जम्बूद्वीप को घेरकर २००,००० योजन विस्तृत बलयाकार यह प्रथम सागर स्थित है, जो एक नाव पर दूसरी नाव मुधी रखने से उत्पन्न हुए प्राकार वाले हैं। तथा गोल है।
२. इसके मध्य तल भाग चारों ओर १००८ पाताल या विवर हैं। ४ उत्कृष्ट, ४ मध्यम और १००० जघन्य विस्तार वाले हैं। तटों से ६५००० योजन भीतर प्रवेश करने पर चारों दिशाओं में चार ज्येष्ठ पाताल हैं । ६६५०० योजन प्रवेश करने पर उनके मध्य मध्यम विदिशा में चार पाताल और उनके मध्य प्रत्येक अन्तरदिशा में १२५, १२५ करके १००० जघन्य पाताल मुक्तावली रूप से स्थित हैं। १००,००० गोजन. गहरे महा पाताल नरक सीमन्तक बिल के ऊपर मंलग्न हैं।
३. तीनों प्रकार के पातालों की ऊंचाई तीन बराबर भागों में विभक्त हैं। तहां निचले भाग में वायु, ऊपर के भाग में जल और मध्य के भाग में यथायोग्य स्म से जल व वायु दोनों रहते हैं।
४. मध्य भाग में जल व वायु की हानि वृद्धि होती रहती है । शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन २२२१ योजन वायु बढ़ती है और कृष्णपक्ष में इतनी ही घटती है। यहां तक कि इस पूरे भाग में पूर्णिमा के दिन केवल वायु ही तथा अमावस्या को केवल जल ही रहता है । पाताल में जल ब वायु की इस वृद्धि का कारण नीचे रहने वाले भवनवासी देवों का उक्छवास निःश्वास है।
५. पाताल में होने वाली उपरोक्त वृद्धि हानि से प्रेरित होकर सागर का जल शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन ८००।३ धनुष ऊपर उठता है, और कृष्ण पक्ष में इतना ही घटता है। यहां तक कि पूर्णिमा को ४००० धनुष आकाश में ऊपर उठ जाता है और अवामस्या को पृथ्वी तल के समान हो जाता है (अर्थात ७००० योजन ऊंचा अवस्थित रहता है । लोगायणी के अनुसार सागर ११०० योजन तो सदा ही पृथ्वी तल से ऊपर अवस्थित रहता है। शुक्ल पक्ष में इसके जार प्रतिदिन ७०० योजन बढ़ता है और कृष्ण पक्ष में इतनाही घटता है। यहां तक कि पूर्णिमा के दिन ५००० योजन बढ़कर १६००० योजन हो जाता है।
६. समद्र के दोनों किनारों पर व शिखर पर आकाश में ७०० योजन जाकर सागर के चारों तरफ कूल १४२००० . वेलन्धर देवों की नगरियाँ है। तहां बाह्य व अभ्यन्तर वेदी के ऊपर क्रम से ७२००० और ४२००० और मध्य में शिखर पर २८००० है मतान्तर से इतनी ही नगरियां सागर के दोनों किनारों पर पृथ्वो तल पर भी स्थित हैं सग्गायणी
इस प्रकार तीन तथा सातवीं में केवल एक अवधिस्थान गाम का इन्द्रक बिन है।
धर्मादिक सातों पुत्रियों सम्बन्धी प्रश्रम इन्धक बिली के समीपवती प्रथम श्रेणीबद्ध बिलों के नामों का पूर्खादिक दिशाओं में प्रदक्षिण ऋम से निरूपण करते हैं।
धर्मा पृथ्वी में सीमन्त इन्द्रक बिल के समीप गुर्यादिक चारों दिशाओं में कम से कांक्षा, पिपासा, महाकाक्षा और अतिपिपासा, ये चार प्रथम श्रेणीबद्ध बिल है।
वंशा पृथ्वी में प्रथम अनित्य, दूसरा अविद्य तथा महानिद्य और चतुर्थ महाविद्य, ये चार श्रेणीबद्ध बिल पूर्वादिकः दिशाओं में स्तनक इन्द्रक बिल के समीप हैं।
मेघा पृथ्वी में दुःखा, वेदा, महादुःषा और चौथा महावेदा, ये चार श्रेणीबद्ध बिल पूर्वादिक दिशाओं में तप्त इन्दक बिल के समीप में हैं।
अंजना पृथ्वी में आर इन्दक बिल के समीप प्रथम निसृष्ट, द्वितीय निरोध, तृतीय अतिनिसृष्ट और चतुर्थ महानिरोध, ये चार श्रेणीबद्ध विल हैं।
तमक इन्द्रक बिल के समीप निरोध, विमर्दन अलिनिरोध और चौथा महाविमर्दन, ऐसे चार श्रेणीबद्ध बिल पूर्वादिक चारों दिशाओं में विद्यमान हैं।
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के अनुसार सागर की बाह्य व प्राभ्यन्तर वेदीवाले उपरोक्त नगर दोनों वेदियों से ४२००० योजन भीतर प्रवेश करके माकाश । में अवस्थित हैं और मध्य वाले जल के शिखर पर भी।
७. दोनों किनारों से ४२००० योजन भीतर जाने पर चारों दिशानों में ज्येष्ठ पाताल के बाह्य व भीतरी पाव भागों में एक एक करके कुल आठ पर्वत हैं। जिन पर वेलधर देव रहते हैं।
लवण सागर द्रष्टि भेद-सूर्य वचन्द्र दीपोंको कोई आचार्य
मानते है और कोई नहीं नोट सागर के ऊपर आजारामे-बन्दर देवो कोनगरपः
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चन्द्रदीप | सूर्य द्वीप
कुमानुप द्वापाका अवस्थान क्रम - दोनों तटोपर तटसे जल अन्तराल छोड़कर चार वारदीप चारों दिशाओमें, चार चार सिटिशामोंमें, आठ आठ अन्तर-दिशाओमें, और अ. आठ विजयाओं तथा हिमवान च शिखरी पर्वतोके प्रणिधि भागे हित है।
विशेष दे.चिन्न स.१३ तथा ऊ/४.१
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पर्वत
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८. इस प्रकार अभ्यन्तर वेदी से ४२००० यो० भीतर जाने पर उपरोक्त भीतरी४ पर्वतों के दोनों पार्श्व भागों में (विदिशाओं में) प्रत्येक में दो दो करके कुल पाठ सूर्य द्वीप हैं । सागर के भीतर, रक्तोदा नदी के सम्मुख मागध द्वीप, जगती के अपराजित नामक उत्तर द्वार के सन्मुख वरतनु और रक्ता नदी के सम्मुख प्रभास द्वीप है। इसी प्रकार ये तीनों द्वीप-जम्बद्वीप के दक्षिण भाग में भी गंगा नदी, ब वैजयन्त नामक दक्षिण द्वार के प्रविधि भाग में स्थित है । अभ्यन्तर बेदी से १२००० योजन सागर के भीतर जाने पर सागर की वायव्य दिशा में भागध नाम का द्वीप है। इसी प्रकार लवण समुद्र के बाह्य भाग में भी ये द्वीप जानना । मतान्तर की अपेक्षा दोनों तटों से ४२००० योजन भीतर जाने पर ४२००० योजन विस्तार वाले २४, २४ द्वीप हैं। जिनमें - तो चारों दिशाओं ब विदिशामों के दोनों पार्श्व भागों में हैं और आठों अन्तर दिशाओं के दोनों पाव भागों में। विदिशावालों का नाम सुर्य द्वीप और अन्तर दिशाबालों का नाम चन्द्र द्वीप है।
६. इनके अतिरिक्त ८ कुमानुष द्वाप है। २४ अभ्यन्तर भाग में और २४ बाह्य भाग में तहां चारों दिशाओं में चार चारों विदिशाओं में ४, अन्तर दिशाओं में ८ तथा हिमवान, शिखरी व दोनों विजयाई पर्वतों के प्रणिधि भाग में हैं। दिशा विदिशा व अन्तर दिशा तथा पर्वत के पास बाले, ये चारों प्रकार के द्वीप क्रम से जगती से ५००,५००,५५० व ६०० योजन अन्तराल पर अवस्थित हैं और १००,५५,५०२५ योजन विस्तार युक्त हैं। लोक विभाग के अनुसार वे जगती से ५००,५५० ५००,६०० योजन अन्तराल पर स्थित हैं। इन कुमानुषद्वीपों में एक जांघवाला, शशकर्ण, बन्दरमुख प्रादि रूप आकृतियों के धारक मनुष्य बसते हैं। धातकी खण्ड द्वीप की दिशात्रों में भी इस सागर में इतने ही अर्थात २४ अन्तर्वीप हैं । जिनमें रहने वाले कुमानुष भी वैसे ही हैं ।
२. धातकी खण्ड निर्देश१. लवणोद को वेष्ठित करके ४००.००० योजन विस्तृत ये द्वितीय द्वीप हैं। इसके चारों तरफ भी एक जगती है।
२. इसकी उत्तर व दक्षिण दिशा में उत्तर दक्षिण लम्बायमान दो इष्वाकार पर्वत हैं, जिनसे यह द्वीप पूर्व व पश्चिम रूप दो भागों में विभक्त हो जाता है। प्रत्येक पर्वत पर ४ कूट हैं। प्रथम कूट पर जिन मन्दिर है और शेष पर व्यन्तर देव रहते हैं।
हिम इन्द्रक बिल के समीप नीला, पंका, महानीला और महापंका ये चार श्रेणीबद्ध बिल कम से पूर्वादिक दिशाओं में स्थित है।
अवधिस्थान इन्द्रक बिल के समीप पूजादिक चारों दिशाओं में काल, रौरव, महाकाल और चतृथं महाशैरव ये चार श्रेणीबद्ध बिल हैं।
शेप द्वितीयादिक इनके बिलों के समी। पूर्वादिक दिशाओं में स्थित श्रेणीबद्ध बिलों के और पहिले इन्द्रक बिलों के समीप में स्थित द्वितीयादिव थेगोवद्ध बिलों के नाम नष्ट हो गये हैं।
दिशा और विदिशाओं के मिलकर कुल तीन सौ अठासी धेरणी बद्र बिल हैं। इनमें सीमन्त इन्द्रक बिल के मिला देने पर सब तीन सौ नवासी होते हैं। सीमन्त इन्ट्रक सम्बन्धी थे. ब. बिल ३८८ सीमन्त सहित ३८६ हैं।
इस प्रकार प्रथम पृथ्वी के प्रथम पाथड़े में इन्द्रक सहित श्रेणी बद्ध बिल तीन को नवासी हैं। इसके आगे द्वितीयादिक परिवयों में हीन होते होते माधवी पृथ्वी में सिर्फ पांच ही इन्द्रक व प्रेणीबद्ध बिल रह गये हैं । धर्मा पुथ्वी के प्रथम पाथड़े में स्थित ई. व श्रे. न. बिल ३८६ ।
आठों ही दिशाओं में यथाक्रम से एक एक बिल कम होता गया है । इस प्रकार एक एक के कम होने से सम्पूर्ण हानि के होने पर अन्त में पांच ही दिल दोष रह जाते हैं।
इष्ट इन्द्रक प्रमाण में से एक कम कर अवशिष्ट को आठ से गुणा करने पर जो गुरषफल प्राप्त हो, उसे तीन सौ नबामी में में घटा देने पर दोष नियम विवक्षित पाथड़े के श्रेणी बद्ध सहित इन्द्रक का प्रमाण होता है।
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३. इस द्वीप में दो रचनाएं हैं- पूर्वघातकी और पश्चिमाको दोनों में पर्वत क्षेत्र, नदी, कूट आदि सब जम्बू द्वीप के समान है । जम्बू व शाल्मली वृक्ष को छोड़कर शेष सब के नाम भी वही हैं। सभी का कथन जम्बू द्वीपवत हैं ।
४. दक्षिण इष्वाकार के दोनों तरफ दी भरत है तथा उत्तर इन्कार के दोनों तरफ दो ऐरावत हैं।
५. वहाँ सर्व कुल पर्वत तो दोनों सिरों पर समान विस्तार को परे पहिये के धरोगत स्थित हैं और क्षेत्र उनके मध्यवर्ती है। जिनके अभ्यन्तर भाग का विस्तार कम व बाह्य भाग का विस्तार अधिक है।
६. तहां भी सर्व कथन पूर्व व पश्चिम दोनों धातकी खण्डों में जम्बूदीपवत् है । विदेह क्षेत्र के बहु मध्य भाग में पृथक २ सुमेरु पर्वत है। उनका स्वरूप तथा उन पर स्थित जिन भवन आदि का सर्व कथन जम्बूद्वीपवत् है । इन दोनों पर भी जम्बूद्वीप के सुमेरु पाण्डुक यदि चार वन हैं। विशेषता यह है कि यहाँ भद्रशाल से ५०० योजन ऊपर नन्दन, उससे ५५५०० योजन सोमनस वन और उससे २०००० योजन ऊपर पाण्डुक वन है पृथ्वी तल पर २४०० योजन है. ५०० योजन ऊपर जाकर नन्दन वन पर ३५० योजन रहता है। वहां चारों तरफ से दुगवत २०० योजन मुकुड़कर ३५० योजन ऊपर तक समान विस्तार से जाता है । तदनन्तर ४५५०० योजन क्रमिक हानि सहित जाता हुआ सौमनस वन पर ३००० योजन रहता है तहां चारों तरफ से युवगत ५०० योजन मुकुड़कर २८०० योजन रहता है, ऊपर फिर १०,००० योजन समान विस्तार से जाता है तदन्तर १६०० योजन क्रमिक हानि सहित जाता हुआ शीप पर १०० योजन विस्तृत रहता है ।
७. जम्बूद्वीप के शामली वृक्षवत यहां दोनों कुरुयों में दो-दो करके कुछ चार घातकी (प्रांत के वृक्ष स्थित हैं। प्रत्येक वृक्ष का परिवार जम्बूद्वीपवत १४०१२० है । वारों वृक्षों का कुल परिवार ५४०४८० है । इन वृक्षों पर इस द्वीप के रक्षक प्रभास व प्रियदर्शन नामक देव रहते हैं ।
८. इस द्वीप में पर्वतों आदि का प्रमाण निम्न प्रकार है। मेरु २, इष्वाकार २, कुल गिरि १२, विजयार्ध ६८, नाभिविरि गजदन्त धमक प, कांचन दोल ४०० दिग्गजेन्द्र पर्वत १६, वक्षार पर्यंत ३२. बृषभरि ६८ कर्मभूमि ६. महा नदियां २६, विदेह क्षेत्र की नदियां १२८ विभंगा नदियां २४ ग्रह ३२ महानदियों व क्षेत्र नदियों के कुण्ड १५६, भिंगा के कुण्ड २४ घातकी वृक्ष २, शामली वृक्ष २ हैं ।
३. कालोद समुद्र निर्देश
१. बाकी खण्डको घेरकर ८००,००० योजन विस्तृत वलयाकार कालोद समुद्र स्थित है जो सर्वत्र १००० योजन
गहरा है।
14
२. इस समुद्र में पाताल नहीं है ।
उदाहरण - चतुर्थ पाथड़े के इन्द्रक सहित थे . बिल, ४ – १८ = २४; ३६६ – २४ = ३६५ ।
अववाष्ट प्रतर के प्रमाण को उनचास में से कम कर देने पर जो अवशिष्ट रहे उसको नियमपूर्वक आठ से गुणा कर प्राप्त राशि में पाँच मिला दे। इस प्रकार अन्त में जो संता प्राप्त हो वही विवक्षित पहल के इन्द्रक सहित श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण होता है ।
उदाहरण - चतुर्थ पटल सम्बबन्धो ई. व . व. बिल ४६ ४६
४३६५ ।
किसी विवक्षित पटल के श्रीबद्ध सहित इन्द्रक के प्रमाण रूप उद्दिष्ट संख्या में से पांच कम करके दोष में आठ का भाग देने पर जो लव आत्रे उसको उनंचास में से कम कर देने पर अवशिष्ट संख्या के बराबर वहां के इन्द्रक का प्रमाण होता है ।
उदाहरण- जतुर्थ पटल के एक और श्रेणीबद्धों का प्रमाण जो ३६५ है, वह यहां उद्दिष्ट है। २६५-५४५६ ४६–४५० ४ च. पटल के इन्द्रक |
अपने-अपने अन्तिम इन्द्रक का प्रमाण आदि कहा गया है, चय सब जगह आठ हैं, और अपने पटलों का प्रमाण गच्छ या पद है। विशेषार्थ श्रेणी व्यवहार गणित में प्रथम स्थान में जो प्रमाण होता है उसे नादि, मुख (बदन) अथवा प्रभव कहते हैं। इसी प्रकार
११५.
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उत्कृष्ट पाताल
४००
जल माग
३. इसके अभ्यन्तर व बाह्य भाग में लवणोदवत दिशा, विदिशा, अन्तरदिशा ब पर्वतों के प्रणिधि भाग में २४, २४ अन्तीप स्थित हैं। वे दिशा-विदिशा आदि वाले द्वीप क्रम से तट से ५००,६५०, ५५० च ६५० योजन के अन्तर से स्थित हैं तथा २००, १००, ५०, ५० योजन है। मतान्तर से इनका अन्तराल क्रम से ५००, ५५०, ६०० व ६५० है तथा विस्तार लवणोद वालों की अपेक्षा दुना अर्थात २००, १००० व ५० योजन है।
२३२३३१
उपवन व जल
:
-...-१00000 गो. ....
पवन भाग
४. पुष्कर द्वीप
१. कालोद समुद्र को घेरकर १६००,००० यो० के विस्तार
युक्त पुष्कर द्वीप स्थित है। इसके बीचोंबीच स्थित कुण्डलाकार मानुषोत्तर पर्वत के कारण इस द्वीप के दो अर्ध भाग हो गये हैं, एक अभ्यन्तर और दूसरा बाह्य । अभ्यन्तर भाग में मनुष्यों की स्थिति है पर मानुषोत्तर पर्वत को उल्लंघकर बाह्य भाग में जाने को उनकी सामर्थ्य नहीं है । अभ्यन्तर धातको खण्डवत् ही दो इष्वाकार पर्वत हैं जिनके कारण यह पूर्व व पश्चिम के दो भागों में विभक्त हो जाता है। दोनों भागों में घातकी खण्डवत रचना है। धातकी खण्ड के समान यहां ये सब कुलगिरि तो पहिये के अरोंवत समान विस्तार बाले और क्षेत्र उनके मध्य छिद्रों में हीनाधिक विस्तार वाले हैं। दक्षिण इप्वाकार के दोनों तरफ दो भरत क्षेत्र और इष्वाकार के दोनों तरफ दो ऐरावत क्षेत्र हैं। क्षेत्रों ? पर्वतों, आदि के नाम जम्बद पवन है। दोनों मेरुयों का वर्णन धातकी मेरुपवत हैं। मानुपोत्तर पर्वत का अभ्यन्तर भाग दीवार की भांति सीधा है और बाह्य भाग में नीचे से ऊपर तक कम से घटता रहता है। भरतादि क्षेत्रों की १४ नदियों के गुजरने के लिए इसके मूल में १४ गुफाएं हैं। इस पर्वत के ऊपर २२ कट हैं। तहाँ पूर्वादि प्रत्येक दिशा में तीन तीन कूट हैं। पूर्वी विदिशाओं में दो-दो और पश्चिम विदिशाओं में एक-एक कट हैं। इन कटों को अग्रभूमि में अर्थात् मनुप्य लोक की तरफ चारों दिशाओं में ४ सिद्धायतन कूट हैं। सिद्धायतन कूट पर जिन भवन हैं और शेष पर सपरिवार व्यन्तर देव रहते हैं। मतान्तर की अपेक्षा नैऋत्य व वायव्य दिशा वाले एक एक कट नहीं है। इस प्रकार कुल २० ऋट है। इसके ४ कुरुओं के मध्य जम्बू वृक्षवत् सपरिवार ४ पुष्कर वृक्ष हैं जिनका सम्पूर्ण कयन जम्बूद्वीप के जम्बू व शाल्मली वृक्षवत है । पुष्कराध द्वीप में पर्वत क्षेत्रादि का प्रमाण बिल्कुल धातकी वण्डवत जानना।
अनेक स्थानों में समान रूप से होने वाली वृद्धि अथवा हानि के प्रमाण को चम या उत्तर तथा जिन स्थानों में समान रूप से वृद्धि या हानि हुआ करती है, उन्हें गच्छ अथवा पद भी कहते हैं।
दो सौ तेरान, दो सो पाँच, एक सौ तेतीस, सतहतर, सैनीस और तेरह, यह कम से, रत्न प्रभादिक छह पृथ्विया में आदि का प्रमाण है।
आदि का प्रमाण-र, प्र. २६२, श.प्र. २०५, वा. प्र. १३३, पं०प्र०७७ प. प्र. ३७, त, प्र. १३ । रल प्रभादिक पृथ्वियों में कम से तेरह, स्मारह, नौ, सात, पाँच और तीन गच्छ है उत्तर या चय सब जगह आठ है। गच्छ का प्रमाण-र. प्र. १३, श.प्र. ११, ब, प्र. ६, पं० प्र. ७. ५. प्र. ५, त. प्र. ३ । सर्वत्र उत्तर ८ ।
इक्छा से हीन गन्द्र को चय से गुणा करके उसमे एक कम इच्छा मुणित चय को जोड़कर प्राप्त हुए गीग फल में दुगुणे मुख को जोड़ देने के पश्चात् उसको गच्छ के अर्ध भाम रो गुणा करने पर मंतित धन का प्रमाण आता है।
उदाहरण (१) (१३-१)xx(१-.१४८)-(२६३४२)४५ १२४८ : .: ५९६ - १३:-- ६०२४. ६८२x १३=४४३३ प्रथम पृथ्वी का संकलित धन ।
(२) (११-२)xc+(२–१४८) (२०५४२)xi1=txf-2-|-४१०४५३ २६५५ द्वि. पु. का सं. वन ।
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५. नन्दीश्वर द्वीप
अष्टम द्वीप नन्दीश्वर द्वीप हैं। उसका कल विस्तार १६३८४०,००० योजन प्रमाण है। इसके बहुमध्य भाग में पूर्व दिशा की ओर काले रंग का एक-एक अजनगिरि पर्वत है। अंजनगिरि के चारों तरफ १०००,०० योजन छोड़कर ४ वापियाँ है। चारों वापियों का भीतरी अन्तराल ६५०४५ योजन हैं और बाह्य अन्तर २२३६६१ योजन है। प्रत्येक वापी की चारों विशामों में अशोक, सप्तच्छद, चम्पक पोर ग्राम नाम के चार वन है। इस प्रकार द्वीपको एक दिशा में १६ और चारों दिशाओं नन्दीश्वर द्वीप
उत्तर nि -कापसे प्रत्येक कोण पर एकएक का चार रातकर है। परन्तु पायालय वा यो रजिका
पश्चिम -- - परही है।
पूर्व साथियोके मामो मे अन्तर
नरना -(ोका १२
D AII
PTEHI
वडा
रमवा राम
पराजित
नन्दिपाषा तैरोचन
तार
५८.०.
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वैजयन्ती रुग्धरण
Child वापियो के अतराल नन्दक्ती १४५. . राशान २-२२३६५ यो/
दीतगोकर अग्रवण
८४ लास योजन--
→
उअशोका
1
. MPIRATIO
अरजा करूण
HOम
विरजा यम
१६ वापी ६४ वन ENE १६ दधिमुख. 1३२ रसिकर . Kजन गिरि ६ समुद्र
आम बन
अंजन
EV000 यो
नोट-दो प्रकार धिमुल बनकर जानने।
यह कि 11पशवेन लान
तयR farana कम 10000ो 100.यो०है।
: गिरि
दा
बम्पकवन
100000 यो अञ्चोकवन।
Choodar
Poo यो
100000 सरापर्ण वन
वन में देवो के जावास
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में ६४ वन हैं इन सब पर अवतंस आदि ६४ वन हैं। उन सब पर अवतंस आदि ६४ देव रहते हैं। प्रत्येक वापी में सफेद रंग का एक-एक दधिमुख पर्वत है। प्रत्येक वापी के बाह्य दोनों कोनों पर लाल रंग के दो रहितकर पर्वत हैं। लोक विनिश्चय की अपेक्षा प्रत्येक द्रह के चारों कोनों पर चार रतिकर हैं। जिनमन्दिर केबल बाहर वाले दो रतिकरों पर ही होते हैं, अभ्यन्तर रतिकरों पर देव क्रीड़ा करते हैं। इस प्रकार एक दिशा में अजनगिरि, चार दधिमुख, पाठरतिकर ये सब मिलकर १३ पर्वत हैं। इनके ऊपर १३ जिनमन्दिर स्थित हैं। इसी प्रकार शेष तीन दिशाओं में भी पर्वत द्रह, वन व जिन मन्दिर जानना। कल मिलाकर ५२ पर्वत, ५२ जिन मंदिर और १६ वापियां हैं। अष्टाह्निक पर्व में सौधर्म ग्रादि इन्द्र व देवगण बड़ो भक्ति से इन मन्दिरों की पूजा करते हैं । तथा पूर्व दिशा में कल्पवासी, दक्षिण में भवनवासी पश्चिम में व्यन्तर और उत्तर में देव पूजा करते हैं।
मानुषोत्तर पर्वत
दृष्टि भेट:--२२ की बजाय २०है। नपाध्यक या विश लेकर नहीं है।
वधि
-आग्नेश
दक्षिण
स्फाटेकर
जब मेघदव सुषमुन्द्रदेश
वेधारी देव
वेलम्ब देव वेलाय कूट
उजट हनुमानदेव
बैंडी कूट यशस्वानदेव
कालाव
रजत कुट मानसदेव
अश्मगर्भस्ट यशस्कार देव
कनका कूट वैप्रदेव
सौगधीकट
यशोधर देव
सिद्धार्थ देश
अन्यन्सर पुष्करान
तपनीयकट
स्वाति देव
सर्वरवट वेणुधारी देव
वेणु देव रत कूट
।
अजन अशनि लोहित घोष देव नदीत
रुचकट दिन नन्द देव
बाह्यार्ध पुष्कर द्वीप
+- ४२४ यो
अभ्यन्तर पुष्करा
की ओर।
बाहा पुष्करा की ओर
नाभिगिरि HTEN
A. 'बालिका विद्वार समान
+-१०२२योSTATES३.यो. को-
EMATONTER
११८
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६. कुण्डलवर होप
ग्यारहवाँ द्वीप कुण्डलबर नाम का है, जिसके बहुमध्य भाग में मानुषोत्तरवत् एक कुण्डलाकार पर्वत है। तहां पूर्वादि प्रत्येक दिशा में चार चार कुट हैं। उनके अभ्यन्तर भाग में अर्थात् मनुष्यलोक की तरफ एक एक सिद्धवर कूट हैं। इस प्रकार इस पर्वत पर कुल २० कट हैं। जिन कूटों के अतिरिक्त प्रत्येक पर अपने-अपने कूटों के नाम वाले देव रहते हैं। मतान्तर की अपेक्षा आठों दिशाओं में एक एक जिनकट हैं। लोक विनिश्चय की अपेक्षा इस पर्वत की पूर्वादि दिशाओं में से प्रत्येक में चार कूट हैं । पूर्व व पश्चिम दिशा वाले कूटों की अग्रभूमि में द्वीप के अधिपति देवों के दो कूट हैं। इन दोनों कूटों के अभ्यन्तर भागों में चारों दिशाओं में एक-एक जिनकट हैं । मतान्तर की अपेक्षा उनके उत्तर व दक्षिण भागों में एक एक जिनकट हैं।
७. रुचकवर द्वीप
तेरहवां द्वीप रुचकवर नाम का है। उसमें बीचोंबीच रुचकबर नाम का कुण्डलाकार पर्वत है। इस पर्वत पर फल ४४ कुट है। पूर्वादि प्रत्येक दिशा में पाठ-पाठ कूट हैं जिन पर दिक्कुमारियां देवियां रहती हैं, जो भगवान के जन्म कल्याणक के अवसर पर माता की सेवा में उपस्थित रहती हैं। पूर्वादि दिशाओं वाली आठ-पाठ देवियां कम से भारी क्षण, छत्र. व चवर धारण करती हैं। इन कटों के अभ्यन्तर भाग में चारों दिशारों में चार महाकट हैं तथा इनको भी अभ्यन्तर दिशामा में चार अन्य कूट हैं। जिन पर दिशाएं स्वच्छ करने वाली तथा भगवान का 'जातकर्म करने वाली देवियां रहती हैं। इनके अभ्यन्तर भाग, में चार सिद्धकूट हैं। किन्हीं प्राचार्यों के अनुसार विदिशाओं में भी चार सिद्धकूट है। लोक विनिश्चय के अनुसार पूर्वाद चार दिशाओं में एक-एक करके चार कट हैं जिन पर दिग्गजेन्द्र रहते हैं। इन चारों के अभ्यन्तर भाग में चार दिशायों में पाठ कुट हैं, जिन पर उपरोक्त माता की सेवा करने वालो ३२ दिक्कुमारियां रहती हैं। उनके बीच को विदिशानों में दो-दो करके पाठ कट हैं, जिन पर भगवान् का जातकर्म करने वाली पाठ महत्तरियां रहती हैं। इनके अभ्यन्तर भाग में पुनः पूर्वादि दिशाओं में चार कूट हैं जिन पर दिशाएं निर्मल करने बाली देवियां रहती हैं। इनके अभ्यन्तर भाग में चार सिद्धकूट हैं।
(३) (8+३)४८.1(३-१४८) । (१३३४२)x -६४८-१३-२२६x६:-:१४८५ तृ. पृ. का सं. धन इत्यादि।
एक कम इष्ट पृथ्वी के इन्द्रक प्रमाण को आधा करके उसका वर्ग करने पर जो प्रमाण हो उसमें मून को जोड़कर आठ से गुणा करे और पांच जोड़ दे । पश्चात् विवक्षित गृथ्वी के इन्द्रक का जो प्रमाण हो उससे गुणा करने पर विवक्षित पृथ्वी का धन अर्थात् इन्द्र के व श्रेणीवद बिलों का प्रमाण निकलता है।
विशेपार्थ-- -जैसे प्रथम पृथ्वी के इन्द्रक के प्रमाण १३ में से एक कम करने पर अवशिष्ट १२ के आधे ६ का वर्ग ३६ होता है। इसमें मुल ६ के मिलने पर गोग फल ४२ हुआ। उसको आठ से गुरणा करने पर जो ३३६ गुणनफल होता है, इसमें ५ जोड़कर योगफल ३४१ को प्रथम पृथ्वी के इन्द्रक प्रमाण १३ के गुणा करने पर प्राप्त गुणनफा ४४३३ प्रमारण प्रथम पृथ्वी में इन्द्र क ब श्रेणीवद्ध बिलों का प्रमाण समझना चाहिये।
उदाहर
x+५४१३:-३६.1-६XF५४ १३:४४३३ प्र. पु. के इन्द्रक व श्रेणी
बद्ध।
प्रथम पृथ्वी में इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिल चवालीस सौ तेतीस है। और द्वितीय पृथ्वी में दो हजार छह सौ पंचानव इन्द्रक व श्रेणीबद बिल हैं। ४३३३ । २६६५ ।
तृतीय पृथ्वी में इन्द्रक व श्रेणीबद्ध बिल चौदहतो पचासी, और चौथी पृथ्वी में सात सौ सात हैं । १४८५१ ७०७॥
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________________
७५०००
कण्डलवर पर्वत व टीप
वृष्टिभेव विविद्याओं वाले सिद्धायतन फूटों को कोई आचार्य मानते हैं और कोई महीं
।
B alluitel
BAB 2
ht
2
[२] ३०पो० से
बाह्यार्थ
कुण्डलवर पर्वव
१०.३० WW१००० पो. 7
द्वीप
कुण्डलवर
O
१० द्वीप
सागर
अभ्यन्तर कुण्डलवर दीप
विस्तार विषयक दृष्टिभेद (दे०लोक / ६-५-४)
महाप्रभ
महादेव
सुक्ष्म कूट
पाँचवी पृथ्वी में दो सौ पंसठ छठी में तिरमल और अन्तिम
पद्मोत्तर देन रजअन फूट
देव
सातवी पृथ्वी
شاری
वामन्य
उत्कृष्ट पाताल
क् कूट विशिष्ट देन
वज्रम कूट उपचार देव
किनक कूट महाशिव
कनकप्रभ कूट
मदाबादेव
में सिर्फ पाँच ही एक व श्रेणीबद्ध बिल हैं, ऐसा जानना
चाहिये । २६५ ६३ ५ ।
सम्पूर्ण पृथ्वियों के इन्द्रक व श्रेणीबद्ध बिलों के प्रमाण को निकालने के लिये आदि पांच चम आठ और गच्छ का प्रमाण उनंचास है, यह निश्चित समझना चाहिये ।
इष्ट से अधिक पद को चत्र से गुणा करके उसमें से एक अधिक इष्ट से गुणित चय को घटा देने पर जो शेष रहे उससमें दुगने मुख को जोड़कर गच्छ के अर्ध भाग से गुणा करने पर संकलित धन आता है।
उदाहरण– (४६+ ७××) - (०-१-१-) + (१x१) x
१२०
= ४४० – ६४ ÷ १०५ ६६५३ सातों पुचियों का सं
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________________
रुचकवर पर्वत व द्वीप
दरिया -afrari या हिदायतम कटोको कोई अामाय मानते है
रोई नहीं। कटास्पिोले नामोam-na.१२)
परिचय
- पूर्व
KA
यन्त कर
भासी देवी
HAअलभूषा देवी
MAA विजय
SE
तिवारोत
शामिनी देवी
नाही ना करनेवाली रेल माको जन्मल्याणम्पर
२
या देवी
विजयादेवी
1.
marate
जन्म गाणनha
IYANAVIATICAL
HPURI
नि
np
चाली देविया ।
baatya
मार्गदश (दीप
.....
....
मारमा
.TA
अनिता रवी
व
.२ सामर
HTRA
मल कर
AppleyASEA
-
-
अमास्तराप यकस दीप A
मर
NALHARATRA-पोतमय
FILE/HIMकविता देवी
PREV
Shaन्दिएना देकर
HII INABLE
H2RAS
बाह्यारी रूपकदर द्वीप
TODanो
बनवा देकी
THEIRNपनी देनी
ABPREET
AS/फटककर
AAN
चन्दकर
अपर्चा देवी कमर कट
गा
लार सम्वन्धी इषिमेट-दे-सरकार ५१
INDI
अथवा-अड़तालीस के आधे को आठ से गृणा कर उसमें पांच मिला देने पर प्राप्त हुई राशि को उनचास से गुणा करे । इस रीति से पुस्बियों का सर्वधन निकलता है।
उदाहरण- ४८.!..५४४६-१६५३ सर्व पृथ्वियों का सं. धन | सम्पूर्ण पृथ्वियों में कुल नौ हजार छह सौ तिरेपन इन्द्र क व श्रेणीबद्ध बिल हैं।६६५३।
(प्रत्येक पृथ्वी के श्रेणी धन को निकालने के लिये) एक कम अपने अपने चरम इन्द्रक का प्रमाण आदि, अपने अपने पटल का प्रमाण गच्छ और चय सत्र जगह आठ ही हैं।
दो सौ बान, दो सौ चार, एक सौ बत्तीस, छयत्तर छनीस और बारह, इस प्रकार रत्नप्रभादि छह पृध्वियों में आदि का प्रमाण है। र, प्र. २६२, श.प्र. २०४, प्र. १३२, पं. प्र. ७६, घू.प्र. ३६ त.प्र. १२ ।
१२१
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________________
रुचकवर पर्वत व द्वीप
इटिव -20a देवि
मामे प्रसा। -
क.५.१
...शान
पश्चिम-*- पूर्व
पुनरीकिणी. देवी, HIRAAEजन कुट
** 21 OETS
मालाका सबा करन सिलो
कोकमयागार
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शामिला देवी
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मापदावमा देवी
दिकम्वस्तिक र
१२ सा
IINI
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अभ्यन्तरार्ध स्वकपर दीप,
४.रुचकर
taजस्मृत कट। CARRIादमाग देवी
पुराकी
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आनन्दावी
जयन्ती देवी श्वस्त कर
जगलाहाकार
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मकान्ता दे
Ris
MARY
रुचकवर पवत
TIAHINITI
प्रभाकूररुचकामी देahll,
HIA/M
MATH
बाह्या रूचकवर द्वीप
HI
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सप्रलिपूर
अमका
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मति
म्यकोनार
वसिमरकर
देखो
मीवती देवी
प्रम देवी बुटकुर
*
स्यकनर विस्तार सम्बन्धी पर्वत | इषिभेद - का६५१)
eyes
नन्द्यावते कर पोतर दिग्गजेन अस्वीकर परपट दिगजेन्द्र
सीबहकर नील दिगजेन्द्र IRबर्द्धमान र 14 जनगिरि गजेन्ट
दिशा उपकारी देविके ४ कर
IAनीयकर
जानकार
काग देवियोफे फुट
१२२
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________________
1. स्वयंभूरमण समुद्र
अन्तिम द्वीप स्वयंभूरमण है। इसके मध्य में कुण्डलाकार स्वयंप्रम पर्वत है। इस पर्वत के अन्तन्तर भागतक तिर्यंच नहीं होते, पर उसके परभाग से लेकर अन्तिम स्वयंभरमण सागर के अन्तिम किनारे तक सब प्रकार के तिर्यंच पाये जाते हैं।
५ द्वीप पर्वतों प्रादि के नाम रस मामि-. १द्वीप, समुत्रों के नाम
मध्य भाग से प्रारम्भ करने पर मध्य लोक में क्रम से १ जम्बूद्वीप, २ लवण सागर, धातकी खण्ड कालोद सागर, ३ पुष्करवर द्वीप पुष्करवर समुद्र, ४ वारुणीवर द्वीप, वारुणीवर समुद्र, ५क्षीरवर द्वीप-क्षीरवर समुद्र, ६ घतवरदीप, धृतवर समुद्र, क्षोद्रवर (इक्षुवर) द्वीप-क्षोदवर (इक्षवर) समुद्र, नन्दीश्वर द्वीप नन्दीश्वर समुद्र, ६ अरुणीवर द्वीप-अरूणीवर समुद्र १० अरुणाभास द्वीप, अरुणाभास समुद्र ११ कुण्डलवर द्वीप, कुण्डलबरसमुद्र, १२ शंखबर द्वीप-शंखबर समुद्र १३ रुचकवर द्वीप-रुचकवर समुद्र, १ भुजगवर द्वीप-भुजगवर समुद्र १५ कुशवर द्वीप-कुशवर समुद्र, १६ क्रौंचवर द्वीप-क्रोंचवर समुद्र ये १६ नाम मिलते हैं।
संख्यात द्वीप समुद्र आगे जाकर पुनः एक जम्बूद्वीप है। मध्यलोक के अन्त से प्रारम्भ करने पर--१. स्वम्भ रमण समुद्र स्वयंभूरमण द्वीप, २. अहीन्द्रबर सागर अहीन्द्रवर द्वीप, ३. देवबर समुद्र-देववर दोप, ४. यक्षवर समुद्र यक्षवर द्वीप, ५. भूतवर समुद्र-भूतवर द्वीप, ६. नागवर समुद्र-नागवर द्वीप, ७. बंड्र्य समुद्र-वड्य द्वीप, ६. वजवर समुद्र-वचवर द्वीप, ६. कांचन समुद्र-कांचन द्वीप, १०. रुप्यवर समुद्र-रुप्यवर द्वीप, ११. हिंगुल समुद्र-हिंगुल द्वीप, १२. अंजनवर समुद्र-अंजनवर द्वीप, १३, श्याम समुद्र-श्याम द्वीप, १४. सिन्दूर समुद्र-सिन्दूर द्वीप, १५. हरितास समुद्र-हरितास द्वीप, १६. मनः शिल समुद्र-मनःशिल द्वीप ।
२. सागरों के जल का स्वाद–चार समुद्र अपने नामों के अनुसार रसवाले, तोन उदक रस अर्थात् स्वाभाविक जल के स्वाद से संयुक्त, शेष समुद्र ईख समान रस से सहित हैं। तीसरे समुद्र में मधु जल है। वारुणीवर, लबणाधि, घृतवर और क्षीरवर ये चार समुद्र प्रत्येक रस, तथा कालोद, पुष्करवर और स्वयंम्भरमण, ये तीन समुद्र उदकरस हैं।
२. जम्ब द्वीप के क्षेत्रों के नाम१. जम्बू द्वीपादि महाक्षेत्रों के नाम-जम्बूद्वीप में ७ क्षेत्र है-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत व ऐरा
वत ।
-- . --. . ---- . --.. तेरह, ग्यारह, नौ, सात, पांच और तीन, यह सब पुत्रियों के (पृथक्-पृथक) श्रेणी धन को निकालने के लिये गन्द्रका प्रमाण है। चय सब जगह आठ ही है।
पद के वर्ग को चप से गुणा करके उसमें दुगुरणे पद से मुरिगत मुख को जोड़ देने पर जो राशि उत्पन्न हो उसमें से चर से गुणित पद प्रमाण संकलित धन को जानना चाहिये ।
उदाहरण-(१३२४८)-- (१३४२४२६३१)-(८४१३)-८४०-४४२० प्रथम पृथ्वीगत श्रेणीबद्ध बिलों का कुल प्रमाण।
पहिली पृथ्वी में चार हजार बोरा, और दूसरी में दो हजार छह सौ चौरासी थेणीबद्ध विल हैं ४४२०, २६८४ ।
तृतीय पृथ्वी में चौदह सौ छयत्तर, चौथी में सात सौ और पांचवीं में दो सौ राष्ठ श्रेणीबद्ध बिल हैं, ऐसा जानना चाहिये । १४७६, ७००, २६०।
तमःप्रभा पृथ्वी में साठ और अतिम अर्थात् महातमः प्रभा पृथ्वी में चार घेणीबद्ध बिल हैं। इस प्रकार सात पश्वियों में से प्रत्येक घेणीबद्ध बिलों का प्रमाण समझना चाहिये । ६०४ ।
(रत्नप्रभादिक पध्वियों में संपूर्ण श्रेणीबद्ध बिलों का प्रमाण निकालने के लिये) आदि का प्रमाण चार चय का प्रमाण आठ और गच्छ का प्रमाण एक कम पचास होता है।
आदि ४ चय है. गच्छ ४६ ।
पद का वर्ग कर उसमें से पद के प्रमाण को कम कर करके अवशिष्ट राशि को चय के प्रमाण से गुणा करना चाहिये । पश्चत उसमें पद से मुरिणत आदि को मिलाकर और फिर उसका माधा कर प्राप्त राशि में मुख के अद्ध भाग से गुरिणत पद के मिला देने पर संकलित धन का
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२. विवेह क्षेत्र के ३२ क्षेत्र व उनके प्रधान नगर१. क्षेत्र सम्बन्धी प्रमाण :
प्रबस्थान
क्रम
क्षेत्र
नगरी
अवस्थान
क्रम
क्षेत्र
नगरी
|
उत्तरी पूर्व ! ३ विदेह में ४ पश्चिम से ५ पूर्व की ६ मोर
क्षेमा क्षेमपुरी रिष्टा (अरिष्टा) दक्षिण । अरिष्टपरी पश्चिम । खड्गा विदेह में । मंजपा
पूर्व से यौषध नगरी पश्चिम । पुण्डरीकिणी
को ओर
कुमुदा सरित
xru or me xury
कच्छा सूकच्छा महाकच्छा कच्छावती पावर्ता लांगलावा पुज्कला पूष्कलायती (पुष्कलावती) वत्सा सुवत्सा महावत्सा बत्सकावती (बत्सवत्) रभ्या सुरभ्या (रम्यक) रमणीया मंगलावती
prm" xx90 ~prmar9॥
सुसीमा कुण्डला अपराजिता उत्तरी 1 प्रभंकरा
पश्चिम (प्रभाकरी) विदेह में अंका (अंकावली) पश्चिम से पद्मावती पूर्व की
__ओर रत्नसंचया
पमा अश्वपुरी सुपद्मा सिंहपुरी महापद्मा महापूरी पत्रकाबती विजयपुरी (पद्मवत) शंखा
परजा नलिनी विरजा
शोका
वीतशोका वप्रा
विजय सुवप्रा
वजयन्ता महावप्रा जयन्ता वप्रकावती अपराजित (बप्रावत) गधा (बल्गु) चऋपुरी सुगन्धा-सुवैल्गु खड्पुरी गन्धिला अयोध्या गन्धमालिनी अवध्या
दक्षिण पूर्व विदेह में । पूर्व से पश्चिम । की मोर ।
शुभा
प्रमाण निकलता है।
(४१-४६]X5+ (४६x४) + (२४४)
२३५२४८+१९६-९८-९६०४ सं० धन
रत्नप्रभादिक पृध्वियों में सम्पूर्ण श्रेणीबद्ध विली का प्रमाण नौ हजार छह सौ चार ९६०४ ।
पद के अर्ध भाग से भाजित संकलित घन में इच्छा मे गुरिणत चय को जोड़ कर, और उसमें से चय से गुरिणत एक कम इच्छा से अधिक पक्ष को कम करके दोष को जाधा करने पर आदि का प्रमाण आता है।
(९६०४-+ +(x)-५-१:४६४)
३९३+५६०-४३०२.४ आदि
पद के असं भाग से गुपित जो एक कम पद, उससे भाजित संकलित धन के प्रमाण में से, एक कम पद के अर्घ भाग से भाजित भस को कम कर देने पर शेष चय वा प्रमाण होता है।
६६०४ (४६-१x६)-(४:४१) = ६६६-४ चम
चय के अद्धं भाग से गणित मंकलित घन में यय के अर्थ भाग से रहित आदि (मुख के अन्तर रूप संख्या के वर्ग को मिला देने पर जो राशि उत्पन्न हो उसका वर्गमूल निकाले । पश्चात उसमें में पूर्व के मूल को (जिसके वर्ग को संकलित धन में जोड़ा था) घटाकर अबशिष्ट राशि में चय के वर्षभाग का भाग देने पर पद का प्रमाण निवलता है।
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३. जम्बू द्वीप के पर्वतों के नाम:
१. कुलाचल आदि के नाम
जम्बू द्वीप में छह कुलाचल हैं-हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी। सुमेरु पर्वत के अनेकों नाम हैं। कांचन पर्वतों का नाम कांचन पर्वत ही हैं। विजयाध पर्वतों के नाम प्राप्त नहीं हैं। है। शेष के नाम निम्न प्रकार हैं:नाभिगिरि तथा उनके रक्षक देव पर्वतों के नाम
देवों के नाम | ति.प.१४। रा.ब.।३।१०। १७२। क्षेत्र का
ह.पु. ।५।१६१।। ज.प. | ति.प. पूर्वोक्त रा. वा.। १७०४, १७४५.२१ १०११७२।३१-१-१६। त्रि. सा. ७१६ नाम
| !३।२०६] ह.पु. (५११६४ २३३५, २३५० १८११७ F१६।१८११२३
त्रि. सा.७१६
हैमवत
शब्दवान् हरि - विजयवान्
विकुतवान्
थद्वावान् श्रद्धावती विजयवान् निकटावती पद्मवान् | गन्धवती गन्धवान् 'माल्यवान
शाती (स्वाति) चारण (अरुण)
पद्म प्रभास
गन्धवान्
रम्यक দয় | हैरण्यवत् । गन्धमादन
मल्यवान्
AVEEx४४२०) + २६२-5) -(२९२-३)1:६-१७६८ १ ४४ := १९६८१४४= ५२
-:१३ प्र. पृ. का पद प्रमाण । अथवा दगुरणे चय से गित संकलित धन में वयं के अई भाग और मुख के अन्तर रूप संख्या के वर्ग को जोड़कर उसका वर्गमल मिकालने पर जो संख्या प्राप्त हो उसमें से पूर्व मूल को (जिसके वर्ग को संकलित घन में जोड़ा या) घटाकर शेष में चव का भाग देने पर विवक्षित पृथ्वी के पद का प्रमाण निकलता है।
[/(२४८४४४२०) २६२-३)२(२६२-६)]:८
=V७०७२०+२९४४--२८८.:18 -:१३ प्र. पृ. का पद प्रमाण
रत्नप्रभादिक प्रत्येक पृथ्वी के सम्पूर्ण बिनों की संस्था को रख कर उसमें से अपने-अपने श्रेणीबद्ध और इन्द्रक बिलों की संख्या को घटा देने पर शेष उस पृथ्वी के प्रकीर्णक बिल का प्रमाण होता।
प्रथम पृथ्वी के समस्त बिल ३००००००; ३००००००-(१३-1-४४२०)---२६६५५६७ प्र. प्र. के प्रकी. विल । प्रथम पृथ्वी में उन्तीस लाख पचानव हजार पांच सौ सढ़सठ प्रकीर्णक बिल हैं। २९६५५७ द्वितीय पृथ्वी में चौबीस लाख सत्तानवें हजार तीन सौ पांच प्रकीर्णक बिल हैं। समस्त बिल २५०२००२ - (२६८४-११)- २४६५३०५ द्वि. पृ. के प्रकी. बिम । तृतीय पृथ्वी में चौदह लाख अट्यानबें हजार पांच सौ पन्द्रह प्रकीर्णक बिल हैं। समस्त बिल १५००००-(१४७६-६)=१४६८५१५ तु. पृ. के प्रत्री, बिल। चतुर्थ पृथ्वी में प्रकीर्णक बिन का प्रमाण नौ लाख निन्यानवें हजार दौ सौ तेरानवे हैं।
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३-बिवेह वक्षारों के नाम
अवस्थान
क्रम
ति.प.
शेष प्रमाण
नोट-मं ६ ज. प. में श्रद्धावता। नं. १०पर रा.
वा. में विकृतवान् त्रि. सा. में विजयवान् और ज. प. में विजटावती है। नं० १६ पर ह. पु. में मेघमाल है।
--
-
-
चित्रकूट
उत्तर पूर्व विदेह के | पश्चिम से पूर्व की ओर .
नलिनकूट
पचकूट
४-गजदन्तों के नाम
पग्रकूट
नलिनकूट
एक शैल
वायव्य प्रादि दिशाओं में क्रम से सौमनस, विद्युत्प्रभ, गन्धमादन, व माल्यवान ये चार हैं । मतान्तर से गन्धमादन, माल्यवान, सोमनस व विद्युत्प्रभ ये चार हैं।
त्रिकूट
५--यमक पर्वतों के नाम
दक्षिण पूर्व विदेह में पूर्व से पश्चिम की ओर
बैश्रवणकूट भंजन शैल
अवस्थान क्रम | दिशा
ति.प. शि२०७७/रा. वा. ।३।१०।१३। २१२४ ह.प. १७४, २५, १५ १६१-१६२ त्रि. २६ ज. प.६। सा. ६५४-६५५, १५, १८, ८७
आत्माजन
---
--
चित्रकूट
धद्धावान् विजयवान् आशीविष
विचित्रकूट
देवकुरु | १ | पूर्व
| २ | पश्चिम तरकुरु। ३ । पूर्व
पश्चिम
दक्षिण उत्तर विदेह में पूर्व से
पश्चिम की ओर उत्तर अपर
विदेह में
यमकूट मेघकूट चित्रकूट विचित्रकूट
सुखावह चन्द्रगिरि (चन्द्रमाल)
यमकूट मेघकूट
६-दिग्गजेन्द्रों के नाम
सूर्यगिरि
(सूर्यमाल)
देवकुरु में सीतोदा नदी के पूर्व व पश्चिम में क्रम से स्वस्तिक अंजन, भद्रशाल वन में सोतोदा के दक्षिण व उत्तर तट पर अजन व कुमुद, उत्तरकुरु में सीता नदी के पश्चिम व पूर्व में अवतंस व रोचन, तथा पूर्वी भद्रशाल वन में सीता नदी के उत्तर व दक्षिण तट पर पद्मोत्तर व नील नामक दिग्गजेन्द्र पर्वत हैं।
नागगिरि (नागमाल)
पश्चिम से पूर्व
की ओर
.
६
देवमाल
समस्त बिल १०००००००-(७००. ५)-REE२६३ च. पृ. के प्रकी. बिल । पांचदी पृथ्वी में नियम से दो लाख निन्यानवें हजार सात सौ पंतीस प्रकीर्णक बिल है। समस्त बिल ३००००-(२६०५५): २६६८३५ पं० पृ. के प्रकी. बिल । छठवीं पृथ्वी में अड़सठ कम एक लाख ग्रवीर्णक बिल है। सातबी पृथ्वी में नियम से प्रकीर्णक विल नहीं हैं। समस्त बिल ६६६५-(६०.३)=६६६३२ प. पृ. के प्रको. बिल।
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जम्बू द्वीप के पर्वतीय कूट व तन्निवासी देश
१. भरत निजया - से परिवार की ओर) ति. प.।४।१४८ | १६७); (रा. वा.।३।१०।१७२।१०); (ह. पृ. ।५।२६); (नि. सा. ७३२-७३१); (ज.प. ।२।४६)
देव सिद्धायतन
जिनमन्दिर (दक्षिणार्ध) भरत खण्ड प्रपात
नृत्यमाल मणिभद्र बिजया कुमार पूर्णभद्र तिमिस्त्र गुह्य
कृतमाल (उत्तरार्ध) भरत
वैश्रवण नोट :-त्रि. सा. में मणिभद्र के स्थान पर पूर्णभद्र और पूर्णभद्र के स्थान पर मणिभद्र हैं। २ ऐरावत विजयार्ध-(पूर्व से पश्चिम की नोर) (ति.प.४१२३६७), (ह. पु.।५।११०-१२२), (त्रि. सा.। ७३३-७३५)
वैश्रवण
देव सिद्धायतन
जिनमन्दिर (उत्तरार्ध) ऐरावत खण्ड प्रपात
कृतमाल मणिभद्र विजया कुमार पूर्णभद्र तिमिस्त्र गुह्य
नत्यमाल (दक्षिणार्ध) ऐरावत नोट :-त्रि.सा. में न०२ व ७ पर क्रम से तिमिस्त्र गृह व खण्डप्रपात नाम कूट व कुतमाल देव बताये हैं। छह पश्चियों के सब ही प्रकीर्णक बिल मिलकर तेरासी लाख गब्बे हलार तीन सौ संतालीस होते हैं ८३६०३४० सब पृ. के. प्रकी. बिल ।
इन्द्रक बिलों का विस्तार संख्यात योजन, श्रेणी बद्ध बिलों का संख्यात योजन और प्रकीर्णक बिलो वा विस्तार उभय मिश्र अर्थात् कुछ का संख्यात और कुछ का असंख्यात, योजन है।
सम्पूर्ण बिल संख्या के पांच भागों में से एक भाग प्रमाण (1) बिलों का विस्तार संख्यात योजन, और शेष चार भाग प्रमाण (१) बिलों का विस्तार असम्यात योजन प्रमाण है।
सर्व बिल ८४०००००, संख्यात योजन विस्तार वाले १६८२०००, असं. यो. विस्तार चाले ६७२०००।
रल प्रभादिक पृच्चियों में कमशः छह लाम्य पांच लाख, तीन लाख, दो लाख साठ हजार, एक व.म बीस हजार और एक, इसने बिलो का विस्तार संस्थात योजन प्रमाण है।
संन्यात योजन प्रमाण बिल-रा.प्र. ६०००० श.प्र. ५००००० वा.प्र. ३०००००प.प्र. २००००० धू. प्र. ६०००० ल.प्र. १६EER म.त.प्र.११
रलप्रभादिक सब पश्यियो' में कम से चौबीस लाख, बीस लाख, बारह लाख, आठ लाख, चौबीस से गुणित सौ के वर्ग प्रमाण अर्थात् दो लाख चालीस हजार, चार कम अस्सी हजार, और चार इतने बिस असंख्यात योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं।
अमस्यान योजन प्रमाण विस्तार वाले बिल-र.प्र. २४०००००; श. प्र. २००००० १२००००० पं प्र. ८०००००; धू. प्र. २४००० त, प्र. ७६६६६ म. त. प्र. ४ ।
संख्यात योजन विस्तार वाले नारकियों के बिलों में तिरछे रूप में जघन्य अन्तराल छह कोस और उत्कृष्ट अन्तराल उससे दुगुणा अर्थात् बारह कोस मात्र है ज. अन्तराल ६ उ. अ. कोस.१२ ।
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देव
वडय
३ विदेह के ३२ विजयार्ध
५ महाहिमवान (पूर्व से पश्चिम की ओर) (ति.प.॥४॥२२६०२३०३-२३०३)
तिप. ४११७२४-१७२६), रा. वा. ।३.१११४॥
१८३१४), ह. पु. ।५।७१-७२) (त्रि. सा. १७२४), क्रम कट
(ज. प. ३।४१) सिद्धायतन
देवों के नाम दक्षिणार्ध भरत विजया
सिद्धायतन
जिन मन्दिर खण्ड प्रपात बत् जानने
महाहिमवान
हैमवत पूर्णभद्र
रोहित विजयार्धकुमार
हरि (ह्रीं) मणिभद्र
देवों के नाम स्त्रिगुह्य
हरिकान्त भरत विजया
हरिवर्ष (उत्तरार्ध) स्वदेश बत जानने
वैधवण ४ हिमवान्
६ निषध पर्वत (पूर्व से पश्चिम की प्रोर)
(ति. प. |४|१७५८-१७६०), (रा. बा. ।३।११।६।१५३।१७), (ति. प. १४।१६३२+-६१५१), रा. वा. ३१२१॥२ (ह.पू. १८८-८९) (त्रि. सा. 1७२५), (ज. प.१३।४२) ११७२।२४), (हि. पु. ११५३-५५), (त्रि. सा. १७२१), . (ज. म. १३१४०)
कट
देव सिद्धायतन
जिन मन्दिर सिद्धायतन जिनमन्दिर
निषध हिमवान
हरिवर्ष भरत
पूर्व विदेह
हरि (ही) इलादेवी
बिजय गंगा गंगादेवी
सीतोदा श्री श्री देवी
अपर विदेह रोहितास्या
रोहितास्या देवी सिन्धु
सिन्धु देवी
नोट:-रा. वा. ब. बि.सा. नं०६ पर घृत याति नामक सुरा सुरा देवी
कूट व देव कहे जाते हैं। तथा ज. प. में नं. ४, ५, ६ हैमवत
पर कम से धृति, पूर्व और हरिविजय नामक क्टदेव वैश्रवण
।
।
। । ।
।
vormxx9..
।
।
असंख्यात योजन विस्तार वाले नारकियों के बिलों में जघन्य अन्तराल सात हजार योजन और उत्कृष्ट अन्तराल असंख्यात योजन मात्र है । ज. अन्तराल ७००० यो.।
पूर्वोक्त प्रकीर्णक बिलों में से असम्यात योजन विस्तार बलि बहुत और असंख्यात योजन बिरतार वाले बिल थोड़े ही हैं। ये सब बिल अहोरात्र अन्धकार में व्याप्त है।
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७. नील पर्वत - ( पूर्व से पश्चिम की ओर )
ति.प. ४१२३२८ ! २३३१), ( रा. वा. १६।११।६।१८३/३४), (ह्. पु. ५६६ १०१), (त्रि. स. १७२६), (ज. प. ०३।४३) |
क्रम
२
क्रम P
कूट सिद्धायतन नील
पूर्व विदेह
सीता
कीर्ति
नारी
अपर विदेह
रम्यक
अपदर्शन
&
नोट:- रा. वा. व चि. सा. में नं ६ पर नरकान्ता नामक कूट व देव कहा है।
८. रुक्मि पर्वत- ( पूर्व से पश्चिम की धोर
(ति. प. १४१२३४१-१२३३), (रा. बा. २३११११०१८३३१) (ह. पू. ५११०२-१०४) मि. सा. १७२७), (ज. प. २३०४४) |
देव जिनमंदिर
-
कूट सिद्धायतन रुक्मि (रूप्य )
रम्यक
नरकान्ता
बुद्धि
रूप्यकूला
हैरण्यवत्
८
मणिकांचन (कांचन)
नोट:- रा. वा. व त्रि. सा. में नं. ४ पर नारी नामक कूट व देव रहता है।
देव जिनमंदिर
अपनी अपनी पृथ्वी के संख्या योजन विस्तार वाले बिलों को राशि में से इन्द्रक बिलों के प्रमाण को घटा देने पर शेष संख्यात योजन विस्तार वाले प्रकीरक बिलों का प्रमाण होता है। इसी प्रकार अपनी अपनी पृथ्वी के असंख्यात योजन विस्तार वाले बिलों की संख्या श्रेणीबद्ध बिलों के प्रमाण को घटा देने पर श्रवशिष्ट श्रसंस्थात योजन विस्तार वाले प्रकीर्शक बिलों का प्रमाण रहता है ।
प. पृथ्वी में सं० यो० विस्ता० बिल ६०००००; असं० यो० वि० २४०००००, इन्द्रक १३, श्रे० ब० ४४२०, ६०००००-१३= ५६६६६७ सं० यो० वि० प्रकी० विल, २४००००० - ४४२० = २३६५५८० अ० यो दि० प्रकी० बिल ।
संख्यात योजन विस्तार वाले नरक बिल में नियम से संख्यात नारकी जीव, तथा असंख्यात योजन विस्तार वाले बिल में असंख्यात ही आएको जीव होते हैं ।
प्रथम इन्द्रक का विस्तार पंतालीस लाख योजन और में से अन्तिम इन्द्रक के विस्तार को घटाकर शेष में एक कम इन्द्रक को निकालने के लिये हानि और वृद्धि का प्रमाण समझना चाहिये
अन्तिम इन्द्रक का विस्तार एक लाख योजन है। इनमें प्रथम इन्द्रक के विस्तार प्रमाण का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना ( द्वितीयादि इन्द्रकों के विस्तार ४२००००० - १०००००+ (४१-१)- २१११ हानि-वृद्धि इस हानि-वृद्धि का प्रमाण इक्यानवें हजार छह सी छयासठ योजन और तीन से विभक्त दो कला है। द्वितीयादिक इन्द्रक के विस्तार को निकालने के लिए एक कम इच्छित इन्द्रक प्रमाण से उक्त क्षय और वृद्धि के प्रमाण को गुणा करने
पर जो गुम्पनफल प्राप्त हो उसको सीमित इन्द्रक के विस्तार में से घटा देने पर या अवधिस्थान इन्द्रक के विस्तार में मिलाने पर अभीष्ट इन्द्रक
का विस्तार निकलता है।
उदाहरण
-सीमंत और अवधिस्थान की अपेक्षा २५ वें सप्त नामक इद्रक का विस्तार क्ष. ० ६१६६ (२५ - १) - २२०००००
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क्रम ३ पहले क्षेत्र का नाम कूट सदृश नाम
पिछले क्षेत्र का नाम कुट सदृश नाम नोट:-ह. पु. में नं. ४ कूट पर दिक्कुमारी देवी का
निवास बताया है। ११. सौमनस गजवन्त-(मेरु से कुलगिरि की भोर)
(ति. प. ।४।२०३१-२०४३-२०४४), (रा. वा.।३। १०११३११७५॥१३) (ह. पु. १५२२१, २२७) (त्रि. सा७६१)
६. शिखरी पर्वत--(पूर्व से पश्चिम की मोर)
(ति. प. ।४।२३५-२३५६+ १२४३), (रा. वा. ॥३॥११॥ १२।१८४॥४), (ह. पु. ।५।१०५-१०८), त्रि. सा. १७२८), (ज. प. १६४५)
कूट सिद्धायतन
जिनमंदिर शिखरी हैरण्यवत रस वत्री रक्ता
रक्ता देवी लक्ष्मी
लक्ष्मी देवी कांचन (सुवर्ण) रक्तवती
रक्तावती देवी गन्धवती (गान्धार) गन्धवती देवी रवत (ऐरावत) गन्धवती देवी
मणिकांचन नोट:--रा. वा. में नं. ६,७,८,९.१०,११, पर क्रम रो
प्लक्षणकला, लक्ष्मी, नन्धदेवी, ऐरावत, मणि व कांचन नामक कुठ व देव देवी कहे हैं।
जनमदिर
सिद्धायतन सौमनस देवकुरु मंगल विमल कांचन
बत्समित्रा देवी
सुवत्सा (सुमित्रा देवी)
जिनमन्दिर
१०. विदेह के १६ वक्षार
विशिष्ट (रा. वा.) सिद्धायतन सौमनस देवकरु मंगलावत पूर्वविदेह कनक कांचन विशिष्ट
मंगल
(ति. प ।४।२३१०), (रा. वा. ॥३॥१०॥१३॥१७७।११) (ह. पु. १५१२३४-२३५), (त्रि. सा. १७४३) क्रम
सिद्धायतन जिनमंदिर
सुवत्सा वत्समित्रा
स्व वक्षार का नाम कूट सदृश नाम
४५०००००. -२२००.००=१३००००० सीमन्त की अपेक्षा । ६१६६६३ (२५-१)=२२,०००००, २२०००००+१०००००=२३००००० अवधि स्थान को अपेक्षा।
रत्न प्रभा पृथ्वी में सीमन्त इन्द्रक का विस्तार f यम से पैंतालीस लाख योजन प्रमाण है 1 (४५००००० यो०)।
निरय (नरक) नामक द्वितीय इन्द्रक के विस्तार का प्रमाण नवालीस लाख तेरासी सौ तेतीस योजन और एक योजना के तीन भागों में से एक भाग है। सीमंत वि० ४५००००-६१६६६३-४४०३३३३
गैरक (रौरव) नामक तृतीय इन्द्रक का विस्तार तेतालीस लाख सोलह हजार छह सौ छयासठ योजन और एक योजन के तीन भागों
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देव
देवकुरु
तपन
१२. विधुत्प्रभ गजदंत-(मेरु से कुलगिरि की ओर)
(ति. प. 1४/२०४.४-२०४६+२०५४), (रा. वा.४१०११७५1१८) (ह. पु. ।।२२२,२२७), त्रि.सा. १७३१-७४०) (ति. प.ह. प. व त्रि. सा.)
(रा. वा.) देव
क्रम सिद्धायतन जिनमन्दिर
सिद्धायतन
जिनमन्दिर विद्युत्पभ
विद्युत्लभ
देवकुरु पभ
पम वारिषेणा देवी
विजय
वारिषेणादेवी स्वस्तिक बला देवी
अपर विदेह
बलादेली शतउज्जवल (शतज्वाल)
स्वस्तिक सीतोदा
शतज्वाल हरि
सीतोदा
हरि नोट:-ह. पु. में बलादेवी के स्थान पर अचलादेवी कहा है । १३. गन्धमादन-(मेरु से कुलगिरी की पोर) (ति.प. १४१२०५७.२०५६), (रा.वा.।३।१०।१३।१७३२४), (ह.पु.।५।२१६-२१७). (जि. सा. १७४०-७४१)
(गन्धमालिना) सिद्धायतन जिनमन्दिर
भोगवती गन्धमादन
स्फटिक
भोगहत देवकुरु
(भोगकरा) गुन्धव्यास
ग्रानन्द नोट : त्रि. सा, में नं. ३ पर उत्तरकुरु कहा है और रा. वा. में लोहित के स्थान पर स्फटिक व स्फटिक के स्थान
पर लोहित कहा है। १४. माल्यवान गजवन्त (मेरु से कुलगिरि की प्रोर)
(ति, प, 1४१२०६०.२०६२), (रा, वा, ।३।१०।१३।१७३।३०), (ह. पृ, 1५।२१-२२०), त्रि, सा, 1८३८) (ति, प,; ह, पु,; त्रि, सा,)
देव सिद्धायतन
जिनमन्दिर माल्यवान उत्तरकुरु
क्रम
देव
लोहित
.
.
क्रम
कूट
में से दो भाग मात्र जानना चाहिये । सीमंत वि. ४४०३३३३-६१६६६३:४३१६६६६
प्रथम पृथ्वी में भ्रान्त नामक चतुर्थ इन्दक का विस्तार व्यालीस लाख पच्चीस हजार योजन प्रमाण वाहा गया है। ४३१६६६६४-६१६६६३४२२५०००
उद्भ्रान्त नामक पाँचवें इन्द्र क के विस्तार का प्रमाण इकातालीस लाख तेतीस हजार तीन सौ तेतीस योजन और योजन के तीन भागों में से एक भाग है । ४२२५०००-६१६६६३-४१३३३३३
सम्भ्रान्त नामक छठे इन्द्रक का विस्तार चालीस लाख इकतालीस हजार छह मा छयासठ योजन और एक यांजन के तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है।
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क्रम
५
८
५
८
&
१०
कूट
सागर
रजत
पूर्णभद्र
सीता
हरिसह
(रा, वा) सिद्धायतन
माल्यवान
उत्तरकुरु
कुच्छ
विजय
सागर
रजत
पूर्णभद्र
सीता
हरि
देव
भोगवती देवी
(भोर)
भोगमालिनी देवी
सीतादेवी
जिनमंदिर
भोगवती भोगमालिनी
क्रम
१
२
५
६
१७
१३२
5
१
२
५
६
५ सुमेरु पर्वत के वनों मे कूटों के नाम व देव
( ति. प.) सोमनस वन में
وا
कट
नन्दन
मन्दर
निषध
हिमवान्
रजत
रुचक
सागरचित्र
वज्र
( शेष ग्रन्थ) नन्दन वन में
नन्दन
मन्दर
निवध
हैमवत
रजत
दचक
सागरचित्र वज्र
देव
मेषंकरा
मेघवती
सुमेधा
मेघमालिनी
तोपधरा
विचित्रा
३६५००००–६१६६६३ ३८५८३३३३ ।
तप्त नागकनवें इन्द्र का विस्तार सेलीस लाल छ्यासठ हजार छह सौ छ्यासठ योजन के तीन भागों में से दो भाग है । २८५८३३३३ - ९१६६६ ३७६६६६६३ ।
पुष्पमाला
यनिन्दिता
मेघवती
मेघंकरी
सुमेधा
मेघमालिनी
तोयन्धरा
विचित्रा
( ति प ।४।१६६६-१६७७), (रा. वा. ३११०११३। ह. पु. १५।३२९), (त्रि. सा. १६२७), (ज. प. ४॥ १०५) । नोट:- ह. पू. में सं० ४ पर हिमवत, सं० ६ पर रजत, सं० पर चित्रक नाम दिये हैं। ज० प० में सं० ४ पर
हिमवान नं ० ५ पर विजय नामक कूट कहे हैं। तथा सं० पर देवी का नाम मणिमालिनी कहा है । ६, जम्बूद्वीप के ग्रहों व नापियों के नाम
१ हिगवान यादि कलानों पर
तुष्यमाला
मानन्दिता
४१३३३३३३-२१६६४०४१६
प्रथम पृथ्वी में असम्भ्रान्त नामक सातवें इन्द्रक का विस्तार उनतालीस लाख पचास हजार योजन प्रमाण है ।
४०४१६६६१-११६६६५००००
विभ्रान्त नामक आठवें इन्द्रक का विस्तार अड़तीस लाख अठावन हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में से
एक भाग प्रमाण है ।
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________________
श्रीचन्द्रा
११
१२
। । । । ।।।।
भृगनिभा
क्रम से पद्म, महापद्म, केसरी, महापुण्डरीक व पुण्डरीक द्रह हैं । ति, प. में रुक्मि पर्वत पर महापुण्डरीक के स्थान पर पुण्डरीक तथा शिखरी पर्वत पर पुण्डरीक के स्थान पर महापुण्डरीक कहा है।
२ समेरु पर्वत के वनों में
आग्नेय दिशा को आदि करके (ति. प. ।४।१६४६, १९६२-१९६३), रा. वा. ।३।१०।१३।१७६।२६), (ह. पु. ५।३३४-३४६), त्रि. सा. ६२८१६२६), (ज. प.।४।११०-११३) । सौमनसवन नन्दनवन
सौमनसवन
नन्दनवन (ति.प.) (रा. वा.)
(ति. पा.) उत्पलगुल्मा
श्रीभद्रा
श्रीकान्ता नलिना
श्रीकान्ता उत्पला
श्रीमहिता
श्रीनिलया उत्पलोज्ज्वला
श्रीनिलया
श्रीमहिता भगा
नलिना (पद्मा)
नलिनगुल्मा (पगुल्मा) कज्जला
कुमुदा कज्जलप्रभा
कुमुदप्रभा नोट: ह. पु., त्रि.सा. ब. ज. प. में नन्दन वन की अपेक्षा ति. प. वाले ही नाम दिये हैं। ३ देव व उत्तरकुरु में
(ति.प. २०११, २१३६), रा. वा. १३।१०।१३।१७४। २९+१७१५, ६, ६, २८), (ह. पु.।५।१९४-१९६), (त्रि.सा. १६५६), (ज. प.।६।२८, ८३) सं० देवकुरु में दक्षिण से
उत्तरकुरु में उत्तर से उत्तर की ओर
दक्षिण की मोर
नील देवकृरु
उत्तरकुरु सर
चन्द्र
ऐरावत विद्युत
माल्यवान् (तिडित्प्रभ) ७. महाहृदों के कटों के नाम
१. पद्रह के तट पर ईशान आदि चार विदिशाओं में वैश्रवण, श्रीमिचय, क्षुद्राहिमवान् व ऐरावा ये तथा उत्तर दिशा में श्री संचय ये पांच कट हैं। उसके जल में उत्तर आदि आठ दिशाओं में जिनकूट, धोनिचय, वैडूर्य, अंकमय, पाश्चर्य, रुचक, शिखरी व उत्पल ये पाठ कट हैं। (ति.प.।४।१६६०-१६६५) ।
२. महापद्य आदि ग्रहों के कटों के नाम भी इसी प्रकार हैं। विशेषता यह है कि हिमवान् के स्थान पर अपने-अपने पर्वतों के नाम वाले कूट हैं (ति.प. १४।१७३०-१७३४, १७६५-१७६९)।
८ जम्बूद्वीप की नदियों के नाम
१ भरतादि महाक्षेत्रों में--क्रम से गंगा-सिन्धु, रोहित रोहितास्या, हरित, हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी, नरकान्ता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला, रक्ता-रक्तोदा ये १४ नदियाँ हैं। (दे० लोक ।३।१।ब लोक ।३.१०)
२ विदेह के ३२ क्षेत्रों में-गंगा-सिन्छ नाम को १६ और रक्ता-रक्तोदा नाम की १६ नदियां हैं (दे० लोक ।३।१०) प्रथम पृथ्वी में त्रसित नामक दशवें इन्द्रक का विस्तार छत्तीसलाख पचहत्तर हजार योजन प्रमाण जानना चाहिये। ३७६६६६६३-६१६६६१=२६५५००० ।
बक्रान्त नामक ग्याहरवें इन्द्रक का विस्तार पैतीस लाख तेरासी हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तीन भाग में से एक भाग है। ३६७५०००-६१६५६३ =३५८३३३३।।
निषध
सुलस
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________________
१२३४- २४३),
२ विदेह क्षेत्रको १२ विभंगा नारियों के नाम (ति. प. ।४।२२१५-२२१६), (रा. बा. ३।१०।१३।१७५।२३.१७७/७, १७, २५), (ह. पु. (त्रि. सा।६६६-६६६), (ज. प. 1- अधिकार)।
नदियों के नाम अवस्थान
ति.प.
रा. वा. वि.सा.
ज.प.
द्रवती
गांधवती
ग्राहवती
उत्तरी पूर्व विदेह में पश्चिम
से पूर्व की ओर
ग्राहवती पंकवती
ग्राहवती हृदयावती पंकावती
द्रहवती पंकावली
तप्तजला
दक्षिण पूर्व विदेह में पूर्व
से पश्चिम की ओर
मतजला
उन्मत्तजला
दक्षिण अपर विदेह में पूर्व से
पश्चिम की ओर
क्षोरोदा सीतोदा औषध वादिनी मीतान्तर वाहिनी| सीतो-वाहिनी सीतो-वाहिनी
गंभीरमालिनी
उत्तरी अपर विदेह में पश्चिम
से पूर्व की ओर
फेनमालिनी मिमालिनी
अचक्रान्त नामक बारहवें इन्द्रक का विस्तार चौतीस लाख उक्वानचे हजार छह सौ छयासठ योजन और एक योजन के तीन भागो में से दो भाग प्रमाण हैं । ३५८३३३३३-६१६६६३ .३४६१६६६
प्रथम पृथ्वी में विक्रान्त नामक तेहरखें इन्द्रक का विस्तार चौतीस लाख योजन प्रमाण जानना चाहिये । ३४६१६६६२-६१६६६३==
द्वितीय पृथ्वी में स्तन प्रथम इन्दक के विस्तार का प्रमाण तेतीस लाख आठ हजार तीन सौ तेतीस योजन और योजन के प्रति भागो में से एक भाग है । ३४०१०००-६१६६६३३३०८३३३३ ।
तनक नामक वितीय इन्द्रक का विस्तार बत्तीस लाख सोलह हजार छह सौ छ्यालय योजन और एक यौजन के तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है 1 ३३०८३३३१६१६६६१=३११६६६६
द्वितीय पश्वी में मन नामक तृतीय इन्द्रक का विस्तार इकत्तीस लाख पच्चीस हजार प्रमाण जानना चाहिये । ३२१६६६४-६१६६६३३१२५००० ।
द्वितीय पृथ्वी में वन नामक चतुर्थ इन्द्रक के निस्तार का प्रमाण तीस लाख तेतीस हजार तीन सौ तेतीस योजन और योजन का एक तृतीय भाग है। ३१२५००-६१६६६२-२०३३३३३ ।
१३४
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________________
दिशा
६ लवणसागर के पवंत पाताल व नम्निवासी देवों के नाम
( ति प ।४१२४१० + २४६० - २४६९), ह. पु. ५/४४३, ४४३, ४६०), त्रि. सा. १८६७/९०५- ६०७),
(ज. प. ११०१६-३०-३२ )
पूर्व
दक्षिण
पश्चिम
उत्तर
सागर के अभ्यन्तर भाग की ओर
पर्वत
देव
कौस्तुभ
उदक
शंख
२५७५०००।
दक
विव
उदकावास
लोहित
(रोहित)
२३०००००।
मध्यवर्ती पाताल
का नाम
पाताल
कदम्ब
बड़वामुख
यूपकेशरी
सागर के बाह्य भाग की प्रोर
पर्वत
देव
कौस्तुभावास
उदकावास
महाशंस
बकवास
शिवदेव
नोट- त्रि. सा. में पूर्वादि दिशाओं में क्रम से बढ़वामुख, कदंबक, पाताल, व रूपकेशरी नामक पाताल बताये हैं।
घात नामक पंचम इन्द्र का विस्तार योजना में से दो नाग सहित उनतीस लाख इकतालीस हजार छह सौ छमास योजन प्रमाण है। १०३०००२-११६६६ = २९४१६६
द्वितीय पृथ्वी में संघात नामक इसका विस्तार अठाईस साख पचास हजार रोजन प्रमाण है। २२४१६६६-१६
उदक
लोहितांक
-- २८५००००।
जिव्ह नामक सातवें इन्द्रक के विस्तार का प्रभाग सत्ताईस लाख अठावन हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तीसरे भाग प्रमाण है । २८५०००० - ११६६६३ - २७५८१३३ ।
जिक नामक आठवें इन्द्रक का विस्तार छब्बीस लाख छयासठ हजार छह सौ मास योजन और एक योजन के तीन भागों में से यो भाग प्रमाण है। २०४८३३३३–६१६६६३२६६६६६६३|
द्वितीय पृथ्वी में वो इन का विस्तार पच्चीस साल पचहत्तर हजार भोजन प्रमाण है। २६६६-११
लोलक नामक दसवें इन्द्रक का विस्तार चौबीस लाख तेरासी हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तीसरे भाग प्रमाण है। २५७५०००–९१६६६३ २४८२२२२३
स्तन लोलक नामक ग्यारहवें इन्द्रक का विस्तार तेईस लाख इक्यानवें हजार छह सौ छ्यांस योजन और योजन के लीन भागों में से दो भाग प्रमाण है। २४०१३११-१६१६२३९१६९३
तीसरी पृथ्वी में तप्त नामक प्रथम इन्द्रक का विस्तार तेईस लाख योजन प्रमाण जानना चाहिए । २३९१६६६३-९१६६६३=
तृतीय पृथ्वी में त्रसित नामक द्वितीय इन्द्रक का विस्तार बाईस लाख आठ हजार तीन सौ तेतीस योजन और योजन का तीसरा भाग है। १३५
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________________
|
१. मानुषोत्तर पर्वत के कटों व देवों के नाम (ति.प.४।२७६६+२७७६-२७७२), (र. वा. ।३। ३४।६।१६७।१४), (ह. पु. ।५।६०२-६१०),
(त्रि. सा. ४२)
११नन्वीश्वर द्वीप की वापियां व उनके देय पूर्वादि क्रम से (ति. प.१५।६३-७८), (रा. वा. ३१३५-१६८१),
(ह. पु. ५१६५६-६६५), (त्रि. सा. १६६-६७०)
दिशा
दव
दिशा
संति . प. त्रि. सा.
रा. पु.
वंडूर्य
यशस्वान
नन्दा
सौधर्म
अश्मगर्भ
यशस्कान्त
ऐशान
सौगन्धी
यशोधर
नन्दवती नन्दोत्तरा नन्दिघोष
चमरेन्द्र
दक्षिण
स्चक
वैरोचन
लोहित
नन्द (नन्दन) नन्दोत्तर प्रशनिघोष
दक्षिण
अरजा
वरुण
विजया विजयन्ती
अंजन
विरजा
यम
पश्चिम
अंजनमूल
सिद्धार्थ
अशोका
कनक
बीतशोका
रजत
पश्चिम
विजया
वैश्रवण (क्रमण) मानस (मानुष्य)
सुदर्शन मेष (अमोघ)
उत्सर
स्फटिक
वेजयन्ती
जयन्ती सोम अपराजिता | वैशधव अशोका सुप्रबुद्धा वेणुताल
कुमुदा वरुण (घरण) पुण्डरी किणी | भूतानन्द प्रभंकर
वरुण
अंक
जयन्ती
प्रबाल
अपराजिता
सुप्रबुद्ध स्वाति
माग्नेय | १३
तपनीय
उत्तर
रम्या
रत्न
वेणु
रमणीय
सुमना
यम
ईशान
प्रभंजन
बेणुधारी
सुप्रभा
प्रानन्दा
सोम
बच
हनुमान
सर्वतोभद्रा
सुदर्शना
बैश्रवण
वायव्य
वेलम्ब
बेलम्ब
नैऋत्य
सर्वरत्न
। वेणुधारी (वेणुनीत)
मोट-दक्षिण के कूटों पर सौधर्म इन्द्र के लोकपाल, तथा
उत्तर के कूटों पर ऐशान इन्द्र के लोकपाल रहते हैं ।
नोट-रा. दा...ह. पु. में सं० १५, १७ १८ के स्थान
पर क्रम से सर्वरत्न, प्रभजन व वेलम्ब नामक कट २३००.००-६१६६६३-२२०८३३३३
हैं। तथा वेणुतालि प्रभंजन व बेलम्ब ये क्रम से उनके देव हैं।
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________________
१२ कुण्डलवर पर्वत के कटों व देवों के नाम--
दृष्टि सं०१-(ति. प. १५२१२२-१२५), (त्रि.सा. १९४४-१४५), दृष्टि सं० २-(तिखप. ।५।१३३), (रा. वा. ।३।३५-१६४१७) (ह.पु. । ५।६६०-६६२)
दिशा ।
कूट
दिशा
कट
| दृष्टि सं. १,
दृष्टि सं.२
।
__ दृष्टि सं.१
दृष्टि सं०२
पुर्व
।
वन
विशिष्ट (त्रिशिरा) ।
पश्चिम
अंक
स्थिरहृय
अंकप्रभ
वज्रप्रभ
पंचशिर
मणि
महाहृदय श्री वृक्ष स्वास्तिक
कनक
महाशिर
সম্বিস
कनकप्रभ ।
महाबाहू
दक्षिण ।
रजत
स्व स्व कूट सदृश नाम
पप
उत्तर
स्व स्व कूट सदृश नाम
स्चक
सुन्दर
पद्मोत्तर
रतप्रभ (रजताभ)
रुचकाभ
विशालनेत्र
सुप्रभ
महापद्म
हिमवान
पाण्डुक
महाप्रभ
वासुकी
मन्दर
पाण्डुर
नोट:-रा. बा. ब.है. पू. में उत्तर दिशा के कूटों का नाम क्रम से स्फटिक, स्फटिकप्रभ, हिमवान् व महेन्द्र बताया है।
अन्तिम दो देवों के नामों में पाण्डुक के स्थान पर पाण्डुर और पापडर के स्थान पर पाण्डक बताया है। तीसरी पथ्वी में तपन नामक तृतीय इन्द्रक का विस्तार इश्वीस लाख सोलह हजार छह सौ छयासठ योजन और योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है।
२२०५३३३१-११६६६-२११६६६४। तीसरी पश्विी में नापन नामक चतुर्थ इन्द्रक का विस्तार बीस लाख पच्चीस हजार योजन प्रमाण है। २११६६६६-११६६६३-२०२५०००।
तृतीय वसुधा में (निदाष नामक पंचम इन्द्रक का) विस्तार उन्नीस लाख तेलीस हजार तीन सौ तेतीस योजन और योजन के ततीय भाग प्रमाण है।
२०२५०००-६१६६६१-१९३३३३३४।।
तीसरी पृथ्वी में प्रज्वलित नामक छरे इन्द्रक का विस्तार अठारह लाख इकतालीस हजार छह सौ छयासठ योजन और एक पोजन के तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है।
१६३३३३३-११६६६३१४१६६६। तृतीय वमुचा में उज्वलित नामक सातवे इन्द्रक का विस्तार सत्तरह लाख पत्रास हजार योजन प्रमाण है। १८४१६६६३-६१६६६-१७५०००० ।
तुतीय भुमि में संज्वलित नामक आठवें इन्द्रक का विस्तार सोलह लाख अठावन हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक पोजन का तीसरा भाग है। १७५००००-११६६६ =१६५८३३३ ।
जीसरी पथियो में संप्रज्वलित नामक नववे इन्द्रक का विस्तार पन्द्रह लामा छिवासठ हजार छह सौ छयासठ योजन और एक बोजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है।
१६५८३३३३- ६१६६६३१५६६६६६३। चतुर्थ पथ्वी आन नामक प्रथम इन्द्रका के विस्तार का प्रमाण चौदह लाख पचत्तर रमार योजन है।
१४७५०००-६१६६६११३८३३३३३।
चतुर्थं पृथ्वी में मार नामक द्वितीय इन्द्रक का विस्तार तेरह लाज तेरासी हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक गोजन के तीसरे भाग प्रमाण है।
१४७५०००-११६६६१=१३८३३३३३ ।
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________________
१३. रुचकवर पर्वत के कूटों व देशों के नाम
|
त्रि.प.
त्रि.सा.
देवियों
रा. वा.,
ह.पु.
देवियों
दिशा
देवी
देवी
काम
कनक
विजया
वैडूर्य
विजया
कांचन
वैजयन्ती
कांचन
वैजयन्ती
जन्म कल्याण पर
तपन
जयन्ता
कनक
वैजयन्ती
स्वतिकदिश
अपराजिता
जन्म कल्याणक पर भारी धरण करना
अरिष्टा
अपराजिता
जन्म कल्याण पर भारी धारण करना
सुभद्र
नन्दा
दिकस्वतिक
नन्दा
नन्दवती
नन्दन
नन्दोत्तरा
अंजनमूल अंजन
एण करना
नन्दोत्त
अंजन
प्रानन्दा
।
वन
नन्दषेणा
अंजनमूल
नन्दिवर्धना
स्फटिक
इच्छा
अमोघ
सुस्थिता
दक्षिण
रजत
समाहार
सुप्रबुद्ध
सुप्रणिधि
कुमुद
सुप्तकी
मन्दिर
सुप्रबुद्धा यशोधरा
दर्पण धारण करना
जन्म कल्याणक पर दर्पण धारण करना
नलिन
दर्पण धारण करना
शोधरा
विमल
पद्म
लक्ष्मी
रुचक
लक्ष्मीवती
चन्द्र
शेषवती
रुचकोत्तर
कीर्तिमती
वैश्रवण
चित्रगुप्ता
सुन्धरा चित्रा
वैडूर्य
वसुन्धरा
सुप्रतिष्ठ लोहिताक्ष
अमोघ
इला
इला
पश्चिम
स्वस्तिक
सुरादेवी
जगत्कुसुम
सुरा
मन्दर
पृथिवी
पद्म
जन्म कल्याणक पर छत्र धारण
पृथिवी पधावत्ती
जन्म कल्याणक पर छत्र धारण
जन्म कल्याणक पर छत्र धारण
हैमवत्
पद्मा
नलिन (पद्म)
राज्य
एकनासा
कानना कांचना,
कुमुद सौमनस
राज्योत्तम ।
नवमी
नवमिका
१३८
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________________
चन्द्र
सीता
यश
यशस्वी(सीता)
करना
करना
सुदर्शन
भदा
उत्तर
विजय
स्फटिक
अलभूषा मिश्रकेशी
अलंभूषा मिथकेशी
वैजयन्त
अंक
जयन्त
पुण्डरी किणी
अंजन
पुण्धरीकणी वारुणी
अपराजित
वारुणी
कांचन
कुण्डलक
प्राशा
रजत
अाशा
जन्म कल्याणक पर चंवर धारण करना !
जन्म कल्याणक पर चंबर धारण करना ।
रुचक
कुण्डल
रुचिर (रुचक)
रत्नकुट सर्वरल
सुदर्शन
!
ति
ति. प..
ति.प.
त्रि. सा.
दिशा
देवियों
का काम
देवियों
का काम
कट
देवी
उपरोक्त की । १ ।
कनका
विमल नित्यालोक
अभ्यन्तर
शतपद
दिशाएं निर्मल करना
दिशाओं में
स्वयंप्रभ
(शतहृदा) कनक चित्रा सौदामिनी
नित्योद्योत
उपरोक्त की
१
।
रुचक
रुचककीति
अभ्यन्तर
मणि
रुचककान्ता
जात कर्म करना ।
दिशाओं में
राज्योत्तम रुककप्रभा वैडूर्य
रुचका
- -. -.-.- -. . चतुर्य पृथ्वी में तार नामक तृतीय इन्द्रक का विस्तार बारह लाख इक्यानवे हजार छह सौ छयासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में से दो माग प्रमाण है।
१३६३३३३-६१६६६=१२६१६६३। सर्वशदेव ने चतुर्थ पृथ्वी में तत्व (चर्चा) नामक चतृ इन्द्रक का विस्तार वारह लाख योजन-प्रमाण बतलाया है। १२६१६६६३-६१६६६६१-१२०००००1
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________________
२. वृष्टि सं० २ की अपेक्षा (ति. प.।५।१६६-१७७), (रा. बा. ।३।३५-१६६।२४), (ह. प. १५१७०२-७२७) । (ति.प) । देवी |
देवी रा. वा. रिशा सं० । देवी काम ।
देवी
ह. पु.
देवी
का
का
काम
चारों दिशाओं
नन्द्यावर्त
पद्ममोतर
सहस्ती
।
स्वस्तिक
सुभद्र श्रीवृक्ष
नील
वर्धमान । अंजनगिरि अभ्यन्तर दिशा में ३२ दे० पूर्वोक्त दृष्टि सं० १ में प्रत्येक दिशा के पाठ कुट
दिग्गजेन्द्र
।
बंडूर्य
रुचका
बिदिशा में । १ प्रदक्षिणा । २
मणिप्रभ
विजया
विजया
-
रूप से
रुचकामा
रत्नप्रभ
वैजयन्ती
-
रत्न
रुचकान्ता
मणिप्रभ
रुचककान्ता
शंखरत्न
जयन्ती
सर्वरत्न
जयन्ती
-
दिशामों में उद्योत करना जातकर्म करने वाली महत्त तरिका
रुचकोत्तमा
रुचकरभा
रुचकोत्तम रत्नोच्चय
दिशाओं में उद्योत करना जातकर्म करने वाली महत्तरिका
अपराजिता
उपरोक्त के ।
चित्रा
कनकचित्रा
अभ्यन्तर भाग | २
में चारों । ३ दिशाओं में । ४ ।
विमल
कनका नित्यालोक शतपद (शतहृदा) । स्वयंप्रभ
कनकचित्रा नित्योद्योत । सौदामिनी
त्रिशिरा
सूत्रमणि
चतुर्थ पृथ्वी में मनक नामक पंचम इन्द्रक का विस्तार ग्यारह लाख आठ हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तीसरे भाग प्रमाण है।
१२०००००--१.१६६६९-११०८३३३ ।
चतुर्थ भूमि में बाद नामक छ इन्द्रका के विस्तार का प्रमाण दश लास्त्र सोलह हजार छह सौ छयासठ योजन और एक योजन के मौन भागों में से दो भाग प्रमाण है।
चौथी पुथ्वी में बलखल (खडखड) नामक सातवें इन्द्रक का विस्तार नौ लाख पच्चीस हजार योजन प्रमाण है।
१४०
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________________
१४. पर्वतों आदि के वर्ण :
प्रमाण
नाम
ति.प. (४)
ह.पु. |५| त्रि.सा.
ज. प.।।
रा. वा. ।३। सू.।
वा. प्र.पंक्ति
उपमा
वर्ण
गा. स. |
श्लोक.स. गा.सं० प्रधिागा.
हिमवान्
सुवर्ण
पीत (रा. वा)
| १५ ||१२१-१८४।११
त. सू. ।३।१२
महाहिमवात
चांदी
शुक्ल (रा. वा)
निषध
तपनीय
तरुणादित्य
(रक्त) मयूरग्रीब(रा.वा.)
नील
वैडूर्य
रुक्मि
रजत
शुक्ल
शिखरी
सुवर्ण
विजया
१०।४।१७१।१५
रजत
पीत (रा. वा)
शुक्ल | पीत
X
६७० |
X
सुवर्ण
दे० लोक ।३।५
विजयाध के कूट | ६ । सुमेरु :| पाण्डुकशिला : १८२० पाण्डुकम्बला
| १८३० रक्तकम्बला
०।१३।१८०।१८
अर्जुन सुवर्ण ] श्वेत रजत । विद्रुम (श्वेत) रुधिर
लाल
अतिरक्त
सुवर्ण तपनीय
रक्त
नाभिगिरि
दधि
श्वेत
सुवर्ण
पीत
मतान्तर वृषभगिरि गजदन्त :सौमनस विद्युत्प्रभ गन्धमादन
चांदी
स्फटिक
२०१६ । १०।१३।१७४।११
१०।१३३१७५।१७
तपनीय
रक्त
तीत
०।१३।१७३।१६
कनक
२१०
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
| माल्यवान्
वैडूर्य
" । १०।१३।१७३४२६२११
१०।१३।१७।१ । २०२
(नोला) पीत
१३ | कांचन
कांचन
मतान्तर
तोता
वक्षार
सुवर्ण
पीत
२२६०
पीत
वषभगिरि | गंगाकुंड में
-
वच
श्वेत
-
सुवर्ण
पीत
१७ पपद्रुह का कमल:
XXXXXXXXXX
-
मृणाल
१६६७ ।
१७-१८
रजत
श्वेत
फैन्द
----.
नाल
१७/-१९५६
नील
अरिष्टमणि ब्राउन वैडूर्य लोहितामा । रक्त अर्कमणि
पते
२२।२।१८८३
कणिका
केशर
..
केसर
तपनीय
रक्त
१८
जम्बूवृक्षस्थल
। सामान्य स्थल |
२१५२ |
xx xxx xx xxx xx xxx
२१५२
१७५
सुवर्ण
पीत
इसकी वापियों
के कूट
१०।१३।१७४।२२
अर्जुन
। श्वेत
----
स्कन्ध
२१५५
पुखराज
पीत
-
xx
पीठ
२१५२
रजत
श्वेत
१६ | वेदिय :
जम्बुद्वीप की ।
| सुवर्ण
पीत
जगती
१०।१३।१७८५
पधवर(रा. वा.)
भद्रशालबन. वेदी) २११४ नन्दनवन वेदो १९८६
१०।१३।१७६६
१०११३।१८००२
सुवर्ण
सौमनसवन (वेदी) १९३८ पाण्डुकवन वेदी
१०।१३।१८०।१२ !
१४२
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१५१
७।११६६२० तथा
१०1१२।१७४११७
जम्बूवृक्ष की १२/ वेदियाँ सर्व वेदियाँ
नदियों का जल। गंगा-सिन्ध
६४
सुवर्ण
पीत
हिम
श्वेत
कुंदपुष्प
मृणाल
रोहित रोहितास्या हरित हरिकान्ता
सीता-सीतोदा २१ लवणसागरकेपर्वत, २४६१
पूर्व दिशा वाले |
हरित श्वेत
शंख
रजत
धवल
१०.३०
सुवर्ण
पीत
दक्षिण दिशा वाले.
१०।३१
अंकरल
पश्चिम दिशा वाले
१०१३२
रजत
श्वेत
उत्तर दिशा वाले
०/३३
बैड्य
नील
इष्वाकार
xxxxxx xxxxx
सुवर्ण
पोत
| इद्रनील मणि
काला
-
--
सफेद
| मानुषोत्तर अंनजगिरि दधिमुख . रतिकर
कुण्डलगिरी रुचकवर पर्वत | १४१ । ३।३५-१६६।२२
६७
रक्ततायुक्त पीत
१.१६६६६२-६१६६६३ १२५००० । पांचवीं पृथ्वी में तम नामक प्रथम इन्द्रक का विस्तार आठे लाख तेतीस हजार तीन सौ तेतीस और एक योजन के तीसरे भाग प्रमाण है। ६२५०००-६१६६६३-६३३३३३३।
पाची पथ्वी में भ्रम नामक द्वितीय इन्द्रक का विस्तार सात लाख इकतालीस हजार छह सौ छयासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है।
८३३३३३१---६१६६६ = ७४१६६६ । धूमप्रभा पृथ्वी में झष नामक तृतीय इन्द्रक के विस्तार का प्रमाण छह लाख पचास हजार योजन है। ७४१६६६३-६१६६६३= ६५००००।
पांचवीं पृथ्वीमें अंध नामक चतुर्थ इन्द्रक का विस्तार पांच लाख अठ्ठावन हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तीसरे भाग प्रमाण है।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
६. द्वीप क्षेत्र प्रादि का विस्तार
१.द्वीप सागरों का सामान्य विस्तार१. जम्बूद्वीप का विस्तार, १०७,३०० योजन है। तत्पश्चात् सभी समुद्र व द्वीप उत्तरोत्तर दुगुने
दुगुने विस्तार युक्त हैं। (त. सू. ।३।८) (ति. प. ।५।३२) २. लवणसागर व उनके पातालादि
१. सागर
दष्टि सं० १-(ति. प. ।४।२४००-२४०७), (रा. वा. ।३।३२॥३॥१९३१), (ह. पु. ।४।४४४)
(त्रि. सा. ।।१५), (ज. प. ११०।१२)
स्थल विशेष
विस्तारादि में क्या
प्रमाण यो.
विस्तार
२००,०००
पृथिवी तल पर किनारों से ६५००० योजन भीतर जाने पर तल में
१०,०००
"
"
, आकाश में
गहराई
" " " , आकाश में दृष्टि सं० २लोग्गायणी के अनुसार उपरोक्त प्रकार आकाश में अवस्थित (त्ति. प. ।४।२४४५), (ह. पु. १५१४३४)
दृष्टि स०३सग्गायणी के अनुसार उपरोक्त प्रकार प्राकाश में अबस्थित, (ति. प. ।४।२४४८) तीनों दृष्टियों से उपरोक्त प्रकार प्रकाश में पूर्णिमा के दिन
ऊंचाई
दे. लोक ।४।१
६५०००।–११६६६२... ५५६३३२१॥
पांचयी पृथ्वी में तिमिथ नामक पांचवें इन्द्रक का विस्तार चार लाख छयासठ हजार छह सौ छयास योजन ओर एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण है।
५५८३३३३-६१६६६.४६६६६६३ । छठी पुथ्वी में हिम नामक प्रथम इन्द्रक के विस्तार का प्रमाण तीन लाख पचतर हजार योजन है। ४६६६६६२-६१६६६३=३७५००० ।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२. पाताल
पाताल
विस्तार यो.
दीवारों की ति.प.
| गहराई
३२।४।
ह. पु.। त्रि. सा. । ज. प. । ५।गा. सा. १०।गा.
विशेष | मूल में
मध्य में | ऊपर ।
मोटाई ।।४गा. | १३३ प.
--
-
-
ज्येष्ठ
१००,०००
१०,०००
मध्यम | १,०००
ܘ ܘ ܘܨ ܘ ? |
०,००० १०,००० १,०००
५०० । २४१२ । १४ ५० २४१४ | २६ । ४५१ ५ २४३३ ३१ । ४५६
जघन्य
१००
३. पर्वत व द्वीप
|
नाम
विशेष
विस्तार
ऊंचाई
त.प.।४।
गा. नं०
त्रि.सा.। ज. प. १० गा. नं० गा.नं.
।
२८
पर्वत सागर के विस्तार की दिशा में ११६००० ! १००० गौतम द्वीप । गोलाई का व्यास | १२००० १२०००
६०८ ६१०
x
विस्तार
दृष्टि सं० २ . दृष्टि मं० २
१००
दिशाओं वाले विदिशा वाले
कुमानुष द्वीप
दे लोक ।४।१
अन्तर दिशा वाले पर्वत के पास वाले
छठी पृथ्वी में बदल नामक वित्तीय इन्द्रक का विस्तार दो लाख लेरासी हजार तीन सौ तेतीस पोजन और एक योजन के तीसरे भाग प्रमाण है।
३७५०००-६१६६६३=२८३३३३३।
छठी पृथ्वी में लल्लक नामक, तृतीय इन्द्रक का विस्तार एक लाख इक्यानवें हजार छह सौ छयासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है।
२८३३३३३-११६६६३-१६१६६६। सातवीं पृथ्वी में अवधिस्थान नामक इन्द्रक का विस्तार एक लाख योजन प्रमाण है। इस प्रकार जिनेन्द्र देव के वचनों से उपदिष्ट
१४५
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________________
नाम
३. अढ़ाई द्वीप के क्षेत्रों का विस्तार - १ जम्बूद्वीप के क्षेत्र
भरत सामान्य
दक्षिण भरत
उत्तर भरत
हैमवत्
हरिवर्ष
विदेह
रम्यक
हैरण्यवत
ऐरावत
देवकुरु व उत्तर
कुरु
दृष्टि सं० १
दृष्टि सं० २
दृष्टि सं० ३
विस्तार (योजन)
५२६
२३८५
JP
२१०५/
८४२११
३३६८४१
X X
११५६२
PP
११८४२ हे
दक्षिण | उत्तर ( योजन)
अपने-अपने
जीवा
'पर्वतों को उत्तर जीवा
१४४७१ प
२७४८१
१४४७१ पहुँ
३७६७४५६
७३६०११४
मध्य में
१००,०००
उत्तर व दक्षिण
में पर्वतों की
जीवा
हरिवर्षवत
हैमवतवत्
भरतवत्
५३०००
५८०००
५३०००
पार्श्व भुजा
( योजन)
धनुषपुष्ठ
१४५२८ है
धनुष पृष्ठ
६७६६५ ह
१८१२¥¥
६७५५
१३३६११२
३३७६७१
X
१४६
X
X
६०४१८६३
(धनुषपृष्ठ )
६०४१८ ये है
(धनुषपृष्ठ )
ति प ।४ ।
गा. नं०
१०५+
२६२ १६+४०
१८४
१६१
१६६८
१७३६
१७७५
२३३५
२३५०
२३६५
ह. पु.
1५। गा.
२१४०
२१२६
५७
૭૪
६१
G
"}
१६८
प्रमाण
त्रि. सा.
गा'
६०४+
७७१
७७३
७७५
६०५+
७७७
७७८
J7
"
X
ज. प.
प्र. ग्रा.
२११०
३।२२८
७/३
२।२०८
12
27
६२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
(रा. वा. ३।१० ।१३।१७४।३)
३२ विदेह
दक्षिण उत्तर
पूर्वा पर २२१२६
| २२१७+ | २५३ । ६०५ । ७११
१६५६२ (रा. वा. ।३.१० ।१३।१७६।१८)
२२३१
__ +२०
Hottenticindia
२. धातकी खण्ड के क्षेत्र
विस्तार
प्रमाण
लम्बाई
अभ्यन्तर (योजन)
मध्यम (योजन) । बाह्य (योजन)
भरत
१८५४७३५५
हरिवर्ष विदेह
२६४६८६ १०५८३३३५६
३३३४३६३
द्वीप के विस्तारवत्
idunia ABARHARELMMA .'"-CTRintarava
१२५८१३ ५०३२४३ २०१२२६८३१३ ८०५१६४६६१ हरिवर्षवत्
२६६७६३३३ . ११८७०५४३६३
(ति. प. ४१२५६४२४७२), (रा. बा. ।३।३३।२-७११९२।२), (ह. पु.।५।
।५०२-५०४), (त्रि.सा. १९२९),
(ज. प. १११६-१७)
रम्य
हैरण्यवत्
हैमवतवत्
ऐरावत
भरतवत्
नाम
बाण
जीवा
धनुषपृष्ठ
ति. प. ४ गा.
ह. पु. १५।श्लो
दोनों कुरु
।
३६६६८०
२२३१५८
।
६२५४८६ ।
२५६३
।
५३५ ।।
त्रिलोक-प्रज्ञप्ति में इन्द्रक बिलों का विस्तार कहा गया है।
१६१६६१--६११६६६१-१००००० ।
एक अधिक पृथ्वी संख्या को तीन, चार और सात से गुणा करके छह का भाग देने पर जो लब्ध आवे इतने कोस प्रमाण कमपाः इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों का बाहुल्य होता है।
रा. प्र. पृथ्वी के ई. बिलों का आहल्प १+१३-:-६=१ कोस श.प्र पृ. के ई. का बाहुल्म २-1-१४३-६८.कोस वा. ५. पृ.
१४७
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________________
दक्षिण उत्तर लम्बाई (योजन)
ति.प.
नाम
पश्चिम । विस्तार
आदि
मध्यम
।
मन्तिम
।।४। गा.
दोनों बाह्य विदेहों के क्षेत्र-(ति. प. ।४। गा. सं०), (ह. पु. १५।५४८-५४६), (त्रि.सा. १९३१-६३३)
कच्छा-गन्धमालिनी
२६२२
सुकच्छा-गन्धिला
२६३४
२६३८
महाकच्छा सुगधा कच्छाकावती-गन्धा पावर्ता-वप्रकावती
२६४२
प्रत्येक क्षेत्र-६७३६ योजन (ति. प. ।४।२६०७)
५०९५७०३१३ | ५१४१५४३३३ । ५१८७३८३६६ ५१६६६३३६६ ५२४२७७११६ . ५२८८६१६६६ ५२६१०० | ५३३६८४ ५३८२६८
५३६२२२३३ । ५४३८०६३३३ ५४८३६०३६३. | ५४८६२६.१३ ५५८७५१३१३ ५६३३५९१३ ५६७६१६३३३
| ५७२७४२३१२ । ५७७३२६३१६ | ५७८२८०६१३ । ५८२८६४११४५८७४४८१४४
लांगलावती-महावत्रा
२६५०
१२
२६५६
पुष्कला-सुवा वता-पुष्कलाबती
२६५८
दोनों अभ्यन्तर विदेहों के क्षेत्र--(ति.प.४ गा.सं.), (ह. पु. १५५५), (त्रि. सा. १३१-६३३)
पद्मा-मगलावती
सुपद्मा-रमणीया
महापद्या-सुरम्या
पचकावती-रम्या
प्रत्येक क्षेत्र ६६३ ति. प. 1४/२६०७
| २६४६२३१६ । २६०० ३६३६६
२८५४५५३१ २८४५० १३१६ २७६६१७३१६ २७५३३३३१६ २६७४ २७५०६४१६३ | २७०५१०११३ २६५६२६६२४ २६७८
२६४६७२५६१ २३०३८८३३३ २५५८०४३६१ २६८२ | २५५५६५३१६ २५०९८१३३ २४६३६७३६३ २६८६
२३६२७५३१६ । २६६०
| २२६८६८१६६ २६६४ ५६१४१३ | २२१३३०३३२ | २१६७४६। २६९८
शंखा-वत्सकावती
नलिना-महावत्स
कुमृदा-सुवत्सा सरिता-वत्सा
के ई. का वाहन ३+१४३-: ६-२ कोस इसी प्रकार पंक प्रभादि पृथ्वीओं के इन्द्रक का बाहल्य क्रमशः ३, ३ और ४ कोस होता है।
र. प्र. पृथ्वी के ई. बिलों का बाहल्य-११३६१ कोस। श.प्र. पृ. के ई. का बाहुल्य-२१३६३ कोम । बा. प्र. पृ. ई. का वाहत्य-३१३६२ कोस । इसी प्रकार पंकप्रभादि पृध्वियों के इन्द्रकों का बाहल्य क्रमशः और ४ कोस होता है।
१४८
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--------------------------------------------------------------------------
________________
३, पुष्करा के क्षेत्र
विस्तार
नाम
लम्बाई
प्रमाण
अभ्यन्तर (यो०)
मध्यम (यो०)
बाह्य (यो०)
भरत
५३५१२१६६ २१४०५१६३
हैमवत
विदेह
द्वीप के विस्तारवत्
६६५२७७. २६६११०८६ ६६५२७७६१३३
६५४४६२५३ २६१७८४.१३ । १०४७१३६३१३
४१८८५४७३६६ । ६५४४६२१५ - २६१७८४.५३ | १०४७ १३६३१६
८५६२०७१ | ३४२४८२८.११
५३५१२३६६ २१४०५११६ ८५६२०७५
ति.प.1४/२८०५-६८१७)
(रा. वा. १३६३४।२–५२१६३११६) (ह. पु. 1५1५८०-५८४), त्रि. स. ६२९)
(ज. प.।१६।६७-७२)
रम्यक
हैरण्यवत् ऐ रावत
४१५७६३५३
नाम
बाण
जीवा
धनुषपृष्ठ
प्रमाण
दोनों कुरु
१४८६६३१
३६६८३३५
उपरोक्त
रा. प्र. पृ.श्रे. बिलों का बाहल्य-११४६४ को। श. प्र. पृ. श्रे. बिलोंका बाहल्य-२१४६ २ को. । वा. प्र. पृ. श्रे. बिलों का वाहल्य–३ १ ४६ 5 को इसी प्रकार पंकप्रभादि पृथ्वियों के श्रेणीबद्ध बिलों का बाहल्य क्रमशः .. ४-४ और -- कोस होता है।
र.प्र. पृ. प्रकी. बिलों का बाहल्य-११७६१ को.1 श.प्र. पृ. प्रको. बिलों का आहल्य-२१७६३ को. रा. प्र. पृ. प्रकी. बिलों का बाहल्य-३ १७६ को। इसी प्रकार पंकप्रभादि पृवियों के प्रकीर्णक बिलों का बाहल्य क्रमशः ३१, और और कोस होता है।
अथवा-यहां आदि का प्रमाण क्रम से छह, आठ और चौदह है । इसमें दूसरी पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी पर्यन्त उत्तरोत्तर इसी आदि के अर्ध भाग को जोड़कर प्राप्त संख्या में यह का भाग देने पर क्रमशः विवक्षित पृथ्वी के इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलोंका बाहल्प निकल आता है।
र.प्र. पृ. इन्द्रकों का बाहरूप-६६=१ कोस । श. प्र. पृ. इन्द्रकों का बाहुल्प---६६६३ को. । वा. प्र. पृ. इन्द्रकों का बाहल्प९६६ २ को। इसी प्रकार पंकप्रभादि पृथ्वियों के इन्द्रकों का बाल्य क्रमशः १, ३, ५ और ४ कोस होता है।
र. प्र. पृ. . बिलों का बाल्प-८६ को. श. प्र. पृ. श्रे. बिलों का बाहुल्य-८६२ कोस । बा. प्र. पृ.रे. बिलों का बाहल्य१२३६ को. । इसी प्रकार पंकप्रभादि पृरित्रयों के थेणीबद्धों का बाहुल्य क्रमशः , ४ . और कोस होता है।
१४६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पूर्व
।
दक्षिण उत्तर लम्बाई
पश्चिम विस्तार ।
प्रादि
।
मध्यम
।
अन्तिम
ति.प.४गा.
दोनों बाह्य विदेहों के क्षेत्र
२६३७
कच्छा-गन्धमालिनी सुकच्छा-गन्धिला
२०४८
२८५२
महाकच्छा-सुवल्गु कच्छकावती-गन्धा
(ति.प.।४।गा. नं०), (ति.सा.१६३१-६३३) १६२१८४४६५३ । १६३१३२२५१३ । १९४०७७०३५१ १६४२६७६३६६ १६५२१२८ १९६२०५३३३ १९७१५०२ १९८०६५०३६६ १९८२८५६ १९९२३०७३१३ २००१७५५३ २००२२३६३१ २०११६८१३६६ २०२११२६११६ २०२३०३८३३ २०३२४८७२१२ २०४१६२५:१३ २०६२४१२३४४ । २०५१५६०३६३ २०६१३०६१ २०६३२१८.१३ । २०७२६६६३
२०५६
२८६०
आवर्ता-वप्रकावती लागलावती-महावप्रा
२८६४
पुष्कला व सुवप्रा
२८६८
वप्रा व पुष्कलावती
२८७२
।
२६८०
२८८४
२८८
दोनों अभ्यन्तर विदेहों के क्षेत्र| ति. प. 1४। गा.) (त्रि.सा.।६३१-६३३) पदमा व मंगलावती
१५००६५.३३१३ ४६१५०५३६६ । १८४२०५७६१ सुपद्मा व रमणीया
१४८०१४८ १४७०७०० र १४६१२५१३६६ महापद्मा-सुरम्या
१४६०७७४११३ १४५१३२६६३ १४४१८७७३ राम्या-पदमकावतो
१४३६६६८३३ १४३०५२०११ १४२१०७२ शंखा-वप्रकावती
१४२०५६५१ १४१११४६६११ १४०१६६८३६३ महावप्रा-नलिन
१३६६७९ १३६०३४१३३ १३८०८६२३१६ कुमुदा-सुवप्रा
१३८०४१५३१६ १३७०६६७३६ १३६१५१९६३ सरिता-वप्रा
१३५६३०६३३६ | १३५० १६१३३३ । १३४०७१३:१३
२८६२
२८६६
२६००
२६०४
२६०८
र. प्र. पृ. प्री. विलों का बाहल्य-१४३७ को. । श. प्र.पृ. प्रक्री, बिलों का बाहल्य--१४+१४६ को. | वा. प्र.पृ. प्रकी. बिलों का बाहल्य-२१४.६४ को.। इसी प्रकार पंकप्रभादि पृध्वियों के प्रकीर्णक बिलों का बाल्य-२१, ७ और और कोस होता है।
अपने-अपने पटलों की पूर्ववरिणत संख्या से गृरिणत अपनी अपनी पृथ्वी के इन्द्रक, घणीवन और प्रकीगांक बिलों के बाल्य को पूर्वोक्त राशि में से अर्थात् दो हजार योजन बम विवक्षित पृथ्वी के वाहल्य के लिये गये कोसों में से कम करके प्रत्येक में एक कम अपने अपने इन्द्रक
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४. जम्बू द्वीप के पर्वतों व कूटों का विस्तार--
१. लम्बे पर्वतनोट :--पर्वतों की नींव सर्वत्र ऊंचाई से चौथाई होती है।
(ह. पु. १५६५०६); (त्रि. सा. ६३६); (ज. प. ।३१३७) ।
।
प्रमाण
नाम
नींव यो.
ऊंचाई यो०
विस्तार योजन
-
दक्षिण जीवा यो०
तर जीवा यो
पार्श्व भुजा यो०
-
| ति. प. ४ागा.।
।३1-1-1
रा. दा.
1५। गा.
ति. सा. ।गा। | ज.प. ।अ-मा.
|ज.प. अ.गा.
।
।
कुलाचल
१०५२
| १६१४ | ११
१०२।१८२।११
७७३ | ३४
हिमवान् ! १०० महा हिम
७७४ |३।१७
७७६ '३।२४
निषध नील
ऊंचाई से चौड़ाई
५३६३१ ६२७६१६, १७१७ ११॥४।१८२१३२ १४१५६१ २०१६५३६/ १७५० १११६.१४३।१२ | निषेधवत् । | २३२७ | ११।८।१५३।२४ महाहिमवानवत्
२३४० | ११।१०।१८३।३१ | , हिमवानवत् । २३५५
रुक्मि
अपने-अपने क्षेत्र की उत्तर जीवा
/31
, x
। ३।४
शिखरी भरत क्षेत्रविजयाचं २५
१०७२०१३ | ४८८३३ | १०८+ १०।४।१७१।१६ / १२+ । ७७० २१३३
८ यो०
१०।४।१७११२
५६२ !श
गुफा विदेह
विजयार्घ २५
| २२१२६
५० | २२५७, १०।१३।२७६।२० | २२५
ওওও
प्रमाण से गुणित चार का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतने योजन प्रमाण अपनी-अपनी पृथ्वी के इन्द्रकादि बिलों में अध्वर्ग अन्तराल जानना चाहिए। इसके अतिरिक्त परस्थान अर्थात् एक पृथ्वी के अन्तिम और अगली पृथ्वी के आदि भूत इन्द्रकादि बिलों में कुछ कम एक राजु प्रमाण अन्तराल समझना चाहिये।
१५१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
1म । स्थल विशेष
ऊंचाई | गहराई चौड़ाई| लम्बाई यो यो यो । यो
। ति. प. .॥३॥ ह. पू. त्रि. साज.प. ।गाः ||
| १०।१३। ।५|गा. गा. अ. गा.
बक्षार
| सामान्य
६५६२ । २२३१ , १७६।३ | x
६०५, ! ७८ ७४३
नदी के पास
२३०७
| १७६०१ | २३३ । ७४५
७.१८
पर्वत के पास ।
गजदन्त
| सामान्य
ऊंचाई से चौथाई
३०२०६३ । २०
२०१७
दष्टि सं०१ | कुलाचलों के पास ४००
मेरु के पास । ५००
दृष्टि सं०२ 'कुचालकों के पास ४००
२०२७ | १७३।१६
| मेरु के पास
। ५००
।
प्र. पृ. के इन्द्रकों का अन्तराल... (5००००-२०००)x४-१x१३) _७८०००x४-१३,
४६
- =६४३९- -यो --- (१३-१४४
(३२०००-२०००)४४--(३-११) ३००००x४-३ ० द्वि, पृ. के_(३२०
(११-१)४४
३५
सातवीं पृथ्वी के बाहय में से इन्द्र क और रंगीबद बिलों के बाहत्य' प्रमाण को घटाकर अवशिष्ट राशि को आधा करने पर कम से इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलों के कार-नीचे की पृथ्वी की मुटाई का प्रमाण निकलता है ।
५००-१ -३६६९ पो.
सातवीं पृथ्विी के इन्द्रक बिल के नीचे और ऊपर की पृथ्वी का बाल्प
सा. पृ, के श्रेणी बद्ध बिलों के ऊपर-नीचे की पृथ्विी का बाहल्य।
एक राज में में पहली और दूसरी पृथित्री के बाहुल्य प्रमाण को कम करके अवशिष्ट राशि में तीन हजार योजनों के मिलाने पर प्रथम पृथ्विी के अन्तिम और द्वितीय पृथ्विी के प्रथम बिल के मध्य में परस्थान अन्तराल का प्रमाण निकलता है।
विशेषार्थ—प्रथम पृत्रिो की मुटाई १५०००० योजम और द्वितीय पृथिवी की मुटाई २२००० योजन प्रमाण है। इस मृटाई से रहित नों पृथ्वियों के मध्य में एक राजु प्रमाण अन्तराल है। चूंकि एक हजार योजन प्रमाण चित्रा-पृषिधी की मुटाई प्रथम पृथिवी की मूटाई में सम्मिलित है परन्तु उसकी गणना उज़ लोक की मुटाई में की गई है, अतएव इसमें से इन एक हजार योजनों को कम कर देना चाहिये। इसके अतिरिक्त प्रथम पृथ्विी के नीचे और द्वितीय पृथ्विी के ऊपर प्रक-एक हजार योजन प्रमाण क्षेत्र में नारकियों के बिलों के न होने से इन दो हजार पोजनों को भी कम कर देने पर शेष २०६७०० (१८००००-३२०००-२०००) योजनों से रहित एक राजु प्रमाण प्रथम पृथ्विी के अन्तिम और द्वितीय पृथिवी के प्रथम इन्द्रक के बीच परस्थान अन्तराल रहता है।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२. गोल पर्वत
-- - - - - - - विस्तार
ति. प.। । रा.वा.।३।१० ह.पु.। | ति.सा.। मध्यम में | ऊपर | ४गा. | वा.।पृ.प. | ५|गा.। मा.
ऊंचाई गहराई
ज.प.। प्र.गा.'
यो... यो. । यो
वृषभगिरि
नाभिगिरि दृष्टि सं० १ दृष्टि सं० २' १००० .
७१८ | ३२१०
० १०००। १७०४ ।७।१५२।१२. ७५० | ५०० १७०६
सुमेरु :
-
पर्वत
१०,००० । दे. लोक । | १००० १७८१ ३।११
१७६५
७।१७७।३२ | २८३ । ६०६ ७।१८०।१४ | ३०२ | ६२७
४।२२ ४।१३२
चूलिका
पमक :दृष्टि सं० दृष्टि सं०२
१०००
ऊंचाई से गहराई
१०००
.
।७।१७४।२६ । १६३
६।१६
कांचनगिरि
१००
२०६४
७।१७५११
६.४५
दिग्गजेन्द्र
१००
१३०
५० '२१०४,
४७६
दो हजार योजन अधिक एक राजु में से तीसरी अादिक गृग्विी के बाहल्य प्रमाण को घटा देने पर जो शेष रहे, उतना छठी पृथ्विी पर्यन्त प्रस्थान अन्तरात का प्रमाण कहा गया है ।।
मौ के वर्ग में से एक कम करके दोष को आधा करे और उसे एक राजु में जोड़कर लन में से अन्तिम भूमि के बाहल्य को घटा देने पर मची पूची के अन्तिम इन्द्रक और अघि-स्थान इन्द्रक के बीच प्रस्थान अन्तराल का प्रमाण निकलता है।
धर्मा पृथ्वी के इन्द्रक बिलों का अन्तराल छह हजार चार सौ निन्धान गोजन, दो कोस और एक कोस के बारह भागों में से ग्यारह भाग प्रमाण है । ६४६१ यो. २११ को ।।
रत्नप्रभा प्रथिवी के अन्तिम इन्द्रक और शकरा प्रभा के आदि के इन्द्रक विलों का अन्तराल दो लाख नौ हजार योजन कम एक राजु प्रमाण है। २०१००० यो. कम १ रा.।
बंदा। पृथ्वी के ग्यारह इन्द्रकों का अन्तराल एक तीन हजार योजन और चार हजार सात सौ धनुष प्रमाण है। २६९९ यो. ४७०० धतु.।
वंशा पथिवी के अन्तिम इन्द्रक स्तनलोलुक से मेधा पृथ्विी के प्रथम इन्द्रक तप्तमा अंतराल छब्बीस हजार योजन कम एक राज प्रमाण
rink
-
.-
-
-
-
-
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________________
३. पर्वतीय व अन्य कूट :
कूटों के विस्तार सम्बन्धी सामान्य नियम :- सभी कूटों का मूल विस्तार अपनी ऊंचाई का अर्थ प्रमाण है। ऊपरी विस्तार को गहराई के समान है।
आप
प्रवस्थान
विजयार्थ
भरत विजयार्थ ६
ऐरावत
हिमवान्
महाहिमवान्
निषेध
नील
रुक्मि
शिरी
हिमवान् का
सिद्धायतन
शेष पर्वत
ऊंचाई
चारों गजदन्त
यो०
२५
५००
मूल
में
पो०
६.
भरत विज
विस्तार
यार्थ वत्
२५
हिमवान् से दुगुना
हिमवान् से चौगुना
निषधवत्
महाहिमवानवत्
हिमवानवत्
५००
हिमवान् के समान
(रा. वा. ३३।११।
४११०३५
६।१८३३१०
८१६३२५९
१०।१८३।१२:
१२।१६४१५)
पर्वत से उपरोक्त नियमा'नियमा
चौपाई नुसार जानता
मध्य में ऊपर
यो ०
ོ
१८३ |
यो०
३३
३७५ २५०
१५४
त्रि. प. रा. वा. ३ . पू.गा. ज.प.
४। गा.
श्री. पू. प.
रागा. गा. अ./गा.
१४६
१६३३
१७२५
१७५३
२३२७
२३४०
२३५५
|११।२।१६२।१६
!
ܟ܀
११२
५५. |
७२
Es
│..
२०३२, १०।१३।१७३१- २२४
२०४८
२३
1
İ
| १०१ |
| १०४ |
| १०५ |
७२३ SIVE
७२३
"
"
21
"
२७६
३।४६
"
JJ
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--------------------------------------------------------------------------
________________
-
२०४०
२०६०
-
पद्मद्रह
हिमवान् पर्वतवत् अपने-अपने
अत्यद्रह
-- -
पर्वतीबत् (दे. दिग्गजेन्द्र
भद्रशालवन
।
पर्वत) |
नन्दनवन
१६६७
३३१ | ६२६
सौमनसवन
' २५० । २५० १८७१ | १२५
सौमनस वन वाले के समान
नन्दनवन का
भलभद्रकूट
१९६७
सौमनसवन का
बलभद्र कूटदृष्टि सं० १ । १०० । दृष्टि सं० २ । १०००
१६६८
१०० १०००
। ७५ । ५० । ७५० ५००
१६८० १६८०
(१०।१३।१७६
----
-
----
है ॥२६००० यो. कम १ रा.1
नीतरी पृथिवी के प्रत्येक इन्द्रक विल का अन्तराल तीन हजार दो सौ उनकास योजन और पेंतीस सौ धनुष प्रमाण है। ३२४६ यो. ३५०० दण्ड 1
तोय पृची का अन्तिम इन्द्रक संप्रज्वलित और चतुर्थ पृथ्वी का प्रथम इन्द्रक और, इन दोनों बिलों का अन्तराल बाईस हजार योजन कम एव राजुप्रमाण है। २२००० यो, कम १ रा.।
पंक प्रभा पृथ्वी के इन्द्रक बिलों का अन्तराल तीन हजार छह सौ पैंसठ योजन और पचहत्तर सौ दण्ड प्रमाण है । ३६६५ । मो.
चतुर्थ पृथ्वी का अन्तिम इन्दक खल-खल घोर पांचवों गृश्वी का प्रथम इन्द्रका नम, इन दोनों जिलों के अन्तराल का प्रमाण अठार. हजार योजन क्रम एक सनु है । १०००० पी. मग १ रा. ।
धम प्रभा के इन्द्र क बिलों का अन्तराल चार हजार चार सी निन्यानवे योजन और पांच सौ दण्डप्रमाण है । Net यो. ५०० दण्ड 1
गाँववीं पृथ्वी का अतिम इन्द्रक तिभित्र और छठी पृथ्वी का प्रथम इन्द्रक हिम, इन दोनों बिलों का अन्तराल बौदह हजार योजन कम एक राजु प्रमाण है। १४००० यो. कम १ राजु ।
मधवी पृथ्वी में प्रत्येक इन्द्रक का अन्तराल छह हजार नौ सौ अट् छानवे योजन और पचपन सौ धनुष है। ६EE यो. ५५०० दण्ड ।
छठी पृथ्वी के अन्तिम इन्द्रक लल्लक और सातवीं पृथ्वी के अवधिस्थान इन्द्रक का अन्तराल तीन हजार योजन और दो को
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________________
४. नदी कुण्ड द्वीप व पाण्डुक शिला प्रादि
त्रि.प.
रा.बा ।३।२२
|
है.प.।
त्रि.सा।
ज. प.।
अवस्थान
ऊंचाई | गहराई : विस्तार
४ागा.
वा.।पृ.प. । ५।गा. |
गा. |
अ.गा.
२ कोस
२२१
१।१८७।२६
१४३ |
नदी कुण्डों के द्वीपगंगा कुण्ड सिन्धु कण्ड शेष कुण्ड युगल
१० योः | ८ यो. गंगावत्
२११८७।३१
२कोम
, उत्तरोत्तर दुना
३।१४।१८८।१८६
विस्तार
| मूल | मध्य । ऊपर
गंगा कुण्ड
१० यो.
२२२
३।१६५
४यो. यो. | श्यो.
| लम्बाई
चौड़ाई
पाण्डु काशिलादृष्टि सं० १ दृष्टि सं०२
। ८ यो. १०० यो. । ५० यो.. १८१६
४ यो. । ५०० यो. २५० यो., १८२१
१८०१२०
| ४११४२
बिस्तार
मल'
मध्य
ऊपर
पाण्डुक शिला के मिहासन व प्रासन
५०० ध. ५
५घ
एक राजु प्रमाण है । यो. ३०००, को २ कम १ रा.।
अवधिस्थान इन्द्रक की मर्च और अधस्तन भूमि के बाहल्य का प्रमाण तीन हजार नौ सो निन्यानवें योजन और दो कोस है। ३६EE यो. २ को।
धर्मा पृथ्वी में श्रेणीबद्ध बिलों का असराल छह हजार चार सौ निन्यानवे योजन दो कोस और एक कोस के नौ भागों में से पांच भाग प्रमाण है। ६४६६ यो. २१ को।
___ वंशा पृथ्वी में श्रेसी बद्ध वितों का अन्तराल दो हजार नीसो निन्यानवे योजन और तीन हजार छह सी दण्ड प्रमाण है। २६६ यो. ३६०० दण्ड ।
१५६
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________________
५. अढाई द्वीपों की सर्व वेदियां
बंदियों के विस्तार सम्बन्धी सामान्य नियम-देवारण्यक व भतारण्यक दनों के अतिरिक्त सभी कुण्डों, नदियों, वनों, नगरों, चैत्यालयों आदि की बेदियां समान होती हुई निम्न विस्तार-सामान्यवालो हैं। (ति. प. ।४।२३८५-२३६१) ज. प. श६०-६६)
ज. प.।
अवस्थान
! ऊंचाई ।
गहराई
विस्तार
ति. प. ।४ागा. .
रा. वा. ।३। सू.! ह.पु.
बा. ।पृ.प. गा. में
अ.गा.
-
-
-
सायान्य
१॥६६
१. यो. | ऊंचाई से चौथाई ५०० धनुष । २३६० | १ यो. | , १००० , २३६१
भूतारण्यक
देवारण्यक
सामान्य वेदीवत
हिमवान् पद्मद्रह शाल्मली वृक्षस्थल
१५-१८५-१ २१६८ २१००,२१२८
गजदन्त
भूतारण्यक वत्
भद्रशालवान घात की खण्डकी सर्व
उपरोक्त वत्
पुष्कराध की सर्व
सामान्य वत्
२५३५
इप्वाकार मानुपोत्तर की तटवटी शिखरवेदी
सामान्य वत् १
२७५४
विस्तार
गहराई
जम्बूद्वीप की जगती।
८यो.
मूल
मध्य | ऊपर ; १५-२७ । ६।१।३७०।२६ । ३७८८५ ॥२६
१२यो | १२यो. प्यो. '
जगतो के द्वार
प्रवेश
आयम
दृष्टि सं० १ दृष्टि मं०२ लवणसागर
! ८यो । ७५० यो.
४ यो. ४ यो.
५०० यो. जम्बूद्वीप की जगती वत्
२५१६
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________________
७. शेष द्वीपों के पर्वतों व कटों का विस्तार
१. घात को खण्ड के पर्वत
नाम
ऊंचाई
--- - - - -. -.
रा.बा३।३३।' ह. पु. । 'त्रि. सा. ज. प.। लम्वाई । विस्तार : ति. प. ॥४॥ गा.'
। बा. !पृ.। पं.। ५१ गा. . ।गा. अगा.
पर्वतों के विस्तार व ऊंचाई सम्बन्धी सामान्य नियम :
कुलाचल
जम्बूद्वीपवत् | स्वदीपवत् | जम्बूद्वीप से
२५४४-२५४६ | ५११९५१२०
४६७.५०९ |
विजया
वक्षार
गजदन्त दृष्टि
सं० १ । दृष्टि सं० २ उपरोक्त सर्व
| जम्बूद्वीपवत्
पर्वत
वृषभगिरि
यमक
कांचन
दिग्गजेन्द्र
विस्तार
| दक्षिण उत्तर पूर्व पश्चिम
इष्वाकार
४६५
१२५ | ११।४
विजयार्थ
| ४०० यो. | स्वद्वीपबत् , १००० यो. २५३३।६।१६५।२६ जम्बूद्वीपवत् | जम्बूद्वीप से स्वक्षेत्रवत् ।२६०७ - उपरो
क्त सामान्य नियम
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________________
बक्षार
। जम्बूद्वीपवत् निम्नोक्त । जम्बुद्वीप से | ४७८+ उपरोक्त' सामान्य
नियम
दूना
गजदन्तअभ्यन्तर बाह्य •
.,
२५६१
५३३
जम्बूद्वीपवत् २५६२२७ । जम्बूद्वीपवत् | ५६६९५७
सुमेरु पर्वत
विस्तार
ल | मध्य ऊपर
०००० दे. लोक
पृथ्वीपर
८४००० ।
२५७७
६।१९५०२८
५१३
११११८
पाताल में
दृष्टि सं०१ की अपेक्षा विस्तार-१०,०००
दृष्टि सं. २ की अपेक्षा विस्तार. १५००
जम्बूद्वीप के मेस्वत्
नलिका
२५८३
मेघा पृथ्वी में थेणी बद्ध विनों का अन्तराल तीन हजार दो सौ उनचास पोजन और दो हजार धनुष है । ३२४६ योजन २००० दण्ड ।
चतुर्थ पय्वी में श्रेणी बद्ध बिलों का अन्तराल, बाईस हजार में चौ का भाष देने पर जो लब्ध पावे, उतने धनुष कम छत्तीस सौ छयासठ योजन प्रमाण है । ३६६५ यो, ५५५५५. दण्ड ।
धूम प्रभा पृथ्वी में श्रेणी बद्ध बिलों का अन्तराल चवालीस सौ अट्ठानवे योजन और छह हजार घनुष है। ४४९८ योजन ६००० दण्ड।
मश्रवी पृथ्वी में श्रेणी बद्ध बिलों का अन्तराल छह हजार नौ सौ अट्ठान- योजन और दो हजार धनुष है । ६६६८ पोजन २००० दण्ड ।
मघयो पृथ्वी में धेरपी' बद्ध विलों का अन्तराल यह हजार नौ सौ निन्यानवे योजन और एक योजन के तीसरे भाय प्रमाण है। ६६६६) यो.।
यह जो श्रेणी बद्ध बिलों का अन्तराल है उसे स्वस्थान में ममझना चाहिए । तथा पर स्थान में जो इन्द्रक बिलों का अन्तराल कहा जा चुका है, उसी को यहाँ भी कहना चाहिए। किन्तु विदोषता यह है कि लल्लंक और अनधि स्थान इन्द्रक के मध्य में जो अन्तराल कहा गया है उसमें से अधं योजन के छह भागों में से एका भाग कम यहाँ धेरणी बद्ध विनों का अन्तराल जानना चाहिए।
इस प्रकार श्रेणी बद्ध विलो का अन्तराल समाप्त हुआ।
धर्मा पश्ची में प्रकीर्णक बिलों का अन्तग़ल, इक्यानवें में छह के वर्ग का भाग देने पर जो लब्ध आये, उतने कोस कम छह हजार पांच सौ यो. प्रमाण है । यो. ६५१०- ४) यो. ६४६६ को. १९१।
वंशा पृथ्वी में प्रकीर्णक बिलों का ऊध्वनं अन्तराल दो हजार नो सौ निन्वानब मोजन और तीन सौ धनुष प्रमाण है । २९६ यो. ३००० दण्ड |
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________________
ऊंचाई व
| ति. पा.
पादिम
'चौड़ाई
दक्षिण उत्तर विस्तार मध्यम अन्तिम
।
४/गा.
दोनों बाह्य विदेशों के वक्षार- ' चित्र व देवमाल कट
५१५७३८३५३
५१९२१६६
नलिन व नागकट
५३८२६८
५३५७४५...
५३६२२२२१
पद्म व सूर्यकूट
५५७७९७.१३
५५८२७४२३
५५८७५१३३३
एकशैल व चन्द्रनाग
५७५६०३२१२
१८८२८०१३
देखें पूर्वोक्त सामान्य नियम
त्रि.सा. १९३१-६३३
दोनों अभ्यन्तर विदेहों के
वक्षार श्रद्धावान व प्रात्मांजन |
२८५४५५३१६
२८४६७८१३३
२८४५०१०१६
अंजन व विजयवान्
२६५९२६३६३
२६५४४६३१३
२६४६७२३१६
पाशीविष बर्वश्रवण
२४५४४३३१३
| २४६३९७१
२२६८६८१६३
| २४५६२०३३३ । २२६३६१६४
सुखावह व त्रिकूट
२२५६१४४३
मेधा पृथ्वी में प्रकीर्णक बिलों का ऊध्वर्ग अन्तराल तीन हजार दो सो अड़तालीस योजन और पचानसौ धनुष है । ३२४८ बो. ५५०० दण्ड ।
चतुर्थ पृथ्वी में श्रेणी बद्ध बिलों का अन्तराल नीन हजार छह मौ चौंसठ योजन और नो से भाजित जनहत्तर हजार पाँच सौ अनुप प्रमाण है। ३६६४ यो. ६.९५...- दण्ड ।
पांचवीं पृथ्वी में प्रकीर्णक बिलों का अन्तराल चवालीस सौ मत्तान योजन और छह हजार पाँच सौ धनुष प्रमाण है । ४४९७ यो, ६५०01
(छठी पृथ्वी में प्रवीणक बिलों का अन्तराल दह हजार नो सौ छयानवे योजन और पचहत्तरसो घनुप है । ६६६६ यो. ७५०० दण्ड 1)
इस प्रकार यह प्रकीर्णक विनों का अन्नरान स्वस्थान में समझना चाहिए। पर स्थान में जो इन्द्रक त्रिली का अन्तराल कहा जा चका है, उमी को यहाँ पर भी कहना चाहिए ।
इस प्रकार प्रकीर्णक बिलों का अन्तराल समाप्त हुआ। इस प्रकार निवास क्षेत्र समाप्त हुआ।
धर्मा पृथ्वी में मारकी जीव संरूपात आयु के धारक हैं। इनकी संख्या निकालने के लिये मुणाकार घनांनुल के द्वितीय वर्म मूल से कुछ कम है । अर्थात् इस गुणकार से जम श्रेणी को गुरणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो उतने नारकी जीव धर्मा पृथ्वी में विद्यमान हैं।
श्रेणी घांगुल के २ मरे वर्ग मूल से कुछ कम-धर्मा पृ० के नारकी।
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________________
२. पुष्कर द्वीप के पर्यत व कूट
विस्तार
रा.बा.।३।३४॥
नाम
'ऊंचाई | यो.
लम्बाई यो.
| ति.प.४गा.
त्रि. सा. गा.
यो.
|ज. प. म. गा.
बा. पू० पं०
पर्वतों के विस्तार व ऊंचाई सम्बन्धी सामान्य नियम कुलाचल | जम्बूद्वीपवत् | स्त्रद्वीप प्रमाण जम्बूद्वीपसे चौगुना २७८६-२७६० विजया
निम्नोक्त
५।१९७२ ५८८-५
:
-
वक्षार
गजदन्त
:
-
नाभिगिरी
:
उपरोक्त सर्वपर्वत
वृष्टि सं०२ वृषभगिरी
xx xxx xxx
-
. जम्बूद्वीपवत्
२७६१
--.
xxx X
यमकरी
XXX |
कांचन
वशा पृथ्वी में नारकी जीव यद्यपि जग धरणी के असंख्यात भाम मात्र हैं, तथापि उनकी राशि का प्रमाण जग श्रेणी के बारहवें वर्ग मूल से भाजित जग थेगी मात्र है।
वेणी : योगी का १२ वा वर्ग मूल-- वंशा पू. के नारकी।
मेवा पध्वी में नारकी जीव जग श्रेणी के असंख्यात भाय प्रमाण होते हुए भी जग थेणी के दसवें वर्ग मूल में भाजित जग थेगी प्रमाण है।
श्रेणी श्रेणी का १०वा वर्ग मूल-- मेघा ग. के नारकी।
चौथी पृथ्दी में नारकी जीय यद्यपि जग श्रेणी के असंख्यात भाग मात्र हैं, तथापि उनका प्रमाण जम धेणी में जग घेणी के आठो वर्ग मूल का भाग देने पर जो लब्ध आबे, उतना है।
श्रेणी- धणी का स्वां अगं मूस पौधी पृ. के नारकी।
पांचवीं पृथ्वी में नारकी जीव जंग श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण होकर भी जग थेणी के छठे वर्ग मूल मे भाजित जग थेगी मात्र हैं।
श्रेणीधणी का ६वां वर्ग मूल-पांचवीं पृ. के नारकी।
मधषी पृथ्वी में भी नारकी जीव जग श्रेणी के असंख्यातवें भाग मात्र हैं, तथापि उनका प्रमाण जग असी में उसके तीसरे वर्ग मल का भाग देने पर जो लब्ध आवे, उतना है।
श्रेणी: थेरणी का ३सरा वर्ग भूल =छठी पृ. के नारकी।
सातवीं पुथ्वी में यद्यपि नारकी जीव जग श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही हैं । तथापि उनकी राशि का प्रमाण नग श्रेग्गी के द्वितीय वर्ग मूल से भाजित जग श्रेणी है ।
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________________
नाम
ऊंचाई
लम्बाई
विस्तार
ति. प. ४ रा.वा.३।३४ हपृ.॥ | गा. | वा.प. प. | गा.
त्रि. सा. ।।
गा..
|
यो.
।
यो.
या
दिग्गजेन्द्र
जम्बूढीपवत धातकीवत
मेह व इष्वाकार।
| २८१२ | ५।१९७४ ।
५८९
विस्तार
दक्षिण उत्तर । पूर्व पश्चिम
__ यो. । यो. विजयाधं | उपरोक्त' उपरोक्त नियम | स्वक्षेत्रवत् २८२६ / +उपरोक्त सामान्य नियम
जम्बूद्वीपवत निम्नोक्त जंबूद्वीप से चौगूना २८२७ | +उपरोक्त सामान्य नियम
वक्षार
गजदन्त
अभ्यन्तर
२०१३
१६२६११६ २०४२२१६
बाह्य
२०१४
विस्तार
गहराई मूल | मध्य | ऊपर !
८.
६३४०+ ११५६
मानुषोत्तर पर्वत मानुषोत्तर के
१७२१ | चौथाई १०२२/ ७२३ / ४२४ । २७४६ / ६/१९७/८ |
लोक ६।४।३में कथित नियमानुसार
६४२
४३०१
दृष्टि सं० १ दृष्टि सं० २
४३० ४३०१२१५३ |
५०० ३७५ | २५० |
| ६/१९७/१६
६००
श्रेणी श्रेणी का रा वर्ग मूल-सातवी पृ. के नारकी। इस प्रकार संख्या समाप्त हुई। नरक पटलों में से सीमन्त बादिक दो पटलों में संस्थान वर्ष की बायु है, तीसरे में संस्थात व अस्मात वर्ष की आयु है, और मागे के
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________________
नाम
ऊंचाई व चोड़ाई
दोनों बाह्य विदेशों के बार
चित्रकूट व देवमाल
पद्म व वैडूर्य कूट
नलिन व नागकूट
एक दल व चन्द्रनाग
पूर्वोक्त सामान्य नियम
ज
दोनों अभ्यन्तर विदेहों के वक्षार
श्रद्धावान् व आत्मजन
अंजन व विजय वान
यशोविष व वैभवण
सखावह व त्रिकूट
द पूर्वोक्त सामान्य नियम
आदिम
TI
१६४०७७०३६३
१९८०९५०
२०२११२३३
२०६१३०९५
१४५२०५७३३
१४४१८७७३१६
१४०१६१०१
१३६१५१२३.
विस्तार
मध्यम
१९४१७२५१
१९८२२०४२७
२०२२०६४,
२०६२२६३११४
१४८११०२३३¥
१४४०६२३२१
१४०० ७४३११६
१३६०५६४६३
ठ
पन्ति
ति. प. ४ गा.
१६४२६७९३३३ २८४६
१६८२०५९५३३ २८५४
२०२३०३८३६६ २०६२
२०६३२१८१३ २८७०
दश पटलों में तथा शेष पटलों में भी असंख्यात वर्ष प्रमाण ही नारकियों की आयु होती है।
उन रत्न प्रभादिक सातों पृथिवियों के अन्तिम इन्द्रक बिलों में क्रम से एक, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट आयु है ।
१४८०१४
२६८२ १४३९९६५११६ २०६०
१३११७८१५५६ २०६८
१३६६६०२३६३
२६०६
सा. १।३२७।१०।१७।२२।३३।
सीमन्तक इन्द्रक में जघन्य वायु दश हजार वर्ष और उत्कृष्ट आयु नये हजार वर्ष प्रमाण है। निरय इन्द्रक में उत्कृष्ट आयु का प्रमाण न लाख वर्ष है |
१६३
सीमंत ई. में ज. आयु १०००० ५. आ. ६००००; नरक ई. में उ. आपु २०००००० वर्ष
रोक इन्द्रक में उत्कृष्ट आयु असंख्यात पूर्वकोटी, और भात में इन्द्रक में सागरोमन के दसवें भाव प्रकाच उत्कृष्ट है। रो. ई. में असंख्यात पू. को. भ्रा. ई. में पैसा ।
त्रि. सा. १३१-६३३
प्रथम पृथ्वी के चतुर्थ पटल में जो एक सागर के दसवें मान प्रमाण उस आयु है, उसमे प्रथम पृथ्वीय नारकियों की उत्कृष्ट बायु में से कम करके शेष में नौ का भाग देने पर जो लब्ध भावे उतना प्रथम पृथ्वी के अष्टि से कटनों में याद के प्रमाण को लाने के लिये हानि वृद्धि का प्रमाण जानता चाहिये । ( इस हानि-वृद्धि के प्रमाण को चतुर्यादि पटलों की आयु में उत्तरोत्तर कोने पर पटनों में आयु का प्रमाण निकला है)।
र. प्र. पू. में उ. आयु एक सागरोपम है, अत: ११:२० हा. . 1
रत्नप्रभा पृथ्वी के चतुर्थ पंचमादिन्द्रकों में क्रमशः देश से भः जित एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ और दा सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट आयु है ।
उतई.सं. असं विश्रा प्तसित व विका. १३ मा
ar
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________________
३. नन्दीश्वर के पर्वत
विस्तार
रा.वा.1३1३५
नाम
ऊंचाई | गहराई
ति. प. 1५1गा.
पृ०ाप.
ह.पु. ॥५गा.
: त्रि. सा. ।गा ।
मूल
मध्य
ऊपर
यो
।
यो.
यो.
यो.
८४०००
५४०००
८४०००
८४०००
१६८८
अंजनगिरि दधिमुख रतिकर
१०,०००
१०००
१०,०००
| १६८।८ । ६५२ / ९६८ ६५ | १६८।२५ / ६७० . ,
१९१1३१ ६७४ ,
१०००
१०००
१०००
६८
!: :
उपरिम पृथ्वी की उत्कृष्ट आयु को नीचे की पृथ्वी की उत्कृष्ट आयु में से कम करके शेष अपने-अपने इन्द्रकों की संख्या का भाग देने पर जो लब्ध आवे, उलना विधक्षित पृथ्वी में आयु की हानि-वृद्धि का प्रमाण जानना चाहिये।
उदाहरण—वि. उ. आयु सा. ३-१-११== द्वि. पृ. में आयु की हा. बृ. ।
द्वितीय पृथ्वी के ग्यारह इन्द्रकों में से प्रारह से भाजित तेरह (11) सागरोग्म प्रमाण उत्कृष्ट आय है। इसमें तेतीस (18) प्राप्त होने तक ग्यारह से भाजित दो दो (३१) को मिलाने पर क्रमशः द्वितीय पृथ्वी के शेष द्वितीपादि इन्द्रकों की उत्कृष्ट आयु का प्रमाण होता है।
स्तनक-इ.१३, त. १. म.१७, व. पा. २१, सं.२३, जिह्वा ३६, जिह्वक २१, लोल लोलक ३१. स्त. लो. सा.
तृतीय पृथ्वी में नौ से भाजित इकतीस (11) सागरोपम प्रभघ या आदि है। इसके आगे प्रत्येक पटल में नौ से भाजित चार की (8) की तिरेसठ (12) तक वृद्धि करने पर उत्कृष्ट आयु का प्रमाण होता है।
तप्त-है , शी. ३५, तपन , तापन , नि, ४७, प्रज्व १२, उज्व ५५ संज्व. १६, संप्रज्व. सा.
चतुर्ष पुथ्वी में सात से भाजित बावन सागरोपम प्रभाव है। इसके आगे प्रत्येक पटल में सत्तरपर्यन्त सात में भाजित तीन (3) को वृद्धि करने पर उत्कृष्ट आयु का प्रमाण निकलता है।
आर--४२, मार ५५, तार ५८, चर्चा ३, तमक , वाद ३७, रव स्व . सा. ।
पांचवीं पृथ्वी में पांच से भाजित सत्ताधन सागरोपम आदि है। अनन्तर प्रत्येक पटल में पचासी तक पांच में भाजित सात सात (७) के जोड़ने पर उत्कृष्ट आयु का प्रमाण जाना जाता है।
तमक -११, भ्र४, झ , अंघ,ति..ता.। मघवी पृथ्वी के तीन पटलों में नारकियों की उत्कृष्ट प्रासु क्रम से तीन से भाजित छप्पन, इकसठ और छयासठ सागरोपम है। हिम. १७, बर्दल , लल्लक सा.।
सातवीं पृथ्वी के जीवों की आयु तेतीस सागरोपम प्रमाण है। ऊपर अपर के पटलों में जो उत्कृष्ट आयु है, उसमें एक समय मिलाने पर वही नीचे के पटलों में जघन्य प्रायु हो जाती है।
__ अवधिस्थान ३३ सा.
इस प्रकार सातों पच्चियों के प्रत्येक इन्द्रक मैं जो उत्कृष्ट मायु कही गई है, वही यहां के श्रेणीबद्ध और विश्रणीगत प्रकीर्णक बिलों की भी आयु समझना चाहिये।
इस प्रकार आयु का वर्णन समारत हुआ।
१६४
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४. कुण्डसवर पर्वत व उसके ट
नाम
पर्वत -
दृष्टि [सं० १
दृष्टि सं० २
इसके फूट द्वीप के स्वामी
देवों के कूट
ऊंचाई
यो.
७५०००
४२०००
गहराई
यो.
१०००
मूल
...ܐ
यो.
विस्तार
मध्य
१०२२० | ७२३० । ४२४०
मानुषोत्तरवत
मानुषोत्तर के दृष्टि से०२ मत
सर्वत्र उपरोक्त से दूने
उत्तर
यो. 1 यो.
वि.प. रा.बा.३५
३५ पृ. पं
गा.
i
११८
१३०
११२४, १३१ | ११६।१२
१३७
१६६/०
१६५
!
सा.
प्रथम पृथ्वी के निरय नामक द्वितीय पटल में एक धनुष एक हाथ और सत्तरह अंगुल के या
६८७
६६७
त्रि. सा.
गा.
६४३
पृथ्वी के अन्तिम इन्द्रक में नारसियों के शरीर की बाई सात धनुष तो हाथ और छल है। इसके आये षयों के अन्तिम इन्द्रकों में रहने वाले नारकियों के शरीर की ऊंचाई का प्रमाण उत्तरोत्तर इससे दुगुणा दुगुणा होता गया है।
६६०
वर्मा पु. में शरीर की ऊंचाई दं. ७ . ३, अं. ६ बंधा दं, १५, ह. २. अ. १२ मेघा ३१, ह. १, अंजना, ६२, इ. २: अरिष्टा दं, १२५ मध्वी दं, २५० माघवी दं, ५०० ।
रत्नप्रभा पृथ्वी के सीमन्त पटल में जीवों के शरीर को ऊंचाई तीन हाथ है। इसके आगे शेष पटलों में शरीर की ऊंचाई हानि-बुद्धि को लिये हुए है। सीमन्त ऊंचाई - २
के
अन्त में से आदि को घटाकर शेष में एक कम अपने इन्द्रक के प्रमाण का भाग देने पर जो लब्ध आये उतना प्रथम पृथ्वी में हानिवृद्धि का प्रमाण है | इसे उत्तरोत्तर मुख में मिलाने अथवा भूमि में से कम करने पर अपने पटलों में ऊंचाई का प्रमाण ज्ञात होता है । उदाहरण---अन्त ७ यनु. ३ हा. ६ अ अ दिहा इसे हाथों में परिवर्तित करके २११ - ३ ÷ ( १३ - १) - २ हा. अं. हानि-वृद्धि । घर्मा पृथ्वी में इस हानि-वृद्धि का प्रमाण दो हाथ, आठ अंगुल और एक अंगुल का दूसरा भाग (३) है । हा. २, अं. ८३ ॥
अर्थात् साढ़े आठ अंगुन प्रमाण तथा
शेरुक पटल में एक धनुष, तीन हाथ और सत्तरह अंगुल प्रमाण दशरीर की ऊंचाई है ।
नरक. प. में दं. १, हा. १. मं.
रोचक पटल में दं, १ . ३, अ, १७ ।
प्रांत पटल में दो धनुष, दो हाथ और डेढ़ अंगुल तथा उद्भ्रान्त पटल में तीन धनुष और दश अंगुल प्रमाण शरीर का उत्सेध है ।
भ्रान्त प. में दं. २, ६, २, ३३ उद्भ्रांत प. दं. ३, अं. १० ॥
प्रथम पृथ्वी के संभ्रान्त नामक इन्द्रक में शरीर को ऊंचाई तीन धनुष, दो हाथ और साढ़ अठारह अंगुन है। संभ्रान्त प में दें. ३, ६. २. अं. १५१ ।
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५. रुचकर पर्वत व उसके कूट
विस्तार
त्रि.प.।५॥ | रा.वा.।३। ह.प.।। | त्रि.सा.
नाम
ऊंचाई | गहराई
मल
मध्य
| ऊपर |
गा.
३५-पृ.पं.
गा. |
गा..
--.-.-
.---
पर्वत
१९६।२३
दृष्टि सं०१८४००० | १००० ८४००० ८४०००८४००० दृष्टि सं०२ ८४००० १००० ४२००० इसके कूटदष्टि सं० १ | मानुषोत्तर की दृष्टि सं० २ वत् दृष्टि सं० २ ५००
| ७५० | ५०० ३२ कूट
१००० | १००० । १०००
X
X
१६६,१७१ २००।२०। ७०१
१६६।२५ | x
X
X
प्रयम पथ्वी के असंभ्रात इन्द्रक में नारकियों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण चार अनुष और सत्ताईस अंगुल है। असंभ्राल प. में ४. २७
विभ्रांत नामक पटल में चार धनुप, तीन हाथ और तेईस अंगुल के आधे अर्थात् साढ़े ग्यारह अंगुल प्रमाण उत्सेध है। विभ्रान्त, प.
विभ्रातनाम में द. ४. ह. ३ ग्रं ११३।
प्रथम पृथ्वी के नन इन्द्रक में शरीर का उत्सेध पांच धनु, एक हाथ और बीस अंगुल प्रमाण कहा गया है। तप्त प. में दं.५, ह. १ .२०
अतित नामक पटल में नारकियों के शरीर की ऊंचाई छह धनुष और अर्ध अंगुल सहित अंगुल प्रमाण जानना चाहिये । असित प. में
प्रथम पृथ्वी के वकान्त नामक पटल में शरीर का उत्सेध छह धनुष, दो हाथ तेरह अंगुल है। बकान्त प. में दं. ६, ह. २,
अं क अवक्रान्न नामक पटल में सात धनुष, और साढ़े इक्कीस अंगुल प्रमाण शरीर का उत्सेध है । अवक्रांत प. में दं ७, अं२१।
प्रथम राबी के विक्रान्त नामक अन्तिम इन्द्रक में शरीर का उत्सेध सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल है। विकात प. में दं.७.ह. 3. अ. ६..
बंशा पानी में दो हाथ, बीस अगुल और ११ से भाजित दो भाग प्रमाण प्रत्येक पटल में बडे होती है । इस वृद्धि को मुख्य अर्यात प्रथम पथ्वी के उत्कृष्ट उस्सेध प्रमाण में उत्तरोत्तर मिलाते जाने से क्रमशः कितीय पृथ्वी के प्रथमादि पटलों का उत्सेध का प्रमाण निकलता है। है. २,जे, २०११
द्वितीय पृथ्वी के (म्तनक नामक प्रथम इन्ट्रक में) नारकियों के शरीर का उरसेप, आठ धनुष, दो हाय और ग्यारह से भाजित चौबीस अंगुल प्रमाण है।
स्तनक प. में दं. ८, ह. २, अं.१३।। दुसरी पृथ्वी के (तनक नामक द्वितीय पटल में) नी अमुष, बाईस अंगुल और ग्यारह से भाजिस चार भाग प्रमाण शरीर का उरसेष है। तनक प. में दं. ६. अं. २२ ।
मनक इन्द्रक में जीवों के शरीर का उत्सेघनी धनुष, तीन हाथ और म्यारह से भाजित दो सौ बार अंगुस प्रमाण है। मनकप में है. है. ३ अ, २६ (१८६५)।
वनक प, में ई.१०. ह. २, अं.१४
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६. स्वयंभूरमण पर्वत
विस्तार ऊँचाई | गहराई
ति. प. १५३ रा वा.।३। | ह.पु।५५ । वि.सा. | मूल | मध्य | ऊपर ।"
--1._- __ - _गा. ३५ पृ.१० गा. _। गा. १००० x x x | २३६ |
|
EX
पर्वत
द्वितीय पृथ्वी के घात इन्द्रक में ग्यारह धनुष, एक हाथ, दश ग्रंथुल और ग्यारह से भाजित दश भाग प्रमाण शरीर का उत्सेध हैं। घात प. में दं.११, अं १०१।
संघात इन्द्रक में नारकियों के शरीर का उत्सेध बारह धनुष, और ग्यारह से भाजित अठसत्तर अंमूल प्रमास है । मंघात प. में दं. १२ अं. (44)
द्वितीय पृथ्वी के जिन इन्द्रक में शरीर का उत्सेध बारह धनुष, तीन हाथ, तीन अंगुल और ग्यारह से भाजित तीन भाग प्रमाण है। जिह प. मे दं. १२, है. ३, अं. ३ ।
जिह्वक पटल में शरीर का उत्से घ तिरेपन हाथ, तेईस अंगुल और एक ग्रंगल के ग्यारह भागों में से पांच भाग मात्र है। जिड़क प. में है. ५३, अं २३३ ।
लोल नामक पटल में शरीर का उत्सेध चौदह वनुष और ग्यारह से भाजित दो सौ सोलह अंगुल मात्र है। लोल प. में द. १४, अं. ३११(१९६९)।
लोलक नामक पटल में नारकियों के शरीर की ऊंचाई उनसठ हाथ, पन्द्रह अंगुल और ग्यारह से भाजित अंगुल के नौ भाग प्रमाण है। लोलक प. भे ह. ५६, अं. १५६ ।
द्वितीय पुथ्वी के स्तन लोलक अन्तिम पटल में पन्द्रह धनुष दो हाथ और बारह अंगुल प्रमाण शरीर का उत्सेष है। स्तन प. में दं. १५, इ. २, अं १२ ।
मेघा पृथ्वी में एक अमुष, दो हाथ, बाईस अंगुल और तीन से भाजित एक अंगुल के दो भाग प्रमाण हानि-वृद्धि जानना चाहिये ।
मेषा पृथ्वी के तप्त इन्द्रक में जीवों के शरीर का उत्सेत्र सत्तरह धनुष, चौंतीस अंगुल और तीन से भाजित अंगुल के दो भाग प्रमाण है। तप्त प. में दं. १७, भ, ३४३ ।
तीसरी पृथ्वी के शीत इन्द्रक में नारकिमों का उत्सेध उन्नीस धनुष और तीन से भाजित अट्ठाईस अंगुल मात्र है । शोत प. में दं. १६, अं. (63)।
तीसरी पृथ्वी के तपन इन्द्रक बिल में शरीर का उत्सेघ दीस धनुष सहित अस्सी अंगुल-प्रमाण है। तपन प. में दं. २०, अं. ८० (ह. ३, अं. ८)।
- मेघा पृथ्वी के तारन इन्द्रक में स्थित जीवों के शरीर का उत्सेध नब्ब हाथ और तीन से भाजित बीस अंगुल मात्र है। तापन प. से ह. १० अं.२० (दं २२ ह. २, अं.६३)।
निदाघ नामक पटल में नारको जीवों के शरीर की ऊंचाई सत्तानबै हाथ और तीन से भाजित सोलह अंगुल मात्र है। निदाघ ग. में है. १७, अं. (द. २४, ह. १, अं. ५३) ।
मेघा पृथ्वी में प्रज्जलित नामक पटल में स्थित जीवों के शरीर का उत्सेध इम्बीस धनुष और चार अंगुल प्रमाण है । प्रज्वलित प. में
उज्वलित इन्द्रक में नारकियों के शरीर का उत्सेध सत्ताईस धनुष, तीन हाथ और तीन से भाजित आठ अंगुल मात्र है। उज्वलित प, में प.२७,ह. ३, 9.51
तीसरी पृथ्वी के संज्वलित इन्द्रक में शरीर का उत्सेध उनतीस धनुष, दो हाय और मीन से भाजित चार अंगुल मात्र है । सज्व. ग. में । प. २६, हू.२, ३ (११) ।
संत्र. ज्व. प. में घ. ३१ ह.१। चतुर्थ पृथ्वी में चारनु, एक हाथ बोस अंगुल और सात से भाजित चार भाग प्रमाण हानि-वृद्धि है । घ. ४, ह. १, अं. २०७।
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६. प्रढाई द्वीप के वन खण्डों का विस्तार- १. जम्बूद्वीप के वनखण्ड
नाम
विस्तार
ति. प. | रा. वा.।३।१८ | ह. पु. १५॥ | त्रि. सा.। | ज. प. 1४/गा. । ।१३ पृ०., गा. | गा. अ. गा.
जम्बूद्वीप जगती के अभ्यन्तर भाग में विजयाधं के दोनों पात्रों में हिमवान के दोनों पावों में
विस्तार
नाम
पूर्वापर
उत्तर दक्षिण
देवारण्यक
। २६२२ यो.
१६५६२१४ यो. | २२२० - १७७१२
|
२८२
x
|
७१५
भूतारण्यक
देवारण्यकवत्
आर पटल में स्थित जीवों के शरीर का उत्सेध पैतीस धनुष, दो हाथ, बीस अंगुल और सात से भाजित चार भाग प्रमाण है। आर प. में ध.३५, १.२, अं. २०४।
चतुर्य पृथ्वी के मार नामक पटन में रहने वाले जीवों के शरीर की ऊंचाई चालीस धनुष और सात से भाजित एक सौ बीस अंगुल प्रमाण है। मार प. में छ. ४०, अं ० (१७१)।
चतुर्थ पृथ्वी के तार इन्द्रक में स्थिति जीवों के शरीर का उत्सेध चवालीस धनुष, दो हाथ और सात से भाजित छयानवें अंगुल मात्र है। तार प. में घ. ४४, ह. २, अं. (१३१) ।
चतुर्थ गृथ्वी में तस्य (चर्चा) इन्दक में नारकियों के शरीर का उत्सेध उनचास धनुष और सात से भाजित बहत्तर अंगुल मात्र है। चर्चा प. में ध. ४६, अं. (१०)।
तमका इन्द्रक में स्थित जीवों के शारीर का उत्सेध तिरेपन धनुष, दो हाथ और सात में भाजित अड़तालीस अंगुल प्रमाण है । तमक प. में ध. ५३, ह. २ अं.१(६)।
चतुर्थ पृथ्वी के बाद इन्द्रक में नारकियों के शरीर का उसेध अठ्ठावन धनुय और सात से भाजित बौबीस अंगुल है। बाद प. में ध.
चतुर्थ पृथ्वी के खलखल नामक अन्तिम इन्द्रक में नारकियों के शरीर का उत्सेष बासठ धनुष और दो हाथ प्रमाण है । खलखल प. में
बोनरागदेव ने पांचदी पृथ्वी में क्षय घ वृद्धि का प्रमाण बारह धनुष और दो हाथ बतालाया है। ध. १२, ह. २, हा. वृ.
१६८
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________________
विस्तार
रा. बा. 1३।
नाम
ति.प. |४|गा.
ह. पु. | त्रि. सा. ।गा. गा.
अ. प. अ.गा
मेरु के पूर्व या मेरु के उत्तर | उत्तर दक्षिण पश्चिम में . या दक्षिण में| | कुल विस्तार
यो.
यो.
यो.
भद्रशाल
| २२००० |
२५०
| विदेह क्षेत्रवत्
२००२
१७८३
:
३६१०+ | ४१४३
६१२
पवल व्यास
बाह्य व्यास अभ्यन्तर व्यास |
---- यो. यो. १९५४६ . ८६५४६६ ११८६
१७६७ ४२७२६२ । ३२७२६६ १६३८+ १६८६ | १८०।१ । २६६ !
१८१०+१८१४ | १८०।१२ | ३०० |
नन्दनवन
२६०
सौमनसवन
| ४८२ " | ४११२७ , । ४।१३१
पाण्डक वन
०००
पांचवीं पृथ्वी के तम नामक प्रथम इन्द्रक में स्थित जीवों के शरीर की ऊंचाई पचहत्तर धनुष प्रमाण है। तम प. में ध. ७५ । पांचवीं पृथ्वी के भ्रम नामक पटल में नारकी जीवों के शरीर का उत्सेध सतासी धनुष और दो हाथ प्रमाण है। भ्रम प, में घ.
मष नामक पटल में एक सौ धनुष, तथा अंधक पटल में एक सौ बारह धनुष और दो हाच प्रमाण नारकियों के शरीर की ऊंचाई है।
झष प. में ध. १०० । अंधक प. में घ. ११२, ह. २।
धूमप्रभा पृथ्वी के तिमिथ नामक अन्तिम इन्द्रक में नारकियों के शरीर का जत्नेध पच्चीस अधिक एक सौ अर्थात् एक मौ पच्चीस धनुषमात्र है । तिमिश्न प. में घ. १२५।
छठी पृथ्वी में हानि-वृद्धि का प्रमाण इकतालीष धनुष, दो हाथ और सोलह संगुल है। ध. ४१, इ. २, अं.१६ हा.. ।
हिम पटलगत जीवों के शरीर की ऊंचाई एक सौ छयासठ धनुष, दो हाय और सोलह अंगुन प्रमाण है । हिम प. में दं. १६६, ह. २, अं. १६ ।
छी पृथ्वी के बर्दल पटल में स्थित जीवों के शरीर का उत्सेध दो सौ आठ धनुय और वत्तीस अंगुल प्रमाण है । बर्दन प. में दं. २०८, बं. ३२ (१ ह. अं.)।
लल्लक मामक इन्द्रक में स्थित जीवों के दारीर का उत्सेध दो सौ पचास धनुषमात्र है। लल्लक प, में द. २५० ।
सातवी पृथ्वी के अवधिस्थान इन्द्रक में पांच सौ धनुष प्रमाण नारकियों के शरीर का उत्सेय है। इस प्रकार जिन भगवान् ने नारकियों के शरीर का उत्सेध कहा है।
अवधिस्थान, प. में द, ५०० ।
इस प्रकार रलप्रमादिक पृथ्वियों के प्रत्येक इन्द्रकों में जो शरीर का उत्सेध है, वही उत्सेध उन पृश्वियों के श्रेणी बद्ध और विश्रेणीगत प्रकीर्णक विल्लों में भी जानना चाहिये ।
इस प्रकार नारकियों के शरीर का उत्सेध प्रमाण समाप्त हुआ।
रत्नप्रभा पृथ्वी में अवधिज्ञान का क्षेत्र चार कोस मात्र है । इसके आगे प्रत्येक पृथ्वी में उक्त अवधि-क्षेत्र में से प्रधं गब्युतिकी कमी होती चली गई है।
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________________
२. धातकी खण्ड के बनखण्ड
-सामान्य नियम–सर्व वन जम्बूद्वीप धालों से दूने विस्तार वाले हैं। (ह. पु. 1५।५०६)
उत्तर दक्षिण विस्तार
नाम
पूर्वापर विस्तार
ति. प. ४ागा
रा. बा.३।
ह.पु. ३३१६प.प.
गा.
प्रादिम । मध्यम
मध्यम
अन्तिम
यो.
बाह्य
५८४४
___यो. । यो. यो. ५८७४४८६१३ | ५६०२३८३३३५९३०२७११६ २६०६-२६६० २१६७४६ः | २१३६५६३६६ | २१११६७६ र २६०६-२७००
अभ्यन्तर
मेरु से पूर्व या मेरु के उत्तर या उत्तर दक्षिण कुल पश्चिम में । दक्षिण में विस्तार
यो.
यो
।
यो.
भनुशाल । १०७८७६
नष्ट
२५२८
वलयव्यास
बाह्यव्यास
अभ्यन्तरन्यास
नदन्न
६३५०
१६५४३१
सौमनस
१९६११ ।
२८०० १२ चूलिका
पाण्डुक
४६४
१०००
५२७
र.प्र. को. ४: श.प्र. वा. प्र. ३; पं. प्र. . प्र. २; त. प्र..; म, त. प्र. १ को। इम प्रकार अवधिज्ञान का क्षेत्र समाप्त हुआ।
अब इस समय नारकी जीवों में यथायोग्य क्रम से गुण स्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, मार्गणा और उपयोग (जान-दर्शन), इनका कथन करने योग्य है।
सब नारकी जीवों के मिध्याष्टि, सासादन, मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि, ये चार गुणस्थान हो सकते हैं।
अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सहित, हिंसा में आनन्द मानने वाले और नाना प्रकार के प्रचुर दुःखों से संयुक्त उन सब नारकी जीवों के देशविरत आदिक उपरितन या गुण स्थानों के हेतुभूत, जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदाचित् नहीं होते हैं।
इन नारकी जीवों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो जीवसमास तथा छह प्रकार पर्याप्तियां व इतनी (छह) ही अपर्याप्तियां भी होती है।
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________________
नाम
देवारण्यक -
वाह्य
अभ्यन्तर
३. पुष्कराचं द्वीप के वन खण्ड
भद्रशाल
नन्दन श्रादि |
वन
1
पूर्वापर
विस्तार
११६८८
होते हैं ।
13
मेक के पूर्व या
पश्चिम में
२१५७५८
श्रादिम
२०८२११४३१६
१६४०७१३२१६
मेरु के उत्तर या
दक्षिण में
नष्ट
धातकी खण्डवत्
.
उत्तर दक्षिण विस्तार
मध्यम
२०५७६९३२६
१३३५१३४३१४
इस प्रकार उत्पद्यमान जीवों का वर्णन समाप्त हुआ ।
उत्तर दक्षिण
कुल विस्तार
२४५११६
1
अन्तिम
२०६३२७२२३१
१३२६५५५२१६
१७१
(दे० लोक ४/४)
लि. प. ॥४॥ गा.
T
नारकी लोगों के पांच इन्द्रिय प्राण मन-वचन-कायदोनों बलप्राण आयुप्राण और आना (वासा) प्राण प्र तथा आहार, भय, मैथुन और परिवह ये चारों जायें होती हैं।
२६२६+२८७४
२०२०+२११०
सब नारकी जीव नरकगति से सहित, पंचेन्द्रि, साय-वाले, सत्य, असत्य, उभव और अनुमय, इन बार मनोयोग, चारों वचनयोग, दो) का इन दोनों भाव वाले सपा में आसक्त, मति, श्रुल अवधि, कुमति, कुन और विमंग इन छह शानों ने संयुक्त, विविध प्रकार के अतंपों ( अविरतिभेदों) से परिपूर्ण, चक्षु, अक्षु, अवधि, इन तीन दर्शनों से युक्त, मात्र की अपेक्षा कृष्ण, नील, कारोब, इन तीन लेयाओं और प की अपेक्षा उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या से सहित, राहिन, संजी, आहारक
और परिक, वाचिक, देश, विदाव, वागावन, मित्र, इन छह अनाहारक, इस प्रकार चौदह मार्गणाओं में से भिन्न-भिन्न मार्गपालों से सहित होते हैं।
ति. प. ॥४॥ गा.
२८२१
उन नारकी जीवों के साकार (ज्ञान) और निराकार (दर्शन) दोनों ही उपयोग होते हैं। ये नारकी तीव्र कपाय और तीव्र उदयवाली पाप-प्रकृतियों से युक्त होते हैं ।
इस प्रकार गुणस्थानादि का वर्णन समाप्त हुआ।
प्रथम पृथ्वी के जातक जशी तथा प्रथम और द्वितीय में सरीसृप जाता है। पहली से तीसरी पक्षी तथा पोथी तक भुजंगादिक होते हैं।
पांचवीं पृथ्वी पर्यन्त सिंह, छठी पृथ्वी तक स्त्री और सातवीं भूमि तक मत्स्य एवं मनुज ( पुरुष ) ही जाते हैं ।
उपयुक्त सात पृथ्वियों में क्रम से वे असंज्ञी आदिक जीव उत्कृष्ट रूप से आठ, सात, छह पांच, चार, तीन और दो बार ही उत्पन्न
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४. नन्दीश्वरद्वीप के वन
बापियों के चारों ओर वनखण्ड हैं, जिनका विस्तार
(१००,०००,५०,०००) योजन है। (ति. प. १५१६४) :(रा.वा.३१३५/-१९८४२८): (त्रि.सा.९७२) ७. अढाई द्वीप की नदियों का विस्तार १. जम्बूद्वीप की नदियां
ति.प.
रा. बा.३।।
नाम | स्थल विशेष । चौडाई
ऊंचाई
।४। गा. २२शवा.प. पं. |
ह. पृ.।। गा.
त्रि. सा. गा.
| ज.प.म. गा.
नदियों के विस्तार व गहराई आदि सम्बन्धी सामान्य नियम-भरत व ऐरावत क्षेत्र की नदियों का विस्तार प्रारम्भ
में ६. यो. और अन्त में उससे दस गुणा होता है। आगे-आगे के क्षेत्रों में विदेह पर्यन्त वह प्रमाण दुगुनादुगुना होता गया है। (त्रि.सा. ६००); (ज. प. 1३।१९४)। नदियों का विस्तार उनकी गहराई से ५० गुगा होता है 1 (ह. पु. १५०५०७) ।
वृषभाकार | प्रणालीगंगा-सिन्ध | हिमवान्
। ६यो.
२ को प्रवेश २ को प्रवेश २१४ ।
| १४०
५८४
३।१५०
| ११५२
३।१५३
११२ को.
! १६७
| ३११६४
।
। ५८६ ।
आगे के नदी | विदेह तक उत्तरोत्तर दुगुने
युगल ऐरावत तक उत्तरोत्तर माधे गंगा
उद्गम । ६. यो. पर्वत से गिरने वाली धार दृष्टि सं० १ . दृष्टि सं०२ गुफा द्वार पर
समुद्र प्रवेश पर; ६२. यो. सिन्धु
गंगानदीवत् रोहितास्या
गंगा से दूना
|३।१६८
| १।१८७।२६ | १४६ | ६०० ३११७७
२२१८७१३२ १५१ , ६०० | ३।१६४ | १६६६
१६६६ ३३१५८ , ५६६ । ३।१८०
१७२
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________________
रोहित
हरिकान्ता
हरित
सोतोदा
सीता
उत्तर की छ:
नदियां
विदेह की ६४
नदियां
विभंगा
कुण्ड
के पास
1
रोहितास्वायत्
रोहित से दुगुना
(गंगा से चौगुना)
हरिकान्तावत्
हरिकान्त से दूना
(गंगा से थाठ गुना )
सीतोदावत्
क्रम से हरितादिवत्
गंगानदीवत्
५० को.
महानदी के पास ५०० को
दृष्टि सं० २
१६५९२६.
(उत्तर
दक्षिण)
सर्वत्र गंगा से दूना
१७३७ ४। १८६ | १७ | १५१
१७४८५१८८२१
१७७३
२०७४
२१२२
२११८
२२१६
१७३
६।१८८/२६
७|१८८१३३ 11
१६२९
११२४१८६
(दे. लोक
३|१०)
३।१०११३१
१७६।१३
"
१५२
प्र. पू. में मुहूर्त २४, द्वि.पु. दि. ७. तू. पू. दि. १५. व. पु. मा. १, पं. पू. मा. २, प. पू. मा. ४, स. पू. मा. ६ । इस प्रकार जन्म-मरण के अन्तरकाल का प्रमाण समाप्त हुआ ।
नारकों से निकले हुए उनमें से कितने ही जीन मानों (संपदियों) में, ढाड़ों अर्थात् ती पक्षियों में, तथा जलचर जीवों में जाकर और संख्यात वर्ष की आयु से युक्त होकर पुनः हरकों में जाते हैं ।
५९६ ३१८०
1
27
६०५
३।१८१
22
चौबीस मुहुर्त, सात दिन, एक पक्ष, एक मास दो मास चार मास और छह मास यह क्रम से प्रथमादिक पृथ्वियों में जन्म-मरण के अन्तर का प्रमाण है ।
T
३।१८२
७/२७
रत्नप्रभाविक पृथ्वियों में स्थित नारकियों के अपनी संख्या के असंख्यातवें भाग प्रमाण नारकी प्रत्येक समय में उत्पन्न होते हैं और उतने ही मरते भी हैं ।
इस प्रकार एक समय में उत्पन्न होने वाले व मरने वाले जीवों का कथन समाप्त हुआ।
नरक से निकले हुए जीव गर्भज, कर्मभूमिज, संज्ञी एवं पर्याप्त ऐसे मनुष्य और तिर्वचों में ही जन्म लेते हैं। परन्तु अन्तिम पृथ्वी से निकला हुआ जीव केवल तिन ही होता है, अर्थात् मनुष्य नहीं होता।
दांतों वाले शादि में हार्दिक
नरक में रहने वाले जीव वहाँ से निकलकर नारायण प्रतिनारायण वरभद्र और कवर्ती कदापि नहीं होते। तीसरी पृथ्वी तक के नारको जीव वहाँ से निकल कर तीर्थकर हो सकते हैं ।
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२. धातको खण्ड की नदियां
उत्तर दक्षिण लम्बाई
नाम
पूर्व पश्चिम
| त्रि. प.।४। गा.
आदिम
मध्यम
अन्तिम
सामान्य नियम--सर्व नदियां जम्बूद्वीप से दुगुने विस्तार वाली हैं (ति. प. ।४।२५४६) दोनों बाह्य विदेहों की विभंगाद्रहवती व अमिमालिनी
५२८८६११११ ५२८९८०३३: ५२६१००
२६४४
ग्रहवती व फनमालिनी गम्भीर मालिनी व पंकावती
५४८३९०३३ . ५४८५०६१३ | ५४८६२६.११ | ५६७६१६३६३ | ५६८०३८३६५ | ५६८१५८३१६ ।
२६५२
सर्वत्र २५० यो. (ति. प.।४।२६०८)
दोनों अभ्यन्तर विदेहों की विभंगा क्षीरोदा
व उन्मत्तजला
२७५३३३३६५ । २७५२०९२४ | २७५२१४१६४
२६७६
मत्तजला व सीतोदा
२५५८०४१ २५५६८५६३६ | २५५५६५५१३ २३६२७५:५३३ । २३६१५६ | २३६०३६३६३
२६८४ २६६२
तष्तजला व औषधवाहिनी
चौथी पृथ्त्री तक के नारकी वहाँ से निकल कर चरम-शरीरी, धूम्रप्रभा पृथ्वी तक के जीत्र सकल-संयमी और छठी पृथ्वी नक के नारकी जीव देशानी हो सकते हैं । ओम (मातवीं) पृथ्वी पे जिकने हुए जीत्रों में कोई त्रिरते ही सम्पत्व के धारक होते हैं ।
इस प्रकार आगमन का वर्णन समाप्त हुआ।
अयु बध के नाशि नको रेषा के ममा । कोष, शल के रामान मान, वाँल की जड़ के समान माया और कृमिराग के समान लोभ कषाय का उदय होने पर नरकायु का बन्ध होता है।
कृष्ण, नील अपव' कामोत इन तीन लेवाओं का उदय होने से नरमायु को बांध कर और मर कर उन्हीं लेश्याओं से युक्त होकर महाभयानक नरक को प्राप्त करता है।
जो पुरुष वामानादि नीन लेश्याओं में सहित है. उनका लेना यह है-कृष्ण लेश्या मे युक्त दुष्ट पुरुष अपने ही गोत्रीय तथा एकमात्र स्वकलत्रको भी मारने की इच्छा करता है।
दया धर्म से रहिस, बैर को न छोड़ने वाला, प्रचण्ड कलह करने वाला और बहुत कोथी जीव कृष्ण लेश्या के साथ धम-प्रभा पृथ्वी से लेकर अन्तिम पृथ्वी तक में जन्म लेता है।
विषयों में आसक्त, मतिहीन, मानी, विवेकबुद्धि से रहित, मंद (मूर्य), आलमी, कायर, गनर मायाप्रपंच में संलग्न, निदाशील, दूसरों के ठगने में तत्पर, लोभ से अन्ध, धन-धान्पजनित सुख का इच्छुक, और बहुमज्ञायुक्त अर्थात् आहारादि चारों संज्ञाओं में आसक्त, ऐसा जीव नील लेश्या के साथ धूमप्रभा पृथ्वी तक में जन्म लेता है।
जो अपने आपको प्रशंसा और असत्य दोनों को दिखाकर दूसरों की निन्दा करता है, तथा जो भीरू, शोक व विषाद से युक्त, परका अपमान करने वाला और ईर्या मे संयुक्त है, जो कार्य-अकार्य को न समझकर चलचित्त होता हुमा परम पथ का श्रद्धान करता है, अपने सपान
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३. पुष्करद्वीप की नदियां
उत्तर दक्षिण लम्बाई
नाम
ति.प.४|गा.
आदिम
मध्यम
मध्यम
अन्तिम
२८५०
२८५८
सामान्य नियम-सर्व नदियां जम्बूद्वीप वाली से चौगुनी विस्तार युक्त हैं । (ति. प. ।४।२७८८) दोनों बाह्य विदेहों की विभंगाद्रहवती व अमिमालिनी
१६६ १५७६३६ : १६६१८ १५२१२ | १६६२०५३३५६ ग्रहवती व फेनमालिनी
२००१७५५३३६ । २०७१६६४१३ | २००२२३३४१५ गंभीर मालिनी व पंकावती
२०४१९३५.५४ : २०४२१७४२
२०४२४१२३१४ दोनों अभ्यन्तर क्देिहों का विभंगाक्षीरोदा | व उन्मत्तजला
१४६१२५१३६३ । १४६१०१३३२३ । १४६०७७४६४ मतजला व सीतोदा
१४२१०७२३६५३ १४२०८३३३३३ | १४२०५६५२१ तत्तजला व अन्तर्वाहिनी
१३८०८६२१६ १३८०६५४३५३ १३५०४१५,१६
२८६६
२८८६
२६०२
हो दूसरे को भी समझकर किसी का भी विश्वास नहीं करता है, स्तुति करने वालों को धन देता है, और समर संघर्ष में मरने की इच्छा करता है, ऐसा प्राणी कापोत लेया से संयुक्त होकर धर्मा से लेकर मेत्रा पृथ्वी तक में जन्म लेता है।
इस प्रकार आयु बंधक परिणामों का कथन समाप्त हुआ।
इन्द्रक, श्रेणी बद्ध और प्रकीर्णक वितों के ऊपर अनेक प्रकार की तलवारों से युक्त, अचं वृत और अयोमुम्न वाली जन्म भूमियां हैं। ये जन्म भूमियां धर्मा पृथ्वी को आदि लेकर तीसरी पृथ्वी तक उष्ट्रिका, कोथली, कुम्भी मुद्गतिका, मुद्गर, मुदंग और नालि के सदृश हैं।
चतुर्थ और विम पत्री में जन्म भूमिकों का आकार गाय, हाथी, घोड़ा, भस्वा, अवज्ञपुट, अम्बरीष और द्रोणी जैसा है।
छठी और सातवीं पृथ्वी की जन्म भूमिपा झालर (वाविशेष), मल्लक (पाविशेष), पात्री, केयूर, मसूर, शारणक, किलिज (तरण की बनी बड़ी टोकरी), ध्वज, द्वीपी चकचाक, शृङ्गाल, अज, खर, करम, संदोलक (झूला), और (रोख) के सदृश हैं। ये जन्म भूमियां दुष्प्रेक्ष्य एवं महाभयानक हैं।
उपयुक्त नारकियों की जन्मभूमियां अन्त में करोत के सदृश, चारों तरफ से गोल, मज्जवमयी (?) और भयंकर हैं।
बारी, हाथी, भंस, घोड़ा, गधा, ऊंट, बिलाव और मढ़े आदि के सड़े-गले शरीरों की दुर्गन्धो को अपेक्षा नरकों में अनन्तमुणी दुर्गन्ध है।
उपयुक्त जन्मभूमियों का विस्तार जघन्यरूप से पांच कोस, उत्कृष्ट रूप से चार सौ कोस और मध्यम रूप में दस-पन्द्रह कोस प्रमाण हैं।
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८. मध्यलोक की वापियों व कुण्डों का विस्तार :१. जम्बूद्वीप सम्बन्धी
नाम
लम्याई |
चौड़ाई
ति.प.। | गहराई ।
| ४. । गा.
रा. बा.।३। सू. । ह. पु. ( वि. स. | F वा. 1 पृ. । पं. ५/ गा. | गा. | .
.
१०० ध..
सामान्य नियम–सरोवरों का विस्तार अपनी गहराई से ५० गुना है (ह. पु. ५१५०७) द्रहों को लम्याई अपने-अपने पर्वतों की
ऊंचाई से १० गुनी है, चौड़ाई ५ गुनी और गहराई दसवें भाग है । (त्रि. सा. १५६८); (ज. प. ।३।७१) जम्बूद्वीप की जगती के मूलवाली उत्कृष्ट
२०० घ. १०० ध. .. मध्यम १५० ध.
१५ घ. जघन्य
५० घ. १० घ. पनद्रह '१००० ध. ५०० ध.
| (त. सू. ३।१५-१६) महापन
पद्म से दुगुना
१७२७ तिगिछ
पद्म से चौगुना केसरी
तिगिरवत्
२३२३ पुण्डरीक
महापणवत्
२३४४ महापुण्डरीक
पावत्
२३५५ देवकूरु के द्रह
पद्मद्रबत्
२०६० १०।१३।१७४।३० १६५ । ६५६६५७ उत्तरकुरु के द्र
देवकुरुवत् नन्दनवन की वापियाँ ५० यो. २५ यो १० यो. सौमनस वन को वापियां । दृष्टि सं०१
२५ यो. २५ यो. ५ यो. - १९४७ । दृष्टि सं०२ नन्दनवनवत्
१०।१३।१८०७ गंगा कुण्ड
गोलाई का व्यास गहराई
दे. पूर्वोक्त सामान्य नियम
दे. पूर्वोक्त सामान्य नियम
दृष्टि सं० १ दृष्टि सं०२
१० यो. १६.यो.
१. यो. २१६-२२१ | १० यो. ] २१८ । २२।५।१८७।२५ । १४२ ( ५८७ ।
१७६
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________________
१० यो. । २१६
२२।५।१८७।३२
२२।३-८।१८६
दृष्टि सं०३
| ६२३ यो, सिन्धु कुण्ड
गंगाकुण्डवत मागे सीतासीतोदा तक
उत्तरोत्तर दुगना प्रागे रक्तारक्तोदा तक
उत्तरोत्तर प्राधा ३२ विदेहों की नदियों के कुण्ड ६३ यो. विभंगा के कुण्ड
| १२० यो.
२२।३-१४॥१८६
१० यो.
१०।१३।१७६।२४ १०।१३।१७६।१०।
१० यो.
जन्म भूमियों का ज. विस्तार को. ५, उ. वि. को ४००, म. वि. को. १०-१५ । जन्म भूमियों की ऊंचाई अपने-अपने विस्तार को अपेक्षा पांच गुणी है। ये जन्मभूमियां सात, तीन, दो, एक और शंच कोन वाली हैं। ज. भू. की. ज. ऊंचाई को, २५, उ. ऊचाई २०००, म.उ. ५०-५५ ।
जन्म मिदों में एक, दो, तीन, पांच और सात द्वार-कोन और इतने ही दरवाजे होते हैं। इस प्रकार की व्यवस्था केवल श्रेणीबद्ध और प्रकीर्गक बिलों में ही है ।।
इन्द्रक बिनों में ये जन्म भूमियां लीन द्वार और तीन कोनों से युक्त हैं। उक्त सत्र ही जन्म भूमियाँ नित्य ही कस्तूरी से अनन्तगुणित काग्ने अधिकार से व्याप्त है ।
इस प्रकार जन्मभूमियों का वर्णन समाप्त हया।
नारको जीव पाप से नरक बिल में उत्पन्न होकर और एक मूहर्तमान काल में छह पर्याप्तियों को प्राप्त कर आकस्मिक मय से युक्त होता है।
पश्चात् वह नारकी जीव भय मे कांपता हुआ बड़े कष्ट से चलने के लिये प्रस्तुत होकर और छत्तीस आयुषों के मध्य में गिरकर वहां से उछलता है।
प्रयम पथ्वी में जीद सात उत्सेध योजन और छह हजार पाँच सौ धनुष प्रमाण उछलता है, इनके आगे शेष पदियों में उछलने का प्रमाण क्रम मे उत्तरोत्तर दूना-दुना है।
पो. ७, प. ६५०० ।
जिस प्रकार दुष्ट व्याघ्र मृग के बच्चे को देखकर उसके ऊपर टूट पड़ता है, उसी प्रकार कर पुराने नारको उस नवीन नारकी को देखकर धमकाते हुए उराकी और दौड़ते हैं।
जिस प्रकार कुत्तों के झंड एक-दूसरे को दारुण दुख देते हैं, उसी प्रकार भारकी नित्य ही परस्पर दुरसह पीड़ादिक किया करते हैं।
नारकी जीव चक्र, बाण, शूली, तोमर, मुद्गर, करोंत, भाला, सुई, मुगल और सलवार इत्यादिक शस्त्रास्त्र, वन एवं पर्वत की आग तथा भेड़िया, व्याघ्र तरक्ष, शृगाल, कुत्ता, बिलाय और सिंह, इन पशुओं के अनुरूप परस्पर में सदैव अपने-अपने शरीर को विक्रिया किया करते हैं।
__ अन्य नारकी जीव गहरा बिल. घुओं, वायु अत्यन्त तथा तगा हुआ खप्पर, यंत्र, 'चूल्ला, कण्डनी (एक प्रकार का कूटने का उपकरण), चपकी औ वीं (नदी), इनके प्राकार रूप अपने-अपने शरीर की विक्रिया करते हैं ।
उपर्युक्त गारकी शूकर, दावानल तथा शोणित और कीड़ों से युक्त मरित, दह, कूप और वापी आदि का पश्चफ-पृथक रूप से रहित अपने-अपने शरीर को विक्रिया किस करते हैं । तात्पर्य यह कि नारकियों के अपृथक् विक्रिया होती है, देवों के समान उनके पृथक विक्रिया नहीं होती।
बजमय विकट मुख वाले ब्यान और सिंहादिक, पीछे को भागने वाले अन्य नारकी को कहीं पर भी क्रोध से या डालते हैं ।
कोई नारी जीव बिगस विलाप करते हुए हजारों यंत्रों (कोल्हुओं) से पेले जाते हैं । दूसरे नारकी जीय वहाँ पर हो जाते हैं, और इतर नारकी विविध प्रकारों से छेदे जाते हैं।
कोई नारकी परस्पर में एक-दूसरे के द्वारा बचतुल्य सांकलों से. यंमों से बांधे जाते हैं, और कोई अत्यन्त जाज्वल्यमान दुष्प्रथ्य अग्नि में फेंके जाते हैं।
कोई नारकी करोंत (आरी) के कांटों के मुखों से फाड़े जाते हैं, और इतर नारकी भयंकर और विचित्र भालों से वेधे जाते हैं। कितने ही नारकी जीन लोहे की कड़ाहियों में स्थित तपे हुए तेल मे फेंके जाते हैं, और कितने ही जलती हुई ज्वालानों से उत्कट अग्नि
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२. अन्य द्वीप सम्बन्धी
नाम
लम्बाई । चीड़ाई | गहराई ! नि. प. रा. वा. ॥३॥सू.। | ह.पु.१५॥ | त्रि.सा.
। गा. । व. पु. प.
ज.प.अ.
गा.
। यो. | यो. धातकी खण्ड के पक्ष जम्बूद्वीप से दूने
यो.
३३।५।१६५१२३
प्रादि द्रह नन्दीश्वर द्वीप की |
बापियां
१००० । ६०
३५०-१६८।११। १६५७ । ६७१
में पकाये जाते हैं।
कोयले और उपलों की आग में जल रहा है महान शरीर जिनका, ऐसे में नारकी जीव शीतल जल समझ दौड़कर वतरिणी नदी में प्रवेश करते हैं।
उस वतरिणी नदी में कतरी (कैंची) के समान तीक्ष्ण जल के आकार में परिणत हुए दूसरे नारकी उन नारकियों के शरीरों को दुस्मह अनेक प्रकार की पीड़ाओं को पहुंचाते हुए वेदते हैं।
वतरिणी नदी के जल से नारकी कछुया, मेंढक और मगर प्रभूति जलचर जीवों के विविध रूपों को धारण एक दूसरे को भक्षण करते हैं।
पश्चात वे नारकी विस्तीर्ण शिलाओं के बीच में बिलों को देखकर झटपट उनमें प्रवेश करते हैं, परन्तु वहां पर भी सहसा विशाल ज्वालाभों वाली महान् अग्नि उठती है ।
पुनः जिनके सम्पूर्ण अग तीक्षण अग्नि की ज्वालाओं के समूहों से जल रहे हैं। ऐसे वे ही नारकी शीतल छाया जानकर असिपत्र बन में प्रवेश करते हैं।
वहां पर विविध प्रकार के वृक्षों के गुच्छे, पत्र और फलों के पुज पवन से ताडित होकर उन नारकियों के ऊपर दुष्प्रेक्ष्य (अदर्शनीय वादण्ड के समान गिरते हैं।
इसके अतिरिक्त उस असिपत्रवन से चक्र, वाण, कनक (शलाकाकार ज्योतिः पिंड) तोमर (बारराविशेष), मुद्गर, तलवार, भाला. मसल तथा और भी अस्त्र-शस्त्र उन नारकियों के सिर पर गिरते हैं।
अनन्तर, जिनके शिर छिद् गये हैं, हाथ खण्डित हो गये हैं, नेत्र अधित हैं, आंतों के समूह लंबायमान हैं, और शरीर खून से लाल तथा भवानक हैं. ऐसे वे नारकी अशरण होकर उस चन को भी छोड़ देते हैं।
गद्ध, गरुड, काक तथा और भी वज्रमय मुखवाले व तीक्ष्ण दांतों वाले पक्षी नारकियों के शरीर को काटकर उन्हें खाते हैं।
अन्य नारकी उन नारकियों के अग और उपांगों की हड्डियों का प्रचंड घातों से चूर्ण करके उत्पन्न हुए विस्तृत धावों में बहत्त क्षार पदार्थों को डालते हैं।
बावों में क्षार द्वषों के डालने से यद्यपि वे नारकी करुणापूर्ण बिलाप करते हैं और चरण युगल में लगते हैं, तथापि अन्य नारकी उस प्रकार खिन्न अवस्था में ही उन्हें खण्ड-खण्ड करके चुल्हे में डालते हैं।
इतर नारकी पर स्त्री में आसक्त रहने वाले जीवों के शरीरों में अतिशय तपी हुई सोहमय युक्ती स्त्री की मूर्ति को दृढ़ता से लगाते हैं और उन्हें जलती हुई आग में फेंकते हैं ।
जो पूर्व भव में मांस भक्षण के प्रेमी थे उनके पारीर के मांस को काटकर अन्य मारकी रक्त से भीगे हुए उन्हीं के मांस खंडों को उनके ही मुखों में डालते हैं।
१७८
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नाम
२. वाई द्वीप के कमलों का विस्तार
पद्मद्र का
मूल कमल
मूल कमल
परिवार कमल
मागे तिछिद्रह
तक
केसरी आदि के
दह
हिमवान् पर
कमलाकार कूट
ऊंचाई
घातकीखंड के
विस्तार
ऊंचाई
दृष्टि सं० १
दृष्टि सं० २
विस्तार-
दृष्टि सं० १
दृष्टि सं० २
ऊंचाई
विस्तार
कमल सामान्य
का
४
४ या २
1
नाल का
मृणाल को
पत्ता को
४२
जल के
१
ऊपर
२
2:40
१
सर्वत्र उपरोक्त से आधा
उत्तरोत्तर दूना
१२
१२५
।
१६७०
नोट :- जल के भीतर १० योजन या ४० कोस तथा ऊपर दो कोस (रा. बा. १८५६); (ह.पु. ५११२८ ) ;
(जि.सा. ५७१) (ज. प. ३।७४)
1
तिमि यदि पत्
१
२
कणिका का
१
२
सि. प. ४ रा.बा. ३ हु.पु.।५।
9.18 |
| १७-१८५१
पंक्ति
गा.
१
ग्रा.
१६६७
१६७०
१७६
१६६७
१६७९
१२
१
जम्बूद्वीप वालों से दूने ( रा. वा. । ३।३३।५।१६५। २३)
5,8
!
१६
त. सू|३|१८
स.मू. | ३|२६|
२०६ | २२|२०१८८३
२५४
१२५
त्रिसा.
गा.
| २७०-५७१
ज. प. प्र.
५७०-५७१ ६।७४
ग्रा.
३।७४
| ३|१२७
३।७४
मधु और मञ्च का सेवन करने वाले प्राणियों के मुखों में नारकी अत्यन्त सपे हुए द्रवित लोहे को डालते हैं, जिससे उनके अवयवसमूह भी पिघल जाते हैं ।
जिस प्रकार तलवार के प्रहार से भिन्न हुआ कुएं का जल फिर से मिल जाता है, इसी प्रकार अनेकानेक शस्त्रों से ा गया नारकियों का शरीर भी फिर मिल जाता है। तात्पर्य यह कि अनेकानेक शस्त्रों से छेदने पर भी नारकियों का अकाल मरा नहीं होता ।
नरकों में कच्छुरि (कपिकच्छु, केवांच), यातनायें किया करते हैं।
करोत, सुई और खर की आग इत्यादि विवध प्रकारों से नारकी परस्पर में एक-दूसरे को
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धनों पृथ्वी के नारकी अत्यन्त तीखी और कड़वी कथरि (कचरी या अचार ?) की शक्ति ने अनन्तगुणी लोखी और कड़वी थोड़ी सी मट्टी को चिरकाल में खाते हैं।
नरकों में यकरी, हाथी, मन, बोड़ा, गधा, ऊंट, बिल्ली और मढे आदि के सड़े हुए शरीरों की गन्ध से अनन्तगुणी दुर्गन्धवाला अाहार होता है।
रत्नप्रभा से लेकर अन्तिम पृथ्वीपर्यन्त अत्यन्त सड़ा, अशुभ और उत्तरोत्तर असंख्यात-गुण ग्लानिकर अन्न आहार होता है।
धर्मा पृथ्वी में जो आहार है, उसकी गन्ध में वहाँ पर एक कोस के भीतर स्थित जीव मर सकते हैं, इसके आगे शेष द्वितीयादिक पुध्वियों में इसकी घातक शक्ति, आधा-आधा कोस और भी बढ़ती गई है ।
धर्मा १; वंशामेघा २, मज. अरि ३; मघ. माघ. ४ कोस ।
पूर्व में देवायुका बन्ध करने वाले कोई नर या तियेच अनन्तानुबन्धी में से किसी एक का उदध आजाने ले रत्नत्रय को नष्ट करके अगुर कुमार जाति के देव होते हैं।
सिकतानन, अमिपत्र, महायल, महाकाल, श्याम और शबल, रुद्र, अबरीष, विलसित नामक, महारुद्र, महावर नामक, काल, तथा अग्निरुद्ध नामक, कुम्भ और वैतरणि आदि असुर कुमार जाति के देव तीसरी बालुका प्रभा पृथ्वी तक जाकर नारकियों को कोधित कराते हैं।
इस क्षेत्र में जिस प्रकार मनुष्य मढ़े और भै से आदि के युद्ध को देखते हैं, उसी प्रकार नरक में असुर जाति के देव नारकियों के मुद्ध को देखते हैं और मन में सन्तुष्ट होते हैं।
रत्नप्रभादिक पुध्वियों में नारकी जीव, जब तक क्रमशः एक, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस अर्गबोपम (सागरोपम) पूर्ण होते हैं, तब तक बहुत भारी दुम्स' को प्राप्त करते हैं।
नरकों में पचने वाला नारकियों को क्षणमात्र के लिये भी सुख नहीं हैं, किन्तु उन्हें सदैव दारुण दुःखों को अनुभव होता रहता है। नारकियों के शरीर कदलीघात (अकालमरण) के बिना आय के अन्त में वायु से ताड़ित मेघों के समान निःशेष विलीन हो जाते हैं।
इस प्रकार पूर्व में किये गये दोषों से जीव नरकों में जिस नाना प्रकार के दुख को प्राप्त करते हैं, उस दुःख के संपूर्ण स्वरूप का वर्णन करने के लिये भला कौन समर्थ है ?
सम्यक्त्वरूपी रलपर्वत के शिखर से मिण्यात्त भावरूपी पदी पर पतित हुआ प्राणी नरकादिक पर्यायों में अत्यन्त दुःख को प्राप्त कर निगोद में प्रवेश करता है।
सम्यक्त्व और देशचारित्र को प्राप्त कर यह जीव विषय सुख के निमित उसते (सम्यक्त्व और चारित्र से) चलायमान हो जाता है, और इसीलिये वह नरकों में अत्यन्त दुःख को भोगकर निमोद में प्रविष्ट होता है।
कभी सम्यक्त्व और सकल संयम को भी प्राप्त कर विषयों के कारण उनसे चलायमान होता हुआ नरकों में अत्यन्त दुःख को पाकर निगोद में प्रवेश करता है।
जिसका चित्त सम्यग्दर्शन से विमुख है तथा जो ज्योतिष और मंत्रादिकों से आजीवका (वृत्ति) करता है, ऐसा जीव नारकादिक में बहुत दुःख को पाकर निगोद में प्रवेश करता है।
. दुःख के स्वरूप का वर्णन समाप्त हुआ। धर्मा आदि तीन पश्विवों में मिथ्यात्व भाव से संयुक्त नारकियों में से कोई जाति स्मरमा से, कोई दुर्वार वेदना से व्यथित होकर, और धर्म से सम्बन्ध रखने वाली कथाओं को देवों से सुनकर अनन्त भावों के पूर्ण करने में निमित्त भूत ऐसे सम्यग्दर्शन को ग्रहण करते हैं।
काभादिकोष चार पुश्चियों के नारको जीव देवकृत प्रबोध के बिना जाति स्मरण और बेदना के अनुभवमात्र से ही सम्यग्दर्शन को ग्रहण करते हैं।
सम्यग्दर्शन के ग्रहण का कथन समाप्त हुआ। भीमा को पीते हैं, माँस की अभिलाषा करते हैं, जीवों की बात करते हैं, और मृगया में तृप्त होते हैं, वे क्षणमात्र के सुख के लिये पाप उत्पन्न करते हैं और नरक में अनन्त दुख को पाते हैं।
जो जीव लोभ, क्रोध, भय अथवा मोह के बल से असत्य बोलते हैं, वे निरंतर भय को उत्पन्न करने वाले, महान कप्टकारक, और अत्यन्त भयानक नरक में पड़ते हैं।
भीत को छेदकर, प्रिय जनको मारकर और पट्टादिक को ग्रहण करके धन को हरने तथा अन्य संकड़ों अन्यायों से मूर्ख लोग भयानक नरक में तीन दुख को भोगते हैं।
लज्जा से रहित, काम से उन्मत्त जवानी में मस्त, पर स्त्री में आसक्त, और रात-दिन मैथुन सेवन करने वाले प्रारणी नरकों में जाकर घोर दुख को प्राप्त करते हैं।
पुत्र, स्त्री, स्वजन और मित्र के जीवनाथं जो लोग दूसरों को ठगकर तृष्णा को बढ़ाते हैं, तथा पर के धन को हरते हैं, वे तीब दुखको उत्पन्न करने वाले नरक में जाते हैं ।
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भगवान महावीर
और
उनका तत्व दर्शन
[तृतीय अध्याय
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काल का बर्णन
अथ त्रिविधः कालः ॥१॥ अर्थ-इस प्रकार मंगल निमित्त विशेष इष्ट देवता को नमस्कार करने के बाद कहते हैं कि विविधः कालः अनन्तानन्तरूप अतीतकाल से भी अनन्त गुणित अनागत काल, समयादिक वर्तमान काल, प्रकार से काल तीन प्रकार के होते हैं ।
द्विविधः ॥२॥ __ अर्थ-पांच भरत और पांच ऐरावनों की अपेक्षा से शरीर को ऊंचाई बल और प्रायु आदि की हानि से युक्त दस कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण वाला अवसिपणी काल तथा उत्घ आयु बलादि की वृद्धिवाला दशकौड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्सर्पिणी काल है। इस प्रकार काल के दो भेद हो जाते हैं।
षड्विधोवा ॥३॥ अर्थ--सुषम सुषमा, १ सुषमा, २ सुषमा दुःषमा ३ दुषम सुषमा, ३ दुःपमा, ५ प्रतिदुःषमा ६ ऐसे अवसर्पिणी काल के छः भेद हैं । इस प्रकार इनसे उलटे अति दुःषमा १ दुषमा २ दुःषमसुषमा ३ सुषम दुःपमा ४ सुषमा ५ सुषम सुषमा ६ ये उत्सपिणी के छ: भेद हैं।
इस अवपिणो में सुषम सषमा नाम का जो प्रथम काल है वह चार कोडाकोड़ी सागर प्रमाण प्रवर्तता है, इसमें उत्तम भोग भूमि की सी प्रवृत्ति होती है। उस युग के स्त्री पुरुष ६००० धनुष की ऊंचाई वाले तथा तीन पल्योपम आयु वाले और तीन दिन के बाद बदरी फल के प्रमाण पाहार लेने वाले होते हैं। उन के शरीर को कांति बाल सूर्य के समान होती है। समचतु रस्र संस्थान, वजवृषभनाराच संहनन तथा ३२ शुभ लक्षणों से युक्त होते हैं । मार्दव और आर्जव गुण से युक्त वे सत्य सुकोमल सुभाषा भाषी होते हैं, उनकी बोली मृदु मधुर वीणा के बाद के समान होती है, वे ६००० हजार हाथियों के समान बल से युक्त होते है । क्रोध लोभ, मद मात्सर्य और मान से रहित होते हैं, सहज १, शारीरिक २ आगंतुक ३ दुःख से रहित होते हैं । संगीत यादि विद्यामों में प्रवीण होते हैं, सुन्दर रूप वाले होते हैं, सगंध निःस्वास बाले होते हैं तथा मिथ्यात्वादि चार गुणस्थान बाले होते हैं, उपशमादि सम्यक्त्व के धारक होते हैं, जघन्य कापोत पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या रूप परिणाम बाले होते हैं, निहार रहित होते हैं, अनपवयं प्रायु वाले होते हैं, जन्म से हो बालक कुमार यौवन और मरण पर्याय से युक्त होते हैं, रोग शोक खेद और स्वेद आदि से रहित, भाई बहन के विकल्प से रहित, परस्पर प्रमवाले होते हैं। आपस में प्रेम पूर्वक दंपति भाव को लेकर अपने समय को बिताते हैं । अपने संकल्प मात्र से ही अपने को देने वाले दश प्रकार के कल्पवृक्षों से भोगोपभोग सामग्री प्राप्तकर भोगते हुए पाबु व्यतीत करते हैं जब अपनी आयु में नव महीने का समय शेष रह जाता है, तब वह युगल एक बार गर्भ धारण कर फिर अपनी प्रायु के छ महीने बाकी रहें उसमें देवायू को बांधकर मरण के समय दोनों दम्पत्ति स्वर्ग में देव होते हैं। जो सम्यग्दष्टि जीव होते हैं, वे सब तो सौधर्म प्रादि स्वर्ग में और मिथ्यादष्टि जीव भवनत्रिक में जाकर पैदा होते हैं, यहाँ पर छोड़ा हुया युगल का शरीर तुरन्त ही ओस के समान पिघल जाता है, उनके द्वारा उत्पन्न हुए स्त्रो पुरुष के जोड़े तीन दिन तक तो अंगुष्ठ को चूसते हैं, तीन दिन के बाद रेंगने लगते हैं फिर तीन दिन बाद उनका मन स्थिर हो जाता है फिर तीन दिनों बाद यौवन प्राप्त होता है फिर तीन दिन बाद कथा सुनने वाले होते हैं फिर तीन दिन बाद सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होते है । इस प्रकार २१ दिन में संपूर्ण कला सम्पन्न हो जाते हैं।
अर्थ उस भूमि में रात और दिन का गरीब और अमीर आदि का भेद नहीं होता है । विष सर्प समूह अकाल वर्षा तुफान दावानल इत्यादि उस भूमि में नहीं होता है, पूनः पचेन्द्रिय सम्मुर्छन विकलेन्द्रिय असनी पद्रिय अपर्याप्त जीव तथा
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जलचर जीव वहाँ नहीं होते हैं। स्थलचर और नभचर जाति के जीव युगल रूप से उत्पन्न होते हैं क्योंकि उस क्षेत्र में स्वभाव से परस्पर विरोध रहित तथा यहां पर होने वाले सरस स्वदिष्ट तृण पत्र पुष्प फलादि को खाकर अत्यंत निर्मल पानी को पीकर सीन पल्मोन काल तक जीकर निज आयु अवसान काल में स्मरण से मरकर देवगति में उत्पन्न होते हैं।
सुपमा (मध्यम भोगभूमिका) काल
मध्यम भोगभूमि का काल तीन कोटाकोड़ी सागरोपम होता है तो उसे आयु और बस आदि क्रमशः कम होते ग्राकर इस काल के शुरू में दो कोस का शरीर दो पयोषन भायु दो दिन के अंतर से फल मात्र माहार एक बार ग्रहण करते है, पूर्ण चन्द्र के प्रकाश के समान उनके शरीर की कांति होती है, जन्म से पांच दिन तक अंगुष्ठ चूसते हुए श्रमशः ३५ दिन में सम्पूर्ण कला सम्पन्न होते हैं। बाकी और बात पूर्व की भांति समझना । सुषम दुधमा (जघन्य भोगभूमि का) बाल
सागर का होता है, सो उत्सेध आयु तथा बल क्रम
यह जघन्य भोगभूमि का काल यानी तीसरा काल दो कोड़ाकोड़ी से कम होते-होते इस काल के आदि में एक कोस का शरीर एक पल्योपम आयु और एक दिन अंतर से आंवला प्रमाण एक बार आहार लेते हैं । प्रियंगु (श्याम) वर्ण शरीर होता है। जन्म से सात दिन तक अंगुष्ठ चूसते हुए उनचास दिन में सर्व कला संपन्न वन जाते हैं, बाकी सब पूर्ववत् समभता इस प्रकार यह अनवस्थित भोगभूमि का क्रम है।
लोथा दुषमा- सुषमा काल
प्रमाण का होता है। सो क्रमश:
चौया धनवस्थित कर्मभूमि का काल ४२ हजार वर्ष कम एक फोड़ाफोड़ी सागरोपम घटकर इस काल के आदि में ५०० धनुष शरीर कोड़ पूर्व प्रमित आयु प्रतिदिन आहार करने वाले पंच वर्ण शरीर महाबल पराक्रमणाली घनेक प्रकार के भोग को भोगने वाले धर्मानुरक्त होकर प्रवर्तन करने वाले इस काल में बेसठशाला का पुरुष क्रम से उत्पन्न होते हैं।
पांचवा दुषमा काल—
जोकि २१ वर्ष का होता है। उस काल के स्त्री पुरुष प्रारम्भ में १२० वर्ष की आयु वाले सात हाय प्रमाण शरीर वाले वर्ष वह याहारी कम ताकत वाले जीवाचार से हीन, भोगादि में आसक्त रहने वाले होते हैं ऐसे इस पंचम काल के अन्त में अन्तिम प्रतिपदा के दिन पूर्वान्ह में धर्म का नाश मध्याह्न में राजा का नाश और अपरान्ह में अग्नि का नाश का स्वभाव से हो जाएगा ।
छठवां अति दुषमा काल
-
यह काल भी २१ हजार वर्ष का होता है सो श्रायु काय और बल कम होते-होते इस छठे काल के प्रारम्भ में मनुष्यों
पन्द्रह
के शरीर की ऊंचाई दो हाथ की आयु बीस वर्ष तथा धूम्र वर्ण होगा, निरंतर बहार करने वाले मनुष्य होंगे तथा इस छठे काल के अन्त में वर्ष की आयु और एक हाथ का शरीर होगा। इस काल में पद्कर्म का प्रभाव, जाति पति का प्रभाव कुल धर्म का प्रभाव इत्यादि होकर लोग निर्भय स्वेच्छाचारी हो जायेंगे, वस्त्रालंकार से रहित नग्न विचरने लगेगे मछली भादि का आहार करने वाले होंगे पशु पक्षी के समान उनकी जीवन चर्या हांगो पति पत्नी का भी नाता नहीं रहेगा ऐसा इस छठे काल के अंत में जब ४६ दिन बाकी रहेंगे तब सात रोज तक तीक्ष्ण वायु चलेगी सात दिन श्रत्यंत भयंकर शीत पड़ेगी सात दिन वर्षा होगी फिर सात दिन विष को दृष्टि होगी इसके बाद सात दिन तक अग्नि की वर्षा होगी जिससे कि भारत और ऐरावत क्षेत्र के प्रार्य खंडों में क्षुद्र पर्वत उपसमुद्र छोटी-छोटी नदियां ये सब भस्म होकर संपूर्ण पृथ्वी समतल हो जावेगी और सात दिन तक रज और धुवां से आकाश व्याप्त रहेगा। इस प्रकार इन क्षेत्रों में चौथा पांचवा और छठा इन तीनों कालों में अनवस्थित कर्म भूमि होगी इसके अनन्तर जिस प्रकार शुक्लपक्ष के बाद कृष्णा पक्ष आाता है उसी प्रकार प्रवसर्पणी के बाद उत्सर्पणी का का प्रारम्भ होता है जिसमें सबसे पहले अति दुषमा काल बारम्भ होता है।
प्रति
दुषमा काल ---
इस काल में मनुष्यों की आयु १५ वर्ष और उत्से एक हाथ की होगी जो कि श्रम बढ़ती रहती है। इस काल के
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णमोकार थ
भोगभूमि में दस प्रकार के कल्प वृक्षों से भोग सामिगी गृहाँग भाजनाँग भोजनाँग पानाँग वस्त्राँग
पनामा भाकिया।
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कल्प वृक्ष
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अति लुभाने वाली सुगन्ध को देने वाले जाति नही, जम्पा, बोलशादिनाना प्रकार ने पत्री माला को मालाकार के समान समयानुसार सम्पन्न कर देने वाले मालांग जाति के कल्पवृक्ष होते हैं।
दशों दिशाओं में उद्योग करने वाले मणिमय नाना प्रकार के दीपकों को हर समय प्रदान करते हैं ऐसे दीपांग जाति के कल्पवृक्ष हैं।
भोग भूमियों के मन को प्रसन्न करने वाली ज्योति को निरंतर फैलाने वाले ज्योतिरांग जानि के कल्प वृक्ष हैं ।
अति समतुल आवाज करने वाले घन शुषिर तथा वितत जाति के अनेक प्रकार के बादित्रों को देने वाले, ध्वनि से : मन को उत्साह तथा दीरत्व पैदा करने वाले वाद्यांग जाति के कल्पवृक्ष हैं।।
भरत और ऐरावत इन दोनों प्रकार के क्षेत्रों में अरहट के घट के समान उत्सपिणी के वाद अवसर्पिणी तथा अवसपिणी के बाद फिर उत्सपिणी इस प्रकार निरंतर अनंतानंत काल हो गये हैं और आगे होते रहेंगे।
इस प्रकार प्रवसपिणी और उत्सपिणी काल असंख्यात वर्ष बीत जाने के बाद एक हुंडावसर्पिणी काल होता है। अब उसी के चिन्ह को बतलाते हैं ।
उसमें सुषम दुःषमा काल के समय में वर्षा होकर धूप पड़ती है जिससे विकलंद्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है।
कल्प वृक्षों का विराम होते ही तत्काल प्रथम तीर्थकर और प्रथम चक्रवर्ती को विजय में भंग होता है। तथा उस चयवर्ती के निमित्त से ब्राह्मणों की उत्पत्ति होती है। फिर तीर्थकर तथा वह चक्रवतों निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। एवं मागे भी तीर्थकर चक्री श्रादि होते रहते हैं।
दुःपमा सुषमा काल में क्रमशः (६३) शलाका पुरुषः उत्पन्न होते हैं। वहाँ नवम तीर्थकर के बाद सोलहवे तीर्थकर नक धर्म की हानि होती है। इन सात तीथंकरों के समय में क्रम से, माधा पल्य, का चतुर्थाश, पल्य का द्विभाग पल्य का विभाग पल्य का द्विभाग फिर पल्य का चतुर्थभाग में तो धर्म के पढ़ने वाले और सुनाने वाले होते हैं। इसके बाद पढ़ने वाले और सुनने तथा सुनाने वाले न होने के कारण धर्म विच्छिन्न होता है ।
___ इस काल में एकादश रुद्र होते हैं तथा कलह प्रिय वन नारद होते हैं, और सातवें तेईसवें तथा चौबीसवें तीर्थकर को उपसर्ग होता है।
ततीय चतुर्थ पंचभ काल में श्री जैन धर्म के नाशक कई प्रकार के फुदेव. कुलिंग दुष्ट पापिष्ट ऐसे चंडाल शबर पान नाहल चिलातादि कुल वाले खोटे जीव उत्पन्न होते हैं। तथा दुःखम काल में कल्कि और उप कल्कि ऐसे ४२ जीव उत्पन्न होते हैं। तथा प्रतिवृष्टि अनावृष्टि भूवृद्धि वनाग्नि इत्यादि अनेक प्रकार के दोष तथा विचित्र भेद उत्पन्न होते हैं। और इस भरत क्षेत्र के हंडावसपिणी के तृतीय काल के अन्त का पाठवा भाग बाकी रहने से कल्प वृक्ष के वीर्य की हानि रूप में भूमि की उत्पत्ति का चिन्ह प्रगट होने से उसकी सूचना को बतलाने वाले मनुरों के नाम बतलाते हैं।
कुलकर (मनु) चतुर्दश कुलकराः इति
इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की अपेक्षा से प्रतिश्रुति १ सन्मति ३ क्षेमॅकर ३ क्षेमंधर ४ सीमकर ५ सीमंधर विमल वाहन ७ चक्षुष्मान ८ यशश्वी अभिचन्द्र १० चंद्राभ ११ मरुदेव १२ प्रसेनजित १३ नाभिराज १४ ऐसे चौदह कलकर अथवा मनने पर्वभव में विदेह क्षेत्र में सत्पात्र को विशेष रूप से माहार दान दिया। उसके फलस्वरूप मनुष्यायु को बांधकर तत्पश्चात क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करके बहाँ से पाकर इस भरत क्षेत्र के क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर कुछ लोग अवधिज्ञान से वा कक जातिस्मरण से कल्प वृक्ष की सामर्थ्य में हानि उत्पन्न होती है उसके स्वरूप को समझते हैं। वे इस प्रकार हैं:
ये सभी कलकर पूर्व भव में विदेह क्षेत्र के क्षत्रिय राजकुमार थे, मिथ्यात्व दशा में इन्होंने मनुष्य प्राय का बंध कर लिया था। फिर इन्होंने मुनि प्रादिक सत्पात्रों को विधि सहित भक्ति पूर्वक आहार दान दिया, दुखी जीवों का दुख करुणा भाव से दर किया। तथा केवली श्रुतकेवली के पाद मूल में क्षायक सम्यक्त्व प्राप्त किया। विशिष्ट दान के प्रभाव से ये भोगमि में उत्पन्न हुए। इनमें से अनेक कलकर पूर्वभव में अवधिज्ञानी थे, इस भव में भी अवधिज्ञानी हुए। अतः अपने
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प्रतिश्रुति कुलकर वायु पल्य के दशव भाग शरीर की ऊँचाई १८०० धनुष । जनता को मृर्य चन्द्रमा ज्योतिषी देवों से न डरने का प्राश्यापन दिया।
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आचार्य विधिसागर
सन्मति कुलंकर
आपके सौंभाग प्रमाण, शरीर की ऊंचाई १३०० धनुष, जनत) को प्रह, नक्षत्र, नारों के प्रकाश से भयभीत न होने का आश्वासन दिया और बनाया कि ये ज्योतिषी देवों के विमान हैं घबराओ मत।
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मार्गदर्शक
आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज
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:
:
क्षेमंकर कुलकर
आयु ११००० पल्य, शरीर की ऊंचाई ८०० धनुप, शरीर का रंग स्वर्ण जैसा । उनके ममय में सिंह, बाघ आदि जानवर दुष्ट प्रकृति के हो गये. जिलसे स्त्री पुरुष भयभीत हए । तब क्षेमंकर कुलकर ने सब को समझाया कि ये पशु शान्त स्वभाव के नहीं रहे, पहले की तरह इन का विश्वास मत करो और सावधान रहो। यह सुन कर
प्रजा के लोग सचेत और निर्भय हो गए। .
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1416
मार्गदर्शक :
क्षेमन्धर कुलकर आयु पल्य के दस हजारवे भाग प्रमाण, शरीर की ऊचाई ४५ धनुष । इनके समय में सिंह, बाघ आदि और अधिक क्रूर बन गप जनता में भारी भय फैल गया। उन्होंने लोगों को पशुओं की दुष्ट प्रकृति से परिचय कराया और उनसे सुरक्षा का उपाय बताया। दीप जाति के कल्प वृक्ष की हानि हो जाने से
दीपायोत करने का उपाय भी बतलाया।
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सीमङ्कर कुलकर प्राय पल्य के लास्ववे भाग शरीर की ऊचाई ७५० धनुष
उस समय के लोगों की वृक्षों की सीमा बतलाई।
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सीमन्धर कुलकर
प्रायु पल्य के दश लाखो भाग प्रमाण शरीर की ऊचाई ७५० धनुष । उस समय के लोगों को भिन्न मिन्न रहने की सीमा प्रतलाई
निराकुल करके आपम की कल मिटाई।
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चचुष्मान कुलकर आयु पल्य के दस करोड़वें भाग, शरीर की उचाई ६७५ धनुष । भोग भूमि में बच्चों के युगल पैदा होते ही माता पिता की मृत्यु हो जाती थी, वे अपने बच्चों का मुख भी नहीं देख पाते थे, इनके पैदा होते ही युगल बच्चों के पैदा होते समय माता पिता का मरण बन्द हो गया, जिसे देख कर लोग घबराये परन्तु इन्होंने समझाया
कि ये तो नुम्हारे बच्चे हैं इनसे मन घबरानो।
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समय के लोगों की कठिनाइयों का प्रतिकार किया अवधिज्ञान से जानकर उनकी समस्या सुलझाई और कुलकर अवधिज्ञानो तो नहीं थे किन्तु विशेष ज्ञानो थे, जाति स्मरण के धारक हुए थे उन्होंने उस समय कल्पवृक्षों की हानि के द्वारा लोगों को कठिनाईयों को जानकर उनका प्रतिकार करके जनता का कष्ट दूर किया । कुलकरों का दूसरा नाम मनु भो है। इसका खुलासा इस . प्रकार है।
प्रतिश्रुति कुलकर सूपम दूपमा नामक नीसरे काल में पल्य का पाठवां भाग प्रमाण समय जब शेष रह जाता तब स्वर्ण समान कांति वाले प्रतिश्रति कुलकर उत्पन्न हुए। उनकी आयु पल्य के दशवें भाग प्रमाण थी उनका शरीर अठारह सौ १८०० धनूप ऊंचा था और उनकी देवी (स्त्री) स्वयंप्रभा थी।
उस समय ज्योतिरांग कल्पवृक्षों का प्रकाश कुछ मंद पड़ गया था इसलिये सूर्य और चन्द्र दिखाई देने लगे, शुरू में जब चन्द्र और सूर्य दिग्वलाई दिगे वह प्राषाढ़ की पूर्णिमा का दिन था । यह उस समय के लिये एक अद्भुत विचित्र घटना थी, क्यों कि उससे पहले कभी ज्योतिरांग कल्पवृक्षों के महान प्रकाश के कारण सूर्य चन्द्र ग्राकाश में दिखाई नहीं देते थे। इस कारण उस समय के स्त्री पुरुष सूर्य चन्द्र को देखकर भयभीत हुए कि यह क्या भयानक चीज दीख रही हैं, क्या कोई भयानक उत्पात होने वाला है।
तब ये प्रतिधति कुलकर ने अपने विशेष ज्ञान से जानकर लोगों को समझाया कि ये साकाश में सूर्य चन्द्र नामक ज्योतिषी देवों के प्रमामय विमान हैं, ये सदा रहते हैं। पहले ज्योतिरांग कल्पवृक्षों के तेजस्वी प्रकाश से दिखाई नहीं देते थे किन्तु अब ऋल्पवृक्षों का प्रकाश फीका हो जाने से ये दिखाई देने लगे हैं। तुमको इनसे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं,. ये तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं करेंगे। प्रतिति की प्राश्वासन भरी बात सुनकर जनता निर्भय, और संतुष्ट हुई ।
सन्मति कुलकर प्रतिधति का निधन हो जाने पर तृतीय काल में जब पल्य का अस्सीवां भाग शेष रह गया तब दूसरे कुलकर सन्मति उत्पन्न हए । उनका शरीर १३०० सौ धनुष, ऊंचा था और प्रायु पल्य के सोवभाग प्रमाण थी, उनका शरीर सोने के समानकांतिवाला था। उनकी स्त्री का नाम यशरबती था।
उनके समय में ज्योतिरांग (तेजांग) कल्पवृक्ष प्रायः नष्ट हो गये अतः उसका प्रकाश बहुत फीका हो जाने से ग्रह, नक्षत्र तारे भी दिखायी देने लगे। इन्हें पहले स्त्री-पुरुषों ने कभी नहीं देखा था, अतः लोग इन्हें देख कर बहुत घबराये कि यह क्या है, क्या उपद्रव होने वाला है। तब सन्मति कुलकर ने अपने विशिष्ट ज्ञान से जानकर जनता को समझाया कि सर्य चन्द्रमा के समान ये भी ज्योतिषी देवों के विमान हैं, ये सदा आकाश में रहते हैं। पहले कल्पवृक्षों के तेजस्वी प्रकाश के कारण दिखाई न देते थे, अब उनकी ज्योति बहत फीकी हो जाने से ये दिखाई देने लगे हैं। ये तारे तुमको कुछ हानि नहीं करेंगे। सन्मति की विश्वासजनक वात सुनकर लोगों का भय दूर हुमा और उन्होंने सन्मति का बहुत यादर सत्कार किया।
क्षेमंकर कुलकर सन्मति की मृत्यु हो जाने पर पत्य के ८०० वें (2.) भाग बीत जाने पर तीसरे कुलकर 'क्षेमंकर उत्पन्न हए उनकी पायू (.) पल्य थी, शरीर ८०० धनुष ऊंचा था और उनका रंग सोने जैसा था। उनकी देवो (पत्नी) का नाम "सुनन्दा" था।
उनके सगय में सिंह, बाघ आदि जानवर दृष्ट प्रकृति के हो गये, उनकी भयानक आकृति देखकर उस समय स्त्री पुरुष भयभीत हुए। तब क्षेमंकर कुलकर ने सबको समझाया कि अब काल दोष से ये पशु सौम्य शान्त स्वभाव के नहीं रहे, इस कारण थाप पहले की तरह इनका विश्वास न करें, इनके साथ क्रीड़ा न करें, इनसे सावधान रहें । क्षेमंकर की बात सुनकर स्त्री-पुरुष सचेत और निर्भय हो गये।
.. .क्षेमंधर कुलकर क्षेमंकर कुलकर के स्वर्ग चले जाने पर पल्य के.८ हजार. ) भाग बीत जाने पर चौथे कुलकर क्षेमंधर नामक मन (कलकर) हुये । उनका शरीर ७७५ धनुष ऊंचा था और उनकी आयु पल्प के दश हजारवें ( ) भाग प्रमाण थी, उन की देवी "बिमला' नामक थी।
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इनके समय में सिंह, बाध आदि और अधिक कर तथा हिंसक बन गये, इनसे जनता में बहुत भारी व्याकुलता और भय फैल गया। तब क्षेमंधर मनु ने इन हिंसक पशुओं को दृष्ट प्रकृति का लोगों को परिचय कराया और डंडा आदि से उनको दूर भगा कर अपनी सुरक्षा का उपाय बतलाया तथा दीपक जाति के कल्पवृक्ष की हानि हो जाने से दीपोद्यौत करने का उपाय भी बतलाया, जिससे स्त्री पुरुषों का भय दूर हुआ।
सीमंकर कुलकर क्षेमंधर मनु के स्वर्गवास हो जाने पर पल्य के ८० हजारवें भाग व्यतीत हो जाने पर पांचवें कुलकर "सीमंकर" उत्पन्न हुए। इनका शरीर ७५० धनुष ऊंचा था और ग्रायु पल्य के एक लाख भाग प्रमाण थी। उनकी देवी का नाम "मनोहारी" था। इस मनु ने उस समय के लोगों को वृक्षों की सीमा बताई।
सीमंधर कुलकर सीमकर कुलकर के स्वर्ग चले जाने पर सीमंधर नाम छठे कुलकर हुए। इनका शरीर ७२५ धनुष ऊंचा और आयु पल्य के दश लाख भाग प्रमाण थी, इनकी देवी यशोधरा थी इस मनु ने उस समय के लोगों को भिन्न-भिन्न रहने की सीमा बतलाई पौर निराकुल करके प्रापस की कलह मिटाई।
विमलवाहन कुलकर सीमंधर मन के स्व रोदा के बाद गाय के अस्सी लाखवें भाग प्रमाण समय बीत जाने पर विमलवाहन नामक सानवें कुलकर उत्पन्न हुए। उनकी आयु पत्य के एक करोड़वें हिस्से थी, और शरीर ७०० धनुष था। इनकी देवी का नाम सुमति था।
इन्होंने स्त्री पुरुषों को दुर तक माने जाने की सुविधा के लिए हाथी घोड़े आदि वाहनों पर सवारी करने का ढंग समझाया।
चक्षुष्मान कुलकर सातवें कुलकर विमलवाहन के स्वर्गारोहण के पश्चात पल्य के प्राट करोड़वें . भाग बीत जाने पर ग्राठव मनु चक्षुष्मान उत्पन्न हुए। उनकी प्रायु पल्य के दश करोड़वें भाग प्रमाण थी और शरीर की ऊंचाई धनुष ६७५ थी। उनको देवी का नाम वसुन्धरा था।
इनसे पहले भोगभूमि में बच्चों (लड़की लड़के का युगल) उत्पन्न होते ही माता-पिता की मृत्यु हो जाती थी, वे अपने बच्चों का मुख भी न देख पाते थे किन्तु पाठवें कुलकर के समय माता-पितामों के जोवित रहते हुये बच्चे उत्पन्न होने लगे, यह एक नई धटना थी जिसको कि उस समय के स्त्री-पुरुष नहीं जानते थे, अतः वे पाश्चर्यचकित और भयभीत हुये कि यह क्या मामला है।
तब चक्षुष्मान कुलकर ने स्त्री पुरुषों को समझाया कि ये तुम्हारे पुत्र-पुत्री हैं, इनसे भयभीत मत होग्रो, इनका प्रेम से पालन करो, ये तुम्हारी कुछ हानि नहीं करेंगे । कुलकर की बात सुनकर जनता का भय तथा भ्रम दूर हुआ और उन्होंने कुलकर की स्तुति तथा पूजा की।
यशस्वी कुलकर आठवें कुलकर की मृत्यु हो जाने के बाद पल्य के अस्सी करोड़वें भाग
समय बीत जाने पर वे कुलकर यशस्वो हुये । उनका शरीर ६५० धनुष ऊंचा था और प्रायु पल्य के सौ करोड़वें भाग प्रमाण थी। उनकी देवी का नाम कान्तमाला था।
यशस्वी कुलकर ने यह एक विशेष कार्य किया कि उन भोगभूमिज स्त्री पुरुषों के जीवन काल में ही उनके सन्तान होने लगी थी, उन्होंने लड़के लड़कियों के नाम रखने की पद्धति चालू की।
अभिचन्द्र कुलकर नौवं कुलकर के स्वर्गवास हो जाने पर पल्य के ८०० करोड़वें भाग समय बीत जाने पर दसवें अभिचन्द्र मन हये। उनके शरीर की ऊंचाई छ: सौ पच्चीस ६२५ धनुष और प्रायु एक करोड़ से भाजित पल्य के बराबर थी। उनकी स्त्री का नाम श्रीमती था।
इन्होंने बच्चों के लालन-पालन को, उनको प्रसन्न रखने की उनका रोना बन्द कराने की विधि स्त्री पुरुषों को सिखाई।।
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यशस्वी कुलकर श्रायु पल्य के सौ करोड़ भाग शरीर की उचाई ६५ धनुष । भोग भूमि में उत्पन्न होने वाले बच्चों का नाम रूना चालू करवाया ।
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यावर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर
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अभिचन्द्र कुलकर आयु पल्य के करोड़वं भाग भाजित, शरीर की ऊचाई ६.५धनुष । बच्चों को प्रसन्न रखने की, रोना बन्द कराने की विधि सिखलाई.
बोलने का अभ्यास कराया।
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चन्द्राम कुलकर आयु पल्य के दस हजार करोड़ भाग, शरीर की ऊंचाई ६०० धनुष । इनके समय में बच्चे कुछ अधिक काल तक जीने लगे। सो उनके
जीवन के वर्षों की सीमा बतलाई और निराकुल किया।
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आचार्य श्री सुविहिासभिल जी महाराज
मरुदेव कुलकर
आयु एक लाख करोड़ से भाजित पल्य के बरायर शरीर की ऊँचाई ५४५ धनुष । इनके समय में खूब पानी बरसने लगा जिससे ४० नदियां पैदा हो गयीं, उनको नाव श्रादि से जलतर उपाय बतलाया।
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विआचार्य श्री हिासाग । महाराज
नाभिराय कुलकर आय एक करोड़ पूत्र, शरीर की ऊचाई ५२५ धमुप । इनके समय में उत्पन्न होने वाले बमों की नाभि में नाल आने लगा। उसे काटने की विधि बतलाई भोजनांवृक्ष नष्ट हो गये थे, इन्होंने पेड़ों के पलों को, धान्य को तथा ईख के रम को पीने स्वाने का उपाय बतलाया इसलिए । इन्हें इक्ष्वाकुहस सार्थक नाम से कहने लगे। इनके पुत्र श्री ऋषभनाथ जी हुए ।
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( भरत चक्रवर्ती कुलकर) शरीर की ऊंचाई ५०० धनुष, आय चौरासी लाख वर्ष पूर्व
लोगों को मल्ल विद्या को शिक्षा दिलाई।
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रात्रि में बच्चों को चन्द्रमा दिखलाकर क्रीडा करने का उपदेश दिया तथा बच्चों को बोलने का अभ्यास भी अनुपम कराने को प्रेरणा की।
चन्द्राभ कुलकर दशव कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद पाठ हजार करोड़वें भाग (5०००००००००) प्रमाण पल्य समय बीत जाने पर चन्द्राभ नामक ग्यारहवें कुलकर उत्पन्न हुये । उनका शरीर ६०० सौ धनुष ऊंचा था और आयू पल्य के (१०००००००००००) दश हजार करोड़वें भाग समान थी। उनकी पत्नी सुन्दरी प्रभावती थी।
इस मनु के समय बच्चे कुछ अधिक काल जीने लगे सो उनके जीवन के वर्षों की सीमा बतलाई और निराकुल किया।
मरुदेव कुलकर चन्द्राभ कुलकर के स्वर्ग जाने के पश्चात् अस्सी हजार करोड़ से भाजित (८०००००००००००) पत्य का समय बीत जाने पर मरुदेव नामव बारहवें कुलकर उत्पन्न हुये । उनकी आयु एक लाख करोड़ से भाजित पल्य के बराबर और शरीर (५७५) धनुप ऊंचा था। उनकी पत्नी का नाम सत्या था।
इनके समय में पानी व बरसने लगा जिससे ४० नदियां पैदा हो गई, उनको नाव आदि के द्वारा जलतर उपाय बतलाया।
प्रशेनजित कुलकर मरुदेव का निधन हो जाने पर (१०,००००००००००००) दस लाख करोड़ से भाजित पत्य प्रमाण समय बीत जाने पर प्रशेनजित नामक तेरहर कुलकर पंदा हुए । उनको आयु दशलाख करोड़ १०,०००००००००००० से भाजित पल्य के बराबर थी उनका शरीर ५५० धनुष ऊंचा था उनकी स्त्री का नाम अमृतमती था। इन्होंने प्रसूत बच्चे के ऊपर की जरायु को निकालने के उपाय का उपदेश दिया।
नाभिराय कुलकर प्रशेनजित के स्वर्ग चले जाने पर (८०,००००००००००००) भाग पल्य बीत जाने पर चौदहवें कुलकर नाभिराय उत्पन्न हुये । उनका शरीर ५२५ धनुष ऊंचा था और उनकी आयु एक करोड़ पूर्व (१,०००००००) की थी। उनकी महादेवी का नाम मरुदेवी था।
नाभिराय के समय उत्पन्न होने वाले बच्चों का नाभि में लगा हुआ नाल पाने लगा। इन्होंने उस माल को काटने की विधि बतलाई। उनके समय में भोजनांग कल्पवृक्ष नष्ट हो गये जिससे जनता भूख से व्याकुल हुई तब नाभिराय ने उनको उगे हये पेड़ों के स्वादिष्ट फल खाने तथा धान्य को पकाकर खाने की एवं ईख को कोल्हू में पेल कर उसका रस पीने का उपाय बताया। इसलिए उस समय के लोग उन्हें इक्ष्वाकु हंस सार्थक नाम से भी कहने लगे जिससे इक्ष्वाकु वंश चाल हा । इन्हीं के पुत्र प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभनाथ हुए । जो कि १५वें कुलकर तथा ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती सोलहवें मन हये।
प्रथम कलकर से लेकर पाठवें कुलकर तक प्रजा की रक्षार्थ 'हा' यह दंड नियत हुआ, इसके बाद के पांच मनुष्यों तक में यानी दशव कुल कर तक 'हा' और 'मा' ये दो दंड तथा इसके बाद पांच मनुष्यों तक यानी ऋषभदेव भगवान तक की प्रभा में हा, मा और धिक ये तीन दण्ड नले। फिर भरत चक्रवर्ती के समय में तनुदंड भी चालू हो गया था। इसी प्रकार १ कनक, २ कनकप्रभ, कनकराज '४ कनकध्वज ५ कनकपुगवा, ६ नलिन, ७ नलिनप्रभ, ८ नलिनराज, नलिनध्वज, १० नलिन पुगव ११पद्म, १२ पमप्रभ, १३ पम राज, १४ पद्मध्वज, १५ पद्मपुगव और सोलहवें महापद्म। यह सोलह कलकर भविष्य काल उत्सपिणी के दूसरे काल में जब हजार वर्ष बाकी रहेगा तब पैदा होंगे । अब आगे नो प्रकृतियों में राबसे अधिक पुण्य प्रकृति (तीर्थकरों) के बंध कराने के कारणरूप सोलह भावनायें हैं।
षोडश भावना कर्म प्रकृतियों में सबसे अधिक पुण्प प्रकृति तीर्थकर प्रकृति के बंध करने को कारण रूप सॉलह भावनाये हैं।
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तीर्थकर प्रकृति का बंध करने वाले के विषय में गोम्मटसार कर्मकांड में बतलाया है।
पदगवर्माण सम्पे सेसानिगे पविरदादिचत्तारि ।
तित्थयरबंधपारंभया गरा केवलि दुर्गते ।। यानि प्रथम उपशम सम्यक्त्व अथवा द्वितीयोपशमसम्यक्तत्व, क्षयोपशम या क्षायिक सम्यक्त्व वाला पुरुष चोथे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक के किसी श्री गुणस्थान में केवली या श्रुत केबली के निकट तीर्थकर प्रकृति के बंध का प्रारम्भ करता है।
जिस व्यक्ति को ऐसी प्रबल शुभ भावना हो कि (मैं समस्त जगवर्ती जीवों का उद्धार कर समस्त जीवों को संसार से छड़वाकर मुक्त कर दूं) उस किसी एक विरले मनुष्य के उपर्यक्त दशा में निम्नलिखित सोलह भावनाघों के निमित्त से तीर्थकर प्रकृति का बंध होता है।
१दर्शन विशुद्धि २ विनय संपन्नता ३ अतिचार रहित शीलवत ४ अभीक्षण ज्ञानोपयोग ४ संवेग ६ शक्ति अनुसार त्याग ७ शक्ति अनुसार तप ८ साधु समाधि वैय्याव्रत करण १० अरहत भक्ति ११ प्राचार्य भक्ति १२ बहु श्रुत भक्ति १३ प्रवचन भक्ति १४ आवश्यकापरिहारणि १५ मार्ग प्रभावना १६ प्रवचन वात्सल्य ।
विशेष विवेचन-शंका, काक्षा, चिकित्सा, मुढदृष्टि अनुपगहन, अस्थितिकरण, अप्रभावना, अवात्सल्य, ये प्राठदोष कुलमद जातिमद, बलभद, ज्ञानमद, तपमद, रूपमद, धनमद, अधिकारमद ये आठ मद देवमुढता, गुरुमूढता लोकमूटना ये मूढतायें हैं। तथा छ: अनायतन, कुगुरू, कुगुरू भक्ति, कुदेव, कुदेव भक्ति, कुधर्म धर्म सेवक, ऐसे सम्यक-ज्ञान के ये पच्चीस दोप हैं। इन दोषों से रहित शुद्ध सम्यकदर्शन का होना सो दर्शन विशुद्धि भावना हैं।
देव शास्त्र गुरू तथा रत्नत्रय का हृदय से सम्मान करना विनय करना बिनय संपन्नता है। व्रता तथा व्रतों के रक्षक नियमों (शीलों) में अतिचार रहित होना शीलन्नत भावना है।
सदा ज्ञान प्राभ्यास में लगे रहना अभीक्षण ज्ञानोपयोग है। धर्म और धर्म के फल में अनुराग होना संवेग भावना है।
अपनी शक्ति को न छिपा कर अन्तरंग बहिरंग तप करना शक्तितः त्याग है। अपनी शक्ति के अनुसार पाहार, अभय प्रौषध और ज्ञान दान करना शस्तितः त्याग है।
साधुओं वा उपसर्ग दूर करना अथवा समाधि सहित वीर मरण करना साधु समाधि है।
व्रती त्यागी सधर्मी की सेवा करना दुखी का दुख दूर करना वैय्यावत करण है अरहंत भगवान की भक्ति करना अरहत भक्ति है।
मूनि संघ के नायक प्राचार्य की भक्ति करना प्राचार्य भक्ति है। उपाध्याय परमेष्ठि की भक्ति करना बहथत भक्ति है। जिनवाणी की भक्ति करना प्रवचन भक्ति है। छै माबश्यक कर्मों को सावधानी से पालन करना प्रावश्यक परिहारिणी है। जैनधर्म का प्रभाव फैलाना मार्ग प्रभावना है। धर्म जन से अगाध प्रेम करना प्रवचन वात्सल्य है।
इन सोलह भावनाओं में दर्शनविशुद्धि भावना का होना परमावश्यक है। दर्शनविशुद्धि के साथ कोई भी एक दो तीन चार भावना हों या सभी भावना हों तो तीर्थकर प्रकृति का बंध हो सकता है। अब इस क्षेत्र के वर्तमान तीर्थकरों की भवावली यथाक्रम से कहते हैं
श्री आदिनाथ जी गर्भाकल्याणक-पाषात कृष्ण द्वितीया उत्तरापाढ़ा नक्षत्र में । जन्मकल्याणक-चैत्र कृष्ण नवमी को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में। जन्मकाल-सुषमा दुषमा-काल में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष पाठ मास एक पक्ष शेष रहने पर जन्म हत्या। दीक्षाकल्याणक-चैत्र सुदी नवमी को रोहिणी नक्षत्र के अपरान्ह काल में। दीक्षा लेने के बाद १००० वर्ष बाद केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
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केवलज्ञान-फाल्गुन सुनी एकादशी उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में केवल शान प्राप्त हुआ। मोक्षकल्याणक-माघकृष्ण चौदरा के दिन पूर्वाह्न में उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में १०० मुनियों के साथ मोक्ष गये।
भगवान बुपभदेव के पूर्व १० भव यह हैं-१ जयबर्मा, २ महाबलविद्याधर ३ ललितांग देव ४ बजजघराजा ५ भोग भूमिया ६ श्रीधर ७ सुविध (नारायण) ८ अच्युत स्वर्ग का इन्द्र ६ वचनाभि चक्रवर्ती इस भव में सोलह कारण भावना के बल से तीर्थकर प्रकृति का बंध किया, वहां से चयकर भरत क्षत्र के सुकौशल देश की अयोध्या नगरी में अन्तिम कुलकर नाभिराजा के यहां मरुदत्री माता को कोख से प्रथम तीर्थकर के रूप में जन्म लिया । अापका शरीर ५०० धनूप ऊंचा था, आयु चौरासी लाख पूर्व यो शरीर का रंग तपे हुए सोने के समान था । शरीर में १००८ शुभ लक्षण थे। आपका नाम श्री ऋषभनाथ रखा गया। वामनाय तथा प्रादिनाथ भी आपके दूसरे नाम हैं। आपके दाहिने पैर में बैल का चिह्न प्रसिद्ध हमा और इसलिये नाम भी वृषभनाथ पड़ा।
प्रापका २० लाख पूर्व समय कुमार अवस्था में व्यतीत हुआ। आपका (यशस्वाती और सुनंदा) नामक दो राज पुत्रियों से विवाह हमा । ६२लाम पूर्व तक गज्य किया। आपकी रानी यशस्वती के उदर से भरतादि ६९ पुत्र तथा ब्राह्मी नामक कन्या हुई और सुनन्दा रानी से बाहुबली नामक एक पुत्र और सुन्दरी नामक कन्या हुई।
अपने राज्य काल में जनता को खेती बाडी, व्यापार अस्त्र-शस्त्र चलाना, वस्त्र बनाना, लिखना पढ़ना, अनेक प्रकार के कला कौशल आदि सिखलाए। अपने पुत्र भरत वो नाट्य कला, बाहुबलो को मल्ल विद्या, बाह्मि को अक्षर विद्या, मुन्दरी को अङ्क विद्या, राजनीति आदि सिखलाई।
८३,००००० लाख पूर्व प्रायु बीत जाने पर राज सभा में नृत्य करते हुए नीलांजना नामक अप्सरा को मृत्यु देखकर आपको संसार, शरीर और विषय भोगों से वैराग्य हुमा नव भरत को राज्य देकर आपने पंच मुष्टियों से केशलोंच करके सिद्धों को नमस्कार करके स्वयं मुनि दीक्षा ली। छ मास तक आएगान में निगम रहे। हिरल: मास पीछे जत योग से उठ तो आपको लगातार छ: मास तक विधि अनुसार प्राहार प्राप्त नहीं हुमा। इस तरह एक वर्ष पीछे हस्तिनापुर में राजा श्रेयांस ने पूर्वभव के रमण मे मनियों को आहार देने की विधि जानकर आप को ठीक विधि से ईख के रस द्वारा पारना कराई।
एक हजार वर्ष तपस्या करने के बाद आपको केवलज्ञान हुआ। तदनन्तर १,००० हजार वर्ष कम १०,०००० लाख पूर्व नक आप समस्त देशों में बिहार करके धर्म प्रचार करते रहे। आपके उपदेश के लिये समवशरण नामक विशाल सभा मंडप बनाया जाता था । अन्त में आपने कैलाश पर्वत से पर्यकासन (पलथी) से मुक्ति प्राप्त की।
विशेपार्थ-आपका ज्येष्ठ पत्र भरत, भरत क्षेत्र का पहला चक्रवर्ती था उस ही के नाम पर इस देश का नाम भारत प्रख्यात हुभा । अापका दूसरा पुत्र बाहुबली प्रथम कामदेव था तथा चक्रवर्ती को भी युद्ध में हराने वाला महान बलवान था। उसने मुनि दीक्षा कर निश्चल खड़े रह कर एक वर्ष तक निराहार रहकर तपस्या की और भगवान वृषभनाथ से भी पहले मुक्त हुआ।
भगवान बृषभनाथ का पौत्र (नाति, पोता) मरीचिकुमार अनेक भव बिताकर अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर हना। मापकी पुत्री ब्राह्मी, मुन्दरी प्रायिकामों की नेत्री थी । आपके वृषभ आदि ८४ गणधर थे।
आप सुपमा टुपमा नामक तीसरे काल में उत्पन्न हुए और मोक्ष भी तीसरे ही काल में गए । जनता को प्रापने क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्गों में विभाजित करके जीवन निर्वाह की रीति बतलाई। इस कारण प्रापको आदि ब्रह्मा तथा १५ दां कुलकर भी कहते हैं।
भगवान अजितनाथजी स ब्रह्मनिष्ठः सममित्र शत्र विद्या विनिर्वान्त कषाय दोषः ।
लव्धात्म लक्ष्मी रजितो जितात्मा जिनः श्रिय मे भगवान विधत्तम् ॥-समन्तभद्र वैमात्म स्वरूप में लीन, शत्र और मित्रों को समान रूप से देखने वाले, सम्यकज्ञान से कषाय रूपी शयों को हटाने
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वाले, आत्मीय विभूति को प्राप्त हुए और अजित है प्रात्मा जिनकी ऐसे भगवान अजित जिनेन्द्र मुझे कैवल्य लक्ष्मी से युक्त करें।
(१) पूर्व भव परिचय इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण किनारे पर एक मत्स नाम का देश है। उसमें धनधान्य मे सम्पन्न एक सूसीमा नगर है। वहां किसी समय विमलबाहन नाम का राजा राज्य करता था। राजा बिमल बाहन समस्त गणों से विभूषित था । वह उत्साह, मन्त्र और प्रभाव इन तीन शक्तियों से हमेशा न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करता था। राज्य कार्य करते हए भी वह कभी पात्म धर्म संयम, सामाविक वगैरह को नहीं भूलता था। वह बहुत ही मन्द कपायी था।
एक दिन राजा विमल को कछ कारण पाकर वैराग उत्पन्न हो गया। विरक्त होकर वह सोचने लगा-संसार के भीतर कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं है । यह मेरी आत्मा भी एक दिन इस शरीर को छोड़कर चली जावेगी, क्योंकि ग्रात्मा और शरीर का सम्बन्ध तभी तक रहता है जब तक कि आयु शेष रहती है। यह आयु भी धीरे-धीरे घटती जा रही है इसलिए प्राय पूर्ण होने के पहले ही अात्म कल्याण की ओर प्रवृत्ति करनी चाहिए।
इस प्रकार विचार कर वह वन में गया और किन्हीं दिगम्बर यती के पास दीक्षित हो गया। उसके साथ और भी बहुत से राजा दीक्षित हुए थे। गुरु के चरणों के समीप रह कर उसने खूब विद्याध्य पन किया जिससे उसे ग्यारह अंग का ज्ञान हो गया था। उसी समय उसने दर्शन विशुद्धि प्रादि सोलह भावनाओं का चिन्तवन भी किया था जिससे उनके तीर्थकर नामक महापुण्य प्रकृति का बन्ध हो !
विमलबाहन आयु के अन्त में संन्यास पूर्वक मर कर विजय विमान में अहमिन्द्र हग्या । वहाँ उगनी पाय तेतोस सागर की थी। उसका जैसा शरीर शुक्ल था वैसा हृदय भी शुक्ल था। उसे वहां संकल्प मात्र से ही सव पदार्थ प्राप्त हो जाते थे । पहले की वासना से वहां भी उसका चिन विषयों से उदासीन रहता था। वह यहाँ विषयानन्द को छोड़कर आत्मानन्द मंडी लीन रहता था। तेतीस हजार वर्ष बीत जाने पर उसे एक बार पाहार की इच्छा होती थी और तेतीस पक्ष बाद एक बार श्वासोच्छवास हुया करता था। वहाँ उसके शरीर की ऊंचाई एक हाथ को। अहमिन्द्र विमलवाहन के विजय विमान में पहुंचते ही अविध ज्ञान हो गया था जिससे वह उस नाड़ी के भीतर के परोक्ष पदार्थों को प्रत्यक्ष की तरह स्पष्ट जान लेता था। यही अहमिन्द्र आगे चलकर भगवान अजितनाथ हए।
(२) वर्तमान परिचय इसी भरत वसुन्धरा पर अत्यन्त शोभायमान एक साकेतपुरी (अयोध्यापुरी) है। उसमें किसी समय इक्ष्वाक वंशीय काश्यपगोत्री राजा जितशत्रु राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम विजयसेना था। ऊपर जिस अहमिन्द्र का कथन कर आये है उसकी प्रायु जब वहाँ पर छ: माह बाकी रह गई तब यहां राजा जितरात्र के घर पर प्रतिदिन तीन-तीन बार साहे तीन करोड रत्नों की वर्षा होने लगी। वे रत्न इन्द्र की आज्ञा पाकर कुबेर वरसाता था। यह अतिशय देखकर जितात्र बहत ही अनान्दित होते थे। इसके बाद जेठ महीने की अमावस के दिन रात्रि के पिछले भाग में जब कि रोहिणी नक्षत्र का उदय था, बदा महत के कुछ समय पहने महारानी विजयसेना ने ऐरावत आदि सोलह स्वप्न देखे और उनके बाद अपने मुह में एक मत्त हस्ती को प्रवेश करते हुए देखा।
सवेरा होते ही महारानी ने स्वप्नों का फल जितशत्रु से पूछा तो उन्होंने देशावधि रूप लोचन से देख कर कहा कि हे देवी! तम्हारे कोई तीर्थकर पुत्र होगा। उसी के पुण्य बल के कारण छह मास पहले से ये प्रति दिन रत्न बरसा रहे हैं और प्राज नापने ये सोलह स्वप्न देखे हैं। स्वप्नों का फल सुनकर विजय सेना प्रानन्द रो फूली न समानो थो । जिस समय इसने स्वप्न में मैह के अन्दर प्रवेश करते हुए गन्ध हस्ती को देखा था उसी समय ग्रहमिन्द्र विमलबाहन का जीव विजय विमान से चयकर उसके गर्भ में प्रवतीर्ण हुआ। उस दिन देवों ने पाकर साकेतपुरी में खूब उत्सव किया था।
धीरे-धीरे गर्भ पुष्ट होता गया, महाराज जितशत्रु के घर वह रत्नों की धारा गर्भ के दिनों में भी पहले की तरह ही बरसती रहती थी। भावी पुत्र के अनुपम अतिशय का स्याल कर महाराज को बहुत आनन्द होता था । जब गर्भ का समय ध्यतीत हो गया तब माघ शुक्ल दशमी के दिन महारानी विजयसेना ने पुत्र रत्न का प्रसव किया। वह पुत्र जन्म ही से
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मति, प्रति और अवधि इन तीन शानों से शोभायमान था। उसको उत्पत्ति के समय अनेक शुभ शकुन हुए थे। उसी समय देवों ने सुमेरु पर्वत पर ले जाकर उसका जन्माभिषेक किया और अजित नाम रखा। भगबान अजितनाथ धीरे-धीरे बढ़ने लगे। वे अपनी बाल सुलभ चेष्टानों से माता-पिता तथा बन्धु वर्ग प्रादि का मन प्रमुदित करते थे। आपस के खेल-कूद में भी जव उनके भाई इनसे पराजित हो जाते थे तब वे इनका अजित नाम सार्थक समझने लगते थे।
भगवान अजितनाथ-जन्म
भगवान ग्रादिनाथ को मुक्त हए पचास लाख करोड़ सागर समय बीत जाने पर इनका जन्म हुआ था। उक्त अन्तराल में लोगों के हृदय में धर्म के प्रति जो कुछ शिथिलता सी हो गयी थी इन्होंने उसे दूर कर फिर से धर्म का प्रद्योत किया था। इनके शरीर का रंग तपे हुए सुवर्ण की तरह था। ये बहुत ही वीर और क्रीड़ा चतुर पुरुष थे। अनेक तरह की कीड़ा करते हए जव इनके अठारह लाख पूर्व वर्ष बीत गये तब इन्होंने युवावस्था में पदार्पण किया। उस समय उनके शरीर की शोभा बड़ी ही विचित्र हो गई थी। महाराज जितशत्रु ने अनेक सुन्दरी कन्यानों के साथ उनका विवाह कर दिया और किसी शुभ मुहूर्त में उन्हें राज्य देकर आप धर्म सेवन करते हुए सद्गति को प्राप्त हुए।
भगवान अजितनाथ ने राज्य पाकर प्रजा का इस तरह शासन किया कि उनके गुणों से मुग्ध होकर वह महाराज जिारात्र का स्मरण भी भूल गई। इन्होंने समयोपयोगी अनेक सुधार करते हुए अपन लाख पूर्व तक राज्य लक्ष्मी का भोग किया अर्थात् राज्य किया।
वैराग्य
एक दिन भगवान अजितनाथ महल की छत पर बैठे हुए थे कि उन्होंने अचानक चमकती हुई बिजली को नष्ट होते देखा। उसे देखकर उनका हृदय विषयों से विरक्त हो गया। वे सोचने लगे कि संसार के हर एक पदार्थ इसी विजली की तरह भाग गर है। मेरा यह सून्दर शरीर और यह मनुष्य पर्याय भी एक दिन इसी तरह नष्ट हो जावेगा। जिस लिए मेरा उसके लिए तो मैंने अभी तक कछ भी नहीं किया खेद है कि मैंने सामान्य प्रज्ञ मनुष्यों की तरह अपनी आय का बहभाग व्यर्थ
श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कंध अध्याय ३ में श्री भगवान आदिनाथ जी का वर्णन
इनि निगदेनाभिष्ट्यमानो भगवाननिमिर्षभो वर्षधराभिवादिताभिवन्दिचरणः सदयसिदमाह ।
श्रीशकदेवजी कहते हैं-राजन ! बर्षाधिपति नाभि के पूज्य ऋत्विजनो ने प्रभु के चरणों की बन्दना करके जब पूर्वोक्त प्रकार से रतुति की, तब देवघेण्ट श्री हरि ने करणावश इस प्रकार कहा।
अहो वताहमुषयो भवद्भिरविनथर्गीभित्ररमसुलभमभियाचितो यदमुष्याऽत्मजो भया सदशो भूयादिति ममाहमेवाभिरूपः वैल्यादयापि ब्रह्मनादो न मुषा भवनि ममैव हि मुखं यद् द्विजदेवकुलम् । तत आग्नीधीशकलयावतरिष्याम्यात्मतुल्यमनुपलभमानः ।
श्री भगवान ने कहा-ऋधियो बड़े असमंजस की बात है। आप सब सत्यवादी महात्मा है, आपने मुझमे यह बड़ा दुर्लभ वर मांगा है नि राजर्षि नाभि के मेरे समाग पुत्र हो। मुनियो ! मेरे रामान तो मैं ही हूँ. क्योंकि मैं अद्वितीय हूँ। तो भी आहारणों का वचन मिथ्या नहीं होना चाहिये, द्विजकुल मेरा ही तो मुख है। इसलिये मैं स्वयं ही अपनी अशकला से अग्निप्रन्दन नाभि के यहाँ अवतार लूंगा, क्योंकि अपने समान म कोई और दिखाई नहीं देता।
इति निशामयन्त्या मेरुदेव्याः पतिमभिधान्तर्दधे भगवान । बहिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान परमर्षिभिः प्रसादिताः प्रियचिकीर्षया तदवरोधाय ने मेरुदेव्या धर्मान्दर्शयितृकामो वात रशनाना श्रमणानामृषीणामूर्षमन्थिनां शुक्ला तनुवावततार।
थी शुकदेवजी कहते-महारानी मेरुदेवी के सुनते हुए उसके पति से इस प्रकार कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गये। विष्णदत्त परीक्षा
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ही खो दिया। अब ग्राज से मैं सर्वथा विरक्त होकर दिगम्बर मुद्रा को धारण कर वन में रहँगा। क्योंकि इन रंग बिरंगे महलों में रहने से चित्त को शांति नहीं मिल सकती। इधर इनके चित्त मैं ऐसा विचार हो रहा था उधर लौकान्तिक देवों के पासन काँपने लगे थे। आसन कांपने से उन्हें निश्चय हो गया था कि भगवान अजित नाथ का चित्त वैराग्य की पोर बढ़ रहा है। निश्चयानुसार वे शीघ्र ही इनके पास पाये और तरह-तरह के सुभाषितों से इनकी वैराग्य धारा को अत्यधिक प्रद्धित कर अपने-अपने स्थान पर चले गये। उसी समय तपः कल्याणक का उत्सव मनाने के लिए वहां समस्त देव पा उपस्थित हुए । सब से पहले भगवान् ने अभिषेक के पूर्व अजितसेन नाम के पुत्र के लिए राज्य का भार सौया और फिर अनाकुल हो वन में जाने के लिए तैयार हो गये । देवों ने उनका तीर्थ जल से अभिषेक किया और तरह-तरह के मनोहर आभूषण पहिनाये अवश्य पर उनकी इस रागवर्द्धक क्रिया में भगवान को कुछ भी मानन्द नहीं मिला। वे सुप्रभा नामक पालकी पर सवार हो गये। पालकी को मनुष्य, विद्याधर और देय लोग क्रम-क्रम से अयोध्या के सहेतुक वन में ले गये। वहाँ वे सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे एक सुन्दर शिला पर पालकी से उतरे। जिस शिला पर वे उतरे थे उस पर देवांगनाओं ने रत्नों के चूर्ण से कई तरह के चौक पूरे थे। सप्तवर्ण वृक्ष के नीचे विराजमान द्वितीय जिनेन्द्र अजितनाथ ने पहले सबकी ओर विरक्त दृष्टि से देख कर दीक्षित होने के लिए सम्मति ली। फिर पूर्व की ओर मह कर "ॐनमः सिद्धेभ्यः" कहते हुए वस्त्राभूषण उतार कर फेंक दिये और पंच मुष्ठियों से केश उखाड़ डाले । इन्द्र ने केशों को उठाकर रत्नों के पिटारे में रख लिया और उत्सव समाप्त होने के बाद क्षीर सागर में क्षेपण कर पाया । दीक्षा लेते समय उन्होंने षष्ठोपवास धारण किया था। जिस दिन भगवान अजितनाथ ने दीक्षा धारण की थी उस दिन माघ मास के शुक्ल पक्ष की नवमी थी और रोहिणी नक्षत्र का उदय था । दीक्षा सायं काल के समय केले के वृक्ष के नीचे ली थी। उनके साथ में एक हजार राजाओं ने दीक्षा ग्रहण की थी। उस समय भगवान अजितनाथ की त्रिशुद्धता इतनी अधिक बढ़ गई थी कि उन्हें दीक्षा लेते समय ही मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया था।
उस यज्ञ में महषियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर श्री भगवान नाभि का प्रिय करने के लिये उनके रनिवास में महारानी मेरुदेवी के गर्भ से दिगम्बर संन्यासी और ऊर्वरेता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिये शुद्धसत्वमय विग्रह से प्रकट हुए।
अथ ह तमुत्पत्यवाभिव्यमानभगवल्लक्षणं साम्योपशमवैराग्यश्वर्य महाविभुतिभिरमुदिनमेधमानानुभावं प्रकृतयः प्रजा ब्रह्मणा देवताश्चावनितलसमवनायातितरां जगृधुः। तस्य ह वा इत्थं वर्मणा वरीपसा वृहच्छलोनान चौजसा बलन थिया यशसा बीर्यशौर्याभ्यां च पिता ऋषभ इतीदं नाम चकार।
श्री शुकदेवजी कहते हैं-राजन? नाभिनन्दन के अंग जन्म से ही भगवान विष्णु के वच अङ्ग कुश थादि चिन्हों से युक्त थे | समता, शान्ति बैराग्य और ऐश्वर्य आदि महाविभूतियों के कारण उनका प्रभाव दिनोंदिन बढ़ता जाता था। यह देखकर मन्त्री आदि प्रकृति वर्ग प्रजा ब्राह्मण और देवताओं की यह उत्कृष्ट अभिलाषा होने लगी कि ये पृथ्वी का शासन करें। उनके सुन्दर और सुडौल शारीर, विपुल कीति. तेज, बल ऐश्वर्व, यश, पराक्रम और शूरवीरता आदि गुणों के कारण महाराज नाभि ने उसका नाम 'ऋषम' (थेठ) रखा।
तस्य हीन्द्रः रपर्धमानो भगवान वर्षे न ववर्ष तदवबार्य भगवानृषभदेवोयोगेश्वरः प्रहखात्मयोगमायया स्ववर्षमजनाम नामाभ्यवर्षत् । नाभिस्तु यथाभिलषितं सुप्रजस्त्वमवरुव्यातिप्रमोदभरविह्वलो गद्गदाक्षरया गिरा बरं गहीतनरलोक संग्रम भगवन्तं पुराणपुरुष' माया विल सितमतिवरस तातेति सानुरागभुपलायन पर निबृतिमुपगतः ।
एक बार भगवान इन्द्र ने ईष्यावश उनके राज्य में वर्षा नहीं की। तब योगेश्वर भगवान ऋषभ ने इन्द्र की मूर्खता पर हंसते हुए अपनी योगमाया के प्रभाव से अपने वर्ष अजनाभखण्ड में खूब जल बरसाया । महाराज नाभि अपनी इच्छा के अनुसार श्रेष्ठ पुत्र पाकर अत्यन्त
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जब प्रथमयोग समाप्त हुआ तब वे आहार के लिए अयोध्यापुरी में आये । वहाँ ब्रह्मा नामक श्रेष्ठी ने उन्हें उत्तम आहार दिया जिससे उसके घर पर देवों ने पंचाश्चयं प्रकट किये तथा उप करके केवल ज्ञान प्राप्त किया। आपके सितयनादि ५२ गणधर और प्रकृआदि आर्यिका श्री महायक्ष रोहिणी दक्षिणो भी आपने सम्मेद शिखर जी से मोक्ष प्राप्त किया। भगवान अजितनाथ जी के समय में सगरनामक दूसरे चक्रवर्ती हुये पौर जितशत्रु नामक दूसरे रुद्र भी आपके समय में ही हुये थे ।
-
भगवान शंभवनाथ
त्वं
शंभव: संभवत रोग: संतप्यमानस्य श्रासी रिहा कास्मिक एवं वैद्यौ, वैद्यौ यथा नाथ!
जनस्य लोके । रुजा प्रशान्त्यै ।
- स्वामी समन्तभद्र ।
हे नाथ ! जिस तरह रोगों की शान्ति के लिए कोई वैद्य होता है उसी तरह बाप संभवनाथ भी उत्पन्न हुए तृष्णा रोग से दुःखी होने वाले मनुष्य की रोग शान्ति के लिए अकस्मात प्राप्त हुए वैद्य हैं।
(१)
पूर्व भव परिचय
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सप्ता नदी के उत्तर तट पर एक कच्छ नाम का देश हैं उसमें एक क्षेभपुर नाम का नगर है | क्षेभपुर का जैसा नाम था उसमें वैसे ही गुण थे अर्थात् उसमें हमेशा क्षेम मंगलों का ही निवास रहता था। वहां के राजा का नाम विमलवाहन था । विगलवाहन ने अपने बाहुबल से समस्त विरोधी राजाओं को वश में कर लिया था । शरद ऋतु के इन्दु की तरह उसकी निर्मल कीर्ति सब घोर फैली हुई थी। वह जो भी कार्य करता था मंत्रियों को सलाह से ही करता था इसलिए उसके समस्त कार्य सुदृढ़ हुआ करते थे ।
एक दिन राजा विमलवाहन किसी कारण संसार से विरक्त हो गये जिससे उसे पांचों इन्द्रियों के विषय भी काले भुजंगों की तरह दुखदायी मालूम होने लगे । वह सोचने लगा कि यमराज किसी भी छोटे बड़े का लिहाज नहीं करता अच्छे से अच्छे और दीन से दीन मनुष्य इसकी कराल दष्ट्रातल के नीचे ले जाते हैं जब ऐसा है तब क्या मुझे छोड़ देगा ? इसलिए जब तक मृत्यु निकट नहीं आती तब तक तपस्या यादि से यात्महित की ओर प्रवृत्ति करनी चाहिए। ऐसा विचार कर वह
आनन्दमरन हो गये और अपनी ही इच्छा से मनुष्य शरीर धारण करने वाले पुराण पुरुष श्रीहरि का सप्रेम लालन करते हुए, उन्हीं के लीलाविलारा से मुग्ध होकर 'वत्स ! तात !' ऐसा गद्गदवाणी से कहते हुए बड़ा सुख मानने लगे ।
विविनुरागमापरकृति जनपद राजानाभिरात्मजं समयसेतुरक्षायामभिषिच्य ब्राह्मणेपूपनिधाय सह मेरुवेण्या विशालायां प्रसन्ननिपुणेन तपसा समधिगेत नरनारायणाय भगवन्तं वसुदेवमुपासीनः कालेन नन्महिमानमवाय
उन्होंने देखा नागरिक और राष्ट्र की जनता ऋषभदेव से बहुत प्रेम करती है, तो उन्होंने उन्हें मंदा की के लिये राज्यानिति करके ब्राह्मणों की देखरेख में छोड़ दिया। आप अपनी पत्नी देवी के सहित दरिम को चले गये। वहाँ अहिंसावृत्ति से, जिससे किसी को उद्वेग न हो ऐसी कौशलपूर्मा तपस्या और समाधियों के द्वारा भगवान वामुदेव के नर-नारायणरूप की आराधना करते हुए समय आने पर उन्हीं के स्वहग में लीन हो गये ।
अह भगवानृदेवः स्वकर्मक्षेत्रमनुमन्यमानः प्रदर्शितगुरुकुलवतो वरं रुभिरनुज्ञातो गृहमेधिनां धमनिनुशिक्षणाशी जयन्ताकर्ममा जामानानाजनपदेवास महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आलीयेनेदं वर्ष भारतमिति वदन्ति।
भगवान ऋषभदेव ने अपने देश अजनाभखण्ड को कर्मभूमि मानकर लोक संग्रह के लिये कुछ काल गुरुकुल में वारा किया। गुरुदेव को मनोचित दक्षिणा देकर हर में प्रवेश करने के लिये उनकी बाशा की फिर लोगों को हर की शिक्षा देने के लिये देवराज इन्द्र की दी हुई उनकी कन्या जबी से विवाह किया तथा श्रीवस्वार्त्त दोन प्रकार के शास्त्रोपदिष्ट कर्मों का आचरण करते हुए उसके गर्भ से अपने ही
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विमलकीति नामक पुत्र के लिए राज्य देकर स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के पास दीक्षित हो गया। उनके समीप में रहकर उसने कठिन. कठिन तपस्याओं से आत्म शुद्धि की और निरन्तर शास्त्रों का अध्ययन करते-करते ग्यारह अंग तक का ज्ञान प्राप्त कर लिय।। मुनिराज बिमलवाहन यही सोचा करते थे कि इन दुखी प्राणियों का संसार से कैसे उद्धार हो सकेगा? यदि मैं इनके हित साधन में कृतकार्य हो सका तो अपने को धन्य समझंगा। इसी समय उन्होंने दर्शन विशुद्धि प्रादि सोलह भावनाओं का चिन्तन किया जिससे उन्हें तीर्थकर नामक पुण्य प्रकृति का बन्ध हो गया। अन्त में समाधिपूर्वक शरीर त्याग कर पहले वेयक के सुदर्शन नामक विमान में अहमिन्द्र हुए। वहां उनकी प्रायु तेईस सागर प्रमाण थी, शरीर की ऊंचाई साठ अंगुल थी, योर रंग धवल था। वे वहाँ तेईस पक्ष में स्वांस लेते थे और ते ईस द्रजार वर्ष बाद मानसिक आहार करते थे । वे स्त्री संसर्ग से सदा रहिन थे। उनके जन्म से ही अवधिज्ञान था, और शरीर में अनेक तरह की ऋद्धियाँ थीं। इस तरह बे बहां आनन्द से समय बिताने लगे। यही अहमिन्द्र आगे चलकर भगवान शंभवनाथ हुये।
(२) वर्तमान परिचय जम्बद्वीप के भरत क्षेत्र में एक श्रावस्ती नाम की नगरी है। उस नगरी की रचना बहुत ही मनोहर थी, वहां गगन चुम्बी भवन थे, जिन पर अनेक रंगों की पताकाएं फहरा रही थीं। जगह-जगह पर अनेक सुन्दर वापिकाए थीं। उन वाधिकारों के तटों पर मराल बाल क्रीड़ा किया करते थे। उनके चारों ओर अगाध जल से भरी हुई परिखा थी और उसके याद ऊंची शिखरी से मेघों को छूने वाला प्राकार कोट था। जिस समय की यह कथा है उस समय वहां दृढ़राज्य नाम के राजा राज्य करते थे। वे अत्यन्त प्रतापी, धर्मात्मा, सौम्य और साधु स्वभाव वाले व्यक्ति थे। उनका जन्म इक्ष्वाकु वंश और काश्यप गोत्र में हया था। उनकी महारानी का नाम सुपंणा था। उस समय वहां महारानी सुषेणा के समान सुन्दरी स्त्री दूसरी नहीं थी। वह अपने रूप से देवांगनामों को भी तिरस्कृत करती थी, तब नर, देवियों की बात हो क्या थो? दोनों दम्पत्ति सूख पूर्वक अपना समय बिताते थे, उन्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं थी। ऊपर जिस महिमिन्द्र का कथन कर पाये हैं उनकी
समान गुण वाले सौ पुत्र उत्पन्न किये।
वमनुकुवावर्त इलावर्तो ग्रह्मावर्ती मलयः केतुभंद्रसेन इन्द्रस्पग्विदर्भः कीटक इति नव नवतिप्रधानाः ।
उनसे छोटे कुदावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावत, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पक, विदर्भ और कीकट-ये नौ राजकुमार शेय नव्वे भाइयों से बड़े एवं श्रेष्ठ थे।
कविहरिरन्तरिक्षा प्रबुद्धः पिप्लायनः । आविहाँत्रोऽथ दू मिलचमसः करभाजनः ।। इति भागवतधर्मदर्शना नव महाभागवतास्तेषां सुचरितं भगवन्महिमोपवृहितं वसुदेवनारदसंवादमुपशमायनमुपरिष्टादयिष्यामः ।
उनसे छोटे कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविहात्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन-ये नौ राजकुमार भागवत धर्म का प्रचार करने वाले बड़े भगवद्भक्त थे। भगवान की महिमा से महिमान्वित और परम शान्ति से पूर्ण इनका पवित्र चरित्र हम नारद-वसुदेव माद के प्रसंग से आगे (एकादश स्कन्ध में) कहेंगे।
यवीयांस एकाशोतियिन्तेयाः पितुरादेशकरा महाशालीना महाथोत्रिया यज्ञशीलाः कर्मविशुद्धा ब्राह्मणा बभूवुः ।
इनसे छोटे जयंती के इंचयासी पुत्र पिता की आज्ञा का पालन करने वाले, अति विनीत, महान् वेदश और निरन्तर यज्ञ करने वाले श्र। वे पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करने मे शुद्ध होकर ब्राह्मण हो गये थे।
भगवानषभसश आत्मतंत्र: स्वयं नित्यनिवृत्तानर्थपरम्परः केवलानंदानुभव ईश्वर एवं विपरोनयकर्माण्यारभ मारणः कालनान गर्न धर्ममाचरणेनोपशिक्षयन्नतद्विद्वां सस उपशांतो मंत्र: कारुणिको धमपियशःप्रजानंदामृतावरोधेन गृहेषु लोकं नियमयत ।
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वहाँ को आयु जब सिर्फ छह मास को बाकी रह गई तब से राजा दृढ़ के घर पर प्रतिदिन असंख्य रत्नों को वर्षा होने लगी। रत्नों की वर्षा के सिवाय और भी अनेक शुभ शकुन प्रकट होने लगे थे जिससे राज दम्पत्ति आनन्द से फूने न समाते थे। एक दिन रात्रि के पिछले पहर में महारानी सुपंणा ने सोते समय ऐरावत हाथी को आदि लेकर सोलह स्वप्न देखे और स्वप्न देखने के बाद मुह में प्रवेश करते हुए एक गन्धसिन्दूर मत्त हाथी को देखा । सवेरा होते ही उसने पतिदेव से स्वप्नों का फल पूछा राजा दुहराज ने अवधिज्ञान से विचार कर कहा कि माज तेरे गर्भ में तीर्थकर पुत्र ने अवतार लिया है। पुथिवी तल में तीर्थकर का जैसा पुण्य किसो का नहीं होता है। देखो न ! वह तुम्हारे गर्भ में पाया भी नहीं था कि छह मास पहले से प्रति दिन प्ररांख्य रत्ल राशि बरस रही है। कुबेर ने इस नगरी को कितना सुन्दर बना दिया है। यहां की प्रत्येक वस्तु कितनी मोहक हो गई है कि उसे देखते जो नहीं अचाता। यहां राजा, रानो को स्वप्नों का फल बतला रहे थे। वहां भावो पुत्र के पुण्य प्रताप से देवों के अचल प्रासन भी हिल गये जिससे समस्त देव तीर्थकर का गर्भावतार समझ कर उत्सव मनाने के लिए श्रावस्ती पाये और क्रम-क्रम से राज मंदिर में पहुंच कर उन्होंने राजा-रानी की खुब स्तुति करके उनका स्वर्गीय वस्त्राभूषणों से खूब सत्कार किया। गर्भावतार का उत्सव मना कर देव अपने-अपने स्थानों पर बापिस चले गये और कुछ देवियों को जिन माता की सेवा के लिए वहीं पर नियुक्त कर गये । देवियों ने गर्भशुद्धि को आदि लेकर अनेक तरह से महाराना सुषेणा की सुश्रुपा करनी प्रारम्भ कर दी। राज दम्पत्ति भावी पुत्र के उत्कर्ष का ख्याल कर मन हा मन हर्षित होते थे। जिस दिन अहमिन्द्र (भगवान संभवनाथ के जीय) ने सुषेणा के गर्भ में अवतार लिया था। उस दिन फाल्गुन कृष्ण अष्टमी का दिन था, मृगशिर नक्षत्र का उदय था और प्राची दिशा में बाल सूर्य कमकुम रंग वर्षा रहा था। देव कुमारियों को सधपा और विनोद भरी वार्तामों से जब रानी के गर्भ के दिन सुख से बीत गये उन्हें गर्भ सम्बन्धो कोई कष्ट नहीं हया नत्र कार्तिक शुक्ला पूर्णमासी के दिन मृगशिर नक्षत्र में पुत्र रल उत्पन्न हुआ। पुत्र उत्पन्न होते हो आकाश से असंख्य देव सेनाएं श्रावस्ती नगरी के महाराज दृढ़राज्य के घर पाई। इन्द्र ने इन्द्राणी को भेजकर प्रसूति गृह से बालक को मंगवाया।
भगवान् ऋषभदेव, यद्यपि परम स्वतंत्र होने के कारण स्वयं सर्वदा ही सब प्रकार की अनर्थ परम्परा से रहित केवल आनंदानुभवस्वरूप और साक्षात ईश्वर ही थे, तो भी अज्ञानियों के समान कर्म करते हुए उन्होंने काल के अनुसार प्राप्त धर्म का आचरण करके उसका तत्व न जानने वाले लोगों को उस की शिक्षा दी। साथ ही मन, शांत, मुहृद् और बारुणिक रह कर धर्म, अर्थ, यश, संतान, भोग-सुख और मोक्ष का संग्रह करते हुए गृहस्थाश्रम में लोगों को नियमित किया ।
यद्यच्छीण्याचरितं ततदनुवर्तते लोकः । महापुरुष जरा-जैसा आचरण करते हैं, दूसरे लोग उसी का अनुकरण करने लगते हैं। पद्यपि स्वविदितं सकलवम श्राम गुह्य ब्राह्मणेदेशितमार्गरण सामादिशिल्पायर्जनतामनुशाशास ।
यद्यपि वे सभी धर्मों के साररूप बंद के गूक रहस्य को जानते थे, तो भी प्राहारणों की बतलायी हुई विधि से सामानादि भीति के अनुसार ही जनता का पालग करते थे।
ब्रम्पदेशकालवयात्विविविधिदेवोपचितः सर्वपि ऋतुभियंयोपदेशशतकुत्व हयान।
'उन्होंने शास्त्र और ब्राह्मणों के उपदेशानुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के उद्देश्य से द्रव्य, देश, काल, आयु, श्रद्धा और ऋत्विज आदि से सुसम्पन्न सभी प्रकार के सौ-सौ यज्ञ किये।
भगवतपभेगा परिरक्ष्यमाण एतस्मिन् वर्ष न कश्च । पुरुको वाञ्छत्यविधमानमिवात्मनोऽन्यस्माकम्वन किमपि कहिचिदवेक्षते भत नुसेवन विम्भितस्नेहातिशयमनरेण ।
भगवान ऋषभदेव के शासन काल में इस देश का कोई भी पुरुष अपने लिये किसी से अपने प्रभु के प्रति दिन-दिन बढ़ने वाले अनुराग के सिवा और किसी वस्तु की कभी इच्छा नहीं करता था। यही नहीं, आकाशकुसुमादि अविद्यमान वस्तु की भांति कोई किसी की वस्तु
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पुत्र रत्न की स्वाभाविक सुन्दरता देखकर इन्द्र प्रानन्द से फूला न समाता था। आई हुई देव सेनाओं ने पहले के दो तीर्थकरों की तरह मेरु पर्वत पर ले जाकर इसका भी नाभि का किया मौर होनापिस आकर पुत्र को माता-पिता के लिए सौंप दिया । बालक को देखने मात्र से ही शम् अर्थात् शान्ति होती थी। इसलिए इन्द्र ने उनका शंभवनाथ नाम रखा था। शंभवनाथ अपने दिव्य गुणों से संसार में भगवान कहलाने लगे। देव और देवेन्द्र जन्म समय के समस्त उत्सव मनाकर अपनेअपने स्थानों पर चले गये ।
भगवान शंभवनाथ दोयज की चन्द्रमा की तरह धीरे-धीरे बढ़ने लगे। वे अपनी बाल सुलभ अनर्गल लीलाओं से माता, पिता, बन्धु, बान्धवों को हमेशा हर्पित किया करते थे। उनके शरीर का रंग सुवर्ण के समान पोला था। भगवान अजित नाथ से तीस करोड़ वर्ष वाद उनका जन्म हुआ था। इस अन्तराल के समय धर्म के विषय में जो कुछ शिथिलता आ गई थी वह इनके उत्पन्न होते ही धीरे-धीरे विनष्ट हो गई।
___ इनकी पूर्ण आयु साठ लाख पूर्व की थी और शरीर की ऊंचाई चार सौ धनुप प्रमाण थी। जन्म से पन्द्रह लाख पर्व बीत जाने पर इन्हें राज्य विभूति प्राप्त हुई थी। इन्होंने राज्य पाकर अनेक सामाजिक सुधार किये थे। समय की प्रगति देखते हए आपने राजनीति को पहले से बहुत कुछ परिवधित किया। पिता दृढ़राज्य ने योग्य कुलीन कन्याओं के साथ इनका विवाह किया था इसलिये बे अनुरूप भार्याओं के साथ सांसारिक सुख भोगते हुए चवालीस लाख पूर्व और चार पर्व तक राज्य करते रहे।
एक दिन वे महल की छत पर बैठे हुए प्रकृति की सुन्दर शोभा देख रहे थे कि उनकी दृष्टि एक सफेद मेघ पर पड़ी। एक क्षण में हवा के वेग से वह मेघ विलीन हो गया- कहीं का कहीं चला गया। उसी समय भगवान रामवनाथ के चारित्र मोहनीय के बन्धन ढीले हो गये थे। जिससे वे संसार के विषय भोगों से सहमा विरक्त हो गये। वे सोचने लगे कि संसार की
स मेष खण्ड की नाई क्षणभंगुर है, एक दिन मेरा यह दिव्य शरीर भी नष्ट हो जायेगा। मैं जिस स्त्री
को ओर दष्टिपात भी नहीं करता था।
कदादिष्टयानो भगवानपभो बहावतंमती ब्रहाषिप्रवरसभायां प्रजानां नियामवंतीनामात्मजानवहितारमनः प्रश्रयप्रणभिरसयंत्रि. तानप्युभ शिक्षयन्तिति होवाच ।
एक बार भगवान ऋषभदेव घमते-घूमते ब्रह्मावतदेश में पहुंचे । वहाँ बड़े-बड़े ब्रह्मापियों की सभा में उन्होंने प्रजा के सामने ही अपने समाहितचित्त तथा बिनय और प्रेम के भार ते संयुक्त पुत्रों को शिक्षा देने के लिये इस प्रकार कहा।
नाय देहो दहभाजा नृलोके कष्टान् कामानहते विड्भुजां थे।
अपो दिव्यं पुषका येन रात्वं शुद्ध यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनराम् ।। श्री ऋषभदेव जी ने कहा-पुत्रो ! इस मर्त्यलोक में गह गनुप्वादारीर दुःस्गय विषय भोग प्राप्त करने के लिये ही नहीं है। तो विष्टाभोजी मुकर-ककरादि को भी मिलते ही नहीं है। इस शरीर से दिव्य तप ही वारना चाहिये, जिससे अन्तःकरण शद्ध दोनो से अनंत ब्रह्मानंद की प्राप्ति होती है।
महत्सेवां द्वारमाहुविमुक्तेस्तमोद्वारं योषिता संगिसंयम् ।
महातस्ते सभचित्ताः प्रशांता विमंयवः महदः साधी ये॥ पास की सेवा को मुक्ति का और स्त्री संभी गामियो के संग को नरक का द्वार बताया है। महापुरुष वे ही हैं जो समानचित्त, परमशांत, कोत्रहीन, सबके हितचितक और सदाचार सम्पन्न हों।
ये बा मयीशे. कृतसौहृदार्था जनेषु देहम्मरवातिकम् ।
गृहपु जायात्मजरातिमत्सु न प्रीतियुक्ता यावदादच लोके ॥
2.
हा
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I
पुत्रों के मोह में उलझा हुआ श्रात्म हित की ओर प्रवृत्त नहीं हो रहा हूं ये एक भी मेरे साथ न जायेंगे। इस तरह भगवान संभवनाथ उदासीन होकर वस्तु का स्वरूप विचार ही रहे थे कि इतने में लोकान्तिक देवों ने थाकर उनके विचारों का खूब समर्थन किया बाहर भावनाओं के द्वारा उनकी वैराग्य धारा को खूब बड़ा दिया अपना कार्य समाप्त कर लौकान्तिक देव ब्रह्मलोक को वापिस चले गये। इधर भगवान जिन पुत्र को राज्य देकर वन में जाने के लिए तैयार हो गये । देव और देवेन्द्रों ने बाकर इनके तप कल्याणक का उत्सव मनाया। तदनन्तर ये सिद्धार्थ नाम की पालकी पर सवार होकर श्रावस्ती के समीपवर्ती क्षेत्र में अब इष्ट जनों से सम्मति लेकर मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णमासी के दिन शाल वृक्ष के नीचे एक हजार राजाओं के साथ जिन दीक्षा ते मी वस्त्राभूषण उतार कर फेंक दिये, पंच मुठियों से उखाड़ा और उपवास की प्रतिज्ञा ले पूर्व की ओर मुंह करके ध्यान धारण कर लिया। उस समय का दृश्य बड़ा ही प्रभावक था । देखने वाले प्रत्येक प्राणी के हृदय पर वैराग्य की गहरी छाप लगती जाती थी। उन्हें दीक्षा के समय ही मनः पर्यय ज्ञान हो गया था जो उनकी ग्रात्म शुद्धि को प्रत्यक्ष कराने के लिए प्रबल प्रमाण था ।
दूसरे दिन उन्होंने आहार के लिए श्रावस्ती नगरी में प्रवेश किया। उन्हें देखते ही राजा सुरेन्द्रवन्त ने पढ़नाह कर विधिपूर्वक आहार दिया। श्राहार दान से प्रभावित होकर देवों ने सुरेन्द्रदत्त के घर पंचाश्चर्य प्रकट किये थे। भगवान शंभवनाथ आहार लेकर समिति से बिहार करते हुए पुनः वन को वापिस चले गये और जब तक छद्मस्थ रहे तब तक मौन धारण कर तपस्या करते रहे । यद्यपि वे मौनी होकर ही उस समय सब जगह विहार करते थे तथापि उनकी सौम्य मूर्ति के देखने मात्र से ही अनेक भव्य जीव प्रतिबुद्धि हो जाते थे । इस तरह चौदह वर्ष तक तपस्या करने के बाद उन्हें कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन मशिर नक्षत्र के उदय में संख्या के समय केवल ज्ञान प्राप्त हो गया था। भवनवासी व्यार, ज्योतिषी और कल्पवासी इन चारों प्रकार के देवों ने प्राकर उनके ज्ञान कल्याणक का उत्सव किया । इन्द्र की श्राज्ञा से कुबेर ने समवशरण की रचना को । जिसके मध्य में देव सिंहासन पर अन्तरिक्ष विराजमान होकर अपनी सुलखित दिव्य भाषा में सबको धर्मोपदेश दिया। वस्तु का
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अगवा मुझ परमात्मा के प्रेम काही जो एक मात्र पुरुषार्थ मानते हों, केवल विषयों की ही चर्चा करने वाले लोगों में तथा स्त्री पुत्र और धन आदि सामदियों से सम्पन्न घरों में जिनकी रुचि हो और जो लौकिक कार्यों में केवल शरीरनिर्वाह के लिए ही प्रवृत होते हों।
नूनं प्रमत्तः कुरुते विक्रमं यदिमिप्रीतय प्रापूपोति ।
न साधु मन्ये यत आत्मोऽयमसुन्नपि क्लेशद आस देहः ।
मनुष्य अवश्य प्रमादवश कुकर्म करने लगता है, उसकी वह प्रवृत्ति इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये होती हैं। मैं इसे अच्छा नहीं समझता क्योंकि इसी के कारण आत्मा को यह ग्रसत् और दुःखदायक शरीर प्राप्त होता है।
पराभवस्तावददोषजातो यावन्न जिज्ञायत ग्रात्मतत्त्वम् ।
पिता मनोमयेन पशरीरवन्धः ।
जब तक जीव को आत्मतत्व की जिज्ञासा नहीं होती, तभी तक अज्ञानवश देहादि के द्वारा उसका स्वरूप छिपा रहता है। जब तक वह लौकिक-वैदिक कर्मों में ऐसा रहता है, तबतक मन में कर्मको वासनाएं की बनी ही रहती हैं और इन्हीं से देह धन की प्राप्ति होती है।
एवं मनः कर्मप्रवृते विदयामन्यु
प्रीतिनं वावन्मयि वासुदेवे न मुच्यते देहयोगेन तावत् ।
इस प्रका अविद्या के द्वारा आत्म स्वरूप के ढक जाने कर्मवासनाओं के वशीभूत हुआ चित्त मनुष्य का फिर कर्मों में ही प्रवृत करता । अतः जबतक उसको मुझ बासुदेव में प्रीति नहीं होती, ववतक यह देह बन्धन से छूट नहीं सकता ।
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वास्तविक रूप समझाया संसार का स्वरूप बतलाया चारों गतियों के दुःख प्रकट किये और उनसे छुटकारा पानेके उपाय बतलाए । उनके उपदेश से प्रभावित होकर असंख्य नर नारियों ने ब्रत अनुष्ठान धारण किये थे । क्रम-क्रम से उन्होंने समस्त आयुश्क्षेत्रों में बिहार कर सार्व धर्म जैन धर्म का प्रचार किया था।
उनके समवशरण में चारण यादि एक सौ पांच गणधर ये दो हजार एक सौ पचास द्वादशांग के वेत्ता थे, एक साथ उन्तीस हजार तीन सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी थे, उन्नीस हजार बाठ सी क्रिया ऋद्धि के धारी थे धीर बारह हजार वादी थे। जिनसे भरा हुआ समवशरण बहुत ही भला भालूम होता था । धर्माया आदि तीन लाख वीस हजार ग्रायिकाएं थी, तीन लाख श्रावक, पांच लाख श्राविकाएं, असंख्य देव देवियाँ और असंख्यात तियंच उनके समवशरण की शोभा बढ़ाते थे। भगवान भवनाथ अपने दिव्य उपदेश से इन समस्त प्राणियों को हित का मार्ग बतलाते थे ।
मान हुए और हजार मनुष्यों के साथ प्रतिमा योग धारण कर श्रात्म ध्यान में लीन हो गये । बाकी बचे हुए चार अघातिया कर्मों का नाश कर चैत्र शुक्ला पष्ठी के दिन सांयकाल के सिद्धिसदन मोक्ष को प्राप्त हुए। देवों ने खाकर उनका निर्वाण महोत्सव मनाया।
अंत में जब धावु का एक महीना बाकी रह गया सब से बिहार बन्द कर सम्मेदल को किसी शिखर पर जाकर विराज अन्त में शुक्ल ध्यान के प्रताप से समय मृगशिर नक्षत्र के उदय में
भगवान अभिनन्दन नाथ
गुणाभिनंदा द िदनो भवान् दयावधं शांति सुखी मशिश्रियत् । समाधि तन्त्र पोपपत्तये द्वयेन नैध्य गुणेन वायुजत् ॥
- स्वामी समन्तभद्र
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जिनेन्द्र | सम्यभ्यदर्शन यादि गुणों का अभिनन्दन करने से अभिनन्दन कहलाने वाले अपने शान्ति सुखों से युक्त दवा रूपी स्त्री का आश्रय किया था और फिर उसकी सत्कृति के लिए ध्यान करते हुए श्राप द्विविध अन्तरंग बहिरंग रूप निप्परग्रहता से मुक्त थे।
यदा न पश्यत्ययथा गुहां स्वार्थे प्रमत्तः सहसा विपश्चित् । स्मृतिविन्दति तन तापा नाबाद मेम्यगारम
स्वार्थ में पागल जीव जब तक
विवेकदृष्टि का आश्रय लेकर इन्द्रियों की शेष्टाओं को मिथ्या नहीं देखता, तब तक आत्म स्वरूप की स्मृति खो बैठने के कारण वह अज्ञानवश विषप्रवान गृह आदि में आसक्त रहता है और तरह-तरह के क्लेश उठाता रहता है ।
राः त्रियामिनीभावः । अतो गृहक्षेत्र सुतान्तविसे जनस्य मोहोन्यमहं ममेति ।
स्त्री और पुरुष – इन दोनों का जो परस्पर दाम्पत्य भाव है, इसी को पण्डितजन उनके हृदय की दूसरी स्थूल एवं दुभैव ग्रन्थि कहते हैं। देहाभिमानरूप एक-एक सूक्ष्म ग्रन्थि तो उनमें अलग-अलग पहले से ही हैं। इसी कारण जीव को देहेन्द्रियादि के अतिरिक्त घर-खेत, स्वजन और धन आदि में भी 'मैं' और 'मेरे' पन का मोह हो जाता है ।
पुत्र
मदा मनोदयग्रन्थिरस्य कमजो रह आनयेत । वा जनः सम्परिवर्ततेऽस्माद मुक्ताः परं पाहा हेतुम जिस समय कर्मवासनाओं के कारण पड़ी हुई इसकी यह
हो जाता है और संसार के हेतुभूत अहंकार को त्याग कर सब के बन्धनों से मुक्त हो परम पद प्राप्त कर लेता है । हंसे गुरौ मयि भक्त्यानुवृत्मा वितृष्णया वृन्द्वतितिक्षमा च ।
हृदय-ग्रन्थि ढीली हो जाती है, उसी समय यह दाम्पत्य भाव से निवृत्त
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पूर्व भव परिचय जम्बू द्वीप के पूर्व विदेह में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक मंगलावती नामक देश है। उसमें रत्न संचय नाम का एक महा मनोहर नगर है । उसमें किसी समय महाबल नाम का राजा राज्य करता था। वह बहुत ही सम्पत्तिशाली था। उसके राज्य में सब प्रजा सुखी थी, चारों वर्गों के मनुष्य अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करते थे। महाबल दर असल में महावल ही था । उसने अपने बाहुवल से समस्त बिरोधी राजाओं के दांत खट्टे कर दिये थे। वह सन्धि विग्रह, यान, संस्थान, प्रासन और द्वैधीभाव इन छह गुणों से विभूषित था। उसके साम, दाम, दण्ड और भेद ये चार उपाय कभी निष्फल नहीं होते थे। वह उत्साह, मंत्र और प्रभाव इन तीन शक्तियों से युक्त था, जिससे वह हर एक सिद्धियों का पात्र बना हुआ था। कहने का मतलब यह है कि उस समय वहां राजा महाबली की बराबरी करने वाला कोई दूसरा राजा नहीं था। अपनी कान्ति से देवांगनाओं को भी पराजित करने वाली अनेक नर देवियों के साथ तरह-तरह के सुख भीगते हुए महाबल का बहुत सा समय व्यतीत हो गया।
एक दिन कारण पाकर उसका चित्त विषय वासनाओं से हट गया जिससे वह अपने धनपाल नामक पुत्र को राज्य देकर विमलवाहन गुरु के पास दीक्षित हो गया । अब मुनिराज महाबल के पास रस मात्र भी परिग्रह नहीं रहा था। वे शरदी, गर्मी, बर्षा, क्षधा, आदि के दुःख समता भावों से सहने लगे। संसार और शरीर के स्वरूप का विचार कर निरन्तर संवेग मोर वैराग्य गुण की वृद्धि करने लगे। प्राचार्य विमलवाहन के पास रह कर उन्होंने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा दर्शन विशद्धि आदि सोलह भावनाओं का विशुद्ध हृदय से चिन्तवन किया जिससे उन्हें तीर्थकर नामक महापुण्य प्रकृति का बन्ध हो गया। प्रायु के अन्त में वे समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर विजय नाम के पहले अनुत्तर में महा ऋद्धिधारी अहमिन्द्र हुए। वहां उनकी तेतीस सागर प्रमाण पाय थी, एक हाथ बरावर सफेद शरीर था, वे तेतीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार लेते और तेतीस पक्ष में एक बार श्वासोच्छ्वास लेते थे। वहाँ वे इच्छा मात्र से प्राप्त हुई उत्तम द्रव्यों से जिनेन्द्र देव की अर्चा करते और स्वेच्छा से मिले हुये देवों के साथ तत्व चर्चा करके मन बहलाते थे। यही अहमिन्द्र आगे चल कर भगवान अभिनन्दन नाथ हुये ।
सर्वत्र जन्तोर्व्यसनावगत्या जिज्ञासया तपसहागिवृत्त्या । मत्कर्मभिर्मत्कधया च नित्यं श्रद्देवसङ्गाद गुणकीर्तनान्मे । निवरसाम्योपशमेन पुरा जिहासया देहगेहारमबुद्धः । अध्यात्मयोगेन विधिसमेवया नाणेन्द्रियात्माभिजयेन सध्यक् । सच्ख या ब्रह्मचर्येण शश्वद् असम्पमादेन' यमेन बाचाम् । सर्वत्र मदावविचक्षणेन ज्ञानेन विज्ञानविराजितेन ।
योगेन धृत्युद्यमसत्वयुक्तो लिङ्ग व्यापोहेत्कुमालो हमाभ्याम् । पुओ ! संसार सागर से पार होने में कुशल तथा धैर्य, उद्यम एवं सत्वगुण मुक्त विशिष्ट पुरुष को चाहिये कि सब के आत्मा और गुण स्वरूप मुझ भगवान् में भक्तिभाव रखने से, मेरे परायण रहने मे, तृष्णा के त्याग से, गुग्न-दुःख आदि द्वन्द्वों के महने रो 'जीव को सभी योनियों में दुःख ही उठाना पड़ता है इस विचार से, तत्व जिज्ञासा से, तप से, सकाम कर्म के त्याग से मेरे ही लिये कर्म करने से मेरी कक्षाओं को नित्य प्रति श्रवण से, मेरे भक्तों के सजा और मेरे गुणों के कीर्तन से, वरत्याग से, समता से, शान्ति से और शरीर वथा घर आदि में मैं-मेरे पर के भाव' को त्यागने की इच्छा से, आध्यात्मशास्त्र के अनुशीलन से, एकान्न सेवन से, प्राग इन्द्रिय और मन के संयम से, शास्त्र और सत्पुरुषों के मन में यथार्थ बुद्धि रखने से, पूर्ण ब्रह्मचर्य से, कर्तव्य कर्मों में निरन्तर सावधान रहने से, वाणी के संवम से, सर्वत्र मेरी ही सत्ता देखने में, अनुभव ज्ञान राहित तत्व विचार से और योग साधन से अहङ्कार रूप अपने लिङ्ग शरीर को लीन कर दें।
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२ वर्तमान परिचय
जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र में अयोध्या नाम की नगरी है जो विश्व तीर्थकरों के जन्म से महा पवित्र है। जिस समय की यह वार्ता है उस समय वहां स्वयम्बर राजा राज्य करते थे उनकी महारानी का नाम सिद्धार्था था । स्वयम्बर महाराज वीर लक्ष्मी के स्वयम्बर पति थे वे बहुत ही विद्वान और कठिन से कठिन कार्यों को वे अपनी बुद्धि बल से अनायास ही कर डालते थे, जिससे देखने वालों को दातों तले अंगुली दबानी पड़ती थी। राज दम्पति तरह-तरह के सुख भोगते बिताते थे ।
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हुए दिन
ऊपर जिस धमिन्द्रि का कथन कर आये उसकी बायु जय विजय विमान में छह मास की बाकी रह गई तब से राजा स्वयंवर के घर के प्रांगन में प्रति दिन रहनों की वर्षा होने लगी। साथ में और भी अनेक शुभ शकुन प्रकट हुये जिन्हें देखकर भावी शुभ की प्रतीक्षा करते हुये राजदम्पति बहुत ही हर्षित होते थे। इसके अनन्तर महारानी सिद्धाने गाव षष्टी के दिन पुनर्वसु नामक नक्षत्र में रात्रि के पिछले प्रहर में सुरकुंजर आदि सोलह स्वप्नों को देखा । सवेरे स्वयंवर महाराज ने उनका फल कहा—प्रिये ! बाज तुम्हारे गर्भ में स्वर्ग से चयकर किसी पुण्यात्मा ने अवतार लिया है तो माह बाद तुम्हारे तीर्थंकर पुत्र होगा जिसके बल, विद्या, वैभव, ग्रादि के सामने देव देवेन्द्र अपना माया पुनेने पति के मुंह से भावी पुत्र का महात्म्य सुनकर सिद्धार्थों के हर्ष का पारावार नहीं रहा। उस समय उसने अपने पापको समस्त स्त्रियों में समझा था । गर्भ में स्थित तीर्थकर बालक के पुण्य प्रताप से देव कुमारियां ग्राकर महारानी की सुश्रूषा करने लगी और चणिकाय के देयों ने ग्राकर स्वर्गीय वस्त्राभूषणों से खूब सत्कार किया, लूद उत्सव मनाया, खूब भक्ति प्रदर्शित की। धीरे २ जब गर्भ के दिन पूर्ण हो गये सब रानी सिद्धार्था ने माघ शुक्ल द्वादशी के दिन आदित्य योग और पुनर्वसु नक्षत्र में उत्तम पुत्र उत्पन्न किया । देवों ने मेरुपर्वत पर ले जाकर रमणीय सलिल से उनका अभिषेक किया। इन्द्राणी ने तरह-तरह के आभूषण
सारभूत
कर्माशिय
हृदयग्रन्न्धिबन्धमविद्ययाऽसादितमप्रमत्तः
I
अनेन योगेन यथोपदेशं सम्यग्व्यपोह्यो परमेत योगात् ।
मनुष्य को चाहिये कि वह सावधान रहकर अधिया से प्राप्त इस हृदय ग्रन्थि रूप बन्धन को शास्त्रोक्त रीति से इन साधनों के द्वारा भली-भांति काट डाले; क्योंकि यही कर्म संस्कारों के रहने का स्थान है। तदन्तर सावन को भी परित्याग कर दे।
पुत्राश्च शिष्यांश्च नृपो गुरुर्खा मल्लोककामो मदनुग्रहार्थः इत्थं विमन्युरनुशिष्यादतज्ज्ञान् न योजयेत्कर्म कर्ममूहान् । कं योजयन्मनुजोऽर्थं लभेत निपातयन्नष्टदृशं हि गर्ते ।
जिसको मेरे लोक की इच्छा हो अथवा जो मेरे अनुग्रहकी प्राप्ति को ही परम पुरुषार्थ मानता हो वह राजा हो तो अपनी अबोध प्रजा को, गुरु अपने शिष्यों को और पिता अपने पुत्रा' को ऐसी ही शिक्षा दे। अज्ञान के कारण यदि वे उस शिक्षा के अनुसार न चलकर कर्म को ही परमपुरुषार्थ मानते रहें, तो भी उस पर कोच न करके उन्हें समझा बुझाकर कर्म में न हो उन्हें
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काम्यकमों में जयाना तो ऐसा ही है जैसे किसी
मनुष्य को जानना में इकेल देना
इस भला किस पुरुषार्थ की सिद्धि हो
सकती है।
लोक: स्वयं मनि दृष्टिन् समीत freeदमः । अन्योन्यवैरः सुखलेशहेतो रनन्तदुःखं च न वेद मूढः ।
असा कल्याण किस बात में है, इससे लोग नहीं जानते इसीसे वे तरह तरह की मांग-कामनाओं में फसकर कुछ आरएक सुख के लिये आपस में वैर ठान लेते हैं और निरंतर विषयभोगों के लिये ही प्रयत्न करते रहते हैं। वे मुर्ख इस बात पर कुछ भी विचार नहीं
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पहिनाये फिर मे पर्वत मे वापिस आकर अयोध्यापुरी में अनेक उत्सव मनाये। राजा ने याचकों के लिए मनचाहा दान दिया। इन्द्र ने राजा, बन्धुषों की सलाह से बालक का अभिनन्दन नाम रखा। बालक प्रभिनन्दन अपनी बराल चेष्टाओं से सब के मन को आनन्दित करता था इसलिये उसका अभिनन्दन नाम सार्थक हो था जन्मकल्याणक का महोत्सव मनाकर इन्द्र वगैरह अपने-अपने स्थानों पर वापिस चले गये। पर इन्द्र की भाशा से बहुत से देव बालक अभिनन्दन कुमार के मनोविनोद के लिए वहीं पर रह गये। संभवनाथ के बाद दस लाख करोड़ सागर समय बीत चुकने पर भगवान् अभिनन्दन नाथ हुये थे। उनकी आयु पचास लाख पूर्व की थी, शरीर की ऊंचाई तीन सौ पचास धनुष की थी और रंग सुवर्ण की तरह पीला था, उनके शरीर से सूर्य के समान तेज निकलता था ये मूर्तिधारी पुण्य के समान मालूम होते थे ।
जब इनकी आयु के साढ़े बारह लाख वर्ष बीत गये तब महाराज स्वयंवर ने इन्हें राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली । अभिनन्दन स्वामी ने भी राज्य सिंहासन पर विराजमान होकर साढ़े छत्तीस लाख पूर्व और आठ पूर्वाग तक राज्य किया।
एक दिन वे मकान की छत पर बैठकर आकाश की शोभा देख रहे थे देखते-देखते उनको दृष्टि एक भावलों के समूह पर पड़ी। उस समय वह बादलों का समूह आकाश के मध्य भाग में स्थित था। उसका आकार किसी मनोहर नगर के समान था। भगवान अनिमेष दृष्टि से उनके सौन्दर्य को देख रहे थे। पर इतने में वायु के प्रबल वेग से बादलों का समूह नष्ट हो गया— कहीं का कहीं चला गया। बस, इसी घटना से उन्हें श्रात्म ज्ञान प्रकट हो गया, जिससे उन्होंने राज्य कार्य से मोह छोड़ कर दीक्षा लेने का विचार कर लिया। उसी समय लौकान्तिक देवों ने भाकर उनके विचारों का समर्थन किया, चारों निकायों के देशों ने आकर दीक्षा कल्याणक का उत्सव किया अभिनन्दन स्वामी राज्य का भार पुत्र के लिए सौंपकर देव निर्मित हस्तचिया पालकी पर सवार हुए। देव उस पालकी को उठा कर उम्र नाम उद्यान में ले गये वहाँ उन्होंने माघ शुक्ला द्वादशी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र के उदय में शाम के समय जगदुद्दन्य सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर दीक्षा धारण कर
करते कि इस वैर-विरोध के कारण नरक आदि अनन्त घोर दुःखों की प्राप्ति होगी ।
कर स्वयं तदभियो विपरिषद् मविद्यायामन्तरे वर्तमानम् । हृष्ट्वा । पुनस्तं सघृणः कुबुद्धि प्रयोजयेदुत्पथगं यथान्धम् ।
गढ़े में गिरने के लिये उल्टे ग्रस्ते से जाते हुए मनुष्य को जैसे
वाला गुरु उपर नहीं जाने देता
अ
येही अज्ञानी मनुष्य को में फैलकर दुःखों की ओर जाते देखकर कौन ऐसा दयालु और ज्ञानी पुरुष होगा, जो जान-बूबकर भी उसे उसी राह पर जाने दे, या जाने के लिये प्रेरणा करे |
गुस स्यात्स्वजनो त स स्यात् पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात् । देवं न तत्यान्न पतिश्व पतिश्ण स स्वान्न मोचयेय: समुपेतमृत्युम् ।
जो अपने प्रिय सम्बन्धी को भगवद्भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फांसो से नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता मात्रा नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है।
इदं शरीरं नम विभासत्वं हि मे हृदय कृतां मे वदधर्म मा भयो हि
षभरा
मेरे इस अवतार शरीर का रहस्य साधारण जनों के लिये बुद्धि
नहीं है। शुद्ध सत्य ही मेरा हृदय है और उसी में धर्म की स्थिति है, मैंने अधर्म को अपने से बहुत दूर पीछे की ओर ढकेल दिया है, इसी से सत्पुरूष मुझे 'ऋषभ' कहते हैं ।
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ली-बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह को छोड़ दिया और केश उखाड़ कर फेक दिये। उनके साथ में और भी हजार राजानों ने दीक्षा धारण की। उन सब से घिरे हुए भगवान अभिनन्दन बहुत ही शोभायमान होते थे। उन्होंने दीक्षा लेते समय बेला अर्थात दो दिन का उपवास धारण किया था।
जब तीसरा दिन पाया तब वे मध्याह्न से कुछ समय पहले आहार लेने के लिए अयोध्यापुरी में गये। उस समय वे प्रागे चार हाथ जमीन देखकर चलते थे, किसी से कुछ नहीं कहते, उनकी प्राकृति सौम्य थी दर्शनीय थी। वे उस समय ऐसे मालूम होते थे मानों चचाल चित्रं किलकान्चनाद्रि मेरु पर्वत ही चल रहा हो । महाराज इन्द्रदत्त ने पड़गाह कर उन्हें विधिपूर्वक आहार दिये जिससे उनके घर देवों ने पंचाश्चर्य प्रकट किये। वहां से लौट कर अभिनन्दन स्वामी वन में जा विराजे और कठिन तपस्या करने लगे। इस तरह अट्ठारह वर्ष तक छमस्थ अवस्था में रहकर बिहार किया।
एक दिन बेला उपवास धारण कर वे शाल वृक्ष के नीचे विराजमान थे। उसी समय उन्होंने शुक्ल ध्यान के अवलम्बन से क्षपक श्रेणी मांढ क्रम क्रम से आगे बढ़कर दश गुणस्थान के अन्त में मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय कर दिया फिर बढ़ती हुई विशुद्धि से बारहवं गुणस्थान में पहुंचे। वहां अन्तमुहूत ठहर कर शुक्ल ध्यान के प्रताप से अवशिष्ट वातिया कर्मों का नाश किया जिससे उन्हें पोष शुक्ल चतुर्दशी के शाम के समय पुनर्वसु नक्षत्र में अनन्त चतुष्टय, अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य प्राप्त हो गये । उस समय सब इन्द्रों ने प्राकर उनकी पूजा की, ज्ञान कल्याणक का उत्सव किया । धनपति ने समवसरण की रचना की जिसके मध्य में सिंहासन पर अधर विराजमान होकर पूर्ण ज्ञानी भगवान अभिनन्दन नाथ ने दिव्य ध्वनि के द्वारा सब को हित का उपदेश दिया। जोव, अजीव, पाश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वों का विशद व्याख्यान किया । संसार के दुखों का वर्णन कर उससे छूटने के उपाय बतलाये। उनके उपदेश से प्रभावित होकर अनेक प्राणी धर्म में दीक्षित हो गये थे । वे जो कुछ कहते थे वह विशुद्ध हृदय से कहते थे इसलिए लोगों के हृदयों पर उसका असर पड़ता था। आर्य क्षेत्र में जगह-जगह घूम कर उन्होंने मार्ग पर्म का प्रचार नियागौर.संसार
सिपड़े हुए प्राणियों को हस्तावलम्बन दिया।
.. तस्माद्भवन्तो हृदयेन जाताः सवें महीयांसममु सनाभम् ।
अकिल्ष्टबुद्धया भरतं भजध्वं शरणं त्वद्भरणं प्रजानाम् । तुम सब मेरे उस शुद्ध सत्वमय हृदय से उत्पन्न हुए हो, इमलिये मत्सर छोड़कर अपने बड़े भाई भरत की सेवा करो। उसकी रोवा' करना मेरी ही सेवा करना है और यही तुम्हारा प्रजापालन भी है।
भूतेषु वीरुभ्यः उदुत्तमा ये सरीसृपास्तेषु सबोधनिष्ठाः
ततो मनुष्याः प्रमथास्तलोऽपि गन्धर्वसिद्धा विबुधानुगा ये । अन्य सब भूतों की अपेक्षा वृक्ष अत्यंत श्रेष्ठ हैं, उनसे चलने वाले जीव श्रेष्ठ हैं और उनमें भी कीटादि की अपेक्षा ज्ञानयुक्त गशु आदि श्रेष्ठ हैं । पशुअ से मनु, मनुष्यों रो प्रमथगण प्रथमो से गन्धर्व, गन्धों से सिद्ध और सिद्धों से देवताओं के अनुयायी किन्नरादि थोष्ठ हैं।
देवासुरेभ्यो मधवप्रधाना दक्षादयो ब्रह्मसुतास्तु तेषाम् । भवः परः सोऽथ विरिञ्चवीर्यः स मत्परोऽहं विजदेवदेवः ।
उनसे असुर, असुरों से देवता और देवताओं से भी इन्द्र श्रेष्ठ हैं इन्द्र से भी ब्रह्माजी के पुत्र पक्षादि प्रजापति श्रेष्ठ है। ब्रह्माजी के पुत्रों में रुद्र सबसे श्रेष्ठ हैं। वे ब्रह्माजी से उत्सन्न हुए हैं, इसलिवे ब्रह्माजी उनसे श्रेष्ठ हैं। बे भी मुझसे उत्पन्न हुए हैं, और मेरी उपासना करते हैं, इसलिये मैं उनसे भी श्रेष्ठ है। परंतु ब्राह्मण मुझसे भी श्रेष्ट हैं, क्योंकि मैं उन्हें पूज्य मानता हूँ। .
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उनके समवसरण में व्रजनाभि को आदि लेकर १०३ एक सौ तीन गणधर थे, दो हजार पांच सौ द्वादशांग के पाठी ने दो लाख तीस हजार पचास शिक्षक थे, नौ हजार आठ सौ अवधिज्ञानी थे सोलह हजार केवलज्ञानी थे, ग्यारह हजार छह सो मन:पर्ययज्ञान के धारक थे, उन्नीस हजार विक्रिया ऋद्धि के धारण करने वाले थे, और ग्यारह हजार वाद विवाद करने वाले थे, इस तरह सब मिलाकर तीन लाख मुनिराज थे। इनके सिवाय मेरुणा को आदि लेकर लोग लाखो हजार छह सौ आर्यिकाएँ थीं, तीन लाख श्रावक थे, पांच लाख श्राविकाएँ थीं । श्रसंख्यात देव देवियां थीं और थे असंख्यात तिपन्न |
अनेक जगह विहार करने के बाद वे आयु के अन्तिम समय में सम्मेद शिखर पर पहुँचे। वहां से प्रतिमायोग धारण कर जल हो बैट गये। उस समय उनका दिव्य ध्वनि वर बाह्यवैभव लुत्त हो गया था। वे हर एक तरह के प्रारम ध्यान में लीन हो गये थे। धीरे धीरे उन्होंने योगों को प्रवृत्ति को भी रोक लिया था जिससे अनेक नवीन कर्मो का प्राधव बिल्कुल बन्द हो गया ओर ध्यान के प्रताप से सत्ता में स्थित भाति चतुष्क को पचासी प्रकृतिमा धीरे धीरे नष्ट हो गई। जिससे वे वैसाख शुक्ल षष्ठी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में प्रातः काल के समय मुक्ति मन्दिर में जा पधारे। देवों ने लाकर उनके निर्वाण कल्याणक का महोत्सव किया। आचार्य गुणभद्र लिखते हैं कि जो पहले विदेह क्षेत्र के रत्नसंच नगर में महावल नाम के राजा हुए फिर विजय धनुत्तर में हमिन्द्र हुए और अन्त में साकेतपति अभिनन्दन नामक राजा हुए अभिनन्दन स्वामी तुम बे की रक्षा करें।
भगवान सुमतिनाथ तीर्थंकर
शिवनृप यम दण्ड: पुण्डरी किशोरिरिव रतिषेणी वैजन्तेहमिन्द्रः । सुमति रमित गस्तीयः कृतार्थः सकलगुणासमृद्धो यः स सिद्धि विजयात् ॥
न ब्राह्मणस्येभूयत् पश्यति विना किमतः परंतु यस्मिन्तृभिः प्रहुतं श्राह मश्नामि कामं न तथाग्निहोत्रे ।
प्राचार्य गुणभद्र
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सभा में उपस्थित ब्राह्मणों को लक्ष्य करके दिया! दूसरे किसी भी कोंके समान भी नहीं समझता, फिर उन अधिक तो बात ही करे सकता हूँ। लोग पूर्व ब्रह्मणों के मुख में जो अनादि अद्भुति डालते हैं, उसे मैं जैसी प्रसन्नता से ग्रहण करता हूँ वैसे अग्निहोत्र में होम की हुई सामग्री को स्वीकार नहीं करता ।
पुताउनुसती में पुराणी नेह सत्यं परमं पवित्रम् । शमो दमः सत्यमनुप्रहृश्च तपस्तितिक्षानुभववच यत्र ।
जिन्होंने इस लोक में अध्ययनादि के द्वारा मेरी वेदवा अति सुन्दर और पुरातन मूर्ति को धारण कर रखा है तथा जो परम पवित्र सत्त्वगुण शम, दम, सत्य, दया, तब तितिक्षा और ज्ञानादि आठ गुणों से सम्पन्न हैं-उन ब्राह्मणों से बढ़कर और कौन हो सकता है। मनोज्यमन्त्रारपरतः परस्मात् स्वर्गापवर्गाधिपतेन किञ्चित् । येt किमु स्वारितरेण तेपामविनानां गतिम् ।।
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मैं ह्यादि से भी श्रेष्ठ और अनन्त तथा स्वर्ग मोज आदि देने की सामयं रखता है। किंतु मेरे अनि भक्त ऐसे होते हैं कि वे मुझसे भी कभी कुछ नहीं चाहते; फिर राज्यादि अन्य वस्तुओं की तो वे इच्छा ही कैसे कर सकते है?
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जो शत्रु रूप राजाओं के लिए यमराज के दण्ड के समान अथवा हरि इन्द्र के समान पुण्डरीकिणी नगरी के राजा रतिषेण हुए, फिर वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र हुए वे अपार लक्ष्मी के धारक, कृतकृत्य, सब गुणों के सम्पन्न भगवान् सुमतिनाथ तीर्थकर तुम सब की सिद्धि करें-तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करे।
पूर्व भव परिचय दूसरे धातकी खुण्ड द्वीप में पूर्व की ओर विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट पर पुष्कलावली नामक देश है। उसमें पुण्डरीकिणी नगरी है जो अपनी शोभा से पुरन्दरपुरी अमरावती को भी जीतती है। वहाँ राजा रतिषेण राज्य करते थे। जिस तरह बड़े बड़े शत्रुओं को जीत लिया था उसो तरह अनुपम मनोबल से काम क्रोध, लोभ, मद्, मात्सर्य और मोह इन छह अन्तरंग शत्रों को भी जीत लिया था। वे बड़े हो यशस्वी थे, दयालु थे, धर्मात्मा थे और थे सच्चे नोतिज्ञ । अनेक तरह के विषय भोगते हुए जब उनकी बायु का बहुभाग व्यतीत हो गया तब उन्हें एक दिन किसी कारणवश संसार से उदासीनता हो गई। ज्योंही उन्होंने विवेक रूपी नेत्र से अपनी प्रोर देखा त्योंही उन्हें अपने बीते हुए जीवन पर बहुत ही सन्ताप हुआ। वे सोचने लगे हाय मैंने अपनी बिशाल आयु इन विषय सुखों के भोगने में ही बिता दी पर विपय सुख भोगने से क्या सुख मिला है। इसका कोई उत्तर नहीं है। मैं आज तक भ्रमवश दुःख के कारणों को ही मुख का कारण मानता रहता हूँ। आह! इत्यादि विचार कर वे अतिरथ पुत्र के लिये राज्य दे बन में जाकर कठिन तपस्याए करने लगे। उन्होंने अहन्नन्दन गुरु के पास रहकर ग्यारह अगों का विधिपूर्वक अध्ययन किया तथा दर्शन विशुद्धि प्रादि सोलह भावनाओं का शुद्ध हृदय से चिन्तवन किया जिससे उन्हें तीर्थकर नामक महापुण्य प्रकृति का बन्द हो गया मुनिराज तिर्पण आयु के अन्त में सन्यास पूर्वक मर में अहमिन्द्र हा। वहाँ उनकी आयु तेतीस सागर वर्ष को थी, शरीर एक हाथ ऊंचा और रंग से सफेद था। वे तेतोस हजार वर्ष एक बार मानसिक आहार लेते और तेतीस पक्ष में सुरभित श्वास लेते थे। इस तरह वहां जिन अर्चा और तत्व चोसे हिमिन्द्र रतिषण के दिन सुख से बीतने लगे। यही अहमिन्द्र प्रागे के भव में कथानायक भगवान्
सर्वाणि मद्धिष्ण्यतया भवद्भिश्चराणि भूतानि सुता ध्रुवाणि ।
सम्भावित व्यानि पदे पदे वो विविक्तहम्भिस्तदु हाहण मे ।। पत्रो ! तभ सम्पूर्ण चराचर भूनों को मेरा ही शरीर समझ कर शुद्धि बुद्धि से पद-पद पर उनकी सेवा करो, यही मेरी सच्ची पूजा है।
मनोवचोककरणे हितस्य साक्षात्कृतं मे परिबहणं हि ।
बिना पुमान् येन महाविमोहात् कृतान्तमाशान्न विमोक्तुगीशेत् ।। मन, बचन, दष्टि तथा अन्य इन्द्रियों की चेष्टाओं का साक्षात् फल मेरा इस प्रकार का पूजन है। इसके बिना मनुष्य अपने को महामोहमय कालपास से छुड़ा नहीं सकता।
मनशापात्म जान स्वयमनुशिष्टायपि लोकानुशासनार्थ महानुभाव: परमसुहृद्भगवानषभोपदेश उपशमशीलानामुपरतकर्मणा महामु
जानवराग्यलक्षणं पारमहंस्यधर्ममुपशिक्षमाणः स्वतनयशतज्येष्ठं परमभागवत भगवाजनपरायणं भरतं धरणिपालनायाभिषिच्य' स्वयं भवन एबोवैरितशरीरमावपरिग्रह ।
श्री शुकदेव जी कहते हैं-राजन् ! ऋषभदेव जी के पुत्र यद्यपि स्वयं ही सब प्रकार सुशिक्षित थे, तो भी लोगों को शिक्षा देने के खाने महाप्रभावशाली परम सुहृदभगवान् ऋषभने उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया। ऋषभदेव जी के सौ पुत्रों में भारत सबसे बड़े थे। वे भगवान के परम भक्त और भगवद्भक्तों के परायण थे। ऋषभदेव जी ने पृथ्वी का पालन करने के लिये उन्हें राजगद्दी पर बैश दिया और स्वयं उपशमनिवृत्तिारायण महामुनियों के भक्ति, ज्ञान और बैराग्यरूप परमहंसोचित धर्मों की शिक्षा देने के लिए बिल्कुल विरक्त हो गये । केवल शरीरमात्र का परिग्रह बया और सब कुछ घर पर रहते ही छोड़ दिया । अत्र बे वस्त्रों का भी त्याग करके सर्वथा दिगम्बर हो गये।
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सुमति होगें । अब कुछ वहाँ का वर्णन सुनिये वहां आगे चल कर उक्त प्रहमिन्द्र जन्म धारण करेंगे।
(5) वर्तमान परिचय पाठकगण जम्बू द्वीप भरत क्षेत्र की जिस अयोध्या से परिचित होते ना रहे हैं उसी में किमो समय मेघरथ नाम के राजा राज्य करते थे उनकी महारानी का नाम मंगला था। मगला सचमुच मंगला हो थी। महाराज मेवरथ के सर्व मंगल मंगला के ही प्राधीन थे। ऊपर जिस अहमिन्द्र का कथन कर पाये हैं । उसको वहां की आयु जब छह माह को वाको रह गई थी तभी से महाराज मेघरथ के घर पर देवों ने रत्नों की वर्षा करनी शुरु कर दी थो । श्रावण शुक्ला द्वितीया के दिन मघा नक्षत्र में मंगला देवी ने पिछले भाग में ऐरावत प्रादि सोलह स्वप्न देखे और फिर मुह में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा। सवेरा होते ही उसने प्राणनाथ से स्वप्नों का फल पूछा तब उन्होंने अवधिज्ञान से जान कर कहा कि आज तुम्हारे गर्भ में तीर्थकर बालक ने अवतार लिया है-सोलह स्वप्न उसी का विभूति के परिचायक हैं। पति के मुख से स्वप्नों का फल सूनकर और भावी पुत्र के सुविशाल वैभव का स्मरण करके वह बहुत ही सुखी होती थी। उसी दिन देवों ने आकर राजा रानी का खूब यश गाया, खूब उत्सव मनाये। इन्द्र की आज्ञा से सुर कुमारियां महादेवी मंगला की तरह तरह की शुश्रुषा करती थीं और प्रमोदमयी वचनों से उसका मन बहलाये रहती थी।
नौ महीना बाद चैत शुक्ल एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में महारानी ने पुत्र उत्पन्न किया। पुत्र उत्पन्न होते ही तीनों लोकों में मानन्द छा गया। सबके हुण्य प्रानन्द से उल्लसित हो उठे, एक क्षण के लिए नारकी भी मारकाट का दुःख भल गये, भवनवासी देवों के भवनों में अपने आप शंख बज उठे, व्यन्तरों के मन्दिरों में भेरी की आवाज गूजने लगी ज्योतिपियों के विमानों में सिंहनाद हुमा तथा कल्पवासी देवों के विमानों में घन्टा की आवाज फैल गयी। मनप्प लोक में भी दिशायें निर्मल हो गई, प्राकाश निमेघ हो गया, दक्षिण की शीतल और सुगन्धित वायु धोरे-धीरे वहने लगो, नदी, तालाब आदि का पानी स्वच्छ हो गया।
अथान्तर तीर्थकर के पुण्य उदय से देव लोग बालक तीर्थंकर को सुमेरु पर्वत पर ले गये। वहां उन्होंने क्षीर सागर के जल से उनका अभिषेक किया। अभिषेक के बाद इन्द्राणी ने शरीर पोंछ कर उन्हें वालोचित उत्तम प्राभूषण पहिनाये और इन्द्र ने स्तुति की। फिर जय जय शब्द से समस्त आकाश को व्याप्त करते हये अयोध्या आये और बालक को माता पिता के लिए सौंपकर उन्होंने ठाट-बाट से जन्मोत्सव मनाया। उसी समय इन्द्र ने प्रानन्द नाम का नाटक किया था।
पुत्र का अनुपम माहात्म्य देख कर माता-पिता हर्ष से फूले न समाते थे । इन्द्र ने महाराज मेघरथ की सम्मति से बालक का नाम सुमति रक्खा। उत्सव समाप्त कर देव लोग अपने-अपने घर चले गये।
बालक सुमतिनाथ दोयज के चन्द्रमा की तरह धीरे-धीरे बढ़ता गया। वह बाल चन्द्र ज्यों-ज्यां बढ़ता जाता था त्योंस्यों अपनी कलाओं से माता-पिता के हर्ष सागर को बढ़ाता जाता था। भगवान सुमतिनाथ, अभिनन्दन स्वामी के बाद नो लाख करोड सागर समय बीत जाने पर हुए थे। उनकी प्रायु चालीस लाख पूर्व की थी जो उसी अन्तराल में शामिल है। शरीर की ऊंचाई तीन सी धनुप और शरीर की कान्ति तपे हुये स्वर्ण की तरह थी। उनका शरीर बहुत ही सुन्दर था। उनके अंग प्रत्यंग से लावण्य फट-फट कर निकल रहा था । धीरे-धीरे जब उनके कुमार काल के दस लाख पूर्व व्यतीत हो गये तब महाराज मेघरथ उन्हें राज्य भार सौंप कर दीक्षित हो गये।
भगवान सुमतिनाथ ने राज्य पाकर उसे इतना व्यवस्थित बनाया था कि जिससे उनका कोई भी शत्रु नहीं रहा था। समस्त राजा लोग उनकी आज्ञाओं को मालानों की तरह मस्तक पर धारण करते थे। उनके राज्य में हिसा, झूठ, चोरी, जाभिचार प्राधि पाप देखने को न मिलते थे। उन्हें हमेशा प्रजा के हित का ख्याल रहता था इसलिए वे कभी ऐसे नियम नहीं मनाते जिनसे कि प्रजा दुखी हो । महाराज मेघरथ दीक्षित होने के पहले ही उनका योग्य कुलीन कन्यानों के साथ पाणिग्रहण (विवाह) करा गये थे। सुमतिनाथ उन नर देवियों के साथ अनेक सुख भोगते हए अपना समय व्यतीत करते थे।
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इस तरह राज्य करते हुए जब उनके उन्नीस लाख पूर्व और बारह पूर्वांग बीत चुके तब किसी दिन कारण पाकर उनका चित्त विषय वासनायों से विरक्त हो गया जिससे उन्हें संसार के भोग विरस और दुःखप्रद मालूम होने लगे । ज्योंही उन्होंने अपने प्रतीत जीवन पर दृष्टि डाली त्योंही उनके शरीर में रोमांच खड़े हो गये। उन्होंने सोचा "हाय, मैंने एक मुर्ख की तरह इतनी विशाल आयु व्यर्थ ही गंबा दी दूसरों के हित का मार्ग बतलाऊं । उनका भला करूं --यह जो मैं बचपन में सोचा करता था वह सब इस यौवन और राज्य सुख के प्रवाह में प्रवाहित हो गया । जैसे सैकड़ों नदियों का पान करते हुए भी समुद्र को तप्ति नहीं होती ।वैसे इन विषय सखों को भोगते हुए भी प्राणियों की तृप्ति नहीं होती ये विषयाभिलाषाए' मनुष्य को अात्म हित की ग्रोर कदम नहीं बढ़ाने देतीं। इसलिए अत्र' मैं इन विषय वासनाओं को तिलांजलि देकर प्रात्म हित की ओर प्रवृत्ति करता हूं।
इधर भगवान सुमतिनाथ विरक्त हृदय से ऐसा विचार कर रहे ये उधर प्रासन कांपने मे लौकान्तिक देवों को इनके वैराग्य का ज्ञान हो गया था जिससे वे शीघ्र ही इनके पास प्रागे और अपनी विरक्त वाणी से इनके वैराग्य को बढ़ाने लगे। जब लौकान्तिक देवों ने देखा कि अब इनका हृदय पूर्ण रूप से विरक्त हो च का है तब वे अपनी-अपनी जगह पर वापिस चले गये और उनके स्थान पर असंख्य देव लोग मा गये। उन्होंने पाकर वैराग्य महोत्सव मनाना प्रारम्भ कर दिया । पहिले जिन देवियों की संगीत, नृत्य, तथा अन्य सेष्टायें राग बढ़ाने वाली होती थी आज उन्हीं देवियों की समस्त चेष्टायें वैराग्य बढ़ा होगी।
भगवान सुमतिनाथ पुत्र के लिए राज्य देकर देव निर्मित "अभया पालकी पर बैठ गये। देव लोग "अभया' को अयोध्या के समीपवर्ती सचेतक नामक वन में ले गये वहाँ उन्होंने नर-सूर की साक्षी में जगद्वन्द्य सिद्ध परमेठी को नमस्कार कर बैसाख शुक्ला नवमीके दिन मध्यान्ह के समय मघा नक्षत्र में एक हजार राजानों के साथ दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली। दीक्षा के धारण करते समय ही ये तेला-तीन दिन के उपवास की प्रतिज्ञा कर चुके थे इसलिए लगातार तीन दिन तक एक प्रासन से ध्यान मग्न होकर बैठे रहे। ध्यान के प्रताप से उनकी विशुद्धता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती थो इसलिए उन्हें दीक्षा लेने के बाद ही चौथा मन: पर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया था। जब तीन दिन समाप्त हुए तब वे मध्यान्ह के प्राहार के लिए सौमनस नगर में गये। उन्हें "घुम्न द्युति" राजा ने पडगाह कर योग्य (समयानुकल) आहार दिया। पादान के प्रभाव से राजा झुम्ना ति के घर देवों ने पंचाश्चर्य प्रकट किये । भगवान सुमतिनाथ माहार लेकर वन को वापिस लौट आये और फिर प्रात्म-ध्यान में लीन हो गये।
इरा कुछ-कुछ दिनों के अन्तराल से अाहार ले कठिन तपश्चर्या करते हुए जब बीस वर्ष बीत गये तब उन्हें प्रियंग वृक्ष के नीचे शुक्ल ध्यान के प्रताप से घातिया कर्मों का नाश हो जाने पर चैत्र सुदो एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में सायंकाल के समय लोक आलोक को प्रकाशित करने वाला केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। देव, देवेन्द्रों ने आकर भगवान के ज्ञान कल्याणक का उत्सव मनाया । अलकाधिपति कोर ने इन्द्र की आज्ञा पाते ही समवशरण की रचना की। उनके मध्य में सिंहासन पर अकिचन रूप से विराजमान हो करके बली सुमतिनाथ ने दिव्य ध्वनि के द्वारा उपस्थित जनसमूह को धर्म, अधर्म का स्वरूप बतलाया। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों के स्वरूप का व्याख्यान किया। भगवान के मुखारविन्द से वस्तु का स्वरूप समझ कर वहाँ बैठी हुई जनता के मुह उस तरह हर्षित हो रहे थे । जिस तरह कि सूर्य की किरणों के स्पर्श से कमल हर्षित हो जाते हैं।
__ व्याख्यान समाप्त होते ही इन्द्र ने मधुर शब्दों में उनकी स्तुति की और प्रार्य क्षेत्रों में विहार करने की प्रार्थना की। उन्होंने पावश्यकतानुसार प्रार्य क्षेत्रों में विहारकर समीचीन धर्म का खूब प्रचार किया।
भगवान का विहार उनकी इच्छा पूर्वक नहीं होता था। क्योंकि मोहनीय कर्म का अभाव होने से उनकी हर एक प्रकार की इच्छाओं का अभाव हो गया था। जिस तरफ भव्य जीवों के विशेष पूण्य का उदय होता था उसी तरफ मेघों की नाई उनका स्वाभाविक विहार हो जाता था। उनके उपदेश से प्रभावित होकर अनेक नन-नारी उनकी शिष्य दीक्षा में दीक्षित हो जाते थे।
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याचार्य गुणभद्र जी ने लिखा है कि उनके समवदारण में अमर सादि एक सो सोलह गणधर थे, दो लाल चौधन हजार तीन सो पचास शिक्षक थे ग्यारह हजार अवधिज्ञानी थे, तेरह हजार केवलज्ञानी थे, दश हजार चार सौ मन:पर्ययज्ञानी थे अठारह हजार चार सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक थे, और दस हजार चार सौपचास वादी थे। इस तरह सब मिलाकर तीन लाख बीस हजार मुनि थे । अनन्तमती यदि तीन लाख तीस हजार आर्यिकायें थीं। तीन माल आवक और पांच लाख भाविकाएं थी इनके सिवाय असंख्यात देव देवियों और संख्यात तिथंच थे।
जब उनकी धावु एक माह की वाको रह गयी तब वे सम्मेद स पर आये और वहीं योग निरोध कर विराजमान हो गये। वहां उन्होंने शुक्ल ध्यान के द्वारा प्रवादि चतुष्टय का क्षय कर चैत्र सुदि एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में शाम के समय मुक्ति मन्दिर में प्रवेश किया। देवी ने सिद्ध क्षेत्र सम्मेद शिखर पर ग्राकर उनकी पूजा की और मोक्ष कल्याणक का उत्सव किया।
पचागन्तर जो लोग सुमतिनाथ की वृद्धि को ही बुद्धि मानते है घथवा उनके द्वारा प्रतिपादित मत में ही जिनकी बुद्धि प्रवृत रहती है उन्हें अविनाशी लक्ष्मी को प्राप्ति होती है। इसके सिवान जिनके वचन सज्जन पुरुषों के द्वारा ग्राह्म हैं ऐसे सुमतिनाथ भगवान हम सबके लिए बुद्धि प्रदान करें। अखण्ड धातकी खण्ड ई में पूर्व मेरु पर्वत से पूर्व की ओर स्थित विदेह क्षेत्र में सोता नदी के उत्तर तट पर एक पुष्कलावती नाम का उत्तम देश है। उसकी पुण्डरीकिणी नगरी में रतिषेण नाम का राजा था। वह राजा राज्य सम्पदाओं से सहित था, उसे किसी प्रकार का व्यसन नहीं था और पूर्व भाग में उपार्जित विशाल पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त हुए राज्य का नोति-पूर्वक उपभोग करता था। उसका वह राज्य शत्रुओं से रहित था कोष के कारणों से रहित था और निरन्तर वृद्धि की प्राप्त होता रहता था। राजा रतिषेण की जो राजविद्या वो वह उसी की थी वैसी राजविद्या धन्य राजाओं में नहीं पाई जाती थी । आन्वीक्षिकी, त्रयी वार्ता और दण्ड इन चारों विद्याओं में चौथी दण्ड विद्या का वह कभी प्रयोग नहीं करता क्योंकि उसकी प्रजा प्राणदण्ड आदि अनेक दण्डों में से किसी एक भी दण्ड मार्ग में नहीं जाती थी । इन्द्रियों के विषय में अनुराग रखने वाले मनुष्य 'को जो मानसिक तृप्ति होती है उसे काम कहते हैं। वह काम, अपने इष्ट समस्त पदार्थों की सम्पति रहने से राजा रतिषेण को कुछ भी दुर्लभ नहीं था । वह राजा अर्जन, रक्षण, वर्धन और व्यय इन चारों उपायों से धन संचय करता था और आगम के अनुसार अर्हन्त भगवान को ही देव मानता था। इस प्रकार अर्थ और धर्म को वह काम की अपेक्षा श्रर्थ तथा धर्म पुरुषार्थं का अधिक सेवन करता था। इस प्रकार लीला पूर्वक पृथ्वी का पालन करने वाले और परस्पर की अनुकूलता से धर्म,
काम इस त्रिवर्ग की बृद्धि करने वाले राजा रतिषेण का जब बहुत-सा समय व्यतीत हो गया तब एक दिन उसके हृदय में निम्नांकित विचार उत्पन्न हुआ ।
यह विचार करने लगा कि इस संसार में जीव का कल्याण करने वाला क्या है? और पर्यायरूपी भंवरों में रहने वाले दुर्जन्य तथा दुर्भरण रूपी रूप से दूर रहकर यह जीव सुख को किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? अर्थ और सुख काम से तो हो नहीं सकता क्योंकि उनसे संसार की हो वृद्धि होती है। रहा धर्म, सो जिस धर्म हां पाप रहित एक मुनि धर्म है उसी से इस राजा के हृदय में उत्तम फल देने वाला विचार
में पाप की सम्भावना है उस धर्म से भी सुख नहीं हो सकता। जीव को उत्तम सुख प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार विरक्त उत्पन्न हुआ। तदनन्तर संसार का अन्त करने वाले राजा रतिषेण ने राज्य का भारी भार अपने प्रतिरथ नामक पुत्र के लिए सौंपकर एप का इसका भार धारण कर लिया उसने यहन्नन्दन जिनेन्द्र के समीप दीक्षा धारण की, ग्यारह व गों का अध्ययन
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किया और मोह शत्रु को जीतने की इच्छा से अपने शरीर से भी ममता छोड़ दी। उसने दर्शन विशुद्धि, विनय सम्पन्नता आदि कारणों से तीर्थंकर प्रकृति का बध किया तो ठीक ही है क्योंकि जिससे प्रभीष्ट पदार्थ को सिद्धि होती है बुद्धिमान पुरुष सा ही आवरण करते हैं। उसने अन्त समय में संन्यासमरण कर उत्कृष्ट आयु का बन्ध किया तथा जयन्त विमान में अहम पद प्राप्त किया। वहाँ उसका एक हाथ ऊंचा शरीर था वह सोलह माह तथा पन्द्रह दिन में एक बार श्वास लेता था, तैंतीस
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हजार वर्ष बाद मानसिक पाहार गण करता था, मुगल श्यामा पारना था, अपने तेज तथा अवधिज्ञान से लोकनाड़ी को व्याप्त करता था, उतनी ही दूर तक वित्रिया कर सकता था, और लोकनाड़ी उखाड़ कर फकने की शक्ति रखता था।
इस संसार में अहिमेन्द्र का सुख ही मुख्य सुख है, वही निर्द्वन्द है, अतीचार से रहित है और राग से शून्य है। ग्रहमिन्द्र का सुख राजा रतिषण के जीव को प्राप्त हुआ था। प्रायु के अन्त में समाधिमरण कर जब वह अहमिन्द्र यहाँ अवतार लेने को हुआ तब इस जम्बूद्वीप-सम्बन्धी भरत-क्षेत्र को अयोध्या नगरी में मेघरथ नाम का राजा राज्य करता था। वह भगबान वृषभदेव के वंश तथा गोत्र में उत्पन्न हुआ था, शत्रुओं से रहित था और अतिशय प्रशंसनीय था । मंगला उसकी पटरानी थी जो रत्नवृष्टि आदि अतिशयों से सम्मान को प्राप्त थी। उसने धावण शुक्ल द्वितीया के दिन मघा नक्षत्र में हाथी आदि सोलह स्वप्न देखकर अपने मुख में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा। उसी समय वह अहमिन्द्र रानी के गर्भ में पाया। अपने पति से स्वप्नों का फल जानकर रानी बहुत ही हर्षित हुई। तदन्तर चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन चित्रा नक्षत्र तथा पित योग में उसने तीन ज्ञान के धारक, सत्पुरुषों में श्रेष्ठ और त्रिभुवन कर्ता उस अहमिन्द्र के जीव को उत्पन्न किया। सदा की भांति इन्द्र लोग जिन-बालक को सुमेरु पर्वत पर ले गये, वहाँ उन्होंने जन्माभिषेक सन्बन्धी उत्सव किया, सुमति नाम रक्खा और फिर घर वापस ले पाये।
अभिनन्दन स्वामी के बाद नौ लाख करोड़ सागर बीत जाने पर उत्कृष्ट पुण्य को धारण करने वाले भगवान सुमति नाथ उत्पन्न हुये थे। उनकी आयु भी इसी काल में शामिल थी। इनकी आयु चालीस लाख पूर्व की थी, शरीर की ऊंचाई तीन सौ धनुष थी, तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्ति थी, और आकार स्वभाव से ही सुन्दर था। वे देवों के द्वारा लाये हर बाल्यकाल के योग्य समस्त पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त होते थे। उनके शरीर के अवयव ऐसे जान पड़ते थे मानों चन्द्रमा की किरणें ही हों। उनके पतले, टेहे, चिकने तथा जामुन के समान कान्ति वाले शिर के केश ऐसे जान पड़ते थे, मानों मुख में कमल की आशंका कर भौरें ही इवाने हए हों। उनको देवों के द्वारा अभिषेक के बाद तीन लोक के राज्य का पद प्राप्त हआ था। तीन ज्ञान को धारण करने वाले भगवान के कान सब लक्षणा से युक्त थे और पांच वर्ष के बाद भी उन्होंने किसी के शिष्य बनने का तिरस्कार नहीं प्राप्त किया था। उनकी भौंहे बड़ी ही सुन्दर थीं, भोंहों के संकेत मात्र से दिये हुए धन-समूह से उन्होंने याचकों को संतुष्ट कर दिया था अतः उनकी भौहों की शोभा बड़े-बड़े विद्वानों के द्वारा भी नहीं कही जा सकती थी। समस्त इष्ट पदार्थों के देखने से उत्पन्न होने वाले अपरिमित सुख को प्राप्त हुए उनके दोनों नेत्र विलास पूर्ण थे, स्नेह से भरे थे, शुक्ल कृष्ण और लाल इस प्रकार तीन वर्ण के थे तथा अत्यन्त सुशोभित होते थे। मुख-कमल को सुगन्धि का पान करने वाली उनकी नाक, 'मेरे बिना मख की शोभा नहीं हो सकती' इस बात का अहंकार धारण करती हुई ही माना ऊची उठ रही थी।
उनके दोनों कपोलों की लक्ष्मी उत्तम माँग अर्थात मस्तक का आश्रय होने तथा संख्या में दो होने के कारण बक्षस्थल पर रहने वाली लक्ष्मी को जीतती हई--सी शोभित हो रही थी। उनके दांतों की पंक्ति कुन्द पूष्प के सौन्दर्य को जीतकर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों मुख कमल में निवास करने से संतुष्ट हो हंसती हई सरस्वती ही हो। जिन्होंने समस्त देवों को तिरस्कृत कर दिया है, सुमेरु पर्वत की शोभा बढ़ाई है और छह रसों के सिवाय सप्तम अलौकिक रस के प्रास्वाद से सशोभित हैं ऐसे उनके प्रधरों (ोठों) की (अधर तुच्छ) संज्ञा नहीं थी। जिससे समस्त पदार्थों का उल्लेख करने वाली दिव्य ध्वनि प्रकट हई है ऐसे उनके मुख की शोभा वचनों से प्रिय तथा उज्जवल थी अथवा वचनरूपी बल्लभा-सरस्वती से देवीप्यमान थी।
जबकि अपनी-अपनी बल्लभानों सहित देवेन्द्र भी उस पर सतष्ण भ्रमर जैसी अवस्था को प्राप्त हो गये थे । लब उनके मुख-कमल के भाव का क्या वर्णन किया जावे। जिन्होंने स्याद्वाद सिद्धान्त से समस्त बादियों को कुण्ठित कर दिया है ऐसे भगवान सुमतिनाथ के कण्ठ में जब इन्द्रों ने तीन लोक के प्रधिपतित्व की कण्ठी बांध रखी थी तब उसकी क्या प्रशंसा की जावे। शिर से भी ऊचे उठे हुए उनकी भुजात्रों के शिखर ऐसे जान पड़ते थे मानों वक्ष स्थल पर रहने वाली लक्ष्मी के कीडा-पर्वत ही हों। घुटनों तक लटकने वाली विजयी सुमतिनाथ की भजाए ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो पृथ्वी की
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लक्ष्मी को हरण करने के लिए वीर लक्ष्मी ने ही अपनी भुजाएं फैलाई हों। उनके वक्षःस्थल की शोभा का पृथक-पृथक वर्णन कैसे किया जा सकता है जबकि उस पर मोश लक्ष्मी और प्रभ्युश्यलक्ष्मी साथ ही निवास करती थी उनका मध्य भाग कुश होने पर भी कृश नहीं था क्योंकि वह मोक्ष लक्ष्मी धीर अभ्युदय-लक्ष्मी से युक्त उनके भारी भारी शरीर को लोला पूर्वक धारण कर रहा था ।
उनकी आवर्त के समान गोल नाभि गहरी थी यह कहने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यदि वह वैसी नहीं होती तो उनके शरीर में मच्छी ही नहीं जान पड़ती समस्त अच्छे परमाणुयों ने विचार किया हम किसी अच्छे साथय के विना रूप तथा घोभा को प्राप्त नहीं हो सकते ऐसा विचार कर ही समस्त अच्छे परमाणु उनकी कमर पर आकर स्थित हो गये थे और इसीलिये उनकी कमर अत्यन्त सुन्दर हो गई थी केके स्तम्भ आदि पदार्थ धन्य मनुष्यों की जांचों की उपमानता को भले ही प्राप्त हो जावें परन्तु भगवान सुमतिनाथ की जांघों के सामने ये गोलाई श्रादि गुणों में उपमेय ही बने रहते थे ।
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विधाता ने उनके सुन्दर घुटने किसलिये बनाये थे यह बात मैं ही जनता हूं अन्य लोग नहीं जानते और वह बात यह है कि इनकी ऊरु तथा जंत्रात्रों में शोभा सम्बन्ध ईर्ष्या न हो इस विचार से ही बीच में घुटने बनाये थे। विधाता ने उनको जंघाएं वज्र से बनाई थीं, यदि ऐसा न होता तो वे कृप होने पर भी त्रिभुवन के गुरु अथवा त्रिभुवन में सबसे भारी उनके शरीर के भार को कैसे धारण करतीं । यह पृथ्वी संपूर्णरूप से हमारे तलवों के नीचे आकर लग गई है यह सोचकर ही मानों उनके दोनों पैर हर्ष से कछुवे की पीठ के समान शुभ कान्ति के धारक हो गये थे ।
इन भगवान् सुमतिनाथ में कमों को नष्ट करने वाले इतने धर्म प्रकट होंगे यह कहने के लिये ही मानों विधाता में उनकी दश अगुलियां बनाई थीं। उनके चरणों के नख ऐसी शंका उत्पन्न करते थे कि मानो उनसे श्रेष्ठ कान्ति प्राप्त करने के लिए ही चन्द्रमा दश रूप बताकर उनके चरणों की सेवा करता था। इस प्रकार लक्षणों तथा व्यंजनों से सुशोभित उनके सर्व शरीर की शोभा मुक्ति रूपी स्त्री को स्वीकृत करेगी इसमें कुछ भी संशय नहीं था। इस प्रकार भगवान की कुमार अवस्था स्वभाव से ही सुन्दरता धारण कर रही पो. यद्यपि उस समय उन्हें यौवन नहीं प्राप्त हुआ था तो भी वे कामदेव के बिना ही अधिक गुन्दर थे। तदनन्तर यौवन प्राप्त कर कामदेव ने भी उनमें अपना स्थान बना लिया सो ठीक ही है क्योंकि ऐसे कौन सत्पुरुष हैं जो स्थान पाकर स्वयं नहीं ठहर जाते ।
इस प्रकार क्रम-क्रम से जब उनके कुमार-काल के दश लाख पूर्व बीत चुके तब उन्हें स्वर्ग योग के साम्राज्य का तिरस्कार करने वाला मनुष्यों का साम्राज्य प्राप्त हुआ शुक्ल लेक्ष्या को धारण करने वाले भगवान हिंसा करते थे, न झूठ बोलते थे और न छोरी तथा परियह सम्बन्धी धानन्द उन्हें स्वप्न में भी कभी प्राप्त होता था भावार्थ हिसानन्द स्तेयानन्द और परिग्रहानन्द इन चारों रौद्र ध्यान से रहित थे। उन्हें न कभी अनिष्टसंयोग होना था, न कभी इष्टवियोग होता था, न कभी वेदनाजन्य दुःख होता था और न वे कभी निदान ही करते थे। इस प्रकार के चारों मार्तध्यान सम्बन्धी संक्लेश से रहित थे। गुण, पुण्य और सुखों को धारण करने वाले भगवान अनेक गुणों की वृद्धि करते थे, नवीन पुण्य कर्म का संजय करते थे और पुरातन समस्त पुण्य कर्मों के विपाक का अनुभव करते थे। अनुराग से भरे हुए देव, विद्याधर और भूमि गोचरी मानव सदा उनकी सेवा किया करते थे, उन्होंने इस लोक सम्बन्धी समस्त आरम्भ दूर कर दिये थे और वे सर्व सम्प को दानों से परिपूर्ण थे। वे मनुष्यों तथा देवों में होने वाले काम भोगों में, न्यायपूर्ण सर्व में तथा हितकारी धर्म में श्रेष्ठ मुख प्राप्त हुए थे ये दिव्य अंगराग माला, वस्त्र और आभूषणों से सुशोभित, सुन्दर, समान अवस्थाबाली तथा स्वेच्छा से प्राप्त हुई स्त्रियों के साथ रमण करते थे। समान प्रेम से संतोषित दिव्य लक्ष्मी धीर मनुष्य लक्ष्मी दोनों हो उन्हें सुख पहुंचाती थी सो ठीक ही है क्योंकि मध्यस्थ मनुष्य किसे प्यारा नहीं होता ?
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संसार में सुख वही था जो इनके इन्द्रिय गोवर था क्योंकि स्वर्ग में भी जो सारभूत वस्तु थी उसे इन्द्र इन्हीं के लिए सुरक्षित रखता था। इस प्रकार दिव्य लक्ष्मी और राज्य लक्ष्मी इन दोनों में समय व्यतीत करते हुए भगवान सुमतिनाथ संसार
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से विरक्त हो गये सो ठीक ही है क्योंकि निकट भव्यपना इसी को कहते है । भगवान ने विचार किया कि प्रल्प सूख की इच्छा रखने वाले बुद्धिमान मानव, इस विषय रुपी मांस में क्यों लम्पट हो रहे हैं। यदि ये संसार के प्राणी मछली के समान आचरण न करें तो इन्हें पापरुपी वंसी का साक्षात्कार न करना पड़े। जो परम चातुर्य प्राप्त नहीं है ऐसा मूर्ख प्राणी भले ही अहितकारी कार्यों में लीन रहे परन्तु मैं तो तीन ज्ञानों से सहित हूं फिर भी अहितकारी कायों में कैसे लीन हो गया ? जब तक यथेष्ट वैराग्य नहीं होता और यथेष्ट सम्यग्ज्ञान नहीं होता तब तक आत्मा को स्वरूप में स्थिरता कैसे हो सकती है । और जिसके स्वस्वरूप में स्थिरता नहीं है उसके सुख कैसे हो सकता है। राज्य करते हुए जब उन्हें उन्तोस लाख पूर्व और बारह पूर्वांग बीत चके तब अपनी आत्मा में उन्होने पूर्वोक्त विचार किया।
उसी समय सारस्वत आदि समस्त लोकान्तिक देवों ने अच्छे-अच्छे स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति की, देवों ने उनका अभिषेक किया और उन्होंने उनकी अभय पालकी उठाई । इस प्रकार भगवान सुमतिनाथ ने वैशाख सुदी नवमी के दिन मघा . नक्षत्र में प्रातःकाल के समय महेतुक या दहहार रजनों के साथ वेला का नियम लेकर दीक्षा धारण कर ली। संयम के प्रभाव से उसी समय मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया।
दसरे दिन वे भिक्षा के लिए सौमनस नामक नगर में गये वहां सुवर्ण के समान कान्ति के धारक पद्म राजा ने पडगाह कर माहार दिया तथा स्वयं प्रतिष्ठा प्राप्त की। उन्होंने सर्वपाप की निवृति रूप सामायिक संयम धारण किया था, वे मौन से रहते थे, उनके समस्त पाप शान्त हो चुके थे, वे अत्यन्त सहिष्णु-सहनशील थे और जिसे दूसरे लोग नहीं सह सकते ऐसे तपको बड़ी सावधानी के साथ तपते थे। उन्होंने छद्मस्थ रहकर वीस वर्ष बिताये। तदन्तर उसी सहेतुक वन में प्रियंगु वृक्ष के नीचे दो दिन का उपवास लेकर योग धारण किया। पोर चैत्र शुक्ल एकादशी के दिन जब सूर्य पश्चिम दिशा की ओर ढल रहा था तब केवल ज्ञान उत्पन्न किया।
देवों ने उनके ज्ञानकल्याणक की पूजा की । सप्त ऋद्धियों के धारक अमर प्रादि एक सौ सोलह गणधर निरन्तर सम्मूख रह कर उनकी पूजा करते थे, दो हजार चार सौ पूर्वधारो निरन्तर उनके साथ रहते थे, वे दो लाख चौग्रन हजार तीन सौ पचास शिक्षकों से सहित थे, ग्यारह हजार अवधिज्ञानी उनकी पूजा करते थे, तेरह हजार केवलज्ञानी उनकी स्तुति करते थे, पाठ हजार चार सौ विक्रिया ऋद्धि के धारण करने वाले उनका स्तवन करते थे, दश हजार चार सौ मनःपर्ययज्ञानी उन्हें घेरे रहते थे और दश हजार चार सौ पचास वादी उनकी वंदना करते थे, इस प्रकार सब मिलाकर तीन लाख तीस हजार मुनियों से वे सुशोभित हो रहे थे । अनन्तमता मादि तीन लाख तीस हजार प्रोयकाए उनका अनुगामिनो थों, तोन लाख श्रावक उनकी पजा करते थे. पाँच लाख श्राविकायें उनके साथ थीं । असंख्यात देव-देवियों और असंख्यात तिर्यचों से वे सदा घिरे रहते थे।
इस प्रकार देवों के द्वारा पूजित हुए भगवान सुमितनाथ ने अठारह क्षेत्रों में बिहार कर भव्य जीवों के लिये उपदेश दिया था। जिस प्रकार अच्छी भूमि में बीज बोया जाता है और उससे महान् फल की प्राप्ति होती है उसी प्रकार भगवान ने प्रशस्त प्रशस्त सभी भाषाओं में भव्य जीवों के लिए उपदेश दिया था। दिव्य-ध्वनि रूपो बोज बोया था प्रोमो जीवों को रत्नत्रयरूपी महान् फल की प्राप्ति हुई थी।
अन्त में जब उनकी प्रायू एक मास की रह गई तब उन्होंने विहार करना बन्द कर सम्मेद-गिरी पर एक हजार मनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया और वहां से चैत्र शुक्ल एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में शाम के समय निर्वाण प्राप्त किया देवों ने उनका निर्वाण कल्याणक किया। जो पहले शत्रु राजाओं को नष्ट करने के लिए यमराज के दण्ड के समान अथवा इन्द्र के समान पूण्डरीकिणी नगरी के अधिपति राजा रतिषेण थे, फिर वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र हुए और फिर अनन्त लक्ष्मी के धारक, समस्त गुणों से सम्पन्न तथा कृतकृत्य सुमतिनाथ तीर्थकर हुए वे तुम सबको सिद्धि प्रदान करें जो भगवान स्वर्गावतरण
कल्याणक के उत्सव में 'सद्योजात" कहलाये, जन्माभिषेक के समय इन्द्रों के बया मे विरचित पाभपणों ये सुशोभित
समान अथ
तुम सबहामन्द्र हुए
'हलाये, जन्मा
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होकर 'याम' कहलाये, दीक्षा-कल्याणक के समय 'अघोर' कहलाये, केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर ईशान कहलाये पोर निवांग होने पर 'तत्पुरुष' कहलाये ऐसे रागद्वेष रहित अतिशय पूज्य भगवान सुमतिनाथ का शान्ति के लिए हे मध्य जोवों। प्राश्रय ग्रहण करो।
भगवान् पद्मप्रभु कमल दिन में ही फूलता है, रात में बन्द हो जाता है अतः उसमें स्थिर न रह सकने के कारण जिस प्रकार प्रभा को शोभा नहीं होती और इसलिए उसने कमल को छोड़कर जिनका आश्रय ग्रहण किया था उसी प्रकार लक्ष्मो ने भो कमल को छोड़कर जिनका ग्राश्रय लिया था वे पदमप्रभ स्वामी हम सबकी रक्षा करें दूसरे धातको खण्ड दोप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सोता नदी के दक्षिण तट पर वत्स देश है। उसके सूसीमा नगर में महाराज अपराजित राज्य करते थे। महाराज अपराजित वास्तव में अपराजित थे क्योंकि उन्हें शत्रु कभी भी नहीं जीत सकते थे श्रीर उन्होंने अन्तरंग तथा बहिरंग के सभो शत्रुओं को जीत लिया था वह राजा कुटिल मनुष्यों को अपने पराक्रम से ही जोत लेता था अत: बाहुबल से सुशाभित उस राजा को सप्तांग सेना केवल बाह्य प्राडम्बर मात्र थी उसके सत्य से भेष किसानों की इच्छा अनुसार बरसते थे आर वर्ष के पादि, मध्य तथा अन्त में बोये जाने वाले सभी धान्य फसल प्रदान करते थे उसके दान के कारण दारिद शब्द आकाश के फल के समान हो रहा था और पृथ्वी पर पहले जिन मनुष्यों में दरिद्रता थी वे अब कुबेर के समान पाचरण करने लगे थे जिस प्रकार उत्तम खेत में बोये हुए वीज सजातीय अन्य बीजों को उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार उस राजा के उक्त तानां महान् गुण सजातीय अन्य गुणों को उत्पन्न करते थे इस राजा को रुपादि सम्पत्ति अन्य मनुष्यों के समान इसे कुमार्ग में नहीं ले गई था सो ठीक ही है क्योंकि वृक्षों को उखाड़ने वाला क्या मेरु पर्वत को भी कम्पित करने में समर्थ है । वह राजा राजाना के योग्य सन्धि विग्रहादि छह गुणों से सुशोभित था और छह गुण उससे सुशोभित थे। उसका राज्य दूसरों के द्वारा घर्षणाय-तिरस्कार करने के योग्य नहीं था परव है स्वयं दूसरों का घर्षक-तिरस्कार करने वाला था। इस प्रकार अनेक भवों में उपार्जित पुण्य कर्म के उदय से प्राप्त तथा अनेक मित्रों में बटे हुए राज्य का उसने चिरकाल तक उपभोग किया तदनन्तर वह विचार करने लगा कि इस संसार में समस्त पीय क्षणभंगुर हैं, सुख पर्यायों के द्वारा भोगा जाता है और कारण का विनाश होने पर कार्य की स्थितो कैसे हो सकती है।
इस प्रकार ऋजुसूत्र नयसे सब पदार्थों को मंथन करते हुए उप राजा ने अपने आत्मा को वश में करने वाले सुमित्रपत्र के लिए राज्य दे दिया, वन में जाकर विसितानब जिनेन्द्र को दोक्षा-गुरु बनाया, ग्यारह प्रगा का अध्ययन कर र का बन्ध किया और प्रायू के अन्त में समाधिमरण के द्वारा शरीर छोड़कर अत्यन्त रमणीय ऊव-धेयक के प्रांतिकर विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया। इकतीस सागर उसकी प्रायु थो, दो हाथ उंचा शरीर था, शुक्ल लेश्या थो, चार सी पंसठ दिन में श्वासोच्छवास ग्रहण करता था,इकतीस हजार वर्ष बाद मानसिक पाहार से संतुष्ठ होता था, अपने तेज, बल तथा अवधि-ज्ञान से सप्तमी पृथ्वी को व्याप्त करता था और वहीं तक उसकी विक्रिया ऋद्धि थी। इस प्रकार महामिन्द्र सम्बंधी सुख प्राप्त थे।
आयु के अन्त में जब वह वहां से चय कर पृथवी पर अवतार लेने के लिए उद्यत हुा । तब इसी जम्बूद्वाप की कौशाम्बी नगरी में ईक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री धरण नाम का एक बड़ा राजा था । उसको सुसीमा नाम को रानी थी जो रत्तवृष्टि आदि अतिशयों से सम्मानित थी । माघ कृष्ण पष्ठी के दिन प्रात:काल के समय जब चित्रा नक्षत्र और चन्द्रमा का संयोग हो रहा था तब रानी सुसीमा ने हाथी प्रादि सोलह स्वप्न देखने के बाद मुख में प्रवेश करता हुमा एक हाथी देखा । पति से स्वप्नों का फल जानकर बहुत ही हपित हुई। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन त्वष्ट्र योग में उसने लाल कमल को कलिका के समान कान्तिवाले अपराजित पुत्र को उत्पन्न किया । इस पुत्र को उत्पत्ति होते ही गुणों की उत्पत्ति हुई, दोष समूह का नाश हया और हर्ष से समस्त प्राणियों का शोक शान्त हो गया। स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग चलाने वाले भगवान् के उत्पन्न होते ही मोहरूपी शत्र काँति रहित हो गया तथा अब मैं नष्ट हा यह सोचकर कांपने लगा। उस समय विद्वानों में निम्न प्रकार का वार्तालाप हो
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रहा था कि जब भगवान् सबको प्रबुद्ध करेंगे तब यहत से लोग मोह-निद्रा को छोड़ देवंगे, प्राणियों का जन्मजात विरोध नष्ट हो जावेगा, लक्ष्मी विकाश को प्राप्त होगी और कीति तीनों जगत् में फैल जावेगी। उसी समय इन्द्रों ने मेरु पर्वत पर, ले जाकर क्षीर सागर के जल से उनका अभिषेक किया, हर्ष से पद्म-प्रभु नाम रक्खा, स्तुति की, तदनन्तर महाकान्तिमान् जिन बालक को वापिस लाकर माता की गोद में रक्खा, हर्षित होकर नृत्य किया और फिर स्वर्ग की पोर प्रस्थान किया।
चन्द्रमा के समान उनके बल्यकाल की सब बड़े हर्ष से प्रशंसा करते थे सो ठीक ही है क्योंकि जो ग्रालादित कर वृद्धि को प्राप्त होता है उससे कौन पराङ मुख रहता है ? भगवान् पन प्रभु के शरीर की जैसी सुन्दरता थी वैसी सुन्दरता न तो शरीर रहित कामदेव में थी और न अन्य किसी मनुष्य में भी। यथार्थ में उनकी सुन्दरता को किसी से उपमा नहीं दी जा सकती थी। इसी प्रकार उनके रूप का भी पृथक-पृथक वर्णन नहीं करना चाहिये क्योंकि जो जो गुण उन में विद्यमान थे विद्वान उन गुणों की अन्य मनुष्यों में रहने वाले गुणों के साथ उपमा नहीं देते थे ।
स्त्रियाँ पुरुषों की इच्छा करती हैं और पुरुष स्त्रियों की इच्छा करते हैं परन्तु उन पद्य प्रभु को, स्त्रियां और पुरुष दोनों ही इच्छा करते थे सो ठीक ही है । क्योंकि जिनका भाग्य अल्प है इनके सौभाग्य को नहीं पा सकते हैं। जिस प्रकार मत्त भौरों की पंक्ति अाम्रमंजरी में परम संतोष को प्राप्त होती है उसी प्रकार सब मनुष्यों की दृष्टि उनके शरीर में ही परम संतोष को प्राप्त करती थी। हम तो ऐसा समझते हैं कि समस्त इन्द्रियों के सुख यदि उन पद्मप्रभु भगवान् में पूर्णता को प्राप्त नहीं थे तो फिर अन्य पुण्य के धारक दूसरे किन्हीं भी मनुष्यों में पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकते थे। जव सुमति नाथ भगवान की तीर्थ परम्परा के नब्बे हजार करोड़ सागर बीत गये तब भगवान 'पद्मप्रभु उत्पन्न हुए थे। तीस लाख पूर्व उनकी प्रायु थी, दो सौ पचास धनुष ऊंचा शरीर था और देव लोग उनको पूजा करते थे। उनको प्रायु का जब एक चौथाई भाग बीत चुका तब उन्होंने एक छत्र राज्य प्राप्त किया। उनका वह राज्य अम से प्राप्त होता था-बंश परम्परा से चला आ रहा था सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन मनुष्य उस राज्य की इच्छा नहीं करते हैं जो अन्य रीति से प्राप्त होता है। जब भगवान् पद्मप्रभु को राज्यपट्ट बांधा गया तब सबको ऐसा हर्ष हुआ मानों मुझे ही राज्यपट्ट बांधा गया हो। उनके देश में पाठों महाभय समूल नष्ट हो गये थे। दरिद्रता दूर भाग गई, धन स्वच्छंदता से बढ़ने लगा, सब मंगल प्रकट हो गये और सब सम्पदायों का समागम हो गया । उस समय दाता लोग कहा करते थे कि किस मनुष्य को किस पदार्थ की इच्छा है और याचक लोग कहा करते थे कि किसी को किसी पदार्थ की इच्छा नहीं है।
इस प्रकार जब भगवान पद्मप्रभु को राज्य प्राप्त हया तव संसार मानों सोते से जाग पड़ा सो ठीक ही है क्योंकि राजानों का राज्य वही है जो प्रजा को सुख देने वाला हो । जब उनकी आयु सोलह पूर्वांग कम एक लाख पूर्व की रह गई तक किसी समय दरवाजे पर बंधे हुए हाथी की दशा सुनने से उन्हें अपने पूर्व भवों का ज्ञान हो गया और तत्वों के स्वरूप को जानने वाले बे संसार को इस प्रकार धिक्कार देने लगे । वे पाप तथा दुःस्त्रों को देने वाले काम-भोगों से विभक्त हो गये। वे विचारने लगे कि इस संसार में ऐसा कौन-सा पदार्थ है जिसे मैंने देखा न हो, छुपा न हो, सूंघा न हो, सुना न हो और खाया न हो जिससे वह नये के समान जान पड़ता है। यह जीव अपने पूर्व भवों में जिन पदार्थों का अनन्त बार उपभोग कर चुका है उन्हें ही बारबार भोगता है अतः अभिलाषा रूप सागर के बीच पड़े हुए इस जीव से क्या कहा जावे ?
घातिया कमी के नष्ट होने पर इसके केवल ज्ञानरूपी उपयोग में जब तक सारा संसार नहीं झलकने लगता तब तक मिथ्यात्व प्रादि से दूषित इन्द्रियों के विषयों से इसे तप्ति नहीं हो सकती । यह शरीर रोगरूपी सांपों की वामी है तथा यह जीव देख रहा है कि हमारे इष्टजन इन्हीं रोगरूपी सापों से काटे जाकर नष्ट हो रहे हैं फिर भी यह शरीर में अविनाशी मोह कर रहा है यह बड़ा प्राश्चर्य है । क्या आज तक कहीं किसी जीव ने प्रायू के साथ सहवास किया है ? अर्थात् नहीं किया। जो हिसादि पांच पापों को धर्म मानता है, और इन्द्रिय तथा पदार्थ के सम्बन्ध से होने वाले सुख को सुख समझता है उसी विपरीतदर्शी
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मनुष्य के लिए यह संसार रुचता है-अच्छा मालूम होता है। जिस कार्य से पाप और पुण्य दोनों उपनेषों का नाश हो जाता है, विद्वानों को सदा उसी का ध्यान करना चाहिये, उसी का श्राचरण करना चाहिये और उसी का अध्ययन करना चाहिये ।
इस प्रकार संसार, शरीर और भोग इन तीनों के वैराग्य से जिन्हें श्रात्मज्ञान उत्पन्न हुआ है, लौकान्तिक देवों ने जिनका उत्साह बढ़ाया है और चतुनिक देवों ने जिनके दीक्षा कल्याणक का अभिषेकोत्सव किया है ऐसे भगवान् पद्मप्रभु निवृत्ति नाम की पालकी पर सवार होकर मनोहर नाम के वन में गये और वहाँ बेला का नियम लेकर कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन शाम के समय चित्रा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ पावर पूर्वक उन्होंने शिक्षा के समान दीक्षा धारण कर ली। जिन्हें मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया है ऐसे विद्वानों में श्रेष्ठ पद्मप्रभु स्वामी दूसरे दिन चर्या के लिए वर्धमान नामक नगर में प्रविष्ट हुए। शुक्ल कांति के धारक राजा सोमदत्त ने उन्हें आहार दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये सो ठीक ही है क्योंकि पात्रदान से नहीं होता है। शुभ आस्रवों से पुण्य का संचय, गुप्ति, समिति, धर्म अनुप्रेक्षा, परिषहज तथा चारित्र इन छह उपायों से कर्म 'समूह का संवर और तप के द्वारा निर्जरा करते हुए उन्होंने छद्यस्थ अवस्था के छह माह मौन से व्यतीत किये । तदनन्तर क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर उन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश किया तथा चैत्र शुक्ल पूर्णमासी के दिन जब कि सूर्य मध्याह्न से कुछ नीचे हल चुका था तब चित्रा नक्षत्र में उन परकल्याणकारी भगवान ने केवल ज्ञान प्राप्त किया।
उसी समय इन्द्र ने श्राकर उनकी पूजा की। जगत् का हित करने वाले भगवान् वज्च चामर श्रादि एक सौ दस गणधरों से सहित थे, दो हजार तीन सौ पूर्वधारियों से युक्त थे, दो लाख उनहत्तर हजार शिक्षकों से उपलक्षित थे, दश हजार अभिज्ञानी मोर बारह हजार केवल ज्ञानी उनके साथ ये सोलह हजार आठ सो विक्रिया ऋद्धि के धारकों से समृद्ध थे, दस हजार तीन सौ मन:पर्ययज्ञानी उनकी सेवा करते थे, और नौ हजार छह सौ श्रेष्ठ वादियों से युक्त थे, इस प्रकार सब मिलाकर तीन लाख तीस हजार भुनि सदा उनकी स्तुति करते थे। रात्रिषेणा को आदि लेकर चार लाख बीस हजार प्रायिकाएं सब मोर से उनकी स्तुति करती थीं तीन लाख धावक, पांच लाख भाविकाए अदेव-देवियां और संस्था विच उनके साथ थे। इस प्रकार धर्मोपदेश के द्वारा भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग में लगाते और पुण्यकर्म के उदय से धर्मात्मा जीवों को सुख प्राप्त करते हुए भगवान् पद्मप्रभु सम्मेद शिखर पर पहुंचे वहाँ उन्होंने एक माह तक ठहर कर योग-निशेष किया तया एक हजार राजाओं के साथ प्रतिमायोग धारण किया।
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तदनन्तर फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन शाम के समय चित्रा नक्षत्र में उन्होंने समुच्छि किया प्रतिपाती नामक चतुर्थ सुनत ध्यान के द्वारा कर्मों का नाश कर निर्वाण प्राप्त किया उसी समय इन्द्र आदि देवों ने माकर उनके निर्वाण कल्याणक की पूजा की। सेवा करने योग्य क्या है ? कमलों को जीत लेने से लक्ष्मी ने भी जिन्हें अपना स्थान बनाया है ऐसे इन्हीं पद्मप्रभु भगवान के चरण युगल सेवन करने योग्य हैं। सुनने योग्य क्या है? सब लोगों को विश्वास उत्पन्न कराने वाले इन्ही पद्मप्रभु भगवान् के सत्य वचन सुनने के योग्य हैं, और ध्यान करने योग्य क्या है? अतिशय निर्मल इन्हीं पद्मप्रभु भगवान् के दिग्दिगन्त तक फैले हुए गुणों के समूह का ध्यान करना चाहिये इस प्रकार उक्त स्तुति के विश्वभूत भगवान पद्मप्रभु तुम सब की रक्षा करें। जो पहले सुसीमा नगरी के अधिपति, शत्रुयों के जीतने वाले अपराजित नाम के लक्ष्मी सम्पन्न राजा हुए, फिर तप धारण कर तीर्थकर नामकर्म का बन्ध करते हुए अन्तिम ग्रैवेयक में श्रहमिन्द्र हुए घोर तदनन्तर कौशाम्बी नगरी में अनन्तगुणों से सहित, इक्ष्वाकुवंश के अग्रणी, निज पर का कल्याण करने वाले छठवें तीर्थंकर हुए वे पद्मप्रभु स्वामी सब लोगों का कल्याण करे ।
भगवान सुपार्श्वनाथ
जिन्होंने जीवाजीवादि तत्वों को सत्व श्रसत्व श्रादि किसी एक रूप से निश्चित नहीं किया है फिर भी उनके जानकार वहीं हैं ऐसे सुपार्श्वनाथ भगवान् मेरे गुरु हों । धातकी खण्ड के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट पर सुकच्छ नाम का देवा है। उसके क्षेमपुर नगर में नन्दिषेण नाम का राजा राज्य करता था। वह राजा बुद्धि और पराक्रम से युक्त था, उसके
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अनुधर सदा उसमें अनुराग रखते थे, यही नहीं देव भी सदा उसके अनुकूल रहता था इसलिये उसकी राज्य लक्ष्मी सबको सुख देने वाली थी। उसके शरीर की बंच लोग रक्षा नहीं करते थे फिर भी पुण्योदय से उसके शरीर और राज्य दोनों ही कुशल युक्त थे। धर्म और काम ये तीनों पुरुषार्थ परस्पर का उपकार करते हुए उसी एक राजा में स्थित वे इसीलिये यह उस राजा का उपकारीपना ही था ।
सिर्फ इस लोक सम्बन्धी ही नहीं थी किन्तु इस प्रकार वह थोमान तथा बुद्धिमान राजा हो गया। यह विचार करने लगा।
शत्रुओं को जीतने वाले इस राजा नन्दिषेण को जीतने की इच्छा मोमीन मार्ग की रक्षा करते हुए इसके परलोक के जोतने की भी इच्छा थी अन्यों मित्रों तथा सेवकों के साथ राज्य सुलभ कि यह जीव दर्शनमो तथा नारियमो इन दोनों मोहकर्म के उदय से मिली हुई मन, वचन, कायको प्रवृत्ति से कर्मों को बांधकर उन्हीं के द्वारा प्रेरित हुआ चारों गतियों में उत्पन्न होता है । अत्यन्त दुःख से तरने योग्य इस अनादि संसार में चक्र की तरह चिरकाल से भ्रमण करता हुआ भव्य प्राणी दुःख से दूषित हुआ कदाचित् कालादि लब्धियां पाकर अतिशय कठिन मोक्षमार्ग को पाता है फिर भी मोहित हुआ स्त्रियों आदि के साथ कोड़ा करता है। मैं भी ऐसा ही हूं श्रतः कामियों में मुख्य मुझको बार-बार धिक्कार है।
मैं समस्त कर्मों को नष्ट कर निर्मल हो अध्वगामी बन कर सबका हित करने वाले सर्वज्ञ-निरूपति निर्वालोक को नहीं प्राप्त हो रहा हूँ यह दुःख की बात है । इस प्रकार विचार कर उत्तम हृदय को धारण करने वाले राजा नन्दिषेण ने अपने पद पर सज्जनोत्तम धनपति नामक अपने पुत्र को विराजमान किया और स्वयं ग्रन्य राजाओं के साथ पाप कर्म को नष्ट करता हुआ बड़े हर्ष से पूज्य लन्दन मुनि का शिष्य बन गया। तदनन्तर ग्यारह मंग का धारी होकर उसने भागम में कही हुई दर्शवादीह कारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर नामकर्म का बन्च किया और आयु के घर में सन्यास मरण कर मध्यम ग्रैवेयक के सुभद्र नामक मध्यम विमान में श्रहमिन्द्र का जन्म धारण किया। वहाँ उसके शुक्ल लेश्या थी, और दो हाथ ऊंचा शरीर था ।
चार सौ पांच दिन में श्वास लेता था और सत्ताईस हजार वर्ष बाद बाहार ग्रहण करता था। उसकी विक्रिया गि अज्ञान, बल और कान्ति सप्तमी पृथ्वी तक थी तथा सत्ताईस सागर उसकी आयु थी। इस प्रकार समस्त सुख भोगकर मायु के घर में जब वह पृथ्वी तल पर अवतीर्ण होने को था तब इस जम्बूद्वीप के भारत वर्ष सम्बन्धी काशी देश में बनारस नाम की नगरी थी। उसमें सुप्रतिष्ठ महाराज राज्य करते थे। सुप्र तिष्ठ का जन्म भगवान् वृषभदेव के इक्ष्वाकुवंश में हुआ था । उनकी रानी का नाम पृथ्वीणा था रानी पृथ्वीणा के घर के सांगन में देवरूपी मेघों ने छह माह तक उत्कृष्ठ रत्नों की वर्षा कीं थी। उसने भाद्रपद शुक्ल षष्ठी के दिन विशाखा नक्षत्र में सोलह शुभ स्वप्न देखकर मुख में प्रवेश करता हुम्रा एक हाथी देखा। उसी समय वह अहमिन्द्र रानी के गर्भ में थाया। पति के मुख से स्वप्नों का फल जानकर रानी पृथ्वीषेणा बहुत ही हपित हुई। तदन्तर ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन प्रग्निमित्र नामक शुभयोग में उसने ऐरावत हाथी के समान उन्नत पौर बलवान महमिन्द्र को पुत्र रूप में उत्पन्न किया ।
इन्होंने सुमेरु पर्वत के मस्तक पर उसका जन्मकालीन महोत्सव किया, उसके चरणों में अपने मुकुट भुकाये और 'सुगा' ऐसा नाम रखा । पद्मप्रभु जिनेन्द्र के बाद नौ हजार करोड़ समय बीत जाने पर भगवान् सुपार्श्वनाथ का जन्म हुआ था। उसकी आयु भी इसी अन्तराल में सम्मिलित थी । उनकी आयु बीस लाख पूर्व को थी, और शरीर की ऊंचाई दो सौ धनुष थी, वे अपनी कांति से चन्द्रमा को लज्जित करते थे। इस तरह उन्होंने यौवन अवस्था प्राप्त की जब उनके कुमारकाल के पांच लाख पूर्व पीत हो गये तब उन्होंने दानी को भांति घन त्याग करने के लिए साम्राज्य स्वीकार किया। उस समय इन्द्र सुपा आदि बुद्धि के आठ गुणों से श्रेष्ठ, सर्वशास्त्रों में निपुण झुण्ड के झुण्ड नटों को देखने योग्य तथा नृत्य करने में निपुण नर्तकों को उत्तम कण्डवाले गायकों को श्रवण करने योग्य साढ़े सात प्रकार के यात्रियायकों को हास्य विनोद करने में चतुर, अनेक विद्यायों और कलाओं में निपुण अन्य अनेक मनुष्यों को ऐसे ही गुणों से सहित अनेक स्त्रियों को तथा
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गन्धों की श्रेष्ठ सेना को बुलाकर अनेक प्रकार के बिनोदों से भगवान् को सुख पहुंचाता था।
इसी प्रकार चक्ष और कर्ण के सिवाय शेष तीन इन्द्रियों के उत्कृष्ट विषयों से भी इन्द्र, भगबान को निरन्तर सुखी रखता था । यथार्थ संसार में सुख वही था जिसका कि भगवान सुपार्श्वनाथ उपभोग करते थे। प्रशस्त नामकर्म के उदय से उनके निःस्वेदत्व आदि गाठ अतिशय प्रकट हुए थे, वे सर्वनिय तथा सर्वहितकारी वचन बोलते थे, उनके व्यापार रहित अतुल्य बल था, वे सदा प्रसन्न रहते थे, उनको आयु अनपवयं थी-असमय में काटने वाली नहीं थी, गुण, पुण्य और सम्ख रूप थे, उनका शरीर कल्याणकारी था, वे मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से सहित थे, प्रियंगु के पुष्प के समान कांति थी, उनके अशुभ कर्म का अनुभाग अत्यन्त मन्द था, नभ कर्म का अनुभाग अत्यन्त उकृष्ठ था, उनका कण्ठ मानो मोक्ष-स्वर्ग तथा मानवोचित ऐश्वर्य की कण्ठी रो हो सुशोभित था। उनके चरणों के नखों में समस्त इन्द्रों के मुख कमल प्रतिविम्बित हो रहे थे, इस लक्ष्मी को धारण करने वाले प्रकृष्टजानी भगवान सपाश्वनाथ अगाध संतोष सागर में वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे। जिनके प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन सम्बन्धी क्रोध, मान माया, लोभ इन पाठ कषायों का ही केवल उदय रह जाता है ऐसे सभी तीर्थकरों के अपनी प्रा ने प्रारम्भिक आठ वर्ष के बाद देश-संयम हो जाता है। इसलिए यद्यपि उनके भोगोगभोग की वस्तुयोंकी प्रचरता थी तो भी वे अपनी यात्मा को अपने वश में रखते थे, उनको वृत्ति नियमित यो तथा असंख्यातगुणी निर्जरा का कारण थी ।
जा उनकी प्राय बीम पूर्वांग कम एक लाख पूर्व की रह गई तब किसी समय ऋतु का परिवर्तन देखकर वे 'समस्त पदार्थ नश्वर हैं', ऐसा चिन्तवन करने लगे। उनके निर्मल सम्यग्ज्ञान मपी दर्पण में काललब्धि के कारण समस्त राज्य लक्ष्मी की क्रीड़ा के समान नश्वर जान पड़ने लगी। मैं नहीं जान सका कि यह राज्य लक्ष्मी इसी प्रकार शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाली माया से भरी हुई है। मुझे धिक्कार हो, धिक्कार हो! सचमूच ही जिनके चित भोगों के राग से अन्धे हो रहे हैं ऐसे कौन मनुष्य हैं जो मोहित न होते हों । इस प्रकार भगवान के मनरूपी सागर में चन्द्रमा के समान उत्कृष्ट प्रात्मज्ञान हुआ और उसी समय लोकान्तिक देवों ने आकर समयानुकूल पदार्थों से भगवान को स्तुति की। तदनन्तर भगवान सुपार्श्वनाथ, देवों के द्वारा उठाई हुई मनोगति नाम को पालका पर प्रारूढ़ होकर सहेतुक वन में गये और यहां ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन सांयकाल के समय, गर्भक विशाखा नक्षत्र में बेला का नियम लेकर हजार राजानों के साथ संयमो हो गये--दीक्षित हो गये। उसी समय उन्हें मनः पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया ।
दुसरे दिन वे चर्या के लिए सामनेट नामक नगर में गये। यहां सुवर्ण के समान कान्तिवाले महेन्द्रदत्त नाम के राजा ने पड़गाह कर देवों से पूजा प्राप्त की । सुपाश्र्वनाथ भगवान छदमस्थ अवस्था में नो वर्ष तक मान रहे । तदन्तर उसी सहेतुक वन में दो दिन के उपवास का नियम लेकर ने शिरीष वक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ हुए। वहीं फालान कृष्ण पष्ठो के दिन सांयकाल के समय गर्भावतार के विशाखा नक्षत्र में उन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ जिसमें देवों ने उनकी पूजा की। वे बल कोआदि लेकर पंचानवे गणधरों से सदा घिरे रहते थे, दो हजार तीस पूर्वधारियों के अधिपति थे, दो लाख चवालीस हलार नौ सौ बीस शिक्षक उनके साथ रहते थे, नौ हजार अवधिज्ञानी उनकी सेवा करते थे, ग्यारह हजार केवलज्ञानी उनके सहगामी थे, पन्द्रह हजार तीन सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक उनकी पूजा करते थे, नौ हजार एक सौ पचास मनःपर्ययज्ञानी उनके साथ रहते थे, और आठ हजार छह सौ वादी उनकी वन्दना करते थे। इस प्रकार सब मिलाकर तीन लाख मुनियों के स्वामी थे। मोनार्या प्रादि को लेकर तीन लाख तीस हजार आर्यिकाएं उनके साथ रहती थी, तीन लाख श्रावक और पांच लाख थाविकाएं उनकी पूजा करती थीं, असंख्यात देव-देवियां उनकी स्तुति करती थीं और संख्यात तिथंच उनकी बन्दना करते थे । इस प्रकार लोगों को धर्मामत रूपी वाणी ग्रहण कराते हए वे पृथ्वी पर बिहार करते थे। अन्त में जब आयु का एक माह रह गया तब विहार बन्द कर वे सम्मेद शिखर पर जा पहुंचे । यहां एक हजार मुनियों के साथ उन्होंने प्रतिमा-योग धारण किया और फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन विशाखा नक्षत्र में सूर्योदय के समय लोक का अग्रभाग प्राप्त किया-मोक्ष पधारे । तदनन्तर पुण्यवान कल्पवासी
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उत्तम देवों ने निर्वाण-कल्याणक किया, तथा 'यहां निर्वाणक्षेत्र है' इस प्रकार सम्मेद शिखर को निर्वाण-क्षेत्र ठहराकर स्वर्ग की पोर प्रयाण किया।
अत्यन्त बुद्धिमान और निपुण जिन सुपार्श्वनाथ भगवान ने दुःख से निवारण करने के योग्य पाप रूपी बड़े भारी शत्रुमों के समूह को निष्क्रिय कर दिया, मौन रखकर उसके साथ युद्ध किया, कुछ समय तक समवसरण में प्रतिष्ठा प्राप्त की, अत्यन्त दुष्ट दुर्वासना को दूर किया और अन्त में निर्वाण की अवधि को प्राप्त किया, वे श्रेष्ठतम भगवान सुपार्श्वनाथ हम सब परिचितों को चिरकाल के लिए शीघ्र ही अपने समीपस्थ करें । जो पहले भव में क्षेभपुर नगर के स्वामी तथा सबके द्वारा स्तुति करने योग्य नन्दिषेण राजा हुए. फिर तप कर नव वेयकों में से मध्य के ग्रेवेयक में अहमिन्द्र हुए, तदन्तर बनारस नगरी में शत्रुओं को जीतने वाले और इक्ष्वाकु वंश के तिलक महाराज सुपाद हए वे सप्तम तीर्थकर तुम सबकी रक्षा करें।
भगवान् चन्द्रप्रभु जो स्वयं शुद्ध हैं और जिन्होंने अपनी प्रभा के द्वारा समस्त सभा को एक वर्ण की बनाकर शुद्ध कर दी, बे चन्द्रप्रभु स्वामी हम सबकी शद्धि के लिए हों। शरीर की प्रभा के समान जिनको वाणी भी हर्षित करने वाली तथा पदार्थों को प्रकाशित करने वाली थी पीर जो आकाश में देवरूपी साराओं से घिरे रहते थे उन चन्द्रप्रभु स्वामी को नमस्कार करता हूं। जिनका नाम लेना भी जीवों के समस्त पापों को नष्ट कर देता है फिर सुना हुया उनका पवित्र चरित्र क्यों नहीं नष्ट कर देगा? इसलिये मैं पहले के सात भवों से लेकर उनका चरित्र कहंगा । हे भव्य श्रेणिक! तुझे उसे श्रद्धा रखकर सुनना चाहिये । दान, पूजा तथा अन्य कारण यदि सम्यग्ज्ञान से सुशोभित होते हैं तो वे मुक्ति के कारण होते हैं और चकि वह सम्यग्ज्ञान इस पुराण के सुनने से होता है अतः हित की इच्छा करने वाले पुरुषों के द्वारा अवश्य ही सुनने के योग्य है। अर्हन्त भगवान ने अनुयोगों के द्वारा जो चार प्रकार के सुक्त बतलाये हैं उनमें पुराण प्रथम सुक्त है ! भगवान् ने इन पुराणों से ही सुनने का क्रम वतलाया है।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषाय का उपदेश देने वाले भगवान ऋषभदेव आदि के पुराणों को जो जीभ कहती है, जो कान सुनते हैं और जो मन सोचता है वही जीभ है, वही कान सुनते हैं और वही मन है, अन्य नहीं।
इस मध्यम लोक में एक पुष्कर द्वीप है। उसके बीच में मानुषोत्तर पर्वत है। यह पर्वत चारों ओर से वलय के प्राकार का गोल है तथा मनुष्यों के आवागमन की सीमा है । उसके भीतरी भाग में दो सुमेरु पर्वत हैं एक पूर्व मेरु और दूसरा पश्चिम गेरु । पूर्व मेर के पश्चिम की ओर विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के उत्तर तट पर एक सुगन्धि नाम का बड़ा भारी देश है । जो कि योग्य किला, वन, खाई खाने और बिना वोये होने बाली धान्य मादि पृथ्वी के गुणों से सुशोभित है । उस देश के सभी मनुष्य क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण में विभक्त थे तथा नेत्र विशेष के समान स्नेह से भरे हुए, सूक्ष्म पदार्थों को देखने वाले एवं दर्शनीय थे । उस देश के किसान तपस्वियों का अतिक्रमण करते थे अर्थात् उनसे आगे बढ़े हुए थे। जिस प्रकार तपस्वी ऋजु अर्थात् सरल परिणामी होते है उसी प्रकार वहां के किसान भी सरल परिणामी भोले भाले थे, जिस प्रकार तपस्वी धार्मिक होते हैं उसी प्रकार किसान भी धामिक थे- धर्मात्मा थे अथवा खेती को रक्षा के लिये धर्म धनुष से सहित थे, जिस प्रकार तपस्दी बीत दोषदोषों रो रहित होते हैं उसी प्रकार किसान भी वीत दोष-निर्दोष थे अथवा खेती की रक्षा के लिए दोषाएं-रात्रियां व्यतीत करते थे, जिस प्रकार तपस्वी क्ष धा तृषा प्रादि के कष्ट सहन करते हैं उसी प्रकार किसान भी क्षुधा तृषा आदि के कष्ट सहन करते थे। इस प्रकार सादृश होने पर भी किसान तपस्वियों से आगे बढ़े हुए थे उस का कारण था कि तपस्वी मनुष्यों के प्रारम्भ सफल भी होते थे और निष्फल भी चले जाते थे परन्तु किसानों के प्रारम्भ निश्चित रूप से सफल ही रहते थे।
वहां के सरोवर अत्यन्त निर्मल थे, सुख से उपभोग करने के योग्य थे, कमलों से सहित थे, सन्ताप का छेद करने वाले थे, अगाध-गहरे थे और मन तथा नेत्रों को हरण करने वाले थे। वहां के खेत राजा के भण्डार के समान जान पड़ते थे, क्योंकि जिस प्रकार राजाओं के भण्डार सब प्रकार के अनाज से परिपूर्ण रहते हैं उसी प्रकार वहां के खेत भी सब प्रकार के
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अनाज से परिपूर्ण रहते थे, राजाओं के भण्डार जिस प्रकार हमेशा सबको संतुष्ट करते हैं उसी प्रकार वहां के खेत भी हमेशा सबको संतुष्ट रखते थे, और राजाओं के भंडार जिस प्रकार सम्पन्न-सम्पति से युक्त रहते थे अथवा 'समन्तात् पन्नाः सम्पन्नाः' सब ओर से प्राप्त करने योग्य थे।
वहाँ के गाँव इतने समीप थे कि मुर्गा भी एक से उड़कर दूसरे पर जा सकता था, उत्तम थे, उनमें बहुत से किसान रहते थे, पशु धन धान्य आदि से परिपूर्ण थे। उनमें निरन्तर काम-काज होते रहते थे तथा सब प्रकार से निराकुल थ । वे गाँव दण्ड आदि की बाधा से रहित होने के कारण सर्व सम्पत्तियों से सुशोभित थे, वर्णाश्रम से भरपुर थे और वहीं रहने वाले लोगों का अनुकरण करने वाले थे। वह देश ऐसे भागों से सहित था जिनमें जगह-जगह कंधों पर्यन्त पानी भरा हुआ था, अथवा जो असंचारी दुर्गम' श्रे, अथवा जो असंवारि आने-जाने की स्कावट से रहित था। वहाँ के वृक्ष फलों से लदे हुए तथा कांटों मे रहित थे। पाठ प्रकार के भयों में से वहाँ एक भी भय दिखाई नहीं देता या और वहां के समीपवर्ती गलियों रूपो स्त्रियों के आश्रय थे। नीति शास्त्र के विद्वानों ने देश के जो जो लक्षण कहें हैं यह देश उन सबका लक्ष्य था अर्थात् वे सब लक्षण इनमें पाये जाते
थे।
उस देश में धन की हानि सत्पात्र को दान देते समय होती थी अन्य समय नहीं । समीचीन क्रिया की हानि फल प्राप्त होने पर ही होती थी अन्य समय नहीं उन्नति की हानि विनय के स्थान पर होती थी अन्य स्थान पर नहीं, और प्राणों की हानि प्राय समाप्त होने पर ही होती थी अन्य समय नहीं। ऊंचे उठे हुए पदार्थों में यदि कठोरता थी तो स्त्रियों के स्तनों में ही थो अन्यत्र नहीं थी। प्रताप यदि था तो हाथियों में ही था अति उन्हीं का मद करता था अन्य मनुष्यों में प्रताप अर्थात् पतन नहीं था । अथवा प्रताप था तो गुहा आदि निम्न स्थानवर्ती वृक्षों में हो था अन्यत्र नहीं। वहाँ यदि दण्ड था तो छत्र अथवा तराज में ही था वहाँ के मनुष्यों में दण्ड नहीं था अर्थात् उनका कभी जुर्माना नहीं होता था। तीक्ष्णता-लेजस्विता यदि थी तो कोतवाल आदि में ही, वहाँ के मनुष्या में तीक्ष्णता नहीं-क्रूरता नहीं थो । रुकावट केवल पुलों में हो थी वहाँ के मनुष्यों में किसी प्रकार की रुकावट नहीं थी। और अपवाद यदि था तो व्याकरण शास्त्र में ही था वहाँ के मनुष्यों में अपवाद-अपयश नहीं था।
निस्त्रिश शब्द कृपाण में ही आता था अर्थात् कृपाण ही त्रिशद्भ्योऽगुंलिम्यो निर्गत इति निस्त्रिंशः तीस अंगुल से बड़ी रहती थी, वहाँ के मतुष्यों में निस्त्रि'श-क्रूर शब्द का प्रयोग नहीं होता था। विश्वाशत्व' अर्थात् सब चीजें खा जाना यह शब्द अग्नि में ही था वहाँ के मनुष्यों में विश्वाशित्व-सर्वभक्षकपना नहीं था। दाहकत्व अर्थात संताप देना केवल सूर्य में था वहाँ के मनुप्यों में नहीं था, और मारकत्व केवल यमराज के नामों में था वहाँ के मनुष्यों में नहीं था।
जिस प्रकार सूर्य दिन में ही रहता है उसी प्रकार धर्म शब्द केवल जिनेन्द्र प्रणीत धर्म में ही रहता था। यही कारण था कि वहाँ पर उल्लयों के समान एकान्तवादों का उद्गम नहीं था। उस देश में सदा यथा स्थान रखे हए यन्त्र, शस्त्र, जल, जी. घोडे और रक्षकों से भरे हुए किले थे। जिस प्रकार ललाट के बीच में तिलक होता है उसी प्रकार अनेक शुभ स्थानों से युक्त उस देश के मध्य में श्रीपुर नाम का नगर है वह श्रीपुर नगर अपनी सब तरह की मनोहर वस्तुओं से देवनगर के समान जान पड़ता था। खिले हुए नीले तथा लाल कमलों के समुह ही जिनके नत्र हैं ऐसे स्वच्छ जल से भरे हुए सरोवर रूपी मुखों के द्वारा बह नगर शव नगरों की शोभा की मानों हंसी ही उड़ता था। उस देश में अनेक प्रकार के फलों के स्वादिष्ट केसर के रस को पीने वाले भोरे भ्रमरियों के समूह के साथ पान गोष्ठी का मानन्द प्राप्त करते थे। उस नगर में बड़े-बड़े ऊचे पक्के भवन बने हुए थे, उनमें मृदंगों का शब्द हो रहा था। जिससे ऐसा जान पड़ता था मानों 'आप लोग यहाँ विथाम कीजिये' इस प्रकार वह नगर मेघों को ही बुला रहा था और ऐसा मालूम होता था कि वह नगर सर्व वस्तुओं का मानों खान था। यदि ऐसा न होता तो निरन्तर उपभोग में प्राने पर वे समाप्त क्यों नहीं होती ?
उस नगर में जो जो वस्तु दिखाई देती थी वह अपने वर्ग में सर्वश्रेष्ठ रहती थी अतः देवों को भी भ्रम हो जाता था कि क्या यह स्वर्ग ही है? वहाँ के रहने वाले सभी लोग उत्तम कुलों में उत्पन्न हुए थे, व्रत सहित थे तथा सम्यग्दृष्टि थे अतः
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वहाँ के मरे हुए जीव स्वर्ग में ही उत्पन्न होते थे । स्वर्ग में क्या रखा ? वह तो ऐसा ही है, यह सोचकर वहां के सम्यग्दृष्टि मनुष्य मोक्ष के लिए ही धर्म करते थे, स्वर्ग की इच्छा से नहीं। उस नगर में विवेकी मनुष्य उत्सव के समय मंगल के लिये और शौक के समय उसे दूर करने के लिए जिनेन्द्र भगवान् की पूजा किया करते थे। वहां के जनवादी लोग अपरिमित सुख देने वाले धर्म-अर्थ और काम की साध्य पदार्थों के समान उन्ही से उत्पन्न हुए हेतुमा से सिद्ध करते थे ।
उस नगर को घेरे हुए जो कोट था वह ऐसा जान पड़ता था मानों पुष्करवर द्वीप के बीच में पड़ा हुआ मानुषोत्तर पर्वत ही हो । वह कोट अपने रत्नों की किरणों में ऐसा जान पड़ता था मानों सूर्य के संताप के भय से छिप हो गया हो । नमस्कार करने वाले शत्र राजाओं के मकुटों में लगे हुए रत्नों की किरणें रूपी जल में जिसके चरण, कमल के समान विकसित हो रहे हैं ऐसा, इन्द्र के समान कान्ति का धारक श्रीषेण नाम का राजा उस श्रीपुर नगर का स्वामी था। जिस प्रकार शक्तिशाली मन्त्र के समीप सर्प विकार रहित हो जाते हैं उसी प्रकार विजयी श्रीषेण का पालन करने पर सब दुष्ट लोग विकार रहित हो गये थे। जमो शाम, दान प्रादि नामों का ठीक-ठीक विचार कर यथास्थान प्रयोग किया था इसलिए वे दाता के समान बहत भारी इच्छित फल प्रदान करते थे।
उसकी विजय करने वाली श्रीकान्ता नाग की स्त्री थी । वह श्रीकान्ता किसी अच्छे कवि की वाणी के समान थी। क्योंकि जिस प्रकार अच्छे कवि की वाणी सती अर्थात् दुःश्रवत्व प्रादि दोषों से रहित होती है उसी प्रकार वह भी सती अर्थात् पतिव्रता थी और अच्छे कवि की वाणी जिस प्रकार मुदुपद न्यासा अर्थात् कोमलकान्त पद विन्यास से युक्त होती है उसी प्रकार वह भी मृदुपन्यासा सर्थात कोमल चरणों के निक्षेप सहित थी। स्त्रियों के रूप आदि जो गुण हैं वे सब उस में सुख देने वाले उत्पन्न हुए थे। वे गुण पुत्र के समान पालन करने योग्य थे और गुरुओं के समान सज्जनों के द्वारा वन्दनीय थे । जिस प्रकार स्यादेवकारस्याद एवं शब्द से (किसो अपेक्षा से ऐसा ही है) से युक्त नय किसी विद्वान के मन को प्रानन्दित करते हैं उसी प्रकार उसकी कान्ता के रूप प्रादि गुण पति के मन को मानन्दित करते थे । बह स्त्री अन्य स्त्रियों के लिए आदर्श के समान थी और ऐसी जान पड़ती थी मानों नाम कर्म रूपी विधाता ने अपनी बुद्धि की प्रकर्षता बतलाने के लिए गुणों की पेटी ही बनाई हो। वह दम्पती देवदम्पती के समान पाप रहित, अविनाशी, कभी नष्ट न होने वाले और समान तुप्ति को देने वाले उत्कृष्ट मुख को प्राप्त करता था।
वह राजा निष्पुत्र था अतः शोक से पीड़ित होकर पुत्र के लिए अकेला अपने मन में निम्न प्रकार विचार करने लगा। स्त्रियां संसार की लता के समान हैं और उत्तम पुत्र उनके फल के समान है। यदि मनुष्य के पुत्र नहीं हुए तो इस पापी मनुष्य के लिये पुत्रहीन पापिनी स्त्रियों से क्या प्रयोजन है ? जिसने दैवयोग से पुत्र का मुखकमल नहीं देखा है वह छह खण्ड की लक्ष्मी फा मुख भले ही देख ले पर उससे क्या लाभ है । उसने पुत्र प्राप्त करने के लिए पुरोहित के उपदेश से पांच वर्ण के अमूल्य रत्नों से मिले सुवर्ण की जिन-प्रितमाएं बनबाई। उन्हें पाठ प्रातिहार्यों तथा भंगार प्रादि आठ मंगल-द्रव्य से युक्त किया, प्रतिष्ठाशास्त्र में कही हुई क्रियाओं के क्रम से उनकी प्रतिष्ठा कराई, महाभिषेक किया, जिनेन्द्र भगवान के संसर्ग से मंगल रूप हुए गन्धोदक से रानी के साथ स्वयं स्नान किया, जिनेन्द्र भगवान को स्तुति की कथा इस लोक और परलोक सम्बन्धी अभ्युदय को देने वाली प्राष्टाहिकपर्व की पूजा की। इस प्रकार कुछ दिन व्यतीत होने पर कुछ-कुछ जागती हुई रानी से हाथी सिंह चन्द्रमा और लक्ष्मी का अभिषेक ये चार स्वप्न देख। उसी समय उसके गर्भ धारण हुमा तथा क्रम से पालस्य पाने लगा, अरुचि होने लगी, तद्रा पाने लगी और बिना कारण ही ग्लानि होने लगी। उसके दोनों स्तन चिरकाल व्यतीत हो जाने पर भी परस्पर एक दूसरे को जीतने में समर्थ नहीं हो सके थे अत: दोनों के मुखः प्रतिदिन कालिमा को धारण कर रहे थे। स्त्रियों के लिये लज्जा ही प्रशंसनीय आभूषण है अन्य ग्राभूषण नहीं यह स्पष्ट करने के लिये ही मानों उसकी समस्त चेष्टाएं लज्जा से सहित हो गई थी।
जिस प्रकार रात्रि के अन्त में प्राकाश के तारामों के समूह अल्प रह जाते हैं उसी प्रकार भार धारण करने में समर्थ नहीं होने से उसके योग्य प्राभूषण भी अल्पमात्र रह गये घे-विरल हो गये थे । जिस प्रकार अल्पधन वाले मनुष्य को विभूतियां
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परमित रहती हैं उसी प्रकार उसके वचन भी परिमित थे और नई मेघमाला के शब्द के समान रुक-रुक कर बहुत देर बाद सुनाई देते थे । इस प्रकार उसके गर्भ के चिह्न निकटवर्ती मनुष्यों के लिए कुल उत्पन्न कर रहे थे। वे चिह्न कुछ अटथ । किसी एक दिन रानी की प्रधान दासियों ने हर्ष से राजा के पास जाकर और प्रणाम कर उनके कान में यह समाचार कहा । यद्यपि यह समाचार दासियों के मुख की प्रसन्नता से पहले ही सूचित हो गया था तो भी उन्होंने कहा था। गर्भ धारण का समाचार सुनकर राजा का मुख कमल ऐसा विकसित हो गया जैसा कि सूर्योदय से और चन्द्रोदय से कुमुद विकसित हो जाता है। जो वंशरूपी समुद्र को वृद्धिगंत करने के लिए तिलक के लिए चन्द्रोदय के समान है ऐसा पुत्र का प्रादुर्भाव किसके संतोष के लिए नहीं होता। जिसका मुखकमल अभी देखने को नहीं मिला है, केवल गर्भ में ही स्थित है और मुझे इस प्रकार संतुष्ट कर रहा है तब मुख दिखाने पर कितना संतुष्ट करेगा इस बात का क्या कहना है। ऐसा मानकर राजा ने उन दासियों के लिये इच्छित पुरस्कार दिया और द्विगुणित आनन्दित होता हुआ कुछ प्राप्त जनों के साथ वह रानी के घर गया । वहां उसने नेत्रों को सुख देने वाली रानो को ऐसा देखा मानो मैच से युक्त आकाया ही हो, अथवा रत्नगर्भा पृयो हो प्रच उदय होने के समीपवर्ती सूर्य से युक्त पूर्व दिशा ही हो राजा को देखकर रानी खड़ी होने की चेष्टा करने लगा परन्तु बैठी रहीं' इस प्रकार राजा के मना किये जाने पर बैठी रही। राजा एक ही शय्या पर चिरकाल तक रानी के साथ बैठा रहा और लज्जा सहित रानी के साथ योग्य वार्तालाप कर हर्षित होता हुआ वापिस चला गया।
तदनन्तर कितने ही दिन व्यतीत हो जाने पर पुण्य कर्म के उदय से अथवा गुरु शुक्र यादि ग्रहों के विद्यमान रहते हुए उसने जिस प्रकार इन्द्र की दिशा (प्राची) सूर्य को उत्पन्न करतो है, शरदऋतु पके हुए धान को उत्पन्न करती है और कोति महोदय को उत्पन्न करती है उसी प्रकार रानी ने उत्तम पुत्र उत्पन्न किया जिसका भाग्य बड़ रहा है और जो सम्पूर्ण लक्ष्मी को पाने के योग्य है ऐगे उस पुत्र का बन्धुजनों ने 'श्रीवर्मा' यह शुभ नाम रक्सा जिस प्रकार मूच्छित को सचेत होने से संतोष होता है, दरिद्र को खजाना मिलने से संतोष होता है, और थोड़ी सेना वाले राजा को विजय मिलने से संतोष होता है उसी प्रकार उस पुत्र जन्म से राजा को संतोष हुआ था। उस पुत्र के शरीर के तेज से जिनकी कान्ति नष्ट हो गई है ऐसे र दीपक रात्रि के समय सभा भवन में निरर्थक हो गये थे ।
उसके शरीर की वृद्धि वैद्यक शास्त्रों में कही हुई विधि के अनुसार होती थी और अच्छी क्रियाओं को करने वाली बुद्धि की वृद्धि व्याकरण आदि शास्त्रों के अनुसार हुई थी। जिस प्रकार यह जम्बूद्वीप ऊँचे मेरु पर्वत से सुशोभित होता है उसी प्रकार पृथ्वी-मंडल का पालन करने वाला यह लक्ष्मी-सम्पन्न राजा उस श्रेष्ठ पुत्र से सुशोभित हो रहा था किस एक दिन शिवकर वन के उद्यान में श्री पद्म नाम के जिनराज अपनी इच्छा से पधारे थे वनपाल से यह समाचार सुनकर राजा ने उस दिशा में सात कदम जाकर सिर से नमस्कार किया और बड़ी विनय के साथ उसी समय जिनराज के पास जाकर तीन प्रदक्षिणाएं दीं, नमस्कार किया, और यथास्थान घासन ग्रहण किया। राजा ने उनसे धर्म का स्वरूप पूछा, उनके कहे अनुसार वस्तु तत्य का ज्ञान प्राप्त किया, शीघ्र ही भोगों की तृष्णा छोड़ी, धर्म की तृष्णा में अपना मन लगाया, श्री वर्मा पुत्र के लिए राज्य दिया और उन्हीं श्रीपद्म जिनेन्द्र के समीप दीक्षा धारण कर ली।
जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश से जिसका मिथ्यादर्जन रूपी महान्धकार नष्ट हो गया है। ऐसे श्री वर्मा ने भी बहु चतुर्थ गुणस्थान धारण किया जो कि मोक्ष की पहली सीढ़ी कहलाती है। चतुर्थ गुणस्थान के सन्निधान में जिस पुण्य कर्म का संचय होता है वह स्वयं ही इच्छानुसार रामस्त पदार्थों को सन्निहित निकटस्थ करता रहता है। उन पदार्थों से थो वर्मा ने इच्छित सुख प्राप्त किया था।
किसी समय राजा श्री वर्मा बासाड़ मास ही पूर्णिमा के दिन जिनेन्द्र भगवान् की उपासना और पूजा कर अपने साप्त जनों के साथ रात्रि में महल की छत पर बैठा था। वहां उल्कापात देखकर वह भोगों से विरक्त हो गया। उसने भी कान् नामक बड़े पुत्र के लिए राज्य दे दिया और श्री प्रभ जिनेन्द्र के समीप दीक्षा लेकर चिरकाल तक तप किया तथा अन्त में श्री
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प्रभ नामक पर्वत पर विधिपूर्वक संन्यासमरण किया। जिससे प्रथम स्वर्ग के श्री प्रभ विमान में दो सागर की प्रायु वाला श्री धर नाम का देव हुअा। वह देव अणिमा, महिमा आदि पाठ गुण से युक्त था, सात हाथ ऊँचा उसका शरीर था, वैक्रियिक शरीर का धारक था, पीतलेश्या वाला था, एक माह में श्वास लेता था; दो हजार वर्ष में अमृतमय पुद्गलों का मानसि पाहार लेता था, कायप्रवीचार से संतुष्ट रहता था, प्रथम पृथ्वी तक उसका अवधिज्ञान था, बलराज तथा बिक्रिया भी प्रथम पृथ्वी तक थी, इस तरह अपने पुण्य कर्म के परिपाक से प्राप्त हुए सुख का उपभोग करता हुभा वह सुख से रहता था।
धातकी खण्ड द्वीप की पूर्व दिशा में जो इष्वाकार पर्वत है उससे दक्षिण की ओर भरत क्षेत्र में एक अलका नाम का सम्पन्न देश है। उसमें अयोध्या नामक उत्तम नगर है। उसमें अतितंजय राजा सुशोभित था। उसकी अजितसेना नाम की वह रामो थी जो कि पुत्र सुख प्रदान करती थी। किसी एक दिन पुत्र-प्राप्ति के लिए उसने जिनेन्द्र भगवान की पूजा की और रात्रि को पुत्र की चिन्ता करती हुई सो गई। प्रातःकाल नीचे लिखे हुए आठ शुभस्वप्न उसने देखे। हाथी, बैल, सिंह, चन्द्रमा, सूर्य, कमलों से सुशोभित सरोवर, शंख और पूर्ण कलश । राजा अतितंजय से उसने स्वप्नों का निम्न प्रकार फल ज्ञात किया । हे देवी! हाथी देखने से तुम पुत्र को प्राप्त करागी; बैल के देखने से वह पुत्र गंभीर प्रकृति का होगा; सिंह के देखने से अनन्त बल का धारक होगा, चन्द्रमा के देखने से सबको संतुष्ट करने वाला होगा, स्यं को देखने से तेज और प्रताप से युक्त होगा, सरोवर के देखने से शंख-चक्र प्रादि बत्तीस लक्षणों से सहित होगा, शंख देखने से चक्रवर्ती होगा और पूर्ण कलश देखने से निधियों का स्वामी होगा।
स्वप्नों का उक्त प्रकार फल जानकर रानी बहत ही संतुष्ट हई। तदन्तर कूछ माह बाद उसने प्राक्त श्रीधरदव की उत्पन्न किया । राजा ने शत्रुओं को जीतने वाले इस पुत्र का अजितसेन नाम रखा । राजा उस तेजस्वी पुत्र से ऐसा सुशोभित होता था जैसा कि धूल रहित दिन सूर्य से सुशोभित होता है। यथार्थ में ऐसा पुत्र ही कूल का आभूषण होता है। दूसरे दिन स्वयंप्रभ नामक तीर्थकर अशोक बन में आये । राजा ने परिवार के साथ जाकर उनकी पूजा की, स्तुति की, धर्मोपदेश सुना और सज्जनों के छोड़ने योग्य राज्य शत्रुनों को जीतने वाले अजिसेन पुत्र के लिए राज्य देकर संयम धारण कर लिया तथा स्वयं केवलज्ञानी बन गया । इधर अनुराग से भरी हुई राज्य लक्ष्मी ने कुमार अजितसेन को अपने वश कर लिया जिससे वह युवावस्था में ही प्रौढ़ की तरह मुख्य सुखों का अनुभव करने लगा उसके पुण्य कर्म के उदय से चक्रवर्ती के चक्ररत्न आदि जोदो चेतन-अचेतन सामग्री उत्पन्न होती है वह सब माकर उत्पन्न हो गई।
उसके समस्त दिशाओं के समूह को जीतने वाला चक्ररत्न प्रकट हुआ। चक्ररत्न के प्रकट होते ही उसके लिए दिग्विजय करना नगर के बाहर घूमने के समान सरल हो गया। इस चक्रवर्ती के कारण कोई भी दुःखी नहीं और यद्यपि यह छह खण्ड का स्वामी था फिर भी परिग्रह में इसकी प्रासक्ति नही थी। यथार्थ में पुण्य तो वही है जो पूण्य कर्म का बन्ध करने वाला हो । उसके साम्राज्य में प्रजा को यदि दुःख था तो अपने अशुभ कर्मोदय से था और सुख था उस राजा के द्वारा सम्यक रक्षा होने से था। यही कारण था कि प्रजा उसकी बन्दना करती था। देव और विद्याधर राजाओं के मुकुटों के अग्रभाग पर चमकने वाले रत्नों की किरणों को निष्प्रभ बनाकर उसकी उन्नत माज्ञा ही सुशोभित होती थी। यदि निरन्तर उदय रहने वाले और कमलों को पानन्दित करने वाले सूर्य का बल प्राप्त नहीं होता तो इन्द्र स्वयं अधिपति होकर भी अपनी दिशा की रक्षा कैसे करता । बिधाता अवश्य ही बुद्धि हीन है क्योंकि यदि वह बुद्धिहीन नहीं होता तो प्राग्नेय दिशा की रक्षा के लिए अग्नि को क्यों नियुक्त करता? भला जो अपने जन्मदाता को जलाने वाला है उससे भी क्या कहीं किसी की रक्षा हुई है ?
क्या विधाता यह नहीं जानता था कि यमराज या मारक? फिर भी उसने उसी सर्व भक्षी पापी को दक्षिण दिशा का रक्षक बना दिया । जो कुत्ते के स्थान पर रहता है, दीन है, सदा यमराज के समीप रहता है और अपने जीवन में जिसे संदेह है ऐसा नैऋत किस की रक्षा कर सकता है ? जो जल भूमि में विद्यमान बिल में मकरादि हिसक जन्तु के समान
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रहता है, जिसके हाथ में पाश है, जो जल प्रिय है-जिसे जल प्रिय है (पक्ष में जिसे जड़-मूर्ख प्रिय है) और जो नदीनाश्रय हैसमुद्र में रहता है (पक्ष में दीन मनुष्यों का प्राश्रय नहीं है) ऐसा वरुण प्रजा की रक्षा कैसे कर सकता है? जो अग्नि का मित्र है, स्वयं अस्थिर है और दूसरों को चलाता रहता है उस वायु को विधाता ने वायव्य दिशा का रक्षक स्थापित किया सो ऐसा वायु क्या कहीं ठहर सकता है? जो लोभी है वह कभी पुण्य-संचय नहीं कर सकता और जो पुण्यहोन है वह कैसे रक्षक हो सकता
बकि कुबेर कभी किसी को धन नहीं देता तब उसे विधाता ने रक्षक कैसे बना दिया ? ईशान अन्तिम दशा को प्राप्त होता है, गिनती उसकी सबसे पीछे होती है, पिशाचों से घिरा हुआ है और दुष्ट है इसलिए यह ईशान दिशा का स्वामी कैसे हो सकता है ?
ऐसा जान पड़ता है कि विधाता ने इन सवको वृद्धि की विकलता से ही दिशामों का रक्षक बनाया था और इस कारण उसे भारी अपयश उठाना पड़ा था। अब विधाता ने अपना सारा अपयश दूर करने के लिए ही मानो इस एक अजितसेन को समस्त दिशामों का पालन करने में समर्थ बनाया था। इस प्रकार के उदार वचनों को माला बनाकर सब लोग जिसकी स्तुति करते हैं और अपने पराक्रम से जिसने समस्त दिशाओं को व्याप्त कर लिया है ऐसा अजितसेन इन्द्रादि देवों का उल्लंघन करता था। उसका धन दान देने में, बुद्धि धार्मिक कार्यों में, शूरवीरता प्राणियों की रक्षा में, प्रायू सूख में और शरीर भोगोपभोग में सदा वृद्धि को प्राप्त होता रहता था। उसके पुण्य की वृद्धि दूसरे के प्राधीन नहीं थी, कभी नष्ट नहीं होती थी और उसमें किसी तरह की बाधा नही आती थी। इस प्रकार वह तृष्णा रहित होकर गुणों का पोषण करता हया बड़े पाराम से सुख को प्राप्त होता था। उसके वचनों में सत्यता थी, चित्त में दया थी, धार्मिक कार्यो में निर्मलता थी. और प्रजा को अपने गुणों के समान रक्षा करता था फिर वह राजर्षि क्यों न हो?
मैं तो ऐसा मानता हूं सुजनता उसका स्वाभाविक गुण था । यदि ऐसा न होता तो प्राण हरण करने वाले पापी शत्रु पर भी विकार को क्यों नहीं प्राप्त होता । उसके राज्य में न तो कोई मुलहर था—मूल पूजी को खाने वाला था, न कोई कदर्य था-अतिशय कृपण था और न कोई तादात्विक था- भविष्यत् का विचार न रख वर्तमान में ही मौज उड़ाने वाला था, किन्तु सभी समीचीन कार्यों में खर्च करने वाले थे । इस प्रकार जब बह राजा पृथ्वी का पालन करता था तब सब और सुराज्य हो रहा था और प्रजा उस बुद्धिमान् राजा को ब्रह्मा मानकर वृद्धि को प्राप्त हो रही थी। जब नव यौवन प्राप्त हुना तब उस राजा के पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के उदय से चौदह रत्न और नौ निधियां प्रकट हुई थीं। भाजन, भोजन, शय्या, सेना, सवारी, ग्रासन, निधि, रत्न, नगर और नाट्य इन दश भोगों का वह अनुभव करता था।
श्रद्धा आदि गुणों से सम्पन्न उस राजा ने किसी समय एक माह का उपवास करने वाले परिन्दम नामक साधु के लिए पाहार-दान देकर नवीन पुण्य का बन्ध किया तथा रत्न-वृष्टि आदि पंचाश्चर्य प्राप्त किये सो ठीक ही है क्योंकि उत्तम कार्यों के करने में तत्पर रहने वाले मनुष्यों को क्या दुर्लभ है ? दूसरे दिन वह राजा, गुप्तप्रभ जिनेन्द्र की वन्दना करने के लिए मनोहर नामक उद्यान में गया। वहीं उसने जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए श्रेष्ठ धर्म रूपी रसायन का पान किया, अपने पूर्व भव के सम्बन्ध सूने, जिनसे भाई के समान प्रेरित हो शीघ्र ही बैराग्य प्राप्त कर लिया। वह जितशत्रु नामक पुत्र के लिए राज्य देकर त्रैलोक्य विजयी गोह राजा को जीतने के लिए इस प्रकार निरलिचार तप-तप कर प्रायु के अन्त में वह नभस्तिलक नामक पर्वत के अग्रभाग पर शरीर छोड़ सोलहवें स्वर्ग के शान्तकार विमान में अच्युतेन्द्र हुआ। वहां उसकी बाईस सागर की आयु थी, तीन हाथ ऊंचा तथा धातु-उपधातुओं से रहित देदीप्यमान शरीर था, शुक्ललेश्या थी, वह ग्यारह माह में एक बार श्वास लेता था, बाईस हजार वर्ष बाद एक बार अमृतमयी मानसिक आहार लेता था, उसके देशावविज्ञान-रूपी नेत्र छठवीं पथ्वी तक के पदार्थों को देखते थे, उसका समीचीन तेज, बल तथा बैक्रियिक शरीर भी छठवीं पृथ्वी तक व्याप्त हो सकता था। इस प्रकार निर्मल सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला वह अच्युतेन्द्र चिरकाल तक स्वर्ग के सुख भोम प्रायु के अन्त में कहाँ उत्पन्न हुआ यह कहते हैं ।
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पूर्व धातकी खण्ड द्वीप में सीता नदी के दाहिने तट पर एक मंडलावती नाम का देश है। उसके रत्नसंचय नगर में वानकप्रभ राजा राज्य करते थे। उनकी कनकमाला नाम की रानी थी। वह अहमिन्द्र उन दोनों दम्पतियों के गभ स्वप्नों द्वारा अपनी सूचना देता हया पद्य नाम का पुत्र उत्पन्न हुा । पद्म नाम, वालकोचित सेवा-विशेष के द्वार। निरन्तर वद्धि को प्राप्त होता रहता था। उपयोग तथा क्षमा प्रादि सब गुणों की पूर्णता हो जाने पर राजा ने उसे व्रत देकर विद्यागह में प्रविष्ट कराया। कलीन विद्वानों के साथ रहने वाला यह राजकुमार, दास तथा महावत प्रादि को दूर कर समस्त विद्वानों के सीखने में उद्यम करने लगा । लसने इन्द्रियों के ममह को इस प्रकार जीत रक्खा था कि वे इन्द्रियाँ सब रूप से अपने विषयों के द्वारा केवल प्रात्मा के साथ ही प्रेम बढ़ाती थीं । वह बुद्धिमान विनय की वृद्धि के लिए सदा वृद्धजनों की संगति करता था। शास्त्रों से निर्णय कर बिनय करना कृत्रिम विनय है और स्वभाव से ही बिनय करना स्वाभाविक विनय है। जिस प्रकार चन्द्रमा को पाकर गरु और शुक्र ग्रह अत्यन्त सुशोभित होते हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण कलाओं को धारण करने वाले अतिशय सुन्दर उन राजकुमार को पाकर स्वाभाविक और कृत्रिम दोनों प्रकार के विमान अतिशय सुशोभित हो रहे थे । वह बुद्धिमान राजकुमार सोलहवें वर्ष में यौवन प्राप्त कर ऐसा सुशोभित हुआ जैसा कि विनयवान् जितेन्द्रिय संयमी वन को पाकर सुशोभित होता है।
जिस प्रकार गद्र जाति के हाथी को देखकर उसका शिक्षक हर्षित होता है उसी प्रकार रूप, बा, अवस्था और शिक्षा से सम्पन्न तथा विकार से रहित पुत्र को देखकर पिता बहुत ही हर्षित हुए। उन्होंने जिनेन्द्र भगवान् की पूजा के साथ उसकी विद्या की गुजा की तथा संस्कार किये हुए रत्न के समान उसकी बुद्धि दूसरे कार्य में लगाई। जिस प्रकार शुद्ध पक्ष-शुक्लपक्ष के प्राथय से कलाओं के द्वारा बालचन्द्र को पूर्ण किया जाता है उसो प्रकार बलवान् राजा ने उस मुन्धर पुत्र का जनक स्त्रियां से पूर्ण किया था अर्थात् उसका अनेक स्त्रियों के साथ विवाह किया था। जिस प्रकार सूर्य के किरण उत्पन्न होती हैं उसी प्रकार उसकी सोमप्रभा आदि रानियों के सुवर्णनाम आदि शुभ पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार पुत्र-पुत्रादि से घिरे हुए श्रीमान और बुद्धिमान् राजा कनकप्रभ सुख से अपने राज्य का पालन करते थे।
किसी दिन उन्होंने मनोहर नामक वन में पधारे हए श्रीधर नामक जिन-राज से धर्म का स्वरूप मुनकर अपना राज्य पत्र के लिए दे दिया तथा संयम धारण कर कम-क्रम से निर्वाण प्राप्त कर लिया। पद्मनाभ ने भी उन्हीं जिनराज के समीप श्रावक के ब्रत लिए तथा मन्त्रियों के साथ स्व राष्ट्र और पर-राष्ट्र की नीति का विचार करता हुआ वह सुख से रहने लगा। परस्पर के समान अत्यन्त कोमल स्त्रियों को विनय, हंसी, स्पर्श, विनोद, मनोहर बातचीत और चंचल चितवनों के द्वारा वह चित्त की परम प्रसन्नता को प्राप्त होता था । कामदेव रूपी कल्प-वृक्ष से उत्पन्न हुए, स्त्रियों के प्रेम से प्राप्त हुए और थके हए भोगापभोग रूपी उत्तम फल हो राजा पद्मनाभ के वैराग्य की सीमा हुए थे अर्थात् इन्हीं भोगोपभोगों से उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया था।
ये सब भोगोपभोग पूर्व भव में किये हुए पुण्यकर्म के फल हैं इस प्रकार मूर्ख मनुष्यों को स्पष्ट रीति से बतलाया हुअर वह तेजस्वी पद्मनाम सुखी हुआ था। विद्वानों में श्रेष्ठ पद्मनाभ भी, श्रीधर मुनि के समीप धर्म का स्वरूप जानकर अपने हृदय में संसार और मोक्ष का यथार्थ स्वरूप इस प्रकार विचारने लगा। उसने विचार किया कि जब तक प्रौदयिक भाव रहता है तब तक आत्मा को संसार-भ्रमण करना पड़ता है औदयिक भाब तब तक रहते हैं जब तक कि उनके कारण विद्यमान रहते हैं । कर्मों के कारण मिथ्यात्वादिक पांच हैं। उनमें से जहां मिथ्यात्व रहता है वहां बाकी के चार कारण अवश्य रहते हैं। जहां असंयम रहता है वहां और उसके सिवाय प्रमाद कषाययोग ये तोन कारण रहते हैं। जहां कवाय रहती है वहां उसके सिवाय योग धारण रहता और जहाँ कषाय का अभाव है वहां सिर्फ योग हो बन्ध का कारण रहता है।
अपने-अपने गणस्थान में मिथ्यात्वादि कारणों का नाश होने से वहां उनके निमित्त से होने वाला बन्ध भी नष्ट हो जाता है। पहले सता, बन्ध और उदय नष्ट होते हैं, उनके पश्चात् चौदहवें गुणस्थान तक अपने-अपने काल के अनुसार कर्म नष्ट होते हैं तथा कर्मा के नाश होने से संसार का नाश हो जाता है। जो पाप रूप है और जन्म-मरण ही जिसका लक्षण है ऐसे संसार
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नष्ट हो जाने पर प्रात्मा के क्षायिक भाव ही शेष रह जाते हैं। उस समय यह मात्मा अपने आप में उन्हीं क्षायिक भावों के साथ बढ़ता रहता है। इस प्रकार जिनेन्द्र देव के द्वारा कहे हए तत्व को नहीं जानने वाला यह प्राणी, जिसका अन्त मिलना अत्यन्त कठिन है ऐसे संसाररूपी दुर्गम वन में अन्ध के समान चिरकाल से भटक रहा है। अब मैं असंयम आदि कर्म बन्ध के समस्त कामों को डोरगर हनुमानिनोक्ष के पांचों कारणों को प्राप्त होता हूँ-धारण करता है।
इस प्रकार अन्तरंग में हिताहित का यथार्थ स्वरूप जानकर पद्मनाभ ने बाह्य सम्प्रदायों को प्रभता सुवर्णनाम के लिए दे दी और वहत से राजानों के साथ दीक्षा धारण कर ली। अब वह मोक्ष के कारण भूत चारों पाराधनामों का आचरण करने लगा, सोलह कारण-भावनाओं का चिन्तन करने लगा तथा ग्यारह अंगों का पारगामी बनकर उसने तीर्थङ्कर नाम कर्म का बन्ध किया। जिसे अज्ञानी जीव नहीं कर सकते ऐसे सिंह निष्क्रीडित प्रादि कठिन तप उसने किये और प्रायु के अन्त में समाधिमरण-पूर्वक शरीर छोड़ा जिससे वैजयन्त विमान में तैतीस सागर की आयु का धारक अहमिन्द्र हमा । उसके शरीर का प्रमाण तथा लेश्यादिकी विशेषता पहले कहे अनुसार थी। इस तरह वह दिव्य सुख का उपभोग करता हुआ रहता था।
तदनन्तर जब उसकी आयु छह मास की बाकी रह गई तब इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में एक चन्द्रपुर नाम का नगर था। उगमें इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री तथा आश्चर्यकारी वैभव को धारण करने वाला महासेन नाम का राजा राज्य करता था । उनकी महादेवी का नाम लक्ष्मणा था। लक्ष्मणा ने अपने घर के प्रांगन में देवों के द्वारा बरसाई हई रत्नों की धारा प्राप्त की थी। श्री ही ग्रादि देवियाँ सदा उसे घेरे रहती थीं। देवोपनीत वस्त्र, माला, लेप तथा शय्या प्रादि सूखों का समुचित उपभोग करने वाली रानी ने नेत्रकृष्ण पंचमी के दिन पिछली रात्रि में सोलह रवप्न देखकर संतोष लाभ किया। सूर्योदय के समय उसने उठकर अच्छे अच्छे वस्त्राभरण धारण किये तथा प्रसन्न मुख होकर सिंहासन पर बैठे हए पति से अपने सब स्वप्न निवेदन किये।
राजा महासेन ने भी अवधिज्ञान से उन स्वप्नों का फल जाकर रानी के लिए पृथक-पृथक बतलाया जिन्हें सुनकर वह बहत ही हषित हई। श्रोही आदि देवियां उसकी कान्ति, लज्जा, धैर्य, कोति, बुद्धि और सौभाग्य-सम्पत्ति को सदा बढ़ाती रहती थीं। इस प्रकार कितने ही दिन व्यतीत हो जाने पर उसने पौषकृष्ण एकादशी के दिन शुरुयोग में देव पूजित, अचिन्त्य प्रभा के धारक और तीन ज्ञान से सम्पन्न उस अहमिन्द्र पुत्र को उत्पन्न किया। उसी समय इन्द्र ने पाकर महामेर को शिखर पर विद्यमान सिंहासन पर उक्त जिन बालक को विराजमान किया, क्षीर सागर के जल से उनका अभिषेक किया के आभूषणों रो विभूपित किया, नीन लोक के राज्य की कण्ठी बांधी और फिर प्रसन्नता से हजार नेत्र बनाकर उन्हें देखा। उनके उत्पन्न होते ही यह कुवलय अर्थात पृथ्वी-मण्डल का समूह अथवा नील-कमलों का समूह अत्यन्त विकसित हो गया था इसलिये इन्द्र ने व्यवहार की प्रसिद्ध के लिए उनका चन्द्रप्रभ' यह सार्थक नाम रक्खा।
इन्द्र ने इन त्रिलोकीनाथ के आगे आनन्द नाम का नाटक किया। तदनन्तर उन्हें लाकर उनके माता-पिता के लिए सौंप दिया । 'तुम भोगोपभोग की योग्य वस्तुओं के द्वारा भगवान् की सेवा करो' इस प्रकार कुवेर के लिये संदेश देकर इन्द्र अपने स्थान पर चला गया। यद्यपि विद्वान लोग स्त्री-पर्याय को निन्द्य बतलाते हैं तथापि लोगों का कल्याण करने वाले जगत्पति भगवान को धारण करने से यह लक्ष्मणा बड़ी ही पुण्यवती है, बड़ी ही पवित्र है, इस प्रकार देव लोग उसकी स्तुति कर महान् फल को प्राप्त हुए थे तथा इस प्रकार की स्त्री पर्याय श्रेष्ठ है ऐसा देवियों ने भी स्वीकार किया था।
भगवान सुपार्श्वनाथ के मोक्ष जाने के बाद जब नौ सौ करोड़ सागर का अन्तर बीत चुका तब भगवान चन्द्रप्रभु उत्पन्न हुए थे। उनकी आयु भी इसी अत्तर में सम्मिलित थी। दश लाख पूर्व की उनकी प्रायु थी, एक सौ पचास धनुप ऊंचा शरीर था, द्वितीया के चन्द्रमा की तरह वे बढ़ रहे थे तथा समस्त संसार उनकी स्तुति करता था । हे स्वामिन ! आप इधर पाइये इस प्रकार कुतुहलवश कोई देवी उन्हें बुलाती थी। वे उसके फैलाये हुए हाथों पर कमलों के समान अपनी हथेलियों रख देते थे। उस समय कारण के बिना ही प्रकट हई मन्द मुसकान से उनका मुखकमल बहुत ही सुन्दर दिखता था। वे कभी मणिजटित पृथ्वी पर लड़खड़ाते हुए पैर रखते थे । इस प्रकार उस अवस्था के योग्य भोली-भाली शुद्ध चेष्टात्रों से बाल्यकाल
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को बिताकर वे सुखाभिलाषी मनुष्यों के द्वारा चाहने योग्य कौमार अवस्था को प्राप्त हुए। उस समय वहां के लोगों में कौतुकयश इस प्रकार की बातचीत होती थी कि हम ऐसा समझते हैं कि विधाता ने इनका शरीर अमृत से ही बनाया है ।
उनकी द्रव्य लेश्या अर्थात् शरीर की कान्ति पूर्ण चन्द्रमा को जीतकर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो बाह्य वस्तुओं को देखने के लिये अधिक होने से भाव लेश्या ही वाहर निवाल प्राई हो तथा उनका शरीर शुक्ल था और भाव भी शुक्ल उज्ज्वल थे। उनके यश और लेश्या से ज्योतिषी देवों की कान्ति छिप गई थी इसलिये भोगभूमि लौट आई है यह समझ कर लोग संतष्ट होने लगे थे । (ये बाल्यावस्था से ही अमृत का भोजन करते हैं अत: इनके शरीर की कान्ति मनुष्यों से भिन्न है तथा अन्य सबकी कान्ति को पराजित करती है।) उनके शरीर की कान्ति ऐसी सुशोभित होती थी मानो सूर्य
और चन्द्रमा को मिली हुई कान्ति हो इसीलिये तो उनके समीप निरन्तर कमल और कुमुद दोनों ही खिले रहते थे। कुन्द के फूलों की हंसी उड़ाने वाले उनके गुण चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल थे। इसीलिये तो वे भव्य जीवों के मनरूपी नील कमलों के समूह को विकसित करते रहते थे। लक्ष्मी इन्हीं के साथ उत्पन्न हुई थी इसलिए वह इन्हीं की बहिन थी। लक्ष्मी चन्द्रमा की बहिन है यह जो लोक में प्रसिद्धि है वह प्रज्ञानी लोगों ने मिथ्या कल्पना कर ली है। जिस प्रकार चन्द्रमा के उदय होने पर यह लोक हर्षित हो उठता है, सुशोभित होने लगता है और निराकुल होकर बढ़ने लगता है उसी प्रकार सब प्रकार के संतोष को हरने वाले चन्द्रप्रभु भगवान का जन्म होने पर यह सारा संसार हषित हो रहा है, सुशोभित हो रहा है और निराकुल होकर बढ़ रहा है।
कारण के अनुकूल ही कार्य होता है यदि यह लोकोक्ति सत्य है तो मानना पड़ता है कि इनकी लक्ष्मी और कीति इन्हीं के गुणों से निर्मल हई थीं। भावार्थ-उनके गुण निर्मल थे अत: उनसे जो लक्ष्मी और जीति उत्पन्न हुई थी वह भी निर्मल ही थी। जो बहुत भारी विभूति से सम्पन्न हैं, जो स्नान आदि मांगलिक कार्यों से सजे रहते हैं और अलंकारों से सुशोभित ऐसे अतिशय कुशल भगवान कभी मनोहर वीणा बजाते थे, कभी मृदंग आदि बाजों के साथ गाना गाते थे, कभी कुबेर के द्वारा लाये हुए प्राभूपण तथा वस्त्र आदि देखते थे, कभी बादी-प्रतिवादियों के द्वारा उपस्थापित पक्ष आदि को परीक्षा करते थे और कभी कुतुहलवश अपना दर्शन करने के लिए आये हुए भव्य जीवों को दर्शन देते थे इस प्रकार अपना समय व्यतीत करते थे। जब भगवान कौमार अवस्था में ही ये तभी धर्म यादि गुणों की वद्धि हो गई थी और पाप आदि का क्षय हो गया था, फिर संयम धारण करने पर तो कहना ही क्या है ? इस प्रकार दो लाख पचास हजार पूर्व व्यतीत होने पर उन्हें राज्याभिषेक प्राप्त हुना था और उससे बे बहुत ही हर्षित तथा सुन्दर जान पड़ते थे। जो अपनी हथेली प्रमाण मण्डल की राहु से रक्षा नहीं कर सकता ऐसे सूर्य का तेज किस काम का? तेज तो इन भगवान चन्द्रप्रभ का था जो कि तीन लोक को रक्षा करते थे।
जिनके जन्म के पहले ही इन्द्र प्रादि देव किंकरता स्वीकृत कर लेते हैं ऐसे अन्य ऐश्वर्य आदि से घिरे हए इन चन्द्रप्रभ भगवान को किस की उपमा दी जावे ? वे स्त्रियों के कपोलतल में अथवा हाथी-दांत के टुकड़े में कामदेव से मुस्काता हुआ अपना मुख देखकर सुखी होते थे। जिस प्रकार कोई दानी पुरुष दान देकर सुखी होता है उसी प्रकार शृङ्गार चेष्टाओं को करने वाले भगवान, अपनी ओर देखने वाली उत्सुक स्त्रियों के लिए अपने मुख का रस समर्पण करने से सुखी होते थे। मुख में कमल की आशंका होने से जो पास ही में मंडरा रहे हैं ऐसे भ्रमरों को छोड़कर स्त्री का मुख-कमल देखने में उन्हें
और कुछ वाधक नहीं था। चंचल सतृरुण, योग्य अयोग्य का विचार नहीं करने वाले और मलिन मधुर-भ्रमर भी (पक्ष में मद्य-पायी लोग भी) जब प्रवेश पा सकते हैं तब संसार में ऐसा कार्य ही कौन है जो नहीं किया जा सकता हो। इस प्रकार साम्राज्य-सम्पदा का उपभोग करते हुए जब उनका छह लाख पचास हजार पूर्व तथा चौबीस सब का लम्बा समय मुख पूर्वक क्षण भर के समान बीत गया तब वे एक दिन आभूषण धारण करने वाले घर के दर्पण में अपना मुख-कमल देख रहे थे।
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वहाँ उन्होंने मुख पर स्थित किसी वस्तु को वैराग्य का कारण निश्चित किया था और इस प्रकार विचार करने लगे। देखो यह शरीर नश्वर है तथा इससे जो प्रीति की जाती है वह भी इति के समान दुःखदायी है। वह सुख हो क्या है जो चंचल हो, वह यौवन की क्याहै जो नष्ट हो जाने वाला हो, और वह आयु ही क्या है जो अवधि में सहित'-शान्त हो। जिसके प्रागे वियोग होने वाला है ऐसा बन्धुजनों के साथ समागम किस काम का? मैं वही हूं, पदार्थ बही हैं, इन्द्रियाँ भी बहो हैं, प्रीति और अनुभूति भी वही है, किन्तु इस संसार की भूमि में यह सब बार-बार बदलता रहता है। इस संसार में अब तक क्या हुआ है और आगे क्या होने वाला है । यह मैं जानता हूं, फिर भी बार-बार मोह को प्राप्त हो रहा हूं यह आश्चर्य है । मैं आज तक अनित्य पदार्थों को नित्य समझता रहा, दुःख को सुख स्मरण करता रहा, अपवित्र पदार्थों को पवित्र मानता रहा और पर को प्रात्मा जानता रहा । इस प्रकार प्रज्ञान से अक्रान्त हुया यह जीव, जिसका अन्त अत्यन्त कठिन है। ऐसे संसार रूपी सागर में चार प्रकार के विशाल दुःख तथा भयंकर रोगों के द्वारा चिरकाल से पीड़ित हो रहा है।
इस प्रकार काल-लब्धि को पाकर परामा टोदने की इच्छा से वे बड़े लम्ने पुण्यकर्म के द्वारा खिन्न हए के समान व्याकुल हो गये थे । आगे होने बाल केवलज्ञान गुणों से मुझे समृद्ध होना चाहिए-ऐसा स्मरण करते हुए वे दुती के समान सद्बुद्धि के साथ समागम को प्राप्त हए थे। आमे मुझे मोक्ष प्राप्त करने वालो उनको सद्बुद्धि अपने आप दीक्षा लक्ष्मी को प्राप्त हो गई थी। इस प्रकार जिन्होंने आत्म-तत्व को समझ लिया है ऐसे भगवान चन्दप्रभु के समीप लौकान्तिक देव' आये और यथायोग्य स्तुति कर ब्रह्म स्वर्ग को वापिस चले गये। तदनन्तर महाराज चन्दप्रभु भी वर चन्द नामक पुत्र को राज्याभिषेक कर देवों के द्वारा की हुई दीक्षा-कल्याणक की पूजा को प्राप्त हुए और देवों के द्वारा उठाई गई विमला नाम की पालकी में सवार होकर मर्वतुक नामक वन में गये। वहां उन्होंने दो दिन के उपवास का नियम लेकर पौष कृष्ण एकादशी के दिन अनुराधा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ निग्रंथ दीक्षा धारण कर ली। दीक्षा लेते ही उन्हें मनः पर्ययज्ञान प्राप्त हो गया। दूसरे दिन वे चर्या के लिए नलित नामक नगर में गये। वहां गौर वर्ण वाले सोमदत्त राजा उन्हें नवधा भक्ति पूर्वक उत्तम आहार देकर दान से संतुष्ट हुए देवों के द्वारा प्रगटित रत्नवृष्टि आदि पंचाश्चर्य प्राप्त किये । भगवान अहिंसा आदि पांच महाव्रतों को धारण करते थे। ईयां आदि पांच समितियों का पालन करते थे, मन, वचन, काय की निरर्थक प्रवत्ति रूप तीन दण्डों का त्याग करते थे।
उन्होंने कषायरूपी शत्रु का निग्रह कर दिया था, उनकी विशुद्धता निरन्तर बढ़ती रहती थी, वे तीन गुप्तियों से युक्त थे, शील सहित थे, गुणी थे, अन्तरंग और बहिरंग दोनों सपों को धारण करते थे, बस्तु वृत्ति और वचन के भेद से निरन्तर पदार्थ का चिन्तन करते थे, उत्तम क्षमा प्रादि दश धर्मों में स्थित रहते थे, समस्त परिषह सहन करते थे, यह शरीरादि पदार्थ अनित्य हैं, अशुचि हैं और दुःख रूप है, ऐसा बार-बार स्मरण रखते थे तथा समस्त पदार्थों में माध्यस्थ भाव रखकर परमयोग को प्राप्त हुए थे। इस प्रकार जिन-कल्प मुद्रा के द्वारा तोन माह बिता कर वे दीक्षावन में नागवृक्ष के नीचे वेला का नियम लेकर स्थित हुए। बह फाल्गुन कृष्ण मप्तमी के सायंकाल का समय था और उस दिन अनुराधा नक्षत्र का उदय था। सम्यग्दर्शन को पातने वाली प्रकृतियों का तो उन्होंने पहले ही क्षय कर दिया। अब अधःकरण, अपूर्वकरण घोर अनिवत्तिकरण रूप तीन परिणामों के संयोग के क्षपक श्रेणी को प्राप्त हए। वहां उनके द्रव्य तथा भाव दोनों ही रूप से चौथा सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र प्रकट हो गया। वहां उन्होंने प्रथम शुक्ल ध्यान के प्रभाव में मोहरूपी शत्रु को नष्ट कर दिया जिससे उनका सम्यग्दर्शन अगाढ़ सम्यग्दर्शन हो गया। उस समय चार ज्ञानों से देदीप्यमान चन्दप्रभ भगवान अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे। बारहवें गुणस्थान के अन्त में उन्होंने द्वितीय शुक्ल ध्यान के प्रभाव से मोहतारिक्त तीन घातिया कर्मों का क्षय कर दिया। उपयोग जीव का खास गुण है क्योंकि वह जीव के सिवाय अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता। ज्ञानाबरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म जीव के उपयोग गुण का घात करते हैं इसलिए घानिया कहलाते हैं। उन भगवान के घातिया कर्मों का नाश हुआ था। और अघातिया कर्मों में से भी कितनी ही प्रकृतियों का नाश हुआ था।
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इस प्रकार वे परमाबगढ़ सम्यग्दर्णन, अन्तिम यथास्यात चारित्र, क्षायिक ज्ञान-दर्शन तथा ज्ञानादि पन लब्धियां पाकर शरीर सहित सयोग केवली जिनेन्द्र हो गये। उस समय वे सर्वज्ञ थे, समरत लोक के स्वामी थे, सबका हि करने वाले थे, सबके एक मात्र रक्षक थे, सर्वदशी थे, समस्त इन्द्रों के द्वारा वन्दनीय थे और समस्त पदार्थों का उपदेश की वाले थे। चौंतीस अतिशयों के द्वारा उनके विशेष वैभव का उदय प्रकट हो रहा था और आठ प्रातिहार्यों के द्वारा तीर्थकर नामकर्म का उदय व्यक्त हो रहा था। वे देवों के देव थे, उनके चरणकमलों को समस्त इन्द्र अपने मुकूटी पर धारण करते थे, अपनी पमा से उन्होंने समस्त संसार को आनन्दित किया था तथा वे समस्त लोक के माभूषण थे। गति, जीव, समास, गुणस्थान, नय, प्रमाण आदि के विस्तार का ज्ञान कराने वाले श्रीमान चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र आकाश में स्थित थे। सिंहों के द्वारा धारण किया हमा उनका सिंहासन ऐसा सुशोभित हो रहा था कि सिंह जाति ने क्रूरता-प्रधान शूर-वीरता के द्वारा पहले जिस पाप का संचय किया था उसे हरने के लिए मानो उन्हाने भगवान का सिंहासन उठा रक्खा था। समस्त दिशानी का प्रकाशित करती हुई उनके शरीर को प्रभा ऐसी जान पड़ती थी मानों देदीप्यमान केवलज्ञान को कान्ति हो तदाकार हो गई हो। हंसा के कंधों के समान सफेद देवों के चश्मों से जिनको प्रभा की दीर्घता प्रकट हो रही है ऐसे भगवान ऐसे जान पड़ते थे मानों गंगानदी की लहरें ही उनकी सेवा कर रही हों।।
जिस प्रकार सूर्य का एक हो प्रकाश देखने वाले के लिए समस्त पदार्थों का प्रकाश कर देता है उसी प्रकार भगवान की एक ही दिव्य ध्वनि सुनने वालों के लिए समस्त पदार्थों का ज्ञानकर देती थी। भगवान का छत्रत्रय ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप मोक्षमार्ग जुदा-जुदा होकर यह कह रहा हो कि मास को प्राप्ति हम तीनों से ही हो सकती है अन्य से नहीं । लाल-लाल अशोक वृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों भगवान के प्राश्रय से ही मैं प्रशाकशोकरहित हुआ हूं अतः उनक प्रति अपने पत्रों और फूला के द्वारा अनुराग हा प्रकट कर रहा हो । आकाश से पड़ता हुई फलों की बर्षा ऐसी सुशोभित हो रही थी भानों भगवान की सेवा करने के लिए भक्ति से भरी हुई तारामां की पंबित ही पा रही हो । समुद्र की गर्जना को जीतने वाले देवों के नगाड़े ठीक तरह शब्द कर रहे थे, मानो वे दिशामों का यह सुना रहे हो कि भगवान ने मोह रूपी शत्रु को जीत लिया है । उनको प्रभा के मध्य में प्रसन्नता से भरा हुआ मुख मण्डल एसा सुशोभित होता था मानों आकाश गंगा में कमल ही खिल रहा हो अथवा चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ही हो ।
जिस प्रकार तारागणों से सेवित शरद-ऋतु का चन्द्रमा सुशोभित होता है उसी प्रकार बारह सभाओं में सेवित भगवान गन्धकूटी के मध्य में सुशोभित हो रहे थे। उनके दत्त आदि तेरानवे गणधर थे, दो हजार पूर्वधारी थे, आठ हजार अवधिज्ञाना थे, दो लाख चार सौ शिक्षक थे, पाठ हजार मनःपर्यय ज्ञान के धारक उनकी सेवा करते थे, तथा सात हजार छह सौ वादियों के स्वामी थे । इस प्रकार सब मुनियों की संख्या अढ़ाई लाख थी। वरुणा आदि तीन लास अस्सी हजार ग्रायिकाएं उनकी स्तति करती थीं, तीन लाख श्रावक और पांच लाख थाविकाथें उनकी पूजा करती थीं । वे असंख्यात देव-देवियों । स्तुत्य थे और संख्यात तिर्यंच उनकी सेवा करते थे। ये सब बारह सभाओं के जीव प्रदक्षिणा रुप से भव्यों के स्वामी भगवान चन्द्रन को घरे हए थे, सब अपने-अपने कोटा में बैठे थे और सभी कमल के मुकुल के समान अपने-अपने हाथ जोड़े हुए थे।
उसी समय जो उत्पन्न हुई भक्ति के भार से नम्र हो रहा है और जिसके मुकुट के अग्रभाग में लगे हुए माण देदीप्यमान हो रहे हैं ऐसा दूसरा ज्ञानेन्द्र इस प्रकार स्तुति करने लगा। वह कहने लगा कि हे भगवान ! जिस रग्नत्रय से आपने उत्कृष्ट रत्नत्रय प्राप्त किया है वहीं रत्नत्रय-सम्पत्ति आप मुझे भी दीजिए।
हे देव ! समुद्र और सुमेरु पर्वत की महिमा केवल अपने लिए हैं तथा महिमा केवल' पर के लिए है। हे भगवान ! माप परम सुख देने वाले हैं ऐसी मापकी स्तुति तो दूर ही रही, अपने प्रात्मत्व रूपी सम्पदा को सिद्ध करने वाले ग्राप सदा समद्धिमान हों मैं यही स्तुति करता हूं । जो मनुष्य प्रापके वचन को अपने वचनों में, प्रापये धर्म को अपने
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हृदय 'में और यापकी प्रकृति को अपने शरीर में धारण करता है वह ग्राप जैसा हो होकर परम आनन्द को प्राप्त होता है। हे नाथ! आप बले ने ही मुफ्त ध्यान रूपी तलवार के द्वारा तीनों लोकों से द्वेष रखने वाले कर्मरूपी दात्रुओं को नष्ट कर मुक्ति का साम्राज्य प्राप्त कर लिया है। हे प्रभो ! जो ग्रापके चरणरूपी वृक्ष से उत्पन्न हुई सघन छाया का आश्रय लेते हैं वे पापरूपी चाम के ती दुःखरूप संताप से दूर रहते हैं। देव! यह संसार समस्त जीवों के लिये या तो समुद्र है या अनन्य वन है परन्तु जो भव्य आपके मत का प्राश्रय देते हैं उनके लिये गाय का खुर है अथवा नन्दन वन है । हे भगवान् यद्यपि आपके चरणों का स्मरण करने से कुछ क्लेश अवश्य होता है परन्तु उसका फल तीनों लोकों का साम्राज्य है। आश्चर्य है कि ये संसार के प्राणी उस महान् फल में भी मन्द इच्छा रखते हैं इससे जान पड़ता है कि ये अपनी आत्मा का हित नहीं जानते ।
हे प्रभो ! आपका यह आधाराधेय भाव अनन्यसदृश है- सर्वथा अनुपम है क्योंकि नीचे रहने वाला यह संसार तो आधेय है और उसके ऊपर रहने वाले आप आधार हैं। भावार्थ - जो चोज नीचे रहती है वह ग्राचार कहलाती है और जो उसके ऊपर रहतो है वह प्राय कहलाती है परन्तु आपके साधाराधेव मनाव की व्यवस्था से भिन्न है अतः धनुषम है। दूसरे पक्ष में यह अर्थ है कि आप जगत् है रक्षक है अतः धाधार हैं और जयत् आपकी रक्षा का विषय है सबको जानते हैं परन्तु पाप किसी के द्वारा नहीं जाने जाते, आप सबके रक्षक है परन्तु बाप किसी के द्वारा रक्षा योग्य नहीं है, आप सबके जानने वाले हैं परन्तु आप किसी के द्वारा जानने के योग्य नहीं हैं और आप सबका पोषण करने वाले हैं परन्तु ग्राप किसी के द्वारा पोषण किये जाने के योग्य नहीं हैं जो आपको नमस्कार नहीं करता वह पापों से संत होता है और जो आपको स्तुति नहीं करता वह सदा निन्दा को प्राप्त होता है ।
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हे भगवान् ! इस संसार में कितनेो नास्तिक हैं--परलोक की सत्ता स्वीकृत नहीं करते हैं इसलिये स्वच्छन्द होकार तरह-तरह के पाप करते हैं और कितने हो लोग केवल भाग्यवादी है इसलिए महीन होकर यहां रहे हैं परन्तु आपके भक्त लोग आस्तिक की स्वीकृत करते हैं इसलिए परलोक बिगड़न जाने' इस भय से सदा धार्मिक क्रियाए' करते हैं और परलोक के सुधार के लिए सदा उद्यम करते हैं। सबका हित करने वाले और सबको जानने वाले श्राप सब जगह सब समय सत्र पदार्थों को प्रकाशित करते हैं। ऐसा प्रकाशन चन्द्रमा कर सकता है और न सूर्य हो, फिर अन्य पदार्थों की ता बात ही क्या ? हे भगवान! काई भी वस्तु न नित्य है, ज्ञानमात्र है और न अदृश्य होने से शून्य रूप है किन्तु आपके दर्शन से प्रत्येक वस्तु तत्व और तत्व रूप अस्ति रूप है ।
आत्मा है, क्योंकि उसमें ज्ञान का सद्भाव है, आत्मा दूसरा जन्म धारण करता है क्योंकि उसका स्मरण बना रहता है, और आत्मा सर्वज्ञ है क्योंकि ज्ञान में वृद्धि देखो जाती है। हे भगवान् ! ये तानों हो बुद्धिहीन मनुष्य कहते हैं परन्तु प्रापन कहा है कि द्रव्य का परिणमन गुणा से ही होता है अर्थात् द्रव्य से गुण सवथा जुदा पदाथ नहा है । इसलिय श्राप यथार्थद्रष्टा हैं--नाप पदार्थ के स्वरूप को ठीक-ठीक देखते हैं। हे नाथ ! चन्द्रमा की प्रभा तो यह से तिरोहित हो जाती है परन्तु आपके शरीर को प्रभाविना किसी प्रतिवन्य के रात-दिन प्रकाशित रही आाती है यतः इन्द्र ने जो माका 'चन्द्र चन्द्रमा जैसी प्रभावाला) नाम रक्खा है यह बिना परीक्षा किये ही रख दिया है। इस प्रकार जिसमें शब्द और अर्थ दोनों ही गंभीर हैं ऐसे स्तवन से प्रसन्न बुद्धि के धारक इन्द्र ने अपने व्यापको चिरकाल के लिए बहुत ही पुण्यवान् माना था ।
अथानन्तर चन्द्रप्रभ स्वामी समस्त आर्य देशों में विहार कर धर्म-तीर्थ की प्रवृत्ति करते हुए सम्मेद शिखर पर पहुंचे। वहां वे विहार वन्द कर हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर एक मास तक सिद्धशिला पर आरूढ रहे । और फाल्गुन शुक्ल सप्तमी के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में सायंकाल के समय योग-निरोध कर चौदहवें गुण स्थान को प्राप्त हुए तथा चतुर्थ शुक्लध्यान के द्वारा शरीर को नष्ट कर सर्वोत्कृष्ट सिद्ध हो गये। उसी समय निर्वाण कल्याणक की पूजा की विधि को करने वाले देवाये और गुणी पण खरीदने योग्य पदार्थ को लेकर अपने-अपने स्थान पर चले गये।
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क्या यह शरद ऋतु का पूर्ण चन्द्रमा है, अथवा समस्त पदार्थों को जानने के लिए रक्खा हुआ है, अपना अका शोभायमान विशाल पिण्ड है अथवा पुण्य परमाणुओं का समूह है इस प्रकार जिनके सुख-कमल को देखकर लोग शंका किया करते हैं वे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हुए पाप के भय से हमारी रक्षा करें। जिनको द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकार की लेश्याएं कमल की मृणाल के समान सफेद तथा प्रशंसनीय सुशोभित हैं, जिनका मुख चन्द्रमा रात कुवलयपृथ्वी - मण्डल अथवा नील कमलों के समूह को हर्षित करता रहता है, जिनके ज्ञानरूप निर्मल दर्पण में त्रिकाल सम्बन्धी जीवाजीवादि पदार्थ दिखाई देते है और जिन्होंने बष्ट कर्मों का समूह नष्ट कर दिया है ऐसे नाज-लक्ष्मी से सम्पन्न चन्द्रप्रभ स्वामी हम सबको लक्ष्मी प्रदान करें जो पहने यो वर्मा हुए, फिर श्रीधर देव हुए, तदनन्त जिससे हुए तत्पश्चात अच्युत स्वर्ग के फिर पद्मनाभ हुए फिर अहमिन्द्र हुए और तदनन्तर प्रष्टम तीर्थकर हुए ऐसे चम्प्रभ स्वामी हम सबकी रक्षा करें। भगवान् पुष्पदन्त
जिन्होंने विशाल तथा निर्मल मोक्षमार्ग में अनेक शिष्यों को लगाया और स्वयं लगे एवं जो सुविधि रूप हैं-उत्तम मोक्षमार्ग को विधि रूप हैं अथवा उत्तम पुण्य से सहित हैं वे सुविधनाथ भगवान् हम सबके लिए सुविधि-मोक्षमार्ग की विधि अथवा उत्तम पुण्य प्रदान करें। पुष्करार्धद्वीप के पूर्व दिग्भाग में जो मेरु पर्वत है उसके पूर्वविदेह क्षेत्र में सोता नदी के उत्तर तट पर पुष्पकलावती नाम का एक देश है । उसको पुण्डरीकिणी नगरी में महापद्म नाम का राजा राज्य करता था। उस राजा ने अपने भुजदण्डों से शत्रुओं के समूह खण्डित कर दिये थे, वह अत्यन्त पराक्रमी था, वह कियो पुराने मार्ग को अपनी वृत्ति के द्वारा नया कर देता था और फिर श्रागे होने वाले लोगों के लिए वही नया मार्ग पुराना हो जाता था। जिस प्रकार कोई गोपाल अपनी गाय का बछी तरह भरणपोषण कर उसकी रक्षा करता है और गाय द्रवीभूत होकर बढ़ी प्रसन्नता के साथ उसे दूध देती हुई सदा संतुष्ट रहती है उम्री प्रकार वह राजा अपनी पृथ्वी का भरण-पोषण कर उसको रक्षा करता था और वह पृथ्वी भी द्रवीभूत हो बड़ो प्रसन्नता के साथ अपने में उत्पन्न होने वाले रहन आदि श्रेष्ठ पदार्थों के द्वारा उस राजा को संतुष्ट रखती थी।
वह बुद्धिमान् सब लोगों को अपने गुणों के द्वारा अपने में अनुरक्त बनाता था और सब लोग भी सब प्रकार से उस बुद्धिमान् को प्रसन्न रखते थे। उसने मंत्री पुरोहित बादि जिन कर्ताओं को नियुक्त किया था तथा उन्हें बढ़ाया था वे सब अपनेअपने उपकारों से उस राजा को बढ़ाते रहते थे। जिस प्रकार मुनियों में अनेक गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार उस हुए मणि सदाचारी और शास्त्रज्ञान से सुशोभित राजा में अनेक गुध वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे तथा जिस प्रकार संस्कार किये सुशोभित होते हैं उसी प्रकार उस राजा में अनेक गुण सुशोभित हो रहे थे। वह राजा बनायोग्य रीति से विभाग कर अपने ग्राश्रित परिवार के साथ अखण्ड रूप से चिरकाल तक अपनी राज्य लक्ष्मी का उपभोग करता रहा सो ठीक हो है क्योंकि सज्जन लक्ष्मी को सर्वसाधारण के उपभोग के योग्य समझते हैं। नीति के जानने वाले राजा को इन्द्र और यम के समान कहते हैं पुरुष परन्तु वह पुण्यात्मा इन्द्र के ही समान था क्योंकि उसकी सब प्रजा गुणवती थी अतः उसके राज्य में कोई दण्ड देने के योग्य नहीं था ।
उसके गुख की परम्परा निरन्तर बनी रहती थी और उसके भोगोपभोग के योग्य पदार्थ भी सदा उपस्थित रहते वे अतः विशाल पुण्य का धारी यह राजा अपने सुख के विरह को कभी जानता ही नहीं था। इस प्रकार अपने पुष्य के माहात्म्य से जिसके महोत्सव निरन्तर बढ़ते रहते हैं ऐसे राजा महापद्म ने किसी दिन अपने वनपाल से सुना कि मनोहर नामक उद्यान में महान ऐश्वर्य के धारक भूतहित नाम के जिगराज स्थित हैं। यह उनको बन्दना के लिये बड़े वैभव से गया और समस्त जीवों के स्वामी जिनराज की तीन प्रदक्षिणाएं देकर उसने पूजा की, वन्दना की तथा हाथ जोड़कर अपने योग्य स्थान पर बैठकर उनसे धर्मोपदेश सुना । उपदेश सुनने से उसे प्रात्मन उत्पन्न हो गया और वह इस प्रकार विचार करने लगा। अनादि कालीन मिध्यात्व के उदय से दूषित हुआ। यह प्रात्मा, अपने ही आत्मा में अपने ही ग्रात्मा के द्वारा दुःख उत्पन्न कर पागल की तरह अथवा मतदाने की
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तरह बन्या हो रहा है तथा किसी भूताविष्ट के समान विधारी हो रहा है। जो-जो कार्य श्रात्मा के लिये महितकारी हैं महोदय से यह प्राणी चिरकाल से उन्हीं का आचरण करता चला था रहा है संसाररूपी अटवी में भटक भटक कर यह मोक्ष के मार्ग से भ्रष्ट हो गया है । इस प्रकार चिन्तयन कर वह संसार से भयभीत हो गया तथा मोक्ष मार्ग को प्राप्त करने की इच्छा से धनद नामक पुत्र के लिये अपना ऐश्वर्य प्रदान कर संसार से डरने वाले अनेक राजाओं के साथ दीक्षित हो गया। क्रम-क्रम से वह म्यारह अंगणी समुद्र का पारगामी हो गया सो कारण भावनाओं के चिल्लवन में तत्पर रहने लगा घोर तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध कर यन्त्र में उसने समाधिमरण धारण किया।
समाधिमरण के प्रभाव से वह प्राणत स्वयं में इन्द्र हुआ। वहां बीस सागर की उसकी यात्रु बी साहे तीन हाथ ऊंचा शरीर था लया थी, दश दश माह में श्वास लेता था, बीस हजार वर्षे वाद चाहार तथा मानसिक प्रवीचार करता था, धूम्रप्रभा पृथ्वी तक उसका अवधिज्ञान था, विक्रिया बल और तेज की सीमा भी उसके अवधिज्ञान की सीमा के बराबर थी तथा अणिमा महिमा आदि आठ उत्कृष्ट गुणों से उसका ऐश्वर्य बढ़ा हुआ था। वहाँ का दीर्घ सुख भोग कर जब वह यहां आने के लिये उद्यत हुआ तब इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की काकन्दी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री सुग्रीव नाम का क्षत्रिय राजा राज्य करता था। सुन्दर फान्ति को धारण करने वाली जमरामा उसको पटरानी थी उस रानी के देवों के द्वारा पतिशय श्रेष्ठ रत्नवृष्टि थादि सम्मान को पाकर फाल्गुन कृष्ण नवमी के दिन प्रभात काल के समय मूल-नक्षत्र में जय कि उसके नेष कुछ-कुछ बाकी बची हुई निद्रा से मलिन हो रहे थे, सोलह स्वप्न देखे स्वप्न देखकर उसने अपने पति से उनका फल जाना और जानकर बहुत ही हर्षित हुई ।
मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा के दिन जैत्रयोग में उस महादेवी ने वह उत्तम पुत्र उत्पन्न किया। उसी समय इन्द्रों ने देवों के साथ प्राकर उनका क्षीर सागर के जल से अभिषेक किया, आभूषण पहनाये और कुन्द के फूल के समान कान्ति से सुशोभित शरीर की दीप्ति से विराजित उन भगवान् का पुष्पदन्त नाम रखा थी चन्द्रप्रभ भगवान् के बाद जद न करोड़ सागर का अन्तर बीत चुका था तब श्री पुष्पदन्त भगवान् हुए थे। उनकी आयु भी इस अन्तर में शामिल थी। दो लाख पूर्व की उनकी आयु थी, सौ धनुष ऊंचा शरीर था और पचास लाख पूर्व तक उन्होंने कुमार अवस्था के सुख प्राप्त किये थे ।
अथानन्तर प्रच्युतेन्द्रादि देव जिसे पूज्य समझते हैं ऐसा साम्राज्य पाकर उन पुष्पदन्त भगवान् ने इष्ट पदार्थों के संभोग से युक्त सुख का अनुभव किया उस समय बड़े-बड़े पूज्य पुरुष उनकी स्तुति किया करते थे सब स्त्रियों से इन्द्रियों से सुख मिलता और इस राज्य से जो भगवान् सुविधिनाथ को सुख मिलता था और भगवान् सुविधिनाथ से उन स्त्रियों को जो था उन दोनों में विद्वान लोग किसको बड़ा ग्रथवा बहुत कहें ? भगवान् पुण्यवान् रहें किन्तु मैं उन स्त्रियों को भी बहुत पुण्यात्मा समझता हूं क्योंकि मोक्ष का सुख जिनके समीप है ऐसे भगवान् को भी वे प्रसन्न करती बीहा कराती थीं वे भगवान् स्वर्ग के श्रेष्ठ सुख रूपी समुद्र में मग्न रहकर पृथ्वी पर आये थे इससे कहना पड़ता है कि यथार्थ भोग्य वस्तुए यही वो जो कि भगवान् को अभिलाषा उत्पन्न कराठी बी-अभीष्ट लगती थीं।
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तो जो भगवान् अनन्य बार महमिन्द्र पद पाकर भी उसने संतुष्ट नहीं हुए वे यदि मनुष्य लोक के मुख से संतुष्ट हुए। कहना चाहिये कि सब सुखों में वहीं सुख प्रधान था। इस प्रकार प्रेमपूर्वक राज्य करते हुए जब उनके राज्यकाल के पचास हजार पूर्व घोर अट्ठाईस पूर्वोक्त बीत गये सब वे एक दिन दिशाओं का अवलोकन कर रहे थे। उसी समय उल्कापात देखकर उनके मन में इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआ कि यह उल्का नहीं है किन्तु मेरे मनादिकालीन महामोहं रूपी सरकार को नष्ट करने वाली दीपिका है। इस प्रकार उस उस्का के निमित्त से उन्हें निर्मल सात्मज्ञान उत्पन्न हो गया। वे स्वयंवृद्ध भगवान् इस निमित्त से प्रतिबुद्ध होकर तत्व का इस प्रकार विचार करने रूप है। कर्म रुपी इन्द्रजालियों ने ही इसे उठाकर दिखलाया प्राणो सामने रखते हुए असत् पदार्थ को सत् समझने लगते हैं। वाली है और न कोई पदार्थ मेरा है मेरा तो मेरा आत्मा ही है,
है
लगे कि श्राज मैंने स्पष्ट देख लिया कि यह संसार विडम्बना काम, शोक, भय, उन्माद, स्वप्न चोरी बादि से उपद्रत हुए इस संसार में न तो कोई वस्तु स्थिर है, न शुभ है, न कुछ देने यह सारा संसार मुझसे जुदा है। और मैं इससे जुदा हूं. इन दो
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शब्दों के द्वारा ही जो कुछ कहा जाता है वही सत्य है, फिर भी पादचर्य है कि मोहोदय से शरीरादि पदार्थों में इस जीव की आत्मीय बुद्धि हो रही है।।
शरीरादिक ही मैं हूं मेरा सब शुभ है, नित्य है इस प्रकार अन्य पदार्थों में जो मेरी विार्यय-बुद्धि हो रही है उसी से मैं अनेक दुःख देने वाले जरा, मरण और मृत्यु रूपी बड़े-बड़े भयंकर इस संसार रूपी समुद्र में भ्रमण कर रहा हूं। ऐसा विचार कर वे राज्य-लक्ष्मी को छोड़ने की इच्छा करने लगे। लौकान्तिक देवों ने उनकी पूजा की। उन्होंने सुमित नामक पुत्र के लिए राज्य का भार सौंप दिया, इन्द्रों ने दीक्षा कल्याणक कर उन्हें घेर लिया। वे उसी समय सूर्यप्रभा नाम की पालकी में सवार होकर पुष्पकवन में गये और मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के सायंकाल के समय बेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया । वे दूसरे दिन आहार के लिए शैलपूर नामक नगर में प्रविष्ट हुए। वहां सुवर्ण के समान कान्ति वाले पुष्पमित्र राजा ने उन्हें भोजन कराकर पचाश्चर्य प्राप्त किये।
इस प्रकार छमस्थ अवस्था करते हुए उनके चार वर्ष बीत गये । तदनन्तर कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन सायंकाल के समय मुल नक्षत्र में दो दिन का उपवास लेकर नागवृक्ष के नीचे स्थित हुए और उसी दीक्षाबन में घातिया कर्मरूपी पाप कर्मों को नष्ट कर अनन्त चतुष्टय को प्राप्त हो गये। चतुर्णिकाय देवों के इन्द्रों ने उनके अचित्य वैभव की रचना की-समवसरण बनाया और वे समस्त पदार्थों का निरूपणा करने दिव्य ध्वनि से मुशोभित हुए। वे सात ऋषियों को धारण करने वाले विदर्भ भाटि टासी गणधरों से सहित थे, पन्द्रह सौ श्र तकेवलियों के स्वामी थे; एक लाख पचपन हजार पांच सौ शिक्षकों के रक्षक थे. आठ हजार सौ अवधि-ज्ञानियों से सेबित थे, सात हजार केवल ज्ञानियों और तेरह हजार विक्रिया द्धि के घारको मेवेष्टित समात हजार पांच सौ ममः पर्ययज्ञानियों और छह हजार छह सौ वादियों के द्वारा उनके मंगलमय चरणों की पूजा होती थी. इस प्रकार वे सब मिलाकर दो लाख मुनियों के स्वामी थे, घोषार्या को प्रादि लेकर तीन लाख अस्सी हजार आयिकाओं से सहित थे, दो लाख श्रावकों से युक्त थे, पांच लाख श्राविकानों से पूजित थे, असंख्यात देवों और संख्यात तिर्यचों से सम्पन्न थे, इस तरप बारह राभानों से पृजित भगवान् पुष्पदन्त प्रार्य देशों में बिहार कर सम्मेदशिखर पर पहुंचे और रोग निरोध कर भाद्रशुक्ल अष्टमी के दिन मूल नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार मुनियों के साथ माक्ष को प्राप्त हो गये। देव पाये और उनका निर्वाण कल्याणक कर स्वर्ग चले गये।
जिन्होंने स्वयं चलकर मोक्ष का कठिन मार्ग दूसरों के लिए सरल तथा शुद्ध कर दिया है, जिन्होंने चित्त में उपशम भाव को धारण करने वाले भक्तों के लिए स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग प्राप्त करने का उत्तम विधि बतलाई है, जो मोक्ष-लक्ष्मी के स्वामी है, जिनके दांत खिले हुए पुष्प के समान हैं जो स्वयं देदीप्यमान हैं और जिनका मुख दाँतों को कान्ति से सुशोभित
ऐसे भगवान पुष्पदन्त को हम नमस्कार करते हैं। हे देव ! आपका शरीर शान्त है, वचन कानों को हरने वाले हैं, चरित्र सब का उपकार करने वाला है और आप स्वयं संसार रूपी विशाल रेगिस्तान बीच में 'सघन' छायादार वृक्ष के समान हैं प्रतः हम सक अापका ही प्राथय लेते हैं।
जो पहले महापद्म नामक राजा हुए, फिर स्वर्ग में चौदहवें कल्प के इन्द्र हुए और तदन्तर भरतक्षत्र में महाराज सुविधि नामक नौवें तीर्थकर हुए ऐसे सुविधिनाथ अथवा पुष्पदन्त हम सबको लक्ष्मी प्रदान करें।
भगवान् शीतलनाथ जिनका कहा हा समीचीन धर्म, कर्मरूपी सूर्य की किरणों से संतप्त प्राणियों के लिये चन्द्रमा के समान शीतल हैशान्ति उत्पन्न करने वाला है वे शीतलनाथ भगवान् हम सबके लिए शीतल हों-शान्ति उत्पन्न करने वाले हों। पुटकरबर द्वीप के पूर्वार्ध भाग में जो मेझ पर्वत है उसकी पूर्व दिशा के विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक वत्स नामक देश है। उसके ससीमा नगर में पद्मगुत्म नाम का राजा राज्य करता था । राजा पद्मगुत्म साम, दान, दण्ड और भेद इन चार उपायों का ज्ञाता था, सहाय, साधनोपाय, देशविभाग, कालविभाग और विनिपात प्रतीकार इन पांच अंगों से निर्णीत संधि और
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विग्रह-युद्ध के रहस्य को जानने वाला था। उसका राज्य-रूपी वृक्ष बुद्धि-रूपी जल के सिंचन से खूब वृद्धि को प्राप्त हो रहा था, तथा स्वामी, मंत्री, किला, खजाना, मित्र, देश और सेना इन सात प्रकृति रूपी शास्त्राओं से विस्तार को प्राप्त होकर धर्म, अर्थ और कामरूपी तीन फलों से निरन्तर फलता रहा था।
वह प्रताप-रूपी बड़वानल की चचल ज्वालाओं के समह से अत्यन्त देदीप्यमान था तथा उसने अपने चन्द्रहास खड़ग को धारा जल के समुद्र में समरत शत्रु राजा रूप-पर्वतों को डुबा दिया था। उस गुणवान राजा ने देव, बुद्धि और उद्यम के द्वारा स्वयं लक्ष्मी का उपार्जन कर उसे सर्व साधारण के द्वारा उपभोग करने योग्य बना दिया था। साथ ही वह स्वयं भी उसका उपभोग करता था। न्यायोपार्जित धन के द्वारा याचकों के समूह को संतुष्ट करने वाला तथा समस्त ऋतुओं के सुख भोगने वाला राजा पद्मगुल्म जब इस घराचक्र का-पृथ्वीमण्डल का पालन करता था तब उसके समागम श्री उत्सुकता मे ही मानो वसन्त ऋतु प्रा गई थी। कोकिलायों और भ्रमरों के मनोहर सब्द ही उसके मनोहर शब्द थे, वृक्षों के लहलहाते हए पल्लव ही उसके ओंठ धं, सुगन्धि रो एकत्रित हुए मत्त भ्रमरों से सहित पृरुप ही उसके मंत्र थे, कुहरा से रहित निर्मल चांदनी ही उसका हास्य था, स्वच्छ आकाश ही उसका वस्त्र था, सम्पूर्ण चन्द्रमा का गण्डल ही उसका मुख था, मौलिश्री की सुगन्धि से सुवासित मलय समीर ही उसका श्वासोच्छ्वास था और कनेर के फल ही उसके शरीर की पीत कापति थी। कामदेव यद्यपि शरीर रहित था और उसके पास सिर्फ पांच ही वाण थे, तो भी वह राजा दागुल्म को इस प्रकार निष्ठुरता से पीड़ा पहुंचाने लगा जो कि अनेक वाणों सहित हो सो ठीक ही है क्योंकि समय का बल पाकर कौन नहीं बलवान हो जाता है ?
जिसका मन घरान्त-लक्ष्मी ने अपने अधीन कर लिया है नथा जो अनेक सुख प्राप्त करना चाहता है ऐसा वह राजा प्रीति को बहाता हा उस वसन्त लक्ष्मी के साथ निरन्तर कीड़ा करने लगा। परन्तु जिस प्रकार वायू से उड़ाई हई मेघमाला कहीं जा छिपती है उसी प्रकार कालरूपी वायु से उड़ाई बह वसन्त-ऋत कहीं जा छिपी-नष्ट हो गई और उसके नष्ट होने से उत्पन्न हा। दुःख के द्वारा उसका चिन बहुत ही व्याकुल हो गया। वह विचार करने लगा कि यह काम बड़ा दुष्ट है, यह पापी समस्त संसार को दुःखी करता है और विग्रह-शरीर रहित होने पर भी विग्रही-शरीर सहित (पक्षा में उपद्रव करने वाला है। मैं उस काम को आज ही ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा भस्म करता हूं। इस प्रकार उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ । वह चन्दन नामक पुत्र के लिए राज्य का भार सौंपकर प्रानन्द नामक मुनिराज के समीप पहुंचा और समस्त परिग्रह नथा शरीर से विमुख हो गया।
शान्न परिणामों को धारण करने वाले उसने विपाकसूत्र तक सब अंगों का अध्ययन किया, चिरकाल तक तपश्चरण किया, तीर्थकर नाम-कर्म का बन्ध किया, सम्यन्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन आरावनाओं का साधन किया तथा प्राय के अन्त में वह समाधिमरण कर मारण नामक पन्द्रहवं स्वर्ग में विशाल वैभव को धारण करने वाला इन्द्र रक्षा वहां उसकी प्रायु बाईस सागर की थी, तीन हाथ ऊंचा उसका शरीर था, द्रव्य और भाव दोनों ही शुक्ललेश्याएं थी, ग्यारह माह में श्वास लेता, बाईस हजार वर्ष में मानसिक पाहार लेकर सन्तुष्ट रहता था, लक्ष्मीमान था, मानसिक प्रवीचार से युक्त था, प्राकाम्य आदि पाठ गुणों का घारक था, छठवं नरक के पहले-पटल तक व्याप्त रहने वाले अबधिज्ञान से देदीप्यमान था, उतनी ही दूर तक उसका बल तथा वित्रिया शक्ति थी और वाह्म-विकारों से रहित विशाल श्रेष्ठ सुखरूपी सागर का पारगामी था, इस प्रकार उसने अपनी असंख्यात वर्ष की प्रायु को काल की कला के समान -एक क्षण के समान बिता दिया।
जब उस इन्द्र की आयु छह मास की वाकी रह गई और बह पृथ्वी पर आने के लिए उद्यत हा तब जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र सम्बन्धी मलय नामक देश में भद्रपुर नगर का स्वामी इक्ष्वाकुवंशी राजा दशरथ राज्य करता था। उसकी महारानी का नाम सुनन्दा था। कुबेर की आज्ञा से यज्ञ जाति के देवों ने छह मास पहले से रत्नों के द्वारा सुनन्दा का घर भर दिया था। मानवती सुनन्दा ने भी रात्रि के अन्तिम भाग में सोलह स्वप्न देखवार अपने मुख में प्रवेश करता हुमा एक हाथी देखा। प्रातः काल राजा से उनका फल ज्ञात किया और उसी समय चैत्र कृष्ण अष्टमी के दिन पूर्वापाढा नक्षत्र में सदवत्तता-सदाचार
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आदि गुणों से उपलक्षित वह देव स्वर्ग से च्युत होकर रानी के उदर में उस प्रकार अवतीर्ण हुमा जिस प्रकार कि सद्वत्ततागोलाई आदि गुणों से उपलक्षित जल की बूद शुक्ति के उदर में अवतीर्ण होती है। देवों ने आकर बड़े प्रेम से प्रथम कल्याणक की पूजा की क्रम-क्रम से नव माह व्यतोत होने पर माघ कृष्ण द्वादशी के दिन विश्वयोग में पुत्र जन्म हुआ।
उसी समय बहुत भारी उत्सब से भरे देव लोग आकर उस बालक को सुमेरु पर्वत पर ले गये । वहां उन्होंने उसका महाभिषेक किया और शीतलनाथ नाम रक्खा । भगवान पुष्पदन्त के मोक्ष चले जाने के बाद नौ करोड़ सागर का अन्तर बीत जाने पर भगवान शीतलनाथ का जन्म हुआ था। उनकी आयु भी इसी में सम्मिलित थी। उनके जन्म लेने के पहले पल्य के चौथाई भाग तक धर्म कर्म का विच्छेद रहा था। भगवान् के शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान थी, प्रायु एक लाख पुर्व की थो और शरीर नवे धनुष ऊंचा था। जब आयु के चतुर्थ-भाग के प्रमाण कुमारकाल व्यतीत हो गया तब उन्होंने अपने पिता का पद प्राप्त किया तथा प्रधान सिद्धि प्राप्त कर प्रजा का पालन किया । गति आदि शुभ नाम कर्म साता वेदनीय, उत्तम गोत्र और अपघात मरण से रहित तथा तीर्थकर नाम कम से सहित आयु-कर्म ये सभी मिलकर उत्कृष्ठ अनुभागवन्ध का उदय होने से उनके लिए सब प्रकार के सुख प्रदान करते थे अतः उनके सूख की उपमा किसके साथ दी जा सकती है ? इस प्रकार जब उनकी प्रायु का चतुर्थ भाग शेष रह गया, तथा संसार-भ्रमण अत्यन्त अल्प रह गया तब उनके प्रत्याख्यानावरण कषाय का अन्त हो गया। महातेजस्वी भगवान शीतलनाथ किसो समय विहार करने के लिए वन में गये । वहां उन्होंने देखा कि पाले का समूह जो क्षण भर पहले समस्त पदार्थों को ढके हुए था शोध ही नष्ट हो गया है ।
इस प्रकरण से उन्हें प्रात्म-ज्ञान उत्पन्न हो गया और वे इस प्रकार विचार करने लगे कि प्रत्येक पदार्थ क्षण-क्षण भर में बदलते रहते हैं उन्हीं से यह सारा संसार विनश्वर है। आज मैंने दु:ख, दुःखी और दु:ख के निमित्त इन तीनों का निश्चय कर लिया। मोह के अनुबन्ध से मैं इन तीनों को सुख, सुखी और सुख का निमित्त समझता रहा । मैं मुखी हूं, यह सुख है और सख पुण्योदय से फिर भी मुझे मिलेगा यह बड़ा भारी मोह है जोकि काललब्धि के बिना हो रहा है। कर्म पुण्य रूप हों अथवा न हों, यदि कर्म विद्यमान हैं तो उनम इस जीव को सख कैसे मिल सकता है ? क्योंकि यह जोब राग-द्वेष तथा अभिलाषा आदि अनेक दोषों से युक्त है। यदि विषयों से ही सुख प्राप्त होता है तो मैं विषयों के अन्त को प्राप्त हूँ अर्थात् मुझे सबसे अधिक सुख प्राप्त है फिर मुझ संतोप क्यों नहीं होता। इससे जान पड़ता है कि मिथ्या सुख है।
उदासीनता ही सच्चा सुख है और वह उदासीनता मोह के रहते हए कैसे हो सकती है? इसलिए मैं सर्व प्रथम इस मोह शत्रु को ही शीघ्रता के साथ जड़-मुल से नष्ट करता हैं। इस प्रकार पदार्थ के स्वरूप का विचार कर उन्होंने विवेकियों के द्वारा छोड़ने के योग्य और मोही जीवों के द्वारा प्रादर देने के योग्य अपना सारा साम्राज्य पुत्र के लिए दे दिया । उसी समयमाये हुए लौकान्तिकदेवों के द्वारा शुक्लप्रभा नाम को पालको पर सवार होकर सहेतुक वन में पहुंचे। वहां उन्होंने माघकृष्ण द्वादशी के दिन सायंकाल के समय पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में दो उपवास का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण किया । तार ज्ञान के धारी भगवान् दूसरे दिन चर्या के लिए अरिष्ट मगर में प्रविष्ट हुए । वहां नवधा भक्ति करने वाले पुनबसु राजा ने बड़े हर्ष के साथ उन्हें खीर का आहार देकर संतुष्ट देवों के द्वारा प्रदत्त पंचाश्चर्य प्राप्त किये।
तदनन्तर छद्मस्थ अवस्था के तीन वर्ष बिताकर वे एक दिन बेल के वृक्ष के नीचे दो दिन के उपवास का नियम लेकर विराजमान हुए । जिससे पौषकृष्ण चतुर्दशी के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्र में सायंकाल के समय सुवर्ण समान कान्तिवाले उन भगवान ने केवल ज्ञान प्राप्त किया। उसी समय देवों ने आकर उनके ज्ञान-कल्याणक की पूजा की । उनकी सभा में सप्त ऋद्धियों को धारण करने वाले अनागार प्रादि इक्यासी गणधर थे। चौदह सौ पूर्वधारी थे, उनसठ हजार दो सौ शिक्षक थे, सात हजार केवलज्ञानी थे, बारह हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक मनि उनकी पूजा करते थे, सात हजार पाँच सौ मन पर्ययज्ञानी उनके चरणों की पूजा करते थे, इस तरह सब मुनियों की संख्या एक लाख थी, धारणा प्रादि तीन लाख
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अस्सी हजार प्रायिकायें उनके साथ थीं, दो लाख श्रावक और लीन लाख श्राविकायें उनकी अर्चा तथा स्तुति करती थीं, असंख्यात देव-देवियां उनका स्तवन करती थीं और संख्यात तिथंच उनकी सेवा करते थे।
प्रसंख्यात देशों में विहार कर धर्मोपदेश के द्वारा बहुत से भव्य मिथ्यादृष्टि जीवों को सम्यक्त्व आदि गुणस्थानप्राप्त कराते हए वे सम्मेदशिखर पर पहुंचे। वहां एक माह का योग-निरोध कर उन्होंने प्रतिमा योग धारण किया और एक हजार मुनियों के साथ पाश्विन शुक्ला अष्टमी के दिन सायंकाल के समय पूर्वाषाढा नक्षत्र में समस्त कर्म-शत्रुओं को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त किया। अपने शरीर को कान्ति से सब पदार्थों को प्रकाशित करने वाले इन्द्र पंचम कल्याणक कर तथा शीतलनाथ जिनेन्द्र की स्तुति कर स्वर्ग को चले गये।
जिनका जन्म होते ही संसार इस प्रकार प्रसन्नता को प्राप्त हो गया। जिस प्रकार कि चन्द्रोदय से होता है। समस्त भाई-बन्धों के मुख इस प्रकार विकसित हो गये जिस प्रकार कि सूर्य से कमल विकसित हो जाते हैं और याचक लोग इच्छित पदार्थ पाकर बड़े हर्ष से कृतकृत्य हो गये उन देव पूजित, रात र.था तृष्णा को नष्ट करने वाले शीतलनाथ जिनेन्द्र की मैं वन्दना करता है- स्तुति करता हूं। दिग्गजों के कपोलमूल से गलते हुए तथा सबको सुगन्धित एवं हषित करने बाले मदजल से जिन्होंने ललाट पर अर्धचन्द्राकार तिलक दिया है, जिनके कण्ठ मधुर हैं ऐसी दिवकन्याए स्वरचित पद्यों के द्वारा जिनको अत्यन्त उदण्ड मोहरूपी शर-बीर को जीत लने के गीत गातो हैं उन शीतलनाथ जिनेन्द्र की 'मैं स्तुत करता हूं, जो पहले सब तरह के गुणों सं वागल्म नाम के राजा हए, फिर देवों के द्वारा पूजित पारण स्वर्ग के इन्द्र हा मीर तदन्तर दशम तीर्थकर हुए उन दयालु तथा सबको शान्त करने वाले थी शीतलनाथ जिनेन्द्र को हे शव्य जीयो ! नमस्कार मारो।
अथानन्तर श्री शीतलनाथ भगवान के तीर्थ के अन्तिम भाग में काल दोप रो वता, श्रोता और प्राचरण करने वाले धर्मात्मा लोगों का अभाव हो जाने से समीचीन जैन धर्म का नाश गया। उस समय भद्रिलपुर में मलय देश का स्वामी राजा। मेघरव रहता था, उसके मंत्री का नाम सत्यकोति था। किसी एक दिन राजा मंघस्थ सभा-भवन में सिंहासन पर बैठे हए थे उसी समय उन्होंने धर्म के लिए धन दान करने की इच्छा से सभा में बैठे हुए लोगों से कहा कि सब दानों में ऐसा कौन-सा दान है कि जिसके देने पर बहुत फल होता है। ? उसके उत्तर में दान के तत्व को जानने वाला मंत्री इस प्रकार कहने लगा कि धेष्ठ मुनियों ने शास्त्रदान, अभयदान और अन्नदान ये तीन प्रकार के दान कहे हैं।
ये दान वद्धिमानों के लिए पहले-पहले अधिक फल देने वाले हैं अर्थात् अन्नदान की अपेक्षा अभयदान का और अभय दान को अपेक्षा शास्त्रदान का बहुरा फल है। जो सर्वज्ञ-देव का बाहा हुआ हो, पूर्वापर बिरोध ग्रादि दोपा से रहित हो, हिसादि पापों को दूर करने वाला हो ओर प्रत्यक्ष परोक्ष दोनों प्रमाणों से सम्पन्न हो उस शास्त्र कहते हैं । संसार के दु:खां से डरे हुए। सत्पुरुषों का उपकार करने की इच्छा ने पूर्वोक्त शास्त्र की व्याख्यान करना शास्त्रदान कहलाता है। मोक्ष प्राप्त करने का इच्छुक तथा तत्वों के स्वरूप को जानने वाला मुनि कर्मबन्ध के कारणों को छोड़ने की इच्छा से जो प्राणि पीड़ा का त्याग करता है उसे अभयदान कहते हैं। हिंसादि दोषों से दूर रहने वाले मानी साधुओं के लिए शरीरादि बाह्य साधनों की रक्षा के अर्थ जो शुद्ध पाहार दिया जाता है : उसे ग्राहारदान वाहते हैं।
इन आदि और अन्त के दानों के देने तथा लेने वाले दोनों को ही कर्मों को निर्जरा एवं पुण्य कर्म का श्रास्रव होता है। इस संसार में ज्ञान से बढ़कर अन्य दान नहीं हो सकता । वास्तव में शास्त्र ही हेय और उपादेय तत्वों को प्रकाशित करने वाला श्रेष्ठ साधन है । शास्त्र का अच्छी तरह व्याख्यान करना, सुनना, चिन्तवन करना शृद्ध बुद्धि का कारण है। शुद्ध बुद्धि के होने पर भव्य जीव हेय पदार्थ को छोड़कर और हितकारी पदार्थ को ग्रहण कर व्रती बनते हैं, मोक्ष मार्ग का अवलम्बन लेकर क्रमकम से इन्द्रियों तथा मन को शान्त करते हैं और अन्त में शुक्ल-ध्यान का अवलम्बन लेकर अविनाशी मोक्ष पद प्राप्त करते हैं। इसलिए सब दानों में शास्त्रदान ही श्रेष्ठ है पाप-कार्यों से रहित है तथा देने और लेने वाले दोनों के लिए ही निजानन्द रूप मोक्ष-प्राप्ति का कारण है । अन्तिम आहारदान में थोड़ा प्रारम्भ-जन्य पाप करना पड़ता है इसलिए उसकी अपेक्षा अभयदान श्रेष्ठ है। यह जीव इन तीन महादानों के द्वारा परम पद को प्राप्त होता है । इस प्रकार कहे जाने पर भी राजा ने दान का यह
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निरूपण स्वीकृत नहीं किया क्योंकि वह कपोतलेश्या के महात्म्य से इन तीन दानों के सिवाय और ही कुछ दान देना चाहता था।
उसी नगर में एक मूर्तिशर्मा नाम का ब्राह्मग रहता था। वह अपनी बुद्धि के अनुसार खोटे-खोटे शास्त्र बनाकर राजा को प्रसन्न किया करता था। उसके मरने पर उसका मुण्डशालायन नामक पुत्र रामत शास्त्रों का जानने वाला हुआ। उस समय वह उसी सभा में बैठा था अतः मन्त्री के द्वारा पूर्वोक्त दान का निरूपण समाप्त हाते हो कहने लगा। कि वे तीन दान मुनियों के लिए अथवा दरिद्र मनुष्यों के लिए हैं । बड़ी-बड़ो इन्छा रखने वाले राजाओं के लिए तो दूसरे ही उत्तम दान हैं। शाप अनुग्रह करने की शक्ति से सुशोभित ब्राह्मणों के लिए, जन तक चन्द्र अथवा सूर्य हैं तब तक यश का करने वाला पृथ्वी तथा सुवर्णादि का बहुत भारी दान दोजिए। इस दान का समर्थन करने वाला ऋषिप्रणात शास्त्र भो विद्यमान है, ऐसा कहकर वह अपने घर से अपनी बनाई हुई पुस्तक ले आया और सभा में उसे बत्तवा दिया। इस प्रकार अभिप्राय को जानने वाले मुण्डशालायन ने अवसर पाकर कुमार्ग का उपदेश दिया पोर राजा ने उसे बहुत माना-उसका सत्कार किया। देखो, मुण्डशालायन पाप करता था, अभद्र था, विषयान्त्र था ओर दुर्बुद्धि था फिर भो राजा परलोक को बड़ो भारो पाशा में उन पर अनुरक्त हो गया–प्रसन्न हो गया। किमो समय कार्तिक मास पौर्णमासी के दिन उस दुर्बुद्धि राजा ने शुद्ध होकर बड़ी भक्ति के साथ अक्षतादि पूजा द्रव्यों से मुण्डज्ञालायन को पूजा कर उसे उसके द्वारा कहे हुए भूमि नया सुवणीदि के दान दिये। यह देख भक्त मंत्रों ने राजा से कहा । अनुग्रह के लिए अपना धन या अपनी कोई वस्तु देना सो दान है एसा जिनेन्द्र भगवान ने वाला है और इस विषय के जानकार मनुष्य अपने तथा पर के उपकार का हो अनुग्रह कहते हैं। पुग्ध कर्म को वृद्धि होना पर का उपकार है।
___स्व शब्द धन का पर्यायवाची है। धन का पात्र के लिए देना स्व दान कहलाता है । यही दान प्रशंसनीय दान है फिर जानते हए भी प्राप इस प्रकार कुपात्र के लिए चन दान देकर प्राप दाता, दान और पात्र तीनों को क्यों नष्ट कर रहे हैं। उत्तम बोज कितना ही अधिक क्यों नहा, यदि दूसरजपोन में डाला जायेगा तो उसने सकनेश आर बाज नाश-रूम फल के सिवाय और क्या होगा? कुछ भी नहीं। इसके विपरीत उत्तम वोज थोड़ा भी क्यों न हो, यदि संयम का जानने वाले मनुष्य के द्वारा उत्तम क्षेत्र में बोया जाता है तो बाने वाले के लिए उससे हजार गुना फल प्राप्त हाता है । इस प्रकार उस बुद्धिमान एवं भक्त मन्त्री ने यद्यपि करोड़ों उदाहरण देकर उस राजा को समझाया परन्तु उससे राजा का कुछ भी उपकार नहीं हुअा। सो ठोक ही है क्योंकि विपरीत बुद्धिवाले मनुष्य के लिए सत्पुरुषों के वचन ऐसे हैं जैसे कि काल के काटे के लिए मंत्र, जिसको आयू पूर्ण हो चक्री है उसके लिए अोपथि, पीर जन्म के अन्धे के लिए दर्पण । उस कुमार्गगामा राजा ने प्रारम्भ से ही चले पाये दान के मार्ग को छोड़ कर मूर्ख मुण्डशालायान के द्वारा कहे हुए आधुनिक दान के मार्ग को प्रचलित किया। इस प्रकार लाकर वस्तुओं के लोभी, मूर्तिशर्मा के पुत्र मुण्डशालायान ने श्री शीतलनाथ जिनेन्द्र के तीर्थ के अन्तिम समय में दरिद्रों को अच्छा लगने वाला-कन्यादान, हस्तिदान, सुवर्णदान, अश्वदान, गोदान, दासोदान, तिलदान, रथदान, भूमिदान और गहदान यह देश प्रकार का दान स्वयं ही अच्छी तरह चलाया।
भगवान श्रेयान्सनाथ जो प्राश्रय लेने योग्य हैं उनमें श्रेयान्सनाथ को छोड़कर कल्याण के लिए विद्वानों के द्वारा और दूसरा माश्रय लेने योग्य नहीं है. इस तरह कल्याण के अभिलापी मनुष्यों के द्वारा प्राश्रय करने योग्य भगवान् श्रेयान्सनाथ हम सबके कल्याण के लिए हों। पूरकरार्ध द्वीप सम्बन्धी पूर्व विदेह क्षेत्र के सुकच्छ देश में सीता नदी के उत्तर तट पर क्षमपुर नाम का नगर है। उसमें समस्त दुष्ट शवों को नम्र करने वाला तथा प्रजा के अनुराग से प्राप्त अचिन्त्य महिमा का याश्रयभूत नलिनप्रभ नाम का राजा राज्य करता था । पृथक्-पृथक् तीन भेदों के द्वारा जिनका निर्णय किया गया है ऐसी शक्तियों, सिद्धियों पौर उदयों से जो अभ्युदय को प्राप्त है तथा शान्ति और परिश्रम से जिसे क्षेम और योग प्राप्त हुए हैं ऐसा यह राजा सदा वढ़ता रहता था। वह राजा न्याय पूर्वक प्रजा का पालन करता था स्नेह पूर्ण पृथ्वी को मर्यादा में स्थित कर उसका
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भूभुत्यपना सार्थक था।
समीचीन मार्ग में चलने वाले उस श्रेष्ठ राजा में धर्म ही था, किन्तु अर्थ तथा काम भी धर्म-युक्त थे। अतः वह धर्ममय ही था। इस प्रकार स्वकृत पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त सुख को खान स्वरूप यह राजा लोकपाल के समान इस समस्त पृथ्वो का दीर्घकाल तक पास करता रहा पिन नापास से उसे मालम हुआ कि सहस्रान वन में अनन्त जिनेन्द्र अवतीर्ण हुए हैं तो वह अपने समस्त परिवार से युक्त होकर सहनाभवन में गया। वहां उसने जिनेन्द्र देव की पूजा की, चिरकाल तक स्तुति की, नमस्कार किया और फिर अपने योग्य स्थान पर बैठ गया । तदनन्तर धर्मोपदेश सुनकर उसे तत्वज्ञान उत्पन्न हुआ जिससे इस प्रकार चिन्तवन करने लगा कि किस का कहीं किसके द्वारा किस प्रकार किससे और कितना कल्याण हो सकता है यह न जान कर मैंने खेद-खिन्न होते हुए अनन्त जन्मों में भ्रमण किया है। मैंने जो बहुत प्रकार का परिग्रह इकट्ठा कर रखा है वह मोह वश ही किया है इसलिये इसके त्याग से यदि निर्वाण प्राप्त हो सकता है, तब समय बिताने में क्या लाभ है ?
ऐसा विचार कर उसने गुणों से सुशोभित सुपुत्र नामक पुत्र के लिए राज्य देकर बहत से राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया । ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, तीर्थकर नाम-कर्म का बन्ध किया और आयु के अन्त में समाधिभरण कर सोलहवें अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में अच्युत नाम का इन्द्र हुमा। वहा बाईस सागर प्रमाण उसकी आयु थी, तीन हाथ ऊंचा शरीर था, और ऊपर जिनका वर्णन पा चुका है ऐसो लेश्या आदि से सहित था। दिव्य भाथों को धारण करने वाली सुन्दर देवियों के साथ उसने बहुत समय तक प्रतिदिन उत्तम से उत्तम सूखों का बड़ी प्रीति से उपभोग किया। कल्पातीत-सोलहवें स्वर्ग के आगे के अहमिन्द्र विराग हैं- · राग रहित है और अन्य देव' अल्प सुखवाले हैं इसलिये संसार के सबसे अधिक सुखों से संतुष्ट होकर वह अपनी प्रायु व्यतीत करता था। वहां के सुख भोगकर जब वह यहाँ पाने के लिए उद्यत हुआ तब इसी जम्बद्वीप के भरत क्षेत्र में सिंहपुर नगर का स्वामी इक्ष्वाकु वंश से प्रसिद्ध विष्णु नाम का राजा राज्य करता था। उसको बल्लभा का नाम सुनन्दा था। सुनन्दा ने गर्भधारण के छह माह पूर्व से ही रलवृष्टि आदि कई तरह की पूजा प्राप्त की थी।
ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी के दिन श्रवण नक्षत्र में प्रात:काल के समय उसने स्वप्न तथा अपने मुख में प्रवेश करता हग्रा हाथी देखा । पति से उनका फल जानकर वह बहुत ही हर्ष का प्राप्त हुई। उसी समय इन्द्रों ने आकर गर्भ-कल्याणक का महोत्सव किया। उत्तम सन्तान को धारण करने वाली सुनन्दा ने पूर्वोक्त विधि से नौ माह बिता कर फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन विष्णयोग में तीन ज्ञानों के धारक तथा महाभाग्यशालो उस पुत्र को उत्पन्न किया जिस प्रकार कि मेघमाला उत्तम बष्टि को उत्पन्न करती है। जिस प्रकार शरद-ऋतु के प्राने पर सब जगह के जलाशय शीघ्र हो प्रसन्न स्वच्छ हो जाते हैं उसी प्रकार जनका जन्म होते ही सब जीवों के मन प्रसन्न हो गये थे-हप से भर गये थे। भगवान का जन्म होने पर यातक लोग धन पाकर पित हए थे, धनी लोग दीन मनुष्यों को संतुष्ट करने से हर्षित हुथे थे और वे दोनों इष्ट भोग पाकर सूखो हये थे। उस समय सब जीवों को सुख-देने वाली समस्त ऋतुए मिलकर अपने-अपने मनोहर भावों से प्रकट हुई थीं।
बड़ा आश्चर्य था कि उस समय भगवान का जन्म होने पर रोगी मनुष्य नीरोग हो गये थे, शोकवाले शोकरहित हो गये। थे । जब उस समय साधारण मनुष्यों को इतना संतोष हो रहा था तब माता-पिता के संतोष का प्रमाण कौन बता सकता है ? शीही चारों निकाय के देव अपने शारीर तथा प्राभरणों की प्रभा के समूह से समस्त संसार को तेजोमय करते हए चारों ओर से आ गये । मनोहर दुन्दुभिया बजने लगी, पुष्पवर्षाए होने लगी, देव-नर्तकिया नृत्य करने लगी और स्वर्ग के गवैया मधुर गान गाने लगे । 'यह लोक देव लोक है अथवा उससे भी अधिक वैभव को धारण करने वाला कोई दूसरा ही लोक है। इस प्रकार देवों के शब्द निकल रहे थे। सौधर्मन्द्र ने स्वयं उत्तम आभुषणादि से भगवान के माता-पिता को संतुष्ट किया और इन्द्राणो ने माया से माता को संतुष्ट कर जिनबालक को उठा लिया।
श्री धरणेन्द्र जिन-बालक को ऐरावत हाथी के कन्धे पर विराजमान कर देवों को सेना के साथ लोला-पूर्वक महा
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तेजस्वी महामेरु पर्वत पर पहुंचा। वहाँ उसमें पंचम क्षीर समुद्र से लाये हुए क्षीर रूप जल के कलशों के समूह से भगवान का अभिषेक किया, आभूषण पहिनाये और बड़े हर्ष के साथ उनका नाम श्रेयांस रखा। इन्द्र मेरु पर्वत से लौटकर नगर में पाया और जिन-बालक को माता की गोद में रखा और देवों के साथ उत्सव मनाता हुया स्वर्ग चला गया। जिस प्रकार किरणों के द्वारा क्रम-क्रम से कान्ति को पृष्ट करने वाले बालचन्द्रमा के अवयव बढ़ते रहते हैं उसी प्रकार गुणों के साथ-साथ उस समय भगवान के शरीरावयव बढ़ते रहते थे । शीतलनाथ भगवान के मोक्ष जाने के बाद जब सी सागर और छयासठ लाख छब्बीस हजार वर्ष कम एक सागर प्रमाण अन्तराल बीत गया तथा प्राधा पल्य तक धर्म परम्परा ट्टी रही तब भगवान श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था। उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी। उनकी कुल आयु चौरासी लाख वर्ष की थी। शरीर सुवर्ण के समान कान्ति वाला था, ऊंचाई अस्सी धनुष की थी, तथा स्वयं बल, पोज और तेज के भंडार थे। जब उनको कुमारावस्था के इक्सीस लाख वर्ष बीत चुके तब सुख के सागर स्वरूप भगवान ने देवों के द्वारा पूजनीय राज्य प्राप्त किया । उस समय सब लोग उन्हें नमस्कार करते थे, वे चन्द्रमा के समान सबको संतृप्त करते थे और अहंकारी मनुग्यों को सूर्य के समान संतापिन करते थे। उन भगवान ने महामणि के समान अपने आपको तेजस्वी बनाया था, समुद्र के समान गम्भीर किया था, चन्द्रमा के समान शीतल बनाया था और धर्म के समान चिरकाल तक कल्याणकारी श्रुत-स्वरूप बनाया था। पूर्व जन्म में अच्छी तरह किये हुए पुण्य कर्म से उन्हें सर्व प्रकार को सम्पदाए तो स्वयं प्राप्त हो गई थी अतः उनको वृद्धि और पौरुष का व्याप्ति सिर्फ धर्म और काम में ही रहती थी। भावार्थ- उन्हें अर्थ की चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। देवों के द्वारा किये पुण्यानुवन्धी चुभ विद्वानों में स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हुए उनके दिन व्यतीत हो रहे थे।
इस प्रकार बयालीस वर्ष तक उन्होंने राज्य किया । तदनन्तर किसी दिन वसन्त ऋतु का परिवर्तन देखकर वे विचार करने लगे कि जिस काल ने इस समस्त संसार को अस्त कर रक्खा है वह काल भी क्षण घड़ी आदि के परिवर्तन से व्यतीत होता जा रहा है तब अन्य विस पदार्थ से स्थिरता रह सकती है? यथार्थ में यह समस्त संसार विनश्वर है, जब तक शाश्वत पदअविनाशी मोक्ष पद नहीं प्राप्त कर लिया जाता है तब तक एक जगह सुख से कसे रहा जा सकता है ? भगवान ऐसा विचार कर ही रहे थे कि उसी समय साररत आदि लोकास्तिक देवों में प्राकर उनकी स्तुति की। उन्होंने श्रयस्कर पुन के लिए राज्य दिया, इन्द्रों के द्वारा दीक्षा-कल्याणक के समय होने वाला महाभिषेक प्राप्त किया और देवों के द्वारा उठाई जाने के योग्य विमल प्रभा नाम की पालकी पर सवार होकर मनोहर नामक महान उद्यान की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुंच कर उन्होंने दो दिन के लिए आहार का त्याग कर फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन प्रात: काल के समय श्रवण नक्षत्र म एक हजार राजाओं के साथ संबम धारण कर लिया। उसी समय उन्हें चौथा मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। दूसरे दिन उन्हान भाजन क लिए सिद्धाथ नगर में प्रवेश किया। वहां उनके लिये सुवर्ण के समान कान्ति बाले उस राजा ने भक्ति-पूर्वक आहार दिया जिससे उत्तम बुद्धि उस राजा ने श्रेष्ठ पुण्य और पंचाश्चर्य प्राप्त किये। इस प्रकार छदमस्थ अवस्था के दा कप
चर्य प्राप्त किये। इस प्रकार उदमस्थ अवस्था के दो वर्ष बीत जाने पर एक दिन महामुनि श्रेयांसनाथ मनोहर नामक उद्यान में दो दिन के उपवास का नियम लेकर तम्बूर वक्ष के नीचे बैठे और वहीं पर उन्हें माघकृष्ण अमावस्या के दिन थबण नक्षत्र में सायंकाल के समय केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसी समय अनक नामा निकाय के देवों ने उनके चतुर्थ कल्याणक की पूजा की।
भगवान श्रेयांसनाथ, सतहत्तर गणधरों के समूह से घिरे हए थे, तेरह सौ पूर्वधारियों से सहित थे, अड़तालीस हजार दो सौ उत्तम शिक्षक मुनियों के द्वारा पूजित थे, छह हजार अवधिज्ञानियों से सम्मानित थे, छह हजार पाच सौ केवलज्ञान रूपी
थ, ग्यारह हजार विक्रयाऋद्धि के धारकों से सुशोभित थे, छह हजार मनः पर्ययज्ञानियों से युक्त थे, और पांच हजार मुल्य दिया स सवित थ । इस प्रकार सब मिलाकर चौरासी हजार मूनियों से सहित थे। इनके सिवाय एक लाख बीस हजार धारण आदि आर्यिकाय उनकी पूजा करती थीं, दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविकाए उनके साथ थीं, पहले कहे
दावा पार संख्यात तिथंच सदा उनके साथ रहते थे। इस प्रकार बिहार करते और धर्म का उपदेश देते
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हुए सम्मेदशिखर पर जा पहुंचे। वहाँ एक माह तक योग-निरोष कर एक हजार मुनियों के साथ उन्होंने प्रतिमायोग धारण किया । श्रावण शुक्ला पौर्णमासी के दिन सायंकाल के समय घनिष्ठा नक्षत्र में विद्यमान कर्मों को प्रसंख्यातगुण श्रेणी निर्जरा की और इ उ ऋ लृ इन पांच लघु अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने समय में अन्तिम दो शुक्लव्यानां से समस्त कर्मों को नष्ट कर पंचम गति में स्थित हो वे भगवान यांसनाथ मुक्त होते हुए सिद्ध हो गये। इसके बिना हमारा टिमकाररहितपना व्यर्थ है ऐसा विचार कर देवों ने उस समय उनका निर्वाण कल्याणक किया और उत्सव कर सब स्वग चल
गये ।
जिनके ज्ञान ने उत्पन्न होते ही समस्त अन्धकार को नष्ट कर सब वराचर विश्व का देख लिया था, और काई प्रातपक्ष न होने से जो अपने ही स्वरूप में स्थित रहा था ऐस श्रा श्रयासनाथ जिनेन्द्र तुम सबका अकल्याण दूर कर ह प्रभा ! आपक वचन सत्य सबका हित करने वाले तथा दयामय है । इसा प्रकार आपका समस्त चरित्र सुहृत् जना के लिए हितकारी है। ह गवन्! आपको दोनों वस्तु इसीलिए इन्द्रयादि देव भक्तिपूर्वक आपका हो नाव भगवान् तुम सबके कल्याण के लिए हां
है
!
बाय देते हैं। इस प्रकार विद्वान् लोग जिनको स्तुति किया करते हैं ऐसे जा पहले पाप की प्रभा को नष्ट करने वाल श्रेष्ठतम नालनप्रभ राजा हुए, तदनन्तर अन्तिम कल्प मं सकल्प मात्र से प्राप्त हान वाले सुखों की खान स्वरूप, समस्त दवा के अधिपति -अच्युतेन्द्र हुए और फिर त्रिलोकपूजित तायकर हाकर कल्याणकारा स्वाद्वाद का उपदेश देते हुए मोक्ष को प्राप्त हुए ऐसे श्रीमान् श्रेयांसनाथ जिनेन्द्र तुम सबको लक्ष्मी के लिए हों तुम सबको लक्ष्मी प्रदान करें।
जिस प्रकार वतियों में प्रथम चक्रवर्ती भरत हुआ उसी प्रकार यांसनाथ के तीर्थ में तोन खण्डको पालन करने वाले नारायणों में उद्यमी प्रथम नारायण हुआ । उसी का चरित्र तीसरे भव से लेकर कहता हूँ। यह उदय तथा ग्रस्त होने वाले राजाओं का एक अच्छा उदाहरण है इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में एक मगध नाम का देश है उसमें राजगृह नाम का नगर है जो कि इन्द्रपुरी से भी उत्तम है। स्वर्ग से आकर उत्पन्न होने वाले राजाओं का यह घर है इसलिए भोगोपभोग की सम्पत्ति की अपेक्षा उसका 'राजगृह' यह नाम सार्थक है। किसी समय विश्वभूति राजा उस राजगृह नगर का स्वामी था, उसकी रानी का नाम जैनी था। इन दोनों के एक पुत्र था जो कि सबके लिए आनन्ददायी स्वभाव वाला होने के कारण विश्वनन्दी नाम से प्रसिद्ध था । विश्वभूति के विशाखनन्दी नाम का छोटा भाई था, उसकी स्त्री का नाम लक्ष्मणा था और उन दोनों के विशाखनन्दी नाम का पुत्र था । विश्वभुति अपने छोटे भाई को राज्य सौंपकर तपके लिए चला गया और समस्त राजाओं को नम्र बनाता हुआ दिशाभूति प्रभा का पालन करने लगा। उसी राजगृह नगर में नाना गुफाथों, बतायों और वृक्षों से मुखा भित एक नन्दन नाम का बाग था जो कि विश्वनन्दी को प्राणों से अधिक प्यारा था विशालभूति के पुत्र ने बनपालों को डॉटकर जबर्दस्ती वह वन ले लिया जिससे उन दोनों विश्वनन्दी और विशासानान्दी में युद्ध हुआ।
विशाखनन्दी उस युद्ध को नहीं सह सका अतः भाग खड़ा हुआ । यह देखकर विश्वनन्दी को वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह विचार करने लगा कि इस मोह को धिक्कार है। वह सबको छोड़कर सम्भूत गुरु के समीप आया और काका विशाखभूमि को अग्रगामी बनाकर अर्थात् उसे साथ लेकर दीक्षित हो गया। वह शोल तथा गुणों से सम्पन्न होकर अनशन तप करने लगा तथा विहार करता हुआ एक दिन मथुरा नगरी में प्रविष्ट हुआ। वहां एक छोटे बछड़े वाली गायो से धक्का दिया उसो मथुरा जिससे वह गिर पड़ा। दुष्टता के कारण राज्य से बाहर निकाला हुवा मूर्ख विशाखनन्दी अनेक देशों में घूमता हुआ नगरी में आकर रहने लगा था। वह उस समय एक वेश्या के मकान की छत पर बैठा था । वहाँ से उसने विश्वनन्दो को गिरा हुआ देखकर श्रेष से उसकी हंसी की कि तुम्हारा वह पराक्रम ग्राम कहाँ गया? विश्वनन्दी को कुछ शल्य यो मतः उसने विशाखनन्दी की हंसी सुनकर निदान किया। तथा प्राणक्षय होने पर महाशुक स्वर्ग में जहां कि पिता का छोटा भाई उत्पन्न हुआ था, देव हुआ। वहाँ सोलह सागर प्रमाण उसकी आयु थी । समस्त आयु भर देवियों और अप्सराओं के समूह के साथ मन
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चाहे भोग भोगकर वहां से च्युत हुप्रा और इस पृथ्वो तल पर जम्बू द्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्र के मुरम्य देश में पोदनपुर नगर के राजा प्रजापति की प्राणप्रिया मृगावती नाम की महादेवी के शुभ स्वप्न देखने के बाद त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ। काका का जीव भी वहाँ से-महाशुक्र स्वर्ग से च्युत होकर इसी नगरी के राजा की दूसरी पत्नी जयावती के विजय नाम का पुत्र हुआ। और विशाखनन्दी चिरकाल तक संसारचक्र में भ्रमण करता हुआ विजया पर्वत की उत्तर श्रेणी की अलका नगरी के स्वामी मयूरग्रीव राजा के अपने पुण्योदय से शत्र राजाओं को जीतने वाला अश्वनीव' नाम का पुत्र हुआ। इधर बिजय और त्रिपाठ दोनों ही प्रथम बलभद्र तथा नारायण थे, उनका शरीर अस्सी धनुष ऊचा था और चौरासी लाख वर्ष की उनकी प्राय थी। विजय का शरीर शंख के समान सफेद था और विपृष्ठ का शरीर इन्द्रनीलमणि के समान नीला था। ये दोनों उदृण्ड, अश्वत को मारकर तीन खण्डों से शोभित पृथ्वी के अधिपति हुए थे । वे दोनों ही सोलह हजार मुकुट-बद्ध राजाना, विद्याधरीएव घ्यन्तर देवों के अधिपत्य को प्राप्त हुए थे। त्रिपृष्ठ के धनुष, शंख, चक्र. दण्ड, असि, शक्ति और गदा ये सात रत्न थे जो कि देवों से सुरक्षित थे।
बलभद्र के भी गदा, रत्नमाला, मूसल और हल, गे चार रत्न थे जो कि सम्बग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यक चारित्र और तप के समान लक्ष्मी को बढ़ाने वाले थे । त्रिपुष्ठ की स्वयंप्रभा को प्रादि नेकर सोलह हजार स्त्रियां थीं और बलभद्र के चित्त को प्रिय लगने वाली पाठ हजार स्त्रियां थीं। बहुत प्रारम्भ ओर बहुत परिग्रह को धारण करने वाला त्रिपुष्ट नारायण उन स्त्रियों के साथ चिरकाल तक रमण कर सातवों पृथ्वी को प्राप्त हुअा-सप्तम नरक गया। इसी प्रकार अश्वग्रीव प्रतिनारायण भी सप्तम नरक गया। बलभद्र नेमाई दुःस से पुःख होकर उसी समय सुवर्णयुम्भ नामक योगिराज के पास संयम धारण कर लिया और कम-क्रम से अनगारखेवली हुया । देखो, त्रिपष्ट और विजय ने साथ ही साथ राज्य किया, और चिरकाल तक अनुपम सुख भोगे परन्तु नारायण-त्रिपष्ठ समा दुःखों के महान् गृह स्वरूप सातवं नरक में पहुंचा और बलभद्र गुख के रथानभूत त्रिलोक के अग्रभाग पर जाके अधिष्ठित हुआ इसलिए, प्रतिका रहने वाले इस दुष्ट कर्म को धिक्कार हो । जब तक इस कर्म को नष्ट नहीं कर दिया जावे तब तक इस संसार में मुग्य का भागो कौन हो सकता है ? त्रिपृष्ठ, पहले तो विश्वनन्दी नाम का राजा फिर महामृत्रा स्वर्ग में देव हुमा, फिर बिपृष्ठ नाम का अर्धचक्री-नारायण हुआ और फिर पापों का संचय कर सातव नरक गया। चलभर पहले विशाखभूति नाम का राजा था फिर मुनि होकर महाशुवा स्वर्ग में देव हुआ, वहां से 'बयकर विजय नाम का बलभद्र हया और फिर मंसार को नष्ट कर परमात्मा-अवस्था को प्राप्त हुना। प्रतिनारायण पहले विशालनन्दो हुमा, फिर प्रताप रहित हो मरकर चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहा, फिर अश्वग्रीव नाम का विद्याधर हया जो कि त्रिपृष्ठ नारायण का शत्रु होवार अधोगति-नरक गति को प्राप्त हुआ।
भगवान् वासुपूज्य जो वासु अर्थात् इन्द्र के पूज्य हैं अथवा महाराज वसुमुज्य के पुत्र है और सज्जन लोग जिनको पूजा करते हैं ऐसे वासुपज्य भगवान अपने ज्ञान से हम सबको पवित्र करें। पाकरावंद्वीप कं पूर्व गरु की योर सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्सकावती नाम का एक देश है। उसके अतिशय प्रसिद्ध रत्नपुर नगर में पद्मोत्तर नाम दा राजा राज्य करता था। उस राजा की गुणमयो कीति सबके वचनों में रहती थी, पुण्यमयी मूनि सबके नेत्रों में रहती थी, और धर्ममयो बृत्ति सवक चित्त में रहती थी। उसके वचनों में शान्ति थो, चित्त में दया थी, शरीर में तेज था. बुद्धि में नीति थी, दान में धन था, जिनेन्द्र भगवान में भक्ति थी और भजनों में प्रताप था अर्थात् अपने प्रताप से गानों को नष्ट करता था। जिस प्रकार न्यायमार्ग से चलने वाले मुनि में समितियां बढ़ती रहती हैं उसी प्रकार न्यायमार्ग से चलने वाले उस राजा के पृथ्वी का पालन करते समय प्रजा खब माद रही थी। उसके गुण ही धन था तथा उसकी लक्ष्मी भी गुणों से प्रेम नारंग वाली थी इसलिये वह उस लक्ष्मी के साथ विना किसी प्रतिबन्ध के विशाल सुख प्राप्त करता रहता था।
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किसी एक दिन मनोहर नाम के पर्वत पर युगन्धर जिनराज विराजमान थे। पद्मोत्तर राजा ने वहां जाकर भक्तिपूर्वक अनेक स्तोत्री से उनकी उपासना की। विनयपूर्वक धर्म सुना और अनुप्र क्षात्रों का चिन्तवन किया । अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन से उसे संसार, शरीर और भोगों से तीन प्रकार का वैराग्य उत्पन्न हो गया। वैराग्य होने पर वह इस प्रकार पुनः चिन्तवन करने लगा। कि यह लक्ष्मी माया रूप है, सुख दुःख रूप है, जीवन मरण पर्यन्त है, संयोग-वियोग होने तक है और यह दुष्ट शरीर रोगों से सहित है । अतः इन सबमें क्या प्रम करना है ? अब तो मैं उपस्थित हुई इस काललब्धि का अवलम्बन लेकर अत्यन्त भयानक इस संसार रूपी पंच परावर्तनों से बाहर निकलता है। ऐसा विचार कर उसने राज्य का भार धनमित्र नामक पुत्र के लिए मीपा और स्वयं प्रात्म-शुद्धि के लिए अनेक राजाओं के साथ दीक्षा ले ली। निर्मल बुद्धि के धारक पद्मोत्तर मुनि ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, दर्गनविशुद्धि प्रादि भावनामों रुप सम्पत्ति के प्रभाव से तीर्थकर नामकर्म का बन्ध विया और अन्त में सन्यास धारण किया। जिससे महाशुक्र विमान में गहाशुक्रनाम का इन्द्र हुया सोलह सागर प्रमाण उसकी यायु थी और चार हाथ ऊंचा शरीर था। पदमलेश्या थी, आठ माह में एक बार श्वास लेता था, सदा सन्तुष्ट चित्त रहता था और सोलह हजार वर्ष बीतने पर एक बार मानसिक आहार लेता था । सदा शब्द से ही प्रवीचार करता था अर्थात् देवांगनाओं के मधुर शब्द सुनने मात्र से उसकी कामवाधा शान्त हो जाती थी, चतुर्थ पृथ्वी तक उसके अवधिज्ञान का विषय था, और चतुर्थ पृथ्वी तक ही उसकी वित्र या बल और तेज की अवधि थी। वहां देवियों के मधुर वचन, गीत, बाजे आदि से वह सदा प्रसन्न रहता था। अन्त में काल द्रव्य की पर्यायों से प्रेरित होकर जब वह यहां आने वाला हुआ।
तव इस जम्बू द्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र के चम्पा नगर में वसुपूज्य नाम का अंगदेश का राजा रहता था वह इक्ष्वाकुवंशी तथा काश्यपगोत्री था। उसकी प्रिय स्त्री का नाम जयावती था। जयावती ने रत्नवृष्टि आदि सम्मान प्राप्त किया था। तदनन्तर उसने प्राषाढ़कृष्ण षष्ठी के दिन चौबीसवें शतभिषा नक्षत्र में सोलह स्वप्न देखे और पति से उनका फल जानकर बहुत ही सन्तोष प्राप्त किया। क्रम-क्रम से -पाठ माह बीत जाने पर जब नौवाँ फाल्गुन माह पाया तब उसने कृष्णपक्ष की चतुर्दशी
। बारुण योग में सब प्राणियों का हित करने वाले उस इन्द्ररूप पुत्र को सुख से उत्पन्न किया। सौधर्म आदि देवों ने उसे सुमेरु पर्वत पर ले जाकर क्षीर-सागर से लाये हुए जल के द्वारा उसका जन्माभिषेक किया, आभूषण पहनाये, वासुपूज्य नाम रखा, घर वापिस लाये और अनेक महोत्सव कर अपने-अपने निवास स्थानों की प्रोर गमन किया। श्री श्रेयांसनाथ तीर्थकर के तीर्थ से जव चौवन सागर प्रमाण अन्तर बीत चुका था और अन्तिम पत्य के तृतीय भाग में जब धर्म विच्छेद हो गया था तब वासुपूज्य भगवान् का जन्म हुया था। इनकी मायु भी इसी अन्तर में सम्मिलित थी, वे सत्तर धनुष ऊंचे थे वहत्तर लाख वर्ष की उनकी प्राय थी और के कुम के समान उनके शरीर की कान्ति थी। जिस प्रकार मेंढकों द्वारा प्रास्वादन करने योग्य अर्थात सजल क्षेत्र अठारह प्रकार के इष्टधान्यों के वीजों की वृद्धि का कारण होता है उसी प्रकार यह राजा गुणों की वृद्धि का कारण था।
जिस प्रकार संसार का हित करने वाले सब प्रकार के धान्य, समा नाम की इच्छित वर्षा को पाकर श्रेष्ठ फल देने वाले होते हैं उसी प्रकार समस्त गुण इस राजा की बुद्धि को पाकर श्रेष्ठ फल देने वाले हो गये थे। सात दिन तक मेघों का बरसना त्रय कहलाता है, अस्सी दिन तक बरसना कणशीकर कहलाता है और बीच-बीच में आतप धूप प्रकट करने वाले मेघों का साठ दिन तक बरसना समावष्टि कहलाती है । गुण अन्य हरि-हीरादिक में जाकर अप्रधान हो गये थे परन्तु इन वासुपूज्य भगवान् में वही गुण मुख्यता को प्राप्त हुए थे सो ठीक ही है क्योंकि विशिष्ट पाश्रय किसकी विशेषता को नहीं करते? चं कि सव पदार्थ गुणमय हैं- गुणों से तन्मय हैं अतः गुण का नाश होने से गुणी पदार्थ का भी नाश हो जावेगा यह विचार कर ही बुद्धिमान वासुपूज्य भगवान् समस्त गुणों का अच्छी तरह पालन करते थे। जय कुमार काल के अठारह लाख वर्ष बीत गये तब संसार से विरक्त होकर बुद्धिमान भगवान अपने मन में पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का इस प्रकार विचार करने लगे।
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यह निर्व द्धि प्राणी विषयों में आसक्त होकर अपनी आत्मा को अपने ही द्वारा बांध लेता है तथा चार प्रकार के बन्ध से चार प्रकार का दुःख भोगता हुअा इस अनादि संसार-बन में भ्रमण कर रहा है । अब मैं कालादि लब्धियों से उत्तम गुण को प्रकट करने वाले सन्मार्ग को प्राप्त हुआ हूं अतः मुझे मोक्ष रूप सद्गति ही प्राप्त करना चाहिए । शरीर भला ही स्थायो हो, दर्शनीय सुन्दर हो, नीरोग हो, आयु चिरकाल तक बाधा से रहित हो, और सुख के साधन निरन्तर मिलते रहें परन्तु यह निश्चित है कि इन सबका विकार अवश्य भाडो है, नहइन्द्रियजन्य सुख रागरूप है, रागी जीव कर्मों को बांधता है, बन्ध संसार का कारण है, संसार चतुर्गति रूप है और चारों गतियां दुःख तथा सुख को देने वाली हैं अत: मुझे इस संसार से क्या प्रयोजन है ? यह तो बुद्धिमानों के द्वारा छोड़ने योग्य ही है।
इधर भगवान ऐसा चिन्तवन कर रहे थे उधर लौकान्तिक देवों ने आवार उनकी स्तुति करना प्रारम्भ कर दी। देवों ने दीक्षा-कल्याणक के समय होने वाला अभिषेक किया प्राभूषण पहिनाये तथा अनेक उत्सव किये । महाराज वासुपूज्य देवों के द्वारा उठाई गई पालकी पर सवार होकर मनोहरोद्यान नामक वन में गये और वहाँ दो दिन के उपवास का नियम लेकर फाल्गन कृष्ण चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में सामायिक नामक चारित्र ग्रहण कर साथ ही साथ मनःपर्ययज्ञान के धारक भी हो गये। उनके साथ परमार्थ को जानने वाले छह सौ छिहत्तर राजानों ने भी बड़े हर्ष से दीक्षा प्राप्त की थी। दसरे दिन उन्होंने बाहार के लिये महानगर में प्रवेश किया । बहाँ सूवर्ण के समान कान्ति वाले सुन्दर नाम के राजा ने उन्हें याद्वार दिया। और पंचाश्चर्य प्राप्त किये। तदनन्तर छमस्थ अवस्था का एक वर्ष बीत जाने पर किसी दिन वासुपूज्य स्वामी अपने दीक्षावन में पाये । वहां उन्होंने कदम्ब वृक्ष के नीचे बैठकर उपवास का नियम लिया और माघशुक्ल द्वितीया के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में चार घातिया कमों को नष्ट कर केवल ज्ञान प्राप्त किया। अब वे जिन राज हो गये।
सौधर्म प्रादि इन्द्रों ने उसी समय पाकर उनकी पूजा की। चूं कि भगवान् का वह दीक्षा-कल्याणक नाम कर्म के उदय से हा था अतः जसका विस्तार के साथ वर्णन नहीं किया जा सकता। वे धर्म को प्रादि लेकर छयासठ गणधरों के समूह से वन्दित थे.बारह सौ पूर्वधारियों से घिरे रहते थे, उनतालीस हजार दो सौ शिक्षक उनके चरणों की स्तुति करते थे, पांच हजार चार सो अवधिज्ञानी उनकी सेवा करते थे, छह हजार के बलज्ञानी उनके साथ थे, दश हजार विक्रिया ऋद्धि को धारण करने वाले मनि उनकी शोभा बढ़ा रहे थे, छह हजार मनः पर्ययज्ञानी उनके चरण कमलों का आदर करते थे और चार हजार दो सौ बादी उनकी उत्तम प्रसिद्धि को बढ़ा रहे थे। इस प्रकार सब मिलकर बहत्तर हजार मुनियों से सुशोभित थे, एक लाख छह हजार सेना आदि आथिकानों को धारण करते थे, दो लाख श्रावकों से सहित थे, चार लाख श्राविकायों से युक्त थे, असंख्यात देवदेवियों से स्तुत्य थे और संख्यात तियंचों से स्तुत्य थे।
भगवान् ने इन सबके साथ समस्त आर्य क्षेत्रों में विहार कर उन्हें धर्म वृष्टि से संतृप्त किया और क्रम-क्रम से चम्पा नगरी में प्राकर एक हजार वर्ष तक रहे । जब आयु में एक मास शेष रह गया तब योग-निरोध कर रजत मालिका नामक नदी के किनारे की भूमि पर वर्तमान, मन्दर गिरि को शिखर को सुशोभित करने वाले मनोहरोद्योन में पर्यकासन से स्थित हुए
चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में चौरानवें मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए । सेवा करने में अत्यन्त निपुण देवों ने निर्वाण कल्याणक की पूजा के बाद बड़े उत्सव से भगवान् की वन्दना की । जव कि विजय की इच्छा रखने वाले राजा को, अच्छी तरह प्रयोग में लाये हुए सन्धिविग्रह आदि छह गुणों से ही सिद्धि (विजय) मिल जाती है तब मोक्षाभिलाषी भगवान् को चौरासी लाख गुणों से सिद्धि (मुक्ति) क्यों नहीं मिलती ? अवश्य मिलती।
पदार्थ कचित् सत् है, कथंचित् असत् है, कथंचित् सत्-असत् उभयरूप है, कथंचित् प्रवक्तव्य है, कथंचित असत प्रवक्तव्य है और कथंचित् सदसद-बक्तब्य है, इस प्रकार हे भगवान्, आपने प्रत्येक पदार्थ के प्रति सप्तभंगी का निरूपण किया है और इसीलिए ग्राप सत्यवादी रूप से प्रसिद्ध हैं फिर हे वासुपूज्य देव ! आप पूज्य क्यों न हो?
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अवश्य हो । धर्म दया रूप हैं, परन्तु वह दयारूप धर्म परिग्रह सहित पुरुष के कैसे हो सकता है ? वर्षा पृथ्वीतल का कल्याण करने वाली है परन्तु प्रतिबन्ध के रहते हुए कैसे हो सकती है ? इसीलिए आपने अन्तरंग-बहिरंग - दोनों परिग्रहों के त्याग का उपदेश दिया है । हे वासुपूज्य जिनेन्द्र ! पाप इसी परिग्रह-त्याग की वासना से पूजित हैं। जो पहले जन्म में पद्मोत्तर हुए, फिर महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्र हुए, वह इन्द्र जिनके कि चरण, देवरूपी भ्रमरों के लिये कमल के समान थे और फिर त्रिजगत्पूज्य वासुपूज्य जिनेन्द्र हुए, वह जिनेन्द्र, जिन्होंने कि बालब्रह्मचारी रह कर ही राज्य किया था, वे बारहवें तीर्थकर तुम सबके लिए अतुल्य सुख प्रदान करें।
अथानन्तर–श्री वासुपूज्य स्वामी के तीर्थ में हिपृष्ठ नाम का राजा हुआ जो तीन खण्ड का स्वामी था और दूसरा अर्धचक्री (नारायण) था । यहां उनका जन्म सम्बन्धी चरित्र कहता हूं जिसके सुनने से भव्य-जीवों को संसार से बहुत भारी भय उत्पन्न होगा। इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र मे एक कनकपुर नाम का नगर है। उसके राजा का नाम सुवेण था। सुवेण के एक गुणमंजरी नाम की नृत्यकारिणी थी। वह नृत्यकारिणी रूपवती थी, सौभाग्यवती थी, गीत नृत्य तथा बाजे बजाने प्रादि कलाओं में प्रसिद्ध थी। और दूसरी सरस्वती के समान जान पड़ती थी, इसीलिए सब राजा उसे चाहते थे। उसी भरत क्षेत्र में एक मलय नाम का मनोहर देश था, उसके विन्ध्यपुर नगर में विन्ध्यशक्ति नाम का राजा रहता था। जिस प्रकार मधुरता के रस से अनुरक्त हुआ भ्रमर प्रानमंजरी के देखने में आसक्त होता है उसी प्रकार वह राजा गुणमंजरी के देखने में प्रासक्त था।
उसने नृत्यकारिणी को प्राप्त करने की इच्छा से सुवेण राजा का सन्मान कर उसके पास रत्न आदि की भेंट लेकर चित्त को हरण करने वाला एक दूत भेजा । उस दूत ने भी शीघ्र जाकर सूबेण महाराज के दर्शन किये, यथायोग्य भेंट दी और निम्न प्रकार समाचार कहा उसने कहा कि आपके घर में जो अत्यन्त प्रसिद्ध नर्तकीरूपी महारत्न है, उसे प्रापका भाई विन्ध्यशक्ति देखना चाहता है । हे राजन् ! इसी प्रयोजन को लेकर मैं यहां भेजा गया हूं। आप भी उस नृत्यकारिणी को भेज दीजिये। मैं उसे वापिस लाकर प्रापको सौप दूगा दूत के ऐसे बचन सुनकर सुवेण क्रोध से अत्यन्त कांपने लगा और कहने लगा कि जा. जा, नहीं सुनने योग्य तथा अहंकार से भरे हुए इन वचनों से क्या लाभ है? इस प्रकार सुबेण ने खोटे शब्दों द्वारा दूत को बहुत भारी भर्त्सना की । दूत ने वापिस पाकर यह सब समाचार राजा विन्ध्यशक्ति से कह दिए। दूत के बचन सुनकर वह भी बहन भारी क्रोधरूपी ग्रह से प्राविष्ट हो गया-अत्यन्त कुपित हो गया और कहने लगा कि रहने दो, क्या दोष है ? तदनन्तर मंत्रियो के साथ उसने कुछ गुप्त विचार किया।
कट यद्ध करने में चतूर, श्रेष्ठ योद्धाओं के प्रागे चलने वाला और शूरवीर वह राजा अपनी सेना लेकर शीघ्र ही चला। विन्ध्यशक्ति ने युद्ध में राजा सुवेण को पराजित किया और उसकी कीति के समान नत्यकारिणी को जबरदस्ती छीन लिया सो ठीक ही है क्योंकि पुण्य के चले आने पर कौन किस की क्या वस्तु नहीं हर लेता ? जिस प्रकार दांत टूट जान हाथी की महिमा को छिपा लेता है, और दाढ़ का टूट जाना सिंह की महिमा को तिरोहित कर देता है उसी प्रकार पराजय मानभंग राजा की महिमा को छिपा देता है । उस मान भंग से राजा सुवेण का दिल टूट गया अतः जिस प्रकार पीठ टूट जाने से सर्प एक पद भी नहीं चल पाता उसी प्रकार वह भी अपने स्थान से एक पद भी नहीं चल सका। किसी एक दिन उसने विरक्त होकर धर्म के स्वरूप को जानने वाले गृह-त्यागी सुवत जिनेन्द्र से धर्मोपदेश सुना और निर्मल चित्त से इस प्रकार विचार किया कि बदमारे किसी पाप का ही उदय था जिससे विन्ध्यशक्ति ने मुझे हरा दिया। ऐसा विचार कर उसने पाप-रूपी शत्र को नष्ट करने की इच्छा की और उन्हीं जिनेन्द्र से दीक्षा ले ली । बहुत दिन तक तपरूपी अग्नि के संताप से उसका शरीर कृश हो गया था। अन्त में शत्रु पर क्रोध रखता हुमा वह निदान बन्ध सहित सन्यास धारण कर प्राणत स्वर्ग के अनुपम नामक विमान में बीस सागर की प्रायवाला तथा पाठ ऋद्धियों से सहित देव हमा।
अथानन्तर इसी भरत क्षेत्र के महापुर नगर में श्रीमान् वायुरथ नाम का राजा रहता था। चिरकाल तक राज्यलक्ष्मी का उपभोग कर उसने सुव्रत नामक जिनेन्द्र के पास धर्म का उपदेश सुना, तत्व-ज्ञानी बह पहले से ही. था अतः विरक्त होकर
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धरनाम नामक पुत्र को राज्य देकर तप के लिये चला गया। समस्त शत्रुओं का अध्ययन कर तथा उत्कृष्ट रूप कर यह उसी प्राणत स्वर्ग के प्रमुत्तर नामक विमान में इन्द्र हुआ। वहां से चय कर इसी भरत क्षेत्र की द्वारावती नगरी के राजा ब्रह्म के घर उनकी रानी सुभद्रा के पलस्तोक नाम का पुत्र हुआ तथा सुर्वण का जीव भी वहां से चय कर उसी महा राजा की दूसरी रानी उषा के द्विपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ। उस द्विपृष्ठ का शरीर सत्तर धनुष ऊंचा था और आयु बहत्तर लाख वर्ष की थी। इस प्रकार इक्ष्वाकु वंश का अग्रसर वह विषष्ठ राजाओं के उत्कृष्ट भोगों का उपभोग करता था।
कुन्द पुष्प तथा इन्द्रनीलमणि के समान कान्ति वाले वे बलभद्र और नारायण जब परस्पर में मिलते थे तब गंगा और यमुना के प्रवाह के समान जान पड़ते थे। जिस प्रकार समान दो धावक गुरु के द्वारा दी हुई सरस्वती का बिना विभाग किये ही उपभोग करते हैं उसी प्रकार पुण्य के स्वामी वे दोनों भाई विना विभाग किये ही पृथ्वी का उपभोग करते थे । समस्त शास्त्रों का अध्ययन करने वाले उन दोनों भाइयों में प्रभेद था --- किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था सो ठीक ही है क्योंकि उसी अभेद की प्रशंसा होती है जो कि लक्ष्मी और स्त्री का संयोग होने पर भी बना रहता है । वे दोनों स्थिर थे, बहुत ही ऊंचे थे, तथा सफेद, और नीले रंग के थे इसलिए ऐसे मच्छे जान पढ़ते थे मानों कंसास और पंजनगिरि ही एक जगह था मिले हों।
इमर राजा विन्ध्यति घटी यंत्र के समान चिरकाल तक संसार-सागर में भ्रमण करता रहा। अन्त में जब थोड़े
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से पुण्य के साधन प्राप्त हुए तब इसी भरतक्षेत्र के भोगवर्धन नगर के राजा श्रीधर के सर्व प्रसिद्ध तारक नाम का पुत्र हुआ। अपने चक्र के आक्रमण सम्बन्ध भय से जिसने समस्त विद्यावर तथा भूमि-पोर्चारियों को अपना दास बना लिया है ऐसा वह तारक प्राधे भरत क्षेत्र में रहने वालो देदीप्यमान लक्ष्मा को धारण कर रहा था। अन्य जगह को बात रहने दीजिए, मैं तो ऐसा मानता हूँ कि उसके डर से सूर्य को प्रभा भी मन्द पड़ गई थी इसलिए लक्ष्मी कमलों में भी कभी प्रसन्न नहीं दिखती थी। जिस प्रकार उम्र राहु पूर्णिमा के चन्द्रमा का विरोधी होता है उसी प्रकार उप प्रकृति वाला तारक भी प्राचीन राजाओं के मार्ग का विरोधी था जिस प्रकार किसी दूर ग्रह के विकार से मेघमाला के गर्भ गिर जाते हैं उसी प्रकार तारक का नाम लेते ही भय उत्पन्न होने से गर्भिणी स्त्रियों के गर्भ गिर जाते थे। स्वाहो के समान श्याम वर्ग वाला वह तारक सदा शत्रुओं का ढूढ़ता रहता था और जब किसी शत्रु को नहीं पाता था तब ऐसा जान पड़ता था मानो अपने प्रतापरूपी अग्नि के धुएं सही काला पड़ गया हो ।
जिसने समस्त अवियों को संतप्त कर रखा है और जो ग्रीष्म ऋतु के सूर्य के समान दुःख से सहन करने योग्य है ऐसा वह तारक अन्त में पतन के सम्मुख हुआ सो ठोक ही है क्योंकि ऐसे लोगों की लक्ष्मी क्या स्थिर रह सकती है ? जो खण्ड तीन खण्डों का स्वामित्व धारण करता था ऐसा तारक जन्मान्तर से श्राये हुए तीव्र विरोध से प्रेरित होकर द्विपृष्ठ नारायण और सचल वलभद्र की वृद्धि को नहीं सह सका। वह सोचने लगा कि मैंने समस्त राजाओं और किसानों को कर देने वाला बना लिया है परन्तु ये दोनों भाई ब्राह्मण के समान कर नहीं देते। इतना ही नहीं, दुष्ट गर्व से युक्त भी हैं। अपने घर में बढ़ते हुए पुष्ट सांप को कौन सहन करेगा ? ये दोनों ही मेरे द्वारा नष्ट किये जाने योग्य शत्रुओं की श्रेणी में स्थित हैं तथा अपने स्वभाव से दूषित भी है जिस किसी तरह दोष लगाकर इन्हें अवश्य ही नष्ट करूंगा इस प्रकार उपाय का विचार कर उसने दुर्वचन कहने वाला एक कलह-प्रमी दूत भेजा और वह दुष्ट दूत भी सहसा उन दोनों भाइयों के पास जाकर इस प्रकार कहने लगा कि शत्रुओं को मारने वाले तारक महाराज ने भाशा दी है कि तुम्हारे घर में जो एक बड़ा भारी प्रसिद्ध हस्ती है वह हमारे लिए शीघ्र ही भेजो अन्यथा तुम दोनों के शिर सण्डित कर अपनी बिजयी सेना के द्वारा उस हाथी को जबरदस्ती नंगा मूंगा ।
प्रयोग्य वचन सुनकर पर्वत के समान
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इस प्रकार उस कलहकारी द्रुत के द्वारा कहे हुए असभ्य तथा सहन करने के अचल, उदार तथा धीरोदात्त प्रकृति के धारक अचल बलभद्र इस तरह कहने लगे कि हाथी क्या चीज है ? तारक महाराज ही अपनी सेना के साथ शीघ्र घायें हम उनके लिए वह हाथी तथा अन्य वस्तुएं देये जिससे कि वे स्वस्थता-कुना (पक्ष में स्वः स्वर्ग तिष्ठतीति स्वस्थः 'शरि खरि विसलोपो वा वक्तव्यः' इति वार्तिके न सकारस्य लोप: । स्वस्थस्य भावः
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स्वास्थ्यम्) मृत्यु को प्राप्त कर सकेंगे। इस प्रकार गम्भीर वचन कह कर अचल बल ने उस दूध को विदा कर दिया उसने भी जाकर हवा की तरह उसकी कोपाति को प्रदीप्त कर दिया। यह सुनकर कोपाग्नि से प्रदीप्त हुआ तारक निके समान प्रज्वलित हो गया और कहने लगा कि इस प्रकार वे दोनों भाई मेरी कोधारित के पतंगे बन रहे हैं। उसने मंत्रियों के साथ देकर किसी कार्य का विचार नहीं किया और अपने आपको सर्वशक्ति सम्पन्न मानकर मृत्यु प्राप्त करने के लिए प्रस्थान कर दिया | अन्याय करने के सम्मुख हुआ वह मूर्ख पतंग सेना से समस्त पृथ्वी को कंपाता हुआ उदय होने के सम्मुख हुए उन दोनों भाइयों के पास जा पहुंचा। उसने मर्यादा का उल्लंघन कर दिया था इसलिए प्रलयकाल के समुद्र को भी जीत रहा था । इस अतिशय दुष्ट तारक ने शीघ्र ही जाकर अपनी सेनारूपी बेला (ज्वार-भाटा) के द्वारा अचल और द्विपृष्ठ के नगर को घेर लिया।
जिस प्रकार कोई पर्वत जल की लहर को अनायास हो रोक देता है उसी प्रकर पर्वत के समान स्थिर रहने वाले अचल ने अपनी सेना के द्वारा उसकी निःसार सेना को श्रनायास ही रोक दिया था। जिस प्रकार सिंह का बच्चा मत्त हाथी के ऊपर आक्रमण करता है उसी प्रकार उद्दण्ड प्रकृति वाले द्विपृष्ठ ने भी एक पराक्रम की सहायता से ही बलवान् शत्रु पर आक्रमण कर दिया । तारक ने यद्यपि चिरकाल तक युद्ध किया पर ता भी वह द्विपृष्ठ को पराजित करने में समर्थ नहीं हो सका । ग्रन्त में उसने यमराज के पत्र के समान अपना चक्र घुमा कर फेंका। वह चक्र द्विदृष्ठ को प्रदक्षिणा देकर उस लक्ष्मीपति को दाहिनी भुआ पर स्थिर हो गया और उसने उसी चक्र को तारक के लिए भेज दिया । उसी समय द्विष्ट, सात उत्तम रत्नों का तथा तीन खण्ड पृथ्वी का स्वामी हो गया बोर अचल वलभद्र वन गया तथा चार रहना उसे प्राप्त हो गये। दोनों भाइयों ने शत्रु राजाओं को जीतकर दिग्विजय किया और श्री वासुपूज्य स्वामी का नमस्कार कर अपने नगर में प्रवेश किया। चिरकाल तक तीन खण्ड का राज्य कर अनेक सुख भोगे । श्रायु के अन्त में सरकर द्विपृष्ठ सातवें नरक गया ।
भाई के वियोग से अचल को बहुत शोक हुआ जिससे उसने श्री वासुपूज्य स्वामी का आश्रय लेकर संयम धारण कर लिया तथा मोक्ष-दमी के साथ समागम प्राप्त किया। उन दोनों भाइयों ने किसी पुण्य का बीज पाकर तीन खण्ड की पृथ्वी पाई अनेक विभूतियां पाई और साथ ही साथ उत्तम पद प्राप्त किया परन्तु उनमें से एक तो अंकुर के समान फल प्राप्त करने के लिए कार को ओर (मोक्ष) गया और दूसरा पाए से युक्त होने के कारण फलरहित जड़ के समान नीचे की ओर (नरक) गया। इस प्रकार द्विपृष्ठ तथा प्रचल का जो भी जीवन वृत्त घटित हुआ है वह सब कर्मोदय से ही घटित हुआ है ऐसा विचार कर विशाल वृद्धि के धारक अर्थ पुरुषों को पाप छोड़कर उसके विपरीत समस्त सुखों का भण्डार जो युग्म है वही करना चाहिए। राजा हिपृष्ठ पहले इसी भरत क्षेत्र के कनकपुर नगर में सुण नाम का प्रसिद्ध राजा हुआ फिर परकर चौदह स्वयं में देव हुआ, तदनन्तर तीन खण्ड की रक्षा करने वाला द्विपृष्ठ नाम का अर्थचक्री हुआ और इसके बाद परिग्रह के महान् भार से मरकर सातवें तरफ गया। वरामत्र, पहले महापुर नगर में वायुरथ राजा हुआ, फिर उत्कृष्ट चारित्र प्राप्त कर उसी प्राणत स्वर्ग के अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुआ, तदनन्तर द्वारावती नगरी में अचल नाम का बलभद्र हुआ और अन्त में निर्वाण प्राप्त कर त्रिभुवन के द्वारा पूज्य हुआ। प्रतिनारायण तारक पहने प्रसिद्ध विध्यनगर में विन्ध्यशक्ति नाम का राजा हुआ, फिर विरकाल तक संसार-वन में भ्रमण करता रहा। कदाचित थोड़ा पुण्य का संचय कर श्री भोगवर्द्धन का राजा तारका मीर में द्विपृष्ठ नारायण का शत्रु होकर — उसके हाथ से मारा जाकर महापाप के उदय से अन्तिम पृथ्वी में नारकी उत्पन्न हुआ ।
भगवान् विमलनाथ
जिनके दर्पण के समान निर्मल ज्ञान में सारा संसार निर्मल स्पष्ट दिखाई देता है और जिनके सब प्रकार के मलों का अभाव हो चुका है ऐसे श्री विमलनाथ स्वामी श्राज हमारे मलों का अभाव करें - हम सबको निर्मल बनायें। पश्चिम धातकी खण्ड द्वीप में पर्व से पश्चिमी और सीता नदी के दक्षिण तट पर रम्बकावती नामक एक देश है उसके महानगर में वह पद्मसेन राजा राज्य करता था जो कि प्रजा के लिए कल्पवृक्ष के समान इच्छित फल देने वाला था। स्वदेश तथा परदेश के विभाग से कहे हुए नीति-शास्त्र सम्बन्धी अर्थ का निश्चय करने में उस राजा का चरित्र उदाहरण रूप था ऐसा शास्त्र के जान
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कार कहा करते थे। शत्रुनों को नष्ट करने वाले उस राजा के राज्य करते समय अपनी अपनी वृत्ति के अनुसार धन का अर्जन तथा उपभोग करना ही प्रजा का व्यापार रह गया था। वहां की प्रजा भी न्याय का उल्लंघन नहीं करती थी, राजा प्रजा का उल्लंघन नहीं करता था, धर्म, अर्थ, काम रूप निवर्ग राजा का उल्लंघन नहीं करता था और त्रिवर्ग परस्पर एक-दूसरे का उल्लंघन नहीं करता था।
किसो एक दिन राजा पद्मसेन ने प्रोतिकर वन में स्वर्गगुप्त केवली के समीप धर्म का स्वरूप जाना और उन्हीं से यह भी जाना कि हमारे सिर्फ दो पागामी भव' बाकी रह गये हैं। उसी समय उसने ऐसा उत्सब मनाया मानों मैं तीर्थकर ही हो गया हं और पद्मनाभ पुत्र के लिये सर देकर उन्मुद ना नना शुरु कर दिया प्यारह अंगों का अध्ययन कर उन पर दृढ़ विश्वास किया, अन्य पुण्य प्रकृतियों का भी यथायोग्य संचय किया और अन्त समय में चार अाराधनाओं की पाराधना कर सहस्रार नाम का इन्द्र पद प्राप्त किया । वहाँ अठारह सागर उसकी आयु थी, धनुष अर्थात् चार हाथ ऊंचा शरीर था, द्रव्य और भाव की अपेक्षा जघन्य शुक्ललेश्या थो, वह नौ माह में एक बार श्वास लेता था, अठारह हजार वर्ष में एक बार मानसिक आहार ग्रहण करता था, देवांगनानों का रूप देखकर ही उसकी काम-व्यथा शान्त हो जाती थी, चतुर्थ पृथ्वी तक उसके अवधिज्ञान का विषय था, वहीं तक उसकी दीप्ति प्रादि फैल सकती थी, वह अणिमा प्रादि गुणों से समुन्नत था, स्नेह रूपो अमृत से सम्पृक्त रहने बाले उसके मुखकमल को देखने से देवांगनाओं का चित्त संतुष्ट हो जाता था। इस प्रकार चिरकाल तक उसने सुखों का अनुभव किया।
वह इन्द्र जब स्वर्ग लोक से चयकर इस पृथ्वी लोक पर पाने वाला हुना तब इसी भरत क्षेत्र के काम्पिल्य नगर में भगवान ऋषभदेव का बंशज कृत वर्मा नाम का राजा राज्य करता था । जय-श्यामा उसकी प्रसिद्ध महादेवो थी । इन्द्रादि देवों ने रनवष्टि प्रादि के द्वारा जयश्यामा की पूजा की । उसने ज्येष्ठ कृष्णा दशमी के दिन रात्रि के पिछले भाग में उत्तरा-भाद्रपद नक्षत्र के रहते हुए सोलह स्वप्न देखे, उसी समय अपने मुख-कमल में प्रवेश करता हुआ एक हाथों देखा, और राजा से इन सबका फल ज्ञात किया । उसी समय अपने ग्रासनों के कम्पन से जिन्हें गर्भ कल्याणक की सूचना हो गई है ऐसे देवों ने स्वर्ग से प्राकर प्रथम-गर्भ कल्याणक किया।
जिस प्रकार बढ़ते धन से किसी दरिद्र मनुष्य के हृदय में हर्ष की वृद्धि होने लगती है उसी प्रकार रानी जयश्यामा के चढते हए गर्भ से वन्धजनों के हृदय में हर्ष की वृद्धि होने लगी थी। इस संसार में साधारण से साधारण पुत्र का जन्म भी हर्ष का कारण है तब जिसके जन्म के पूर्व ही इन्द्र लोग नम्रीभूत हो गये हों उस पुत्र के जन्म को बात ही क्या कहना है? माघशुक्ल चतर्थी के दिन (ख. ग० प्रति पाठ की अपेक्षा चतुर्दशी के दिन) अहिर्ष घन योग में रानी जयश्यामा ने तीन ज्ञान के धारी, तीन जगत के स्वामी तथा निर्मल प्रभा के धारक भगवान को जन्म दिया। जन्माभिषेक के बाद सब देवों ने उनका विमल वाहन नाम रक्खा और सबने स्तुति की। भगवान् वासुपूज्य' के तीर्थ के बाद जब तीस सागर वर्ष बीत गए और पल्य के अन्तिम भाग में धर्म का विच्छेद हो गया तब बिमलवाहन भगवान् का जन्म हुआ था। उनकी आयु सात लाख वर्ष की थी, शरीर साठ धनुष ऊंचा था, कान्ति सुवर्ण के समान थी और ये ऐसे सुशोभित होते थे मानो समस्त पूण्यों की राशि ही हों।
समस्त लोक को पवित्र करने बाले, अतिशय पुण्यशालो भगवान विमल वाहन की प्रात्मा पन्द्रह लाख प्रमाण' कुमारबाल बीत जाने पर राज्यभिषेक से पवित्र हुई थी। लक्ष्मी उनकी सहचारिणी थी, कीर्ति जन्मान्तर से साथ आई थी. सरस्वती साथ ही उत्पन्न हुई थी और बीर-लक्ष्मी ने उन्हें स्वयं स्वीकृत किया था। उस राजा में जो सत्यादिगुण बढ़ रहे थे वे बडेबडे नालियों के द्वारा भी प्रार्थनीय थे इससे बढ़कर उनकी और क्या स्तुति हो सकती थी । अत्यन्त विशुद्धता के कारण थोड़े ही दिन बाद जिन्हें मोक्ष का अनन्त सुख प्राप्त होने वाला है ऐसे विमलबान भगवान के अनन्त सुख' का वर्णन भला कौन कर सकता है ? जन उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुया तब समस्त इन्द्रों ने उनके चरण कमलों की पूजा की थी और इसलिए वे देवाधिदेव कहलाये
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थे लक्ष्मी के अधिपति भगवान् विमलवाहन का कुपुष्प अथवा चन्द्रमा के समान निर्मल पक्ष दिशाकों को प्रकाशित कर रहा
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या धोर आकाश को पुष्प के समान बना रहा था। इस प्रकार छह ऋतुयों में उत्पन्न हुए भोगों का उपभोग करते
प्राकाश
के तीस लाख वर्ष बीत गये ।
हुए भगवान
एक दिन उन्होंने, जिसमें समस्त दिशाएं भूमि, वृक्ष और पर्वत बर्फ से ढक रहे थे ऐसी हेमन्त ऋतु में बर्फ की शोभा को तत्क्षण में विलीन होते देखा। जिससे उन्हें उसी समय संसार से वैराग्य उत्पन्न हो गया, उसी समय उन्हें अपने पूर्व जन्म की सब बातें याद आ गई और मान भंग का विचार कर रोगी के समान अत्यन्त खेदखिन्न हुए। ये सोचने लगे कि इन तीन सम्यजानों से क्या होने वाला है क्योंकि इन सभी की सीमा है इन सभी का विषय क्षेत्र परिमित है और इस वीर्य से भी क्या लाभ है ? जो कि परमोत्कृष्ट यवस्था को प्राप्त नहीं है। चूंकि प्रत्यास्थानावरण कर्म का उदय है अतः मेरे चारित्र का देश भी नहीं है और वहुत प्रकार का मोह तथा परिग्रह विद्यमान है अतः चारों प्रकार बन्ध भी विद्यमान हैं। प्रमाद भी अभी मौजूद है और निर्जरा भी बहुत थोड़ी है । अहो ! मोह की महिमा है कि अब मैं इन्हीं संसार की वस्तुओं में अनुरक्त हो रहा हूं। मेरा साहस तो देखो कि मैं अब तक सर्प के शरीर अथवा फण के समान भयंकर इन भोगों को भोग रहा हूं। यह सब भोगापभोग मुझे पुण्य कर्म के उदय से प्राप्त हुए हैं।
सो जब तक इस पुण्य कर्म का ग्रन्त नहीं कर देता जब तक मुझे अनन्त सुख कंसे प्राप्त हो सकता है ? इस प्रकार निर्मल ज्ञान उत्पन्न होने से विमलवाहन भगवान् ने अपने हृदय में विचार किया। उसी समय बाये हुए सारस्वत पादि लौकान्तिक देवों ने उनका स्तवन किया तथा अन्य देवों ने दीक्षा कल्याणक के समय होने वाले अभिषेक का उत्सव किया तदनन्तर देवों के द्वारा घिरे हुए भगवान् देवदत्त नाम की पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन में गये और वहां दो दिन के उपवास का नियम लेकर दीक्षित हो गये। उन्होंने यह दीक्षा माच बुक्ता चतुयों के दिन सायंकाल के समय बीसवं उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ ली थी और उसी दिन था मन:पर्ययज्ञान प्राप्त कर चार जाग के भारी हो गये थे। दूसरे दिन उन्होंने भोजन के लिए नन्दनपुर नगर में प्रवेश किया। वहां सुवर्ण के समान कान्ति बाले राजा कनकप्रथ ने उन्हें आहार दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये सो ठीक ही है क्योंकि पात्रदान से क्या नहीं होता ? इस प्रकार सामायिक चारित्र धारण करके शुद्ध हृदय से तपस्या करने लगे ।
पर
जब तीन वर्ष बीत गये तब वे महामुनि एक दिन अपने दीक्षावन में दो दिन के उपवास का नियम लेकर जामुन के वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ हुए। फल स्वरूप माघ शुक्ल षष्ठी के दिन सायंकाल के समय अतिशय श्रेष्ठ भगवान् विमलवाहन ने अपने दीक्षा ग्रहण के नक्षत्र में घातिया कर्मों का विनाश कर ज्ञान प्राप्त कर लिया। अब वे पर अपर समस्त पदार्थों को शीघ्र ही जानने लगे। उसी समय अपने मुकुट तथा मुख मुकाये हुए देव योग आये। उन्होंने देवदुन्दुभि आदिबाट मुख्य प्रातिहायों का वैभव प्रकट किया। उसे पाकर वे गन्धकुटी के मध्य में स्थित सिहासन विराजमान हुए। वे भगवान् मन्दर आदि पचपन गणधरों से सदा घिरे रहते थे, ग्यारह सो पूज्य पूर्वधारियों से सहित थे, छत्तीस हजार पांच सी तीख शिक्षकों से युक्त थे, चार हजार जाठ सो सोन अवधिज्ञानियों से वन्दित थे, पांच हजार पांच सौ केवलज्ञानी उनके साथ थे, नौ हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक उनके संघ की वृद्धि करते थे, पांच हजार पांच सौ मन:पर्ययज्ञानी उनके समवसरण में थे, वे तीन हजार छह सौ वादियों से सहित थे, इस प्रकार घड़सठ हजार मुनि उनकी स्तुति करते थे । पद्मा को यदि लेकर एक लाख तीन हजार आणिकाएं उनकी पूजा करती थीं ये लाल श्रावकों से सहित ये तथा चार लाख भाविकायों से पूजित थे।
इनके सिवाय दो गणों अर्थात् असंख्यात देव देवियों श्रीर संख्यात तिर्यचों से वे सहित थे। इस तरह धर्म क्षेत्रों में उन्होंने निरन्तर विहार किया तथा संसार रूपी सातव से मुरझाये हुए भव्यरूपी धान्यों को संतुष्ट किया। अन्त में ये सम्भेदशिखर पर जा विराजमान हुए और वहां पर उन्होंने एक माह का निरोध किया। बाठ हजार छह सौ मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण किया तथा भाषाड़ कृष्ण अष्टमी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में प्रातः काल के समय शीघ्र ही समुद्घात कर सूक्ष्म
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किया प्रतिपाती नाम का शुक्ल ध्यान धारण किया और तत्काल ही सहयोग अवस्था से प्रयोग अवस्था धारण कर उस प्रकार स्वास्थ्य स्वरूपावस्था मोक्ष प्राप्त किया जिस प्रकार कि कोई रोगी स्वास्थ्य (नीरोग अवस्था ) प्राप्त करता है। उसी समय से कर लो, कालाष्टमी के नाम से विद्वानों के द्वारा पूज्य हो गई और इसी निमित्त को पाकर मिथ्या दृष्टि लोग भी उसकी पूजा करने लगे। उसी समय सौधर्म आदि देवों में आकर उनका अन्त्येष्टि संस्कार किया और मुक्त हुए उन भगवान् की धर्वपूर्ण सिद्धि स्तुतियों से बन्दना की।
हिंसा आदि पापों से परिणत हुना यह जीव निरन्तर मल का संचय करता रहता है और पुण्य के द्वारा भी इसी संसार में निरन्तर विद्यमान रहता है अतः कहीं अपने गुणों को विशुद्ध बनाना चाहिए- पुष्प के विकल्प से रहित बनाना चाहिए। श्राज मैं निर्मल वृद्धि शुद्धोपयोग की भावना को प्राप्त कर अपने उन गुणों को शुद्धि प्राप्त कराता हूं-पुण्य पाप के विकल्प से दूर हटाकर शुद्ध बनाता है ऐसा विचार कर ही जो शुक्लध्यान को प्राप्त हुए थे ऐसे विमलवाहून भगवान् अपने सार्थक नाम को धारण करते थे । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ही जिसके दो दांत हैं; गुण हो जिसका पवित्र शरीर है, चार प्राराधनाएं हो जिसके चरण हैं और विशाल धर्म ही जिसकी सूंड है ऐसे सन्मार्ग रूपी हाथी को पाप रूपी शत्रु के प्रति प्रेरित कर भगवान् विवाहन ने पाप रूपी वत्रु को नष्ट किया था इसलिए ही लोग उन्हें विमल राहून (विमलं वाहनं यानं यस्य सः विमलवाहनः निर्मल सारी युक्त) कहते थे जो पहले राघों की सेना को नष्ट करने वाले पद्मसेन राजा हुए, फिर देव समूह से पूजनीय स्वर्ग के इन्द्र हुए, और तदनन्त विशाल निर्मलकीर्ति के धारक एवं समस्त पृथ्वी के स्वामी मिलनाथ तीर्थंकर अच्छी तरह माप लोगों के संतोष के लिए हों।
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तथा स्पष्ट सुखों से युक्त अष्टम वाहन जिनेन्द्र हुए,
हे भव्य जीवो! जिन्होंने अपनी अत्यन्तर निश्चल समाधि के द्वारा समस्त दोषों को नष्ट कर दिया है, जिनका ज्ञान कम इन्द्रिय तथा मन से रहित है, जिनका शरीर अत्यन्त निर्मल है और देव भी जिनको कीर्ति का गान करते हैं ऐसे मिलवाहन भगवान् को निर्मलता प्राप्त करने के लिए तुम सब बड़ी भक्ति से नमस्कार करो ।
अथानन्तर श्री विमलनाथ भगवान् के तीर्थ में धर्म और स्वयंभू नाम के बलभद्र तथा नारायण हुए इसलिए अब उनका चरित्र कहा जाता है। इसी भरत क्षेत्र के पश्चिम विदेह क्षेत्र में एक मित्रनन्दी नाम का राजा था, उसने अपने उपभोग करने योग्य समस्त पृथ्वी अपने अधीन कर ली थी प्रजा इसके साथ प्रेम रखती थी इसलिये यह प्रजा की वृद्धि के लिये था और यह प्रजा की रक्षा करता था अतः प्रजा इसको वृद्धि के लिये थी- राजा और प्रजा दोनों ही सदा एक दूसरे की वृद्धि करते थे सो ठीक हो है कि परोपकार के भीतर स्वोपकार भी निहित रहता है। उस बुद्धिमान के लिए शत्रु की सेना भी सेना के समान थी और जिसकी बुद्धि चक्र के समान फिरा करती थी - चंचल रहती थी उसके लिए क्रम का उल्लंघन होने से स्त्रसेना भी शत्रु सेना के समान हो जाती थी। यह राजा समस्त प्रजा को संतुष्ट करके ही स्वयं संतुष्ट होता था सो ठीक ही है क्योंकि परोपकार करने वाले मनुष्यों के दूसरों को संतुष्ट करने से ही अपना संतोष होता है। किसी एक दिन वह बुद्धिमान् सुक्त नामक जिनेन्द्र के पास पहुंचा और वहां धर्म का स्वरूप सुनकर अपने शरीर तथा भोगादि को नश्वर मानने लगा | वह सोचने लगा बड़े दुःख की बात है कि ये संसार के प्राणी परिग्रह के समागम से ही पापों का संवम करते हुए दुःखी हो रहे हैं फिर भी निपरिग्रह अवस्था को प्राप्त नहीं होते-सब परिग्रह छोड़कर दिगम्बर नहीं होते। बड़ा आश्चर्य है कि ये सामने की बात को भी नहीं जानते। इस प्रकार संसार से विरक्त होकर उसने उत्कृष्ट संयम धारण कर लिया और पन्त समय में सन्यास धारण कर अनुत्तर विमान में तेतीस सागर की आयु वाला महमिन्द्र हुआ
वहां से चयकर द्वारावती नगरी के राजा भद्र की रानी सुभद्रा के शुभ स्वप्न देखने के बाद धर्म नाम का पुत्र हुआ। इसी भारत वर्ष के कुणाल देश में एक भावस्ती नाम का नगर था वहां पर भोगों में तल्लीन हुआ सुकेतु नाम का राजा रहता अशुभ कर्म के उदय से वह बहुत कामी था तथा युत व्यसन में घासक्त था। यद्यपि हित चाहने वाले मन्त्रियों और
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कुटम्बियों ने उसे बहुत बार रोका पर उसके बदले उनसे प्रेरित हुए के समान वह बार-बार जुआ खेलता रहा और कर्मोदय के विपरीत होने से वह अपना देश-धन-बल और रानी सब कुछ हार गया श्रोध से उत्पन्न होने वाले मद्य, मांस और शिकार इन तीनो व्यसनों में तथा काम से उत्पन्न होने वाले जुमा, चोरी, वेश्या और पर-स्त्री सेवन इन चार व्यसनों में जुया मेलने के समान कोई नीच व्यसन नहीं हैं ऐसा सब शास्त्रकार कहते हैं।
जो सत्य महागुणों में कहा गया है जुना खेलने में प्रासक्त मनुष्य उसे सबसे पहले हारता है। पीछे लज्जा, अभिमान, कुल, सुख, सज्जनता, बन्धुवर्ग, धर्म. द्रव्य, क्षेत्र, घर, यश, माता-पिता, बाल-बच्चे, स्त्रियां और स्वयं अपने आपको हारता है-नष्ट करता है । जुना खेलने वाला मनुष्य प्रत्यासक्ति के कारण न स्नान करता है, न भोजन करता है, न सोता है और इन यावश्यक कार्यों का रोध हो जाने से रोगी हो जाता है। जुमा खेलने से धन प्राप्त होता हो सो बात नहीं, वह व्यर्थ ही कलेश उठाता है, अनेक दोष उत्पन्न करने वाले पाप का संचय करता है, निन्द्य कार्य कर बैठता है, सबका शत्र बन जाता है, दूसरे लोगों से याचना करने लगता है।बन्धुजन उसे छोड़ देते हैं--घर से निकाल देते हैं, एवं राजा को ओर से उसे अनेक याष्ट प्राप्त होते हैं । इस प्रकार जुना के दोषों का नामोल्लेख करने के लिए भी कौन समर्थ है ?
राजा सूकेतु ही इसका सबसे अच्छा दृष्टान्त है क्योंकि वह इस जुप्रा के द्वारा अपना राज्य भी हार बैठा था। इसलिये जो मनुष्य अपने दोनों लोकों का भला चाहता है वह जुया को दूर से ही छोड़ देवे। इस प्रकार सुकेतु जब अपना सर्वस्व द्वार त्रुका तब शोक से व्याकुल होकर सुदर्शनाचार्य के चरण-मूल में गया । वहाँ उसने जिनागम का उपदेश सुना और संसार से विरक्त होकर दीक्षा धारण कर ली । यद्यपि उसने दीक्षा धारण कर ली थी तथापि उसका प्राशय निर्मल नहीं हा था। उसने शोक से अन्न छोड़ दिया और अत्यन्त कठिन तपश्चरण किया। दीर्घकाल तक तपश्चरण कर उसने इस प्रकार
अन्तिम समय में निदान किया कि इस तप के द्वारा मेरे कला, गुण, चतुरता मोर बल प्रकट हो। ऐसा निदान कर वह सन्यास मरण से मरा तथा लान्तव स्वर्ग में देव हुमा। वहां चौदह सागर तक स्वर्गीय सुख का उपभोग करता रहा। वहाँ से चय इसी भरत क्षेत्र की द्वाराबती नगरी के भद्र राजा की पृथ्वी रानी के स्वयंभू नाम का पुत्र हुया । यह पत्र राजा को सब पूत्रों में अधिक प्यारा था। धर्म बलभद्र था और स्वयंभू नारायण था। दोनों में ही परस्पर अधिक प्रीति थी और दोनों ही चिरकाल तक राज्यलक्ष्मी का उपभोग करते रहे। सुकेतु की पर्याय में जिस बलवान राजा ने जुआ में सुकेत का राज्य छीन लिया था बह मर कर रत्नपुर नगर में राजा मधु हुमा था।
पूर्व जन्म के वैर का संस्कार होने से राजा स्वयंभू मधु का नाम सुनने मात्र से कुपित हो जाता था। किसी समय किसी राजा ने राजा मधु के लिए भेंट भेजी थी, राजा स्वयंभू ने दोनों के दूतों को मारकर तिरस्कार के साथ वह भेंट स्वयं छीन ली। प्राचार्य कहते हैं कि प्रेम और द्वेष से उत्पन्न संस्कार स्थिर हो जाता है इसलिए पात्मज्ञानी मनुष्य को कहीं किसी के साथ द्वेष नहीं करना चाहिए । जब मधु ने नारद से दूत के मरने का समाचार सुना तो वह क्रोधित होकर युद्ध करने के लिए बलभद्र और नारायण के सन्मुख चला। इधर युद्ध करने में चतुर तथा कुपित बलभद्र और नारायण युद्ध के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे अतः यमराज और अग्नि की समानता रखने वाले वे दोनों राजा मध को मारने के लिए सहसा उसके पास पहुंचे।
दोनों वीरों को सेनाओं में परस्पर का संहार करने वाला चिरकाल तक घमासान युद्ध हुआ । अन्त में राजा मधु ने कुपित होकर स्वयंभू को मारने के उद्देश्य से शीघ्र ही जलता हुया चक्र घुमा कर फेंका। वह चक्र शीघ्रता के साथ जाकर तथा प्रदक्षिणा देकर स्वयंभू की दाहिनी भुजा के अग्रभाग पर ठहर गया । उस समय वह ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश से उतर कर सूर्य का बिम्ब ही नीचे आ गया हो। उसी समय राजा स्वयंभू ने कुपित होकर वह चक्र शत्रु के प्रति फेंका सो ठीक ही है क्योंकि पुण्योदय से क्या नहीं होता? उसी समय स्वयंभ नारायण, ग्राधे भरत क्षत्र का राज्य समान अपने बड़े भाई के साथ उसका निविघ्न उपभोग करने लगा। राजा मधु ने प्राण छोड़ कर बहुत भारी पाप का संचय
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किया जिससे नरकायु बांध कर तमस्तम नामक सातवें नरक में गया। और नारायण स्वयंभु भी वर के संसार-से उसे खोजने के लिए ही मानों अपने पापोदय के कारण पीछे से उसी नरक में प्रविष्ट हुआ । स्वयंभू के वियोग से उत्पन्न हुए शोक के द्वारा जिसका हृदय संतप्त हो रहा था ऐसा बलभद्र धर्म भी संसार से विरक्त होकर भगवान विमलनाथ के समीप पहुंचा। और सामायिक संयम धारण कर संयमियों में अग्रसर हो गया। उसने गिराकुल होकर इतना कठिन तप किया मानों शरीर के साथ विद्वेष ही ठान रक्खा हो। उस समय बलभद्र ठीक सूर्य के समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार सूर्य सत्त प्रति गोलाकार होता है इसी प्रकार बलभद्र भी मुद्दत्त अर्थात् सदाचार से युक्त थे जिस प्रकार सूर्य तेज की मूर्ति स्वरूप होता है उगी प्रकार बलभद्र भी तेज को मुर्ति स्वरूप थे, जिस प्रकार सूर्य उदित होते हो अन्धकार को नष्ट कर देता है उसी प्रकार बलभद्र ने मुनि होते ही अन्तरंग के अन्धकार को नष्टकर दिया था, जिस प्रकार सूर्य निर्मल होता है उसी प्रकार बलभद्र भी कर्ममल नष्ट हो जाने निर्मल थे और जिस प्रकार सूर्य बिना किसी रुकावट के ऊपर पाकाश में गमन करता है उसी प्रकार बलभद्र भी बिना किसी रुकावट के ऊपर तीन लोक के अग्रभाग पर जा घिराजमान हुए। देखी, मोह वश किये हुए जुआ से मुर्ख स्वयंभू और राजा मधु पाप का संचय कर दुखदायी नरक में पहुंचे सो ठीक ही है क्योंकि धर्म, अर्थ, काम इन तीन का यदि कुमार्ग यत्ति से सेवन किया जाय तो यह तीनों ही दुख परम्परा के कारण हो जाते हैं।
कोई उत्तम तपश्चरण करे और क्रोधादि के वशीभूत हो निदान बंध कर ले तो उसका वह निदान-बन्ध अतिशय पाप मे उत्पान दुःख का कारण हो जाता है। देखो, 'सुकेतु यद्यपि तीर्थमार्ग का पथिक था तो भी निदानबन्ध दूर से ही छोड़ने योग्य है। धर्म, पहले अपनी बान्ति से सूर्य को जीतने वाला मित्रनन्दी नाम का राजा इना, फिर महाव्रत और समितियों से समन्पन होकर छानुत्तर विमान का स्वामी हुआ, वहां से चयकर पृथ्वी पर द्वारावती नगरी में सुधर्म बलभद्र हुआ और तदनन्तर आत्मस्वरूप को सिद्ध कर मोक्ष पद को प्राप्त हुआ। स्वयंभू पहले कुणाल देश का मूर्ख राजा सुकेतु हुआ, फिर तपश्चरण कर सुख के स्थान-स्वरूप लान्तव स्वर्ग में देव हुया, फिर राजा मध को नष्ट करने के लिए यमराज के समान चक्रवर्ती-नारायण हमा पीर तदनन्तर पापोदय से नीचे सातवीं पृथ्वी में गया।
अथानन्तर-इन्हीं विमलवाहननाथ तीर्थकर? के तीर्थ में अत्यन्त उन्नत, स्थिर और देवों के द्वारा सेवनीय मेरु और मन्दरनाथ के दो गणधर हुए थे इसलिए अब उनका चरित कहते हैं । जम्बुद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के उत्तर तट पर एक गन्धमालिनी नाम का देश है उसके वीतशोक नगर में बंजयन्त राजा राज्य करता था। उसकी सर्वश्री नाम की रानी थी और उन दोनों के संजयन्त तथा जयन्त नाम के दो पुत्र थे, ये दोनों ही पुत्र राजपूतों के गुणों से सहित थे। किसी दूसरे दिन अशोक वन में स्वयंभू नामक तीर्थकर पधारे। उनके समीप जाकर दोनों भाइयों ने धर्म का स्वरूप सुना नीर दोनों ही भोगों से विरक्त हो गये उन्होंने संजयन्त के पुत्र वैजयन्त के लिए जो कि अतिशय बुद्धिमान था राज्य देकर पिता के साथ संयम धारण कर लिया। संयम के सातवें स्थान अर्थात बारहवें गुणस्थान में समस्त कषायों का क्षय कर जिन्होंने समरसपना–पुर्ण वीनरागता प्राप्त कर ली है ऐसे बैजयन्त मुनिराज जिनराज अवस्था को प्राप्त हुए। पिता के केवलज्ञान का उत्सव मनाने के लिए सब देव आये तथा धरणेन्द्र भी पाया। धरणेंद्र के सौन्दर्य और बहुत भारी ऐश्वर्य को देख कर जयन्त मुनि ने धरणन्द्र होने का निदान किया। उस निदान के प्रवाह से वह दुर्बुद्धि मर कर धरणेन्द्रमा सो ठीक है क्योंकि बहुत मूल्य से अल्प मूल्य की वस्तु खरीदना दुर्लभ नहीं है ।
किसी एक दिन संजयन्त मुनि, मनोहर नगर के समीपवर्ती भीम नामक वन में प्रतिमा योग धारण कर विराजमान थे। वहीं से विद्यदष्ट्र नाम का विद्याधर निकला। वह पूर्व भव के वैर स्मरण हए तीन बेग से युक्त क्रोध से आगे बढ़ने के लिए असमर्थ हो गया । वह दुष्ट उन मुनिराज को उठा लाया तथा भरत क्षेत्र के इला नामक पर्वत की दक्षिण दिशा की ओर जहां
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कुसुमवती, हरवती, सुवर्णवती, गतवती और चण्डवेगा इन नदियों का समागम होता है वहां उन नदियों के अगाध जल में छोड़ पाया।
इतना ही नहीं उसने भोले-भाले विद्याधरों को निम्नांकित शब्द कहकर उत्तेजित भी किया। वह कहने लगा कि । यह कोई वड़े शरीर का धारक, मनुष्यों को खाने वाला पापो राक्षस है, यह हम सबको अलग-अलग देखवार खाने के लिए चुपचाप खड़ा है, इस निर्दय, सर्वभक्षी तथा सर्वदोषी दैत्य को हम लोग मिलकर बाण तथा भाले आदि शस्त्रों के समूह से मार, देखो, यह मुखा है, भूख से इसका पेट झुका जा रहा है, यदि उपेक्षा की गई तो यह देखते-देखते आज रात्रि को ही स्त्रियोंबच्चों तथा पशुमों को खा जावेगा। इसलिए आप लोग मेरे बचनों पर विश्वास करो, मैं वृथा ही झूठ क्यों बाल मा ? क्या इसके साथ मेरा द्वेष है? इस प्रकार उसके द्वारा प्रेरित हुए सब विद्याधर मत्यु से डर गये और जिस प्रकार किसो विश्वासपात्र मनुष्यों को ठग लोग मारने लगते हैं उस प्रकार शस्त्रों का समूह लेकर साधु शिरोमणि एवं समाधि में स्थित उन संजयन्त मुनिराज को वे विद्याधर सब ओर से मारने लगे। संजयन्त मुनिराज भी इस समस्त उपसर्ग को सह गये, उनका शरीर वज्र के समान सुदृढ था, वे पर्वत के समान निश्चल खड़े रहे और शुक्लध्यान के प्रभाव से निर्मल ज्ञान के धारी मोक्ष को प्राप्त हो गये।
उसी समय चारों निकाय के इन्द्र उनकी भक्ति से प्रेरित होकर निर्वाण-कल्याणक की पूजा करने के लिए प्राये। सब देवों के साथ पूर्वोक्त धरणन्द्र भी आया था, अपने बड़े भाई का शरीर देखने से उसे अवधिज्ञान प्रकट हो गया जिससे वह बड़ा कुपित हुआ। उसने उन समस्त विश्वावरी को नागराश से बांध लिया । उन विद्याधरों में काई-कोई बुद्धिमान भी थे अतः उन्होंने प्रार्थना को कि हे देव ! इस कप में हम लोगों का दार नहीं है. पापः विशुदंष्ट्र इन्हें विदेह क्षेत्र से उठा लाया पीर विद्याघरों को इसने बतलाया कि इनसे तुम सबको बहुत भय है । ऐसा कहकर इसो दुष्ट ने हम सब लोगों से व्यर्थ हो यह महान् उासगं करवाया है। विद्याबरों को प्रार्थना सुनकर धरणेन्द्र ने उन पर क्रोध छोड़ दिया और परिवार सहिन विद्युदंष्ट्र को समुद्र म गिराने का उद्यम किया । उसी समय वहां एक प्रादित्याभ नाम का देव पाया था जो कि विद्युइंग्ट्र और धरणद्र दोनों के हो गुण-लाभ का उस प्रकार हेतु हुअा था जिस प्रकार को किसो धातु और प्रत्यय के बीच में आया हुमा अनुबन्ध गुण-न्याकरण में प्रसिद्ध संज्ञा विशेष का हेतु होता हो। वह कहने लगा कि हे नागराज! यद्यपि इस विद्युदंष्ट्र ने अपराव किया है तथापि मेरे अनुरोध से इस पर क्षमा कीजिये । आप जैसे महापुरुषों का इस क्षद्र पशु पर क्रोध कैसा ? वहुत पहल, आदिनाथ तोथंकर के समय आपके वंश में उत्पन्न हए धरणेद्र के द्वारा विद्याधरों को विद्याए देकर इसके वंश की रचना की गई थी। लोक में यह बात बालक तक जानते हैं ; कि अन्य वृक्ष की बात जाने दो, विपक्ष को भी स्वयं यढ़ाकर स्वयं काटना उचित महीं है, फिर हे नागराज ! आप क्या यह बात नहीं जानते ?
जब आदित्याभ यह कह चुका तब नागराज-धरणद्र ने उत्तर दिया कि इस दुष्ट ने मेरे तपस्वी बड़े भाई को कारण ही मारा है अतः यह मेरे द्वारा अवश्य हो मारा जावेगा । इस विषय में पाप मेरी इच्छा को रोक नहीं सकते।' यह सुनकर बद्धिमान देव ने कहा कि-'पाप वृथा ही वर धारण कर रहे हैं। इस संसार में क्या यही तुम्हारा भाई है ? और संसार में भ्रमण करता हुबा विद्युदंष्ट्र क्या आज तक तुम्हारा भाई नहीं हुआ। इस संसार में कौन बन्धु है ? और कौन बन्धु नहीं है ? बन्धुता और अनन्धुता दोनों ही परिवर्तनशील हैं--प्राज जो बन्धु है वह कल प्रबन्ध हो सकता है और जो अबन्धु है वह कल बन्धु हो सकता है अत: इस विषय में विद्वानों को आग्रह क्यों होना चाहिए? पूर्व जन्म में अपराध करने पर तुम्हारे संजयन्त ने विद्युद्देष्ट के जीव को दण्ड दिया था, प्राज इसे पूर्व जन्म की वह बात याद आ गई अतः इसने मुनि का अपकार किया है। इस पापी ने तुम्हारे बड़े भाई को पिछले चार जन्मों में भी महा वर के संस्कार से परलोक भेजा है - मारा है। इस जन्म में तो मैं इस विद्याधर को इन मुनिराज का उपकार करने वाला मानता हूं क्योंकि, इसके द्वारा किये हए उपसर्ग को महकर ही ये मुक्ति को प्राप्त हुए हैं। हे भद्र ! इस कल्याण करने बाले मोक्ष के कारण को जाने दीजिये । पाप यह कहिये कि पूर्व जन्म में किये हुए अपकार का क्या प्रतिकार हो सकता है ?
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यह सुनकर धरणेन्द्र ने उत्सुक होकर ग्रादित्याभ से कहा कि वह कथा किस प्रकार है ? आप मुझ से कहिये । वह देव कहने लगा कि हे बुद्धिमान । इस विद्युदंष्ट्र पर वर छोड़ कर शुद्ध हृदय से सुनो, मैं वह सब कथा विस्तार से साफ-साफ कहता हूं।
इसी जम्बद्वीप के भरत क्षेत्र में सिंहपुर नगर का स्वामी राजा सिंहसेन था। उसकी रामदत्ता नाम की पतिन्नता रानी थी। उस राजा का श्रीभूति नाम का मंत्री था, वह श्रुति स्मृति तथा पुराण प्रादि शास्त्रों का जानने वाला था, उत्तम ब्राह्मण था और अपने प्रापको सत्यघोष कहता था। उसी देश के पद्मखण्डपुर नगर में एक सुदत्त नाम का सेठ रहता था। उसकी सुमित्रा स्त्री से भद्रमित्र नाम का पुत्र हुआ उसने पुण्योदय से रत्नद्वोप में जाकर स्वयं बहुत से बड़े-बड़े रत्न कमाये । उन्हें लेकर वह सिंहपुर नगर पाया और वहीं स्थायी रूप से रहने की इच्छा करने लगा। उसने धीभूति मंत्री से मिलकर सब बात कही और उसकी सम्मति से अपने रत्न उसके हाथ में रखकर अपने भाई-बन्धुओं को लेने के लिए वह पद्यखण्ड (पद्म) नगर में गया। वहां से वापिस आया तब उसने सत्यवाष से अपने रत्न मांगे परन्तु रत्नों के मोह में पड़ कर सत्यघोष बदल गया और कहने लगा कि मैं कुछ नहीं जानता।
तब भद्रमित्र ने सब नगर में रोना-चिल्लाना शुरू किया और सत्यघोष ने भी अपनी प्रामाणिकता बनाये रखने के लिए लोगों को यह बतलाया कि पापी चोरों ने इसका सब धन लूट लिया है। इसी शोक से इसका चित्त व्याकुल हो गया है और उसी दशा में वह यह सब बक रहा है । सदाचार से दूर रहने वाले उस सत्यघोष ने अपनी शुद्धता प्रकट करने के लिए राजा के समक्ष धर्माधिकारियों-न्यायघोशों के द्वारा बतलाई शपथ खाई । भद्रमित्र यद्यपि अनाथ रह गया था तो भो उसने अपना रोना नहीं छोड़ा, वह बार-बार यही कहता था कि इस पापो विजाति ब्राह्मणों ने मुझे ठग लिया। हे सत्यघोष ! मैंने तुझे चारों तरफ से शुद्ध जाति आदि गुणों से युक्त मंत्रियों के उत्तम गुणों से विभूषित तथा सचमुच हो सत्यघोष समझा था इसलिए हो मैंने अपना रत्नों का पिटारा तेरे हाथ में सौंप दिया था अब इस तरह तू क्यों बदल रहा है, इस बदलने का कारण दया और यह सब करना क्या ठोक है ? महाराज सिंह के प्रसाद से तेरे क्या नहीं है? छत्र और सिंहासन को छोडकर परमारा राज्य तेरा ही तो है। फिर धर्म, यश और बड़प्पन को व्यर्थ हो क्यों नष्ट कर रहा है ? क्या तू स्मृतियों में कहे हुये ध्यासापहार के दोष को नहीं जानता? तूने जो निरन्तर अर्थशास्त्र का अध्ययन किया है क्या उसका यही फल है कि तू सदा हसरों को उगता है और दूसरों के द्वारा स्वय नहीं उगाया जाता । अथवा तू पर शब्द का अर्थ विपरीत समझता है-पर का
दसरा न लेकर शत्रु लता है सो हे सत्यघोष ! क्या सचमुच हा मैं तुम्हारा शत्रुहूं। सद्भावना से पास में आये हुए मनुष्यों को ठगने में क्या चतुराई है ? गाद में आकर साये हुए को मारने वाले का पुरुषार्थ क्या पुरुषार्थ है ? हे श्रीभूति ! तू महामोह रूपी पिशाच से ग्रस्त हो रहा है, तू अपने भावी जीवन को नष्ट मतकर, मेरा रत्नों का पिटारा मुझे दे दे। मेरे रत्न ऐसे हैं, इतने बड़े हैं और उनकी यह जाति है, यह सब तू जानता है फिर क्यों इस तरह उन्हें छिपाता है।
इस प्रकार बह भद्रमित्र प्रति दिन प्रातःकाल के समय किसी वृक्ष पर चढ़कर बार-बार रोता था सो ठीक ही है क्योंकि धीर-वीर मनुष्य कठिन कार्य में भी उद्यम नहीं छोड़ते । बार-बार उसका एक-सा रोना सुनकर एक दिन रानो के मन में विचार पाया कि चूकि यह सदा एक ही सदृश शब्द कहता है अतः यह उन्मत्त नहीं है, ऐसा समझ पड़ता है। रानी ने यह विचार राजा से प्रकट किये और मंत्री के साथ जुमा खेलकर उसका यज्ञोपवीत तथा उसके नाम की अंगूठी जीत ली । तदनन्तर जसने निषणमती नाम की धाय के हाथ में दोनों चीजें देकर उसे एकान्त में समझाया कि तू धीभूति मन्त्री के घर जा
सजनकी स्त्री से कह कि मुझ मन्त्रा ने भेजा है, तू मेरे लिए भद्रमित्र का पिटारा दे दे। पहिचान के लिए उन्होंने यह दोनों चीजें भेजी हैं इस प्रकार झूठ-मूठ हो कह करतू वह रत्नों का पिटारा ले आ, इस तरह सिखलाकर रानी रामदत्ता ने । धाय भेजकर मन्त्री के घर से यह रत्नों का पिटारा बुला लिया। राजा ने उस पिटारे में और दूसरे रत्न डालकर भद्रमित्र को स्वयं एकान्त में बुलाया और कहा कि क्या यह पिटारा तुम्हारा है? राजा के ऐसा कहने पर भद्रमित्र ने कहा।
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कि हे देव ! यह पिटारा तो हमारा हो है परन्तु इसमें कुछ दूसरे अमूल्य रल मिला दिये गये हैं। इनमें ये रत्न मेरे नहीं हैं इस तरह दहकर सच बोलने वाले, शुद्ध बुद्धि के धारक तथा सज्जनों में श्रेष्ठ भद्रमित्र ने अपने ही रत्न ले लिये। यह जानकर राजा बहुत ही संतुष्ट हुए और उन्होंने भद्रमित्र के लिए सत्यघोष नाम के साथ अत्यन्त उत्कृष्ठ सेठ का पद दे दिया-भद्रमित्र को राजश्रेष्ठी बना दिया और उनका 'सत्यघोष' मंत्री झूठ बोलने वाला है, पापी है तथा इसने पास बहत किये हैं इसलिए इसे दण्डित किया जावे इस प्रकार धर्माधिकारियों के कहे अनुसार राजा ने उसे दण्ड दिये जाने की अनुमति दे दो। इस प्रकार राजा के द्वारा प्रेरित हुए नगर के रक्षकों ने श्रीभूति मंत्री के लिए तीन दण्ड निश्चित किये :-(१) इसका सब धन छीन लिया जाने, (२) वज्रमुष्टि पहलवान के मजबूत तीन घुसे दिये जावें, (३) और कांसे के तीन थालों में रखा हया नया गोबर खिलाया जाये, इस प्रकार नगर के रक्षकों ने उसे तोन प्रकार के दण्डों से दण्डित किया। श्रीभूति राजा के साथ बैर बांधकर पार्तध्यान से कुपित होता हुआ मरा और मरकर राजा के भण्डार में अगन्धन नाम का सांप हुमा।
बाद से परे कापालादारी कहलाती है वह दो प्रकार की मानी गई है एक जो स्वभाव से ही होती और दसरी किसी निमित्त से। जो चोरी स्वभाव से होती है वह जन्म से ही लोभ कषाय के निकृष्ट सम्बन्धों का उदय होने से होती है। जिस मनष्य के नैसगिक चोरी करने को यादत होती है, उसके घर में करोड़ों का धन रहने पर भी तथा करोडों का पालन पर होने पर भी चोरी के बिना उसे संतोष नहीं होता । जिस प्रकार सबको क्षुधा आदि की बाधा होती है उसी प्रकार उसके जारी का भाव होता है। जब घर में स्त्री-पुत्र आदि का खर्च अधिक होता है और घर में धन का प्रभाव होता है तब दसरी तरह को चोरी करनी पड़ती है वह भी लाभ कवाय प्रयवा किसोअन्य दुष्कर्म के उदय से होती है। यह जीव दोनों प्रकारको चारियों में अशुभ ग्राघु का बन्ध करता है यार दुर चेष्टा से दुगति में चिरकाल तक मारी दुख सहन करता है। चोरी करने बाले को सज्जनता नष्ट हो जाता, धनादि के विषय में उसका विश्वास चला जाता है, और मित्र तथा भाई-बन्धयों के साथ से प्राणान्त तक विपत्ति उठानी पड़ती है । जिस प्रकार दावानल से लता शीघ्र ही नष्ट हो जाती है उसी प्रकार गूणरूपी फलों गयी हई कौति रूपी ताजो माला चोरी से शीघ्र ही नष्ट हो जाती है यह सब जानते हुए भी मूर्ख सत्यघोष (श्रीभति) ने
कि चोरी के द्वारा यह साहस कर डाला। इस चोरी के कारण वह मंत्री पद से शोध हो च्युत कर दिया गया, उसे पोत कठिन तोन दण्ड भोगने पड़े तथा बड़े भारो पाप से बंधी हुई दुर्गति में जाना पड़ा। इस प्रकार अपने हृदय में मंत्रों के दराचार का चिन्तवन करते हुए राजा सिहसेन ने उसका मंत्री पद धर्मिल नामक ब्राह्मण के लिए दे दिया।
इस प्रकार समय व्यतीत होने पर किसो दिन असना नाम के बन में विमलकान्ता नाम के पर्वत पर विराजमान नाम के मनिराज के पास जाकर सेठ भद्रमिव ने धर्म का स्वरूप सुना और अपना बहुत-साधन दान में दे दिया। उसकी वा समित्रा इसके इतने दान को न सह सकी अतः अत्यन्त त्रुध हुई और अन्त में मरकर उसी असना नाम के वन में व्याघ्रों हाक दिन भद्रमित्र अपनी इच्छा से असना बन में गया था उसे देखकर दुष्ट अभिप्राय वाली व्याघ्रो ने उस अपने हो पत्र को खा लिया सो ठीक ही है क्योंकि क्रोध से जीवों का क्या भक्ष्य नहीं हो जाता ? वह भद्रमित्र मरकर स्नह के कारण रानी रामदत्ता के सिंहचन्द्र नाम का पुत्र हना तथा पूर्णचन्द्र उसका छोटा भाई हुआ। ये दोनों ही पुत्र राजा को अत्यन्त प्रिय थे। किमी समय राजा सिंहसेन अपना भण्डारागार देखने के लिये गये थे वहां सत्यघोष के जीव अगन्धन नामक सा ने उसे कोसो इस लिया। उस गरुड़दण्ड नामक शारुड़ी ने मन्त्र से सब सपों को बुलाकर कहा कि तुम लोगों में जो निर्दोष हो वह पनि में नाकर बाहर निकले और शुद्धता प्राप्त करे । अन्यथा प्रवृत्ति करने पर मैं दण्डित करूंगा। इस प्रकार कहने पर अगन्धन को लोड बाकी सब सर्प उस अग्नि से क्वेश के बिना ही इस तरह बाहर निकल पाये जिस तरह कि मानो किसी जलाशय से हो
परन्त अगन्धन कोध और मान से भरा था अतः उस अग्नि में जल गया और मरकर कालक वन में लोभ ... जाति कामगआ। राजा सिंहसेन भी आयु के अन्त में मर कर सल्लकी वन में प्रशनि पोषनाम कामदोन्मत्त हाथी हुआ।
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इधर सिंहचन्द्र राजा हुया और पूर्णचन्द्र युवराज बना । राज्यलक्ष्मी का उपभोग करते हुए उन दोनों का बहुत भारी समय जब एक क्षण के समान बीत गया। तब एक दिन राजा सिंहसन की मृत्यु के समाचार सुनने से दान्तमति और हिरण्यमति नाम को संयम धारण करने वाली प्रायिकाएँ रानी रामदत्ता के पास प्राई। रामदत्ता ने भी उन दोनों के समीप संयम धारण कर लिया। इस शोक से राजा सिहचन्द्र पूर्णचन्द्र नामक मुनिराज के पास गया और धर्मोपदेश सुनकर यह बिचार करने लगा कि यदि यह मनुष्य-जन्म व्यर्थ चला जाता है तो फिर इसमें उत्पत्ति किस प्रकार हो सकती है, इसमें उत्पत्ति होने की प्राशा रखना भ्रम मात्र है अथवा नाना योनियों में भटकना ही वाकी रह जाता है। इस प्रकार विचार कर उसने छोटे भाई पूर्णचन्द्र को राज्य में नियुक्त किया और स्वयं दीक्षा धारण कर ली। वह प्रमाद को छोड़कर विशुद्ध होता हुआ संयम के द्वितीय गुणस्थान अर्थात् अप्रमत्तविरत नामक सप्तम गुणस्थान को प्राप्त हुआ। तप के प्रभाव से उसे प्राकाशचारण ऋद्धि तथा मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हुअा । किसी समय रामदत्ता सिंहबन्द्र मुनि को देखकर बहुत ही हर्षित हुई। उसने मनोहर वन नाम के उद्यान में विधि पूर्वक उनकी वन्दना की, तप के निर्विघ्न होने का समाचार पछा और अन्त में पुत्र स्नेह के कारण यह पूछा कि पूर्णचन्द्र धर्म को छोड़कर भोगों का आदर कर रहा है वह कभी धर्म को प्राप्त होगा या नहीं? सिंहवन्द्र मुनि ने उत्तर दिया कि खेद मत करो, वह अवश्य ही तुम से अथवा अन्य से तुम्हारे धर्म को ग्रहण करेगा । मैं इसके अन्य भव से सम्बन्ध रखने वाली कथा कहता हूं सो सुनो।
कोशल देश के वृद्ध नामक ग्राम में एक मृगायण नाम का ब्राह्मण रहता था। उसको स्त्री का नाम मधुरा था। उन दोनों के वारुणी नाम की पुत्री थी, मृगायण प्रायु के अन्त में मरकर साकेत नगर के राजा दिव्यबल और उसकी रानी सुमति के हिरण्यवती नाम की पुत्री हुई। वह सतो हिरण्यवती पोदनपुर नगर के राजा पूर्णचन्द के लिए दो गई–व्याही गई। मृगायण की स्त्री मधुरा भी मरकर उन दोनों पूर्णचन्द्र और हिरण्यवती के तू रामदत्ता नाम की पुत्री हुई थी, सेठ भद्रमित्र तेरे स्नेह से सिंहचन्द्र नाम का पुत्र हुमा था पीर वारुणी का जीव' यह पूर्णचन्द्र हरा है। तुम्हारे पिता ने भद्रबाह से दीक्षा ली थी और उनसे मैंने दीक्षा ली थी। इस प्रकार तुम्हारे पिता हम दोनों के गुरु हुए हैं। तेरी माता ने दीक्षा धारण की थी और फिर हिरण्यवतो माता से तूने दीक्षा धारण को है। ग्राज मुझे सब प्रकार की शान्ति है। राजा सिंहसेन को सांप ने डस लिया था जिससे मर कर वह बन में प्रशनिघोप नाम का हाथी हुा । एक दिन वह मदोन्मत्त हाथी बन में घूम रहा था, वहीं मैं था, मुझे देखकर वह मारने को इच्छा से दौड़ा, मुझे आकाशचारण ऋद्धि थी। अतः मैंने अाकाश में स्थित हो पूर्वभव का सम्बन्ध बताकर उसे समझाया। वह ठीक-ठोक सब समझ गया जिससे उस भव्य ने शीघ्र ही संयामासंयम- देशवत ग्रहण कर लिया। पब उसका चित्त बिलकुल शान्त है, वह सदा विरक्त रहता हआ शरीर प्रादि की निःसारता का विचार करता रहता है, लगातार एक माह के उपवास कर सूखे पत्तों की पारणा करता है।
इस प्रकार महान धैर्य का धारक वह हाथी चिरकाल तक कठिन तपश्चरण कर अत्यंत दुर्वल हो गया। एक दिन वह युपकेसरिणी नाम की नदी के किनारे पानी पीने के लिए घुसा। उसे देखकर श्रीभूति-सत्यघोष के जीव ने जो मरकर चमरी मग और बाद में कुकुट सर्प हुप्रा था उसी हाथी के मस्तक पर चढ़कर उसे इस लिया। उसके विष से हाथी मर गया, बह च् कि समाधिमरण से मरा था। अतः सहस्रार स्वर्ग के रविप्रिय नामक विमान में श्रीधर नाम का देव हुमा । धमिल ब्राह्मण जिसे कि राजा सिंहसेन ने श्रीभूति के बाद अपना मन्त्री बनाया था प्रायु के अन्त में मरकर उसी वन में वानर हा था। उस वानर की और पूर्वोक्त हाथी को समान मित्रता थी। अत: उसने उस कुकूट सर्प को मार डाला जिससे वह मर कर तीसरे नरक में उत्पन्न हुआ। इधर शूगालवान नाम के व्याघ्र ने हाथी के दोनों दांत तोड़े और अत्यन्त चमकीले मोती निकाले तथा धमित्र नामक सेठ के लिए दिये । राजश्रेष्ठी धनमित्र ने वे दोनों दांत तथा मोती राजा पर्णचन्द के लिए दिये । राजा पूर्ण चन्द्र ने उन दोनों दांतों से अपने पलंग के चार पाये बनवाये और मोतियों से हार बनवा
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कर पहिना । वह मनुष्य सर्वथा बुद्धिरहित नहीं है अथवा संसार के प्रभाव का विचार नहीं करता है तो संसार के ऐसे स्वभाव का विचार करने वाला कौन मनुष्य है जो विषय भोगों में प्रीति बढ़ाने वाला हो ?
इस तरह सिंहचन्द्र मुनि के समझाने पर रामदत्ता को वोध हुआ, वह पुत्र के स्नेह से राजा पूर्णचन्द्र के पास गई और उसे सब बातें कहकर समझाया। पूर्णचंद्र ने धर्म के तत्त्व को समझा और चिरकाल तक राज्य का पालन किया। रामदत्ता ने पुत्र के स्नेह से निदान किया और आयु के अन्त में मरकर महाशुक्र स्वर्ग के भास्कर नामक विमान में देव पद प्राप्त किया । तथा पूर्णचन्द्र भी उसी स्वयं के वैडूर्य नामक विमान में हू नाम का देव हुआ। निर्मल ज्ञान के धारक सिचन्द्र मुनिराज भी अच्छी तरह समाधिमरण कर नौवें ग्रैवेयक के श्रीतंकर विमान में अहमिन्द्र हुए। रामदत्ता का जीव महाशुक स्वर्ग से चलकर इसी दक्षिण श्रेणी के धरणीतिक नामक नगर के स्वामी अतिवेग विद्याधर के श्रीधरा नामकी पुत्री हुई वहाँ इसकी माता का नाम सुलक्षणा था। यह धीरा पुत्री का नगरी के प्रधिपति दर्शन नामक विद्यावर के राजा के लिए दी गई पूर्णचन्द्र का जीव जो कि महाशुत्र स्वर्ग के वैडूर्य विमान में वैडूर्य नामक देव हुआ था वहां से चयकर इसी श्रीधरा के यशोधरा नाम को वह कन्या हुई जो कि पुष्करपुर नगर के राजा सूर्यावर्त के लिए दी गई थी। राजा सिंहसेन अथवा अशनिधोष हाथी का जीव श्रीधर देव उन दोनों सूर्यावर्त और यशोधरा के रश्मि नाम का पुत्र हुआ किसी मुनिवर नामक मुनि से धर्मोपदेश सुनकर राजा सूर्यव्रत तप के लिए चले गये और श्रीधरा तथा यशोधरा ने गुणवली आर्यिका के पास दीक्षा धारण कर ली ।
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किसी समय रश्मिवेग सिद्धकूट पर विद्यमान जिन-मन्दिर के दर्शन के लिए गया, वहां उसने चारण शुद्ध धारी हरिश्चन्द्र नामक मुनिराज के दर्शन कर उनसे धर्म का स्वरूप सुना, उन्हीं से सम्यग्दर्शन और संयम प्राप्त कर मुनि हो गया तथा शीघ्र ही आकाशचारण ऋद्धि प्राप्त कर सी किसी दिन रश्मिवेय मुनि कांचन नाम की गुहा में विराजमान थे, उन्हें ली। देखकर श्रीधरा और यशोधरा धाविकाएं उन्हें नमस्कार कर वहीं बैठ गई।
इधर सत्यघोष का जीव जो तीसरे नरक में नारकी हुआ था। वहाँ से निकल कर पाप के उदय से चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहा और अन्त में उसी वन में महान अजगर हुआ। उन श्रीधरा तथा यशोधरा शायिकाओं को और सूर्य के समान दीप्ति वाले उन रश्मिवेग मुनिराज को देखकर उस अजगर ने क्रोध से एक हो साथ निगल लिया । समाधिमरण कर प्रायिकाएं तो कापिष्ट नामक स्वर्ग के रुचक नामक विमान में उत्पन्न हुई। और मुनि उसी स्वयं के अर्कप्रभ नामक विमान में देव उत्पन्न हुए। यह अजगर भी पाप के उदय से पंकप्रभा नामक चतुर्थ पृथ्वी में पहुंचा सिचन्द्र का जीव स्वर्ण से कर इसी जस्बूद्वीप के चन्द्रपुर नगर के स्वामी राजा अपराजित और उनकी सुन्दरी नाम की रानी के चक्रायुध नाम का पुत्र हुआ । उसके कुछ समय बाद रहिमवेग का जी भी स्वयं से युत होकर इसी अपराजित राजा की दूसरी रानो चित्रमाला के बा नाम का पुत्र हुआ। श्रीवरा प्रायिका स्वर्ग से चयकर धरणी तिलकनगर के स्वामी अतिवेग राजा को प्रियकारिणो रानी के समस्त लक्षणों से सम्पूर्ण रत्नमाला नाम को अत्यन्त प्रसिद्ध पुत्र हुई। यह रत्नमाला आगे चलकर वज्रायुफ के मानन्द को बढ़ाने बाली उसकी प्राणप्रिय हुई। पीर यशोधरा आर्थिक स्वर्ग से करन दोनी वखायुध थोर रस्नमाला के रनावुध नाम का पुत्र हुआ। इस प्रकार से यहां प्रतिदिन अपने-अपने पूर्व पुष्य का फल प्राप्त करने लगे।
किसी दिन धीरबुद्धि के धारक राजा अपराजित ने पिहितास्रत्र मुनि से धर्मोपदेश सुना और चक्रायुध के लिए राज्य देकर दीक्षा ले ली। कुछ समय बाद राजा चक्रायुध भी वज्रायुध पर राज्य का भार रखकर अपने पिता के पाय दीक्षित हो गये और उसी जन्म में मोक्ष चले गये। अब बाप ने राज्य का भार रत्नायुध के लिए सौंपकर चक्रायुध के समीप दीक्षा ली सो ठीक ही है क्योंकि सत्ययुग के धारक क्या नहीं करते ? रत्नायुध भोगों में व्यासक्त था .तः धर्म की रक्षा छोड़कर बड़ी लम्पटता के साथ वह चिरकाल तक राज्य के सुख भोगता रहा किसी समय मनोरम नाम के महोदान में बच्चदन्त महामुनि
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लोकानयोग का वर्णन कर रहे थे उसे सुनकर बड़े बुद्धिवाले, राजा के मेघविजय नामक हाथी को अपने पूर्व भव का स्मरण हो आया जिससे उसने योग धारण कर लिया. मांसादि ग्रास लेना छोड़ दिया और संपार को दुःखमय स्थिति का वह विचार करने लगा। यह देख राजा घबड़ा गया, उसने बड़े-बड़े मन्त्रवादियों तथा वैद्यों को बुलाकर स्वयं हा बड़े आदर से पूछा कि इस हाथी को क्या विकार हो गया है ? उन्होंने जब बात पित्त और कफ से उत्पन्न हुअा क ई विकार नहीं देखा तब अनुमान से विवार कर कहा कि धर्म श्रवण करने से इसे जाति स्मरण हो गया इसलिए उन्होंने किसी अच्छे वतंत्र में बना तथा धुत प्रादि से मिला हना शुद्ध आहार उनके सामने रखा जिसे उस गजराज ने खा लिया।
यह देख राजा बहुत ही अश्चर्य को प्राप्त हुना। वह वज्रदन्त नामक अवधिज्ञानी मुनिराज के पास गया और यह सब समाचार कहकर उनसे इसका कारण पूछने लगा। मुनिराज ने कहा कि हे राजन! मैं सब कारण कहता हूं नू सुन । इसी भरतक्षेत्र में छत्रपुर नगर का राजा प्रतिभद्र था । उसकी सुन्दरी नाम की रानी से प्रीतिकर नामक पुत्र हुआ। राजा के एक चित्रमात नामक मन्त्री था ओर लक्ष्मी के समान उसको कमला नाम को स्त्री था। कमला के विचित्र मति नाम का पुत्र हुआ। एक दिन राजा और मंत्री दोनों के पुत्रों ने धर्मरुचि नाम के मुनिराज से धर्मादेश राना ओर उसी समय लोगों से उदास होकर दोनों ने तप धारण कर लिया। महामुनि प्रीतिकर को क्षौरासब नाम की द्धि उत्पन्न हो गई। वे दोनों मुनि यम-क्रम से विहार करते हुए साकेतपुर पहुंचे। उनमें से मत्रिपुत्र विचित्रमति मुनि उपवास का नियम मेकर नगर के बाहर रह गये और राजपुत्र प्रीतिकर मुनि चर्या के लिए नगर में गये । अपने घर के समीप जाता हुआ देख बुद्धिप्रेणा नाम को बताने उन्हें बड़ो विनय से प्रणाम किया। और मेरा कुल दान देने योग्य नहीं है इसलिए बड़े शोक से अपनी निन्दा करती हई उसने मुनिराज से पूछा कि हे मुने आप यह बताइये कि प्राणियों को उत्तम कुल तथा रूप आदि की प्राप्ति किस कारण से होती है ? 'मद्य मांसादि के त्याग से होती है। सा कहकर वह मुनि नगर से लौट आये। दूसरे विचित्रमति मुनि ने आदर के साथ पूछा कि आप नगर में बहुत देर तक कंसे टहरं ? उन्होने भी वक्ष्या के साथ जो बात हुई थी वह ज्यों की त्या निवेदन कर दी ।
दूसरे दिन मंत्री पुत्र विचित्रमति मुनि ने भिक्षा के समय वैश्या के घर में प्रवेश किया। वैश्या मुनि को देखकर एकदम उठी तथा नमस्कार करके पहले के समान बड़े प्रादर से धर्म का स्वरूप पूछने लगी । परन्तु दुर्व डि विचित्रमतिमूनि ने उसके साथ काम और राग सम्बन्धी कथाएं ही की। वैश्या उनके अभिप्राय को समझ गई अत: उसने उराका तिरस्कार किया। विचित्रमति वैश्या से अपमान पाकर बहुत ही क्रुद्ध हुअा । उसने मुनिपना छोड़ दिया और राजा की नौकरी कर ली। वहाँ पाकशास्त्र के कहे अनसार बनाये हुए मांस से उसने उस नगर के स्वामी राजा गन्धमित्र को अपने वश कर लिया और हर उपाय से उस जपणा को अपने प्राधीन कर लिया । अन्त में बह विचित्रमति मर कर तुम्हारा हाथी हुआ है। मैं यहां त्रिलोक प्राप्ति का पाठ कर रहा था उसे सुनकर इसे जाति स्मरण हुआ है। अब यह संसार से विरक्त है, निकट भव्य है और तिला धर्म का त्याग करना गैसा है जैसा कि कांच के लिए महामणि का और दासी के लिए माता का त्याग करना है इसलिए बितानों को चाहिए कि व भोगों का सदा त्याग करें। यह सुनकर राजा कहने लगा कि धर्म को दूषित करने वाले कामको धिक्कार है, वास्तव में धर्म ही परम मित्र है ऐसा कहकर बह धर्म में तत्पर हो गया। उसने उसी समय अपना राज्य पर लिए दे दिया और माता के साथ संयम धारण कर लिया । तपश्चरण कर मरा और आयु के अन्त में सोलहवें स्वर्ग में देव ना।
सत्यघोष का जीव जो पंकप्रभा' नामक चौथे नरक में गया था। वहां से निकलकर चिरकाल तक नाना योनियों में भ्रमण करता हत्या अनेक दुःख भोगता रहा । एक बार वह पूर्वकृत पाप के उदय से इस क्षेत्रपुर नगर में दारुण नामक व्याल की मंगी स्त्री से प्रतिधारण नामक पुत्र हना। किसी एक प्रियंगुरखण्ड नाम के वन में वज्रायध मुनि प्रतिमायोग धारण कर विराजमान थे उन्हें उस इष्ट भील के लड़के ने परलोक भेज दिया- मार डाला। तीक्ष्ण बुद्धि को धारक वे मुनि व्याल के द्वारा किया हुया
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तीव उपसर्ग सहकर धर्मध्यान से सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त हए। और प्रति दारुण नामक व्याघ्र मुनिहत्या के पाप से सातवें नरक में उत्पन्न हुआ।
पूर्व घातकी खण्ड के पश्चिम विदेह क्षेत्र में गन्विल नामक देश है उसके अयोध्या नगर में राजा ग्रहहास रहते थे, उनकी सुख देने वाली सुव्रता नाम की स्त्री थी। रत्नमाला का जीव उन दोनों के बीतमय नाम का पुत्र हुमा । और उसी राजा की दूसरी रानी जिनदत्ता के रत्नायुध का जीव विभीषण नाम का पुत्र हुआ। वे दोनों ही पुत्र बलभद्र तथा नारायण थे और दीर्घकाल तक विवाह किये बिना ही राजलक्ष्मी का यथायोग्य उपभोग करते रहे । अन्त में नारायण तो नरकायु का बंधकर शर्कराप्रभा में गया और बलभद्र अन्तिम समय में दीक्षा लेकर लान्तब स्वर्ग में उत्पन्न हुना। मैं वहो प्रादित्याभ नाम का देव हूं, मैंने स्नेहवश दुसरे नरक में जाकर वहाँ रहने वाले विभीषण को सम्बोधा था वह प्रतिबोध को प्राप्त हुआ और वहां से निकलकर इसी जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र की अयोध्या नगरी के राजा श्रीवर्मा की सुसीमा देवी के श्री धर्मा नाम का पुत्र हुआ। और बयस्क होने पर अनन्त नामक मुनिराज से संयम ग्रहण कर ब्रह्मस्वर्ग में प्राठ दिव्य गुणों से विभूषित देव हमा।
वज्ञायुध का जीब जो सर्वार्थ सिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था वहां से आकर संजयन्त हुा । धोधर्मा का जीव-ब्रह्मस्वर्ग से आकर तु जयन्त हुआ था और निदान वांधकर मोह-कर्म के उदय से धरणोन्द्र हुआ। सत्यवोष का जोव सातवों पृथ्वी से निकल कर जघन्य ग्रायु का धारक सांप हुआ और फिर तीसरे नरक गया। वहां से निकलकर बस स्थावर रूप तियंच गति में भ्रमण करता रहा । एक बार भूतरमण नामक बन के मध्य में ऐरावत नदी के किनारे गोश्रृंग नामक तापस को शंखिका नामक स्त्री के मृगशृंग नाम का पुत्र हुआ। वह विरक्त होकर पचांग्नि तप कर रहा था कि इतने में वहां से दिव्य तिलक नगर का राजा अंगुभाल नाम का विद्याधर निकला उसे देखकर उस मूर्ख ने निदान बन्ध किया । अन्त में मरकर इसी भरतक्षेत्र के विजया पर्वत की उत्तर घेणी-सम्बन्धी गगनवल्भ नगर के राजा बज्रदंष्ट विद्याधर की विधुत्प्रभा रानी के विद्युदंष्ट्र नाम का पुत्र हुया। इसने पूर्व बैर के संस्कार से कर्मबंध कर चिरकाल तक दुःख पाये और आगे भी पावेगा।
जगार नर्ग के उश होकर यह जीव परिवर्तन करता रहता है । पिता पुत्र हो जाता है, पुत्र माता हो जाती है, माता भाई हो जाती है, भाई बहन हो जाता है और बहन नातो हो जाती है सो ठीक ही है क्योंकि इस संसार में बन्धजनों के सम्बन्ध की स्थिरता ही क्या है ? इस संसार में किसने किसका अपकार नहीं किया और किसने किसका उपकार नहीं किया? इसलिए बैर बांध कर पाप का बन्ध मत करो। हे नागराज! हे धरणेन्द्र ! बर छोड़ो और विद्युदंष्ट्र को भी छोड़ दो। इस प्रकार उस देव के वचन रूप अमृत की वर्षा से धरणेन्द्र बहुत ही संतुष्ट हुआ।
वह कहने लगा कि हे देव! तुम्हारे प्रसाद से ग्राज में समीचीन धर्म का श्रद्धान करता हूं किन्तु इस विद्यु दंष्ट्र ने जो यह पाप का आचरण किया है वह विद्या के बल से ही किया है इसलिए मैं इसकी तथा इसके बश की महाविद्या को छोन लेता हं' यह कहा । उसके वचन सुनकर बह देव' धरणेन्द्र से फिर कहने लगा कि मापको स्वयं नहीं तो मेरे अनुरोध से ही ऐसा नहीं करना चाहिए । धरणेन्द्र ने भी उस देव के वचन सुनकर कहा कि यदि ऐसा है तो इसके वंश के पुरुषों को महाविद्याएं सिद्ध नहीं होगी परन्तु इस वंश की स्त्रियां संजयन्त स्वामी के समीप महाविद्यानों को सिद्ध कर सकती हैं। यदि इन अपराधियों को इतनाभी दण्ड नहीं दिया जायेगा तो ये दुष्ट अहंकार से खोटी चेष्टाएं करने लगेंगे तथा आगे होने वाले मुनियों पर भो ऐसा उपद्रव करेंगे।
इस घटना से इस पर्वत पर के विद्याधर अत्यन्त लज्जित हुए थे इसलिए इसका नाम 'होमान' पर्वत है ऐसा कहकर उसने उस पर्वत पर अपने भाई संजयन्त मुनि की प्रतिमा बनवाई। धर्म और न्याय के अनुसार कहे हुए शान्त वचनों से विद्यददंष्ट को कालुष्य रहित किया और उस देव की पूजा कर अपने स्थान पर चला गया । वह देव अपनी आयु के अन्त में उत्तर मथरा नगरी के अनन्तवीर्य राजा और मेहमालिनी नाम की रानी के मेरुमाम का पुत्र हुमा। तथा धरणेन्द्र भी उसो राजा को अभिवती रानी के मन्दर नाम का पुत्र हमा। ये दोनों ही भाई शुक्र और बृहस्पति के समान थे तथा अत्यन्त निकट भव्य थे इसलिए विमलवाहन भगवान के पास जाकर उन्होंने अपने पूर्वभव' के सम्बन्ध सूने एवं दीक्षा लेकर उनके गणधर हो गये । अब यहां इसमें से प्रत्येक का नाम लेकर उनको गति और भवों के समूह का वर्णन करता हूं।
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सिंहमेन बा जीव अशनिघोष हाथी हया, फिर श्रीधर देव, रश्मिवेग, अर्कप्रमदेव, महाराज बज्रायुध, सर्वार्थसिद्धि में देवेन्द्र और वहां से चयकर संजयन्त बावली हुआ । इस प्रकार सिंहोन ने भाट यव में मोक्षपद पाया। मधुरा का जोव रामदत्ता, भास्करदेव, थींधरा, देव, रत्नमाला, अच्युतदेव, वीतभय और आदित्यप्रभदेव होकर विमलवाहन भगवान का मेरु नाम का गणधर हत्या और सात ऋद्वियों से युक्त होकर उसी भव से मोक्ष को प्राप्त हुधा । वाहणी का जीव पूर्णचन्द्र, वैडूर्यदेव, यशोधरा काचित स्वर्ग में बहत भार, मसिनोधारणा करने वाला रुचकप्रभ नाम का देव, रत्नायुध देव, भीषण पाप के कारण दूसरे नरवा का नारको, थीधर्मा ब्रह्मस्वर्ग का देव, जयन्त, धरणेन्द्र पौर विमलनाथ का मन्दर नाम का गणधर हया और चार ज्ञान का धारी होकर संमार सागर से पार हो गया। धोभूति--सत्यधोप) मंत्री का जोव सर्य, चमर, कुकुट, सर्प, तीसरे नरक का दुःखी नारकी, अजगर चौथे नरक का नारकी, बस और स्थावरों के बहुत भा अति दारुण सातवें नरक का नारकी, सर्प, नारकी, अनेक योनियों में भ्रमण कर मृगशृग और फिर मरकर पापी विद्युदण्ट्र विद्याधर हुमा एवं पीछे से वर रहित-प्रसन्न भी हो गया था। भद्रमित्र सेठ का जीव सिंहचन्द्र, प्रतिकर देव प्रौर चक्रायुध का भव धारण कर पाठों कर्मों को नष्ट करता हमा निर्वाण को प्राप्त हुआ था ।
इस प्रकार कहे हुए तीनों हो जीव अपने-अपने कर्मोदय के वश चिरकाल तक उच्च-नीच स्थान पाकर कहीं तो सुख का अनुभव करते रहे और कहीं बिना मांगे हुए तीव दुःख भोगते रहे परन्तु अन्त में तोनों ही निष्पाप होकर परमपद को प्राप्त हए। जिन महानुभाव ने हृदय में समता रसके विद्यमान रहने से दुष्ट विद्यावर के द्वारा किये हए भयंकर उपसर्ग को 'यह किसी बिरले ही भाग्यवान को प्राप्त होता है' इस प्रकार विचार कर बहुत अच्छा माना और अत्यन्त निर्मल शुक्ल ध्यान को धारण कर शुद्धता प्राप्त की वे कर्ममल रहित संजयन्त स्वामी तुम सबकी रक्षा करें । जिन्होंने सूर्य और चन्द्रमा को जीतकर उत्कृष्ट तेज प्राप्त किया है, जो मुनियों के समूह के स्वामी हैं, तथा नयों से परिपूर्ण जिनागम के नायक है ऐसे मेरु और मंदर नाम के गणधर सदा आप लोगों से पूजित रहें-आप लोग सदा उनकी पूजा करते रहें।
भगवान अनन्तनाथ अथानन्तर जो अनन्त दोषों को नष्ट करने वाले हैं तथा अनन्त गुणों की खान-स्वरूप हैं ऐसे श्री अनन्तनाथ भगवान हम सबके हृदय में रहने वाले मोह रूपी अन्धकार की सन्तान को नष्ट कर । धातकी खण्ड द्वीप के पूर्व मेर से उत्तर की ओर विद्यमान किसी देश में एक अरिष्ट नामका बड़ा सुन्दर नगर है जो ऐसा जान पड़ता है मानों समस्त सम्पदाओं के रहने का एक स्थान हो हो। उस नगर वा राजा पद्मरथ था, वह अपने गुणों से पद्मा-लक्ष्मी का स्थान था, उसने चिर काल तक पृथ्वी का पालन किया जिसरी प्रजा परम प्रीति को प्राप्त होती रही।
जीवों को सुख देने वालो उत्तम रूप आदि सामग्री पुण्योदय से प्राप्त होती है और राजा पद्मरथ के वह पुण्य का उदय बहत भारी तथा बाधा रहित था । इसलिए इन्द्रियों के विषयों के सान्निध्य में उत्पन्न होने वाले सुख से वह इन्द्र के समान संतुष्ट होता हुआ अच्छी तरह संसार के मुख का अनुभव करता था। किसी एक दिन वह स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के समीप गया । वहाँ उसने विनय के साथ उनकी रसुति की और निर्मल धर्म का उपदेश सूना । तदनन्तर बह चिन्तवन करने लगा कि 'जीवों का शरीर के साथ और इन्द्रियों का अपने विषयों के साथ जो संयोग होता है यह अनित्य है क्योंकि इस संसार में सभी जीवों के प्रात्मा और शरीर तथा इन्द्रियों और उनके विषय इनमें से एक का प्रभाव होता ही रहता है।
यदि अन्य मतावलम्बी लोगों का प्राशय मोहित हो तो भले ही हो मैंने तो मोहरूपी शत्रु के माहात्म्य को नष्ट करने वाले महन्त भगवान के चरण-कमलों का आश्रय प्राप्त किया है। मैं इन विषयों में अपनी बुद्धि स्थिर फंसे कर सकता हूंइन विषयों को नित्य किस प्रकार मान सकता है इस प्रकार इसकी बुद्धि मोहरूपा महागांठ को खोलकर उद्यम करने लगी। तदन्नतर जिस प्रकार चारों और लगी हई वनाग्नि की ज्वालासों से भयभीत हुआ हरिण अपने बहुत पुराने रहने
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के स्थान को छोड़ने का उद्यम करता है उसी प्रकार वह राजा भी चिरकाल से रहने के स्थान-स्वरूप संसाररूपी स्थली को छोड़ने का उद्यम करने लगा। उसने घनरथ नामक पुत्र के लिए राज्य देकर संयम धारण कर लिया और ग्यारह अंगरूपी सागर का पारगामी होकर तीर्थकर प्रकृति का बन्ध किया। अन्त में सल्लेखना धारण कर शरीर छोड़ा और अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में इन्द्रपद प्राप्त किया। वहां उसकी प्रायू बाईस सागर थी, शरीर साढ़े तीन हाथ का था, शुक्ललेल्या थी, वह ग्यारह माह में एक बार श्वास लेता था, वाईस हजार वर्ष बाद श्राहार ग्रहण करता था, मानसिक प्रवीचार से सुखी रहता था, तमःप्रभा नामक छठवी पृथ्वी तक उसका अवधिज्ञान था और वहीं तक उसका बल, विक्रिया मीर तेज था । इस प्रकार चिरकाल तक सख भोगकर वह इस मध्यम लोक में आने के लिए सम्मुख हुआ।
उस समय इस जम्बूद्वीप के दक्षिण भरत क्षेत्र की अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्री महाराज सिंहसेन राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम जयश्यामा था। देवों ने उसके घर के आगे छह माह तक रत्नों को श्रेष्ठ धारा बरसाई। कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा के दिन प्रात:काल के समय रेवती नक्षत्र में उसने सोलह स्वप्न देखने के बाद मह में प्रवेश करता हमा हाथी देखा । अवधिज्ञानी राजा से उन स्वप्नों का फल जाना । उसो समय वह अच्युतेन्द्र उसके गर्भ में प्राकर स्थित हुया जिससे वह बहत भारी सन्तोष को प्राप्त हुई । तदनन्तर देयों ने गर्भकल्याणक का अभिषेक कर वस्त्र, माला और बड़े-बड़े आभपणां से महाराज सिंहसेन और रानी जयश्यामा की पूजा को । जयश्यामा का गर्भ सुख से बढ़ने लगा। नव माह व्यतीत होने पर उसने ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन पूषयोग में पुष्पवान पुत्र उत्पन्न किया । उसो समप इन्द्रों ने प्राकर उस पुत्र का नेह पर्वत पर अभिषक किया और बड़े हर्ष से अनन्तजित यह सार्थक नाम रखा।
धी विमलनाथ भगवान के बाद नौ सागर और पौन पल्य बोत जाने पर तथा अन्तिम समय धर्म का बिच्छेद हो जाने पर भगवान अनन्तनाथ जिनेन्द्र, उत्पन्न हुए थे, उनकी आयु भी इसो अन्तराल में शामिल थी। उनको प्रायु तोन लाख वर्ष की थो, शरीर पचास धनुष ऊँचा था, देदोप्यमान सुवर्ण के समान रंग था और वे सब लक्षगों से सहित थे। मनुष्य, विद्याधर ओर देवों के द्वारा पूजनीय भगवान अनन्तनाथ ने सात लाख पचास हजार वर्ष बीत जाने पर राज्याभिषेक प्राप्त किया था। और जब राज्य करते हुए उन्हें पन्द्रह लाख वर्ष बीत गये तब किसी एक दिन उल्कापात देखकर उन्हें यथार्थ ज्ञान उत्पन्न हो गया। वे सोचने लगे कि यह दुष्कर्मरूपी वेल अज्ञानरूपी बोज से उत्पन्न हुई है, असंयमरूपी पृथ्वी के द्वारा धारणा को हुई है, प्रमादरूपी जल से सींची गई है, कषाय ही इसकी स्कन्धयप्टि है-बड़ो मोटी शाखा है, योग के आलम्बन से बढ़ी हुई है, तिर्यञ्च गति के द्वारा फैली हुई है, वृद्धावस्था रूपी फूलों से ढकी हुई है, अनेक रोग हो इसके पत्तं हैं, और दुःख रूगी दुष्ट फलों से झक रही है । मैं इस दुष्ट कर्मरूपी वेल को सुक्ल ध्यानरूपी तलवार के द्वारा प्रात्मकल्याण के लिए जड़-मूल से काटना चाहता है।
ऐसा विचार करते ही स्तुति करते हुए लोकान्तिक देव ना पहुंचे । उन्होंने उनकी पूजा को, विजयो भगवान ने अपने अनन्तविजय पुत्र के लिए राज्य दिया; देवी ने तृतीय-दीक्षा-कल्याणक की पूजा को, भगवान सागरदत्त नामक पालको पर सवार होकर सहेतुक वन में गये और यहां बेला का नियम लेकर ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन सायंकाल के समय एक हजार राजायों के साथ दीक्षित हो गये । जिन्हें मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हुमा और जो सामायिक संयम से सहिन हैं ऐसे अनन्तनाथ दसरे दिनचर्या के लिए साकेतपुर में गये। वहाँ सुवर्ण के समान कान्ति बाले विशाख नामक राजा ने उन्हें पाहार देकर स्वर्ग तथा मोक्ष की सचना देने वाले पंचाश्चर्य प्राप्त किये। इस प्रकार तपश्चरण करते हुए जब छमस्थ अवस्था के दो वर्ष वःत गये तब पोसतक बन में अश्वत्थ-पीपल वक्ष के नीचे चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन सायंकाल के समय रेवती नक्षत्र में उन्होंने ज्ञान उत्पन्न किया । उसी समय देवों ने चतुर्थ कल्याणक की पूजा की।
जय आदि पचास गणधरों के द्वारा उनकी दिव्य ध्वनि का विस्तार होता था, वे एक हजार पूर्व धारियों के द्वारा वन्दनीय थे, तीन हजार दो सौ वाद करने वाले मुनियों के स्वामी थे, उन्तालीस हजार पांच सौ शिक्षक उनके साथ रहते थे,
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चार हजार तीन सौ अवधिज्ञानी उनकी पूजा करते थे, वे पाँच हजार केवल ज्ञानियों से सहित थे, आठ हजार विक्रियाऋद्धि के धारकों से विभूषितथे पाँच हजार मन:पर्ययज्ञानी उनके साथ रहते थे, इस प्रकार सब मिलाकर छयासठ हजार मुनि उनकी पूजा करते थे। सर्वधी आदि को लेकर एक लाख साठ हजार धाविकाएं उनकी स्तुति करतो थीं। वे असंख्यात देव-देवियों के द्वारा स्तुत्य थे और संख्यात तिर्यत्रों से सेवित थे। इस तरह बारह सभाओं में विद्यमान भव्य-समूह के अग्रणी थे । पदार्थ कथंचित सद्रूप है और कथंचिद् श्रसद्रूप है इस प्रकार विधि और निषेध पक्ष के सद्भाव को प्रकट करते हुए भगवान अनन्तनाथ ने प्रसिद्ध देशों में विहार कर भव्य जीवों को सन्मार्ग में लगाया।
अन्त में सम्मेद शिखर पर जाकर उन्होंने विहार करना छोड़ दिया और एक माह का योग निरोध कर छह हजार एक सौ मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण कर लिया। तथा चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन रात्रि के प्रथम भाग में चतुर्थ शुक्ल ध्यान के द्वारा परम पद प्राप्त किया। उसी समय देवों के समूह ने आकर बड़े प्रादर से विधि पूर्वक अन्तिम संस्कार किया और यह सब क्रिया कर वे सब अपने-अपने स्थानों पर चले गये। जिन्होंने मिथ्यानयरूपी सघन अन्धकार से भरे हुए समस्त लोक को सम्यग्नयरूपी किरणों से शीघ्र ही प्रकाशित कर दिया है, जो मिथ्या शास्त्ररूपी उल्लुखों से द्वेष करने वाले हैं, जिनकी उत्कृष्ट दीप्ति अत्यन्त प्रकाशमान है और जो भव्य जोव रूपी कमलों को विकसित करने वाले हैं ऐसे श्री अनन्तजित भगवान रूपी सूर्य तुम सबके पाप को जलावें । जो पहले पद्मरथ नाम के प्रसिद्ध राजा हुए फिर तप के प्रभाव से निःशंक बुद्धि के धारक श्रच्युतेन्द्र हुए वे अनन्त भवों में होने वाले मरण से तुम सबकी रक्षा करें।
प्रथानन्तर— इन्हीं अनन्तनाथ के समय में सुप्रभ बलभद्र और पुरुषोत्तम नामक नारायण हुए हैं इसलिए इन दोनों के तीन भवों का उत्कृष्ट चरित्र कहता हूं। इसी भरत क्षेत्र के पोदनपुर नगर में राजा वसुषेण रहते थे उनकी महारानी का नाम नन्दा था जो अतिशय प्रशंसनीय थी उस राजा के यद्यपि पांच सी स्त्रियां थी तो भ वह नन्दा के ऊपर ही विशेष प्रेम करता था सो ठीक ही है क्योंकि वसन्त ऋतु में अनेक फूल होने पर भी भ्रमर आम्रमंजरी पर ही अधिक उत्सुक रहता है । मलय देश का राजा चण्डशासन, राजा वसुषेण का मित्र था । इसलिए वह किसी समय उसके दर्शन करने के लिए पोदनपुर आया । पाप के उदय से प्रेरित हुआ चण्डशासन नन्दा को देखने से उस पर मोहित हो गया । श्रतः वह दुर्बुद्धि उसी समय से उसे हरकर अपने देश ले गया। राजा वसुषेण असमर्थ था अतः उस पराभव से बहुत दुखी हुआ, चिन्ता रूपी यमराज उसके प्राण खींच रहा था परन्तु उसे शास्त्रज्ञान का बल था अतः यह शान्त होकर थेप नामक गणधर के पास जाकर दीक्षित हो गया। उस महाबलवान ने सिंहनिष्कीडित यादि कठिन तपकर यह निदान किया कि यदि मेरी इस तपश्चर्या का कुछ फल हो तो मैं अन्य जन्म में ऐसा राजा होऊं कि जिसकी आशा का कोई उल्लंघन न कर सके। तदनन्तर संन्यासमरण कर वह सहार नामक बारहवें स्वर्ग में देव हुआ। वहां बठारह सागर की उसकी आयु थी।
अथानन्तर-जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में एक सम्पत्ति सम्पन्न नन्दन नाम का नगर है। उसमें महावल नाम का राजा राज्य करता था । यह प्रजा की रक्षा करता हुआ सुखों का उपभोग करता था, अत्यन्त धर्मात्मा था, श्रीमान था, उसकी कीति दिशाओं के अन्त तक फैली थी और वह याचकों की पीड़ा दूर करने वाला था बहुत दानी था। एक दिन उसे शरीरादि वस्तुनों के यथार्थ स्वरूप का बोध हो गया जिससे वह उनसे विरक्त होकर मोक्ष प्राप्त करने के लिए उत्सुक हो गया । उसने अपने पुत्र के लिए राज्य दिया और प्रजापाल नामक महन्त के समीप संयम धारण कर सिह निष्कीडित नाम का तप किया। अन्त में संन्यास धारण कर अठारह सागर की स्थिति वाले सहस्रार स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। यहां चिरकाल तक भोग भोगता रहा। जब अन्तिम समय भाया तब शान्तचित्त होकर मरा और इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्र की द्वारावती नगर के स्वामी राजा सोमप्रभ की रानी जयवन्ती के सुप्रभ नाम का सुन्दर पुत्र हुआ।
वह सुप्रभ दूसरे विजार्थ के समान सुशोभित हो रहा था क्योंकि जिस प्रकार बिजवार्ध महावति बहुत लम्बा है उसी प्रकार सुप्रभ भी महायति उत्तम भविष्य से सहित था, जिस प्रकार विजयाचं समतुरंग ऊंचा है उसी प्रकार सुप्रभ भी
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समतुंग-उदार प्रकृति का था, जिस प्रकार विजया देव और विद्याधरों का आश्रय-प्राधार-रहने का स्थान है उसी प्रकार सुप्रभ भी देव और विद्याधरों का प्राश्रय-रक्षक था और जिस प्रकार विजयाध श्वेतिमा शुक्लवर्ण को धारण करता है, उसी प्रकार सुप्रभ भी श्वेतिमा शुक्लवर्ण अथवा कोति सम्बन्धी शुक्लता को धारण करता था। यही नहीं, वह सुप्रभ चन्द्रमा को भी पराजित करता था क्योंकि चंद्रमा कलंक सहित है परन्तु सुप्रभ कलंक रहित था, चन्द्रमा केवल रात्रि के समय हो कान्त-सुन्दर दिखता है परन्तु सुप्रभ रात्रिदिन सदा हो सुन्दर दिखता था, चन्द्रमा सबके चित्त को हरण नहीं करता--त्रका प्रादि को प्रिय नहीं लगता परन्तु सुप्रभ सबके चित्त का हरण करता था-प्रिय था, और चन्द्रमा पदमानन्दविधायो नहीं है-कमलों को विकसित नहीं करता परन्तु सुप्रभपद्मानन्दविधायो था-लक्ष्मी को आनन्दित करने वाला था। उसी राजा को सोना नाम की रानी के वसुषेण का जीव पुरुषोत्तम नाम का पुत्र हुअा जो कि अनेक गुणों से मनुष्यों को प्रानन्दित करने वाला था।
वह पुरुषोत्तम सुमेरु पर्वत के समान सुन्दर था क्योंकि जिस प्रकार सुमेर पर्वत समस्त तेजस्वियों—सूर्य चन्द्रमा प्रादि देवों के द्वारा सेव्यमान है उसी प्रकार पुरुषोत्तम भी समस्त तेजस्त्रियों प्रतापी मनुष्यों के द्वारा सेव्यमान था, जिस प्रकार सुमेरु पर्वत को महोन्नति--भारी ऊंचाई का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता उसी प्रकार पुरुषोत्तम की महोन्नति-भारी श्रेष्ठता अथवा उदारता का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता और जिस प्रकार सुमेरु पर्वत महारत्नों-बड़े-बड़े रत्नों से सुशोभित है उसी प्रकार पुरुषोत्तम भी महारत्नों-बहमुल्य रत्नों अथवा श्रेष्ठ गुणों से सुशोभित था । वे बलभद्र और नारायण क्रमशः शुक्ल और कृष्ण कान्ति के धारक थे, तथा समस्त लोक न्यवहार के प्रवर्तक थे अत: शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष के समान सुशोभित होते थे। उन दोनों का पचास धनुप ऊत्रा शरीर था तीस लाख वर्ष की दोनों को प्रायु थो और एक समान दोनों को सल था प्रतः साथ ही साय सुजापभाग करते हुए उन्होंने बहुत-सा समय बिता दिया।
प्रधानन्तर-पहले जिस चण्डशासन का वर्णन कर आये हैं वह अनेक भवों में घूमकर काशो देश की वाराणसी नगरी का स्वामी मधुसूदन नाम का राजा हुआ । वह सूर्य के समान अत्यन्त तेजस्वी था, उसने समस्त शत्रुमा के समूह को दण्डित कर दिया था तथा उसका बल और पराक्रम बहुत ही प्रसिद्ध था।
नारद से उस असहिष्णु ने उन बलभद्र और नारायण का वैभव सनकर उसके पास खबर भेजो कि तुम मेरे लिए हाथी तथा रत्न प्रादि कर स्वरूप भेजो। उसकी खबर सुनकर पुरुषोत्तम का मन रूपो समुद्र ऐसा क्षुभित हो गया मानो प्रलय काल की वायु से ही क्षुभित हो उठा हो, वह प्रयल काल के यमराज के समान दुष्प्रंक्ष्य हो गया और अत्यन्त श्रोध करने लगा। बलभद्र सुप्रभ भो दिशाओं में अपने नेत्रों की लाल-लाल कन्ति को इस प्रकार बिखेरने लगा मानो क्रोध रूपो अग्नि को उजालाओं के समूह ही बिखेर रहा हो । बह कहने लगा - मैं नहीं जानता कि कर क्या कहलाता है ? क्या हाय को कर कहते हैं ? जिससे कि खाया जाता है । अच्छा तो मैं जिस में तलवार चमक रही है ऐसा कर-हाथ दूंगा वह सिर से उसे स्वीकार करे । बह ग्रावे और कर ले जावे इस में क्या हानि है—इस प्रकार तेज प्रकट करने वाले दानों भाईयों ने कटुक शब्दों के द्वारा नारद को उच्च स्वर से उत्तर दिया।
तदनन्तर यह समाचार सुनकर मधुसूदन बहुत ही कुपित हुमा और उन दोनों भाइयों को मारने के लिए चला तथा वे दोनों भाई भी क्रोध से उसे मारने के लिए चले । दोनों सेनाओं का ऐसा संग्राम हुमा मानो सबका महार ही करना चाहते हों। शत्रु-मधुसूदन ने पुरुषोत्तम के ऊपर चक्र चलाया परन्तु वह चक पुरुषोत्तम का कुछ नहीं बिगाड़ सका । अन्त में पुरुषोत्तम ने उसी चक्र से मघमूदन' को मार डाला। दोनों भाई चौथे बलभद्र और नारायण हुए तथा तीन खण्ड के आधिपत्य का इस प्रकार अनुभव करने लगे जिस प्रकार कि सूर्य और चन्द्रमा ज्योतिलोक के आधिपत्य का अनुभव करते हैं । प्रायु के अन्त में पुरुषोत्तम नारायण छठवें नरक गया और सप्रभ बलभद्र उसके बियोग से उत्पन्न शोक रूपी अग्नि से बहुत ही संतप्त हुा । सोमप्रभ जिनेन्द्र ने उसे समझाया जिससे प्रसन्नचित्त होकर उसने दीक्षा ले ली और अन्त में भपक श्रेणी पर प्रारूद होकर उस बुद्धिमान ने मोक्ष प्राप्त कर लिया।
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पुरुषोत्तम पहल पोदनपुर नगर में वसुषेण नाम का राजा हुआ, फिर लपकर शुक्ल लश्या का धारक देव हुग्रा, फिर वहां से चयकर अर्धभरत क्षेत्र का स्वामी, तथा शत्रुओं को नष्ट करने वाला पुरुषोत्तम नाम का नारायण हुश्रा एवं उसके बाद अधोलोक में सातवीं पृथ्वी में उत्पन्न हुमा । मलयदेश का अधिपति पापी राजा चण्डशासन चिरकाल तक भ्रमण करता हा मधुसूदन हा और तदन्तर संसाररूपी सागर के अधोभाग में निमग्न हुया। सुप्रभ पहले नन्दन नामक नगर में महावल नाम का राजा था फिर महान तप कर बारहवें स्वर्ग में देव हुआ, तदनन्तर मुप्रभ नाम का बल गद्रमा और समस्त परिग्रह छोड़कर उसी भव से परमपद को प्राप्त हुआ । देखो, सुप्रभ और पुरुषोत्तम एक ही साथ साम्राज्य के श्रेष्ठ मुखों का उपभोग करते थे परन्तु उनमें से पहला- सुप्रभ तो मोक्ष गया और दूसरा पुरुषोत्तम नरक गया, यह सब अपनी वृत्तिप्रवृत्ति की विचित्रता है।
भगवान धर्मनाथ
जिन धर्मनाथ भगवान से प्रत्यन्त निर्मल उत्तमक्षमा आदि दश धर्म उत्पन्न हो वे धर्मनाथ भगवान हम लोगों का अधर्म दूर कर हमारे लिए सुख प्रदान कर । पूर्व धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में नदी के दक्षिण तट पर एक वत्स नाम का देश है । उसमें सुसीमा नाम का महानगर है। वहां राजा दशरथ राज्य करता था, वह बुद्धि, बल और भाग्य तीनों से सहित था। चूंकि उसने समस्त शत्रु अपने वश कर लिये थे इसलिये युद्ध प्रादि के उद्योग से रहित होकर बह शान्ति से रहता था। प्रजा की रक्षा करने में सदा उसकी इच्छा रहती थी और वह बंधुओं तथा मित्रों के साथ निश्चिन्तता-पूर्वक धर्म प्रधान मुखों का उपभोग करता था।
एक बार वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन सब लोग उत्सव मना रहे थे उसी समय चन्द्र ग्रहण पड़ा उसे देखकर राजा दशरथ का मन भोगों से एकदम उदास हो गया । यह चन्द्रमा सुन्दर है, कुवलयों-नीलकमला (पक्ष में महीगण्डल) को आनन्दित करने वाला है और कलाओं से परिपूर्ण है । जब इसकी भी ऐसी अवस्था हुई है तब अन्य पुरुष की क्या अवस्था होगी। ऐसा मानकर उसने महारथ नामक पुत्र के लिए राज्य-भार सौंपा और स्वयं परिग्रहाहित होने से भारहीन होकर संयम धारण कर लिया। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन कर सोलह कारण-भावनाओं का चिन्तयन किया, तीर्थकर नामक पुण्य प्रकृति का बन्ध किया और आयु के अन्त में समाधिमरण कर अपनी बुद्धि को निर्मल बनाया। अब वह सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हमा, तंतोस सागर उसकी आयु श्री, एश हाथ ऊंचा उसका शरीर था, चार सौ निन्यानवें दिन अथवा साढ़े सोलह माह में एक बार कुछ श्वास लेता था । लोक नाड़ो के अन्त तक उसके निर्मल अवधिज्ञान का विषय था, उतना ही दूर तक फैलने वाली विक्रिया तेज तथा बलरूप सम्पत्ति से सहित था। तीस हजार वर्ष में एक बार मानसिक आहार लेता था, द्रव्य और भाव सम्बन्धो दानों शुक्ललेश्यानों से युक्त था।
इस प्रकार वह सर्वार्थसिद्धि में प्रदीचार रहित उत्तम सुख का अनुभव करता था । वह पुण्यशालो जब वहां से चय कर मनुष्य लोक में जन्म लेने के लिए तत्पर हुआ। तत्र इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में एक-रत्नपुर नामका नगर था उसमें कुरुवशा काश्यपगोत्री महातेजस्वी और महालक्ष्मी सम्पन्न महाराज भानु राज्य करते थे उनकी महादेवी का नाम सुप्रभा था, देवों ने रत्नवृष्टि आदि सम्पदानों के द्वारा उसका सम्मान बढ़ाया था। रानी सुप्रभाग पैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन रेवती नक्षत्र में प्रातःकाल के समय सोलह स्वप्न देखे तथा मुख में प्रवेश करता हआ हाथी देखा । जागकर उसने अपने अवधिज्ञानी पति से उन स्वप्ना का फल मालम किया और ऐसा हर्ष का अनुभव किया मानो पुत्र हो उत्पन्न हो गया हो । उसी समय अन्तिम अनुत्त रविमान से-सर्वार्थसिद्धि से वयकर वह अहमिन्द्र रानी के गर्भ में अवतीर्ण हुआ । इन्द्रों ने प्राकर गर्भ कल्याणक का उत्सव किया।
नव माह बीत जाने पर माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन गुरुयोग में उसने अवधिज्ञान रूपी नेत्रों के धारक पुत्र को उत्पन्न किया। उसी समय इन्द्रों ने समेस पर्वत पर ले जाकर बहत भारी सुवर्ण-कलशों में भरे हये क्षीर सागर के जन से उनका अभिषेक कर आभूषण पहिनाये तथा हर्प से धर्मनाथ नाम रक्खा। जब अनन्तनाथ भगवान के बाद चार सागर
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प्रमाण काल बीत चुका और अन्तिम पल्य का आधा भाग जब धर्मरहित हो गया तब धर्मनाथ भगवान का जन्म हुआ था, उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी। उनकी आयु दश लाख वर्ष को थी, शरीर को कान्ति सुवर्ण के समान थी, शरीर की ऊँचाई एक सौ अस्सी हाथ थी। जब उनके कूमारकाल के अढ़ाई लाख वर्ष बीत गये । तब उन्हें राज्य का अभ्युदय प्राप्त हुआ था । वे अत्यन्त ऊंचे थे, अत्यन्त शद्ध थे, दर्शनीय थे, उत्तम श्राश्रय देने वाले थे, और सबका पोषण करने वाले थे अत: शरद्ऋतु को मेघ के समान थे।
अथवा किसी उत्तम हाथी के समान थे क्योंकि जिस प्रकार उत्तम हाथी भद्र जाति का होता है उसी प्रकार वे भी भद्र प्रकृति थे, उत्तम हाथी जिस प्रकार बहु दान बहुत मद से युक्त होता है उसी प्रकार ये भी बहु दान-बहुत दान से युक्त थे, उत्तम हाथी जिस प्रकार सुलक्षण प्रछे-अच्छे लक्षणों सहित होता है उसी प्रकार भी पुरुक्षण पछि सामुद्रिक चिन्हों से सहित थे, उत्तम हाथी जिस प्रकार महान होता है उसी प्रकार वे भी महान्-श्रेष्ठ थे, उत्तम हाथो जिस प्रकार सुकर-उतम सूड से सहित होता है । उसी प्रकार वे भी सुकर—उत्तम हाथों से साहित थे, और उत्तम हाथी जिस प्रकार सुरेभ-उत्तम शब्द से सहित होता है उसी प्रकार वे भी सुरेभ उत्तम-मधुर शब्दों से सहित थे। वे दुर्जनों का निग्रह ओर सज्जनों का अनुग्रह करते थे सो द्वेष अथवा इच्छा के वश नहीं करतेथे अत: निह करते हुए भी वे प्रजा के पूज्य थे। उनकी सगस्त संसार में फैलने वाली कीति यदि लता नहीं थी तो वह कवियों के प्रवचन रूपो जल के सिंचन से आज भी क्यों बढ़ रही है, सुख से सम्भोग करने के योग्य तथा अपने गुणों से अनुरक्त पृथ्वी उनके लिए उत्तम नायिका के समान इच्छानुसार फल देने वाली थी । जब अन्य भव्य जीव इन धर्मनाथ भगवान के प्रभाव से अपने कर्मरूपी शत्रुओं बो, नष्ट कर निर्मल सुख प्राप्त करेंगे तब इनके सुख का वर्णन कैसे किया जा सकता है ?
जब पाँच लाख वर्ष प्रमाण राज्य काल बीत गया तब किसी एक दिन उल्कापात देखने से इन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया। विरक्त होकर वे इस प्रकार चिन्तवन करने लगे-'मेरा यह शरीर कसे, कहां और किससे उत्पन्न हुआ है ? क्रियात्मक है, किसका पात्र है और आगे चलकर क्या होगा ऐसा विचार न कर मुझ मूर्ख ने इसके साथ चिरकाल तक संगति की। पाप संचय कर उसके उदय से मैं ग्राज तक दुःख भोगता रहा । कर्म से प्रेरित हए मुझ दुर्मति ने दुःख को ही सुख मारकर कभी शाश्वत--स्थायी सुख प्राप्त नहीं किया। मैं व्यर्थ ही अनेक भवों में भ्रमण कर थक गया। ये ज्ञान दर्शन मेरे गुण हैं यह मैंने कल्पना भी नहीं की किन्तु इसके विरुद्ध बुद्धि के विपरीत होने से रागादि को अपना गुण मानता रहा। स्नेह तथा मोह रूपी ग्रहों से असा हा यह प्राणी बार-बार परिवार के लोगों तथा धन का पोषण करता है और पाप के संचय से अनेक दुर्गतियों में भटकता है।' इस प्रकार भगवान को स्वयं बद्ध जानकर लौकान्तिक देव पाये और बड़ी भक्ति के साथ इस प्रकार स्तुति करने लगे कि हे देव! आज पाप कृतार्थ--- कृतकृत्य हए। उन्होंने मुधर्म नाम के ज्येष्ठ पुत्र के लिए राज्य दिया, दीक्षाकल्याणक के समय होने वाले अभिषेक का उत्सव प्राप्त किया, नागदत्ता नाम की पालको में सवार होकर ज्येष्ठ देवों के साथ शालवान उद्यान में जाकर दो दिन के उपवास का नियम लिया और माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन सायंकाल के समय पुष्प नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ मोक्ष प्राप्त कराने वाली दीक्षा धारण कर ली।
दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया। वे दूसरे दिन आहार लेने के लिए पताकाओं से सजी हुई पाटलिपुत्र नाम की नगरी में गये । वहां सुवर्ण के समान कान्ति बाले धन्ययेण राजा ने उन उत्तम पात्र के लिए आहार दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । तदनन्तर छमस्थ अवस्था का एक वर्ष बीत जाने पर उन्होंने उसी पुरातन बन में सप्तच्छद वृक्ष के नीचे दो दिन के उपवास का नियम लेकर योग धारण किया और पौषशक्ल पूर्णिमा के दिन सायंकाल के समय पुष्य नक्षत्र में केवल ज्ञान प्राप्त किया । देवों ने चतुर्थ कल्याणक की उत्तम पूजा की । वे अरिष्टरोन को आदि लेकर तैतालीस गणधरों के स्वामी थे, ना सौ ग्यारह पूर्वधारियों से पावत थो, चालीस हजार सात सौ शिक्षकों से सहित थे, तीन हजार छह सौ तीन प्रकार के अवधिज्ञानियों से युक्त थे, भार हजार पाँच सौ केवल ज्ञानी अभी उनके साथ थे, सात हजार विक्रियाऋद्धि के
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धारक उनकी शोभा बढ़ा रहे थे, चार हजार पांच सौ मन:पर्ययज्ञानी उन्हें घेरे रहते थे, दो हजार आठ सौ वादियों के समूह उनकी बन्दना करते थे, इस तरह सब मिलाकर चौंसठ हजार मुनि उनके साथ रहते थे, सुव्रता यादि को लेकर बासठ हजार चार सौ आशिकायें उनकी पूजा करती थीं, वे दो लाख श्रावकों से सहित थे, चार लाख श्राविकाओं से प्रावृत थे, असंख्यात देव देवियों और संख्यात तियंचों में सेवित थे। इस प्रकार बारह सभाओं की सम्पति तथा धर्म की ध्वजा से सुशोभित भगवान ने धर्म का उपदेश दिया ।
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प्रन्स में बिहार बन्द कर वे पर्वतराज सम्मेद शिखर पर पहुंचे और एक माह का योग निरोध कर आठ सौ तो मुनियों के साथ ध्यानारूढ़ हुये । तथा ज्येष्टश्वला चतुर्थी के दिन रात्रि के अन्तिम भाग में सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती और व्युपरत क्रियानिवर्ती नामक शुत्रल ध्यान को पूर्ण कर पुष्य नक्षत्र में मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त हुए। उसी समय सब ओर से देवों ने आकर निर्वाण कल्याणक का उत्सव किया तथा बन्दना की जो पहले भव में त्रुयों को जीतने वाले दशरथ राजा हुए, फिर ग्रहमिन्द्रता को प्राप्त हुए तथा जिनके द्वारा कहे हुए दश धर्म पापों के साथ युद्ध करने में दश रथों के समान आचरण करते हैं वे धर्मनाथ भगवान तुम सबकी रक्षा करें। जिन्होंने समस्त चातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं, जिनका केवल ज्ञान अत्यन्त निश्चल है, जिन्होंने धर्म का प्रतिपादन किया है, जो तीनों शरीरों के नष्ट हो जाने से घायन्त निर्मल है, जो स्वयं अमरत सुख से सम्पन्न हैं और जिन्होंने समस्त श्रात्माओं को शान्त कर दिया है ऐसे धर्मनाथ जिनेन्द्र तुम सबके लिए सुख प्रदान करें ।
श्रथानन्तर इन्हीं धर्मनाथ भगवान के तीर्थ में श्रीमान सुदर्शन नाम का बलभद्र तथा सभा में सबसे बलवान पुरुषसिंह नाम का नारायण हुआ। अतः यहां उनका तीन भव का दर्शित करता हूं। इसी राजगृह नगर में राजा सुमित्र राज्य करता था, वह वहा अभिमान था, बड़ा मल्ल था, उसने बहुत मस्लों को जीत खिया था इसलिए परीक्षक लोग उनकी पूजा किया करते थे- उसे पूज्य मानते थे, वह सदा दूसरों को तृण के समान तुच्छ मानता था और दुष्ट हाथी के समान मदोन्मत था । किसी समय मद से उद्धत तथा मल्लयुद्ध का जानने वाला राजसिंह नाम का राजा उसका गर्व शान्य करने के लिए राजगृह नगरी में आया। उसने बहुत देर तक युद्ध करने के बाद रंगभूमि में स्थित राजा सुमित्र को हरा दिया जिससे वह दांत उखाड़े हुए हाथी के समान बहुत दुःखी हुआ मान भंग होने से उसका हृदय एकदम टूट गया, वह राज्य का भार धारण करने में समर्थ नहीं रहा पयः उसने राज्य पर पुत्र को नियुक्त कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि मान ही भानियों के प्राण है।
निर्वेद से भरा हुआ राजा सुमित्र कृष्णाचार्य के पास पहुंचा और उनके द्वारा कहे हुए धर्मोपदेश को सुनकर दीक्षित हो गया सो ठीक ही है क्योंकि मनस्वी मनुष्यों को यही योग्य है । यद्यपि उसने क्रम क्रम से सिहनिष्कीडित आदि कठिन तप किये तो भी उनके हृदय में अपने राज्य का सकलेश बना रहा अतः ग्रन्त में उसने ऐसा विचार किया कि यदि मेरी इस पदच का फल अन्य जन्म में प्राप्त हो तो मुझे ऐसा महान् थल और पराश्रम प्राप्त होते जिससे में शत्रुओं को जीत सकूँ । ऐसा निदान कर वह संभ्यास से मरा और माहेन्द्र स्वर्ग में सात सायर की स्थिति वाला देव हुआ। वह वहां भोगों को भोगता हुमा चिरकाल तक सुख से स्थित रहा। तदनन्तर इसी जम्बुद्वीप में मेरा पर्वत के पूर्व की ओर बीजांकापुरी नाम की नगरी है। उसमें ऐश्वर्यशाली नरवृषभ नाम का राजा राज्य करता था। उसने वाभ्यांतर प्रकृति के कोप से रहित राज्य भोगा, बहुत भारी सुख 'भोगे और पन्त में विरक्त होकर समस्त राज्य त्याग दिया और दमपर मुनिराज के पास दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली ।
अपनी विशाल आयु कठिन तप से बिताकर वह सहस्रार स्वर्ग में अठारह सागर की स्थिति वाला देव हुआ । प्राण प्रिय देवांगनाओं को निरन्तर देखने से उसने अपने टिपकार रहित नेत्रों का फल किया और आयु के अन्त में शान्तचित्त होकर इसी जम्बूद्वीप के लगत्तुर नगर के इक्ष्वाकुवंशी राजा सिंहसेन की विजया रानी से सुदर्शन नाम का पुत्र हुआ। इसी राजा की अम्बिका नाम की दूसरी रानी के सुमित्र का जीव नारायण हुआ वे दोनों भाई पैतालीस पनुप ऊबे ने घोर दश लाख वर्ष की आयु के धारको एक दूसरे के अनुकूल बुद्धि रूप और बल से सहित उन दोनों भाइयों ने समस्त
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शत्रनों पर प्राक्रमण कर प्रात्मीय लोगों को अपने गुणों से अनुरक्त बनाया था। यद्यपि उन दोनों की लक्ष्मी अविभक्त थीपरस्पर बाँटी नहीं गई थी तो भी उनके कोई दोष उत्पन्न नहीं करती श्री मो ठीक ही है क्योंकि जिनका चित्त शुद्ध है उनके लिए सभी वस्तुएं शुद्धता के लिए ही होती है।
अथान्तर इसी भरतक्षेत्र के कुरुजांगल देश में एक हस्तिनापुर नाम का नगर है उसंग मधुनोड़ नाम का राजा राज्य करता था। वह सुमित्रा को जीतने वाले राज सिंह का जीव था। उसने समस्त शत्रुग्री के सगुह की जो लिया था, वह तेजी से चढ़ते हुए वलभद्र और नारायण को नहीं सह सका इसलिए उस बलवान् ने कर --स्वरूप मानेको श्रेष्ठ रत्न मांगने के लिए दण्ड गर्भ नाम का प्रधान मंत्री भेजा। जिस प्रकार हाथी के कण्ठ का शब्द सुनकर सिंह कब हो जाते हैं उसी प्रकार सूर्य के समान तेज के धारक दोनों भाई प्रधान मंत्री के शब्द सुनकर ऋद्ध हो उठे। और कहने लगे कि वह पूर्मलने के लिए सांपों से भरा हुमा कर माँगता है सो यदि वह पास आया तो उसके लिए वह कर अवश्य दिया जावेगा। इस प्रकार त्रोध से वे दोनों भाई कठोर शब्द कहने लगे और उस मन्त्री ने शीघ्र ही जाकर राजा मधुकीड़ को इसकी खबर दी। राजा मधुकीड़ भी उनके दुर्वचन मनकर त्रोध से लाल हो गया और उनके साथ युद्ध करने के लिए बहुत बड़ी सेना लेकर चला। यब करने में चतुर नारायण भी उसके सामने पाया, उसपर अाक्रमण किया, चिरकाल तक उसके साथयुद्ध किया और अन्त में उसी के चलाये हार पत्र से शीघ्र उसका शिर काट डाला। दोनों भाई तीन खण्ड के अधीश्वर बनकर राज्यलक्ष्मी का उपभोग करते रहे। उनमें नारायण, प्राय का अन्त होने पर सातवे नरक गया। उसके शोक में बलभद्र ने धर्मनाथ तीर्थकर की शरण में जाकर दीक्षा ले ली और पापों के ममूह को नष्ट कर परम पद प्राप्त किया।
देखो, दोनों ही भाई शत्रसेना को नष्ट करने वाले थे, अभिमानी थे, चर वीर थे, एण्य के फल का उपभोग करने वाले थे. और तीन खण्ड के स्वामी थे फिर भी इस तरह दुष्ट कर्म के द्वारा अलग-अलग कर दिये गये । मोह के उदय से पाप का फल नारायण को प्राप्त हुआ इसलिए पापों को प्रथीनता को धिक्कार है। पुरुषसिंह नारायण, पहले प्रसिद्ध राजगृह नगर में सुमित्रा नाम का राजा था, फिर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुया, वहाँ से च्युत होकर इस खगपुर नगर में पुरुपसिंह नाम का नारायण हमा और उसके पश्चात भयंकर सातव नरक में नारको हुना। मधुक्रीड़ नारायण पहले मदोन्मत्त हाथियों को वश में करने वाला राजसिंह नाम का राजा था, फिर मार्ग भ्रष्ट होकर चिरकाल तक संसाररूपी वन में भ्रमण करता रहा, तदनन्तर धर्म मार्ग का अवलम्बन कर हस्तिनापुर नगर में मधुकीड़ नाम का राजा हया और उसके पश्चात दुर्गति को प्राप्त हया। सदर्शन बलभद्र पहले प्रसिद्ध वीतशोक नगर में नरवृषभ नामक राजा था, फिर चिरकाल तक घोर तपःमरण कर पसार स्वर्ग में देव हया, फिर वहां से चय कर खगपुर नगर में शत्रमों का बल नष्ट करने वाला बलभद्र हुना सौर फिर टामा का घर होता हुआ मरणरहित होकर क्षायिक सुख को प्राप्त हुमा।
इन्हीं धर्मनाथ तीर्थकर के तीर्थ में तीसरे मघवा चक्रवर्ती हए इसलिए तीसरे सब से लेकर उनका पुराण कहता हूं। श्री बासपूज्य तीर्थकर के तीर्थ में नरपति नाम का एक बड़ा राजा था वह भाग्योदय में प्राप्त हुए भोगों को भोग कर विरक्त इना और उत्कृष्ट तपश्चरण कर मरा । अन्त में पूण्योदय से मध्यम |बेयक में अहमिन्द्र हुमा । सत्ताईम सागर तक मनोहर दिव्य भोगों को भोगकर वह वहां से च्युत हुग्रा और धर्मनाथ तीर्थकर के अन्तराल में कोशल नामक मनोहर देश की अयोध्यापरी के स्वामी इक्ष्वाकुवंशी राजा सुमित्रा की भद्रारानी से मघवान् नाम का पुण्यात्मा पुत्र हुँआ । यही धागे चलकर भरतक्षेत्र का स्वामी चक्रवर्ती होगा। उसने पांच लाख वर्ष की कल्याणकारी उत्कृष्ट आयु प्राप्त की थी। माड़े चालीस धनुष ऊंचा उसका शरीर था, सवर्ण के समान शरीर की कीति थी। वह प्रतापी छह खण्डों से सुशोभित पृथ्वी का पालन कर चौदह महारत्नों से विभूषित एवं नौ निधियों का नायक था। वह मनुष्य, विद्याधर और इन्द्रों को अपने चरणयुगल' में झुकाता था । चक्रबतियों की विभूति के प्रमाण में कही हई-छयानवे हजार देवियों के साथ इच्छानुसार दश प्रकार के भोगों को भोगता हुप्रा बह अपने मनोरथ पूर्ण करता था। किसो एक दिन मनोहर नामक उद्यान में अकस्मात् अभयघोप नामक केबली पधारे। उस बुद्धिमान ने उनके दर्शन कर तीन प्रदक्षिणाएं दी, वन्दना की, धर्म का स्वरूप सुना, उनके समीप तत्वों के सद्भाव का ज्ञान प्राप्त किया,
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विषयों से अत्यात विरक्त होकर प्रियमित्र नामक पुत्र के लिए साम्राज्यपद की विभूति प्रदान की और बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर संयम धारण कर लिया।
वह मद्ध सम्यग्दर्शन तथा निर्दोष चरित्र का धारक था, शास्त्र ज्ञानरूपी सम्पत्ति से सहित था, उसने द्वितीय शुक्लध्यान के द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मों का घात कर दिया था। अब वे नौ केवल लब्धियों के स्वामी हो गये तथा धर्मनाथ तीर्थकर के समान धर्म का उपदेश देवर अनेक भव्य जीवों को अतिशय श्रेष्ठ मोक्ष पदवी प्राप्त कराने लगे । अन्त में शुक्ल ध्यान के तृतीय और चतुर्थ भेद के द्वारा उन्होंने अघाति चतुक का क्षय कर दिया और पुण्य-पाप कर्मों से विनिमुक्त होकर अविनाशी मोक्ष प्राप्त किया । तीसरा चक्रवर्ती मधवा पहले वासुपूज्य स्वामी के तीर्थ में नरपति नाम का राजा था फिर उत्तम शांति से युक्त थेष्ठ चारित्र के प्रभाव से बड़ी ऋद्धि का धारक अहमिंद्र हुआ, फिर समस्त पुण्य से युक्त मधवा नाम का तीसरा चक्रवर्ती हुया और तत्पश्चात् मोक्ष के धेष्ठ सुख को प्राप्त हुआ। अयानन्तर-मधवा चक्रवर्ती के बाद ही अयोध्या नगरी के अधिपति, सूर्यवंश के शिरोमणि राजा अनन्तवीर्य की सहदेवी रानी के सोलहवें स्वर्ग से पाकर सनतकुमार नाम का पुत्र हुआ। वह चक्रवर्ती की कमी का पिए नपा : उसकी वासु तीन लाख वर्ष की थी, और शरीर को ऊंचाई पूर्व चक्रवर्ती के शरीर की ऊंचाई के समान साढ़े ब्यालीस धनुष थी। सवर्ण के समान कांति वाले उस चक्रवर्ती ने समस्त पृथ्वी को अपने अधीन कर लिया था । दश प्रकार के भोगों के समागम से उसकी समस्त इन्द्रियाँ सन्तृप्त हुई थीं। वह याचकों के संकल्प को पूर्ण करने वाला मानों बड़ा भारी कल्पवृक्ष ही था। हिमवान पर्वत से लेकर दक्षिण समुद्र तक की पृथ्वी के बीच जितने राजा थे उन सबके ऊपर आधिपत्य को विस्तृत करता हुआ वह बहुत भारी लक्ष्मी का उपभोग करता था ।
इस प्रकार इधर इनका समय सुख से व्यतीत हो रहा था उधर सौधर्म इन्द्र की सभा में देवों ने सौधर्मेन्द्र से पूछा कि क्या कोई इस लोक में सनतकुमार इन्द्र के रूप को जीतने वाला है? सौधर्मेन्द्र ने उत्तर दिया कि हाँ, सनतकुमार चक्रवर्ती सर्वाग सन्दर है। उसके समान रूप वाला पुरुष कभी किसी ने स्वप्न में भी नहीं देखा है। सौधर्मेन्द्र के वचन को कौतुहल हुया और वे उसका रूप देखने की इच्छा से पृथ्वी पर पाये। जब उन्होंने सनत कुमार चक्रवर्ती को देखा तव सौधर्मेन्द्र का कहना ठीक है ऐसा कहकर वे बहुत ही हर्षित हुए। उन देवों ने सनतकुमार चक्रवर्ती को अपने पाने का कारण बतलाकर कहा कि हे बुद्धिमान् ! चक्रवतिन् ! चित्त को सावधान कर सुनिये-यदि इस संसार में आपके लिये रोग, बुढ़ापा दःख तथा मरण की सम्भावना न हो तो आप अपने सौन्दर्य से तीर्थकर को भी जीत सकते हैं। ऐसा कहकर वे दोनों देव शीघ्र ही अपने स्थान पर चले गये। राजा सनतकुमार उन देवों के वचनों से ऐसा प्रतिबुद्धि हुअा मानो काललब्धि ने ही पाकर उसे प्रतिबद्धि कर दिया हो। वह चिन्तवन करने लगा कि मनुष्य के रूप, यौवन, सौन्दर्य सम्पत्ति और सुख यादि बिजली रूप लता के विस्तार से पहले ही नष्ट हो जाने वाले हैं। मैं इन नश्वर सम्पत्तियों को छोड़कर पापों का जीतने वाला बनूंगा और शीघ्र ही इस शरीर को छोड़कर अशरीर अवस्था को प्राप्त होऊंगा। ऐसा विचार कर उन्होंने देवकुमार नामक पुत्र के लिए राज्य देकर शिवगुप्त जिनेन्द्र के समीप अनेक राजायों के साथ दीक्षा ले ली। बे अहिंसा आदि पांच महानतों से पूज्य थे, ई यादि पांच समितियों का पालन करते थे, छह आवश्यकों से उन्होंने अपने पाप को वश कर लिया था, इन्द्रियों की सन्तति को रोक लिया था, वस्त्र का त्याग कर रखा था, पृथ्वी पर शयन करते थे, कभी दातीन नहीं करते थे; खड़े-खड़े एक बार भोजन करते थे। इस प्रकार अाईस मूल गुणों से अत्यन्त शोभायमान थे।
तीन काल में योग धारण करना, वीरासन आदि आसन लगाना तथा एक करवट रो सोना आदि शास्त्रों में कहे हुए उतर गुणों का निरन्तर यथायोग्य आचरण करते थे। वे पृथ्वी के समान क्षमा के धारक थे, पानी के समान प्राश्रित मनुष्यों के सन्ताप को दूर करते थे, पर्वत के समान अकम्प थे, परमाण के समान निःसंग थे, प्रकाश के समान निलप थे, समुद्र के समान गम्भीर थे, चन्द्रमा के समान सवको आह्लादित करते थे, सूर्य के समान देदीप्यमान थे, तपाये हुए सुवर्ण के समान
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भीतर-बाहर शुद्ध थे, दर्पण के समान समदर्शी थे, कछुवे के समान संकोची थे, सांप के समान कहीं अपना स्थिर निवास नहीं बनाते थे, हाथी के समान चुपचाप गमन करने थे, शृंगाल के समान सामने देखते थे, उत्तम सिंह के समान शुरवीर थे और हरिण के समान सदा विनिद्र - जागरूक रहते थे । उन्होंने सब परिषह जीत लिये थे, सब उपसर्ग सह लिये थे और विक्रिया यदि अनेक ऋद्धियां प्राप्त कर ली थीं। उन्होंने क्षपक श्रेणी पर ग्रारूढ़ होकर दो शुक्लध्यानों के द्वारा घातिया कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया था तदनन्तर अनेक देशों में विहार कर अनेक भव्य जीवों को समीचीन धर्म का उपदेश दिया योर कुमार्ग में चलने वाले मनुष्यों के लिये दुर्गम मोक्ष का समोचीन म सबको बतलाया जब उनकी आयु अन्तर्मुहुर्त की रह गई तब तीनों योगों का निरोध कर उन्होंने समस्त कर्मों के क्षय से प्राप्त होने वाला पविनाशो गोक्ष पद प्राप्त किया जिन्होंने अपने जिनेन्द्र के समान शरीर से सनतकुमार इन्द्र को जीत लिया, जिन्होंने अपने पराक्रम के बल से दिशाओं के समूह पर श्रा मग किया और धर्म द्वारा पापों का समूह नष्ट किया वे श्री सनतकुमार भगवान् तुम सब के लिए शीघ्र ही लक्ष्मीप्रदान करें।
भगवान् शान्तिनाथ
संसार को नष्ट करने वाले जिन घातिनाथ भगवान का ज्ञान, पर्याय सहित समस्त द्रव्यों को जानकर मागे जानने योग्य द्रव्य न रहने से विधान्त हो गया वे शान्तिनाथ भगवान तुम सबको शान्ति के लिए हों पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को देखने वाला विद्वान पहले वक्ता, श्रोता तथा कथा के भेदों का वर्णन कर पीछे गम्भीर अर्थ से भरी हुई धर्मकथा कहे। विद्वान होना, श्रेष्ठ चारित्र धारण करना, दयालु होना, बुद्धिमान होना, बोलने में चतुर होना, दूसरों के इशारे को समझ लेना, प्रश्नों के उपद्रव को सहन करना, मुख अच्छा होना, सोक व्यवहारका जाता हो, पूजा से युक्त होना और थोड़ा बोलना, इत्यादि धर्मापदेश देने वाले के गुण हैं। यदि वक्ता तत्वों का जानकार होकर भी चारित्रों से रहित होगा तो यह कहे अनुसार स्वयं ग्राचरण क्यों नहीं करता ऐसा सोचकर साधारण मनुष्य उसको बात को ग्रहण नहीं करेंगे। यदि वक्ता सम्यक चारित्र से युक्त होकर भी शास्त्र का ज्ञाता नहीं होगा तो वह घोड़े से शास्त्र ज्ञान से उद्धत हुए मनुष्यों के हास्ययुक्त वचनों से समीचीन मोक्ष मार्ग की हंसी करावेगा। जिस प्रकार ज्ञान और दर्शन जीव का प्रवाधित स्वरूप है उसी प्रकार विद्वता और सच्चरित्रता वक्ता का मुख्य लक्षण है। यह योग्य है अथवा अयोग्य है ? इस प्रकार कही हुई बात का अच्छी तरह विचार कर सकता हो, अवसर पर योग्य वात के दोष कह सकता हो, उस बात को भक्ति से ग्रहण करता हो, उपदेश श्रवण के पहले ग्रहण किये हुए प्रसार उपदेश में जो विशेष प्रादर अथवा हठ नहीं करता हो, भूल हो जाने पर जो हंसी नहीं करता हो, गुरु भक्त हो, क्षमावान हो, संसार से डरने वाला हो, कहे हुए वचनों को धारण करने में तत्पर हो, तोता मिट्टी अथवा हंस के गुणों से सहित हो वह श्रोता कहलाता है। जिसमें जीव सजीव आदि पदार्थों का अच्छी तरह निरूपण किया हो, दान पूजा तप और शील की वर्णन विशेषताऐं विशेषता के साथ बतलाई जाती हों, जीवों के लिए बन्ध, मोक्ष तथा उनके कारण और फलों का पृथक-पृथक किया जाता हो, जिसमें सत् खीर असत की कल्पना युक्ति से की जाती हो, जहां माता के समान हित करने वाली दया का खूब वर्णन हो और जिनके सुनने से प्राणी सर्वपरिग्रह का त्याग कर मोक्ष प्राप्त करते हों वह तत्वधर्म कथा कहलाती है इसका दूसरा नाम धर्मकथा भी है। इस प्रकार वक्ता, श्रोता और धर्मकथा के लक्षण कहे । अब इसके श्रागे शान्तिनाथ भगवान का विस्तृत चरित्र कहता हूँ।
अवान्तर—जो समस्त द्वीपों का स्वामी है और लवण समुद्र का नीला जल ही जिसके बड़े शोभायमान वस्त्र हैं ऐसे जम्बूद्वीप रूपी महाराज के मुख की घोभा को धारण करने वाला, छह खण्डों से सुशोभित, लवणसमुद्र तथा हिमवान् पर्वत के मध्य स्थित भरत नाम का एक अभीष्ट क्षेत्र है । वहाँ भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले भोगों को आदि लेकर चक्रवर्ती दश प्रकार के भोग, तीर्थंकरों का ऐश्वर्य और ग्रघातिया कर्मों के भय से प्रकट होने वाली सिद्धि-मुक्ति भी प्राप्त होती है इसलिए विद्वान लोग उसे स्वर्गलोक से भी श्रेष्ठ कहते हैं उस क्षेत्र में ऐरावत क्षेत्र के समान वृद्धि और सास के द्वारा परिवर्तन होता रहता है। उसके ठीक बीच में भरतक्षेत्र का प्राधा विभाग करने वाला, पूर्व से पश्चिम तक लम्बा तथा ऊंचा विजवार्थ पर्वत सुशाभित
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होता है जो कि उज्ज्वल यश के समूह के समान जान पड़ता है । अथवा चांदी का बना हुमा वह विजयाध-पर्वत ऐसा जान पड़ता है कि स्वर्ग लोक को जीतने से जिसे संतोष हुमा है ऐसी पृथ्वी रूपी स्त्री का इकट्ठा हुमा मानो हास्य ही हो ।
हमारे ऊपर पड़ी हुई वृष्टि सदा सफल होती है और तुम लोगों के ऊपर पड़ी हुई वृष्टि कभी सफल नहीं होती इस प्रकार वह पर्वत अपने तेज से सुमेरु पर्वतों की मानो हंसी ही करता रहता है। ये नदियां चंचल स्वभाव वाली हैं, जल से (पक्ष में जड़धि-मूर्ख) को प्रिय हैं इसलिए घृणा से ही मानो उसने गंगा-सिन्धु इन दो नदियों को अपने गुहारूपी मुख से वमन कर दिया था। वह पर्वत चक्रवर्ती का अनुकरण करता था क्योंकि जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने आश्रम में रहने वाल देव और विद्याघरों के द्वारा सदा सेवनीय होता है और समस्त इन्द्रिय-सुखों का स्थान होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी अपने माश्रय में रहने वाले देव मौर विद्याधरों से सदा सेवित था और समस्त इन्द्रिय सुखों का स्थान था। उस विजया पर्वत की दक्षिण श्रेणी में रथनपर चक्रवाल नाम की नगरी है जो अपना पताकाओं से आकाश को मानो बलाकाओं से सहित हो करती रहती है। वह मेघों को चूमने वाले रत्नमय कोट से घिरी हुई है इसलिए ऐसी जान पड़तो है मानो रत्न की वेदिका से घिरी हुई जम्बूद्वीप की भूमि ही हो। वहां धर्म, अर्थ पीर काम ये तीन पुरुषार्थ हर्ष से बढ़ रहे थे और दरिद्र शब्द कहीं बाहर से भी नहीं दिखाई देता था-सदा छुपा रहता था।
जिस प्रकार अन्य मतावलम्बियों के लिए दुर्गम-कठिन प्रमाण, नय, निक्षेप और अनुयोग इन चार उपायों के द्वारा पदार्थों की परीक्षा सुशोभित होती है उसी प्रकार शत्रुनों के लिए दूर्गम-दुःख से प्रवेश करने के योग्य चार गोपुरों से वह नगरी सुशोभित हो रही थी। जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान को विद्या में प्रचारित्र-असंयम का उपदेश देने वाले वचन नहीं हैं उसी प्रकार उस नगरी में शीलरूपी प्राभूषण से रहित कुलवती स्त्रियाँ नहीं थी। ज्वलनजटी विद्याधर उस नगरी का राजा था, जो अत्यन्त कुशल था और जिस प्रकार मणियों का आकार स्थान-समुद्र है उसी प्रकार वह गुण मनुष्यों का साकार था। जिस प्रकार सूर्य के प्रताप से नये पते मुरझा जाते हैं उसी प्रकार उसके प्रताप से शत्रु मुरझा जाते थे-कान्ति हीन हो जाते थे और जिस प्रकार वर्षा से लताएं बढ़ने लगती हैं उसी प्रकार उसको नीति से प्रजा सफल होकर बढ़ रही थी। जिस प्रकार यथा समय यथास्थान बोये हुए धान उत्तम फल देते हैं उसी प्रकार उसके द्वारा यथा समय यथा स्थान प्रयोग किये हुए साम आदि उपाय बहुत फल देते थे। जिस प्रकार आगे की संख्या पिछली संख्याओं से बड़ी होती है उसी प्रकार वह राजा पिछले समस्त राजाओं को अपने गुणों और स्थानों से जीतकर बड़ा हुआ था। उसकी समस्त सिद्धियां देव और पुरुषार्थ दोनों के प्राधीन थी, वह मंत्री आदि मूल प्रकृति तथा प्रजा आदि बाह्य प्रकृति के क्रोध से रहित होकर स्वराष्ट्र तथा परराष्ट्र का विचार करता था, उत्साह शक्ति, मन्त्र शक्ति और प्रभुत्व शक्ति इन तीन शक्तियों तथा इनसे निष्पन्न होने वाली तीन सिद्धियों को अनुकलता से उसे सदा योग और क्षेम का समागम होता रहता था, साथ ही वह सन्धि विग्रह यान प्रादि छह गुणों को अनुकूलता रखता था इसलिए उसका राज्य निरन्तर बढ़ता ही रहता था।
उसी विजया पर द्युतिलक नाम का दूसरा नगर था। राजा चन्द्राम उसमें राज्य करता था, उसकी रानी का नाम सभद्रा था। उन दोनों के वायुवेना नाम की पुत्री थी। उसने अपनी वेगविद्या के द्वारा समस्त वेगशाली विद्याधर राजामों को जीत लिया था। उसकी कान्ति चमकती हुई बिजली के प्रकाश को जीतने वाली थी। जिस प्रकार भाग्यशाली पुरुषार्थी मनु-य की बुद्धि उसकी त्रिवर्ग सिद्धि का कारण होती है उसी प्रकार समस्त गुणों से विभूषित वह वायुवेगा राजा ज्वलनजटी की त्रिवर्म सिद्धि का कारण हुई थी। प्रतिपदा के चन्द्रमा की रेखा के समान वह सब मनुष्यों के द्वारा स्तुत्य थी। तथा अनुराग से भरी हई द्वितीय भूमि के समान वह अपने ही पुरुषार्थ से राजा उबलन के मोगने योग्य हुई थी। वायुवेगा के प्रेम की प्रेरणा से ज्वलनजटीने अनेक ऋद्धियों से युक्त राजलक्ष्मी को उसका परिकर-दासी बना दिया था सो ठीक ही है क्योंकि अलभ्य वस्तु के विषय में मनुष्य क्या नहीं करता है ? बड़े कुल में उत्पन्न होने से तथा अनुराग से युक्त होने के कारण उस पतिव्रता के एक पतिव्रत था और प्रेम की अधिकता से उस राजा के एकपत्नीव्रत था ऐसा लोग कहते हैं।
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जिस प्रकार इन्द्राणी में इन्द्र को लोकात्तर प्रीति होती है उसी प्रकार उसमें ज्वलनजटी को लोकोत्तर प्रीति थी फिर उसके रूपादि गुणों का पृथक पृथक् क्या वर्णन किया जावे। जिस प्रकार दया और सम्यग्ज्ञान से मोक्ष होता है उसी प्रकार उन दोनों के अपनी कीति की प्रभा से तीनों लोको को प्रकाशित करने वाला अकंकीति नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। जिस प्रकार नीति और पराक्रम से लक्ष्मी होती है उसी प्रकार उन दोनों के सबका मन हरने वाली स्वयंप्रभा नाम की पुत्री भी उत्पन्न हुई जो अर्कोति के साथ इस प्रकार बढ़ने लगी जिस प्रकार कि चन्द्रमा के साथ उसकी प्रभा बढ़ती है वह मुख से कमल को, नेत्रों से उत्पल को, आभा से मणिमय दर्पण को और कान्ति से चन्द्रमा को जीत कर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो भौंहरूप पताका हो फट्टा रही हो। लता में फूल के समान ज्यों ही उसके शरीर में योवन उत्पन्न हुआ त्यों हो उसने काम विद्याधरों में कामज्वर उत्पन्न कर दिया कुछ-कुछ पीले और सफेद कपोलों को कान्ति से सुशोभित मुल-मंडल पर उसके नेत्र बड़े चल हो रहे थे जिससे वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कमर को पतली देख उसके टूट जाने के भय से ही नेत्रों को चंचल कर रही हो। उस दुबली-पतली स्वयंप्रभा की इन्द्रनील मणि के समान कान्तिवाली पतली रोमसजी ऐसी जान पड़ती थी मानो उछल कर ऊंचे स्थूल थोर निविड़ स्तनों पर चढ़ना ही चाहती हो । यद्यपि कामदेव ने उसका स्पर्श नहीं किया जा तथापि प्राप्त हुए यौवन से ही वह कामदेव के विकार को प्रकट करती हुई-सी मनुष्यों के दृष्टिगोचर हो रही थी ।
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अथानन्तर किसी एक दिन जग-नन्दन और नाभिनन्दन नाम के दो चारण ऋषि मुनिराज मनोहर नामक उद्यान में आकर विराजमान हुए । उनके आगमन की खबर देने वाले वनपाल से यह समाचार जानकर राजा चतुरंग सेना, पुत्र तथा अन्तःपुर के साथ उनके सो गया। वहां वन्दता कर उसने श्रेष्ठ धर्म का स्वरूप सुना, बड़े आदर से सम्यग्दर्शन तथा दान शीलयादि व्रत ग्रहण किये, तदनन्तर भक्तिपूर्वक उस चारणऋद्विचारों मुनियों को प्रमाण कर यह नगर में वापिस आ गया। स्वयंप्रभा ने भो वहां मोदी धर्म ग्रहण किया। एक दिन उसने पर्व के समय उपवास किया जिससे उसका शरीर कुछ म्लान हो गया । उसने अर्हन्त भगवान का पूजा को तथा उनके चरण कमलों के सम्पर्क से पवित्र पाप हारिणो विचित्र माला विनय सेक कर दोनों हाथों से पिता के लिए दी। राजा ने भक्ति पूर्वक वह माला लेकर उपवास से की हुई स्वयंत्रभा की घोर देखा, "जायो पारणा करो' यह कह उसे विदा किया। पुत्री के चबा पर राजा मन ही मन विचार करने लगा कि जी यौवन से परिपूर्ण समस्त रंगों से सुन्दर है ऐसी यह पुत्रो किसके लिये देनी चाहिये । उसने उसी समय मन्त्रिवर्ग को बुलाकर प्रकृत बात कही, उसे सुन कर सतनाम का मंत्री परीक्षा कर तथा अपने मन में निश्चय कर बोला।
( कि इसी विजया की उत्तर श्रेणी में अलका नगरी के राजा मयूरग्रीव हैं, उनको स्त्रो का नाम नीलाजंना है उन दोनों के अश्वपीय, नीलरव, नीलकण्ठ, सुकण्ठ धीर वचकंड नाम के पांच पुत्र हैं। इनमें परवोध सबसे बड़ा है । अश्वग्रीव की स्त्री का नाम कनकचित्रा है उन दोनों के रत्नग्रोव रत्नागंद रत्नमूड तथा रत्नरथ आदि, पांच सौ पुत्र है। शास्त्रज्ञान का सागर हरियम इसका मंत्री है तथा मतबिन्दु निमिज्ञानी है-पुरोहित है जो कि टांग निमित्तज्ञान में अतिशय निपुण है। इस प्रकार वो सम्पूर्ण राज्य का अधिपति है और दोनों श्रेणियों का स्वामी है अतः इसके लिए ही कन्या देनी चाहिए। इसके बाद त मंत्री के द्वारा कही हुई बात का विचार करता हुआ बहुश्रुत मंत्री राजा से अपने हृदय की बात कहने लगा। वह बोला कि सुश्रुत मन्त्री ने जो कुछ कहा है वह यद्यपि ठीक है तो भी निम्नांकित बात विचारणीय है। कुलीनता, आरोग्य, यवस्था शील, श्रुत, शरीर, लक्ष्मी, पक्ष और परिवार, बर के ये नौ गुण कहे गये हैं। अश्वग्रीव में यद्यपि ये सभी गुण विद्यमान हैं किन्तु उसकी अवस्था अधिक है, अतः कोई दूसरा वर जिसकी अवस्था कन्या के समान हो और गुण अश्वग्रीव के समान हों, खोजना चाहिए।
मगनवलपुर का राजा चित्ररथ प्रसिद्ध है. मेघपुर में श्रेष्ठ राजा पद्मरथ रहता है, विषपुर का स्वामी परिजय है। त्रिपुरनगर में विद्याधरों का राजा ललितांगद रहता है, अश्वपुर का राजा कनकरथ विद्या में प्रत्यन्त कुशल हैं, और महारत्न
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पुर का राजा धनंजय समस्त विद्याधरों का स्वामी है। इनमें से किसी एक के लिए कन्या देनी चाहिये यह निश्चय है। बहुध त के वचन हृदय में धारण कर तथा विचार कर स्पतिरुणी नेत्र को धारण करने वाला थत नाम का तीसरा मंत्री निम्नांकित मनोहर वचन कहने लगा । यदि कुल, पारोग्य वय और रूप प्रादि से सहित बर के लिए कन्या देना चाहते हो तो मैं कुछ कहता हूं उसे थोड़ा सुनिये । इसी विजयाई पर्वत की उत्तर श्रेणी में सुरेन्द्रकान्तार नाम का नगर है उसके राजा का नाम मेघवाहन है। उसके मेघमालिनी नाम की बल्लभा है । उन दोनों के विद्युत्प्रभ नाम का पुत्र और ज्योतिर्माला नाम की निर्मल पुत्री है। खगेन्द्र मेघवाहन उन दोनों पुत्र-पुत्रियों से ऐसा समृद्धिमान सम्पन्न हो रहा था जैसा कि कोई पुण्य कर्म और सवद्धि से होता है। अर्थात पुत्र पुण्य के समान था और पुत्री बद्धि के समान थी। किसी एक दिन मेघवाहन स्तुति करने के लिए सिद्धकट गया था। वहां पर धर्म नाम के अवधिज्ञानी चारणऋद्धिधारी मुनि की वन्दना कर उसने पहले तो धर्म का स्वरूप सुना और बाद में अपने पुत्र के पूर्व भव पूछे । मुनि ने कहा कि हे विद्याधर । चित्त लगाकर सुनो, मैं कहता हूं।
जम्बुद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्सकावती नाम का देश है उसमें प्रभाकरी नाम को नगरी है वहां सुन्दर आकार वाला मन्दन नाम का राजा राज्य करता था । जयसेना स्त्री के उदर से उत्पन्न हुआ विजयभद्र नाम का इसका पुत्र था। उस विजयभद्र ने किसी दिन मनोहर नामक उद्यान में फैला हुआ ग्राम का वृक्ष देखा फिर कुछ दिन बाद उसी वृक्ष को फलरहित देखा। यह देख उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया और विहितासव गुरु से चार हजार राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया। प्राय के अन्त में माहेन्द्र स्वर्म के चक्र नामक विमान में सात सागर की आयु वाला देव हुआ। वहां चिरकाल तक दिव्य-भोगों का उपभोग करता रहा । वहां से च्युत होकर यह तुम्हारा पुत्र हुआ है और इसी भव से निर्वाण को प्राप्त होगा। श्रुतसागर मन्त्री कहने लगा कि मैं भी स्तुति करने के लिये सिद्धकट जिनालय में बट धर्म नामक चारण मुनि के पास गया था वहीं यह सब मैंने सुना है।
इस प्रकार विद्युत्प्रभ वर के योग्य समस्त गुणों में सहित है उसे ही कन्या दी जावे और उसकी पुण्यशालिनी बहिन ज्योतिर्माला को हम लोग अर्ककीर्ति के लिए स्वीकृत करें। इस प्रकार श्र तसागर के वचन सुनकर विद्वानों में अत्यन्त श्रेष्ठ सुमति नाम कामंत्री बोला कि इस कन्या को पृथक-पृथक् अनेक विद्याधर राजा चाहते हैं इसलिए विद्युत्प्रभ को कन्या नहीं देनी चाहिए क्योंकि ऐसा करने से बहुत राजाओं के साथ बर हो जाने की सम्भावना है मेरी समझ से तो स्वयंवर करना ठीक होगा। ऐसा कह कर वह चुप हो गया । सब लोगों ने यही बात स्वीकृत कर ली, इसलिए विद्याधर राजा ने सब मंत्रियों को विदा कर दिया और संभिन्नश्रोत नामक निमित्तज्ञानी से पूछा कि स्वयंप्रभा का हृदयबल्लभ कौन होगा ? पुराणों के अर्थ को जानने वाले निमित्त-ज्ञानी ने राजा के लिये निम्न प्रकार उत्तर दिया। वह कहने लगा कि भगवान ऋषभदेव ने पहले पूराणों का वर्णन करते समय प्रथम चक्रवर्ती से, प्रथम नारायण से सम्बन्ध रखने वाली एक कथा कही थी। जो इम प्रकार है
इसी जम्बद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में एक पुष्कलावती नाम का देश है उसकी पुण्डरीकिणी नगरी के समीप ही मधक नाम के वन में पुरुरवा नाम का भीलों का राजा रहता था। किसी एक दिन मार्ग भूल जाने से इधर-उधर घूमते हए सागरसेन मुनिराज के दर्शन कर उसने मार्ग से ही पूण्य का संचय किया तथा मद्य मांस मधु का त्याग कर दिया । इस पुण्य के प्रभाव से वह सीधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुअा और बहाँ ये च्युत होकर तुम्हारी अनन्तसेना नाम की स्त्री के मरीचि नाम का पुत्र हमा है। यह मिथ्या मार्ग के उपदेश देने में तत्पर है इसलिये चिरकाल इस संसाररूपी चक्र में भ्रमण कर सुरम्यदेश के पोदनपूर नगर के स्वामी प्रजापति महाराज की मृगावती रानी से त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र होगा। उन्हीं प्रजापति महाराज की दूसरी रानी भद्रा के एक विजय नाम का पुत्र होगा जो कि त्रिपृष्ठ का बड़ा भाई होगा। ये दोनों भाई थेयारानाथ तीर्थकर के तीर्थ में अश्वग्रीव नामक शत्र को मार कर तीन खंड के स्वामी होंगे और पहले बलभद्र कहलायेंगे। त्रिपृष्ठ संसार में भ्रमण कर अन्तिम तीर्थकर होगा।
मापका भी जन्म राजा कच्छ के पुत्र नमि के बंश में हुया है प्रतः बाहुबली स्वामी के वंश में उत्पन्न होने वाले उस
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के साथ आपका सम्बन्ध है ही। इसीलिये तीन खण्ड की लक्ष्मी और सुख के स्वामी त्रिपष्ठ के लिये यह कन्या देनी चाहिये, यह कल्याण करने वाली कन्या उसका मन हरण करने वाली हो। त्रिपृष्ठ को कन्या देने से पाप भी समस्त विद्याधरों के स्वामी हो जावंगे इसलिये भगवान् आदिनाथ के द्वारा कही हुई इस बात का निश्चय कर आपको यह अवश्य ही करना चाहिये । इस प्रकार निमित्तानो के वचनों को हृदय में धारण कर रथनपुर नगर के राजा ने बड़े हर्ष से उस निमित्त ज्ञानी की पूजा की। और उसी समय उत्तम लेख और भंट के साथ इन्दु नाम का एक दूत प्रजापति महाराज के पास भेजा। यह त्रिपष्ठ स्वयंप्रभा का पात होगा यह बात प्रजापति महाराज ने जयगुप्त नामक निमित्त ज्ञानी से पहले हो जान ली थी। इसलिये उसने आकाश से उतरते हए विद्याधर राजा के दूत का, पुरपकारण्डक नाम के वन में बड़े उत्सब से स्वागत-सत्कार किया। महाराज उस दूत के साथ अपने राजभवन में प्रविष्टि होकर जब सभागृह में राजसिंहासन पर विराजमान हए तब मंत्री ने दूत के द्वारा लाई हुई भेट समर्पित की। राजा ने उस भंट को बड़े प्रेम से देखकर अपना अनुराग प्रकट किया और दूत को संतुष्ट करते हुए कहा कि हम तो इस भेंट से ही सन्तुष्ट हो गये । तदनन्तर दूत ने सन्देश सुनाया कि यह श्रीमान त्रिगष्ठ समस्त कुमारों में श्रेष्ठ है अतः उन्हें लक्ष्मी के समान स्वयंप्रभा नाम की इस कन्या से आज सुशोभित किया जावे । इस यथार्थ संदेश को सुनकर प्रजापति महाराज वा हर्ष दुगुना हो गया । वे मस्तक पर भुजा रखते हुए बोले कि जब विद्याधरों के राजा स्वयं ही अपने जमाई का यह तथा अन्य महोत्सव करने के लिए चिन्तित हैं तब हग लोग क्या चीज हैं।
इस प्रकार उस समय आये हुए दूत को महाराज प्रजापति ने कार्य की सिद्धि से प्रसन्न किया, उसका सम्मान किया और बदले की भेंट देकर शीघ्र ही बिदा कर दिया । वह दूत भी शीघ्र ही जाकर रथनपुर नगर के राजा के पास पहुंचा और प्रणाम कर उसने कल्याणकारी कार्य सिद्ध होने की खबर दी। यह सुनकर विद्याधरों का राजा बहुत भारी हर्ष से प्रेरित हमा और सोचने लगा कि इस कार्य में विलम्ब करना योग्य नहीं है यह विचार कर वह कन्या सहित बड़े ठाट-बाट से पोदनपुर पहुंचा। उस समय उस नगर में जगह-जगह तोरण बांधे गये थे, चन्दन का छिड़काव किया था, सब जगह उत्सुकता ही उत्सुकता दिखाई दे रही थी, और पताकानों की पंक्ति रूप चंचल भुजाओं से वह ऐसा जान पड़ता था मानो बुला ही रहा हो । महाराज प्रजापति ने अपनी सम्पत्ति के अनुसार उसकी अगवानी की। इस प्रकार उसने बड़े हर्ष से नगर में प्रवेश किया। प्रबंश करने के बाद महाराज प्रजापति ने उसे स्वयं ही योग्य स्थान पर ठहराया और पाहुने के योग्य उसका सत्कार किया । इस सत्कार से उसका हृदय तथा मुख दोनों ही प्रसन्न हो गये। विवाह के योग्य सामग्री से उसने समस्त पृथ्वी तल को सन्तुष्ट किया और दूसरी प्रभा के समान अपनी स्वयंप्रभा नाम की पुत्री त्रिपुष्ठ के लिये देकर सिद्ध करने के लिये सिंहवाहिनी और गरुड़वाहिनी नाम को दो विद्याएं दी। इस तरह वे सब मिलकर सुखरूपी सन्द्र में गोता लगाने लगे। इधर अश्वग्रीव प्रतिनारायण के नगर में विनाश को सूचित करने वाले तीन प्रकार के उत्पात बहुत शीघ्र साथ ही साथ होने लगे। जिस प्रकार - तीसरे काल के अन्त में पल्य का पाठवां भाग बाकी रहने पर नई-नई बातों को देखकर भोगभूमि के लोग भयभीत होते हैं उसी प्रकार उन अभूतपूर्व उत्पातों को देखकर वहां के मनुष्य सहसा भयभीत होने लगे।
अश्वनीव भी घबड़ा गया। उसने सलाह कर एकान्त में शतबिन्दु नामक निमित्तज्ञानी से यह क्या है ? इन शब्दों द्वारा उनका फल पुछा । शतबिन्द ने कहा कि जिसने सिन्ध देश में पराक्रमी सिंह मारा है, जिसने तुम्हारे प्रति भेजी हुई भेंट जबर्दस्ती छीन ली और रथनपुर नगर के राजा ज्वलनजटी ने जिसके लिये आपके योग्य स्त्रीरत्न दे दिया है उससे प्रापको क्षोभ होगा। ये सब उत्पात उसी के सूचक हैं। तुम इसका प्रतिकार करो। इस प्रकार निमित्त ज्ञानी के द्वारा कही बात को हृदय में रखकर अश्वग्रीव अपने मंत्रियों से कहने लगा कि प्रात्मज्ञानी मनुष्य शत्रु और रोग को उत्पन्न होते ही नष्ट कर देते हैं परन्तु हमने व्यर्थ ही अंहकारी रहकर यह बात भुला दी। अब भी यह दुष्ट आप लोगों के द्वारा विष के अंकुर के समान शीघ्र ही छेदन कर देने के योग्य है। उन मंत्रियों ने भी गुप्त रूप से भेजे हुए दूतों के द्वारा उन सबकी खोज लगा ली पीर निमित्त ज्ञानी ने जो सिहवध ग्रादि की बातें कही थी उन सबका पता चलाकर निश्चय कर लिया कि इस पृथ्वी पर
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प्रजातिका पुत्र त्रिपृष्ठ है। बड़ा ग्रहकारी है । वह अपने पराक्रम में सब राजाओं पर आक्रमण कर उन्हें जीतना चाहता है।
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वह हम लोगों के विषय में कंसा है ? - अनुकूल प्रतिकूल कैसे विचार रखता है इस प्रकार सरल चित्त-निष्कपट दूत भेजकर उसकी परीक्षा करनी चाहिये मंत्रियों ने ऐसा पृथक्-पृथक् राजा से कहा। उसी समय उसने उक्त बात सुनकर चिन्तागति और मनोगति नाम के दो विद्वान दूत विपृष्ठ के पास भेजे। उन दूतों ने जाकर पहले अपने आने की राजा के लिये सूचना दी, फिर राजा के दर्शन किये अनन्तर विनय से नम्रोभूत होकर यथायोग्य भेंट दी। फिर कहने लगे कि राजा अश्वग्रीव ने आज तुम्हें प्राज्ञा दी है कि मैं रथावर्त नाम के पर्वत पर जाता हूं ग्राप भी प्राइये। हम दोनों तुम्हें लेने के लिये हैं। आपको उसकी बात मस्तक पर रखकर आना चाहिये। ऐसा उन दोनों ने जोर से कहा। यह सुनकर त्रिपृष्ठ बहुत कुछ हुआ और कहने लगा कि अश्वग्रीव (घोड़े जैसी गर्दन वाले) खरग्रीव ( गधे जैसी गर्दन वाले) कौचग्रीव (क्रौंच पक्षी जैसे गर्दन वाले) और कमेलक ग्रीव ( ऊंट जैसी गर्दन वाले ) ये सब मैंने देखे हैं। हमारे लिये वह अपूर्व प्रादभी नहीं जिससे कि देखा जावे ।
जब वह त्रिपुष्ठ कह चुका तब दूतों ने फिर से कहा कि वह अश्वग्रीव सब विद्याधरों का स्वामी है, सबके द्वारा पूजनीय है और आपका पक्ष करता है इसलिए अपमान करना उचित नहीं है । यह सुन त्रिपृष्ठ ने कहा कि वह खग अर्थात् पक्षियों का ईश है- स्वामी है इसलिए पक्ष अर्थात् पंखों से चले इसके लिए मनाई नहीं है परन्तु मैं उसे देखने के लिए नहीं जाऊंगा। यह सुनकर दूतों ने फिर कहा कि अहंकार से ऐसा नहीं कहना चाहिये | चक्रवर्ती के देखे बिना शरीर में भी स्थिति नहीं हो सकती फिर भूमि पर स्थिर रहने के लिए कौन समर्थ है ? दूतों के वचन सुनकर त्रिपृष्ठ ने फिर कहा कि तुम्हारा राजा चक्र फिराना जानता हैं सो क्या वह घट यादि को बनाने वाला (कुम्भकार) कर्ता कारक है, उसका क्या देखना है ? यह सुनकर दूनों को क्रोध आ गया। वे कुपित होकर बोले कि यह कन्यारत्न जो कि चक्रवर्ती के भोगने योग्य है क्या श्रव तुम्हें हजम हो जावेगा ? और चक्रवर्ती के कुपित होने पर रथनूपुर का राजा ज्वलनजटी तथा प्रजापति अपना नाम भी क्या सुरक्षित रख सकेगा । इतना कह वे दूत वहाँ से शीघ्र ही निकल कर श्रश्वग्रीव के पास पहुंचे और नमस्कार कर त्रिपृष्ठ के वैभव का सगार कहने लगे ।
सूचना
वीय यह सब सुनने के लिए असमर्थ हो गया, उसकी क्रांखें रूखी हो गई और उसी समय उसने युद्ध प्रारम्भ करने को 'देने वाली भेरी बजत्रा दी। उस भेरी का शब्द दिग्गजों का भद नष्ट कर दिशाओं के अन्त तक व्याप्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि चक्रवर्ती के कुपित होने पर ऐसे कौन महापुरुष हैं जो भयभीत नहीं होते हों। वह श्रश्वग्रीव चतुरंग सेना के साथ रथावर्त पर्वत पर जा पहुंचा, वहां उल्काएं गिरने लगीं, पृथ्वी हिलने लगी और दिशाओं में दाह दोष होने लगे। जिनका श्रोज चारों ओर फैल रहा है और जिन्होंने अपने प्रतापरूपी अग्नि के द्वारा शत्रुरूपी ईन्धन को राशि भस्म कर दी है ऐसे प्रजापति के दोनों पुत्रों को जब इस बात का पता चला तो इसके सम्मुख आये। वहां दोनों सेनाओं में महान् संग्राम हुआ । दोनों सेनाओं का समानक्षय रहा था इसलिए यमराज सचमुच ही समवर्तिता मध्यस्था को प्राप्त हुआ था । चिरकाल तक युद्ध करने के बाद त्रिपृष्ठ ने सोचा कि सैनिकों का व्यर्थ हो क्षय क्यों किया जाता है। ऐसा सोचकर वह युद्ध के लिए
ग्रीव
के सामने श्राया ।
जन्मान्तर से बंधे हुए भारी बंर के कारण अवग्रीव बहुत क्रुद्ध था श्रतः उसने बाण वर्षा के द्वारा शत्रु को प्राच्छादित कर लिया। जब वे दोनों द्वन्द युद्ध से एक-दूसरे को जीतने के लिए समर्थ न हो सके तब महाविद्याओं के बल से उद्धत हुए दोनों मायायुद्ध करने के लिये तैयार हो गये। अश्वग्रीव ने चिरकाल तक युद्धकर शत्रु के सन्मुख चक्र फेंका श्रीर नारायण त्रिपृष्ठ ने वही चक्र लेकर क्रोध से उसकी गर्दन छेद डाली। शत्रुओं के नष्ट करने वाले त्रिपुष्ठ और विजय प्राधे भरत क्षेत्र का आधिपत्य पाकर सूर्य और चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे । भूमिगोचरी राजाओं, विद्याधर राजाओं और मगधादि देवों के द्वारा जिनका अभिषेक किया गया था ऐसे त्रिपृष्ठ नारायण पृथ्वी में श्रेष्ठता को प्राप्त हुए। प्रथम नारायण त्रिपृष्ठ ने हर्षित होकर स्वयंप्रभा के पिता के लिए दोनों श्रेणियों का यधिपत्य प्रदान किया सो ठोक है क्योंकि श्रीमानों
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के प्राश्रय से क्या नहीं होता है असि, शंक धनुष, चक्र, शक्ति, दण्ड और गदा ये सात नारायण के रत्न थे। देवों के समूह इनकी रक्षा करते थे।
रत्नमाला, देदीप्यमान हल, मूराल और गन्ना ने भार गोला :प्त का नगाले लो महारत्न थे। नारायण की स्वयंप्रभा को प्रादि लेकर सोलह हजार स्त्रियां थीं और बलभद्र की कुलरूप तथा गुणों से युक्त आठ हजार रानियाँ थीं। ज्वलनजटो विद्याधर ने कुमार अर्ककीति के लिये ज्योतिर्माला नाग की कन्या बड़ी बिभुति के साथ प्राजापत्य विबाह से स्वीकृत की। अर्ककीति और ज्योतिर्माला के अमिततेज नाम का पुत्र तथा सुतारा नाम की पुत्री हुई। ये दोनों भाई-बहिन ऐसे सुन्दर थे मानों शुक्ल पक्ष की पडिबा के चन्द्रमा की रेखाएं ही हों। इधर त्रिपृष्ट नारायण के स्वयंप्रभा रानी से पहले श्रीविजय नाम का पुत्र हमा, फिर विजयभद्र पुत्र हुआ, फिर ज्योतिप्रभा नाम की पुत्री हुई। महान् अभ्युदय को प्राप्त हुए प्रजापति महराज को कदाचित् बैराग्य उत्पन्न हो गया जिससे पिहितास्रब गुरु के पास जाकर उन्होंने समस्त परिग्रह का त्याग कर दिया और श्रीजिनेन्द्र भगवान का वह रूप धारण कर लिया जिससे सुख स्वरूप परमात्मा का स्वभाव प्राप्त होता है । छह बाह्य और छह ग्राम्यन्तर के भेद से बारह प्रकार के तपश्चरण में निरन्तर उद्योग करने वाले प्रजापति मुनि ने चिरकाल तक तपस्या की और आयु के अन्त में चित्त को स्थिर कर क्रम से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, सकषायता तथा सयोग केवली अवस्था का त्याग कर परमो. स्कृष्ट अवस्था-मोक्ष पद प्राप्त किया। विद्याधरों के राजा ज्वलनजटी ने भी जब यह समाचार सुना तब उन्होंने अर्ककीति के लिए राज्य देकर जगन्नन्दन मूनि के समीप दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। याचना नहीं करना, बिना दिये कछ ग्रहण नहीं करना, सरलता रखना, त्याग करना, किसी चीज की इच्छा नहीं रखना, क्रोधादि का त्याग करना, ज्ञानाभ्यास करना और ध्यान करना-इन सब गुणों को वे प्राप्त हुए थे। वे समस्त पापों का त्याग कर निर्द्वन्द्व हुए । निराकार होकर भी साकार हुए तथा उत्तम निर्वाण पद को प्राप्त हुए।
इधर विजय बलभद्र का अनुगामी विपृष्ठ कठिन शत्रुनों पर विजय प्राप्त करता हुआ तीन खण्ड की अखण्ड पृथ्वी के भोगों का इच्छानुसार उपभोग करता रहा । किसी एक दिन त्रिपृष्ठ में स्वयंवर की विधि से अपनी कन्या ज्योति:प्रभा के द्वारा जामाता अमिततेज के गले में वरमाला डलवाई। अनुराग से सूतारा भी इसी स्वयंवर की विधि से धीविजय के वक्षःस्थल पर निवास करने वाली हुई। इस प्रकार परस्पर में जिन्होंने अपने पुत्र-पुत्रियों के सम्बन्ध किये हैं ऐसे ये समस्त परिवार के लोग स्वच्छन्द जल से भरे हुए प्रफुल्लित सरोवर की शोभा को प्राप्त हो रहे थे । प्रायु के अन्त में अर्धचक्रवर्ती त्रिपृष्ट तो सातवें नरक गया और विजय बलभद्र थीबिजय नामक पुत्र के लिए राज्य देकर तथा विजयभद्र को युवराज बनाकर पापरूपी शत्रु को नष्ट करने के लिए उद्यत हुए। यद्यपि उनका चित नारायण के शोक से व्याप्त था तथापि निकट समय में मोक्षगामी होने से उन्होंने सुवर्णकुम्भ नामक मुनिराज के पास जाकर सात हजार राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया।
धातिया कर्म नष्ट कर केवलज्ञान उत्पन्न किया और देवों के द्वारा पूज्य अनगारकेवली हुए। यह सुनकर अर्ककीति में अमिततेज को राज्य पर बैठाया और स्वयं विपुलमति नामक चारणमुनि से तप धारण कर लिया। कुछ समय बाद उसने 'प्रष्ट कर्मों को नष्ट कर अभिवांछित अष्टम पृथ्वी प्राप्त कर ली सो ठीक ही है क्योंकि इस संसार में जिन्होंने अाशा का त्याग कर दिया है उन्हें कौन सी वस्तु अप्राप्त है ? अर्थात् कुछ भी नहीं। इधर अमिततेज और श्रीविजय दोनों में प्रखण्ड प्रेम था, दोनों का काल बिना किसी प्राकलता के सुख से व्यतीत हो रहा था किसी दिन कोई एक पुरुष श्री विजय राजा के पास पाया और पाशीर्वाद देता हुआ बोला कि हे राजन् ! मेरी वात पर चित्त लगाइये। आज से सातवें दिन पोदनपुर के राजा के मस्तक पर महावन गिरेगा, अतः शीघ्र ही इसके प्रतिकार का विचार कीजिये । यह सुनकर युवराज कुपित हुआ, उसकी प्रांखें क्रोध से लाल हो गई। वह उस निमित्त ज्ञानीसे बोला कि यदि तू सर्वज्ञ है तो बता कि उस समय तेरे मस्तक पर क्या पड़ेगा? निमित्त ज्ञानी ने भी कहा कि उस समय मेरे मस्तक पर अभिषेक के साथ रत्नवृष्टि पड़ेगी। उसके अभिमान पूर्ण वचन सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ। उसने कहा कि हे भद्र ! तुम प्रासन पर बैठो, मैं कुछ कहता हूं।
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कहो तो सही प्रापका गोत्र क्या है ? मुरु कौन है, क्या-क्या शास्त्र आपने पड़े हैं, क्या-क्या निमित्त आप जानते हैं, आपका क्या नाम है ? और आपका यह आदेश किस कारण हो रहा है ? यह सब राजा ने पूछा। निमित्तज्ञानी कहने लगा कि कुण्डपुर नगा में मिरथ नाम है। एका जाना है। इसके पुरोहित का नाम सुरगुरु है और उसका एक शिष्य बहुत ही विद्वान है। किसी एक दिन बलभद्र के साथ दीक्षा लेकर मैंने उसके शिष्य के साथ अष्टांग निमित्तज्ञान का अध्ययन किया है और उपदेश के साथ उनका श्रवण भी किया है। अष्टांग निमित्त कौन हैं और उनके लक्षण क्या हैं यदि यह आप जानना चाहते हैं तो है आयुष्मन् विजय ? तुम सुनो, मैं तुम्हारे प्रश्न के अनुसार सब कहता हूँ । आगम के जानकार प्राचार्यों ने अन्तरिक्ष, भोम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण छिन्न और स्वप्न इनके भेद से पाठ तरह के निमित्त कहे हैं। चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे ये पांच प्रकार के ज्योतिषी आकाश में रहते हैं अथवा आकाश के साथ सदा उनका साहचर्य रहता है इसलिए इन्हें अन्तरिक्ष-आकाश कहते हैं। इनके उदय अस्त आदि के द्वारा जो जय-पराजय, हानि, वृद्धि, शोक, जीवन, लाभ, अलाभ तथा अन्य बातों का यथार्थ निरूपण होता है उसे अन्तरिक्ष निमित्त कहते हैं। पृथ्वी के जुदे-जुदे स्थान प्रादि के भेद से किमी की हानि वृद्धि आदि का बतलाना तथा पृथ्वी के भीतर रखे हुए रत्न ग्रादि का कहना सो भौम निमित्त है। अंग उपांग के स्पर्श करने अथवा देखने से जो प्राणियों के तीन काल में उत्पन्न होने वाले शुभ-अशुभ का निरूपण होता है वह अंग-निमित्त कहलाता है।
मृदंग प्रादि अचेतन और हाथी प्रादि चेतन पदार्थों सुस्वर तथा दुःस्वर के द्वारा इष्ट-अनिष्ट पदार्थ की प्राप्ति की
ता ज्ञान स्वर निमित्त ज्ञान है। शिर मुख आदि में उत्पन्न हए तिल यादि चिह्न अथवा घाव आदि किसी का लाभ मलाभ आदि बतलाना सो व्यंजन-निमित्त है। शरीर में पाये जाने वाले श्री वृक्ष तथा स्वस्तिक श्रादि एक सौ पाठ लक्षणों के द्वारा भोग ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति का कथन करना लक्षण-निमित्त ज्ञान है। वस्त्र तथा शास्त्र आदि में मूषक आदि जो छेद कर देते हैं वे देव, मानुष और राक्षस के भेद से तीन प्रकार के होते है उनसे जो कल कहा जाता है उसे छिन्न-निमित्त कहते हैं । शुभ-अशुभ के भेद से स्वप्न दो प्रकार के कहे गये हैं उनके देखने से मनुष्यों की वृद्धि तथा हानि आदि का यथार्थ कथन करना स्वप्न निमित्त कहलाता है। यह कहकर बह निमित्त ज्ञानी कहने लगा क्षधा प्यास आदि बाईस परिषही से में पीड़ित हुमा, उन्हें सह नहीं सका इसलिए मुनिपद छोड़ कर पधिनीखेट नाम के नगर में मा गया। वहां सोम शमी नाम के मेरे मामा रहते थे। उनके हिरण्यलोमा नाम की स्त्री से उत्पन्न चन्द्रमा के समान मुख वाली एक चन्द्रानना नाम की पुत्री थी। वह उन्होंने मुझे दी। धन कमाना छोड़कर निरंतर निमित्त शास्त्र के अध्ययन में लगा रहता था अतः धीरे-धोरे चन्द्रानना के पिता के द्वारा दिया हुआ धन समाप्त हो गया । मुझे निर्धन देख वह बहत विरक्त अथवा खिन्न हई। मैंने कुछ कौड़ियां इकट्ठी कर रक्खी थीं । दूसरे दिन भोजन के समय यह तुम्हारा दिया हा धन है ऐसा कहकर उसने क्रोध-बश वे सब कौड़ियां हमारे पात्र में डाल दीं।
उनमें से एक अच्छी कौड़ी स्फटिक-मणि के बने हुए सुन्दर थाल' में जा गिरी, उस पर जलाई हुई अग्नि के फुलिंगे पड़ रहे थे (?) उसी समय मेरी स्त्री मेरे हाथ धुलाने के लिए जल की धारा छोड रही थी उसे देखकर मैंने निश्चय कर लिया कि मुझे सन्तोष पूर्वक अवश्य ही धन का लाभ होगा। आपके लिये यह प्रादेश इस समय प्रभोघ-जिब नामक मुनिराज ने किया है। इस प्रकार निमित्त ज्ञानी ने कहा। उसके मुक्तिपूर्ण वचन सुनकर राजा चिन्ता से व्यग्र हो गया। उसने निमित्त ज्ञानी को तो विदा किया और मन्त्रिों से इस प्रकार कहा-कि इस निमित्त ज्ञानी की बात पर विश्वास करो और इसका शीघ्र ही प्रतिकार करो क्योंकि मूल का नाश उपस्थित होने पर विलम्ब कौन करता है ? यह सुनकर मुमति मन्त्री बोला कि आपकी रक्षा करने के लिए आपको लोहे को सन्दुक के भीतर रखकर समुद्र के जल' से भीतर बैठाये देते हैं। यह सुनकर सुबुद्धि नाम का मंत्री बोला कि नहीं, वहाँ तो मगरमच्छ आदि का भय रहेगा इसलिये विजया पर्वत की गुफा में रख देते हैं। सुबुद्धि की बात पूरी होते ही बुद्धिमान् तथा प्राचीन वृत्तान्त को जानने वाला बुद्धिमान नाम का मंत्री यह प्रसिद्ध कथानक कहने लगा।
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___ इस भरत क्षेत्र के सिंहपुर नगर में मिथ्याशास्त्रों के सुनने से अत्यन्त घमण्डी सोम नाम का परिव्राजक रहता था उसने जिनदास के साथ वाद-विवाद किया परन्तु वह हार गया। आयु के अन्त में मर कर उसी नगर में एक बड़ा भारी भैसा हुमा । उस पर एक वैश्य चिरकाल तक नमक का बहुत भारी बोझ लादता रहा। जब वह बोझ ढोने में असमर्थ हो गया तब उसके पालकों ने उसकी उपेक्षा कर दी–खाना-पीना देना भी बन्द कर दिया। कारण वन उसे जाति-स्मरण हो गया और वह नगर भर के साथ बैर करने लगा। अन्त में भर कर वहीं के श्मशान में पापी राक्षस हुना। उस नगर के कुम्भ और भीम नाम के दो अधिपति थे । कुम्भ के रसोइया का नाम रसायनपाक था, राजा कुम्भ मांसभोजी था, एक दिन मांस नहीं था इसलिये रसोइया ने कुम्भ को मरे हुए बच्चे का मांस खिला दिया। वह पापी उसके स्वाद से लुभा गया इसलिए उसी समय से उसने मनुष्य का मांस खाना शुरू कर दिया, वह वास्तव में नरक गति प्राप्त करने का उत्सुक था। राजा प्रजा का रक्षक है इसलिये जब तक प्रजा की रक्षा करने में समर्थ है तभी तक राजा रहता है परन्तु यह तो मनुष्यों को खाने लगा है अतः त्याज्य है ऐसा विचार कर मन्त्रियों ने उस राजा को छोड़ दिया। उसका रसोइया उसे नर-मांस देकर जीवित रखता था परन्तु किसो समय उस दुष्ट ने अपने रसोइया को ही मारकर विद्या सिद्ध कर ली और उस राक्षस को वश कर लिया। अब वह राजा प्रतिदिन चारों ओर घूमता हुआ प्रजा को खाने लगा जिससे समस्त नगरवासी भयभीत हो उस नगर को छोड़कर बहुत भारी भय के साथ कारकट नामक नगर में जा पहुंचे परन्तु अत्यन्त पापी कुम्भ राजा उस नगर में भी पाकर प्रजा को खाने लगा । उसी समय से लोग उस नगर को कुम्भ कारकटपुर कहने लगे ।
मनुष्यों ने देखा कि यह नरमतो है इसलिये उन्होंने उसकी व्यवस्था बना दी कि तुम प्रतिदिन एक गाड़ी भात और एक मनुष्य को खाया करो। उसी नगर में एक चण्डकौशिक नाम का ब्राह्मण रहता था मथी उसको स्त्रो थी । चिरकाल तक भतों को उपासना करने के बाद उन दोनों ने मण्डकौशिक नाम का पुत्र प्राप्त किया किसी एक दिन कुम्भ के आहार के लिये मण्डकौशिक की बारी बाई । लोग उसे गाड़ी में डालकर ले जा रहे थे कि कुछ भूत उसे ले भागे। कुम्भ ने हाथ में दण्ड लेकर उन भतों का पीछा किया, भूत उसके आक्रमण से डर गये । इसलिये उन्होंने मुण्डकौशिक को भय से एक बिल में डाल दिया परन्तु एक अजगर ने वहां उस ब्राह्मण को निगल लिया। इसलिये महाराज को विजया की गुहा में रखना ठीक नहीं है। बुद्धि सागर के ये हितकारी वचन सुनकर सूक्ष्म बुद्धिकाधारी मतिसागर मंत्री कहने लगा कि निमित्तज्ञानी ने यह तो कहा नहीं है कि महाराज के ऊपर ही वन गिरेगा । उसका तो कहना है कि जो पोदनपुर का राजा होगा उस पर वन गिरेगा। इसलिये किसी दसरे मनुष्य को पोदनपुर का राजा बना देना चाहिये । उसकी यह बात सबने मान ली और कहा कि पापको यह बात ठीक है। अनन्तर सब मंत्रियों ने मिलकर राजा के सिंहासन पर एक यक्ष का प्रतिबिम्ब रख दिया। और तुम्ही पोदनपुर के राजा हो यह कहकर उसकी पूजा की। इधर राजा ने राज्य के भोग उपभोग सब छोड़ दिगे, पूजादान प्रादि सत्कार्य प्रारम्भ कर दिये।
भाव वालो मंडली को गाथ लेकर जिन चैत्यालय में शांति कर्म करता हया बैठ गया सातव दिन उस यक्ष की मूर्ति पर बड़ा भारी शब्द करता हुया भयंकर वन अकस्मात् बड़ी कठोरता से प्रा पड़ा। उरा उपद्रव के शान्त होने पर प्रजा ने बड़े हर्ष से बजते हुए नगाड़ों के शब्दों से बहुत भारी उत्सव किया ।
राजा ने बड़े हर्प के साथ उस निमित्त ज्ञानी को बुला कर उसका सत्कार किया और पानीखेट के साथ उसे सौ गांव दिये। श्रेष्ठ मंत्रियों ने सीन लोक के स्वामी अरहंत भगवान की विधिपूर्वक भक्ति के साथ शान्ति पजा की महाभिषेक किया और जाजा को सिंहासन पर बैठा कर स्वर्णमय कलशों से उनका कलाभिषेक किया तथा उत्तम राज्य में प्रतिष्ठित किया। इसके बाद उसका काल बहुत भारी सुख से बीतने लगा। किसी एक दिन उसने अपनी माता से आकाशगामिनी विद्या लेकर सिद्ध की और सतारा के साथ रमण करने की इच्छा से ज्योतिर्वन की और गमन किया। वह वहाँ अपनी इच्छानुसार लीला-पूर्वक विहार करता हया रानी के साथ बैठा था, यहां चमरचंचपुर का राजा इन्द्रशनि, रानी आसुरी का लक्ष्मी सम्पन्न प्रशनिघोप नाम का विद्याधर पुत्र नामरी विद्या को सिद्ध कर अपने नगर को लौट रहा था। बीच में सुतारा को देखकर उस पर उसकी इच्छा हुई
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और उसे हरण करने का उद्यम करने लगा। उसने एक कृत्रिम हरिण के छल से राजा को सुतारा के पास से अलग कर दिया और वह दृष्ट श्री विजय का रूप बनाकर सुधारा के पास लोट कर वापिस आया और कहने लगा कि हे प्रिय ] वह मृग बाबु के समान वेग से चला गया। मैं उसे पकड़ने के लिये असमर्थ रहा श्रतः लौट थाया हूं, अब सूर्य अस्त हो रहा है इसलिये हम दोनों अपने नगर की ओर चलें । इतना कहकर उस घूर्त विद्याधर ने सुतारा को विमान पर बैठाया और वहाँ से चल दिया। बीच में उसने अपना रूप दिखाया जिसे देखकर यह कौन है ऐसा कहती हुई सुतारा बहुत ही विह्वल हुई। इधर उसी प्रशिनघोष विद्याधर के द्वारा प्रेरित हुई बैताली विद्या सुतारा का रूप रखकर बैठ गई।
जय श्री विजय वापिस लौटकर आया तब उसने कहा कि मुझे कुक्कुट सांप ने डस लिया है। इतना कहकर उसने बड़े संभ्रम से ऐसी बैष्टा बनाई जैसे मर रही हो उसे देख राजा ने जाना कि इसका विष मणि मंत्र तथा भौषधि आदि से दूर नहीं हो सकता । अन्त में निराश होकर स्नेह से भरा पोदनाधिपति उस कृत्रिम सुतारा के साथ मरने के लिये उत्सुक हो गया । उसने एक चिता बनाई, सूर्यकान्त मणि से उत्पन्न अग्नि के द्वारा उसका ईंधन प्रज्वलित किया और शोक से व्याकुल हो उस कपटी सुतारा ' के साथ चिता पर श्रारूढ़ हो गया। उसी समय वहां से कोई दो विद्याधर जा रहे थे उनमें एक महा तेजस्वी था उसने विद्याविच्छेदिनी नाम की विद्या का स्मरण कर उस भयभीत वैताली को दायें पैर से ठोकर लगाई जिससे उसने अपना सली रूप दिखा दिया अब वह भी विजय के सामने खड़ी रहने के लिये भी समर्थ न हो सकी अतः प्रदृश्यता को प्राप्त हो गई। यह देख राजा श्री विजय बहुत भारी आश्चर्य को प्राप्त हुए । उन्होंने कहा कि यह क्या है ? उत्तर में विद्याधर उसकी कथा इस प्रकार कहने लगा ।
इस जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्र के विजवार्थ पर्वत की दक्षिण श्रेणी में एक ज्योति प्रभ नाम का नगर है। मैं वहाँ का राजा संभिन्न हूं, यह सर्वकल्याणो नाम को मेरी स्त्री है और यह दीपशिख नाम का मेरा पुत्र है । मैं अपने स्वामी रथनूपुर नगर के राजा अमिततेज के साथ शिखरनल नाम से प्रसिद्ध विशाल उद्यान में बिहार करने के लिए गया था । वहाँ से लौटते समय मैंने मार्ग में सुना कि एक स्त्री अपने विमान पर बैठी हुई रो रही है और कह रही है कि मेरे स्वामी श्री विजय कहां हैं? हे रयनपुर के नाथ! कहां हो? मेरी रक्षा करो। इस प्रकार उसके करण पाब्द सुनकर मैं वहां गया और बोला कि तू कौन है ? तथा किसे हरण कर ले जा रहा है ? मेरी बात सुनकर वह बोला कि मैं चमरचंचपुर नगर का राजा अशनिघोष नाम का विद्याधर हूं। इसे जबर्दस्ती लिये जा रहा हूं, यदि श्राप में शक्ति है तो आओ और इसे छुड़ाओ। यह सुनकर मैंने निश्चय किया कि यह तो मेरे स्वामी अमिततेज की छोटी बहिन को ले जा रहा है। मैं साधारण मनुष्य की तरह केमे चला जाऊ ? इसे अभी मारता हूं। ऐसा निश्चय कर मैं उसके साथ युद्ध करने के लिये तत्पर हुआ ही था कि उस स्त्री ने मुझे रोककर कहा कि आग्रह या वृथा युद्ध मत करो, पोदनपुर के राजा ज्योतिर्बन में मेरे वियोग के कारण शोकाग्नि से पीड़ित हो रहे हैं तुम वहाँ जाकर उनसे मेरी दशा कह दो। इस प्रकार हे राजन, मैं तुम्हारी स्त्री के द्वारा भेजा हुआ यहां आया हूं। यह तुम्हारे बैरी की आज्ञा कारिणी बंताली देवी है। ऐसा उस हितकारी विद्याधर ने बड़े आदर से कहा। इस प्रकार संभिन्न विद्याधर के द्वारा कही हुई बात का पोदनपुर के राजा ने बड़े आदर से सुना और और कहा कि आपने यह बहुत अच्छा किया। आप मेरे सन्मित्र है प्रतः इस समय आप शीघ्र ही जाकर यह समाचार मेरी माता तथा छोटे भाई प्रादि से कह दीजिये । ऐसा कहने पर विद्याधर ने अपने दीपशिख नामक पुत्र को शीघ्र ही पोदनपुर की ओर भेज दिया। उधर पोदनपुर में भी बहुत उत्पातों का विस्तार हो रहा था, उसे देखकर अमोघजिह्न मोर जयगुप्त नाम के निमित्त ज्ञानी बड़े संयम से कह रहे थे कि स्वामी को कुछ भय उत्पन्न हुआ था परन्तु अब वह दूर हो गया है, उनका कुशल समाचार लेकर आज ही कोई मनुष्य आवेगा इसलिए आप लोग स्वस्थ रहें, भय को प्राप्त नहीं इस प्रकार के दोनों ही विद्याधर, स्वयंप्रभा आदि को धीरज बंधा रहे थे। उसी समय दीपशिख नाम का बुद्धिमान् विद्याधर ग्राकाश से पृथ्वी तल पर श्राया और विधि पूर्वक स्वयंप्रभा तथा उसके पुत्र को प्रणाम कर कहने लगा कि महाराज श्री विजय की सब प्रकार की कुशलता
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है, आप लोग भय छोड़िये, इस प्रकार सब समाचार ज्यों के त्यों कह दिये । उस बात को सुनने से, जिस प्रकार दावानल से लता म्लान हो जाती है, अथवा वृझने वाले दीपक की शिखा जिस प्रकार प्रभाहीन हो जाता है, अथवा वर्षा ऋतु के मेघ का शब्द सुनने वाली कलहंसी जिस प्रकार शोक-युक्त हो जाती है। अथवा जिस प्रकार किनो स्थाद्वादो विद्वान के द्वारा विश्वस्त हुई दुःश्रति (मिथ्या-शास्त्र) व्याकुल हो जाती है उसी प्रकार स्वयंप्रभा भी म्लान शरीर, प्रभारहित, शोकयुक्त तथा अत्यन्त प्राकुल हो गई थी। वह उस विद्याघर को तथा पुत्र को साथ लेकर उस वन के बीच पहुंच गई। पोदनाधिपति ने छोटे भाई के साथ आती हुई माता को दूर से ही देखा और सामने जाकर उसके चरणों में नमरकार किया। पुत्र को देखकर स्वयंप्रभा के नेत्र हर्षाश्रमों से व्याप्त हो गये। वह कहने लगी कि हे पुत्र ! उठ, मैंने अपने पुण्योदय से तेरे दर्शन पा लिये, तू चिरंजीव रहे इस प्रकार कहकर उसने श्री विजय को अपनी दोनों भुजाओं से उठा लिया, उसका स्पर्श किया और बहुत भारी संतोष का अनुभव किया। अथान्तर-जब श्री विजय सुख से बैठ गये तब उसने सुतारा हरण आदि का समाचार पूछा।
श्री विजय ने कहा कि यह संभिन्न नामक विद्याधर अमिततेज का सेवक है। हे माता ! आज इसने मेरा जो उपकार किया है बह तक ने भी नहीं किया । ऐसा कहकर उसने जो-जो बात हुई थी यह सब कह सुनाई। तदनन्तर स्वयंप्रभा ने छोटे पत्र को तो नगर की रक्षा के लिए वापिस लौटा दिया और पुत्र को साथ लेकर वह प्राकाश मार्ग से रथनपुर नगर को चलो। अपने देश में घूमने वाले गुप्तचरों के कहने से अमिततेज को इस बात का पता चल गया जिससे उसने बड़े वंभव के साथ उसकी अगवानी की तथा संतुष्ट होकर जिसमें बड़ी ऊंची पताकाएं फहरा रही हैं और तोरण बांधे गये हैं ऐसे अपने नगर में उसका प्रवेश कराया । उस विद्याधरों के स्वामो अमिततेज ने उनका पाहुने के समान सम्पूर्ण स्वागत सलार किया और उनके माने का कारण जानकर इन्द्राशनि के पुत्र अनिघोष के पास मरोचि नाम का दूत भेजा। उसने दूत से असह्य वचन कहे। दून ने वापिस पाकर वे सब वचन अमिततेज से कहे। उन्हें सुनकर अमिततेज ने मन्त्रियों के साथ सलाह कर मद से उद्धत हए उस प्रशनिधोष को नष्ट करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। उच्च अभिप्राय वाल अपने बहनोई को उसने शत्रुनों का विध्वंश करने के लिए वंशपरम्परागत युद्धवीर्य, पहरणावरण और बन्धमोचन नाम की तीन विद्याए बड़े आदर से दी। तथा रश्मिवेग सुवेग प्रादि पांच सौ पूत्रों के साथ-साथ पोदनपुर के राजा श्री विजय से अहंकारी शत्र पर जाने के लिए कहा। और स्वयं सहस्र रश्मि नामक अपने बड़े पुत्र के साथ समस्त विद्याओं को छेदने वाली महाज्वाला नाम की विद्या को सिद्ध करने के लिए विद्याए' सिद्ध करने की जगह ह्रीमन्त पर्वत पर श्री संजयन्त मुनि को विशाल प्रतिमा के समीप गया।
इधर जब अशनिघोष ने सुना कि श्री विजय युद्ध के लिए रश्मिवेग ग्रादि के साथ पा रहा है तब उसने क्रोध से सुघोष शतघोष, सहस्रघोष आदि अपने पुत्र भेजे । उसके वे समस्त पुत्र तथा अन्य लोग पन्द्रह दिन तक युद्ध कर अन्त में पराजित हुए। जिसकी समस्त घोषणाए' अपने नाश को सूचित करने वाली हैं ऐसे अशनिघोष ने जब यह समाचार सुना तब वह कोष से सन्तप्त होकर स्वयं ही युद्ध करने के लिये गया। इधर युद्ध में श्री विजय ने अशनिघोष के दो टुकड़े करने के लिये प्रहार किया उधर, भ्रामरी विद्या ने उसने दो रूप बना लिये। श्री विजय ने नष्ट करने के लिये उन दोनों के दो-दो टुकड़े किये तो उधर अशनिघोष ने चार रूप बना लिये। इस प्रकार वह सारी सेना प्रशनिघोष को माया से भर गई। इतने में ही रथन पुर का राजा अमिततेज विद्या सिद्ध करमा गया और आते ही उसने महाज्वाला नाम की विद्या को आदेश दिया । अशनिघोष उस विद्या को सह नहीं सका। इसलिये पन्द्रह दिन तक युद्ध कर भागा और भय से नाभेयसीम नाम के पर्वत पर मगध्वज के समीपवर्ती विजय तीर्थ करके समवशरण में जा घुसा। अमिततेज तथा श्री विजय प्रादि भी क्रोधित होकर उसका पीछा करते-करते उसी समवसरण में जा पहुंचे। वहाँ मानस्तम्भ देखकर उन सबकी चित्तवृत्तियां शान्त हो गई । सबने जगत्पति जिनेन्द्र भगवान को तीन प्रदक्षिणाए दी, उन्हें प्रणाम किया और बैररूपी विष को उगलकर वे सब वहां साथ-साथ बैठ गये।
उसी समय शीलवती आसुरी देवी मुरझाई हुई लता के समान सुतारा को शीघ्र ही लाई और श्री विजय तथा अमित
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तेज को समर्पण कर बोली कि आप दोनों हमारे पुत्र का अपराध क्षमा कर देने के योग्य हैं। तिर्यचों का जो जन्मजात बैर छट नहीं सकता वह भी जब जिनेन्द्र भगवान के समीप पाकर छूट जाता है तब मनुष्यों की तो बात ही क्या कहना है ? जब जिनेन्द्र भगवान के स्मरण से अनादि काल के बंधे हुए कर्म छूट जाते हैं तब उनके समीप बैर छूट जावे इसमें पाश्चर्य ही क्या है ? जो बड़े दुःख से निवारण किया जाता है ऐसा यमराज भी जब जिनेन्द्र भगवान के स्मरण मात्र से अनायास ही रोक दिया जाता है तब दूसरा ऐसा कौन शत्रु है जो रोका न जा सके ? इसलिए बुद्धिमानो को यमराज का प्रतिकार करने के लिए तीनों लोकों के नाथ अर्हन्त भगवान का ही स्मरण करना चाहिये । वही इस लोक तथा परलोक में हित के करने वाले हैं।
अथानन्तर विद्याघरों के स्वामी अमिततेज ने हाथ जोड़कर बड़ी भक्ति से भगवान को नमस्कार किया और तत्वार्थ को जानने की इच्छा से सद्धर्म का स्वरूप पूछा। जिसमें कषायरूपी मगरमच्छ तैर रहे हैं और जो अनेक दुःखरूपी लहरों से भरा हुआ है ऐसे संसार रूपी बिकराल सागर का पार कौन पा सकता है ? यह बात जिनेन्द्र भगवान से ही पूछी जा सकती है किसी दूसरे से नहीं क्योंकि उन्होंने ही संसार रूपी सागर को पार कर पाया है। हे भगवान् ! एक आप ही जगत् के बन्धु है अतः हम सब शिष्यों को आप सद्धर्म का स्वरूप बतलाइये। रत्नत्रय रूपी महाधन को धारण करने वाले पुरुष आपकी दिव्यध्वनि रूपी बड़ी भारी नाक के द्वारा ही इस संसार रूपी समुद्र से निकल कर मुख देने वाले अपने स्थान को प्राप्त करते हैं। ऐसा विद्याधरों के राजा ने भगवान से पूछा । तदनन्तर भगवान् दिव्यध्वनि के द्वारा कहने लगे सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार पर्व वष्टि के द्वारा घातक पक्षी संतोष को प्राप्त होते हैं उसो प्रकार भव्य जीव दिव्यध्वनि के द्वारा संतोष को प्राप्त होते हैं। हे विद्याधर भव्य ! सन, इस संसार के कारण कम हैं और कर्म के कारण मिथ्यात्व असंयम प्रादि हैं।
मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुा जो परिणाम ज्ञान को भो विपरीत कर देता है उसे मिथ्यात्व जानो। यह मिथ्यात्व बन्ध का कारण है । अज्ञान, संशय, एकान्त, विपरोत ओर विनय के भेद से ज्ञानो पुरुष उस मिट पात्व को पांच प्रकार का मानते हैं। पाप और धर्म के नाम से दूर रहने वाले जीवों के मिथ्यात्व कर्म के उदय से जो परिणाम होता है वह अज्ञान मिथ्यात्व है। प्राप्त तथा प्रागम प्रादि के नाना भेद होने के कारण जिसके उदय से तत्व के स्वरूप में दोलायमानता-चंचलता बन रही है उसे ये श्रेष्ठ विद्वान् ! तुम संशय मिथ्यात्व जानो। द्रव्य पर्यायरूपी पदार्थ में अथवा मोक्ष का साधन जो सम्यग्दर्शन
और सम्यक चारित्र है उस में किसी एक का ही एकान्त रूप से निश्चय करना सो एकान्त मिथ्यादर्शन है । प्रात्मा में जिसका अशा रहते हए ज्ञान ज्ञायक और ज्ञेय के यथार्थ स्वरूप का विपरीत निर्णय होता है उसे मिथ्यादर्शन जानो । मन, वचन और काय के द्वारा जहां सब देवों को प्रणाम किया जाता है और समस्त पदार्थों को मोक्ष का उपाय माना जाता है उसे विनय
करते हैं। व्रतरहित पुरुष को जो मन वचन काय की क्रिया है उसे असंयम कहते हैं। इस विषय के जानकार मनुष्यों
प्रयम और इन्द्रिय-असंयम के भेद से असंयम के दो भेद कहे हैं। जब तक जीवों के अप्रत्याख्यानावरण चारित्र मोह का उदय रहता है तब तक अर्थात् चतुर्थगुणस्थान तक असंयम वन्ध का कारण माना गया है। छठवें गुणस्थानों में व्रतों में संयम पान करने वाली जो मन वचन काय की प्रवृत्ति है उसे प्रमाद कहते हैं । यह प्रमाद छठवें गूणस्थान तक बन्ध का कारण होता है ।
प्रमाद के पन्द्रह भेद कहे हैं। ये संज्वलन वाषाय का उदय होने से होते है तथा सामायिक, छेदोस्थापना और परिहारविद्धि इन तीन चारित्रों से युक्त जीव के प्रायश्चित के कारण बनते हैं। सातवें से लेकर दश तक चार गुण स्थानों में संज्वलन क्रोध मान माया लोभ के उदय से जो परिणाम होते हैं उन्हें कषाय कहते हैं। इन चार गुणस्थानों में यह कपाय ही बन्ध का कारण है। जिनेन्द्र भगवान् ने इस कषाय के सोलह भेद कहे हैं । यह कषाय उपशान्तमोह गुण स्थान के इसी ओर स्थितिबन्ध तथा अनुभाग बन्ध का कारण माना गया है। आत्मा के प्रदेशों में जो संचार होता है उसे योग कहते हैं । यह योग प्यार वारहवें इन तीन गुणस्थानों में सातावेदनीय के बन्ध के कारण माना गया है। इन गणस्थानों में यह एक
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ही बन्ध का कारण है। मनोयोग चार प्रकार है, वचन योग चार प्रकार का है और काय-योग सात प्रकार का है। ये सभी योग यथायोग्य जहां जितने संभव हों उतने प्रकृति और प्रदेश बन्ध के कारण हैं। हे आर्य ! जिनका अभी वर्णन किया है ऐसे इन मिथ्यात्व आदि पाँच के द्वारा वह जीवं अपने-अपने योग्य स्थानों में एक सी वोस कर्मप्रकृतियों ने संदा बंधता रहता है।
__इन्हीं प्रकृतियों के कारण यह जीव गति आदि पर्यायों में बार-बार घूमता रहता है, प्रथम गुणस्थान में इस जीव के सभी जीव समक्ष होते हैं, वहाँ यह जीव तीन अज्ञान और तीन प्रदर्शनों से सहित होता है, उसके प्रौदयिक, क्षायोपशमिक
और परिणामिक ये तीन भाव होते हैं, संयम का अभाव होता है, कोई जीव भव्य रहता है और कोई अभव्य होता है। इस प्रकार संसार चक्र के भंवररूपी गड्ढे में पड़ा हुआ यह जीव तीन अज्ञान और तीन प्रदर्शनों से सहित होता है, उसके प्रौदयिक, क्षायोगशमिक और पारिणामिक ये तीन भाव होते हैं संयम का प्रभाव होता है, कोई जीव भव्य रहता है और कोई प्रभव्य होता है। इस प्रकार संसार चक्र के भंवररूपी गड्ढे में पड़ा हया यह जीव जन्म जरा मरण रोग सुख-दुःख आदि विविध भेदों को प्राप्त करता हुआ अनादि काल से इस संसार में निवास कर रहा है। इनमें से कोई जीव कालादि लब्धियों का निमित्त पाकर अधःकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप परिणामों से मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों का उपशम करता है तथा संसार की परिपाटी का विच्छेद कर उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। तदनन्तर अप्रत्यास्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से श्रावक के बारह ब्रत ग्रहण करता है। कभी प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से महावत प्राप्त करता है। कभी अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ तथा मिथ्यात्व सम्बमिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। कभी मोहकर्मरूपी शत्रु के उच्छेद से उत्पन्न हुए क्षायिक चारित्र से अलंकृत होता है। तदनन्तर द्वितीय शुक्ल ध्यान का धारक होकर तीन घातिया कर्मों का क्षय करता है, उस समय नव केवल लब्धियों की प्राप्ति से महन्त होकर सबके द्वारा पूज्य हो जाता है । कुछ समय बाद तृतीय शुक्ल ध्यान के द्वारा समस्त योगों को रोक देता है और समुस्छिन्म क्रियाप्रतिपाती नामक चौथे शुक्ल ध्यान के प्रभाव से समस्त कर्मबन्ध को नष्ट कर देता है। इस प्रकार हे भव्य ! तेरे समान भव्य प्राणी क्रम-क्रम से प्राप्त हए तीन प्रकार के सन्मार्ग के द्वारा संसार-समद्र से पार होकर सदा सुख से बढ़ता रहता है।
इस प्रकार समस्त विद्याधरों का स्वामी अमिततेज, श्री जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कही हुई जन्म से लेकर निर्वाण पर्यन्त की प्रक्रिया को सुनकर ऐसा संतुष्ट हुमा मानो उसने अमृत का ही पान किया हो । ऊपर कही हुई कालादि चार लब्धियों की प्राप्ति से उस समय उसने सम्यग्दर्शन से शुद्ध होकर अपने आपको श्रावकों के ब्रत से विभूषित किया। उसने भगवान से पूछा कि हे भगवन् । मैं अपने चित्त में स्थित एक दूसरी बात प्रापसे पूछना चाहता हूं। बात यह है कि इस प्रशनिघोष ने मेरा प्रभाव जानते हुए भी मेरी छोटी बहिन सुतारा का हरण किया है सो किस कारण से किया है ? उक्त प्रश्न में जिनेन्द्र भगवान् भी उसका कारण इस प्रकार कहने लगे।
जम्बुद्वीप के मगध देश में एक अचल नाम का ग्राम है। उसमें भरणीजट नाम का ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का माम अग्निला था और उन दोनों के इन्द्रभूति तथा अग्निभूति नाम के दो पुत्र थे। इनके सिवाय एक कपिल नाम दासी पुत्र भी था। जब वह ब्राह्मण अपने पुत्रों को वेद पढ़ाता था तब कपिल को अलग रखता था परन्तु कपिल इतना सुक्ष्मबद्धि था कि उसने अपने आप ही शब्द तथा अर्थ दोनों रूप से देदों को जान लिया था । जब ब्राह्मण को इस बात का पता चला तब उसने कुपित होकर तूने यह अयोग्य कार्य किया यह कहकर उस दासी पुत्र को उसी समय घर से निकाल दिया। कपिल भी दुःखी होता हुआ वहां से रत्नपुर नामक नगर में चला गया । रत्नपुर में एक सत्यक नामक ब्राह्मण रहता था। उसने कपिल को अध्ययन से सम्पन्न तथा योग्य देख जम्बू नामक स्त्री से उत्पन्न हुई अपनी कन्या समर्पित कर दी । इस प्रकार राजपृश्य एवं समस्त शास्त्रों के सारपूर्ण अर्थ के ज्ञाता कपिल ने जिसको कोई खंडन न कर सके ऐसी व्याख्या करते हुए रत्नपुर नगर में कुछ वर्ष व्यतीत किये। कपिल विद्वान अवश्य था परन्तु उसका आचरण ब्राह्मण कुल के योग्य नहीं था अतः
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उसकी स्त्री सत्यभामा उसके दुश्चरित का विचार कर सदा संशय करती रहती थी कि यह किसका पुत्र है ? इधर धरणीजट दरिद्र हो गया । उसने परम्परा से कपिल के प्रभाव को सब बातें जान लीं इसलिए वह अपनी दरिद्रता दूर करने के लिए कपिल के पास गया। उसे आया देख कपिल मन ही मन बहुत कुपित हुया परन्तु बाह्य में उसने उठकर अभिवादन प्रणाम किया । उच्च आसन पर बैठाया और कहा कि कहिये मेरी माता तथा भाइयों का कुशलता तो है न? मेरे सौभाग्य से आप यहां पधारे यह अच्छा किया इस प्रकार पूज कर स्तान वस्त्र प्रासन आदि से उसे संतुष्ट किया और कहीं हमारी जाति का भेद खल न जाये इस भय से उसने उसके मन को अच्छी तरह ग्रहण कर लिया। दरिद्रता से पीड़ित हुआ पापी ब्राह्मण भी कपिल को अपना पुत्र कह कर उसके साथ पुत्र जैसा व्यवहार करने लगा सो ठीक ही है क्योंकि स्वार्थी मनुष्यों की पालन नहीं होता। इस प्रकार अपने समाचारों को छिपाते हए उन पिता-पुत्र के कितने ही दिन निकल गये । एक दिन कपिल के परोक्ष में सत्यभामा ने ब्राह्मण को बहुत-सा धन देकर पूछा कि आप सत्य कहिये। क्या यह आपका ही पुत्र है? इसके दुश्चरित्र से मुझे विश्वास नहीं होता कि यह आपका ही पुत्र है । धारिणी जट हृदय में तो कपिल के साथ द्वष रखता ही था और सत्यभामा के दिये हए सुवर्ण तथा धन को साथ लेकर घर जाना चाहता था इसलिए सब वृत्तान्त सच-सच कहकर घर चला गया सो ठीक ही है क्योंकि दुष्ट मनुष्यों के लिए कोई भी कार्य दुष्कर नहीं हैं।
अथानन्तर उस नगर का राजा श्रीषण था । उसके सिंहनन्दिता और अनिदिन्ता नाम की दो रानियां थीं। उन दोनों को इन्द्र और चन्द्रमा के समान सुन्दर मनुष्यों में उत्तम इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन नाम के दो पुत्र थे। वे दोनों ही पुत्र प्रत्यन्त नम्र थे अतः माता-पिता उनसे बहुत प्रसन्न रहते थे। सत्यभामा को अपने वंश का अभिमान था अत: वह अपने पापी पति के साथ सहवास की इच्छा न रखती हुई राजा की शरण में गई। उस समय अन्याय का घोषणा करने वाला यह बनावटी ब्राह्मण कपिल राजा के साथ ही बैठा था, शोक के कारण उसने अपना हाथ अपने मस्तक पर लगा रक्खा था, उसे देखकर और उस का सब हाल जानकर श्रीषेण राजा ने विचार किया कि पापी विजातीय मनुष्यों को संसार में न करने योग्य कुछ भी कार्य नहीं है। इसलिये राजा लोग ऐसे कुलीन मनुष्यों का संग्रह करते हैं जो प्रादि मध्य प्रौर अन्त में कभी भी विकार को प्राप्त नहीं होते। जो स्वयं अनुरक्त हा पुरुष बिरक्त स्त्री में अनुराग की इच्छा करता है वह इन्द्रनीलमणि में लाल तेज की इच्छा करता है । इत्यादि विचार करते हुए राजा ने उस दुराचारो को शीघ्र ही अपने देश से निकाल दिया सो ठीक हो है क्योंकि धर्मात्मा पुरुष मर्यादा की हानि को सहन नहीं करते । किसी एक दिन राजा ने घर पर प्राये हुए आदित्यगति और अरिजय नाम के दो चारण मुनियों को पडिगाह कर स्वयं आहार दान दिया, पंचाश्चर्य प्राप्त किए और दश प्रकार के कल्पवक्षों के भोग प्रदान करने वाली उत्तरकुरु की प्रायु बांधी। राजा की दोनों रानियों ने तथा उत्तम कार्य करने वाली सत्यभामा में भी दान की अनुमोदना से उसी उत्तरकुरू की प्रायु का बन्ध किया सो ठीक है क्योंकि साधुओं के समागम से क्या नहीं
होता?
अथानान्तर कौशाम्बी नगरी में राजा महावल राज्य करते थे, उनकी श्रीमती नाम की रानी थी और उन दोनों के श्री कान्ता मानो सुन्दरता की सीमा ही थी। राजा महाबल ने वह श्री कान्ता कान्ता को विधि पूर्वक इन्द्रसेन के लिए दी थी। श्रीकान्ता के साथ अनन्तमति नाम की एक साधारण स्त्री भी गई थी। उसके साथ उपेन्द्रसेन का स्नेहपूर्ण समागम हो गया और इस निमित्त को लेकर बगीचा में रहने वाले दोनों भाइयों में युद्ध होने की तैयारी हो गई। जब राजा ने यह समाचार
ना तब वे उन्हें रोकने के लिए गए परन्तु वे दोनों ही कामी तथा क्रोधी थे अतः राजा उन्हें रोकने में असमर्थ रहे। राजा को दोनों ही पुन अत्यन्त प्रिय थे। साथ ही उनके परिणाम अत्यन्त आर्द्र-कोमल थे अतः वे पुत्रों का दुःख सहन में समर्थ नहीं हो सके । फल यह हुआ कि बे विष-पुष्प सूचकर मर गये । वही विष-पुष्प सूधकर राजा की दोनों स्त्रियां तथा सत्यभामा भी प्राणरहित हो गई सो ठीक ही है क्योंकि कर्मों की प्रेरणा विचित्र होती है । घातको खण्ड के पूर्वार्ध भाग में जो उत्तरका नाम का प्रदेश है उसमें राजा तथा सिंह-नन्दिता दोनों दम्पती हुए और अनिन्दिता नाम की रानी आर्य तथा सत्यभामा उसकी स्त्री हुई। इस प्रकार वे सब वहाँ भोगभूमि के भोग भोगते हुए सुख से रहने लगे।
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अथानन्तर कोई एक विद्याधर युद्ध करने वाले दोनों भाइयों के बीच प्रवेश कर कहने लगा कि तुम दोनों व्यर्थ ही क्यों यद्ध करते हो? यह तो तुम्हारी छोटी बहिन है। उसके वचन सुनकर दोनों कुमारों ने अाश्चर्य के साथ पूछा कि यह कैसे ? उत्तर में विद्याधर ने कहा कि धातको खण्ड द्वीप के पूर्व भाग में मेरु पर्वत से पर्व को ओर एक पुष्कलावती नाम का देश है। उसमें विजया पर्वत की दक्षिण श्रेणी पर प्रादित्याभ नाम का नगर है। उसमें सुकुण्डरनी नाम का विद्याधर राज्य करता है। सकृण्डली की स्त्री का नाम मित्रसेना है। मैं उन दोनों का मणिकुण्डल नाम का पुत्र हैं। मैं किसी समय पुण्डरीकिणी नगरी गया था, वहा अमितप्रभ जिनेन्द्र से सनातन धर्म का स्वरूप सुनकर मैंने अपने पूर्वभव पछ । उत्तर में वे कहने लगे-कि तीसरे पृष्करवर द्वीप में पश्चिम मेरु पर्वत से पश्चिम की ओर सरिद् नाम का एक देश है। उसके मध्य में वीतशोक नाम का नगर है। उसके राजा का नाम ऋध्वज था, चक्रवज की स्त्री का नाम कनकमालिका था। उन दोनों के कनकलता और पचलता नाम को दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। उसी राजा को एक बिद्युन्मति नाम की दूसरी रानी थी उसके पावती नाम को पूत्री थी। इस प्रकार इन सबका समय सखसे बात रहा था। किस दिन काललब्धि के निमित्त से रानो कनकमाला और उसकी दोनों पत्रियों
भितसेना नाम को गणिनी के वचनरूपी रसायन का पान किया जिसमे वे तीनों ही मरकर प्रयभ स्वर्ग में देव हई। इधर पशादती ने देखा कि एक वेश्या दो कामियों को प्रसन्न कर रही है उसे देख पद्मावती ने भी वैने ही होने की इच्छा की। मरकर वह स्वर्ग में अप्सरा हुई।
तदन्तर कमकमाला का जीव, वहां से चयकर मणिकुण्डली नाम का राजा हुन्मा है और दोनों पुत्रियों के जीव रत्नपुर नगर में राजपूत्र हए हैं। जिरा अप्सरा का उल्लेख ऊपर पा चुका है वह स्वर्ग से चय कर अनन्तमति हई है। इसी प्रान्तमति को लेकर आज तुम दोनों राजपूत्रों का यूद्ध हो रहा है। इस प्रकार जिनेन्द्र देव की कही हुई बाणी सनकर, अन्याय करने वाले पौर धर्म को न जानने वाले तुम लोगों को रोकने के लिए मैं यहां आया हूं । इस प्रकार विद्याधर के वचनों से दोनों का कलह दूर हो गया, दोनों को प्रात्मज्ञन उत्पन्न हो गया, दोनों को शीघ्र ही वैराग्य उत्पन्न हो गया, दोनों ने सुधर्मगुरू के पास दीक्षा ले ली. दोनों ही क्षायिक अनन्तज्ञानादि गुणों के धारक हुए और दोनों ही अन्त में निर्वाण को प्राप्त हुए। तथा अनन्तमति ने भी हृदय में श्रावक के सम्पूर्ण व्रत धारण किये और अन्त में स्वर्ग लोक प्राप्त किया। सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनों के अनुग्रह से कौन-सी बस्तु नहीं मिलती? राजा श्रीषेण का जीव' भोगभूमि से चयकर सौधर्म स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में श्रीप्रभ नामक देव हा, रानी सिंहनन्दिता का जीव उसी स्वर्ग के श्रीनिलय विमान में विद्युत्प्रभा नाम की देवी हई।
सत्यभामा ब्राह्मणी और अनिन्दिता नाम की रानी के जीव क्रमशः विमलप्रभ बिमान में शुक्लप्रभा नाम को देवी और विमलप्रभ नाम के देव हए । राजा श्रीषेण का जीव पांच पल्य प्रमाण आयु के अन्त में वहाँ से चयकर इस तरह की लक्ष्मी से सम्पन्न तू अर्ककीति का पुत्र हुआ है। सिंहनन्दिता तुम्हारी ज्योतिःप्रभ नाम का स्त्री हुई है, देवी अनिन्दिता का जीव श्री विजय हा है, सत्यभामा सतारा हुई है और पहले का दुष्ट कपिल चिरकाल तक दुर्गतियों में भ्रमण नाम के वन में ऐरावती नदी के किनारे तापसियों के आश्रम में कौशिक नामक तापस की चपलबेगा स्त्री से मृगशृग नाम का पुत्र हुआ है। वहां पर उस दृष्ट ने बहत समय तक खोटे तापसियों के व्रत पालन किये । किसी एक दिन चपलबेग विद्याधर की लक्ष्मी देखकर उस मन में, विद्वान जिसकी निन्दा करते हैं ऐसा निदान बन्ध किया। उसी के फल सं यह अशनिघोष हुपा है और पूर्व स्नेह के कारण ही इसने सुतारा का हरण किया है । तेरा जीव आगे वाले नौवें भव में सज्जनों को शान्ति देने वाला पांचवां चक्रवर्ती और शान्तिनाथ नाम का सोलहवाँ तीर्थकर होगा।
इस प्रकार जिनेन्द्ररूपी चन्द्रमा की फैली हुई वचनरूपी चांदनी की प्रभा के सम्बन्ध से विद्याघरों के इन्द्र अमिततेज का हृदयरूपी फूमदों से भरा सरोवर खिल उठा । उसी समय अशनिघोष, उसकी माता स्वयम्प्रभा, सुतारा तथा अन्य कितने ही लोगों ने विरक्त होकर श्रेष्ठ संयम धारण किया । चक्रवर्ती के पुत्र को प्रादि लेकर बाकी के सब लोग जिनेन्द्र भगवान की स्तुति कर तथा तीन प्रदक्षिणाएं देकर अमिततेज के साथ यथायोग्य स्थान पर चले गये। इधर अर्ककीति का पूत्र अमिततेज
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समस्त पर्वों में उपवास करता था, यदि कदाचित् ग्रहण किये हुये व्रत की मर्यादा भंग होती थी तो उसके योग्य प्रायश्चित लेखा था, सदा महापूजा करता था, आदर में पादि करता था, धर्म-कथा सुनता था, भव्यों को धर्मोपदेश देता था, निःशंकित प्रादि गुणों का विस्तार करता था, दर्शनमोह को नष्ट करता था, सूर्य के समान अपरिमित तेज का धारक था पर चन्द्रमा के समान सुख से देखने योग्य था। यह संयमी के समान शान्त था, पिता को तरह प्रजा का पालन करता था और दोनों शोकों के हित करने वाले धार्मिक कार्यों की निरन्तर प्रवृत्ति रखता था ।
प्रज्ञप्ति, कामरूपिणि, अग्निस्तम्भिनी, उदकस्तम्भिनी, विश्वप्रवेशिनी, अप्रतिघातगामिनी, आकाशगामिनी उत्पादिनो, वशीकरण, दशमा, आवेशिनी, माननीय प्रस्थापिनी, प्रमोहनी, प्रहरणी, संक्रामण श्रावर्तनी, संग्रहणी, भजनी, विपाटनी, प्रावर्त की, प्रमोदिनी, प्रहापणी, प्रभावती, प्रलापिनी, निक्षेपणी, शर्वरी, चांडाली, मातंगी, गोरी, षडगिका, श्रीमत्कन्या, शतसंकुला, वेताली कुपण्डी विरलवेगिका, रोहिणी मनोवेगा, महावेगा, चण्डवेया, परेवा, लघुकरी पावती तदा उष्णदा महाज्वाला, सर्वविद्याच्छेदिनी, युद्धवीर्या, बन्धमोचनी, प्रहारावरणी, भ्रामरी, ग्रभोगिनी इत्यादि कुल और जाति में उत्पन्न हुई अनेक विद्याएं सिद्ध की। उन सब विद्याओं का पारगामी होकर वह योगी के समान सुशोभित हो रहा था। दोनों श्रेणियों का अभिपति होने से वह सब विद्याधरों का राजा था और इस प्रकार विद्याधरोचना पाकर वह चिरकाल तक भोग भोगता रहा किसी एक दिन विद्याधरों के अधिपति अभिततेज ने दमवर नामक चार ऋद्धिधारी मुनि को विधिपूर्वक ग्राहारदान देकर पश्चात्पर्य प्राप्त किये किसी एक दिन अमिततेज तथा श्रीविजय ने मस्तक झुकाकर अमर गुरु नामक दो श्रेष्ठ मुनियों को नमस्कार किया. धर्म का यथार्थ स्वरूप देखा, उनके वचनामृत का पान किया और ऐसा संतोष प्राप्त किया मानो अजरश्रमरपना हो प्राप्त कर लिया हो।
तदनन्तर श्री विजय ने अपने तथा पिता के पूर्वभवों का सम्बन्ध पूछा जिससे समस्त पापों को नष्ट करने वाले पहले भगवान प्रमरगुरु कहने लगे। उन्होंने विस्वनन्दी के भय से लेकर समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। उसे सुनकर अमितलेज में भोगों का निदानबन्ध किया । श्रमिततेज तथा श्रीविजय दोनों ने कुछ काल तक विद्याधरों तथा भूमि- गोर्चारियों के सुखामृत का पान किया । तदनन्तर दोनों ने विपुलमति और विमलमति नाम के मुनियों के पास अपनी आयु एक मास मात्र को रह गई है ऐसा सुनकर तेज तथा श्रीदस नाम के पुत्रों के लिए राज्य दे दिया, बड़े सादर से माष्टाहिक पूजा की तथा नन्दन नामक मुनि'राज के समीप चन्दनवन में सब परिग्रह का त्याग कर प्रायोपगमन सन्यास धारण कर लिया। अन्त में समाधिमरण कर शुद्ध बुद्धि का धारक विद्याधरों का राजा श्रमिततेज तेरहवें स्वर्ग के ननावर्थ विमान में रविचूल नाम का देव हुआ और श्री विजय भी इसी स्वर्ग के स्वस्तिक विमान में मणिचूल नाम का देव हुआ। वहां दोनों की आयु बीस सागर की थी। आयु समाप्त होने पर वहां से च्युत हुए ।
उनमें रविचूल नाम का देव ननावर्त विमान से व्युत होकर जम्बुद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तिमित सागर और उनकी रानी वसुन्धरा के अपराजित नाम का पुत्र हुआ । मणिचूल देव भी स्वस्तिक विमान से च्युत होकर उसी राजा की अनुमति नाम की रानी से अनन्तवीर्य नाम का लक्ष्मी सम्पन्न पुत्र हुआ। वे दोनों ही भाई जम्बूद्वीप के चन्द्रमाओं के समान सुशोभित होते थे क्योंकि जिस प्रकार चन्द्रमा कान्ति से युक्त होता है उसी प्रकार वे भी उत्तम कान्ति से युक्त थे, जिस प्रकार चन्द्रमा कुवलय-नील कमलों को अह्लादित करते थे, जिस प्रकार चन्द्रमा तृष्णारूपी मागापदुःख को दूर करते थे और जिस प्रकार कलावर सोलह कलाओं का धारक होता है उसी प्रकार वे भी अनेक कलाओं, अनेक चतुराइयों के धारक थे। श्रथवा वे दोनों भाई बालसूर्य के समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार बालसूर्य भास्वद्वपुदेदीप्यमान शरीर का धारक होता है उसी प्रकार वे दोनों भाई भी पद्मानन्द कर --- लक्ष्मी को पान करने वाले थे, जिस प्रकार बालसूर्य भास्ववदेदीप्यमान शरीर के धारक थे, जिस प्रकार बालसूर्य व्यस्ततामसअन्धकार को नष्ट करने वाले थे जिस प्रकार वाल सूर्य नित्योदय होते हैं- उनका उद्गमन निरन्तर होता रहता है उसी
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प्रकार वे दोनों भाई भी नित्योदय थे-उनका ऐश्वर्य निरन्तर विद्यमान रहता था और जिस प्रकार बालसर्य जगन्नेत्र-जगच्चक्ष नाम को धारण करने वाले हैं, उसी प्रकार के वे दोनों भाई भी जगन्नेत्र-जगत के लिए नेत्र के समान थे।
वे दोनों भाई कलावान थे परन्तु कभी किसी को ठगते नहीं थे, प्रताप सहित थे परन्तु किसी को दाह नहीं पहुंचाते थे, दोनों करों दोनों प्रकार के टवसों से (अायात और निर्यात करों से) रहित होने पर भी सत्कार उत्तम कार्य करने वाले अथवा उत्तम हाथों से सहित थे इस प्रकार वे अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे । रूप की अपेक्षा उन्हें कामदेव को उपमा नहीं दी जा सकती थी क्योंकि वह अशरीरता को प्राप्त हो चुका था तथा नीति की अपेक्षा परस्पर एक दूसरे को जीतने वाले गरु प्रथा उनके समान नहीं थे । भावार्थ-लोक में सुन्दरता के लिए कामदेव की उपमा दो जातो है परन्तु उन दोनों भाइयों के लिए कामदेव की उपमा सम्भव नहीं था क्योंकि वे दोनों शरीर से सहित थे मीर कामदेव शरीर से रहित था। टमी प्रकार लोक में नीतिविज्ञता के लिए गुरु-वृहस्पति पीर शुक्राचार्य को उपमा दो जाती है परन्तु उन दोनों भाइयों के लिए उनकी उपमा लाग नहीं होता था क्योंकि गुरु और शुक्र परस्पर एक दूसरे को जीतने वाले थे परन्तु वे दोनों परस्पर एक दसरे को नहीं जीत सकते थे । सर्य के द्वारा रची हुई छाया कभी घटती है तो कभी बढ़ती है परन्तु उन दोनों भाइयों के द्वारा की हई छाया बढ़ते हुए वृक्ष की छाया के समान निरन्तर बढ़ती ही रहती है ।
वे न कभी युद्ध करते ने पीरा कभी शगुपों पर ईडी करते थे फिर भी शत्रु राजा उन दोनों के साथ सदा मन्धि करने के लिए उत्सक बने रहते थे। इस तरह जिन्हें राज्य-लक्ष्मी अपने कटाक्षों का विषय बना रही है ऐसे वे दोनों भाई नवीन अवस्था को पाकर शुक्लपक्ष को अष्टमी के चन्द्रमा के समान बड़ते हो रहते थे। अब मेरे दोनों योग्य पूत्रों की अवस्था राज्य का उपभोग करने के योग्य हो गई ऐसा विचार कर किमो एक दिन इनके पिता ने भोगों में प्रोति करना छोड दिया। उसी समय इच्छा रहित राजा ने देव तुल्य दोनों भाइयों को बुलाकर उनका अभिषक किया तथा एक को राज्य देकर दमरे को युवराज बना दिया । नथा स्वयं, स्वयंप्रभ नामक जिनेन्द्र के चरणों के समोप जाकर संयम धारण कर लिया। धरणेन्द्र का ऋद्धि देखकर उसने निदान बन्ध किया। उससे दूषित होकर बालता करता रहा। वह सांसारिक सुख प्राप्त करने का इच्छक था। प्रायु के अन्त में विशुद्ध परिणामों में मरा और धरणेन्द्र अवस्था को प्राप्त हया।
भगवान कुन्थनाथ जम्बद्वीपवर्ती पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्स नामक एक देश है उस देश के सुसीमा नगर में एक महान बलवान सिंहरथ नाम का राजा राज्य करता था । एक दिन उसने आकाश से गिरती हुई बिजली देखी इससे उसको वैराग्य हो गया। विरक्त होकर उसने साध अवस्था में १६ कारण भबनायों का चिन्तवन किया जिससे तीर्थकर प्रकृति का बंध किया। अन्त में वीर मरण करके सर्वाथ सिद्धि का देव हुआ।
वहां ३३ सागर की प्रायु बिताकर हस्तिनापुर में महाराजा शूरसेन को महारानो थी कान्ता रो उदर से १७ तीर्थकर कल्यनाथ नामक तेजस्वी पुत्र हुआ। भगवान शांतिनाथ के मोक्ष गमन से ६५ हजार वर्ष कम प्राधा पल्प समय बीत जाने पर भगवान कुन्थुनाथ का जन्म हुआ था। इनको आयु ६५ हजार वर्ष को थी । ३५ धनुप चा सुवर्ण शरीर था। बकरे का चिन्ह पैर में था।
भगवान कुन्यनाथ ने २३७५० वर्ष कुमार दिग्विजय करके निकले और छह खण्ड जीतकर भरत क्षेत्र के चक्रवर्ती सम्राट बने रहकर पूर्वभव के स्मरण रो इनको वैराग्य हुआ। १६ वर्ष तपस्या करके ग्रहन्त पद प्राप्त किया। तब समवशरण में अपनी दिव्यावनि से मुक्ति मार्ग का प्रचार किया। आपके स्वयम्भू प्रादि ३५ गणधर थे ६० हजार सब तरह के मूनि थे। भाविता आदि ६० हजार ३०० प्रायिकायें थी। गंधर्व यक्ष जयायक्षी थी। अन्त में आपने सम्मेद शिखर से मोक्ष प्राप्त किया।
भगवान पर नाथ जम्बुद्वीप में बहने बाली सीता नदी के उत्तरी तट पर कच्छ नामक एक देश है उसका शासन राजा धनपति करता था। उसने एक दिन तीर्थकर के समवशरण में उनकी दिव्य वाणी मुनी दिव्य उपदेश सुनते ही वह संसार से विरकन होकर
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मुनि बन गया तब उसने अच्छी तपस्या को धार सोलह भावनाओं का विस्तवन करके तीर्थकर पद का उपार्जन किया। घायु के अन्त में समाधिररण करके जयन्त विमान में अहमिन्द्र हृा । तंतोस सागर अहमिन्द्र पद के सुख भोग कर उसने हस्तिनापुर के सोमवंशी राजा सुदर्शन की महीमामयी रानी मित्रसेन के गर्भ में आकर धरनाथ तीर्थकर के रूप में जन्म
लिया ।
भगवान अरनाथ के शरीर का वर्ण सुवर्ण समान था। जब हजार करोड़ चौरासी हजार वर्ष कम पल्य का चौथाई भाग समय भगवान कुन्थुनाथ को मोक्ष जाने के बाद से बीत चुका था। तब थो अरनाथ का जन्म हुआ। उनका शरीर २० धनुष ऊंचा था पैर में मछली का चिन्ह था उनकी आयु चौरासी हजार वर्ष की थी। २१ हजार वर्ष कुमार अवस्था में व्यतीत हुए । २१ हजार वर्ष तक मंडलेश्वर राजा रहे फिर ६ खंड विजय करके २१ हजार वर्ष तक चक्रवर्ती पद में शासन किया । तदनन्तर शरद कालीन बादलों को विटता देखकर वैराग्य हुआ भतः राज्य त्याग कर मुनि हो गये। वर्ष तक तपदचरण करते हुए जब बीत गये तब उनको केवल ज्ञान हुआ। फिर समवशरण में विराजमान होकर भव्य जनता को मुक्ति पथ का उपदेश दिया। इनके कुम्भार्य यदि तीस गणधर तथा सब प्रकार के ६० हजार मुनि और यक्षि आदि एक हजार भाविकायें भगवान के संघ में थीं। महेन्द्र यक्ष विजया पक्षी थी। सर्वत्र विहार करते हुए महान धर्म प्रचार किया और पन्त में सम्मेद शिखर पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया।
भगवान अरनाथ के पीछे किन्तु उनके तीर्थ समय में हो परशुराम का बालक किन्तु स्वयं लोभ वा समुद्र में अपने पूर्व जन्म के शत्रु देव द्वारा मरने वाला सुभम चक्रवर्ती हुआ है तथा उनके ही तीर्थ काल में नन्दिषेण नामक छडा बनभद्र, पुण्डरोक नारायण और निशुम्भ नामक प्रति नारायण हुआ है ।
भगवान् मल्लिनाथ
जम्बूद्वीपवर्ती सुमेरु पर्वत के पूर्व में कच्छावतो देवानाम सुन्दर नगर है उसमें बंधन नामक राजा राज्य करता था। एक दिन उसने वनविहार के समय बिजली से एक वट वृक्ष को गिरते देखा इससे उनको वैराग्य हो गया और वह अपने पुत्र को राज्य देकर मुनि हो गया। मुनि अवस्था में उसने तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध किया । तपश्चरण करते हुए समाधि के साथ प्राण त्याग किया और अपराजित नामक अनुचर विमान में उत्पन्न हुआ तो सागर की वायु अब वहां समाप्त हुई तो रंग देश की मिथिला नगरी में इक्ष्वाकुवंशी राजा कुम्भ की रानी प्रजावती के गर्भ में माया सौर मास पश्चात् श्री महिलनाथ तीर्थंकर के रूप में जन्म लिया भगवान मरनाथ की मुक्ति के ५५ हजार वर्ष कम एक करोड़ वर्ष व्यतीत हो जाने पर श्री मल्लिनाथ भगवान का जन्म हुआ।
आप सुवर्ण वर्ण के थे २५ धनुष ऊंचा शरीर वा पचपन हजार वर्ष की आयु थी दाहिने पैर में कलश का चिन्ह था। जब उन्होंने यौवन अवस्था में पैर रखा तो उनके विवाह की तैयारी हुई। अपने नगर को सजा हुआ देखकर उन्हें पूर्व भय के अपराजित विमान का स्मरण हो गया । अतः संसार की विभूति अस्थिर जानकर विरक्त हो गये और अपना विवाह न कराकर कुमार काल में उसी समय उन्होंने मुनि दीक्षा ले ली। छः दिन तक तपश्चरण करने के अनन्तर हो उनको केवल शान हो गया। फिर अच्छा पर्म प्रचार किया। उनके विशाल आदि २० गणधर थे। केवल ज्ञानी आदि विविध ऋद्विधारक ४० हजार मुनि और बन्धुषेणा आदि आर्यिकायें उनके संघ में थीं । कुवेर यक्ष प्रपराजिता यक्षी थी कलश चिन्ह था अन्त में वे सम्मेद शिखर से मुक्त हुए ।
इनके तीनों काल में पद्मनामक चक्रवर्ती हुआ है तथा इनके ही तीर्थ काल में सातवें वलभद्र नन्विमित्र नारायण दत और बलि नामक प्रतिनारायण हुए हैं।
भगवान् मुनिसुव्रतनाथ
अंग देश के चम्पापुर में प्रतापी राजा ह्रीवमां राज्य करता था एक बार उसने अपने उद्यान में पधारे हुए अनन्त वोर्य से संसार की प्रसारतासूचक धर्म उपदेश सुना उसके प्रभाव से उसे आत्म रुचि हुई और वह सब परिग्रह त्याग कर
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सोलह भावनाओं का चिन्तवन करके वह प्राणत स्वर्ग का इन्द्र हुआ। वहाँ पर २० सागर दिव्यसम्पदाओं का उपभोग किया तदन्तर मगध देश के राजग्रह नगर के शासक हरिवंशी राजा सुमित्र नाम की महारानी मीमा के गर्भ से बीसवं तीर्थकर श्री मुनि सुव्रतनाथ के रूप में जन्म लिया। भगवान मल्लिनाथ के मुक्ति समय से ५३ लाख ७० हजार वर्ष का समय बीत जाने के बाद पर श्री मुनिसुव्रतनाथ का जन्म हुआ था। शरीर का वण नोला था, ऊचाई २० धनुष थी। और आयु ३० हजार वर्ष की थी। दाहिने पैर में कछुए का चिन्ह था।
भगवान मुनिसुव्रतनाय के साढ़े सात हजार वर्ष कुमार काल में व्यतीत हुए और साढ़े सात हजार वर्ष तक राज्य किया । फिर उनको मंसार से वैराग्य हुन्ना उनके साथ एक हजार राजाओं ने भी मुनि दीक्षा ग्रहण की। कई मास तक तपश्चरण करने के पश्चात उनको केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। तब लगभग ३० हजार वर्ष तक समवशरण द्वारा विभिन्न देशों में विहार करके वे प्रचार करते रहे। इनके मल्लि आदि १८ गणधर थे वे केवल ज्ञानी अवधि ज्ञानी प्रादि सब तरह के ३० हजार मुनि
और पुष्पदन्ता आदि ५० हजार प्रायिकाएं उनके साथ थी। वरुण यक्ष बहुरूपिणो यक्षा कच्छप का चिन्ह था अन्त में सम्मेद शिखर से उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।
भगवान मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ काल में हरिषेण चक्रवर्ती हया है तथा पाठवें बलभद्र राम नारायण लक्ष्मण प्रति नारायण रावण हुआ है।
भगवान नमिनाथ वत्स देश के कोशाम्बि नगर में सिद्धार्थ नामक इक्ष्वाकुवंशी राजा राज्य करना था। एक दिन उसने महावल केवली से धर्म उपदेश सुना जिसमे उसको वैराग्य हो गगा। वह मुनि दीक्षा लेकर तपस्या करने लगा दर्शन विशुद्धि प्रादि सालह भावनाम्रो द्वारा उसने तोर्थ कर प्रकृन किया । हा के अन्त में समाधिारण किया। अपराजित नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र उतन्न हुमा । वही उसने ३३ सागर को मायु व्यतीत की। तदन्तर मिथिला नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काप्यप गोत्रीय महाराजा विजय को महारानी वपिला के उदर से २१ वें तीर्थंकर थो नमिनाथ के रूप में जन्म लिया। भगवान मुनिसुव्रतनाथ के बाद ६० लाख वर्ष तीर्थकाल बीत जाने पर भगवान नमिनाथ का जन्म हुम्रा था। उनकी प्रायु दस हजार वर्ष थी शरीर १५ धनुप ऊँचा था। वर्ण स्वर्ण के समान था चिन्ह नोल कमल का था। भगवान नमिनाथ का ढाई हजार वर्ष समय कुमार काल में और ढाई हजार वर्ष राज्य शासन में व्यतीत हुआ। एक बार पूर्व भव का स्मरण कर उन्हें वैराग्य हो गया तब मुनि दीक्षा लेकर वर्ष तक तपस्या को तदन्तर उनको केवल ज्ञान हमा। उस समय देश देशान्तरां में विहार कर धर्म प्रचार करते रहे। उनके संघ में सुप्रभार्य ग्रादि १७ गणधर २० हजार सब तरह के मुनि और मंगिनो आदि ४५ हजार प्रायिकाए थी। भ्रकुटि यक्ष चामं डो यक्षो नीलोत्पल चिन्ह था अन्त में भगवान नमिनाथ ने सम्मेद शिखर पर से मुक्ति प्राप्त की।
भगवान नेमिनाथ जम्बुद्वीपवर्ती पश्चिमविदेह क्षेत्र में सीतानदी के उत्तर तट पर सुगन्धिला देश है। उसमें सिंहपुर नगर का यशस्वी प्रतापी ओर सोभाग्यशालो राजा अपराजित शासन करता था उसको एक दिन पूर्वभव के मित्र दो विद्याधर मुनियों ने प्राकर प्रवद्ध किया कि अब तेरी आयु केवल एक मास को रह गई है कुछ प्रात्म कल्याण कर ले । अपराजित अपनी आयु निकट जान कर मुनि हो गया । मुनि होकर उसने खूब तपश्चर्या की। प्रायु के अन्त में समाधिमरण कर सलहवें स्वर्ग का इन्द्र हुआ। वहां से च्युत होकर हस्तिनापुर के राजा श्रीचन्द्र का पुत्र सुप्रतिष्ठ हुआ। राज्य करते हुए उसने एक दिन बिजली गिरती हुई देखी इससे संसार को क्षणभंगुर जानकर मुनि हो गया। मुनि अवस्था में उस ने तीर्थकर प्रकृति का बंध किया। और आयु के अन्त में एक मास का सन्यास धारण कर जयन्त नामक अनुत्तर बिमान में अहमिन्द्र हुआ। वहां पर तीस सागर को प्रायू बिताकर द्वारावती के यदुवंशी राजा समुद्रविजय व रानी शिवादेबी की कोख से २२ वे तार्थकर थी नेमनाथ के रूप में उत्पन्न हना।
भगवान नेमिनाथ का शरीर नील कमल के समान नाले वर्ण का था एक हजारवर्ष को प्रायु थो । और शरीर को ऊंचाई दश धतूप थी उनके पैर में शंख का चिन्ह था । वे भगवान नमिनाथ के मुक्त होने के ४ लाख ९६ हजार वर्ष पीछे उत्पन्न हुए
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थे युवा हो जाने पर उनका विवाह सम्बन्ध जुनागढ़ के राजा उग्रसेन (ये कस के पिता उग्रसेन से भिन्न थे) की गुणवती युवता परम सुन्दरी सुपुत्री राजमति के साथ निश्चित हुआ। बड़ी धूम-धाम से आपकी बारात जूनागढ़ पहुंची। वहां पर कृष्ण ने भगवान नेमिनाथ को वैराग्य उत्पन्न करने के अभिप्राय से बहुत पर एक बाड़े में एकत्र करा दिये। ये पशु करुण चीत्कार कर रहे थे। भगवान नेमिनाथ को अपने रथवाहक से ज्ञात हुआ कि इन पशुओं को मारकर मेरी बारात में आये हुए कुछ मांस भक्षी लोगों को लोलुपता पूरी की जायेगी। यह बात विचार कर उनको तत्काल बैराग्य हो गया । और वे तोरण द्वार से लौट आये। उन्होंने जूनागढ़ के समीपवर्ती गिरनार पर संयम धारण कर लिया। राजमती भी प्रायिका हो गई। ५६ दिन तपश्चर्या करने पश्चात भगवान नेमिनाथ को कंवलज्ञान हो गया । तदन्तर सर्वत्र विहार कर धर्म प्रचार करते रहे। उनके संघ में वरदत्त प्रादि ११ गणधर थे। १८ हजार सबै तरह के मनि थे । और राजगती मादि ४० हजार गायिकायें थो । सर्वाहिक यक्ष पाम्रकुस्मांडिनी यक्षी व शंख का चिह्न था। वे अन्त में गिरनार पर मुक्त हुए ।
उनके समय में उनके चचेरे भाई बलभद्र बलदेव तथा नारायण कृष्ण और प्रतिनारायण जरासंध हुऐ हैं।
भगवान पार्श्वनाथ इसी भरत क्षेत्र में पोदनपुर के शासक राजा अरबिन्द थे । उनका सदाचारी विद्वान मंत्री मरूभूमि था। उसको स्त्री बसुन्धरी बड़ी सन्दर थी। मरूभूमि का बड़ा भाई कमठ बहुत दुराचारी था। वह वसुन्धरी पर प्रासक्त था । एक दिन मरूभूमि का बड़ा भाई पोदनपुर से बाहर गया हुआ था । उस समय प्रपच बनाकर कमठ ने मरुभूति की स्त्री का शीलभंग किया। राजा अरबिन्द को जब कमठ के दुराचार का मालूम हुमा तो उन्होंने कमठ का मुख काला करके गधे पर बिठाकर राज्य से बाहर निकाल दिया। कमठ एक तास्त्रियों के प्राधम में चला गया। वहाँ पर एक पत्थर को दोनों हाथों से उठाकर खड़े होकर वह ना करने लगा। मरूभुति प्रेमवश उसमे मिलने पाया । कमठ ने उसके ऊपर वह पत्थर पटक दिया। जिससे कुचल कर मरूभूति मर गया।
मरुभुति मर कर दूसरे भव में हाथी हया और कमठ मरकर सर्प हुया। उस सर्प ने पूर्व भव का वर विचार कर उस हाथी की संड में काट लिया हाथी ने शान्ति से शरीर का त्याग कर सहस्रार स्वर्ग में देव पर्याय पाई। सर्प मरकर नरक में गया। मरूभूति का जीव १६ सागर स्वर्ग में रहकर विदेह क्षेत्र में विद्याधर राजा का पुत्र रश्मिवेग हुआ । कमठ का जीव नरक से निकाल कर विदेह क्षेत्र में अजगर हुआ। रश्मिवेग ने यौवन अवस्था में मुनि दीक्षा ले लो। संयोग से कमठ का जीव अजगर उन ध्यानमग्न मुनि के पास पाया तो पूर्वभव का वैर विचारकर उनको खा गया रश्मिवेग मुनि मरकर सोलहवें स्वर्ग में देव हए। कमठ का जीव अजगर मर कर छठे नरक में गया । मरूभूति का जोव स्वर्ग की आयु समाप्त करके विदेह क्षेत्र में राजा व्रजवीय का पुत्र वजनाभि हुना। वजनाभि ने चक्ररत्न से दिग्विजय कर सम्राट पद पाया। बहुत समय तक राज्य करने के बाद वह फिर समार से विरक्त होकर मुनि बन गया। कमठ का जीव नरक से निकल कर इसी विदेह क्षेत्र में भील हुश्रा । एक दिन उसने ध्यान में मग्न बजनाभि मुनि को देखा तो पूर्वभव का वर विचार कर उनको मार डाला।
मनि मरकर मध्यम गवयक के देव हुए। कमठ का जोक भील मरकर मरख में गया । मरूभूति का जीव अहमिन्द्र की प्राय समाप्त कर अयोध्या के राजा व्रजबाहु का आनन्द नामक पुत्र हुमा । प्रानन्द ने राज पद पाकर बहुत दिन तक राज्य किया फिर अपने सिर का सफेद बाल देखकर मुनि दीक्षा ले ली। मुनि दशा में अच्छी तपस्या की और तीर्थकर प्रकृति का बंध किया। कमठ का जीव नरक से आकर सिंह हुआ था। उसने इस भव में पूर्व वर विचार कर आनन्द मुनि का भक्षण किया । मुनि सन्यास से शरीर त्याग कर प्राणत स्वर्ग के इंन्द्र हुए । सिंह मरकर शम्बर नामक असुर देव हमा।
मरूभूति के जीव ने प्राणत स्वर्ण की प्रायु समाप्त कर बनारस के इक्ष्वाकुवंशी राजा अशवसेन की रानी वामादेवी के उदर से २३ वें तीर्थकर पाश्र्वनाथ के रुप में जन्म लिया। भगवान नेमिनाथ के ८३ हजार सात सौ पचास वर्ष बीत जाने पर भगवान पार्श्वनाथ काम हया था। भगवान पार्श्वनाथ की आयु १०० वर्ष की थी। उनका शरीर हरित रंग था। नौ हाथ
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की ऊंचाई थी पर में सर्व का चिह्न था। जब के सोलह वर्ष के हुए तब हाथी पर सवार होकर गंगा के किनारे सैर कर रहे थे । उस समय उन्होंने एक तपस्वी को अग्नि जलाकर तपस्या करते हुए देखा। भगवान पार्श्वनाथ को अवधि ज्ञान से ज्ञात हुआ कि एक जलती हुई लकड़ी के भीतर सर्प सर्पिणी भी जल रहे हैं। उन्होंने तापसी से यह बात कहो तापसी ने क्रोध में आकर जय कुल्हाड़ी से कड़ी फाड़ी तो सचमुच मरणोन्मुख नाय नायनी उसमें से निकले भगवान पार्श्वनाथ ने उनको जमोकार मंत्र सुनाया। नाग नागती ने शान्ति से णमोकार मंत्र मुनते हुए प्राण दे दिये और दोनों पर कर भवनवासी देव देवी धरणीन्द्र पद्माबली हुए।
राजकुमार पार्श्वनाथ ने अपना विवाह नहीं किया और यौवन धवस्था में ही विश्षत होकर मुनि दीक्षा लेते ही उन्हें मन:पर्ययज्ञान हो गया । चार मास पीछे एक दिन जब वे ध्यान में बैठे थे तब कमठ का जीव असुरदेव उधर होकर आकाश में आ रहा था। भगवान पार्श्वनाथ को देखकर उसने फिर पूर्वभव का पैर विचार कर भगवान के ऊपर बहुत उपद्रव किया। उस समय घरणेन्द्र पद्मावती ने आकर उस असुर देव को भगा कर उपसर्ग दूर किया। उसी समय भगवान को केवल ज्ञान गणधर थे सब तरह के १६ हजार यक्ष सर्प का चिह्न था। अन्त में
हुआ । तब समवशरण द्वारा समस्त देशों में धर्म प्रचार करते रहे। मुनि और सुलोचना [आादि १६ हजार पकायें उनके संघ में थी आपने सम्मेद शिखर से मुक्ति प्राप्त की।
उनके स्वयंभू आदि १० परन्द्र
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भगवान महावीर
और
उनका तत्व दर्शन
[चौथा अध्याय
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मावान महावीर
जीवन चरित्र श्री दि. जैन मन्दिर वैदवाड़ा में प्रा ३०० वर्ष प्राचीन हस्तलिखित शास्त्र के आधार पर
(कवि नवलशाह कृत)
मंगलाचरण
दोहा ऊंकार उच्चार करि, ध्यावत मुनिगण सोई। तामें गभित पंच गुरु, नित पद वन्दौं दोई॥२॥ गुण अनंत सागर विमल, विश्वनाथ भगवान । धर्म चक्रमय वीर जिन. वन्दों शिरधर पान ॥२॥ सिद्घारथ कुल-रवि-कमल, त्रिशला उर अवतार । वन्दी सन्मति चरणजुग, शुभ मति के दातार ॥३॥
छप्पय
जा पूरव अवतार मास, पट ते नव लौं वर, वरखे रत्न अमोल, सुभग छविवन्त पिता घर । देखसु अतिशय रूप, हेमगिरि कर्यो न्वहैन सुर, तृपति भयौ नहि सोइ, किए तब सहस अक्ष उर । वर्धमान थियवर्द्ध अति, मान कोति जगमें सही, मान बद्ध हिरदै नहीं, सुवर्द्धमान वासव कही ॥४॥ बालपनै जग सार, रमा तिन तजी तृणावत, धरी तपस्या जोर, घोर, वन अक्षकाम हत । भोजनदान महान, चन्दना सती जु दीनी, पंचाश्चर्य प्रवीण, देखि देवनि पुर किनी। देखि परिषह रौद्र अति, भयदायक जानौ महा, श्रीमहावीरनामा कह्यौ इहि अनन्त सुरगण लहा॥५॥ काम वीर्य को हन्यौ, शुक्लध्यानी–असिके जिनि, घाति कमरिपु छेद, चाप-केवल करिक तिनि । नर सर पूजित भये, धर्म दोविध परवाप्यौ, सुरग मुकतिको दाई, सकल भव्यनि प्रतिभास्यौ। इन आदि जगत विख्यात गुण, संपूरण जिनवीर वर, हर्षवन्त हो स्तुति करों, तिन गुण प्रापति जोर कर।।६।।
जो अखिल विश्व के स्वामी तथा सर्वमान्य अनन्त गुणों के समुद्र हैं, उन धर्मरूपी चक्र के धारक श्री महावीर भगवान की मैं वन्दना करता हूँ।
___ जिनके अवतार धारण करनेके पुर्व छह मास तक एवं गर्भ में आने के पश्चात् नव मास तक अर्थात पन्द्रह मास तक कुर ने रत्नोंकी वर्श की।
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दोहा
भरम हरण प्रानन्द करण, मुकति रमणि भरतार मोह तिमिर नाशन सरक, बन्दी निज हितकार ||७|| ।। अथ चौबीस जिनको नमस्कार ||
चौपाई
वृषभ वृषभ चक्री कृत सार वृषभ तोर्थ वर्तावन हार मोह वाम भारति इन्द्रीय, दुसह परियहादिक जोतोय संभव भय हैं सार महान तीन लोक भवि जीवन जान सचिदानंद भगवान मनोग, आनंद करता हरता सोग । श्रातम थिति अभिनंदन देव, आनंद हेत करों नित सेव ||११||
सुर्मात जिनेश सुमति दातार । भवि जीवन संबोधन सार । स्वच्छ सुमतिकी सिद्धिविशाल । बन्दी तास हूण भव जाल ।। १२ ।।
वृषदायक वृप आम जान, बन्दों नृप मनाच भगवान ||८|| एकाको अमित जु सर्व अजितनाथ बन्दों तजि गर्व ॥ १|| संपूरण सुख के करवार वन्दों निराबाध सुविचार ||१०||
3
शीतल भव्य जीवको सार प्रणमी श्रेय श्रेय दातार के
बन्दों पद्म प्रभु भगवान, पद्मा पद्म अलंकृत जान नमीं सुपार्श्वनाथ जिनराय, सुमिय नरनको पारस राय जगत जीव मानन्द करवार, धर्मामृत करि पूरित सार सुविधि शुभ्रम भ्रम हरता वान सुरय मुकति सुख प्रापति काज पार ताप नाशक भवतार प्रभु भुति घारं
।
संसार
सकल जीवको हैं दातार, पद्मा पद्मकांत शुभसार || १३|| सूख अनन्त अरु गुण जु अनन्त, अष्टकर्मको कोनों प्रत ॥ १४॥ मिध्यातम हर चन्द्र समान बन्द चन्द्रप्रभु सुखदान || १५|| भव्यानि विधि उपदेशक जान
भ्रमनायक अनमी जिनराज ॥ १६ ॥
दिव्य सुधा ध्वनि जास, नमीं पाप छेदन शुभ वास ॥१७॥ विश्वभेय पर मोकर श्रेय, श्रेय लीन सुखदायक मेव ||१८||
वर
| अरु
सुमेरु पर्वत पर जिनका जन्माभिषेक उत्सव देखकर इन्द्र के सह नेत्र हो गये।
जिन्होंने पेशवावस्थामें राज्यविभूति को तृणवत समझकर तथा कामरूपी शत्रु को परित्याग कर कठिन तपस्या के लिये वन में गमन किया । जिन्हें माहार दान देने के कारण चन्दना नामकी कन्या त्रैलोक्य में प्रख्यात हुई ।
जो द्र के उपसर्गोको शान्तिपूर्वक सहन कर 'महावीर' नामसे प्रसिद्ध हुए। जिन्होंने घातिया कर्मरूपी सोधाओं को परास्त कर केवलज्ञान प्राप्त किया।
जिन भगवान ने स्वर्ग मोक्ष रूपी लक्ष्मी प्रदान करनेवाला धर्मका प्रकाश किया, जो ग्राज पर्यन्त श्रावण और मुनि धर्म के रूप में विद्यमान है और भविष्यमें भी रहेगा।
जिनके कर्म जीतने से 'वीर', धर्मोपदेश देनेसे 'सन्मति धीर उपसर्गों को सहन करने से 'महावीर' नाम है, उन मनन्त गुणोंसे परिपूर्ण श्री महावीर प्रभुको में उनके गुणोंकी प्राप्ति के लिये मन, वचन, कायसे सदा नमस्कार करता हूं । इनके साथ ही मैं श्री ऋषभदेव मादि तेइस तीर्थंकरोंको भो तीनों योगोंसे बारम्बार नमस्कार करता हूं।
मैं ऐसे समस्त सिद्धों को नमस्कार करता हूं, जो सम्यकत्वादिष्ट गुणों सहित लोक शिखर पर विराजमान हैं ।
श्री महावीर स्वामी मोक्ष जानेके पश्चात् श्री गौतम स्वामी, सुधर्माचार्य और अन्तिम श्री जम्बूस्वामी ने तीन केवलज्ञानी हुए।
ये तीनों श्री महावीर स्वामी निर्वाण प्राप्त होनेके ६२ वर्ष पश्चात् धर्मके प्रवर्तक हुए।
उनके चरण कमलोग भक्तिभाव रचता हुआ में उनके गुणोंकी प्राप्ति की इच्छा रखता है।
इनके सौ वर्ष बाद अंग-पूर्वोके जानकार नन्दी, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु स्वामी ये पांच श्रुतकेवल) हुए। मेरा उनके चरणों में शतशः नमस्कार है।
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र्य श्री सुविहिालागर जी
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रणमा अरहताणं. णमो सिद्धार्ग. णमा आइरियाणं. णमो उवज्झाया.
गमो लोग सवसाहतं ।
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पूजित तीन जगत कर देव, करहौं हरषवंत हृय सेव निन्दक कोई दोष ना भाव, वासुपूज्य के प्राश्रय जाव || १६ || अनादि कर्म दीनं तिन जार वचनामृत करि जोग निहार। पाप सुमल हर मेघ समान, विमलनाथ विमलातम जान ||२०|| | गुण अनन्त परिपूरण ज्ञान, सुरपति से हिरदे श्रान गुण अनन्त प्राति के का, बन्दों श्री अनन्त जिनराज || २१|| भावी धर्म दुविध सुखदान, स्वर्ग मुक्तिको कारण जान सुद्धियु धर्मचक्रमय सार बन्द धर्म कर्म करतार ॥ २२॥ दह्यो कर्म शत्रुनि को जोर कपायादिक उपद्रय घोर समतानिराधार कर जीन, शांति शांति कर नमीं सुफीव ॥ २३॥ दिव्य ध्वनि सबसौं जनपीय कुध्यादिक निविरोध्यो जीवनभू ३५रे होई ||२४||
I
।
वचनशस्त्र
1
कर घाते सार । दुरधर कर्म-शत्रू भयकार | इन्द्रिय विषय हरण जिनराज । वन्दों पर अरिहानक काज ॥२५॥ कर्ममल्ल जीते व वीर सकल जीव शरणागत धीर । बड़ । छेयौ मोहरा दुख वम्यो महिल शक्ति के कारण नम्बी ॥२६॥
हाय जोर बन्द शिरनाथ, व्रतकारणमुनिसुव्रत पाय ||२७|| इत्यी कर्म अरिकी सन्तान, तागुण कारण जोरें पान ॥२८॥ बालपने दीक्षा उर घरी, नेमि भर बंदी शिववरी ।। २६|| परन्दर पद्मावत भई पार्श्वनाथ निशिदिन बुति उई ||३०|| उपसर्ग-अग्नि संताप निवार, महावीर प्रणमों तिहार ॥३१॥ ॥ श्रथ विद्यमान बीस तीर्थकरों को नमस्कार ।।
दोहा
राजत परम विदेह में, वौस जिनेश्वर भास
सोमन्धर प्रभु आदि दे, विद्यमान सुख रास ॥ ३२ ॥ देव संघ अचित सदा, धर्म लक्ष्मी नाथ । विघन सकल मेरे हरी, बन्दों शिर धर हाथ ।। ३३ ।।
॥
अतीत श्रनागत बीस तीर्थंकरों को नमस्कार ॥
अतीत ग्रनागत तीर्थंकर
मुनिवर आदि सकल जन जेह, प्रत को देहि निरन्तर तेह नमि जिन नायक भारत ध्यान, सकल इन्द्र वन्दित भगवान मोह काम इन्द्रिय दुख जान, इनकी करी निरन्तर हाम जाने, महामन्त्र, परभाव, लह्यो, नाग, नागिन, सुशचाव कर्म इतन को वीर महान सनमति पर्नुपदेशक वान
।
द्वीप अढ़ाई मांहि । तिनपद पंकज प्रनमियों, भवदुखहर सुख दाहि ||३४|| ॥ सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार ॥
लोक शिखर श्रारूढ़ हैं, कर्म काय करि होन । वसु गुणमय जातों सही, ज्ञान अनन्त सुलीन ॥३५॥ मूर्ति रहित श्रानन्दमय, निवसे भूव शिव संत गुण अनन्त के कारण प्रणमों सिद्ध अनन्त ॥ ३६॥
इनके १०० वर्ष के पश्चात् धर्म के प्रकाशक राजधारी विशाल प्रष्टिनाचार्य, क्षत्रिय, जय नाग, सिद्धार्थ सिंहसेन, विजय, बुद्धिल, गंग श्रीर सुधर्माचार्य, ये ग्यारह आचार्य हुए हैं। उनके चरण कमलों में मैं नमस्कार करता हूँ।
इसके २२० वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद धर्म के प्रवर्तक नक्षत्र जयपाल, पाण्ड, दुमसेन व कंस ये पांच ग्यारहों अंगके जानकार हुए। मैं इनकी बन्दना करता हूँ ।
पुनः सौ वर्ष व्यतीत होने पर सुभद्र, यशोभद्र जयवाहू, लोहाचार्य ये अंग पाठी हुए।
उस समय कुछ काल व्यतीत होने पर विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, श्ररुहृदत्त, ये चार अंग पूर्वके कुछ अंशों के जान
कार हुए।
पर इसके पश्चात् हुण्डावसर्पिणी तथा उसके विशेषज्ञोंकी कमी होने पर थी भूतवली घौर पुपदन्त मुनियों ने इन दोनों श्रुत विनष्ट होने के भय से शास्त्रोंकी रचना की, जो पट् खण्डागम नाम से प्रख्यात हैं ।
इन्होंने अपने शास्त्रोंको जेठ सुदी पंचमी के दिन पूर्ण किया था, इससे उनका नाम श्रुत पंचमी पड़ा ।
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वृषसेन को आदि दे,
मोक्ष गये श्रवीर जिन मध्य सुवासठ वरसके,
चतुर
श्री विष्णु नन्दमित्र पुनि पूर्व अंग के देवता,
|| गणधर को नमस्कार ।।
ज्ञान धरतार। सप्त ऋद्धि भूपित नमीं कवि ईश्वर गणधार ||३७|| ॥ केवलीत्रय को नमस्कार ॥
अपने
I
केवल तीन गौतम तथा सुधर्म मुनि जम्बूस्वामि प्रवीन ||३८|| धर्मवति मुनिराज शरण नहीं पदकमल तिनि उनके गुणका ||३२| ॥ पंच तवली को नमस्कार ।। अपराजित मिलि सोच गोवर्द्धन भद्रबाहु पुनि ये केवल पांच ॥४०॥ उपजे त्रिजग सुचन्द । श्रन्तर इक शत वर के, नमीं चरण भर विन्द ||४१ || || श्रम पूर्व पाठी आचार्यों को नमस्कार ॥
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चौपाई
विशाखप्रोष्ठि क्षत्रिय जान नाग सिद्धार्थ जयसेन प्रमान तेरासी सौ वर्ष के मांहि, उपजे तामें विकलप नाहि नक्षत्र नाम जयपाल प्रशंस, पाण्डुक ध्रुवसेन र तह कंस दो शत बीस बरस में भए, तिनिके चरण कमल हम नए विनय आदिवर श्रीदत्त जान, भरदत्त शिवदत्त दखान
।
विजय बुद्धिमत गंग सुधर्म, जन्मी बंग पूर्व दया गर्म ॥४२॥ धर्म प्रकाशक दर्शन ज्ञान, चरण कमल प्रणमों जुगपान ||४३|| एकादशह मंग बेतार धर्म प्रवर्तक मुनिवर सार | सुभद्र जो जयबाहू, लोहाचार्य पमपर ताह ॥१४५॥ बंग पूर्व के धारक सोइ बन्दा कम पर दो ॥४६॥
दोहा
इकशत दश वरषके, उप अन्तरमांहि काल दोष से हीन श्रुत, इनमें रह्यो न कोई ज्ञान के नाशते मति वल पुस्तक कौन ज्येष्ठ धवल पंचमि दिना पाप्य शास्त्र रूप और भये मुनिवर बहुत, कुन्दकुन्द गुरु आदि
रहित परियह दुविधतर राग द्वेष र नाहि ॥४७॥ भुजबल पुष्पसुदन्त पर उपजे मुनिवर दो ||४ साध तनी पूजा निमित स्तुति में सोलीन ॥४६॥ धर्मवृद्धि करता नमीं श्रुति प्रापति जु अनूप ||५०|| कवि ईश्वर भूतल विषं परिग्रह कोनों बादि ||५.१
।
॥ उपाध्याय परमेष्ठी को नमस्कार ||
उस दिन सब संघों ने मिलकर जिनवाणी की पूजाकी थी और बाज भी करते हैं। तत्पश्चात् कुन्द कुन्दादि अनेक आचार्य मैं गुण प्राप्ति की प्राशासे उनकी बारबार वन्दना करता हूँ।
हुए हैं।
मेरा ऐसा विश्वास है कि भगवान के मुख कमलसे प्रकट हुई विश्वपूण्या सरस्वती (वाणी ) मेरी बुद्धिको निर्मल बतलाने में समर्थ होगी।
इसी भांति सत्य एवं गुणवा देव तथा शास्त्र और गुरुमों को नमस्कार करता हुआ श्रोता-वक्ता लक्षणोंका वर्णन करता हूं, जिससे इस प्रत्यको उत्तम प्रतिष्ठा हो ।
श्रेष्ठ
वक्ता के लक्षण
जो सब परिग्रहों से मुक्त हों, अपनी पूजा तथा प्रसिद्धिके उत्सुक न हों, अनेकान्तवाद के धारक हों, सर्वमिद्धान्तों पारदर्शी हों, जीव हितकारी तथा भव्यजीवोंके हित में सदा लीन हों, सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र और तप ही जिनके भूषण हों, म बादि गुणों के सागर हो, निलोभी, निरभिमानी, गुणी एवं धर्मात्मा विशेष प्रेम रखने वाले हों, धत्यन्त बुद्धिशाली उद्यमी तथा जैन धर्म के महारभ्य प्रकाशनमें समर्थ हों, जिनका यश सर्वत्र विस्तृत हो जिन्हें सब मान देते हों, सत्यता आदि गुणोंके धारक आचार्य, उत्तम वक्ता कहे गये हैं। इन्हीके उपदेश श्रवणकर भव्य जीव धर्म और लपको धारण करते हैं - अन्य कुमागियोंके वचनों को लोग उपेक्षा करते हैं। कारण ऐसा कहा गया है कि, कुमार्गी जब धार्मिक उपदेश करता है, तो ययं वैसा पावर क्यों नहीं करता । अतएव शास्त्र के रचयिता और धर्मोपदेश देने वाले में ज्ञान और श्राचरण दोनों ही गुण पूर्ण मात्रा में होने चाहिये ।
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चौबीम नार्थंकर
ओता के लनगा
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(१) श्री विष्णु, अतंकवली : (२) नंद मित्र भूत केवली : (२) अपराजित नकवली : (४) गोवर्धन भन के वली (५) भद्रबाहु अन कवाली ( विशारत्राचार्य : (७) त्रियाचाय : (८) नाममिद्वाचाय : (B) जिनसेनाचाय : (१०) विजयावद्धाचार्य : (११) गर्गमुधर्माचार :
श्रोता के लन्त्रण
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तीन काल जुत जोग में महा तपोधन जान उपाध्याय गरमेष्ठि को नमीं जोर जुग पान ॥ ५२ ॥ ॥ प्राचार्य परमेष्ठी को नमस्कार ।। भूषित पंचाचार करि पाठक जिनवर लोन वन्दो जिनके गुण अरथ, धुति करके सुख सीन ॥५३॥ ॥ साधु परमेष्ठी को नमस्कार ॥
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तीन काल जुस जोग में महा तपोधन जान साधव ते जग पूज्य हैं संस्तुति करों बखान ॥ ५४|| || शारदा को नमस्कार ।। चौपाई
भारति जगत मान्य है कही, जिनमुख अम्बुज उद्भव सही are free ra दरयनो भूति करके शारद शिर मनी
देव शास्त्र गुरु पूर्व विधि वक्ता श्रोता भादि ६
कविता रचना को परवीन, शुद्धवृत्ति मतिदाइक लोन ||५५३| होउ परमबुद्धि की करतार, दरवान ज्ञान सिद्ध मुझ सार ।। ५६ ।। दोहा
बन्दों गुण अभिराम लक्षण कहाँ प्रवीन
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सिद्धि सुदृष्ट अनिष्ट हर मंगल सुख के प्रतिष्ठादि अरु ग्रन्थ में होइ शुद्ध मति वक्ता के गुण
जीभाई
धाम ।। ५७ ।। लीन ||१०||
सर्वसंग निर्मुक्त प्रवीन, पूजा में सो निशदिन लीन । अनेकान्त मत पंडित होइ, सकल शास्त्र को वेदक सोइ ।। ५६ ।। बिन कारण जग बन्धन सहै, भव्य जीव हित ऐसी कहै प भूषण मय दरशन ज्ञान, समता गुणसागर शुभ ध्यान ॥ ६०॥ निरलोभी अरु निरहंकार, पुन धर्मी शुभ वचन विचार । जिन शासन माहात्म्य प्रवीन, परकाशक मुनिवर व्रत लीन ॥ ६१ ॥ I महाघीय प्रज्ञावर पास, शास्त्र प्रादि रखने छनिवास कीति प्रसिद्धिमान जग होइ, सत्य वचन अंकित बुधसो ||६२||
श्रोता के लक्षण
जो सम्वरदृष्टी शीलवती, सिद्धान्त ग्रन्थों के अपन में उत्सुक और शास्त्रोपदेश को धारण करने में समर्थ हो, जिनेन्द्र देव के सिद्धान्तोंको माननेवाले के भक्त, सदाचारी और पदार्थ स्वरूपके विचारक और कसोटी के सद्दा परीक्षक हों वे आचार्य के कथनानुसार शास्त्रोंका अध्ययन कर सार-प्रसार का अन्वेषण कर सत्यग्रहण करनेवाले हों, यदि आचार्यको कहीं भूल भी हो जाय तो उसपर हंसनेवाले न हों, ऐसे श्रोता गुणोंके धारक और श्रेष्ठ कहे गये है। इसके अतिरिक्त और भी अनेक श्रेष्ठ गुणों को धारण करनेवाले श्रोताओं के लक्षण दूसरे शास्त्रों के लक्षण दुसरे शास्त्रों से जानना ।
श्र ेष्ठ कथा का लक्षण
जिस कथा तथा उपदेश में जीवादि सप्ततत्वों का पूर्ण रूप से विवेचन किया गया हो, जहां संसार देह भोगों पन्त में वैराग्य बतलाया गया हो, जिसमें दान, पुजा तपशील प्रसादि एवं उनके फल तथा बंध मोक्षका स्वरूप एवं कारण बताये गये हो। वस्तुतः जिस धर्म की माता जीवदया प्रसादसे भव्यजन समस्त परिग्रहोंका परित्याग कर स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करते हैं, जीव दया का वर्णन जिस कयामें पूर्णरूप से किया गया हो जिस उपदेशमें महान पदवी को धारण करनेवाले मोक्षगामी स शलाका पुरुषोंके चरित्र एवं उनकी विभूतियों का विस्तृत वर्णन हो, साथ ही उन महापुरुषों के पूर्वजन्मों की कथायें तथा उनके पूर्व कर्मों के फल आदिका वर्णन हो, वह श्रेष्ठ कथा कल्याण कारिणी 'धर्म-कथा' कही जाती है । वही सत्य कथा है, जिसका पूर्वापर विरोधी नहीं है और जिनसूत्र के आधार पर हो। इसके अतिरिक्त अन्य श्रृंगारादिरसों को प्रकट करने वाली पापकारिणी कथा स्वप्न में भी शुभ करने वाली नहीं हो सकती । इसका वत्रता - श्रोता और कथा के लक्षणों का संक्षिप्त में विवेचन कर अब मैं श्री महावीर भगवान के परम निर्मल चरित्र का वर्णन करता हूं, जो सदा पुण्य का कारण और पाप का नाशक है । केवल यही नहीं, यकता तथा श्रोता दोनों का हित करने वाला है। इस चरित्रको श्रवण कर भव्य जीव पुण्यका संग्रह करते हैं, उनके पाप का विनाश होता है और उन्हें दुःख रूपी संसारसे भय उत्पन्न होता है ।
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दोहा
इने आदि गुण सारास्त्र, गुण उत्तम बुध गेव ॥ ६३||
वक्ता के लक्षण
सत्य वचन में दक्ष महान धर्मवन्त धर्म वेदता परम प्रवीन, किया चरण में ज्ञानहीन जे धर्म रहीन, तिनको बोधं
व्रतवन्त
यो
परम
चोपाई
बखान अरु चार घरे पर मान नाहीं शिथिल प्रातमा मान ||६४ || हलोन सुधिर पात्मा परम सुजान, परमवन्त जे पुरुष महान् ॥६५॥ प्रवीन । ऐसे मुनि जिन वचन गहीर, नमीं शुद्ध श्रातमा सुधीर || ६६ ||
दोहा
शास्त्र त करतार के लक्षण इहि विधि जान वरणों गुणज्ञाता वदर गुणज्ञाता सवर परमवन्य शुभ ज्ञात ॥६७॥ श्रोता के गुण
चौपाई
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भक्ति सदा आवरं निरग्रन्थी गुरु सेवा करें। चतुर प्रयोग मूरि उक्ति यति पढा करें सत्य वचन मन समकित परे। यह विधि गुण अव श्रोता चौदह परकार, कहाँ सर्व शुभ अशुभ विचार काहू सूप समान स्वभाव, अवगुण फटके गुण रहि जाब शुभ श्रोता ये तीनों भेद, अब एकादश अशुभ सुनेय चलनी सम श्रोता है जय, सार वस्तु को त्याग करेय श्रोता कोई विलाव सुभाय, घृत पय दधिभाजन ढड़काव । मशक समान जु श्रोता होइ, भली बुरी को भेदन कोइ उलूकसम जे श्रोता कहै, दिवस अन्ध रजनी दृग लहै । फूटे घटवत श्रोता एक, रहै न तामें नीर विवेक । पशु समान जे श्रोता होइ, मूरख महा ताहि प्रबलोइ |||७७ || बगुल ध्यान की पटतर ते बुरी बात जिय घारे जे श्रोता ने पाषाण समान, जड़ता घरे मिदं नहि ज्ञान ॥ ७८ ॥ ऐ श्रोता व बारसु कहे, निज निज भाव फलाफल है। सकल शास्त्र को वेदक होद, शुभ प्राय जानी भनि लोई ॥७६॥
शुक्र समान जे श्रौता कहै, पढ़त पढावत सो सुध लहै ॥ ७१ ॥ माटीवत जो श्रोता जोड़ सुनतहि कोमल, सदा कठार ॥ ७२ ॥ महिया व पुन श्रोता कोइ निर्मल नीर चावत सोई ॥७३॥ फिर पीछे भुवि चाढत फिरे, त्यों गुण ग्रन्थ हृदय वा धरं ।।७४ || धोता मूढ़ जलूका जास, पब तज ग रक्त श्री मास ॥७५॥ ग्रन्थ सुनत सो अधिकाहि, सहज नींद ना दोसं ताहि ॥ ७६ ॥
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कसोटी जेम, सार पसार विचारत एम ॥ ६६ ॥ अनन्त जुत होई, राग व्यार्थ नहि कोई ॥ ६६|| प्रथम रावत हैं बड़भाग, पस पी अवगुष्प जल त्याग ॥७०॥
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सवैया तेईसा ज्यों कलधौत मगायधनी, यह तोल सुनार के हाथ के दोनों देखत हो गढ़वायो तिन्हें नहि चित्त भने इनि चौकस कीनो ।। मौन लिये वह दुष्ट दिखें, श्ररु कायसौ नैक उसास न लीनो । त्यो यह ग्रन्थ सुनं सुख पोख, लहे सूर मोख गिरा भ्रम भीनों ॥८०॥ श्रोता का लक्षण सम्यक्त्व निरूपण
चौपाई
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जिन सम्ययत्वको परवीन, जीव तत्व यादिक गुण सोन तत्व घरच मुख्य विराग, मन में भोगणाम बड़भाग ॥१॥ are as foo पूजा करें, शील विरत आदिक हिय धरै ता फल बन्ध मोक्ष सुर होई उद्यम करो भाविकजन सोई ||८२|| धर्म जीवन में करें सर्व संग त्यानी गुण परं। इहि विधि से वरतं शुभ ध्यान धर्मध्यान हिरदे परि ज्ञान ||२३|| श्रेस्ठ पुरुष महन्त प्रवीन महा रिद्धिपारी सुखली तिनको कहे पुराण महान, भवि अन्तर संपत्ति गुण खान ||८४||
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इस प्रकार अपने इष्टदेवों के चरण कमलों में नत होकर तथा वक्यादिकों के स्वरूप का वर्णन कर जिनेन्द्रदेव के मुख से उत्पन्न धर्म-प्रवर्तक अन्तिम तीर्थकर भगवान श्री महावीर स्वामीको निर्मल कथा पारम्भ करता हूं, जो कर्मरूपी शत्रुओं को शान्त करने में सहायक होगी । अतएव भव्यजनों को चाहिए कि वे सावधानी पूर्वक इस अमृतरूपी कथाको श्रवण करें ।
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और पुरुष सुरु भतः कौर, भाई, ही की कथा मनः।। पार वस्तु शुभ दायक होई, सत्यवन्त जानो भवि सोई ।।८।। जिनबरसूत्र सु श्रीता कोय, पूरव अपर विरोधी होय । शृंगादि करण भव सुवख, पापकारिगो दाइक दुवस्त्र ।।६।।
दोहा इत्यादिवः श्रोता तनै लच्छन कहे प्रतेक । सम्यक् बुधि निश्चय त्रयों, कन्यो, चरित गुन नक ।।८।।
अरिल्ल वर्धमान जिन चरित जु थेणिक बुझियो । थी मुख्य वाणी भई अनक्षर गुझियो ।। तब गौतम गनराय, नाति प्रतिभासियो । सकल सभा हरपंत, जगत परिकासियो ।८।। सकल कौति मुनिराज, संस्कृत रचत । ताकी ले अनुसार, को भाषा अवै।। सिगई देवाराइ, खटोला पुर ठए । तिन सुत प्रथमहि "नवल" पंच गुरुपद नए ||
कवि लघुता
सबैया जंगे नर पंग कोई मेरु शिखा चहिवेकों, वावन ही कहे दधिको तो भुज नरिहीं। बाल जलमध्य शशिविम्ब देखि गयो चाहै। मूरख तो कहै अंग पूर्व पार धरिहौं । क्रोधवंत केहिरि को देखत गयंद भजे, तासौं मृगि वीरजविहीन कहै लहिहौं। तस यह ग्रंथको आरम्भ कियो अल्पवद्धि, गनी कोई हर मोहि ऐसो नहि उरिहौं ।।
दोहा जिनवाणी सागर अगम, पार न कोई लहेई । मति भाजन जेकौं जितौं, तेतौं भर भर लेइ ॥६॥ मधरवचन कोकिल कहै, प्रामकली चखि पाए । जैसे, ग्रन्थ कही किमपि, जिनवानी परताप ।।१२।।
गीतिका छन्द
इमि भांति इष्ट देवता, सब जोरि कर तिनि पद नम्यौं । निज परम गुण जुन वक्त आदिक, तारा भनि दोष न बम्यौं ।। जिनराज मुख सम्यक कथा, शुभ धर्म खानि सुजानियों। चरम जिनपति चरित निरमल, करम शान्त बखानियों ||३|| वीरत वर दीर गुननिधि, वीर विधि इति हों सही। वीर प्रभु जगधीर जिनवर सासते पद को लही । वीर गन अति बुद्धि सुन्दर, यहै जस अब लीजिये। निज भक्ति हय धर करहु वीनति, बीर गन मुहि दीजिए ||४||
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द्वितीय अधिकार मंगलाचरण
दोहा वीर अघ्रि-अप नीर सम, कर्ममल्ल हन बोर। उपसरगादिपरीपहा. जीतं नमो सुधीर ।।१।।
कथा-वर्णन
चौपाई जम्बुवृक्ष अलंकृत जान, राज जम्बुद्वीप महान । सागर द्वीप असंख्य मंझार, दीमै व्योम नखत उनहार ।।२।। जोजन महालाख इक जान, मध्य सुदरशन मेरू प्रधान । तहल्याई जिनवरको देव, करै न्हवन बहुविधिसौ सेव ॥३॥ ताकी पूर्व दिशा राजेह, उत्तम रम्य जु पर्व विदेह । शोभा तास वरन को कहै, ठौर ठौर जिन मन्दिर लहै ।।४॥ यही क्षेत्र भवि तप बल सार, तहां लहैं मुनिवर अवतार | कर्म क्षय कर रखें शिवपति, साथ नाम शुभ ऊरधगती ||५|| ना मधि सुन्दर गीता जान, उत्तर तट भविजन पहिचान । पुप्कलावनी देश यखान, सो है लक्ष्मी को सोपान ।।६।। तीर्थकर मन्दिर प्रति घना, तुगकेतु जिमि दामिन गना। नगर ग्राम वन आय अनेक, मानों सर्व सुरालय एक ||७|| गणेशादि बिहरै जु महन्त, तुग्यि संघ भुषित अरहन्त । वरतावें जहैं धर्म प्रभाव पाषंडी लिंगी नहि नाव ॥८॥ दया धर्म अरहंत मुख होइ, धावक जसी दुविध अवलोई। प अंग पूरच गुण झान, रहित कुजान कुशास्त्र अयान ||६|| प्रजा वर्णत्रय मण्डित सार, ब्राह्मण वर्ण न होई लगार। सुख सुधर्म में सब परवीन, वहुत शास्त्रभ्यासो गुण लीन ॥१०॥ उपजे तहें तीर्थकर राय, चक्रो अधचक्रो बलभाय। गिनती नहि तिनकी सुखदाय, धनुष पांत्र से ऊँची काय ॥११॥ प्रायु कोटि पूरब की लहै, काल चतुर्थ सदा तह रहैं। महापुरुष परसादे साइ, सरग मोक्ष फल प्रापति होइ ।।१२।। ताके मध्य नाभिवत कही, नगरी पुण्डरी किणी सही । द्वादश जोजन लम्जी जान, नब जोजन चौड़ी पहिचान ॥१३॥ ताको कोट जू गिरदाकार, चौपथ सहित नगर विस्तार । दरवाजे इक सहस बखान, लघु खिड़की शत पंच प्रमान ॥१४॥ पथ पथ वीथी एक हजार, तिन सौ तीन तीन निरधार। बारह सहस जानियौ सोइ, इन्द्रपुरी सम सोभित जोइ ।।१५।।
नसंख्य द्वीप-समुद्र से घिरे हुए इसी मध्य लोक में जामुन के वृक्षों से चिन्हित जम्बू नामका एक द्वीप है।
उस जम्बुद्वीप के मध्य विस्तृत और उच्च सुमेरु नाम का पबत है। वह देवों में श्रेष्ट तीर्थकरों के सदश पर्वतों में मुख्य है। उस पर्वन की पूर्व दिशा की ओर पूर्व विदेह क्षेत्र है। वह क्षेत्र धर्मात्मानों से यथा जिनेन्द्र देवों के समोशरणोंसे सुशोभित है। वहां अनन्न मुनि तपस्या पूर्वक विरह से मुक्त हो गये हैं। इसी गुण के कारण इसका नाम 'विदेह पड़ा है।
इस क्षेत्र में स्थित सीता नदी के पर भागमें पुष्कलावती नामका एक विस्तृत देश है। वहां ऊँची-ऊँचो ध्वजारों से युक्त तीर्थकरों कं चैत्यालय सुशोभित हो रहे हैं।
इस स्थल पर चारों प्रकारके संघों से युक्त गणधरादि देव सत्य-धर्म की वृद्धि के लिए विचरण किया करते हैं । अतएव वहाँ किसी पाखण्डी, वषधारीका निवास नहीं है। वहाँ अहंत भगवान के मूल-कमल से प्रकट अहिंसा प्रधान धर्म विस्तृत है। उसे यति ।मुनि) और थावक सर्वदा धारण करते रहते हैं । अतएव उस नगर में जीवों के पीड़ा पहुंचाने वाला एक भी व्यक्ति नहीं है, अर्थात् सभी धर्म का पालन करते हैं।
जिस स्थान पर ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से भव्यजन ग्यारह अंग, चौदह श्रुत पूर्व का सदा अध्ययन और मनन करते हैं।
जिससे अज्ञान का विनाश हो। पर वे कुशास्त्रों का स्वप्न में भी अध्ययन नहीं करते।
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पूर्वविदेह श्राकट
श्री भगवान महावीर स्वामी की भक्ति और मंत्र कर्ता श्री सकल कीर्ती आचार्य का श्रावक के लिए उपदेश ।
पूर्व विदेह आकार
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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर
भीलराजा और भीलनी की शिकार करते समय एक गुनिगज दिग्बाई दगे निराज रास्ता भूलकर जंगल में खटे थे ! शिकार ममझ कर उन्होंन मुनराज पर का बीना. भीलनी माल को सकती हैं. और कहती है. उदा यद बन देवता हैं. उन्हें गन मारा, पाप लगेगा।
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दिनाचर मुनि के द्वारा प्रमावा भील को उपदेश
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प्रति उत्तंग जिन मन्दिर पात, सोहै तास ध्वजा फहरात । धरमी जन निवास लिहि थाना, धन कन पूरय प्रधान ।।१६।। नगरी बाहर वन शोभन्त, अति मनोश मध नाम पहा- ! तिल दागन पहला, दलिन पनि सतहो ।।१७।। जहां बस भीलनको सार्थ, पुरूरवा है तिनको नाथ। नाकी प्रिया काखिका नाम, शील शिरोमणि जिसे धाम ।।१।। एक दिना कानन में जाय, मृग मार्यौ निर्दय दुखदाय । निहिं अवसरता वनहि मंझार, या जिन विहन्त भकिनार ||१६३ सारथवाह संग अभिराम, सागरसेन मुनीश्वर नाम । ईपिय साधत परबान, दरसन, ज्ञान चरण गन लीन ।।२०।। देखि मंजमी भील घेरियो, लुटनको तब उद्यम कियो। वनदेवन संशेष तवे, अति निषिध्य काज है मवै ।।२।। तम करतव्य जोग नहि नाथ, अघकारण दुर्गनिको साथ । देव व मन सुन उपशम सही, काललब्धित मदता नही ।।२२।। पुरुरवा तब भील सु माम, देखि मुनी तहे कियो प्रणाम । धर्मवृद्धि दानों मुनि बानि, कृपावन्त भवि पहिवानि ।।२३॥ ग्रहो भद्र मो बच सुन सार, धर्म जान त्रिभुवन भवतार | धर्मप्रभाव लक्षिमी होई, इन्द्र नत्र तीरथ पर सोइ ।।२।। भोगोपभोग वस्तु शुभ जान, मनोगात्र सुख सपत बान । ऊंच गोत्र वह पूत्र पहीत, धर्मगवान शत्र कर प्रीत ।।२।। पंच उदम्बर नीन भवार, इनते रहित होइ भवपार। सम्यक सहित अणुदत पाँच, गुणवान लोन काहे जिन मांच ।।२६।। चउ शिक्षाबत भाव समेत, साधं गृहपति रवर्ग सहेत । द्वादश व्रत ये श्रावक जान, जतिबर धर्म दुनी पहिचान ।।२।। यह प्रकार मनिवच सुन सर्व, छोड़ा वध धादिक सर्व । नामक मुनि चरणाम्बुजा दोय, श्रावक धर्म धरै दृढ होय ॥२८|| सम्यग्दष्टि गह्या सुखकार, भील अधिक शुभचित्त विचार । बारह व्रत सुन भेदाभेद, श्रद्धावान भयो तजि सद ।।२६।।
इस देश में क्षत्रिय, वैश्य, शूद्ररूप तीन वर्गम यो प्रजा सभी सखो दिखलायी देती है।
बह सदा धर्म में तत्पर और अत्यन्त भाग्यशाली है। जो असंख्य तीर्थकरों, गणधरों, चलतियों और वागदेवों की जन्म-भूमि है ओर देवी द्वारा सर्वदासे पूज्य है।
जहाँ ५०० धनुप अर्थात् दो हजार हाथ ऊंचा शरीर और एक करोड़ पूर्वकी मनुष्यों की परमायु है।
वहां सदा चतुर्थ काल का बर्ताव रहता है । जिस स्थान से उत्पन्न ह महापुरुष तपश्चरण द्वारा स्वर्ग ग्रहमिन्द्रपना एवं मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति करते हैं, अर्थात् वहां पर सभी कार्य सिद्ध किये जा सकते है।
उसी देश में पुण्डरीकिनी नामकी बारह योजन लम्बी और नव योजन चौड़ी एक नगरी है। वह एक हजार बड़े दरवाजों से युक्त नथा पांचसौ छोटे दरबाजों स बष्टित है। जहां महान पुण्यवान ही उत्पन्न होते हैं । उस नगरी में जिन मंदिरोंकी ध्वजायें ऐसी शोभित हैं, मानों ने स्वर्गवासियों को ग्राद्वानन कर रही हो।
नगर के बाहर मथुवा नामका पाक बड़ा सा बन है, जो देखने में अत्यन्त रमणीक है। वहा ध्यान में लान हुए मुनिराज विराजमान हैं इसलिए इस वनकी शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता।
किसी समय उस वन में भीलोंका एक राजा रहता था, जिसका नाम पुरुरवा था। वह अत्यल भद्र परिणामी था। उसकी कालिका नामकी स्त्री थी। वह अत्यन्त बाल्याणकारिणी थी। - - -
१-मांसाहारी भील पुरुरवा एक दिन महावीर स्वारी एकान में विधान कर रहे थे, कि यह संसार क्या है? मैं कौन था? या आ ? अब गया हूँ? अनादि बाल से कितनी बार जन्म-मरण हुआ: उन्होंने अबविज्ञान ग विवान कि एक समय मेरा जीत्र जम्बद्रीप में विदेश क्षेत्र में पुरानी देश में पुण्डरीकिसी नाम के नगर के निकट मधुक नाम थे बन में पुरुरवा नाम का मांशाहारी भोला का सरदार था, बालिका पल्ली थी, पशुआ का शिकार करके मांस खाता था, एक दिन मारता मूलकार थी सागराजा के पनि जस जंगल में पा लिने । द ने सनकी जमीचमा बल हिरण का भ्रम हुआ, 'झट पीर नगान उटा उनकी ओर माना लगाया ही शाम. पालिया ने कहा कि यह हिरन ही जगदेवा मार हाने है। दोनों मुनिराज के पास गये ।
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दोहा
संसारी दुःख तपत अति, या जिय आदि अनन्त । पूर्ण सरोवर जैन मत, तामें हवा प्रशन्त ॥३०॥ शास्त्राभ्यासी शीलमय, कुलगरिष्ठ गुण खान । जिनमत के परभाव ते, निर्धन हूं धनवान ।।३।। परमानंद लहे सदा, उपजे हित सन्तोष । अति दुर्लभ जिनधर्म यह, पायो सुर शिव पोष ।। ३२।। पंथ माहि सूनि परसके, नमस्कार कर तेह 1 पुण्यवत वह भील तब, गयो हरषि निज गेह ॥३३।। मुनि भाषित प्रत पाल ही, रहै सुक्ख सौ एव । मरण अन्त सु समाधि लहि, प्रापत भयो सुदेव' ।।३४।।
चौपाई प्रथम स्वर्ग सौधर्म महान, ऋद्धिवन्त बहु सुक्ख प्रधान । भिल्ल देव तहं धर्म प्रभाव, उपजौ सागर एक जु प्राव ॥३॥ संपुट शिला गर्भ सौ लयी, अन्त मुहरत जीवन भयौ। बिमान आदि लक्ष्मी बहु देंख, अचरज कर सपन सो लेख |॥३६॥ ततक्षण अवधि ज्ञान पहिचान, संपूरण पूरव भवजान | व्रत आदिक फल जान्यो सबं, दृढ़ मन धर्म धरयो सुरतवं ।।३७|| पीछे सब परिवार समेत, गये जिनालय बन्दन हेत। अप्ट द्रव्य जल प्रादिक लेइ, जिनवर मागे प्ररथ धरेइ ।।३।। धर्म उपावन कारण जोइ, आवै निजवाहन चड़िसोई । मेरु प्रादि नन्दीश्वर द्वीप गीत नृत्य वादित्र समीप ||३६॥ जिनवर केवल ज्ञान महान, गणेशादि माहात्म। सुजान । आव जहां भक्ति मन धरै, शिर नवाइ कर वन्दन कर ॥४०।। सुने धर्म तहां दुविध प्रबीन, तत्व अर्थ गभित गुणलीन । जहां उपाजि बहु पुण्य सुभेव, जाय आपने मन्दिर देव ।।४।। इहि विधि विविध पुण्यको कर, शुभ चेष्टा हिरदै सख धरै। देविन संग क्रीड़ा विस्तर, गीत सुन नर्तन मन हर ॥४२॥ शृमारादि सरुप विशाल, सुन्दर दिव्य जोपिता जाल । तिनको शोभा अगम अपार, कहत न को बुध पावे पार ||४३।।
दोहा
पूर्व उपाजित पुण्य सब, भगते भोग अमंग । सात हाय ऊँचौ सुवपु, सात धातु नहि अंग ॥४४॥ तीन ज्ञान वसु ऋद्धि कर, भूषित दिव्य सुदेह 1 सुख सागरको केलि में, तिष्ठ सुर गुण गेह ॥४५॥
चौपाई भरतक्षेत्र वह प्रारज खण्ड, तामधि कौशल देश अखण्ड । उपज भव्य आज परिणाम, मोख लहैं कोई ग्रेवक धाम ॥४६॥ कोई स्वर्ग वसे तजि पाप, भोगभूमि शुभ दान प्रताप । कोई पूर्व विदेहै जाइ, पावं नृप पद सो पुन आद ॥४॥ कोइ मुनिपद केबलि कोइ, धर्म आदि उपदेशक सोई। विहर जगत पूज्य सविचार, चार संघ भूषित अविकार ॥४८।। पुर पत्तन अरू ग्राम अपार, शोभित तुंग जिनालय सार । कानन सफल तहां मुनि रहैं, ध्यानारून प्रातमा गहें ॥४६।।
एक बार इस वनमें किसी दिन जिनदेवकी वन्दना के लिये सागर सेन मूनिका आगमन हया । पुरुरवाने मुनिश्वर को दूरसे देखकर उन्हें हरिण समझा और मारने की इच्छा की।
किन्तु उसके पुण्योदयमे उस भीलकी पत्नी ने मुनिश्वर को मारने से मना किया और कहा-स्वामिन ! ये संसार के कल्याण के उद्देश्य से बन-देवता भ्रमण कर रहे हैं।
मुनिराज ने उपदेश दिया कि संसार में मनुष्य-जन्म पाना बड़ा दूर्लभ है। इसे पाकर भी मिट्टी में मिल जाने वाले शारीर का दास बना रहना उचित नहीं । भील बोला- "महाराज ! मैं किसी का दास नहीं है भीलों का सरदार है।" उसकी यह बात सुन कर साधु, हॅस दिये और बोले-'अरे भोले जीव ! तू सरदार कहाँ है ? दो अंगुल की जीभ ने तुझे अपना दास बना रखा है, जिसके स्वाद के लिये तू दूसरे जीवों के प्राण लेता फिरता है।" भील चुप था। भीननी ने कहा- "यदि खायें नहीं नहीं तो भूख से मर जायें ?" साधु बोले-"भूख में किसी को न मरना चाहिये, किन्तु ध्यान यह रखना चाहिये कि अपनी भूख प्यास की ज्वाला मिटाने के लिये दूसरे जीवों को कष्ट न हो। अन्न, जल और फल स्वाकर भी मानव जीवित रह सकता है। पशु-हत्या में हिसा अधिक हैं। मांस मदिरा और मधु जीवों का पिण्ड है। इनके भक्षण से बड़ा पाप लगता है आज ही इनका त्याग कर दो" ।
१. भील-भीलनी ने स्थूल रूप से अहिम। अत' ग्रहण करके उनका पालन किया, जिसके पुण्य फल से भील सौषम नाम के पहले स्वर्ग में देव हुआ। उसने दूसरों को सुखी बनाया, इसलिये रवर्ग के सुख मिले ।
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दोहा इत्यादिक शांभा सहित, देशमध्य राजत । पुरी अयोध्या रम्य अति, नीतिवत तत संत ।।२०।
चौपाई प्रादिनाथ जिन उपज तहाँ, देवन रची पुरी शुभ जहां । नव द्वादश योजन विस्तार, वरनत कौन लहे बुध पार ।।५।। तुग कोट गोपुर कर सार, दीर्घ खातिका गिरदाकार। मन्दिर पाति सधन शांभंत, सुर सादिक नहं प्रीति करत । ५२।। हेमतनं चैत्यालय सही, रतन भई प्रतिमा तह लही। दानीजन मार्दव परवीन, धरमशील शुभ प्राशय लोन ॥५३।। प्रार्जवादि गुण मण्डित सोई, रूप कला छवि भषित जोइ। धरमवंत उत्तम प्राचार. सुखी पुरुप जिन भक्ती सार ॥५४॥ पाप रहित अरु महापुनीत गति धनवान परस्पर प्रीत । बस तुग मन्दिर में सोइ, मानों सुर विमान यह होइ ॥५५।। तिनकै तिय गुण कांति अपार, सुरदेवो सम शोभा सार । इन्छे अमर लेन अवतार, शिव प्रापति कारण मूविचार ॥१६॥ भूप तहां लक्ष्मी को थाम, भरत चक्रपान गुण अभिराम । आदि थेष्ठ धरता जग ज्येष्ठ, भरतक्षेत्र अधिपत परमेष्ट ।।१७। अकंपन नाम ग्रादि भूपाल, नमि समुख्य खगपति सुकुमाल । पार्वता प्रताप सौं देव, नमै चरण अम्बुजकर मेव ।।५८11 छहों खण्ड स्वामी गुणलीन, चरम अंग जिन धर्म प्रवीन । नौ निधि चौदह रत्न महान, बनिता आदि शोल सुबयान ।।५।। तीन ज्ञान शुभ कला विवेक, विद्यादिक गुण सहित अनेक । रूप आदि बल संपत्ति धनी, वरण सकं को बुध तिहि तनो ॥६॥ पुण्यवती देवी तसु रानि, पुन्या दासी सुख की वानि । पुण्य सहित पर हिये विचार, पति याज्ञा पातवन आचार ॥१॥ पुरुरवा सूर तह तै गयौ, पुत्र प्राय ताके उर भयो । नाम 'मरीच कुंवर तस जोड, रूप आदि गुण मंडित सोइ ॥६॥
प्रतः इनकी हत्याकर पाप के भागी मत बनो । अपनी प्यारी पत्नीको बातें सुनकर उस भीलको ज्ञान हो पाया। वह प्रसन्न चित हो मुनो समोप गया और बड़ी भक्ति के साथ उनके चरणों में अपना मस्तक झुकाया।
धर्मात्मा मुनिश्वर ने भी उसे धर्मोपदेश देते हुए कहा है चन्द्र ! श्रेष्ठ धर्मको प्रकट करने वाले मेरे वचनों को श्रवण कर, जिस धर्मके पालन से त्रैलोक्यकी लक्ष्मी अनायास प्राप्त होती है।
चक्रवर्ती तथा इन्द्रादि पदों की प्राप्ति भी उसी धर्म के प्रभाव से हरा करती है। उस धर्मका प्रभाव ऐसा है कि मनोवांछित सारी सम्पदाय मीर लोरिक सुख प्रदान करने वाले कुटुम्बकी प्राप्ति बड़ी सफलता से होती है।
वह धर्म मद्य-मधु मांसके त्याग करने से, पंच उदुम्बरों के ग्रहण न करने से तथा सम्यक्त्व के सहित हिसादि पंच अणु व्रतोंके पालन करने से, प्राप्त होता है।
तीन गुणवत चार शिक्षा व्रत अर्थात १२ अतरूप एक देश गृहस्थों के लिए है । इसके समुचित पालने से स्वर्गादिक सुखा की उपलब्धि हुआ करती है।
इस प्रकार मुनिवर के अमुल्य धर्मोपदेश को सुनकर वह भीलोंका स्वामी मद्य-मांसादिका परित्याग कर उनके चरणों में नत हुआ यथा धर्म-प्राप्तिको प्राशासे उसमे उसी समय बारह ब्रतों को धारण कर लिया । आचार्य महाराज का कथन है कि, इस धर्मको प्राप्ति से शास्राभ्यास, विद्वानों की संगति, निरोगता, सम्पन्नता, ये समस्त वैभव प्राप्त होते हैं। पश्चान उस भोलने मुनि -...- .--.- - - ----
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१.-चक्रवर्ती पुत्र स्वर्ग के भोग भोगने के बाद मैं अयोध्या नगरी में श्री ऋषभदेव के पत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत के मरीचि नाम का पुत्र हआ। समार को दुखों की खान जान कर जब श्री ऋषभदेव जी ने जिन दीक्षा ली, नो कमछ महाकच्छ आधि४ हजार राजे भी जन मायदीक्षा लेकर जैन साघु हो गये थे, तो मरीचि भी उनके साथ जैन साधू हो गया था।
एक दिन अधिक गरमी पड़ रही थी, भूमि अंगारे के समान तप रही थी, शगेर को झुलसाने वाली गरम लुब चल रही थीं। सूरज की तपत से शरीर पसीने में तर हो रहा था। मरीचि उस समय प्यास की परीषह की सहन न कर सका। इगलिए दिगम्बर पद को त्याग कर उसने वृक्षों की छाल पहन ली, लम्बी जटा रस ली। कंद-मूल फल खाने लगा और यह विचार करके कि जैसे थो ऋपभदेव के हजारों शिप्य है, उसने कपिल प्रादि अपने भी बहुत से शिष्य बनाकर सांख्य मत का प्रचार करना आराम कर दिया । संसारी पदार्थों को अधिक मोह-ममता त्यागने के कारण मृत्यु के बाद वह ब्रह्म नाम के पांचवें स्वर्ग में देव हुआ।
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क्रम सौं वृद्धि करै दिन रात, भूषण भूपित निर्मल गात । कला अनेक शास्त्र पढ़ तदा, आप जोग पाई संपदा ॥६३|| पिता सहित सुख श्रीड़ा करे, पूर्व उपाजित मुख व्यौपरं। विविध भोग पृयिवा में सार, भ गहि ते भारीचकुमार ||६४।। एक दिना श्री प्रादि जिनया, देवी नत्य मरण लख भेव । भोग अग राज्यादिक सर्व, तज संबेग उपायों त ।।६५॥ इन्द्र आदि सब राजनि लए, चदि शिविका गोबर में गये । तजि के दूविध परिग्रह भार, ग्रहत भये संयम सुख धार ॥६६॥ तब कक्षादि भूप परवीन, स्वामि भक्ति में तत्तर लोन। चार सहस जानौ सब लोइ. निम्न प्रा के गवक सोइ ।।६७।। तिनके संग मारीचकुमार रायम द्रव्य धरो अविचार । नगन भेष धारी हितकार, स्वामी बधन हिहि विचार ||६८॥ छोड्यौ देह ममत्व निदान, अचल भये प्रभु मेरु रामान । हन्यो कर्म परि को संताप, यारति रौद्र निकन्नन जान ।। ६६ ।। छह महिना पर्यन्त सुलीन, धरौ जोन उत्कृष्ट प्रवीन । लम्बी भुजा दण्ड कर सोच, कायोत्सर्ग ध्यान दह होय ।।७।। तब सव राय कर्म से जोर, पीड़े क्षुधा प्यास सौ योर। जन्म अन्त लो को राप भजी, हवं असमर्थ मुपीछौ तजी ।।७१। वाहें कि प्रभु तो जग भरतार, वनकाय थिर चित अधिकार । जान्यौ जाय न केतै काल, थिर रहि है इहि विधि भूपाल ७२।। हम तो इन समान इहि थान, रहै होइ प्रानन की हान। यान कहा कीजिये अबै, मरण व सुख प्रापत सर्व ।।७३।। इहि प्रकार लिगिन कहि वैन न. नाथ चरणाम्बुज एन। भरतराय के गयसौं तेह, जाच न सके अापने गेह ।।७४॥ ता वन में पापी प्रज्ञान, भरै फल अखाद्य दुख दान। अनगाल्यौ जल पीव दीन, हिय विन गणहीन ||७|| तिनकै संग मारीचकुमार, पीई अधिक परीषह भार। तिन समान किरिया आदरं, अध बिपाकसौं सो व्योपरं ।।७।।
दोहा निन्द्य करम तिनको करत, पालोक्यो वन देव । कहै अरे शठ ! तुम सनो, यो वच शुभकर भेव ।।७।।
चौपाई तपसा भेष मूढ़ ! तुम धरै, अशुभ लिन्य कर्मनको करै। हिंसा है अघ की करतार, नरक तनी माजन अविचार ॥७॥ गही लिंग में पाप जु होय, अरह लिंग में छूट सोय । होय पाप इह लिंग मंझार, वज्रलेप सम सो दुखकार ॥७६।। जिनवर लिंग जगत परधान, सो तुमने छोड़ा अज्ञान । मिथ्यामत गहियो दुखकाय, यात नरक कूप में जाय ।।७।। देव बचन सन अति भयभीत, बुध पूजित मत तज्यो पुनीत । जटा प्रादि धार सब, विविध धेष कोने शठ तवं ।।५१॥ तिनके संग मारीचिकुमार, कटिन मिथ्यात्व उदै अविचार। परिव्राजक दीक्षा उर धरी, जिनबर बेष सबै परिहरी ।।२।। बहत कुशास्त्र रचन परवीन दीरघ संसारी दुख लीन । भंठ बहुत मिथ्यामत वात, सत्यवन्त नहि हिये सुहाय ।।३।।
को पथ दिखला दिया । भील अत्यन्त प्रसन्नताके साथ अपने घरको लौटा । उसने जीवन पर्यन्त उक्त व्रतोंका पालन किया और अन्त में समाधि-मरण करके अतसे उत्पन्न हुए पुग्योदय गे वह भील सौधर्म नामक महाकल्प विमान में महाऋद्धिधारी देव हमा । उसकी प्रायु एक सागरकी हुई । उसने अन्तमहतम नययौवन अवस्थाको धारण किया। उसने अवधि ज्ञानसे अपने पूर्व जन्म का समरत वृत्तान्त जान लिना । इससे जैनधर्म में उसकी निश्चल भक्ति हुई । अत: वह धर्म की सिद्धिवे लिए जिन-जैत्यालयों में जाकर सवदा गवान की पूजा किया करता था। वह अपने परिवार वर्गके साथ आठ प्रकार के द्रव्यों से चेत्य वृक्षाम स्थित तीर्थकरोंकी पूजा कर पश्चात् नन्दीश्वरादि द्वीपों में जाकर केवलज्ञानी गणधरादि महात्माओं की भक्ति के साथ पूजा करता। गणधरों द्वारा दोनों प्रकार के धर्मापदेश सुनकर उसने महान् पृण्यक उपार्जन विया । इस प्रकार वह देव पुण्य उपार्जनकर अपने स्थान को लोटा। वह सदा महल, स्वर्ग और बनोंमें जा-जाकर किन्हीं स्थानोंपर देवांगनाओं का नृत्य देखता, किन्हीं स्थलोपर मनोहर गाने सुनता और कही क्रीड़ा करता था। इस भांति पूर्व पुण्य के प्रभाव से उस समग्र भोगों की उपलब्धि हुई । उसका शरीर सात ऊंचा और सप्त धातुसे रहित था। वह मति, श्रुत अवधि तीनों ज्ञानों से विभूषित था । पाठों ऋद्धियों से युक्त वह देव इन्द्रिय जन्य सुख में निमग्न रहने लगा।
भारत क्षेत्र में कौशल नामका एक देश प्रार्य खण्ड के मध्य भाग में है । उसे पाय जनों को मुक्तिका कारण घतलाया गया है। वहां के उत्पन्न हुए भव्य जन व्रतादि धारण कर कोई मोक्ष प्राप्त करते हैं, कोई नव ग्रेवेयक एवं सोलहवें स्वर्ग में जन्म लेते हैं। कोई जिन देव के भक्त सौधर्मादि स्वर्ग। इन्द्रपद वाच्य भी होते हैं। यही नहीं, यहां के लोग सुपात्रको दान देने के कारण भोगभमि में उत्पन्न होते हैं और कोई-कोई तो पूर्व विदेहमें जन्म धारणकर राज्य-लक्ष्मीका उपभोग करते हैं । इस स्थानपर संसार
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अयोध्या नगरी के राजा भरत चक्रवर्ती अपनी रानी अनन्तवती तथा
पुत्र मारीच कुमार के साथ ।
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श्री भगवान अदिनाथ जी के ममय में दीक्षित
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कशाचाच प्रामारधाराहामा
भरत नकवी ने बृपभमन गणधर से पल्ला कि हमारे मन में कोई नीर्थकर होगा महाराज ने कहा कि मारीच का जीव भांग तीर्थकर होगा।
श्री १०८८ भगवान श्रादिनाथ जी ने एक हजार वर्ष तक विहार किया।
कच्छ महाक ने उन मदीना पारग की.
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मारीच कुमार आदिन पग्निातक दोसा धारणा करली।
श्री १०८ भगवान यादिनाथ जी के नाथ मीच कुमार ने चार हजार राजाओं के साथ दोज्ञा वारण करली परन्तु भारोच कुमार महित कुन्द माधु सुखप्यास को सहन न कर सक और पथभ्रष्ट होकर जंगल के फल फल नोरकर याने नको नया नदीनानाय नदि में पानी नेगे।
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रजा कनकवल और रानी कनकनी ।
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अव त्रिजगपति प्रादि जिनेता, एकाकी बन ज्यों मिरगेश। विहरै वर्ष जु एक हजार, मौन सहित पुरववत सार ॥८४।। घातिक रिपु द्यौ घोर, शुकल-कृपाण ध्यान के जोर । केवल ज्ञान लक्ष्मी भई, सभोशरण सूनक सुर ठई ।।८५॥ रतन सुवर्णभूमि सहं लमै, मानी जनो मान उह नस ! गम्दादिक गुरगुजन काज, आये निज-निज वाहन साज ।।६।। भरतराय आदिक सव भूप, प्राये मून प्रभु केवल रूप । कन्छ मादि लिगिन सुन सबै, मोक्षव-य जिनवरको नवं ।।८७॥ प्राये प्रभुके बन्दन हेत, संग मरीचि कवर समचेत । तब थी जिन मुखबाणी भई, वृषभसेन गणधर अथरई।1८८ | तव पदारथ आदिक कहै, सकल समा हितसो सरदहै । भरतराय उठि नायो गीस, कृपावात कहिय जगदीश ||६|| मो वाल में उत्तप जिय कन, होनहार नीर्थकर जोय । तव गणपति बोल्यौ इमि बैन, भो नरेश ! सुनि मन चैन ||१०|| अन्तिम तीर्थकर जगतार, हाँग मारीच, कुमार। हरपत भयो नवं मनमांहि, जिगवर बाह। सु बिकलप नाहि ।।११।। जिनपति के वच गुन मारीच, दाइक मोक्ष हरन पद नीच । तबऊन तज्यौ कुमत मिथ्यात, भव कारण माने गुख गात ह॥ वेष विदण्डी कबुध छापान, काय वालेश ज़ दायक पाप हाथ कमन्डल अत्रित सोड, मुरख ट्रिये विचार न कोइ ।।६३|| प्रात शीत जल न्हवन करेय, कन्दमूल आदि भक्षेत्र । बाहिज को उपाधि को त्याग, कर आतमा में सब ग ।।६४|| कपिल आदि ता शिष्य प्रलीन, कलगिन सत अतंर परवीन 1 इन्द्रजाल राम निन्ध अपार, जथा अर्य प्रतिलोपन हार ||५|| यह प्रकार भुल्यो बहसोय, मिथ्या गारग में सुध खोय । प्राय यन्त वश पायो मीच, भरतराय मून जो मारीच ॥६६॥ तप प्रज्ञान भयो फल एच, ब्रह्मा स्वर्ग उपज्यों सौ देव । दश सागर ता अायु प्रमान, ऋद्धि अनेक मंपत सुख खान ।।६।। कुपत लनी देखो पर भाव, पायो सुरमन्दिर शुभ ठाव । सूपत कर ज नर विचार, जिनके फमोनाही पार ||१८|| याही भरत क्षेत्र में जान, साता नगरो पहिचान | ब्राह्मण कपिल उस ता ठाम, प्रिया तातको काल नाम IIEEN
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पुज्य के कनी मनिगण धर्मोपदेश करते हए चार प्रकार के संघों के साथ विहार किया करते हैं। यह देश, ग्राम, पत्तन, ऊंच नारी बड़े-बड़े ऊंचे भव्य जिन मन्दिरों से गोभायमान था। यहां की बनस्थली ध्यानारद यागियोमे सदा भरपूर रहनो थी और नवोन फल-फूलों से सदा लदी रहती थी। उस देश के मध्य अयोध्या नामकी नगरी थी। वहां भव्य पुरुषों का निवास था। अतएव जैसा रमगीक उसका नाम था, वैसी ही गुणकी धारणा करनेवाली नगरी थी।
इस नगरीका निर्माण इन्द्र ने श्री आदिनाथ तीर्थ करके जन्म के लिये किया था। वह स्वर्ण, रत्नमयो चैत्यालयोंसे शोभायमान थी अयोध्या में ऐसे ऊंचे-ऊंचे कोट और दरवाजे थे, जिसे शत्र भी नहीं लांच सकते थे। उस नगरीकी लम्बाई-चोड़ाई बारह और नव योजन थी; जो देवों को बड़ी ही प्रिय थी। इस नगरी की सुन्दरताका वर्णन वचनों द्वारा नहीं किया जा सकता। यहां के विशाल भवनों में निवास करने वाले दानी, धर्मात्मा, पुण्य उपार्जन करनेवाले अत्यन्त धनाढ्य थे। उनके गुणांकी प्रशंसा करना सूर्यको दीपक दिखाना है। वे सर्वगण सम्पन्न विमानों में देवों के समान और वहांको स्त्रियां देवियों के समान सुखोपभोग करती थी। जिस अयोध्या में देवगण भी मोक्ष प्राप्ति के उदयसे जन्म धारण करने को लल वाले हैं, भला ऐसा स्वर्ग मोक्ष प्रदान वाली नगरी की यह शुन्छ लेखनी क्या प्रशंसा कर सकती है। जिस नगरी का स्वामित्व आदि धर्म प्रवर्तक श्री ऋषभदेव के पुत्र राजा भरतके अधिकृत था, जहां भरत चत्रोके चरण कमलाकी अकंपनादि राजा नमि आदि विद्याधर मागध आदि देव सदा वंदना किया करते थे, सेखडके स्वामी चरम शरीरी पूण्यवान को सुख प्रदान करनेवालो धारिणी नामको पटरानी यी । वह सुन्दरी अपूर्व गुणवनी थी। इन दोनोंके वह देव (पूररुवा भोलका जीव) स्वर्गसे चयकर मरीचि नाम वा अनेक गुणों से सम्पन्न पुत्र उत्पन्न हया। वह काम बढ़ने लगा। जब उसकी अवस्था कुछ अधिक हई तब अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर अपने योग्य सम्पत्तिकी उपलब्धिकर ववादिमें कोड़ा रत हुया।
एक समय की घटना है, थी ऋषभदेव को देवांगनाओंके नत्य देखकर भोगों से सर्वथा विरक्ति उत्पन्न हुई। वे पालकी में सवार होकर लौकान्तिक को साथ लेकर वनमें पहुंचे। उन्होंने वहाँ जाकर वाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकारके परियह त्याग कर मोक्ष मार्ग प्रतिपादक तप धारण किया। ठीक उसी समय स्वामी भक्त कच्छ आदि चार सहन गजायाने नग्न भेष रूपी द्रव्यसंयम को धारण किया, किन्तु इनके चित्तमें चारित्र धारण करनेको संयम पूर्ण भावना नहीं था। परन्तु श्री ऋषभदेव ने देहको ममता का भी परित्याग कर सुमेरु पर्वत जैसे निश्चल कर्म रूपी वैरियों को परास्त करने के लिए छः मासको परम समाधि लगा ली।
पश्चात् कन्छ मरीचि आदि ने भूख प्यास ग्रादि कठिन परिषहों को, स्वामी के साथ कुछ दिनों तक सहन किया। पर पीछे उन्होंने अपने को इस महान कार्य में असमर्थ पाया । कलेश के भार से दबे हुए उन लोगों ने परम्पर इस प्रकार का वार्तालाप
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ब्रह्म स्वर्ग ते सो मर चयो, जटिल' नाम साके सुत भयो । दुर्मत लीन भयौ दन सोई, बंद शास्त्र को वेदक होइ ।।१०।। पूरब संसकार के जोग, धारौं परित्राजक तपशोग । मूढ जनन कर वन्दिन भयो, कुमति कुमार्ग प्रकाशक ठयौ ।।१०१॥ पुरख वत चिरकाल भ्रमेय, आयु क्षीण सो मृत्यु करेय । कायकलेश तनौ फल लयों, प्रथम सुधर्म स्वर्ग सुर भयौ ।।१०।। सागर दोय ग्रायु परवान, अष्ट ऋद्धि सुख संपति जान । देखो भवि! निष्फल नहि जाहि. कुबुध कुतपसा जगके माहि ।।१०३|| वहीं अयोध्या नग्र विशाल, गीहै मन्दिर पांति विशाल । भारद्वाज विभ तिहि थान, पुष्पदन्त नस निया बखान ।।१०४।। सो सुर चयो तहा ते पाय, पुष्पमित्र' सुन तिनकै थाय । भ्यासी भया कुशास्त्र अपार, दुर्मत दुराचार अबिचार ।।१०।। मिथ्यापाक बहुरि सो जान, मिथ्या मत मोहित प्रज्ञान । कान्यो पूरवा तिन नेप, और नरन दीनी उपदेश ।।१०६।। पंचवीस दुठ तत्व अभ्यास, दुरबुद्धी मानों पुनि जास । मन्द कषाय बांध सुर अाव, छोड़ देह पायो शुभ ठाव ।।१०७।। मौधर्म प्रथम स्वर्ग में गयौ. सागर एक पाय सूख लयौ । कुता जोग यह लक्ष्मी पाइ, देखो तप निष्फल नहि जाय ।।१०।। पही प्रारज खण्ड मंझार, स्वस्तिक पूर सोहै सभ सार । अग्निभूति ब्राह्मण ता वर्म, नारि गौनमो ता घर लस ॥१६॥ स्वर्ग प्रायु चय के सो देव, कर्म विपाकतनी फल एव । अग्निसिधु'शुन तिनके सार, मन एकात शास्त्र वेलार ॥११०।। पुरववत' राब विधि आदरी, परित्राजक दीक्षा उर धरी। कुता यग सब काल गमाय, आयुहीन तिन छोड़ो काय ।१११।। तर अजान कलेश प्रभाव, भयो देव पायो त्रुभ ठाव । सनत्कुमार" स्वर्ग में मोय, वारिधि सप्त मायु तह जोय ।। ११२।।
आरम्भ किया। देखो, यह जगत का स्वामी बज शरीर न जाने कब तक इस प्रकार खड़ा रहेगा। हमें नो इसके साथ रहने में प्राण नष्ट होने का भय मालूम होता है। क्या हम इनकी बराबरी कर प्राण त्याग करेंगे? ऐसा वार्तालाप कर वे भगवान ऋषभदेव को नमस्कार कर दुसरी ओर चल दिये। उन्हें घर लौटने में भी राजा भरत का भय था, इसलिए उन्होंने पापोदय से फल खाना प्रारम्भ कर दिया। उन राजाओं की देखा-देखो वह मरीचि भी वैसा ही करने लगा। किन्तु उन्हें, इरा प्रकार के नीच कम करते हुए देखकर उस वनके देवने कहा-अरे धतों! तुम सब मेरी बातों को सुनो। इस पवित्र मूनि-वेष में जा लोग निन्द्य कम करते हैं, वे पाप के उदय से नरक रूपी समुद्र में जा गिरते हैं। वस्तुतः गार्हस्थ अवस्या के किये हुए पाप जिन-लिंग अर्थात् मुनि अवस्था में छूट जाते हैं। पर यदि मुनि वेष में पाप किया जाय तो उस पाप से छुटकारा पा जाना अत्यन्त कठिन ही नहीं, वरन असम्भव है। अतएव तुम लोग इस वेप का परित्याग कर कोई दूसरा वेष ग्रहण करो, अन्यथा मुझे वाध्य हो तुम्हें दण्ड देना पड़ेगा 1 देव की ऐसी फटकार सुनकर उन मनि वेषधारी पाखण्डियों को बड़ा भय हआ। वे मुनि वेप को त्याग कर जटा-जट इत्यादि वप धारण कर लिये । भरत पुत्र मरीचिने भी तीव्र मिथ्यात्व कर्म के उदय से मुनिवेष का परित्याग कर सन्यासी का वेष धारण कर लिया। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि अब परिव्राजक मतों के शास्त्रों की रचना करने में समर्थ हुई। ठीक ही है, जैसी होनी होती है, वह होकर रहती है। उसके लिए किसी प्रकार का प्रयत्न करना व्यर्थ सिद्ध हुआ करता है।
तीनों जगत के पुज्य श्री ऋषभदेव पच्ची पर बिहार करने लगे। वे उसी बन में एक हजार वर्ग तक मौन साधकर सिंह के समान निश्चल रहें। उस तीर्थकर राजा ने अपने ध्यान रूपी खड़ग से, संसार हितकारी केवल ज्ञान रूपी राज्य को स्वीकार किया अर्थात केबल ज्ञानी हो गये। ठीक उसी समय यक्षादिगणों ने बारह कोठों वाले सभा-मण्डप की रचना की, जिसमें संसार के सभी जीव आ जाय । साथ ही इन्द्रादिक देवा ने भी अपनी विभूति और देवांगनाओं के साथ पाकर अष्ट द्रव्य से भक्ति पूर्वक प्रभु की पूजा की।
ब्राह्मण पुत्र १न्त्रग से आकर मैं अपोच्या के कपिल ब्राह्मण की काली नाम की नयी से जटिल नाम का पुष हुजा । बड़ा होकर परिबाजक सांस्यमाधु हो गया । संसारी वस्तुओं को त्यागने का फैमा सुन्दर फल प्रात होता है। मृत्यु होने पर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ।
२ भोग भागने के बाद इसी भारतवर्ष के स्थणागार नाम के नगर में भारद्वाज नामक बाह्यगा की स्त्री पुष्पदन्ता के इप्पमित्र नामका पुत्र हुआ 1 वहां भी परित्राजन का साध होकर भांगण मन का प्रचार किया ।
३ संसार त्यागने के कारण फिर सौधर्म स्वर्ग प्राप्त हुआ।
४ वहाँ से आकर त्रेतिक नाम के नगर में अस्तित ब्राह्मण की गौतमी नाम की स्त्री से अग्निसिंधु नाम का गुत्र हुआ। यहां भी परिब्राजा धर्म का सन्यासी होकर प्रकृति आदि २५ तत्वों का प्रचार किया ।
संसार त्यागने के कारण फिर गर कर सनतकुमार नाम के तीसरे स्वर्ग में देव हुआ।
संसारी मोह-ममता के त्याग का देखिये कितना सुन्दर फल मिलता है! सम्यग्दर्शन न होने पर भी संसारी मुत्रों का तो कहना ही क्या स्वनों तक के भोग आप से आप प्राप्त हो जाते हैं तो सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाने पर मोक्ष के अविनाशक सुखों में क्या सन्देह हो सकता है?
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अग्निभतिजाह्मण स्वर्ग की आयु पूर्ण करके अपने पुत्र अग्न सिंधु के साथ परिवाजक दीक्षा /
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विधि
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साकता नगरी में कपिल ग्राम्हण अपनी स्त्री काली के साथ। नीचे :... पत्र संस्कार के कारण परित्राजक तप किया और मर्ख व्यक्तियों
के द्वारा पूज्य हुआ !
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प्रविधिसागर
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महाराज
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राजगृह नगर में मांडिल नाम के ब्राह्मण अपनी पत्नी पारासर के साथ।
मांबिल ने अपने पुत्र के माथ परित्रातक नीसा धारण कर ली।
मरत क्षेत्र के मन्दिर मामा माम में गौतम नाम का प्राण
अपनी स्त्री कौगिकी के मा .
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महम्द स्वर्ग से चलकर नरक निगोन की पर्याय की भाक. कृन्त्र, मीप, नीमएल. चंदन का वृष कनेर प्रादि को की जानि में उत्पन्न हुआ।
निगोदि जौच का स्थान !
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वित्र असे गोतम नाम, नाके प्रिया कोशिकी राम ॥११३ मिध्यादृष्टि उपजो जाग, कुमति तनी कीवी परकास ॥११४॥ बहु कलेश धारौ तिन काय, आयु क्षीण तह मरण कराय ।।११५।। सागर सय आयु परवान श्री दिव्यादिक मति जान ।। ११६॥ सालंकाइक विप्र वसन्त नाम मन्दिरा तिय शोभन्त ॥ ११७ ॥ भरद्वाज नाम सुत भयौं । यति कुशास्त्र में तत्पर लीन, मिथ्यामन वेदक परवीन ॥११८॥ वेप त्रिदण्डीको वह घरी । तप कर देव आयु को बांधि मरण समय कर हिये समाधि ॥१११६॥ करें तास देवी सब सेब । सप्त जलधि तह ग्रायु प्रमान तप कलेश पायो शुभयान ||१२|| दोहा तां ते चय दुर्भागं घर, प्रगट्यो भूतल मांहि । महा पापके पाकतें निन्द्य अधोगति जाहि ॥ १२१ ॥ चौपाई
।
५
यो क्षेत्र पत्र भरत महात् मंदरपुर ता मध्य प्रधान देव भयो तिनके सुत भयो पनिमिष नामा तस दयो निरव भव सम अभ्यास, पुरातनी दीक्षा उर वास । तप अज्ञानतने परभाव, स्वर्ग महेन्द्र देवपद पाव व पूर्ववत गुण अभिराम, सोर्हे पुरवमन्दर नाम स्वर्ग महेन्द्र देव सी चय, अन्त अज्ञान जोग प्रादर्श, स्वर्गं महेन्द्र भयो सो देव,
इतर निगोद अम्बी सो जाइ, सागर एक प्रयन्त रहा । असुरकुमार परी बहु धरै साइहि सहज आकर होइ पायो युव बहू गने को असी सह भव सीपे पार
नरकन मांहि लखावे बर ।।१२२ ।। भयो नीम तरु यस हजार ।। १२३
I
संयोगवश वे भ्रष्ट हुए कच्छादि पाखण्डी राजा भगवान ऋषभदेव मे बन्ध-मोक्ष का स्वरूप सुनकर वास्तव में निर्मन्थ भावी हो गये। किन्तु मरीचि ने अपने मन में विचार किया कि, जैसे तनाव ने गृहादि का परित्याग कर तीनों जगत को आश्चर्य में डालने वाली पूर्व शक्ति प्राप्त की है, उसी प्रकार में भी अपने मत का प्रसार कर अपूर्व क्षमता हो सकता है। वस्तुतः मैं भी जगद्गुरू हो सकता हूं। यह मेरी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी। इस प्रकार मान कषाय के उदय से वह अपने स्थापित मियामत से चित भी विरक्त नहीं हुआ। वह पापात्मा मूर्ख मरीचि त्रिदण्डी वेष धारण कर कमण्डलु हाथ में लेकर अपने शरीर को कष्ट देने में तत्पर हुआ वह प्रातः काल ठण्डे जल से स्नान कर कन्दमूलादि का भक्षण करता था। उसने बाह्यप्रहादि परिषद् के त्याग से धरने को सर्वत्र प्रसिद्ध किया। उसने अपने शिष्यों को सत्य मत को इन्द्रजाल के समान बताया। किन्तु मिथ्या मार्ग का घराणी वह भरत राजा का पुत्र मरीचि पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त हुआ। वह अजान तप के प्रभाव सेवा नाम के पांच स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। वहां उसे दश सागर की आयु मिली उसे भोग्य सम्पदा भी प्राप्त हुई। देखो जय सिया तप के प्रभाव से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, तब सत्य तप के फल का क्या कहना अर्थात् उससे पूर्व फल मिलेगा। उसी अयोध्या नगरी में ही कपिल नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्रो का नाम कालो था। उन दोनों के घर मरीचि का जीव स्वर्ग से चयकर जटिल नाम का पुत्र हुआ । पूर्व के संस्कारों के वश उसे वही मिथ्या मार्ग सुझा । वह सन्यासी होकर उसी कल्पित मिथ्या मार्ग का प्रचार करने लगा। उसे मूर्ख जन नमस्कार भी करते थे। पर पुनः प्रायु क्षय होनेपर मृत्यु
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१. वहां से फिर इसी भारत क्षेत्र के मन्दिर नाम के नगर में गौतम नाम के ब्राह्मण की कोशको नाम की स्त्री से अग्निमित्र नाग का पुत्र हुआ । यहाँ भी सांख्य मत का प्रचार किया।
२. संसार त्यागने के हेतु महेन्द्र नाम का चौथा स्वर्ग प्राप्त हुआ ।
३. त्रां से आकर मैं उक्त मन्दिर नाम के नगर में सांकलायन नाम के ब्राह्मण की मदिरा नाम की पत्नी में भारद्वाज नाम का पुत्र हुआ । पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण त्रिदण्डी दीक्षा ग्रहण की।
४. तप के प्रभाव से देवायु का बंधकर महेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ ।
५ स स्थावर नर्क और निगोद
आग में कूदना, विष का सेवन करना, समुद्र में डूब मरना उत्तम है, किन्तु मिध्यात्व सहित जीवित रहना कदाचित उचित नहीं है । सर्व तो एक जन्म में दुःख देता है, लेकिन मिथ्यात्व जन्म-जन्मान्तर तक दुःख देता है। मिथ्यात्व के प्रभाव से जीव नरक तक में भी दुःख का अनुभव नहीं करता, किन्तु दूसरे अधिक बुद्धियों वाले देशों की उत्तम विभुतियों को देखकर ईर्ष्या भाव करने, महासुखों के देने वाली देवाङ्गनाओं का वियोग होने तथा आयु के समाप्त होने से छः महीने पहले माला मुरझा जाने से मिध्यादृष्टि स्वर्ग में भी दुःख उठाता है। मृत्यु के छः महीने पहले मेरी भी माता सुरजा गई वो इस भय से कि मरने के बाद न मालूम कहा जन्म होगा ? ये स्वर्ग सुख प्राप्त होगे या नहीं ? अत्यन्त शोक और रुचन किया, जिसका फल यह हुआ कि स्वयं स्वर्ग की आयु समाप्त होते ही मैं निगोद में आ पड़ा। अनन्तान्तों वर्षों तक वहां के दुःख उठाकर वर्षो तक वहां के दुःख भोगे, फिर एकइन्द्रीय वनस्पति काय प्राप्त हुई। कई बार मैं गर्भ में आया और वह गर्भ गिर गये ।
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केलिवृक्ष उपजो बहुबार, नबै सहस भव धरौ असार । सहस तीन चन्दन तरु होय, पंच कोडि भव कनयड़ सोय ।।१२४।। गणिका भवधर साठ हजार, पांच कोड़ तन पसियाधार । बीस कोड़ गज उपज्यो भार, साठ कोड़ खर भी दुखधार ।।१२।। तीस कोड़ भव श्वानहि भाख, भयो नपं सक साठ जुलाख । बीस कोड़ नारी तन साख, रजक भयौ नर नबंजु लाख ॥१२६।। पाठ करोड़ घर तुरी प्रजाई, बीस कोड़ मंजार सुभाइ। नार गर्भसो गिरयौ सोइ, साठ लक्ष तन त अब लोई ।।१२७।। साध लाख भव नगपद पार, नहि पन छोड्यो कर्म उपाय । कबहू दान सुपात्रै दियो, ता फल भोग भूमि सुख लियौ ॥१२८।। असी लक्ष पुन सर पद लेह, असी लक्ष भव धारी तेह । पुन पुन भ्रम संसार मंझार, बहु पराजय दुःख की धार ।।१२६।। कर्म-संखला बन्ध्यौ फिर, फिर-फिर भवसागर में परै। सर्व दुःख नाना प्रकार, मिथ्यामति-तरु फल्यो अपार ।।१३०।।
अस्लिाम प्रगनि माहि परजर, पिये हालाहल कोई। समुद मांहि जो पर, किमपि वर है भवि सोई ।। खाय सिंघ अहि खाय, चोर भयको करें। प्राण हनत जो होय, न मिथ्या आदरै ।।१३१॥
सोरठा
सरसों सम ह पाप मिथ्या, मेरु समान दुख । प्राण अन्त बुध आप, ऐसी पान न कीजिये ॥१३२॥
प्राप्त कर काय-क्लेश तप के प्रभाव से सौधर्म नामक पहले स्वर्ग का देव हो गया। उसे यहाँ पर दो सागर की पाय प्राप्त हई और थोड़ी सी विभूति भी उसे मिली। प्रत्यन्त पाश्चर्य की बात है कि जब मिथ्या-दष्टि पुरुषों का निकृष्ट तप भी निष्फल नहीं हो पाता, तब सुतप की तो बात ही दूसरी है।
अयोध्यापुरी में ही स्थूणागार नामक नगर में भारद्वाज नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पुष्पदन्ता नाम की अत्यन्त रूपवती पत्नी थी। वह देव स्वर्ग से चयकर उन दोनों के पुष्पमित्र नामक पूत्र उत्पन्न हना। यहा भा उसन पूर्व संस्कार के बश कुशास्त्रों का ही अध्ययन किया और पुन: मिथ्यात्व कर्मों के उदय से मिथ्या मत में ही लीन हुना। इसलिये वह पूर्व भेष को ग्रहण कर सांख्य मत के अनुसार प्रकृति प्रादि पच्चीस तत्त्वों का उपदेश करने लगा। वह मिथ्यामती मन्द कपाय से देवायु को बाँध मृत्यु को प्राप्त हया और उसी सौधर्म स्वर्ग में उसने जन्म लिया। उसकी प्रायु एक सागर हुई तथा बह भोग सम्पदा से सम्पन्न हुआ।
भरत क्षेत्र में ही श्वेतिक नाम के नगर में एक ब्राह्मण रहता था, जिसका नाम अग्निभूति था । उसकी पत्नी का नाम गोतमी था। वह सौधर्म स्वर्ग का देव स्वर्ग से चयकर अग्निभति ब्राह्मण का अग्निसह नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह एकात मत के शास्त्रा का पूर्ण ज्ञाता। किन्तु पूर्व कृत-कर्मोदय के प्रभाव से उसने पूनः परिव्राजक दीक्षा धारण को। पश्चात् प्रायक्षय होने पर उसकी मृत्यु हो गई। पूर्व के अज्ञानतप के प्रभाव से वह सनत्कुमार नाम के तृतीय स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और सुख सम्पदा से उत्पन्न उसे सात सागर की प्राय प्राप्त हई। उक्त क्षेत्र में ही मन्दिर नामक एक श्रेष्ठ नगर था। वहाँ गौतम नाम का एक ब्राह्मण रहता था। वही सनत्कुमार स्वर्ग का देव वहाँ से चयकर गौतम का अग्निभूति नाम का पुत्र हुआ। पूर्व जन्म के सरकारों के वश उसने मिथ्याशास्त्रों का ही अध्ययन किया । अन्त में उसने त्रिदण्डी दीक्षा ही धारण को श्रीर आयु का समाप्त पर मृत्यु प्राप्त कर उसी अज्ञान तप के प्रभाव से माहेन्द्र' नाम के पांचवें स्वर्ग में उत्पन्न हुमा एवं योग्य आयु सम्पदा का उपभोग करने लगा।
उक्त मान्दर नामक नगर में ही सांकलायन नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम मन्दिरा था। वह माहेन्द्र स्वर्ग का देव वहां से चयकर उस ब्राह्मण का भारद्वाज नाम का पुत्र हुआ। वह पूर्व जन्म के संस्का बंधा ही था। इस बार भी उसने मिथ्याशास्त्रों काही अभ्यास किया। कछ समय के पश्चात् उसे बराग्य उत्पन्न हुआ, किन्तु उसने पूर्व की भांति त्रिदण्डी दीक्षा ही ग्रहण की और देवायु का वध कर मृत्यु प्राप्त किया । तप के प्रभाव र में दवयोनि की प्राप्ति हुई, किन्तु वहाँ से चयकर उसे निम्न योनियों में जाना पड़ा। वह असंख्य वर्षों तक निदनीय त्रस-स्थावर योनियों में भटकता हुमा दुःख पाता रहा । प्राचार्य लोगों का कथन है कि, मिथ्यात्व के फल से प्राणि वर्ग को महान क्लेशों का सामना करना पड़ता है।
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साठ हजार बार बटया के भाव धारण किये। पांच करोड बार शिकारी के भय ।
बीम करोड चार हाथी के, माट करोड़ बार गधं के भब माटायचार नपु'मक के भर. बीम करोड़ बार जारी क भव धारण किये।
मारद्वाज का जीव महेन्द्र वर्ग में प्राकर कशास्त्र में लीन हो गया और विदाही का भग धारणा कर लिया लप के बाल से भडन्द्र बम में देवश्रा पुनः पार करने में भूनल पर अधोगति को पान प्रा. कुवेगवेट याशिकाकी, गधा
श्रीवा घास. कुना. बलाब श्रादि काम्नयामा किया.
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हल पर बैल, घोडा प्राधिकार किये।
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बनको बल का जीव स्वर्ग में उत्पन्न हुश्रा और वहां पर
नाना प्रकार के मुखों का भोग किया।
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गोतिका छन्द इमि कूपंथपाक पाक अनेक भव घर, वेष तिरयञ्च हि तनो। पुनि भ्रम्यौबहु परजाय अन्तर, दुःख जलनिधि सम भनो।। यह जानिक मिथ्यात मारग, तजहु सम्पुरण सही। सम्यक्त्व को नित अादरो भवि! जो त्रिजग मुख वांछही ।।१३३।। हैं.........नन्त सुखदाता सुजिनवर, दुखहरण वर वीर हैं। जग अन्त भवको नाश कोनी, बुद्धि-धन मन धीर हैं। बहु धातिया हति मुक्ति प्रिय पति, वीर भक्ति प्रनामियो । सोइ बोर करता होहु मुझको, "नवलशाह" बखानियौ ।।१३४॥
वस्तुतः प्राग में कूद पड़ना, हलाहल (विष) का सेवन करना, समुद्र में डूबकर मृत्यु प्राप्त कर लेना उत्तम है, किन्तु मिथ्यात्व' सहित जीवित रहना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। सिंह आदि हिंसक जीवों को संगति प्राप्त कर लेना तो किन्हीं अशों में ठीक भी है, पर मिथ्यादष्टि जीवों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना तो बड़ा ही भयानक है। कारण हिंसक जीव तो एक जन्म में ही दुख देते हैं, पर मिथ्यात्व का प्रभाव जन्म-जन्मान्तर तक पीछा नहीं छोड़ता। बुद्धिमान पुरुषों का कथन है कि मिथ्यात्व और हिंसादि पापों की तुलना की जावे तो मेरु और राई के समान अन्तर मालम होगा। अतएव यदि कहीं प्राण जाने का भी भय हो तो भव्य जीवों को मिथ्यात्व का सेवन नहीं करना चाहिए । प्रत्यक्ष है कि मरीचि के जीव को मिथ्याल्य के प्रभाव यश केवल क्षणिक सूख की प्राशासे कठिन से कठिन दुःख भोगने पड़े, अतः यदि तुम शास्वत सुम्ब की आकांक्षा रखते तो मिथ्यात्व का परित्याग कर सम्यक्त्व ग्रहण करो।
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तुतीग अधिकार
मंगलाचरण
दोहा सीन लोक नहि बन सके, गुण अनन्त जिनराज । सुर हिरदै में आचर, नमो सास गुण काज ॥१॥
चौपाई
मगधदेश देशन परधान, राजग्रह तह नगर बखान । साडिल नाम विप्र तहां वस, पारासर नारी तालसं ।।२।। भटके भ्रमत बहुत दुख पाय, स्थावराय । सुत उपज्यौ प्राय । पुरववत मिथ्या संस्कार, परिवाजक दीक्षा उर धार ।।३।। कायकलेशतने परभाय, मरण अन्त सुर उपज्यो आय । कल्प महेन्द्र अम्बुनिधि सात, पाई प्रायु सुक्ख विख्यात ।।४।। एही मगधदेश में लसी, राजग्रही शुभ नगरी बसै । विश्वभूति महिपति को नाम, जैनी प्रिया तास के धाम ।।५।। सो वह देव स्वर्गते प्राय, विश्वनन्दिः सुत तिनकै थाय । अति प्रसिद्ध पौरुष परवीन, पुण्य सुलक्षण गुण में लोन ।।६।।
जिनके शुद्ध असीम गुण, तीन भुवन में व्याप्त ।
उन प्रभुका वन्दन करूं, हों गुण मुझको प्राप्त ।। जिनके अनन्त गुण किसी प्रकार की बाधा के बिना समग्र संसार में विचरण कर रहे हैं, इन्द्रादि देवगण भी जिनकी पाराधना करते हैं, उन वीतराग प्रभुको, मैं गुणोंकी प्राप्ति के लिये बन्दना करता है।
मगध देश में राजगह नामका एक विख्यात नगर है। उस नगर में शांडिलि नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पिपनी का नाम पारासिरि था। गर्भ से उसी मरिची के जीव को उत्पत्ति हुई। यहां उसका नामकरण स्थाबर हुना। वह
१. राजगिरि नाम की नगरी में शांडिलो नामक ब्राह्मण की स्थी पारासिरी के स्थावर नाम का पुत्र हुआ। २. माहेन्द्र नाम के चौथे स्वर्ग में देव हुआ।
श्रावक तया जैन मुनि
३. जिस प्रकार माठ की संगति से लोहा भी तिर जाता है, उसी प्रकार धर्मात्मानों की संगति से पापी तक का भी कल्याण हो जाता है। अब की बार माहेन्द्र स्वर्ग में धर्मास्मा लोगों की संगति मिली जिसके कारण मैं विषय-भोगों में न फंप कर मन्द-वापावी रहा । रवर्ग के सुवा को पुण्य तथा नरक, निगोद को पाप कमों का फल जान कर, माला मुरझाने पर भी मैं दुखी न हुआ, तो इसका फन यह हुआ कि स्वर्ग की आयू समान होने पर मैं मगध देश की राजधानी राजगृह में विश्वभूति नाम के राजा की जनी नाम की रानी से विश्वनन्दी नाम का बड़ा पराक्रमी राजकुमार हुआ। राजा के विशाखभूति नाम का एक छोटा भाई था, जिसकी लक्ष्मण नाम की रानी और विशाखनन्दी नाम का एव था। यह सारा परिवार जैनी था। विश्वनन्दो बड़ा बलवान और धर्मात्मा था, वह धावक व्रत बड़ी श्रद्धा से पालता था।
संसार को असार जान कर अपने आत्मिक कल्याण के लिये विश्वभूति ने संसार त्यागने की ठान ली। उसके राज्य का अधिकारी तो उसका पुत्र विश्वनन्दी ही था, पन्तु उसको बच्चा जान कर अपना राज छोटे भाई व विश्वभूति के सुपुर्द करके अपने पुत्र विश्वनन्दी को बराज बना दिया और स्वयं श्रीधर नाम के मुनि से जिन दीक्षा लेकर जन साधु हो गया।
यवराज विश्वनन्दी के बगीचे पर विशास्त्रमन्दी ने अपना अधिकार जमा लिया। समझाने से न माना और लड़ने को तैयार हो गया तो विश्वनन्दी विशाखनन्दी पर झपटा । भय से भागकर एक पेड़ पर चढ़ गया। विश्वनन्दी ने एक ही झटके में उस वक्ष को जड़ से उखाड दिया। विशाखनन्दी भाग कर पत्थर के एक खम्भे पर चढ़ गया, परन्तु विश्वनन्दि ने अपनी कलाई की एक ही चोट से उस पल के खम्भे को भी तोड़ दिया । विशाखनन्दी अगनी जान बचाने के लिय बुरी तरह भागा। उसकी ऐसी भयभीत दशा को देखकर विश्वनन्दी को वैराग्य आ गया और श्री संभा नाम के मूनि से दीक्षा लेकर जन-मुनि हो गया। इस घटना से विशाखभूलि को भी बहुत पश्चात्ताप हुआ वि पत्र के मोह में फंस कर साध स्वभाव विश्वनन्दीका गीचा विशाखनन्दी को दे दिया, सच तो यह है कि यह समस्त राज्य ही उनका है। जब विश्वनन्दी ने ही भगै जवानी में संसार त्याग दिया तो मुझ वृन्द्र को राज्य करना कैसे उचित है ? यह भी जैन साधु हो गवा ।
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उपर विशाबत राजा के महल में श्री विशाम्बन्दि का जन्मात्मय । सानि गता के महर्ग में विश्वनि का जन्मोन्भव ।
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विश्वनंदि शत्रु से युद्ध करके जीतकर घर को वापिस जाते हुए ।
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विदति राजा सपना रानी के माय बानालाप करने । नया विमल का पुत्र विवाद की भाई विशाखमान युद्ध में
जाने का धान ना करने ।
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१) महेन्द्र वर्ग में बाबर जीय का कानहोना। (2) राजा नगरी में विटयभूनि राजा अपनी जेनी रानः
पुत्र विभाबन्दि साप ।
राज गर नगर और विश्वनराजा नथारानी पर्चपुर वनारसाय।
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पचार्य श्रीमानव
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विशाग्यान में अपने पिता से विश्वदि , वादा मांग लिया गया
ने रमकी बात सुन कर कपट एवंष वियदि का बुलाया।
विटयनंदि अपनी स्त्री साहन विशाखानंदिगी में की। करीये !
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विश्वभूति भूपति अति नेह, अनुज विशाखभूति गुण गेह । लक्ष्मणास्य नारी को नाम, लक्षण भूषित सुन्दर बाम ॥७॥ तिनकै कृपुत्र बुद्धी भयो, नाम विशाखानंदि तिहि दयौ । ते सब पूरब पुण्य संजोग, करें सुक्ख मनवांछित भोग ।।८।। मेघ पटल को देख विनाश, विश्वभूति नप भयो उदास। यह विध जोबन पायु शरीर, विना जाय ज्यों बादर नीर | जो लौं जोबन बल यो आब, है शरीर में इनको चाब । तो लौं अनछ तपस्या करौं, मोख तनो सामग्रो धरौं ।॥१०॥ इत्यादिक चित हिय धार, तब संवेग दुग्ण विस्तार । सब भव भोग लक्ष्मी तजी, दीक्षा नपने हिरदं भजी ॥११॥ राज्य भार तब अनुजाह दियौ, पद युवराज पुत्र थापियो । श्रीधर मुनिवर प्रणमै जाय, दुविध परिग्रह दियो छडाइ ।।१२।। मन वच काया संजम धार, सो देवन को दुर्लभ सार । राय तीन सौ संग सुजान, छोड़ी राग दोष दुख खान ।।१३।। हन्यौ मोह इन्द्रिय अति घोर, ध्यान खडग संजय के जोर । उग्र उग्र तप कोनों सार, घात कर्म घा अब यह कथा रही इह ठौर, भाषौ भई जथारथ और । बिशनदि नृप बाग विशाल, सोहै सुन्दर परम विशाल ।।१५।। हेम कोट लस गिरदाकार, चारों दिस दरवाजे चार । बन कंगूर तुंग सु ठार, चित्र विचित्र चिने उर धार ॥१६॥ तामें सघन वृक्ष अपार, फल अर फूल सहित सुखकार । खारक दाख जायफर चार, नारंगो पूगी कचनार ||१|| लोंग लायची इमली श्राम, फले नारियल शोभा धाम। नींबू सदफर बेल खजूर, महुआ दाडिम कंथ वमूर ॥१८॥ नीम करोंदा तंदू जुत, वर पीपर ऊपर जु अतूत । जामुन वेर गटाइनि तवा, बोजौं तिस सगोना धया ॥१६॥ चन्दन पाडर खूजी बेलु, कुन्द गुलाब मालति मेलु । कमल कुमुदिनी कनयर जुहो, केवरो केतु चम्पक जूहो ।।२०।। इन प्रादिक तरु नाना भात, सोहत हैं सब निज निज पात । एक दिनां ता वनहो मझार, विश्वनदि मनहरण सुसार ॥२१॥ नारि सहित निज क्रीडा कर, लोला स्थिति वर सुख व्योपरे । अति मनोज्ञ ताही उद्यान, नन्द विशाख गयो अनजान ॥२२॥ ता वन देख मोह वह लह्यो, प्राइ पिता सों इहि विधि लह्यो । विश्वनन्दि पारण्य प्रधान, सो दो हमको गुण भान ॥२३॥ अरु जो तुम मोहि वन नहीं देउ, नो अब हमरो मुजरा लेउ । हीं तो जाऊ विदेश सहो, निश्चै कहो बात मैं यहो ।॥२४॥ ता वच गुन ना मोहित होइ, वोल्यो कपट वचन उर लोइ । बाको मैं उपाय प्रब करों, तुम मन में अब धीरज धरौ ॥२शा वेद-वेदांग इत्यादि मिथ्या शास्त्रोंका पंडित हुप्रा । उसो प्रकार पूर्व के मिथ्या संस्कार के वश उसने पारिव्राजक अर्थात त्रिदण्डी दीक्षा ग्रहण की। उसने तप आदि भी किये। जिस कुतप के फल से मृत्यु होने पर वह माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुमा, उसको आधु सात सागरको हुई और वह थोड़ी सम्पदाका उपभोगी हुआ । उसो नगर में विश्वभूति नामका एक राजा था, जिसकी जैनी नामकी पत्नो थो। पुनः वह देव विश्वनन्दी नाम का इनका पुत्र हुमा । वह बड़ा पुरुषार्थों और शुभ लक्षणों वाला हुमा । राजा का एक विशाख भनि नाम का छोटा भाई था । उसको लक्ष्मणा नामकी पत्नी थी। उसके विशाखनन्द नामक पुत्र उत्पन्न हया । एक समय की घटना है राजा विश्वभूतिको शरद ऋतुके बादलों को देखकर सहसा वैराग्य उत्पन्न हुआ। उन्होंने विचार किया कि कैसी आश्चर्यमयी बात है कि, ये बादल क्षण भर में ही विलीन हो गये, इसो प्रकार मेरो प्रायु और योवन आदि सारी सम्पदाय नष्ट हो जायेगी, इसमें सन्देह नहीं। अतएव जब तक शरीर क्षीण हो उसके पूर्व ही मोक्ष प्राप्ति के लिये बराबर तप करना चाहिए। एसा विचारकर वह राजा सांसारिक विषयोंसे अत्यन्त विरक्त होकर दोक्षा धारण करने के लिये प्रस्तुत हो गया।
एक दिन उसने अपना राज्य छोटे भाई को सौंप कर अपने पुत्र को युवराजपद दे दिया। इसके पश्चात् वह राजा अपने गह से निकलकर विश्ववंदनीय थीधर मुनि के समीप गया और उनसे दीक्षा ले लो। उसने बाह्य-अभ्यन्तर के समय परिग्रहों का परित्याग कर तीन सौ राजारों के साथ मन वचन कायकी शुद्धता से मुनीश्वर पद प्राप्त किया। उस संयमी ने ध्यानरूपी तलवार से नाम और मोह को परास्त कर कर्मनाश के उद्देश्यसे तप पारम्भ किया।
विशाखनन्दी मकान की छत पर बैठा था कि विश्वनन्दी जिनका शरीर कठिन तपस्या के कारण निर्बल हो गया था, आहार के निमित्त मथरा नगरी में आये तो असाता कर्म के उदय से एक गउ भागती हुई दूसरी और से आई। जिसमे मुनि महाराज को धक्का लगा और नह भूमि पर गिर परे । विशाम्यनन्दी ने यह देख कर हंसते हुए कहा कि हार से वृक्ष उखाड़ने और कलाई की एक चोट से ववमयी खाभ को तोड़ने वाला वह तुम्हारा अल आज कहाँ है ? आहार में अन्तराय जान कर पुनिराज तो बिना प्रहार किये सरल स्वभाव जंगल में वारिस जाकर फिर ध्यान में नीना गए, पर विशायनन्दी मुनिराज की निन्दा करने के पाप फल से सातवें नरक गपा, जहां महाक्रोधी और कठोर नारकोगों ने उम गर्म धी में पकवान के समान पकाया, कोल्ह में उस नन्ने के समान पीड़ा और आरे से उसके जोवित शरीर को चीरा, मुद्गरों से पीटा । वर्षों इसी प्रकार उसकी नरको की वेदनाएं सहनी पड़ी।
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कर परपंन बुलायौ राइ, विश्वनंदि पायौ तिहि ठाइ । अहो भद्र तुम ऐसी लहो, राज्यभार यह सब अब गहो ॥२६॥ हम आर रिपु आयो राही, दई उजार देश पूर मही । जाउं तिन्हें जीतनको पाज, परजा सुख प्रापति के काज ॥२७॥ तब बाल्यौ सौ राजकुमार, तुम निष्ठी गुरु अधिकार हपको जानकअदिल जीत करी भसमन्त ॥२६॥ विश्वनदि जानै नहि भेद, कुटिलरूप तिन कीनो खेद । बहु परकार प्रार्थना करी, लै आदेश चलो तिहि धरी ॥२४। सेना जुत तिन दियो पयान, जीतो जाय शत्रुको थान । इहि अबसर ता बनहि मझार, गयौ विशाखानंदि गंवार ॥३०॥ मोहित भयो तहां सो जाय, कयौं उपद्रव अति दुखदाय । यह विरतंत देख वनपाल, जानौ सफल पापको जाल ॥३।। देखो मोह ध्रिगत संसार, प्रशुभ अर्थकर्ता अविचार । विश्वनन्दि राजा बर वीर, हिरदों हैं साहस धीर ॥३३॥ हम देखत रिपू ऊपर वाहि, याकै पिता पठायो ताहि । इन कौटिलता कर बन लियो, गज सनेह नाश सोकियो ।।३।। मोह जगत में निन्द्य अपार, करौ तास इन अप करतार । मोह नरक दुःख व्योपर, यह भव परभव दुरगति धरै ।।३४॥ तिहि अवसर अरिजीत महान, प्रायो विश्वनन्दि गुणभान । सुनके सटक्यो सब न्यौहार, गयों रोष घर वनहि मंझार ॥३५।। ताके भय सौं नन्दि विशाख, अति आतुर डरपो सुख प्राख । वृक्ष कपित्थ मूल सो गह्यो, मध्य, भाग ताके छिप रह्यो ।।३।। विश्वनन्दि अद्भुत बल होइ, लियो उखाड़ वृक्ष तिन सोइ । शत्रु देख के अति भय दियो, हनवै को तिन उद्यम कियो ।।३।। नहं त कड़ि भाग्यौ पुनि सोइ, शिला स्तम्भ तर छिप्यो सोई । पीछौ गह घायौ सुकुमार, कह जैहे अन्यायि गमार ॥३८॥ मुष्टिप्रहार बली जब कयों, शिलास्तम्भ ता छिन गिर पयौं । ताके भये तुरत शत खंड, सबल पुरुषको दीने दण्ड ।।३।। तह ते भन्यो विशाखानन्द, देख न रक्ष पाय निमन्द । करुणा कर छोड्यो तब सोइ, मन में सुमरि पंचपद लोइ ।।४।। देखो भोग ध्रिगत संसार, कातर जोब कदर्थ अपार । दण्ड दियौ मैं बांधव काज, बंधादिक कोनी अघ साज ॥४॥
किसी सखद रतुके समय राजा विश्वनन्दी अपनी रानियों के साथ क्रीड़ा कर रहा था। इतने में ही विशाखनन्द वहां पहुंच गया। उसने लौटकर अपने पितासे विश्वनन्दीके बगीचेकी बात कह सुनाई 1 उसने यह भी कहा कि यदि विश्वनन्दी का बगीचा मुझे नहीं मिला, तो मैं अनायास ही घररो निकल जाऊंगा। पुत्र की ऐसी बात सुनकर राजा ने कहा--बेटा, धैर्य रख, मैं शीघ्र ही उस बगीचे को तुझे दिलवाने का प्रयत्न करूंगा । एक दिन उस राजा ने विश्वनन्दी को बुलाकर कहा-यह राज्य-भार मैं तुम्हें सौंपता हुँ । आजसे मैं अन्य राजाओं द्वारा किये उपद्रवों को शान्त करने के प्रयत्न में लगूगा। इसके लिए मुझ उन पर आक्रमण करना पड़ेगा। किन्तु विश्वनन्दी कुमारने उत्तर दिया--पूज्य, तुम शान्तिपूर्वक यहां निवास करो मैं स्वयं उन उपद्रवियों को परास्त करूंगा। इस प्रकार राजा को प्राज्ञा मानकर विश्वनन्दी कुमार अपनी परी सेना लेकर चल पड़ा। इधर राजाने अपने पुत्र को विश्वनन्दीका बगीचा सौप दिया। प्राचार्य का कहना है कि, ऐसे मोह को धिक्कार है; जिसको लिए मनुष्य को प्रथम से अशुभ कार्य करने पड़ते हैं। पर जब बगीचे के रक्षक द्वारा भेजे गये दूत से यह समाचार विश्वगन्दीको मिला तो उसे बड़ा दुःख हुया । उसने सोचा-पाश्चर्य है, मेरे चात्रा ने मुझे दूसरी ओर भेजकर मेरे प्रति विश्वासघात किया है । चाचा का यह कार्य प्रेम और सद्भाव में बाधा पहुंचाने वाला है।
___ वस्तुतः वह कौन-सा बुरा कार्य है, जिसे मोही पुरुष नहीं करते। इस प्रकार अपने चाचाके प्रति विश्वनन्दी की दुर्भावना बढ़ती ही गयी । वह विशाखनन्द को मारने के लिए प्रस्तुत हो गया और क्रोध से तमतमाता हा अपने बगीचे की पोर आया। जब वह समाचार विशाख नन्दी को मिला तो वह अत्यन्त भयभीत होकर वृक्षोंकी आड़ में छिप गया। किन्तु वहां भी उसके प्राण संकट में पड़े। विश्वनन्दी एक वृक्षको उखाड़कर उसे मारनेके लिए दौड़ा। पश्चात बह विशाखनन्दी एक बड़े पत्थरके खम्भेको माड़ में छिपा । प्राचार्यगण कहते हैं कि, क्या अन्याय करने वाले कभी विजयी हो सकते हैं। उस बलवान विश्वनन्दीने उस स्तम्भको मुष्टिकाधात से चूर्ण-विचूर्ण कर दिया।
पर थोड़ी देर बाद विश्वनन्दीने जब पराजित विशाखनन्दीको दीनकी भांति देखा, तब उसके मन में दयाका भाव उदय हो आया। उसने सोचा धिक्कार है, इस जीवनको, जिसमें अपने भोगोंके लिए दीन भाईकी भी हत्या करने के लिए मनुष्य
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विशावारि जाकर पत्थर की शिक्षा के नीचे दिप गया में भी
विश्वन ने मपिट प्रहार में मार दिया।
युद्ध के उपरान्त बगीचा न देने पर विवाद पर निशाना नरि का झगड़ा हो गया। विशाम्बार भयभीत होकर पाने में कोपरय के पेड़ की जड़ में लिप - 'त्यति बड़ा पराक्रमी था, मनं त्र की ही बाद लिया
और शत्रु को मारने दौड़ा।
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(१) राजा बिश्वभूति का श्रीधर नामक मुनि के पास
जाकर बैराम्य धारण करना। (२) राजा विश्वनंदि द्वारा राजा विशाग्यानपि को राज्य
मोपना एवं गत्रा को केवन जानहोना ।
निशाखभूति को बेरम की भावना उत्पन्न हो गई। उसने मुनि महाराज के पास जाकर दीक्षा प्रदशा करली. उप तप के द्वारा
सप करके समाधि पूर्वक मरण करके महाधक स्वये में। स्प हुमा और यहां की देवियों के साथ कीड़ा करते हुए ।
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विविध भोग भुगते जब जीव, दुःख प्राप्त हित होइ सदीव । तर न तृप्ति लही जो सोइ, कष्ट साध्य अव तिनको होइ ।।४।। नारी भोग मथन उत्पत्त, मान जाय अरु होत विपत्त । संपूरण सुख मुक्ति प्रधान, ताको इक्षं परम सुजान ।१४३।। यह चितत उपजी बैराग, मुतको दीनों राज्य सुहाग। छोड़ी लक्षमो अर्थ भंडार, गुरुके निकट गये सविचार ॥४४॥ मुनि के चरण कमल को नये, दुविध परिग्रह छोड़त भये। दीक्षा लही महाव्रत घरी, विश्वनन्दि मुनि तप आदरौ ।।४।।
दोहा रही कथा इस ठौर यह, नन्द गयौ शठ गेह । सकल बृतान्त पिता सुनी, तब उर चिन्त करेह ।।४६।।
चौपाई बडं पुरुष अपकीरति कर, ऊंचे कुलको नीची धरै। जे उपकारी नर परवीन, ते जगपूज्य पुरुष गुण लीन ।। ४७।। विशाखभूति वह चितन भयो, पश्चात्ताप निरुत्तर लयौ। वह प्रकार निन्दो संसार, तब संवेग ऊपज्यो सार ||४|| भव तन भोग लक्षमी आदि, दुविध परिग्रह कौनो प्रादि । मूनिके निकट गयो तिहि घरी, मन वच काय सु दीक्षा धरो ।।४।। पापरहित तप कीनो घोर, काल चिरंतन कर्मनि जोर। अपनी शक्ति परीषह सही, धर सन्यास मरण तब लही ॥५०।। ताके फल उपज्यो सो देव, महाशुक बस ऋद्धि समेव । देविन सहित जु कीड़ाकरं, धर्मवन्त मुख सौं व्योपरे ।। ५१॥ विश्वनंदि तपकर चिरकाल, विहरे देश याम जन जाग: पारट मारी हि सहार, गर्द क्षीण मुनि देह अपार ॥५२॥ पाए वनतें चर्या हेत, इर्यापथ शोधत पग देत। शांतचित्त थिर चित्त अविकार, पहुंचे मुनि मथुरापुर सार ॥५२॥ तिहि अवरार प्रायौ ता गाम, विशाखनंदि भूपति दुखधाम । पथ समीप वेश्यागृह एक, तह ठाडो शट रहित विवेक ।।४।। ता पथ पायौ श्री मुनिराय, मद मत्सर दोनों छुड़काय। गो प्रसूत मारी तह भृग, दुःखल मुनिके लाग्यो अंग ॥५५।। मुनि महान अति धीरज घरौं, सही परिषह ध्यान न डरौ। दुरव्यसनी वह नन्द विशाख, देख जती ऊपर रिस भाख ।।५। क्षीण पराक्रम मुनी शरीर, सहियो तिनको फेर अधीर । बौलो दुर्वच दायक पाप, दुख करता अर पातक पाप ।।५७।। शिला स्तम्भ इन कीनो भंग, इतनौ हतो पराक्रम अंग । पुरव दर्प कहां सो गयो, जानी जाय न कैसो भय ।।५।।
हो जाा है। यदि इसे अनेक भागोंसे भी तृप्ति नहीं मिली, तो भला इस क्षद्र भोगके लिए अपने भाईका वध करनेसे क्या लाभ? ये भोग मान-भंग करने वाले होते हैं । अत: स्वाभिमानी पुरुषको इनकी आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। ऐसा विचारकर विश्वनन्दीने उस वनको विशाखनन्दको दे दिया। उसे एक प्रकारसे वैराग्य हो गया था। वह सारी राज्यसम्पदाको त्यागकर श्री संभूत गुरुके समीप गया। वहांपर उसने मुनिके चरण-कमलों को नमस्कार कर समस्त परिग्रहोंका परित्याग किया एवं दीक्षा धारण कर ली। यहां विचारणीय है कि, किन्हीं स्थलोंपर नीच पुरुषों द्वारा किया गया अपकार भी सज्जनोंका महान उपकारी हो जाता है ।
कुछ समय के बाद विशाखभूति राजाको भी अपने दुष्कृत्योंपर महान पश्चात्ताप हुआ। वह सांसारिक भोगोंसे उदास हो गया। उसने भी मन, वचन, कायसे परिग्रहोंका परित्यागकर जिन-दीक्षा धारण कर ली। वह निष्पाप होकर कठोर तप करने में संलग्न हो गया । उसने अपनी शक्तिके अनुसार बहुत समय तक शुद्ध आचरण करते हुए, मृत्युके समय संन्यास धारण किया। जिसके परिणाम स्वरूप वह महाशुक नामके स्वर्ग में विशाखति नामक महान ऋद्धिका धारक देव हुआ।
विश्वनन्दी भी मुनि अवस्थामें अनेक ग्राम बनादिकों का भ्रमण करने लगे 1 पक्ष मास प्रादिके अनशनोंसे उनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो चुका था। उनके प्रोठ-मह आदि अंग सूख गये थे। ऐसी अवस्थावाले मुनि विश्वनन्दीने एक दिन ईर्यापय दष्टिसे मथुरा नगर में प्रवेश किया। इसी समय वह विशाखनन्द भी बरे व्यसनोंके सेवनसे राज्य-भ्रष्ट हो किसीका दूत बनकर उसी नगरीमें आया उसका एक वेश्यासे सम्पर्क हो गया। एक दिन वह उसो वेश्याकी हवेली पर बैठा हया था। नीचेसे विश्वमन्दी मुनि जा रहे थे । एकाएक, एक बछड़े वाली गाय ने अपनी सींगसे उन्हें धक्का दे दिया, जिसमें वे जमीनपर गिर पड़े। उन्हें गिरते हुए देखकर विशाखनन्दी हंसने लगा। उसने बडे ही कठोर शब्दोंमें कहा-मुनि ! तेरा पुर्वका पराक्रम और बल कहां चला गया। ग्राज तो तू शक्तिहीन दुर्बल शरीरवाला मुर्देकी भांति दिखाई देता है।
उसने बड़े ही कठोर अह धक्का दे दिया, जिसमें आ था। नीचे से विश्व
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मौ हम देखत दुर्बल भये, शक्ति रहित हिरदे अब ठये । इहि विधि बहु दुरवच सुन सोइ, कोप्यो मुनि बहु प्रातुर होइ॥५६॥ रक्त वर्ण तब कीने अक्ष, दयावंत हिरदै परनन्छ । अरे दुष्ट ! मो संप माहत्त, हारण करो तुमने अासन्त ।।६०।। पाहे तं कीनौं है जाम, कटुक मूल ते कीनौं नास । यही तपस्याके परभाव, सब देखत हेदी तुझ काय ||६|| यही विधि मूनि बांधिनिदान, फिर निज भावनको उर पान । निदान बन्ध बुध निन्दत मोग, यात सतरुपन नहि जाग ।। ६२।। धर संन्यास करौ मन धीर, तपसौ. छोड़े प्राण शरीर। महाका कलप सूर ठयो, लपके फलसौ प्रापत भयो ।।६।। जहां विशासभूति मुनि देव, दोई झ्ये एक थानेव । षोडश सागर आयु प्रमान, मान देव बहुन जिहि आन ।।६।। दिव्य देह तसु दीप्ति अपार, सप्त धातु वजित अविकार। विमान बैठकर बन्दन कर, मेह आदि नन्दीश्वर परं॥६५॥ श्री जिनेश पूज मन लाइ, पंचकल्याणक रहि अति साइ । गिरि नद नदी सरोवर माहि, क्रीड़ा कर चित्त हरसहि ।।६।।
दोहा
सहजाम्बर भूषण सहित, ऋद्धि विऋयावन्त । पूर्व उपाजित पुण्यफल, शान्ति कान्ति शोभान ।। ६७|| विविध भोग ते भोगवे, दैविन सहित सुजान । सुखसागर के मध्य सुर, क्रीड़ा करत महान् ॥६॥
चौपाई जम्बूद्वीप भरत या खण्ड, देश सुरम्य वसै विन दण्ड । पौदनपुर नगरी शुभ बसै, तहको भृष प्रजापति लग ।।६।। रानी जयावती गुणरूप, विशाखभूति सुर चयौ अनूप । तिनके पुत्र ऊपज्यौ आय, विजयकुमार नाग सो पाय 11७०||
विशाखनन्दी के ऐसे वचन सुनकर मुनि को क्रोध हो पाया। उन्होंने लाल ने बकर अन्तरंग में ही कहा-रे दुष्ट ! मेरे तप के प्रभावसे तुझे अवश्य ही इस कदु हंसी का फल मिलेगा। यही नहीं तेरे, मूलका ही माश निश्चित है। इस प्रकार उसके विनाश करने रूप बुद्धिमानों द्वारा निन्दा किया गया, ऐसा निदान बंध करके मुनि ने समाधि मरण द्वारा प्राण त्याग किया। इस तपके प्रभाव से दसवं स्वर्ग में उसी स्थानपर वह देव हमा, जहाँ बिशाखभूति देव हुआ था। यहां उसे सोलह सागरकी आयु प्राप्त हुई। उन दोनों देवोंने उत्तम सप्त धातु रहित शरीरी को धारण किया। बे विमानों में बैठकर सुमेरु पर्वत तथा नन्दीश्वरादि द्वीपों में जिनेन्द्रदेव की भक्तिभाव से पूजा करते थे तथा भगवानके गर्भ कल्याणकमें भी जाते थे। अपने पूर्वाजित तपके प्रभाव से वे अपनी देवियोंके साथ सुख पूर्वक रहने लगे।
इसी जम्बू द्वीप के सुरम्य देश में पोदनपुर नाम का विशाल नगर है। वहाँ के प्रजा पालक राजा का नाम प्रजापति था। उसकी जयावती नाम की रानी थी। उन दोनों के घर विशाखभूति राजा का जीव स्वर्ग से चयकर विजय नाम का बलभद्र हृया और उसी राजा की मृगावती रानी के गर्भ से विश्वनन्दी का जीव त्रिपृष्ठ नाम का महा बलवान नारायण हया । वे दोनों भाई चन्द्रमा के वर्ण को भांति शुभ्र कान्ति वाले हए। वे शास्त्रज्ञ, अनेक कलाओं में निपुण न्याय मार्ग में लीन तथा भमिगोचरी एवं विद्याधर देबों कर पूजनीय हए । उनको अवस्था क्रम-क्रम से बढ़ने लगी। सूर्य और चन्द्रमा के सदश वे दोनों भाई प्रतिभाशाली हुए।
१. महामुनि विश्वनन्दी शान्तपरिणाम आयु समाप्त करके तप के प्रभाव से महाशक नाम के दसर्व वर्ग में देव हुए । विशाल भुनि भी नाम प्रसा मे उमी ग्वर्ग में देव हुए थे। यह दोनों आपस में प्रेम से स्वर्गों के महासुख भोगते थे।
२. स्वर्ग के महा मुख भोग कर विशाबभूति का जीव इसो भरत क्षेत्र में मुरम्य देश के पोदनपुर ननर के प्रजापति नाम के राजा की जयावती नाम की रानी रो विगप नाम का प्रथम बलभद्र हा और मैं विश्वत दी का जीव उसी राजा की मृगावती नाम की रानी मे त्रिपुष्ट नाम का पहला नारायण हुआ । हम दोनों बहे बलवान थे। पिछले जन्म के संस्कार के कारण हम दोनों का आपरा में बड़ा प्रेम था।
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कि:- आचार्य श्री सूविधिसागर जी महाराज
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ऊपर - विश्वनाद ने अपने पुत्र को राज्य देकर गुरू के पास
दीक्षा की आज्ञा मांगी। नीय -- तपश्चरण से जीण देह वाले मुनि विश्वन्दि जी महाराज।
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मार्गदर्शक :- आचार्य
श्री विश्वनन्दि निराज विहार करने हर मथुरा पुर पहुँचे, यहां पर
विशाधनंदि भी था, प्रसूत गाय ने मुनिराज के पेट में सींग मार दिया परन्तु गनिगत घबराये नहीं, और धैर्य पूर्वक परिषह सहन किया ।
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पापी विशाम्बनींद ने मृति विश्य नन्दि जी से कहा कि आप को वह शक्ति कहां गई जो मुष्टि प्रहार से
शना नोडली थी. यह मुन मुनिराज को क्रोध श्रागय! नंक नेत्र लाल हो गये और बोले-दुष्ट नरे नप के महा-य को चुनोती दी है मैं मब के सामने नरे शरीर को छेदन कर गए।
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श्री विशाखभूति मुनिराज
राजा विद्यापति का वैराग्य
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विशाख भुति मनिराज ने पाप रहिन तपस्मरण किया।
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के साथ नाना प्रकगः का भंग किया। त्रिवनन्द मनि महामास्वर्ग में उत्पन्न भये, हा पर किया
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रचन पुर का राजा पवन जटी सपनीली के साथ ।
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सादडासागर जी महाराज
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चन्द्र कःनि राजा अपनी गर्न सुभद्रा र पत्र
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ग्थनगर नगरी में ज्वलनटी राजा और निलका पुर नगरी में
चन्द्रकीति विद्याधर की स्त्री मृगद्रा और पुत्री मवेगा के साथ ।
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राजा ज्वलन जटी दूत का उत्तर सुनकर प्रसन्नता से पुत्र पुत्री को विदा करते हुये ।
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स्वयं प्रभा ने अपने भाई के साथ पोदन पुर को प्रस्थान किया।
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मृगावतो दूजी तिय आन, विश्वनन्दि तिनके उर प्रान । उपज पुत्र त्रिपृष्टकुमार, महाबली अरिदल क्षय कार ।।७।। चन्द्रकान्ति तन विजयकुमार, बली त्रिपष्ट नील वपु धार । होऊ न्यायमार्ग पर वीन, अधिक प्रताप कला सो लीन ।।२।। चरणकमल सेबै बहुभूप, भूचर खेचर असुर अनूप । महा विभव' संपति सुख यान, दिव्याभरण ल हैं गुणभान ।।७।। क्रमसों जोजन प्राप्त भये, लक्ष्मीगृह क्रीडा अति व्य । पूरव पुण्यतनों फल साय, भोग कर मनवांछित लोय ॥७४।। दान शील गुण सोहैं दोय, चन्द्र सुर्यकी पटतर होय । बल नारायण जानो तास, तीन खण्ड अधिपति परकास ॥७॥ विजयारघको उत्तर सैन, अलकापुरी नगर जन चैन । मयूरग्रोव तह राजा जान, रानो नोलयशा गुणखान ॥७६|| विशाखनन्दि भ्रमि बह परजाय, पुण्य फल सर दुजौ पाय । तिनके सुत उपजौ चय देव, अश्वनीव गणमण्डित एव 1॥७॥ प्रतिकेशव अपचको सोय, तान खण्ड भूपति पति होय । जगप्रसिद्ध लक्ष्मी है धाम, सारा सहस सकल तस नाम ||७|| ताही उत्तर श्रेणिप्रधान, रबनूपुर' नगरी शुभ थान । अति मनोज्ञ ऊपमा नहि तास, नमिवंशो भूपति परकास ॥७९॥ ज्वलनजटी है ताकी नाम, चरमशरीरी मुक्त हि धाम। पुण्यवंत छबिवंत अपार, विद्यावंत अनेक प्रकार ||८|| वाही उत्तर अंणि मझार, तिलकापुर नगरी शुभ सार । चन्द्रकोति खगपतिको नाम, प्रिया सुभद्रा तिसके धाम ॥८॥ तिनके वायुसवेगा सुता, सो है रूप कला संयुता। क्रमसों जोवन उपजो जबे, ज्वलन जटी को परणी तब ॥५॥ अर्ककीति सुत तिनके भयो, अर्क समान प्रतापो जयो। दुहिता स्वयंप्रभा गुणलोन, रूपवन्त शुभ चित्र प्रबोन ॥३॥
भरत क्षेत्र के अन्तर्गत ही विजया पर्वत को उत्तर श्रेणी में अलका नाम को एक पुरी है। वहां का राजा मयूरग्रीव तथा रानी नौलंजना थी । दुष्ट विशाखानन्दी का जोव संसार समुद्र में भटकता हुमा, कतिपय पुण्योदय से अश्वग्रीव नाम का उनका पुत्र हया। वह तोन खण्ड पृथ्वो का पति प्रवचक्रो, देवों द्वारा सेव्य तथा प्रतापी सांसारिक भोगों में लीन हुआ । विजयाध के उत्तर में ही रयन पूर देश में एक चक्रवाक नाम की अत्यन्त रमणीक पुरी थी। उस नगरी का राजा ज्वलनजटी था। वह पूण्योदय के फलस्वरूप बड़ा ही तेजस्वी और अनेक विद्याओं का जानकार हुमा।
--. . . . - - १. विशाखनन्दी का जीव अनेक कुगतियों के दुःख भोगता हुआ विजयार्थ पर्वत के उत्तर में अलकापुरी के राजा मपुरखीव की गनी नीलंजना के अश्वनीव नाम का प्रतिनारायण हुआ । वह बड़ा दुष्ट था, इसी कारण इस की प्रजा इससे दुखी थी।
२. विजया के उत्तर में ही रयनपुर नाम के देश में एक चक्रवाक नाम की नगरी थी जिस का राजा ज्वलनजटी था, जिसकी रानी वायुवेगा थी जिसक्ने स्वयंप्रभा नाम की पुत्री थी जिसके रूप को सुनकर अश्वनीव उससे विवाह कराना चाहता था । परन्तु ज्वलनजटी ने अपनी राजकुमारी का विवाह त्रिपृष्ट कुमार से कर दिया। जब अश्वग्रीव ने सुना तो अपने चक्र-रत्न के घमण्ड पर ज्वलनजटी पर आक्रमण कर दिया। बबर मिलने पर त्रिपृष्ट कुमार और उसका भ्राता विजम उसकी सहायता को आ गए। पहले तो दूत भेज कर अश्वग्रीव को समझाना चाहा, परतु वह न माना। जिस पर देश रक्षा के कारण इनको भी युद्ध भूमि में आना पड़ा । वड़ा घमासान का युद्ध हुआ । अवीव योदा था. उसके पास बड़ी भारी सेना थी। दूसरी ओर वेचारा ज्वलनजटी । शेर और बकरी का युद्ध क्या? कई बार जलनजटी की सेना के गाँव उम्बड़ गए। मगर त्रिपृष्ट दोनों हाथों में तलवार लेकर इस वीरता से लड़ा कि अश्वग्रीव के दांत नटे हो गये और जोश में आकर उसने त्रिपष्ट पर अपना चक्र चला दिया। पुण्योदय में वह चक्र त्रिपृष्ट कुमार की दाहिनी भुजा पर आ विराजमान हुया और उसने वह नकरत्न अस्वधीव पर चला दिया जिस के कारण अश्वनीव प्राणरहित हो गया । उसकी फौज भाग गई, त्रिपृष्ट कुमार तीनों खण्ड का स्वामी नारायण हो गया।
अफ्यून का नशा, भंग का नशा, शराब का नशा तो संसार बुरा जानता ही है, किन्तु दोलन तथा हकूमत का नशा इन सत्र में अधिक बुरा है। तीनों स्खण्ड का राज्य प्राप्त होने पर त्रिपृष्ट आपे से बाहर हो गया। गाना सुनने में उसकी अधिक रुचि थी। उसने शय्यालाल को आशा दे रखी थी कि जब तक बह जागता रहे गाना होता रहे और जब उसको नीद आ जाये गाना बन्द करवादे । शय्यापाल को भी गाने में आनन्द आने लगा। एक दिन की बात है कि त्रिपृष्ट सो गया परन्तु शय्यापाल गाने में इतना मस्त होगया कि विपष्ट के सो जाने पर भी उसने गाना बन्द न करवाश । जब विपृष्ट जागा तो उस समय तक गाना होते देख कर वह याग अबूला हो गया और उसने शय्यापाल के कानों में गर्म शीशा भरवा दिया। विषय भोग में फसे रहने के कारण यह मर कर महातमप्रभा नाम के सातवें नरक में गया जहाँ एतने महादुख उठाने पड़े कि जिन को सुन कर हृदय कोप उठता है।
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एक दिना खगपति दरबार, आई ले गन्धोदक सार । जोवनवन्त पिता देखियो, मन चिन्ता वर की पेखियो ||४|| नैमित्तिक पूछौ तिन जाय, विनय सहित शिर चरण लगाय । पुत्री भर्ता हू है कोय, कहिये मेरो संशय खोय ॥५५| नप बच सन तिन उत्तर दियो, राजा समाधान कर हियौ । केशव प्रथम त्रिपृष्टकुमार, तेरी सता लहै भरतार ।।८६॥ विजयारध की चौई, तुमको ६ चक्री. सोई । नम हैं सब खगपति तुम पाय, नहीं अन्यथा यामें प्राय ।।७।। इहि प्रकार मुनिके वच सुन, निहनौ कर नप मन में गुनै । मुनि अमितेन्द्रतने पद जान, राजा नम पायो निज थान ||५|| अश्वग्रीव को डर मन भयो, यह करण्ड वन में नृप गयौ। तहां जायकै लिखि शुभ लेन, दोऊ पक्ष सुनिर्मल देख ||६| दियौ दूत को हर्ष बढ़ाय, कुल वृत्तान्त कह्यो समझाय। चलो दूत नहि लाई वार, पोदनपुर पहुंचो ततकार ।।६।। परजापति भूपति दरबार, सोहै मनो अमर गण भार। पुत्र सहित बैठयौ नर ईश, नृप अनेक नावं तिहि शीस ||६| दूत पाइ तहँ कियो जुहार, पत्र दियो भूपति कर सार। पोदनाधिपिति पत्र जब लयौ, माथी नाय सुबांचत, भयौ ।।६।। हितको कारज देखो सर्व उमग्यौ हृदय रायको तब। प्रादर बहुत दतका कियो, आसन सुभग बैठका दियौ ||१३|| सबको पत्र सुनायो राय, लिख्यौ यथाविधि हर्ष बढ़ाय । बिजयारथ की उत्तर सैन, रथन पुर नगरी शुभ चैन ॥९४|| नमिके वंश किरण परकाश, ज्वलनजटि राजा गुण राश। विनयवन्त तस पुण्य प्रभाय, विद्याधर वहु से पाय ।।५।। तुम पोदनपुर उदित सुभान, बाहुबली वंशी सुखदान । परजापति राजा अधिकार, सुत त्रिपृष्ठ अरिदल-खयकार ।।६।। स्वयंप्रभा तिनि जोग कूवारि, दई पिता अति प्रीति संबारि । यह प्रकार लेख तब सुन्यो, सबने मनो मानकर गुन्यौ ॥१७॥
उसी पर्वत के प्रत्यन्त मनोहर द्यतिलक नाम के एक नगर में चन्द्राभ नाम का विद्याधरों का स्वामी था। उसकी प्यारी पत्नी का नाम सुभद्रा था । उन दोनों के वायुवेगा नाम की एक अत्यन्त रूपवती पुत्री उत्पन्न हुई । अवस्था प्राप्त होने पर वायुबेगा का विवाह ज्वलनजटी के साथ सम्पन्न हमा। दोनों को सूर्य के समान तेजस्वी एक अर्कको ति नाम का पुत्र और अत्यन्त शुभ परिणामों वाली स्वयंप्रभा माम की पुत्री उत्पन्न हुई। एक दिन की घटना है । वह विद्याधरों के स्वामी को अपनी कन्या को योवन सम्पन्न तथा उसकी धार्मिक प्रवृत्ति देख कर उसके पूर्वभव की जानकारी प्राप्त करने की अभिलाषा हई । उसने सम्भिन्न श्रोतृ नाम के एक निमित्त ज्ञानी को बुलाकर पूछा-कृपाकर यह तो बताइये कि इस पुत्री को कौन सा पुण्यवान पति प्राप्त होगा। राजा के प्रश्नोत्तर में निमित्त-ज्ञानी ने कहा-महाराज, आपकी पुत्री बड़ी भाग्यशालिनी है। वह अर्द्धचक्री नारायण (त्रिपुष्ट) की पटरानी होगी। वह अर्द्धचक्री नारायण तुझे विजयाध के दोनों ओर का राज्य दिलवाने में समर्थ होगा। इसमें किसी प्रकार का सन्देह करना उचित नहीं है। विजयाध का राज्य प्राप्त हो जाने पर तु विद्याधरों का स्वामी होगा। निमित्त ज्ञानी के वचनों पर विश्वास कर, राजा ने इन्द्र नामक अपने मन्त्री को बुलाकर उसे पत्र लिखने का आदेश दिया। पत्र लिखा गया और वह लिखित पत्र लेकर मन्त्री ने स्वयं पोदनपुर को प्रस्थान किया। वह मन्त्री-दुत प्राकाश मार्ग होकर शीघ्र ही पूष्पक रम्यक वन में जा पहुंचा।
इस पोर त्रिपृष्ट में भी किसी निमित्त जानी के द्वारा सारी घटनायें जान ली थीं । दूत के आगमन की बात भी उसे ज्ञात थी। बह बड़े हर्ष के साथ दूत की अगवानी करने के लिये आया। मंत्री दूत को उसी समय राजा प्रजापति के सामने लाया गया दत ने मरतक नवा कर पोदनापुरेश्वर के समक्ष पत्र रख दिया और अपने योग्य स्थान पर बैठ गया। पत्र के भीतर महर छाप थी, इसलिये उरो मुख्य कार्य सूचक' पत्र समझा गया। राजा ने पत्र पढ़ने की तत्काल आज्ञा दी। पत्र खोल कर पढ़ा गया। उसमें लिखा था:
पवित्र बुद्धि, न्यायी महा चतुर नमिराजा के वंश में सूर्य के सदश विद्याधरों का पति ज्वलनजटी रथनपुर शहर से ऋषभ देव मे उत्पन्न वाहबलि वंशीय पोदनपुर के स्वामी महाराजा प्रजापति को स्नेह पूर्वक नमस्कार । कुशल के पश्चात सविनय निवेदन है कि, प्रजानाथ ! हमारा तुम्हारा सम्बन्ध पूर्व पीढ़ियों से चला आ रहा है- केवल वैवाहिक सम्बन्ध ही नहीं है। अतएब मेरे पूज्य त्रिपुष्ट नारायण के साथ मेरी पुत्री स्वयं प्रभा लक्ष्मी की भांति. प्रेम विस्तारित करे अर्थात मेरी पत्री के साथ पआपके पुत्र का विवाह हो, तो अत्युत्तम हो ।
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दोऊ पक्ष विशुद्ध महान, पूछत जोग कार्य नहि मान । है बड़भाग त्रिपृष्ठकुमार, स्वयंप्रभा मिलयौ गुणभार ९ शिर नवाइ तब बोलो दूत, मो वच सुन भो नृप गुण जूत । पूर्ण वृतान्त कह्यौ समझाय, अश्वग्रीव को भय दुखदाय ।। ६६ ।। सुनकै भूप महा प्रताप, एक मत हूँ दीनो ज्वाय । अश्वग्रीव को भय मत करो, अपने चितको चिन्ता हरी ॥१००।। बाकी आयु घटी जो होय, हमसों रार करें बहु सोय। या कह दूत विदा नृप कियो, दान मान बहु ताकी दियौ ।। १०१॥ चाल्यो तुरंत न लाइवार, पहुंच्यो जाय राय दरबारकज सिनसनल सिनियझरे राजा कर आनन्द लह्यो।।१०शा अर्ककीर्ति पठ्यो जिन पूत, स्वयंप्रभा ले दल सन्जत । हर्पवान चाल्यो भूपाल, पोदनपुर पहच्यो तत्काल ॥१०॥ विधि विवाह की कीनी जाय, प्रीति सहित दीनी खगराय । स्वयंप्रभा पटरानी भई, रूपकला गुण प्रभुता ठई ।।१०४।। सिंहवाहिनी विद्या सही, गरुणवाहिनी दूजी लही। देखो पुण्यतनों परभाय, विद्याधर घर ही दे जाय ॥१०५|| प्रब विवाह की वार्ता सबै, अश्वग्रीव नुप सुनियो सवै । कोप्यो अति पातु ज्यों तौय, अग्नि ज्वाल तव उठ्यो सोय ।।१०६ बई प्रकार बह सेना संग, गज घोड़े रथ यादि षठंग । चक्र रतन पालंकृत सोई, आयो पोदनपुर अवलोइ ।।१७।। तिन आगमन सुनौ नरनाथ, चलो त्रिपृष्ठ भ्रात ले साथ । हाथो मादिक और तुरंग, सेना नाथ चल चतुरंग ॥१०॥ गये संग्रामभूमि में दोय, भावी अर्धचक्री है सोय । ज्वलनजटी मायौ तिहि ठाय, सेना सज अरिगा आय राय बहु इनको मिलें, अश्वग्रीव के सन्मुख चले । कटक दिखाव भयो दुहु और, लरन लगे जोधा बहु घोर ।।११०॥
दोहा लरै सुभट दुहु और के, करें परस्पर घाव । ज्यों पतंग दीपक परें, देइ नैक नहिं चाव ।।१११॥
करखा छन्द जुरी दोउ सेना करै युद्ध ऐना, लरे, मुभटसों सुभट रण में प्रचार । लर व्याल सों व्याल रथवान रथसौं, तहाँ के तसौं कुंत किरपान झार ।। जुरे जोर जोधा मुरै नैक नाही, टरं आपने राय की तेज सारै। कर मार घमसान हलकंप होतो, फिरे दोय मैं एक नहीं कोई हारै ।।११२॥
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छटत रार दूह और गगन छायो सही। मानों बरषत मेघ अवनि उपर रहीं। रुधिर धार तह देखि सुकायर भज्जहीं। सुभट शूर वर वीर सु सन्मुख गज्जहीं ।।११३॥
राजा प्रजापति पत्र सुनकर मुग्ध हो गये। उन्हें उक्त भावी सम्बन्ध से बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उत्तर में कहातुम्हारे राजा को प्राज्ञा मुझे शिरोधार्य है। मंत्री दूत अादर और दानादि पाकर वहाँ से शीघ्र ही लौटा। वह बड़ी द्रत गति से रथनपुर आ पहुंचा। उसने आते ही राजा ज्वलनजटी को यह सब सन्देश सुनाया। ज्वलनजटी ने बड़े उत्साह के साथ अपनी पुत्री का विवाह वैवाहिक विधि के अनुसार श्रिपृष्टकुमार के साथ कर दिया । उस कन्या का स्वरूप अवर्णनीय था। अर्थात यह दूसरी लक्षमी ही थी। वस्तुत: पुण्योदय से दुलंभ वस्तु भी अनायास ही प्राप्त हो जाती है।
पुनः वह विद्याधर पति ने अपने जामात को सिंहवाहिनी तथा गरुड़ वाहिनी ये दो विद्यायें प्रदान की। पर इस विवाह की बात जब राजा अश्वग्रीव ने सुनी तो उसके क्रोध का ठिकाना न रहा । विद्याधर राजाओं को साथ लेकर यूद्ध के लिए प्रस्तुत हो राजा रथन पुर के पर्वत पर जा पहुंचा। इधर त्रिपृष्ट भी अपनी सेना सजाकर कुटुम्बियों के साथ पहुंच चुका था। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुमा । चक्री त्रिपृष्ट ने अपने बाहुबल के प्रताप से अश्वग्रीव पर विजय प्राप्त कर ली।
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लगत पाच गिर परत फेर उठके लरे। स्वामि काज निज धर्म विचार हिये धरै ।। विना शुण्ड गज कोइकः कटि कटिबी गिर। पैदल और तुरंग सबै वेघर फिर ॥११४॥ ज्यों बर्षात पाय नीर सरिता बड़े। त्यों रण सिंधू समान रकत लहर चहै ।। कायर वहि यहि जाय सूर पहिरत फिर। टूट-ट रथ कवच प्रोय धरनी गिरें ।।११।।
चौपाई होइ युद्ध इहि विधि अधिकार, लरै सुभटसों सुभट अपार । प्रतिहार केशव सन्मुख लरें, विद्या वेद परस्पर करं ॥११६।। प्रतिहरि हरि प्रति बाल्यौ एम, सुनरै बालक मो वच जेम । स्वयंप्रभा अब हमको बेऊ, निश्चल अपनी राज करेऊ ॥११७|| नातर अब छेदों तुभ काय, बीध्यौ हैं जम कातर पाय । कोपत मोहि सुरासर डर, भूपति को सम्मुख मुहि लर।।११।। तव केशव हंसि ऐसी कही, अनुचित बात कही तुम यही । नाम सम्हारन अपनी करै राजनकी क्या समसर करै ।।११।। विन लमाम तं चाहत ग्रीब, यातं बात कहत तज सीव । अश्वग्रीव यह सुनि परजयों, मानों अग्नि महावृत पयौँ ।। १२०।। तबहि चक्र कर लियो उठाय, सहस बार शोभा अधिकाय । दुर वच कहिषाल्यौ रिस पाय, चल्यो मंदगति अरुण सभाय।।१२१ बीन प्रदक्षिण तीनी ताय, फिर दक्षिण भज बैठयो प्राय । पुण्य पाप केशव को जान, तोन खण्ट लक्ष्मी वश मान ।। १२२।।
तिपाठ बोल्यो नरराव, मी पद नम तं निजपुर जाव । सुखविलास बहुमानन्द करो, हमरी प्राज्ञा निशदिन धरो।।१२३ अवयोव सन कोहि चढ्यो, मानो सिन्धु लहरसो बढ्यो । रे भूचर तं दीन अपार, गरजत कहा चूक मद धार ।। १२४।। को गोरख सहस नरेश, मोपद नमैं धर उपदेश । स्वयंप्रभा अब अर्को मोहि, नातर हनौं निरन्तर तोहि ।।१५।। तब त्रिपष्ट कोप्यो मन धोर, चक्र फिरायो अंगुल जोर। सत चूकं करवाई ताहि, घालप रिपु शिर छेदी जाहि १२६।। मतक भयौ, रौद्र ध्यान सौ नरक हि गयौ । बहु प्रारम्भ परिग्रह जोग, पूरब किये अशुभ तिन भोग ।। १२७॥
दोहा महा पाप के उदयसों, गयो सप्तमें भूर । संपूरन दुख तह सह, रहें सूक्ख सब दूर ॥१२॥
चौपाई
अब त्रिपष्ट जग में विख्यात, निजित जस पायौ अबदात । साध चक्र-रत्नकर जान, तीन खण्ड नरपति प्रस्थान ||१२३।।
राति भपति व्यन्तर देव, प्रणमें चरण कमल कर सेव । सार वस्तु सय अर प्राय, कन्यारत्न प्रादि सूखदाय ॥१३॥ विजयारधकी श्रेणी दोय, दीनी ज्वलनजटी को सोय । बहुत विभूति भई हरिगेह, दलखंड विधिवत मण्डित नेह।। १३१॥ दश दिश जीत भये श्रीमान, पुण्यवंत बहु जग परधान । अपने घर बहु लीला कर, त्रिया सहित सुखसौ ब्यौपरै ।।१३।।
अश्वग्रीव ही कब मानने वाला था उसने त्रिपुष्ट को मारने के उद्देश्य से शस्त्र चक्ररत्न को चलाया पर वह चक्र त्रिपष्ट के महान पुण्योदय से उनकी प्रदक्षिणा देकर उनको दाहिनी भुजा पर पाकर विराजमान हो गया। इसके पश्चात् त्रिपुष्ट ने भी तीन खण्ड की लक्ष्मी को अपने प्राधीन करने वाले अपने चक्ररत्म को अश्वग्रीव पर चलाया। उस चक्र से अश्वग्रीव की मध्य हो गई। बह रौद्र परिणाम तथा पारम्भ परिग्रह के फल स्वरूप मरकायु बांध कर मरा था, इसलिये वह बैद्धि महापाप के उदय से सातवें नरक में गया, जो समग्र दुःखों की खानि है । वहाँ सर्वथा दुःख हैं और वह घृणित स्थान है।
ढस यद में विजय प्राप्त कर लेने के कारण त्रिपष्ट की सारे संसार में ख्याति फैली। उसने चक्ररत्न से तीन खण्डवत राजानों को अपने प्राधीन कर लिया। विद्याधरों के स्वामी मागधादि राजाओं तथा व्यन्तरादि पतियों ने भयभीत होकर त्रिपष्ट को अपनी कन्याय तथा भेट में बहुमूल्य बस्तुएं प्रदान की। त्रिपृष्ट ने विजयाध के दोनों मोर के राज और उसकी ऋदियाँ रथनपूर के राजा ज्वलनजटी को सौंप दी और स्वयं बड़ी विभूति के साथ अपने नगर में प्रस्थान किया। पूर्व के
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अश्वग्रीव और ज्वलन जटी की सेना का युद्ध ।
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अघावती रानीविशाखामचरि जपत जायकवारनामे
विजय कुमार का जन्म ।
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रिजा कमार अपने पत्र को राज्य कर मन दीक्षा धारण की
कोरबार नामरण करकपनमन को प्राप्त हये।
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नरक नांव
दृ.न्य का वर्णन ।
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कुना ननुका ".
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नरक गति के दुःख का वर्णन
नरक गति के दुःख का वर्णन ।
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पूर्व विपाक तनी फल जान, सप्त रत्न आलंकृत मान । भूचर खेचर व्यंतर देव, सोरह सहस करें नृप सेव ।। १३३॥ सोरह सहस भूपकी सुता, परणी रूप कला संयुता । विविध भोग भुगत सुकुमाल, सुखसों जात न जानौं काल ।।१३४।। मरण अयंत रम्यौ जगमाहि धर्मदान विधि जान्यों नांहि । ज्यों दिन अन्ध उलूका होइ, भानु उदोत न जानै सोइ ।।१३।। वह प्रारम्भ परिग्रह घोर, श्वभ्रवास पायौ ता जोर । विषयन में आसक्त अपार, बांधो दुर लेश्या दुखकार ||१३६।।
दोहा
छोड़े प्राण शरीरत, रौद्र ध्यान सों घोर । पूरब पाप विपाक कर, गयो सप्तमें घोर ॥१३७॥ कथा तहाँ के कष्ट की, को कर सके बखान । भुगतं सो जानै सही, के जान भगवान ।।१३।।
सामान्य नरक वर्णन
दोहा घटाकार घिनी जहां, अन्ध अधोमुख होई । सम्पूरण तन ऊपजे, अन्तर घटिका दोइ ।।१३६॥ तल शिर ऊपर पाँव है, पर भूमि में प्राय । बौछु एक हजारत अधिक वेदना पाय ॥१४०।। उलछत जोजन पांचर्स, नरक सात में मांहि । विषम वज्र कष्टमयी, परें भूमि फिर प्राहि ।।१४१ ।। देख तासको नारकी, मारै निरदत होय । पूर्ण असाता के उदय, चिन्तै मन में सोय ॥१४२।। कौन भयानक भूमि यह, सब दुख थानक निंद । रौद्रवरण ये कौन हैं, वेदना दाइक विन्द ।।१४३।। को मैं कह पायो इत, एकाकी सुख नाहि । कौन कर्म यह ऊपज्यो, भूमि भयानक माहि ॥१४४॥ इत्यादिक चिन्ता करत, अवधि विभंगा पाय । शवभ्र कप जानौ पयौं, निज परको दुखदाय ।।१४।। पूरब रस लोलुप हती, भाषे वचन लवार । लग नरन को कटुक सम ज्यों असि प्रति दुखकार।।१४६।। पर त्रिय आदिक वस्तु जे, सेई हटकर जोय । परधनमैं सब हर लियौ, पापबंध जिय होय ॥१४७।। मैं अखाद्य खाई सवै, पीई जिती अपीय । अरु असेय सेई हतों, सौ अब यह दुख लीय ॥१४८।।
उपार्जन किये पुण्योदय के प्रताप से चकादि सप्त रत्नों से शोभायमान तथा सोलह हजार विद्याधरों से नमस्कृत वह प्रथम केशव (नारायण) त्रिपृष्ठ सोलह हजार राज-कन्याओं के साथ विभिन्न प्रकार के भोगों का उपभोग करने लगा 1 किन्तु उसकी भोग-लिप्सा यहाँ तक बढ़ गयी कि, उसमें धार्मिक प्रवृत्ति नाम मात्र को नहीं रह गयो । वह धर्म-पूजा दानादि का नाम भी नहीं लेता था । अतएव उसने भारम्भ, ममता, परिणाम आदि विषयों में लीन रहने के कारण खोटी लेश्या और रौद्र ध्यान से नकरायु बांध लिया और मृत्यु होने पर वह सातवें नरक में गया।
नरक तो घृणित होता ही है। वहाँ इसका जन्म औंधे मुहहया पीर दो घड़ी में ही पूर्ण शरीर हो गया। इसके पश्चात् त्रिपृष्ट का जीव उस स्थान से नरक की भूमि पर गिरा। उसके स्पर्श होते हो उसने चिल्लाना प्रारम्भ किया। जिस भूमि के स्पर्श से हजार बिच्छुमों के काटने जैसी पीड़ा होती है, ऐसी पृथ्वी के स्पर्श से दुःखी हुमा वह जीव १२० कोश ऊपर कछल' कर पुनः पत्थर और कांटों से भरपूर पृथ्वी पर गिरा । तदनन्तर वह दोन मारने पाये हुए नारकीयों को देखकर तथा भावी महान कष्टों की कल्पना कर ऐसा विचार करने लगा---
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सोरठा परब कीनों पाप, सो निहचै वरी भयौं । घातक जानों पाप, और बहत कहिये कहा ।।१४६॥ सुरग मुकत दातार, परम धरम जानों नहीं। पाल्यो व्रत न लगार, सो निहचै अब भोगउ ॥१५॥ किंचित तप नहि कीन, दान सुपात्रै ना दिया। जिन पूजा कर हीन, अशुभ कर्म पोते परै॥१५॥
दोहा संपूरण ते पाप सब, भुगते सब इहि थान । तीब बेदना चित सब, पूर्व पाक सो जान ॥१५२।। कहँ जाऊँ कासौं कहूं, शरण न दोस कोई। काको पूछी बात इह, को रक्षक मुझ होइ ।।१५३।।
चौपाई
इत्यादिक चिन्ता आजी. पश्चाताप करै मन घनी। तावत दग्धमान तब भयौ, अति दुखसौं पीडित उर ठयौ ।।१५४|| तावत ततछिन आये तहां, पापवन्त नारक जिय तहां। मुद्गर आदि कर बहु मार, नूतन नारकि नैन निहार ।।१५५।। क्रोधवन्त कलही सब जान, नेत्र फुलिंग महा दुख खान । पाले कुन्त कृपाण कमान, देख खिरै पारे परवान ॥१५६।। काट कर अरु छेदै पाय, भेदै चरम तीन दुखदाय । अन्त्र मालिका तौरें कोइ, देह विदार इहि विधि सोय ।।१५७|| पल फिर कोलमें घाल, ताते तैल तपाव हाल । पकर पाय पटके भू मांहि, कटक लेश होइ अधिकाए ।।१५।। मुलीपर धर दैहि उठाय, घसिट कंटक तरु सों जाय । तब पुकार कानो बहु जोर, घावनसों पीड्यो तन घोर ॥१५६।। सर्व अंग दग्धौ ता तनौ, अगनि समान ज्वलित अति घनी। वैतरणी जल पैठौ जाय, शान्त देह तह दुख अधिकाय ॥१०॥ तास वारि वारू' दुर्गन्ध, भग्यो वहां से हिरदै अन्ध । असिकपत्र बन पहंचौं ताम, शोकवन्त लीनौ विधाम ॥१६१॥ वायु जोर तीक्षण असिपत्र, छौड़ें तरुभय करता सत्र । छिन्न-भिन्न खंडिल तन पाइ, रकत चुचात भन्यो अकुलाइ ।।१६२॥ पर्वत अन्तर गयौ तुरन्त, लं विश्राम हिये भयवन्त । धरै नारकी तहां विक्रिया, बाघ सिंह आदिक दुर घिया ॥१६३|| केई गिर ते देह गिराय, केई भूमि मध्य सों प्राय । खण्ड खण्ड ततच्छिन तन होय, कायर चित्त शरण नहि कोय ॥१६४|| केई जकर जंजीरन डार, सुध करायकै कैयक मार। लोह तनी लाती पुतली, लाय लगावें तनसों खली ।।१६४।। परभव कीनी प्रीति अपार, पर कामिनसों हठ हिय धार। कोई खेंचि खंभसों बांध, बहु प्रकार प्रायुधको साध ॥१६६।। लोचन दोषी ताको जान, लोचन लेइ निकार अजान । मदिरापानी पूरब पियौ, ताते ताम्र प्रोट मुख दियौ ।।१६७।। परभव पल भक्षण के पाप, तोड़ ताड़ तन खाते पाप । केई पूरब याद दिवाय, केई धाय संग्राम कराय ॥१६॥
बड़े ही पाश्चर्य की बात है कि, ऐसी घणित यह भमि कौनसी है: जिसमें दुःख ही दुःख दृष्टिगोचर हो रहे हैं । दे नारकी कौन हैं, कष्ट पहुंचाने में बड़े प्रवीण हैं । मैं कौन है? जो यहाँ अकेला पा गया है। वह कौन सा बुरा कर्म है जिसके कुफल स्वरूप मुझे यहाँ तक आना पड़ा। इस प्रकार विचार करता हया त्रिपष्ट का नारकी जीव करुण क्रन्दन करने लगा। उसे विभंगा अवधि (खोटी अबधि) उत्पन्न हई। उसने विचार किया--- अहो, मैंने पूर्व जन्म में अनेक जोबो का हत्या की। दूसरी का कठोर तथा खोटे वचनों द्वारा निरादर किया है। अपने स्वार्थ के लिए पराये धन तथा पराई स्त्रियों तक का अपहरण किया है। इस प्रकार मेंने कितना धन एकत्रित किया। मैंने इन्द्रिय तप्ति के लिये खाद्य पदार्थ खाये, असेवनीय पदार्थों का सेवन
र पदाथा का पान किया, इसलिये वे ही सब कूकार्य मूझे नष्ट करने वाले हैं। दुःख है कि मैने स्वर्ग मोक्ष प्रदान करने वाला परम धर्म को धारण नहीं किया तथा कल्याणकारक अहिंसादि व्रतों का भी पालन नहीं किया। साथ ही न कोई तप किया, नपानदान दिया यार न जिनेन्द्र देवकी पूजा ही की। अर्थात एक भी शुभ कार्य करने के लिए तत्पर नहीं हमा।
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मरक गनि के दुःख ।
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नरक गति के दुःख का वर्णन ।
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नरव गान के दुख का वर्णन
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इहि विध नरक चैन पल नाहि, तपै दुख दावानल माहि । मार मार मिश दिन सौ कर, क्षेत्र महा दुरगन्धा धरै ॥१६॥ सर्व समूद जलको जो पाय, पीवत नाहीं प्यास बुझाय । लहै न पानी बून्द समान. दहे निरन्तर तनदुख खान ॥१७॥ मकल अन्न जो पावै सोय, तौभी भूख न उपशम होय । निल समान आहार न लहै, बहु प्रकार के दुख को सहै ॥१७॥ बात पित्त कफ आदिक रोग, प्रायु अन्त हिरदै मैं शोग । कटु तूमो सों काटुरस फांस, त्यों मृत जोग शरीर कुवास ।।१७२।। लोह पिप जोजन इकलाख, डारत हाय क्षिन में खाख । जैसी है अति उष्ण मुभाय, तेसो शीत कहो जिनराय ॥१७॥
दोहा
पंकप्रभा पर्यन्त लौं, बाही उष्णता सोय । धूमप्रभा में जानिये, शीत उष्ण पदोय ।।१७५|| छठी सातमी भूमिमें, केबल शीत सुमाय।ताकी उपमा कोन है महा विपनि अधिकाय ।।१७।। महा दुःख इत्यादि सब, मन बच काय प्रचण्ड । क्षेत्रतनों परभाव यह देइ परस्पर दण्ड ।।१७६३। रौद्रध्यान नश्या किसन, आगु समुद तेतीस । धनुष पांचस तुग तनु, वरन्यो श्री जिन ईश ।। १७७।।
चौपाई
अब बलभद्र मोहवश जास हरि वप लिये फिरौ छह मास । देव मान सम्बोधं जब, निहनीकरण पाइयो तब ।।१७।। ता वियोग सो विजयकुमार, पुष्यवन्त बुधवन्त अपार । राज्यभार निज सुतको दियो, गुरु पंपापु महानत लियो ।॥१७॥ दुविध प्रकार नियो "प घोरएक यानादी शसि जातिकर्म रिपुरेदी ताम, भये अनन्त चतुष्टय नाम ||१८० देव संघ अचिन सो भये, पीछ पंचम गति को गये । निरूपम निराबाध अविकार, तीन लोक बंदन जगतार ॥१८॥
यही कारण है कि पूर्व के महान पापों के उदय से प्राज मेरे समक्ष सारी विपत्तियां आ खड़ी हुई हैं। मैं अत्यन्त दःखी हैं। अब मैं किस की शरण में जाऊं तथा इस स्थल पर कौन मेरी रक्षा करेगा।
इस प्रकार को चिन्तायों से युक्त श्रिपट का जीव अभी करुण कन्दन हो कर रहा था, कि उसके सामने प्राचीन नारकियों का एक बड़ा दल पा गया । वे एक नवीन नारकी को देखकर इसको मुद्गर आदि तोहण शास्त्रों से मारने लगे। कोई दुष्ट उसके नेत्र निकालने लगा, काई मंग फोड़ने लगा, कोई आंते निकालने लगा। इस प्रकार वे निर्दयी उसके शरीर के टकडेटकई कर कढ़ाई में प्रोटाने लगे । गर्म कढ़ाही में डाल देने के बाद उसका शरीर जल गया, जिससे उसे बड़ी दाह उत्पन्न हई। उस दाह की शान्ति के लिए उसने वैतरणी नदी में डुबकी लगायो । वहां जल के खारेपन और उसकी दुर्गन्धि से वह और भी व्याकुल हुना । पश्चात् वह बिधाम करने लिए प्रसिपत्र बन गया। पर वहां कौनसा सानिमय स्थान था। वहाँ तलवार जैसे तीक्ष्ण बक्षा के पनों से उसका शरीर छिन्न-भिन्न हो गया। इस स्थान की भयानक ज्वाला से दु:खी हो वह खण्डित शरीर वाला मारकी शान्ति प्राप्त करने के लिये पहाड़ की गुफाओं घुमा । वहां भी कर नारकियों ने विक्रिया के जोर से सिंह का शरीर धारण कर उसे खाना प्रारम्भ किया।
इस प्रकार कवियों की कल्पना से भी परे उपमा रहित दुःखों को वह भीगने लगा। यद्यपि उसे ऐसी प्यास लगी थी जो समुद्र से भी वुझने वाली नहीं थी, पर उसे एक बूद भी जल नहीं मिलता था। संसार भर का अन्न खाकर भी तुप्त न होने वाली भूख से पीड़ित होने पर भी उसे एक दाना भी प्राप्त नहीं था उस स्थान पर इतनी शीत थी कि यदि लाख योजन के प्रमाण का एक गाला वहाँ डाल दिया जाय तो शीत बर्फ में उसके सैकड़ों टुकड़े-टुकड़े हो जायगे । इस प्रकार के दावों को भोगता हुआ वह नारकी उस क्षेत्र में उत्पन्न हुअा जो पांच प्रकार का है। उसे कृष्ण लेश्या परिणाम दुख देने वालो तेतीस सागर की प्रायु मिली।
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गीतिका छन्द यह भांति सुचरण जोग करके, भोग भूगते अतिधनै । फिर, जगत अचित भए निहत्रे, मुक्तिपद पायौ तितं ।। कुचरण विपाक जु पादयौं, हरि सप्तमै थानक पयौँ । सो जान भवि सम्यक्त्व दृढ़, मन मार सुचरण प्राचयौं ।। १८२॥ दुखनाशक मुक्ति दाइक, कर्म अरि विध्वंसकं । अन्त ते जु अतीत गुणनिधि, भवहरण पददंसके ।। सुर मुक्ति सुखकर शरण सबको, जगतपति अचित हिये । निज धर्म करतातीर्थ प्रतिमन, "नवलशाह" प्रणामियी ॥१३॥
इधर त्रिपष्ट नारायण के वियोग से दुःखी होकर अत्यन्त पुण्यवान बलभद्र ने समस्त परिग्रहों का परित्याग किया तथा सांसारिक मुखों से विरक्त होकर जिन-दीक्षा धारण कर ली। वे मुनिराज जिनेन्द्र भगवान मुख को पवित्र जिनबाणी का अध्ययन करने लगे : 'उनकी धर्म-निष्ठा बड़ी प्रबल हुई। उन्होंने प्रक्षेकय म रिन्द्रमःTI- का धार्मिक सन्देश सनाया और मोक्ष-सुख प्रदान करने वाला उपदेश दिया । वे मुनि संघ के साथ वन, पर्वतों और सुरम्य देशों में विहार करने लगे।
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चारणऋद्धिधारी मुनि गुणसागर जी सिंह को पूर्व भव का उपदेश दे रहे हैं।
जंगल में सिंह हिरण को पकड़े है । उसी समय आकाश मार्ग से जाते
हुये मुनिराज ने जान लिया कि यह सिंह मारीच का जीव मागे तीर्थकर होने वाला है, नीचे उतर कर सम्बोधन दे रहे हैं।
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श्री जिन मंदिर एवं श्री मुजसागर मुनिराज द्वारा सिंह को पूवंभव का उपदेश ।
श्री जिन मंदिर एवं श्री गुणसागर निराज द्वारा सिह को भय का उपदेश ।
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चतुर्थ अधिकार
मंगलाचरण
दोहा
मुकति वधपति वीर जिन, त्रिजग स्वामी सोय । गण अनन्त सो हैं विमल, नमों कमल पद दोय ॥१॥
चौपाई
दुखसौं नारक बहु दिन गये, आयु अन्तकर तहते चये । सिंह नाम गिरि वनमें आय, घरी तहां सिंहा पर्याय ॥२॥ हिसा ग्रादि कर्म जे क्रूर, कोने बहुत धर्मधर दूर । तास उदयसौं तह ते चयो, रत्नप्रभा पृथिवी फिर गयो ।।३।।
ऐहिक और अनन्त सुख, करते सदा प्रदान।
करे सिद्ध शुभ कामना, बीरनाथ भगवान ।। जो ऐहिक और पारलौकिक सुख प्रदान करने वाले हैं, जिनके पादपद्मों की सेवा इन्द्रादि देवगण किया करते हैं, उन जिनेन्द्र भगवान की मैं भक्ति-भाव से वन्दना करता हूं।
पश्चात् त्रिपुष्ट का जीव नरक की यातनायें भोन कर पुनः इसी भारत में पशु योनि में पाया। गंगा तट पर एक विकट वन था। वन चारों ओर वनसिंह, गिरि की विशाल पर्वत मालायें थी। वह नारको जीव' इसो गिरि पर सिंह के रूप में उत्पन्न
पशु गति १. नरकों के महादुःख वर्षों तक सहन करने के बाद मुझे इसी भारावर्थ में गंगा नदी के किनारे बनसिंह के पहाड़ों में शेर की योनी प्राप्त हुई। यहां भी अनेकों जीवों की हत्या करने के कारण रत्नप्रभा नाम के पहले नरक में गया। वहाँ के दुःख भोगने के बाद सिंघुकूट के पूर्व हिमगिरि पर्वत पर फिर सिंह हुआ । एक दिन शिकार करने के लिए उसके पीछे भाग रहा था कि उसी समय अजितंजय और अमितसेज नाम के दो चारण मुनि वहां आ गये। उन्होंने दोर से कहा कि पिछले जन्म में तुम शेर ही थे जीव हत्या करने के कारण तुम्हें वर्षों तक नरक के महा दुःम भोपने पड़े । यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो जीव-हत्या तथा मांस भक्षण का त्याग कर दो। पोर ने कहा कि मांस के सिवाय मेरे लिये और कोई भोजन नहीं है । अमिततेज नाम के मुनिराज ने कहा-"दिगम्बर पदवी को त्याग कर तुमने श्री ऋषभदेव के बचनों आदि का अनादर किया था। इसी मिथ्यात्व के कारण जन्म-मरण, नरक आदि के अनेक दुःख सहने पड़े । अपने एक जीवन की रक्षा के लिए अनेक जीत्रों का घात कैंस उचित है ? पिछले पापों के कारण तो तुम आज गगुगति के दुख भोग रहे हो, यदि अब भी मिथ्यात्व को दूर करके सम्यग्दर्शन प्रायन न किया तो इस आवागमन के चक्कर से न निकल सकोगे।" मुनिराज के उपदेश से मगराज की आंखें खुल गई। आत्मा की वाणी को आमा को न समझे ! सिंह की यात्मा में भी ज्ञान तो था, परन्तु ज्ञानावरी कर्म के कारण वह गुण ढका हुआ था। योगीराज अजितंजय ने उसका परदा हटा दिया, सिह को पहले जन्मों की याद आ गई जिससे उसका हृदय इतना दुनी हुआ कि उसकी आंखों से टप-टप आंसू पड़ने लगे। दिकार से उमे पृणा हो गई । उसने तुरन्त ही मांस-भक्षण तथा जीव-हिसा के त्याग की प्रतिज्ञा कर ली। मुनिराज के वचनों में पूरा श्रद्धान करने से उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया । सम्यग्दर्शन से अधिक कल्याणकारी वस्तु तो सारे संसार में कोई नहीं है, हर प्रकार के संसारी सुखों तथा स्वर्ग की विभूतियां का तो कहना ही क्या है, मोक्ष तक के सुख बिना इच्छा के आप से प्राप ही प्राप्त हो जाते हैं।
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महा:दुख पायो तिहि ठौर, पीडं बहुत जाय कह दौर। दुष्ट कर्मको भोगति भये, कछु काल में तहाँ से चये ||४|| भरतक्षेत्र के पूरन दिश जान, सिद्धकूट हिय वन गिरि जान । मृगपति भयो तहां तें प्राय, तीक्ष्ण दन्त दुष्ट दुखदाय ॥१॥ एक दिना गुग मत तादि, देखो कृपानात मुनि. नादि । चारण ऋद्धि तृप्त सुखधाम, गुणाक्षीण गुणसागर नाम ॥६॥ जिनवर भक्ति जानकर सही, उतर गगन से आये सही। शिला पीठ पर बैठे सोय, कृपावन्त चारण मुनि दोय ॥७॥ मगाधीश घायो मुनि पास, वचनामत सम्बोध्या तास । भो भो भव्य पशुन के राज, मो वच सुनो प्रात्मा काज ।।८।। भिल्लपती पुरवभव जान, भयो धर्म लेशक तुम ज्ञान । फिर सौधर्म स्वर्ग तुम ग, शुभके उदय तहां ते चये ।।६।। भरत चक्रपति सुत सौ जान, नाम मरीचिकुमार महान । वृषभनाथ स्वामी के साथ, दीक्षा ग्रहण कियौ सुख सार्थ ॥१०॥
पद्दरि छन्द 'द्वाबीस परीषह भय अपार, तज जिन मारग संसार सार । गहियो पाखण्डो वेष कर, दुर्गति को करता अधम पूर ॥११॥ बुभ मारग दूपणको प्रवीन, दुरमारग वध विन मलीन । तब आदिनाथ सतके भरोच, धारो कुदृष्ट ता बुद्धि नीच ॥१२॥ तन्मिथ्या उदधि विपाक पाय, जम्मादि मरण पीडौ जू आय । भवसागर भ्रमिया बहकाल, सहियो कुकर्मसों दुःस्त्र जाल ॥१३॥ हं इष्ट वस्तुसी अति वियोग, संजोग दुष्ट आतम विरोग । सम्पूर्ण असाता पराधान, लहि और चिरन्तन निन्द दीन ।। १४॥ कहूं पुण्य उदयवो हेत पाय, राजग्रह विश्व सुनन्द राय । तहं संयम जोर निदान बांध भूपति त्रिपृष्ठ त्रय खंड साध ।।१५।। तह विविध भोग भुगते अपार, सुत नारी हय गय रथ भंडार । कछु दया धरम व्रत गरौ नाहि अतिरुद्रध्यानसों मरण पाहि।।१६।।
दोहा
महा पापके पाक ते, विषम अन्ध बुध हीन । गयौ सप्तमी अवनिसों, दुःख तहाँ बहुलीन ॥१७।। तहं ले वैतरणी नदी, करत प्रवेश पुकार । तुम पूरब भवदुख सहै, पापतन अधिकार ॥१८॥ असीपत्र तरु के तर, बैठत छोड़े प्राण । तप्त लोहको पूतरी, भंटावें तब आन ॥१६॥ पर बनिता के दोषतें, बांधे बन्धन जोर । करण ओष्ठ अर नासिका छेदी बहु विधि घोर।।२०।। कीनी हिंसा जीव की, तातै खण्डी देह। शूलों पर पुनि रोपियो, दीन पातमा गेह ।।२१।।
हुया । यहाँ इसकी आयु एक सागर पर्यन्त हुई और पशु प्रवृत्ति के कारण हिंसा आदि कार्यों में रत हुआ। पर काल लब्धि प्राप्त होने पर उस हिसक जीव सिंह का शरीर पात हो गया। उसने पुनः पश्योनि धारण की। इस बार भी सिन्धु कूट के पूर्व हिमगिरि पर्वत पर सिह उत्पन्न हमा। पूर्व संस्कार के कारण सिंह बड़ा हो र स्वभाव का हुआ। उसके नख और दाँत बड़े ही 'तीक्ष्ण हुए। - एक दिन की घटना है। वह सिंह वन से एक मग को मार कर लिये पा रहा था। वह बार-बार मृग के मांस को नोचता था और उसे भक्षण करता जाता था। उसी समय ज्येष्ठ और अमित तेज नामक दो चारणमुनि आकाश-मार्ग से कहीं जा रहे थे। उन्होंने उस क्र र स्वभावी को देखा। उन्हें तीर्थंकर भगवान के पूर्व बचनों का स्मरण हो पाया। वे दोनों महामुनि पृथ्वी पर उतरे और सुरम्य शिला पर पाकर बैठ गये।
उस समय उन मुनिराजों की शोभा देखते ही बनती थी। सिंह भी थोडी दर पर खड़ा था। कुछ समय बाद खड़ होकर अमिततेज नाम के मुनिराज ने कहा-अरे मगराज! त मेरे बचनों को ध्यान देकर श्रवण कर | जिस समय त्रिपुष्ट नरेश के रूप में था, उस समय समस्त राजा तेरे आश्रय में थे। तू ने राज्य लाभ की आकांक्षा से हिंसादि कार्यों को किया था और धर्म-दान आदि कार्यों की उपेक्षा की थी। केबल यही नहीं तूने श्रेष्ठ मार्ग को दोष लगाकर मिथ्या मार्ग को बढ़ाने में सहायता पहुंचाई थी, ऋषभदेव के वचनों का भरपूर अनादर किया उसी मिथ्यात्व से उत्पन्न पापोदय से जन्म मृत्यु से पीड़ित होकर तुझे अनेक दुःख भोगने पड़े । इप्ट वियोग तथा अनिष्ट संयोग से अनेक वेदनाय सहन करनी पड़ी हैं। पुन: उसी मिथ्यात्व रूपी महान पाप से तू विभिन्न स्थावर और स योनियों में भटकता रहा।
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श्री मुनिराज सिंह को उपदेश दे रहे हैं।
श्री मुनिराज के वन में तप करते समय जंगल के सब प्राणी अपने बैर-भाव को छोड़ कर श्री मुनिराज के पास में
संचार कर रहे हैं।
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श्री मुनिराज के उपदेश को ग्रहण कर सिंह नम्रता पूर्वक
व्रत ग्रहण कर रहा है।
मुनि के तप के प्रभाव से सिंह शांत भाव धारण कर
मुनिराज को प्रदक्षिणा दे रहे हैं।
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गुणरागिर मुनिराज द्वारा सिंह को उपदेश ।
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धी मुनिमहाराज के उपदेश से सिंह को ज्ञान उत्पन्न हो गया और उसके भोजनादि का त्याग कर समाधि मरण धारण पर लिया ।
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इत्यादिक सह विविध दुख, भई कंदर्पन धोर । प्रशरण नित पी. वहुत, कहो कहां लौं सोइ ॥२२॥ नरक प्रायु क्षयकर तुही, खोटे कर्म उपाय । परावोन मृगपति भयौ, पापवन्त दुखदाय ॥२३|| शीत उष्ण वर्षादि ऋतु, क्षुधा प्यास के जोर । कर कर्म कोने अशुभ, बांधि बंध यि घोर ॥२४॥ प्राणी हिंसा के उदय, दुख विपाक अंकूर । प्रथम पृथिवी तुम गये, रहैं सुक्ख सब दूर ।।२५।। तहं तें चय तुम ऊपज, धरी सिंह परजाय । क्रूर पराश्रम करत हैं, पूर्व दुःख विसराम ।।२६।।
चौपाई
इहि प्रकार मिथ्या चिरकाल, भटकं बहु विध भव विध जाल । हालाहल पीवत सुध जाय, सम्यक् बुद्धि हिय विसराय ।।२०॥ अहो वत्स ! दुर्गति को वास, छोड़ो कार्ज पराक्रम जास । अनशन गहो विविध परकार, व्रत पूरव के अर्थ विचार ॥२८॥ भरतक्षेत्र यह प्रारज ठाम, हही दश में भव सुख धाम । अन्तिम तीर्थकर. गुण धीर, बर्द्धमान स्वामी वर वीर ॥२६॥ जंबद्वीप सु पूर्व विदेह, सीमंधर जिनपति गुण गेह । श्रीमुख दिव्य कथा मैं सुनी, भावी तुम पाने सब भनी ।।३०॥ मनिके बच सुन इह परकार, जातिस्मरण उपजी सार । जानौ भवसागर दुख धोर, मर्व अग कंप्यो भय जोर ||३१|| दूठ परिणाम दूर सब रहै, शान्त चित्त सों मुनिपद गहै । अथ पात बहु कीनी तहां, पश्चात्ताप ग्रादि हरि जहां ॥३२।। फिर मुनि सौं मृगपति इम कही, सम्यवृद्धि भाषिये सही । शांत तरंग प्रातमाराम कहत भये मुनि कृपा निदान ।।३३।।
धर्म कल्पतरु मूल है, वजित शंका दोष । मुक्ति प्रथम सोपान सो, बुध नर सम्यक पोप ॥३४॥ कल्याणक करता जगत भव भव सुक्ख अपार । अहंद आदिक पंचपद, होत धर्म मौं सार ||३५11
चौपाई
दरशन सम ते धर्मजू और, भयों न ह है जगके ठौर । वर्तमान नाहीं है अब, कल्याणक को साधक सबै ।। ३६।।..." मिथ्या सम नहि पाप अपार, भयो न भावी दुख दातार । तीन लोक में अनरथ बन्ध, दुरमारग धारी नर अन्ध ।।३।।।।' सप्त तत्व को श्रद्धा कर, निःसन्देह जिनागम धरै । दर्शन ज्ञान चरण अभ्यास, गही सुबष करता सन्यास ।।३।।
किसी कारण वश तू पुनः किसी राजा के यहां उत्पन्न हुआ । वहाँ तेरा नाम विश्वनन्दी गड़ा । नू ने पुनः संयम.धारण, किया और त्रिपष्ट नाम का नारायण हुआ। आगे तू इसो भरत क्षेत्र में जन्म धारण कर संसार हित करने वाला चौबीसवाँ, तीर्थकर होगा, यह सर्वथा सत्य है । कारण जम्बरोप के पूर्व विदेह में एक बार किसी ने श्रीधर नामक तीर्थकर से पछा था कि
भावन। जम्बदीप के भरत क्षेत्र में जो चौबीसवां तीर्थकर होगा, उसका जीव आजकल किस स्थान पर है। इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने जो कुछ कहा था, उसे मैंने तुझे सुना दिया। अतएव अब तुम संसार के कारण ऐसे मिथ्यात्व को हलाहल समझ कर त्याग दो, और सम्यक्त्व को ग्रहण करो। सम्यक्त्व धर्मरूपी कल्पवृक्ष का वीज है। वह मोक्षमार्ग का प्रथम सोपान है। ऐसे शुद्ध सम्यक्त्व को धारण करने से तुम्हें तीनों संसार की विभूति, तीनों जगत में होने वाले चक्रवर्ती आदिकों के संवत अहंत पद जैसे सुख उपलब्ध होंगे।
वस्तुतः सम्यक दर्शन के समान न तो कोई धर्म है, न होगा। वह सम्यकस्व ही कल्याण का साधक है। पर मिथ्यात्व में समान तीनों लोको में दूसरा पाप नहीं है । अतएव यह मिथ्यात्व हो सारे अनर्थों को जड़ है। उस सम्यकत्व की प्राप्ति जोवादि सप्त तत्वों के श्रद्धान से तथा सर्वज्ञ देव सदग्रंथ और निग्रथ और गुस्यों के श्रद्धान से होती है, जिसकी प्राप्ति से ही ज्ञान चारित्र को सत्य कहा जा सकता है। यह कथन भगवान जिनेन्द्र देव का है । अतएव तुम्हें चाहिये कि सम्यक्त्व के साथ उत्कृष्ट श्रावक
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तजियो जीव घात दुख राश, जातें होइ स्वर्ग सुख वास । यह सब व्रत आश्रव उस्कृष्ट, दोष रहित हित कर्ता इष्ट ।।३।। जो संसार भ्रमण भय खाय, रुचि सौं सम्यक् मार्ग घराय । दुरमारग छोड़ो दुखदाय, इहिभव परभवा दुख अधिकाय ।।४०।।
दोहा इहि विधि मुनि मुख चन्द्रमा, उद्भव' वचन विख्यात । धर्म सुधा रस के पियत, बम्यौ कुविष मिथ्यात ।।४१।। वार वार परदक्षिणा, दीनी हरि मुनि पास 1 शिर नवाय बन्दन कियो, श्रद्धा हिय घर जास ।।४।।
चाल छन्द
तत्वारथ श्रद्धा कीनी, श्री जिनवाणी लव लीनी । सम्यक्त्व धरौ जिन अंग, व्रत पाल रहित जु संग ।।४३॥ संन्यास सहित तन खीनी, आहार न पानी कोनौ । सब संचित विजित सोई, हिय शान्त सुसंजम होई ।।४४।। सुध प्रादि परीषह धारी, नित सहत सुधीरज धारी। सब जीवदया को पाल, तनु नेक न इत उत घाल ।। ।। हारि चिन्त धर्म सुध्याना, घात दुठ कर्म कुज्ञाना । धारयो तन निश्चल अंग, थिर चित कर पाप निभंग ॥४६।। जाचत नहि जीव सहाई, व्रत प्रचुर किये हरिराई । संन्यास सहित तज प्राना, हिय शुद्ध समाधि निदाना ।।४।
दोहा द्भत फल स्वर्ग सुधर्म में, सिंह जीव तहं जाय । सिंहकेतु नामा अमर, महाऋद्धि अधिकाय ॥४८।।
चौपाई
- जन्मसो भयो, अन्त मुहरत जोवन लयो । संपूरण तन पायो त, अचरजवान हुनी हिय जवै ।।४।। ततक्षण अवधिज्ञान को भनी, जानो व्रत फल पूरब तनौ । धर्मध्यान माहात्म्य अपार, सम्यक्मति दृढ़ गहियो सार ||५०।
वनों को धारण करें और अन्तिम काल में संन्यारा व्रत ग्रहण कर प्राण त्याग कर। तुम अन्य सब प्रकार के हिसादि पापों का परित्याग कर दो। अब तुम्हें संसार में भटकते रहने का बिलकुल' डर नहीं रहा, अत: बुरे मार्ग का सर्वथा परित्याग कर शुभ मार्ग ग्रहण करो।
मित योगी के मुख कमल से प्रकट हुए धर्मरूपी अमृत का पान कर त्रिपृष्ट के जीव सिंह ने मिथ्यात्य रूप विष को उगल दिया। इस कारण वह अब शुद्ध चित्त हो गया। पश्चात् उसने दोनों मुनियों की परिक्रमा कर तथा उनके चरणों में मस्तक टेक कर देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान रूप सम्यक्त्व ग्रहण किया तथा समय पाकर उसने संन्यास व्रत के साथ-साथ परतवतों को ग्रहण किया। पूर्व में इस सिंह का भोजन मांस के अतिरिक्त दूसरी वस्तु नहीं थी, इसलिये उसे व्रत धारण सोही कठिनाईयों का सामना करना पड़ा । फिर भी उसने बड़े पर्य के साथ व्रतों का पालन किया। प्राचार्य का कथन है कि वह कौनसा कार्य है, जो होनहार आने पर नहीं होता अर्थात अपने पाप हो जाता है।
दोनों मनियों के उपदेश से प्रभावित वह सिंह शांतचित्त वाला और प्रत्यन्त संयमी हो गया। उसे देखकर ऐसा प्रतीत होने लगा कि चित्राभका सिंह है। वह भूख प्यास आदि सारी वेदनामों को सहन करते हुए भी संसारको दु:खमयी स्थिति पर सर्वदा विचार किया करता था। धैर्य पूर्वक समस्त जीवों पर दया भाव दिखलाता हया, वह पात रौद्र ध्यानों को छोडने लगा पन: पापोंको नष्ट करने वाला धर्म-ध्यान और सम्यक्त्व आदिका चिन्तवन करने लगा।
इस प्रकार उस सिंहने जीवन पर्यन्त व्रतोंका पूर्ण रूपसे पालन किया । अन्त में समाधि मरण द्वारा उसको मत्यहई। ताहिकों के फलस्वरूप सौधर्म नामके प्रथम स्वर्ग में महान ऋद्धि धारी सिंहकेतु नामका देव हया। उसे दो घड़ो के अन्दर
निमा के त्याग और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का फल यह हुआ कि मर कर वह सीधर्म नाम के पहले स्वर्ग में सिंह के नाम का महान अद्धियों का धारी देव हुआ। जहाँ से वह अकृत्रिम चैत्वालय में जाकर श्रेष्ठ तथ्यों सहित अन्त देव की पूजा किया करता था। मगध लोक नन्दी श्वरादि द्वीपों मे जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं की पूजा तथा मुनियों की भक्तिपूर्वक बन्दना करता था।
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मुनगुणशखर
गुणसागर मुनिराज ने मिह को गनेश दिया ।
सिह का जीव समाधिमरण कर सौधर्म स्वर्ग में
सिंह केतु नामक देव हुा। -
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गजा नमित्र और गनी मृबना
गनी सुबता से प्रियमित्र कुमार का जन्म और
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अमृत वापिका न्वहन कराय, देविन सहित जिनालय जाय । रत्नमयी तह प्रतिमा देख, हिय उमगायो हरष विशेख ।।५।। प्रष्ट द्रव्य से पूजा करी, भक्ति विनय पूर्वक विस्तरी । फिर नन्दीश्वरादि जिन मेह, कोनो पूजा हिय धर नेह ।।५।। गणधर मादि मुनीश्वर पाय, प्रणमैं सुरपति चित्त लगाय । तत्द अरथ आदिक तहं सुन, धर्म शर्म करता हिय गुने ।।५३।।
बोहा फिर जिन प्रस्थान गयौ, पुण्यजनित थिय पाय । देबिन सहित विमान में, तिष्ठं सुख समुदाय ॥५४॥
चौपाई इत्यादिक बहु पुण्य समेत, धार सो चेष्टा शुभ हेत । सप्त हाथ तन उचित मनोग, नेत्र विवजित निद्रा रोग ॥५शा मण्डित मति श्रुत अवधि विज्ञान, विक्रिया ऋद्धि अधिक बलवान । बीते बरस सहस जब दोय, लैहि अहार सुधामय सोय ।।५६।। पक्ष दोयमें रति तन होइ, मानसोक सब भुगते सोइ । देखै रूप बिलास अपार, नृत्यत दिव्य योपिता सार ।। ५७।। पर्वतादि उद्यान मझार, देविन सहित रमैं कर प्यार । द्वीप समुद्रमसंख्य विचार, विहरै सहित विभूति अपार ॥५८|| सागर दोय आयु परमान, सप्त धातु मल रहित महान । अमृत समुद सम सुक्ख अनेक, सरब दुःख ते रहित सु एक ॥५६॥
दोहा
विविध भोग तिन भोगवे, पूरव चरण प्रताप । काल जात जान्यो नही, सुखसों देव जु आप ॥६०||
चौपाई
प्राग घातको द्वीप महान, पूर्व विदेह सु उत्तम थान । विजयारध पर्वत तह दोस, है उन्नत जोजन पच्चीस ॥६॥ सोहै कूट जिनालय जहां, वन श्रेणी पुर प्रादिक तहां । ताकी उत्तर श्रेणी मझार, मंगलावति है देश विचार ।।६।। नगर कनकपुर सोहै जहां, सुवरणमय जिनमंदिर तहां । कनक पूर्व राजा तहं जान, प्रिया कनकमाला तस मान ।।६३।।
हो यौवनावस्था प्राप्त हो गयी। वहां पर उस अवधि ज्ञान के द्वारा व्रतों के शुभ फल ज्ञात हो गये। अत: धर्मके माहात्म्य की प्रशंसा कर वह धर्म-धारण करने में संलग्न हो गया ।
पश्चात वह देव अकृत्रिम चैत्यालय में जाकर अष्ट द्रव्यों सहित प्रहन्त देवको पूजा करने लगा। वह मनुष्य लोक में मन्दीश्वरादि द्वीपों में अपने मनोरथों को सिद्धिके लिये जिन प्रतिमाओं की पूजा कर और गणधरादि मुनीन्द्रों को हर्ष सहित
करके उनसे तत्वों का स्वरूप सुनकर धर्मका उपार्जन कर अपने स्थान को लौट आया। उसने अपने पूर्वकृत पूण्योदयसे देवियों तथा बिमानादि सम्पदाओं को प्राप्त किया।
इस तरह उस देव ने विभिन्न रूपसे पुण्य का उपार्जन करता हमा सान हस्त प्रमाण दिव्य शरीर धारण किया, जिसकी पाखों के पलक सदा खुले रहते थे। उसे पूर्व में नरककी भूमि तक का अवधिज्ञान और विक्रय ऋद्धि का बल था। दो हजार वर्ष व्यतीत होने पर हृदयसे कड़ने वाले अमृतका आहार करवा था तथा तीस दिन के पश्चात् थोड़ी श्वास लेता था। पौर देवांगनाओं आदिका नत्य देखा करता था। वह बनों पर्वतों पर अपनी देवियों के साथ कोड़ा-रत रहता था और अपनी इसछा के अनसार संख्यात द्वीप समुद्रों में विहार करता रहता था । इन्द्रिय सुख रूपी समुद्र में मग्न उस देव ने दो सागरकी प्रायु प्राप्त की। उसका अरीर धात मल और पसीना से सर्वथा रहित था। इस प्रकार श्रेष्ठ चारित्र पालन कर उपार्जन किये हुए पुण्यके प्रबल प्रतापसे उसे भोगोपभोगकी सारी सामग्रियां प्राप्त हुई। उसने इस प्रकार कितने समय बिताये, यह उसे ज्ञात न हो सका।
घातको खण्ड के पूर्व विदेहमें मंगलावती नामक एक देश है। उसके मध्य विजयार्द्ध पर्वत है । जो दो सौ कोश ऊंचा पर्वत की उत्तर धेणी में कनकप्रभ नामका एक नगर बड़ा ही रमणीक है। वहां कनकपुग मामक विद्याधरों का राज्य करता था। उसको रानी का नाम कनकमाला था। सिंहकेतु नामका देव स्वर्ग से चयकर सूवर्णकी कान्ति के
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सोरठा चयो तहां ते सोई, सिंह केतु नामा अमर । कनकोज्वल सुत होइ, कनक कांति तन जासको ॥६४||
चौपाई
जन्म उदाह पिता ने कियौ, बंदीजनं दान बह दियो । जिन प्रागार कराये सार, कल्याणक वरधावन हार ॥६५|| कोसी पजा महाभिषेक. पंचकल्याणक आदि अनेक । गीत करत श्रीर नचं अपार, नर समूह कोलाहल धार॥६६]] बाल चंद सम वद्धि कराय, पय पानी सों सुख अधिकाय । पाप जोग अति भीड़ा, कर, दिन दिन रूप-कला गण धरै ।। ६७||
अरिल्ल
श्राम सों जोवन पाय, शास्त्राभ्यासी ठयो। विधि विवाह की जास, पिता करतो भयो।। कनकबती तिय नाम, धर्मसौं सो मिली । कछ दिनन में कुवर एक कोनी भली ।।६८॥ महा मेह जिन तन, वंदव को गयो। भार्या सहित कुमार, बिम्ब पूजत भयो। भूषित ऋद्धि अनेक, गृप्ति त्रयके धनी । अवधिज्ञानि मुनिराय, देखि जस शिर मनी ।।६।।
छन्द चाल प्रणमें शिर चरण लगाई, मृख प्रापत कारणा राई । प्रभु अनघ धर्म है जोई, शिव करता भाषी सोई ।।७।। सुनकै तिन वचन सुयोगी, भाष सुनिये नप भोगी। भव समुद गिरं नर कोई, उखर वर सम्यक सोई ।।७१॥ शिव मन्दिर पीछे जाई, त्रैलोक्य राज्यको पाई। विधि सम्यक तत्व वखानी, शंकादि रहित परवानी।।७।।
समान उन दोनों का कनकोज्वल नामक पुत्र उत्पन्न हुमा । पिता ने पुत्र होने के ग्रामन्द में जैन मन्दिर में जाकर पंचकल्याणक की बड़ी भक्ति के साथ पूजा की इसके पश्चात दानादि से बन्धु बगैरह सज्जनों को तथा दीन दु:त्रियों को सन्तुष्ट करके नत्य गीत से जन्मोत्सव मनाया। वह रूपवान बालक दोजके चन्द्रमा को भांति ऋमक्रम से बढ़ने लगा। वह दुग्धपान वस्त्र अलंकारादि बाल्य मुलभ कामों से सबको प्रसन्न क्रिया करता था। वह थोड़े ही समय में अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर पारंगत हो गया और सर्व गुणों से सम्पन्न हुअा।
पश्चात जब बह जवान हुआ तो उसका विवाह उसके मामा की पुत्री कनकावतो नाम को कन्या से हमा। एक दिन वह कुमार अपनी पत्नी के साथ महामेरु पर्वत पर फ्रीड़ा करने के लिए तथा कल्याण के लिए चैत्यालयों की पूजा करने गया था 1 उस स्थान पर श्राकाशगामिनी आदि ऋद्धियों वाले अवधिज्ञानी सूनीश्वर को देख तीन प्रदक्षिणा दे उन्हें नमस्कार किया पश्चात् धर्म में अभिरुचि रखने वाला वह कुमार धर्म के सम्बन्ध में मुनिराज से पूछने लगा।
उसने पूछा-भगवान मुझे निदोष धर्म का स्वरूप बतायो जिससे मोक्षमार्ग में सहायता मिल सके । कुमार के वचनों को श्रवण कर मुनिने कहा-बुद्धिमान ! तू एकाग्र मन से सुन, मैं तुझे धर्म का स्वरूप बतलाता है। जो संसार समुद्र में डूबते हुये जीवों को उतार कर मोक्ष स्थान पर रखे अथवा उसे तीनों जगत का स्वामी बनाव, उसे धर्म कहते
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राज्यपद १. स्वर्ग में भी अहन्त भक्ति करने के पुण्य फल रो मैं विजयाद्ध पर्वत के उत्तर की तरफ कनकप्रभ नाम के देश में विद्याधरी के राजा पंख की कनक माला नाम वो रानी से कमकोज्वल नाम का बना पराक्रमी और धर्मात्मा राजकुमार हा । निथ मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर और संसारी सुखों को क्षणिक जान कर भरी जवानी में दीक्षा लेकर जन ना हो गया।
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राजा कनकोशल राजी कनकवी के साथ को गये ।
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करने गये और ऋद्धिवारी मुनि को देकर नमस्कार किया और मे उपदेशकी प्रार्थना कर मुनिका देश रहे हैं
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राजा कनकोयल की वैराग्य और दीक्षा समारंभ
तपश्चरण में लोन कनकोवल मुनिराज गुफा ममानशैल उद्यान, निर्जन भवन बमैं गुण ग्यान । ध्यान सिद्धि उपसर्ग प्रवीन रहै विरागथान चित लीन ।।
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राजा कन को ज्वल ने मुनि दीक्षा धारण करके घार सय किया ।
कन को ज्वन मनिगज ने समाधिमरणापूर्वक प्राणन्याग किये मोर
पुण्य के प्रभाव से सातवें वर्ग में देव हुए।
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मार्गदर्शक:- आचार्य
वाधसाग
अयोध्या के राजा हरिषेण नित्य नियम पूर्वक
जिनेन्द्र भगवान का पूजन करते हुए।
महाशक्र नामक दशवं स्वर्ग में जाकर महद्धिक देव उत्पन्न हुये,
देवियां उनकी सेवा करती हुई।
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चौपाई
यह भव होय धर्मसो सार, कल्याणक नर को सविचार । सकल मनोरथ पूरण जान, दुख बिना जग कौति महान् ।।७३।। परभव इन्द्र विभूति अपार, के सरवारथ सिद्धि विचार । तीर्थकर चल चत्रो होइ, धर्म प्रताप जानिय सोई॥७४||
दोहा
धर्म बिना
हि और जग, सुख करता तजे पा५ । साम दबा दिया तस,उक्त
वली तास ।।७५।।
चौपाई
प्रथम अहिंसा सत्यास्तेय, ब्रह्मचर्य संगादि रहेय। ई- भाग एषणा दान, निक्षेपण व्युत्सर्ग बखान ।।६।। मनोगुप्ति वच गुप्ति विचार, काय गुप्ति मिल तीन प्रकार । यह चारित्र त्रयोदश जान, साधं राग रहित गुणवान १७७|| तथा मूलगुण सब जानिये, दशलक्षण क्षमादि बखानिये । परम धरम करता सुख सार, मोह अक्ष सबको अपहार ।।८।। बुद्धिबल भो राजकुमार ! धर्म जती गोचर हितधार । काम आदि जे अरि दुग्वदाई, तप अमि सौं तिन घात कराई || धर्म चित्त में धरो महान, होय धर्म तं सर शिव थान । धर्म जगत में सत्र सुख दाय, नहीं धर्म ते और सहाय ॥८॥ नहीं साध्य अब इहित और, तिहि ते मोह सुभद हन ठौर । धर्म जतन सौ पालो सार, मुक्तितनों साधक सखकार ॥८॥ इहि प्रकार मुनि वचन, सुनेह, कनकोज्वल नप चिन्तौ येह। भव' तन भोग विरक्त अपार द्वादशभावन हिरदं धार ॥२।। जोलौं कर्म वेदना लियें, भ्रम जगत में सुध नहि हियै । कबहूंक नार गर्भ गिर परै, जन्म होइ विकलप सो मरै ।।८३॥ सुर अहमिन्द्र आदि हरिराय, सबै काल के वश्य पराय । जन कोई जीवन मद करें, मूढ़ मन्द बुध को अनुसरै ।।६४॥ धर्मकार्य को बरध सार,: मद हिय धरै न एक लगार। अरु जे शठ मद धारै अंग, ते जैहैं यम पथ सर्वग ।।८।। अतिहि विनश्वर कारज याहि, सर्व अवस्था निशदिन माही। तातै काल लंग नहि कर, मरण समय ना शंका धरै ।।६।।
हैं। वस्तुत: धर्म वह है, जिस भव में सम्पदामों की प्राप्ति और मनोकामनायों की पूर्ति होती है तथा दुःख आदि भयानक आपत्तियों का सर्वथा नाश होता है। केवल यही ही नहीं, तीनों लोकों में प्रशंसा होती है। और परभव में राज्य ग्रादि को विभूति सर्वार्थ सिद्धि पद, तीर्थकर पद, बलभद्र चक्रवर्ती श्रादि पदों की प्राप्ति सुलभ होती है। जिस धर्म का उपदेश के वली ने किया है, जो अहिंसा स्वरूप निष्पाप है, वही धर्म है। अन्य दूसरा कोई धर्म नहीं है।
वह धर्म अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग, ईयो भाषा, एषणा प्रादान' निक्षेपण, उत्सर्ग, मनो गुप्ति, वचन गुप्ति, काय-गुप्ति इस तरह तेरह प्रकार का है, इसे वीतरागी मुनी धारण करते हैं। अथवा उत्तम क्षमादि देश स्वरूप परम धर्म को मोहेन्द्रिय रूपी चारों को परास्त करने वाले योगी धारण करते हैं। अतएव हे बुद्धिमान ! तू मुनि धर्म को धारण कर और कुमार अवस्था में ही शीघ्र कामादि शत्रुओं को तप रूपी खड्ग से मार सदा चित्त में धर्म का ध्यान कर धर्म से अपने को शोभायमान कर, तू धर्म के लिए गृह का त्याग कर, धर्म के अतिरिक्त और दूसरा पाचरण न कर, सदा धर्म को शरण ग्रहण कर और धर्म में ही स्थिर रहा । धर्म सदा तुम्हारी रक्षा करेगा।
विशेष बताने की आवश्यकता नहीं, अव तू शीघ्र से शीघ्र मोहरूप महान योद्धा को परास्त कर मुक्ति के लिए धर्म अंगीकार कर। इस प्रकार धर्मोपदेश करने वाले उन मुनि के वचनों को सुनकर उसे संसार शरीर, स्त्री आदि भोगों से विरक्ति उत्पन्न हुई। उसने विचार किया कि परोपकारी मुनि महाराज ने मेरे हित के लिए ही धर्मोपदेश किया है, अत: मुझं मोक्ष प्राप्ति के लिये शीघ्र ही श्रेष्ठ तप को ग्रहण करना चाहिये। कारण न जाने किस समय मत्यु हो जाय, जो काल गर्भ के बालक को मार डालता है, उसका क्या ठिकाना। जब यमराज अहमिन्द्र देवेन्द्र प्रादि महान पुण्यवानों तक को नहीं छोड़ता तब हम जैसे पुण्य हीन व्यक्तियों के जीवित रहने की क्या प्राशा ! वृद्ध होने पर भी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये, जो
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यो चिन्त्यौ हिरवं परवीन, कोनी दुविध परिग्रह हीन यथा विद्याची तन ले जाव आराधना मन्त्र परभाव || मन वच काया दीक्षा घरी तास चहन जय इच्छा करी सकल असार वस्तुकी त्याग स्वयं भक्तिदायक वैराग ॥ २॥ ग्रातरौद्र दुरलेश्या जान ताते सब ग्रथ करता मान। धर्म शुकल शुभ लेश्या तीन, भजे सदा मुनिवर परवान ॥८६॥ विकया आदि वचन नहि है धर्मकथा निश दिन हि श्रुत सिद्धांत पदं यचरं गर्मवनों उपदेश जु करें ॥०॥ गुफा मग़ान मंत्र उद्यान निर्जन भवन व गुण खान ध्यान सिद्धि उपसर्ग प्रवीन, रहें विरान थान चित लीन ॥१॥ अटवी आदि ग्राम बहु देश, बिहारं सदा लोभ नहि वेश द्वादशविध तप को महान कर्म युष्ट परितन पान ||१२|| सर्व मूल उत्तर गुण लीन, चित पडोल मुनि जगत प्रवीन जिनवर कथित जती आधार पर निस दिन बहुत प्रकार ॥६३॥ मरत प्रजंत घनच तप करो, अरु सन्यास हिये मादरी विकया चार प्रकार निवार, देह आदि ममता सत्र दार ||६४।। क्षुधा तृपादि परिषद् सबै जीती धीरज धर मुनि तवें आप वोर्यको परगद कीन, मुक्ति रमा साधक परवीन ॥६५॥ चार प्रकार आराधन घार, जतन पूर्व सार्धं मन धार धर्मध्यान सौ छोड़ प्रान, मन त्रिकल्प वर्जित गुणधान ||१६|| तप व्रत फलसुरान् मान भी महादिक देव महान अन्तमुहूरत अवधि प्रकाश जान्यो पूर्व भव सुख वास ॥१७॥ । मन सम्या बाई, धर्मसद्धि के कारण सबै तीन लोक जिन धानक जहाँ पूजन हेत जाइ सुर तहां ॥१८॥ तीर्थकर मुनि केवल सबै जाइ तहां अर्चा कर नवे इहि प्रकार बहु पुण्य उपाय, प्रति विभूति भुगते गृह जाय ॥६९॥ तेरह समुद्र बावु परमान, पंच हस्त उन्नत वपु जान वर्ष योदेश सहस मकार ने सुधा निर्माण प्रहार ॥१००॥ ।
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मूर्ख धर्म धारण नहीं करते, वे पाप का बोझ लेकर यमराज का ग्रास हो नरकादि योनियों में परिभ्रमण किया करते हैं अतएव भव्य जीवों को सर्वदा धर्म का श्राश्रय ग्रहण करना चाहिये । श्रपनी मृत्यु को शंका कर किसी भी समय को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये ।
ऐसा विचार कर उस बुद्धिमान ने वाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों का परित्याग कर एवं अपनी पत्नी को पिशाचिनी समझ कर मन वचन कर्म तीनों से नमस्कृत ऐसी जिन दीक्षा ग्रहण कर लो, जिससे स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग सरल हो जाते हैं। उन कनकोश्वर कुमार ने बातें रौद्ररूप खोट ध्यान तथा कृष्णादि छोटी लेश्याओं को छोड़कर धर्म ध्यान चोर शुद्ध सेवा धारण की। वह चारों विरुया कप वचनों को त्याग कर धर्म कथा में लोन हुआ। उसने ध्यान को सिद्धि के लिये रोग उत्पन्न करने वाले स्थानों तथा गुफा, वन, पर्वत और निर्जन स्थानों की धरण ही वह धर्मोपदेश और शास्त्रोंका बहुत बड़ा ज्ञाता हुआ ।
मुनि कुमार ने वन ग्राम देश यादि स्थानों में बिहार कर कर्मों को दिष्टि करने वाला बारह प्रकार के तपों का आनरण किया। इस प्रकार उन मुनि ने मूल गुणों का तथा शास्त्र में वर्णित संयम का मृत्यु काल पर्यन्त पालन कर अन्त समय चारों प्रकार के ग्राहारों का त्याग तथा शरीर का ममत्व छोड़कर सन्यास धारण कर लिया। अन्त में उन्होंने वै पूर्वक भूख पास माथि परिषहों को जोत कर समाधि के समय धर्म ध्यान से प्राणों का परित्याग किया। उचत उपके प्रभाव से इन्हें जांतव नाम के सातवें स्वर्ग में महान ऋद्धि धारी देव पद प्राप्त हुआ और सुख प्रदान करने वाली सारो सम्पदार्थ उपलब्ध हुई।
इन्होंने स्वर्ग में भी अवधिज्ञान द्वारा पूर्वकृत तपों के प्रभाव और उनके फलों को जान कर दृढ़चित्त हो धर्म की सिद्धि के लिये लोस्थित जिनालयों एवं मुनिगण आदि की पूजा करते हुए महान पुष्यका उपार्जन किया। इस पुण्य फल से उन्हें तेरह सा
१. करके नाम के सातवें स्वर्ग में महामारी देव हुआ, वहाँ भी यह सम्बनि ध्यान तथा जिन पूजा में लीन
रहता था।
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कनकपुर नगर में बनकराज्ञा और कनक माला नाका बनाई।
कानपुर नगर में कनक राजा अकनकौर माला रानो का विवाह ।
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पयोध्या के राजा वनसत और रानी शीलवती।
मयोध्या के राजा वसन मोर रानी शीलवती।
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तेरह पक्ष बीत जब जांय, तब उसास तनसों मुकलाइ । तोजी भूमि नरक की जान, ऋद्धि विक्रिया को परमान ॥१०॥ सप्त धातु मल स्वेद रहीत, निर्मल दिव्य शरीर पुनीत । सम्यक्दृष्टी हिये शुभ ध्यान, जिन पूजा में रक्त महान् ॥१०२॥ नत्य गीत बादित्र प्रशर, मधुर शब्द सुख के करतार । भुगते बहुत भोग परधान, निशदिन देवी सहित सुजान ॥१०॥ शुभ भावन युत मिथ्या हरै, विविध रत्नमण्डित सुख धरै । हर्षवन्त सुर सेवं पाय, अमृत सागर वहन कराय॥१०॥
दोहा याही प्रारज खण्ड में, कौशल देश विख्यात । अति मनोग्य अवध्यापुरी, बसें भविक अवदात ॥१०॥ बनसेन नप तस पती, पुण्यवंत गम्भीर । शीलवती तिय तास घर, शीलशालिनी धीर ।।१०।। देव मुरग सों सौ चयो, सुत उपजो हरिषेण । लक्षण भूषित पूर्ण वपु, दिव्यकान्ति जुत जेन ॥१०७॥
चौपाई
नात मात जत कूटम्ब समेत, पुत्र महोत्सब कीनों हेत । लहै पुण्यफल सुक्ख अनेक, कला बुद्धि गुण सहित विवेक ॥१०॥ जिन सिद्धान्त हिय नित धार, सकले पदारथ बेदक सार । सबहि संपदा पूरण पाई, विविध भोग भगत मन लाइ ॥१०॥
प कला तन तेज अपार, गुण गरिष्ठ नाना परकार । वरधै पक्ष मास अरु वास, देव समान लहै जस तास ।।११०11 क्रमसौं जीवन प्रापत भयो, बहुत राज तनुजा परिणयौ । लक्ष्मी सहित पिता पद पाय, भुगते सुख नानाम धिकाय ॥११॥ सम्यकदर्शन शंका जाहि व्रत निरमल पाले गृह माहि । धर्म गृहस्थ सिद्ध अनुसार, रहित प्रमाद तजै अविचार ||११२॥ ग्राट चौदश प्रोषध कर, सब सावध जोग परिहरै । उठे प्रात सामायिक देइ, प्रादि धर्मवधक सुख लेइ ।।११३॥
की आय तथा पांच हाथ का ऊंचा शरीर प्राप्त हुया। वे तेरह हजार वर्ष बाद हृदय में भरते हुए अमृतका सेवन करते थे और छह मासके पश्चात् सुगन्धित श्वास लेते थे, उनका अवधि ज्ञान और विक्रिया ऋद्धि नरक की तीसरी भूमि तक थी। वह देव सप्त-धातु मल पसीना रहित दिव्य शरीर वाला हुआ। वह सदा सम्यग्दृष्टि शुभ ध्यानमें तथा जिन पूजामें लीन रहता था। उसे देवियों का नृत्य गीत आदि सुख सामग्रियां उपलब्ध थीं वह शुभ भावनाओं का चिन्तन करने वाला तथा देवों द्वारा पूज्य हुआ।
प्रथानन्तर-जम्बू द्वीप के कौशल नामक देश में अयोध्या नामकी एक नगरी है। वह नगरी अत्यन्त रमणीक तथा भव्य जनोंसे भरी हुई है। वहां के राजा का नाम वज्रसेन था और उनकी पत्नी का नाम शीलवती था। स्वर्ग से चयकर वह देव इन दोनोंका हरिपेण नामक पुत्र हुया । राजाने बड़े प्रानन्दके साथ पुत्र का जन्मोत्सव मनाया। हरिपंण कुमार अवस्थामें ही राजनीति के साथ-साथ जैन सिद्धान्तोंका बड़ा जानकर हुआ। वह रूप, गुण कान्ति आदि सभी गुणों से भूषित था। उत्तम वस्त्राभूषणोंसे हरिषेणकुमार देवके समान सुन्दर प्रतीत होता था।
पश्चात् यौवन अवस्थामें कुमारका विवाह अनेक राज्य कन्यानोंके साथ हुआ। पिताने पुत्रको योग्य समझ कर राज्य-पद समर्पित कर दिया। वह बड़े प्रानन्द के साथ राज्य लक्ष्मी का उपभोग करने लगा। वह गृहस्थ धर्म की सिद्धि के उद्देश्य से बड़ी शुद्धता पूर्वक सम्यकत्व का पालन करने लगा। अष्टमी और चौदश के दिन वह पाप कमों को त्याग कर प्रोषध प्रतका पाचरण
१. जिम के पुण्य फल से वह अयोध्या नगरी के राजा वजसेन की रानी दोलवती से हरिषेण नाम का बड़ा बुद्धिमान राजकुमार हुा । राजनीति के साथ-साथ जैन सिद्धान्तों का बड़ा विद्वान था। मैं श्रावक धर्म को भली भांति पालता था। एक दिन विचार कर रहा था कि मैं कौन है ? मेरा शरीर क्या है ? स्त्री पुत्र आदि क्या मेरे हैं और कुछ मेरा लाभ कर सकते हैं ? मेरी तृषणा, किस प्रकार शान्त होगी? तो मुझे संसार महाभयानक दिखाई पड़ा, वैराम्प भाव जाग्रत हो गए और थी श्रुतसागर नाम के निग्रंथ मुनि मे दीक्षा लेकर मैं जैन साधु हो गया । दर्शन, ज्ञान, चरित्र, तपरूप चारों आराधनामों का सेवन करके समाधिमरण से प्राणों का परित्याग किया !
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पीछे तन मंजन कर सार, पहरे धवल वस्त्र सुविचार । भाव सहित सो पूजा करं? मन, वच तन वसु मंगल धरै ।।११४॥ प्रासुक योग्यकाल में सार, देइ सुपात्र मधुर प्राहार । पाप जोग अपराहण काल, साधे सामायिक बिधि हाल ॥११५|| पीछे जिन केबलिको वृन्द, संघ सहित बंदें जगचन्द्र । शुभ कर्मन के प्रापति काज, धर्मतीर्थ वर्धक सुख साज ।।११६।। तहाँ सुमर्ध सुन्यौ भवतार, मिश्रित तत्व आदि आचार । राग रहित तिष्टं इमि भूप, बहुत भोग भुगतं सख कूप ।।११७।। वात्सल्य घरमी जन कर, धर्म बड़े मिथ्या परिहरै। दान मान बहु मुनिको देइ, प्रीति सहित गुण रंजित गेय ।।११।। जिन मन्दिर बनवावै पांति, प्रतिष्ठादि पूजा बहुभांति । जिन शासन माहात्म्य अपार, कोनौ बुध सुख वर्धनहार ।।११९11 पुण्यवन्त भो भव्य महान, कीजो इहि विध शक्ति प्रमान । जाके कछू शक्ति है नाहि, सो अनुमोद धरो मनमाहि ।।१२०।। इहि प्रकार बह विध माचार, धर्म जिनेश्वर भाषत सार । मन यच काय आप संचरं, भव्यजनको उपदेश जु करै ।।१२।। तीन काल पाले निजराज, न्याय धनी वरधै सुख साज । पालै प्रजा पुत्र सम जान, पुण्य उदधि उर हिय धर ज्ञान ।।१२२।। एक दिना कछ कारण पाइ, चितावत भयौ नर राई । उदासीन भव भोग विरक्त, है विवेक घर उज्वल चित ।।१२३।। श्रुतसागर योगीश्वर नाम, श्रुत ज्ञानाभ्यासी गुण धाम । तीन प्रदक्षिण दे शिर नाय, प्रणमैं जाय मुनीश्वर पाय ॥१२४।। जो प्रभ कृपावन्त हिय होय, कहिए मेरो संशय खोय । लक्षण कहा पाल्मातनौ, किही प्रकार जड़ चेतन भनौ ।।१२५।। किहि विध बंध कुटुम्न सभाय, कारण कह दुःख अधिकाय । कैसे सुक्त शाश्वती जान, जातै विनसै आशा थान ||१२६।।
करता था। सवेरे शय्या त्याग करने के साथ ही उसका सामायिक तथा स्तवन पाठ प्रारम्भ हो जाता था इसके बाद वह स्वच्छ वस से युक्त होकर अर्थ-धर्म काम आदिकी सिद्धिके लिये जिनालय में जाकर देव पूजा करता था। मान कषाय आदि दुर्गुणोंसे मुक्त होकर सुपात्रोंको विधिवत दान किया करता था। उसका दान स्वादिष्ट और प्रासक हना करता था।
वह जितेन्द्रिय संध्याके समय कल्याणकारक सामायिक आदि उत्तम कार्य सम्पन्न किया करता था। केवल यही नहीं बल्कि धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति के लिये वह अर्हत केवली योगीन्द्र और मुनिश्वरोंके संघ यात्रामें भी सम्मिलित हुआ करता था। वह राजा सुखोंके समुद्र जैसे तत्व-चर्चा तथा श्रेष्ठ धर्मोका श्रवण किया करता था। उसे साधर्मी भाइयोंसे बड़ी प्रीती थी। उनके गुणोंसे मुग्ध होकर वह उनका बड़ा सम्मान करता था । अनेक प्रकार के प्राचरणोंका पालन करता हा वह राजा धर्मके पालनके फल से प्राप्त भोग्य सामग्रियोंका उपभोग करने लगा। प्रतएव हे भव्य पुरुषो! यदि तुम श्रेष्ठ सुखकी उपलब्धि चाहते हो तो कठोर प्रयत्न करके भी धर्मको धारण करो।
कर्मोको परास्त करने वाले तथा रुद्र द्वारा किये उपसगों को सहन करने वाले, वीरों में अग्रगण्य जिनेन्द्र भगवा कोनमैं नमस्कार करता हूं।
एक दिनकी घटना है । हरिषेण महाराजने विवेक पूर्वक निर्मल चित्तसे विचार किया कि मैं कौन हूं, मेरा शरीर क्या है, और बन्धके इस कुटुम्बकी स्थिति क्या है मुझे अविनश्वर सुख की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है. मेरी तृष्णा किस प्रकारसे शान्त होगी और संसार में हित्-अहित क्या वस्तुए हैं। इन विषयों पर पूर्ण विचार करनेके बाद, हरिषेण महाराजको ज्ञान हा कि, यह प्रात्मा सम्यग्दर्शन और ज्ञान चारित्र स्वरूप है और ये शरीरादि अवयव दुर्गन्धयुक्त अचेतन हैं । जिस प्रकार इस लोक में पक्षियोंवा समूह रात्रिके समय निवास करता हैं, और प्रात: सब अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार स्त्री कुटुम्ब आदि परिवार वर्ग भी हैं।
वस्तुतः मोक्षके अतिरिक्त अन्य दूसरा कोई भी अविनश्वर सुख नहीं दिखलाई देता। पर उस सुखकी उपलब्धि इस क्षणभंगुर शरीरका ममत्व त्यागने से ही हो सकती है तपका प्राप्ति भी सम्यग्दर्शन ज्ञान और चरित्रसे ही हो सकेगी । ये मोह और इन्द्रिय विषय तो अत्यन्त प्रहित करने वाले हैं। अतएव प्रात्म-हित चाहने वालेको बिना किसी प्रकारका विचार किये ही विषय स्खको तिलांजलि दे देना चाहिये और रत्नत्रय तपको ग्रहण कर मोक्षका मार्ग प्रशस्त कर लेना चाहिये ।
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कैसे हित पर अहित होम कंने कृत्य कृत्य विलय तय बोले मुनि वचन विचार, सुन भो भव्य धर्म चित भार ।। १२७ ।। दरशन ज्ञानप्रसाद अनेक गुण जुत रूप महात्मा विवेक लक्षण चेतन है जु पवित्र गंव जोग सो देह मनित ।। १२५ । जैसे पक्षीगण बहु मिले, तुंग तरूवर पं निश हिलें । तसे कुल कुटुम्ब परवीन, आप आप भावन गति लीन ।। १२६ मोह महामद वश जग जीव, तास दुःख लहै श्रथ कीव । सुक्ख शाश्वतौ है निर्वान रहित परिग्रह माशा हान ।। १३० तप रत्नत्रय सम नहीं बोर, हित करता जनको सब ठोर इन्द्रिय विषय अशुभ यह यान तासम ग्रहित और नहि जान ।। १२१ ।। यह भव पर भव सुख त्रिकाय कृत्य वस्तु को यही स्वभाव । दुःख अधिक जब नरको होइ, सो अकृत्य कारण अवलोई ।। १३२ । यह प्रकार मुनि वच सुन सार, परिसंवेग धर्म परिहार देह आदि जग भोग अनेक, छोड्यो ज्यों जीरण तृण एक ॥। ज्यौ कुटुम्ब राज्य अरमान जान्यो भार यथा पाषाण अंगीकार कियो तप साज, निजरा यही सुगम मुनिराज || बाहिज अंतर परिग्रह तय, मन वच काया श्रातम भज्यो । मुक्तिपुरी की इच्छा करो, जैनी दोक्षा नृप आदरी || १३५ ॥ कर्म कुलाचल घाते सबै तप बच्चायुध कर मुनि सये दुष्ट अक्ष पर मन को रोध, ध्यान करें शुभ सम्यक् ।। १३६ ।। । शोध कन्दर अद्रि अरण्य अनेक गुफा मशान वसें मुनि एक सिंह समान सदा विहरन्त धर्म ध्यान घर हिरदे संत ।। पदवी ग्राम बेटपुर जिते विहरे यापय शोषते ग्रस्त होई रवि अन्य प्रवेश दया अवं विष्णुं तहां देश ॥ प्रावुद्द काल रूख के मूल, जहाँ रहे व्यापै बहु शुल । लपर्क दामिन संझावाउ, वरसे मनों वज्र को घाउ ॥ हेम काल मुनि तिष्यें जहां तंग नदी तट हिमकुल तहां। ध्यान अनाहत वारं धीर, बाधाशोत सहैं वर वीर ।। ग्रीम सूर्य किरणको तेज पर्वत पीठ दिला सिर सेज करें ध्यान उत्सर्ग महान, बाबा उष्ण अग्नि परवान ॥ इत्यादिक अस्तर त र क को जोर। वाहि आपांतर परवोन ध्यानाध्ययन मध्य सो सीन सबै मूल उत्तरगुण जान, पाले प्रीति सहित अधिकात पन्त समय स्नान चादरी, ते खानपान परिही सम्यकदरशन ज्ञान चरित्र, तरस दाइक मोक्ष पवित्र । य चार प्राराधन राषि, मन वच काय सुकरकै साधि ॥
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बुद्धिमान लोग उसी कार्य पर दृढ़ रहते हैं, जिससे लौकिक और पारलौकिक दोनों ही सुखों की प्राप्ति होती हो। मनुष्य को वे कार्य कदापि न करके चाहिये, जिनसे दूसरोंको कष्ट पहुंचे, उनकी बुराई हो। इस प्रकार मन में विचार कर हरिपेण महाराज को विनाश की हुतानिकी ओर प्रेरित करने वाले भागों से विरक्ति उत्पन्न हुई। वह धर्म - बुद्धि हो अपने हित साधन में संलग्न हुआ। एक दिन उसने अपने समस्त साम्राज्य की मूर्तिकायत समझ कर उसे परिस्थान कर दिया और तप ग्रहण करने के उद्देश्य से घर से निकल पड़ा। वह सर्व प्रथम उस वन में पहुंचा, जहां अंगपूर्व भुत के जानकार श्रुतसागर नामके मुनि विराजमान थे। उसने वहां पहुंच कर उन्हें नमस्कार किया।
उस मोक्ष के इच्छुक राजाने मन वचन काम की शुद्धतापूर्वक
और अन्तरंग परिग्रहों का परित्याग कर बड़ी प्रसन्नता मे जिन दोक्षा धारण कर ली। उसने पुनः कर्म रूपी पर्वतको ध्वस्त करने के उद्देश्यसे तप रूपो बसका आश्रय ग्रहण किया और इन्द्रिय-मन रूपी वैरियों को परास्त करनेके लिये प्रशंसनीय शुभ धर्म को धारण किया। वे मुनि रूप में सिकेरा धर्मध्यान और शुभल ध्यानकी सिद्धि प्राप्त करने की साकांक्षासे पर्वतों, गुफाओंों वनों और श्मशान आदि स्थानों में निवास करने लगे। उनकी दिनचर्या यह हो गया कि दिन के समय तो बनादि स्थानोंमें विहार करते थे और सूर्यके अस्त हो जाने पर रातकी ध्यानादि धारण करते थे। वे योगीराज सर्प आदि हिंसक जन्तुओं से भरे हुए स्थानों में हवा और प्रति भयंकर वर्षा में भी वृक्षके तसे ध्यान लगाकर बैठते थे।
शीत कालमें चौराहे पर तथा नदीके किनारे उनकी ध्यान-समाधि लगती। वे शीत-गर्मीको बाधाको रोकने में सर्वथा समर्थ हुए। वे ग्रीष्म ऋतु सूर्य की किरनों से सप्त पर्वतकी शिला पर अपने ज्ञानरूपी जल से भीषण मालाप को शान्त कर बासन लगाते थे। केवल इतना ही नहीं, वे ध्यानकी सिद्धि के लिये कठिन कामकुरा वा तपका पालन करने लगे। उन्होंने अन्तरंग तर
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तप सध्यान सौं छोडं प्रान, धरि समाधि हिरदे शुभ ज्ञान । महाशुक्र सुरग सो गयो, तप फल देव महद्धिक भयो ।। १४५ ।। संपूट शिलागर्भ तंह ठयो अन्तमूहरत यौवन लयो। अम्बर भूषित सहज सुभाय, सात धातु मल रहित सुकाय ।। १४६ । अति गरिष्ठ निज लक्ष्मी देख ता छिन अवधिज्ञान सो लेख | जाना पूरब सो विरतत, परभव तनो धर्म फल संत ॥ १४७ ।। ताते धर्मसिद्धके काज, गये जहां जिनमन्दिर राज । प्रणमैं फिर कीनी शंकरी, कल्याणक करता गुण भरी ।। १४८ ॥ प्रष्ट द्रब्य जल आदिक लेह, जिनवर पागे अर्थ घरेह । भक्ति करी युत देवन जिती, उपमा घरण सके को किती ॥ १४६ ।। पोछे मनुज लोकमें आय, जिनमन्दिर पूजे सब जाय । बन्दै मुनी सुनी, श्रुत वानि, वर्धक पुण्य पापकी हानि ।। १५० ।। बहु विध सुन धर्म उपदेश, चारित व्रत जहं होय न लेश । षोडस जलधि प्राय परवान, शुभ लेश्या दर चित्त महान ॥ १५॥
वोहा तुर्य अवनि पर्यन्त लो, वस्तु चराचर जान । तित ही लौं है विक्रिया ऋद्धितनी परभाव ॥ १५२ ।। बरस सहस षोडस गये, लेहि सुबर याहार । आठ मास जब, बीतहीं गन्ध उसास विचार ।। १५३ ॥ पूरव तप फल जानिये, दिव्य देह रति देव । बहु विभूक्ति संयुक्त सुख, करहि अप्सरा सेव ।। १५४ ।।
गीतिका छन्द इति भांति सुकृत विपाक फलकर राज्यलक्ष्मी लहि अति । सुक्ख निरुपम सार सुन्दर, भोग भुगतै नरपति ॥ तप चरणसौं फिर पाय सुरपद ऋद्धि वसुमण्डित सही । इमि धारि शिवपद चाह तिनक, परम घरम सुध्यावही ।। १५५ धर्म बहुविध कहिब पुरब, धर्म तिन पूरब भजौ । धर्म निर्मल चरण प्रत है, धर्म नमि पापहि तजौ ।। धर्म त नहि अपर कोई धर्म शरण सहाय है। धर्म भव भव करहि रक्षा धर्म सब सुखदाय है ।। १५६ । इति श्री कविरत्न नवलशाह विरचित भाषा छन्दोबद्ध वर्द्धमान पुराण में सिंहादि पाठ भावों का वर्णन करने वाला
चतुर्थ अधिकार पूर्ण हुआ।
रूप उत्तर मूल गुणों का पालन करते हुए मृत्यु के समय पाहार और शरीर से ममता परित्याग कर अनशन तप ग्रहण कर लिया । बादमें वे दर्शन, ज्ञान, चरित्र तपरूप चारों आराधनाओं का सेवन कर समाधिमरण से प्राणों का परित्याग कर, उसके फल स्वरूप महाशुक्र नामक दसवें स्वर्ग में महान ऋद्धिधारी देव हुए । वहां अन्तर मुहूर्त में ही उन्हें यौवनावस्थाकी प्राप्ति हो गयी। वे एक दिव्य धातु-मल रहित शरीरधारी देव हुए।
देव रूपमें उन्हें अवधिज्ञान प्राप्त हुया । उसने अपने अवधिज्ञानसे पूर्व कृत धर्मके फलसे प्राप्त विभूतियोंका ज्ञान प्राप्त कर लिया । वह धमकी सिद्धि के लिये, जिन मन्दिरों में जाकर सर्व जगतका कल्याण करनेवाली जिन भगवानकी अष्ट द्रव्यों से पूजा किया करता था। पुनः मध्य लोक के जिन चैत्यालयों की पूजा कर और जिनवाणी का श्रवण कर उसने श्रेष्ठ पुण्यका उपार्जन किया । उस धर्मप्रमो देवको सोलह सागर की प्राबू प्राप्त हई वहां उसका शरीर चार हाथ ऊंचा हुआ। उसके शुभ परिणामसे देवको अवधिज्ञान से चौश्री नरक की भूमि तक का अधिज्ञान था और वहीं तक उसे विक्रिया शक्ति प्राप्त थो। मोलह हजार वर्ष व्ययतीत होने पर वह अमतका पाहार करता था तथा सोलह पक्ष व्यतीत होने पर सुगन्धमयी श्वास लेता था। इस प्रकार पूर्व में तपश्चरण के प्रभाव से उसे दिव्य भोगों की उपलब्धि हुई। वह देवियों के साथ विभिन्न भोगों का उपभोग करते हग सुख-समुद्र में संलग्न रहने लगा।
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राजा हरिषेण जिनमंदिर में पूजा करते हुये।
राजा हरिषेण ने राज्य लक्ष्मी का भली भांत उपभोग किया।
पौर धर्म ध्यान पूर्वक जीवन व्यतीत किया।
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राती सवता ने रात्रि में देखे गये स्वप्नों के फल का पूछा। राजा ने बताया कि आपका पुत्र चक्रवर्ती राजा होगा।
राजा सुमित्र ने रानी सुखता के स्वप्न के फल का वर्णन किया।
तत्पश्चात रानी जिन मंदिर में दर्शन करने गई।
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पंचम अधिकार
मंगलाचरण
दोहा
वोर धोर गण सुभट निज, हन्यो कर्म सन्तान। रौद्र परीषह जीत यो, बन्दौं दायक ज्ञान ॥१॥
चौपाई सदा मग्न रुख सागर मांहि, तिष्ठ देव लेश दुख नाहि । उपमा रहित मनूज यह लोक, धर्म ध्यान पाल तन शोक ।।२॥ दूजौ द्वीप धातकी खण्ड, पूरब दिशा दिपं परचण्ड । पूर्व विदेह सु उत्तम थान, देश पुष्पलावती बखान ।।३।। पूरब व्रत वर्णन सब जान, पुण्डरीक नगरी सु महान । सदा शाश्वती अति विस्तार, वरणत कौन लहै बुध पार ॥४॥
___ दोहा काल चतुर्थ सदा तहाँ, द्विज कुल होय न रंच । प्रायु कोटि पूरबतनी, देह धनुष शत पच ॥५॥
चौपाई पति सुमित्र भूपति नर ईश, नावं बहुत राय ता शोस । नाम सुव्रता रानी तास, शीलवंत व्रत अकित तास ॥६॥ एक दिना दिश पच्छिप याम, पंच स्वप्न देख अभिराम । चंद्र दिवाकर मेरू उतंग, सजल सरोवर सिंधू तरंग ॥७॥ उठी प्रात पाई प्रिय पास, रात स्वप्न फल पूछे जास । सब नरेन्द्र बोले बिहसत, तुम सुत ह है जगत महत ।।।। चंद्र स्वप्न फल निर्मल गात, सूरज तेजवंत परिघात । मेरू समान गरिष्ठ जु' होय, सजल सरोवर बहुगुण सोय ॥ सागर सम गंभीर अपार, बहुत राय माजा शिर धार । सुनै स्वप्न फल हिय विहसंत, जिनमंदिर फिर गई तुरन्त ॥१०॥ महासुक्र सों चयकर सोय, गर्भवास लोनों तई जोग । नमो पास जब पूरण भयो, शुभ दिन लग्न जन्म तब लयौ ॥११॥ नाम दियो प्रियांमत्रकुमार', सब जनको प्रिय करता सार । मात पिता प्रति प्रानन्द कियो, बंदो जने दान यह दियौ ॥१२॥ बजे मृदंग ताल कंसाल, पटह प्रादि वादिव रसाल । बनवाये जिन सदन अनेक, कोनी पूजा महाभिषेक ।।१३।।
EX सहन किये उपसर्ग बहु, करि विनष्ट निज कर्म । बन्दों जिनवरको सदा, जो है साधन-धर्म ।।
पूर्व विदेहमें पुरकलावती नामका एक देश है। जहाँ पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है । बहा सदा ही चक्रवतियोंका निवास रहा है। वहाँके राजाका नाम सुमित्र था और उसको अत्यन्त शोलवत धारिणो सुव्रता नामकी रानी थी। वह देव स्वर्गसे चलकर उन दोनोंका प्रिय मित्र नामका पुत्र हुआ । वह सबका प्यारा था। पिताने पुत्र उत्पन्न होने की खशीमें कल्याणकारिणी
चक्रवर्ती पद १. प्राज का संसार भी स्वीकार करता है कि जैनी अधिक धनवान् भोर सादर सत्कार वाले हैं। इसका कारण उनका त्याग, अहिंसा पावन और महन्त भक्ति है । जब थोडीसी महन्त पूजा करने, मोटे रूप से हिंसा को त्यागने तथा श्रावक धर्म को पालने से अपार धन, माज्ञाकारी सन्तान अनार स्त्री, महापश और सरकार, निरोग शरीर की पिना इ के भी तृप्ति हो जाती है तो भरपूर राज-पाट और संसारी सुख प्राप्त होने पर भी जो इनको सम्पूर्ण रूप से बिना किसी दबाव के त्याग करके भरी जवानी में जिन दीज्ञा लेकर कठोर तप करते हैं, उन्हें इस लोक में राज्य सत्र । और परलोक में स्वर्गीय सुख की प्राप्ति में क्या सन्देह हो सकता है ? भन्द कषाय होने पौर मुनि धर्म पालने का फल यह हुमा कि स्वर्ग की प्राय समाप्त होने पर मैं विदेह क्षेत्र में पुष्वालावती नाम के देश में पुण्डरीकिणी नगरी के राजा सुमित्र की रानी सुब्रता के प्रियमित्रकुमार नाम का चक्रवर्ती सम्राट हुमा । ६६ हजार रानियां, ८४ लारत्र हाथी, १८ करोड़ घोड़े, ८४ हजार पैदल मेरे पास थे। ६६ करोड ग्रामों पर मेरा अधिकार था। ३२ हजार मुकुट बन्द राजा और १५ हजार मलेच्छ राजा मेरे प्रवीन थे। मनवांछित फल की प्राप्ति करा देने वाले १४ रत्न' और नौ निधियां जिनकी रक्षा देव करते थे, मैं स्वामी था।
मैं रात दिन किये गये अशुभ कर्मों को सामायिक द्वारा नष्ट करता और साथ ही अपनी निन्दा करता था कि पाज मुझ से ये पाप क्यों हो गये? इस प्रकार मैं शुभ क्रियानों द्वारा धर्म का पालन करता था और दूसरों की रुचि धर्म में करता था।
एक दिन में परिवार सहित तीर्थकर श्री क्षेमकर जी की बन्दना को उनके समोशरण में गया । भगवान् के सूख से मंसार का भयानक स्वरूप सुनकर मेरे हृदय में बीतरागता प्रागई और छ: खंड के राज्य तथा चक्रवर्ती विभूतियों को त्याग कर जिन दीक्षा लेकर जन साघु हो गया।
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कल्याणक कर्ता सुखदाय, बहुविध कियी महोत्सव राय । द्वितिय चंद्रसम वृद्धि कराय, जन आनन्दकरण सुखदाय ।।१४॥ पय जल अन्न बस्तु परतेक, भुगतै अतिश्य रूप अनेक । क्रमसों कुवर सयानो भयो, जसकीरति जग बाढ़त गयो ||१५|| दिपं काम तन भूपत इसी, दिक्कुमार की उपमा जिसी। तब सो तात अध्यापक राज, दीदी कुवर पढ़ावन काज ।।१६।। पढ़ी सार वानी जिनतनी, विद्या धर्म अर्थ सूजनी। विद्या सबै पड़े सुकुमार, जो संसार चतुर्दश सार ।।१७।। यौवन समय बिता पद नाच, महाकार नाराय: लक्ष्मी बहुत तासके गेह सुख समुह भुगते घर नेह ॥१८॥ पूरब पुण्य प्रकट अब थाय, बहु विभूति गृह उपजी प्राय । चक्र धादि सब रत्न महान् नौनिधि सुखदायक परवान ।।१६।। भुचर खेचर व्यंतर देव, छहों खण्ड साध स्वयमेव । कन्या रत्न बस्तु जो सार, तिन दोनो पदसों शिरचार ।।२०।। अमर राज बत कीड़ा कर, सुरपुर समपुर शोभा घरं । लग भूमि लक्षराय की सुता, परणी परम पुण्य संयुता ।।२।। सहस छयानव रूप अपार, नाटकनी बत्तीस हजार । परम विभूति अधिक निरभंग, सेना है बलवंत अभंग ॥२२॥ आठ जाति के भूपति सबै, तिनको भेद सुनो कछु अब । कोट गांव को भूपति होय, मुकुट बंध कहियत है सोय ।।२३।। नवं पांच सौ राजा जास, अघ राजा तासों परगास । सहस राय नाव ता शीश, महाराज कहिये अवनीश ॥२४॥ दोय सहस नृप प्रणमैं पाय, कहिये अर्ध मंडली राय । चार सहस जा सेवा करें, सोई मंडलीक पद धरै ॥२५॥
आठ सहस नप सेब जास. महामण्लोक कहिये तास । सोलह सहस नवं नप शीश, अधचको नायक नर ईश ॥२६।। भूचर खेचर राजा सार, मुकुटबंध बत्तीस हजार । चक्ररती की आज्ञा धरै, नमै पाय सत्र सेवा करें॥२७॥ म्लेच्छखण्ड वसधाधिप जान, सहस प्रहारह हैं परवान | सेब चरण-कमल घरिनेह, चक्री तनो पुण्य फल तेह ।।२।। गणबद्धाधिप देव महान, सोलह सहस नमें तज मान । नर विद्याधर अमर अनेक, चक्रोपद पूजे मन एक ।।२६॥ हस्ती तुग मनोहर भाख, हैं प्रमाण चीरासो लाख । ति तने ही रय लीजें जोड़, चपल तुरंग अठारह कोट ।।३०।। प्रातूर गामी पयदल जान, चीरासो सुकोड़ परवान । प्रणमें नित चक्राश्वर पाय, यह वर्णन जानो समुदाय ।।३।। संपूरन सुख भोगवं चक्री मित प्रियमित्त । तस विभूति बल बरनऊ, यथा शक्ति मो चित |॥३२॥
चौदह रत्नों का वर्णन।
चत्र चर्म मणि काकिणी, दण्ड छम् असि नाम । ये अजीब सातों रतन, चक्रवर्ती के धाम ॥३३॥ सेनापति वनिता नपति, गहपति नाग तुरंग । प्रोहित मिल सातौं रतन, ये सजीव सरवंग ।।३४॥ चक्र दण्ड असि छत्र ये, प्रायुधशाला होत । चर्म काकिणी मणि रतन, श्रोगह लहैं उदीत ॥३५॥ बनिता गज हय तोन ये, रूपाचल पर जान । सेनापति गृहपति स्थपति, प्रोहित निजपुर थान॥३६।।
ग्रहत भगवानको महान पुजाका आयोजन हया। उसने चारों प्रकार से दान दिया मोर बाजे बजवाये। प्रिय मित्र कमार क्रमश्रमसे बढ़ने लगा। वह शोभा और भूषणों से सुशोभित देवों जसा शोभायमान हुआ।
पत्तात उस कमार ने धर्म और पुरुषार्थ की सिद्धि के उद्देश्य से जैन गुरु के पास जाकर विद्यारम्भ किया । शास्त्र अध्ययन के साथ उसने राज-विद्या का भी अध्ययन किया। अवस्था होने पर उसने लक्ष्मी के साथ पिता के पद को प्राप्त किया। उसका जीवन सुख पर्वक व्यतीत होने लगा। उस समय कुमार के पुण्योदय से उसे अपूर्व निधियाँ प्राप्त हुई। उसने उत्कृष्ट सम्पदा और छः अंगों वाली सेनाको प्राप्त किया। थोड़े ही समयमें कुमारने विद्याधरों और मागधादि व्यन्तर देवोंके स्वामियों को चक्रसे अपने वश में कर उनसे कन्यायें आदि लेकर इन्द्र के समान शोभायमान हमा।
यद्ध-यात्रा समाप्त कर वह राजकुमार चक्रवर्ती होकर अपनी पुरीमें लौटा। बड़े उत्साह पूर्वक मनुष्य. विद्याधर. प्यन्तरदेवों के स्वामियों के साथ उसने इन्द्रपुरी जैसी नगरी में प्रवेश किया । पुण्यके फल स्वरूप इस चक्रवर्तीने भूमिमोचरी और जिटाधरों की छयानवे हजार कन्याओं से विवाह किया। इस चक्री के आदेश को सिर पर धारण कर बत्तीस हजार मकटबद्ध राजा उसका पालन करते थे।
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चक्रवर्ती राजा प्रियमित्र कुमार के चौदहाना का वर्णन ।
चक्रवर्ती के वैभव का वर्णन । चक्रवर्ती की सेना में अठारह करोड़ घट सवार थे।
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आचार्य श्री
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चक्रवर्ती गजा प्रियमित्र कुमार का वाव ।
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चक्रवर्ती राजा प्रिमित्र कुमार की नव निधि का वर्णन ।
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छप्पय प्रथम सुदर्शन चक्र खण्ड छह साधन समरथ, चरम दुसरो जान वज्रमय नीर भेद पथ ।
मणि काकिणि ये रतन चाहपुरज सम नोई. लिन गुफा महार जाग साधन ना सोई॥ खले दण्ड सों द्वार गिरि, छन्त्र ज्योति अधिकाइ हित । चन्द्रहास प्रसि देख तन, वैरीगण भजि जाय नित ॥३७॥
सेनापति प्रति शूर करत दिग्विजय निरन्तर, बनिता चेतन रतन महा बल धारत अन्तर ।
स्थपति भद्रमुख नाम कलाको विद अधिकाई, हुकम पाय गृहपति तुरत गृह देत बनाई ।। गज रण में जय को करै, हम चढ़ि गुफा निहारिये । प्रोहित वर विद्याधनी, यह गुण रतन विचारिये ॥३।।
दोहा भब प्रतेक नौ निधि तने, कहीं नाम गुण रूप। जनी बिन जाने नहीं, इनको सहज स्वरूप ।।३।।
नवनिधि वर्णन । प्रथम काल निधि जानिये, महाकाल पुनि दोय । नैसर्गिक पाण्डुक पदम, मानव पिंगल सोय ॥४०॥ पाठम शंख निधान निधि, सर्व रतन नम येह । कहीं जिनागम के विषे, वरणों गुण कछ तेह ॥४१॥
पद्धडि छन्द । अब प्रथम कालनिधि गुण अपार, पुस्तक अनेक दातार सार । मुनि महाकाल दूजो मनोग, असि मषि साधन सामग्री जोग ॥४२॥ तीजी नैसपिकि निधि महान, नाना विध भाजन रत्नखान | चौथी निधि पांडक नाम सोय, रस धान्य सम सफल तोय ॥४३॥ निवि पद्म पाँचवीं सुक्ख खान, मनवांछित देय जु बसन दान । मानव निधि छटवीं परम हेत, सो प्रायुध जाति अनेक देत ।।४४।। सप्तम निधि पिगल शुभ अनूप, सब भूषण दायक सहज रूप । निधि शस्त्र प्राटवी बहु पुनीत, वादित्र सकलदायक सुनीत ॥४५॥ निधि सर्व रतन नवमी बखान, सो सर्व रतन तापर निदान । सिन एक एक प्रति सहस एक, रखवारे जहं प्रापत अनेक ॥४६।।
दोहा
ये नौ निधि चक्रेश की, शकटाकृति संठान । पाठ चक्र संयुक्त शुभ, चौखं टी सब जान ।।४७।। जोजन पाठ उतंग प्रति, नव जोजन विस्तार । बारह मिति दीरघ सकल, वसे गगन निरधार ॥४८॥
नगरादि वर्णन। पद्धडि छन्द
मामले मरस बत्तीस देश, घन कन कंचन पूरण विशेष । बाड़े चहुं ओर जू विपुल बाड़ि, ते कोड़ छयानब गांव माड़ि॥४६॥ है कोट स गिरदा द्वार चार, छब्बीस सहस पुर इमि बिचार। जिन लग पाँचस गांव भुर, ते चार हजार प्रटम्स पर पर निरनदीपेठ सोलह हजार, वे खेट कहै जिनमत मंझार । केवल गिर वैहे वहूं ओर, कर्वट हजार चौवीस जोर ॥५शा पटन हजार अडताल जान, उपजें जहं बहुविध रत्न खान । इख लख द्रोणामुख सहस घाट, ते वसत समुद्रतट दुःख काट ॥१२॥ गिरि ऊपर सम वाहन वसान, चौदह हजार मन हरण थान। मठवास हजार दुरग माहि, रिपृको प्रवेश तह रंच नाहि ।।11 उप समद मध्य जानो महान, तह अन्तद्वाप छप्पन प्रमान । रतनाकर पुर छब्बिस हजार, बहसार वस्तु को सो भंडारा
न कळक ससात लेख? जहं रतनधरा चहुं ओर देख। ये पुर राजे सब पाप जोग, जिनधरमी तन तह कर भोग ।।५५||
सचक्रवर्ती के यहां चौरासी हजार पंदल पुरुष थे और हजार गण बाले देव थे। अठारह हजार म्लेच्छ राजानों का पास इसके चरण कमलों की पूजा में सदा लीन रहता था । सेनापति, स्थपति, स्त्री, हम्यपति पुरोहित, हाथी, घोड़ा, दण्ड, चक्र चर्मकाकिणी, मणि, छत्र, प्ररि ये चौदह रत्न उसे प्राप्त थे, जिनकी देव लोग रक्षा करते थे। पद्म. काल महाकाल
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शरीर वर्णन ।
दोहा प्रथम चतुर संस्थान सम, वज्र वृषभनाराच । हेम वरण व्यंजन सहित तन निरोग मधु वाच ॥५६॥
अन्य विभूति वर्णन एर कोट हल क्षीर के, खेती करहि किसान । कामधेनु गोकुल विविध, तीन कोट परबान ।।५७।। कोट थान कंचन तने, चक्री नप के गेह । छहों खण्ड भूपति सकल, तिनते अतिवल देह ॥५६॥
बल वर्णन
चौपाई अब सुन मन को भेदाभेद, जात नासै मन को खेद 1 बारह मनुष गहै बल जिती, एक वृषभ में वरते तिती ॥५॥ जो बल बारह वृषभ मझार, निसान एक तुरंग मार हो तुरंग बारह न्यूल लियं, जो बल एक महिष के हिये ॥६॥ महिष पांच सौ जो बल घरं, सो गजराज सहस ता करै। जो बल सो गयद सरवग, सोई एक सिंह के अंग ॥६॥ सिंह पांच से जो बलवान, सो बलभद्र एक में जान । दो बलभद्र धरं बल जोय, सो नारायण के तन होय ॥६॥ नौं नारायण बल धारंत, सो चको तन होय तुरंत । चक्री कोट होय बल जितो, सोई एक देव परिमिती ॥६३।। जो बल कोट देव के प्रङ्ग, तितनो एक इन्द्र सरवंग। तीर्थकर अद्भुत बल कही, तन परमाणु उतने वही 11६४||
दोहा
सहस छ्यान विक्रिया, धारत चक्री अङ्ग । मति श्रुत अवधि जु ज्ञान त्रय, पूरव धर्म मभंग ॥६५॥
मुख्य सम्पदा वर्णन
छन्द चाल अब मुख्य सम्पदा जोई, आग सुनियो भवि सोई। सिंह वाहन सेज मनोगा, प्रारूढ़ चक्रपति जोगा ।।६६।। अति प्रासन तुंग वस्वानो, मणि जाल जटिल परवानौ । सुर ढोरत चमर पनूपा, गंगा जल लहर सरूपा ।।६७॥ विद्यत मणि कृण्डल सोहै, बुति देखत सुरनर मोहै । वर कवच प्रभेद महाना, जामैं न भिदै रिपु बाना ॥६॥ विषमोचक पादुक दोई, पद पद विषमुचक सोई । प्रजितंजय रथ सुखदाई, जलप सो थलवत जाई ॥६॥ पनि वज्रकाण्ड धर चापा, सचढ़ावत नरपति पापा । अमोघ वाण हाथ में लेई, रण में जय को सो देई ॥७॥ तडा अति विकट महाना, पून खण्डन शक्ती जाना । सिंहाटक बरछी सौहै, ताको नर देखत डोहे 11७१॥ छरी लोहबाहनी जानौ, दामिन गण चमकत मानौ। ये वस्तु सबै भूथाना, चक्रो तज होत न माना ॥७२॥ दल मै ले सब गिरदाई, भू बारह योजन थाई । बारह विध प्रानन्द भेरी, बारह जोजन ध्वनि घेरी ||७३|| है बजघोप जिस नामा, बारह पट नप के धामा । गंभीरावर्त गरीसा, शख शोभन रूप चौवीसा ७४।। रमणीक ध्वजा बह दीसा, मिति कोट जु पड़तालीसा | इत्यादिक वस्तु अपारा, सब बरणत लहै न पारा ।।७५॥
पाण्डक, नैसर्य, माणव, शंख, पिगल ये नौ निधियां भी प्राप्त थीं, जो चक्रबर्ती के घर में भोगोपभोग की सामग्रियां प्रस्तुत करती रहती थीं।
चक्रवर्ती का पुण्य इतना प्रबल हया कि उयानवे करोड़ ग्राम तथा योग्य सम्पदायें इसे प्राप्त हुई। मनुष्य देवों द्वारा उसकी पूजा होने लगी और दशांग भोगकी सामग्रियों का बड़े आनन्द पूर्वक उपभोग करने लगा। प्राचार्य का कथन है कि, धर्मसाधन से ही इस जीव के समग्र मनोरथोंकी सिद्धि हुआ करती है । अर्थ धर्म कामको सम्पदायें और मोक्ष को इसी से प्राप्ति होती
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निर्णन.मानारी श्री सविधिसागर जी महार
चकवर्ती राजा प्रियमित्र कुमार अपनी रानी सहित जिन मंदिर में
प्रियमित्र कुमार की बाल्यावस्था
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प्रियमित्र भर चक्र की विमति
प्रियमित्र कुमार की विभूति ।
चयवर्ती राजा का वैभव ।
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गर जी महाराज
यक्षों ने दाग नानिधि को नआ और विषप्ट राजा की सेना ।
लक्ष्मी का अभिषेक।
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पंचन्द्रिय विषय वर्णन
चौपाई रवि विमान है जैसो अख, सो चक्रो निज द्रगसों लखै । राई ठनक सबद दल होई, ततछिन सुनै शबद कर सोइ ॥७६।। दल मुगन्ध दुर्गन्धा जिती, नाका विषय सौं जानौ तितौ । पदस भोजन इकठे कर, रसना स्वाद जुदे जुद धरै ।।७७।। सहस छयानवे नारीगेह, तितनी धरै विक्रिया देह । सूल शरीर पट्ट तिय संग, नित प्रति योग विषय यह अङ्ग ॥७८||
दोहा यह विधि चक्री भोगवे, अखै सम्पदा जेह । सेनापति माज्ञा वहै, नवविधि दल रचि देह |७६||
दल (सेना) भेद वर्णन
चौपाई नौ विधि दल भाष्यो जिनदेव, ताको भेद सुनी स्वयमेव । प्रथम पती सेना सुख नोक, पंचम बाहन चमू जु ठीक ||oil वरूथिनी दंडी क्षौहिणी, जाको भेद सुनौ अवगुणी। इक इक गजग्थ बाजी तीन, पाइक पंथ पती गुण लीन ॥८॥ गजरथ तीन तीन नव बाज, पन्द्रह पाइक सेना साज । जौ गजरथ रथ हय सतबीस, सुखके पाइक पेंतालीस ॥२॥ सप्त वीस रथ गज पहिचान, इक्यासीय तुरंगम जान । पाइक सब इकसं पैतीस, दल अनीक है कहो जिनीश ॥३॥ गज इक्यासी रथ पुन तिते, ह्य दोस तेतालिस मितं । प्यादे कहै चारस पांच, भेद वाहिनी को यह साँच ॥४॥ दो संतालीस गयंद, तितने ही रथ कहै जिनंद । उनतिस अधिक सात से बाज, वारहसै पन्द्रह पद साज ||५|| चम् तनी है संख्या इति, वरूथिनी अब भास्यो तिती। सात से बावन तिस गज कहे, पुन तितने ही रथ सरदहे ॥६॥ है सहस्त्र इकसौ हय जान, तापर अधिक सतासी मान । पाइक तीन सहस से षष्ट, अरु पैंताल वरूथी गुण्ट ||| है सहस्त्र इकसौ गजराज, तापर अधि सतासी साज । रथ संख्या इतनी मानिये, षट् सहस्त्र यह बर जानिये || और पांच से इकसठ होय, आगे सुन अब पायक सोय । दश सहस्त्र नौ से पंतोस, दण्ड भेद भाषौ जिन ईसा गज एक सहस सहस शत पाठ, ताप अधिक जो सत्तर ठाठ । तितने ही रथ लीजो जान, पैसठ सहरा वाजि पहचान की छहस दश ता ऊपर गर्न, पैदल एक लाख तहभने । नव सहस्त्रात साढ़े तीन, क्षोहिनी संख्या यह परवीन ॥६१||
महल वर्णन
दोहा मन्दिर चौरासी खनै, उपमा है असमान । परम भूति चक्रेश की, जिनमत लीजो जान ।।१२।।
धर्म प्रवृत्ति वर्णन
चौपाई होय धरम सो सिद्धि अनेक, अर्थ काम सब सुख प्रत्येक । जब कुधर्म को त्याग जु करै, मोखननी सामग्री धरै ॥३॥ यह जानै नित सुबुध मनोग, मन, वच, काय कर्म-संजोग । सुक्रत आदि...अनेक प्रकार, धरै धर्म उत्तम सुखकार | सम्यग्दर्शन शुद्ध स्वरूप, निशंकादि गुणरूप अनूप । निर अतिचार अणुव्रत मीत, पालै सागारीधरि प्रीत ।।१५।।
है। यह समझकर उस बुद्धिमान ने मन-वचन काय से धर्म की शरण ग्रहण की। शंका प्रादि दोषों से सर्वथा दूर रहकर सम्यग्दष्टि राजाने धावकोंके १२ व्रत धारण किये । वह चारों पर्व दिनोंको प्रारम्भ रहित पाप नाशक प्रोषधोपवासोंका पालन किया करता था।
. ऊंचे और भव्य जैन मन्दिरों का निर्माण कर उसने स्वर्ण और रत्नमयी कितनी ही जिनेन्द्र मूर्तियों की स्थापना की, वह अपने घर के चैत्यालय तथा अन्य बाहर के भी जिन-मंदिरों में भक्ति भाव से पूजा करने के उद्देश्य से पाया करता था। साथ ही
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चार पर्व प्रोषध को धरै, निषदिन सदा पाप परिहर । निरारम्य हिरदै शुभ ध्यान. अशुभ ध्यान की कीनी हान ||१६॥ हेम रतनमय जिनगृह सार, करबाये बहु तुग विचार । पर प्रतिमा कीनी जिन तनो, भक्ति प्रतिष्ठा प्रादिक धनी ॥७॥ अष्टद्रव्य जल ग्रादिक जान, बहु सामग्री सहित महान । श्री तीर्थकर पूजा करे, तिन गुण कारण कर सिर धरै ॥१८॥ मुनिको प्रासुक देई प्रहार, विधिपूर्वक अति शुद्ध विचार । भक्ति सहित बंदें नरईश, कोरति पुण्य बढे जग शीस ||६६।. जहं निर्वाण भूमि जिनतनी, तथा विम्ब अरुमुनि शिर मनी । जाय तहां मुनि बन्दन हेत, धर्म धनी वर भक्ति समेत ॥१०॥ सुनै केवली वचन पुनीत, तत्व अर्थ गर्भित गुणरीत । श्रावक जती धर्म सुखदाय, भेदाभेद कह्यो समझाय ।। १०१॥ सामाइक विध पाल सोय, निशदिन छहों काल जुत होय । निज निन्दा परिगहीं कर, मन विवेक बहू धीरज धरै ।।१०२॥ . इन्हें आदि जे शुभ प्राचार, करें धर्म घर हिये विचार । देहि और को शुभ उपदेश, भबिजन प्रीति सुजगत महेश ।।१०३।।
दोहा ज्यों वारिज जल में बस, करन उससे प्रीत । त्यों चक्री संपति घनी, चल धर्म की नीत ||१०||
जोगीरासा एक समै चक्री नर-नायक, सब परिवार समेत । सीमंधर मुनि समोशरण, थित गये बन्दना हेत।। तीन प्रदक्षिण दे शिर नायौ, पूजा विधि बसु कीनी। भक्ति सहित गणराज प्रणाम, नरकोठा थिति लीनी ॥१०॥ ता हित जिन दिव्यध्वनि सुदर, गणधर प्रति परकाशी । द्वादश विध अनुप्रेक्षा चिंतन, धर्म-दुविध तहां भासी ।।
बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन आयुष पुरण वपु भोगादिक, राज्य रमा सुख साध्यो । दामिनि सम सो चंचल दोस, तातं शिव पाराध्यौ ॥१०६।। मरण कलेश दुखादिक भारी, जीव सहै नित सोई । यात धर्म धरो भवि दृढ़ मन, शरण न जग में कोई ॥ दुःख दुरित जत कर्म फिराक्त, जगतंजान न देवें । तातै यह संसार भ्रमण तज, रत्नत्रय व्रत सेवें ॥१०७।।
राज्य-द्वितके लिये वह मनियोंको प्रासुक आहार-दान भी दिया करता था। कभी कभी तीर्थकर गणधर और योगियोंकी वन्दना पजाके लिये यात्रा किया करता था। वह चक्रवर्ती सर्वदा अंग पूर्व के ग्रंथों को श्रवण करता तथा दोनों प्रकार से धर्मके स्वरूप का विचार करता था।
वह रात दिन किये गये अशुभ कर्मोको सामायिक प्रादि शुभ कार्यों द्वारा नष्ट करता और साथ ही अपनी निन्दा करता था 1 कि, प्राज मैंने ये पाप किये । इस प्रकार वह शुभ क्रियाओं के द्वारा धर्म का पालन करता था, और दूसरों को उपदेश देता था।
एक दिनकी घटना है। उसदिन वह चक्रवर्ती राजा अपने परिवार वर्ग के क्षेमंकर जिनेश्वरको वन्दना करनेके लिये गया। वहां पहंच कर उसने केबली भगवानकी तीन प्रदक्षिणा देते हुए मस्तक नवाकर जलादि पाठ द्रव्योंसे उनकी पूजा की और मनष्यों के कोठे में जाकर बैठा। उस चक्रवर्ती के हित के लिये वे भगवान अपनी दिव्य ध्वनि द्वारा बड़ी प्रीतिके साथ प्रोपदेश करने लगे। उन्होंने कहना प्रारम्भ किया-संसार के आयू, लक्ष्मी भोग आदि इन्द्रिय जन्य सुख विद्यतके समान क्षणभंगर और विनश्वर है, अतएव भव्य जनोंको सदा मोक्ष का ही सेवन करना चाहिये । संसारमें जीवको मत्यु रोग क्लेश
१. अनित्य भावना राजा रणा छत्रपति, हटियन के प्रसवार । मरना सबको एक दिन अपनी-अपनी बार ।। स्त्री, पत्र, धन प्रादि संसार के सारे पदार्थ नष्ट होने वाले हैं । जब देवी-देवता और स्वर्ग के इन्द्र तथा चक्रवर्ती सम्राट सदा नहीं रह सके तो मेरा शरीर से रह सकता है। केवल प्रात्मा ही सदा से है पीर सदा रहने वाली है। इसके अलावा जितने भी संसार के पदार्थमा प्रतिक्षामात्मा से भिन्न हैं, एक दिन जनसे अवश्य अलग होना है। पुण्य के प्रताप से संसारी पदार्थ स्वयं मिल जाते हैं और अशुभ कर्म पाने पर स्वयं नष्ट हो जाते हैं, तो फिर उनकी मोह-ममता करके कर्मों के पाश्रय द्वारा अपनी प्रात्मा को मलीन करने से क्या लाम?
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अनित्य भावना
महाराज
राजा राणा छत्रपति, हथियन के असवार । मरना सत्र को एक दिन अपनी अपनी बार ॥
अशरस्य भावना
दल वल देवी देवता, गाव पिता परिवार। परती विरियां जीव को कोई न राखन हार ॥
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मंसार भाना
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ianा नया नाम धम!! : in ना सुन गार: सजगदमा छान ।।
एकत्व बावना
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श्रार पोना अदनाम भरेल । बाय । य पटगुना , नाभीसगः नाय ।।
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अन्य चिदानंद अन्य शरीरा ऐसी जिय जब जानं । होय तबै तप सिद्धी संगोत्तम, राग रहित पहिचानं ॥ समय निकलेर अन्ध] [अपूर्ण न वारी ऐसी निज तन देखि सुधीजन, क्यों नहि धर्मविचारी ॥१०॥
आदि दुखोंसे रक्षा करने वाला और कोई दूसरा मार्ग नहीं है। धर्म ही एक शरण है। दुःखादिकों के निवारण के लिये सदा उसका पालन करते रहना चाहिए। संसार सागर दुखों का यागार है, उसके पार होने के निमित्त रत्नमय का सेवन करना पड़ा ही आवश्यक है। जीव को यह समझ लेना चाहिए कि, मैं अकेला हूं, यदि मेरा कोई सहायक हो सकता है तो वे भगवान जिनेंद्र देव हैं। इस प्रकार शरीर से अपने को भिन्न समझ कर ग्राहम ध्यान में शरीर की ममता से मुक्त हो, संलग्न हो जाना चाहिए। यह शरीर सप्त पातुमयी निधित है, दुध का घर है, ऐसा समझ कर बुद्धिमान लोग धर्म का ही द्याचरण करते हैं। अत्यन्त दुः की बात है कि इस प्रकार का ज्ञान होते हुए भी कुछ लोग संसार सागर में डूबे रहते हैं। किन्तु कर्मों को नाश करने के लिये अभ्यवनको जिन-दीक्षा धारण करनी चाहिये।
२- अशरण भावना
दल-बल देवी-देवता, मात-पिता परिवार मरती विरियां जीव को कोई न राखनहार ॥
इस जीव को समस्त संसार में कोई शरण देने वाला नहीं है। जब पाप कर्म का उदय होता है तो शरीर के कपड़े भी शत्रु बन जाते हैं। जब प्रथम तीर्थकर श्री ऋषिभदेव को निरन्तर छः माह तक बाहार नहीं हुआ, तो उनके जन्मोपलक्ष में १५ मास तक साढ़े तीन करोड़ र प्रतिदिन बरसाने वाले देव कहाँ चले गये थे ? सीता जी के अग्निकुण्ड को अली के द्वारा सीता जी को चुराते समय कहां और वृक्षों तक से उनका पता पूछने वाले
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सो गये थे ? हजारों योद्धाओं के प्राणों को नष्ट करके रावण के बम्चन से सीता जी को छुड़ा कर लाने श्री रामचन्द्र जी का प्रेम गर्भवती सीता जी को वनों में निकालते समय कहां भाग गया था ? देवी-देवता, यन्त्र मन्त्र मात-पिता, पुत्र मित्र श्रादि किसी की भी सारे संसार में कोई शरण नहीं है। यदि पुभ्य का प्रताप है तो शत्रु तक मित्र बन जाते हैं। प्रत्यहीन को समे और मित्र तक जवाब दे देते हैं। सारे संसार में यदि कोई शरण है तो जो मात्मा महन्त भगवान की है वही आत्मा हमारी है। जो गुण श्रन्त भगवान् की आत्मा में प्रकट है. वे ही कुछ हमारी भाषा में हरे हुये हैं होने से भी हमारे सामन द्वारा नवीन और संसारी और हम संसारी जीव भी यदि अपनी श्रात्मा के कर्मरूपी मेल को उनके समान दूर कर दें तो हमारी आत्मा के गुण प्रकट होकर हमारी पर्याय भी शुद्ध होकर भगवान् के समान सर्वज्ञ हो जाये। इसलिये जो ग्रह भगवान् को द्रव्य रूप से, गुल रूप से और पर्याय रूप से जानता है। वह अपनी श्रात्मा और इसके गुणों को अवश्य जानता है, और जो अपनी बात्मा को जानता है, वह निज पर के भेद को जानता है। और जो इस भेद-विज्ञान को जानता है, उसका मोह संसारी पदार्थों से अवश्य छूट जाता है। और जिसकी लालसा अथवा राग द्वेष नष्ट हो जाते हैं, उसका मिथ्यात्व अवश्य जाता रहता है । और जिसका मिध्यात्व दूर हो गया उसको सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है। सम्यग्दृष्टि का ज्ञान सम्यक्ज्ञान और उसका चरित्र सम्पर्क चरित्र हो जाता है। इन तीनों रत्नों की एकता मोक्षमार्ग है, जो अविनाशक सुखों और सच्ची शांतिका स्थान है। इसलिये सदा मानन्द ही आनन्द प्राप्त करने के हेतु सारे संसार में व्यवहार रूप से केवल अर्हन्त भगवान् की धरण है।
३- संसार-भावना
दाम बिना निरधन दुखी, तृष्णावश धनवान कहूं न मुख संसार में, सब जग देखो धान ||
यह संसार दुःखों की खान है । संसारी सुख खोड में लिपटा हुआ जहर है। तलवार की धार पर लगा हुआ मधु है। इनसे सच्चे सुख की प्राप्ति मानना ऐसा है, जसे विष भरे सर्प के मुख पर से अमृत झड़ने की प्राशा। जिस प्रकार हिरण यह भूल कर कि कस्तूरी इसकी अपनी नाभि में है उसकी खोज में मारा-मारा फिरता है। इसी प्रकार जीव यह भूल कर कि अविनाशक सुख तो इस की अपनी निज आत्मा का स्वाभाविक गुण है, सुख और शान्ति की खोज संधारी पदार्थों में करता है। यदि संसार में सुख होता तो छ्यानवें हजार स्त्रियों को भोगने वाला, बत्तीस हजार समस्त संवार) का पति
यार्थीका नारा देते है ऐसे और
राजमुखों को लात मार कर संसार को क्यों मागता? जब संसारी पदार्थों में सच्चा श्रानन्द नहीं, तो इनकी इच्छा और मोह-ममता क्यों ?
४
एकरव-भावना
के
हो इस जीव को साथ
मेरी
ही नर्म करती है. भले होने का फल भोगती है। जितना करें, परन्तु को हमको हो रहा है उसमें कदाचित कभी नहीं कर सकते। जब वेदनीय कर्म का प्रभाव कम होगा तभी दूसों से कमी
मित्र आदि हमारे को देखकर बाहे
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कार्मास्त्रव कर जीव निरन्तर, भवसागर में भास । जात यहै बुध दीक्षा गहु सुध, जाय मुक्ति प्रकास ।। कर्मास्त्रत्रको प्रावत रोको, सोई सबर जानो । जानि सुधि ग्रहको तन तपकर-धारे मुक्ति पयानो .. १०६।।
दुविध निर्जरा कर्म संपूरन, तप कर ताहि खिराब । मुक्ति रमा की बांछा निशदिन, भविजन काल गमावै ।। दुख सुख पाय जगत्रय भ्रगतै, और न कबहूं आवै । तात स जम भजहु सुधोजन; सुख अनन्त लहावे ॥११०।।
यह ध्रुवसत्य है किकर्मों के संबर से मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, अतएव गृहवास त्यागकर मुक्ति के उद्देश्य से संबर का प्रयत्न करना चाहिए । संसार में सत्पुरुषों के समस्त कमों को निर्जरा तप से हुआ करतो है। ऐसा समझकर सदा निष्पार ताम संलग्न रहना चाहिये । वस्तुतः इस लोन जगत को दु.रस का स्थान समझ कर अनन्त सुख प्रदान करने वालो मोक्ष को प्राप्ति के लिये संयम धारण करना चाहिये । मानब शरीर. उत्तम कुल, आरोग्यता, पूर्ण आयु, सुधर्म आदि को प्राप्त कर लेना बड़ा कठिन होगी। चारों घातिया कर्मों का गंबर तथा निर्जरा भी ग्रारमा अकेली ही करके महन्त अथवा प्रघातिया कर्मों को भी काट कर सिद्ध होकर अविनाशी सुखों का अलि ही अानन्द जुटती है । जव अात्मा का कोई दूसरा साथी गङ्गी नहीं है तो संसारी पदाथों, कषायों और परिग्रहों को अपनाकर अपनी प्रात्मा को मलीन करके मंसारी बन्धन दृढ़ करने से क्या लाभ ?
५- अन्यत्व-भावना जहां देह अपनी नहीं, तहां न अपनो कोय । घर सम्पति पर प्रगट थे, पर है परिजन लोय ।। जिस प्रकार म्यान में रहने वाली तलवार म्यान से अलग है उसी प्रकार शरीर में रहने वाली प्रात्मा शरीर से भिन्न है । प्रात्मा अलग है, शरीर अलग है, आरमा चेनन, ज्ञान रूप है शरीर जड़ ज्ञान, शून्य है । आत्मा प्रमूर्तिक है, शरीर मूर्तिमान है । प्रात्मा जीव (जानदार) शरीर अजीव (बेजानदार) है । प्रात्मा स्वाधीन है और शरीर इन्द्रियों द्वारा पराधीन है। आत्मा निज है, शरीर पर है। आत्मा गग-द्वेष, फोघ-मान, भव-खेद रहित है, शरीर को सर्दी गर्मी, भूष-पास आदि हजारों दुग्न लगे हैं । इस जन्म से पहले भी यही प्रात्मा थी, और इरा जन्म के बाद नरक, स्वर्ग, ग्रहन्त अथवा मोन पान करने पर भी यही मामा रहेगरे । अात्मा नित्य है, शरीर नष्ट होने वाला है, प्रात्मा के चोला बदलगे पर यही शरीर यहीं पड़ा रह जाता है। ज प्रत्यक्ष में अपना दिखाई देने वाला यह शरीर ही अपना नहीं, तो स्पष्ट अलहदा दिखाई देने वाले स्त्री, पुत्र, घन सम्पत्ति यादि कैसे अपने हो सकते है ? जब उनका संयोग सदा नहीं रहता तो इनकी मोह-ममता क्या । जिरा प्रकार किरायेदार मकान से मोहन रखकर किराये के मकान में रहता है, उसी प्रकार जीव को शरीर का दाम न बनकर शरीर से जप-तप करके अपनी यात्मा की मलीनता दर करके शुद्धचित् रूप होना ही उचित है।
६--अशुचि-भावना दिप बाम चादर मही हाड़ पिंगरा देह । भीतर या सम जगत में और नहीं घिन गेह ।। आत्मा निर्मल है, इसका रवभाब परम पवित्र है । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, चिन्ता, भय, खेद यादि १४ अन्तरङ्ग तथा स्त्री, पुव, दास-दासी, धन सम्पत्ति अादि इस प्रकार के बहिरङ्ग परिग्रहों से शुद्ध है । शरीर महा मलीन है । इसका स्वभाव ही अपवित्र है, इसके द्वारों से हर समय मल-मूत्र, सून, पीप अादि टपकते हैं । अनादि काल से अनेक बार शरीर को खून धोया परन्तु क्या कोयले को धोने से उसकी कालिमा नष्ट हो जाती है ? यदि मैं अपनी प्रारभा को कपायों और परिग्रहों से एक बार भी शुद्ध कर लिया होता तो कमरूपी मल को दूर करके हमेशा के लिये शुद्धचित् रूप हो जाता। जिन्होंने पानी अात्मा को सांसारिक पदार्थों की मोह-ममता से शुद्ध कर लिया, वे अजर-अमर हो गये, गोक्ष प्राप्त कर लिया, आवागमन के फंदे से मुक्त हो गरे । यदि मैं भी पर पदार्थों की लालसा छोड़ दूं तो पाठों कर्म नष्ट होकर सहज में अबिनाशक सुखा के स्थानमोक्ष को अवश्य प्राप्त कर सकता है।
७-आस्रव भावना मोह नोंद के जोर, जगवासी धूमैं सदा । कर्म चोर पहुं ओर, सरबस लूटें सुध नहीं । सारे ससार में मेरा कोई बुश या भला नहीं कर सकता और न मैं ही किसी दूसरे का बुरा या भला कर सकता हूं । गरे का बुराव होगा जब उसके पाप कर्म हुक्ष्य में प्रागे, केवल मेरे चाहने से उसका वरा नहीं हो सकता । हां किसी का बुरा चाहने से मेरे कर्मों का पाचव हो कर मेरी मारमा मलीन हो, मैं स्वयं अपना बुरा कर लेता हूँ । इसी प्रकार जब मेरे अशुभ कर्म आवेंगे तो दूसरे के मेरा बुरा न चाहने पर भी मुझे हानि होगी । और शुभ कर्मों के समय दूसरों को बरा करने पर भी मुने लाभ होगा। जब कोई मेरी पात्मा का वरा नहीं कर सकता, तो शत्र कौन । और जय किसी दूसरे रो मेरी मात्मा का कल्याण नहीं हो सकता तो मित्र कौन ? मैं स्वयं पांच प्रकार के मिथ्यात्व, बारह प्रकार के अवत पच्चीस प्रकार के कषाय और पन्द्रह प्रकार के योग करके मत्तावन द्वारों से स्वयं कर्मों का पानव करके अपनी आत्मा के स्वाभाविक गुण, अधिनाशक सूख व शांति की प्राप्ति में रोड़ा अटवाने के कारण स्वयं अपना शत्र बन जाता है।
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अशुचि भावना
आमार्य श्री सुम्वाहासागर जी महाराज
दिप चाम चादर गणि, हाड पीजग दह । भीतर या सम जगत में, और नही घिन गेह ।।
अन्यत्व भावना
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जहा दह अपना नही, तहां -[ नाना कोय । घ२ सम्पत्ति पर प्रगट ये, पर परिजन लाय॥
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आत्रब भावना
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:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
मन के जीर, जगवामी नमें सदा । रामनार पोर, मरयम नसधि नहीं ।।
मंचर भावना
पर जमा, माटोद जगम । नवनवन आय. कमेनार आयत एक ॥
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लोक भावना
निर्जरा भावना
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ज्ञान दाप तप तेल भर पर सोधे भ्रम छोर । या बिधि बिन निकम नहि, चंठे पूरब चार ।। पंच महावत संचरण, समिति पंच परकार। प्रवल पंच इन्द्री विजय, धार निर्जरा सार ।।
बौदह राज उतंग नभ, लोक पप मंठान । तामें जीव अनादि नं, भरमन हैं बिन ज्ञान ।।
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बोधि दुभ भावना
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धन, बन कचन राज गव, गाह मूलभ कर जान । दुर्गभ है ममार में, एन जथारथ ज्ञान ।।
धर्म भावना
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जा, शुता दय सम्ब, चिन्नन चिन्ता न। बिन आने विन चिन्तय, धर्म राजन मुख दन ।।
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इक इन्द्रीत दुर्लभ दुर्लभ, पंच इन्द्री अति पाई। नर भव पाय तपस्या कोज, जामें मोक्ष लहाई।। धर्म जिनेश्वर भापित जग में, सुख करता जिय होई । भव दुख हरन करन शिव प्रापति, भविजन पाला सोई ॥११॥ राम्यग्दर्शन ब्रतादि क्षमादिक, दशविध धर्म बखाने। ताहि धरै सुर शिव प्रापति लहि, वांछित सधी सयान ।। सखिया जनको सुक्ख बढ़ावत, दुखिया को दुख घात । धर्म दुविध जति धावक गोचर, होई सकल सिध बातं ॥११॥
है, इसलिये बुद्धिमान लोगों को अपने हित-साधन में सर्वदा सलग्न रहना चाहिये । केवली भगवान ने इस प्रकार त्रैलोक्य का सख प्रदान करनेवाला तथा दुःखों को विनष्ट करने वाला धर्मोपदेश किया। केवलो भगवान ने जिस धर्मका उपदेश किया. वर
८-संवर भावना पंच महादत संचरण, समिति पंच परकार प्रबल पच इन्द्री विजय, घार निर्जरा सार ।। पांच समिति, पांच महाव्रत, दस धर्म, बारह भावना, तीन गुती बाईस परिषय जय रूपी सत्तावन हाटी से में स्वयं मानव (कर्मों का यानका संवर (रोक थाम) कर सकता है और इस प्रकार अपनी प्रात्मा को कम सपी मल से भलीन होने से बचा सकता है।गरा मेरी प्रात्मा का भला-बुरा करने वाला सारे संसार में कोई दात्रु या भित्र नहीं।
--निर्जरा-भावना जाग दीग ता तेल भर, घर सोचे भ्रम छोर। या विध बिन निकस नहीं, बै? पूरव चोर।। जिस प्रकार एक चतुर पोत संचालक टेद हो जाने से जहाज में पानी घुस माने पर पहले रटेदों को बन्द करता है और फिर जबरानो हए पानी को बाहर फेंक कर जहाज को हल्का करता है जिससे उसका जहाज बिना किसी भय के सागर से पार हो सके, उसी प्रकार ज्ञानी जीव पहले मानव रूपी छेदों को संवररूपी डाटों से बन्द करके कर्भ रूपी जल को पाने से रोक देता है, फिर मात्मारूपी जहाज में पहले हकदा हा कर्म रूपी जल को तप रूपी अग्नि से सुखाकर निर्जर (नष्ट) कर देता है, जिससे मात्मारूपी जहाज संसार रूपी मागर को बिना किसी मय पार . कर सके।
१०.-लोक-भावना चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान । तामें जीव अनादित, भरमत है बिन ज्ञाम ।। यह संसार (Universe) जीव (Soul) मजीव (Matter) धर्म (Medium of raotion) अधर्म (Medium of rest) काल (Time) अाकाश (Spacc) छः द्रव्यों (Substances) का समुदाय है । ये मर द्रव्य सत् रूप नित्य हैं, इसलिए जगन भी सत् रूप नित्य, अनादि और प्रकृत्रिम है, जिसमें वे जीव देव, मनुष्प गशु, नरक, चारों गतियों में कर्मानुसार भ्रमण करता हुमा अनादि काल से आवागमन के चक्कर में फस कर जन्म मरण के दुःषों को भोग रहा है। जिरा प्रकार पान से छिलका उतर जाने पर उसमें उगने की शक्ति नहीं रहती, उसी प्रकार जीव भात्मा से कर्महषी छिलका उतर जाने पर पात्मा चावल के समान शुद्ध हो जाती है, पोर उसमें जन्म की शक्ति नहीं रहती और जब जन्म नहीं तो मरण पोर यावागमन कहां? कर्मों का फल भोगने के लिये ही तो जीव संसार में कल रहा है। बच शुभ प्रशभ दोनों प्रकार के कर्मों की निर्जरा हो गई तो फल किसका भोगेगा? इसलिए ससार के अनादि भ्रमण से मुक्त होने के निथ निजराभ भिन्न भौर कोई उपाय नहीं।
११-बोधि-दुलभ भावना धन कन कंचन राजसुख, सबहि सुलभकर जान । दुर्लभ है संसार में एक जथारथ ज्ञान । इस जीव को स्त्री, पुत्र, धन, शक्ति प्रादि तो अनादि काल मे न मालूम कितनी बार प्राप्त हुँ, राज-सुख, चक्रवर्ती पद, स्वगों के उत्तम भोग भी अनेक बार प्राप्त हुये, परन्तु सच्चा सम्यक ज्ञान न मिलने के कारण आज तक संसार में रुल रहा हूं। मैंने पर पदायों को तो तुम जाना, परन्तु अपनी निज प्रात्मा को न समझा कि मैं कौन है ? बार -बार जन्म मरण करके ससार में क्यों भ्रमण कर रहा हूं ? इससे मुक्त होने और सच्दा सुस्त्र प्राप्त करने का क्या उपाय है ? जब संसारी पदार्थों की लालसा में फंस कर उनसे मुक्त होने की विवि पर कभी विचार नहीं किया तो फिर मुक्ति कैसे प्राप्त हो? इसलिए ससारी दुःखों से छूटने के लिये और सच्ची सुख शांति प्राप्त करने के लिये निज पर के भेद-विज्ञान को बिश्वासपूर्वक जानने की अावश्यकता है।
१२--धर्म-भावना जाँचे सुरतरु देव सुख, चितव चिन्ता रैन । बिन जांचे बिन चिन्तये, धर्म सकल सुम्बर्दन ।। अपनी आत्मा का स्वाभाविका गुण ही प्रास्मा का धर्म हैं। प्रात्मा के स्वाभाविक गुण तीनों लोक, तीनों चाल में समस्त पदार्थों को एक साथ जानना, सारे पदार्थों को एक रााथ देखना, अनन्तानन्त शक्ति और अनन्त गुम्न को अनुभव करना है । वह धर्म सम्बकदर्शन, साम्यज्ञान, सम्यकचारित्र, रत्नत्रय रुषी है, अहिमामयो है दवालक्षण स्वरूप है। इनको प्राप्त करने से आठों कयों को काट कर मोक्ष (Silvation) प्राप्त करके सच्चा सुख और घात्मिक शांति प्राप्त कर सकता है।
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होत धर्म सों पण्डित बढ़ विध, धर्म सर्व सुखकारी! धर्म जमत में पूजत उक्तिम धर्म सुगुरु गन भारी॥ इहि विधि जिन मुख, द्वादशप्रेक्षा सुन चक्री बरामे। आयु रमा तन भोग जगत्त्रय, क्षण भंगुर सब लागे ॥११३।।
चक्रवति का वैराग्य वर्णन धिक धिक् यह संसार महावन, भटकत पोर न आयो । ज्यों चौगा नबटा धर डोल, हाथ कछू महि पायो॥ कब्रही जाय नरक दुख भुजै, छेदन भेदन होई । कबहूं पशु परजाय पाय जिय, ध बन्धन बहु जोई ।।११४॥ सुर पद में पर संपति लखि क, राग उदै दुख पावै। मानूष जन्म सूखी नहि कोई, विपत अनेक बढ़ावै ।। मैं चक्री पद भोग घनेरे, भुगते, तपति न होई। जैसे अगिन प्रज्वले तैलसु, डारत शान्त न होई ।।११।। दरशन ज्ञान चरन नि- जियको, बदधि पार पाने । रतै दीक्षा ग्रहण भलो, अब तपकर कम खिराव ।। सकल सपदा जीरन तृणवत्त, छोड़ी नृप अनुरागी । सहस छयान नारि पियारी, मन वच कमकर त्यागी ॥११६॥ सर्वमित्र सुत प्रथम अनुक्रम, राजभार तसु दीनौ । आपुन भूषण बसन उतार, जिन मुद्रा मन लीनी ।। एक हजार नृपति संग चक्री, पंच महाव्रत धारं । गृह तब वन में बसहि निरन्तर, तिन पद हम शिर धारें॥११७।।
दोहा छहों खण्ड संपत्ति घनी, छोड़त लगी न वार । धन मुनीश प्रिय मित्र चित, सुकृत सुवृद्धि अपार ॥११॥
तपवर्णन
चौपाई दुविध प्रकार करै तप घनौ, धीर बोर चित्त पर्वत मनी । ध्यानी ध्यान मध्य बह लीन, तज प्रमाद चउदह मल होन ॥११६।। मूलोत्तर गुण प्रादिक जोय, सम्यग्दर्शन पाले सोय । तीन काल जुत जोग मझार, तीन गुप्ति को सदा विचार || १२०॥
सम्यकत्व, जान, चारित्र तप के योग से एवं क्षमा प्रादि दस लक्षणों से युक्त होता है। उससे मोह और संताप का सर्वथा नाश हो जाता है। मोक्ष की इच्छा रखने वाले भव्य जीवों को मोक्ष-प्राप्ति के लिये उस धर्म का पालन करते रहना चाहिये । सुखी पुरुषों को सुख की वृद्धि के लिये और दुःखी जीवके दुःख को बिनष्ट करने के लिये सदा धर्म का माधय ग्रहण करना चाहिये।
केवली भगवान पुनः कहने लगे--संसार में वही पण्डित और बुद्धिमान है, उसी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है, वही जगतपूज्य है, जो अन्यान्य कार्यों को अलग कर निर्मल आचरणों से धर्म का सेवन करता है। इस संसार को तथा अपनी प्राय को विनश्वर समझ कर बुद्धिमान लोग संसार तथा गृह का परित्याग कर देते हैं। भगवान को दिव्यवाणी का चक्रवर्ती पर ऐसा हृदयग्राही प्रभाव पड़ा कि, वह लौकिक भोगों और राज्य से एकदम विरक्त हो गया। उसने मन में विचार किया---प्रत्यन्त खेद है कि, मैने प्रज्ञान में संसार के विषय भोगों का सेवन किया फिर इन्द्रियाँ तप्त नहीं हुई। अतः जो लोग भोगों में लिप्त रहना चाहते हैं, वे मुख तेल मे अग्निवी शान्ति करने का प्रयत्न करना चाहते हैं। जीव को जैसे-जैसे भोगोंकी उपलब्धि होती जाती है, उसी प्रकार उनकी तष्णा भी बलवती होती चली जाती है। जिस शरीर से यह जीव सांसारिक भोगोंका उपभोग करता है, वह शरीर अत्यन्त दुर्गन्धमय और मल मूत्रादि का घर है।
यह राज्य भी पापोंका कारण है। स्त्रियां पापोंको खानि है और बन्ध बगरह कुटम्बी बन्धन के समान है और लक्ष्मी वेश्या के समान निन्दनीय है। विषयादिक सुख हलाहलके समान हैं और संसार को जितनो भी वस्तुएं हैं,वे सबको सब क्षणभुगुर हैं। अधिक क्या कहा जाय, ससार में रत्नत्रय के सिवा न दुसरा तप है और न जीवों का हित करने वाला है । अत: अब मुझे ज्ञानरूपी तलवार से अशुभ मोह का जाल काट कर मोक्षके लिये जिन-दीक्षा धारण करनी चाहिये । संयमके बिना अब तक का मेरा जीवन व्यर्थ ही गया। किन्तु अब उसे व्यर्थ जाने देना किसी भी दशा में कल्याण कर नहीं हो सकता । मन में ऐसा विचार कर प्रियमित्र चक्रवर्ती ने अपने सर्वप्रिय नामकः पुत्र को राज्यका भार समर्पित कर रत्न निधि आदि सारी सम्पदामा का तृणवत पारत्याग कर दिया।
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बसें मुनि जहाँ निर्जन थान, अटवी गिरि पर गुहा मसान | बिहरे ईर्जापथ पग देत, देश ग्राम संबोधन हेत ॥ १२१ ॥ पास मास उपास कराहि चरजा हित सुनि ग्रामहि जाहि । अन्तराय पाने पर नेह सुखहार भाव मे ।।१२२|| तहां धर्म उपदेश जु करें परभावना अंग विस्तरे । जिन शासन माहात्म्य अपार नर स्वरूप पूजन जगसार ॥ १२३॥ इने यादि जे परम आचार पाने संजम रहित विकार बहुत काल तप कीनी सार, अन्त समाधि धीर गुखकार ॥१.२४ ।। चार प्रकार तो चाहार, परमारथ पद प्रापतिकार अंगीकार कियो सन्यास घरी जोग प्रतिभा सम जाय ।। १२५ ।। जीत परिवह दो अरू बीस, क्षुधाप्यास आदिक मुनि ईस । तपकर कीने कर्मन होन, थाप धर्म को परगत क्रीन || १२६ ॥ आशयन आराधी चार मुक्तितनी साधक सुखकार तजे प्रान तनतं परवीन, जिनशासन घ्यायक गुण लीन ॥१२७॥
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दोहा
तह च प्रियमित्र मुनि शुभ उवोत सों सोय सहस्त्रार वर स्वर्ग में सूर्यप्रभसुर होष || १२५ ।।
चौपाई
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जन्म सुपाय सुरंग में सोइ, नय जोबन तन उपज्यो होइ त छिम अवधि ज्ञान को पाय जान्यो त फल पूरवा ।। १२६ ।। फल प्रतच्छ सब देखत गयो, धर्म मार्ग सौ रत बहु भयो । उठकें पहुंच्या जिन आगार, देखे रतन बिम्व सुखकार ।।१३०|| सन परिवार सहित सब देव करो जाय जिनवर की सेव अष्ट प्रकारी पूजा परी सब अनिष्ट तन ते पांरहरी ॥१३१॥ करें कल्पना मन में जोय, अनि वस्तु सो परगत होय । यही कल्पना द्रव्यमान की सुर धरतोत्र विधान ।। १३२ । चैत्यवृक्ष जिन गेह अभंग ते पूजे सूर निर्मल अंग केवलज्ञानी मुनि जिनराज, जहाँ जाय सुर समिति समाज बहुविध धर्मतत्व आचार, सुनं तहां श्रीमुख सुखकार
मे
यादि नन्दीश्वर थान, मध्यलोक वन्दे भगवान ॥१३३॥ शिर नवाय के बन्दन करें, बहु प्रकार पूजा बिस्तरं ।। १३४|| सब विभूति सो तह ते देव आर्या निज ग्राम सुख हे ||१३||
·
उस चक्री ने मिथ्यात्वादि परिग्रहों का सर्वथा परित्याग कर मुक्ति रूपी लक्ष्मी प्रदान करने वाली महंत देव की कही गयी जिन दीक्षा धारण की। वह दीक्षा तीन लोकमें देव तियंच और मिथ्यात्वी मनुष्यों को दुर्लभ है। उस चक्रवर्ती के साथ संवेगादि गुणवाले हजारों राजा भी दीक्षित हुए उन महा मुमिने प्रमाद रहित होकर दो प्रकारका कठिन तप आरम्भ किया। उन्होंने उत्तर गुण और मूल गुणका उत्तम रीति से पालन किया। वे मन वचन कायकी गुप्तियों के माधव को रोकने लगे । निर्जन वन, पर्वत और गुफाओंों में वे ध्यान लगाते थे। उन्होंने अनेक देश नगर और ग्रामोंका बिहार आरम्भ किया ।
वे महामुनि भव्यजीवों के हितके लिये परम पावन जैन धर्मके तत्वों का उपदेश करने लगे। उनके प्रभावसे जनमत की प्रभावना सर्वत्र फैली। अन्तमें चारों प्रकार के आहारों का परित्याग कर उन्होंने मन, वचन काय योगों को रोक कर सन्यास धारण कर लिया। वे अपनी सामर्थ्य से क्षुधा तृषा बाईस परिषहों को प्रसन्न चित्त होकर सहने लगे उन हरिषेण मुनीश्वर ने चारों आराधनाओं का पालन कर प्रसन्न चित हो प्राणों का त्याग किया।
पश्चात् वे मुनि तपसे उपार्जन किये पुण्य के उदय से सहस्वार नाम के बारह स्वयं में सूर्यप्रभ नामक महान देव हुए। उत्पन्न होने के थोड़ी देर बाद ही वे यौवनावस्था को प्राप्त हो गये। उन्हें अवधिज्ञान से पूर्व जन्म के तप का प्रभाव संपूर्ण रूप से परिज्ञात हुआ वह देव अन्यन्त धर्मानुरागी हुया वह धर्म की प्राप्ति के लिये रत्नभयो जिन प्रतिमाओंों के दर्शन के लिये गया। वहां परिवार वर्ग के साथ उसने पापों को विनष्ट करने वाली जिनबिम्बों को पूजा की।
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वह सदा अपनी इच्छा त्योंके नीचे प्रतिष्ठित महंत भगवान की पूजा किया करता था। केवल यही नहीं वह दोनों लोकोंमें जा जा कर प्रकृत्रिम चैत्यालयों की पूजा करने लगा। एक दिन उसने नन्दीश्वर द्वीपमें जाकर तीर्थकर और १. तप और त्याग के प्रभाव से मैं सहस्त्रार नाम के बारहवें स्वर्ग में उत्तम विभूतियों का घारी सूर्यप्रभ नाम का महान्
देव
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हुप्रा ।
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पुण्य जनित लक्षमी पाय, मणि विमान आदिक सुखदाय । परमभोग उपभोग अपार, भुगत तृप्त होइ सुविचार ||१३६।। अष्टादश सागर की प्राव, नेत्रदोष वजित अन राव । सप्त धातु मल रहित जु सोय, साढ़े तीन हाथ तनु होय ॥१३७।। सहस अठारा वर्ष व्यतीत, लेइ सुधा आहार पुनीत । पक्ष अठारा पुरण जाय. स्वासा तन ते तब मुकलाय ।।१३८॥ तुर्यभूमि पर्यन्त विचार, द्रव्य चराचर जाने सार । ऋद्धि विक्रिया यह लों कही, क्षेत्र प्रभाव जानिये सही ॥१३६।। देश ग्राम प्रारण्य पहार, सागर द्वीप असंख्य मझार। इच्छा पूर्वक विहर सोई, देविन सों कीड़ा जुत होइ ।।१४०।। कबहू बीणादिक धुनि सुनै, कबहूँ गीत मनोहर गुन । कबहूं दिव्य देवनि के संग, देखहि सब प्रागार अभग ॥१४॥ कबई धर्मगोठ आदर, कबहूं केवलि पूजा करे। कबहूं श्री तीर्थकर तन, पंचकल्याणक उक्छव ठनै ।।१४२।। इत्यादिक शुभ कर्म संयोग, करै सुक्ख सागर में भोग । काल न जान्यो जातन देव, धर्मवंत गुण ज्ञान प्रभेव ।।१४३।।
गीतिका छन्व इहि भांति शुभ परिपाक करक, चक्रिपद पायो जब । सब सार सुन्दर सुक्ख निरूपम, भोग भुगत बह तब। अति बिमल चरित संजोग करके, देव पद तिन पाइयो। भज धर्म जिनवर मोक्षदायक, 'नवलशाह' प्रणामियौ ॥१४४॥
मुनिश्वरोंकी वन्दना की। वह बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने स्थान को लौटा । उस देव ने पुण्य से प्राप्त हुई लक्ष्मी, अप्सरा, और विमानादि विभूतियोंको ग्रहण कर इन्द्रिय-तृप्ति करने वाले महान भौगों का उपभोग करना प्रारम्भ किया।
उसे सप्त धातु वजित साढ़े तीन हाथ का दिव्य शरीर और अठारह सागर की प्रायु प्राप्त हुई । अठारह हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर वह देव कंठसे झरने वाले अमृत का पाहार करता था और नब मासके पश्चात् श्वासोछवास लेता था। उसे अवधिज्ञान से चौथे नरक तककी जानकारी और विक्रिया करने की शक्ति प्राप्त थी वह अपनी देवियों के साथ बन और पर्वतों पर क्रीड़ा करने में रत हुआ। कहीं बाजोंकी सुमधुर ध्वनि से महा मनोहर गीतों से, कही देवांगनाओं के शृगार दर्शन से, कभी धर्म चर्चा से कभी फेवला भगवान की पूजा अर्चा से, कभी तीर्थकरों के पंचकल्याणादि उत्सवों से प्रसन्नचित हो वह अपने समय को व्यतीत करने लगा।
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छठवाँ अधिकार
मंगलाचरण
दोहा मोह अक्ष-सकर हन्यौ, भविजन रक्षक देव । ज्ञान धर्म करता अरथ, करो वीर जिन सेव ॥१॥
चौपाई याही जम्बूद्वीप बिख्यात, भरतक्षेत्र तामें अवदात | छत्राकार नत्र तह जान, निबसें धर्मीजन सुख खान ॥२॥ नन्दवर्ध भूपति अबनीश, यानन्दवर्धक गुणगण शीस । रानी वीरमती अतिरूप, पुण्यशालिनी शील अनूप ।।३।। चयो सरगस देव पुनीत, तिनके पुत्र भयो कर प्रीत । नन्द' नाम अति रूप विशाल, जग मानन्द करण सुकुमाल ।।४।। बन्दोजन हि दियौ बहु दान, पुत्र महोवछब कियो महान । योग्य अन्न पय पोप कराय, बाढ़ गुण संपूरन काय ।।५।। उपाध्याय के पठ्यो तबै, धरता शास्त्र-शस्त्र को जब। कला विवेक रूप अति धनी, सोहै स्वर्ग देव यह फनौ ॥६॥ क्रम सौ वर पितापद पाय, राज्यविभूति रमा अधिकाय । दिव्य-भोग भगत संसार, सदा धर्म को करहि विचार ॥७॥ निशंकादिक गण पालत, दर्शन युद्ध धरै मन संत । द्वादश धन श्रावक से जान, करै जतन सो ते परवान || निरारम्भ उपवास पुनीत, सकल परव' में कर सुरीत । दान मनि को हर्ष बढ़ाय, देय यथात सुक्ख अधिकाय ||
किये बिनष्ट विवेक से, मोह-शत्रु अपकर्म । करें सिद्ध शुभ कार्य वे, वीर प्रवर्तक धर्म ।। इसी जादद्वीप के भरत क्षेत्र में एक अत्यन्त रमणीक नगर है। उस धर्म की खानि नगर का नाम छत्राकार है । उस समय र का राजा नन्दिवर्द्धन था । बीरवती नामकी उसकी सुशीला रानी थी । वह देव स्वर्ग से चलकर उन दोनों का नन्द नाम था। उसके सौंदर्य और गुणों से सारे नगर को प्रसन्नता हुई। उसका जन्मोत्सव बड़े प्रानन्द से मनाया गण । वह बालक
की भांति बढने लगा। क्रमले उसने शास्त्र विद्या और शस्त्र-विद्याओं का अध्ययन किया। उसकी प्रतिभा यहां तक बढी कि देवोंके सदश जान पड़ने जगा । अनन्तर जबानी की अवस्था में अपने पिता द्वारा राज्य-पद पाकर विभिन्न प्रकारके मोगों क भोग करने लगा। उसने निःशंकादि गुणों के साथ निर्मल सम्यकत्व को धारण किया। थाबकों के बारह व्रतों का अच्छी - - - - - - - -. -..
- -- - -- इन्द्र पद , मनय जन्म के तप का प्रभाव म्वर्ग में भी रहा, धर्म प्राप्ति के लिए मैं रत्नमयी जिन प्रतिमायों के दर्शनों को जाना था, उनकी भक्ति तक ग्रनमोल रनों से पूजा करता था . नन्दीश्वर द्वीप में भी जाकर अकुत्रिम चैत्वालयों की पूजा किया करता था। तीर्थकों तथा मुनिवरों की भक्ति में ग्रानन्द लेता था । कण्ड से झरने बाले अमृत का आहार करता था । तीर्थंकरों के पञ्च कल्याणक उत्साह से मनाता था, जिसके पुण्य फल में स्त्र की प्राय समाप्त होने पर मैं भरत क्षेत्र में छत्राकार नगर के महाराजा नन्दिवर्धन की वीरवती नाम की रानी से नन्द नाम का राजकुमार हमा । धर्म में अधिक रवि होने के कारण धावकों के बारह प्रतों को प्रकटी तरह पालन करता था। धी प्रोष्टिल नाम के मुनि के उपदेश से वैराग्य या गया तो राजगाट को लात मार कर उनके निकट दीक्षा लेकर जेन सा हो गया । और केवली भगवान के निकट सोलह कारण भावनाए मन, वचन काय से भाकर तीथकर नामका गहापुण्य प्रकृति का वध किया। प्रायु के अन्त में पाराधनापूर्षक शरीर त्याग कर, उत्तम तप के प्रभाव से अच्युत नाम के सोलहवें स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में देवों के देव इन्द्र हुआ।
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श्री जिनेश के मन्दिर जाय, महती पूजा तहां कराय । यात्रा कर धर्म के काज, बन्दै गणधर मुनि जिनराज ।।१।। होय धर्म सौ अर्थ अनूप, ताकर बाढ़े सुत्र स्वरूप । अघ त्यागे पावे निर्वान, सदा सासुतौ अविचल थान ॥११॥ वहु विध करं धर्म गुणमूर, दिन दिन बढ़ सुक्ख अंकूर । यही जान भवि धर्म हि गहो, इह भव परभव के दुख दहो ॥१२।। शुभ प्राचार करन परवीन, जिन भाषित मत में लवलीन । मन संकल्प न यतें कोय, सर्व अवस्था में दृढ़ सोय ॥१३॥ ता फल महाभोग उपभोग, अगरी राज मंगदा जोग ! जिदिन काल गमाव सार, सुख सागर की केलि मझार ॥१४॥ एकदिना परमारथ कान, गये भव्यजन सहित समाज । 'पौष्टिल' जो है गुरू परवीन, बन्दै तिनक पद गुण लीन ॥१५॥ अष्ट द्रव्य ले पूजा करी, जथाशक्ति मुनि थति विस्तरी । भक्ति सहित शिर नयौ महीप, बैठी पुन मुनि पाय समोय ॥१६॥ ता हित पर-अरथी मुनिराय, भाषौ जती धर्म समुदाय । तत्व पदारथ आदिक सार, तत्व पदारथ शिव अधिकार ॥१७॥ मास्थल सम यह संसार, तामें दुःख अनन्त अपार । दोष अन्त तँ रहित सदोव, कैसे कहां बसें भव जीव ॥१८॥ अरू जो दुख संसार न होय, बहु संपूरण सुखत तह जोय। तो पुन सुतप गहैं किम काज, जिनवर आदि सबै मुनिराज॥१६॥ क्षुधा प्यास कामादिक कोप, प्रजुलित निश दिन जिय चित लोप । जहां कुटिलता तन धारत, धीरज धरे तहीं बुधवंत ॥२०॥ इन्द्रियादि तस्कर सब जोय, धर्म पदारथ चोरत सोय। वैसे तहो ऐकाको वीर, चित प्रोडल तन साहस धीर ॥२१॥ पराधीन चल भोगी जीन, ताकी सेवं भव जन कौन? दुख अनन्त परिपूरण सोय, भवसागर को वधक जाय ॥२२॥ इति प्रकार वच सून बड़भाग, मन में बाढ़यौ परम विराग । तब उठि मुनिको मायौ शीस, तज्यो परिग्रह चउ अरू बीस ॥२३॥
तरहसे पालन करने लगा। वह नन्दराजा पर्व के दिनों में प्रारम्भ रहित उपवास करता हुअा, मुनि वर्ग को बड़ी भक्तिसे प्रति दिन आहार दान दिया करता था। धर्म की वृद्धि के लिये वह जिनालयों में जिनेन्द्र देव की पूजा और गणधरादि योगियों की यात्रा में भी जाया करता था। वस्तुत: धर्म से मनोवांछित फल की प्राप्ति हुया करती है। उससे संसार के ऐहिक सख उपलब्ध होते हैं और संसारसुख की इच्छा त्याग देने से अविनश्वर सुख की प्राप्ति होती है। ऐसा विचार कर उसने लोक-परलोक में सख प्राप्ति के उद्देश्य से समस्त सुखका मूल धर्मका सेवन करना आरम्भ किया।
वह स्वयं शुभ प्राचरण करता था और दूसरे को प्रेरणा भी करता था। धर्म के फल से प्राप्त हए समग्र सखों का उपयोग दिया. वह समय व्यतीत करने लगा। निर्मल चारित्र के सम्बन्ध से राजा-नन्द को उत्तम भोगों की उपलब्धि हई।
एक बारकी घटना है। वह नन्द राजा भव्य जीवों को साथ लेकर धर्मोपदेश श्रवण करने के उदेश्य से पर वन्दनाके लिये गया। वहां जाकर वह भक्ति पूर्वक प्रष्ट द्रव्यों से उनकी पूजा वंदना कर उनके चरणों के निकट बैठ गया। पर श्रोता समझ कर उसको धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया। उन्होंने कहा-बुद्धिमान ! उत्तम क्षमा के द्वारा त श्रा पालन कर । उत्तम क्षमा उसे कहते हैं जिस से दुष्ट जनों के उपद्रव होते रहने पर भी धर्म का विनाश करने वाले कोध की मानिन दोधर्म-वद्धि के लिये बुद्धिमानों को मार्दव का पालन करना चाहिए । मार्दव उसे कहते हैं-मन, वचन काय को कोमल करके मान का परित्याग करना। सत्पुरुषों को चाहिये कि वे प्रार्जव धर्म का पालन करें। वह आजब धर्म मन की कुटिलता को त्याग देने औरत होता है। सर्वदा सत्य बोलना चाहिए। ऐसा वचन कभी भी न उच्चारण करे जिससे किसी धर्मात्मा को कष्ट पहुंचे असत्य भाषण वा सर्वथा त्याग कर दे । इन्द्रिय, अर्थ आदि वस्तुओं की ओर से लोभी मन को रोक कर शौच का पालन करना कहा गया है। जल द्वारा किये गये शौच को धर्म का अंग कदापि न समझे। स-स्थावर छ: प्रकार के जीवों की रक्षा कर
मन पर नियन्त्रण कर धर्म-सिद्धि के उद्देश्य से संयम धारण करना चाहिये । धर्म के कारण शास्त्र अभय दानादि रूप त्याग
का पालन करे। सख प्राप्ति के लिये अकिंचन धर्म का पालन श्रेयस्कर होता है। इसकी प्राप्ति परिग्रहों के त्याग से होती है। पति की याकांक्षा रखने वालेको ब्रह्मचर्य का पालन नितान्त आवश्यक होता है। गृहस्थ के लिये अपनी स्त्री को छोड कर सबका त्याग कहा गया है और मुनि के लिये तो सभी स्त्रियों का ही त्याग बताया गया है।
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राजानंद के मुख वैभव का वर्णन ।
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महाराजा नंद की मेना का वर्णन ।
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राजा नन्द परम धार्मिक स्वभाव वाले थे। नित्य नियम ने देव पूजन, स्वाध्याय सामायिक करने थे। जिसमे उनके राज्य में मुल
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नन्द राजा ने दीक्षा धारण करके घोर तप किया जिससे उन्हें ज्ञान हो गया।
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बोहा
परम्पराय अनंत भव, घारौ संजम जोर। द्वादशांग वारिधि श्रगम, गुरु उपदेश जहाज
चादरी, साधक बादरी, साधक शिवको परवीन मुनि रहित प्रसाद
परम शुद्ध चित परम शुद्ध चित भयो पार
चोपाई
आप वीर्य को परगट करो, द्वादशविध तप मन बावरी । पाख मास उपवास हि धार पंचेन्द्रिय वस गुफा गिरी अन्दर वान एकाको वन सिंह समान सहें परोषह दो पर वीस बसें
मोर ।। २४ ।। प्रकाज ।। २५ ।।
मोसे निरधार ॥२६॥
क्षुधा तृषा मादि दुख दीस ||२७||
दोहा
नन्द मुनीश्वर भावजुत पोटश भावन सार भाये निर्मत चित्त नं. सकल सिद्धि दातार ||२६|| पोडा भावनाओं का वर्णन
चौपाई
यद
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।
सम्यग्दर्शन प्रथम विशुद्ध घटङ्ग वा दर्शन ज्ञान चरण उपदेग, जो मुनि देह जवारथ लेश सहस पठार शील अङ्ग चार वाले तज संग प प पू गुण ज्ञान, मत अशान करें निरगान भोग यंग सुत मित्र समेत धन कन कंचन कुल बल हे चार प्रकार संघ समुदाय, दीजै दान चार विश्व आय हुने कर्मरिक संतान व तप करें निदान श्री मुनिवर गुण गायक नेह रोग सोग भय पीड़ित देह् । तास रामाधि करें समुदाय, बातचित फल अनेक यति दुर्गन्ध कुष्ट तन टेक तामुनिकी श्री अरहंत देव सुखदाय मन बन काया सेव कराय । धर्म अर्थ शिव काम सहीत,
करें
वन्दे भाभारज मन हीन, पंचाचार करण परवीन श्रुतज्ञान ज्ञान उद्योतक मुनी, मत अज्ञान हरन गुन गुनी
गुण छतीस तनं परतार तिनकी भक्ति गरे र
म
पचीस रहित जब होय. प्रथम भावना कहिए सोग ||२२|| ताकि विनय करें वह भांव, द्वितीय भावना सो विश्वात ॥३०॥ निर अतिचार कहावे सोह, तृतीय भावना उत्तम होई ॥१३१॥ कास पठन विस्तार सोय ज्ञान अभीक्षण भावना जोय || ३२ ॥ जब इनसे तन होय उदास, भव संवेग वनों पास ||३३|| । यथाशक्ति जिन भाव समेत, शक्तितस्त्याग भावना हेतु ||३४|| जो निज शक्ति मारमा गहे. शक्तितस्तव सो जाना वहै ।। ३५ ।। साधु समाधि वही सुखदाय ॥३६॥ वैयावृत सम वैयावृत तव उत्तम घरं ||३७|| दाहक सरहद भक्ति पुनीत ||३८|| यह प्राचारज भक्ति विचार ||३६|| जोय, बहुमत भक्ति कहाई सोग ॥०॥
जो भव्यजीव इन सारभूत लक्षणों से युक्त मुनिगोचर परम धर्मका पालन करते हैं, वे संसार के सभी सुखों का उपभोग कर अन्त में मुक्ति के अधिकारी होते हैं। यदि किसीसे साक्षात्र धर्म का पालन न हो सके, तो नाम मात्र स्मरण कर लेना चाहिये। उसे सुखकी प्राप्ति होगी। ऐसे धर्मका माहात्म्य समझ कर विवेक पुरुयोंका नाहिये कि वे इन जगभंगुर शारीरिक भोगों से विरक्ति उत्पन्न कर लें । उन्हें मोहेन्द्रियों को जीत कर अपनी सारी शक्ति लगा कर धर्म-साधनमें लोन हो जाना चाहिये । मुनि राज को मृत सदृश दाणी सुनकर नन्दराम के मनमें विवेक उत्पन्न हुआ। उसने विचार किया कि यह संसार घनन्तं दुखका यागार है, आदि और अन्त रहित है, यतः इससे भव्य जीवों को प्रोति कैसे हो सकता है। यदि यह संसार दुःख की खान न होता तो सांसारिक सुखोंसे परिपूर्ण तीर्थकर देव मोक्ष के लिये इसका क्यों परित्याग करते ? भला भूख-प्यास, कोपादिरूप अग्नि से जलने वाले शरीर रूपी झोपड़ से धर्मात्मागण वैसी प्रीति कर सकते हैं ? अर्थात् नहीं कर सकते ।
केवल यही नहीं, जिस स्थल पर इन्द्रियरूपी पोर धर्मरूपी धन को चुराने वाले हों, भला उस शरीर में कौन बुद्धिमान निवास करना चाहेगा? जहां जन्म के पूर्व दुःख और मृत्युके बाद भी दुःख ही दुःख है, जहां के भोग दाहको तीव्र करने वाले हों, उसे की बुद्धिमान मामंत्रित करेगा? भोग सर्वथा दुःख उत्पन्न करने वाले होते हैं। प्रतः महापुरुष उन्हें सर्वथा परित्याग कर
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मोह महातम नाम मान. श्री जिनवर प्रतिक्रमण शुभ प्रत्याख्यान अरु व्युत्स | पुस्तक बीरहि लिख देव मूरख तं सम्यग्दृष्टी जो नर हो कर सम्मान
को
यानी सुख खान समितावान पण्डित कर न
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सांय
ताको बहुविध वर्णन करे प्रवचन भक्ति तहां विस्तरे ॥४१॥ तीन काल साधे स्वध्याय, यह आवसिका परिहाना ॥४२॥ जिन पूजा मन न करें, मार्ग प्रभाव उत्तम परे ॥ ४३ धनकवा भाष ता वास, वात्सल्य यह अंग प्रकाश ॥ ४४॥
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दोहा
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यह विध पोडस भावना भाई नन्द मुनीस तीर्थ कर पद महिमा तीनों लोक में इन्द्र उपेन्द्र पवार मुक्ति रूपी
वंधिय गुण अनन्त परमे ॥४५॥ लक्षमी बांधी वर हितकार ४६॥
चौपाई
मरण प्रजंत कियी तप घोर, पाल्यो संजम प्रातम जोर। अल्प आयु संपूरन करी, त साफ कियो भवपार, तीन जगत सुख को करतार परम विशुद्ध धरो सम्यास दरशन ज्ञान चरण तप लहै, समताभाव आतमा गहै। आराधन राधे चार, मन विकल्प सब की दूर मातम ध्यान दियो भरपूर सच जीवनसी क्षमा कराय, वजे समाधि प्राण
बोहा
यह तप फल सौ पाइयो, सुरग सोरहैं बास। यच्युत इन्द्र पुनीत पद, देव नमैं पद जास ।। ५१३ |
बीच
संपुट जिला रतन मन जसं, मानो कमलसु ऊरघ वसे धन्त मुहरत जीवन लयो, संपूरन तन प्राप्त भयो ।। ५२ ।। आभूषण भूषित सरसंग सहज रूप सम नाना रंग। तह तं उठ देखो सब भेष, अति रमणीक मनोहर देश ।। ५३ ।। ऋद्धि सिद्धि देखी सब राय, सुरविमान साविक समुदाय स्वप्न समान लगे यह बात मन चिन्तं कछु भेद न गात ४ को मैं कौन पुण्य है कियो, कोन देश यह कहां मानियो को प्रवीन ये बोलें बैन को सुर सेवं मन पर चैन ॥ ५५ ॥ ५५।। कौन तनी देवी गुणमाल, इस बता जुन शील विशाल रतुमयी प्रासाद उतंग, कौन व यह नाना रंग ।। ५६ ।।
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वपु आहार क्रिया परिहरी ||४७ || दायक मोल हर दुखास ॥४६॥ वांछ हिये मोख वर-नार ॥४६॥ मुनिराय ॥५०॥
देते हैं, पर वे भोग होनपुब्धी पुरुषोंको भी सुख नहीं दे सकते। यदि वस्तुतः भोग साधक इन्द्रिय सुखके वस्तु का विचार किया जाय तो उससे अत्यन्त घृणा उत्पन्न होती है । इसलिये यह निश्चित है कि भोग कोई शुभ वस्तु नहीं है ।
इस प्रकार विचार करनेके बाद राजाको वैराग्य उत्पन्न हुआ । उसने उसी योगीको दीक्षा गुरु बनाकर दोनों प्रकार के परिग्रहोंको छोड़ परम शुद्धि से जन्म-जन्म के दुःखों से मुक्त होनेके लिये मुनिव्रत ग्रहण किया। उस राजाने गुरुकी कृपा से प्रति अल्पकालमें ही शास्त्रोंका अध्ययन किया। वह अपनी शक्तिको प्रकट कर कर्म नष्ट करने वाले बारह प्रकारके तपोंका आचरण करने
लगा ।
उन मुनिने ६ मास तक कठोर अनशन व्रत किया। यह व्रत कर्मरूपी पर्वत को विनष्ट करने के लिये बचके समान है। निद्रा कम होने के लिये उस मूमिने अगोदर्य तपकों धारण किया। जितेन्द्री मुनिराजने वरणा नाश करने वाला वृत्ति परिसंख्यान तपका पालन चारम्भ किया। प्रतीन्द्रिय मुत्रके लिये उन्होंने रस परित्याग तपको धारण किया। वे ध्यानाध्ययन करने वाले मुनि स्त्री प्रादि रहित वनों और गुफाओं में विविक्तसय्यासन तपका पूर्ण रूपसे पालन करने लगे। वे वर्षा ऋतु और गर्म हवा के झोरों में भी वृक्ष के कम्बलको मोडे हुए तप किया करते थे। सर्दी के दिनों में ये चोराहे पर नदीके तौर पर और बर्फसे डके हुए स्थलों में कार्योत्सर्ग तप किया करते थे। सूर्य की किरणों से तप्त पहाड़ की गर्म मिला पर वे मुनि सूर्यके समान निश्चल रहते थे।
१. उत्तम तप के प्रभाव से अच्युत नाम के सोलहवें स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में देवों के देव इन्द्र हुये ।
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निर्जन वन में तप करते हुये श्री मुनिराष।
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बलभद्र का वैराग्य, केशलोंच और ध्यान।
.बलभद्र का वैराग्य
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दल सप्ताग कौन को यह. प्रात मनोज्ञ सर रक्ष करेह । दिपै सभामण्डप मनमोह, परम उतंग सर्व यह कोह ॥५७|| रतनजटित बहुवर्ण बिमान, तामें कौन बसै परधान । को यह नृत्य कर मन लाय, सकल विभूति कहीं ना जाय ।।५।। मुहिको देखें दवा देव, मन प्रानन्द कर सब सेव । कारण कोन सो जान्यौ जाय, त्या त्या मन चिन्ता अधिकाय ॥५६॥ इहि प्रकार बहु चिन्ता कर, मनमें सुरपति विकलय धर । भेदाभेद न जान्यो यह, सख्त हियं बाढ़यो सदेह ॥६०॥ तावत मंत्री परम प्रबोन, प्रनमी चरणकमल मन हान । अवधिज्ञान कर जानी यह, नाप हियं बड़यो संदेह ।।६१।। प्रस्तुति करी नाय निज माल, मो स्वामी तुम दीनदयाल । धन्य आज देखै तुम नैन, जोवन सफल भयो मुझ एन ॥६२॥ देह पवित्र प्राज मो भई, आज ह मनको दुर्गति गई। हस्त कमा फिर जोरे देव, शिर नवाय बोलो कर सेव ।।६३॥ अव सुनिये भो कृपानिधान, जामें मन विकलप को हान । स्वर्ग महा अच्युय यह सोय, ऋद्धि सिद्धि को सागर ताय ॥६४॥ सकल स्वर्ग के पर वस, ज्यों माथे चूड़ामणि लस । चन्द्रकान्त मूगा मणिमई, नाना रतन भूमि वरनई ॥६५॥ रात दिवस को भेद न कदा, रतन ज्योति सों हित सदा । तीन लोक में दुर्लभ जोई, एक धर्मसों सुलभ जु होइ॥६६॥ सुख-सागर में निबस सोय, दुःख दरिद्य न ध्या कोय । कामधेनु गौ दूध अपार, कल्पवृक्ष दयाविध दातार ।।७।। चिन्तमणि से रत्न अनप, और वस्तु को कहा स्वरूप । स्वर्ग-बाग तर नाना रूप, चत्यवृक्ष प्रादि तरु भूप ॥६८।। फल फूल तहां अधिकार, दश ही दिश फली महकार । यहां न वरते दुख को हेत, सुख समूह सब ही विधि देत ॥६६॥
हीन दरिद्री रोगी दुखी, निर्गुण निर्जानी दुखी। दुर्भागी दुर्वचनों जिते, सपने मांहि न दोस इते ॥७॥ __ के जिन पूजा बरते अग, सुनें केवलो वचन उतंग । देखें नृत्य महारमणीक, और न मन में विकलप लीक ।।७१॥
इस प्रकार वे धीर वीर मुनि इन्द्रिय जन्य मुखको हानि के लिये सदा काय क्लेश रूपनप किया करते थे। उन्होंने वाह्य और अन्तरंग दोनों तपों का उचित रूप से पालन किया और दश प्रकार की आलोचना के द्वारा प्रमाद रहित चरित्र को शुद्ध करने वाले प्रायश्चित तपको धारण किया। वे मन वचन कायकी शुद्धता पूर्वक सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र और इनके धारण करने वाले परम सुनिश्वरों की प्रार्थना करते थे। साथ ही वे इन्द्रिय मन को वश में करने के लिये अंगपूर्व शास्त्रों का अभ्यास किया करते थे।
उन्होंने निर्ममत्व सूख की प्राप्ति के लिये शरीदि से ममता त्यागकर कर्म रूपी बान को भस्म करने के उद्देश्य से ब्यूत्सर्ग तप करना प्रारम्भ किया । वे बुद्धिमान मुनि धर्म-ध्यान शुद्ध ध्यान में लीन हो स्वप्न में भी पात ध्यान को नहीं विचारते थे । वह मार्त ध्यान अनिष्ट संयोग से उत्पन्न इष्ट वियोग से उत्पन्न महान रोग से उत्पन्न और निदान रुप इस तरह चार प्रकार का है। इस प्रकार मनि के चित्त में चार प्रकार का रौद्र ध्यान भी जगह नहीं पाता था । वह रोद्र ध्यान जीव-हिंसा, झूठ, चोरो परिग्रह रक्षा में प्रानन्द मानने से होता है और नरक गति में ले जाने वाला है । वे शुद्ध चित्त वाले मुनि प्राज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान विचयरूप चार प्रकार के धर्म-ध्यानका चितवन करने लगे। यह धर्म-ध्यान स्वर्गादि सुखों का प्रदान करने वाला है।
वे बुद्धिमान मनि बनादिकों में पृथकत्व वितर्क, सूक्ष्म क्रिया प्रतिपत्ति, व्यपर क्रिया निवृति- इस तरह चार प्रकार के शुक्ल ध्यानका चितवन करने लगे । यह शुक्ल ध्यान सर्व-श्रष्ट है, विकल्प रहित है और साक्षात मोक्ष प्रदान करने वाला है। मनि ने बारह भेद रूप महान तपका आचरण किया, जो कर्मरूपी शत्रुओं का संहारक है। वह केवल ज्ञानको उत्पन्न करने वाला है और वांछित अर्थको सिद्ध करने वाला है। कठिन तग के प्रभाव से उन्हें दिव्य ज्ञानादि अनेक ऋद्धिया प्राप्त हई। ये ऋद्धियां अविनश्वर सुख प्रदान करने वाली होती हैं। .
मुनिका स्वभाव अत्यन्त सरल हो गया। वे सब प्राणियों पर दयाभाव रखते थे । धर्मात्मा पुरषों को देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती थी और उनका बड़ा आदर करते थे। पर मिथ्या दृष्टि जोवों से सदा उदासीन रहा करते थे । मैत्रो प्रादि चारों प्रकार को भावनामोंमें लीन उन मनि को स्वप्न में भी राग-द्वप नहीं होता था । वे दर्शन विशुद्धि आदि गुणों में लौन थे। एक दिन उन्होंने तीर्थकर की संपदा प्रदान करने वाली सोलह भावनाओं को ग्रहण किया। वे भावनायें निम्न थीं। .
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इकस उनसठ सकल बिमान, श्रेणीबद्ध प्रकीर्णक जान । तिनै असंख्य संख्य विस्तार, सबै सुक्खसागर अधिकार ।।७२।। दश सहस्र सामानिक देव, तुम समान दोसं कर सेव । उतम सुर तंतोस हजार, सुत समान बर्त सुखकार ।।७३|| सुर चालीस सहस परवान, ते तुम तन रक्षक गुण खान । या समान सब देव उतंग, कहै अढ़ाई से निरभंग ।।७४।। देव पंचसै परम प्रवीन, तुम प्राज्ञा में तत्पर लोन लोकपाल चारों चतुरंग, पाले लोक धरा सरवंग ॥७॥ दश दिकपाल नाथ पग धरै, दहि दिशा सब उज्वल करै । इनै आदि सुर संवें घने, अब सुभेद सुन देविन तन ।।७६।। गणदेवी बत्तीस बखान, नाटक सुक्ख करें गुन खान । अष्ट महादेवी गुणरूप, प्रेम प्रादेश राग रस कूप ।।७७॥ एक एक प्रति है परवान, कहीं अठाईस शुभठान । तीन ज्ञान मण्डित मन रंग, ऋद्धि वित्रिया युत सरवंग ।।७।। बल्लभिका देवी सुन थान, है वैषठ इनको परवान । तुम चित्त हरें करें पद सेव, महतो रूप सम्पदा एव ||७|| कही पिण्डता देवी शाख, हैं सहस्र इकहत्तर भाख । अरु दस लाख सहस चौवीस, दिव्य जोषिता रूप गरीस ||८०॥ पाववान हैं त्रिविध हि देव, गीत नृत्य कर तुम पद सेव । प्रथम पचीस दुनी पंचास, तृतीय परिधि शत ज्ञान प्रकाश सब में यह बर्धना शचो, बसुधरा नामांकित खची । जिनवर पूजा में लवलीन, क्षायिक समकित बहुभव होन ।।२।। ललित वचन है लीला बन्ध, सुभग सूलच्छन सहज सुगन्ध । सोलरूप लावण्य हि लीन, हाव भाव रस कला प्रदान ।।८३॥ सब देबिन को प्रायु प्रमान, पचपन पल्य कही भगवान । विनरौ होय बहुत समुदाय, ज्यों समुद्र उठि लहर विलाय ।।८४५
उन सोलह भावनाओं में पहली भावनामें उन्होंने दर्शन विशुद्धि के लिये शंकादि पच्चीस दोषों को त्यागकर निःशंकादि पाठ गुणों को स्वीकार किया। जिनेन्द्र भगवान के कथनानुसार सूक्ष्म तत्वों के विचार में प्रमाणिक पुरुष से शंकाकी निवृत्ति कर 'निशंकित' अंग का पालन करना प्रारम्भ किया । वे तपसे इस लोक और परलोक के सुखों को परित्याग पूर्वक, उसे नरक का कारण समझ निःकांक्षित' अंग को धारण कर लिया। रत्नत्रयादि गुणों को धारण करने वाले योगियों के शरीर पर मैल तथा रोग देखकर उससे ग्लानि नहीं उत्पन्न होना ऐसा वे निवि चिकित्सा' अंग का पालन करने लगे। मुनि ने देव गुरु शास्त्रको धर्म रूपो ज्ञान भेद से परीक्षा कर मूढ़ता का त्याग पूर्वक प्रमुढत्व अंग को स्वीकार किया।
वह जिन शासन में अज्ञानी असमर्थ पुरुषों के सम्बन्ध से प्राप्त हुए दोषों को छिपाना ऐसे उपगृहन गुणको पालने लगा। दर्शन तप चरित्र से युक्त जीवोंको उपदेशादि द्वारा दर्शनादि गुणों में स्थिर करने वाला ऐसे स्थितिकरण अङ्ग का आचरण करने लगा। वह साधर्मों भाइयों से गो-बछड़े की भांति ऐसे 'वात्सल्य गुण' का पालन करने लगा। उसने मिथ्यात्व से दूर रह कर जैनधर्म के महात्म्य को प्रकाश करने वाला प्रभावना का पालन प्रारम्भ किया।
उसने संयमी राजा की भाँति अष्ट गुणों से सम्यग्दर्शनको पुष्ट किया । सम्यग्दर्शन के प्रभावसे उसने कर्म-रूपी शत्रुओंको नष्ट कर दिया। देव, लोक और गुरु तीनों मूढ़ता को त्याग किया। इस मुनि ने जगतको अनित्य समझ कर अष्ट मदों को छोड़ा। मिथ्या, दर्शन, ज्ञान, चरित्र और इनके धारक छः प्रकार के अनायतनों को भी सर्वथा त्याग दिया ।
मनि ने निःशंकादि मुणों के विपरीत शंकादि पाठ दोषों का त्याग किया । वह अपने ज्ञानरूपी जलसे सम्यक्त्व के पच्चीस मलों को धोकर उसे निर्मल कर दर्शन विशद्धि भावना का पालन करने लगा। उस मनि ने मंवेग, वराम्य अनुकंपा आदि गुणों से रहित होकर तीर्थकर की उपाधि का प्रथम सोपान-दर्शन विशुद्धि पर प्रारोहण किया।
वह दर्शन, ज्ञान, चारित्र, व्यवहार विनय एवं ज्ञानादि गुणों को धारण करने वालोंका विनय, मन, वचन, काय वी शुद्धता पूर्वक करने लगा । वह सदा शास्त्रोंके अध्ययन में लीन रहता था । साथ ही उसके यहां अनेक शिष्य पढ़ने के लिये पाया करते थे। उसे देह-भोग और संसार के प्रति बड़ी अनास्था हुई। वह इनसे बड़ा भयभीत हमा। उस नन्द नाम के योगी ने मुनियों को ज्ञानदान, अन्यान्य जीवों को अभयदान और समग्र जीवों को सुख देने वाला धर्मोपदेश प्रारम्भ किया।
वह मुनि दुष्ट कर्मरूपी शत्रुओं को विनष्ट करने के उद्देश्य से निर्दोष तप करने लगा। वह सदा रोग से पीड़ित और समाधिमरण करने वाले असमर्थ साधनों की सेवा में संलग्न रहने लगा। उन्हें वह धर्मोपदेश भी किया करता था। वह मोक्ष के लिये ममियों की बयावृत्य करने लगा। मुनिने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने वाली अर्हत भगवानकी महत पूजा प्रारम्भ
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हस्ती घोड़े रथ पद एव, वृष गन्धर्य नर्तकी देव । सप्त प्रतीक ठीक यह कही, भो प्रभ भेद सुनौ कछु यही ॥ ८५ ॥ एक एक के हिन्ले देव, सातों के सातों सुन लेव । ऋद्धि विक्रिया को विरतंत, हुकम पाय तज देहि तुरन्त ॥ ८६ ।। प्रथम धनी गजराज बखान, सोहे बीरा रास परवान वातें गुण-दुगुण विस्तार सेना सकल जानि निरधार ||७|| सब दल लक्ष पचीस सुनेह, अरु चालीस सहस अधिके । सेवा करें सबै मन लाय, भक्ति सहित प्रण मैं तुम पाय ॥८॥ निज नगरी है गिरदाकार जोजन बीस सहस विस्तार । कोट श्रसी योजन उत्तंग, उतंग बट्टाई अवगाहन रंग ॥5॥ कनक कंगूरा है प्राकार, साई यति गम्भीर विचार सोरन तुंग रतन विवाय सब उपमा नहि वरणी जाय ||१०|| चारों दिश दरवाजे चार गो योजन ऊंचे निरधार नगरी चौपथ सचनी पांत, तामें बीथी । नाना भांत २६१॥ ता में प्रभजिन सदन अभंग, है जोजन दो से उत्तंग । जोजन नीस तास विस्तार, श्ररु आयाम दून सुखकार ॥६२॥ यह विभूति वरची समुदाय और विविध को कहे बढ़ाय अहो नाथ तुम पुष्प अगार, सो सन्मुख पायो सुविचार ||१३||
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महिमा गुण गरम लघिमा प्राप्ति सुनेच । प्राकाम्यत्व जु वृद्धि वंश, स्वर्ग ऋद्धि वसु एवं ||१४|| सुरगराज लक्ष्मी विविध संपूरण सुखदाय । श्रद्भुत पुण्य सुरेश तुम, भुगती निज मन लाय ॥६५॥
को वह छत्तीस गुणों के धारक आचार्य की रत्नत्रय प्राप्त कराने वाली भक्ति करने लगा। संसार को प्रकाशित करने वाले सौर ज्ञानरूपी अन्धकार को नाश करने वाली उपाध्याय मुनिश्वरों की, उसने बड़ी भक्ति की साथ ही वह जिनवाणी का अध्ययन करने लगा ।
उस योगी ने समता, स्तुति, विकाल बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्यास्थान और व्युत्सर्ग में सिद्धान्त में प्रकट किये गये छ श्रावश्यक पापों को विनष्ट करने के लिए योग्य काल में नियम धारण किया। भेद विज्ञान से तपस्या से उत्कृष्ट प्रावरणों से सदा जीयों की रक्षा करने वाली जैन धर्म की वह प्रभावना किया करता था । सम्यग्ज्ञानी पुरुषों का यादर और धर्मात्माओं से वात्सल्य भाव रखता था ।
वह इस प्रकार तीर्थंकर की विभूति प्रदान करने वाली सोलह कारण भावनाओं को शुद्ध मन वचन कायसे विचारने लगा। इन भावनाओं के चिन्तन के फलस्वरूप उसे अनन्त महिमा युक्त तीर्थकर नाम कर्म का वध हुआ, जिस तीर्थकर नाम के प्रभाव से इन्द्र का शासन हिल उठता है, जिनका मोक्षरूपी लक्ष्मी स्वयं आकर आलिंगन करती है, उस पदस्य बन्ध होना क्या सरल है ? इसके बाद उक्त मुनि ने निर्दोष चारित्र का पालन करते हुए सन्यास मरण को धारण किया । पुनः सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप रूपी चतुः आराधनाओं का पालन करते हुए उसने अपने प्राणों को छोड़ा।
उक्त समाधि के परिणाम स्वरूप नन्दनामा मुनि सोलहवें स्वर्ग में जा देवों के पूज्य अच्युतेन्द्र हुए। अन्तर मुहूर्त में उन्हें पूर्ण यौवन प्राप्त हुआ और वे वस्त्रमाला आदि प्राभूषणों से सुशोभित हुए। अपनी कोमल सज्जा से उठ कर वे सुन्दर-सुन्दर वस्तुओं को देखने में संगत हो गये। स्वर्ग के विमान जादि वस्तुओं को देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे कि - वस्तुतः मैं कौन हूँ, यह स्थान कोनसा है जहां सुबह सुख दृष्टिगोचर हो रहे हैं ? दुखका तो लेख भी नहीं है। ये अत्यन्त चतुर और प्रीति परिपूर्ण देव कौन है ? ये सुन्दर देवांगनायें और आकाश में लटकने वाली अट्टालिकायें किसकी हैं ?
ये बड़े सभा मण्डप और देव रक्षित मनोज्ञ सेनायें किसकी हैं ? यह दिव्य ऊंचा सिंहासन किस का है, और ये सम्पदायें किसकी हैं ? ये सुन्दर विनयी लोग मुझे देखकर हर्ष क्यों मना रहे हैं। किस कर्मकी प्रेरणा से मैं आया हूं। इन्हीं सब विषयों पर चिन्ता कर रहे थे और उनका सन्देह भी दूर न हो पाया था कि उनके चतुर मंत्री ने अवधि-शाद से उनके अभि प्राय को समझ, समीप आकर उनके चरण कमलों को भक्ति पूर्वक नमस्कार किया। वह दोनों हाथ जोड़ कर उनके संयम की निवृत्ति के लिए प्रिय वचन कहने लगा। उसने कहा
देव हम लोगों पर यादृष्टि रखकर अपने सन्देह निवारण के लिए मेरे वचनों को सुनिये नाथ! आज हम अपने सफल जीवन का अनुभव करते हैं। हम धन्य हैं कि आपने अपने जन्म से इस स्थान को पवित्र किया। समग्र सम्पदाओं का बागार
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चौपाई इहि प्रकार मन्त्री बच सुनै, तावत अबधि जान मन गुन । पूरव भब में व्रत प्रादरो, सो फल आप भोग यह करो ॥६६॥ जिनवर कथित धर्म में कियौ, मन्ट कर्म विध्वंसन कियो। मैं पूरब तप कीनी घोर, श्यानाध्ययन शवासन ओर ॥१७॥ पंच परमगुरु त्रिभुवन तार, आराधे मन वच तन सार । रतनत्रय धारो अवरुद्ध, परम भाव सो आतम शुद्ध ||६८11 विषय कषाय काम मन पोर, दियो जलाय ध्यान के जोर ! कही परीषह दो पर बोस, तिनको विजय करी अवनीश IEE|| दश लक्षणी धर्म सुखदाय, मैं पूरब कीनौं मन लाय । ता फल स्वर्ग सोलहवं ठाम, राज्य बिभूति भई निज धाम ॥१०॥ धर्म समान स बांधव जोय, तीन लोक में और न कोय । भवसागर में रक्षक धर्म, करै धर्म सरवारथ शर्म ॥१०॥ धर्म जीव को सगति सिधार, धर्म पाप अरि नाशनहार । स्वर्ग मुक्ति को दायक धर्म, अरु जग को मेटन सब भमं ॥१०॥ ऐसी जान धर्म नित करै, मिथ्या मत सब ही परिहरे। कर जु कोटि और प्राचार, धर्म समान न पुरं सार ॥१०३।। दर्शन शुद्ध अर्थ अरु काम, श्री जिनदर वन्दे सुखधाम । अरु तिनको पूजे गुण रूप, होय धर्म को सिद्धि अनूप ।।१०४।। यह विचार उठ ठाड़ो भयो, देविन सहित बापिका गयो । सदा शाश्वती अति गम्भीर, मानो क्षीरोदधिको नोर ||१०।। अमत जल परिपूरण जोय, धटै बड़े कछु नाही सोय । फाटिक मणिमय पंडी सार, सब बंधाव रतनन निरधार ।।१०६।। तह सूरपति कोनी असनान, पहरे भूपंग वसन महान । देविन सहित गयौ फिर तहाँ, प्राकृत्रिम जिन मन्दिर जहाँ ।।१०७।। सौ जोजन दीरघ पहिचान, अरु विस्तार पचास प्रमान । पचहत्तर जोजनसु उतंग, जोजन पाठ द्वार मन रंग ॥१०८।। तिनमें प्रतिमा सौ ग्ररु आठ, काया धनुष पाँच सै ठाठ । बसु प्रतिहारज मण्डित ईश, वाणो खिरै परम निश दोस ||१०६।। नमस्कार कीनी हरि जाय, तुम भगवंत परम सुखदाय । तुम बिन सदा जीव दुख सहै, तुम बिन कौन मोक्ष पद गहै ।।११०॥
यह अच्यूत नामक स्वर्ग है । यह सब स्वर्गों की मुकुट मणि के समान शोभायमान है । यहाँ पर मनो-वांछित वस्तुओं की सर्वदा प्राप्ति होती रहती है। तीनों लोकों में भी दुर्लभ अगोचर इन्द्रिय सुख यहां पुण्यात्मानों को सुलभ है। यहां पर कामधेनु गाये, समस्त कल्पवृक्ष और चिन्तामणि रत्न स्वभाव से ही प्राप्त होते हैं । यहाँ सारी सम्पदानों को प्राप्ति होने में जरा भी परिश्रम नहीं होता। यहां किसी प्रकार के ऋतु दुःख का कोई कारण नहीं है।
यहां पर किसी दिन रात का भेद नहीं होता। सदा रत्नों का प्रकाश होता रहता है। दीन-दुखियों का यहाँ नाम निशान भी नहीं है। पापी और निर्गुणी मनुष्य तो वहां स्वप्न में भी दिखाई नहीं देते। यह स्थान ऐसी पुण्य-भूमि है कि जिनालयों में सर्वदा जिनेश्वर भगवान की पूजा अर्चा होती रहती है। नृत्य-गीतादिसे प्रति दिन महान उत्सव उत्पन्न हुप्रा करते हैं। यहाँ प्रसंस्य देव विमान हैं।
___ दस हजार वैमानिक देव हैं । वे भी आपके ही समान ऋद्धिधारी हैं, पर वे प्रादेश नहीं कर सकते। ये तैतीस समुह देव प्रेमसे परिपूर्ण आपके पुत्रके तुल्य हैं।
आत्मरक्षक देवों की संख्या ४०००० है। सिपाहियों के समान अंग रक्षक हैं । मध्य सभा के देव ढाईसी हैं और पांचसौ बाहर को सभा के हैं। चार लोकपाल कोतवाल की भाँति हैं । इन लोकपालों की सुन्दर बत्तीस २ देवियाँ है। वे सखकी खानि हैं। ये तुम्हारी प्राज्ञा पालन करने वाली पाठ महा देवियां हैं।
इन्हीं महादेवियों के परिवार की देवियों की संख्या ढाईसी है ये तिरसठ बलभिका देवियां महान सम्पदा से युक्त आपके चित्तको हरण करने वाली हैं। ये दो हजार एकहत्तर देवियां, विदुषी हैं । ये महा देवियां एक लाख चौबीस हजार दिव्य रूपों की विक्रिया कर सकती हैं । अर्थात् प्रत्येक देवी इतनी स्त्रियों के रूप बना सकती हैं । हाथी, घोड़े, रथ, प्यादे, बल, गन्धर्व और नतंकी ये सात सेना के देव हैं। इनमें से प्रत्येक सेना की सात-सात पलटने हैं और हर एक सेना के सेनापति देव हैं। पहली हाथी की सेना में बोस हजार हाधी हैं तथा शेष सेना में इससे दूने-दुने हैं । इसी प्रकार अन्य सेनाओं में भी समझना ये सभी प्रापकी सेवा के लिये प्रस्तुत हैं।
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तुम बिन भटके भवि संसार, तुम बिन और कौन आधार । भो जिनेश तुम दीन दयाल, तुम बिन गहैं कुगति को जाल ॥११॥ यह विधि थति कीनी अधिकाय, बैठो जिनकोठा चितलाय । बह प्रकार पूजा विस्तरी, अष्ट द्रव्य ले भागे धरी ॥११॥ उठकै बहरि नम्यौं जिन पाय, बार बार भुवि शीस लगाय । तात फिर नर लोक हि प्राय, वंदै तिर्थकर मुनि राय ॥११३॥ नमस्कार कर बैठो तहाँ, मन में गनै पंच पद महा। तत्व पदारथ भेद उतंग, सुनै धर्म सूचक सरवंग ॥११४।। तहं ते उठि निज थानक आय, सब विभूति देखी मन लाय। जहां सभा मंडप निरभंग, दिपै चारहू दिशा उतंग ॥११॥ सो रतन कर खचित महान, देखत लार्ज कोटक भान । प्रागे मानस्तम्भ विशाल, मानी मान हरै तत्काल का दश विध सभा जहाँ सुखदाय, बैठे सबै देव मन लाय । ताके मध्य जु गिधदाकार, रत्नमयो सिंहासन सार ||११७ ताप बैठ्यो इन्द्र पुनीत, सकल अप्सरा गावे गीत । सुर गन्धर्व नचे बहु वेष, दुख चिन्ता व्यापै नहि लेश ।।११।। सबको देय धर्म उपदेश, होय धर्म सों मोख महेश । धर्म बिना पावै दुख कूप, लहै धर्म सो सुक्ख स्वरूप को या प्रकार सुख भगतै घने, सो सही विध कहत न बनं । सा है तन सम चतुर सठान, वपु यि सो छिन छिन ठान ।।१२०॥ अस्थि चर्म मल मूत्र न कोय, शुक्र रुधिर अर स्वेद न होय । ये ही सप्त धातु नहि अंग, निद्रा रहित नैन निरभंग । षट मारक की अवनि पचण्ड, वस्तु चराचर देखि अखण्ड । तितनी धरै विक्रिया सोय, बाइस सागर प्रायू जो होय ॥१२॥ बर सहस बाइस परजंत, मनसाहार लेय गुनवंत । जब बीते एकादश मास, तब सुगन्धमय लेय उसास ।।१२३।। जन मन गीत रसवान, कबई देख नृत्य महान । कबहूं वन क्रीड़ा को जाय, इहि विध भोग कर समुदाय ॥१२४॥
एक एक देवी अप्सराओं की तीन तीन सभाय हैं । वहाँ पर नृत्य-गीत बाजा बजाने आदि को कलायों को शिक्षा दी जाती है। प्रथम परिषद में पच्चीस अप्सराये हैं। दूसरो में पचास और तीसरो में सी हैं । आपके पुण्योदय से ये समय दिव्य सम्पदायें प्रापके समक्ष उपस्थित हैं। अब आप स्वर्ग राज्य के अधिपति बनें और अनुपम सम्पदानों को प्रसन्न चित्त हो ग्रहण करें।
अपने चतर मंत्री के बचन सुनकर अन्त्युतेन्द्र को अवधिज्ञान से अपने पूर्व भव का सारा बतान्त ज्ञात हो पाया। वे धर्म का साक्षात् फल देखकर धर्म साधना में और भी तत्पर हुए। वे पूर्वभव के सूचक बचन कहने लगे
मैंने पर्व जन्म में निष्पाप और घोर तप किया था । शुभ ध्यान और अध्ययन योग भी किये थे । संसार पूज्य पंच परोडकी की सेवा की थी और रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए उत्तम भावनानी का चितवन किया था। मैंने विषयरूपी वन को जला दिया था। कामदेव जसे प्रबल शत्र को परास्त किया था। कपाय मोर परिषों पर विजय पायो थी। पूर्व में मैंने अपनी माती
उत्तम क्षमा प्रादि दश लाक्षणिक धर्म का पालन किया था। उसीका यह शुभ फल है कि आज हम इन्द्र-पद पर पामीन पर्थात ये समस्त ऋद्धियाँ धर्म के पालन से ही प्राप्त हुई है । वस्तुतः धर्म के समान दुसरा कोई मित्र नहीं है। धर्म ही संतार-सागर से पार उतारने वाला है। वक्षित अथों का साधक धर्म हा है। वह मानव जीवन को उन्नत बनाने वाला तथा पी शनयों का संहारक है। समस्त जीवों को सुख प्रदान करने वाला तथा स्वर्ग मोक्ष प्रदान करने वाला धर्म से अतिरिक्त
Trखने वाले भव्य पुरुषों को प्रत्येक अवस्था में निर्मल आचरण युक्त होकर धर्मदसरा नहीं है। ऐसा जान कर सूख की प्राकांक्षा रखने वाले भव्य पुरुषों को प्रत्येक अवस्था में मिलाकर साधना करनी चाहिए। इस प्रकार विचार करते हुए अच्युतन्द्र ने सोचा कि, यह तो ठीक है, पर वे चारित पालन नहीं किये जा सकते, तब मुझे क्या करना चाहिए। यही ता एक दशन शुद्धि हो पालन को जाम जिननाथ की भक्ति और उनकी मूर्ति को महान पूजा करना ही श्रेयस्कर है।
ऐसा निश्चय कर वे अच्यूतेन्द्र अपनी देवियों को साथ लेकर अकृत्रिम चैत्यालयों में गए। वहां नमस्कार कर अर्हत-बिम्बों को पूजा-पाराधना से रत हुए।
उन्हें पूजा के लिए प्रष्ट द्रव्य इच्छा मात्र से प्राप्त होते थे। उन्हीं द्रव्यों से भगवान को पजाम चैतन्तवक्ष के नीचे विराजमान जिन प्रतिमाओं की पूजा कर तथा मनुष्य लोक और मललोक की जिन प्रतिमा को महान धर्म का उपार्जन किया। व भूनीश्वरों से धर्म-तत्वों का व्याख्यान,सुनकर धर्म का उपार्जन करने लगे।
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तीथकर कल्याणक पंच, तत्पर तहाँ जाय मन संच । शेष केवलो मुक्ति महेश, दो कल्याणक करे सुरेदा ।। १२५॥ मेरु कुलाचल जिनगृह जहां, भाव सहित हरि बन्द तहां । द्वीप समुद्र असंख्य मझार, मन इच्छाधर कर विहार ॥१२६॥ पूजे श्री जिनदर के पाय, बदै निज पर शीरा लगाय । करै महोत्सव तहँ अधिकाय, बाँध विविध धर्म सुरराय । १२७।। इहि विध भुगतै परमानन्द, सुख सागर में सदा सुरन्द । सकल देव' मिलि सेवा करै, आज्ञा बिना न कहुं पग धरै ।।१२८॥
दोहा स्वर्ग लोक की संपदा, बरणन है अधिकार । कही किमपि लघ रूप में जाने जाननहार ||१२६।।
गीतिका यह भांति वृप परिपाक करके, सुरग राज सो पाइयो । तहं भई पूरण सब विधि, दिव्य भौग कराइयो ।। यह जान भबिजन भजहु धर्म हि, धरम एक सहाय है। धरम बहु भवहरण जियको, धरम शिव सखदाय है ।।१३०॥
इस प्रकार धर्म के फल से उन्हें अनेक सम्पदायें प्राप्त हई। उन्होंने तीन हाथ ऊंचा, पसीना धातुमल से रहित नेत्रों की टिमकार रहित दिव्य शरीर प्राप्त किया। उन्हें नरक की छठों पृथ्वी तक का अवधि ज्ञान था और बिक्रिया ऋद्धि प्राप्त हुई। ज्ञान के समान ही क्षेत्रों में गमन-यागमन में समर्थ उन इन्द्र को विभिन्न भूषणों से शोभायमान बाईस सागर की आयु प्राप्त हुई।
बाईस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर वे मानसिक दिव्य अमृत का पाहार करते थे। ग्यारह मास बीतने पर सुगन्धित श्वास लेते थे। वे सुरेश तीर्थकरों के पांचों कल्याणकों में तथा केलियों के दोनों कल्याणकों में जाया करते थे। देवों द्वारा पूज्य सुरेन्द्र सदा पूजा आदि महोत्सवों में जा जाकर धर्म की अभिवृद्धि किया करते थे। उन्हें सुख की सारी सामग्रियां उपलब्ध हुई।
इस तरह वे अच्युतेन्द्र सुख सागर में निमग्न हुए। धर्म के फल स्वरूप उन्हें जो सम्पदायें प्राप्त हुई उनका वर्णन करना असम्भव है। उन्होंने दिव्य भोगों का उपभोग किया। ऐसा समझ कर बुद्धिमान जन शम-दम और संयम से सदा धर्म का सेवन किया करते हैं।
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सप्तम अधिकार मंगलाचरण
दोहा दिघनहरन ग्रानन्द करन, सेवे विजगत पाय । बन्दी पारस पद कमल, भवभब में सूखदाय ।।शा कहौं वीर जिनराज को, आगे चरित रसाल। पंचकल्याणक विविध विधि, मिथ्यातम खय काल ॥२॥
चौपाई याही जम्बू द्वीप महान, जोजन लाख तास परवान । बनकोट है गिरदाकर, वसु जोजन अवगाहन धार ॥३॥ तीन लाख सोलह हज्जार, दोसै सत्ताईस विचार । इतने जोजन है परवान. ऊपर कोश तीन पहिचान ।।४।। धनुष एकसं अट्ठाईस, साढ़े तेरह अंगुल दोस । यह परिधी को सब विस्तार, बैठ्यो जम्बूद्वीप सम्हार ॥५॥ लवण समुद्र बहै चहुं ओर, जोजन लाख दोय सर वोर। बड़वानल तह अधिक प्रचण्ड, ब नीर सोने बलबण्ड ।।६।। चहुं दिश वार पेठवा जान, विदिशा चारों मध्य प्रमान । सवा सवा से अन्तर ओर, एक सहस बसु हैं सब जोर ॥७॥ जलचर जी व अनेक प्रकार, पीवन जोग नहीं जब खार । द्वीपहि मध्य परम परधान, मेरु सुदर्शन शोभावान ।।८11 जोजन लाखजु महा उतंग, स्थूल सहस दस मूल अभंग । ताकी रचना सुनो प्रानन्द, एक सहस जोजन को कन्द ।।६। तापर भद्रसाल बनसार, तह जिन भवन अकृत्रिम सार । बिदिशा चार चार गजदन्त, नील निषध पर्वत लौ अन्त ॥१०॥ प्रति उतंग कंचन सम पगे, तिनपं इवा इक जिनगृह लगे । बन सब शोभित नाना भांति, कल्पद्रुम की सघनी पाति ॥११॥ कुरुद्वय दक्षिण उत्तर दोय, जम्बू शाल्मली अवलोय । इक इक तरु की शाखा चार, चारों निश लीजे अवधार ॥१२॥ पूरब शाखा जिन गृह बस, सदा सासुते हिममय लसै । तह से पंग शत योजन जान, नन्दन वन सो पाहो बखान ||१३|| चार चैत्यालय बन में सही, रचना तास पूर्ववत कही । तहं ते साई बासट सहस, है उत्तंग जोजन सौमनस ।।१४।। तहां भवन जिन चार मनोग, पूरववत् सामग्री जोग । तई ते जोजन सहस छत्तीस, पाण्डक वन गिरीन्द्र के शीस ॥१५॥ परब वत चैत्यालय चार, कंचन मय चारौं दिश चार । ताके मध्य चूलिका दोस, मुकुट सदश जोजन चालीस ।।१६।।
लोकपाल जिनका सदा, करने सद्गुण गान । करें विघ्न सब नष्ट वे, पार्श्वनाथ भगवान ।। जिन महाप्रभु के सदगुणों का गान लोक-पतियों के द्वारा सर्वदा हुया करता है, वे पार्श्वनाथ भगवान समग्र विघ्नों (ग्रंथ निर्माण सम्बन्धी पाने वाले उत्पातों) को नष्ट करें। अर्थात् ग्रंथ निर्माण में किसी प्रकार की बाधा न उपस्थित होने दें।
भरत क्षेत्र में विदेह नामक एक विस्तृत देश है। धामिक पुरुषों का निवास स्थान होने के कारण बह विदेह-क्षेत्र जैसा ही शोभामान है। इस स्थल से कितने ही मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया है । नाम के अनुसार इस स्थान का गुण भी सार्थक है। यहां के निवासी कोई सोलहकारणादि भावनाओं का विचार कर तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध करते हैं, कोई पंचोत्तर नाम के अहमिन्द्र स्थान में पहुंचते हैं। भक्ति पूर्वक उत्तम पात्र दान देने से भोग-भूमि में जन्म ग्रहण कर लेना तो यहां के निवासियों के लिये सामान्य सी बात है । यहां तक की यहां के कोई भब्य जीव भगवान की पूजा के फल स्वरुप स्वर्ग में इन्द्र-पद प्राप्त होते हैं।
यह स्थान अर्हन्त केवली भगवान की मोक्ष-भूमि है । कारण यहां स्थान स्थान पर मोक्ष स्थान है। इस भूमि को मनुष्य, देव, और विद्याधर सभी नमस्कार करते हैं। यहां के वन-पर्वत ध्यानी योगियों से अत्यन्त शोभायमान हैं। और बड़े ऊंचे भव्य
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बारह जोजन मूल विचार, पाठ मध्य पर ऊरध चार । ताके ऊपर जो सुर थान, बालांतर है ऋतुक विमान ॥१७॥ अब दक्षिण उत्तर विस्तार, जम्बू द्वीप हि भाग विचार । इक सं नब्वे कीजै नेत्र, एक भाग को भरतहि क्षेत्र ।।१८।। सो कहिये जोजन सौ पाँच, ऊपर छब्बिस हिय धर सांच । कला षष्ट अधिकी है और, कर उनीस इक जोजन ठौर ।।१६॥ लाओ तीन भाग परवान, धनुष अढाई से कर हान । हिमवन गिरि के पास जु सोय, पूरव अपर दिशा अवलोय ॥२०॥ अनलाकार ताहि अवलोय, छहं खंड मांडत है साब। ५ो पाई जान, क्षेत्रहि मधि राजत गिरि मान ॥२१॥ षट जोजन तस कन्द सरीस, ऊची है जोजन पच्चीस । अरु पचास विस्तार जु होय, तापर इक जिनगृह प्रवलोय ॥२२॥ नव जू कुट है सबरे जोय, पूरब कूट हि उतकिठ सोय । अष्ट कूट पर लघु जिन गेह, प्रतिमा एक विराज तेह ॥२३॥
जोजन पर श्रेणी दोय, पुर पचास दक्षिण दिश सोय । उत्तर नगरी साठ सु जोड़, एक एक प्रति गांव जू कोड ॥२४॥ लोग भाग हिमवत गिरि सार, कन्द पचीस हि जोजन धार । सो जोजन उन्नति परवान, अन्त भाग छह लम्बी जान ॥२५॥
......... ।तामें पाव कोश घटि मान तापर इक जिन भवन महान ||२६|| हद ढकहर, दश जोजन गहरो जल पूर । लंवो है जोजन हज्जार, अरु शत पांच जास विस्तार ॥२७॥ एक योजन नहं कमल प्रकाश, तापर श्री देवी को वास । सोलह सहस तास परिवार, थिति इक पल्य शचीवत मारली जित निकसी सरिता तीन, ताको भेद सुनी परवीन । नदी मुल है देवी तेह, तिन' नामांकित सरिता तेह ॥२६॥ प्रथम द्विगंगा सरते चली, मूल सवा छह-जोजन भली । भरतक्षेत्र विजयार, कोर, पूरब मिली लवणोदधि जोर ।
बाट जोजन ताहि, जलचर जीव न उपजै माहि । गाले जल बत जलहु विचार, चौदा सहस तास परिवार ||३१|| जी सिन्ध तिहिवत चली, गुफा फौरि पच्छिम दिशि मिली। तीजी नदी जोहिता मूल', साढ़े बारह जोजन फल ।। ३२॥ क्षेत्र रेमवत में हो पाय, पूरब मिली उदधि को जाय । जोजन शत पचीस विस्तार, सहस अठाइस है परिवार ।।2311 भाग चार क्षेत्र हि अवधार, भोग भूमि लग सब व्यौहार । अन्तर लेवो बारह भाग, तामें प्राध कोश घटि लाग॥३४|| मह हिमवन छठ भाग विद्यार, चौबीस लम्बी कोश हि धार । कन्द पचास हि जोजन होय, अरु उन्नत जोजन सी दोय
जिन तिन पर लही, अष्टोत्तर शत प्रतिमा सही। महापद्म द्रह सापर लह्यो, जोजन सहस दू लोबो कयौ ॥३६॥ को चतरो बनो. वीस गहीर कमल तमो। इजी ह्री देवी तहं बास, प्रथम हि वत सामग्री जास ।।३।।
जिनालयों को देखकर महान धार्मिक-स्थान का बोध होता है । विदेह के ग्राम, मुहल्ले सभी जिनालयों से सशोभित मनि समह चारों प्रकार के संघ के साथ धर्म की प्रवृत्ति के लिए बिहार किया करता है।
सो विदेह के ठीक मध्य
खाइयों को देखकर अप
ना से इस नगर में सदा कोलाह
हमी विदेह के ठीक मध्य में कूलपुर नाम का एक अत्यन्त रमणीक नगर है। यहां पर विशिष्ट धर्मात्मानों का
यहां के कोट दरवाजे और अलंध्य खाइया को देखकर अपराजित अयोध्या नगरी का भान होता है। इस मा महातीर्थंकरों के जन्म कल्याणक के महान उत्सव सम्पन्न हा करते थे। देवगणों की यात्रा से उस नगर में मना
और स्वर्ण रत्नों से निर्मित जैन-मन्दिरों को देखकर लोगों की कुण्डलपुर के प्रति अपार श्रद्धा होती थी। रहता था। यहां के ऊंचे और स्वर्ण रत्नों से निर्मित जैन-मन्दिरों को देखकर लोगो वह नगर धर्म का समद्र जसा प्रतीत होता था। वहां के जिनालय जय जय शब्द स्तुति नत्य गोत आदि से सटाको थे। स्वर्ग के उपकरणों सहित रत्नमयी प्रतिमाओं का दर्शन कर लोग कृतार्थ हो जाया करते थे।
या के जिन-मन्दिरों की पूजा आराधना के लिए रादा सब समूह की भीड़ लगी रहती थी। दर्शनार्थ आने वाले जीत होते थे। वहां के दानी स्त्री-पुरुष सदा प्रतीक्षा किया करते थे कि किस समय हमारे यहां अतिथि या
देने में बडे उदार थे। इस नगर के ऊंचे परकोटे देखकर यह भान होता था कि वे उरुच स्थान देने
लाले हैं। इस नगर के निवासी दाता, धर्मात्मा शूर-बीर, व्रत-शोलादि से युक्त और संयमी होते थे। वे जिनदेव तथा निग्रंथ गुरु की भक्ति,सेवा और पूजा में सदा तत्पर रहा करते थे। उनका धार्मिक काम इस प्रकार वे बड़े ही धनवान, सुखी और बुद्धिमान थे।
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तहं ते विकसी रारिता दोय, रोहित क्षेत्र हेमवत होय। पश्चिम मिली उदधि के द्वार, ताहि रोहिता क्त सब चार ।।३८|| हरिकान्ता हरि क्षेत्राहि दीस, मूल कही जोजन पच्चीस । पूरब मिली लवणदधि द्वार, तह पढ़ाईसौ है विस्तार ||३६॥ छप्पन सहस कही परिवार, निर्मल जल गाल यतधार । सोलह भाग क्षेत्र विस्तार, भोगभूमि मध्यम सुविचार ॥४०॥ लांबी भाग शु अड़तालीक, दोय कोश घट निषध नजीक । बत्तिस भाग निषध गिरिथाइ, जोजन घट छयानव लव लाइ ॥४१॥ सौ जोजन तस कन्द सम्हार, उन्नत है जोजन सौ चार । तापर इक जिन भवन मनोग, वसु प्रतिहारज प्रतिमा जोग ।।४।। द्रह तिगिछ सोहै गिरिशीस, सो गहरो जोजन चालीस । लंबी चार सहस पुन कह्यौ, दोय सहस को चौरो लह्यो ।४३॥ जोजन चार कमल तहं बस, तामें धृतिदेवी तहं लसै । प्रथमहि वत सामग्री जोय, तहत निकसी सरिता दोय ॥४४॥ हरिकान्ता हरिक्षेत्र मझार, पश्चिम मिली उदधि के द्वार। हरिकान्ता वत जानौ सही, अब सीता सुनि जिहि विधि कही ॥४॥ मूल पचासह जोजन सन्त, मेर निकट कौरो गजदत्त। पूर्व विदेह होय दधि मिली, तहां पाचसै जोजन रली॥४६।। सहस चुरासी सब परिबार, जलचर जीव न तिष्ठेसार। अर्ध मेरु लो बत्तीस भाग, भोग भूमि उत्कृष्ट सुहाग ॥४७॥ अर्ध मेरे तै नील प्रजन्त, बत्तिस भाग भोग भूसंत । मेरु सहित सीता सीतोद, लम्बाई सब मध्य प्रमोद ।।४।। भाग एक से नब्बै होय, जोजन लक्ष पूर्व पर सोय । भाग बत्तीस नील विस्तार, तापर इक जिनभवन बिचार ।।४। निषध समान भेद सब कह्यो, मध्य पारीह महाधौ। सो निगिछ वत कहिये तास, देवी कीर्ति कमल में वास ।।५।। तहत निकसि तरंगनि होय, सीतोदा पश्चिम दिश जोय । मेरु निकट गजदन्त विदार, सब रचना सीतावत धार था नारी सरिता रम्यक क्षेत्र, पूरण मिली समुद्रहि जेत्र । मध्यम भोग भूमि यह सही, षोणश भाग विथार जुमही ॥१॥ पर्वत स्म भाग बसु लीन, जिन चैत्यालय एक प्रवीन । महापुण्डरीक द्रह सोस, तामें कमल प्रफुल्लित दोस ॥५३॥ तहां बुद्धि देवी को बास, नदी दोय निकसी सर जास । नरकांता रम्यक मधि होय, पश्चिम मिली सूवर्णकला सरिता तसु रली, हैरण्य हि पूरव को मिली । चार भाग क्षेत्र हि विस्तार, भोग भूमि लग जुगल विचार ॥५॥ शिखरिन पर्वत भाग जु होइ, तहां एक श्री जिन गृह सोइ । पुण्डरीक द्रह तापर लसै, लक्ष्मीदेवो कमलहि वसे ॥५॥ तोम नदी निकसी सू रमन्य, पछिमैं रूपकूला हैरन्य । रक्ता पुनि ऐरावत जाय, पूरब मिली लवणदधि धाय की रक्तोदा पश्चिम दिश कही, क्षेत्र भाग इक जानो सही। ताके मध्य रजत गिरि एक, तापर जिन चैत्यालय एक ॥५६॥
उस नगर के राजा का नाम सिद्धार्थ था । वे हरिवंश रूपी गगन को सुशोभित करने वाले साक्षात् सूर्य थे। वे महाराज मति ग्रादि तीनों ज्ञान को धारण करने वाले थे। उन्होंने सदा नीति मार्ग को प्रश्रय दिया । वे जिनदेव के भक्त महादानी और दिव्य ज्ञान के धारक थे। उनकी सम्यकदृष्टि बड़ी प्रवल थी। उनके चरणों की सेवा बड़े-बड़े विद्याधर, भूमिगोचरी और देव किया करते थे। उनका पुण्य बड़ा प्रबल था । बे इन्द्र के सदश समस्त राजामों में शोभायमान थे।
उनकी त्रिशला नाम की प्रत्यन्त रूपवती महारानी थी। महाराज जैसी ही उनकी प्रवृत्ति थी। वे पति परायण बड़ी साध्वी थी। उनकी कांति और अलौकिक सुन्दरता सरस्वती जैसी थी। उनके चरण, कमल जैसे प्रतीत होते थे। उनकी नखरूपी चन्द्र-किरणों से सारा राजमहल शोभायमान हो रहा था। उनके दोनों सुन्दर जानु कदलीस्तम्भ जैसे मालम होते थे। गहरी नाभि युक्त रानी को देखकर रति भी थोड़ी देर के लिए संकुचित हो जाती थी! उनके कोमल कण्ठों मोर हाथों के आभूषण सारे राजमहल को प्रकाशित कर रहे थे। कानों के कुण्डलों से शोभायमान अष्टमी के चन्द्रमा की भांति मस्तक वाली मनोश भौहें और नील केश से युक्त रानी का स्वरूप ऐसा प्रतीत होता था कि संसार के सुन्दर से सुन्दर परमाणनों के द्वारा उनका निर्माण किया गया हो ।
इसके अतिरिक्त उनके अंग उपांगों की स्त्रियोचित बनावट बड़ी ही आकर्षक और भव्य थी। बे देवी गुण रत्नों की खानि, अनेक शास्त्रों में निपुण, सरस्वती देवी के सदश प्रतीत होती थी। वे इन्द्र की शची जैसी अपने प्रियतम की प्यारी हुई।
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जैसो दक्षिण दिश व्यवहार, मेरु हि तैसो उत्तर धार । हेमबरन शिमिरन हिमवन्न, रजन झकिम पर महाहिमवन्न ।।५।। नील नील मति की उनहार, निषध महा कचनवत धार । वचकोट हिंग क्ल गिरि छोड़, तहं कुभोग भू भीबिरा जोड ।।६०॥ ग्रज परख पश्चिम विस्तार, नील निषध के बीच मझार । कोट हेठ पुरब दिश जात, देवारण्य सुवन विख्यात ॥६३|| जोजन दोय सहस परवान, नवसं वाइरा जार जान । पुनि विदेह इक सोहै तहां, दोय सहस जोजन पर जहां ।।६२.1 ऊपर होस वारद्ध जोय, साढे तीन कोश जुन सोय । तामें सरिता दोय पुनीत, गंगा मिन्धवत सब हैं रीत ।।३।। निषध निकट इदसै निकमाय, जाय मिली सीत सरंभाय । षटखण्डहि मण्डित परबान, तामधि इक विजयारघ जान ।।६४|| ताही पं जिनभवन अकृत, काल चतुर्थ हि सदा प्रवृत्त । पनि बछार पर्वन पहिचान, नौलहि तं सीता लग मान ।।६।। पंच सया जोजन विस्तार, ताप जिनगह एक सवार । अव विदेह दूनी पहिचान, पुरब बत विधि लोजी जान ।।६।। फेर विभंगा सरिता एक. कही सवासै जोजन टेक । रोहित बत सामग्री भली, निकस नील द्रह सीता मिली ।।६७।। तृतिय विदेह पर्ववत जोय, द्वितिय वछार प्रयम सम होय । तुर्य विदेह जान अब सही, द्वितीय विभगा सरिता सहा ।।३।। फेर बिदेह पंचमो जात, गिरि बछार तीजौ पहिचान । छठी विदेह जान अब पीर, तृतिय विभंगा सरिता दार ॥६ विदेह सप्तमी थान गनेह, गिरी बछार तूर्य अवलेह । विदेह अष्टमी तहत लही, दक्षिण तट सब वर्णन यही ।।७।। एही विधि उत्तर तट जार, वसु विदेह लहं शोभा थान । तहत भद्रशाल बन मार, है जोजन वावीस हजार ।।७।। साकी रचना है यह धेर, पत्र सहस लहि माधो मेर । यह पूरब दिश शोभा जान, जोजन सहस पचास प्रबान नाही विधि पश्चिम विरतंत, भुनारण्य बन हिलौं अन्न सब विदेह बत्तीस बखान, तिहित है विजयारध थाना पर पोडस वक्षार महान, सबप इक इक जिनगृह जान । ए पर्वत इकसठ परधान, सब जिनभवन अउसर थाना अब सामान्य हि भूधर दीस, बषभाचल है राब चौंलास । मैं म्वेच्छ खण्ड के माहि, तहां चकाति नाम लिखाहि ॥७॥ मेरु निकट है दिगज पाठ, दीसत कंचन गिरिको ठाठ। सीता सोतोदा सट तेह, कंचन बरण जान सब लेडी जघन्य भोग भमि में कहे, नान गिरीश मार सर देह । चार जमुक गिरि कुरु भू माहि, नील निषध के निकट जू पाहि ।।७।। ए परवत सब ही वरणये, ग्यारा अधिक तीनसे भो । सरबर सब इकस छत्तीस, तिनकी संख्या सून अवनीस बार
उन्हें महाराज का अत्यन्त स्नेह प्राप्त हुआ। वे दोनों ही महाराज और महारानी देव तुल्य सुखों का उपभोग करते हुए जीवन व्यतीत करने लगे।
पाठक वर्ग का स्मरण होगा कि अच्युत स्वर्ग का इंद्र बड़ी विभूति के साथ अपना समय व्यतीत कर रहा था। सौधर्म के इंद्र ने एक दिन कुबेर से कहा - अब अच्युतेन्द्र को प्रायु केवल ६ मारा बाकी रह गयी है। अब ये इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में सिद्धार्थ महाराज के महल में अन्तिम तीर्थंकर श्रो बर्द्धमान के रूप में जन्म ग्रहण करेंगे । अतएव तुम्हें इस नगर में पूर्व से ही जाकर रनों की वर्षा आरम्भ कर देनी चाहिए । साथ ही शेष पाश्चों को भी परहित के लिए सम्पन्न करो । इंद्र को ऐसी प्राज्ञा प्राप्त कर यक्षाधिपति तत्काल ही मध्यलोक में आ गया। उसने बड़ी प्रसन्नता के साथ महाराज सिद्धार्थ के राजमन्दिर में रत्नों की वर्षा प्रारम्भ की। महल में ऐरावत हाथी की सुड जैसी रत्नों को धारा पड़ने लगी। उस समय रत्न सुवर्ण मयी वर्षा आकाश से पड़ती हुई ऐसी प्रतीत होती थी, मानों प्राकाशरूपी माला माता-पिता की सेवा करने आ रही हों।
गर्भाधान के पूर्व ः मास तक इसी प्रकार कल्पवृक्ष के पुष्प सुगन्धित जल सुवर्ण और रत्नों के दरों में राजमहल जगमगा उठा । रत्न किरणों की जगमगाहट से वह महल सूर्यादि ग्रहवक के समान प्रकाशित होने लगा। उस समय सारे नगर में इसी बात की चर्चा होने लगी। कितने हो भव्य लोगों ने कहा-देखो, यह तीन जगत के गुरु की ही अपूर्व महिमा है कि, प्राज कवेर रत्नों की वर्षा से राजमहल को परिपूर्ण कर रहा है। उनको ऐसी बात सुनकर पीर लोगों ने भी कहना प्रारम्भ कियाइसमें जरा भी प्रायन्नय नहीं कि राजा के उत्पन्न होने वाले पुत्र प्रहंत की सेवा के लिए हो देवेन्द्र ने भक्तिवश ऐसा किया है। उनकी ऐसी बाते सुनकर अन्य लोगों ने भी कहा-यह सब धर्म का ही प्रभाव है । उसी फल स्वरूप पुत्र प्रहंत की प्रसन्नता में रत्नों की
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पद्म आदि षट भूधर शीस, सीता सीतोदा मन बीस । नील निकट अड़तीस जु योर, तिनत' ही निवद्ध नग ठौर ।।७।। उपसमुद्र सत्र है चौतीस, आरज खण्ड हि इक इक दीस । महा नदी नवें सत्र कही, गंगा आदि चतुर्दश लही ।। चौसठ सबहि विदेह मझार, बारह बिपुल विभंगा सार । सत्रह लाख सु है परिवार, ऊपर सहस बानव धार ।।१।। पर्वत नदी कुण्ड लघु बनै, सो राब भेद कहत नहि बनं । जथा युद्धि कु बरणन कहो, सुन बुध हिय में सरधा लहौ ।।२।।
दोहा महिमा जम्बू द्वीप को, को कवि वरननहार । कही किमपि संक्षेप विधि, जिनमत के अनुसार ।।६३॥
चौपाई
अब यह प्रारजखण्ड महान, देश सहस बत्तीस प्रमान । तामें दक्षिण दिश गुणमाल, महा विदेहा देश रसाल ॥५४||| सो बिदेह बत है समुदाय, सत्र शोभा ता कही न जाय । कोई तप फल के परभाय, उपज घर विदेह में प्राय ।।५। उत्तम पद तहं पावै कोई, सार्थ नाम शिवगामी होई । कोई षोडश भावन भाय, बांधे तीर्थकर पद थाय ।।६।। कोई पंचोत्तर पद लहैं, निज समता आतम चित गहैं । कोई दान सुमात्रहि देइ, ता फल भोगभूमि पद लेइ ।।८।। कोई धर्म तने परभाव, लहें इन्द्र पद उत्तम ठाव । जहाँ खान भूम मन रंग, पद पद पर दोसह सरवंग ।।८।। मरपति सुरपति भवन महेश, बंदै ग्राय केवली शेष । वन परवत गिरि गुफा मसान, तहां देई मुनि उत्तम ध्यान IET बिहरै जाति-समूह सम चेत, कर्मबुद्धि के कारण हेत । चार प्रकार संघ मुखदाय, संबोध भविजन मन लाय 1800 देश तनों वरनन बहु येह, कहत ग्रंथ बाद अति केह । ताके मध्य नाभिवत जान, कुण्डलपुर नगरीमु खानख ||११|| तंग कोटा गोपूर वार, बागीः विचार । रिपुकुल तहाँ न पावे जान, बर्णन साकेता परमान ||२|| तीर्थकर कल्याणक जान, हूसही यहाँ गुण खान । यही जान सुर यात्रा करे, परमोत्सव' निज हिरदै धरै ॥३॥ अति उन्नत जहां जिन प्रागार, हेम रत्नमय रहित विकार । बहु प्रकार दोस निरभंग, सर्व बुधजन निज मन रंगा बाद साल जयनन्दन मान, गीता-नत्य शुभ वादहि ठान । ताही में जिनबिम्ब मनोग, हेमवरण उपकरण संजोग ॥१५॥ ते बंद भविजन गणधाम, दिव्यरूप कोमल परिणाम । मनों देवगण उत्तम एह, पूजा कर रहित सन्देह ।।६।। कोई निज गृह द्वारहिं खड़े, वारम्बार भक्ति मन जड़े। देखि जती पड़गाहन कर, मद मत्सर तनत परिहर ।।७। देइ सुपात्रहिं उत्तम दान, रत्नवृष्टि सुर करहि निदान । तिनको देखि मध्य नर कोई, दान देन में तत्पर होई ||६|| तापुर मन्दिर सघनी पात, तुग ध्वजा दीसे बहु भात । बांछे इंद्र लेन अवतार, जाते लहैं उच्च पद सार En
पविराम वर्षा हो रही है । कारण यह है कि, धर्म के प्रभाव में हो तीनों लोकों में पूज्य तीर्थकर जैसे पद प्राप्त पुत्र का जन्म होता है। वस्तुतः संसार को दुर्लभ से दुर्लभ वस्तुएं धर्म से सुलभ हो जाती हैं। किसी-किसी ने यह भी कहा है-यह सर्वथा सत्य है कि धर्म के प्रभाव में पुत्रादि इष्ट वस्तयों को प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। अतएव सुखों की प्राप्ति चाहने वाले लोगों क प्रयल पूर्वक हिसा स्वरूप दया लक्षण रूप धर्म का सर्वदा पालन करते रहना चाहिये । यह धर्म सर्वथा निर्दोष प्रणव्रत और महावतों से दो प्रकार का है।
एक दिन की घटना है। महारानी त्रिशलादेवी रात को कोमल सेज पर सोई थीं। रात्रि के पिछले पहर में पुण्योदय से उन्हें सोलह स्वप्न दीख पड़े, जो सर्वथा कल्याणकारक और सौभाग्यसूचक हैं। सोलह स्वप्नों में सर्व प्रथम उन्होंने मदोन्मत्त हाथी को देखा। बाद में गंभीर शब्द और ऊंचे कंधे वाला चन्द्रमा के सदृश नभ काँतिवाला वैल दिखाई दिया। तीसरा अपूर्वकान्ति बहद शरीर, और लाल कंधे वाला सिंह था । चौथे स्वप्न में कमलरूपी सिंहासन पर ग्रारोहित लक्ष्मोदेवी को उन्होंने देव हस्तियों द्वारा स्नान करती हुई देखा। पांचवां सुगंधित दो मालायें थीं। छठे में तारापों से घिरे हुए चन्द्रमा को देखा, जिससे सारा संसार आलोकित हो रहा था।
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पुरजम बह घरमी दातार, व्रत ते शूर शील गुणधार । जिनपति ज्ञानवंत गुप पाय, भक्ति सहित सेवे सुखदाय ।।१०॥ मारग नीति गहै परवीन, हित मित वचन कहै सुख लीन । बुद्धिवंत सब रहित विकार, अरि-मिथ्यामत के क्षयकार ।।१०।। दिव्यरूप नारी नर सबै, कोमल कमलगात मन फवै । तुग सदन निवसे मतिमान, मानो देव सहित विमान ।।१०२।।
राजावर्णन पूरपति महीपाल मतिबान, श्री सिद्धारथ नाम महान । काश्यप गोत्र परम सुख वास, नाथवंश नम किरण प्रयाश ।।१०३॥ तीन ज्ञानभारी बुधवन्त, दोन मार्गग्त दुर्गति हत । जिनवर भक्ति महा दातार, दिव्य सुलक्षण मण्डित सार ॥१०४।। कर्म महा अरिनाशन वीर, शुभ दृष्टि पर वचन महीर । कला ज्ञान चातुर्य विवेक, धर्मवंत गुणसहित अनेक ॥१०॥ शीलवती शुभ ध्यान प्रवीन, भावनादि में निशदिन लीन । भूचर खेचर व्यन्तर सर्व, नृप के चरण कमल को नवं ।।१०६।। दीप्ति कान्ति तन अधिक प्रताप, दिव्य रूप सूरज अबिलाप । नियमवंत गुण ज्ञायक सन्त, एक धर्म को मूल महंत ॥१०७।।
राज्ञी वर्णन
दोहा तिनहि भवन देवी महा, प्रियकारिणी वर नार । गुण सम है उपमा रहित, जग प्रिय कर्ता सार ।।१०८।। कला ज्ञान चातुर्य अति, यथा धारती प्राय । त्रिशला बम रक्षा करण, रूप अधिक परताप ।।१०६॥
राज्ञी रूपवर्णन
सर्वया तेईसा अस्वज सौं जग पाय बने, नख देख नखत्त भयो भय भारी । नपुर की झनकार सून, दुग शोर भयो दशह दिश भारी॥ कलम बने जग जंघ, सबाल चल गज की पिय प्यारी । क्षोन वनौ कटि केहरि सोतन दामिनि होय रहो लज सारी॥११०॥ भिनिबीरियसी निकसी, पटहावत पेट सृकंचन धारी । काम कपिच्छ कियौ पट अन्तर, शील सुधीर धरै अविकारी ॥ मारट भांतिन के अन्त, कण्ठ में ज्योति लस अधिकारी। देखत सूरज चन्द्र छिप, मुख दाडिम देत महा छधिकारी ॥११॥
दिये प्रति सन्दर, नाक मुमा सम चोंच सम्हारी । बन कुरंग समान बन, वर अष्टम इन्दु ललाट निहारी।। केश मनों फणिनायक, रूप अनूप सबै सुखकारी। तीनह लोक तिया नहिं तासम, निरमित सोइ सती सरदारी 1॥११२।।
दोहा पट गण रत्न निधान पति, नव निधि संपति गेह । बहु देवी सेवा करें, धरै घरम सां नेह ॥११३।। कण्हलपुर अमरावती, नृप सुरपति सुखदाय । आप मनों इन्द्रायणी, रहै भूमि अब छाय ॥११४॥
सातव स्वप्न में देवी ने अन्धकार विनाश करने वाले सूर्य को उदयाचल पर्वत से निकलते हुए देखा । पाठवें में कमल के पत्तों से
तिम वाले सोने के दौ कलश देखे । नवें में तालाब में कोड़ा करती हुई मछलियां देखीं । वह तालाब कुमुदिनी और हालिनी लिख रहा था। दसर्व स्वप्न में उन्होंने एक भरपुर ताल देखा, जिसमें कमलों की पोली रज तर रही थी। ग्यारहवें
और गर्जन करताहमा चंचल तरगों से युक्त समुद्र दिखलाई दिया। उन्होंने बारहवें स्वप्न में दैदीप्यमान मणि से यक्त ऊंचा सिंहासम देखा । तेरहवां स्वप्न बहुमूल्य रत्नों से प्रकाशित स्वर्ग का विमान था । चौदहवें स्वप्न में पथ्वी को मारकर की मोर प्राताहमा फणीन्द्र (भवनवासी देव) का ऊंचा भवन दिखाई दिया । पंद्रहवें स्वप्न में उन्होंने रत्नों की विशाल गति देखी जिसकी किरणों से आकाश तक प्रकाशित हो रहा था। सोलहवें स्वप्न में माता ने निर्धम अग्नि देखो।
परीत सोलह स्वप्नों को देखने के पश्चात् त्रिशला महारानी ने पूत्र के आगमन सूचक ऊंचे शरीर वाला उत्तम हाथी
ल में घमते हुए देखा । माता के स्वप्न देखने के थोड़ी देर बाद ही प्रातः काल हुआ । राजमहल में महारानी को लगाने के लिए समधर बाजे बजने लग । बन्दा जना ने कहना प्रारम्भ किया-माता अब जगने का समय आकर उपस्थित मा
पनी शय्या छोडकर अपने योग्य शुभ कार्यों को प्रारम्भ कर देना चाहिए, जिससे कल्याण कारक वस्तये तुम्हें बड़ी सरलता से प्राप्त हों।
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जिनमाता के मा का वर्णन ।
सौधर्म इन्द्र ने कुबेर की कुन्डलपुर नगरी की रचना करने का प्रादश दिया।
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चौपाई दंपति अधिक पुण्य परताप उद्यत मनहु भान जनु माप जगत भोग उपभोग अनेके, भुगत एक घरमसों टेक ॥११५॥ इहि विधि नृप न निज धान, और कथा अब सुनहु निदान धर्म तस्वर पूरण भयो, सो फल धानि परापत भयौ ।। ११६|| नगरी रचना के लिये इन्द्र का कुबेर को प्राज्ञा देना ।
परि छन्द
सौधर्म इन्द्र इमि कहउ ऐन, तुम धनद सुनह मुझ त हे भरत सेत कुंदल पुरेश, सिद्धारय नृप मन्दिर तह रचउ नम्र नाना प्रकार, अर करहु रत्म वर्षा अपार । सब जीव ठिक्क तावद्द एव, निज अन्य सुक्ख दाइक्क तेव ॥ ११६ ॥ प्रदेश सुनो जब जक्ष ईश, ले हुकुम तुरत नायौ जु शीस । मनभाव दुगुन नहि किय विलंब, नरलोक आय पहुंच्यौ सुलंब ॥ १२०॥
बंग
महेश
1
अच्युत सुरेश सो रहें नाम, तमु कायु रही, छह मास जाम ।। ११७।। श्री वर्धमान अन्तिम जिनेश, तिनके सुत हू है जग महेश ।। ११८ ॥
नगरी रचना वर्णन
।
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बारह भोजन रच गय सब हेमसदन मनिचित्त अग्र बहू कोट जु गिरदाकार जोइ चहुंदिन दरवाजे चार सोइ ।।१२१|| तह गोपुर की छबि अधिक जास, खाई गम्भीर जलभरी तास वन उपवन की शोभा श्रपार, मो वरनत होय सु श्रुति श्रवार ।। १२२ ।। आने न राव रंक को जयकार शब्द चहुं ओर होइ नृपभवन रत्न वर्षा करत, मानौं जलधार उलंघ पंत ॥ १२३॥ ति प्रति ही साढ़े तीन कोट, पट मास च नव घरा जोड़ उद्योत नाहि सा सुभान, उपमा अनूप वरनं महान ।। १२४ ।। गृहमन्दिर जिततित रत्नराश, दुख विपति दई पुरते निकाश । नृप आँगन कल्पद्रुम बिद्याल, तह रत्नवृष्टि वरसे रसाल ।। १२५॥ वह फैल रही दशदिशि सुगंध बहु पुरजन मन बाढ्यो अनन्द । नरनार नगर निज सदन देख, धन कंचन पूरन प्रति विशेख ॥। १२६ ।। मन विसमय घरघर सत्र निहार, यह कवन पुन्य पुर में विचार । तब कहिय भव्य प्राश्चर्य कोय, अंतिम जिन यह अवतार होय ।। १२७ ।। कीनो कुबर पुर में प्रकाश, उन र हेम ऊचे श्वास | जिनराम धर्म श्रागमन जान, इन कियो महोत्सव सुक्ख खान ।। १२८ ।। मिथ्या मत रत जे सर्व मूढ़, जिन धर्म ठिक्कता गही गूढ़ जैसे रजनी तम उदित मान, नसि जाय एक छिन में महान् ।। १२६ ।।
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चौपाई
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घर्मरत्न राय सुख करतार जग में प्रचट करत भवपार धर्म सुफल नहि दो कोय, दाईक मोस पंथ नर लोय ॥१३०।। होद धर्म सो पुत्र सुपुत्र, भव भव करता धर्म पवित्र तीर्थकर पद प्राप्त होई, महा सम्पदा निज गृह जोइ ॥ १३१ सुख सों रहें सदा जिन तात, कारज धर्म विचारं गात । आदि श्रहिंसा लक्षण है, पंच अणुव्रत नित्रं ग ॥१३२॥
प्रातः काल के समय समभाव रखने वाले कोई श्रावक तो सामायिक करते हैं, जिससे कर्मरूपी वन जलकर राख हो जाते हैं। कितने ही भव्यजन शय्या से उठते ही लक्ष्मी के सुख को प्रदान करने अर्हतादि पंच परमेष्ठी को नमस्कार रूप मंत्र का पाठ आरम्भ करते हैं। दूसरे महाबुद्धिमान लोग तत्वों का स्वरूप आनकर मन को रोककर कर्मनाश के लिए सुख का समुद्र धर्म का ध्यान करते हैं। कोई मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से शरीर से ममता को स्याग कर ज्युस तप को धारण करते हैं यह संप समग्रकमों का नाशक और मोक्ष का सर्व श्रेष्ठ साधन है। इस प्रकार शुभ भावों से युक्त सज्जन गण प्रभा काल में धर्म ध्यान में सलंग्न हो जाते हैं।
जिस प्रकार जिनदेव रूपी सूर्य के उदित होने पर मिथ्यातम प्रभा रहित हो जाते हैं, उसी प्रकार सूर्य के उदय होने पर तारागणों के साथ चन्द्रमा प्रभाहीन हो गया । जिस तरह ग्रर्हत रूपी सूर्योदय से भेषधारी रूपी चोर भाग जाते हैं, ठीक इसी प्रकार श्राज के सूर्योदय से चोर यत्र-तत्र भाग गये। जिस तरह जिनवाणी के प्रकाश से अज्ञान रूपी अन्धकार का विनाश हो जाता है, उसी तरह सूर्य ने अपनी किरणों से विश्व के तिमिर का नाश कर दिया ।
बन्दी जनों का मंगल गान जारी था। वे कहते जाते थे माता ! जिस प्रकार शुद्ध ज्ञान रूपी किरणों से सीनाथ भगवान श्रेष्ठ मार्ग और पदार्थों का स्वरूप ज्ञान कराते हैं, इसी प्रकार यह सूर्य अपनी किरणों से सब पदार्थों का प्रकाश कर रहा
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दोहा
बहुविधि सुख सब भोगवै नप गुरु जन समुदाय । छहों मास पूरन भये, धर्म करत हित जाय ॥१३३॥ महिमा श्री जिनदेव का, तीन लोक सुखदाय । देखत भविजन धर्मवर जिन पर सदा सहाय ॥१३४॥
सोलह स्वप्न वर्णन
चौपाई एक समय रानो जिनधाम, कोमल सेज करें विश्राम । निशा पाछिने पहर निदान, सोवै सख जुत नींद प्रमान ||१३|| जग प्रसिद्ध सपने निरभंग, देखे षोडस विधि सरवंग । पुण्य पाक फल जानो सोय, धर्महि ते भव कहा न होय ॥१३६।। प्रथमहि गज वोख्यो मद जात, ऐरावत सम उज्जल गात । दूजे वृपभ धवल निरमला, दोसे मनों चन्द्र श्री कला ॥१७॥ रक्तवरन देखो मृगराय, अति विकराल महाभयदाय । कमलादेवी न्हवन करत, हेम कलश ऊपर हारत ॥१३८॥ देखी दिव्य दामिनी धार, महामगंध पुष्पमय सार । घोडशकला सहित शशगेह, तारागण जत देख्यो सेह ।।१३।। पुनि देख्यो तमनाशन भान, उदयाचल ऊपर सख खान। कनककलश अति सन्दर दोय, रमा शोस प्रवलोक साय ।।१४०।। जगम मीन तह करत जु खेल, जल भोतर शुभ करें जकल । पुरन जल कर सरवर बनौ, फूल्यो कमल जहां प्रति धनी ॥१४१६ देख्यौ सागर प्रति गम्भीर, लहरन सी झक झोर नीर । फिर देख्यो सिंहासन संत, अति उतंग मणिमय सोभत ।।१४२।। सुर विमान आवत प्राकान, देख्यौ रतनजड़ित परकाश । भवनपति रय देख्यौ जोइ, पृथिवो धंसत जातु है सोई ।।१४३।। बहुत भांत रतननकी राश, देखो अति उद्योत प्रकाश 1 अगनि शिखा पुन देखो जबै, घूम रहित बहु दोपत सजे ॥१४४।। इहिविधि सोलह स्वप्न अनूप, जिन माता देख भर रूप । पार्छ गज इक शाभावंत, निज मुख में देख्यो प्रविशंन ॥१४॥
दोहा इहि अन्तर निशितम गयौ, भयौ घरन उद्योत । पठत पाठ विधि आदरो, च धरम के पोत ।।१४६।।
चौपाई उठि प्रभात भवि समतावंत, सामायिक विधि करत महंत । कर्म महा परि चरन करे, जियपद जापहिये में धरै ।।१४७॥ कोई उठ शयन से सोय, पंच परम पद सूमिरे जाये । धर्म ध्यान धारे, निज अंग, कर्म शत्रु नास सरवंग ।।१४८।। कोई भविजन धीरजवंत, धरै ध्यान व्युत्सर्ग महत । इत्यादिक प्रारम्भ सुकर्म करें, प्रभात ध्यान यो धर्म ॥१४॥ जिन सूरज जब उदय कराय, खग घुका सम दुर्मत जाय । चार कूलिंगा तुरत पलाइ, अति भयभोत न धार धराइ ॥१५०।।
है। जैसे अहत के वचन रूपी किरणों से भव्य जोषों के मन रूपी कमल विकसित हो रहे हैं, वैसे ही सूर्य की किरण कमलों को प्रफल्लित कर रही है। प्रतएव हे देवी, प्रज प्रातःकाल हो गया, जो सब प्रकार से सुख प्रदान करने वाला है। धर्म-ध्यान के लिये इससे उत्तम दूसरा समय नहीं होगा। तुम शीघ्र ही शय्या का परित्याग कर कम करो। तुम्हें सामायिक स्तवन आदि से कल्याणकारिणी सिद्धियां प्राप्त करनी चाहिए।
___ कुछ समय तक उसी प्रकार बाजों के शब्द और बन्दोजनों द्वारा मंगल गान होते रहे। वे महारानी एकदम जाग उठीं। उन्हें प्रातःकाल के देखे हए स्वप्नों से महान प्रसन्नता हई। शय्या त्याग कर उन्हाने मोक्ष प्राप्ति क उलय सस्तवन सामायिक प्रादि उत्तम नित्यकर्म प्रारम्भ किया। इस प्रकार को नित्य क्रिया सर्वया कल्याणकारिणा है और सब प्रकार से मंगल करने वाली है। .
पश्चात् महारानी ने स्नान कर अपनाशृगार किया। वे आभषणों से सुसज्जित हो नौकरों को साथ लेकर महाराज की सभा में गयी महाराज अपनी प्राण प्रिया का अपनो योर आतो हई देखकर बड़े प्रसन्त हुए। उन्होंने रानी का बैठने के लिये अपना प्राधा ग्रासन समर्पित कर दिया। महारानो प्रसन्न चित्त हो उक्त आसन पर बैठा। उन्होंने बड़े मधुर शब्दों में
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दर्शक :- आगरी श्री
मोहासागर ।
ममराज
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जन माता के गावह स्वप्न
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छणम कुमारी देवियों के द्वारा जिन माता की सेवा
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इन्द्र ने देवी देवताओं सहित कुन्डलपुर के लिये प्रस्थान किया।
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प्यों रखनीश कला बह रज, भानरोह में प्रभता लज । जिन दच किरण प्रकट जब भयो, तम विकल्प सब मन को गयो ।।१५१३॥ शुभ मारग शुभ वचन सध्यान, शुभ पदार्थ करणा जिन भान! धर्म कमल विकसाधनहार, पाप कुमुदिनी सकृचनहार।।१५।। यहि अन्तर जिन माता जान, उठी प्रातमुख सिन्धु समान। धर्म ध्यान साधौ बहु भेद, समायिक दीनो तज खेद ॥१५३॥ मज्जन न्हवन कियो तरकाल, आभूषण पहिरे सु विशाल । संखिम सहित फिर पहुंची तहाँ, सभामध्य नृप बैठ्यो जहां ।।१५४।।
रानी द्वारा राजा से स्वत्नों का फल पूछना और राजा द्वारा
स्वप्नों का फल बतलाना नप प्रादत देखी बर मार, मधुर वचन बोले हितकार । अति प्रस्नेह बुलाई तास, दियौ अर्ध सिंहासन पास ।।१५।। हर्षवंत बोली करजोर, मो बल सुन स्वामी मुख मोर । ग्राज रंनके पीछे जाम, देखें षोडश स्वप्न सु धाम ॥१५६॥ हस्ती आदि अगिनि पर्यन्त, यह प्राश्चर्य भयो मो कत । जुदे जुदे फल कहिये तास, जाते मन को संशय नाश ॥१५७।। तीन ज्ञान वर मनहि विचार, तब नृप बोत्यो सुर वर नार ! एक चित्त है फल सुन येह, मैं भापत हों सब सुख एह ॥१५८।।
पद्धरि छन्द प्रथमहि गज सपनो फल मु एह, तीर्थ कर सुत तुम उर बसे ह । है वृषभ तनी फल सुवख खान, जग ज्येष्ठ धर्म रथ धुर प्रधान ।। १५६।। जब सिंह सुपन खय करत कर्म, हूं है अमात वीरज सुशर्म । लक्ष्मी भिषक फल मे शीस, अस्थापन कर है अमर ईश ।।१६०।। अरु पहुप दाम फल सुनहु तेह, अति हू है सहज सुगन्ध देह । शशि पूरन देख्यो तुम विशाल सो धर्म सुधा वाणी रसाल ॥१६१।। रवि सुपनतनों फल इहि प्रकार, अज्ञान महातम हरनहार । जुग कुभ तनों फल है विशाल, सो ज्ञान ध्यान अमृत रसाल ||१६२।। जुग मीन सुपन फल इहि प्रमान, संपूरन सुखकर्ता महान । सर कमल सहित फल सुनहु जोग, लक्षण व्यंजन जुत तन मनोग ।।१६३॥ हे सिन्धु सुपन को फल महत, सुन के बल ज्ञान प्रकाशवंत । सिंहासन फल इमि कहत राय, अय जमत रमा सेवे सुपाय ॥१६४|| अव मुर विमान फल सुक्खदाय, सुरलोक छोड़ तुम गर्भाय । नागेन्द्र भवन फल होइ जास, सो भतिश्रुत अवधि विज्ञान भास ।।१६५।। तुम रत्नराशि देखी विशाल, फल दर्शन ज्ञान चरित्र माल । अव भगिन शिखा फल सुनहु एह, वसु कर्मजार शिवपर वसे ह ।।१६६॥
___ दोहा गज प्रवेश मुख में कियो, सो फल अब सुन नार। अन्तिम जिन तुम गर्भ में, लियो आय अवतार ।।१६७।। अंग अंग हरषित भई, सुनं स्वप्नफल सार । शीस नाय नप को मुदित, मन्दिर गई सवार ॥१६॥
देवियों के द्वारा जिनमाता को सेवा का वर्णन ।
चौपाई सबै प्रथम सौधर्म सरेश, घट देविन को दिय प्रादेश । पदम आदि द्रह वासिनी सोय, आई कूडलपुर अबलोय ॥१६६।। जिन माता के लागी पाय, तुम से पठई सरराय । गर्भ शोधना कीनी प्राय, प्राज्ञा धरै सब हि मन लाय ||१७०।।
महाराज से निवेदन किया-देव! आज रात्रि के तीसरे पहर में मैंने अत्यन्त प्राश्चर्यजनक स्वप्न देखे हैं । अतः हाथी इत्यादि सोलह स्वप्नों का अलग फल मुझे सुनाइये।
महारानी के मुख से ऐसी बातें सुनकर मति प्रादि तीनों ज्ञान के धारक महाराज सिद्धार्थ ने कहा-सुन्दरी ! मैं इन स्वप्नों के शुभ फलों का शीघ्र ही वर्णन करूगा । तुम सावधान होकर श्रवण करो । महाराज ने कहना प्रारम्भ किया-कान्ते ! हाथी देखने का यह फल हुआ कि तेरा पुत्र तीर्थकर होगा और बैल देखने से फल यह हृया कि यह धर्मचक्र का संचालक होगा। सिंह दर्शन से वह पुत्र कर्मरूपी हाथियों को विनष्ट करने वाला, अनन्त बलवान होगा और लक्ष्मीका अभिषेक देखने का फल, यह बालक सुमेरु पर्वत पर इन्द्रादिक देवों द्वारा स्नान कराया जायगा।
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श्री देवी श्री कर बढ़ाब, हो देव लज्जासों चाब। धति धोरज घारै सब काज, कीर्ति बढ़ावं कीरति साज ॥१७॥ बुद्धि बुद्धि को करे अपार, लक्ष्मी लक्ष्मी को भण्डार । प्रभ अम्बा प्राज्ञा चित धरी, दिन दिम प्रीति बढ़ावै खरी ।।१७२।। माता निर्मल सहज सुभाय, वे सेबै निज कारण पाय । फटिक समान उदर निरदोय, त्रिवली सहित हृदय सन्तोष ।।१७३||
भगवान वर्तमान का माता के गर्भ में पाना । 'मास अषाढ़ शुक्ल छट जान, नखत उत्तरा अन्त प्रमान । अच्युत पति चय धर्म सनेह, प्रियकारिणि उर गर्भ धरेह ।।१७४] चतुर निकाय देव घर जब, अनहद शब्द भयो अति तबे । कल्पवासि धर घंटा बजे, सिंहनाद ज्योतिष गृह गजै ।।१७५।। भवनपती शंख ध्वनि भई, व्यन्तर धाम भेरि गृह गई। वह विध भयो अचज अनेक, सुरपति प्रासन कपी टेक ११७६।। तीन ज्ञान धारी सुरराय, जान्यौ गर्भ धर्यो प्रभु प्राय । तवं त्रिदशपति मन हषियौ, आप बाप वाहन चढ़ि कियौ ।।१७७||
गर्भ कल्याण के लिए देवों का कुण्डलपुर प्राना।
आभूपण पहर निज सबै, जोति दशौंदिश फैली तब । वजा छत्र जुत सरस विमान, छाय रह्यो नभ मण्डल जान ।।१७८।। जय जय शब्द करत मन लाय, आये कुण्डलार समुदाय । देवो देव विमान अपार, दिश दशहू रुध्यो पुर सार ।।१७६।। राजभवन प्रायी सुरराय, जिनपति मान भक्ति उर लाय। सिंहासन बैठारो राय, हेमकलश अभिषेक कराय ।।१०।। पूजा करी इन्द्र मन लाय, भुषण बसन सर्व पहिराय । गर्भमांहि प्रभ को थुति कोन, भक्ति सहित बहु आनन्द लान ।।१८१॥ इत्यादिक अतिशय बहुं कयों, गर्भ महत्व महागूण भयो। तेरम द्वाप रुचक गिरि जास, छपन देबो को नहं वास ।।१२।। ते जिन माता सेवा काज, राखो दिक कुमारो का साजाप्रपम इन्द्र को प्राज्ञा वान, रहत सदा सा अपने थान ।।१५३।। बार-बार फिर कर परणाम, गये शक्राति निज-निज धाम। परम पुण्य को इन्द्र बड़ाय, सो उपमा वरणो नहिं जाय ।।१८४||
जिन माता की सेवा के लिये आई हई देवियों का कार्य वर्णन । अब जिन माता सेवे देवी दुद्धि पस। कोहि सड़ावहिं अंग, कोई मुख विहसा बहिरंग ।।१८।। कोई नित मंजन विधि कर, कोई ले ताम्बुल जु धरै । कोई सेज र छविकार, कोई पाय प्रक्षाले सार ॥१८६।। कोई दिव्य वसन पहिराय, कोई केश सभार बंधाय। हेम रत्न आभरण जु कोय, अंग अंग पहिराब सोय ||१८७।। कोई कज्जल देह निहर, कोई तनको करहि सभार। रचि पाहार कराव कोइ, कोई प्रासक जल मुख धोइ ॥१८८।। कोई पुहुप माल गुहि देइ, कोई चन्दन खौर करेइ । रतनचूर कोइ पूरं चौक, बहुविधि रंग करहि कोई नौक ॥१५६।। तुगसदन जब निशपत होय, मदि दीपक उजियारे कोय। ऐसे सख संधान बढ़ाय, सेवें खड़े सपरस पाय ।।१६।। कवहूं बन कोड़ा को जाय, गावं मधुर बचन समुदाय । कबहूं नृत्य कर सुख पाय, वाद्य कथा बहु कहै बनाय ।।१६।। इत्यादिक बहु करें उपाय, ऋद्धि विक्रिया के परभाय । जिन माता को हर्ष बढ़ाय, करें रंग देवी मन लाय ।।१६२॥
स्वन्न में मालाओं के देखने से सुगन्धित शरीर वाला और श्रेष्ठ ज्ञानी होगा तथा पूर्ण चन्द्रमा के दर्शन से वह पुत्र धर्मरूपी अमृत वर्षण से भव्य जीवों को प्रसन्न करने वाला होगा। सूर्य के देखने से वह अज्ञान रूपी अन्धकार का विनाशक तया उन्हीं के समान कांतिबाला होगा। जलसे परिपूर्ण घड़ों के देखने का फल यह है कि वह अनेक निधियों का स्वामी तथा ज्ञानध्यान रूपी अमृत का घट होगा। मछली के जोड़े देखने से सबके लिये कल्याणकारी तथा स्वयं महान सुखी होगा। सरोवर देखने से शुभ लक्षण तथा व्यंजनों से सुशोभित शरोर धारो होगा । समुद्र के देखने से तो केवललब्धियों बाला केवलज्ञानो हामा तथा सिंहासन देखने से महाराज पद वाच्य जगत का स्वामा होगा । स्वर्ग का विमान देखने का यह फल हुमा कि, वह पुत्र स्वर्ग से पाकर अवतार धारण करेगा और नागेन्द्र भवन के अवलोकन से अधिज्ञान रूपो नेत्र को धारण करने वाला होगा। रत्ना के ढेर देखने से वह सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्रमादि रत्नां को खानि होगा और निर्मल अग्नि के दर्शन से वह कर्मरूपो ईधन को छार करने वाला होगा। अंत में गजेन्द्र के दर्शन का फल यह हुमा कि, वह अंतिम तीर्थंकर स्वर्ग से भाकर तुम्हारे निर्मल गर्भ में प्रवेश करेगा।
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यह विधि निशि बासर बहु जाय, नवम मास तब लाग्यौ आय। प्रश्न प्रकर्षण देवी कर, माता सीख शीस पै घरै ॥१६॥ गूढ़ अर्थ शब्दादिक क्रिया, नाना प्रश्न करें सुर श्रिया। कहत पहेली और निरोष्ठ, काव्य श्लोक धर्म की गोष्ठ ।।१६४॥
प्रहेलिका वर्णन महागुरुन को गरु है कोय ? जोगी श्रय जग जाहिर सोय। जो अतिशय मंडित श्रौतीस, गुण अनन्त धारै जिन ईश ।।१९५॥ वचन प्रमाण कहै को माय? जग सर्वज्ञ कहा वै प्राय । दोष अठारा रहित शरीर, वीतराग है जो जगहीर ॥१६६।। सुधासिंधु कयितु है काहि ? जन्म मृत्यु विध दियो बहाहि । जिनवर मुख बहुज्ञान प्रकाश, सो अमृत दुर्भत विषनाश ॥१७॥ ध्यनवंत वृध को जगमाहि ? कौन ध्यान परमेष्ठित पाहि । सप्त तत्व को श्रद्धा कर, धर्म शुक्ल जो ध्यानहि घरै ।।१९।। तुरत हि करनी करता कौन? पूटन हुई खिदैनन; जो सनन्त दर्शन पर जान, दृढ़ चारित्र धरै परवान ||१६ सहगामी जियको को होय ? दया धर्म बांधव है दोय । पाप महा अरि नारी जोय, सरव दिशा रक्षक है सोय ।।२००। धर्म होय वयों या जगमाहि? दर्शन ज्ञान चरित्र धराहि। व्रत अरु शील सर्व प्रादर, उत्तम क्षमा प्रादि दा धरै ।।२०१॥ धर्म लनो फल लोक मझार, होय विभूति इन्द्रपद सार । ए मुख लहि तीर्थकर होय, फिर शिवपुर को पहं सोय ॥२०॥ लांछन कौन धर्म के कहे, शांतिभाव अतिचि लहलहे । निरहंकार जु रहै सदीव, शुद्ध क्रिया तत्पर सो जीव ।।२०३।। कहाँ पाप को कहा प्रमान ? पंचमिथ्यात्व दुःख की खान । कोध आदि षोड़श जु कषाय, पद अनायतन सदा धराय ॥२०४।। पाप वृक्ष फल कहिये माय ? दुखकारण दुर्गति ले जाय । रोग क्लश अधिक तह सहै, निद्य होय भवभव में बहै ॥२०५।। पापी लक्षण कैसो होय? तीव्र कषाय धरै नर जोय । पर निन्दा को करता रहै, पारत रौद्र ध्यान संग्रहै ॥२०॥ लोभी कौन सर्वदा कहे? धर्मबुद्धि जो दढ़ गहि रहे । निर्मल करे सबै प्राचार, कठिन जोग तप तन मन धार ॥२०७।। को विवेक है जग में श्रेष्ठ ? देह वस्तु जाने सु अनिष्ट । देव शास्त्र गुरु नमैं न और, जैनधर्म पाले शिरमौर ।।२०।। धर्मी को कहिये जगमाहि? क्षमा आदि पाले दाधाहि । जिनवर भाषित पाज्ञा लहै, ज्ञाना व्रती वद्धि संग्रहै ।।२०।। सवर कौन पंथ भव त्रले ? निर्मल पुण्य पाप दल मले । पूजा दान पवास ज घरं, व्रत अझ शील नाम जस करै ।।२१०।। सफल जन्म किहि को जगलोय ? उत्तम ज्ञान प्राप्ति ही होय । मुक्ति पुरी धैबां उर हेत, और न भवसुख चित्त घरेत ॥२१॥ मुखी कौन जग में परधान? जो उपाधि जित गुण मान । ज्ञान ध्यान अमृत को स्वाद, वनबासी तज के परमाद ॥२१२।। चिन्ता कौलौं यह जगमाहि ? जोली कर्म शत्रु क्षय नाहि । साधन मुक्ति लक्ष्मी सोय, और स्वर्ग सौं काज न तोय ।।२१३१॥ बड़ी पुरुष है को जगथान ? जाके सदा सुमोक्ष हि ध्यान । रत्नत्रय तब जोग जु लहै, ज्ञान संपदा सो निरव है ॥२१४॥
महाराज के मुख कमल से सोलहों स्वप्नों का फल सुनकर पतिव्रता महारानी का हृदय प्रफुल्लित हो उठा। उन्होंने समझा मानों पुत्र की प्राप्ति ही हो गयी । वे बड़ी प्रसन्न हुई। उसी समय सौधर्म इन्द्र का प्रादेश पाकर पद्म यादि सरोवरों में निवास करने वाली श्री आदि छ: देवियां राज-महल में आ गयीं। उन्होंने तीर्थंकर को उत्पत्ति के लिए स्वर्ग से लाई हई पवित्र वस्तुओं से माता के गर्भ का संशोधन किया, जिससे उन्हें पुण्य की प्राप्ति हो। पुनः वे अपने अपने शुभ गुणों को माता में स्थापित कर उनकी सेवा में संलग्न हो गयीं।
श्रीदेवी ने शोभा दी, ह्री देवी ने लज्जा, धृति देवी ने धैर्य कृति देवी ने स्तुति बुद्धि देवी ने श्रेष्ठ बुद्धि तथा लक्ष्मी देवी ने भाग्य प्रदान किये। वे जिन माता बड़ी गुणवती हई। यों तो महारानी पूर्व से ही स्वभाव से पवित्र थीं, पर जब देवियों ने वस्तुओं से उन्हें शुद्ध को तब तो वे मानों स्फटिक मणि से ही बनाई गयो प्रतीत होती हों, ऐसी शोभायमान हुई। इसके पश्चात अषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की शुद्ध तिथि षष्ठी को प्राषाढ़ नक्षत्र में और शुभ लग्न में बह अच्युतेन्द्र स्वर्ग से चयकर माता के शुद्ध गर्भ में पाया । महावीर प्रभु के गर्भ में आते ही स्वर्ग के कल्पवासी देवों के विमानों में घंटे की ध्वनि होने लगी और इन्द्र का पासन कांप उठा।
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परम पुरुष को जग में मित्त? जो धर्मी है सहजै चित्त । तप पर ध्यान क्तादिक धरै, दुराचार को नहि संचरै ॥२१५|| को है शत्र जगत विख्यात ? तप सुहानि दीक्षा न गहात । हित अनहित दोक परिछेद, धरै कुबुद्धि स्वपर बहु खेद ॥२१६।। को दानी है जग शिरमौर? क्षेत्र उलघि घरै नहि ठौर । तप कर दुर्वल अंग करेय, ते अमोल गुनको जु घरेय ॥२१७॥ तुम सम तिय जग में अब कोय? तीर्थकर सुत जाके होय । तीन भुवन में तारक जोय, दुर्मत को स्वयकारक सोय ॥२१८।। पण्डित कौन जगत में माय? श्रत को जाननहार सूभाय । दुराचार नहि बांध यंग, पाप क्रियातें रहित प्रसंग ॥२१९।। मुरख को कहिये जग माहि? त अरु क्रिया चार गत नाहि । तप र धर्म घर ना लेश, पाप बुद्धि लहि कुगति प्रवेश ||२२०॥ दुर्घर चोर जगत में वीन? धर्म रतन के हुर्ता जौन । इन्द्रिय पंच दई मुकराय, हित त्यागे अनहित जु सुहाय ॥२२१।। शुरवीर को जग में होय? सहै परीषह भट हो सोय । धीरज-असि कपाय-अरिनाश, मोहादिक तज दोनों वास ।।२२२॥ को है अखिल देवता देव ? दोष अठारह कीनी ठेव । गुण अनन्त जग में विख्यात, पर उपकार धर्म शिक्षाद ।।२२३।। उत्तम गुरु या जग में कोय, दुविध परिग्रह वर्जित होय । भव्यनि प्रति उपदेशहि सार, भवधि पार उतारन हार ॥२२४|| यह प्रकार बहु प्रश्नहि करी, दिक्कुमारिका मन गह भरी । अतिशय गर्भमाहिं प्रभु जान, माता उत्तर दियो महान ।।२२५|| उदर माहि अन्तिम जिनराय, तीन ज्ञान धार निज काय । जैसे छीप मध्य मणिवास, तसे उदर मध्य जिन तास ।।२२६॥ त्रिवली भंगुर नासी नाहि, माता कछू न संकट पाहि । अधिक दीप्ति बाढ़ी जु शरीर, गर्भ-रतन की ज्योति गहोर ॥२२७॥ इहि विधि देवी कर उत्साह, मन रज नित नित अति ताह । नवम माम पूरन जब भयो, मन ग्रानन्द नृपतिने ठयौ ।।२२८।।
दोहा देवी बहु प्रश्न हि करी, माता दीनी ज्वाप । श्रुतसागर की केलि में, मनह सरस्वती पाप ॥२२६।। तब सुर पंचाश्चयं कर, रतन पहुप बहु वर्ष । गन्धोदक दुन्दुभि मधुर, जय जय बोलत हर्ष ।।२३०।।
गीतिका छन्द यहि भांति चरण सुधर्म करवी, भोग भगते शक्रने । पून चय तहांत गर्भ आये, वीर जिन अन्तिम गने ।। धर्म तें जिन पित्र मातहि, इन्द्र शत सेवत भये । श्रुति करी मन अरु वचन तनधर, पाप निज लोकहि गये ।।२३१॥
ज्योतिपी देवों के यहां स्वयं सिंहनाद होने लगा। भवनवासी देवों के यहां शंख की महान ध्वनि हुई। साथ ही व्यन्तर देवों के महलों में भेरी की विकट आवाज हुई। केवल यही नहीं और भी पाश्चर्य जनक घटनायें घटी। उक्त आश्चर्य जनक घटनामों को घटते देखकर चारों जाति के देवों को यह ज्ञात हो गया कि, महावीर प्रभु का गर्भावतरण हो गया। पश्चात् वे स्वर्गपति भगवान का गर्भ-कल्याणक उत्सव मनाने के उद्देश्य से उस नगर में पधारे। उस समय देवों के समूह को देखते ही बनता था। वे सर्वोत्तम सम्पदायों मे मुशोभित थे, अपनी-अपनी सवारियों पर पारुढ थे, उत्तम धर्म का पालन करने वाले दरम। अपने अंग के प्राभूषणों और तेजसे दशों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले थे। उन्होंने ध्वजा, छत्र विमानादिकों से आकाश को ढंक दिया। वे देव अपनी देवियों के साथ जय-जय शब्द कर रहे थे।
उस समय नगर की अवस्था देखने लायक हो गयी । विमानों, अप्सराओं और देवों की सेनाओं से घिरा हुआ वह नगर स्वर्ग जैसा सर्वोत्तम प्रतीत होने लगा। देवों के साथ इन्द्र ने भगवान के माता-पिता को सिंहासन पर बिठा कर सोने के घड़ों से स्नान कराया तथा उन्हें दिध्य ग्राभूषण तथा वरत्र पहनाये । माता के गर्भ के भीतर स्थित भगवान को सबों ने तीन प्रदक्षिण दे नमस्कार किया।
इस प्रकार सौधर्म इन्द्र भगवान का गर्भ कल्याणक सम्पन्न कर जिन माता की सेवा में देवियों को रख देवों के साथ पुण्य उपार्जन करता हुआ, बड़ी प्रसन्नता के साथ पुनः स्वर्ग को लौटा।
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धर्म फल कर पित्र माता, पुत्र तीर्थकर लहै । धर्मसों भव कर्म छुट, धर्म शिवपदवी गहैं ।। यह जान भविजन धर्म घर, दृढ़ धर्म सुपथहि ठानिये। करि "नवलशाह" प्रणाम नितप्रति, धरम हित जग जानिये ॥२३२॥
दोहा
महिमा गर्भ कल्याण की, को वुध वरनहि आप। कह्या सकल संक्षेप कर, जिनवाणी परताप ।।२३३॥ वीर धीर गम्भीर प्रति, वीर कर्म अरि जीत । वीर सुभट गुणवीर है, बीर सुगुण धर प्रीत॥२३४॥
स्मरण रहे वि श्रेष्ठ धर्म के पालन करने से अच्युतेन्द्र का देव सुख के समस्त साधनों का उपभोग कर तीर्थकर पद को प्राप्त किया। ऐसा जानकर हे भव्य पुरुषों ! यदि तुम मुख प्राप्त करना चाहते हो तो वीतराग भगवान के आदेश के अनुसार श्रेष्ठ धर्म का विधिवत पालन करो।
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अष्टम अधिकार
मंगलाचरण
दोहा बन्दौं वीर जिनेन्द्र पद, तीन जगत श्रिय दैन । पंच कल्याणक भोगता, त्राता मोहि सूचन ॥१॥
भगवान के जन्म कल्याण का वर्णन
चौपाई
चैत्रमास उत्तम शशि पक्ष, त्रयोदशी उत्तम परतक्ष । माता सुख में सोवत थान, जन्म में प्रभु ज्यों प्राची भान ॥ तन दीपत उद्योत अपार, निशि मिथ्यातम के क्षयकार । तीन ज्ञान भूषित उर व्यो, तीन जगत अजित पद लयौ । जनम महत्व भयो अतिशाय, सकल दिशा निर्मलता थाय । तन' सुगन्ध फैली चहुं ओर, नभ में उपज्यौ जै जै शोर ॥४॥ निर्मल पहप वृष्टि तह करें, निज निज टेक पुण्य ह्यि धर। चतुर निकायी देवन भूप, ग्रासन कंप भई निज रूप 11५।। अनहद घण्ट बज्यो सुरलोक, सिंह घोषणा ज्योतिष थोक । शंख भवनवासिन के मेह, भेरी रव व्यंतर कर नेह ॥६॥ सौधर्मेन्द्र प्रादि बहु देव, जन्म जिनेश जान कर भेव' । कल्याणक प्रभु कीजै जाय, लिज निजपर पुण्य उपाय ।।७।। दल साजन याज्ञा की इन्द्र, सप्त अनीक रच्यो ग्रानन्द । हस्ती प्रथम पुतिय हय जान, रथ गन्धर्व नतक पय दान ।। वृषभ सातमों वरनौ भेवा, देव बलाहक विक्रिय एव । जोजन लख ऐरावत भयौ, सो मुख तास दशों दिश ठयो । मख मख प्रति वस दन्त घरेह, दन्त दन्त इक इक सर लेह । सर सर माहि कमलिनी जान, सबासी हैं परमान ॥१०॥ कमलिनि प्रति प्रति कमल बखान, ते पच्चीस पच्चीसहि ठान । कमल कमल प्रति दय सोभंत, प्रष्टोत्तर शत है विकसन्त ॥१॥ दल प्रति एक अप्सरा जान, सब सत्ताइस कोड प्रमान । ता गजपै थारूढ़ जु इन्द्र, अरु सब संग इन्द्राणी बन्द ॥१॥ सामानिक सब देव' अनेक, षोडश स्वर्ग तन कर टेक । आये सकल महोत्सव काज, अपने अपने वाहन साज ॥१७॥ ज्योतिष व्यन्तर और फणीन्द्र, सब परिवार सहित पानन्द 1 दुन्दुभि शब्द महा ध्वनि करें, सकल देव जै जै उच्चर।।१४॥
भोक्ता कल्याणक प्रभ, दाता वैभव सर्व । त्राता गति-संसार के, करें कर्म सब खर्व ।। जो गर्भादिक पंच कल्याणकों के भोक्ता हैं, जो समग्र विश्व को वैभव प्रदान करने वाले हैं, जो सांसारिक चारों गतियों से रक्षा करने वाले हैं, वे प्रभु अर्थात् महाबीर स्वामी मेरे समस्त कर्मों को नष्ट करें।
स्वर्ग से पाई हुई देवियों में कोई तो जिन माता के समक्ष मंगल द्रव्य रखती, किन्हीं देवियों ने माता की सेज बिछानेका भार अपने ऊपर लिया, किमी ने दिव्य प्राभूषण पहनाने का तथा किसी ने माला तथा रत्नों के गहने देनेका । कितनी देवियां माता
१. तीर्थंकरपद पुण्य की महिमा देखिये जिसके कारण बिना इच्छा के भी स्वर्ग के उत्तम सुख स्वयं प्राप्त हो जाते हैं और स्वर्ग से भी महाउत्तम विमान माप से पाप मिल जाते हैं विमान में सम्यग्दृष्टि देवों से तत्व चर्चा करने, तीर्थंकरों के कल्याण को उत्साहपूर्वक मनाने सरल स्वभाव, मन्द कषाय तया अहिंसामयी व्यवहार करने के कारण अच्युत विमान से प्राकर अब में माता त्रिशलादेवी का पुत्र वर्धमान हुआ हूं।
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राजा सिद्धार का देवों से स्वागत हो रहा है।
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कुंडलपुर में दुन्दभि बाजे वजन लगे, आकाश में बा फहराने लगे। देव देवियां खुश मनाने लगे। स्वत छत्र शिर पर शोभायमान होने लगा ।
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श्री १००८ भगवान महावीर स्वामी के जन्मोत्सव पर देवों का प्रागमन।
भगवान को जन्माभिषेक के निचले जाते हा उन्नती
और नन्य करते हुये देव ।
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कोई गावे गीत सुरंग, कोई नृत्य करें मन रंग। इहि विधि चतुर निकायी देव, प्रथम इन्द्र सब में बहु सेव ।।१५।। विमान हाय संध्यो आकाश, छत्र ध्वजा दीसें परकाश । अति फहराव होय चहुं ओर, प्राये कुण्डलपुरहिं बहोर ॥१६॥ दै प्रदक्षिणा परहि सुरेश, कीनो पूरब पौर प्रवेश । सवाल नगर में भीर जु भई, नर सुर असुर सेव मिल गई ॥१७॥ नृप अंगन प्राये सब इन्द्र. संग लिये इन्द्राणी वृन्द । तब हि शची जिन मन्दिर गई, जननी सहित प्रदक्षिण दई ॥१८॥ दिव्य देह तब देख कुमार, नमस्कार कर बारम्बार । भो प्रभु ! तीन जगत गुरदेव, पुण्य प्रताप मिले तब सेव ॥१६॥ धन दिग देवी सेवा करी, धनमाता तिहि जनमत घरी । सार्थ नाम अब प्रियकारिणी, विश्वलोकपति दरशावनी ॥२०॥ इहि प्रकार प्रस्तुति कर गढ़, जनम गीत गाये मन रूढ़ । कर माया सुख निद्रा पाय, मायामय बालक यह ठाय ॥२१॥ लीनौं निज कर प्रभु हि उठाय, शची र निज अंग नमाया। तन दोपति व्यापी दिश सर्व, को कवि बरनै श्रुत धर गर्व ॥२२॥ भान दिखाये प्रभको तब, इन्द्र प्रदक्षिण दै शिर नवं । रूप देख जिन भये न तुष्ट, सहस नयन कीने हरिसुप्ट ॥२३॥ इन्द्राणी दीनै शिरनाय, हरवंत लीने सुरराय । लक्षण अष्टोत्तरशत गात, पर व्यंजन नवसे विख्यात ॥२४॥ दरस अंग अंग की कान्त, पुरब उदय भान लाजत । नख देखत उगन द्युति घोर, हरि प्रस्तुति कीनी करजोर ||२५|| गूरुन विष गुरु हो तुम ईश, चित्त धर्म के तीरथ ईश। तुम प्रभु अन्तिम जिनवर सुर, केवल ज्ञान उदय अघ चूर ॥२६॥ भव्य जीव रक्षक हित धर्म, मुक्ति स्त्री भर्ता शुभ शर्म । मिथ्याज्ञान कप है अन्ध, परै ताहि में पानी धंध ||२७|| धर्म हस्त तुम परम जहाज, उद्धारत भवि जीवन काज। मोह आदि जे कर्म न हने, ते शिवपुर को जेहैं घने ॥२८॥ प्रस्तुति बहुत शक तह करै, नमस्कार कर गज संचरै। जन्मभिषेक करन को जोय, गगन पयान कियो पुन सोय ।।२।। दुन्दुभि सकल बज बहु ध्यान, किंनर गावे गीत सुहान। नत्यत देवी लीला करें, जिनके गुण रट रट निज गरें॥३०॥ प्रथम इन्द्र निज कांधे थाप, अरु ईशान छत्र लिय प्राप । सनत्कुमार महेन्द्र जु होय, चौर दुरै अति हर्षित होय ॥३१॥ सकल देव जयघोष कराय, यह विधि बहुत भयो कहराव । ज्योतिष लोक उलंधै जाय, क्रम श्रम मेह ऊर्ध्व पहुंचाय॥३२॥ पाण्डुक बन तह शोभावान, कल्पद्र म दीसे सब थान ! चहूंदिश चार जिनालय धार, विदिशा पाण्डक शिला सुचार ॥३३॥ (ई) शान दिशा की शिला नियोग, भरतक्षेत्र तीर्थकर जोग1 सौ जोजन है दीरघ सोय, अर पचास विस्तार जु होय ॥३४॥ जोजन पाठ ऊंचाई धार, अष्टम चन्द्र तास प्राकार । सिंहपीठ तिहि मध्य जु लीन, वैडूरज मणि सोहत तीन ।।३।। पाव कोश पहिली उन्मान, आधी तास दूसरी जान । तात अर्घ ऊर्ध्वमुख और, मण्डप इन्द्र रच्यो शिरमौर ॥३६॥
की मङ्ग-रक्षाके लिये नंगी तलवारों से पहरा देती थीं और उनके लिये भोग्य सामग्रियों को एकत्रित करती थीं । कुछ देवियां पुष्प धूलि से भरे हुए राज्य-आँगन में बुहारी लगाती थीं और कुछ चन्दन जल का छिड़काव करती थीं।
उन देवियों ने रत्नों के चरण से स्वस्तिक प्रादि की रचना की और महल को कल्पवृक्ष के पुष्पों से सजाया। किसी ने ऊंचे महलों को चोटियों पर रत्नों के दीपक जलाये, जो अन्धकार को नष्ट करने वाले थे । कपड़े पहनाना, प्रासन बिछामा प्रादि समस्त कार्य देवियां किया करती थीं । माता की वन-क्रीड़ा के समय मिष्ट गील, प्रिय नृत्य और धामिक कथायें कह-कह कर वे माता को सुख पहुंचाया करती थीं। इस प्रकार जिन-माता देवियों द्वारा सेवित हुई और उन्होंने एक अनुपम शोभा धारण की।
जब नौवें मास का समय निकट आया तो गर्भवती माता अतिशय बुद्धिमती हुई। उन्हें प्रसन्न रखने के उद्देश्य से देवियां तरह-तरह की प्रहेलिकायें और मनोहर कवितायें सुनाया करती थीं। वे देवियां कुछ मूढ़ अर्थ की प्रहेलिकायें माता से पुछा करती थीं और माता उसका समुचित उत्तर दिया करती थीं। उदाहरण के रूप में निम्न पहेली और उसका उत्तर साथ है
विरक्ता नित्य कामिन्या कामुको कामुको महान् । सस्पृहो निःस्पृहो लोके परात्मान्यश्च यः स कः ॥१॥ अर्थात् जो वैरागी होने पर भी सर्वदा कामिनी की इच्छा रखता है और निस्पृही होने पर भी इच्छा करता है, इस
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दोहा
छत्र चमर ध्वज ताल जूत, कलश अवसर भगार । सुप्रतिष्ठक दर्पण सहित, मंगल द्रव्य सुसार ॥३७॥ वसु द्रव्य ताही सदा, उपमा दीजे काय । देव रचित मंगल करत, घरी सबै समुदाय ।।३।।
चौपाई
सिंहपीठ ऊपर हरि आप, दक्षिण दिशि सिंहासन थाप । ताप पूरव मुख प्रभ करी, कमलासन अद्भुत बल धरी ।।३।।
सो) धर्म इन्द्र दक्षिण दिश हार, अरु उत्तर ईशान कुमार । दश दिकपाल' दशों दिश खड़े, सुर विद्याधर पानन्द बड़े ॥४० काल्पत पहपनकी माल, प्रभु के प धरी तत्काल । मीस त्य' वादिम प्रकाय, जै जै हर्ष कर हरषाय ।।४।। इन्द्राणी मादिक सब देव, दिव्य कण्ठ गावें प्रभु सेव । सहस अठोत्तर कलश बखान, जोजन एक तास मुख जान ||४२।। जोजन पाठ महा गंभीर, उदय चार हाटकमय तीर । अब कुबेर रतनन कर खची, नानावर्ण पंडिका रची ।।४।। मेह शिखरते सोहै पंत, पंचम सागर के पर्यन्त । सकल सुरासुर तहत ठाट, एक एक छोड्यो दधि घाट ।। ४४|| सेनी बांधी देवन सबै, हथाहत्थ कलशा ले तबै । सो क्षीरोदधि जल भर लाय, जन्मासेक करा मन लाय ||४५।। प्रथम सौधर्म इन्द्र के हाथ, कलश दये देवन सब साथ । एक सहस व भुजा कराय, सकल कलश ढारै हर्षाय ।।४६।। शेष पाक मर सकल ज देव, ढारै कलश कहीबहु सेव । तीन घार ह्व शिरपर ढरी, मानों त्रिविध मिली सरसरी ।।४७।। जो घर सों गिरिवर खंड, सो प्रभु सही महा बल बंड 1 वीर थान अति वीरज सक्त, उपमा कौन कहै कर भक्त ।।४८।। प्रभ को परस छटो उपराय, पाप मुक्ति इव ऊरध ल्याय । प्रभुबल अद्भुज बरनों कहा. फूलमाल सम धारा महा ।।४।। वपु इक हाथ शरीर प्रमाण, नर सुर प्रभुबल अचरज जान । जै जै शब्द करें अति सबै, कलकहराव भयौ है तबै ॥५०॥ मस्व अवलोकै दिग कौभार, मुक्तागण सम जल अमधार । पाण्डुक रव अति सोहत भयो, निर्मल बहु विचित्रता ठयो ॥५॥
राज मणि प्राभा सोय, जन्म स्नान मगन सुर होय । उमगि चल्यो क्षारोदधि नीर, मानों गंगा बड़ी समीर ॥१२॥ सामग्री सब गंध गहीर, सधा समान न्हवन को नीर । श्री तीर्थश म्हवन अतिशाय, गंधोदक बंद हरषाय ॥५३॥ जो धारा प्रभ परस जो चली, सो सुर निज निज माथे दली । पाप अनेक गये भग दूर, देह पवित्र करी गुण भूर ।।५।। खगउधार वत धारा राज, सहत सकल सुर मुक्तिहि काज । अमृतसम धारा निज गृही, विषमल धोय शुद्धता लही ॥५५।। पण्य अनेक उपाजें सोय, लक्ष्मी मुक्ति सरूपीहोय । सकल सिद्धि की करता सबै, (अ) भीष्ट संपदा लोनी जबै ।।५६।।
संसार में बह विलक्षण पुरुष कौन है? यह तो हई पहेली। माता ने इसी श्लोक में परमात्मा शब्द से उत्तर दिया है। कारण परमात्मा का अर्थ एक तो विलक्षण पुरुष होता है और दूसरा अर्थ परमात्मा भी है। परमात्मा नित्य कामिनी अर्थात अविनाशी मोक्ष रूपी स्त्री में अनुरागी है और उसी की इच्छा रखने वाला है।
दृश्योऽदृश्यऽस्त्रितचिभूषः प्रकृत्या मिर्नलोऽव्ययः । हंता देह विधेर्देवो नाऽयं क्ववर्ततेऽद्य सः ॥ २॥
अर्थात् जो अदृश्य है, फिर भी देखने योग्य है, स्वभाव से निर्मल होने पर भी देहकी रचना का नाशक है, पर महादेव नहीं हैं। इस श्लोक में देवोना शब्द से उत्तर है कि देवरूपी मनुष्य थी अर्हन्त देव हैं, यह भी पहेली है।
इस प्रकार उन देवियों ने प्रश्नोत्तर के रूप में माता से अनेक पहेलियां पूछी हैं। वे भिन्न हैं- हे सुन्दरी ! असंख्यात मनष्य और देवों द्वारा सेचित तीनों जगत का गुरु तेरा पुत्र उत्तम अनेक गुणों से युक्त विजयी हो । (इसके श्लोक में अोठ से बोलने वाला एक भी अक्षर नहीं है, अतः यह निरोष्ठच अक्षर है।) जिसने दूसरी स्त्रियों से प्रेम करना छोड़ दिया है, पर फिर भी अविनाशी मोक्ष सुख में अनुरागी है, ऐसा गुणों का समुद्र तेरा पुत्र हमारी रक्षा करे। (इसके श्लोक में भी नीरोष्ठच अक्षर है।) हे जगत का कल्याण करने वाली तीन लोक के स्वामी को गर्भ धारण करने वाली हरिहरादिके मनकी रक्षा कर इसके श्लोक में 'अब' क्रिया छिपी हई होने से क्रियागुप्त है।)
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चर्स की सुविाहासागर जी महारा
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मामल: पर भी गया
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यह प्रकार गंधोदक बंद, शांतरूप सब देव प्रानन्द । फिर पूजा कीनी सुरराय, अष्टद्रव्य ले हरप बढ़ाय ।।५७।। जले सुगन्ध' अक्षत बहु शुद्ध, कल्पद्रुम के पुष्प समृद्ध । ल नैवेद्य धरौं पकवान, दीप मणि मई धूप महान ।।५८।। कल्पतरुवर फल ले सार, अर्ध्य धरी कुसुमांजलि डार । सबै सुरासुर पुहुप जू वृष्ट, पंचाचार करें मन तुष्ट ११५६।। यह प्रकार प्रभु जन्मभिषेक, इन्द्र और सुर असुर अनेक । कियौ महा मानदित जाम, तीन प्रदक्षिण देता ठाम ।।६०॥ अंग अंगोछ लियो सरराय, फिर सिंहासन पे बैठाय । इन्द्राणी प्रादिक सब देव, कौतुक कर अग्र जिन सेव ॥६१।। सब प्राभरण धरं तहं प्रान, है नियोग तीर्थकर जान । तिलक दये चन्दन के सार, तीन जगत पति को हितकार ॥६२।। अजन नैनन दियो सुदार, शीस मुकुट चुडामणि धार । वज्रमयो प्रभु चरम शरीर, विधे कणं गरमहि के वीर ॥६३।। इन्द्राणी कुण्डल पहिराय, रत्नजडित श्रुति दामिन जाय । कण्ठ माहि पहिराये हार, मणिमय मोह तिमिर हरतार 11६४।। जुगल बाहु जुग पौंचीब बनी, नाना रतन जड़ित सुख सनी । अंगुरिन मुदरी दीप्ति अनेक, किकिण डिक पहाई एक ॥६५।। जगपद मणिमय सांकर दोय, ताकी उपमा प्रति छवि होय । इतने साधारण प्राभरण, मण्डित महादीस अति करण ॥६६॥ भगवन रूप देख सुरराय, प्रानन्दौ मन अङ्ग न माय । सहस नेत्र करि तृप्ति न होय, पलसों पल न लगाव सोय ।।६७।। अति प्रमोद उमग्यौ जु शरीर, रोमांचित ज्यों सागर नीर । तुम तीर्थकर तीरथ राज, अघनाशन भव जीव काज ।।६।। प्रभु अस्नान करें कह देवा, तुम पवित्र सहजै स्वयमेव । भक्ति हेत पै हम कछु कयौँ, पुण्य लहौ पूरब अघ टयौं ।।६६।। तीन जगत मण्डित तुम भक्त, में अपने वशकर कछु सक्त। तीन लोक जिय आये साज, प्रभु कल्याणक देखत काज ॥७०॥
जगत के कल्याण के लिये अपने गर्भ में तीर्थकर को धारण करने वाली हे माता! धर्मतीर्थ स्थापित करने वाले की उत्पत्ति में देव, विद्याधर, भुमिगोचरी जीवों का तीर्थस्थान बन । (इसमें अट क्रिया गुप्त है) हे देवी महारानी ! इस लोक और परलोक में कल्याण करने वाला कौन है । (माता का उत्तर)मो धर्म-तीर्थ का प्रवर्तक है, वे ही थी अर्हतदेव तीन जगत के कल्याण करने वाले हैं। (प्रश्न देवियों का) गुरुपों में सबसे महान कौन है? (उत्तर) जो तीन जगत का गुरु और सब प्रतिशयों से तथा दिव्य अनन्त मुणों से विराजमान ऐसे श्री जिनेन्द्र देव ही महान गुरु हैं।
(प्रश्न) इस जगत में किसके वचन श्रेष्ठ और प्रमाणिक हैं ? (उत्तर) जो सबका जानने वाला, दुनियां का हित करने वाला, अठारह दोप रहित और वीतरागी है ऐसे श्री अर्हत भगवान के वचन ही श्रेष्ठ और मानने योग्य हैं। इसके सिवा दूसरे मिथ्या मतियों के नहीं। (प्रश्न) जन्म-मरण रुपी विष को दूर करने वाला अमृत के समान क्या पीना चाहिये? (उत्तर) जिनेन्द्र के मुख कमल से निकला हुमा ज्ञानामृत पीना चाहिये-दूसरे मिथ्या ज्ञानियों के विष रूप वचन नहीं पीने चाहिये। (प्रश्न) इस लोक में बुद्धिमानों को किसका ध्यान करना चाहिये ? (उत्तर) पंच परमेष्ठीका, प्रात्म-तत्व का धर्म-शुक्ल रूप ध्यान करना चाहिये, दूसरा आर्त रौद्र रूप खोटा ध्यान कभी नहीं करना ।
(प्रश्न) शीघ्र कौन-सा काम करना चाहिये । (उत्तर) जिससे संसार के भोगों का नाश हो, ऐसे अनन्त ज्ञान चारित्र का पालन करना चाहिये, मिथ्यात्वादि को नहीं। (प्रश्न) इस संसार में सज्जनों के साथ में जाने वाला कौन है ? (उत्तर) दयामय धर्म हो सहायता करने वाला बन्धु है, जो सब दुःखों से रक्षा करने वाला है। इसके अतिरिक्त और कोई सहगामी नहीं है। (प्रश्न) धर्म के कौन-कौन लक्षण व कार्य हैं ? (उत्तर) बारह तप, रत्नत्रय, महाबत शील और उत्तम क्षमा आदि दश लक्षण ये सब धर्म के कार्य और चिन्ह हैं ?
(प्रश्न) धर्म का इस लोक में फल क्या है ? (उत्तर) जो तीन लोक के स्वामियों की इंद्र धरणेन्द्र चक्रवर्ती पद रूप संपदायें, श्री जिनेन्द्र का अनन्त सुख, ये सब धर्म के ही उत्तम फल हैं। (प्रश्न) धर्मात्माओं के चिन्ह क्या हैं ? (उत्तर) शान्त स्वभावः अभिमान का न होना और रात दिन शुद्ध आचरणों का पालन ये ही धर्मात्मानों की पहचान हैं। (प्रश्न) पाप के चिन्ह क्या क्या हैं ? (उत्तर) मिथ्यात्वादि क्रोधादि कषाय, खोटी संगति और छहांतरह के अनायतन ये पाप के चिन्ह हैं।
(प्रश्न) पाप का फल क्या है ? (उत्तर) जो अपने को अप्रिय, दुःख का कारण है, दुर्गति करने वाला और रोग क्लेशादि देने वाला है ये सभी निन्दनीय कार्य पाप के फल हैं। (प्रश्न) पापी जीवों की पहचान क्या है ? (उत्तर) बहुत क्रोध आदि कषायों
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तिनहको कल्याणक एव, अमित पुण्यकर सैध्यो सेव । तुम दरशन सूरज परकाश, भव्यजीव अघ तिमिरै नाश ।।७१॥ रतन प्रमोल लक्ष्मी पाय, तुम दर्शन शिवपुर ले जाय । तुम दर्शन की बंठि जहाज, उतर भव-वारिधि कर काज॥७॥ तुम दरसै प्रभु मन वच काय, स्वर्गलोक फल पावै जाय । तुम्हारे गुण ले जो अनुसार, क्रमकर मुक्ति वरांगन बरं ।।७३।। मोह मत्ल जीते तुम दर्श, तुम रक्षक भवि जीवन सर्स । मोह जु अन्ध कूप ते काढ़ि, शरगागत राख्यौ सुख माहि७ि४।। प्रभु को जन्मभिषेक करेवा, मेरे कर्म नाश कर देव । तुम्हरे गुण जो सुमरन करे, सो तैसे गुण को बिस्तरै ।।७।। सम प्रस्तुति' मुखत उच्चरे, सो निज वचन सफलता कर । तुम गंधोदक चंदन करी, अंग पवित्र भयौ तिहि घरी ।।७।। तीन जगत स्वामी भगवान, तुम जगबन्धन हनत कृपान । तुम परमातम मुक्त प्रकाश, परमानन्द लोक शिर वास ।।७७।। तीर्थकर गुणसार तेह, अध मल दूर करन शुचि देह । तुम दर्शन निर्वाण महेश. अष्ट करम नाशन जगदेश ।।७।। पंचदि इन्द्रिय जीत्यौ लोभ, पंचकल्याणक कोनी शोभ । नमों मुक्ति अंगन भरतार लोकालोक प्रकाशनहार ||७६।। नमो श्रिजगपति लक्ष्मीनाथ, सकल' मुक्ति सामग्री साथ। बारबार प्रणमौं करजोर, दीजे मोह परमपद और ।।८।।
दोहा
दरशन कर सुरराज इम, सन्मति सार्थक नाम । कर्म निकन्दन वीर हैं, वर्धमान गुणधाम ||८|| ये त्रय नाम प्रसिद्ध कर, घर उत्साह सुरेश । ऐरावत प्रारूढ़ ह, कंध लिये जिन ईश ॥२॥
का होना दूसरों को निन्दा, अपनी प्रशंसा और रौद्रादि खोटे ध्यान का होना ये सब पापियों के चिन्ह हैं। (प्रश्न) असलो लोभी कौन है? (उत्तर) बुद्धिमान, मोक्ष का चाहने वाला भव्य जीव निर्मल आचरणों से तथा कठिन तपों से एक धर्म का सेवन करने वाला ही असली लोभी है। प्रश्न) इस लोक में विचारशील कौन है ? जो मन में निर्दोष देव शास्त्र गुरु का और उत्तम धर्म का विचार करता है, दूसरे का नहीं। (प्रश्न) धर्मात्मा कौन है? (उत्तर) जो श्रेष्ठ उत्तमक्षमा प्रादि दश लक्षण युक्त धर्म का पालन करता है। जिनेन्द्र देव की आज्ञा का पालन करने वाला ही बुद्धिमान ज्ञानी और व्रती है-वही धर्मात्मा है, दूसरा कोई नहीं। (प्रश्न) परलोक जाते समय रास्ते का भोजन क्या है ? (उत्तर) जो दान, पूजा, उपवास व्रतशील संयमादिक से उपार्जन किया गया निर्मल पुण्य है, वही परलोक के रास्ते का उत्तम भोजन है। (प्रश्न) इस लोक में किसका जन्म सफल है? (उत्तर) जिसने मोक्ष लक्ष्मी के सुख को देने वाला उत्तम भेद विज्ञान पा लिया, उसी का जन्म सफल है-दूसरे का नहीं 1
(प्रश्न) संसार में सुखी कौन है ? (उत्तर) जो सब परिग्रह की उपाधियों से रहित और ध्यानरूपी अमृत का पान करने वाला वन में रहता है अर्थात् योगी है, वही सुखी है, अन्य कोई नहीं। (प्रश्न) इस संसार में चिन्ता किस वस्तु की करनी चाहिए? (उत्तर) कर्मरूपी शत्रुयों के नाश करने की और मोक्ष लक्ष्मी पाने की चिंता करनी चाहिए-दूसरे इन्द्रियादिक विषय सुखों की नहीं। (प्रश्न) महान उद्योग किस कार्य में करना चाहिए? (उत्तर) मोक्ष देने वाले रत्नत्रय, तप, शुभ भोग सूज्ञानादिकों के पालने में महान यत्न करना चाहिए । धन एकत्रित करने में नहीं, कारण धन तो धर्म से प्राप्त होगा ही।
(प्रश्न) मनुष्यों का परम मित्र कौन है ? (उत्तर) जो तप दान व्रतादि रूप धर्म को जबरदस्ती समझाकर पालन करावे और पाप कमों को छुड़ावे । (प्रश्न) इस संसार में जीवों का शत्रु कौन है ? (उत्तर) जो हित करने वाले तप दीक्षा व्रतादिकों को नहीं पालन करने दे, वह दुर्बुद्धि अपना और दूसरे का-दोनों का शत्रु है। (प्रश्न) प्रशंसा करने योग्य क्या है? (उत्तर) थोड़ा धन होने पर भी सुपात्र को दान देना निर्वल शरीर होने पर भी निष्पाप तप करना, यही प्रशंसनीय है। (प्रश्न) माता! तुम्हारे समान महारानी कौन है? (उत्तर) जो धर्म के प्रवर्तक जगत के गुरु ऐसे तीर्थकर देवाधिदेव' को उत्पन्न करे, वही मेरे समान है-दूसरो कोई नहीं । (प्रश्न) पण्डिताई क्या है ? (उत्तर) शास्त्रों को जानकर खोटा प्राचरण, खोटा अभिमान, जरा भी नहीं करना, और दूसरी भी पाप की क्रियाय नहीं करना, यही पण्डिताई है। (प्रश्न) मुर्खता किसे कहते हैं ? (उत्तर) ज्ञान के हित का कारण निर्दोष तप धर्म की क्रिया को जानकर आचरण नहीं करना । (प्रश्न) बड़े भारी चोर कौन हैं? (उत्तर) जो मनुष्यों के धर्म रत्न को चुराने वाले पाप के कर्ता और अनर्थ करने वाले ऐरोपांच इन्द्रिय रूप चोर हैं।
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चौपाई सकल विभूति लही जिन साथ, जय जय करें नाथ निज माथ । आय गगन रुंध्यौ ग्राकाश, सप्त अनोका सुर तिय तास ।। सेव काज करवं कों इन्द, पुर में गये सहित निज वन्द । चतुर निकाय देव बहु संग, नप प्रागार कर बह रंग ।।४|| माणिमय सिंहासन पर तहां, थाप जिन कुमार को जहां। दिव्य कांति को वरननहार, गुण अनंत केवल सुखधार ॥५॥ जननी तहं सोवत सुख भरी शत्री जगाय गोद जिन धरी। हरषवन्त सुत देखत जोय, भूषण भूषित घ ति बहु सोय ।।६।। इन्द्राणी तब अस्तुति करी, जीवन सफल धन्य तुम धरी । तीन लोक पति जन्म महान, तुम सम त्रिय जग में नहिं पान ॥७॥ नैन सफल तुम देखत भए, तुम देखत सब विकलप गए। तुम उपमा अब दीजै काहि, तीन लोक तुम सम कछु नाहि ।।१।। श्री सिद्धारथ बन्धु समेव, हर्ष सहित दरसे जिनदेव । प्रथम इन्द्र अब अरु ईशान, नृप थुति कर सिंहासन थान ॥८॥ दम्पति की पूजा हरि करी, मणिमय प्राभूषण अंग धरी । पाटवर बहु बस्त्र अनेक, पहुपमाल पहिराई एक ।।६०॥ फिर अस्तुति कर कर शिर नये, आज धन्य तुम दरशन भये । जिन बिन मात पिता धन तोय, तुम सम उत्तम और न कोय ॥११॥ लोक विषं गुरु हो जगदिष्ट, मात पिता में बड़े सरिष्ठ । तीन लोक में पुरुष न और, तुम समान दम्पति शिरमौर ॥६२।। क कियौ गिरि शीस, सो सव वर्ण कहो सुर ईश । तब बहु हर्ष भयो नप रानि, अति आनन्द महोच्छव ठानि ॥३||
जिनवर गेह, पूजा करी अष्टविध नेह । प्रभु जुत मात पिता पद नये, नाना भांति हर्ष जुत ठये ॥६४|| अद्भुत लीला हरि बहु करी, देखें नरनारी पुर जुरो । स्वजन प्रादि सब पुरजन तेह, प्राये सुतहि महोच्छव लेह ॥६५॥
(प्रश्न) इस संसार में शूर वीर कौन है ? (उत्तार, जो धैर्यरूपी तलवार से परिषह रूपो महा योद्धाओं को, कषाय रूपी शत्रुओं को तथा काम मोह प्रादि शत्रुओं को जीतने वाले हों। (प्रश्न) देव कौन है ? (उत्तर) जो सबका जानने वाला क्षुधादि अठारह दोषों से रहित शनन्त गुणों का सपना का वर्तक हो ऐसे अहंत प्रभ ही देव हैं। (प्रश्न) महान गुरु कौन है ? (उत्तर) जो इस संसार में वाह्य अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों से रहित हो । जगत के भव्य जीवों के हित साधन में उद्यमी हो और स्वयं भी मोक्ष का इच्छित हो वही महान गुरु है । दूसरा मिथ्यामती धर्म-गुरु नहीं हो सकता।
__इस प्रकार देवियों द्वारा किये प्रश्नों का उत्तर जिन-माता ने गर्भ के प्रभाव से दिया। प्रथम तो उस महारानी की बद्धि स्वभाव से ही निर्मल थी। पूनः अपने उदर में तीन ज्ञान के धारक प्रकाशमान तीर्थकर देव को धारण करने से वे और भी स्वच्छ हो गयी थी। रानी के उदर में विराजमान पुन को बिल्कुल दुःख नहीं मिला, कारण, क्या सीप में रहने वालो जल विन्द में कभी विकार हो सकता है, कभी नहीं। उस देवी की त्रिबली भी भङ्ग नहीं हुई । उदर पूर्व जैसा रहा, पर गर्भ को वृद्धि होती गयी। यह सब प्रभु का ही प्रभाव था।
गर्भ में स्थित प्रभ के प्रभाव से महारानी की मुखाकृति बड़ो ही शोभायमान हो गयी। उन्हें देख कर प्रतीत होता था किबे असंख्य रत्नों को धारण करने वाली पृथ्वी हो हो । अप्सरामों के साथ इन्द्र के द्वारा भेजो हई इन्द्राणो हो जिनको सेवा कर रही हो. उनकी कान्ति और उनके मुख का वर्णन नहीं किया जा सकता है । इस प्रकार लगातार नौ महीने तक महान उत्सव सम्पन्न होते रहे। देखते-देखते नवा महीना पूर्ण हो गया। शुभ चैत्र मास की त्रयोदशी के दिन यमणि नाम योग में, शुभ लग्न में त्रिसला महादेवी ने अलौकिक पुत्र को जन्म दिया। वह पुत्र अपने उज्जवल शरीर की कान्ति से अन्धकार को विनष्ट करने वाला, जगत का हित करने वाला मति ध्रुति अवधि-तोनों ज्ञान को धारण करने वाला, देदीप्यमान और धर्मतीर्थ का प्रवर्तक तीर्थकर हुआ।
उनके जन्म के साथ-साथ सभी दिशाय मिमल हो गयों । प्राकाश में निर्मल वायु बहने लगी। स्वर्ग से कल्पवक्षों के पष्पों की वर्षा हुई और चारों जातियों के देवों के आसन कम्पायमान हो गये । स्वर्ग में बिना बजाय ही बाजों की बान होने गोमानों वे भी भगगवान का जन्म उत्सव मना रहे हो। इसके अतिरिक्त अन्य तानों जातियां के देवा के महलों में शस्त्र-भेरी आदि के शब्द होने लगे।
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तोरण ध्वज अरु वंदनवार, गावें गीत नृत्य सुखकार । अति आनन्द कर नाटक रंभ, देवी सहित इन्द्र मन थम ||६|| प्रथम सुरेश कियौ समतार, नेत्र सुखी पर एक हजार। एक हजार भुजा जुन सोद, मणिमय भूपण भूपित जोइ ।।१७॥ पुनि बहुरूप नटनको ठयौ, जिन उद्भव कर भक्तहि लयौ। नत्य करें उजित सब लोक, कल्पवासिनी देवी थोक |||| सकल दिव्य पाभरण जु लहै, मानों दामिनि की युति गहै। नाना भांति कियौ तह रंग, भमरी लेत छिपै भू अंग ।।६।। कर पहप अंजलिकी वर्ष, बह आडम्बर जिनवर हर्ष । वीणा आदिक ध्वनि वाजंत, सुर समतार गीत अरु तंत ।।१०।। जिनवर के गुण धर गावंत, भव के अघ नाश करत । जो कछु रंग मेरु पै करौ, ताप यहां अधिक विस्तरौ ॥१०॥ नप अादिक सबको सुखकार, ऋद्धि विक्रिया कर अनुसार । अति विचित्र कटि पाय सुरेश, कंठ हस्त प्रादिक छनि देत ॥१०२।। धरन चरन चपल गति चले, लित कंप गिरिवर सब हलं । भ्रमैं मुकुट चक फेरी लेत, वलयाकृति कुडल छवि देत ।।१०३।। भज कंकण मणि शोभा हेत, मनों नखत गिरि फरी देत । सहस पाय नपुर के सोर, सब बाजित्र बजं वह अोर ॥१४॥ विहल कर भ्रम भ्रम सोय,छिन मैं एक छिनक बहु जोय। छिन में उन्नत द्वीप प्रमान, छिन में सूक्षम वपु कर गान ।।१०।। छिन में निकट धरै बहु भेक, छिन में दूर जाय कर टेक । छिन में भूमि छिनहि नभ सार, छिन में दोहर छिनक हजार ।।१०।। इहि विधि हर्ष बढ़ायौ इंद्र, इन्द्रजाल सम अप्यौं वृन्द । पुनि अप्छर लै रंग बिहार, भुज प्रति नाट नटावहि सार ॥१०७।। नई छिनक छिन लघता धर, सुर अंगत प्रवेश बहु करै । लीला और करी इक तबै, हस्त अंगुलिन ऊपर सवै ।।१०८।।
मोधर्म स्वर्ग के इंद्र, भगवान के जन्म का समाचार पाकर उनका जन्म कल्याणक मनाने का विचार करने लगा। उसी
की प्राज्ञा से देवों की सेनाएँ जय जयकार करती हुई स्वर्ग से उठी । उनकी विशाल सेनाय समुद्र से उठती हई प्रचण्ड लहरों के समान प्रतीत होती थीं। हाथी, घोड़, रथ, गन्धर्व, मतको पैदल बैल आदि से युक्त सात प्रकार की देवों की सेनायें निकली। पश्चात सीधर्म स्वर्ग का पति इन्द्र इन्द्राणी के सहित ऐरावत हाथी पर सवार होकर चला । उसके चारों ओर देवों की सेनायें घिरी हुई थीं।
इन्द्र के पीछे पीछे बड़ी विभुतियों के साथ सामानिक प्रादि देव चल रहे थे। उस समय दुन्दुभी प्रादिबाजों की ध्वनि और देवों की जत जयकार से सारा अाकाश गजने लगा। रास्ते में कितने ही देव गाते हुए चल रहे थे। कोई नत्य करता जाता
और कोई प्रसन्नता के मारे दीड लगा रहा था। उनके छत्र चमर और ध्वजाओं से सारा आकाश मण्डल पासछादितही गया था। वे चारों निकाय के देव बड़ी विभूतियों के साथ कम-मरो कुण्डलपुर पहुंचे। उस समय ऊपर बीच का भाग देव देवियों से घिर गया था। राज महल का प्रांगन इन्द्रादिक देवों से बिल्कुल भर गया था।
इन्द्राणी ने तत्काल प्रसूती गृह में जाकर दिव्य शरीरधारी कुमार और जिन माता का दर्शन किया। बेबार बार उन्हें प्रणाम कर जिन माता के आगे खड़ी होकर उनके गुणों की प्रशंसा करने लगीं। इन्द्राणी ने कहा-देवी! तमनोनीत के स्वामी को उत्पन्न करने के कारण समग्र विश्व की मामा हो। और तुम्हीं महादेवी भी हो। महान देख सनरी अपना नाम सार्थक कर लिया । संसार में तुम्हारी तुलना को अब कोई स्त्री नहीं है।
इस प्रकार माता की स्तुति कर इन्द्राणी ने उन्हें निद्रित कर दिया । जब जिनमाता सो गयी तो इंद्राणी ने उनके सारे एक माया का बालक बनाकर सूला दिया पीर स्वयं अपने हाथों से जिन भगवान को उठाकर उनके शरीर का स्पर्श किया। बार बार उनके मंह का बम्बन करने लगी। भगवान के शरीर से निकलती हुई उज्जवल ज्योति को देखकर उनके द्वर्ग का ठिकाना न रहा। पश्चात वह उस बाल्य भगवान को लेकर आकाश मार्ग की ओर चली। वे भगवान अाकाश में ठीक सर्य की तरह जान पडते थे। समस्त दिक कूमारियाँ छत्र, ध्वजा, कला, चमर, स्वस्तिक ग्रादि पाट मांगलिक पदार्थों को लेकर इन्द्राणी के प्रागे-मागे चलीं।
उस समय इन्द्राणी ने जगत को आनन्द प्रदान करने वाले जिनदेव को लाकर बड़ी प्रसन्नता से इन्द्र को दिया। भगवान की पूर्व सन्दरता उनकी तेजोमय दीप्ति देखकर देवों का स्वामो इन्द्र उनकी स्तुति करने लगा-हे देव! तुम हमें परम
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भगवान के जन्म के १० अतिशय
इन्द्र ऐरावत हाथी के ऊपर श्री १००८ भगवान महावीर स्वामी को जन्माभिषेक के लिये ले जाते हुये ।
इन्द्र ऐरावत हाथी पर भगवान को जन्माभिषेक के लिये ले जाते हुये ।
पाण्डक शिला पर जन्माभिषेक ।
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ANAS
शिसागर
आचार
राज
श्री भगवान महावीर ब. मला ला रहे है ।
GENIN
बाल क्रीडा करते हो भगवान महावीर ।
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संधी प्रादि ६ देव कुमार, अंगुरिन पर गायों मनमारि । आपुन इन्द्र मध्य जिमि मेर, पांति मराल लसे चहुं फेर ।।१०।। छिनमें उर्व उचाले सबै, छिन में मंगरिन झेले सबै । छिनमें सकल अलोपित होइ, फिर छिन में देखें सब कोय ।।११।। ऐसी विधि बहु लिला करी, गूढ न काह परगट धरी । अत्र में रहे कर नट ख्याल, उपमा रहित महेन्द्र सुजाल ॥१११।। जय जय घोक कर अाकाश, देव और विद्याधर जास। इस विधि दिव्य नृत्य कर इन्द्र, विक्रिय उद्भव मन आनन्द ।।११२।। उत्सव हाव भाव कर सबै, पिता आदि पुरजन सुख जबै । जिनवर शुश्रुषा कर इन्द्र, मेवा राख धनद सुख वृन्द ॥११३।। धर्म महातम दीनौ भाव, तीन लोक जिय कीनै चाख । चतुर देव विद्याधर राज, निज निज लोक गये सब साज ॥११४।। सिद्धारथ नृप सब परिवार, जन्म महोत्सव कौतुक धार 1 देख्यौ पुत्र तनों फल पाय, पुण्य वृक्ष पूरब सुखदाय ||११५।। तहां सकल पुरजन के वन्द, करी बधाई मन आनन्द । घर घर वंदनवार बंधाय, रत्नजटित कंचन समुदाय ॥११६।। मंगन उनको दोनो दान, हय गय रतन पटेंबर पान । जन्म महोत्सव कर मन रंग, बहु वादिन बजे इक संग ||११७।। गावै गीत सकल पुर सार, सो बरनत लागै बहु वार । जन्मकल्याणक अति उत्साह, प्रभु को सेव करें प्रति चाह ।।११।।
गीतिका छन्द
यह सुकृत पुण्य विपाक फल, सब स्नान थी जिनवर भयो । इन्द्र शत पर देव चउविधि, खचर मिलि उत्सव व्यौ । मेर शीस स जायकै प्रभ, थापि सिंहासन धरै । क्षीरसागर जल जु भर फिर, कलश लै शिरपर ढरै ॥२१॥
मानन्द प्रदान करने के लिए बाल चन्द्रमा को भांति लोक को प्रकाश देने के लिए प्रकट हुए हो। हे ज्ञानी ! तुम विश्व के स्वामी इन्द्र धरणेंद्र चक्रवर्ती के भी स्वामी हो । धर्म तीर्थ के प्रवर्तक होने के कारण तुम्ही ब्रह्मा भी हो।
देव ! योगीराज तुम्हें ज्ञानरूपी सूर्य का उदयाचल मानते हैं । तुम भव्य पुरुषों के रक्षक और मोक्षरूपी स्त्री के पति हो। तम मिथ्या ज्ञानरूपी अन्ध-कप में पड़े हुए अनेक भव्य जीवों को धर्मरूपी हाथ का सहारा देकर उद्धार करने वाले हो । संसार के सभी विचारशील व्यक्ति तुम्हारी अलौकिक बाणी सुनकर अपने कर्मों को नष्ट कर परम पवित्र मोक्ष प्राप्त करंगे । और कोन्हीं भव्य जीवों को स्वर्ग की प्राप्ति होगी। प्राज अापके अभ्युदय से सन्त पुरुषों को बड़ी प्रसन्नता हुई । वस्तुतः प्रापही धर्म प्रवृत्ति के कारण हैं।
श्रतएव हे देव! हम तुम्हें नमस्कार करते है, तुम्हारी सेवा करते हैं, भक्ति प्रकट करते हैं और प्रसन्नता पूर्वक तुम्हारी प्राज्ञा का पालन करते हैं-दूसरे मिथ्यात्वी देव की नहीं। इस तरह वह देवों का पति सौधर्म का इन्द्र भगवान की स्तुति कर उन्हें गोद में उठाकर सुमेरु पर्वत पर चलने वो उद्यत हुचा। उसने और देवों को सुमेरु पर भी चलने के लिये प्राज्ञा दी। उस समय सभी देवों ने प्रभु की जय हो, पानन्द की वृद्धि हो, प्रादि ऊंचे शब्दों से जय जयकार की । उनकी ध्वनि समस्त दिशाओं में फैली।
इन्द्र के साथ-साथ और देव' भी जय-जय शब्द करते हुए प्रानन्द मनाने लगे। प्रसन्नता के मारे उनका शरीर रोमांचित हो गया। पाकाश में प्रभु के समक्ष अप्सराय नृत्य करने लगी, गन्धर्वदेव भी वीणा यादि वाद्यों के साथ गान करने लगे। देवों की दुन्दुभी की आवाज से सारा अाकाश मण्डल गुज उठा । किन्नरियाँ हर्पित हो अपने किन्नरों के साथ जिनदेव का गणगात करने लगी। उस समय सब देव भगवान का दर्शन कर अपने जीवन को सार्थक समझने लगे । वे बड़ी देर तक भगवान का दिव्य शरीर देखते रहे । इन्द्र की गोद में विराजमान भगवान को ऐशान के इन्द्र ने दिव्य छत्र लगाया। सनतकुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र भी चमर इलाते हुए भगवान की सेवा करने लगे। जिनेन्द्र भगवान की ऐसी सम्पदा देखकर अनेक देवों ने उस समय सम्यक्त्व धारण किया। उन्होंने इन्द्र के बचनों का प्रमाण माना वे इन्द्र आदि ज्योति चक्र को लांघकर अपने शरीर के साथषणों की किरणों से आकाश को प्रकाशित करते हए जा रहे थे।
परस्पर संकडों उत्सव मनाते हुए वे देव बड़ी विभूति के साथ ऊंचे सुशेरु पर्वत पर जा पहुंचे। उस सुमेरू पर्वत की ऊंचाई एक हजार कम, साल योजन की है। पर्वत के प्रारम्भ में ही भद्रशाल बन है । उस वन में परकोट और ध्वजामों से सभी भित कल्याणकारक चार जैन मन्दिर सुशोभित हैं । उस वन में साढ़े बासठ हजार की ऊंचाई पर महा रमणीक सौमनस बनकर जहां पर सभी ऋतुओं में फल देने वाले एक सौ आठ वृक्ष हैं और जिन-चंत्यालयों की संख्या चार है।
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धर्मसों सुर इन्द्र सुख लहि, धर्म गुण वारिधि भर । धर्म हित तिहुँ लोक जीवन, धर्मतें शिवपद घरे॥ धर्म भव दुख नाश करता, धर्म जग माता पिता । धर्म पण्डित बुद्धि उपजै, धर्म तारण तरणता ।।१२।। धर्म तिहुं जग वीर है, बहु धर्म तीर्थकर धनी । धर्म गुण सर्वज्ञ निर्मल विश्व जग बड़ामनी ।। कल्याण सुख उपमा रहित, वृष कर्मशत्रु विनाशनी। 'नवलशाह' प्रणामि धर्म हि, मन वच तन पावनी ॥१२१।।
उस सौमनस वन से छत्तीस हजार योजन की ऊंचाई पर अन्तिम चौथा पाडुक्क वन है। वहाँ जिन चैत्यानय वृक्षों के ऊंच-ऊचे समूह थे। उस वन की सुन्दरता अपूर्व थी। धन के बीच में एक चूलिका है । वह चालिस योजन ऊंची है । उसी चलिका के ऊपर स्वर्ग है । मेरु की ईशान दिशा में सौ योजन लम्वी, पचास योजन चौड़ी, आठ योजन ऊंची एक पांडुक नामको शिला है। वह सिद्ध शिला चन्द्रमा के समान सुशोभित है। छत्र, चमर, स्वस्तिक, दर्पण, कलश, ध्वजा ठोना पंखा ये प्रप्ट मंगल द्रव्य उस शिला पर रखे हुए थे।
शिला के मध्य भाग मेंबडूर्य मणि के सदृश रंगीन एक सिंहासन है। उसकी लम्बाई, ऊंचाई और चौड़ाई प्राधा प्रमाण है। जिन भगवान के स्नान से पवित्र रत्नों के तेज से ऐसा प्रतीत होता है कि, मानों समेह को दूसरी चोटी हो। उसने ठोक दक्षिण की ओर सौधर्म का दूसरा सिंहासन है । और उत्तर दिशा की ओर इन्द्र के बैठने का स्थान है । सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने देवों के साथ महोत्सव सम्पन्न करते हुए भगवान को स्नान कराने के उद्देश्य से उसी शिलापर विराजमान किया। देवराज ने प्रथम पर्वत राज की परिक्रमा की।
इस प्रकार देवेंद्र ने पुण्योदय से बड़ी विभूति के साथ अन्तिम तीर्थकर को शिलापर बिठाया। अत: यदि भव्यजन ऐसी सम्पदा और सख की आकांक्षा रखते हैं तो उन्हें सोलह कारण भावनाओं से निर्मल पुण्य का उपार्जन करना चाहिए । तोर्थकरादि सम्पदा प्राप्त कराने में ही सहायक होता है। पुण्य से इस जगत में पवित्रता की बद्धि होती है। पुण्य के अतिरिक्त इस जगत में दूसरी कोई वस्तु सख प्रदान कराने वाली नहीं है। इस पुण्य का मूल कारण व्रत है। प्राणियो को पुण्य के बल से ही अनेक गुणों की प्राप्ति हुमा करती है।
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नवम अधिकार मंगलाचरण
दोहा बर्धमान पदकमल नमि, जूग कर घर निज शीस । गुणरामुद्र गंभीर अति, सो गुण देउ कृपीश ॥२॥ बालचरित आगम अगम, को कहिलै समरत्थ । अलप बुद्धि संक्षेप कह, सकल कीति ले अत्थ ॥२॥
वर्धमान जिनेन्द्र की वाल्यावस्था का वर्णन
चौपाई श्री सन्मति प्रभु शोभित एव, मति श्रत अवधि त्रिज्ञान समेव । माता पय नहिं पीवे कदा, हस्त अंगूठामृत चखि सदा ॥३॥ यह विधि दिन दिन वृद्धि कराय. दोइज चंद्र बढ़त जिमि जाय । वस्त्राभरण पहप की माल, पहिरावत सुर मुदित विशाल ॥४॥ न्वहन करावं जल शुचि अंग, दिगकुमार देवी मत रंग | नाना क्रीड़ा कर जिन सोय, अति प्रानन्द रमा जोय || कर अम्बज ज पंसार दोय, प्रभहि खिलावै बहविधि सोय । बालचन्द्र पृथिवी के माहि, अति छविधर सवको हरषा हि ।।६।। माता दरस कर प्रहलाद, पिता अनन्द नमै द्वै पाद । दिनकर छिप देहकी कान्त, पान चन्द्र तर्ज धर शान्त ।।७।। अति संतोष पितृ परवार, सुधा सिन्ध पायौ सुत सार । शनैः शनैः पद धारै देव, मणिमय धरा सूर्य सम एव ।।८।। खेल देवन सहित जिनेश, तहां रतनमय घलि विशेष । सों निज सिर पर हार केलि, धूल देय मिथ्यामत बेलि ||६|| क्रम क्रम कहैं कमल मुख बैन, शारद इव सोहैं सुख देन । हंसि विकसै मुख कमल कुमार, सुन्दर देह लसै अधिकार ।।१०।। हर्ष करै क्रीड़ा बहु सोय, बांधव सजन सुक्ख अति होय । इहि विधि बालकुमार सूहात, माता आगे बच तुतलात ॥११॥ स्वेद रहित मलजित देह, दुध समान रुधिर है तेह। बनवषमनाराच संहान, सोहै सम सु चतुर संठान ॥१२॥ अति-सुगन्धि वपु दश दिशवास, उपमा रहित रूप है तास । लक्षण एक सहस अरु पाठ, अद्भुत बल प्रभु की निज ठाठ ॥१३॥ जगत पियारी बानी कहैं, वष उपदेश सदा निर्बहैं । एदश अतिशय सहज हि अंग, गुण अनंत धारक सरबंग ॥१४॥
दोहा एक सहस वसु अधिक जे, लदाण जिनवर देह । पृथक पृथक कछु वरनऊ, आगम अर्थ सनेह ॥१५॥
दश्य देख अभिषेक का हर्षित देव समाज । विविध भांति उत्सव करें सजि सजि अनुपम साज। जिनेन्द्र भगवान के महान उत्सव को देखने की इच्छा रखने वाले धार्मिक देव उस पर्वत राज को घेर कर बैठ गये। दिकपाल देव अपनी-अपनी मंडली को साथ लेकर अपनी दिशा की ओर बैठे। उस स्थान पर देवों ने एक ऐसे मण्डप का निर्माण किया था, जिसमें सभी देव' सुख पूर्वक बैठ सकें । मण्डप में यत्र-तत्र करा वृक्ष की मालायें लटक रही थीं। उन मालाओं पर बैठे हुए भौरे इस प्रकार गुज रहे थे, मानो वे प्रभु का गुण-गान ही कर रहे हों।
गन्धर्व देव और किन्नरियों ने जिनदेव के कल्याणक गुणों को बड़े ही सुमधुर स्वर में गाना प्रारंभ किया । दूसरी देवियो हाव-भाव पूर्वक नत्य करने लगी। देवों के तरह-तरह के बाजे बजने प्रारंभ हो गये। कुछ देव पूण्यादिको इच्छा से पुष्पों की वर्षा करने लगे। इसके पश्चात् इन्द्र ने अभिषेक करने के लिये प्रस्ताव कर कलशों की रचना की। कलश निर्माण मंत्र जानने वाले
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पद्धडि छन्द
श्रीवत्स शंख स्वस्तिक सरोज, वर शंख चक्र दल नील बोज । सरवर तुरंग ध्वज चमर छत्र, तोरन गाँपद अरु श्रातपत्र || १६|| नरनारी सागर कामधेन पर धनुष वच कमला सुन वह कल्पवृक्ष कच्छप सुगंग, भू महल वैन वीणा मृदंग || १७|| केहरी कलश पुनि वृषभ श्वेत, कपि गरुड मीन माला सुहेत । अंकुश पाटंवर रतनदीप, सोवण वीजना ग्रहि समीप ।। १८ ।। राज भवन पतिय सुर विमान, सिद्धारथ जम्बू बृक्षमान चूड़ामणि शारद गिरि सुमेर, भेंडा वराह मृग महिप फेर ||१६|| पतिग्रह भूषण से ही अजंग गु जान, शुभ साल येत कुल वसान रवि शशि आदिक नवग्रह सहेत, तीस नखत नवनिधि समेत ॥२०॥
दोहा
I
प्रमुख हि लक्षण ठौर भ्रष्टोत्तर शत प्रमिति इति, नव सय व्यंजन और ||२१|| सुरनर लखह न किद्ध । शक इष्ट प्रथमहि लहै, सो लक्षण सुप्रसिद्ध ||२२|| दाहिन पद शोमंत लक्षण केहरि हरिसुपर सो जय जय जयवंत ||२३||
चौपाई
सौम्य कान्ति दो प्रभु अंग, कनकवरन सम दीप्ति अभंग कला, ज्ञान, चातुर्य विवेक, धर्म विचार करें प्रभु टेक जब प्रभु आठ कर के भये, श्रावक व्रत द्वादश परणये । वीरनाथ प्रभु वालकुमार, धीर वीर शूरा बगवार देव सहित प्रभू जाइट धान, इमली सोमे तिहि धान देव विषयामय जब करो, अतिशय मत मतंग तन घरी गज यावत यो जनराय, भय बिन परिसियो छिन पाय तव कुटुम्ब मिलि अरु सब देव, थति प्रारंभ करो प्रभु सेब इन धीरज सम को जगमाहि, अचरजयान भये सब ताहि तुम स्वामी त्रिजगत घर धीर, कर्म शत्रु के हंता वीर तुमरो नाम सुमिर अब हरे, सुर यहमिन्द्र सुवत विस्तरं
कच देव पर जब कथा परस्पर भास ||२४|| मसी शुद्ध शाम संचर, क्षायिक सम्यक् चादरें ||२५|| नर सुर सभा मध्य जिमिभान, अद्भुत वीरज परम प्रधान ॥२६॥ | दिव्य रूप गुणगणहि सुधार, कीडावृति करे अधिकार ||२७|| वालक रूप देख मितमात पीछे घर वाले प्रभु साथ ||२६|| दूर पलाइ गये जन सबै भय प्रातुर देखो वह तबै ||२६|| प्रभु निरास निःशंक प्रधान, गज धारूढ़ भये उद्यान ||१०|| तीन जगत जिय तृणवत सबै महाबली जिन देखे अब ||३१|| प्रभु के गुण को अपरंपार या कह कह हरये परिवार ||३२|| । तुमरी चुति के तेज
I
1
प्रताप छिप चन्द्र सूरज किरणाय ||३३|| नमो दिव्यमूरति प्रभु तोय, नमीं दिव्य भर्ता अचलोय ||३४||
1
प्रातिहार्य मंगल दरव, परं केवल दृष्टि ते वर्धमान भगवान के.
1
सोधर्मइने मोतियों की माला और चन्दन से युक्त बजश को हाथ में लिया और कल्पवासी देव जय जय शब्द करते हुए कल्याणक सम्बन्धी कार्य करने लगे। इन्द्राणी देवियां भी कार्य करने में संलग्न हो गयीं। उनके हर्षका पारावार नहीं था। स्वय भगवान का शरीर स्वभावसे ही पवित्र है । उनका लोहूका रंग दूधके सदृश हैं। प्रतएव उनके लिए क्षीर समुद्र के जल के अतिरिक्त और कोई व स्पर्श करना ठीक नहीं। ऐसा सोचकर वे देवगण पर्वत से लेकर समुद्र तक कतारें बांस कर बड़े हो गये। उस समय इन्द्र ने जिनेन्द्र को स्नान कराने के लिये उस माठ योजन गहरे और एक योजना मुलबारी मोतियों के हार से सुशोभित ऐसे सुवर्ण-मय कलश को पकड़ने के उद्देश्य से दिव्य आभूषणों से युक्त हजार भुजायें बना लीं। उस समय इन्द्र की शोभा देखने लायक मी एक सह हाथों से एक हजार कलशों को लिए हुए इन्द्र ऐसा प्रतीत होता था मानो वह भाजनांग जातिका कहपवृक्ष ही हो सौधर्म इन्द्र ने जय जय शब्द का गंभीर उच्चारण करते हुए भगवान के मस्तक पर बड़ी मोटी जल धारा छोड़ी और भी देव उस समय जय हो, हमारी रक्षा करो आदि घोष करने लगे। उनके गम्भीर शब्दों से पर्वत राज पर बड़ा कोलाहल मचा । दूसरे देवेन्द्र भी सौधर्म के साथ भगवान के मस्तक पर गंगाकी तीव्र प्रवाहित धारा के सदृश जलधारा छोड़ने लगे।
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वह जल धारा बड़ी तीव्र गति से भगवान के मस्तक पर पड़ने लगी। वह घारा यदि दूसरे पहाड़ों पर पड़े तो उसके
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वीर प्रभु का प्रताप
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थी १००८ भगवान महावीर बाल्यावस्था में देवों के साथ क्रीड़ा करते थे। उनके शरीर में एक हजार पाठ लक्षण थे मोर अत्यन्त बलशाली थे।
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बाजे गीत ग्राम मनु हरें ॥ ४०॥ धर्म हिये नेचच उच्चरे ॥ ४१ ॥ नित प्रति सुर नर सेवा ठपे ॥४२॥
इहि प्रकार प्रस्तुति कर देव, सारथ नाम घरं उर सेव । बार बार प्रणमै शिर ताम, अपने थान गये विश्राम ||३५|| प्रभुहि वचन अमृत सम ऐन, विषयलोक बोधन सुख चैन दिवस सुरवात प्रभु पाय ||३६|| किनर गीत सुकंठ करें, प्रति श्रानन्द सबै मनु हरें । व्यानन्द नृत्य रची बहु इन्द्र, कलश देव ले लीला कंद || ३७ देखे बहुविधि उत्तम रूपाल, माता पिता उर सुक्ा विशाल भूषण बसन माय पहिराय पुन सुरेन्द्र निज धानहि जाय ॥३८॥ कबहूं सुर हर्षित प्रभु पाहि, जलक्रीड़ा वनक्रीड़ा जाहि । नित प्रति देव विनोदहि घरे, धर्महि ले सुख वांछा करें ||३६|| फिर सुरेश सुख कर काज, प्राय सबै विभूति हि साज । प्रति विचित्र वृत्तक विस्तरे स्वर्गजनित जे वस्तु अनेक पहिरावे प्रभु की युति टेक काव्य पढ़े गुण गोष्ठि जुकर, दहि प्रकार बहु पुष्य उपाय सुखसागर अमृत जल पाय क्रम कम सों प्रभु जीवन भयं मणिमव मुकुट शीस पैलरी, भान तिलक शोभा कर बवाल मुक्तागण एम. मेरु प्रदक्षिण उगम जेम ||४३|| मुख कपोल सोह्रै निज तेह, अष्टम इन्द्र लहै द्युति जेह नयन कमल दल शोभा धार, भ्रकुटी चढ़ी धनुष प्रकार ||४४|| मणिमय कुण्डल सोहैं कर्णं, अरु मुखेन्दु सुरजसम किर्ण । कीर नासिका दाडिम दर्शन, बिम्बोष्ठी ठोड़ी को शरन ॥१४५॥ अधर कमल की शोभा सजे, वचन कोकिला वानी लजे । वक्षःस्थल मणिहार बिराज, भुजा दंड सम कोमल राज || ४६ ॥ सुन्दरी भूषित अंगुरी चंग, पोंची कंकण मण्डित नख सूरज किरणावलि घरं को बुध शोभा वरनन करें ||४७|| अंग अंग बहु दोषत जान नाभि वर्तुलाकर प्रभाग वागदेवि इस वचन गहीर, लक्ष्मी कीड़ा विमल सुधीर ॥४५॥ मेखल कटि में शोभा है जुगल जंब कसम है पाद कमल जुग बने सुदार महादोप्त नख है अधिकार ||४|| यह प्रकार भूषण प्रसार केश नागिनो सुन बाकार तोन जगत में पेसा पति पवित्रधनूप ||२०|| तीर्थकर पुदगल वरगना, ओर न होय यही तन दिना । सात हाथ न उत्तर बार नाय जन तारनहार ॥। ५१ ।।
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रंग
दोहा
अति विचित्र सुन्दर सुरभि, परमोदारिक देह । श्रद्भुत वल तीर्थेशको रूपवाक्य गुण नेह || ५२॥
छन्द चाल
मन बल तन व्रत को सोनी, सो धर्म ध्यान सुख भीनों प्रभु सोला बाल फोन वितमात हुर्ष सुख दोनी ॥ ५३ ॥ मुख भूजे सबरस पागे, सपने सम से धनुराये है तीस बरस संजोग वहि तृप्त भये हि भी ॥५८॥ लब्धि को पाई, क्षायिक सम्यतत्त्व सुहाई। चारित मन में अब धारी, सनमति प्रभु बुद्धि विचारी ||१५||
भगवान का वैराग्य वर्णन
वह पूर प्रेक्षा दोनों तब कोटि भ्रमन भ्रम अब रतनत्रय तप लीज, मोहादि करम खय
कोनीं । उतकृष्ट भाव वैरागो, भव भोग सकल अव स्थागी ॥५६॥ कीजै । ए वृथा सकल दिन जांही, व्रत दुर्लभ बहु जग मांही ॥५७॥
हो जाय, पर अतुलित बलशाली होने के कारण वह भगवान के शरीर पर पुष्प जैसी मालूम होने लगी। जल के छोटे श्राकाश में बहुत ऊंचे उछलते हुए ऐसे प्रतीत होते थे मानो वे भगवान के शरीर स्पर्श होने से पापों से मुक्त होकर उर्ध्वं गतिको जा रहे हैं। स्नान जन के कितने ही छोटे मोतियों जैसे मालूम पड़ते थे। स्नान जल का ऊंचा प्रवाह उस पर्वत राज के वनों ने ऐसा बढ़ा कि देखने से मालूम होने लगा कि, पर्वत राज को तैरा रहा हो ।
भगवान के स्नान किये हुए जल से डूबी हुई बनस्थली ऐसी दीखने लगो मानो वह दूसरा क्षीर समुद्र ही हो । महान उत्सवों से सम्पन्न, नृत्य गीतादि से युक्त उस समय का उत्सव देखकर देवों के आनन्द की सीमा न रही। इद्र ने श्रात्म शुद्धि के लिये भगवान को शुद्ध स्नान कराया ।
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चौपाई प्रभु आदिनाथ तें होई, इकवीस जिनेश्वर सोई । बहु अायु लै भोगजु कौनौ, आखिर तप कर शिव लीनौ ॥५८।। नेमि पारस घन्य जु दोई, घटि प्रायु बाल तप होई । तप साध्यौ मुक्तिहि जाई, सो हम अब क्षिन न महाई ||५|| वे काल रहे अब नाही, त्रय पल्य आयु सुख माही। अब आयु बहत्तर बरसा, तहं तीस गये वे सरसा ॥६०।। लघु प्रायु सु जे जगरूढ़ा, रमयंति तपो बिन मूढ़ा । चितन त्रय ज्ञान जु नैना, थिति गेह बिना सुख चैना ॥६॥ किम ज्ञान सधारण इच्छ, मक्ति श्रीको नहि वंछ । है ज्ञान सफल तेहीको, चारित तप दतु जेही बह ज्ञान विफल कर तेसा, जो प्रकट करै नाहि लेशा । द्रग देखत परहि जू कूपा, ते चक्ष वृथा घर रूपा ॥६३।। परै मोहकप में जाई, घर ज्ञान वृथा जग माई । कह तीन ज्ञान धर लीनौं, संसार बढ़ावन कीनौ ॥६४।।
दोहा यज्ञानहि ते पाप कर, शान लहै घट जाय । ज्ञान पाय पापै गहै, सो क्यों छट भाय ॥६॥
चौपाई
जान पाप कारज न करेय, शोभित ज्ञानवंत पुरुषेय । प्राण गये कौ संशय नाहि, निन्द्य करम मोहादिक पाहि ।।६६।। राज द्वेष दुर्धर चिरकाल, दुर्गति घोर दुःखको शाल । भ्रमण करै, प्राणी परवीन, सुख नहि रंच प्रकट है दीन ॥६॥ ताते ज्ञानी मोह जु शत्र, हने ज्ञान के खडग जगत्र । शक्ति पाय जो हनै न ताहि, तो फिर दाव न दावं काहि ॥६॥ बालपन तप साधे सुधी, जीवन लहै हाय मन कुधो । तातै अव कीजे तप काज, मुक्ति पुरीको लीज राज ॥६६॥ जीवन भूप काम की फौज, पंचेन्द्रिय है तिन में मौज। जीत तहं दुर्गति को देश, धरै मोह जोधा प्रादेश ॥७॥ जीवन गये जरा तन आय, बल अरु दीप्ति सब जर जांय । नैन कान कर राखै मन्द, तब पछिताय परै जम फन्द ||७१॥ अब तप लैन विना न सुहाय, विषय शत्रु को देउ बहाय । यह चिन्तवन करी प्रभु सोय, राज्य भोग निःस्पृह मन होय ॥७२॥ मागार राजश्री तज्यौं, तप उद्यम कर मुक्तिहि भज्यों । काल' लब्धि यह दुर्लभ पाय, सुख निधान संवेग उपाय ।।७३।।
दोहा श्री सन्मति त्रय ज्ञान मय, द्वादश प्रेक्षा चित । संवेगादिक भाव घर, आतम कार्ज लहत ॥७४।। है अनित्य वस्त्वादि जग, शरण न दीसै कोय । संसारहि भ्रम एकलौ, अन्य जीव तन सोय ।।७।। अशुचि अपावन पोतरा, आस्रव कर्म अधार । संवर कर निर्जर झर, तीनहु लोक मंझार ॥७६।। दुर्लभ दुर्लभ पाइये, मानुप जन्म जिहाज । घरमहि लगि पारहि लग, अपर भवौदधि माज ॥७७॥
बारह अनुप्रेक्षानों का चिन्तवन
जोगीरास छन्द
काललब्धि श्री वीर जिनेश्वर, पापुन मनहिं विरागे । राज समाज भोग इत्यादिक, ते सब वेरस लागे ।। प्राय काल के मुख में खेलै, जोबन घट हि जरासौं । रोग अनेक देह में व्यापति, छिनभंगुर सब पासौं ॥७॥
स्मान की जल धारा भगवान के शरीर का स्पर्श कर अत्यन्त पवित्र हो गयी। पुण्य प्राप्त करने वाली और संसार की इच्छा पति करने वाली बह जलधारा हमें और भव्य जीवों को मोक्ष लक्ष्मी प्रदान करे। जो जल धारा तण्यासव जल धारा समान मन-वांछित पदार्थों को प्रदान करने वाली है, वह समस्त भव्य जीवों की इच्छित वस्तुओं को प्रदान करे।
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तीन लोक में वस्तु जु सुन्दर, देखत विनशै सोई । अतिदुर्लभ गति कोटिन धरधर, नरभव थिरनहि होई ॥ कोई गर्वहि में खिर जाई, पाप उदय जब आवं । कोई बाल तरुण हो विमर्श, कोई जरा सतावै ।।६।। कोई पुण्य उदय जोबन लहि, धर्म हि साध संघारौ । कोई मुढ मोह मदमाती, दुर्गति भटकट भारौ।।। कोई रोग व्याधि कर पीड़ित, नाना दुःख सहतौ । कोई पुत्र कलित्र मोह वश, गह बन्दी खनवता ॥८॥ हयगय रथदल देखि विनश्वर, अम्रपटल सम सोई । लक्ष्मी राज्य चक्रवति आदिक, थिर न भई तह कोई ।। तातै सुधी जान जग भंगुर, तपकर मुक्तिहि साधौ । नित्य अनन्त सुक्खहि भु-जी, नित्य गुणन अवराधौ ।।८।।
इति अनित्यनुप्रेक्षा ज्यों बन भीतर हिरन इत्यादिक, सिंह कवलको नाख । तैसे या जग जीवित प्रानी, काल गहगको राखे । इन्द्र चक्रि हरिहर विद्याघर, राख छिनक नहि सक्के । पापुन सकल मीचकी चिन्ता, और शरण कह तो ॥५॥ मंत्र यंत्र तंत्रादिक औषधि, और उपाय घनेरौ। जब ही सन्मुख काल दिखानौ, भये वृथा सब हेरौं ।। ताते भविजन शरन धरौ निज, पंच परम गुरु चरना । है रक्षक दुर्गति तै राखत, शुभ गति साथी शरना ॥८३|| तप अरु ज्ञान जिनेश्वर पूजा, तपस्नत प्रादिक भावै । विश्व अनिष्टहि हनकर शरनहि, लै शुभगति पहुंचावै ।। चंडिक क्षेत्रपाल बहु आदिक, शरण मूढ़ जे बांछै । रोग क्लेश बहु दुःखहि लेकर, नरक परत कृत पाछै ।।४।। जे भव अशरण जानि जगत में, कुगुरु कुदेवनि कोई। है परमेष्ट धरम तप आदिक, देह दुक्ख खय साई ।। जो रत्नत्रय ग्रादि चरण लहि, मुक्ति पुरी में जावे । ताहि अनंते सुम्ब गुण पूरण, सांची शरण जू पावै ॥५॥
इति अशरण अनुप्रेक्षा द्रव्य क्षेत्र अरु कालहि, भावजु भव संसारहि पांचौ । ताको आदि र अंत न कोई, भ्रम भ्रम जिय पुख नाची ।। मुख दुख भय जड़ पातम तीनी, केवल दुःखहि भूजी । पंच प्रकार बना तर भूम, सिंह व्याघ्र हगुजौ ।।६।। सौदारिक अर वैक्रियिक आदिक, पंच शरीर धरती। तीन लोक में जेते पुद्गल, वर्तन अनुक्रम जतौ॥ इहि विधि वार अनंतो धर धर, अमियो कर्मन घेरो। द्रव्य परावर्तन यह वर्त, द्रव्य संसार सुडेरो ॥७॥
(द्रव्य परिवर्तन) मेरु सुदर्शन के तल हेठ हि, अष्ट गोष्ठी थन सोहै । तहं ते अष्ट दिशा तन धर धर, अघ ऊरध तन जोहै ।। चौदह राजू लोक प्रमाने, याके सकल प्रदेशा। श्रेणीवद्ध मरण जन्मांतर, क्षेत्र संसारहि भेषा ।।८८॥
(क्षेत्र परिवर्तन) उत्सपिणि अवसपिणि दोई, कोडाकोड़ी बीसा। कालचक्र मर्यादा इतनी, तिन समय न बोत्या सा ।। समय समय पर जन्म मरण जिय, अन्त उपज नहि लेख । अनुक्रम सकल संपूरण कीन, काल संसारहि भेखे ।
(काल परिवर्तन)
बह जलधारा तीक्ष्ण तलवार के सदृश सत्पुरुषों के विघ्नों का नाश कर देती है। वह दुःखों और असह्य वेदना का नाश करने वाली है। जो जलधारा भगवान के शरीर से लग कर पवित्र हो चुकी है, वह हमारे दुःख कर्मरूपी मल को हटाकर हमें पवित्र करे । इस प्रकार देवों के स्वामी ने भगवान का अभिषेक करके 'भव्यों का शान्ति हो, ऐसा कहा । उस सगन्धित (गन्धोदक) को देवों ने अपनी शुद्धि के लिए मस्तक में लगाया।
अभिषेक का उत्सव सम्पन्न होने के पश्चात् तीर्थकर इन्द्र और देवताओं द्वारा पूजे गये । उन महावीर भगवानकी दिव्य गन्ध मोतियों के प्रक्षत कल्पवृक्ष के फूल अमृत के पिण्ड रूप नैवेद्य, रत्नों के द्वीप अष्टांगधूप कल्पवृक्ष के फल, अर्घ पुष्पांजलि आदि
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चारह गतिकी प्रायु विचारी, उतकिठ जघन जू भेदा । तिनके समय समय प्रति धारे, गति गति पूरन खेदा ।। नारक देव मनुष पशु के सब भ्रमण चतुरगति न्यारे। मिथ्यामतिघर लख चौरासी, जो नहि भव संसारै ।।१०।।
(भव परिवर्तन) मिथ्यादिक संतावन बन्धन, अशुभ प्रणामन साध। सो वस कर्म प्रकृति पड़तालिस, चारों बन्धन बांधे ।। प्रातम भाव भये नहि कबहूं, जाते कारण होई। भव संसार ज इहि दिधि लहिजे, जीव अनादि जु सोई ।।११||
(भाव परिवर्तन) विषयन में जड़ सुखकर माने, वे दुख अधिक जु लीनं । ज्यौं घृत तेल प्रगनि सन कीज, अगनि प्रचंडित कीनै । प्राणी-जीव भ्रमत चिरकालहि, अन्त न पायौ केहू । रत्नत्रय आदिक व्रत धरिक, भव जिय पार लहेह ॥१२॥
और अठारह नाते जिय प्रय, भव भव है विख्याता । वायहूं पिता-पुत्र हो कवहूं, कबहूं त्रियकी माता ।। धर्म बिना प्राणी बहु भ्रमियी, काल अनादि अजाना । धर्म सहित सख दुखदि दूर कर, जन्तु ल है निरवाना 11६३।।
इति संसारानुप्रेक्षा जनम होय एकाकी जग में, मृत्युक एकहि सोई। एकत में जग केवल मैं तह, एक हि सूखमय होई।। एकहि रोग ग्रस्यौ बहु व्याधनि, एक वेदन भारी । एकहि देख परत नैनन सौं, एकहु अन्ध अंधारी ।।१४।। यम अरु नियम व्रतहि गहि एकहू, सुरगति सुख्य उपाई । एकाकी तप साधि शिरोमणि, मुक्तिपुरी को जाई ।। एक पाप कर सो भंज, दुर्गति दुःख लहानो । सावद हिंसा निद्य आदि कर, नरकहि देय पयानी || माता पिता ग्रह पुत्र कलित्र हि, स्वजन सकल नहि सातौ । एक चिदातम को मन ध्यावं, तिनह गूनको नाती। तात प्रष्ट करम शनि को, रत्नत्रय असि हतौ । मुक्ति सरूपी सुन्दर जग है, भगत सूख्य अनंतौ ॥१६||
इति एकत्वानुप्रेक्षा अन्य जु मातम पुद्गल अन्य जु, जन्म मृत्यु कहं सोई । कर्म-संजोग मुख्य दुख भुगतो, प्रती काल जहं होई ।। अन्य हि माता-पिता परि बांधव, त्रिया पुत्र सब अन्या। हाट प्रस्ताव सर्व जुर आये, काज सरै नर मन्या ॥७॥ सहजाहि वपू पर मातम जानौ, पृथक पृथक कर पेस्रो । साक्षत मृत्यादिक समयहि लखि, आपुन गहि नहि लेखौ। जब पुद्गल को जीव' त्याग कर, अन्तहि थितिकी की। मन वच कर्म संग ही चाल, फेर न बपुको छीवै ॥९॥ कर्म कार्ज करदैलौं साथी, सुख दुख गति परनावै । जबहि कर्मरस भोग कर निज, मातम ज्ञाम बिताये। इन्द्रिय सकल पदारथतत्वनि प्रातम ज्ञानहि जान 1 पुदगल भिन्न जुदी जड़तामय, एकहि क्यों कर मान रहा इहि अंतर बहु साध पृथक कर, ज्ञान गुणहि पहिचान । वपु ये काय कळू नहि जाने, कर्म शुभशुभ ठाने ।। मातम ध्यान करें योगीश्वर, काय हतनके काजै । रह्य चिदानन्द' सुख्य अनंत, मूक्ति पुरी में राज ॥१०॥
इति अन्यत्वानुप्रेक्षा
के साथ पजा की गयी । इस प्रकार इन्द्रने बड़ी भक्ति के साथ भगवान की प्रार्थना करते हुए अभिषेक उत्सव सम्पन्न किया । पन: इन्द्रने इन्द्राणी और अन्य देवों के साथ भगवान को नमस्कार किया।
उस समय का प्राकृतिक दृश्य बड़ा ही मनोरम हो गया था। ग्राकाश से सुगन्धित जलके साथ पष्पों की वर्षा होने लगी। देवोंने मन्द सुगन्ध और ठण्डी वायु चलाई । वस्तुत: जिस प्रभु के जन्माभिषेक का सिंहासन सुमेरु पर्वत है, और स्नान कराने वाला इन्द्र है, मेघ के समान दूध से भरे हुए कलश हैं, सब देवियां नृत्य करने वाली हैं, स्नान के लिये क्षीर समता है और जिस जगह देव सेवक हैं, भला ऐसे जम्माभिषेक की महिमा का कोई कैसे वर्णन कर सकता है अर्थात कोई नहीं कर सकता।
लगी । देषोंने मन्द सुगन्मान दूध से भरे हुए कलश है, सब
वर्णन कर सकता है अर्थात कोई नहीं
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चौपाई शुक्ररुधिर पर मांस जु नाम, अस्थि राहित मल मूत्र कूधाम । सप्त धातु को पुतरा सोइ, अशुचिवत बुध भजन कोइ।।१०१॥ क्षुषा तृषा बहु जराजु रोग, अगिनि समान ज्वलित संयोग । ऐसी काय कुटी में वास, ज्ञानवंत तहं होय उदास ।।१०।। रागद्वेष अरु सकल कषाय, मोह मरोर वहै महकाय । ज्ञानी पुरुष कहो क्यों रमै, पापी देह यही जग वमै ॥१०३।। भरी स्वेदसों बहुत विकार, नेक सुगंध लगै नहि सार । चर्महि माहि रूप है सोय, तासौं रम्य कहै बुद्ध कोय ।।१०४॥
नहि कर, रोग लहै दुर्गति संचरं । तप करि शोषत ज्ञानी जीव, स्वर्ग सुख्य लहि मुक्तिजु पीव ॥१०॥ कर्म आदि मल बपु अपवित्र, संपूरन दुख करहि जगत्र । तपरूपी जलकर अस्नान, प्रात्म पवित्र कर बुधवान ।।१०६।।
इति अशुचित्वानुप्रेक्षा
रागादिक पुदगल सुख देइ, कमरूप प्रास्रव दुख लेइ । ज्यों सछिद्र नौका जल भरे, बूद बारिधि नहिं ऊबरं ॥१०७।। ऐसा लहि कर्मानव जीव, भवसागर में हलै सदीब । पंच मिथ्यात्व दुःख की खान, अर बाहर अविरतिहि बखान ||१०|| पनि कहियं पच्चीस कपाय, पन्द्रह जोग दुर्धर समुदाय । इतने कमसिव बंधाय, भ्रमहि चतूर गति में दूख पाय ॥१०६।। कर्मास्रब नौका के छिद्र, रूधै ताहि क्षमादि समुद्र । तप कर पूरब कर्म खिराय, मुक्ति रमणि को सो परणाय ।।११।। जे सत जन कर्मानब एक, ध्यान धयन संजय के थोक । तिनि पुगतन को मां सजा का प्रामाद्धि ॥१११॥ जौलौं कर्मास्रव को जोग, चंचल पातम विषयन भोग । जावत मोक्ष न पाये जीव, भवसागर को लहै न सीव ।।११।। ज्ञानवंत कर जतन प्रमान, रूधि अशुभ यात्रष के थान । रलत्रय आदिक शुभ ध्यान, प्राप्ति चिदातभ को सुख खान ।।११३॥ विकलप रहित ध्यान सरदहै, शुभ आस्रव को प्रावल जहै। कर्म शत्रु को घातहि तथै, मुक्ति पाय सूख भुजै जबै ॥११४||
इति पासवानुप्रेक्षा धीरवंत संवर अनुसर, कास्रव को रोध जु करें । व्रत अरु समिति गुप्तित्रय थोक, तेरह विधि चारित्रहि लोक ||११|| दश विध धर्म जगत विख्यात, अनुप्रेक्षा द्वावश चितात। वाइस परीषह जीतहि सोय, सामायिक प्रादिक सव जोय ||११६।। धर्म शुक्ल ध्यान हि अभ्यास, मन निरोध कर्मास्रव नाश । सो संवर शिवदायक मुक्ख, जतन राख धीरज तज दुःख ॥११७ कर्महि संवर करहि सुजान, निजैर तप कर उक्त महान । क्लेश सहैं दुख कठिन निधान, निर्मल मुक्ति सुख्य बहुमान ।।११।।
इति संवरानुप्रेक्षा
पूरब सकल अवस्था कहीं, संवर कर तपसा निज सही । सो निर्जरहि कर्म जड़ जान, योगीश्वर शिव को सुखदान ॥११॥ कर्म उदय को भोगहि सोइ, आत्म स्वभाव खिराव जोइ। ऐसे कर्म शिथिल कर रहै, सो सविपाक निर्जरा यह ॥१२०॥ उग्र उस तप साधे जब, श्री मनीश कर्मन हनि सवै । मुक्ति श्री वांछ वर सोय, निर्जर है अविपाकी जोय ॥१२॥ जब पूरन निर्जर संचरै, संपूरन कर्मन क्षय करै । तपहि साधि योगीश्वर बीर, मुक्ति अंगना संगम धीर ॥१२२।।
अभिषेक किये हुए भगवान के सर्वाङ्गको इन्द्राणी ने उज्वल कपड़े से पोंछा । इसके बाद उन्होंने भक्ति पूर्वक सुगन्धित द्रव्यों से उनका लेपन किया। यद्यपि वे प्रभु तीनों जगत के तिलक थे, फिर भी भक्तिवश उन्होंने उनके मस्तक पर तिलक लगाया। जगत के चुणामणि भगवान के मस्तक में चूणामणि रत्न बांधा गया। यद्यपि भगवान के नेत्र स्वभाव रोही काले थे, फिर भी व्यवहार दिखाने के लिये उन्हें इन्द्राणी ने अंजन लगाया।
भगवान के कानों में इंद्राणी ने रत्नों के कुण्डल पहनाये। प्रभु के कण्ठ में रत्नों का हार, वाहों में बाजूबन्द, हाथों के पहुंचों में कड़े और अंगुलियों में अंगूठी पहनाई। कमर में छोटी घटियों बाली मणियों की करधनी पहनाई, जिसके तेज से सारी दिशायें व्याप्त हो
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ताहि मनन्त गुजन को चहे पद तीर्थंकर गणधर नहे ||१२||
र जगत पूज्य जगमाहि भवनाशन भयनि सुखदाहि ॥ १२४॥ भवसागर उद्वरं जु सोय, शिव प्रापति के कारण होय ।। १२५ ॥ इति निरानुप्रेक्षा ।
विवपूर्ण सुख करता सोय, मुक्ति रमा बांक है जो सकल भोग त्यागे जे सुधी, कर्म नाथ दांते बुधो इहि प्रकार निर्जर को ध्याय, जीत परीषह घोर महाय
भोजन को खोय ||१२|
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सब उर नंता प्रकाश, तानें लोक खते व जास (अ) नावि शापवतो बहू गुण भरी, हरिहर सादि न काहूक री ॥ १२६॥ अधोलोक मोटी धान, मध्य लोक भत्सरी समान ऊरथ लोक मुदंगाकार, तीन लोक सब पुरुषाकार ||१२७।। चौखंटी । चौदह राजू सर्व उतंग वातवलय बेडी सरचंद प्रथमहि तनु वाताहिको नाम, बीस सहस जोजन आयाम ।।१२।। जो वलय धन कधी बोस राय जोजन को लह्यो। विती घनोदचि मोठी सोय बोस सहस मूलहितें इकराजू तंग, सात सात चारों दिश संग तामें पंच गोल के जेह, तिनके भेद कहाँ कछु येह || १३०८1 प्रथमहि खंदर नामहि भेव, जम्बूद्वीप समान गनेव । दुजी अंडर नाम बढ़ान, भरतक्षेत्र वत है उनमान ॥१३१॥ arat sोषक नाम यचास, कोशल देश समान सुवास चीयो पुलवि नाम है कही नम्र अयोध्या वत है कही ।। १३२ ।। पंचम देह नाम लहि सोय चक्रवति मंदिर वत होय । सब में नित्य निगोदहि जीव, उपजे मरि मरि रहे सदी ।। १३३॥ तत्र नाड़ी तेरह राजू ऊंची लेव । ताके मधि क राजु विचार, तामें त्रस उपजं संसार ।। १३४|| छैराजू ग्ररु । राज में नरक जु शात पर तिहि अन्त भवन दवा जात सब ही पूरव पर विस्तार,
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राजू इक इक हीन विचार ।।१३५|| दक्षिण उत्तर सब ही समय सुन पृथक पृथक सब भांत धम्मा पहिलहि तेरह पटल रत्नप्रभा बी भूपटल ॥ १२६॥ जिसे वहां हैं लाख ज दोस, उपजे तह नारक दुत दीस। दूजी वंश नरक हि नाम, पृथिवी प्रभा शर्करा ठाम ॥१३७॥ ग्यारह पटल यहां दुख खान, विल पच्चीस लाख उन्मान | मेघा तृतीय नरक पहिचान, बालू वत भाभा सब थान || १३८॥ बिजु पन्द्रह लाख प्रधान, नव पलटन में दुःख महान चौथों अंजन नरक खान, पंक प्रभा दो बहु प्लान ।। १३६ ।। पटल सात है ताके लीय, विले लाख दश उपजे जीय पंचम श्रारिष्टा दुख धाम, घूम वर्ण दीसे अभिराम ।। १४० ।। पटल पंच पुनि ताके कहै, विले जु तीन लाख सरदहै। छठम मघवी नारक जेह, अन्धकारसम पृथिवी तेह || १४१ ।। पटल तीन तार्क सुख नून, विलै जु एक लाख पंचून सातम नरक माधवी नाम, महा जु अंधकार दुख धाम पटल एक है दुख की खान, पंच विले जिय उपज प्रमान सातम तें पहले लौं होय, पंक बहुल जल पृथ्वी सोय सुर कुमार प्रथम भवनेव, चौसठ लाख विमान गनेव तितने ही जिन मंदिर से अष्टोत्तर प्रतिमा जो वर्त ।। १४४ ।। खर पृथ्वो में नव भवनान, नागकुमार दुतिम है थान 1 (वि)मान लाख चौरासी जहां, जिन मंदिर इक इक है तहां ॥१४५॥
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|| १४२ ॥
॥१४३॥
गर्मी प्रभु के पैरों में मणिमय गोमुखी कड़े पहनाये गये इस प्रकार असाधारण दिव्य मंडनों गहनों से कांति एवं स्वाभाविक गुणों से वे प्रभु ऐसे प्रतीत होने लगे, मानो लक्ष्मी के पुंज ही हों ।
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भगवान का दिव्य शरीर ग्राभूषणों से और भी शोभायमान हो गया बाभूषणों से सजे हुए इन्द्र की गोद में विराजमान महावीर प्रभु को देखकर इन्द्राणी को बड़ा आश्चर्य हुआ। इन्द्र को भी कम सच नहीं हुया एक नेत्र से देखने से जब इंद्र की तृप्ति नहीं हुई, तब उन्होंने हजार ने कर लिये अन्य देव-देवियां भी भगवान की रूप-सुधाका पान कर अत्यन्त हर्षित हुई।
पश्चात् सौधर्म इन्द्रप्रभु की स्तुति करने के लिए प्रस्तुत हुए थे तीर्थंकर के पुण्योदय से उत्पन्न उनके गुणों की प्रशंसा करने लगे । उन्होंने कहा- देव! बिना स्नान के ही आपका सर्वाङ्ग पवित्र है, पर मैंने अपने पापों की शांति के लिये श्राज भक्ति पूर्वक आपको स्नान कराया है। आप तीनों जगत के आभूषण हैं, पर मैंने अपने सुखों की प्राप्ति के लिये आपको आभूषणों से विभूषित किया है। प्रभो तुम्हारी महान सत्ता बाज सारे संसार पर अपना प्रभाव विस्तार कर रही है।
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विदुत कुमार तृती सरबहै, लाख छिहतर मंदिर ल। सुपर्ण कुमार तुरी हैं देव, बहतर लाख विमान कहेव ॥१४६।। वानकुमार व मैं जान, लक्ष छयानवे तहां विमान । मन नित कुमार छठे सुन भेव, लाख छिहतर ग्रहा गनेव ।।१४७।। उदधि कुमार सप्तमै होइ. लाख छिहतर मंदिर माइ। दोप कुमार प्रष्ट मै जान, लाख छिहतर ताहि विमान ॥१४८।। अगनिकुमार नदम गुणधार, लाख छिहतर गृह अवधार | दिगकुमार दशम भवनेव, लक्ष छिहतर ग्रहगन लेव सर्व भवन दश को कर जोड़, बहत्तर लाख जु सात करोड़। इक इक जिन मंदिर तिन सबै प्रतिमा इकस पाठ ज फवै ।। १५०।। अष्ट प्रातिहारज जल सबै, तिनको चन्दन कीजै प्रब । मेरु तर ते जानो सोय, अधो लोक मरजादज होय ॥१५।। राज सात ऊंचाई लेव, तको घनाकार सुन भेव । भवन समेत नरक इक जान, दश राजू को कहीं निदान ।।१५२॥ दजी सोरह राज ठगौ, तीजो वाइस लौं वरनयो। चौथो अष्टावीस बस्नान, पंचम चौतीसहि उनमान ।।१५३ ।। छटम सानमौं राजू चाल, गोलक मूल छयालिस पाल । यह विधि क्रमसों लीजें जोर, जहं है थान घनाघन रोर ॥१५॥
दोहा अघो लोक घनकार सब, इकसै छयानव तेह । राजसौं गन लीजिये, भ्रम नाशन सब एह ।।१५।।
मध्यलोक का वर्णन
चौपाई मध्यलोक अब सुनौ बखान, पूरब पर इक राजू जान । दक्षिण उत्तर सात गनेह, तीन तीन दुइ दिशा सुनेह ॥१५६।। प्रस नाडी भीतर उनमान, राज एक सर्व परबान । द्वीप समुद्र असंख्य सु नाम, जम्बूद्वीप मध्य अभिराम ।।१५७|| ताके मध्य सुदर्जन मेर, लवण समुद्र बहे चहुं फेर । सो वर्णन पूरव वरनयो, पुनर उकन सो फिर नहि भयौ ।।१५८।।
घातकीखण्ड द्वीपका वर्णन
ताको घेर धातकी द्वोप, चार लाख जोजन सु महीप । तामें पूरव पश्चिम जोय, विजय प्रचल हैं मेरु जु दोय ॥१५६।। ताको कछु वर्णन को लहौ, जिनवाणी जैसो सरदहौ । पूरब दिने पृथ्वी है इती, लबणहित कालोदधि मिती ।।१६०॥ चार लाख चौड़ी उन्मान, ताके मध्य विजयगिरि जान । सहस चुरासी ऊची सोय, सब विभूति प्रथमहि वत होय ।।१६।। करते तहां विदेह सहै, पूरब' अमर दोय दिशि बहै। दक्षिण उत्तर इक्ष्वाकार, दोय मेरु के भेड़ विचार ॥१६२१॥ भरत दोय ऐरावत दोय, ताके मध्य हि इक इक सोय । लम्बे चार लाख परवान, ऊंच विथार निषधसम जान ||१६३।। तापर इक इक जिनवर गेह, अष्टोत्तर शत प्रतिगा जेह । दक्षिण इक्ष्वाकारहि निकट, भरतक्षेत्र षट खंडहि दिकट ॥१६४।।
देव ! कल्याण की कामना रखने वाले लोगों का तुम्हारे द्वारा ही कल्याण होगा। तुम मोहके गहर में गिरे हुए व्यक्तियों के लिए सहारा हो । तुम्हारी अमृतमयी बाणी मोह-शत्रुका विनाश करेगी। तुम धर्म-तीर्थ रूपी जहाज के द्वारा भव्यजीबों को मंसार-समुद्र से पार उतारोगे। नाथ ! आपकी बचन रूपी किरणे जीवों के मिथ्याज्ञानरूपी अन्धकार का सर्वथा विनाश करेंगी, इसमें सन्देह नहीं । स्वामिन आप केवल मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से ही नहीं उत्पन्न हए हैं, आपका उद्देश्य मोक्ष की आकांक्षा रखने वाले जीवों को मार्ग दिखलाना भी है। पाप सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की वर्षा करते हुए सत्पुरुषों को निर्मल बनायेंगे। प्रापका जन्म धारण सर्वधा स्तुत्य है।
महाभाग ! मोक्ष रूपी स्त्री आपमें प्रासक्त हो रही है । भव्य जीव तो आपकी प्रतीक्षा करते ही हैं। वे बड़े प्रेम और भक्ति के साथ आपकी चरण सेवा के लिए सन्नद्ध हैं। वे आपको मोह रूपी महायोधा के विजेता, शरण में आये हए के रक्षक कर्म रूपी शत्रुओं के बिनाशक और मोक्ष मार्ग प्रशस्त करने बाल मानते हैं। प्रभो, वस्तुतः अाज हम अापका जन्माभिषेक कर अत्यन्त कृतार्थ हो गये और आपका गुणानुवाद करने से हमारा मन अत्यन्त निर्मल हो गया है।
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लांबी पुरब पश्चिम घार, चार लाख है दण्डाकार । क्षेत्र मध्य विस्तार गर्मत, बार सहस जोजन ऊपर इकशिय जोजन पांच, सवा पांचसै धनुश हि सांच । दुगुण दुगुण कीजै प्रवदात, षट पर्वत पर क्षेत्र जु सात ।।१६६।। गंगा सरिता को सुन भेव, मूल चुरासी जोजन एवं । समदहि मिलि दश गुनी जु होय, लाख परिवार ज सोय ।।१६७।। ऐसी सिन्धू नदी प्रमाण, क्षेत्र प्रति दुगुणी जाण । भरतक्षेत्र वत ऐरावता, तहं इक्ष्वानग उत्तर युता ॥१६॥ कहाँ विदेह किमपि विस्तार, जम्बूद्वीप चतुर्गण धार । लम्बाई को करी बखान, लबण समुद्रतट सुनहु सुजान ॥१६६।। एक लाख संताल हजार, तिनमें क्रम क्रम बड़ती धार । मेरु निकट की कही विदेह, दोय लाख अरु सहस गमह ।।१७०॥ बत्तीसहि ताको परमान, इक सय साढ़े अडसठ जान । इतने जोजन गनिये सोय, अब कालोदधि तटको जोय 11१७१।। मेरु निकट ते पौने दुगुन, गिरिवक्षार विभंगा रयन । यह विभूति पूरब बह कही, ऐसे ही पश्चिम की मही। १७२।। परबत नदी कुटं व बहु तेह, उपसमुद्र जुत जानो जे । नदी चतुर्दश लवण हि मिली, कालोदधि लेती हैं रली ।। १७३।। जिन मन्दिर उत्कृष्ट हि सर्व, प्राकृत्रिम कंचनमय दर्व । इकस अठावन को है जोर, धातहि द्वोप बणियो थोर ।।१७४।। ताको घेर समुद्र को बहै, आठ लाख कालोदधि लहै। तामें जलचर जीव प्रमान, जल मीठो पीवे को जान 1|१७||
पुष्करवर द्वीपका वर्णन ताको घेर जु पहुकर द्वीप, सोरा लाख ज जोजन हीप । ताके मध्य जु बलयावार, मनुषोत्तर है प्रबल पहार ।।१७६।।
मानुषोत्तर पर्वत का विस्तार आदि मूल चारसौ जोजन तीस, एक कोश ऊपर जानीस । चौड़ो भूधर एक हजार, वाइस जोजन अधिक जु सार ।।१७७॥ एक सहस सतसौ इकवीस, जोजन महा उतंग जु दीस । लम्बी एक कोड़ि परवान, लख पनतिस परवन मध्यान ॥१७८|| सतसे चौविस गनी विथार, हेम वरण की शोभा सार । चौदा द्वार गुफा हैं तहां, नदी चतुर्दश निकसी जहां ।।१७६॥ चार दिशा जिनमंदिर चार, विदिशा लघु सुर गृह अधिकार । मानुष लोक मियाद अगाध, ताके भीतर पुहकर आध ।।१८०॥ तामें दोय मेरु राजंत, मन्दर विद्यन्माली संत । पुरव दिशको सुन व्यवहार, पाठ लाख को लहि विस्तार ।।१८।। कलोदधित प्रादि गनेह, मनुषोत्तर पर्यंत भनेह । तास मध्य मन्दर गिरि दोस, सहस चुरासी ऊंची ईस ।।१८।। तास निकट कुरुद्वय दो बसै, और विभूति पूर्ववत लस । पूरब अपर विदेह जो लहै, कालोदधित पर्वत बहै ॥१८३।। ऐसे ही दो इष्वाकार, दक्षिण उत्तर निषध प्रकार । वहत क्षेत्ररु षट कुल सबै, पृथक-पृथक सो जानो तब ॥१४॥ दक्षिण इक्ष्वकार नजीक, भरतक्षेत्र दो दो दिस ठीक । आठ लाख के दण्डाकार, अब ताको वरणौं विस्तार ॥१८५१॥
हे गुणों के अपार सागर! आपकी स्तुति करने से हमारा जन्म सफल हो गया और आपकी शरीर-सेवा से हमारा शरीर
हा। जिस प्रकार खान से निकलने वाले रत्न का संशोधन करने पर उसमें अधिक चमक प्राने लगती है, ठीक उसी प्रकार प्राप स्नान आदिसे और भी सुशोभित हो रहे हैं। नाथ ! आप संसार के नाथ हैं और आप बिना किसी कारण के ही लोक हितचिन्तक हैं। अतएव परमानन्द प्रदान करने वाले विभो! आपको शतश: नमस्कार है। तीनों ज्ञानरूपी नेत्रों के धारक आपको बारम्बार नमस्कार है।
धर्मतीर्थ के प्रवर्तक भगवान ! उत्तम गुणों के सागर और मल पसीना प्रादि से रहित शरीर धारण करने वाले आपको नमस्कार है। हे देव ! निर्वाणका मार्ग दिखाने वाले कर्मरूपी शत्रों के प्रहारका, पंचेन्द्रियों के मोह को परास्त करने वाले पंच कल्याणकों के भागी, स्वभाव से निर्मल स्वर्ग-मोक्ष प्रदान करने वाले, अत्यन्त महिमा से मंडित बिना कारण समस्त संसारी जीवों के हित करने वाले, मोक्षरूपी भार्या के पति, संसार का अन्धकार नष्ट करने वाले, तीनों जगत के पति और सत्पुरुषों के गुरु पापको करबद्ध प्रणाम है।
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तपश्चरण में लीन मुनिराज।
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सम्प
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मार्गदर्शक
健食平時掛號
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु नभये पंचतत्य रा जो मुनि ध्यान आराधन घरे, पद्मासन निश्वन चित बरै ।
ज्योतिलक का वर्णन :--
एक चन्द्र तारा अंक ६६६७५०००
भरत क्षेत्र पर तारा अंक ७०५०००००००००००
अढ़ाई द्वीप तारा श्रंक ८८३३००००००००,०००,००
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सुदी
१ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५
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मन ग्रह
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ठीकार-तीन मक्षर मंत्र
णमो मरहताण अष्टाक्षर मंत्र
ॐ ह्रीं ह्रीं हूं हीं हः असिग्राउसा नमः - द्वादसाक्षर मंत्र
ॐ
सिद्ध सयोग केवली स्वाहा - त्रयोदशाक्षर मंत्र
पदस्थ ध्यान निरूपण
१. पाउसा पंचाक्षर मंत्र
२. ॐ ह्रीं श्रीं अहं नमः - षडक्षर मंत्र
३.
सप्ताक्षर मंत्र ४. ॐ नमो अरहंताणंष्टाक्षर मंत्र
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अष्टावीस सहस गन तेह, चार शतक उनतिस अधिकेह । इतने जोजन कहै प्रमान, दून दून पर्वत क्षेत्राने का गंगा सिन्ध मूल विचार, त्रय शत अरु पैतालहि धार । कालोदधि मिलि ते दशगुनी, पुहकर समुदरली बिसगुनी ॥१८७।। दगन दगन सब लोजौ जोर, इहि विधि पूरब दिशकी अोर । सो पश्चिम जानो अवलोय, विधुन्मालो गिरितहं जोय ।।१८८।। पुरव वत वर्णन अवधार, नदी चतुर्दश भेद विचार । पूरब पश्चिम की पहिचान, सात सात कालोदधि थान ।।१५।। सात सात मनषोत्तर फोर, पहकर उदधि मिली सब जोर। पुहकरार्थ जिनगृह उत्कृष्ट, इकसे अठावन जग दिष्ट' १६॥ और विभति पूर्ववत सोय, लघमति कवि दर्णन नहि होय । पुहकर उदधि द्वीपको घर, जोजन वत्तिस लाख जु फेर ।।१९।। निर्मल जल गंगावत वार, जलचर जीव न होंहि लगार । ताको घेर जु वारुण द्वीप, चौसठ लख विस्तार महीप ॥१९२१५ ताको घरहि वारुण सिन्ध, जोजन एक कोड़को लिन्ध । अरु अठ्ठाइस लाख प्रमान, इतनौ गन विस्तार महान ॥१९३।। तहंत क्षीर द्वीपवर नयौ, दोय कोड़ छप्पन लख ठयौ । ताको क्षीरोदधि चहुं फेर, पांच कोड़ बारह लख हेर ॥१६॥ फिरि दधिवर 'द्वीपहि उन्माद, दश कोड़ी चोबीस बखान । दधिवर उदधि घर के सीइ, जोजन बीस कोड़ कर जोर ||१६|| यह अडताल लाख निरधार, इतनी है ताको विस्तार । तहं से द्वीप इक्षुवर जान, जोजन चालिस कोड़ बखान ||१६|| लाख छयानवे ऊपर धार, गनि सब लेह तास विस्तार । उदधि इक्षुवर ताहि घिराय, इक्यासी गन कोड़ लहाय ।।१९७|| लाख बाम है जो और, यह विस्तार कीजियो ठौर । तह तै अष्टम द्वीप लहंत, नंदीश्वर नामहि निवसन्त ॥१६॥ एक अरब अर त्रेसठ कोड़ लाख चुरासी जोजन जोड़ । इतनौ गनिथे तिहि विस्तार, अब वरनौं लम्बाई सार ||१६| सप्तम उदधि अन्त निकटेह, सो भू गिरदाकर गनेह । नव अर्वहि सु विलालिस कोड, लाख पंचावन जोजन जोड़ ॥२०॥ मध्यद्वीप लम्बाई जान, गिरदाई सब गुनहु सुजान । चौदह अर्व चहत्तर कोड़, लख सैतालिस जोजन जोड । द्वीप अन्त की परिधि गनेह, सब उनईस जु अरब भनेह । पैसठ कोड़ निन्यानव लाख, द्वोपहि तोन भेदकर भाख ॥२०॥ घनाकार अब धरनौं जोर, बीस अंक लिखिये तिहि और । दोय लाख इकताल हजार, पंच शतक सतहत्तर पार ॥२०३।। इतनै कोडा कोड़ी जान, ऊपर और सुनो बुधवान । सोरह लख अड़ताल हजार, इतने कोड़ गनों सविचार ।।२०४।।
(२४१५७७१६४८००००००००००) ता में चारों दिश शोभंत, बावन चैत्यालय जिन संत । पूरब दिश वरनी कछु तेह, अंजनगिरि पर्वत इक जेह ।।२०।। नील वरण इक शोभा रंग, सहस चुरासी जोजन तुग। इतने ही गिरदा विस्तार, ताके मधि इक जिनमह धार ।।२०। गरिके चहुं दिश बापी चार, लाख महाजोजन विस्तार । जलकर पूरित पहुप सरोज, चार घाट डिम जूत जोत ॥२०॥ वापिन मधि दधि मुख इक लेख, दश हजार उत्तंग बिशेख । सो विस्तार को घर लीक, उज्ज्वल' इक इक जिनगह ठीक।२०।। भीतर बापी घाटन माहि, द्वैव रतिकर पाठ गनाहि । रक्त वरण शोभा जुत सोय, जोजन सहस एक अबलोय ॥२०॥ इक इक जिनबर भवन समेत, ऐसे रह पूरब दिश हेत । तेरह दक्षिण पश्चिम गनो, तेरह उत्तर दिश जुत भनी ॥२१०॥
देव ! मैं आपकी इसलिये स्तुति नहीं करता कि मुझे तीनों जगत को संपदा प्राप्त हो, बरिक मुझे ऐसी संपदा प्रदान करो, जिससे मोक्ष का मार्ग सुलभ हों। वस्तुतः इस संसार में आपके सदृश दूसरा कोई दाता नहीं है। इस प्रकार महावीर स्वामी की स्तुतिकर सौधर्म के इन्द्रने व्यवहार की प्रसिद्धि के लिए उनके दो नाम रख दिये 1 कर्म-शत्रु पर विजय प्राप्त करने के कारण 'महावीर' और सद्गुणों की वृद्धि होने से 'वर्द्धमान' नाम रखे। इस प्रकार भगवान का नामकरण कर इन्द्र ने देवों के साथ उनको ऐरावत हाथी पर बिठा कुण्डलपुर की ओर प्रस्थान किया। देवों की सारी मण्डली बड़े उत्सव के साथ कुण्डलपुर में पहुंची। उस समय सारा नगर देव-देवियों से भर गया। पश्चात् इन्द्र ने कुछ थोड़े से देवों को साथ लेकर राज भवन में प्रवेश किया । वहां अत्यन्त रमणीक गृह के प्रांगन में रत्नों के सिंहासन पर शिशु भगवान को बिठा दिया। अपने बन्धु-बांधवों के साथ महाराज सिद्धार्थ अनुपम गुण कांतियुक्त पुत्र को देखने लगे।
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सब बावन पर्वत विस्तार, ऊंचे लम्बे ढोलाकार । नन्दा नन्दोत्तर हैं मादि, महावापिका षोडश गादि ।।२११|| तहां इन्द्र जुत पावें देव, नन्दीश्वर द्वीपहि जिन सेव । गेर द्वीप कुण्डल आकार, कुण्डल गिरि पर्वत अवधार ॥२१॥ दश हजार जोजन सु उतंग, दोसै चालिस अधिक सुसंग । अरु विस्तार जु पर्वत शीस, सहस पचत्तर दास वोस ।।२१३॥ चारहं दिश जिन मन्दिर चार, कंचनमय शोभा अधिकार । प्रावहि विबुध दरशको जहां, इन्द्र सहित जिन बन्दन तहां ॥२१॥ तेरम द्वीप रुचक वर फेर, नाम रुचकगिरि पर्वत घेर। सहस नुरासी ऊंचौ भार, इतनी जोजन महा विचार ॥२१॥ चार दिशा जिनगृह चहूं संग, प्रातिहार्य जुत प्रतिशोभंत । छपन कुमारी देवी लसै, रुचकवासिनी जिनवर जसै ॥२१६।। तह ते द्वीप असंख्य जु भये, संभूरमण अन्तमौ ठये । ताके मध्यजु गिरदाकर, नामेन्द्रहि पर्वत अतिभार ||२१७।। मनुषोत्तर ते परे विचार, नागेन्द्रहि के उरै सम्हार । भोगभुमिवत पृथ्वी कही, तिरयं च हि हिमवत सम सही ।।२१८।। प्राधे द्वीप कर्मभू सोय, विकलत्रय जलचर जिय होय। ताको घेर समुद्र महान, तिमको कळू सुनो उनमान ॥२१॥ लवणोदधि बत सब व्यवहार, मध्यलोक मर्यादा सुधार । द्वीप समुद्र असंख्य प्रमान, तिनको कळू सुनो उन्मान ॥२२०।।
असंख्य प्रमाण ।
राज एक भाग वस कर, तामें चार मेरु ते पर । संभूरमण उदधि दो भाग, संभरमा दीप इक लाग ।।२२।। भाग एक दधि द्वीप प्रसंख्य, ताको किमपि कहाँ निरशंक। जम्बूद्वीप समानहि कुण्ड, गहरो एक सहस को मण्ड ।।२२२।। प्रथम शलाका कुण्ड प्रमान, प्रतीशलाका दूजो जान । महाशलाका ती नौ कयो, अनवस्थित मारहि चउ लयौ ॥२२३।। ताके सरसों को परमान, अंक छियालिस गन बुधिमान । उनिस सतानवे ग्यारह हाल, उनतिस अड़तिस पर पैताल ||२२४।। तेरह सोलह अंकहि धयौं, छति स पन्द्रह वार जु कयौं । उक्त अंक हिरदै सरदहो, निर्मल समकिल मनमें लहो ।।२२५।। (१९६७११२६३८४५१३१६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६१२) प्रथम गर्त सरसों भर लयौ, द्वीप समुद्र इक इक डारयो । जब वह कुण्ड रीत सब जाय, दोय रहै सौ करहि उपाय ॥२२६।। एक सरस राखै वह कुड, एक घर दुर्ग में मण्ड । जिहि द्वोपहि में सरस निसर्त, तेही द्वीप भरं वह गर्त ॥२२७।। सो फिर सरसों भर जु चलाय, एक एक सो डारत जाय । फिर वह गर्ता में इक रहे, सोय प्रथम कुंडहि धर तबै ।।२२८॥ वही द्वीप मेकूण्ड भरेय, फिर सरसों इक इक हारेय । पीछे एक रहै जब लोय, सो पहिले में डारै जोय ॥२२६।। यह विधि करत कुण्ड वह भरे, तब इक सरस दूसरे करै । यह प्रकार जब दूजो भरे, तब इक सरस तीसरं धरं ।।२३०॥ एही विधि सों तीजी भर्ण, पूरव रीति कर सो पूर्ण । संभु रमण समुद्र ली अन्त, नामावलि यह जानौ संत ।।२३।। सो तिर्यच लोक यह जास, अरु व्यन्तर देवनको बास । शिन विमान है अनसंख्याल, एक एक जिनगृह विख्यात ।।२३।।
दोहा
चैत्यालय उत्कृष्ट जुत, मध्य लोक परमान । चट सय अंठायन प्रमिति, व्यन्तर अधिक बखान ॥२३३॥
इन्द्राणीने' जाकर मायामयी निद्रा में लीन महारानी को जगाया। उन्होंने बड़े प्रेम से प्राभूषणों से युक्त अपूर्व कान्ति वाले पुत्र को देखा जगत पिता की माता को इन्द्राणी सहित इन्द्र को देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने समझ लिया कि ग्राज हमारा मनोरथ सिद्ध हो गया। इसके पश्चात् ही सब देवों ने मिलकर माता-पिता को वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर उनकी विधिवत पजा की। इन्द्र ने बड़ी श्रद्धा के साथ माता-पिता की स्तुति की। उन्होंने कहा- तुम दोनों संसार में धन्य हो, तुम श्रेष्ठ पुण्यो और सब में प्रधान हो । तुम विश्व के गुणी और विश्व पिता के माता-पिता हो।
३५८
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सुर्दशन
मेरु पर्वत
मेरुपवत १००००० यो.
मरर धूलिका ४६ यो.
ऊंचा है
मेह पर्वत का उपरी प्रमाण
६००० योजन है ३६००० पादुकवन
मुव तारा के पार जितने ज्योतिष देवभेर. पर्वत की पदिक्षिणा देते हैं।
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मध्यलोक के अन्तर्गत ज्योतिलक का वर्णन ।
चौपाई
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अब ज्योतिष को सुन विरतंत, बिन श्राश्रय नम मांहि बसंत । सूर्य-चन्द्र ग्रह नखत जु तार, बहु कुटुम्ब जुत पंच प्रकार || २३४|| मध्यलोक पृथ्वी से जान, कंचो जोजन महा प्रमान सात शतक नई तर तिहि सूरज दक्ष अधिकार ।। २३५।। सं जोजन सी सूर्य से चन्द्र वह चार नसत सब बुन्द लिहितं बुध जोजन च तुंग बहते शुक्र तीन गुणयुग || २३६|| गुरु मंगल शनि ग्रह तीन तीन तीन ऊपर गत रत्नजडित सबके जु विमान पन्थ चलें मेष पर जान ॥ २३७॥ ये तिति कोड प्रणू भुवि विरं कुमति कहें देव यह राहू केतु दो यह पूनिया, निकट रहें रवि शशि के धाम ।। २३५ ।। जोजन एक श्रमो से चलें रवि शशि इनके ऊपर भलै । शशि अरु केतु दोउ इक जोट, दव्यौ चलं छाया की प्रोट ॥२३॥ दिन दिन छाया छूट जाय, इक इक कला चन्द्र प्रगटाय । पुनके दिन केतन अङ्क, सोहत षोड़श कला मयंक || २४०॥ अंजन मणीभूमाल, सिहि प्रतिविम्व स्यामता घालताको निरखि कहें मतिमन्द, थाप्यो जगत कलंकी चन्द्र || २४१ ।। फिर परमा दावे के साया पड़े उपरिको तेल मावस के दिन सुनो प्रवीन, दोरी हिमकर कला विहीन ॥ २४२॥
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इहि विधि राहु केतु य सोम, तर अगर शशि दावे
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म समास राहु की छाह
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दायें सूरज कला जु ताह ॥ २४३॥ ग्रहण क स धनी लोग ताको भेद कहो घर जोग जब शशि सूरज सप्तम धान राहु सूर्य एक वेत निशन || २४४॥ चन्द्र ग्रहण ता जिसमें लसे जब पूनी गति परमा बसे श्रव सुन सूर्य ग्रहणको क्षेत्र, दार्य छाया राहु जु तेव ॥ २४५॥ आसनक्षत्रहि रवि को वास, बेही नखत समावस जात राहू मूर इक यान गने, परमा सरसी मिलिकं तेह ॥ २४६ ॥ सूरज गहन होय इमि रीत, छठ मास राहू पर नीत इहि विधि सत्य पदारथ सार, सरथो मन में कर विचार ॥ २४७॥ अब विमान को संख्या लाग, जोजन के इकसठ कर भाग छप्पन चन्द्रविमान भनेह सूरज बड़तालीस गनेह || २४८ || भृगु गुरु बुध मंगल शनि थान, किचित् ऊन कोश परमान र नारायण तु विशेष ॥२४६।। रतन पटहाकार वापर नए विभूति अपार से देव देवनि जुग नेक, जिन चैत्यालय मण्डित एक ॥२५० एक चन्द्र परिवार सुदीस ग्रह अठासी उमटवीस व तारागण गिनती जान, खाट सहस व मान ||२१|| पचहत्तर ऊपर पुनि सोय, इतने कोड़ाकोड़ी होय । भरतक्षेत्र कोड़ाकोड़ी होय भरतक्षेत्र तारागण सबै सात सया पंचोत्तर फ] ॥ २५२ ॥ ( एक चन्द्र तारा अंक -- ६६६७५००००००. 000000) (भरत क्षेत्र पर तारा अंक - ७०५००००००००००००००) इतने कोड़ा कोड़ि प्रमान, तितने दुगुन दुगुन पहिचान । भरत क्षेत्रतं दूने जोय, हिमवत पर्वत पर अवलोय ॥ २५३ ॥ हिमवनते हुने परमान, हिमवत क्षेत्रहि में जुबान क्षेत्रमवत कर दुगुन, मह हिमवन परयत पर वरन ॥ २५४॥ । ते हरिक्षेत्र हि नाहीतें दुन, तिनितें दुगुन निषद्ध हि भुन । तितने ही गण मेरुहि उरै, यह सब चन्द्र एक प्रति जुरें ॥२५५॥ यह विधि दुतिय चन्द्र परिवार ऐरावततं मे हि धार जम्बूद्वीप दोय रविजुता, भरत एक एक ऐरावता || २५६|| दिनकर जब हि विदेहन जाय, भरतेरावत न सहाय तिनहि मार्ग इक गहि छह मास उत्तरायण दक्षिणायन वास ।। २५७।।
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तीन जगत के पिता को उत्पन्न करने के कारण बाज तुम्हारी मान्यता सारे संसार में है तुम्हारी कीर्ति अक्षुण्य है, कारण सबके उपकार और कया के तुम्हीं दोनों भागी हो आज से तुम्हारा गृह बालय के सदा हो गया और गुरु के संबंध से तुम हमारे पूज्य और मान्य गुरु हो । इस प्रकार इन्द्र ने माता-पिता की स्तुति कर और भगवान को उन्हें सौंपकर सुमेरु की उत्तम कथा सुनाई। वे दोनों ही जन्माभिषेक की बातें सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए । उनके श्रानन्द की सीमा न रही।
इंद्र की सम्मति से उन दोनों माता-पिता के बन्धु वर्ग के साथ भगवान का जन्मोत्सव सम्पन्न किया । सर्व प्रथम श्री जैनमन्दिर में भगवान की अष्ट द्रव्यों से पूजा की गयी । इसके पश्चात् ही बन्धुनों और दास-दासियों को अनेक प्रकार के दान दिये
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लवणोदधि में चन्द्रहि चार, धातकि द्वीप हमा दश धार। कालोदधि जू व्यालिस माघ, चन्द्र बहत्तर पुष्कर आध ॥२५८।। सब इकस बत्तीस हि जोर, इतने हि रबि कहे बहोर । इन मादि ग्रह सबै बस्त्रान, व्यारा सहस छस परवान ॥२५६।। ऊपर सोरह कहै जु और, अब सब नखत गनौ तिहि ठौर । तीन हजार छसै छयानवे, कही भेद तारागण सबै ।।२६०॥ लाख अठासी तीस हजार, ऊपर सात सयाय जु धार । इतने कोडाकोड़ो तार, इकसे यत्तिस चन्द्र प्रबहार ॥२६॥
(अढ़ाई द्वीप तारा प्रक-१८३७००००००००००००००००) द्वीप अढ़ाई के सब तेह, मेरु पंच परदक्षिण देह । पहुकराध ते बाहिर जहां, संभूरमण उदधि अन्त तहां ॥२६२।। घंटाकार उ६ कर रहें, गदा जहां के नई ही लहैं । सहस पचासहि जोजन लेव, परकाली भाषी जिनदेव ।।२६३।। चन्द्र जहां हैं रात्रि सदीव, सूरज जहां दिवस है सीव । असंख्यात तिन कहै वखान, सोई जिन गृह को परमान १२६४।। इकसे दश जोजन नभ मांहि, ज्योतिप पटल भिन्न २ जांहि । मध्यलोक इमि वर्णन कही, जथा शास्त्र हिरदै सरदही ॥२६॥
ऊर्ध्व लोक का वर्णन।
मार्वलोक अब जो विख्यात, है उतंग सब राजु सात । पूरब अपर सूनो विस्तार, मध्यलोक तं बढ़ि क्रम घार ॥२६६॥ बदा स्वर्ग भर राज पंच, घट क्रम लोक अन्त इक संच । दक्षिण उत्तर सब ही सात. पृथक पृथक प्र. सनिय भांत ।।२६७।। (सौ) धर्म प्रथम ईशान जु दोय, ताहि पटल इकतीस हि होय । (वि)मान सकल सन्न साठ जु लाख, इक २ जिनवर भवन जु साख सनत्कुमार महेन्द्र जु नाम, सात पटल सोहै अभिराम । बीस लाख तह कहे विमान, सोई श्री जिनवर अस्थान ।।२६६! ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर कल्प, पटल चार सोहैं तह स्वल्प । विमान चार लाख सौ वास, श्री जिन चैत्यालयसो जास ॥२७०।। लांतव मरु कापिष्ट बखान, दोय पटल सोहैं प्रस्थान 1 सहस पचास विमान वसंत, सोई थी जिनगह निवसंत ।।२७१।। शुक्ररु महाशुक्र अभिराम, एक पटल सोहै सुख धाम । चालिस सहस हि सबै विमान, इक इक जिनगृह है परमान ॥२७२।। शतार सहस्रार दुइ स्वर्ग, पटल एक ताके बहुबर्ग । छह हजार तह कहे विमान, श्री जिनगृह जुत सवै बखान ।।२७३।। मानत प्राणत दोई थोक, पटल तीन सोहै वह लोक । हैं विमान पंचस इकताल. तिनमें इक जिन भवन विशाल ॥२७॥ पारण अच्युत कल्पहि जान, तीन पटल सोभै शुभ थान । इकस उनसठ ताहि विमान, तितने ही जिन भवन महान ॥२७॥ कल्प लोक इतलौं वरनयौ, अब अहमिन्द्र ब्रह्मदढ थयो । ग्रंबक तोन अधोगन लय, तीन पटल ताके अतनेय ॥२७६॥ (वि)मान एक सौ ग्यारह सोय, तितने ही जिनगृह अवलोय। मध्यम ग्रैविक पटल जु तीन, (वि) मान एकस सात प्रबीन ।।२७७॥ करच घेवक हैं वय पटल, (वि) मान इक्यानब सोहैं अटल ।सोई जिन गह लीजै जान, नव अन नृतर पन सुविमान ॥२७८।। ए सब शठ पटल जु भास, तिहि विमान चौरासी लाख । सहस संतानबे अरु तेईस, इक इक जिनमन्दिर सब दीस ॥२७६॥ तीन लोक के जिनगृह साख, पाठ कोडि पर छप्पन लाख । सहस संतान चऊस एक, ऊपर इक्यासी वर नेक ॥२०॥
गये तथा बन्दी और दीन अनाथों को योग्यता के अनुसार दान दे, उन्हें सन्तुष्ट किया गया । नगर को तोरण और मालाओं से खुब सजाया गया । बाजे और शंखको गम्भीर ध्वनि होने लगी। ऐसे ही नत्य-गीतादि सैकड़ों उत्सवों से वह नगर स्वर्ग जैसा प्रतीत होने लगा।
इस उत्सव से नगर की प्रजा और कुटम्बीजनों को भी बड़ी प्रसन्नता हई। देवेंद्र ने भी पुरवासी और नगर निवासी जनों को प्रसन्नता प्रकट करते हुए देखकर स्वयं प्रसन्नता प्रकट की। उस समय इन्द्र में गुरु की सेवा के लिए देवियों के साथ त्रिवर्ग फल का साधक दिव्य नाटक सम्पन्न किया । इन्द्र के नत्य प्रारम्भ होने पर गन्धर्व देवों ने पाच और गान प्रारम्भ किये । महाराज सिद्धार्थ पुत्र को गोद में लेकर बैठे और अन्य रानियां उनके आस-पास बैठीं। प्रारंभ में इंद्र ने जन्माभिषेक सम्बन्धी दृश्य दिख
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सदा सास्ते सबै जू सोय, सौ जोजन लम्बाई होय । अरु पचास विस्तार महान, पचहत्तर ऊंचे उनमान ।।२८।। तिनमें जिनप्रतिमा सोभंत, अष्टोत्तर शत ताहि गनंत । धनुष पांच से ऊंचो काय, समोशरण मण्डित समुदाय ॥२८॥ तिन सब प्रतिमा को करजोर, नवस कोड पच्चिस कोर । वेपन लख सत बीस हजार, नौस अड़तालोस समार ॥२५३।। सर्वारथ ते उचित रवन्न, मोक्ष शिला बारह जोजन्न । पटहावत सो गिरदाकार, ऊर्ध्व अणू . नीचे विस्तार ॥२८४॥
सिक्षशिला का वर्णन
पैतालीस लाख है सोय, मोटी वसु जोजन अवलोय । फटिक सरीखी उज्वल गनौ, तह ते बात वलय तनु सुनो ॥२८५|| पौने सोरहसौ धनु महा, और भेद अब सुनियौ तहां । ऊपर जहां छत्र प्राकार, मोटो सौ कोशशि इकधार ॥२८६।। जोजन लख पैताल विथार, गिरदामयी तहां तं सार । माखी पंख सम पतरी सोय, मोक्ष शिला सो लागी जोय ।।२८।। तन बातहि में तिष्ठ एम, भानु छिप्यो पानी शशि जेम । ता मधि अन्तरीक्ष तिष्ठही, सरब सिद्ध माथे सम सही ॥२८॥ सो त्रय अवगाहन परवान, उतकिठ मध्य जघन्य बखान । पौने सोरह से धनु तेह, ताके लघू भये जो येह ॥२८६।।
व और सतासि हजार, तिनहि भाम, पन्द्रहसे धार । सबं भाग खाली अघ रहै, सवा पांचरी धनुषहि लहै ।।२०।। सो उतक्ठि अवाहनोय, बहूबलि सम तन जिहि जोय । अब जघन्य के सुनिये भेव, पूर्वहि वर्ण लघु धन तेव ॥२१॥ तिनहि चतुरगुन हाथ बहोर, साढ़े इकतिस लाखहि जोर । ताक नव लख भाग करेह, अधो भाग सब खाली तेह ॥२६शा ऊर्ध्व भाग इक हूंठहि हाथ, सो जघन्य अवगाहन नाथ । चतुरथ काल लहै शिव सोय, नमई वर्षः केवली होय ॥२६॥ मध्यम अवगाहन बहु भेव, सब विदेह तन पंच शतेव । भरतराबत ग्रोर अनेक, ऋमसौं जानो पागम टेक ||२६४॥ मध्यम अवगाहन बहु यहै, चर्म शरीर धार शिव लहै । तामें अस्थि चरम नख केश, यहै ऊन निज तनतें शेष ॥२६५।। घनाकार सुन ऊरध लोक, जुदे-जुदे भाषौ सब थोक । मध्यलोक सोधमोह जुगा, साथै उनिस हि राजु अटल ।।२९६|| सनत्कुमार महेन्द्र बखान, साढ़े सैतिस राजू जान । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्ग जु दोय, साई सोरह राजू होय ॥१७॥ जुगल कह्यौ लांतव कापिष्ट, साई सोरह राजू षिष्ट । शुक्र महाशुक्र अभिराम, साढ़े चौदह राजू जाम ||२६॥ शतार सहस्रार ए दोय, साढ़े बारह राजू होय । आनत प्राणत जुगलहि नाम, साढे दश राजू गुणधाम ||२६|| पारण अच्युत स्वर्ग वखान, साढ़े वसु राजू उन्मान । अहमिंद्र अरू मोक्ष पर्यन्त, ग्यारह राजू सब निवसंत ।।३००।। इहि विधि घनाकार हैं सर्व, इकस सैतालिस गनधर्व । अध करध सबको कर लेख, राजू जोजन महा विशेष ।।३०१।। पूर्व सात इक पंचहि एक, चौदह भये तिहि चौ त्रय लेख । दक्षिण सप्त गुन साढ़े चौबीस, ऊंची चौदासौ कर वीस ॥३०२।। सो त्रय सय अरु तैतालीस, चनाकार यह विधि अवनीस । तीन लोक में पृथिवी जेह, किमपि भेद बरणों कछु तेह ॥३०॥
आठ पृथ्वियों के नाम
मारक, भावन, वासी सब मानुष, पृथ्वी ज्योतिष, फबै । कल्पलोक, अरु घेवक ठाठ, (स) बर्थिसिद्धि तहं मोक्षजु पाठ ।।३०४॥
लाया। पुन: जिनेन्द्र के पूर्व जन्म के अवतारों को नाटक की तरह दिखलाता और नृत्य करता हुमा इन्द्र कल्पवृक्ष-सा प्रतीत होता था । रंगभूमि के चारों ओर नृत्य करता हुआ इन्द्र विमान की भांति शोभायमान हुमा।
इधर इन्द्र का ताण्डव नृत्य प्रारम्भ था और उधर देवगण भक्तिवश इन्द्र पर-वृष्टि कर रहे थे। नृत्य के साथ अनेकों सुमधुर बाजे बजने प्रारम्भ हुए। किन्नरी देवियां भगवान का गुणगान करने लगीं। इन्द्र अनेक रसों से मिश्रित ताण्डव नत्य कर रहा था। हजारों भुजाओं वाले इन्द्र के नत्य से पृथ्वी चंचल हो उठी। इन्द्र कभी एक रूप कभी अनेक रूप कभी स्थल और कभी सुक्ष्म रूप धारण कर लेता था।क्षण भर में समोप क्षण भर में दुर और क्षण भर में ही आकाश में पहुंच जाता था। इस प्रकार
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दोहा
गोलक इक पृथ्वो कही, नरकमांही उनबास । आवन षोडश अवनि जुत, मध्यलोक इक बास ॥३०॥ ज्योतिष नभमें तिष्ठ हो. शठ देव महोस । मोक्ष एक, सब जोरि इमि, इक सम अरु उत्तीस ||३०६॥
पांच पंतारूनानों के नाम प्रथम नरक पहली पटल, द्वीप अढ़ाई जाल । ऋजु विमान सर्वार्थ सिध, मोक्ष पांच पंताल ॥३०७॥
सौपाई
हि प्रकार लोकोत्तम जान, सूख दुख दायक है जगथान । छह द्रव पनि जुन भरयो सदीब, ज्यों घट मुई शर्करा धीर ।।३०।। पदगल जीव मिलो भ्रम ओर, बंध्यो फिर कर्मन की डोर । सुर नर नारक पशुगति माहि, त्रस थावर में कल्यौ सदाहि ।।३०६।। अजयन करन लब्धि को पाय, सुपन सम संसार दिखाय । रत्नत्रय तप साधौ जतन, कर्म दाहि कर मुक्तिहि धरन ।।३१०||
इति लोकानुप्रेक्षा दलभ ज्ञान चतुर्गति माहि, भ्रमत मानुषगति पाहि । जैसे कोई दरिद्री रहै, कर्म संजोग रत्ननिधि लहै ।।३११।। अरु उत्तम कुल जन्म जु होय, प्रारजखण्ड मुक्तिपद सोय । प्रायुपूर्ण पंचेन्द्रिय सुक्ख, निर्मल मत घर कोई न दुःख ।।३१।। मन्द कषाय तजे मिथ्यात, विनय गुनन जुत है विख्यात । दुर्लभ देव शास्त्र गुरु पाहि, कल्प वेल फैलो जगमाहि ।। ३१३।। समकित दरशन ज्ञान जुधीर, तप इत्यादिक लहि भव वीर | सब सामग्री दुर्लभ पाय, मोहादिक हनि मुक्ति लहाय ॥३१४।। जो मिथ्यात प्रभाद कराय, बूढ़े भव वारिधि में जाय । पापहि तजि चढ़ि धर्म जहाज, मुक्तिपुरी को पावं राज ॥३१५॥
इति बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा पाल धर्म जतन कर जब, मुक्ति महासुख पावै तवे । धर्म सहित जो मरण करेह, भव भव सुक्ख लहे घर नेह ।।३१६॥ भव समुद्र में बूडत जीव, धर्म जहाज पार लहि सीव । धर्महि ते तीर्थकर होय, धर्महि तं चक्रीपद सोय ॥३१७॥ उत्तम क्षम अरु माधंव अंग प्रार्जव सत्य शौच निरभंग । संजम तपहि त्याग मन प्रान, आकिंचन ब्रह्मचर्य बखान ||3811
इति दशलक्षण धर्म नाम गीतिका छन्द
द्वान तीरथ करहि जप तप, व्रतहि जुत भुवि शयन है। पुनि ध्यान धर वनवास, पुनि जन प्राश शिवपद को चहै। कोप अगनि न बुइयो मनकी, काजं सब निसफल बहै; जब हि सब जिय भजहु धीरज, अंग उत्तम क्षम यहै ॥३१६।। जाति कुल बल रूप प्रभुता, लाभ विद्या तप लयो; वह अष्ट मद जुत मत्त, ज्यों गत जगत सब नीचौ ठयो। जब हि मान विध्वंस कोनौ, जीव सब रक्षित भयौ; भजहु समता अंग मार्दव, मोक्ष मारग पद दयौ ॥३२०।। आदि अन्त जु जगत भ्रम भ्रम, कष्ट कर मानुष भयो; तदपि माया जुत फिरै जन, विषय हित जग वंचियो। पार्जवंग हि शुद्ध मन जव, दान प्रत प्रभु पूजयो; कुटिलता तज यात्म भज, जो शिबहि सुख सो रच्चयो ।।३२।।
इन्द्र का नाटक बड़ा ही मनोरंजक और प्रभावोत्पादक हुमा । साथ-साथ देवांगनाओं के नृत्य तो और भी आकर्षक हुए। वे बड़ी लय के साथ माती और हाव-भाव के साथ नृत्य करती थी। उनमें कोई ऐरावत हाथी के ऊपर इन्द्र की भुजाओं में से निकलती और पुनः प्रवेश करती हुई कल्पवेली के समान प्रतीत होती थीं। कोई अप्सराये इन्द्र की हस्तांगुलि पर नाभि रख नृत्य करने लमों। इन्द्र की प्रत्येक भुजा पर नृत्य करती हई अप्सरायें सबको प्रसन्न करने लगीं।
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लोभते जग अठ वच कह, लोक में अपजस भये; ताहि तजिक सत्यवादी, जिनहि पद सुरगन नये ।। सत्यतै गुण ज्ञान लहिये, सत्पते कुल उच्चये; सत्यतै शिवलोक बसिये, सत्य प्रङ्गहि सेवये ।।३२२॥ शौचसे मन रहे निर्मल, बाह्य आभ्यंतर सदा: प्राप्त ध्यान जिनेन्द्र पूजा, अष्ट द्रव्यहि समुदा । भाव अविनल शुद्ध राखै, जिनहि शिवसुन्दरि वर; शौच अंगहि भजहु पंजम, धर्म बुत भव अपहरं ॥३२३ संजमेन्द्रिय पंच दंडहि, सजमी नहि भव वहै; संजमो षटकाय रक्षा, संजमी शुचि तन रहे । संजमी लाहि सुख्य सुरपति, सजमी व्रत मंड है; अब पाठमी भज प्रङ्ग संजम, ताहित शिवपद लहै ॥३२४॥ तपहि द्वादश भेद भजिलं, प पर प्र म ; महसुस जीतहि, तपहि ध्यानहि संचरं । सहित सुरगति बसरो, तप हि शक्र हि पद धर; तप हि केवलज्ञान प्रगट हि. तप हि निरवाण हि कर॥३२॥ त्याग अङ्ग हि भजहु अष्टम, दान चारौ विधि धरौ । आहार औषधि अभय जीवन, शान शास्त्र हि जुत करो ॥ उत्कृष्ट मध्यम जघन पात्रहि, भावसौं पायमि परौ । भोग भवि सूर मुख्य भूजहि, फेर भवदधि ऊवरौ ।।३२६।। नाम प्राकिंचन जू अङ्ग हि, सकल परिग्रहको यौ। बाह्य दश हि ज़ क्षेत्र आदि हि, चौदहा अभि अलयो॥ साथ निश्चय ग्रंथ पालहि, श्रावक हि न्यौहार ची। सुरग गति फिर मोक्ष पहुंचे, धर्म सों भवि परनयौ ।। ३२७। शील सागर ज्ञान नागर, चित्त चारित धारिक । शीलवंत हि इन्द्र बंदहि, प्रहमिन्द्र पुनि अवतारकै ।। शील भज सुख मोक्ष दायक, भवहि दुःख निवारक । नव बाड़ ब्रह्मचर्य पालहु, मन बचन तन वारिकं ॥३२८॥
उक्तंच-कवित्त तिय थल वास प्रेम रुचि निरखन, दे परीक्ष भाषत मधबैन । पूरव भोग केलिरस चिन्तन, गरुव प्रहार लेत चित चैन । कर शुचि तन शृंगार बनावत, तिय एयंक मध्य सुख सैन । मन्मथ कथा उदरभर भोजन. ए नव' बाड़ जानमत जन ।।३२६।।
चौपाई
ए. दश लक्षण धर्म विख्यात, मुक्ति वृक्ष को बीज मुहात । दहि कर्मनको हता सोइ, संपूरण सुख करता होइ ॥३३०।। रत्नत्रय तप कर मुनक्षा, मूलोत्तर गूण पालक देश । तीन लोक में दुर्लभ धर्म, समवसरन लक्ष्मी को शर्म ॥३३॥ धर्म मन्त्र पाकर क्षण कर, स्वर्ग योपिता इच्छा धरें। तीन जगत में दुर्लभ इष्ट, पद पद में मिलियौ संतुष्ट ।।३३२।। माता पिता अरु मित्र जु धर्म, चिन्तामणि कल्पद्रम शर्म । कामदेव नव निधि भंडार, सहगामी भव भव हितकार ||३३३॥ यह जग धन्य पुरुष है सोय, तजि परमाद धर्म भजि कोय । जे शठ मूढ़ गमहि विन धर्म, विन मींगनके वृषभ विशम ॥३३४}} यही जान भवि धर्म हि करे, ताप दिन दिन विस्तर। धर्म शुक्ल यानहि लवलीन, मुकति वधू के सुख प्राधीन ||३३५।।
इति धर्मानुप्रेक्षा
अडिल्ल
ये अनुप्रेक्षा जान मुल वैराग को । बहु गुण रत्न विधान हन्यो दुख राग को ।। जिन मुनि वुधिजन सकल तास सेवित जहां । पापं दूर कर देहि अपार यातं कहा 11३३६।।
अप्सराय प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार का रत्य करती थीं। इस प्रकार नत्य में सम्मिलित इन्द्र पक्का जादुगर मालूम होता था । इन्द्र की सारी कलाय उन नतंकी देवियों में बंट गयीं । विक्रिया ऋद्धि से नृत्य करता हुमा इन्द्र माता-पिता ग्रादि सभी जनों को प्रसन्न करने लगा।
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गीतिका छन्द
इहि भांति वारहभावना, भवि सदा हिरदै भाव ही । अंतत जु अतीत गुण निधि, मुक्ति पंथ सु पावही ।। भवहरण बिमल सिद्धान्त साधक, सूत्र उद्भव जानिये । सुर आदि सकल विभूति दायक 'नवलशाह' वखानिये ॥३३७।। बालपन सुख भोग कीनी, सुर असुर सेवा करें। सुर जनित सकल विभूति क्रीड़ा, करत निशदिन मन हरे ।। पुनि काललब्धि विचार प्रभु जहं परम उर वैरागियो। श्री बोर जिन कर जोर प्रनमौं, चित्त शिवपद लागियो ।।३३८॥
पश्चात् जिनेन्द्र देव की सेवा के लिये देवियों को तथा असुर कुमार देवों को वहां रखकर इन्द्र देवों के साथ बड़ी प्रसन्नता पूर्वक स्वर्ग को गया। इस प्रकार पुण्य के फल स्वरूप तीर्थकर स्वामी सम्पूर्ण सम्पदाओं से पूर्ण हुए। अतएव भव्य जनों को चाहिए कि वे सर्वदा धर्म का पालन करते रहें।
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दशम अधिकार
मंगलाचरण
दोहा
भोग काम बिरकत' भये, गूण संबेग बढाय,। मुकति वधु अनुराग हिय, नमों वीर जिनराय ।।१।। द्वादश भावन विविध विधि, भावे प्रभ बैराग । तिहि अवसर लोकान्त सुर, पाये मन अनुराग ।।२।। सारस्वत आदित्य हूँ, वहिन बहर रुण चार । गर्दतोय पंचम कहे, तुषित छठम गुण धार ॥३॥ अब्याबाधन सातमी, रिपमेष्टक बसू जान । सब विमान ये पाठ कहि, तिनमें देव प्रमान ॥४॥ तिनकी संख्या लीजिए, चार लाख गन लेह । सहस बहत्तर जानिये, विशोत्तर अधिकेह ॥५॥
चौपाई ब्रह्म स्वर्ग के अन्तिम वास, लौकान्तिक शुभ नाम प्रकास । ब्रह्मचारिक उर सदा विराग, तीन ज्ञानधारी बड़भाग ॥६॥
धर्म प्रवर्तक बीर प्रभु ! करता तुम्हें प्रणाम । करो नष्ट मेरे सभी क्रोध मोह मद काम॥ जिनके द्वारा काम-क्रोधादि अंतरंग शत्रु जीत लिये गये है, जो तीनों जगत के हित के चिन्तक और अनन्त गुणों के समुद्र हैं, उन महावीर स्वामी के पाद-पद्मों में शतशः नमस्कार है।
पूर्व अध्याय में बताया जा चुका है कि, भगवान की सेवा के लिए सीधर्म के इन्द्र अनेक देवियों को राज-महल में नियुक्त कर गये थे। उनमें से कोई धायका काम करती, कोई वस्त्र आभूषण आदि से उनके अंगों को सजाती कोई अनेक
बालबाह्मचारी Lord Mahavira did not marry
--Prof. Dr. H.S. Bhattacharya : Lord Mahavira P. 13 वर्तमान कुमार की वीरता, रूप, गुण और सुन्दर युवावस्था देखकर अनेक राजा-महाराजा अपनी-अपनी कुमारियों का सम्बन्ध श्री वर्द्धमानजी से करने के लिए राजा पर जोर डालने लगे। माता त्रिशला तो इस बाट में थी ही कि कब मेरा लाडला बेटा जनाम हो और मैं विवाह करके अपने दिल के अरमान निकालू' । उन्होंने कलिंग देश के महाराजा जितशत्र की राजकुमारी यशोदा को अनुपम सुन्दरी, महागुरषों की खान और हर प्रकार से योग्य जानकर उससे कुमार वर्षमान का विवाह करना निश्चित किया। राजा सिद्धार्थ ने भी इस प्रस्ताव को सराहा । संसार की भयानक अवस्था को देखकर बर्द्धमान का वृदय तो पहले से ही वीतरागी था, यह कब कामवासना रूपी जाल में फंसना पसन्द करते? जब माताजी ने इसको स्वीकारता मांगी तो कूमार पद्धमान जी मुस्करा दिये और बोले--"माता जी! अधिक मोह के कारण आप ऐसा कह रही हो, संसार की ओर भी जरा देखो, फिनमा दुःखी है बह ?" रानी त्रिशला देवी ने कहा--"बेटा यह ठीक है, किन्तु तुम्हारी यह युवावस्था तो गृहास्थश्रम में प्रवेश करने की है, यशोदा से विवाह करके पहले गहस्थ धर्म का आदर्श उपस्थित करो, यह भी एक कर्तब्य है। फिर धर्मतीर्थ की स्थापना करना।" राजकुमार वर्द्धमान जी ने कहा-"मा ! देखती ष्टो, कुछ लोग भोग में कितने अन्धे हो रहे हैं। परउपकारता के लिए समाज में स्थान नहीं है ! आत्मिक धर्म को भले हए । स्त्री जाति की योग्य सम्मान प्राप्त नहीं है। दादों के लिए घमं सुनना पाप बताया जाता है। स्वाद के वश हिंसक यज्ञ होते हैं। ससार इन्द्रियों का दास बना हआ है। तो क्या मैं भी उनकी भांति भ्रान्ति में पड़ माँ की ममता भी वर्द्धमान जी कर्तव्य दृढ़ता के सन्मुख क्षीण हो गई।
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हैं एका अवतारी सोय, प्रनमैं तिनहि इन्द्र सुर जोय । प्रभु दीक्षा कल्याणक वाज, आवें सकल महोत्सव साज ॥७॥ महावीर जिनवर जब देखि, अपनो जन्म सफल कर लेखि । तीन प्रदक्षिण दे शिर नाय, प्रणमें भुवि कर शोस लगाय ।।८।।
प्रकार के खिलौने ग्रादि के द्वारा उनका विशेष मनोरंजन करती थी। जब बे देवियां उन्हें सम्बोधन कर बुलाती तो वे बालक भगवान मुस्कराते हुए उनके पास चले जाते थे। तीर्थकर भगवान की अवस्था चन्द्रमा की कला की भांति बढ़ने लगी। उनकी बाल सुलभ चपलता से माता-पिता को बड़ा ही प्रानन्द होता था।
दिगम्बरीय सम्प्रदाय के अनुसार थी वर्द्धमान महावीर सारी उम्र ब्रह्मचारो रहे, परन्तु श्वेताम्वरी सम्प्रदाय इनका यशोदा में विवाह होना बताता है। श्री वर्तमान के ब्रह्मचारी होने या न होने ने उनकी विशेषता या गुणों में कोई कमी नहीं पड़ती। अनेक नीर्थकर ऐसे हुए जिन्होंने विवाह कराया, परन्तु, निष्पक्ष विद्वानों के ऐतिहासिक रूप से विचार करने के लिए दोनों सम्प्रदायों के प्रमाण देना उचित है।
पद्मपुराण हरिवंशपुराण और तिलोरपुणती नाम के दिनम्बरीय ग्रन्थ बताते हैं कि २४ तीर्थबारों में से थी वासुपूज्य, मल्लिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर पांच बाल-पनि हुए हैं, जिन्होंने 'कुमार' अवस्था में संसार त्याग दिया था । श्वेताम्बरीय ग्रन्थ भी अपने पउमरिय तथा आवश्यक नियुक्ति नाम के ग्रन्थों में इसी बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार करते है कि महावीर ने 'कुमार' अवस्था में समार त्याग दिया था ! अब केवल यह देखना है कि 'कुमार' राब्द का अर्थ क्या है ? 'कुमार' का अर्थ है कुबारा यानी अविवाहिन अथवा ब्रह्मचारी ! आवश्यकनियुक्ति की गाथा २२१-२२२ में 'कुमार' शब्द का मतलब यदि बाल्यावस्था होता तो उसी ग्रन्थ की गाथा २२६ में 'परमवस' अर्थात् पहली यानी कुमार अवस्था में वीर स्वामी के दीक्षा लेने का कथन न आता ! इससे और भी स्पष्ट हो गया कि पहली बार गाथा २२१ और २२२ में 'कुमार' शाब्द का अर्थ अविवाहित अर्थात् ब्रह्मचारी ही है, जैसा कि स्वयं श्वेताम्बरीय मुनि श्री कल्याण विजयजी भी स्वीकार करते है कि भगवान महावीर के अविवाहित होने की दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यता बिल्कुल गिराधार नहीं है ?
श्वेताम्बरीय प्रसिद्ध मुनि श्री चौथमलजी महागज ने अपने 'भगवान महावीर का आदर्श डीवन' के पृ० १६१ जो भगवान महावीर की जन्म कुण्डली दी है । उसी के आधार पर श्री ऐल० ए. फल्टेन माहब ने ज्योतिष की दृष्टि से भी रही मिद्ध किया कि भगवान महावीर का विवाह नहीं हुआ बल्कि वे ब्रह्मचारी थे।
जब दिगम्बर सम्प्रदाय दूसरे अनेक तीर्थ करों का विवाह होना स्वीकार करता है, यदि वर्तमान कुमार का भी विवाह होता तो कोई कारण न था कि श्री जिनसेनाचार्य में जहाँ इरिवंशपुराण में महावीर के विवाह की जो योजना का उल्लेख किया है, वे यशोदा में उनके विवाह होने का कथन न करते । वास्तव में भगवान महावीर का विवाह नहीं हुआ, वे बालब्रह्मचारी थे, निष्पक्ष विद्वानों ने भी उन्हें अखण्ड ब्रह्मचारी बताया है।
१. 'म्बयं श्वेताम्बरी प्राचीन ग्रन्थों, 'कल्पसूत्र' और 'आवारांगसुत्र' में भगावन् महावीर के विवाह का उल्लेख नहीं है। दवेताम्बरीय आवश्यक नियुक्ति में स्पष्ट लिखा है।' कि भगवान महावीर स्त्री-पारिग्रहण और राज्याभिषेक से रहित कुमारावस्था में हो दोषित हुए थे। (नवइत्थिआभिसेआ कुमारविवासमि पवश्या) अतएन बल्लभीनगर में जिस समय श्वे आगम-ग्रन्थ देबद्धि गरिंग क्षमा श्रमण द्वाग संशोधित
और संस्कारित किये गये थे, उस समय प्राचीन आचायों को नामावली चूणि गौर टीकाओं में विवाह की बात बढ़ाई गई सम्भव दीखती है। उम समय गुजरात देश में बोड़ों की संख्या काफी धी! वल्लभी राजाओं का आश्रय पाकर वे जनाचार्य अपने धर्म का प्रसार कर रहे थे। बौद्धों को अपने धर्म में सुगमता से दीक्षित करने के लिए उन्हें अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए उन्होंने अपने धर्म में सुगमता से दीक्षित करने के लिा उन्हें अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए उन्होंने अपने आगगग्रन्थों ना संकलन बौद्ध ग्रन्थों के आधार से पित्या प्रतीत होता है। बौद्ध यात्री हा नसांग ने अपने यात्रा विवरण (पृ० १४२) में १४ लिखा है कि श्वेतपदधारी जैनियों ने बौद्ध-ग्रन्थों से बहुत-सी बातें लेकर अपने शास्त्र रच हैं। पाश्चात्य विद्वान् भी इसी बान को स्वीकार करते हैं कि राम्भवतः श्वेताम्बरों ने श्री महावीर जी का जीवन वृत्तान्त म. गौतमबद्ध के जीवन चरित्र के आधार से लिखा है। (बुल्हर, इण्डियन सेक्ट, आफ दी जन्स प्र. ४५) "ललित विस्तार' और "निदान कथा" नामक. बौद्ध ग्रन्थों में जैसा चरित्र गौतम बुद्ध का दिया है, उनमें श्वेताम्बरों द्वारा वरिणत भ. महावीर के चरित्र में कई बातों में सादृश्य है। कैमरेज हिन्ट्री आफ अधिक. १५६) इस दशा में दिगम्बर जैनियों को मान्यता समीचीन विदित होती है और यह ठीक है कि महावीर जी बाल ब्रह्मचारी थे।"
-कामताप्रसाद : भगवान महावीर पृ० ७६.८१ ।
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भगवान को सेवा करते हुए देव देवियों ।
देवों प्रौर देवियों के द्वारा भगवान की स्तुति करना।
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IATIONS
2.
लोकान्तिक देवों के द्वारा भगवान महावीर स्वामी की स्तुति करना।
MLAALIRAM
भगवान महावीर को वैराग्य होना और लोकान्तिक देवों का प्राकर भगवान् के वैराग्य को पुष्टि करना ।
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दोहा
परम भक्ति उर में बड़ी, विरकत वचन सुनाय । पुनि प्रस्तुति प्रारम्भ किय, लौकान्तिक सुरराय ॥६
लोकान्तिक देवों के द्वारा भगवान का सम्बोधन होना
चौपाई
तुम प्रभु तीन जगत के नाथ, तुम गुरु में गुरु महा सनाथ । तुम ज्ञानिन में ज्ञानी सर्व, भव्य जीव बोधक गुणधर्य ।।१०॥ विश्व ज्ञान परकाशक भान, सकल पदारथ वेदक वान । सो सब बोध प्रगट जग भयो, भव्यजीव को विकलप गयौ ।।१।। जब उदयाचल पावे भान, निश नम गयो जग्यो जगवान | तीन लोक तुम उदय कराय, मोह नीद भग गई पलाय ।।१२।। निज नियोग हम पाये देव, तुम संबोध सके को एव। प्रभु की भक्ति न हृदय समोय, मुख उच्चार करावै सोय ।।१३।।
जब उनकी अवस्था कुछ अधिक बढ़ी तो उनके मुख से सरस्वती को भांति बाणो निकलने लगी। रत्नों की भूमि पर चलते हए उनके आभूषण सूर्य की किरणों की तरह दमदमाते थे और वे स्वयं किरणों से परिवष्ठित सूर्य सा प्रतीत होते थे। उन्हें खेलने के लिए देव, हाथी, घाड़ा प्रादि के रूप कृत्रिम दिये गये थे। व बनके साथ क्रीड़ा करते हुए खेला करते थे। इस प्रकार अन्यान्य क्रीड़ानों से प्रसन्न करते हुए व भगवान कुमार अवस्था को प्राप्त हुए। उनका जो पूर्व में क्षायिक सम्यक्त्व था, उससे उन्ह समय पदार्थों का स्वतः ज्ञान हो गया।
प्रभ के उस समय दिव्य शरीर में स्वाभाविक मति श्रुति, अवधिज्ञान प्रादि वृद्धि को प्राप्त हुए। उन्हें समस्त कलाये और विद्यायें स्वत: प्राप्त हो गयी । इसलिये वं प्रभु मनुथ्य तथा देवों के गुरु स्थानोय हो गये। पर इन स्वामी का कोई गरु नहीं था। ठीक पाठय वर्ष में उन्होंने बारह व्रतों का ग्रहण किया । प्रभु का शरीर पसीना रहित, चमकीला पीर मलभूत्र आदि रहित खंत दुध के सदश था। श्वेत रुधिर युक्त और महान सुगन्धित पाठ शुभ लक्षणों से वे शोभायमान थे। पूर्व में वजवषभ नाराच सहनन और सम चतुरस्र संस्थान बाल उत्तम रूप युक्त पौर विशाल बलवान हुए।
वे सबके हितकारक नीर कर्ण मधर शब्दों का उच्चारण करते थे। इस प्रकार जन्म काल से ही दिव्य दश अतिशयों से युक्त शांतता आदि अपरिमित गण कीति कला विज्ञान आदि से वे सुशोभित थे। उनका शरीर तपाये हए सोने के वर्ण जैसा हुआ। वे दिव्य देह के धारक धर्म की प्रतिमूर्ति के सदृश जगत के धर्म गुरु हुए।
एक दिन की घटना है कि इन्द्र की सभा में देवों ने भगवान की दिव्य कथा को चर्चा की। वे कहने लगे-देखो. वे वीर जिनेश्वर कुमार अवस्था में ही धीर, शूरों से मुख्य, अतुल पराक्रमी, दिव्य रूप धारी अनेक गुणों से युक्त संसार क्षेत्र में कीड़ा करते हुए कितने सुन्दर प्रतोत होते हैं। उसी स्थान पर संगम नामका एक देव बैठा था। वह देवों को ऐसी बात सुनकर भगवान की परीक्षा के लिये स्वगं से चल पड़ा। वह महाबन में आचा, जहां प्रभु उस अनेक राज पुत्रों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे।
२. "दिगम्बर सम्प्रदाय महावीर को अविवाहित मानता है जिसका मुलाधार शायद श्वेताम्बर सम्प्रदाय सम्मत 'आवश्यक नियुक्ति हैं। उसमें जिन पांच तीर्थकरों को 'कुमार प्रवजित' कहा है, उनमें महावीर भी एक हैं। यद्यपि पिछले टीकाकार 'कुमार प्रवजित का अर्थ 'राज पद नहीं पाये हुए' ऐसा करते हैं, परन्तु 'आवश्यकरियुवत' का भाय ऐसा नहीं मालूम होला।
श्वेताम्बर ग्रन्थकार महावीर को विवाहित मानते हैं और उसका गुलाधार 'कल्पसूब' है । कल्पसूत्र के किसी सूत्र में महावीर के गृहस्थ आधम का अथवा उनकी भार्या यशोदा का वर्णन हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
दछ भी हो इतता तो निश्चित है कि महावीर के अविवाहित होने की दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यता विलकुल निगधार नहीं है।"
श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याण विजय जी महाराजः श्रमरण भ. महावीर : श्री का वि० शास्त्र संचह समिति जालोर मरवाह) पृ. १५३
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तीन ज्ञान तुम नैन सु यार, याहेय सकल वेत्तार । तुम शिक्षा दे समरथ नाहि, दीप तेज जुगनू द्यति जाहि ॥ १४ ॥
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तुम प्रभु तीन योग उर ल्याइ पोहारि दिन करा कोई प्रभु तुम अस्तुति पाय दुर्लभ धर्म जहाज चड़ाम कोई सुन धर्म हि उपदेश, रत्नत्रय उर घरं महेश तुम बच सूरज किरण प्रकाश, तम अशाम छिनक में नाश तुम अभीष्ट - सुख - सिद्ध कराय, अखिल-वृद्धि दायक जिनराय । जेनर मोह पंक गस रहे, तिनके हस्त कमल निज गहै तुमरे वचन महा गम्भीर भय वैराग्य वचसम और
सब निज पद की कीन्ही चाह, प्रनमो तीन जगत के नाह ||१५|| भववारिधि है अगम अथाह उत्तर व शिवपुर की राह ।। १६ ।। ता फल पावहि उत्तम थान, शुभ सरवारथसिद्धि महान ॥ १७ ॥ तिरको अर्थ बढ़ाय, दीसे शिव मारग सुखदाय ||१८|| हो प्रभु स्वर्ग मोक्ष के गेह, भविजन उर नाशन संदेह ॥ १६॥ धर्म ती वरतावनहार तुमको शिवदासी सम सार ||२०|| मोह महा पर्वत सम दण्ड तितकी नूर करे खण्ड ॥ २१ ॥
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उस देव ने प्रभु को डराने के उद्देश्य से काले सर्प का आकार बनाया। वह एक वृक्ष की जड़ से लेकर स्वन्ध तक लिपट गया। उस सर्प के भय से अन्यान्य राजकुमार वृक्ष से कूद कर घबराये हुए दूर भाग गये ।
पर महावीर कुमार जरा भी भयभीत नहीं हुए। वे विकराल सर्प के ऊपर भारूड़ होकर कीड़ा करने लगे। मालूम होता है कि वे माता की गोद में कीड़ा कर रहे हों कुमार का ऐसा ये देखकर देव बड़ा चकित हुआ। वह प्रकट होकर प्रभुकी स्तुति करने लगा | उसने बड़े नम्र शब्दों में कहा — देव तुम्हीं संसार के स्वामी हो, तुम महा धीर वोर हो। तुम कर्मरूपी बैरियों के विनाशक तथा समग्र जीवों के रक्षक हो ।
यह कहने लगा-देव ! यागके अतुल पराक्रम से प्रकट हुई कीति स्वच्छ बांदनी के सदृद्ध लोक को नाड़ी में विस्तृत हो रही है। तुम्हारा नाम स्मरण करने मात्र से ही प्रयोजनों को सिद्ध करने वाला धैर्य प्राप्त होता है । अत्यन्त दिव्य मूति वाले सिद्ध वधू के मर्ता महावीर में पापको बारंबार नमस्कार करता हूं। इस प्रकार यह देव भगवान की स्तुति कर उनका महावीर नाम सार्थक करता हुआ स्वर्ग को चला गया। कुमार ने भी अपने यम को बड़े ध्यान से सुना देवको स्तुति बड़ी ही कर्णप्रिय तथा भगवान के यश को संसार में विस्तृत करने वाली थी ।
इस प्रकार भगवान महावीर स्वामी का गुणानुवाद बार-बार देव करता था ये भगवान किन्नरी देवियों द्वारा गाये गये अपने गुणानुवाद को बड़े ध्यान पूर्वक सुना करते थे कभी नेत्रों को करने वाले की राम्रों के नृत्य पौर विभिन्न प्रकार के नाटक देखते थे। वे किसी समय स्वर्ग से प्राप्त आभूषण, वस्त्र माला यादि दिखाकर प्रसन्न होते थे । अन्य देव कुमारों के साथ कभी जस कीड़ा और कभी अपनी इच्छा से वन कोड़ा करते थे। इस प्रकार कीड़ा में संलग्न धर्मात्मा कुमार का समय बड़े-सुख से व्यतीत होने लगा ।
सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र भी अपनी कल्याण-कामना के लिये देवियों से अनेक प्रकार नृत्य गीत कराने लगा। काव्य आादि की गोष्ठी धीर धर्म-चर्चा से समय व्यतीत करते हुए कुमार ने संसार को सुखी करने वाली यौवनावस्था को प्राप्त किया। कुमार के मस्तक का मुकुट धर्मरूपी पर्वत को शिखर की भांति दीखने लगा था। इनके वादों और मस्तक की कारली ऐसी भी मालूम पड़ती थी मानो अष्टमी के चन्द्रमा को कान्ति हो। इस प्रभु के सुन्दर भौंहों के विभ्रम से शोभित कमल नेत्रों का वर्णन भला यह तुच्छ लेखनी क्या कर सकती है, जिसके खुलने मात्र से संसार के जीव तृप्त हो जाते हैं ।
प्रभु के काम के कुण्डल बड़े ही भव्य दीखते थे। वे ऐसे सोभायमान होते थे, मानो ज्योतिष चक्र से घिरे हुए हों। भला उन प्रभु के मुखचन्द्रमा का वर्णन क्या किया जा सकता है. जिसके द्वारा संसार का हित करने वाली ध्वनि निकलती है। उस प्रभु की नाक मोठ दांत और कंठ की स्वाभाविक सुन्दरता जैसी थी, उसे बताने के लिए किसी में शक्ति नहीं है। उनका विस्तृत वक्षस्थल रत्नों के हार से सुसज्जित होता था, मानों वह लक्ष्मी का मदन ही हो ।
अनेक प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित उनकी भुजायें ठोक कल्पवृक्ष के सदृश प्रतीत होती थीं। हाथों के देशों नख अपनी किरणों से ऐसे प्रतिभाषित हो रहे थे मानों वे धर्म के दक्ष अंग ही हो उनकी गहरी नाभि-सरस्वती घोर लक्ष्मी का क्रीडास्थल ( सरोवर) जैसी प्रतीत होती थी । प्रभु को वस्त्र पद की करधनों ऐसी ऐसी मालूम होती थी, जैसे वह कामदेव को बांधने के लिए नाग फांस हो ।
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सुविधिसाग
देवों के द्वारा भगवान को दीक्षा के लिये वे जाना ।
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देव भगवान को दीक्षा के लिये ले जाना भगवान महावीर स्वामी के द्वारा ररिग्रह को त्यागने का उपदेश ।
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श्री १०० भगवान महावीर ज्यामी कामीक्षा काणय।
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। ॥२२॥
उर लाय भविकाय महान
भव उपदेश करें बहु भेव पापी पाप बढ़ाव देव कामी काम सक्त अज्ञान, तिन्हें नो प्रभु ज्ञान कृपान ||२२|| कोई प्रभु तुम भक्ति बड़ाय, सेवं पादांबुज इन्द्रिय मोह व दुखदाय, ता व दुर्जय भारत रौद्र निदान और परीवह सुभट मोह महा अरि विजयीवान, घातिकर्म नाशन भगवान सुरनर आदि सबै जगजीव, होहि काल सन्मुख जु सदीव प्रनम सब सुखदायक स्वामि प्रतमो गुणवारिधि विनामि अनमी तुम निस्पृह जिनदेव अंग भोग सुख कीनी छेव
घोडशकारण भावन भाय, जिन्हें करल अपने सम राय ॥२३॥ तुम संवेग वचन निर्दोष, अमृत वत पो वित पोष ||२४|| क्षमाभाव की फौज बड़ाय, जोते सुभट महाभट राम ||२५|| कीर धीर प्रभु तुम अविकार भव्यजीव के तारणहार ॥ २६ ॥
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तप कर हनी ताहि जिनदेव, भव्य शिवालय करता एव ।।२७।। प्रथम मुक्ति कामिनी कंत, जनत प्रसिद्ध उदित रहंत ||२६|| अरु सस्पृह प्रनम कर सेव मुक्ति श्री साधक सुख एवं ||२४||
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प्रभुके दोनों जानु विस्तीर्ण और पुष्ट थे। सद्यपि वे कोमल थे, फिर भी व्युपसर्गादि तप करने में उनकी समानता नहीं की जा सकती सी । भला उस प्रभु के चरण कमलों की तुलना किसने की जा सकती है, जिनकी सेवा इन्द्र रणेन्द्र मावि सभी देव किया करते हैं । इस प्रकार प्रभु की अपूर्व शोभा चोटी से नखतक थी । उसका वर्णन करना असाध्य है। तीन जगत में रहने वाले दिव्य प्रकाशमान पवित्र और सुगन्धित परमाणुओं से ब्रह्मा व कर्म ने उस प्रभु का अद्वितीय शरीर बनाया है । उस शरीरका पहला वधनाराच सहनन था ।
प्रभु के शरीर में मद खेद, दोष रामादिक तथा वातादिक तीन दोषों से उत्पन्न किसी समय भी रोग नहीं होते थे । उनकी वाणी समस्त संसार को प्रिय थी। वह सबको सत्य और शुभ मार्ग दिखाने वाली धर्म माता के समान जो दूसरे खोटे मार्ग को व्यक्त करने वाली नहीं थी दिव्य शरीर को पाकर वे प्रभु ऐसे सुशोभित हुए जैसे धर्मात्माओं को पाकर धर्मादिगुण सुशोभित होते हैं-
श्रीवृक्ष, शंख पस्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चमर श्वेतछत्र ध्वजा सिंहासन दो मछलियां दो घड़े समुद्र, कथा, चक, तालाब, विमान, नागभवन, पुरुष स्त्री का जोड़ा, बड़ा भारी सिंह तोमर, गंगा, इन्द्र, सुमेरु गोपुर, पुर, चन्द्रमा सूर्य घोड़ा वीजना, मृदंग, सर्प, माला, वीणा बांसुरी, रेश्मीवस्त्र देदीप्यमान कुण्डल विचित्र आभूषण, फल सहित बगीचा, पके हुए अनाजबाला खेत हीरा रत्न, बड़ा दीपक, पृथ्वी, लक्ष्मी, सरस्वती, सुवर्ण, कल्प वेल, चूडारत्न, महानिधि, गाय, बैल, जामुन का वृक्ष, पक्षिराज, सिद्धार्थ वृक्ष, महल, नक्षत्र ग्रह प्रतिहार्य यादि दिव्य एक सौ साठ लक्षणों से तथा नौ सी सर्व श्रेष्ठ व्यंजनों से विचित्र आभूषणों से और माताओं से विभृका स्वभाव सुन्दर दिव्य प्रौदारिक शरीर अत्यन्त सुशोभित हुआ।
विशेष वर्णन ही क्या किया जाय, संसार में जितनी भी शुभ लक्षण रूप सम्पदा और प्रिय वचन विवेकादि गुण हैं, सब पुण्य कर्मों के उदय से तीर्थंकर भगवान में स्वतः अधिष्ठित स्वामी उनको सेवा में सदा रत रहते थे। वे महावीर कुमार सिद्धि के लिये मन वचन कायकी शुद्धि से प्रतिचार सहित भक्ति पूर्वक गृहस्थों के बारह व्रतों का नित्य पालन करते थे। वे सर्वदा शुभ ध्यान की मोर विचार किया करते थे । पुण्य के शुभोदय से प्राप्त हुए सुखों का उपभोग करते हुए कुमार आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे ।
पति मन्दरागी महाप्रभुने तीस वर्षका समय क्षणकाल के समान व्यतीत किया। एक बार ऐसा हुआ कि अच्छे होनहार के कारण चारित्र मोह कर्म के क्षयोपशम से उन्हें स्वतः अपने पूर्व के करोड़ों जन्मों का संसार भ्रमण ज्ञात हो गया। वे इस प्रकार की पूर्व घटित घटनाओं पर विचार कर बड़े ही क्षुब्ध हुए । उन्हें तत्काल हो वैराग्य उत्पन्न हो माया ।
विचार करने लगे कि, मोहरूपी महान शत्रु का सर्वनाश करने के लिये रस्नश्य रूप तप का पालन श्रेयस्कर है। उन्होंने सोवा-चारित्र के प्रभाव में मेरा इतने दिन का समय व्यर्थ ही व्यतीत हो गया जो अब प्राप्त नहीं हो सकता । पूर्वकाल में ऋषभादि जितने भी तीर्थकर हो गये हैं, उनकी भायु बहुत अधिक थी, इसलिए वे सब कुछ सकने में समर्थ हुए थे। पर हम सरी थोड़ी सी प्रायु वाले सांसारिक कार्य कुछ भी नहीं कर सकते। वे नेमिनाथादि तीर्थकर पन्य हैं, जिन्होंने अपने जीवन की अवधि थोड़ी सी समझ कर अल्पायु में ही मोक्ष के उद्देश्य से तपोवन की ओर प्रस्थान किया था। अतः संसार हित चाहनेवाले थोड़ी आयु वाले व्यक्तियों को संगमके बिना एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए।
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प्रनमौ अद्भुत वीरज धार, ब्रह्मचारि तुम बालकुमार । प्रनमौं विरकत राजभंडार, सदा शाश्वती पद विस्तार ।।३।। कृपासिन्ध तुम वीर जिनेश, जूग कर जोर नमी जोगेशप्रतमी तीन लोक के मित्त, वधिसागर बन्दौं धर चित्त ॥३१॥ बहु प्रकार अस्तवन जिनेश, जन्म जन्म मुहि मिल्यौ महेश । तुम दातनि में दाता एव, तप चारित्र सिद्ध कर देव ।।३२।। इत्यादिक प्रभु शक्ति अपार, को बुध भक्ति कर लहि पार । बालकुमार धर बैराग आति मोह मद हनि बड़भाग ।।३३।।
दोहा यह विधि बहु प्रस्तुति करी, लौकान्तिक वरदेव । विविध प्रार्थना प्रकट कर, निज नियोग स्वयमेव ।।३४।। परम पुण्यको उदित करि, थुति जुन पूजा कोन । चरण कमल जुग प्रणमिकर, गये स्वर्ग परवीन ॥३५।।
वस्तुत:-- बड़े ही मूर्ख हैं जो थोड़ी प्रायु पाकर तपस्या के बिना अपने अमुल्य समय को नष्ट कर देते हैं। वे यहां भी दुःख भोगते हैं और नरकादि की यातनायें भी। मैं ज्ञानी होते हए समय के अभाव में एक अज्ञानीको भांति भटक रहा है। अब गृहस्थाश्रम में रहकर समय व्यतीत करना उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। वे तीनों ज्ञान ही किस कामके, जिनके द्वारा आत्माको और कर्मों को अलग-अलग न किया जाय तथा मोक्षरूपी लक्ष्मी की उपासना न की जाय । ज्ञान प्राप्त करने का उत्तम फल उन्हीं महापुरुषों को प्राप्त है, जो निष्पाप तपका. पाचरण करते हैं। दूसरों का ज्ञानाभ्यासरूप क्लेश करना नितान्तनिष्फल है।
उस व्यक्ति के नेत्र निष्फल हैं जो नेत्र हीते हए भी अन्धकप में गिरता है, वही दशा ज्ञानी पुरूपों की है जो ज्ञान होते हए भी मोहरूपी कूप में बंधे रहते हैं । वस्तुत: प्रज्ञान (अनजान) में किये गये पाप से तो ज्ञान प्राप्त होने पर छुटवारा भी मिल जाता है। पर ज्ञानी (जानकर) का पाप से मुक्त होना बड़ा ही दृष्कर होता है। अतएव ज्ञानी पुरुषों को मोहादिक निन्दनीय कों के द्वारा किसी प्रकार का पाप नहीं करना चाहिये । इसका कारण यह है कि मोह से राग द्वेष उत्पन्न होता है। उस पाप के फलस्वरूप जीव को बहत दिनों तक दुर्गतियों में भटकना पड़ता है। वह भटकना भी साधारण नहीं अनन्त काल तकका, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
ऐसा समझ कर ज्ञानियों को चाहिये कि वे मोह रूपी शवों को वैराग रूपी तलवार से मार दें। कारण यह मोह ही सारे अनर्थोकी जड़ है। पर यह स्मरण रहे कि यह मोह गृहस्थी द्वारा नहीं मारा जा सकता। इसलिये पापका बन्धन गृह तो त्यागना पड़ेगा। गृह-बन्धन बाल्यावस्था में तथा यौवनावस्था में सारे अनर्थ उत्पन्न करता रहता है। अतः धीर बीर पुरुष मोक्षको प्राप्ति के उद्देश्य से गह-बन्धन का सर्वथा परित्याग कर देते हैं। वे संसार में पूज्य और महापुरुष हैं जो योवनावस्था में दुर्जेय कामदेवको भी परास्त करने में समर्थ होते हैं।
यौवनावस्था रूप राजाने कामदेव और पंचेन्द्रिय आदि चारों जीवनको विकृत करने के लिये भेजा है। पर जब यौवन की अवस्था मन्द हो जाती है, तब उसके साथ, साथ बढ़ापे रूप फांसीसे बंधे हए वे कामदेवादि भी ढीले पड़ जाते हैं । अतएव यह उचित होगा कि मैं यौवनावस्था में ही उग्रतप आरम्भ कर दं, जिससे कामदेव और पंचेन्द्रिय विषय रूपी शत्रुओं का सर्वनाश हो। इस प्रकारकी चिन्ता कर ये महा वद्धिमान महावीर स्वामी अपने चित्त को निर्मल कर राज्य भोगादिकों से विरक्त हुए और मोक्ष-साधनमें संलग्न हो गये।
महावीर प्रभु के चित्त में ऐसी भावना उत्पन्न हो गयी कि उन्होंने घर को बन्दीगह समझ कर राज्य लक्ष्मी के साथ उसका परित्याग कर दिया। वे तपोबन में जाने के लिये, उद्यत हए । समय पाकर उन्होंने सूखका तिलाजाल द सुखका भण्डार वैराग्य प्राप्त कर लिया । ऐसे बाल ब्रह्मचारी महावीर प्रभु मुझे गुण-सम्पदा प्रदान वर ।
हन्ता शत्रु स्वकर्म के, वीर प्रात्मरस लीन । जगद्वंद्य पद्य-कंज में नमें भवितवश दीन । जिन्होंने कर्मरूपी शत्रुषों का हनन किया, जो सदा पात्मानुभव करते हैं और जगद्वंद्य है, उन वीर भगवान की यह दीन भक्तिवश वन्दना करता है।
पिछले अध्यायमें यह बताया जा चुका है कि, महावीर प्रभ को एकाएक वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्हें सांसारिक भोगों से एकदम विरक्ति हो गयी। वे अपने वैराग्य में वज्ञि होनेके उद्देश्यसे बारह भावनाओं का चिन्तन करने लगे।
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चौपाई तब सब चनरनिकायी देव, घंटा आदि भयो रव भेव । जान्यौ संजम उत्सव सबै, निज निज वाहन साजे तबै ॥३६]] सजक सकल विभति निदान, पाये कूडलपुर जिन थान । भक्त हिये उत्साह अनेक, रुंध्यौ पुर वन मारग सेक ।।३७॥ छाय रह्यौ नभ सकल विमान, देखे जिन गुण परम निधान । प्रभु को सिंहासन बैठार, सब सुरपति हिय हर्ष विचार ॥३८॥ हेम कुम्भ उन्नत गंभीर, भर ल्याए क्षीरोदधि नीर । प्रभुको तहं अभिषेक करायी, अरु पूजा कीनी समुदाय ।।३।। गीत नृत्य बादित्र बजाय, जय जय शब्द कर्यो अधिकाय । तीन लोक भूषण जिनराय, कंठमाल सुरपति पहिराय ॥४०॥ मात पिता बांधव परिवार, जान्यौ जिम वैराग्य विचार । महामोह उर कीनों धनौ, मानों वज्रपात तन हनौं ॥४१॥ कहिक मधर वचन जिनदेव, संबोध सब परिजन एवं ! जो वैराग्यजनित है धर्म, सो विधि भेद बताया पर्म ॥४२॥ तजि बांधव परिजन समुदाय, गृह लक्षमी नहि राज्य सुहाय । उरमें प्रति संवेग बढ़ाय, दीक्षा लौ लागी जिनराम' ||४३।।
अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, भारब, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ, और धर्मानुप्रेक्षा इस प्रकार की बारह भावनायें हैं, जो वैराग्यको पूष्ट करती है।
अनित्य भावना–तीनों लोकोंमें आयु यमराज से घिरी हुई है। यौवन बृद्धावस्था के मुंह में है । यह शरीर रोगरूपी
१. इस प्रकार बारह भावना भाने से श्री वरमान महावीर को संसारी पदार्थों से रही-सही मोह-ममता नष्ट हो गई। संसार उन्हें महादुःखों की खान और धोख को टट्टी दिखाई देन नगः । उन्होंने अपने माता-पिता से प्रार्थना की कि जब तक कर्मरुपी ईधन तप रूपी अनि में भम्म नहीं होगा, आत्मिक शान्ति स्पो रसायन की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिये तप करने के लिये जिन दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा ६.जि.यं । पिताजी ने कहा-भत्री धर्मः परमोधर्मः" राज्य करना ही क्षत्रियो का धर्म है । वीर स्वामी ने उत्तर में कहा-"छ: स्वप्ट का राज्य करने वाले भरत सम्राट आज कहाँ है ?" और भरत सम्राट पर विजय प्राप्त करने वाले श्री बाहुबलि योद्धा आज कहाँ ? इन्द्र को जीतने वाला, कैलाश पर्वत को हिला देने वाला म्लेच्छों और राक्षसों के अधिपति रावण आज कहाँ ? और ऐसे महायोसा रावण को भी जीतने वाले श्री रामचन्द्र जी बाज कहाँ । मै संसारी उत्तमोत्तम वस्तुओं का घारी नारायण हुआ। छ:खण्डों का स्वामी चक्रवर्ती हुआ। परतु आवागमन से मुक्त न हो सका। राभ्य सुख तो क्षण भर का है । पृथ्वी पर हरी घास पर ओस के समान हसिक है।" पिता जी ने कहा माता को तुम्हारा चित्तमा मोह है ? वीर स्वामी ने उत्तर दिया--"मैंने अनादि काल से अनन्तानन्त जन्म धारे, अनेक जन्म के मेरे अनेक माता-पिता थे, वे आज कहाँ ? संसार में कोई ऐसा जीव नहीं है, कि जिस किसी से किसी जन्म में कुछ न कुछ सम्बन्ध न रहा हो।” माता त्रिशला देवी ने कहा कि वन में रीछ, भगेरे, साप, दोर आदि अनेक भयानक पशु निवास करते है । कोमल शरीर होने के कारण भूख, प्यास, सर्दी, गी प्रादि परिषहों का सहन करना भी बड़ा खुर्लभ है। बोर स्वामी ने बड़े विनयपूर्वक माता जी से निवेदन किया-"भाप तो मुरगों की खान हो, भली भांति जानती हो कि आत्मा मेरी है, शरीर मेग नहीं आत्मा के निकल जाने पर यह यहीं पड़ा रह जाता है, तो इसका क्या मोह ? जिस प्रकार नदियों से सागर और ईन्धन से अग्नि कभी तप्त नहीं होती, उसी प्रकार संसारी सुखों से लालची जीव का हृदय कभी तृप्त नहीं होता? सम्वा सुख तो मोक्ष में है। मोक्ष की प्राप्ति मुनि-धर्म के बिना नहीं। स्वर्य के देव भी मुगि धर्म पालन करने के लिये मनुष्य जन्म की अभिलाषा करते हैं । मेरे याद है, जब मैं स्वर्ग में था, तो दूसरे सम्यकदष्टि देवों के समान मैंने भी प्रतिज्ञा की थी कि यदि मनुष्य जन्म मिला तो अवदय मुनि-धर्म ग्रहण करूंगा । कृपा करके मुझे अपने वचन पूरे करने का अबसर दीजिये।"
अपने अवधिधाम से श्री वर्द्धमान महावीर का वैराय जान, ब्रहलोक के बाल ब्रह्मचारी और महान धमरिमा लोकातिदेव भगवान महावीर के वैराग्य की प्रदासा करने के लिए स्वर्ग लोक से कुडग्राम आये और बीर रवामी को भनितपूर्वक नमस्कार कर, उनकी इस प्रकार स्तुति की :
"तप से महा गन्दा शरीर परम पवित्र हो जाता है, तप मनुष्य जन्म का तस्व है, घन्य है आपने संसार को असार जाना। वह कौन सा शुभ दिन होगा कि हम स्वर्ग के देव मनुष्य जन्म धार कर आपके समान संसार को त्याग कर तप करेंगे।"
कीर स्वामी के माता-पिता को भी स्तुति करके लोकांतिदेवों ने उनसे कहा कि आपका बुद्धिमान पुत्र तारनतरण जहाज है, जो स्वयं इस दुःख भरे भयसागर से पार होगा और दूसरों को धर्म का सच्चा मार्ग दिखाकर पार उतारेगा । मापके लिए आजसे बढ़कर और कौनसा शभ दिन होगा? धन्य है ऐसे भाग्यशाली माता-पिता को जिनके सुपुत्र ने पापरूपी अन्धकार के नाश करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है। देवों के इस प्रकार समझाने से उनका मोहान्धकार नष्ट हो गया और उन्होंने बड़े हर्ष के साथ वीर स्वामी को जिन-दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी।
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तब सुरेश एक शिविका रची, हेममयो रतनिन कर खचो। सूर्य चन्द्र छबि देख छिपाय, तप लक्ष्मी को व्याहन जाय ।।४४|| प्रथम लही शिविका भुवि राय, सात पेंड़ अति हर्ष बढ़ाय। पुन खगपति-लिय साता पंड़, नभ गतिधर पुनि निज मैंड ।।४५।। अपने अपने कंधाधार, लीनी सुरपति हर्ष विचार । धर्म राग रस सबनि बढ़ाय, जय जयकार करै अधिकाय ।।४६।। पासन जुम्मक वाही जान, भवनपती दश भेद बखान । दशहू दिशते हरष बढ़ाय, करें पहुप वरषा समुदाय ।।४।। मन्द पवन सुरगंध समेत, वातकुमार कर निज हेत । शक सब आनन्द बढ़ाय, बहु देवो सुरगण समुदाय ॥४८॥ कोलाहल उत्सव अति करै, भक्ति भाव हिरदै अादरै । पुरते नभ वारिधि लौं सोय, रूथ्यो नभ मारग घन होय ।।४।। दुन्दुभि नगर बजे अधिकार, सब विधि बर्तन लहै न पार । सुर नर्तक नाटकगति करें, अति विचित्र उपमा मन हरे ॥५०॥
सर्पका बिल है-और इन्द्रिय सुख क्षणभंगुर हैं । अर्थात् जो कुछ भी सुन्दर से सुन्दर वस्तुए दृष्टिगोचर हो रही हैं, ये सभी कमों से उत्पन्न हुई हैं और समय पाने पर स्वतः नष्ट हो जायेगी । जो करोड़ों जन्मों से भी दुर्लभ मनुष्यायु मृत्युसे क्षण भरमें ही नष्ट हो जाती हैं तो अन्य वस्तुओं के स्थिर रहने की कल्पना हो कैसे की जा सकती है, सबका सर्वनाश करने वाला यमराज जन्मसे लेकर समयादि के हिसाब से जोव को अपने पास घसोट ले जाता है। योवन धर्म सुखादि होने से सज्जनों का माननीय है, भी व्याधि रोग मौत से घिर कर क्षण भर में बादलों के समान नष्ट हो जाता है। कारण काई जवान पुरुष रोगरूपो अग्नि से जलते हैं और कोई बंदीखाने में रखे गये अनेक प्रकार के दुःख भोगते हैं।
नरकादि का कारण निन्दनीय कार्य भी चंचल और सारहीन है । चक्रवर्तीको राज्य लक्ष्मी आदि भी बादल को छाया के समान विनाशदान और चंचल हैं, तब दूसरोकी स्थिरिता हो क्या हो सकती है ? इस प्रकार संसारको सारी वस्तुएं क्षणभंगुर हैं । प्रतः बुद्धिमानोंको उचित है कि वे सर्वदा मोक्षका साधन किया करें ।
अशरण भावना-जिस प्रकार निर्जन वनमें सिंहके पंजे में आये हुए बालक को कोई शरण नहीं होती, उसी प्रकार संसार के प्राणी को रोग और मृत्यु से रक्षा करने वाला कोई नहीं। जिस प्राणी को यमराज ले जाने के लिये प्रस्तुत होता है, उसे इन्द्र, चक्रवती, देव और विद्याधर तक भी क्षण भरके लिये नहीं बना सकते। वस्तुतः जब काल समक्ष प्रा जाता है, तब मंत्रादिक और सारी औषधियां व्यर्थ हो जाती है। केवल जगत में भव्योंकी रक्षा करने वाले जिन भगवान, साधु और कवली द्वारा उपदेश किया हुया धर्म है । इसके अतिरिक्त तप, दान, जिन-पूजा जप रत्नत्रय आदि भी अनिष्ट और पापांके विध्वंसक हैं। जो बुद्धिमान संसार से भयभीत होकर प्रहंत आदिकी शरण में जाते हैं, वे शीघ्र ही उनके गुणोंकी प्राप्तिकर उनके सदृश परमात्मा हो जाते हैं।
किन्तु जो मूर्ख चण्डी क्षेत्रपाल प्रादि मिथ्यात्वी देवोंकी शरण ग्रहण करते हैं, वे नरक रूपी समुद्र में पतित होते हैं। ऐसा विचार कर बुद्धिमानों को पंच परमेष्ठी की तथा तप धर्मादिको शरण ग्रहण करनी चाहिये: जो सर्वथा दुःखों को विनष्ट करने वाली है। दूसरी शरण रत्नत्रयादि के द्वारा मोक्ष को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि बद्द अनंत गुणों से युक्त है और अनन्त सुख का समुद्र है।
संसारानप्रक्षा-यह संसार अनादि और अनन्त है। इसमें अभव्यों को जो सुख हो सुख दृष्टिगोचर होते हैं, किन्तु ज्ञानो जीव सदा इसे दुःख रूप समझते हैं। कारण अज्ञानो जन विषय को हो सुख मानते हैं, पर ज्ञानो उसे नरकादि का कारण समझ अधिक दुःख रूप मानते हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव से घिरे हुए प्राणी रत्नत्रय रूपी बाण के बिना अधिक काल तक भटकते रहते हैं और भविष्य में भी भटकते रहेंगे। संसार में ऐसे कर्म और ऐसी गतियां न होंगी, जिनमें इस जीवको भटकना न पड़ा होयह द्रव्य संसार (भ्रमण) है । लोकाकाश का ऐसा कोई प्रदेश नहीं बना है, जिसमें इस जोव ने जन्म न ग्रहण किया हो, और मत्य प्राप्त न किया हो । यह काल संसार है। नरकादि चार गतियों में ऐसी योनि नहीं बची, जिसे इस जीव ने नहीं ग्रहण किया हो पौर न छोडा हो--ये संसारी जीव मिथ्यात्वादि सत्तावन दुष्ट कारणों से भ्रमण करते हुए पाप कर्मों को सदा उपार्जन करते हैं-वह भाव संसार है।
धर्मके अभाव में ही संसार के प्राणियों को भव, भव में भटकना पड़ता है। अतएब भव्यों को बड़े यत्न पूर्वक धर्म का पालन करना चाहिये । इसी धर्म के पालनसे अनन्त सुख रूप मोक्ष को प्राप्ति होता है।
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मोह महा परि विजय बखान, जसगुन गीत कला विज्ञान गायें ज्योतिष किन्नर देव, परम हुलास करें जिनसे ॥५१॥ ध्वजा छत्र छायो नभ मान बढ्यो प्रमोद गंगा उन्मान पट देवी श्री प्रादिक जहां दिनक्रमारिका माई वहीं ॥५२॥ उत्पादिक माहात्म्य कराय, वीजमान प्राकीर्णक शाम सितछत्र शिर शोभं जोय, दिपहि अंगभूषण जुत सोय ||२३|| किसुर असुरेश, सब विभुति वरनं नहि शेष पूरब दिश नंदन वन जान ले प्राये प्रभुको तिहि थान ।। ५४ ।। प्रभु उर परम विराग सुहाय, यारत रौद्र हनन जगराय शिव मारग साधन अनुराग, सुख कल्याण देन वड़ भाग || ५५ || देख सबै उत्साह अनेक भविजन मन कछु करें विवेक हैं अंभुज संपति सुख गेह, करौ असल वैराग सनेह || ५६ ॥ देख्यौ राज्यभार प्रभु छोड़ि देव जनित सुख त्यागे कोहि बालापने काम रिपु हन्यो, उर संवेग चढ़ायो धनी ||७|| यह विचार मन हर्ष बढ़ाय मन वैराग घर अधिकाय । मोह मदन आरक्षिको हने, हिरदे पंच परम गुरु भने । ५८|| कोई सूक्षम बुद्धी जीव भव सागर में स्त्यी सदीव | देख स्वर्ग सर्पाति सुख गेह, मन में सो चितवि शठ येह || ५६ मोह काम ये किहि विधि गर्म, तपसा दुख में कैसे रमं । सौ दारिद्री कुष्टी होय,
पार न पावं भवदधि सोय ॥ ६० ॥
एकत्व भावना – इस प्राणीको संसार रूपी वन में प्रवेला ही जन्म धारण करना पड़ता है। यह अकेले ही भटकता है और धकेले ही महान सुसका उपभोगी होता है। वेदना आदि दुःख भी इसे वे ही सहन करने पड़ते हैं, उस दुःख के भाग को कुटुम्बी जन नहीं बांट सकते । यमराजको मारसे यह अकेला ही रोता और चिल्लाता है, क्षण भरके लिये हिसादिक पाप TTE करता है । उसके फल स्वरूप नरकादि खोटी गतियां प्राप्त कर अत्यन्त दुःख भोगता है उसके साथ कुटुम्बी नहीं भोगते । इसे अकेले ही सभ्यत्वादि शुभ कर्मोका वंध होने से स्वर्गाद महान विभूतियां प्राप्त होती हैं। रत्नश्यादि के कारण इसे अकेले ही मोक्ष प्राप्त होता है। इस प्रकार सभी स्थलों गर एकत्व की भावना कर शान की प्राप्ति के लिये बात्मा का ध्यान करना चाहिये।
श्रन्यत्व भावना प्राणी तू अपने को सब जीवों से सर्वथा अलग समझ । जन्म मृत्यु कर्म सुखादि भी अलग मान ले। माता-पिता पुत्र, कुटुम्बी जन सभी अपने नहीं हैं। जब धन्तरंग यह शरीर भी मृत्युके बाद साथ छोड़ देता है, तब बहिरंग घर रवी आदि अपने कैसे हो सकते हैं ? निश्वय से पुद्गल कर्म कर उत्पन्न हुआ द्रव्यमन तथा अनेक संकल्प विकल्पों से भरा हुआ भाव मन दोनों प्रकार के बचन ये सभी आत्मा से पृथक हैं । कर्म और कर्मो के कार्य अनेक प्रकार के सुख दु:ख इस जीव के दूसरे स्वरूप हैं ।
इन्द्रियाँ भी ज्ञान स्वरूप श्रात्मा से पृथक हैं और ये जड़ पुद्गल से उत्पन्न हुई हैं, जोकि राग-द्वेषादि परिणाम जीवमयी मालूम होते हैं । ये भी कर्मों द्वारा किये गये कर्मों से उत्पन्न हैं- जीवमयी नहीं है, अन्य भी कर्म से उत्पन्न हुई वस्तुए सर्वथा आत्मासे भिन्न हैं । इस सम्बन्ध में अधिक कहने की आवश्यकता ही क्या सम्यग्दर्शनादि श्रात्म गुणों के अतिरिक्त अपना कोई नहीं है। मतएव हे योगीश्वरो ! तुम अपने ज्ञान स्वरूप आत्मा को पारीरादि से पृथक समझकर शरीर नाशके लिए मात्मा का ही ध्यान करो।
अशुचि भावना - यह शरीर धिर वीर्यसे उत्पन्न हुआ है। सप्त धातुओं और मलमुत्रादि से भरा हुआ है, भला ऐसे शरीर पर कौन बुद्धिमान आस्था रखेगा ? जिस स्थल पर भूख-प्यास बुढ़ापा रोगरूपी अग्नियां जला करती हैं, उस काय रूपी झोंपड़े में क्या सत्पुरुष रह सकते हैं। जिस शरीरमें राग-द्वेप कषाय कामदेवरूपी सर्प हमेशा निवास करते हैं ऐसे शरीर रूपी बिमें कौन अष्ठ ज्ञानी निवास करना पसन्द करेगा ? यह पानी शरीर तो अशुद्ध है ही, साथ ही अपने आश्रित सुगन्धित ब मादिको भी विकृत कर डालता है। जिस प्रकार से भंगीका टोकरा कही से भी अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार चर्मही श्रादि से निर्मित शरीर भी सुन्दर नहीं दिखाई देता ।
इस शरीरको पुष्ट करो ने दो में इसे भस्म होना ही है। अतः इसे तपस्या के द्वारोपण करना ही अत्युत्तम है । कारण अन्न आदि से पुष्ट किया गया शरीर रोग श्रादि दुखों को उत्पन्न करता है । पर यदि इसका शोषण किया जायगा तो इसे परलोकमें स्वर्ग मोक्षादि प्राप्त होंगे। यदि इस शरीर में केवलज्ञान यादि पवित्र गुण सिद्ध हो सकते हैं, तो इस सम्बन्ध में अधिक विचार करनेकी क्या बात है । ऐसा समझकर ज्ञानियोंको शरीर सुखकी कामना त्यागकर अविनाशी मोक्षकी
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कोई प्रभु वैराग्य विचार, अपने जिय हित धरै समार । दिन संवेग सफल नहीं काय, जीवी सकल अकारथ जाय ॥६॥ कोई श्रावक नत दृढ़ कर, ग्यारा प्रतिमा अन्तर घरं । पंच करम मुरु हिरदै जाप, दूर होहि भव भव के पाप ||६२।। इहि विधि सब नर करें प्रमान, सुर पर असुर भक्ति उन्मान । तिहि अवसर पुरजन सो आय, मात पिता परिजन समुदाय ।।६३।। पुत्र विछोह ताप अधिकाय, तन मन वेलि गई मुरझाय । रुदण कर वहु व्याकुल होय, दुख विलाप जुत विह्वल सोय ॥६४।। पुत्र पुत्र कर रटै अपार, हाहाकार करें मन हार । कब देस्यों इन नैननि तोहि, कब तनको दुख नास मोहि ॥६५।। तुम बिन को यह बाजो चई, तुम बिन माय माय को रई । तुम बिन नरपति मुरपति पाय, काकी नवे शोस भुविलाय ॥६६॥ तुम प्रति कामल बालकुमार, तप जैसे खाडेको धार । धार परियह है बाईस सो उपसर्ग अनेक सरीस ॥६७।। पंचेन्द्रिय दुर्धर मातंग, तीन लोक बिजयो सरकंग । अरु कषाय है अति बड़वीर, किहि विधि जीत सको सुत धीर ॥६|| कसे एकाकी वन माह, गिरि कंदर निबसौ सुत काहि । यह प्रकार बहु कराह बिलाप, तब बाल सुरपात निज श्राप ।।६६॥ भो देवी उर घोरज प्रान, मेरे वचर सुनो निज कान । तुम सुत तीन जगत भरतार, अद्भुत विक्रम को नहि पार ॥७०।। भवसार दुख पूरब सहै, ताके भेद वरण सब कहे । यह विचार इन बाल कुबार, दीक्षा उर धारी अविकार ॥७॥ पाप तरै अरु तार ओर, तीन लोक पति हैं शिरमोर । निर्भय यथा सिंह बन रहै, पुरजन जाको सीमन गई । देवी तम सूत जग गुरु सार, मोहादिक बंधन निरवार । भव दधि तारन तरन महेश, किम गह रमै मुख्य तहलेश ।।७३।।
सिद्धि करनी चाहिये । बुद्धिमानों को चाहिए कि, वे दर्शन, ज्ञान तपरूपा जल से अपवित्र दह के कर्ममल को धोकर अपनी प्रात्मा को पवित्र करलें।
आस्रव भावना-जिस रागी प्रात्मामें रागादि भावों से पुद्गलों का समूह कर्म रूप होकर यावे, वह कमों का पानाही यासव है। वह अनन्त दु:खों का प्रदाता है । जिस प्रकार छिद्र युक्त जहाज में जल आने से वह समुद्र में डूब जाता है, ठीक उसी प्रकार यह जीव भी कर्मों के आने से संसार-सागर में डूबता उतराता रहता है। उस पास्रव के निम्न कारण हैं--खोटंमतों से उत्पन्न पाँच प्रकार के मिथ्यात्व, बारह प्रकारको अविरति, पन्द्रह प्रमाद पापको खानि पच्चीस कषायें और पन्द्रह योग। ये टाल कारण बड़ी कठिनाई से दूर होते हैं । अतएव मोक्ष की आकांक्षा रखनेवाले जीवों को चाहिए कि वे सम्यक चारित्र और तपाही खडग से कर्मास्रव के कारण रूपी शत्रुओं को नष्ट कर दें। जो प्राणी कर्मों के पानेवाले दरवाजे को ज्ञानादि से नहीं रोक सकते उन्हें कठिन तप करने पर भी मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती।
किन्त जिन्होंने ध्यान शास्त्राध्ययन और संयमादि से कर्मों का पाना बिल्कुल रोक दिया है, उनका मना-वाछित मोक्षसपी कार्य सिद्ध हो चका । जब तक योगों से चंचल आत्मा के कमां का आगमन है, तब तक मोक्ष प्राप्त होना दुष्कर है। इस सम्बन्धसे तो संसारको परिपाटी बढ़ती जातो है। ऐसा जानकर अशुभ प्रासवों को रोक रत्नत्रयादि के गम ध्यान से अपने प्रात्मा के स्वरूप को प्राप्ति कर निर्विकल्प मुद्ध ध्यान से कासव का एकदम रोक देना चाहिये।
संबर भावना-जहां मनीश्वर योग, प्रतःगुप्ति प्रादि से कर्मास्रव के द्वारों को रोकते हैं-वही रोकना मोक्ष प्रदान करने बालासंबर है। कर्मास्त्रव रोकनेके इतने कारणों को मुनीश्वर प्रयत्न पूर्वक सेवन करें। वे ये हैं-तेरह प्रकारका चरित्र, दश प्रकार का धर्म, बारह भावना, बाइस परिषहोंका जीतना, निर्मल सामायिक, पांच तरह का चरित्र, धर्म का शुल्क रूप शुभध्यान और उत्तम ज्ञानाभ्यास । ये कर्मासबोंके लिये उत्तम कारण हैं। जिन मूनीश्वर के प्रतिदिन कर्मोका संवर और निर्जरा होती है, उनके उत्तम गण स्वत: प्रकट हो जाते हैं । वे देह का कष्ट सहन करते हुए भी पाप कर्मों का संबर करते रहते हैं, पून्य कर्मोका नहीं। इस प्रकार संबर के गणों को जानकर मोक्षाभिलाषी जोवों को सदा सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र और श्रेष्ठ योगों के द्वारा सब प्रकार का संवर करते रहना चाहिये ।
निर्जरानप्रेक्षा-पूर्व कर्मको तपस्या के द्वारा क्षय करना ऐसो मविपाक निर्जरा योगियों को ही हुआ करती है | जो जीवों के स्वभाव से ही कर्म उदय होने पर निर्जरा होतो है, वह सविपाक निर्जरा है। उसे त्याग देना चाहिये । कारण इससे नवीन कर्म उदय होते हैं।
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तीन ज्ञान हैं नैन विशाल, जाने सकल चराचर जाल । मोह कप जे पर अजान, तिनको कालनहार निदान ।।७४।। तुम अपने उर देखो टोय, शोक महा अघकारी होय । करो धर्म अपने गृह जाय, प्रभु के चरण कमल चित लाय ॥७५।। मुरख शौक बढ़ाये कोय, सो पुन इष्ट विराधी होय । जो उर धर्म धरै अधिकार, सो अनिष्ट घातक गुणधार ॥७६॥
बोहा
यहि प्रकार बच सुन सकल, देवी समझ विवेक । शोक सबै उरतें गयो, ज्यों दीपक तम टेक ||७७॥ घरी धर्म निज हृदय दृढ़, उर संवेगय नाम । बांधव सुजन कुटुम्ब जुत, गई मात जिन धाम ॥७॥
चौपाई
उत्तम वन अति सश्न विचार, फल अरु फूल तहां अधिकार । चन्दन तरु तामै रमणीक, मंडप सम शाखा कर ठीक ।।६।। तिहितर शिला महा छबि धार, चन्द्र कान्ति मन की उनहार । सुरपति पहिल रची मन रंग, शीतल छाह देख सरवंग ।।८।।
तप और योगोंके द्वारा जैसे जैसे निर्जरा की जाती है वैसे वैसे मोक्षलक्ष्मी मुनीश्वरों के समीप पाती जाती है। और जब कर्मों की निर्जरा पूरी हो जाती है तो, योगियों को मोक्ष-लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है।
यह निर्जरा सब प्रकार सुख प्रदान करने वाली है। अनन्त गणोंसे युक्त है। सभी तीर्थकर और गणधर इसकी सेवा करते है। यह सब दुःखोंसे अलग है और सबका समान रूपसे हित करने वाली है। इससे संसार नष्ट होता है। इस भांति निर्जरा के गुणों को जानकर संसार से भयभीत भव्यों को तपस्या और कठिन परिषहों को सहन कर बड़े यत्न से मोक्ष प्राप्ति के लिये निर्जरा करना चाहिये।
लोक भावना-जहां पर छह द्रव्य दिखलाई दें, वह लोक है । वह लोक प्रधो मध्य उर्ध्व भागोंसे तीन भेद रूप अकृत्रिम है पीर अविनाशी है । इस लोक के निम्न भाग में सात राजू प्रमाण नरक की सात भूमियां हैं । वे सब अशुभ और दुःख देनेवाली हैं। उनमें ४६ पटल' (खन) हैं और चौरासी लाख रहनेकी बिले हैं।
उनमें पूर्व कृत पापोंके फल स्वरूप मिथ्यात्वी जीव नरक प्राप्त कर जन्म ग्रहण करते हैं। वहां पर उन्हें बड़ा कष्ट होता है। वे तरह तरह से पीटे सताये और सूली पर चढ़ाये जाते हैं। यह अधोलोक का कथन है।
मध्यलोक में जम्बूद्वीप आदि को लेकर द्वीप और लवण समुद्र असंख्यात हैं। पांच सुमेरु हैं, तीस कुल पर्वत हैं। बीस गजदन्त हैं एकसौ अस्सी वक्षार पर्वत हैं, चार इष्वाकार पर्वत हैं, दश कुरुवृक्ष मानुषोत्तर पर्वतके समान ऊचे हैं, ये ढ़ाई द्वीपमें हैं और जन मन्दिरोंसे सुशोभित हैं । एकसौ सत्तर वड़े बड़े देश और नगर है। मोक्ष देनेवाली पंद्रह कर्म-भूमियां हैं । महा नदियां तलाब कुण्ड आदिकी संख्या अन्य शास्त्रोंसे जानी जा सकती हैं। श्री आदि छह देवियां छह हुदों पर रहती हैं। पाठवें नन्दीश्वर द्वीपोंमें अंजनगिरिके ऊपर बावन जैन मन्दिर हैं। उन्हें मैं सर्वदा नमस्कार करता हूं।
__ चन्द्र सूर्य ग्रह तारे नक्षत्र ये असंख्यात ज्योतिषी देव मध्य लोकमें है, इनके सब विमानों के मध्य सुवर्ण रत्नमयी प्रकृत्रिम जिन मंदिर हैं, जिन्हें मैं नमस्कार करता है। इस मध्यलोक के ऊपर सातराज प्रमाण उध्वं लोक में सोधम आदि सोलह कल्प स्वर्ग हैं। उनके ऊपर नैवेयक नव अनुदिश पांच अनुत्तर में कल्पातीत स्वर्ग हैं। इनके बिमानों के अंसठ पटल (खन) हैं। इनके विमानों की संख्या चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेरह हैं। ये स्वर्ग विमान सब इन्द्रिय सुखों को देनेवाले हैं। जो जीव पूर्वजन्म में विद्वान तप रत्नत्रय से विभूषित धार्मिक महत और निग्रंथ गुरू के भक्त, जितेन्द्री धेष्ठ प्राचरण वाले हैं। ऐसे जीव ही देव गति को प्राप्त हो स्वर्गमें जन्म धारण करते हैं। वहां उन्हें इन्द्रियजन्य सुख उपलब्ध होते हैं । स्वर्ग के अग्रभाग में रत्नमयी मोक्ष-शिला है। वह मनुष्य क्षेत्रके सदृश पैतालिस लाख योजन की है और बारह योजन मोटी है।।
उस शिलापर सिद्ध भगवान आसीन हैं। वे अनन्त सुख में लीन अनन्त हैं। उन्हें मैं नमस्कार करता हूं। इस प्रकार इन्द्रिय सुख दुःखवाले तीनलोक के स्वरूपको जानकर अग्रभागमें जो मोक्ष स्थान है, उसे रत्नत्रय तपस्या द्वारा केबल प्राप्त करने का प्रयत्न करो। मोक्ष अनन्त सुखोंसे परिपूर्ण है। बोधिदुर्लभ भावना-चारों गतियों में सर्वदा भटकते रहने औरे कर्मबंध करते हुए जीवोंको बोधिदुर्लभ होना अत्यंत कठिन
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तहां फर इन्द्राणी माय, पंच वरन शुभ रतन मंगाय । निज कर चटकी चरत जाय, नाना विधिको चोक पुराय ।।८।। केतु माल बांधी समुदाय, किय विचित्र मंडप घंट छाय । ख धप हरण मन लाय, रही धूप दसहं दिशि छाय ।।।। उतरे शिला वीर जिन राय, आरुढ़े समचित उर ल्याय । शरीरादि ममता मन तजी, मोख पंथ साधकता भजी ॥३॥ परिग्रह तज चौबीस असार, बाहिज भीतर दोय प्रकार । क्षेत्र ग्रन्थ पहली तज एह, खेतीको उपदेश न देह ॥५४॥ वस्तु परिग्रह दूजो यही, गृह प्रस्थाप सु रहिही नही । तृतिय हिरण्य परिग्रह जोड़, रूपी तामी कांसो छोड़ ॥५ तुर्य सुवर्ण परिग्रह भाख, सोनो रतन न किंचित रास्त्र । पंचम धन परिग्रह को नाम, गो महिषी गज वाजि विराम ॥६॥ धान्य परिग्रह छठमौं भेद, सकल अन्न संग्रह नि:खेद । दासि दास सेवक निज नार, सातम परिग्रह यह निवार ||७|| कुप्य परिग्रह अष्टम भज, सूत रोम पद बस्तर तर्ज । नवम प्रमाण परिग्रह जोय, सकल वस्तु की संख्या होय ॥८८।।
है। प्रथम तो उन चार गतियोंमें मनुष्य गति ही कठिन है, द्वितीय आर्य-क्षेत्र, उत्तमकुल, दीर्घायु पंचेन्द्रियकी पूर्णता निर्मल वृद्धि, मन्द कषाय का होना, मिथ्यात्व की कमी बिनयादि श्रेष्ठ गुण, इन सबकी उत्तरोत्तर प्राप्ति होना और भी कठिन है। पर इससे भी कठिन देव, गरु शास्त्ररूपी सामग्री का मिलना भी दुष्कर है। और सम्यग्दर्शन की शुद्धि ज्ञान चारित्र निर्दोष तप तो इससे भी कठिन हैं।
जिस बुद्धिमान ने उक्त सामग्रियों को प्राप्तकर मोह की परिसमाप्ति के बाद मोक्ष की सिद्धि प्राप्त की है, उन्हीं महान परयों ने बोभि भेटतान को सफल किया। किन्तु भेद विज्ञानको प्राप्ति होने पर भी जो मोक्ष की सिद्धि में प्रमाद करते हैं. वे मानों जहाज की शरण न ले संसार-समुद्र में डूबते उतराते रहते हैं। इस प्रकार विचार कर श्रेष्ठ पुरुषों को समाधि मरण में तथा मोक्ष साधन में विशेष प्रयत्न करते रहना चाहिये।
धर्मानप्रक्षा-उत्तम धर्म उसे कहते हैं, जो संसार-सागर में डूबते हुए जीवों को पकड़कर महतादि पद में अथवा मोक्ष के स्थानमें रखे । उस धर्मके दश लक्षण हैं-उत्तम क्षमा, मार्दव, प्रार्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, अकिंचन, ब्रह्मचर्य । धर्मको चाह रखने वालोंके लिये इनका पालन करना अनिवार्य है। कारण यह है कि इससे खोटे कर्म नष्ट होते हैं और मोक्षका मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इसी प्रकार रत्नत्रय के पालन से, मूलगुण उत्तर गुणों के धारण करने से और तपस्या से मोक्ष सुख प्राप्त करने वाला यतियों का धर्म पालन किया जाता है। धर्म के प्रभाव से तीनों लोक की दुर्लभ बस्तुय स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। धर्मरूप मंत्र द्वारा खींची गयी मोक्ष-स्त्री स्वतः प्रालिंगन करती है।
संसार में जितनी भी दुष्प्राप्य वस्तुए हैं, वे सब धर्म के प्रसाद मे अनायास प्राप्त होती हैं । धर्म ही माता-पिता तथा साथ साथ चलने वाला हित करने वाला है। वह कल्पवक्ष, चिन्तामणि और रत्नों का खजाना है। वे पुरुष इस संसार से धन्य हैं जो सारा प्रमाद का परित्याग कर धर्मका पालन करते हैं और उन्हींकी संसार में पूजाहोती है। किन्तु जो पुरुष धर्म के अभाव में ममय व्यतीत करते हैं, वे पशुके सदश हैं। ऐसा समझकर बुद्धिमान धर्मके बिना एक क्षण का समय भी व्यर्थ न जाने दें। क्योंकि, उस आयु का कोई ठिकाना नहीं।
भव्य पुरुषों को उपरोक्त भावनायों को चित्त में धारण करना चाहिये । ये भावनायें सर्वथा विकार रहित हैं तीन बैराग्य का कारण हैं, समस्त गणों की राशि हैं, पाप रागादि से रहित है और जैन मुनि जिनकी (भावनाओंको) सेवा किया करते हैं। ये भावनायें निर्मल है, मोक्ष लक्ष्मी की माता हैं, अनन्त गुणों की खानि है और संसार का त्याग कराने वाली हैं । जो मुनीश्वर इन भावनाओं का प्रति दिन चितवन करते हैं, उन्हें स्वर्ग मोक्षादि की संपदा प्राप्त होना क्या कठिन है ? जिन महावीर प्रभुने पुण्य के उदय से सेव-संपदा का उपभोगकर, जगद्गरु तीर्थकर हो, कुमार अवस्था में ही कर्मोवो नष्ट किया तथा जिन्हें मोक्ष प्राप्त करनेवाले, देह-और भोगोंसे परम वैराग्य उत्पन्न हुया, उन्हें मैं दीक्षा-प्राप्तिके लिए स्तुति एवं शतशः नमस्कार करता हूं।
परम तपस्वी वीररथ, मोक्ष-मार्गमें लीन । नमस्कार अर्हन्तको करता है यह दोन ।। जवानों में श्रेष्ठ, महान तपस्वी, मोक्षके मुख में लीन, कामरूपी सुख से विरक्त ऐसे श्री प्रभुको मैं सादर नमस्कार करता हूं।
पाना
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arat प्रतिक्रमा है ग्रन्थ, पंच भेद ताके क्रम पन्थ । ऊ अधो तिरछो गति सर्व क्षेत्र वास्तु मर्यादा घर्व || जो कुछ व्रत को नियम जु करो, तातें विचल नहीं पग घरी ए दश बाहिज परिग्रह जान, अव चौदश संक्षेप बखान ॥२०॥ मिष्यात प्रथम जो वेद, स्त्री त्रय चौथ नपुंसक भेद हास्य पंचमौ परिग्रह जान, रति छठों पागो उरमान ||१३| अरति सप्तमी परिग्रह जो शोक अष्टमो रंच न भजी । भय परिग्रह नवमों नहि त्रास, दशम जुगुप्सा को कर नाश || ६२॥ अनंतानुबंधी तु कपाय, कोच मान माया लोभाय । ऐ चौदश श्राभ्यंतर ग्रंथ, सो छोड़े जिनवर शिवपंथ ॥६३॥ वस्त्र सफल सागरण उतार तनते त्याग नए जिनसार देह भोग मद सबै निवार, स्वातन पद थिर कियो संबार ||२४|| फिर सिद्धन को प्रणमन करो, पल्यंकासन निश्चल घरी । पंच मुष्टि तह लुंचे केश, मोह पाश जिमि टोर जिनेश ॥६५॥ सब सावद्य त्याग तह कियो, अष्टावीस मूलगुण लियो । उत्तर गुण चौरासी लाख, धारी जोग अडोल प्रभाव ||१६||
वीर भगवान को वैराग्य होने के पश्चात् म्राठों लौकान्तिक देवों ने अपने अवधिज्ञान से यह निश्चय कर लिया कि भगवान का तप कल्याणक का उत्सव मनाना चाहिये । पश्चात् वे भगवान वीरके पास आये। उन देवों ने अपने पूर्व जन्ममें द्वादशांगत का अभ्यास किया था। वैराग्य भावनाओं का चितवन किया था, चौदह पूर्ण बुत के जानने वाले स्वभाव से रातब्रह्मचारी तप कल्याण का उत्सव करने वाले एक भय के बाद नियम से मोक्ष जाने वाले उन देशों में श्रेष्ठ वीरमात्मायों की हम सादर नमस्कार करते हैं ।
विद्वान लोnifoe देव कर्मरूपी वैरियोंका नाश करनेमें जो प्रयत्न शील हैं ऐसे वीर भगवान को नमस्कार कर तथा स्वर्ग से जाई हुई पवित्र द्रव्यों से भगवान का पूजन कर वैराग्य मय परिणाम हो जाय ऐसी वैराग्यमयी स्तुति द्वारा वे भगवान का गुणगान करने लगे ।
है वीर प्रभु ! आप जगत के स्वामी हैं, गुरुयों के भी महान श्रेष्ठ ज्ञानी हैं, समझदारों में आप सर्व हैं। तब आपको हम विशेष क्या समझा सकते हैं, इसलिये स्वयं बुद्ध तथा सर्व पदार्थों के ज्ञाता, आपको हम क्या समझावें ? क्योंकि श्राप स्वयं हमको सद्बुद्धि देने वाले हैं। जिस प्रकार प्रकाशवान दीपक तमाम पदार्थों को प्रकाशित करता है, उसी तरह आप भी तमाम संसार के पदार्थों को प्रकाशित करेंगे। परन्तु भगवान ! हमारा यह कर्तव्य है कि हम आपको समझाने के बहाने से आपके दर्शन और भक्ति करने की यहाँ मानेका सौभाग्य प्राप्त कर देते हैं आप तीन ज्ञानके धारी है। आपको कौन शिक्षा दे सकता है क्या सर्पका दर्शन करने के लिये दीपक की मावश्यकता होती है, कदापि नहीं हे देव बलशान मोहरूपी वैरी को जीतने के लिये आपने जो उद्योग किया है, उसे देखकर संसार समुद्र पार होनेकी इच्छा रखने वाले अनेक भव्य सात्माओं का महान हित होगा। आप जैसे दुर्लभ जहाजको पाकर असंख्यात भव्य जीव आपके पवित्र उपदेश से रत्नत्रय धर्मको अंगीकार कर उसके द्वारा सर्वाचं सिद्धि जैसे स्थान को गगन करेंगे। कोई २ प्राणी यापकी वाणी को सुनकर मिथ्या ज्ञानरूपी अन्धकार का निवारण कर सब पदार्थों के साथ ही गोक्ष-लक्ष्मीको देखेंगे। हे प्रभु! आपसे बुद्धिमानों को मन चाहे इष्ट पदार्थों की सिद्धी होगी। हे देव आपके प्रसाद से ही स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति हो सकेगी।
हे दीनानाथ ! मोहरूपी फंदे में फंसे हुए भव्य प्राणियों को आप ही बराबर सहारा दोगे ; क्योंकि श्रापही तीर्थ को चलाने वाले प्रवर्तक हैं। भापके वचनरूपी मेघ से वैराग्यरूपी अपूर्व बयको पाकर असंख्यात बुद्धिमान महान ऊंचे मोहरूपी शिखर को बालकी बातमें खंड खंड कर देंगे । भापके उपदेश से पापी प्राणी अपने प्राणों को और कामी व्यक्ति काम शत्रुको शीघ्र ही नाश कर डालेंगे, इसमें रंच मात्र भी संदेह नहीं है। हे स्वामी ! यह भी निश्चय है कि बहुत से जीव आपके चरण कमलों को सेवन से दर्शन विशुद्धादि सोलह भावनाओं को स्वीकार करके आपही के समान हो जायेंगे।
प्रभो ! संसारसे वर करने वाले, वैराग्य रूपी अस्त्र को रखो हुए आपको अवलोकन कर मोक्ष और इन्द्रिय रूपी शत्रु अपनी जीवन लीला को समाप्त होने के भय से कांप रहे हैं; क्योंकि हे दीनबन्धु ! आप बलवान सुभट हैं, दुर्जय परिषद् रूपी दीरों को क्षण मात्रमें जीतने की सामर्थ्य रखते हैं। इसलिये हे धीर वीर प्रभो! आप मोह इन्द्रिय रूपी वंरियों को जीतने में तथा भव्यात्माओं उपकार करने के लिये घातिया कर्मरूपी शत्रुओं के नाश करने का शीघ्र ही उपाय करो; क्योंकि अब यह उत्तम समय तपस्या करने के लिये और भव्यों को मोक्ष ले जाने के लिये आपके हाथ में पाया है।
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मब सुनिये चारित्र प्रमान, प्रथम कहे व्रत के सन्मान । ताके हैं दो भेद निदान, देशव्रत पहिली उनमान ॥१७॥ श्रावक पाल धर अनुसरै, एकादश प्रतिमा को घरै । थावर की रक्षा नहि होय, पंचम प्रणवत पालहि सोय ||१८|| दुर्जा रावबती जोगेश, ऋषि मुनि जति प्रागार न लेश। चार भेद यह प्रथम विचार, ताके गुण संक्षेप सम्हार IIEl ग्रड़तालोस ऋद्धि उपदेश, सो ऋषि विष्णुकुमार बतेश । मतिश्रुतवधि मनःपर्यय ज्ञान, इन्हें लहै सौ मुनि परधान ॥१०॥ सोल कषाय जीत पर वोर, सो कहिये जतिवर गुणधीर । अनागार चौथी सातार, तज गृह स्तव नव नब धार ॥१०१।। अब जु त्रयोदश चारित नाम, पंच महाबत गुप्ति विठाम । पंच समिति पालन परवीन, ताके भेद सुनौ गुणलीन ।।१०२॥ प्रथम अहिंसा व्रत को पाल, अस थावर रक्षा करहाल । सत्य महानत दुजो जान, सत्य वचन बोले निज वान ।।१०३।। तृतीय प्रचौर्य महावत धार, वस्तु अदन न अंगीकार । चौधौ ब्रह्मचर्य पालेय, अस्त्री राग न किमपि करेय ॥१०४॥ पंचम आकिंचन व्रत महा, परिग्रह रहित काल निरवहा । अब सुन पंच महाव्रत भाव सब पच्चीस अनुक्रम ठाव ।।१०।। प्रथम अहिंसा व्रत विधि पंच, जुदी जुदी भाषों वछ रंच । वचन गुप्ति पहिली भावना, मारन शब्द नहीं बोलना ॥१०६।। दूजी मनोगप्तिकी गाम, मन कर मारन नहि परिणाम । या तृतीय भावना रक्ष, चल दण्ड इक देख प्रतक्ष ॥१०७॥ आद निक्षेपण चोथी लेख, धरै उठाय वस्तु भू देख । लोकितपान भोजना पंच, लेयं अहार नीर शुद्धं च ।।१०८।।
हे बीर प्रभु ! आपको नमस्कार है, पाप जगत हितैषी हैं, आप ही मोक्ष रूपी रमणीको प्राप्ति के लिये उद्योगी है' इसलिये आपको हम पुनः नमस्कार करते हैं। अपने ही शरीर के भोगों के सूख में इच्छा हित हो, इसलिये पापको नमस्कार है। मोक्षरूपी स्त्री के साथ रमण करने को इच्छा रखते हो, इसलिये आपको नमस्कार है। महान पराक्रमी बाल ब्रह्मसारी, राज्य लक्ष्मीके त्यागी, अविनाशी लक्ष्मी में लीन तुमको नमस्कार है। योगियों के भी पाप महानगुरु हैं इसीलिये पापका नमस्कार है। सब जीवोंके परम वधु हो, जानकार हो, इसलिये पुनः नमस्कार है।
हे महान प्रभु ! इस स्तुति से हम यही चाहते हैं कि परलोक में चारित्र की सिद्धिके लिये आप पूरी शक्ति दं। हे वीरप्रभु ! वह शक्ति मोहरूपी शत्रुको नाश करने वाली है । इस प्रकार जगत पूज्य श्री वीर भगवान की स्तुति और अनेक प्रार्थनायें करके व लौकान्तिक देव अपने स्थान को प्रस्थान कर गये।
उसी समय तमाम देवादि सहित चारों जातिके इन्द्रोंने स्वयं धन्दादि के बजने से भगवान का संयमोत्सव समझ कर भक्तिभाव से अपनी इंद्रानियों के साथ महान विभूति से बिभुषित होकर अपनी २ सवारियों पर सवार हो नगरी में प्रवेश किया देवोंकी सेना अपनी पत्नियों सहित, सवारियों पर चढ़े हुए नगर और बन को चारों प्रोरसे चली। पश्चात इन्द्रने भगवान महावीर स्वामी को एक सिंहासन पर बैठा कर अत्यन्त प्रसन्नता प्रदर्शित करते हुये गीत नत्व, जय जयकार शब्दों का उच्चारण करते हए क्षीर सागर से सोने के कलशों से भरे हुये १००८ कलशों से उन वीर प्रभुका अभिषेक किया । इन्द्रने उन त्रिलोकीनाथ को दिव्य आभूषणों और बस्त्रोंसे अलंकृत किया। सुगंधित दिन्य मालायें पहिनाई। इस तरह भगवान को इन्द्रने खूब ही सजाया। पश्चात भगवानने अपनी जन्म देने वाली माता को ज्ञानामृतसे प्रभावशाली सरल और मोठे शब्दोंमें खूबही सान्त्वना दी । भाइयों को धैर्य बंधाया सैकड़ों उपदेशों से तथा वैराग्यके उत्पन्न करने वाले वाक्यों से अपनी दीक्षाकी बात समझा दी पश्चात संयम लक्ष्मी के सुख में उद्यमी ने वीर प्रभु खुशी के साथ तमाम राज्य पाट और माता, पिता, भाई बंधनों को त्याग कर इन्द्र द्वारा लाई हई देदीप्यमान चंद्रप्रभा नामकी पालकी पर सवार हो, दीक्षाके लिये वनको ओर चले गये । उस समय वे जगतके स्वामी तमाम देवोंसे घिरे हुए दिव्य आभूषणों से युक्त अत्यंत सुन्दर मालूम होते थे।
सबसे पहले भूमिगोचरी देवों में पालकी को उठाया और पंड ले जा कर रखी दी । पश्चात विद्याधर प्राकाशमें ७ पैड ले गये, उसके बाद धर्मस प्रेम रखने वाले तमाम देवोंने अपना २ कंधा लगाया और प्राकाश मार्गसे चलने लगे । इस समयकी शोभाका वर्णन करना इसलिये असंभव है कि जिस पालकी को ले जाने वाले स्क्यं इन्द्र और स्वर्ग के देवता लोग हों, उसकी अनुपम छटाका वर्णन क्या लेखनी द्वारा हो सकता है ? उस समय हर्ष से पुलकित हो तमाम देव पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे, वायु कुमार देव गगाके कणों से युक्त सुन्दर पवन चला रहे थे। कई देव भगवान का मंगल गान कर रहे थे, कुछ देव भेरी बजा रहे थे, इन्द्रको
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विद्यासागर जी म्हार
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इन्द्र द्वारा स्तुति
ध्यानारूढ़ मुनिराज
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मुनियों के अतिशय से या उनके हवा लगने से लंगडे, कुष्ठ रोगियों का रोग दूर हो गया इस भक्ति से पादित होकर नाच रहे हैं।
ऋद्धिधारो मुनि का अतिशय कुष्ठ रोगी दर्शन करने से ठीक हो गए और
आनन्द से नृत्य करते हैं।
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अब सुन त्य वृत्त भावना, पंच भेद तिनके गावना। प्रथम क्रोध कर झूठ न कहैं, दुतिय मानकर साच न जहै ॥१०॥ तीजै लोभ अर्थ के काज, बचन असत्य न बोल साज। चौथी भीरुत कही भावना, भयसौं झठ न बोले मना ।।११०॥ पंचम प्रत्याख्यान जुराहो, हारप निमिस वचन राज सही। निरावाध बोले मय बंड, सत्यवृत्त दृढ़ करै अखण्ड ||१११॥ प्रचौर्य महाव्रत भावन पंच, तिनके भेद सूनो घर संच । शुन्यागार प्रथम पालेय, गिरि गुह कंदर वास करेय ।।११।। वजी परमोचित घर बास, पर घर रंच करे नहि प्राश । तृतीय परोधाकरन जु नाम पर उपरोधाकरन वसाम ।।११३॥ भक्ष्यशुद्धि चौथी गुण खान, चर्याशुद्धि धरै मन प्रान । पंचम धर्म विसम्बा जान, धर्म परस परवाद न ठान ।।११४॥ ब्रह्मचर्य पांची बिध सार, कोक प्रादि नाटक शृंगार | इनको सुनै न कहै मुनीश, प्रथम भाव तिय राग कथीश ॥११॥ दूजी तन मनोज्ञ निरीक्ष, अंगोपांग न त्रिया परीक्ष । दृष्टि न देखै ताहि शरीर, काम अगनि सी ब्रह्म नीर ॥११॥
प्राज्ञा से उन देवों मे यह घोषणा की कि भगवान का यह समय मोहादि बैरियों के जीतने का है। तमाम देवोंने हर्षित होकर उन प्रभुके सामने खूब ही धूम धाम की-जयवंत हो, आनंद युक्त हो, और वृद्धि पायो । दुंदुभी बाजों के शब्द होने लगे, अपसरायें नत्य करने लगी। किन्नरी देवियां मधुर ग्रावाज से मोहरूपी चैरी को जीतने का यश गान करने लगीं। उन प्रभ के आगे दिक्कुमारी देवियां मंगल अर्घ लेकर चलने लगीं। इस प्रकार वीर प्रभु नगर से बनको चले गये, नगर निवासियोंने प्रभु की बहुत ही प्रशंसा की। कितने ही लोग यह भी कहते थे कि, अभी जिन राज कुमार ही हैं, थोड़ी सी उमरमें इन्होंने कामरूपी वरी को मारकर बड़ा भारी उच्च दर्जे का काम किया है । और आज मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति के लिये तपोवन को चले गये हैं।
इस तरह सुनकर अन्य लोग भी इसी तरह कहने लगे कि मोहको तथा कामदेवरूपी वैरी को प्रभु ही जीत सके हैं. दूसरे में यह समर्थ नहीं है। उसके पश्चात सूक्ष्म विचारवाले इस तरह कहने लगे कि यह सब वैराग्य का ही महात्म्य है, जो भीतरी अंतरंग शश्नों का नाश करने वाला है । वैराग्य के प्रभाव से स्वर्ग के भोग, तीन लोक की संपदाये, पंचेंद्री रूपी चोरों को मारने के लिये त्याग दी जाती है क्योंकि जिसके हृदय में पूर्ण वैराग्य का श्रोत बहता हो, वही चक्रवर्ती की विभूति को क्षण भर में त्याग सकता है 1 दरिद्री मनुष्य अपनी कच्ची झोपड़ी को भी छोड़ने में समर्थ नहीं है । कुछ मनुष्य यह भी कहते सूने गये कि यह बात सत्य है कि वैराग्य के बिना मन पवित्र नहीं हो सकता । इस तरह की बातचीत करते हुए बहुत से नगर निवासी वहाँ पर पहुंचे और तमाशा देखने लगे। भगवान के दर्शन होते ही उनका मस्तक स्वयं झुक गया। इस प्रकार त्रिलोकीनाथ नगर के बाहर प्रा पहुंचे।
जब माता ने भगवान के गमन का संवाद सुना तो वह मूछित होकर पुत्र वियोग में कोमल बेल के समान मुरझा गई। पश्चात् सहन करती करती अनेक पुरजनों और बन्धुओं के साथ पीछे पीछे चली गई। वह इस तरह कहती जाती थी कि हे बेटा ! तं तो मुक्तिसे प्रेम लगाकर तपस्या करने लगा, पर मुझे तेरे बिना कैसे चैन मिलेगी? किस तरह जीवन व्यतीत करूंगी। इस छोटी सी उमर में तपस्या के महान उपसगों को किस तरह सहन करेगा। बेटा, शीत काल की भयंकर हवा से जब तं दिगम्बर भेष में बनमें विचरेगा, तब कैसे उस शीत को बर्दाश्त करेगा ? ग्रीष्म कालकी ज्वालाओं से तमाम बन जल जाते हैं, उसको कैसे सहेगा, श्रावण भादों की काली घटाओं को देखकर अच्छे अच्छे साहसियों के साहस छूट जाते हैं-बेटा ! तं यह सव कष्टों को बर्दाश्त कर लेगा? बस मेरा हृदय इन सब बातों को ज्यों विचारता है, त्यों त्यों और भी कष्ट होता है हे पत्र, अति दुनिवार इन्द्रियजनोंको, त्रैलोक्य विजयी कामदेव को और कषाय रूपी महाशत्रुओं का धैर्य पूर्वक तू अपने वश में कैसे कर सकेगा ? बेटा तू बच्चा है और अकेला है, फिर किस प्रकार इस भयंकर वनको गुफाओं में रह सकेगा, जिसमें कि नाना प्रकार के हिंसक जंगली जीव रहा करते हैं ! इस तरह जिन माता अत्यन्त करुण स्वर में बिलाप कर रही थी और मार्ग में पैरों को बढ़ाती चली जा रही थी कि इतने में उनके पास महत्तर देव माये और उन्होंने कहा--माता, क्या तुम इन्हें नहीं पहचानती? ये तुम्हारे पुत्र संसार के स्वामी और अनुपम शक्तिशाली जगद्गुरु हैं ! अात्मवेशी संसार रूपी समुद्र में अपने आपको बिलीन कर लेने के पहले ही अपना उद्धार तो कर ही लेगा, साथ ही कितने भव्य जीवों का ही उद्धार कर देगा-यह ध्रुव सत्य है। जिस तरह कि मजबूत रस्सी से बंधा हुआ भयानक सिंह भी सहज ही में अपने वशबर्ती किया जा सकता है, उसी तरह यह तुम्हारा पुत्र भी मोहादि रस्सियों से बंधा हुया है। जिसके लिये संसार रूपी समुद्र का दूसरा किनारा पार करने में बहत पास रहा करता है। ऐसा सामर्थ्य शाली यह तुम्हारा पुत्र भला दीनता पूर्वक कल्याण हीन गृहमें रह सकेगा? इनके ज्ञान रूपी तीन नेत्र हैं। संसारको इन्होंने सम्यक् रूपेण जान लिया है फिर भला, वैराग्य उत्पन्न हो जाने पर कोई अन्धकपमें क्यों गिरेगा?
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पूरव रति स्मरण नहि जान, गृहस्थ काल त्रिय भोग मिलान । जाहि अवस्था चित नाहि, सो दढ़ वती ब्रह्मचर्याहि ।।११७।। वष्येष्ट रस चौथी भावना, पट रस सरस सबल भोजना | संपूरन विधि करन मुनीश, अब मून पंच भावना धीश ॥११८।। य संस्कार तास है नाम, भूषण पथ सूक्ष्म बनाम । कोमल सर उपजे तस राग, वजित ये उपभोग समाग ||११६।। अब परिग्रह पंचम व्रत सोय, पच भावना ताकी होय । पांचों इन्द्रिय वश कर रहै, ताके भेद किमपि कछु कहे ॥२०॥ रूपरस इन्द्रिय को परभाव, कोमल विषय रहित तिहि ठाव । रसनेन्द्रिय पटरस ज्याँनार, हा निरास सो भाव अपार ॥१२१॥ नासा गन्ध विषय को राग, त्याग सोम भज बैराग । चक्षु इन्द्रिय रूप मनोग, ताको विषय तजो उपभोग ।।१२२।। श्रोत्रेन्द्रिय है शबद मनोग, मो सुन राग द्वेष तज जोग । ए पच्चीस भावना कही, पंच महाव्रत सो सब लही ।।१२३।। अब सून तीन गुप्ति के भेद, पृथक् पृथक् भाषै नहि खेद । त्रस थावर रक्षा के काज, मन वच सन पालें मुनिराज ॥१२४।। वचन गप्ति पहली है यही, कुबचन यापुन बोल नहीं। पौरहियों बोला नाहि, कहं बोल परिणाम न जाहि ।।१२५।। ऐसे ही मन गुप्त जु कही, तैहि कायगुप्ति कर सही । अब सुन पंच समिति को रीत, जुदो जुदी भाषों घर प्रीति ।।१२६।। ईर्यासमिति प्रथम विख्यात, एक दण्ड भू माधत जात । भाषासमिति दुतीय पहिचान, दश प्रकार भाषा न कहान ।।१२७।। हिमित ललित प्रनत है आदि, जिहि वच होय जोब नहि बाधि । तृतीय एषणा समिति प्रमान, जल आहार शुद्ध कर ठान ॥१२॥ अन्तराय तह रहित बत्तीस, चौदह मल टालहि जोगीश । सब कोई निर्मल मुबिशुद्ध, इहि विधि लेय पाहार निरुद्ध ॥१२६।। प्रदाननिछेपन चौथी कही, जीव जन्तु रक्षा कर राही। जो कछु वस्तु घरै अर लेय, तह मुनीश बहु जतन करेय ॥१३॥ समिति प्रतिष्ठापन पंचमी, मल-मूत्रहि छिप शुद्धहि जिमी । हरित रहित सन्मर्छन वचे, ऐसी क्रिया महामूनि रचे ।।१३।। लहष्डी काया शुद्ध न करें, थूके नहीं जीव जहं मरें । पग प्रक्षालन फामू थान, यह प्रकार चारित्र बखान ।। १३२।।
इसलिये हे माता, तुम इस पापरूणी शोक को छोड़ दो। त्रैलोक्य को अनित्य समझ कर अपने घर जाओ और वहीं पर धर्म साधना में अपने मन को लगायो । अपनी प्रिय एवं इच्छित वस्तु के वियोग काल में ज्ञान हीन पुरुष ही शोक किया करते हैं। जो ज्ञानी एवं बुद्धिमान होते हैं वे सदैव संसार से डरा करते हैं और कल्याणकारी धर्म की उपासना किया करते हैं । महत्तर देव की इन बातों को सुनकर जिनमाता सावधान हो गयीं। उनके हृदय में विवेक रूपी प्रकाशमयी किरणों का प्रादुर्भाव हआ हृदय का शोकान्धकार दूर हो गया। वे अपने विशाल हृदय में पवित्र धर्मको धारण का अपने कूटम्बियों एवं भत्यजनों को साथ लेकर राजमहल को वापस लौट गयीं। इनके बाद जिनेन्द्र महावीर प्रभुजी पार्षदर्ती देवों के साथ मानव समाज के मंगल गान प्रारम्भ करने के प्रथम खंका नाम के विशाल वन में संयम धारने करने के लिये पहुंचे। वह बन अत्यन्त रमणीय था। शीतल छाया वाले फल पुष्पोंसे युक्त वहां सुन्दर सुन्दर पेड़ थे जो अध्ययन एवं ध्यान के लिये अधिक उपयुक्त थे। महावीर स्वामी अपनी पालकी से उतरकर एक चन्द्रकान्त मयी स्वच्छ शिला पर बैठ गये। उस सुन्दर शिला की शोभा विचित्र थीं। उस शिला को महावर स्वामी के आने के पहले ही देवोंने पाकर सुरम्य बना दिया था। वह शिला गोलाकार थी। उस शिला पर विशाल वृक्षों की शीतल एवं घनी छाया पड़ रही थी। चन्द्रमा से घिरे हुए सुरभित जल को बं दे उस शिला पर छिरकी हुई थीं । स्वयं इन्द्राणी के हाथसे बहुमूल्य रत्नोंके चूर्ण द्वारा उस शिलापर सातियां बनाये हुए थे। ऊपर कपड़ेका मण्डप बना हुआ था। उसमें ध्वजा एवं रंग बिरंगी सुन्दर मालाए टंगी हुई थी। चारों ओर धूप का सुगन्धित धुमा फेल रहा था और पासमें भनेक मंगल द्रव्य सजाये हुये थे।
महावीर स्वामी उस सुन्दर स्वच्छ शिलापर उत्तराभिमुख बैठ गये और देह इत्यादि की इच्छा से हीन विरक्त एवं मूक्ति साधना में तत्पर मनुष्यों के कोलाहल को शान्त हो जाने पर शत्र-मित्रादि के सम्पूर्ण स्थानों पर उत्तम समान भाव का चितवन करने लगे । उनने क्षेत्र इत्यादि चेतन एवं अचेतन रूप बाह्य दश परिग्रहों को मिथ्यात्व इत्यादि चौदह अन्तरंग परिग्रहों को और वस्त्र अलंकार एवं माला इत्यादि वस्तुओं का परित्याग कर दिया तथा मनसा, वाचा कर्मणा से पवित्र होकर शरीरादि में निस्पह पूर्वक प्रारम-सुख की प्राप्ति में लग गये। प्रथम उन्होंने पत्यकासन लगाकर मोह बन्धन में फंसाने वाले केशों का लोंच किया केश उखाड़ डाले। बाद में वह जिनेश्वर महावीर स्वामी संपूर्ण पाप क्रियाओं से निमुक्त होकर प्रदाईस मूल गुणों के पालन करने में
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दोहा
इहि विधि पारित आदरयी, अरु संजम उर धार क्षायिक सम्यक् दृढ धरी जय जय वीर कुमार ।। १३२ ।।
चीपाई मारगरि है उत्तम गास, कृष्णपक्ष दशमी तिथि जारा हस्त उत्तरा अन्तर माहि पपराहित वेला वह ग्रांहि ।। ११४ सब दीक्षा' जिनवरने परी, मुकतिवध मन इच्छा करी भूप एकसी प्रभु के संग, तप धारों तुजि परिषद् संग ॥ १३५॥
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तत्पर हो गये। यातापनादि योगसे उत्पन्न उत्तम उत्तर गुणोंको एवं महाव्रत समिति गुप्ति को उन्होंने धारण किया। वे सब समता को देखने लगे धीर सम्पूर्ण दोषों से हीन एवं सबसे श्रेष्ठ सामायिक संयम को उन्होंने स्वीकार किया। सन्तमें उन्होंने मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी तिथिके सायंकाल हस्त एवं उत्तर के मध्यबाने पुभ समय में दुष्प्राप्य जिन दीक्षा को ग्रहण किया। यह जिन दीक्षा मुक्ति रूपी कामिनी को सहचरी सखी के समान थी। स्वयं इन्द्र ने महावीर स्वामी के मस्तक में चिरकाल तक रहने के कारण परम पवित्र उनके केशोंको रत्न जटित मञ्जूषा (पिटारो ) में अपने हाथोंसे संवार कर रखा । फिर उन केशोंकी पूजाकी
"चीर-त्याग
कोई इटवियोगी जिससे कोसंबी कोई दीदी किसी पर विहारीना भी हो जो संसार
कोई तन का रोबो कोई तब ॥ मुल होता. तीर्थकर क्यों त्यागे काहे को शिव सधन करते, संयम सों अनुरागे ॥
-वर्ती श्री बानाभिः वैराग्यभावना
जहाँ रावण जंसा विद्याधरों का स्वामी एक स्त्री की अभिलाषा में तीन खण्ड का राज्य नष्ट कर दे, भीष्मपितामह के पिता जैसे वीर कामवासना के वश होकर एक मछिशरे की नीच जाति कन्या से विवाह करायें, जहां मगव देश के सम्राट श्रेणिक बिम्बतार के पिता उपश्रेणिक काम के वश होकर यमदण्ड नाम के जंगली मोल की पुत्री तिलकमती से विवाह कराले जहाँ विश्वामित्र ऋषि जैसे महा तपस्वी का तप मेनका जैसी साधारण स्त्री fठा दे वहां श्री वर्द्धमान महावीर कामरूपी अग्नि को वश करने में महावीर रहे।
भरत को जिस राज-पाट के दिलाने के लिए माता केकवी ने श्रीरामचन्द्रजी जैसे योग्य होनहार राजकुमार को चौदह वर्ष के लिए वनों में निकलवा दिया, जिस राजपाट की प्राप्ति के लिए दुर्योधन ने अपने भाइयों तक के साथ महाभारत जैसा भयानक युद्ध करके भारत के प्रतिपदा का अन्त कर दिया, जिस राजा की प्राप्ति के लिए बनवीर ने मेवाड़ के राणा उदयसिंह को मरवाने के लिए हजारों बन किये, जिस राजपाट के लिए मोहम्मद गौरी ने भारत पर सत्रह बार आक्रमण किया, जिस राज-पाट की लालसा में सिकन्दर महान ने लाखों यूनानी दौरों को मरवा डाला, जिस राज-पाट के हेतु औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को बन्दीगृह में डाल दिया, उसी राज-पाट को श्री वर्द्धमान महावीर ने एक सच्चा अधिकारी और माता-पिता की अभिलाषा के बावजूद दम के दम में सहर्ष त्याग दिया ।
श्री वर्द्धमान महावीर ने जिन दीक्षा लेने से पहले अपने खजाने का मुंह खोलकर स्पष्ट आज्ञा दे दी थी कि अमीर हो या गरीब, जजोजी माने जाये, सुनांचे तीन अन्य अास करोड़ जानाति की अनाज आदि दान देकर उन्होंने जनता की सात पुस्तों तक की जरूरतों को पूरा कर दिया था।
खेत ( जमीन ) मकानात, चांदी, सोना, पशु-धन, अनाज, नौकरी, नौकरानी, वस्त्र, वर्तन, दस प्रकार की बाह्य तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, श्ररति, शोक, भय, घृणा, स्रीवेद, पुरुषवेद, नवेद मियाय चौदह अंतरंग समस्त २४ परिग्रहों का त्याग करके २१२० दिन की भरी जवानी में सम्पूर्ण याद कर औरों से मुंह मोड़कर अपने आत्मोत् को साधने और दुखियों को मनी सेवा करने के लिए भी मान महावीर ने ईमोसन से ५२२ वर्ष पूर्व मंगसिर बदी दशमी के दिन संध्या सम चन्द्रप्रभा नाम की पालकी में बैठकर ज्ञातखण्ड नाम के वन में अपने सम्पूर्ण यन्त्र, आभूषण आदि उतार कर नग्न दिगम्बर होकर जैन साधु हो गये । उन्होंने अपने केशों का भी लौंच कर डाला और २६ सुलगुण ग्रहण करके पत्थर की शिला पर "ओम नमः सिद्धभ्यः कह कर उत्तर की और मुंह करके ध्यान में लीन हो गये। जिसको अपने अवधि ज्ञान से विचार कर स्वर्गी के देवों ने श्री वर्धमान महावीर का तप कल्याणक बड़े से मनाया। इसी ज्ञातखंड नाम के वन में तपस्या करते हुए उनको चौंथ प्रकार का मनःपर्षय ज्ञान भी प्राप्त हो गया था।
उत्साह
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प्रभु के केश तब सुरराय, अपने हाथ उठाये प्राय । मणिमय डबा माहि धर लये, क्षीरोदधि ले तत्पर गये ॥१३६॥ मनुषोत्तर पर्वत तें बाहि, मनुष अंश आगे नहि जाहि । तहा केश खिर सहजहि गये, डबा वज्रमय रोसे भये ।।१३७।। तब सूरपति विक्रिय कर करै, फिर फिर जोर डबा में धरै । अंगुल एक न पाये गये, मनकर क्षीरोदधि क्षिप गये॥१३८॥ अब सरपति प्रति हर्ष बढ़ाय, प्रभु की थति कीनो बह भाय । तुम परमालप परम निधान, तोन जगत में सुगरु महान ||१३९ तुम प्रभु जगन्नाथ गुण सिंध, अरि विजयी निर्मलता भिध । तुम गरिष्ठ तुम वौर जिनेश, श्रुतिकर पार न लहै गणेश ॥१४०।। सूर गरु मुनिजन आदि अनेक, कोइ न समरथ करन विवेक । धर मो उर तुम भक्ति वढ़ाय, हठ उच्चार करावे पाय ॥१४१॥ बाहिर ग्राभ्यंतर मल धोय, निमल गुण मुनि परगट हाय । तिनको तुम थति विन न सुहाय, ज्या बिन मह कृषी हेयाहेय प्रकट तुम करौ, सार बस्तु तन मन अादरों । जो प्रभु तुमको मन में भजे, तब हो मन को विकलय तजै ।।१४३॥ राजपाट अधदायक होय, छिन में तुम त्यागी प्रभु सोय । तीन लोक को राज मनाग, ताको चाह करी तज शोग ॥१४४।। प्रति चंचल लक्ष्मी जग माहि, सो प्रभु तुमको छिन न सुहाय । परम शाश्वती लक्ष्मी थान, ताही को कीनी सन्मान ।।१४५।। दाट कर्म मद मान सहीत, मोह भूप, दल सुभट अजीत । तुम प्रभु बोर बिना हथियार, हन्यो छिनक में दया निधान ॥१४६।। मात पिता बांधव परिवार, तजत तिन्हें नहि लागीवार । लागे भोग भुजंग समान, उरमें केवल मोख निदान ।।१४।। बीमा जग में पर शद्ध, क्षमा पवित्र करन सम बुद्ध । मुक्ति श्री मनरंजन हार, प्रनमा त्रिविध-शुद्ध अविकार ||१४||
ब नमबह मल्य वस्त्रों से ढांका और समारोह पूर्वक क्षार-समुद्र के स्वच्छ शुद्ध जल में डाला । जब केश जैसी हीन वस्तका भी
के संसर्ग में रहने के कारण इतना अधिक सम्मान किया जा सकता है तब जो पुरुष स्वयं साक्षात् जिनेश्वर भगवान की राजा सेवा में लगे रहते हैं उन्हें संसार में कोनसो ऐसो अलभ्य वस्तु है जो नहीं मिल सकती है? उनको सेवासे सभी कल प्राप्त हो सकता है। इस संसार में भगवान जिन के कमल रूपी चरणोंके प्राश्रयमें आ जाने से जिस प्रकार यक्षों को सम्मान
हो जाता है उसी प्रकार प्रभ अहंतका जो लोग सहारा लेते हैं वे चाह नीच पुरुष ही क्यों न हा उनकी पूजा होती है, और
यस्त सादर की दष्टिसे देखा जाता है । इसके बाद महावीर स्वामीने दिगम्बर रूपको धारण किया। जब वे दिगम्बर हो गये तब उनका शरीर तपाये हुए स्वर्ण जैसा प्रकाशमय एवं तेजस्वो दीख पड़ा । मानो वह कान्ति एवं दाप्तिका स्वाभाविक तेज. भय समह ही हो। इसके बाद परम प्रसन्न इन्द्र उस परमेष्ठी महावीर प्रभुका गुण-गौरव गान-स्तुति करने लगे।
देव! इस संसारमें सर्वश्रेष्ठ परमात्मा तुम्ही हो! इस चराचर जगतके स्वामी तुम्ही हो। तुम जगदगर हो, गणसागर हो. शत्र विजेता हो पीर अत्यन्त निर्मल तुम्ही हा! हे प्रभो, जब आपके असंख्य एवं अनन्त गुणोंका वर्णन देख भी नहीं कर सकते तय मन्दमति मैं कहां तक आपके महान गुण एवं ऐश्वर्योका वर्णन कर सकगा? ऐसा सोचकर मेरी बद्रि अस्थिर हो जाती है तथापि आपके प्रति हमारो अचल भक्ति स्तुति करने के लिये निरन्तर प्रोत्साहित करनी दे योगीन्द्र ! माज अापके बाह्य एवं अभ्यन्तर मलोंके एकदम नष्ट हो जानेके कारण जिस प्रकार कि, मेधके पास
किरणोंकी स्वाभाविक छटा बिखर पड़ती है, उसी तरह अापके निर्मल गुण-समूह प्रकाशमान हो रहे हैं। स्वामिन यति पोपने इन्द्रिय विषय जन्य चन्चल सुखोंको क्षणभंगुर जानकर छोड़ दिया है तथापि यापकी इच्छा अत्यन्त उत्कृष्ट आत्म-मखकी प्राप्ति के लिये लालायित है । अतः आपको 'निरीह (इच्छाहीन) कैसे कहा जा सकता है। यद्यपि आपने स्त्री के शरीर को नितान देय. धणित एवं अस्पृश्य समझ कर उस पर से अपना अनुराग (प्रेम) हटा लिया है तथापि मूक्तिरूपी स्त्रीमें तो आपका सत्य
बना हा है, फिर आपको हम 'बीतराग' (प्रीति रहित) भी कैसे कह सकते हैं ? यद्यपि जिन्हें लोग रत्न कहा करते हैं जन पत्थरोंको आपने त्याग दिया है तथापि सम्यक दर्शन आदि महारत्नोंका आपने धारण कर लिया है फिर आपको त्यागी भी
से कहा जाय ? यद्यपि आपने क्षण भंगुर राज्य-सत्ता को पाप का प्राश्रय जानकर छोड़ दिया है तथापि नित्य, अनाशवान एवं मनपमेय श्रेलोक्य के विशाल राज्य पर एकाधिपत्य भी तो पाप ही स्थापित करने जा रहे हैं, फिर आप निस्पह कैसे रहे ? (यह निन्दा-स्तुति है।) हे जगत्के स्वामी, आपने इस संसार की चंचला लक्ष्मी का परित्याग करके लोकोत्तर सम्पत्ति मोक्ष लक्ष्मी को साप्त करनेकी इच्छा की है फिर आपको प्राशा रहित केसे समझा जाय? हे देव, यद्यपि आपने अपने ब्रह्मचर्य रूपी तेज बाणोंसे अपने शत्र कामदेव को नष्ट कर दिया है, तथापि कामदेव की स्त्री रतिको मापने विधवा भी बना दिया फिर आप कपाल कहां
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सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र, रत्नत्रय भूषण सुपवित्र । वस्त्राभरण रहित सब संग, प्रनमौं प्रभुहि दिगम्बर अंग ॥१४६।। नमों मुक्ति कान्ता भरतार, सखा तात प्रनमौं अविकार । स्वयंबुद्ध बन्दी तीर्थेश, तीन ज्ञान जिन नैन महेश ।।१५०॥ इन्द्रिय विमुख अमित अनभेव, प्रनमौं सन्मुख आननमेव । नमों कर्म अरि घातनहार, शुभ लक्षण गुण सिन्ध अपार ॥१५॥ इहि विधि तुव स्तवन अनेक, को बुध पार लह भव एक। दोज प्रभु मुहि सेवक जान, दीक्षा तप जिनमुक्ति निदान ॥१५॥
दोहा
इहि विधि बहु अस्तवन कर, पुनि पुनि भक्ति बढ़ाय । बारंबार प्रनाम प्रभु, सुरपति निज सुखदाय ॥१५॥ परम पुण्य को उदित कर, पूजा श्रुति माय । म जुग निब लोक को, गये हर्ष उर लाय ॥ १५४।।
चौपाई
अब कौनी प्रभु जोग अरूढ़, निश्चल तन पर्वत सम गूढ़ । उदित भयो जिम सोषमभान, जग जियको प्रिय करता वान॥१५॥ तप बल चौथी ज्ञान प्रकाश, भव्यन को सुख करता जास । षट महिना पर्यन्त सुहेत, ध्यान अडोल कियो सम चेत ॥१५॥
रहे? हे नाथ पामने अपने ध्यानरूपो अस्त्र से मोह नुमति के साथ ही साथ कर्म रूपी अन्य सब शत्रुओंका नाश कर डाला फिर यापक दय में क्ष्यालता कहां रहो? हे प्रभो, यद्यपि आपने अपने गिने गिनाये अल्प संख्यक बन्धनों का परित्याग कर दिया है तथापि अब तो स्वयं अपने गुणों के प्रभाव से सम्पूर्ण जगत् को वन्धु बनाये जा रहे हैं। फिर आपको बान्धव हीन कोई कमेकी सकता है ? हे चतूर, आपने सर्पके फणके समान सांसारिक भोगोंको छोड़ कर शुक्ल ध्यानरूपी अमृतको पीलिया है फिर मापक 'प्रोषध व्रत' कैसे होगा?
हे स्वामिन् ! पापकी इस दोक्षाको बुद्धिमानों ने ग्रादरकी दृष्टि से देखा और इसने संसार के तापों को एकदम शान्त कर दिया है। प्रापकी यह परम पवित्र महा दीक्षा पुण्यवारा के समान सदैव हम भव्य-जीवों की रक्षा करे। हे देव मन वचन एवं काय को प्रति विशुद्धता पूर्वक सम्पूर्ण जगत् की पवित्र कर देने वाली दीक्षा को प्रापने ग्रहण किया है । इसी महादीक्षा के बल पर मोक्ष चाहने वाले आपको नमस्कार है । आप शरीर-आदि के सुख से मुख मोड़ चुके हैं, मोक्ष मार्ग में निरन्तर अग्रसर हो रहे तप रूपी लक्ष्मी से प्रीति करने वाले हैं। दोनों तरह के परिग्रहों को छोड़ने वाले अापको नमस्कार है।
हे ईश सम्यक् दर्शन ज्ञान, चारित्ररूप तीन बहुमूल्य आभूषणों से अलवृत एवं अन्य पार्थिव प्राभपणों से होन आपको
1 सापने सम्पूर्ण वस्त्रों का परित्याग कर शुन्य दिशारूपी वस्त्रों को धारण किया है। ईश्वरत्व-प्राप्तिको साधना में बत हैं अत: पापको नमस्कार है । हे जिनेश्वर आप सकल परिग्रहों से ही एवं गुणरूपी सम्पत्तियों से युक्त हैं. प्रापको
यारी है. इसलिए आपको नमस्कार है। हे नाथ, माप इन्द्रियातीत अक्षय सुखमें चित्त को लगाने वाले विरक्त उपवास करके शुक्ल ध्यान रूपी अमृत के भोक्ता हैं, आपको नमस्कार है। हे देव प्राप दोक्षित होकर जानरूपी वाट नेत्रों के धारक हैं, बाल ब्रह्मचारी हैं, तोश हैं और स्वयं बुद्ध हैं, पापको नमस्कार है । आप कर्मरूपी शत्रुनों को सन्ततिके नाश
माणसागर है. और श्रेष्ठ क्षमा इत्यादिशुभलक्षणों से युक्त हैं, आपको नमस्कार है। हे देव, ग्राप इस संसार की सम्पूर्ण मागायोको पूर्ण करने वाले हैं, परन्तु यापकी स्तुति जो हम कर रहे हैं, वह संसार की श्रेष्ठ सम्पत्तियों को पाने के लिये नहीं करते। किन्तु जिस प्रकार बाल्यावस्था में प्रापने तप-दीक्षा ग्रहण को है, वही अतुलनीय शक्ति हमें भी प्राप्त हो। इस देवों के इन्द्र ने महावीर भगवान् की पूजा, स्तुति एवं नमस्कार करके अपार पुण्य का उपार्जन किया।
इसके बाद महावीर स्वामी ने अपने सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंगों का निश्चेष्ट अपने कर्मरूपो शत्रुओं के नाशक योग क्रिया का अवरोध किया। उस समय वे चेष्टा शम्य सुन्दर पत्थर की मूर्ति के समान जान पड़े। उस परमोत्तम ध्यान के प्रभाव से चतर्थ मन पयान प्रादर्भ त हया, जो कि महावीर प्रभुके लिय केवल ज्ञान प्राप्त होने का दिग्दर्शन था। मनुष्य प्रादि योनियों में प्राप्त
पदानों को निर्विकार होकर महावीर प्रभु ने तुच्छ तृण के समान जान कर छोड़ दिया और अविलम्ब दोक्षा ग्रहण कर ली। उन अनुपमेय महान् नुणशाली श्री वीरनाथको मैं स्तुति करता हूं। और नमस्कार करता है।
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हित उठ घोर लाप भोग ममत्व न अंग समाय यापय शोधन पर देत वाले नासा दृष्टि समेत ।। १५७॥ धनी निर्धनी एक समान, उर संवेग त्रिविध दृढ़वान । ना श्रति मन्द न शीघ्र चलाय, दयावंत भू शोधत जोय || १५८।। दर पुर नगरी पहुंचे जब कुल नाम नृप देखे तवं । उत्तम पात्र जान जिनराय पुण्य प्रताप मिल मुहि प्राय ।। १५६ ।। विधिपूर्वक पडगा सीय, अति आनन्द कियो उर जीम तीन प्रदक्षिण दे शिर नाय, पंच अंग भुवि बंदे पाय ॥ १६०॥ तिष्ठ विष्ठ स्वामी यह कही, शुद्ध बाहार लीजिये यहो तीन लोकपति दर्शन दयो, मेरी जन्म सुफल अर्थ भयो । ६१॥ सिहासन पं प्रभु बैठा लं प्रायौ नृप प्रासुक वार चरणकमल प्रक्षाले महां, अरु अस्नान कराएं तहां ॥१६२ ।। गन्धोदक बन्दौ नर ईश, तन पवित्र कीनो निज शीस अष्ट प्रकारी पूजा करी, भक्ति भाव प्रस्तुति उच्चरी ॥ १६३॥ भो प्रभु आज सुकृत यह भयो, गार्हस्थ्य पती सुफलता लवो पात्र लाभ उर ग्लिसो, सो फल फल समोइ ।। १६४॥ बहु । अब सुफल धन्य नाव शुभ वास पाज, तुम श्रागमन भयो विराज मुख पवित्र मेरो सब भयो, तुमरी प्रस्तुति उद्यत दी ।।१६५||
ध्यानमग्न हो सोचते मुक्ति कामिनी संग निज गुण दे, महंत प्रभु बाधारहित निसंग ॥ अर्थात् परिग्रहसे हीन एवं निर्बाध होकर मुक्ति रूपिनी स्त्री से सुख प्राप्तिकी अभिलाषा वाले और ध्यान में तल्लीन महावोन प्रभुको मैं नमस्कार करता हूं । वे ग्रुपने वोर जनोचित गुणों को हमें प्रदान करें ।
इसके बाद महावीर स्वामी यद्यपि छः मास पर्यन्त अनशन तप करने में पूर्ण योग्य थे तथापि अन्य मुनीश्वरोको चर्यामार्गी ने पार कर लेने का निश्चय किया। वह पारणा (उपवासके बादका चाहार )
शरीर को स्थिति को शक्ति प्रदान करती है। महावोर प्रभु ईपिथकी शुद्धिको ध्यान में रखकर विचारने लगे कि आहार दान देने वाला निर्धन है या धनवान ? इसका दिया हुआ आहार दान पवित्र है अथवा अपवित्र ? वे अपने चित्तमें तीन प्रकारके वैराग्य का चिन्तयन कर रहे थे धीर अनेक दानियों को अपने वचन से सन्तुष्ट करते हुए स्वयं विशुद्ध माहारकी खोज में घूमने लगे । वे न तो एकदम मन्दगति से घोर न एकदम तीव्रगति से चलते थे । साधारण चालसे पैरोंको बढ़ाते हुए उन्होंने 'कल' नामक एक सुन्दर नगर में प्रवेश किया उस नगर का राजा कूल अत्यन्त पश्चिम के बाद प्राप्त हुए प्रिय धन-कोश (मावा) की तरह अनायास ही आये हुए जिनदेव जैसे उत्तम पात्रको देखकर परम प्रसन्न हुआ। उस राजाने महावीर स्वामाकी तीन प्रदक्षिणा की और भूमि पर पांच मंगों को देकर प्रणाम किया। बार में आनन्दल्लास के कारण "तिष्ठ, निष्ठ," दहरिये, ठहरिये ऐसा कहा धर्म-वृद्धि राजाने प्रभुको एक पवित्र एवं ऊंने स्थान पर बैठाया और उनके कमल जैसे सुन्दर एवं कोमल परणों को
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१. वीर का प्रथम श्राहार
जिस प्रकार वड़ का छोटा सा बीज बो देने से भी बहुत बडा वृक्ष उत्पन्न हो जाता है उसी प्रकार पात्र को दिया हुआ थोड़ा भी दान बहुत उत्तम तथा मनवांछित फल की उत्पत्ति करनेवाला हूँ। दान के फल से मिथ्याष्टि को भोग-भूमि के गुरु मिलते हैं और सम्यग्रष्टि स्वर्गों के भोगता हुआ परम्परा से मोता है। भगवान का प्रथम पारण करने वाला तद्भव मोदागामी होता है।
मुख
यात्रक धर्म-संग्रह पृ० १७१ । महावीर स्वामी का प्रथम आहार मगय देश के कूल ग्राम के सम्राट कूल के यहां २ घण्टे के उपवास के बाद हुआ ।
जो निर्ग्रन्थ मुनियों और सच्चे साधुओं को भक्तिपूर्वक विधि के साथ शुद्ध आहार देते है और जिनके ऐसे नियम हैं कि मुनि के आहार का समय गुजर जाने पर भोजन करेंगे। उनके पाप इस प्रकार घुल जाते हैं जिस प्रकार जल से बहू भूल जाता है। राज-सुख और इन्द्र-पद की प्राप्ति सहज से हो जाती है। मंसारी सुख तो चाधारण बात है, भांग भूमि के मनोवांछित फल भी आप से आप मिल जाते हैं। गुट ने नियम ले रखा था कि सम्यष्टि साधुओं के आहार का समय जब गुजर जाया करेना तथ भोजन किया करूँगा। इस नियम का मीठा फल यह हुआ कि वह कुवेरकान्त नाम का इतना भाग्यशाली से हुआ कि जिसकी देव भी सेवा करते थे। पिछले जन्म में इच्छाहित साधों को आहार कराने के कारण ही हरिषेण : खण्ड का स्वामी चक्रवर्ती सम्राट हुआ जब स्थागियों और साधुओं के आहार कराने में इतना पुण्-लाभ हैं, तो जिसके घर तीर्थंकर भगवान का आहार हो उसके पुण्य का क्या टिकाना ? स्वर्ग तो उसी भव में गिल हो जाता है और मोक्ष जाने की ऐसी छाप लग जाती है कि थोड़े ही भव धारण करके वह अवश्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
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दम्पर नगरो के गज कल महावीर कामी
को याहार के लिय परमाने हो।
दरपुर नगरी में पहुंचने पर गजा कल ने बड़ी भक्ति और श्रद्धा
के भगवान महावीर स्वामी कीम्नान को।
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आचार्य श्री सुविधिसागर ,
."
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वेश लोंच करते हुये ।
महावीर स्वामी न. पास पण पक्षा प्रानन्द म विचरण करते थे।
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भयौ पवित्र गात्र सब मोहि, कर पवित्र पद प्रनमा तोहि । दोष सकल मेरे तुम हरे, सुख समाज संपूरन करे ।।१६६॥ इहि विधि थुति कीनो अधिकार, पुण्य उपायौ नव परकार । बहु बिधि हरष चित्त नृप करी, दान तनी श्रद्धा उर धरी ।।१६७।। यथाशक्ति निज परकट कीन, पात्र दान उद्यत परवीन । सुश्रुषा बहु भांति करेय, भयौं भक्ति में तत्पर तेय ॥१६॥ यह विचार नृप कृपानिधान, परम क्षमा धीरज मन आन । क्षीर अन्न मिश्रित कर ठान, मन वच काय शुद्धि उर मान ॥१६॥ प्रासुक मधुर सरम निदोष, क्षुधा तृषा नाशक सन्तोष । सो अहार प्रभु लीनो जब, पंचाश्चर्य' करे सुर तब ।।१७।। राजभवन अंगन भू मांहि, रत्नबुष्टि पूरी अधिकाहि । अति अमूल्य अरु थूलप्रपार, बरष मनो मेघ की धार ।।१७।। पहुप सुगंध वृष्टि अधिकार, दुदभि शब्द होय अतिसार । जय जय घोष होय अति धनी, दाता जश गावें सुर मनौ ॥१७॥ परम दान फल बहु बिध होय, भव समुद्र ते तार सोय । जिहि घर कोनों गमन जिनेश, सो दाता धन जगत महेश ।।१७३॥ दान पुरुष की परम निधान, स्वर्ग मुक्ति को कारण जान । बहु प्रकार जाके ग्रह देव, जय जयकार करें स्वमेव ।।१७४।। उत्तम पात्र दान फल लोय, कोटिन की धन प्रापति होय । परभव स्वर्ग भोग भूलहै, तप कर फिर शिवपन्थ जु गहै ।।१७५॥ मब पुरजन नग अंगन माहि, रतन राशि देख मालिकाहि । गाई। हम बैन, दान नाना फल अति सुख दैन ।।१७६।। तिन बच सून भविजन इमि कहै, दान तनौं फल बहु विधि लहैं। कोई भोगभूमि सुर कोय, कोई मोक्ष लहैं तप जोय ॥१७॥
दोहा वर्धमान जिनराज इमि, लीनों परम प्रहार । भूपति भवन पवित्र कर, फिर वन गये संवार ।।१७।। दान तनों फल नृप लह्यो, मुख संपति गुण गेह । बहुजन हरष बढ़ाय हि, कियो दानसौं नेह ।।१७६।।
पवित्र जलसे धोया । उन प्रभके पाद प्रक्षालित जल को राजा ने अपने सम्पूर्ण अंगों में लगाया । इसके बाद राजा ने जलादि शाह प्रकार के प्रासक द्रव्योंसे प्रभकी भक्ति पूर्वक पूजा की। राजाने अपने मन में विचारा कि आज घर में सुपात्र उत्तम अतिथिका जानेसे मेरा गार्हस्थ्य-जीवन सफल हुया । मैं पुण्यकर्मा हूं। इस पवित्र बिवेकसे राजाका मन और भी विशेष पवित्र हो गया। १. बोर स्वामी के आहार को अपने अवधिज्ञान से जान कर स्वयं के देवों तक ने पंच अतिशय किये।
२. वीर-चरण-रेखा जमे योद्धाओं में वासुदेव, फलों में अरविन्द कमल, क्षत्रियों में चक्रवर्ती श्रेष्ठ हैं । बने ही ऋषियों में श्री वर्द्धमान महावीर प्रधान हैं. कि जिनके चरणों में अपना सिर झुकाने के लिए स्वर्ग के इन्द्र और संसार के चक्रवर्ती लालायित रहते हैं।
-सूत्र कृतांग सोने की पालिवी में चलने वाले राजकुमार वर्द्धमान आहार करने के बाद नगे पांव पंदल जंगल को वापिस लौटे और एक वक्ष के नीचे पदमासन लगाकर ध्यान में लीन हो गए। थोड़ी देर बाद उसी रास्ते से पुष्पक नाम का मामुद्रिक शास्त्री गुजरा तो उसने वीर स्वामी के चरणों की रेखा देखकर अपने सामुद्रिक ज्ञान मे जान लिया कि यह चरण किसी बहुत भाग्यशाली और प्रतापी सम्राट के हैं, उसने विचार किया कि अवश्य कोई महाराजा रास्ता भूलकर इस जंगल में आ चुसा । यदि मैं उनको सही रास्ता बता दूं तो वे मुझे इतना धन देंगे कि मैं सारी उम्र को जीविका को चिना से मुक्त हो जाऊंगा। यह सोचकर वह पांव के चिन्हों के साथ-साय चलता हुआ उसी म्यान पर पहुंच गया कि जहां वीर स्वामी ध्यान में मन्न थे। वह पागे को चनने लगा, परन्तु पांव के निशान आगे न दीधे । वह केवल उस वृक्ष तक ही थे । सामुद्रिक शास्त्री को बड़ा कोई सम्राट नजर न पड़ा । बीर स्वामी को साधारण गाघु जान कर विचार किया कि शायद मेरी समझ में कुछ अन्तर रह गया हो, उसने वहीं आनी पुस्तक को अगल से निकाल कर वीर स्वामी की रेखाओं से मिलान किया तो वह आश्चर्य करने लगा कि पुस्तक के अनुसार लो ये बहे भावशाली सम्राट होने चाहिये, परन्तु यहां तो इनके पास लंगोटी तक भी नहीं। उसने सोचा कि मेरी यह पुस्तक गलत है जिस तरह आज इससे मोखा हया याइन्दा भी भय है, इसलिए वह अपनी पुस्तक को फाड़ने लगा। जो लोग वीर स्वामी के दर्शनों को आये थे उन्होंने पूछा, पण्डितजी यह क्या? उसने कहा, "मेरी पुस्तक के अनुमार थे चरण रेखायें किसी प्रतापी महाराजा की होनी चाहिये, परन्तु उनके स्थान पर मैं ऐसे साधारण मनुष्य को देख रहा हूँ कि जिस बेचारे के पास एक लत्ता तक भी नहीं, मेरा ग्रन्थ गलन मालूम होता है, इसके रखने से क्या लाभ?" लोगों ने समझाया कि पवितजी ! जिन को आप साधारण भिक्षुक समझते हो ये तो महाराज सिद्धार्थ के भाग्यशाली राजकुमार है, जिन्होंने राज्यकाल में किसी भी याचक को खाली हाथ नहीं लौटया और अब एक ऐसा असाधारण दान देने के लिए तैयार हुए हैं कि जिसको पाकर संसार के समस्त प्राणी सम्वा सुख और शान्ति अनुभव करेंगे। यह सुनकर पण्डितजी बड़े प्रसन्न हुए और बीर स्वामी को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया।
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चौपाई अब जिनपति बहिर सरेसा, पुर ग्राम फिर बहु देशा। कछु ममता अंग न आना, नाना अटवो उद्याना ।।१८।। तप द्वादश भेद बखानौ, जिनवर मन वच तन ठानी। प्रभु अनशन प्रथमहि लीनी, जाब चार प्रहार न कोनौ ।।११॥ फिर अबमोदर तप कहिये, तहं अलप अहार जू लहिये । व्रत संख्या उर अवधारी, सो वस्तु संख्या तप भारी ॥१८२।। भोजन रस स्वाद न कीनौ, रस त्याग महा तप लीना । जब पासन शयन जु न्यारै, विविक्त शय्यासन धारे ।।१८३।। अब काय कलेश स जीज, निज काय क्लेश हि कीजै । वर्षा ऋतु तरके मूला, तह वायु बहै प्रतिकुला ॥१४॥ सित काल नदी सर तीरा, जाड़े सौं कंपत शरीरा । प्रभु ध्यान अगनि तप भारी, शित जाय महाभयकारो ।।१८।। ऋतु ग्रीषम भानु जे तेजा, गिरि तुग शिला की सेजा । सो सरवर रहुइ न कीचा, प्रभु ध्यान सुपय तन सोंचा ।।१८६५ यह वाहिज पट तप गुनिये, याभ्यंतर पट अब सुनिये । जो पूरव चिन्ता त्यागे, निज प्रातम खोज हि लागे ।।१८७१ मद इन्द्रिय धोय बहावं, सो प्रायश्चित्त कहावै । जो होय अपनते भारी, तस् विनय कर अधिकारी ।।१८।। जो रोग सहित तर ही सुपा की कीजै । जो बारह व्रत दृढ़ होई, वैयावृत जानी सोई ॥१८६ | स्वाध्याय पंच विधि कीजं, सो स्वाध्याय हि तग लीज । कायोत्सर्गासन साध, तहं चारौ ध्यान अराधे ।। १६० ।। पिण्डस्थ पदस्थ वखानी, रूपस्थ रूपातित जानो । इमि कर्म महाबन जारी, ता वायोत्सर्ग सुधारौ ॥१९१।।
दोहा वीरनाथ जिनराज ने, द्वादशविध तप कोन । प्रात्मवीर्य परगट भयो, राग द्वेष मद होन ॥१६२।।
हे देव, हे प्रभो, आज आप के आगमनसे मैं धन्य हो गया, आपने मेरे घर को परम पवित्र बना दिया, ऐसा कहने से राजा का वचन पवित्र हो गया। पात्र दान करने से मेरा हाथ एवं शरीर पवित्र हो गया। ऐसा सोचने से राजा को काया शुद्धि हो गयी। उसने कृत प्रादि दोषों से होन प्रासुक अन्नसे होने वाले विमल एषणा (आहार) को शुद्ध किया। इस प्रकार उस कुल राजाने नवधा भक्ति द्वारा महान पुण्य का उपार्जन किया।
वीर-उपवास भगवान महावीर ने बारह वर्ष से भी अधिक महाकठिन तप किया। इस दीर्घकाल में उन्होंने केवल ३४६ दिन ही पारण किया तथा सभी उपवास निर्जल ही थे।
५० अनूपशर्मा : बर्द्धमान (ज्ञानपीट काशी) पृ० ३० । वीर स्वामी ने सांसारिक पदार्थों का राग-द्वेष और मोह ममता तो त्याग ही दी श्री, परन्तु उन्होंने शरीर का मोह भी इतना त्याग दिपा या कि आहार तक से भी अधिक सचिन यो । आहार के लिए नगरी में जाने से पहले ऐसी प्रतिज्ञा, कर लेते थे कि अमुक विधि से आहार पानी मिला तो ग्रहण करेंग वरन् नहीं । वे अपनी कठिन प्रतिज्ञा को किसी के सन्मुख भी न करते थे। अनेक बार ऐसा हुआ कि तीन-तीन चार-चार दिन के बाद आहार को उ और राजा, प्रजा सभी महा स्वादिष्ट भोजन कराने को उनको प्रतीक्षा में अपने दरवाजों पर सट्टे रहे परन्तु विधिपूर्वक
आहार न मिलने पर वह बिना आहार जल लिए जंगल में वापस लौट आये। ऐसे अवसरों पर अपने अन्तराय फ्रम का फल जानवर हृदय में खेद किये बिना ही वह फिर तप में लीन हो जाया करते थे।
एक बार कौशाम्बरी के जंगल में महावीर स्वामी तप कर रहे थे कि उन्होंने प्रतिज्ञा को-आहार किसी राज कन्या के हाथ से लूगा, उस राज्य कन्या का सिर मुडा हुआ हो, वह दामी की अवस्था में कंद हो और आहार में कोदों के दाने दें। देखिये श्री वर्द्धमान महावीर की प्रतिज्ञा कितनी कठोर हैं । कन्या राजकुमारी हो परन्तु उसकी अवस्था दासी की हो और सिर मुडा हो, यदि किसी एक वात की भी कमी रह गई तो आहार-पानी दोनों का साग । बीर स्वामी अनेक बार आहार को उठे परन्तु विधि पूर्वक आहार न हो सका । यहाँ तक कि आहार-पानी लिये उन्हें छः मास हो गये।
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चौपाई
क्षमा भाव सब हो सो माने, कांचन कांच बरावर जाने धन कन जिनके एक समान महल मसान भेद नहि यान || १९३ ।। दुस मुख जानहि एक हि भाव जीवन मरण बरावर चाव मित्र दोनों सम एक पनी निरधनी एक ही टेक ॥। १९४॥
व
उपजी प्रभु को ऋद्धि बुद्धि] सौषधि क्षेत्र वच
दोहा
सिद्धि अनेक प्रकार तप रस विक्रय धरस
तिन गुण क्रिया सहित
सवैया इकतीसा
वर्णन करी, लहि आगम अनुसार ।। ११।। अष्टी कहो, तिन ऋद्धि तिस वस्स ।। १२६॥
प्रथम बुद्धि बिहार प्रभाव श्री पुनीश उर धानिये - केवल मन:पर्यय अवधि बीज कोष्ठ सं-भिन्न स्रोत तथा पादानुसार हां जानिये । दूरी पर्श दूरी रस घ्राण श्री श्रवण दूरी, दूरी बहू भांत अवलोकन बखानिये - देश पूर्वा चतुर्दश पूर्वी प्रत्येक वाद प्रज्ञा नैमित्तक भेद भ्रष्टादश प्रमानिये ।। ११७।।
पडि छन्द
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सहं तीन लोक भाजु एम. हि जलकी बूंद हस्त जेम यह केवल ऋतु प्रथम नाम, जहं जीव सर्व इष्टो विराम ॥ ११८ ॥ अब मन:पर्ययजीय बुद्धि, तजि मन विकार निर्मल हि शुद्धि | सबके मन की आने जु जीव, जैसो जाके हिरदे प्रतीव ।। १६६ ॥ ताही में है सुन भेद दोव, ऋजु विपुल कहे भगवान सोय सबके मनको है सरल भाव, सो ऋजुमति बारे को लखान ॥ २००॥ सूधी टेड़ी जो जान लेय, यह विपुल मती तासो कय । पुनि अवधि बुद्धि तीजी प्रमान, सो आगम शास्तर भवबखान ॥ २०१ ॥ बिन पूछे नहि पहिचान होय, जब पुच्छय उत्तर कहद सोय । है अवधि भेद तीनों प्रकार, देशावधि परमावधि जु सार ॥ २०२॥ जो एक देश की कह दक्ष सो देशावधि मुनिवर प्रतक्ष जहं द्वीप बढ़ाई वरन भेद, भूमि परमावधि भाषे निवेद ।। ५०३ ।। कहि तीन लोक संबन्ध जोय, सर्वावधि ऐसी गुण जु होय अब वीर्जबुद्धि चौधीय टेक, पद एक पढ़त प्रापति अनेक ॥। २०४॥ पुन कोष्ठ बुद्धिपंचम बखान, जहं सुनहि एक अस लोक ठान कहि प्रश्न अगि सोइ कछु भेद छिपी नहि रहइ कोइ ।। २०५ ।। भिन्नता बुद्धि पष्ठ, नव बारह जोजन ती वरिष्ठ दल चक्रवति ते तक प्रमान नर देश देश के ताहि यान || २०६ ॥ जो बोलहि एकहि बात सर्व पहिचानहि तिनके वचन पर्व पादानुसार उत्तमह बुद्धि, पद यादि पंत की करहिं बुद्धि ।।२०७३ सो सकल ग्रन्थ अर्थह समस्त, अरु कंठपाठ भज मुनि प्रशस्त दूरी सपरस भ्रष्टम गनेइ, गुरु लघु चीकन अरु रुख धरेइ ॥ २०८ ॥ कोमल कठोर ग्ररु उष्ण शीत, यह आठ प्रकार सपर्स रीत सो द्वीप ग्रढ़ाई ली उतिष्ठ इक जोजन तें जानें कनिष्ठ ॥ २०६॥ सबके गुणभाष जुद जुदेय, तप बल खाँ से सब जान लेव भय नवमी दूरी रखन पाप, मधु विक्त कटुक आमलकयाय ।। २१०॥
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यह परम दुर्लभ उत्तम पात्र ही मेरे भी भाग्यसे प्राप्त हुआ है इसलिये मेरा यह आहार दान सविधि पूर्ण रूपेण सम्पूर्ण है। ऐसा श्रेष्ठ विचार करके वह राजा अत्यन्त यद्धाशील बनकर अपनी शक्ति अनुसार पात्र दानके महान उद्योग में लग गया। किन्तु उस महादान के प्रभाव से उत्पन्न अजस रत्नवृष्टि एवं कोर्ति की अभिलाषा उस राजा ने नहीं की। वह सेवा पूजा इत्यादिके द्वारा प्रनकी भक्ति में लग गया, और धर्म सिद्धिके निमित्त अन्य कार्योंको जो वह किया करता था उन सबको तिलांजलि दे दी। उस राजाने सोचा कि यह प्रयुक बाहार है और दान देने का यही श्रेष्ठ समय है। यह शो पुरुष किस प्रकार उपवासों के उन मसा पेशों को धैर्य पूर्वक सह लेता होगा इन्हें उत्तम विधि से आहार देना चाहिये। उस राजाने ऐसा विचार किया। राजाने इस प्रकार महान फलको देने वाले श्रेष्ठदाता के उत्तम गुणों को अपने में ग्रहण किया। इसके बाद राजाने हितकारक उत्तम पात्रको मनसा, वाचा, कर्मणासे पवित्र होकर श्रद्धा-भक्ति के साथ विधि पूर्वक खीर का आहार दान दिया।
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ए रस जो कोई कहइ भाष, तो द्वीप अढ़ाई स्वाद चाख । सो स्वाद बखान सुनि गहोर, यह ऋद्धि लही कर तप शरीर ॥२११।। अव दशमी दूरी घ्राण जास, दुरगंध और सुरगंध वास । सो पूर्व रीति मुनि जानि लेह, यह नासा विषय विलास जेह ।।२१।। पुन दूरी-श्रवण जु इक दोव, हैं सात विषय ताके सुनेव । सो ऋषभ निषाद गांधार तीन, चौथे को षडज जु नामलीन ।।२१३॥ पंचम मध्यम धैवत छटेव, पंचम मिलि स्वर सातौ गनेव । जो पुरुष शवद है ऋषभ नाम, नभगरज निषाद द्वितीय ठाम ||२१४।। पन प्रजा शबद गांधार होय, मजार शबद जह पहज जोय । पन्चम मध्यम यह शबद रूप, छठमौं धंवत गजवर अनूप ।।२१५।। कोकिल वर पंचम स्वर ही सात सब पंच शब्द कहिये विख्यात । है प्रथम शब्द जहं मर्मवाज, फुकार दुतिय तहं तंत साज ।।२१६।। चौथो मजीरादिक बखान, जल लहर शब्द पंचम प्रमान । सो पूर्व रीति जाने लखाव, सब द्वीप अढ़ाई के प्रभाव ॥२१॥ दूरी अवलोकन द्वादशेत्र, रंग श्वेत पीत अनुरक्त भेव । तहं कृष्ण नील सब पंच वर्ण, पूर्वोक्त दूर ते ज्ञान घर्ण ॥२१८॥ दश पूर्वबुद्धि तेरम वस्त्रान, दर्श पूर्व अंग एकादशान । विन पहुँ सकल विद्या लहेय, रांपूरण अर्थ हि सुख कहेव ।।२१६॥ अरु रोहिणी देवी क्षुल्लिकादि, सबपंच सप्त तं धर विषाद । मिल कर कटाक्षो हाब भाव, थिर रहै तहाँ मन ध्यानचाव ।।२२०।। चौदह पूर्वा बुधि चौदशेव, नहं चौदह पूर्व जु अंग तेव । बिन हो श्रम सब ही पढ़ कहाय, सो द्वादशांग श्रुत ज्ञान राय ॥२२१॥ सत संयम अझ चारित विधान, ते विन उपदेश ही लहइ ज्ञान। इन्द्रिय दम तप घोरानुघोर, वह बुधि प्रतेक पन्द्रमहि जोर ।।२२२॥ अब षोडशमी है बाद बुद्धि, बहु वाद करन पावै त्रिशुद्धि । ते इन्द्र आदि विद्या प्रमान, इक उत्तर सबको मद गलान ।।२२३॥ बुध प्रज्ञा सत्रमि सुनहु तग्य, सब तत्व अरथ संजम मुतग्य । तिनि भेद थूल मूक्षम अनंत, विन द्वादशांग वाणी कहूंत १।२२४॥ अट्ठारम बुधि नैमित्त अन्न, तिनके गुण आठ प्रकार भन्न । स्वर अन्तरीक्ष भूमंड छिन्न, व्यंजन लक्षण अरु सूपन भिन्न ॥२२॥ खग चौपद की भापा प्रजोत,प्रगट मुनि हिय पर सहज प्रीत। तिनको जो कछु भावीय काल, दुख सुख बरनं स्वर अंगभाल ||२२६॥ ग्रह भान सोम प्रादिक प्रशस्त, शुभ अशुभ आदि फल उदय प्रस्त। तहं तीता नागत वर्तमान, वरनै तु अंतरिछ भगवान ॥२२७|| पिछली सुवस्त कछु भू मंझार, द्रव्यादिक सब नाना प्रकार । अरु भूप कप बरत जु सोइ, वरने भू अंगहि तृतिय जोइ ।।२२८।। नर पशु दुख-सुख सबकी जनाय, वैद्यक सामुद्रिक सब सुभाय । करुणा जुत प्राः मुनि प्रसंग, प्रगट उपकार जु मंड अंग ॥२२६॥ तह वस्त्र शस्त्र सेनादि छत्र, प्रासन अवस्त्र कंटक अशस्त्र । एकस सुरनर मुख अंसझार, गोमय अरु अगनि बिनाशहार ॥२३०।। शुभ अशुभ उपाबत फलजु सोय, प्रगटै बखान संशय न कोय । यह छिन्न अंग पंचम गनंत, बुद्धि नैमित्तिक मुनिवर भनत ॥२३॥ तिल मसे जु लहसन इनहि आदि, हैं सामुद्रिक ते जूद अनादि । तिनके फल दरने पूर्व ज्ञान, यह व्यंजन अंगहि गुणनिधान ।।२३२।। लक्षण श्री वृक्षादिक भनीक, अष्टोत्तर शत तिनको जु ठीक । कर पगत र शुभ ग्रह अगभ जेम, वरनं सो लक्षण अंग तेम ।।२३३।। जगमांहि पदारथ सकल होय, ते सुपन विष जो लखहि कोय। तिनको फल कहि संशय मिटाय, यह सुपनअंग पाठम सुभाय ।।२३४।।
दोहा
यह अष्टादश भेद युत, बुद्धि ऋद्धि गुण गेह । बिमल रूप प्रगटै सदा, पाय तपोधन देह ।।२३५||
वह विशुद्ध आहार प्रासुक स्वादिष्ट था, निर्मल तपको बढ़ानेवाला था, और क्षधा पिपासाको शान्त करने वाला था। उस राजा के दान से देवता लोग बहुत प्रसन्न हुए और पूण्योदयके कारण राजप्रासाद के प्रांगन में रत्नोंकी मूसलाधार वर्षा हुई । उस रत्न वर्षाके साथ ही साथ पुष्प वृष्टि एवं जल वष्टि भी हई। उसी समय प्रकाश मण्डल में दुन्दुभि इत्यादि बाजो की गम्भार तुमुलध्वनि हई। उन वाद्योंके महान रागोंको सूनने से ऐसा जान पडता था मानो वे राजाके पूण्य एवं उत्तम यशका गम्भीर स्वरमें गान कर रहे हों ! उसी समय देव भी 'जय जय' इत्यादि शभ शब्दों का उच्चारण करते हुए कहने लगे कि हे प्राणिया, यह परमोत्तम पात्र श्रीमहावीर प्रभ दाता को इस संसार रूपी महा समद्र से अनायास ही पार उतार देनवाले है। यह दाता अत्यन्त भाग्यशाली एवं धन्य है जिसके यहाँ कि अपने पाप स्वयं जिनराज पहंच जाय। ऐसे उतम दान के प्रभाव से दाता को स्वर्ग एवं
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इति बुद्धि ऋद्धि वर्णन
दोहा ऋद्धि औषधी भेद बसू, विटमल आम उजल्ल' । वृल्ल सर्व वृष्टि विषा-दाशन विष गुण मल्ल ।।२३६॥
गीतिका छन्द विटऋद्धि मुनि विष्टा जु लेपहि, राकल रोगनको हरे। निर्मल निरोग शरीर निबसे, अंग परतापहि धरै॥ लहि मैल दाँत जु कान नासा, रोग लस देखत डर । धातु सकल कल्याणकारी, मल ऋद्धि यह गुण विस्तरै ॥२३७।। रोगसौं असि' और दारिद भाग हीन जु चितव । तह हाथ छुवतन सकल साता पाम अंगहि गुण सबै ।। मुनि श्रम जलहि ल तन लगावत होय सुख ही चमै । नास असाता देह परसत अंग उज्वल यह नमै ॥२३८।। मूत्र थक खकार मुनिको-व्याधि हर धानुहि रच । मनके मनोरथ पूर राख-चुल्ल गुण सब भ्रम खर्च ।। मुनि अंग परस जु पवन आवै करहि सुख तन दुख हर । नासै जु अघ पाताप जियके सर्व अंग ज यह टरै ।।२३।। मूनि सर्प काट्यो होई कोई तथा काहू बिष पियो । दृष्टि परत पाताप नाही दृष्टि विप गूण पहिलयी।। दुष्ट जन मुनिराज को विष मिथ भोजन देवहीं। तो होय अमृत छिनक में ही विष तन परभाव ही ।।२४०।।
इति औषधि ऋद्धि वर्णन
दोहा अब सुन क्षेत्र जु ऋद्धि को, वरनौं शाखा दोय । प्रथम अधिन्न महानसो, क्षेत्र महालय होय ॥२४१।।
गीतिका छन्द जाकै जु मुनि जब होय भोजन; दीन वह फल यह ल है । चूका दल जु रसोई खातहि, तासत अधिकी रहै ।। क्षय भई प्रकृति लभान्तरायी, तथा उपशम के उदै । तप बलहि प्रगटै गुणहि ऐसो नाम अधिन्न महान है ।।२४२॥ जहां मूनिवर कर्म नाहि, चार हाथ जु भुवि परै । कोदि नर सुर पशुन वल तंह, निराबाधक तन धरै ।। कष्ट मुनिको कबहुं नाही, यह प्रभावहि थल वही । अब छिन महालय अंग दुजो, कह्यौ पागम लहि सही ।।२४३।।
दोहा क्षेत्र ऋद्धिगह विमल गुण, सौहे तप मुनि ईश । देवन को दुर्लभ सदा, भाषी श्री जगदीश ॥२४॥
इति क्षेत्र ऋद्धि वर्णन
मोक्ष प्राप्त होता है। इस लोक में तो तुम लोगों ने देखा ही होगा कि उत्तम-पान को दान देने से बहुमूल्य अपार रत्न राशि की प्राप्ति होती है एवं विमल यशका विस्तार होता है परलोकमें भी स्वर्ग सम्पदाए एवं भोग विभूतियां प्राप्त होती हैं जिनके द्वारा चिरकाल तक प्रानन्दोपभोग किया जाता है। रत्नवृष्टिके कारण राज-महल का प्रांगन भर गया। आँगन में पड़ी हुई उन रत्नों के देरको देखकर बहत लोग परस्पर कहने लगे कि देखो, दान का केसा उत्तम फल है ? पाखोंसे देखते ही देखते यह राज प्रसाद बहमल्य रत्नों की वर्षा से भर गया! दूसरे ने कहा यहां क्या देखते हो ! यह तो अत्यन्त अल्प फल को हो तुम अपनी आंखों से देख रहे हो । उत्तम पात्र दान से तो स्वर्ग एवं मोक्ष के अक्षय सुख अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। इन लोगों को कथनोपकथन को मनकर एवं अपनी प्रांखोंसे प्रत्यक्ष पात्र दानकी महिमा को देखकर बहुत से जीव स्वर्ग एवं मोक्ष फलकी कल्पना करने लगे और पात्र दानकी महत्तामें विश्वास कर लिया।
पाहार दानके समय वीतराग श्रीमहाबीर तीर्थकर ने अपने शरीर की स्थिति के विचार से अंजलिपूर रूपी पात्रके द्वारा
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चौपाई अब तुम सुनौ ऋद्धि बलसार, मन वच काय विविध परकार । भिन्न भिन्न तिनके गुण कहो, जैसे जिन शासन में लद्यौ ।।२४५।। श्रुत आवरणी कर्म प्रधान, ताके क्षय उपशम तै जान । अन्तमूहरत विष समर्थ, द्वादशांग वाणी को अर्थ ।।२४६॥ तिनको मन में कर विलास, यह कहिये मनवल परकास । द्वादशांग बाणो अाधन, कहत महासुख उपज चैन ।।२४७।। तिनको कष्ट न होय लगार, वचन अतुल बल के अनुसार । वाणी पड़त वेह श्रम नाहीं, पढ़े मु अन्त मुहरत माहीं ॥२४॥ काय अखंडित बल को कर, अतुल प्रखंड महावल धरै । सोहै जिनको सुभग शरीर, काय अंग जानौ वर वीर ॥२४६।।
पोहा यह बल ऋद्धि गंभीर गुण, प्रगट बखानी देव । उदय होय तप योग में, जिनवाणी लहि मेव ॥२५०।।
इति वलऋद्धिवर्णन
पद्धडि छन्द
अब सुनह भव्य तप ऋद्धि सार, तामें गुण वरनौं सप्त धार । ते घोर महत उग्रह अनन्त, अतिदीप्त तप्त योरह गुनन्त ।।२५१॥ पुन ब्रह्म धोर सप्तम बखान,अव तिनकै गुण सुन भविसुजान । नव भूमि समान जु जहाँ होय, जोगासन रुचि सी करकोय ॥२५२॥
पद्धड़ि छन्द तहं सहहिं उपद्रव कठिन अंग, याही सो कहिये घोर अंग । सिंह बिक्रीडन व्रत ग्रादि नाम, अष्टोत्तर शत झमक्रम वखान ।।२५३॥ सो करें उपास जु सदा काल, अरु मौन सहित अंतराय पाल । जो या विधिसौं तप तपहिं त्रास, सो महत अंग जानौ प्रकाश ।।२५४॥ पुन वेद काय वसु वास मास, यह आदि करहि बहुते उपास । निर्वाह तहां बहु जोग रूड़, यह उग्र अंग को गुण अगूढ़ ॥२५॥ कर घोर वीर तप बहुत भांति, तिन घटै न कबहूं अंग कांति। उपजै नहि दुर्गध मुनि शरीर, यह दीप्त अंग को गुण गहीर ।।२५६।। सो कर प्रहार नहि है निहार, ज्यों तपस लोह पर नीरडार । सोखै सुनीर नहि सहैं पीर, वह तप्त अंग जानी जु वीर ॥२५७॥ ते प्रतीचार विन मुनि रहाय, वह घोर गुण तप मुनि कहाय । दुख कामादिक मुनि नहि धरेय, सो घोर ब्रह्मचारी कहेय ।।२५८।।
दोहा तप जु ऋद्ध के सात गुण, अभ्यास मुनिराज । अनुक्रम तातै जानिये, केवल ज्ञान समाज ॥२५६।।
इति तप ऋद्धि वर्णन
दोहा षटगुण वरनी ऋद्ध रस, ग्रासन विष विष दष्ट । घत पय मधु अमृत सबहि, जुदे जुदे कर तिष्ठ ॥२६॥
खीर का आहार ग्रहण किया और इस पाहार ग्रहण के उत्तम फल से राजा को अनुकम्पित एवं उसके घर को पवित्र कर पुन: बन को चले गये। राजाने भी अपने जन्म गृह एवं धनको अप्रत्याशित पुण्यकारी समझा और वे अपना अहोभाग्य समझने लगे। इस धेष्ठ दानके मन, वचन एवं काय द्वारा अनुमोदन करनेके कारण अर्थात् दाता एवं पात्रकी प्रशंसा करके बहुत लोगोंने दाताके समान ही उत्तम पुण्य का उपार्जन कर लिया।
उधर जिनेश्वर महावीर प्रभु नाना देश के अनेक नगर, ग्राम एवं बन उपवनोंमें वाधुकी तरह स्वच्छ मति से विचरने लगे। वे ममता मोह से रहित थे और योग ध्यानादि की सिद्धि के लिये सिंह के समान निर्भय होकर रात्रिके समय में भी पर्वतकी अंधेरी गुफामें श्मशान में और एकदम भयंकर निर्जन वन में रहते थे। क्रमशः छठे पाठव उववाससे प्रारम्भ कर छ: मास तकके
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पद्धडि छन्द तपके बलते यह पद लहाय, सो मरण समय जब होय आय । तह निसंदेह प्राननि विनाश, यह आसन बिषगुण को प्रकाश ॥२६१।। चितवं जाहि तन क्रोध होय, जो प्राणी ततछिन मरहिसोय । यह यद्यपि मुनि है दयासिंध, यह दृष्टि विषापर ताप लिध ।।२६।। कोई भोजन मुनिको रूक्ष देत, घर कर पर सौ ग्राहार लेय । पर सत स्वहस्त घृत चुंबत जाय, यह घत स्रावक गुणको सुभाय।।२६३॥ अरु दुग्ध चुंबै वाही प्रकार, पय स्रावक अंग प्रताप धार । यह पर्व रीतसम मधुर जान, सो मधुर स्राविको फल वखान ।।२६४।। प्रति अमृत मुनि कर स्रव सोय, तद क्षुधा तृषाको हरण होय । इहि भांति मुनिहि पाहार देय, यह अमृत साबि जुफल' कहेय ।।२६५।।
दोहा यह वरनी रस ऋद्धि की, देशा पुनीत अनूप। तिनकै प्रगटत है सदा, जे मुनि मुक्ति सरूप ।।२६६।।
इति रसऋद्धि वर्णन।
दोहा कहाँ विक्रिया ऋद्धि के एकादश गुण सोय । अणिमा महिमा लग्घिमा, गरिमा प्रापति होय ॥२६७।। प्रकामित्व ईशित्वता, दशिता अप्रघ ताप। अंतर ध्यान जु दशम है, कामरूपित्व तथाप ।।२६८।।
चौपाई
एक एक को वरणन करौं, सुखसौं भवसागर उद्धरौं । अणूमात्र कर देही भेष, कमल नालके छिद्र प्रवेश ॥२६॥ सोइ तहां चित पूरे मूत, चक्रवर्ति तब रहे विभूत । सो सब निज वपु में ले धरै, मणिम प्रथम चरित रह कर ।।२७०।। जोजन एक लाख जो तुंग, मेरु समान शरीर अभंग । अब चाहे तब रचे बनाय, महिमा ते यह गुण अधिकाय ॥२७॥ पवन समान देख सब ठौर, यह जग में हलको नहिं प्रोर । ताही ते लघु धरै शरीर, लघिमा गुण ऐसो गंभीर ॥२७२।। वन कहावै भारी यहां, यह ते मोर बखानी कहां । ताही सम तन धारं सोइ, गरिमा को गुण ऐसो होय ॥२७॥ बैठो श्राप धरा पर लसै, मेह अंग ग्रंमुलसौं धस । सूरज आदि ज्योतिषी देव, सबको परसै प्रापति एव ।।२७४।। जलपर गमन भूमिबत कर, भूतै अन्तरीक्ष पग धरे। निज तनतं सेनादिक रच, प्रकामित्व यह गुणको लंच ।।२७५।। जब जियमें कर विविध हुलाश, जग की प्रभुता को परकाश। तीन लोकपति माने पाप, यह ईशित्व तनों परताप ॥२७६।। नर तिर्यच अमर दे प्रादि, सकल जीव वरतें जु अनादि । सबको निज वश कर मुनिराव, यहै वशित्व अमल परभाव ॥२७७॥ दर्गम विषम पहार उतंग, जिन पै चलिर्व को मन पंग। तिन गिरि गमन प्रकाश समान, अप्रतिघात सूगून यो जान ।।२७८।। सबको देख वह न लखाय, अदरश रूप सदा हो जाय । अन्तरध्यान तनों वल जोइ, तप बल कह न परगट होइ ॥२७६।। सुर नर खग तिर्यच विचार, तिनको रूप विविध परकार । धरै जासको चाहै रूप, कामरूपि गुण यही अनूप ॥२५॥
अनशन तपको करते थे। वे किसी पारणाके दिन अवमौदर्य तप और किसी पारणाके दिन लाभान्त रायकी इच्छासे पापोंको दूर करनेके लिये चतुष्पक्षादि की प्रतिज्ञा करके वृति परिसंख्यान तप करते थे। कभी निविकारिता पानेके लिये रस त्याग तप करते थे एवं कभी उत्तम ध्यानके लिये बनादिके एकान्त स्थल में शय्यासन तपको करते थे। वर्षा कालमें जब कि सारा प्रकृति झंझावातके उग्र आलोडनसे थर्राती हुई दृष्टि गोचर हो रही थी तब महावीर प्रभु धयं रूपी कंवलको प्रोढ़कर किसो वृक्ष के नीचे समाधि लगाये रहते थे। शीतकाल में वे किसी चतुष्पथ (चौराहे पर अथवा सरिता तटपर ध्यान में मग्न रहते थे। इस प्रकार कितने ही वृक्षांको जला देनेवाला भयंकर हिम प्रतापको अपने ध्यान रूपी अग्नि-ग्रंगार से जलाया करते थे। ग्रीष्म कालमें जब किचारों मोर अग्नि वर्षा हुआ करती थी तब सूर्यको किरणोंसे अत्यन्त तपे हुए पर्वतके शिलाखण्डों पर अपने ध्यान रूपी शीतल
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दोहा
वरी विक्रिया ऋद्धि यह एकादेश गुणवान गूढ़ केवजीको सुगम, भाषी श्री भगवान ॥२१॥
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इति विक्रिया ऋद्धि वर्णन
दोहा
चारण मुनि नभगामिनी, आके गुण सवारो ।।२८२|| । श्रेणि] तन्तु अपनी शिखा, कहीं सबन को जल ||२३|| अडिल्ल
किया ऋद्धि अन्तिम सुनो, बरनी शाखा दोय चारण ऋद्धि ग्राह गुण, जलजं पह फल पत्त
भूवत करें बिहार मुनी तप जोग हैं। होइ नं जलहि लगार सु जलचारी कहै ।। धरती ते चतुरंगुल पद्मासन चलें। जंधाचारी ग्रंग प्रगट तपबल भलै ॥ २८४ ॥ पहुचारि मुनिराज फूल में गम नहै फसवारी फल उपरि चर्त अति पुन | पत्र चारको गमन पात हाले नहीं पलं बेस पर सोय थेणि नारी सही ।। २६५ ॥ सूक्षम कला जुदार तन्तुभारी यहै। अग्निशिखा पर दांकन वित्तन क है । देह न परसे अगिन पारिको मह तपसा परभाव ऋद्धि वसुधारिको ॥ २०६ ॥ अब प्रकाश करगमन चलै धरि ध्यान जो । गमन गमन वह ऋद्धि करहि मुनि मान जो ॥ नभगामी यह अंग दुतिय पुरी भयो । क्रिया ऋद्धि मुनिराज गमन सूरी थयौ ।। २८७||
दोहा
क्रिया ऋद्धि दो गुण कहे, हिंसा रहित सदीब । सोहे श्री मुनिराजको ज्ञान शुद्धिको सीव || २६८ ॥ इति क्रिया ऋद्धि वर्णन
दोहा
सप्त ऋद्धिपटतील गुण, विक्रिय ग्यारह अंग प्राठ ऋद्धि उत्तम विमल, वसु मलहारी जोर। समभावन बरतें सदा एकाकी यन ठौर
किया ऋद्धि गर्भित जुगन, संतान सरवंग ।। २६ ।। सिद्धि भई जिनराज को, करत तपस्या घोर ॥ २६०॥ सह परी वीस वै ते वरतों और ||२१|| कछु
अमृत जलका सिंचन किया करते थे । इस प्रकार वर्षा, शीत एवं ग्रीष्म ऋतुओं में शारीरिक सुख की हानि के लिए काय क्लेश तपकी साधना में तत्पर रहकर नितान्त दुष्कर छ प्रकारके बाह्य तपोंका महावीर प्रभुने पालन किया। उन्हें भावितादि तपकी कोई आवश्यकता नहीं थी इसलिये महावीर प्रभु अपने प्रमाद शून्य एवं विजितेन्द्रिय मनको विकल्प रहित करके कार्यात्सर्य पूर्वक कर्मरूपी शत्रुओं का समूल नाश करनेके लिये धात्म ध्यान में ही लगे रहते थे। वह ध्यान कर्मरूपी बनको जला देनेके लिये भीषण अग्निके समान हैं, एवं परमानन्द का दाता है। इस यात्मध्यान में लीन होकर सम्पूर्ण पापों को रोक देने से महावीर स्वामी के सब सभ्यन्तर तप तो पहले ही हो चुके थे इस रीति से महावीर प्रभुने अपनी शक्तियों के प्रकट हो जाने पर भी विरकाल तक दत्तचित्त होकर बारह प्रकारके श्रेष्ठ तपों को साधनाने तत्पर रहे। इसके बाद प्रभु महावीर क्षमा-गुणसे युक्त होकर पृथ्वी के समान अव एवं प्रसन्न विमल स्वभाव के कारण निर्मल स्वच्छ जलके समान शोभित हुए। वे दुष्ट कर्मरूपी जया जलाने जंगलका वाले अग्नि थे एवं कषाय तथा इन्द्रिय रूपी शत्रुत्रों को मारने वाले दुर्द्धर्ष महाबैरी थे। वे निरंतर अपनी धार्मिक बुद्धिके द्वारा धर्म साधनामें तत्पर रहते थे और इहलोक एवं परलोकमें सपार सुखोंको प्रदान करनेवाले क्षमा यादि दश लक्षणोंस युक्त थे।
अचल
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अथ बाईस परीषह वर्णन
सवैया इकतीसा क्षुधा तृषा शीत उष्ण देशमशक मग्नार ति स्त्री चरजा निषद्य शय्या. क्रोश कहिये। बंधन याचन अलाभ रोग लण स्पर्य मल सत्कार पुरस्कार प्रज्ञा ज्ञान सहिये। प्रदर्शन युक्त सब बाईस परीपह जा-न, ताके भेद भिन्न भिन्न जथाशक्ति लहिये। मुनिके शरीर आय अति ही कलेश दाय, क्षमाभाव सो विलाय मोक्षपंथ गहिये ।।२९२ ।।
अतुलनीय पराक्रमशाली महावीर प्रभु ने भूख प्यास प्रादि स्वाभाविक रोग से उत्पन्न होने वाले सम्पुर्ण कठिन परीषहों एवं उनके अत्युन उपद्रवों को अपनी विलक्षण शक्ति के प्रभावसे जीत लिया और उत्तम ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रतीचार रहित एवं भावना सहित पंच महाब्रतों का पालन किया। पांच समिति एवं तीन गुप्ति इन पाठ प्रवचन माताओंका नित्यशः पालन करते एवं इनके द्वारा कर्म-पलिको नष्ट करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। वे महावीर प्रभु श्रेष्ठ निवेदक शील थे इसलिए निरालस्य
१. बाईस परीषहजय A real Conqueror is the man that having withstood all pains and sorrows bas got over them, and take with him high up, atove all wordly miserics, pure and unsoiled his most precious treasure-Soul."..-Dr. Albert Poggi-Mahavira's Atars Jiwan. P. 16. - जैने ज्ञानी मनुष्य कर्ज की अदायगी में अपनी जिम्मेदारी में कमी जानकर हर्ष मानता है वैसे ही थी वर्धमान महावीर दुःखों और उपसगों को अपने पिछले पाप कमो का फल जान कर उनकी निर्जरा के लिये २२ प्रकार की परिषह विना किसी भय खेद तयो चिन्ता के सलन करते थे:
१. भूख परोषह--एक दिन भी भोजन न मिले तो हम व्याकुल हो जाते हैं। परन्तु श्री वर्तमान महाबीर ने बिना भोजन किये महीनों तक कठोर तप किया। आहार के निमित्त नगरी में गये, विधिपूर्वक शुद्ध आहार अन्तराय रहित न मिला तो बिना आहार किये वापस लौट आये
और बिना किसी वेद के ध्यान में मग्न हो गये। चार पांच रोजके बाद फिर आहार को उडे फिर भी विधि न मिलने पर बिना आहार वापस आकर फिर ध्यान में लीन हो गये। इस प्रकार छ: छ: महीने पर आहार न मिलने पर वे इस को अन्तरायकर्म का फल जान कर कोई शोक न करते थे।
२. प्यास की परीषह-गगियों के दिन, सूरज की किरणों से तपते हुए पहाड़ों पर तप करने के कारण प्यास से मुंह सूख रहा हो, तो भो मांगना नहीं, आहार कराने वाले ने आहार के साथ जिना मागे शुद्ध जल दे दिया तो ग्रहण कर लिया वरन् वेदनीय कर्म का फल जान कर छ। छ: महीने तक पानी न मिलने पर भी कोई खेद न करते थे।
३. सर्दी की परोषह--भवानक सर्दी पड़ रही हो, हम अंगीठी जलाकर, किवाड़ बन्द करके लिहाफ आदि ओढ़कर भी सर्दी-सर्दी पुकारते हैं । पोह-माह की ऐसी अन्धेरी रात्रियों में नदियों के किनारे टण्डी हवा में बईमान महाबीर नग्नशरीर तप में लीन रहते थे। और कड़ाके की सर्दी को वेदनीय कर्म का फल जान कर सरल स्वभाव से सहन करते थे।
४. गर्मो को परीषह-गर्म लू चल रही हो, जमीन अंगारे के समान तप रही हो, दरिया का पानी तक सूख गया हो, हम ठंडे तहखानों में पखों के नीचे खसखस की दृट्टियों में बर्फ के ठण्डे और मीठे शर्बत पी कर भी गर्मी-गर्मी चिल्लाते हों, उस समय भी श्री बर्द्धमान सूरज की तेज किरणों में आग के समान नपते हुये पर्वतों की 'बोटियों पर नग्न शरीर बिना आहार पानी के चरित्र मोहिनीय कर्म को नष्ट करने के हेतु महापौर तप करते थे।
__५. डांस व मच्छर आदि की परीषह-जहाँ म मच्छरों तक से बचने के लिए मशहरी लगाकर जालीदार कमरों में सोते हैं, यदि खटमल, मक्वी, मन्दर, कोड़ी तक काट ले तो हाहाकार करके पृथ्वी सिर पर उठा लेते हैं, वहाँ वर्द्धमान महावीर सांप, विन्यू, कानखजरे, शेर, भगेरे तक की परवाह न करके भयानक बन में अकेले तप करते थे । महाविष भसे सों ने काटा, शिकारी कुत्तों ने शरीर को नोच दिया, शेर, मस्त हाथी आदि महाभ मानक पशुओं ने दिल खोल कर सताया, परन्तु वेदनीय कर्म का फल जान कर महावीर स्वामी ससस्त उपसर्ग को सहन करके ध्यान में लीन रहते थे।
६. नानता परीषह-जहाँ नष्ट होने वाले शरीर की शोभा तथा विकारों की चंचलता को छिपाने के लिए हम अनेक प्रकार के सुन्दर
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गीतिका छन्द पाख मास उपास साधत, ध्यान धरि कालहि हनं । जाहि भोजन निमित ग्रामहि, तहां विधि कछु नहि बने । खेद उर तस करत नाही, परम समता थिर रहै । क्षुधा इहि विधि सहत जे मुनि, तिनहुके हम पद गहैं ।।२६३।।
प्यास
बढ़त प्यास प्रवास अति ही, वास उर व्यापै घनौ। कंठ मुख जब सूख आव, पित ज्वर कोप्यौ मनौ ।। ध्यान अमृत सींच के जब, तृषा तीक्षण नाशही । चलै चित्त न किमपि मुनिको, चरण वितिके लागही ॥२६४||
सर्दी शीत सौं कंपत जग जन, तरु तुषारहिसों ढहै। बहत झंझा पवन निशदिन, मेघ वर्षा ऋतु गहै ।। तंह धीर तटिनी तट जु चौहट, ताल पालन तर तलें। सहत शीत मुनीश उत्तम, तरन तारन है भलं ॥२६॥
गर्मी अगिम सम है धूप ग्रीषम, तपत अति ज्वाला घनी । तपत प्रबल पहार आदिक, नीर सर सूखत गनी ।। नरहि सुवसन छांह, विलमत कुटे लोचन जाय हैं । धरत मुनि तब ध्यान गिरि शिर, उष्ण परिष जय यहै ॥२६६॥
होकर सम्पूर्ण और गुणोंके साथ सारे मूल गुणोंकी पालनामें सचेष्ट होकर किसी भी दोष को स्वप्नमें भी अपने पास नहीं फटकने देते थे । इस प्रकारके परमोज्वल चारित्र युक्त महावीर प्रभू सम्पूर्ण पृथिवी पर बिहार करते हुए उज्जयनी नामकी एक महा नगरीके अतिमुक्त नामक श्मशानमें जा पहुंचे। उस महा भयानक श्मशान में पहुचकर महावीर प्रभु ने मोक्ष प्राप्तिके लिए शरीर का ममत्व छोड़कर प्रतिमा योग धारण कर लिया और पर्वतके समान अचल भावमें अवस्थित हो गये। सुमेरु पर्वतके उन्नत - -
- - --- -- ----- - - वस्त्र पहिनते हैं वहां श्री वर्द्धमान महावीर ने अपनी इन्दियों तथा मन पर इतना काबू पा रखा था कि उन्हें लंगोटी तक की भी आवश्यकता न थी। चरित्र मोहनीय कर्म का नाश करने के हेतु वे कतई नग्न रहते थे ।
अत्यन्त रूपवती स्त्री को देखकर भी दिगम्बर निग्रंन्य मुनियों को विकार उत्पन्न नहीं होता। बड़े-बड़े बजारों तक में सिंह के समान नग्न चलते-फिरते हैं । इनको बहुत ही सम्मान प्राप्त है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, उपनिषद, शिवपुराण, कर्मपुराण, रामायण, विवेकचूड़ामणि, बौद्ध, सिख, मसलमान, ईसाई, यहदियों, आदि में भी इनका उल्लेख है। गांधीजी को नग्न स्वयं प्रिय था । महाराजा भर्तृहरि जी नग्न होने को इच्छा रखते थे। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सम्बन्ध में लिखा है कि वे बालक के समान दिगम्बर हैं।
७. अरति परीषह-बर्द्धमान महावीर इष्टदियोग और अरिष्ट संयोग को चारित्र मोहनीय का फल जान कर किसी से राग-द्वेष न रखते थे।
५. स्त्री परोपह-जहां किसी सुन्दर स्त्री को देख कर हमारे में विकार उत्पन्न हो जाते हैं, परन्तु वीर स्वामी की स्वर्ग की महा सुन्दर देवांगन ओं तक ने लुभाना चाहा, तो भी वे सुमेरु पर्वत के समान निश्चल रहे । सूरदास जी वीर थे जिन्होंने स्त्रियों को देखकर हृदय में चंचलता उत्पन्न होने के कारण अपनी दोनों आँखें नष्ट करली, परन्तु वीर वास्तव में महावीर थे कि जिन्होंने आँखें होने तथा अनेक निमित्त कारण मिलने पर भी मन में विकार तक न पाने दिया।
. चर्या परीषह-जहां हम चार कदम चलने के लिये सवारी दढ़ते हैं, वहाँ सोने की पालकी में चलने वाले और मखमलों के गहों में निवास करने वाले वर्द्धमान महावीर पथरीले और कांटेदार मार्ग तक में तथा आग के समान तपती हुई पृथ्वी पर नंगे पाद पंदल हो बिहार करते थे।
१०. प्रासन परीषह-जहां हम एक आसन थोड़ी देर भी सरलता से नहीं बैठ सकते, भगवान महावीर महीनों-महीनों एक आसन एक ही स्थान पर तप में लीन रहते थे। जिस समय तक की प्रतिज्ञा कर लेते थे अधिक-से-अधिक उपसर्ग और कष्ट आजाने पर भी वे आसन से न डिगते थे।
११. साम्पा परीषह-जहाँ हम पलंग के जरा भी चे-नीचे हो जाने पर व्याकुल हो जाते हैं। सोने-चांदी के पलंगों, रेशमी और मख
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डांस, मच्छर आदि काटत जु तन में डांस माखी, व्याल बिच्छु विष भरे। पुनि सिंह बाघसु श्याल शुडल, रीछ पीड़त अति खरे॥ कष्ट इहि विधि सहत जे मुनि, भाव समता उर लिये । इंशमशक परीषह जयो, वसह ते ‘मेरे हिये ।।२६७।।
नग्न लोक लाज न भय तिन्हें कछु, नगन तन विहरत मही। पुनि बर दिगम्बर जैन मुद्रा, ध्यान उर धारत सही॥ शीलात ढ़ धरै तन मन, निरविकार सुहावने । महामुनिपंद नगन विजयी, नमहुँ त्रिभुवन भावने ॥२९८||
परति देश में कहु काल उपजहि, अधिक सबको दुख तहां । क्षीण तन जन होंहि विह्वल, धरत धीरज नहि जहां ।। करत कोलाहल घने सो, अरति अति उपजावही । साधु धीरज गहत उनही, अरति विजय कहाबही ।।२९६॥
स्त्री ते शूर है परधान बहुविध, पकर केहरि को रहै। देखि जिनकी भौंह वांकी, कोट जोधा भय गहैं ।। रूप सुन्दर जोपिता जत, करत क्रीड़ा मन रम। ते साधु मेरु समान निवस, सदा तिनके पद नमै ||३००।
श्रुगके समान एवं परमात्माके ध्यानमें लीन श्रीजिनेन्द्र महावीर प्रभुको देखकर उनके धैर्यकी परीक्षा करनेके लिये स्थाणु नामक यहाँके अन्तिम रुद्र महादेवको उपसर्ग करने की इच्छा हुई। इसी समय जिनेन्द्रके कुछ पूर्वकृत पापोंका भी उदय होने वाला था । वह स्थाणु रुद्र अनेक' भयंकर एवं नानाकृति स्थल-काय पिशाचों को अपने संग लेकर महावीर स्वामी के ध्यान को भंग करने के लिये प्रस्तुत हुना। रात्रिके समयमें यह स्थाण रुद्र अपने बड़े-बड़े नेत्रोंको फाड़कर देखते हुए जिनेन्द्र प्रभु के सम्मुख पाया। उस
मली गद्दी तथा सुगन्धित पुष्पों की सेज पर सोने वाले बद्ध मान महावीर कठोर भूमि पर बिना किसी वस्त्र तथा सेज आदि के नग्न शरीर वेदनीय कर्म को नष्ट करने के हेतु रात्रि को भी ध्यान में मम रहते थे।
१२. आक्रोदा परीषह-जहां हम साधारण बातों पर क्रोधित हो जाते हैं, वहां बिना किसी कारण के फातियाँ उड़ाये जाने और कठोर शब्द सुनने पर भी बर्द्धमान महावीर किसी प्रकार का खेद तक न करते थे।
१३. वष परीषह-दुष्टों ने अज्ञानता, ईष तथा उनके तप की परीक्षा के वश श्री बईमान महावीर को लोहे की जंजीरों से जकड़ दिया, लाठियों से मारपीट की, उनके दोनों पायों के बीच में चूल्हे के समान अग्नि जलाकर खीर पकाई, दोनों कानों में कीलें ठोंक दी, परन्तु श्री वर्द्धमान महाबीर इतने दयालु और क्षमावान थे कि तप के प्रभाव से इतनी ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाने पर भी कि वे इन सब कष्टों को सहज ही में नष्ट करदे बेदनीय कर्मों की निर्जरा के हेतु, समस्त उपसर्गों को वे सरल हृदय से सहन करते थे।
१४. याचना परोषह-अधिक से अधिक काल, भूख प्यास होने पर भी बर्द्धमान महावीर किसी से कोई पदार्थ, मागना तो एक बड़ी बात है, मांगने की इच्छा तक भी न करो थे ।
१५. प्रलाभ परीषह.. अनेक धार नगरी में आहार निमिः जाने पर भी भोजनादि का लाभ विधि-अनुसार न हुआ तो अन्तराय कर्मरूपी कर्ज की अदायगी जानकर खेद नक न करते थे।
१६. रोग परीषह-जहां हम थोड़े से भी रोग हो जाने पर महा दुःली हो जाते हैं। श्री वद्धमानजी महाभयानक रोग उत्पन्न हो जाने पर भी उसे बेदतीय कर्म का फल जान कर औषधि की इच्छा तक न करते थे।
१७. तृणस्पर्श परीषह-नंगे पांव चलते हुए ककर मा कांटादि भी चुभ जाय तो श्री वर्द्धमान महावीर उसे भी शान्तचित - सहन करते थे।
१८. मल परीषह-.-शरीर पर धूल लग जाने या किसी ने राख, मिट्टी, रेत आदि उनके शारीर पर डाल दिया तो भी उसका खेद न करके श्री वर्द्धमान तप से लीन रहते थे।
११. अविनय परीषह-जहां हम संसारी जीव थोड़ा-सा भी आदर सरकार में कमी रह जाने पर महा दुःखी होते हैं, वीर स्वामी चार ज्ञान के धारी महा ज्ञानवान्, महाधर्मात्मा तथा महातपस्वी और ऋद्धियों के स्वामी होने पर भी कोई उनका सत्कार न करे तो चारित्र मोहनीय कर्म का फल जानकर वे किसी प्रकार का खेद न करते थे।
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चर्या
चार हाथ प्रमाण शोधत, दृष्टि इत उत नहि करें। चलत कोमल पाय तिनकै, कठिन धरती पर धरै ।। चढ़त थे गज पालकी पर, तास याद न मानहो । सहहि चर्या दुःख जे मुनि, तिनहिं पद पर नामही ।।३०१।।
मासन शल शीस मसान कानन, गुफा विवर बसें सदा । तहै पान उपजह कष्ट कौनहु, कर्ण जोगन तं सदा ॥ मनुष सुर पशु पर प्रचेतन, विपत पान सतावहीं। ठोर तब नहि भजंहि थिर पद, निपध विजय कहावहीं ।।३०२॥
शय्या हेम महलन चित्र सारी, सेज कोमल सोबते । विकट वन में एकले है, कठिन भुवि तहां जीवते ।। गड़त पाहन खंड प्रति ही, तासको कायर नहीं। ऐसी परीषह शयन जीतत, नमौं तिनके पद तहीं।।३०३11
प्राक्रोश जगत जिय मुनि देखि कोई, कहत दुठ दुर वचन । पाखण्डि ठग यह चोर कोई, मार मार जु कहत जै ।। वचन ऐसे सुनत जिनके, क्षमा हाल ज प्रोढई । सो अक्रोश परीपह विजयी, तिनही पद कर जोड़ई ।।३०४ ।।
वध सदा समता गहें सब सौं, दुष्ट मिलि तिन मारहीं। खेंच बांध खम्भ सों पुनि, अगनि तम पर, जारहीं। कोप तहं मुनि करत नाही, पूर्व कर्म विचारहीं । सहैं वध बन्धन परीषह, तिनहिं पद शिर धारहीं ।।३०५॥
याचना भयौ जो कछु रोग प्रादी, देह अति विह्वल' भई । नशा जाल जु रुधिर सूख्यौ, अस्थि चाम विला गई॥ सहत प्रति ही क्लेश दारुण, महा दुर्घर त परै । प्रशन प्रौषधि पान आदिक, याचना मुनि नहीं करें॥३०६॥
अलाभ एक बार पाहार बिरियां, मौन ले वसती बसे । जो भिक्षा वनहि जौ नहि, खेद तो उर नहि वसे ।। इमि भ्रमत बह दिन बीत जाहीं, विरत भावना भावहीं । सो अलाभ परीषह विजयी, साधु गुण तसु गावहीं ॥३०७।।
समय वह किलकारियां मार रहा था, नुकीले २ भयानक दांतों को दिखा-दिखाकर हंस रहा था, ताल, एवं लयके अनुसार गा, बजा एवं नाच रहा था, साथ ही अनेक विशाल मुख-लिवरको फाड़े हुए और हाथों में तीक्ष्य आयुधोंको धारण किये हुए था। इस प्रकारके महा भयोत्पादक स्वरूपको लेकर वह महावीर स्वामीके प्रागे पाया और उनके ध्यान को भंग करने के लिये बड़ा भारी उपसर्ग किया । परन्तु इन उपद्रवों का महावीर प्रभु पर किसी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उनका ध्यान यथापूर्व प्रचल एवं अट्ट बना रहा । जब इतना करने पर भी जिनेन्द्र के ध्यानको वह रुद्र नहीं भंग कर सका तब उसने दूसरे उपायों का
२०. प्रज्ञा परोषह-जहां हम थोड़ी-सी बात पर भी अधिक मान कर बैठते हैं वहाँ महाज्ञानवान् महातपस्वी, महाउत्तम कुल के शिरोमणी, होने पर भी श्री महावीर स्वामी किसी प्रकार का मान न करते थे।
२१. प्रज्ञान परीवह-वर्षों तक कटोर तपस्या करने पर भी केवल ज्ञान (Omniscience) की प्राप्ति न होने से वे इसकी प्राप्ति न होने से इसकी प्राप्ति में काम करते थे बल्कि यह विश्वास रखते हुए कि मेरा ज्ञानावर्णी कर्मरूपी ईधन इतना अधिक है कि यह कठोर तपस्या भी उसको अभी तक भस्म न कर सकी, अपने कर्मों की निर्जरा के लिए और अधिक कठोर तप करते थे।
२२. अवन परीवह-जहाँ हम थोड़ा-सा भी धर्म पालने से अधिक संसारी सुखों की अभिलाषा करते है और उनकी सुगत प्राप्ति न होने पर हर उसमें शंका करने लगते हैं, वहां श्री वर्द्धमान महावीर बारह वर्ष तक सच्चा सुख न मिलने से धर्म के महत्व में शंका न करते थे। उन्हें विश्वास था कि कर्मों का नाश हो जाने पर अविनाश सुखों की प्राप्ति मापसे आप अवश्य हो जावेगी।
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रोग वात पितरफ सौर शोणित चार ए जन तन बढ़ें। रोग शोक अनेक इहि विधि, जीव कायरता चढे ।। सहै वेदन व्याधि दारुण, चाह नहि उपचारकी । पातमा थिर देह विरकत, जैन मुद्रा धारको ॥३०८।।
लगत कांटे गडत कंकर, पाय अति छिदना भये, पवन प्रेरित धूलि कण उड़ि, जगम लोचन में गये। परको सहाय न तहू वांछत, भावना सम धरतही, साधु तृण विजयी परीषह, कृपा हम पर करत ही ॥३०६।।
चलत अतिहि पसेब ग्रीषम, धूलि उड़ि आंखिन परै। मलिन देह जु देख मुनिवर, मलिनता नहिं उर धरै।। चारित्र दर्शन ज्ञान जलकर, पाल मल तंह धोवहीं । जनित मल परिषह निवारन, साघु ते हम जोवहीं ।।३१०॥
अविनय महाविद्या विधि मनोहर, परम तपसी गुण गुरू । वचन हित मित कहत सब सौं, पातमा पद थिर धरू ।। विनय कोय न करत तिनकी, अरु प्रणाम न भाषई । खेद मुनि कछु करत नाही भाव समता राखई ॥३११॥
प्रज्ञा तकं छन्द जु व्याकरण गुण, कला पागम तब पढ्यो । देखि जाकी सुमति वादी, लाज प्रति उरमें बढ़यो । सुनत जैसे माद केहरि, वन गयंद जु भाजई। महामुनि इमि प्रज्ञ भाजन, रंच मद नहि छाजई ॥३१२॥
अज्ञान कर्यो दीरघ काल में तप, कष्ट बहुविध तन सह्यो। तीन गुप्ति सम्हाल निश दिन, चित्त इत उत नहि रहयो ।। अवधि मन परजय जु केवलज्ञान, प्राजहू नहि जग्यौ । तजं इहि विधि साधु विकलप, सो प्रज्ञानी, पर ठग्यौ ॥३१३।।
प्रदर्शन काल बहु संयम जु पाल्यौ, नियम बत कीनै घने । होइ तपसौं सिद्धि शिवकी, झूठसी लागत मने ॥ जो भाब ये उरमें न आने परम समता थिर रमें। साधु सोइ अधर्म विजयी, 'नवल' तिनके पद नमैं ।।३१४||
अवलम्बन किया। वह स्थाणरुद्र सर्प, सिंह, हाथी, प्रबल वायु एवं अग्नि इत्यादि के रूप में माकर तथा उत्पीडक वचनोंके द्वारा उग्र उपसर्गोका प्रारम्भ करने लगा। इन उपसगसेि निबल-हुदयोमें तो भयका संचार हो सकता था, किन्तु महावीर स्वामीका कळ नहीं हमा. वे बराबर अचल ही बने रहे। उनका ध्यान भंग होना तो दूर रहा, उत्तरोत्तर ध्यानकी गम्भीरता बढ़ती ही गयी। जस प्रकार भी सफलता नहीं मिली तब स्थाणु रुद्र और अन्य प्रकारके घोर उपसगीको प्रकट करने लगा। भीलोंके आकार में भयानक शस्त्रास्त्रोंको दिखाकर प्रभुके हृदय में भय उत्पन्न करना चाहा, परन्तु इन अनेक उग्र उपद्रदोंसे प्रोतप्रोत रहने पर भी वर जगत्स्वामी जिनेन्द्र महावीर स्वामी जंसा का तसा पवतके समान एकदम अचल बना रहा। किचित्मात्र भी खिन्नताका आभास नहीं मिला। प्राचार्यने कहा कि...-कदाचित् अचल पर्वत भी चलायमान हो जाये परन्तु श्रेष्ठ योगियोंका चित्त हजारों उम्र उपद्रवोंके द्वारा भी कदापि चलायमान नहीं हो सकता। इस संसारमें वे ही लोग धन्य है जो कि ध्यान मग्न हो जाने पर भी विकार यूक्त होकर ध्यान भंग करने में कदापि नहीं प्रवृत्त होते ।
उसके बाद जब जिनेन्द्र महावीर स्वामीके ध्यानको भंग करने में स्थाणु रुद्र को कुछ भी सफलता प्राप्त करने की प्राशा नहीं रही तब हताश एवं लज्जित होकर वहीं उनकी स्तुति करने लगा-हे देव, इस संसारमें तुम्ही बली हो, तुम्ही जगदगुरू हो एवं वीर शिरोमणि हो इसीलिये तुम्हारा नाम 'महावीर' है । तुम महा ध्यानी हो, सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हो, सकल परीषहोंके
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परिषों के निमित्त कारणका वर्णन
सर्वया इकतीसा
ज्ञानावरणी कर्म उदय प्रज्ञा अज्ञान दोह, दरशनावरण तें अदर्शन बखानिये । अन्तराय के परकाश उपजं श्रलाभ जास, बरनी चरित्र मोह सातों ठीक ठानिये ।। नगन निपद्या रति प्रस्त्री कोश जाचना जु, सतकार पुरस्कार ग्यारा अब जानिये । ग्यारा और बाकी रही वेदनी उदोत कही, बाईस परीषा सब ऐसी विधि मानिये || ३१५ ।। किस अवस्था में कितने परीषह उदय भावें ? इसका उत्तर वीतराग देव छदमस्थ पर्ने जोग और सूक्ष्म सांपराय क्षुधा तृषा शीत उष्ण दंश मशक चरजा, सेज्या सन बंध तृणस्पर्श मल स्पर्श प्रज्ञा एहि चतुर्दश, परीषद् कहूं सबै मुनि उपशमगुणस्थान ताही लग, बाईस परोषा उदे चारिततें कही हैं ।। ३१६ || एक मुनिके एक कालमें कितने परीषह हो सकते हैं ? इसका उत्तर
और गुणस्थान जहीं हैं । रु अलाभ रोग सही हैं । करम जोगतें नही हैं ।
दोहा
जो काहू- मुनिराज को, उदय होंय सब जाय । तामें तीन न पाइये, उनविंशति दुखदाय ||३१७|| शीत होय तो उषण न उष्ण होय तो शीत । वर्या चयन निषेध त्रय, तिनमें दोय सहीत ॥३१८ ॥ व्रत कथा उत्तरगुणों का वर्णन
चौपाई
पंच महाव्रत भावें जहां प्रतीवार सब नाशे तहां पंच समिति पालें, निर्दोष, तीन गुप्सिको कीनी पोष ।। ३१६ ॥ चौरासी लाख उत्तर गुणों का वर्णन
उत्तर गुण साधें निरभंग, लख चौरासी ताके अंग पाचों प्रव्रत चार कषाय, रति धारति विदगंछा पराय || ३२० ॥ भव मद मिथ्या तह श्रज्ञान, मन वच काय दुष्ट श्रर मान घरं विशुनता और प्रमाद, ये इक्वीस धरै मन ल्हान ।। ३२१॥ अतिक्रम व्यतिक्रम श्ररु अतिचार, अनाचार इन चौगुन सार । भये भेद चोरासी यही काम विकृति दश सुनिये सही || ३२२ ॥
विजेता हो, वायु के समान निःसङ्ग वीर हो एवं कूल पर्वतकी तरह अचल हो। तुम क्षमामें पृथिवीके समान, गम्भीरता में समुद्र के समान और प्रसन्नचित्त होनेके कारण निर्मल जलके समान हो, कर्मरूपी जंगलको नष्ट करने के लिये आप अग्नि-अंगारके समान हैं । हे प्रभो, तुम त्रिलोकमें वर्द्धिष्णु हो एवं श्रेष्ठ बुद्धिशाली होनेके कारण सन्मति हो। तुम्हीं महाबली और परमात्मा हो । हे नाथ, प्राप निश्चल रूपके धारण करने वाले हैं एवं प्रतिमा योगके सीखने वाले हैं। आप परमात्मा स्वरूप हैं आपको सदैव नमस्कार है । इस प्रकार उस स्थाणुरुद्र ने महावीर प्रभुकी स्तुति करके नमस्कार किया और ईर्ष्या छोड़कर अपनी प्रिय पत्नी पार्वती के साथ ग्रानन्दित होकर अपने स्थानको चला गया। जब महापुरुषों के योग जन्य साहस एवं शक्तिको देखकर दुर्जन भी परम आनन्दित हो जाते हैं तब सत्पुरुषों का तो कहना ही क्या ? उनका तो दूसरों के गुणों पर मुग्ध हो जाने का स्वभाव ही होता है ।
इसके बाद किसी चेटक नामके राजाकी पुत्री जिसका नाम चन्दना था एवं जो महा पतिव्रता थी, वह जब वन कोड़ा में लीन थी तब वह विद्याधर शीघ्र ही उसको उठा ले गया। बाद में उसे अपनी स्त्रीका ध्यान आया और स्त्रीके भय से उस सती चन्दना
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चिन्ता प्रथम प्रवर्ते भारी, दुजे दर्शन वांछाकारी दीर्घ उसास काम उदर चार दहे देह भोजन रविवार ।।३२३॥ प्रसन्न मूरछा काम जु बंध, अष्टम फीड़ा हास्य प्रबन्ध प्रान सन्देह नवम गुण जान. मोचन शुक्र दान पहिचान ।। ३२४ ।। एवं सुगुन वसु सम चालीस भव विरामना दशविध दीस प्रथमहि अस्त्री को सनसर्ग अरु शरीर मंडन दुरवर्ग || ३२५|| रागी सेवा सहस सुखार, सेवं सतत परम दुखकार जैन सुगन्ध संचरेन यथं ग्रह पुन कोमल छैन || ३२६॥ दशम कुलीन संसरण थपे, पाठ सहस अरु चथ सम भये । कृत क्रमके दशभेद जु पोष, प्रथम अंकषित सूक्षम दोष || ३२७||
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दृष्ट दोष षष्ठम जानिये, बादर दोष सप्तम मानिये ।।३२८ ।। इन दशस वुनिये सब जान सहस चुरासी नये प्रमान ॥ ३२॥ प्रतिक्रमण सदुभय तीन च विवेक उत्सग पन लोन ||३३० ॥ इष्ट दशह गुण सार, माठ लाख चालीस हजार ॥३३१॥
जय विगत अनुमानित चार (प्र) छन् दीप पंचम अवधार शब्दाकुलित अष्टमी कोष, बहुगम पूर्वभोग चितौन पत्र संजम दश सुनी प्रकाश, प्रथम भेद बालोचन जास सप छेदन मूसह परिहार उपस्थान नवम अवधार अब दश धर्महि को सुन भेव, उत्तम क्षम आदिक गन लेव । इनि दशगुन चौरासी लाख, जब पालं उत्तर गुण भाष ॥ ३३२ ॥ रु अठवीस मूलगुण लहै, ते प्रमत गुण थानक कहे । इहि विधि गुण धारं निज काय, वीरनाथ प्रभु भवि सुखदाय ||३३३|| इत्यादिक ग्राचार सहीत विहरं देश ग्राम जग पीत रहें मौन सों सदा समेत तोडू धषु दरशा हेत ।। ३३४ ॥ नगर उज्जैन वर्से शुभ थानम, शान भूमि बन निकट प्रमान तहां जाय प्रभु दीनों ध्यान, चित अडोल प्रतिमा जिम जान ।। ३३५ ।। मेह शिखर सम मनों अनूप, उरमें जपै धातमा रूप पुत्र सात्यकि अन्तिम रुद्र' स्थाणु नाम है पाप समुद्र ।। ३३६ ।।
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को एक भयानक वनमें उस विचारने छोड़ दिया। चन्दनाने सोचा कि सम्प्रति मेरे पापों का उदय हुआ है, इसलिये वहु पं नमस्कार मंत्रोंको जपती हुई धर्म साधना में तत्पर हो गया। वहाँपर एक भीलोंका राजा माया ओर धनको इच्छासे उस चन्दना को उठाकर वृषभसेन नामके एक सेठको दे माया और बदले में प्रचुर धन पाया। उस सेठकी सुभद्रा नामको एक स्त्री पहले से ही थी उसने जब देला यह एक अत्यन्त रूपवती युवती स्त्री यहां आयी है तब उसने सोचा कि अवश्य हो यह मेरी सीत होने को
१. देवों द्वारा वीर तप की परीक्षा
श्री वर्द्धमान महावीर की कठोर तपस्या से केवल मत्र्यलोक के जीव ही नहीं, मक्कि स्वर्गलोक के देवी-देवता भी दांतों तले अंगुली एक दिन इन्द्र महाराज की सभा में वीर स्वामी की नपा की प्रशंसा हो रही थी, कि भव नाम के एक न देन को विश्वास न हुआ कि पृथ्वी के मनुष्यों में इतनी अधिक शक्तिशान्ति स्वभाव-गम्भीरता हो। उसने इन्द्र महाराज से कहा कि जितनी शक्ति आपने वीर स्वामी में बताई है, उतनी तो हम स्वर्ग के देवताओं में भी नहीं । यदि जाज्ञा दो तो परीक्षा करके अपना भ्रम मिटा लूँ । इन्द्र महाराज ने स्वीकारता दे दी । श्रीमान महावीर उज्जैन नगरी के बाहर अतिमुक्तक नाम की स्मशान भूमि में प्रतिमा योग धारा किये नदी के किनारे तप में मग्न थे। रु ने अपने अवधि ज्ञान से विचार करके कि महावीर स्वामी इस समय कहाँ हैं ? उसी श्मशान में आ गया। रात्रि का समय, सुनसान और नानक स्थान, सदों की ऋतु नदी के किनारे प्रसन्न मुख श्री महावीर स्वामी को तप में लीन देखकर आश्चर्य में पड़ गया। उसने अग्नी देव शक्ति से मान भूमि को अधिक भयानक बनाकर अपने दांत बाहर निकाल, माथे पर सीग लगा, आंखें लाल कर बहुत भयानक शब्दों में इतना शोर किया कि मनुष्य तो क्या पशु तक भी कांप उठे। वीर स्वामी पर अपना कुछ प्रभाव न देखकर उसने विताना विधाड़ना और गरजना आरम्भ कर दिया कि दूर-दूर के जीव भयभीत होकर भागने लगे ।
शक्ति से
अपना कार्य सिद्ध न होता देखकर रुद्र ने अपनी मायामयी शक्ति से महा भवानक भीलों की फौज बनाई जो नंगी तलवारें हाथ में लेकर डरती और धमकाती हुई वीर स्वामी के चारों तरफ ऊधम मचाने लगी। इस पर भी वीर स्वामी को चलायमान होता न देख, उसने महाभयानक शेरों, चीतों और भगेरों की डरावनी सेना से इतना अधिक घमासान शोर मचवाया कि समस्त श्मशान भूमि दहल गई । परन्तु फिर भी वीर स्वामी को बिना किसी खेद के प्रसन्न मुख ध्यान में भरत देखकर रुद्र के छक्के छूट गए। उसने हिम्मत बांधकर इस कदर गर्द गुरुवार और मिट्टी बरसाई कि वीर स्वामी नीचे से ऊपर तक मिट्टी में दब गए। वीर स्वामी को फिर भी ध्यान से न हटा देव इतनी बरसा वरसाई कि तमाम इनशान में पानी ही पानी हो गया और ऐसी तेज हवा चलाई कि वृक्ष तक जड़ से उखड़कर गिरने लगे। बीर स्वामी को विशाल पर्वत के सम्मान निरन्तर तप में लीन देख वह आश्चर्य करने लगा कि यह मनुष्य है या देवता ? अपनी कमजोरी पर क्रोध करते हुए रुद्र ने मायामश्री से
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प्रभको देख वैर निज मान, किय उपसर्ग ततक्षण आन । बलविद्या प्रारम्भन कियौ, अति विकराल रूप धर लियौ ।। ३३७॥ छिनक थल छिन सूक्षम होय, छिन रोवै छिन गाव सोय । नत्र अरु दन्त बढ़ाये घने, मुख ज्वाला नहि देखत बने ॥३३॥ वीरनाथ जिन मेरु समान, चित अडोल अति धीरजवान । तब शठ और उपद्रव ठान, धरौ सिंह सम रूप भयान ।।३३।। तरतराय गरज मधिकार, निज निज हस्त शस्त्र विकरार । फिर फणीन्द्र को रूप कराय, जित तित ब्याल रहै फन छाय ।।३४०॥ पूनि कीनी सेना अधिकार, निज आयुध धारी रनसार । मारु मारु मुखत उच्चरै, कायर नर देनत ही मर ॥३४१।। Gभ निज आतम में लवलीन, पापी पाप आपको कोन । प्रलय पवन जो अतिबल करें, मेरु मही नहि टारे टरै ।।३४२।।
शायी होगी। ऐसा सोचकर उस सेठानीने चन्दनाके उत्तम रूपको बिगाड़ डालने की इच्छासे पुराने कोदोका भात मिट्टी के बर्तन में रखकर उसको प्रतिदिन देना प्रारम्भ किया । खिला चुकने के बाद वह चन्दना को लोहे को सांकड़से बांध दिया करती थी। परन्त इस दारुण यन्त्रणा में भी चन्दना के मन में किसी प्रकार का विकार नहीं उत्पन्न हुआ और अपने धर्म कर्म पर बढ़ रही। यह कौशाम्बी नगरीकी बात है।
किसी एक दिन वत्स देशके उसी कौशाम्बी नगरीमें राग शून्य महावीर प्रभु काय की स्थिरता के लिये प्राहार-ग्रहण
भोक विष मरे सर्प, बिमल, कानखजूरे ग्रादि उनके नग्न शरीर से निपटा दिये, परन्तु बीर स्वामी ने तो पहले से ही अपने शरीर से माह हटा भावावा. जब चण्डकौशिक जैसा भवानक अजगरों का सम्राट ही उनके तेप को न डिगा सका तो भला इन सनों, बिच्छ ओं, कानखजूरों में क्या शक्ति श्री कि वे वीर स्वामी के ध्यान को भंग कर सका वीरतो महावीर थे, इसने भान जपसों पर भी वीर स्वामी की धीरता मोरया करता सात मंदा और सहनशकित को देखकर विचार करा लगा कि वीर स्वामी में मेरी मायामयी दाक्ति को पछाडने की अदभुत शक्ति होने पर भी ममें परीक्षा का पूरा अवसर दिया । मनुष्य तो क्या देवताओं की भी मजाल न था। मेरे अत्याचारों के सामने कर सकते महान तपस्वी और आस्मिक बोर को बिना कारण कष्ट देकर अपनी नरक की आयु बांध ली, उसने विनपर्व भक्ति से हर साल किया और कहा कि इन्द्र महाराज के शब्द वास्तव में सत्य हैं। वीर स्वामी धीर ही नहीं, बल्कि 'अतिवीर' हैं।
१-विषधर सर्प : अमृतधर देव
श्री बर्द्धमान महावीर एक भयानक जंगल की ओर सिंह के समान निर्भय होकर बिहार कर रहे थे, कि कुछ लोगों ने कहा-"यहां से थोड़ी दूर झाड़ियों में चण्टकौशिक नाम का एक बहुत भयानक नागराज रहता है। उसकी एक ही फुकार में दूर-दुर के जीव मर जाते हैं, इसलिए इस ओर न जाइये" । वे न रुके और चण्डकौशिक के स्थान पर ही ध्यान लगा दिया। चण्डकौशिक फुकार मारता हुआ बाहर आया तो महाँ दूरदूर के वृक्ष तक उसकी फुकार से सूख गए वीर स्वामी पर कुछ प्रभाव होता न देखकर चण्डकौशिक आश्चर्य करने लगा यौर अपनी कमजोरी पर क्रोध खाकर उनकी तरफ फना करके सम्पूर्ण शक्ति से फुकार मारी. परन्तु बीर स्वामी बदस्तूर ध्यान में मग्न खड़े रहे। चण्डकौशिक अपनी जबरदस्त हार को अनुभव करके कोष से तिल-मिला उठा, और पूरे जोर से वीर स्वामी के पैर में डंक मारा । वीर स्वामी के चरणों में दूध जैसी सफेद धारा निकली, परन्तु वह ध्यान में लीन खड़े रहे। चण्ड कौशिक हैरान था कि मुझ से भी बलवान आज मेरी शक्ति का इम्तिहान करने मेरे ही स्थान पर कौन आया है ? वह बीर स्वामी के चेहरे की ओर देखने लगा, उनकी शान मुद्रा और वीतरागता का चण्डकौशिक पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि उसके हृदय में एक प्रकार की हलचल सो मच गयो । वह सोच में पड़ गया कि इन्होंने मेरा क्या बिगाड़ किया, जो ऐगे महा-तपस्वी को भी कष्ट दिया । मैंने अपने एक जीवन में लाखों नहीं, करोड़ों के जीवन नष्ट कर दिये । मैं बड़ा अपराधी है, पापी है। ऐसा विचार करते करते उसका हृदय कोप उठा और श्रद्धा से अपना मस्तक वीर स्वामी के चरणों में देकसा हुआ बोला-"प्रभो! क्षमा कीजिये, मैने आपको पहिचाना न अपने आपको" । वीर स्वामी तो पर्वत के समान निचल, समुद्र के समान गम्भीर, पथ्वी के समान क्षमावान थे, उपसगों को पाप कमों का फल जानकर सरल स्वभाव सहन करते थे और उपसर्ग करने वालों को कमों की निर्जत करने-वाला महामित्र रामभते थे 1 चनकौशिव के उपसर्ग का उनको न खेद था न क्षमा मांगने का हषं । उनकी उदारता से प्रभावित होकर नागराज ने प्रतिज्ञा करली कि मैं किसी को बाधा न दंगा। उसका जीवन विलकल बदल चुका था। जहर की जगह अमृत ने ले ली थी। लोग हैरान थे कि जिस वण्डकौशिक वा जान से मारने के लिए देश दीवाना हो रहा था, वह आज उसको दूध पिला रहा है । यह तो हैं थी वर्द्धमान महानी के जीवन का केवल एक दरटान्त, उन्होंने ऐसे अनेकों पापियों का उद्धार किया।
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बासरीराज
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यन्तिग कद्र सात्यांक के पुत्र स्थाण के द्वाग
भगवान महावीर पर उपसर्ग ।
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उपसर्ग सहल करने के बाद देश द्वारा प्रभु की स्तुति करना
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क- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
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अन्तिम रुद्र सात्यकि के पुत्रम्याण के द्वारा
भगवान महावीर पर उपमनं।
उपसर्ग जीतने के बाद देवों द्वारा बंदना
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दोहा धन्य वीर जिनराज जग, तन मन चलउ न रंच। अचल ध्यान धर मेरु सम जोतों इंन्द्रिय पंच ॥३४३।। चल्यौ न वाकी चाल कछु, लंपट भयो मलीन । चरण कमल' प्रभु के प्रणमि, पुनि बहुविधि थुति कीन ॥३४४॥
चौपाई तुम प्रभु जगमें सुगुरु सुजान, तुम वीरन में वीर महान । तुम सम तेज न जगमें और, जीती दुसह परीषह ठोर ॥३४५।। संग रहित विहरत जिमि बाऊ, अचल मनों पर्वत के राऊ। क्षमावंत पथ्विी सम देव, गुण गहीर सागर जिमि एव ॥३४६॥ भव उपदेशक सुधा समान, कर्म महाबन अगिन प्रमान । वर्धमान जय वर्धक बोन, सन्मति शुभमति दाता जान ।।३४७|| नमों मेक सम अचल जिनेश, नमौं पात्मा थिति परमेश । नौ जोग प्रतिमा सम चित्त, नमौं एक सम अरि अरु मित्त ॥३४८।।
दोहा यह प्रकार थुति कीन बहु, पुनि पुनि प्रन मैं पाय । क्षमा करो मो दीन पर महावीर जिनराय ॥३४६।। उमा सहित नृत्तत भयौ, अति आनन्द उर नेह । चारित हीन जु रुद्र यह, गयो आपने गेह ॥३५०॥ धोरजको धर सत पुरुष, टरं विपत अंकूर । सन्मति प्रभु उपसर्ग सह, दुर्जनके मुख धूर ॥३५१॥ पाप कियो शठ प्रापको, प्रभु बाधा नहि लेश । सो श्री सन्मति प्रभु हमहि, भव भव शरण महेश ॥३५२॥
अडिल्ल हुंडासपिणी दोष, पाप अप्रिय करै। तीर्थकर उपसर्ग, मान चक्री हरे॥ वेशठ पद जु महान, जीव उनसठ धरै। होंहि पांच पाखण्ड, विष कुल प्रादरं ॥३५३॥
करने की इच्छासे आये । उत्तम पान महाबीर प्रभु को देखकर वह चन्दना बंधन मुक्त हो गयी। पुण्योदयके प्रभावसे वह पात्र दानकी इच्छासे प्रभके पास पहुंची। वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत उस चन्दनाने प्रभुको विधि पूर्वक नमस्कार किया और बादमें
पढ़गाहा ।
उस सतीके शीलकी महिमासे कोंदोंका भात सुगन्धित एवं सुस्वादु चाबलोंका भात हो गया और वह मिट्टीका सरवा एक सुन्दर सोनेका पात्र हो गया । पुण्य कर्मका ऐसा ही आश्चर्य चकित कर देने वाला प्रभाव होता है, वह पुण्य प्रभाव असम्भव
चंदना.उद्धार बैशानी के राजा चेटक की एक पुत्री चन्दना देवी नाम की अपनी सखियों के साथ बगीचे में कीड़ा कर रही थी। उसकी मुन्दरता को देख, एक विद्याधर उसे जबर्दस्ती उठाकर ले गया और अपने साथ विवाह करना चाहा। शीलवती चन्दना जो उसके वश में न आई तो उसने उसे एक भयानक अंगल में छोड़ दिया जहां एक व्यापारी का काफला पड़ा था। चन्दना जी ने उस' व्यापारी से वंशाली का रास्ता पूछा। व्यापारी वैशाली के बहाने उनको अपने घर ले गया और उनके मनोहर रूप पर मोहित होकर उनसे विवाह कराने को कहा। चन्दना जी महाशीलघती थी बह कब किसीके बहकाने में आ सकती थी ? व्यापारी आसानी रो अपना कार्य सिद्ध होता म देखकर जबर्दस्ती करने लगा, चन्दना देवी ने उसे डांटा। व्यापारी ने कहा कि क्या तुम भूल रही हो कि यह मेरा मकान है, यहां तुम्हारी कौन सहायता करेगा? चन्दनाजी ने चोट खाये हुए शेर के समान दहाड़ते हुए कहा कि जस भी दुरी निगाह से देखा तो तुम्हारी दोनों आंखें निकाल लूंगी। व्यापारी चन्दनाजी पर जबर्दस्ती करने को उठा ही था कि चन्दना जी के शीलवत के प्रभाव से एक भयानक देव प्रकट हुआ। उसने व्यापारी की गर्दन पकड़ ली और कहा, जालिम ! अकेली स्त्री पर इतना अत्याचार? बता तुझे अब क्या दण्ड दूं? व्यापारी देव के चरणों में गिर पड़ा और गिड़गिड़ाकर क्षमा मांगने लगा। देव ने कहा, "तने हमारा कल नहीं विगाया तो हमरो क्षमा कंसी? जिस शीलवन्ती को तू सता रहा था उसी से क्षमा मांग" ! व्यापारी चन्दना जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला, "बहन ! मैं न पहचान सका कि आप इतनी महान् शीलवती हो। मुझे क्षमा करो। मैं अभी आपको वैशाली छोड़कर आता हैं। व्यापारी ही था, देव के भय से वह चन्दना जी को लेकर वंशाली की ओर तो बल दिया, परन्तु रास्ते में विचार किया जब यह अनमोल रत्न मेरे हाथों से जा हो रहा है तो बेचकर इसके दाम क्यों न उठाऊँ? वैदाखी के बजाय वह कौशाम्बी नाम के नगर में पहुंचा। उस समय दासदासियों को अधिक खरीद-बेच होती श्री। चौराहे पर लाकर पन्दना जी को नीलाम करना शुरू कर दिया। इनके रूप और जवानी को
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चन्दना सतीकी कथा
चौपाई
बनवासी विहरत भगवान, कथा और अब सुनहु सुजान । सिद्ध देश विशाल पुर सार, चेटक नाम नृपति गुण भार ।।३५४॥ तिनके सात सुता ऊपनी, प्रथमहि त्रिशला मात जिन तनी। दुनी ज्येष्ठा रुद्रहि माय, तृतीय चेलना श्रेणिक लाय ।।३५५।। चौथी मशक पूर्व जननीय, पंचमि सुता चन्द्रमा प्रीय । रूपवंत रतितै अधिकार, शोल शिरोमणि गुण अधिकार ।।३५६।। सो सब जो मैं वर्णन करौं, होय अवार पार नहिं धरौं। एक समय वन क्रीड़ा गई, कामातुर खगपति हर लई ।।३५७।। ता पीछे चिंत्यो सब सोइ, निज त्रियको भय कंपित हो । ताको छोड़ महा उद्यान, खगपति गयो आपने थान ।।३५८।।
बातको भी अनायास ही कर दिखाता है। निस्सन्देह इसके द्वारा सभी तरह की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं । इसके बाद उसने प्रसन्नता पूर्वक पुण्यरूप नव प्रकार की भक्तियों के साथ महावीर प्रभुको माहार दान दिया । तत्क्षणोपाजित आहार दानरूपी महापुण्यके प्रताप से उस सती चन्दनाको रत्न वर्षा, पांच पाश्चर्यप्रद बस्तुएं एवं निज पारिवारिक कुटुम्ब प्राप्त हुए, देखो श्रेष्ठ दान से क्या नहीं मिलता? सभी वस्तुएं दान के प्रभाव से हाथ में आ जाती हैं। इस उत्तम दान के प्रभाव से उस चन्दना का निर्मल यश सम्पूर्ण संसार में फैल गया और वान्धवमिलन भी हो गया। - . .--- देखकर एक वेश्या ने चन्दना जी को अपने काम की बस्तु जानकर दो हजार अशफियों में मोल ले ली। चन्दता जी ने पूछा, माता जी आप कौन है ? मुझ दुखिया को इतना अधिक मूल्य देकर क्यों खरीदा ? वेश्या ने उत्तर दिया- "चन्दना ! तू चिन्ता न कर, अब तेरी ममीबतों के दिन समाप्त हो गए। मैं तुझे सर रोपांबी तक सोने और हीरे-जवाहरातों से लाद दूंगी। स्वादिष्ट भोजन और सुन्दर वस्त्र पहनने को दूंगी।" चन्दना जी उसकी बातों को परल गई और उसके साथ जाने से इन्कार कर दिया। वेश्या जबरदस्ती चन्दनाजी को घसीटने लगी, कि त मेरी दासी है। मैंने तुझे दो हजार अशफियों में खरीदा है । इस स्त्रींचातानी में अनेक लोगों की भीड़ वहां हो गई। उसो भीड़ में से एक नौजवान आगे बढ़ा और वेश्या को अशफियों को दो लियां देकर दोला-'खबरदार ! इस महासती से अपने नापाक हाथ मत लगाना"। और बड़े मीट दाब्दों में चन्दना जी से कहा कि तुम मेरी धर्म की पुत्री हो, मेरे साथ मेरे मकान पर चलो।
ये उपकारी नौजवान कौशाम्बी नगरी के प्रसिद्ध सेठ वृषभसेन थे, जी बड़े धर्मात्मा और सज्जन थे। सेठजी दूसरी दासियों से अधिक चन्दनाजी का ध्यान रखते थे । चन्दनाजी सेठजी की स्त्री से भी अधिक रूपवती, गुणवती और बुद्धिमती थी। यह देखकर उनकी स्त्री यानि से जलने लगी और भूठा कलंक लगाकर उसके अतिसुन्दर, काली नागिन के समान बालों को कटवा कर सिर मण्डवा दिया और बन्दीखाने में डाल दिया । स्त्राने को कोदों के दाने देने लगी । ऐसी दुरखी दशा को भी चन्दना जी पहले पाप कर्मों का फल जानकर बिना किसी खेद के प्रसन्न चित्त होकर सहन करती थी और विचार करती थी कि संसार में कुरूप स्त्रियां अपने आपको भाग्यहीन समझती हैं, परन्तु मैं तो यह अनुभव कर रही है कि यह रूप महादुःखों की खान है। जिसके कारण मैं अपने माता-पिता से जुदा हुई और यह कष्ट उठा रही है।
सारा देश महादःख अनुभव कर रहा था कि छः मास हो गये थी वर्द्धमान महावीर का आहार-जल नहीं हुआ, चन्दनाजी रह-रहकर विचारती थी कि यदि में स्वतन्त्र होती तो अवश्य उनके आहार का यत्न करती, मैं बड़ी अभागिनी हूँ कि मेरे इस नगर में होते वीर स्वामी जैसे महामुनि छः महीने तक बिना आहार-जल के रहै ? चन्दना जी को बही कोंदों के दाने भोजन के लिए मिले तो उन्होंने यह कहकर कि जब श्री वीर स्वामी ने आहार नहीं हुआ तो मैं क्यों कुरू ? उनको रखने के लिए प्रांगन में आई तो बीर स्वामी की जय जयकार के शब्द मुने, दरबाजे की तरफ लपकी लो बीर स्वामी को सामने आते देखकर पउगाहने को खड़ी हो गई, भगवान को भरे नयन देख, भूल गई वह इस बात को कि मैं दासी है और उसने भगवान को पड़गाह ही लिया। पुण्य के प्रभाव से कोदों के दाने खीर हो गये, निरन्तराय आहार हुआ । स्वर्ग के देवों ने पंचाश्चर्य करके हर्ष मनाया। लोगों ने कहा, “धन्य है पतितपावन भगवान महावीर को जिन्होंने दलित कुमारी का उद्धार किया । धन्य है सेट वृषभसेन को जिन्होंने वावजूद इस प्रधानता के किसी दूसरे घर में जबरदस्ती रही हुई स्त्री को आश्रय न दो, कुरीतियों से न दवकार उन्होंने चन्दना जी को शरण दी और वे लोकमूढ़ता में नहीं बहे ।"
राजा तथा बड़े-बड़े सेठ और सेट वृषभसेन स्वयं महीनों से ललचाई आंखों से धीर स्वामी के आहार के निमित्त पडगाहने को खड़े रहे, परन्तु भगवान् ती लोककल्याण के लिये गोगी हुए थे। उन्होंने अपने उदाहरण से लोक को यह पाठ पढ़ाया कि वह पतित से घृणा न करे,
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सती चन्दना का उद्धार
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विशालपुर के राजा चेतक को भुपुत्रो चन्दना कौशाम्बी के संठ ऋषभ मंन के यहाँ कैद था। श्री १००८ भगवान महावीर स्वामी
जब नगर को गये तो चन्दना का बेड़ियाँ स्वतः खुल गई। सती चन्दना वीर प्रभु को माहार देते हुए।
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बनमें सो सुन्दरि एकली, पूरब करम भजै मन रली। मन में पंच परम गुरु पान, धरम ध्यान निहर्च परवान ॥३५६।। इह अवसर इक बनचर आय, अवलोकी सुन्दरि को जाय । रूपवंत लक्षण संजुत्त, ले आयो सो ताहि तुरंत ॥३६॥ कोशाम्बी पुर नगर महान, वृषभसेन तहं सेठ मुजान । तिहि को पानि दई नर ताहि, अति प्रमोद कर लीनी वाहि ॥३६॥ ताके गेह सुभद्रा नार, देहि चन्दना मनहि विचार । रूपवंत नवजीवन जान, मनमें सौत शंक प्रतिमान ॥३६॥ रूप हनन को उद्यम कियो, कष्ट चन्दना को तिहि दियौ। अधिक पुराने कोदौं नीज, स्वाद रहित मन में सो खीज ||३६३।। तक सहित मृत भाजन माहि, सो दीनौ दुरबुद्धिनि ताहि। खाय नहीं रोबै जब खरी, पापिन और उपाय जु करी ॥३६४॥ बन्धन बांधि खननि धरी, बहत भांति बह संकट परी। भगत पूरब करम जुधीर, धर्मध्यान नहि तजै शरीर ॥३६शा तिहि अवसर वाही पुर पाय, चरजाहित आये जिमराय। देख चन्दना प्रभुको सबै, बन्धन टूट गये वपु सबै ॥३६६।। तनके सकल शोक नश गये, परम हुलास चित्तमें भये । सन्मति प्रभु पद प्रनमैं आय, हस्त जोर भुवि शीस लगाय ॥३६७|| पडगाहै विधिपूर्वक सोइ, सिमावरमें होशील महाना राबै यह जान, पाये प्रभुको कुमानिधान ॥३६॥ सो वह तक कोदवन वोद, तंदुल खीर भयौ अनुमोद । माटी पात्र हेम मय सोय, धरम तनै फल कहा न होय ॥३६॥ बही अन्त प्रासुक विधि सार, दीनौ प्रभुको परम प्रहार । भक्तिभाव ताके उर भयो, नवप्रकार विधि पुण्य जु लयौ ।।३७०|| पंचाश्चर्य किये सुर छाय, रतनादिक वरषा अधिकाय । ले अहार प्रभु वनको गये, ध्यानारूढ़ पातमा नये ॥३७१।। वृषभसेन प्रनमैं पद पाय, तुम हो सती शिरोमणि माय । अरु बहु प्रस्तुति कीनी सबै, मो अपराध क्षमा कर अब ।।३७२॥ होइ दानसों सुख अधिकाय, संकट विकट सबै मिट जाय । क्षणभंगुर जाने संसार, प्रभु पद लहौ महावत' धार ॥३७३।।
दोहा
लहो चन्दना दान फल, जगमें जस अधिकाय । शील सहित दीक्षा लई, भई अजिका जाय ॥३७४।।
इसके बाद महातीर प्रभु छयस्थ अवस्था में मौनी होकर विहार करने लगे बारह वर्ष बीत जाने पर वे जम्भिका नामके गांवके बाहर ऋजुकला नामकी नदीके किनारे बहुमूल्य रत्नोंको शिलापर शाल-वृक्षके नीचे प्रतिमायोग को धारण करके षष्ठो. पवासी हो गये और श्रेष्ठ ज्ञानकी सिद्धिके लिये ध्यानमें तत्पर हुए। उन्होंने शीलरूपी अठारह हजार कवचोंको धारण किया, चौरासी लाख गुणोंको अपना प्राभुषण बनाया महाबत अनुप्रेक्षा शुभ भावना रूपी वस्त्रोंसे वे सुसज्जित हुए, संवेगरूपी महा गजराज पर प्रारूढ़ हुए और रत्नत्रय रूपी महावाणोंको धारण कर चारित्र रूपी समरभूमिमें उतर पड़े। तप ही उनका धनुष था, ज्ञान दर्शन ही फणीच था। और गुप्ति आदि सेनामों से वे घिरे हुए थे। इस प्रकार महावीर प्रभु यथार्थ में ही महावीर महान योद्धा होकर कर्मरूपी दुष्ट शत्रुनों को मारने के लिए अनबरत उद्योग में तत्पर हो गये। सर्वप्रथम उन्होंने मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से सकल कर्म नाशक एवं शरीर हीन सिद्ध पुरुषों के सम्यक्त्वादि पाठ गुणोंसे युक्त ध्यान करने में लग गये । जो कि सिद्ध पुरुषों के श्रेष्ठ गुणों के अभिलाषो हैं वे क्षायिक-सम्यक्त्व अनन्त केवल ज्ञान, केवल दर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, प्रवगाहन, अगु
जो अपनी कमजोरी तथा जबरदस्ती करने से धर्मपद तक से गिर गये हों, उनको भी दोबारा धर्म पर लगाना जैन धर्म की मुख्यता है। . सत्य की विजय हुई। चन्दनाजी का शीलवत कब खाली जा सकता था? महारानी मुगावती ने सुना तो वह महाभाग्य चन्दनाजी को बधाई देने आई : बन्धन में पड़ी हुई दासी का यह सौभाग्य ? यह तो लोक के लिये ईर्ष्या की वस्तु थी। क्योंकि लोक तो उसे दासी ही जानता था । भगवान महावीर ने मुह से नहीं, बल्कि अपने चरित्र से चन्दना का उद्धार करके दास-दासी अथवा गुलामी का अन्त करने का आदशं उपस्थित किया । -महारानी मगावती ने उसे देखा तो उसे अपनी आँखों पर विश्वास न पाया। उसकी प्रसन्नता का पार न था। वह चन्दनाजी को अपने साथ राजमहल में ले गई । माता-पिता के पास दूत भेजा वे सब वर्षों से विछड़ी हुई चन्दनाजी से मिलकर बहुत खुश हुए। चन्दना जी ने उद्धार पर संतोप को सांस ली जरूर, परन्तु उसने संसार की ओर देखा तो दुनिया में उस जैसी दुखिया बहुत दिखाई पड़ीं। आखिरकार जब भपवान महावीर को केवल ज्ञान प्राप्त हो गया तो चन्दना जी ने स्त्री जाति को संसारी दुःखों से निकाल कर मोक्ष मार्ग पर लगाने तथा अपने आरम कल्याण के लिये जिन दीक्षा ले ली।
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वर्धमान स्वामी की तपस्या तथा कर्मक्षय निरूपण-१
छन्द चाल प्रभु विहरै वन बहु प्रामा, उर ध्यान धरै अभिरामा । मोनी छद्मस्थ महाना, रहै, द्वादश वर्ष प्रमाना ॥३७५।। अब चंबक ग्राम सुथाना, बाहिर बन सुभग महाना । ऋजुकूला सरिता नीरा, तहं रतन शील गम्भीरा ।।३७६।। ऊपर तरु साल बखानौ, शाखा गम्भीर सुजानी। श्री सन्मति प्रभु तहं पाई, प्रतिमा सम ध्यान धराई ॥३७७।।
कलघ और अव्याबाध इन आठ श्रेष्ठ गुणों का सदैव ध्यान करते रहते हैं क्योंकि उन्हें ऐसा ही करना चाहिये। इसके बाद विवेक शील महाबीर प्रभु पवित्र मनसे प्राज्ञा विचय इत्यादि चार प्रकार के धर्म ध्यानों के चितवन में लगे। पूर्वके चार कपाय मिथ्यात्व की तीन प्रकृतियां और देवायु, नरकायु एवं तिर्यंचायु ये सब कर्मरूपी दस शत्रु जब कि प्रभु चतुर्थ से सप्तम गुण स्थानमें प्राव.
१. वीर-तप तप से कम कटते हैं, पापों का नाश होता है। राज्य-सुख और इन्द्र-पद तो साधारण माल है, तप से तो संसारी आत्मा, परमात्मा तक हो जाती है । तप बिना मनुष्य-जन्म निप्फल है।
लौक्रान्तिकदेव : बर्द्धमान पुराण, पृ० ६.! कमों की निर्जरा के हेतु श्री वर्द्धमान महावीर छः प्रकार का वाह्य तथा छः प्रकार का अन्तरंग, १२ प्रकार का तप करते थे :१. अनशन--कपायों और इच्छाओं को घटाने के लिए भोजन का त्याग करके मर्यादा रूप धर्म ध्यान में लीन रहना । २. अवौवयं--इन्द्रियों की लोलुपता, प्रमाद और निद्रा को कम करने के लिये भूख से कम आहार लेना।
३. वृत्तिपरिसंख्यान-भोजन के लिये जाते हुए कोई प्रतिज्ञा ले लेना और उसे किसी को न बताते हुए उसके अनुसार विधि मिलने पर भोजन करना, नहीं तो उपवास रखना।
४. रसपरित्याग स्वाद को घटाने और रसों से मोह हटाने के लिए मोठा, घी, दूध, दही, तेल, नमक इन छः रसों में से एक या अनेक का मर्यादा रूप त्याग करना।
५. विविक्त शाय्याशन-स्वाध्याय, सामायिक तथा धर्म ध्यान के लिये पर्वत, गुफा, श्मशान आदि एकान्त में रहना। ६. कासक्लेश-शरीर की मोह-ममता कम करने के लिए, शरीरी दुःखों का भय न करके महाघोर तप करना । ७. प्रायश्चित-प्रमाद ब अज्ञानता से दोष होने पर दण्ड लेना। १. विनय - सम्यग्दर्शी साघुओं, त्यागियों और निगध मुनियों का आदर-सत्कार करना। ६. बच्यावत्य-बिना किसी स्वार्थ के आचार्यों, उपाध्यायों, तपस्वियों तथा साधुओं की सेवा करना । १०. स्वाध्याय- आत्मा के गुणों को विश्वारा पूर्वक जानने तथा धर्म की वृद्धि के लिये शास्त्रों का मनन करना। ११. व्युतसर्ग-२४ प्रकार के परिग्रहों से ममता त्यागना । १२. ध्यान–चार प्रकार के होते हैं :
(१) आतं-स्त्री-पुषादि के वियोग पर शोक करना, अनिष्ट सम्बन्ध का खेद करना, रोग होने पर दुःखी होना, आगामी भोगों को इच्छा करना।
(२) रौद्र-हिमा करने, कराने व सुनने में आनन्द मानना । असत्य बोलकर, बुलवाकर, बोला हुमा सुनकर खुशी होना। चोरी करके, कराकर, सुनकर हर्षित होना । परिग्रह बढ़ाकर, बढ़वा कर, बढ़ती हुई देखकर हर्ष मानना।
(३) धर्म-साल तत्वों को विचारना, अपने व दूसरों के अज्ञान को दूर करने का उपाय सोचना, पाप कमों के फल का स्वरूप विचारना, यह विचारता कि मैं कौन हूँ ? संसार क्या है ? मेरा कर्तव्य क्या है ? तथा बारह भावनाएं मानना ।
(४) गुक्ल-शुद्ध आत्मा के मुरषों का बार-बार चिन्तवन करते हुए उसी के स्वरूप में लीन रहना।
आत्त और रौद्र तो पाप बंध का कारण है। धर्म व शक्ल में जितनी अधिक जीतरागता होती है उतनी ही अधिक कमो की मिर्जरा होती है और जितना शुभ गग होता है उतना अधिक पुण्य बन्ध का कारण है। श्री भगवान् महावीर आतं और रौद्र ध्यान का त्याग करके मन बचन काय में धर्म-ध्यान तथा शक्लध्यान में लीन रहते थे।
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प्रभु जिहि वन धारै जोगा, षट ऋतुफल फल मनोगा। गो सिंह रहैं इक थाना, सबहिं मैत्री भाव निदाना ॥३७॥ शील सहस अठारह जानौ, ताको तन बखतर मानौ । ताके अब सुनियो भेदा, जाते सब नाश खेदा १३७६।।
शील के अठारह हजार भेदों का वर्णन
दोहा
देव मनुष' तिरंचिनी, नारी तीन विनोद । त्यागौ मन वच काय, कृत कारित अनुमोद ।।३८०|| पांचों इंद्रिय सी गुणे, संज्ञा चार बखान । दवित भावित दोय गुण, षोड कषाय प्रमान ॥३८१|| सत्रह सहस जु दोयस, ऊपर प्रसी निदान । अब अजीव त्रिय भेद सून, चित्र काठ पापान ।।३५२।। मन वच त्यागौ दोय गुण, कृत कारित अनुहर्ष । पांचों इन्द्रिय संज्ञ चह, दवित भावित पर्ष ॥३५३।। सातस बीज जु जोर के, ए सब देव मिलात । शील अठारह सहस गनि, भेद कहे जिनराय ।।३८४।।
पद्धति छन्द
सम्यक्त्व महागज पर अरूद, वैराग तनी नर भूमि गूढ़ । तप चाप लियो करमें महान, पुनि दर्शन ज्ञान जु तीक्ष्णवान ।।३८५|| प्रब पंच महावत समिति पंच, अरु तीन गुप्ति सब सेन संच । इहि विधि आलंकृत सुभट वोर, है सबै एकतें एक धीर ।।३८६।। उन कर्मशत्र मन दमन साथ, पारत्य रोद्र किय जन्न हाथ । इन ही की जीतें सिद्धि होय, गुण अष्ट जीवतहि लहई सोय ।।३८७।। प्रभ निरमल चित अति अचल होय, मन धर्मध्यान उत्कृष्ट सोय । जिन चौथे गणथानक प्रगार, क्षय करी प्रकृति सातों संवार।।३८८॥ सो क्रोध मान माया ए लोभ, ए अनंतानुबन्धी अछोभ । मिथ्यात समय मिथ्यात जान, पुनिसमय प्रकृति मिथ्यात हान ॥३८॥
कृति इन घात होय, तब क्षायिक समकित शुद्ध होय । प्रभु तप बल सातम गुणस्थान, तहं तीन प्रकृति चरी महान ||३९०॥ तिरजंच प्राय पर देव आयू, पुन नरक प्रायु ये तीन भाव । अब मोह भर दल डगमगान, प्रभ जीत लये जोधा महान | |
स्थित थे तब स्वयं ही नष्ट हो गये । इन कर्मरूपी महाशत्रुओं को नष्ट करके विजयी महायोद्धा के समान महावीर प्रभ शुक्ल ध्यानरूपी विशाल प्रायुधको अपने हाथों में ग्रहण कर मोक्षरूपी राज प्रासाद को प्राप्त करने के लिये क्षपकश्रेणी रूपी सीढ़ियों पर चढ़ने लगे और मार्गके अन्य कर्मरूपी शत्रुओं के नाश में प्रवृत्त हुए। स्त्यानमृद्धि नाम के दुष्टकर्म, निन्द्रा-अनिद्रा, प्रचला-प्रचला, नरकगति, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्री-द्विइन्द्री-विइन्द्री-चतुरिन्द्री रूपी चार घातिया, अशुभ नरकगति प्रायोम्यानुपूर्वी, तिर्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, पातप, उद्योग, स्थावर, सूक्ष्म साधारण इत्यादि कर्मरूपी सोलह शत्रुओं को महावीर प्रभु ने पराक्रमी वीरकी तरह नष्ट कर दिया। तदुपरान्त वे शुक्ल ध्यान रूपी तलवार को ग्रहण किये हुए और क्रमश: चारित्र के घातक पाठ कपायों को द्वितीय अंशमें, नपुसक वेदको तृतीय ग्रंश में, स्त्री वेद को चतुर्थ अंशमें, हास्यादि छ: को पञ्चम अंगमें, पुरुष वेद को पष्ठ अंशमें, संज्वलन • क्रोधको सप्तम ग्रंश में, संचलन मानको अष्टम अंशमें, संज्वलन मायाको नवम अंश में, अपने शुक्ल व्यानरूपी प्रायुधसे इन सत्रों • का नाश कर दिया । इस प्रकार कर्मरूपी शत्रुओं की अनेक सन्ततितोंको नष्ट कर महावीर प्रभु दशव गुण स्थान पर प्रारूढ़ हुए
और वहां चौथे ध्यान के प्रभाव से संज्वलन लोभको नष्ट कर क्षोण कषायो हो गये। वे संना सहित मोह कर्म रूपी राजा को नष्ट कर शूर-शिरोमणि के समान शोभायमान हुए। बाद में ग्यारहवें गुण स्थानको पारकर वे बारहवें गुणस्थानको प्राप्त हुए और वहां केवल ज्ञानके उत्तम राज्यका अधिकार स्वीकार हो जाने के लिये प्रयत्नशील हुए। महावीर प्रभुने बारहवं गुणस्थानके अंतिम दो समयों में से पूर्व समय में निन्द्रा एवं प्रचला इन दोनों कों का नाश किया। इस कार्य में उन्हें शुक्ल ध्यान के दूसरे भाग से सहायता मिली इसके बाद फिर जगद्गुरु महावीर स्वामी ने शुक्ल ध्यान के उसी दूसरे हिस्सेसे पाँच ज्ञानावरण कर्म, चार दर्शना वरण कर्म और पांच अन्तराय कर्मों का नाशकर दिया। ये हो चौदह घातिया कर्म है। जिस तरह कि तीक्ष्णवाण से कपड़े के कई
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चौपाई
सप्त अस्ट नवमे गुण थान, तीन करण कीने भगवान । प्रथम जघन मध्यम उत्कृष्ट, चारित करत यही त्रय सप्ट ॥३६॥
पद्धडि छन्द
प्रय शुकल ध्यान आयुद्ध लीन, अष्टम गुणथानक पाय दीन । तहं क्षपक श्रेणि प्रारूढ़ होय, करम शत्रु क्षय करहिं सोय ॥३९३।। नबमैं गुणथानक चढ़िव जोर, छतीस प्रकृति खिपि दई घोर । सो प्रथम भाग सोरह क्षिपाय, प्रचला प्रचला नहिं उर सुहाय ।।३६४|| निद्रा निद्रा प्रस्त्यानगृद्धि, बादर सूक्ष्म उद्योत वृद्धि । साधारण अरु पाताप भांति, एकेन्द्रिय द्वय त्रय चतुरजाति ॥३६५|| गति नरक और तिरयंच होइ, इन सहित पूरवी कही दोय 1 तिहि दूजे भाग सुखिपा आठ, प्रत्याख्यानअप्रत्याख्यान गांठ ॥३६६॥ जुत क्रोध मान माया रु लोभ, तीज जु नपुसकवेद भोभ । चौथे खिपि अस्त्री वेद जोग, पांचमैं हास्य रति अरति जोत ॥३९७।। भय सहित दुगंछा छहौं जोइ, षष्ठ में भाग पुदेव सोइ । सप्तमै संज्वलन क्रोध जान, अष्टमै भाग संज्वलन थान 1॥३६॥ नवमै जु भाग माया विनास, ए कहीं प्रकृति छत्तीस भास । दशमें गुणथानक सूक्ष्म लोभ, इहि विधि अरि घाते हृदय क्षोभ ॥३६॥ प्रभु पूरयौ दूजौ शुक्लध्यान, तव चहै बार, गुणस्थान । तब चूरी सोरह प्रकृति भाग, निद्रा प्रचला दुइ प्रथम भाग 11४००। प्रब दुतिय भाग चौबीस नास, हनि ज्ञानावरणी पंच भास । मतिश्रुत जु अवधि ये तीन जान, मनपर्यय केवल ज्ञान चान ॥४०१॥ अब दरशन वरती प्रकृति चार, चल अचखु अवधि केवल विचार । खिपि अन्तराय वीरज सजोग, अरु दान लाभ भोगोपभोग ।।
.
अडिल्ल
ज्ञानावरनी पंच प्रकृति जुत सो हनी, दरशनको नव घात अठाइस मोहनी। अन्तराय है पंच सबै सैताल ये, आयु करमके तीन नाम तेरह गये ।।४०३॥
दोहा एक सब वेसठ प्रकृति हनि, प्रबल घातिया कर्म। रही अघातिनि चारकी, प्रकृति पचासी नर्म ॥४०४||
एक तहों को छेद दिया जाता है उसी तरह प्रभु ने इस कार्यको किया। वे बारहवें गुण-स्थानके अन्त में तिरेसठ प्रकृतियोंका नाश करके तेरहवें गुण-स्थान को प्राप्त हुए और उसी में उन्होंने उस अत्यन्त उत्तम केबल ज्ञान को प्राप्त किया जो अनन्त है, लोक अलोक के स्वरूपका प्रकाशक है, अपरिमेय महिमा शाली है और अक्षय मोक्ष राज्य को देनेवाला है।
जिनेन्द्र श्री महावीर प्रभुने वैशाख शुल्क दशमी के दिन सायकाल के समय हस्त एवं उत्तरा नक्षत्र के मध्य में शुभ चन्द्र योग होने पर मोक्ष प्रदाता क्षायिक सम्यक्त्व, यथास्यात संयम (चारित्र) अनन्त केवल ज्ञान, केवल दर्शन, क्षायिकदान, लाभ के भोग, उपभोग, एवं क्षायिक वीर्य इन श्रेष्ठ नौ क्षायिक लब्धियों को स्वीकृत किया। इस प्रकार जब महावीर स्वामी ने पाति कर्मरूपी महाशत्रुओं को जीत लिया और केवल झानरूपी अलभ्य सम्पत्ति को पा लिया तब आकाश से देव लोग जय-जयकार करने लगे एवं वहीं दुन्दुभि इत्यादि नाना प्रकार के मनोहर बाजे बजाने लग गये। अनेक देवों के विमान-समूह से सारा प्रकाश मण्डल ढक सा गया । अजस्र पुष्प वर्षा होने लगी। इन्द्र के साथ सब देवों ने महावीर स्वामी को श्रद्धाभक्ति पूर्वक प्रणाम किया ।
आठों दिशाएं और आकाश एकदम निर्मल हो गये। शीतल, मन्द, सुगन्ध हवा बहने लगी, इन्द्रासन कंपित होने लगा। इसी समय यक्षराज कुबेर महावीर प्रभुके अनुपमेय गुणों से मुग्ध एवं भक्तिवश होकर उनके समवसरणके उपयुक्त महा संपदा की रचना में प्रवृत्त हा । जिस महावीर प्रभु ने घाति कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करके अनन्त एवं अनुपम क्षायिक गुणों को पा लिया है और सम्पूर्ण भव्य जीवोंको परम आनन्द प्रदान करते हुए केवल ज्ञानरूपी उत्तम राज्य को स्वीकृत किया है और जो भव्य
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गीतिका
इति भांति उर संवेग घर प्रभुराज सुख त्यागे घनं । पुन बाल दीक्षा आदरी जिन, विविध तप लाग्यो भने || ४७४ || जीती परीषद सहि उपयुग घातकर्म विनाशियों यह जगत कर्म निवारिये मुहि नवलशाह प्रनामियो ।४०५॥
J
बोहा
वीर करण हनि वीर प्रभु, वीर नमीं वरवीर वीर शकति परगट करी, तुम गुण साहस धीर ॥ ४०६ ॥
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जीवों मुहट मणिके समान शोभायमान हैं, उन त्रैलोक्य तारण समर्थ श्री महावीर प्रभुको में उनके उत्तम गुणों की प्राप्ति के लिये नमस्कार एवं स्तुति करता हूँ।
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वैत्यवृक्ष भूमिः .. ४६५८१०
सबदार
४३७
उच्
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एकादश अधिकार
मंगलाचरण
दोहा श्री सन्मति प्रभु गुन गरुक, केवलज्ञान सुभान। मिथ्यातम हर जग हरश, बन्दी शिरधर पान ॥१५॥ तेरहमें गुण प्रभु चढे, उपजी पंचम ज्ञान । लोकालोक प्रकाशियौ, वस्तु चराचर जान ।।२।।
चौपाई
उत्तम मास नाम वैशाख, शुक्लपक्ष दशमी तिथि भाप । हस्त उत्तरा नखतहि बीच, चंद्र जोग शुभ लगन गनीच ।।३।। प्रभु तब केवललब्धिसहाय, तिनके नाम सुनो समुदाय । क्षायिक सम्यक दायक मोख, यथास्यात चारित सुख पोख ॥४!!
केवल ज्ञान प्रकाशसे, दूर किये अज्ञान । विश्व-अर्थ-उपदेश रत, प्रभु हैं परम महान ॥ श्री वीरनाथ भगवान तीन जमतके स्वामी हैं, केवल ज्ञानरूपो सूर्य के समान अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाले हैं, मैं उनको नमस्कार करता हूं।
विह
वीर सर्वज्ञता Outside the town Jrmbhika-Grama, on the Northern bank of the river Rajupalika ia the field of the house holder Samaga, under a Sala tree, in deep meditation, Lord Mahavira reached the complete and full, the unobstructed, unimpeded, infinite and supreme, best knowledge and ntuitation, called KEVALA.
Dr. Bool Chand : Lord Mahavira. (JCRS. 2) p. 44
विहार प्रान्त के जम्भकग्राम के निकट ऋजुला नदी के किनारे शाल वृक्ष के नीचे एक पत्थर की चट्टान पर पद्मासन से बर्द्धमान महावीर शुक्ल ध्यान में लीन थे। १२ वर्ष ५ महोने और १५ दिन के कठोर तप से उसके सामावरणी, दर्शनारवणी, मोहनीय और अन्तगय पारों घातिया कर्म इस जरह से नष्ट हो गये, जिस तरह भट्ठी में तपने से सोने का खो: नष्ट हो जाता है, जिसरो हजरत ईसामसीह मे ५५७ वर्ष पहले वैशाख सुदि दशमी के तीसरे प्रहर महावीर स्वामी केवल ज्ञान प्राप्त कर सर्वज होकर आत्मा मे परमात्मा हो गये। अब वे संपूर्ण जान के धारी थे। तीनों लोक और तीनों काल के समस्त पदार्थ तथा उनको अवस्थाए' उनके ज्ञान में पंण के समान स्पष्ट झनकती थीं।
निस्संदेह केवलशान' प्राप्त करना अथवा सर्वज्ञ होना मनुष्य जीवन में एक अनुपम और अद्वितीय घटना है। इस घटना के महत्व को साधारण वृद्धिवाले शायद न भी समझें, परन्तु ज्ञानी और तत्वदर्शी इसके मूल को ठीक परख सकते हैं। जानके कारण ही मनुष्य और पशु में इतना अन्तर है और जिसने केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया, इससे अनोषी और उत्तम बात मनुप्य जीवन में क्या हो सकती है ? यह अवश्य ही जैन धर्म की विदोषता है कि जिसने साधारण मनुष्य को परमात्मा पद प्राप्त करने की विधि बनाई। मनु यत्व का ध्येय ही सर्वज्ञता है और यह गुण वीरस्वामी ने अपने मनुष्य जीवन में अपने पुरुषार्थ से स्वयं प्राप्त करके संसार को बता दिया कि वह भी सर्वज्ञता प्राप्त कर सकते हैं। महात्मा बुद्ध, महावीर भगवान् के समकालीन थे। बाबजूद प्रतिद्वन्दी नेता (Rival Reformer) होने के, उन्होंने भी वीर स्वामी का मर्वज और सर्वदर्शी होना स्वीकार किया है । मज्झिमनिकाय और न्यायबिन्दु नाम के प्रगिद्ध बौद्ध ग्रन्यों में भी थी वर्द्ध मान महावीर को सर्वज्ञ, स्पाट शब्दों में
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दान लाभ भोगो उपभोग, वीरज केवल दरशन जोग । केवलज्ञान अनन्त प्रकाश, ये हो भव लब्धी सम भास ॥शा लोकालोक चराचर भाव, बध परजय विधिवंत सुहाव । ले सब प्रान एक ही बार, झलके केवल मुकुर मझार ।।६।। अनंत चतुष्टय सजि संयुक्त, तिनके नाम लिखौ श्रुत उक्त । दरशन वरनी कोनी क्षीन, अनंत दरशन प्रापति लोन I७॥ ज्ञानावरणी कर्म निवार, ज्ञान अनन्त लह्मी गुणधार । मोह करमको कोनी नाश, सुख अनन्त तिष्ठ नभ बास ।।८।। अन्तरायको क्षय कर धीर, वीर्य अनन्त भये वर वीर । दिव्य परम औदारिक देह, कोटि भानु द्युति जीती तेह ।।६।। और अनेक संपदा सार, वरणत होय बहुत विस्तार । पंच हजार धनुष परवान, अन्तरीक्ष प्रभु उपजन झान ||१०|| ज्यो शशि सोहै अम्बर थान, तैसे ही प्रभ वीर महान । निर्मल गगन भयौ जु अनूप,दिशि विदिशा सब प्रमल सरूप ||११|| पहप अंजली क्षिपहिं जु देव, गन्धोदक वरष बह भेव । रत्न धूलि दश दिशि पूरन्त, मन्द मन्द अति वायु बहत ।।१२।। कल्प लोक अनहद रव भयो, घंटा शब्द मनोहर व्यौ । होय मध ध्वनि अति गम्भीर, मनौं सिन्धु यह गर्जन नीर ।।१३।। सिंहासन हरि कंपित भयौ, सकल मान तनत गल गयो । नम्रीभत मौलि निज जान, देखो सो आश्चर्य महान ।।१४||
जब महावीर भगवान को केवल ज्ञान उत्पन्न होने के प्रभाव से देवताओं के यहां स्वर्ग में अपने आप घंटों का मेघ के राश गरजना प्रारम्भ हो गया, तब देवगण भी ग्रानन्दसे नाचने लगे। कल्पवृक्ष पुष्पांजलिके समान फलोंकी बुष्टि करते हुए तमाम दिशायें स्वच्छ हो गई । प्राकाश भी बादलों से रहित पूर्ण निर्मल हो गया, इन्द्रोंका आसन एकाएक चलायमान हो उठा, मानों केवलज्ञान के प्रानन्दोत्सव में वे इन्द्रों का अभिमान सहन नहीं कर सकते हैं। इन्द्रों के मुकुट स्वयं नम्रीभूत हो गये। इस तरह स्वर्ग में यह आश्चर्यकारी घटनायें जब घटने लगो तब इन्द्रको निश्चय हो गया कि, भगवानको केवल ज्ञानको प्राप्ति हो गई है। इसके प्रभावसे वह आनन्दित हो उठा और अपने मासनसे उठकर प्रभु की भक्ति में अपने मनको लगाने लगा।
स्वीकार किया है। जिनके बीच में महावीर स्वामी रह रहे थे, वे महात्मा बुद्ध से आकर कहते थे कि भगवान महावीर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और एक अनुपम नेता है, वे अनुभवी मार्ग प्रदर्शक हैं, बद्प्रख्यात हैं, तत्ववेत्ता है, जनता द्वारा सम्मानित हैं और साथ ही महात्मा बुद्ध से पूछते थे कि आपको भी का सर्वश और सर्वदर्शी कहा जा सकता है ? महात्मा बुद्ध ने कहा कि मुझे सर्वज्ञ कहना सत्य नहीं है। मैं तीन ज्ञान का धारी हूँ। मेरी सर्वज्ञता हर समय मेरे निकट नहीं रहती । भगवान महावीर को सर्वज्ञता अनन्त है, वे सोते, जागते, उठते, बैठते हर समय सर्वज्ञ हैं।
ब्राह्मणों के ग्रन्थों में भी महावीर स्वामी को सर्वज्ञ कहा है। आज कल के ऐतिहासिक विद्वान भी भगवान महावीर को सर्वज्ञ कहते हैं।
केवलज्ञान की प्राप्ति एक ऐसी बड़ी और मुख्य घटना थी कि जिसका जनता पर प्रभाव हुए बिना नहीं रह सकता था। कौन ऐसा है जो मर्वज्ञ भगवान को साक्षान आने सन्मुख पाकर आनंद में मग्न न हो जाय । मनुष्य ही नहीं देवों के हृदय भी प्रसन्न हो गये । श्रद्धा और भक्ति के कारण उनके दर्शन करने के लिए वे स्वर्गलोक से जम्भवाम में दौड़े आये देवों और मनुष्यों ने उत्सव मनाया, ज्योतिषी देवों के इन्द्रने मानो त्यागधर्म का महत्व प्रकट करने के लिये ही महावीर स्वामी के समवशरण की ऐसी विशाल रचना की कि जिसको देखकर कहना पड़ता था कि यदि कोई स्वर्ग पृथ्वी पर है तो नहीं है, यही है यही है।
तीर्थंकर भगवान के समवशरण की यह विशेषता है कि उसका द्वार गरीब-अमीर, छोटा-बड़ा, पापी-धर्मात्मा, सबके लिये खुला होता है। पशु-पक्षी तक भी बिना रोक-टोक के समवशरण में धमोपदेश सुनने के लिये आते हैं। जात-पात, छूत-छात और ऊँच-नीच का यहां कोई भेद नहीं होता। राजा हो या रंक, बाह्मण हो या चाण्डाल सब मनुष्य एक ही जाति के हैं और वे सब एक ही कोठे में बैठकर आपस में ऐसे अधिक प्रेम के साथ धर्म सुनते हैं, मानों सब एक ही पिता की सन्तान हैं।
भगवान के दर्शनों से वैर भाव इस तरह नष्ट हो जाते हैं, जिस तरह सूर्य के दर्शनों से अन्वकार। तीर्थकर भगवान की शान्त मुद्रा और बीतरागता का प्रभाव केवल मनुष्यों पर ही नहीं, किन्तु कर स्वभाव वाले पशु-पक्षी तका पने वैर भाव को सम्पूर्ण रूप से भूल जाते हैं । नेवला-साप, बिल्ली-चूहा, दोर बकरी भी शान्तचित्त होकर आपस में प्रेम के साथ मिल-जुलकर धर्मोपदेश सुनते हैं और उनका जातीय बिरोध तक नष्ट हो जाता है । यह सब भगवान महामोर के योगबन का माहात्म्य था। उनकी आत्मा में अहिंसा की पूरी प्रतिष्ठा हो चुकी थी, इसलिये उनके सम्मुन्न किसी का भी वैर स्थिर नहीं रह सकता था।
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इन्द्र अवधि कर जान्यौ जास, केवलज्ञान भयो जिन तास । सिंहासन तजि चलि पद सात, नमें जु चरण शीस धर हात ।।१५।। तय इन्द्राणी पूछे एव, कारण कौन कहो भो देव । वीर नाथ निज अतिशय सब, सकल सभा प्रभु भाषौ तबै ॥१६।। ज्योतिषवासी देव जु इन्द्र, आसन कंप भये सब बन्द 1 सुरगण मरत्र सुपरब रीत, सिंहनाद रव अनहद प्रीत ।।१७।। भवनपतो पाश्चर्य लहेइ, मुकूट नमित आसन कोय । शंखध्वनि अनहद भई तब, जान्यो केवल अतिशय सर्व ।।१८।। ध्यंतर सकल भयो कहराब, भेरी अनहद पूर रहाव । नम्रीभूत भये तन ठौर, अब वरणन आये कछु और ।।१६।। वह प्रकार अतिशय जु लहेब, केवलज्ञान चिन्ह चहुं देव । बन्दन काज कल्प धिपराज, घंट वजाय चलं करिराज ॥२०॥ प्राज्ञा दई चलाहक देव, सकल विभूति रची बहु भेव । शीस नाय आदिश तिहि लयो, बहु परकार विक्रिया ठयौ ।।२१॥ प्रथम विमान रचौ रमणीक, जोजन एक लाख को ठीक । मुक्तालय वत शोभत जास, दिव्य रत्न तिहि तेज प्रकास ॥२२।। फिर ऐरावत गज मद भरौ, उज्वल मनी फटिक गिरि धरौ । जम्बद्धोप प्रमाणहि अंग, मस्तक सोहै अती उत्तंग ॥२३॥ दोरघ शुड रुरै भूमाहि, अति बलवंत जु वरनों काहि । कामरूप छवि अंग रसाल व्यंजन लक्षण सहित विशाल ॥२४॥ दोरघ ओठ बन अति अरुन, सेत वरण सोहैं ता दशन। घंटा घने ग्रीवमें माल, मानो नरपत उदय किय हाल ॥२५॥ दोरघ श्वांस लेत अति सोय, मनों दुन्दुभी शब्द जु होय । अति आनंद पंक्ति रमणीय, कर्ण चंबर सोहैं कमनीय ।।२६।। मद निरझरत लिप्त अति अंग, परबत सम चाले मन रंग । किकिणि शब्द होय अधिकाय, दीपति रही दशों दिश छाय ।।२७।। ताक मुख बत्तीस बखान, मुख प्रति दशन अष्ट उनमान । दंत दंत सर एकहि भरयी, जलकर चहूं ओर लह रह्यौ ॥२८॥ सर प्रति कलिनिको है वास, मिति बत्तीस पृथककर जास । कमालनि प्रति हैं कमल बतीस, दल बत्तीस, कमल प्रति शीस ।।२।। दलदल प्रति अपछरा प्रचान, हैं बत्तिस बत्तिस परमान । दिव्यरूप मन हरै सु एव, नृत्यत सकल सुरेशहि सेव ।।३०|| छबीस कोटि चौरासी लाख, अड़तिस सहस छस तह भाख । छप्पन अधिक सबै कोजार, यह सौधर्म इन्द्र वर नार ||३|| मुख विकसत इन्दीवर जास, ताल मृदंग गीत रस रास । इहि प्रकार शोभित गजराज सापर इन्द्र लिये सब साज ।।३।। शची सहित अति पुण्य उपाय, बहु प्राभरण अंग पहिराय । वर्धमान जिन केवलज्ञान, करन महोत्सव चलै महान ||३३॥ अरु प्रतीन्द्र निज वाहन रूढ़, सब परिवार सहित मन गूढ । सज सामानिक देव प्रमान, सहस चौरासी इन्द्र समान ||३४|| हैं तेतीस पुरोहित देव, तितने मंत्री इन्द्रहि देव । बारह सहस प्रथम मन लाई, इन्द्र नजीक परिधि सम थाई ॥३५॥
उसी समय ज्योतिषी जाति के देवों के यहां सिंहनाद वाजे का शब्द हया । सिंहासन भी कंयायमान हो गया। इसी तरह भवनवासी देवों के यहां भी शंख की ध्वनि होने लगी। ब्यंतर देवोंके महलों में भी भेरी अपने आप गड़गड़ाने लगी, अन्य आश्चर्य जनक और भी पूर्वकी तरह घटनायं हुई इस तरहको महान पाश्चर्यमई घटनामों का श्रवण कर सब इन्द्रोंने मस्तक नवाकर भगवानको परोक्षमें ही नमस्कार किया। और ज्ञान कल्याणक, उत्सब मनाने के लिये सौधर्म इन्द्र बाजोंको बजवाता हमा तमाम देव समूह को साथ लेकर स्वर्ग से भारत वसुन्धरा की भूमि पर उतरा ।
बलाहक नामके देवोंने जो विमान बनाया था वह मोतियों को मालाओं से इतना शोभायमान हो रहा था, रत्नमई दिव्य तेजसे चारों तरफ झलझलाहट हो रही थी। छोटी-छोटी पंटियों के हिलने से जो शब्द निकलता था वह कानोंको बहुत ही प्रिय मालूम होता था। नागदस नामक अभियोग्य जातिके देवने ऐरावत हाथी की रचना कर डाली, वह बहुत ऊँचा था, उसकी सूड बहुत ही सुन्दर और सुहावनी मालूम होती थी। उसका मस्तक ऊँचा और चौड़ा था, बहत बलवान था। शरीर यहत स्थल, अनेक सू'डोंसे सुशोभित धा, इच्छित रूप बनाने वाला, श्वास उच्छाससे सुगंधि निकलती थी, दुन्दभी बाजोंकी तरह शब्द करता हुमा, कानरूपी चमरोंसे सुशोभित, दो बड़े-बड़े घंटे बंधे हुए बहुत ही मनोज्ञ मालूम होते थे। गलेको घंघरूकी मालायें सुशोभित कर रही थीं, वर्ण सफेद था, सोनेका सिंहासन पीठ पर बहुत ही दिव्य मालूम होता था। उस हाथीके ३२ मुंह थे, हर एक दांतपर ३२ तालाव जलसे भर रहे थे। प्रत्येक तालाबमें एक-एक कमलिनी तथा हर एक कमलिनीके आसपासमें ३२-३२ कमल थे. प्रत्येक कमलके ३२-३२ पत्ते थे उन प्रत्येक पत्तेपर नाचने वाली सुन्दर प्रप्सरायें नृत्य करती थीं। वे अप्सरायें
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भगवान के केवल ज्ञान समय के अष्ट मंगल
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श्री १००८ भगवान महावीर स्वामी ने घातिया कमों का नाश कर दि
मनुष्य पौर देवता सब उनकी पूजा करते हुये।
श्री १००८ भगवान महावीर स्वामी ने छह माह का प्रखण्ड
तप किया और मनः पर्यय ज्ञान की प्राप्ति की।
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काल १, महाकाल २, भानवका ३, गिल ४, नंसपं ५, पक्ष ६, पांड ७, संख ८, नानारत्न ६. एवंणर्माणधिनाम ।
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर महाराज
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भगवान को समवशरण की १० वजायें।
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भगवान के कछ चिन्ह।
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चौदा सहस देव मधि नमें, दूजी परिधि जुक्तकर नमै । निर्जर सहस जु षोडश लीन, तीजी परिधि इन्द्र कह दीन ॥३६॥ सुरपति निज रक्षक है सार, तीन लाख छत्तीस हजार । लोकपाल चारों सम चेत, धरै शक्र अाज्ञा दुर्गपाल नभपाल विशाल, लोकपाल लोकांतिक पाल । दश दिक पाल वी दिश जोय, याज्ञा इन्द्र घरै सुर सोय ॥३॥ पुरजन भत्य समान जु होय, किल्विष देव नीच तहं होय । दश प्रकार यह सभा प्रमान, शक्र संग शो कियो पयान ||३४|| दल सप्तांग संग सुरराज, सब उनचास अनीका साज । प्रथम बृषभ दल संख्या जान, सो बरनौं पागम परमान ॥४०॥ दिव्यरूप है बल' अति सक्त, सात अनीजूत धर वृषयुक्त । प्रथमहि चौरासी लख ठीक, तात दगुण दुतिय रमणीक ।।४।। तात दुगुण तृतिय देखना, ऐसे दुगुण दुगुण लेखना। सप्त अनीका गहै, प्रमान, नानावरण वृषभ के थान ।।४२॥ एक अरब छह कोड़ बखान, ऊपर अड़सः लाख प्रमान । वह सब सात वृषभ दल जोर, यह विधि लोजौ और बहोर ।।४।। अब तुरंग दल ऐसहि जान, सात अनीक तास बखान । रथ मणिमय अति तेज प्रकाश, सप्त अनीका कोनों जारा ॥४४॥ याही विधि गज मत्त वखान, सात अनीका है परवान। ऐसे ही पयदल जुगवत्त, सात अनीका है हिरवत्त ॥४५॥ दिव्य गीत गावें गत सात पीका मर गई। गर्जक सुर वादिन वजाय, सात अनीका जानी भाय ॥३॥
दोहा वृषभ आदि सप्तांग दल, दुगुण दुगुण विस्तार । एक एक प्रति सात मन, सब उनन्चास प्रकार ॥४७|| सात परब पहिचानिये, और छियालिस कोइ। लास्त्र छियत्तर अधिक सब, उनचास दल जोड़ ॥४६॥ बहुविध सुर साजी विभव, को बुध वरननहार। हरषभाव सव ही चढ़े, जय जय करत अपार ।।४।।
चौपाई सो सौधर्म इन्द्र मन रंग, सकल विभूति लई निज संग । ईशाने सुरधिप घर धर्म, अश्वारूढ़ भयो गुण पर्म ॥५०॥ है मृगेन्द्र वाहन सुरराज, सनत्कुमार सकल करि साज । बृषभ महेन्द्र कल्पके थान, चढ़ि चाल्यौ परिवार महान ॥५॥
अपने हाव-भावसे दर्शकोंका मन मुग्ध करती हुई, सुरीले गाना गाती, शृंगारादिके गानों से सबको प्रसन्न करती थी। ऐसे ऐरावत पर इन्द्र अपनी इन्द्राणी सहित विराजमान होने से प्रत्यन्त शोभायमान होने लगा।
वह इन्द्र श्री महावीर स्वामी को ज्ञान कल्याण की पूजाकै कारण पाया था, उसके अंग परके आभूषणों की शोभा बहुत ही दैदीप्यमान थी, गहनों के रत्नों की किरणों से वह तेज की खानि के सदृश मालूम होते थे । प्रतीन्द्र भी अत्यन्त विभूति के साथ अपनी सवारियों पर चढ़के परिवार सहित यह भी साथही साथ निकले। इसके अतिरिक्त अन्य इन्द्र के सदश साज सामान वाले सामानिक जातिके ८४ हजार देव निकलते हुए पुरोहित मन्त्री, अमात्यके समान तेतीस प्रायस्त्रिशत देव शभ प्राप्ति के लिये इन्द्र के साथ-साथ होते भये । आभ्यंतर पारिषद् १२००० देवोंकी थी। मध्यम सभा १४००० देवों की थी और वाद्य १६००० देवोंकी थी। इस प्रकार यह तीनों देव सभायें इन्द्र के चारों ओर घेरा डालकर बैठती हुई तीन लाख छत्तीस हजार देव शरीर रक्षक के रूपमें इन्द्रके पास पाये । कोतवालके सदृश लोकको पालने वाले चार लोकपाल देव इन्द्र के सामने आये । सात वषभोंकी सेनामें से पहिली सेनामें ८४ लाख उत्तम वृषभ (वैलरूप धारी देव) इन्द्र के आगे हुए दूसरी से लेकर सातवीं सेना तक में दुने-दने वृषभ (देव) सेनामें थे। इस तरह सात वृषभ सेनायें इन्द्रके सामने उपस्थित हो गई।
उसी तरह ऊंचे घोड़ोंकी ७ सेना माणि मई रथ, ऊंचे पर्वतकी तरह हाथी, जल्दी चलने वाले पैदल भगवान के गुणों को दिव्य कण्ठसे गाने वाले गन्धर्व जैनधर्म सम्बन्धी गीत, तथा बादित्रोंके लयके साथ नाचने वाली अपसरायें उसी साथ कक्षा वाले क्रमसे इन्द्र के प्रागे चलने लगीं। पुरवासियोंकी तरह प्रकीर्णक जाति के असंख्यात देव दास कर्म करने वाले प्राभियोग्य जातिके देव, अछतों जैसा काम करने वाले किल्बिषिक जाति के देव सौधर्म इन्द्र के साथ उस महोत्सव में सम्मिलित हए ।
ईशान इन्द्र घोड़े पर चढ़कर अपनी विभूति सहित भक्ति भावसे इन्द्र के साथ चलने लगा। सनत्कुमार सिंहकी सवारी
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ब्रह्म स्वर्गपति सारस रूढ़, हंस चल्यो लान्तषिप गूढ़ । शुक्रहि इन्द्र गरुड़ असवार, सामानिक संग सब परिवार ॥५२॥ स्वर्ग शतार ताहि आधीश, चढ़ि मयूर वाइन नभ शीस । आनत आदि इन्द्र चत्वार, पुष्प विमान भये असबार 1॥५३॥ इहि प्रकार द्वादश सुरराज, सब विभूति लीन दस साज । अरु प्रतीन्द्र बारह सम उक्त, अपने-अपने वाहन जुक्त ॥५४।। पटह बजे अति शब्द गंभीर, दशदिशि ध्वनि पूरित वर वीर । छत्र ध्वजा छायो नभ भाग, स्वर्ग विभव जिमि पायौ जाग ॥५५॥ गीत नत्य वाद्यादिक करें, जिनवर ज्ञान महोत्सव धरै। मानों ऋतु बसंत शोभत, कोकिल मधुर वचन घोषत ॥५६|| ज्योतिष पटल देव सब भार, चन्द्र सूर्य ग्रह नखत जु सार । अपने अपने वाहन साज, मंडित सकल विभूति विराज ॥५७।। प्रसंख्यात सत्र सहित जु देव, धर्मराग रस अकित सेव । जिनवर कल्याणक वंदना, चले देव अरु देवांगना ॥५॥ भबनासुर अति आतुर चले, दशहि दिशन दल साज जु मिले । असुरकुमार इन्द्र दो ठान, चामर और विरोचन जान ।।५६॥ नागकुमार दोय गुण धाम, धरणेन्द्र हि अरु आनन्द नाम । विद्युतकुवर दोय तिपन्न, हरिसिंह हरिकान्ता जुवरत्न ।। ६०।। सूपनकुमार दोय स्वामीश, वेणुसिन्धु वेणुतालीस । अग्निकुमार इन्द्र है जुग्म, अग्निवाह पितृवाहन जुग्म ॥६॥ वातकुमार इन्द्र दुइ होय, बालअंजन प्रभजन दोय । स्तनितकुमार भवन के राज, घोष महाघोष दुइ साज ॥६२।। उदधिकमार इन्द्र दो जान, जलकान्ता जलप्रभा बखान । द्वीपकुमार इन्द्र है सोय, पूरण प्रथम विशिष्ट जु दोय ॥६३॥ दिक्कुमार है इन्द्र महान, अमितगति अमितबाह्न ठान । एक दश भबन इन्द्र गन बीस, अरु प्रतीन्द्र गन सब चालीस ॥६४॥ श्री जिन ज्ञान कल्याणक सेवा, देवनि सहित साज सब देव । हर्ष सहित मन वच तन प्रीत, करे महोत्सव धर्म सुरीत ॥६५॥ व्यन्तर देव अष्ट परकार, तिनको भेद कहीं कछ सार । किन्नर प्रथम इन्द्र हैं दोय, किन्नर प्रभ किन्नरमति जोय ॥६६।। अरु किम्पूरुष इन्द्र दो जान, महापुरुष सतपुरुष प्रमान । महोरग इन्द्र जाति दो मही, अतीकाय महकाया यही ॥६७।। गंाकि दो इन नहाना मी लस और सुजान । यक्ष इन्द्र दो नाम प्रताप, पूर्णभद्र मणिभद्र मिलाप ॥६॥ राक्षस इन्द्र कहे जु बखान, भीम प्रथम मह भीम प्रवान । भूतदेव हैं इन्द्र सु दोइ, अप्रतिरूप प्रतिरूप जु होइ ॥६६॥ विशाच अष्ट में इन्द्र महान, काल प्रथम महकाल बखान । ए व्यन्तर है षोडश इन्द्र, अरु प्रतीन्द्र मिलि वत्तिस वृन्द ।।७।। अपनी सब सामग्री जोय, केवल ज्ञान जान प्रभु सोय । पूजाके उर भाव बढ़ाय, चलें भवनतै अति हरषाय ।।७१॥
पर चढ़े थे, महेन्द्र स्वामी बैलोंपर चढ़े थे। ब्रह्म इन्द्र सारसकी-सवारी पर चढ़ा था । लांतवेन्द्र हंस पर, शुक्रन्द्र गरुड़ पर, सामानिकादि देवों और देवियों सहित बल ज्ञानकी पूजाके लिये निकले । अभियोग्य देवों में से शतार इन्द्र भी मोर की सवारी पर निकला। शेष मानत आदि कल्पोंके मालिक चार इन्द्र पुष्पक विमान पर चढ़ कर पहुंचे। कल्प स्वर्गाके १२ इन्द्र १२ प्रतीन्द्रों सहित अपनी सवारी पर चढ़ कर वहां पहुंचे। हजारों ध्वजा पताकाओं छत्र चंबर आदि शादित्रोंको बजाते हुए वहाँ पहुंचे। जय हो ! जय हो !! के नारे लगाते हुए ज्योतिषी देवों के पलटों में पहुंचे। चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र तारे रूप ज्योतिषी देव अपनी अपनो सवारियों पर चढ़कर हर्षं सहित जय जयकार करते हुए पृथ्वी पर स्वर्गसे नीचे उतरे। २० असुर जातिके देव'; १० भवनवासी देवों के इन्द्र भी अपनी देवियों सहित सवारी पर चढ़कर रवाना हो गये।
पश्चात प्रथम इन्द्र, किन्नर किंपुरुष, तत्पुरुष, अतिकाय , महाकाय गीतरति, रतिकोति, मणिभद्र, भीम, महाभीम, सुरूप, प्रतिरूपक काल, महाकाल, ये किन्नरादि आठ तरहके व्यंतर देवों के १६ इन्द्र और इतने ही प्रतीन्द देवों सहित ज्ञान कल्याणकम सम्मलित होने को पृथ्वीपर उत्तरे । ये चार निकाय के इन्द्र और देव' इन्द्रानियों सहित सुशोभित थे। वे भगवान महावीरकी जय बोलते हए दर्शनों की उत्कंठा से सभा-मंडप के पास पहुंचे वह मंडप दूर से चमक रहा था। तमाम ऋद्धियोंसे परिपूर्ण था । रत्नोंसे चारों दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था। ऐसे मंडप को बनाने की सामर्थ्य सिवाय कुवेर के और किसी में भी नहीं हो सकती। उस मंडप की रचना का विस्तार सिवाय गणधर देव के और किसी में भी सामर्थ्य नहीं जो बना सके। फिर भी भव्य जीवों को समझाने के लिए यथा साध्य हम समोशरणका वर्णन करना उचित समझते है । वह समोशरण १ योजन के विस्तार में बनाया गया था। गोलाकार था, इन्द्र नील मणियोंकी चमक से प्रकाशित था । पृथ्वी से दाई कोस ऊपर आकाश में था। किनारे के चारों
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दोहा
इहि प्रकार बहु देवपति, शची सहित आनन्द । जिनपूजा अस्तुति करन, बाढ़ यो आनन्द कंद ।।७२।। नर नारी जुत नरपति अरु मगेन्द्र पशु एव । सब शतेन्द्र निज विभव लें, आये जिनवर सेक ।।७३||
अथ समवसरण रचना वर्णन
चौपाई सुरपति लीनौ धनद बुलाय, केवल उत्सव सफल सुनाय । आरजखण्ड जाउ अब वग, समोशरण विधि रत्रों मनेग ।।७४।। हर्षवंत हो नायौ माथ, पायौ जहां त्रिलोकी नाथ । प्रथमहिं नमस्कार प्रभु कियो, समाधान कर अपनी हियों ।।७।। समोशरण रचियो जु अपार, को बधवंत लहै कहि पार । अवसर पाय धर्म मन ध्यान, किमपि लिखौं अानंद उर प्रान ॥७६।। कोश अढ़ाई ऊर्ध्व अकास, पृथ्वीते जह ली प्रभुवास । इन्द्रनील मणिमय पीठिका, तीनलोक की उसमानिका ॥७॥ जोजन एक ताहि विस्तार, याठी दिश सो गिरदाकार । जाको पहंदिश मणिमय सार, लगी पंडिका बीस हजार ॥७ हाथ हाथ पै ऊंची लसै, भूमि भाग ते प्रभु तह बसै । वही पीठके ऊपर अन्त, धूलीसाल कोट शोभंत सका। पंच रतनमय रज सरवंग, विविध वर्ण शोभे मन रंग । अति उतंग सो बलयाकार, फैल रही किरणावलि सार ||०॥ कई विद्र मबत दीसं सोय, कई कननमय प्राभा होय। कई प्रजनमय शोभा जान, कहुं उज्वल क हरित प्रमान ||शा समोशरण लक्ष्मीको धेर, मनोज्ञ एक कुडलो फेर। चारी दिश दरवाजे चार, वर कंचुरा रतन सुहार | तहं ते चारों दिशको गलो, गमन हेतु भीतर को चली। ताके अन्तर कछू प्रभान, मानभूमि सोहत तिहि थान ||३|| तिनको प्रथम पीठिका जान, सौरह पैडी मत मान । इक सम्बन्धो तोन जू कोट, चार चार दरवाजे प्रोट ।।४।। भीतर पीठ त्रिमेखल जान, तापर मानस्थंभ परिमान । कंचनमय शोभ उत्तंग, मध्य भाग महिमा निरभंग ॥५॥
तरफ धलशाल नामका परकोट रत्नों की धुलि से बनाया गया था । कहीं मगे का रंग, कहीं सोने का रंग, कहीं काला रंग कहीं हरा रंग, कहीं इन्द्र धनुष जैसा मिश्रित रंग सुशोभित हो रहा था उसको चारों दिशाओं में सोने के खम्भे लगे हए थे । वे सब रस्ता को लटकती हुई सुन्दर मालाओं से सुशोभित थे। उसके भीतर कुछ दूर जाकर चार वेदियो थों, जिनमें पूजाको सामग्री समोभित थी उनमें चार दरवाजे लग रहे थे। तीन परकोटों से युक्त शेर १६ सोनेको सीढ़ियां लगी हुई थी। उसके बीच में जिनेन्द्रको निमा सहित सिंहासन थे। वे सब रत्नों के तेज से बैदीप्यमान थे । उनके बीच में चार छोटे २ सिंहासन थे उनदियों के बोचोंबीन चार मानस्थंभ थे। उनके देखने मात्र से मिथ्यादष्टियों का मान भंग हा जाला था। वे मानस्थंभ स्वर्णके बने हा थे और ध्वजा घंटामोसे सशोभित थे उनके ऊपरी भाग में जिनेन्द्रको प्रतिमाय थीं। उनके पासको जमीन पर चार वाडियां कमलोंगे सुशोभित बोलावड़ियों में रत्नों की सीढियां लगी थों जिससे उनकी सन्दरता और भी बढ़ गई थी। उन बावड़ियों के नाम नन्दायरा प्रादि थे। उन वावड़ियों के किनारे पर जलसे भरे हुए कुछ थे जो कि यात्रा को आये हुए जीवांका थकावट दूर करने के लिए पर चलाने का काम करती थी। वहां से आगे जाने पर जलकी भरी हुई खाई थी। उनमें कमल फल रहे थे तथा उन कमलों पर भ्रमर सदैव गजार किया करते थे। हवा के धक्को से उस खाई में जो तरंगें उठती थीं और उस समय जो शब्द होता था उससे गाडी जान होता था कि वह तरंगें भी भगवानके ज्ञान कल्याणकका गुण-गान कर रहीं हैं उस खाई को पृथ्वो भाग छह ऋतुअांके पल फलोंसे संशोभित था। वहां पर देव और देवियों के लिए सुन्दर कोड़ा स्थानों के कज बने हुए थे। चन्द्रमांत मणिकी शातल भिलायें जिस जगह रखी हई थी वहां इन्द्र विश्राम करते थे, वहाँका पर्वत फल फलों से भरा हुमा अशोक प्रादि महान वक्षों सहित भौरों की गजारसे प्रत्यन्त शोभायमान हो रहा था। उसके थोड़े ही मागे सोनका १ परकोट था वह बहुत ऊंचा था उसमें चारों तरफ मोतियोंका जड़ाव था। उनको देखकर यही ज्ञान होता था मानों तारे ही चमक रहे हों। उस परकोट को देखने से कहीं मंगा की तरह रंगकी कांति कहीं वादल की रंगत की तरह कहीं नाले रत्न की कांतिके समान और कहीं इन्द्रधना की तरह नाना रंगोंसे वह शोभायमान हो रहा था । यह परकोट हाथी व्याघ्र मोर और मनुष्यों के स्त्री पुरुषों के जोडों सहित बलों के
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ध्वजा छत्र ता ऊपर सोहि जगत जीव मन लेतं मोहि मूलभाग जिन प्रतिमा घरी, छत्रभर जुत राजे वरी और मनंग शोभ तिस थान, राद्वीप्ति लाजे राम भान थंभ एकदिश चारों जान, सजल वापिका कमल निधान तिनके तट इक कुंड महान, चारहुं दिश चारों परवान । पग प्रक्षाल के भविजन जहां, आगे
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तह से बीवी चार जू चली कछु अन्तर इक शोभा भयो कमल सहित भ्रमश गुंजरी, हंस कलापि शोर करें सपना र मनुराय वनके मध्य शिला रमणीक, चन्द्रकान्त मणि आभा ठीक। यहं कछु अन्तर ति घार, कंचन कोट जु बलयाकार तं चारों दिश गोपुर हैं चार, रजतमई तिम्सने यागार श्रृरुण हाथ ऊंचे कर सोय, जगलक्ष्मी यह नाचे कोय। प्रभुके मन कछु चाह नयाय, बेमन चलि से
मानी करें मान वह कोय, देखें मान थंभ मंद खोय ||६| इन्द्रादिक मानन्द बढ़ाय, पूजा वहां करहि मन ला ॥८७॥ विधि समान वंभ ये चार सकल विभूति एकसी वार । नन्दादिक तिनको है नाम, चारों दिश सोरह सुखधाम ॥८६॥ गमन करें चलि तहां ॥६०॥ खाई गिरदाकारहि सरो, प्रति गंभीर जल निर्मन भरी ॥१॥ मणिमय तट दोऊ राजत, गंगावत, शोभा परजंत ॥६२॥ सघन छह पट ऋऋतु फल फूल, विह देव जोषिता कूल ॥१३॥ तहं सुरपति कीने विश्राम, शीतल छाया सुखको धाम ॥ ६४ ॥ मानुयोग परवत यह मनौं, यति उतंग बहु यांतिक वनों ॥६५॥ रतनमयी कलया जगमने, लाल चरण अति सुन्दर ल ६६ जहां रहें नवनिधि कर वास, पिंगलादि तिन नाम विलास ॥६७॥ जिनपाय मंगल द्रव्य मनोहर ठाठ, गोपुर प्रतिहि एकसाँ
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चित्रों सहित भरा हुआ था। उस समय ऐसा मालूम पड़ता था कि हंस रहा हो। उस कोटके चारों दिशाओं में चार दरवाजे थे । वं तिमंजले थे । वे दरवाजे स्वयं प्रकाशित होकर अपना प्रभाव बना रहे थे । महामेरु पर्वत के समान अत्यन्त ऊंचे, पद्मरागादि मणियों के द्वारा बनाये गये दरवाजोंके गगन चुम्बी शिखर शोभायमान हो रहे थे। उन विशाल दरवाजों पर बहुतसे गायक देव गन्धर्व तीर्थकर श्रीमहावीर प्रभुके उत्तम गुणोंका सुमधुर स्वरमें गान कर रहे थे। इन गुण गानको कुछ लोग तो सप्रेम सुन रहे कुछ गुणोंकी श्रेष्ठता सम्वन्ध में विचार रहे थे और कुछ देव-वृन्द उमंगमें आकर नाच रहे थे। प्रत्येक द्वार पर मुंगार कलश एवं इत्यादि १०८ (एक आठ) मांगलिक द्रव्य यथा रीति रखे हुए वे उन प्रत्येक द्वारों पर नानाविध रहनीके बने हुए सौ सौ तोरण टंगे हुए थे और उनमें से विविध वर्णकी ज्योंतियां मिलने से ग्राकाश चित्रित सा जान पड़ता था। उन तोरण में लगे हुए रत्नाभूषणों को देखकर जान पड़ता था कि रत्नाने प्रभुके सुन्दर शरीर को स्वभावतः ही देदीप्यमान देखकर वहां पर अपने रहनेको श्रावश्यकता नहीं समझे और उनकी शारीरिक कान्ति से पराजित होकर इन तोरणों में आकर वे रस्न समूह ब गये । शंख इत्यादि नौ निधियों को द्वार पर रखी हुई देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो अर्हत प्रभुके द्वारा तिरस्कृत हो जाने पर ये दरवाजेके बाहर आ गयी हैं और यहीं पड़ी रहकर भगवान की सेवा करने के लिये अवसर की प्रतीक्षा कर रही हो ।
उस दरवाजे के भीतर एक लम्बा-चौड़ा राज-पथ था और उसीके दोनों बोर दो नाट्यशालाएं बनी हुई थीं। इसी प्रकार चारों दिशाओंके चारों मुख्य द्वारों के भीतर प्रत्येक में वो दो नादयशालाएं बनी हुई थी। वे तिमंजली बहुत ऊषी नाट्य शालाएं मानों अपने मस्तक को दटाये भव्य जीवों से कह रही हो कि सम्यक दर्शन इत्यादि तीनों स्वरूप ही मोक्ष के मार्ग हैं। ना शालाओं की दीवार स्फटिकमणीकी बनी हुई थी और उनके खम्भे सोनेके बनाये गये थे। उन वैभव पूर्णशालाओं को रंग भूमि में अप्सरानों का नात्र हो रहा था । वहां पर बहुतसे गन्धर्व देव अपने कोमल कंठसे प्रभुकी विजय गीति एवं केवल ज्ञान के समय होने वाले श्रेष्ठ गुण-गीतों को गा रहे थे । पूर्वोक्त राजमार्ग की दोनों ओर धूप से भरे हुए दो कला ( घड़े) रखे हुए थे और उनके घुमकी सुगन्धिसे आकाश का वायुमण्डल सुगन्धित हो रहा था। इस मार्ग से कुछ दूर आगे जाने पर चार उद्यान वाटिकाएं बनी हुई थीं। इनमें सम्पूर्ण ऋतुओंके फल पुष्प सदैव लगे रहते थे। इसलिए दूसरे चार नन्दन वन ही जान पड़ते थे । उन उपवन वीक्षियों (गलियां) बनी हुई थीं। उनमें अशोक, सप्तपर्ण, चम्पा एवं आम्रवृक्षको चार चार क्रमशः बनी इनके वृक्ष समूह बहुत ऊंच ऊंचे थे । उन उपवनोंके बीच चीन में त्रिकोण एवं चतुष्कोण वापियां (बावड़ियां बनी हुई थीं और बावड़ियों में सुन्दर सुन्दर कमल सुशोभित थे । इनके अतिरिक्त कहीं नयनाभिराम राज प्रासार था, कहीं कोड़ा-गृह या कहीं कौतुक मण्डप था, कहीं आकर्षक चित्रशालाएं थीं, कहीं कृत्रिम ( चनावटी ) पर्वत श्र ेणियां और कहीं बाहर के विचित्र दृश्यों को देखने के लिये
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चार्य सुविहिसार
प्रभु का समवशरण
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गायै गीत सुरनको तिया, जिनगुण लीन हरष कर हिया । व्यन्तर देव जु गावं खड़े, विनयहीन को रोकत अड़े रहा यह शोभा पहले गढ़ जान, और सुनों आगे परवान। गोपुरते बीथी दिश चार, चली फेर भीतर विस्तार 11 चह ओर नतशाला तास, चारह दिश की बीथी पास । कंचन थम रतन कर खचे, ध्वजा छत्र ता ऊपर रचे ॥१०॥ नाचं देवकूमारी एम, मानों उदधि तरंगिन जेम । मंद मंद मुख बिकसं जबै, जिनगुण गीत उच्चरे सर्व ॥१०॥ बाजे मधुर बीन बांसुरी, ताल मृदंग मधुर ध्वनि जुरी । अब कछु बीथो अन्तर जान, बरै धूप घट चहुं दिश मान ।।१०३॥
दोहा
धुप धुआं नभको चलौ, श्यामवरन अति जान । मानों पातक भग चले, पुण्यतनों डर मान ।।१०४||
चौपाई
विदिशन और सुनो भविसार, बाग चार नन्दनवन वार | प्रथम प्रशोक सप्तपरनाहि, चम्पक पाम्रमही रह जाहि ।।१०५॥ सब ऋतुके फल फूल अपार, विरख बेल सौं मण्डित सार। चार चार वापी जु मनोग, सोहै नंदादिक जल जोग ।।१०।। हैं त्रिकोण कोई चऊकौन, कोई गिरदाकारहि जोन । तहं आवें भविजन मन हर्ष, कारण धर्म मनोगहि पर्ष ॥१०॥ कोई करने क्रीड़ा प्राय, कोई अंग प्रछालन जाय 1 अशोक बाग के मध्यम भाग, पोठ त्रिमेखल है बड़भाग ।।१०।
गगन चम्बी (बहुत ऊंची) अट्टालिकाएं बनी हुई थी। एक मंजिले और दो मंजिले मकानोंकी भी क्रमबद्ध पंक्तियां (कतार बनी थी उन उपवनोंकी प्रथम प्रशोक-वन-वीछामें सुवर्णकी बनी हुई तीन कटनीदार ऊंची एवं मनोहर वेदिका बनी हुई थी और उस सन्दर वैदिका पर एक अशोक चैत्यवक्ष था । वह तीन परकोटों से घिरा हुआ था और प्रत्येक परकोटमें चार चार द्वार थे। उस
शोक चैत्यवक्षके ऊपर बजने वाले घण्टे से युक्त तीन सुन्दर छत्र टंगे हुए थे। वह वृक्ष देव पूजित जिन प्रतिमानोंसे तथा ध्वज चमर एवं मंगल द्रव्य इत्यादिसे सुशोभित ऊंचा होनेके कारण जम्बू-वृक्षके समान जान पड़ता था। चैत्यवृक्ष को जड़के पास चारों जिनेन्द्र देबकी पवित्र प्रतिमाएं। सुरेन्द्र अपनी पुण्य प्राप्तिकी इच्छासे मनोज्ञ द्रव्योंसे उन प्रतिमानों को सदैव पूजा किया करते थे। इसी प्रकार सप्तपर्ण चम्मक एव प्रामवृक्षके तीनों बनोंमें भी ऐसे ही सुन्दर चत्यवृक्ष थे। अहंतकी प्रतिमानोंसे विभूषित होने के कारण देवता लोग उन चत्ववृक्षोंकी पूजा किया करते थे । वहां माला, वस्त्र, मोर, कमल, हंस, गरुड़, सिंह, बैल, हाथी एवं च इत्यादि दस प्रकारको अत्यन्त ऊचो ध्वजा पताकाएं सुशोभित हो रहो थीं। बे ध्वजाए ऐसी जान पड़तो थीं मानो प्रभुने मोहनीय कमोको जीतकर सम्पूर्ण जगतके ऐश्वर्यको एकत्रित कर लिया है। प्रत्येक दिशामें पृथक पृथक प्रत्येक चिह्नवालो १०० एकसौ माट माठ ध्वजाएं थी। प्राकाशरूपी समुद्रको तरंगों के समान जान पड़तो थीं। जबकि इन ध्वजानों में वायुके वेगसे कम्प एवं बनि आ जाती थी तब ऐसा जान पड़ता था सब भव्य जीवों को भगवान की पूजा करने बुला रही हो । माला चिह्न वालो ध्वजारों में सन्दर शुरभित एवं कोमल पुष्पोंकी मनोहर मालाएं लटक रहीं थीं। वस्र चिन्हवाला ध्वजामों में एकदम महोन (पतले) बस लटक रहे थे। मयूर (मार) चिन्ह वाली तथा अन्यान्य चिन्ह वाली ध्वजामों में भी चतूर देव शिल्पियों के द्वारामारी सुन्दर मुर्तियां लगी हुई थीं। पूर्वोक्त सम्पूर्ण चिह्न बालो ध्वजारों को सम्मिलित संख्या एक दिशा में १.५० एक बार प्रस्सी और चारों दिशामोंकी सम्मिलित संख्या ४३२० चार हजार तीन सौ बीस थो। उस चत्यवृक्ष से आगे बढ़ने पर भोत रो भाग में एक दसरा चांदी का परकोटा बना हुआ था। इस चांदीके परकोटे का निर्माण, बनाबट आकार प्रकार और सजावट सगो को प्रथम परकोटे के ही समान थी दरवाजे भी थे। और उसी तरहक रत्न तोरण नवनिधियां सम्पूर्ण मंगल द्रव्य एवं मार्गके दोनों मोर धपसे भरे हए दो घड़े रखे हुए थे जो स्वयं अपनी सुरभि वायु मण्डलको सुगन्धि से वश में कर रहा था। नाटयशाला की वितियां भी पूर्ववत ही थी। नत्य गान बाध रूपी एक जैसे थे। इसके बाद और आगे जाने पर उसी मार्गके पासमें
। वे विविध रत्नोंकी जगमगाहट से अत्यन्त शोभायमान दोख पड़ते थे। कल्पवृक्ष की अनेक उत्तम विपल विभतियां किसी महान राजाकी विभूतियोंसे कम न थी। माला, वस्त्र, रत्न, ग्राभूषण दिव्य फल पुष्प एवं शीतल छाया इत्यादि दलभ बिसियोंसे वह युक्त था। वे दस प्रकारक थे। इन दस विविध कल्प वृक्षोंको देखकर यह सहज हो में जाना जा सकता
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जुदे जुदे तापर सु उतंग, तीन कोट हाटकमय रंग। चारौं दिश गौपुर संबंध, चमर छत्र ध्वज मंडित रंध्र ॥१०॥ मंगल द्रव्य धरी समुदाय, अरु तह रहै देव बहु प्राय । चैत्य वृक्ष तिहि मध्य प्रवान, जम्मू वृक्ष तले उनमान ॥११०|| ताके मूल चहूं दिश चार, श्री जिनवर प्रतिमा भवतार । बाग मध्य चारों दिश जान, वन वेदी हैं चार महान ।।११।। कनकमयी मणिसचित प्रबास, दरवाजे उन्नत चौ पास । ता ऊपर जिन प्रतिमा राज, छत्र चमर प्रादो सब साज ॥११२।। तहां इन्द्र पूजा बिस्तरै, महापुण्य को परगट करे। ऐसे हो सब बन बन मांहि, सबै विभति चैत्यद म पाहि ॥११३॥ अब वन वेदीले कछु मही, रजत कोट लौं जानो सही। तह ते ध्वजा पांति फहराई, कचन खम्भ लगी लहराई ।।११४॥ दश प्रकार है तिन आकार, ताके भेद सुनो निरधार । माता शुक मयूर अरविंद, हंस गरुड़ मृगपति जुगयंद ।।११५।। वषम चक्रवश चिह्न मनोग, ध्वजा दुकलनकी संजोय। एक जाति की सी अर पाठ, दशर्म असी सये हैं ठाठ ॥११६।। चारों दिशकी सब परवान, सत तेताल वीस अधिकान । ध्वजा पवन वश हाल सबै, जिन पूजन भवि पाये सब ।।११७।। पंथ खेद भवि जीव न धरै, सुश्रपा धौं तिनकी करें। ध्वजा यखानी परिणति यही, नानारंग शोभा अति लही ॥११८।। प्रागे रजत मयी है कोट, धवल मही अति उन्नत मोट । श्वेत सुजस प्रभु को वह पारा, फेरी देकर रहिउ प्रकास ।।११।। पुरख सदरमाजे चार, भानावर्ग कन, छवि सार । नवनिधि मंगल दरव समेत, तोरन प्रमुख सफल शोभत ।।१२।। हेम कोट बत वर्णन सबै, भवनपती दरवानी तबै । दरवाजन ने बीथी चली, चारों तरफ एकसी भली ।।१२।। दो दो धूप तने घट तहाँ पुरववत वर्णन सब जहां । इहि विधि चारों दिश जे सही, नाट्यशाल पुरववत कही ।।१२२|| नाटयशाल दोई दिश जान, गीत नृत्य सुर करै प्रमान । तह ते कछ् अंतर वन लह्यो, कल्पवृक्ष नामांकित कह्यौ ॥१२३।। दश विधि तहां कल्पतरु ठीक, अति उतंग छाया रमणीक । फूले फले अधिक मनरंग, वस्त्राभूषण अादिक रंग ॥१२४|| दश विध दान दैन संजोग, मनवांछित पुरवं सब भोग । पूरव बत चर वापी दीठ, बनके मध्य त्रिमेखल पीठ ।।१२।। तीन कोट हैं गिरदाकार, कोट नोट प्रति गोयुर चार । मुक्ता बन्दनवार अपार, घंटा तोरन शोभित सार ।।१२६।। मध्यभाग सिद्धास्थ वृक्ष, ताकी शोभा सुनो प्रतक्ष। चारों दिशा वृक्ष के मल, सिद्ध समान विम्ब जिन थल ॥१२॥ छत्र चमर ध्वज मंडित सोय, पूजा इन्द्र कर तह जोय। और सकल शोभाको जान, चैत्य वृक्ष पूरबवत मान ।।१२८।।
का किरवयं देवकर, उत्तर कुरु भोगमि स्थान ही इन कल्प वृक्षों को साथ लेकर जिनेन्द्र प्रभ को मेवा करने के लिये आ गये हों। कल्प वाक फल ग्राभूषणों की तरह दीख पड़ते थे, पत्ते वस्त्र के समान थे, और शाखाग्री (टालों) से लटकती हई सन्दर मालाएं बटयक्ष जटामों के समान जान पड़ती थीं उनमें से ज्योतिराहकहप वृक्षक नीचे कल्पवासी देव और मालांग कल्प वक्षके नीचे भवनवासी इन्द्र स्वयं रहते थे। कल्प वृक्ष बनके बीच में अतिरम्य सिद्धार्थ वृक्ष थे और उनके मूल में छत्र चामरादिस अलंकृत प्रभकी प्रतिमाएं थीं। पूर्व कथित चैत्य बक्षके समान हो इनकी भी स्थितिको भिन्नता केवल इतनी ही श्री कि वे कलावक्ष अपनी इच्छानुसार अभीष्ट फलको देने वाले थे। इस. कल्प वृक्षवन की वारों ओरसे परकर बहुमूल्य रत्नोंते जड़ी हुई स्वर्ण वेदिका बनी हई थीं और ज्योतियोंसे जगमगा रही थी।
उसमें चांदीके बने हए चार दरवाजे थे। उनके अन्य शिखरों पर मोतियोंकी मालायें गथी हई घण्टिकाएं लटक रही थीं, गान, वाद्य एवं नृत्य हो रहा था, पुष्पमाला इत्यादि मंगल की आय वस्तुएं धरी हुई थी, प्रकाशमान रत्नों के द्वारा बनाये गये तोरण लटक रहे थे। इन दरवाजों के बाद राजपथ पर स्वर्ण-स्तम्भक मागे अनेक प्रकारको ध्वजाएं लटक रही थी और एक अदभत छटाको विखेर रही थी। रत्न जटित पीठासन पर खड़े किये गये उन स्तम्भोंको देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानों बे खडे होकर सम्पूर्ण भव्य जीवों को 'प्रभुने कर्म शत्रुओंको अनायास ही जीत लिया है। इस बातको सुनाने का प्रयत्न कर रहे हों। उन खम्भोंकी मुटाई अट्ठासी अंगुलकी थी। पच्चीस धनुष (पचासगज ) की दूरी थी। इस प्रकार गणधर देवने कहा। तीर्थकर की उंचाईसे मानस्थम्भ, ध्वजा स्तम्भ, सिद्धार्थ, चैत्यवृक्ष, स्तूप, तोरण सहित प्राकार एवं बन बेदिकायोंको ऊंचाई बारह गुनी अधिक थी। बुद्धिमान पुरुषों को इसी के अनुकूल लम्बाई चौड़ाई का अनुमान कर लेना चाहिये । पूर्वोक्त बन श्रेणी,
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वन प्रति का वन वेदी हैं नार, चामीकर भय बनी सुठार ता ऊपर प्रतिमा जिनराम सुरपति पूजे उर हरणाय फिर ध्वज वंभीयत जुसार, पुरवयत जानी सविचार अब तिनके कछु आगे जान, फटिक फोट ही कहे प्रमान चन्द्रकान्तमणि ग्राभा कह्यो, सुवरणमयी थंभ तह लह्यो ध्वजा छत्रपष्ट छविचार निद्रा समन अधिकार
।
दोहा
मानथंभ ध्वज थंभ गढ़, बेबी तो रन तूप जिन तन तें बारह गुर्ने, महल वृक्ष जुत रूप ॥ १३५॥
1
चौपाई
फटक गई निर्मत नभचार प्रति उन सो मिराकार बस्न वरन मग निर्मल द्वार ||३६|| चमर छत्र घण्टा जुत कहे। सब शोभा पुरववत जान ठाडे सुरंग देव दरवान ॥१३७॥ उपमा रहित जु दी सबै अब सुन मध्य भूमिकी कथा, फटिक कोट के भीतर जथा ।। १३८॥ गढ़ तं प्रथम पीठ सौं लगी, फटिक भींत सोलहि जगमगी। रतन थंभ तिहिपर छबि वान, तिनको दीपति तं सम हान ||१३||
भींतन बीच जु कोठा जेह, बारह सभा तहां सुन लेह || १४० || कोठा प्रथम मुनीश्वर सेव दूजे कल्पवासिनी देव ।। १४१|| पंचम व्यन्तरसी लिये कही भवनवासिनी में सही १४२॥
आगे तृतीय कोट प्रचार चारों दिश गोपुर बन रहे देखत ताहि सफल द्रग जबै
ता रतन हि विधि व सकल संपदा
च फेर मानो नखत उसे शशि पेर ।।१२ विदिशा परमान, पूरवक्त सब वर्णन [जान ।। १३०॥ है वास को बुध कहद लहै ना साँस ।।१३१।। प्रति विचित्र है महल मनोग, रतन कूट ताप है जोग ।। १३२ ।। बीथी अन्तर सुभग सरूप, पद्मराग मणिमय धन रूप ॥१३३॥ बाजे साढ़े बारह कोट, बजे मधुर ध्वनि दुभि जोट ॥१३४॥१
1
तिहि पर श्री मंडा सुर रची, फटिक मई मानौं नभ खच । यह दिया दरवाजे पथ रहे, बीच बीच जय जय तह कहे ती अeिr wee जान चौथे क्योतिष पिया बखान
2
सातम भवनपति सुर लेख, ग्राम व्यन्तर कहे विशेख | नवमें कोठा ज्योतिष देव, दशमैं कल्पवासि सुर तेव ।। १४३॥
I
निराबाध तिहूं जग के जीव भोर नही तह होय तीव ।। १४४।। तिरतं प्रथम पीठ गुनवार, सूरज मणिमय परिकार । १४५।। बारह सभा गली जे चार, तिनको ये सोलह पथ धार ।। १४६ ||
एकादशम मनुष परवान, द्वादश में पशु सकल बसान त्रिभुवनपति अतिशय यह जान, बागे और सुनों गतिवान नील वरण मणीमयी विशाल, सोलह पेंडि चहुंदिश साल
राज प्रसाद एवं पर्वतों की ऊंचाई को भी इसी के अनुपात से समझना होगा । इस प्रकार द्वादशांग के पढ़ने वाले गणधर देव ने कहा पर्वत ऊंचाई ने चौड़े और स्तूप ऊंचाई से कुछ अधिक मोटे हैं। तत्त्ववेत्ता देवताओं के द्वारा पूजित गणधर देवने वेदिका इत्पादिकी चौड़ाई ऊंचाईको अपेक्षा चौथाई कही। उन्हीं के बीच-बीच में कहीं पर जन-भरी बहती हुई नदियों, कहीं बावली कहीं रेतीली जमीन और विशाल सभा मण्डप बने हुए थे। बनके विशाल राजमार्ग पर जी स्वयं वेदिका बनी हुई थी, उसमें सुन्दर सुन्दर चार दरवाजे बने हुए थे। इनमें भी रत्न- तोरण, ग्राठ मंगल द्रव्य एवं आभूषण आदि वैभव तथा नृत्य, वाद्य एवं गान इत्यादि पूर्व कथित द्वारोंके जैसे विद्यमान थे। इन सबके बाद एक अत्यन्त विशद् एक गली थी जिसे चतुर देव शिल्पियोंने बनाया था। इस वली के दोनों बगल पंक्तियां बनी हुई थीं। इन भवनोंमें हीरक जटिल स्वर्ण-रम्भ थे और चन्द्रकान्त मणि की दीवार बनी हुई थी। बीच-बीच में अनेक बहुमूल्य महारत्न जड़े हुए थे इसलिए उनकी शोभा एकदम विचित्र थी। उनकी जम मगाहटको देखकर पायें चौंधिया जानी थीं। उन दुमंजिले एवं चौमंजिने दिव्य-ग्रासादोंपर बाह्य दृश्यों को देखनेके लिए मट्टालि काएं (बटारियां बनी हुई थीं। सम्पूर्ण सुख-सामग्रियों का उन भव्य भवनों में सन्निवेश था, अतः अनेकों देव गन्धयों के साथ कल्पवासी व्यन्तर ज्योतिषी विद्याधर भवनवासी एवं किन्नर वृन्द प्रति दिन उन महलों में देव क्रीड़ा करते रहते थे। उन लोगों में से कोई तो जिनेन्द्र प्रभुके गुण गौरवको गाते, कोई उत्पाद पूर्ण नृत्य करते और कोई विविध वाको बजाकर भगवान की सेवा में तत्पर रहते थे । धार्मिक विषयोंकी चर्चा भी वहां ग्रहनिश होती ही रहती थी ।
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तहाँ धरी वसू मंगल दव, सेवक जक्ष देव हैं सर्व । धर्म चक्र निज माथै लियं, देखि भान यति लाज हिय ।।१४७॥ तह ते द्वितिय पीठिका दीस, हेममई शोभा जिहि मीस । मेक शिखर मानों उत्तंग, जगमगाय सूरज सम रंग ।।१४८|| पाठ ध्वजा माठौं दिश जान, तिनकी शोभा अधिक बखान । तिनमें पाठ चिन्ह वरनये, चक्र गयंद वृषभ पुनि ठये ।।१४६॥ कमल वसन मगपति जु सरूप, गरुड़ माल वमु चिह्न अन्ग । सूक्ष्म पाटम्बर संजुक्त, मन्द पवन हाल प्रध मुक्त ॥१५॥ ततीय पीठ अति शोभा लरी, तीन मेखला कर मन बसै । पंच वरण मणिमय झलकंत, किरण ज्योति दश दिशि फलंत ॥१५१।। ता पर गंधकुटी निरमई, सर्व रतनकी छवि वरनई। चहुं दिश चार दुवार अनूप, अरुण वरण मणिमय तिहि रूप ॥१५॥ तीन पीठपर शोभा लस, के धौं तीन जगत शिर वसै। परम सुगंध वहै जहं वाय, शिखर मनोज्ञ ध्वजा फहराय ॥ १५३॥ तहां हेम सिंहासन धरयो, तिहि प्रकाश कर अन्ध तम हरयौ । बह विधि रतन ज्योति झलमलै, मानों जग लक्ष्मी मन रलै ।।१५४||
दोहा चतुरंगल तह तें रहें अन्तरीक्ष भगवान । त्रिभुवन पूजित वीर जिन, जग शिर सिद्ध समान ॥१५॥ समोश रण महिमा अगम, रचना बहु विस्तार । तीन लोककी संपदा, को कहि पावै पार ॥१५६।। मूनि विहंग उद्यम करे, पं उढ़ पार न लोन । श्री जिन नभ शोभा कथन, कौन कहे नर दीन ॥१५७।।
अथ अष्ट प्रातिहार्य वर्णन
पद्धडि छंद राजत अशोक तरुवर उप्तंग, सो मन्द पवन थरहरत अंग । प्रभु पांय निकट नाटक करत, तहं पहुप गन्ध षटपद रमंत ।।१५८॥ प्रभु अंग देखि डरप्यौ सुकाम, जग ढूंड्यो शरण न राख ताम । फिरि प्रायगि रोप्रभ भरण पाद, वरष ज पहप होकर अल्हाद ॥१५॥ प्रभुको तन हिमवन गिरि सरोस, मुख वचन गंग निकसी गरीस । श्रुतज्ञान उदधि में मिली जाय, सप्तांग भंग लहरन समाय । प्रभु ऊपर चौंसठ चमर सार, दारंत यक्ष नायक अपार । जिम क्षीरसमुद जल कलश लेइ, शिरचार प्रवाही धविधरेइ ॥१६१।। चामीकर रतननि खचित जास, सिंहासन उन्नत अति प्रकास । तापर प्रभु राजत उदित भान, विकसाबत भविजन कमल ज्ञान ।। प्रभु दिव्यौदारिक तन मनोग , तहं कोट भानु द्युति लहिय जोग । शशित अति शीतल शान्त रूप, भामंडल छवि कहिये अनूप । है मोह जगत जोधा अमान, प्रभु जीत्यौ गुक्ल कृपाण ठान । तस विजय बजे पटहा निशान, तह सकल दु'दुभी मयुर गान ।। प्रभु छत्र तीन त्रिभुवन उदेत, सो धवल वर्ण मुक्ता समेत । सोहै शिर ऊपर प्रति अनप, शशि नखत सहित मनु त्रिविध रूप ।।
विशाल राज-पथके मध्य में पद्यराग मणियों के बनाये हए नौ रत्न-स्तम्भ खड़े थे और उनमें अहंत एवं सिद्ध भगवान की सन्दर प्रतिमाएं विराजमान थीं। साथ ही उनमें विविध रत्नोंकी वंदनवार बंधी हुई थी और उनके विविध वर्ण के प्रकाश से आकाश अनेकों हरे, पीले, लाल एवं नीले रंगोंसे रंगा हुआ-सा दीख पड़ता था, जिसे देखकर लोगोंको इन्द्रधनुष की भ्रान्ति हो जाती थी। व रत्न-स्तम्भ पूजा-द्रव्योंसे और छत्र ध्वजादि मांगलिक वस्तुओं से सुशोभित थे। इनका महत्त्व धर्ममूर्ति के समान था। वहां पर अनेक भव्य-जीव एकत्रित होते और उन प्रतिमानों का प्रक्षालन, पूजा प्रदक्षिणा एवं स्तुति किया करते थे। इस प्रकार सभी लोग उत्तम धर्मोपार्जनके कार्य में दत्तचित्त रहते थे। इसके बाद और भी कुछ भीतर जाने पर स्वच्छ स्फटिकमणि का बना हुआ परकोटा था जो अपनी शुभ्र ज्योत्सनासे सम्पूर्ण दिशात्रों को प्रकाशित कर रहा था। उस परकोटेके सब द्वार पद्यराग मणियोंसे बनाये हुए थे और भव्य जीवों के एकत्रित अनुराग की तरह पाकर्षक थे। इन द्वारों पर भी पहले ही की तरह तोरण प्राभूषण, नौ निधियां, तथा गान-बाद्य-नृत्य हो रहे थे और चमर, बीजना, दर्पण, ध्वजा, छत्र, भारी एवं कलश इत्यादि पाठों मंगल द्रव्य प्रत्येक द्वार पर रखे हुए थे। उन परकोटों के दरवाजों पर गदा एवं कृपाण प्रादि प्रायुधों से सुसज्जित होकर क्रमशः व्यन्तर देव, भवनवासी एवं कल्पवासी देव पहरा दिया करते थे। उस स्फटिक मणिवाले परकोटे से लेकर प्रथम पीठ पर्यत लम्बी
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पुष्पवृष्टी तथा दिन्य ननिका होला। पाठपातिहार्य
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दोहा
इहि प्रकार रचना विविध किय कुदेर मन लाय । लोकोत्तम लक्ष्मी सकल, समोसरण रहि छाय ॥ १६६॥
चौपाई
।
अब सब देव आगमन भयो, जय जय घोष हरष उर ठयी। बरपा महुवन की बहु करें, प्रति प्रसन्नता मन में घरें ।। १६७ ।। समशरण की रचना देख, चक्र भयो इन्द्र मन पेख || १६८ || पूजा तहां करी मन लाय, अष्ट द्रव्य जुत हर्ष बढ़ाय ।। १६९।। वर्धमान जिन दूगभर देश अपनी जनम सफल कर लेख ।। १७० ॥ चार वदन चहुंदिश परकाश चतुरंगुल अम्बर नभ वास ।। १७१ ।। तीन प्रदक्षिण दे शिरनाई, भक्ति भाव नहि अंग समाई ।। १७२ ।। भ्रमर समूह सबै समुदाय, वन पंचाग भूमि शिरताय ।। १७३॥
लोन प्रदक्षिण दोनी सबै धूलीसाल प्रवेश तबै मानथंभ चैत्य द्रुम तूप, जहां जिनेश्वर विम्व अनूप फिर सुरेश सब देवहि साथ, धामी जहाँ त्रिलोकी नाथ प्रति उत्तंग सिंहासन दीस, तुंरंग काय राजत जगदीश फेल रह्यो तन किरण प्रकास कोट भानु युति लाजे जास शो आदि सब देवी संग और अछरा बहुविधि रंग
,
वोहर
रतनजड़ित सुरपति मुकुट, नियति नख धुति देत नभितमोलि छवि लजित अति ज्यों रविग्रह शशित ।। १७४ ।। तह सुरेश, जिन भक्तिवेश, अस्तुति करत अलाप । ज्यों नभ घन के हेत कर, बोले वचन कलाप ।। १७५ ।।
चौपाई
जय जय समोशरण आधीश, जय जय चतुरानन जगदीश जय जय मुकति कामिनी कन्त, जय जय नत चतुष्टयवंत ॥ १७६ ॥ जय जय तीर्थंकर भुवनेश, जय जय परम ध्वजा धरणेश जय जय गुरंग मुकति दातार, जय जय रत्नत्रय भंडार ।।१७ जय जय गुण अनन्त परधान, जय जय गिरविकार भगवान जय जय कर्म कुलाचल सूर, जय जय शिव तरुवर अंकूर || १७८ || जय जय जगन्नाथ तुम देव, जय जय सुर असुराधिप से जय जय महागुरु गुरुराज, पूज्य पुरुष पूजित जिनराज ।। १७६ ।। तुम जोगिन में जोगी जान, महाव्रतिन में व्रती महान तुम ध्यान में ध्यानी महा, तुम शानिन में ज्ञानी कहा ।। १८० ।। जतिन वि तुम जतिवर सोय, स्वामी परम स्वामि अवलोय तुम जिन उत्तम मुनिगण 'ईस' ध्यानवंत ध्यावहि निशदीश ।।११।। धर्मवंत में धर्म निधान, हितकारिन हो तुम हितवान । तुम त्राता भव भंजनहार, हंता स्वपर कर्म दुठ भार ॥ १८२ ॥ तुम प्रभु असरण शरण अतीव सारथवाही शिरपद सीव। तुम जग बांधव तुम जग तात, तुम करुणानिधि हो विख्यात ।। १८३ ॥
सोलह दीवारें बनी हुई थीं उस स्फटिक मणि निर्मित परकोटे के ऊपर रत्न-स्वणों के सहारे स्फटिक मणियों का ही धीमण्डप बना था। वह यथार्थतः ही श्री सम्पत्तियों का ही मण्डप है। वहां पर जगत् के लक्ष्मीपात्र सज्जन एकत्रित हुआ करते हैं। उनकी भीड़ से वह सदैव ठसाठस भरा हुआ रहता था, जिस तरह कि अर्हत प्रभुको ध्वनि से धर्मकी उपलब्धि होती हैं । उसी तरह वहां पर आकर धर्म-पर्णा के निर्णयरूपी धर्म साधना के अनुष्ठान से सब लोग मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त कर देते थे। उस श्रीमण्डप के बीच में मणिके द्वारा बनायी प्रथम पीठिका थी वह ऊंची बो पर उसके प्रकाशमें दिशाएं बालोकित हो रही थीं। पीठिका पर सोलह स्थानों में अन्तर दे देकर सोलह सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। बारह तो सभा प्रकोष्ठ के प्रत्येक द्वार थे और चार पीठिका पर चारों दिशाओं में विशाल एवं विशद रूपमें बनी हुई थी प्रथम पीठिका पर पाठ प्रकार के मंगल द्रव्य रखे गये थे उस प्रथम पीठिका के ऊपर सुवर्ण निर्मित द्वितीय पीठ रखा हुआ था जो अपनी दीप्ति से सूर्य एवं चन्द्रमण्डल के प्रकाश को भी तिरस्कृत कर चुका था। उस द्वितीय स्वर्ण पाठके ऊपरी हिस्से में हाथो बैल कमल वस्त्र सिंह गरुड़ एवं माला सिन्हवाल पाठ ध्वजाएं
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तुम नोभी प्रभुह अधिकार, तीन लोकके राज्य हि धार। तुम रागी उर परम विवेक, मुक्ति वधको लागी टेक 11१८४॥ जीत पात्र भए जीत कर्म, तीन जगत में जोधा पम । तीन जगत लक्ष्मीपति सेब, ग्रा अतिशय अलंकृत देव ।।१८॥ कीरति बेलि बड़ी तुम तनी, छाई जग मंडप में घनी। और कदेय जसहि को चाहि, तुम निरीक्ष सेवं सुर पाहि ॥१६॥ कलपतरू वर चित्रावेल, कामधेनु चितामणि खेल । एसब एक जनम सुखदाय, तुम सेवा सी भवदुख जाय ॥१८७।। गाज धन्य वासर यह भयो, जीवन सफल दरश जिन लयौ । आज पाय हम भये पवित्त, प्रभु यात्रा कोनी इक चित्त ॥१८॥ मफल हस्त हमर अब भये, तुमरे चरण कमलको नये । नेत्र सफल मान हम आज, दरशे पाप जबहि जिनराज ॥१६॥ अरु पवित्र भयो मेरो गात, तुम चरणाम्बुज सेवत तात । वाणी सफल भई मुहि अाज, तुम गुण भाषे जलधि जहाज ॥१९॥ मेरो मन सफलीकृत भयो, प्रभु की भक्ति हृदय भर लयौ । चार ज्ञान धारी तुम राय, तुम गुण पार न अन्त लहाय ।।१९१॥ हमरी शक्ति उनहित लेश, तुमरी भक्ति करत उपदेश । जैसे साम्रकली परभाव, कोकिल शब्द करै कहराव ॥१६।।
गीतिका छन्द
नौ वीर जिनेश अन्तिम, सकल मंगल कारने । नौं सन्मति करी शुभमति, बर्धमान प्रनामनै ।। नमौं तीन जगत्र नायक, परम स्वामि बखानिये। नौं अतिशय दिव्य तनमय, पाप मेरे हानिये ।।१६।। नमों तारन तरन जिनवर, नमौं गुन वारिधि सही। नौं विश्व बिभूनि मण्डित, नौं गर सेवत मही॥ नमौं परमातम विराजत, नमी लोकोत्तम सदा । नमौं केवलज्ञान लक्ष्मी, अंग भूषित है तदा ।।१९४॥
बोहा
यह विधि बहु अस्तुति करी, नमौं भक्ति उर लाय । तुम प्रसाद प्रभ पाइयो, धर्म सकल सुखदाय ॥१६॥ काल लवधि नियड़ी नहीं, भवगत लह्यौ न अन्त । तौलौ प्रभु मोहि दीजिये, अपनी भगति अनन्त ।।१६६।। शाची रत्न पांचों वरण, निज कर चुटकी चूर । भक्ति सहित प्रभुकै निकट, चौक बिचित्रहि पूर ।।१९७॥ तहं सुरेश पूजा विविध, प्रारम्भी हरषाय | अष्ट द्रव्य शंजुक्त कर, जिन चरनन चित लाय ।।१६८।।
पूजाष्टक त्रिभंगी छन्द
कंचनमय भारी रतननि जारी, क्षीर समुद्र जन सुख भरियं । शीतल हिमकारं पूजित सार, बारत अनुपम धार त्रयं ।। जना सरराज हर्ष : समाज, जिनवर चरणं कमल जुमं । जग दुःख निवारं सब सुख कार्र, दायक सो शिवसख परमं ॥१९॥
जलम् । केशर करपुरं अगरं तगर, सि मलयागिर सुरभि शुभ। सुरगन्ध मनोगं उपमा जोगं, तास विलेपन करत प्रभा
पूजत सुरराज० ॥२००|| चन्दनम् ।
थीं जो सिद्ध पुरुषों के पाठ गुण के समान जान पड़ती थी उसी पीठ पर भी एक तीसरा रत्न पीठ रखा नया था
मारा बनाया गया था। इसी ततीय रत्न पीठ से एक प्रकार की विचित्र किरणें निकल रही थीं और सारा प्रकार सामावर प्रखर किरणों एवं अपनी मांगलिक सम्पत्तियों से स्वर्ग लोक के वभवमय प्रकाश को तच्छ समझकर मसकराता
मानवता या। इसी ततीय रत्न पीठके ऊपर उत्तमगन्ध कुटी बनी हुई थी और बह एक तेजोमयी मूर्ति जान पड़ती थी। वर अनेक प्रकारके दिव्य गन्ध, महाधूप, सरभित पुष्पमाला एवं अनवरत पुष्प अस्टिसे सम्पूर्ण दिशामोंके वायु मण्डल को सन्धित करते रहने के कारण यथार्थ में ही गन्ध कुटी हो रही थी। उस गन्ध कुटी का निर्माण दिव्य प्राभूषण मोतियों को माला सवर्ण की
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अक्षत गुण मंतिष्ड धवल अखंडित, मुक्ताफल छनि अधिक धरं । तिहि पंच हि पूजं करत संजूतं, मानहु र न उौत में।
पूजत सुरराज०।२०१॥ अक्षतम् मालति अरविन्दं चंपक कुन्द, बेल गुलाब सिगार हरं । केबर करनारं केतकि भार, पूजी पांडरि जुही भरं ।।
पूजत सुरराज ० ।।२०२।। पुष्पम् । नाना पकवानं घेबर सातं, मोदक लाइ सद्य बरं । रत्ननमय थारी शोभित भारी, उपमहारी अग्र बरं ।।
पूजत सूरराज०।।२०३।। नैवेद्यम् । रतनन मय दीपं धरत समीपं, अति उद्योतं न जाय कहं । सब जगत प्रकारां अघतम नाश, धूम रहित छबि ताहि लह ।।
पूजत सुरराज ॥२०४।। दीपम् । कृष्णागर पूरं तगर कपूर, केशर चूरं मलय गिरं । इहि प्रादि दशांगं धूप तरांग, स्खेवत धूपं प्रकाश भरंम् ।।
पूजत सुरराज० ॥२०५।। धूपम् । दाडिम नारंगी केला पुगी, पाम्र बिजौरे निंबु वन । नारीयर भारं एला सारं, इत्यादि फल शुद्धयन ।।
पूजत सूरराज ॥२०६।। फलम् । जल गंध सुसारं अक्षत भारं, पुष्प सहित नवेद्य भरे। दोपादि अपारं धूप संवारं, फल कल्पद्म शुद्ध वरं ।। कंचनमय थारी स्वस्तिक धारी, ल सुरनायक नृत्य करं। पहुपांजलि छोपही कर्मन खिपही, जिनपद ग्रामे अर्ध धरम् ।।२०७॥
अय॑म् ।
दोहा
इमि पूजा स्तुति बहु करी, प्रनम्यौ वारंवार । अमर सहित अमरेश जहं, धर्म उपायो भार ॥२०॥ वर्धमान भगवान के सम्मुख दृष्टि लगाय । इन्द्र प्रादि द्वादश सभा, बैठी निज निज थाय ॥२०६।।
गीतिका छन्द
श्रीवीर नाथ जिनेश अन्तिम, चरन वंदित मुनि गनी । परम पावन बुध नमित प्रभु, जजह जग चुडामनीं ॥ सुर असुर जिनको भत्तिा आगे, गुणं अनंत सुजानिये । सो समोशरण विभूति निरुपम, अधिक कहा बखानिये ।।२१।।
जातियाँ एवं निविड़ अन्धकारको दूर कर देनेवाले प्रकाशमान महारत्नों के द्वारा कुवेर देव ने किया था। इसका वास्तविक वर्णन करने में श्री गणधर देवके अतिरिक्त कोई अन्य वृद्धिशाली नहीं समर्थ हो सकता। इसी गन्ध कुटीके मध्य भागमें इन्होंने बहुमूल्य एवं ज्योति पूर्ण महारत्नों के द्वारा एक अलौकिक स्वर्ण सिंहासन को तैयार किया। प्रचण्ड मार्तण्डकी प्रखर किरणं उस स्वर्ण सिंहासन के प्रकाश के सामने फीकी सी जान पड़ती थीं । सिंहासन पर कोटि सर्य के समान प्रभावाले जिनेन्द्र देव थीमहावीर प्रभु ने तीनों लोक के भव्यों से घिरे हुए उस सिंहासन को सुशोभित किया। परन्तु उनको महिमा अपार है । वे अपनी आश्चर्यजनक महिमा के ही कारण स्वर्ण सिंहासन के धरानल मे चार अंगुल ऊपर निराधार अन्तरिक्षमें अबस्थित रहे। वे सम्पूर्ण भव्यों के उद्धार करने में समर्थ थे। देव निमित वाह्य विभूतियों में यूका जगदादरणीय श्री महावीर प्रभ को सब भव्य जीवों ने श्रद्धाभक्ति पूर्वक प्रणाम किया। वे प्रभ संसारके मुकुट मणि हैं, अनुपम, असंख्य एवं उत्तम गुणोंसे युक्त हैं, और केवल ज्ञानरूपी महा सम्पत्तिसे विभूषित हैं। उन जिनेन्द्र प्रभके चरणारविन्दों को मैं प्रादर पूर्वक नमस्कार करता हूं। प्रभ तीनों लोक के जीवा को उबार लेने में परम समर्थ हैं, अत्यन्त प्रतिभाशाली हैं, कर्मरूपी महाशत्रओंके यशस्वी नाशक हैं, बारह सभाओं में बैठे हा जीवों को धमपिदेश देने में प्रयत्नशोल रहत है। अकारण बन्धु हैं, अनन्त चतुष्टय से युक्त हैं। उनकी अतुलनीय गण-सम्पत्तियोंको पानेके लिये उन प्रभुको में नमस्कार करता हूं। वे अत्यन्त विशिष्ट गुणों की खान हैं, केवल ज्ञानरूपी दिव्य नेत्रों से दिव्यनुष्टि वाले है, त्रिलोक के स्वामी इन्द्र धरणेन्द्र एवं
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जो त्रिजग भवि जीवन सु तारक, कर्म अरिनाशन कही । द्वादश सभात अन थिर हो. धर्म उपदेशक सही ।। विश्व जनको हरो बाधा, ज्ञान अमृत चाखियो । प्रनमा अनन्त चतुष्ट नायक, भक्ति मुहि निज दोजियो ।।२११|| असम गूनन निधान हो प्रभु, ज्ञान केवल दृग मही। तीन भुवपति करत सेवा, विश्व लक्ष्मी पद मही ।। सकल दोष विध्वंस कीनी, धर्म तीरथ भीजिये । 'नवलशाह' विचार बिनवं, मोहि शिबाद दोजिये ॥२१२॥
चक्रवत्तियों के द्वारा परम सेव्य हैं, सब के कल्याण करने वाले अद्वितीय बन्धु है, सम्पूर्ण दोषों से होन हैं, धर्म तीर्थ के प्रवर्तक हैं। उपर्युक्त महागुणों से युक्त श्री महावीर प्रभु को मोक्ष गुणों की प्राप्ति के लिये मैं भक्ति पूर्वक स्तुति करता है।
पीठ पर स्थितमूलवृक्ष
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नॉट. शाल्मनी वक्ष में जिजभवन दक्षिनशमन पर हैं और जम्बवृक्षा में उतरशारधार
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द्वादश अधिकार
मंगलाचरण
दोहा प्रणौ श्री प्ररहंत जिन, केवल ज्ञानधिराज । भव्यन प्रति उपदेशियो, धर्म तीर्थ हित काज ॥२॥
गौतम गणधरका समवसरणमें आगमन
चौपाई
अब श्री जिनवर मुख उच्चार, वाणी खिरै विविध परकार । अविरल शब्द अनक्षर सोय, गणधर तहां न तिष्ठ कोय ॥२॥ तब सौधर्म सरेश विचार, अवधिज्ञान कर चित अवधार । बैठे निज कोठा मुनिवृन्द, तिनमें कोई नहीं गणीन्द्र ॥३॥ अर्हतमुख वाणी बहू होइ, गणधर बिना न समरथ कोई । यह चिंतत जानी बल ज्ञान, गौतम' विप्र बुद्धि बलवान ।।४।।
जमाना
"श्रीमते केबलज्ञान, साम्राज्य पद शालिने । नमोवृताय भव्योधधर्म तीर्थ प्रवत्तिने ।।१।।"
अर्थात जो केवल ज्ञानरूपी साम्राज्य का पाकर शोभायमान हैं और भव्य जीवों के समूह से घिरे हुए हैं, उन धर्मतीर्थ प्रवर्तक एवं श्री सम्पन्न महावीर अहंत को नमस्कार है।
.--- .. - - -- १ इन्द्रभूति पर वीर-प्रभाव जब लोग एक पंसे की मिट्टी की हडियां को भी ठो बजाकर खरीदते हैं, तो अपने जीवन के सुधार और विगाड़ वाले मसले का दिना परीक्षा किये क्यों आंख मीच कर अहण करना चाहिये । इन्द्रभूति गौतम आदि अनेक महापंडिनों ने तर्क और न्याय की कसौटी पर भगवान महावीर के जादिष्ट ज्ञान को कसा और जब उसे सौ टंच सोना समान निखिल सत्य पाया तो वे उनकी शरण में आये ।
थी कामताप्रसाद : भगवान महावीर १० १३८।। श्री व मान महावीर के सर्वज्ञ हो जाने पर उनकी दिध बनि न खिरी तो सोचर्म नाम के प्रयम स्वर्ग को इन्द्र अपने ज्ञान से गणघर की आवश्यकता समझकर उसकी खोज में चल दिया । उस समय वह्मणों का बड़ा जोर था । चारों वेदों के महाज्ञाता और माने हुए विद्वान् इन्दभूति थे । इन्द्र ब्राह्मरण का वेष धारण कर उनके पास गया और उनसे कहा, "कि मेरे गुरु ने इस समय मौन धारण कर रखा है, इसलिये आप ही उसका मतलब बताने का कष्ट उठायें।" इंद्रभूति गौतम बहुत विद्वान थे, उन्होंने कहा-'मतलब तो में बताऊंगा मगर तुमको मेरा शिष्य बनना पड़ेगा" | इन्द्र ने कहा, "मुझे यह शर्त मंजूर है परन्तु आप उसका मतलब न बता सके तो आपको मेरे गुरु का शिष्य होना पड़ेगा"। द्रभूति को तो अपने ज्ञान पर पूरा विश्वास था, उसने कहा, "तुम अपने श्लोक बनाओ, हमें तुम्हारी शर्त मंजूर है।" इस पर इंद्र ने बलोक कहा:
"काल्यं द्रव्यषट्वं, नव पदसहितं, जीवषटकायलेश्याः । पचान्ये चास्तिकाया, अतसमितिगतिज्ञानचारित्रभेदाः ।। इत्येतन्मोक्षमूल त्रिभुवनमहितः प्रोक्तमर्हन्दिरीशः।
प्रत्येति थवधाति स्पृशति च मलिमान यः सर्वं शुद्धदुष्टिः' ।। दलोक को सुनकर इन्द्रभूति गौतम हैरान हो गये और दिल ही दिल में विचार करने लगे कि मैंने सो समस्त वेद और पुराण पढ़ लिए
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द्वादशांग बाणी द्विज जोय, गणधर प्रथम होयगो सोय । किहि उपाय वह आवै यहां, यह चिता कोनो उर तहाँ ।।५।। मिथ्यामति धारै अघ दैन, रचे शास्त्र बहु परमत ऐन। कोई न जीत तिहिसों बाद, जग जिय वादहि लहैं विपाद ॥६॥ विद्या गर्व धरै वह धनौ, प्रक्षा कर कछु मद तिहि हनौ । रच्ची काव्य इक अरथ गम्भीर, तव विकल्प हहै द्विजवीर ।७।। शब्द अर्थ शंका जब होइ, मेरे संग प्राय है सोइ । यही विचार विक्रिया शेष, कोनौ वृद्ध विप्रको भेष ।।।। हाथ जटिका टेकत जाय, पदचे तुरन्त विप्र दिग आय । भो गौतम ! तू विद्यापीर, पायौ नाम सुनै तुम तीर ॥ मोगह वर्धमान जिनराय, तिनकी काव्य जू मोहि पढ़ाय । वे तो मौन भये अन्न सही, काव्य अर्थ किहि पूछौं यही ॥१०॥ सो महि दीजै आप बताय, तिहि कारण प्रायौ तुम पाय । काव्य अर्थ नहि धारो मोहि, तो मेरो जीवौ नहि होहि ॥११।। तम तो भव्य परम गुणलीन, पर उपकार करन परवीन । तुम हो देव व्यास जगतात, तुमरो गुण पूरण विख्यात ॥१२॥
जिस प्रकार मेघ जल वष्टि किया करते हैं, उसी प्रकार उस समय देव समूह जिनेन्द्रके चारों ओर पूष्पष्टि कर रहे हो । आकाश से गिरते हए फलों का मनोमोहक सुगन्ध पर भरि आकृष्ट होकर गुजार रहे थे। मानो जगस्वामो जिनेन्ट र
र स्वर में गा रहे हों। भगवान के पास ही यथार्थ नामा शाका को दूर करने वाला एक सुन्दर एवं अत्यन्त ऊँचा अशोक वक्ष था। उस प्रशोक वृक्ष के फुल रत्नों के जसे विचित्र वर्ण के ओर अत्यन्त मनोहर थे। वायवेग में TET शाखामों में हिलते हए मरकत मणियों के हरे पत्ते बहुत रमणाय मालूम हो रहे थे। उनके हिलनेसे ऐसा जाना भव्य जीवोंको वे भगवानके पास बुला रहे हो। महावार स्वामोके मस्तकपर तीन श्वेत छन तने रामान लोकों के प्राधिपत्य को पा लिया है, इस बातकी सूचना दे रहे हों। उन छत्रों के चारों ओर चमकीले मोती - - - -
तीत काल का कोई बापन नहीं है । लो फिन्तु वहाँ तो छः द्रव्य, नी पदार्थ और तीन काल का कोई बात नहीं
का उत्तर तो वही दे सकता है जो सर्वज्ञ हो और जिसे
जोरी को द्विराते हुए कहा कि तुम्हें क्या, चलो । मुम्हारे गुरु को ही इसका अर्थ बताता समस्त पदार्थों का पूरा ज्ञान हो। इंदभूति ने अपनी कमजोरी को द्विराते हुए कहा कि तुम्हें क्या चलो। म
। उहोंने समवशरण के निकट, मानस्तम्भ देखा तो उनका मान खुदबखुद इस उनके दोनों भाई और पाँचसी शिष्य उनके साथ चल दिये । जब उन्होंने समवशरण के निकट, मानस्तम्भ देखा तो उन
नक गर्य को देखकर अंधकार नष्ट हो जाता है। ज्यों-ज्यों बह आगे बढ़ते थे त्यों-त्यों अधिक शान्ति और वीतरागता तरह नष्ट हो गया जिस तरह गूर्य को देखकर अंधकार नष्ट हो जाता है। जा
मसारमा की महिमा को देखकर बहू चकित रह गये। महावीर भगवान की बीतरागता से प्रभावित होकर बड़ी विनय अनुभव करते थे। समबद्यारण की महिमा को देखकर वन चकि
कार किया। इसके दोनों भाई और पांचसौ चेलों ने जो इद्रभूति से भी अधिक प्रभावित हो चुके थे अपने गुरु को नमस्कार करते हामी भगवान महावीर को नमस्कार किया। पदभूति गौतम ने बड़ी विनय के साथ भगवान महावीर से पळा कि प्रवि
नता मनष्य के तो वश का कार्य नहीं है, फिर इसको किराने रचा ? उत्तर में उन्होंने सुना कि उपोतिष देवों के इंद्र चन्द्रमा ने अपने जो भ. महावीर का केवल ज्ञान जानकर अपने राय देवताओं की सहायता से यह समवशरण रचा है। गौतम स्वामी ने कहा
र चन्द्रमा नाम के नगर में अंकित नाम का एक साहूकार रहता था। तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ भगवान के उपदेश से प्रभावित होकर वह जैन मुनि हो गया और उसने धोर तप किया. जिम
TET .जैन मनि हो गया और उसने धोर तप किया, जिसके फल से यह आज स्वर्ग में चन्द्रमा नाम का देव हआ। वहां नवर विदेड क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करेगा। भगवान के इसने जबरदात ज्ञान को देखकर कदर पाहारण
दान करेगा। भगवान के इसने जबरदस्त ज्ञान को देखकर कट्टर श्राह्मण इन्द्रभूति पर बड़ा प्रभाव पड़ा और * भाईयों का मिथ्यात्व रूपी अंधरा नष्ट हो गया । वह बार-बार उसमूह ब्राह्मण को धन्यवाद देते थे कि जिस की बदौलत बाल उनको सच्चे घर्म और सच्चे ज्ञान का वह अनुपम माग मिला कि जिराको हूँढ़ने के लिये उन्होंने बयों से घर बार और
म माग मिला कि जिसको दढ़ने के लिये उन्होंने वर्षों से घर बार छोड़ रखा था। भगवान महावीर के तेज और अनुपम ज्ञान से प्रभावित होकर पन्द्र भूमि गोतम अपने दोनों भाईयों और पांच सौ चेलों महिला
हमान तो थे ही, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाने से ये इतने ऊंचे उठे कि बहुत जल्दी भगवान महावीर के सबसे बड़े गणधर (Chief Pontiff) बन गये। उसके भाई और बले भी उस समय के माने हुए विद्वान थे। बता -
भाई और चले भी उस समय के माने हुए विद्वान थे। जुनांचे इन्दभूति, उसके दोनों भाई अग्निa Tiस सौ चेलों में से सुधर्म, मौर्य, मोर, मुत्र, मंत्रय, अपन, अघवेल तथा प्रभास ये ११ भी भगवान महावीर के गाधर भूति और वायुभूति तथा पांच सौ चेलों में से सुधर्म, मौर्य, मौण्ड, बन गये। भगवान महावीर को केवल ज्ञान तो ईस्वीय सन से ५५७ वर्ष पहले वैशाख सदी जल जान तो ईस्वीय सन से ५५७ वर्ष पहले वैशाख सुदी दशमी को प्राप्त हो गया, परन्तु उनकी दिव्यध्वनि
बमा कागा प्रतिपदा को हुआ था। जिसकी वीर शारान जयन्ती आज तक मनाई ६ दिन बाद खिरने के कारण उनका पहला धर्म उपदेश श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को हुआ था। जिसकी जाती है।
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'ऋग पुनि यजुर साम भणि तीन, और अथर्वन गयौ प्रवीन । चार वेद ये थापं नए. जग जन पूज्य व्यास तुम भए ।।१३।। अरु अष्टादश कथे पुरान, तिनहि नाम संक्षप बखान । मत्स्य पुराण प्रथम अबधार, चौदा सहस श्लोक विस्तार ।।१४।। कर्म द्वितीय पुराण कहेव, सत्रह सहस श्लोक गने । पुनः वराह तृश्यत: नाम, वि.हजार शो हैं अभिराम ।।१५।। फिर नरसिंह चतुर्थम भनौ, सत्रह सहस श्लोकहि गनौ । बलि वामन पंचमहि पुरान, दश हजार ताको उनमान ॥१६॥ पदमपुराण छठम कहि वीर, पचपन सहस श्लोक गम्भीर । विष्णु सातमो कही पुरान, पन्द्रह सहस तास परवान ।।१७11 पुन ब्रह्मांड अष्टमी सोय, बारह सहस कहाँ अवलोय । ब्रह्म विवर्त नवम गुणधार, दश हजार श्लोक निरधार ॥१८॥ ब्रह्म नारदी दशमी तेव, तेइस सहस श्लोक कहेव । गरुडपुराण ग्यारहमौं जोय, सहस उनीस श्लोक कही सोय ।।१६।। शिवलिगी द्वादशमो लस, एकादश सहस्र तिहि वसै। भविषोत्तर तेरम जु बखान, पन्द्रह सहम श्लोवा परवान ||२|| मारकांडे चौदमो होय, नव सहस्र लोक गिन सोय । अगनिपुराण पंद्रमौ नाम, तीन सहश शोभं अभिराम ।।२१।। सोरहमो कहिए प्रसकन्ध, सहस अठारह तास प्रबन्ध । तिनके तीन काण्ड कर भेव, तिनके नाम सुनो भो देव ।।२२।। रेबी प्रथम जानिये वीर, उत्तर दूजो अति गम्भीर । काशी काण्ड तीसरो जान, अब सत्रह भरता हो पुरान ॥२३॥ सवालाख श्लोक प्रमान, तिनके पर्व अठारह धार । आदिपर्व पुन सभा द्वितीय, अरु आरण्य कहो जुतीय ॥२४॥ विराट पर्व चौथो जानिये, उदगम पंचम मानिये। भीषम छठम सप्तम द्रोन, अष्टम कर्ण नवम सल्यान ॥२५॥ जद्ध दशम अस्त्री गैरमौ, सूतिक पर्व कही बारमौ। सांति तेरमा कही बखान, अश्वमेध पुन चौदम जान ||२६।। अनुगासन पन्द्रमो जु लीन, व्यासाश्रम पोडा परवीन । मुसल सश्रमो कहिये सोय, दिवाधि रोह अष्टदश होय ॥२७॥ अब भागवत कहौ अनन्द, हैं तिनके बारह अस्कन्ध । अठारम है शास्त्र प्रधान, सहस अठारह श्लोक प्रमान ।।२८।। इतनी काव्य करी तुम देख, एक काव्य हम अर्थ विशेख । तुम हो शोतरूप गुणवान, बड़े पुरुष जगमें बलवान ॥२६॥ यह बत्र सुन बोली द्विज तब, अपनो काव्य पढ़ो तुम अबै । जो मैं ठीक अरथ कर देव, तो तुम कहा करौ हम सेव ॥३०|| तब मुरपति बोल्यो यह सोय, जो तुम काव्य प्ररथ शुभ होय । तो तुमरो मैं शिष्य प्रमान, तुम हो मेरे गुरु परधान ।।३१११ गौतम तने पंचशत शिष्य, सौ बोले इमि कहैं भविष्य । भो गुरु ! यह वादी है कोय, मेरे वचन मन दृढ़ सोय ।।३२।।
उज्ज्वल प्रकाश छिटक रहा था । और छत्र दण्डमें भी अनेक बहुमूल्य रत्न जड़ हुए थे । रत्नोंसे युक्त छत्रकी शोभा इतनो विशेष थी कि उसके सामने चन्द्रमाकी भी किरणे कुछ फीकी सी जान पड़ती थी। क्षीर समुद्रके उज्ज्वल जलके एकदम श्वेत चौसठ चमरों को हाथ में लेकर यक्ष लोग दुला रहे थे । वे बाह्य एवं पाभ्यन्तर शोभा से मुक्ति रूपिणी स्त्री के अनन्यतम बर जान पड़ते थे। इसी समय मेघ के समान गम्भीर ध्वनि करने वाले साढ़े बारह करोड़ बाजों को देवों ने जोर जोरसे बजाना प्रारम्भ किया। उन वाद्योंका तुमुलरव ऐसा जान पड़ता था मानौ कर्मरूपी महा शत्रुओं को ललकारते हुए अपने नाना प्रकार के शब्दों से भव्यों के सामने जिनोत्सव को प्रकट कर रहे हों । अत्यन्त उज्ज्वल और दिव्य औदारिक शरीर से निकलता हुआ देदीप्यमान प्रभा-पूज करोड़ों सूर्य की रश्मिराशि से भी अधिक प्रखर था। वह प्रकाश मण्डल सब पापियों के नेत्रों को प्रिय था और उज्ज्वल यश का एक समष्टि भूत रूप था । वह सम्पूर्ण बाधाओं को दूर करने वाला और तेज का अक्षयकोश था। जिनेन्द्र श्री महावीर स्वामी के मुख से नित्यशः जो दिव्य ध्वनि निकला करती थी वह सबका कल्याण एवं हित करने वाली होती थी। वह अलौकिक वाणी तत्त्व स्वरूप एवं धर्म स्वरूप को विशद प्रकार से बताने वाली थी। जिस प्रकार मेघों का बरसाया हुआ जल पहले एक ही रहता है और फिर पात्रभेदसे नाना नाम एवं रूप कायमें बदल जाता है उसी तरह प्रभुकी दिव्य ध्वनि भी प्रथम अनक्षरी एक रूप ही निकलती है और बाद में अनेक देशों में उत्पन्न मनुष्य, देव एवं पशुओं की अक्षरमयी अनेक भाषा में संदेहों को दूर कर देने वाले धर्म का उपदेश करने वाली हो जाती है।
रत्न त्रि-पीठके ऊपर सिंहासनारूढ़ श्रीमहावीर प्रभु धर्मराज के समान जान पड़ते थे। वे महान एवं अलौकिक आठ प्रतिहार्यों से अलंकृत होकर सभामण्डप में विराजमान थे और उनकी अतुलनीय शोभा अवर्णनीय थी 1 महावीर प्रभुको पूर्व
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एक काव्य हम कहैं प्रतक्ष, तिनको अरथ कर ये दक्ष । तो ये हो हमरे गुरु होय, हम इनके सेवक पद जोय ॥३३॥ तवहि इन्द्र वोल्यो इम बैन, शांतरूप हो घर मन चैन । जो एतो बुधि हमरो होइ, तो गौतम के पद किम जोह ॥३४॥ तुम पुर बालक हो मद भरे, विनय न जानो मन अनि खरे। तब गौतम शिष्यनि वरजियौ, हरको समाधान कर हियौ ॥३॥ बद्ध वित्र तुम हम वच सुनी. अपनो काव्य जथा प्रति भनौं । नव सुरपति मन मनहि विचार, काल्यादिक पढ़ि गुणधार ||३६॥
उक्तं च काव्यम् काल्यं द्रव्यपटक नवपद सहितं, जीव पट काय लेश्या: । पंचान्ये चास्ति काया, व्रतसमितिगतिज्ञानचारित्रभेदाः ।। इत्येतन्मोक्षमल त्रिभवनमाहितः, प्रोक्तमहभिरीमैः । प्रत्येति श्रद्धधाति स्पृशति च मतिमान् यः सर्व शुद्ध ष्टिः ।।
चौपाई
काव्य रूप गौतम जब देख, अति अचम्म मनही में पेख । मान भंग मेरौ अब भयो, काव्य अर्थ कर विकलप लयौ ॥३७।। दर काव्य कहो यह देव, इत्य प्ररथ धारै नहि भेव । काल्यं यह अर्थ अपार, तीन काल दिन मांहि विचार ।।३।। तीन काल इक वर्य मंभार, भूत भविष्यत वर्तनहार । षट द्रव्यहि कि कहिये भाख, कौन ग्रन्थ की दोज साख ॥३६॥ कहा सकल गति कहिये भेद, अरु तिनके लक्षण कर खेद । पादारथ व त पूर्वक घने, ताको भेद कहत नहि बने ।।४०।। विश्व कौन कहिये अवभास, तीन लोक अरु पूर्ण प्रकास । पंचास्तिकाय कहिये किम भास, कौन पत्रव्रत को समझास ॥४१॥ पंच समिति पुन कहिसौ कहाँ, पत्र ज्ञान सो क्यों सरदहीं। सप्त तत्व कहिय बयों भेद, धर्म कौन विधि है बहु खेद ॥४२॥ सिद्धि निरूप वरण को सके, मारग विधि अनेक कहि थके। कौन सरूप कहन की नाहि, किहि को भेद मनेक लखाहि ॥४३॥ तास जनित फल कहिये कौन, पट्कायी जीवन बह जीन । षटलेश्याकी अधिकी रीत, श्रुतज्ञानकी है मो भीत ॥४४॥ इहि प्रकार लख नहि जब जान, मनमें गौतम भय तब मान । जो कहूं अर्थ संभव नाहि, तो मुहि मान जाय छिन माहि ॥४॥ वीरनाथ सर्वज्ञ सुजान, विश्व तत्वक वेदक दान । तिनकर कथित काव्य गभीर, तास अर्थको समरथ धीर ॥४॥ यह द्विज सौं जो कीजे वाद, हार जाते होय विषाद । बुध सामान्य याहिको जान, मानभंग ही लही निदान ॥४७॥ अवहि चलो बने उन पास, वादविवाद करै नहिं हास । वे त्रिलोक स्वामी जिनराज, तिन समीप आवै नहि लाज ॥४८।।
दिशा से लेकर सभामण्डप के प्रथम कोष्ठ पर्यंत अनेक गणधर एवं मुनीश्वर क्रमबद्ध होकर बैठे हये थे। दूसरे परकोष्ठ में प्रजिका कल्पवासिनी इन्द्राणी इत्यादि देवियों बैठी हुई थी, तीसरे परकोष्ठ में धाविकाएँ थी चौथे में ज्योतिषी देवों की देवियां बैठी हुई थीं पांचबे में व्यन्तरों की देवियां, छठ में प्रसाद निवासियों की पद्मावती इत्यादि देवियां, सातवे में भवन निवासी धरणन्द्र इत्यादि देव. प्राठवमें इन्द्रों से युक्त व्यन्तर देव, नवमें इन्द्रों से युक्त चन्द्र-सूर्य इत्यादि ज्योतिषी देव दशवें में कल्पनिबासी देव, ग्यारहवे में विद्याधर एवम् मनुष्य इत्यादि और बारहवें परकोष्ठ में सिंह, हरिण इत्यादि तिर्यच बैठे हुए थे । इस प्रकार बारहों सभा मण्डप के प्रकोष्ठों में जीव सम्ह श्रेणिबद्ध होकर पृथक्-पृथक् त्रिलोक के गुरु महावीर प्रभु के सामने हाथ जोड़े हए बिनम्र भाव से प्रभके उपदेश रूपी अमत को पीकर पापाग्नि के सन्ताप को शान्त करने की इच्छा से बैठे हुए थे। सभा मण्डप में उन सम्पूर्ण जीव समूहों से दिसा जगत्पति श्रीमहावीर प्रभू धर्मात्मानों के बीच में साक्षात् धर्म-मूतिके समान विराजमान थे और उनके अलौकिक प्राकर्षण से सभी लोग प्रभावित थे । . . इसके बाद बेबोंसे युक्त इन्द्र धर्मरूपी उत्तम रस प्राप्तिकी इच्छा से अत्यन्त विनम्र रूप से जय जयकार करने लगे और प्रभु के सभा-मण्डप की तीन बार प्रदक्षिणा करके श्रद्धाभक्ति पूर्वक उन जगद्गुरु भगवान के दर्शन की इच्छा से सभा-मण्डप में प्रविष्ट द। वह समवशरण भूमि भव्य जीवों के लिए शरणस्वरूप थी। वहां पर पहुंच जाने के बाद इन्द्रादि देवों ने मानस्तम्भ महान चैत्य वक्ष एवं अन्य स्तूपों में प्रतिविम्बिब जिनेन्द्र और अनेक श्रेष्ठ सिद्ध पुरुषोंकी मूर्तियों का पवित्र प्रासक जल इत्यादि पूजा
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इन्द्रभूति पाहाण अपने शिष्यो के साथ समवशरण में जा रह है।
मालम्तम्भ को देखने हो गौतम का मान गलत हो गया।
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इन्द्रभूति ब्राह्मण अपने शिष्यों के माय ममवशरण में जाने हये।
समवशरण में पहुंचते ही इन्द्रभूति गाह्मण का मान स्तम्भ को देखकर मान गलित होना ।
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ages ज्ञान भंडार सब जग जाने तिन गुण मार हार जीत शोभा और मान भंग नहि हु है मोर ॥४१॥
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इह प्रकार मन- मांहि विचार, विप्रहि प्रति वच ये उच्चार। या कहि अपनी सभा महार, शिष्य पंच सहित सिपार गौमत के भ्राता है और बावुभूति अग्निभूति ठौर क्रम कम पथ चालें गुणवंत, तह मनमें विकलप जु करंत यह चिंता कर कंप्यो गात समाधान फिर कौनौ भ्रात तौलों समोशरण यह रंग दीठपी मानयंम उसंग भये भाव शुभ सुखको धाम प्रति कोमल मार्दव परनाम
तुम सो काव्य अर्थ नहि कहौं, तुमरे गुरु प्रति उत्तर नहीं ||५०|| चारों भ्रांत संग मद गोर, पाले सम्मति प्रभु की ओर ।। ५१ ।। पंच पंचसे शिहि भाव तीनों द्विज कोविद अधिकाय ।। ५२ ।। द्विज आगे हम अर्थ न लहै, सो गुरु निकट सु किम हम कहैं ।।५३ || वर्धमान के पद जोय, हानि वृद्धि हमको नहि होय || ५४||
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I
गलित भई चिन्ता जसगार मान हार भयो सुरार ॥ ११॥ कीनों तहां प्रवेशज पाय दिव्य विभूति देस द्विजराव ।। ५६ ।।
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दोहा
श्री शिवपते पहा न पापति होय गौतम मिथ्या मत बो थियो सुधारस सोय ।। ५७|| । बम्यो, द्विज गौतम प्रभु गुण गरुन, सिंहासन पर देखि चार ज्ञान झलकं तुरत क्यों दर्पण मुख देखि ॥५८॥ तीन प्रदक्षिण दे प्रभुहि निज कर मस्तक धार 1 चरण कमलको प्रणमि कर, आष्ट अंग भूवि भार ||५६|| भक्तिसहित प्रस्तुति करो, तुम जग गुरुगण पाठ। सार्थनाम भूषित सदा सहस एक प्ररु ग्राठ ॥ ६० ॥
चौपाई
I
धर्मराज तुम चत्री धर्म, धर्मी महाधर्म किय धर्म धर्म तीर्थ अरु कर्ता धर्म, धर्म वेद उपदेशक धर्म ॥ ६१॥ धर्म करावन धर्म सहित स्वामी धर्म धर्म वित नित । धर्म अराधित धर्म सु ईश धर्म मेंड बंधन धर्मेश ॥ ६२ ॥
द्रव्योंसे भक्ति पूर्वक पूजन किया। देवोंके द्वारा अत्यन्त उत्तमपूर्वक रची गई समवशरण रचना को देखकर इन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और देवों के परकोष्ठ में प्रविष्ट हुए। उस ऐश्वर्यशाली सभा मण्डप में उत्तम स्थान पर रखे हुए श्रेष्ठ सिहासन पर विराजमान कोटि कोटि गुणों से युक्त एवं परम तेजस्वी चतं मुख श्रीमहावीर प्रभुको इन्द्रने निनिमेष नेत्रोंसे देखा । तदनन्तर देवताओंके साथ इन्द्रने श्रद्धा पूर्वक घुटनों को टेककर कर्म विनाशके लिये प्रभुको नमस्कार किया। साथ ही अनेक अप्सराओं के सहित इन्द्राणी प्रादिदेवियोंने भी प्रसन्नता पूर्वक त्रिलोकपति महावीर प्रभुको नमस्कार किया जब देवोंके साथ इन्द्रादिने प्रभुको प्रणाम किया तथ उनके मुकुटकी मणियों की प्रभा प्रभुके चरण कमलों पर पड़ी और इस विचित्र मामा के स्पर्शसे उनके चरण अत्यन्त शोभायमान हुए प्रभु गुणों पर परत होकर इन्द्रादि देव अनेक उत्तम एवं लोकिक पूजा द्रव्योंसे पूजा करनेके लिए प्रस्तुत हुए। एक दीयमानमर्ण कलमको टोंटी निर्मल जल धाराको प्रभुके पवित्र चरणों पर गिराने तवे और इस तरह अपने पापों की वृद्धि करने में प्रवृत हुए। पाद प्रक्षालन कर चुकने के बाद इन्द्र ने उत्कट भक्ति के बीभूत होकर स्वर्गीय गुगन्ध युक्त घिसे हुए बन्दनसे भगवान के दिव्या सिंहासन का भयभाग का भोग एवं मोक्ष प्राप्तिके निमित्त पूजन किया। पाकाश मण्डलको अपनी किरणों से श्वेत कर देने वाले दिव्य मोतियों के अक्षत पुंजको अक्षय मुखकी प्राप्तिकी कामनाने प्रभु भागे चढ़ाया और कल्पवृक्षसे उत्पन्न स्वर्गीय पुष्पों को चढ़ाकर इन्द्रोंने सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाली पूजा की । रत्ननिर्मित थाली में अमृत पिण्ड से बनाये गये नवेद्य पदार्थों को इन्द्रने प्रभु के सम्मुख उपस्थित किया और अपने सुख एवं कल्याण की कामना की। उन्होंने अन्धकारको दूर कर देने वाले रत्नमय दीपकों को भी ज्ञान प्राप्तिको इच्छा प्रभुके आगे रखा कृष्ण अगर सादि अनेक उत्तम सुगन्धित द्रव्योंसे बनाई हुई पतियोंसे इन्द्र धर्म प्राप्तिके लिये प्रभु के चरण कमलोंकी पूजा की धूपके पूए से दसों दिशाएं सुर भिमय हो उठीं। इसके बाद कल्पवृक्ष यादि सुर तरुयोंमें उत्पन्न एवं नयनाभिराम उत्तम फलोंके द्वारा इन्द्र फल प्राप्तिको अभिलापासे प्रभुकी पूजाकी और पूजाके अन्त में असंख्यात पुष्पों की पुष्पांजलिये प्रभुके चारों और पुष्प वृष्टिकी। इसी समय इन्द्राणीने प्रभुके सम्मुख पंचरत्नोंके पूर्ण द्वारा अपने हाथों से उत्तम सांथिया बनाया।
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धर्म ज्येष्ठ धर्मातम नीत, धगं भ्रात पर धर्म गुनीत । धर्म भाग्य धर्मज्ञ सुजान, धर्माधिप धी धर्म बखात ।।६।। महा धर्म तुम महा मुदेव, महानन्द मह ईश्वर भेव । महा तेज अरु मानी महा, महापवित्र महातप लहा ॥६४।। महा ग्रातमा दानी गहा, जोगी महा महाबत लहा। महाज्ञान महाध्यानी सोय, महाकरुण मह कोविद जोय ।।६।। महाधीर महावीर सुजान, आर्य महा मह ईश बखान । महा दात महा रक्षक कह्यौ, महाशर्म माहीधर लह्यो ।।६६।। जगन्नाथ जगकरता देव, जगभर्ता जगपति गुण सेव । जगत जेष्ठ जगमान्य ज सर्व, जगतसेव्य जग नम्रता तब ।।६७।। जगत पूज्य जग स्वामी धार, जगवासी जग गुरु अविकार । जग बांधव जगजीत अपार, जगनेता जग प्रभ अवधार ।।६।। तीरथ वृत तीरथ भूतमा, तीरथ नाथ तीर्थ बित पमा । तीर्थकर तीरथ प्रातम, तीर्थ ईश तीरथ कर नमा ।।६६।। तीरथ नेत स तीरथ ज्ञान, तीर्थ हृदय तीरथ पति जान । तीर्थराज तीर्थाकित सार, बाँधव, तीर्थ, तीर्थ करतार ७०॥ तुम विश्वश विश्व तत्वज्ञ, व्यापि विश्व विश्ववित यज्ञ। विश्व अराध्य विश्व के ईश, विश्वलोक सु पितामह धीश ||७|| विश्वाग्रणी विश्व पारामा, विश्व अन्य विश्वहि पति नमा। विश्वनाथ विश्वाढ्य बखान, विश्वव्रत विश्वक्रत जान ॥७२॥ ही सर्वज्ञ सर्व लोकल टरशी सर्व. सर्व व्युत्पज्ञ । सर्व आतमा सब धर वेष, सर्वहि सर्व वुद्ध सुशर्म ||७३।। सर्व देव धिप सब लोकीश, सर्व कर्महत है जगदीश । सब विद्यावे ईश्वर पर्म, सर्व धर्मकृत सर्व सुशर्म |७४।।
पूजाकर चकनेके बाद इद्रने हाथ जोड़कर भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और मधुर स्वर में प्रभके गणोंकी स्तुति करना प्रारम्भ किया । देव, तुम सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हो। तुम्हीं गुस्नों के भी श्रेष्ठ गुरु हो, पूनियों के भी परम पूज्य हो, एवं वन्दनीयोंके वन्य हो! योगियों में सर्व श्रेष्ठ योगी हो, गणियों में उत्तम गणवान हो, और सभी धर्मात्मानोंमें परमादरणीय धर्मात्मा हो। ध्यानियों में महा ध्यानी, यतियों में बुद्धिमान यति, ज्ञानियोंमें महान ज्ञानी, और स्वामियोंके भी स्वामी तुम्ही हो । तुम जितेन्द्रिय हो । जिनों में जिनोत्तम होने के कारण ध्येय एवं स्तुत्य तुम्ही हो । दाताओं में उत्तम दानी तुम्ही हो, और हितेच्छुकोंमें परम हितेपी तुम्ही हो । संसारके भयसे त्रस्त पुरुषोंके रक्षक, शरण-हीन जीवों के शरण दाता और सम्पूर्ण कर्मजालके नाशक प्राप ही हैं । मोक्षके पथ प्रदर्शक, जगतके कल्याण का पीर बान्धव विहीन जीवों के अनन्यतम बन्धु पाप ही हैं ।
तीन लोकतो उत्तम राज्यकी इच्छाके कारण महान लोभी एवं मक्ति रूपिणी स्त्रीको अभिलाषा करने के कारण अत्यन्त रागी आप हैं। सम्यक् दर्शनादिक रत्नोंका संग्रह अापने किया है, इसलिये पाप महा परिग्रही हैं, कर्म रूपी शत्रुओंको नष्ट कर डालनेके कारण महाहिसक हैं तथा कषाय एवं इन्द्रियोंको जीत लेनेके कारण प्राप महान विजयी हैं । आप शरीरादिके विषयमें इच्छाहीन होकर भी लोगान शिखरको चाहने वाले हैं, देवियोंके मध्य में रहकर भी परम ब्रह्मचारी हैं और आप एक मुख होकर भी अतिशयके. कारण चार मुख वाले दिखायी पड़ते हैं। इस लोकमें श्रेष्ठ लक्ष्मीसे युक्त होने पर भी आप निग्रंथराज हैं, और जगद्गुरु होने के कारण अनुपमेय गुणों के प्रधान प्रापही हैं। हे देव, आज हमारा जीवन सफल हुआ और हम धन्य हुए। आपके दर्शनों के लिये हमें जो यात्रा करनी पड़ी इससे हमारे दोनों पैर कृतकृत्य हो गये । तुम्हारी पूजा करनेसे हाथ और चरण कमलोंके दर्शन करनेसे हमारे नेत्र आज सफल हो गये।
प्रणाम करने के कारण हमारा मस्तक, सेवा करनेके कारण हमारा शरीर एवं आपके गुणोंके वर्णन करने के कारण हमारी वाणो सफल एवं पवित्र हो गयी। थ आपके अनुपमेय गणोंके बिचार करने की वजह से हमारा मन भी निर्मल एवं पवित्र हो गया। हे प्रभो जब आपने असंख्य गणोंकी प्रशंसा गौतम आदि गणधर भी अच्छी तरह नहीं कर सकते तब हमारे जैसा गढ़मति भला, आपकी स्तुति क्या कर सकता है? इसलिए मैं आपकी स्तुति क्या करू' ? प्रभो, पाप अनन्त मुणवाले हैं, सर्व प्रधान है, जगदगरू हैं, आपको कोटिशः प्रणाम है। आप परमात्म स्वम्प हैं, लोकों में उत्तम है, केवल ज्ञानरूपी महा राज्यसे अलंकृत हैं, अनन्त दर्शन स्वरूप हैं अत: पापको बार बार नमस्कार है। आप अनन्त सुख रूप हैं, अनन्त बीर्य रूप हैं और तीनों जगतके भव्य जीवोंने मित्र हैं, अत: आपको पुनः पुनः नमस्कार है। आप लक्ष्मीसे बढ़े हुए हैं, सबका मंगल करने वाले हैं, अत्यन्त बुद्धिमान हैं, श्रेष्ठ योद्धा हैं, तीनों जगतके स्वामी हैं, और स्वामियोंके भी परम श्रद्धेय स्वामी हैं। आप लोकातिशय सम्पत्तिमे युक्त हैं, चमत्कार पूर्ण हैं, दिव्य देह एवं धर्मरूप हैं आपको कोटि कोटि नमस्कार है । माप धर्म-मृति हैं, धर्मोपदेशक हैं, धर्मचक्र
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दोहा
इत्यादिक तुम नाम शुभ, कहे मनोज्ञ बखान । सो वांछा नामावली, दोर्ज मुहि गुण खान ।।७।।
चौपाई भो प्रभु । तुम प्रतिबिम्ब सु थान; कृत्रिम और अकृत्रिम जान । हेम रतनमय त्रय जग माहि, नमौं चरण अघ मुल नशाहि ।।७।। तुम प्रतिमा भो जिनवर देव, जे पूजै थुतिकार नित सेव । भक्ति सहित प्रनमैं शिरनाय, ते त्रिलोक अधिपति पद पाय ।।७।। तुम प्रतच्छ पाय भो देव, पूजा थुति नुति कर नित सेव । निश दिन जो प्रनमैं तुम पाय, लहि असंख्य फल कही न जाय ।।७।। तुम तन निरुपम राजत सार, तीन जगत जन प्रिय करतार । कोटि भानुते द्युति अति होय, व्यापित भई दशों दिश सोय 11७६।। हे प्रभु ! दीपति समित सरूप, विक्रिय रहित चतुर्मुख रूप । अन्त रहित गुण निरमल शोध, वाणी खिरै सभा संबोध ।।८०॥ तुमरै चरण पर जिहि थान, सोई सफल भूमि परवान । जगमें तोरथ उत्तम सोय, वंदनीक मुनि सुर नर होय ॥८१।। गर्भजन्म दीक्षा कल्यान, जहां होय प्रभू निर्मल थान । पूजनोक सो क्षेत्र पवित्र, तोरथ जगत परममें मित्र ||२|| केवल ज्ञान अनन्त प्रकाश, विश्व द्वीप उद्योतहि जास । लोकालोक जु व्यापित लही, अरु भन्यनि प्रति मुखत कहौं ।।३।। तुम प्रभु तीन जगत के स्वामि, सर्व तत्व वेदित शिवगामि । विश्व व्याप्त जगनायक देव, प्रनमै पद मुर असुर ज सेव ॥४॥
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के प्रवर्तक है, अतएव हम अापको पुनः पुनः नमस्कार करते हैं। हे नाथ, इस प्रकार श्रद्धा भक्ति पूर्वक को गयो पापको स्तुति और नमस्कार से पाप हम पर प्रसन्न हों और प्रापको समस्त गुण-राशि हमें प्राप्त हों और कर्म शत्रुओं का नाश करें साथ हो समाधिमरण रूपी श्रेष्ठ मृत्युको भी प्रदान कर।
इस प्रकार देवोंके सहित इन्द्र श्रीमहावीर प्रभुको स्तुति, नमस्कार एवं भक्ति पूर्वक इष्ट प्रार्थना करके धर्मोपदेश सनने के लिए अपने-अपने प्रकोष्ठ में बैठ गये तथा अन्य भव्य एवं देवियों भो कल्याण कामना से हित प्राप्ति के लिय जिनेन्द्र प्रभ के सामने बैठ गयीं।
जब इन्द्र ने देखा कि बारह प्रकार के जीव समूह उत्तम धर्म सुनने को इच्छासे अपने-अपने प्रकोष्ठ में बैठे हए हैं और तीन प्रहरका समय व्यतीत हो जाने पर भी ग्रहंतको ध्वनि नहीं निकल रही है तब उसने विचार किया कि किस कारण ऐसा हो रहा है? ध्वनि में कौन-सो बाधा उपस्थित हो गयी है ? जान पड़ता है अवधि ज्ञान के प्रभाव से कोई भी मनोश्वर गणधर पद के उपयक्त नहीं है। ऐसा सोचकर इन्द्र पुनः सोचने लगा कि कैसी आश्चर्य की बात है कि इन बहसंख्यक मनोगों में कोर्ट या सयोग्य मनीन्द्र नहीं है, जो प्रभुके मुखसे वहिर्भुत रहस्य पदार्थों को सुनकर गणधर हो जाय और सम्पूर्ण द्वादशांग शास्त्र को रचनामें कृतकार्य हो सके।
इसके बाद इन्द्र को ज्ञात हुमा कि इसो नगर में गीतम-कुल-भूषण गीतम नामका श्रेष्ठ ब्राहाण है और वह गणधर होने के योग्य है। ऐसा विदित हो जाने पर वह सीधर्मेन्द्र परम प्रसन्न हया और उस द्विज श्रेष्ठ गौतमको रामा-मण्डप में लाने के लिये कोई उत्तम उपाय सोचने लगा। अन्त में इन्द्र ने निश्चित किया कि वह गौतम विद्याभिमानी है यदि उसके पास ब्रह्मापुरमें जाकर गढ अर्थ वाले कुछ काव्य पूछे जाय तो जब उन गढ़ श्लोकों का अर्थ नहीं मालम होगा तब शास्त्रार्थ को इच्छासे बह स्वयं ही यहाँ आ जायगा । ऐसा सोचकर बुद्धिमान इन्द्र बृद्ध ब्राह्मण बन गया और हाथ में लाठी देकना हा गोतम ब्राहाण के पास जा पहुंचा और गौतमसे कहा कि ब्राह्मण, तुम तो बहुत विद्वान् जान पड़ते हो, तुम्हारे सदश दसरा कोई विद्वान यहां नहीं दिखायी पड़ता। मेरे गुरु श्री महावीर इस समय मौन धारण किये हुए हैं, इसलिए एक काव्यके अर्थको पूछने के लिए मैं तुम्हारे पास विद्वान् जानकर आया हूं, विचार कर कहो। इस काव्य के वास्तविक अर्थको समझने में मेरा जीविकाका निर्वाह होगा, कितने ही भव्य-पुरुषोंका उपकार होगा और पार भी यश के भाजन होंगे। छद्मवेषी इन्द्र के वचन को सनकर विद्वान . ब्राह्मण गौतमने कहा कि ऐ वृद्ध, यदि मैं तेरे काव्यका उचित अथं शीघ्र हो कर दें, तो इसकी प्रतिक्रिया में क्या करेगा ? म . बातके उत्तरमें इन्द्र ने कहा यदि मेरे काव्यको समुचित व्याख्या तुम कर दोगे तो मैं विधि पूर्वक तुम्हारा शिष्यत्व (चेलापन)
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केवल दर्शन व्यापित भयो, अन्नातीत जगन्नुत जयौ । लोकालोक देख निज नैव, भाव सकल प्रजापति जैन || ८५ ॥
तुम अनन्त वीरज भगवान, अन्त रहित को है सुख अनन्त प्रभु प्राप्त भयो, निराबाध तन निर्मल जे दुख विषय हृते जगमांहि, सो तुमको प्रतिशय भय इत्यादिक तुम गुण अधिकार, युजन वरन न पा भो प्रभु ! नमी जोर जुन पान, नमो दिव्य मूरति गुन नमो दोपहरता जिनदेव, नम जगत वांधव कर सेव नम विश्व वारणादिक ईस नमो विश्वमूरति जगदीश
प्रवान सफल दोष कर रहित जु ठए, उपमातीत विराजन भए || ६ || ठयो । नर सुर असुर प्रगट नहि होय, सो समर्थ अक्षय तुम जोय ॥ ८७॥ नाँहि । अरु प्रतिहार्ये जु प्रष्ट सहीत, सो हैं प्रभु तन परम प्रवीत || || पार तुम स्तुति जु कथा में कही हो अशक्य उपमा नहि नहीं जिन सर्वज्ञ नम शिर नाथ, नमों अनन्त गुननके राय ॥१०॥ मंगलमूत नमों पद दोष, लोकोत्तम प्रनमो पुन सोय ॥१॥ प्रथम वर्तमान जिनराय नमो वोर स्वामि गुन गाय ॥६२॥
भान
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स्वीकार कर लूंगा 1 परन्तु यदि तुम यथार्थ भाव नहीं बतला सके तो ? इन्द्रको बात सुनकर उस गौतम ब्राह्मणने उत्तर दिया ऐ वृद्ध पुरुष, तो मैं प्रतिशा करता हूं कि तुम्हारे काव्यका यदि मैं उचित व्याख्यान नहीं कर पाऊं तो इस पांच सो को शिष्य मण्डली एवं अपने दोनों भाइयों के साथ में भी अपने जगत्प्रसिद्ध एवं वेद प्रतिपादित सनातन मतको छोड़कर तुम्हारे गुरुका शिष्य बन जाऊंगा। मेरी प्रतिज्ञा कभी असत्य नहीं हो सकती। फिर मेरे वचन के दो साक्षी भी तो हैं। यह इस नगरके स्वामी हैं और यह कश्यप नामका ब्राह्मण है। गौतमकी बात सुनकर उन दोनोंने कहा कि ठीक है, कदाचित् मेरा गर्व भी चलायमान हो सकता है परन्तु इस विद्वान् ब्राह्मणले सत्य वचन तुम्हारे श्री महावीर प्रभुकी ही तरह अटल हैं। जब दोनों ही परस्पर वचन बद्ध हो चुके और अन्य प्रकार की भी कितनी हो बातें हो गयीं तब इन्द्रने गम्भीर स्वर में निम्नलिखित काव्य
कहा --
"काल्यं द्रव्यष्टकं सकल गतिगणा सत्पदार्था नर्नव विश्वं पंचास्ति काया व्रत सिमिति चिदः सप्ततत्वानि धर्माः । सिद्धेर्मार्गः स्वरूपं विधि जनित फार जीवषट्काव लेश्या, एतान् यः श्रद्धधाति जिन बचन रतो मुक्तिगांभीरु भव्यः ॥ १ ॥
इस इन्द्रके कहे हुए काव्यको सुनकर विद्वान् गौतम आश्चर्य चकित हो गया। श्लोक का कुछ भी अयं उसकी समझ नहीं श्राया । प्रतिष्ठा भंग के खयाल से ग्रह मनमें ही तर्क-वितर्क करने लगा यह काव्य तो बहुत हो कठिन है कुछ समझ ही नहीं आता । दलोक में 'जैकाल्यम् शब्द है तो तीन काल कौन-कौन से हो सकते हैं ? इस त्रिकालमें उत्पन्न सभी वस्तुओं को जाने वही सर्वज्ञ है और वही इस काव्यका ज्ञाता भी है। मैं भला क्या जानू ? 'पटक' में छः द्रव्य कौन-कौन है? 'सकल गति गणाः' से सम्पूर्ण गतियां फोन कोनसी हैं ? उनका स्वरूप क्या है? सत्पदानव में उत्तम नव पदार्थ कौन-फोनसे हैं। इसके पूर्व तो मैंने नव पदार्थों के विषय में कुछभी नहीं सुना । 'विश्व क्या है ? यह सब विश्व ही तो है ? या तीनों लोक विश्व हैं। कुछ निश्चय नहीं है। पंचास्ति काया' में पांच प्रास्तिकाय क्या है ? अत समिति चिदः' में व्रत क्या है। समिति किसे कहते हैं ? ज्ञानका क्या स्वरूप है ? इन सबका फल क्या है। और 'सप्त तत्वानि' में सात तत्व कोन कोनसे हैं ? 'धर्माः में धर्म क्या है ? 'सिद्धेर्मार्ग में सिद्ध अथवा कार्य निप्पत्ति क्या है? उसका मार्ग क्या है? एक ना अनेक मार्ग है? 'स्वरूप' में स्वरूप क्या है ? 'विधि जनित फल' में विधि क्या है ? उससे उत्पन्न फल क्या है ? 'जोत्र पट्काम लेश्या' में छः प्रकारके जीव निकाय कौन-कौनसे हैं ? छः लेश्या क्या हैं? इन सब बातों को तो मैंने कभी नहीं सुना। फिर इन सबका लक्षण एवं स्वरूप में क्या जानूं ? ये बात तो हमारे वेद एवं स्मृति ग्रन्थों में कहीं नहीं हैं। उफ् ! इन छोटेसे काव्य में तो सब सिद्धान्त ही भरे पड़े है। यह बुडा तो सिद्धान्त समुद्रका सारा रहस्य ही हमसे काव्य के बहाने पूछ रहा है। में स्वीकार करता हूं कि, इस छोटेसे काव्यका गूढार्थ उस सर्वज्ञ एवं उसके सुयोग्य शिष्यके सिवा दूसरा कोई कदापि नहीं कह सकता है । यदि मैं इस बुढ़ेको अर्थ नहीं बनाता तो प्रतिष्ठा घटती है। इसलिए इसके गुरुसे ही शास्त्रार्थ करना चाहिए। ऐसा सोचकर गौतम ब्राह्मणने इन्द्रसे कहा- मैं इस विषय में तुमसे विवाद न कर तुम्हारे गुरु से ही शास्त्रार्थ करूंगा। ऐसा कहकर काल लब्धि ( उत्तम भवितव्यता) के वशीभूत होकर गोतम चित्र अपने पांच सौ शिष्यों एवं दोनों भाइयोंके साथ श्रीमहावीर प्रभु सभा मण्डपमें जाकर वाद करने के लिए घर से निकल पड़ा ।
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प्रनमी सन्मति मति दातार, नमौं विश्व हित करता सार । नमौं त्रिजग गुरू चरण महेश, नमौं नंन गुण वारिधि तेश ।।६।। यहि विधि तुब अस्तबन बखान, कीनों भक्ति राग उर आन । तुम सुखदायक श्रीपति सेव, जाच तीन लोक भवि जीव ।।१४|| एक जनम सुख कैतिक कह्यौ, सदा शासतौ पद तुम लह्यो । सुख अनन्त प्रापत भए श्राय, तीन जगत जिय प्रणमैं पाय ।।६५||
गीतिका छन्द
त्रिदशपति तुम चरण पूजय, धर्म तीरथ उद्धरै। वर्म अरि जब नाश कीनौं, सुभट पद तब मद्धरै ।। तुम प्रवीण त्रिलोक करता, गुणन निधि कर लेखिये । संसारसागर स्लत जे जिय, तुम जहाज विशेखिये ।।६।। ज्ञान दर्शन रतन पायौ, विबुध पति सेवा करें। कुमति शत्रु निवारक, प्रभु धर्म मारगको धरें। कह्यो गौतम स्तवन जिनबर चरण कमलनिको नयौ । 'नवल' इमि कर जोर विनव, भक्ति तब भव भव लयौ ॥१७||
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वह बुद्धिमान गौतम ब्राह्मण मार्ग में जाते हुए सोचता था कि जब यह वृद्ध ब्राह्मण ही दुर्जेय है तब इसका गुरु तो और भी महा असाध्य होगा। अस्तु चलना ही चाहिये । उस महापुरुष के संसर्ग रो अच्छा ही होगा, हानि क्या होगी? ऐसा विचारता हआ वह पुण्योदयसे संसारको पाश्चर्य चकित कर देने वाले अत्यन्त उन्नत मानस्तम्भको देखा। उस मानस्तम्भके दर्शन से गौतम की मान-लिप्सा इस तरह नष्ट हो गयी जिस तरह वज्रपात से पर्वत श्रेणियाँ सहसा विभक्त होकर नष्टभ्रष्ट हो जाती हैं। शुभमदु परिणाम प्रादुर्भूत हुआ। इसके बाद उस गौतम ब्राह्मण ने अति विशुद्ध परिणामोंसे युक्त होकर सभामण्डपको विपुल विभूतियोंको देखा और पाश्चर्य चकित होकर वह उस अलौकिक सभा मण्डप में प्रविष्ट हया। जब सभामण्डप में प्रविष्ट होकर उस उत्तम विप्रने प्रभुको अनेक ऋद्धियों एवं जीव समूहोंसे घिरे हुए रत्न सिंहासन पर बैठे देखा तब वह अनुरक्तिसे अभिभूत हो गया और भक्ति पूर्वक जगत्गुरु महावीर प्रभुकी तीन प्रदक्षिणा देकर बादमें प्रणाम किया। फिर अंजलिबद्ध होकर अपनी सिद्धि के लिये प्रभु के सार्थक नामों से स्तुति करने लगा-हे भगवान्, तुम जगत के स्वामी हो, एक हजार पाठ नामों से अलकृत होने पर भी नाम-रूपी कर्मके नाशक हो । सम्पूर्ण प्रोंका ज्ञाता बुद्धिमान् पुरुष यदि आपके एक ही नामसे विशुद्ध अन्तःकरण होकर नापको स्तुति करता है तो वह भी आपके ही समान गुणोंने युक्त होकर शीघ्र ही आपके सम्पूर्ण नामों को और उनके फलों को पा सकता है। इसलिये हे प्रभो, मैं अापके एक सौ आठ सुन्दर नामों से श्रद्धाभक्ति पूर्वक प्रापकी स्तुति करता हूँ।
हेगवान, पाप धर्मराजा, धर्मचक्री, धर्मा, धर्मग्रणी; धर्मतीर्थ-प्रवर्तक, धमन्ता, और धर्मेश्वर हैं। तथा धर्मकर्ता, सधर्मात्य धर्मस्वामी, सुधर्मवित, धर्माराध्य, धर्मीश, धर्मीत्य, धर्मबान्धव, धमि-ज्येष्ठ, अतिधर्मात्मा, धर्मभा सधर्मभाक, धर्मभागी, सूधर्मज्ञ धर्मराज, अतिधर्मधीर; महाधर्मी, महादेव, महानाद, महेश्वर, महातेजा, महामान्य महापूत, महातया, महात्मा- महादान्त, महायोगी, महाव्रती और महायानी हैं एव महाज्ञानी' महाकासविक, महान्, महाधोर. महायोर, महाढ़िय महेशिता, महादाता, महात्रांता, महाकर्मा, महीधर, जगन्नाथ, जगद्भर्ता, जगत्कर्ता, जगत्पति, जगज्येष्ठ, जगन्मान्य, जगत्सेव्य, जगन्नुत, जगत्पूज्य, जगत्स्वामी, जगदीश, जगद्गुरु, जगद्वन्ध, जगज्जेता. जगन्नेता, जगत्प्रभु, तीर्थकृत, तीर्थभूतात्मा, तीर्थनाथ, सतीथंचित तीर्थङ्कर, सतात्मिा , तीथश, तीर्थकारक, तीथनेता, सुतीर्थह्य, तीर्थनायक, तीर्थराज, सता तीर्थ मन तीर्थकारण, विश्वज्ञ, विश्वतत्वज्ञ, विश्वव्यापी, विश्वविद्, विदवाराध्य, विश्वेष, विश्वलोकपितामह, विश्वासणी, विश्वात्मा, विश्वार्य, विश्वनायक, विश्वनाथ, विश्वे डय, विश्वधुत, विश्वधर्मकृत, सर्वज्ञ, सर्वलोकज, सर्वदर्शी, सर्ववित्, सर्वात्मा; सर्वधर्मन, सार्व सर्वधाग्रणी, सर्वदेवाधित. सर्वलोकेश, सर्वक महत् सर्वबिधेयर, सर्वशर्मकृत सर्वशर्मभाक पाप ही हैं।
हे त्रिजगत्पति, इन पूर्वोक्त अष्टोत्तरशत (१०८) नामों से मैंने आपकी स्तुति की। पाप हमारे ऊपर दया करें और अपने समान बनावं । हे दब, तीनों लोक में स्वर्ण एवं रत्नोंकी जितनी भी कृत्रिम आकृत्रिम मापनी प्रतिमाए हैं। उन सवकी सदैव में स्तति, पूजा एवं स्मरण किया करता हूं । हे प्रभो, जो नाणी भक्ति पूर्वक यापकी पूजा, स्तुति एवं नमस्कार किया करते
त्रिलोकी के स्वामी हो जाते हैं। जो कि साक्षात् परिमुति आपकी ही रतुति पूजा एवं नमस्कार किया करते और प्रहनिस सेवा किया करते हैं उन भव्य श्रेष्ठोंको कितना अधिक फल मिलता होगा इसकी गणना में नहीं बता सकता । हे नाथ, इस लोकमें जितने भी श्रेष्ठ एवं स्निग्ध परमाणु पुंज हैं उनको सर्वात्मा एकत्र करके ही प्रापके प्रलौकिक सुन्दर शरीर का निर्माण
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दोहा
इत्यादिक प्रभु प्रस्तवन, पूजा वसुविष घार। निज कोठा में थिर भये सन्मुख जिनहि निहार MEET
चौपाई अब श्री गौतम प्रश्न करेव, प्रभुको फेर नमीं कर सेव । भी स्वामी तुम जगत महेश, कहिये सभा धर्म उपदेश' ||हा जीब तत्व कहिले प्रभु प्रादि, ताके लक्षण कहा अनादि । कहा अवस्था कहिये सोय, गुण अरु भेद बतानो दोय ।।१०।।
हया है । आपका यह उत्तम शरीर सम्पूर्ण जगत्को अत्यन्त प्रिय है और कोटि सूर्य के बराबर तेजज के प्रकाश से सकल दिशामों को आलोकित किया करता है। यह आप का देदीप्यमान मुख मण्डल निर्विकार एवं साम्ब सूचक होकर मनकी अत्यन्त प्रान्तरिक विशद्धिको बतला रहा है। हे जगद्गुरो इस पृथ्वी के जिस जिस स्थान पर आपने अपना चरणारविन्द रखा है, वे सब संसारके पवित्र तीर्थ स्थान हो गये हैं और सदैव उस स्थानकी मनि-देव लोग बन्दना किया करते हैं। इसी तरह हे नाथ, जिन क्षेत्रों में अापके जन्म कल्याणोत्सब मनाये गये है वे सब अति पवित्र एवं श्रद्धास्पद तीर्थ स्थान हो गये हैं। देश काल धन्य हैं
१. बीर-उपदेश "I request you to understand the teachings of Lord Mahavira, think over them and translate them into action"
-Father of the Nation, Shri Mahatma Gandhi.
"जिस प्रकार वृक्षा के समूह को बन, सिपाहियों के समूह को फौज और रत्री-पुरुषों के समूह को भीड़ कहते हैं, उसी प्रकार जीव और अजीव के समुह को संसार अथवा जगन (universe) कहते है। अजीव के पुद्गल, धर्म, अधर्म, वाल, आकाश पाँच भेद हैं । इसलिये जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, आकाश इन छः द्रव्यों (Substances) के समूह से 'जगत्' कोई भिन्न पदार्थ नहीं है।
मत्यु से आत्मा की पर्यात (शरीर) का परिवर्तन होता है, आत्मा नष्ट नहीं होनी । कर्मानुसार दूसग चोला बदल लेती है। जैसे सोने का कड़ा तुड़वाकर हार बनवाया, हार तुड़वाकर उली बनबाई, कहा और हार की अवस्था को बदल गई परन्तु द्रव्य की अपेक्षा से सोने का नाम नहीं हआ। तीनों अवस्यायों में सोना मौजद रहा, वैसे ही द्रव्य की अवस्था चाहे बदल जाये, परन्तु किसी गध का नाश नहीं होता और जब द्रव्य नित्य और अनादि है तो द्रव्यों का समूह यह जगत मी अनादि और अधिम है।
संसार में यह जीव वार्मानुमार भ्रमण कर रहा है। अनन्तानंत वर्षों गब यह मिगोद में रहा जहां एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण के महा दाख सहे। जिस प्रकार एम भड़पूजे की भट्टी में कोई दाना किसी प्रकार तिड़पाकर बाहर निकल पड़ता है उसी प्रकार बड़ी कठिनाईयों से यह जीव निगार से निकला तो एकइन्द्रीय स्थावर, जीब' हुथा। जैसे चिन्तामणी रत्न बड़ी कठिनाई रो मिलता है उसी प्रकार अस जीवों का शरीर पामा बड़ा दुर्लभ है। इस जीव ने कीड़ी, भौना, भिगइ. गादि शरीरों को बार-बार धारण करने महा दुल राहा। कभी यह विना मन का पशु हआ। कभी मन सहित शक्तिशाली सिंह, भौंरा आदि पाँच इन्द्रिय पशु हुअा। तब भी उसने कमजोर पशुओं को मार-मारकर खाया और हिंसा के पाप-फल को भोगता रहा और जब यह जीत्र स्वत्र निर्बल हुभा तो अपने से प्रवल जीवों द्वारा बांधे जान, छेदा जाने भेदा जाने, मारा पीटा जाने, अति वोझ उठाने तथा भू-प्यास आदि के ऐसे महायुःख पर पर्याय में महन करने पड़े, जो करोगों जवानों से भी वर्णन न किये जा सकें और जब खेद से मरा तो नरक में जा पड़ा, जहां त्रि भूमि को छूो गे ही इतना दुःग्य होता है जो हजारों सौ और विच्छाओं के काटने पर भी नहीं होता। मरक में नारकीय एक दूसरे को मोटे इन्डों में मान्ने हैं, बछियों से छपते हैं और तलवारों ने शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। नारकीयों का शरीर पारेका होता है, फिर जुड़ जाता है, इसलिये फिर वही मार काट । इस प्रकार हजातें साल तक नरक के महा दुःख भोगे।
यदि किसी नाभ कर्म से मनाप्य पर्याय भी मिल गई तो यहां माता के पेट में बिना किसी हलन-चलन के सिफूडे हग नौ महीनों सक उल्टा लटकना पड़ा। दरिद्रता में पैसा न होने और अमीरशा में तारणा का दु:ख । कभी स्त्री तथा संतान न होने का खेद । यदि पर दोनों प्राप्त भी हो गई तो नारी के कल हारी और संतान के आज्ञाहारी न होने का दुःम कभी गैगी पारीर होने की परिषय, लो कभी इष्ट-वियोग तथा अनिष्ट-संबोग के दुःख । बड़े से बड़ा सम्राट, प्रधान मन्त्री गादि जिसको हम प्रत्यक्ष में सुखी समझते हैं, शत्रु के भय तथा रोग-शोक आदि महा दुःखों से पीड़ित है।
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जियो और जीने दो भगवान महावीर स्वामी ने अपने शुभ सन्देश में कहा है कि संसार के समस्त प्राणी जने की इच्छा करते हैं और सभी सुख शान्ति चाहते हैं। इसलिए आत्मवत् सर्व भूतेष यः पश्यति स पंडित:" इस उक्ति के अनुसार उन्होंने कहा है कि मानी प्रात्मा के रामान सभी को समझो और किसी को भी दुःख मत दो। यही सच्ची अहिसा है और यही भगवान महावीर स्वामी का सभी जीवों के लिए कल्याण कारक सदुपदेश है।
___ धर्म क्या और क्यों है । भगवान महावीर स्वामो का धर्म प्रारम-धर्म है । वह आत्मा के अस्तित्व से जुड़ा हमा है। धर्म-आत्मा मे बाहर कहीं नहीं है इसलिए वह प्रात्मा से अभिन्न भा है और आत्मा के अनन्न गुणों में से एक मुण है।
मात्मा जब वेवल प्रात्मा हो जाती है-शरीर वाणी पोर मन से मुक्त हो जाती है. तब उसके लिए न कुछ धर्म होता है और न कुछ अधर्म। भगवान की भाषा में समता ही धर्म और विषमता ही अधर्म है। राग और द्वेष यह विषमता है। गगन द्वंप-यह समता है और यही धर्म है । अहिंसा सत्य अनीयर्यादि जो गुण हैं वे व्यवहार रूप से व्यक्तित्व-विकास के साधन और निश्चय मे प्रात्मा-विकास के साधन कहे जाते हैं।
१. भगवान ने कहा है-इह लोक के लिए धर्म मत करो। वर्तमान जीवन में मिलने
वाले पौलिक सुखों की प्राप्ति के लिए घम मत करो। २. परलोक के लिए धर्म मत करो।आगामी जावन में मिलने वा ने पौद : लिक सुखों की
प्राप्ति के लिए धम मत करा ! ३, कोति प्रतिष्ठा आदि के लिए धर्म मत कर।। ४. केवल प्रात्म-शुद्धि या पात्मा को उपलब्धि के लिए धर्म करो।
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तिनकी कहा कही परजाय, थिति संसार मोक्ष को पाय । ग्रजीव तत्व है के प्रकार, राबके गुण कहिये विस्तार ॥१०१।। प्रास्रव आदि तत्व के और, के सुख करता के दुख ठोर । कौन तत्वफल लक्षण कौन, करता कौन कहो प्रभु तीन ।।१०।। कोन तत्व को साधै मोख, कौन करम नारक दुख पोख । कौन करम तिर्यच जु होय, कौन क्रिया कर स्वर्ग संजोय ॥१०३।। कि शुभ कर्म मनुषगति लहै, कोन दानत भोग भोगहै। अस्त्रोलिंग क्षोण किम होइ, सो आचरण बतायो मोइ ।।१०४॥
जिनमें आपका गर्भादि कल्याण एवं केवलज्ञान का प्रावि गा! अाया जा केदाजानमार्ण संसार के लिये अज्ञेय एवं प्रव्यापक है। इसलिये प्राकाश मात्र हो में व्याप्त हाकर वह स्थित है। इसलिये मसार के भव्यों के द्वारा अापके सर्वज्ञ एवं संसार के सम्पूर्ण रहस्योंको जानने वाले तथा इस अनन्त विश्व के स्वामो माने गये है। हे स्वामिन आपका केवलज्ञान अनन्त है और जगबन्ध हैं। यह भी लोक प्रलोकको देखकर केवल जानकी ही तरह है । हे प्रभो, आपका अनन्त वोय सकल दोषोंमे वर्जित है। सारे पदार्थोंके दर्शन होने पर भी यह अनुपम बना हुमा है। देव अापका अक्षय एवं परमोत्तम सुख निर्वाध है। वह इन्द्रियातीत एव अनुपमेय होने के कारण संसारिक जाबांके लिए अनुभव गम्य नहीं हो सका । हे महावीर प्रभु, आपके ये चारों अनन्त गुण
- - - स्वर्ग को तो मुखों की खान बताया जाना है। यह जीव स्वर्ग में भी अनेक वार गया, परन्तु जितनी इंद्रियों की पूति होती गई उतनी ही अधिक इच्छाओं की उत्पत्ति के कारण वहां भी यह बात रहा, दूसरे देवों को आने से अधिक शक्ति और ऋद्धि को देखकर ईर्षा भाव से कुन ना रहा । इस प्रकार यह संसारी जीव अपनी आत्मा के स्वरूप को भूलकर देव, मनुष्य, पशु, नरक चारों गतियों की चौरासी नाख योनियों में भ्रमण करने हुये कपायों को अपनी आत्मा का स्वभाव जानकर उनमें आनन्द मानता रहा । स्वर्ग में गया तो अपने को देव, पशु गति में अपने को नारकीय समझता रहा । मनुष्य गति में भी राजा, ठ, अकील, डाक्टर, जज, इंजीनीयर जो पदवी पाता रहा उराको अधनारवरूप मानना रहः । क्षण भर भी यह विचार नहीं किया कि मैं कौत हूं मेरा असली स्त्ररूप क्या है ? मेरा कर्त्तव्य क्या है ? यह संसार कपा है ? मैं इसमें क्यों भ्रमण कर रहा है। इस आवागमन के चक्कर से मुक्त होने का उपाय क्या हो सकता है?
देव हो या नारकीय, मनुष्य हो या पश, राजा हो गा रंक हाथी हो या कोड़ी, आत्मा हर जीव में एक समान है। दारीर आत्मा से भिन्न है। जब यह शरीर ही अपना नहीं और जीव निकल जाने पर यहीं पड़ा रह जाता है, तो स्त्री-पुत्र, धन-सम्पत्ति आदि जो प्रत्यक्ष में अपनी आत्मा से भिन्न हैं, अपनी कैसे हो सकती हैं ? संसारी पदार्थों की अधिक मोह-ममता के कारण हो अज्ञानी जीब निज-पर का भेद न जानकर अपने से भिन्न पदार्थों को अपनी मान बैठता है।
___ इस विश्वास का कि पर-द्रव्य मेरे हैं, मैं उनका बुरा या भला कर माता हूं.. यह अर्थ है कि जगत में मो अनन्त पर-द्रव्य हैं, उनको पराधीन माना । पर द्रव्य मेरा कुछ कर सकता है, इसका मदनब नह है कि अपने स्वभाव को पराधीन माना । इस मान्यता रो जगत के अमन स्वभावों की स्वाधीनता की हत्या हुई । इसलिये इसमें अनन्त हिंसा का पाप है।
जगत के पदार्थों को स्वाधीन की जगह पराधीन गानमा तथा जो अपना स्वरूप नहीं, उसको अपना स्वरूप मानना अमन्त झठ है।
जिसने अनस्ल पर-पदार्थ को अपना माना उसने अनन्त चोरी का पार किया । एक द्रब्य दूसरे का बुद्ध कर सकता है" ऐसा मानने बाले ने अनन्त द्रव्यों के साथ एकता कर अभिवार करके अनन्त मैथुन सेवन का महापाप किया है। जो अपना में होने पर भी जगत के पर पदार्थों को अपना मानता है, वा अनन्त परिग्रहों का महापाप करता है। इसलिये पर पदार्थों को अपना जानना और यह विश्वास करना कि मैं पर का भला-बुरा कर सकता है या वह भेग भला-वरा कर सकते हैं, जगत का गबसे अड़ा महापाप और मिथ्यात्व है।
तीन लोक के नाथ थी तीर्थंकर भगवान कहते हैं “मेरा और तेग आत्मा एक ही जाति का है। मेरे स्वभाव और गुण वैसे ही जैसे तेरे स्वभाव और गुण । अहंन्त अथवा केवल ज्ञान दशा प्रकट हुई वह कहीं बाहर से नहीं आ गई । जिम प्रमार मोर के छोटे से अडे में साई तीन हाथ का मोर होने का स्वभाव भरा है उसी प्रकार तेरी आत्मा में परमात्म पद प्रकट करने की शक्ति है । जिस तरह अण्डे में बड़े-बड़े जहरीले सपं निगल जाने की शक्ति है उसी तरह तेरी आत्मा में मिथ्यात्य रूपी विष को दूर करके अईत पद अथवा केवल ज्ञान प्रकट करने की शक्ति है। परन्तु जैसे पह शंका करके कि छोटे से अण्डे में इतना लम्बा मोर कैसे हो सा है उसे हिलाये-डुलाये तो उसका रस सूख जाता है और उससे मोर की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही आत्मा के स्वभाव पर विश्वास न करने तथा यह वांका करने से कि मेरा यह संसारी आत्मा सर्वज्ञ भगवान के समान करो हो सकता है, तो ऐसी मिथ्यात्व रूपी शका करने में सम्यग्दर्शन नहीं होता।
सम्यग्दर्शन अनुपम सुखों का भण्डार है, सर्व कल्याण का बोज है, पाप रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी के तथा संसार रूपी सागर
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पुरुपवेदतं नारी होइ, दुराचार भाषो प्रभु सोय । पंगु अन्ध बहिरी पूनि कोइ, विकल मूर्ति मुका जिम होइ ॥ १०५॥ रोगी कोई निरोगी जीव, रूपयंत वितरूप प्रतीव दुरंग भग कौन विधि जान, सुधी कुपी मूरख किन मान ॥ १०६ ॥ अशुभ चित्त 'चित्ती केम, क्यों भोगी अनभोगी जेम । धर्मवंत अरु पापो कहीं धनी निर्धनो किहि विधि ली ।। १०७ ।। कौन कर्म जिय है वियोग कौन घर्मले सुजन संयोग कि दाता कि कृपण हाय कि गुणवन्त बिना गुण कोय ।। १०८॥
शुभ
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अनन्य एवं असाधारण है केवल मात्र आपमें ही ये गुण है। यद्यपि आप कामना शून्य है तथापि संसारके सम्पूर्ण पदार्थों से श्रेष्ठ प्रतिहार्यादि पाठ सम्पदाएं आपके पास अयो बिराज रही है। इनके अतिरिक्त और भी अन्य आपके असङ्ख्य गुण तोनों लोकमें अद्वितीय हैं फिर हमारे जैसे मूति एवं स्वा ज्ञाना आपके उन अनुपम गुणोंकी प्रशसा किस प्रकार सफलतापूर्वक कर सकते हैं। हे प्रभो ! जैसे कि मेघों की जलधारा, आकाश के तारा मण्डल समुद्र की तरङ्गों की एवं सांसारिक जीवोंकी गणना कदापि नहीं की जा सकती है बने ही आपके गुण भी अस्त्र एवं अनन्त है इसलिये आपकी स्तुति में किस प्रकार
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से पार उतरने के लिये जहाज के समान है. मिथ्यात्व रूसी अबेरे को दूर करने के लिये सुई और कर्म रूपी ईन्धन जो भस्म करने के लिए अग्नि है जो की मान जी इझरा यदि कथा इष्टवयरोग और निष्टसंयोग से सूचित है, उनके लिए सम्यग्दर्शन से अधिक कल्याणकारी और कोई औषधि नहीं जो ज्ञान और चारित्र के पालने में प्रसिद्ध हुए हैं, वे भी सम्यग्दर्शन के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं कर सके ? सम्यदर्शन के साय ने पशु भी मानव है और उसके अभाव से मानव भी पशु है। जितने समय सम्यग्दर्शन रहता है उतने समय कम का बंध नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शन रूपी भूमि में सुख का बीज तो बिना बोये ही उग जाता है, परन्तु जैसे बंजर भूमि मे बीज गिरने पर भी फल को प्राप्ति नहीं होती, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनही भूमि पर दुख का बीज गिर जाने पर भी कदाचित फल नहीं दे सकता। यदि एक क्षणमात्र भी सम्यग्दर्शन प्रकट कर लिया जाय तो मुक्ति हुए बिना नहीं रह सकती। सम्यग्दर्शन वाले जीव का ज्ञान सम्यग्ज्ञान, चारित्र सम्यग्चारित्र स्वयं हो जाता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्वचारित्र तीनों का समूह रत्नश्रय हैं और रत्नत्रय मोक्ष मार्ग है। इसलिये सम्यग्दर्शन एक बार भी धारण हो जाये तो इच्छा न होने पर भी यदि हो सका तो उसी भव में; अन्यथा अधिक से अधिक १५ भद में मोक्ष अवश्य प्राप्त कर लेता है।
पदार्थ के समस्त अंगों को सम्पूर्णरूप से जानने के लिये जीव का अनेकान्सवादी अथवा स्याद्वादी और आत्मा के स्वाभाविकरणों को उत्रनेवाले कर्मरूपी परदे को हटाने के लिये अहिंसावादी होना जरूरी है, अहिंसा को पूर्णरूप से संसारी पदार्थों और उसको मोह-ममता के त्याची निग्रंथ नग्न साधु हो भली भांति पाल सकते हैं । इसलिये जो अपनी आत्मा के गुणों को प्रकट करने तथा अविनाशी मुख-शान्ति की प्राप्ति के अभिलाषी हैं, उन्हें अवश्य निज और पर का भेद विज्ञान विश्वासपूर्वक जानकर भुनि-धर्म का पालन करना उचित है, परन्तु जो जीव संसारी पदार्थों को मोह-ममता अनादि काल से करते रहने की आदत के कारण एकदम निर्बंध साधु होने की शक्ति नहीं रखते, वे गृहस्थ में रहते हुए ही संसारी पदार्थों की मोह-ममता कम करने का अभ्यास करने के लिए सप्त उवसन का त्याग करके आठ मूल गुण श्रावक के बारह प्रत अवश्य धारण करें | जैसे जन्म बिना बायड़ी, कमल बिना तालाव और दांत विना हाथी शोभित नहीं मे ही तपस्या शील सगम नादि के बिना मनुष्य जन्म शोभा नहीं देता। जितनी अधिक श्रद्धा और रुचि इनमें बढ़ेगी, उतनी ही अधिक शान्ति, संतोष और वीतरागता उत्पन्न होगी। इस प्रकार धीरे-धीरे प्रतिमाएं लेकर काम करना चाहिये।
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संसारी पदार्थों में सुख मानने वाला लोभी जीव स्वर्ग प्राप्ति की अभिलाश करता है । परन्तु स्वर्गों में सच्चा सुख कहां ? जिस प्रकार क्षीर सागर का मीठा और निर्मल जल पीने वाले को खारी बावड़ी का जल स्वादिष्ट नहीं लगता, उसी प्रकार मोक्ष के अविनाशी तथा सच्चे सुखों का स्वाद चखने वालों को संसारी तथा स्वर्ग के सुख आनन्ददायक नहीं होते। इसलिये सम्यग्दृष्टि देव तथा देवों के भी देव इन्द्र तक मनुष्य जन्म पाने की अभिलाषा करते हैं कि कम स्वर्ग की आयु समाप्त होकर हमें मनुष्य जीवन मिले और हम तर करके कर्मों को काटकर मोक्ष रूपी कर नांधने के लिये तो चौरासीला योनियाँ है, पर्माने के लिये केवल एक मनुष्य ही है। य जन्म मिलना बड़ा दुर्लभ है। निगोद मे निकलने के बाद अरबों-खरबों वर्षों में अधिक से अधिक सोलह बार मनुष्य जन्म मिलता है और यदि इनमें मोक्ष की प्राप्ति हुई तो नियमानुसार यह जीव फिर गोद में अवश्य चला जाता है, जहाँ से फिर निकलकर आना इतना दुर्लभ है जितना चिन्तामणि रत्न को अपार सागर में फेंककर फिर उसको पाने की इच्छा करना। जिस प्रकार मुखं पारस पथरी की कीमत न जानकर उसे फेंक देता है, उसी प्रकार धर्म पालने पर नौकरी नहीं की मुख्यमाहीं जीता गया, सन्तान नहीं हुई बीमारी नहीं गई नहीं मिला तो धर्म छोड़ना पारस पथरी फेंकने के समान है। धर्म अवश्य अपना सुन्दर फल देगा, यह तो पहले पाप कर्मों की तीव्रता है ओ धर्म पालने पर भी तुरन्त संसारी सुख नहीं मिलते | इसमें धर्म का दोष नहीं । धावक-धर्म पालने से धन-सम्पति सुन्दर स्त्रियां, आज्ञाकारी पुत्र, निरोग शरीर तथा राज
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पर चाकर नर किहि बिधि होय अरु स्वामित्व लहै किम कोय । कोन पापतिहि पुत्र न जिये. अरु वन्ध्या नारीका किये ।।१०६॥ कैसे पूत्र होय चिरजीब, किम कातर किम धीर अतीव । कौन करम ने निन्दा अपार, किम आचरणल है जस भार ॥११॥ शीलवंत नर कैसे होइ, अरु कुशील किम पावै सोइ । क्यों कर सत संगतिको पाय, लहै कुसंगति किहि विधि प्राय ।।११।। होय विबेकी किहि परकार, मूढ़ होय नर किहि संसार । लहैं घेष्ठ कुल किहि कर जीव, कौन पाप कुल निंद्य अतीव ॥११॥
कर सकता है? आपके गुणोंकी तथा स्थितिको तो गणधर भी नहीं जान पात र दूसरों को भी ये क्या बतला पायेगे? यथार्थ स्तुति तो हमसे होगी नहीं फिर व्यर्थ प्रयास से क्या लाभ ? हे देव', पापको नमस्कार है। प्रभो श्राप, दिव्य मति हैं, सर्वज्ञ हैं और अनन्त गुण स्वरूप हैं आपको बारम्बार नमस्कार हैं। आप दोपहीन, परम-बन्ध, मंगल स्वरूप, लोकोत्तम, जगत शरण एवं मन्त्रमति हैं आपको कोटिशः प्रणाम है । आप बर्द्धमान स्वरूप हैं पापनो नमस्कार है। आप महावीर हैं. सन्मति है, विश्वके हित स्वरूप हैं, तीनों जगत्के गुरु है, अनन्त सुखके समृद्र हैं इसलिये अापको अनन्त बार नमस्कार है। इस प्रकार परम भक्ति पूर्वक मैं आपकी स्तुति एवं पुनः कोटिशः प्रणाम करके आपसे त्रैलोक्य की सम्पत्ति को नहीं मांगता । हे नाथ, मैं तो
मुख, चक्रवर्ती पद और स्वर्ग की विभूतियां बिना मांगे आप से पाप ही मिल जाती है और मुनि-धर्म पालन से समस्त संसारी दुःखों से मुक्त होकर यही गंगारी जीवात्मा सच्चा जागन्द, अविनाशी सुख और आत्मिक शांति का धारी सर्वज्ञ. सर्वदृष्टा तथा सर्वशक्तिमान परमात्मा तथा मोक्ष की प्राप्ति की शिद्धि अवश्य हो जाती है।
वीर-शासन जिन-शासन सकल पापों का वर्जनहारा और तिहु लोक में अति निर्मल तथा उपमारहित है।
–महागजा दशरथ : पद्मपुराण, पर्व ३१, पृ० २१६ ।
अहिंसावाद Truc world peace could be won only through the application of spiritual and moral values-not by the most terrifying instruments of destruction"
... President Eisenhower, Washington पिछले दो महा भयानक युद्धों के अनुभव ने संमार को बना दिया कि हिंसा रो चाहे थोड़ी देर के लिए शत्रु दब जाये, परन्तु शत्रता का नाश नहीं हो, इसलिए युद्ध और हिंसा में विश्वास रखने वाले देश भीलवार से अधिक हिंसा की शक्ति को स्वीकार करने लगे हैं और भारत मे विश्वशान्ति की आशा करते हैं।
यह विचार करना कि आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले श्री वर्द्धमान महावीर या महात्मा बुद्ध ने अहिंसा को स्थापना की, ठीक नहीं है। अहिंसा एक अत्यन्त प्राचीन मंस्कृति है, जिसको महिमा का प्राचीन से प्राचीन ग्रन्थों में भी बड़ा मुन्दर कथन है । 'मनम्मान में खि
जीने बताया कि हजारों गाल तक अपवमेघ यज्ञ करने से भी वह लाभ नहीं, जो अहिमा धर्म के पालने से होता है। भागवत पुराण में हर प्रकार के यज्ञ और तप करने से भी अधिक अहिंसा का फन बनाया है। 'रामायण' में अहिमा को धर्म का मन स्वीकार किया है। शिवपराणे बागदपरराण, स्कन्धपुराण, रुद्रपुराण में भी अहिंसा की महिमा का कथन है। महाभारत में ब्राह्मणों को हजारों गउओं के दान से भी अधिक न सा को बनाया है। श्रीकृष्ण जी ने तो यहां तक स्पष्ट कर दिया है कि वही धर्म है जहाँ अहिंसा है और कहा है :
अहिंसा परमो धर्मरतथाऽहिंसा परो यमः । अहिंसा परमं दानमहिसा परमं तपः ।।
अहिंसा परमो यज्ञ स्तथाऽहिंसा परं फल म । अहिंमा परम मित्रमहिंसा परमं सुखम् ।। – महाभारत अनुशासन पर्व श्री व्यास जी के दाब्दों में हिन्दू धर्म के लो समस्त १८ पुराण हिंसा की ही महिमा से भरपूर हैं । वैदिक, बौद्ध, मुसलमान, सिक्ख, याई पारसी आदि धर्मों में भी अहिंसा को बड़ा उत्तम स्थान प्राप्त है।
डा कालीदाम नाग ने अहिंसा सिद्धान्त की खोज और प्राप्ति को संसार की समस्त खोजों और प्राप्तियों में महान सिद्ध करते हुए
Law ofGravitation गे भी अधिक बताया है। डा राजेन्द्रप्रसाद जी ने अहिंसा जैनियों की विशेष सम्मति कही है। सरदार वादों में अहिमा वीर पुरुषों का धर्म है। भारत जैनियों की अहिंसा के कारण पराधीन नहीं हुआ वहिक स्वतन्यही अहिमा की बदौलत
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मिथ्या मारगमें अनुराग, जिनवर धरम रहित गुण त्याग । दुष्ट काय प्रासवित कहेव, कौन करम यह कहिये देव ॥११३॥ मोक्षमार्ग को फल प्रभु कहो, कौन वास कह लक्षण लहौ । जती धर्म कहिये उत्कृष्ट, श्रावक तनै भाषिये इष्ट ||११४|| सर्पिणी उत्सर्पिणी पट काल, ताकी भेद कहयो सब हाल । तीनलोक विवरण प्रवभास, और शलाका पुरुष प्रकाश ।।११५|| भूत भविष्यत वर्त जु मान, तीन काल कहिये भगवान । बहुत उक्तिको कहै बढ़ाय, द्वादशांग सब भेद कहाय ।।११६॥ सो सब कृपा नाथ उच्चार, दिध्यध्वनि वाणी सुखकार 1 मध्यनिको उपकारक सोय, स्वर्ग मुकति पद प्रापत होय ॥११७।।
केवल यही चाहता है कि ग्राप अपने ही समान हमें भी सारी सम्पदाओंसे युक्त कर दें । आपकी अलौकिक सम्पदाएकर्मनाश से उत्पन्न हुई हैं, अक्षय सुखको देनेवाली हैं, अनाशवान हैं और संसारसे नमस्कृत हैं।
साप इस धरणी तल पर अत्यन्त उदार परम-दाता हैं और मैं अत्यन्त लोभी हं; आप प्रसन्न होकर मेरी प्रार्थना को स्वीकार करें जिसमें मेरी अभिलाषा सफल हो। आपके ही घरण कमलों को इन्द्रःपूजा किया करते हैं, आप ही धर्म तीर्थके उद्धारक हैं, पाप कर्मरूपी महाशत्रुओं के नाशक हैं पाप ही महा योद्धा हैं और सम्पूर्ण संसार को स्वच्छ प्रकाश देनेवाले रत्नमय दीपक हैं। त्रिलोकीके तारने में आपही समर्थ एवं चतुर हैं एवं प्रापही उत्तमोत्तम गुणोंके प्रागार (खजाना) हैं। इसलिये हे प्रभो मैं संसार सागरमें निरबलम्ब होकर डूब रहा हूं। दया करके आप हमें बचा लें।
से हुआ है।
श्री महात्मा गाँधी जी अहिंसा के महान पुजारी थे, उन्होंने यह भाव भी जैन धर्म हो से प्राप्त किये थे । महात्मा गांधी जी जैसे महापुरुष स्वयं महावीर स्वामी को अहिंसा का अवतार मानते हैं। चीन के विद्वान प्रतान नशा ने अहिंसा का सबसे पहला स्थापक जन तीर्थंकरों को स्वीकार किया है।
जैन धर्म के अनुसार राग द्वेषादि भावों का न होना अहिंसा है और उनका होमा हिंसा है । ऋहिमा को विधिपूर्वक तो मुनि और साधु ही पाल सकते हैं, जिनमें उत्तम क्षमा है, जो वैरागी है, जिनको कष्ट दिये जाने पर भी शोक नहीं होता। 'गृहस्थी को इस प्रादर्श पर पहुंचना चाहिय' रोशा ध्यान में रखकर गृहस्थो यथाशक्ति हिंसा वा त्याग करते हैं। हिसा के चार भेद हैं
संकल्पी-जान बूझकर बरादे से हिंसा करना-मांसाहार के लिये धर्म के नाम पर हिंसक पश तथा शौक व फैशन के वश की जाने वाली हिंसा।
(२) उद्यमी-असि (राज्य व देश-रक्षा), मसि (लिखना), कृषि (वाणिज्य व विद्या कम) में होने वाली हिंसा : (३) आरम्भी—मकान आदि के बननाने, खान-पानादि कार्यों में होने वाली हिंसा ।। (४) विरोधी-समझाये जाने पर भी न मानने वाले शत्रु के साथ युद्ध करने में होने वाली हिंसा ।
गहम्थी यो अपने घरेलू कार्यो, देश-रोत्रा, अपनी तथा दूसरों की जान और सम्पत्ति की रक्षा के लिये उद्यमी, आरम्भी और विरोधी मा नो करती ही पड़ती है, इसलिए धावक के लिये यह ध्यान में रखते हुए कि हर प्रकार की हिंसा जहाँ तक हो सके कम से कम हो, फेवल जान नझकर की जाने वाली संकल्ली हिंसा का स्वागही अहिंसा है। ज्या-ज्यों इसके परिणामों में वाद्धता आती जायेगी त्यों-त्यों अहिंसा में व्रत में दवता होने हए. एक दिन ऐसा आ जाता है कि संसारी पदार्थों की मोह-ममता छूटकर वे मुनि होकर सम्पूर्ण रूप से अहिंसा को पालते हुए वह शत्र और मिध का भेद भलवर शेर-भेड़िये, सांप और बिच्छू जमे महा भयानक शतक से भी प्रेम करने लगता है जिसके उत्तर में वे भयानक पशु भी न केवल उन महापुरुषों से बल्यिा उनके समचे अहिंसामयी प्रभाव से अपने दाशुओं तक से भी बैर भाव भूल जाते हैं । यही कारण है कि तीर्थकरों के समवशरण में एक दूसरे के विरोधी पशु पक्षी भी आपस में प्रेम के साथ एक ही स्थान पर मिल-जुलकर धर्म उपदेश सुनते हैं। पिछले जमाने की बात जान दीजिये, आज के पंचम काल की वीसवी सदी में जैनाचार्य श्री शान्तिसागर जी के शरीर पर पाँच बार सपं चढा और अनेक बार तो दो-दो घण्टे तक उनके शरीर पर अनेक प्रकार की लीला करता रहा । परन्तु वे ध्यान में लीन रहे और सर्प अपनी भक्ति और प्रेम की श्रद्धाजलि भेंट करके बिना किसी प्रकार की बाधा पहुंचाये चला गया।
जयपुर के दीवान थी अमरचन्द बती धावक थे। उन्होंने मांस खाने और खिलाने का त्याग कर रखा था। चिड़ियाघर के शेर को मांस खिलाने के लिए स्वर्ग की मंजूरी के कागजात उनके सामने आये तो उन्होंने मांस खिलाने की आज्ञा देने से इन्कार कर दिया। चिड़ियाघर के कमचारियों ने कहा कि शेर का भोजन तो मांस ही है, यदि नहीं दिया जायेगा तो वह भूला मर जायेगा । दोबान साहब ने कहा कि भूख मिटाने के लिए उसे मिठाई खिलाओ । उन्होंने कहा कि शेर मिठाई नहीं खाता । दीवान अमरचन्द जैन ने कहा कि हम खिलायेंगे। वह मिठाई का पाल
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गीतिका छन्द यह भांति गौतम पठन कर, बहु तत्व आदि अनेक ही। सभा द्वादश हर्ष उपज्यौ, रंक मानों निधि लही।। कहत भवि धन धन्य व्यासहि, तुमहि उत्तम जस लयो । विश्व हित उपकार करता, वचन अमृत पर ठयो ।। ११३।।
इस प्रकार श्रद्धाभक्ति पूर्वक गौतम ब्राह्मण ने जिनाति महावार प्रभु को स्तुति करके उनके चरण कमलों को प्रणाम किया और अपने को त कल्य समझा। इसके अनन्तर वह गौतम ब्राह्मण इन्द्रों का पूज्य होकर सम्यग्दर्शन ज्ञानरूपो रस को पा कर श्रेष्ठ धर्मके उत्तम मार्ग का चतुर ज्ञाता हो गया तथा जघन्य तमो रूपी शत्रुओंका नाशक हुमा ।
लेकर कई दिन के भुग्ने शेर के पिंजरे में भयरहित घुस गये और शेर में कहा कि अदि भुख शान्त करनी है तो यह मिठाई भी तेरे लिये उपयोगी है. और यदि मांस ही खाना है तो मैं खडा है मेरा मांस खालो। शेर भी तो आखिर जीव ही था । दीवन साहब की निर्भयना और अहिंसामयी प्रेमवारणी का उस पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि उसनेमाको चकित करते हुए शान्त भाव में मिठाई बाली।
श्री विवेकानन्द के मासिक पत्र "प्रबुद्ध भारत" का कथन है कि एण्डरसन नाम का एक अंग्रेज जयदेवगर को जंगल में शिकार बनने गया, वहाँ एक शेर को देखकर उनका हाथी इस, उराने साहब को नीचे गिरा दिया । एण्डरसन ने शेर पर दो नीन गोलियां चलाई' किन्तु निशाना चक गया। अपने प्राणों की रक्षा के हेतु शेर ने साहब पर हमला कर दिया । साहब प्राण बचाने को भागकर पास की एक भोगली में घम गये। वहाँ एक दिगम्बर साधु को देख वह शान्त हो गया । शिकारी को कुछ न कह, वह थोड़ी देर वहाँ चुपचाप बैठकर वापस चना आया तो एण्डरसन ने जैन मावु से इस आरचर्य का कारण पूछा तब नग्न मुनी ने कहा- "जिसके चित्त में हिंसा के विचार नहीं उसे शेर या सांप आदि कोई भी हानि नहीं पहचाना, जंगली जानवरों से तुम्हारे हिंसक भाव हैं इसलिये वे सुम्हारे पर हमला करत है" । गुनिराज को इरा अहिंसामई वारणी का
तना अधिक प्रभाव पड़ा कि उसी रोज सरा अंगरेज ने हमेशा के लिए शिकार खेलने का त्याग कर दिया और सदा के लिए शाहाकारी बन गया। चटगांव में एण्डरसन के इस परिवर्तन को लोगों न प्रत्यक्ष देखा है ।
एक अंग्रेज विवान मिस्टर पाण्यटन का कथन हैं कि महपि रम ग ना में जी थे । रात्रि में उनाने एक शेर दे पा जो भक्ति पूर्वक रमण के पांव चम रहा था ब बिना कोई हानि पहुंचाये सुबह होने से पहले वहां से चला गया । एक दिन उन्होंने रगण महाराज के आधा में एक काला माफ'कार मारता तुमा देषा जिसे दंगते ही उन्होंने चीस गारी, जिरो सुनकर रमण का एक शिष्य वहां आ गया, और उस जहरील काले सांप को हाथों में लेकर उसके फरण से प्यार करने लगा 1 अंग्रेज ने आश्चर्य से पूछा कि क्या तुम्हें मसरो भय नहीं लगता? उसने कहा, जब इसको हमसे भय नहीं तो हमें इससे भय कैसा जहाँ अहिंसः और प्रेम होता है वहां भयानक पशु नक भी योग-शक्ति से प्रभावित होकर अपनी छात्रुता को भूलकर विरोधियों तक से प्रेम व्यवहार करने लगते हैं।
वास्तव में अहिंसा धर्म परम धर्म है और यदि जैन धर्म को विश्व धर्म होने का अवसर मिले तो हिसा धर्म को अपना कर वह दावी संसार अवश्य स्वर्ग के समान सुखी हो जाये ।
जिनोपदेश
भगवान महावीरको केवलज्ञान वैशाख मुदी १० को हुआ । उग समय ऋतुकूला नदी के तट पर देवादिक इन्द्रों ने केवलज्ञान की पूजा की तिदिन तक उनकी दिव्य ध्वनि नहीं पियरी । वे मौन पूर्वक विहार करते रहे। तब प्रदन हुआ गिः कारगी थी नही धिनी, उत्तर दिया गणधर का अभाव होने से दिव्य ध्वनि नहीं खिरी। सोनम इन्द्रने गणधरका तत्काल उपस्थित नयों नहीं पिया काय लधि के बिना बर सा कैसे कर सकता था? उस समय उममें एराी शकिा का अभाव था। जिसने अपने पाद मूब में महाव्रत धारण किया हो उसके लिए नियमित सकती है। उगता ऐसा स्वभाव है।
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त्रयोदश अधिकार
मंगलाचरण
दोहा
श्री सन्मति केवल उदय, नास्यो तम अज्ञान । विश्वनाथ प्रणमी सदा, विश्व प्रकाशक भान ।।१।। अब प्रभु दिव्य ध्वनि भई, स्वर्ग मुकति सुखदाय । चतुर वदन प्रारम्भ किय, सप्तभंग' समुदाय ॥२।। तालु मोंठ सपरस बिना, अक्षर रहित गम्भोर । सर्व भाषमय मधुर ध्वनि, सिंह गरज सम धीर ॥३॥
चौपाई
प्रथमहि स्यात् अस्ति जानिये, दूजे स्यात् नास्ति मानिये। तीज स्यात् अस्ति अरु नास्ति, चौथे स्यात् अव्यक्त प्रशस्ति ॥४॥ पंचम् स्यात् अस्ति अव्यक्त, छठम स्यात् नास्ति अव्यक्त । स्यात् जु अस्ति नास्ति जुल जान, प्रवक्तव्य सातम परवान ।।५।।
केवल ज्ञानी सूर्य सम जगत प्रकाशक बीर । अन्धकार अज्ञानको दूर करें मुनिधीर ||१|| इसके बाद उन गीतम स्वामोने थोतार्थ नायक महावीर स्वामीको नत मस्तक होकर प्रणाम किया। भव्य जोबोंकी पौर अपनी कल्याण कामना से अज्ञान के नाश एवं शानको प्राप्तिके लिये उन्हाने सर्वज्ञ जितेन्द्र प्रभुसे प्रश्न मालाका पूछा
- १. अनेकांतवाद तथा स्याद्वाद The Anckantvada or the Syadvada stands unique in the world's thought If followed in practice, it will spell the end of all the warring beliefs and bring harmoay and peace to mankind."
Dr. M. B. Niyogi, Chiel justice Nagpur : Jain Shasan Int.
हर एक वस्तु में बहुत से गुण और स्वभाव होते हैं । ज्ञान में तो उन सबको एक साथ जानने की शक्ति है परन्तु वचनी में उन सबका कथन एक साथ करने की शत्रिन नहीं । क्योंकि एक समय एक ही स्वभाव कहा जा सकता है। किसी पदार्थ के समस्त गुणों को एक ही स्वभाव कहा जा सकता है। किसी पदार्थ के समस्त गुणों को एक साथ प्रकट करने के विज्ञान को जैन धर्म अनेकान्त अथवा स्याहाद के नाम से पुकारता है । यदि कोई पूछे कि संखिया जहर है या जनन ? नो स्याद्वादी यही उत्तर देगा कि जहर भी तथा अमुत भी और जहर अमृत दोनों भी है। अज्ञानी इस सत्य की हंसी उडाने हैं कि एक ही वस्तु में दो बाते कसे ? किन्तु विचारपूर्वक देखा जाये तो संखिया से मर जाने वाले के लिए वह जहर है। दवाई के तौर पर साकर अच्छा होने वाले रोगी के लिए अमृत है । इसलिये संलिये को केवल जहर या अमृत कह देना पूग सत्य कसे कोई पूछे श्री लक्ष्मण जी महाराजा दशरथ के बड़े बेटे थे या छोटे : श्री रामचन्द्र जी से छोटे व शवघ्न से बड़े अत: वे छोटे भी, बड़े भी!
कुछ अन्यों ने यह जानने के लिए कि हाथी कैसा होता है, उसे टटोलना शुरू कर दिया ; एक ने पांव टटोलकर कहा कि हाथी कैसा खम्बे जैसा ही है, दुमरे ने कान टोल पर कहा कि नहीं, हाज जैना ही है. तीसरे ने सूड टोलकर कहा कि तुम दोनों नहीं समझे वह तो लाठी के समान है, चौथे ने कमर टोलकर वहा कि तुम सब झूठ कहते हो हावी तो तमा के समान ही है। अपनी-अपनी अपेक्षा में चारों को लड़ते देख कर आंखवाले ने समझाया कि इसमें झगड़ने की बात क्या है ? एक ही वस्तु के संबंध एक दूसरे के विरुद्ध कहते हुए भी अपनी-अपनी अपेक्षा से तुम
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अब इनको कछ निर्णय कहौं, जथा शक्ति पागम बुध लहो। स्यात् कथंचित् कहिये सोय, आप चतुष्टयको अबलोय ॥६॥ द्रव्यक्षेत्र अरु काल जु भाव, तिनके भेद सुनो ठहराव । जो कछु वस्तु द्रव्य सो जान, द्रव्यावगाहन क्षेत्र प्रमान ।।७।। द्रव्य परजाय काल मर जाद, द्रव्य रूप भाव उन गाद । सौ यह पाप चतुष्टय धार, घट दृष्टांत अस्ति है सार ।।।। जो पर चतुक अपेक्षा जान, स्यात नास्ति ताको परमान। जैसे घट पर घटको धार, घटका नास्ति होइ तिहि वार || जो घदरूप घटहि में देखि, घट पट एक हि व्यक्त जु लेखि। पर अर अपर चतुष्टय साथ, अस्ति नास्ति तीजी श्रुत गाथ ।।१०।। अस्ति नास्ति यो बचन क्रमंत, कहयो न जान द्रव्य परजन । प्रवक्तव्य है चौथो भेद, ऐसे ही त्रय और निवेद ॥१५॥ अस्ति वक्तव्य पंचम जान, नास्ति अवक्तव्य छठम प्रमान । अस्ति नास्ति प्रवक्तव्य सातमा, स्यात सहि थानक प्रवर्तमा ॥१२॥ यह संक्षेप कहे गुण जास, अब कछ् भेद धरी यह पास । है शब्दहि प्रथमहि जानिये, नाही द्वितीय भेद ठानिये ॥१३॥ है नाही तीर्जा सुन भेव, है नहि अवक्तव्य चौथेव । है कर है है नाहीं कर है, अबक्तब्य पंचम गुणधर है।।१४।। नाही करना ही है नाही, करना ही अध्यक्त छटा हो। है कर है नाहो है, नाहो है, नाही है अवतव्या हि ।।१।।
हे देव जीव तत्वका क्या लक्षण है ? उसकी अवस्या कसो है इसके भेद एवं गुण कितने हैं ? पर्याय कौन है? और कितने पर्याय संसारिक पुरुषोंके लिये गम्य हैं ? इनके अतिरिक्त अजीव तत्व के भेद स्वरूप एवं गुण कौन-कोन है ? तथा अन्य प्रास्त्रवादि तत्वोंमें कितने गुण कारण एवं किलने दोष कारक है ? तल ना ? हा कता कौन है। तथा उसका कथन (स्वरूप) और फल क्या है ? संसारमें किस तत्वके द्वारा.क्या सिद्ध किया जाता है । और किन दुराचारोंसे पापी जोव नरकगामी होता है। किन जघन्य कर्मों के कारण जीव दु:ख दायक तिर्यवादि गतियों में न ले जाते हैं ? किन-किन श्रेष्ठ प्राचरणोंके द्वारा जीव स्वर्गगामो होता है। किस दानके फलसे शुभ परिणाम वाले जीव भोगभूमिको प्राप्त होते हैं। किन आचरणोंके द्वारा जोबको स्त्रोलिंगत्बकी प्राप्ति होती है। क्या करनेसे स्वियोंको पुरुष पर्यायको प्राप्ति होती है। क्या कारण है कि कुछ जोव नप सक्र हो जाते हैं। किन-किन पापाचरणोंके कारण जीव पगले अन्धे गगे बहरेलले लंगड़े इत्यादि विविध प्रकारके अंगहीन होकर अनेक दुःखों को भोगते रहते हैं। किन-किन कर्मों के करने से जीव रोगी एवं निरोग रूपवान एवं कुरूप
सब सच्चे हो, पाँव की अपेक्षा से वह खम्बे के समान भी है, कानों की अपेक्षा से धान के रामान भी है और कमर की अपेक्षा से तख्त के समान भी है । स्थाबाद सिद्धान्त ने ही उनके झगड़े को समाप्त किया।
अंगूठे और अंगुलिया में तबगार हो गया । हर एक अपने-अपने को ही बड़ा कहना था । अंगूठा कहता था में ही बड़ा हूँ: रुक्के-तमरसुक पर मेरी वजह से ही रुपया मिलता है, गवाही के समय भी मेरी ही पूछ है। अंगूदे के बराबर बाली जंगनी ने कहा कि हवूमत तो, मेरी है. मैं सब को रास्ता बताती है, इशारा मेरे से ही होता है मैं ही बड़ी है। तोरारी बीन वाली अंगुनी दाबी कि प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? तीनों बराबर खड़ी हो जाओ और देख लो, वि. मैं ही बड़ी है। चौथी न वहा कि वो सोम हो हू जो नसार के तमाम मंगलकारी काम करती है। विवाह में तिलक मैं ही करती है, अंगूठी मुझे पहनाई जाती है, राजतिलक में ही करती हूँ । पविधी कन्नो अंगुनी श्रीली कि तुम नारों मेरे आगे मस्तक झुकाती हो, खाना, कपड़े पहनना, लिखना यादि कोई काम करो मेरे आगे मुके बगैर काम रहीं चनना । तुम्हें कोई मारे तो मैं बचाती हैं। किसी के मुक्का मारना हा तो सबसे पहले मुझे याद किया जाता है । मैं ही बड़ी ई। पाँची का विरोध बढ़ गया तो म्यादादी ने ही उसे निबटाया कि अपनी-अपनी अपेक्षा से तुम बड़ी भी हो, छोटी भी हो बड़ी तथा छोटी दोनों भी हो।
ऋग्वेद, विष्णु पुराण महाभारत में भी स्वादाद का कथन है। गहषि पातलि ने भी स्याद्वाद की मान्यता की है । परन्तु "जैनधर्म में हिंसा तत्व जितना रहस्यमय है उसने कहीं अपि सुन्दासपतिद्वान्त हे "स्थाद्वाद के बिना कोई वैज्ञानिक तवा दार्शनिक खाज सफल नहीं हो सरुती" । "यह तो जैनधर्म की महत्वपूर्ण घोषणा का फल है। इससे सर्व सल का द्वार स्युन जाता है" "न्यायाशास्त्रों में जैनधर्म का स्थान वहत ऊंचा है" । "स्वाधार तो बड़ा ही यम्भीर है" "यह जैन धर्म का अभेद्य किला है, जिसके अन्द: वादी-प्रतिवादियों के मायानयो गोले प्रवेश नहीं कर सकते । 'सत्व के अनेक पहलुओंको एक साथ प्रकट करने की सुन्दर विधि है"। विरोधियों में भी प्रेम उत्पन्न करने का काम है"। "भिन्न-भिन्न धमों के भेद भावों को नष्ट करता है"। "विनार में गि के लिये आमीमांसा असहस्री, स्याद्वाद मजरी आदि जैन ग्रंथों के स्वाध्याय करने का कष्ट करे।
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दोहा इहि विधि सातौं भंग यह, एक एक भ्रम हर्न। स्याद्वाद कलवा किरन, जगतम नाशन किर्न ।।१६।।
चौपाई
सुन गौतम अब मन वच काय, प्रश्न तनों उत्तर सुखदाय । सप्त तत्त्व सब बरनौं भेद, जात तुम मन नारी खेद ॥१७॥ जीव अजीव आत्रय अरु बंकर निमोक्ष प्रसाध रही सप्त तत्व पहिचान, पाप पुण्य मिलि नौ पद जान ॥१८॥
जीव-तत्व निरूपण' अब सून जीव तत्व विस्तार, ताके है नब भेद अपार । जीव अपर उपजोग प्रमान, मूरत विन करता पुन जान ||१|| भगता देह प्रमानी सबै, थिति संसार माहि है जये। ऊरधगामी सिद्ध सरूप, सुन तिनको वर्णन गुण रूप ।।२०।।
जीव भेद निरूपण
दोहा
चार प्राण व्यौहार नय, निहर्च चेतन एक । इन सौं जो जीवन रहे, सोही जीव विवेक ॥२१॥
सौभाग्यशाली एवं प्रभागा हुया करते हैं। किस कारणसे मनुष्य मूख और पण्डित कुबुद्धि और बुद्धिमान शुभ परिणामो और अशुभ अन्तःकरण वाले हुआ करते हैं। तथा पापात्मा और धर्मात्मा भोगशाली और भोगहीन धनवान् पौर निधन इत्यादि विषम परिस्थिति वाले लोग कैसे हो जाया करते हैं? क्यों कभी अपने कुटुम्बियों एवं इष्ट जनोंका वियोग हो जाता है ? और फिर कभी संयोग क्यों हो जाता है ? किस कारण से पिता के रहते पुत्र मर जाता है ? किसी को पुत्र नहीं होता? कोई स्त्री वध्या हो जातो है इसका कारण क्या है ? किस कर्म के करने से ऐसा होता है ? किसो के पुत्र चिरजोवो होते हैं, कोई कायर होता है इसकी क्या वजह है ? किन कर्मों के प्रभाव से निन्दा और विमल कौति प्राप्त होती है ? मुशोलता और दुःशीलता कैसे प्राप्त हो जाती है? भध्यजीवों को किस कारण से सुसंगति एवं दुःसंगति प्राप्त होती है? विवेकशीलता एवं जड़ता कैसे प्राप्त हो जाती है ? उच्च कल एवं नोच कुल क्यों मिल जाता है ? किस कम के द्वारा मिथ्य मार्ग में प्रवति होतो है? जिन
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१साम्यवाद Trees give fruits, plants flowers, rivers water to anyone whether a man, beast or bird. They do not enjoy themselves, but for the benifit of others. Man is the highest creature, his scrvices to others must be with heart love, without any regard of revengo yain, or reputation in the same spirit as mother's to her children.
.... Jainism A Kcy to Truc Happiness. P. 116. जैनधर्म का तो एकः एक अंग साम्यवाद से भरपूर है । हर प्रकार की दा का तथा भा को नष्ट करके दुरारों की संवा वारना 'निशंकित' नाम का पहला अंग है । संसारी भोगों की इच्छा न परखते हुए केवल मनुस्यों से ही नहीं बल्कि पशु पक्षी तक वो अपने समान जानकर जग के सारे प्राणियों से बांधारहित प्रेम करना 'निःकांक्षित का नाम दूसरा अंग है । अधिवा से अधिक धन, शक्ति और भान होने पर भी दुखी दरिद्री गरीव तक से भी गा न नरना, 'निर्विविकित्सा' नाम का तीसरा अंग है। किसी के भा या लालसा से भी लोकमूटता में न बहकर अपने कर्तव्य से न डिगना 'अमुटदृष्टि' नाम का चौथा अंग है । अपने गुणों और दूसरों के दोषों को छिपाना 'उपगहन' नाम का पांचवा अङ्ग है । ज्ञान, श्रद्धान तथा चरित्र से डिगने वालों को भी छाती से लगाकर फिर धर्म में स्थिर करना स्थितिकरण' नाम का छटा अङ्ग है । महापुरुषों और धर्मामाओं से ऐसा गाढा अनुराग रसना जराा गाय अपने बछड़े से करती है और विनयपूर्वक उनकी सेवा भक्ति करना 'वात्सल्स' नाम का सातवा अंग है। तन, मन, धन से धर्म प्रभावना में उत्साहपूर्वक भाग लेना 'प्रभावना' नाम का आटवां अंग है। जो मन, वचन और काय से इन आठों अंगों का पालन करते हैं, वही सम्बन्ष्टि जनी और स्याद्वादी हैं।
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चौपाई
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मूल प्राण ये चारों जान एकेन्द्रियके नासा मिले सात ये प्रान, ते इन्द्रिय को कानन जुत नव प्राण विशेख,
इन्द्रिय प्रथम प्राण अवधार, बल दुजो जानों निरवार गायु तीसरी कहिए प्रान, सांस उसास तुयं पहिचान ||२२|| समान जिला भाष दोष जुन सोय, दो इन्द्रियपट प्रान जु होय ||२३|| सुजान। चक्षु सहित आठौं गन लेव, चौ इन्द्रिय को प्राण कहेव || २४|| अरांनी वेख मन जुसहित हैं सब दश मान सैनी पंचेन्द्रिय परवान ||२५||
पंचेन्द्रीय
बोहा
पांच प्राण इन्द्रिय जनित, मन वच बल ये तीन आयु श्वास उच्छ्वास गन, ये दश सुनहु प्रवीन ॥ २६ ॥
सोरठा
कहे
लही
यह विधि जीव जीव तीन काल जग में प्रगट जब यि हे सदीव, मुख वक्त्याचित बांधमय ||२७|| अथ उपयोग भेद निरूपण
पढड़ि छन्द
चक्षु प्रचक्षु अवधि धार, केवल जुत दरशन इहि प्रकार ||२८|| मति श्रुत से दोग परोक्ष भेस, पवची मनवर्जव प्रछ देश ॥२६॥ जहं नंत द्रव्य परजाय होय, तकें सब एकहि वार सोय || ३०॥
उपजोग भेद दो विघ बखान है दरशन चारों पाठ ज्ञान मति अवधी पुन जय अज्ञान, मनपरजय केवल राष्टज्ञान श्रुत अव केवलज्ञान प्रतक्ष सर्व सो लोकालोक दिलोक ववं
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धर्म में महान प्रेम किस कर्म के कारण जागृत होता है? किसी को निर्वत एवं किसीको अति बलवान शरीर क्यों मिल जाता है ? मोक्ष का मार्ग कौनसा है ? उसका लक्षण एवं फल क्या है? मुनियों का श्रेष्ठ धर्म कौन है ? गृहस्थोंका क्या धर्म है? दोनों धर्मो अनुष्ठानका उत्तम फल क्या मिलता है ? धर्मके कारण एवं भेद कौन-कौन से हैं? और शुभ आचरण क्या है ? बारह कालोंका स्वरूप क्या है? तीनों लोक की स्थिति कैसी है? इस धरणी तल पर शलाका यानी पदवी धारक
# कर्मवाद
The theory of Karma as minutely discussed and analysed is quite peculiar to Jainism It is its unique feature.
- Prof. Dr. B. H. Kapadia VOA. vol II P. 228.
कोई अधिक मेहनत करने पर भी बड़ी मुश्किल से पेट भरता है और कोई ना कुछ किये भी आनन्द लूटता है. कोई रोगी है कोई निरोगी । कुछ इस भेद का कारण भाग्य तथा कर्मों को बताते हैं तो कुछ इस सारे भार को ईश्वर के ही सर पर थोप देते हैं कि हम बेबस है, ईश्वर की मर्जी ऐसी ही थी। दयालु ईश्वर को हमसे ऐसी क्या दुष्मनी कि उसकी भक्ति करने पर भी वह हमें दुःख दे और जो उसका नाम तक भी नहीं लेते, हिंसा तथा अन्याय करते हैं उनको सुख दे ?
जैन वर्ग ईश्वर की हस्ती से इन्कार नहीं करता, वह कहता है कि यदि उसको संसारी भंझटों में पड़कर कर्म तथा भाग्य का बनाने या उसका फल देने वाला स्वीकार कर लिया जाये तो उसके अनेक मुखों में दोष आ जाता है और यह संसारी जीव केवल भाग्य के भरोसे बैठकर प्रमादी हो जाये । कर्म भी अपने आप आत्मा से चिपटते नहीं फिरते। हम खुद अपने प्रमाद से कर्म बन्ध करते और उनका फल भोगते हैं। अपने होतं मुक्ति प्राप्त कर सकते है, परन्तु हम तो पुत्र, तथा धन के मोह में इतने अधिक हुए हैं कि क्षणभर भी यह विचार नहीं करते कि कर्म क्या हैं ? क्यों आते हैं ? और कैसे इनसे मुक्ति होकर अविनाशी सुख प्राप्त हो सकता है ? बड़ी खोज और खुद तजरवा करने के बाद जैन तीर्थंकरों ने यह सिद्ध कर दिया कि राग-द्वेष के कारण हम जिस प्रकार का संकल्प
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दोहा दर्शन चह वसू जान सब, ये ब्यौहार रारूप । निहवं चेतन शुद्ध नय, दर्शन ज्ञान अनूप ।।३।।
अथ अमूर्तिक भेद निरूपण
चौपाई
वरण पंचरस पंच दुगन्ध, आठ फास गुण वीस प्रबंध । पुद्गलोक गुण सबै यतीव, इनमें मरतिबंत जु जीव ।। ३२॥ यह व्यवहार रूप मानिये, निह और भेद जानिये। जब इनहीको त्याग जु कर, अमूर्तीक पद तब जिय धरै ॥३३॥
___ कर्तत्व भेद निरूपण
पदगल सम्बन्धी जब जीव, कर्म कर्मको कर सदीव । यह अगद नयको व्यवहार, रागद्वेष उपजावनहार ||३४||
पुरुप कौन हैं ? इसके सम्बन्धमें पाप नातिविस्तार रूपेण उपदेश करें और साथ ही यह भी बतायें कि भूत, भविष्यत्, वर्तमान इन तीनों कालके विषय में द्वादशांगुल से उत्पन्न सम्पूर्ण ज्ञान को आप कृपापूर्वक भव्यजीवों के उपकार के लिये एवं स्वर्ग मोक्षकी प्राप्तिके लिये अपनी अनुपम गम्भीर ध्वनिमे उपदेश करें। गौतम ब्राह्मणकी इस प्रश्नावलीको सुनकर भव्यजीवोंकी भलाईके लिये सतत प्रयत्नशील तीर्थराज महावीर प्रभुने मोक्ष-मको पि, नाक र नसमें प्रवृत्त कराने की इच्छासे तत्वादि प्रश्नोंका सम्यक् उत्तर गम्भीर ध्यान में देना प्रारम्भ किया।
विकल्प करते हैं, उसी जाति के अच्छे या बुरे कार्माणवर्गणाएं (Karmic Molecules) योग शक्ति से आत्मा में खिंचकर आ जाती हैं। श्रीकृष्ण जी ने भी गीता में यही बात कही है कि जब जैसा संकल्प क्रिपा जावे वैसा ही उसका सूक्ष्म व स्थूल शरीर बन जाता है और जैसा स्थूल, सूक्ष्म शरीर होता है उसी प्रकार उसके आसपास का वायु मण्डल होता है। वंज्ञानिक दृष्टि से भी यह बात सिद्ध है कि मारमा जैसा संकल्प करता है वैसा ही उरा संकल्प का वायु मण्डल में चित्र उतर जाता है। अमरीका के बंज्ञानिकों ने इन चित्रों के फोट भी लिये हैं, इन चित्रों को जैन दर्शन की परिभाषा में कार्माणवर्गणाएं कहते हैं। जो पांच प्रकार के मिथ्यात्व बारह प्रकार के आश्रत, २५ प्रकार के कपाय, १५ प्रकार के योग, ५७ कारणों मे आत्मा की ओर इस तरह खिचकर आ जाते हैं जिस तरह लोहा मुम्बक की योग शक्ति से आपरा आप विच आता है और जिस तरह चिकनी चीज पर गरद प्रासानी से चिपक जाती है। कमों के इस तरह खिंच कर आने कोजन धर्म में "आस्त्रद" और चिपटने को वध कहते हैं। केवल किसी कार्य के करने से ही कगों का आरत्रव या अन्य नहीं होता बल्कि पाप या पुण्य के जैसे विचार होते हैं. उनसे उसी प्रकार का अच्छा या बरा आम्रव व बन्ध होता है । इसलिये जैन धर्म में कर्म के भाव में व द्रव्य कर्म नाम के दो भेद है। वैने नो अनेक प्रकार के कर्म करने के कारण द्रव्य कर्म के ८४ लावद हैं जिनके कारण यह जीव ८४ लाख योनियों में भटकता फिरता (जिनका विस्तार 'महाबन्ध' व 'गोम्मटसार कर्म काण्ड' आदि हिन्दी व अंग्रेजी में छपे हुए अनेक जैन ग्रन्थों में देखिये) परन्तु कर्मों के आठ मख्य भेद इस प्रकार है
१. ज्ञानादरणो-जो दुसरे के ज्ञान में बाधा डालते हैं. पुस्तकों या गुरुओं का अपमान करने हैं, अपनी विद्या का मान करते हैं, सच्चे शास्त्रों को दोष लगाते है और विद्वान होने पर भी विद्या-दान नहीं देते, उन्हें ज्ञानावरणी फर्मों की उत्पत्ति होती है जिससे ज्ञान उब जाते है. और
जाले जन्म में एवं होते हैं। जो ज्ञान दान देते हैं. विद्वानों का सत्कार करते हैं, मर्वज्ञ भगवान् के वचनों को पढ़ते-पढ़ाते सुनते-सुनाते हैं, उनका ज्ञानाबरसी कर्म ढीसा पड़कर, शान बढ़ता है।।
२. दर्शनावरणी-- जो पिसी के देने में रुकावट या आंखों में बाधा डालते हैं, अन्धी का मखौल उड़ाते हैं उनके दर्शनावरणी कर्म की उत्पत्ति होकर आंखों का रोगी होना पड़ता है। जो दूसरे के देखने की शक्ति बढ़ाने में सहायता देते हैं उनका दर्शनावरणी कम कमजोर पड़ जाता है।
३. वेदनीयकर्म-जो दूसरों को दुख देते हैं, अपने दु.खों को शान्त परिणामों से गहन नहीं करते, दूसरों के लाभ और अपनी हानि पर खेद करते हैं वह असाता वेननीय क्रम वा बन्ध करके महादुःख भोगते हैं और जो दूसरों के दुखों को यथाशक्ति दर करते हैं अपने दालों को सरल स्वभाव से सहन करते हैं, सबका भशा चाहते हैं उन्हें, साता वेदनीय कमें का बन्ध होने के कारण अवश्य सुखो की प्राप्ति होती है।
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दोहा निश्चय करके जीव यह, धरै शुद्ध जब भाव । चेतन पद प्रगटै जब, मुक्त होय शिव ठाव ।।३५||
अथ भोक्तृत्व भेद निरूपण
चौपाई प्राणी सुख दुख या जग माहि, भुगतं पाप कर्म फल पाहि । सो व्यौहार कयौ परवान, निश्चय सुख भुगतै शिव थान ॥३६॥
देह प्रमाण-निरूपण
बोहा देहमात्र व्यौहारनय, कह्यौ वीर जिनराय। निश्चय नय की दृष्टि सौं, लोकप्रदेशी थाय ।।३७॥
हे बुद्धिमान गौतम, तु अपनी अभीष्ट पूर्ति कर देने वाले प्रश्नोत्तरोंको स्थिर-चित होकर और अन्यान्य उपस्थित जीवों के साथ सुन । इस उपदेशसे सभीका कल्याण होगा । प्रभने जब अपने मुखारविन्दसे दिव्य उपदेश की मधुर ध्वनि निकाली
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------ ४. मोहनीय-मोह के कारण ही राग-द्वेष होता है जिससे क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायों की उत्पत्ति होती है, जिसके वश हिसा भठ, चोरी, परिग्रह और वुदीलसा पाच महापाप होते हैं, इसलिये मोहनीय कर्म सन कर्मों का राजा और महादु:खदायक है। अधिक मोह वाला मरकर मक्खी होता है, ममारी पदार्थों से जितना मोह कम किया जाये उतना ही मोहनीय कर्म हीले पड़ता है और उतना ही अधिक सम्लोष, सुख और शान्ति की प्राप्ति होती है ।
५. आयकर्म-जिसके कारण जीव देव, मनुप्य, पश, नरक चारों गतियों में से किसी एक के शरीर में किसी खास समय तक रुका रहता है। जो सच्चे धर्मात्मा, परोपकारी और महासन्तोषी होते हैं, वह देव आसु प्राप्त करते हैं। जो किसी को हानि नहीं पहुंचाते, मन्द कषाय होते हैं, हिसा नहीं करते वह मनुष्य होते हैं। जो विश्वासघाती और धोखेबाज होते है पशुओं को अधिक बोझ लादते हैं, उनको पेट भर समय पर खाना-पीना नहीं देते, दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा करते हैं वह पश होते हैं। जो महाक्रोधी, महालोभी, कुशल होते हैं झूठ बोलते और बुलवाते हैं, चोरी और हिमा में आनन्द मानते हैं, हर समय अपना भला और दूसरों का बुरा चाहते हैं, वह नरक आयु का यन्ध करते हैं।
६. मामकर्म--जिसके कारण प्रच्छा या बुरा शरीर प्राप्त होता है। जो निग्रंथ मुनियों और त्यागियों को विनय पूर्वक शुद्ध आहर कराते हैं, विद्या, औषधि तथा अभयदान देते हैं, मुनि-धर्म का पालन करते हैं, उनको शुभ नाम कर्म का बन्ध होकर चक्रवर्ती, कामदेव, इन्द्र आदि का महा सुन्दर और मजबूत शरीर प्राप्त होता है । जो श्रावक-धर्म पालते हैं दे निरोग और प्रबल शरीर के धारी होते हैं । जो निग्न थ मुनियों और त्यागियों की निन्दा करते हैं, ये कोही होते हैं, जो दूसरों की विभूति देखकर जलते हैं कषायों और हिंसा में आनन्द मानते हैं वे बदसरत, अंगहीन, कमजोर और रोगी शरीर वाले होते हैं।
७. गोत्रकर्म-जो अपने रूप, धन, ज्ञान, बल, तप, जाति, कुल या अधिकार का मान करते हैं, धर्मात्मानों का मखोल उड़ाते हैं, वे नीच गोत्र पाते हैं और जो सन्तोषी शीलवान होते हैं अहंतदेव, निग्रंन्य मुनि तथा त्यागियों और उनके वचनों का यादर करते हैं दे देव तथा क्षत्री, ब्राह्मण, वैश्य आदि उच्च गोत्र में जन्मते हैं।
____८. अन्तराय --जो दूसरों के लाभ को देखकर जलते हैं, दान देने में रुकावट डालते हैं उनको अन्तराय कर्म की उत्पत्ति होती है । जिस के कारण वह महा दरिद्री और भाग्यहीन होते हैं। जो दूसरों को लाभ पहुंचाते हैं, दान करते करते हैं, उनका अन्तरायकर्म ढीला पड़कर उनको मन-वांछित सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति बिना इच्छा के आपसे आप हो जाती है।
पांच समिति, पाँच महाबत, दश लाक्षण धर्म, तीन गुप्ति, बारह मावना और २२ परीषह के पालने से कर्मों के प्रास्रव का संबर होता है और बारह प्रकार के तप तपने से पहले किये हुए चारों घातिया कर्मों का अपने पुरुषार्थ से, निर्जरा (नाश) करने में आत्मा के कर्मों द्वारा छुपे हुए स्वाभाविक गुण प्रकट होकर यही संसारी जीव-आत्मा अनन्तानन्त ज्ञान, दर्शन, बले और सुख-शान्ति का धारी परमात्मा हो जाता
और बाकी चारों अघातिया कर्मों से भी मुक्त होने पर मोक्ष (SALVATION) प्राप्त करके अविनाशी मुख-शान्ति के पालने वाला सिद्ध .. भगवान् हो जाता है।
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चौपाई धरै थूल जब यही शरीर, तब विस्तार कर मुणधीर । सक्षम देह पाय कर जीव, संकोच न तिहि होय सदीद ॥३८॥ जैसे दीप अधिक छवि घर, भाजन मान उदोत न सरं। समुद्घात विन यह परबान, ताको भेद सुनो गुण खान ||३६॥
समुद्घात वर्णन
दोहा कार्माण तेजस दुविध, बाहर निकस प्रदेश । पावें वे ही मूलतन, समुद्घात इहि वेष ॥४०॥ सात भेद ताके कहे, प्रथम वेदना नाम । दुतिय कषाय विकुर्व श्रय, मरणान्त अभिराम ||४१।। पंचम तेजस छटम पुनि, पाहारक गुण धाम । केवलि जुत सातौं कहै, समुद्घातके नाम ।। ४२॥
वेदना समुद्घात
अडिल्ल दुसह वेदना पीर होय, कहुं प्रायके। कढ़हि जीव परदेश महि अकुलायक ।। औषध तछिन परम फेर तन ग्रावही। समुद्घात यह प्रथम वेदना नाम ही ॥४३॥
कषाय समुद्घात काह रिपुको करै विध्वंसन जायक । वाहिर निकसे अंश, जीब के आयके । अति कषाय बल होइ, अशुभभावन बहै। समुद्घात यह दुतिय, कुगतिको पद गहै ।।४४॥
वैक्रियिक समुद्घात घर विक्रिया रूप विविध परकार सौं। निकस ब्रह्म प्रदेश, सचेतन भाव सौं।। देव नारकी मनुष्य लहैं, पशु नाहि हैं । समुद्घात यह तृतिय भेद, पहिचान है ।।४५।।
- मारणान्तिक समुद्घात । काह जीवकै मरण समय उपज सही। बाहिर निकसै प्राय, जीव परदेश हो।
तब उनके प्रोष्ठ इत्यादिका एकदम हो परिचालन नहीं हुआ। वह पर्वत गुमासे निकली प्रतिध्वनिके समान हो अत्यन्त कर्णप्रिय और नाना सन्देहोंको नष्ट करने वालो यो। धन्य है, तोर्थराजों को उस योगजन्य अदभुत शक्तिको; जिसके द्वारा सांसारिक भव्य अतिशयुक्त महान् उपकार होता है। हे गौतम; बुद्धिमान् लोग जिसको यथार्थ सत्य कहते हैं वह सर्वज्ञ-प्रतिपादितपदार्थोंका स्वरूप ही है। इस बातको तुम सर्वथा निभ्रान्ति समझो । जोव दो प्रकारके होते हैं। एक मुक्त सिद्ध पुरुष और दूसरे संसारी । प्रथम मुक्त जीवों में तो कोई भेद नहीं परन्तु संसारियों में कई एक प्रकारके भेद हैं। जो कि पाठ कर्मोंसे रहित हैं, और पाठ गुणोंसे शोभित हैं, सर्वदा एक स्वरूप, समान सुख वाले एवं सम्पूर्ण दु:खोंसे हीन हैं, उन्हींको सिद्ध अथवा मुक्त कहा जाता है। ऐसे सिद्ध महापुरुष संसारके उच्चतम शिखर पर विराजमान होकर निर्वाध एवं अनन्त ज्ञान युक्त होते हैं और उनका शरीर भी अलौकिक होता है । संसारो जोवोंको विभिन्न श्रेणियां और भेद हैं। वे स्थावर और उसके भेदसे दो प्रकार के हैं; एकेन्द्री, विकलेन्द्री एवं पंचद्रीके भेदसे तीन प्रकार के हैं, अोर नरकादिक भेदसे चार प्रकारके हैं। दयालु घोजिनेन्द्र भगवान ने इन्द्रियोंको अपेक्षा एकेन्द्री, दो इन्द्रो, ते इन्द्रो, चो इन्द्री एवं पंचेन्द्रोके भेदसे पांच तरहका कहा है। बस एवं स्थावरजीव छ: प्रकार के होते हैं इन छ: काय जीवों को रक्षाके लिये हो जिनेन्द्र प्रभु को प्राज्ञा हैं । पृथ्वो इत्यादि पांच स्थावर के साथ विकलेन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय मिलाकर जीवोंके सात भेद हो जाते है। पांच स्थावर, विकलेन्द्रिय संज्ञो एवं प्रसंज्ञी ये जोवों की पाठ जातियाँ हैं। पांच
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वोधी गति को परस प्राय, निज थान ही। समुद्घात यह कहो, तुरिय तस जान ही ॥४६॥
तेजस समुद्घात काहू मुनिको प्राइ, क्रोध उपजो घनौं । प्रगटै बायें कन्ध पुतर तंजस तनो ।। ज्वाल ताहि विकराल, सिंदूर प्रकार है। बारह जोजन दीर्घ, नव जु विस्तार है ।।४।। हारावति सम प्रलय, भसम मुनि जुत करें। तजस अशुभ प्रवान, कषायन बिस्तरै ।। शुभ तैजस सुन भेद दया मुनिबर बढे । दुभिक्षादिक भेंट, शुभहि प्राकृति चढ़े ।।४।। कंध दाहिने निकस, पूर्व जब पोतरा । रोग शोक दुख सकल, निवार सुखोत्तरा ।। फिर निज थानक अाय, अंग मुनि सुख करै । समुद्घात दुय भेद, पंचमौ अनुसरै ।।४६।।
आहारक समुद्घात करत साधु श्रुत अर्थ, बिचार , साबही। तह संशय प्रसिहाय, पित चित बाबही॥ निकट भूमि के माहि, केवली है नहीं। कीजै कोन उपाय, भर्म नाशं कहीं ॥५०॥ सब मुनि मस्तक प्रगट प्रहारक तनु धरौ। एक हाथ उनमान, जिनेश्वर उच्चरी ।। फटिक वरन मन हरन, जाय जहं के वली। सब संदेश मिटाय, थान प्रावे वली ॥५१।।
केवलि समुद्धात तेरम गुनके अन्त, केवल नाहको। रहयौ पूर्व संसार भ्रमण, कछु ताहिको ।। बाहिर निकस प्रदेश अलख सो जानिये । दड कपाट समान त्रिलोक प्रमानिये ॥५२॥
दोहा प्रथम समय में दंड कर दूज करै कपाट । तीज प्रतर चतुर्थ भरपूर लोक संपाट || ५३।। पंचम समय विवर्त कर, षष्टमं थान वतेह । कपाट सप्तमै अष्टमै, दंड प्रथम तन जेह ।।५।।
समुद्घात में दिशाओं का नियम मारणांत आहार पुन, एक दिशा गमनेह । समुद्घात पांचौ अवर, दशहू दिश गत तेह ।।५।।
चौवीस स्थान भ्रमण वर्णन भ्रमत जीव संसार में, चौबिस थानक मांहि । तै बरनौं संक्षेप कर, श्री जिन आगम पाहि ।।५६।। गति इन्द्रिय अरु काय पुनि, जोगहि बेद कषाय । ज्ञान सु संजम, दरशनौ, लेश्या भवि दुविधाय ॥५७ ॥
नोपदी. ते इन्द्री, चौ इन्द्री, पंचेन्द्री इस प्रकार जिनागममें जीवों के नौ भेदों को कहा गया है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वाय परेक वनस्पति, साधारण वनस्पति दो इन्द्री, तेइन्द्रिय, चौइन्द्री, पञ्चेन्द्री इस प्रकार जोवोंक दस भेद कहे गये हैं। स्थावरके मधम. बादर इत्यादि दस भेदोंमें ग्यारहवाँ वस मिला देने पर जीवोंके ग्यारह भेद हो जाते हैं ऐसा ही बुद्धिमानोंको जानना चाहिये । दस स्थावरमें विकलेन्द्री एवं पचेन्द्री मिला देने से जीवों के बारह भेद हैं। पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पांच स्थावर एव चादरके भेदसे दस प्रकारके होते हैं। विकलेन्द्री, असंज्ञी पचेन्द्री पंगेन्द्री संज्ञी और पंचन्द्रिके साथ जीबोंके तेरह भेद हो जाते हैं। सुक्ष्म बादर भेद दो प्रकारके इन्द्री, दो इन्द्री, से इन्द्री, चौ इन्द्री और समनस्क (मन सहित) एवं अमनस्क मन रहित) भेद से दो प्रकार का पंचेन्द्री इस तरह सात भेद होते हैं। ये सातों अपर्याप्त एवं पर्याप्त के भेद से चौदह प्रकारके हो जाते हैं । अर्थात् जीव समान यानी जीवोका भेद चौदह प्रकार का हया।
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समकित सैनि अहार ए, मारगणा दश चार । गुणस्थान चौदा अवर, जिय समास पुनि धार ||५८|| परजापति प्राणन सहित. संज्ञा अरु उपजोग । ध्यान जु प्रत्यय जाति, कुल सब चौबीस नियोग ।।५।।
गतिवर्णन
चौपाई
चारों गति में भटकै जीव, पापकर्म नारक दूख लीव । पुनि तिरंजच सु है तृष भूख, मानुषको बहु मुख दुख ऊख ।।६।। शुभ भावन ते सुरगति पाय, इहि विधि भ्रमैं जगतमें जाय । अब नारक गतिको सुन भेद. जिम भविजन नार्ग भ्रम खेद ।।६।।
नरकगति वर्णन अधोलोक में नरक जु सात, तहां मारको जिय उतपात । प्रयमहि काल नरक तन लहै, पीन पाठ धनु अंगुल छहै ।।६।। सागर एक अायु उतकिष्ट, दश हजार ली कहो कनिष्ट । उष्ण स्वभाव रहै तिहि थान, सहैं वेदना वे परमाल ।।६३।। महाकाल दूजो तब धार, साद पन्द्र धन अंगुल वार। सागर तोन प्रायु गर्न लेइ, उष्ण स्वभाव सदा दुख देइ ।।६४।। रौरव तृतीय नरक दुख एह, सवा अधिक त्रिशत धनु देह। सागर सात आयु परवान, उष्ण महा है दुख कः खान ॥६५॥ तुरिय महारौरव दुख सहै, साढ़े बासट धनु तब लहै। महाउष्णता कहो न जाय, सागर दश थिति है अधिकाय ॥६६॥ शालमीक पंचम दुख घनी, धनुष सवास तनु तहँ बनौ। सत्रह सागर का पिति लहै, उष्ण शांत दोऊ विध राहै ।।१७।। असिक पत्र छटम दुख देइ, धनुष अढाइस तन् लेइ । बाइस सागर यायु लहाय, शोत तहां व्याचे अधिकाय ॥६॥ कुम्भीपाक सप्तमौ भनौ, धनुष पांचस तनु तह बनौं, । तेतिस सागर को तिथि जहां, शोत महा तन पोड़हि तहा ।।६।। सप्तम नरक नरकिया जीव, तिनको संख्यासंख्य गनीव । तिनत छट्टम नरक गर्नेह, संख्य गुनै सब जानहु तेहूँ ।।७।। तिनत पंचम भूमि प्रमान, संख्य गर्न लीजी पहिचान । चौथे दुतिय तृतीय पहलेह, ऐर ही सब जिय गन नेह ।।७।। प्रथम नरक में जो दुख लहै, लिहित दुगुन दुगुन है कहै । सकल भेद पूरव वरनयो, पुनर उक्ति ते नाही भयो ।।७२॥
दोहा सात नरकके जानिये, पटल सकल उनचास । तिनमें उपजै नारकी, विले लाख चौरास ॥७३॥
तिर्यचति वर्णन
चौपाई अब सब पशुगति को सुन भेव, जो भाष्यो है श्रो जिनदेव । दोऊ समुद कर्म भूमाहि, क्षेत्र एकसै सत्तर माहि ॥७४।। आधे चरम द्वीपके अन्त, संभू रमण उदधि परजंत । सैनी पंचेन्द्रिय तिरयंच, पीर असनी-मन नहि रंच ||७५।। जलचर नभचर थलचर होइ, अरु विकलत्रय उपज सोइ । पथियो पानो तेज सु बाय, बनस्पति दुइ भेद लहाय ।।७६।।
इसी प्रकार अनेक जीव जातियोंके अठानवे भदादिको श्रीमहाबोर प्रभुने गौतमादि गणधरांसे कहा। पृथ्वी, जल, अग्नि वायु काय एवं नित्य-निगोद और इतर निगोद के भंद से दो प्रकार के साधारण बनस्तति ये छहों प्रत्येक पृथक्-पृथक् सातसात लाख, दस लाख प्रत्येक वनस्पति, छ लाख विकलेन्द्री पंचेन्द्री तियंढच और नारकी देव बारह लाख, तथा चौदह लाख मनुष्योंकी जातियां हैं। सब मिलाकर चोरासी लाख योनियां हुई। इन जाबों के करोड़ों कूल हैं। इस बातको भी श्रीमहावीर प्रभु ने गणधरों तथा उपस्थित जीव समूहों से कहा । चार गति, पांच इन्द्रिय मार्गणा और छ: काय मिलकर पंद्रह योग हुए। स्त्री वेद प्रादि तीन वेद हैं । अनन्तानुबंधी क्रोध आदि पच्चीस कषायें हैं । पांच सुज्ञान एवं तीन कुज्ञान मिला देने से आठ प्रकारके
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प्रत्येकाहि साधारण सोय, प्रत्येकहि वृक्षादिक होइ। सप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जान, सूप्रतिष्ठित उपजे तिहिथान ॥७७।। तिनमें राशि निगांद जु होय, सुप्रतिष्ठित जानो तह साय। साधारण निगोद दो जान, इन सूक्ष्म बादर सब थान ।।७।। नित्य निगोद गोलकन पंच, जोवराशि जानो सब संच । अव सुन भोगभूमि पर कहो, और कुभोग भूमि में लहौ ।।७।। पुष्करा ते बाहिर जान, दोप असंख्य सबै परवान । सैनी पंचेन्द्रिय तिरजंच, जलचर नभचर दोय सदंच ।।।। जलचर इन थानक माहि कही, विललव्य नहि सही। बसती प्रतिष्ठत होय, विन निगोद तरु कल्प संजोग ।।१॥ सक्ष्म पंच थान वरजेइ, तीन लोक सब थानक तेइ। सबको तिथि उत्कृष्ट बखान, तीन पल्य पंचेन्द्रिय जान ।।८।। चौ इन्द्रिय छह मास जु कहो, ते इन्द्रिय दिन उनचास ही। बारह वरष द्विइन्द्रिय लहै, अब एकेन्द्रिय थिति का कहैं ।।३।। वाइम सहम वर्ष पृथिवीय, सात हजार जलहिको लोय । तोन दिना हे अगिन जु आव, तोन हजार वायु को थाव ।।४।। वनस्पति प्रत्येक बखान, दश हजार वरपे थिति जान । यह उत्कृष्ट प्रायु परमान, अव जघन्य सबको उनमान ||५|| अन्तमुहुरत लौं थिति रंच, पृथिवी उ साधारण पंच । बादर सूक्ष्म दशहि परवान, प्रत्येक हि गेरम पहिचान ।।६।। छह हजार बारह धर शीस, छयासट सहस इकसै बत्तीस । विकलय जु प्रसनी दीस, असी साठ चालिस चौबीस ॥७॥
शरीर की अवगाहना का वर्णन
छयासट सहस त्रयसै छत्तीस, जन्ममरण भाष्यो जगदीश । काय भेदु अव सुनहु सुजान, मच्छ सहस जोजन परबांन ।1८|| जोजन एक भ्रमर तन कर, तीन कोशको कानखजर। बारह जोजन शंखहि धार, अर एकेन्द्रिय काय विचार ||६|| पृथिवी जल प्रत्येक ज दोय, असंख्यात जोजन अव लोय। अग्नि पबनकी देह ज कही, किचित ऊन लोक भर लही ||६०॥ यह उत्कृष्ट काय परमान, अब जघन्यको करौं बखान । शालिसिथ मच्छहि लघुरूप, मक्षिकादि चौइन्द्रिय नप ॥शा कुन्थु आदि ते इद्रिय जान, अनधरिया दो इन्द्रियवान । मंगुल एक असंख्य जु भाग, पृथिवी चौक बनस्पति साग ।।१२।। पृथिबी जीव मसूर अकार, जल को रूप बूद सम धार । सुईवत तेजहि की है काय, ध्वज प्राकार शरीर जवाय ।।१३।। तर प्रत्येक हि भेद अनेक, साधारण सुक्षम वा रोक । अब सब जीवनि संख्या जान जैसो जिन शासन पहिचान ॥१४|| असंख्यात पंचेन्द्रिय पशु, तिनमें संख्य असैनी लसु । लिन ही ते चौइन्द्रो जीव, संख्य गुनै तारि कर लीव ||५|| जिनते संख्य गुन ते अक्ष, तिनत संख्य गुणे वे अक्ष । एकेन्द्रिय को पृथिवी चौक, संख्य संख्य गुन क्रम को थोक ॥१६॥ वनस्पति प्रत्येक बखान, सब देवन सम संख्या जान । तिनतं नंत गुनं पहिचान, साधारण ईतर जिय जान ॥६॥ सिद्धा सर्व अनंतानंत, सोहैं तीन लोक के अन्त । तिनहि अनन्तानन्त, गुनेह, नित्य निगोद एक वपु तेह ॥६॥ इक बपुतै सब गोलक जीव, नन्तानंत तहां जु सदीव । तिनके भाग अनन्तानन्त, थिर संसार अभव्य वसन्त ॥६॥ तिनहिं अनंत भाग में जान, भव्यजीव शिव लहैं निदान । सिद्ध नंतता बड़े नहि कदा, राशि निगोद घटै नहि सदा ॥१०॥
ज्ञान हैं। शुभ एवं अशुभ रूप छ: प्रकार को लेश्याएं हैं। भव्य एवं अभव्यके भेदसे दो प्रकारके जोव छ: प्रकार के सम्यक्त्व हैं। संज्ञी एवं असंज्ञी भेदसे दो तरहके और आहारक एवं अनाहारक भेद से भी दो प्रकार के जीव हैं । इस प्रकारसे चौदह प्रकारके मागंणा (अन्वेपथ-पथ) कहे गये हैं। सांसारिक जीवों को इन्हीं चौदह मार्गणाओं में दर्शन विशुद्धिके लिए ज्ञानियोंको खोजते रहना चाहिए। जिनेन्द्र महावीर प्रभने मिथ्यात, सासादन, मिश्र, अविरत, देश संयत, अप्रमत्त, अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवत्ति करण, सूक्ष्म सांपराय उपशांत कषाय, क्षीण कषाय सयोगि जिन इन चौदह गण स्थानोंको बिस्तार पूर्वक वर्णन किया। इन्हीं चौदहों गुण स्थानों के द्वारा भूतकालमें भव्य जीवोंने निर्वाण पदको प्राप्त किया है वर्तमान काल में प्राप्त कर रहे हैं और भविष्य कालमें भी प्राप्त करेंगे । मोक्ष प्राप्ति का और कोई अन्य मार्ग नहीं है। ग्यारह अंगों के अर्थों को जान जाने पर एवं अभव्यके सदेव दीक्षित हो जाने पर भी पहले मिथ्यात्व गण स्थान ही प्राता है, अन्य नहीं। जिस प्रकार कि मिश्री मिले हुए
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मनुष्यगति वर्णन नरगति भेद कहीं कछु तेह, द्वीप पढाई में उपजेह । भोगभूमि उत्कृष्ट बत्रान, उपजें जुगल सदा तिहि थान ११० तीन कोश की काय घरेह, तीन पल्यकी आयु धरेह । तीन दिवस में लेइ प्रहार, बदरी फलवत नहीं निहार ।।१०।। मध्यम भोगभमि नर बसे, दोय कोशको वा धर लसं । दोय पत्य जी तस प्राव, दोय दिना गत भोजन भाव।।१०३।। जघन्य भोगमि सब नरा, एक कोश को तन जहं धरा । एक पल्यको थिति है तेह, नितप्रति भोज कलप बक्षेह ॥१०४।। और कूभोगभमि नर कहै, पशुवत मुख सबके सरदहै । भोग भूमिवत प्रावरु काय, मृतिका भोजन लहैं सवाय ।।१०।। स्वाद शर्कराबत तस जान, अविवेकी हिरदै नहि मान । विदेह सर्व कर्म भू थान, काय पंचशत धनुष प्रमान ॥१०६।। सदा शाश्वते मन्दिर बसें, धन कन पूरन सब सुख लसैं । दिन प्रति भोजन षटरस वहैं, आयु कोटि पूरब की लहैं ।।१०७।।
दोहा सत्तरलाख छप्पन सहस, इतने कोडाकोड़ि | एक कोड़ पूरब वही, अंक इकीसह जोड़ि ।।१०८।।
चौपाई आरजखण्ड काल पट बह, सुखदुख कर पूरन निर्वहै । तीन कोश उस्कृष्ट, सु देह, एक हाथ को जघन भनेह ।।१०।। तीन पल्य आयु उतकृष्ट, षोडश वर्ष हि कनिष्ठ । सकल म्लेच्छनमें नर होइ, धर्म विना नहि सुखदुख जोइ ।।११०।। पायु कायको यह परवान. भरत रावत प्रार्य समान । म्लेच्छ विदेहनमें जे लेख, काय प्रायु उनहीं सम पेख ।।१११॥
चौपाई भोगभूमि त्रय काल त्रय, चतरथ काल विदेह । पंचम काल म्लेच्छ सब, छट्ठम नारक तेह ।।११।। प्रारज दश सब मांहि में, वरतं छह काल । घट बढ़ बढ़ घट देहि थिति, लहै बहुत जंजाल ॥११३।।
दोहा संख्या सब नर जीवन सुनौ, गर्भज संमूच्र्छन दुर भनौ। गर्भज नर सबको परमान, कल्पभाग सौ तिहि उनमान ॥११४॥ ताके अंक उत्तीस हि जोह, तामें नारी भाग ज दोय । एक भाग है पुरुष निदान, तेही में जु नपुंसक जान ।।११।।
उक्तं च गाथा सत्तादि णवहि दो दो, अट्ठक छक्क दोण्णि पंचेक्कं । चद् दुग छक्क चदुरी, तिय तिय सत्तं तहा पणगं ।। णव तिणि पंच चदुरौ, तिणि तहा णब य पंच सुण्णं च । तिय तिय छक्कं च तहा, मणस्सरासीपमाणं तु ।।
(७६२२८१६२५१४२६४३३७५६६५४३६५०३३६) सम्मछन नरको उन्मान, कहै जिनागम संख्य प्रमान । यह संक्षेप मनुषगति जान, अब देवन का करौं बखान ।।११६।।
देवगति वर्णन भवनाबासी दश विधि थान, असुर कुमार प्रथम पहिचान | काय धनुष पच्चीस उत्तंग, तुर्य नरकली विक्रिय अंग ।।११७।। अब नब भवन तनौं सुन भेव, काय धनुष तन उन्नत लेव । तीन पल्य सब उतकिठ प्राव, और जघन्य सहस दश ठाव ॥११८॥
मीठे दूध को पीकर भी महा विषैला काला सांप अपने स्वाभाविक विषको नहीं छोड़ सकता उसी तरह अभव्य भी पागम रूपी प्रमतको पान करके मिथ्यात्व को नहीं छोड़ता। अतः शेष तेरह गणस्थान पार्श्ववर्ती भव्यों के ही हो पाते हैं। अभव्य एवं दरवर्ती भव्योंको कदापि नहीं होते। इस प्रकार श्रीमहावीर प्रभने जीवतत्वकी व्याख्या पहले तो आगम (पारमाथिक) भाषामें की। पूनः उसी तत्व उपदेशका व्याख्यान आध्यात्म व्यवहारिक भाषामें उन्होंने किया । बहिरात्मा, अन्तरात्मा और आत्मा ये तीन प्रकारके जीव, गुण और दोष की अपेक्षा के लिए कहे गये हैं । बहिरात्मा वही है जो जोब तत्त्व अतत्त्व
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साढ़े बारह दिन जब जांहि, मनसाहार लंहिं मुख नादि । नेत्र तिर 'जोन इन कोड, देव र दूलिका छोड़।।११।। तिन देवन जिय राशि बखान, असंख्यात गुण को परवान । अव व्यन्तर हैं अष्ट प्रकार, (वि) मानसंख्याते निरधार ।।१२०॥ प्रथम हि शुभ परिणाम हि जान, साढे चार जाति परवान । किनर अरु किपुरुष जु दोय, मनोरंग गंधर्व हि सोय ।।१२।। प्राधे यक्ष सबै शुभ कहे, अशुभ प्रमाणी प्राधं लहे। राक्षस भूत पिशाच य सर्व, यहै अष्टविध व्यन्तर गर्व ॥१२॥ एक एल्य उत्कृष्टी प्राव, दश साहस्र जघन्य लखाव । सब दश धनुषाहि व्यन्तर काय, विक्रियधरै भवन दर चाव॥१२३।। नेत्र विषय जोजन पच्चीस, साड़े वसु दिन भोजन कीस । असख्यात जियराशि प्रमान, अव ज्योतिष देवन पहिचान ॥१२४|| मुर्य चन्द्र ग्रह नम्बत जुतार, सप्त धनुष की काय विचार । आयु पल्य दो हैं उतकिष्ट, वरष सहस दश कही कनिष्ट ॥१२५।। साढे सात दिबस गत जब, मनसा हार लेई जो सबै। नेत्र विषय जोजन संख्याय अघ ऊरध सब देख गात ॥१२६।। ज्योतिष देव जीवकी राशि, असंख्यात गुण जिनवर भासि । देविन सहित भोग भोग, भवनत्रिकको यह संजोग ।।१२७।।
कल्पवासी देव वर्णन
सौधर्मा ईशान जु दोय, काय प्रमान सप्त कर होय । आयु दोय सागर उतकृष्ट, सागर एक कही जु कनिष्ट ॥१२॥ काया सौ सुख भुगतै जास, दोय पक्ष गत लेय उसास । दोय सहस वरष जब जाहि, मानसोक साहार कराहि ।।१२६।। प्रथम नरक लो बिक्रिय लहैं, तहां प्रमाण अवधि सरदहै। सनत्कुमार महेन्द्र बखान, छ कर उन्नत तन उन्मान ।।१३०॥ सागर सात जु अायु लहेव, असपरशत सुख काम भनेव । सात पक्ष बीते उच्छ्वास, सात हजार वर्ष गत जास ॥१३॥ मानसीक तब लेइ प्रहार, नोजे नरक विक्रिया पार । ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर देव, दश सागरको थिति ले तेव ॥१३२।। साढ़े पांच हाथ की देह, रूप देख माने सुख नेह । पांच मास पर लह उसास, वर्ष सहस दश भोजन आस ।।१३३|| चौथे नरक विक्रिया गहै, उनहोलौं ज अवधिको लहैं । लान्तव अरु कापिष्टहि अंत, चौदह सागर आयु घरंत ॥१३४॥ पांच हाथको धरै शरीर, रूप देख सुख मानं बोर। सात मास गत लैहि उसास, चौदह वरष सहस छह जास ॥१३॥ पंचम भूमि अबधि कर शेष, धरै विक्रिया ताहि विशेष । शुक्र महाशक्र सुर ईश, सोरह सागर आयु सरीश ॥१३६।। साढ़े चार हाथ तनु धार, शब्द शब्द कर सुख अनुसार । सोरा पक्ष उसासहि धार, सोरा सहस वर्ष आहार ।। १३७॥ पंचम नरक तन बिक्रिया, तितही लौ जु अवधि धर लिया । शतार सहस्रार दै जान, अष्टादश सागर थिति मान ।।१३८॥ शब्द सुख्यको सदा लहेब, चार हाथ तन धरै ज देव । नमै मास उच्छवासहि धार, सहस प्रकारा वर्ष में अष्टम नरक बिक्रिया कही, अवधि सहित देखें सब सही। प्रानत प्राणत सुर दो सार, सागर वीस आयु तहं धार ।।१४०।। साढ़े तीन हाथ वपु लेह, मनकी उमंग सुख्यको नेह । वीस पक्षगत श्वासा वहै, बीस सहस, वष भोजन लहै ।।१४।। षष्ठहि नारक विक्रिया लहै, तहां प्रमान अवधिको गहै। आरण अच्युत कल्पाहि जान, बाइस सागर प्रायु प्रमान ॥१४२।। तीन हाथ वपु सोहै तेह, मनमें सुख्य धरें अति नेह । वाइस पक्ष गहै उच्छ्वास, बाइस सहस वर्ष जब नाश ।।१४३।। मनसा भोजन लेइ जु सोइ, षष्टहि नरक बिक्रिया जोइ । उतही लौं जु अवधिको जान, अब देदिन थिति सुनौ प्रमान ।।१४४॥ सौधर्म हि देविनकी पाव, पंच पल्य उतकृष्ट हि ठाव । ईशानहिकी सातौं पल्य, सनत्कुमार माहि नौ पल्य ।।१४।।
गुण, अगुण, सुगुरु कुगुरु, पाप-धर्म, शुभ अशुभ, जिनशुभ-कुशास्त्र, देव-कूदेव, एवं हेय उपादेयको विश्लेषण क्रिया करके परीक्षामें असमर्थ एवं विचार हीन है। जो कि बिना विचारके ही अपनी इच्छाके अनुसार सब वस्तुओंको ग्रहण कर लेता है वही मूर्ख पहला बहिरारमा है । ग्रहण किया गया पदार्थ असत्य हो अथवा सत्य हो। जो जड़मति महाविषके समान नाशकारी विषय जन्य सुखको ग्राह्य समझकर सेवन करता है वही बहिात्मा है। जो बुद्धिहीन जड़ शरीर एवं चैतन्य रूप जीव को परस्पर सम्बद्ध हो जाने से एक ही मान लेता है वह ज्ञानसे बहुत दूर है-निरामुख है और कुछ भी नहीं जानत' बहिरात्मा जीव अपनी
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इहि विधि दो दो बड़तो लेख, सहस्रार लौं लहै विशेख । पानत ते बढ़ सात गनेव, षोडश लौं लीजो सब येव ॥१४६।। पचवन पल्य तहां ठहराव, अव ऊरधको सुनिये भाव । ग्रंबेयक अध देव अहिद, काय अढ़ाई हाथ प्रवन्ध ।।१४७॥ मागर तेइस आयु जघन्य, पच्चीसहि उत्कृष्ट गनिन्य । देविनि वजित सोहै सोय, सुख्य असंख्य गनै अवलोय ।।१४८।। मध्यम ग्रेवक दो कर देह, अट्टाइस सागर थिति लेह । ऊरध ग्रंबक तन कर डेढ़, इकतिस सागर आयु प्रवेद ॥१४॥ नव मवांतर देव ज काय, सवा हाथ सो है सुखदाय । बत्तिस सागर प्रायु प्रमान, अब पंचोत्तर सुनौ बखान ।।१५०॥ एक हाथ उन्नत तन दीस, सागर आयु लहैं तेतीस । सप्तम भमि नरककी देख, अवधि विक्रिया तहं लौं पेख ॥१५॥ तेतिस पक्ष लहैं उस्बास, तेतिस सहस वर्ष गत जास। मानसीक सो लैहि प्रहार, है एका अबतारी सार ।।१५।। अहमिन्द्रहके सुख्य ज भनौं, भाग असंख्य कल्प सुर गनौ । पंचोत्तरके देव विशेख, तिनले संख्य संख्य गण लेख ॥१५॥ सो सौधर्म स्वर्ग परजत, याहो विधि गन लीजो संत । अव चौदेवन संख्या जोड़, साढ़े बारह कोडाकोड़ ॥१५४|| जितने श्रद्धा पल्य वखान, तिनके नाम गुनो बुधिवान ! तितनै हैं सब देव निशंक, अट्टानव एकस अंक ।।१५५।। इहि विधि चारों गति की सीव, दुःख सुक्ख लह भटके जीव । अब गति बंध तनौं सुन भेद, जिमि नासै भव भव मन खेद ||१५६॥ जिलनी आयु जीवकी पर, पैसटसै एक सब दल कर। आठ भाग कर गासको लहै, ताके भेद सुनी अब यहे ॥१५॥
बोहा
दोय सहस अरु एकसै, और सतासी लीय। प्रथम भाग ए दल रहै, तब गति बांधहि जीव ।।१५८।। दुतिय भाग में सात सै, अर ऊपर उनतीस । दीस तेतालीस तृतिय, तुरिय, इक्यासी दीस ।।१५६।। रहे पंचमें भागमें, दल सत्ताइस प्राव । षष्टम नव सत्तम तृतिय, अष्टम एकहि ठाव ।।१६०।। शभ भावन शुभ गतिबंध, अशुभहि दुर्गतिजाय । सो भावी छटै नहीं, कीज कोट उपाय ।।१६।।
अथ इन्द्रियमार्गणा
चौपाई अव पंचेन्द्रियको सुन भेव, जदे जदे विपयनकी सेव । चाप चारस इंद्रिय फरस, चौंसठ जीभ नाकसी सरस 1॥१६॥ इन तीनों ते गुनियो संत, दुगुनं दुगुन असैनी अन्त । चतुरन्द्रियको चक्षु प्रमान, उनतिसस चौवन अधिकान ।।१६३॥ तिनत दुगुण प्रसनी चक्ष, पाठ सहस धनु श्रवण प्रतच्छ । अब सनी को विषय निरभनौ, जिहि विध जिन पागम में सूनी॥१६॥ सपरस प्रथम विषय परवान, नव जोजन लघु लहै निदान । नव रसना नव प्राण जु होय, नैन विषय आगे अवलोय ।।१६५।। सैतालीम सहस शत दोय, जोजन अंसठ अधिक जु सोय । बारह जोजन श्रवण न मनै, यह मिति क्षेत्र विषयको गुनै ।।१६६
कायमार्गणा
दोहा पांचों थावर एक त्रस, ए षट्काय गनेव । भेदाभेद अनेक विध, ग्रन्थमाहि लहि भेव ।।१६७।।
दुर्व द्धिके कारण उलटा समझता है। वह पापोंको पुण्य समझ कर उनका आचरण करता है और अनेक प्रकार के कष्टों को पाकर दुखित होता है। ऐसे लोग इस संसार रूपी महाघोर बनमें सदैव भटका ही करते हैं। जो कि तप, श्रत एवं व्रतोंसे युक्त होने पर भी प्रात्म-स्वरूप एवं परस्वरूप का अच्छी तरह विचार नहीं कर पाता वह आत्म-ज्ञानसे वंचित है। इसलिये बुद्धिमानों को उचित है कि इन बहिरात्माओं के संसर्ग से सदैव बचा रहे बहिरात्मा जघन्य पथके पथिक होते हैं, स्वप्न में भी इनका
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योगमार्गणा चौपाई
अब सुन पंद्रह जोग जु सोय, मन वच काय प्रिविधि संजोय । मन के चार जोग पहिचान, सत्य असत्य दोय परवान ।। १६८ ।। उभय जोग तीसरी कया, अनुभय मन चौथौ निरवह यो । वचन जोग चारौं उनमान, सत्य असत्य भेद दो जान ॥१६६ ।। उभय वचन अनुभय बच होइ, तिनके भेद सुनो अवलोइ । सत्य कहावै साची बात, तहां असत्य झूठ विख्यात ॥१७० ।। कछू झूठ कछु सांची कहै, उभय जोगको इहि बिधि लहै । जहां न सांच भूठ परसंग, अनुभव जोग कहावं अंग ॥१७१॥ प्रथर्माह औदारिक है काय, औदारिक मिश्रित दो थाय । वित्रिय काय जोग त्रय जान, बिक्रिय मिथ काय जोगान ।।१७२ ।। पाहरक काय जोग पंचमा, अहरकमिथ काय छट्टमा । कार्मण काय जोग पे सात, सब पन्द्रह जानौ उत्तपात ॥१७३ ।। जोलो जोग गमन लह जीव, कर न सके सरदहन सूकीव । जब त्यागौ सत्ता इन तनी, होय अयोगी केवल धनी ॥१७४ ।।
वेदमार्गणा अस्त्री पुरुष नपुसक जान, एही तीन भेद पहिचान । इन्हें धर जिय नर्तत फिरे, अपनी सुधि नहि कब करे ।।१७५ ।।
कषायमार्गणा चार चौकड़ी सोरह जेह, हास्या दिककी नव गन लेह । ये सब मिलि पच्चीस कषाय, इनको धर जिय जग भटकाव ॥१७६
ज्ञानमार्गणा ज्ञान आठ-मति श्रुत दो जान, (अ) वधि मन परजय केवल ज्ञान । तीन कुज्ञान मिले सब आठ, ज्ञानमार्गणा इहि विधि ठाठ ।। १७७
संयममार्गणा संयम और असंयम जाम, छेदोपस्थापन परवान । यथाण्यात सामायिक और, सूक्षम सांपराय गुण ठौर ॥१७८॥ अर कहिए परिहार विशुद्ध, ये ही सातों संयम शद्ध । अब इनको कछु सुनिये भेव, भाग्यौ है श्री जिन देव ।।१७६।। पंच महाबत समिति लहाय पंचेन्द्रिय जीते जु दवाय । मन वच काय दण्ड कर त्याग ताको भेद सुनौ बड़ भाग ।।१८०|| प्रथम दण्ड मन को जानिये, विविध रूप ताके मानिये । रागद्वेष मोह ये सीन, तिनके भेद सुनो परवीन ॥१८१।। प्रथम हास्य रस माया लोभ, रागतने ये जानो क्षोभ । क्रोध मान भय आरति तेह, शोक ग्लानि द्वेष हैं येह ॥१८२।। तीन मिथ्यात बेद पून तीन, मोह तनी रचना परवीन । इन जोतं उपज बैराग, तह कन दंड तनी है त्याग ।।१८३।। वचन दंड के सात हि भेद, अनत, अरु उपघात निवेद । पिशुन परोप गनौ अभिसन्न, पर वार्तिक पर होइ हसन्न ।।१८४।। झूठ कथन तहं अनृत विख्यात, मारण कहै वहै उपघात । कपट प्रपंच पिशुनता जान, वचन कठोर परोप बखान ।।१८५॥ जसं अपनी प्रभुता कहवाब, सो अभिसन्न नाम, ठहराव । बात कहत सबको दुख होय, सी परवात कहै मुनि लोय ॥१८६॥ दया रहित जो कहिए बात, यह हसन्नता को उतपात । इनसे रहित गहै तप जब वचन दंड त्यागी मुनि तबै ।।१८७॥ काय दण्ड अब सात प्रकार, प्रान बद्ध चोरजति असार । मथुन परिग्रह प्रारम्भेव, ताडून उग्न विषय दुख देव ॥१८८।।
संसर्ग प्रकल्याणकर होता है।
अन्तरात्मा वे हैं जो कि बहिरात्माके बिपरीत हैं। इनकी बुद्धि विवेकशील होती हैं। ये जिन सिद्धान्तके धर्म-सूत्रों को जानते हैं और तत्व-अतत्व, शुभ-अशुभ, देव-कुदेव, सत्य-असत्य मत, धर्म-अधर्म तथा मिथ्यामार्ग एवं मोक्ष मार्गके यथार्थ भेदोंको अच्छी तरह जानते हैं । जिनमें ऐसी भेद ज्ञानात्मक शक्ति है उसी को जिनेन्द्र महावीर प्रमू ने अन्तरात्मा कहा है। जो कि अपने
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प्रान बद्ध है जीव संहार, चोर जती चोरे निरहार । शील रहित है मथुन नाम, परिग्रह बहुत जोरबी दाम ।। १८६ ।। वह उद्यमको जहं विस्तार, सो प्रारम्भ तनौ अधिकार । यष्टि मुष्टि कर मारण लहै, ताइन अंग कहावै वहै ।। ११०॥ जो काह डर पावै सही, तासी कहि उपग्र विप यही। इन विन जो तप साधे धनी, कायदण्ड का त्यागी भनी ।। १६॥ दृतिय अगंयम मुनहु प्रवान, स रक्षा ते रहित बखान । सा हो तान जाग करि रंभ, सरंभ समारम्भ ग्रारम्भ ॥ १६२ ।। जीववद्धिको कारण जहाँ, सो संरम्भ कहावं तहां । जीव बद्धको आयुध यान, समारंभ भासी पहिचान ।। १६३॥ प्राणी जहां डारिये मार, सो प्रारम्भ भेद निरवार । जव मन बरते ऐसे भाव, तही असमयको ठहराव ।। १६४ ।। संजम धारी समताबंत, प्रारति रौद्र निकन्दन सन्त । श्रावक कर्म जु पहिले धरै, सो प्रायश्चित्त बल' कर हरै ।। १६५ ।। छही काल माध श्रिर ध्यान, सो सामायिक वंत बखान । वैविधि संजमको प्रतिपाल, दयावंत इन्द्रिय नहि चाल ।। १६६ ।। जहं त्रस थावर को संहार, भयो प्रमादतनों अधिकार | अथवा भयो होय व्रत भंग, कर विलाप धरै दुख ग ।। १६७ ।। ता निमित्त संजम प्रतिपाल, अपने व्रत को कर संभाल । बहुरि न जीव विराव सोय, यह छेदापस्थापन हाय ।।१९।। तीस वरषको मूनिवर राय, सेवे तीर्थकर के पाय । नवौ पूरव प्रत्याख्यान, हित प्रमाद पड़े बुधवान ॥१६६ ।। निरविद उतपात काल प्रवान, जनम जान अरु देश बखान । द्रव्य स्वभाव जोव गुण जोते, सो मुनि भेद बताव तिनं ।। २०० ॥ कर्म निर्जरा बहु विध करै, घोर वोर तपको मादरे । श्रय संख्या के अन्तर चल, दे गाऊ मारग दल मलै ॥ २०१ ।। पंच समिति को पालनहार, तोन गुप्तमें करै विहार । दिसा रहित तजै दुरबुद्ध, यह कहिये परिहार विशुद्ध ।। २०२ ।। सूक्ष्म थुल जीव प्रतिपाल, तप प्रखण्ड धारी गुनमाल । दरशन ज्ञान समीर चलाय, प्रजुलित करंरा अग्नि शुभ जाय ।। २०३॥ कर्म रूप सब ईधन जितौ, दयौ जराय मुनीश्वर सितहो । ध्यान अठारहि करमें ल्याय, अरुकषाय को दियो ढहाय ।। २०४।। सूक्षम रही मोहको जोर, ना क्षय कारन उद्यम पोर । जहं ता कर छोज मुनि देह, मूक्षम सांपराय गुण एह ॥२०५ ।। तपकर नारी सकल कपाक, अशमात्र कोऊ न दिखाय । बीलराग चारित रस पिये, प्रातम अनुभव बरते हिये ।। २०६॥ जथास्यात लाही को नाम, सानों सजम ये गुणधाम । जीव धरं ये सातों रूप, नप संजमधारी जु अनुप ।। २०७ ।।
दर्शनमार्गणा
चक्ष प्रचक्षु अवधि जुत तीन. केवल दर्शन चौथीलीन । ये हो चारों दर्शन जान, दरौ वस्तु लोक प्रस्थान ।। २०८ ।।
लेण्यामार्गणा
प्रथम कृष्ण घर नरक लहंत, दूज नोल हि थावर जंत । तीज कापोत हि तिरंजंच, चौथे पीत मनुष पद संच || २०६॥ पंचम पद्म स्वर्गमति लहैं, षष्ठम शुक्ल भाव शिव गहै । ये छह लेश्या भेद विचार, सुनहु भव्य मिथ्या निरवार ।। २१० ॥ भारत रौद्र न त्याग कदा, धर्म विजित कोधो सदा । दया रहित परपंची होय, लेश्या कृष्ण जास अग जोय ॥ २११ ।। मंदबुद्धि परमादी गुनौ, निडर वचन बोले बहु घनो । है परर्पयो कामी घोर, लेश्या नील तास को और ।। २१२ ।।
अापको निष्फल एवं सिद्धांके समान समझ कर योगियों की तरह ध्यान मग्न रहता है अर्थात् चितवन किया करता है और प्रात्म-द्रव्य एवं परदेह इत्यादि वस्त्रों में वास्तविक भेदोंको समझता है उस महाज्ञानीको अन्तरात्मा कहते हैं। थोड़े शब्दों में ऐसे कहा जा सकता है कि जिसका पवित्र एक्येष्ठ मन उत्तम अधर्मके विचार कर लेने में कसौटी के समान होकर निर्णय कर डालता है वही अन्तरात्मा या परम ज्ञानी है। ऐसा जानकर आत्माकी तरफ से सम्पूर्ण जड़ताको हटा ले यौर परमात्म पद पाने को इच्छासे उसके पहले अन्तरात्म पदको प्राप्त करे।
परमात्मा सकल विकल के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। जो दिव्य शरीर में अवस्थित रहता है वह सकल परमात्मा
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शोक कर मरु दुष्ट स्वभाव, परनिन्द्य निज कहै बढ़ाव । इच्छा युद्ध कुमुरुकी सेव, यह कापोत धनीको भेव ॥२१३।। विद्यावत दया परिणाम, कार्य अकाय विचारत जाम । लाभ अला- समट याचरे. लेण्या णत जहां उर घरं ।।२१४।। क्षमावत दाता बुधवान, कर देव पूजा द्यति ध्यान । सब जीवन सों समताभाव, यही पद्मलेश्या ठहराव ।।२१।। राग द्वषनिज डारे खोय, निद्रा शोक न दीसे कोय । उत्तम भाव धर जब जीब, ता सा लेश्या शुक्ल कहीव ॥२१६।। सन इनको दृष्टान्त विचार, गये पुरुष षट बनहि मंझार । तहाँ आम्रतरु फलजुत देख, बैठे निर्मल छाया पेख ।।२१७॥ फल भक्षण की इच्छा धार, बोल निज निज भाव सम्हार । कृष्ण धनी कहि जर काटिये, पीछे यानो फल बांटिये ॥२१॥ तब बोल्यौ जाके अंग नील, पेड़ो कारत' करी नदील । अब कापीत बनी इम कहो, याकी डारे काटो सही ।।२१६॥ कपीत पति ऐसौ भेव, कोंचा कोना तोर जु लेव । बोल्यो पद्म धनी यह बात, पके पके फल टोरो भ्रात ॥२२०॥ कहै शुक्लचारी यह गाथ, गिरे लेउ, मत लोबो हाथ । सट पटलेश्या के संग अनूप, नाचत फिर जीव चिद् प ॥२२॥
भव्यमार्गणा
भव्य अभव्य राशि द्वै जान, इनके अब सुन भेद बखान । गुरु थुत देव तनी जु प्रतीति, जाके उर श्रद्धाको रीति ।।२२।। आर्जव परिणामी बुधवान, अरु गनती में प्रापौ जान । जो कमनि वश जाय निमोद, फिर निकस निज वचन विनोद ।।२२३|| काल लन्धित शिवपुर जाय, भव्य राशि को यही स्वभाव । जहां न गुरुके वचन प्रतीत, गहिल रूप नाहि इंद्रिय जीत ।।२२४।। तपबल जो ग्रीवक ली जाय, फिर वहत निगोद ठहराय । सदा काल जग भ्रमतो रहै, अभाव राशि याही सौं कहैं ।।२२।।
सम्यक्त्वमार्गणा
प्रथम मिथ्यात दतिय सासान, तीजौ सम्यक मिल्छ बखान । उपशम वेदक क्षायिक एह, तिनको कथन सुनो घर नेह ।।२२६॥
सम्यकत्व के भेद
दोहा क्षय उपशम वरतं त्रिविध, वेदक चार प्रकार । क्षायिक उपशम जुगल जुत, नवविध समकित धार ।।९२७।। (१) चार खिपइ त्रय उपशमइ, (२) पन खय उपशम दोय । (३) क्षय षट उपशम एक जो, क्षय उपशम त्रिक होय ॥२२॥ (४) जहाँ चार प्रकृतिन खिपय, दो उपशम इक वेद । क्षय उपशम वेदक दशा, तास प्रथम यह भेद ॥२२६।। (५) पंच खिपद इक उपशमड, एक वेदै जिहि ठौर । सो क्षय इक उरवेदकी, दशा दुतिय यह और ॥२३॥ (६) क्षय पट वेदै एक जो, क्षायिक वेदक जोय । (७) षट उपशम इक प्रकृति विदि, उपशम क्षायिक सोय ||२३१। () षट उपशम या खिपइ जो, उपशम क्षायिक सोय । सातम प्रकृति उदोत सौं, वेदक समकित होय ।।२३२||
खय उपशम, वेदक खइय, उपशम, समकित चार । तीन, चार, इक, एक मिले, सब नत्र भेद विचार ||२३॥
सोरठा अब निश्च व्यौहार, अरु सामान्य विशेषता । कयौ चार परकार, महिमा समकित रतनकी ।।२३४।।
यानी अर्हत प्रभ है। जोकि शरीर रहित है ऐसे सिद्ध-महा-पुरुष निकल परमात्मा कहे जाते हैं। जो कि घातिया कर्मों का एकदम नाशकर उनसे रहित हो गये हैं, नव कोवल लब्धि बाले मोक्षके अभिलाषी हैं, तीनों जगत् मनुष्य एवं देवों के द्वारा सदैव ध्यान करने के योग्य हैं और संसार सागर में डूबते हुए भव्य-प्राणियों को अपने धर्मोपदेश रूपी कोमल करोंसे उवारने के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं तथा अत्यन्त बुद्धिमान महा-पुरुषों के गुरु हैं, धर्म-तीर्थ प्रवर्तक हैं, साक्षात् तीर्थकर स्वरूप हैं, सामान्य
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उक्त इकतीसा
मिथ्यामति गांठ भेद् जागी निर्मल सुजोति | जोगसी अतीत सो तो निश्चय प्रमानिये ॥
है दुइ दशा सौ कहावे, जोग मुद्रा धरै चेतना चिन्ह पहिचान प्रापा पर वेदे करें भेदाभेदको विचार विस्तार रूप
मति श्रुत ज्ञान भेद व्यवहार मानिये ॥ अलग ताते सामान्य वखानिये ||
।
पौरुष
से जे
उपादेव सो विशेष जानिये ॥
संतीमागंणा
चौपाई
नो मनकर सहित बखान, द्वितीय असे मना जान इहि विधि घरं मातमा रूप करें जगत में नृत्य अनूप ॥ २३५॥
श्राहारमार्गणा
बाहारक जह भोजन चार ग्रनहारक जहं प्रकृत अहार जो नाहि तील भ्रमण जगत के मांहि ॥ २३६॥
गुणस्थान निरुपण
प्रथम मियात ससादन जोम मिश्र बहुर भद्र पुनि हाय । देशवृत्त पंचम गुणवान, पाठ प्रमत्तनाम तिहि जान ||२३७|| श्रप्रमत्त सातम जानिये, अठम अपूर्वकरण मानिये । श्रनिवृत्तिकरण नवम्पुनि सोय, सूनसराय जोय ॥२३८ ।। गरम है उपशांत कषाय, क्षण मोह द्वादश गुण थाय । तेरम कह्यो संजोग केवली पुनि प्रजोगीदमों वली || २३६॥
दोहा
अब वरन मिध्यात भेद पंच परकार ।। २४०|| संशय पर अज्ञान जुन एक पांच मिध्यात ।। २४१ ।। चौपाई
कर एकान्त पक्ष मन सोय, नय अनेकको भेद न कोय । मृपावंत जे दक्ष कहाय, प्रथम मिध्यात हि यहा भाव ॥८।।
श्री जिन आगम वाणी सही, गणधर देव प्रगट जग कही जं नर मन विकलपको ग, तत्व अरथ नहिं श्रद्धा लहै निज सुख दुख कारण जे जोव, परको पीड़ा करत
। तिहि उथापिनूतन रचि कहै, ते विपरीत जग दुख लहैं ।। २८३ ।। । मनमें संसय राखें धन, ते संशय मिथ्याती मनौ ।। २४४ अपने स्वास्थ औरहि हाँ, ते अज्ञान मिथ्याती मनें ॥ २४५॥ सादि मिध्यादृष्टि
तो
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वरने सच गुण पानके नाम चतुर्दश सार एकान्त हि विपरीत पुन' तोजो विनय विख्यात
दोहा
जो मिध्यातम उपशमं जिन मारग रत होय । फिर श्राबै मिथ्यात में, सादि मिथ्याती जोय || २४६ ||
·
केवली स्वरूप हैं, सर्वबन्ध हैं, अलोकिक प्रदारिक शरीर में शोभायमान हैं और सम्पूर्ण लोकातिशय सम्पत्तियांस युक्त होकर संसार में सबको स्वर्ग एवं मोक्षरूपी उत्तम फल पा जानेकी इच्छा अनवरत धर्मोपदेश रूपी अमृतकी वर्षा किया करते हैं उन्हींको सकल परमात्मा कहते हैं वे ही वन स्वामी हैं और जिनेन्द्र पद के अभिलाषी हैं उन्हें उचित हैं कि किसी धन्यकी शरण में न जाकर इन्हीं सकल परमात्मा प्रभुकी सेवा करें। ऐसा ही नियम है । पूर्वके लोग ऐसा ही करते बाये हैं । जो सम्पूर्ण कर्मों से
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दोहा उपशम भाव नहीं भये, भ्रम्यौ काल अनन्त । सो अनादि मिथ्यातमें, ममता मगन रहंत ॥२४७।।
सासादन गुणस्थान
चौपाई चड़े छठे लौं प्रानी जाय, उपशम बल फिर उदय कराय । एक समय छह प्रावलि रहै, तहं ते गिर मिश्यात हि गहै ॥२४८।।
मिश्र गुणस्थान दरशन मोह प्रकृति त्रय सार, अनंतानुबंत्रीकी चार । जब ए उपशम कर समभाव, तबहि मिगुरण थान लखाव ॥२४॥
अब्रत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान समकित तनों जहां उद्योत, सात प्रकृति को नाश जु होत । व्रत सों रहित भाव उर शुद्ध, सो अव्रत गुणथानक बुद्ध ॥२५॥
देशन्नत गुणस्थान अपन विधि व्रत धावक तन, अरु पखाद्य त्यागी तिहि भने। है गहस्थ पर मुनिहि समान, देशनती कहिये गुणथान |॥२५॥
प्रमत्तसंयत गुणस्थान
__दोहा पंच प्रमाद दशा धर, गुण प्राइस धाम ।थावरकल्प जिनकल्प जुत, पुलाकादि सुन नाम ।।२५२।। धर्मराग विकथा उच्चरे, निद्रा विषय कषायन धरै । ए कहिये पांचों परमाद, इन जुत मुनिवर सहित विषाद ।।२५३|| पंच महाव्रत पालनहार, पंच समिति गुण साधन धार । तपकर पांचों इन्द्रिय जीत, जाने षट यावश्यक रीत ॥२५॥ प्रासूक भूमि करै अस्थान, लंचे केश न करै सनान । वसन रहित दांतोन न कर, ठांडे ग्रास अहार जु धरं ।।२५॥ एक बेर लधु भोजन करै, ए अठवीस मूलगुण धरै: मुनिके संग शिष्य जो रहैं, थवरकल्प याही सौं कहैं ॥२५६॥ एकाकी मुनि परम प्रधान, तपोधनो जिनकल्पी जान । पुलाक बवृश कुशील निरग्रंथ, अस्नातक जुत सुन पंथ ।।२५७|| जथा धानके फूला जान, सो पुलाक कहिये परवान । धान तुषारिक सब तामांहि बकुश परिग्रह छूटौ नाँहि ।।२५८॥ ग्रही शिष्य राख निज पास, वगर समान कुशील प्रकाश । जो निरग्रन्थ तपस्वी घोर, ज्यों चावर छर निर्मल जोर ।।२५६।। जहं तुष मात्र परिग्रह नहीं, एकाकी नव बिहरत महीं । सो प्रस्नातक मुनिवर संत, राधे तंदुल सम जु मर्तत ॥२६॥ सह परीषह समतावान, है प्रमत्त नामा गुणथान । जतिकी क्रिया सकल या माहि, मुनिपद सहित प्रमादन खिपाहि ॥२६१।।
अप्रमत्तसंयत गुणस्थान
जहां अहार निहार न होय, पंच प्रमाद न दीसै कोय। धर्म ध्यान थिरता अधिकाय, अप्रमत्त मुणथान कहाय ॥२६२।।
रहित, शरीरादि मतियों से हीन परम ज्ञानमय, अतिशयमहान् तीनों लोक में श्रेष्ठतम, आठ गुणों से अलंकत तोनों लोक के बड़े-बड़े स्वामियों द्वारा सेवित, मोक्षाभिलाषी सिद्धोंके द्वारा वन्दनीय तथा संसारके मुकुटमणि के समान विराजमान हैं वे ही निष्फल परमात्मा कहे गये हैं। यही सर्वश्रेष्ठी सिद्ध परमेष्ठी अति निश्चल मन से मुमुक्षयों के द्वारा सदैव ध्यान करने के योग्य हैं। ऐसा ध्यान करनेसे क्रान्ति हीन योगी की तरह परमात्मा रूप मोक्षको सब लोग सहज ही में पालते हैं। प्रथम गुणस्थानमें उत्कृष्ट बहिरात्मा, दूसरे गुणस्थान में मध्यम और तीसरे में जघन्य शठके रूप में कहा गया है। इसी तरह जघन्य अन्तरात्मा चोथे गुणस्थानमें और उत्कृष्ट अन्तरामा बारहवें गुणस्थान में कहा गया है। इससे अनन्त केवली ज्ञानकी प्राप्ती होती है। दोनोंके
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अपूर्वकरण गुणस्थान कछू मोह उपशम जहं करं, अथवा किचित क्षय कर घरै। हौहि भये कबहूं न प्रनाम, अपूर्वकरण जानौं गुणधाम ।।२६३।।
अतिवृत्तिकरण गुणस्थान भाबतनी थिरता अति होय, चंचलता नहि दीस कोय । जहां न उलटै प्रधिको भाव, सो अनिवृत्तिकरण गुण थाव ।।२६४।।
सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान सूक्ष्म लोभ ददा जहं होय, शिव अभिलाषा छोड़ी सोय । ऐसे जहाँ होहिं परिणाम, सूक्ष्म साँपरायके धाम ॥२६॥
उपशांतमोह गुणस्थान जथाख्यात चारित्र उदोत, मोह वहां लौं उपशम होत । तहं ते गिर कर गुण हान, यह उपशांतमोह गुणस्थान ॥२६६।।
क्षीणमोह गुणस्थान जथाख्यात चारितके जोर, ताकर मोह क्षीण घनघोर। केवल ऋद्धि निकट जब प्राव, क्षीणमोह गणस्थान कहावं ॥२६७।।
सयोगकेवली गुणस्थान जहां घातियनकी भई हान, दोष अठारह रहित वखान । अनंत चतुष्टय प्रगट सही, संजोगी गुणथानक कही ॥२६॥
प्रयोगकेवलो गुणस्थान पुरन जथाख्यात जह होय, कर्म अघाती दीन खोय । पंच लघुक्षर तने प्रमाण, प्रगट अजोगी यह गुणथाण ॥२६६।।
जीवके भेद
दोहा
बहिरातम प्रथमहि कह्यौ, अन्तर पात्म दुतीय । परमातम तीजो सुनौ, त्रिविध भेद सब जीव ॥२७०॥
वहिरात्माका लक्षण
चौपाई तत्व प्रतत्व जान सब एक, गुण निर्गुण को नाहि विवेक । सुगरू कुगुरूको भेद न कर धर्म पाप मन इक सम घरै ।।२७१।। शुभ अरु अशुभ बराबर लेख, शास्त्र प्रशास्त्र एक ही पेख । देव अदेव विचार नाहि, हेयाहेय न तन मन मांहि ।।२७२॥ हालाहल पीवत सुख वहै, महा मूढ़ मिथ्यातम गहै । जड़ चेतन जान सम रूप, सो वहिरातम दुर्गति कूप ।।२७३।।
अन्तरात्माका लक्षण
जो जित सत्र विवेकी होय, सकल विचार वेदता सोय । तत्व अतत्व शुभाशुभ जान, देव अदेव भेद कर माने ।।२७४।। सत्यासत्य पुण्य अरु पाप, इनको भिन्न लख परताप । मुकति कुगति मारग दो पक्ष, जाने, सो अंतरातम दक्ष २७५।।
बीचमें जो शेष सात शुभ गुण स्थान हैं उनमें मोक्षमार्ग पर अवस्थित मध्यम अन्तरात्मा है। अन्तिम तेरह एवं चौदहवें गणस्थानमें तीनों जगत के जीवोंके द्वारा परम सेव्य परमात्मा प्रयोगी एवं सयोगी रूपसे वर्तमान हैं। - जो कि भूत भविष्यत् एवं वर्तमान तीनों काल में द्रव्यभाव प्राणोंसे जीवन धारण करनेकी शक्ति रखता है वही यथार्थ जीव है। पांच इन्द्रिय; वचन काय; आय एवं उच्छवास निःश्वास ये संज्ञी जीवोंके दस प्राण हैं । प्रसंगी जीवोंके मनको छोड़ कर शेप नो प्राण होते हैं। ऐसा बुद्धिमानोंने कहा है। ची इन्द्रिय जीवोंके पाठ ही प्राण कहे गये हैं, उनमें एक और कर्णन्द्रिय
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वहिरात्मा-अंतरात्मा का वर्णन 1
सप्तभंगी का वर्णन गौतम का आगमन और प्रपन का पूछना ।
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श्री १००८ देवाधि देव भगवान महावीर स्वामी के समव शरण में इन्द्र इन्द्रानी ने भाकर भगवान की स्तुति की।
भगवान सदा सुख सागर में मान रहते हैं उन्हें लेश मात्र दुःख नहीं है। और यह मनुष्य लोक उपमा रहित है यहाँ लोग शोक (दुःख का)
त्याग कर धम ध्यान करते है।
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अनरथ सकल जगत में जेह, हालाहल विष जान तेह । इनको जब जिय धोय बहावं, अन्तरात्म तब प्रगट कहावै ॥२७६।। कर्म हतनको उद्यम कर, रागद्वेष इन्द्रिय परिहरै । सिद्ध समान ध्यान तन धार, प्राभ्यन्तर निर्मल कर सार ॥२७७।। पातम द्रव्य देह कर भिन्न, जान हि बिध भेद रवन्न । जथा कसोटी सोने कसै, तसे अन्तरातमा लस ।।२७८|| सुख सरवारथसिद्धि प्रजंत, फिर पावं पद थी परहंत । अन्तरातमा दृढ़ जब होय, तब परमातम को अबलोय ।।२७६।।
परमात्माका लक्षण परमात्मा दो दिय जेहासका पुनि निकल नेह। दिव्य देह सो सकल बखान, निष्कल देह विवर्जित जान ॥२८॥
सकल परमात्माका लक्षण वाति कर्म जिन कीनं चूर, नव केवललब्धी भरपूर । नर सुर सव सेवे तिन पांय, अरु ध्यावे गुण चित्त लगाय ॥२६१।। सब हित कहैं धर्म उपदेश, भव्यनिको तारत परमेश । दिव्यौदारिक तन थिर थाय, अरु अतिशय मंडित है प्राय ॥२२॥ घामत वरपावत सोय, भव्यनको सुख करता होय । ताकर स्वर्ग मुक्ति फल लहै, प्रथम सकल परमातम कहै ॥२८३।।
निष्कल परमात्मा का लक्षण प्रप्टकर्म निरभक्त प्रधान, मुरतिहीन ज्ञान गुण खान । तीन जगत दिर, निवर्म सदा, महा अष्टगुण भुषित तदा ॥२८४|| तीनलोकपति प्रनमैं पाय, मुक्तितनों कारण उर लाय । जग चूडामणि निर्मल नाम, निष्कल परमातम मुखधाम ।।२८॥
बहिरात्मा मादि का गुणस्थानों में विभाग अव बहिरातम उतकिठ जान, गुणस्थान प्रनमौ तिहि थान । मध्यम लहै दुतिय गुणथान, अरु जघन्य तोजी परमान ।।२८६।। जो जघन्य अन्तर मातमा, गणस्थान चोथौ विहरमा । मध्यको सालम लौ वास, द्वादश लौं उत्कृष्टी भास ॥२७॥ परमातम गणथानक दोय, तेरम चौदम जानो सोय । गुणस्थान तन शिबपद रमै, परम सिद्ध तिनके पद नमैं ।।२८८॥
गणस्थानों का समय निरूपण
दोहा अष्टमते द्वादशम लौं, पर ती परवान । अन्तमुहरत तिथि सबै, इन पाठों गुणथान ।।२८६॥ चतुरथ सागर तीस त्रय, पंचम तेरम सृष्ट । कोटिपूर्व वसु वर्ष-घट, प्रथम अनादि अनिष्ट ॥२६॥ सासादन गुणथानकी, षट पावलि परवान । पंच लघु क्षर जानिये, तिथि चौदम गुणथान ॥२६॥
अथ जीवसमास निरूपण
दोहा सबै जीव संसार में, चौदह भेद प्रमान । ताकौं कछ विवरण लिखौं, भाख्यौ श्री भगवान् ॥२६२ ।।
की भी कमी हो जाती है । इसी प्रकार ते इन्द्रिय जीवों के सात प्राण (नेत्र को भी छोड़ देने से होते हैं। दो इन्द्रिय जीवों के नासा (नाक) हीन छः प्राण और एकेन्द्रिय जीवों के तो बचन एवं जिह्वा दो इन्द्रियों के हीन हो जाने से चार हो प्राण कहे गये हैं । अपर्याप्त जीवोंके अनेक प्राण हैं। इस बात को मागम से जान लेना चाहिये । इस जीव को बुद्धिमानों ने निश्चय तप के द्वारा उपयोगमयी, चेतना स्वरूप, कर्म, नो कर्म, बन्ध मोक्षका अकर्ता, असंख्यात प्रदेशी, अमूर्त, सिद्ध समान प्रौर परद्रव्यसे रहित कहा है। प्रशुद्ध निश्चय नयके द्वारा यही जीव रागादि भाव कर्मोका कर्ता और आत्म ज्ञान से हीन होकर कर्म फलोंका भोक्ता है। व्यवहार नयके द्वारा यह जीव प्रात्मा ध्यानसे रहित होकर कर्म एवं शरीरादि नौ कर्मों का कर्ता है। यही सांसारिक जीव
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चौपाई जगमें जिये जीव एक लौ, प्रथम भेद यह जानौ भलो । थावर अरु बस कहै बलान, द्वितिय भेद यह जान प्रवान ॥२६३।। थावर अरु बिकलत्रय होय, पंचेन्द्रीय तृतीय बह जोय । चारौं गति में गलं सदीव, नौथो भेद जानिये जीव ।।२९४।। एकेन्द्रिय दो इन्द्रिय जान, तेहिन्द्रय चतुरिन्द्रिय मान । पंचेन्द्रिय हैं जग विख्यात, पंचम भेद सुनौ यह भ्रात ।।१५।। थावर पंच एक त्रस जान, पटकायी यह भेद बखान । थाबर पच विकल इक सोय, पन्द्रिय जुल सानो होय |२६|| धावर पत्र विकल इक ठाठ, सैनी और असनी पाठ । पाचौं थावर विकल सु तीन, पंचेन्द्रिय जुत नब गन लीन ।।१७।। पृथ्वी चौक वनस्पति दोय, प्रत्येकहि साधारण सोय । तीन विकल पंचेन्द्रिय एक, एक दश भेद कहे जग टेक ।।२।। थाबर पंच सूक्ष्म अरु थूल, घस जुत एक एकादश मूल । सो दश थावर विकल जु एक, पंचेन्द्रिय मिल द्वादश भेक ॥२९॥ वे ही विधि थावर दश जान, अर विकलत्रय एक बखान । संज्ञि असंजि पंचन्द्रिय सोय, सेरह भेद प्रगट ये होय ॥३०॥ एकेन्द्रिय सूक्ष्म अरु थूल, तीन विकल पंचेन्द्रिय मूल । संशी असंज्ञि जुत सब सात, परजापत अप्रजापत गात ।।३०१॥ यह विधि चौदह भेद प्रमान, सब संक्षेप कहै गुणथान । और भेद अंव सूनिये मित्त, जिम नाश संशय भवि चित्त ।।३०२।।
दोहा
पाँचो थावर विकलत्रय, अरु निगोद द्वय जान । नर सुर नारक पशु सहित, चौदह भूत जुठान ॥३०३।।
चौपाई
अब उनबीस जु सुनहु समास, पश्वी चौक निगोटद भास । ये छह भेद सूक्ष्म अरु थुल, ताके बारह विध गुण मूल ।।३०४॥ वनस्पति द्वै भेद प्रमान, सूप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जान । विकलत्रय भापहि विध तीन, पंचेन्द्रिय संमनो मनहीन ॥३०॥ ए उनीस परजापत जान, फिर अपरजापत जु बखान । कहै अलविध प्रजापत सोय, सब समास संतावान जोय ॥३०६॥
दोहा अब समास अठानवे कहौं जथा प्रति देख । वियालीस थावर सबै, मुर दो नारक लेख ।।३०७।। विकलत्रय नव भेद गन, नव' मानुष परजंत । तिरचहि चौंतीस भन, लिस्यौ तिनहि विरतंत ॥३०८।।
चौपाई पृथ्वी चौक निगोद जु दोय, सूक्षम बादर बारह होय । वनस्पति द्वै भेद खान, सप्रतिष्ति अप्रतिष्ठिन जान ।।३०६।। चौदा परजापतये लहै, अप्रजापत चौदा ही कहै। चौदा अनधि प्रजापति एह, थावर कहै वियालिस तेह ॥३१०॥ स्वर्ग नारको दोय प्रकार, प्रजापते अप्रजापत सार है इन्द्रिय तेइन्द्रिय जान, चतुरिन्द्रिय विकलत्रय मान ||३११।। प्रजापते अप्रजापत सोय, जलधि प्रजापत । नव' होय । अब तिरजंच सूनो चौतीस, पंचेन्द्रिय में कहै जिनीश ।।३१२॥ प्रारजखण्डी गर्भज तीन, जल थल नभचर ए सुन लीन । सैनी और प्रसनी तेह, परजापत अप्रजापत एह ॥३१३।।
अपने इन्द्रियों द्वारा ठगे जाने पर अद्भुत एवं उपचरित व्यबहार नयसे घट-वस्त्र प्रमृति - वस्तुप्रोंका निर्माता है । यह प्र. सनुद्घातके बिना संकोच एवं बिस्तार शक्तिसे प्राप्त शरीरके बराबर हैं। दीपकसे इसका तुलना की जा सकती है । वेदना, कषाय, वैक्रयिक, मारणान्तिक, तैजस, आहारक केबलि समुद्घात ये सात प्रकारके समुद्घात कहे गये हैं। इनमें से तीन तेजस, पाहारक एवं वलि समुद्धात योगियों के होते हैं और शेष चार समुद्घात सम्पूर्ण सांसारिक जीवोंके हो सकते हैं। इस
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सन्मूच्र्छन थल जल नभ जान, सैनी और असैनी ठान । परजापते अपरजापते, अरु अलब्धि हैं ते परमिते ।।३१४॥ दोय थोक ये तोस बखान, गर्भज सन्मूच्र्छनके जान । भोगभूमिया दोय प्रकार, थलचर नभचर गर्भज धार ॥३१॥ परजापत अप्रजापत कहै, चार मिले सब चौतिस लहै । अब समास नव मानुष गनी, भोगभूमिया प्रथमहि भनौ ।।३१।। दुतिय कुभोग भूमि नर जोय, म्लेच्छ खंडके तीजा होय । परजापत तीनहि पहिचान, अप्रजापति को कही प्रमान ||३१७।। प्रारजखंड मनुष परमिते, अलधि सहित अय परजापते। एही नव विधि मानुष जान, सब मिलि अंठानवहि बखान ॥३१॥
दोहा अब समास सुन अवर विधि, भाषे गोमटसार । तिनहि भेद सब बरनहू, षट उत्तर सय चार ॥३१६॥
सोरठा पशु इकसै तेईस, नरकमाहि अंठानयं । नर तेईस विधि दीस, शतक वहत्तर देवगति ।।३२०॥
पशुगतिके १२३ भेदों का वर्णन
चौपाई
पृथ्वीमा भेद बालान कोगन पी वार्षिक परजान । पारी पावक पवन जु होय, वनस्पति साधारण दोय ॥३२॥ नित्य निगोद इतर सो सान, सर्व भए सातौं परवान । सूक्षम थूल चतुर्दश एह, अब प्रत्येक वनस्पति केह ॥३२॥ सुप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित दोय, ताके भेद सुनो बुध लोय । दूब बेल अरु छोटो वृक्ष, तस्बर और कंद परतक्ष ॥३२३॥ पंच भेद सु प्रतिष्ठ बखान, यही रीत अप्रतिष्ठित सु जान । यहै प्रत्येक वनस्पति बास, सब भये दश भेद समान ॥३४
दोहा
जब इन मांहि निगोद है, तब सुप्रतिष्ठित जान । जाहि निगोद न पाइये, सो अप्रतिष्ठ कहान ।।३२५॥ जाति दशौं परतेककी, वे चौदह चौवीस । परज अपर्ज प्रलब्धिके, सबै समान कहीस ॥३२६।।
चौपाई
पर्ज अपर्ज अलब्ध समान, चौदा अरु चौबीस बखान | ए नव भेद सबै परनए, बहतर मिलि इक्यासी भए ॥३२७॥ करमभूमि तिरजंच विख्यात, गर्भज संमर्छन दो जात । गर्भज परज अपर्ज प्रवीन, अलबध दो सन्मुर्छन तीन ॥३२॥ सैनी पंच असैनी पंच, दसौं भेद जलचर तिरजच । दसौं भेद थलचर पशुकाय, दसौं व्योमचर उड़ें सुभाय ॥३२॥ ए सब तीस कर्म भू ठौर, भोगभूमि प्रयके अन्न और । थलचर नभत्र र सौ छह ठये, परज अपर्ज दुवादश भये ॥३३०।। सबहि बियालिस कहै विचार, वे इक्यासी प्रथमहि धार । इकस ऊपर तेइस जान, पशुगति में सब यह प्रमान ॥३३॥
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जीवके स्वभाव गुण केवल ज्ञानादि हैं और विभाव-गुणमति ज्ञानादि हैं। तथा इस जीवके नर, नारक एवं देवादि पर्याय विभाव पर्याय और शरण हीन शुद्ध प्रदेश खभाव पर्याय हैं। पूर्व शरीरके विनाश एवं अन्य शरीरकी उत्पत्ति-कालमें एक ही यात्मा है अतएव उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य तीन भेद कहा गया है। इस प्रकार जिनेन्द्रदेव महावीर प्रभुने अनेक नये भेदोंके द्वारा गणघर गौतमकी दर्शन विशुद्धिके लिये जीव तत्वका उपदेश किया। इसके बाद जिनेन्द्र प्रभुने पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश एवं कालके पाँच भेद युक्त अजीष तत्त्वका व्याख्यान आरम्भ किया। रूप, रस, गन्ध स्पर्शवाले पुदगल द्रव्य अनन्त है और पूरण गलन
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दोहा नरक सातके जानिये, पटल सकल उनचास । परज अपज अंठान, जो समास प्रकाश ॥३३२।।
चौपाई
भोगमिया तीन विधान, उत्तम मध्यम जघन बखान । चौथे कुभोग भमिनर थान, पांचौ मलेच्छ खंड पहिचान परज अपर्ज दसों ठहराय, प्रारज खंड सुनी यब भाय । परज अपर्ज अलब्धि ज तीन, ए तेरह नरगति में लीन ३३४
दोहा गर्भज पर्ज अपर्ज दुइ, सन्मन नहि लब्ध । तिन उतपति भविजन सुनौ, यह संसार भवाब्ध ॥३३५।।
अडिल्ल नार जोनि कुच नाभि कांख में पाइये । नर नारी के मत्र मांहि ठहराइये। मरदा में गन्मर्छन सैनी जीयरा। अलवधि परजापते दयाधर जीयरा॥२३६।।
नारर जोनि जुन नाभि काल में पायो । नर नारी के मन्त्र माहि लहराइये ।..
दोहा वेशठ पटल ज स्वर्ग के, भवनपति दश जान । व्यन्तर पाठ प्रकारके, ज्योतिष पंच प्रमान ॥३३७|| भय छियासी थोक सब, पज अपर्ज गनेह । शतक बहत्तर सूर असुर, जीवरामास भनेह ॥३३८।। इकसै छयासी पर्ज नित, तितनै अपरज सोय । अलबध जिय चौतीस है, चउसय पट सब होय ॥३३॥ नियत एक चेतनमई, भद सरब व्यवहार । निश्चय अरु व्यवहारको, जाननहारा सार ।।३४०।।
पर्याप्ति प्ररूपण
चौपाई
परजापति षटके कहि नाम, आहार प्रथम छायौ अभिराम पुनि शरीर धार जग जीव, दूजी परजापति धरि लीव ॥३४१||
दियको भेद ज लहै, तीजी परजापति संग्रहै । श्वास उस्वास धर पुन तहाँ, चौथो परजापति सो गहा ||३४| ते जब जीव सुजान, परजापति पंचम परवान । भाषा लहि भरपूर जु सोय, छट्ठम परजापति तब होय ।।३४३॥ जापति कही मुनीश, इन बिन अपरज जीव गनीश । जो परजापति पाय विनाश, स अलब्ध परजापत भास ॥४४॥
प्राण प्ररूपण
इन्द्रिय पांच मन वच काय, श्वास उस्वास ज बल पुन पाय । इन ही सी कहिये दश प्राण, जानी जीव तनों संस्थाण ॥४५॥
संज्ञा प्ररूपण अब सुन संज्ञा चार प्रकार, भय मैथुन परिग्रह आहार । इनमें जीव' रह्यो है भूल, प्रातम शक्ति विना जग तूल ॥३४६।।
स्वभाव होनेके कारण उनका नाम सार्थक है। साधारणतः पुद्गलके अणु और स्कन्धरूप दो भेद हैं इन दोनों में जो कि अविभागों है वह अणु कहा जाता है और स्कन्धके तो अनेक भेद हैं। अथवा वहीं पुद्गल सूक्ष्म-सूक्ष्म भेदसे छ: प्रकारके हो जाते हैं। उनमें से परमाणु रूप एक तो सूक्ष्म-सूक्ष्म है जो नेत्रोंसे नहीं देखा जा सकता । पाठ द्रव्य कर्मरूप पुन्दल स्कन्ध सूक्ष्म पुद्गल हैं। शब्द, स्पर्श, रस और गंध सूक्ष्म स्थूल पुद्गल हैं । छाया, चांदनी, धूप इत्यादि स्थूल सूक्ष्म हैं। जल अग्नि इत्यादि बहुतसे स्थूल पुद्गल हैं। पृथ्वी, विमान, पर्वत गृह इत्यादि स्थूल-स्थूल पुद्गल हैं। ये पुद्गलके छ; भेद हुए। स्पर्शादि बीस निर्मल गुण परमाण
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उपयोग प्ररूपण अाठ ज्ञान अरु दर्शन चार, ए बारह उपयोग विचार । सो पूरब बरन्यौ सत्र भेद, यह उपयोग थान विन खेद ।।३४७11
अथ ध्यान निरूपण
मार्तध्यान प्रारत रौद्र धर्म अरु शुक्ल, चार ध्यान ये नाम मुल्क । तिनही के सब सोरह डार, अब सुन प्रार्तध्यान विधि चार ।।३४८|| भली वस्तु को होय वियोग, इष्टवियोगी प्रथम नियोग | रादा विकलतामें मन रहै, दुतिय अनिष्ट संयोगी यह ॥३४६।। पीड़ा चितन तीजी जान, दु:ख विलाप करै दुर ध्यान । अगली सोचत सोचत मर, निदान बंध चौथो संचरे ॥३५०||
रौद्रध्यान रुद्रध्यान अब सुनह जू मित्त, चार अंग ताके सुन चित्त । हिसा करत धरै प्रानन्द, हिंसानन्दी प्रथम कूवन्ध ॥३५२।। मषानन्द दुजो अवलोय, बोलत झठ सुखी बहु होय । चोरी साधन मनघर प्रीति, चौर्यानंद तृतीय अनीत ॥३५२॥ सेवत विषय हलासी सोय, बंभ मंद चोथौ यह होय । अब सुन धर्मध्यान के चार, एक एकतं सुख अधिकार ॥३५३।।
धर्मध्यान केवल उक्त जीव सरदहै, प्राशाविचय स्वर्ग सुख लहै । (अ) पाय विचय दूजी गुण खान, कर्मनाश उद्यम अमिधान ।।३५४|| पहल कर्म उदय पहिचान (अ) पाक विचय तीजी गुणखान । तीन लोक नर आकृति मान, संस्थानक चौथौ यह ध्यान ॥३५५३
शुक्ल ध्यान शक्ल ध्यान चारों पद कहै, तहां मोहको प्रीति न रहै । जोगारूड़ पड़े सिद्धान्त, मातम गुण निणवारे संत ।।३५६।।
पशम डक श्रेणी विसराम, प्रथम वितर्क आदि पद नाम । उपशम छोड़ क्षपक चढ़ि जाय, लोकालोक प्रकाश कराय ।।३५७।। प्रकृति तिरेशठ नाश नहीं, बाको रहीं ? पचासी तहों । प्रगट्यो केवल गुण उज्जरी, अंग वितर्क नाम दूसरी ॥३५८।। जवहि बहत्तर प्रकृति नशाय, जिनवर प्रायु निकट रह जाय । है मन बच सूक्षम तिहि ठाम, सूक्षम क्रिया तृतीय पद नाम ||३५६।। अनंत चतुष्टयको परकाश, तेरह प्रकृति करी तब नाश । पंच लघक्षर परिमित सब, प्रष्ट कर्म डार मि तबै ॥३६॥ तन तज भये मुक्ति के राय, व्युपरत क्रिया निवति कहाय । चार ध्यानके सोरह पाय, सो वरनै संक्षेपहि ल्याय ।।३६१।।
ध्यानका विशेष निरूपण अब इनके सुन भेदाभेद, मन निरोध प्रातम नहि खेद । प्रथम ध्यान पिण्डस्थ अनूप, सो वरनौं धर पांच सरूप ।।३६२॥ पृथिवी जल प्ररु पग्नि जु वायु, नभ ये पंच तत्व थिर लायु । जो मुनि ध्यान पाराधन धरै, पद्मासन चित कर ॥३६३॥
पृथवीतत्व निरूपण मध्यलोक जो गिरदाकार, क्षीर समुद्र तह कर विचार । शब्द तरंग रहित थिर रूप, तामें चितै कमल अनप ।।३६४!! हेम वरण दल कर हजार, केशर अबर पराग जु सार । जम्बुद्वीप सम कमल सु लसै, चित्त भ्रमर ता ऊपर बसे ॥३६५।।
में हैं। ये स्वभाव गुण कहे जाते हैं। स्कन्धमें विभाव गुण कहा गया है। शब्द, अनेक तरह का बन्ध, अपेक्षासे स्थूल-सूक्ष्म छ: प्रकारके संस्थान, अन्धकार, छाया सातप, उद्योत इत्यादि पुद्गलोंके विभाब' पर्याय हैं। परमाणुनोंमें स्वभाव पर्याय ही रहते हैं। इसी प्रकार शरीर, मन, श्वासोच्छ्वास और इन्द्रियां भी पुद्गलके पर्याय स्वरूप हैं। ये सभी पुद्गल-पर्याय जीवन-मरण और सुखदुःख आदि रूपमें जीवोंका अनेक उपकार किया करते हैं। स्कन्धों में अर्थात् एकत्रित परमाणु पुंजमें काय-व्यवहार की बहुत अपेक्षा है तथा परमाणुमें उपचारसे कारण होने की अपेक्षा कायपना कहते हैं।
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कमल कणिका चित इती, मेरु ऊंचाईके परिमिती । तापर इक सिंहासन चया, चन्द्रकान्ति मन सम किरणया ।।३६६।। निज सरूप तापर बैठारि, शान्तरूप प्राकुलता टारि | रागादिक परिणामहि त्याग, करन क्षपण हित अनुभव राग ।।३६७॥ पृथ्वी तत्व तनी यह रीति, साधै मुनिवर परम पवीत । यह पिण्डस्थ प्रथम है अंग, मन समुद्र जल रहित तरंग ।।३६८||
जलतत्व निरूपण
कर मन अभ्रपटलको ध्यान, जिनसौं जलधर कहे प्रवान । वरसावन अति भय रहि छाय, अरु प्रचण्ड दामिन पहिराय ।।३६६।। धार नहिं भू परिमित छयो, इन्द्र धनुष जुत पावस जयौ । पवनाकुल बरषत जलविद, मुक्ताफल वत उज्वल चन्द ||३७०॥ जलधारा कबहुं प्रति घोर, कबहू थूल महा बर जोर। इहि विधि वरष रहे जल सदा, शुचि अमृत जल स्नावै तदा ॥३७१।। ता जल कर्म धुलि बहि जाय, अमृत शोतल इह विधि प्राय । वरुण तत्व याही सौ कहै, कर्म ताप इमि शीतल लहै ।।३७२।।
अग्नितत्व निरूपण
चिते हुक कमल दल सोल, नाभिस्थल दल कर कलोल । दल दल प्रति स्वरमाला थप, अ इ उ ऋल प्रमान जहाँ दिय॥३७३।। सकल दलन पर फेरत जाय, अंतर रहित महा मुनिराय । फिर या कमल तनी कणिका, अर्ह मंत्र कर गुण थका ॥३७४।। रेफवंत कर दीपत सोइ, हम् आवंत परम अवलाई । ध्यान करत वा रेफ मझार, निकसे शिखा धूम निरधार ।।३७५।। फिर फलिंग छटं चामांहि, बहुरि अग्नि ज्वाला अधिकाय । हृदयकमल को दहे सु ागि, अधो बदन सी वसुदल लागि ।।३७६।। वसदल अष्टकर्म सो जान, जरि वरि भस्म होइ तिहि थान । फिर वह अगनि बाहरी होइ, ताको रूप कौन अवलोइ ॥३७७॥ स्वस्तिकवत रकार चौ फॅर, कंचन सम प्रज्वलित घनेर । मंत्र अनाहत त प्रगटाय, धगधगात सो अगनि जलाय ॥३७८|| अमल अष्टदल' भसम कराय, फिर स्वयमेव शांत हो जाय । यह पिंडस्थ तृतिय गुण मार, अग्नि तत्व कहि कर उपचार ||३७६।।
पवन तत्व निरूपण
जहां रचे तन अमर विमान, तामें बैठ कर मुनि ध्यान । चल पवन तह प्रति गम्भीर, तिरछो बहै हलावं घोर ॥३०॥ धन बहु गरजें अति भयभीत, आधे जहां करन रज शीत । सकल बारि जो देइ उड़ाय, फिर सो वारि शांत हो जाय ।।३८१॥
प्राकाश तत्व निरूपण
घात रहित निर्मल जू शरीर, कर्म कल क तनी नहि पीर । अविकारी अनरूपी सोय, सिद्ध समान प्रातमा होय ॥३८२।। चित धरै ऐसी निज काय, सिंहासन बैठारे ल्याय । अतिशय अरु प्रतिहारज जहां, पुण्य प्रकृति फल सगरे तहां ॥३८३॥ इन्द्र सकल सेवत कर जोर, जय जयकार होत चहुं ओर । यह पिण्डस्थ पंचमी रीति, सो साधे से मनकी जीति ||३४|| मन चंचलता जब मिट गई, पंचम गतिकीप्रापति भई । जो न होइ मनकी गति टोर, वृथा सकल ध्यानहि की दौर ॥३॥
दोहा
मन निरोध जहं पंचविध, कहो ध्यान पिण्डस्थ । जाते शिव-मारग सुगम, प्रागे सनो पदस्थ उनका
जोकि जीव पदगलकी गमन क्रिया में सहायक हैं वही धर्म द्रव्य है। धर्मद्रव्य, मतिहीन, क्रियाहीन और नित्य है। जिस प्रकार जल मछलियों की सहायता ही करता है प्रेरणा नहीं, बही अवस्था इसकी भी है। जो कि जीव पुद्गलकी संस्थिति में पथिकों की छायाके समान सहायक होता है, वह अधर्म द्रव्य है । यह अधर्म द्रव्य भी मूर्तिहीन, क्रियाहीन और नित्य हैं । प्राकाश, दव्य लोक और प्रलोक के भेद से दो प्रकारका कहा गया है। यह सम्पूर्ण द्रव्यों को स्थान देने वाला है और यह भी ऐसा ही मतिहीन है। जितने स्थान में धर्म, काल, पुद्गल और जीव रहते हैं उतनेको लोकाकाश कहते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य द्रव्यों से
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पदस्थ ध्यान निरूपण।
पदस्थ ध्यान निरूपण ।
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पदस्थ व्यान का वर्णन ।
पदस्थ ध्यान का वर्णन।
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पदस्थ ध्यान निरूपण
अब सुन सकल पदस्थ विचारा, साथै शिवपद कर विहारा । मात्रा बंचन अक्षर तनो, प्रादि सिद्ध सब शोभा गनी ।।३-७।। तिनको ध्यान वृत्त मुनिराय, जथाजुगत ज्यों बेद कहाय । षोडश दलको कमल अनुप, चित नाभिमध्यता रूप ||३|| दल दल प्रति तहं रच विचित्र, स्वर हैं सोरह परम पवित्र । अप्राइई उहि ऊशुभ गनी, और जुक्त ऋऋ स ल भनौ ।।३।। ए ऐ पो पो प्रमः जान, ए सोरह स्वर जे परबान । फिर चितवं कमल इक और, जाकी है हिरदै में ठौर ॥३६ ताके दल गन वीस रु चार, मध्य कणिका रूप अपार । कु च टु तु पू हैं वरण पत्रीस, तापर रचं ध्यानको ईश ।।१११॥ बदन कमल वसु दल पर रचे, य र ल व आदि वर्ण वसु सवै : अनुक्रम उमस प्रदक्षिकर, यल दल प्रति अक्षर अनुसरं ॥३६२।। मंत्रराज अवलंबे जीव, ह्रींकार धर हदै सदीव। यह विधि वर्णमाल उद्धर, द्वादशांग वाणो बल करै ॥३ ॥ श्रत समुद्र तर लागे तीर, ज्ञानतनी तह दोसै भीर। एसब पत्र रु उदर समेय जो ध्यावे जोगी चित चेत ।।२ जपत जासू सूख रुचि प्रानंद, प्रगट तीव्र प्रगान ज्यों मन्द । कुष्ट न रहै न उदर विकार, कास श्यामको आने हार का या भब प्रजनीक जिय कर, प्रागे को शिव-सुख विस्तरं । सकल पदनको राजा जान, सब तत्वनको ईश वखान ॥३६६|| ऐसौ मंत्र अनाहत रूप, सुनौ तासको परम सरूप । ग्रादि ऊर्ध्व रेफा जा शीस, मध्य बिन्दु रेखा रजनीश की जे नव वर्ण पूर्व कहि तन, इनि मिलि मंत्र अनाहत भने । मंत्रराज याही को नाम, चन्द्रकलासम है अभिराम । सो बह कमन कणिका महि, धरिकं जपं न कर्म रहाय । जिन सरूपत चितत ऐन, निरमल भाजित महिमा बैन । याहो मंत्र तनों कर ध्यान, भय सर्वत्र सर्वगत जान । ज्ञान बोज जगवय करबंद, मित्र महेश्वर सब सुख कंद ।।४|| जन्म अग्नि की जहं उतपात, जलयर सम करता सुनि धात । जिन लीन। मुखत इकवार, खयो पंथ शिव पायो सार ।।४०१|| जन्म मरीरहको विस्तार, तिन सु मूलते दियो उखार । मंत्रराजको साबन रूप, बरण सुनाऊ विमल अनूप ||४०२।। मध्य रूप तोता थल ज्ञान, तासे रूपको कर तहं ध्यान । लावं मुख पंकज फिर ताहि, तालु रंध्र पुन विव प्रमतबिन्द तहां पय परषाय, नत्र पत्र फिर दरस पाय | अलख वाट ब्रह्माण्ड विदार, ज्योतिष मण्डल कर विहार ॥४०४।। शशि ताकी सरवर नहि होय. कछुक तहां रह उछल सोय । कर्म कलंक तनों तम जान, भवको भ्रमनाशक निर्वान ।।४।। फिर पाबे वह परम स्थान, जुग ध्रुवलता जु भाषी जान । पूरक रेचक कुंभक तीन, पवनभ्यास त्रविध परवीन ।।४०६।। परक जहां पवन खैचाय, कुंभक रहै अचल तन लाय । रेचक जब ही जिय निरकार, ध्यान अंत भारत निरधार ॥४०७१।
(अह मंत्र)
वा मंत्रहि कुंभक कर चित, अर्ह शब्द सुनौ बिरतंत । सकल त्याग इहि विधि यह जपं, सपने ह न दृष्टित क्षपै ॥४०८।। जाको प्रादि प्रकार सरूप, मध्य बिन्दु जुत रेफ अनूप । अंत हकार दिये गुणवान, परम तत्व याको यह जान ।।४०६।। पहिले चित सब कर जुक्त, करै ध्यान फिर उनत मुक्त। फिर चितै जिमि चन्दा रेख, ताको चुति सुरज सम पेख ।।४१०।। मंत्रराज चितन गण सार, जन्म मरण भवसागर पार । बाल अग्र सम फिर चितव, निहचे हू इक चित संभ मणिमा आदि अष्ट जो सिद्धि, होइ प्रगट बहु लक्ष्मी वृद्धि । सकल सुरासुर चरनन नवै, शिवपद लहि चारौं गण वमैं ।।४१२।
रहित केवल मात्र प्राकाश है उसको अलोककिाश कहते हैं। यह अलोकाकाश अनन्त, अमर्त, क्रियाहीन और नित्य है। इसे सर्वज्ञोंने देखा है जो कि द्रव्योंकी नवीन और प्राचीन अवस्थाके रूप बदल देने वाला है वह समयादि स्वरूप व्यवहार काल है। लोकाकाशके विभिन्न प्रदेशों पर रत्न-राशिकः समान जो एक-एक अणु पृथक्-पृथक क्रियाहीन होकर स्थिर रूपेण अवस्थित हैं उन असंख्य कालाणुओंको जिनेन्द्र प्रभुने निश्चय काल कहा है। धर्म, अधर्म जीव और लोकाकाशके असंख्य प्रदेश हैं। कालके
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कमल कनिका चहंदि पंग, घोडा
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( श्रनाहत मंत्र ) रवि हाटकवत रंग वा मस्तक सो है वृन्द, जैसे निर्मल पुरण चन्द्र फिर कह कमल ज ध्यानी लय बुजदल दक्षिन दे तब वह वर्षा अमृत होय, बहुरि कमल मुख राखे सोय अधिक ज्योति ताकी गाय बुद्धि न सके ताहि यरमाय विद्या जल निज तारन काज है यह मंत्र प्रतच्छ जहाज जो ध्यानी ध्यावे हि रोति ध्यान करत छह मास विलास जब वायर वीतें हि भांत, सब मानन्दमयी सो होय, प्रगट स्वयंभू जान विलास,
मध्ये कणिका
स्थान
मंत्र अनाहत राखे मन || ४१३ ।। ता मुखतं यमुत वरपई ध्यानी मुनि ताको निरखई ॥४१४॥ यहूरि उमार सिमिको मिटि अधिकार ||४१३|| तालु रन्ते फिरि निकसाय, जुग भ्रुवलता विराजं आय ||४१६ ।। सकल सुरापुर नावं घीस विश्व को दोष नी ।।४१७ अप चालको ने नागदमन समयोचित भने ।।४१८।। धूम शिखा मुखतं निकलाम प्रगट ध्यान को राम ॥४१॥ तब दीजं ज्याला को फांतता पीछे प्रगटे पदात तब देखे जिन मुख सास्यात ॥४२०|| पंचकल्याणक दरशी सोय प्रभा पुजको सूरजवान, भव्य कमल जाते सुख खान || ४२१ ।। निद्रा मोह तन किय नाश। भवसागरके पार पहुंच्च बैठे मुक्ति शिलापर कंच ||४२२ ॥
( इति अनाहूत मंत्र )
( मंत्र )
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प्रनमि मंत्र सुमिरो फिर पिस, ॐकार जो परम पवित्त परमेष्ठी सम इहिको जान, बीचक बीच तनं उनमान सकल सुरामुर पूजित पाय, चन्द्र रामान दियं मुखदाय ज्यौ चितं वा शुक्ल सरूप, कर्म निर्जरा व अनूप । जम्बु वरण जब जो ध्याही स्तवन ऋद्धिसिपाही
दुख दावानलको जो मेह. ज्ञानदीप पहुंचनको गेह ||४२३|| हृदय सुकंज कणिका रहै, स्वर व्यंजन वेष्ठित लहल है ||४२४|| महातत्व मनोरज नाम, कुम्भक ध्यान करो अभिराम || ४२२|| जो सिंदूर वरन मन घरं, सर्व जगत चित क्षोभित करें ॥४२६ ॥ जो कोइ चितं जल रंग, द्वेष तजे विद्यायल पंग ॥४२७॥
अरुम वरण सब सुख जान, ॐकार गुण कड़े बढान या समान जो नहि इष्ट जुग फलदाता इष्ट अनिष्ट ||४२८||
( ॐकार इति प्रवचन मंत्र )
1
सुमिरे बिया त्रिभुवन सारद्धि सिद्धिकी है दातार for पित्त जाट स्थान, जो ध्यावेताको कल्यान
है प्रसन्न गंभीर बखाद, हिमकर व अमृतको खान ।।४२६॥ सकल कामना पूरं सोम, पोहन मोहन यायें होय ॥eoit ( ह्रीं इति सिद्धि मन्त्र )
सुधासिंधु तं निकसी भ्राय, चन्द्र रेख तम तास प्रदाय रहे सह मालके ठौर, जो ध्यावे ध्यानी शिरमौर ॥। ४३१ ।। अमृत बरसाये हुं और जन्म वनों ज्वर जो नाशक धनमाल, परम लालबत सुखी रसाल ||४३२||
मैं
कर्म
प्रदेश नहीं हैं; क्योंकि वह स्वयं एक प्रदेशी है । इसीलिए काल को छोड़कर शेष पांच द्रव्य अस्ति काय कहे गये हैं। इन पांचोंमें छठें काल को मिला देने से जिन मत के छः द्रव्य पूर्ण हो जाते हैं । द्रव्यों की इतनी ही संख्या निश्चित की गयी है। जितने श्राकाश क्षेत्रको एक पुद्गल परमाणु व्याप्त कर ले उतने ही स्थानको एक प्रदेश कहते हैं । संसारी जीवों कर्म जिस रागादि रूप मलिन परिणामसे आते हैं उसको परिणाम भावास्तव कहा जता है । बुरे परिणाम वाले जोवके जो कारणों द्वारा पुद्गलोंका कर्मरूप में आता है वह द्रव्यासव है । आवके मिध्यात्व प्रादि कारण विस्तार पूर्वक पहले के अनुपेक्षा प्रकरण में हम कह श्राये हैं । इनके भेद और तत्वकी वहीं समझ लेना चाहिए जिस राग द्वेष रूप धात्माके परिणामसे कर्मजा वाला है वह परिणाम भाव बन्ध हैं भावबन्ध ही के कारण जीव श्रीर कर्मका परस्पर बंध जाना द्रव्यवन्ध है । वह द्रव्य बन्ध प्रकृति स्थिति, अनुराग और प्रदेश
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फिर गुरु करनि नमस्कार लांछन जा भनी चितं श्वेत कमल दल पाठ तास कर्ण वसु अक्षर पाठ सिद्धाचार्य उपाध्या साध, चार विदिग दल रच्यौ अगाध जाके ध्यान मुक्तिपद बास, भये केवली पर विश्वास पापपंकजे प्राणी परं मा सुमरिन ते सब उबरं जिन तर कीनो पाप हजार, जीवतनी हिंसा जु अपार इक शत श्रादवार जे जपै प्रभुता कर सब जगमें दिये
T
(चन्द्ररेशा इति सांतमंत्र)
पूरकचत हि कंज मकार, पंचशुरन के नाम प्रधान
( नमो अरहंताण, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, नमो उवज्झाणं, णमो लोए सभ्य साहूणं इति सकस विधनमिटि जांय, कर्म नाशि शिवपद हि लहाई ताके करण सफल है सात, ध्यावत ही ( णमो अरिहंताणं इति अनादि मंत्रः ) पितं पण अक्षर सार पोथ्याक्षरि विद्या नाम ले पहुंचा शिक्के धाम ॥४४१।१ षोडश शतवार जपें बुधवान फिर एक चित्त कर प्रीत होय उपास एक फलमीत ॥ ४४२॥ (सिद्धाचार्योपाध्यायनाभ्यो नमः इति षोडशाक्षर मंत्र)
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जाहीं सुमिर सुमिर सब जोय, होंहि पवित्र जु भंग सदीव ||४३३ ॥ णमो अरिहंताणं जिन नाम, घर चतुष्ट दिगदल के धाम ॥४३४ दरशन ज्ञान चरन तप जास, चित पराजित मंत्रास ||४३५|| जा गुण वह न सके जोगेश, और कहे ते बाउल मेष ।।४३६|| या सम उत्तम और न जान, भवसागर में कृपा निधान ||४३७|| या मंत्र हि आराधे सो जो तिरजंच नरक नहि होई || ४३८|| एक उपास तनों फल होइ, कर्म कालिमा डारी खोय ||४३६।। पराजित मंत्रः) उपजे अवदात ॥ ४४० ॥
सुगरी सकल मन्त्र को ईश, शिव कण्ठ कंज आकार धराय, पंकज
पुण्यशालिनी कर्म विनाश से पहुंचा
पुन पडरी विद्यासुनी हुई कमल घर लाको सुनो। जो सहज तीन बार होय उपारा तनों फलसार ११४४३|| जाके गुणको कही न ह ॥४४४॥
सा सिद्धि साधन के एह
(
इति पडक्षर मंत्र )
अविचल बास अरहंत - सिद्ध मारगको दीप सरोश प्रवरण नाभिकमल पर ध्यान, मस्तक पर हिसि वरन बखान || ४४५ || हृदॐकार लखाय । वंदन जलज साकार धरत, यह श्रसिया साथ विरतंत ।।४४६ ।। (असिम उसाचाक्षर मंत्र
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1)
चतुर वरन ध्यावे जोगेन्द्र चार पदार लहै सुरेन्द्र जपें चार चार जु ताहि, फल इक अनशनको वन ताहि ॥४४७|| कर्म निर्जरा धर्मं बढ़ाय, मिले सकल सिद्धनको जाय। प्रगट समोशरणको ऋद्धि, और अनेक सिद्धि की वृद्धि ।। ४४८ ॥
(अरहंत इति
मन्त्र )
बीज सकल मंगलको जान, सुमिरै जोगी हियमें आन । शिवपद देन हरन संताप, दिन दिन वा अधिक प्रताप || ४४६ || (सवसिद्धेभ्यो नमः इति श्रेय मंत्रः )
जी प्राकार स्वरको व्यावहीं, सो शिवपद निश्चै पावही । जपै सुमंत्र पंच शतवार करें सुवृतको फल निरधार || ४५० (कार इति कारमंत्र)
जिन मुख उद्भव ये सब कहे, जिनके साधत रुचि गुण लहे । अब सुन बीजाक्षर गुण माल पंच वरन अरु तत्व रसाल ||४५१ || थी गनपर श्रुत सागर शोध जगत जीव करण किय बोध इनको ध्यान करें जब कोय, हृदयकमल मन थिर कर सोय ।।४५२ || वशीकरण नहि इन पर घोर कर्म नाश मिति सिद्धि न दौर वंभन वशीकरण को हेत सफल सिद्धि उपजन को वेद ।।४५३ ।।
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नामके द्वारा चार भागों में विभक्त है। इस ईत्यको अशुभ और अनर्थोत्पादक कहा गया है। बन्धयोगों प्रकृति और प्रदेश तथा स्थिति और अनुभाग बन्ध ये दो दुष्ट बन्ध कषायोंके द्वारा होते हैं। इस निर्णयको स्वयं मुनीश्वरों ने ही कहा है।
जीवोंके मति ज्ञानादि उत्तम गुणोंको ज्ञानावरण कर्म ढंक देते हैं। जिस तरह कि किसी देव प्रतिमाको वस्त्रादि भाव
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(ॐ ह्रां ह्रीं ह्रह्रौं हः असियाउसा नमः इति ।) मंगल शरण लोकोत्तम जान, चार भांत मुनि कियो वखान । ध्यावे जा चित्त कर ठौर, ताको मुक्ति रमणि वर दौर ।।४५४।। मुक्ति सदन उत्तुग स्थान, तह चढ़ित्रेको ए सोपान । जा सुमिरत यह अंगोरूप, वाह्याभ्यंतर परम सरूप ।।४५५।।
(चत्तारि पद मंगलं- (आदि) इति चत्वारि मंगल मंत्र ।) वरण चतुरपश विद्या रंग, ताप नाम नपसी चि देम । शंका रहित अडोल शरीर, अष्टसिद्धि नवनिधिको भीर ॥४५६।। मक्ति-बधको दुती जान, जो मिलिदै सिद्धनसौ मान । वरणन और कहां लौं करौं, रसना एक चित उच्चर ।।४५७॥
( अर्हत्सिद्ध सयोग केबली स्वाहा इति त्रयोदशाक्षर मंत्र) जान राज को दाता जान, तीन भुबनयो नाथ बस्नान । रत्न चड़मणिकी सर जोय, साक्षात सरवज्ञ ज होय ॥४५॥ ताकी महिमा कही न जाय, तासु ध्यान जिय मुक्ति लहाय । जिन प्राणी याको किय ध्यान, पहुंचे, जाय मुक्ति स्थान ।।४५६।।
ह्रीं श्रीं अहं नमः-इति षडक्षर मंत्र जो समर पंचाक्षर मंत्र, कर्म तिमिर नाशन रवि मंत्र । पुण्य बढ़ावन ऋधि दातार, गुण वरणतको पावै पार ॥४६०।
(नमो सिद्धाणं-इति पंचाक्षर मन्त्र)
सर्व तत्व में परम स्थान, सकल वरनकी माला जान । क्लेश हरन है मन्त्र पुनीत, सुमरै शिवपद जाय अतीव ॥४६॥ ॐ नमोडते केवलिने परमयोगिनेऽनन्तशुद्धिपरिणाम बिस्फुरदुरुशुक्लध्यानाग्निर्दग्धकर्मबीजाय प्राप्तानन्तत्रनुष्टाय सौम्याय शांताय मंगलाय वरदाय अष्टादशदोषरहिताय स्वाहा।)
(इति वर्णमाला मंत्र) वस दल तनों कमल मन रच, तापर चरण आठ ले खर्च । दल दल प्रति इक न्यारी जान, तेजवत जिमि दीसे मान ।।४६२॥ प्रणय आदि परदक्षिण देय, इकशत अधिक सहस्र गनेय । इहि विधि अष्ट रात ली जप, एकचित्त है जोगी तपै ॥४ ॥ कर्म कलंक ताहि तजि जाय, हिंसक जीव' न नजर पराय । प्रणव सहित जो कीजै ध्यान, श्रद्धि सिद्धिको दाता जान ॥४६४॥ प्रणव तहां तजि ध्यावं कोय, कर्म नशाय जु शिवपद होय । प्रभुता कहलों कहाँ बखान, सकल सिद्धिको जनों खान ।। ४६५।। फिर चितं इक शशि ग्राकार, प्रष्ट कमल दल उदर मंझार । दल दल प्रति इक बरन धराव, तिनके नाम कहो समझाय।।४६६॥
( णमो अरहताण-इति अष्टवर्ण मंत्र) प्रादि प्रणब अरु शुन्य मंझार, अन्त अनाहत मंत्र विचार । तीन भवनको तिलक कहाय, नासा अग्र ध्यान ठहराया प्रगट ज्ञान अष्ट गुण संग, जब चिन्तं इकचित अभंग। शुक्ल वरण तिहिको ध्वावेय, मुक्ति वधू निह पायेय |YEET
(ॐ ह्रीं-इति द्विवर्ण मन्त्र) द्वौ द्वौं प्रणब धरै दो ठौर, दुह ढिग ह्रींकार है और । तिनके बीच हंसपद ध्याय, सबके मध्य स्त्री है प्राय ||REEll महा वीर्य है याको नाम, ध्यावे एक-चित्त अभिराम । मन चीते पावै फल सोय, डारै सकल कर्म मल धोय ॥४७॥
(ॐॐहीं हंस स्त्री ह्रीं ॐ इति महावीर्य मन्त्र) जप मन्त्र जो कर्मन हन, राग द्वेष आदिक जे भने । संसारी सब दुख विसराय, अनुचितौ फल प्रातम पाय ॥४७१।।
रणसे ढक दिया जाता है । जिस प्रकार अपने कार्यके निमित्त राज दरवार में जाने पर द्वारपाल रोक देता है उसी प्रकार नेत्रादि के दर्शन कर्मको दर्शनावरण कर्म रोक देते हैं। मनुष्यों के वेदनीय कर्म मधुसे चुपड़ी हुई तलवारके समान हैं इसके द्वारा प्रत्यल्प सरसोंके बराबर तो सुख मिलता है और बादमें मेरु पर्वतके समान भयंकर एवं महान् दुःख ग्राघरता है । जिस प्रकार की मदिरा को पीकर जीव मदोन्मत्त होकर किसी को कुछ भी नहीं समझता, उसी तरह अज्ञानी जीवों को मोहनीय कर्म सम्पूर्ण दर्शन, ज्ञान
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श्रीमद्भादिवर्धमानान्तेभ्यो नमः )
फिर चित्यो मन मुनि गंभीर, विद्यावाद उधारन धीर। मुक्ति मुक्ति को है प्रभिराम, सिद्धिन कहिये तानाम ||४७२ ॥ सिद्धि' इति सिद्धि चक्र मन्त्र )
महावीर सुख उदभव जान विद्या कल्पवृक्षको मान वरन नसके नाम फल कोय, जयपि श्रतको पाठी होय ॥४७३।। विद्या जपे निरन्तर सदा, यामें अन्तर होय न कदा | अणिमा आदि श्रष्टसिधि धनी, श्रुतसागर पारगबहु गनी ||४७४ || तीन कालको दरसी जान, सकल तत्वको पूरन ज्ञान सिंह आदि जे प्राणी क्रूर रूप से रहे हजुर ४७५॥ क्ले जिण पारिस्से स्वाहा । ॐ श्री स्वई नमो नमोऽहंताणं हीं नमः ।) (इति तसाक्षर विद्यामंत्र । )
ॐ जोनोम तच्चेभूवेश
नदिस्से को
}
करि gearer को मंचान, श्रुतसागर
मंत्राक्षर गुणवान इनको ध्यान करें मुनिराय सो सराग ध्यानी कहि वाय ॥४७६ ॥
ध्यान करत पावे निज वस्थ, यातं कहिये ध्यान पदस्थ । जंत्रादिक को पुजन जोय, ध्यान पदस्थ नहीं पुन होय ॥४७७॥
दोहा
अष्टसिद्धि नवनिधि सदन, मन निशेधके गेह प्रणव मंत्र परिमाको ध्यान (ॐ) दोइज दोय वरण मंत्रान
(
बरनी ध्यान पर यह सो तिथिवार गनेह ||४७८ ॥ ही )
मंत्रनाहूत वीजह जान (डीकार) ची
पंचाक्षर पाचें को सोय.. ( णमो सिद्धाणं ) छटको पडक्षरी श्रवलोय (ॐ सिद्धेम्यो नमः) सातेंको सप्ताक्षर र ||४८०|| (णमो अरिहंताणं) याको टार सर्वे ॥४७२|| ॐ णमो परहंताण) नवमी मंत्र नवाक्षरध्याव (ॐ ह्रीं महं नमो जनानाम् ) दशमी दश अक्षर लो लाय । (चत्तारि मंगलपद नमः) महावीर्ज एकादश श्रायॐ ॐ ह्रीं हंस स्त्री हंस ह्रीं ॐ ॐ द्वादश धोजाक्षर मग वाय ॥४१॥ ॐ हा ह्रींही
चतुर वरन पठि ज्ञान (सिद्धि ॥४०॥
असि या उसा नमः । तेरह त्रोदश प्रक्षर मंत्र सिद्ध सयोग केवली स्वाहा ) चौदशि चतुरंशावर तंत्र (श्रीमद्वपादिवर्धमानान्तेभ्यो नमः) पूरणमासी षोडश वर्ष (ह्रो नभमण्डलवते नाले चन्द्ररेखा नमः)
विचार एवं चारित्रादि धर्म कार्योंसे एक दम उपेक्षित और पथभ्रष्ट बना देता है ये नितान्त उन्मत्त हो उठते हैं। जिस प्रकार कारागारमे हाथ पांवों में बंधी हुई लौह शृङ्खला (बेदी) कंदी को बाहर जा सकने वाला उपस्थित कर देती है उसी प्रकार प्रायु कर्म कामरूपी कारागारमें बन्द जोग रूपी कैदीको कायके बाहर निकलने से सदेव के रहता है। वह कायम ही जीवोंको दुःख शोकादि नाना प्रकारकी आपदाएं भोगने के लिये बाध्य करता है। नाम कर्म चित्रकार के समानजीयोके धनेक रूप बनाया करता है। कभी खिताब कभी सिंह, कभी हाथी, कभी मनुष्य और कभी देव को प्रकारकी प्राकृति प्रदान करना नाम कर्मका ही कार्य है । गोत्रकर्म कुम्हारकी तरह कभी सर्व श्रेष्ठ गोत्र (कुल) और कभी प्रति निन्दनीय गोत्र प्रदान कर देता है। इसी तरह
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मावास्य तोसाक्षर वर्ण ॥। ४८२ ॥ ( जोग्गे मगे सच्चे भू दे भन्ने भविस्सेक क्ले जिण पारिस् स्वाहा ॐ ह्रीं स्वर्ह नमो ममोहंताणं ही नमः ।)
अथ वार मन्त्रों का विवरण
अपराजित जप सादिवार (णमो परहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो धाइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो
नाऐसव्यवाहून)
सोमवार पीठक्षार धार (प्रसिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यां नमः ) मंगलवार पडक्षर जान (अरहंत सिद्ध)
बुद्धवार पंचाक्षर ध्यान ॥ ४८३|| साउसा)
चतुरवर गुरुवार जपे (अरहंत) (ि
अक्षर
शनि को एकाक्षर परमान (ॐ) यह पदस्थ वरण शुभ ध्यान || ४८४ ॥
दोहा
मूंगा मोती हेम मणि
रूपा फत्र गुथि सूत कपूर वसु भेद मिलि अष्टोत्तर शत जूत ।।४८२ ।। मध्यम तरजनि नामिका, तप बंगुरन जब वास अंगुठासी जयमाल रुचि, गुन एक एक बहू वास ।।४६६।।
अथ रूपस्थ ध्यान वर्णन
चौपाई
1
2
और देवस नाही काज हैं देवाधिदेव जिनराज ॥१४८७॥ अतिशय महा तीस धरू चार सो है प्रातिहार्य वसु सार ||४०८ श्री प्रभावि चुवीस महंत, गुण वरणत घावे नहि भ्रन्त ॥ ४८६ ॥ ध्यान करन उनहीसो जाय, वामें कछु नहि संशय थाय ॥२४१०||
अव रूपस्य ध्यान तुम सुनी जा प्रसाद जिनदेवहि गुनी दोष घठारह रहित जिनेश, गुण छपालीग संयुक्त महेश (घ) नंत चतुष्टयको नहि देव, करें शतेन्द्र वास पद सेव समोशरण की ऋद्धि समेत जो इनिको चितं घर
त
दोहा
जब न टरं चित वह रूप, तब शिवपद है शरण अनूप । जो जगमें नर करतो यह रूपस्य अनूप गुण, जिन सम भातम ध्यान कर याको अभ्यास
काम पा ताही के सम नाम ||४६१ ।। मुनि, पाव पद निर्वान || ४६२॥
अन्तराय कर्म भी कोष रक्षक (खजान्ची) के समान दान लाभादि पांच को सदेव विघ्न उपस्थित किया करता है। इनके वेदनीय अतरिक्त और भी अन्य कर्मों को जान लेना चाहिये । वे स्वभाव जीवोंके श्रानेके कारण हैं। दर्शनावरण, ज्ञानावरण, एवं अन्तराय इन चार कमोंकी उच्चत्तम स्थिति तीस फोटाकोड़ी सागरकी है। मोहनीय कर्मकी उच्चतम स्थिति सत्तर बोड़ाकोड़ी सावरकी है। इसी प्रकार नाम कर्म एवं गोत्र कर्मकी स्थिति बीस कोटाकोड़ी सागरकी है। शायु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तीस सागरकी है-- जिनेन्द्र देवने इसी प्रकार आठ कर्मोंकी अत्यन्त उत्कृष्ट स्थितिको बतलाया है। वेदनीय कर्मको जघन्य स्थिति बाहर मुहूर्तकी है। नाम एवं गोत्र कर्मकी माऊ मुहूर्त तथा अन्य शेष पांच कर्मों की यन्तमुहूर्त जघन्य स्थिति है। स
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अथ रूपातीत ध्यान वर्णन
चौपाई धर्म रहिन प्राणी संसार, जपं अनेक मंत्र निरधार। सिद्ध साध्य हैं और सुसाध्य, प्रारिय सहित चतुर आराध्य ।।४६३।। थंमन वशीकरण प्रवदात, चेटक नाटक वह उपपात । सात वर्ण सिद्धि मुनि जोय, काटे विमल मंत्र अवलोय ॥४६४।। सकल सिद्धि इनहीके ध्यान, अष्ट सिद्धि नव निद्धि वखान। ए संसार बढ़ावन सबै, इनिहीत शिव मारग दवे ॥४६५।। मनकी चंचलताको रोध, उपजाये दूर ध्यान विरोध । तात किमपि मंत्र वरणए, मनसा रोकनको परिणये ।।४६६॥ प्रातम हितकारी जो ध्यान, अब सुन ताको करी बखान । सिद्ध रूप को चितवन करो, तात सकल कर्म निरजरी ।।४६७॥ है अधिकार चरम रस छाम, काय बिनाश सहज बिसराम । सदा अनाकल परम रमेय, अनरूपी अरु अजपा ध्येय ॥४६॥ तीन भुबन में रहै रामाय, ज्ञान दृष्टि विन लख्यो न जाय। बिन शरीर है पुरुषाकार, किचित ऊन चरम तन धार ।।४६६।। जो कोई जियमें करै विचार, अनरूपी को पुरुषाकार । ता संवोधन गुरु कहि कथा, सिद्धि द्वारमें वरनी जथा ।।५००।। सो सिद्धन सम प्रातम रूप, ध्यावे दुविधा द्वार अनूप । रूपातीत ध्यान यह नाम, जो लेजाय मुक्ति के धाम ।।५०१॥
दोहा
गग रहित इन्द्रिय दमन, सकल विभंग उड़ाय । जीव तनों विधाम यह, रूपातीत कहाय ||५०२॥
इति ध्यान निरूपणम्।
'प्रत्यय वर्णन पंच मिश्यात प्रथम एकांत, विनय दुतिय विपरीत त्रिसंत। चौथौ है मंशय मिथ्यात, प्रज्ञान पंचमी सुनहो भ्रात 11५०३।। बारह अवत हैं दुखदाय, ताके नाम सुनौ समुदाय । पांचों थावर वसहि विरोध, इन्द्रिय पांचों मन नहि रोध ।।५०४|| पंद्रह जोग पनीस कषाय, सब संतावन प्रत्यय थाय । जबलौ इनमें रहै ज जीव, पाव नहीं मुक्ति पथ सीव ।।५०५।।
अथ जाति स्थान*
लख चौरासी जोनी सबै, ताको भेद कहीं कछु सबै । पृथवी वायु अगनि जल चार, इतर निगोद नित्य अवधार ||५७६॥ 1 षट थोक बयालिस लक्ष, सात सात जानों परतक्ष । बनस्पति' प्रत्येक दशान, विकलत्रय पट लक्ष बखान ।।५०७।। देव नारकी अरु तिरजेच, चार बार मिली बारह संच । मनुष जोनि है चौदह लाख, सब चौरासी मिति यह भाख ।।५०८।
कर्मोको मध्यम स्थिति कई एक प्रकार की है और प्रमाण भी उनका माध्यम ही है । अशुभ कर्मोका अनुराग निम्ब, काजी, विष
और हलाहल ये चार प्रकारका है। शुभ कर्मोका अनुभाग गुड़, खांड, मिश्री और अमत ये चार प्रकारका है। प्रतिक्षण उत्पन्न होने वाले सम्पूर्ण कर्मों का अनुभाग अनेक प्रकारका है और सांसारिक जीवोंको क्षण-क्षण सख दुःख प्रदान करता रहता है। सांसारिक जीवांके सम्पूर्ण प्रात्म-प्रदेशों में अनंतानन्त सूक्ष्म कर्म परमाण सब जहां परस्पर मिलकर एक हो जाय उन कर्म परमाणों के वन्धको प्रदेश बन्ध कहते हैं। इस प्रदेश बन्धमें दुःख ही दुःख भरे पड़ है । वह दुःखोंका समुद्र ही है। इन चार प्रकारके बन्धोंको अपना बैरी समझ कर बुद्धिमानोंको उचित है कि दर्शनजान चारित्र एवं तपरूपी बाणों से नष्ट कर डालें। इन्हें सम्पूर्ण दुःखोंका मुल कारण समझना चाहिये । राग द्वेषहीन होकर जो कि चैतन्य परिणाम कर्मोके आस्रव को रोकने वाला है वह परिणाम भाव
--- --- - --- - ----- -- - -- - --- fणस्चिदरमादुसत्त व नरुदस विलिदिएमु वेव । सुरणियतिरिय चउरो चोद्दल मणुए सदसहस्सा ।।८६||-जीवकाण्ड ।
नित्य निगोद, इसर निगोद, पृथिवी, जल, तेन और वायुकाविको प्रत्येक को सात सात लाख, वनस्पतिकारको दश लाण, डीन्द्रिय और नरिन्द्रियम प्रत्येककी दो दो लाख, देव नारकी और तियंचों में प्रत्येकी चार चार लास तथा मनृपोंकी १४ लाख योनिया होती हैं। सब मिलाकर ८४ लाख योनियां होती है।
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दोहा चौरासी लख जाति में, मात पक्ष जिय जंत । पंच परावर्तन धरे, भटकै काल मनन्त 11५०९।।
योग वर्णन
चौपाई करन तीन मद पाठ प्रकार, पाचौं इन्द्रिय विकथा चार । सात व्यसन रु चार कपाय, पंच मिथ्यात जहां सरसाय ॥५१०॥ यह छत्तीस जोग समुदाय, इनि मिलि प्राणी कर्म बंधाय। आवे जाय तहां सब जीव, इतर निगोदादिक जु सदीव ।।५११।।
कुल कोटि वर्णन पथिवी कायिक वाइस जान, जलकायिक पुन सात वखान । तेजकाय तह तीन म भनी, वायु सात लख कोहि गनी ।।५१२॥ बनस्पती प्रवाइस होय, एकेन्द्रिः सय सड़सट जोय । द्वेन्द्रिय पुनि सात गनेह, ते इन्द्रिय तह आठ भनेह ।।५.१३।। चौइन्द्रिय नव कोडि प्रतक्ष, सब चौबीस बिकलत्रय रक्ष । अब पंच इंद्रियको सून हाल, है तिरजंच साड़ तेताल ।।५१४|| जलचर साढ़ेबारा लाख, पुनिनभचर सब बारह भाख । थलचर को दो भेद वखान, चतुपद आदि दशहि परवना ।।५१५।। सरी सर्प नव कोड़ि जु कहैं, इमि तिरजंच सबै सरदहै। देबन कुल छट बीस ज होय, नारकगति पच्चीस हि सोय ।।५१६|| चौदह मनुष्य तनै अवलोय, सकल जीव इकठे सब होय । इकसय लख गनिये कुल कोडि, साढ़निन्यानव ऊपर जोडि ॥५१७॥
(१९६५००००००००००)२
दोहा पिता पक्ष कुल कोड़ि यह, चतुरविश थानेव । अब जिय गत्यागत सुनौ, दंडक चौबीसेव ||५१८।।
अथ चौबीस दण्डक प्ररूपण
संवर है। योगी जन जिन महावतादि उत्तम ध्यानोंसे सम्पूर्ण कर्मानाबोंका निरोध करते हैं उनको सुखदायक द्रव्य संवर कहते हैं।
संबरके कारण महाव्रतोंके द्वारा परिषहोंके जोतनेके विषयमें पहले कहा जा चुका है इससे पुन: पिष्टपेषण करना ठीक नहीं। जिज्ञासुनोंको वहींसे जान लेना चाहिए। सविपाक और अविपाकके भेदसे जीवोंको निर्जरा दो प्रकार की होती है। इन दोनों में से मुनीश्वरोंकी अविपाक और अन्य सब सांसारिक जीवोंको सविपाक निर्जरा होती है। इसके पूर्व भी निर्जराका वर्णन
--- - -- ----- - - - - -- -.. १. शरीरके भेदको कारणभूत नो कर्मवरणाके भेदको कुल कहते है।
बावीस सत्त तितिण य सत्त य कुलकोडिसगहस्साई । गोया पुढविदमागणि वाउमायाण परिसंखा ॥११३॥ कोडिसप सब सहस्सा रात्तद्वणव य अटवीसाई । देविय तेइंदिय चरिदिय हरिद कायाणं ॥११४॥ अद्वत्तेरस वारस दसयं कुल कोडिसदसह माई । जलचरपकिब चउप्पय उरपरिसप्पमु गाव होति ।।११।। छप्पं चाधियवीसं . वारसकुलकोडिरावसहस्साई । सुरणेरइथसाराणं जहाकम होति गयाणि ॥११६||
एया य कोडिकोशी सत्ताणउदीय सदसहम्साई । १ष्णं कोरिसहम्सा सवंगीणं कुलाणं य ।।११७|| जीवकाण्ड
२. कुल कोटियोंकी संख्याके विषय में अन्य शास्त्रोंमें दो प्रकारका उल्लेख मिलता है। गोम्मटसार जीवकांडमें १६७५०००००००००० संख्या बतलाई है। गोम्मटसारके गाथा ऊपर उद्धत किये जा चुके है। परन्तु कविवर द्यानतरायजी ने अपने घरचा शतक ग्रन्थ में कुल कोटियोंका साम00000000००० वतलाया है। यहां ग्रन्थकतनि भी उसी आधार पर उक्त सध्या का निरूपण किया है। द्यानतरावजी का कवित्त यन है पध्वीकाय बीस दोय जल सात तेज तीनि, या सात तरुबीस आयपत्मानिये । बे ते चउ इन्द्रो सात आठ नव खग वार. जलचर साखानी दस जानिये ।। सरीसृप नव नारको पचीस नर चौथ, देवता बीस कुल कारि मानिये । दोय कोराकोी माहि आध लाव काशिनी निहारिक दयास भाव आनिमे ॥३२॥--चरचाचातक ।
गोम्मटसार में मनुष्योंकी १२ लाख और यहाँ १४ लाख बतलाई है, इसलिए दो लासका अन्तर दोनों निरूपणोंमें पड़ता है।
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दोहा
नारकगति है प्रथम ही, भवमपति दश जान । जोतिक व्यन्तर, तेरमौ चौदह स्वर्गहि थान ।।५१६।। थावर पांचों, बिकलत्रय पंचइन्द्रिय तिरजच । चौबीसी मानुष गनी, कहीं भेद अब रत्र ।५२०।।
चौपाई
नारककी गति प्रागति दोय, नर तिरजंच पचन्द्रिय होय । जाय असनी पहिला लग. मन विन हिंसा कर मन पनं ।। ५२१।। सरीसर्प दुजो लौं जाय, तीजं ली नभचर पहुंचाय । सर्प जाय चौथी लों सही, नाहरको पंचम जिन कही ।।५२२।। नारी छट में लौं सो जाय, नर श्रर मच्छ सातली थाय। यह तो नारककी गति कहै, अब सून भागति जिहि विधिल है।।५२३।। सातम नरक निकस के कोय, पर गतिमें आवे दुख जोय । प्रवर नरक सबके कढ़ि जीव, नर पर पशुगति लहै सदीय .।५२४।। छट्टम नरक निकसि कोइ जीव, समकित लहै निपाप अतीव । पंचम ते निकस्यो मुनि होय, चौथे को केवल धर सोय ।।५।। ताजैको निकस्गो शनि कोय, तीर्थकर गट धार सोय। ऐसी विधि प्रागति पहिचान, सात नरक की कहि भगवान ॥५२६।। तेरह दंडक देव निकाय, तिनके भेद सुनौ मन लाय। नर तिरजंच पंचेन्द्रिय बिना, और न काहू सुरपद गिना ।।५२७।। देब मरै गति पंच लहाहि भ जल तरु नर तिरबर महि । दुजे स्वर्गसु ऊपर देव, थावर होय म कहिये एव ।।५२८।। सहस्रारतं ऊंची सुरा, मरके होय सु निहलै नरा। भोगभूमिके तिर अरु नरा, दूजे देवलोक तं परा ।। ५२६॥ जायं नहीं यह निह कहो, देवन भोगभूमि नहि लहो। करमभूमिया तिरजग जतो. श्रावक व्रत धर बारम गतो॥५३०॥ सहस्रारत पर तिरजंच, जाय नहीं तजह परपंच । अव्रत सम्यग्दृष्टी नरा, बारम त ऊपर नहि धरा ॥५३१॥ अन्य तपी पंत्रागनि साध, भवनत्रिक ते जाय न बाध । परिव्राजक दंडो है तेह, पंचम पर नहीं उपजेह ॥५३२॥ परमहंस नाना परमती, सहस्रार कार नहि गतो। मोक्ष न पावहि परमतो मांहि जन बिना नहि कर्म अशाहि ।।५३३।। श्रावक अरजा अणुव्रत धार, बहुर श्राविका गनी विचार । सोलह स्वर्ग पर नहि जाय, ऐसी भेद कहीं जिनराय ॥५३४।। द्रव्य लिंगधारी से जती, नवनवक ऊपर नहि गती। नव अनुदिश प्रम पंचोत्तरा, महामुनी बिन पोर न धरा ।।५३५॥ कई वार देव जिय भयो, तिनमें कई पद नहि लयो । इन्द्र भयो न शची हू भयो, लोकपाल पुन कबहुं न धयो ॥५३६।। पर लोकान्तिक भयौ न सोय, नहीं अनुत्तर पहुंचौ लोय । ए पद लह बहु भव रहि धरे, अल्पकाल में मुक्ति सु बरै ।।५३७।। गत्यागत्य देव गति येह, अब नरगतिके भेद सुनेह । चौबीसों दंडकके मांहि, मानुष जाय जु संशय नाहि ॥५३८।। मुनि पद धरै होय शिव ईश, मानुष बिना न मुनिपद दीस । गति पच्चीस कहो नर ईश, मनुष तनो भाषा जोगोश ॥५३६।। आगत मुनि बाईस जु सोय, तेजकाय अम बायु जु काय । इन विन पीर सबै नर थाई, गति पच्चोस पागतो बाई ॥५४०।। यह सामान्य मनुष्यकी कहो, अब सुन पदवीधर को सहीं । तोर्थंकर को दो या गतः, सुर नारक त आव सतो ॥५४॥ फेर न गलि धारै जगदीश, जाय विराज जगके शीस । चको अधचक्री अरु हली, स्वर्ग लोकत प्राब वली ॥५४२।। इनकी प्रागत एक ही जान, गतिकी रीति जु कहीं बखान । चक्रो को गति तोन जु होड, स्वर्ग नरक अरु शिवपद जोइ॥५४३॥
विस्तारशः कर दिया गया। पुनरुक्ति दोषके भयसे पुनः यहां उल्लेख नही किया जाता। जो परिणाम मोक्षाभिलाषी जीवोंके सम्पूर्ण कर्मों में नाशक हाँ वही अतिशुद्ध परिणाम है । उसीको जिनेश्वर महावीर प्रभुने भाबमोक्ष कहा है । अन्तिम शुक्ल ध्यान के प्रभाव ज्ञानमय आत्माका सम्पूर्ण कर्मजालसे पृथक होजाना हो द्रव्यमोक्ष है। जिस प्रकार कि पापाद मस्तक अनेक बन्धनोंसे बंधे हुए पुरुष को सव बन्धन खुल जानेसे अत्यन्त हर्ष और सुख प्राप्त होता है उसी प्रकार असंख्पेय कर्म बन्धनोंसे जकडे द्वारा जोवको मोक्ष मिल जाने से वह ीब निराकुल होकर अनन्त और अक्षय सुखको प्राप्त करता है। कर्मोसे छ? जानेके वाद मति हीन ज्ञानवान् अति निर्मल पात्मा स्वभावत: उर्द्धगति होनेके कारण ऊपर सिद्धालय में जा पहुंचा है। वहाँ जाकर निधि
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तप धार तो सुर शिव दोय, मर राज्यमें नरक हि होय । आखिर पहुंचे पद निर्वान, पदवी धर ये बड़े प्रधान ॥५४४।। अधचकी के दोऊ भेद, हरि प्रतिहरि नारक गति खेद । राज्यमाहि ये निह मरे, तद भब मुक्ति पंथ नहि धरै ।।५४५|| प्राखिर पावें जिनवर लोक, पुरुषशलाका शिबके थोक । बलभद्रनकी दौयहि गती, स्वर्ग जांय है के शिवपती ।।५४६|| तप धार ये निश्चय पाय, मुक्ति पात्र ये श्रुत में ठाय । कुलकर नारद रुद्र रु काम, जिनवर तात मात पद नाम ।।५४७।। इनकी आगत धत ते जान, गतके भेद जु कहौं बखान । कुलकर देव लोक ही लहैं, पारद रुद्र अधोपुर गरें ।।५४६॥ मदन मदन हृत स्वर्ग जु कोय, कोई तद्भव शिवपुर होय । तीर्थकरके पिता प्रसिद्ध, स्वर्ग जाय कै हूँ हैं सिद्ध ।। ५४६।। माता स्वर्ग लोक ही जाय, आखिर शिवपुर बेग लहाय । ये सब रीति मनुष को कही, अब सुन तिरजग गति की सही ॥५५॥ पचेन्द्रिय पशु मरण कराय, चौबीसों दण्डक में जाय । चौबीसों दण्डक ते मरं, पशु य होइती नाहि न करै ।।५५१॥ गति भागती कही चौबीस, पंचेन्द्रिय पशुको जो ईस । ता पंचम सुरको पथ गहीं, चौबीसी दंडक नहि लहौ ॥५५२॥ विकलत्रयकी दश ही गति, दशप्रागति कहि थी जगपती। पांचौ थावर विकलत्र तीन, नर तिरजग पचेन्द्रिय लोन ||५५३॥ इन ही दशमें उपज जाय, इन हो ते विकलत्रय प्राय । पृथवी पानी तरुवर काय, इन ही दशमें जनम कराय ।।५५४|| नारक बिन सब दण्डक जोय, पृथवो पानी तरुवर होय । तेज वायु भर इनमें जाय, मानुष होइ न सूत्र कहाय ।।५५५। थाबर पंच विकलत्रय ठोर, ए नव गत भाषौ मद मोर । दश तें प्राय तेज अरु वाय, होय सही भावो जिनराय ।।५५६।। ये चौबीसों दण्डक बाहे, हाको त र
हे ' इनमें एकै गति को जीव, इनते रहित होय जग पीव ।।५५७||
अथ ऊर्ध्वगमन वर्णन प्रकृति बंध थिति बंध जु एव, अरु अनुभाग प्रदेश लहेव । बंधन चार जीवको येह, चारौं गति भटकावं तेह ॥५५॥ बंध विजित जब जिय होय, ऊरध गमन करै तब सोय । जैसे तुंबी मृतिका लेप, जल में बड़ रहे बल क्षेप ।।५५३।। क्रमसों लेय जाय खिरि जबै, करध गमन कर जिय तवं । जो लौं चहुंगति बंध्यौ जीब, विदिश वजि गति करै सदीब ।।५६०॥
सिद्ध जीव वर्णन
सोरठा
बसे सिद्ध सब खेत, ज्यों दर्पण में छांह है। ज्ञान नैन लखि लेत, चरम नैन सौ प्रगट नहि ।।५६।।
पद्धडि छन्द
तह अष्ट कर्म मल मुक्त होय, अर अष्ट गुणातम रूप जोय । व्यय उतपति ध्रौव्य संजक्त तीन, जहं चरम देहत कछक हीन ।। जो अथिर द्रव्य परजाय कोई, तस हानि वृद्धिमय रूप जोय । तेई, नव सिद्धनको प्रवान, है व्यय उतपति अरु घोच्य जान ।। जब भव परिणति कोनी विनाश, तब भई सिद्ध परजाय जास । निह चल पद पायो शुद्ध वास, येहि ब्यय उनपति ध्रौव्य जास ।।
होकर अनुपम, प्रात्मजन्य, विषयातीत, आकुलता हीन, सिद्धिहानि रहित, नित्य अनन्त और सर्वोत्तम सुखोंका वह ज्ञान शगेरी सिद्ध परमात्मा भोग करता है । अहमिंद्र इत्यादि देव, चक्रवर्ती विद्याधर भोगभूमि या इत्यादि, मनुष्य, व्यन्तरादि जघन्य देव, सिंहादि पशु ये सभी जिन विषय सुखोंको भोगते हैं अथवा भविष्यकालमें भोगगे उन सबके सम्मिलित विषय-सुखोंको यदि एक श्रित किया जाय तो उस इकट्ठहुए विषय-सुखों के समूहमे अनन्त गुणा अधिक सुख कर्म हीन हुए सिद्ध भगवान् एक समय में भोगते हैं। उनका सुख अनन्त और निविषय है। ऐसा समझकर ऐ मतिमान पुरुषों, तुम लोग प्रमाद और आलस्यको छोड़कर विषय जन्य सुखसे अनन्त गुणा अधिक सुख प्राप्तिको इच्छासे तप और रत्नत्रय इत्यादिके द्वारा मोक्षको प्राप्त करो। इस प्रकार इन्द्र, विद्याधर और मनुष्यों के द्वारा पूजित जिनेन्द्र श्रीमहावीर प्रभु ने सत्र भव्यजीव समूहों को तथा गणधरोंको अपनी दिव्य मधुर
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जिन मुख्य ज्ञान मरजाद नाहि, थिर रूप पिंड है जाति मांहि । तिनको प्रकार इक देश होई, सो कही एक दृष्टान्त सोई॥ इक सोममयी पुनरा बनाय, नख शिख सु चतुर संस्थान पाय । तन निराभरण पुरषाप्रकार, सबही विधि सुन्दर रचि अपार ।। पून माटीसौं इमि लेप सोय, जैसे तन ऊपर त्वचा होय । बह अंग न खाली रहइ सार, उपचार कल्पना यह प्रकार ॥ सो भाग मांहि लीज तपाव, गल जाय मोम सांची रहाय । अब ता भीतर की विचार कह रह्यो तहां दुध जजन हार।। है मूस पोलको सुन प्रकाश, नभ रह्यौ जु पुरुषाकार लास । सो जानी यह अम्वर उन्हार, तहं ब्रह्मरूप परगट विचार ।।५६६।। पर यह अकाश जड़ शून्यरूप, वह पूरण है चेतन चिप । यह वहमें इतनों फेर जान, आकृति में कछु अन्तरन भान ||५७०।। इहि विधि सिज्ञातम को सरूप, सो निराकार साकार रूप । दृष्टान्त गहै निज हिये धार, भविजन मनको संशय निवार ||५७१||
गीतिका छन्द श्री वीरनाथ जिनेश भाषौ, प्रगट गौतम ने कह्यो । जीव तन्त्र बखान बहुविधि, भव्य जन मन सरदह्यौ ।। वीर्य दरशन ज्ञानकी, यह फेर ऋम शिव-पथ गहै । साधु सु चरण कर्म खय कर, शाश्वत पदको लहै ।।५७२।।
दोहा सर नर पद वंदन सदा, ध्यान धरत जोगेश । तीन लोक प्रभता लिये, प्रनमी बीर जिनेश ॥५७३||
बाणीसे सात तत्वोंका उपदेश सुनाया। ये ही पूर्वोक्त सात तत्व मोक्ष ज्ञान के कारण हैं, दर्शन ज्ञानके बीज रूप हैं और भव्यजीवों के परम उपादेय हैं।
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लौकान्तिक लोक
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चतुर्दश अधिकार
मंगलाचरण
दोहा
तत्वारथ परगट करण, केवल ज्ञान सुभान तीन जगत नायक नमी, श्री सन्मति भगवान || १ ||
चौपाई
॥२॥
फिर गौतम बोले घिरनाथ, तुम स्वामी त्रिभुवन सुखदाय अब अजीब तस्वहि कहि भेद भविजन मनको ना तब प्रभु मुख वाणी उच्चरी, सकल अर्थ गर्भित गुणभरी । जीव तत्व गुण पूरव रहे, अब सब तत्व प्रदारथ लहे || ३ ||
अजीव तत्वका वर्णन
दोहा
पुद्गल
धर्म अधर्म नभ, काल सहित ये पंच। सो जीव जड़रूप हैं, वरणी तिनहि प्रपंच ॥४॥
पुद् गलका स्वरूप
चौपाई
पुद्गल भेद दोष परकार संघ रूप अणु रूप विचारता yora रूपी दर बारी और रूपी सरव ॥ ५ ॥ बरन पंच रस पंच हि पाऊ, दोय गंध सपरस गुन ठाउ । पुद्गल गुण ये बोस बखान, इनतंबंध रूप परवान ॥६॥ श्रव णु सुनिये लोय, छेद भेद जाके नहि होय । अगन जलादिक नाश न हूल, शब्द रहित पे कारण भूत ॥ ७॥ सूक्ष्म थल पट भेद प्रमान श्रद्धाकर सुनिये बुधवान सूक्षम सूक्षम प्रथम बखान, सूक्षम द्वितीय कहै भगवान ॥ सूक्ष्म चूल तृतीय जानिये पूल सूक्षम थीथी मानिये पूल पंचमी कहिये नाम, भूलबूल, छट्ठो अभिराम ॥२॥ कर्म वर्गणा दुष्टि न आय सो सूक्षम सूक्षम हि कहाय अष्ट कर्ममय खंध जु होय. सो सूक्षम पुद्गल अवलोय ॥ १०॥ शब्द सपर्स गंध रस जान सूक्षम स्थूल करो परवान धूप चांदनी आदि समस्त सूक्ष्म यो कहिये वस्त ||११|| जल घृत तेल आदि दे सर्व बूथ थूल रूप जानी सब दवं भूमि विमान धाम गिरि जान, थूल थूल ताको पहिचान || १२||
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तीन जगतके नाथ जो केवल ज्ञान निकेत विश्वबन्धु वीरेश के, विश्व तत्व कहि देत ||
इसके बाद सम्यक्त्व एवं ज्ञानके कारण नी पदायों को कहा जाता है सात तत्वोंमें पाप और पुण्यको मिला देने से नौ पदार्थ हो जाते हैं। तीर्थेश श्रीमहावीर प्रभुने भव्य जीवोंके संवेग (संसार-भय उत्पन्न करने के लिये पाप पुण्यके कारण एवं उनके फलोंको कहना प्रारम्भ किया। एकान्त यदि पांच मिध्यात्य, दुष्ट, कषाय, असंयम, निन्दनीय प्रभाद, कुटिल योग, बार्स- रौद्ररूप बरे ध्यान, कृष्णादि तीन बुरी लेश्याएं तीन शल्य मिथ्या गुरुदेव इनका सेवन, धर्मावरोध एवं पापोपदेश करने तथा धन्यान्य भूषित आचरणोंके द्वारा उत्कृष्ट पाए होता है। जिनका मन दूसरोंकी स्त्री, धन एवं वस्त्रकी अभिलाषाने लगा है, रोगसे दूषित
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दोहा
शबद बंध सूक्षम गरुव, छाया तम संठान | भेद उदोत प्रताप जूत, वपु प्रजाय दश जान ।।१३।।
धर्मद्रव्य वर्णन
रौद्रध्यान
जिय पुद गल जन गमन कराय, धर्मद्रव्य तब होत सहाय । जैसे मीन चल जल जोइ, पै अपनी इच्छा कर सोइ ।।१४||
अधर्म द्रव्य वर्णन जड़ चेतन जब ही थिर होय, तब अधर्म सहकारी होय । ज्यों पंडी बैठो तरु छोहि, जब उठ चले गहै तव मांहि ॥११॥
आकाश द्रव्य वर्णन कालोक दुविध प्राकाश, पूति विजित सदा प्रकाश । धर्म अधर्म काल त्रय दव, पुद्गल जीव पंच ए सर्व ॥१६॥ इनको देय सदा अबकाश, असंख्यात परदेश निवास । लोकाकाश कहावै मोय, परै अलोकाकाश जु होय ॥१७।। दाय विजित तिष्ठं सदा, मूरति हीन क्रिया नहि कदा । सोहै अनंतानंत अकाश, गोचर केवल दृष्टि प्रकाश ||१८||
काल द्रव्य वर्णन नतन द्रव्य ज जीरन करें, यह प्रवर्त समयादिक धरै । घड़ी पहर दिन बर्ष जु जाय, सो व्यवहार काल परजाय ।।१९।। लोज प्रजत असंख्य जु होय, एक एक कालाण जोय । रत्नराशि वत शोभं जहां, भिन्न-भिन्न परदेशी तहां ॥२०॥ काल जीव दगल पुन धर्म, और प्रकाश अधर्म जु धर्म। एही छह दर्वे समुदाय, काल बिना पंचास्ति जु काय ॥२२॥ जीव धर्म अधरम य दर्व, ते असंख्य परदेशी सर्व । नभ अनन्त परदेशी संत, पुद्गल संख्य असंख्य अनन्त ।।२२।। काल एक परदेशी जान, ताते काल काय बिन मान । वर्तमान लक्षण है जास, सदा शास्वतौ द्रब्य प्रकाश ॥२३॥
प्रश्न
भो गरु एक प्रदेशी होय, काल काय विन भाड्यौ सोय । त्यों पुद्गल परमाणू यसै, सो सकाय कर कैसे लसे ॥२४॥
उसर कालाण हैं, अलख असभ्य, भिन्न भिन्न तिप्ठं सुन शिस्य । अापस मांहि मिले नहि सदा, तातं कायवंत नहि कदा ॥२५॥ रूख चौकनादिक गण जाहि, ते परमाण हैं जग मांहि । ततछिन खध रूप दे जाय, याहीतं पुद्गल है काय ॥२६॥
है, क्रोधमोहादि रूप अग्नि मन्तप्त है, विवेकहीन, दयाहीन, मिथ्यात्व व्याप्त, पाप-शास्त्र प्रवृत्त एवं नाना प्रकारके विषयोंसे व्याकुल है महा उग्र पापके करने वाले होते हैं। परनिन्दक, प्रात्म-प्रशंसक और जो असत्य-युक्त पाप कर्मा का कहते फिरते हैं मिथ्या-शास्त्राभ्यास में तत्पर रहते हैं धर्ममें दोप लगाया करते हैं तथा जो वचन जिन-सिद्धान्त सूत्रके विरुद्ध हैं वे पाप संग्रह में प्रवृत्त कराने वाले होते हैं । जिन लोगांका शरीर जघन्य कर्मों का करने वाला है, दुष्ट रूप है मारने बांधने के कर्म में लगा रहता है, बेकार रूप है, दान पूजादिसे हीन है, स्वेच्छाचारी है तप एवं ब्रतसे रहित है, ऐसे लोग नरक के कारण महान् पापों को प्रोर बढ़ते हैं। जिनेन्द्र देव, जिन सिद्धांत निर्ग्रन्थ गुरु जिन-धर्मी (जैनी) इनकी निन्दा करनेसे बड़ा भारी पाप लगता है। इस प्रकार जिनेन्द्र देव भव्य जावों को ससार से विरक्त होने के हेतु पूर्वोक्न प्रकार से महापापों को उत्पन्न करने वाले निन्दनीय कमों का उपदेश किया।
दःशीला स्त्री लोकहिक एबं शत्रु के समान भाई, दुर्व्यसनी पुत्र, प्राणनाशक परिवार, रोग कष्ट, दारिद्रय, वध बन्धन इत्यादि दुःख पापोदय होने के कारण पापियों को होते रहते हैं। पाप ही के फल से लोग अन्धे गूगे बहरे पगले कुबड़े अंगहीन
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सारा प्रदेश मन
प्रडिल्ल परमाण अविभाग एकसौ जानिये । एकौ जितौ श्राकाश प्रदेश बखानिये ।। कालाणू इक जहाँ धर्म अधर्म है। पुद्गल जीव प्रदेश सबै लहि शर्म है ।।२७।।
शिष्य प्रश्न धर्म अधर्म अरु काल जीव जुत चार ये । नभ दिक दश हि सबै कही किह बांटये ।। हैं इक हेत अरूपी चारों धरि लये । पुद्गल मुगति बंत अनते किम भये ।।२।।
उत्तर
दोहा
अथा एक मन्दिर विर्ष, बहुतक दीप प्रकाश । बाधा कछु व्याग नहीं, लहै सुजस प्रबकाश ।।२६।। तसे ही परदेश नभ, पूगल खंध बसाय । ज्यों अनन्त त्यों एक है, बाधा लहै न काय ।।३।।
प्रास्रव तत्व वर्णन
दोहा जो कर्मनको यात्रवे, प्रास्रव कहिये ताहि । भाव दरव दो भेद हैं, कहे जिनागम मांहि ।।३।।
चौपाई मिथ्या प्रवत जोग कषाय, ए सत्तावन आस्रव प्राय । ऐसें भाव जीव जब करे, सो भावास्रव कर्मनि धरै ।।३२॥ तिनही भावनि कर उपाय, पुदगल जीव कर्म परिणाय । बंध्यौ तहाँ प्रातमा राम, सो है भाव बँध जग ताम ॥३३॥ जो चेतम परदेश जु कहै, तिनपर कर्म पुराने लहै । नुतन कर्म बंध बहु होय, द्रव्यबंध यह जानो सोय ॥३४॥ प्रकृतिबंध थितिबंध जु धार, अरु अनुभाग प्रदेश विचार । प्रकृति प्रदेश जोग उतपन, थिति अनुभाग कपायनि जुत ।। ३५।।
बन्ध तत्व का वर्णन-प्रकृति वंध निरूपण प्रथमहि ज्ञानावरणी कर्म, मति आदिकपन ज्ञान जु पर्म । आछादै चेतन गुण सदा, जने वस्त्र ढाकिये कदा ।।३६।। दरशन बरण दूसरी जान, नव प्रकृतिनि सो है थिति थान । तितकै रोकै कारज सब, जैसे द्वारपाल नप तब ।। ३७।।. कम वेदनी तृतीय बखान, खडग धार मधु लिप्त सु जान । सरसों वत सो मुख्य हि करै, मेरू प्रमाण दःख अनसरै ।।३।। मोहन कर्म चतुर्थम लस, आठवीस प्रकृतिनि कर बस । मदिरा बत ताको निरधार, दरशन चरण न हू है सार ।।३।।
कुरूप और सुख हीन होते हैं। इसी तरह दूसरों के दास (नोकर) दीन, दुर्बुद्धि, निन्दनीय पाप कर्मों में ततार एवं कुशास्त्रों के अभ्यास करनेवाले भी पूर्व पापोदय के ही कारण होते हैं। यह सब पाप का ही फल है। ऐरो पापी परलोक में अत्यन्त उग्र क्लेशों को भोगते हैं। ये ही भयंकर दु:खों से व्याप्त सातों नरकों में जन्म ग्रहण करते हैं, जहां सुखका लेश मात्र भी नहीं ऐसो दुःखोंकी खान तियञ्च योनिमें उत्पन्न होते हैं। चण्डाल कुल एवं म्लेच्छ जाति आदिको भी ऐसे ही पापी लोग पाया करते हैं । अघालीक मध्यलोक एवं ऊर्द्धलोक में जो कुछ उत्कृष्ट दुःख है क्लेश है दर्गति है वे सब पाप के उदय होने से पापियों को ही मिलते हैं। इसीलिये सुख को चाहने वाले पापों के बुरे फलों को जानकर प्राण निकल जाने पर भी पाप की और नहीं प्रवृत्त होते । इस प्रकार अरहन्त प्रभु भव्य जीवोंके पाप को महा भयानक फलों को सुना कर पुण्य के कारणों को कहने में प्रवृत्त हुए।
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आयु करम पंचम विख्यात, चारों गति सी आयु ददात । दुःख सुख्य संपूरण धार, शृखलवत तिहि भाव विचार ।।४।। नाम करम छट्टम जानिये, कि गिरानद लिहि मानचित्रकार त हे गुण सोय, नर सुर नारक पशु जो होय ।।४।। गोत्र करम कहिये सातमा, ऊंच नीच कूल धरं आतमा । उत्तम निद्य लहै जन ताहि, भकार वत कहिये जाहि ॥४२॥ अंतराय है अष्टम कर्म, भंडागारो गुण तिहि चर्म । दान लाभ भोगो उपभोग, बीर्ज सहित पचोनहि जोग ।।४३।।
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इत्यादि बस्तु कर्मको, है स्वभाव वहु वेष । प्रकृति बंध जिनबर कह्यो, बंधे जीव प्रदेश ॥४४॥
स्थितिबन्ध निरूपण
चौपाई
कामावरण दर्शनावरण, वेदनि अंतराय थितिकरण । काडाकोड़ी सागर तीस, सो उत्कृष्ट कही जगदीश ॥४॥ मोहिनी कर्म तनी थिति लिध, कोडाकोड़ी सत्तर सिंध। आयु कर्म उत्कृष्ट बखान, तैतिस सागर को परवान ।।४६।। कोडाकोडी सागर बीस, नाम गोत्र उत्कृष्ट थितीस । अब जघन्य थितिको परवान, जूदी जदी सनिये बधवास की करमवेदनी द्वादश जान कही मुहरत इन उनमान । अष्ट महरस नामहि गोत्त, यह जघन्य थिति तिनको होत ।४।। पंच करम जे शेष जघन्य, अन्त मुहूरत थिति पर मन्य । मध्यम के तिन भेद अनेक, सर्व करम भगत
जिस की अथ त्रिपल्य प्रमाण वर्णन
दोहा अब त्रय पल्य प्रमाण मिति, कहो अर्थ अवधार । श्रद्धा कर भवि जन सुनौ, मन सन्देश निवार ||५०।। ...
चौपाई
उत्तम भोगभूमिके भेड़, सात दिवसके बालक मेड. । तिनको रोम पाठ परवान, मध्यम भोगभूमि इक जान ॥५शा मध्यम भोगभूमि वसु धार, भूमि जघन्य भेड़ इकवार । जघन्य भोगभूमि बसु होइ, कमभुमि इक लाहिये सोईर आठ रोमकी लोक प्रमान, लोख अष्ट इक. राई ठान । राई माठ एक तिल लेह, बसु तिल इक जब उदर गनेह ||१३|| वसु जब उदरं उदर मिलाय, अंगुल एक लहै समुदाय । द्वादश अंगुलको परमान, एक विलाती कहै बखानी दोय विलाती हाथ विशेख, चार हाथ इक दण्ड हि लेख । दण्ड सहस । कोश जुगनौ, चार कोश लघ जोजन भनी । मो इक जोजन कप खनाय, बालयाकृति बिस्तार बनाय । कितनी ही गहरी उनमान, अब सुनिये वह कर सजान का उत्तम भोगभूमि जो भेड़, ताके रोम लेइ सब खेड़ । तेही रोम खड बहु करै, यही कल्पना मनमें वापसी
उपर्यत सम्पर्ण पाप कारणों के विपरीत शुभ माचरणों का अनुष्ठान करने से सम्यक् दर्शन ज्ञान एवं चरित्र से प्रणवत महाव्रतों से कपाय इन्द्रिय योगों को रोकने से नियम मादिके धष्ठदानसे परहन्त के पूजनसे गर-भक्ति एवं सेवा करने से सदभावना पर्वक ध्यान एवं अध्ययनादि शूभ काया से धमापदश से चुदमान पुरुषों को उत्कृष्ट धर्म की प्राप्ति हमा करती बंराग्य यक्त है धर्ममें अन रक्त है पापसे दूर रहता है पर-चिन्ता से रहित होकर ग्राम चिन्ला में लीन है देव गावं शास्त्रोंकी परीक्षा करने में पूर्ण समर्थ है एवं कृपासे परिपूर्ण है वे उत्कृष्ट पुण्याका उपार्जन करते हैं। जिनके वचन पांच परमेष्ठियों के जप स्तोत्र एवं गणों को कहने वाले हैं प्रात्म-निन्दा से युक्त एवं परनिन्दा से होन होते हैं कोमल स्वर में धर्मोपदेश को करने वाले हट मध्यमांदा रुप शुभकर्मों के दाता हैं ऐसे लोग शुभ वचनों के प्रभाव से परम पुण्य को प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार जिन लोगों का शरीर कायोत्सर्ग (खड़ा रहना) आसन (बैठना) रूप है जिनेन्द्र भगवान की पूजा में सदैव तत्पर रहते है गरकी सेवा में प्रयत्न शील रहते हैं पात्र को दान देने वाले विकार हीन होकर शुभ कार्यों को करने वाले हैं एवं समानता को प्राप्त हैं ऐसे बद्धिमानों की शारीरिक पुण्य-कार्योक प्रभावसे राम्पूर्ण आश्चर्यजनक मुखों को देनेवाले महा पुण्यों को प्राप्त करते हैं। जो वस्तू अपने को अनभिहोमी वस्तओं को दूसरों के लिये भी अनिष्ट ही समझना उचित है। जो कि ऐसा समझता है वह निश्चय'रूपेण
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दोहा अंगुल एक जु रोमके, बीस लाख खण्डान । सहस संतावन एक पुनि बावन अधिक प्रमान ३५८|| ऐसे सूक्षम सा करै, फर खण्ड नहि होय । तिन रोमन कूपहि भर, क्रूट दावि दृढ़ सोय ।।५।। तिन रोमन संख्या कही, अक हि पैतालोस । अब तिनको विवरण सुनी, भाया वीर जिनेश ।।६।।
उक्तं च गाथा
"चद मेग तय चदुरो पण दोण्हं च छक्क तय सुन्न । तय सुन्नं बसु दोण्ह सुन्न तप तुरिय सत्त सत्तं च ।। सत्तं चद् जब पणगं मैग दोण्हं च मेग णव दोण्हं । अग्गो ट्ठारस सुन्नं अंक पणताल रोम लघपल्लं " अब इन अंकनको लिख अर्थ, जिहि विधि जिन शासन लहि ग्रंथ । चार इक बय तुरिय जु पच, दो छः तोन धरि शून्य त्रि पंच !! शन्य पाठ दो शून्य जु तीन, चार सात पुनि सातहि लोन । सात चार नव पंचह एक, दोय एक नव दोय विशेक ।।६।। सात बीस ए अंकहि धरी, ता पर यून्य अठारह करौ । यही अंक हैं पंतालीस, कूप रोम को संख्या दीस ॥६३।।
(४१३४५२६३०३०८२०३४७७७४६५१२१६२००००००००००००००००००) सौ सौ बरस बीत जब जाहि, एक एक काढ़ी बुध ताहि । कूप उदर जब खाली होय, सो व्यवहार पल्य प्रबलोय ॥६४|| भोगमिया नर तिरि एब, ज्योतिष व्यन्तर भावन देव । कल्पवासिनी देवी सोय, वही पल्य जीवत क्रम जोय ॥६५॥ शाय पल्य ऐसी विधि कहीं, सब सुन सागर पल्य जु सही । लघु जोजन' शत पंच प्रमान, जोजन महा एक उनमान ||६६।। ताको कुप जु वे हो भति, लहि विस्तार गंभीर विख्यात । पूरब रोम एक खंडान, ताके अंश शतक परवान ॥३॥ तिहि रोमन सौ कूप भराय, सौ बरषंगत एक कढ़ाय । जब हि कूप वह खालो होय, तब उद्धारपल्य अवलोय ॥६॥ ताके अंक तिरानवै होय, इतनी वरष असख्य जु सोय । सो दश कोडाकोड़ी जाय, सागर आयु कह यो जिनराय ॥६६॥ देवनारको र काल पट काल, कपनकी थितिका गन हाल । अर कोड़ाकोड़ी पच्चीस. पल्यउधार रोम जे दीस ॥७॥ द्वीपोदधिकी संख्या जान, नामावलि सवको पहचान । ताके अंक गुनौ बुधवान, अष्टोत्तर शत सब परवान ।।७।। सागर पल्य जानिये यही, राजू पल्य सुनो अब सही । जोजन महा लाख इक जान, पूरब रोति कूप उनमान ।।७२।। रोम अश बह सौ गुन कर, इहि विधि महा क्रूप को भरै । सौ सौ जब ही वर्ष गतंश, एक एक तब का अंश ||७३।। जयहि कप वह खाली होय, अद्धा पल्य जानिये सोय । ताके अंकनको परमान, इक सय पच्चासी घर ज्ञान ।।७४||
दोहा प्रथम पल्य संख्यात गन, दुतिय, असंख्य बखान । असंख्यात गन तोसरी, यह जिन बचन प्रमान ।।७५।। आव पल्य लघु प्रथम ही, मध्यम सागर पल्य । उत्तम राजू पल्य त्रय, अब तिन गिनती शल्य ।।७६॥
पुण्यशाली है। इस प्रकार तीर्थराज श्री महावीर प्रभु ने उपस्थित जीव समूहों एवं गणधरों के सामने संवेग होने के लिये पुण्यके अनेक प्रकार के कारणों को कहकर पुण्य फलों को कहना प्रारम्भ किया।
सशीला एवं सुन्दरी स्त्री, कामदेव के समान रूपवान पुत्र, मित्र के समान भाई, सूख देनेवाले परिवार पर्वतके समान हाथी इत्यादि वैभव, कवियों के द्वारा भी अवर्णनीय सुख, अतुलनीय भोगोपभोग सौम्य शरीर मधुर वचन दयापूर्ण मन रूप लावण्य तथा अन्यान्य दुष्प्राप्य सुख सम्प्रदाएं पुण्योदय के प्रभाव से ही प्राप्त हुना करती हैं। तीनों लोक में दलभ अनेक पुण्य कों को करने वाली लक्ष्मी स्वयं ही गृहदासी के समान पुण्योदय के प्रभाव से धर्मात्माओं के अधीन हो जाती है । लोक्य पति के द्वारा पूजनीय एवं भव्य जीवों की मुक्ति का कारण उत्कृष्ट सर्वज्ञ का वैभव भी पुण्योदय से ही उत्पन्न होता है। उस इन्द्र पद को भी बुद्धिमान पुरुष पुण्योदय से ही प्राप्त करते हैं जो सम्पूर्ण देवों के द्वारा पूज्य है, सकल प्रकार के भोगों का श्रेष्ठ स्थान है एवं अनेक उत्तम-उत्तम सम्पदाओंसे सुशोभित हैं। निधि एवं बहुमूल्य रत्नराशियों से परिपूर्ण होकर अनेक प्रकार के सखों को देनेवाली छः खंडोंकी लक्ष्मी भी ऐसे ही पुण्यात्माओं की पुण्य योगसे मिल जाती है। इस संसारमें अथवा नीनों जगतमें जो बाछ भी
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चौपाई एक अंक को एक ही नाम, शुन्य धरै दश कहि अभिराम । तृतिय अंक जुन सय गनि लेउ, चार अबको सहम भनेउ ।।७।। षट् ग्रंकन को लक्ष ज सोय, पाठ अंकबो कोड जु होय । कोडाकोड़ी मोडश अंश, ताको प्रमिति पदम निरसश ।।७।। कोड़ाकोडि दह पदम ज जहां, अंक इकतीसति गनिय तहां । ताको नाम कल्प परवान, इतनी संख्या काहि जिनवान ||७|| कल्प करी सय कोड़ाकोड़ी, तिहि सैताल अंक लिखि जोड़ि । जो व्यवहार पत्य वा सात, मो संख्यात प्रमिति यह ठान ।।८।। आध पल्य याही सौ कहै, अब उद्धार पल्य संग्रहै । संख्य संख्यगुन कीजै जोर, होय असंख्य प्रमाण बहोर ।।।। ते तिरानवे अंकहि गनौ, सागर माब पल्य सो भनी । असंख्य असंख्य गुण अंकहि धरौ, इक सय पचासी ऊपरी ।।दश। प्रजा पल्या नाम है सोय, सो दश कोड़ा कोड़ि होय । प्रद्धा सागर ताहि बखान, दो सब अंक गनौ बघवान ॥३॥ ते दश कोडाकोडि समुद्र, सुची एक गनी धर रुद्र । पन्द्रह उत्तर दो सय अंक, सुइ दश कोडाकोडि बक ॥॥ तासौ कहै जगत धन ऐ४, अंक दोयस तीस परेह । दश कोड़ाकोड़ि धन एह, सो जानौ इक पद कहि एह ||५|| अंक दोयसे ठानि पंताल, सो दश कोडाकोड़ी साल । जो कहिये जग थेणि प्रधान, ग्रंक दोयसै आठ बखान 15६।। ताके भाग सात कर देव, एक भाग राज गनि लेव । अब सब अंकनको परमान, लिखों ताहि भ्रम नाशन जान ||७|| अब मुहर्त को मुनिये भेव, जिहि विधि रययौ बीर जिनदेव । समय असमय प्रावली एक, प्रावलि बारह खाराहि टक मात श्वास को स्तोक भनेइ, सात स्तोकको लब कर लइ । आठ आठ तिस लव परवान, एक घड़ी यो यह उनमान रहा। दोय बड़ी जब बीते सोइ, एक मुहरत काल सु होइ । ताके श्वास सहन वय ठान, सात सया य तिहत्तर जान ||60|| तामें कमो करो वध धार, श्वास सतासी प्रावलि बार । अंत मुहरत ताकी नाम, आगे पीर सुनो अभिराम || नीस महरत निश दिन जोय. पन्द्रह दिवस पक्ष इक होय । दोय पक्ष गत मासहि एक, द्वादश मास वर्ष इनटेक २||
दोहा इहि विधि करमन थिति बंध्यौ, सागर मिति उतकिष्ट 1 पोर जघन्य मुहूर्त गनि, त्यागत भव्य अनिष्ट ||३|| मध्यमके है भेद बहु, तारतम्य कर लेख । जुदी जुदी सब प्रकृति थिति, कर्मकाण्ड में देख ॥१४||
अनुभाग बन्ध निरूपण
चौपाई
अब अनुभाग बन्ध दृइ भेद, पर अशुभ सुव्य दुख खेद । शुभको उदय चार विधि बुधा, गुड़ खांडहि मिश्री जल सूधा ।। || अशा भेद पनि चार प्रकार, कांजी बिम्ब विष त्रय धार । हालाहल जन चारो गेह, इनसौं दुग्न व्या अधिकह ।।६६|| छिनमें सूख छिनमें दुख होइ, यह अनुभाग वंध अग्लोइ। इहि विधि बंध्या जीव' संसार, कर्मनसों पाव नहि पार ॥७॥
सारभत परमोत्तम वस्तु है और वह अत्यन्त दुर्लभ ही क्यों न हो पुण्योदय के प्रभावले तरक्षण ही प्राप्त हो जाती है। इसलिये
प्राणियो ! यदि तुम लोग भी सुख प्राप्तिको अभिलाषा रखते हो तो पूर्वोत्र पुण्योंके अनिर्वचनीय अनेक उत्तमोत्तम फलाको समझकर प्रयत्न पूर्वक उच्चतम पुण्य कमाम प्रवृत हो जायो ! इस प्रकार पाप पुण्य सहित सात तत्वों का स्पष्ट व्याख्यान कचकने के बाद जिनेश्वर महावीर प्रभु ने सम्पूर्ण संसारिक जीवों के हेय त्याज एव उपादय (ग्राह्य) वस्तुओं का उपदेश करना प्रारम्भ किया।
सम्पूर्ण भव्य जीवोंके हितेच्छु अर्हन्त श्रादि पांच परमेष्ठी हैं इसलिये जोब समूहके द्वारा उपादेय है। निविकल्प पद पर पहंचे हर मुनियों के लिये तो गुण सागर एवं सिद्ध पुरुपोंके समान मानवान् अपना यात्मा ही उपादेश है। व्यवहार दष्टि पावद्धिमान पुरुपोंके लिये शुद्ध निश्चय नय के द्वारा सभी जीव उपादेय है । व्यवहार दृष्टि से सम्पूर्ण मिथ्यादष्टि मभव्य Sad सखों में लीन पानी एवं धर्म जीव हेय (त्याज्य) कहे गये हैं। रागयुक्त जीवोंके लिये धर्म ध्यान के निमित्त अजीव पता कहीं तो प्रादेय कहे गये हैं परन्तु विकल्प होन योगियों के लिये तो सकल अजीव तत्व हेय ही हैं। इसी तरह पूण्य कर्मका
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प्रदेश बंध निरूपण जीव प्रदेश असंख्य प्रमान, पुद्गल नंतानत बखान । तिन परदेशन वेतन वंध्यो, दरशन ज्ञान चरन नहि सध्यौ ॥१८॥
दोहा इहि विधि चारों बंध की, दुल सुख बाकी जीय प्रारका रूपी , बंध काट शिव पीव ।
संबर तत्व का वर्णन
चौपाई रागादिक परिणामन जीव, त्याग तिन्हें सर्वथा सीन । प्रास्रव तनै निरोधन हेत, सो सु भाव संवर कहि देत ।।१०।। द्रव्यासबको करो निरोध, सोही संवर द्रव्य परोध । पंच महावत समिति ज पंच, तीन गुप्ति दश धर्म हि संच ।।१०।। द्वादश अनुपेक्षा चितौन, जय बाईस परीषह मौन । ए संतानव डाट धरै, ऐसी क्रिया द्रव्य सबरं ।।१०२॥
दोहा जैसे नौका छिद्र जत, जल पावे चहं पोर । सो कर्माबरोकिय, संबर डाटै जोर ।।१०३।।
निर्जरा तत्त्व का वर्णन
चौपाई वाहयो निर्जरा दो परकार, सविपाकी अविपाकी सार । सविपाकी सब जीवन होइ, अविपाकी मुनिवरको जोय ॥१०४।। तपकर बल कर्मन भोगव, सोइ भाव निर्जरा तय । बंध कर्म छूट जिहि बार, दर्ब निर्जरा कहिये सार ॥१०५।।
मोक्ष तत्व का वर्णन | सकल करम खय कारण भाव, तासों भाव मोक्ष ठहराव । संपूरण कर्मन खय करै, द्रव्य मोक्ष अविनाशी धरै ।।१०६॥ बंध्यौ कर्म बंधन बहु जीव, ताकी तोड़ भयो जग पीव । लोकशिखर पर कोनो वास, सुख अनंत उपमा नहि जास ॥१०७।। अहमिन्द्रादिय देवधिराज, चक्री खग मादिक नर साज । भोगभुमिया पशु परजाय, व्यंतर और सबै समुदाय ||१०|| इनके सब सूख पिडी करै, एक समय सिद्धनको धरी । तौ जिहि समसर पुरव माहि, सदा सुख्यकी उपमा काहि ॥१०॥ सप्त तत्व संक्षेपहि कहै, पाप पुण्य जत नव पद लहै । ताको भेद सुनी थिर होइ, गर्भित प्रश्न शुभाशुभ सोइ ।।११।।
मानव एवं बन्ध रागयुक्त जीवों के लिये पाप कर्म की अपेक्षा उपादेय कहे गये हैं और मुमानों (मोक्ष चाहने वालों के लिये प्रास्रब एवं बन्ध दोनों ही हेय हैं । पापके जो पानव एवं बन्ध हैं वे तो सर्वथा हेय है क्योंकि इनसे विविध प्रकार के दुःखों को उत्पति होती है और स्वयं भी ये अपने आपही उत्पन्न हो जाते हैं। सम्बर एवं निर्जरा सब अवस्थामें सर्वथैव उपादेय होते हैं। इनके अतिरिक्त मोक्ष तत्व तो अनन्त एवं अक्षय सुखोंका समुद्र है इसीलिये यह सर्वतो भावेन उपादेय है। इस प्रकार हेय एवं उपादेय वस्तुको अच्छी तरह जानकार बुद्धिमान पुरुषोंको उचित है कि यल पूर्वक हेय वस्तुओंसे सदैव दूर रहें और सम्पूर्ण उत्कृष्ट उपादेय वस्तुओंका ग्रहण करें। प्रधानतया पुण्यबन्धका करने वाला सम्यकदृष्टि गृहस्थती एवं सराग संयमी होता है। कभी कभी मिथ्यादष्टि गृहस्थ भी कमों के मन्द उदय होने के कारण काय क्लेश पूर्वक भोग प्राप्तिकी अभिलाषासे पुण्यभत पासव बन्धको करने लग जाता है। मिथ्यावृष्टि जीव दुराचारी होने के कारण कोटि कोटि जघन्य कार्यों का प्राचरण करके मुख्यतया पापानव एवं पाप बन्धका करने वाला होता है। इस धरातल पर केवल मात्र योगी ही संवर आदि तीन तत्वोंके करनेवाले जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमान होकर रत्नत्रयसे सुशोभित हो पाते है। भव्य जीवोंको संवर आदि की सिद्धि प्राप्तिके लिये अपना विकल्परहित आत्मा एवं परमेष्ठी कारण होते हैं। पापाखब एवं पापबन्धके और अपने तथा अन्यान्य प्रज्ञानियोंका कारण मिथ्यादष्टि ही हैं । सम्पूर्ण बुद्धिमान् भव्य जीवों के सम्यक् दर्शन एवं ज्ञान का कारण पांच प्रकार का अजीब तत्व है। पुण्यात्रव एवं पुण्य बन्ध सम्यकदष्टि वालों के लिए तीर्थकरकी विमल विभुतियों को देते हैं तथा मिथ्यादष्टि वालोंके लिये ये दोनों संसारके कारण हो जाते हैं। पापालव और पापबन्ध प्रज्ञानियों को होते हैं। ये दोनों संसारके कारण और सम्पूर्ण दुःखोंके कर्ता हैं।
संवर एवं निर्जरा मोक्षके कारण हैं और मोक्ष अनन्त गुख रूपी समुद्र का कारण है। इस प्रकार जिनेन्द्र प्रभ सब पदार्थोके कारण एवं फलादिको कहकर प्रश्नोंका उत्तर देने लगे। जो जीव सात प्रकारके दुर्व्यसनों में आसक्त हैं परस्त्री एवं
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पाप प्रगट जगमें दुखखान, निश्चय दुर्गतिदायक जान। गहै पंच मिथ्यात्व निवर, चार कषाय असंजम पूर ।।१११॥ सकल प्रमाद जोग थिर थाय, सप्त व्यसन धारं अधिकाय । आठौं मद गर्वित द्रग अंध, शंकादिक वसु मल अब बंध ।।११२॥ निशदिन सरन्यन अंग दुरखेडया दुर्ब वि विस्तरै। कूगुरु कुदेव सेव अति करै, यह बिधि पाप अनुग्रह धरै ॥११३|| कुटिल कृपण पर धन हर लेइ, राग द्वेष लंपट अधिकेइ । भुल्यौ क्रोध मोहवश पाय, निर्विचार निर्दय दुखदाय ॥११४॥ पर निन्दा निज करै प्रशंस, बचन असत्य कहै तजि संश। करै कुग्रन्थ तनी अभ्यास, निज श्रुत को दूर्य कर हास ।।११५|| करै अक्रिया दुरधर दीन, पूजा दान क्रिया कर हीन। कूर करम बांधे राठ एम, जाने नहीं प्रातमा नेम ।।११६।। शील आचरण तप व्रत बिना, भवसागर दुख जाय न गिना । कर पापसौं अशुभ उपाय, इहि विधि धरै नरक पर जाय ।।११७॥ प्रथम मादि सप्तम परजंत, लहै दुःखते दुःख अनन्त । छिनक एक तह सुख को नाश, दुख बैसांदर घृत परकाश ।।११८।। मायावी अति कुटिल सु भ्रम्यौ, निशि भक्ष परनार सुरम्यो। मूरख महा कुमति श्रुत धरै, पशु अरु वृशहि सेवा करै ॥११॥ नित्य कर असनान प्रभात, भाव प्रशुद्ध प्रगट अवदान । जात कृतीरथ को अवगान, जिनवर धर्म वहिर्म ख ज्ञान ।।१२०।। महा कुशीली प्रवत जोत, लेश्या जिनको सदा कपोत । इत्यादिक सब पाप संजोग, मानत मुद कर्म रस जोग ।।१२। आरत ध्यान मरण जब करें, गति तिरजंच जाय अवतरं। सहै दुःस्व बहुकाल प्रजंत, को कवि वरन लहै नहि अंत ||१२२॥ तीर्थकर सतगुरु गुनवंत, ज्ञानी धर्म नतो मुनि संत । महातपोधन चारित्र धनी, सेबा भक्ति कर तिन तनी ॥१२॥ शुद्धाशय जिन गुण अधिकाय, श्रीजित गुरु सेवा उरल्याय । इत्यादिक शुभ पुण्य उपाय, प्रारजखण्ड मनुष पद पाय ॥१४॥ उत्तम पद पावै सो तहां, राज्य विभूति सुख्य अति जहाँ । तह ते तप करक शिब सधै, अरु पुन तीर्थकर पद बंध ।।१२५॥
परधन की कामना करने वाले हैं बहुत अधिक कार्यों को प्रारम्भ करने में जिनका उत्साह रहता है, अतुल सम्पत्ति एकत्रित करने के प्रयत्नमें लगे रहते हैं, निन्दनीय कार्यों को किया करते हैं, अवांछनीय स्वभाव के हैं, दुष्ट प्रकृति एवं ऋर हृदय होते हैं जिन के चित्त में क्या नहीं होती है सदैव बीभत्स एवं रौद्र वस्तु के ध्यान में लीन रहकर विषय रूपी मांसके लिये लोलुप है, जैनमत के निन्दक हैं जिनदेव, जिनधर्मी (जैनी) एवं जैन साधुओंके प्रतिकल रहते हैं मिथ्याशास्त्रों के अभ्यास में तत्पर रहते हैं, मिथ्यामत के घमण्डमें उद्दण्ड हो गये हैं। कुदेव या कुगुरु के भक्त हैं कुकार्य तथा पापों को प्रेरणा करने में तत्पर रहते हैं दुर्जन हैं, अत्यन्त मोह से युक्त हैं पाप कर्म में पण्डित यानी धूर्त है धर्मद्वेषी, दुःशील, दुराचारी सब प्रतों से परांमुख कृष्ण लेश्या रूप परिणामों से यक्तः पाच महापापों के करने वाले तथा इसी तरह के और भी अन्याय बहुत से पाप कर्मों को करने वाले हैं वे ही पापी कहे जाते है और पाप कर्मों से उत्पन्न पापोदय के कारण रौद्र ध्यान से मरकर पापियों के गहरूप नरक में जाते हैं। पापकर्मों के भीषण फलों को देनेवाले सात नरक हैं। वे सम्पूर्ण दुःखोंके खजाना है वहां अर्धनिमेष (माधी सेकेण्ड) मात्र भी सुख नहीं प्राप्त हो सकता। जो भव्य जीव मायावी अत्यन्त कुटिल करोड़ों कमोंके करने वाले, परधनापहारी अष्टायाम भोजी (पाठों पहर खानेवाले) महामूर्ख, मिथ्याशास्त्रोंके ज्ञाता, पशु-बक्षोंके सेवक प्रतिदिन प्रधिकवार स्नान करने वाले शुद्ध होने की अभिलाषा से कृतीर्थों को यात्रा करने वाले जिन-धर्म को नहीं मानने वाले व्रत एवं शील इत्यादिसे हीन अत्यन्त निन्दनीय कपोत लेश्यावाले सदैव अर्तध्यान करनेवाले तथा प्रन्यान्य नीच काँमें प्रीति. रखने वाले अज्ञानी जीव अन्त में दुःखको प्राप्त होकर प्रातध्यान से मरते हैं और तिर्यञ्चगति (पशुगति) को प्राप्त करते हैं। पशुगति अति उग्र सम्पूर्ण दुःखों की खान है यायु कर्म होने के कारण जल्दीजल्दी जन्म-मरण होता रहता है और एकदम पराधीन है वहाँ सुखका लेश भी नहीं है। जो जीव नास्तिक हैं दराचारी हैं परलोक धर्म तप चारित्र एवं जिनेन्द्र शास्त्र आदिको नहीं मानते दुर्च द्धि अत्यन्त विषय-वासनाओं में प्रासक्त एवं उन मिथ्यात्वसे युक्त अज्ञानी हैं वे अनन्त दुखों के अपार सागर निगोद में जाकर उत्पन्न होते हैं और वे वहाँ पर अपने दुष्ट पापोंके उदय होने से बचन के द्वारा जन्म-मरण रूपी अनिर्वचनीय भीषण दुःखोंको चिरकाल तक भोगते हैं।
जो जीव तीर्थकर को, थंष्ठ गुरुओं की; ज्ञानियों की एवं धर्मात्मा महात्मानों की श्रद्धाभक्ति पूर्वक सेवा एवं पूजा सदैव करते हैं; महावतोंका, अहंत देव' एवं मिग्रन्थमुरुकी प्राज्ञानोंका तथा सम्पूर्ण अणुबतों का पालन किया करते हैं, अपनी शक्ति के अनुसार बारह तपोंको करते हैं, कषाय एवं इन्द्रिय रूपी अपराधी चोरों को समुचित दण्ड व्यवस्था में तत्पर एवं जितेन्द्रिय होकर पात रौद्र ध्यानों का परित्याग कर देते हैं तथा धर्मरूपी गुक्ल ध्यानों के चितन में प्रयत्नशील रहते हैं, शुभ लेश्या परिणाम
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पंच महावत अणुव्रत तेह, मूनि थावक पाल धर नेह । जे कपाय इन्द्रिय दृढ़ चोर, तिनको नाश कर तप जोर ।।१२६|| धर्म शकल ध्यावं अभ ध्यान, पारति रौद्र निकदन जान । मन वच त्रम दृढ़ धरै विराग, भवदुःख भोग अंगार त्याग ॥१२७॥ क्षमा ग्रादि दशलक्षण धर्म, इत्यादिक आचरण सुशर्म । मरण समाधि साध शुभ ध्यान, पावं अमरलोक प्रस्थान ||१२८।। सागर वृद्ध तहां सुख लहै, सपने मांहि दुःख नहि गहै। मार्दव भावसहित निज हिय, अर प्रार्जव परिणामहि कियं ॥१२॥ अति संतोषी सद अचार, मन्द कपाय चित्त अविकार । उत्तम पात्र सु दानहि देइ, भक्तिभाव मन में अधिकेइ ।।१३०।। ता फल भोगभूमि पद लहै. महा भोग अनुपम सुख गहै। पुण्यतनों फा इहि विधि सार, पावं थावकमुनि निरधार ।।१३।। कायकलेश विविध प्राचर, तप प्रज्ञान मद जे करें । ते पर नीच देवगति लहैं, व्यन्तर आदि अशुभता है ।।१३।। बह मायाधारी जगमाहि, वागी कामं तपत नहि काहि । पर दारसी दोग विचार, अशभ अंग मद सहित विचार ।। १३३।। मिथ्यामती राग कर अन्ध, मुढ़ कुशोली पाप प्रबन्ध । ते नर मर त्रिय वेद लहाय, होय कुरुष दुरगंधा पाय ।। १३४|| शद्धाचरण शील परधान, माया कौटिलता किय हान । हिये बिचार चतुर अति दक्ष, पूजा दान करत परतक्ष ||१३५।। इन्द्रिय अलप सुण्य सन्तोष, दर्शन ज्ञान अभूपण पोप । पुरुषवेद ते लहैं महान, भव भव माहि करें अपहान ।।१३६॥ काम अन्ध लम्पट परत्रिया, शीलहीन ब्रत बजित हिया । नीच धर्मरत है दुरधिया, मारग नीच प्रर्वतन क्रिया ॥१३७।। सो नरदेव नपं सक लहै, महानुःखको कारण यहै । काय फल इहि बहु परकार, देख्यौ प्रगट होत दुख भार ॥१३॥ जे पशु लादै भार अनन्त, जात बुतीरथ निर्दय वंत । ते मरि होय पंगुगति निद, तहां लहैं दुख दारुण वृन्द ।।१३।। जिन सिद्धांत दोष अति धरै, कुमत ग्रन्थकी वंदन करें। परनिंदा सुन हरर्षे अंग, विकथा वचन कहें मन रंग ।।१४०॥
वाले हैं वे धर्म करते हैं। इनके अतिरिक्त जो कि अपने हृदयमें सम्यक् दर्शनको हारकी तरह मानकर धारण किये रहते हैं, कानों में ज्ञानको कुण्डल मान कर ग्रहण किये हुए हैं मस्तकमें चारित्रको मुकुट (शिरो भूषण) मानकर वांधे हुए हैं, संसार, शरीर एवं भोगके विषय में संवेग का सेवन किया करते हैं, सदैव विशुद्ध पाचरणके लिए सद्भावनामों का चिन्तन करते रहते हैं, अहनिश (दिनरात) क्षमा आदि दश प्रकारके लक्षण बाले धर्मका पालन किया करते हैं, तथोक्त धर्मकी वृद्धि के लिये दसरों को भी धर्मका उपदेश किया करते हैं बे इन सब कार्योंसे तथा अन्यान्य शुभ प्राचरणोंके द्वारा महान् धर्मका उपार्जन करते हैं। पूर्वोक्त कमोंके करने वाले मुनि हों अथवा श्रावक सभी भव्यजीव शुभ ध्यामके द्वारा मर कर स्वर्गको प्राप्त हो जाते हैं। स्वर्ग सम्पूर्ण इन्द्रिय-सुखोंका समुद्र है। वहां दुःखका लेश भी नहीं है। पुण्यात्मा ही वहां रह सकते हैं । जो कि सम्यक दर्शमसे अलंकृत हैं वे बुद्धिमान् पुरुष नियमानुसार परम कल्प नामक स्वर्गों को प्राप्त करते हैं किन्तु व्यन्तरादि भवनत्रिक देवों में वे कदापि नहीं उत्पन्न होते जो अज्ञानी पुरुष अज्ञान तपस्याके द्वारा काय-क्लेश करते हैं वे व्यंतरादिक देवगतिको प्राप्तहो जाते हैं। जोकि स्वभावतः कोमल स्वभावी हैं, सन्तोषी हैं. सदाचारी परिणामी हैं, सदैव' मन्द कषायी हैं, सरल चित्त हैं, तथा जिनेन्द्र देव, गुरु, एवं धर्मात्माओंकी प्रार्थना करने वाले होते हैं, मथा और अन्यान्य शुभ प्राचरणोंसे अलंकृत रहते हैं वे उत्तम जीव पूण्योदयके कारण पार्यावर्त के किसी उच्च कुलमें राज्य लक्ष्मी इत्यादिके सुखोंसे युक्त मनुष्यगतिको प्राप्त करते हैं वे अपरिमित भोगोंको प्राप्त करने के लिये सुख सामग्रियोंसे परिपूर्ण भोग भूमि में जन्म ग्रहण करते हैं ।
जो कि माया पूर्ण काम-सेवनसे अतृप्त हैं विकारोत्पादक स्त्री-वेपके ग्रहण करने बाल हैं, मिथ्या दष्टि है. रामा शीतलतास हीन हैं एवं प्रज्ञानी हैं मरने पर स्त्री वेदके उदय होनसे स्त्री पर्यायको प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार जो स्त्रियां विशा चरण वाली होती हैं, मायानारी कुटिलतासे हीन होती हैं, विवेकशील, दान पूजा प्रादि शुभ कर्मों में नत्पर अल्प विषय सखसटी सत्ष्ट हो जाने वाली एवं दर्शनज्ञानसे युक्त होती हैं, वे ही स्त्रियां मर जाने के बाद बेद कर्मके उदय होने से पह करती हैं। जो अत्यन्त विशेष रूपसे कामापभोग में ही लगे रहते हैं, परस्त्रियों के पीछे पागल हुए फिरते है और सर्वदा (दिन-रात। काम क्रीडामें तल्लीन रहते हैं वे नपं सकोंक चिन्हसे युक्त होते हैं। जिन्होंने पशुओके ऊपर अत्यन्त अधिक बोझ लाद दिया है मार्ग में चलते हए अनेक जीवों को बिना देखे ही अपने पैरों से मार डाला है. कुतीर्थों में पाप कर्म करने के निमित्त भवन अनेक पापोंको कमाया है ये दया हीन शठ पुरुप मरने के बाद प्रांगोपांग कर्मक उदय होने से पंगु (लले) होते हैं। संसार
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धर्म बचनको करै प्रभाव, ते बहिरा स्पजे तज चाव 1 ज्ञानावरणी कर्म उदोत, पाप सर्ने कारण सब होत ॥१४॥ जिन श्रुत देख नमन नहि कर, पर बिभूलिको लस पर जरै । करै कुदेव कुतीरथ जात, पर सुत देख मन न सुहात ।।१४२।। ते नर मरकै उपजे अन्ध, दर्शनावारणी को यह बध । महादु:ख कर पीडित तेह, भवसागर तट लहत न जेह ॥१४॥ विकथा वचन कहै शठ सदा, दोष अदोष न समझ कदा । निदत जिन श्रुत सागर धर्म, पढ़े कुशास्त्र हर्ष के पर्म ।।१४४|| जिनवर पूजा भक्ति न कर, सप्त तत्व श्रद्धा नहि धरै । अति प्रज्ञान मांहि लवलीन ते मूका उपज श्रुतहीन ।।१४५।। जो मन इच्छे को ही करै, हिंसा पाप गरव विधि घरै । ज्यों गयंद मदगत्त अज्ञान, तैसे ही बहु नर विन ज्ञान ॥१४६।। श्री जिनदेव सुगुरु सिद्धान्त, इनहि भक्ति सुपने न लहात । ते नर विकल होंहि अधिकार, मन ज्ञानावरणो अनुसार ॥१४७॥ सप्त व्यसन सेबत जे कुधी, विष आमिष लंपट मन मुधी । और पुरुष जे व्यसन घरै, तिनसों मित्रभाव चित करै ।।१४८।। जे मुनि तप ब्रत प्रादिक पूर, तिन साधुनिते तिष्ठत दू । निज वपु पोष कर अधिकार, भुगत भोग वृषभ उनहार ॥१४६।। निशि भक्षौं अरु खाय अखाद, निर्दय वथा करै विषवाद । ते नर रोग शोक को गहैं, विह्वल तीव्र वेदना सहैं ॥१५॥ जे शरीर ममता परिहरें, तप व्रत धर्म ध्यान आचरें। सब जिय जान प्राप समान, दयाभाव उर करहि प्रमान ।।१५।। दुःख शोक व्यापै नहि कदा, ते नर सुखिया उपज सदा । रोग रहित सब निर्मल गात, पुण्य तनों यह फल अवदात ।।१५।।
लोगोंका तिरस्कार होता है और निन्दा होती है। जिन लोगों ने मुर्खतावश दूसरे के दोषों को बिना सुने ही स्वीकार कर लेने का अपना स्वभाव बना लिया है, ईर्ष्यावश पर-निन्दा सुनने का एक कार्य क्रम बना रखा है, हेय शास्त्रों की कुत्सित कथाओं को सुनने का अभ्यास-सा बना रखा है तथा केबली, शास्त्र-संघ एवं धर्मात्मानों को दोष लगा देने का काम ठान लिया है वे ज्ञानावरण कर्म के उदय होने के फल मे बहरे होते हैं। जो कि बिना देख ही दूसरे के दोषों को पाखों देखा' बतलाते हैं, कटाक्षके लिये नेत्रों के विकार उत्पन्न करते रहते है, परस्त्रीके स्तन-भगादि गुप्तांगोंको टकटकी बांध कर देखते हुए भी नहीं अघाते, कुतीर्थ, कुदेव एवं कुलिगियों का आदर करते हैं वे दुष्ट नेत्र वाले पुरुष दर्शनावरण कर्मके उदय होने के फल से अन्धे होकर अत्यन्त दुःखों को भोगते हैं। जो लोग व्यर्थ में ही स्त्रीचर्ग आदि विकथानोंको प्रतिदिन कहा करते है, दोष हीन अर्हत देव, शास्त्र, सच्चे गुरु धर्मात्माओं में दोष लगाते फिरते हैं. पापशास्त्रोंको पढ़ते-पढ़ाते हैं, अपने इच्छानुकुल' यश एवं प्रतिष्ठा प्राप्तिके लिए अस्थिर चित्त पुरुष श्रद्धा एवं विनयसे रहित होकर जैन शास्त्रों को स्वयं वांचता है, धर्म-सिद्धान्तके परमोत्तम तत्वार्थों को कुतकों के द्वारा दूसरों को समझाने की दुप्चेस्टामें तत्पर रहते हैं, वे ज्ञान रहित मुख ज्ञानावरण कर्मके उदय होने के फल से बोलने में असमर्थ मुक गंगे होते हैं । जो स्वेच्छावा हिंसादि पांच पाप कमों में प्रलप्त रहते हैं, श्रीजिनेन्द्र देव के द्वारा कहे गये सम्पूर्ण पदार्थों को मदोन्मत्तसे ग्रहण करने के लिये उतावले हो जाते हैं. देव, शास्त्र, गुरु एवं धर्मके विषय में सत्यासत्यका भेद न मानकर समभावसे श्रद्धाशील होकर पूजते रहते हैं, वे मतिज्ञानावरण कर्म के उदय होने के फल से विकलेन्द्रिय हो जाते हैं । जो व्यक्ति व्यसनी मिथ्यादृष्टि वाले पुरुषोंसे मित्रता करते हैं, साधु महात्मा पुरुषोंसे सदैव दर रहते हैं वे पाप-परायण नरकादि गतियोंमें पर्यटन करते हुए पुनः दुर्व्यसनों में लीन होकर महा उग्र पापों का उपार्जन करते हैं। जो अति बिषय-सुखों में प्रासक्त हो कर धर्म-हीन हो जाते हैं और तप, यम, ब्रतादिसे रहित होकर विविध भोगों के द्वारा अपने शरीर को पुष्ट किया करते हैं, रात्रि कालमें भी अन्नादि का माहार ग्रहण करते हैं, अखाद्य न खाने योग्य वस्तुओं को भी खा लेते हैं, अकारण ही अन्य-जीवों को क्लेश दिया करता हैं, वे निर्दयी पापी असाता वेदनीय कमके उदय होनेके कारण रोगी होकर अनेक रोगों की उग्न बेदना से व्याकुल होते हैं ।
जो अपने शरीरकी मोह ममता छोड़कर तपरूपी धर्माचरण में लीन रहते हैं वे अन्य सब जोवों को भी अपने हो समान कर कदापि किसी को भी नहीं मार सकते । वे 'यह अपना है, यह पराया है' ऐसा नहीं चिल्लाते फिरते और शुभ कर्मोके उदय से दुःख, शोक एवं रोग रहित होकर सुखशान्ति को प्राप्त करते हैं । जो अपने शरीर को अलकार इत्यादि से सजानेको अावश्यकता नहीं समझते और तप, नियम एवं योग इत्यादिसे कायक्लेश-रूपी व्रत किया करते हैं, तथा अत्यन्त श्रद्धापूर्वक जिनेन्द्र देव तथा महात्मा योगियों के चरणारविन्द की सदैव सेवा करते हैं ये शुभ कर्मोदय के प्रभाव से अलौकिक रूप, गुण एवं लावण्य से सुशोभित होते हैं। जो पशुओंके समान अज्ञानी हैं वे शरीरको अपना समझकर सदैव स्वच्छ एवं सुन्दर बनाने की चेष्टा में लगे रहते हैं, अनेक प्रकारके आभूषणों से उसको सजाते हैं और शुभ प्राप्ति की अभिलाषा से कुगुरु, कुदेव एवं कुधर्म की चाटुकारिता में व्यस्त रहते हैं वे
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इहि विधि कायकलेश अपार करत पुरुष बहु परकार ।। १५३ ।। पुण्य प्रकृति शुभ पाय संजोग, ते नर लहैं दिव्य तन भोग ।। १५४ ।। होद कुरूपी ते दुख पूर अशुभ उदय पर पाप मंकूर ।। १५५॥ रिज पर नियम दोय परकार ।। १५६।
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ते नर सुभग होहि जगमांहि, सब जगको प्रिय करता ताहि ।। १५॥ सह आदि पद धारे गये परति द्वेष विचारं सर्व ।। १५८॥ तेन भंग होंहि प्रचार निदत विश्व दुःखको भार ।। १५९ ।। पंथ पूजे कुचिव कुबेद कुन्ध, व्यभिचारी जाने नहि पच ।।१६०॥ निंदक महापापको सूर, मशुम उदय दुर्गति अंकुर ।। १६१ सबको देहि सुधि उपदेश, तप अग धर्म आदि बहु येष ।। १६२ ।। मंद करें मतिज्ञानावरण, मतिज्ञान जगमें उद्धरण ।। १६३ ।। दुराचारा बुध होइ कुल पाठ विस्तहि खोइ ।। १६४।।
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उनको संस्कार नहि करे जम भ नम जोग तप धरे जिनवर चरणकमल जुग नमैं, परमभक्ति जुन पापनि बमैं कुगुरु कुदेव कुपसंहि भवं सुगुरुदेव भूत था तवं जिन्दर परम भक्ति उर पर घरमुनिवर को करें तन ममत्व नहि राखें लेश, जोतं इंद्रिय तस्कर वेष मन मलीन मल लिहु अंग, महा विनावश दुर्जन पाय प्रीति बहु करें, सुरजन देश दमन घरं देवं कुमत दीक्षा जग जेह, पन वंचक उद्यत अति ते सत्य सत्य न जाने भेद, गतिज्ञानावरणो यह खेद तत्व असत्य विवेकी जेह, गुवा वचन बोलें नहि तेह सार वस्तुको ग्राहण करें और कुमति विधि सब परिहरे श्रीजिन पाठ पठन नहि करें, मदन गर्न उर धरें
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शुभ कर्मके उदयसे भयानक कुरूप होते हैं जो कि जिनेन्द्रदेव, जैन शास्त्र एवं निर्ग्रन्थ योगियों की महर्निश भक्ति में तत्पर रहते है तप, धर्म, व्रत एवं नियमादि के पालन में दत्त मिल रहते हैं, देह की ममता का परित्याग कर सम्पूर्ण इन्द्रियरूपी महा बलवान् चोरोंको जीत लेते हैं वे सौम्य कर्मके उदयसे सबके नयनाभिराम होते हैं एवं भाग्यशाली कहे जाते हैं। मलयुक्त शरीरको देख कर जो अपने रूपलावण्य आदि के अभिमान से मुनियों से घृणा करते हैं, परस्त्री की अभिलाषामें रत रहते हैं अपने पारिपारिक बन्धुओं से सत्य बोलकर द्वेष मान बैठते हैं, वे दुभंग नाम कर्मके उदयसे एवं निन्दनीय दुभंग दरिद्र होते हैं जो दूसरों को धोखा देकर ठगा करते हैं इस कार्यके लिए किखीको साह देते हैं, देव गुरु एवं शास्त्र के विषय में बिना तथ्य का निर्णय किये ही अपना धर्म समझ कर पूजा भक्ति में तत्पर रहते हैं वे मति ज्ञानावरण क्रमंके उदय होनेसे निन्दनीय, कुबुद्धि और मूर्ख होते हैं । किन यदि धर्मकार्यों में अन्य लोगों को बननी जाह दिया करते हैं, मतस्य एवं तत्व वस्तुओं का नियम पूर्वक विचार किया करते हैं तथा इसके बाद साररूपपद वस्तुको ग्रहण किया करते हैं, संसार को वस्तुयों का परित्याग कर देते हैं वे सुयोग्य एवं चतुर-पुरुष श्रेष्ठ मति ज्ञानावरण के क्षयोपश के कारण महा विद्वान हो जाते हैं। जो दुष्ट प्रकृति पुरुष ज्ञानाभिमानवश पढ़ाने योग्य व्यक्तियों को भी नहीं पढ़ाते हैं जानते हुए भी जयन्य धर्मों में प्रवृत्त रहते हैं, कल्याणकारक नाम छोड़कर धन्य कुशास्त्रांको विद्याको पढ़ाते हैं, तथा शास्त्र निन्दित कटु एवं परपीड़क एवं धर्म होन असत्यपूर्ण वचनोंका बोला करते, वे श्रुत ज्ञानावरण कर्मके फलसे अत्यन्त निन्दनीय बोर महामूर्ख होते है। जो लोग सदैव स्वयं तो या बिनागम को पढ़ते हो है साथ हो दूसरीकी भी पढ़ाते हैं तथा काल इत्यादि ग्राठ प्रकारको विधियांसे जैन शास्त्रोंका व्याख्यान किया करते हैं, धार्मिक आदेश के द्वारा अनेक नव्यजीवों को ज्ञान प्रदान करते हैं एवं स्वयं भो नि दिन धर्मकार्यने तत्व रहते है, कणकारी सत्य वचनों को कहते हैं सत्य वचनका प्रयोग कदापि नहीं करते वे अनावरण कर्मके मन्द हो जाने से जमदादरा विद्वान हो जाते है जो लोग इस ससार, शरीर एवं सम्पूर्ण भोगांसे विरक्त होकर जिनेन्द्र देव तथा गुरु श्रेष्ठ वचनों के प्रभाव से उत्तमात्तम गुणों का एवं परम धर्मका अपने मन में निरन्तर चिन्तवन किया करते हैं, धानंद धर्म यतिरिक्त कुटिलता इत्पादिका अपने हृदय कदापि स्वान नहीं देते वे शुभ कार्यों के करने के कारण शुभ परिणामी कहे जाते हैं।
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जो कुटिल परिणामी पर स्त्री-हरण आदि के विषय में हमेशा विचार किया करते हैं, पुण्यत्माओं का अकल्याण चाहा करते हैं. मूर्ख जघन्य धाचरणों को देखकर मन हो मन प्रसन्न हुआ करते हैं, वे अशुभ कर्मादय पापोपार्जन के लिए अनुभ परिणामी होते हैं। जो तप, व्रत एवं क्षमा प्रभृतिले श्रेष्ठ पात्र दान एवं पूजा इत्यादि से तथा दर्शन, ज्ञान एवं चरित्र से सर्वदा रहते हैं, वे पद के उत्तमुत्र भोगों को भोग चुकने के बाद पुण्योदय से उच्चपद का प्राप्ति की अभिलाषा वदा होकर धर्म-कार्यको करने वाले धर्मात्मा होते हैं। जो लोग हिंसा और सत्य सम्भाषणादिके द्वारा पाप कर्म किया करते हैं।
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पर पीडा कर बांध कर्म, बोले बचन असत्य अधर्म । मूरख महानिद्य जगमाहि, श्रुतज्ञानावरणी लहि ताहि ।।१६५।। जिन गुण पाठ पठन ज कर, काल अकाल भेद उद्धरं । भव्यनि देय धर्म उपदेश, शुभ मारग वरतावत शेष ।।१६६।। काहै सत्य बन सब सुखदाय, मृषाभाव नहि मन वच काय । श्रुतज्ञानापरणी तब तज, श्रुतज्ञान पद परगट भजे ॥१६७।। दिरकत है भवभोग शरीर, जिन सद्गुरु सेबत मन धीर । धर्म अधर्म विवेकी तेह, तत्व आदि मन चितत जेह ॥१६८।। दुराचारत रहित पुनीत, कौटिलतादि विजित मीत । शुभ प्राशयते ही नर कहै, पुण्य उदय सब शुभपद लहै ।।१६६।। पर तिय हरण निपुण जे सखा, कुटिल चित्त है जड़ सरवदा । जत्र मंत्र उच्चाटन आदि, चेटक नाटक करें अनादि |॥१७॥ दुराचारः पाल' अति धनी, दुरवबुद्धी उर है नहि तनी । अशुभाशय तेही नर जान, पाप तन कारण यह मान ॥१७१।। जे बहुविध जिन पूजा करें, धरमभाब निशिदिन पाच । हैंय सुपात्रहि उत्तमदान, परम भक्ति अति उरमैं पान ॥१७२।। तप व्रत उर आचरण कराहि, लोभ रहित मन विकलप नाहिं । सार संपदा पावं तेह, 'अनबाछ आवं गृह तेह ।।१७३।। पात्रदान जे समरथ नाहि, जिन पूजे नहि धर्म लहाहि । पर उपकार न किंचित करें, तृष्णा अति लक्ष्मीको धरै ।।१७४।। लोभवंत है किरपण महा, किरिया व्रत नहि जान कहा । सो नर दुखित दरिद्री होई, भव भव सदा निरधनी सोई ॥१७५।।
अपनी दव द्धिक कारण विषय-सुस्त्रों में लीन होकर मिथ्याती देवादिकों की भक्ति में श्रद्धा करते हैं वे नरकादि स्थानों में चिरकाल पर्यन्त रह कर अनेक यन्त्रणानोंको भोगते हैं । इसके बाद भी पापोदयसे पुनः नरक निवास पाने के लिये पापकर्म में प्रवृत्त रहकर पापी हो रहते हैं। इसके विपरीत जो लोग परम-भक्ति पूर्वक प्रत्येक दिन उत्तम पात्रों को आहारादि का दान करते हैं, श्री जिनेन्द्रदेव, गुरु एवं जैन शास्त्रों की श्रद्धापूर्वक पूजा स्तुति किया करते हैं वे धर्म कार्यों के प्रभाबसे उत्तमोत्तम भोग सामग्रियों को प्राप्त करते हैं। धर्म सिद्धि के निमित्त जो लोग भाग्य प्राप्त धन सम्पत्ति को ठुकरा देते हैं स्थिर चित्त होकर धर्म साधना में प्रवत्त रहते हैं व भी अन्त में परमोत्तम भोग्य सम्पदामों को प्राप्त करते है । जो अपने अन्याय पूर्ण कार्यों द्वारा सुख भोगों की अभिलाषा करते हैं, भोगापभोग के बाद भी असंतुष्ट रह जाते हैं स्वप्न में भी जिनेद्रदेव की पूजा और उत्तम पात्रदान नहीं करते तथा लोभ वश लदमोको पा लेना चाहते हैं, वे धर्मवतसे हान होने के कारण पाप के भयंकर फलों से दुःखित होते हैं और अनेक जन्म पर्यन्त धनहीन दरिद्र होते हैं । जो लोग पशु, पक्षी और मनुष्योंके बाल-बच्चों एवं बन्धुबन्धुनोंसे वियोग उत्पन्न करा देते हैं तथा दुसरीकी स्त्री, धन पोर अन्यान्य वस्तुओं को जबरदस्तो या बूरा कर ले लेते हैं दुःखशील पापात्मा अशुभ कर्मके उदयसे निश्चय रूपेण पुत्र, स्त्रो, भाई और अन्य इष्ट जनास समय-समय पर बियोग हो जानेके कारण दुःख भोगते हैं। इसके प्रतिकल जो लोग पशु प्रादि जीवोंको ताड़ना इत्यादि नहीं करते और उनके परस्पर वियोगके कारण नहीं बनते वे कदापि दुःखको नहीं प्राप्त कर सकते । जो कि सदैव सन्न होकर सर्वदा जैन मतानुकूल ही जैनियोंका अभिलषित सम्पत्ति के द्वारा पालन करते हैं, दान और पूजा आदि विधि पूर्वक धर्मानुष्ठान करते हैं, तथा इस पुण्यके फलस्वरूप मोक्ष के अतिरिक्त्त अन्य और किसी प्रकार से स्त्री पुत्र धनादि की किचितमात्र भी इच्छा नहीं करते, उन पुण्यात्मानों के पुण्योदय से अभीष्ट स्त्री, पुत्र एवं स्वजनादि का संयोग अपने आप ही अप्रत्याशित रूपसे हो जाता है तथा धन इत्यादि सुख सम्पदाएं भी स्वयं ही प्राप्त हुआ करती हैं।
जो धर्म प्रिय पात्रोंको दान किया करते हैं, जिन प्रतिमा, जिन मन्दिर, जैन विद्यालय प्रादिकी संस्थापना में धर्मसिद्धिकी इच्छासे श्रद्धापूर्वक धन व्यय किया करते हैं उनको दानशीलता प्रसिद्ध हो जाती है। इस लोकमें तो वे प्रतिष्ठा प्राप्त करते ही है, परलोकमें भी उनका कल्याण होता है। जो कृपणतावश परलोकों में दान नहीं देते, जिन पूजा इत्यादिमें भी मुक्त होकर धन व्यय नहीं करते और जगतकी परमोत्तम सुख सम्पत्तिको भोगना चाहते हैं बे महा लोभी और अज्ञानी हैं। पाप कार्यके प्रभावसे चिरकाल पर्यन्त बे निम्नग तिमें भटक चुकनेके बाद समीपिगतिमें जाने के लिए कृपण (कंजूस) होकर उत्पन्न होते हैं। इस पाप कार्य के प्रतिकूल जो लोग अर्हत, गणधर प्रादि मुनि एवं प्रन्यान्य धर्मात्माओंके अत्यन्त उत्तम गुणोंकी प्राप्तिके लिए सदैव उनका चिन्तन किया करते हैं वे सम्पूर्ण दोषों से दूर रहते हुए धेष्ठ गुणवान हो जाते हैं और विद्वन्मडलीमें उनका आदर सम्मान होता है। जो लोग स्वभाव वश मूढ़ होने के कारण गुणी पुरुषों के श्रेष्ठ गुणों को ग्रहण न करके दोषों का ही ग्रहण करते हैं, गुण रहित कुदेव इत्यादिके फल-हीन गुणका स्मरण करते रहते हैं और मिथ्यामार्गी प्राडम्बरंयुक्त पाखण्डियोके दोषोंको कुछ नहीं जानते वे इस संसार में निर्गन्ध फूलके समान गुणहीन हैं। जो धर्म जिज्ञासु होकर धर्म प्राप्ति के लिये, मिथ्या दृष्टि देवोंको एवं
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पशु पर नरका कर विमोम, बंधादिक उपजावं सोब । पर प्रस्त्रो पर धन जे हरै, शोल रहित शट पाहि करें ॥१७६।। जनम जनम ते लहं विजाग, सुभकामिनि बांधा का साग 1 इष्ट वस्तुको विकलप पाय, पोड़े हृदय दुःख अधिकाय ।।१७७।। सकल देव रक्षा उर धरे, बंबु विजाम न कई करे । जिन शासन पापित परतोन, प्रत अरु धर्मध्यान लों लोन ॥१७॥ त नर पावे सब संजाग, सुख प्रमोष्ट सुन संपत भोग । बांधव सुजन गेह वर नार, पुण्य सफल कारण सविचार ।।१७।। उत्तम पात्र दान जे देई, भक्ति भावना मन पत्र लेई । जिन प्रतिमा चैत्यालय कर, धर्मध्यान अति उरमें धर 1१८०॥ पूरब संसकारत लहैं, श्रेष्ठ सुपद उत्तम कुल गहैं । अरु परिजन बहु सेबैं पाय, सब सुख होय पुण्य सों आय ।।१८।। दान देन का कृपण अतोच, जिन पूजाको गहत न सीव । ते मर दुर्गति भव भव भ्रमैं, सब परजाय प्रादि बहु गर्म ।।१८२॥ जे सेवं अरहत गणेश, ध्याबै तिन गुण जगत महेश । शील सहित काया दृढ़ राख, ते गुणवान कहै बुध भार ||१८३।। दोष तनों बहुग्राह जु करें, महामह अत्रगुण विस्तर । करें कुदेव सेव सुख मान, धरै डिभ प्रारम्भ अजान ।।१८४॥ सोख कुलिंगोको उर धरै, अरु मिथ्या मारग बिस्तरै । ते निर्गुण उपजे जगवास, विन सुगंध ज्यों फूल कपास ॥१८॥ तीन जगत स्वामी अरहंत, गुण गणेश पागम कथयंत । तिनकी मन बच सेवा कर, अझ रतनत्रय तस उर घरै ।।१८६।। धर्मध्यान प्राराधे सोई, मिथ्यामत त्यागं भ्रम खोई । पुण्यबंत उपजै नर सोइ, विश्व संपदा पावहिं जोइ ॥१८७|| दया रहिल जे व्रत कर होन, पर बालकको हनत मलीन । कर बहुत मिथ्यामत साज, निज सन्तान सिद्धि के काज ।।१८।। चंटिक क्षेत्रपालको सेव, इत्यादिक पूजै बहु देव । अलप प्रायु तिनके सुत लहें, पापवंत दारुण दुख स. ॥१८६।। अहिंसा प्रादिक व्रत संजुक्त, श्रद्धा कर माने जिन सुत्त । मिथ्या मारगको परिहरे, इष्ट वस्तुको साधन करें ।।१६०॥ तिनक रूपवंत सुत होइ, पूरण प्रायु लहै पुन साइ । परम प्रतापी सुखको मूर, सकल पुण्य कारण भरपूर ।।१६१॥
केवल वेष धारो अजानो साबमाको सेवा भक्ति तत्पर रहते हैं तथा श्री जिनेन्द्र श्रेष्ठ योगो एवं धर्मात्मा पुरुषों को सेवा कदापि नहीं करते वे अपने पाप के फल से पशुओं के समान एकदम पराधीन होकर इधर उधर दूसरों की नौकरी करते-फिरते हैं । इसके विपरोत जो सम्पुर्ण मिथ्यामतोंका छोड़ कर मानसिक, वाचनिक एवं कायिक शुद्धि-पूर्वक अर्हत एवं गणधर आदि मुनियों को पूजा-स्तुति-नमस्कार किया करते हैं वे पुण्योदयसे इस संसार में सम्पूर्ण अतुलित भोग संपदाओं के स्वामो होते हैं। जो दयाहीन व्रत इत्यादि न करके अपने पुत्र पौत्रादि वंशवद्धि के लिये अन्यजीवों के पुत्रों का बध कर डालते हैं तथा इसी प्रकार के और भी मिथ्यात क्रियाओं का कर डालते हैं उनका मिथ्यात्व कर्म के प्रभाव से अल्पायु पुत्र उत्पन्न होते हैं और उन मिथ्याती पापियों के पूत्रोंका विनाश बहुत शोघ्र हो जाया करता है। जो चण्डी, क्षेत्रपाल, गौरी, भवानी, इत्यादि मिथ्याती देवों की सेवा-अर्चा पुत्र प्राप्ति को इच्छासे करते हैं प्रोर सम्पूर्ण मनाकामनाओं को पूर्ण करने वाले ग्रहत प्रभु को सेवा नहीं करते वे मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जन्म जन्ममें सन्तान हीन बन्ध्या स्त्रियोंको प्राप्त करते है । जो दूसरे पुरुषों के पुत्रों को ही अपना पुत्र समझ कर कदापि नहीं मारते बल्कि प्यार करते हैं, मिथ्यात्वको शत्रु के समान जान कर छोड़ दिए हैं एवं अहिंसा आदि अतोंका नेवन करते हैं, अभीष्ट प्राप्ति के लिए जिनेन्द्र, सिद्धान्त एवं योगियों की पूजा करते हैं उनके शुभ कर्म के उदय से अलौकिक रूप लावण्य बाले एवं दीर्घायु पुत्र उत्पन्न होते हैं। जो प्राणी तप, नियम, उत्तम, ध्यान, काय क्लेश आदि धर्मकार्यों को कठिन समझ कर दीक्षा लेने में अपने को असमर्थ समझकर डरते हैं वे इस लोक में पापोदयके कारण सम्पूर्ण कार्यों में असमर्थ कायर होकर उत्पन्न होते हैं। तथा जो लोग साहस पूर्वक तप, ध्यान अध्ययन, योग एवं कायोत्सर्ग इत्यादि महा कठिन धर्म कार्यों के अनुष्ठान में थोचित होकर तत्पर रहते हैं, तथा अपनी शक्ति के अनुसार कर्मरूपी शत्रुनोंको नष्ट कर डालने के लिये अनेक कष्टों एवं परोषहों को सह्य समझते हैं वे धैर्य घर पूरुष पुण्योदय के प्रभाव से सकल कार्यों को कर डालने की क्षमता रखते हैं।
जो जड़मति जीव जिनेन्द्र, गणघर, जैन शास्त्र, निर्ग्रन्थ मुनि, श्रावक एवं घमात्माओं को निन्दा करनेमें दत्त चित्त रहते हैं तथा पापी, मिथ्यादेव मिथ्या शास्त्र एवं मिथ्या साधनों की प्रशंसा किया करते हैं बे अनेक दोषों से युक्त होते हैं और अपयश कर्मके उदय से त्रलोक्य में निन्दनीय होते हैं, जो लोग दिगम्बर, गुरु, ज्ञानी, गुणी सज्जन एवं सुशोल पुरुषों की अन्तःकरण को शुद्धिके द्वारा सदैव सेवा, भक्ति एवं पूजा किया करते हैं तथा सम्पूर्ण प्रतोंका आचरण करते हुए अपने मन, वचन, कायकी शीलकी रक्षामें तत्पर रहते हैं वे धर्म-फलसे स्वर्ग एवं मोक्षको प्राप्त करके शीलवान होफर उत्पन्न होते हैं। जो लोग दुःखशील,
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दीक्षा दान धर्म तप ध्यान, कायोत्सर्ग नियम व्रत जान । जे मुनीश इनते चल जाहीं, ते कहिए कातर जग मांहि ॥१६॥ से निज धीरज परगट कर, महादुसह तपको संचरै । ध्यानाध्ययन जोग थिर थाय, तीन गुपति पाले अधिकाय ॥१३॥ सह विषम उपसर्ग अपार क्षमाभाव धीरज उर धार । इहि विधि करं कर्म अरिघात, ते मुनि धीरवीर अवदात ॥१४॥ जिन शासन निदत जे क्रूर, मुनि श्रुति श्रात्रक मादि अर । कर प्रशंसा मिथ्या देव, कुसुत कुतपमीकी बहु सेब ।।१६शा क्रोध मान माया जुत होइ, अजस वर्ग बांधे शठ सोय । ते नर सिंह ज तीनों लोक अति अपजस पावै दुख थोक ||१६६। करें दिगम्बर गुरुको सेव, ज्ञानवंत गुण अलख अभेव । व्रत आचार करै समुदाय, पाल शील त्रिविध दृढ़ काय ||१९७|| तप जप धर्मध्यान उर लाइ, सबको हितमित वचनसुनाइ । भव भव शीलवंत पुन होइ, स्वर्ग मुक्तिफल पावं सोय ॥१६॥ सेब कुगुरू कुदेव कुपंथ, शील विना गहि गरें यः सुख की उर नर मोम हैं पारि सम भव भव शील ।। १६६।। जिन गणधर गुरु मुनि गुणसिंध, सम्यग्दृष्टि ज्ञान प्रबन्ध । चरणकमल पूजे कर सेब, तिनगुण प्रापति कारण एव ।।२०।। ये ही उत्तम पुरुष प्रधान, इनको तज सेवं अघवान । इहि भव परभव दुर्गति गहै, ते दुर्जन मूरख पद लहैं ॥२०१।। तत्वातत्व कुगुरु गुरु पर्म, देव अदेव जु धर्माधर्म । करि बिवेक पूजै भवि जीव, तप अरु ध्यान विचार सदीव ॥२०॥ जो इहि भव सूक्षमवुधि होय तो परभव पाव बहु सोय । ज्यों सुरेश पावै त्रय ज्ञान, ततछिन प्रगट लहै इक थान ।।२०३।। देव धर्म गुरु निन्दा करें, जिनमत देख दोष उर धरै । अपर देव पूजें मन गूड़, ते उपजहिं दुरबुद्धी मूढ़ ।।२०४|| तीर्थकर मूर सघ हि पाय, चरणकमल बन्द शिरनाय । नितप्रति भक्ति करै मनलाय, जस कीरति गुण कह बढ़ाय ॥२०॥ निज गुण निन्दाज भबि करें, अपर दोष उपगूहन घरं । ते परभव' पावै भुभ गोत तोन जगत जन सेवक होत ॥२०॥ निजगण प्रकट करें जन जंह, परको दोष कहै अधिकेह । नोच देव पूजे अज्ञान, कुगुरु कुदेव सेव उर प्रान ।।२०७।। त नर होंय नीच पद ताय, नीच गोत्र पावं दुखदाय । भागहीन दालिद्री महा, पाप तनौं कारण शठ लहा ॥२०॥ जे मिथ्या मारग अनुराग, कुगुरु कुपथ सेवं दुरभाग । पूरब संसकारके जोग, पावें अशुभ जन्म प्रति शोग ।।२०।। जिन सिद्धान्त सुगरु पर धर्म, ज्ञान चक्षु है जिनके पर्म । भक्ति सहित सेवै जुग पाय, ते परभव तिन समगुण थाय ॥२१०॥ अन्य देव को शरण जु लहै, सपने मात्र कुपथ पुन गहै । श्री जिनधर्म न श्रद्धा गहै, मरि के अधोगमन ते लहै ॥२११॥
दृष्ट, कूदेव, कशास्त्र, कगुरु एवं पाप परायण पुरुषों की सेवा, पूजा एवं नमस्कार किया करते हैं व्रत विधि से हीन हैं, सदैव विषय सखोकी ही कामना किया करते हैं, वे अशुभ कर्मके उदयसे पाप परायण एवं दुःखशील होते हैं । इसके विपरीत जो लोग उत्तम गणोंको प्राप्तिके लिये प्रयत्नशील होकर गुणाकर एवं ज्ञानवान् गुरु, जनयति तथा सम्यकद्दष्टि पुरुषांके सत्सङ्गमें सदैव तत्पर रहते हैं जन्म-जन्ममें स्वर्ग एवं मोक्ष को प्राप्त करा देने वाले पूर्वोक्त गुणी महात्माओं का उन्हें सत्संग मिला करता है। और जो लोग थष्ठ सज्जनोंका अनादर एवं उपेक्षा कर दुर्गणोंके आकार मिथ्यातियांक दु:संगमें फंसे रहते हैं वे नोच गतिको प्राप्त होते हैं तथा दुर्जन संसर्गके कारण बारबार अधोगती कसंगतिमें पड़े रहते हैं। जो लोग तीक्ष्ण एवं सूक्ष्म बुद्धिके द्वारा सदैव तत्व-अतत्व शास्त्र-शास्त्र, देव-गुरु-तपस्वी, धर्म-अधर्म, दान-कुदानका विश्लेषण एवं विचार किया करते हैं उनके हृदय में सूक्ष्म विचारकी एक श्रेष्ठ शक्ति विद्यमान रहती है। वे परलोकमें भी देवोंकी परीक्षा करने में प्रवृत्त होकर सफलता पा लते हैं । जो जीव ऐसा विश्लेषण नहीं करते और संसारके नानाविध सभी देव-गुरु ओंको आदरणीय, श्रद्धास्पद, अनिन्द्य, वचनीय एवं धर्म-मोक्षदायक समझ कर दू द्धिके कारण सभी धर्मों एवं देवों का आश्रय लेकर सभी का अनुसरण करने के प्रयास में तत्पर रहते हैं वे अत्यन्त निन्दनीय हैं और जन्म-जन्ममें मूढ़ होते हैं जो आर्य कर्माजीच नित्यप्रति तीर्थकर, गुरु, संघ, उच्च पदवी प्राप्त जीवों को भक्ति पूर्वक सेवा करते हैं स्तुति करते हैं और नमस्कार करते हैं तथा अपनी प्रशंसा न करके गुणियोंके दोषोंको छिपा कर श्रेष्ठताको ही प्रकट किया करते हैं वे उच्च गोत्र कर्मके उदयसे परलोक में सर्वोत्तम गोत्र को प्राप्त करते हैं। तथा जो लोग इसके प्रतिकूल आत्म-प्रशंसा एवं गुणी पुरुषों की निन्दा में लगे रहते हैं और कुत्सित गुरु, कुधर्म एवं नीच देव की सेवा धर्म प्राप्ति की अभिलाषा से किया करते हैं वे नीच कर्मके उदयसे नीच गोत्रको प्राप्त करते हैं। जिन दुर्बुद्धियोंका झुकाव मिथ्या मार्गमें है और एकान्तरूप
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कठिन जोग धारै उत्सर्ग, मोन सहित धारै तप वर्ग । आप शक्ति को परगट करें, ते नर स्वर्ग मुक्ति पद धर ।।२१२।। निज बीरज पाछादै नाहि, तप व्रत धर्म धरै उरमांहि । करें ध्यान उत्सर्ग प्रसिद्ध, तप प्रसिद्ध शुभ कारण ऋद्ध ।।२१।। खोदन मह व्यापार ज कर जोरै, पाप कर्म बहु धरै । अरु परघात बात बहु कहै, तप असमर्थ निन्द्य वप लहैं ॥१४॥
दोहा
इहि विधि यह संसार दुख, सुख नहि जीव लहंत । भविजन सुन मन चेतकर, धरौ धरम जग संत ॥२१५।। शिवपद वीरज धर्म है, देखो निजउर ढोहि । क्षमा सलिल सौ सीचिये, अल्पकाल फल होहि ।।२१६॥ पाप पुण्य अधिकार ग्रह, प्रश्न शुभाशुभ सार । वीरनाथ जिन प्रकट कहि, सब जीवन हितकार ||२१७॥ सुन हरषों द्वादश सभा, बाढ्यो आनन्द कन्द । ज्यों सूरज के उदय ते, विकसै वारिज वन्द ।।२१।।
गीतिका छन्द
इहि भांति कर्म विपाक जग जिय, पाप पुण्यहि जोगवै । अशुभ शुभ जिन करहि करणी, दुख सुख तसु भोग ।। लोह कंचन पगन वेरी, दोइ विधि छूट जबै । तबहिं शिवपुर पंथ पावै, नवलशाह सु वीनवै ॥२१॥
निन्ध मार्गमें स्थित हो वार कगुरु, कुदेव एवं धर्म की सेवामें जुटे रहते हैं उन्हें पूर्वजन्म के कुसंस्कार से ही परलोक के कल्याण को नष्ट कर देनेवाले मिथ्यामतकी ओर प्रीति उत्पन्न हो जाती है। जो जीव जिनेन्द्र शास्त्र, गुरु एवं धर्म की दिव्यदृष्टि से सूक्ष्म परीक्षा कर चुकने के बाद उनके अपूर्व गुणों पर मुग्ध होकर श्रद्धाभक्ति पूर्वक सेवा में तत्पर रहते हैं और हेय मार्गपर चलने वाले अन्य पुषोंकी स्वप्न में भी इच्छा नहीं करते वे वास्तविक जिनधर्मके अनुरागी हैं और वे परलोकमें भी मोक्ष-पथ पर ही अग्रसर होते जाते हैं। जो स्वर्ग एवं मोक्षकी अनन्य अभिलाषा से परिग्रह हीन होकर व्युत्सर्ग तथा मौनव्रतरूप योग गुप्तिका यथाशक्ति अनुसरण किया करते हैं तथा तप इत्यादि श्रेष्ट धर्मकार्यों में अपनी शक्ति की वास्तविक स्थिति का सदुपयोग करते हैं वे कठिन तपस्याके उग्र कष्टोंके सहन करने में पूर्ण समर्थ दृढ़ एवं सुन्दर शरीर को प्राप्त करते हैं। जो कि तपस्याके समक्ष एवं शक्तिशाली होकर भी केवल काय-सुखमें आसक्त रहते हुए उसका दुरुपयोग करते हैं और अपने बल एवं शक्तिको धर्म तथा व्युत्सर्ग तपमें नहीं लगाते, वे कोटि गह-व्यापारीसे पाप ही कमाया करते हैं और तप कर्ममें असमर्थ उनका शरीर नितान्त निन्दनीय होता है। इस प्रकार श्री जिनेन्द्रदेव महावीर प्रभुने सम्पूर्ण उपस्थित विविध जीव समूहों के सामने दिव्य गम्भीर एवं मधुर वाणीसे गणधर देव गौतम स्वीमीके प्रश्नों का युक्तियुक्त, वास्तविक एवं सार्थक उत्तर प्रदान किया। उन प्रहन्त देव श्री महावीर प्रभकी मैं श्रद्धाभक्ति पूर्वक स्तुति करता हूं।
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पंचदश अधिकार
मंगलाचरण
दोहा दोष अठारह रहित प्रभु, गुणहि छयालिस पूर । प्रनमौ वीर जिनेशपद, दही कमं अघ चूर ।।१।।
सम्यग्दर्शन तथा चारित्र का वर्णन
चौपाई
अब सुन गौतम धर्म निधाम, कहो मुक्तिमारग सूखखान । समकित प्रथम धरै जब जीव, श्रावक जतिबर धर्म अतीव ।।२।। धर्ममूल है समकित सार, जब जिनवाणी निहचे धार । गुरु निरग्रंथ सत्य मन नमैं, दया धर्म पालें अघ बमैं ||३|| अनंतानुबंधी है चार, दर्शन मोह तोन अवधार । सात प्रकृति ये उपशम करै, जब जिय उपशम समकितधरै ॥४॥ तब ये सात प्रकृति खय होइ, क्षायिक समकित जानों सोइ । कछु उपशम कछु नाश जु लहै, बेदक समकित तासौ कहैं ।।५।।
दोहा सो समकित नव भेद जुत, कयो मागंणा मांहि । अब उपजत दश भूमिका, बरणौ श्रागम पाहि ।।६।। -
चौपाई प्राज्ञा मारग अरु उपदेश, सूत्र बीज सम्यक्त्व महेश । संक्षेपहि विस्तार जु अर्थ... गाढ़ परम अवगाढ़ दशार्थ ।।७।।
आज्ञा सम्यक्त्वका लक्षण
जो सर्वज्ञ वचन नय कहयो, पट द्रव्यादिक रुचि सरदह्यो । करै गरु व श्रद्धा नरनार, सो याज्ञा सम्यक्त्व हि धार ||
मार्ग सम्बक्त्वका लक्षण
जो निःसंग रहे, थिर चित, पानपात्र लक्षण जु पबित्त। मोख मार्ग सून श्रद्धा करै, सो मारग सम्यक्त्व हि धरं ॥३॥
उपदेश सम्यक्त्वका लक्षण रेशठ पुरुषादिक जु महान, तिन पुराण सुन श्रद्धावान । निश्चय नय जो करहि प्रतीत, सो सम्यक उपदेश पुनीत ।।१०।।
मुक्ति प्रदायक ज्ञानयम समोशरशण पासीन । करें धर्म-उपदेश को कर्म-बन्ध से हीन ।।
पूर्व-अधिकारमें गणधर देव गौतम स्वामीके कई प्रश्नोंका यथार्थ उत्तर देकर श्रीमहावीर प्रभुने कहा कि गौतम, तुम बहुत बद्धिमान मालूम पड़ते हो, इसलिए अब मैं मुक्ति-मार्गको कहता हूं, अन्यान्य जीव-समूहों के साथ तुम सावधानी पूर्वक सुनो। मेरे बताये रास्ते पर चलने से मनुष्यों को निश्चय रूपेण मोक्ष प्राप्त हो जाता है। जो शङ्का इत्यादि दोषों से होन है
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सूत्र सम्यक्त्व तप आचार क्रिया अस्तवन, इन पं रुचि राख बुध वदन । सूत्र सम्यक्त्व कहावै सोइ, भविजनको हित करता होइ ॥११॥
बीज सम्यक्त्व सकल पदारथ बीजसु पाय, सूक्षम अर्थ सुनौ चित लाय । भविजन तस श्रद्धा उर पान, सो वीरज सम्यक्त्व प्रमान ॥१२॥
संक्षेप सम्यक्त्व जो संक्षेप कहै बुद्धिवान, सुनै पदारथ श्रद्धावान । जो सम्यक्त्व जान संक्षेप, भबि जन को मुख करन समेप ।। १३॥
विस्तार सम्यक्त्व नय विस्तार पदारथ कहै, भेदाभेद सबै सरदहै । निश्चय मन इमि करहि बिचार, सो समकित कहिये बिस्तार ॥१४।।
अर्थ सम्यक्त्व अंग सिन्धु अवगाहन करें, बहु विस्तार वचन परिहरै । अर्थ मात्र रुचि भारं जबै, अर्थ सम्यक्त्व कहावै तबै ।।१५।।
अवगाढ सम्यक्त्व अंग भावना उरमें घरं, मन प्रतीति रुचि श्रखा कर । क्षीण कषाय गहै जुत भार, सो अवगाह सम्यक्त्व जु धार ॥१६॥
परमावगाढ़ सम्यक्त्व केवलज्ञानी बचन प्रमान, करै अर्थ श्रद्धा रुचि ठान । यह सम्यक्त्व परम अवगाढ़, भविजन मन सुख करता बाढ़ ।।१७।।
दोहा
उतपति समकित चिह्न गुण, भूषण दूषण नाश । प्रतीचार संयुक्त वसु, वरनौ ताहि प्रकाश ॥१८॥
चौपाई
के जिय उपज सहज सुभाय, के सतगुरु उपदेश बताय । गति चारों में समफित लहै, यह उत्पत्ति भेद जिन कहै ।।१६।। सत्य प्रतीति अवस्था ठान, समता सब सौ दिन दिन मान । यही लाभ छिन छिन जब होइ, रामकित नाम कहा सोइ ।।२०।। चेतन परको न्यारो जान, तामें कछ विकलप नहि प्रान । रहित प्रपंच सहज हित धार, समकित चिहन यही सुखकार ।।२।। करुणा वातसल्य जुत होइ, स्वाजनता स्वयं निंदा होय । समता भक्ति विराग वखान, धरम राग गुण आठ प्रमान ॥२२॥ चित प्रभाबना भाव सहित, हेय उपादे कहिये मीत । धीरज हरष सहित परवीन, ये ही पांचों भूषण लीन ॥२३॥
अष्ट महामद अष्ट मल, षट ग्रनयातन दोस । तीन मूढ़ संयुक्ता सब, ये दूषण पच्चीस ॥२४॥
चौपाई जाति रूप कुल ईश्वर जुता, तप बल विद्या लाभ जु इता । इन अष्टों को मद जो करें, लहै, दुःख नरकहि संचरै ॥२५॥ श्राशंका अस्थिरता वांछ, ममता दुष्ट दशा दुर गंष्ठ । वात्सल रहित दोष पर भाष, तजि प्रभावना वसु मल शाख ।।२६।। कगुरु श्रत कूधर्महि धर, अरु सराहना इनकी करै। षट प्रनायतन जानी यही, महा दुःखको कारण सही ॥२७॥
और नि:शंकादि गुणोंसे युक्त होकर तत्वार्थीका श्रद्धान है वह व्यवहार सम्यक् दर्शन है और मोक्षका एक अंग है।
इस संसारमें अर्हन्तसे बढ़कर कोई उत्कृष्ट देव नहीं, निर्ग्रन्थसे बढ़ कर महत्वशील गुरु नही, अहिसा आदि पञ्चवतोंसे उत्तम अन्य कोई व्रत नहीं, जिनमत से श्रेष्ठ कोई मत नहीं, सबके हृदय को प्रकाशित करनेवाला ग्यारह अंग चौदह पूर्व से बढ़कर दूसरा कोई शास्त्र ज्ञान नहीं, सम्यक्दर्शन इत्यादि रत्नत्रयसे बढ़ कर दूसरा कोई परमोत्कृष्ट मोक्ष का मार्ग
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देव कुदेव बरावर मान, सुगुरु कुगुरु इक सम पहिचान । पृथक पृथक नहि अन्तर दीस, तीन मूढ ऐ दोष पचीस ॥२८॥ शान गरब' कर अरु मतिमन्द, निठुर वचन भाष दुखकन्द । रुद्रभाव पुनि आलस धार, ये हो नाश पंत्र परकार ।।२।। लोकहास भवभोग सहाइ, मिथ्यामारग भगति, लहाइ । मिय्या दरशनि, अग्र जु सोच प्रतीचार ये पांचों मोच ॥३०॥
मिथ्यात्व निरूपण जे मिथ्यात करै दुखदाय, समकित हेतु न तिनै सुहाय । पूजै हाथी घोड़े गाय, ने मरि पावहि दुख परजाय ॥३१॥ बड़ पीपल ऊमर आंवरी, तुलसी देव निगोद जू भरी । इनकी सेवा जो नर करे, निश्चय ते ही गतिको धर ॥३२॥ व्यन्तर आदि सती शीतला, सूरज लधे चन्द्रकी कला । यक्ष नाग गृह-देवो जान, नी होम जे प्रायुध मान ।।३३।। गोवरको पूजा जे कर, बवै, भुजरिया मुह सुजाय । पितर सराध कर सुख पाय, गंगा जमना बंदै जाय ॥३४॥ ये सब मिथ्या मारम साज, तजिये सब समकितके काज । अब समकितकी महिमा जान, कही कछु संक्षेप वखान ॥३॥
सम्यक्त्व महिमा थावर विकलत्रय नहि होइ, और निगोद असैनी सोइ । जाइ कुभोगभूमि नहि कदा, मलेच्छ खण्ड उपज नहि तदा ॥३६॥ प्रथम नरक मागे नहि जाय, भवनत्रिक बह नहीं लहाय । तीन बेद में दोई न धरै, मनुष्य नीच कुल नहि विस्तरै ।।३७|| जब क्षायिक समकित दढ़ होद, तब ये पदवी धरहि न सोय। नर गतिमें नर ईश्वर जान, देवनमें सो देव प्रधान ॥३८॥
दोहा
नभ में जैसे भान हैं, चिन्तामणि मणि ताहि । कल्पवृक्ष वृक्षन विषै. मेर सकल नग मांहि ॥३६॥ सब देवनमें देव ज्यों, त्यों, समकित अविकार । सब धर्मन को मूल है, महिमा तास अपार ॥४०॥ व्रत तप संजम बह घरं, समकित विन जनामांदि। जैसे कृषि सेवा कर, मेघ बिना फल माहि ।।४।। धर्म मूल सम्यक्त्व कहि, शाखा दोय प्रकार । स्वर्ण मुकतिदायक सही, श्रावक जतिवर सार ॥४२॥
अथ श्रावक धर्म वर्णन
चौपाई अपन किरियाको अधिकार, मो श्रावक उत्तम प्रत धार । प्रथम मूलगुण अष्ट प्रकार, थारह व्रत द्वादश तप सार ।।४३॥ सामायिक किरया इक सोय, एकादश प्रतिमा अवलोय । चार दान जल गालन एक, इक प्रथउ रतनत्रय टेक ॥४४॥
मूलगुण वर्णन
दोहा पंच उदम्ब र जानिये, तीन मकार समेत । इनको त्यागी पुरुष जो, अष्ट मूलगुण नेत ।।४।।
पंच उदम्बर फलों के नाम वर पोपर ऊमर सहित, कठवर पाकर एह । पंच उदबर फल तजै, जीव राशि दुख लेह ।।४६।।
नहीं और पांच परमेष्ठियों से बढ़कर भव्यजीवों के लिये कोई दूसरा कल्याण एवं हितकारी नहीं हो सकता। इसी तरह उत्तम पात्र दान से श्रेष्ठ कोई अन्य प्रकार का दान मोक्ष का कारण नहीं है। केवल ज्ञानको देने वाले प्रात्म-ध्यान से बढ़कर कोई भी दसरा उत्कृष्ट ध्यान नहीं हैं। धर्म एवं सुखको प्रदान करनेवाली साधु महात्मा एवं ज्ञानी धर्मात्माओंकी ही प्रीति है, अन्य किसी की प्रीति से सूख-धर्म नहीं प्राप्त हो सकता । कोका नाश करने वाला बारह प्रकार के तपों का ही फल है, अन्य किसी तपसे
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चौपाई बेर कोरा जामू चार, बेल करोंदा तुत मुरार । कुमड़े बिंब गड़ेली भटा, फुट कचवेड़ा कलिदे गटा ॥४७॥ सूरन मूरा आदी हरी, मारु कन्द मूल गाजरी । इत्यादिक जे और अपार, इनमें जीव राशि अधिकार ||४८ ||
तीन मकार दूषण दोहा
सब घर इन मक्षी रहें, करें वमन इक ठौर । उपजै तहं अंडज अधिक, वुड़ मरे चहु दौर ||४६|| जीव मरे यह होय मधु, जे भक्षं सुख पाय । ते धठ पावें कुगति पथ पाप हि शिर वाय ॥ ५० ॥
नैनू काचो दुब पऊंसी, महुआ आदि वस्तु बहु और जो यह पथ नि फोक
अतीवर वर्णन
अन्य जाति को भाजन लेइ दिना दोयको तॠहि धरं द्विदल वस्तु ले इकट्ठी करें ।।५४।। अनजाने को जल लेइ । ए सब मद्य दोष दुखदाइ, इनको त्यागे शिवसुखदाई ॥ ५५ ॥ मांस दूषण
जीव घात विन होय न मांस, पाप करम जानौं यह भास सूक्षम जीव परेंता मांहि दृष्टिहिकी लखि भावे नाहि ।। ५६ ।। जौली जिस विनशे ग्रह देह, तौलों निरमल है अधिके । जीव गये तन मुरदा होय, महा अपावन छुवै न कोय ।। ५७॥ पर जिय मार मांस जे खाय ते धिक दुरगति दुःख लहाय । मांस त्याग व्रत पाले जेह स्वर्गनके सुख भगते तेह ॥ ५६ ॥ प्रतीचार
स्वाद चलित जो वस्तु ग्रहे, फूल संघकै मुख में देद, श्ररु
चौपाई
प्रप्रामुक जल थाने वसी । इन्हें आदि दे और अनेक मधुके, प्रतीचार तज सेक ॥५१॥ तिनिको सार रच मद गर । त्रय यावर जहं जीव अनंत, उपजै मरे लहे नहि श्रन्त || ५२ || बाला त्रिया न जान सीव । दूहि भव निद्य होय अधिकार, परभव पावे दुरगति भार ||५.३॥
घउ तेल जल हींग अतीव अनजाने फल भक्षण
होय चरम संगति बहु करें, मासहि प्रतीचार ते
जीव हाट नून फल हरित जु शाग, पंच फूल बहु बीजक भाग ॥५६॥ धरें। जो नर इनको त्यागन करें, सकल दोष निश्च परिहरं ॥ ६० ॥
दोहा
इनि अष्टों में पापप्रति दोष सहित जब त्याग । तब श्रावक व्रत संभव, धरी मूलगुण भाग ॥ ६१ ॥
ऐसा नहीं होता । स्वर्ग एवं मोक्ष को देनेवाला पंच नमस्कार महामन्त्र है, इसके अतिरिक्त ऐसा प्रभावशाली कोई अन्य मन्त्र नहीं हैं । कर्म एवं इन्द्रियोंके समान इस लोक और परलोक में भीषण दुःख देनेवाला और कोई दूसरा नहीं है। ऐ गौतम, तू इन सबको सम्यक् दर्शन का मूल कारण जान ले । यह ज्ञान दर्शन एवं चारित्र दर्शन का प्रधान कारण है, मोक्ष रूपी महलकी सोपान ( सीढ़ी) है और व्रत इत्यादि का मूल स्थान है। इस सम्यक् दर्शन के बिना सब ज्ञान प्रज्ञान, चारित्र कुचारित्र एवं सम्पूर्ण तप निष्फल हो जाते हैं। इस बातको दृढ़ता से समझ कर निःशङ्खादि गुणोंके द्वारा शंका, मूढ़ता इत्यादि आवरणों को एकदम दूरकर चन्द्रमा के समान प्रति स्वच्छ सम्यक्त्व को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिये तथा पालने पर अविचल भावसे दृढ़ रहना उचित है। वैपरीत्य से होन यथार्थ तथा तत्वार्थों अर्थात् पदार्थों का ज्ञान सज्जन पुरुषों को प्राप्त करना चाहिये । इसीको व्यवहार सम्यक् ज्ञान कहते हैं। इस उत्तम ज्ञान के ही द्वारा धर्म-पाप, हित-अहित एवं बन्ध मोक्ष का यथार्थ बोध होता
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वाईस अभक्ष्य
उक्तच ओला घोर बरा निशिभोजन, वहबीजक बैंगन संघान। बड़ पीपल ऊमर कठऊमर, पाकर फल जे कहे अजान ।। कंदमल माटी विष प्रामिण, मधु माखन अरु मदिरापान । फल अतितुच्छ तुषार चलितरस, जिनमत ये बाईस खान ।।६।।
बारह बत
दोहा
पंच प्रणवत को धरै, और गुणवत तोन । ची शिक्षाव्रत निग्रहै, द्वादश वत लबलीन ॥३॥
पांच अणुद्रतों का वर्णन
चौपाई त्रस जीवन की रक्षा कर, दया भाव हिरदै में धरै। हिंसा बनिज प्रादि में गहें, प्रथम अहिसा प्रणवत लहै॥४॥
योहा हिंसा कर अरविंद नृप, सहे नरक दुख घोर । मातंगादि दया धरी, मुर बंदै जोर ॥६५॥
चौपाई सबसौं हित मित वचन सुनाय, बोले सत्य धर्म उर ल्याय। मिद्य असत्य तजै जब सही, सत्य अणुव्रत दूजी यही ॥६६॥
दोहा वसु नृप सिंहासन सहित, अवनि धंस्यौ कह झछ। राय युधिष्ठिर सत्यतं, रह्यो मोक्षपद तूट ॥६७।
चौपाई वस्तु पराई जे ठग लेइ, अपनो घटि औरहि को देइ । डरी वस्तुको ग्राह जु करै, थावी पानि पराई बरै॥६८|| चोरी करत धर्म सब नशै, दुरगति दुख सु नरक में वस। दंड सहित बध बंधन प्रादि, मानुष जनम जाय यह वादि ॥६६॥ चोरीकी नहि लीजै वस्त, अरु उपदेश न देह प्रशस्त । इहि विधि चोरी त्यागे बहै, तृतीय प्रचौर्य अणुव्रत गहै ।।७।।
दोहा चोरी ते तापस सहै, वष बन्धन अति शोक । चोरी अंजन चोर तज, भयौ सिद्धि शिव लोक ॥७॥
है और देव, धर्म एवं गुरुकी भी गुण-परीक्षा इसी ज्ञानके द्वारा होती है, जो जानसे हीन है। वे अन्धेके समान हैं और वे प्राणी हेय-उपादेय, गुण-दोष, कृत्य-अकृत्य, तत्व-अतत्व इत्यादिकी यथार्थ विवेचना में एकदम असमर्थ होते हैं। इसलिये स्वर्ग एवं मोक्ष प्राप्तिकी अभिलाषा रखने वालों को चाहिये कि यत्न पूर्वक प्रतिदिन जैन शास्त्रोंका अभ्यास किया करे हिंसादि पांच प्रकार के पापों का सर्वदा एवं सर्वतोभावेन त्याग तथा, तीन गप्ति एवं पांच समिति के पालने को ही व्यवहार चारित्र कहते हैं। यह भोग एवं मोक्षका देनेवाला है इसको सपूर्ण कर्मास्रवों का अवरोधक (रोकने वाला) प्रत्येक फलों का देनेवाला एवं सर्वोत्कृष्ट समझा गया है। कमों के संवरके लिये यह अत्यन्त आवश्यक है। इस उत्तम चारित्रके विना कोटि-कोटि कायक्लेशोंके द्वारा किया गया तप भी व्यर्थ ही है। इसके बिना काँ का संवर नहीं हो सकता, संवरके बिना मुक्ति नहीं हो सकती और उस
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चौपाई माइ बहिन पुत्री समचित्त, परदारा इम जानों मित्त। अथवा सांपिनसी मन धरौ, दुखकी खान दुर परिहरी ॥७२।। शील विना नर लाग इसौ. विन पापी को मोती जिसॉ। मन निर्मल जिमि जल सुरसरी, ब्रह्मचर्य अणुव्रत है तुरी ।।७३।
दोहा रावण नप नरकहि गयौ, पर नारी के काज । सेठ सुदरशन शील ते, पायौ शिवपुर राज ।।७४।।
चौपाई प्रानीकी तृष्णा अति धनी, पूरण होय नहीं तिहि तनी। तीन लोककी लक्ष्मी पावं, तो भी वह संतोष न आवं ।।७५11 यातें बुधजन करत प्रमान, क्षेत्र वास्तु मेवक धन धान । असन वस्त्र शृंगार भंडार, चौपद जुत दश परिग्रह भार ॥७६।। यह परिग्रह जानौ दुखदाय, पाप मूल भाषौ जिनराय। यात जे भवि रहित उदास, सो परिग्रह परिणाम हि भास ।।७।।
दोहा सत्यघोष अति लोभते, सहे दुःख अधिकार । शालिभद्र संतोष त, लह्यो सिद्ध पद सार ।।७।।
तीन गुणवतों का वर्णन दिन विदिशा का संख्या कर, तहत उलंघ नहीं पग धरै। प्रथम गणव्रत जानौ येह धावक को निर्मल गण तेह ॥७६|| खोदन काटन जल वहु डार, वायु प्रगति परजाल भार। अठ वचन, चोरी, परतिया, विकथा कहै त सब क्रिया 11८०॥ विना प्रयोजन जाय न कही, पापारम्भ होय पथ मही। अनरथ दंड कबहुं नहि कर, द्वितीय मुणब्रत उत्तम धरै ||८१।। बत आचार जहां नहि होय, ताहि देश जय नहि लोय । कर प्रमाण भोग उपभोग, तुतिय गुणव्रत उत्तम जोग ।।२।।
चार शिक्षावतों का वर्णन
देशावकाशिक शिक्षानत जिन मन्दिर जिन प्रतिमा कर, तहां धर्म वहविधि विस्तर। गमन तनी संख्या नित धरै, देशवकाशी व्रत अनुसर॥५३||
मोक्षके बिना भला, अक्षय परम सुख कैसे प्राप्त किया जा सकता है। दूसरों की बात ही कौन चलाये, स्वयं त्रैलोक्य पूज्य एवं देव बन्ध तीर्थकर प्रभु भी चारित्र के बिना मुक्ति रूपिणी स्त्री के मुखारविन्द का दर्शन नहीं कर सकते । जिस तरह दन्तके विना उत्तने बड़ हाथीको शोभा नष्ट होजाती है उसी तरह चारित्रके बिना मुनि भी शोभा नहीं पा सकते ! क्या हुआ, जा वहत दिनों से दोक्षा कारज करने बाल हैं, सब में श्रेष्ठ हैं, और अनेक शास्त्रों के ज्ञाता है। चारित्र के बिना वे नगण्य ही हैं। इसलिए बुद्धिमान पुरुषोंक चन्द्रमाके समान अति स्वच्छ चरित्र को धारण करना चाहिये तथा स्वप्न में भी असर्ग एवं परोपहों से दःखी होकर शरीरका परित्याग कदापि नहीं करना चाहिये। क्योंकि ये रनत्रय स्वत: तीर्थकरादि शुभ कर्म के कारण हैं, निश्चय रत्नत्रय के साधक है, भव्य जीवों के लिए सार्थ-सिद्धि तक महान सुखों के देने वाले हैं, श्रेष्ठ हैं, अनुपमेय हैं लोकबन्ध हैं और भव्यजीवों के परम हितंपी है।
जो असंख्येय गुणों का समुद्र है, आत्मा के स्वरूप का श्रद्धान है और कल्पना होन है, वह निश्चय सम्यक्त्व है। परमात्माके अन्तरंग (भीतर) में जो ज्ञान है और जो संवेदन (अपने ही प्राप) ज्ञानसे जानने के योग्य है बह निश्चय ज्ञान है। वाह्य (वाहरके) और अभ्यन्तर (भौतरके) सम्पूर्ण विकल्पों को छोड़कर अपने प्रात्मा के वास्तविक स्वरूपमें स्मरण करना है उसीको निश्चय चरित्र कहा जाता है। ये निश्चय रूपी तीनों रत्न सम्पूर्ण वाह्य चिन्ताओं से हीन हैं, विकल्प रहित हैं. और ऐसा होनेके ही कारण भव्य जीवोंको निःसन्देह रूपेण मोक्ष देने वाला है। व्यवहार रत्नत्रय और निश्चय रत्नत्रय
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सामायिक शिक्षानत
आरत रौद्र ध्यान परिहरे, अरु निज तनको निरमल करें। सब जियस समता उरलाय, धरम ध्यान इक चिनीला ॥४॥ स परीषदृढ़ कर काय, श्री जिनपद को जपन कराय । तीन काल सामायिक साथ, यह सामायिक व्रत प्राराव ||८||
प्रोपभोगवास शिक्षायत
सातें तेरस शुद्ध अहार, एका भगत करें विधि सार । फिर पोसह पावहि निरभंग, सब ग्रारम्भ परिह प्रसंग || ८६|| प्राठे चौदशि प्रोषच धरै खाद्य स्वाद्य पय लेह न करें। पुन्यों मावस नोमी आन, तब आहार लेह शुभ जान ||८|| सोरा पहर हि उत्तम को चौदह की पुनि मध्यम लही बारह पहर अन्य ने
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पोष व्रत कहि विधि ठाने ।
अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत
जब छह घरी चढ़े दिन बाद द्वारापेन की भाइ तिहि पाछे निज भोजन करें, परम पुष्यकारण गुण धरै चार प्रकार दान जो वेद, अतिथि संविभाग प्रत न
मुनिको पाय देव शुभदान विधिपूर्वक निर्मल उरमान ॥ मुनिवर दान योग नहि होद रसत्यानी तब कीज्यो खोइ ॥ ६०॥ ये चारों शिक्षावत जान हे सुर संपति सुलखान ॥ ६१ ॥
अथ तप वर्णन
दोहा
वारहतप व्योहार कर मालहि श्रावक सो तिन हि भेद पूरव को फिर वरनन नहि हो ॥६२॥
सामायिक वर्णन
सामायिक विधि करें, धावक परम पुनीत सो शिक्षा प्रत में कहा जान खोजियो मीत ॥ २३ ॥ ग्यारह प्रतिगामों का वर्णन
विषय सौं जु उदास यति, संजम भात्र सौ ठाम उदय प्रतिज्ञा को करें, प्रतिमा जाको नाम ||२४|| चौपाई
मल पच्चीस विवर्जित सोई, दर्शन प्रतिमा श्रावक होई ||१५|| शिक्षान चारों परवान, व्रत प्रतिमा जी पहिचान ॥६६॥
आठ मूल गुण पालै जब सात व्यसन तज दोने सबै पंच अणुव्रत लहिके सोय, तीन गुणव्रत धार जो
मिलकर दो प्रकारके विशाल मोक्ष मार्ग में मोर मोक्ष भी महा सम्पति को देने वाले हैं। मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों की चाहिये कि मोह रूपी फन्द (फांसी) को तोड़कर सदैव इन दोनों राजयको स्थिर भाव से अनुष्ठान करते रहें इस संसार के जितने भी भव्य जीव मोक्ष को प्राप्त करने की चेष्टा में क्रियाशील है इन दोनों रत्नत्रयों को बिना पालन किये सफलता नहीं प्राप्त कर सकते भूत भविष्य एवं वर्तमान तीनों कालमें इन्हीं दोनों रत्नश्वों के द्वारा मोक्ष मिला है, मिलेगा और मिल रहा १. है। इसके अतिरिक्त कोई और अन्य उपाय हो नहीं सकता । वह दो प्रकार का है श्रावक धर्म और मुनि धर्म । श्रादक धर्म तो कोई कठिन नहीं - सुगम है किन्तु योगियों का मुनि धर्म अत्यन्त कठोर है। थावक धर्म की ग्यारह प्रतिमाएं (श्रेणियां) होतो हैं जो भूत (जुमा) आदि सात प्रकारके व्यसनों से हीन है, बाठ मूल गुणों से युक्त हैं और प्रति स्वच्छ सम्यक दर्शन से परिपूर्ण
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है उसको दर्शन प्रतिमा कहते हैं और यही पहली है इसके बाद दूसरी व्रत प्रतिमा है। पांच अशुव्रत, तीन प्रकारके । गुण व्रत एवं चार शिक्षाप्रत इस तरह बारह व्रत है। जिसमें मन वचन एवं कामके द्वारा कृतकारितानुमोदन खोर प्रयत्नपूर्वक म जीवोंकी रक्षाको जाय वह हिसा नामका पहला धणुव्रत है। यह अहिंसा अणुक्त सम्पूर्ण जीवोंकी रक्षा और सम्पूर्ण व्रत
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तीन काल सामायिक कर, पापारम्भ सर्व परिहर । निर्जन थान ध्यान को होइ, सामायिक प्रतिमा सो लोइ ।।६७|| पाठे चौदशि प्रोषध सज, चार प्रकार प्रहारहि तजे । पोसह प्रतिमा जानौ सोइ, चौथो सो श्रावक अवलोह || हरित वस्तु को कीनो त्याग, जीव दया पाल बड़भाग । पंचम प्रतिमा यहै बखान, मचित त्याग व्रत श्रावक जान ||६|| निशि अहार त्यागे बुधवंत, सूक्षम थूल भरं जिय जत । मून जानै हिसा सोय, रजनी नीर रुधिर सम होय ।।१०।। भूत पिशाच गमन निश करें, जेवत अन्न अपावन करें। अशुचि वस्तु डार तह आय, नीच स्वभाव न उनकी जाय ॥१०॥ दिवस अन्धकार जहं रहै, रात समान जानिये दहै । निशिजु रसोई करै दिन खाइ, रजनीवत दुषण दुखदाई ॥१०२॥ दिवस हि पुन छोड़े मिज नार, निश त्यागो प्रतिमा अवधार । यह षष्ठी लौं जानों भाइ, है जघन्य श्रावक ठहराय ।।१०३॥ निज पर नारि त्याग गुणवंत, नवधा शील धरं बहुमंत । तज सचिकरण मिष्ट अहार, ब्रह्मचर्य प्रतिमा यह सार ॥१०४१। हिंसा आदि सकल ग्रारम्भ, तजे विवाह बनिज सब दंभ । काटन खनन गिन नहि करै, बस्तर धोइ न कबहुं धरै ।।१०।। पशु राख नहि मन्दिर रच, मित्य नहान कबहूं नहि सचै । वाहन चढ़ न साथ लहेइ, पत्र फल फल नहीं गहेइ ।।१०६॥ जंत्र मंत्र औषधि नहि साध, वैद्यक ज्योतिष धातु न रात्रं । ऐसी क्रिया भव्य चित रमी, यह आरम्भ त्याग अष्टमी ॥१७॥ कट कौपीन बस्त्र इक लेइ, दशविथ संघ त्याग करि देई । इंद्रिय दण्ड मन बच काय, पाप करम किंचित नहि थाय ।।१०।। नवमी प्रतिमा जानो देह. परिग्रह त्याग कहावे तेइ । मध्यम श्रावक धार यही, स्वर्ग पन्थ को कारण सही ॥१०॥ बनिज विवाह भाप पाहार, इनकी अनुमति दे इन सार । भोजन को जु बुलाये जाय, दशमी अनुमति त्याग कहाय ॥११०॥ उदिष्ट त्याग प्रतिमा गैरमी, उत्तम थावक घर शिर नमी । ताके भेद दोय परमान, क्षुल्लक ऐलक कही वखान ।।११।। जो गरु निकट लेइ प्रत जाद, वसै गुफा मठ मंडप पाइ । कटि कोपीन कमंडलु लहे. एक धसन तन पीछी गहैं ।।११२।। राख भिक्षा भाजन पास, चारो परब करें उपवास । ल अनुदिष्ट शुद्ध पाहार, लाभ अलाभ रोष नहिं धार ॥११॥ माथैके कतराव वार, डांडी मुछ न राखै भार । तप विधान धारं गुरु पास, कहैं मुक्ति आगम प्राभास ।।११४॥
दोहा यह क्षल्लक धावक क्रिया, कहौ किमपि अवधार । अब दूजो ऐलक सुनी, है पुनीत अधिकार ।।११५|| कटि कौपीन जु संग्रहै, पिछी कमंडल हाथ । पान पात्र आहार विधि, केश लुचावै माथ ।।११६।। शीत घाम सब तम सहै, ऐलक सदा विराग । एकादश प्रतिमा घरं, सो श्रावक बड़भाग ॥११॥
का मल है, श्रेष्ठ गपों का प्राकार है, एवं धर्म का आदि कारण---मूल बीज है। स्वयं जिनेन्द्र प्रभु ने इस बातको कही है। . जिसमें असत्य एवं निन्दनीय बचनों का घृणा पूर्वक परित्याग कर, हितकारक, साररूपी धर्मके प्राकार सत्य वचनों को कहा जाता है उसको सत्य अणुव्रत कहते हैं और यह दूसरा है। सत्य वचन बोलने से संसार में स्वच्छ कीतिका विस्तार होता है। सरस्वती, कला, विवेक एवं चातुर्यकी अभिवृद्धि होती। यदि कदाचित दूसरेका धन बिना जाने हो कहीं गिर गया है, भूलसे छट गया है, ग्रामके किसी गुप्त स्थान में रखा है तो से धनको नहीं ग्रहण करना अचौर्य नामका अणुव्रत है और यही तीसरा है। जो लोग दसरेके धनों को चुरा लिया करते हैं उन्हें पाप-कर्म के उदय से इसी लोक में वंध उन्धादि दुःखों को प्राप्त करते हैं और दसरे जन्मों में भी नरक मादिकी यन्त्रणाओं को भोगते हैं। जिसमें जो अपनी स्त्री के अतिरिक्त सम्पूर्ण स्त्रियोंको सर्पिणीकी तरह समझ कर उनसे अलग रहते हुए और अपनी यथा प्राप्त स्त्रीसे ही सन्तुष्ट रह जाता है इसे ब्रह्मचर्य नामका अणुव्रत कहते हैं और चौथा है। खेत, गृह, धन, धान्य, दासी, दास, पशु, आसन, शय्या वस्त्र और पात्र ये दस बाह्य परिग्रह हैं इन परिग्रहों की संख्या तथा लोभ और तृष्णाके लिए जिम ब्रतका विधान है उसको परिग्रह परिमाण नामक अणुव्रत कहते हैं और यह पाचवां है। इस परिग्रह प्रमाण के करने से प्राशा और लोभ का नाश होता है, सन्तोष धर्म और सुख सम्पदाएं प्राप्त होती है। दसों दिशाओं में आने जानेके लिये जो योजनादि मार्ग परिमाण या मर्यादा स्थिरकी जाती है वह दिग्बत नामका
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चार दान का वर्णन
चौपाई प्रथम दान पाहार जु देय, भोगभूमि सुर सुरुय लहेय । दूजौ शास्त्र दान को गहै, यातें धर्म ज्ञान गुण लहै ।।११।। पोषधि दाम देइ मन शुद्ध, तब नियोग द्युति धारै बुद्ध । अभय दान सब जीवन करै, इन्द्र चत्रवति पद सौ घरै ।।११।।
___ दोहा ग्राभूषण पांची लहै. दृषण पांचौ त्याग । गुण साती जब उर धर, नवधा पुण्य सुहाग ।।१३०॥
दातार के ५ आभूषण
चौपाई
यानंद प्रादर प्रिय वच कहै, निर्मल भाव जु उर में लहै । सफल जन्म करि अपना लेख, पाभूषण पांचौं इम पेख ।।१२१||
दातार के ५ दूषण बिमख विलम्ब वचन आपेह, प्रादर चित्त करै नहि लेद । देकर पश्चाताप न करे. गह गानों दुगण सो घर ॥१२॥
दाता के ७ गुण श्रया ज्ञान प्रलोभता जान, दया क्षमा निज शक्ति प्रमान | भक्ति सहित ये जानो सात, सो दाता जग गुण विख्यात ।।१२३||
नवधा भक्ति का वर्णन पड़गाहन पाहिको करै, उच्चासन वैठक पुन धरै। चरण धोय बन्द कर जोर, विधि सौ पूजा कर बहोर ।।१२४॥ मन वन काय हर्षे मन ग्रान, शुद्ध प्रहार देह सुखखान । नब विवि पुण्य लहै यह सोइ, चौदह मल वजित अघ धोह ।।१२५||
चौदह मलों के नाम जीव बद्ध जहं रोम जु चाम, मांस रुधिर पर हाड़ हि नाम । इन संगत की वस्तु न लेइ, दुरगंधा थानक तज देइ ।।१२।। कंद मूल फल रहित जु देइ, पान फूल बहु वजित जेइ । स्वाद रहित अरु बहु दिन वस्त, ये चौदह मल त्याग प्रशस्त ।।१२७।।
दोहा
पात्र अपात्र कुपात्र के, भेद बहुत परकार । उत्तम मध्यम जघनता, कहीं जथारथ धार ।।१२।।
प्रथम गुणवत होता है तथापि अनेक कार्यों के प्रारम्भ करनेको अकारण ही बन्द कर देना अनर्थ दण्ड विरति नामका गणव्रत कहा गया है। इस अनर्थ व्रतके पांच भेद हैं। पापोपदेश, हिंसा-दान अप-ध्यान, दुःथति और प्रमादचर्या । जो इन्द्रिय रूपी पांच शत्रओंको जीतनेके लिये भोग्योपभोग्य वस्तुओं का परिमाण निश्चित किया जाता है । वह भोगोपभोग परिणाम नामका गणनत कहा जाता है। पाप नाश पूर्वक ब्रत परि-पालनके लिये पापभीरु ब्रदियोंके लिए सूक्ष्म जीव-बाले अदरख इत्यादि कन्दत्याज्य हैं। इसी तरह कीड़ा के खाये फलोंको फलों को और सम्पूर्ण अभक्ष्य वस्तुओंका विष और मलादि वस्तुओंसे व्याप्त समझकर छोड़ देना चाहिये।
घर टोला पड़ोस खेत मुहल्ला और बाजार इत्यादि स्थानोंमें पाने जाने का नित्यशः प्रमाण निश्चित कर लेना है। उसको देशावकाशिक शिक्षाबत कहते हैं। बरे ध्यान बुरी लेश्यानोंका परित्याग करके जो प्रतिदिन तीनों समयमें सामायिक जाप किया जाता है उसे सामायिक शिक्षाव्रत कहते हैं। जो कि अष्टमी और चतुर्दशी (चौदा) के दिन अन्य सब कार्योको
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चौपाई
उत्तम मात्र भेदत्रय सार उत्तर मध्यम जपन विचार उत्तम में उत्कृष्ट हि पात्र दान दिये तद्भव शिव जान उत्तम पाह में जान पात्र को परवान उत्तम पात्र विर्ष मुनि तेह, पात्रजघन्य कहावं यह थावक ग्यारह प्रतिमा घार, ऐलक क्षल्लक दोष प्रकार दम तमिलों जान त्रह्मचर्य पाने वहान
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तीर्थकर मान पाचं भोजन हिन पुर थान ।। १२२ ।। गणधर चार शान के धनी मुनी ।। १३०॥ टीम गुण धारोहिये पष्ठम गुणवानक तिथि किये ।।१३१।। मध्यम वा भेद श्रथ सुन, उत्तम मध्यम जघनहि गुनी ।। १३२ ।। मध्यम पात्र विषे उत्कृष्ट देशव्रती ध्यावें परमेष्ट ।। १३३|| परं दिजे मध्यम पावहि मध्यम ते ॥१३४॥
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। विवधायसन त्याग गुन मन्य ते मध्यम पात्रहिं जु जघन्य ॥ १३५॥ क्षायिक सम्यदृष्टी होय, पात्र जघन्य हि उत्तम सोच ।। १३६ ।। उधम सम्यग्दृष्टो जो
पात्र जघन्य जधन्य कही ।। १३७१
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पष्ठमित पहिली लग जोई धारे प्रतिमा श्रावक सोइ पात्र जघन्य गुनोत्रय भेद, उत्तम मध्यम वधन सभेद वेददृष्टजन, सोजन्य में मध्यम समान सर्व लिंगी जे जती गुण यट्ठाइस त्राहि रती । सम्यग्दृष्टि विना जग मांहि ते कुपात्र उत्कृष्ट कहांहि ।। १३८ ।। ब्रह्मचारि किरिया अनुसरं द्रव्य लोभ प्रति उरमें धरे । सम्यग्भाव रंच नहि लौ, ते कुपात्र मध्यम जग कहै ||१३|| ब्रह्मचर्यं वाहिज जं च द्रव्य तनों बहु संग्रह लहैं । समकित भाव न कहूं भये, जघन कुपात्र ताहि वर नये ।। १४० ।। व्रत सभ्यश्व न जाने रंच, सोपान उत्कृष्ट प्रॉच ॥११४१।। मिथ्या मारग को आदरे, ते अपात्र मध्यम अनुसरें || १४२॥ हिंसा करम करें अधिकार, सो अपात्र अन्य निहार ।। १४३ ।। और कुपात्र अपावहि दोय, पांच भेद ये जानो सोय ॥ १४४ ॥ जुदे जुदे फल तिनके सुनी, भविजन निश्चय के मन गुनौ || १४५|| मध्यम को जो देय सुदान, मध्यम भोगभूमि परवान ॥ १४६॥ पात्र जघन्य दान फल यहै, भोगभूमि तें अन्तिम लहे । यह सुपात्र फल जानो भेद, अब कुपात्र सुनिये तन खेद || १४७ ।। दान कुपात्र तने परभाव, लहैं कुभोग भूमिकी यात्र 1 अरु अपात्र को दीजं दान, तो पशुगति पावे दुखखान ॥ १४८।।
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दोहा
अहिमुख, कदली सीप जहूं, स्वाति वृन्द जलजोग । विष कपूर मोती मयौं, सो विधदान निजोग || १४६ || अंधकूप धन डारिये, सोइ भली कर जान दान कुपात्रहि देऊ नहि, सज्जन करो समान ॥ १५०॥
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जो कुलिंग मिथ्या अनुसरं, रक्तपीतसित सहि परं नानावैप धरै जगमोहि, समतिक व्रत कछु जाने नाहि व्रत समय न जाने मूल उपजावे मिथ्यामत कूल उत्तम मध्यम और जघन्य ये ही तीन पात्र अभिमन्य एक एक प्रति त्रय त्रय जान, ते सब पन्द्रह भेद प्रमान उत्तम पात्र दान जी देई, उसम भोगभूमि फल से
छोड़कर नियमपूर्वक उपवास किया जाता है उसको प्रोपोपवासाित कहते हैं। नित्य प्रति भक्ति पूर्वक जो मुनियोंको चार प्रकारको विधिके साथ ग्राहारादि न किया जाता है उसको अतिथि संविभाग नामका शिक्षात कहते हैं।
इस प्रकार मन वचन और कायकी शुद्धि हो जाने पर श्रतीचार यानी दोनों से रहित हो जाते हैं और जब इन पूर्वोक्त पांच महाव्रतोंके पालने में तत्पर रहते हैं उनके लिये द्वितीय व्रत प्रतिमा होती है। जो लोग अणुव्रतको धारण किया करते है उनको मृत्यु- समय में आहार धीर क्वायादि को छोड़कर उन्नत पद पाने की इच्छा से मुनि चारित्र धारण करना चाहिये श्रद्धा और विश्वास पूर्वक सल्लेखनाव्रत का पालन करना चाहिए। इसके बाद तीसरी प्रतिभा का नाम सामयिक प्रतिमा है और चतुर्थ प्रतिमा का नाम प्रोषधोपवास है। फल, बीज, पत्ते जल, इत्यादि प्रायः सभी वस्तु जीव से युक्त हैं । तथा धर्म पालन करने के लिये इसका परिस्याग करना सचित्त त्याग प्रतिमा नामकी पांचवीं प्रतिमा है। मुक्ति के लिए रात्रि समय में चारों प्रकार के श्राहारों का परित्याग किया जाता है और दिन के समय मैथुनका परित्याग है उसको परम प्रतिमा कहते है जो इन पूर्वोक्त छ प्रतिमायोका पालन करते हैं और मन
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५.२५
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अथ जलगालन क्रिया सात लाख जल जानि जिय, अरु त्रस राशि अनेक । यात बुध जल गालिये, दयाभाव कर टेक ॥१५१।।
चौपाई दीरघ छत्तिस अंगुल जान, अर चौरौ चौबीस प्रमान । गाली वस्त्र दुगुन कर गाल, इहि विधि जीवदया प्रतिपाल ॥१५२।। धरी दोय जल गालिउ रहै, फिर असंख्य अस जिय तहं लहैं । यो जल गालि गालि व्योपर, विलछानो ले घट में धरै ।।१५।। सो निवान जल में ले कर, विधिसौं जाय बीच नहि गिर। एक बद जो धरती परै, जीव असंख्य राशि तह मर ।। १५४।। ताके भ्रमर होय उड़ि गर्म, जम्बूद्वीप मांहि नहि समैं । यात शुद्ध गालिये नीर, अनगाले अघ हैं बहु वीर ।।१५५।। प्रहर दोय प्रासुक जल रहै, आप्रहर तातो निर वहै। फिर राखें सन्मूछित जोइ, अरु गाले नै हिसा होई ।।१५६।। दिन गाल जल म्हा नहि करे, होइ पाप धर्महि परिहर। उत्तम विधि जल गाले सोइ, सो श्रावक किरिया अवलोइ ।।१५।।
मन्थउ (ब्याल) क्रिया वर्णन दोय घरी रवि उदय प्रमान, दोय घरी अंतिम दिन जान । इतने में भोजन जल ले इ. मथुन दिवस हि त्याग करेइ ।।१५८।। इहि विधि किरिया जे जन करै, सो स्रावक अंथउ नत धरै । अब रतनत्रय वहीं प्रमान, जथा जोग जिनशासन जान ॥१५॥
अथ अष्टांग सहित सम्यग्दर्शन का वर्णन
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दोहा
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निःशंकादिक जानिथे, दर्शन पाठौ अंग। ते रनौं संक्षेप कर, जानी बुध सरवंग ।।१६०॥
चौपाई तत्व पदारथ सदा विचार, जिनमुद धर्म कहै भवतार । शंका रहित गुननको गहै, निःशकादि कहावै बहै ॥१६॥ तपसा मांहि रहै लौं लाय, श्रीमुख बानी चित्त लगाय । सुरंग नरकको वांछा नाहि, निःकांक्षांग गुनौ मन माहि ॥१६॥ कर्म महावन दिये जराय, प्रगटी मति उत्तम सुखदाय । विचिकित्सा तनव्यापै नाहि, निरविचिकित्सा अग सुपाहि ।।१६३।। देव गुरू धर्महि चित गिने, ज्ञान चक्ष सौं निरखं तिनै । त्रिविध मुढ़कर रहित प्रवीन, यह अमद गन जायक लोन ॥१६४।।
बचन और कायकी शुद्धि कर लेते हैं ऐसे जीवोंको मुनीश्वरों ने जघन्य-श्रावक कहा है और ये श्रावक स्वर्ग में जाते हैं। जो कि स्त्री जाति मात्रको अपनी माता समझ कर ग्रहनिश ब्रह्म स्वरूप प्रात्मामें लीन हो रहते हैं वह सप्तम ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। पापभीरु पुरुषों के द्वारा अत्यन्त निन्दनीय और प्रशभ व्यापार गहण आदि का परित्याग कर देते हैं वह अत्यन्त उत्तम प्रारम्भ परित्याग नामको अष्टम प्रतिमा कही गयी है। जो वस्त्रों को छोड़कर अन्य सम्पूर्ण पाप कर्म को प्रारम्भ करने वाले परित्याग को त्याग मानसिक वाचनिक और कायिक शुद्धि-पूर्वक किया जाता है उसको परिग्रह परित्याग नामक नवमी प्रतिमा कही गयी है। जो विरक्त जीव इन नवों प्रतिमाओंका पालन किया करता है वह देव पूज्य श्रावक कहलाता है। जो कि गृहकार्य इत्यादि में अपने आहार में धनोपार्जन की मन्त्रणा गुप्ति से अपना मत नहीं प्रगट करते उसकी दसवीं अनुमति त्याग नामकी प्रतिमा है। जो दोष युक्त अन्नाहार को अभक्ष्य बस्तुनौकी तरह त्याग देते हैं और भिक्षाभोजन ही स्वीकार कर लेते हैं वह एकादश उद्दिष्ट त्याग नाम की प्रतिमा कही गयी है। इन उपर्य क्स ग्यारह प्रतिमानों को विविध उपायों द्वारा प्रतिदिन जो सेवन करते हैं वे त्रिलोकी के पूज्य और उस्कृष्ट पाबक कहे गये हैं और श्रावक के प्रतिमा रूप वाले धर्मों का सदेव ध्यान रखते हैं वे स्वयं के उत्तम सोलह सुखों को प्राप्त कर लेते हैं । इस प्रकार महाबीर प्रभ अनुगगी जीवों के हृदय में धावक धर्म के उपदेश के द्वारा महान हर्ष उत्पन्न करके विरक्त मुनियों की प्रसन्नता के लिए मुनि धर्मका उपदेश करने में प्रवृत्त हए।
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जिन शासन को सदा विचार, मिथ्याबत जाने न लगार दर्शन त तपस चल गये तपमी रूम कुर्मी भये पाठजन मुनिके सन्मुख पावे ज्यों प्रसूत पशु मारन धावं कुमत कुग्रन्थ लोप सब करै ज्ञान ध्यान तप नित विस्तरं । जैन शास्त्र परकाश सदा सो प्रभावना अंग हि जदा ॥१६८॥ दरवान गुन ये अष्ट अनूप, महा सवल नाशक परिरूप स्वर्ग मुक्ति को कारन यही बेर गैर भव धारे नहीं ।। १६६ ।।
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सम्यग्ज्ञान निरूपण
पवन आठ ज्ञानके संग, व्यंजनोजित प्रथम उत्तंग चौथो कालाध्ययन जानिये, उपध्यान पंचम मानिये बहुमान त ग्राम जान, ज्ञान अंग ये आठ प्रमान
अपर ग्रन्थ को लोग हि करे, उपगूहन यंग हि विस्तरं ।। १६५ || तिनकी संबोधे पिर लावे, स्थितीकरण रह मंत्र कहावे ॥१६६॥ धर्म जष्टि सीता मन हर्न सो बात्सल्य संग चित गर्ने ।। १६७॥
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दूज अर्थ समग्र वान तीजी शब्दार्धक पहिचान ।।१७० ।। विनय सहित पस्टम गुन रमी, गुरु अनि भनी सातमी ||१७१।। इनके भेद बहुत प्रकार, श्रागममैं वरनों निरघार ॥ १७२ ॥ सम्यक् चारित्र निरूपण
व चारित्र त्रयोदश जब जो पालहि मुनि को पूरण चारित पार
पहि सावद्य । सो कहिये यह देश चरित, कलौ गृहीपद को प्रति नित्त ॥ १७३॥ करनों तप कल्याण मार। यह रत्य न व्यवहार पाले जो आवक गुणधार ।। १७४।।
दोहा
ये पन किरिया विविध पालै श्रावक होइ । षोडश स्वर्ग प्रजंत लौं, कहै इन्द्र पद सोइ ।। १७५ ।।
अथ यति धर्म का वर्णन
चौपाई
तीर्थंकर निरग्रन्थ पद धय, मोख पन्थ साधन को कर्यो । तेहि भांति दियो उपदेश, पुनर उक्ति भय कह्यो न शेष ॥ १७६॥। aa far बाहि ग्रन्थ जो कही, चौदह ग्राभ्यंतर हैं सही। इनमें तिल तुप राखँ कोई, तो भी मुनिपद सिद्धि न होई ॥। १७७ ।। भावलिंग ऐसी विधि ठान, द्रव्यलिंग है अपर बखान || १७८ ।। सो कबहूं न लहैं शिव-सीव, भ्रमं जगत दुख सह अतीव ॥ १७६॥ वैसे मूनि जिनलिंग हि विना गोल न पा भव भटकता ॥ १८०॥ धन्य धन्य जग को दर्द पीठ, धन्य धन्य शिव सम्मुख बीठ || १८१ ।। या साधे मुक्तिपद खेरा, जती धर्म है बहु सुख हेत ।।१८२॥
मुनि बिन हैं नहीं निर्वान अचल सासुतं मुख्य निधान । परिग्रहवंत मुनीपद कहैं, घर तिनके बहु जनपद गर्दै दम भाग उदय नहीं कोय, मांगन न सीरी कवहूं होम धन्य धन्य साधु महान, भोग हमें आतम थिति ज्ञान वनवास वसन्त, ऐसे मुनिमह वन्दन वन्त
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तजी प्राश
अहिंसा यदि पांच महाव्रत मंद पांच समितियां पंचेन्द्रिय-विजय र्थात् विषयोंकी ओर अपनी इन्द्रियों को न जाने देना, केशलोंच, सामायिक इत्यादिपटश्यक कर्म, नग्न, स्नान- परिस्याग, भूमिशयन, दन्त पावन परिवर्तन एक समय भोजन एवं राग हीन सड़ ही बड़े भोजन करना इत्यादि अट्ठाईस मूलगुणका नाम मुनि धर्म है। इन सम्पूर्ण मूल गुणांका सदैव पालन करते रहने चाहिये । प्राण विसर्जनका भी यदि समय उपस्थित हो जाय तो भी इनका परित्याग कदापि नहीं करना चाहिये । क्योंकि इनके द्वारा तीनों लोककी सुख सम्पदाएं प्राप्त हो जाती हैं मुनियों के उत्तम गुणों में परिषहों का जीतना, आतापन, आदि अनेक तप, वहुत उपवास, मौन धारण, इत्यादिकी गणना की गयी है। योगियों को उचित है कि प्रथम उत्तमता पूर्वक निर्दोष होकर मूलगुणों को पालन करें और बाद में उतर गुणों को। योगियों के धर्म के लक्षण दश हैं उत्तम क्षमा माई, सार्जन, सत्य, शौच, यम, तप त्याग, थाकिचन और ब्रह्मचर्य से धर्मों के उत्पत्तिस्थान हैं। भव्यजीवों के लिए उत्तर गुणों ए पूर्ववत दश लक्षण धर्मो के द्वारा मूल गुण से वर्तमान भव में ही मोक्ष को प्रदान करने वाला परमोत्तम धर्म है। इसी के द्वारा सभी मुनीश्वर सिद्धि एवं तीर्थंकर की सुख सम्पत्ति को चिरकाल तक भोगकर अन्त में मोक्ष पदवी को प्राप्त करते हैं। धर्म के समान इस
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दोहा जती धर्म संक्षेपत, भाप्यो इहि प्रस्थान । पूरण भाष्यी जो कथन, तातें बढ़त पुरान ।। १८३।।
अथ षट्काल वर्णन अब रचना षटकाल को, सुनो सयाने लोय । जो भाष्यो प्रभु व्यासत, प्रगट सुनाऊँ सोय ।।१४।।
चौपाई
भरतखंड ऐरावत माहि, छहौं काल बरते जु सदाहि । उत्सपिणी अवसर्पिणी पाय, रहंट घड़ो वत पावे जाय ॥१८५।। भातकाल उत्सपिणी जान, कोड़ाकोड़ि दशाब्धि प्रमान । छठवे ते पहले लग जाय, बड़े रूप तन बल सुख माय ।।१८६।। वर्तमान अवपिणी काल, ताकी भेद सुनौ कछु हाल । सो सागर दश कोड़ाकोड़ि, छहों काल कर मंडित जोडि ॥१७॥
मखमा प्रथम विचार, कोड़ाकोड़ी सागर चार । ताकी प्रादि पल्प त्रय प्राव, तीन कोश तन तग लखाय ||१८||
विदि .१, बबरीमालधरा दिव्य अहार । सो भी लेय तीसरे दिना, मल निहार वजित तसू गिना ||१|| मदा सर्य प्राभूषन जान, दाहन ज्योति दीप ग्रह मान । भोजन भाजन वस्त्र प्रमान, ये दश कल्पवृक्ष परधान ।।१६।। को कल्पना मन में जिसी, भोग संपदा पुरवं तिसी । ते सब सुख्य वरण को कहै, ग्रन्थ बड़े अरु पार न लहै ॥१०१।। उत्तम पात्र दान जो देइ, उत्तम भोगभूमि पद लेट् । विकल त्रय नहि उपजै तहीं, पंचेन्द्रीय असंनी नहीं ॥१
नवग्रह तिरंजच ज सोय, आर्जव भाव सदा अबलोय । तह ते मर सुर लोकहिं जाय, और न दूजी गतिहि लहाय ॥१६३।। मध्यम सुखमा दुतिय प्रवीन, सागर कोड़ाकोड़ी तीन । आदि पल्य द्वय जीबन जाय, देह तुग दो कोश सुभाय ॥१४॥ पर्णचन्द्र किरण जुत जिसी, तन सो है अति निर्मल तिसौ । धात्री फलबत दिव्य प्रहार, तृप्ति हेतु दुजैदिन धार १ मध्यम पात्र दान जे गहैं, मध्य भोगभूमि सो लहैं । पूरब कथित सुख्य तह पाय, फिर सो स्वर्ग लोक को जाय ।।१६६।। ततीय काल लघु सुख्यासुख्य, कोडाकोडि सिवु द्वय तुख्य । आदि पल्य इक प्रायु प्रवान, देह कोश इक उन्नत जान ॥१९॥ एक दिन बीते लेय अहार, तृप्ति जुहेत आम उनहार । तन मुवर्ण सम दोसे सोइ, भोगभूमि यह अन्तिम जोइ ॥१६॥ दश विधि कल्पवृक्ष सुखदाय, पूरबवत सब शोभा थाय । पात्र जघन्यहि देहि जु दान, लहै जघन्य भोग भू थान ||१६|
सो कोई दसरा भव्यजीवों के लिए न भाई है न स्वामी, न हितैषी है न पाप नाशक, सर्वतोभावेन सभीका कल्याण करने वाला यह धर्म हो है । इसके बाद प्रभुने कहा कि इस मार्यावर्त भरत क्षेत्र (भारत वर्ष) में उत्सपिणी एवं अवसपिणी नामक दो प्रकार काल कहे गये हैं। ऐरावत क्षेत्र में भी ऐसी ही व्यवस्था है। उत्सपिणी नामके कालमें रूप, बल ; प्राय देह एवं सूखकी मदेव वद्धि हना करती है शब्द के वास्तविक अर्थ से भी तो यही प्रकट होता है। यह उत्सर्पक काल बढ़ाने वाला है और यह दस कोडाकोडी सागरका होता है । तथा अवसपिणी काल में रूप, वल एवं आयु इत्यादि का नाश होता है इसलिये सम्भवत: इसका पर्याय नाम अवसपिणी रखा गया है। इनके पृथक-पृथक् छ: भेद हैं । अवसर्पिणीका पहला काल सुषमा है, और वह चार कोड़ाकोडी सागरका है । इस कालकी प्रारम्भावस्थामें ही प्रायं पुरुषों का उदय हुआ। वे सूर्य के समान परम तेजस्वी एवं स्वर्णके समान वर्ण वाले होते हैं । इनकी आयु तीन पल्य की एवं शरीर को ऊंचाई तीन कोसकी होती है। जब तीन दिन बीत जाते है तब उनका अलौकिक आहार बदलीफल (बेर) के बराबर हो जाता है । उन्हें नीहार यानी मलमूत्रको बाधा एकदम नहीं होती। उस समय इनकी आवश्यकताओं की पूर्ती दस प्रकारके कल्पवृक्षोंके द्वारा हुमा करती है। मर्याग, तूर्याङ्ग, विभुषांग, मालांग, ज्योतिरांग, दोपांग, गहांग, भोजनांग, वस्त्रांग, एवं भांजनांग ये कल्प वृक्षकी दस जातियां होती हैं। ये सब वृक्ष उत्तम पायदानके प्रभाव एवं फलसे पुण्य-परायण पुरुषोंकी पान्तरिक तथा बाह्य अभिलाषाओंको सदैव पूर्ण करने के लिए कटिबद्ध रहते हैं और सुख-संपदाओं को प्रदान कर पानन्दित रखते हैं। श्रेष्ठ जीवन पुरुष एवं स्त्री के रूपमें युगल' (जोडा) उत्पन्न होकर चिरकाल पर्यन्त सुख भोगों को भोगकर उत्तम परिणाम के प्रभाव से सभी स्वर्ग जन्म ग्रहण करते हैं। इसी कालकी भूमिका नामकी भोग भूमि जो सम्पूर्ण
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दोहा
ततीय काल के अन्त में, रह्यो पल्य बसु भाग । चौदह कुल कर ऊपज कह्यौ नाम बड़भाग ।।२००|| प्रथमहि कुलत अन्तरी, दश दश भाहि होन । पल्य भाग इमिगत भये, अनुक्रम सौं गन लोन ।।२०।।
चौपाई प्रतिशत कुलकर प्रथमहि जान, रानी स्वयं प्रभा गुन खान । ज्योति रंग दुम मंद मह लयौ, चन्द्र सूर्य तब परगट भयो ।२०२।। सन्मति मनुज जसरवी नार, ज्योति रंग तय नाहि धार । दिन निश नखत तारजुत देख, प्रजा बोध कोनो तिनि पेख ॥२०३।। क्षेमंकर हि सुनंदा त्रिया, देखहु सिंह मृगहि बध किया । क्षेमंकर विमला बर लियौ, जष्टि ग्रहन उपदे सीमकर मनोहरी दार, मन्द कल्पतरु करहि निवार । नाम सीमधर धारन तपी, ग्रह उत्पति उपदेश्यौ प्रती ।।२०५॥ विमलबाह त्रिय सुमति विधार, अंकुश प्रायुध गज असघार । चक्षु मान त्रिय धारणि ऐन, तब निज निज सुत देखै नैन ।।२०६।। मनुज यशस्वी अमरा प्रिया, तब प्रसूत जात क्रम किया । मनु अभिचन्द्र थोमती कंत, पिता पुत्र क्रीडा करत ॥२०७।। चन्दाभ हि प्रभावती जन्म, पुत्र विवाह करन उत्पन्न । पुन मरुदेव अनूपम जान, नदी नाव किय गिरि सोपान ॥२०॥ नप प्रसेन अनुजज्ञा जास, अम्रपटल अरु जरा प्रकाश । नाभिराय मरुदेवी जही, नाभि जरायू उपजी सही ।।२०६।। मेघष्टि घन गरज घोर, चमक बिजली अति चहुं ओर । विकलत्रय उतपति तह भई, सकल धान्य उपजन भूवि ठई॥२१॥
अडिल्ल
पल्यहि दशमैं भाग, प्रथम कुलकर थिती । दश लख कोडाकोड़ी, पूरब तिहि मिती ।। दश दश भागहि हीन, अबर क्रम लही। चौदश नाभि नरेन्द्र, पूर्व इक कोड़ ही ॥२११।।
__ दोहा मन शत पच्चीसहि धनुष, नाभिराय जी काय । पच्चीसहि सौं वृद्धि क्रम, तीजै लौ गन भाय ॥२१२।। दृर्ज कुलकर काय तह, चाप तेरस जान । प्रतिश्रुत प्रथम उतंग तन, धनु अठारस ठान ॥२१३।।
सखोंको देने वाली कही गयी है। वहां पर क्रुर स्वभाव वाले पंचद्री तथा दो इन्द्रियादि विकलत्रय नहीं होते । इसके सुखमा नाम
दसरे काल का पाराभ होता है। उसकी प्रायु तीन कोडाकोडी सागर को है। इस समय में मध्यम भोग भूमि की रचना होती है। और मनुष्यों को प्राय दो पल्यकी होती है । उनका शरीर दो कोस ऊना होता है एवं आकृति तथा वर्ण पूर्णचन्द्र के समान अाकर्षक होता है। ये लोग दो दिन के अन्तर से बहेड़े के फल के बराबर आत्म तृप्ति के लिये अनुपम आहार ग्रहण करते हैं इनकी सख सामग्री भी भोग-भूमि ऋलोके ही समान रहती है।
इन दोनों के याद नोरारे सुखमा नाम के समय का आरम्भ होता है। इसका प्रमाण दो कोड़ाकोड़ी सागर का है। इसमें जघन्य भोग भूमिकी रचना होनी है। मनुष्यका प्रायुप्य-काल एक पल्य, शरीरको ऊंचाई एककोस एवं प्राभा प्रियंगु वृक्षके सभान होती है। इन लोगोंका अहारकाल एक दिन के बाद है पीर प्रविले के बराबर माहार मात्रा का परिमाण है। इन्हें भी कल्ल वक्षासही विविध राख-सामग्रियां प्राप्त हुमा करती है। इसके अनन्तर दुःखम सुखमा काल प्रवृत्त होता है और कर्म भूमि प्रारम्भ होती है । इसमें शवाका अर्थात् पदवी धारण करने वाले पुरुषों को उत्पत्ति होती है । इसका प्रमाण व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का है। मनुष्यों का आयु प्रमाण एक करोड़ वर्ष पूर्व है। शरीर की ऊंचाई पांच सौ धनुप की है । तथा देहबणं पांच प्रकारका होता है। ये दिन में एक वार श्रेष्ठ भोजन को ग्रहण करते हैं तिरेसठ शलाका पृरुप ऐसे ही समयमें उत्पन्न होते हैं।
बैलोक्याधिपति एवं इन्द्र इत्यादि जिन चौबीस तीर्थकरों का नत मस्तक होकर नमस्कार किया करते हैं उनके नाम
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चौपाई
चतुरथ काल सुनो अव भेव, दुखमा सुखमा नाम कहेन । सागर कोडाकोड़ो एक, सहस बियालिस घटत सु लेक ||२१४|| प्रादि पूर्व इक कोड़ि जु प्राय, धनुप पंचसं उत्तम काय । पच वरण नर तन धुति गहै, नित्य अहार वार इक लहै ।।२१शा करमभूमि प्रगटी इहि थान, त्रिषट शलाका पुरुष महान । उपजै कमसौं प्रारज थान, प्रादि अन्तलों काल प्रमान ।।२१६|| चतुरवीस श्री जिनवर नाम, चक्रवर्ति द्वादश अभिराम । नव वल नव हरि नव प्रतिहरी, इनकी भेद सौं कछु धरी ॥२१७॥ चौदम कुलकर नाभि नरेन्द्र, मरुदेव श्रिय आनन्द कन्द । तिनके ऋषभदेव जिन ठये, जुगलधर्म निरवारत भये ॥२१॥
अडिल्ल
चौरासी लख पूर्व ऋषभ जिन आव है। ताकी गिनती लिखौ वरष ठहराव है ।। उनसठ लख सतबीस सहस चालीस है। इतने कोड़ाकोड़ी अंक इकईस है ॥२१॥
चौपाई कलप वृक्ष सब गये पलाई, जग प्राचम्भ भयो दुखदाई। क्षुधा तपा कर पीड़ी प्रजा, ग्राये प्रभु समोप कर रजा ॥२२॥ कर्मभमि को भेद बताय, सबको संबोधे जिनराय । असि मसि कृषि विद्या बहु वेष, वानिज पशुपालन उपदेशका जोलों कृषि उपज अब मही, इक्षु प्रहार लेउ सब सही। तब सि जाय इक्षुरस लयो, क्षुधा दुःख तिमको मिट गयो ।।२२२।। जय जय शब्द कियो तिन प्राय, प्रभु इक्ष्वाक वंश सुखदाय। तह पुन तीन बरन को थाप, शूद्र वैश्य क्षत्रिय प्रभु पाप ॥२२३।। क्षत्रिय वंश चार थपि साथ, निज इक्ष्वाकु सोम हरिनाथ | कुल बिबाहकी सीखजु दई, धर्म श्रिया सब ही विधि ठई ॥२२४॥ प्रभ पांचो कल्याणक साध, गये भोख अय जग पाराध । जिनके तनुग भरत चक्रेश, छही खण्ड के अधिप महेश
दोहा हूंठ मासकर हीन हैं. रही बरष तब चार । आदिनाथ जिन शिव' गये, तीज काल मंझार ॥२२६।।
निम्न लिखित हैं-ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपाव, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयान्श, वासपज्य. विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अरह, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पाश्र्वनाथ एवं श्री बर्द्धमान महावीर । ये धर्मके प्रवर्तक हैं और संसारके स्वामी हैं । बारह चक्रवर्ती है जिनके नाम निम्न लिखित हैं-भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थ नाय. अरमाथ, सुभम, महापद्म, हरिषेन, जयकुमार एवं ब्रह्मदत्त । नी बलभद्र हैं जिनके नाम ये हैं-विजय, अचल, धर्म, सप्रभ. मदर्शन, नान्दी, नन्दिमित्र, पम (रामचन्द्र) (राम) पार बलदेव । नौ नारायण हैं जिनके नाम ये है-त्रिपुष्ट, द्विपष्ट, स्वयम्भ समोसम, पुरुष सिंह, पूण्डरोक, दत्त, लक्ष्मण एवं श्री कृष्ण। ये सबके सब तोनों खण्डोंके स्वामी, धौरबार एवं स्वभावत: रौद्र परिणामी होते हैं। इन उपयूक्त नी नारायण के अश्वग्रीब, तारक, मेरक, निशुम्भ, कोटमारि, मधुसदन, वलि हन्ता, रावण और जरासन्ध ये नौ प्रति नारायण हैं। ये भी सज नारायणके ही समान सम्पत्तिशाली एवं मर्धचक्रो होकर नारायणके शत्र होते हैं। इन्हींको तिरसठ शलाका पुरुष कहा गया है । इन पूजनीय महात्मायोंको मनुष्य, देव एवं विद्याधर प्रभृति सभी वन्दना किया करते हैं । थी जिनेश महावीर प्रभुने इनके जन्म वृत्तान्तोंसे परिपूर्ण वृथक् पृथक् पुराण में सबको मोक्ष प्राप्ति के निमित्त विस्तार पूर्वक कहा । उन पुराणों में इनको सम्पत्ति, आयु, वल, वैभव एवं सुख का विस्तृत वर्णन है । गणधर देव तथा अन्यान्य उपस्थित भव्य जीव समूह के सामने श्रीमहाबीर प्रभने इन सब बातों को कहा।
इसके याद पांचवें दुःखमकालका वर्णन उन्होंने प्रारम्भ किया दुःखमकाल नानाविध दुःखोंसे प्रोत-प्रोत है। इसका प्रमाण इक्कीस हजार वर्षका है। इस काल के प्रारम्भ में एक सौ बीस वर्ष की आयु वाले तथा ७ हाथ लम्बाईमें ऊचे शरीरको धारण करने बाले मनुष्य उत्पन्न होते हैं। इनकी बुद्धि मन्द होती है, शरीर रुखा होता है, सुखसे होन होते हैं, बहुत बार भोजन करने
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चौपाई
जो कोई यह बिकलप कहै, तीजै काल मोख किम लहै। हुंडासपिणी दोष अतीव, प्रेशर पद अठावन जीव ॥२२७।। प्रथम प्रादि जिन तीज काल, पहुंचे मोख पंथ यह हाल । शांति कुन्थु पर नाथ भनेह, तीर्थकर चक्रीपद येह ॥२२॥ प्रथम विपष्ट नरायन भये, वर्धमान अन्तिम जिन ठये । भरतचक्र थापो द्विज वरण, ते अनेक पाप हि उद्धरण ।।२२६॥ अरु पांचौं मिथ्यात्व जु भये, मानभंग पुन चक्री लये। तीर्थकर उपज्यौ उपसर्ग, भयो मूर्ति मिथ्याति हि वर्ग ।।२३०।। गरु प्रति कहै शिष्य फिर तब, हुंडासपिणि उपजे कयं । सपिणी पौ उत्सपिणी काल, जाय जबै सो पर अड़ताल ॥२३१।। डण्डा सपिणि जब ही होइ, ऐते दोष प्रगट कहि सोइ । तितन हुंड बीत जब जाय, विरह काल तब उपज प्राय ॥२३२॥
दोहा
पट महिना परजंत ली, मोख पन्थ नहि लाय । पाठ समय बाको रहैं, जिनमें ते दिशच जायला अब जिन जननी तातके, लिखौं नाम समुदाय । जनम पुरी को बरनऊ, त्रय कल्यानक थाय ।।२३४।।
तीर्थकरों के माता पिता तथा जन्मनगरी के नाम
चौपाई
नाभिराय प्रथमहि जिन तात, मरुदेवी माता विख्यात । नगर अजुन्या बनदहि रची. नव बारह जोजन कर खची ।।२३।। जितशत्रहिं दर्ज जिन पिता, विजयादेवा माता जुतः । अबधिपुर) अति वनी मनोग, रची कुबेर जन्म संयोग ॥२३६।। नप जितारि तीज प्रभु तात, रोनादेवी कहिये मात । सावित्री नगरी अति भली, नय कल्याणक यामा रली ॥२३॥ संवर नाम राय गुनधाम, चतुरथ जिनके पिता विराम । सिद्धारथ देवी है माय, नगर अजुध्या जन्म लहाय ।।२३८।। मघप्रभ जिन पंचम तात, सती मंगलादेव। मात । नगरी जनम अवधि पुर सोइ, देवन रचो महामद खाइ ।।२३६।। धारन नाम पिता को जान, देवि सुसीमा मात बखान । कौशांबी पुर नगरी सोइ, छट्टम जिनवर जन्म सु होइ ॥२४०॥ मप्रतिष्ठ नामा नप तात, पृथियो देवो जानो मात । नगर बनारस जन्म जु भयो, सातम जिनपद सुरपति नयौ ।।२४१॥ महासेन ग्राम जिन पिता, नाम सुलक्ष्मीदेवी जता । सो प्रभ की इमि जानौ मात, चंद्रपूरो में जन्म विख्यात ॥२४॥
वाले होते हैं और कुटिल परिणाम वाले होते हैं। इनका शरीर, आयु बुद्धि एवं वल इत्यादि दिनों दिन न्यून होता चला जाता है। तब दःखमा २ नागका काल प्रारम्भ होता है इसका प्रमाण भी इनकीरा हजार वर्षका ही है। यह धर्म इत्यादिये हीन अत्यन्त घोर दखॉकी देने वाला है। उस समय मनुग्य केवल दो हाथ ऊंचे और बोस वर्षको अवस्था वाले होते हैं। उनका वर्ण धुंए के समान काला एव देखने में महाकुरूप होता है प्रायः नग्नावस्था में ही ये रहते हैं पोर इच्छानुसार भोजन किया करते हैं जब इस दःखमा-दःखमा का अन्तिम काल आ जाता है नव इन मनुप्योको उचाई एक हाथ की रह जाता है और पशुओंके समान वृत्ति वाले होकर इधर-उधर फिरा करते हैं । इनकी यायु अधिक से अधिक १६ वर्षकी होती है। ये सब अत्यन्त निंदनीय होते हैं और वरी जातिको प्राप्त करते हैं। जिस तरह कि अवपिणो काल क्रमश: धोरे धोरे होन होता जाता है, उसी तरह दूसरा उत्सपिणी काल उत्तरोत्तर बढ़ने वाला है । इतना कह चुकाने के बाद थी जिनेन्द्र महावीर प्रभु ने लोक का वर्णन करना प्रारम्भ किया।
इस लोकका अधस्तल (निचला भाग) बैतके आसन मोढ़े के समान हैं बीच में झालरसा लगा हना है, और कारी भाग में मृदङ्गके आकारका बना हुआ है । इसी में जीव इत्यादि छ: द्रव्य भरे पड़े हुए है । इसके साथ ही प्रभु ने द्वीप इत्यादिका विशेष आकार तथा स्वर्ग और नरकका भी वर्णन कर चकने के बाद कहा कि सोनों लोकमें जो भी कुछ भूत, भविष्यत पोर वर्तमान काल में होने वाले शुभ अशुभ पदार्थ हैं । तथा इनसे पृथक जो पालोकाकाश है वे सभी केवल ज्ञान के ही द्वारा वास्तविक रूपमें जाने जा सकते हैं। जिनेन्द्र महावीर प्रभु ने भव्य जीवों की भलाई के लिये तथा धर्म और नीर्थ को प्रवति के लिये द्वादशांग
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नृप सुग्रीव नवम जिन तात, रामादेवी तिनकी मात । काकंदी नगरी अवलोइ, धनद रची प्रभु आगम जोइ ॥२४३।। दृढ़रथ राज पिता अभिराम, मात सुनन्दा देवी नाम । भागलपुरी दशम अवतार, नव बारह जोजन विस्तार ।।२४४॥ विष्णकुमार जु कहिये तात, विमलादेवीजिनकी मात । सिंहपुरी एकादश थान, रची कुबेर हर्ष उर प्रान ।।२४५|| नप वसूदेव ज़ पिता बखान, मात जयावति देवी जान । वारम जिन चंपापुर ठये, तिनके पंचकल्याणक भये ।।२४६।। कृतिधर्म नप तात बखाम, श्यामा माता ताकौ जान । तह कंपिला नगरी अवदात, तेरम जिनवर जन्म विख्यात ॥२४७॥ सिंहोन राजा प्रभु तात, सूर्यादेवी कहिपे मात । चौदम जिनपति सुरपति नयौ, नगर अजुध्या जन्म जु भयौ ॥२४॥ भानु नाम राजा जिन तात, सुव्रतादेवी तिनकी मात । रत्नपुरी है जन्मस्थान, पन्द्रम जिनवर को पहिचान ।।२४६।। विश्वमेन नप पिता महान, ऐरादेवी जननी जान । हस्ति-नागपुर जन्म घरेव, पोडश जिनवर इन्द्रहि सेव ॥२५॥ सूर्य नाम नृप पिता जु कहे, सिरीमती माता गुन लहै । हस्तिनापुर जन्म मु लयो, सत्रम जिन सुरनर मुनि नयौ ।।२५१|| राज सुदर्शन तात प्रमान, देवी सुमित्रा माता जान | हस्तिनागपुर कहिये सोय. पाठारम जिनवर अबलोय ||२५२।। पिता कभनप जगविख्यात, प्रभावती है तिनकी मात । मिथिलापुरी जनम भगवान, एकबीस में जिनबर जान ।।२५३।। समद्र विजय नप कहिये तात, शिवदेवी माता विख्यात । द्वारावती धनद ही रची, द्वाविंशति जिन जन्मन सची ।।२५४|| अश्वसेन नृप तात बखान, बामादेवी माता जान । पुरी बनारस है अक्दात, तेबीसम [जनवर विख्यात ॥२५॥ सिद्धारथ नप पिता जु भये, त्रिशलादेवी के उर ठये । कुण्डपुर नगरी अवतार, चौबीसम अन्तिम जिन सार ॥२५६।।
चौबीस तीर्थकरों के चिन्ह, मान, शरीर की उंचाई, वर्ग, मोक्षरधान तमा तरकाल का वर्णन
दोहा
अथ चौबीस जिनेशके, कहौं किमपि गुण गाय । लक्षण प्रायु उत्तंग युति, जिन अंतर समुदाय ।।२५७।।
पड़ि छन्द वा लक्षण बषभ जिनेश भाय, पूरब चौरासी लाख आव । सत पंच धनुष तन तुंग पोख, द्युति हेमवरन कलाश मोख ॥२५॥ अन्तर लख कोड़ पचास सिंध, जिन अजित भये लक्षण गयंद । लज पूर्व बहत्तर अायु धर्ण, शत ढींच धनुष तन हम वर्ण ॥२१ गत तीस लक्ष सायर हि कोड़, संभव जिन लक्षण तुरिय जोड़ 1 थिति साठ लाख पूरब गनेह, सत चार धनुष धुति हेम देह ॥२६॥
और काल लाने इस प्रकानन्दनीय
वाणीके द्वारा सबका वर्णन किया। जिस प्रकारकी चन्द्रमाको सुधारावी कहते हैं और उससे बरावर अमत च्या करता है उसी प्रकार जिनेन्द्र महावीर प्रभुके मुख चन्द्रसे निकलने वाले ज्ञानोपदेश रूपी अमृतको कानों के द्वारा पीकर (सुनकर) श्री गौत बीमीने मिथ्यात रूपी भयानक विपको उगल दिया और काल लब्धि (उत्तम भवितव्यता) वश सम्यकदर्शनसे युक्त होकर संसार गरीर और भोग इत्यादिसे विरक्त हो गये और अपने मन में उन्होंने इस प्रकार विचार करना प्रारम्भ किया। उन्होंने का है। मर्खतावश चिरकाल पर्यन्त सम्पूर्ण पाप कार्योको उत्पन्न करने वाले प्रत्यन्त निन्दनीय और प्रशभ मिथ्या-मार्गको किया। जिस प्रकार भ्रममें पड़कर कोई मनुप्य विषधारी सर्पको माला समझकर गले में धारण करने के लिये जाने प्रकार मैं भी भ्रममें ही पड़ गया धर्मके धोखे में मिथ्यात्वरूपी महा पापोंको ग्रहण कर लिया । धुतंकि द्वारा बनाये गये मिथ्यात्व मार्ग में फंसकर महामुर्ख लोग महाभयंकर पोर घोर नरक में दुःसह यन्त्रणामोंको भोगने के लिये जोरोंसे गिराये जाते
और वहां पर इनकी भीषण दुर्गति होती है। मदिराको पीकर जो एकदम मन्दोन्मत्त हो गया है वहां मल मालिका ध्यान रख सकता है? जो सम्यक दसनसे हीन हैं वे मतवालोंकी तरह ही अशुभ मागमे जा गिरते हैं। प्रधान चलता है तो वह कुएं में गिरने से कैसे बच सकता है? मिथ्यात्वसे जिनकी आँख अन्धी हो गयी है बेनरक रूपमा ही गिर पडते हैं यह मिथ्यात्व मार्ग अत्यन्त हेय है। यह दुष्टों को नरक में पहुचा देने का साथी है और इसका आदर भी जहमति
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दश लक्ष कोडि सायर गतीस, जिन अभिनन्दन लक्षण कपीस । पच्चास लाख पूरब सु आब, धनुशन साढ़े वय हेम भाव ।।२६१।। नव लाख कोड़ि सायर बितीत, जन सुमति चिन्ह चकदा पुनीत । जीवत पूरब चालीस लाख, सत तोन धनुष तन हेम भाख ॥२६२ नब्ब हजार सायर हि कोड़ि, जिन पन पद्मदल चिन्ह जोडि । तिनि तीस लारत्र पूरब सुपाव, अढ़ाई शत धनु तन मरुन भाव।२६३ नक सहस कोड़ि सायर गनेह, स्वस्तिक सुपरस लक्षण भनेह । लख बीस पूर्व जीवित प्रमान, शत धनुष दोय तन हरित जान ।२६४ नव शय जु कोडि सायर गमाय, चन्द्रप्रभ लक्षण चन्द्र पाय । दश लास पूर्व सत्र आयु तास, शत हेढ़ धनुष वपु श्वेत भास १२६५ गय नव कोड़ि सागर प्रजंत, सो मगर चिन्ह जिम पहुप दंत । प्रभु प्रायु लाख द्रय पूर्व जान, सो धनुष तंग तन श्वेत मान ।।२६६।। नवकोडि सिंधु कालहि गमाय, शीतल थी तरुवर चिह्नमाय । सिनि एक लाख पूरब जु अायु, अरु नवं धनुष तन हेम ठायु ॥२६७। तह एक कोडि सायर गतेह, सौ मायर ताम होन नेह । घट छयासठ लाख जु वरप और छब्बीस सहरा पुन करह ठोर ।। तब उपजे श्री श्रेयांसनाथ, लक्षण गेंडा द्युति हेम साथ । जीवत चौरासी लाख वर्ष, धनु असो तुग काया जु पर्ष ।।२६६।। गत चौंबन सागर जहि जिन्ह, श्रीवासुपूज्य महिषा जु चिन्ह । जिन सत्तर लाग्न जुयायु होग, गत्तर धनु बपु युति अरुण जोय ।। सायर हि तीस गत जवहि होद, जिन विमल बराह जु चिन्ह सोइ । है माठ लाख जीवन सु प्राय, धनु साट हेम ति धरिय काय ।। नव सागर का युग माइ जिएन, उपजे अनन्त सेही जु चिह्न । है तीस लाख की वायु तंह, पंचास धनुष चुति है सदेह ॥२७२।। सागर जो चौ गत वर्ष होय, जिन धर्म वज्र लक्षण हि सोय । दश लाख मायु दुति हैम रंग, पंतालिस धनु काया उतंग ॥२७३|| त्रय सागर हीन पल्य पौन, जिन शांतिनाथ मृगचिह्नहौन । है एक लाख तनु प्रायुजान, चाल स धनुष तन हेमवान ।।२७४॥ गत आध पल्य जब वरष जोय, जिन फुन्थ, चिह्न छेरौ बताय । पंचानब सहसहि तिथि गनेह, पंतोस धनुष जुलि हैम देह ।। है पाव पल्य गत जोडि, तामें घट एक सहस्र कोहि । पर मीन चिह्न धनु तीस काय, द्युति हेम सहस चौरासियाय ॥२७६। इक सहस कोडि घत वरष सीइ, जिन मिल्ल कलश लांछन सु होय । पचमन सहस्र तिस आयु ठान, पच्चीस धनुष वपु हेमवान ।। जब चौवन लाख जु बरष जांय, मुनिसुव्रत कच्छप चिह्न पाय । तह तीन सहस थिति लही जास, धनु वीस काय द्युतिश्याम भास॥ छह लाख वरष जब काल जाइ, नमिनाथ कमल लक्षण सुधार । दश सहस प्रायु जिनकी बखान, धनु पंद्रह काय जु हेमावान ।। तहं पांच लाख बर वितीत, जिन मैमि शख लक्षण पुनीत । थिनि एक सहस की लही तैह, दश धनुषकाय द्युति श्याम लह॥ गत सहस तिरासी साढ़ सात, जिन पारस-चिह्न फनेन्द्र जात । इकशत वर जीवित सुथान, नव हाथ काय द्युति हरित जान॥ ढाई सय जह जव बरष जाय. जिनवीर सुलक्षण सिंह थाय । थिलि-वरष बहत्तर हेमवर्ण, वपु सात हाथ जग दुरित हर्ष ।
दोहा
भये चतुर्दश इक्षु कुल. चदु कुल वंश मझार । पुनि हरिवंशी चार जिन. है दोइ उग्र अवधार ।।२८३॥ वासुपूज्य चम्पामगर, नेमि मोक्ष गिरि शीस । पाबापुर श्री वीर जिन, शिखर समेद हि वीस ।।२८४।।
जीव किया करते हैं । इस मिथ्यात्व को सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्र इत्यादि धार्मिक राजाओं का उग्र शत्रु समझना चाहिये । इसे जीव भक्षक महाविषधारी और विशाल अजगर सांपसे कदापि कम नहीं समझना चाहिए। यह सम्पूर्ण पापोंका उत्पत्ति स्थान खानि है। जिस प्रकार कि गौयोंके सींगसे दूध का मिलना, पानी के मथने से घी का निकलना दुर्व्यसनों से प्रशंसा प्राप्त करना, कृपपातासे प्रसिद्ध होना और नीच कर्म से धनोपार्जन करना असम्भव है उसी प्रकार मिथ्यात्वके द्वारा अज्ञानी पुरुषों की शुभ वस्त'. श्रेष्ठ सुख और उत्तम गति कदापि नहीं मिल सकती। धर्महीन मिथ्यादष्टि जोव मिथ्यात्व आचरण के कारण भयंकर दुःख और दर्गति रूप नरक में ही पड़ते हैं। इसलिए है प्राणियों, स्वर्ग और मोक्षकी सिद्धि प्राप्त करने के लिये चतुर बुद्धिमानों को उचित है कि, अपने मिथ्यात्व रूपी महा-शत्रुओंको सम्यक् दर्शन रूपी तीक्ष्ण तलवारसे काटकर शीघ्र ही नष्ट कर डाले।
आज मेरा जन्म सफल हो गया और अब मैं धन्य हूँ ! अत्यन्त अधिक पुण्योंके उदयसे ही हमें जगद्गुरु थी जिनेन्द्र देव के समान महाज्ञानी गुरु प्राप्त हुना। इनके अनुपम उपदेशमें जो कहा गया है वही सत्य, सरल और श्रेष्ठ मोक्षका मार्ग है।
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aasों का परिचय
पूजे
सर चकति जान वर्तमान पूर्व भगवान || २६५|| कुमार कहे विनि पोहे ॥१२८६॥
प्रथम भरत चकों को नाम प्रथमहि जिन वारे अभिराम मना तृतिय हुए, धर्मनाथ जिन शिव जब गये शांतिनाथ जिन को आय, सो पंचम पद भविजन जाय तिनही कछु काल रामाद, भ्रष्टम कि सुमोम कहाई मुनिसुतक काल व्यतीत दशम कि हरिण
।
पष्ठम कुन्थुनाथ चक्रेश, अरहनाथ सप्तम अवनेश ॥ २८७॥ मल्लिनाथ शिव गम बहुकाल, महापद्म नमचक्र विधान ॥२ जिव नृप ॥ २८६॥ ठये
1
पास जिनेश्वर के व्रत मान, ब्रह्मदत्त द्वादशम बखान । अब बल हरि प्रतिहरिके नाम, नारद जुन बरणों अभिराम ॥ २६०॥
अथ बलभद्र नारायण और प्रतिनारायणां और नारदों का परिचय
श्री येयांसनाथ व्रतमान प्रथम विजय बलदेव बखान हरि त्रिपृष्ठ तिन भाजु तिन सम्बन्धी नारद श्रीम. सुनित तर्ज प्रत सीम वासुपूज्य जिनवर के समं, हरिद्विपृष्ठ तारक प्रतिहरि, महाभीम नारद पद घरी । विमल जिनेश्वर बारे जोइ,
प्रतिहरि तह होइ ॥ २९१॥ पर अचल दुतिय जगनमे ||२२|| धर्मवली तोजो पद सोइ ||२३|| पुन अनंत जिन बारे भये सुत्र बलि चोये वरनये ॥२९४॥ ठर धर्मनाथ वारेन और ॥ २६५ महारुद्र है नारद निशुम्भ प्रतिहरो षष्ठम आनंद बल
,
हरिजु स्वयंभू गुणहि समुद्र, मेरक प्रतिहरि नारद । पुरुषोत्तम हरि तिनके भ्रात मधु-कैटभ प्रतिहरि भणदात नाम सुदर्शन पंचमी पुरुषसिंह नारायण मिली। अरहनाथ बहु कालहि गये, अरु सुभौम चक्रीके भये । पुन प्रतिहार प्रहलाद जु मये, महाकाल नारद वह ये
1
सुजान फाल नाम नारद पहिचान ॥२६॥ उपजे पुण्डरीक नारायण तेह ॥ २६७॥ मल्लिनाथ जिन किंचित काल, नन्दमित्र सप्तम यति हाल ।।२१६|| श्रीदत्त ही विख्यात बलि प्रतिहरि को कीनों घात । दुर्म ुख नारद नाम कहाय, अधिक प्रपंची ऋषिपद थाय ॥ २६६॥ गुनिसुव्रतन विपद गये, पुनि हरिषेण चक्रवति भये तिनही कछु काल गमाद, अष्टम रामचन्द्र यत भाइ ॥ ३००॥ लक्ष्मण नारायण पद जान, प्रतिहरि रावण प्रगट बखान । नरमुख नारद नाम कहाय, विद्याबल बहु करें उपाय ।। ३०१ ॥ नेमीनाथ जिन वारं भये, हलधर पद्य नवम वरनये । कृष्ण नारायण जग परधान, जरासंघ प्रतिहरि उन्नत मुख नारद तिहि थान, ग्रव एकादश रुद्र बखान । भोम प्रथम शंकर जानिए, प्रथमहं जिन बारे ११ों का परिचय
पहिचान ॥ ३०२ ॥ मानिये ॥ ३०३ ॥
2
उतपतो ॥ ३०४ || समुद्र ।।३०४॥
I
बल दुजे रुद्रहि को नाम, अजितनाथ बारे बलिराम । जित शत्रु हि तोजे पशुपतो, पुरुपदंत बारं विश्वानन चीयो शिव जान, शीतल जिन समय पहिचान व धर्म सुप्रतिष्ठ कु रुद्र, पंचम है पाप वासुपूज्य जिन वारं यं अचलरुद्र ष्ठम वर नये । विमलनाथ के समय कहूँ, तुण्डरीक शिव सप्तम लहे ॥ ३०६ ॥ नाहि, रुद्र पंक्ति पर अष्टम ताहि शान्तिनाथ जिन समं सुजान, पियोत्तम शिवम बखान
"
धर्म जिने के व्रतमान जितनामि हि शंकर पहिचान ।। ३०७ || पुनः सात्यकि स्थान सु नाम, एकादशम वार जिन ठाम ॥ ३०८ ॥
इसीसे सम्पूर्ण सुखों की प्राप्ति हो सकती है। मेरे हृदय में जो दर्शनमोह यानी मिथ्यात रूपी निबिड़तम अन्धकार व्याप्त था वह प्रभुके उपदेशरूपी तेजस्वी किरणोंसे शीघ्र ही नष्ट हो गया और अब वहां एकदम प्रकाश सा जान पड़ रहा है। ऐसा सोचकर वह विवि गीतम धर्म एवं धर्मके उत्तमोत्तम फलोंकी सोचने लगा। वह आनन्दके कारण उछलने लगा। उसने विरक्त होकर किया कि मोह इत्यादि शत्रु संख्य साथ नया रूपी महासत्र को सन्ततिका मूलीच्छेद करनेके लिए हमें जिनदीक्षा ग्रहण कर लेनी चाहिये इससे मोक्षकी प्राप्ति होगी बोर पाया मिलेगा। इसके बाद बाहर के दस और भीतर के चौदह परिग्रहों का परित्याग कर उन्होंने मन वचन और काम शुद्धिकर ने अन्य दोनों भाइयोंके साथ श्रद्धा-भक्ति पूर्वक
५.३७
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1
चोवीस कामदेवों का परिचय
अब चोवीस मदन द्युति धाम, आगम उक्त कहीं जिन नाम बाहूबल प्रथमहि जिन पुत्त, दूर्जे श्रमिततेज गुन जुत्त ॥ ३०६ ॥ श्रीधर उपजे तीजे काम, बरु दशभद्र चतुर्थ ठाम प्रसेनचन्द्र पंचम वन मूल, चन्द्रवरण छट्ठे सम सूख ॥३१०॥ कनकप्रभ दशमैं जग भये ॥ ३११॥ अग्निमुक्त सातम गुणधार, ग्राम कहिये सनत्कुमार। वत्सराज नवमैं वरनये, मेघवर्ण एकादश मेश, द्वादश में श्री शान्ति जिनेश । कुन्थुनाथ तेरम पद जान, अर जिन चौदह में परवान ||३१२॥ विजयराज पन्द्रम अवतार श्रीचन्द्र षोडश में धार नलराजा सत्रम गुणखान अद्यारम हनुमन्त सुजान ॥ ३१३१ | राजा उनवीसम हये वसुदेव वीसम स्मर भये इकवीस में दम सु होइ, नागकुमार बाइसम सोइ ॥ ३४॥ aaten घोपालकुमार जम्बूस्वामि अंतपद धार एक सय कामदेव धरनये, देव भये केई विच गये ।।३१५॥ तेवीसम
·
दोहा
ये सब पदवीधर पुरुष चतुरथ काल मने। नरपति खगपति सुर असुर, चरन नमित परवेद ।। ३१६॥ पृथक पृथक तिन गुमके, भावे सकल पुरान श्री जिन गौतम पति कहीं भूत भविष्यत मान ।।२१७।।
चौपाई
।
इहजार पर परवान जिनवर धर्म जहां लग जान ||३१८|| सात हाथ उत्तंग जु देह, रूखो प्रतिमुख वर्जित तेह ||३१|| कलकी यह उपकलकी लहे, पंचर्स वर बीच बुध यहै ।। ३२० ।।
अब घुमा पंचम काल, दुख पूरित नर देखी हाल ताके आदि मनुषकी प्राव, विंशोत्तर इकसय वरपाव मन्दमती कुटिला सोइ दिन प्रति बहु दुख भोजन होइ होंहि कुलिंगी मेप अनेक, अरु पाखड प्रगट कर टेक है सूर्य मिथ्यात्व अपार सोई कुगति पंच पग धार ।।३२१॥ विरलै भवि श्रावक व्रत धार, आर्जव परिणामी सुविचार जाय विदेह केवली होय, के सुरलोक लहैं सुख सोय ।। ३२२ ॥ दुषमादुपमा छट्ठम काल, सो इकवीस सहस दुख जाल । धर्म विवजित द्वे कर देह धूम्रवरण द्युति है विन गेह ।। ३२३ ॥
3
जीवन बीस बरसको आदि, नगन सदा बस्तर वे वादि । स्वेच्छ प्रहार पत्र फल खाइ, गिरिकंदर पशुवत जुरहाई || ३२४|| काल मन्त्र इक हाथ शरीर षोडसदर धावत वीर मरकै दुर्गति सर्व लहाहि मत जिन किया न जाने काहि ॥ ३२५॥ ठाकुर दास न कोई होइ, श्रगिन प्रजालन भेद न सोइ । माता त्रिया बहिन सब खेद ज्ञान बिना जानें नहि भेद || ३२६ ॥ काल अंत सुरपति मन जान, प्रलय होय अव आरज धान । प्राज्ञा दई नियोगो देव, कछु जीवन की रक्षा लेव ॥ ३२७॥ सोहत ये न कीनी वेर, इक इक जाति जीव सब ठेर । जुगल बहत्तर लेलं जोइ राखें निकट विज्यारथ सोइ ||३२८॥ पृथिवी अग्नि पवन जल जोर, इत्यादिक वर घनघोर । लवणसमुद्र प्रजाद हि छोर, प्रगटो बहु जल श्रारज योर ।। ३२६ ॥ दिन उनचास भयो उत्पात, सारज खंड सकल जिय पात सो जल निधी उदधि समाय चित्राभूमि रही टहरा ||३३०|| 'फेर शरकरा स्वाद समान, वरष मृतिका तिहि प्रस्थान | इहि विधि सर्पिणि काल प्रमान सो संक्षेपहि कही वखान ||३३१॥
T
जिनेन्द्रको दिगम्बर (नग्न) मुद्रा धारण कर ली यादवांनी शिष्योंको उन्होंने तत्व स्वरूपका उपदेश दिया जिसे सुनकर बहुतों के हृदयका अन्धकार दूर हो गया और पूर्वक्ति दोनों प्रकारके परिग्रहों का परित्याग कर मुनि चरित्रको ग्रहण कर लिया । साथ ही वहां पर उपस्थित राज कन्याएं और धन्य सुशील विषयां भी उपदेशको सुनकर प्रभावित हुई और अभीष्ट सिद्धिके लिये प्रसन्नता पूर्वक उसी समय अर्जिकाएं हो गयी। कितने ही शुभ परिणामी नर-नारियोंने श्री जिनेन्द्रदेव के उपदेश के अनुसार श्रावक के व्रतोंको ग्रहण कर लिया। सिंह सांप इत्यादि हिंसक पशुओंोंने भी उस श्रमृत उपदेश के प्रभाव से अपने-अपने हिंसक स्वभावको छोड़कर थावकों के व्रतोंको स्वीकार कर लिया। चारों जातिके देव धौर देवियां तथा मनुष्य एवं पशुमने प्रभुके वचनामृतको
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५.३८
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फेर प्रजुध्या नगर बनाय, सो सुर उन जीवन तह ल्याय । मृतिका हार करें तन पोष, रहैं जु सुख सौं धर संतोष ॥३३२॥ उत्सपिणि फिर उपज प्राय, वद्धि रूप क्रम क्रम चढ़ि जाय । जिहि प्रकार षट कालहि जान, तिहि समान बढ़ती उन्मान ।।३३३।।
दोहा इहि विधि जिन मुख कमल बच, ज्ञाम पियूष हि पीय । बम्यौ मोह मिथ्यात विष, गौतम विष सुघीय ॥३३४।। काललब्धि को निकट लहि, भाव संवेग बढ़ाय । विश्व भोग तज लक्ष्मी, भयौ विरक्त सुभाय 11३३५॥
चौपाई यह मिथ्या मारग दुखदाय, अशुभ पाप उपजाय प्राय । मैं सेयौ सुवथा चिरकाल, मूढ़ चित्त निदत जग जाल ॥३३६।। जथा अन्ध नर का हि पर, तहां बिकल नाना दुख धरै । त्यौं मिथ्यात अन्ध जग जीव, नरक कप में गिरे अतीव ॥३३७॥ समकित व्रत चित धर्म हि गहै, तो शिवपंथ सुगम कर लहै । जो अहि खाइ तो इक भव जाय, पे मिथ्या भव भव दुखदाय ।।३३८।। गो सिंग हि में दूध जु कई, जल विलोइ तो नंनू बढ़े । मिथ्या कर तो भी सुख नाहि, धर्मलाभ क्यों हू है ताहि ॥३३९।। मेरी सफल जन्म है आज, पुण्य धन्य पाये जिनराज । कह्यौ धर्म मारग सुख भास, मिथ्यातम वच किरण प्रकास ||३४०11 त्यादिक चिता अधिकाइ, परमानंद बढ्यो बहु भाइ । धर्म अधर्म फलाफल जान, भयो गाढ़ वैराग्य प्रवान ।।३४१॥ या आरत ममता देह, इनको नाश कियौ तज नेह । परम दिगम्बर दीक्षा धरी, मन वच काय शुद्धि प्रादरी ॥३४२।।
भात दिगम्बर भये, शिष्य पंचसै जुत मुनि ठये । तज्यो संग चौबीस प्रकार, जिनमुद्राबारी अविकार ।।३४३।। और भव्य बह संजम लयौ, मोह संग छिन में तज दयी । सुन नारी मन बिरकित होइ, गृह तज भई अजिका सोइ ॥३४४॥ ने प्रावक व्रत लिए, सत्य दया निज उरपे ठए । सुनि श्री जिसमुख अनृतानि, नरनारो निज निज व्रतठानि ॥३४५।
नायी देवनि गर्न, मानुष पशु मिथ्या हि भने । ते जिनवानो सुनकै डर, दयाभाव सवहो प्रति करे ।।३४६।।
वार भक्ति उर लाइ, पूजा दान भाव अधिकाइ । कोई तप जप लेइ अपार, कठिन कर्मनाशक निरधार ॥३४७॥ मातम गणराज प्रधान, प्रथम इन्द्र नमि शिर धर पान । द्रव्य द्रव्य जुत पूजा करो, भक्ति सहित प्रस्तुति विस्तरी ॥३४॥ नजरिन श्री गौतम गणराइ, सप्त ऋद्धि उपजा तह प्राइ। पूरब पुण्य प्रगट जहं भयो, सुद्ध प्रमाणो शुभ पद लयो ।
दोहा देखो वे जग में शुद्ध मन, इष्ट संपदा होत । उपज प्राधे शिक्षनक में, केवल ज्ञान उदोत ।।३५०।।
चौपाई
जया प्रमरगण में सुरराय, त्यो गणधरमें गौतम थाय । मन विचार सीधर्म सुरेश इन्द्रभूति कहि नाम महेश ॥३५१।। श्रावन दतिया पहली पक्ष, शुद्ध जागशुभ लगन प्रतक्ष । पूर्वाह्निक बेरा तह प्राय, तज पारगह गनधर पद पाय ।।३५२।।
पीकर अपने मिथ्यात्व रूपी हलाहलको दूर कर दिया और मोक्ष प्राप्तिके लिये सौभाग्यवश प्राप्त सम्यकदर्शन रूपो बहुमूल्य रामदारको अपने हदयमें सीख्य पूर्वक धारण किया। जो कोई अतादिके पालन में असमर्थ थे, बेयात्म कल्याणका भावनास दान पूजा और प्रतिष्ठा इत्यादि का आचरण करने लगे। जिन लोगों ने भक्तिवश तप अोर व्रत इत्यादिका ग्रहण कर लिया और अन्त में प्रातपनादि कठिन कार्यों को नहीं कर सके वे मन बचन और कार्यको शुद्धि में प्रवृत्त होकर कर्मरूपो शत्रुमांक नाश कायम प्रबल हो गये। इसके बाद सौधर्मेन्द्रने भक्ति पूर्वक गणधरदेव गौतमको अलौकिक पूजनोय द्रव्योंसे पूजित कर उनके सन्दर चरणारविन्द को नमस्कार किया और स्तुतिमें उनके गुण गौरवका गान करते हुए सम्पूर्ण उपस्थित सज्जन पुरुषों के सामने हो मापका नाम इन्द्रभूति स्वामी ऐसा घोषित हुआ और तभीसे यह दूसरा नाम भी प्रचलित हुमा ।
१. श्री गौतम नरिव प्रागे पढ़िये
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सो प्रभु तत्व पदारथ कहै, सो जथार्थ गनधर सरदहै । द्वादशांग तब रचना धार, ग्यारा अंग पूर्व दश चार ॥३५३।। तिनके नाम कहीं सूत उक्त, पद अश्लोक वरण संजुक्त । प्राचासंग प्रथम जानिये, सुत्रकृतांग दुती मानिये ।।३५४।। तीजो स्थानक कहिये अंग, चौथी है रामवाय अभंग । पंचम व्याख्याप्रज्ञप्ति विशाल, छठमा ज्ञातकथा गुनमाल ॥३५शा सातम अंग उपासकध्ययन, आठम अन्तःकृतगुन रयन । नवम अनुत्तर कहिये सोइ, दशम प्रश्न व्याकरण जु होइ ।।३५६।। विपाक सूत्र एकादश जान, बारम दृष्टिबाद सुख-खान । ताके पूर्व चतुर्दश कहै, तिनके नाम किमपि प्रब लहै ।।३५७।। प्रथम पूर्व उतपाद बखान, अग्रायणी दुतिय पहिचान । धीरजवाद तृतिय अवलोइ, अस्तिनास्ति पुन चौथो होइ॥३५८|| ज्ञान प्रवाद पंचमौ जान, कर्म प्रवाद पष्टमी मान । सत्यप्रवाद सप्तमौ गनौ, प्रात्मप्रवाद अष्टमी भनी ॥३५॥ प्रत्याख्यान नवम गुण सार, दामो पूरब विद्या धार | कल्याणबाद गेरम सरदह, प्राणवाद बारम मन गहै ।।३६०।। क्रियाविशाल प्रयोदश कहौ, लोकबिन्दु चौदम सरवही । नामावलि जानौ यह सार, सकल भेद पागम विस्तार ||३६१।। द्वादशांग पद सब परमान, इक सय बारह कोडि बखान । लाख तोरासो अंठानवो, सहस पंचदश अधिक भनो ॥३६२।।
अथ सर्वपद श्लोक
पंचहजार जु कोड़ा कोडि, ऊपर और साततं जोड़ि । शठ कोड़ा कोड़ी जान, पैसठ लाख कोड़ि परवान ।।३६३॥ सहस संतावन कोडि सहित, तातें अधिक और सुन भीत | बाइस कोडि पचासो लाख, सौ अरु साढ़े सात जु भाख ॥३६४॥ द्वादशांग पद सकल विचार, यह अश्लोकनि संख्या व धार । तामें एक पदहि विस्तार, कहि अश्लोक वरण अवसार ॥३६शा कोडि इंक्वानव पाठ जु लाख, ७, सीआई इस माख । ३० अश्लोकाह संख्या सोइ, द्वात्रिशत अक्षर तस होइ ॥३६६|| अब इक पद के अक्षर जित, भाषौं जिनशासन परिमित । एक सहस छह सौ चौंतीस, इतने कोड़ि कहे जगदीश ।।३६७॥ लाख तिरासी सात हजार, अठसया य अठ्ठासी धार । अब मुन चार वेद परकास, द्वादशांग गभित गुरु जास ॥१६
चार वेद-अनुयोगों का वर्णन
पद्धड़ि छन्द
प्रथमानूयोग है प्रथम वेद, जामें शठ पद कथन भेद । है दुतिय वेद करणानुयोग, लोकाप्रलोक प्रगट्यो मनोग ॥३६६।। चरणानयोग त्रय वेद जान, जहं मोक्ष पन्थ कारण बखान । द्रव्यानुयोग बहुवेद भास, षट द्रव्यन भेदाभेद जास ।। ३७०॥
दोहा
द्वादशांग रचना रची, इन्द्रभूति गणनाय । सो विधि कबि संक्षेप कर, वरन्यौ पागम पाय ।।३७।।
श्री गौतम गणधरको आश्चर्य जनक परिणाम शुद्धिके द्वारा उसी समय सातों ऋद्धियाँ प्रकट हुई उनकी मानसिक विकेही कारण शीघ्र ऐसा हो सका। हे प्राणियों, इस संसार में अपने मनको परम पवित्र रखने से ही सज्जनों की अभीष्ट मिटि हो सकती है। यदि सवतोभावेन मनकी शुद्धि हो जाय तो क्षण मात्र में तो केवल ज्ञानरूपी अत्यन्त दूलभ महा-ऐश्वर्य प्राप्त हो सकता है। श्रावण शुक्ला तृतीयाके दिन प्रातःकाल श्रीमहावोर प्रभुके तत्वोपदेशके द्वारा मनको शुद्धि हो जाने के कारण इन इन्द्रति गणधरके हृदय में सब अंगपूर्वक के पद अर्थ रूपमें बदल गये। ज्ञाना-वरण के कुछ नष्ट प्राय हो जाने पर तिले अन्तिम प्रहरके समय वृद्धि में सय अंग पूर्व प्रकट होनेरो मति प्रादि चार ज्ञानोंको पाकर अपनी अत्यन्त तीक्ष्ण वृद्धिके द्वारा इन्द्र तिने सब भव्य जीवोकी कल्याण कामनारो सम्पूर्ण शास्त्रकी रचनाकी और उसके बाद रात्रिके अन्तिम प्रहरके समय, भविष्य में धार्मिक प्रवृत्तिके प्रचारकी इच्छासे पद वाक्य रूप द्रव्यों का निर्माण किया।
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गीतिका छन्द बहु भांति धर्म विपाक करकं, भये गौतम गणपती । सकल मुनिगण मुख्य शोभत, चरन अरने सुरपती॥ श्रुतज्ञान अखिल विधान पूरण, प्रमट भव्यनि हित कर्यो। यह जान बुधजन धर्म उर घर, सिद्ध सब कारज सर्यो ||३७२।। धर्म जग में सुख्य करता, धर्म नह बड़ावहो । धर्म अघ भट विजय कोनी, धर्म शिवपद पावही ।। जो धर्म प्रभु उपदेश वानी, सभा द्वादश प्रति भनी । कहि 'नवलशाह' प्रनामि जिनपद, धर्म मुहि दीजै धनी ।।३७३।।
धर्म के प्रभाव एवं फलसे श्रीगौतम गणधर स्वामी द्वादशांग शास्त्रों की रचना करने के बाद सब मुनियोंमें, श्रेष्ठ, श्रद्धेय और पूज्यनीय हुए, इसलिए संसारके बुद्धिमान पुरुषोंको उचित है कि वे अपनी अभीष्ट प्राप्ति के लिए मनको पवित्र करके उत्तम धर्मका प्राश्रय ग्रहण करें।
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षोडश अधिकार
मंगलाचरण
दोहा मोहि नींद नाशन उदय, ज्ञान सूर्य जिन राय । विश्व तत्व दीपक नमौं, भव्य कमल बिकसार ॥१॥
विहार के लिये इन्द्र की भगवान से प्रार्थना करना।
चौपाई अब सौधर्म इन्द्र बुधवान, हरषवंत प्रनम्यो भगवान। भक्ति सहित प्रस्तुति प्रारम्भ, निजहित कियौ परम गुन दंभ ।।२।। तुम तीर्थकर जगत महेश, पर उपकार करन परमेश। कीजै आरज खंड विहार, भव्य पुरुष सम्वोधन सार ।।३३५ तुम प्रभ तीन जगत परवीन, निर्मल गुणसागर सम लीन । केवल ज्ञान चराचर साथ, वचन सुधाकर करहु सनाथ ।।४॥ प्रभ अब कीजे परम विहार, प्रारजखंड सम्बोधन धार । विश्व तत्व जिमि होय प्रकाश, भविजन के संशय अघ नाश ॥५॥ तुम उपदेश भव्य जिम लहै, भवथिति हुन खडग तप गहै। होय मोक्षपद निहचं तेह, सुखसागर जु अनन्त लहेह ।।६।। कोई पावे पद अहमिन्द्र, भोगे सागर थिति सुख बृन्द । तुम उपदेश धर्म सुन कोइ, बमैं पाप मिथ्यातम सोइ ।।७।। तातै प्रभ अब करहु विहार, धर्म अनुग्रह होइ अपार । भव्य मोक्षमारग जिमि लहैं, अर मिथ्याती समकित गहैं ।।८।। बहुविध शक करी थुति घनी, कीजै गमन भाग जग तनी । वार वार परशंसा कीन निज कृति कर्म करै इमि हीन ।।९।।
भगवान के विहार का वर्णन तब प्रभु तीन जगत गुरु राय, कियो विहार जगत हित ल्याय । मिथ्यामद इमि चल्यो पलाय, ज्यों रवि उदै तिमिर नशि जाय ।। गमन समय औरहि विधि भई, समाशरण रचना खिर गई। जहं थिर होइ किमपि फिर जाइ, छिनमें तहां रच धरनाइ ॥१॥ द्वादश सभा संग मिलि चलें, जय जय घोप करत जहं भले । नभ में गमन कर सब मोइ, बारह कोटि पटह ध्वनि होइ ॥१२॥ छत्र चमर सुर बरहि सम्हार, ध्वजा पंक्ति कर लिये अपार । विहर भव्यन हित भगवान, अन इच्छापूर्वक उर पान ॥१३॥ समोशरण प्रभ जहं थिर होइ, ईति भीति व्यापै नहि वोइ । सौ जोजन के गिरदाकार, तहं सुरभिक्ष लहै अधिकार ||१४|| वीरज प्रादिक अति कृषि होय, सकल नाज उपज क्षिति सोय । सूखे पर जे जलकर पूर, फूल अंबुज अति तहं भर ।।१५।।
ज्ञान-ज्योतिसे मोहको दूर करें जो नाथ । भव्य कमल विकशित करें करके मुझे समाथ ।। इसके बाद जबकि उपदेशके बाद दिव्यवाणीको विश्राम मिल गया और जीवोंक। कोलाहल शान्त-सा हो गया, तब गणवान और बुद्धिमान सौधर्म इन्द्र श्रद्धा-भक्ति पूर्वक अपनी अभीष्ट प्राप्तिकी इच्छासे महाबीर प्रभुकी स्तुति करने लगा। वे महावीर स्वामी तीनों भव्य जीवोंके मध्य में विराजमान थे और सम्पूर्ण प्राणियों को सावधान करने में प्रवत्त थे। इन्द्रने रानियों की उपकार साधनाकी इच्छासे और अन्यत्र भी धर्मोपदेश करने की प्रेरणा करते हुए जगन्ध महावीर प्रभ की स्तति करना प्रारम्भ किया । हे देव, मैं अपने मानसिक वाचनिक और कायिक शुद्धिके लिये स्तुति कर रहा हूं। आप अनन्त गुणोंके सागर
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नाना देश ग्राम पुरथान, गगन गमन विहरै भगवान । विश्व भव्य उपहार सु करें, जग जीवन को दुविधा हरै ।।१६॥ केहरि मग इक थान, बहोर, गाय वाघ निवौं अहि मोर | इत्यादिक जे ऋर जु होय, प्रानी वद्ध लहैं नहि कोय ॥१७॥ घाति कर्म जव हते जिनेश, अन अहार नहि भुगते लेश । पुष्टकर नोकर्म अहार, सुख अनन्त बोरज अधिकार ।।१८॥ द्वादश गण वेष्टित सरवंग, शत्रादिक पद नमहि अभंग । नर सुर असुर और तिरजेच, करै नहीं उपसर्ग प्रपंच ॥१९॥ चतुरानन चारहुं दिश थाय, तीन जगत जीवन सुखदाय । निज निज कोठा थिर समुदाय, सबही प्रभु सन्मुख लौ लाय ॥२०॥
न चराचर जान, विद्या विभव स्वामिता वान । दिव्य देह छाया बिन ऐन, पलसौं पल नहिं लागे नैन ।।२।। नख अरु केश वृद्धि नहि होइ, जितने थे तितने रहि सोइ। चार घातिया खय जब करे, ये दश अतिशय उत्तम धरै ।।२।। सब हित होइ मागधी भाष, सर्व अंगवर सुन अभिलाष । खिरं निरक्षर वानी सोइ, सकलाक्षर गभित पुन होइ ॥२३॥ सब जनको आनन्द करतार, उर संदेह निवारन हार । सब भाषामय परिणति कर, मधुर मनों अमृत धन भर ॥२४॥ दुविध धर्म प्रमटन सु विशाल', तत्य अर्थ सूचक गुणभाल । अहि नौरादिक वैर भुलाय, मंत्रीभाव करै सो आय ॥२५॥ सब ऋतु के फलफूल हि जास, प्रभुहि देखि तक होहि हुलास । जहं प्रागमन करे भगवान, दिपं भूमि दर्पणसी जान ॥२६॥ तीन जगत प्रभु निकटहि सेव, मंद सुगंध पवनकर देव । परमानन्द लहै सब जीव, तन मन शोक न उपजे सीव ॥२७॥ महतकुमार पवन अति लहै, इक जोजन तृण कीट न रहै। स्तनित कुमार भक्ति उर धार, पन्धोदक बरसाव सार ।।२।। हेम कमल दल केशर जोग, गमन समय सुर रचे मनोग। पंद्रह पंद्रह पक्ति प्रमान, सबादोइस सब उनमान ॥२६॥ अन्तरीक्ष प्रभु डग नहि धरै, अधोभाग लौं तहं विस्तरै। सब जिय सुख सन्तोष बढ़ाय, देश अबनि इमि लहै सुभाय ॥३०॥ समोशरण जिहि थानक होइ, दश ही दिश तहं निर्मल सोह। चतुरनिकाय देव समुदाय, हरि हलधर मिलि सेवै पाय ||३|| रत्नमयी दीपति अधिकार, एक सहम अति तीक्षण प्रार। मिथ्यारूपी तमको दल, धर्मचक्र प्रभु आगे चल ।।३शा दर्पणादि वस मंगल दर्व, सोहै अति मंगलबत सर्व । इहि विधि देव रचित प्रबंधार, वरण अतिशय दश अर चार ॥३311
दोहा
दश अतिशय प्रभु जनमके, दश केवल परकास । देव रचित चौदा कहै, सब चौतीस सुभास ॥३४॥ प्रातिहार्य बसु संग जुत, नंत चतुष्टय वंत । छयालीस गुण ये कहै, मंडित श्री अरहन्त ॥३॥
और तीनों लोकके स्वामियोंके द्वारा परम पूज्यनीय माने गये हैं। वे आपकी सेवा और स्तुति करने में अपना सौभाग्य समझते है। आपकी स्तुति करनेसे भव्य जीवोंके उत्कृष्ट पाप-मल दूर हो जाते हैं और मनके विशुद्ध हो जाने पर संसारकी सम्पूर्ण सख सम्पदाएं प्राप्त हो जाती हैं फिर कौन ऐसा है जो अभ्युत्थान चाहता हुआ भी प्रापको सेवा स्तुति न करें? जो कि विशिष्ट फल पाने की इच्छा करते हैं वे सभी मापकी स्तुति करने के लिए सदेव तत्पर रहते हैं। स्तुतिके चार अंग हैं १ स्तति २ स्तोता (स्तुति करनेवाला) जिसकी स्तुतिकी जाय, ३ स्तुत्य ४ फल । जिस वाणीके द्वारा गुण-सागर श्री महन्त देवके वास्तविक गुणों की प्रशंसाकी जाय उसे विचारवान पुरुषोंने स्तुति कहा है। जो अनन्त दर्शन और अनन्त ज्ञान इत्यादि विविध उत्तमोत्तम गणों से यक्त है. वीतराग और त्रैलोक्य के नाथ हैं वे श्री जिनेन्द्रदेव ही सभी सज्जन महापुरुषोंके द्वारा परम स्तुत्य माने गये हैं। प्रभकी स्तुति करनेका साक्षात् फल तो परम पुण्यकी प्राप्ति है परन्तु अन्तमें अब सम्पूर्ण गुणोंकी प्राप्ति हो जाती है जो प्रभमें विधा. मान है। मैं सम्पूर्ण सामग्रियोंको पाकर आपकी स्तुति में प्रवृत्त हूं। अाप अपनी कल्याणमयो प्रसन्न दृष्टि से हमें पवित्र करनेकी कृपा करें। हे प्रभ, आज आपने अपने वचनरूपी किरणोंसे भव्योके ग्रान्तरिक मिथ्यात रूपी उस महा अन्धकारको भी दर कर दिया जिसे कि सर्यको किरण भी नहीं छ पाती । हे नाथ, जब आपने वचनरूपी तेज तलवारसे महि रूपी महा शत्रको मारा तब अपनी सेनाके साथ वह भाग खड़ा हुआ और जड़ मन एवं इन्द्रियों के आश्रय में जा छिपा । हे देव, जब पापका बचन रूपी वच्च कामदेव पर गिरा तब अन्याय इन्द्रिय रूपी चोरोंके साथ वह मरणासन्न अवस्थामें पड़ा हुआ है । हे ईश, जब आपके केवल ज्ञान
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चौपाई
क्षघा तषा पून राग जु दोष, जन्म जरा अरु मरणहि तोष । रोग सोग भय विस्मय जान, निद्रा खेद स्वेद महबान ।।३६।। मोह अरति चिता अधिकेह, द्वेष अठारह जानों येह । इनते रहित निरंजन देव, नर सुर असुर कर सब सेव ॥३७॥ विहरे देश ग्राम पुर खेट, कर धर्म उपदेश हि हेट । मिथ्याज्ञान कुरमारग अंध, बचन किरण लख जगत प्रबन्ध ॥३८॥ ररनत्रय तप धार सोय, शिबमारग पाव भ्रम खोय। जिनवच सुधा पिये जो लोय, फेर न जग में आउन होय ॥३९।।
राजगृही के विपुलाचल पर समवशरण का आगमन मगधदेश' राजग्रह सार, विपूलाचल पुर निकट पहार । चार संघ मुर चतुर निकाय, आये सभा सहित जिनराय ॥४०॥ षट ऋतके भल फल स भये, वनपालक लख अपरज ठये। भई भेंट आयी मृप पास, श्रेणिक भूप सभा परगास ॥४१॥ घर फलफूल प्रणाम कराय, अर विरंतत कह्यौ समझाय । विपुलाचल पर बहु सुर भीर, समोशरण पायो जिन बीर ॥४२॥
रूपी पूर्ण चन्द्रमाका उदय हुआ तब उल्लासके कारण धर्मरूपी समुद्र वढ़ गया। इस धर्म-सागर में सम्यग्दर्शनादि महारत्न भरे हए हैं और यत्नशील बुद्धिमान पुरुषों को प्राप्त होते हैं । हे भगवान्, आज अापके धर्मोपदेश रूपी अस्त्रसे सम्पूर्ण जीवोंको सन्ताप देकर दुःखी करनेवाला भव्योंका पापरूपी महाशत्रु नष्ट हो गया। कितने ही भव्य प्रापसे दर्शन एवं चारित्र इत्यादि परमोत्तम सम्पत्तियों को पाकर अक्षय सखकी प्राप्तिके लिए उत्तम-मार्ग पर अग्रसर हो रहें हैं, कितने ही प्रापसे रत्नत्रय एवं तप रूपो बाणों को पाकर चिर कालानुबन्धी कर्मशत्रुको मारने के लिए सन्नद्ध हैं और मोक्ष प्राप्ति की अत्यन्त उत्कट कामनासे उग्र प्रयत्न
१. वीर-विहार और धर्म-प्रचार "भ. महावीर का यह विहार काल ही उनका तीर्थ प्रवचन काल है जिसके कारण वह तीर्थंकर कहलाये"।
-श्री स्वामी सन्मतभद्राचार्य : स्वयंभूस्तोत्र मगपदेश की राजधानी राजग्रह में भगवान् महावीर का समवशरण कई बार आया, जहां के महाराज थेणिक बिम्बसार ने बड़े उत्साह से भक्तिपूर्वक उनका स्वागत किया । महाशतक और विजय आदि अनेकों ने श्रावक प्रत लिये, अभयकुमार और इसके मित्र आदिक (Idrika ने जो ईरान के राजकूमार थे, भगवान् महावीर के उपदेश से प्रभावित होकर जैन मुनि हो गये थे। लगभग ५०० यवन भी वीर प्रेमी हो गये थे। फणिक (Phoenecia) देश के वाणिक नाम के सेठ ने तो जैन मुनि होकर उसी जन्म से मोक्ष प्राप्त किया।
विवेहवेश राजगृह से भ. महावीर का समवशरण वैशाली आवा, जहाँ के महाराजा चेतक उनके उपदेश से प्रभावित होकर सारा राज-पाट त्यागकर जैन साधु हो गये थे और इनके सेनापति सिहभद्र ने थावक प्रत ग्रहण किये थे ।
वाणिज्यग्राम में जो वैशाली के निकट या भ० महावीर का समवशरण आया तो वहां के सेठ आनन्द और इनकी स्त्री शिवानन्दा आदि ने उनसे थावक के व्रत लिये थे।
अंगदेश की राजधानी चम्पापुरी (भागलपुर) में भमहावीर का समवमारण आया तो वहां के राजा कुणिक ने बड़ा उत्साह मनाया। वहाँ के कामदेब नाम के नगरसेठ ने उनसे श्राधव के १२ प्रत लिये । सेठ सुदर्शन भी जैनी थे, रानी के शील का झूठा दोष लगाने पर राजा ने उनको शली का हकम दे दिया तो सेठ सुदर्शन के ब्रह्मचर्य व्रत के फल से खूनी सिंहासन बन गई, जिससे प्रभावित होकर राजा जैन मनि हो गये।
पोलासपुर में बीर समवशरण जाया तो वहीं के राजा विजयसेन ने भ० महावीर का वड़ा स्वागत किया। राजकुमार ऐवन्त तो उनके उपदेश से प्रभावित होकर जैन साधु हो गए थे, और शब्दालपुत्र नाम के कुम्हार ने श्रावक के व्रत लिये।
कौशलवेश की राजधानी श्रावस्ती (जिले गोंडे का सहट-महट) में वीर समवशरण पहुंचा तो वहां के राजा प्रसेनजित (अग्निदत्त) ने भक्तिपूर्वक भगवान का अभिनन्दन किया । लोग भाग्य भरोसे रहने के कारण साहस को खो बठे थे, भ. महावीर के दिब्योपदेश से उनका प्रज्ञान रूपी अन्धकार जाता रहा और वे धर्म पुरुषार्थी बन गये ।
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सात पैड मागे दे राइ, प्रभु हि प्रणाम कियौ हरपाइ । बहुत दान बनपाल हि दियौ, राजा उर आनन्दित भयो ।४३|| अानन्द भेरी नगर दिवाइ, हय गय रथ पय दलहि सजाइ। सुत त्रिय बांधव पुरजन साथ, चल्यो चतुर श्रेणिक नरनाथ ॥४४|| पायौ शोध न लाई बार, समोशरण दोठयौ अबिकार । भक्तिभाव सब ही उर धरै, जय जयकार शब्द उच्चारै ।।४।। तीन प्रदक्षिण दे शिरनाइ, धूलीसाल प्रवेश्यो प्राइ । मानस्तंभ विलोक्यो जबे, गयो मान गलि तनत सर्व ।।४६|| क्रमकर तहं पहुंचे पुन जाइ, दरश वीरनाथ जिनराइ। भक्तिभाव जुत प्रनमै पाय, वर वेर भुवि शीस लगाय ॥४७॥ चरणकमल प्रभु पूर्ज राइ, अष्टद्रव्य जल प्रादिक लाइ । फिरकै नुप जिनवर पद नयो, भक्ति सहित अस्तवन जुठयो।।४।।
करनेमें प्रवृत्त हैं । हे नाथ, आप नित्यप्रति अलोक्य के भव्योंको सम्यक् दर्शन, ज्ञान, एवं चारित्र धर्मरूपी बहुमुल्य एवं अत्यन्त उत्तम रत्नोंको प्रदान करने वाले हैं। इन रत्नों के द्वारा सभी सुख-सम्पत्तियां एवं सर्वश्रेष्ठ पदार्थों को प्राप्त कर लिया जाता है। इसलिए हे देव, अापके समान कोई भी इस संसार में न तो धनवान् है और न कोई ऐमा महादानी ही है। यह समस्त संसार
बरसदेव की राजधानी कौशाम्बी (इलाहाबाद) में वीर समवशरण आया तो वहाँ के राजा शतानीक वीर उपदेश मे प्रभावित होकर जैन मुनि हो गये ।
लिगवेश (उड़ीसा) में समवशरण आया तो वहाँ के राजा जितशत्रु ने बड़ा आनन्द मनाया और सागराज-पाटयागकर जन साध हो गये थे । इस और के पुण्ड, बंग, ताम्रलिप्ति आदि देशों में भी वीर-बिहार हुआ था, जिससे वहां के लोग अहिंसा के उपासक बन गये थे।
हमांगदेश (मंसुर) में वीर- समवशरण पहुचा तो वहां के राजा जीवन्धर भगवान् के उपदेश से प्रभावित हो, संसार त्यागकर जैन साध हो गये थे ।
अश्मकदेश की राजधानी पोदनपुर में वीर समवशरण आया तो वहां का राजा बिगदाण उनका भवत हो गया।
राजपताने में वीर समवशरमा के प्रभाव से वह राजारामा अहिंसा से बैन गये। यह भ. महावीर के प्रचार का ही फल है कि अपनी जान जोखिम में डालकर देश की रक्षा करने वाले आशशाह और भामाशाह जरो जैन सूरवीर योद्धा वहाँ हुए।
मालवादेश की राजधानी उज्जैन में वीर समवशरण पहुँचा तो वहां के सम्राट चन्यप्रद्योत ने बड़ा उत्साह मनाया था ।
सिन्धु सौवीर प्रवेश की राजधानी रोकनगर में वीर समवशरण पहुचा तो वहाँ के राजा उदान भ. महावीर के उपदेश मे प्रभावित होकर राज छोड़कर जैन मुनि हो गये थे।
दशार्ण देश में भ• महावीर का विहार हुआ तो वहाँ के राजा दशरथ ने उनका स्वागत किया ।
पांचालदेश की राजधानी कम्पिला में म० महावीर पधारे तो वहां का राजा "जय" उनसे प्रभावित होकर संसार त्यागकर जन साध हो गया था ।
सौर देश की राजधानी मथुरा में भ. महाचीर का शुभागमन हुआ तो वहाँ के राजा उदितोदय ने उनका स्वागत किया और उसका राजसेठ जैनधर्म का दृढ़ जपामक था, उसने भयवान् के निकट थावक के व्रत धारण किये थे।
गांधारदेश की राजधानी तक्षशिला तथा काश्मीर में भी भ० महावीर का विहार हुआ था । तिब्बत में भी धर्म प्रचार हुआ था।
विदेशों में भी १० महावीर का विहार हुआ था। श्रवण बेल्गोल के मान्य पण्डिताचार्य श्री चारुकीति जी तथा पंडित गोपालदास जी जसे विद्वानों का कथन है कि दक्षिण भारत में लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले बहुत से देनी अरब से आकर आबाद हुए थे। यदि भगवान जिन का प्रचार वहां न हुआ होता तो वहाँ इतनी बड़ी संख्या जैनियों की कैसे हो सकती थी ? थी जिनमेनाचार्य ने हरिबंशपूराण प. में जिन देशों में भ. महावीर का बिहार होना लिखा है उनमें यवनश्रुति, कचायतोवं, समभीरू, ताण, कार्ण, आदि देश अवश्य ही भारत मे बाहर यतानी विद्वान भ. महावीर के समय बकिटया में जैन मुनियों का होना सिद्ध करते हैं । अबीसिनिवा, ऐथुप्या, अरब परस्या, अफगानिस्तान, यनान में भी जैन धर्म का प्रचार अवश्य हुआ था।
विलफई साहब ने 'शंकर प्रादुर्भव' नाम के वैदिक ग्रंथ के आधार से जैनियों का उल्लेख किया है। जिसमें भगवान पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी दोनों तीर्थकरों का कथन 'जिन' 'महन्' 'महिमन' (महामान्य) रूप में करते हुए लिखा है कि 'अहंन्' में चारों तरफ विहार किया था और उनके चरणों के चिन्ह दूर दूर मिलते हैं । लंका, श्याम आदि देशों में महावीर के चरणों की पूजा भी होती है। परस्पा, सिरिया और एशिया मध्य में 'महिमन' (महामान्य महावीर) के स्मारक मिलते हैं। मिश्र (Egypt) में 'मेमनन' (Memoon) की प्रसिद्ध मूर्ति
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भाषा चच्चरीकी
घन्य अाज जन्म मोहि दरसै जिनराज तोहि। तीन लोकनाथ देव सर्व ज्ञानके धनी ।। प्रणम्यौं जिन ब्रह्मचारि मानुष पद निहार । दयासिन्ध मोहादिक कर्मशत्रु को हनी ।। नौ शान्तरूप ध प तानासनी । विदः वीर मुक्ति नार बल्लभ मन रंजनी॥ जै जै जिन जगत बन्द काटत भ्रम जाल फंद। आपदा निवार सर्व दोष दुःख दाहनी ॥४९।। तुमरी सर्वज्ञ देव सुर नर मुनि करत सेव । नाशक अब जाल जन्म मरण सिन्धु उद्धरी॥ तुम गुण जो नाम लेत. चितको ढहाय देत। अन्तरमति शुद्ध होत रोग शोक को हरी॥ तुमरी थुति करें जेह ज्ञान को प्रकाश तेह। वचन को बिलास पाय तत्व अर्थ सोहनी॥ जै जै जिन जगत वंद काटत भवजाल फन्द । आपदा निवार सर्व दोष दुःख दाहिनी ।।५०॥
मोह निद्रामें एकदम वेसुध होकर पड़ा था, परन्तु आज अापके वचनरूपी बाजे के गम्भीर नाद से जागृत यानी सजग हो गया । आपके अनुग्रहवश कितने ही भव्यजीव सर्वार्थ सिद्धि स्वर्ग एवं मोक्ष को प्राप्त होंगे । आपके इस अमृत उपदेशको सुनकर देव, मनुष्य एवं पशु-सभी कर्म समूह को एकदम नष्ट कर देने के लिए तुल गये हैं और प्रापके विहार के कारण प्राय खण्ड निवासी ज्ञानवान् भव्यजीव भी सम्पूर्ण तान्त्रिक रहस्यों को जानकर पाप कार्यों के नाश में प्रवृत्त होंगे।
'महिमन' (महामान्य) की पवित्र यादगार है। इस प्रकार भगवान् महावीर का बिहार और धर्म-प्रचार न केवल भारत बल्कि समस्त संसार में हुआ ।
महाराजा श्रेणिक पर वीर-प्रभाव
Mahavira visited Rajgrih, Where He was most cordially welcomed. King Srenak Bimbisara himself came and paid the highest respect to Him and everafter remained a great patron of Jainism.
-Mr. U.S. TankB VOA. Vol. II, P. 68. विपुलाचल पर्वत को एकदम दुलहन के समान सजा, सूखे वृक्षों को हरा-भरा तथा जलहीन बावड़ियों को ठण्डे और मीठे जल से भरा तु न होने पर भी छहों ऋतु के हर प्रकार के फूल से समस्ल वृक्षों को लदा हुआ देखकर वहां का बनबाली दंग रह गया कि क्या मैं स्वप्न देख रहा हूँ या कोई जादू हो गया? वह थोड़ी दूर आगे बढ़ा तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। हर प्रकार के वैर भाव को छोड़कर बिल्ली चूहे के साय और नेवला सर्प के साथ आपस में प्रेम-व्यवहार कर रहे हैं । हिरण का बच्चा सिंहनी के थनों को माता के समान चूस रहा है, कोर और बकरा प्रेम-भाव से एक घाट पर पानी पी रहे हैं। रंगधिरगे फूल खिले हुए हैं. सर्वत्र आनन्द ही आनन्द छा रहा है । बनमाली जरा आगे बढ़ा तो भगवान महावीर के जय जयकार के शब्दों से पर्वत गुजजा सुनाई पड़ा। एक ऊंचे महासुन्दर रत्नमयी सोने के सिंहासन पर भगवान महावीर विराजमान हैं। रवर्ग के इन्द्र चंवर डोल रहे हैं, हीरे-जवाहरातों से सुशोभित तीन रनमयी सोने के छत्र मस्तक पर झूम रहे हैं। आकाश से कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा हो रही है, देवी-देवता बड़े उत्साह से और भक्ति से भगवान की वन्दना और स्तुलि कर रहे हैं। अब बनमाली समझ गया कि यह सब भगवान महावीर के शुभागमन का प्रताप है, जिनको नमस्कार करने के लिए समस्त वृक्ष फल-फूलों से झुक रहे है । बनमाली ने स्वयं भगवान महावीर को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और यह शुभ समाचार महाराज श्रेणिक को सुनाने के लिए, हर प्रकार के फल-फूलों की डाली सजाकर वह उनके दरबार की ओर चल दिया।
महाराजा श्रेणि क बिम्बसार सोने के ऊंचे सिंहासन पर विराजमान थे कि द्वारपाल ने खबर दी कि बनमाली आपसे मिलने की आज्ञा चाहता है। महाराजा की स्वीकृति पर बनमाली ने नमस्कार करते हुए उनको डाली भेंट की तो बिना ऋतु के फल-फूल देख राजा ने आश्चर्य से पूछा कि यह तुम कहां से लाए ? तो बनमाली बोला-"राजन् ! आज विपुलाचल पर्वत पर भ० महावीर पधारे हैं"। यह समाचार सुनकर महाराज श्रीरिएक बहुत प्रसन्न हुए और तुरन्त राजसिंहासन छोड़, जिस दिशा में भगवान महावीर का समवशरण था उसी ओर सात कदम आगे बढ़कर उन्होंने सात बार भगवान महावीर को नमस्कार किया, अपने सारे वस्त्र और बाभूषण जो उस समय पहिने हुए थे, बनमाली को इनाम में दे दिये
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पूजत जिनराज पाय ग्रष्ट द्रव्य शुद्ध लाय । पातक निर नाश मोख पंथ परम पावनी ॥ भवदधि संसार पार तुम हो उद्धरबहार भव्यति सुख करनहार धर्म वोज भावनो । तुम ही गुरु तीन करो उप देत पोर वंदना हनी ॥ जे जे जिन जगत फद काटत भ्रमजाल फद । आपदा निवार सर्व सर्व दोष दुःखदाहिनी ॥५१॥ नेत्र माज सुफल होइ चरनकमल प्रभुहि जइ । मस्तक है हस्त सफल भये आज चरन जुग पद समाज मात्र सफल कियी सर्व गम्पोदक पर्श धर्म जं जै जिन जगत फंद काटतभ्रम जाल फंद
सफल जास नम नखन सफल भयौ मुक्ख मोहि अस्तुति कर बृहत संसार सिन्धु भविस तास यापदा निवार सर्व दोष दुःख
अग्रनी ॥ पावनी ॥ तारनी ॥
दाहिनी ॥ ५२ ॥
हे प्रभु, आपके पुनीत विहार (धार्मिक भ्रमण) के कारण अनेकों मध्यजीव तप रूपी तलवार के द्वारा सांसारिक स्थितिको छिन्न-भिन्न करके सुख समुद्र मोक्ष की प्राप्त होंगे। घनेकों योगी आपके उत्तम धर्मोपदेश से चरित्र पालन में तत्पर होकर ग्रहमिन्द्र पद को प्राप्तकर लेने में और अनेकों सोलह स्वर्ग में जायेंगे। हे भगवान्, संसार के कितने ही मोह एवं पाप परायण जीव थापके उपदेशसे उत्तम पत्र पर पारू हो जायेंगे और फिर मोहरूपी शत्रु का नाश करने में प्रवृत्त होंगे। अन्यजीवों को
और तत्काल ही सारे नगर में आनन्द-भेरी बजाने की आजादी और इतना दान किया कि उसके राज्य में कोई भी निर्धन नहीं रहा । भेरी के पद कर प्रजा दर्शनों के जिले वाचल पर्वत पर जाने के वास्ते राजमन में इकट्ठी हो गई। चतुरंगी ऐना रुजे हुए घोड़े, लम्बे दांतों वाले हाथी, सोने के रथ, भांति-भांति के बाजे, असंख्य योद्धा प्यादे, और शाही ठाट-बाट के साथ अपने राज परिवार सहित महाराज श्रेणिक विम्बसार वीर भगवान की वन्दना को बने ।
महावीर को पदार्थ
जब समवशरण के निकट आये तो श्रेणिक ने राज चिन्ह छोड़कर बड़ी विनय के नमस्कार किया और उनकी स्तुति करके अत्यन्त बिनय के साथ पूछा रूप से प्राप्त होने पर भी हे वीर प्रभु! आप ऐसी भरी जवानी में क्यों ना भूल है कि जिस प्रकार कुत्ता हड्डी में सुख मानता है उसी प्रकार संसारी जीव क्षण भर के में सुख हो तो रोगी भी भोगों में आनन्द माने । वास्तव में सच्चा सुख भोग में नहीं बल्कि त्याग में है। इच्छाओं के त्यागने के लिये भी शक्ति की आवश्यकता है । शक्ति जवानी में ही अधिक होती है इसीलिये विषय भोगों, इन्द्रियों और इच्छाओं को वश में करने के लिये जवानी में ही जिनदीक्षा लेनी उचित है" ।
साथ पैदल ही समवशरण में पहुंच कर भगवान् कि "राजगुख और उपयोग के समस्त हुए" ! उत्तर में गुना "राज? लोक को यही तो इन्द्रिय सुखों में आनन्द मानता है । यदि भोगों
महाराज श्रेणिक ने पूछा- किराया को मांसाहारी, हनुमान जी को बानर और श्री रामचन्द्र जी जैसे धर्मात्मा को हिरा का शिकार करने वाला कहा जाता है, यह कहां तक सत्य है ? उत्तर में गुना - " रावण राक्षस व मांसाहारी न था बल्कि जिसने हिंसामयी यज्ञ करने का विचार भी किया तो युद्ध करके उसका मान भंग कर दिया। हनुमान और सुग्रीव वास्तव में वानर न थे, बानर तो उसके वंश का नाम था । रामचन्द्र ने कभी हिरण का शिकार नहीं किया तो महापुरुष थे।
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श्ररिक ने फिर पूछा, कि सीता जी को किस पाप के कारण रामचन्द्र जी ने घर से निकाला और किस गुण्य के कारण स्वर्ग के देवों ने उनकी सहायता की ? उत्तर में सुना "सीता जी ने अपने जन्म में सुदर्शन नाम के एक जैन मुनि की झूठी निकी भी जिस कारण उसकी भी झूठी निन्दा हुई | बाद में अपनी भूल जानकर उन्होंने उनसे क्षमा मांग ली थी जिसके पुण्य फल से देवों ने सीता जी का अपवाद दूर करके अग्नि कुण्ड जलमय बना दिया था ।
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रिंक ने फिर प्रश्न किया कि युधिष्ठिर भीम और अजून ऐसे योद्धा और वीर किस पुण्य के प्रताप से हुए और द्रोपदी पर पांच पुरुषों की स्त्री होने का कलंक किस पाप के कारण लगा ? उत्तर में सुना - " चम्पापुर नगरी में सोमदेव नाम का एक बहुत गुणवान् श्राह्मण था । उसकी स्त्री का नाम सोमिला था उसके तीन पुत्र सोमदत्त, समिा और सोमभूति थे। सोमिला के भाई अग्निभूति के धनश्री मित्रश्री और नागश्री नाम की तीन पुत्रियाँ थी । सोमदेव के तीनों लड़कों का विवाह ट्रेन तीनों लड़कियों से हुआ। सोमदेव संसार को असार जनकर जैन मुनि हो गया था, तीनों लड़के और सोमिला श्रावक धर्म पालने लगी। धनश्री और मित्रश्री श्री जैन धर्म में थद्वान रखती थी, परन्तु नागश्री को यह
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महावीर वीर धीर घातिकर्म नाश वीर । वन्दौं शिर नाइ नाइ सकल सिद्धि लोचनी ।। प्रनमौं जिन वर्षमान मानी दल मलत मान । ज्ञानको प्रकाश महा मोह नीद नाशनी ।। सन्मति प्रभु सुमति दाय भव भव प्रज्ञान जाय । तिनके जुग चरन कमल पाप ताप मोचनो। जै जै जिन जगत बंद काटत भ्रम जाल फेद । आपदा निवार सर्व दोष दुःख दाहिनी ॥५३॥
दोहा
यह विधि बहु अस्तुति करी, फिर प्रनम्यौ भूपाल । नर कोठा प्रारूढ़ , सुनी सुधर्म विशाल ॥५४॥
मोक्षके परम रमणीक दीपमें ले जाने वाले चतुर व्यवसायी पाप ही हैं । इन्द्रिय कषाय रूपी चोरों को पकड़कर अत्यन्त कठोर दण्ड देनेवाले महाबलवान योद्धा भी आप ही हैं । हे प्रभो आप भव्यजीवों पर दया करके मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त-प्रचार के लिये धर्म साधक विहार-कार्यका प्रारम्भ करें जो कि भव्य जीवरूपी धान्य मिथ्यातरूपी दुष्काल (अकाल) के कारण एकदम सुखसे गये हैं। उन्हें धर्मरूपी अमृत जलके सिंचनसे आप पुनः हराभरा कर दीजिये । सम्पूर्ण जगतको दुःखदेने वाले एवं दुर्जेय मोहरूपी
बात अच्छी लगी। एक दिन धर्मरचि नाम के योगी आहार के निमित्त सोमदत्त के घर आये, तो नागश्री ने मुनिराज को आहार में जहर
दिया जिसके पाप से नागधी को कुष्ट रोग हो गया इस लोक के महादुःख भोगकर परलोक में भी पांचवें नरक के महा भयानक दुःख सहन करने पडे । वहाँ से आकर सहुई। विष भरे जीवन से छुटकारा मिला तो फिर नरक में गई, वहां से आकर चम्पापुरी नगरी में एक चण्डाल के घर पैदा हई। एक रोज वह जंगल में जा रही थी कि समाजिगुप्त नाम के मुनीश्वर उसको मिल गए। वह चांडाल पुत्री महादःखी थी उनकी
मया को देखकर उनमें धर्म का उपदेश सुना, हमेशा के लिए मांस, शराब, शहद और पाव उदुम्बर का त्याग किया। मर कर धनी नाम के काव सेठ के यहां दुर्गन्धा नाम की पुत्री हुई उसके शरीर से इतनी दुर्गन्य माती थी कि कोई उसको आने पास बिठाता तक न था. एक दिन दोन आयितायें आहार के निमित्त आई तो उसने भक्ति भाव से उनको पड़गाह लिया। याहार करने के बाद उन्होंने उसको धर्म का स्वरूप बताया. जिसको सनकर उसे वराया गया और दीशाले आदिका होकर तप करने लगी। एक दिन वसन्तसेना नाम की वैया अपने पांच लम्मठ पुरुषों के साथ क्रीडा करती हुई उसी बन में आ निकली कि जहां दुर्गन्धा तप कर रही थी।। दुर्गन्धा के हृदय में उसको पांच पुरुषों के साथ कीड़ा करते देखकर एक क्षण के लिए वैसे ही भोग-विलास की भावना उत्पन्न हो गई। परन्तु दूसरे ही क्षण में इस बुरी भावना पर पश्चाताप करने लगी। अपने हृदय को दकारा और शान्त मन करके समाधि मरण किया । अपने शुद्ध परिणामों तथा संवम, ता और त्याग के कारण वह सोलहवें, स्वर्ग में सोमभति नाम के देव की महासयों को भोगने बानी पत्नी हुई। सोमदत्त का जीव युधिष्ठिर है इसका सोमिण नाम का भाई भीम है सोमभक्ति का जीव अर्जन है. धनश्री का जीव नकुल है, मित्रश्री का जीव सहदेव है, दुर्गन्धा का जीव, जो पहले नागधी था द्रौपदी हैं । संयम, तप, त्याग और आहार दान के कारण युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन आदि इतने बलवान् और योद्धा-बीर हुए हैं । तप के कारण द्रोपदी इतनी सुन्दर और भाग्यशाली हैं। चकि उसने वसन्त सेना के पांच पुरुषों के साथ भोग-विलास को अभिलाषा एक क्षणमात्र के लिए की थी, इसके कारण इस पर पांच पति होने का दोष लगा।
थेणिक बिम्बसार ने मम्मेदशिखर जी की यात्रा का फल पूछा तो उन्होंने वीर वाणी में सुना कि कोटाकोड़ी मुनियों के ता करने और वहां से निर्वाण (Salvation) प्राप्त कर लेने के कारण सम्मेदशिखर जी की इतनी पवित्र भूमि है कि जो जीव एक बार भी श्रद्धा और भक्ति से यहां की यात्रा कर लेता है तो वह तिलच, नरक या पशु गति में नहीं जा सकता । उसके भाव इतने निर्मल हो जाते हैं कि अधिक से अधिक ४६ जन्म धारकर ५० में जन्म तक अवश्य मोक्ष (Salvation) प्राप्त कर लेता है। श्रेणिक ने वहां की इतनी उत्तम महिमा जानकर बड़ी खोज के बाद चौबीसों तीर्थंकरों के पक्के दौंक स्थापित कराये।
महाराजा श्रेणिक ने पूछा कि पंचम काल में मनुष्य कैसे होंगे ? उत्तर में सुना "दुखमा नाम का पंचम काल २१ हजार वर्ष का है । इस काल के आरम्भ में मनुष्य की प्रायु १२० वर्ष और गरीर सात हाथ का होगा, परन्तु घटते-घटते पंचम काल के अन्त में आयु २० साल की और शरीर २ हाथ का रह जायेगा । इस काल में तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण आदि नहीं होंगे और न अतिशय के धारी मुनि होंगे, न पृथ्वी पर स्वों के देवों का आगमन होगा और न केवलज्ञान की उत्पत्ति होगी। पंचम काल के अन्त होने में तीन धर्म साई पाठ महीने रह जायेंगे, तब तक मुनि, अयिकाएं, बावकाएं पाई जायेगी। ये चारों भव्य जीव पाँचवें या छठ गुणस्थान के भावलिगी हैं तो भी प्रथम स्वर्ग में हो जायेंगे। ऐसे मनुप्य भी अवश्य होंगे जो श्रावक व्रत को धारण करेंगे, जिसके फल से विदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त कर लेगे।" .
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चौपाई
उत्तम गणपति को शिर नाय, बहुत प्रश्न कीनी नर राय । तब श्रीमुख दिव पवानी भई, सो नृप प्रति गणधर वरनई ।।५।। प्रथम सत्व सत्ताइस कहे, श्रावक जती धर्म द्वय लहै। चतुरबीस जिनवर हि पुरान, जुदे जुदे भाष गुणवान ||५६|| चक्रवर्ती जे द्वादश भये, तिनके सकल चरित वरमये । नब हरि नव प्रतिहरि बल जान, तिनको कथन काही भगवान ।।५७।। तीर्थकर के तात रु मात, कामदेव चौबीस विख्यात । नौ नारद अरु ग्यारा रुद्र, चौरा कुलकर जान समुद्र ।।५।। और पुरुष जे मुक्ति हि वरा, कोई सुरग नरक पुन गये। तिनही को कछु कारण पाय, कह्यौ भेद गणधर समझाय ||५||
ब्रतों का वर्णन पृथक पृथक व्रत भाष सबै, तिनके भेद कहौं कछु अवै । षोडष कारण उत्तम शाख, भादौं माघ चैत्र त्रय भाख ॥६॥ दिन बत्तीस इकांतर कर, पोडश अंग भावना धरै । षोडश वरप वरन प्रजंत हि गहै, नीचे तीर्थंकर पद लहै ॥६॥
शत्रु को मारने के लिए स्वर्ग-मोक्ष दायक आपका धर्मोपदेश रूपी बाण प्राप्त होगा और इस प्रकार पुण्यात्मा जीवों को निश्चय रूपेण सफलता मिलेगी। मिथ्या ज्ञान रूपी महा अन्धकार को नष्ट कर देने वाला यह उत्तम धर्मचत्र भी सज गया है। इस धर्मको जीवों ने चारों ओर से घेर रखा है। यह आपकी गौरव पूर्ण विजयको बताने वाला है। मिथ्या मार्ग को हटाकर सत्यमार्गके प्रतिपादन के लिये काल भी आपके सम्मुख उपस्थित है। मैं अब और अधिक क्या कहूं? बस, इतना ही कहना प्राप पर्याप्त समझ लें कि शीघ्र ही अब पाप विहार करके आर्य खण्ड निवासी भव्यजीवों का कल्याण करें और उन्हें पवित्र बनाये । मिथ्या
एक प्रभावशाली, बलवान और अत्यन्त सुन्दर नवयुवक को समवशरण में बैठा देखकर धेरिएक ने पूछा कि यह महा तेजस्वी कौन है तो उन्होंने घर में पुन:-- -'यह रिजननगरोहबाट मन्नूकुम्भ का राजकुमार आदिविजय है। पिछले जन्म में यह महा दरिद्री, रोगी और दुःखी था जिससे तंग आकर इसने चौदहवें तीबङ्कर श्री अनन्तनाथ जी को शान्ति प्राप्त करने की विधि पूछी तो उन्होंने इसको 'अनन्त चौदश' के व्रत देकर कहा कि भादों सुदि चौदा को हरसाल १४ साल तक उपवास रखकर चौदहवें तीर्थे 'कर का शुद्ध जल के चौदह कलशों से प्रक्षाल करके पूजन करो और चंवर, छत्र आदि १४ बस्तु, हर साल श्री जिनेन्द्र भगवान् की भेंट करो। इसने चौदह साल तक ऐसा ही किया, जिसके पुण्य फल से यह इतना बुद्धिमान्, धनवान्, रूपवान और बलवान हुआ है।
श्रेणिक ने श्री बीर भगवान से पूछा कि रक्षाबन्धन का त्योहार क्यों मनाया जाता है ? तो भगवन् को दिव्य ध्वनि से जाना कि बली, प्रह्लाद, नेमूचि और भरतपति नाम के चार मंत्रियों ने हरितनागपुर में नरयज्ञ के शने आचार्य श्री अक.म्पन और इनके संग के सात सौ जैन मनियों को भस्म करने के लिए अग्नि जला दी तो श्रावण सदि पूर्णमाशी के दिन उनकी रक्षा विष्णु जी नाम के मुनि द्वारा हुई थी इसलिए उनको रक्षा की वादगार मनाने के लिए उस दिन से हर साल रक्षाबन्धन का त्योहार मनाया जाता है।
महाराजा श्रेणिक ने फिर पूछा कि यज्ञ में जीव घात कब से और क्यों होने लगा ? उत्तर में उन्होंने सुना 'अयोध्या नगरी में क्षीरकदम्ब नाम के उपाध्याय के पास पर्वत और नारद नाम के दो विद्यार्थी भी पढ़ते थे। एक दिन शास्त्र-चर्चा में पूजा का कथन आया। नारद ने कहा कि पूजा का नाम यज्ञ है "अजयष्टव्यम्" जिसमें अज यानी बोने से न उगने वाले शालि धान यव (जी) में होम करना बताया है। पर्वत ने कहा, जिसमें अज यानी छेला (बकरा) अलंभन हो उसका नाम यज्ञ है। पर्वत न माना उसने कहा कि हमारा न्याय यहां का राजा बस करेगा और जो झटा होगा उसकी जीभ छेदन कर दी जायेगी। यह तय करके पर्वत अपनी माता स्वस्तिमती के पास आया और नारद की बात कही, माता ने कहा कि भारद सच कहता है । जो बोई जाने पर न उगे ऐसी पुरानी पाली तथा पुराना यंव (जौ) का नाम अज है चेले का नाम नहीं, तुमने गलत अर्थ बताया । यह सुनकर उसने कहा कि कुछ उपाय करो वरन् मामला राजा के पास जायेगा और जिसको यह झूठा कह देगा उसकी जीभ काट दी जावेगी, तुम मेरी माता हो संकट के समय अवश्य मेरी सहायता करो। माता बेटे के मोह में राजा वेत्तुं के पास गई और उससे कहा कि तुमने जो मझे वचन दे रखे हैं, उन्हें आज पूरा कर दो। राजा ने कहा मांगो क्या मांगती हो मैं अवश्य अपने वचन पूरे करूगा । उसने कहा मेरे बेटे पर्वत पर बड़ा संकट आ पड़ा, कृपा करके उसको दूर कर दो। राजा ने कहा कि बताओ उसको किसने सताया है ? मैं अवश्य उसकी सहायता करूंगा।
उसने कहा-"पर्वत ने मांस भक्षण के लोभ से अज का मतलब छैला (बकरा) बताकर बड़ा पाप किया। नारद ने समझाया कि इसका मतलव न उगने बाले जी से है परन्तु पर्वत अपनी बात पर यहां तक अहा कि उसने कहा कि राजा बसु से न्याय कराऊ'गा। वह जिसको झठा कहेंगे उसकी जीभ काट ली जावेगी। हे राजन् ! यह सच है कि नारद सच्चा है, परन्तु मेरी सहायता करो, ऐसा न हो कि पर्वत की जीभ
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दशलक्षण पुन तीन हु बार, शुक्लपक्ष पंचमित धार । दश दिन कर भाव सन्तोष, दशह अंग धारे निर्दोष ॥६॥ पहपांजलि पुन तीन ह मास, पंचमते पंचो दिन भास। अरु रतनत्रय तीन ह पक्ष, तेरससै त्रय दिनकर दक्ष ।।६३।। मुठी विधान मास त्रय येह, मुठी चढ़ाय पाहार हि लेह । अष्टानक ब्रत कर उर गाढ़, कातिक फागुन मास असाढ़ ॥६४॥ शुक्ल पक्ष अष्टम दिन आठ, नन्दीश्वर जिन पूजा ठाठ। प्रोषधक कांजिक इक बार, अष्ट वरप उद्यापन धार ॥६५।। अरु संकट व्रत तीनो साख, तेरस से दिन तीन जु भाख । करै जेष्ठ जिनवर इकतास, जेठ बदी परमासे जान ॥६६॥ पादितवार कर नव वार, सुदि असाढ़ भादोंभर धार । षटरस षट महिना परजंत, एक एक रस छोड़े संत ॥६७।। नित रस सात बार परवान, इक इक रस त्यागै दिनमान । त्रेपन त्रिया व्रत हि अवभास, तिनके है त्रेपन उपवास ॥६८|| अष्ट मूल गुण अष्टम पाठ, बारह प्रत द्वादशको ठाठ । बारह तप बारह द्वादशी, प्रलिमा ग्यारह एकादशी ॥६६॥
मार्ग रूपी मदा अन्धकार को टट करने स्वर्ग एवं मोका अति प्रशस्त पथ दिखाने वाला कदाचित कोई दूसरा नहीं है। भव्यों का उपकार करने वाले एकमात्र प्राप ही तो हैं । इसलिये हे स्वामिन, प्रापको पुनः पुनः नमस्कार है। आप गुणोंके रत्नाकर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, एवं अनन्त सुखशाली माप हैं। माप अनन्त, बल स्वरूप हैं, दिव्यमति हैं, महालक्ष्मीसे विभूषित हैं। आपको बार बार नमस्कार है। आप यद्यपि असंख्य देवियों से घिरे हुए हैं तथापि पूर्ण ब्रह्मचारी हैं। उदय प्राप्त जानशाली माप हैं, मोहशत्रु-नाशक हैं, इसलिए आपको नमस्कार है । शान्तरूप से ही कर्म-शत्रु को परास्त करने वाले,
.- -.. काली जाये। राजा यह सुनकर चिन्ता में पड़ गया कि भरी सभा में मठ कसे कहा जावेगा। राजा को चुप देख, स्वस्तिमती ने कहा कि क्या आने वचनों का भी भव नहीं? राजा ने मजबूर होकर कहा कि अच्छा ! वचनों की पूर्ति होगी।
हसरे दिन नारद और पर्वत राजा के दरबार में गये । नारद ने अज का अर्थ शषित रहित शाली तथा जी और पर्वत ने छला (बकरा) बतलाया। इस पर राजा ने कहा जसे पर्वत कहे वसे ही ठीक है। तव से यज्ञों में पशु होम होने की रोति प्रचलित हुई।
महाराजा श्रेशिक ने भगवान महावीर से अपने पिछले जन्म के हाल पूछे तो भगवान की बारगी खिरी जिसमें उसने सुना-"ए श्रेणिक ! सेतीसरे भव में तुम एक बहत पापी और मांसाहारी भील थे। मुनि महाराज ने तुम्हें मांस के त्याग का उपदेश दिया परन्तु तुम सहमत न हा तो उन्होंने कहा कि तुम ऐसे मांस के त्याग की प्रतिज्ञा कर लो कि जिसको तुमने न कभी खाया है और न आइन्दा खाने की इच्छा हो, इसमें कोई हर्ज न जानकर आपने कौवे के मांस-भक्षरण का त्याग जीवन भरके लिए कर दिया । अचानक आप बीमार हो गये, हकीमों ने कौवे का संस दवा के रूप में बताया, परन्तु आपने इंकार कर दिया कि मैंने एक जन साधु से जीवन भर के लिए कौवे के मांस के त्याग का संकल्प लिया । है। मर जाना मंजूर है मगर प्रतिज्ञा भंग नहीं करूंगा। सबने समझाया कि बीमारी में प्राणों की रक्षा के कारण दवा के तौर पर थोड़ा-सा खा लेने में करत हर्ज नहीं, परन्तु आपने प्रतिज्ञा को भंग करने से स्पष्ट इंकार कर दिया । जिसके पुण्य फल से मरकर स्वर्ग में देव हए और वहां के सख भोगकर भारत के इतने प्रतापी सम्राट् हुए।"
महाराजा श्रेणिक ने एक देव के मुकुट में मेंढक का चिन्ह देखकर आश्चर्य से पूछा कि इसके मकुट में मेंढक का चिन्ह क्यों है? उसर में सना "हे राजन् ! यह नियम है कि जो मायाचारी करता है वह अवश्य पशुमति के दुःख भोगता है। तुम्हारे नगर राजगृह में नागदत नाम
तो चंचल लक्ष्मी के लोभ में वे छल-कपट अधिक किया करते थे जिसके कारण मरकर अपने ही घर की बावड़ी में मेंनक हो गये । उसो बावडी में से एक कमल का फूल मुख में दबाकर बह यहां समवशरण में आ रहा था कि रास्ते में तुम्हारे हाथी के पांव के गीचे आकर उसकी
गई। उसके भाव जितेन्द्र भक्ति के थे जिसके पुण्य फल से वह मेंढक स्वर्ग में देव हुआ, स्वर्ग के देव जन्म में ही अवधिज्ञानी होते हैं. अवधि जापिळले हाल को जानकर वह अपने संकल्प को पूरा करने के लिए यहां आया है। मेंढक के जन्म से उसका उत्थान हुआ है इसलिए उसने अपने मुकुट में मेंढक का चिन्ह बना रखा है।"
णिक ने वीर वाणी में जिनेन्द्र भक्ति का महात्म्य सुना तो उसे जिनेन्द्र भक्ति में दृढ़ विश्वास हो गया और उसने अन्य जैन मन्दिर बनवाए। राजगह के पुराने संडरों में उस समय की मूर्तियां आदि मिली हैं, सम्मेदशिखर पर्वत पर जिन निपचिका में बनवाई। उसने अपनी होकाओं को दूर करने के लिए भगवान महावीर से ६० हजार प्रश्न पूछे जिनका विस्तार आदिपुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराए, पाण्डवपुराण आदि
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चार दान की चौथ जु चार, जलगालन परिमा इक धार । सामायिक अंथी हूँ दोज, रत्नत्रय श्रय तीन समेत ।।७।। एक वेपन विधि प्रोषध कर, एक बार अन्तर नहि पर। अष्ट करम चूरन व्रत जान, चौसठ दिनको कहयो प्रमान ।।७१।। अष्टमि वसु केवल उपवास, अष्टमि आठ कंजकी जास । अष्टमि बसु इक तंदुल खाव, अष्टमि ग्राउ ग्राम इक पाव ।।७२।। मठ अष्टम कुरछी भोजन्न, अष्ट अष्टमी रस इक अन्न । एकल ठानो अष्टमि अाठ, वसु अष्टमि रक्षान्न सु ठाठ ॥७३॥ णमोकार व्रत अब सुन राज, सत्तर दिन एकांतर साज । तीर्थकर चौबीस और, अड़तालीस इकांतर ठौर ।।७४॥ पुन समकित चौवीस हि भनौ, अड़तालिस एकांतर गनौ। भार- पचीसी सत लान. एकांना पगाशान ॥७॥ पल्य विधान सू चौतिस दिना, पच्चिस प्रोषध नव पारना । एकहित पंचहि लौं चढ़े, फेर उतरि पहले लौं र ॥७॥
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सम्पूर्ण जगतके स्वामी एवं मुक्ति रूपिणी सुन्दरी स्त्री के प्रियतमपति पाप हैं । आपको पुनः पुनः नमस्कार है । हे देव सम्मति महावीर, मैं अपनी अभीष्ट-सिद्धिके लिए आपको नत मस्तक होकर कोटिश: प्रणाम करता हूँ। हे स्वामिन, हमें और किसी अन्य वस्तुकी अभिलाया नहीं है बस, जन्म-जन्ममें आपको श्रेष्ठ भक्तिकी कामना है, वही आप हमें स्तुति, भक्ति, सेवा एवं नमस्कार के फल स्वरूप प्रदान करने का अनुग्रह करे ! तीनों लोक में अत्यन्त उत्तम सुख एवं मनोकामना का पूर्ण करने वाले सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्रकी प्राप्ति हो यही आपके चरणारबिन्दकी भक्ति करके मैं पाना चाहता है।
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अनेक जैन ग्रन्थों से खोजा जा सकता है इस प्रकार जैन धर्म को खूब अच्छी तरह से परखकर उनका मिथ्यात्व नष्ट होकर महाराजा श्रेणिक बिम्बसार ऐसे पक्के सम्यग्दष्टि जनी हो गये, कि स्वर्ग के देव भी उनके सम्यग्दर्शन को परीक्षा करने के लिए गज गृह आये और उसे पूरा पाकर उनकी बड़ी प्रशंसा की । यह भ० महावीर की भक्ति और श्रद्धा का ही फल है कि आने वाले उत्सपिणी युग में महाराजा श्रोणिक 'पद्मनाभ' नाम के प्रथम तीर्थकर होंगे।
राजकुमार मेघकुमार पर वीर प्रभाव Megakumar, a son of Shrenaka was ordained a member of the order of Mahavira.
--Mr. VS. Tank, VOA. II. P.68. दीर वाणी के मीडे रस को पीकर महाराजा श्रेरिणक के पुत्र मेघकुमार भगवान् महावीर के निकट जैन साधु हो गये, परन्त राजसालों के पानन्द भोगने वालों का चंचल हुदय एकदम कठोर तपस्या में कैसे लगे? पिछले भोगविलास की याद आने से वह घर जाने की आशा के लिए म० महावीर के निकट आया? इससे पहले कि वह कुछ कहे, भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि खिरी जिसमें उसमें सूना पिकमार को याद नही कि अबसे तीसरे भव में तुम एक हाथी थे एक दिन तुम पानी पीने के लिए तालाब पर गये तो दलदल में फंस गये। तुम्हारे शत्रयों ने उचित अवसर जानकर इतनी मार-पीट की कि तुम्हारी मृत्यु हो गई । क्पा तपस्या की बेदना उससे भी अधिक है। दूसरे जन्म में फिर बाकी हा दावानल से जान बचाने के लिए उचित स्थान पर पहुंचे तो वहाँ पहले ही पशु मौजूद थे, बड़ी कठिनाई से सुकड़ कर खडे हो गये। शरीर खज लाने के लिए तुमने अपना पांव उठाया तो उस जगह एक खरगोगा अपनी जान बचाने को आ गया, जिसे देखकर केवल इसलिए कि खरगोन मर न जाए अपने उस पर को ऊपर उठाये रखा । जब गवानल शान्त हुमा और तुम बहां से निकले तो निरन्तर तीन दिन तक तीन टांगों से खडा रहने से तुम्हारा सारा शरीर जकड़ गया था, बाग धड़ाम से नीचे गिर पड़े, जिससे इतनी अधिक चोट पायी कि तुम्हारी मत्य हो गई। गति में तुम इतने धीर, धीर और सहन-शक्ति के स्वामी रहे हो तो क्या अब मनुष्य जन्म में श्रमण अवस्था से घबरा गये हो ? अनेक शरमा को बुद्ध में पछाड़ देने वाले पूरवीर होकर साधना की पराक्रम भूमि में आकर कर्मरूपी शत्रुओं से युद्ध करने में भय मान रहे हो।
वीर-उपदेदारूपी जल से मेघकुमार की मोहरूपी अग्नि शान्त हो गई। विश्वासपूर्वक संयम धारकर आत्मिक सुखों का मानन्द बटने के कारण वह आत्मिक ध्यान में दृढ़ता से लीन रहने लगे।
अभयकुमार पर वीर प्रभाव Prince Abbaya Kumar sdopted the life of a Jain Monk Some Historical Jain Kinos Heroes, P. 9.
महाराजा श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार ने म० महावीर से अपने पूर्व-जन्म पूर्छ, तो वीर दिव्य-ध्वनि में उसने सूना "अबसे तीसरे मन
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व्रत नक्षत्र भाल उर धरै सो चौवन एकांतर करै। लब्धि विधान करीत येह, हैं बत्तीस एकान्तर तह । ७७।। सप्तकुम्भ व्रत बासठ दिना, पैतालिस सत्रह पारना । बड़ी सिंहको इन व्रत सुनो, इकसै अडसह दिनको गुनौ ।।७८॥ इकसै सेंतीस हि उपवास, करै पारने इकयिस जास । त्रिगुणसार वत इकतालोस, ग्यारा जेवा प्रोषध तीस ।।७६॥ भई वन सिंह क्रिडनी जान, दो सय दिन ताको परवान। इकसय पचहत्तर उपवास, करं पारने पच्चिस जास ॥८॥ चारितशुद्धि व्रत गुणधाम, बारहस चौतीसा नाम । तेरह अंक नवति उपवास, कर निरन्तर पूरन जास ।।१। व्रत ज सर्वतोभद्र विचार, सौं दिनकी मर्यादा धार । प्रोषध पचहत्तर परवान, अरु पच्चीस पारने जान ।।८।। महा सर्वतोभद्र हि जास, दौस चोंबन दिन परकास । इक सय पचावन उपवास, और पारने कर उनचास ॥१३॥ व्रत दुखहरण एकसं वीस, तितने हा एकातर दोस । यजुपुरन्दर हरि हरिमास शुकलाश्रम लौं एकामास ||८४॥
. यद्यपि जगत गुरु श्री महाबीर तीर्थकर संसार के समुद्बोधन में रत थे तथापि पूर्वोक्त प्रकार से इन्द्र के द्वारा स्तुति की जाने पर उन्होंने सब भव्यों को मिथ्या मार्ग से दूर हटाकर निभ्रान्त मोक्ष मार्गपर लाने के लिये बिहार करने का निश्चय किया। जब प्रभु बिहार करने के लिए उद्यत हुए तब बारह प्रकारके जीव समूहों ने उन्हें घेर रखा था। देववन्द चमर हिलाकर सेवा कर रहे थे, तीन परमोत्तम छत्र शोभायमान हो रहे थे और उनके पास महा सम्पदायें एकत्रित थीं। करोड़ों वाद्य
में अभयकुमार तुम एक बड़े विद्वान् ब्राह्मण ये परन्तु जात-पात और छूत-छात के भेदों में इतने फंसे हुए थे कि शूद की छाया पड़ने से भी तुम अपने आपको अपवित्र समझ बैठते थे । एक दिन आपकी भेंट एक थाक से हो गई। उसने आपको समझाया कि धर्म का सम्बन्ध जाति या शरीर से नहीं बल्कि आत्मा से है । आत्मा शरीर से भिन्न है, ऊंच हो या नीच, मनुष्य हो या पशु, ब्राह्मण हो या चाण्डाल, आत्मिक अनति करने की शक्ति सबमें एक समान है । जिससे प्रभावित होकर जाति-पांति विरोध त्याग कर आप श्रावक हो गए और विश्वासपूर्वक जैन धर्म पालने के कारण मरकर स्वर्ग में देव हुए और वहाँ से आकर श्रेणिक जैसे महाप्रतापी सम्राट् के भाग्यशाली राजकुमार हुए हो।"
भगवान महावीर के उत्तर से अभयकुमार के हृदय के कपाट खुल गये । यह विचार करते-करते “जब थावक धर्म के पालने से इस लोक में राज्य सुख और परलोक में स्वर्गों के भोग बिना मांगे आपसे आप मिल जाते हैं तो मुनि धर्म के पालने से मोक्ष के अविनाशी सुखों की प्राप्ति में क्या संदेह हो सकता है ? प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या ? भ० महावीर स्वयं हमारे जैसे पृथ्वी पर चलने-फिरने वाले मनुष्य ही तो थे, जो मुनिधर्म धारण करके हमारे देखते ही देखते लगभग १२ वर्ष की तपस्या से अनन्तानन्त दर्शन, मान, सुख और धीर्य के घारी परमात्मा हो गये । मनुष्य जन्म बड़ा दुलन है फिर मिले न मिले" वह म. महावीर के निकट जैन साधु हो गये।
वारिषेण पर वीर प्रभाव Amongst the sons of Shrenika Bimbisara, Varisena is famous for his picty and endurance of austerities. He was ordained as a naked saint by Mahavira and attained Liberation
--Some Historical Jain Kings & Heroses P. 14. सम्राट श्रेणिक के पुत्र वारिषेण इतने पक्के प्रती धावक थे कि तप का अभ्यास करने के लिए बह रात्रि के समय श्मशान में निशंक होकर आत्म-ध्यान लगाया करते थे।
विद्य त नाम के चोर ने राजमहल से महारानी चेलना का रत्नमयो हार चुरा लिया। कोतवाल ने भांप लिया, चोर जान बचाने को इमशान की तरफ भागा, कोतवाल ने पीछा किया तो हार को फेंककर वह एक वृक्ष की ओट में छुप गया । जिस जगह हार गिरा था उसके पास वारिषेण आत्म-ध्यान में लीन थे । इनको ही चोर समझकर कोतवाल ने हार समेत इनको राजा घोपिक के दरबार में पेश किया। राजा को विश्वास न था कि बारिषेण जैसा धर्मात्मा अपनी माता का हार गये, परन्तु चोरी का माल और चोर दोनों की मौजदगी तथा कोतवाल की शहादत । यदि छोड़ा तो जनता कह देगी कि पुत्र के मोह. में आकर इन्साफ का खून कर दिया, इसलिए उसने उसको प्राण दण्ड की सजा
- चाण्डात्त हैरान था कि यह क्या? वह वारिषेण को करल करने के लिए बार-बार तलवार उठाये परन्तु उसका हाथ न चले । थर्मफल के प्रभाव से बनदेव ने चाण्डाल का हाथ कील दिया था। सारे राजगृह में शोर मच गया। राजा श्रेणिक भी ना गये और उसको राजमहल में चलने
गर-बार तलवार उठाये परन्तु उसका हाथ न स । वर्मफल में
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धरम चक्र पालक प्रत जास, षट जेवा षोडश उपवास । बहद धर्मचक्र हि ब्रत धर, दशस दस दिन मोकल कर ।।५।। जिनगुणसंपति छयाराह दीप, प्रोषध छत्तिस पारन तीस । लघु जिनगुण-संपत्ति प्रेसद्द, कर एकांतर पूज प्रमठ ॥८६॥ सुख संपति दिन इकइस वीस, पूनौ मावस वाटीस । तर पान हौ पुरत हो, जुन अन सुखसंपति वतजोइ ॥८॥ दिन विशोत्तर वृष दश करै, पून्यौ चा मावस धरै । रुद्र वसंत जु चालिस दिना, पंतिस प्रोषध पन पारना ॥८॥ शील कल्यान एकसं असी, करें पोषलौं प्रोषध जसी । इकसय बीस पंचकल्याण, प्रोषध जिन कल्यानक ठान ।।८।।
इन्द्रकल्यान दिवस पच्चीस, पंचपंच दिन ब्यौरो दीस । प्रोषध कांजिक एकल ठान, रुक्ष अनागार पहिचान ।।801 धुतकल्याण वही विधि धार, श्रुत हि पठन कर लेइ अहार । लघु कल्याण वतहि दिन पंच, एक-एक दिन बहुविध संच ।।११|| मध्यकल्याण जु तेरह दिना, आदि अंत है पोषध गिना । एकलि चार कंजिका तीन, रूक्षरू अनाहार द्वय दीन 18२॥ श्रुतस्कन्ध व्रत जब पादरी, तोस दिवस एकांतर करै । पंचहि धत जान हि प्रत सार, कर उपवास निरंतर धार ॥१३॥
ध्व.नके साथ प्रभने बिहार करना प्रारम्भ किया। अनेकों ध्वजा-पताका एवं छन्न इत्यादि से सारा आकाश-मंडल ढक सा गया। देववृन्द चारों ओर से जय ध्वनि करने लगा हे ईश, आप सम्पूर्ण भव्य जीवों के महाशत्र मोह को जीत और जयवन्त कहलायें । प्रभा, आपकी वृद्धि हो और आनन्द को प्राप्त करें। इसके बाद प्रभु विहार करने लगे और सब सुर असुर इत्यादि के साथ मध्यमें तेजस्वी सूर्य के समान शोभायमान हुए। प्रभु के स्थान से लेकर सौ योजन पर्यन्त सम्पूर्ण दिशामों में प्रत्यन्त सुकाल था। सातों प्रकारसे भयों का कहीं छाया मात्र भी दष्टिगोचर नहीं होता था। अहंन्त प्रभु अनेकों देश पर्वत, नगर एवं नदी
के लिये बहुत जोर दिया परन्तु उनकी दष्टि गं तो संसार भयानक और दुखदासी दिखाई पड़ता था उन्होंने कहा कि क्षणिक संसारी सुखों की. ममता में अविनादी सुखों के अवसर को क्यों खोऊँ । बह भ. महावीर के समवशरण में जाकर जैन साधु हो गये ।
शालिभद्र पर वीर प्रभाव
राजगृह के सबसे बड़े व्यापारी शालिभद्र ने आनन्दभेरी सुनी तो भगवान महावीर के आगमन को जानकर उसका हृदय आनन्द से गदगद करने लगा और तुरन्त भ० वीर के दर्शन के लिये उनके समवशरण में पहुंचा और उनसे पिछले जन्म का हाल पूछा तो भगवान की दिव्य ध्वनि खिरी जिसमें मुनाई दिया कि तुम पिछले जन्म में बहुत दरिद्री थे, पड़ोसी के घर खीर बनते हुए देखकर तुमने भी अपनी माता से खोर बनाने के लिये कहा भगर अधिक गरीब होने के कारण वह दूघ आदि का प्रबन्ध न कर सकी। गांव के लोगों ने तुम्हारी जिद को देखकर खीर बनाने की सारी सामनी जुटा दी। माता तुमको परोसनेवाली ही थी कि इतने में एक जन साधु, आहार निमित्त उधर आ गये। तुम भूल गये इस बात को शिबड़ी कठिनाइयों से अपने लिये स्वीर तैयार कराई थी तुमने मुनिराज को पड़गाह मिया और उस शारीखीर का आहार उनको करा दिया और स्वयं भूगे रहे। मुनि आहार के फल से इस जन्म में तुम इतने निरोगी भाग्यशाली हुए हो कि करोड़ों की सम्पति तुम्हारी ठोकरों में फिरती है। शालिमा यह विचार करके कि थोड़े से त्याग रो इतन अधिक संसारी मुख सम्पत्ति मिली तो इन संसारी क्षणिक सुखों के रयाग से मोच का सच्चा सुख प्राप्त होने में क्या संदेह हो सकता है ? आप जैन मुनि हो गये।
महाराजा श्रेरिपक ने अगने राज्य के सबसे बड़े सौदागर को मुनि अवस्था में देखा तो उनसे पूछा कि आपने करोड़ों की सम्पत्ति एक क्षण में कैसे लाग दो मुनि शालिभद्र ने उत्तर दिया "अब तक मैंने जो सौदे कि उसका केवत इस एक जन्म ही में सुख प्राप्त हुआ, परन्तु जो मौदा आज किया है उसका सुख सक्ष के लिये प्राप्त होगा।
अर्जुनमाली पर वीर प्रभाव राजगह के नगरसेठ सदर्शन बोरवन्दना को जाने लगे तो उनके पिता ने वाहा, "अर्जुनमाली महादुष्ट है। लः पुरुष और एक ली तो नियम से बह प्रत्येक दिन मार ही डालता है। तुम यहां से ही भ० वीर को नमस्कार कर लो, बह तो सर्वश है, यहाँ सकी हुई बन्दना को भी वह अन ज्ञान से जान लेंगे" । सुदर्शन ने कहा मरना तो एक दिन है ही, फिर इसका भय क्या ? ।
सुदर्शन राज गृह मे थोड़ी दूर ही बाहर निकला था कि अर्जुनमाली भूधे शेर के समान झाटा और अपना मोटा मुद्गर मारने को उठाया परत वीर भगवान की भक्ति के फल से बन देव ने उसके हाथ कील दिए। अर्जुन बड़ा शक्तिशाली था उसने बहुत यल किए,परन्तु कुछ वेश
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इस घड़सठ दिन पर मान, जब चाहे शारम् थान व
रत्नावती इकतालीस, न्यारा वा प्रोषध तीस ॥६४॥ मध्यम रत्नावलि व्रत और प्रोषध सगँ बहत्तर ठीर । शुकलपंचमी छट इकदशी, कृष्ण दोज अर छट द्वादशी ||६|| द्वि रत्नावलि व्रतहि वखान, त्रय सय छासट दिन परवान । प्रोषध सबै तोनर्स घरं, छवास वहां पारने करें ।। ६६ ॥ मुक्तावलि प्रोप उनवास करें पारने तेरह जास मुक्तावलि नव उपवास, ताको व्यौरी चार जु मास ||२७|| भादों सुदि सप्तम इकदशी, क्वांर वदी षष्ठी त्रोदशी । घर सुदिकी एकादश जान, कार्तिक वदि वारस पहिचान ॥६८॥ सुदि की छह अरु एकादशी, गहून वदि अष्टमि मन वसी । यही मास सुधि तीज प्रकाश, सो श्रत पालो नव उपवास ॥ ६६ ॥ अब दुकाल व्रत अवनीश प्रोषध सब इकसय छवीस । मास मास में बेला तास, शुक्ल पक्ष महि चार सुहास ॥१००॥
इत्यादिकोंको पार करते हुए धाकाश मार्गचे ही माने बहने लगे। प्रभुके शान्त परिणाम के प्रभाव के कारण हरिण, मृग इत्यादि वन्य जीवों को दुष्ट सिहादि हिंसक पशुमोसे कुछ भी जम न था प्रभु, नोकर्म वर्गणाके बाहार से ही पुष्ट थे, एवं वितथे कर्मों के नाथ हो जाने के कारण कलाहार (ग्रास भोजन) प्रायः बन्द हो चुका था। समन्तु चतुष्टय के साथ इन्द्रादि प्रभु को घेरे हुए थे। प्रभु का आसाता कर्म उदय अत्यन्त मन्द था इसीलिए मनुष्यों के द्वारा किये गये उपसर्ग
चलता न देखकर वह सुदर्शन के चरणों में गिर पड़ा। सुदर्शन ने कहा, "यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो मेरे साथ वीर वन्दना के लिए चलो”। अर्जुन बोला "वहां तो ये कि जैने सम्राट् आनन्द लेने से और तुम्हारे जैसे भक्त जाते हैं, मुझ जैसे पापी और मीच जाति को कौन
देगा? सुदर्शन में कहा, 'वही तो भ० महावीर की विशेषता है कि उनके समवशरण के दरवाजे पापों से भी पानी और सोच से भी च चाण्डाल तक के लिए खुले हैं तुम्हारे लिए वहां वही स्थान है जो महाराजा थे पिक के लिए" यह सुनकर अर्जुन भी सुदर्शन के साथ चल दिया। समवशरण के अहिंसामग्री वातावरण और विरोधी पशुओं तक को आपस में प्रेम करते देखकर अर्जुन भूल गया कि मैं पापी हूँ। उसने विनयपूर्वक भ० महावीर को नमस्कार किया और उनके उपदेश से प्रभावित होकर जैन साधु हो गया। कि आश्चर्य में पड़ गया कि जिस दुष्ट व कलगिरि के हजारों चाकात से सारा देश परेशान था, जिसके कारण उसको गिरफ्तार करने के लिये उसने हजारों रुपये अर्जुन को लूटमार का इनाम निकाल रखा था फिर भी किसी में इतना हौसला न था कि उसे पकड़ सकें, वह वीर-शिक्षा से इतना प्रभावित हुआ कि सारे दोषों को छोड़कर एकदम जैनमुनि हो गया 1
महाराजा चेटक पर दोर प्रभाव
वैशाली के राजा चेटक इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रिय-रश्न थे। वह थे बड़े पराक्रमी और वीर योद्धा सुभद्रा देवी इनकी रानी थी। वे दोनों इतने पक्के जैनी थे कि इन्होंने संकल्प कर रखा था कि अपनी पुत्रियों का विवाह अर्जुन से नहीं करेंगे। जिनेन्द्र भगवान की पूजा भक्ति तो वह
भूमि तक में नहीं भूलते थे । उनके धन, दत्तभद्र, उपेन्द्र, सुदत्त, सिंहभद्र, सुकुम्भोज, अकम्पन, सुपतंग, प्रभंजन और प्रभास नाम के दश पुत्र और भगवती सुप्रभा प्रभावती, बेलना, ज्येष्ठा और चन्दना नाम की सात पुत्रियाँ भी मिला प्रियकारिणी कुठपुर के राजा सिद्धार्थ से यही थी और श्रीवर्द्धमान महावीर जी की माता ही थी। मृगावती कौशाम्बी के राजा शतानीक की रानी थी सुप्रभा दशा देश के राजा दशरथ से ब्याही थी। प्रभावती सिपुसौवीर अथवा कच्छ देश के महाराजा उदयन की महारानी थीं। चेलना जी मगध के सम्राट थेसिक बिम्बसार की पटरानी की कि जिनके प्रभाव से महाराजा श्रेणिक बौद्धधमं छोड़कर जैनी हो गया था । सति चन्दना देवी और ज्येष्टा आजन्म ब्रह्मचारिणी रही थी। यह सारा परिवार जनवर्मी था, ज्येष्ठा, चन्दना और बेलना तो भ० महावीर के संघ में जैन साधु हो गई थी। जब भ" महावीर का समवशरण वंशाली आया तो चेटक ने पूछा, मनुष्य बलवान अच्छा है या कमजोर ? वीरवाणी में उन्होंने सुना, "दयवान और स्वाववान का बलवान होना उचित है ताकि वह अपनी शक्ति से दूसरों की सहायता और रक्षा कर सके, परन्तु पापियों मत्याचारियों और हिंसकों का कमजोर होना ही ठीक है ताकि वह दूसरों पर अत्याचार न कर सकें।" महाराजा चेटक पर भ० महावीर का इतना प्रभाव पड़ा कि वे समस्त राजमुखों को लातभार कर यह जैन साधु हो गये ।
सेनापति सिंहभद्र पर वीर प्रभाव
सिनामक लिच्छवि सेनापति निगल नाउपुक्त ( महावीर ) के विप्यं थे।
श्री ग्रंथ महाव (S. BE) XVII. 116. सिंहभद्र वैशाली के विशाल राजा चेतक के महायोद्धा सेनापति थे । जव भ० महावीर का समवशरण वैशाली में आया तो यह भी
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परिमा दोज चौथ ए चन, आठ नवें चतुर्दशि पुन । कृष्ण पक्ष छट आटेनमें, तेरदा चौदा ए त्रय समं ॥१०॥ लघु दुयकाबलि इकसय बोस, बेला प्रोषध कर चौबीस । इक अहार अड़तालिस और, सबै पारनै चौविस जोर ।।१०२॥ अब कनकावलि कर इक वर्ष, महिमा प्रतिछह प्रोषध पर्व । शुक्ल प्रतिपदा पंचमि दसै, कृष्णा दोज छह द्वादश बस ॥१०३।। बड़ी कनक बलि व्रतहि वखान, दिन जु पंच सत बाइस मान । प्रोषध कर बहुसै चौंतोस, जेवा सबै अठासो दीस ॥१०४।। इकावलि इक वर्ष समात, मासहि प्रति प्रौषध कर साप्त । कृष्ण चौथ चौदश अष्टमी, अरु आठ परिमा पंचमी ।।१०।। वज्रमध्य ब्रत दिन अड़तीस, जवा नव प्रोषध उनतीस । मृदंग मध्य व्रत कर दिन तीस, सत जेवा प्रोषध तेवीस ।।१०६॥ मुरज मध्य दिन तेतिस जान, छब्बिस प्रोषध जंवा सात । मेरु पंक्ति दो सय दिन बसी, सय बिस प्रोषध जेबा असी ॥१०॥ नन्दीश्वर पंकति व्रत होइ, अष्टोत्तर सय दिन अवलोइ । प्रोषध तिहि अंठावन धरै, सब पंचास पारने करै।।१०।।
का एकदम अभाव था। त्रिजगद्गुरु महाबीर प्रभु के अतिशय के कारण चारों दिशाओं में चार मुख थे। वे सभी को अपने सम्मुख ही पाते थे। सभी जीव अत्यन्त निकट थे और उन्हें किसी प्रकार का कोई भय नहीं था। धातिया कर्मा के नाश हो जाने के बाद प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। वे सम्पूर्ण विद्याओं के स्वामी थे और उनके नेत्र भो तेजस्वी ही थे। के दिव्य शरीरकी न कहीं छाया (परछाई) पड़ो, न आँखों के पलक बन्द हुए और न कभी नत्र एवं केशों को ही बद्धि हई। घातिया कर्म रूपी शत्रुओं के नाश हो जाने पर उस बिभु के दस दिव्य अतिशय स्वतः प्रकट हो गये। सब अंगों से पर्थ स्वरूप अर्ध मागधी भाषा निकली । यही प्रभको दिव्य भाषा थो। यह सभी लोगों के प्रानन्द को देने वाली, समग्र सन्देह को मिटाने बाली, दो प्रकार के धर्मको एवं सम्पूर्ण पदार्थों की कहने वाली हुई । इस सद्गुरु के परम पाश्चर्योत्पादक प्रभाव से स्वभावतः जाति विरोधी सर्प एवं मेवले इत्यादि जीव परस्पर के बैर भाव को मिटाकर परम मित्र की तरह एक ही स्थान पर रहने लगे। और सब वृक्षोंमें एक साथ सम्पुर्ण ऋतुओं के फल फूल एक ही साथ फल गये। ये इस विचित्र
उनको बन्दना को गये और भक्तिपूर्वक नमस्कार करके भ० महावीर में पूछा कि क्या शासन चलाने वाले मेरे जैसे अधिक के लिये शाट रक्षा लिये तलवार उठाना और अपराधियों को दण्ड देना अहिंसा धर्म के विरुद्ध है? भ० महाबीर की वाणी खिरी, जिसमें उन्होंने सना कि देशारामा लिए सैनिक धर्म तो धावक का प्रथम धर्म है । सैनिक धर्म के बिना अत्याचारी का अन्त नहीं होता और बिना अत्याचारों का अन्त पिए देश में शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती और बिना शांति के गृहस्थ धर्म का पालन नहीं हो सकता और बिना गहस्यों के मुनिधर्म सम्पुर्णरूप से पालन नहीं हो सकता। इसलिए देश में शांति रखने तथा अत्याचारों को नष्ट करने हेतु विरोधी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना और अपराधियों को न्यायपक दण्ड देना गहस्थियों के लिये अहिंसा धर्म है।" सेनापति मिहभद्र ने अहिंसा धर्म की इतनी विशालता वोरबाणी में सनकर तुरन्त ही श्रावक धर्म के ब्रत ले लिये।
प्रानन्द श्रायक पर वीर प्रभाव सेठ आनन्द वाणिज्य ग्राम के बड़े प्रसिद्ध साहुकार थे, चार करोड़ अशकियां उनके पास नकद थी। बार म.रोड़ अशफिया ब्याज पर और चार करोड़ अगफियाँ कारोवार में लगी हुई थी। करोड़ों अशकियों की जमीन-जायदाद थी। चालीस हजार गाय, भैस, घोडे, बल आदि प्रशाधन था । जब भ० महावीर का समबरण उनकी नगरी में आया तो आनन्द और उनकी पत्नी शिवनन्दा ने भ. बोरगे धावक के प्रत लिए और यह प्रतिज्ञा कर ली कि जो हमारे पास है उसमें अधिक अपने पास न रखगे। पाज पर चढ़े हुए चार करोड अशफियों का सद पता करेंनो सम्पति बह जाये, कारोबार में लाभ हो तो सम्मलि बढ़े। हर साल एक बच्चा हो तो चालीरा हजार पशुधन में सालभर में चालीस हजार बच्ने बह जाने उनको बेचें तो नगदी बढ़ जावे इसलिए लोभ और मोह नष्ट हो जाने से वह महासन्तोषी और इच्छारहित होकर श्रावक प्रत पारने के कारण वह इस दुखी संसार में भी महासुखी थे।
महाराजा एवन्त पर वोर प्रभाव पोलसपुर के सम्राट विक्रम के पुत्र एवन्तकुमार ने भ० महावीर के निकट दीक्षा ली। -श्रीचौथमल जी : भ. महावीर का आदर्श जीवन, १० ४१६ ।
पोलासपुर में नीर-समवसरण पाया तो वहां के राजा विक्रम में उनका स्वागत किया । शब्दालपुत्र नाम के कुम्हार ने जिसकी पाँचौ
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लक्षण पंक्ति चारसे आठ, कर एकांतर पोषध ठाठ । विमान पंक्ति दिन सठ गहै, प्रथम हि बेला एक जुलहै ।।१० फिर एकांतर वार जु कर, याही भांत निरन्तर धरै । बारह तप व्रत बारह भांत, बारह बारह इक रस सात ।।११०॥ रसहि त्याग चौरासी एह, पुन कंजक बारह गन लेह । अर उदण्ड बारह माहार, मन चित वारह निरधार ॥११॥ एकल बारह बारह रुक्ष, इकसय चवालीस दिन स्वच्छ । अठ सय गंध त्रय सब वन्न, दुसय अठासी प्रोषध मन्म ।। ११२५॥ करै पारनै चोसठ जास, अव चन्द्रायत व्रत हर मास । शुकल' ग्रास इक दिन दिन बड़े, कृष्ण पक्षइक इक घट रहै ।। जिन मुख अवलोकना व्रत एव, वर्ष दिना दरशन कर जेब । जिन रात्री व्रत एक उपास, फागुन सुदि चोदश को भास ।११४॥ पूजा कर जागरण कराय, पहर पहर प्रति जिन दरशाय । बार बिजौरा व्रत हर मास, दोउ द्वादशी कर उपवास ।।११।। एक सो नब प्रत दिन चारस, ऊपर तहां पचासी लस । जेबा असि च उसय पचयास, इकतै नबलौं चढ़ि चढ़ि जास ।।११६॥ ऐ सौदस ब्रत छसं पचास, सौ जेवा सब पांचसै पचास । दशलौं चढ़े अनुक्रम सोइ, जो लौं यह व्रत पूरन होइ॥११७।।
चार कोश तक की पाक सन्तप्त जीवों को
परिवर्तन से प्रभ के परमोत्तम दिव्य तप के ही प्रभाव को व्यक्त कर रहे थे। धर्म के सम्राट प्रभु का जहां सभा मण्डप होता था वहां पृथिवी चारों ओर से प्रादर्श के समान पारदर्श एवं प्रभा पूर्ण दीख पड़ती थी। जब प्रभु जगत के जीवों को उद्बोधित करने के लिए चलते थे तब सब को सुख पहुंचाकर सेवा करने की इच्छा से वायु शोतल, मन्द एवं सुगन्ध युक्त होकर चलने लगती थी अतुल आनन्द को देने वाली प्रभु के जय जयकार की ध्वनि से मुखरित था और शोक सन्तप्त जीवों को उसे सुनकर अपार आनन्द प्राप्त होता था। प्रभु के सभा मण्डप के मागे चार कोश तक की पृथ्वी को वायुकुमार देव झाड़ बहार कर स्व एवं तण-कपट आदि से हीन कर दिया करते थे। इसी प्रकार स्तनितकुमार देव बिजली को चमक से युक्त अत्यन्त सगन्धित जलकी वर्षासे चारों ओर छिड़काव कर देते थे और देववृन्द प्रभु के पैर रखने के स्थान में रत्न जड़े हए प्रकाशमान सुवर्ण के बनाये हए पीले पंखरियों वाले सात सात कमल बना दिया करते थे और प्रभु के पाद-पद्म उसी स्वर्ण-कमल पर ही पड़ते थे। शालि इत्यादि सबको तुप्ति देने वाले अन्न बनस्पति धान्य अधिक एवं पुष्ट अन्न कणों से परिपूर्ण होकर एकदम झक जाते थे तथा अन्याय वृक्ष भी सम्पूर्ण ऋतुओं के फल से युक्त होकर विनयावनत पुरुष के समान नीचे की ओर लटक जाते थे और उनकी शोभा बढ़ जाया करती थी।
हान कर दिया करते
कमिटी के बर्तनों की चलती थीं और तीन करोड़ अशकियों का स्वामी था, वीर प्रभु से श्रावक के प्रत लिये। वहां के राजकुमार एवन्त ने जैन साध होने की ठान ली। माता-पिता से आज्ञा मांगी तो उन्होंने कहा कि तुम मभी बालक हो विधि अनुसार धर्म कसे पाल सकोगे - TIT ने कहा कि धर्म पालने की विशेषता आयु पर निर्भर नहीं, बल्कि थक्षा और विश्वास पर है। वैसे भी आयु का क्या भरोसा?
और बढ़ा समान है। यदि जीवित भी रहा तो यह केसे विश्वास कि सदा निरोगी रहंगा, रोगी से धर्म पालन नहीं हो सकता। जता होनसाधन की शक्ति ही नहीं रहती। यह मनुष्य जन्म बार-बार नहीं मिलता ! बीरप्रभु के उपदेश में मुझे यह दृढ़ विश्वास हो गया है कि जिन तिपय भौगों और इन्द्रियों की पूर्तियों को हम सुख समझते हैं वह वर्षों तक नरकों के महादुग्न सहने का कारण है। माता-पिता शाप तो हमेशा मेरा हित चाहते रहे हो तो अबिनासी हित से क्यों रोकते हो। राजा और रागो अपने बालक के प्रभावशाली वचन सुनकर सन्तुष्ट हो और
गे जिन दीक्षालेने की प्राज्ञा दे दी । जिस प्रकार कैदी को वन्दीमान से छुटने पर आनन्द आता है उसी प्रकार राजकूमार एवन्त आनन्द मानता हुआ सीधा भ०वीर के समवशरण में गया और उनके निकट जैन सा हो गया ।
महाराज उदयन पर वीर प्रभाव Udayana the great king of Sindhu-sauvira became the disciplc of Lord Mahavira,
Some Historical Jain Kings & Heroes P.9. प्राकत कथा संग्रह में "सिन्धु-सौचोर के सम्राट उदयन को एक बहुत ही बड़ा महाराजा बताया है, कि जिनकी कई सी मकट वन्द राज सेवा किया करते थे।' रोकनगर उनकी राजधानी घो। उनके राज्य में नर-नारी ही क्या पशु तक भी निर्भय थे इसलिए उनका राजनगर भय के नाम से प्रसिद्ध था, प्रभावती उनकी पटरानी थी, जो महाराजा चेटक की पुत्री और भ० महावीर की मौसी थी। महारानी प्रभावती पक्की जैनधर्मी थी उनकी धर्म निष्ठा ने ही राजा उदयन को जनधीं बनाया था। वह दोनों इतने वीर भक्त थे कि अपनी नगरी में एक सुन्दर जैन
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जाशक्ति कछु मोर वसंत विउ मास वर्ष जंत ११ कर्म निर्जरा व्रत इक बास, महिमा प्रति चौदह उपवास ।। ११६।। उज्वल पनि पेट मास शुक्ल पंचमी को उपवास ।।१२०॥ (म) कावा पंचमी नजर अकास, भादों सुदि पंचमि उपवास ॥१२१॥ चन्दन षष्ठी भादों शुक्ल, चंदन चचि सु भोजन मुक्त ॥१२२॥ कुवार सप्तमी वाही दिना खजुरी पूजा ।।१२३३ । मन चिती आटे वह थान, मन चित्ते भोजन परवान ॥ १२४॥
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कंजिक व्रत जल भात अहार, चोखड दिन पारिवार व्रत रोहिणि कर प्रोषध गाढ़, एक वरष थवि प्रथम श्रषाढ़ श्रुति पंचमि पड़िपात्र विशाल जेठी पंचमि उपपान कृष्ण पंचमी ते ही वर्ष कृष्ण पक्ष पंचम को पर्व पंच पौरिया वा दिन जान, घर पचीस वाटं पकवान (निर) दोष सप्त भादों सुदी धर्म फूलन मंडप पूजा कर्म (नि) शल्य अष्टमी भाव सुदी, प्रोषध कर शयनासन जुदी श्रम सुगन्धदशमी व्रत जान, भादौं सुदि दशमी को मान | गन्ध चर्च देश भेद य हरै, पीछे भोजन आपून घरं ॥ १२५ ॥ पुनि सौभाग्य दशमि व्रत ठान, दश सुहागनों भोजन दान । दर्शामनि मानी घृत अवधार, यादर जुत परघर आहार || १२६ ।। चमक दर्शन और चमकाइ, जो भोजन महि हो मंत्राह । छह दर्शाम व्रत इहि परकार, छह सुपात्र को देह अहार ॥११२७|| तम्बोल दयानि व्रत को यह ओर, दश सुपात्र को देइ तमोर पान दर्शाम वीरा व पाम, दश धावक दे भोजन ठान ||१२६
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जिस प्रकार सम्पूर्ण पापों के दूर हो जाने से हृदय निर्मल हो जाता है उसी प्रकार जहां प्रभु का सभा मण्डप था वहां सम्पूर्ण दिशाएं आकाश के समान एकदम स्वच्छ हो जाया करती थीं मानों उनके भी पाप पुंज घुल गये हों। इनकी श्राज्ञा से चारों जाति के देव प्रभुकी यात्रा करने में सम्मिलित होने के लिए परस्पर एक दूसरे को देखकर बुलाया करते थे। उन महामहिमा साली प्रभुके धागे धागे प्रभापूर्ण रत्नों से सुशोभित सहस्रों अरों वाला पर्म चल रहा था। वह अपनी प्रखर ज्योति से महा अन्धकार के उदय को विदीर्ण करता हुआ बढ़ रहा था और देव मण्डली उसे घेरे हुए थी दर्पण आदि श्राठ मंगल द्रव्यों को देव अपने साथ लिये हुए थे यह सब महान् चौदह अतिशय भक्ति के द्वारा देवोंने किया। दिव्य चौतीस अतिशय, ग्राठ प्रातिहार्य, चार अनन्त चतुष्टय तथा अन्य अपरिमेय उत्तमोत्तम गुणों से संयुक्त प्रभु अनेकानेक देश वन, पर्वत नगर और ग्रामों में बिहार करते हुए राज्यगृह नामकी नगरी के बाहर विपुलाल पर्वत पर पहुंचे। वे महंत महापोर प्रभु धर्मोपदेश रूपी अमृत से अनेकानेक भव्य जीवको सन्तुष्ट करने वाले थे, उन्हें वस्तु स्वरूप का वास्तविक रहस्य बताकर मोक्ष के परिष्कृत पथ पर ले जाने वाले थे, मिथ्याज्ञान रूपी अत्यन्त पने सरकार से मान्छन यतः भवोत्पादक मार्गको नष्टकर बगने वचन रूपी तीक्ष्ण प्रहार से पालमय रत्नमय स्वरूप मोक्षके मार्गको प्रकट करनेवाले और कल्पवृक्षकी तरह सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, तप और दीक्षा रूपी चिन्तामणि रत्नोंके दाता तथा सम्पूर्ण संघ और देव वृन्द से परिवेष्ठित थे ।
इसके बाद जब राजगृही नगरी के अधिपति महाराज थेणिक ने बन के माली के मुख से प्रभु के शुभागमन का समाचार सुना तब यह शीघ्र ही भक्ति होकर स्त्री, पुत्र बन्धुन्ध और महा सम्पदा को अपने साथ लेकर प्रसन्नतापूर्वक उस विला चल पर्वत पर पहुंचा जहां कि प्रभु पाये हुए थे। वहां जाकर उसने प्रभुकी तीन परिक्रमा दी और मन, वचन एव कायदे पवित्र होकर अजा-पूर्वक प्रणाम किमा पौर जल इत्यादि अष्टद्रव्यों से जिनेन्द्र प्रभु के चरणारविन्द की पूजाकी और भक्ति बिल होकर
मन्दिर बनवाकर उसमें भ० महावीर की स्वर्ण-प्रतिमा विराजमान की थी। वे जैनधर्म को भलीभांति पालने वाले आदर्श बालक थे। जनमुनियों की सेवा के लिये तो इतने प्रसिद्ध थे कि इस लोक में तो क्या परलोक तक में उनकी धूम थी। स्वर्ग में देवताओं तक ने परोक्ष करके उनको बड़ी प्रशंसा की है।
भ० महावीर का समवशरण उनकी नगरी में आया तो उन्होंने बड़े शाही ठाट-बाट से भगवान का स्वागत किया और परिवार सहित उनकी बन्दना को गये। वीर उपदेश से प्रभावित होकर जैन साधु होने के लिये अपने पुत्र को राजतिलक करने लगे तो उसने यह कहकर इन्कार कर दिया कि राजसुख तो क्षणिक है, मुझे भी अविनाशी सुखों के जुटाने की आज्ञा देदो मजबूर होकर राज्य अपने भांजे केसीकुमार को दिया और वे दोनों भ० महावीर के निकट जैन साथ हो गये। महारानी प्रभावती भो चन्दना जी से दीक्षा लेकर जैन साध्वी हो, वौर संघ में शामिल हो गई ।
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फूल
दशमि फूलन दश भार, दश सुपात्र पहिराइ अठार । फल दसमी दश फल कर ले, दश धावक के घर-घर देइ ।। १२६॥
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दीप संगद संदीप बनाय, जिनहि चढ़ाय माहार कराय भवादयामि व्रत दशदप पुरी दश धावक दे भोजन करो न्योम दर्शाम दश दर्शन कराइ, नये नये दश पात्र जिमाइ भंडार दर्शमि व्रत शक्ति जुपाय, दश जिनभवन भंडारचड़ाय । अथ छह दशमी बांकी और देखी कथाकोश के दौर श्रवण द्वादशी ताही दिना, अनशन करे शुद्ध मन तना जितनी शाख जोत व्रत घरं, तितनी वर्ष उजेनो करे और सबै व्रत करियो जेह, अरु तिहि कर्यो लयो फल तेह सो गणराय भूष प्रति कह्यो, भविजन सुन सब ही व्रतल
धूपदर्शमि व धूप पांच से जिन दिग भाग अभंग ॥१२०॥ वारामि सुहारीले बारा बारा दश घर दे ।।१३१।। दशमि उदंड उदंड अहार, पंच घरनि जौ मिलि प्रविकार ॥ १३२॥ अखय दसे सुन सावन मास तिहि व्रत कर केवलि उपवास ॥१३३|| दूध रस व्रत सुदि भावी घरं, बारस को पर भोजन करें ।। १३४॥ श्रनंत चतुर्दशि चौदह वर्ष भादों सुदी चोदशि को पर्व ||१३५।। नहिती व्रत दूनी परवान ।। १३६।।
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जथाशक्ति पूजा पर दान
। कथाकोश में लीजौ जान, इहां धरें बहु बढ़े पुरान ॥ १३७ ॥ इत्यादिक बहु नहि भार आदि अन्य सब साठ हजार ॥१३८॥
दोहा
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जो पूछी नृप वारता, सौतन उत्तर साफ फिर गणधर पद प्रणमिकं पूछे श्रेणिक राय इन्द्रभूति] गणराज कहि सुन बुधिवंत नरेश राजा श्रेणिक का भवान्तर वर्णन
कर सभा जय जय कियो, कथा नाथ गणराज || १३|| कहाँ भवांवर पूर्व मूहि मन विकल जिनिजाय ॥ १४० ।। एकचित तुम सरहो, कहीं भवान्तर
मनविकलप
१४१ ।।
चौपाई
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श्रारजखंड
ये ही शरणखंट मंभार, विध्याचल उत्सग पहार खरसार व किरात मांस बहारी जियकर घाव
दक्षिण दिश दरकूट विशाल यहां सघन वन अधिक रसाल ।। १४२ ।। एकदिना शुभ पुण्य उपाय दर समाधिगुप्त मुनिराय ॥ १४३॥
स्तुति करने लगा हे नाथ आज हम धन्य हुए हमारा जीवन सफल हुआ और मनुष्य जन्म] चरितार्थ हुआ। भला जगद्गुरु को पाना कितने सौभाग्य की बात है ? आपके कोमल चरणाविन्द के शुभ दर्शन से हमारे नेत्र घोर प्रमाण करने से हमारा मस्तक कृतार्थ हो गया आपकी पूजा करने से हाथ यात्रा करने से पैर स्तुति करने से वाणी पवित्र और सफल हो गयी पापके अनुपम अद्भुत और अलोकिक गुणों का चिन्तवन करने से मन पवित्र हो गया तथा सेवा करने यह शरीर कृतकृत्य हो गया । हमारे पापरूपी महाशत्रु को नष्ट करने के लिए ही सम्भवतः आपका यहां शुभागमन हुआ है। हे प्रभो, आपके जैसे विशाल जलमान (जहाज) के सामने तो यह क्षुद्र संसार रूपी सागर एक साधारण गड्डे के समान जान पड़ता है घत्र में एकदम निर्भय हो गया इस प्रकार सोवय स्वानी थी जिनेन्द्र प्रभुको स्तुति और गद्गद् चित्त से पूनः पुनः नमस्कार कर यह अत्यन्यपित हुआ और सत्यधर्म का उपदेश सुनने के लिए मनुष्यों के परकोष्ठ में जाकर विज्ञाभाव से बैठ गया। बैठ चुकने के बाद श्रद्धा पूर्वकणिक महाराज ने जगद्गुरु की गम्भीरनिकहे हुए पति गृहस्थ धर्म सम्पूर्ण तत्व तीर्थकरों के पुराण, पाप पुष्पका प्रवक् पृथक फल श्रेष्ठ धर्मके क्षमा इत्यादि लक्षण और प्रतों के विषय में सत्यन्त महत्वपूर्ण उपदेश सुना। इसके बाद उसने श्री गौतम स्वामी गणधर को नमस्कार करके पूछा कि देव, दया पूर्वक मेरे जन्मके वृतान्तको प्राप कहें। इस प्रकार महाराज थे कि के प्रश्न को सुनकर परोपकार थी वो गौतम गणधरने राजासे महा-हे बुद्धिमान, तू अपने तीन जन्मके पूर्व वृतान्त को सावधान होकर सुन:
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विशाल जम्बूद्वiप के विख्यात विन्ध्य पर्वत पर कुटव नाम के एक ग्राम में खदिरसार नामका एक भद्र परिणामो भील रहा करता था वह बहुत बुद्धिमान था एक दिन पुष्य के उदय से सब जीवोंक कल्याण कार्यमें तत्पर समाधि गुप्त नाम मुनिको
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शिर नवाइ तिन प्रम पाव धर्मबुद्धि दोनी जतिराय सुन किरात फिर जोरे हाथ जो मुनि कृपासिंधु जगनाथ १४४ कहा, धर्म कहिये समभाग, कोन भांति तिरि पावत ताय भोल वचन सुन मुनिवर कहे। सुरापान मधुमास न रहे ।। १४५ ।। जीव तनों व करे न नेश, यही धर्म जगमांहो महेश ता कर परम पुण्य की न निसुर को गई ।। १४६।। तब गुबिच सून कहे किरात मधुरानी को हमरी बाहार या विन दिन नहीं जीवन पार ॥ १४७॥ भील वचन सुन कहै मुनेश, काक मांस तुम त्यागो शेष । यह सुन कहै किरात, जु सोय, यौं व्रत नेम राख हौं जो ॥१४८ प्रात बाय पं व्रत नहि तो तुमरे चरणकमल उर भर्जी भील वचन सुन मुनिवत दयो, प्रति संतुष्ट होइ तिहि ॥१४९॥ इहि विधि का मांस तज तेह, नेम गाढ़ धारों श्रधिकेश। फिर मुनिवर के प्रनमै पाय, गर्यो आपने गृह सुख पाय ।। १५० ।। एक समय तिहि अशुभ उपाय, उपजी रोग देह घति जाय यह सुन भीष कहै तथ बैन का मांस में छोड़ी ऐन ।। १५१।। प्रान जांय पर व्रत नहि जाय, व्रत बिन है जीवन दुखदाव यह विधि भद्रनेमि जब सुनी, भगिनीपति आायो तिहि तनौ कांची देवी रोवत जोइ, वाही तस्वर ग्रायौ सोइ की तुम कहो तुम्हारी ठाम सब विरतंत कही अभिराम मैं हो बनदेवी सुन भास, याही वनमें मेरो वास खदिरसार है भर्तृ किरात, आयु निकट श्राई अवदात काक- मांस तुम देही जात, वह नारक गति जहे खात
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व्रत त जीव स्वर्ग एवं व्रत विहीन नर नरकहि है ।।१५२।। सूरवीर तस नाम विशेख, पंथ निकट वट तरु इक देख ।। १५३।। देवी प्रति सी पूछत भयो, कौन बिछोह रुदन इव यी ।। १५४।। मील वचन सुन देवी कही मेरे वचन सुनो तुम सही ।। १५५ || मित्र हेत प्रति पीड़त देह काम अमिन वाड़ी अधिके ।। १५६ काक मांस व्रत पुन्यहि जोइ, होनहार मेरो पनि सोइ ॥ १५७॥ या करण हौं रोवत खरो, और न दूजी विकलप धरी ।। १५८
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उसने देखा और नतमस्तक होकर प्रणाम किया। मुनि महाराज ने भी धर्म लाभ के लिए शुभ प्राशीर्वाद दिया । धर्म लाभ का आशीर्वाद सुनकर भीतने पूछा, महाराज धर्म क्या है? उसका कार्य और कारण क्या है? और उससे लाभ क्या होता है ? उन सब बातों को श्राप प्यानपूर्वक हमें समझा दीजिये उसके प्रश्न को सुनकर उन मुनीश्वर ने कहा कि हे भव्य, मधु, मां और मदिरा प्रभूति का परित्याग करता ही हिंसा रूप धर्म है। धर्म करने से उत्तम पुण्य की प्राप्ति होती है धीर से महान् स्वर्ग मोक्षादि सुखों की प्राप्ति होती है। यही धर्म करने का उत्तम फल है। मुनीश्वर के उत्तर को सुनकर भील ने कहा महाराज, मैं तो अभी पूर्ण रूप से मांस मदिरा इत्यादि के त्याग देने में एकदम असमर्थ हूं । उसको बात को सुनकर मुनोश्वर ने पूछा अच्छा, तू पहले यह तो बता कि कभी कीए का मांस खाया है या नहीं ? भीलने कहा- मैंने तो की एका मांस नहीं खाया है। यह सुनकर मुनीवर कहा यदि अब तक तूने कौए का मांस नहीं खाया तो सबसे कौए का मांस न खाने का तुम एक नियम-सा करके बिना किसी कार्य में सफलता नहीं मिलती, पुण्य प्राप्ति की बात को तो सोचना ही व्यर्थ है । मुनीश्वर की बातको सुनकर भील प्रसन्न हुआ । और यतीश्वरसे व्रत लेकर उन्हें प्रणाम किया। बाद में धाज्ञा लेकर अपने घरको चला गया कभी अशुभ पायोदय से उसको कोई असाध्य रोग हो गया और वैध ने उस रोग को दूर करने के लिए औषधि स्वरूप कौए का मांस खाने को कहा। भोको तबतक मांस भक्षण और घृणा उत्पन्न हो गयी थी। क्यों की बतायी चिकित्सा को सुनकर भील ने अपने परिवारवालों से कहा कि जो करोड़ों जन्मों के दुर्लभ व्रत को छोड़ कर अपने प्राणों की रक्षा करता है वह सूर्य है और उससे धर्महीन पुरुषों का कोई साथ नहीं होता। प्राण तो प्रत्येक जन्म में मिल जाता है। परन्तु शुभताचरण का अवसर तो किसी पुष्पालीको ही कभी प्राप्त हो जाता है। व्रत भंगकर देनेकी अपेक्षा प्राणों का परित्याग कर देना ही उत्तम है। इस प्रकार शुभ परिणामों से प्राण परिस्थान कर देने से घोर नरक में जाने के लिये बाध्य होना पड़ता है। भील के इस नियम को जब सारसपुर के रहने वाले शूर-कोर भीने सुना जो कि उस भीलका एक मित्र या तब यह खदिर नामले बीमार भीमसे मिलने के लिये उसके नगर की तरफ चला मार्ग में एक घोर वन पड़ता था। उस बन में जाने पर भील ने देखा कि एक देवी बड़ के वृक्ष के नीचे रो रही है। यह देखकर भील ने पूछा कि तू कौन है ! और तुम्हारे इस तरह रोने का क्या कारण है ? इस प्रश्न को सुनकर देवो ने भील से कहा- महाशय में इस उनकी दक्षिणी हूं और मानसिक व्यथा के कारण यही रहती हूं। खदिर नामका एक भील जो कि तुम्हाथ मित्र है और जिससे मिलनेके लिए तुम जा रहे हो इस समय मरणासन्न है वह शुभोदय से काक-मांसका परित्याग कर चुका है, इसी कारण से पुण्यो
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यह प्रकार जक्षिणि वच सुन, समाधान या निज मन गुनै । नैम भंग मैं करती जात, बनदेवी जिहि राखी बात ॥१५॥ या कहि आतुर आयौ तहां, भद्र भील दुख पीडित जहाँ । तिहि परिणाम परीक्षा काज, कपट वचन सौभाष जास ॥१६॥ अहो भद्र दुख पीड़ित गात, वैद्य कथित औषधि किन खात । वृथा मरण काहे तुम लहौ, जो जीवत तो फिर व्रत गहौ ॥१६॥ तितके वच सुन बोल्यो वाहि, तुम जोग यह कहिवी नहि । अनुचित कर्म जगत में निंद, श्वभ्र तनों कारण दुखवृन्द ।।१६२।। मरण अवस्था पहुंची मोहि, सांप्रति जम नित दर्शन होहि । ताते किंचित धर्म-सनेह, सो परभव सुखदाय कहेह ।।१६३।। शरवीर निश्चय दृढ़ जान, तब हि जक्षिनी कथा बखान । प्रत फल कह्यौ सकल समझाय, देवी प्रीति वचन अधिकाय ॥१६४॥ तिन बच सन तब भद्र किरात, उर संवेग बड्यो अवदात । सकल मांस को कोनी त्याग, पंचप्रणवत में अनुराग ॥१६५।। काल निकट उर धार समाध, तने प्रान परमेष्ठि अराध । प्रथम स्वर्ग सौधर्म सुथान, भयो महद्धिक देव महान ।।१६६।। शुरवीर फिर निज पुर जाय, तरतल देवी देखी जाय । जब जक्षिन प्रति पूछी तेह, अब किहि कारण रोवत येह ॥१६७।। तब फिर जक्षिन भारी एम, शूरवीर सुन कारण जेम । मो विरतांत कह्यो तुम जाइ, भोल मांस सब त्याग कराइ ॥१६॥ ता फल प्रथम स्वर्ग सो गयौ, उत्तमदेव मद्धिक भयो । व्यंतर पदको कीनो नाश, मेरी पति न भयौ गई प्राश ||१६६।। भगतै कल्प लोक सुख जाय, बहु देवी सेबै तिन पाय । सकल लक्ष्मी तहं अधिकाय, सो सब भेद कही समझाय ॥१७०।। देवी वचन सकल सुन सोइ, उरमें इमि चित्यौ भ्रम खोइ । प्रत फल प्रगट' प्रवर सुखकार, परमारथ पथ साधनहार ।।१७१ व्रत सौं स्वर्ग संपदा लहै, व्रत बिन नरक घोर दुख सहै। यह चितत वह गयौ वतीप, समाधिगुप्त मुनिराज समीप ||१७२।। शिर नवाइके प्रनमौं पाय, श्रावक व्रत लीनो सुखदाय । चरणकमल नमिक ग्रह गयौ, जथाजोग्य वन पालन भयौ ॥१७३॥ ये ही प्रारज खण्डहि ठयो, सो मरि सुन्दर सुर द्विज भयो । मिथ्यामत तिहिके अधिकार, प्रहंदास संबोध्यौ सार ॥१७४।। काललब्धिको नियरी पाय, मिथ्याति छोड़यो दुखदाय । जिनमुद्रा घर तप बहु कियौ, पूरब कर्म जलांजलि दियौ ॥१७५।। प्रायू निकट मर तप फल लयौ, प्रथम स्वर्ग में सोसर भयो। बह देवी जूत क्रीड़ा कर, धर्म नेह निशदिन उर धरै ॥१७६।।
दय बश वह मर जाने के बाद मेरा पति होगा। तूं उसे मांस खाने के लिए प्राग्रह करने व्यर्थ ही जा रहा है। मांस खिलाकर तुम अपने मित्रको असह्य दुःख भोगने के लिये घोर नरक में भेजना चाहते हो? तुम्हारे इसी कार्य से हार्दिक परिताप है और इसी कारण से मैं रो रही हैं। उस देवी की बात को सुनकर खादिर भील के मित्र ने कहा देवी, तु शोक करना छोड़ दे, अब मैं उसके नियमको तोड़ने का प्रयत्न कदापि नहीं करूंगा। उसकी बात सुनकर देवी सन्तुष्ट हो गयी और वह आगे बढ़ा । जब उसने अपने मित्र के पास पहुंच कर उसे रुग्न-शय्या पर पड़ा देखा तब उसके परिणामों की परीक्षा लेने के अभिप्राय से उसने कहा मित्रजब कौए के मांस को खा लेने से तुम्हारा रोग दूर हो जाता है तब तुम्हें खा लेना चाहिये, क्योंकि यदि जीवन रहेगा तो बहुत से पूण्य कार्यों को कर लोगे। मित्रकी इस बात को सुनकर भील ने उत्तरमें कहा मित्र, तुम इस समय अत्यन्त निन्दनीय नरक में भेजने वाली बात को कहोगे--ऐसी पाशा नहीं थी। तुम्हारी बात तो धर्म का नाश करने वाली है। मेरी इस अन्तिम अवस्था के समय तुम कुछ धार्मिक शब्दोंका उच्चारण करो-जिससे कि परलोक में मेरी आत्माको सुख प्राप्त हो सके। भील के इस दृढ़निश्चय को देखकर वह प्रसन्न हुया और बनकी यक्षिणी वाली बात को कहा। इस कथा को कहने का अभिप्राय यह था कि वह अपने काक मांस त्याग रूपी प्रत का फल जान जाय । इस बात को सुन लेने के बाद भील के हृदय में विशेष रूप से धर्म और धर्म के फल में श्रद्धा उत्पन्न हुई। उसने संवेग को प्राप्त होकर मांस इत्यादि का एकदम परित्याग कर दिया और अणुव्रत में तत्पर हो गया। प्रायु के अन्त काल में समाधि पूर्वक अपने प्राणों का परित्याग करके बह खदिर नाम वाला भील व्रत के प्रभाव से मूल स्वरूप ऋद्धिवाले सौधर्म स्वर्ग में जाकर उत्तम सुखों का भोगने वाला देव हमा। उधर भील का मित्र शूरवीर जब अपने ग्रामको लौट रहा था तब बीच मार्ग में पुन: उस देवी से भेंट हो गयी। देवी से उसने पुछा कि क्या मेरा मित्र अभी तक तुम्हारा पति होकर नहीं आया। देवी ने उत्तर दिया मेरा पति तो नहीं हश्रा किन्तु सम्पूर्ण व्रतों से उत्पन्न पुण्य के उदय से वह अत्यन्त ऋद्धिशाली और गुणवान् देव होकर सौधर्म स्वर्ग में ही हमारी व्यन्तर जति से पृथक् कल्पवासी देव हो गया है। वहीं
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दोहा खदिरसार सुर सुख भुगत, सागर दोइ प्रत । मायु निकट तहं ते चयौ, पुण्य पाक कर संत ॥१७७।। उपथेणिक भूपाल गृह, सती श्रीमती नार। उपज धणिक नाम तुम, भवि श्रेणिक सुखकार ||१७८।। शुरवीर जिय देव वह, तुम सुत उपज्यौ सोइ । अभयकुमार प्रधान जग, तदभव शिवपद होइ ।। १७६।। कांची देवी क्रमहि सौ, चेटक नृपकी धीय । सती चेलना नार तुम, जिन पागम लवलीय ॥१८॥
चौपाई
सने भवान्तर निज समुदाय, सप्त तत्व धद्धा अधिकाय । श्री जिन चरणकमल प्रनमाय, गणधर नमि फिर पूछ राय ।।१८।। प्रबागम भव कहिये मोहि, जाते उर विकलप क्षय होहि । इन्द्रभूति बोल्यो गणराय. श्रेणिक नृप सुन चित्त लगाय ।।१८।। तम कीनौं प्रथम हि मिथ्यात, पंच पाप हिंसादिक जान । विषयनमें तुम चित वहु धरयो, वौद्ध भक्त अधरम आदर्यो॥१८॥ नारक गति अवगाढ़ बंधाय, थिति कोनी सप्तम भृ जाय । तात दुविध धर्म जे करें, निह सुरंग मुकति अनुसरै।।१४। असमवित बिन सूधर नाहि, शिवतरु मूल जुसमकित पाहि । ताकी दशविध भूमि महान, मोखमार्ग प्रथम हि सोपान ॥१८॥
पर बन्द स्वर्गकी अतुल सम्पत्तिको पाकर जिनेन्द्र देवकी पूजामें तत्पर है और अनेकानेक सून्दरी देवियों के साथ स्वर्ग सखको भोग रहा है। देवीके मुखसे अपने मित्रके सम्बन्धमें इन बातों को सुनकर वह सोचने लगा कि व्रतका इतना उत्तम फल शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है। जिस व्रतके प्रभावसे परलोकमें परमोत्तम सम्पदाएं प्राप्त होती है उस व्रतके बिना किसी को एक क्षण भी व्यर्थ व्यय नहीं करना चाहिए । इस प्रकार विचार करके वह शरवीर भी तत्क्षण ही समाधि गुप्त मुनिके पास गया और उन्हें प्रणाम करके प्रसन्नता पूर्वक ग्रहस्थ के पालने योग्य व्रतोंको ग्रहण कर लिया।
उस खदिरसार नामक भीलका जीव देव होकर स्वर्ग में दो सागर प्रायू पर्यन्त वहांसे अलौकिक सुखोंको भोग और अन्त में स्वर्गसे चयकर पुण्य फल से भव्योंकी श्रेणी में आप मोक्ष मार्गका ज्ञाता होकर तुम राजा कुणिक एवं श्रीमती रानीसे श्रेणिकके रूपमें उत्पन्न हुए हो।
इस प्रात्म-वृतान्तको सुनकर श्रेणिक राजाका मन श्री जिनेन्द्रप्रभु, देव एवं गुरु इत्यादिमें प्रत्याधिक श्रद्धाल हो । उसने मनिको पुनः पुनः प्रणाम करके फिर दुबारा प्रथन किया देव' मेरी श्रद्धा धार्मिक कायों में बहत विशेष है किन्त प्रमाणामें भी कोई व्रत हमें क्यों नहीं प्राप्त हुआ ? मुनिने उत्तर दिया कि बुद्धिमान, प्रथम तुमने अत्यन्त मिथ्यात्व परिणामों, से हिसादि पांच महापाप, अधिक प्रारम्भ एवं परिग्रह, अति विपयोपभोग तथा धर्महीन वौद्ध-गरु की भक्तिरो इस अममें नरकाय का बंध कर लिया है, यही कारण है कि तुम्हारे अल्पमात्र में भी कोई घात ग्रहण न करनेका। जिनके पास देवाय है ये भव्य जीव दो प्रकारके व्रतको ग्रहण कर लेते हैं। मोक्ष रूपी राजप्रसाद का प्रथम सोपान (सीडी) सम्यकता है और बह दस प्रकारका है । अाज्ञा, मार्ग, उपदेश, रुचि, बीच, संक्षेप, बिस्तार, अर्थ, अवगाइएवं परमाबगाढ़ ये दसों सम्यकत्वके नाम है। सर्वज्ञकी जिस पाज्ञाके प्रभाबसे छ: द्रव्योंमें अभिरचि उत्पन्न होती हैं वही याज्ञा नामका उत्तम सम्यक्त्व है। परिग्रहोंसे हीन, वस्त्रों से रहित एवं हाथोंसे ही पात्रका काम निकालने वाला मुनिका स्वरूप हो जाता है और यह मनि स्वरूप मोक्षका मार्ग है। इस मोक्ष मार्गमें जिस सम्यक्त्वसे श्रद्धा उत्पन्न होती है उसे मार्ग दर्शन कहते हैं। जो तिरसठ शलाका (पदयो धारक) महापुरुषोंके पुराणोंको सुनकर बीघ्र ही धर्मविनिश्चय किया जाता है उसे उपदेश दर्शन कहते हैं। प्राचारा नामक प्रथम अङमें कहे गये क्रियाओंको तुनकर ज्ञानी पुरुषोंकी जो उस ओर रुचि उत्पन्न हो जाती है उस रुचि सम्यकत्व कहा जाता है। चीज रूप पदके ग्रहण करने एवं उसके अर्थक सुननेसे जो रुचि उत्पन्न होती है उसे बीज दर्शन कहा जाता है। संक्षेप रूपमें ही पदार्थोके स्वरूप-कथन ही से जो श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है वही संक्षेप दर्शन है। प्रमाणनयके विस्तारसे पदार्थों के स्वरूपको विस्तार पूर्वक कहे जाने पर जो कुछ निश्चय किया है उसे विस्तार सम्यक्त्व कहा जाता है। द्वादशा रूपी समुद्र में प्रविष्ट होकर वचन विस्तार पर विशेष ध्यान नहीं देते हुए सारभून केवल उनके अर्थमात्र ग्रहण करनेकी रुचि या स्वभाव होता है वह
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वोहा श्राज्ञा मग उपदेश, सूत्र बीज सम्यक्त्व भव । संक्षेप हि बहु देश, अर्थगाढ़ परगाढ़ दश ।।१८६॥ पुरब वरनी सोइ, ये समकित दश भूमिका । देख लेउ भवि लोइ, सब नप प्रतिगणधर भनी ।।१८७।।
चौपाई
सो अब तुम नृप रुचि उपजाइ, सकल तत्व सुन श्रद्धा लाइ। परमगाढ़ निश्चे मन दयौ, क्षायिक समकित दृढ़कर भयौ ।।१८।। अरु तुम षोडश भावन नाइ, केवल निकट प्रीति अधिकाइ । इमि बांध्यौ तीर्थंकर गोत, जग अचरण करता यह होत ।।१८६॥ थिति छुटी सप्तम भू तनी, गतिको बंध जाइ नहि हनी । प्रथम नरक पहली पायरी, कर्मपाक फल भुजन करी ।।१६।। वरप सहस चौरासी श्राव, तहत निकस पुण्य परभाव । इत ही फिर उत्सपिणी काल, क्षेमंकर चौदह कुल बाल ॥१६॥ पदमनाभ तीर्थकर देव, प्रथम हि तुम ही सुन भेव । धर्मतीर्थ वर्तक गुन गेह, यामें मत मानौ सन्देह ।।१६।। इहि विधि सन श्रेणिक नृप तब, अति प्रानन्द बढ्यो उर तवै। मानों सफल जनम अब एह, जानी तीर्थकर पद नेह ।।१३।। बारह सभा सुनी यह कथा, भविजन मन सब हषे जथा। के इक तव लोन्यौ वैराग, के इक समकित धारौ मांग || १६४॥ के इक श्रावक व्रत आदरौ, मोह तिमिर उरते परिहर्यो। पुन नप जिन चरणाम्बुज नाम, अरु गणधरके प्रणमें पाय ॥१६५|| प्रभमख धर्मसुधा इमि पियो, फिर निजपुर को पावन कियौ । अव जे समोशरन थित जीव, तिनकी संख्या सुनहु अतीव ॥१६६।।
अर्थ सम्यकत्व है। अङ्ग एवं अङ्गवाह्य श्रुतका चिन्तन करने से जो विशिष्ट रुचि होती है वह अवगाढ़ दर्शन है और यह दर्शन बाहर गण स्थान में प्राप्त योगी पुरुषों को होता है। तथा केवल ज्ञानके द्वारा ज्ञान हुए सम्पूर्ण पदार्थोंका जो श्रद्धान है बही सर्वप्ठ परमावगाढ़ सम्यक्त्व है। जिनेन्द्र देवके द्वारा कहा हुआ ये ही दस सम्यक्त्व यथार्थतः सम्यकत्व है। इन दसोंके भी उनके भेदोपभेद है । हे राजा, तू दर्शन विशुद्धि इत्यादि पृथक् पृथक् या सम्पूर्ण एकत्रित सोलह कारणोंसे जगद्गुरुके पास जाकर जगतको आश्चर्यचकित कर देने वाला तीर्थंकर के नाम एवं धर्म का बंध करेगा, परन्तु पूर्व कर्मके प्रभाव एवं फलसे परलोकमें रत्नप्रभा नामकी पहली नरक-भूमि में जायगा-यह निश्चय है। वहां पर कर्मों का फल भोगकर आयुके नाश हो जाने पर वहांसे निकलेगा अागामी उत्सपिणी कालके चतुर्थ कालारम्भमें तू महापम नामका तीर्थकर होगा। यह निश्चय है कि तू ही सज्जनोंका कल्याणकारक एवं धर्मतीर्थ प्रवर्तक प्रथम तीर्थकर होगा। हे भव्य, तू निकटतम भव्य है अब तुझे संसार से डरनेका कोई विशेष महत्वपूर्ण कारण नहीं है । जितने संसारमें पुनः पुनः भटकने वाले जीब हैं वे सभी अनेकों बार घोर एवं घोरतम नरकों में आये गये है।
अपने को रत्नप्रभा नामके नरकमें जाने की बातको सुनकर महाराजश्रेणिकके हृदय में परिताप एवं ग्लानि हुई। बादमें नमस्कार करके उन्होंने फिर गणधर देवसे प्रश्न किया :-हे प्रभो, मेरे नगरको सब लोग उत्तम पुण्य स्थान कहा करते हैं तो बतलाइये कि चल मात्र में ही नरक में जाऊंगा या यहां के रहने वाले और लोग भी नरक गामो होंगे? इस प्रश्नके बाद श्री गौतम गणधर स्वामीने राजाके ऊपर अनुग्रह करके कहा कि, राजन्, तू अपने शाकको दूर करने वाले सत्य वचन को सुन
इसी (तुम्हारी नगरी राजगृहीमें) स्थित एवं नीचकर्म के द्वारा मनुष्य आयु बांधकर नीच कुलमें उत्पन्न काल शौकरिक नामका एक भंगी रहता था। उसको इस समय अपने पूर्व सात भवोंका स्मरण हो पाया है। इसी कारण वह अब इस तरहका विचार करने लग गया है कि यदि जीवका सम्बन्ध पाप पुण्य से होता तो बिना पुण्यके हमें मनुष्य-जन्म कैसे प्राप्त होता। इस लिये पाप-पुण्यको कोई स्थानका महत्व नहीं है । जो कुछ है इस संसारमें केवल विषय सुख ही है और उसीसे कल्याण हो सकता है। ऐसा सोचकर वह पापात्मा निःशंक हो गया है और हिंसा इत्यादि को करते हुए मासादि पाहारमें अाशक्त रहता है। इसके फल स्वरूप बहुत आरम्भ एवं परिग्रहके कारण नरकायु संचित हो गई है और अपनी प्रायुके अन्त में वह पापोदयसे
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दोहा
इन्द्रभूमि गणधर प्रथम, बायुभूति पुन दोय । अग्निभूति जिन तृतिय भन, तुरिय सुधर्म जु होय ।।१६७|| मीय पंचम मौढ्य पट, पुण्यमित्र गुणभार । नाम प्रकंपन अन्धबल, प्रभा सोम अविकार ॥१६८।।
चौपाई
समोशरण श्री सन्मति नाथ, एकादश गणधरके साथ। चार ज्ञानके धरता सोह, प्रभु बाना प्रगटन भ्रम खोइ ।।१६।। अंग पूर्व धारी जे जती, सब तीनसै उत्तम मती। नव सहस्र नवसी मुनिराय, प्रभुके चरन नमो त्रित लाय ॥२०॥ अवधिज्ञान भूषित निरभंग, ते मुनिवर तेरहसै संग । केवलज्ञानी जिन सम जोई, सकल मातम वरन जोई ।।२०१।। ऋद्धि विक्रया जुत जु महेश, नवस उत्तम सबै मुनेश । चार ज्ञानके धारक और, पूज्य पंचस ते शिरमौर ।।२०।। उत्तरवादी मुनि सुख खान, सो मुनि प्रगट चारसं जान । सब मुनि जो पिडीकृत वारी, सहस चतुर्दश उत्तम धरी ॥२०३।। जे मूनि बर्धमान जिग संग, पहिरे तीन रतन निरभंग। चंदनादि छत्तीस हजार, नमैं अर्जिका प्रभुपद मार ।।२०४।। दर्शन ज्ञान चरन तप प्रती, एक लक्ष श्रावक जिन व्रती । तीन लक्ष थाबकनी साथ, प्रभुपाद नमैं शोस धर हाथ ।।२०५॥ देविन सहित देव बुधवान, असंख्यात कहिये परवान । प्रभुपद कमल नमैं कर सेव, पूजा सावन धरै बहु भेव ।।२०६।। सिंह सर्प आदिक तिरजन, वर विरोध न उपजै रंच । असंख्यात सब समता लियं, जिनवर भक्तिधर निज हिय ।।२०७॥ ए सब द्वादश सभा मझार, निवर्स भक्ति भाव उरधार । शनैः शन: प्रभु करै विहार, नाना देश ग्राम पूरभार २०५।। सबको करें धर्म उपदेश, मुक्तिपंथ भवि गहत महेश । जिन सूरज जब किरण प्रकाश, मत अज्ञान भयो जगनाश ॥२०॥ आरज खण्ड कियो संवोध तीस वरष विर अवरोध । क्रमकर पायापुरि उद्यान, शुभ तडाग जई वारे निधान ॥२१॥
निश्चित होण सातवें नरक में जायगा । इसी तरहका एक दूसरी ब्राह्मणको लड़को है जिसे लोग 'शुभ' नामसे पुकारते हैं । वह कदम गारन्थ है, वेदकर्म के फलसे शील एवं श्रेष्ठ गुणोंको देख सुनकर भो दुश्शीलता एवं विवेक भ्रष्टा है। उद्धन इन्द्रियांके वशमें होकर वह लम्पट हो गई है और उसको भो नरकायु संचित हो गई है। वह कापकारिणा है इसलिये रोद्रध्यानये मरेगा और पापोदयसे नाना दुःख-पूर्ण निन्य छठे नरक को तमःप्रभा नामको पृथ्वाम' जन्म घारण करंगों। जब गणवर स्यामाने राजा प्रेषिकको यह सब बत्तान्त सुना दिया तब राजा ने पुनः विनयावनत होकर पुत्र अमयकुमारके पूर्व-जन्म-बनान्त को पछा.... इस पर गणपर स्वामीने अनुग्रह पूर्वक अभयकुमारके भा पूर्व जन्म वृत्तान्तको कहना प्रारम्भ किया: -
इसो भरत-क्षेत्र (भारतवर्ष) में सुन्दर नामका एक ब्राह्मण कुमार था। वह लोक मढतानों के साथ वेदके अध्ययन एवं आभासमें तत्पर रहा करता था। इसो निमित्तसे वह एक दिन अहंदास जैनीके साथ मार्ग में कहा जाता या-बीच में एक पीपल के वृक्षके नीचे बहुतसे इकठे पत्थरों को देखकर उनको उसने अपना देव समम लिया और प्रदक्षिणा करके नमस्कार किया। उस मिथ्यातोको इस दुश्चेष्टाको देखकर 'अहंद्दास' को हमी प्रा गयी, फिर उन्होंने बाह्मण-कमार को ज्ञान प्रदान करने की शुभ इच्छासे पीपलके ऊपर पाद प्रहार किया प्रारबह पापल टूट गया। वहीं पर पड़ी हई कपि.
की एक लता थी जिसे देखकर अहंडासने कहा कि यह मेरा देव है। और प्रणाम किया। वह ब्राह्मण कुमार अहहासके कपट-व्यवहारको नहीं समझ सका और पूर्व ईष्यकि कारण उस लताको हाथमे उस्लाड डाला। बताया ब्राह्मण-कमारके सर्वा में जोरों से खुजली चलने लगी और वह डर गया उसने अहवाससे कहा-मित्र वास्त तुम्हारा देव है।" उसकी इस बात को सुनकर श्रावक अर्हद्दासने उस मिथ्यातको सत्य वात ममझा देने के प्रभप्राय कि-भले प्रादमी, ये सब वक्ष हैं किसी का कुछ बना-बिगाड़ नहीं सकते। पाप कर्मके उदयरो इन्हें एकेन्द्रो जन्म धारण
नाल है। तीर्थरके अतिरिक्त और कोई देव नहीं हो सकता। वे ही श्री ग्रहंत प्रभ सम्पूर्ण भव्यजीवोंको भोग एवं मोक्षके प्रदाता हैं । तीना लोक उन्हींको प्रणाम करता है और वे ही त्रैलोक्य वन्द्य भी र
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तहां प्राइ प्रभुदीनौं ध्यान, तृतिय शुकल मंड्यो तिहि थान । दिव्यध्वनि भाषा नहि होइ, समोशरग सब विहरी सोह १२११।। प्रतिमा जोग दियौ भगवान, प्रकृति बहत्तर कीनो हान 1 प्रथम देवगति पंच शरीर, अरु संघात पंच वर वीर ॥२१२।। बंधन पंच जु अग उपंग, षट संस्थान संहनन सग । पंच वरण रस पंच द्विगन्ध, अरु असपरस अष्ट हि निरंध ।।२१३॥ देव गत्यानुपूरवी जात, गुरु लघु परघात नु अपघात । शस्त्र प्रशस्त विहायोगती, अरु उश्वास अपरापती ॥२१४॥ पून प्रतेक थिर अथिर विनाश, शुभ ग्रह अशुभ जु दुर्भग त्रास । अनादेय सुस्वर दुस्वरा, अयश असाती कर्म निहरा ॥२१५।। नीच गोत्र की कीनी हान, गये उलंपि तेरम गुणथान । शुकल ध्यान पुन चीपद धार, चढ़ि अयोगि गुणथान सम्हार ।२१६। जाके अन्तसमय द्वय महि, ते रहि प्रकृति खिपाई ताहि । प्रथमहि सातावेदनि हनि, मनुष पायु मानुषगति भनी ।।२१७।। मानुषगत्यानुपूर्वी जान, पंचम इन्द्रिय कोनो हान । सुभाग तहां प्रादेश विनाश, जस अरु उच्च गोत्र पुन भास ॥२१॥ परजापति त्रस बादर कर्म, खिप तीर्थकर गोत्र सुपर्म । यह विधि अष्ट कर्मको जार, ऊर्ध्वगमन कर शिवपुर धार ॥२१९।। कार्तिक कृष्णा अमावस रात, स्वाति नक्षत्र समय परभात । लोकशिखर राजत जिन वार, किंचित ऊन जु चरम शरीर ॥२२०॥ कर्म काप हनि मुक्ति हि गये, सिद्ध अष्टगुण मोडत भये । मोह कर्म परि कोनो नाश, क्षायिक समकित गुण परकाश ॥२२१।।
कर दसरा कोई मिथ्यातो देव नहीं हो सकता। उस जैनीके इन वचनोंको सुनकर उस विष कुमारको देव मूढ़ता दूर हो सो"। इसके भी वे आगे बढ़े जा रहे थे सोर दोनों गङ्गा नदोके किनारे जा पहुंचे । गंगाको देखकर उस मिथ्याती विप्र कमारने कहा-इसका जल परम पवित्र है और दूसरोंको पवित्र करनेकी इसमें असीम शक्ति है। ऐसा कहकर उसने गंगाजल में श्रद्धापूर्वक स्नान किया ओर निकलने के बाद पुनः नमस्कार किया। उसको ऐसा करते देखकर अहहासने अपना उच्छिष्ट (जठा) अन्न एवं गंगाजल उस ब्राह्मग-कुमारको खाने-पीने के लिए दिया। उसने कहा-क्या मैं तुम्हारा उच्छिष्ट खाऊं? उसके उत्तरको सुनकर अहद्दास ने तक को, कि-वित्र, तुम्हें मेरा उच्छिष्ट अन्न जल तो अग्राह्य जान पडता है फिर जिसमें गधे इत्यादि नाना प्रकारके निन्द्य जोव पानो पिया करते हैं उस गंगाजलको तुम परम पवित्र कैसे कह रहे हो? बह किस प्रकार स्वयं पवित्र है और दूसरोंको भो शुद्धकर सकता है ? जल को तीर्थ समझना भ्रम हैस्नान करने से मनुष्योंकी शूद्धि नहीं हो सकती, हा जोवोंको हिंसाका पाप ही होता है। यह शरीर स्वभावतः सदैव
_ *वीर निर्माण और दीपावली That night, in which Lord Mahavira attained Nirvan, was lighted up by desconding and ascending Gods and 18 confederate kingi instiuted an illumination to celebrate Moksha of the Lord. Since then the people make iluminatioa and this in fact is the 'ORIGIN OF DIPAWALI.
-Prof Prithvi Raj: VoA, VoI.1. Part. VI. p.9. सन् ईस्वी से ५२७ साल, विक्रमी सं० से ४७० वर्ष, राजा शक से ३०५ साल ५ महीने पहिले कार्तिक वदी चौदश, सोमवार और अमावस्या, मङ्गलवार के बीच में जानवाल जब चौथे .ाल के समाप्त होने में वीन वर्ष साढ़े आठ महीने बाकी रह गये थे, केवल ज्ञान के प्राप्त होने के २६ साल ५ महीने २० दिन बाद, ७१ वर्ष ३ महीने २५ दिन की आयु में भगवान महावीर ने महलों की पावापुर नगरी में निर्वाण प्राप्त किया । स्वर्ग के देवताओं ने उस अन्धेरी रादि में रत्न बरसा कर रोशनी की। जनना ने धोया जला कर उत्साह मनाय।। राजाओं ने वीर निवारण की वादगार में कार्तिक वदी चौदश और अमावस दोनों राधियों को हरसान दीसवली पर्व की स्थापना की उस समय भ. महावीर की मान्यता ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद चारों वर्ण बान्ले करते थे, इसलिये दीपावली के त्योहारों को आज तक चारों वरणों वाले बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं।
आर्यसमाजी महषि स्वामी दयानन्द जी, सिक्या छठे गुरु थी हरिगोविन्द जी, हिन्दु श्री रामचन्द्र जी, जैनी वीरनिवरिंग और कुछ महाराजा अशोक को दिग्विजय को पीपावली का कारण बनाते हैं। कुछ का विश्वास है कि राजा बलि की दानवीरवा में प्रसन्न होकर विष्णु जी ने धनतेरस से तीन दिन का उत्सव मनाने के लिये दीपावली का त्योहार आरम्भ किया था और कुछ का कथन है कि यमराज ने वर मांगा था कि कातिक वदी तेरस से दोयज तक ५ दिन जो उत्सब मनायेंगे उनकी अकाल मृत्यु नहीं होगी इसलिये दीपावली मनाई जाती है, परम् दीपावली
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ज्ञानावरणी कम हि चूर, ज्ञान अनन्तानन्त' जुपुर । दर्शनवरणों कर्म निवार, तत्र अलत दरशन गुण धार ॥२२२।। अन्तराय प्रकृतिनको जार, वल अनंत को करी सम्हार । नाम वर्मको जब खय कोन, सूक्षम गुण को प्रापति लोन १२२३।। प्राय कर्म जिन नाश्यौ जी, अवगाहन गुण पायो तव । प्रवन बेदनो कर्म निवार, तब ही गुरु लघु गुण अवधार ।।२२४।। गोत्र करम जब कोनो नाश, अन्याबाघ गुण हि परकाश यह विधि भुगतं सुस्य उतंग, निरुपम निराबाध निरभग ।।२२५।। नरसुर असुर खचरपति जोई, तीन जगत जिय सुख अवलोई । ते सब जो पिडो कृत करे, सिद्धन एक समय नहि जुरे ॥२२६।। नव इहि चतुर निकायौ देव', प्रभु निर्वाण जान सव भेव । अपने अपने वाहन साज, परिजन जूत पाये सुरराज ।।२२७॥ सब विभूति पूरब व्रत जान, गति नृत्य उत्सव उर पान । अन्तिम कल्याणक जिनराय, पावापुर पूजा करवाय ॥२२८।। प्रभु तन खिर कपूरबत जाय, नख अरु केश रहे समुदाय । ते लै सुरपति जिन तन रच्यो, मणिमय शिविका में पुन सत्रौ॥२२६।। भक्ति सहित तह पूजा करी, अप्ट द्रव्य जल ग्रादिक धरो : चन्दन अगर कपूर मंगाय, सर उतंग कोनो अधिकाय ||२३०॥
अपवित्र है और इसके विपरीत जीव सदा-सर्वदा स्वच्छ एवं परम निर्मल है। इसलिये स्नान करना व्यर्थ है और स्नान करने से पाप होता है । यदि सब मिथ्यात से मैले प्राणी, स्नान करने से शुद्ध हो जाए तो सदैव स्नान करते रहने वाले मत्स्य (मछली) आदि जल-जीवों को नमस्कार करना चाहिये, उन पर करुणा दृष्टि क्यों रखो जाता है ? इसलिए तुम्हें जानना चाहिए कि अर्हन्त दी तीर्थ है । उन्हीं के वचनामृत से सबके प्रान्तरिक पाप रूपी मल दूर हो सकत हैं
और वे ही शुद्धि प्रदान करने में समर्थ हैं। इस प्रकार उस ग्रहंदास ने विप्र कुमार को तीर्थ मूढ ना को भी दूर कर दिया। फिर आगे जाने पर पञ्चाग्नि में बैठ हा एक पुरुष को देखकर विप्र कुमार ने कहा कि इस प्रकार के तपस्वी हमारे धर्म में बहन होते हैं। उसको गोंक्ति को सुनकर अहं दास ने अनेक लौकिक शास्त्र-वचनों से प्रथम तो उस तपस्वी को ही मद-रहित किया. फिर स्पष्टतया उस ब्राह्मण कुमार से कहा कि ये खोटे तपस्वी क्या तप करेंगे? इस धरातल पर तो महान देव महन्त ही सर्वज्ञ हैं, निर्ग्रन्थ ही गुरु हैं, और दयालुता पूर्ण धर्म ही परमोतम है । जिनेन्द्र प्रभु के द्वारा कहा गया दीपक के समान प्रकाशमान जैन-शास्त्र सत्य है । जनमत बन्दनीय है और पाप हीन तप सबको शरण हैं । इन्हीं की उत्तमता को स्वीकार करना चाहिए । इसलिए मेरे मित्र, तुम भी मिथ्या दर्शन मिथ्या धर्म रूपी कुप्रया को शत्रु के समान दूर ही से कोड दो और प्रात्म कल्याण के लिए सम्यग्दर्शन को ग्रहण करो। इस प्रकार वार्तालाप करते हुए दोनों मित्र जव और एक प्राचीन त्योहार है। महपि स्वामी दयानन्द जी और छठे गुरु श्री हरगोविन्द जी से बहुत पहले से मनाया जाता है। श्री रामचन्द्र जी के प्रबोधा में जौटने की सशी में दीवाली के प्रारम्भ होने का उल्लस रामायण या किसी योर प्रानीन हिन्दू मन्र में नहीं मिलता । विष्णु जी तथा प्रशोक की दिग्विजय के कारण दीपावली का होना किसी ऐतिहासिक प्रमाण सिद्ध नहीं होता । प्राचीन जैन ग्रन्थों में कथन अवश्य है कि:
"जिनेन्द्रवीरोऽपि पिबोध्य पततं समंतयो भव्यसन हसंततिम् । प्रपद्य पाबानगरों मरोयसी मनोहरोद्यानवने यदीपके । १५॥
चतुषं कालेऽर्थचतुर्थमासविहीनताविश्चतुरब्दशेष के । मकौनिके स्वाति कृष्णभूतमुप्रभातसन्ध्याममये स्वभावतः ॥१६॥ प्रच तिकर्माणि निद्भयोगयो धिधूप पाती धादि बंधनम् । विबन्धनस्थानमवाए शंकरो निरन्तरायोरुमुखानुबन्धनम् ॥१७॥ ज्वलंत्नदीपालिकया प्रबुद्धया सुरासुरंदीविया प्रदीलया । तदारम पाचान गरी समन्तत:प्रदीरिताकाशलना प्रकाशते :.१६॥ तलस्तु लोकः प्रतिकर्षमादरात प्रसिद्धदीपालिकायब भारते । समुद्यत: पूजयितुं जिनेश्वर जिने निर्वाण विभूति भक्तिभाव ॥२॥
- - थी जिनसेनाचार्य ह िवंशपुराण, सर्ग ६६ भावार्थ... "जब चौथे काल के समान होने में तीन वर्ष साढ़े प्राय महीने रह गये थे तो कातिक की अमावस्या के प्रातः काल पाहायर नगरी में भ. महावीर ने मोक्ष प्राप्त किया, जिसके उपलक्ष में चारों प्रकार के देवतामों में बड़ा उत्सव मनाया प्रौर जहां तहा दीपक जलाये। जिनकी रोशनी से सारा माकाश जगमगा उठा था। उसी दिन में आज तक श्री जिनेन्द्र महावीर के निर्वाण-कस्याग की भक्ति से प्रेरित होकर लोग हर माल भरत क्षेत्र में दिवाली का उत्साह मनाते हैं।
कातिक बदी चौदश और प्रभातस्या की रात्रि में भ० महावीर समस्त कर्मरूपी मल कोर करके सिद हुए, कम-मल से शुद्धि के स्थान नवरात्रि को हडा निकाल कर घरों की शुद्धिकरते हैं। उसी दिन भ० महावीर के प्रथम गणधर इन्द्रगति गौतम जी ने कंपल जानरूपी सीधी जिसकी पूजा देवों तक ने की थी, उसक स्थान पर चञ्चल लक्ष्मी तथा गणेशजी की पूजा होता है । गणेषा नाम गण वर का
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तह जिन तनु मायामय धरयो, अग्निकुमार प्रमाण जु करयो । उठी मुकूट ज्वाला मणि तनी, अति विकराल अगिन की धनी ॥ भस्मीकृत सर भयो प्रभंग, दश ही दिश फेल्यो जु सुगंध । सब सुर जय जयकार जू करें, उर अानन्द भक्ति प्रति धरं ।।। प्रथम इंद्र कर भाल लगाय, भस्म वन्दना किय अधिकाय । अरु सब चतुर निकायी देव, निज निज शीश नवन भुव एव ।। प्रबनि पवित्र जान अधिकाय, फिर पूजा कीनी सुरराय। नाटक रंग कियो समुदाय, देवन सहित परम उत्साय ।।२३४।। यहि अन्तर गौतम गणराय, शुक्ल ध्यान बल कम खिपाय । केवल ज्ञान भयो अवदात, इंद्र यादि सुर गंधकुटी तहं रत्री कुबेर, नाना भांति न लाई देर । भविजन हित सम्बोधन काज. बिहरै सगा सहित गणराज ॥२३६।।
दोहा
अहठ मासकर हीन है, रही वरष जब चार । श्री सन्मति जिन शिव गये, चौधे काल मझार ॥२३॥
मागे बढ गये तब पापोदय भयर वन में जा पहुंचे और मार्ग दिशा को भूल गये। उस जन हीन वन में उनके जीवन धारण करने का कोई आधार नहीं था, निदान, ने दोना शरीर एवं आहार से ममता छोड़कर मोक्ष-प्राप्ति के लिए सन्यासी हो गए। उन दोनों ने धैर्य पूर्वक भूख, प्यास इत्यादि परिषही को सहा और समाधि रूप शुभ ध्यान से शरीर को छोड दिया। इसके बाद अन्तिम पाचरण के प्रभाव से उत्पन्न पुण्य के फल से दोनों ही सौधर्म स्वर्ग में गये और वहां महान् ऋद्धिधारी और देव वन्द्य देब' हुए । चिरकाल पर्यन्त दोनों ने स्वर्ग सुखों को भोगा और अन्त में पुण्योदय के प्रभाव से उसी सुन्दर नाम के ब्राह्मण-कुमार का जीव तुम्हारा पुत्र होकर उत्पन्न हुआ है। यह तप के प्रभाव से कर्मों का नाश करके शीन ही मोक्ष को प्राप्त कर लेगा। इस प्रकार उन दोनों की पूर्व कथा को सुनकर कितने ही लोगों ने विरक्त होकर सयम (यतिधर्म)
दीपार कर लिया और वितरे हो गहस्य धावक-धर्म एवं सम्यक्त्व में तत्पर हो गये। महाराजा श्रेणिक भी अपने पुत्र के साथ धर्मशास्त्र रूपी अमृत को पी चुकने के बाद श्री महावीर जिनेन्द्र प्रभु और अन्य गणधरों को नमस्कार करके अपने नगर को वापस लौट आये।
इसके बाद जिनेन्द्र प्रभु के समावशरण में बहुत से महा-पुरुष रहते हैं, उनका विवरण भी समझ लेना चाहिए। इंद्रात (गौतम) वायुभूति, अग्निभूति, सुधम, माय मोड, पुत्र, मैत्रेय, अकंपन, धवल और प्रभास ये ग्यारह गणधर देव बन्ध हैं और चार ज्ञान के धारक हैं। प्रभु के चतुदंश चौदह पूर्वो को स्मरण रखने वाले तीन सौ मुनि होते हैं। चारित्र हैवीर-समवशरण में मुनीश्वरों, कल्पवासी इन्द्राणियों, शापिकाओं व धाविकायों, ज्योतिषी देयमनाया, व्यबर देवियों, प्रसाद निवासियों की पद्यावती इत्यादि देवियों, भानवापी देवों, अन्तर देनों, चन्द्र-सूर्य इत्यादि ज्योतिपी देवों, कल्प निवासी देवों, विद्याधरों व मनुप्यों, सिंह-हिरण इत्यादि पशु-पक्षिपों व तियनों के बैठकर धर्म उपदेशा सुनने के लिए १२ सभाएँ होती हैं, उसके स्थान पर लीप-पोतकर लकीरें खींचकर कोठे बनाना और वहां मनुरप मोर पशुयों घादि के खिलौने रखना, बीर-समवशरण का चित्र खींचने की चेष्टा करना है। भ. महावीर वहां गन्धकूटी पर विराजमान होते है, उसके स्थान पर हम घडी (हरडी) रखते हैं । वीर निवारण के उत्सव में देवों ने रत्न बरसाये थे, उमके स्थान पर हम खीर पताशे नांटते हैं। उस समय के राजामों-महाराजाओं ने पीर निर्वाण के उपलक्ष में दीपक जलाकर उत्सव मनाया या, उसके स्थान पर हम दीपावली मनाते हैं । यह हो सकता है कि अमावस्या की शुभ र वि में महर्षि स्वामी दयानन्द जी स्वर्ग पधार, श्री रामचन्द्रजी अयोध्या लौटे या भौरों के विश्वास के अनुसार और भी शुभ कार्य हुए हों, परन्तु इस पवित्र त्यौहार पर होने वाली किवा श्री पौर विचार पूर्वक खोज करने से मही सिद्ध होता है कि दीपावली वीर-निर्वाण से ही उनकी यादगार में प्रारम्भ होने वाला पर्व है, जैसे कि लोकमान्य 40 बालगङ्गाधर तिलक, रा. रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि अनेक ऐतिहासिक विद्वान स्वीकार करते हैं।
में सिक्के डाले गये !
ने के कारण उम
केवल दीपावली का त्योहार ही नहीं, बल्कि भ० महावीर की स्मृति में सिक्के डाले गये । वर्द्धमान नाम पर वर्द्धमान और वीर नाम पर वीर-भूमि नाम के नगर आज तक बंगाल में प्रमित हैं । विदेह देश में भ. महावीर का अधिक बिहार होने के कारण उम प्रान्त का नाम ही बिहार प्रान्त पढ़ गया । भारत के ऐतिहासिक युग में सबसे पहला सम्बत् जो वीर-निवारण से अगले दिन ही कार्तिक मुदी १रो चालू होता है, जिस दिन हम अपनी पुरानी बहियो बन्द करके नई चाल करते हैं, अवश्य भर महावीर के सम्मुख भारत निवासियों की थक्षा भोर भक्ति प्रकट करने वाला बीर सम्बत है । इस प्रकार न केवल जैनों पर ही किन्तु अजनों पर भी थी वर्तमान महावीर का गहरा प्रभाव पड़ा।
है, जिस
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श्री वर्धमान जिनेन्द्र के पूर्वभवों का समुच्य वर्णन
पद्धडि छन्द
भव प्रयम पुरूरव भील ईश, सम्धीधे बनमें श्री मुनीश । दूजी भव उपजौ भिल्लदेव, सौधर्म स्वर्ग बहु सुख्य लव ।।२३८।। । तौजी भव भरत चक्रेश पुत्र, मारीच कूबर मत थाप उन । चौथे भत्र ब्रह्म जु स्वर्गवास, पंचम भव ब्राह्मण जटिल जास ।।
सौ धरम स्वर्ग छठे जु पाय, पून पहुप गित्र दुज सप्तमाय । अष्टम शीधरम सु स्वर्ग देव, द्विज अग्निसिंघ नवमै गनेव ॥२४॥ दशमें सुर सनत्कुमार होइ, द्विज अगिज मित्र गेरम हि सोइ । माहेन्द्र स्वर्ग द्वाददशम वास, तेरम द्विज भारद्वाज जास ॥२४॥ मिथ्यामत सेयौ बह प्रकार, परिवाणक दोक्षा धरि असार । चौदम भव स्वर्ग महेन्द्र होई, तहं गिर बहु परजाय सोही
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दोहा
इतर निगोद हि सो गयो, सागर एक प्रजन्त । कबई असुर कुमार हो, नरकन माहिं फिरन्त ।।२४३।।
पद्धडि छन्द
तब साठ सहस तरू पाक होइ, बहु पायो दुःख न गनहि कोइ । तहं अमिय सहस भव' सीप जान. फिर नीम वृक्ष भयो दःखखान । सो वीस सहस तन पर उतेह, तहं करम विपाक जु बश परेह । पुनि केल वृक्ष सौ भयौ ग्रान, भव नवं सहस ताको प्रमान ।।
तह चंदन वृक्ष जु सहस तीस, लहि दुःख सहे जानें जिनीश । पुन कनयड़ कोड़ी पंच सोइ, वह तीस कोड़ जनमच्छ सोड। फिर निकसि भयो गनिका ज प्रान, भव नवै सहसतन धरिय जान । पुन पंचकोड़ि सो चिडिमार, तह वीराकोड भव गज दाखभार
धारण करने में तत्पर और शिक्षक मूनि नौ हजार नौ सी हैं 1 तथा अवधिज्ञानी तेरह सौ होते हैं। साथ ही सामान्य केवाली मातमी और बिक्रिया ऋद्धि के धारी नौसौ मुनि और होते हैं तथा रत्नत्रय' से अलकृत रहते हैं इन सब की सम्मिलित संख्या चौदह हजार की है। ये सभी जिनेन्द्र प्रभु के समवशरण में वर्तमान रहा करते हैं। चंदना इत्यादि छत्तीस हजार अनिकाएं भी उस समवशरण सभा में उपस्थित रहती है और मप एवं मुल गुणों से युक्त होकर प्रभु के चरणारविन्द को अहमिय नमस्कार करने में तत्पर रहती हैं। इसके अतिरिक्त दर्शन ज्ञान और उत्तम व्रतों से युक्त एक लाख श्रावक और तीन लाख धाविकाएं प्रभु की पादारविन्द की पूजा में तत्पर रहती हैं । असंख्य देव-देवी समूह प्रभु की अलौकिक स्तुति और पूजा इत्यादि अनेक महोत्सवों की रचना किया करते हैं। सिंह सर्प इत्यादि तिर्यञ्च जीव भी संसार से डरकर तथा श्रद्धा-भक्ति पूर्वक शान्त चित्त होकर श्री महावीर प्रभ की शरण में आ रहे हैं। इस प्रकार के समवशरण में विशेष भक्त हए बारह प्रकार के जीव समहों से एकदम घिरे हुए हैं वलोक्याधिपति एवं जगदगुरु श्रीमहावीर प्रभु शनैः शनै: बिहार करते हुए अनेक देशों और मगरों में रहने वाले भक्त एव श्रद्धा से भव्य जो बों को वोपदेश के द्वारा ज्ञान दिया। तथा मोक्ष मार्ग के निनिडतम प्रज्ञानान्धकार को अपने बचन रूपी किरणों मे अत्यन्त पालोकमय कर दिया। इसी प्रकार छः दिन तथा तीस वर्ष पर्यन्त बिहार कर के अनेक सून्दर फल पुष्पों से सुशोभित नम्पा नगरी के उपवन में पहुंचे । उस उद्यान में प्राकर मन, वचन, काय योग एवं दिव्यबाणी को रोकार बे क्रिया होन हो गये और मोक्ष प्राप्ति के लिए अघातिया कर्मा को नष्ट कर देने वाले प्रतिमा योग धारण किया इसके बाद प्रभ ने देवगति, पांच शरीर, पांच संघात, पात्र बन्धन, तीन पाङ्गपांग, छ: संस्थान, छः संहनन, पांच वर्ण, दो गन्ध, पान रस, पाठ स्पर्श, देवगत्यानुपूर्व, प्रगुरु संधु, उपघात, परघात, उच्छास, दोनों बिहायोगतियां, अपर्याप्ति. प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग दुःस्वर, सुस्वर, आइय, अयस्कोति, असाता वेदनोय, नोचगोत्र और निर्माण दन सक्तिरोधक बहत्तर कर्म प्रकृतियों को अपनी प्रतुलनीय शक्ति से पायोगी नाम के चौदहवें गुणस्थान में प्राप्त होकर चौथे साल ध्यानरूपी तलवार से महायोद्धा की तरह चोदहा गुणस्थान के अन्तिम दो समय के प्रथम काल में शत्रु समझ कर मार डाला। इसके बाद प्रादेय, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्थ, पांच इन्द्रियजाति, मनुष्यायु पर्याप्ति, प्रस, बादर, सुभग यशकोति,
वगन
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तह ते फिर खर भयो साठ कोडी, पुन तीस कोड़भव खाम जोडि । तब भयौ नपुसक साथ लाख, पुन बोसकोड़ तिय वेद भाख ।। तह रजक भयौ नर मब लाख, सो साठ कोड़ पुन तुरिय साख 1 भवसागर में रुलियो निदान, मनजार भयौ तह दुःख खान ।। तह धरी दहे सो वीस कोड़ि, भ्रमियो चिरकाल प्रजाय छोड़ि । अब साठ लाख भयो जैन राय, तहं कर्म न छोड़े कर उपाय ।। फिर भोगभुमि घर असी लक्ष, तह पायौ सुरुय जु विविध दक्ष । पुन सुरग लोक सुर भयो सोइ, तह असी लक्ष तन धर्यो जोइ॥ क्रम सौ गिर नारी गरभ जान, है साढ लक्ष यायो प्रमान । पुन पुन भ्रमि भ्रमि संसार घोर, बहु बहु प्रजाय धारियो जोर॥ इह कर्म शुखलन पर्यो सोइ, प्रम थावर में तन धरै जोद्द । तहं स दुःख नाना प्रकार, मिथ्यात सु फलियी यह अपार ।। भव भटकि भयौ द्विज थाव रास्य, पूरववत दिशा धरिय साक्ष्य । फिर भयो महेन्द्र ज स्वर्ग देव, देविन कर भुगतै सुख धनेव ।। तीज भव श्र, उप विश्वनन्द, कर मापा धार निवान बन्द । फिर महाशुक्र सूर भए सोइ, सुख कीनै बह वर्णन न होह ।।२५५।। तह त चय पोदनपुर अधीश, केशवपद प्रथम त्रिपुष्ट ईस । पुनि पर्यो सप्तमी नरक जाय, दुख सहे तहां घर दुष्ट काय ॥२५६।। फिर निकस धरी मिह हि प्रजाथ, अति रौद्र ध्यान सौं मरण पाय । तब प्रथम नरक तहं गयौ सोई, तहं जाय सहे बहु कलेश जोई।। पुन भये सिह हिमगिरि गिरीक्षा, तहं संबोधै चारण मुनीश । सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेत, मुर लहे सुख्य देविन समेत १२५८। कनकोज्वल निपान गय, तिन धरीतामा जैन पाय । फिर लांतव' सर भव द्वादशेव, जहं नाम लह्यो जु महर्धदेव ।।२५६।। हरिषेण नृपति तेरम गोव, तजि राजऋद्धि वन में वसेव । पुन महाशुत्र सुर लहिउ वास, सुख भगते नाना विहि जास ॥ प्रियमित्र चक्रवति' गुण गरीश, पूरब विदेश छह खण्ड ईश । सहस्रार स्वर्ग पुन सुख्य जास, अट्ठारह सागर आयु तास ।।२६१।। मत्रमभव में नपनन्द नाम, षोडश कारण भाई सुठाम । अच्युत सुरेश पद लहिउ फेर, सुख कीनौ बाइस जलधि घेर ।।
जय त्रिशला उर वसेय, श्री वीर जनम जग प्रगट धेय । तप केवलज्ञान ज साध एव, निर्वाण गये बन्दों स देव ।।२६३||
बोहा
आदि भवांतर चौदहा, अन्तहि उन विशेष । माध्यम भव' भटके बहुत, थावर अस नर देव ॥२६५।।
पाटनीय उच्चगोत्र और तीर्थकर नाम इन तेरह कर्म प्रकुतियों को चौदहवें गुण-स्थान के अन्तिम समय में शुक्ल ध्यान के प्रभाव से महावीर प्रभ ने नाश कर दिया। इस प्रकार प्रभु ने सम्पूर्ण कर्मरूपी शत्रुओं का पीर प्रौदारिक आदि तीन प्रकार शरीरों का नाश कर स्वभावतः उर्द्धगति होने के कारण एकदम निर्मल होकर मोक्ष स्थान को प्राप्त हो गये। कार्तिक कृष्णा अमावस्या तिथि स्वाति नक्षत्र एवं प्रात: काल के समय में प्रभु को मोक्ष प्राप्त हना था।
महावीर प्रभु ने जब मूर्तिहीन होकर एवं आठ गुणों से युक्त होकर सिद्ध पद को पाया तब वे निर्वाध थे, कर्महीन थे, अनन्त थे, उत्कृत इन्द्रियादि सुखों से परे थे, पर द्रव्य से हीन थे. तथा नित्य दुःखों से नितान्त ही रहित थे। उन्हें अनुपम प्रात्मसख प्राप्त हा मनप्य एवं ससार के अन्य सम्पूर्ण जीव निश्चिन्त होकर जितने प्रकार के सख को वर्तमान में भोग रहे भुत काल में भोगा है या भविष्य में भोगेंगे इन कालिक सुखों को यदि एक स्थान पर एकत्रित किया जाय तो जितना सम्पूर्ण सुख होगा उससे भी अनन्त गुणा अधिक एवं सर्वोकृष्ट सुख को प्रभु ने भोगा । और भविष्य में अनन्त काल पर्यन्त भोगते रहेंगे । इस सिद्ध महापुरुष को मैं सतत नमस्कार करता हूं। उनके मोक्ष प्राप्त हो जाने से देव एवं इन्द्राणियों के चार जाति के देव, प्रभु की निर्वाण प्राप्ति को जानकर, अगने पृथक पृथक चिन्हों से युक्त होकर पाये तथा नृत्य, गीत एवं ऐश्वर्य पूर्ण महोत्सव मनाकर प्रभु की पूजा की। जिस उपवन में प्रभु को निर्वाण प्राप्त हुया था वहां पर आकर उत्सव में श्रद्धाञ्जलि अपित करने से सभी का कल्याण हुप्रा । इसके बाद इन्द्र ने निर्वाण साधक प्रभु के शरीर को अत्यन्त रत्नोज्जवल एवं स्वर्ण निर्मित पालकी में रखा। बाद में अनेक सुगन्धित द्रव्यों को लगाया, पूजा की और माथा टेक कर भक्ति पूर्वक पुनः पुनः प्रणाम किया। फिर अग्निकुमार देव के मुकुट से अन्निकण उत्पन्न हुप्रा और उसी दिव्याग्नि से प्रभु का शरीर जलाया गया। प्रभ के शरीर की सुगन्धी सम्पूर्ण दिशनों में फैल गयी ! अन्त में इन्द्र के साथ सभी देवों ने प्रभु की चिता भस्म को अपने-अपने हाथों में लेकर अपनी-अपनी शीघ्र मोक्ष प्राप्ति की कामनाएं की। उस चिता भस्म को क्रमशः मस्तक, बांह, नेत्र एवं सम्पूर्ण शरीर में
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गोतिका-छन्द
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1. चार गति सुख दुःख भुजिय, तीर्थपद शुभ पाइयो । साध सुचारित जोग उत्तम, सकल कर्म खिपाइय।।।
सुर असुर नर खगपति मुनि सब, सदा सम्पति पद नये । तहं साधि शिवपुर सिद्ध पद लहि, पाटगुण मंडित भये ।।२६५।। वीर जिन जन चरन पूजत, वीर जिन प्राश्रय रहै । वीर नेह विचार शिव-सुख, वीर धीरजको गहै। बीर इन्द्रिय अघ धनेरे, वीर विजयी हों सही । वीर प्रभु मुझ बराहु चित नित, वीर कर्म नशाबही ॥२६६।।
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दोहा
श्री सन्मति प्रभु चरित गुण बरण्यौं पागम देख । अव कविता कूल कहें कछु, उतपति तिनहि विशेख ।।२६७।।
कवि परिचय
चौपाई
चार बरण में वैश्य जु सन्त, तिनमें कवि कुल को अवतंत। सबहि नेत चौरासी कहो, जुदी जुदी भाषौं यह मही ॥२६॥ गोलापुरद प्रथम बलान गौलालारे दूजे जान । गोलसिंघारे तीज धार, चौथे साख-बन्ध परवार ॥२६९।। पचम जैसवाल को जान, छठम हुमडे को बखान । कठनेरे सातम है सोइ, खण्डेलवाल पाठम गुण जोइ ॥२७०।। नेत बरहिया नवमै कहे. सिरीमाल दशमें पुन लहे ! एकादशम लमचू जान, प्रोसवाल द्वादश परवान ।।२७१।। श्रयदश अगरवारे गोत, तिनमें जे जैनी शुभ होत । इतनी साढ़े बारह न्यात, धर्मसनेह पांत इक भांत ।।२७२। जिनचेरे चउदम बर भये, बलवार पन्द्रम बरनये । षोडश पद्मावति पुरवार, ठस्सर सत्रहमें गुन धार ॥२७॥ गहपतिमाठारम तिहि शाख, उन वशितिमें मेमा भाख । वीसम नंत असैटी लहे, पहिलवार इकवीसम कहे ।।२७४।। पोरवार वाइसमौं धार, बढतवाल तेईस निहार । चौबीसम माहेश्वर वार, इतने लों कछु जैन लगार ।।२७५३॥ मण्डित बाल डौडिया जान, सहेलवार हस्सौरा मान । गोरवार पुन नारायना, सीहोरा भटनागर गना ॥२७॥ चीतोरा जु भटेरा होद, हरिमा और धाकरा सोइ । वाचन गरिया जानो दोड, मोर बाइडाको पुन सोह ॥२७॥ नागर और जलाहर कहे, नरसिंगपुरी कपोला लहै । डोसोवाल नगेन्द्रा लेव, गौड़ फर श्रीगौड़ ज भेवर गागड़ डाख डायलो जान, बघनौरा जुद सौरा वान । बन्ने रा कंथेरा हाल, कोरवाल पर सूरीवाल ॥२७ रैकवाल पुन सिंघवाल, नंत सिरैया लाड़ विशाल । लडेलवार पर जोरा प्रबल, जंबूसरा सेटिया अपर ॥२८॥ चतुरथ' पंचम दोम कूर्व, अच्चिरवाल अजुध्यापूर्व । नानाबाल मडाहर कहे, कोरटवाल करहिया लेहे ॥२६॥ अनदोरह हनदौरह सोइ, जेहरबार जेहरी दोइ । माघ करार नासिया एब, कोलपुरी यम चौरा हेव ॥२२॥ अंकन तह भैसन पुरवार, पवड़ावेस औमडे सार । ए जानी चौरासी नेत, वैश्य बरण सब ही शिर जेता
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सब लोगों ने लगाया और प्रभु की मोक्ष प्राप्ति के लिए पर्याप्त प्रशंसा की । इन्द्र इत्यादि ने उस पवित्र तम भमिकर धर्म की प्रबति को धारण किया तथा मोक्ष भूमि की कल्पना की।
___ इसके बाद श्री गौतम गणधर का भी शुक्ल ध्यान के द्वारा घातिया कर्मरूपी महाशत्रुओं का नाश हो गया और केवल जान उन्हें भी प्राप्त हो गया । अन्य गणधरों से युक्त होकर इन्द्रादि देवों ने उनकी पूजा प्रतिष्ठा की । इन्द्रभूति (गौतम) स्वामी परम विभतियों से युक्त थे अत: परम पूजनीय थे । उत्तम चारित्र के प्रताप से मनुष्य देवगति इत्यादि अनुपम सांसारिक सखों को और कर बाद में मनष्य विद्याधर एवं देव-स्वामियों के द्वारा पूजनीय होता है। तीर्थकर पदवी को प्राप्त होता है और कर्मों का
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वोहा
तिनमें गोलापूर्वकी, उतपति कहों बखान । संबोधे श्री आदि जिन, इक्ष्वाक वंश परवान ।।२८४||
चौपाई
गोयलगढ़के वासो तेरा, आए श्री जिन आदि जिनेश । चरणकमल प्रनमैं घर शीस, अरु प्रस्तुति कीनी जगदीश ॥२८॥ तब प्रभु कृपावंत अति भये, श्रावक व्रत तिनह को दये । श्रियाचरण की दीनी सीक, आदर सहित गही निजठीक ॥२८६।। पूर्वहि थापी नैत जु, एह अरु गोयलगढ़ थान कहेह । तातै गोलापूरब नाम, भाष्यौ थी जिनवर अभिराम ।।२८७॥
दोहा
गोलापूरब भेद त्रय, प्रथम बिसविसे जान। और दश विसे पंचविसे, कहौं बैरु गुन खान ॥२८८।।
सवैया इकतीसा। खाग फुसकेले औ चन्देरिया मरैया विप। रहिया बनोनिहा सुटेटवार जानिये । भर्तपुरिया छोरकटे कोटिया दुगेले प्रौ। तिमेले हंडफार बरघरिया बखानिये ।। इन्द्रव महाजन खुरदेले मिलसैया रौते । ले जतहरिया निरमोलक प्रमानिये ।। धौनी पंथवार हरदेले कपासिया रस । गोदर गगौरिया धवलिया जुठानिये ।।२८६।। कारयौड़ सरखड़े साधारन टीका केरावत । बदरोहिया सौनी सौमरा जु लीजिये ।। परि धधौलिया पचलौरे मडोले सन । कुटा हीरापुरिया बेरिया सुन लीजिये। कननपुरिया कनसेनहा पटोरियां बो। दरे राधले सांधेले प्रमानिये। पंचरत्न पचरसे चोंसरा कनकपुरी। घमोनिया ौ दर्गेया गरिहा बखानिये ॥२६०||
दोहा
सिरसपुरी अरु कौनिया, अंठाबन बैंक । 'नवल' कहे संक्षेप सौं, निज कुल बरनों नेक ||२६||
चौपाई
बैंक चंदेरिया सेरे चार, प्रथमहि बड़ दूजे परधार । खाम तृतीय खेरौ पहिचान, चौथे गेरू चोरा जान ॥२२॥ बढ़ चंदेरिया प्रथम वखान, गोत्र प्रजापति तिनहि बखान । चतुरथ काल प्रादि ही मान, गोल्हन शाहु चंदेरी थान ॥२६॥ तितने जो सब बरनन करी, बाढ़े ग्रन्थ पार महि धरौ। पंचम काल भेलसी ग्राम, भीषम शाहु वसं तिहि ठाम ||२६४।। चार पुत्र तिनके बड़भाग, कुलदीपक धर्महि अनुराग। प्रथम बहोरन मुन की खान, दुतिय सहोदर कृपा निधान ॥२६५।। अहमन तीजै सुख अति धर्म, चौथे रतनशाह धर धर्म । एक दिना शुभ या कहि पाय, मन्त्र उपाय कियौ बहुभाय ।।२६६।।
नाशकर उत्तम मोक्ष प्रसाद को प्राप्त कर लेता है इसी प्रकार श्री इन्द्रभूति गौतम गणधर स्वामी ने भी सहज ही मोक्ष महल को प्राप्त कर लिया । अब मैं श्री जिनेन्द्र प्रभु महावीर स्वामी को पुनः पुनः स्तुति एवं नमस्कार करता हूं।
श्री जिनेन्द्र महाबीर प्रभ गुणों के रत्नाकर हैं. वीर पुरुषों के द्वारा पूजित हैं, वीर पुरुषों के महावीर ही एक मात्र माश्रय एवं प्राधार है, इन्हीं के द्वारा मोक्षरूपी परम सुख प्राप्त हो सकता है। पापों को सर्वतोभावेन पराजित करने एवं जीतने के लिये महावीर प्रभु ही राम्रणी महायोद्धा हैं, उनका बल अपरिमेय है। अर्हन्त महावीर प्रभु को नित्यशः एवं कोटिशः प्रणाम करता हूँ और प्रार्थना करता हूं कि मेरा चंचल चित्त उन्हीं के चरणारविन्दों में लगा रहे । हे महावीर प्रभु, दया पूर्वक आप हमें भी
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पिता सहित मन कियो विचार, कोजे कछु धर्म विस्तार। राज मान अरु धन मन सबै, ताको फल कछु लीजैबै ॥२६७।। तबहि प्रतिष्ठाको विधि करी, रच्यो दिवाली उत्तम घरी । जिन प्रतिमा पधराई जहां, तोरन वजा छन्न अतितहां ।।२६८।। श्रावक देश देश के प्राइ, तिनको प्रादर अधिक कराइ । अरु पूजा को विधि सब कीन, जथाजोग भावधुत लीन ।।२६६।। चार संघ को दोनो दान, अरु कोनी सबको सन्मान । पुन रथ को फेरो चल पाप, ऊपर श्री जिनप्रतिमा थाप ॥३००।। नगर चौधरी लोधी जान, तिन कीनी अधिको सनमान । चार संघ मिलि टीका कियौ, सिंगई पद सब जुरके दियतो ॥३०१।।
दोहा सोरहसौ इक्यावनै, अगहन शुभ तिथि वाट । जुग जुझार हन्तेल कुल, तिनके राज मंझार ।।३०२।। यह संक्षेप बखान कर, कह्यो प्रतिष्ठा धर्म। परिजन जुत वाड़ी विभव, तिन उत्पति बहु धर्म ।।३०३।।
चौपाई सिंगही रतनशह गुन जुत्त, तिनके भये जदोले पुत्त । तिनके तनुज अनंदीराम, तिनके सुतहि जगत मनिराम ।।३०४।।
दोहा
क्षेत्रबिपाकी प्रक्रति वश, तज्यो भेलशो ग्राम । देश खटोला निज नगर, ग्राय कियौ विधाम । तिनके उपजे चार सूत, प्रथम हि केशव राय । हरज खाडेराय पुन, परमानन्द जु भाय ।।३०६।। तिनमें खाडेराय के तीन पुत्र परवान । प्रथम हि देवाराय मद, भोज इन्द्र मनमान ||३०७।। सिंधई देवाराय घर, प्रानमती उर धार । चार पुत्र तिनके भये, कही नाम अनसार ||३011
चौपाई
प्रथम हि नवलशह जानियो, दूज तुलाराम मानियो । तो घासीराम बखान, चौथे बांधव सिंह खुमान ||३०६।। प्रथमदिनवलशाह तिहि नाम, ग्रन्थारम्भ कियौ अभिराम । अब तिहि देश राजके धनी, बंश बुन्देला सब शिरमनी ॥३१॥
दोहा
क्षत्रशाल पत्ती प्रवल, नाती श्री हिरबेश । सभा सिंध सुत हिंदुपति, करहि राज इहि देश की ईति भीति व्यापं नहीं, परजा अति प्रानन्द । भाषा पढ़े पढ़ावहीं, स्त्रटपुर श्रावक वृन्द ।।३१२॥
शीर बनावे? इस प्रकार और भी प्रार्थना कर चुकने के बाद ग्रन्थकार कवि कहते हैं कि मैंने चरित्र रचना के भशा मेनत मस्तक होकर महावीर प्रभु के चरण कमलों को प्रणाम किया है, भक्तिपूर्वक अपनी वाणी से महावीर प्र सार मागणों की प्रशंसा एवं स्तुति की है। अपने पवित्र भावों के द्वारा श्रद्धावश होकर अनेकशःप्रभ की पजा की ।
HT सम्यकदर्शनादि तीन रत्न एवं उनसे उत्पन्न और भी अन्यान्य सम्पूर्ण शुभ साधन मुझ लोभी को सम्बक
ममत्पन्न संयम को. मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से धारण कर लिया था वे महावीर प्रभ हमें भी इस लोक एवं सिकेसम्पर्ण कारणों को प्रदान कर अनग्रहीत कर ! जिन्होंने अपने परमोत्तम ध्यानरूपी अति तोक्षण प्रष्टि से कर्म मी मनाशत्रयों का संहार कर सहज म हो मोक्ष पदवा का पा लिया,ब महन्त जिनेन्द्र प्रभु हमें भी इन्द्रिय रूपी चोरी तथा कर्मरूपी महाशयों का शीघ्र नाश कर दें। जिसमें कि मैं भी मोक्ष का अधिकारी हो जाती प्रान्त एवं निर्मल केवल जानादि उत्तम गुणों को पा लिया वे हो हमें भी प्रदान वारें । प्रभ ने विधि पवन
पीमख शान्ति पाने के लिए निर्मल एवं अनन्त मुक्ति प्रदान कर । ग्रन्थकार कवि पूनः प्रात्म निवेदन स्वीकत कर लिया हमें भी सुख शान्ति पाने के लिए निर्मल एवं अनन्त मक्ति प्रदाम
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चौपाई
ताहि समय कर मनहि हुलास, कीजे कछु श्रीजिनवर रास । भक्ति प्रभाव बढ़ यो उर आन, तब प्रभु वर्द्धमान गुणखान ।।३१३।। कयौ प्रस्तवन भाषा जोर, नवल सहित मद तन मन मोर | सकल कीति उपदेश प्रवान, पिता पुत्र मिलि रचे पुरान ।।३१४॥ सम्मति जिन गुण कोटि निबद्ध, यह पुनीत अति चरित संबद्ध । जो सेबै निज हिरदै ल्याय, ताके उर सब पातक जाय ।।३१५॥ जो यह ग्रन्य पढ़ें उर धार, औरनको जु पढ़ावं सार । ते परनबहू हैं गुणवान, और प्रमट अति उत्तम ज्ञान ।।३१६।। लिखे ग्रन्थ यह परम पवित्त, औरे देइ लिखाथ सुचित । मति श्रुत ज्ञान लहैं ते जीव, तप कर केबल पति जग पीव ॥३१७|| राग द्वेष नाशन गुणखान, कट कर्म अरि बेल निदान । या तन सत्तकार र नौं र रजा कासार ॥३१८।।
दोहा
प्रदभत षोडश स्वपन फल, जम्मबीर जिनराज । तिन गुण षोडश पर करण, रच्यो ग्रन्थ भवि काज ॥३१६।।
षोडश कारण भावना, भाई पूरब ठाव । तीर्थकर पद लहि चरित, षोडश तिनही प्रभाव ||३२०॥ ऊर्वलोक षोडश स्वरग, पुण्य लहै अवतार । तिन यह षोडश सरगकर, लीनों ग्रन्थहि पार ॥३२॥ षोडसकल जु चन्द्रमा, पूरणमासी जान । जिन षोडश अध्याय कर, पुरन भयो पुरान ।।३२२।।
ज्यों भामिनि उपमा वव, लहि षोडश श्रृंगार । यह पुरान अनुपम लस, कहि षोडश अधिकार ॥३२३।। सप्त प्रकृति उपशम खिपक, नोकपाय खय काज । ता हित नव सत साध कर, रच्यो ग्रन्थ जिनराज ॥३२४।। प्रष्ट कर्म नाशे सर्व, अष्टम पृथिवी दास । तिन वसु दून दुवार कर, अस्तुत किया अभ्यास ॥३२५।। सात महीना यादि लिख, कुछ अन्तर नव' अन्त । थिरता प्रलपहि ग्रंथ रचि, षोडश मास प्रजत ।।३२६।।
पुराण संख्या वर्णन
छप्पय उनतिस सय छयाछ, चोपही कही प्रवाने । दोहा चउसय पाठ, सोरठा द्वादश ठाने ।। वेशठ गीता छन्द जोगिया, पंचाहीं धर । वसु इकतीसा जान, चाल सैताल ठीक करि ।। अधिक सतासी एक सय, छन्द पद्धरी लेखिये । षट तेइसा गाथा सु चउ, छप्पय आठ विशेषिये ॥३२७।।
दोहा
करखा इक उनतीस,परिल पंच चच्चरी ठान । छन्द त्रिभंगी, एक दश, काव्य एक परवान ॥३२८।।
कि इस पवित्र ग्रन्थ को मैंने कीर्ति पूजा-प्रतिष्ठा इत्यादि के लालच में पड़कर नहीं बनाया, और अभिमानवश
री दिखाने के लिये भी नहीं बनाया, प्रत्युत यह तो केवल धर्म बुद्धि से बनाया गया है जिसमें भव्य जीवों का उपकार सारे कर्मों का भी नाश हो जाय । प्रभु की अनेकानेक उत्तम गुणों की माला में गंथकर इस परम पवित्र चरित्र को सकल
पीने रचा है। प्रभ की गुण कथा का ज्ञान होने के कारण यह दोष रहित है। फिर भी यदि प्रमाद एवं प्रज्ञान से यदि शति रह गई हो अथवा मैं कहीं असम्बन्ध कह दिया हाती पाठक उदारता पूर्वक क्षमा करंग तथा शुद्ध करके पढ़ेंगे । मुझ Tht की असम्बन्धता, अक्षर सन्धि एव मात्रादि दोषों को क्षमा करें। इस परम पवित्र ग्रन्थ को जो पड़े-पढ़ायंगे तथा सम्पूण
पचार करने के अभिप्राय से जो स्वयं लिखकर या लिखाकर प्रकाशित करेंगे वे पुण्यात्मा कहलायेंगे और ज्ञान दान के प्रभाव से संसार के सबॉत्तम सुखों को भोग कर अन्त में केवल ज्ञान को पायेंगे।
जोमहावीर प्रभ गुणों के रत्नाकर हैं, धर्मरुपी रत्न के उत्पत्ति है स्थान, भव्य जीवों के एकमात्र शरण हैं, इन्द्र इत्यादि
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सोरठा
अब इनको करजोर, अठतिसशय अरु छय अधिक । अरु श्लोकन
जोर, पट सहस्र परवान मिति ।।३२६॥
दोहा ऊर्जयन्त विक्रय नपति, सम्वत सरगत तेह । सत अठार पच्चिस अधिक, समय विकारी ऐह ।।३३०॥ द्वादश मैं सूरज गनी, द्वादश प्रश हिऊन । द्वादशमी मासहि मनी, सुकल पक्ष तिथि पूर्न ।।३३१।। द्वादश नरवत बखानिये, बुद्धवार वृष जोग । द्वादश लगन प्रभात मैं, श्री निन लेख मनोग ।।३३२।। ऋतु वसंत उर फल प्रति, फाग समय शुभ होय । वर्द्धमान भगवान, गुण ग्रन्थ सभापति कोय ।।३३३।।
अथ कवि लघुता वर्णन
वोहा द्रव्य नवल क्षेत्रहि नवल, काल नवल है और । भाव नवल भव नबल प्रति, बुद्धि नवल इहि ठौर ।।३३४|| काय नवल अरु मन नवल, बचन नवल विसराम । नव प्रकार सुत नवल यह नवलशाह कवि नाम ।।३३५!।
छप्पय
सारस्वत नहि पढ्यौ, काव्य पिंगल नहि सिख्यो । तरक छन्द व्याकरण, अमरकोष हि नहि दिस्यो। अल्पबुद्धि थिर नांहि, भक्तिवश भाव बढ़ायौं द्रव । जिन मतके अनुसार, ग्रन्थको पार लगायो । बुद्धिवन्त सज्जन बिनय, हास्यभाव मत कोई करो। तुकहीन छन्द जो पमिल जी, तो विचार अक्षरों धरौं ।।३३६॥
गीतिका
कौति जस महि चाह मेरे, लाभ लालच उर नहीं । कबिस्व छन्द न मान मनमें, तुच्छ बुद्धि मुझ है सही॥ ग्रन्थ परमारथ प्रकाशक, स्वपर कारज हित कियो । करम हानि निमित निहर्च, आत्मापत थिर लियौ ।।३३७।। वीर जिनबर चरित उत्तम भाव जुत जो सीखही । सुने जे नर त्याग चिन्ता, शुद्ध थिर मन राख हो ।। होइ आठौं सिद्धि नवनिधि, मन प्रतीति धरै सही । ज्ञान दरशन चरण प्रादिक, मुक्ति सामग्री यही ।।३३८॥ सकल तीर्थकर जु नायक गुण छयालिस जासुत । सिद्धि जगत निवार अनुपम, अष्ट मुणमय सासुते ॥ सूरि पंचाचार मडित, परम पाठक उर धरै । साधु जोग अभंग साधन, सदा मो मगल कर 11३३६।।
दोहा
पंच परम गुरु जुग चरण भविजन बुध जुत धाम । कृपावंत दीजै भगत, दास 'नवल' परणाम ||३४०॥
देवों के द्वारा पुजित हैं तथा स्वर्ग एवं मोक्ष के मूल कारण हैं उन प्रभुका यह उसम एवं पवित्र चरित्र, जब तक कि इस धरातल पर से काल का अन्त न हो जाय तब तक आर्यखण्डके सभी स्थानों में इसका प्रचार हो, प्रसिद्धि हो, और संस्थिति रहे । यही मेरी मनोकामना है। प्रभु ने स्वर्ग एवं मोक्ष देने वाले निर्दोष अहिमामय उत्तम धर्म का उपदेश मुनि श्रावक भेद मे किया है वह परम' सुखदायक धर्म जब तक पृथ्वी पर है तब तक निश्चय रूपेण रहेगा । पवित्र धर्म के उपदेष्टा एवं व्याख्याता शीघ्र अन्त कर दें। बहुत विशेष न कहकर इतना ही कह देना पर्याप्त है कि मेरे द्वारा श्रद्धाभक्ति-पूर्वक संस्तुत श्रीमहावीर प्रभु लोभी को भी अपने ही समान अदभुत अनुपम एवं सर्वोत्तम गुणों को सुख एवं मुक्ति प्राप्ति के लिये प्रदान करें। इस चरित्रमें ग्रन्थ संख्या के अनुसार कुल तीन हजार पैतीस श्लोक हैं । शुभमस्तु ।
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लोक-दृष्टि में श्री भगवान् महावीर
और उनकी शिक्षा
in.
ऋग्वेद में श्री वर्धमान भक्ति
देव बहिवर्धमान सूबोरं स्तीण राये सूभरं वेद्यस्याम् । घृतेनावत्तम् वसवः सीदतेदं विश्वेदेवा प्रादित्याय ज्ञियासः ।।४।।
- ऋग्वेद २-३-४ अर्थात-हे देवों के देव, वर्धमान । आप सुबीर (महावीर) हैं, व्यापक हैं। हम सम्पदाओं की प्राप्ति के लिये इस वेदी पर धत से पापका आह्वाहन करते हैं । इसलिये राब देवता इस यज्ञ में ग्रावें और प्रसन्न होवें।
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भगवान महावीर परिचय और निणि काल
पं. जुगल किशोर मुखत्यार जैनियों के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर विवेह (विहार) देशस्थ कुण्डपुर के राजा सिद्धार्थ के पुत्र थे और माता प्रियकारिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे, जिसका दूसरा नाम त्रिशला भी था और जो वैशाली के राजा चेटक की सुपुत्री थीं।
आपके शुभ जन्म से चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की तिथि पवित्र हुई और उसे महान् उत्सवों के लिए पर्वका-सा गौरव प्राप्त हमा। इस तिथि को जन्म समय उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र था जिसे कहीं तस्तोतरा (हस्त नक्षत्र है उत्तर में अनन्तर जिसके) इस नाम से भी उल्लिखित किया गया है, और सौम्य ग्रह अपये उच्चस्थान पर स्थित थे, जैसा कि श्री पूज्यपादाचार्य के निम्न वाक्य से प्रकट है :
चैत्र सितपक्ष फाल्गुनिशशांक योगे दिने त्रयोदश्याम् । जजे स्वोच्चस्थेषु ग्रहेषु सौम्येषु शुभलग्ने ।।५।।
- निर्वाणभक्ति
तेजः पुंज भगवान के गर्भ में प्राते हो सिद्धार्थ राजा तथा अन्य कुटुम्बायों की धीवृद्धि हुई-उनका यश, तेज, पराक्रम और वैभव बढ़ा-माता की प्रतिभा चमक उठी, वह सहज ही में अनेक गूढ़ प्रश्नों का उत्तर देने लगी, और प्रजाजन भी उत्तरोत्तर सुख शान्ति का अधिक अनुभव करने लगे। इससे जन्मकाल में आपका सार्थक नाम "बर्द्धमान" रक्खा गया। साथ ही, वीर महावीर मौर सन्मति जैसे नामों की भी क्रमशः सृष्टि हुई, जो सब आपके उस समय प्रस्फुटित तथा उच्छलित होने दाले गुणों पर ही एक आधार रखते हैं।
महावीर के पिता "णात्" वंश के क्षत्रिय थे। "णात्" यह प्राकृत भाषा का शब्द है और "नात्" ऐसा दन्त्य नकार से भी लिखा जाता है । संस्कृत में इसका पर्याय रूप होता है। ज्ञान इसी से चारित्रभक्ति में श्री पूज्यपादाचार्य ने श्री मज्ज्ञातकुलेन्दुना पद के द्वारा महावीर गगवान को ज्ञात वंश का चन्द्रमा लिखा है और इसी से महावीर भगवान जातपूत अथवा शातपुत्र भी कहलाते थे, जिसका बौद्धादि ग्रंथों में भी उल्लेख पाया जाता है। इस प्रकार वंश के ऊपर नामों का उस समय चलन था-बुद्धदेव भी अपने वंश पर से शाक्यपुत्र कहे जाते थे। प्रस्तु इस नात का ही बिगड़ कर अथवा लेखकों या पाठको की नासमझी की वजह से बाद को नाथ रूप हुआ जान पड़ता है। और इसी से कुछ ग्रंथों में महावीर को नाथवंशी लिखा हमा मिलता है, जो ठीक नहीं है ।
महावीर के बाल्यकाल की घटनामों में से दो घटनाएं खास तौर से उल्लेख योग्य हैं- एक यह कि, संजय और विजय नाम के दो चारण मुनियों को तत्वार्थ विषयक कोई भारी सन्देह उत्पन्न हो गया था, जन्म के कुछ दिन बाद ही जब उन्होंने आपको देखा तो आपके दर्शन मात्र से उनका बह सब सन्देह तत्काल दूर हो गया और इसलिए उन्होंने बड़ो भक्ति से प्रापका नाम "सन्मति" रक्खा । दुसरी यह कि, एक दिन प्राप बहुत मे राजकूमारों के साथ वन में वृक्षक्रीड़ा कर रहे थे, इतने में वहां पर एक महाभयंकर और विशालकाय सर्प ग्रा निकला और उस वक्ष को ही मूल से लेकर स्कंध पर्यन्त बेढ़कर स्थित हो गया जिस पर पाप चढ़े हुए थे। उसके विकराल रूप को देखकर दुसरे राजकूमार भय विह्वल हो गये और उसो दशा में वक्षों पर से गिरकर अथवा काद कर अपने-अपने घर को भाग गये । परन्तु अापके हृदय में जरा भा भय का संचार नहीं हुग्रा-पाप बिल्कुल निर्भयचित होकर उस काले नाग से ही ऋोड़ा करने लगे और आपने उस पर सवार होकर अपने बल तथा पराक्रम से
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का खूब ही घुमाया. फिराया तथा निर्मद कर दिया। उसी समय से आप लोक में महावीर नाम से प्रसिद्ध हुए। इन दोनों घटनामों से यह स्पष्ट जाना जाता है कि महावीर में बाल्यकाल से ही बुद्धि और शक्ति का असाधारण विकास हो रहा था और इस प्रकार की घटनाएं उनके भावी असाधारण व्यक्तित्व को सूचित करती थीं। सो ठीक ही है
___ "होनहार बिरवान के होत चीकने पात।" प्रायः तीस वर्ष की अवस्था हो जाने पर महावीर संसार देह भोगों से पूर्णतया विरक्त हो गये, उन्हें अपने प्रात्मोत्कर्ष को साधने और अपना अन्तिम ध्येय प्राप्त करने की ही नहीं किन्तु संसार के जीवों को सन्मार्ग में लगाने अथवा उनकी सच्ची सेवा बनाने को एक विशेष लगन लगी-दीन दुखियों की पुकार उनके हृदय में घर कर गई-और इसलिए उन्होंने, अब और अधिक समय तक गृहवास को उचित न समझकर, जंगल का रास्ता लिया, सम्पूर्ण राज्य-वैभव को ठुकरा दिया और इंद्रिय सुखों से मुख मोड़कर मंगसिर वदि १० मी को ज्ञातखण्ड नामक वन में जिनदोक्षा धारण कर ली। दीक्षा के समय मापने सम्पर्ण परिग्रह का त्याग करके आकिंचन्य (अपरिग्रह) व्रत ग्रहण किया, अपने शरीर पर से वस्त्राभूषणों को उतार कर फेंक दिया और केशों को क्लेश समान समझत हुए उनका लोव कर डाला : ल ना देह से भी निर्ममत्व होकर नग्न रहते थे, सिंह की तरह निर्भय होकर जंगल पहाड़ों में विचरते थे और दिन-रात तपश्चरण ही तपश्चरण किया करते थे।
विशेष सिद्धि और विशेष लोक सेवा के लिए विशेष ही तपश्चरण की जरूरत होती है—तपश्चरण ही रोम-रोम में रमे हए ग्रान्तरिक मल को छांट कर आत्मा को शुद्ध, साफ, समर्थ और कार्यक्षम बनाता है। इसीलिए महावीर को बारह वर्ष तक घोर तपश्चरण करना पड़ा- वव कड़ा योग साधना पड़ा-तब कहीं जाकर आपकी शक्तियों का पूर्ण विकास हया । इस दुर्द्धर तपश्चरण की कुछ घटनामों को मालूम करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। परन्तु साथ ही आपके असाधारण धैर्य, अटल निश्चल, सुदढ़ प्रात्मविश्वास, अनुपम साहस और लोकोपर क्षमाशीलता को देखकर हृदय भक्ति से भर जाता है और खद बखद (स्वयमेव) स्तुति करने में प्रवृत हो जाता है । अस्तु मनः पर्ययज्ञान की प्राप्ति तो आपको दीक्षा लेने के बाद ही हो गई थी परन्त केवल ज्ञान ज्योति का उदय बारह वर्ष के उग्र तपश्चरण के बाद वैशाख सुदि १०मी को तीसरे पहर के समय उस वक्त हुआ जबकि पाप जृम्भका ग्राम के निकट ऋजुकूला नदी के किनारे, शाल वृक्ष के नीचे एक शिला पर, षष्ठोपर वास से युक्त हए, क्षपकणि पर प्रारूढ़ थे-पापने शुक्ल ध्यान लगा रखा था-और चन्द्रमा हरतोत्तर नक्षत्र के मध्यम में स्थित था । जैसा कि श्री पूज्यपादाचार्य के निम्न बाक्यों में प्रकट है :
ग्राम पुर खेट कर्वट मटम्ब घोषाकरान प्रविजहार। उप्रैस्तपोविधानदिशवर्षाण्यमरपूज्यः
||१०|| ऋजकूलायास्तीरे शालगु मसंश्रिते शिलापट्टे । अपराहने षप्टेनास्थितस्य स्खलु जम्भकाग्रामे ॥११॥ वंशाखसितदशम्यां हस्तौत्तरमध्यमाश्रिते चन्द्र क्षपकघेण्यारूढस्योत्पन्न केवलज्ञानम्
।।१२।।
-निर्वाणभक्ति इस तरह घोर तपश्चरण तथा ध्यानाग्नि द्वारा, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय नाम के धातिकर्म मल को दग्ध करके, महावीर भगवान ने जब अपने प्रात्मा में ज्ञान, दर्शन सुख और वीर्य नाम के स्वाभाविक गुणों का पूरा विकास अथवा उनका पूर्ण रूप से आविर्भाव कर लिया और आप अनुपम शुद्धि, शक्ति तथा शान्ति को पराकाष्ठा को पहंच गये, अथवा यो कहिये कि आपको स्वास्मोपलब्धि रूप सिद्धि की प्राप्ति हो गई, तब आपने' सब प्रकार से समर्थ होकर ब्रह्मपथ का नेतृत्व पक्षण किया और संसारी जीवों को सन्मार्ग का उपदेश देने के लिए उन्हें उनकी भूल सुझाने बन्धनमुक्त करने, ऊपर उठाने और उनके दुःख मिटाने के लिए अपना बिहार प्रारम्भ किया। दूसरे शब्दों में कहना चाहिए कि लोक हित साधना का जो असाधारण विचार मापका वर्षों से चल रहा था और जिसका गहरा संस्कार जन्मजन्मान्तरों से आपके पात्मा में पड़ा हया था वह अब सम्पूर्ण रुकावटों के दूर हो जाने पर स्वत: कार्य में परिणत हो गया।
विहार करते हुए आप जिस स्थान पर पहुंचते थे और वहां आपके उपदेश के लिए जो महती सभा जुड़ती थी और जिसे जन साहित्य में समवसरण नाम से उल्लिखित किया गया है उसकी एक खास विशेषता यह होती थी कि उसका द्वार सबके लिए मुक्त रहता था, कोई किसी के प्रवेश में बाधक नहीं होता था-पशुपक्षी तक भी आकृष्ट होकर वहां पहुंच जाते थे, जाति-पांति छपाछत और ऊंचनीच का उसमें कोई भी भेद नहीं था, सब मनुष्य एक ही मनुष्य जाति में परिगणित होते थे,
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और उक्त प्रकार के भेदभाव को भुलाकर आपस में प्रेम के साथ रल-मिल कर बैठत और धर्म श्रवण करते थे-मानों सब एक ही पिता के संतान हो । इस प्रादर्श से समवसरण में भगवान् महावार को समता और उदारता मूर्तिमती नजर पाती थी और वे लोग तो उसमें प्रवेश पाकर बेहद संतुष्ट होते थे जो समाज के अत्याचारों से पीड़ित थे, जिन्हें कभी धर्म श्रवण का, शास्त्रों के अध्ययन का, अपने विकास का और उच्च संस्कृति को प्राप्त करने का अवसर ही नहीं मिलता था अथवा जो उसके अधिकारी ही नहीं समझे जाते थे। इसके सिवाय, समवसरण की भमि में प्रवेश करते ही भगवान् महावीर के सामीप्य से जीवों का बैरभाव दूर हो जाता था, क्रूर जन्तु भी सौम्य बन जाते थे और उनका जाति विरोध तक मिट जाता था। इसी मे सर्प को नकूल या मयर के पास बैठने में कोई भय नहीं होता था, चूहा बिना किसी संकोच के बिल्ली का आलिंगन करता था, गी और सिंह मिलकर एक ही नाद में जल पीते थे और मुग शावक खुशी से सिंह शावक के साथ खेलता था । यह सब महावीर के योगबल का महात्म्य था। उनके पात्मा में अहिंसा को पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी, इसलिए उनके सन्निकट अथवा उनकी उपस्थिति में किमीका र स्थिर नहीं रह सकता था। पतंजलि ऋषि ने भी, अपमें योगवर्धन में योग के इस माहात्म्य को स्वीकार किया है. जैसा कि उसके निम्न सूत्र से प्रकट है :
यहिसाप्रतिष्ठाया तत्सन्निधौ वैरत्यागः ।।३।। जनशास्त्रों में महावीर के विहार समयादिक की कितनो ही विभूतियों का-अतिशयों का वर्णन किया गया है। परन्तु उन्हें यहां पर छोड़ा जाता है। क्योंकि स्वामी समन्तभद्र ने लिखा है:
देबागम-नभोयान-चामरादि-विभूतियः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ।।१।।
-प्राप्तमीमांसा अर्थात-देवों का प्रागमन, आकाश में गमन और चामरादिक (दिव्य चमर, छत्र, सिंहासन, भामंडलादिक) विभूतियों शनि को मायावियों में-इन्द्र जालियों में भी पाया जाता है. इनके कारण हम आपको महान् नहीं मानते और न इनकी वजह से अापकी कोई खास महत्ता या बड़ाई ही है।
भगवान महावीर की महत्ता और बड़ाई तो उनके मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक कर्मों का करके परम शान्ति को लिए हुए शुद्धि तथा शक्ति की पराकाष्ठा को पहुंचने और ब्रह्मपथ को-अहिंसात्मक मोक्ष मार्ग का नेतत्व ग्रहण करने में है-अथवा यों कहिये कि आत्मोद्धार के साथ-साथ लोक की सच्ची सेवा बजाने में है। जैसा कि स्वामी समन्तभद्र के निम्न वाक्य से भी प्रकट है :
स्वं शुद्धिशक्त्योरुदयस्य काष्ठां तुलाव्यतीता जिन शान्तिरूपाम् । प्रबापिथ ब्रह्मपथस्य नेता महानितीयत् प्रतिवक्तुमीशाः ॥४।।
न्युक्त्यनुशासन सहावीर भगवान ने प्रायः तीस वर्ष तक लगातार अनेक देश देशान्तरों में विहार करके सन्मार्ग का उपदेश दिया. प्रसंख्य प्राणियों के अज्ञानान्धकार को दूर करके उन्हें यथार्थ वस्तु-स्थिति का बोध कराया. तत्त्वार्थ को समझाया, मलें दूर की, भ मिटाए, कमजोरियां हटाई, भय भगाया, आत्मविश्वास बढ़ाया, कदाग्रह दूर किया, पाखण्डबल घटाया, मिथ्यात्व छडाया. मनों को उठाया. अन्याय अत्याचार को रोका, हिसा का विरोध किया, साम्यवाद को फैलाया और लोगों को स्वावलम्बन
inस की शिक्षा देकर उन्हें प्रात्मोत्कर्ष के मार्ग पर लगाया। इस तरह आपने लोक का अनन्त उपकार किया है और पापका यह विहार बड़ा ही उदार, प्रतापो एवं यशस्वी हुया है। इसी से स्वामी समन्तभद्र के स्वयंभ-स्त्रोत्र में "गिरिभित्यवदानवतः" इत्यादि पद के द्वारा जिन विहार का यत्किचित् उल्लेख करते हुए, उसे "जितं गतं" लिखा है।
भगवान का यह विहार काल ही प्रायः उनका तीर्थ प्रवर्तन काल है, और इस तीर्थ प्रवर्तन की वजह से ही वे तीर्थंकर कहलाते हैं। आपके बिहार का पहला स्टेशन राजगृही के निकट विपुलाचल तथा वैभार पर्वतादि पंच पहाड़ियों का प्रदेश जान पता है। जिसे धवल और जयधवल नाम के सिद्धान्त ग्रन्थों में क्षेत्ररूप से महावीर का अर्थकर्तृत्व प्ररूपण करते हुए, पंचशंलपुर नाम से उल्लिखित किया है । यहीं पर आपका प्रथम उपदेश हुमा है केवल ज्ञानोत्पत्ति के पश्चात् आपको दिव्य वाणी खिरी है और उस उपदेश के समय से ही आपके तीर्थ की उत्पत्ति हुई है। राजगही में उस वक्त राजा धोणिक राज्य करता था, जिसे
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बिम्बसार भी कहते हैं। उसने भगवान को परिषदों में समवसरण सभाषों में प्रधान भाग लिया है और उसके प्रश्नों पर बहुत से रहस्यों का उद्घाटन हुआ है। श्रेणिक को रानी चलना भी राजा चेटक की पुत्री थी और इसलिए वह रिश्ते में महावीर की मातृस्वसा ( मावसी होती थी इस तरह महावीर का अनेक राज्यों के साथ में पारीरिक सम्बन्ध भी था। उनमें आपके धर्म का बहुत प्रचार हुआ और उसे अच्छा राजाला है।
बिहार के समय महावीर के साथ कितने ही मुनि आर्यिकाओं तथा श्रावक-श्राविकाओं का संघ रहता था । ग्रापने चतुविध संघ की अच्छी योजना और बड़ी ही सुन्दर व्यवस्था की थी । इस संघ के गणधरों की संख्या ग्यारह तक पहुंच गई थी और उनमें सब से प्रधान गौतम स्वामी थे, जो 'इन्द्रभूति' नाम से भी प्रसिद्ध थे और समवसरण में मुख्य गणधर का कार्य करते थे। वे गौतम गोत्री और सकल वेद-वेदांग के पारगामी एक बहुत बड़े ब्राह्मण विद्वान थे, जो महावीर को केवलज्ञान को संप्राप्ति होने के पश्चात् उनके पास अपने जीवाजीव विषयक सन्देह के निवारणार्थ गये थे, संदेह की निवृत्ति पर उनके शिष्य वन गये थे और जिन्होंने अपने बहुत से शिष्यों के साथ भगवान से जिनदीक्षा लेली भी।
तीस वर्ष के लम्बे बिहार को समाप्त करते मोर कृतकृत्य होते हुए भगवान महावीर जब गावापुर के एक सुन्दर उद्यान में पहुंचे, जो अनेक पद्म सरोवरों तथा नाना प्रकार के वृक्ष समूहों से मंडित था, तब ग्राप वहां कायोत्सर्ग से स्थित हो गये और अपने परम शुक्लध्यान के द्वारा योग निरोध करके दुग्धरन्जु समान अवशिष्ट रहे कर्म रज को पाष्टिय को भी अपने आत्मा से पृथक् कर डाला और इस तरह कार्तिक यदि अमावस्या के दिन स्वाति नक्षत्र के समय, निर्वाण पद को प्राप्त करके आप सदा के लिए अजर अमर तथा अक्षय सौरव को प्राप्त हो गये। इसी का नाम विदेहमुक्ति, आत्यन्तिक स्वायन्तिक स्वात्मस्थिति, परिपूर्ण सिद्धावस्था अथवा निष्फल परमात्म पद की प्राप्ति है। भगवान महावीर प्रायः ७२ वर्ष की अवस्था में अपने इस अन्तिम ध्येय को प्राप्त करके लोकापवासी हुए और याज उन्हीं का तीर्थ प्रवर्त रहा है।
इस प्रकार भगवान महावीर का यह संक्षेप में सामान्य परिचय है, जिसमें प्रातः किसी को भी कोई खास विवाद नहीं है | भगवज्जीवनी की उभय सम्प्रदाय सम्बन्धी कुछ विवादग्रस्त अथवा मतभेदवाली बातों को मैंने पहले से ही छोड़ दिया है । उनके लिए इस छोटे से निबन्ध में स्थान भी कहाँ हो सकता है ? वे तो गहरे अनुसंधान को लिए हुए एक विस्तृत आलोचनात्मक निबन्ध में अच्छे ऊहापोह अथवा विवेचन के साथ ही दिखलाई जाने के योग्य है ।
देश काल की परिस्थिति
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देश काल की जिस परिस्थिति ने महावीर भगवान को उत्पन्न किया उसके सम्बन्ध में भी दो शब्द कह देना यहां पर उचित जान पड़ता है। महावीर भगवान के अवतार से पहले देश का वातावरण बहुत ही क्षुब्ध पीड़ित तथा संत्रस्त हो रहा था, दीन दुर्बल खूब सताए जाते थे, ऊंच-नीच की भावनाएं जोरों पर थीं, शूद्रों से पशुओं जैसा व्यवहार होता था, उन्हें कोई सम्मान या अधिकार प्राप्त नहीं था, वे शिक्षा, दीक्षा और उच्च संस्कृति के अधिकारी ही नहीं माने जाते थे और उनके विषय में बहुत ही निर्दय तथा घातक नियम प्रचलित थे, स्त्रियां भी काफी तौर पर सताई जाती थीं, उच्च शिक्षा से वंचित रक्खी बाती थीं, उनके विषय में न स्त्री स्वातन्ययमर्हति' (स्त्री स्वतन्त्रता की अधिकारिणी नहीं) जैसी कठोर धाज्ञा जारी थीं और उन्हें यथेष्ठ मानवी अधिकार प्राप्त नहीं थे बहुतों की दृष्टि में तो वे केवल भोग की वस्तु, विलास को पीज पुरुष की सम्पति अथवा यचा जनने की मशीन मात्र रह गई थीं, ब्राह्मणों ने धर्मानुष्ठान यादि के सब ऊंचे अधिकार अपने लिए रिजर्व रख छोड़े थे- दूसरे लोगों को वे उनका पात्र ही नहीं समझते थे - सर्वत्र उन्हीं की तूती बोलती थी, शासन विभाग में भी बड़े से बड़ा अपराध कर लेने पर भी उन्हें प्राणदण्ड नहीं दिया जाता था, जब कि दूसरों को एक साधारण से अपराध पर भी सूली फांसी पर चढ़ा दिया जाता था, ब्राह्मणों के बिगड़े तथा सड़े हुए जाति भेद की दुर्गन्ध से देश का प्राण घुट रहा था और उसका विकास रुक रहा था, खुद उनके अभिमान तथा जाति मद ने उन्हें पतित कर दिया था और उनमें लोभ, लालच, दंभ, श्रज्ञानता अकर्मण्यता, क्रूरता तथा धूर्ततादि दुर्गुणों का निवास हो रहा था, ये रिश्वत अथवा दक्षिणाएं लेकर परलोक के लिए सर्टिफिकेट और पर्वाने तक देने लगे दे धर्म की असली भावनाएं प्रायः लुप्त हो गई थीं और उनका स्थान अर्थहीन क्रियाकाण्टों तथा पोधे विधि विधानों ने से लिया था, बहुत से देवी-देवताओं को कल्पना प्रबल हो रही थी, उनके सन्तुष्ट करने में ही सारा समय चला जाता था और उन्हें पशुओं की बलिया तक बढ़ाई जाती थी, धर्म के नाम पर सर्वत्र यज्ञ यागादि कर्म होते थे और उनमें असंख्य पशुओं को होमा जाता था जीवित प्राणी धधकती हुई श्राग में डाल दिये जाते थे और उनका स्वर्ग जाना बतलाकर wear 'दि हिंसा हिंसा न भवति' कहकर लोगों को भुलावे में डाला जाता था और उन्हें ऐसे क्रूर कर्मों के लिए उत्तेजित
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किया जाता था। साथ ही, बलि लथा यज्ञ के बहाने लोग मांस खाते थे। इस तरह देश में चहुं ओर अन्याय अत्याचार का साम्राज्य था-बड़ा ही वीभत्स तथा करुण दृश्य उपस्थित था—सत्य कुचला जाता था, धर्म अपमानित हो रहा था, पीड़ितों की पाहों के धुएं से आकाश व्याप्त था और सर्वत्र असन्तोष हो असन्तोष फैला हुया था।
यह सब देखकर सज्जनों का हृदय तिलमला उठा था, धार्मिकों को रात दिन चैन नहीं पड़ता था और पीड़ित व्यक्ति अत्याचारों से ऊबकर त्राहि-त्राहि कर रहे थे। सबों की हृदय तन्त्रियों से कोई अवतार नया हो की एक ही श्वनी निकल रही थी और सबों की दष्टि एक ऐसे असाधारण महात्मा की पोर लगी हुई थी जो उन्हें हस्तावलम्ब देकर इस घोर विपत्ति से निकाले । ठीक इसी समय---आज से कोई दाई हजार वर्ष से भी पहले-प्राची दिशा में भगवान महावीर भास्कर का उदय हमा, दिशाएं प्रसन्न हो उठी, स्वास्थ्य कर मन्द मुगन्ध पवन बहने लगा, सज्जन धर्मात्माओं तथा पीड़ितों के मुखमण्डल पर पाशा की रेखाएं दीख पड़ी, उनके हृदय कमल खिल गये और उनकी नस नाड़ियों में ऋतुराज (बसन्त) के प्रागमनकाल-जैसा नवरस का संचार होने लगा।
महावीर का उद्धारकार्य
महावीर ने लोक स्थिति का अनुभव किया, लोगों की प्रज्ञानता, स्वार्थपरता, उनके वहम, उनका अन्धविश्वास और उनके कुत्सित विचार एवं दुर्व्यवहार को देखकर उन्हें भारी दुःख तथा खेद हुा । साथ ही, पीड़ितों की करुण पुकार को सुनकर उनके हृदय से दया का खण्ड स्रोत बह निकला । उन्होंने लोकोद्धार का संकल्प किया, लोकोद्धार का सम्पूर्ण भार उठाने के लिए अपनी सामर्थ्य को तोला और उसमें जो वृटि थी, उसे बारह वर्ष के उस घोर तपश्चरण के द्वारा पूरा किया जिसका अभी उल्लेख किया जा चुका है।
इसके बाद सब प्रकार से शक्ति सम्पन्न होकर महावीर ने लोकोद्धार का सिंहनाद किया- लोक प्रचलित सभी अन्याय अत्याचारों, कुविचारों तथा दुराचारों के विरुद्ध आवाज उठाई और अपना प्रभाव सबसे पहले ब्राह्मण विद्वानों पर डाला, जा उस वक्त देश के सर्वे सर्वाः बने हए थे और जिनके इस पट सिंहनाद को सुनकर, जो एकान्त का निरसन करने वाले स्याद्वाद की निचार पद्धति को लिए हया था, लोगों का तत्वज्ञान विषयक भ्रम दूर हुया, उन्हें अपनी भूलें मालूम हुई, धर्म-अधर्म के यथार्थ स्वरूप का परिचय मिला, आत्मा अनात्मा का भेद स्पष्ट हुमा मौर बन्ध मोक्ष का सारा रहस्य जान पड़ा। साथ ही, टे देवी-देवताओं तथा हिंसक यज्ञादिकों पर से उनकी श्रद्धा हटी और उन्हें यह बात साफ जंच गई कि हमारा उत्थान और पतन हमारे ही साथ में है, उसके लिए किसी गुप्त शक्ति की कल्पना करके उसी के भरोसे बैठे रहना अथवा उसको दोष देना अनुचित और मिथ्या है। इसके सिवाय, जाति भेद की कट्टरता मिटी, उदारता प्रगटी, लोगों के हृदय में साम्यवाद की भावनाएं दद हई और उन्हें अपने प्रात्मोत्कर्ष का मार्ग सूझ पड़ा। साथ ही ब्राह्मण गुरुपों का आसन डोल गया, उनमें से इन्द्रभूति गौतम जैसे कितने ही दिग्गज विद्वानों ने भगवान के प्रभाव से प्रभावित होकर उनको समीचीन धर्म देशना को स्वीकार किया मोर सब प्रकार से उनके पुरे अन्यायी बन गये । भगवान ने उन्हें गणधर के पद पर नियुक्त किया और अपने संघ का भार सौंपा। उनके साथ उनका बहुत बड़ा शिष्य समुदाय तथा दूसरे ब्राह्मण और अन्य धर्मानुयायो भो जैन धर्म में दाक्षित हो गये। इस भारी विजय से क्षत्रिय गुरुयों और जैन धर्म की प्रभाव वृद्धि के साथ-साथ तत्कालीन ( क्रियाकाण्डी ) ब्राह्मण धर्म की प्रभा क्षीण हई, ब्राह्मणों की शक्ति घटी, उनकं अत्याचारों में रोक हुई, यज्ञ यागादिक कर्म मन्द पड़ गये उनमें पशूमों के प्रतिनिधियों की भी कल्पना होने लगी और ब्राह्मणों के लौकिक स्वार्थ तथा जाति पांति के भेद को बहुत बड़ा धक्का पहंचा। परन्तु निरकशता के कारण उनका पतन जिस तेजी के साथ हो रहा था वह रुक गया और उन्हें सोचने-विचारने का अथवा अपने धर्म तथा परिणति में फेरफार करने का अवसर मिला।
महावीर की इस धर्म देशना और विजय को सम्बन्ध में कवि सम्राट डा. रवीन्द्र नाथ टैगोर ने जो शब्द को इस प्रकार हैं:
Malavira proclaimed in India the message of salvation that religion is a reality and not it more social convention, that salvation comes from taking refuge in that true Religion and not from observing the externul cercmonics of the community, that religion can not regard any barrier between man and 1 an eternal verity. Wondrous 10 relate, this teaching rapidly overtopped the barriers of the race's abiding
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instinct and conquered the whole country. For a long period now the influence of Kshatriya teaclcts completely suppressed the Brahmin power,
अर्थात्-महावीर ने डंके को चोट भारत में मुक्ति का ऐसा सन्देश घोषित किया कि, धर्म कोई महज सामाजिक रूढ़ि नहीं बल्कि बास्तबिक सत्य है-वस्तुस्वभाव है-पौर मुक्ति उस धर्म में प्राधय लेने से ही मिल सकती है, न कि समाज के बाह्य आचारों-विधिविधानों अथवा क्रियाकाण्डों का पालन करने से, और यह कि धर्म को दृष्टि में मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई भेद स्थायी नहीं रह सकता । कहते आश्चर्य होता है कि इस शिक्षण ने बद्धमूल हुई जाति को हद बन्दियों को शीघ्र ही तोड़ डाला और सम्पूर्ण देश पर विजय प्राप्त किया। इस वक्त क्षत्रिय गुरुषों के प्रभाव से बहुत समय के लिए ब्राह्मणों की सत्ता ने पूरी तौर से दबा दिया था।
इसी तरह लोकमान्य तिलक आदि देश के दूसरे भी कितने ही प्रसिद्ध हिन्दू विद्वानों ने, अहिंसादिक के विषय में महावीर भगवान अथवा उनके धर्म की ब्राह्मण धर्म पर गहरी छाप का होना स्वीकार किया था, जिनके वाक्यों को यहां पर उदघत करने की जरूरत नहीं है- अनेक पत्रों तथा पुस्तकों में वे छप चुके हैं । महात्मा गांधो तो जीवन भर भगवान महावीर के मुक्तकण्ठ से प्रशंसक बने रहे । विदेशी विद्वानों के भी बहुत से बाक्य महावीर की योग्यता, उनके प्रभाव और उनके शासन को महिमा-सम्बन्ध में उद्धृत किये जा सकते हैं, परन्तु उन्हें भी यहां छोड़ा जाता है।
वीर-शासन की विशेषता
भगवान महावीर ने संसार में सुख शान्ति स्थिर रखने और जनता का विकास सिद्ध करने के लिए चार महासिद्धांतों की--१ महिसा वाद, २ साम्यवाद, ३ अनेकान्तवाद (स्याद्वाद), और ४ कर्मबाद नामक महासत्यों की घोषणा की है और उनके द्वारा जनता को निम्न बातों की शिक्षा दी है:
१-निर्भय-निर्वर रह कर शांति के साथ जीना तथा दूसरों को जीने देना। २-राग-द्वेष, गहंकार नथा अन्याय पर विजय प्राप्त करना और अनुचित भेद भाव को त्यागना।
३--सर्वतोमुखी विशाल दृष्टि प्राप्त करके अथवा नये प्रमाण का सहारा लेकर सत्य का निर्णय तथा विरोध का परिहार करना ।
४-अपना उत्थान और पतन अपने हाथ में है ऐसा समझते हुए, स्वावलम्बी बनकर अपना हित और उत्कर्ष साधन तथा दूसरों के हितसाधन में मदद करना।
साथ ही. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पकचारित्र तीनों के समूच्चय को मोक्ष की प्राप्ति का एक उपाय अथवा मार्ग बतलाया है। ये सब सिद्धान्त इसने गहन, विशाल तथा महान् हैं और इनकी विस्तृत व्याख्याओं तथा गम्भीर विवेचनामों से इतने जैन ग्रन्थ भरे हुए हैं कि इनके स्वरूपादि विषय में यहाँ कोई चलती-सी बात कहना इनके गौरव को घटाने अथवा हल प्रति कछ अन्याय करने जैसा होगा। और इसलिए इस छोटे से निबन्ध में इनक स्वरूपादि का न लिखा जाना क्षमा किये जाने के योग्य है। इन पर तो अलग ही विस्तृत निबन्धों को लिखे जाने की जरूरत है । हां, स्वामी समन्तभद्र के निम्न बायानमार इतना जरूर बतलाना होगा कि महावीर भगवान का शासन नय प्रमाण के द्वारा वस्तु तत्व को बिल्कुल स्पष्ट करने वाला और सम्पूर्ण प्रवादियों के द्वारा बाध्य होने के साथ-साथ दया (अहिंसा), दम (संयम), त्याग (परिग्रहत्यजन) और समाधि (प्रशासन ध्यान) इन चारों की तत्परता को लिए हुए हैं, और यही सब उसकी विशेषता है अथवा इसीलिए वह अद्वितीय है।
दया-दम-त्याग-समाधिनिष्ठं नय-प्रमाण-प्रकृतांजसार्थम् । प्रधृष्यमन्यैरखिलेः प्रवादैजिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ।।६।।
- युक्त्यनुशासन इस वाक्य में दया को सबसे पहला स्थान दिया गया है और वह ठीक ही है। जब तक दया अथवा अहिसा को भावना नहीं तब तक संयम में प्रबत्ति नहीं होती, जब तक संयम में प्रवृत्ति नही तब तक त्याग नहीं बनता और जब तक त्याग नहीं तब तक समाधि नहीं बनती। पूर्व पूर्व धर्म उत्तरोत्तर धर्म का निमित कारण है। इसलिए धर्म में दया को पहला स्थान प्राप्त है और इसी से धर्मस्य मलं दया आदि वाक्यों के द्वारा दया को धर्म का मूल कहा गया है । अहिंसा को परम धर्म कहने की भी यही
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वजह है और उसे परम धर्म ही नहीं किन्तु परम ब्रह्म भी कहा गया है जैसा कि स्वामी समन्तभद्र के निम्न वाक्य से प्रकट है"अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं ।
स्वयम्भूस्तोत्र और इसलिए जो परमब्रह्म की प्राराधना करना चाहता है उसे अहिंसा की उपासना करनी चाहिए -रागद्वेष की निवति, दया, परोपकार अथवा लोक सेवा के कर्मों में लगना चाहिए । मनुष्यों में जबतक हिसकवृत्ति बनी रहती है तबतक पारमा गणों का घात होने के साथ-साथ 'पापाः सर्वत्र बंकिता को नोति के अनुसार उसमें भय का या प्रतिहिंसा की आशंका सदभाव' बना रहता है। जहां भय का सद्भाव वहां वारत्व नहीं-सम्यक्त्व नहीं मोर जहा बीरत्व नहीं और वहां-सम्यक्त्व नहीं वहां पारमोद्धार का नाम नहीं अथवा या कहिये कि भय में संकोच होता है और संकोच विकास को रोकने वाला है। इस लिए ग्रामोशार अथवा आत्म विकास के लिए अहिंसा को बहुत बड़ी जरूरत है और वह वीरता का चिन्ह है-कायरता का 'नहीं । कायरता का आधार प्रायः भय होता है, इसलिए कायर मनुष्य अहिसा धर्म का पात्र नहीं-उसमें अहिंसा ठहर नहीं सकती। वह वीरों के ही योग्य है और इसीलिए महावीर के धर्म में उसको प्रधान स्थान प्राप्त है। जो लोग अहिंसा पर कायरता का कलंक लगाते हैं उन्होंने वास्तव में अहिंसा के रहस्य को समझा हो नहीं। वे अपनी निर्बलता और प्रात्म विस्मति के कारण कषायों से अभिभूत हए कायरता को वीरता और प्रात्मा के क्रोधादिक सप पतन को ही उसका उत्थान समझ
ब से लोगों की स्थिति, निःसन्देह बड़ी ही करुणाजनक है।
सर्वोदय तीर्थ
स्वामी समन्तभद्र ने भगवान महावीर और उनके शासन के सम्बन्ध में और भी कितने ही बहुमूल्य वाक्य कहे हैं जिनमें से एक सुन्दर वाक्य मैं यहां पर और उदधत कर देना चाहता हूं और वह इस प्रकार है:
सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्य चरियोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकर निरन्त, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।।६।।
युक्त्यनुशासन इससे भगवान महावीर के शासन अथवा उनके परमागमलक्षण रूप वाक्य का स्वरूप बतलाते हए जो उसे ही सम्पूर्ण मापदामों का अन्त करने वाला और सबों के अभ्युदय का कारण तथा पुर्ण अभ्युदय का विकास का हेतु ऐसा सर्वोदय तीर्थ बतलाया है वह बिल्कुल ठीक है। महाबोर भगवान का शासन अनेकान्त के प्रभाव से सकल दुर्नयों तथा मिथ्या दर्शनों का अन्त (निरसन) करने वाला है और ये दुर्नय तथा मिथ्यादर्शन ही ससार में अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःख रूप प्रापदामों के कारण होते हैं। इसलिए जो लोग भगवान महावीर के शासन का-उनके धर्म का-याश्रय लेते हैं--उसे पूर्णतया अपनाते हैंउनके मिध्यादर्शनादिक दुर होकर समस्त दुःख मिट जाते हैं। और वे इस धर्म के प्रसाद से अपना पूर्ण अभ्युदय सिद्ध कर सकते हैं। महावीर की ओर से इस धर्म का द्वार सब के लिए खुला हुया है। जैसा कि जैन ग्रन्थों के निम्न वाक्यो से ध्वनित है :
(१) दीक्षायोग्यास्त्रयों वर्णाश्चतुर्थश्च विधाचितः ।
मनोवाक्काय धर्माय मताः सवपि जन्वयः ।। उच्चावचजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनां । नकस्मिन्पुरुष तिष्ठदेकस्तम्भ इचालयः ।।
यशस्तिलके, सोमदेवः (२) प्राचारानवद्यत्वं शुचिरुपस्कार शरीरशुद्धिश्च करोति शूद्रानपि
देवद्विजातितपस्विपरिकर्मसु योग्यान् ।-नीतिबाक्यामृते, सोमदेवः ? (३) शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुः शुद्ध्याऽस्तु तादृशः। जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ हात्मास्ति धर्मभाक् ।।२-२२॥
- सागारधर्मामृते, पाशाघर:
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इन सब बाक्यों का प्राशय क्रमशः इस प्रकार है
(१) ब्राह्मण, क्षत्रिय, बंश्य ये तीनों वर्ण (आम तौर पर) मुनि दीक्षा के योग्य हैं और चौथा शूद्र वर्ण विधि के द्वारा दीक्षा के योग्य है (वास्तव में) मन वचन काय से किये जाने वाले धर्म का अनुष्ठान करने के लिए सभी अधिकारी होते हैं ।
जिनेन्द्र का यह धर्म प्रायः ऊंच और नीच दोनों ही प्रकार के मनुष्यों के आश्रित है, एक स्तम्भ के अाधार पर जैसे मकान नहीं ठहरता उसी प्रकार ऊंच नीच में से किसी एक ही प्रकार के मनुष्य समूह के आधार पर धर्म ठहरा हुमा नहीं है।
यशस्तिलक (B) मा मांगादिक के त्याग रूप प्राचार की निर्दोषता, गृह-पात्रादिक की पवित्रता और नित्य स्नानादि के द्वारा शरीर शुद्धि ये तीनों प्रवृत्तियां (विविधियाँ) शूद्रों को भी देव, द्विजाति और तपस्वियों के परिकर्मों के योग्य बना देती है।
-नीतिवाक्यामृत (३) प्रासन और बर्तन प्रादि उपकरण जिसके शुद्ध हो, मद्य-मांसादि के त्याग से जिसका प्राचारण पवित्र हो और नित्य स्नानादि के द्वारा जिसका शरीर शुद्ध रहता हो, ऐसा शूद्र भी प्राह्मणादिक वर्णो क सदश धर्म का पालन करने के योग्य हैं, क्योंकि जाति से हीन पात्मा भी कालादिक लब्धि को पाकर जैन धर्म का अधिकारी होता है।
-सागारधर्मामृत नीच से नीच कहा जाने वाला मनुष्य भी इस धर्म को धारण करके इसी लोक में प्रति उच्च बन सकता है। इसकी दण्टि में कोई जाति गहित नहीं-तिरस्कार किये जाने के योग्य नहीं सर्वत्र गुणों को पूज्यता है, वे हो कल्याणकारी हैं, और इसी से इस धर्म में एक चाण्डाल को भी व्रत से युक्त होने पर ब्राह्मण तथा सम्यग्दर्शन से युक्त होने पर देव माना गया है। यह धर्म इन ब्राह्मणादिक जाति भेदों को तथा दूसरे चाण्डालादि विशेषों को बास्तविक ही नहीं मानता किन्तु वद्धि अथवा प्राधार पर कल्पित एवं परिवर्तनशील जानता है और यह स्वीकार करता है कि अपने योग्य मुगों को उत्पत्ति पर जाति उत्पन्न होती है और उसके नाश पर नष्ट हो जाती है । इन जातियों पाकृति आदि के भेद को लिए हुए कोई शाश्वत लक्षण भी गो-अश्वादि जातियों की तरह मनुष्य शरीर में नहीं पाया जाता, प्रत्युत इसके शुद्रादि के योग से ब्राह्मणी प्रादि में गर्भाधान की प्रवत्ति देखी जाती है, जो वास्तविक जाति भेद के विरुद्ध है। इसी तरह जारज का भी कोई चिह्न शरीर में दिखाई नहीं देता. जिससे उसकी कोई जूदी जाति कल्पित की जाय, और न महज व्यभिचार जात होने की वजह से हो कोई मनष्य नीच कहा जा सकता है. नीचता का कारण इस धर्म में 'अनार्य प्राचरण' अथवा 'म्लेच्छाचार' माना गया है। वस्तुतः सब मनष्यों की एकही मनष्य जाति इस धर्म को अभीष्ट है, जो मनुष्य जाति नामक नाम कर्म के उदय से होती है. और इस दष्टि से सब मनष्य समान है मापस में भाई-भाई हैं और उन्हें इस धर्म के द्वारा अपने विकास का पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त है। इसके सिवाय, किसी के कूल में कभी कोई दोष लगा गया तो उसको शुद्धि को, और म्लेच्छों तक को कुलशुद्धि करके उन्हें अपने में मिला लेने तथा मुनि दीक्षा आदि के द्वारा ऊपर उठाने को स्पष्ट आज्ञाएं भो इम शासन म पाई जाती हैं और इसलिए यह शासन सचमुच ही "सर्वोदय ताथ के पद को प्राप्त है--इस पद के योग्य इसमें सारी ही योग्यतायें मोजद हर कोई भव्य जीव इसकी सम्यक माश्रय लेकर संसार समुद्र से पार उतर सकता है ।
परत यह समाज का और देश का दुर्भाग्य है जो आज हमने-जिनके हाथों देवयोग से यह तोर्थ पड़ा है इस महान तीथ की महिमा तथा उपयोगिता को भुला दिया है, इसे अपना घरेलू , क्षुद्र या असदिय तीर्थ का-सा रूप देकर इसक चारो तरफ ऊंची-ऊंची दावार खड़ी कर दा है और इसके फाटक में ताला डाल दिया है। हम लोग खुद हो इससे ठीक लाभ उठाते हैं और न दुसरों का लाभ उठाने देते है-महज अपने थोड़े से विनोद अथवा क्रीडा के स्थल रूप में ही गले इसे रख छोडा है और उसी का यह परिणाम है कि जिस रूप में ही हमने इसे रख छोड़ा है और उसी का यह परिणाम है कि जिस सर्वोदय सीर्थ पर दिन रात उपासकों की भीड़ और यात्रियों का मेला सा लगा रहना चाहिए था वहाँ आज सन्नाटा सा छाया हमा है, जैनियों को संख्या भी अंगुलियों पर गिनने लायक रह गई है और जो जैनी कहे जाते हैं। उनमें भी जैनत्व का प्रायःकोई स्पष्ट लक्षण दिखलाई नहीं पड़ता-कहीं भी दया, दम, त्याग और समाधि की तत्परता नजर नहीं पातीलोगों को महावीर के सन्देश की ही खबर नहीं, और इसी से संसार में सर्वत्र दुःख ही दुःख फैला हुप्रा है।
ऐसी हालत में अब खास जरूरत है कि इस तीर्थ का उद्धार किया जाय, इसकी सब रुकावटों को दूर कर दिया
है जो बाजा है।
को भुना
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जाय, इस पर खुले प्रकाश तथा खुली हवा की व्यवस्था की जाय, इसका फाटक सबों के लिए हर वक्स खुला रहे, सत्रों के लिए इस तीर्थ तक पहुंचने का मार्ग सुगम किया जाय, इसके तटों तथा घाटों की मरम्मत कराई जाय, बन्द रहने तथा अर्से तक यथेष्ट व्यवहार में न आने के कारण तीर्थ जल पर जो कुछ काई जम गई है अथवा उसमें कहीं-कहीं शंवाल उत्पन्न हो गया है उसे निकालकर दूर किया जाय और सर्वसाधारण को इस तीर्थ के महात्म्य का पूरा-पूरा परिचय कराया जाय । ऐसा होने पर अथवा इस रूप में इस तीर्थ का उद्धार किये जाने पर आप देखेंगे कि देश देशान्तर के कितने बेशुमार यात्रियों की इस पर भीड़ रहती है, कितने बिद्वान इस पर मुग्ध होते हैं, कितने असंख्य प्राणी इसका प्राध्य पाकर और इसमें अवमाहन करके अपने दुःख सन्तापों से छुटकारा पाते हैं और संसार में कैसी सुख शान्ति की लहर व्याप्त होती है। स्वामो समन्तभद्र ने अपने समय में, जिसे आज १७०० वर्ष से भी ऊपर हो गये हैं ऐसा ही किया है, और इसी से कानडी भाषा के एक प्राचीन शिलालेख में यह उल्लेख किया है कि स्वामी समन्तभद्र भगवान महावीर के तीर्थ की हजार गुनी वृद्धि करते हुए उदय को प्राप्त हुए-अर्थात् उन्होंने उसके प्रभाव को सारे देश-देशान्तरों में व्याप्त कर दिया था। आज भी वैसा हो होना चाहिए। यही भगवान महावीर की सच्ची उपासना, सस्ची भक्ति और उनकी सच्ची जयन्ती मनाना होगा।
महावीर के इस अनेकान्त शासन रूप तीर्थ में यह खूबी खुद मोजूद है कि इससे मतभेद अथवा यथेष्ट द्वेष रखने वाला मनुष्य भी यदि समदृष्टि (मध्यस्थवृत्ति) हुअा उपपत्ति चक्षु से (मात्पर्य के त्यागपूर्वक युक्तिसंगत समाधान को दृष्टि से) इमका अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मान युग खण्डित हो जाता है - सर्वथा एकान्त रूप मिथ्यामत का आग्रह छूट जाता है-पीर वह अभद्र अथवा मिथ्यादृष्टि होता हुआ भी सब अोर से भद्र रूप एवं सम्यग्दष्टि बन जाता है । अथवा यों कहिये कि 'भगवान महावीर के शासन तीर्थ का उपाशक और अनुयायी हो जाता है। इसी बात को स्वामी समन्तभद्र ने अपने निम्न वाक्य द्वारा व्यक्त किया है
कामं द्विषन्नप्युपपतिचक्षुः समीक्षतां ते समष्टिरिष्टम् । स्वयि ध्रुवं खण्डितमानगो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ।।
-युक्त्यनुशासन अत: इस तीर्थ के प्रचार विषय में जरा भी संकोच की जरूरत नहीं है, पूर्ण उदारता के साथ इसका उपर्यक्त रीति से योग्य प्रचारकों के द्वारा खुला प्रचार होना चाहिए और सबों को इस तीर्थ की परीक्षा का तथा इसके गुणों को मालम करके इससे यथेष्ठ लाभ उठाने का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। योग्य प्रचारकों का यह काम है कि वे जैसे-तैसे जनता में मध्यस्थभाव को जाग्रत करें, ईर्षा द्वेषादि रूप मत्सर भाव को हटाये, हृदयों को सुफियों से संस्कारित कर उदार बनायें, उनमें सत्य की जिज्ञासा उत्पन्न करें और उस सत्य का दर्शन प्राप्ति के लिए लोगों की समाधान दृष्टि को खोलें।
महावीर-सन्देश हमारा इस वक्त यह खास कर्तव्य है कि हम भगवान् महावीर के सदेश को-उनके शिक्षा समह को-माल कर, उस पर खुद अमल करें और दूसरों से अमल कराने के लिए उसका घर-घर में प्रचार करें। बहुत से जैन शास्त्रों का अध्ययन, मनन और मन्थन करने पर मुझे भगवान महावीर का जो सन्देश मालूम हुआ है उसे मैंने एक छोटी-सी कविता में निबद्ध कर दिया है। यहाँ पर उसका दे दिया जाना भी कुछ अनुचित न होगा। उससे थोड़े में ही-सूत्ररूप से–महाबोर भगवान की बहुत-सी शिक्षामों का अनुभव हो सकेगा और उन पर चल कर उन्हें अपने जीवन में उतार कर हम अपना तथा दूसरों का बहुत कुछ हित में साधन कर सकगे । वह सन्देश इस प्रकार हैं:
यही है महावीर- सन्देश विपुलाचल पर दिया गया जो प्रमुख धर्म उपदेश । सब जीवों को तुम अपनाओ, हर उनके दुख-क्लेश ।यही०।। असदभाव रक्खो न किसी से, हो अरि क्यों न विशेष ।।१।। वरी का उद्धार श्रेष्ठ है, कीजे सविधि-विशेष। बैर छुटे, उपजे मति जिमसे, वही यत्न यत्नेश ।।२।।
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घृणा पाप से हो, वापी से नहीं कभी लव-लेश । भूल सुभा कर प्रेम मार्ग से करो उसे पुण्येश || ३ || एकान्त कदाग्रह दुर्गुण बनो उदार विशेष रह प्रसन्नचित सदा करो तुम मनन तत्म उपदेश || जीतो राग द्वेष भय इन्द्रिय मोह कषाय प्रशेष 1 धरो धैर्य समचित रहो, और सुख दुख में सविशेप ||५|| अहंकार मकार तजो जो अवनतिकार विशेष | उप संयम में रत हो, त्यागो तुष्या भाव वोर उपासक बनो सत्य के तज मिथ्या विपदाओं ने मत घबराओ घरो न संज्ञानी संदृष्टि बनो, श्रोतजो भाव सदाचार पालो दृढ़ होकर रहे प्रमाद सादा रहन सहन भोजन हो, सादा भूषा वेष । विश्व प्रेम जाग्रत कर उर में, करो कर्म निःशेष || ६ ||
शेष ॥६॥
मिनिवेश |
कोपावे ||७||
संक्लेश |
न लेश ||८||
हो सबका कल्याण, भावना ऐसी रहे हमेश । दया लोक सेवा रत चित्त हो, और न कुछ प्रदेश || १०|| इस पर चलने से होगा, विकसित स्वात्म प्रदेश | आत्म ज्योति जगेगी ऐसे,
आजकल जो गौर निर्वाण संवत् प्रचलित है संवत् का एक साधार "जिलोकसार" की निम्न गाथा है,
जैसे उदित निदेश || ११| वहीं है महावीर सरदेश, विपुला० महावीर का समय
अब देखना यह है कि भगवान महावीर को अवतार लिए ठोक कितने वर्ष हुए हैं। महावीर को धायु कुछ कम ७२ वर्ष की - ७१ वर्ष ७ मास, १८ दिन की थी। यदि महावीर का निर्वाण समय ठीक मालूम हो तो उनके श्रवतार समय को श्रथवा जयंती के अवसरों पर उनकी वर्षगांठ संख्या को सूचित करने में कुछ देर न लगे। परन्तु निर्वाण समय से विवादग्रस्त चल रहा है-प्रचलित वीर निर्वाण संवत् पर आपत्ति की जाती है-कितने ही देशी विदेशी विद्वानों का उसके विषय में मतभेद है, और उसका कारण साहित्य को कुछ पुरानी गड़बड़, श्रर्थं समझने की गलती अथवा काल गणना की भूल जान पड़ती है। यदि इस गड़बड़, गलतो अथवा भूल का ठोक पता चल जाय तो समय का निर्णय सहज में ही हो सकता है और उससे बहुत काम निकल सकता है, क्योंकि महावोर के समय का प्रश्न जैन इतिहास के लिए ही नहीं किन्तु भारत के इतिहास के लिए भी एक बड़े ही महत्व का प्रश्न है। इस से अनेक विद्वानों ने उसको हल करने के लिए बहुत परिश्रम किया है और उससे कितनी ही नई-नई बातें प्रकाश में आई हैं। परन्तु फिर भी, इस विषय में, उन्हें जैसी चाहिए वैसी सफलता नहीं मिली - बल्कि कुछ नई उलझनें भी पैदा हो गई हैं और इसलिए यह प्रश्न अभी तक बराबर विचार के लिए यता ही जाता है। मेरी इच्छा थी कि मैं इस विषय में कुछ बहरा उतर कर पूरा तफसील के साथ एक विस्तृत लेख लि परन्तु समयको कमी यादि के कारण या न करके, संक्षेप में ही अपनी खोज का एक सार भाग पाठकों के सामने रखता आधा है कि सहृदय पाठक इस पर से ही उस गड़बड़, गलती अथवा भूल को मान करके, समय का ठीक निर्णय करने में समर्थ हो सकेंगे।
और कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है वह २४६० है। इस जो भी नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती का बनाया हुआ है
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पणछस्सयवस्सं पणमासजूदं गमिय वीरणिभ्य इदो।
सगराजो तो ककको चदुणवतियमयिसगमास ।।८५०।। इस में बतलाया गया है कि महाबीर के निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शक राजा हुआ और शक राजा से ३९४ वर्ष १७ महीने बाद कल्की राजा हुया। शक राजा के इस समय का समर्थन हरिवशपुराण नाम के एक दूसरे प्राचीन ग्रन्थ से भी होता है जो त्रिलोक सार से प्राय: दो सौ वर्ष पहले का बना हुआ है और जिसे श्री जिन सेनाचार्य ने शक सं०७०५ में बनाकर समाप्त किया है। यथा :-.
वर्षाणां षट्शतीं त्यक्त्वा पचाना मासपंचकम् ।
मुक्ति गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ।।६०-५४६॥ इतना ही नहीं, बल्कि और भी प्राचीन ग्रंथों में इस समय कारल्लेख पाया जाता है, जिसका एक उदाहरण "तिलोयपण्णनी" (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) का निम्न वाक्य है ..
जिवाणे वीरजिणे छन्वाससदेसु पंचवारिसेसु ।
पणमासेसु गढेसु संजदो सगणियो अवा ।। शक का यह समय ही शक संवत की प्रवृद्धि का काल है, और इसका समर्थन एक पुरातन श्लोक से भी होता है, जिसे स्वेताम्बराचार्य श्री मेस्तुग ने अपनी विचार श्रेणी में गिम्न प्रकार से उद्धृत किया है :
श्रीवीरनिव तेषः षडभिः पंचोत्तरः शतः।
शाकसंवत्सरस्यैषा प्रवृत्तिभरते ऽभवत् । इसमें, रथूल रूप से वर्षों की ही गणना करते हुए, साफ लिखा है कि महावीर के निर्वाण से ८०५ वर्ष बाद इस भारतवर्ष में शकसंवत्सर की प्रवृत्ति हुई।
श्री वीरसेनाचार्य प्रणीत भबल नाम के सिद्धान्त भाध्य से-जिसे इस सम्बन्ध में धवल सिद्धान्त नाम से भी उल्लिखित वया गया है-इस विषय का और भी ज्यादा समर्थन होता है, क्योंकि इस ग्रन्थ में महावीर के निर्वाण के बाद केवलियों तथा श्रतधर प्राचार्यों की परम्परा का उल्लेख करते हुए और उसका काल परिणाम ६८३ वर्ष बतलाते हुए यह स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किया है कि इस ६८३ वर्ष के काल में से ७७ वर्ष ७ महीने घटा देने पर जो ६०४ बर्ष ५ महीने का काल अवशिष्ट रहता है वही महावीर के निर्वाण दिवस से शक काल की आदि शक संवत की प्रवृत्ति तक का मध्यवर्ती काल है, अर्थात् महावीर के निर्वाण दिवस से ६०५ वर्ष ५ महीने के बाद शकसंवत् का प्रारम्भ हुआ है। साथ ही इस मान्यता के लिए कारण निर्देश करते हुए, एक प्राचीन गाथा के आधार पर यह भी प्रतिमादन किया है कि इस ६०५ वर्ष ५ महीने के काल में शक काल को-शक सवत की वर्षादि सस्या को जोड़ देने से महावीर का निर्वाणकाल-निर्वाण संवत् का ठोक परिणाम या जाता है । और इस तरह वीर निर्वाण संवत् मालूम करने की स्पष्ट विधि भी सूचित की है। धवल के वाक्य इस प्रकार है :--
सव्वकालसमासो तेयासीदिपिछस्सदमेतो (६३८) पुणो एत्थ सत्तमासाहियसत्तहत्तरिवासेसु (७७.७) अबणीदेसु पंचमासाहिय पंचत्तर छस्सदवासाणि (६०५-५) हवंति, एसोचीरजिणिदणिब्वाणगददिवसादो जाव संगकालस्य प्रादि होदि ताबदिय कालो (कुदो) एम्मि काले सगणरिदकालस्य पक्खिते वढ्ढमाणजिणणिन्दकालागमणादो। बुतंचपंच य मासा पंच य वासा छच्चे व होति वाससया । सगकालेण य सहिया थावेयन्यो तदो रासी।।"
- देखो, पारा जन सिद्धान्तभवन को प्रति, पत्र ५३७ । इन सब प्रमाणों से इस विषय में कोई सन्देह नहीं रहता कि शक सवत् के प्रारम्भ होने से ६०५ वर्ष ५ महीने पहले महावीर का निर्वाण हुअा है।
शक संवत के इस पूर्ववर्ती समय को वर्तमान शक सम्वत् १८५५ में जोड़ देने से २४६० की उपलब्धि होती है और यही इस वक्त प्रचलित वीर निर्वाण सम्बत् की वर्ष संख्या है। शक सम्बत और विक्रम सम्वत् में १३५ वर्ष का प्रसिद्ध अन्तर
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है । यह १३५ वर्ष का अन्तर यदि उक्त ६०५ वर्ष से घटा दिया जाय तो अवशिष्ट ४७० वर्ष का काल रहता है, और यही स्थूल रूप से वीर' निर्वाण के बाद विक्रम सम्वत् की प्रवृत्ति का काल है, जिसका शुद्ध अथवा पूर्ण रूप ४७० वर्ष ५ महाने हैं और जो ईस्वी सन् से प्रायः ५२८ वर्ष पहले बोर निर्वाण का होना बतलाता है। और जिस दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों हो सम्प्रदाय मानते हैं।
अब मैं इतना पीर बतला देना चाहता हूं कि त्रिलोकसार को उक्त गाथा में शकराजा के समय का · वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महीने पहले का जो उल्लेख है उसमें उसका राज्यकाल भी शामिल है, क्योंकि एक तो यहाँ सगराजी पद के बाद तो शब्द का प्रयोग किया गया है जो ततः (तत्पश्चात) का वाचक है और उससं यह स्पष्ट ध्वनि निकलतो है कि शकराजा की सत्ता न रहने पर अथवा उसको मृत्यु स ३६४ वर्ष ७ महीने बाद कल्की राजा हुआ। दूसरे, इस गाथा में कल्का का जा समय वीरनिर्बाण से एक हजार वर्ष तक (६०५ वर्ष ५ मास-!-३६४ वर्ष ७ मास) बतलाया गया है उसमें नियमानुसार कल्को का राज्य काल भी आ जाता है, जो एक हजार वर्ष के भीतर सीमित रहता है और तभी हर हजार वर्ष पीछे एक कल्को के होने का वह नियम बन सकता है जो त्रिलाकसारादि ग्रन्थों के निम्न वाक्यों में पाया जाता है ......
इदि पडिसहस्सवस्स वीसे करकोणदिक्कमे चरिमो । जलमंथणो भविस्सदि कवको सम्मम्गमत्थणयो ।।८५७। त्रिलोकसार। मुक्ति गते महाबोरे प्रतिवर्ष सहस्त्रकम् । एकको जायते कल्को जिनधर्म विरोधकः ॥ हरिवंशपुराण एवं बस्ससम्हरो पुह कक्को हवेइ इक्केक्को । --त्रिलोकप्रज्ञप्ति
- इसके सिवाय, हरिबंशपुराण तथा त्रिलाप्राप्ति में महावार के पश्चात् एक हजार वर्ष के भीतर होने वाले राज्यों के समय को जा गणना की गई है उसमें साफ तौर पर क.क राके२१६ शारिल किये गये हैं ऐसा हालत में यह स्पष्ट है कि त्रिलोकसार कः उक्त गाया में शापार ककः का जा समय दिया है वह अलग-अलग उनके राज्य काल का समाप्ति का सूचक है। पोर इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि शक राजा का राज्य काल वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महाने वाद प्रारम्भ हया और उसको उसके कतिपय वत्मिक स्थितिकाल की समाप्ति के बाद ३६४ वर्ष ७ महीने और बीतने पर कल्कि राज्यारम्भ हुना। ऐसा कहने पर कल्कि का अस्तित्व समय बार निर्वाण से एक हजार वर्ष के भीतर न रहकर ११०० वर्ष के करीब हो जाता है और उससे एक हजार की नियत संख्या में तया दूसरे प्राचीन ग्रन्थों के कथन में भी बाधा
आती है और एक प्रकार से सारी ही काल गणना बिगड़ जातो है । इसी तरह यह भी स्पष्ट है कि हरिवंशपुराण और त्रिलोकप्रज्ञप्ति से उक्त शक काल सूचक पद्यों में जो क्रमशः अभवत् योर संजादो (सजातः) पदों का प्रयोग किया जाता है उनकाशकराजा हुआ-अर्थ शकराजा के अस्तित्व काल का समाप्ति का सूचक है, प्रारम्भसूचक अथवा शकराजा को शरोरोत्पत्ति या उसके जन्म का सुचक नहीं मोर त्रिलाकसार को गाथा में इन्हों जसा कोई क्रियापद अध्याहुत है।
यहां पर एक उदाहरण द्वारा मैं इस विषय को मोर भासष्ट कर देना चाहता हूँ 1 कहा जाता है और ग्राम तौर पर लिखने में भी आता है कि भगवान् पार्श्वनाथ से भगवान् महाबोर ढाई सी (२५०) वर्ष के बाद हुए । परन्तु इस ढाई सौ वर्ष बाद होने का क्या अर्थ? क्या पार्श्वनाथ के जन्म से महावीर का जन्म ढाई सौ वर्ष बाद हुमा? या पाश्वनाथ के निर्वाण से महाबीर का जन्म ढाई सौ वर्ष बाद उत्पन्न हुमा? तीनो में से एक भी बात सत्य नहीं है । तब सत्य क्या है ? इसका उत्तर श्री गुणभद्राचार्य के निम्न वाक्य में मिलता है :
पाश्वेश-तीर्थ-सन्तो पंचाशदद्विशताब्द के। तदभ्यन्तरवायुमहावीरोऽत्र जातवान् ॥२७६।।
- महापुराण, ७४वां पर्व इसमें बतलाया गया है कि श्रोपार्श्वनाथ तीर्थकर से ढाई सौ वर्ष के बाद, इसो समय के भीतर अपनी आयु को लिए हए, महावीर भगवान हुए, अर्थात् पाश्वनाथ के निर्माण से महावार का निर्वाण ढाई सौ वर्ष के बाद हुमा। इस वाक्य में तद्भ्यन्तरबायुः (इसो समय के भीतर अपना मायु को लिए हुए) यह पद महावीर का विशेषण है। इस विशेषण पद के
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निकाल देने से इस वाक्य की जैसी स्थिति रहती है और जिस स्थिति में प्राम तौर पर महावीर के समय का उल्लेख किया जाता है ठीक वही स्थिति त्रिलोकसार की उक्त गाथा तथा हरिवंशपुराणादिक के उन शककालसूचक पद्यों की है। उनमें शक राजा के विशेषण रूप मे तदभ्यन्तरवायु इस प्राशय का पद अध्याहृत है, जिसके अयं का स्पष्टीकरण करते हुए ऊपर से लगाना चाहिए । बहुत सा काल गणना का यह विशेषण पद अध्याहन रूप में ही प्राण जान पड़ता है। और इसलिए जहां कोई बात स्पष्टतया अथवा प्रकरण से इसके विरुद्ध न हो वहां ऐसे अवसरों पर इस पद का प्राशय जरूर लिया जाना चाहिए।
जब यह स्पष्ट हो जाता है कि वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महीने पर शक राजा के राज्य काल की समाप्ति हुई और यह काल ही शक सम्वत् की प्रवृत्ति का काल है जैसा कि ऊपर जाहिर किया जा चुका है तब यह स्वतः मानना पड़ता है कि विक्रम राजा का राज्यकाल भी वीर निर्वाण से ४७० वर्ष ५ महीने के अनन्तर समाप्त हो गया था और यही विक्रम सम्बत् की प्रवृत्ति का काल है-तभी दोनों सम्वतों में १३५ वर्ष का प्रसिद्ध अन्तर बनता है और इसलिए विक्रम सम्वत् को भी विक्रम के जन्म या राज्यारोहण का सम्बत् न कहकर, वीर निर्वाण या बुद्ध निर्वाण संवतादिक की तरह, उसकी स्मृति या यादगार में कायम किया हुआ मृत्यु संवत कहना चाहिए । विक्रम सम्वत् विक्रम की मृत्यु का संवत् है, यह बात कुछ दूसरे प्राचीन प्रमाणों से भी जानी जाती है, जिसका एक नमना थी अमितगति प्राचार्य का यह वाक्य है--
समारूढ पूतत्रिदशवसति विक्रमनृपे । सहस्त्रे वर्षाणां प्रभवति हि पंचाशदधिके । समाप्त पंचभ्यामयति धरिणी मुन्जनपतो सिते पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनधम ।
इसमें सुभाषितरत्नसंदोह नामक ग्रथ को समाप्त करते हए, स्पष्ट लिखा है कि विक्रम राजा के स्वर्गारोहण के बाद जब १०५० बां वर्ष संवत बीत रहा था और राजा मज पृथ्वी का पालन कर रहा था उस समय पौष शुक्ला पंचमी के दिन यह पवित्र तथा हितकारी शास्त्र समाप्त किया गया है। इन्हीं अमितगति प्राचार्य ने अपने दूसरे ग्रंथ धर्मपरीक्षा की समाप्ति का समय इस प्रकार दिया है :
संवत्सराणां विगते सहस्त्र ससप्तती विक्रमपाथिवस्य ।
इदं निषिध्यान्यमत समाप्तं जैनेन्द्रधर्मामृतयुक्तिशास्त्रम् ॥ इस पद्य में, यद्यपि, विक्रम संवत् १०७० के विगत होने पर प्रथ की समाप्ति का उल्लेख है और उसे स्वर्गारोहण अथवा मृत्यु का संवत् ऐसा कुछ नहीं दिया, फिर भी इस पद्य को पहले पद्य को रोशनी में पढ़ने से इस विषय में कोई सन्देह नहीं रहता कि अमितगति आचार्य ने प्रचलित विक्रम संवत का ही अपने ग्रन्थों में प्रयोग वि.या है और वह उस वत विक्रम की मृत्यु का संवत् माना जाता था। संवत के साथ में विक्रम की मत्यु का उल्लेख किया जाना अथवा न किया जाना एक ही बात थी-उससे कोई भेद नहीं पड़ता था.- इसीलिए इस पद्य में उसका उल्लेख नहीं किया गया। पहल पद्य में मुज के राज्य काल का उल्लेख इस विषस का और भी खास तौर से समर्थक हैं, क्योंकि इतिहास से प्रचलित वि० सवत् १०५० के समय जन्म संवत् ११३० अथवा राज्यसंवत् १११२ का प्रचलित होना ठहरता है और उस उक्त मूज के उत्तराधिकारी राजा भोज का भी वि० सं० १११२ से पूर्व ही देहावसान होना पाया जाता है।
अमितगति प्राचार्य के समय में, जिसे प्राज साढ़े नौ सी वर्ष के करीब हो गये हैं, विक्रम संवत् विक्रम की मृत्यु का संवत् माना जाता था यह बात उनसे कुछ समय के पहले के बने हए देवसेनाचार्य के ग्रन्थों से भी प्रमाणित होती है। देवसेनाचार्य ने अपना दर्शनसार ग्रथ विधामसंवत् ६० से बनाकर समाप्त किया है । इसमें कितने ही स्थानों पर विक्रमसंवत् का उल्लेख करते हुए उसे विक्रम की मृत्यु का संवत् सूचित किया है, जैसा कि इसकी निम्न गाथाओं से प्रकट है :
छत्तीसे बरिससये विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरठे वलहीए उप्पण्णो सेबडो संघो।।११।। पंचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्षिणमहराजादो दाविडसंघो महामोहो॥२८॥
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सत्तसए तेवण्णे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स ।
णंदियड़े बरगामे कट्ठो संघो मुणेयन्बो ।।३।। विक्रम संवत के उल्लेख को लिए हए जितने ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध हुये हैं उनमें, जहां तक मुझे मालूम है, सबसे प्राचीन ग्रन्थ यही है। इससे पहले धनपाल का पाइनलच्छो नाममाला (वि० स०१०१६) और उससे भी पहले अमितगति का सुभाषितरत्नसंदोह ग्रन्थ पुरातत्वज्ञों द्वारा प्राचीन माना जाता था। हां शिलालेखों में एक शिलालेख इससे भी पहले विक्रम संवत् के उल्लेख को लिए हए है और वह चाहमान चण्ड महासेन का शिला नेग्न है, जो धौलपुर से मिला है और जिसमें उसके लिखे जाने का संवत् १९८ दिया है. जसा कि उसके निम्न गंश रोएकाट है:-..
वसु नव अप्ठी वर्षागतस्य कालस्य विक्रमास्यस्य । यह अंश बिक्रम संवत् को विक्रम को मृत्यु का संवत् बतलाने में कोई बाधक नहीं है और न पाइअलच्छी नाम माला का विकम् कालस्स गए अउणनी (पणवो) सुनरे सहस्सम्मि यश हा इसमें कोई बाधक प्रतीत होता है बल्कि ये दोनों ही अंश एक प्रकार मे साधक जान पढ़ते हैं, क्योंकि इनमें जिस विक्रम वाल ने बीतने की बात कही गई है और उसके बाद के बीते हुए बों को गणना का गई है वह विक्रम का अस्तित्वकाल-उसको मृत्यु पर्यन्त का समय ही जान पड़ता है। उसी की मृत्यु के बाद बोतना प्रारम्भ हुमा है। इसके सिवाय, दर्शनसार मैं एक यह भी उल्लेख मिलता है कि उसका गाथाय पूर्वाचार्यों का रची हुई हैं पार उन्हें एकत्र सत्रय करके ही यह ग्रन्थ बनाया गया । । यथा :
पुवायरियकयाई गाहाइ संचिऊण एयस्थ । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संबसलेण ॥४६।। रइयो दसणसारो हारो भव्वाण णवसए णवए।
सिरिपाराणाहगेहे सुबिसुद्धे माहसुद्धदसमोए ।।५।। इससे उक्त माथायी के और भी अधिक प्राचीन होने को संभावना है और उनकी प्राचीनता से विक्रम सवत को वित्रम की मृत्यु का संवत् मानने का बात और भी ज्यादा प्राचान हो जाता है। विक्रम संवत् का यह मान्यता अमितगति के बाद भी असं तक चलो गई मालूम होता है। इसी से १५ व १६ वीं शताब्दी तथा उसके करीब के बने हुए ग्रन्थों में भी उसका उल्लेख पाया जाता है, जिसके दा नमूने इस प्रकार हैं:
मते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते । दशपंचयतेऽन्दानामती ते श्रृणुतापरम् ॥१५७॥ नुकांमतमभूदेक..................... ॥१५८।।
-रत्ननन्दिकृत भद्रबाहु चरित्र सपदिश शतेऽब्दानां मृते विक्रमराजनि । सौराष्ट्र वल्लभीपुर्यामभुत्तत्कथ्यते मया ॥१८॥
वामदेवकृत, भावसंग्रह
इस सम्पूर्ण विवेचन पर से यह बात भली प्रकार स्पष्ट हो जाती है कि प्रचलित विक्रम संवत् विक्रम को मत्यु का संवत् है,जो वीर निर्वाण से ४७० वर्ष ५ महोने के बाद प्रारम्भ होता है प्रोर इसलिए वोर निर्वाण से ४७० वर्ष बाद विक्रम राजा का जन्म होने को जो बात कहो जाती है। ग्रोर उसके आधार पर यह बात हो ठोक बैठती है कि इस विक्रम से १८ वर्ष की अवस्था में राज्य प्राप्त करके उसो वक्त में अपना सपत प्रचलित किया है। ऐसा मानने के लिए इतिहास में कोई भी समर्थ कारण नहीं है। हो सकता है कि यह एक विक्रम का बाल को दूसरे विक्रम के साथ जोड़ देने का हो नतोजा हो । इसत्रे सिवाय, नन्दिसंघ की एक पदावली में-विक्रम प्रबन्ध में भी-जो यह वाक्य दिया है कि
सत्तरिच दुसदजुतो जिणकाला विक्कमो हबइ जम्मो ।
अर्थात् जिन काल से (महावीर के निर्माण से) विक्रम जन्म ४७० वर्ष के अन्तर को लिये हुए हैं । और दूसरी पट्टावलो
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में जो प्राचार्यों के समय की गणना विक्रम के राज्यारोहण काल से-उक्त जन्म काल में १८ वर्ष की वृद्धि करके-की गई है वह सब उक्त शक काल को और उसके आधार पर बने हुए विक्रम काल को ठीक न समझने का परिणाम है, अथवा यों कहिये कि पार्श्वनाथ के निर्वाण से ढाई सो वर्ष बाद महावीर का जन्म या केवल ज्ञान को प्राप्त होना मान लेने जैसी गलती है।
ऐसी हालत में कुछ जैन, अजैन तथा पश्चिमीय और पूर्वीय विद्वानों ने पट्टवलियों को लेकर जा प्रचलित बोर निर्माण सम्वत पर यह आपत्ति को है, कि उसको वर्ष संख्या में १८ वर्ष को कमो है जिसे पूरा किया जाना चाहिए, वह ममाचोन मालुम नहीं होती, और इसलिए मान्य किये जाने के योग्य नहीं । उसके अनुसार वीर निर्माण से ४८ वर्ष बाद विक्रम सम्वत का प्रचलित होना मानने से विक्रम और शक सम्बतों के बीच जो १३५ वर्ष का प्रसिद्ध अन्तर है वह भी बिगड़ जाता है—सदोष ठहरता है -अथवा शक काल पर भी आपत्ति लाजिमी आतो है जो हमारा इस काल गणना का मूलाधार है, जिस पर कोई आपत्ति नहीं की गई और न यह सिद्ध किया गया कि शकराजा ने भो वोर निर्माण से २०५ वर्ष ५ महीने के बाद जन्म लेकर १८ वर्ष की अवस्था में राज्याभिषेक के समय अपना सम्बत प्रचलित किया है। प्रत्युत इसके, यह बात ऊपर के प्रमाण से भो भले प्रकार सिद्ध है कि यह समय शक सम्बत की प्रवृत्ति का समय है -चाहे वह संवत् शकराजा के राज्य काल को समाप्ति पर प्रवृत्त हुमा हो या राज्यारम्भ के समय-शक के शरीर जन्म का समय नहीं है। साथ ही श्वेताम्बर भाइयों ने जो वोर निर्वाण से ४७० वर्ष बाद विक्रम का राज्याभिषेक माना है और जिसकी वजह में प्रचलित वोर निर्वाण सम्बत में १८ वर्ष के बढ़ाने का भी कोई जरूरत नही रहती उसे क्यों ही क न मान लिग जाय. इसका कोई समाधान नहीं होता। इसके सिवाय जालंचाटियर की यह आपत्ति बराबर बनो हो रहती है कि वोर निर्वाण ४७० वर्ष के बाद जिस विक्रम राजा का होना बतलाया जाता है उनका इतिहास में कहीं भी कोई अस्तित्व नहीं है परन्तु विक्रम संवत् को विक्रम का मत्यु का सम्वत् मान लेने पर यह आपत्ति कायम नहीं रहता, क्योंकि जार्ल चाटियर ने वीर निर्माण से ४१० वप के बाद विक्रमराजा का राज्यारम होना इतिहास से सिद्ध माना है। और यहो समय उसके राज्यारम्भ का मृत्यु सम्बत् मानने से प्राता है, क्योंकि उसका राज्यकाल ३० वर्ष तक रहा है। मालम होता है जार्ल चाटियर के सामने विक्रम सम्वत के विषय में विक्रम को मृत्यु का सम्वत् हान को कल्पना ही विक्रम सम्बत् का प्रचलित होना मान लिया है और इस भूल तथा गलती के आधार पर हा प्रचलित वार निर्वाण सम्वत् पर यह आपत्ति कर डाली है कि उसमें ६० वर्ष बढ़ हए हैं। इसलिए उसे ६० वर्ष पीछे हटाना चाहिए.-अर्थात इस समय जो २४६० सम्बत् प्रचलित है उसमें ६० वर्ष घटाकर उसे २०४० बनाना चाहिए । अतः प्रापकी यह आपत्ति भो निःसार है और वह किसी तरह भी मान्य किये जाने के योग्य नहीं ।
अब मैं यह बतला देना चाहता है कि जालचाटियर ने, विक्रम सम्वत को विक्रम की मृत्यु का सम्वत् न समझते हए पौर यह जानते हुए भी कि श्वेताम्बर भाइयों ने वीर निर्वाण से ४७० वर्ष बाद विक्रम का राज्यारम्भ माना है, बोर निर्माण से ४१० वर्ष बाद जो विक्रम का राज्यारम्भ होना बतलाया है वह केवल उनको निजी कल्पना अथवा खोज है या कोई शास्त्राधार भी उन्हें इसके लिए प्राप्त हना है । शास्त्राधार जरूर मिला है और उससे उन श्वेताश्वर विद्वानों को गलती का भी पता चल सकता है जिन्होंने जिन काल और विक्रम काल के ४७० वर्ष के अन्तर को गणना विक्रम के राज्याभिषेक से को है और इस तरह विक्रम सम्बत् को विक्रम के राज्यारोहण का सम्वत् बतला दिया है। इस विषय का खुलासा इस प्रकार है:
श्वेताम्बराचार्य श्री मेरुतुग ने, अपनी विचारश्रणो में-जिसे स्थविरावली भी कहते हैं, जं रणि कालगो प्रादि कुछ प्राकृत गाथानों के आधार पर यह प्रतिपादन किया है कि जिस रात्रि को भगवान महावोर पावापुर में निर्वाण को प्राप्त हुए उसी रात्रि को उज्जयिनी में चण्डप्रद्योत का पुत्र पालक राजा राज्याभिषिक्त हुना, इसका राज्य ६० वर्ष तक रहा, इसके बाद क्रमश: बन्दी का राज्य १५५ वर्ष, मीयों का १०८, पुष्यमित्र का ३०, बलमित्र भानुमित्र का ६०, नवोवाहन (नरवाहन) का ४०, गर्दभिल्ल का १३ और शक का ४ वर्ष राज्य रहा। इस तरह यह काल ४७० वर्ष का हुआ । इसके बाह गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य का राज्य ६० वर्ष, धर्मादित्य का ४०, भाइल का ११. नाइल्ल का १४ और नाहका १० वर्षे मिलकर १३५ वर्ष का दूसरा काल हुआ। और दोनों मिलकर ६०५ वर्ष का समय महावीर के निर्वाण बाद हुया । इसके बाद शकी का राज्य पौर शक सम्बत् की प्रवृत्ति हुई, ऐसा बतलाया है। यही वह परम्परा और काल गणना है जो श्वेतान्बरों में प्रायः करके मानो जाती है।
परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय के बहमान्य प्रसिद्ध विद्वान श्री हेमचन्द्राचार्य के परिशिष्ट पर्व से यह मालूम होता है कि उज्जयिनी के राजा पालक का जो समय (६० वर्ष) ऊपर दिया है उसो समय मगध के सिंहासन पर श्रेणिक के पुत्र
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कृणिक (अजातशत्र) और कणिक के पुत्र उदायी का क्रमशः राज्य रहा है। उदायी के नि:सन्तान मारे जाने पर उसका राज्य नन्द को मिला। इसी से परिशिष्ट गर्ग में श्री बदना- महातीर निर्वाण से ६० वर्ष के बाद प्रथम नन्दराजा का राज्याभिषिक्त होना लिखा है । यथा :
मनन्तर बर्द्धमानस्वामिनिर्वाणवासरात्।
गतायां षष्ठिवत्सर्या मेष नन्दोऽभवन्नपः ॥६-२४३।। इसके बाद नन्दों का वर्णन देकर, मौर्यवंश के प्रथम राजा सम्राट चन्द्रगुप्त के राज्यारम्भ का समय बतलाते हए, श्री हेमचन्द्राचार्य ने जो महत्त्व का श्लोक दिया है वह इस प्रकार है
एवं च श्रीमहावीरमुक्तेवर्षशते गते ।
पंच पचाशदधिके चन्द्रगुप्तो भवन्नृपः ।।८-३६॥ इस श्लोक पर जालंचाटियर ने अपने निर्णय का खास आधार रक्खा है और डा. हर्मन जकोबो के कथानुसार इसे महावीर निर्वाण के सम्बन्ध में अधिक संगत परम्परा सूचक बतलाया है । साथ ही, इसकी रचना पर से यह अनुमान किया है कि या तो श्लोक किसी अधिक प्राचीन ग्रन्थ पर से ज्यों का त्यों उद्धृत किया गया है अथवा किसी प्राचीन गाथा पर से अनुवादित किया गया है। इस श्लोक में बतलाया है कि महावोर के निर्वाण मे १५५ वर्ष बाद चन्द्रगुप्त राज्यारूढ़ हुमा । और यह समय इतिहास के बहुत ही अनुकल जान पड़ता है। विचारेणिकी उक्त काल गणना में १५५ वर्ष का समय सिर्फ नन्दों का और उससे पहले ६० वर्ष का समय पालक का दिया है । उसके अनुसार चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण काल वीर निर्वाण से २१५ वर्ष बाद होता था परन्तु यहां १५५ वर्ष बाद बतलाया है, जिससे ६० वर्ष की कमी पड़ती है । मेस्तुंगाचार्य ने भी इस कमी को महसूस किया है । परन्तु वे हेमचन्द्राचार्य के इस कथन को गलत साबित नहीं कर सकते थे और दूसरे ग्रन्थों के साथ उन्हें साफ विरोध नजर आता था, इसलिए उन्होंने तच्चिन्यम् कह कर ही इस विषय को छोड़ दिया है। परन्तु मामला बहुत कुछ स्पष्ट जान पड़ता है। हेमचन्द्र ने ६० वर्ष की यह कमी नन्दों के राज्यकाल में की है उनका राज्यकाल १५ वर्ष का बतलाया है- क्योंकि नन्दों से पहले उनके और वीर निर्वाण के बीच में ६० वर्ष का समय कणिक आदि राजाओं का उन्होंने माना ही है। ऐसा मालम होता है कि पहले से बीर निर्वाण के बाद १५५ वर्ष के भीतर नन्दों का होना माना जाता था परन्तु उसका यह अभिप्राय नहीं था कि वीर निर्माण के ठीक बाद मन्दों का राज्य प्रारम्भ हुआ बल्कि उनमे पहले उदायी तथा कुणिक का राज्य भी उसमें शामिल था। परन्तु इन राज्यों की अलगअलग वर्ष गणना साथ में न रहने यादि के कारण बाद को गलती से १५५ वर्ष की संख्या अकेले नन्दराज्य के लिए रूद्ध हो गई और उधर पालक राजा के उसी निर्वाण रात्रि को अभिपिक्त होने की जो महज दूसरे राज्य को विशिष्ट घटना थी उसके साथ में राज्य काल के ६० वर्ष जूडकर वह गलती घर मगध की काल गणना में शामिल हो गई। इस तरह दो भूलों के कारण काल गणना में ६० वर्ष की वृद्धि हुई और उसके फलस्वरूप वीर निर्वाण से ४७० वर्ष बाद विक्रम का राज्याभिषेक माना जाने लगा। हेमचन्द्राचार्य ने इन भूलों को मालम किया और उनका उक्त प्रकार से दो इलोकों में ही सुधार कर दिया है। वैरिष्टर काशी प्रसाद (के० पी०) जी जायसवाल थे जाल चाटियर के लख का विरोध करते हुए हेमचन्द्राचार्य पर जो यह प्रापत्ति की है कि उन्होंने महावीर के निर्वाण के बाद तुरन्त ही नन्दवंश का राज्य बतला दिया है, और इस कल्पित आधार पर उनके कथन को भूलभरा तथा अप्रामाणिक तक कह डाला है उसे देखकर बड़ा
ही प्रारचर्य होता है। हमें तो बरिष्टर साहब की साफ भूल नजर आती है। मालूम होता है कि उन्होंने न तो हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व को ही देखा है और न उसके छठे पर्व के उक्त श्लोक नं० २४३ के अर्थ पर ही ध्यान दिया है, जिसमें साफ तौर पर बीर निर्वाण से ६० वर्ष के बाद नन्द राजा का होना लिखा है । प्रस्तुः चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण समय की १५५ वर्ष संख्या में आगे के २५५ वर्ष जोडने से ४१० हो जाते हैं, और यही वीर निर्वाण से विक्रम का राज्यारोहण काल है । परन्तु महावीर काल और विक्रम काल में ४७० वर्ष का प्रसिद्ध अन्तर माना है और वह तभी बन सकता है जब कि इस राज्यारोहण काल ४१० में राज्य काल के ६० वर्ष भी शामिल किये जावें। ऐसा किया जाने पर विक्रम सम्वत विक्रम की मृत्यु का सम्बत हो जाता है और फिर सारा ही झगड़ा मिट जाता है । वास्तव में, विक्रम सम्वत् को विक्रम के राज्याभिषेक का सम्बत् मान लेने की गलती से यह सारी गड़बड़ी फैली है। यदि वह मत्यु का सम्बत् माना जाता तो पालक के ६० वर्षों को भी इधर शामिल होने का अवसर न मिलता और यदि कोई शामिल भी कर लेता तो उसकी भूल शीघ्र
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ही पकड़ ली जाती । परन्तु राज्याभिषेक के सम्वत् की मान्यता ने उस भूल को चिरकाल तक बना रहने दिया। उसो का यह नतीजा है जो बहुत से ग्रन्थों में राज्याभिषेक संवत् के रूप में हो विक्रम सम्वत् का उल्लेख पाया जाता है ओर काल गणना में इतनी हो गड़बड़ उपस्थित हो गई है, जिसे ग्रत्र अच्छे परिश्रम तथा प्रयत्न के साथ दूर करने का जरूरत है।
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इसी गलती तथा गड़बड़ी को लेकर घोर तक का विषय त्रिलोकसादिक के वाक्यों का परिचय न पाकर धावुन इस वी वेंकटेश्वर ने अपने महावीर समय सम्बन्यो The date of Vardhamana नामक तेल में यह कल्पना को है कि महावीर निर्वाण के ४७० वर्ष बाद जिस विक्रम काल का उल्लेख जैन ग्रन्थों में पाया जाता है वह प्रचलित सम्वत् विक्रम संवत् न होकर अनन्द विक्रम संवत् होना चाहिए, जिसका उपयोग १२ वो शताब्दी के प्रसिद्ध कवि चन्दवरदाई ने अपने काव्य में किया है और और जिसका प्रारम्भ ईसवी सन् ३३ के लगभग अथवा यो कहिए कि पहले ( प्रचलित ) विक्रम संवत के ९० या ९१ वर्ष बाद हुआ है और इस तरह यहा पर सुकाया है कि प्रचलित वार निर्वाण सवत् में से ६० वर्ष कम होने चाहिए— अर्थात् महावीर का निर्वाण ईसवां मन से ५२० वर्ष पहले न मानकर ८३७ वय पहल मानना चाहिए या किसा तरह भी मान्य किये जाने के योग्य नहीं। आपने वह तो स्वीकार किया है प्रसव का नुसार वार निर्वाण ई० सन् से ५२७ वर्ष पहले ही यह बैठता है परन्तु महज इस बुनियाद पर असम्भावित करार दे दिया है कि इससे महायर का निर्माण वृद्ध निर्वाण से पहले ठहरता है आपका इष्ट नहीं। परन्तु इस तरह से उसे अभावित करार नहीं दिया जा सकता, क्योंकि बुद्ध निर्वाण ई० से सन् ५४४ वर्ष पहले भी माना जाता है, जिसका मापन काई निराकरण नहीं किया और इसलिए बुद्ध का निर्वाण महावोर के निर्वाण से पहले होने पर भा यापक इस कथन का मुख्य प्राधार आपको यह मान्यता हो रह जाती है कि बुद्ध निर्वाण ई० रान् से पूर्व ४८५ र ४५३ के मध्यवता किसी समय में हुआ है, जिसके समर्थन में आपने कोई भी सबल प्रमाण उपस्थित नहीं किया और इसलिए वह मान्य किन जान के योग्य नहीं । इसके सिवाय, नन्द विक्रम संवत् की जिस कल्पना का आप अपनाया है वह कल्पना हा निर्मूल है-अनन्दविक्रम नाम का कोई सवत् को प्रचलित नहीं हुआ और न वरदाई के नाम से प्रसिद्ध होने वाल "पृथ्वाराजा महा उसका उलार इस बात को जानने के लिए रायबहादुर प० गोरासकर हाराचन्द जाग्रा का अनन्द विक्रम संवत् का कल्पना नाम का वह लख पर्याप्त है जो नागरी प्रचारिणा पत्रिका के प्रथम भाग में पू० २७० से ४५४ त
बाब में एक बात यहां पर और भी बदला देना चाहता हूँ कि युद्धदेव भगवान महावार के समकालान थे। कुछ विद्वानों ने बौद्ध ग्रन्थ मज्झिमनिकाय के उपलियुक्त और सामगायतका सयुक्त पटवा का लकर बहुत कुछ प्राकृतिक पमूलक एवं जान पड़ता है और महाकार भगवान के साथ जिसका सम्बन्ध ठाक नहीं बतान किया है कि महावीर का निवांग बुद्ध के निर्वाण से पहुंचे हुआ है परन्तु वस्तुस्थिति ऐसा मालूम नहीं होता। खुद बाद्ध ग्रन्थी । में बुद्ध का निर्वाण बज (कृषि) के राजा के वर्ष में बताया है बार वाघनिकाय मं तत्कालीन वार्थक को मुलाकात के अवसर पर बात के मंत्रा के मुख से निधनात (महार) का जाप दिलाया है उसने महाबोर का एक विशेषण तो क्यों (ग) भी दिया है, जिसने यह स्पष्ट जाना जाता है कि बजाज का दिये जाने वाले इस परिचय के समय महावीर चंद उम्र के ये उनको अवस्था ५० वर्ष के लगभग था। वह परिचय यदि प्रजातन के राज्य के प्रथम वर्ष में ही दिया गया हो, जिसको अधिक सम्भावना है, तो कहना होगा कि महावार अजातशत्रु के राज्य के २२ वर्ष तक जोबित रहे हैं, क्योंकि उनको प्रायु प्रायः ७२ वर्ष को थी । और इसलिए महावार का निर्वाण बुद्ध निर्माण से लगभग १४ वर्ष के बाद हुआ है । भगवती सूत्र आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों से भी ऐसा मालूम होता है कि महावार निर्मााण से १६ वर्ष पहले गोशालक (मलित योवाल का स्वर्गवास हुआ, गोशालक के स्वर्गवास से कुछ वर्ष पूर्व प्रायः ७ वर्ष पहले
का राज्यारोहण हुआ, उसके राज्य के आठवें वर्ष में बुद्ध का निर्माण हुआ और बुद्ध का निर्वाण से कोई १४-१५ वर्ष बाद वा मजा के राज्य के २२ वे वर्ष में महावीर का निर्माण हुआ। इस तरह बुद्ध का निर्वाण पहने और महापोर का निर्माण उसके अजातशत्रु बाद पाया जाता है। इसके सिवाय हेमचन्द्राचार्य ने चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण समय र निर्वाण से १५५ वर्ष बाद बतलाया है और 'दीपवंश' "महाबंध " नाम के बौद्ध ग्रन्थों में हो समय बुद्ध निर्माण से १६२ वर्ष बाद बतलाया है। इसने भी प्रकृत विषय का कितना ही समर्थन होता है और यह स्पष्ट जाना जाता है कि चोर निर्वाण से बुद्ध निर्वाण अधिक नहीं तो ७-६ वर्ष के करीब पहले जरूर हुआ है।
बहुत संभव है कि बौद्धों के सामगामसुत्त में वर्णित निगंठ नातपुत्त (महावीर ) को मृत्यु तथा सबभेद समाचार वाली घटना मजलिपुत्त गोशाल की मृत्यु से सम्बन्ध रखती हो और पिटक ग्रन्थों को लिपिवद्ध करते समय किसा भूल मादि के वंश
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इस सूत्र में मक्खलिपुत्त की जगह नातपुत्त का नाम प्रविष्ट हो गया हो, क्योंकि मक्खलिपुत्त की मृत्यु-जो कि बुद्ध के छह प्रतिस्पर्धी तीर्थकरों में से एक था-बुद्ध निर्वाण से प्रायः एक वर्ष पहले ही हुई है और युद्ध का निर्वाण भी उस मृत्यु समाचार से प्राय: एक वर्ष बाद माना जाता है। दूसरे जिस पावा में इस मृत्यु का होना लिखा है वह पावा भी महावीर के निर्वाण क्षेत्र वाली पावा नहीं है, बल्कि दूसरीही पावा है, जो बौद्ध पिटकानुसार गोरखपुर के जिले में स्थित कुशोनारा के पास का कोई ग्राम है। पीर तीसरे, कोई मघभेद भी महाबीर के निर्वाण के अनन्तर नहीं हुमा, बल्कि गोशालकको मृत्यु जिस दशा ई उससे उसके संघ का विभाजित होना बहत कुछ स्वाभाविक है । इससे भी उक्त मृत्यु समाचार वाला घटना का महावीर के साथ कोई सम्बन्ध मालूम नहीं होता, जिसके आधार पर महावार निर्वाण को बुद्ध निर्वाण से पहले बतलाया जाना ।
बुद्ध निर्वाण समय के सम्बन्ध में भी विद्वानों का मतभेद और वह महावोर निर्वाण के समय से भी अधिक विवाद ग्रस्त चल रहा है, परन्तु लंका में जो बुद्ध निर्वाण सम्बत् प्रचलित है वह सबसे अधिक मान्य माना गया है-ब्रह्मा, श्याम और अासाम में भी वह माना जाता है। उसके अनुसार बुद्ध निर्वाण ई० सन् से ५४४ वर्ष पहले हमा है। इससे भी महावीर निर्वाण बुद्ध निर्वाण के बाद बैठता है, क्योंकि बीर निर्माण का समय शक संवत् से ६०५ वर्ष (विक्रम सम्वत् से ४७० वर्ष) ५ महोन पहले होने का कारण ईसवी सन् से प्रायः ५२५ वर्ष पूर्व पाया जाता है। इस ५२८ वर्ष पूर्व के समय में यदि १८ वर्ष की वृद्धि कर दी जाय तो वह ५४६ वर्ष पूर्व हो जाता है-अर्थात् बुद्ध निर्वाण के उक्त लंका मान्य समय से दो वर्ष पहले । अतः जिन विद्वानों ने महावीर के निर्माण को बृद्ध निर्वाण से पहले मान लेने की वजह से प्रचलित वीर निर्वाण सम्बत में १८ वर्ष की वृद्धि का विधान किया है वह भी इस हिसाब से ठीक नहीं है।
काल निर्णय
हाल जैकोबी
दीवाली उत्सब-भगवान के निर्वाण के उपलक्ष में देव, देवेन्द्रों ने दीपावली उत्सव मनाया था। हरिबंशपूराण में लिखा है, कल्याण के कता भगवान महावीर ने अनेक स्थानों पर विहार कर अनेक भव्यों को संबोधा था। अन्त में वे पावा नगरी आए और उसके मनोहर उद्यान में विराजमान हो गए।
जब चतुर्थ काल का तीन वर्ष साढे पाठ मास समय बाकी रहा उस समय स्वाति नक्षत्र में कार्तिक बदी अमावस के दिन प्रभात काल में योगों वा निरोधकर घातिया कर्म के समान अधातिया कगों का सर्वथा नाश कर वे मोक्ष पधारे और बह के अन्तराय रहित सुख का अनुभव करने लगे।
पांचों कल्याणों के अधिपति सिद्ध शासक भगवान महावोर के निर्वाण कल्याणक के समय देवों ने उनके शरीर को विधिपूर्वक पूजा की। उस समय भगवान महावीर के निर्वाण कल्यणाक के उत्सव के समय सुर-प्रसरों ने अत्यन्त दैदीप्यमाना दीपक जलाए, जिससे पावा नगरो अति सुहावनी जान पड़ने लगी तथा दीपका के प्रकाश से समस्त प्राकाश जगमगा उठा। महाराज श्रेणिक आदि ने अपनी प्रजा के साथ तथा देव और देवेन्द्रों ने निवाण कल्याणक की पूजा की तथा ज्ञान लाभ की प्रार्थना कर वे अपने-अपने स्थान को चले गए।
भगवान महावीर के निर्वाण दिन से लेकर आज तक भी जिनेन्द्र महाबोर के निर्वाण कल्याण को भक्ति से प्रेरित हो लोग प्रतिवर्ष भरत क्षेत्र में दिवाली के दिन दीपों की पंक्ति से उनकी पूजा करते हैं।
पावापुरी की अवस्थिति -भगवान का निर्माण पावापुरी में हुआ था। कहते हैं प्राचीन भारत में तीन पावा नाम की नगरियां थी। गोरखपुर जिले के पपउर ग्राम को कोई इत्तिवृत्त विशारद पावापुर रूप निर्वाणभूमि कहते हैं। कोई कुशीनगर से वैशाली की ओर जातो हुई सड़क पर नौ मील की दूरी पर पूर्व पश्चिम दिशा में सठियांव नामक गांव के भग्नावशेष को पाबापुर कहते हैं । यह भग्मावेशेष लगभग डेढ मील विस्तार युक्त है। इस स्थान को फाजिलनगर भी कहते हैं । इस प्रकार पुरातत्त्वों की भिन्न-भिन्न धाराणायें हैं।
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जन सामाज द्वारा पावापुरी के नाम से पूजा जाने बाला निर्माण स्थल विहार शरोफ स्थान से लगभग १० मोल दरो पर स्थित है। यहां सरोवर के मध्य में संगमरमर का अत्यन्त भव्य तथा सुरम्य मन्दिर है । लगभग ६०० फुट लम्बे लाल पत्थर के पुल पर चलकर यह जल-मंदिर प्राप्त होता है। इस जल मंदिर के भीतर भगवान महावीर के श्याम वर्ण पाषाण के छोटे चरण विद्यमान हैं । इस मन्दिर में प्रवेश करते ही भगवान महावीर की पावन स्मृति जग जाने से भक्त के हृदय में मानन्द की धारा बहने लगती है । अद्भुत तथा वाणी के अगोचर शांतिप्रद यह पुण्य स्थल है। योग विद्या के अभ्यासी उसे महान साधना का स्थल मानते हैं। डा० जैकोबी इसे ही निर्वाण स्थल मानते हैं।
निवारण कालभगवान महावीर का निर्माण सामान्यतया ईसवी सन से ५२७ वर्ष पूर्व माना जाता है। इस प्रकार सन १९६८ में भगवान को मोक्ष गए २४६५ वर्ष हो गए यह स्वीकार करना होगा। डा. कोबी का कथन है, कि भगवान का निर्वाण विक्रम राजा से ४७० पूर्व हुमा हुना, यह श्वेताम्बरों की मान्यता है, किन्तु दिगम्बरों, के शास्त्रानुसार वह काल ६०५ वर्ष पूर्व माना जाना चाहिए । यह दिगम्बर मान्यता श्वेताम्बरों को मान्यता में १३५ वर्ष पूर्व निर्वाण को बताती है । ईसवी सन से ५७ वर्ष पूर्व विक्रम संवत् माना जाता है । इस अपेक्षा महाबोर निर्वाण संवत् ईसवी सन् से (६०५+५७ =६६२ वर्ष) ६६२ वर्ष पूर्व माना जाना चाहिए । इस प्रकार सन् १९६८ में वोर निर्माण सबत् १९६८ |-६६२-२६३० वर्ष पूर्व मानना चाहिए। प्रचार में जो वीर निर्वाण २४६४ माना जाता है, वह श्वेताम्बर परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है । डाजैकोबी ने कहा है-"The trildtional date of Mahabira's nirvana is 470 years before vikrama according to toe Sweta. mhcras and 605 according to the Digambores."
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार महावीर का निर्वाण विक्रम से ४७० वर्ष पूर्व हुआ था तथा दिगम्बर परम्परा के अनुसार उनका निर्वाण विक्रम से ६०५ वर्ष पूर्व हुमा था।
अपने ग्रन्थ शिलालेख संग्रह में (Rice) नाम के विद्वान् विक्रम का समय महावीर के निर्वाण के ६०५ बर्ष बाद मानते हैं।
अत: दिगम्बर जैन आगम के अनुसार प्रचलित वीर निर्वाण का २४६.५ में १२५ जोड़ने पर २६३. वीर निवास मानना सुसंगत होगा।
विहार शासन द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ में लिखा है कि महावीर भगवान के निर्वाण का काल अभी विवादास्पद यह सभी तक निर्णोत नहीं हो पाया है। स्वयं जैन परम्परा इस विषय में एक मत नहीं है। The date of thedase Mahavira is matter of controversy and is not yet definitely fixed. Even jain tradition itseifis not unanimous about." (P. 178)
भगवान के निर्वाण काल निर्णय से या निर्वाण क्षेत्र के विवाद से उनकी मुक्ति को स्थिति को कोई बाधा नही पानी है। उन पूरुषार्थी महान आत्मा ने कर्मों का क्षय करके जो सिद्धि प्राप्त की है, वह बिनाश रहित है। सादि होते द्वारा हैं उन पूज्य प्रात्मा ने अनादि बद्ध कर्मों का अन्त करके अनन्त' शान्ति तथा अविनाशी प्रानन्द को प्राप्त किया। पुण्य स्मरण भी पतित प्रात्मा का उद्धार करता है तथा उसे संकटों से विमुक्त बनाता है।
तिलोयपण्णत्ती। पेज नं. ३८० वीससहस्स तिसदा सत्तारस बच्छराणि सुदतित्थं ।
धम्मपयट्टणहेदू वोन्छिस्सदि कालदोसेणं ।।१४६३।। २०३१७॥ अर्थ:-जो श्रुततीर्थ धर्मप्रवर्तन का कारण है, वह बीस हजार तीन सौ सत्तरह वर्षों में काल दोष से व्युच्छेद को प्राप्त हो जाएगा ॥१४६३।।२०३१७१,
वीरजिणे सिद्धिगदे चउसदइगिसट्रिसपरिमाणे ।
कालम्नि अदिक्कते उप्पण्णो एत्थ सकरात्रो ॥१४६६॥४६१॥ अर्थ :-वीर जिनेन्द्र के मुक्ति प्राप्त होने के पश्चात् चार सौ इकसठ वर्ष प्रमाण काल के व्यतीत होने पर यहां एक राजा उत्पन्न हुमा । १४६६।।
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चोइससहस्ससगसय तेण उदीवास कालविण्छेदे।
बीरेसरसिद्धीदो उप्पण्णो सगणियो प्रहवा ।।१४७६८।। अर्थ :-अथवा, वीर भगवान की मुक्ति के पश्चात् चौदह हजार सात सा तेरानवै वर्षों के व्यतीत होने पर एक नृप उत्पन्न हुमा ॥१४६८।।१४७६३॥
णिव्वाणे वीरजिणे छन्वाससदेसु पंचबरिसेसु।
पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिनो अहवा ।।१४६६|६०५॥ अथवा, वीर भगवान के निर्वाण के पश्चात् छह सौ पांच वर्ष और पांच महिनों के चले जाने पर एक नप उत्पन्न हुमा ॥१४६६।। वर्ष ६०५ मास ५॥
वीसुसरवाससदे विसवो वासाणि सोहिऊण तदो।
इगिवीससहस्सेहि भजिदे पाऊण खयबड्डी ।।१५००॥ एक सौ बीस वर्षों में से बीस वर्षों को घटाकर जो शेष रहे, उस में इक्कीस हजार का भाग देने पर प्रायु के क्षय-वृद्धि का प्रमाण आता है ।।१५००॥
१२०-२०-२१०० =१२१० ।
श्वेताम्बर विद्वानों के मत से श्री १००८ भगवान महावीर स्वामी का काल निर्णय
श्री भगवान महावीर स्वामी के काल के सम्बन्ध में तेरापंथी मुनि नगराजजी द्वारा लिखित पागम और त्रिपिटक एक अनुशीलन नाम के ग्रन्थ में लिखा है कि
जैन परम्परा में मेरुतंग की विचार श्रेणी, तित्त्थोगालो, पइन्नम तथा तित्थो द्वारा प्रकीर्ण आदि प्राचीन ग्रन्थों में चन्द्रगुप्त का राज्यारोहण उन्होंने अवन्ती का माना है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने पाटलिपुत्र (मगध) राज्यारोहण के १० वर्ष पश्चात् अवन्ती में अपना राज्य स्थापित किया था। इस प्रकार जैन काल •णना और सामान्य ऐतिहासिक धारणा परस्पर संगत हो जाती है और महावीर का निर्वाण ई० पू० ३१२ + २१५ = ई० पू० ५२७ में होता है।
उक्त निर्वाण समय का समर्थन विक्रम, शक, गुप्त आदि ऐतिहसिक संवत्सरों से भी होता है 1 विक्रम संवत् के विषय -- - -
जं रयरिंग कालगयो, अरिहा तिस्थंकरो महावीरो। तं यणि मयणिवई, महिसित्तो पालो राया ।।१॥ षट्ठीं पालयरपणो ६०, पणवण्यासयं तु होई नंदा १५५ । प्रट्ठसयं मुरियाणं १०८, तीस यिय पूसमित्तस्स ३० ॥२॥ बलमित्त-भाणु मित्त सट्ठी ६०, दरिसारिण चत्त नहवाणे। तह मद्दभिल्लरज्ज तेरस १३, वरिस-सगस्स चउ (परिस्सा) ॥३॥ श्री विक्रमादित्यश्व प्रतिबोधितस्तद्राज्यं तु श्री दीरसतति-चतुष्टये ४७० संजातम् ।
धर्मसागर उपाख्याय, तपागच्छ-पट्टावली (सटीक सानुवाद पन्यास कल्याण विजयजी), पृ० ५०१२ विक्रमरज्जारंभा परमो सिरिवीरनिव्वुई भणिया। सुन्नमुणिवेयजुत्तो विक्कमकालउ जिणकालो। -विक्रमकालाज्जिनस्य धीरस्य कालो जिन कालः शून्य (०)
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में जैन परम्परा की प्राचीन पट्टावलियों व ग्रन्थों में बताया गया है। भगवान महावीर के निर्वाण काल से ४७० वर्ष बाद विक्रम संवत् का प्रचलन हुधा । इतिहास की सर्वसम्मत धारणा के अनुसार विक्रम संवत् ई० पू० ५७ से प्रारम्भ होता है।' इससे भी महावीर-निर्वाण का काल ५७+४७० =ई०पू०५२७ ही पाता है।
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही जैन-परम्परामों की प्राचीन मान्यतामों के अनुसार शक संवत् महावीर-निर्वाण के ६०५ वर्ष ५ महीने बाद प्रारम्भ होता है। ऐतिहासिक धारणा से शक संवत् का प्रारम्भ ई० पू० ७८ से होता
--- ---. --..मुनि (5) वेद (४) युक्तः । चत्वारिंशतानि सप्तत्यधिकवर्षारिए श्री महावीरविक्रमादित्ययोरन्तर मित्यर्थः । नन्वयं काल: वीरविक्रमयोः कथं गण्यते, इत्याह-विक्रमराज्यारम्भात् परतः पश्चात् श्री वीरनिवृत्रिरत्र भरिणता । को भावः श्रीवीरनिवरिण-दिनादनु ४७० वर्षे विक्रमादित्यस्य राज्यारम्भदिनमिति ।
-विचार-श्रेणी, ३-४ पुनर्मनिर्वाणात् सपत्यधिकचतुः शतवर्षे (४७०) उज्जयिया श्री विक्रमादित्यो राजा भविष्यति' 'स्वनाम्ना च संवत्सरप्रवृत्ति करिष्यति।
-श्री सौभाग्य पंचभ्यादि पर्वकथा संग्रह, दीपमालिका व्याख्यान, पृ० ६६-६७ महामुक्ख गमणाम्रो पालय-नंद चन्द्र गुप्ताइराईसु बोलीणेसु च उसय सत्तरेहि विक्कमाइच्चो राया होहि । तस्थ सट्ठी परिमाण पालगस्स रज्ज, पापण्यांसय नंदारणं, अट्ठोत्तर सयं मोरिय बंसाणं, तीसं पूसमित्तस्स, सट्ठी बलमित्- भारण-मिसाणं चालीस नरवाहणरस, तेरह गभिलस्स, चत्तारि सगस्स । तमो विक्कमाइच्चो–दिविषतीर्थकल्प (अपाहाबहत्कल्प), पृ०३८-३६ चउसय सत्तरि वरिसे (४७०) वीरामो विक्कमाइच्चो जानो।-पंचवस्तुक।
गुप्त साम्राज्य का इतिहास, प्रथम खंड पृ० १८३ २. (क) रयणि सिद्धिगमो, परहा तित्थंकरो महावीरो।
तं रयणिमदन्तीए, अभिसित्तो पालो राया ॥६२०॥ पासगरम्णो सट्ठी, पुरण पण्णसवं वियारिश णंदाणं । मुरियाणं सव्यं पणतीसा पूसमित्तारणं (त्तस्स) ॥६२१॥ बलमित्त-मागुमित्ता, सट्ठी चत्ताय होन्ति नहसेणे । गद्दभसयमेगं पुण, पडिवन्नो तो सगो राया ।।२।। पंच मा मासा पंच य, पापा छच्छेव होंति वाससया ।
परिनिन्दप्रसारिहतो, तो उत्पन्नो (पडियन्नो) सगो राया ।।६२३।। -तिस्योगाली पइन्नय । (ख) श्री वीरनिवतेवर्षेः षभिः पंचोसरः शनैः । पाकिसंवत्सरस्यैषा प्रवृत्तिभरतेऽभवत् ।।
-मेरुतुंगाचार्य-रचित, विचार श्रेणी
(जैन साहिरम संशोधक, खंड २ अंक ३-४ पृ०४)। (ग) हि वासारण सरहिं पंचहि पासे हि पन्तमासेहि। मम निब्वाण मयस्स उ उपज्जिस्सह सगो राया ॥
---नेमिचन्द्र रचित, महावीर चरियं, लो० २१६६ प ६४-१) (घ) पणछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिन्वुइदो। सगराजो तो फक्की चदुणवत्तियमाहियसममासं ।।
-नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती रचित, त्रिलोसार, १५० (छ) वर्षाणषट्शती त्वक्त्वा पंचाना मासपंचकम् ।
मुषितं यते महावीरे शकराजस्ततो भवत् ।। --जिनसेनाचार्य रचित, हरिवंशपुराण, ६०-५४६ (च) रिणवारणे वीरजिणे छन्चास सदेसु पंचबरिसेसु ।
पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिो अहवा ।। -तिलोययणत्ति, भाग १पृ०३४१ (छ) पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति वाससया।
समकालेण म सहिया यावेयव्यो तदो रासी। -धवला, जैन सिद्धान्त भवन, पारा, पत्र ५३७ ।
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' उस निष्कर्षण से भी महावीर निर्वाण का काल ६०५ ७८६ ई० पू० ५२७ ही होता है।
डा० वासुदेव उपाध्याय अपने अन्य गुप्त साम्राज्य का इतिहास में गुप्त संवत्सर की छानबीन करते हुए लिखते हैं:मलवेरुनी से पूर्व शताब्दियों में कुछ जैन सम्मकारों के आधार पर यह ज्ञात होता है कि गुप्त तथा शक-काल में २४१ वर्ष का अन्तर है प्रथम लेखक जिनसेन, जो 5वीं शताब्दी में वर्तमान थे उन्होंने वर्णन किया है कि भगवान महावीर के निर्माण के ६०५ वर्ष ५ मास के पश्चात् शक राजा का जन्म हुआ तथा पाक के अनुसार गुप्त के २३६ वर्ष शासन के बाद कल्किराज का जन्म हुआ। द्वितीय ग्रन्थकार गुणन्द्र ने उत्तरपुराण में ई०) लिखा है कि महावीर निर्वाण के १०००
वर्ष बाद कल्किराज का जन्म हुआ। जिनसेन का तथा गुणभद्र के कथन का समर्थन तीसरे लेखक नेमिचन्द्र करते हैं।
नेमिचन्द्र त्रिलोकसार में लिखते हैं: शकराज महावीर - निर्वाण के ६०५ वर्ष ५ माह के बाद तथा शक-काल के ३९४ वर्ष ७ माह के पश्चात् कल्किराज पैदा हुआ ।" इनके योग से - ६०५ वर्ष ५ माह - ३६४ वर्ष ७ माह = १००० वर्ष होते हैं । इन तीनों जैन अन्यकारों के कथनानुसार सकराज तथा कल्किराज का जन्म निश्चित हो जाता है।
इस प्रकार शक संवत् का निश्चय उक्त जैन धारणाओं पर करके विद्वान् लेखक ने महाराज हस्तिन् के शिला लेख मादि के प्रमाण से गुप्त संवत् और शक संवत् का सम्बन्ध निकाला है। निष्कर्ष रूप में वे लिखते हैं इस समता से यह ज्ञात होता है कि गुप्त संयत् की तिथि में २४१ जोड़ने से शक काल में परिवर्तन हो जाता है। इस विस्तृत विवेचन के कारण redit के कथन की सार्थकता ज्ञात हो जाती है। यह निश्चित हो गया है कि शक- काल के २४१ वर्ष पश्चात् गुप्त संवत् का आरम्भ हुआ ।' फलितार्थ यह होता है कि इस सारी काल-गणना का मूल भगवान महावीर का निर्माण-काल देना है। वहां से उतर कर यह काल-गणना गुप्त संयत् सक पाई है। यहां से मुड़कर यदि हम वापस चलते हैं, तो निम्नोक्त प्रकार से ई० पू० के महावीर - निर्वाण काल पर पहुंच जाते हैं ।
५.२७
गुप्त संवत् का प्रारम्भ महावीर निर्वाण
अतः महावीर का निर्माण-काल
तेरापंथ के मनीधी चाचायों ने जिस काल-गणना को माना है, उससे महावीर निर्वाण का समय ई० पू० ५२७ माता । भगवान महावीर की जन्म राशि पर उनके निर्वाण के समय भस्म-ग्रह लगा। उसका काल शास्त्रकारों ने २००० वर्ष का माना है । श्री मज्जयाचार्य के निर्णयानुसार २००० वर्ष का यह भस्म ग्रह विक्रम संवत् १५३१ में उस राशि से उतरता है । तथा शास्त्राकारों के अनुसार महावीर निर्वाण के १९६० वर्ष पश्चात् ३३३ वर्ष की स्थिति वाले धूमकेतु ग्रह के लगने का विधान है। श्री मज्जायाचार्य के अनुसार वह समय वि० सं० १८५३ होता है । उक्त दोनों अवधियां सहज ही निम्न प्रकार से महावीर निर्वाण के ई० पू० ५२७ के साल पर इस प्रकार पहुंच जाती हैं।
१. गुप्त साम्राज्य का इतिहास, प्रथम खंड १८२-१८३
२. भाग १ पृ० ३८२
३.
...गुप्तानां च शवयद्वम् ।
एकवित्व वर्षाणि कारितम् ॥४२० द्विचत्वारिशदेवातः कल्किराजस्य राजता । तोरात स्यादिन्द्रपुरस्थितः ॥४२॥
पीव्यवस्था पंचाथां मामपंचकम् । मुक्तिं गते महावीरे शकराजा ततोऽभवत् ।। ५१ ।
६०३१२
गुप्त संवत् पूर्व ८४६
ई०
१० पू० ५२७
-जिनसे कृत हरिवंशपुराण ४०६०॥
४. इण्डियन एंटीक्वेरी, बाल्यूम १५, पेज – १४३ ५. पण स्वयं वस्तं परणमाजजुदं गमिय वीरणिदुइदो । गराज सो कल्कि चदुपवतियमहिय संगमासं ॥ ६. गुप्त साम्राज्य का इतिहास, भाग १, पु० १८१
- त्रिलोकार, पृ० ३२ ।
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पावापुरी
भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सब में केवल तीस महीने शेष हैं। हम लोग भगवान महावीर के धर्मतोर्थ और धर्म-शासन में निग्रन्थ श्रमण परम्परा का पालन कर रहे हैं। भगवान महावीर ने जिन विश्व-कल्याणकारी सिद्धान्तों का अपने जीवन में सफल प्रयोग करके उनका उपदेश दिया, वे सिद्धान्त क्रिसो देश, बर्ग जाति, और काल के लिए नहीं थे, वे तो प्राणी मात्र के कल्याणकारी थे, वे सार्वजनित, सार्वत्रिक और सार्वकालिक थे। वे तो सत्य सनातन सिद्धान्त थे, जिनका उपदेश उनसे पूर्ववर्ती तेईस तीर्थकरों ने भी दिया था। यही कारण है कि भगवान महावीर किसी एक वर्ग या जाति के ही आराध्य महापुरुष नहीं थे, वे तो राष्ट्रीय, राष्ट्रीय ही नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय महापुरुष थे। उनके व्यक्तित्व को महानता ने सभी देशों के मनीषियों और सभी धर्मों के महापुरुषों को प्रभावित किया है।
उनके २५०० वें निर्वाण महोत्सव को मनाने की तैयारियाँ जोर शोर से हो रही हैं। भारत सरकार ने इस महोत्सब को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने के लिए बहुसुत्री योजनायें बनाई हैं। जैन समाज के चारों सम्प्रदाय संयुक्त रूप से और अपने-अपने सम्प्रदायों की ओर से व्यापक तैयारियों में जुटे हुए हैं। इस महोत्सव के निमित्ति से अनेक साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियां चालू हो गई हैं तथा जैन धर्म, जैन संस्कृति और जैन समाज के उत्थान की अनेक विध परियोजनायें क्रियान्वित की जा रही हैं । इस अवसर पर जैन मात्र का कर्तव्य है कि वह इस महोत्सव को सफल बनाने के लिये अपने दायित्व को समझे और उसका पूर्णत: निर्वाह करे।
यों तो यह महोत्सव देश के प्रायः सभी नगरों में और विदेशों में मनाया जायगा, किन्तु भगवान महावीर से विशेष सम्बधित वैशाली, राजगृह और पावापुरी में विशेष प्रायोजनों के साथ समारोह पूर्वक मनाया जायगा । वैशाली का कुण्ड ग्राम भगवान की जन्म मगरी है, राजगृह के विपुलाचल पर भगवान ने धर्म-चक्र-प्रवर्तन किया था अर्थात उनका प्रथम उपदेश यहीं पर हसा था, और पावापुरी में भगवान का निर्वाण हुआ था, यह महोत्सव भगवान के निर्वाण को २५०० वर्ष पूरे होने के उपायमोजाया जा रहा है, इसलिए भगवान के निदरीण-स्थान को विशेष महत्त्व स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। अतः उनको निर्वाण-भूमि पावापुरी में भगवान का यह निर्वाण महोत्सव अत्यन्त उत्साह, समारोह पीर विविध प्रायोजनों के साथ मनाया जाना स्वाभाविक है।
किन्तु यह कितने आश्चर्य और दुःख की बात है कि ऐसे समय में, जबकि समग्र जैन समाज की चेतना इस महोत्सव को सफल बनाने के लिए एक जुट होकर कार्यरत है, कुछ लोगों ने पावा के सम्बन्ध में अशोभनीय विवाद खड़ा करके भ्रामक वातावरण बना दिया है। कुछ जंमतर इतिहासकारों, पुरातत्त्व वेत्ताओं और विद्वानों ने मल्लों की उस पावा की खोज करने का प्रयत्न किया है जहाँ महात्मा बुद्ध को सूकरमद्दव खाने से रक्तातिसार हो गया था। किन्तु ये विद्वान् इस विषय में एक मत नहीं हो सके।
इन्हीं विद्वानों के द्वारा दिये हुए बौद्ध साहित्य के सन्दर्भो को लेकर जैन समाज के कुछ श्रावकों ने सठियांव (देवरिया जिला, उत्तर प्रदेश) को महावीर-निर्वाणवाली पाबा कहना शुरू कर दिया है। लगभग २५-२६ वर्ष पहले बाबा राघवदास प्रादि ने सठियांव में 'पावानगर महाबीर इण्टर कालेज की स्थापना की थी । लगता है, इन श्रावकों को इससे प्रेरणा मिली है और उन्होंने सठियांव को भगवान महावीर की निर्वाण-भूमि घोषित कर दिया है हमें आश्चर्य है। कि इतना बड़ा निर्णय इन्होंने स्वयं कैसे ले लिया। इन्हें चाहिए था कि ये आचार्यों और मुनियों से परामर्ष करते; जैन विद्वानों का सम्मेलन बलाकर उसमें
नेतर्क रखते और विद्वानों से निर्णय लेते। किन्तु इन धावकों ने ऐसा कुछ नहीं किया । जैन संघ जैनधर्म पीर जैनतीर्थ क्षेत्रों के सम्बन्ध में इस प्रकार अनधिकृत निर्णय करने को परम्परा उचित नहीं कही जा सकती।
सठियांव में कोई प्राचीन जैन सामग्री-मूर्ति, मन्दिर या अभिलेख-मिली हो. ऐसा इन श्रावकों के लेखों से नहीं लगता। इन लोगों की धारणा है कि बौद्ध ग्रन्थों में जिस पावा का उल्लेख मिलता है, उस काल में केवल वही एक पावा थी। किन्तु विचारणीय यह है कि जैन शास्त्रों में भगवान महावीर को निर्वाण-भूमि का नाम मजिकमा पावा मिलता है और बौद्ध शास्त्रों में महात्मा बद्ध से सम्बन्धित पावा का नाम मल्ल पावा मिलता है। पाया के साथ दोनों स्थानों पर भिन्न-भिन्न विशेषण लगाने का प्राशय क्या है ? श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के शास्त्रों के एक भी स्थान पर महावीर का निर्वाण मल्लों की
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पावा में होना नहीं बताया है। बौद्ध शास्त्रों में भी निग्गठ नाथ पुत्त (भगवान महावीर) को मल्लों को पावा में कालकवलित होने की बात नहीं मिलती। वहां केवल पावा का ही नाम निर्देश किया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि पावा नामक कई नगर थे। एक मल्लों की पावा थी, दूसरी और कोई पाबा रही होगी। इन दोनों के मध्य में स्थित होने के कारण जिसको 'मझिमा पावा' कहा जाता था, वहीं पर महावीर भगवान की निर्वाण-भूमि के सम्बन्ध में गलतफहमी हुई है, उसका कारण यही भ्रान्त धारणा रही है कि उस काल में पावा नाम का एक हो नगर था। हमें लगता है, इस भ्रान्त धारणा का यह कारण है-बौद्ध शास्त्रों में कहीं 'मज्झिमा पावा' का उल्लेख नहीं मिलता और जैन शास्त्रों में कहीं मल्लों की पावा का उल्लेख नहीं मिलता । लेकिन ऐसा होना अकारण नहीं हैं। हो सकता है, बद्ध का प्रभाव मल्लों की पावा में अधिक रहा हो और महावीर का बिहार उस पोर न होकर नालन्दा की निकटवर्ती पावा को और अधिक रहा हो।
एक बात स्पष्ट है। बौद्ध शास्त्रों में निग्गठ नाथ पुत्त (महावोर) के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा गया है, उसमें सत्यांश कम है। इसलिए महावीर के सम्बन्ध में यदि किसी यात का निर्णय करना हो तो बौद्ध शास्त्रों के उन सन्दर्भो को प्रमाण नहीं माना जा सकता। उसके लिए तो जैन शास्त्रों का ही आधार ढूढ़ना होगा । महावीर की निर्वाण-भूमि का भी निर्णय करने के लिए जैन शास्त्रों को ही प्रमाण माना जा सकता है। महावीर के निर्वाण के प्रसग में बौद्ध शास्त्रों में जो कुछ भी लिखा गया है, जैन परम्परा उसे कभी स्वीकार नहीं कर सकती । जैसे बौद्ध शास्त्रों में वर्णन है कि गृहपति उपालि ने जव तथागत बुद्ध की प्रशंसा की तो निग्गंठ नाथ पुत्त को वह सहन नहीं हुई और उसने मुख से रक्त वमन किया। उसी में वह कालकवलित हो गया। इसी प्रकार लिखा है कि निग्गठ नाथ पुत्त की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों में दो भेद हो गये-निग्गंठ और श्वेत पट । धे परस्पर में कलह करने लगे और अपशब्द कहने लगे आदि । ये सब बातें इतिहास और समाज की मान्य परम्परा के विरुद्ध हैं। इसलिए हम उन्हें प्रमाण नहीं मान सकते ।
जैन शास्त्रों और परम्परागत मान्यता के अनुसार विहार की वर्तमान पायापुरी ही भगवान महावीर की निर्वाण-भूमि है । यहां पर तथा पावा नामक ग्राम में बहुत प्राचीन मन्दिरों के अवशेष और मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं । मूर्तियों के देखने से वे हजार-डेढ़ हजार वर्ष से भी प्राचीन मालूम होती हैं। इन्हें देखने से यह निश्चय हो जाता है कि इस पावापुरी को १३-१४ वीं शताब्दियों में तीर्थ नहीं बनाया गया है, बल्कि यह तो उससे शताब्दियों पूर्व से तीर्थ माना जाता रहा है, इसलिए हमारी दृढ़ मान्यता है कि वर्तमान पावापुरी में ही भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था और भगवान का २५०० वां निर्वाण महोत्सव वहीं पर मनाना है।
अन्त में समस्त जैन समाज से हमारा कहना है । कि वर्तमान पावापुरी को ही भगवान महावीर की पवित्र निर्वाण-भमि मानकर उसके विकास की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए और भगवान महावीर के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करने के लिए पावापुरी में महावीर विश्वविद्यालय और महावीर प्रचार केन्द्र जैसी योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए गम्भीरता के साथ विचार करना चाहिए।
जो पावापुरी के सम्बन्ध में निराधार प्रचार कर रहे हैं, उन्हें हम पाशीर्वाद देते हैं और चाहते हैं कि वे समझे कि इस अवसर पर भ्रामक प्रचार करने से कितनी क्षति पहुंच सकती है। इस समय तो संघबद्ध होकर निर्वाण महोत्सव को सफल बनाने का अवसर है, विवादों में शक्ति का अपव्यय करने का अवसर नहीं है । समय अल्प है, कार्य महान है। यह कार्य बढ़ संकल्प, निष्ठा और मंगठित प्रयत्नों द्वारा जैन समाज को सफल बनाना है।
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गौतम चरित्र
अर्हन्तं नोम्यहं नित्यं मुक्ति लक्ष्मीप्रदायकम् । विबुधनरनागेन्द्रसेव्यमानम्पदाम्बुजम् ॥
जो अरहन्त भगवान मोक्षरूपी सम्पदा प्रदान करने वाले हैं, जिनके पादपद्मों की सेवा नर-नागेन्द्रादि सभी किया करते हैं, उन्हें मैं सर्वदा नमस्कार करता हूं | जो सिद्ध भगवान कर्मरूपी शत्रुओं के संहाकर हैं, सम्यक्त्व यादि भ्रष्टगुणों से सुशोभित हैं तथा जो लोक शिखर पर स्थित हो सदा मुक्त अवस्था में रहते हैं, ऐसे सिद्ध परमेष्ठी भगवान हमारे समस्त कार्यों की सिद्धि करें। जिनेन्द्रदेव महावीर स्वामी, महावीर वीर और मोक्षदाता हैं एवं महावीर वर्द्धमान वीर सन्मति जिनके शुभ नाम हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूं। जो इच्छित फल प्रदान करने वाले हैं, जो मोहरूपी महाशत्रुओं के संहारक हैं और मुक्ति रूपी सुन्दरी के पति हैं, ऐसे महावीर स्वामी हमें सद्बुद्धि प्रदान करें। भगवान जिनेन्द्र देव से प्रकट होने वाली सरस्वती, जो भव्यरूपी कमलों को विकसित करती है, वह सूर्य की ज्योति की भांति जगत के ज्ञानान्सकार को दूर करे। श्री सर्वज्ञ देव के मुख से प्रकट हुई वह सरस्वती देवी सरल कामधेनु के समान अपने सेवकों का हित करने वाली होती है, श्रतः वह देवी हमारी इच्छा के अनुसार कार्यों की सिद्धि करे। जो भव्योत्तम मुनिराज सद्धर्मरूपी सुधा से तृप्त रहते हैं, और परोपकार जिनका जीवन व्रत है, वे मुझ पर सदा प्रसन्न रहें। जो कामदेव सरीखे मतंग को परास्त करने वाले हैं, जो काम क्रोधादि श्रन्तरंग शत्रुओं के विनाशक हैं, जो संसार महासागर से भयभीत रहते हैं, ऐसे मुनिराज के चरण कमलों को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। जो भव्यजन दुष्ट-जनों के बचनरूपी विकराल सर्पों से कभी विकृत नहीं होते एवं सदा दूसरे के हित में रत रहते हैं, उन्हें भी नमस्कार करता हू। साथ ही जो दूसरों के सदा विघ्न उत्पादन करने वाले हैं तथा जिनका हृदय कुटिल है और जो विषैले सर्प के समान निन्दनीय हैं, उन दुष्टजनों को भय से मैं नमस्कार करता हूं। अपने पूर्व महाऋषियों से श्रवण कर और भव्यजनों से पूछकर मैं श्री गौतम स्वामी का पवित्र चरित्र लिखने के लिए प्रस्तुत होता हूं, जो अत्यन्त सुख प्रदान करने वाला है। किन्तु मैं न्याय सिद्धान्त, काव्य, छन्द, अलंकार, उपमा, व्याकरण, पुराण आदि शास्त्रों से सर्वथा प्रनभिज्ञ हूं। मैं जिस शास्त्र की रचना कर रहा हूं, वह सन्धि-वर्ण शब्दादि से रहित है श्रतएव विद्वान पुरुष मेरा अपराध क्षमा करते रहें। जिस प्रकार यद्यपि कमल का उत्पादक जल होता है, पर उसकी सुगन्धि को वायु ही चारों मोर फैलाती है, उसी प्रकार यद्यपि काव्य के प्रणेता कवि होते हैं, पर उसे विस्तृत करने वाले भव्यजन ही हुआ करते हैं। यह परम्परा है। जिस प्रकार बसन्त कोयल को बोलने के लिए बाध्य करता है, उसी प्रकार श्री गौतम स्वामी की भक्ति ही मुझे उनके पवित्र जीवन चरित्र को लिखने के लिए उत्साह प्रदान करती है । मैं यह समझता हूं कि, जैसे किसो ऊंचे पर्वत पर आरोहण की इच्छा करने वाले लंगड़ की सब लोग हंसी उड़ाते हैं ? वैसे ही कवियों की दृष्टि में में भी हंसी का पात्र बनू गा; क्योंकि मेरी बुद्धि स्वल्प है ।
कथा आरम्भ
मध्यलोक के बीच एक लाख योजन विस्तृत जम्बू द्वीप विद्यमान है। वह जम्बू-वृक्ष से सुशोभित और लवण सागर से घिरा हुआ है। उसी द्वीप के मध्य में सुमेरु नाम का अत्यन्त रमणीय पर्वत है, जहां देवता लोग निवास करते हैं, उसी द्वीप में स्वर्ण रौप्य की छः पर्वत मालाएं हैं। इस मेरु पर्वत के पूर्व-पश्चिम की ओर बत्तीस विदेह क्षेत्र हैं, जहां से भव्यजीव मोक्ष प्राप्त किया करते हैं । पर्वत के उत्तर-दक्षिण की घोर भोगभूमियां हैं, जहां के लोग मृत्यु प्राप्त कर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं । उन भोग
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भूमियों के उत्तर-दक्षिण भाग में भरत और ऐरावत नाम के दो क्षेत्र हैं, जिनके बीच में रूपाभ विजयार्द्ध पर्वत खड़ा है एवं उत्सर्पिणी तथा सविन के छः काल जिनमें चक्कर लगाया करते हैं। उन क्षेत्रों में भरत क्षेत्र को चौड़ाई पांच सीबीस योजन छः कला है। विजयार्द्ध पर्वत और गंगा, सिन्धु नाम के महानदियों के छः भाग हो गए हैं, जिन्हें छ: देश कहते हैं । उन्हीं देशों में मगध नाम का एक महादेश है। वह समस्त भू-मण्डल पर तिलक के समान सुशोभित है। वहां अनेक उत्सव सम्पन्न होते रहते हैं। वह धर्मात्मा सज्जनों का निवास स्थान है। इसके अतिरिक्त मटम्ब, कवंट, गांव, खेट, पतन, नगर बाहन, द्रोण आदि सभी बातों से मगध सुशोभित है। वहां के वृक्ष ऊँचे घनी छाया तथा फल से युक्त होते हैं। उन्हें देखकर कल्पवृक्ष का भान होता है। वहां के खेत धान्यादि उत्पन्न कर समग्र प्राणियों की रक्षा करते हैं। मनुष्यों का जीवन प्रदान करने वाली योषधियां भी प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होती हैं। वहां के सरोवरों का तो कहना ही क्या वे कवियों की मनोहर वाणी की भांति सुशोभित हो रहे हैं। कवियों के वचन निर्मल और गम्भीर होते हैं, उसी प्रकार वे तालाब भी निर्मल और गम्भीर (गहरे ) हैं । कवियों की वाणी में सरलता होती है अर्थात् नगरों से युक्त होती है उसी प्रकार के सरोवर भी सरस अर्थात् जल से पूरे हैं। कवियों के वचन पद्मवद्ध होते हैं, वे सरोबर भी पद्मबंध कमलों से सुशोभित हो रहे हैं। वहां की पर्वतीय कंदराम्रों में किन्नर जाति के देव लोग अपनी देवांगनाओं के साथ विहार करते हुए सदा गाया करते हैं। वहां के वन इतने रमणीय इतने सुन्दर होते हैं कि उन्हें देखकर स्वर्ग के देवता भी काम के वश में हो जाते हैं और वे अपनी देवांगनाओं के साथ क्रीड़ाएं करने लग जाते हैं । मगध में स्थान स्थान पर ग्वालों की स्त्रियां गायें चराती हुई दिखलाई देती थीं मे ऐसी सुन्दरी थीं कि उन्हें देखकर पचिक लोग अपना मार्ग भूल जाते थे। वहां की साधारण जनता धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थों में रत रहती थी। इसके साथ ही जिन धर्म के पालन में अपूर्व उत्साह दिखलाती थी शीलव्रत उनका शृंगार था। वहां जिनेन्द्र देव के गर्भ कल्याणक के समय दो रत्नों की वर्षा होती थी, उसे धारण कर वह भूमि वस्तुतः रत्नगर्भा हो गयी थी।
'पुरुष
उसी मगध में स्वर्ग लोक के समान रमणीक राजगृह नाम का एक नगर है वहां मनुष्य और देवता सभी निवास करते हैं। नगर के चारों ओर एक विस्तृत कोट बना हुआ था। वह कोट पक्षियों और विद्याधरों के मार्ग का अवरोधक वा एवं शत्रुषों के लिए भय उत्पन्न करता था उस कोट के निम्न भाग में निर्मल जल से भरी हुई लाई थी उसमें खिले हुए कमल अपनी मनोरम सुगन्धि से भ्रमरों को एकत्रित कर लिया करते थे। नगर में चन्दा के वर्ण जैसे श्वेत अनेक जिनालय सुशोभित हो रहे थे, जिनके शिखर की पताकायें प्राकाश को छूने का प्रयत्न कर रही थीं। यहां के मानव वृन्द जल-चन्दन आदि बाठो द्रयों से भगवान श्री जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा कर उनके दर्शनों से अत्यन्त प्रसन्न होते थे । राजगृह के धर्मात्मा मांगने वालों की इच्छा से भी अधिक धन प्रदान करते थे तथा इस प्रकार चिरकाल तक पन का अपूर्व संग्रह कर कुबेर को भी लक्जत करने में कुण्ठित नहीं होते थे वहां के नवयुवक अपनी स्त्रियों को अपूर्व सुख पहुंचा रहे थे इसलिए वहां की सुन्दरियों को देखकर देवांगनाएं भी लज्जित होती थीं। वे अपने हाव-भाव विलास यादि के द्वारा अपने पति को स्वर्गीय सुखों का उपभोग कराती थीं। नगर के महलों की पंक्तियां अत्यन्त ऊंची थी। उसमें सुन्दरता और सफेदी इतनी अधिक थी कि उनके समक्ष चन्द्रमा को भी थोड़ी देर के लिए लज्जित होना पड़ता था। साथ ही बाजार की कतारें भी इतनी सुन्दरता के साथ निर्माण कराई गई थीं कि जिन्हें देखकर मुग्ध हो जाना पड़ता था। उनकी दीवारें मनियों से सुयोजित थीं वहां स्वर्ण रौप्य धन्न यादि का हर समय लेन-देन होता रहता था। उस समय नगर का शासन भार महाराज श्रेणिक के हाथ में था। वे सम्यग्दर्शन धारण करने बाले थे | समस्त सामन्तों के मुकुटों से उनके चरण कमल सूर्य से देदीप्यमान हो रहे थे। उनके वैभवशाली राज्य में प्रजा सुखी. श्री धर्मात्मा श्री प्रजा धर्म साधन में सर्वदा तल्लीन रहती थी अतएव उन्हें भय, मानसिक वेदना, शारीरिक संताप, दरिद्रता आदि का कभी शिकार नहीं बनना पड़ता था।
महाराज श्रेणिक अत्यन्त रूपवान थे। वे अपनी सुन्दरता से कामदेव को भी लज्जित कर देते थे। उनका तेज इतना जल था जो सूर्य को भी जीत लेता था तथा वे वाचकों को इतना धन देते थे कि जिसे देखकर कुबेर को भी लज्जित होना पड़ता था । शायद विधि ने समुद्र से गम्भीरता छीनकर, चन्द्रमा से सुन्दरता लेकर, पर्वत से अचलता, इन्द्रगुरु बृहस्पति से बुद्धि छोकर क्षेणिक का निर्माण किया था। महाराज श्रेणिक में तीनों प्रकार की शक्तियां थीं। वे सन्धिविग्रहादि छः गुणों को धारण करने वाले थे। वे अर्थ, धर्म, काम सबको सिद्ध करते हुए भी अपनी कर्मेन्द्रियों को वश में रखते थे। उनको विम कीर्ति चन्द्रमा के निर्मल प्रकाश की भांति चारों ओर व्याप्त थी । यदि ऐसा न होता तो देवांगनाओं द्वारा उनके गुणों के ज्ञान की आशा नहीं की जा सकती थी। उनके शासन का अभूतपूर्व प्रभाव चारों ओर फैल रहा था। महाराज के शत्रुगण ऐसे व्याकुल हो रहे थे, मानों उनका क्षण भर में हो विनाश होने वाला है । उनकी प्रभा द्वितीया के चन्द्रमा की क्षीण कला की भांति क्षीण
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हो गई थी। महाराज श्रेणिक को प्रतिभा के सब लोग कायल थे। उनकी प्रखर बुद्धि स्वभाव से ही प्रताप युक्त थी। अतएवं बह चारों प्रकार की राजविद्याओं को प्रकाशित कर रही थी। श्रेणिक की पत्नी का नाम चेलना था। वह कामदेव की पत्नी रति और इन्द्र को इन्द्राणी की भांति कांति और गुणों से सुशोभित थी। उसके नेत्र मृग के से थे। उसका मुख चन्द्रमा जैसा कांतिपूर्ण था। केश श्यामवर्ण के थे। कटि क्षीण, कुच गठित और बड़े आकार के थे। उसकी सुन्दरता देखने लायक थी। विस्तीर्ण ललाट, भौहें टेढ़ी और नाक तोते की तरह थी। उसके वचन और गमन मदोन्मत्त हाथी की तरह थे। उसकी नाभी सुन्दर और उसके अंग-प्रत्यंग सभी सुन्दर थे। वह सदा सन्तुष्ट रहती थी। उसकी प्रात्मा पवित्र और बुद्धि तीक्ष्ण थी शुद्ध वश में उत्पन्न होने के कारण वह हाव-भाव विलास आदि सभी गुणों से सुशोभित थी । वह स्त्रियों में प्रधान और पतिव्रता थी। याचकों के लिए हित करने बाला उत्तम दान देने वाली थी। वह शील और व्रतों को धारण करने वाली थी। उसका हृदय सम्यग्दर्शन से विभूषित था। वह सदा जिन धर्म के पालन में तत्पर रहा करती थी। अनेक देशों के अधिपति, विभिन्न प्रकार की सेनाओं से सुशोभित अत्यन्त समृद्धिशाली महाराज श्रेणिक, अपनी पत्नी चेलना के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार के सुखों का उपमांग करते हुए जीवन यापन कर रहे थे।
श्रेणिक के प्रश्न का वर्णन
एक बार अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामो समवशरण के साथ अनेक देशों में विहार करते हुए विपुलाचल के मस्तक पर पाकर विराजमान हुए। भगवान तीन छत्रों से सुशोभित थे। वे अपने उपदेशामत से भव्य जीवों के ताप हर लेते थे। उनके साथ गौतम गणधर आदि अनेक मुनियों का विस्तृत समुदाय था। साथ ही सुरेन्द्र नागेन्द्र खगेन्द्र आदि उनकी पादबन्दना कर रहे थे । भगवान के पुण्य के महात्म्य से हिंसक जीव भी अपना अपना वैर भाव छोड़कर परस्पर प्रेम करने लग गये थे। भगवान के आगमन से पर्वत की छटा निराली हो गयी। वृक्ष फल फूलों से सुशोभित हो गए। उन वृक्षों से एक प्रकार की मीठी सुगन्धि फैलने लगी। वे सब कल्पवृक्ष बसे सुन्दर दीखने लगे। भगवान महावीर स्वामी को देखकर माली चकित हो गया। उसने बड़ी भक्ति के साथ भगवान को नमस्कार किया। इसके पश्चात् यह सब ऋतुओं के फल पुष्प लेकर महाराज श्रेणिक के राजद्वार पर जा पहुंचा। वहां पहुंचकर मालो ने द्वारपाल से निवेदन किया कि तू महाराज को सूचना दे पा कि उद्यान का माली आपकी सेवा में उपस्थित होना चाहता है । द्वारपाल ने जाकर महाराज से निवेदन किया कि आपके उद्यान का माली अापसे मिलने की आज्ञा मांग रहा है। महाराज ने माली को लाने के लिए तत्काल प्राज्ञा दी। यथा समय माली महाराज के सम्मुख पहुंचा । महाराज सिंहासन पर बैठे हुए थे। माली ने हाथ जोड़े और फल-पुरुप समर्पित कर सिर झकाया असमय में फल फूलों को देख कर महाराज को प्रसन्नता का ठिकाना न रहा । वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने तत्काल ही माली से पूछा-ये पुष्प तुम्हें कहां प्राप्त हुए हैं। उत्तर देते हुए माली ने बड़े विनम्र शब्दों में कहा-महाराज। विपूलाचल पर इन्द्रादि द्वारा पूज्य श्री महावीर स्वामी का प्रागमन हुआ है। उनके प्रभाव का ही यह फल है कि वृक्ष असमय में ही फल-फलों से लद गये हैं। अभी माली की बात समाप्त भी नहीं हो पायी थी कि महाराज सिंहासन से उठकर खड़े हो गये और विपलाचल पर्वत की दिशा की ओर सात पग चलकर भगवान महावीर स्वामी को उन्होंने प्रणाम किया। इसके बाद पुनः सिंहासन पर विराजमान हो गये। महाराज ने प्रसन्नता के साथ वस्त्राभूषणों से माली का सत्कार किया। यह ठीक ही है, ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो भगवान के पधारने पर सन्तुष्ट न हो।
महाराज ने श्री महावीर स्वामी के दर्शनार्थ चलने के लिए नगर में भेरी बजवा दी। नगर के सभी भव्यलोग: चलने के लिए प्रस्तुत हुए। श्रेणिक अपनी प्रिया चेलना के साथ हाथी पर सवार हो प्रसन्नता पूर्वक भगवान के दर्शन के लिए चले । सब लोग महाबीर स्वामी के शुभ समवशरण में जा पहुंचे। महाराज श्रेणिक ने मोक्षरूपी अनन्त सुख प्रदान करने वाली भगवान की स्तुति प्रारम्भ की-हे भगवान । अाप परम पवित्र हैं, अतएव आपकी जय हो। आप संसार-सागर से पार करने वाले हैं, अतः आपकी जय हो। आप सबके हितैषी हैं, प्रतएव आपकी जय हो। ग्राप सुख के समुद्र हैं, अतः आपको जय हो। हे परमेष्ठिन । पाप समस्त संसारी जीबों के परम मित्र हैं, आप संसार रूपी महासागर से पार उतारने के लिए जहाज के तुल्य हैं, अतएव मोक्षा प्रदान कराने वाले भगवान, अापको बारम्बार नमस्कार है। पाप गुणों के भंडार हैं.
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और संसार की माया से भयभीत हैं। ग्राप कर्मरूपी शत्रुनों के संहारक हैं और विषयी विष को दूर करने वाले हैं, अतएव आपको नमस्कार है। हे गुणों के श्रागार हे भगवन है मुनियों में श्रेष्ठ जिनराज भाप कवियों की वाणी से भी परे हैं, आपके सद्गुणों का वर्णन करना सरस्वती की शक्ति के बाहर की बात है। इस प्रकार भगवान की स्तुति कर महाराज कि गौतम गणधर आदि अन्यान्य मुनियों को नमस्कार कर मनुष्यों के कोठे में बैठ गये। थोड़ी देर बाद भगवान महावीर स्वामी ने भव्य जीवों को प्रबुद्ध करने के लिए मनोहर धर्मोपदेश देना बारम्भ किया
मुनि और बावकों के धर्म में दो भेद हैं सुनिधर्म मोक्ष का साधन होता है मीर श्रावक धर्म से स्वर्गसुख की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यग्वारित्र के भेद से मोक्षमार्ग तीन प्रकार का होता है अर्थात् तीनों का समुदाय ही मोक्ष है उनमें सम्यग्दर्शन उसे कहते हैं, जिनमें जीव अजीब आदि सातों तत्वों का यथार्थ श्रद्धान किया जाता हो। वह भी दो प्रकार का होता है— एक निसगंज- बिना उपदेशादि के, श्रीर दूसरा अधिगमज अर्थात् उपदेशादि द्वारा इन दोनों के भी औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक भेव से तीन भेद और कहे गये हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व इन सप्त प्रकृतियों के उपशम होने से चौपामिक सम्यग्दर्शन प्रकट होता है और सातों प्रकृतियों के क्षय होने से क्षायिक सम्यग्दर्शन प्रकट होता है और पूर्व की प्रकृतियों के उदाभावी होने तथा उन्हीं सत्तावस्थित प्रकृतियों के उपशम होने से एवं सम्यक मिध्यात्व प्रकृति के उदय होने से क्षायोपशनिक सम्यग्दर्शन होता है। पदार्थों के सत्य ज्ञान को सम्यान कहते हैं वह सम्यक्ज्ञान मति, भूत, अवधि मनः पर्यय और केवल ज्ञान के भेद से पांच प्रकार का होता है। जैन शास्त्रों के सिद्धान्त के अनुसार पाप रूप कियाओं के त्याग को सम्यग्वारि कहते हैं। वह पांच महाव्रत, पांच समिति पर तीन गुप्त भेद से तेरह प्रकार का होता है। अठारह दोषों से रहित सर्वज्ञदेव में श्रद्धान करना, महिसारूप धर्म में ज्ञान करना एवं परिग्रह रहित गुरु में श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । संवेग, निर्वेद, निंदा, गहू, शम, भक्ति, वात्सल्य और कृपा ये आठ सम्यग्दर्शन के गुण हैं। भूख, ग्यास, बुढ़ापा, द्वेष, निद्रा, भय, क्रोध, राग, श्राश्चर्य, मद, विषाद, पसीना, जन्म, मरण, खेद, मोह, चिन्ता, रति ये मठारह दोष है। सर्वज्ञ देव इन दोषों से सर्वथा रहित होते हैं। माठ मद, तीन मृढ़ता, छः अनायतन और शंका कांक्षा आदि माठ दोष मिलकर सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष है चूत, मांस, मय, वेश्या, परस्त्री, चोरी और शिकार ये सप्त व्यसन हैं । बुद्धिमानों को इनका भी त्याग कर देना चाहिए। मद्य, मांस, मधु के त्याग और पंच उदम्बरों के त्याग से पाठ मूलगुण हैं। प्रत्येक गृहस्थ के लिए इन मूल गुणों का पालन करना बहुत ही यावश्यक है। मद्य का स्पाय करने वाले को छाछ मिले हुए दूध, बासी वही, यादि का भी त्याग कर देना चाहिए। इसी प्रकार मांस का त्याग करने वाले के लिए चमड़े में रखा हुआ घी, तेल, पुष्प, शाक मक्खन, कंद मूल श्रीरघुना हुआ अन्न कदापि नहीं खाना चाहिए। धर्मात्मा लोगों के लिए बैगन, सूरन, हींग, अदरक और बिना छना हुआ जल भी त्याज्य है। घशात फलों को तो सर्वथा त्याग कर ही देना चाहिए। ऐसे ही बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वे मधु का परित्याग कर दें। कारण शहद निकालते समय अनेक जीवों का घात होता है। उसमें मक्खियों का रुधिर और मैला मिला हुआ होता है। इसलिए वह लोक में निन्दनीय हैं। इसके अतिरिक्त धावकों को दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्त त्याग, रात्रिभुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग, और उद्दिष्ट त्याग इन ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करना चाहिए । महिसा तो अणुव्रत, ब्रह्मचर्य अणुक्त परिग्रह परिमाणु प्रणुव्रत कहलाते हैं। श्रावकों को उचित है कि इनका भी पालन करें।
दिवस देश और धनदण्ड त ये तीन गुणदत हैं। श्रावकाचार को जानने वाले धानक इनका उत्तम रीति से पालन करें। छः प्रकार के जीवों पर कृपा करना, पंचेन्द्रियों को वश में करना एवं रौद्र ध्यान तथा भाई ध्यान के त्याग कर देने को सामायिक कहते हैं सामायिक का पालन नियमित रूप से धावकों के लिए अनिवार्य होता है । अष्टमी, चौदश के दिन प्रोषघोपवास अत्यन्त आवश्यक है । प्रोषधोपवास के भी तीन भेद माने गये हैं— उत्तम मध्यम और जघन्य केसर चन्दन आदि पदार्थों के लेपन को भोग कहते हैं और वस्त्राभूषणादि को उपयोग इन दोनों की संख्या मियत करनी चाहिए। इसको भोगोपभोगपरिमाणव्रत कहते हैं। श्रावकों के लिए यह भी आवश्यक है। शास्त्रदान मौदान, अभयवान और माहारदान ये चार प्रकार के दान हैं। प्रत्येक गृहस्थ को चाहिए कि वे अपनी शक्ति के अनुसार इन दोनों को गृह त्यागी मुनियों को दे वाह्य और अभ्यन्तर के भेद से शुद्ध सपचर दो प्रकार के होते हैं। इन्हें सत्व ज्ञानियों को अपने कर्म नष्ट करने के लिए उपयोग में लाना चाहिए।
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इस प्रकार के धर्मोपदेश को सुनकर महाराज श्रेणिक को अत्यन्त प्रसन्नता हुई । सत्य ही है-अमृत के घड़े को प्राप्ति से कौन संतुष्ट नहीं होता । अर्थात् सभी सन्तुष्ट होते हैं। पश्चात् महाराज श्रेणिक गणधरों के प्रभु स्वामी सर्वज्ञ देव को नस्कार कर खड़े हो गये और भगवान से गौतम गणधर के पूर्व वृत्तान्त पूछने लगे--भगवान ! ये गौतम स्वामी कौन हैं ? किस पर्याय से यहां आकर इन्होंने जन्म धारण किया है। इन्हें किस कर्म से ये लब्धियां प्राप्त हुई हैं। ये सब क्रमानुसार मुझे बतलाइये । आपके निर्मल वचनों से मेरा सारा सन्देह दूर हो जायगा । आपके वचन रूपी सूर्य के समक्ष मेरे संदेहरूपी अन्धकार का नाश हो जाना निश्चित है।
धर्म के प्रभाव से उच्च कुल की प्राप्ति और मिष्ट वचनों की प्राप्ति होती है। उस पर सबका प्रेम होता है । वह सौभाग्यशाली होता है और उत्तम पद को प्राप्त होता है। उसे सर्वांग सुन्दर स्त्रियां प्राप्त होती हैं और स्वर्ग को प्राप्ति होती है। उसे उत्तम बुद्धि, यश, लक्ष्मी और मोक्ष तक प्राप्त होते हैं । अतः श्रेणिक ने जैन धर्म में निष्ठा कर अपनी सद्बुद्धि का परिचय दिया।
द्वितीय अधिकार
भगवान जिनेन्द्र देव में अपने शुभ वचनों के द्वारा संसार के दूषित मल का प्रक्षालन करते हुए कहा-धणिक! तु निश्चिन्तता पूर्वक श्रवण कर । मैं पाप और पुण्य दोनों से प्रकट होने वाले श्री गौतम गणधर स्वामी के पूर्व भवों का वर्णन करता है। भरत क्षेत्र में अनेक देशों से सुशोभित, अत्यन्त रमणीय अवंती नाम का एक देश है। उस देश में मुनिराजों द्वारा एकत्रित किये हुए यश के समूह की तरह विशाल तथा ऊँचे श्वेतवर्ण के जिनालय शोभित थे । वहां पथिकों को इच्छित फल, फल प्रदान करने वाली वृक्ष पंक्तियां सुशोभित हो रही थीं। वहां समय पर मेघों, द्वारा सींचे हुए खेत, सब प्रकार की सम्पत्ति, फल फूल से लदे हुए थे। उस देश में पुष्पपुर नाम का एक नगर था। वह नगर ऊँचे कोट से घिरा हुमा, सुन्दर उद्यानों से सुशोभित नन्दन बन को भी लज्जित कर रहा था। वहां के देव-मन्दिर जिनालय और ऊँचे-ऊँचे राजमहल अपनी शुभ्र छटा से हंसते हुए जान पड़ते थे । वहाँ के अधिवासी जैन धर्म के अनुयायी थे। वे धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाले थे । वे दानी और बड़े यशस्वी थे। वहाँ की ललनाएं सुन्दर शीलवती, पुत्रवती, चतुर और सौभाग्यवती थीं। इसलिए वे कल्पलताओं की तरह सुशोभित होती थीं। नगर का राजा महीचन्द्र था जो दुसरा चन्द्रमा ही था । उसकी सुन्दरता अपूर्व यी। अनेक राजा तथा जन समुदाय बड़ी भक्ति के साथ उसकी सेवा कर रहे थे। इतना सब कुछ होते हुए भी उसके हृदय में अहंत देव के प्रति बड़ी भक्ति थी । बह धन का भोग करने वाला, दाता, शुभ कर्मों को सम्पन्न करने वाला, नीतिज्ञ और गुणी था । अतः वह महाराज भरत के समान जान पड़ता था। दुष्टों के लिए वह काल के समान और सज्जनों का प्रतिपालक था। राजा महीचन्द्र राजविद्या और बुद्धि विद्या दोनों में निपुण था । राजा की सुन्दरी नाम की रानी थो । वह अत्यन्त गुणवती, रूपवती, पतिव्रता और अनेक गुणों से सुशोभित थी । वह राजा सुन्दरी के साथ राज्य सामग्री का उपयोग करते हुए पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार प्रादि करते हुए सुख पूर्वक समय व्यतीत कर रहा था।
उस नगर के बाहर एक दिन अंगभूपण नाम के मुनिराज का प्रागमन हुआ। वे आम के पेड़ के नीचे एक शिला पर आसन लगा कर बैठ गए। उनके साथ चारों प्रकार का संघ था । वे अवधिज्ञानधारी सम्यग्दर्शन से विभूषित थे। कामरूपी शत्रयों को मर्दन करने वाले थे और सम्यक् चारित्र के आचरण करने में सदा तत्पर थे । तपश्चरण से उनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया था । क्रोध, कषाय, मान रूपी महापर्वत को चूर करने के लिए वे वज के समान तीक्ष्ण थे। मोहरूपी हाथी के लिए सिंह के समान तथा इन्द्रिय रूपी मल्लों को परास्त करने वाले । इसके अतिरिक्त परिषहों को जीतने वाले सर्वोत्तम
और छः प्रावश्यकों में सुशोभित थे । वे मूलगुणों और उत्तर गुणों को धारण करने वाले थे। राजा महीचन्द्र को जब यह बात मालम हुई कि नगर के बाहर मुनिराज का आगमन हुआ है, तब वह अपनी रानी और नगर निवासियों को लेकर उनके दर्शन के लिए चला। वहां पहुंचने पर राजा ने जल चन्दन आदि पाठ द्रव्यों से मुनिराज के चरण कमलों की पूजा की। इसके बाद
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बड़ी विनम्रता के साथ उनकी स्तुति कर नमस्कार किया । पुनः उनरो धर्मवृद्धि का प्राशीर्वाद प्राप्त कर उनके समीप ही बैठ गया। उस वन में लोगों का बड़ा समुदाय देख अत्यन्त कुरूपा तीन चूद्र की कन्यायें जो कहीं जा रही थी, आकर बैठ गयीं इसके बाद मुनिराज ने राजा महीचन्द्र और जन समुदाय के लिए भगवान जिनेन्द्र की वाणी से प्रकट हुमा लोक कल्याण कारक धर्मोपदेश देना आरम्भ किया । वे कहने लगे-- देव, शास्त्र और गुरु की सेवा करने से धर्म की उत्पत्ति होती है । एकोन्द्रिय और द्वय इन्द्रिय आदि समस्त प्राणियों की रक्षा करने से धर्म उत्पन्न होता है । जीवों के उपकार रो धर्म उत्पन्न होता है और धर्म के मार्गों को प्रदर्शित करने से सर्वोत्तम धर्म प्रकट होता है। मन, वचन, कायकी शुद्धता पूर्वक सम्यग्दर्शन के पालन करने, व्रतों के धारण करने तथा मद्य मांस मधु त्याग करने से धर्म की अभिवृद्धि होती है। पांचों इन्द्रियों को वश में करने तथा अपनी शक्ति के अनुसार दान करने से धर्म की अभिवद्धि होती है। ऐसे अन्य भी बहत से उपाय हैं, जिनसे जैन धर्म की बद्धि होती है और लोक तथा परलोक में सांसारिक जीवों को उत्तम सुख प्राप्त होता है। फल यह होता है कि धर्म के प्रभाव से मानव जाति को शुद्ध रत्नत्रय की प्राप्ति होती है। रत्नत्रय के प्राप्त होने के बाद मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। यह धर्मरूपी कल्पवृक्ष इच्छा के अनुसार फल देने वाला, हर्ष उत्पन्न करने वाला एवं सौभाग्यशाली बनाने वाला है। इससे कान्ति, यश सभी प्राप्त होते हैं। अपने पुण्य के प्रभाव से भरत क्षेत्र के छः खण्डों की भूमि, नवनिधि, चौदह रत्न और अनेक राजाओं से सुशोभित चक्रवर्ती की विभूति प्राप्त होती है। उसी पुण्य की महिमा से मनुष्य देवांगनाओं के समान रूपवती और अनेक गुणों से सुशोभित ऐसी अनेक स्त्रियों का उपभोग करते हैं। यही नहीं विद्वान, वीर और शोभाग्यशाली पुत्र भी पुण्य के प्रभाव से ही प्राप्त होते हैं । बड़े-बड़े राजा महाराजा तथा धनवान लोग—जो सोने के पात्र में भोजन करते हैं, वह भी पूण्य के प्रभाव के बिना नहीं प्राप्त होता। राजन् ! शरीर का स्वस्थ रहना, उत्तम कुल में जन्म ग्रहण करना, बड़ी आयु को प्राप्त करना तथा सुन्दर रूप का मिलना ये सब पुण्य के प्रभाव हैं । इसे धर्म का ही फल' समझना चाहिए। यह भी स्मरण रहे कि देव, शास्त्र और गुरु की निन्दा से पाप उत्पन्न होता है तथा सम्यग्दर्शन व्रत आदि नियमों को भंग करने से महान पाप का भागी बनना पड़ता है। सातों व्यसनों के सेवन से भी भारी पाप लगता है। पंचेन्द्रियों के विषयों के सेवन से भी पाप लगता है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों के संयोग से अन्य जीवों को पीड़ा पहुँचाने से और निन्ध आचरणों के व्यवहार से पाप उत्पन्न होता है। पर स्त्री सेवन से, दूसरे के धन अपहरण से, किसी की धरोहर को लेने से कठिन पाप होता है, अर्थात महापाप लगता है। जीवों की हिंसा करने झट बोलने, अधिक परिग्रह की इच्छा रखने और किसी के कर्म में विघ्न उपस्थित करने से भी पाप का भागी होना पड़ता है। मद्य, मांस, मधु भक्षण और हरे कन्द-मूल आदि पदार्थों के भक्षण से भी पाप लगता है। बिना छाने हुए जल के सेवन से भी बड़ा पाप लगता है कुत्ता, बिल्ली आदि दुष्ट जीवों के पालन-पोषण से भी पाप का भागी बनना पड़ता है। इस प्रकार के पाप कर्म के उदय से ये जीव कुरूप, लंगड़े, काने, टौटे, बौने, अन्धे, कम आयु वाले, अगोंपांग रहित तथा मुर्ख उत्पन्न होते हैं। पाप कर्म के उदय से ही दरिद्री नीच अनेक शारीरिक व्याधियों से पीड़ित और दु:खी उत्पन्न होते हैं। जीवों के अपयश बढ़ाने वाले लम्पट दुराचारी तथा नित्य कलह करने वाले पुत्र का उत्पन्न होना भी पाप का ही कारण है। अक्सर पाप कर्म से ही स्त्रियाँ काली, कल्टी तथा दुर्वचन कहने वाली मिलती हैं । साथ ही पाप कर्म से ही लोगों को भीख मांगने के लिए विवश होना पडता है। यहां तक कि उन्हें स्वादहीन मिट्टी के बर्तन में रखा हुआ भोजन करना पड़ता है। प्रतएव राजन् ! इस संसार की जितनी दुःख प्रदान करने वाली वस्तुएं हैं, वे सब की सब पाप कर्मों के उदय से ही प्राप्त होती हैं। संसार में जो कुछ भी बरा है, उसे पाप का ही फल समझना चाहिए । मुनिराज ने इस प्रकार पुण्य और पाप के फल कह सुनाए । महिचन्द्र को अपूर्व संतोष नया। इधर राजा ने तीनों कुरूपा कन्याओं को देखा । बे दोन स्वभाव की, दुखी और मात-पिता भाई प्रादि से रहित थीं। उन्हें देखकर राजा का हृदय दयापूर्ण हो गया। उनके नेत्र खिल उठे तथा मन प्रसन्न हो गया। इस प्रकार का परिवर्तन देख कर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ । वे सद्भाव के साथ उन्ह देखने लगे। इसके पश्चात् उन्होंने मुनिराज की स्तुति कर पूछाभगवन् ! इन कुरूपा कन्याओं को देख मेरे हृदय में प्रेम के भाव क्यों अंकुरित हो रहे हैं। उत्तर में मुनिराज कहने लगेराजन् ! इस स्थल पर प्रेम उत्पन्न होने का कारण पूर्व-भव का सम्बन्ध है । मैं बतलाता हूँ। ध्यान देकर श्रवण करो।
भरत क्षेत्र में ही काशी नाम का एक सुविस्तृत देश है । वह तीर्थंकरों के पंच-कल्याणकों से सुशोभित है। वहां के नगर ग्राम और पत्तन की शोभा अपूर्व है। वह रत्नों की खान के नाम से प्रसिद्ध है। उसी देश में बनारस नाम का एक अत्यन्त मनोहर नगर है। वह इतना सुन्दर है कि मानों विधि ने अलका नगरी को जीतने के लिए ही उसका निर्माण किया हो। आकाशको स्पर्श करने वाले उसके चारों ओर सुविशाल कोट हैं। कोट की ऊंचाई इतनी ऊंची है, जिससे प्रतीत होता है कि क्रोध करने पर वह सर्य के तेज और बादलों के समूह को भी रोक सकती हैं। कोट के चारों ओर खाई थी, जिसे देखकर शत्रयों के छक्के
समूह को भी रोक सकता इतनी ऊंची है, जिनमाण किया हो।
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छुट जाते थे। वह खाई निर्मल और गम्भीर जल से परिपूर्ण थी । इसलिए वह एक सुपर कवि की कविता के समान सुशोभित थी। वहां के जिनालय अपनी फहराती हई शुभ्र ध्वजा से भन्य जीवों को पवित्र करने के उद्देश्य से बुला रहे थे । वहां के मकानों की पंक्तियां ऊंची और भव्य थीं। उन पर तरह-तरह के चित्र बने हुए थे। वे बर्फ और चन्द्रमा की तरह शुभ्र थीं। इसीलिए दर्शनीय थीं। उन्हें देखकर यही प्रतीत होता था कि मुक्ता को सुन्दर मूर्तियां प्रस्तुत की गयी हो । वहां के मनुष्य स्वभाव से ही दान करने वाले थे। वे भगवान जिनेन्द्र देव की सेवा में संलग्न रहने वाले थे। परोपकार, धर्मकार्य में उनके आचरण अनकरणीय ये। वहां की स्त्रियों का तो कहना ही क्या ? वे देवांगनाओं को भी रूप में परास्त करती थीं। वे सौभाग्यवती गुणवती पति प्रेम में रादा तत्पर रहने वाली थीं। वहां के बाजार भी अपनी अपूर्व विशेषता रखते थे। दुकानों की पंक्तियां इतनी सन्दरता साथ निमित की गयी थी कि उन्हें देखते रहने की इच्छा होती थी। वह नगर सोने चांदी रत्न और अन्नादि से सर्वथा भरपर था । संध्या के बाद से वहां की स्त्रियां ऐसे मधुर स्वर में गाने लगती घों कि प्राकारा मार्ग में जाते हुए चन्द्रमा को भी उनके लालित्य पर मुग्ध होकर कुछ देर के लिए रुक जाना पड़ता था। इस प्रकार वे चन्द्रमा को भी रोक लेने में समर्थ थीं। रात्रि काल में अपने इच्छित स्थान को गमन करने वाली वेश्याए भी चंचल नदो की भाति लहराती हुई देख पड़ती थों। बावड़ियों से जल भरने वाली पनिहारियां भी क्रीड़ा करती हुई नजर आती थीं। कमलों की मुगन्धि से भ्रमण करते हुए भीरे उन्हें दुखी कर रहे थे। उनकी जलक्रीड़ा से उनके शरीर से जो केसर घुलकर निकल रही थी, उससे भॊरों के शरीर पीले पड़ रहे थे। और उन्हों सरोवरों में कामो पुरुष अपनी रमणियों के साथ जल क्रीड़ा कर रहे थे । नगर की दूसरी ओर खलिहानों में अनाज की राशियां सुशोभित हो रही थीं। वे राशियां किसानों को ग्रानन्द देने वाली थीं वहां के खेतों की विशेषता थी कि वे हर प्रकार के पदार्थ उत्पन्न करते रहते थे। सड़क के दोनों किनारों पर सघन पेड़ों की सुन्दर पंक्तियां लगी हुई थी, जिनकी सुशीतल छाया में श्रान्त पथिक लोग विधाम किया करते थे। उन वृक्षों की डालियां फलों के भार से नत हो रही थीं। नगर के चारों प्रोर मटर और विशाल उद्यान थे, जहां की लताए पुष्प और फलों से सुशोभित थीं । वे लतार मनोहर सरस एवं विलासिनी स्त्रियों के समान सुशोभित थीं।
उस नगर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि, वहां कोई रोगी नहीं था । यदि सरोग था तो राजहंस ही। वहां ताडन का तो नाम नहीं था। हां कपास का ताड़न होता था और उससे रुई निकाली जाती थी। वहां किसी के पतन की भी संभावना नहीं थी।यदि पतन था तो वृक्षों के पत्तों का, क्योंकि वही ऊपर से नीचे गिरते थे। बन्धन भी कशपाशों का ही होता था। वे ही बड़ी सतर्तकता से बांधे जाते थे । वहां दण्ड, ध्वजारों में ही था और किसो को दण्ड नहीं दिया जाता था। भंग भी कवियों के रचे हए छन्दों तक ही सीमित था और किसी का भंग नहीं होता था । हरण स्त्रियों के हृदय में ही था और किसी का हरण नहीं किया जाता था । स्त्रियां ही पुरुषों के हृदय का हरण कर लेती थीं । वहां भय भी नवोढ़ा स्त्रियों को ही होता और कोई भयभीत नहीं होता था। इस नगर के राजा का नाम विश्वलोचन था । वह शत्रु समुदाय के लिए सिंह के समान था और उसकी कांति सर्य को भी परास्त करने वाली थी । वह याचकों को इच्छा के अनुसार दान दिया करता था। अतएव वह मनको उत्कट भावनात्रों को पूर्ण करने वाले करपवक्षों को भी सदा जीतता रहता था। संभवत: विधाता ने इन्द्र से प्रभुत्व लेकर कबेर से धन और चन्द्रमा से शीलता और सुन्दरता लेकर उसका निर्माण किया था। उसके अंग प्रत्यंग ऐसे बने थे, मानों सांचे में डाले हों। जिस प्रकार हरिण सिंह के भय से जंगल का परित्याग कर देता है, उसी प्रकार विश्वजीत के महाप्रताप को देखकर उसके शत्र अपनी प्राण-रक्षा के लिए देश का त्याग कर देते थे । उसका विस्तृत ललाट ऐसा मनोरम प्रतीत होता था, मानों विधि में अपने लिखने के लिए ही उसे बनाया हो । उसके भुजा' रूपी दण्ड सुन्दर और जांघ तक लम्बे थे। वे ऐसे प्रतीत होते थे. जैसे शत्रयों को बांधने के लिए नागपाश हों । उसका सुविस्तृत वक्षस्थल देवांगनाओं को भी मोहित कर लेता था और लक्ष्मीका क्रीडास्थल जान पड़ता था । समुद्रों को धारण करने वाली गंभीर पृथ्वी की तरह उसकी विमल वृद्धि चारों प्रकार की को धारण करने वाली थी । उसकी अत्यन्त उज्जबल और निर्मल कीति सुदूर देशों तक फैली हई थी। विश्वजीत राजाको प्रधान मंत्री सुन्दर देश, किले खजाने, और सेनाएं ग्रादि सब कुछ थे। प्रभाव उत्साह प्रादि तीनों शक्यिां विद्यमान थीं। इसके अतिरिक्त संधि विग्रह, यान प्रासनद्वेधा पाश्रय आदि छ: गुण थे इसीलिए वह राजा शत्रुनों के लिए अजेय हो रहा था। वह विश्व के सभी राजामों में श्रेष्ठ गिना जाता था । नीति निपुण रूपवान मिष्टभाषी और प्रजा हितैषी था। उसके सिंहासन रोहण के बाद से ही राज्य की सारी प्रजा सूखी धर्मात्मा और दानी हो गयी थी।
राजा की विशालाक्षी नाम की पत्नी थी, जो अत्यन्त रूपवती और प्रेम की प्रतिमूर्ति थी। बह इन्द्राणी, रति, नागस्त्री और देवांगनाओं जैसी रूपवती जान पड़ती थी। रानी की गति मदोन्मत्त हाथियों की तरह थी। इसकी अंगुलियों के बीसों
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नख द्वितीया के चन्द्रमा के समान बड़े ही मनोहर और भव्य जान पड़ते थे। उसको जांध केले के स्तंभ को तरह सुकोमल और कामोद्दीपक थी। वह रानी अपने मनोरम करिप्रदेश की सुन्दरता से सिंह के कटि प्रदेश की शोभा को हरण कर लेती थी। यदि ऐसान होता तो सिंह को गुफाओं की शरण नहीं लेनी पड़ती। उसी नदी गोल, नोहर गवं गम्भीर थी। वह काम रस (जल) से भरी हुई चायिका की भांति प्रतीत होती थीं। उसके कूच बिल्य फल के समान कठोर थे। वह कामीजनों के हृदय को जीतने वाली थी। उन कुचों के मध्य रोम राशि ऐसी प्रतीत होती थी मानों दोनों के विरोध को दूर करने के लिए सीमा निर्धारित कर रही हो। रान के हाथों की दोनों हथेलियां लाल कोमल और सुन्दर थीं। उन पर मछली ध्वजा आदि के ग्राकर्षक चिह्न बने हुए थे । वह अपनी मुखाकृति से आकाश के चन्द्रमा को भी लज्जित करती थी। इसीलिए चन्द्रमा महादेवी को सेवा करने में लग गया था। रानी की नाक इतनी सुन्दर थी कि तोते की चोचों की सारी सुन्दरता जाती रही। तोते विचारे लज्जा से अवनत हो वन में जा पहुंचे थे। वह अपनी सुमघर वाणी से पिक की वाणी भी जीत चको थी। संभवतः यही कारण है कि कोयलों ने श्यामवर्ण धारण कर लिया है। उसके विशाल नेत्र हिरणी के नेत्रों को भी मात करते थे । यही कारण है कि हिरणियों ने अपना बसेरा दन में कर लिया है। रानी के दोनों कान मनोहर और वर्ण-भूषणों से शोभित हो रहे थे। उसकी भौहें कमान जैसी टेढ़ी और चंचल थीं, मानों वे कामरूपी योद्धाओं को परास्त करने के लिए धनुषवाण ही हों। रानो की सुगन्धित पुष्पों से गठी हुई केशराशि ऐसी सुन्दर जान पड़ती थी कि उसकी सुगन्धि के लोभ से सर्प ही आ गये हों। वह अपने कटाक्ष और हाव भाव से सुशोभित थी। अर्थात समस्त गुणों से भरपूर थी। उसके गुणों का वर्णन करने में कोई भी समर्थ नहीं है। वह बड़ी रूपवती और पति के स्ववश में करने के लिए औषधि के तुल्य थी। ऐसी परम सुन्दरी के साथ सुख उपभोग करता हुप्रा राजा जावनयापन कर रहा था। जिस प्रकार कामदेव रति के वश में रहता है, ठीक उसी प्रकार उस रानी ने अपने पति को प्रेमपाश में बांध लिया था। राजा विश्वलोचन को उस विशालाक्षी के स्पर्श, रूप, रस, गन्ध और शब्द से जो ऐहिक सुख उपलब्ध थे, उसे वही अनुभव कर सकता है, जिसे ऐसी सुन्दरी पत्नी मिलने का सौभाग्य प्राप्त हो ।
कुछ समय व्यतीत होने पर ऋतुराज बसंत का आगमन हुआ । स्वभाव से ही बसन्त ऋतु में तरुणों में कामोपभोग की लालसा प्रबल हो उठती है । समस्त वृक्ष फल-फलों से लद गए। उन पर पक्षियों का निवास हो गया। उस समय तरुण पुरुष भी अपनी कान्ता के साथ परस्पर संभोग के लिए उत्सुक हो गए। प्रम पूर्ण कामनियां उनके हृदयों में निवास करने लग गयीं। बसन्त की उन्मत्तता शील संयमादि धारण करने वाले मुनियों को भी विचलित करने से नहीं चूकती । कामरूपी योधा बसन्त, क्षीण शरीर वाले मुनियों तक के हृदयों में भी क्षोभ उत्पन्न कर रहा था। उसी समय राजा विश्वलोचन अपनी विशाल सेना और नगर निवासियों को साथ लेकर क्रीड़ा के लिए उस वनस्थलो में पहुंचा, जहां के वृक्ष लताओं से भरपूर हो रहे थे। वन में पहुँचकर राजा को हार्दिक प्रसन्नता हुई । वन की मनोहर सुन्दरता, वायु से चंचल लताओं के समह एवं चहकते हुए पक्षियों की सुमधुर ध्वनि से ऐसा प्रतीत होता था, मानो राजा विश्वलोचन के समक्ष वायुरूपी अप्सरा नत्य कर रही हो । यह लतारूपी अप्सरा पुप्पों रो सजी हुई थी। वृक्षों की पत्तियां उसके रमणीय केश से प्रतीत होती थी। फल स्तन थे। सादि पक्षियों की सुमधुर ध्वनि संगीत का भान करा रहे थे । वह वनस्थली सारी छटाको धारण किए हुए थी । मानव चित्त को चुराने वाली लतायें पुष्पहार जैसी सुशोभित थीं। वसंत के उन्मत्त भ्रमरों की झंकार उसके गीत थे, कोयलों को वाणी मदंग
और शुक की ध्वनि वीणा । छिद्रयुक्त बासों की आवाज सम और ताल का काम दे रही थी। इस प्रकार सारी वनस्थली लहलहा उठी थी, मानों अपने अतिथि महाराज का स्वागत कर रही हो।
प्रथम ही राजा ने आम के वृक्ष पर बैठे हुए दो स्त्री-पुरुष पिकों को देखा। वे परस्पर प्रेम-चुम्बन कर रहे थे। जिस स्त्री का सम्भोग सुख प्रदान करने वाला पति विदेश चला गया हो, वह भला बसंत के इस मधुमय समय में पिक की वाणी कैसे सहन कर सकती है। राजा वन के चारों ओर घूम-घूम कर पक्षियों के मनोहर कलरव सुनने लगे। कह। मालती, के सुगन्धित पुष्प देखे, कहीं पुष्प वृक्षों पर भ्रमरों का समूह क्रीड़ा करते हुए दिखायी दिया । इसी प्रकार किन्हीं स्थानों पर मुक मयूर नृत्य करते थे । स्थान-स्थान पर बन्दरों की विशाल क्रीड़ा हरिणों की लीला और पक्षियों के समुदाय देखे। राजा ने ग्राम के वृक्ष, अनार के बन और कहीं विजौर के फल देखे । स्त्री-पुरुषों की क्रीड़ा भी देखने लायक थी। कहीं कोई अपनी प्रिया को मना रहा है। कहीं स्त्री मान द्वारा पति को चिढ़ा रही है। कोई प्रेम में मत्त थी और कोई स्तन दिखाकर प्रेम प्रकट कर रही थी। किहीं स्थलों पर हरी घास थी, कही पृथिवी जल से भर रही थी और कहीं पर पाम के वृक्ष फलों से झक रहे थे । इन सारी शोभा को राजा ने बड़े चाव से देखा । पश्चात् वह अंगूर की लताओं के मंडप में पहुंचे और वहीं पंचेन्द्रियों की तृप्ति करने वाले सरस कामोपभोग एवं लीला पूर्वक ऐहिक स्पर्श से रानी को प्रसन्न करने लगे। इस प्रकार राजा कामोपभोग से प्रसन्न होकर रानी के
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साथ जल क्रीड़ा के लिए गये। जल क्रीड़ा करते समय सरोवर की छटा देखने लायक थी । शरीर की केसर घुल-धूल कर सरोवर के जल को पीला करने लगी और पुष्पों की सुगन्ध से वह सरोवर सुगन्धित हो गया । जब उनकी जल क्रीड़ा समाप्त हो गयी तो वे बड़े गाजे बाजे और स्त्रियों के मनोहर गीत के साथ अपने राज महल को लोटे।
संध्या हो चली। जिस कामी जनों के हृदय को रमणियों ने अपना लिया था, मानों उन पर दया करके ही सूर्य प्रस्त होने लगा। समस्त आकाश में लाली दोढ़ गयी। चारों ओर से पक्षियों के कोलाहल सुनाई देने लगे। आकाश में पूर्ण चन्द्रमा का उदय हआ। कुमुदिनी प्रफुल्लित हुई और संभोग करने वाली स्त्रियां अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं। राजा भी महल में प्राकर पुन: अपनो रानी के साथ आसक्त हो गये। सत्य ही है, स्त्रियां स्वभाव से हो मोहक होती हैं। साथ ही यदि रूपवती हों तो फिर पूछना ही क्या ? ऐसे ही सुख से समय व्यतीत करते हुए कितने दिन व्यतीत हो गये, राजा को तनिक भी खबर नहीं थी। वस्तुतः सुख का समय एक दिवस की तरह बीत जाता है और दुःख का एक दिवस मास की तरह प्रतीत होता है।
एक दिन की बात है। रानी प्रसन्नचित्त होकर चामरी और रंगिका नाम की दो दासियों के साथ अपने महल के झरोखे पर खड़ी हई बाहरी दृश्य देख रही थी। एक नाटक देखकर उसके हृदय में चंचलता उत्पन्न हो गयी । वह नाटक प्रानन्द बर्वक मनोहर और रसपर्ण था। उसमें अनेक, पात्र अपना अभिनय संपन कर रहे थे। भेरो, मदंग ताल, बीणा, बंशी, डमरू मांझादि अनेक प्रकार के बाजे बज रहे थे। वहां पुरुषों की भीड़ लगी हुई थी। वह नाटक ताल और लयों से सुन्दर था। उसमें स्त्री वेशधारी पुरुषों के नृत्य हो रहे थे। खेल तथा दृश्य के साथ पुरुषों के अंग विक्षेप पीर स्त्रियों के मान हो रहे थे। अर्थात वह नाटक सब के मन को प्रफुल्लित कर रहा था । ऐसे मनोमुग्धकारी अभिनय को देखकर रानी चंचल हो उठी। ठीक ही है, अपूर्व नाटक को देखकर कौन ऐसा हृदय होगा, जिसमें विकार न उत्पन्न होता हो। रानी सोचने लगी इस राज्योपभोग से मुझको क्या लाभ होता है । मैं एक अपराधी की भांति बन्दीखाने में पड़ी हुई हैं। वे स्त्रियां ही संसार में सुखी हैं जो स्वतन्त्रता पर्वक जहां कहीं भी विचरण कर सकती हैं । अवश्य यह पूर्व भव के पाप कर्मों के उदय का ही फल है कि मुझे उस अपूर्व सुख से वंचित होना पड़ा है। अतएव अब से मैं भी उन्हीं की तरह स्वतन्त्रता पूर्वक विचरण करने का प्रयत्न करूंगी और वह भी सदा के लिए। इस सम्बन्ध में लज्जा करना ठीक नहीं।
रानी की चिन्ता उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। किन्तु अपने मनोरथों को पूर्ण करने के लिए उसे कोई मार्ग नहीं सूझ पड़ा। पर एक उपाय उसे सझ पड़ा। उसने अपनी चतुर दासियों से कहा, दासियो! स्वतन्त्रता पूर्वक विचरण करना मानव जन्म को सार्थक करता है एवं काम जन्य भोगादि को प्राप्त कराने वाला होता है। अतएव प्रायो हम लोग स्वतन्त्रता पूर्वक धमने फिरने के उद्देश्य से बाहर निकल चलें । दासियों ने रानी के प्रस्ताव का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि......आपके विचार बहुत ही उत्तम हैं । वस्तुत: मानव जन्म सार्थक करने के लिए इससे बढ़ कर और दूसरा मार्ग नहीं है । इसके पश्चात् काम-वाण से दग्ध अत्यन्त विहल, विलास की कामना करने वाली, वह रानी पूर्वाजित पापों के उदय से दासियों को लेकर वर से बाहर निकलने का प्रयत्न करने लगी। वस्तुतः असत्य भाषण करना, दुर्बुद्धि होना कुटिल होना, और कपटाचार करना ये स्त्रियों के स्वभाविक दोष होते हैं। इन्हीं कारणों से उसने रूई भर कर एक स्त्री का पुतला बनाया और उसे वस्त्राभूषणों से खब सजाया। रानी ने उस पुतले की कमर में करधनी, पैरों में नपुर, सर में तिलक लगाये तथा उसे चन्दन से लिप्त कर फूलों से खब सजाया। उसके स्तनों पर कंचुको, मुख पर पत्तन रथा मोतियों की नथ पहना दी। रानी एक बार उस बने हुए पुतले को देखकर बही परान्न हुई। वह ठीक रानी की प्राकृति का ही बन गया था। पश्चात् रानो ने उस पृतले को चन्दन पादि साधित द्रव्यों से लिप्त और मोती आदि अनेक रत्नों से सुशोभित कर पलंग पर सुला दिया। उसने द्वारपाल प्रादि सब सेवकों
धन देकर अपने वश में कर लिया था। उसके पूर्वभव के पापों के उदय से ही उसकी ऐसी विचित्र वृद्धि हो गयो । वह किसी देवी की पजा व बहाने अपनी दो दासियों को साथ लेकर घर से बाहर निकली। उन तीनों ने अपने वस्त्राभूषण आदि राज्य निदों का सर्वथा परिरयाग कर दिया एवं गेरुया वस्त्र पहन कर योगिनी वेश में हो गयीं । वे राजमहल से चलकर सोधे वन में पोखी । उनका राजभवन में मिलने वाला सुन्दर भोजन तो छूट ही गया था, वे अपनी भूख की ज्वाला मिटाने के लिए वक्षों के फल खाने लगी। यहां विचारणीय है कि कहां तो रानी का पद और कहां पाज योगिनी का वेष । केवल पाप कर्मों के उदय से ही मनुष्य को अशुभ कर्मों की प्राप्ति होती है।
दूसरे दिन काम से पीड़ित राजा मणियों से सजाये हुए रानी के सुन्दर महल में जाने लगा उसने अन्यान्य परिजन वर्ग को महल के बाहर ही छोड़ दिया और स्वयं सुगन्धित पदर्थों से विलेपित महल के अन्दर जा पहुंचा । उस दिन रामी के
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उस सुन्दर पलंग को देख कर राजा को अपूर्व प्रसन्नता हुई। उसके रोम रोम पुलकित हो उठे और नेत्र तथा मुह प्रफुल्लित हो रहे थे। उसने मन ही मन विचार किया कि, मैं इन्द्र हूं और मेरी रानी साक्षात् शचि है अर्थात् इन्द्राणी है। आज यह राज भवन इन्द्र भवन सा शोभायमान हो रहा है। यह सुन्दर पलंग शचि की सजा है। इस प्रकार राजा का कोमल कामीहृदय प्रानन्द सागर में गोते लगाने लगा। फिर भी उसने विचार किया कि आज रानी मेरा सत्कार क्यों नहीं करती है। इसका कारण राजा की समझ में नहीं आ रहा था। उसने सोचा–संभवत: उसे कोई रोग अथवा मानसिक कष्ट तो नहीं हो गया है, अथवा मुझ से नाराज तो नहीं। ऐसी ही विकट चिन्ता से व्याकुल होकर राजा कहने लगा-रानी पाज न उठने का कारण शीघ्रता से बतला। इतना कहकर वह पलंग पर बैठ गया और अपने कोमल करों से उसने रानी का स्पर्ण किया। किन्तु उस कृत्रिम अचेतन विशालाक्षी के कुछ भी उत्तर न देने पर राजा समझ गया कि यह कृत्रिम रानी है, वस्तुत: महल में रानी नहीं है। रति के समान सुन्दरी विशालाक्षी का किसी अपार पापी ने हरण कर लिया ! राजा की गादुरता और बढ़ गयो । वह मूछित होकर भूमि पर गिर पड़ा । तत्काल ही सेवकों ने शीतोपचार किया, जिससे राजा की मुर्छा दूर हुई । राजा का हृदय प्रिय रानी के वियोग में व्याकुल हो रहा था। वह बच्चों की तरह विलाप करने लगा वह कहने लगा--हंस जैसी चाल चलने वाली, हे मगननी तु शीघ्रता पूर्वक बतला कहां है। हे गुणों का गौरव बढ़ाने वाली, मेरे हृदय रूपी धन को अपहरण करने बाली, हे विलासिनी तू कहां चली गई।
हे चन्द्र-बदनी सुन्दरी ! तेरी सेवा करने वाली दासियां कहां गयीं। साथ ही मेरे प्रति तेरा प्रेम कहां चला गया। संसार के माया मोह मुझे सुन्दर नहीं जान पड़ते । मेरी समझ में नहीं आता कि, जब इस महल में कोई नहीं पा सकता तो किस प्रकार तु अपहरित की गयो अथवा तु अपने आप ही कहीं चली गयी। क्या तु उस प्रकार से तो नण्ट नहीं हुई, जिस प्रकार बुरी संगति में पड़कर सज्जन पुरुष भी नष्ट हो जाते हैं। स्त्रियां अन्य पुरुषों को अपने यहां बुलाती हैं और किसी अन्य से प्रेम करती हैं एवं नियत समय किसी अन्य को बतला कर अन्य के साथ क्रीड़ा करती हैं । ये सब काम एक साथ ही सम्पन्न होते हैं । जैसा उनका बाहरी स्वरूप होता है बसा भीतरी नहीं होता। इसलिए स्त्रियों के चरित्र का भला कौन वर्णन कर सकता है । शोक से सातप्त राजा का हृदय व्याकुल होकर विचार करने लगा। किसी अभिप्राय, बक्रदृष्टि, बुरी संगति तथा एकांत की बातचीत से स्त्रियां नष्ट हो जाती हैं। राजा ने सोचा-मैंने तो किसी समय भी रानी को प्रसन्न नहीं किया । उसे पटरानी के पद पर बिठाया तथा समस्त रनवास में वह पूज्य समझी जाती थी। फिर उसके नष्ट होने का कोई कारण नहीं दीखता। जिस स्त्री के सदगणी और प्रजापालन में तत्पर १७ वर्ष का पुत्र हो, वह सुन्दरी उसे त्याग कर कैसे चली गयी, यह समझ में नहीं पाता अवश्य ही वह अपनो नीच दासियों को संगति में पड़कर भ्रष्ट हुई है । जब खेत का मेड़ ही उस खेत को खाने लगे तब भला उस खेत की रक्षा हो कैसे की जा सकती है। यह निश्चित है कि कुसंगति में पड़कर सज्जन भी नष्ट हुए बिना नहीं रह सकते । इस भांति अनेक मानसिक चिन्तामों से दुखी होकर राजा ने राज्य कार्य का सारा प्रबन्ध त्याग दिया। उसे राज्य-शासन से एक प्रकार की विरक्ति सी हो गयो। राजा की इस चिन्ता से अन्य सामन्त राजा और प्रजा भी दुखी थी । अनेक राजानों ने सममाया भी पर क्षण भर के लिए भी राजा का शोक कम नहीं हुआ। बात यह थी कि रानी उसके मनको हर ले गयी थी। राजा का वियोग दःख इतना बढ़ गया कि अन्त में उसने उसका प्राण लेकर ही छोड़ा । यह ठीक ही है, क्योंकि कौन सा पुरुष है जिसे स्त्री के वियोग में मरना नहीं पड़ता हो।
राजा की मत्यु हो जाने के पश्चात् उस ऐश्वर्यशाली राज्य शासन का भार उसके पुत्र को सौंपा गया। समस्त मंत्रियों और सामन्त राजाओं ने मिल कर राज्य तिलक की विधि सम्पन्न करायी।
उस राजा के मृत् जीव को अनेक बार संसार का चक्कर काटना पड़ा। इसी जन्म-मृत्यु के चक्कर में वह एक बार विशाल हाथो हुआ । वह हाथी अत्यन्त तेजस्वी और बड़ा ही मदोन्मत्त था। उसकी बिकराल अांखें लाल रंग की थीं। वह इतना उद्दण्ड था कि वन में स्त्री-पुरुषों की हत्या कर डालता था । उस हायी ने इस भव में महापाप का उपार्जन किया। कारण यह कि प्राणियों का घात करना जन्म-जन्म में दुःखदायी हुया करता है। किन्तु उस हाथी के पुण्य-कर्म के उदय से उस वन में किसी मुनिराज का आगमन हो गया। वे मुनि महाराज अवधिज्ञानी और सत्पुरुषों के लिए उत्तम धर्मोपदेशक थे। उनके द्वारा हाथी को धर्मोपदेश मिला। उसने बड़ी प्रसन्नता से श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिए। इसके बाद उस हाथो ने फल फूलादि किसी भी सचित पदार्थों का ग्रहण नहीं किया। अन्त में उसने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर समाधिमरण धारण कर लिया । मृत्यु के समय उसने भगवान महादेव का ध्यान किया, जिससे वह मर कर प्रथम स्वर्ग में देव हुआ।
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हे राजन ! वहां से चलकर तुम्हें राजा का उत्तम शरीर प्राप्त उन तीनों स्त्रियों की कथा कहता हूं । ध्यान देकर सुन
मागे तुझे भी मुक्ति की प्राप्ति होगी। अब
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बे तीनों बड़ी प्रसन्नता से स्वतन्त्रतापर्बक वन में दिन राणा करने लगी। इस प्रकार भ्रमण करते हुए वे अवन्ती देश में जा पहुंची । उनके साथ कंधा, खडाम, दण्ड और अन्य बहुत-सी योगिनियाँ थीं। उन्हें भिक्षा मांग-मांग कर अपना पेट पालना पड़ता था। यह भी सत्य ही है कि 'बभक्षितः किन करोति पापम्' भूखे मनुष्य कौन-सा पाप नहीं कर डालते अर्थात भूख की ज्वाला शान्त करने के लिए सब कुछ करना पड़ता है। वे सदा प्रमाद करने वाली वस्तुओं का सेवन करती थी। मद्य, मांस मादि उनके दैनिक आहार थे । इसके अतिरिक्त वे मधु एवं अनेक जीवों से भरे हुए उदुम्बरों तक का भक्षण करती थीं। उनकी कामवासना इतनी प्रवल हो उठी थी कि ऊंच-नीच का कुछ भी विचार न कर जो जहां मिलता, उसी के साथ संभोग करती थीं। यही नहीं वे सबके सामने ही ऐसी रागनियाँ गाया करती थीं, जिससे बोगियों को भी काम उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता था। वे यह भी कहा करती थी, कि हमें योग धारण किये १०० वर्ष से भी अधिक हो गये हैं।
शौभाग्यवश नगर में एक दिन धर्माचार्य नाम के मुनि का आगमन हुआ। वे केवल ग्राहार के लिए प्राय थे। मुनि महाराज मौन धारण किये हुए, पर्वत के समान अचल और इन्द्रियों को दमन करने वाले थे। उन्होंने अपने मन को वश में कर लिया था और शरीर से भी ममत्व का नाश हो गया था। कठिन तपश्चर्या से उनके शरीर की क्षीणता बढ़ चली थी। वे शोल संयम को धारण करने और चारित्र-पालन में अत्यन्त तत्पर रहा करते थे। उन्होंने समस्त कषायों का सर्वनाश कर दिया था। वे अपने धर्मोपदेश द्वारा अमृत की वारि वहाया करते थे । वे क्षमा के अवतार और संसारी जोवों पर दया की दृष्टि रखने वाले थे। मुनिराज कठिन दोपहरी में भी योग धारण किया करते थे। वे चोर और लम्पटों के पाप रूपी वृक्ष को काट डालने के लिए कूठारके समान तीक्ष्ण थे। उन्होंने समस्त परिग्रहों का सर्वथा परित्याग कर दिया था। उस समय वे ईर्या पथ की वद्धि से गमन कर रहे थे। उन्हें देखकर वे तीनों स्त्रियां क्रोध से लाल हो गयीं। उन्होंने मुनि को संबोधित करते हुए कहा-अरे नंगे फिरने वाले । तु मानमोहादि शुभकमों से सबंथा रहित है। न जाने हमारे किस पाप कर्म के उदय होने से तेरा साक्षात हा। इस समय हम उज्जैनी के महाराजा के यहां धन मांगने के उद्देश्य से जा रही थीं। वह राजा अत्यन्त धर्मात्मा पोर शत्रों को परास्त करने वाला है। तुने अपना नग्न रूप दिखलाकर अपशकुन कर दिया । तू सर्वथा बरा है अर्थात पापी है। इसलिए हमारे कार्यों की सिद्धि होना संभव नहीं। इस समय तो अभी दिन बाकी है और सभी वस्तुएं अच्छी तरह से दिखाई पड़ती है किन्त रात्रि होने पर हम लोग मार्ग में अपशकून करने का फल तुझं चखावेगी। फिर भी उन स्त्रियों के कठोर वचनों से मनिराज को जरा भी क्रोध नहीं हुआ, कारण वे दयालु स्वभाव के थे। मुनिराज ने इस घटना पर दृष्टिपात न कर बन में जाकर योग धारण कर लिया । वस्तुतः जल में अग्नि का बश नहीं चल सकता, ठीक उसी प्रकार योगियों के पवित्र दृश्य को क्रोध रूपी अग्नि नहीं जला सकती। रात्रि होने पर वे तोनों नीच स्त्रियां मुनि के समीप पहुंची और क्रोधित हो भांति-भांति के उपद्रव करने लगी। एक ने रोना प्रारम्भ किया और दूसरी उनसे लिपट गयी । इसके अतिरिक्त तीसरी धूमाकर मुनिराज को अनंक कष्ट देने लगी। सत्य है काम से पीड़ित व्यक्ति जितना अनर्थ करे वह थोड़ा है।
किन्तु इतने उपद्रव के होते हुए भी मुनिका स्थिर मन चलायमान नहीं हुआ। क्या प्रलय वायु के चलने पर महान मेरु पर्वत कभी चलायमान होता है ? इसके बाद वे दुष्ट स्त्रियां नंगी होकर मुनि के समक्ष नृत्य करने लगीं। वे काम से संतप्त स्त्रियां मनि से कहने लगीं-स्वतंत्र विचरण करने वालों के लिए परलोक में भी स्वतंत्रता प्राप्त होती है और इहलोक में भोग में लिप्त रहने से भोगों की सदैव प्राप्ति होती रहती है। किन्तु नग्न रहने से उसे नंगापन ही उपलब्ध होता है । अतएव तुम्हें चाहिए कि हमारी इच्छात्रों की पूर्ति करो। इस भोग की लालसा चक्रवर्ती, देवेन्द्र और नागेन्द्रों तक ने की है। संसार का सारा मख स्त्रियों की प्राप्ति में होता है । कारण वे इन्द्रिय जन्य सुख प्रदान करने वाली होती हैं। इसलिये जो व्यक्ति स्त्री-सुख से वचित है, उनका जन्म व्यर्थ है । सत्य मानों, यदि तूने हमारी इच्छा की पूर्ति नहीं की तो तेरा यह शरीर चण्डी के समक्ष रख दिया जायगा । इस प्रकार कुवाक्य कहती हुई उन स्त्रियों ने विकार रहित मुनिवर के शरीर को उठाकर चण्डी के समक्ष रख दिया। इसके पश्चात् उन सबों ने मुनिराज पर घोर उपसर्ग किये । पत्थर, लकड़ी, मुक्का, लात, जुते आदि से उनकी ताडना की ग्रोर अन्त में बांध दिया। उस समय मुनिराज ने बारह अनुप्रेक्षामों का चिन्तवन किया। अनुप्रेक्षा ही प्राणी को भवसागर से पार उतारने वाली है। वे विचार करने लगे कि, मानव शरीर क्षण भंगुर हैं, यह जीवन जल का व दबदा है और लक्ष्मी विद्यत की भांति चंचल है । जव भरत आदि चक्रवर्ती तक का जीवन नष्ट हो गया तो उस जीवन की क्या गिनती है ? बिना रहत देवकी शरण गहे इस ज व का निस्तार नहीं । इसलिए हे जीव, तू सदा अरहंत देव' का स्मरण किया कर। तुम्हारी यात्रा द्रव्य
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त्र, काल, भव, भाव, ये पांचों संसार में हो चुके हैं और अब भी तू बस-स्थाबर योनियों में भ्रमण कर रहा है। पर तुम्हारी यह असावधानी ठीक नहीं है । अव तुझे रत्नत्रय की प्राप्ति में अपना चित्त लगाना चाहिए, क्योंकि संसार का विनाश उसी
लत्रय की प्राप्ति से ही होता। आत्मन् ! तु अकेला ही कर्मों का कर्ता और सुख-दुख का भोक्ता है। तेरे सब भाई-बन्धु तुझ से भिन्न हैं । तुझे अकेला जा. ग्रहण करना पड़ता है और मरना पड़ता है। अतएव कर्म-कलंक से रहित सिद्ध परमेष्ठी के चरणों का निरंतर ध्यान कर । इस जीव की कर्म-क्रियानों और इन्द्रियजन्य विषयों में भी विभिन्नता है, फिर कुटुम्बी और भाई नन्ध तो सर्वथा जग दी । पाालान द लौकिक वस्तुओं से सर्वथा भिन्न है । संसार के सभी लौकिक ऐश्वर्य जड़वत है, किन्तु तु ज्ञान दर्शन और कर्म रहित शुद्ध जीव है। इसलिए प्रात्मा का ध्यान करना चाहिए। यह देख रक्त, मांस, रुधिर हड्डी, विष्ठा, मुत्र, चर्म वीर्य आदि महा अप पदार्थों से निर्मित है, किन्तु भगवान पंच परमेष्ठी इन दोषों से सर्वथा अलग है। अत: तू उन्हीं की आराधना कर । जैसे नाव में छिद्र हो जाने पर उसमें पानी भर जाता है, ठीक वैसे ही मिथ्यात्व अविरत कषाय और योगों से कर्मों का पासव होता रहता है और नाब की तरह यह भी संसार-सागर में डूब जाता है । अतएव कर्मों के प्रास्रव से सर्वथा मुक्त सिद्ध परमेष्ठी का स्मरण किया कर । मिथ्यात्व, अविरत, प्रादि का त्याग कर देने से एवं ध्यान चरित्र आदि धारण कर लेने से आने वाले समस्त कर्म रुक जाते हैं । उसे संवर कहा जाता है। उसी संवर के होने पर जीव मोक्ष का अधिकारी होता है। अत: हे जीव ! तुझे अपने शरीर का मोह त्याग कर शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा का स्मरण करना चाहिए । इस शरीर पर मोहित होना व्यर्थ है । तप और ध्यान में जिन पूर्व-कर्मों का विनाश करना हैं, उसे निर्जरा कहते हैं । बह दो प्रकार की होती हैं-एक भाव निर्जरा और दूसरी द्रव्य निर्जरा । ये दोनों निर्जरायें सविपाक और अविपाक के भेद से दो प्रकार की होती हैं। अतएव मोक्ष प्राप्ति के लिए जीब को सदा कर्मों की निर्जरा करते रहना चाहिए। यह लोक प्रकृत्रिम है। इसका निर्माण का कोई नहीं है। यह चौदह रज्जू ऊंचा और तीन सौ तैतालिस रज्जू बनाकार है। अतः इस लोक में जीव का भ्रमण करते रहना सर्वथा व्यर्थ है। कारण इस संसार में भव्य होना महान कठिन होता है, फिर मनुष्य, मार्य क्षेत्र में जन्म, योग्य काल में उत्पत्ति, योग्य, कूल, अच्छी आयु प्रादि की प्राप्ति सर्वथा दुर्लभ है और इनको प्राप्ति होने पर भी रत्नत्रय को प्राप्ति और भी कठिन है। इसलिए हे जीव ! तू इच्छा पूरक चिन्तामणि के समान सुख प्रदान करने वाले रत्नत्रय को पाकर क्यों समय को नष्ट कर रहा है। अपना कल्याण साधन कर । अहिंसा रूप यह धर्म एक प्रकार का है। मुनि श्रावक भेद से दो प्रकार, क्षमा मार्दव आदि से दश प्रकार, पांच महावत, पाँच समिति, तीन गुप्ति भेद से तेरह प्रकार एवं और ब्रतों के भेद से अनेक प्रकार का है। धर्म की कपा से ही प्रात्मा के परिणाम पवित्र होते हैं और उसी पवित्रता से प्रात्मा प्रबुद्ध होला है एवं प्रबुद्ध होने पर वह रत्नत्रय में स्थिर होने में समर्थ होता है। स्त्रियों द्वारा सताये हुए थे मुनिराज इस प्रकार की बारह अनुप्रेक्षानों पर विचार करने लगे। उन्हें स्त्रियों के उपद्रवका कुछ भो ज्ञान नहीं था । प्रातः काल होते ही वे स्त्रियां माने-जाने वाले लोगों के डर से भाग गयीं। किन्त कर्मों को विनष्ट करने वाले वे मुनिराज उसी प्रकार निश्चल रहे । उनके आत्मध्यान में किसी प्रकार का विक्षेप नहीं हुआ। इसके बाद वहां अनेक धावक एकत्रित हो गये। उन्होंने मन वचन काय से शुद्धतापूर्वक चन्दनादि अष्ट द्रव्यों से मुनिराज की पजा की। उनका शरीर तो क्षीण था हो, उस पर रात के उपद्रव से उनके सर्वांग में घाव ही हो रहे थे। उन्होंने मौन धारण कर लिया था। इन सब कारणों को देखकर उन सत्पुरुषों ने रात्रि का काण्ड समझ लिया। स्त्रियों के कटाक्ष भो सत्पुरुष को चलायमान नहीं कर सकते । क्या प्रलय की बायु मेरु को उड़ा सकती है, संभव नहीं। यद्यपि इस संसार में शेर को मारने वाले और हाथियों को बांधने वाले बहुत मिलगे, पर ऐसे बहुत कम मिलेंगे जिनका चित्त स्त्रियों में न रमा हो । उन दुष्ट स्त्रियों ने मनिराज पर घोर उपसर्ग किये थे, इसलिए उन्हें महापाप का बन्ध हुया । वे पाप कर्म के उदय से कुष्ट रोग से प्रसिद्ध हुई । उन तीनों की बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी। वे सदा पाप कर्म में रत रहती थीं और लोग सदा उनको निन्दा किया करते थे। वे तीनों महादुखी रहती थीं। आयु की समाप्ति होने पर रौद्र ध्यान से उनकी मृत्यु हुई इन सब पाप कर्मों के उदय से वे पांचवें नरक में गयीं। उन्हें पांचों प्रकार के दुःख सहन करने पड़े । उनको कृष्ण लेश्या थी। उन्हें बन्धन' छेदन, कदर्थन, पीड़न, तापन, ताड़न शादि के दःख सहन करने पड़ते थे। उष्ण वायु तथा सर्द वायु सदा उनको उत्पीडित किया करती थीं। उन नारकीयों का अवधिज्ञान दो कोस तक का था, शरीर की ऊंचाई एक सौ पलनीस हाथ और आयु सत्रह सागर की थी। वे सब की सब नपुन्सक थीं। उनका शरीर भयानक और वे स्वभाव से भी भयानक थीं। उनमें धर्म का तो नाम ही नहीं था। वे सबसे ईर्ष्या करती और सदा भार-भार की रट लगाया करती थीं । आयु की समाप्ति पर वे नारको स्त्रियां वहाँ से बाहर हुई और परस्पर विरोधी शरीरों में उत्पन्न हुई । सबों ने एक साथ ही कर्मों का वध किया था, अतः वे बिल्ली सुकरी कुतिया और मुर्गी की योनियों में आयीं। वे हर प्रकार का कष्ट सहतीं और जीवों की हिंसा करती थीं। परस्पर लड़ना और उच्छिष्ट भोजन के द्वारा उनका जीवन निर्वाह होता था। उसके अतिरिक्त जहां भी जाती, वहां से दुत्कार दी जाती थीं। सत्य है रौद्र ध्यान से जीव नर्क में जाते हैं,
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पार्तध्यान से तिथंच गति होती है और धर्मध्यान के द्वारा मनुष्य गति एवं देवगति होती है तथा शुक्ल ध्यान से केवल ज्ञान के द्वारा उत्कृष्ट भोग प्राप्त होता है। जो लोग शान्ति प्रिय मुनिराज पर क्रोध करते हैं, उन्हें अवश्य नरक मिलता है। और जो उन पर उपसर्ग करते हैं, उनको तो बात ही क्या। अतएव विद्वान् लोगों को चाहिये कि, शास्त्र एवं निर्ग्रन्थ गुरु की स्वप्न में भी निन्दा न करें। कारण इनकी निन्दा करने वालों को नर्क की प्राप्ति होती है और स्तुति करने वालों को स्वर्ग की । अतः हे राजन् ! वे तीनों पशु जीवधारी स्त्रियां अत्यन्त कष्ट से मरी। ठीक ही है, पाप कर्मों के उदय से जीव को प्रत्येक भव में दःख झेलने पड़ते हैं। मृत्यु के पश्चात् उनका जन्म प्रधान धर्म स्थान धवन्ती के समीप अत्यन्त नीच लोगों रो बसे हा एक कुटम्बी के घर कन्याओं के रूप में हुआ। उस कुटुम्बी के लोग मुगियां पालन करते थे। इन कन्याओं के गर्भ में आते ही उनके धन-जन का नाश हो गया। घर के सब लोग मर गये । केवल एक पिता बचा था। उन कन्यानों में एक कानी दुसरी लगडी और तीसरी अत्यन्त कुरूपा काल रग को यो । मुनि को धार के पाप मे उनका जीवन प्रशान्त था । देह सूखी हुई, उनकी अांखें पीले रंग की, नाक टेड़ी और पेट बढ़ा हुया था । दांतों की पक्तियां दूर-दूर पर मोटे और शरीर भी आवश्यकता से अधिक मोटा था। उनके स्तन विषम, हाथ छोटे और होठ लम्बे थे। उनके बाल पोल रंग के, आवाज काय जैसी और उनका हृदय प्रेम से शून्य था। उनकी भौहें मिली थीं और वे सदा असत्य भाषण करती थीं। क्रोध से उनका शरीर जलता रहता था। वे विचार हीन और अनेक रोगों से पीड़ित थीं। वे नगर के जिस कोने से जाती, वहा दुर्गन्ध फैल जाती थी। सत्य ही है, पाप कर्मों के उदय से संसार में क्या नही होता । उच्छिष्ट भोजनों से उनका जीवन निर्वाह होता था, चिथड़ों से शरीर ढकती थी और दुःख से सदा पीड़ित रहती थीं। क्रम से वे तीनों कुरूप कन्याएं जवान हुईं। उनके पूर्व कर्मों के उदय से उन्हीं दिनों देश में भिक्ष पडा। वे तीनों पेट की ज्वाला से प्रशान्त होकर व्यभिचार कराने के उद्देश्य से विदेश को चली । मार्ग में भी उनकी लड़ाई जारी थी। उनके साथ न खाने का सामान था और न उनमें लज्जा ह्या थी। यह पाप कर्म का ही प्रभाव है। जब वह फल देने लगता है तो धन-धान्य रूप, बुद्धि सबके सब नष्ट हो जाते हैं। वे कन्याएं अनेक नगरों में भ्रमण करती हुई घटना वशात इस पुष्पपुर में आ गयी हैं। इस वन में अनेक मुनियों को देखकर धन की इच्छा से यहां उपस्थित हुई हैं, फिर भी बड़ी प्रसन्नता के साथ इन सबों ने मुनियों को नमस्कार किया है। राजन् ! यह ससार अनादि और अनन्त है। जीव का कम है, जन्म और मत्यु प्राप्त करना। इसमें भ्रमण करते हुए कर्मों के उदय से उच्च और निकृष्ट भव प्राप्त होते रहते हैं। बुछ दुःख भोगते हैं और कुछ सुख । यहां तक कि पुण्योदय से स्वर्ग और मोक्ष तक के सुख उपलब्ध होते रहते हैं। वे तीनों कुरूपा कन्याएं अपने पूर्वभव, की वाते सुनकर बड़ी प्रसन्न हुई, जिस प्रकार बाबलों की गर्जना सुनकर मोर प्रसन्न होते हैं।
मुनिराज ने पुनः कहना प्रारम्भ किया-राजन यह श्रेष्ठ धर्म कल्पवृक्ष के तुल्य है। सम्यग्दर्शन इसकी मोटी जड़ और भगवान जिनेन्द्र देव इसकी मोटी रीढ़ हैं । थेष्ठ दान इरा धर्म को शाखायें हैं, अहिंसादि व्रत पत्ते और क्षमादिक गुण इसके कोमल और नवीन पत्ते हैं । इन्द्रादि और चक्रवर्ती की विभूतियां इसके पुष्प हैं। यह वृक्ष श्रद्धारूपी बादलों की बारिससे सिंचित किया जाता है। और मुनि समुदाय रूपी पक्षीगण इसकी सेवा में संलग्न रहते है। अतएव यह धर्म रूपी कल्पवृक्ष तुम्हें मोक्ष सुख प्रदान करे।
तीनों कन्या संसार से भयभीत
ये तीनों कन्यायें संसार से भयभीत हो उठीं। उन सबों ने बड़ी श्रद्धा और पादरभाव से मुनिराज को नमस्कार किया और उनकी प्रार्थना करने लगी :
मुनिराज । मुनि के उपसर्ग से ही हमें मात-पित विहीन होना पड़ा है और हमने भव-भव में अनेक कष्ट भोगे हैं। स्वामिन् ! आप भव संसार में वने उतराने वालों के लिए जहाज के तुल्य हैं । हे संसारी जीवों के परम सहायक । पूर्व भव में हमने जो पाप किये हैं, उनके नाश होने का मार्ग बतलाइये । जिस तरूपी औषधि से यह पाप रूपी विष नष्ट होता है, उसे माज ही बताइये । उनकी करुणवाणी सुनकर मुनिराज का कोमल हृदय दयार्थ हो गया वे कहने लगे-पुत्रियो । तुम्हें विध-विधान व्रत धारण करना चाहिए। यह यत कर्म रूपी' शत्रुओं का विनाशक और संसार सागर से पार उतारने वाला है। इसके पालन
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करने के समस्त भवों में उत्पन्न हुए पाप क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं। इसके द्वारा इन्द्र चक्रवर्ती को विभूतियां तो क्या मोक्ष तक के अपूर्व सुख प्राप्त होते हैं। मुनिराज की बातें सुनकर वे कन्यायें कहने लगीं-मुनिराज ! इस व्रत के पालन के लिए कौन-कौन से नियम हैं और प्रारम्भ में किसने इस व्रत का पालन किया जिसे सुनिश्चित फल की प्राप्ति हुई। प्रत्युत्तर में मुनिराज ने कहा-पुत्रियों, इस व्रत का नियम सुनो। सुनने मात्र से ही मनुष्य को उत्तम सुख प्राप्त होता है। मोक्ष सख शप्त होता है । मोक्ष सुख प्राप्त करने वाले भव्य लोगों को यह व्रत भाद्रपद और चैत के महीनों में शुक्ल पक्ष के अन्तिम दिनों में करना चाहिए। उस दिन शुद्ध जल से स्नान कर धूले हए शुद्ध वस्त्र पहनना चाहिए और मुनिराज के समीप जाकर तीन दिन के लिये शीलवत (ब्रह्मचर्य) धारण करना चाहिए । इसके अतिरिक्त मन, वचन, काय, की शुद्धतापूर्वक अष्टोपवास करना चाहिए। क्योंकि प्रोषध पूर्वक उपवास ही मोक्षफल को देने वाला है। इससे समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं। यदि इस प्रकार उपवास करने की शक्ति न हो तो एकान्तर अथात् एक दिन बीच का छोड़कर उपवास करना चाहिये । इस व्रत को जैन विद्वानों ने बड़ी महत्ता देकर स्वर्ग फल देने वाला बतलाया है। यदि ऐसी भी शक्ति न हो तो शक्ति अनुसार ही करें। इन तीनों दिन जैन मन्दिर में ही शयन करें। साथ ही वर्द्धमान स्वामि का प्रतिबिम्ब स्थापित कर इक्षरस, दध, दही, घी और जल से पूर्ण कम्भों से अभिषेक करना चाहिए। इसके बाद मन बचन और काय को स्थिर कर चन्दनादि अष्ट द्रव्यों से भगवान की पूजा करें। पुनः सर्वज्ञदेव के मुंह से उत्पन्न सरस्वती देवी की पूजा तथा मुनिराज के चरणों की सेवा करें। कारण गरु पूजा ही पाप रूपी वृक्षों को काटने के लिए कुठार स्वरूप है। वह संसार समुद्र में पड़े हुए जीवों को पार कर देने के लिए नौका के तुल्य है । उस समय मन को एकाग्रकर भक्ति के माथ तीनों समय सामायिक करना चाहिए। ये सामायिक पाने वाले कर्मों को रोकने में समर्थ होते हैं। शुद्ध लवंग पुष्पों के द्वारा एक सौ पाठ बार अपराजित मंत्र का जाप और श्री वर्द्धमान स्वामी की सेवा करनी चाहिए। जैनशास्त्रों में श्री बर्द्धमान स्वामी के पांच नाम बतलाये गये हैं--महावीर, महाधीर सन्मति. वर्द्धमान और बीर समस्त नामों का स्मरण करते हुए तीन प्रदक्षिणा देकर विद्वानों को अर्घ देना चाहिए। व्रत पालन करने वालों को उन दिनों उनकी कथायें सुननी चाहिये, जिन्होंने उक्त व्रत का पालन कर स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति की है। चित्त को स्थिर कर श्री अरहतदेव का ध्यान करना अत्युत्तम है, कारण उनके ध्यान से प्रेसठ शलाकारों के पद प्राप्त होते हैं । रात्रि को पृथ्वी पर शयन तथा तीर्थदर आदि महापुरुषों की स्तुति करनी चाहिए। जिनधर्म की प्रभावना इन्द्रियों को वश में करने वाली हैं। इसके द्वारा भव्यजीव भवसागर से पार उतरते रहते हैं। अतएव प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य होता है कि वह प्रभावना करे। लब्धिविधान व्रत तीन दिनों तक बराबर करते रहना चाहिये । वह कर्म नाशक एवं इच्छित फल देने वाला है । यह व्रत तीन बर्ष तक रहना चाहिए। इसके बाद उद्यापन क्रिया करे। उद्यापन के लिए एक सुभव्य जिनालयका निर्माण कराये, जो हर प्रकार से शोभायुक्त हो। वह पापनाशक और पुण्यराशि का कारण होता है। उक्त जिनालय में श्रीरा स्वामी की सुन्दर प्रतिमा विराजमान करनी चाहिए जो आपत्ति रूपी लतामों को नष्ट करने वाली है। इस प्रकार मन काय से शद्ध होकर शान्ति विधान करना चाहिए। इसके लिए चावलों के एक सौ पाठ कमल निर्मित करे और उस पर मर दीप रखे। श्री वर्द्धमान स्वामी के जिनालय में सुगन्धित जल से पूर्ण सुवर्ण के पांच कलश देने चाहिये। सोने के पानी में रखे हा पांच तरह के नैवेद्य से उन कमलों की पूजा करे । साथ ही भ्रमरों को विमोहित करने वाला सुगन्धित द्रव्य-चन्दन केसरादि जिनालय में समर्पित करे। भगवान की प्रतिमा के लिये सुवर्ण का सिंहासन प्रदान करे, जिससे वह अरहंत देव के चरण कमलों की कांति से सदैव प्रकाशित होता रहे। एक भामंडल' भी प्रदान करे। वह सोने का बना हुमा हो और जिसमें रत्न जडे हों। जिसकी कांति सूर्य मंडल के प्रकाश को क्षीण कर देती हो। भगवान के कथनानुसार शास्त्र लिखा कर समर्पित करे, जिसे श्रवण कर लोग कबद्धि रो अन्धे और बधिर न रह जाय । सम्यग्दर्शन, समयज्ञान और सम्यक्चारित्र से उत्तम पात्रों को दान देना चाहिए, जिन्हें शत्रु मित्र सब समान दीखते हों । जो देश व्रत धारक हैं। वे मध्यम पाथ कहलाते हैं और जो असंयत मगर दष्टि है, वे जघन्य हैं। उन्हें भोजन कराना चाहिए और भोग संपत्ति लाभ की आकांक्षा से दान देना चाहिए। पात्रदान अमन के तल्य होता है। मिथ्यादष्टि, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को धारण करने वाले, फिर भी हिंसा का जिन्होंने त्यागकर दिया है। बे कुपात्र हैं एवं जिन्होंने न तो चारित्र धारण किया और न कोई व्रत किया, बे हिंसक मिथ्यादष्टि जीव अपात्र कले जाते हैं। अयोग्य क्षेत्र में बोए हुए बीज की तरह इन्हें दिया हुआ दान नष्ट हो जाता है अर्थात् कूभोग भमिको उपलब्धि होती है। जिस प्रकार नीम के वृक्ष में छोड़ा हुआ जल कड़वा ही होता है। तथा सर्प को पिलाया हा दध विषही होता है, उसी प्रकार अपात्र को दिये हुए दान से विपरीत फल की प्राप्ति होती है। अर्थात् बह दान व्यर्थ चला जाता है। साथ ही प्रापि कामों के लिए भक्ति के साथ शुद्ध सिद्धान्त को पुस्तके देनी चाहिए। उन्हें पहनने के लिए बस्त्र तथा पोछी, कमंडलू देने चाहिए। पाशाविकानों को ग्राभरण, कीमती वस्त्र और अनेक नारियल समर्पित करें। जो स्त्री-पुरुष दीन और दुर्बल हैं-दोन हैं
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हीन हैं अथवा किसी दुःख से दुखी है. उन्हें दयापूर्वक भोजन समर्पित करे जीवों को अभयदान दे, जिससे सिंहव्याघ्रादि किसी भी हिंसक जीव का भवन रहे। जो लोग कुष्ट से पीड़ित हैं, काल, पिस, कफादि रोग से दुखी हैं, उन्हें यथायोग्य औषधि प्रदान करें। किन्तु जिनके पास उद्यापन के लिए इतनी सामग्री मौजूद न हो, उन्हें भक्ति करनी चाहिए। और अपनी असमर्थता नहीं समझनी चाहिए। कारण शुद्ध भाव ही पुण्य सम्पादन में सहयोग प्रदान करता है। उन्हें उतना ही फल प्राप्त करने के लिए तीन वर्ष तक और व्रत करना उचित है। आरम्भ में इस व्रत का पालन श्री ऋषभदेव के पुत्र अनन्त वीर ने किया जिसकी कथा यादि पुराण में विस्तार से वर्णित है। मुनिराज की अमृत वाणी सुनकर वहां उपस्थित राजा ने अनेक श्रावक श्राविकाओं के साथ एवं उन तीनों कन्याओं ने भी सन्धि विधान नामक व्रत धारण किये। सत्य है जो भव्य हैं तथा जिनकी कामना मोक्षप्राप्ति की है, ये शुभ कार्य में देर नहीं करते । भवितव्यता के साथ संमारी जीवों की बुद्धि भी तदनुरूप हो जाती है । मुनिराज के उपदेश से उन तीनों कन्याओं ने उद्यापन के साथ लब्धिविधान व्रत किया और श्रावकों के व्रत धारण किये। उन्होंने उत्तम क्षमा आदि दध धर्म तथा शीलत धारण किये। कालान्तर में उन तीनों कन्याओं ने जिन मन्दिर में पहुंच कर मन वचन काय से शुद्धतापूर्वक भगवान की विधिवत पूजा की। इसके पश्चात् श्रायुपुर्ण होने पर उन तीनों कन्याओं ने समाधिमरण धारण किया, अरहन्त देव के वीजाक्षर मंत्रों का स्मरण किया तथा भक्तिपूर्वक उनके चरणों में वे नत हुयीं। मृत्यु के पश्चात् उनका स्त्रीलिंग परिवर्तित हो गया और वे प्रभावशाली देव हो गये उनके शरीर दोन से सुशोभित हुए। उन्हें अवधिज्ञान से ज्ञात हो गया कि वे चिविधान व्रत के फलस्वरूप स्वयं में देन हुए हैं। वे सदा देवांगनाओं के साथ सुख भोगते थे। उनका शरीर पांच हाथ ऊंचा, उनकी श्रायु दश सागर की तथा वे विक्रिया ऋद्धि से सम्पन्न थे। उनकी मध्यम षटलेश्या थी और तीसरे नरक तक का उन्हें अवधिज्ञान था। वे भगवान सर्वज्ञ देव के चरणों की इस प्रकार सेवा किया करते थे, जिस प्रकार एक भ्रमर सुति कमल पुष्पों पर लिपटा रहता है। साथ ही अनेक देवदेवियां भी उनके चरणों की सेवा किया करती थीं।
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इस ओर राजा महींचन्द्र ने भी संसार की प्रनित्यता इन्द्रियों का सर्वदा दमन कर महा तपश्वरण कथा किया |
समझ कर अंगभूषण मुनिराज से जिन दीक्षा ग्रहण की। वे को जीत कर उन्होंने मूलगुण और उत्तरगुणों को धारण
गीतम स्वामी किस स्थान पर उत्पन्न हुए। उन्होंने किस
भगवान महावीर स्वामी के समवशरण में कहा जाता है प्रकार लब्धि प्राप्त की। वे किस प्रकार गणधर हुए और उन्हें मोक्ष कैसे प्राप्त हुआ । इसे ध्यान देकर श्रवण करे |
जम्बूद्वीप के अन्तर्गत एक प्रसिद्ध भरतक्षेत्र है। उसमें धर्मात्मा लोगों के निवास करने योग्य मगध नाम का एक देश है। उसी देश में ब्राह्मण नाम का अत्यन्त रमणीक एक नगर है। यहाँ बड़े-बड़े वेदश निवास करते हैं कि तथा वह नगर वेद ध्वनि से सदा गूँजता रहता है। वह नगर धन धान्य से परिपूर्ण है वहाँ के बाजारों की पंक्तियां अत्यन्त मनोहर हैं। अनेक चैत्यालयों से सुशोभित ब्राह्मण नगर बहुपदार्थों से परिपूर्ण हुआ था वहाँ अनेक प्रकार के जलाशय वृक्ष थे। उनमें सब प्रकार के धान्य उत्पन्न होते थे। वहां के मकानों की ऊंची पंक्तियां अपनी अपूर्व विशेषता प्रकट करती थीं। वहां के निवासी मनुष्य भी सदाचारी धीर सौभाग्यशाली तरुण-तरुणियां कीड़ा-रत रहते थे वहां की सुन्दरियां अपनी सुन्दरता में रम्भा को भी मात करतो थीं उसी नगर में शांडिल्य नाम का एक ब्राह्मण रहता था वह विद्याओंों में निपुण और सदाचारी था। दानी तथा तेजस्वी था। उसकी पत्नी का नाम स्थंडिला था। वह सौभाग्यवती पतिव्रता और रति के समान रूपवती थी। केवल यही नहीं, उसका हृदय नम्र और दयालु था। वह मधुर भाषण करने वाली एवं याचकों को दान देने वाली थी। किन्तु उस ब्राह्मण की कसरी नाम की एक दूसरी ब्राह्मणी थी। यह भी सर्वगुणों से सम्पन्न तावा अपने पति को सदा प्रसन्न रखती थी। एक दिन की घटना है। पंडिला अपनी कोमल शय्या पर सोयी हुई थी उसने रात में पुत्र उत्पन्न होने वाले शुभ स्वप्न देखे। उसी दिन एक जड़ा देव स्वर्ग से चलकर स्थंडिला के गर्भ में पाया। गर्भावस्था के बाद स्थंडिला का रूप निखर उठा। वह मोतियों से भरी हुई सीप जैसी सुन्दर दीखने लगी। उस ब्राह्मणी का मुख कुछ श्वेत हो गया बा, मानो पुत्ररूप चन्द्रमा समस्त संसार में प्रकाश फैलाने की सूचना दे रहा है। शरीर में किंचित कृशता श्रा गयी थी । स्तनों के अग्र भाग श्याम हो गये थे मानों से पुत्र के धागमन की सूचना दे रहे हों उस समय स्वंडिला जिनदेव की पूजा में तत्पर रहने लगी, स्थंडिला जैसे इन्द्राणी सदा भगवान की पूजा में वित्त लगाती है। स्वंद शुद्ध चारित्र धारण करने वाले सम्पानी मुनियों को अनेक पापनाशक शुद्ध आहार देती थी । सूर्योदय के समय जिस समय शुभग्रह शुभ रूप से केन्द्र में थे; उस समय; श्री ऋषभदेव की रानी यशस्वती की तरह, स्थंडिला ने मनोहर अंगों के धारक पुत्र को उत्पन्न किया ।
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उस समय सारी दिशायें प्रकाशित हो गयीं और चारों ओर सुगन्धित बायु संचरित होने लगी तथा ग्रावास में जयघोष होने लगे। घर के समस्त स्त्री-पुरुषों में आनन्द छा गया। चारों ओर मनोहर बाजे बजने लगे। जिस तरह जयंत सदन्द्र और इन्द्राणी को प्रसन्नता होती है एवं स्वामी कर्तिकेय से महादेव-पार्वती को, उसी प्रकार ब्राह्मण और ब्राह्मणी को अपूर्व प्रसन्नता हुई। साण्डिल्य ने मणि, सोने चाँदी, वस्तु यादि मुह मांगे दान दिये। स्त्रियां मंगलगाना गा रही थी। जैसे किसी दरिद्र को खजाना देखकर प्रसन्नता होती है, जैसे पूर्ण चन्द्रमा को देखकर समुद्र उमड़ता है, उसी प्रकार ब्राह्मण अपने पुत्र का मुह देखकर प्रसन्नता से विह्वल हो रहा था। ठीक उसी समय एक निमित्त ज्ञानो ने ज्योतिष के आधार पर बतलाया कि, यह पुत्र गौतम स्वामी के नाम से प्रख्यात होगा। ब्राह्मण का वह पुत्र अपने पूर्वपुण्य के उदय से सूर्य सा तेजस्वी और कामदेव सा कान्तियुक्त था। एक दूसरा देव भी स्वर्ग से चल कर उसी स्थंडिला के गर्भ में पाया। वह ब्राह्मण का गार्ग्य नामक पुत्र हुअा। यह भी समस्त कलाओं से युक्त था। इसी प्रकार एक तीसरा देव रवर्ग से चलकर केसरी के उदय में पाया, जो भार्गव नामक पुत्र हुमा। ये तीनों ब्राह्मण पुत्र, कुन्ती के पुत्र पाण्डवों की भांति प्रेम से रहते थे। प्रायुवद्धि के साथ उनकी कांति गुण और पराक्रम भी बढ़ते जालथे। उन्होंने व्याकरण, छद, पुराण, आगम और सामुद्रिक विद्याय पढ़ डाली। ब्राह्मण का सबसे बड़ा पुत्र गौतम ज्योतिष शास्त्र, अलंकार, न्याय प्रादि सब में निपुण हुआ। देवों के गुरु बृहस्पति की तरह गौतम ब्राह्मण भी किसी शुभ ब्राह्मणशाला में पांच सौ शिष्यों का प्राध्यापक हुना। उसे अपने चौदह महाविद्याओं में पारंगत होने का बड़ा ही अभिमान था। वह विद्वता के मद में चूर रहता था।
राजा श्रेणिक। जो व्यक्ति परोक्ष में तीर्थकर परमदेव की वन्दना करता है, वह तीनों लोकों में वन्दनीय होता है। और जो प्रत्यक्ष में बन्दना करता है। वह इन्द्रादिकों द्वारा पूजनीय होता है। राजन् । इस व्रत रूपी वृक्ष की जड़ सम्यग्दर्शन ही है । अत्यन्त शान्त परिणामों का होना स्कंध है, करुणा शाखाये हैं। इसके पते पवित्र शील हैं तथा कीति फूल हैं । अतएव यह व्रत रूपी वृक्ष तुम्हें मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति कराये । उत्तम धर्म के प्रभाव से ही राज्यलक्ष्मी एवं योग्य लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। धर्म के ही अद्भुत प्रभाव से इन्द्रपद प्राप्त होता है, जिसके चरणों की सेवा देव करते हैं। चक्रवर्ती को ऐसी विभूति प्रदान करने वाला धर्म ही है। यही नहीं, तीर्थकर जैसा सर्वोत्तम पूज्यपद भी धर्म के प्रभाव से ही प्राप्त होता है। अतएव तू सर्वदा धर्म में लीन रह।
कुंडपुर का वर्णन भारत क्षेत्र के अन्तर्गत ही अत्यन्त रमणीय एवं विभिन्न नगरों से सुशोभित विदेह नाम का एक देश है। उस देश में कुण्डपुर नामक एक नगर अपनी भव्यता के लिए प्रख्यात है। वह नगर बड़े ऊंचे कोटों से घिरा हुआ है एवं वहां धर्मात्मा लोग निवास करते हैं। वहां के मणि, कांचन आदि देखकर यही होता है कि, वह दूसरा स्वर्ग है। उस नगर में सिद्धार्थ नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी धार्मिकता प्रसिद्ध थी। वे अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाले थे। उन्हें विभिन्न राजाओं की सेवाएं प्राप्त थीं। इतना ही नहीं सुन्दरता में कामदेव को परास्त करने वाले, शत्रुजीत, दाता और भोक्ता थे। नीति में भी निपुण थे-अर्थात् समस्त गुणों के प्रागार थे। उनकी रानी का नाम त्रिशला देवी था। रानी की सुन्दरता का क्या कहना-चन्द्रमा के समान मुख मण्डल, मृग की सी यांखें, कोमल हाथ और लाल अधर अपनी मनोहर छटा दिखला रहे थे। उसकी जांधे कदली के स्तम्भों सी थीं। नाभि नम्र थी, उदर कृश था, स्तन उन्नत और कठोर थे, धनुष के समान भोंहें एवं तोते के समान नाक थी। ऐसी रूपवती महारानी के साथ राजा सिद्धार्थ सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे।
इन्द्र को प्राशा थी--भगवान महावीर स्वामी के जन्म कल्याणक के १५ मास पूर्व से ही सिद्धार्थ के घर रत्नों को वर्षा करने की। देव लोग इन्द्र की प्राज्ञा का अक्षरशः पालन करते थे । अष्टादश कन्यायें एवं और भी मनोहर देवियां राजमाता की सेवा में तत्पर रहती थीं। एक दिन महारानी त्रिशला देवी कोमल सज्जा पर सोयी हुई थीं। उन्होंने पुत्रोत्पति की सूचना देने वाले सोलह स्वप्न देखे-ऐरावत हाथी, श्वेत बैल, गरजता हुआ सिंह, शुभ लक्ष्मी, भ्रमरों के कलरव से सुनोभित दो पुष्प मालायें, पूर्ण चन्द्रमा, उदय होता हुआ सूर्य सरोवर में कीड़ारत दो मछलियां, सुवर्ण के दो कलश, निर्मल सरोवर, तरंगयुक्त
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समुद्र, मनोहर सिंहासन, आकाश में देवों का विमान, सन्दर नाग-भवन, कांतिपूर्ण रत्नों की राशि और बिना धम्र की अग्नि । प्रातः काल बाजों के शब्द सुनकर महारानी उठौं । बे पूर्ण शृङ्गार कर महाराज के सिंहासन पर जा बैठी। उन्होंने प्रसन्न चित्त होकर महाराज से रात के स्वप्न कह सुनाये। उत्तर में महाराज सिद्धार्थ क्रम से स्वप्नों के फल कहने लगे-ऐरावत हाथी देखने का फल-वह पुत्र तीनों लोकों का स्वामी होगा। बैल देखने का फल-धर्म प्रचारक और सिंह देखने का फल अदभुत पराक्रमी होगा । लक्ष्मी का फल यह होगा कि, देव लोग मेरु दण्ड पर्वत पर उसका अभिषेक करेंगे। मालामों को देखने का फल, उसे अत्यन्त यशस्वी होना चाहिए तथा चन्द्रमा का फल यह होगा कि वह मोहनीय कर्मों का नाशक होगा। सूर्य के देखने से सत्पुरुषों को धर्मोपदेश देने वाला होगा। दो मछलियों के देखने का फल सुखो होगा और कलश देखने से उसका शरीर समस्त शुभ लक्षणों से परिपूर्ण होगा । सरोवर देखने से लोगों की तृष्णा दुर करेगा तथा समुद्र देखने से केवलज्ञानी होगा । सिंहासन देखने से वह स्वर्ग से आकर अबतार ग्रहण करेगा, नाग भवन देखने से वह अनेक तीर्थों का करने वाला होगा एवं रत्नराशि देखने से वह उत्तम गुणों वा धारक होगा तथा अग्नि देखने से कर्मों का विनाशक होगा। इस प्रकार पति द्वारा स्वपनों का हाल सुनकर महारानी को प्रसन्नता बहुत बढ़ गयी । वे जिनेन्द्र भगवान के अवतार की सूचना पाकर अपने जीवन को सार्थक मानने लगीं।
स्वप्न के पाठक दिन अर्थात प्रापाद शक्ल यज्टी के दिन प्राणत स्वर्ग संपुष्पक विमान के द्वारा प्राकर इन्द्र के जीव ने महारानो त्रिशला के मुख में प्रवेश किया। उस समय इन्द्रादि देवों के सिहासन कपित हो गये । देवों को अबधिज्ञान के द्वारा ज्ञात हो गया। वे सब वस्त्राभरण लेकर आये और माता की पूजा कर अपने स्थान को लौट गये। त्रिशला देवी ने चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन शुभग्रह और शुभलग्न में भगवान महावीर स्वामी को जन्म दिया। उस समय दिशाएं निर्मल हो गयीं और वायु सुगन्धित बहने लगी आकाश से देवों ने पुष्पों की वर्षा की और दुन्दुभी वजाई। जन्म के समय भी भगवान के महापुण्य के उदय होने से इन्द्रों के सिंहासन कांप उठे। उन्होंने अवधिज्ञान से जान लिया कि, भगवान महावीर स्वामी ने जन्म ग्रहण किया है। समस्त इन्द्र और चारों प्रकार के देब गाजे-बाजे के साथ कुण्डपुर में पधारे । राजमहल में पहुंच कर देवों ने माता के समक्ष विराजमान भगवान को देखा और भक्तिपूर्वक उन्हें नमस्कार किया। उस समय इन्द्राणी ने एक मायावी बालक बनाकर माता के सामने रख दिया और उस बालक को ऐरावत हाथी पर विराजमान किया और आकाश मार्ग द्वारा बैत्यालयों से सुशोभित मेरु पर्वत पर ले गयी देवों ने मंगल ध्वनि की, बाजे, बजने लगे, किन्नर-जाति के देव गाने लगे और देवांगनाओं ने शृंगार दर्पण ताल आदि मंगल द्रव्य धारण किये। सब लोग मेरु-पर्वत की पांडक शिला पर पहुंचे । वह शिला सौ योजन लम्बी, पचास योजन चौड़ी और पाठ योजन ऊंची थी। उस पर एक अत्यन्त मनोहर सिंहासन था। देवों ने उसी सिंहासन पर भगवान को पासीन किया और वे नम्रता और भक्तिपूर्वक उनका अभिषेकोत्सव करने लगे। इन्द्रादिक देवों ने मणि और सुवर्ण निर्मित एक हजार
आठ कलशों द्वारा क्षीरोदधि समुद्र का जल लाकर भगवान का अभिषेक किया। इस अभिषेक से मेरु पर्वत तक कांप उठा, पर वालक भगवान' निश्चलरूप से बैठे रहे । उस समय देबों ने भगवान के स्वाभाविक बल का अनुमान लगा लिया। इसके पश्चात् देवों ने जन्म-मरणादि दुखों को निवृति करने के लिए चन्दनादिपाठ शुभद्रव्यों से भगवान की पूजा की। भगवान जिनेन्द्र को पूजा सर्य की प्रभा के समान धर्म प्रकाश करने वाली और पापांधकार का नारा करने वाली होती है। वह भव्य जीवरूपी कमलों को प्रफुल्लित करती है। देवों ने उस बालक का शुभ नाम वीर रखा। अप्सराय तथा अनेक देव उस समय नृत्य कर रहे थे। मति, श्रुत और अवधिज्ञानों से परिपूर्ण भगवान को बालक के योग्य बस्त्राभूषणों से सुशोभित किया गया तथा पुनः देवों ने अपनी इष्ट सिद्धि के लिए स्तुति प्रारम्भ की--जिस प्रकार सूर्य की प्रभा के बिना कमलों को प्रफुल्लता संभव नहीं, उसी प्रकार हे बीर अापके अभाव में प्राणियों को तत्वज्ञान प्राप्त होना कदापि संभव नहीं। इस प्रकार स्तुति समाप्त होने पर इन्द्रादिक देवों ने भगवान को पुनः ऐराबत पर विराजमान किया और आकाश मार्गद्वाराकुण्डलपुर आये। उन्होंने भगवान के माता-पिता को यह वचन कहते हुए बालक को समर्पित कर दिया कि आपके पुत्र को मेरु-पर्वत पर अभिषेक कराकर लाये हैं। उन देवों ने दिव्य ग्राभरण और वस्त्रों से माता-पिता की पूजा को । उनका नाम बल निरूपण किया और नृत्य करते हुए अपने स्थान को चल दिये। इसके पश्चात बालक भगवान, इन्द्र की याज्ञा से आये हुए तथा भगवान को अवस्था धारण किये हुए देबों के साथ क्रीड़ा करने लगे पश्चात वे बाल्यावस्था को पार कर यौवनावस्था को प्राप्त हुए। उनकी कांलि सुवर्ण के समान तथा शरीर की ऊंचाई सात सशकी थी। उनका शरीर नि:स्वेदता ग्रादि दश अतिशयों से सुशोभित था। इस प्रकार भगवान ने कूमारकाल के तीस वर्ष नीत किये। इस अवस्था में भगवान बिना किसी कारण कमों को शान्त करने के उद्देश्य से विरक्त हो गये। उन्हें अपने प्राप यात्मज्ञान हो गया। तत्काल ही लोकांतिक देवों का आगमन हुआ । उन्होंने नमस्कार कर कहा भगवान तपश्चरण के द्वारा
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कों को विनष्ट कर शीघ्र ही केवल ज्ञान प्राप्त कीजिये । वे ऐसा निवेदन कर वापस चले गये। भगवान ने समस्त परिजनों से पूछा। पुनः मनोहर पालको में सवार हुए। इन्द्र ने पालको उठाई और आकाश द्वारा भगवान को नामखण्ड नामक वन में पहुंचाया। वहां पहुंचकर इन्द्र ने पालकी उतार दी और भगवान एक स्फटिक शिला पर उत्तर दिशा की ओर मुहकर विराजमान हो गये। अत्यन्त बुद्धिमान महावीर प्रभु ने, मार्गशीर्ष कृष्ण-दशमी के दिन सायंकाल के समय दीक्षा ग्रहण को और सर्व प्रथम उन्होंने पष्ठोपवास करने का नियम धारण किया। भगवान के पंचमुष्ठि लाँच वाले केशों को इन्द्र ने मणियों के पात्र में रखा और उन्हें क्षीर सागर में पधराया। अन्य देवगण चतुःज्ञान विभूषित भगवान को नमस्कार कर अपने-अपने स्थान को चले गये । पारणा के दिन भगवान कुलय नामक नगर के राजा कुल के घर गये । राजा ने नवधा भक्ति के साथ भगवान को प्राहार दिया। आहार के बाद वे भगवान प्रक्षयदान देकर बन को चले गये । उस माहार दान का फल यह हुमा कि, देवों ने राजा के घर पंचाश्चयों की वर्षा की। सत्य है, पात्रदान से धर्मात्मा लोगों को लक्ष्मी प्राप्त होती है।
__ एक दिन की घटना है । भगवान अतिमुक्ति नामक श्मशान में प्रतिमायोग धारण कर विराजमान थे। उस समय भवनाम के रुद्र (महादेव) ने उन पर अनेक उपसर्ग किए, पर उन्हें जीतने में समर्थ न हो सका । अन्त में उसने पाकर भगवान को नमस्कार किया और उनका नाम महावीर रखा । इस प्रकार तप करते हुए भगवान को जब दारह वर्ष व्यतीत होगये, तब एक ऋजुकुल नाम की नदी के समीपवर्ती जूभक ग्राम में वे षष्टोवास (तेला) धारण कर किसी शिला पर आसीन हए। उस दिन वैशाख शुक्ल दशमो थी। उसी दिन उन्होंने ध्यानरूपी अग्नि से धातिया कर्मों को नष्ट कर केवल ज्ञान की प्राप्ति की। केवल-ज्ञान हो जाने पर शरीर को छाया न पड़ना ग्रादि दशौं अतिशय प्रकट हो गये। उस समय इन्द्रादिकों ने आकर भगवान को भक्ति के साथ नमस्कार किया। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने चार कोस लम्बा-चौड़ा समवशरण निर्मित किया। वह मानस्तंभ ध्वजा दण्ड घंटा, तोरण, जल से परिपूर्ण खाई, सरोवर, पुष्प वाटिका, उच्च धुलि प्राकार नत्य शालाओं, की उपवनों से सुशोभित था तथा वेदिका, अन्तर्ध्वजा सुवर्णशाला, कल्पवृक्ष प्रादि से विभूषित था। उसमें अनेक महलों की पक्तियां थीं। वे मकान सवर्ण और मणियों से बनाये गये थे। वहां ऐसी मणियों की शालाये थीं, जो गीत और बाजों से सुशोभित हो रही थी । समवशरण के चारों ओर चार बडे-बडे फाटक थे। वे सुवर्ण के निमित भवनों से भी अधिक मनोहर दीखते थे। उसमें बारह सभायें थीं, जिसमें मुनि, अजिका कल्पवासीदेव, ज्योतिषी, देव, व्यंतरदेव, भवनवासी देव, कल्पवासी देवांगनायें ज्योतिषी देवों की देवांगनायें भवनवासी,देवों की देवांगनाये, मनुष्य तथा पशु उपस्थित थे। अशोक वृक्ष, दुदभी, छत्र, भामण्डल, सिंहासन, चमर पुष्पवष्टि और दिव्यध्वनि उक्त आठों प्रातिहाथों से श्रीवीर भगवान सुशोभित हो रहे थे । इसके अतिरिक्त अठारह दोषों से रहित और चौंतीस अतिशयों से सुशोभित थे । अर्थात् विश्व की समग्र विभूतियां उनके साथ विराजमान थीं। इस प्रकार भगवान को मासीन हए तीन घंटे से अधिक हो गये, पर उनकी दिव्यवाणी मौन रही। भगवान की मौनावस्था में देखकर सीधर्म इन्द्र ने अवधिज्ञान से विचार किया, कि यदि गौतम का आगमन हो जाय तो भगवान की दिव्यवाणी उच्चरित हो। गौतम को लाने के विचार से इन्द्र ने एक वृद्ध का रूप बना लिया, जिसके अंगर कांप रहे थे। वह वृद्ध ब्राह्मण नगर की गौतमशाला में जा पहंचा । वृद्ध के कांपते हुए हाथों में एक लकड़ी थी। उनके मुह में एक भी दांत नहीं थे, जिससे पूरे अक्षर भी नहीं निकल पाते थे 1 उस वृद्ध ने शाला में पहुंच कर आवाज लगाई-ब्राह्मणों। इस शाला में कौन-सा व्यक्ति है, जो शास्त्रों का ज्ञाता हो और मेरे समस्त प्रश्नों का उत्तर दे सकता हो । इस संसार में ऐसे कम मनुष्य हैं जो मेरे काव्यों को विचार कर ठीक ठीक उत्तर दे सकें। यदि इस श्लोक का ठीक अर्थ निकल पायगा तो मेरा काम बन जायगा, आप धर्मात्मा हैं, अत: मेरे श्लोक का अर्थ बतला देना ग्रापका कर्तव्य है। इस तरह तो अपना पेट पालने वालों की संख्या संसार में कम नहीं है, पर परोपकारी जीवों की संख्या थोडी है। मेरे गुरु इस समय ध्यान में लगे हैं और मोक्ष पुरुषार्थ को सिद्ध कर रहे हैं, अन्यथा वे बतला देते । यही कारण है कि आपको कष्ट देने के लिए उपस्थित हुआ हूं । आपकाकर्तव्य होता है कि, उसका समाधान कर दें । उस वृद्ध की बातें सुनकर अपने पांच सौ शिष्यों द्वारा प्रेरित गौतम शुभ वचन कहने लगा, हे वृद्ध ! क्या तुझे नहीं मालूम, इस विषय में अनेक शास्त्रों में पारंगत और पांच सौ शिष्यों का प्रतिपालक में प्रसिद्ध हूं। तुम्हें अपने काव्य का बड़ा अभिमान हो रहा है। कहो तो सही, उसका अर्थ मैं अभी बतला दूं। पर यह तो बताओ कि मुझे क्या दोगे ? उस वृद्ध ने कहा- ब्राह्मण । यदि आप मेरे काव्य का भनि बतला देंगे तो मैं आपका शिष्य बन जाऊगा । किन्तु यह भी याद रखिये कि यदि आपने यथावत उत्तर नहीं दिया तो यापको भी अपनी शिष्यमण्डली के साथ मेरे गुरु का शिष्य हो जाना पड़ेगा। गौतम ने भी स्वीकृति दे दी। इस प्रकार इन्ट और गौतम दोनों ही प्रतिज्ञा में बंध गये । सत्य है ऐसा कौन अभिमानी है जो न करने योग्य काम नहीं कर डालता। इसके पञ्चात सौधर्म के इन्द्र ने गौतम के अभिमान को दूर करने के उद्देश्य से आगम के अर्थ को सूचित करने वाला तथा गंभीर अर्थ से भरा हुआ एक काव्य पढ़ा । बह काव्य यह था
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"धर्मद्वयं त्रिविधकाल समग्नकर्म, षड द्रव्यकाय सहिताः समयश्च लेश्याः तत्वानि संयमगतीसहिता पदार्थ
रंगप्रवेदमनिशव चास्ति कायम।" धर्म के दो भेद कौन-कौन से हैं। वे तीन प्रकार के काल कौन हैं, उनमें काय सहित द्रव्य कौन हैं, काल किसे कहते हैं, लेश्या कौन-कौन-सी सौर कितनो हैं। तत्व कितने और कौन-कौन हैं, संयम कितने है, गति कितनी और कौन हैं तथा पदार्थ कितने और कौन हैं, श्रुतज्ञान, अनुयोग और सास्ति काय कौन और कितने हैं, यह आप बतलाइये । बूढ़े के मह से श्लोक सुनकर गौतम को बड़ी ग्लानि हुई। उसने मन में ही विचार किया कि, मैं इस श्लोक का अर्थ क्या बतलाऊं। इस वृद्ध के साथ वाद-विवाद करने से कौन-सी लाभ-की प्राप्ति होगी। इससे तो अच्छा हो कि इसके गुरु से शास्त्रार्थ किया जाय। मौतम ने बड़े मभिमान से कहा-चलरे ब्राह्मण। अपने गुरु के निकट चल । वहीं पर इस विषय की मीमांसा होगी। वे दोनों विद्वान सबको साथ लेकर वहां से रवाना हुए। मार्ग में, गौतम ने विचार किया जब इस वृद्ध के प्रश्न का उत्तर मुभ से नहीं दिया गया, तो इसके गुरु का उत्तर कैसे दिया जायेगा । वह तो अपूर्व विद्वान होगा। इस प्रकार से विचार करता हुआ गौतम समयशरण में पहुंचा। इन्द्र को अपनी कार्य सिद्धि पर बड़ी प्रसन्नता हुई । सत्य है, सिद्धि हो जाने पर किसे प्रसन्नता नहीं होती। अर्थात् सबको होती है। वहां मानस्तम्भ अपनी अद्भुत शोभा से तीनों लोकों को प्राश्चर्य में डाल रहा था। उसके दर्शन मात्र से ही गौतम का दर्प चूर्ण-विचूर्ण हो गया । उसने विचार किया कि जिस गुरु के सन्निवाट इतनी विभूति विद्यमान हो, वह क्या पराजित किया जा सकता है, असम्भव है। इसके बाद वीरनाथ भगवान का दर्शन कर बह गौतम उसको स्तुति करने लगा.. प्रभो ! भाप कामरूपी योधानों को परास्त करने में निपुण हैं । सत्पुरुषों को उपदेश देने वाले हैं । अनेक मुनिराजों का समदाय यापकी पूजा करता है। आप तीनों लोकों के तारक और उद्धारक हैं आप कर्म-शत्रुओं को नाश करने वाले हैं तथा लोक्य के इन्द्र प्रापकी सेवा में लगे रहते हैं। ऐसी विनम्र स्तुतिकर गौतम, भगवान के चरणों में नत हुया। इसके पश्चात वह ऐहिक विषयों से विरक्त हो गया। कालान्तर में उसने पांच सी शिष्य मण्डली तथा अन्य दो भ्राताओं के साथ जिन-दीक्षा लेली। सत्य है, जिन्हें संसार का भय है, जो मोक्ष रूपी लक्ष्मी के उपासक हैं, वे जरा भी देर नहीं करते । धी बीरनाथ भगवान के समयशरण में चारों ज्ञानों से विभूषित, इन्द्रभूति, वायुभूति, अग्निभूत यादि ग्यारह गणधर हुए थे। उन्होंने पूर्वभव में लधिविधान नामक व्रत किया था, जिसके फल स्वरूप वे गणधर पद पर आसीन हुए थे। दूसरे लोग भी, जो इस व्रत का पालन करते हैं उन्हें ऐसी ही विभूतियां प्राप्त होती हैं । इसके बाद भगवान की दिव्यवाणी उच्चरित होने लगी। मोहांधकार को नाश करने बाली बह दिव्यध्वनि भव्यरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने लगी। भगवान ने जोव, अजीव आदि सप्ततत्व, छः द्रव्य पंचारित. काय. जीवों के भेद आदि लोकाकाश के पदार्थों के भेद और उनके स्वरूप बतलाये। समस्त परिग्रहों का परित्याग करने वाले गौतम ने पूर्वपुण्य के उदय से भगवान के समस्त उपदेशों को ग्रहण कर लिया । जैन धर्म के प्रभाव से भव्यों को संगति प्राप्त होती है, उपयुक्त, कल्याण कारक मधुर वचन, अच्छी बुद्धि यादि सर्वोत्तम विभूतियां सहज में ही प्राप्त होती हैं। इस धर्म के प्रभाव से उत्तम संतान की प्राप्ति और चन्द्रमा तथा बर्फ के समान शुभकाति होता है । धम के प्रभाव से ही बड़ो विभूतियां और अनेक सुन्दरी स्त्रियां प्राप्त होती हैं और सुरेन्द्र, नगेन्द्र और नागेन्द्र के पद भी सुलभ हो जाते हैं।
इसके पश्चात मुनिदेव मनुष्य प्रादि समस्त भव्य जीवों को प्रसन्न करते हुए महाराज श्रेणिक ने भगवान से प्रार्थना की कि, हे भगवान ! हे वीर प्रभो ! उस धर्म को सुनने की हमारी प्रबल इच्छा है कि जिससे स्वर्ग और मोक्ष के सख सहजसाध्य हैं। माप विस्तार पूर्वक कहिये। उत्तर में भगवान ने दिव्यध्वनि के द्वारा कहा-राजन् ! अब मैं मनि और गदो दोनों के धारण करने योग्य धर्म का स्वरूप बतलाता हूं। तुझे ध्यान देकर सुनना चाहिए । संसार रूपी भव समुद्र में उबतेका जीवों को निकाल कर जो उत्तम पद में धारण करादे, उसे धर्म कहते हैं । धर्म का यही स्वरूप अनादि काल से जिनेन्द्रदेव कहते चले पाये हैं। सबसे उत्तम धर्म अहिसा है। इसी धर्म के प्रभाव से जीवों को चक्रवर्ती के सुख उपलब्ध होते हैं । प्रतएव समस्त संसारी जीवों पर दया का भाव रखना चाहिए । दया अपार सुख प्रदान करने वाली एवं दुख रूपी वृक्षों को काटने के लिए कहार के तुल्य होती है। सप्त व्यसनों की अग्नि को बुझाने के लिए यह दया ही मेध स्वरूप है । यह स्वर्ग में पहुंचाने के लिए सोपान और मोक्ष रूपी संपत्ति प्रदान करने वाली है। जो लोग धर्म को साधना के लिए यज्ञादि में प्राणियों को हिंसा करते हैं, वे विषले सर्प के मह से अमृत करने की आशा रखते हैं । यह सम्भव है कि जल में पत्थर तैरने लगे, अग्नि ठढी हो जाय, किन्त सिा द्वारा धर्म को प्राप्ति त्रिकाल में भी सम्भव नहीं हो सकती । जो भील लोग धर्म को कल्पना कर जंगल में प्राग लगा
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देते हैं, वे विष खाकर प्राण की रक्षा चाहते हैं । अथवा जो लोलुपी मनुष्य जीवों की हत्याकर उनका मांस खाते हैं, वे महादुःख देने वाली नरकात में उत्पन्न होते हैं। जीवों को हिसा करने वाले को मेरू पर्वत के समान नर्क के दुख भोगने पड़ते हैं। न तो छाछ से धो निकाला जा सकता है न बिना सूर्य के दिन हो सकता है. न लेप मात्र में मनुष्य की क्षुधा मिट सकती है, उसी प्रकार हिंसा के द्वारा सुख प्राप्ति की प्राशा करना दुराशा मात्र है। प्राणियों पर दया करने वाले मनुष्य युद्ध में, वन में नदी एवं पर्वतों पर भी निर्भय रहते हैं। परहिसकों की आयु प्रति अल्प होती है। या तो वे उत्पन्न होते ही मर जाते हैं, या बाद में किसी समुद्र नदी आदि में डूबकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार असत्य भाषण से भी महान पाप लगता है, जिसके पापोदय से नरकादि के दुख प्राप्त होते हैं। यद्यपि यश बड़ा पानन्द दायक होता है, पर मसत्य भाषण से वह भी नष्ट हो जाता है। असत्य विनाश का घर है, इससे अनेक विपत्तियां आती हैं । यह महापुरुषों द्वारा एकदम निन्दनीय है एवं मोक्ष मार्ग का अवरोधक है। अतएव प्रात्मज्ञान से विभूपित विद्वान पुरुषों को चाहिए कि वे कभी असत्य का आश्रय न लें। देवों को आराधना करने वाले सदा सत्य बोला करते हैं । सत्य के प्रसाद से विष भी अमृत के तुल्य हो जाता है। शत्रु भी मित्र हो जाते हैं एव सर्प भी माला बन जाता है। जो लोग असत्य भाषण के द्वारा सद्धर्म प्राप्ति की आकांक्षा करते हैं, वे बिना अंकूर रोपे ही धान्य होने की कल्पना करते हैं। बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वे हिंसा और असत्य के समान चोरी का भी सर्वथा परित्याग कर दें । चोरी पुण्य-लता को नष्ट करने वाली तथा आपत्ति की वृद्धि करने वाली होती है। चोर को नरक की प्राप्ति होती है, वहां छेदन-ताड़न आदि विभिन्न प्रकार के दुख भोगने पड़ते हैं। चोर को सब जगह सजा मिलती है, राजा भी प्राण दण्ड की आज्ञा देता है तथा अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने पड़ते हैं । पर जो पुरुष चोरी नहीं करता, उसे जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त करने वाली मोक्ष रूपी स्त्री स्वयं स्वीकार कर लेती है। चोरी का परित्याग कर देने से संसार की सारी विभूतियां, सुन्दरी स्त्रियां एवं उत्तम गति की प्राप्ति होती है । जो लोग चोरी करते हए सूख की प्राकांक्षा करते हैं, वे अग्नि के द्वारा कमल उत्पन्न करना चाहते हैं। यदि भोजन कर लेने से अजीर्ण का दूर होना बिना सूर्य के दिन निकलना और बालू पेरने से तेल का निकलना सम्भव भी हो तो चोरी से धर्म की प्राप्ति कभी सम्भव नहीं हो सकती। शीलवत के पालन से चारित्र को सदा वृद्धि होती रहती है, नरव प्रादि के समस्त मार्ग बन्द हो जाते और व्रतों की रक्षा होती रहती है, यह व्रत मोक्ष रूपी सुख प्रदान करने वाला है। जो लोग शीलवत का पालन नहीं करते, वे संसार में अपना यश नष्ट करते हैं।
ब्रह्मचर्य पालन के प्रभाव में सारी सम्पदायें नष्ट हो जाती हैं और अनेक प्रकार की हिंसाय होती हैं। जोशील नत का यथेष्ट पालन करते हैं, वे स्वर्गगामी होते हैं । शील व्रत का इतना प्रभाव होता है कि अग्नि में शीलता आ जाती है, शत्र मित्र बन जाते हैं तथा सिह भी मृग बन जाता है । जिस प्रकार लवण के बिना व्यंजन का कोई मूल्य नहीं, उसी प्रकार शीलवत के अभाव में समस्त व्रत व्यर्थ हो जाते हैं । इसी शीलबत का पालन करने वाले सेठ सुदर्शन की पूजा अनेक देवों ने मिलकर की थी। परिग्रह पापों का मूल है। उससे परिणाम कलुषित हो जाते हैं और वह नीति दया को नष्ट करने वाला है । संसार के समस्त अनर्थ इसी परिग्रह द्वारा सम्पन्न हुया करते हैं । यह धर्मरूपो वक्ष को उखाड़ देता है और लोभरूपी समुद्र को बढ़ा देता है । मनरूपी हंसों को धमकाता है और मर्यादा रूपी तट को तोड़ देता है। क्रोध, मान, माया, आदि कषायों को उत्पन्न करने वाला परिग्रह ही है । वह मार्दव (कोमलता) रूपी बायु को उड़ा देने के लिए वायु सरीखा है और कमलों को नष्ट करने के लिए तुपार के समान है। यह समस्त व्यसनों का घर; पापों को खानि और शुभध्यान का काल है, इरो कोई भी बुद्धिमान ग्रहण नहीं कर सकता । जैसे प्राग, लकड़ी से तृप्त नहीं होती, देव भोगों से तृप्त नहीं होते और उनकी आकांक्षा बढ़ती ही जातो है; उसी प्रकार अपार धन राशि रो तृप्त जो लोग परिग्रह रहित हैं, वे हो वस्तुत: सर्वोत्तम हैं। वे पुण्य संचय के साथ धर्मरूपी वृक्ष उत्पन्न करते हैं और वैसे ही बे धर्मात्मा जैनधर्म का प्रसार करते हैं। इस प्रकार मुनिराज लोग अहिसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह इन पांचों व्रतों का पूर्ण रीति मे पालन करते हैं और ग्रही अणु रूप से पालन करते हैं जो मुनिराज हिंसा आदि पापों से सदा विरक्त रहते हैं तथा शरीर का मोह नहीं करते, उन्हें शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। जिन्होंने इन्द्रिय विषयक ज्ञान को त्याग दिया है तथा मन, वचन, काय को वश में कर लेने को जिनमें शक्ति है, दे दी महापय मनि कहलाने के अधिकारी होते हैं । जिन्होंने सर्व परिग्रहों का सर्वथा परित्याग कर दिया है, उन्हें ही मोक्ष रूपी स्त्री स्वीकार करती है। शुभ ध्यान में निरत मुनिराज ईर्या, भाषा, एषणा, प्रादान निक्षषण और उत्सर्ग इन पांचों समितियों का पालन करते हैं तथा उन्हीं के अनुसार चलने का नियम बना लेते हैं । जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही अन्धकार का सर्वथा विनाश हो जाता है, उसी प्रकार तपश्चरण के द्वारा अंतरग एवं बहिरंग दोनों प्रकार के कर्मों का समुदाय बिनष्ट हो जाता है। पर बिना तपश्चरण किये कर्म के समूह नष्ट नहीं होते। वर्षा के प्रभाव में जिस प्रकार खेती नहीं होती, उसी प्रकार बिना उत्तम
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तपश्चरण के कर्मों का विनाश होना संभव नहीं है । तपश्चरण ही कर्मरूपी धधकती हुई प्रबल अग्नि को शान्त कर देने के लिए जल के समान हैं और अशुभ कर्मरूपी विशाल पर्वत श्रेणी को ध्वस्त करने के लिए इन्द्र के बज्र के समान है। यह विषय रूपी सपों को वश में करने के लिए मंत्र के समान है, विघ्न रूपी हरिणों को रोकने के लिए जाल के समान और अंधकार को विनष्ट करने के लिए सूर्य जैसी शक्ति रखता है। तपश्चरण के प्रभाव से केवल मनुष्य ही नहीं, देव भवनवासो देव, आदि सभी सेवक बन जाते हैं। सर्प, सिंह, अग्नि , शत्र आदि के भय सर्वथा दूर हो जाते हैं। जिस प्रकार धान्य के विना खेत, शृंगार के बिना सुन्दरी, कमलों के बिना सरोवर शोभा नहीं देता। इसी तपश्चरण के द्वारा मुनिराज दो तीन भव में हो कर्म समुदाय को नष्ट कर मोक्ष-मुख प्राप्त कर लेते हैं । इसका प्रभाव इतना प्रबल है कि अरहंत देव, सबको धर्मोपदेश देने वाले तथा देव, इन्द्र, नागेद्र आदि के पूज्य होते हैं। वे भगवान, उनके नाम को स्मरण करने वाले यथा जैन धर्म के अनुसार पुण्य संनय करने वाले सत्पुरुषों को संसार महासागर से शोधकार कर देश है। जो क्षुधा, पिपासा, आदिमकारह दोषों से रहित हो, जो रागद्वेष से रहित हो, समवशरण का स्वामी तथा संसार सागर से पार करने के लिए जहाज के तुल्य हो, उसे देव कहते हैं । बुद्धिमान लोग ऐसे परहंत देव के चरणों की निरन्तर उपासना किया करते हैं और उनके पाप क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं। भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा रोग, पाप से मुक्त और स्वर्ग मोक्ष प्रदान करने वाली है। जो लोग ऐसे भगवान को पूजा करते हैं, उनके घर नृत्य करने के लिए इन्द्र भी बाध्य है। भगवान के चरण कमलों की सेवा से सुन्दर सन्तान, हाव भाव सम्पन्न सुन्दर स्त्रियां तथा समग्र भूमण्डल का राज्य प्राप्त होता है । भगवान की पूजा शत्रु विनाशक और शत्रु संहारक है। यह कामधेनु के सदश इच्छामों की पूर्ति करती है।
जो भव्य पुरुष भगवान की पूजा करते हैं, उनकी सुमेरू पर्वत के मस्तक पर देवों और इन्द्रों द्वारा पूजा होती है। जो 'अहिद्भयोनमः' इस प्रकार ऊंचे स्वर में उच्चारण करते हैं, वे उत्तम तथा यशस्वी होते हैं। परमात्मा को स्तुति से पुण्य समुदाय की कितनी वृद्धि होती है, इसका वर्णन करना सर्वथा कठिन है । जो लोग भगवान को निन्दा करते हैं, वे क्रूर भावों से भरे हुए इस संसार रूपी वन में दुःखी होकर भ्रमण किया करते हैं। बे नीच सदा लोभ के वशीभूत होकर यक्ष, राक्षस, भूत, प्रेतादि की उपासना करते रहते हैं। मिथ्याचारी मनुष्य धन प्रादि की इच्छा से पीपल कुनां तथा कुलदेवियों की पूजा करते हैं । जो मुनिराज सम्यक चारित्र से सुशोभित हैं और आत्मा एवं समस्त जीवों को तारने के लिए तत्पर रहते हैं, वे विद्वानों द्वारा गुरु माने जाते हैं। जिनसे मिथ्या ज्ञान का विनाश हो एवं अधर्म का नाश और धर्म को अभिवृद्धि होती हो, वे ही भव्यजीवों की सेवा के अधिकारी हैं। माता, पिता, भाई, बन्धु किसी में भी सामर्थ्य नहीं कि इस भवरूपी संसार में पड़े हुए जीवों का उद्धार कर सके। मिथ्याज्ञान से भरपूर पाखण्डी त्रिकाल में भी गुरु नहीं माने जा सकते। भला जो स्वयं मिथ्या शास्त्रों में आसक्त है, वह दूसरों का क्या उपकार कर सकती हैं। जो भगवान जिनेन्द्र देव की दिव्य वाणी का श्रवण नहीं करते, वे देव अदेव धर्म, अधर्म, गुरु कूगुरु हित, अहित का कुछ भी ज्ञान नहीं रखते हैं जो लोग जैन धर्म को भी अन्य धर्म की भांति समझते हैं, वे वस्तुत: लोहे को मणि और अन्धकार को प्रकाश समझते हैं । जिसने भगवान की दिव्य-वाणी नहीं सुनी, उसका जन्म हो व्यर्थ है। जिसने जिनवाणी का उच्चारण नहीं किया, उसकी जीभ व्यर्थ ही बनाई गई । जिसमें तीनों लोकों की स्थिति, साततत्वों, नव पदार्थो, पांच महाव्रतों का वर्णन हो तथा धर्म, अधर्म का स्वरूप बतलाया गया हो, वही विद्वानों द्वारा कही गयी जिनवाणी है। सूर्य के अभाव में जिस प्रकार संसार के पदार्थ दिखाई नहीं देते, ठीक उसी प्रकार जिनवाणी के बिना ज्ञान होना संभव नहीं है। देव, शास्त्र और गुरु का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन मोक्ष मार्ग का पाथेय और नरकादि मार्गों का अवरोधक है। अत: बुद्धिमान लोग सम्यग्दर्शन का ही ग्रहण करते हैं । यह अज्ञान-तम का विनाशक और मिथ्याचारी का थेय करने वाला है। इसके विना व्रत शोभायमान नहीं होते । जिस प्रकार देवों में इन्द्र, मनुष्यों में चक्रवर्ती अोर समुद्रों में क्षीरसागर श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्त व्रतों में सम्यग्दर्शन ही श्रेष्ठ है। दरिद्र और भूखा सम्यग्दों को धनी ही समझना चाहिए और उसके विपरीत सम्यग्दर्शन हीन धनी को निधन । इसी के प्रभाव से मनुष्यों को सांसारिक संपदायें प्राप्त होती हैं और रोग-शोकादि सब कष्ट दूर होते हैं । सम्यग्दी को भोगोपभोग की सामग्रियां मिलती हैं तथा सूर्य के समान उनको कीर्ति प्रकाशित होती है। वे अपने रूप से कामदेव को भी परास्त करते हैं और उन्हें इन्द्र, चक्रवर्ती प्रादि अनेक पद प्राप्त होते हैं। उन्हें देवांगनामों जैसी सुन्दरियां प्राप्त होती हैं और चारों प्रकार के देव उनकी सेवा करते हैं । सम्यग्दर्शन का ही प्रभाव है कि मनुष्य कर्मरूपी शत्रों को नष्ट कर तीनों भवों को पार कर जाता है। जिस स्थान पर देव शास्त्र और गुरु को निन्दा होती हो, उस स्थान पर रहने वाले मनुष्य को मिथ्यादर्शन के प्रभुत्व से नरकगामो होना पड़ता है । मिथ्यादर्शन से जीव टेढ़े, कुबड़े, नकटे गुगे तथा बहरे होते हैं। उन्हें दरीद्री, होना पड़ता है और उन्हें स्त्री भी कुरूपा मिलती है। वे दूसरों के सेवक होते हैं और उनकी अपकीति संसार भर में फैलती है । उन्हें भूत, प्रेत, यक्ष, राक्षस आदि नीच व्यंतर भवों में
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जाना पड़ता है अथवा चे कीया बिल्ली सूअर आदि नीच और ऋर होते हैं तथा एकेन्द्रिय व निगोद में उत्पन्न होते हैं। किन्तु जो जिनालय का निर्माण करता है वह संसार में पूज्य और उत्तम होता है, उसको कोति संसार में फैलता है। कृषि कुएं से अधिक जल निकालना, रथ गाड़ी बनाना, घर बनाना, कुना बनाना ग्रादि हिंसा प्रधान कार्य नीच मनुष्य ही करते हैं। पर जो प्राणियों की हिंसा के दोष से जिनालय बनाने तथा भगवान को पूजा आदि में निषेध करते हैं वे मूर्ख हैं और मृत्यु के पश्चात् निगोद में निवास करते हैं। जिस प्रकार विष की छोटो बूद से महासागर दूषित नहीं हो पाता, उसी प्रकार पुण्य कार्य में दोष नहीं लगता। पर खेती प्रादि हिमा के कार्य में दोष अवश्य लगता है, जैसे घड़े भर दूध को थोड़ो सो कोजो नष्ट कर देती है। उस मनुप्य के समग्र पाप नष्ट हो जाते हैं, जो मन वचन की शुद्धता से पात्रों को दान देता है। उसके परिणाम शान्त हो जाते हैं और प्रागम तथा चरित्र की वृद्धि होती है । वह कल्याण, पुण्य और ज्ञान विनय की प्राप्ति करता है। पात्रों को दान देने से रत्नत्रयादि गुणों में प्रेम और लक्ष्मो की सिद्धि होती है। यहां तक कि प्रात्म-कल्याण और अनुक्रम से मोक्ष तक की प्राप्ति होती है । दान देने से-ज्ञान कीति, सौभाग्य, बल प्रायु कांति प्रादि समस्त गुणों को अभिवृद्धि होती है तथा उत्तम संतान और सुन्दरी स्त्रियों प्राप्त होती हैं। जैसे गाय आदि दूध देने वाले पशुओं को घास खिलाने से दूध उत्पन्न होता है, उसी प्रकार सुपात्रों के दान से चक्रवर्ती, इन्द्र, नागेन्द्र आदि के सुख उपलब्ध होती हैं । जो दान दयापूर्वक दोन पोर दखियों को दिया जाता है, उसे भी जिनेन्द्र भगवान ने प्रशंसनीय कहा है। नपे मनुष्य पर्याय प्राप्त होता है। पर मित्र राजा, भाट, दास ज्योतिषी वैद्य प्रादि को उनके कार्य के बदले जो दान दिया जाता है, उससे पुण्य नहीं होता। परन्तु रोगियों को सदा औषधि दान देना चाहिए। औषधि के दान से सुवर्ण जैसे सुन्दर शरीर की प्राप्ति होती है। वे कामदेव से सुन्दर और सदा निरोग रहते हैं। इसी तरह जो मनुष्य एकेन्द्रिय आदि जीवों को अभय दान देता है, उसकी सेवा में उत्तम स्त्रियां रत रहती हैं। इस अभयदान के प्रभाव से गहन वन में, पर्वतों पर किसी भी हिसक जानवर का भय नहीं रहता । जो जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया हो, धर्म की शिक्षा देता हो तथा जिसमें अहिंसा प्रादि का वर्णन हो, वह आर्हत मत में शास्त्र कहलाता है। जो लोग शास्त्रों को लिखा लिखाकर दान देते हैं, वे शास्त्र पारंगत होते हैं। पर अनेक प्रकार के अनर्थ में रत मनुष्य शस्त्र, लोहा, सोना, चांदी, गौ. हाथी, घोडा प्रादि का दान करते हैं। वे नरकगामी होते हैं। शास्त्रदान से जीव इन्द्र होता है। वे परम देव के कल्याणकों में लीन रहते हैं, अनेक देवियां उनकी सेवा में तत्पर रहती है और उनकी आयु होती हैं सागरों की। वहां से वह मनुष्य भर में प्राकर स्त्रियों के भोग भोगते हैं, बड़े धनी और यशस्वी बनते हैं। वे सदा जिन भगवान की सेवा में लीन रहते हैं मधुर भाषी होते हैं और दया आदि अनेक व्रतों को धारण करते हैं। अन्त में संसार के विषयों से विरक्त होकर जिन-दीक्षा ग्रहण कर शास्त्राभ्यास में लीन होते हैं। उनकी प्रवृत्ति सदा परोपकार में रहती हैं । पुनः वे घोर तपश्चरण के द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त कर भव्य जीवों को धर्मोपदेश करते हैं एवं चौदहवें गुणस्थान में पहुंच कर मोक्ष प्राप्त करते हैं। उपरोक्त व्रतों के तुल्य व्रत के पालन करने वाले श्रावकों को चाहिए कि वे रात्रि-भोजन का सर्वथा त्याग करदें। रात्रि भोजन हिंसा का एक अंग है, पाप की वृद्धि करने वाला तथा उत्तम गतियों को प्राप्त करने में प्रधान बाधक है। रात्रि में जीवों की अधिक वृद्धि हो जाती है। भोजन में इतने छोटे-छोटे कीड़े मिल जाते हैं, जो दिखाई नहीं देते । इसलिए कौन ऐसा धार्मिक पुरुष होगा जो रात्रि के समय भोजन करेगा। रात्रि के समय भोजन करने से पापस्वरूप जीव को सिंह, उल्लू, बिल्ली, काक, कुत्ता, गृद्ध मोर मांसभक्षी आदि नोच योनियों में जाना पड़ता है। जो शास्त्रपारदर्शी व्यक्ति रात्रि भोजन का परित्याग कर देते हैं, वे १५ दिन उपवास करने का फल प्राप्त करते हैं । ऐसे ही मुनि और धावकों के भेद से कहे गये उपरोक्त धर्मों का जो निरंतर पालन करते हैं, वे ऐहिक, पारलौकिक और अन्त में मोक्ष प्राप्ति के अधिकारी अवश्य होते हैं। भगवान महावीर स्वामी के सदुपदेश सुनकर श्रेणिक पादि अनेक राजाओं और मनुष्यों ने ब्रत धारण किये और दीक्षा ग्रहण की।
पश्चात् भगवान के भादेश के अनुसार संसार सागर से पार उतारने वाले गौतम गणधर भव्यजीवों को उपदेश देने लगे । मुनिराज गौतम-स्वामी प्रष्ट कर्मरूपी शत्रयों के विनाश के हेतु कल्याण दायक, कामाग्नि को जल के समान शान्त करके तपश्चरण में तल्लीन हए । एक दिन गौतम मुनिराज एकान्त प्रामक स्थान में उपस्थित थे। वे निश्चल और ध्यान में मग्न कर्मनाश का उद्योग कर रहे थे 1 प्रारम्भ में ही उन्होंने अधःकारण, अपूर्वकरण, अनिवृति करण के द्वारा मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व एवं सम्यक प्रकृति मिथ्यात्व ये तीन दर्शन मोहनीय प्रकृतियां अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कपाय, इस तरह सम्यदर्शन में बाधा प्रदान करने वाली इन सातों प्रकृतियों को नष्ट कर क्षपक श्रेणी में प्रारूढ़ हुए। उन्होंने ध्यान के बल से तिर्यच प्रायु, नरकायु और देवायू को नष्ट कर शेष कर्मों का नाश करने के लिए नवें गुण स्थान को प्राप्त किया। स्थावर नाम कर्म, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, तेइन्द्रिय जाति चौइन्द्रिय जाति तिर्यनजाति, तिर्यगत्यानुपूर्वी, नरक गति, नरक गत्यानपूर्वी साधारण, प्रातप, उद्योत, निद्रा-निद्रा प्रचला-प्रचला, सत्यानगृद्धि, और सूक्ष्म नाम कर्म उक्त सोलह प्रकृतियों को उन्होंने नौवे
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गुणस्थान के पूर्व में नष्ट किया । पुनः ग्रप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया लोभ ग्रष्ट कषायों को दूसरे अंश में नष्ट किया और नपुंसकलिंग, स्त्रीलिंग, हास्य, रति, परति शोक, भय, जुगुप्सा, पुलिंग, संजन, फोध, मान, माया समस्त प्रकृतियां नष्ट की। सज्वलन लोभ प्रकृति सूक्ष्म सांपराय दशव गुण स्थान के उपांत्य में निद्रा प्रचला विनष्ट हुई और इसी गुण स्थान के प्रत में पांचों ज्ञानावरण, चारों दर्शनावरण और पांचों अन्तराय कर्म नष्ट किये। उक्त तिरसठ प्रकृतियों को नष्ट कर गौतम मुनिराज केवल ज्ञान प्राप्त कर तेरहवें गुण स्थान हुए। उन्होंने अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य प्राप्त किये। उनके लिए देवों ने गन्ध कुटी की रचना की। जिसमें केवली भगवान विराजमान हुए । उन्हें इन्द्रादि देव भक्ति पूर्वक नमस्कार करने लगे । समस्त गणधर मुनिराज और राजाओं ने गौतम स्वामी की भक्तिपूर्वक पूजा की ओर नमस्कार कर अपने-अपने स्थान पर बैठे जिन्होंने लोक सहित दोनों लोकों को देखा है, जिनका विपय समुदाय नष्ट हो चुका है, जो लीला पूर्वक कामदेव को नष्ट कर ब्राह्मण वंश को सुशोभित करने के लिए मणि के तुल्य हैं, वे केवल ज्ञानी भगवान गीतम स्वामी मोक्ष प्रदान करने वाला भव्य ज्ञान देते रहें ।
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पंचम अधिकार
इसके पश्चात् भगवान गौतम स्वामी भव्य जीवों को आत्म-ज्ञान प्रदान करने वाली सरस्वती को प्रकट करने लगे । उनकी दिव्य ध्वनि में प्रकट हुआ कि भगवान जिनेन्द्र देव ने जीव, ग्रजीव ग्रास्रव, बंध संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सप्ततत्व निरूपित किये हैं जो मन्तरंग घर बहिरंग प्राणों से पूर्वभव में जीवित रहेगा, यह जीव हैं यह अनादिकाल से स्वयं सिद्ध है यह जीव भव्य मोर भव्य अर्थात् संसार और सिद्ध भेद से अथवा सेनानी भेद से दो प्रकार का होता है। बस और स्थावर भेव से दो प्रकार का होता है उनमें पृथ्वीका विक, जलकाविक, अग्निकायिक, वायुकाविक, वनस्पतिकायिक, पंच स्थावरों के भेद हैं तथा दो इन्द्रिय तेदद्रिव चौइन्द्रिय पंचेन्द्रिय चार बसों के भेद हैं स्पर्धन, रसना, घाण, चक्षु, कर्ण ये पंचइन्द्रियां हैं एवं स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द युक्त इन्द्रियों के विषय हैं । शंखावर्त पद्मपत्र और वंशपत्र ये तीन प्रकार की योनियां होती हैं या योनि में गर्भधारण की शक्ति नहीं होती। पद्मपत्र योनि से तीर्थकर चक्रवर्ती नारायण प्रति नारायण बलभद्र आदि महापुरुष और साधारण अन्न होते है, किन्तु दान से साधारण मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं। पुरुष उत्पन्न वंशपत्र जीवों के जन्म तीन प्रकार में होते हैं-संमूर्च्छन, गर्म और उपाद एवं सचित प्रचित सविताचित, शीत, उष्ण, शीतोष्ण संवृत, निवृत संवृत निवृत ये नव प्रकार की योनियां हैं। उत्पन्न होते ही जिन पर जरा प्राती है वे जरायुज और जिन पर जरा नहीं माटी के पंड और गोत से गर्भ से उत्पन्न होते हैं इतर राव जीव संमूर्च्छन उत्पन्न होते हैं। योनियों के ये तव भेद जिनागम में संक्षेप से बताये गये हैं, धन्यथा यदि विस्तारपूर्वक क जांग तो चौरासी लाख होते हैं। नित्य निगोद, इत्तर निगोद, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक इनको सातु खात लाख योनियां हैं। इन योनियों में जीव सदा परिभ्रमण किया करता है। वनस्पति जीवों की दश लाख योनियां हैं। दो इन्द्रिय, इन्द्रिय श्रीइन्द्रि इनकी दो-दो लाख योनियां हैं। जिनमें ये जीव जन्म मृत्यु के दुःख भोगा करते हैं। चार लाख योनियां हैं, जिनमें ये जीव जन्म मृत्यु के दुःख भोगा करते हैं। चार लाख योनियां नारकीयों की है जो पोषण के दुःख भोगती हैं ये शारीरिक, मानसिक घोर असुर कुमार तथा देवों के दिये हुए पांच प्रकार के दुख भोगती हैं। चार लाख योनियों की हैं वे मारन चैन आदि के कष्ट भोगती हैं चौदह लाख योनियां मनुष्यों की हैं, वे इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग के कष्ट झेलती हैं। इसके अतिरिक्त देवों की हैं । वे इष्ट वियोग और अनिष्ट सयोग के कष्ट झेलती हैं। इनके अतिरिक्त देवों के चार लाख योनियां हैं वे भी मानसिक दुःख भोगने के लिए बाध्य है। वर्षात् हे राजन् संसार में कहीं भी सुख नहीं है। गर्भ से उत्पन्न होने वाले स्त्री, पुरुष, स्त्रीलिंग पुलिंग और पुखक लिंग के धारण करने वाले होते हैं पर वे दो लिंगों को अर्थात् स्त्रीलिंग और पुलिंग को हो धारण करने वाले होते हैं एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, चौइन्द्रिय सम्मूर्छन पंचेन्द्रिय तथा नारकी वे सब नपुन्सक ही होते हैं। एकेन्द्रिय आदि के अनेक संस्थान होते हैं, पर नारकीयों का झुंडक संस्थान ही होता है। देव और भोग भूमियों का समचतुरस्त्र संस्थान होता है, पर मनुष्य और तिर्यंचों के छहों संस्थान होते हैं। देव और नारकियों की उत्कृष्ट स्थिति ( सबसे अधिक आयु) तीस
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सागर की होती है, व्यतर ज्योतिषियों की एक पल्य तथा भवनवासियों की एक सागर को। वनस्पतियों की स्थिति दश हजार वर्ष और सूक्ष्म धनस्पतियों की अन्तर्मुहूर्त है । पृथ्वीकायिक जीवों को बाइस हजार वर्ष, जलकायिक जीवों को सात हजार वर्ष और अग्निकायिक जीवों की तीन दिन को उत्कृष्ट स्थिति है। जिनागम में द्विन्द्रिय जीवों को उत्कष्ट शिति बारह वर्ष और तेइन्द्रिय की उन्चास दिन की बताई गयी है चतुरेन्द्रिय को छ: मास की और पंचेन्द्रिय जीवों की स्थिति है तीन पल्य की एवं इन्हीं की जघन्य स्थिति अन्तर मुहर्त की होती है। जिनागम में धर्म, अधर्म, आकाश पटगल जीव और काल ये छः द्रव्य बतलाये गये हैं। इनमें से धर्म अधर्म अाकाश और पुद्गल द्रव्य अजीब भी
और काय भी हैं, पुद्गल द्रव्य रूपी है और बाकी सबके सब प्ररूपी हैं और द्रव्य नित्य और पुद्गल क्रियाशील हैं और चार द्रव्य क्रिया रहित है । धर्म अधर्म और एक जीव के असंख्यात प्रदेश हैं । पुद्गलों में संख्यात, असंख्यात और अनन्त दोनों प्रकार के प्रदेश हैं । प्रकाश के अनन्त प्रदेश हैं और कालका एक-एक प्रदेश है। दीपक के प्रकाश की
भांति जीव की भी संकोच होने और विस्तृत होने की शक्ति है। अतएव बह छोटे-बड़े शरीर में पहुंच कर शरीर का प्राकार धारण कर लेता है। शरीर मन, वचन और श्वासोच्छास के द्वारा पुद्गल जीवों का उपकार करता है। जिस प्रकार मत्स्य के तरने के लिए जल सहायक होता है, तथा पथिक को रोकने के लिए छाया सहायक होती है, उसी प्रकार जीव के चलने में ज य सहायक होता है, और अधर्म ठहरने में सहायक होता है। द्रव्य परिवर्तन के कारण को काल कहते हैं । वह क्रिया परिणमन, परत्वापरत्व' से जाना जाता है। प्राकाश द्रव्य सब द्रव्यों को अवकाश देता है । द्रव्य के लक्षण सत् हैं । जो प्रति
उत्पन्न होता हो, ज्यों का त्यों बना रहता हो, वह सत् है । सर्वज्ञदेव ने ऐसा बताया है कि जिसमें गुण पर्याय हो अथवा उत्पाद, व्यय प्रौव्य हों, उसे द्रव्य कहते हैं । बचन और शरीर की क्रिया योग है । वह अशुभ दो प्रकार का होता है। मन वचन काय की शुभ क्रिया पुण्य है और अशुभ त्रिया पाप है । मिथ्यात्व, अविरत योग और कषायों से आने वाले कर्म को प्रास्रव कहते हैं। इनमें मिथ्यात्व' पांच, अविरत बारह, योग पन्द्रह प्रकार के और काय के पच्चीस भेद होते हैं। मिथ्यात्व के पांच भेद एकान्त, विपरीत विनय, संशय और अज्ञान है। छ: प्रकार के जीवों की रक्षा न करना, पंचेन्द्रिय तथा मन को वश में न करना आदि बारह भेद श्री सर्वज्ञदेव ने बतलाये हैं। सत्य मनोयोग, प्रमत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, अनुभव मनोयोग ये चार मनोयोग के भेद हैं। काय योग के सात भेद-क्रम से औदारिक. प्रौदारिक मिश्र, वक्रियिक, वैक्रियिक-मिश्र, प्राहारक, पाहारक मिश्र और कार्माण है। कषाय वेदनीय और नौ-कषाय वेदनीय ये कषाय के दो भेद हैं। इनमें अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध. मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानानरोधमान, माया, लोभ और संज्वजलन क्रोध, मान, माया, लोभ, ये सोलह प्रकार के भेद कषाय वेदनीय के हैं और हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुलिंग, स्त्रीलिंग, नपुन्सलिंग, ये नौ भेद नौ कषाय बेदनीय के हैं । इस प्रकार कषाय के कुल पच्चीस भेद होते हैं । जिस प्रकार समुद्र में पड़ी हुई नौका में छिद्र हो जाने से उसमें पानी भर जाता है, उसो प्रकार मिथ्यात्व अविरति ग्रादि के द्वारा जीवों के कर्मों का प्राव होता रहता है। यह सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है। काँ के उदय
की जीवों में राग द्वेष रूप के भाव उत्पन्न होते हैं । राग द्वेष रूप परिमाणों से अनन्स पुदगल आकर इस जीवों के साथ सम्मिलित हो जाते हैं। पुनः नये कर्मों का बन्ध प्रारम्भ होता है। इस प्रकार कर्म और प्रात्मा का सम्बन्ध आदिकाल से है। जिलागम में प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये बन्ध के चार भेद बतलाये गये हैं। ज्ञानाबरण, दर्शनावरण, बेदनीय, मोहनीय,
नाम गोत्र और अन्तराय ये प्रकृति के पाठ भेद हैं । प्रतिमा के ऊपर पड़ी हुई धूल जिस प्रकार प्रतिमा को ढक लेती है, पसी प्रकार ज्ञानाबरण कर्म ज्ञान को ढक लेते हैं। मति ज्ञानाबरण, श्रतज्ञानावरण. प्रवधि जानाजागा Part पर केवल ज्ञानावरण ये पांच भेद ज्ञानावरण के होते है । प्रात्मा के दर्शन गुण को रोकने वाले को दर्शनावरण कहते हैं। वह
कार का होता है-चक्षदर्शनावरण प्रक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला पला-प्रचला. स्त्याने गद्धि । दुःख और सुख को अनुभव कराने वाले कर्म को वेदनीय कहते हैं । बह दो प्रकार का होता हैमाता वेदनीय और असाता वेदनीय । मोहनीय कर्म का स्वरूप मद्यत्वा धतूरा की तरह होता है। वह प्रात्मा को मोहित कर लेता है। इसके अठाईस भेद होते हैं-अनन्तानुबंधी, क्रोध, मान, माया, लोभ अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीलिंग, पुलिंग, मपन्सक लिग मिथ्यात्व सम्यकमिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति, मिथ्यात्व । जिस प्रकार सांकल में बंधा हुमा मनुष्य एक स्थान पर स्थिर रहता है, उसी प्रकार इस जीव को मनुष्य तियंत्र आदि के शरीर में रोक कर रखे, उसे आयु कर्म कहते हैं आयु कर्म के उदय से ही मनुष्यादि भव धारण करना पड़ता है । यह कर्म चार प्रकार का होता है-मनुष्यायु, तिर्यंचायु, देवायु और नरकायु । जो अनेक प्रकार के शरीर की रचना करें, उसे नाम कर्म कहते हैं। उसके तिरानबे भेद हैं
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देव, मनुष्य, तिच, नरक ये चार गतियां एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ये पांच जातियां । प्रौदारिक, वक्रियिक, पाहारक, तेजस, कार्मण, पांच बंधन, पंच संघात, समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वातिक, कुटजक, वामन, हुंडक, ये छः संहनन, स्पर्श पाठ, रस पांच, गंध दो, वर्ण पांच नरक, तिर्यंच मनुष्य देवगत्यानुपूर्वी अगुरु लघु, उपघात, परघात,
आतप, उद्योत जल्छवास बिहायोगति, दो प्रत्येक साधारण त्रस, स्थावर, सुभग, दुर्भग, दुस्वर, सुरवर शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, स्थूल, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर मादेय, अनादेय, यशः कीर्ति प्रशय कीति, तीर्थकर । जिस प्रकार कुम्हार छोटे-बड़े हर प्रकार के बर्तन तैयार करता है, उसी प्रकार ऊंच-नीच गोत्रों में जो उत्पन्न करे, उसे गोत्रकर्म कहते हैं। उसके ऊच गोत्र और नीच गोत्र दो भेद होते हैं । दान आदि लब्धियों में जो विघ्न उत्पन्न करता है, वह अन्तराय है। उसके पांच भेद बतलाये गये हैंदानांतराय, लाभान्त राय, भोगान्तराय, उपभोगांतराय, वीर्यान्तराय । विद्वानों ने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्त राय कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ा-कोड़ी सागर की बतलाई है और आयु कम की उत्कृष्ट स्थिति संतीस सागर की। किन्तु इनकी जघन्य स्थिति वेदनीय की बारह मुहर्त नाम और गोत्रको पाठ और शेष कर्मों को अन्तमुहूर्त है । यह जोव शुभ परिणामों से पुण्य और अशुभ परिणामों से पाप संचय करता है। शुभ प्रायु, शुभ नाम, शुभ गोत्र और सातावेदनीय पुण्य है पोर अशुभ मायु, अशुभ नाम, अशुभ गोत्र, असाता बेदनीय ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अत्तराय पाप है। पाप प्रकृतियों का परिपाक विष के तुल्य होता है और पुण्य प्रकृतियों का अमृत के समान। ज्ञान के विरुद्ध कर्म करने से ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों का बन्ध होता है। जीवों पर दया करने, दान देने, राग पूर्वक संयम पालन करने नम्रता और क्षमा धारण करने से माता वेदनीय कर्म का बंध होता है। दुःख, शोक, वय, रोना आदि ये कर्म स्वयं करने या दुसरों ने कराने से असातावेदनोय कर्म का आस्रव होता है। भगवान को निन्दा, शास्त्र को निन्दा, तपश्चरण को निन्दा, गुरु को निन्दा, धर्म को निन्दा, आदि से दर्शन मोहनीय कर्म का बन्ध होता है । कषायों के उदय से तीव्र परिणाम होते हैं और उनके सकल विफल दोनों प्रकार के चरित्र मोहनीय का बन्ध होता है। रौद्रभव धारण करने वाला, पापी, लोभी, शीलवत से रहित मिथ्या दृष्टिनरकायुका बन्ध करता है। और शील रहित जिन मार्ग का विरोधो पापाचारी जोव तिर्यच आयुका बंध करता है। परन्तु जो मध्यम गुण धारण करने वाला, दानो, ओर मन्दकषायी है, वह मनुष्य आयु का बन्ध कर लेता है। देशमती महानतो काम निर्जरा करने वाला सम्यग्दष्टि जीव देवायुका बन्ध करता है । कुटिल मायाचारी जीव अशुभ नाम कर्म का बन्य करता है और इसके विपरीत मन, वचन काय से शुद्ध जीव शुभ नामकम का बन्ध करता है । दुर्भाग्य को प्रकट करने से दूसरों की निन्दा करने से नीच गोत्र का बंध और अपनी निन्दा और दूसरे की प्रशंसा करने से उच्च गोत्र का बंध होता है। जो भगवान अर्हन्तदेव की पूजा से विमुख हिंसा प्रादि में रत रहता है, वह अंतराय कर्म का बंध करता है, उसे इष्ट पदार्थों को प्राप्ति नहीं होती। गुप्ति, समिति धर्म, अनुप्रेक्षा, परोषह, जप, और चारित्र से पाश्रव होकर महासंबर होता है। यह प्रात्मा संवर होने से अपने लक्ष्य (मोक्ष) पर पहुँच जाता है। बारह प्रकार के तपश्चरण, धर्म रूपी उत्तम बल, ओर रत्न भयरूपो अग्नि से यह जोवकर्मा को निजेरा करता है। निर्जरा के दो भेद हैं--सविपाक, अविपाक । तप और ध्वनि के द्वारा बिना फल दिये हो जो कर्म नष्ट हो जाते हैं, उसे सविपाक निर्जरा कहते हैं और अविपाक निर्जरा वह है जो कर्मों के झड़ जाने से होती है । समस्त कर्म जब नष्ट हो जाते हैं तब मोक्ष मिलता है। मुक्त होने पर यह जीव ऊपर को गमन करता है। यह धर्मास्तिकाय अर्थात् लोकाकाश के अन्त तक जाता है और आगे धर्मास्तिकाय न होने से वहीं रुक जाता है।
इस प्रकार भगवान गौतम स्वामी को दिव्य वाणी के द्वारा सप्त तत्वों का स्वरूप सुनकर महाराज श्रेणिक प्रार्थना करने लगे। वे कहने लगे-प्रभो पाप संदेह रूपो अन्धकार को दूर करने के लिए सूर्य के तुल्य है। मैं आपके थोमस से काल निर्णय. भोगभूमि का स्वरूप, कूलंकरों की स्थिति, तीर्थंकरों की उत्पत्ति, उनके उत्पन्न होने के मध्य का समय, यारीर को भाई चिन्ह, जन्म, नगर, उनके माता-पितानों के नाम, चक्रवर्ती नारायण, प्रतिनारायण, रुद्र, नारद, कामदेव, ग्रादि महापुरुषों के नाम नरक स्वर्गों में नारकी और देवों वो स्थिति और उनकी ऊंचाई लेश्या आदि बातें सुनने को आशा रखता है। कृपा करदन सब बातों को बतलाइए । प्रत्युत्तर में भगवान श्री गौतम स्वामी कहने लगे-तुम मन को स्थिर कर सुनो । ये विषय संसारको सुख प्रदान करने वाले हैं।
बीस कोड़ा-कोड़ी सागर का एक करप काल होता है, उसमें दा, दश, कोड़ा-कोड़ी सागर के प्रवसपिणी काल और उत्सपिणी काल होते हैं । इन दोनों कालों में प्रत्येक के छः भाग होते हैं--प्रथम सुषमा सुपमा द्वितीय सुषमा, तृतीय सुषमा दुषमा, चतुर्थ दुषमा सुपमा पंचम दुःषमा और षष्ठम दुःषमा दुषमा, होते है। उत्सपिणी के काल ठीक इसके विपरीत हैं। इनमें प्रथम काल कोड़ा-कोड़ी सागर का है। द्वितीय तीन कोड़ा-कोड़ी तृतीय दो कोड़ा-कोड़ी, और चतुर्थ व्यालीस हजार वर्ष कम एक
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कोडा-कोडी सागर का है। पंचम इक्कीस हजार वर्ष का और षष्टम भी एक्कीस हजार वर्ष का होता है, ऐसा जिनागम जाननेवाले प्राचार्य कहते हैं । उपरोक्त पूर्व के तीन बालों में भोगापभोग सामग्रिया कल्पवृक्षों से प्राप्त होती हैं, अत: उक्त तीनों कालों को भोग-भूमि कहते हैं । प्रथ: :: जी की अष्ट सांग पाल्य, दूसरे में दो पल्य और तीसरे में एक पल्य को होतो है। इसे भी उत्तम, मध्यम, जघन्य भोगभूमि के अनुरूप ही समझना चाहिए । पूर्व काल के प्रारंभ में वहां के मनुष्य ६ हजार धनुष, दूसरे काल के प्रारंभ में चार हजार धनुष, और तीसरे के आरम्भ में दो हजार धनुष ऊंचे होते हैं। भोगभूमि में उत्पन्न स्त्रीपुरुषों के शरीर का रंग पूर्व काल में सूर्य की प्रभा के समान, दूसरे काल में चन्द्रमा के और तीसरे काल में नीलवर्ण का होता है। वहां के स्त्री-पुरुष प्रथम काल में बेर के समान, द्वितीय काल में बहेरे के समान और तृतीय काल में प्रांवलों के बराबर भोजन करते हैं। बहां तीनों कालों में वस्त्रांग, दीपाग, गृहांग, ज्योतिरांग, मालांग, भूषणाग, भोजनांग, भाजनांग बाद्यांग और माद्यांग जाति के कल्पवृक्ष होते हैं। तीनों कालों के स्त्री-पुरुष सुलक्षणों से युक्त और क्रीड़ा रत रहते हैं। उनकी तृप्ति कल्पवृक्ष सदा किया करते हैं। वहां के तिर्यंच भी सदनुरूप ही होते हैं। जो लोग उत्तम पात्रों को शुभ दान देते हैं, वे भोगभूमि में उत्पन्न होकर इन्द्र के समान सुख भोगने के अधिकारी होते हैं। जिस समय अवपिणी का अन्त हो रहा था, पल्य का पाठवा भाग बाको था
और कल्पवृक्ष नष्ट हो रहे थे, उस समय कुलंकर उत्पन्न हुए थे। उनके नाम क्रम से १४ हैं प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमकर, क्षेमधर, विमलवाहन चक्षुष्मान, यशस्वान, अभिचन्द्र, चन्द्राभ; मरुदेव ; प्रसेनजित और नाभिराय थे। इनमें से सुख प्रदान करने वाले नाभिराय की आयु एक करोड़ वर्ष थी और उन्होंने उत्पन्न होने के समय ही नाभि-काटने की विधि बताई थी। इस प्रकार सभी कुलकर अपने २ नाम के अनुसार गुण धारण करने वाले थे। वे एक-एक पुत्र उत्पन्न कर तथा लोगों को सदबुद्धि दं स्वर्ग सिधार गये । पर तीसरे काल में जब तीन वर्ष साढ़े आठ महीने अधिक चौरासी लाख वर्ष बाकी थे, उस समय युग्मधर्म को दूर करने वाले मति, श्रुत, अवधिज्ञान से सुशोभित त्रिलोक के स्वामी तीनों लोकों के इन्द्रों द्वारा पूज्य श्री ऋषभदेव तीर्थकर उत्पन्न हुए थे।
श्री ऋषभदेव, अजित नाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दन. सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयांस नाथ, वासुपूज्य, विमल नाथ, अनन्त नाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत नाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, और वर्द्धमान ये चौबीस तीर्थकर कामदेव को परास्त करने वाले और भव्यजीवों को संसार सागर से पार उतारने वाले थे। जब तीसरे काल में तीन वर्ष साढे अठारह महीने बाकी रहे, तब श्री महावीर स्वामी मोक्ष गये थे। श्री ऋषभदेव की आयु चौरासी लाख पूर्व, श्री अजीतनाथ को बहत्तर लाख पूर्व, श्री शंभवनाथ की साठ लाख पूर्व, श्री अभिनन्दननाथ की पचास लाख पूर्व, श्री सुमतिनाथ की चालीस लाख पूर्व, श्री पद्मप्रभु को तीस लाख सुपार्श्वनाथ की बीस लाख पूर्व, श्री चन्द्रप्रभ को दश लाख पूर्व, श्री पुष्प दन्त की दो लाख पूर्व, श्री शीतलनाथ को एक लाख पूर्व, श्री श्रेयांस नाथ की चौरासी लाख पूर्व, थी बासु पूज्य की बहत्तरलाख वर्ष, श्री विमल नाथ की साठ लाख वर्ष, श्री अनन्त नाथ की तीस लाख वर्ष, धर्मनाथ की दश लाख वर्ष, श्री शान्ति नाथ की एक लाख वर्ष, श्री कुन्धनाथ की पचानवे हजार वर्ष, श्री अरहनाथ की चौरासी हजार वर्ष, श्री मल्लिनाथ की पचपन हजार वर्ष, श्री मुनिसुव्रत नाथ को दश हजार वर्ष, श्री नमिनाथ की दश हजार वर्ष, श्री नेमिनाथ को एक हजार वर्ष, श्री पार्श्वनाथ को सौ वर्ष और श्री बर्द्धमान की ७२ वर्ष की प्राय थी। श्री ऋषभदेव के मोक्ष जाने के पश्चात पचास लाख करोड़ सागर व्यतीत होने पर श्री अजितनाथ उत्पन्न हुए थे। उनके मोक्ष के पश्चात् तीस लाख करोड़ सागर बीत जाने पर श्री शंभव नाथ उत्पन्न हुए थे। इनके मोक्ष के बाद दश लाख करोड़ सागर बीतने पर अभिनन्दन नाथ हए । इनके मोक्ष जाने के पश्चात् नव लाख करोड़ नागर व्यतीत होने पर श्री सुति नाथ उत्पन्न हुए थे। इनकी सिद्धि के नब्बे हजार करोड़ सागर व्यतीत होने के बाद पद्मप्रभ उत्पन्न हुए थे। इनके मोक्ष जाने के नौ हजार करोड़ सागर बीतन पर श्री चन्द्रप्रभ हुए पुनः नन्ने करोड़ सागर व्यतीत होने पर धो पुष्पदन्त हुए थे। इसी प्रकार नौ करोड़ सागर बीत जाने पर श्री शीतल नाथ उत्पन्न हुए थे। इनके मोक्ष जाने के वाद सौ सागर छयासठ लाख छब्बीस हजार वर्ष कम एक करोड सागर बीत जाने पर श्री थेयांसनाथ की उत्पत्ति हई, इनके वाद चौसठ सागर वीत जाने पर भी विमल नाथ हए थे। इनके बाद नौ सागर व्यतीत होने पर श्री अनन्त नाथ हुए थे। श्री अनन्त नाथ के मोक्ष जाने के बाद चार सागर बोत जाने के बाद श्री धर्मनाथ जी हुए थे। इनके पश्चात पौन पल्य कम तीन सागर व्यतीत होने पर श्री शान्तिनाथ हए थे। इनके पश्चात् आधा पल्य बीतने पर श्री कुथनाथ हुए थे। इनके पश्चात् एक हजार करोड़ वर्ष कम चौथाई पल्य व्यतीत होने पर श्री अरहनाथ हुए थे। एक लाख करोड़ दो हजार वर्ष बीतने पर श्री मल्लिनाथ और उनके मोक्ष जाने के चौवन लाख वर्ष बीत जाने पर श्री मुनिसुव्रत हुए थे। ऐसे हो श्री मुनिसुव्रत के मोक्ष जाने के पश्चात् ६ लाख वर्ष बीत जाने पर श्री नमिनाथ हुए थे। इनके बाद पांच लाख वर्ष व्यतीत होने पर श्री नेमिनाथ उत्पन्न हुए। इसके तिरासी हजार सात सौ वर्ष व्यतीत होने पर श्री
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पार्श्वनाथ अवतरित हुए थे। और इनके ढाईसौ वर्ष बीत जाने पर घी वर्द्धमान स्वामी का अविर्भाव हना था । क्रम से तीर्थकरों के शरीर की ऊंचाई पांच सौ धनुष, चार सौ पचास धनुष, चार सौ धनुष, तीन सौ पचास धनुष, तीन सौ धनुष, दो सौ पचास धनुष, दो सौ धनुष, एक सौ पचास धनुष, सौ धनुष, नब्बे धनुष, अस्सो धनुष, साठ धनुष, पचास धनुष, चालीस धनुष, पंतीस धनुष, तीस धनुष, पच्चीस धनुस, बीस धनुष, पंद्रह धनुष, दश धनुष, नव हाथ और सात हाथ को थी। चौवीस तीर्थकरों में थी पदुमप्रभ और वासुपूज्य का वर्ण लाल था, श्री नेमिनाथ और मुनिसुव्रत श्यामवर्ण के थे, सुपाश्वनाथ और पार्श्वनाथ हरित वर्ण के तथा अन्य सोलह तीर्थकरों का वर्ण तपाये हुए स्वर्ण के समान था। ऋम से-बल, हाथी, घोड़ा, बंदर, चकवा, कमल, स्वस्तिक, चन्द्रमा, मगर, वृक्ष, गैडा, भैंसा, शूकर, सेही, बज, हरिण, बकरा, मछली, कलश, कछवा, नील कमल, शंख, सर्प और सिंह ये इनके चिह्न है।
अयोध्या, कोशाम्बी, काशी, चन्दपुर, काकंदीर सिंहपुर, चंपापुर कपिला, पयोध्या, रत्नपुर दस्तिनापुर, मिथिला राजगृह, मिथिला, सौरीपुर, वाराणसी कुडपुर ये क्रम से चौबीस तीर्थंकरों को जन्मभूमियां हैं। श्री वासुपुज्य मल्लिनाथ पाश्र्वनाथ और वर्द्धमान ये पांच तीर्थकर कुमार अवस्था में ही दीक्षित हुए थे, अर्थात् बाल ब्रह्मचारी थे अन्यान्य तीर्थकर राज्य करके दीक्षित हए थे। तोम तीर्थकर-श्री ऋषभदेव बासुपूज्य और नेमिनाथ पद्मासन से मोक्ष गये हैं बाकी तीर्थकर खड़गासन से श्री ऋषभदेव चौदह दिनों तक योग निरोध कर, श्री वर्द्धमान स्वामी दो दिनों तक योग निरोध कर तथा अन्य वाइस तीर्थकर एक-एक मास तक योग निरोध कर मोक्ष पधारे थे। ऋषभदेव कैलाश से, श्री वासुपूज्य, चम्पापुर से थो नेमिनाथ गिरनार पर्वत से, श्री वर्द्धमान स्वामी पावापुर से तथा बाकी बीस तीर्थकर सम्मेद शिखर जी से मोक्ष पधारे थे। कम से चौवीस तीर्थकरों के पितानों के नाम ये हैं-श्री नाभिराय, जितामित्र, जितारि, संबर,राय, मेघप्रभ, धरण स्वामी सुप्रतिष्ठ, महासेन, सुग्रीव, रथ विष्णुराय, वसुपूज्य,कृतवर्मा, सिंहसेन मोनुराय, विश्व सेन, सूर्यप्रभा, सुदर्शन, कुभराय, सुमित्रनाथ, विजय रथ, समुद्र विजय अश्वसेन, और सिद्धार्थ तथा मातामों के –श्री मरुदेवी, विजयादेवी, सुसेना देवी, सिद्धार्था देबी, सुलक्ष्मणा देवी, रामादेवी, सुनन्दा देवी, विमला देवी, बिजया देवी, श्यामा देवी, सुकोति देवी, (सर्वयशा देवी) सुत्रता देवी, ऐरा देवी, रमादेवी, सुमित्रा देवी, ब्राह्मणी देवो, पदमावतोदेवी, विनयादेवी, शिवा देवा, वामा देवो, त्रिशला देवी नाम है। ये भी क्रम से मोक्ष प्राप्त करेंगी ऐसा सर्वज्ञ देव ने कहा है।
भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुथुनाथ, अरहनाथ, सुभूम, महापद्म, हरिषेण जय और ब्रह्मदत्त ये द्वादश चक्रवतियों के नाम हैं। ये भरत क्षेत्र के छः खण्डों के नी निधि ओर चौदह रत्नों के स्वामी होते हैं । अनेक देव पीर राजा इनके चरण कमलों की सेवा में संलग्न रहते हैं। चक्रवतियों के पास रहने वाली नौ निधियों के ये नाम हैं--पांडक, माणव, काल नःसर्प, दांख, पिंगल, सर्वरत्न, महाकाल और पद्म तथा चक्र, तलवार काकिणी, दण्ड, छत्र, चर्म, पुरोहित, गृहपति, स्थपति, स्त्री हाथी, मणि, सेनापति, घोड़ा ये चौदह रत्न है। उक्त बारह चक्रवर्तियों में सभम और ब्रह्मदत्त को नरक को प्राप्ति हुई थी, मघवा और सनतकुमार स्वर्ग गये और अन्य पाठ चक्रवर्तियों को मोक्ष की प्राप्ति हुई। इनके होने का समय इस प्रकार है -
प्रथम चक्रवर्ती श्री ऋषभदेव के समय में दूसरा अजितनाथ के समय में तीसरे और चौथे ये दो श्री धर्मनाथ और शान्तिनाथ के मध्यकाल में हुए थे । पाँचवें शान्तिनाथ थे और छवें कुथुनाथ थे और सातव अरहनाथ थे। पाठवां चक्रवर्ती परनाथ और श्री मल्लिनाथ के मध्य में हुआ था नौवां मल्लिनाथ और मुनि सुद्रत के मध्य में दशवां मुनि सूत्रतनाथ और नेमिनाथ के मध्यकाल में ग्यारहवां नमिनाथ और नेमिनाथ के मध्य काल में तथा बारहबा चक्रवतों नेमिनाथ पार पाश्वनाथ के मध्यकाल में हुआ।
अश्वग्रीव, तारक, मेरु, निशुभ मधकैटभ, बलि प्रहरण (प्रहलाद) रावण, जरासंध ये नव नारायणों के नाम तथा त्रिपृष्ठ ,द्विपृष्ट, स्वंभू, पूरुषोत्तम, प्रतापीदत्त, नरसिंह, पुंडरिक, लक्ष्मण, कृष्ण ये नव प्रति नारायणों के नाम है। नारायण प्रतिनारायण दोनों ही अर्ध चक्रवर्ती होते हैं। ये निदान से उत्पन्न होते हैं। प्रतएव नरक गामा होते हैं। बिजय, अचल, सूधर्म, सुप्रभ, रवयंप्रभ आनन्दी, नन्द मित्र रामचन्द्र और बलदेव ये नव बलभद्र हैं। इनकी उत्पत्ति निदान रहित होती है अतः ये जिन दीक्षा धारण करते हैं। ये काम जीत और उर्ध्व गामी होकर स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त करते हैं। भीमवली, जितशत्र रुद्र (महादेव। विश्वानल सूप्रतिष्ठ, अचल, पुण्डरीक, अजीतधर, जितनाभि, पीठ, सात्यक ये ग्यारह रुद्र हैं। ये ग्यारहवें गुणस्थान में गिरकर नर्क में ही गये हैं।
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भीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र काल, महाकाल, उर्मुख नरमुख, उन्मुख, ये नो नाम नारकियों के हैं। इनकी आयु भी नारायणों की भांति कही गयी है।
बाहुबली, अमितते ज, श्रीधर, दशभद्र, प्रसेनजित, चन्द्रवर्ण, अग्निमुक्त, सनतबमार, वत्सराज, कनकप्रभ, मेघवर्ण, शांतिनाथ, कंधनाथ, अरहनाथ, विजयराज, श्रीचन्द्र, नलराजा, हनुमन्त, बलराजा, वसुदेव, पदम, नागकुमार, श्रीपाल, जंबु स्वामी ये चौबीस कामदेवों के नाम है। चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रति नारायण, नौ बलभद्र तिरसठ शलाका पुरुष तथा चौवीस कामदेव नीनारद, चौबीस तीर्थकरों की माताएं चौदह कुलकर ग्यारह रुद्र ये एक सौ उनत्तर महापुरुष कहलाते हैं। इन में ये कितने ही धर्म के प्रभाव से मोक्षगामी हुए और आगे होंगे। राजन् ! यह बात सर्वथा सत्य है । अंणिक ! यह तो दुषमसुषम कालका स्वरूप बतलाया, अब दुषम कालका स्वरूप कहता हूं. सुन । जब वर्द्धमान स्वामी मोक्ष पधारेंगे उस समय, सुरेन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र सब उनका कल्याणोत्सव सम्पन्न करेंगे। उस काल में धर्म की प्रवति होती रहेगी। किन्तु जब केवली भगवान का धर्मोपदेश बन्द हो जायगा, तब उससमय के मनुष्य दुष्ट और अधर्मरत होंगे। वे कर तथा प्रजा को कष्ट देने वाले होंगे। उनका हृदय सम्यग्दर्शन से शुन्य होगा, हिंसा रत होंगे, झूठ बोलेगे एवं ब्रह्मचर्य से सर्वथा रहित होंगे। वे क्रोधी, मायाचारी, परस्त्री लोलुपी, परोपकार से रहित और जैन धर्म के कट्टर विरोधी होंगे। मांस, मद्य, मधु का सेवन करने बाले बिवादी इष्ट वियोगी अनिष्ट संयोगी और कुबुद्धि धारण करने वाले होंगे । उस समय उनके पाप कर्मों के उदय से सदा युद्ध होते रहेंगे । धान्य कम होगा और यज्ञों में गोवध करने वाले पतित दूसरों को भी पतित करते रहेंगे । पंचमकाल के प्रारम्भ में मनुष्य की ऊंचाई सात हाथ की होगी, पर घटते-२ वह दो हाथ की तरह जायगी। भारम्भ के मनुष्यों की आयु एक सौ चौबीस वर्ष की होगी पर वह भी अन्त में बीस वर्ष की हो जायगो। सुषम-दुषमकाल में शरीर की ऊचाई एक हाथ की होगी और प्राय केवल बारह वर्ग की रह जायेगी, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। उस काल के लोग सर्ववृत्ति धारण कर अनेक कुकर्म करेंगे। बे सर्वथा धनहीन और स्थानहीन होंगे। उनमें प्राचरण की प्रवृत्ति नहीं रहेगी और पशुओं की तरह गुफानों में रह कर जीवन व्यतीत करेंगे। अर्थ, धर्म, काम औरमोक्ष की प्रवृत्ति उनमें नहीं रहेगी। वे बनस्पति मादि खाकर जीवन-निर्वाह करेंगे। इसके अतिरिक्त वे विवाह संस्कार से भी रहित होंगे । अंग से कुरूप होंमे । जिस तरह से कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा का प्रकाश कम होता जाता है और शुक्ल पक्ष में उसको अभिवृद्धि होती है, उसी प्रकार अवसर्पिणी और उत्सपिणीकाल में मनुष्य की आयु शरीर प्रभाव ऐश्वर्य आदि में घटी-बढ़ी होती रहेगी।
राजन् ! मुनि और धावकों के भेद से दो प्रकार का धर्म बतलाया गया है ; इनमें मुनियों का धर्म मोक्ष प्राप्त करने वाला है और श्रावकों के धर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। दोनों का स्वरूप बतला चुके हैं। अब नरक स्वर्ग का हाल बतलाते हैं। जीव को पापकर्म के उदय से नरक में जाना पड़ता है। वहां यह जीव नाना तरह के दुःख भोगता है । अधोलोक में सात नरक हैं। उसके नाम ये हैं-घर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मधवी, माधवी इनमें चौरासीलाख बिलं कम से हैं। पहली पृथ्वी में तीस लाख दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पंद्रह लाख, चौथी में दश लाख पांचवी में तीन लाख, छठी में पांच कम एक लाख और सातवें में पांच । पहली में नारकी जीवों के जघन्य कापोतलेश्या दुसरी में मध्यम कापोतलेश्या और तीसरी पृथ्वी के ऊपरी भाग में उत्कृष्ट कापोतलेश्या है और उसी तीसरी के प्राधे भाग में जघन्य नीललेश्या चौथी के माध्यम नील लेश्या है। पांचवी पृथ्वी के ऊर्च भाग में उत्कृष्ट और उसी पांचवों के निम्न भाग में जघन्य कृष्ण लेश्या है छठी पृथ्वी के ऊर्ध्व में नारको जीवों की मध्यम कृष्ण लेश्या और निम्न भाग में परम कृष्ण है और सातवीं पृथ्वी के नारकीयों की उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या है । इन नारकीयों की प्रायु आठ प्रकार की होती है
प्रथम नरक में एक सागर की दूसरे में तीन सागर की, तीसरे में सात सागर की, चौथे में दश सागर की, पांच में सत्रह सागर की छठवे में वाइस सागर की और सातवें नरक में तैतीस सागर की उत्कृष्ट प्रायु है । पहले में दश हजार वर्ष की जघन्य प्रायु, दूसरे में एक सागर, तीसरे में तीन सागर, चौथे में सात सागर पाचवं में दश सागर, छठवें में सत्रह सागर और सातव में वाईस सागर की जघन्य प्रायु होती है । उनके शरीर की ऊंचाई सातवें नरक में पांच सौ धनुष की होती है और क्रम से अन्य नरकों में आधी होती गयी है । प्रथम नरक में रहने वाले नारकियों का अवधिज्ञान एक योजन तक रहता है, पर क्रम से आधा घटता जाता हैं। अब इसके आगे देवों का वर्णन करते हैं--भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिष्क और कल्पवासी चार प्रकार के देव होते हैं। भवनवासियों के दश भेद व्यन्तरों के पाठ भेद, ज्योतिष्कों के पांच भेद तथा कल्पवासियों के बारह भेद होते हैं। कल्पातीत देवों में किसी प्रकार का भेद नहीं है । असुर कुमार, नागकुमार सुपर्ण कुमार, द्वीप कुमार, अग्निकुमार, स्तमित कुमार, उदधि कुमार, दिककुमार विद्युत्कुमार और बातकुमार ये भवनवासियों
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के भेद हैं । किन्नर, कि पुरुष महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच ये अष्ट व्यंतरों के भेद कहे जाते हैं । इनके अतिरिक्त सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह-नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे ज्योतिषियों के पांच भेद हैं। ये देव मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते हुए सदा भ्रमण करते रहते हैं। सौधर्म ऐशान, सानतकुमार, माहेन्द्र ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लांब, कापिष्ट, शुक्र, महान, सतार, सहस्रार यागत, प्राणत, आरण, अच्युत ये सोलह स्वर्ग हैं। इनके उर्द्ध भाग में नव ग्रैवेयक है, नव अनुदिश हैं और उनके ऊपर विजय, वैजयंत जयंत, अपराजित और सर्वार्थ सिद्धि नाम के पांच पंचोत्तर है। इस प्रकार ऊपर के कहे गये देवों में बायु सुख, प्रभाव, कांति और afa ज्ञान अधिक है। ग्रैवेयक से पूर्व के देव अर्थात् सोलहवें स्वर्ग तक के कल्पवासी कहलाते हैं और श्रागे के कल्पातोत देवों के विमानों की संख्या चौरासी लाख ससानवे हजार तेईस है भवनवासी व्यंतर और ज्योतिषी देवों की कृष्ण नील कापोत और जन्य पीता है। उनको व्यवेदया और भाव भी यहीं है। सुर कुमार देवों की उत्कृष्ट आयु एक सागर, मागकुमार देवों की तीन पत्य, सुवर्ण कुमारों की ढाई पण, द्वीपकुमारों की दो पत्म और बाको भवनवासियों की छेड़डेड पल्य की होती है पर इन्हीं देवों की जघन्य मायु दश हजार वर्ष को है। भवनवासी देवों के शरीर को ऊंचाई पच्चास धनुष स्तरों की दश धनु तथा ज्योतिषियों की वह धनुष को होती है। प्रथम दूसरे स्वर्ग में देवों की उत्कृष्ट दो सागर, तीसरे बौधे में सात सागर सातवें माह में चौदह सागर नवें दशक में सोलह सागर ग्यारह बार में अठारह सागर तेरहवें चौदहवें में बीस सागर और पन्द्रहवें सोलहवें में बाईस सागर की होती है। फिर आगे एक सागर प्रायु की वृद्धि होती गयी है। प्रथम और दूसरे वर्ग के देवों का यवधि ज्ञान पहले नरक तक है। तीसरे चौथे स्वर्ग के देवों का दूसरे नरक तक, पांचवें सातवें आठवें स्वर्ग के देवों का तीसरे नरक तक है। इसी प्रकार नवे दश ग्यारहवे वारहवं स्वर्ग के देवों का अवधि ज्ञान चांथे नरक तक तेरहवें चौदहवें पद्रहवें सोलहवें स्वर्ग के देवों का अवधि ज्ञान पांचवें नरक तक है। नव संवयक देवों का छठें नरक तक और भी अनुदिश के देवों का सातवें नरक तक अवधिज्ञान है पर अनुत्तर वैमानिक देवों का अवविज्ञान ऊपर विमान के शिखर तक होता है ।
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पहले दो स्वर्गों के देव, भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी, मनुष्यों को भांति ही शरीर से भोग भोगते हैं । किन्तु तीसरे और चौथे स्वर्ग के देव देवियों के स्पर्श मात्र से ही तृप्त हो जाते हैं। नवें से लेकर बारहवं तक के देव केवल देवियों के शब्द से तृप्ति लाभ करते हैं और तेरह से सोलहवें तक के देव संकल्प मात्र से तृप्ति का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार सोलहवें स्वर्ग से ऊपर के वैवेयक, धनुदिश अनुत्तर विमानवासी देवों में काम की वासना नहीं होती। वे ब्रह्मचारी होते हैं। यतः वे सबसे सुखी रहते हैं । देवियों के उत्पन्न होने के उपपाद स्थान सौधर्म और ईशान स्वर्ग में है। देवियों के विमानों की संख्या पहले में छः साख और दूसरे में चार लाख अर्थात् दश लाख है। प्रथम रजर्व की देवियां दक्षिण में धारण स्वर्ग तक और ईशान में उत्पन्न हुई उत्तर दिशा की ओर प्रच्युत् स्वर्ग तक जाती हैं। सोधर्म स्वर्ग में निवास करने वाली देवियों की उत्कृष्ट मा पाच पत्य है, पर बारहवें स्वर्ग तक दो-दो पल्य बढ़ती गयी है। इसके आगे सात पल्य की वृद्धि होती गयी है । अर्थात् सोलहव स्वर्ग की देवियों की आयु पचपन पल्य की होती है। इसके आगे देवियां नहीं होतीं। राजन ! संसार में जो इन्द्र चक्रवर्ती के सुख उपलब्ध होते हैं, उसे पुण्य का प्रभाव समझना चाहिए। इसके विपरीत तिर्यंचों के दुःखों को पाप का फल | पर राजन ! पाप बीर गुण्ण दोनों ही दुखदायक और बंध के कारण है जो इन दोनों से रहित हो जाता है, कही वस्तुतः मोक्ष प्राप्त करता है । अनेक देवों द्वारा नमस्कार किये जाने वाले गीतम स्वामी इस प्रकार धर्मोपदेश देकर चुप हो गये। इसके पश्चात् महाराज बेणिक उन्हें नमस्कार कर अपनी राजधानी को लौट आये।
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महामुनि गौतम गणधर स्वामी ने घनेक देशों का विहार करते हुए स्थान-स्थान पर धर्म की अभिवृद्धि की वे आयु के अन्त में ध्यान के द्वारा चौदहवें गुणस्थान में पहुंचे। उस समय वे कर्मों का नाश करने लगे। उन्होंने उपान्त्य समय में ही अपने लयापीड़न से बहतर प्रकृतियों को नष्ट किया। इन्द्र द्वारा नमस्कार किए जाने वाले गौतम स्वामी ने यन्त समय में सातावेदनीय, भावेष, पर्याप्त नस, बादर, मनुष्या पंचेन्द्रिय जाति मनुष्य गति, मनुष्य गत्यानुपूर्वी, उच्च गोत्र यशकीर्ति से बारह प्रकृतियों को बिनष्ट किया। तीर्थंकर प्रकृति तो उन में थी ही नहीं । जिन्हें त्रैलोक्य के जीव नमस्कार सुभम करते हैं, जो अनन्त चतुष्ठय से भूषित हैं, उन गौतम स्वामी ने समस्त प्रकृतियों को विनष्ट कर मोक्षरूपी स्त्री की प्राप्ति की । मुक्त होने के बाद वे सिद्ध अवस्था में जा पहुंचे। उनकी विशुद्ध आत्मा शरीर से कुछ कम आकार की अष्टकमों से रहित तथा सम्यग्दर्शन यादि गुणों से सुशोभित है। वे लोक शिखर पर विराजमान विदानन्दमय और सनातन ज्ञान स्वरूप है। सदा वे निरय बौर उत्पाद व्यय सहित हैं।
गौतम स्वामी के मोक्षं जाने के पश्चात् इन्द्रादिक देवों का आगमन हुआ। उन्होंने मायामयी शरीर धारण कर
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कपरदनादि ईधन के द्वारा उनके शरीर को भस्म किया, मोक्ष-कल्याणक का उत्सव सम्पन्न किया और माथे पर भस्म का लेगन किया। इस प्रकार वे बार-बार नमस्कार कर अपने-अपने स्थान को चले गये।
दस पार गौमा स्वामी केयमितौर मारभूति दोनों भाई पांच सौ ब्राह्मणों के साथ तपश्चरण करने लगे । दोनों भ्रातानों ने घातिया कर्मों का नाश कर अनेक भव्य जीवों को धर्मोपदेश दिया और अन्त में समस्त कर्मा को विनष्ट कर मोक्ष प्राप्त किया। उन पांच सौ ब्राह्मणों में से अनेक सर्वार्थ सिद्धि में और अनेक स्वर्ग में उत्पन्न हुए सत्य है, तपश्चरण के द्वारा राव कुछ संभव है।
गौतम गणधर स्वामी के गुणों का वर्णन करना जब वहस्पति के लिए भी संभव नहीं तब भला मैं अल्पज्ञानी उनके गणों का वर्णन कैसे कर सकता हूं। जिनके धर्मोपदेश को श्रवण कर अनेक भव्य जीव मोक्षगामी हए और आगे भी होते रहेंगे, उन्हें मैं बार-बार नमस्कार करता हूं। गौतम स्वामी की स्तुति कर्मों को नष्ट करने तथा अनन्त सुख प्रदान करने वाली है। वह मोक्ष प्राप्ति में सहायक हो।
गौतम स्वामी का जीव प्रथम विशालाक्षो माम्नी रानी के पर्याय में था, पुन: नरकगामी हया । वहां से निकल कर विलाव, शकर, कृत्ता, मुर्गा और पुनः शुद्र कन्या के रूप में हुआ। उसने व्रत के प्रभाव से स्वर्ग में देवत्व की प्राप्ति की वहां से पाकर ब्राह्मण का पुत्र गौतम हुमा और उनके पांच सौ शिष्य हुए। सत्य है, धर्म के प्रभाव से क्या नहीं होता है।
वान महावीर स्वामी के समोशरण में मनस्तंभ को देखकर गौतम का सारा अभिमान चूर हो गया। उसने भगवान के सीप जिनदीक्षा ग्रहण कर ली । अन्त में बे समस्त परिग्रहों को त्याग कर महावीर स्वामी के प्रथम गणधर हए। उन्होंने संताप नाशक भव्यजीवों को सूत्र प्रदान करने वाली धर्म की वृष्टि की अर्थात धर्मोपदेश दिया। जिन्हें इन्द्र, नरेन्द्र नमस्कार
को उन्हें मैं हृदय से नमस्कार करता हूं। जिन्होंने कर्मरूपी शत्रुओं को विनष्ट कर केवल ज्ञान प्राप्त किया। अपनी दिव्य बाकेदारा जिन्होंने राजाओं और मनुष्यों को धर्मोपदेश दिया, जो चैतन्य अवस्था धारण कर मोक्षगामी हए, वे श्री गौतम स्वामी जीवों के अनुकल स्थायी मोक्ष-सुख प्रदान करें। जिनेन्द्र देव को वाणी से प्रकट हुआ जैन धर्म, सर्वोत्तम पद प्रदान करने शाला के रूप तेज वृद्धि देने वाला है तथा सर्वोत्तम विभूतियां-भोगोपभोग की सामग्रियां तथा स्वर्ग मोक्षादि की प्राप्ति करने घाला है, अतएव भव्य जीवों को चाहिए कि वे जैनधर्म को धारण करें।
समस्त पापों को नाश करने वाले श्री नेमिचन्द मेरे इस गच्छ के स्वामी हुए। ये यश कीति अत्यन्त ख्यातनामा हए। अनेक भक्ष्यजन और राजा उनकी सेवा करते थे। उनके पट्ट पर श्री भानुकीति विराजित हुए। वे सिद्धान्त शास्त्र के पारंगत, काम-विजयी प्रबल प्रतापी और शांत थे। उन्होंने क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों पर विजय प्राप्त की थी। उनके पटट पर, न्यायाध्यात्मा पुराण, कोष छन्द अलंकार प्रादि अनेक शास्त्रों के ज्ञाता श्रीभूषण मुनिराज विराजमान हए। वे प्राचार्यों के सम्प्रदाय में प्रधान थे। उनके पट्ट पर श्री धर्मचन्द मुनिराज विराजे । वे भारती गच्छ के देदीप्यमान सूर्य थे। महाराज रघनाथ के राज्य में महाराष्ट्र नाम का एक छोटा-सा नगर था। वहां ऋषभ देव का एक जिनालय है, जो पूजा पाठ आदि महोत्सव से सदा सुशोभित रहता है। उसी जिनालय में बैठ कर विक्रम सम्बत् १७२६ की ज्येष्ठ शक्ला द्वितीया के दिनछाक के दाभ स्थान में रहते हुए, अनेक प्राचार्यों के अधिपति श्री धर्मचन्द्र मुनिराज ने भक्ति के वश हो गौतम स्वामी के शुभ चरित्र की रचना की। हमारी यही भावना है कि इस चरित्र के द्वारा भव्य प्राणियों का सदा कल्याण होता रहे।
गौतम स्वामी मोक्ष कहां से गये? ऐसा प्रश्न उठता है। इसके बारे में श्री गुणभद्राचार्य अपने उत्तर पुराण में लिखते हैं किगौतम स्वामी उपदेश देते हुए कहते हैं कि
भविष्याम्यहमप्यश्च केवलज्ञान लोचनः । भव्यानां धर्मदेशेन विहुत्य विषयांस्ततः ।।५१६।। गत्वा बिपूलादिगिरी प्राप्स्यामि निवति । मन्निवृत्तिदिने लब्ध्वा सुधर्मा क्षतपारगः ।।५१७॥
–महापुराण पेज नं०७४५-४६ जिस दिन भगवान महावीर मोक्ष पधारेंगे उसी दिन मुझे भी घातिया कर्मों के नाश होने से केवल ज्ञानरूपी नेत्र प्रगट होगा 1 भव्य जीवों को धर्मोपदेश देता हुमा अनेक देशों में विहार करूंगा और फिर विपुलाचल पर्वत पर जाकर मुक्त होऊंगा। जिस दिन मैं मुक्त होऊंगा उसी दिन सकल धुतज्ञान के पारगामी सुधर्माचार्य को लोक अलोक सबको एक साथ देखने बाला अंतिम केवल ज्ञान प्रगट होगा सुधर्माचार्य के निर्वाण होने के समय हो जम्बूकुमार को केवल ज्ञान प्रगट होगा। इस पागम से यह बात सिद्ध हई कि गौतम स्वामी राजग्रह अर्थात् विपुलाचल पर्वत से मुक्त हुए हैं और कोई अन्य स्थान से नहीं है।
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दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि
(१)
दिगम्बरत्व (अनुष्य को प्रादस्थिति)
"मनुष्य मात्र की प्रादर्श स्थिति दिगम्बर ही है। प्रादर्स मनुष्य सर्वथा निषि है-विकारशून्य होता है।"
-म. गांधी। "प्रकृति की पुकार पर जो लोग ध्यान नहीं देते, उन्हें तरह-तरह के रोग और दुःख घेर लेते हैं, परन्तु पवित्र प्राकृतिक जीवन बिताने बाजे जंगल के प्राणी रोगमुक्त रहते हैं और मनुष्य के दुर्गुणों और पापाचारों से बचे रहते हैं।"
-रिटन टु नेचर दिगम्बरत्व प्रकृति का रूप है । वह प्रकृति का दिया हुया मनुष्य का बेष है । आदम और हव्वा इसी रूप में रहे थे। दिशायें ही उनके अम्बर थे--वस्त्रबिन्यास उनका वही प्रकृतिदत्त नग्नत्व था। वह प्रकृति के अन्चल में सुख की नोंद' सोते और ग्रानन्दरेलियां करते थे। इसलिये कहते हैं कि मनुष्य को प्रादर्श स्थिति दिगम्बर है। नग्न रहना ही उसके लिए श्रेष्ठ है। इसमें उसके लिए अशिष्टता असभ्यता की कोई बात नहीं है, क्योंकि दिगम्बरत्व अथवा नग्नत्व स्वयं अशिष्ट अथवा असभ्य वस्तु नहीं है। वह तो मनुष्य का प्राकृत रूप है। ईसाई मतानुसार प्रादम और हया नङ्गे रहते हये कभी न लजाये और न वे विकार के चंगुल में फसकर अपने सदाचार से हाथ धो बैठे। किन्तु जब उन्होंने बगाई-भलाई, पाप-पुण्य का वजित फल खा लिया, वे अपनी प्राकत दशा को खो बैठे-सरलता उनकी जाती रही। वे संसार के साधारण प्राणो हो गये। बच्चे को लीजिये, उसे कभी भी अपने नम्नत्व के कारण लज्जा का अनुभव नहीं होता और न उसके माता-पिता अथवा अन्य लोग ही उसको नग्नता पर नाक भौं सिकोडते हैं । अशक्त रोगी को परिचर्या स्त्री धाय करती हैं-वह रोगी अपने कपड़ा की सारसंभाल स्वय नहीं कर पाता, किन्तु स्त्री धाय रोगी की सब सेवा करते हुए ज़रा भो अशिष्टता अथवा लज्जा का अनुभव नहीं करती। यह कछ उदाहरण हैं जो इस बात को स्पष्ट करते हैं कि नग्नत्व वस्तुतः कोई बुरी चीज़ नहीं है। प्रकृति भला कभी किसी ज़माने में बुरी भी हई है? तो फिर मनुष्य नंगेपन से क्यों झिझकता है? क्यों प्राज लोग नंगा रहना समाज मर्यादा के लिये अशिष्ट और घातक समझते हैं ? इन प्रश्नों का एक सीधा-सा उत्तर है-"मनुष्य का नैतिक पतन चरम सीमा को प्राज पहुंच चुका है-वह पाप में इतना सना हया है कि उसे मनुष्य की प्रादर्श-स्थिति दिगम्बरत्व पर धूणा आती है। अपनेपन को गंवाकर पापके पर्दे में कपड़ों को प्राड लेना हो उसने श्रेष्ठ समझा है।" किन्तु वह भूलता है, पर्दा पाप को जड़ है-बह गंदगो का ढेर है। बस, जो जरा भो समझ-- विवेक- से काम लेना जानता है, वह गंदगी को अपना नहीं सकता और न ही अपनी आदर्श स्थिति दिगम्बरत्व से चिढ सकता है।
वस्त्रों का परिधान मनुष्य के लिये लाभदायक नहीं है और न बह यावश्यक ही है। प्रकृति में प्राणीमात्र के शरीर की रचना इस प्रकार की है कि यदि वह प्राकृत बॅग में रहे तो उसका स्वास्थ्य निरोग और श्रेष्ठ हो तथा उसका सदाचार भी उत्कृष्ट रहे । जिन विद्वानों ने उन भील आदिकों को अध्ययन की दृष्टि से देखा है, जो नंगे रहते हैं, वे इसी परिणाम पर पहुंचे हैं कि
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उन प्राकृत वेप में रहने वाले 'जंगली' लोगों का स्वास्थ्य महरों में बसने वाले सभ्यताभिमानी 'सज्जनों' से लास दर्जा अच्छा होता है और आचार विचार में भी वे शहर वालों से बड़े चढ़े होते हैं। इस कारण वे एक वस्त्र परिधान की प्रधानता युक्त सभ्यता को उच्च कोटि पर पहुंचते स्वीकार नहीं करते उनका यह भी ठीक क्योंकि प्रकृति को होड़ कृत्रिमता नहीं कर सकती। म गांधी ने निम्न शब्द भी इस विषय में दृष्टव्य है
"वास्तव में देखा जाये तो कुदरत ने चर्म के रूप में मनुष्य को योग्य पोशाक पहनाई है। नग्न शरीर कुरून देख पड़ता है, ऐसा मानना हमारा भ्रम मात्र है । उनम र सौन्दर्य के चित्र तो नग्न दशा में हो देख पड़ते हैं। पोशाक मे साधारण अरंगों को ढककर हम मानो कुदरत के दोपों को दिखला रहे हैं। जैसे-जैसे हमारे पास ज्यादा पेमे होते जाते हैं वैसे ही वैसे हम सजावट बढ़ते जाते हैं। कोई किसी भांति और कोई किसी भांति रूपवान बनना चाहते हैं और बनठनकर कांग में मुंह देख प्रसन्न होते हूँ कि वाह में फैसा खूबसूरत बहुत दिनों के रोगे ही प्रभ्यास से अगर हमारी दृष्टि खराब न हो गई हो तो हम तुरन्त देख गे कि मनुष्य का उत्तम से उत्तम रूप उसकी नग्नावस्था में ही है और उसी मे उसका भारोग्य है।
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इस प्रकार सौन्दर्य और स्वाथ्य के लिये दिगम्बरत्व अथवा नमत्व एक मूल्यमई वस्तु है; किन्तु उसका वास्तविक मुल्य तो मानव समाज में सदाचार की सृष्टि करने में है । नग्नता और सदाचार का अविनाभावी सम्बन्ध है । सदाचार के बिना नग्नता कोड़ी मोल की नहीं है नंगा मन और नंगा न ही मनुष्य को आदर्श स्थिति है। इसके विपरीत गन्दा मन और नंगा तन तो पशुता है उसे कौन बुद्धिमान स्वीकार करेगा ?
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लोगों का खयाल है कि कपड़े-लत्ते पहनने मे मनुष्य शिष्ट और सदाचारी रहता है । किन्तु बात वास्तव में इसके वर-अप है। कपड़े-लत्ते के सहारे तो मनुष्य अपने पाप और विकार को छुपा लेता है। दुर्गुणों और दुराचार का प्रागार बना रह कर भी वह कपड़े की खोट में पाखण्डप बना सकता है, किन्तु दिगम्बर वेप में यह सम्भव है। शुक्राचार्य जी के कथानक से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि शुक्राचार्य युवा थे, पर दिगम्बर वेष में रहते थे। एक रोज वह वहाँ से जा निकले जहां तालाब में कई वेब न्याय न होकर जल कीड़ा कर रही थीं उनके नगेन देव रमणिया में कुछ भी उत्पन्न न किया ? वे जैसी की तैसी नहाती रहीं और शुक्राचार्य अपने निकले ले गये। इस घटना के थोड़ी देर बाद शुक्राचार्य के पिता वहां का निकले उनको देखते ही देवकन्यायें महाना-धोना भूल गई। झटपट सेजल के बाहर निकलीं और अपने वस्त्र उन्होंने पहन लिये एक नगे गुवा को देख कर तो उन्हें शनि और लान थाई किन्तु एक वृद्ध सिष्ट से दिखते 'सज्जन' को देख कर वे सजा गई भला इसका क्या कारण हो न कि गंगा युवा अपने मन में भो नया था उसे विकार ने नहीं का घेरा था। इसके विपरीत उसका वृद्ध और शिष्ट पिता विकार से रहित न था । वह अपने शिष्ट वेष ( ? ) में इस विकार को छिपाये रखने में सफल था किन्तु दिवम्बर युवा के लिए वैसा करना असंभव था। इसी कारण वह निविकारों पर सदाचारी था। बतः कहना होगा कि सदाचार की मात्रा नगे रहने में अधिक है। दिगम्बराय का वह भूषण है। विकारनाव को जीते विना ही कोई नंगा रह कर प्रशंसा नहीं पा सकता | विकारी होना दिगम्बरत्व के लिये कलंक है । न बह मुखी हो सकता है और न उसे विवेक सकता है । इसलिए भगवद् कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं ..
'सागो पावह दुक्खं राणी संसार सागरे भमई । दोहा
॥२॥
भावार्थ (नंगा दुःख पाता है, वह संसार सागर में
भ्रमण करता है, उसे बोधि-विज्ञानदृष्टि प्राप्त नहीं होती, क्योंकि नंगा होते हुए भी वह जिन भावना से दूर है। इसका मतलब यही है कि जिन भावना से युक्त नग्नता ही पूज्य है - उपयोगो है और जिन भावना से मतलब रागद्वेषादि विकार भावों को जीत लेगा हैप्रकृति का होकर प्राकृत मेष में रह रहा है।
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Having given same study to the subject. I may say that Rev. J. F. Wilkinson's remarke upon the superior morality of the races that do not wear clothes is fully borne out by the testimony of the travellers It is the that wearing of clothes goes with a higher state of the arts and to that extent with civilisation, But it is on the other hand attended by a lowere sate of health and morelity so that no clothes civilisation can expect to attain to a high rank."
—“Daily News, London" of 18th April, 1913
२. भाव पाहूड ६८ गाथा ।
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संसार के पाप-पुण्य राईलाई का जिसे मान तक नहीं है, वहीं दिगम्बरख धारण करने का अधिकारी है और चुकि सर्वसाधारण गृहस्थों के लिये इस परमोच्च स्थिति को प्राप्त कर लेना सुगम नहीं है, इसलिये भारतीय ऋषियों ने इसका विधान मुहत्यानी धरण्यवासी साधुयों के लिये किया है। दिगम्बर मुनि ही दिगम्बरस्य को धारण करने के अधिकारी है यद्यपि यह बात जरूर है कि दिगम्बर को मनुष्य का आदर्श स्थिति होने के कारण मानव-समाज के पथ-प्रदर्शक श्री भगवान ऋषभदेव ने गृहस्थों के लिये भी महीने के पर्वदिनों में नंगे रहने की आवश्यता का निर्देश किया था और भारतीय गृहस्य उनके इस उपदेश का पालन एक बड़े जमाने तक करते रहे थे।
इस प्रकार उक्त वक्तव्य से यह स्पष्ट है कि दिगम्बरत्व मनुष्य की आदर्श स्थिति है- प्रारोग्य और सदाचार का वही पोषक ही नहीं जनक है किन्तु माजा संसार इतना पाप-ताप से झुलस गया है कि उस पर एक दम दिगम्बर-रि डाला नहीं जा सकता जिन्हें विज्ञान दृष्टि नसीब हो जाती है, वही अभ्यास करके एक दिन निधिकारी दिगम्बर मुनि के वैष में विचरते हुए दिखाई पड़ते हैं। उनको देखकर लोगों के मस्तक स्वयं झुक जाते हैं। वे प्रज्ञा-पुन्ज और तपो धन लोक कल्याण में निरत रहते हैं । स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध, ऊंच-नीच, पशु-पक्षी सब ही प्राणी उनके दिव्यरूप में सुख-शांति का अनुभव करते हैं। भलाप्रकृति प्यारी क्यों न हो ? दिगम्बर साधु प्रकृति के अनुरूप है। उनका किसी से द्वेष नहीं - वे तो सब के हैं और सब उनके हैं ये प्रिय और सदाचार की मूर्ति होते हैं। यदि कोई दिगम्बर होकर भी इस प्रकार जिनभावना से युक्त नहीं है तो जैनाकर रर्थक है- परमोद्देश्य से वह भटका हुआ है इस लोक और परलोक दोनों ही उसके नष्ट हैं। इस दिगम्बर नहीं शोभनीय है जहां परमोद्देश्य दृष्टि से पोझल नहीं किया गया है। तब ही तो वही मनुष्य की आदर्श स्थिति है।
(२)
धर्म और दिगम्बरत्व
पाणिपत्तं उवइ परमजिवी रहि । एक्को विमोग्गी सेसा मया समे ||१०||
अर्थात् प्रचेलक - नग्नरूप और हाथों को भोजनपात्र बनाने का उपदेश जिनेन्द्र ने दिया है। यही एक मोक्ष-धर्ममार्ग है। इसके अतिरिवत दोष सब अमार्ग हैं।
धम्मो वत्यु सहावो-धर्म वस्तु का स्वभाव है और दिगम्बरत्व मनुष्य का निज रूप है उसका प्रकृत स्वभाव है । इस दृष्टि से मनुष्य के लिए दिगम्बरत्व में वहां कुछ भेद ही नहीं रहता। सचमुच सदाचार के आधार पर टिका हुआ दिगम्वरत्व धर्म के सिवा और कुछ हो भी क्या सकता है ?
जीवात्मा अपने धर्म को गंवाये हुए है। लौकिक दृष्टि से देखिए, चाहे आध्यात्मिक से जीवात्मा भवभ्रमण के चक्कर में पड़कर अपने निज स्वभाव से हाथ धोये बैठा है। लोक में यह नंगा आया है। फिर समाज मर्यादा के कृत्रिम भ के कारण वह अपने निजरूपनत्वको खुशी-खुशी छोड़ बैठता है। इसी तरह जीवात्मा स्वभाव में सच्चिदानन्दरूप होते हुए भी संसार की माया-ममता में पड़ कर उस स्वानुभवानन्द से वन्चित है। इसका मुख्य कारण जीवात्मा को राग-द्वेष जनित
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१. सागार० अ० ७ व भत्रु० २०५ २०७
"विरडिया नग्गरुई उ तस्स, जे उत्तम
विवज्जासमेई ।
इमे बिसे नत्य परे लिए, दुहओ विसे भिज्जई तत्थ लोए १४६ ।"
उत्तराध्ययन सूत्र व्या० २०
"In vain he adopts nakedness, who errs. about matters of paramount interest, neither this world nor the next will be hi. He is a Loser in both respect in the world."
-Js. It. p. 106
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परिणति है। रागद्वेषमई भावों से प्रेरित होकर वह अपने मन-वचन और काय की क्रिया तद्वत् करता है इसका परिणाम यह होता है कि उस जीवात्मा में लोक में भी हुई पौद्गलिक कम-वर्गणायें आकर चिपट जाती हैं और उनका प्रावरण जीवात्मा के ज्ञान-दर्शन आदि गुणों को प्रकट नहीं होने देता । जितने अंशों में ये आबरण कम या ज्यादा होते हैं, उतने ही अंशों में प्रात्मा के स्वाभाविक गुणों का कम या ज्यादा प्रकाश प्रकट होता है। यदि जीवात्मा अपने निजस्वभाव को पाना चाहता है तो उसे इन सभी कर्म सम्बन्धी आवरणों को नष्ट कर देना होगा, जिनका नष्ट कर देना संभव है।
इस प्रकार जीवात्मा के धर्म-स्वभाव-से घातक उसकं पोद्गलिक सम्बन्ध हैं। जोवात्मा को प्रात्मा-स्वातन्त्र्य प्राप्त करने के लिए इस पर-सम्बन्ध को विल्कुल छोड़ देना होगा। पाथिब संसर्ग से उसे अछूत हो जाना होगा। लोक और ग्रात्मादोनों ही क्षेत्रों में वह एक मात्र अपनी उद्देश्य प्राप्ति के लिए सतत उद्योगी रहेगा। बाहरी और भीतरी सब ही प्रपंचों से उसका कोई सरोकार न होगा । परिग्रह नाम मात्र को वह न रख सकेगा। यथा जातरूप में रह कर वह अपने विभावभई रागादि कषाय शत्रुओं को नष्ट करने पर तुल पड़ेगा। ज्ञान और ध्यान शारत्र लेकर बह कर्म-सम्बन्धों को बिल्कुल नष्ट कर देगा। और तब वह अपने स्वरूप को पा लेगा । किन्तु यदि वह सत्व मार्ग से जरा भी विचलित हुपा और बाल बराबर परिग्रह के मोह में जा पड़ा तो उसका कहीं ठिकाना नहीं । इसीलिये कहागया है कि
बालग्गकोडिमत्तं परिगहगहणं ण होइ साहणां ।
भजेइ पाणिपत्ते दिण्णणं इक्कट्टाणीम्म ॥१७॥ भावार्थ:-बाल' के अग्रभाग---नोक के बराबर भी परिग्रह का ग्रहण साधु को नहीं होता है। वह आहार के लिए भी कोई बरतन नहीं रखता-हाथ ही उसके भोजनपात्र हैं और भोजन भी बह दूसरे का दिया हुआ एक स्थान पर और एक दफे ही ऐसा ग्रहण करता है जो प्रासुक है-स्वयं उसके लिए न बनाया गया हो।
अब भला कहिये, जब भोजन से भी कोई ममता न रक्खी गई दूसरे शब्दों में जब शरीर से ही ममत्व हटा लिया गया तब अन्य परियह दिगम्बर माध में रक्खंगा? उसे रखना भी नहीं चाहिए, क्योंकि उसे तो प्रकृत रूप आत्मस्वातन्त्र्य प्राप्त करना है, जो संसार के पार्थिव पदाथों से सर्वथा भिन्न है। इस अवस्था में वह वस्त्रों का परिधान भी कैसे रख सकेगा ? वस्त्र तो उसके मुक्ति-मार्ग में अर्गला बन जायेगे। फिर वह कभी भी कर्म-बन्धन से मुक्त न हो पायेगा। इसीलिये तत्ववेत्तानों ने साधनों के लिये कहा है कि :
जह जाय स्वसरिसो तिलतुलस मित्तं ण गिहदि हत्तेतु।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तौ पुण जाइ णिग्गोम् ।। १८।। अर्थात-मनि यथाजातरूप है-जैसा जन्मता बालक नग्नरूप होता है वैसा नग्नरूप दिगम्बर मुद्रा का धारक है-वह अपने हाथ में तिल के तुप मात्र भी कुछ ग्रहण नहीं करता। यदि वह कुछ भी ग्रहण करले तो वह निगोद में जाता है।
परिग्रहधारी के लिए प्रात्मोन्नति की पराकाष्ठा पा लेना असंभव है। एक लंगोटीवत् का परिग्रह के मोह से साध किस कार पतित हो सकता है, यह धर्मात्मा सज्जनों की जानी सुनी बात है। प्रकृित जो कृत्रिमता को सहिति चाहती है तब टी वह प्रसन्न होकर अपने पूरे सौन्दर्य को विकसित करती है। चाहे पैगम्बर या तीर्थकर ही क्यों न हो, यदि वह श्रम में रह रहा है - समाज मर्यादा के आत्मविमुख बन्धन में पड़ा हुआ है तो वह भी अपने आत्मा के प्रकृत रूप को नहीं पा सकता । इसका एक कारण है । वह यह कि धर्म एक विज्ञान है । उसके नियम प्रकृति के अनुरूप अटल और निश्चल हैं। उनमें कहीं किसी जमाने में भी किसी कारण से रचमात्र अन्तर नहीं पड़ सकता है। धर्म विज्ञान कहता है कि आत्मा स्वाधीन और सुखी तब ही हो सकता है जब वह पर-सम्बन्ध, पुद्गल के संसर्ग से मुक्त हो जाये। अब इस नियम के होते हामी पार्थिव बस्त्र-परिधान को रख कर कोई यह चाहे कि मुझे प्रात्मस्वातन्त्र्य मिल जाय तो उसकी यह चाह आकाश-कसम को पाने की प्राशा से बढ़ कर न कही जायेगी? इसी कारण जैनाचार्य पहले ही सावधान करते हैं कि
ण वि सिझई बत्थधरो जिणसासण जइणि होइ तित्थयरो।
णग्गो विमोवखमग्गो सेसा उम्मग्गया सम्वे ॥२३॥ भावार्थ-जिन शासन में कहा गया है कि वस्त्रधारी मनुष्य मुक्ति नहीं पा सकता है, जो तीर्थयार होवे तो वह भी गृहस्थदशा में मुक्ति को नहीं पाते हैं-मुनि दीक्षा लेकर जब दिगम्बर वेप धारण करते हैं तब ही मोक्ष पाते हैं। अतः नग्नत्व ही मोक्षमार्ग है-बाकी सब लिंग उन्मार्ग हैं।
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मार्गल
धर्म के इस वैज्ञानिक नियम से कायल संसार के प्रायः सब ही प्रमुख प्रवर्तक रहे हैं, जैसे कि आगे के पृष्ठों में स्त किया गया है और उनका इस नियम- दिगम्बरत्वको मान्यता देना ठीक भी है क्योंकि दिसम्बर के विना धर्म का मूल्य कुछ भी शेष नहीं रहता- वह धर्म स्वभाव रह हो नहीं पाता है। इस प्रकार धर्म और दिगम्बरत्व का सम्बन्ध स्पष्ट है।
fareबरत्व के प्रादि प्रचारक ऋषभदेव
भुवनाम्भोज मार्तवं धर्मामृत पयोधरम् ।
योगि कल्पतरू नौमि देवदेवं वृषध्वजम्। ज्ञानार्णव
दिगम्बरत्व प्रकृति का एक रूप है। इस कारण उसका आदि पीर अन्त कहा ही नहीं जा सकता। वह तो एक सनातन नियम है, किन्तु उस पर भी इस परिच्छेद के शीर्षक में श्री ऋषभदेव जो को दिगम्बरत्व का आदि प्रचारक लिखा है। इसका एक कारण है । विवेकी सज्जन के निकट दिगम्बरत्व केवल नग्नता मात्र का द्योतक नहीं है। पूर्व परिच्छेदों को पढ़ने
से
यह बात स्पष्ट हो गई है । वह रागादि विभाव भाव को जीतने वाला यथा जातरूप है और नग्नता के इस रूप का संस्कार कभी न कभी किसी महापुरुष द्वारा जरूर हुआ होगा। जैनशास्त्र कहते हैं कि इस कल्पकाल में धर्म के यादि प्रचारक श्रीऋपनदेव जी ने ही दिगम्बरस्य का सबसे पहले उपदेश दिया था।
यह ऋषभदेव अन्तिम मनु नाभिराय के सुपुत्र थे और वह एक प्रत्यन्त प्राचीन काल में हुये थे, जिसका पता लगा लेना सुगम नहीं है । हिन्दू शास्त्रों में जनों के इन पहले तीर्थंकर को ही विष्णु का प्रावां अवतार माना है और वहां भी इन्हें दिगम्बर का यदि प्रचारक बताया है। जैनाचार्य उन्हें 'योगिकल्पतरु' कह कर स्मरण करते हैं ।
हिन्दु के श्रीमद्भागवत में इन्हीं ऋषभदेव का वर्णन है और उसमें उन्हें परमहंस - दिगम्बर-धर्म का प्रतिपादक
लिखा है, यथा
'एवमनुशास्यात्मजान् स्वयमनुशिष्टानोकानुदासाचं महानुभावः परमतुहृद् भगवानूपमोदेव उपशमशीलानामुपरतकर्मणाम् महामुनीम भक्तिज्ञान वैराग्यलक्षणम् पारमहंस्यधर्ममुपशिक्ष्यमाणः स्वतनयज्येष्ठं परमभाववत भगवजनपरायणं भरतं धरणीपालनायाभिषिच्य स्वयं भवन एवोवीरतं शरीरमात्र परिग्रह उन्मत्त इव गगनपरिधानः प्रकीर्णककेश श्रात्मन्यारो पिता हवनीयों ब्रह्माक्तति प्रवब्राज ||२६|| भागवतस्कंध ५ अ० ५ ।
परन्तु
अर्थात् - "इस भांति महायशस्वी और सबके सुहृद ऋषभ भगवान् ने यद्यपि उसके पुत्र सब भाति से चतुर थे, मनुष्यों को उपदेश देने के हेतु प्रशान्त और कर्मबन्धन से रहित महामुनियों को भक्तिज्ञान और वैराग्य के दिखाने वाले परमहंस ग्राश्रम को शिक्षा देने के हेतु अपने सौ पुत्रों में ज्येष्ट परम भागवत, हरि भक्तों के सेवक भरत को पृथ्वी पालन के हेतु राज्याभिषेक कर तत्काल हो संसार को छोड़ दिया और आत्मा में होगाग्नि का आरोप कर केश पो उन्मत को मि नग्न हो, केवल शरीर को संग से, ब्रह्मावर्त से सन्यास धारण कर चल निकले।"
इस उद्धरण के मोटे टाइप के अक्षरों से ऋषमवेद का परमहंस-दिगम्बर धर्म-शिक्षक होना स्पष्ट है।
तथा इसी ग्रन्थ के स्कंध २ अध्याय ७० ७६ में इन्हें "दिगम्बर र जनमत का चलाने वाला" उसके टीकाकार
1
ने लिखा है । मूल श्लोक में उनके दिगम्बरत्व का ऋषियों द्वारा वंदनीय बताया है
नाभेरसा वृषभ वाससु देव मृनुयवैव चार समद्ग जड योग
यत् परमहंस्यमृषयः पदमामनति स्वस्थः प्रशांतकरणः परिमुक्त संग ः ||१०||
'हठयोग प्रदीपिका' में सबसे पहले मंगलाचरण के तौर पर श्रादिनाथ ऋषभवेदको
उधर हिन्दुओं के प्रसिद्ध योगशास्त्र स्तुति की गई है और वह इस प्रकार है-
१. जिनेन्द्रमत दर्पण प्रथम भाग पृ० १०.
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श्री आदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै, पनोपदिष्टा हट्योगविद्या । विभ्राजले प्रोन्मतराज योग
भारोदुमिच्छोरधिरोहिणीव ॥१०॥ अर्थात- "श्री आदिनाथ को नमस्कार हो, जिन्होंने उस हठयोग विद्या का सर्वप्रथम उपदेश दिया जो कि बहुत ऊंचे राजयोग पर आरोहण करने के लिए नसनी के समान है।"
हश्योग का श्रेष्ठतम रूप दिगम्बर है । परमहंस मार्ग हो तो उत्कृष्ट योगमार्ग है। इसी से 'नारद परिव्राजकोपनिषद, में योगी परमहंसाख्यः साक्षान्मोक्षकसाधनम्' इस बाक्य द्वारा परमहरा योगी को साक्षात् मोक्ष का एक मात्र साधन बतलाया है। सचमुच "प्रजन शास्त्रों में जहाँ कही थी ऋषभदेव-प्रादिनाथ -का वर्णन याया है उनको परमहंसमार्ग का प्रर्वतक बतलाया है।
किन्तु मध्यकालीन साम्प्रदायिक विद्वेष के कारण अर्जन विद्वानों को जैनधर्म से ऐसी चिढ़ हो गयी कि उन्होंने अपने धर्मशास्त्रों में जैनों के महत्वसुचक वाक्यों का या तोष लोप कर दिया अथवा उनका अर्थ ही बदल दिया । उदाहरण के रूप में उपरोक्त 'हठयोग प्रदीपिका के श्लोक में वणित ग्रादिनाथ को उसके टीकाकार 'शिव' (महादेवजा) बताते हैं किन्तु वास्तव में इसका अर्थ ऋषभदेव ही होना चाहिये, क्योंकि प्राचीन 'अमरकोषादि' किसी भी बोष ग्रन्थ में महादेव का नाम 'आदिनाथ' नहीं मिलता। इतके अतिरिक्त यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि श्री ऋषभदेव के ही सम्बन्ध में यह वर्णन जैन और अजन शास्त्रों में मिलता है-किसी अन्य प्रावीन मत प्रवर्तक के सम्बन्ध में नहीं कि वह स्वयं दिगम्बर रहे थे और उन्होंने दिगम्बर धर्म का उपदेश दिया था । उस पर 'परमहंसोपनिषद्, के निम्न वाक्य इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि परमहंस धर्म के जैनाचार्य थे
"तदेतद्विज्ञाय ब्राह्मणः पावं कमण्डलु कटिसूत्र कौपीनं च तत्सर्वम् सुविसुज्याथ जातरूपधरश्चरे दात्मानमन्विच्छेद यथाजातरूपधरो निद्वो निष्परिग्रहस्तत्वब्रह्मभार्ग सम्यक संपन्नः शुद्ध मानसः प्राणसंधारणार्थ यथोक्तकाले पंच गहेष करपात्रणायाचिताहारमाहरन् लाभालाभे समो भूत्वा निर्ममः शुक्लध्यानपरायणोऽध्यात्मनिष्ठः शुभाशुभकर्मनिर्मलनपर: परमहंसः पूर्णानन्देवाबोधस्तदब्रह्मोहमस्नोति ब्रह्मप्रणवमनस्मरन् भ्रमर कोटकन्यायेन शरीरत्रयमुत्सृज्य देहत्यागं करोति स कृतकृत्यो भवतीत्युपनिषद् ।"
अर्थात् ऐसा जानतर ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) पात्र, कमण्डलु, कटिसव और लंगोटी इन मब चीजों को पानी में विसर्जन कर जन्म समय के वेप को धारण कर अर्थात् बिल्कुल नग्न होकर-विचरण करे और प्रात्मान्वेषण करे। जो यथाजातरूपधारी (नग्न दिगम्बर), निद्वन्द्र, निष्परिग्रह, तत्वब्रह्ममार्ग में भली प्रकार सम्पन्न, शुद्ध हृदय, प्राणधारण के निमित्त यथोक्त समय पर अधिक से अधिक पात्र घरों में बिहार कर कर-पात्र में अयाचित भोजन लेने वाला तथा लाभालाभ में समचित होकर निर्ममत्व रहने वाला, शुक्लध्यान परायण. अध्यात्मनिष्ठ, शुभाशुभ कर्मों के निर्मूलन करने में तत्पर परमहंस योगीपणानन्द का अद्वितीय अनुभव करने वाला यह ब्रह्म मैं हूं. ऐसे ब्रह्म प्रणव का स्मरण करता हग्रा भ्रमरकोटक न्याय से (कीड़ा भ्रमरीका ध्यान करता हया स्वयं भ्रमर बन जाता है, इस नीति से) तीनों शरीरों को छोड़कर देह त्याग करता है, वह कृत्कृत्य होता है, ऐसा उपनिषदां में कहा है।
इस प्रवतरण का प्रायः सारा ही वर्णन दिगम्बर जैन मुनियों की चर्या के अनुसार है : किन्तु इनमें विशेष ध्यान देने यो विशेषण 'शक्लध्यानपरायणः' है, जो जनधर्म की एक खास चीज है। "जैन के सिवाय और किसी भी योग ग्रन्थ में 'शक्लध्यान' का प्रतिपादन नहीं मिलता । पतंजलि ऋषि ने भी ध्यान के शुक्लध्यान आदि भेद नहीं बतलाये। इसलिए योग ग्रन्थों में ग्रादि-योगाचार्य के स्थान में जिन आदिनाथ का उल्लेख मिलता है वे जैनियों के आदि तीर्थकर श्री आदिनाथ से भिन्न और कोई नहीं जान पड़ते।" 'अथर्ववेद के जाबालोपनिषद् (सूत्र ६) में परमहंस संन्यासी का एक विशेषण निर्ग्रन्थ भी दिया है और यह हर कोई
- - - - - - -- -- -- -- - - - - - - - - - .. - १. अनेकान्तवर्ष १. २. “यथा जात रूपधगे निर्ग्रन्थों निष्परिग्रह " इत्यादि-दिमु ।
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जानता है कि इस नाम से जनी ही एक प्राचीन काल से प्रसिद्ध हैं। बौद्धों के प्राचीन शास्त्र इस बात का खुला समर्थन करते हैं । जैन धर्म के ही मान्य शब्द को उपनिषदकार ने ग्रहण और प्रयुक्त करके यह अच्छी तरह दर्शा दिया है कि दिगम्बर साघ मार्ग का मूल श्रोत जैन धर्म है। और उधर हिन्दु पुराण इस बात को स्पष्ट करते ही हैं कि ऋषभदेव, जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर ने ही परमहंस दिगम्बर धर्म का उपदेश दिया था। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि श्री ऋषभदेव वेद 'उपनिषद ग्रन्थों के रचे जाने के बहुत पहले हो चके थे। वेदों में स्वयं उनका और १६वें अवतार वामन का उल्लेख मिलता है। अतः निरसन्देह भ० ऋषभदेव ही वह महापुरुष हैं जिन्होंने इस युग के आदि में स्वयं दिगम्बर वेष धारण करके सर्वज्ञता प्राप्त की थी और सर्वज्ञ होकर दिगम्बर धर्म का उपदेश दिया था। बही दिगम्बरत्व के आदि प्रचारक हैं।
हिन्दू धर्म और दिगम्बरत्व “सन्यासः पधिो भवतिः कुटिचक्र-बहूदक-हंस-परमहंस-तूरिया-तीत-अवधूतश्चेति ।"
-सन्यासोपनिषद् १३ भगवान ऋषभदेव जब दिगम्बर होकर वन में जा रमे, तो उनकी देखा-देखी और भी बहत से लोग नगे होकर इधर-उधर घमने लगे। दिगम्वरत्व के मूल तत्व को वे रामझ न सके और अपने मनमाने ढंग से उदर पति करने वाले माध होने का दावा करने लगे। जैन शास्त्र कहते हैं कि इन्हीं मन्यासियों द्वारा सांख्य प्रादि जैनेतर सम्प्रदायोंकीतिमी ,
और तीसरे परिच्छेद में स्वयं हिन्दुशास्त्रों के आधार से यह प्रकट किया जा चुका है कि श्री ऋषभदेव द्वारा ही सर्वप्रथम दिगम्बर धर्म का प्रतिपादन हुआ था। इस अवस्था में हिन्दू ग्रन्थों में भी दिगम्ब रत्व का सम्माननीय वर्णन मिलना यावश्यक है।
यह बात जरूर है कि हिन्दू धर्म के वेद और प्राचीन तथा बृहत् उपनिषदों में साघु के दिगम्बरत्व का वर्णन प्रायः नहीं मिलता। किन्तु उनके छोटे-मोटे उपनिषदों एवं अन्य ग्रन्थों में उसका खास ढंग पर प्रतिपादन किया गया मिलता है। शिकउपनिषद'-'सात्यायनीय उपनिषद्'- 'याज्ञवल्क्य उपनिषद्'-'परमहंस-परिबाजक-उपनिषद' आदि में यद्यपि सत्यामियों के चार भेद-(१) कुटिचक, (२) बहुदक, (३) हंस, (४) परमहंस-बताये गये हैं, परन्तु 'सन्यासोपनिषद' में उनको छ: प्रकार का बताया गया है अर्थात् उपरोक्त चार प्रकार के सन्यासियों के अतिरिक्त (१) तूरियातीत और (२) अवधत प्रकार के सन्यासी और गिनाये हैं। इन छहों में पहले तीन प्रकार के सन्यासो त्रिदण्ड धारण करने के कारण विदण्डी कहलाते हैं और शिखा या जटा तथा वस्त्र कौपोन आदि धारण करते हैं । परमहंस परिव्राजक शिखा और यज्ञोपवीत जैसे विज चिद धारण नहीं करता और वह एक दण्ड ग्रहण करता तथा एक वस्त्र धारण करता है अथवा अपनी देही में भस्म रमा लेता है। हां, तुरियातीत परिव्राजक बिल्कुल दिगम्बर होता है और वह सन्यास नियमों का पालन करता है। अन्तिम अवधत पर्ण
- -...- --. -.१. जैकोबी प्रभूत विद्वानों ने इस बात को सिद्ध कर दिया है। (js. Pt. I. Intro.) २. भवा: की प्रस्तावना तथा 'मज' देखो।
३. "विष्णपुराण' में भी श्री ऋषभदेव को दिगम्बर लिखा है। ["Rishabha Deva.........naked, went the way of the great road." (महाध्यानम)
-wilson's Vishnu purana, Vol ii (Book ii Ch.i) pp. 103.1041 ४. श्रीमदभागयत में पभव को 'स्वयं भगवान् और कैवल्यपति' बतागा है। (विको भा० ३५० ५. आदिपुराण पर्व १८ श्लोक ६२ व (Rishabh P. 112) ६. "अवभिभूगाम् मोक्षार्थीनाम् कुटीवकः- बहुदक -हंस---परमहंमाश्चति चत्वारः ।" ७. "कुटिच को.--.-चहूदको हंसः-परमहंम–इत्येनि परित्राजका: चनृविधा भवन्ति ।" । ८. "स सन्यास. षड्विधो भवति कुटीचक बहूदक हंस परमहंमतरीयातीतायधूताश्चेति ।"
E. "टीचकः शिवायज्ञोपवीतो दण्डकमण्डलुधरः कौपीनशाटीकन्याधरः पितृमातगुर्वा राधनपरः पिठरखनिशिश्यादिमात्रसाधनपर शानादनपर हवेतोब पूण्डूवारी त्रिदण्डः । वहूदक: शिखादि कन्यावरस्त्रिपुण्द्रधारी कुटीचावरसबंसमो मधुकरबत्याप्टकवनाः। हंसोजटाधार त्रिगुण्डोध्वपुण्ड्रयारी असंक्लप्लमाकरान्नाशी कोपीनखण्डतुडधारी।
१०. परमहंमः शिखायज्ञोपवीत रहित: पगृहेगु करपात्री एक कौपीनधारी शाटीमेकामेकं वेगाव दण्डमेव शाटीधरो व भस्मोद्धरन परः । ११. सर्वत्यागी तुरीयातीतो गोमुखवृत्यो फलाहारी अन्नाहारी चेद्गृहत्रये देहमात्रावशिष्टो दिगम्बरः कणपवन्सरीर बत्तिकः ।
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दिगम्बर और निन्द है-वह सन्यास नियमों को भी परवाह नहीं करता। ' तूरियातीत अवस्था में पहुंचकर परमहंस परियाजक को दिगम्बर ही रहना पड़ता है किन्तु उसे दिगम्बर जैन मुनि की तरह केशलंच नहीं करना होता -बह अपना सिर मुड़ाता (मुण्ड) है । पीर अवधुत पद तो रियातीत की मरण अवस्था है। इस कारण इन दोनों भेदों का समावेश परमहंस भेद में ही गभित किन्हीं उपनिषदों में मान लिया गया है। इस प्रकार उपनिषदों के इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि एक समय हिन्दू धर्म में भी दिगम्बरत्व की विशेष आदर मिला था और वह साक्षात मोक्ष का कारण माना गया था । उस पर कापालिक संप्रदाय में तो वह खुब हो प्रचलित रहा; किन्तु वहां वह आनो धामिक पवित्रता खो बैठा; क्योंकि वहां वह भोग की वस्तु रहा । अस्तु,
यहां पर उपनिपदादि बंदिक साहित्य में जो भी उल्लेख दिगम्बर साध के सम्बन्ध में मिलते हैं, उनको उपस्थित कर देना उचित है । देखिये "जाबालोपनिषत्" में लिखा है:
नत्र परमहंसानामराव कारुणिश्वेतकेतु दास ऋभनिदाघजडभरत दत्यायरैवतक प्रभूतोऽत्यक्तलिगा अव्यक्ताचारा अनुन्मत्ता उन्मत्तबदाचरन्तस्त्रिदण्डं कमण्डलु शिक्यं पात्र जलपवित्र शिखां यज्ञोपवीतं च इत्येत्सर्वं भूः स्वाहेत्यप्सु परित्यज्यात्मानमन्विछेत् । यथाजात रूपधरो निर्ग्रन्थी निष्परिग्रहस्तत्तद्ब्रह्ममार्गे सम्यकसंपन्न-इत्यादि ।"
इसमें संवर्तक, आरुणि, श्वेतकेतु आदि को यथाजातरूपधर निर्ग्रन्थ लिखा है अर्थात् इन्होंने दिगम्बर जैन मुनियों के समान अाचरण किया था।
'परमहंसोपनिषत् में निम्न प्रकार उल्लेख है :"इदमन्तरं ज्ञात्वा स परमहम अाकाशाम्बरोन नमस्कारो न स्वाहाकारो न निन्दा न सुतियादृच्छिको भवेत्स भिक्षः।
सचमुच दिगम्बर (परमहस) भिक्षु को अपनी प्रशंसा निन्दा अथवा प्रादर-अनादर से सरोकार ही क्या? आगे 'भारदपरिव्राजकोपनिषत्' में भी देखिये:--
'यथाविधिश्वेज्जात घरो भूत्वा ...'जातरूप बरत्वरेदात्मानमन्विच्छेद्यथा जातरूपधरो निन्द्वो निष्परिग्रहरतत्त्वब्रह्ममार्ग सम्यक सपन्नः । ८६-तृतीयोपदेशः ।"५
"तूरोयः परमो हंस: साक्षान्नारायणो यतिः । एकरात्र बसेन्दग्रामे नगरे पश्चरात्रकम् ।।४।। वर्षाभ्योज्यत्र वाम मासांइच चतगे वसेत । मुनि: कौपीनवासाः रयान्नग्नो वा ध्यानपरः ।३। ज्ञातरूपधरो भूत्वा दिगम्बरः ।"---चतुर्थोपदेशः ।।
इन उल्लेला ममी परिवाजका का नन्न होने का तथा बर्षाऋतु में एक स्थान में रहने का विधान है। "मूनिः कोपीन बस प्रादि वाक्य में छहों प्रकार के सारे ही परिवाजकी का 'मुनि' शब्द से ग्रहण कर लिया गया है। इसलिये उनके सम्बन्ध
जान कर दिया कि चाहे जिस प्रकार का मुनि अर्थात प्रथक अवस्था का अथवा आगे की अवस्थात्रों का । इसका यह तात्पर्य नहीं है कि मुनि बस्त्र भी पहिन सकता है और नग्न रह सकता है। जिससे कि नग्नता पर आपत्ति को जा सके । यह पहले ही पारिवाजकों के पदभेदों में दिखाया जा चुका है कि उत्कृष्ट प्रकार के परिव्राजक नग्न ही रहते हैं और वह श्रेष्ठतम फल को भी पाते हैं जैसे कि कहा है :
यातरो जीवति चेत्क्रम संन्यासः कर्त्तव्यः ।....."अातुर कुटीचकयो लोक भवर्लोको। यहदकस्य स्वर्गलोकः । सस्य तपोलोकः । परम हंसस्य सत्यलोक: तुरीयातीतावधूतयोः स्वस्मन्येव कैवल्यं स्वरूपानुसंधानेन, भ्रमर कीटम्यायवत ।"
अर्थात-"अातुर यानी संसारी मनुष्य का अन्तिम परिणाम (निष्ठा; भूलोक है; कुटीचक संन्यासी का भवर्लोक: स्वर्गलोक हंस संन्यासी का अन्तिम परिणाम है। परम हंस के लिये वही सत्यलोक है और वस्य तूरियातीत और अवघत का परिणाम है।"
अब यदि इन सन्यासियों में वस्त्र परिधान और दिगम्ब रत्व का तात्विक भेद न होता तो उनके परिणाम में इतना गहन अन्तर नहीं हो सकता । दिगम्बर मुनि ही वास्तविक योगी है और बहो कैवल्य-पद का अधिकारी है। इसीलिये उसे 'साक्षात नारायण' कहा गया है । 'नारद परिबाजकोपनिषद्' में पागे और भी उल्लेख निम्न प्रकार हैं :
"ब्रह्मचर्यण संन्तस्थ संन्यासाज्जातरूपधरो वैराग्य संन्यासी ।"
१. अवधूतस्त्वनियमः पतिताभिशस्तवर्जनपूर्वक सर्व वणवजगरवृत्याहार परः स्वरूपानुसंधानगरः ।......... २. सर्व विस्मल्य तुरीया तीतावघुतवेषणाद्वैतनिष्ठा पर: प्रणावात्म करवन बहत्यागं करोति यः सोबधूत: । ३. ईशाद्य०, पृष्ठ १३१ । ४. ईदाय०, पृ० १५० ।
५. ईशाचा पृ० २६७-२६८ । ६. ईशा१०, पृ०२६८-२६६। ७. ईशाद्य, पृष्ट ४१५- सन्यासोपनिषत् ५६ ।
5.ईशाद्य पृष्ठ २७१।
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"तुरीयातीतो गोमुख: फलाहारी । अन्नाहारी चेद्गृह त्रये देहमात्रावशिष्टो दिगम्बरः कुणपवच्छरीरवृत्तिकः । अवधुतस्त्वनियमोऽभिशस्तपतितवर्जनपूर्वकं सर्ववर्णष्य जगरवृत्याहारपरः स्वरूपानुसंधानपरः ।....."."."परमहंसादित्रयाणाम् कटिसूत्र न कौपीन न वस्त्रम् न कमण्डलुन दण्ड सार्ववणकर्भक्षाटनपरत्वं जातरूपधरत्वं विधि ......"सवं परित्यज्य तत्प्रसक्तम् मनोदण्डं करपात्रं दिगम्बर दृष्टवा परिव्रजेभिक्षुः ॥.......... 'अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा चरति यो मुनिः । न तस्य सर्वभुतेभ्यो भयमुत्पद्यते क्वचित् ॥१६॥ पाशानिवृत्तो भूत्वा पाशाम्बरधरी भूत्वा सर्वदामनोवाक्कायकर्मभिः सर्वसंसारमुत्सृज्य प्रपन्चावामुखः स्वरूपानुसन्धानेन भ्रमरकोटन्यायेन मुक्तो भवतीत्युपनिषत ॥ पञ्चमोपदेशः ।।"
"दिगम्बरम् परमहंसस्य एक कौपीनं वा तुरीयातीतावधूतयो|तरूपधरत्वं हंस परमहंसयोरजिनं न त्वन्येषाम् । सप्तमोपदेशः । १
बैराग्य सन्यासी भेद एक अन्य प्रकार से किया गया है। इस प्रकार से परिव्राजक सन्यासियों के चार भेद यं किये गए हैं-(१) बैराग्य सन्यासी, (२) ज्ञान सन्यासी, (३) ज्ञान वैराग्य सन्यासी और (४) कर्म सन्यासो। इनमें से ज्ञान वैराग्य सन्यासी को भी नग्न होना पड़ता है।'
"भिक्षुकोपनिषद" में भी लिखा है :---
"अथ जातरूपधरा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः शुक्लध्यानपरायणा आत्मनिष्ठाः प्राणसंधारणार्थ यथोक्तकाले भक्षमाचरन्तः युन्यागारदेवगृहणवाट वल्मीकवृक्ष मुलकुलाल शालाग्निहोत्रशालानदी पुलिनगिरिकन्दर कुहर कोटर निर्भरस्थण्डिले तत्र ब्रह्ममार्ग सम्यवसंपन्ना: शुद्धमानसाः परमहंसाचरणेन सन्यासेन देहत्यागं कुर्वन्ति ते परमहंसा नामेत्युपनिषत् ।"3
"तुरीयातीतोपनिषत्" में उल्लेस्र इस प्रकार है :
"संन्यस्य विगम्बरो भूत्वा विवर्णजीर्णवल्कलाजिनपरिग्रहमपि संत्यज्य तदूर्वममन्त्रवदाचरन्क्षौराभ्यगस्नानार्ध्वपूण्डादिकं विहाय लौकिक वैदिक मप्युपसंहत्य सर्वत्र पूण्यापूण्यजितो ज्ञानाज्ञामपि विहाय शीतोष्ण सुख दुःख मानावमानं निजित्य वासनात्रयपूर्वक निन्दानिन्दागर्वमत्सर दम्भ दर्प द्वेष काम क्रोध लोभ मोह हर्षामसूयात्म संरक्षणादिकं दग्ध्वा..''इत्यादि।"
'सन्यासोपनिषत्' में और भी उल्लेख इस प्रकार है :
"वैराग्य संन्यासी ज्ञान संन्यासी ज्ञान वैराग्य संन्यासी कर्मसंन्यासीति चतुर्विध्यमुपागतः। तद्यथेति दृष्टानुअविकविषय बैतष्य मेत्य प्रावपुण्यकर्मविशेषात्संन्यस्तः स वैराग्यसंन्यासी..........."क्रमेण सर्वमभ्यस्य सर्वमनुभूय ज्ञानवैराग्याभ्यां स्वरूपानुसंधानेन देहमात्रावशिष्टः संन्यस्य जात रूपधरो भवति स ज्ञान बैराग्य संन्यासी ।"५ ___ 'परमहंसपरिव्राजकोपनिषत' में भी दिगम्बर मनियों का उल्लेख है :
"शिखामुत्कृष्य यज्ञोपवीतं छित्या बसमपि भूमी वाप्स् वा विसज्य ॐ भूः स्वाहा ॐ भुवः स्वाहा ॐ सुबः स्वाहेत्या तेन जातरूपधरो भूत्वा स्वरूपं ध्यायन्पुनः पृथक प्रणनव्याहति पूर्वक मनसा वचसापि संन्यस्तं मया'...."।"
“चदाल बुद्धिर्भवेत्तदा कुटीचको वा बहूदको वा हंसो वा परमहंसो बा तत्रमन्त्रपूर्वकं कटिसूत्र कौपीनं दण्डं कमण्डलु सर्वमप्सु बिसृज्याथ जातरूपधरश्चरेत् ।।३।।
'याज्ञवल्क्योपनिषत' में दिगम्बर साध का उल्लेख करके उसे परमेश्वर होता बताया है, जैसे कि जैनों की मान्यता है:
"यथाजातरूपधरा निन्द्रा निष्परिग्रहास्तत्वब्रह्ममार्ग सम्यक संपन्नाः शुद्धमानसाः प्राणसंधारणार्थ यथोक्तकाले विमुक्तो भक्षमाचरन्तुदरपात्रण लाभालाभो समौ भवा कर पात्रेण वा कमण्डलुदकयो भैक्षमाचरन्नुदरमात्र संग्रहः ।...... ""पाशाम्वरो न नमस्कारा न दारपुत्राभिलाषी लक्ष्यालक्ष्यनिवर्सक: परिनाट् परमेश्वरो भवति ।"
१. ईशाद्य पष्ठ २७२ ।
२. "कमेण सर्वगम्बरप सत्रंगनुभूव ज्ञानवैराम्प्राभ्यां स्वरूपानुसंधानेन देहमात्रावशिष्ट : संन्यस्य जातरूपधरो भवति स ज्ञानवैराग्यसंन्यासो।"
नारदपरिव्राजकोपनिषद् १ । ५। तथा सन्यासोपनिषद् । ३. ईशाद्य०, पृष्ठ ३६८ ४. ईशाद्य०, पृष्ठ ४१०
५. ईशारा, पृष्ठ ४१२ ६. ईशाय० पृ. ४१८-४१६ ७. ईशारा० पृ०५२४,
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'दत्तात्रेयोपनिषत्' में भी है :--
"दत्तात्रेय हरे कृष्ण उन्मत्तानन्द दायकः । दिगम्बर मुने बालपिशाच ज्ञानसागरः ।"
'भिक्षुकोपनिषद्' यादि में संवर्तक, प्रारुणी, श्वेतकेतु, जड़भरत, दत्तात्रेय, शुक, वामदेव, हारीतिकी आदि को दिगम्बर साधु बताया है। "याज्ञवल्क्योपनिषद्” में इनके अतिरिक्त दुर्वासा ऋभु निदाध को भी तुरियातीत परमहंस बताया है इस प्रकार उपनिषदों के अनुसार दिगम्बर साधुओं का होना सिद्ध है ।
किन्तु यह बात नहीं है कि मात्र उपनिषदों में ही दिगम्बरत्व का विधान हो, बल्कि वेदों में भी साधु की नग्नता का साधारण सा उल्लेख मिलता है। देखिये 'यजुर्वेद' अ० ११ मंत्र १४ में है :
"आतिथ्यरूपं मासरम् महावीरस्य नग्नहुः । रूपमुपसदामेतस्त्रिस्त्री रात्री सुरासुता ।। "
अर्थ - ( प्रातिथ्यरूपं ) अतिथि के भाव ( मासर) महीनों तक रहने वाले (महीवीरस्य ) पराक्रमशील व्यक्ति के (नग्न) नग्नरूप की उपासना करो जिससे ( एतत ) ये (तिस्त्री) तीनों (णत्री:) मिथ्या ज्ञान, दर्शन और चरित्ररूपी (सुर) मद्य (असुरता ) नष्ट होती है।
इस मंत्र का देवता अतिथि है । इसलिये यह मंत्र अतिथियों के सम्बन्ध में ही लग सकता है, क्योंकि वैदिक देवता का मतलब वाच्य है जैसाकि निरुक्तकार का भाव है
"याते नोच्यते सा देवताः ।" इसके अतिरिक्त श्रथर्ववेद' के पन्द्रहवें अध्याय में जिन व्रात्य और महाव्रात्य का उल्लेख है; उनमें महाव्रात्य दिगम्बर साधु का अनुरूप है । किन्तु यह बात्य एक वेदबाह्य संम्प्रदाय था जो बहुत कुछ निर्ग्रन्थ संप्रदाय से मिलता-जुलता था। बल्कि यूं कहना चाहिये कि वह जैन मुनि और जैन तीर्थंकर ही का द्योतक है। इस अवस्था में यह मान्यता और भी पुष्ट होती है कि जैन तीर्थकर ऋषभदेव द्वारा दिगम्बरत्व का प्रतिपादन सर्वप्रथम हुआ था और जब उसका प्राबल्य बढ़ गया और लोगों को समझ पड़ गया कि परमोच्चपद पाने के लिए दिगम्वरत्व प्रावश्यक है तो उन्होंने उसे अपने शास्त्रों में भी स्थान दे दिया। यही कारण है कि वेद में भी इसका उल्लेख सामान्य रूप में मिल जाता है ।
अब हिन्दू पुराणादि ग्रंथों में जो दिगम्बर साधुओं का वर्णन मिलता है, वह भी देख लेना उचित है। श्री भागवत पुराण में ऋषभ अवतार के सम्बन्ध में कहा है :
"ही तस्मिन्नेव विष्णु भगवान् परमर्षिभिः प्रसादतो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मरूदेव्यां धर्मान् दर्शयतु कामो वातरशनानां श्रमाणानां ऋषीणामूर्धा मन्यिना शुक्लया तनु वावततार ।"
घर्थं - "हे राजन् ! परीक्षित वा यज्ञ में परम ऋषियों करके प्रसन्न हो नाभि के प्रिय करने की इच्छा से वाके प्रन्तःपुर में मरुदेवी में धर्म दिखायवे की कामना करके दिगम्बर रहिवेवारे तपस्वी ज्ञानी नैष्टिक ब्रह्मचारी ऊर्ध्वरेता ऋषियों का उपदेश देने को शुक्ल की देह धार श्री ऋषभदेव नाम का (विष्णु ने ) अवतार लिया।"
" लिङ्ग पुराण" (प्र०४७ ०६८ ) में भी नग्न साबु का उल्लेख है :
"सर्वात्मनात्म निस्थाप्य परमात्मानमीश्वरं ।
नग्नोजटी निराहारो चीरीध्वांत गतोहिसः ||२२||
"स्कंधपुराण- प्रभासखंड में (अ० १६ पृ० २२१) शिव को दिगम्बर लिखा है"
"वामनोपि ततश्चक्रे तत्र तीर्थावगाहनम् ।
ग्रूपः शिवोदृष्टः सूर्यबिम्बे दिगम्बरः ॥ ६४ ॥"
१. ईशाद्य पृ० ५४२
२. IHQ III 259-260
३. मालूम होता है कि इस मंत्र द्वारा वेदकार ने जैन तीर्थंकर महावीर के आदर्श को ग्रहण किया है। दूसरे धर्मो के आदर्श को इस तरह ग्रहण करने के उल्लेख मिलते हैं |
JHQ JJI 472-485
४. देखो भा० प्रस्तावना पृ० ३२-४६ ।
५. बेजै० पृ० ३
६. वेजं० पृ० १,
७. वेजे० पृ० ३४,
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श्री भर्तृहरि की वैराग्यशतक' में कहते हैं':'एकाकी निःस्पृहः शान्तः पाणिपात्र दिगम्बरः । कदाशम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मलनक्षमः ||८
1
अर्थ "हे शम्भो ! मैं अकेला इच्छा रहित, शान्त, पाणिपात्र और दिनम्बर होकर कर्मों का नाश कब कर सकेगा।" वह और भी कहते हैं।
धीमहि वयं भिक्षामाशावासो वसीमहि । मोहिमही हि कमी ||
अर्थ "अब हम भिक्षा ही करके भोजन करेंगे; दिया हो के वस्त्र धारण करेंगे अर्थात् नमन रहेंगे और भूमि पर ही शयन करेंगे। फिर भला धनवानों से हमें क्या मतलब ?"
साधु
सातवीं शताब्दी में जब चीनी यात्री हुएनसांग बनारस पहुंचा तो उसने वहां हिन्दुओं के बहुत से नंगे देखे | यह लिखता है कि "महेश्वर भक्त साधू वालों की बांध कर जटा बनाते हैं या वस्त्र परित्याग करके दिवंगर रहते हैं और शरीर में भस्म का लेप करते हैं । ये बड़े तपस्वी है ।" इन्हीं को परमहंस परिव्राजक कहना ठीक है। किन्तु हुए नसांग से बहुत पहले ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दी में जय सिकन्दर महान् ने भारत पर आक्रमण किया था, तब भी नंगे हिन्दू साधु यहाँ मौजूद थे।
अरस्तु का भतीजा स्थिsो कल्लिस्थेनस (Pseudo Kallisthenes ) सिकन्दर महान के साथ यहां आया था और वह बताता है कि "ब्राह्मणों का थमनों को तरह कोई संच नहीं। उनके साधु प्रकृति को अवस्था में (State of nature) -नम्न नदी किनारे रहते हैं और नंगे हो घूमते हैं ( Go about naked) उनके पास न चोपाये हैं, न हल हैं, न लोहा-लंगड है, न घर है, न बाग है, न नोठी है, न मुरा है यह कि उनके पास धन और मानन्द का कोई सामान नहीं है। इन साधुओं की स्त्रियों गंगा के दूसरी ओर रहता है; जिनके पास जुलाई और ग में वे जाते हैं। वन जंगल में रहकर वे वन फल खाते हैं।*
सन् ८५१ में अरब देश से सुलेमान सौदागर भारत आया था। उसने यहां एक ऐसे नंगे हिन्दू योगी को देखा था जो सोलह वर्ष तक एक श्रासन से स्थित था ।
बादशाह औरंगजेब के जमाने में फांस से श्राये हुए डा० बर्नियर ने भी हिन्दुओं के परमहंस (नंगे) सन्यासियों को देखा था । वह इन्हें 'जोगी' कहता है और इनके विषय में लिखता है
१. वेजं० पृ० ४६ । २. वेज०, पृ० ४७ ।
३. हुमा० पू० ३२०
४. AI., P. 181
५. Elliot 1 P-4 ६. Bernier, P. 316
"I allude particularly to the people called 'Jaugis' a name which signifies 'united to God'. Numbers are seen, day and night, seated or lying on ashes, entirely naked, frequently under the large trees near talabs or tanks of water, or in the galleries round the Deuras of idol temples. Some have hair hanging down to the calf of the leg, twisted and entangled into knots. like the coat of our shaggy dogs. I have seen several who hold one and some who hold both arms perpetually lifted up above the head, the nails of their hands being twisted, and longer than half my little finger, with which I measured them. Their arms are as small and thin as the arms of persons who die in a decline, because in so forced and unnatural a position they receive not sufficient nourishment, nor can they be lowered so as to supply the mouth with food, the muscles having become contracted and the articulations dry and stiff. Novices wait upon these
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fanatics and pay them the utmost respect, as persons endowed with extraordinary sanctity. No fury in the interoal regions can be conceiveu more horrible than the Jaugise with their naked and black skin, long hair, spindle arms, long twisted nails and fixed in the posture which 1 have mentioned."
भाव यही है कि बहुत से ऐसे जोगो थे जो तालाब अथवा मंदिरों में नंगे रात-दिन रहते थे। उनके बाल लम्बे-लम्बे थे। उनमें से कोई अपनी बाहें ऊपर को उठाये रहते थे । नाखून उनके मुड़कर दूभर हो गये थे जो मेरी छोटो अंगुली के प्राधे के बराबर थे। सूखकर वे लकड़ी हो गये थे। उन्हें खिलाना भी मुश्किल था; क्योंकि उनकी नस तन गई थीं। भक्तजन इन भागों की सेवा करते हैं और इनकी बड़ी विनय करते हैं। वे इन जोगियों से पवित्र किसी दूसरे को नहीं समझते और इनके क्रोध से बेढब डरते हैं । इन जोगियों की नंगी और काली चमड़ी है, लम्बे बाल हैं, सूखी बाहें, लम्बे मुड़े हुए नाखून हैं और वे एक जगह पर ही उस ग्रासन में जमे रहते हैं जिसका मैंने उस्लेख किया है। यह हठयोग की पराकाष्ठा है । परमहंस होकर वह यह न करते तो करते भी क्या ?
सन १६२३ ई० में पिटर डेल्ला वाल्ला नामक एक यात्री ग्राया था। उसने अहमदाबाद में साबरमती नदी के किनारे और शिवालों में अनेक नागा साधु देख थे; जिनकी लोग बड़ी विनय करते थे।
प्राज भी प्रयाग में कुम्भ के मेले के अवसर पर हजारों नागा सन्यासी यहां देखने को मिलते हैं-वे कतार बांध कर शरह-ग्राम नंगे निकलते हैं।
- इस प्रकार हिन्दू शास्त्रों और यात्रियों की साक्षियों से हिन्दू धर्म में दिगम्बरत्व का महत्व स्पष्ट हो जाता है। निगम्बर साधू हिन्दयों के लिये भी पूज्य-पुरुष हैं।
इस्लाम और दिगम्बरत्व
"I am no apostle of new doctrines", said Muhammad, "neither know I what will be done with me or you."
-Koran XLVI पैगम्बर हजरत मुहम्मद ने खुद फरमाया है कि "मैं किन्हीं नये सिद्धान्तों का उपदेशक नहीं हूं और मुझे यह नहीं मालम कि मेरे या तुम्हारे साथ क्या होगा? "सत्य का उपासक और कह ही क्या सकता है ? उसे तो सत्य को गुमराह भाइयों तक पहुंचाना है और उससे जैसे बनता है वैसे इस कार्य को करना पड़ता है। मुहम्मद सा० को अरब के असभ्य से लोगों में सत्य का प्रकाश फैलाना था। वह लोग ऐसे पात्र न थे कि एकदम ऊंचे दर्जे का सिद्धान्त उन को सिखाया जाता। उस पर भी हजरत मुहम्मद ने उनको स्पष्ट शिक्षा दो कि
"The love of the world is the root of all evil."
The world is as a prison and as a famine to Muslims, and when they leave it you may say they leave famine and a prison"-(Sayings of Mohammad)
अर्थात-"संसार का प्रमही सारे पाप की जड़ है। संसार मुसलमान के लिए एक कैदखाना और कहत के समान है और जब वे इसको छोड़ देते हैं तब तुम कह सकते हो कि उन्होंने कहत और कैदखाने को छोड़ दिया।" त्याग गौर वैराग्य का इससे बढ़िया उपदेश और हो भी क्या सकता है ? हजरत मुहम्मद ने स्वयं उसके अनुसार अपना जीवन बनाने का यथासंभव प्रयत्न किया था। उस पर भी उनके कम से कम वस्त्रों का परिधान और हाथ को अंगूठी उनकी नमाज में बाधक हुई थी। - - - --- -
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- १. पुरातत्व, वर्ष २ अंक ४ पु. ४४० २. KK., P. 738 ३. Religious Attitude and life in Islam, P.298 and KK.739
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किन्तु यह उनके लिये इस्लाम के उस जन्म काल में संभव नहीं था कि वह खुद नम्न होकर त्याग और वैराग्य -तकें दुनिया का श्रेष्ठतम उदाहरण उपस्थित करते। यह कार्य उनके बाद हुए इस्लाम के सूफी तत्ववेत्ताओं के भाग में आया। उन्होंने 'तक' अथावा त्यागधर्म का उपदेश स्पष्ट शब्दों में दिया ---
___To abandon the world, its comfo.ts and dress,-all things now and to come,-Conform ably with the Hadees of the Prophet."
अर्थात-"दुनिया का सम्बन्ध त्याग देना- तर्क कर देना- -उसकी प्राशाइशों और पोशाला--सब ही चीजों को प्रवको और आगे की--पंगम्बर सा० की हदीस के मुताबिक ।"
इस उपदेश के अनुसार इस्लाम में त्याग और वैराग्य को विशेष स्थान मिला । उसमें ऐसे दरबेश हुये जो दिगम्वरत्व के हिमायती थे और तुकिस्तान में 'अब्दल' (Abdals) नामक दरवेश मादरजात नंगे रहकर अपनी साधना में लोन रहते बताये गये हैं। इस्लाम के महान सूफी तत्ववेता और सुप्रसिद्ध 'मस्नवी' नामक ग्रन्थ के रचयिता थी जलालुद्दीन रूमो दिगम्बरत्व का खुला उपदेश निम्न प्रकार देते हैं :
१- "गुफ्त मस्त ऐ महतब बगुज़ार रव-अज बिरहना के तवां वुरदन गरव । (जिन्द २ सफा २६२)" २-जामा पोशारा नजर परगाज़ रास्त–जाम अरियां रा तजल्ली जबर अस्त ।"
(जिल्द सफा ३८२) ३-."याज अरियानान बयकसु बाज रव-या चं ईशा फारिस व बेजामा शव !" ४–“वरनमी तानी कि कुल अरियां शबी--जामा कम कुन ता रह औसत रवी !!"
--(जिल्द २ सफा ३८३) इनका उर्दू में अनुवाद 'इल्हामे मन्जूम' नामक पुस्तक में इस प्रकार दिया हुया है१- मस्त बोला, महतब, कर काम जा-होगा क्या नङ्गे सेतु अहदे वर पा! २. है नजर धोबी पैजाम-पोश को है तजल्ली जेवर अरियां तनी!! ३-या बिरहनों से हो यकसू वाक़ई-या हो उन की तरह बेजाम प्रस्ती ! ४-मुतलकन परियां जो हो सकता नहीं-कपड़े कम यह है कि ग्रासत के करी !!
भाव स्पष्ट है। कोई ताकिक मस्त नगे दरवेश से आ उलझा। उसने सीधे से कह दिया कि जा अपना काम कर-तु नहगे के सामने टिक नहीं सकता। वस्त्र धारी को हमेशा धोवी को फिकर लगी रहती है। किन्तु नंगे तन की शोभा देवी प्रकाश है। बस, या तो तु नगे दरवेशों से कोई सरोकार न रख अथवा उनकी तरह आजाद और नगा हो जा! और अगर तू एक दम सारे कपड़े नहीं उतार सकता तो कम से कम कपड़े पह्न और मध्यमार्ग को ग्रहण कर ! क्या अच्छा उपदेश है। एक दिगम्बर जैन साधु भी तो यही उपदेश देता है। इससे दिगम्बरत्व का इस्लाम से सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है।
और इस्लाम के इस उपदेश के अनुरूप सैकड़ों मुसलमान फकीरों ने दिगम्बरवेष को गतकाल में धारण किया था। उनमें अबुलकासिम गिलानी और सरमद शहीद उल्लेखनीय हैं।
सरमद बादशाह औरंगजेब के समय में दिल्ली में हो गुजरा है और उसके हजारों नंगे शिष्य भारत भर में बिखरे पड़े थे। वह मूल में कजहान (परमेनिया) का रहने वाला एक ईसाई व्यापारो था। विज्ञान और विद्या का भी वह विद्वान था। अरबी अच्छी खासी जानता था । व्यापार के निमित्त भारत में आया था। ठट्टा (सिंध) में एक हिन्द्र लड़के के इश्क में पड़ कर मजन बन गया। उपरान्त इस्लाम के सूफी दरवेशों को संगति में पड़ कर मुसलमान हो गया । मस्त नगा वह शहरों और .-.. .. .. . . - ... ... . --- --- .... -..- . -. -... -
१. The Dervishes-KK. P. 738.
२. "The higher Saints of Islam, called 'Abdals' generally went about perfectly naked, as described by Miss Lucy M. Garnet in her excellent account of the Muslim Dervishes, entitled "Mysticism and Magic in Turkey."-NJ. P. 10
३. जिल्द और पाठ के नम्बर "मस्नवी" के उर्दू अनुवाद "इव्हामे मजूम" के हैं। ४. KR., P.739 and NJ. PP.8-9 ५. JG., XX PP. 158-159.
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गलियों में फिरता था । अध्यात्मवाद का प्रचारक था। घूमता-घामता वह दिल्ली जा इटा। शाहजहां का यह अन्त समय था । दारा शिकोह, शाहजहां बादशाह का बड़ा लड़का उसका भक्त हो गया। सरमद अानन्द से अपने मत का प्रचार दिल्ली में करता रहा । उस समय फ्रान्स से आये हुए डा० बरनियर ने खुद अपनी प्रांखों से उसे नंगा दिल्ली को गलियों में घूमते देखा था । किन्तु जव शाहजहां और दारा को मार कर औरंगजेब बादशाह हुआ तो सरमद की आजादो में भी अडंगा पड़ गया। एक मुल्ला ने उसकी नग्नता के अपराध में उसे फांसी पर चढ़ाने की सलाह औरङ्गजेब को दी; किन्तु औरंगजेब ने नग्नता को इस दण्ड की वस्तु न समझा और सरमद से कपड़े पहनने की दरख्वास्त की। इसके उत्तर में सरमद ने कहा
"आँकस कि तुरा कुलाह सुल्तानी दाद, मारा हम ओ अस्बाब परेशानी दाद; पोशानीद लबास हरकरा ऐबे दीद, वे ऐबा रा लबास अर्यानी दाद !"
यानी जिस ने तुम को बादशाही ताज दिया, उसी ने हम को परेशानी का सामान दिया । जिस किसी में कोई ऐब पाया, उसको लिबास पहनाया और जिन में ऐबन पाये उन को नगेपन का लिबास दिया।"
बादशाह इस रुबाई को सुनकर चुप हो गया, लेकिन सरमद उसके क्रोध से बच न पाया । अब के सरमद फिर अपराधी बनाकर लाया गया । अपराध सिर्फ यह था कि वह 'कलमा आधा पढ़ता है जिस के माने होते हैं कि 'कोई खदा नहीं है। इस अपराध का दण्ड उसे फांसी मिली और वह बेदान्त की बात करता हुआ शहीद हो गया। उसको फांसी दिये जाने में एक कारण यह भी था कि वह दारा का दोस्त था-" |
सरमद की तरह न जाने कितने नो मुसलमान दरवेश हो गुजरे हैं 1 बादशाह ने उसे मात्र नंगे रहने के कारण सजा न दी, यह इस बात का द्यातक है कि वह नग्नता का बुरा चीज नहीं समझता था। और सचमुच उस समय भारत में हजारों नंगे फकीर थे । ये दरवेश अपने नंगे तन में भारी र जंजीरे लपेट कर बड़े लम्बे २ तीर्थाटन किया करते थे।५
सारांशतः इस्लाम मजहब में दिगम्बरत्व साधुपद का चिन्ह रहा है और उसको अमली शक्ल भी हजारों मुसलमानों ने दी है। और चंकी हजरत मुहम्मद किसी नये सिद्धान्त के प्रचार का दावा नहीं करते, इसलिए कहना होगा कि ऋषभाचल से प्रगट हुई दिगम्बरवा-गंगा को एक धारा को इस्लाम के सूफ़ी दरवेशों ने भी अपना लिया था।
.. - - - --- - -- - - & Bernier renjarks: "I was for a long time disgusted with a celebrated Fakire named Sormet, who paraded the streets of Delhi as naked as when he came into the world etc." (Berniers Travels in the Mogul Empire, P317) R.Emperor told the Ulema that "Mere sudity cannot be a reason of execution."
.. IGXX., P. 158. ३. जमा १०४
JG., Vol. XX, P. 159. "There is no God" said Sarmad omitting "but, Allah and muhammad is His apostle."
५. "Among the vast number and endless Variety of Faires of Dervishes...Some carried a club like to Hercules, others had a dry and rougb tiger...skin thrown over their shoulders... Several of these fakires take long pilgrimages, such as are put about the legs of elepliants."
-Bernier, P. 317.
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(६)
ईसाई मजहब और दिगम्बर साधु "And he stripped his clothes also, and prophesied befor Samuel in like manner and lay down naked all that day and all that night wherefore they said, is suul also among the Prophets ?"
-(Samuel XIX-24) "At the same time spake the Lord, hy Isaiah the son of Amoz, saying, 'Go and loose the sack --cloth from off thy loins, and put off thy shoe from thyfoot. And he did so, walking naked and bare foot."
- (Isaiah XX,2) ईसाई मजहब में भी दिगम्वरत्व का महत्व भुलाया नहीं गया है; वल्कि बड़े मार्के के शब्दों में उसका वहाँ प्रतिपादन हया मिलता है। इसका एक कारण है। 'जिस महानुभाव द्वारा ईसाई धर्म का प्रतिपादन हुया था वह जन श्रमणों के निकट शिक्षा पा चुका था। उसने जैनधर्म की शिक्षा को ही अलंकृत--भाषा में पाश्चात्य देशों में प्रचलित कर दिया। इस अवस्था में ईसाई मजहब दिगम्बरत्व के सिद्धान्त से खाली नहीं रह सकता । और सचमुच वाइबिल में स्पष्ट कहा गया
"और उसने अपने वस्त्र उतार डाले और सैमुयल के समक्ष ऐसी ही घोषणा की और उस सारे दिन तथा सारी रात बह नंगा रहा । इस पर उन्होंने कहा, "क्या साल भी पैगम्बरों में से है ?"-(सैमुयल १६ । २४)
"उसी समय प्रभ ने अमोज के पुत्र ईसाइया से कहा, जा और अपने वस्त्र उतार डाल और अपने पैरों से जते निकाल डाल । और उसने यही किया, नंगा और नंगे पैरों वह विचरने लगा। "--(ईसाय्या २०१२)
इन उद्धरणों से यह सिद्ध है कि बाइबिल भी मुमुक्ष को दिगम्बर मुनि हो जाने का उपदेश देती है। और कितने हो ईसाई साथ दिगम्बर वेष में रह चने हैं। ईसाइयों के नंगे इन माधुओं में एलसेन्ट मेरी (St Mary of Fgypt नामक साध्वी भी थी। यह मिथ देश की सुन्दर स्त्री थी; किन्तु इसने भी कपड़े छोड़ कर नग्न-वेष में ही सर्वत्र बिहार किया था ।र
यहूदी (Jews) लोगों की प्रसिद्ध पुस्तक "The Ascension of Isaiah" (p.32) में लिखा है--
(Those who believe in the ascension into heaven withdrew and setted on the mountain.........They were all prophets (Saints) and they had nothing with them and were naked."3
अर्थात वह जो मुक्ति की प्राप्ति में श्रद्धा रखते थे एकान्त में पर्वत पर जा जमे.."वे सब सन्त थे और उनके पास कुछ नहीं था और वे नंगे थे।
अपॉसल पीटर ने नंगे रहने की आवश्यकता और विशेषता को निम्न शब्दों में अच्छे ढंग पर "Clementine Homilies" में दर्शा दिया है
"For we, who have chosen the future things, in so far as we possess more goods than these, whether they be clothings, or......any other thing, possess sins, because we ought not to have anything ......To all of us possessions are sins.........The deprivation of these, in whatever way it may take place is the removal of sins."
अर्थात-क्योंकि हम जिन्होंने भविष्य की चीजों को चुन लिया है, यहां तक कि हम उनसे ज्यादा समान रखते हैं. चाहे वे फिर कपड़े लत्ते हों या दूसरी कोई चीज, पाप को रक्खे हुये हैं, क्योंकि हमें कुछ भी अपने पास नहीं रखना चाहिये। इस
१. विको०, भा० ३ पृष्ठ १२८ २. The History of European Morals.ch. 4 and NJ. p:6 ३. N.J. P.6 ४. Ante Nicene Christian Libray.XVII. 240 NI. p.7
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सब के लिये परिग्रह पाप है । जैसे भी हो वमे इनका त्याग करना पापों को हटाना है।
दिगम्बरत्व की पावश्यकता पाप से मुक्ति पाने के लिये आवश्यक ही है। ईसाई ग्रंथकार ने इसके महत्व को खब दर्शा दिया है। यही वजह है कि ईसाई मजहब के मानने वाले भी सैकड़ों दिगम्बर साधु हो गुजरे हैं।
दिगम्बर जैन मुनि "जधजादरवजादं उपडिद के समंसुगं सुद्ध। रहिदं हिंसादोदो अप्पकष्टिम्म हदि लिगं ||५|| मुच्छारंभविजुत्न जुत्तं उवजोम जोग सुद्धीहि ।
लिग ण परवेक्खं अणुभव कारणं जो एह ।।६।। --प्रवचन सार दिगम्बर जैन मुनि के लिये जैन शास्त्रों में लिखा गया है कि उनका लिंग अथवा बेश यथाजानरूप नग्न हैसिर और दाढी के केश उन्हें नही रखने होते-वे इन स्थानों के बालों को हाथ से उखाड़ कर फेंक देते हैं-यह उनकी देशालन्चन क्रिया है। इसके अतिरिका दिगम्बर जैन मुनि का वेप शुद्ध, हिंसादि रहित, शृंगार रहित, ममता-प्रारम्भ रहित, उपयोग और योग की शुद्धि सहित, पर द्रव्य की अपेक्षा रहित, मोक्ष का कारण होता है । सारांश रूप में दिगम्बर जैन मनि का वेष यह है किन्तु यह इतना दुर्टर ओर गहन है कि संसार-प्रपंच में फंसे हए मनुष्य के लिए यह संभव नहीं है कि वह एकदम इस वेप को धारण कर ले । तो फिर क्या यह वेष अव्यवहार्य है ! जैनशास्त्र वाहते हैं, 'कदापि नहीं। और यह है भी तक क्योंकि उनमें दिगम्बरत्व को धारण करने के लिए मनुष्य को पहले से ही एक वैज्ञानिक ढंग पर तैयार करके योग्य वना लिया जाता है और दिगम्बर पद में भी उसे अपने मूल उद्देश्य की सिद्धी के लिए एक वैज्ञानिक ढग पर ही जीवन व्यतीत करना होता है। जैनेतर शास्त्रों में यद्यपि दिगम्बर वेष का प्रतिपादन हया मिलता है किन्तु उनमें जैनधर्म जैसे वैज्ञानिक नियमप्रवाह की कमी है। और यही कारण है कि परमहंस वानप्रस्थ भी उनमें सपत्नीक मिल जाते हैं । जैनधर्मके दिगम्बर साधनों के लिए ऐसी बात बिल्कुल असंभव हैं।
अच्छा तो, दिगम्र वेप करने के पहले जैनधर्म मुमुक्ष के लिए किन नियमों का पालन करना आवश्यक बतलाता है? जैनशास्त्रों में सचमुच इस बात का पूरा ध्यान रक्खा गया है कि एक गृहस्थ एक दम छलाँग मार कर दिगम्बरत्व के उनम्न शैल पर नहीं पहुंच सकता । उसको वहां तक पहुंचने के लिए कदम-ब-कदम आगे बढ़ना होगा। इसी क्रम के अनुरूप जनशास्त्रों में एक गहस्थ के लिये ग्यारह दर्ज नियत किये हैं। पहलं दर्ज में पहुंचने पर कहीं गृहस्थ एक श्रावक कहलाने के योग्य होता है। यह दर्जेगहस्थ को आत्मोन्नति के सूचक हैं और इनमें पहले दर्ज से दूसरे में प्रात्मोन्नति को विशेषता रहती
का विशद वर्णन जैन ग्रंथों में जैसे 'रत्नकरण्डकधावकाचार' में ख़ब मिलता है। यहां इतना बता देना हो की है कि इन दजों से गुजर जाने पर हो एक श्रावक दिगम्बर मुनि होने के योग्य होता है । दिगम्बर मुनि होने के लिये यह उसकी ट्रेनिंग' है और सचमुच प्रोषधोपवासवत प्रतिमा से उसे नंगे रहने का अभ्यास करना
भ कर देना होता है। मात्र पर्व-अष्टमी और चतुर्दशी-के दिनों में वह अनारम्भी हो-घर बाहर का कामकाज-छोडकर- श्रत उपवास करता तथा दिगम्बर होकर ध्यान में लीन होता है। ग्यारहवीं प्रतिमा में पहुंच कर वह मात्र लंगोटी का परिग्रह अपने पास रहने देता है और गृह त्यागी वह इसके पहले हो जाता है। ग्यारहवीं प्रतिमा का धारी वह
लक या क्षुल्लक' पादरपूर्वक विधिसहित यदि प्रासुक भोजन गृहस्थ के यहां मिलता है तो ग्रहण कर लेता है । भोजनपात्र का रखना भी उसकी खुशी पर अवलम्बित है। बस, यह श्रावक-पद की चरम-सीमा है। 'मुण्डकोपनिशद के 'मुण्डक श्रावक'
होते है। किन्त बनां चढ़ साघ का श्रेष्ठ रूप है। इसके विपरीत जैनधर्म में उसके पागे मुनिपद और है। मनिपद
-- - - - - - .-. .१. यूनानी लेखकों ने उनका उल्लेख किया है । देखो। Alp. 181 २. भम प० २०५ तथा बौदों के 'अंगनर निकाय' में भी इसका उल्लेख है। ३. वीर वर्ष ८० २५१-२५५
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में पहुंचने के लिये एलक श्रावक को लाजमी तौर पर दिगम्बर-वेष धारण करना होता है। मुनियों के मूल गुण जैन शास्त्रों में इस प्रकार बताए गए हैं:
पंचय महत्वमाहं समिदीयो पंच जिणवरोडिट्ठा । पंचेविदियरोहा छप्पिय आवासया लोचो ॥२॥ अचेल कमण्हाणं खिदिरायणमदत घस्सणं चैव । दिदिभोययभत्तं मूल गुणा अट्ठवीसा दु || ३ ||
-
मूलाचार ।
अर्थात् -"पांच महाव्रत (श्रहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह), जिनवर कर उपदेशो हुई पांच समितियां ( ईर्यासमिति, भाषा समिति, एषणा समिति, प्रादाननिक्षेपण समिति, मूत्रविष्ठादिक का शुद्ध भूमि में क्षेपण अर्थात् प्रतिष्ठापना समिति), पाँच इन्द्रियों का निरोध (चक्षु, कान, नाक, जीभ, स्पर्शन-इन पांच इन्द्रियों के विषयों का निरोध करना), छह स्रावश्यक ( सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, बंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग), लांच, आलय अस्तान, पृथिवीशयन, प्रदतघर्षण, स्थितिभोजन, एक भक्त ये जैन साधुओं के अट्ठाइस मूल गुण हैं ।"
संक्षेप में दिगम्बर मुनि के इन अठ्ठाइस मूल गुणों का विवेचनात्मक वर्णन यह है:(१) बहिंसा महाव्रत - पूर्णतः मन-वचन काय पूर्वक अहिंसा धर्म का पालन करना । (२) सत्य महाव्रत - पूर्णतः सत्य धर्म का पालन करना ।
(7) अस्तेय
पालन करना।
( ४ ) ब्रह्मचर्यं महाव्रत - पूर्णतः ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करना ।
(५) अपरिग्रह महाव्रत - पूर्णतः अपरिग्रह धर्म का पालन करना ।
(६) ईर्ष्या समिति - प्रयोजनवश निर्जीव मार्ग से चार हाथ जमीन देखकर चलना ।
( ७ ) भाषा समिति - पैशून्य, व्यर्थं हास्य, कठोर वचन, परनिश, स्वप्रशंसा, स्त्री कथा, भोजन कथा, राजकथा, चोर कथा इत्यादि वार्ता छोड़कर मात्र स्वपरकल्याणक वचन बोलना ।
(८) एषणासमिति – उद्गमादि छयालीस दोषों से रहित, कृतकारित नी विकल्पों से रहित भोजन में रागद्वेष रहितसमभाव से -- बिना निमंत्रण स्वीकार करे, भिक्षा-वेला पर दातार द्वारा पड़गाने पर इत्यादि रूप भोजन करना । (e) आदाननिक्षेपण समिति - ज्ञानोपकरणादि पुस्तकादि का (१०) प्रतिष्ठापना समिति एकान्त, हरित व सकाय रहित, स्थान में मल-मूत्र क्षेपण करना ।
(११) चक्षुनिरोध व्रत - सुन्दर व सुन्दर दर्शनीय वस्तुओं में राग-द्वेषादि तथा आसक्ति का त्याग ।
(१२) कर्णेन्द्रिय निरोध व्रत-सात स्वर रूप जीव शब्द ( गान) और वीणा आदि से उत्पन्न जीवशब्द रागादि के निमित्त कारण हैं, अतः इनका न सुनना ।
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यत्नपूर्वक देख भाल कर उठाना- घरना ।
गुप्त, दूर, बिल रहित, चौड़े, लोकनिन्दा व विरोध-रहित
(१३) घ्राणेन्द्रिय निरोध व्रत -सुगन्धित और दुर्गन्धि में रागद्वेष नहीं करना ।
(१४) रसनेन्द्रिय निरोध व्रत - जिह्वालम्यटता के त्याग सहित और आकांक्षा रहित परिणाम पूर्वक दातार के यहाँ मिले भोजन को ग्रहण करना ।
(१५) स्पर्शनेन्द्रिय निरोध व्रत- कठोर, नरम आदि पाठ प्रकार का दुःख अथवा सुख रूप जो स्पर्श उसमें हर्ष विषाद न
रखना ।
(१६) सामायिक – जीवन-मरण, संयोग-वियोग, मित्र-शत्रु, सुख-दुख, भूख-प्यास आदि बाधाओं में रागद्वेष रहित समभाव
रखना ।
(१७) चतुविशति - स्तव - ऋषभादि चौबीस तीर्थकरों की मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक स्तुति करना ।
(१८) वन्दना - अरहंतदेव, निर्ग्रन्थ गुरू और जिन शास्त्र को मन-वचन-काय की शुद्धि सहित बिना मस्तक नमाये नमस्कार
करना ।
(१९) प्रतिक्रमण - द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप किये गये दोष को शोधना और अपने श्राप प्रगट करना ।
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(२०)
या अयोग्य का त्याग करना ।
(२१) कायोत्सर्ग निश्चित क्रिया रूप एक नियत काल के लिये जिन गुणों की भावना सहित देह में ममत्व को छोड़कर स्थित होना ।
(२२) केशलोंच - दो, तीन या चार महीने बाद प्रतिक्रमण व उपवास सहित दिन में अपने हाथ से मस्तक, दाढ़ी, मूंछ के बालों का उखाड़ना ।
(२३) अचेल वस्त्र, चर्म, टाट, तूप आदि से शरीर को नहीं ढकना और प्राभूषणों से भूषित न होना ।
(२४) स्नान स्नान उबटन-अन्जन लेपन आदि का त्याग ।
(२५) क्षितिशयन - जीव बाधा रहित गुप्त प्रदेश में डण्डे अथवा धनुष के समान एक करवट से सोना ।
(२६) अदन्तधावन पंगुली, नवीन, तृण आदि से दल मल को शुद्ध नहीं करना ।
(२७) स्थितिभोजन- अपने हाथों को भोजन पात्र बनाकर भीत आदि के साथ रहित चार अंगुल के घर से समपाद खड़े
-
नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव- इन छहों में शुभ मग, वचन, काय से आगामी काल के लिए
--
रहकर तीन भूमियों की शुद्धता से आहार ग्रहण करना। और
(२८) एक भक्त सूर्य के उदय और मस्तकाल की तीन घड़ी समय छोड़कर एक बार भोजन करना ।
I
इस प्रकार एक मुमुक्षु दिगम्बर मुनि के श्रेष्ठ पद को तब ही प्राप्त कर सकता है जब वह उपरोक्त भट्ठाईस मूल गुणों का पालन करने लगे । इनके अतिरिक्त जैन मुनि के लिये और भी उत्तर गुणों का पालन करना आवश्यक है; किन्तु ये अट्ठाईस मूल गुण ही ऐसे व्यवस्थित नियम है कि मुमुक्षु को निर्विकारी और योगी बना है और यही कारण है कि आज तक दिगम्बर जैन मुनि अपने पुरातन वेष में देखने को नसीब हो रहे हैं। यदि यह वैज्ञानिक नियम प्रवाह जैन धर्म में न होता तो अन्य मतान्तरों के नग्न साधुओं के सदृश ग्राज दिगम्बर जैन साधुओं के भी दर्शन होना दुर्लभ हो जाते। दिगम्बर साधु-नंगे जैन साधु के लिये 'दिगम्बर साधु' पद का प्रयोग करना हो हम उचित समझते हैं के उपरोक्त प्रारम्भिक गुणों को देखते हुए जिनके बिना वह मुनि ही नहीं हो सकता - दिगम्बर मुनि के जीवन के कठिन श्रम, इन्द्रिय निग्रह, संयम, धर्मभाव, परोपकारवृति निरूप इत्यादि का सहज ही पता लग जाता है। इस दशा में यदि वे जगद्बंध हो तो धावयं क्या?
दिगम्बर मुनियों के सम्बन्ध में यह जान लेना भी जरूरी है कि उनके (१) आचार्य (२) उपाध्याय और ( ३ ) साधुरूप तीन भेदों के अनुसार कर्त्तव्य में भी भेद हैं। आचार्य साधु के गुणों के अतिरिक्त सर्वकाल सम्बन्धी प्रचार को जानकर स्वयं तद्वत् श्राचरण करे तथा दूसरों से करावे; जैन धर्म का उपदेश देकर मुमुक्षुत्रों का संग्रह करे और उनकी सार सम्भाल रखे । उपाध्याय का कार्य साधु कर्म के साथ-साथ जैन शास्त्रों का पठन-पाठन करना है। और जो मात्र उपरोक्त गुणों को पालता हुआ ज्ञान ध्यान में लीन रहता है, वह साथ है। इस प्रकार दिगम्बर मुनियों को अपने कर्तव्य के अनुसार जीवन यापन करना पड़ता है। [दाचार्य महाराज का जीवन संघ के उद्योत में ही लगा रहता है। इस कारण कोई-कोई याचा विशेष ज्ञान ध्यान करने की नियत से अपने स्थान पर किसी योग्य शिष्य को नियुक्त करके स्वयं साधुपद में आ जाते हैं। मुनि दशा ही साक्षात् मोक्ष का कारण है।
(4)
दिगम्बर मुनि के पर्यायवाची नाम
दिगम्बर मुनि के लिये जैन शास्त्रों में अनेक शब्द व्यवहस हुए मिलते हैं। तथापि जनेतर साहित्य में भी वह एक से अधिक नामों से उल्लिखित हुए हैं। संक्षेप में उनका साधारण सा उल्लेख कर देना उचित है; जिसमे किसी प्रकार की शंका को स्थान न रहे। साधारणतः दिगम्बर मुनि के लिये व्यवहृतन्य निम्न प्रकार देखने को मिलते हैं:
कच्छ, किचन, अचेलक (अमेली), अतिथि समगारी, अपरिग्रही, लोक यायें, ऋषि, गणी, गुरु, जिनसिंगी, तपस्वी, दिगम्बर दिदास, नग्न, निश्चल, निर्बंम्ब, निरागार पाणिपरात्र, भिक्षुक, महावती, नाहण, मुनि, यति, योगी, वातवसन, विवसन, संयमी (संयत), स्थविर, साधु, सन्यस्व, धमण, क्षपणक ।
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संक्षेप में इनका विवरण इस प्रकार है:१. अकन्छ' - लंगोटी रहित जैन मुनि । २. अकिन्चन --जिसके पास किंचित् मात्र (जरा भी) परिग्रह न हो वह जैन मुनि।।
३. अचेलक या अचंलव्रती-चेल अर्थात् वस्त्र रहित साधु । इस शब्द का व्यवहार जैन और जैनेतर साहित्य में हमा मिलता है । 'मूलाचार में कहा है:
"अच्चलकं लोचों" वोसट्ठसरीरदा य पडिलिहणं ।
एसो हु लिंगकप्पो चदुविधो होदिणादब्बो।। ६० अर्थ--'पाचेलक्य अथात् कपड़े आदि सब परिग्रह का त्याग, केश लोंच, शरीर संस्कार का प्रभाव, मोर पीछी-यह चार प्रकार लिंग भेद जानना ।' श्वेताम्बर जैन ग्रंथ "आचारांगसूत्र" में भी अचेलक शब्द प्रयुक्त्त हुआ मिलता है :
"जे अचेले परि बसिए तस्सणं भिक्खस्सणो एवभवद ।
"अरेलए ततो चाई, त बोसज्ज वत्थमणगारे।" उनके 'ढाणांगसूत्र' में है : "पंचहि ठाणेहि समण निग्गथे अचेलए सचेलयाटि निगंथीहिं सद्धि सेतसयाणे नाइक्कमइ।" अर्थात् "और भी पांच कारण से रहित साधु वस्त्र सहित साध्वो साथ रहकर जिनाजा का उल्लंघन करते हैं।"
बौद्ध शास्त्रों में भी जैन मुनियों का उल्लेख 'अचेलक' रूप में हआ मिलता है। जैसे "पाटिकपुत अचेलो"--अचेलक पाटिक पुत्र, यह जैन साधु थे। चोनी त्रिपिटक में भी जैन साधु "अचेलक' नाम से उल्लेखित हये हैं। बौद्ध टीकाकार बुद्धधोष 'अचेलक' से भाव नग्न के लेते हैं। ४. अतिथि–ज्ञानादि सिद्ध यर्थ तनुस्थित्यन्निाय यः स्वयम् यत्नेनातति गेहं वा न तिथिर्यस्य सोऽतिथिः ।
-सागार धर्मामृत अ०५ श्लो० ४२ । जिनके उपवास, व्रत आदि करने की गृहस्थ श्रावक के समान अष्टमी प्रादि कोई खास तिथि (तारीख) नियत न हो; जब चाहे करें।
५. अनगार"-.प्रागार रहित, गृहत्यागी दिगम्बर मुनि । इस शब्द का प्रयोग-प्रणयारमहरिसीण "मूलाचार, अनगारभावनाधिकार श्लो०२ में अनगार महर्पिणा इसी श्लोक की संस्कृत छाया और "न विद्यतेऽगारं गहंस्त्यादिकं षां तेऽनगारा" इसी श्लोक की संस्कृत टीका में मिलता है।
श्वेताम्बरीय "प्राचारांग" सूत्र में है : "तं वोसज्ज वस्थमणगारे।"१५ ६. अपरिग्रही-तिलतुषमात्र परिग्रह रहित दिग० मुनि ।
७. प्रतीक--लज्जाहीन, मंगेमुनि । इस शब्द का प्रयोग अजैन ग्रन्थकारों ने दिगम्बर मुनियों के लिये धणा प्रकट करते हुये किया है ; जैसे वौद्धों के "दाठावंश' में है ।१२
"इमे अहिरिका सब्जे सद्धादिगुणवन्जिता । थद्धा सठाच दुप्पचा सरगमोक्ख विबन्धका ।। "
३. पृष्ठ ३२६
१. बृजेश० पृष्ठ ४ २. (Ibid) ४. आचा० पृष्ठ १५१ ५. अध्याय १ उद्देस १ सूत्र ४ ६. दारणा पृ० ५६१ ७. भमव० पृ० २-२५ *. "वीर" वर्ष ४ पृ० ३५३ ६. अचेलकोऽतिनिम्चेलो नग्गो।'...IHO 11245 १०. बूजश०, पृ०४ ११. आचा० पृ०२१० १२. दाटा पृ. १४
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बौद्ध नैयायिक कमलशील ने भी जैनों का 'अहीक' नाम से उल्लेख किया है (ग्रहीकादयश्चोदयन्ति; स्याद्वादपरीक्षा प लवसंग्रह' (प.४५६ ) वाचस्पति भिधानकोष में भी 'अह्रीक' को दिगम्बर मुनि कहा है : "अह्नीक' क्षपणके तस्य दिगम्बरस्वेन लज्जाहीनत्वात् तथात्वम् ।" 'हेतुविन्दु तर्क टोका' में भी जैन मुनि के धर्म का उल्लेख 'क्षपणक' और 'अह्रीक नाम से कयाहै। लथा श्वेताम्बराचार्य श्री बादिदेवसूरि ने भी अपने 'स्यावाद-रत्नाकर' ग्रथ' में दिगम्बर जेनों का उल्लेख प्रतीक माम से किया है। ( स्याद्वाद-रत्नाकर पृ० २३०)।" ८. आर्य-दिगम्बर मुनि । दिगम्बराचार्य शिवार्य अपने दिगम्बर गुरुमों का उल्लेख इसी नाम से करते हैं।
"अज्ज जिणणंदिगणि, सव्वगुत्तगणि प्रज्जमित्तणंदीण । प्रवर्गामय पादमले सम्म सूतं च अत्थं च ।। पुवायरिय णिवद्धा उपजीविता इमा ससत्तीए ।
पाराधण सिवज्जेण पाणिदलभोजिणा रहदा ।।" यह सब आर्य ( साधु ) पाणिपात्रभोजी दिगम्बर थे।
६. ऋषी-दिगम्बर साधु का एक भेद है (यह शब्द विशेषतया ऋद्धिधारी साधु के लिये व्यवहृत होता है)। श्री कुन्दकुन्दाचार्य इसका स्वरूप इस प्रकार निर्दिष्ट करते हैं।
'णय, राय, दोष, मोहो, कोहो, लोहो र जस्स पायत्ता ।
पंच महन्वयधारा प्रायदणं महरिसी भणियं ॥६॥ अर्थात-मद, राग, दोष, मोह, क्रोध, लोभ, माया आदि से रहित जो पंचमहाव्रतधारी है, वह महा ऋषि है।
१०. गणी-मुनियों के गण में रहने के कारण दिगम्बर मुनि इस नाम से प्रसिद्ध होते हैं । 'मूलाचार' में इसका उल्लेख निम्न प्रकार हुआ है:
"विस्समिदो तहिवसं मोमंसित्ता णिवेदयदि गणिणो।" ११. गरु-शिष्यगण-मुनि श्रावकादि के लिये धर्मगुरु होने के कारण दिगम्बर मुनि इस नाम से भी अभिहित हैं। उल्लेख यूं मिलता है :
___"एवं आपुच्छित्ता सगवर गूरूणा विसज्जियो संतो।"५ १२. जिनलिंगी-जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट नग्न भेष का पालन करने के कारण दिगम्बर मनि इस नाम से भी प्रसिद्ध हैं।
१३. तपस्वी -विशेषतर तप में लीन होने के कारण दिगम्बर मुनि तपस्वो कहलाते हैं । 'रत्नकरन्ड श्रावकाचार' में इसकी व्याख्या निम्न प्रकार की गई है :
"विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ।
ज्ञान ध्यान तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।। १०॥" १४. दिगम्बर-दिशाय उनके वस्त्र हैं इसलिये जैन मुनि दिगम्बर हैं। मुनि कनकामर अपने को जैन मुनि हमा 'दिगम्बर' शब्द से ही प्रकट करते हैं :- ---
१. पुरातत्व, वर्ष ५ अंक ४ पृ० २६६-२६७ २. जहि भा० १२ पृ० ३६० ३. अष्ट० पृ० ११४ ४. मूला, पृ० ७५ ५. मूला पृ० ६७ ६. बृजेश पृ०४ ७. रश्रा, पृ. 4
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हिन्दू पुराणादि ग्रन्थों में भी जैन मुनि इस नाम से उल्लिखित हुए हैं । "
"वरायहं हुबई दियंवरेण । सुपसिद्ध गामै कणयामरेण ॥
१५. दिग्वास - यह भी नम्बर
( ५ । १०) में है - दित्वाससामयं धर्मः ।
१६. नग्न — यथाजातरूप जैन मुनि होते हैं, इसलिये वह नग्न कहे गये हैं । श्री कुन्दकुन्दाचार्य जी ने इस शब्द का उल्लेख यों किया है।
:
१४ के भाव में प्रयुक्त हुआ जनेतर साहित्य में मिलता | 'विष्णु पुराण' में
"भावेण होइ णग्गो, बाहिरलिंगेण किं च णम्गेणं वराहमिहिर कहते हैं- "नग्नान् जिनानां विदुः ॥ ४
१७. निश्चेल - वस्त्ररहित होने के कारण यह नाम है। उल्लेख इस प्रकार है :
“णिच्चेल पाणिवत्तं उबइठ परम जिणवरदेहि । *
१८. निर्ग्रन्थ – ग्रन्थ अर्थात् अन्दर-बाहर सर्वथा परिग्रह रहित होने के कारण दिगम्बर मुनि इस नाम से बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध हैं । 'धर्मपरीक्षा' में निर्ग्रन्थ साधु को वाह्याभ्यन्तर ग्रन्थ (परिग्रह) रहित नग्न ही लिखा है :-- 'त्यक्तवाह्यान्तरग्रन्थो निःकषायो जितेन्द्रियः ।
परीषहसहः साधुर्जातरूपधरो मतः || १८ || ७६ || '
"मूलाचार" में भी अचेलक मूल गुण की व्याख्या करते हुए साधु को निग्रॅन्थ भी कहा है :"वत्थाजिणवक्केण य श्रहवा पत्तादिणा श्रसवरणं ।
णिभूण णिग्ग्रंथं अचेलक्कं जगदि पूज्जं ॥३०॥७
'भद्रबाहु चरित्र' के निम्न श्लोक भी निर्ग्रन्थ शब्द का भाव दिगम्बर प्रकट करते हैं
अर्थ - "जो मूर्ख लोग निग्रन्थ मार्ग के बिना परिग्रह के सद्भाव में भी मनुष्यों को मोक्ष का प्राप्त होना बताते हैं उनका कहना प्रमाणभूत नहीं हो सकता । "
'निग्रंथ मार्गमुत्सृज्य सग्रन्थत्वेन ये जडाः ।
व्याचक्षन्ते शिवं नृणां तद्वचो न घटामटेत् ॥६५॥
"अहो निग्रन्थता शून्यं किमिदं मतम् ।
नत्र युज्यते गन्तु पात्रदण्डादिमण्डितम् || १४५॥
अर्थ - "अहो । निन्यता रहित यह दण्ड पात्रादि सहित नवीन मत कौन है? इनके पास मेरा जाना योग्य नहीं है ।"
३. अष्ट० पृ० २०० | ४. वराह मिहिर १६६१
५. प्रष्ट० पृष्ठ ६३ ॥
६. मुला०, पृष्ठ १३ ।
७. भद्र०, १०७८ व ५६ ॥
अर्थ – "भगवन् ! मेरे आग्रह से प्राप सब परिग्रह छोड़कर पहले ग्रहण की हुई देवताओं से पूजनीय तथा पवित्र निग्रंथ अवस्था ग्रहण कीजिये ।" "संग' शब्द का अर्थ अगले श्लोक में 'संग' वसनादिकमन्जसा ।' किया है । अतः यह स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थ अथवा वस्त्रादि रहित दिगम्बर है । किन्तु दुर्भाग्य से जैन समाज में कुछ ऐसे लोग हो गए हैं जिन्होंने शिथिलाचार
"भगवन्मदा महादग्न्या गृह्णनाभर पूजिताम् । fretreat प्रतां हित्वा सङ्ग मुदाऽखिलम् ॥। १४९।।
१. वीर, वर्ष ४ ० २०१
२. विष्णु पुराण में है : 'दिगम्बरो मुण्डो वहपत्रधर: ' ( ५- २ )
पद्मपुराण (भूमिखण्ड अध्याय ६६ ) प्रबोधचन्द्रोदयनाटक अंक ३ (दिगम्बर सिद्धान्तः ), पंचतन्त्र: "एकाकी गृहसंत्यक्त पाणिपात्रो दिगम्बरः । " - पंचतन्त्र ।
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के पोषण के लिए वस्त्रादि परिग्रहयुक्त अवस्था को भी निग्रंय मार्ग घोषित कर दिया है। आज उनका सम्प्रदाय 'श्वेताम्बर जन' नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि उनके पूरातन ग्रन्थ दिगम्बर देष को प्राचीन और श्रेष्ठ मानते हैं; किन्तु अपने को प्राचीन सम्प्रदाय प्रगट करने के लिये वह वस्त्रादि युक्त भी निग्रंथ मार्ग प्रतिपादित करते हैं। यह मान्यता पुष्ट नहीं है । इसलिये संक्षेप में इस पर यहां विचार कर लेना समुचित है।
श्वेताम्बर ग्रन्थ इस बात को प्रकट करते हैं कि दिगम्बर (नग्न) धर्म को भगवान् ऋषभदेव ने पालन किया थावह स्वयं दिगम्बर रहे थे और दिगम्बर वेष इतर-वेपों से श्रेष्ठ है । तथापि भगवान महावीर ने निग्रंथ श्रमण के लिये दिगम्बरत्व का प्रतिपादन किया था और आगामी तीर्थकर भी उसका प्रतिपादन करंगे, यह भी श्वेताम्बर शास्त्र प्रकट करते है । अतः स्वयं उनके अनुसार भी वस्त्रादि युक्त वेष श्रेष्ठ और मूल निग्रंथ धर्म नहीं हो सकता।
"श्वेताम्बराचार्य श्री प्रात्माराम जी ने अपने "तत्व निर्णयप्रासाद" में निग्रंथ' शब्द को व्याख्या दिगम्बर भावपोषक रूप में दी है। यथा
"कथा कौपीनोतरा संगादौनाम त्यागिनो यथा जातरूप धरा निर्ग्रन्था निप्परिग्रहाः।' जनतर साहित्य और शिलालेखीय साक्षी भी उक्त व्याख्या की पुष्टि करती है। वैदिक साहित्य में 'निग्रंथ शब्द का व्यवहार 'दिगम्बर' साधु के रूप में ही हुआ मिलता है । टीकाकार उत्पल कहते हैं? .
"निग्नंथों नग्मः क्षपणकः ।" । इसी तरह सायणाचार्य भी निर्ग्रन्थ शब्द को दिगम्बर मुनि का द्योतक प्रकट करते हैं :
"कथा कौपीनोत्तरा संगादिनाम् त्यागिनी, यथाजातरूपधरा निग्रन्थानिप्परिग्रहः ।
इति संवर्तश्रुतिः।" 'हिन्दू पद्मपुराण' में दिगम्बर जैन मुनि के मुख से कहलाया गया है :
"पहन्तो देवता यत्र, निर्ग्रन्थो गुरुरुच्यते ।" प्र निगद स्वमारी साध के होते तो दिगम्बर मुनि उसे अपने धर्म का गरु न बताते। इससे स्पष्ट
१. कल्पसूत्र'-Js. Pt. 1. P. २८५ । आचारांग सूत्र में कहा है :
"Those are called naked, who in this world, never returning (to a worldly state) ( follow my religion according to the commandment. This highest doctrine has here been declared for men."...Js I. P.56
"आउरण बज्जियाणं विशुद्धजिशकप्पियाणन्तु ।"
अर्थ-"वस्त्रादि आवरणयुक्त साध से ग्रावरण रहिन जिनकल्पि साधु विशुद्ध है। (संवत् १९३४ में मुद्रित प्रवचनमारोद्धार भाग ३ पृष्ठ १३)।
२. "सेजहानामए अजोमा ममरणासं निमाणं नग्गाभावे मुण्ड भावं अण्हाणए अदनवणे अच्छाए अगुवाहणए भुमिसज्जा फलज्जा कट्टगेज्मा केसलोए वभरवासे लद्धावल व वित्तीयो जाव पपगत्ताओं एवामेष महा परमेयि अरहा समयागा रिणम वाग नग्गभावे जाव लद्धावलद्ध वित्तोओ जाव पन्नहित्ति ।"
अर्थात भगवान महावीर कहते हैं कि श्रमण नियन्ध को नग्न भाव, मुण्ट भाव, अस्नान, छत्र नहीं करना, पगरखी नहीं पहनना, भूमि शंबा, केशलोंच, ब्रह्मचर्य पालन, अन्य के गृह में भिक्षार्थ जाना, आहार की वृति जैसे मैंने कही वैसे महापद्य अरहत भी कहेंगे ।
ठाणा, पुष्ठ ८१३ 'नमिणापिडोलगाहमा। मुण्डाकण्ड विण्द्धरण ।।७२।।-सप डांम हाइ भगवंग एवं रो देते दविए बोसठ्ठनाएत्तिवच्चे, माहणेत्ति बरामणेत्ति बा मिवत्ति वा, रिणगंथेत्ति वा पडिभाह भेते ।'
-सूयश्चांग २५८ ३. IHQ. III., 245 ४. तत्वनिर्णय प्रसाद पृष्ठ ५२३–व दि० ज०१०-१-४८ ।
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कि यहां भी निशब्द दिगम्बर मुनि के रूप में व्यवहुत हुआ है।
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"ब्रह्माण्डपुराण" के उपोद्घात ३ ० १४० १०४ में है. "जग्नादयो न पश्येषु श्राद्धकर्म व्यवस्थितम् ||३४|| "
अर्थात् -"जब श्राद्धकर्म में लगे तब लग्नादिकों को न देखे।" और आगे उसी पृष्ठ पर ३६ व श्लोक में लिखा है कि नग्नादिक कौन है ?
"वृद्ध धावक निन्याः इत्यादि
वृद्धआपकक ऐलक का घोतक है तथा निर्गन्ध शब्द दिगम्बर मुनि कायोतक है अर्थात् जैनधर्म के किसी भी गृहत्यागी साधु को श्राद्धकर्म के समय नहीं देखना चाहिए, क्योंकि सम्भव है कि यह उपदेश देकर उसकी निस्सारता प्रकट कर दें । ग्रतः वैदिक साहित्य के उल्लेखों से भी निर्ग्रन्थ शब्द नग्न साधु के लिये प्रयुक्त हुआ सिद्ध होता है ।
बौद्ध साहित्य भी इसी बात का पोषण करता है। इसमें 'निर्ग्रन्थ' शब्द साधु रूप में सर्वत्र नग्न मुनि के भाव में प्रयुक्त हुआ मिलता है। भगवान महावीर को यौद्ध साहित्य में उनके कुल यपेक्षा निर्ग्रन्थ नातपुत कहा है और श्वेताम्बर जैन साहित्य से भी यह प्रकट है कि नित्य महावीर दिगम्बर रहे थे। बीद्ध शास्त्र भी उन्हें निबंध और अचलकर प्रकट करते है। इससे स्पष्ट है कि वोटों ने 'नियन्स' और 'अचेलक शब्दों को एक ही भाव (Sense) में प्रयुक्त किया है अर्थात् नग्ना
1
के रूप में तथापि बौद्ध साहित्य के निम्न उद्धरण भी इसी बात के द्योतक हैं-
T
दीघनिकाय ग्रन्थ १ | २७८ ७६ में लिखा है कि
"Pasendi, King of Kosal saluted Niganthas.”
अर्थात् कोशल का राजा पसेनदी (प्रभजित) नियंवों (नग्न जेन मुनियों) को नमस्कार करता था।
बोड़ों के "महावग्ग" नामक ग्रन्थ में लिखा है कि "एक बड़ी संख्या में निचगण थाली में सड़क सड़क और चौराहे चौराहे पर शोर मचाते दौड़ रहे थे।" इस उल्लेख ये दिगम्बर मुनियों का उस समय निर्वाध रूप में राजमार्गों से चलने का समर्थन होता है वे ष्टमी पर चतुईशी को इकट्ठे होकर धर्मोपदेश भी दिया करते थे।
'विशाल' में भी निर्ग्रन्थ साधु को मग्न प्रकट किया है। दीर्घ निकाय के 'पासादिक मुत्तन्त' में है कि "जब निगन्ठ नातपुत्त का निर्वाण हो गया तो निर्ग्रन्थ मुनि आपस में झगड़ने लगे। उनके इस झगड़ने को देख कर श्वेतवस्त्रधारी astrian बड़े दुःखी हुये । अब यदि निर्ग्रन्थ साधु भी श्वेत वस्त्र पहनते होते तो श्रावकों के लिये वह एक विशेषण रूप में न लिखे जाते । अतः इससे भी 'निग्रन्थ साधु' का नग्न होना प्रगट है ।
'दादासो' में 'पहिरिका' शब्द के साथ-साथ निगण्ड शब्द का प्रयोग जन साधु के लिए हया मिलता है" । घोर 'लीक' या 'प्रहिरिक शब्द नग्नता का योतक है। इसलिये बौद्ध साहित्यानुसार भी निन्य साधु को नग्न मानना ठीक है ।
शिलालेखीय साक्षी भी इसी बात को पुष्ट करती है। कदम्यवंशी महाराज श्री विजयशिवमृगेश वर्मा ने अपने एक दानपत्र में अर्हन्तु भगवान और श्वेताम्बर महाश्रमण संघ तथा निर्यन्त्र प्रर्थात् दिगम्बर महाश्रमण संघ के उपभोग के लिये कालवंग
१. वे०, पृष्ठ १४ ।
२.१ १२. गुरनिकाय १ । १२० ।
३. जावक भा० २ पृ० १६२ - भग० ० २४५ ।
४. Indian Historical Quarterly, Vol. 1. P. 153 महावीर और म० बुद्ध पू० २८० ।
५. महाग २ १/१ और
६. भम० पु० २५२ ।
७. "तस्म का किरिया भिन्ना निगष्ट देधिक जाता, भण्डन जाता कलह जाता वधो एवं सोमं निगन्दे नाथत्तिसु वत्तति ये पिनिगन्डम्स नात्तस्य साबका गिट्टी ओदालय सना
दु खाते इत्यादि।"
- म ० २१४ ८. 'इसे अहिरिका सब्वे मद्भादिगुणा वज्जिता । यहा राजच पन्ना सगगोयल विवन्धका ॥८॥ इति सो स्तिथित्याग्रह नराधिप । पञ्चाजेसिसकारट्ठा निग ने असे सके ||८६॥
- दाटावंसो
पृ० १४ ।
६७१
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नामक ग्राम को भेंट में देने का उल्लेख किया है। ! यह ताम्रपत्र ई. पांचवीं शताब्दी का है। इससे स्पष्ट है कि तब के श्वेताम्बर भी अपने को निर्ग्रन्थ न कहकरदिगम्बर सोही मिसिंघमानते थे। यदि यह बात न होती तो बह अपने को 'श्वेतपट' और दिगम्बर को 'निर्गन्य' न लिखाने देते।।
कदम्ब ताम्रपत्र के अतिरिक्त विक्रम सं० ११६१ का ग्वालियर से मिला एक शिलालेख भी इसी बात का समर्थन करता है। उसमें दिगम्बर जैन यशदेिव को निन्थनाथ' अर्थात् दिगम्बर मुनियों के नाथ श्री जिनेन्द्र का अनुयायी लिखा है। अतः इससे भी स्पष्ट है कि 'निर्ग्रन्थ' शब्द दिगम्बर मुनि का द्योतक है।
चीनी यात्री हवेंगसांग के वर्णन से भी यही प्रगट होता है कि 'निग्रन्थ' का भाव नग्न अर्थात् दिगम्बर मुनि है :
"The Li-hi (Nirgranthas) di tinguish themselves by leaving their bodies naked and pulling out their hair" (St. Julio, Vienna P. 224)
अतः इन सब प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि निर्गन्थ' शब्द का ठोक भाब दिगम्बर (नग्न) मुनि का है। १६. निरागार-प्रागार घर आदि परिग्रह रहित दिगम्बर मुनि । 'परिग्रहरहिरो निरायारो।' २०. पाणिपात्र-करपात्र ही जिनका भोजन पात्र है, वह दिगम्बर मुनि।
णिच्चल पाणिपत उवइटें परम जिणचरि देहिं ।' २१. भिक्षुक--भिक्षावृत्ति का धारक होने के कारण दिगम्बर मुनि इस नाम से प्रसिद्ध होता है। इसका उल्लेख "मूलाचार" में मिलता है :
'मणवाचकायपउत्ती भिवखु साबज्जकज्जसंजुत्ता।
विप्पं णिवारयंतो तीहि दु गुत्तो हवादि एसो।।३३।।' २२. महाबती-पंच महावतों को पालन करने के कारण दिगम्बर मुनि इस माम से प्रकट है। २३. माहण-ममत्व त्यागी होने के कारण माण नाम से दिगम्बर मुनि अभिहित होता है। २४. मुनि--दिगम्बर साधु । श्री कुन्दकुन्दाचार्य इसका उल्लेख यूं करते हैं :
पंचमहन्वय जुत्ता पंचिंदिय संजमा णिरावेक्खा।
सज्झायझयण जुत्ता मुणिवर वसहा णिइच्छति ।। २५. यति-दिगम्बर मुनि । कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं :
"सुद्धं संजमचरणं जधम्मं णिक्कलं वोच्छ ।' २६. योगी-योगनिरत होने के कारण दिगम्बर साधु का यह नाम है। यथा :
"जं जाणियुण जोई जो अत्थो जोई ऊण प्रणवरयं ।
अवाबाहमणतं अणोवयं लहइ णिब्याणं ।।" २७. वात वसन-- वायु रूपी वस्त्रधारी अर्थात् दिगम्बर मुनि ।
___ "श्रमण दिगम्बराः श्रमण वातवसनाः"-इतिनिघण्टुः - - - - ----.
.......कदम्बा श्रीबिजयशिवमृगेशबर्मा कालवंग ग्राम विधा विशजय दत्तवान अत्रपूर्वमहच्छाला परमपूरकलस्थान निवासिभ्यः भगवर्दपन्महाजिनेन्द्र-देवताभ्य एकोभागः द्वितीयोहंत्योक्तस वर्मकरण परस्य श्वेतपट महाश्रमशासंघोपभीगाय तृतीयो निन्यमहाश्रमण संघोपभोगा येति ।"
-जैहि मा0 १४ पृ० २२६॥ २. The Gwalior inscrips: of Vik. S. 1161 (1104 A. D.)
" It was composed by a Jain Yasodeva, who was an adherent of the Digambara or nude sect (Nigranthanatha)" --Catalogue of Archacological Exhibits in the U. P. P. Museum Lucknow, Pts. (1915) P.44 ३. अष्टः पृ०७० ४. बृजेश, पृ०४
५. अष्ट० पृ० १४२ ६. अष्ट० पृ०६९
७. अष्ट०, पृ० १६०
-.
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२८. विवसन–बस्त्र रहित मनि । वेदान्तसूत्र की टीका में दिगम्बर जैन मुनि विवसन' और "विसिच" कडे गए । २६. संयमी (संयत्)-यम नियमों का पालक सो दिगम्बर मुनि । उल्लेख य है--
"पंचमहब्वय जुत्तो तिहि गुत्तिाह जो स संजदो होई । ५ ३०. स्थविर--दीर्घ तपस्वो रूप दिगम्बर मनि । "मुलाचार" में उल्लेख इस प्रकार है:
"तत्व ण कप्पइ वासो जत्थ इमे णस्थि पंच आधारा।
पाइरिय उवज्झाया पवत्त थेरा गणधराय।।" ३१. साधु-यात्म साधना में लोन दिगम्बर मुनि । इनको भी कुछ परिग्रह न रखने का विधान है ?
वालग्ग कोडिमत्तं परिग्रह गहणं ण होई साहणाँ ।
भुजेइ पाणिपत्त दिग्णाणं इक्क ठाणम्मि ।।१७॥ ३२. सन्यस्त'- सन्यास ग्रहण किये हुए होने के कारण दिगम्बर मनि इस नाम से भी प्रख्यात हैं। ३३. श्रमण-अर्थात समरसीभाव सहित दिगम्बर साधु । उल्लेख यं हैं:
वन्दे तव सावण्णा (वन्दे तपः श्रमणान) ६
समणोमेत्ति य पढम बिदिभं सब्वत्थ संजदो मेति । ३४.क्षपणक-नग्न साधु । दिगम्बराचार्य योगीन्द्र देव ने यह शब्द दिगम्बर साधु के लिये प्रयुक्त किया है .
तरुणउ बूढउ पडउ सूरउ पंडिउ दिव्व ।
खवणउ बंदउ सेवडउ मूढ़उ मण्णइ सव्व ।।८३|| श्वेताम्बर जैन ग्रन्थों में भी दिगम्बर मनियों के लिए यह शब्द ब्यवहत हया है -
खोमाणराजकुलजोऽपिसमुद्र सूरिगच्छं शशास किल दमवण प्रमाण (?)। जित्वा तदां क्षपणकान्स्ववर्श वितेने।
नागेंद्रदे (?) भुजगनाथनमस्य तीर्थे । श्रीमनिसन्दर सरि ने अपनी गूर्वावली में इस इलोक के भाव में "क्षपणकान्" की जगह "दिग्वसनान"पदा गोग करके इस दिगम्बर मनि के लिए प्रयुक्त हुआ स्पष्ट कर दिया है। श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र ने अपने कोष में निम्न का पर्यायवाची शब्द "क्षपणक" भी दिया है।'' यही बात श्रीधरसेन के कोष से भी प्रकट 11 प्रजन शारी शब्द दिगम्बर जैन साधुओं के लिए व्यवहुत हुप्रा मिलता है। उत्पल कहता है १६:
निर्गन्थो नग्न: क्षपणकः।" "अद्वैतब्रह्मसिद्धि" (पृष्ठ १६६) से भी यही प्रकट है:
_ "क्षपणका जैनमार्गसिद्धान्तप्रवर्तका इतिकेचिन ।” "प्रबोधचंद्रोदय नाटक" (अक ३) में भी यही निर्दिष्ट किया गया है 116
क्षपणवानेशो दिगम्बर सिद्धान्तः । "पंचतंत्र अपरीक्षितकारकतंत्र दशकुमार चरित्र" तथा "मुद्राराक्षस नाटक" "में भी "क्षपणक" शब्द दिगम्बर
बाना
१. वेदान्तसूत्र २-२-६३ वांकरभाष्य-वीर वर्ष २ १०३१७ २. अष्ठ पृ०७१
३. मूला पृ. ३१ ५. बुजशा, पृ०४
६, अष्ट०, पृ० ३५ ८. 'परमात्म प्रकाश'-रथा पर १४. ..रधा०, पृ. १३६ ११. 'नग्नो विवाससि मागचे च क्षपणके।' १३. JHQiii. 245 १५. (erपणक विहार गत्वा)—'एकाकीगृहसत्यत: गागिणपात्रो दिगम्बरः ।' १६. द्वितीय उच्चावास वीर वर्ष२ पृ० ३१ १७, मुद्राराक्षस अंक ४-वीर, वर्ष ५ पृ. ४३०
४. अष्ट, पृ०६७ ७. मूला०, पृष्ट ४५.
१०. रथा, पृ० १४० ... १२. 'नग्नस्त्रिषु विवस्त्रे स्यात्पुंसि क्षपन्दिनोः ।
१४. J.G.IXV 48
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मुनि के लिए व्यवहुत हुआ मिलता है। नोनियर विलियम्स के संस्कृत कोष में भी इसका अर्थ यही लिखा है।"
इस प्रकार उपरोक्त नामों से दिगम्बर जैन मुनि प्रसिद्ध हुए मिलते हैं। अतएव इनमें से किसी भी शब्द का प्रयोग दिगम्बर मुनि का द्योतक ही समझना चाहिए।
ह
इतिहासातीत काल में दिगम्बर मुनि
प्रातिथ्यरूपं मासरं महावीरस्य नग्नतुः । रूपमुपसदा मेतत्तिस्त्रो रात्री सुरासुता ।
यजुर्वेद अ० मंत्र १४
भारतवर्ष का ठीक-ठीक इतिहास ईस्वी पूर्व पाठवी शताब्दी तक जाना जाता है। इसके पहले की कोई भी बात विश्वासनीय नहीं मानी जाती, यद्यपि भारतीय विद्वान अपनी धार्मिक वार्ता इस काल से भी बहुत प्राचीन मानते और उसे विश्वासनीय स्वीकार करते हैं। उनकी यह वार्ता "इतिहासातीत काल की वार्ता समझनी चाहिए। दिगम्बर मनियों के विषय में भी यही बात है। भगवान ऋषभदेव द्वारा एक अज्ञात अतीत में दिगम्बर मुद्रा का प्रचार हुआ और तब से यह इस्वी पूर्व वी शताब्दी तक ही नहीं बल्कि आजतक निर्वाध प्रचलित है। दिगम्बर मुद्रा के इस इतिहास की एक सामान्य रूपरेखा यहां प्रस्तुत करना अभीष्ट है ।
इतिहासातीतकाल में प्राचीन जैन शास्त्र अनेक जैन सम्राद् और जैन तीर्थकरों का होना प्रगट करते हैं और उनके द्वारा दिगम्बर मुद्रा का प्रचार भारत में ही नहीं बल्कि दूर-दूर देशों तक हो गया था। दिगम्बर जैन प्रस्ताव के प्रथमानुयोग सम्बन्धी शास्त्र इस कथा – वार्ता से भरे हुए हैं, उनको हम यहां दुहराना नहीं चाहते. प्रत्युत जैन शास्त्रों के प्रमाणों को उपस्थित करके हम यह सिद्ध करना चाहते हैं कि दिगम्बर मुनि प्राचीन काल से होते घाये हैं और उनका बिहार सर्वत्र निर्वाध रूप में होता रहा है ।
भारतीय साहित्य में वेद प्राचीन ग्रन्थ माने गये है। यतः सबसे पहले उन्हीं के आधार से उक्त व्यस्था को पुष्ट करना श्रेष्ठ है। किन्तु इस सम्बन्ध में यह बात ध्यान देने योग्य है कि वेदों के ठीक-ठीक अर्थ आज नहीं मिलते और भारतीय धर्मों के पारस्परिक विरोध के कारण बहुत से ऐसे उल्लेख उनमें से निकाल दिये गये अथवा अर्थ बदलकर रक्खे गये हैं जिनसे वेदवाह्य सम्प्रदायों का समर्थन होता था। इसी के साथ यह बात भी है कि वेदों के वास्तविक अर्थ श्राज ही नहीं मुद्दतों पहले लुप्त हो चुके थे और यही कारण है कि एक ही वेद के अनेक विभिन्न भाष्य मिलते हैं। अतः वेदों के मूल वाक्यों के। 'अनुसार उक्त व्याख्या की पुष्टि करना यहां प्रभीष्ट है।
यजुर्वेद [अ०] १६ १४ में जो इस परिच्छेद के प्रारम्भ में दिया हुआ है, अन्तिम तीर्थंकर महावीर का स्मरण नग्न विशेषण के साथ किया गया है। महावीर मीर "नग्न" शब्द जो उक्त मंत्र में प्रयुक्त हुए हैं उनके अर्थ कोष पन्थों में सन्तिम जैन तीर्थकर र दिगम्बर ही मिलते हैं। इसलिए इस मंत्र का सम्बन्ध भगवान महावीर से मानना ठीक है। वैसे बौद्ध साहि त्यादि से स्पष्ट है कि महावीर स्वामी नग्न साधु थे। इस अवस्था में उक्त मंत्र में "महावीर" शब्द "नग्न" विशेषण सहित प्रयुक्त हुआ इस बात का द्योतक है कि उसके रचयिता को तीर्थंकर महावीर का उल्लेख करना इष्ट है। इस मंत्र में जो शेष
t.Ksapnaka is a religious mendicant. specially a Jain mendicant who wears no garment." Monier William's Sunskrit Dictionary p. 326.
२. ई० पूर्ष ७ वीं शताब्दीका वैदिक विद्वान कौत्स्य वेदों को अनर्थक बतलाता है । (अनर्थका हि मन्त्राः। यारक, निरुक्त १५- १ ) यार इसका समर्थन करता है (नित १६२) देखो Asure India. p. IV
P.
३. . ० ५५-६०
६७४
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विशेषण है वह भी जैन तीर्थकर के सर्वथा योग्य है और इस मंत्र का फल भी जैन शास्त्रानुकल है। अतः यह मंत्र भगवान महाबीर को दिगम्बर मुनि प्रकट करता है।
किन्तु भगवान महावीर तो ऐतिहासिक महापुरुष मान लिए गये हैं, इसलिए उनसे पहले के वैदिक उल्लेख प्रस्तुत करना उचित है। सौभाग्य से हमें ऋगसंहिता (१०।१३६-२) में ऐसा उल्लेख निम्न शब्दों में मिल जाता है :
"मनयो वातबसनाः ।" भला यह वातबसन--दिगम्बर मुनि कौन थे ? हिन्दू पुराण ग्रन्थ बताते हैं कि वे दिगम्बर जैन मुनि थे, जैसे कि हम पहले देख चके हैं। और भी देखिए, श्रीमद्भागवत् में जैन तीर्थकर ऋषभ देव ने जिन ऋषियों को दिगम्बरत्व का उपदेश दिया था, वे वातरशनानां श्रमण कहे गये हैं।' ओ० अल्बट बेबर भी उक्त वाक्य को दिगम्बर जैन मुनियों के लिए प्रयुक्त हमा व्यक्त करते हैं।
इसके अतिरिक्त अथर्ववेद ( अ०१५) में जिन "यात्य" पुरुषों का उल्लेख हैं, वे दिगम्बर जैन ही हैं, क्योंकि ब्रात्य वैदिक संस्कार हीन बताये गये हैं और उनकी क्रियायें दिगम्बर जैनोंके समान हैं । वे वेद विरोधी थे। मल्ल, मल्ल, लिच्छवित्र जात, करण खस और द्राविड़ एक वात्य क्षत्री की सन्तान बताये गये हैं और यह सब प्रायः जनधर्मभुक्त थे ज्ञात वंश में तो स्वयं भगवान महावीर का जन्म हुआ था। तथापि मध्य काल में भी जैनी व्रती ( Verteis) नाम से प्रसिद्ध रह चुके हैं, जो व्रात्य से मिलना-जुलता शब्द है।" अच्छा तो इन जैन धर्म भक्त नात्यों में दिगम्बर जैन मुनि का होना लाजमी है। 'अथर्ववेद' भी इस वात को प्रकट करता है। उसमें प्रात्य के दो भेद "हीन नात्य" और "ज्येष्ठ व्रात्य" किये हैं। इनमे ज्येष्ठवात्य दिगम्बर मूनि का द्योतक है, क्योंकि उसे "समनिचमेन्द्र" कहा गया है, जिसका भाव होता है "अपेतप्रजननाः" यह शब्द अह्रीक शब्द के अनुरूप है और इससे ज्येष्ठवात्य का दिगम्बरत्व स्पष्ट है।
इस प्रकार वेदों से भी दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व सिद्ध है। अब देखिये उपनिषद् भी वेदों का समर्थन करते हैं। 'जावालोपनिपद निर्गन्य शब्द का उल्लेख करके दिगम्बर साधु का अस्तित्व उपनिषद् काल में सिद्ध करता है:
"यथाजातरूपधरो निन्थो निष्परिग्रहः.........
शुक्लध्यानपरायणः................।" (सूत्र ६) निन्थ साधु यथाजात रूप धारी तथा शुक्लध्यान परायण होता है। सिवाय निर्ग्रन्थ (जैन) मार्ग के अन्यत्र कहीं भी शुक्ल ध्यान का वर्णन नहीं मिलता । यह पहले भी लिखा जा चुका है। "मैत्रेयोपनिषद्” में दिगम्बर शब्द का प्रयोग भी इसी बात का द्योतक है। मुण्डकोपनिषद् की रचना भृगु अंगरिस नामक एक भृष्ट दिगम्बर जैन मुनि द्वारा हुई थी और उनमें
- - --- १. वेज, प०३ २. [A., Vol; XXX, p. 280
३. अमरकोप २१८ व मनु. १०।२०, सायणाचार्य भी यही कहते हैं-"व्रात्यो नाम उपनयनादि संस्कारहीनः पुरुषः । सोऽर्थाद · यज्ञादिवेद-विहिताः क्रियाः कर्तुनाधिकारी । इत्यादि ।"-अथर्ववेद संहित पृ०२१३
४. मनु०, १०।२२ ५. सृस०, पृ. ३६८ व ३६६ ६. "ब्रात्य" जैनी हैं, इसके लिए "भ० पार्श्वनाथ" को प्रस्तावना देखिए। ७. भपा०, प्रस्तावना पृ. ४४.४५
. जैन ग्रन्धकार प्रातः स्मरणीय स्व. पं० टोडरमल्ल जी ने आज से दो-ढाई सौ वर्ष पहले (1) निम्न वेद मंत्रों का उल्लेख अपने ग्रन्थ 'मोक्षमार्ग प्रकाया में किया है और ये भी दिगम्बर मुनियों के द्योतक हैं:--
(१) ऋग्वेद में आया है-"ओ३म् लोक्य प्रतिष्ठितान चतुर्विशति तीर्थकान ऋषभाद्या व मातान्तात् सिद्धान् शरणं प्रपद्य । ओ३म् पवित्र नम्नमुपबिप्रमामहे ऐषां नाना जातियेषां वीरा इत्यादि ।
(२) यजुर्वेद में है-ओ३म् नमो अर्हतो ऋषभो ॐ ऋषभपवित्र पूरुहूत-मध्वदं यज्ञेषु नग्न परममाह सरतुतं बरं शत्रुजयंत परिद माहतिरिति रवाहा ।"* नग्नं सुधीरं दिग्याससं ब्रह्मगवं सनातनं उपमि वीर पुरुषमई समादित्व वर्णा तमसः परस्तात स्वाहा ।" (पृ० २०२)
है. 'देवाकालविमुक्तोऽस्मि दिगम्बर सुखोस्यहम् ।"-दिम, १०
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अनेक जैन मान्यतायें तथा पारिभाषिक शब्द मिलते हैं। निग्रन्थ शब्द जो खास जैनों का पारिभाषिक शब्द है, इसमें व्यवहृत लौंच ( शिरोव्रतं विवधद्यस्तु नोर्ण ) दिया है तथा अरिष्ट नेमि का स्मरण भी किया है, जो इससे भी उस काल में दिगम्बर मुनियों का होना प्रमाणित है। व रामायणकाल में भी दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व को देखिये। रामायण के बालकाण्ड ( सर्ग १४ श्लोक २२ ) में राजा दशरण धमनों को आहार देते बताये गये हैं तापसा भुञ्जते वापि श्रमणा भुञ्जते तथा ।") और 'अमण' शब्द का 'अर्थ 'भूषण ढोका' में दिगम्बर मुनि किया गया है" जो ठीक है, क्योंकि दिगम्बर मुनि का एक नाम श्रमण भी है । तथापि जंन शास्त्र राजा दशरथ और राम जी शादि की है। शिष्ट में रामचन्द्र जी जिन 'भगवान' के समान होने की इच्छा प्रकट करके अपनी जन भक्ति प्रकट करते हैं । ग्रतः रामायण के उक्त उल्लेख से उस काल में दिगम्बर मुनियों का होना स्पष्ट है ।
हुआ है और उसका विशेषण के जैनियों के वाईस तीयंकर हैं।
६
'महाभारत' में भी 'नग्न क्षपणक' के रूप में दिगम्बर मुनियों का उल्लेख मिलता है, जिससे प्रमाणित है कि "महाभारत काल में भी दिगम्बर जैन मुनि मौजूद थे। जेन शास्त्रानुसार उस समय स्वयं तीर्थंकर अरिष्टनेमि विद्यमान थे।
हिन्दू पुराण ग्रन्थ भी इस विषय में वेदादिग्रन्थों का समर्थन करते हैं प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभ देव जी को श्रीमद्भागवत और विष्णुपुराण दिगम्बर मुनि प्रगट करते हैं, यह हम देख चुके । अब विष्णुपुराण में भी उल्लेख है वह देखिये वहां मैत्रेय पाराशरऋषि से पूछते हैं कि "नग्न किसको कहते हैं? उत्तर में पाराशर कहते हैं कि "जो छेद को न माने वह नग्न है।" अर्थात् वेद विरोधी नंगे साधु "नंग्न" है। इस सम्बन्ध में देव और असुर संग्राम की कथा कहकर किस प्रकार विष्णु के द्वारा जैन धर्म की उत्पत्ति हुई, यह बह कहते हैं । इसमें भी जैन मुनि का स्वरूप दिगम्बर लिखा हैः
"ततो दिगम्बरो मंडो बत्रिधरो द्विजः ।"
देवासुर युद्ध की घटना इतिहासातीत काम की है।
अतः इस उल्लेख से भी उस प्राचीन काल में दिगम्बर मुनि का प्रस्तित्व प्रमाणित होता है तथा यह निर्वाध विहार करते थे, यह भी इससे स्पष्ट है, क्योंकि इसमें कहा गया है कि यह दिगम्बर मुनि नर्मदा तट पर स्थित असुरों के पास पहुंचा और उन्हें निज धर्म में दीक्षित कर लिया । "
पद्मपुराण प्रथम सृष्टि खण्ड १२ ( पृ० ३३) पर जैन धर्म को उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक ऐसी ही कथा है, जिसमें विष्णु द्वारा मायामोह रूप दिगम्बर मुनि द्वारा जैन धर्म का निकास हुआ बताया गया है:--
बृहस्पति साहाय्यार्थ विना मायामोह समुत्पाचवम् - दिगम्बरेण मायामोहेन दैत्यान् प्रति जैनधर्मोपदेशः दानवानां
मायामोह मोहितानां गुरुणा दिगंबर जैनधर्म दीक्षा दानम् ।
मायामोह को इसमें योगी दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपत्रधरो ह्यं लिखा है। इससे भी उक्त दोनों बातों की पुष्टि होती है । इसी पद्मपुराण में ( भूमिखण्ड ० ६६ )" में राजा वेण की कथा है। इसमें लिखा है कि एक दिगम्बर मुनि ने उस राजा को जैन धर्म में दीक्षित किया था। मुनि का स्वरूप यूं लिखा है:--
"नरूपो महाकायः सितमुण्डो महावनः । मानी शिखिपत्राणां कक्षायां सहिधारयन् ॥ गृहीत्वा पानपात्ररच नारिकेल भयंकरे। पठमानो मरच्छास्त्रं वेदशास्त्र विदूषकम् ॥
१. वीर वर्ष पृ० २५३
२. स्वस्ति नस्ताप अष्टिनेमिः । ईशा ५० १४
३. "श्रममा दिगम्बराः श्रमणा वातसना: । "
५. योगवासिष्ठ अ० १५ श्लो०
६. आदिपर्व अ० ३ श्लो० २६-२०
७. विष्णुपुराण तृतीयांश अ० १७ व १८ - वेजे० पृ० २५ व पुरातत्व ४।१८०
४. पद्मपुराण देखो
८. पुरातत्व ५११७६
१. वे जं० ०१५
१०. R. C. Dutt, Hindu Shastras, pt. TilI pp 213-22 व JG XIV 89
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यत्रवेणो महाराजस्तत्रोपापास्वरान्वितः ।
सभायां तस्य वेणस्य प्रविवेश सपापवान् ।।" वह नग्न साधु महाराज वेण की राजसभा में पहुंच गया और धर्मोपदेश देने लगा।' इससे प्रगट है कि दिगम्बर मुनि राजसभा में भी बे रोक-टोक पहुंचते थे । वेण ब्रह्मा से छठी पीढ़ी में थे। इसलिए वह एक अतीव प्राचीन काल में हुए प्रमाणित होते हैं।
'बायुपुराण' में भी निन्य थमणों का उल्लेख है कि श्राद्ध में इनको न देखना चाहिए ।।
'स्कंधपुराण' (प्रभासखण्ड के वस्त्रापथ क्षेत्र माहात्म्य अ०१६ पृष्ठ २२१) में जैन तीर्थकर नेमिनाथ को दिगम्बर शिव के अनुरूप मानकर जाप करने का विधान है :
वामनोपि ततश्चक्र तत्र तीर्थावगाहनम् । शादग्रपः शिवोदृष्ट: सूर्यबिम्बे दिगम्बर ||४|| पद्मासन स्थितः सौम्य स्तथातं तत्र संस्मरन् । प्रतिष्ठाप्य महामूर्ति पूजयामासवासरम् ||६|| मनोभीष्ठार्थ सिद्धपर्थ ततः सिद्धमवाप्तवान् ।
नेमिनाथ शिवेत्येवं नासचके शवामनः ।।६६|| इस प्रकार हिन्दू पुराण ग्रन्थ भी इतिहासातीत काल में दिगम्बर जैन मनियों का होना प्रमाणित करते हैं।
बौद्ध शास्त्रों में भी ऐसे उल्लेख मिलते हैं जो भगवान महावीर के पहले दिगम्बर मुनियों का होना सिद्ध करते हैं। बौद्ध साहित्य में अंतिम तीर्थकर निर्गन्य महावीर के अतिरिक्त श्री सुपार्श्व अनन्तजिन' और श्रीपुष्पदन्त के भी नामोल्लेख मिलते हैं । यद्यपि उनके सम्बन्ध में यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि वे जैन तीर्थकर और नग्न थे, किन्तु जब जैन साहित्य में उस नाम के दिगम्बर वेषधारी तीर्थकर महामुनीश मिलते हैं, तब उन्हें जैन और नग्न मानना अनुचित नहीं है । वैसे बौद्ध साहित्य भगवान पार्श्वनाथ के तीर्थवर्ती मनुष्यों को नग्न प्रगट करता है। अत: इस श्रौत्र से भी प्राचीन काल में दिगम्बर मुनियों का होना सिद्ध है।
इस अवस्था में जन शास्त्रों का यह कथन विश्वसनीय ठहरता है कि भगवान ऋषभदेव के समय से बराबर दिगम्बर जैन मुनि होते आ रहे हैं और उनके द्वारा जनता का महत कल्याण हुआ है। जैन तीर्थकर सब ही राजपुत्र थे और बड़े २ राज्यों
१. उसने बताया कि मेरे मत में--
"अहन्तो देवता यत्र निग्रन्थों गुरुरुच्यते ।
दया व परमो धर्मस्तत्र मोक्षः प्रदृश्यते ।" यह सुनकर वेण जनी हो गया। (एवं बेणस्व वे राजः सृष्टिरेव महात्मनः। धर्माचार परित्यज्यकथं पागे मतिर्भवेत् ।।) जन सम्राट खारवेल के शिलालेख से भी राजा वेण का जैन होना प्रमाणित है। (जर्नल अव दी विहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, भा० १३ पृ० २२४) २. JG.XIY 162
३. पुरात्व, पृ० ४ पृ० १८१ ४. वेजे ग. ३४॥
५. 'महावग्ग' (१। २२-२३ S. B.E. 144) में लिखा है कि बुद्ध राज ग्रह में जब पहले-पहले धर्म प्रचार को आए तो लाठी वन, में 'सुष्पतित्थ्य" के गन्दिर में ठहरे। इसके बाद इस मन्दिर में ठहरने का उल्लेख नहीं मिलता। इसका यही कारण है कि इस जैन मन्दिर के प्रबन्धकों ने जब यह जान लिया कि म० बुद्ध अब जैनमुनि नहीं रहे तो उनका आदर करना रोक दिया। विशेष के लिए देखो भम प०५०-५१
६. उपक आजीवन अनन्त' जिनको अपना गुरु बताता है। प्राजीविकों ने जन धर्मों से बहुत कुछ लिया था। अतः यह अनन्तजिन तीर्थकर ही होना चाहिए । अारिय-परिपेषण-सुत्त IH QJII 247
७. 'महावस्तु में पुरुषदन्त को एक बुद्ध और ३२ लक्षणयुक्त महापुरुष बताया है। ASM.P 30.
८. 'महावग्ग' 12-२०-३] में है कि बौद्ध भिक्षओं से नंगे और भोजन पात्रहीन मनुष्यों को दीक्षितकर लिया, जिस पर लोग कहने लगे कि बौद्ध भी "तित्थियों" की तरह करने लगे। तित्थिय म बुद्ध और भ० महाबीर से प्राचीन साधु और खासकर दि० जन साधु थे। इस निए इन्हें भ० पार्श्वनाथ के तीर्थ का मुनि मानना ठीक है। भमचुत, पृ०२३६-२३७, व जैसिभा०, ११२-२।३४ २६ IA., August 1930.
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को त्याग कर दिगम्बर मुनि हुए थे। भारत के प्रथम सम्राट भरत, जिनके नाम से यह देश भारतवर्ष कहलाता है, दिगम्बर मुनि हए थे। उनके भाई श्री बाहुबलिजी अपनी तपस्या के लिए प्रसिद्ध हैं। तपस्वी रूप में उनको महान् मूर्ति प्राज भी श्रवण वेलगोल में दर्शनीय बस्तु है। उनकी उस महाकाय नग्नमुति के दर्शन करके स्त्री पुरुष, बालक वृद्ध भारतीय तथा विदेशी अपने को सौभाग्यशाली समझते हैं। रामचन्द्रजी, सुग्रीव, युधिष्ठिर आदि अनेक दिगम्बर मुनि इस काल में हुए हैं, जिनके भव्य चरित्रों मे जैन शास्त्र भरे हुए हैं। सारांशन: गतकाल में भारत में दिगम्ब रत्व अपनी अपूर्व छटा दर्शा चुका है।
भगवान महावीर और उनके समकालीन दिगम्बर मुनि 'निगण्ठो. पावूसो नाथपुत्तो सव्वज, सव्वदस्सावी अपरिसेसं ज्ञाण दस्सन परिजानातिः ।
-मम्झिमनिकाय। निगण्ठो नातपत्तो संघी चेव गणी च गणाचार्यों च ज्ञातो यसस्सी तित्थकरो साधु सम्मतो बहुजनस्य रत्तस्सू चिर पव्व जितो मद्धगतो क्यो अनुप्पत्ता।
-दीघनिकाय । भगवान महावीर वर्द्धमान ज्ञातृवंश क्षत्रियों के प्रमुख राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी त्रिशला के सुपुत्र थे। रानी त्रिशला वज्जियन राष्ट्रसंघ के प्रमुख लिच्छवि अग्रणी राजा चेटक की सुपुत्री थीं। लिच्छवि क्षत्रियों का आवास समद्धिवाली नगरी वैशाली में था । ज्ञातक क्षत्रियों की बसती भी उसी के निकट थी। कुण्डग्राम और कोल्लगसन्निवेश उनके प्रसिद्ध नगर थे । भगवान् महावीर वर्द्धमान् का जन्म कुण्डग्राम में हुअा था और वह अपने ज्ञातृवंत के कारण "ज्ञातपूध" के नाम से भी प्रसिदथे । बौद्ध ग्रन्थों में उनका उल्लेख इसी नाम से हमा मिलता है और वहां उन्हें भगवान गौतम बुद्ध के समकालीन बताया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो भगवान महावीर आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले इस धरातल को पवित्र करते थे और वह क्षत्री राजपुत्र थे।
भरी जवानी में ही महाबीर जी ने राजपाट का मोह त्याग कर दिगम्बर मुनि का वेष धारण किया था और तीस वर्ष तक कठिन तपस्या करके वह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी तीर्थकर हो गये थे। मज्झिमनिकाय नामक बौद्ध ग्रन्थ में उन्हें सर्वज्ञ. सर्वदर्शी और अशेष ज्ञान तथा दर्जन का ज्ञाता लिखा है। तीर्थंकर महावीर ने सर्वज्ञ होकर देश-विदेश में भ्रमण किया था और उनके धर्म प्रचार लोगों का प्रात्मकल्याण हुआ था। उनका बिहार संघसहित होता था और उनकी बिनय हर कोई करता धान बौद्ध ग्रन्थ दोनिकाय में लिखा है कि निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र (महाबीर) संघ के नेता हैं, गणाचार्य हैं, दर्शन विशेष के प्रणेता हैं, विशेष विख्यात हैं, तीर्थकर हैं, बहु मनुष्यों द्वारा पूज्य हैं, अनुभवशील हैं, बहुत काल से साधु अवस्था का पालन करते हैं और अधिक वय प्राप्त हैं।"
जैन शास्त्र हरिवंश पुराण में लिखा है कि "भगवान महावीर ने मध्य के (काशी, कोशल, कौशल्य, कसंध्य अश्वत त्रिगपंचाल, भद्रकार, पाटाचार, मौक, मत्स्य, कनीय, सूरसेन एवं बृकार्थक, समुद्र तट के (कलिक, कूरुजांगल, कैकेय, प्राय. कांबोज,, बाल्हीक, यवनश्रुति, सिंधु गांधार, सौवीर, सूर, भीरु, दोरुक, वाडवान, भारद्वाज और कायतोय) और उत्तर दिशा के (ताणं, कार्ण, प्रच्छाल आदि) देशों में विहार कर उन्हें धर्म की ओर ऋजु किया था। भगवान् महावीर का धर्म अहिंसा प्रधान तो था ही, किन्तु उन्होंने साधुओं के लिए दिगम्ब रत्व का भी उपदेश दिया
-...- .-.-.-.- - ----- १. विशेष के लिए हमारा "भगवान महावीर और म. बुद्ध" नामक ग्रन्ध देखो।
. २. मझिग निकाय (P.T.S) भा. १ पु. ६२-६३ . . . .. ३. दीर्घ निकाय (P.T.S) भा० १ पृ०४८-४६, . .. ४. हरिवंशपुराण (कलकत्ता) पृ०१८
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था 1' उन्होंने स्पष्ट घोषित किया था कि जैन धर्म में दिगम्बर साथ ही निर्वाण प्राप्त कर सकता है। बिना दिगम्बर वेष धारण किये निर्वाण प्राप्त कर लेना असम्भव है । और उनके इस वैज्ञानिक उपदेश का आदर पाबाल-वृद्ध-वनिता ने किया था।
विदेह में जिस समय भगवान महावीर पहुंचे तो उनका वहां लोगों ने विशेष आदर किया। वैशालो में उनके शिष्यों की संख्या अधिक थी। स्वयं राजा चेटक उनका शिष्य था। अंगदेश में जब भगवान पहुंचे तो वहां के राजा कुणिक अजात शन के साथ सारी प्रजा भगवान की पूजा करने के लिए उमड़ पड़ी। राजा बुणिका कौशाम्बी तक महावीर स्वामी को पहुंचाने गए। कोशाम्बी नरेश ऐसे प्रतिबुद्ध हुए कि वह दिगम्बर मुनि हो गए। मगध देश में भी भगवान् महाबोर का खूब विहार हा था और उनका अधिक समय राजगृह में व्यतीत हुआ था। सम्राट श्रेणिक विम्बसार भगवान् के अनन्य भक्त थे और उन्होंने धर्म प्रभावना के अनेक कार्य किये थे। श्रेणिक के अभयकुमार, वारिषेण आदि कई पुत्र दिगम्बर मुनि हो गये थे। दक्षिण भारत में जब भगवान का विहार हुआ तो हेमांग देश के राजा जीवंधर दिगम्बर मुनि हो गये थे। इस प्रकार भगवान का जहां-जहां बिहार हुआ वहां-वहां दिगम्बर धर्म का प्रचार हो गया । शतानीक, उदयन, प्रादि राजा, अभय, नंदिषेण आदि राजकुमार शालिभद्र, धन्यकुमार, प्रीतंकर आदि धनकुबेर, इन्द्रभूति, गौतम आदि ब्राह्मण विद्वान, विधुच्चर आदि सदृश पतितात्मायेंपरे न जाने कौन-कौन भगवान् महावीर को शरण में।ाकर मनि हो गये।
सचमन अनेक धर्म-पिपासु भगवान् के निकट पाकर धर्मामृत पान करते थे। यहां तक कि स्त्रय म० गौतमबद्ध और उनके संघ पर भगवान के उपदेश का प्रभाव पड़ा था । बौद्ध भिक्षुओं ने भी नग्नता धारण करने का आग्रह म० बुद्ध से किया था। इस पर यद्यपि म० बुद्ध ने नग्न वेष को बुरा नहीं बतलाया, किन्तु उससे कुछ ज्यादा शिष्य पाने का लाभ न देखकर उसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। पर तो भी एक समय नेपाल के तांत्रिक बौद्धों में नग्न साधुनों का अस्तित्व हो गया था। सत्र बात तो यह है कि नन्नवेप को साधु पद के भूषण रूप में सब ही को स्वीकार करना पड़ता है। उसका विरोध करना प्रक्रित को कोसना है। उस पर भगवान बुद्ध के जमाने में तो उसका विशेष प्रचार था। अभी भगवान महावीर ने धर्मोपदेश देना प्रराम्भ नहीं किया था कि प्राचीन जैन और प्राजीविक प्रादि साधु नंगे घूमकर उसका प्रचार कर रहे थे। देखिये बौद्ध ग्रन्थों के आधार
१. भमवृ० ५४.८० व ठाणा, पृ० ८१३ २. भमवुन, ६५-६६ ३ . भमबु०, पृ० १०२-११०।।
४. 'महाबग (२८-१) में है कि "एक बौद्ध भिक्ष ने म० बुद्ध के पास नंगे हो आकर कहा कि भगवान ने मंयमी पुरुष की बहुत प्रशंसा की है जिसने पापों को धो डाला है और कषायों को जीत लिया है तथा जो दयानु, बिनयी और साहसी है। भगवान ! यह नग्नता प्रकार से संथम और संतोष को उत्पन्न करने में कारणभूत है-इससे पाप मिटता, कषाय दबते, दयाभाच बढ़ता तया विनय और उत्साह पाता है। प्रभो! यह अच्छा हो यदि आप भी मग्न रहने की आज्ञा दें।" बुद्ध ने उत्तर में कहा कि "भिक्षुओं के लिए यह उचित न होगी- एक श्रमण लिए यह अयोग्य है । इसलिए इसका पालन नहीं करना चाहिए। हे मूर्ख ! तिथियों की तरह तू भी नग्न कसे होगा' हे मूर्व, इससे नये लोग भी दीक्षित न होंगे।"
५. नेपाल में गुद और तान्त्रिक नाम की एक बीतू धर्म की शाला है । मि० हारसन ने लिखा है कि, इस शाखा में नग्न यति रहा करते हैं ।'—जसिभा०, १।२-३। पृ. २५
६. जेम्स एल्बी, पोर जैकोबी तथा डान बुल्हर गी बान का समर्थन करते हैं कि दिगम्वरत्व म. बुद्ध के पहले से प्रचलित था पौर आजीविक आदि तीर्थकों पर जैन धर्म का प्रभाव पड़ा था; यथा
"In lames d' Alwis paper (Ind. Anti VIII) on the Six. Tirthakas the "Digambaras' appear to have been regarded as an old order of ascetics and all of these heretical teachers' betray the influence of Jainism in their doctrines." JA, IX, 161.
Prof. Jacobi remarks: "The preceding four Tirthakas (Makkhali Goshal etc.) appear all to have adopted some or other doctrines or practices, which macks part of the Jaina system, probably froin the Jains themselves. It appears form the preceding remarks that Jaina ideas and practices must have been current at the time of Mahavira and independently of him. This combined with other arguments, leads us to the opinion that the Nirgranthas were realy in existence long before Mahavira.
–(IA. IX, 161) prof. T. W. Rhys Davids notes in the "Vinaya Texts" that "thc Sect now called Jaias are divided into classes, Digambara, Swetambara, the latter of which eat naked. They are Known to be the successors of the school called Niganthias in the Pali Pitakas...,SBE.XIII, 41
Dr. Buhler writes, From Buddhist accounts in their canonical works as well as in other
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से इस विषय में डा. स्टीवेन्सन लिखते हैं।
"(एक तीर्थक नग्न हो गया) लोग उसके लिए बहुत से वस्त्र लाये, किन्तु उनको उसने स्वीकार नहीं किया। उसने यही सोचा कि, यदि मैं वस्त्र स्वोकार करता है तो संसार में मेरी अधिक प्रतिष्ठा नहीं होगी। वह कहने लगा कि लज्जा रक्षण के लिए ही वस्त्र धारण किया जाता है और लज्जा हो पाप का कारण है, हम अहत् हैं, इसलिए विपथ वासना से अलिप्त होने के कारण हमें लज्जा की कुछ भी परवाह नहीं ।" इसका यह कथन सुनकर बड़ी प्रसन्नता से वहां इसके पाँच सो शिष्य बन गए, बल्कि जम्बू द्वीप में इसी को लोग सच्चा बुद्ध कहने लगे।"
यह उल्लेख सम्भवतः मक्खलि गोशाल अथवा पूर्ण काश्यप के सम्बन्ध में है। ये दोनों साथ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के मनि थे ।मक्खलि गोशाल भगवान महावीर से रुष्ट होकर अलग धर्म प्रचार करने लगा था और वह ग्राजीबिक" संप्रदाय का नेता बन गया था। इस सम्प्रदाय का विकास प्राचीन जैन धर्म से हया था और इसके साथ भी नग्न रहते थे। पुरण-काश्यप गोशाल का साथी और वह भी दिगम्बर रहा था। सचमुच दिगम्बर जैनधर्म पहले से ही चला आ रहा था, जिसका प्रभाव इन लोगों पर पड़ा था।
उस पर भगवान महावीर के अवतीर्ण होते हो दिगम्बरत्व का महत्व मीर भी बढ़ गया। यहां तक कि दसरी सम्प्रदायों के लोग भी नग्न वेष धारण करने को लालायित हो गये, जैसे कि ऊपर प्रकट किया गया है।
बौद्ध शास्त्रों में निग्रन्थ (दिगम्बर) महामुनि महावीर के बिहार का उल्लेख भी मिलता है। "मज्झिम निकाय" के "अभय राजकुमार सुत्त" से प्रकट है कि वे राजगृह में एक समय रहे थे। "उपालीसुत्त" से भगवान महावीर का नालन्दा में विहार करना स्पष्ट है । उस समय उनके साथ एक बड़ी संख्या में निर्गन्ध साधु थे। सामगामसुत्त से यह प्रगट है कि भगवान ने पावा से मोक्ष प्राप्त की थी। दीर्घनिकाय का पासादिक सुत्त भी इसी बात का समर्थन करता है। संयुत्तनिकाय से भगवान प्रवासीर का संघ सहित “मच्छिका खण्ड" में बिहार करना स्पष्ट है।' 'ब्रह्मजालमृत्त' में राजगृह के राजा अजातशत्र को जवान महावीर के दर्शन के लिए गया लिखा है।" "विनयपिटक' के 'महावग' ग्रन्थ से महावीर स्वामी का वैशाली में धर्म
रना प्रमाणित है। एक 'जातक' में भगवान महावीर को 'अचेलक नातपुत' कहा गया है। महावस्तु से प्रकट है कि अवन्ती के राजपुरोहित का पुत्र नालक बनारस आया था। वहां उसने निर्ग्रथनाथ पुत्त (महावीर) को धर्म प्रचार करते पाया दीर्घ निकाय से यह स्पष्ट है कि कौशल के राजा पसनदी ने निर्गन्थ नातपुत्त (महावीर) को नमस्कर किया
books. it may be seen that this rival (Mahavira) was a dangerous and influential one and that even in Buddha's tinc his teaching had sprcnd considerably... Also they say in their description of other rivals of Buddha that these, in order to gain estccm, copied the nirgranthas and went unclothed, or that they were looked upon by the people as Nirgrantha holy ones, because they happened to lost their clothes."-AISJ. P. 36
जेसिभा, ११२-३ । २४ "The people bought clothes in abundance for him, but he (Kassana) refused them as he thought that if he put them on, he would not be treated with the same respect. Kassapa said, "Clothes are the covering of shame and the shame is the effect of sin. I am an Arabat, As I am free from evil desires, I know no shame." etc -BS. PP. 74-75 २. भमबु. पृ०१७-२१
३. वीर, वर्ष ३ पृ० ३१२ व भसत्रु० पृ० १७-२१ ४. 'आजीविको ति नग्ग-समण को।'-'पपजच-सूदनी १।२०६-]HQ., I]I, 248. ५. मज्झिम (P. T. S.) भा१ पु० ३६२-भमजु० पृ० १६१
६. मविभम १२७१ व "The M. N. tells us that once Nigantha Natlhaputta was al Nalanda with a big retinue of thc Niganthas."-AIT.P, 147 ७. मनिझम० १।६३–भमषु० २०२।।
८. दीच, III 117-118,–भमधु० पृ० २१४ ६. संपुत्ता ४।२८७-भमबु० पृ० २१६
१०. भमवु, पृ० २२२ ११. महाबग ६।३१।११-भमबु० पृ० २३ ए-२२६
१२. जातक २।१८२ १३. ASM. p. 159
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था। उसकी रानी मल्लिका ने निर्ग्रन्थों के उपयोग के लिए भवन बनवाया था। सारांशतः बौद्ध शास्त्र भी भगवान महावीर के दिगन्तव्यापी पौर सफल बिहार की साक्षी देते हैं ।
भगवान् के बिहार और धर्म प्रचार से जैन धर्म का विशेष उद्योत हुआ था। जैन शास्त्र कहते हैं कि उनके संघ में चौदह हजार दिगम्बर मुनि थे, जिसमें १६०० साधारण मुनि, ३०० अंगपूर्वधारी मुनि, १३०० अवधिज्ञानधारी मुनि, ६०० ऋद्धिविक्रिया युक्त, र ज्ञान प्रा . शानदानी कार.१० अनुत्तरबादी थे। महावीर संघ के ये दिगम्बर मुनि दश गणों में विभक्त थे और ग्यारह गणधर उनकी देख-रेख रखते थे। इन गणधरों का वर्णन निम्न प्रकार है:
(१) इन्द्रभुति गौतम, (२) वायुभति, (३) अग्निभूति, ये तीनों गणधर मगध देश के गोबर ग्राम निवासी यसुभूति, (शांडिल्य ब्राह्मण की स्त्री पृथ्वी (स्थिण्डिला) और केसरी के गर्भ से जन्मे थे। गृहस्थाश्रम त्यागने के बाद ये क्रम से गौतम गार्य और भार्गब नाम से भी प्रसिद्ध हए थे। जैन होने के पहले ये तीनों वेद धर्म परायण ब्राह्मण विद्वान थे। भ० महावीर के निकट इन तीनों ने अपने कई सौ शिष्यों सहित जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण को और ये दिगम्बर मुनि होकर मुनियों के नेता हुए थे । देश-देशान्तर में विहार करके इन्होंने खूब धर्म प्रभावना की थी।
चौथे गणधर व्यक्त कोल्लग सन्निवेश निवासी धन मित्र ब्राह्मण को वारुणी' नामक पत्नी की कोख से जन्मे थे । दिगम्बर मुनि होकर यह भी गणनायक हुए थे ।
पांचव सुधर्म नामक गणधर भी कोल्लग सन्निवेश के निवासी धम्मिल ब्राह्मण के सुपुत्र थे। इनकी माता का नाम भहिला था। भ० महावीर के उपरान्त इनके द्वारा जैन धर्म का विशेष प्रचार हुया था ।
छठे मण्टिक नामक गणघर मौख्यि देश निवासी धनदेव ब्राह्मण की विजया देवी स्त्री के गर्भ से जन्मे थे। दिगम्बर मुनि होकर यह वीर संघ में सम्मिलित हो गये थे और देश-विदेश में धर्म प्रचार किया था।
सातवें गणधर मौर्य पुत्र भी मौर्यास्य देश के निवासी 'मौर्यक' ब्राह्मण के पुत्र थे । इन्होंने भी भ० महावीर के निकट दिगम्बरीय दीक्षा ग्रहण करके सर्वत्र धर्म प्रचार किया था।
पाठवें गणधर अकम्पन थे, जो मिथिलापूरी निवासी देव नामक ब्राह्मण की जयन्ती नामक स्त्री के उदर से जन्मे थे। इन्होंने भी खूब धर्म प्रचार किया था।
नवें धवल नामक गणधर कोशलापुरी के बसु विप्र के सुपुत्र थे। इनकी मां का नाम नन्दा था। इन्होंने भी दिगम्बर मनि हो सर्वत्र विहार किया था।
दसवें गणधर मैत्रेय थे। वह सत्यदेशस्थ तंगिकास्य नगरी के निवासी दस ब्राह्मण की स्त्री करुणा के गर्भ से जन्मे थे। इन्होंने भी अपने गण के साधुनों सहित धर्म प्रचार किया था।
ग्यारहवें गणधर प्रभास राजगह निवासी बल नामक ब्राह्मण की पत्नी भद्रा की कुक्षि से जन्मे थे। और दिगम्बर मुनि तथा गणनायक होकर सर्वत्र धर्म का उद्योत करते हुए बिचरे थे।
इन गणधरों की अध्यक्षता में रहे उपरोक्त चौदह हजार दिगम्बर मुनियों ने तत्कालीन भारत का महान् उपकार किया था। विद्या, धर्म, ज्ञान और सदाचार उनके सदउद्योग से भारत में खूब फले थे। जैन भीर बौद्ध शास्त्र यही प्रकट करते हैं :
"The Buddhist and Jaina texts tell us that the itincrant teachers of the tinc wandered about in the country, engaging themselves whercever they stopped in serious discussion on matters relating to religion, philosophy, cthics, morals and policy."
१. दीध०७८-७९-IHQ.I,153. २. LWB. P. 109. ३. मम०, ११७ । ५. बृजश०, पृ० ८। ७. बृजेश, पृ०८।
४. वुर्जश०, पृ. ६०-६१ ६. बृजवा०, पृ०६। ८. LWB.p.52
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भावार्थ-बौद्ध और जैन शास्त्रों से ज्ञात होता है कि तत्कालीन धर्म-गुरु देश में सर्वत्र विचरते थे और जहाँ वे ठहरते थे वहाँ धर्म, सिद्धांत, विचार, नीति और राष्ट्रवार्ता विषयक गम्भीर चर्चा करते थे। सचमुच उनके द्वारा जनता का महान् हित हुआ था।
बौद्ध शास्त्रों में भी महावीर के संघ के किन्हीं दिगम्बर मुनियों का वर्णन मिलता है, यद्यपि जैन शास्त्रों में उनका पता लगा लेना सुगम नहीं है। जो हो, उनसे यह स्पष्ट है कि भ. महावीर और उनके दिगम्बर शिष्य देश में निर्वाध विचरते और लोक कल्याण करते थे।
साम्राट् श्रेणिक बिम्बसार के पुत्र राजकुमार अभय दिगम्बर मुनि हो थे, यह बात बौद्ध शास्त्र भी प्रकट करते हैं। उन राजकुमार ने ईरान देश के वासियों में भी धर्म प्रचार कर दिया था। फलतः उस देश का एक राजकुमार पाक निग्रंथ साधु हो गया था ।
बौद्ध शास्त्र बैशाली के दिगम्बर मुनियों में सुणखत्त, कलारमत्थक और पाटिकपुत्र का नामोल्लेख करते हैं। सुणक्खत्त एक लिच्छवि राजपुत्र था और वह बौद्ध धर्म छोड़कर निर्ग्रन्थ मत का अनुयायी हुमा था ।
वैशाली के सन्निकट एक कन्डरमसुक नामक दिगम्बर मुनि के आवास का भी उल्लेख बौद्ध शास्त्रों में मिलता है । उन्होंने यावत् जीवत नग्न रहने और नियमित परिधि में विहार करने की प्रतिज्ञा ली थी।
श्रावस्ती के कुल पुत्र (Councillor's son) अर्जुन भी दिगम्बर मुनि होकर सर्वत्र विचरे थे।
यह दिगम्बर मुनि और उनके साथ जैन सा-पोरगी सर्वत्र प्रोपदेश कर मुमुक्षश्री का जैन धर्म में दीक्षित करते थे। इसी उद्देश्य को लेकर वे नगरों के चौराहों पर जाकर धर्मोपदेश देते और बाद मेरी बजाते थे। बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि उस समय तीर्थक साधु-प्रत्येक पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णमासी को एकत्र होते थे और धर्मोपदेश करते थे। लोग उसे सुनकर प्रसन्न होते और उनके अनुयायी बन जाते थे।"
इन साधनों को जहां भी अवसर मिलता था वहां ये अपने धर्म की धेष्ठता को प्रमाणित करके अवशेष धर्मों को गोण प्रकट करते थे।
भगवान महावीर और भ० गौतम बुद्ध दोनों ने ही अहिंसा धर्म का उपदेश दिया था; किन्तु भ० महावीर की अहिंसा मन, वचन, काय पूर्वक जीवहत्या से बिलग रहने का विधान था-भोजन या मौज शौक के लिए भी उसमें जीवों का प्राण व्यपरोपण नहीं किया जा सकता था। इसके विपरीत म० बुद्ध की अहिंसा में बौद्ध भिक्षों को मांस और मत्स्य भोजन ग्रहण करने की खुली आज्ञा थी। एक बार नहीं अनेक वार स्वयं म. बुद्ध ने मांस भोजन किया था। ऐसे ही अवसरों पर दिगम्बर मूनि बौद्ध भिक्षुत्रों को आड़े हाथों लेते थे। एक मरतबा जब भगवान महावीर ने बुद्ध के इस हिंसक कर्म का निषेध किया, तो बुद्ध ने कहा, भिक्षुओं, यह पहला मौका नहीं है बल्कि नातपुत्र (महावीर) इससे पहले भी कई मरतवा खास मेरे लिए पके हुए मांस को मेरे भक्षण करने पर माक्षेप कर चुके हैं। एक दूसरी बार जब वैशाली में म. बुद्ध ने सेनापति सिंह के घर पर मांसा हार किया तो, बौद्ध शास्त्र कहता है कि निग्रंथ एक बड़ी संख्या में वैशाली में सड़क सड़क और चौराहे-चौराहे पर यह शोर मचाते कहते फिरे कि आज सेनापति सिंह ने एक बैल का वध किया है और उसका पाहार श्रमण गौतम के लिए बनाया है। भ्रमण गौतम जान-बूझ कर कि यह बैल मेरे आहार के निमित्त मारा गया है, पशु का मांस खाता है, इसलिए वही उस पशु के
१. PB.p.30 व भमकु. पृ. २६६ । २. ADIB.. I. P. 292
३. भमनु, पृ० २५५। ४. “अचेलों कन्डरगसु को वेराालियम् पटवसति लाभम्ग-प्पतोच एवं पसग्म, पतोच वज्जिगा में। तस्स सत्तवत्त-पदानि समतानि समादिन्नानि होन्नि-'यावजीवम् अचेलको अस्सम्, प्यम् परिदहेव्यम् वावजीवम् ब्रह्मचारी अस्सम न मेथनुम् पदिसेबैय्यम्....'इत्यादि ।"दीघनिकाय (P.LS.) भा० ३ पृ. ६-१० व भमबु०, पृ० २१३ ।
५. PB.p.83 व भमत्रु०, पृ० २६७ । ६. बौद्धों के घेर-येरी गाथाओं से यह प्रगट है। ममबु० पू० २५६-२६८ | ७. महावग्ग ११ व भमबु०प० २४० ।
८. भमबु. पृ० १७०। ६. Cowell, Jatakas II, 182--भमबु० प० २४६ ।
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-भारने के लिए बधक है। इन उल्लेखों से उस समय दिगम्बर मुनियों का निर्वाध रूप में जनता के मध्य विचरने और धर्मोपदेश देने का स्पष्टीकरण होता है।
बौद्ध गृहस्थों ने कई मरतबा दिगम्बर मनियों को अपने घर के अन्तःपुर में बुलाकर परीक्षा की थी। सारांशत: दि० मुनि उस समय हाट-बाजार, घर-महल, रंक-राव-सब ठौर सब ही को धर्मोपदेश देते हुए विहार करते थे। अब ग्रागे के पृष्ठों में भगवान महावीर के उपरान्त दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व और विहार का विवेचन कर देना उचित है।
नन्द-साम्राज्य में दिगम्बर-मुनि
"King Nanda had taken away image' known as 'The Jina of Kalinga'...carrying away idols of worship as a mark of trophy and also showing respect to particular idol is known in . after history. The datum (1) proves that Nanda was laina and (2) that Jainism was introduced in Orissa very early..."
-K, P Jayaswal. शिशुनागवंशमै कुणिक अजात शत्र के उपरान्त कोई पराक्रमी राजा नहीं सुना और मगध साम्राज्य की बागडोर नन्दवंश के राजाओं के हाथ में आ गई। इस वंश में वर्द्धन' (Increaser) उपाधि-धारी राजा नन्द विशेष प्रख्यात और प्रतापी था। उसने दक्षिण पूर्व और पश्चिमीय समुद्रतटवती देश जीत लिए थे तथा उत्तर में हिमालय प्रदेश और काश्मीर एवं अवन्ती और कलिंग देश को भी उसने अपने अधीन कर लिया था ।२ कलिंग-विजय में वह वहाँ से 'कलिंग-जिन' नामक एक प्राचीन मूर्ति ले आया था और उसे विनय के साथ उसने अपनी राजधानी पाटलीपुत्र में स्थापित किया था। उसके इस कार्य से नन्द बर्द्धन का जैनधर्मावलम्बी होना स्पष्ट है। 'मुद्राराक्षस नाटक' और जैन साहित्य से इस बंश के राजाओं का जैनी होना सिद्ध है और उनके मन्त्री भी जैन थे। अन्तिम नन्द का मन्त्री राक्षस नामक नीतिनिपुण पुरुष था। 'मुद्राराक्षस' नाटक में उसे जीवसिद्धि नामक क्षपणक अर्थात् दिगम्बर जैन मुनि के प्रति विनय प्रगट करते दर्शाया गया है तथा यह जीवसिद्धि सारे देश में हाट बाजार और ग्रन्त:पुर--सब ही ठौर बेरोक टोक विहार करता था, यह बात भी उक्त नाटक से स्पष्ट है। ऐसा होना भी स्वाभाविक, क्योंकि जब नन्द वंश के राजा जैनी थे तो उनके साम्राज्य में दिगम्बर जैन मुनि की प्रतिष्ठा होना लाजमी थी। जनश्रुति से यह भी प्रगट है कि अन्तिम नन्द राजा ने 'पञ्चपहाड़ी' नामक पांच स्तूग
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१. "At that time a great number of the Niganthas (running) through Vaisali, from road to road, cross-way to cross-way, with outstretched arms cried, Tolay Siha, the General has killed a great ox and bas made a mical for the Samana Gotama, the Samna Gotama knowingly eats this meat of an animal killed fo. this very purpose, and has thus become virtually the author of that deed." - Vinaya 'Texts, S.B.E. Vol XVIT, 11, 116 and KG.,p. 85.
२. HG., pp. 88-95 व भम०, पृष्ठ २४६-२५६ । ३. JRORS., Vol. XIIl p. 245. ४. Ibid., Vol. I. pp. 78-79 ५. Chanakya says:
"There is a fellow of my studies, deep The Brahman Indusarman, bin I sent, When just I vowed the death of Nanda, bither, And here repairing as a Buddh ? (क्षपणक) mendicant."
Having the marks of a Ksapanaka the individual is a Jaina... Raksasa repose in him implicit confidence. -HDW., P, 10.)
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पटना में बनवाये थे । 'पञ्चपहाड़ी' (राजगृह) जैनों का प्रसिद्ध लीर्थ है । नन्द ने उसी के अनुरूप पांच स्तूप पटना में बनबाये प्रतीत होते हैं। यह कार्य भी उनकी मुनि-भक्ति का परिचायक है।
जैन कथा ग्रन्थों से विदित है कि एक नन्द राजा स्वयं दिगम्बर जैन मुनि हो गये थे तथा उनके मन्त्री शकटाल भी जैनी थे । शकटाल के पुत्र स्थूलभद्र भी दिगम्बर मुनि हो गये थे। सारांश यह कि नन्द-साम्राज्य के प्रसिद्ध पुरुषों ने स्वयं दिगम्बर मुनि होकर तत्कालीन भारत का कल्याण किया था और नन्द राजा जनों के संरक्षक थे।
शिशुनागवंश के अन्त और नन्द राज्य के प्रारम्भ काल में जम्बू स्वामी अन्तिम केवलोसर्वज्ञ ने नग्न बेप में सारे भारत का भ्रमण किया था। कहते हैं कि बंगाल के कोटिकपुर नामक स्थान पर उन्होंने सर्वज्ञता प्राप्त को थी। उनका विहार बंगाल के प्रसिद्ध नगर पुड्रवर्द्धन, ताम्रलिप्त आदि में हुअा था। एक दफा बह मथुरा भी पहुंचे थे। अन्त में जब वह राजगृह विपुलाचल से मुक्त हो गये, तो मथुरा में उनकी स्मृति में एक स्तूप बनाया गया था।
मथुरा जनों का प्राचीन केन्द्र था। वहाँ भ० पार्श्वनाथ जी के समय का एक स्तुप मौजूद था। इसके अतिरिक्त नन्द काल में वहां पांच सौ एक स्तप और बनाये गये थे, क्योंकि वहाँ से इतने ही दिगम्बर मुनियों ने समाधिमरण किया था। ये सब मुनि श्री जम्बू स्वामी के शिष्य थे। जिस समय जम्जूस्वामी दिगम्बर मुनि हुए तो उस समय विद्युच्चर नामक एक नामी डाक भी अपने पांच सौ साथियों सहित दिगम्बर मुनि हो गया था। एक दफा यह मुनिसंघ देश-विदेश में विहार करता हुया शाम को मथुरा पहुंचा। वहां महाउद्यान में वह ठहर गया। उपरान्त रात को उन मुनियों पर वहाँ महा उपसर्ग हा और उसके परिणामरूप मुनियों ने साम्यभाव से प्राण त्याग किये। इस महत्वशाली घटना की स्मृति में ही वहां पांच सौ एक स्तूप बना दिये गये।
. Sir G. Grierson iniorms me that the Nandas were reputed to be bitter enemics of the Brahmans......the Nandas were Jainas and therefore hateful to the Brahmans... The supposition that the last Nanda was cither a Jaina of Buddhist is strengthened by the fact that one form of the local tradition attributed to him the erection of the Panch Pabari at Patna, a group of ancient stupas, which be cither Jaina or Buddhist."-EHJ., p. 44.
उनका जन होना ठीक है, क्योंकि नन्दनर्द्धन के जैन होने में सन्देह नहीं है और "मुद्राराक्षस" नन्द मन्त्री यादि को प्रगट करता है। २. हरिषेण कथाकोप तथा आराधनाकथाकोष देखो।
३. सातवीं गुजराती साहित्य परिषद् रिपोर्ट, पृष्ट ४१ तथा “भद्रबाहु चरित्र' (पृष्ठ ४१ ) में स्थूलभद्रादि को दिगम्बर मुनि लिखा है । (रामल्यस्थूल भद्राख्य स्थूलात्रादियोगिनः )।
४, "Nanda were Jains.-CHI., Vol I. p. 164.
“The nine kings of the Nanda dynasty of Magadha were patrons of the Order (Sangha of Mahavira)."-HARI., p. 59.
५. “In Kotikapur Jambu attained emancipation ? (Omniscience)" -वीर, वर्ष पृष्ठ ३७ । ६. अनेकान्त, वर्ष १ पृष्ठ १४१ :
“मगधादिमहादेश मथुरादिपुरीस्तथा । कुर्वन धर्मोपदेश रा केवलज्ञानलोचनः ॥११८॥१२॥ वर्षाष्ठादशपर्यन्त रिचतान जिनाधिपः ततो जगाम निर्वाणं केवली विपुलाचलात् ॥११६।-जम्बूस्वामी चरित
७. JOAM.. p. 13 ८. अनेकान्त वर्ष १ पृ० १३६-१४१
"अथ विद्यु चगे नाम्ना पर्यटन्निह सन्मनि ।' एकादशांगविद्यायामधोती विदधत्तपः । अचान्येद्य : सनि संगो मुनि पंचयत वृतः मथ रायां महोद्यान प्रदेशेवगमन्मदा । तदागच्छत्स थैलक्षयं भानुरम्ताचलं नितः ।इत्यादि।
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इस प्रकार न जाने कितने मुनि पुंगव उस समय भारत में बिहार करके लोगों का हितसाधन करते थे ! उनका पता लगा लेना कठिन है ! नन्द साम्राज्य में उनको पूरा-पूरा सरक्षण प्राप्त था ।
(१२)
मौर्थ्य-सम्राट और दिगम्बर- मुनि
"वावचः श्रुत्वा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः । अस्यैवयोग पायें दी जनेश्वरं तपः ॥ ३६|| चन्द्रगुप्तमुनिः शीघ्र प्रथमो दशपूर्विणाम् । सर्व संघाधितो जातो विशाखाचार्य संज्ञकः ||३६|| अनेन सह संघोषि समस्त गुरुवाक्यतः । दक्षिणा पथदेशस्थ पुन्नाट विषयं वयो ॥४०॥
- हरिषेण कन्याकोप
'म उधरे' चरिमो जिगदिवस परदि चन्दवृत्तो य ।'
3
- त्रिलोक प्रज्ञप्ति
नन्द राजाओं के पश्चात् मगध का राजछत्र चन्द्रगुप्त नाम के एक क्षत्रिय राजपुत्र के हाथ लगा था। उसने अपने भुजविक्रम से प्रायः सारे भारत पर अधिकार कर लिया था और 'म' नामक राजवंश की स्थापना की थी। जैनशास्त्र इस राजा को दिगम्बर मुनि भ्रमणपति घुतकेवली भद्रबाहु का शिष्य प्रगट करते हैं यूनानी राजदूत मेगास्थनीज भी चन्द्रगुप्त को श्रमण-भक्त प्रगट करता है" सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने बृहत् साम्राज्य में दिगम्बर मुनियों के बिहार और धर्मप्रचार करने की सुविधा की थी। धगणगति के संघ की वह राजा बहुत विनय करता था। भद्रबाहु जो बंगाल देश के कोटिकपुर नामक नगर के निवासी थे। एक दफा वहां त केवली गोवर्द्धन स्वामी अन्य दिगम्बर मुनियों सहित पा निकले; भद्रबाहु उन्हीं के निकट दीक्षित होकर दिगम्बर मुनि हो गये | गोवर्द्धन स्वामी ने संघसहित गिरनार जी को यात्रा का उद्योग किया था। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि उनके समय में दिगम्बर मुनियों को बिहार करने की सुविधा प्राप्त थी । भद्रबाहु जी ने भी संघ सहित देश-देशान्तर के विहार किया था और वह उज्जैनी पहुंचे थे। वहीं से उन्होंने दक्षिण देश की ओर संघसहित विहार किया था क्योंकि उन्हें मालूम हो गया था कि उत्तरापथ में एक विकाल दुष्काल पड़ने को
२. हि० भा० १३ पृ० ५३१.
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९.०० १४० २१७ ।
३. बन्दाकीतिश्चन्द्रवन्मोदक खान गुप्तिनं पापवादः ॥ ज्ञाननिपानिपूजापुरंदर चतुर्द्धा दान दश प्रसाजित भास्करः ॥ ४० "समास (वा) परोत्वान्वितः समभ्यव्यं गुरो पापकादि २६ ।। " भ०
v. "That Chandragupta was a member of the Jaina community is taken by their writers as a matter of course, and treated as a known fact, which needed nither argument nor demonstration. The documentory evidence to this effect is of comparatively early date, and apparently absolved from all suspicion......The testimony of Megasthenes would likewise seem to imply that Chandragupta submitted to the devotional eaching of the Sramanas, as opposed to the doctrines of the Brahmanas. (Strabo, YV, i 60)." JRAS., Vol. IX pp, 175-176. स्वदेशोऽभूतपौण्ड्वगः ""यत्रको पुरं रम्यं दो नाकखण्डयत्।" "भद्रबाहुहाति शप्तवान्चन्तः" इदि ४३० ० १० २३ ॥ ६. “चिकीषु मितीशयात्रां रेवतकाचले ।" भद्र० पृ० १३ ।
५.
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है जिसमें मुनिचर्या का पालन दुष्कर होगा ।' सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी इसी समय अपने पुत्र को राज्य देकर भद्रवाह स्वामी के निकट जिनदीक्षा धारण की थी और वह अन्य दिगम्बर मुनियों के साथ दक्षिण भारत को चले गये थे। श्रवणबेलगोल का कटवा नामक पर्वत उन्हीं के कारण "चन्द्रगिरि" नाम से प्रसिद्ध हो गया है, क्योंकि उस पर्वत पर चन्द्रगप्त ने तपश्चरण किया था और वहीं उनका समाधिमरण हुआ था।
बिन्दुसार ने जैनियों के लिये क्या किया? यह ज्ञात नहीं है। किन्तु जब उसका पिता न था, तो उस पर जैन प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है। उस पर उसका पुत्र अशोक अपने प्रारम्भिक जीवन में जैन धर्मपरायण रहा था; बल्कि अन्त समय तक उसने जैन सिद्धान्तों का प्रचार किया, यह अन्यत्र सिद्ध किया जा चुका है। इस दशा में विन्दुसार का जैन-धर्म प्रेमी होना उचित है । अशोक ने अपने एक स्थम्भलेख में स्पष्ट: निग्रन्थ साधुओं की रक्षा का आदेश निकाला था।
सम्राट सम्प्रति पूर्णत: जैनधर्म परायण थे। उन्होंने जैन मुनियों के विहार और धर्म-प्रचार की व्यवस्था न केवल भारत में ही की बल्कि विदेशों में भी उनका विहार कराकर जैन धर्म का प्रचार करा दिया।
उस समय में दस पूर्व के धारक विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय आदि दिगम्बर जैनाचावों के संरक्षण में रहा जैनसंघ खूब फला-फला था । जिस साम्राज्य के अधिष्ठाता ही स्वयं जब दिगम्बर मुनि होकर धर्म प्रचार करने के लिए तुल गये तो भला कहिए जैनधर्म की विशेष उन्नति और दिगम्बर मुनियों की बाहुल्यता उस राज्य, में क्यों न होती! मौर्यों का नाम जनसाहित्य में इसीलिए स्वर्णाक्षरों में अंकित है !
१. भद्रः पृ० २७–५१
3. Jajna tradition avers that Chandragupta Maurya was a Jains and illat, when a great twelve years' faininc occurred, he abdicated, accompanied Bhadrat ahu, the last of the saints called Srutakevalins, to the. South, lived as an ascetic at Sravanabelgola in Mysore and ultimately connitted Suicide by Starvation at that place, where lijs name is still held in remembrance In the second cdition of this book I rejected that tradition and dismissed the tale as 'imaginary history'. But on reconsideration of the whole evidence and the objections urged against the credibility of the story. I am now disposed to believe that the tradition probably is true in its main outline and that chandragupla really abdicated and became Jaina ascetic."
Sir Vincient Smith, EHI, p. 154 ३. Narasimhachar's Sravanabelagola, P25-40, विको०, भाग ७ पृ. १५६-१५.७ तथा जैशिस भूमिका प० ५४-७०!
४. "We may conclude...that Vindusara followed the faith (Jainism) of his father (Chadr.gupta) and that, in the same belief, whatever it may prove to have been, his childhood's lessons were first learnt by Asoka."
-E. Thomas, JRAS. IX. 181 ५. हमारा “सम्राट अशोक और जन घम" नामक,क्ट देखो। ६. स्तम्भलेख नं०७।
"The founder of the Mauryan dynasty Chandragupta, as well as his Brahimin minister, Chanakya, were also inclined towards Malavira's doctries and even Ashoka is said to have been laid towards Buddhism by a previous study of Jain teaching."
-E. B. Havell, HARI., p 59 ७. कुशालशनस्त्रिखंडभरताधिपः गरमाईतो अनायंदेशेष्वीप प्रवतित धमरणविहार; लम्प्रति महाराजाऽसौऽभवत'
-पाटलीपुत्रप्रकल्पग्रन्थ EHI. pp. २०२-२०३
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(१३)
सिकन्दर महान एवं दिगम्बर मुनि
"Onesikritos says that he himself was sent to converse with these sages. For A'exander heard that these men (Śramans) went about naked, inused themselves to hardships and were held in highest honour, that when invited they did not go to other persons."
--Me Crindle, Ancient India P. 70
लगे
जिस समय अन्तिम नन्दराजा भारत में राज्य कर रहे थे और चन्द्रगुप्त मौर्य अपने साम्राज्य की नींव डालने में हुए थे, उस समय भारत के पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त पर यूनान का प्रतापी वीर सिकन्दर अपना सिक्का जमा रहा था। जब यह तक्षशिला पहुंचा तो वहां उसने दिगम्बर मुनियों को बहुत प्रशंसा गुनी। उसने चाहा कि वे सापूगण उसके सम्मुखाये जायें, किन्तु ऐसा होना सम्भव था, क्योंकि दिगम्बर मुनि किसो का शासन नहीं मानते और न किसी का निमन्त्रण स्वीकार करते हैं। उस पर सिकन्दर ने अपने एक दूत को, जिसका नाम अन्यास (Oneskritos) था. उनके पास भेजा । उसने देखा, तक्षशिला के पास उद्यान में बहुत से नंगे मुनि तपस्या कर रहे हैं। उनमें से एक कल्याण नामक मुनि से उसकी बातचीत होती रही थी। मुनि कल्याण ने अंकृत से कहा था कि यदि तुम हमारे तप का रहस्य समझना चाहते हो तो हमारी तरह दिगम्बर मुनि हो जायो ।' श्रंशकृतस के लिए ऐसा करता असम्भव था यासिर उसने सिकन्दर से जाकर इन मुनियों के ज्ञान और वर्मा की प्रशंसनीय बातें कहीं। सिकन्दर उनसे बहुत प्रभावित हुआ और उसने चाहा कि इन शान ध्यान- तपोरत्न का मेरे देश में भी पहुंचे। इस कामना को मुनि कल्याण ने पूरा किया था। जब सिकन्दर समय यूनान को लौटा तो मुनि कल्याण उसके साथ हो लिये थे किन्तु ईरान में ही उनका देहावसान हो गया था अपना अन्त समय जानकर उन्होंने जैनव्रत सल्लेखना का पालन किया था। नंगे रहना, भूमिशोध कर चलना, हरितकाय का विराधन न करना, किसी का निमन्त्रण स्वीकार न करना, इत्यादि जिन नियमों का पालन मुनि कल्याण और उनके साथी मुनिगण करते थे उनसे उनका दिगम्बर जैन मुनि होना सिद्ध है। आधुनिक विद्वान् भी यही प्रगट करते हैं।"
मुनि कल्याण ज्योतिष शास्त्र में निष्णात थे । उन्होंने बहुत सी भविष्यवाणियां की थी और सिकन्दर की मृत्यु को भी उन्होंने पहिले से ही घोषित कर दिया था। इन भारतीय सन्तों को शिक्षा का प्रभाव यूनानियों पर विशेष बड़ा था । यहां तक कि तत्कालीन डायजिनेस (Diogenes) नामक यूनानी तत्ववेता ने दिगम्बर वेष धारण किया था। * और यूनानियों ने गंगी मतियां भी बनवाई थी।"
यूनानी लेखकों ने इन दिगम्बर मुनियों के विषय में खूब लिखा है ये बताते हैं कि यह साधु नंगे रहते थे। सर्दी-गर्मी की परीषह सहन करते थे । जनता में इनकी विशेष मान्यता थी। हाट-बाजार में जाकर यह धर्मोपदेश देते थे। बड़े-बड़े शिष्य घरों के अतःपुरों में भी ये जाते थे। राजागण इनकी विनय करते और सम्मति लेते थे। ज्योतिष के अनुसार ये लोगों
१. Al, P, 69 ^{Alexander) despatched Onesikrites to them (gymnosophists), who relates that he found at the distance of 20 stadia from the city (of Taxilla) 15 men standing in different postures, sitting or lying down naked, who did not move from these positions till the evening, when they return to the city. The most difficult thing to endure was the heat of the sun. etc."
"Calanus bidding him (Onesi) to strip himself, if he
doctrine."
desired to hear any of his — Plutarch. Al. p. 71
२. वीर वर्ष ७ पृष्ठ १७६ व ३४१ ।
a. Encyclopaedia Britannica (11th. ed) Vo! XV p. 128. ...the term Digambara. is referred to in the well known Greek phrase, gymnosophists, used already by Megasthenes, which applies very aptly to the Niganthas (Digambara Jainas)."
Y. A calendar fragment discovered at Milet and belonging to the 2nd century B.C., gives several weather forecasts on the authority of Indian Calanus."
-- QIMS.XVIII, 297
x. MJ., Intro. p. 2
4. Pliny, XXXIV, 9...JRAS, Vol, IX, p, 232
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को भविष्य का फलाफल भी बताते थे। भोजन का निमन्त्रण ये स्वीकार नहीं करते थे। विधिपूर्वक नगर में कोई सभ्य उन्हें भोजन दान देता तो उसे ये ग्रहण कर लेते थे । युनानी लेखकों के इस वर्णन से उस समय के दिगम्बर जैन मुनियों का महत्व स्पष्ट हो जाता है। उनके द्वारा भारत का नाम विदेशों में भी चमका था ! भला उन जैसे मुनीश्वरों को पाकर कौन न अपने को धन्य मानेगा ?
__ सुग और प्रान्न राज्यों में दिगम्बर मुनि "The Andhra or Satvahana rule is characterised by almost the sam: social features as the farther south, but in point of religion they seem to have been great patrons of the Jainas & Buddhists." S. K. Aiyangar's Ancient India, p. 34.
अन्तिम मोर्य सम्राट् बृहद्रथ का उनके सेनापति पुष्पमित्र सुग ने वध कर दिया था। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य का अन्त करके पूष्पमित्र ने 'सुगवंश की स्थापना की थी। नन्द और मौर्य साम्राज्य में जहां जैन और बौद्धधर्म उन्नति को प्राप्त हये थे, वहां सुगबंश के राजत्वकाल में ब्राह्मण धर्म उन्नत अवस्था को प्राप्त हया था। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि ब्राह्मणेतर जैन प्रादि धर्मो पर इस समय कोई संकट पाया हो। हम देखते हैं कि स्वयं पुष्पमित्र के राजप्रासाद के सन्निकट मन्दराज द्वारा लाई गई 'कलिंग जिनको मूर्ति, सुरक्षित रही थी। इस अवस्था में यह नहीं कहा जा सकता कि इस समय दिगम्बर जैनधर्म को बकट वाधा सहनी पड़ी थी।
उस पर सुग राज़ागण अधिक समय तक शासनाधिकारी भी न रहे। भारत के पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त और पञ्जाब की अोर तो यवन राजाओं ने अधिकार जमाना प्रारंभ कर दिया और मगध तथा मध्यभारत पर जैनसम्राट् खारवेल तथा आन्ध्र जामों के प्राक्रमण होने लगे । खारवेल की मगध विजय में आन्ध्रवंशी राजाओं ने उनका साथ दिया था। मगध पर आन्ध्र
१.Aristoboulos...says 'Their (Gymnosophists) spare time is spent in the market-plac in respect their being public councillors, they receive grcat homage etc."
Cicero (Tusc. Disput. V. 27)..."What foreign land is more vast and wild than India ? Yct in that nation first those who are reckoned sages spend their lifetime naked and endure the Snows of caucasus and the rage of winter wintout grieving and when they have committed their body to the flames, nol a groan escapes them when they are burning."
Clericns Alexendrinus-"Those Indians. who are called Sennoi (श्रवण) go naked their lives. These practise truth, make predictions about futurity and worship a kind of pyramid, beneath which they think the bones of some divinity lie buried (stupas)."
-Al. P. 183. "St Jerome, - Indian Gymnosophists. The king on coming to them worship them and the peace of his dominions depends according to his judgement on their prayers."...AI P. 184.
"Every weaithy house is open to them to the apartments of the women. On entering they share the repast.'-AI. p. 71.
“When they repair to the city they disperse themselves to the market place. if they happen to meet any who carries figs or bunches of grapes they take what he bestows without giving anything in return.
F. "In the decadance that followed the death of Asoka, the Andhras seem to have had their own share and they may possibly have helped Khaivela of Kalinga, when he invaded Magadha in the middle of the 2nd century B. C. When the Kanvar were overthrown the Andhras extend their power northwards & occupy Magadba."
-SAL., pp. 15-16
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रामों का अधिकार हो गया। इन राजाओं के उद्योग से जैन धर्म फिर एक बार चमक उठा।
។
आन्ध्रवंशी राजाओं में हाल, पुलुमाथि यादि जैन धर्म प्रेमी कहे गये हैं । इन्होंने दिगम्बर जैन मुनियों को बिहार और धर्म प्रचार करने की सुविधा प्रदान की प्रतीत होती है। उज्जैन के प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य भी इसीवंश से सम्बन्धित बताये जाते हैं वह क्षेत्र थे परन्तु उपरान्त एक दिगम्बर जैनाचार्य के उपदेश से जैन हो गये थे।
ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दि में एक भारतीय राजा का सम्बन्ध रोम के बादशाह यॉगस्टर से था। उन्होंने उस जाबशाह के लिये भेंट भेजी थी जो लोग उस भेंट को ले गये थे. उनके साथ भृगुकच्छ (भय) से एक श्रमणाचार्य (दिगम्बर जैनाचार्य) भी साथ हो लिये थे। वह यूनान पहुंचे थे और वहां उनका सम्मान हुआ था। यासिर सल्लेखना व्रत को धारण करके उन्होंने घन्स (Athens) में प्राणविसर्जन किये थे वहाँ उनकी एक निषधिका बना दी गई थी। अव भत्ता कहिये, जब उस समय दिगम्बर मनि विदेशों तक में जाकर धर्मप्रचार करने में समर्थ थे, तो वे भारत में क्यों न बिहार और धर्म प्रचार करने में सफल होते जैन साहित्य बताता है कि गंगदेव, सुधर्म नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु भुवसेन आदि दिगम्बर जैनाचायों के नेतृत्व में तत्कालीन जैनधर्म सजीव हो रहा था।
ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दि में भारत में अपोलो और दमस नामक दो यूनानी तत्ववेत्ता आये थे। उनका तत्कालीन दिगम्बर सुनियों के साथ शास्त्रार्थं हुआ था। सारांशतः उस समय भी दिगम्बर मुनि इतने महत्वशाली ये कि वे विदेशियों का भी ध्यान आकृष्ट करने को समर्थ थे।
(१५)
पवन-अप प्रादि राजागण तथा विगम्बर मुनि !
"About the second century B. C when the Greeks had occupied a fair portion of western India, Jainism appears to have made its way amongst them and the founder of the sect appears also to have been held in high esteem by the Indo-Greeks, as is apparent from an account given in the Milinda Panho"-HG. P. 78.
मौव्यों के उपरान्त भारत के पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त, पञ्जाब, मालवा पादि प्रदेशों पर यूनानी आदि विदेशियों का
1. JBORS. I. 76-118. and CHE, I P. 532
2. Allahabad university Studies, pt. II. 113-147
3. In the same year (25 B. C.) went an Indian embassy with gifts to Augustus, from a King called Purus by some and Pandian by others They were accompanied by the man who burnt himself at Athens. He with a smile leapt upon the pyre naked On his tomb was this inscription, 'Zermanochegas, to the custom of his country, lies here.' Zermanochegas seems to be the Greek rendering of Sramanacharya or Jaina Guru and the self-immolation, a variety of Sallekhna."--IHQ. Vot. II. 293
4. Apollonius of Tyana travelled with Damus. Born about 4 B. C., he came to explore the wonders of India.......He was a Pythogorian philosopher and met larchas at Taxilla and disputed with Indian Gymnosophists. ( Niganthas)"
QJMS, XVIII, pp. 305-326
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अधिकार हो गया था। इन विदेशी लोगों में भी जैन मुनियों ने अपने धर्म का प्रचार कर दिया था और उनमें से कई बादशाह जैन धर्म में दीक्षित हो गये थे।
भारतीय यवनों (Greck) में मनेन्द्र (Menander) नामक राजा प्रसिद्ध था। उसकी राजधानी पंजाब प्रान्त का प्रसिद्ध नगर साकल' (स्यालकोट) था। बौद्धग्रन्थ 'मिलिन्दपण्ह' से विदित है कि उस नगर में प्रत्येक धर्म के गुरु पहुंचकर धर्मोपदेश देते थे' । मालूम होता है कि दिगम्बर जैन मुनियों को वहाँ विशेष आदर प्राप्त था; क्योंकि मिलिन्दपण्ह' में कहा गया है कि पांच सौ यूनानियों ने राजा मनेन्द्र से भ० महावीर के "निर्ग्रन्थ' धर्म द्वारा मनस्तुष्टि करने का आग्रह किया था और मनेन्द्र ने उनका यह अाग्रह स्वीकार किया था। अत: वह जैन धर्म में दीक्षित हो गया था और उसके राज्य में अहिंसा धर्म की प्रधानता हो गई थी।
यवनों (Indo Greek) को हराकर शकों में फिर उत्तर-पश्चिम भारत पर अधिकार जमाया था। उन्होंने 'छत्रप'प्रान्तीय शासक नियुक्त करके शासन किया था। इनमें राजा अजेस (Ages I) के समय में तक्षशिला में जैन धर्म उन्नति पर था । उस समय के बने हुये जैन ऋषियों के स्मारक रूप स्तूप आज भी तक्षशिला में भग्नावशेष हैं।
शक राजा कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव के राजकाल में भी जैन धर्म उन्नत दशा में रहा था। मथुरा उस समय प्रधान जैन केन्द्र था। अनेक निर्ग्रन्थ साधु वहाँ विचरते थे। उन नग्न साधुओं की पूजा राजपुत्र और राजकन्यायें तथा साधारण जनसमुदाय किया करते थे।
छत्रप नहपान भी जैन धर्म प्रेमी प्रतीत होता है। उसका राज्य गुजरात से मालवा तक विस्तृत था। जैन साहित्य में, उनका उल्लेख नरवाहन और नहबाण रूप में हुआ मिलता है। नहपान ही संभवतः भूतबलि नामक दिगम्बर जैनाचार्य हुये थे जिन्होंने "पट्खण्डागम शास्त्र'' की रचना की थी।
छत्रप नहपान के अतिरिक्त छत्रप रुद्र दमन का पुत्र रुद्र सिंह का भी जैनधर्म भक्त होना संभव है। जूनागढ़ की 'अपरकोट' की गुफानों में इसका एक लेख है, जिसका सम्बन्ध जेन-धर्म से होना अनुमान किया जाता है । ये गुफायें जैन मुनियों के उपयोग में आती थीं।
इन उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि उपरोक्त विदेशी लोगों में धर्म प्रचार करने के लिए दिगम्बर मुनि पहुंचे थे और उन्होंने उन लोगों के निकट सम्मान पाया था।
1. They resund with cries of welcome to the teachers of every creed and the city is the resort of the leading men of each of the differing sects."
-QKM. P.3 २.QKM. p.8 ३. वीर, वर्ष २ पृ. ४४६-४४६. ४. AGT., P.P, 76-80
%. "Another locality in which the Jainas seem to have been formly established from the middle of the 2nd Century B.C. onwards was Mathura in the old kingdom of Curasena."
-CHI, I, p. 167 and see JOAM, ६. सरस्वती, भा० २६ खण्ड २ पृ० ७४८-७४६ ७. 1A,XX, 163 fr
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सम्राट् ऐलखारवेल आदि कलिंग नृप और दिगम्बर मुनियों का उत्कर्ष । "नन्दराज-नीतानि कालिंग-जिनम्-संनिवेस'.....'गहरतनान पडिहारेहि अङ्गमागध बसवु नेयाति ।”
(१२ वी पंक्ति ) "सुकति-समण सुबिहितानं च सतदिसान भनितम् तपसि-इसिन संघियनं प्ररहत निसीदियासमीपे पभरे बरकारसमुथपतिहि अनेकयोजनाहिताहि प सि ओ सिलाहि सिंहपथ-रानि सिधुडाय निसयानि....."घंटा (य) क (तो) चतरे च बेडरियगभे थंभे पतिठापयति ।" (१५-१६ वी पंक्ति)
हाथीगुफा शिलालेख । कलिंगदेश में पहले तीर्थकर भगवान गड के एक पुत्र ने पहले नहले राज्य मिला था । जब सर्वज्ञ होकर तीर्थङ्कर ऋषभ ने पायं खण्ड में बिहार किया तो वह कलिङ्ग भी पहुंचे थे। उनके धर्मोपदेश से प्रभावित होकर तत्कालीन कलिंग राजा अपने पुत्रको राज्य देकर दिगंबर मुनि हो गये थे। बस, कलिंग में दिगम्बर-मुनियों का सद्भाव उस प्राचीन काल से है।
राजा दशरथ अथवा यशधर के पुत्र पांच सौ साथियों सहित दिगम्बर मुनि होकर कलिङ्गदेश से ही मुक्त हुए थे। तथा वह पवित्र कोटिशिला भी उसी कलिगङ्गदेश में हैं, जिसको श्रीराम-लक्ष्मण ने उठाकर अपना बाहुबल प्रगट किया था और जिस पर से एक करोड़ दिगम्बर-मुनि निर्वाण को प्राप्त हुए थे । सारांशतः एक अतीव प्राचीन काल से कलिङ्ग देश दिगम्बरमुनियों के पवित्र चरण-कमलों से अलंकृत हो चुका है !
इक्ष्वाकुवंश के कौशल देशीय क्षत्रिय राजाओं के उपरान्त कलिङ्ग में हरिवंशी क्षत्रियों ने राज्य किया था। भगवान महावार ने सर्वज्ञ होकर जब कलिङ्ग में प्राकर धर्मोपदेश दिया तो उस समय कलिंग के जितशत्रु नामक राजा दिगम्बर मुनि हो गये और उनके साथ और भी अनेक दिगम्बर मुनि हुये थे।
उपरान्त दक्षिण कौशलवर्ती चेदिराज के वंश के एक महापुरुष ने कलिंग पर अधिकार जमा लिया था। ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दि में इस वंश का ऐल खारवेल नामक राजा अपने भुजविक्रम, प्रताप और धर्म कार्य के लिए प्रसिद्ध था । यह जैन धर्म का दल उपासक था। उसने सारे भारत की दिग्विजय की थी। वह मगध के संगवंशी राजा को हराकर 'कलिंग जिन' नामक अर्हत-मूर्ति को वापस कलिंग ले पाया था। दिगम्बर मुनियों की वह भक्ति और विनय करता था। उन्होंने उनके लिए बहुत से कार्य किये थे । कुमारी पर्वत पर अर्हत् भगवान की निषद्या के निकट उन्होंने एक उन्नत जिन प्रासाद वनवाया था तथा पचहनर लाख मुद्राओं को व्यय करके उस पर वैडूर्य रत्न जड़ित स्तम्भ खड़े करवाये थे। उनकी रानी ने भी जैनमन्दिर तथा मुनियों के लिये गुफाय बनवाई थीं; जो अब तक मौजूद हैं । और भी न जाने उन्होंने दिगम्बर मुनियों के लिये क्या-क्या नहीं किया था !
उस समय मथुरा, उज्जैनी और गिरिनगर जैन ऋषियों के केन्द्रस्थान थे । खारवेल ने जैन ऋषियों का एक महासम्मे लन एकत्र किया था। मथुरा, उज्जनी, गिरिनगर, काञ्चीपुर प्रादि स्थानों से दिगंबर मुनि उस सम्मेलन में भाग लेने के लिये कुमारी पर्वत पर पहुचे थे। बड़ा भारी धर्म महोत्सव किया गया था। बुद्धिलिङ्ग, देव, धर्मसेन, नक्षत्र आदि दिगम्बर जैनाचार्य
१. हरिवंश पुराण अ० ३ दलो० ३-७ व अ०११ श्लो० १४.६१ २. "जसघर गइल्स सुवा । पंचसयाभूव कलिंग तेसम्मि ।।
कॉटिसिल कोडि मुरिण णिवारण गया णमो तेसम्मि ॥१८॥" -रिणब्वारण-कंडु गाहा ३. हरिवंशपुराण (कलकत्ता संस्करण) पु. ६२३ ४. JBORS. Vol lI pp. 434-484 ५. अंबि ओ जस्मा० पृ०६१ ६. JHQ, Vol, IV p. 522. ७. "सतदिसान भनितम् तपसि-इसिन संघियनं अरहत निसोदिया समीपे''.. चोयथि अंग अंगसतिकं तुरिय उपादयति ।"
-JBORS.XI 236-237
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उस महासम्मेलन में सम्मिलित हुये थे।' इन ऋषि पुङ्गवों ने मिलकर जिनवाणी का उद्धार किया था तथा सम्राट् खारवेल के सहयोग से व जैनधर्म के प्रचार करने में सफलमनोरथ हुये थे। यही कारण है कि उस समय प्रायः सारे भारत में जैनधर्म फैला था। यहां तक कि विदेशियों में भी उसका प्रचार हो गया था, जैसे कि पूर्व परिच्छेद में लिखा जा चुका है । अतएव यह स्पष्ट है कि ऐल. खारवेल के राजकालों में दिगंबर मुनियों का महत उत्कर्ष हुआ था।
ऐल खारबेल के बाद उनके पुत्र कुदेपश्री खर महामेघ वाहन कलिंग के राजा हुए थे। वह भी जैनधर्मानुयायी थे।' उनके बाद भी एक दीर्घ समय तक कलिंग में जैनधर्म राष्ट्रधर्म रहा था। बौद्धग्नन्थ 'दाठावंसों से ज्ञात है कि कलिंग के राजाओं में भ० बुद्ध के समय से जैनधर्म का प्रचार था । गौतमबुद्ध के स्वर्गवासी होने के बाद बौद्धभिक्ष खेम ने कलि के राजा ब्रह्मदत्त को बौद्धधर्म में दोक्षित किया था। ब्रह्मदत्त का पुत्र काशीराज और पौत्र सुनन्द भी बौद्ध रहे थे ! किन्तु उपरान्त फिर जैनधर्म का प्रचार कलिग में हो गया। यह समय संभवतः खारवेल आदि का होगा । कालान्तर में कलिंग का गृह शिव नामक प्रतापी राजा निर्ग्रन्थ साधुनों का भक्त कहा गया है। उसके बौद्ध मंत्री ने उसे जैनधर्म विमुख बना लिया था। निग्रंथ साथ उसकी राजधानी छोड़कर पाटलिपुत्र चले गये थे। सम्राट् पाण्डु वहां पर शासनाधिकारी था। निम्रन्थ साघमों ने उससे गहशिव की घुष्टता की बात कही थी। यह घटना लगभग ईसबी तीसरी या चौथी शताब्दि की कही जा सकती है। और इससे प्रगट है कि उस समय तक दिगम्बर मुनियों की प्रधानता लिग–अंग-बंग और मगध में विद्यमान थी। दिगम्बर मनियों को राजाश्रय मिला हुआ था।
कुमारीपर्वत पर के शिलालेखों से यह भी प्रगट है कि कलिंग में जैनधर्म दसवीं शताब्दि तक उन्नतावस्था पर था। उस समय वहां पर दिगम्बर जैन मुनियों के विविध संघ विद्यमान् थे, जिनमें आचार्य यशनन्दि, प्राचार्य कुलचन्द्र तथा प्राचार्य शुभचन्द्र मुख्य साधु थे।
१. ना.., वर्ष: २६ २. JBORS,III p. 505. ३. दन्त धातुं ततो खेमो असना गहित अदा। दन्तपूरे कलिंगस्स ब्रह्मदत्तस्स राजिनो ।।५७॥२।।
देसयित्वान सो धम्म भेत्वा सम्ब कुरिट्ठियो । राजानं तं पसादेसि अन्गम्हिरतनत्तये ॥५५॥
अनुजातो लतो तस्स कासिराज व्यो सुतो । रज्जं लद्धा अमच्चानं सोकसल्लमपानुदि ॥६६।।
सुनन्दो नाम राजिन्दो आनन्दजननो संत तस्स जो ततो आसि बुद्धसासननामको ॥६६॥-दाठा पृष्ठ ११-१२ ४. गुहसीव व्हेयाराजा दुरतिक्कमसासनो । ततो रज्जसिरि पत्वा अनुगण्हि महाजन ॥७२॥२॥ राषरत्थानभिजेसी लाभासक्कारलोलुपे । मायाविनो अविज्जन्ये निगन्थे समुपट्टहि ॥७३॥
तस्सा मच्चस्स सोराजा सुत्वाधम्मसुभासितं । दुल्लद्धिमलमुज्झित्वा सीदिरतनत्तये ॥८६||
x
इति सी चिन्तयित्वान गृहसीवो मराधिपो । पवाजेसि सकारट निगण्डे ते असेसके ॥६॥ ततो निगण्ठा सम्वेपि धतसिसानला यथा । कोरिंगजलिता गच्छं पुरं पाटलिपुस्तकं ॥
x तरथ राजा महातेजो जम्बुदीपस्स हस्सरो। पण्ड नामोलदा आसि अनन्त बलवाहनो ॥११॥
कोधन्धोऽम निगष्ठा ते सध्वे पेसुम्भकारका। उपसंकम्मराजाने इदं बचनमधु ॥१२॥ इत्यादि'-दाठा- पृष्ठ १३-१४ ५. बंबिओ जस्मा, पृष्ठ ६४-६६
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इस प्रकार कलिंग में दिगम्बर जैनधर्म का बाहुल्य एक प्रतीव प्राचीनकाल से रहा है और वहां पर आजभी सराकलोग एक बड़ी संख्या में हैं, जो प्राचीन श्रावक हैं। उनका अस्तित्व इस बात का प्रमाण है कि कलिंग में जैनत्व की प्रधानता आधुनिक समय तक विद्यमान् रही थी।
(१७)
गुप्त साम्राज्य में विगम्बर-मुनि ! -The capital of the Gupta emperors became the centre of Brahmanical culture, but the masses followed the religious traditions of their forefathers, and Buddhist aud Jain monasteries continued to public schools and universities for the greater part of India."
-E.B. Havell. HARI., p. 156. यद्यपि गुप्तवंश के राज्यकाल में ब्राह्मण धर्म की उन्नति हुई थी, किन्तु जन-साधारण में अब भी जैन और बौद्ध धर्म का ही प्रचार था। दिगम्बर जैन मुनिगण ग्राम-ग्राम विहार कर जनता का कल्याण कर रहे थे और दिगम्बर उपाध्याय जैन विद्यापीठों के द्वारा ज्ञान दान करते थे। गुप्त काल में मथुरा, उज्जैन, राजगह आदि स्थान जैन धर्म के केन्द्र थे। इन स्थानों पर दिगम्बर जैन साधुनों के संघ विद्यमान थे। गुप्त-सम्राट् अब्राह्मण साधुओं से द्वेष नहीं रखते थे। तथापि उनका वाद ब्राह्मण विद्वानों के साथ कराकर सुनना उन्हें पसन्द था।
श्री सिद्धसेनदिवाकर के उदगारों से पता चलता है कि "उस समय सरलवाद पद्धति और भाकर्षक शान्तिवति का लोगों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता था । निम्रन्थ अकेले-दुकेले ही ऐसे स्थलों पर जा पहुंचते थे और ब्राह्मणादि प्रतिवादी विस्तृत शिष्य समूह और जनसमुदाय सहित राजसी ठाठ-बाठ के साथ पेश पाते थे, तो भी जो यश निर्ग्रन्थों को मिलता था वह उन प्रतिवादियों को अप्राप्य था।"
बंगाल में पहाड़पुर नामक स्थान दिगम्बर जैन संघ का केन्द्र था । वहाँ के दिगम्बर मुनि प्रसिद्ध थे।
गूप्तवंश में चन्द्रगुप्त द्वितीय प्रतापी राजा था । उसने 'विक्रमादित्य, की उपाधि धारण की थी। विद्वानों का कथन है कि उसी की राज-सभा में निम्नलिखित विद्वान थे :--
धन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिंहशंकुतालभट्टघटखपरकालिदासाः। ख्यातो वराहमिहिरो भूपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नध विक्रमस्य ।।"
इन विद्वानों में क्षपणक' नामक विद्वान् एक दिगम्बर मुनि था । आधुनिक विद्वान् उन्हें सिद्धसेन नामक दिगम्बर जैनाचार्य प्रकट करते हैं । जैनशास्त्र भी उनका समर्थन करते हैं । उनसे प्रकट है कि श्री सिद्धसेन ने 'महाकाली के मन्दिर में चमत्कार दिखाकर चन्द्रगुप्त को जैनधर्म में दीक्षित कर लिया था।
उपरोक्त विद्वानों में से अमरसिंह, वराहमिहिर आदि ने अपनी रचनाओं में जैनों का उल्लेख किया है, उससे भी
१. बंबिओ जस्मा. १०१-१४० २. भाई., पृष्ठ ६१। ३. जहि. भा. १४ पृष्ठ १५६ ४. IHQ VII 441 ५, रा. १३३ । ६. रथा. चरित्र पृष्ठ १३३-१४११ ७. वीर, वर्ष १ पृष्ठ ४७१ ८. अमरकोष देखो . ६. 'नग्नान् जिनाना विदुः । -वराहमिहिर संहिता
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प्रकट है कि उस समय जनधर्म काफी उन्नत रूप में था। वराहमिहिर ने जनों के उपास्यदेवता की मूर्ति नग्न बनती लिखी है, से यह स्पष्ट है कि उस समय उज्जैनी में दिगम्बर धर्म महत्वशाली था। जनसाहित्य से प्रकट है कि उज्जनी के निकट भदंदलपुर (बीसनगर) में उस समय दिगम्बर मुनियों का संघ मौजूद या, जिसके प्राचार्यों की कालानुसार नामावली निम्नप्रकार है:१. श्री मुनि बचनन्दी
रान् ३०७ में प्राचार्य हुये २. , , कुमारनन्दी
३२६ . " , लोकचन्द्रप्रथम ४., प्रभाचन्द्र ५. नेमिचन्द्र
"" भानुनन्दि ॥ जयनन्दि
४५१ ८. , , वसुनन्दि
,,, वीरनन्दि ,, रत्ननन्दि
सन् ५०४ में आचार्य हुये। , , माणिक्यनन्दि
,,, मेघचन्द्र १३., , शानिकीति १४.,,, मेरुकीति
५८५ में प्राचार्य हये' इनके बाद जो दिगम्बर जैनाचार्य हये, उन्होंने भइल पर मालबा) से हटाकर जैनसंघ का केन्द्र उज्जन में बना दिया। इससे भी स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के निकट जैन धर्म को प्राश्रय मिला था। उसी समय चीनी-यात्री फाह्यान भारत में आया था। उसने मथुरा के उपरान्त मध्यदेश में ९६ पाखण्डों का प्रचार लिखा है। वह कहता है कि "वे सब लोक और परलोक मानते हैं। उनके साधु-संघ हैं, वे भिक्षा करते हैं, केवल भिक्षापात्र नहीं रखते। सत्र नानारूप से धर्मानुष्ठान करते हैं।" दिगंबर मुनियों के पास भिक्षा पात्र नहीं होता-वे पाणिपात्र भोजी और उनके संघ होते हैं। तथा वे अहिंसा धर्म का उपदेश मुख्यता से देते हैं। फाह्यान भी कहता है कि "सारे देश में सिवाय चाण्डाल के कोई अधिवासी न जीबहिसा करता है, न मद्य पीता है और न लहसुन खाता है। न कहीं सुनागार मोर मब की दुकानें है।" उसके इस कथन से भी जैनमान्यता का समर्थन होता है। भद्दलपुर, उज्जैनी आदि मध्यदेशवतीं नगरों में दिगम्बर जैन मुनियों के संघ मौजूद थे और उनके द्वारा अहिंसा धर्म की उन्नति होती थी।
फाह्यान संकाश्य, श्रावस्ती, राजगृह आदि नगरों में भी निन्य साधुनों का अस्तित्व प्रगट करता है । संकाश्य उस समय जैन-तीर्थ माना जाता था। संभवत: वह भगवान विमल नाथ तीर्थकर का केवलज्ञान स्थान है। दो-तीन वर्ष हुये वहीं निकट से एक नग्न जैनमुर्ति निकली थी और वह गुप्तकाल की अनुमान की गई है। इस तीर्थ के सम्बन्ध में निर्ग्रन्थों और बौद्ध भिक्षयों में बाद हुआ वह लिखता है। श्रावस्ती में भी बौद्धों ने निर्ग्रन्थों से विवाद किया वह बताता है। श्रावस्ती में उस समय सहध्वज वंश के जन राजा राज्य करते थे। कुहाऊं (गोरखपुर) से जो स्कन्दगुप्त के शिजकाल का जैन लेख मिला है।' उससे स्पष्ट है कि इस ओर अवश्य ही दिगम्बर जैनधर्म उन्नतावस्था पर था।
१. पट्टावली जहि. भाग ६ अक ७-८ पृष्ठ २६.३० ब IA xx 351-352 २. IA, xx, 352. ३. फाह्यान, गृष्ठ ४६ । ४. फाह्यान, पृष्ठ ३१ ५. HQ. Vol. V. P. 142 ६. फाह्यान, पृष्ठ ३५-३६ ७, फाह्यान, पृष्ट ४५.४५ ८. संप्रास्मा० पृष्ठ ६५ ६. भाप्रारा० भा०२ पृष्ट २८६
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सांत्री से एक जैन लेख विक्रम सं० ४६८ भाद्रपद चतुर्थी का मिला है। उसमें लिखा है कि उन्दान के पुत्र प्रामरकार देव ने ईश्वरवासक मांव और २५ दीनारों का दान किया। यह दान काकनावोट के जैन बिहार में पांच जैन भिक्षों के भोजन के लिये और रत्नगृह में दीपक जलाने के लिये दिया गया था। उक्त प्रामरकारदेव चन्द्रगुप्त के यहां किसी संनिकपद पर नियुक्त था।' यह भी जैनोत्कर्ष का द्योतक है।
राजगृह पर भी फाह्यान निग्रथों का उल्लेख करता है । वहां की सुभद्रगुफा में तीसरी या चौथी शताब्दि का एक लेख मिला है जिसने प्रगट है कि मुनिसंघ ने मुनि वैरदेव को प्राचार्य पद पर नियुक्त किया था। राजगृहपे गुप्तकालको अनेक दिगम्बर मुर्तियां भी हैं ।
सारांशतः गुप्तकाल में दिगम्बर मुनियों का बाहुल्य भोर वे सारे देश में घूम आपकर धर्मोद्योत कर रहे थे।
(१८)
हर्षवर्द्धन तथा हुएनसांग के समय में दिगम्बर-मुनि ! "बौद्धों और जैनियों को भी..... संख्या बहुत अधिक थी। बहुत से प्रान्तीय राजा भी इनके अनुयायी थे। इनके धार्मिक-सिद्धान्त और रीति-रिवाज भी तत्कालीन समाज पर पर्याप्त प्रभाव डाले हुए थे । इनके अतिरिक्त तत्कालीन समाज में साधुनों, तपस्वियों, भिक्षुओं और यतियों का एक बड़ा भारी समुदाय था, जो उस समय के समाज में विशेष महत्व रखता था ।... ( हिन्दुओं में ) बहुत से सावु अपने निश्चित स्थानों पर बैठे हुए ध्यान-समाधि करते थे, जिनके पास भक्त लोग उपदेश आदि सुनने पाया करते थे। बहुत मे साधु शहरों व गांवों में घूम घूम कर लोगों को उपदेश एवं शिक्षा दिया करते थे। यही हाल बौद्ध भिक्षुत्रों और जैन साधुओं का भी था।......... "साधारणतः लोगों के जीवन को नैतिक एवं धार्मिक बनाने में इन साधुओं, यतियों और भिक्षुत्रों का बड़ा भारी भाग था।"
-कृष्णचन्द्र विद्यालंकार गुप्त साम्राज्य के नष्ट होने पर उत्तर-भारत का शासन योग्य हाथों में न रहा । परिणाम यह हुआ कि शीघ्र ही हण जाति के लोगों ने भारत पर आक्रमण करके उस पर अधिकार जमा लिया। उनका राज्य सभी धर्मों के लिये थोड़ा बहुत हानि कर हा; किन्तु यशोधर्मन् राजा ने संगठन करके उन्हें परास्त कर दिया। इसके बाद हर्षवद्धन् नामक सम्राट् एक ऐसे राजा मिलते हैं जिन्होंने सारे उत्तर भारत में प्राय: अपना अधिकार जमा लिया था । और दक्षिण-भारत को हथियाने की भी जिन्होंने कोशिश की थी। इनके राजकाल में प्रजा ने संतोष की सांस ली थी और वह धर्म-कर्म की बातों की ओर ध्यान देने लगी थी।
गुप्तकाल से ही नाह्मण-धर्म का पुनरुत्थान होने लगा था और इस समय भी उसकी बाहुल्यता थी, किन्तु जैन और बौद्ध धर्म भी प्रतिभाशाली थे। धार्मिक जागति का वह उन्नत काल था । गुप्तकाल से जैन, बौद्ध और ब्राह्मण विद्वानों में बाद और शास्त्रार्थ होना प्रारम्भ हो गये थे। हर्षकाल में उनको वह उन्नतरूप मिला कि समाज में विद्वान ही सर्वश्रेष्ठ पुरुष
साधुओं, कभक्षुत्रों और का बहुत में,
१. भानारा. भा.२ पृष्ठ २६३
. "Here also the Nigantha made a pit with fire in it and poisoned the food of which he invited Buddha to partake, (The Niganthas were ascetics who went naked) -Fa-Hian, Beal PP. 110 113 यह उल्लेख साम्प्रदायिया द्वेष का द्योतक है।
३. बंविओ जस्मा. पष्ठ १६
7. "Report on the Ancient Jain Remains on the hills of Rajgir" submitted to the paiva Court by R. B. Ramprad Chanda. B. A. Ch. IV. p. 30. (Jain Images of the Gupta and pala perjod at Rajgir)
५. हर्षकालीन भारत-"त्याग भूमि" वर्ष २ खण्ड ११० ३०१
६९५.
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श्रीचन्द्र,
गिना जाने लगा।' इन विद्वानों में दिगम्बर मुनियों का भी सद्भाव ! सम्राट हर्ष के राज कवि बाण ने अपने ग्रन्थों में उनका उल्लेख किया है । बह लिखता है कि "राजा जब गहन जंगल में जा पहुंचा तो वहां उसने अनेक तरह के तपस्वी देखे । उनम नम्न ( दिगम्बर ) आहंस ( जैन ) साधु भी थे।" हर्ष ने अपने महासम्मेलन में उन्हें शास्त्रार्थ के लिए बुलाया था और वह एक बड़ी संख्या में उपस्थित हुए थे। इससे प्रकट है कि उस समय हर्ष की राजधानी के पास-पास भी जैन धर्म का प्राबल्य था, बैसे तो बह सारे भारत में फैला हुआ था। उज्जैन का दिगम्बर जैन संघ अब भी प्रसिद्ध था और उसमें तत्कालीन निम्न दिगम्बर जैनाचार्य मौजूद थे :१. श्री दिगं० जैनाचार्य महाकीति,
सन् ६२६ में प्राचार्य हुये; विष्णुनन्दि, श्रीभूषण,
1 ६७८ श्रीनन्दि, ६. देशभुषण,
इत्यादि। सम्राट हर्ष के समय में (७ वी श०) चीन देश से हुएनसांग नामक यात्री भारत पाया था। उसने भारत और भारत के बाहर दिगम्बर जैन मुनियों का अस्तित्व बतलाया है। वह उन्हें निग्रंन्य और नंगे साधु लिखता है तथा उनकी केशलञ्चनक्रिया का भी उल्लेख करता है। वह पेशावर की ओर से भारत में घुसा था। और वहीं सिंहपुर में उसने नंगे जैन मनियों को पाया था। इसके उपरान्त पंजाब के और मथुरा, स्थानेश्वर, ब्रह्मपुर, अहिक्षेत्र, कपिथ, कन्नौज, अयोध्या. प्रयाग कौशाम्बी बनारस, थावस्ती, इत्यादि मध्य देशवर्ती नगरों में यद्यपि उसने दिगम्बर मुनियों का पृथक उल्लेख नहीं किया है; परन्तु एक साथ सब प्रकार के साधुओं का उल्लेख करके उसने उनके अस्तित्व को इन नगरों म प्रकट कर दिया है। मथरा के सम्बन्ध में वह लिखता है कि पांच देव मन्दिर भी हैं, जिनमें सब प्रकार के साधु उपासना करते हैं।"; स्थानेश्वर के विषय में उसने लिखा है कि "पांच देवमन्दिर बने हैं, जिसमें नाना जाति के अगणित भिन्न धर्मावलम्बी उपासना करते हैं।" ऐसे ही उल्लेख अन्य नगरों के सम्बन्ध में उसने किये हैं।
राजगह के वर्णन में हुएनसांग ने लिखा है कि "विपुल पहाड़ी की चोटी पर एक स्तूप उस स्थान में है, जहां प्राचीनकाल में तथागत भगवान् ने धर्म की पुनरावृति की थी। आजकल बहुत से निर्गन्थ लोग ( जो नंगे रहते हैं ) इस स्थान पर पाते हैं और रातदिन अविराम तपस्या किया करते हैं तथा सवेरे से सांझ तक इस ( स्तूप) की प्रदक्षिणा करके बड़ी भक्ति से पूजा करते हैं।"
पृघडवर्द्धन (बंगाल) में वह लिखता है कि "कई सौ देवमन्दिर भी हैं, जिनमें अनेक साम्प्रदाय के विरुद्ध धर्मावलम्बी
१. भाइ०, पृ० १०३-१०४। २. दिमु०, पृ० २१ । ३. HARI., p. 270. ४. जैहिक, भा० ६ अंक ७-८ पृ० ३० ३ ]A., XX. 352.
4. Hieun Tsang found them (Jaips) spread through the whole of India and even beyond its boundaries."--AISJ.,p. 45. विशेष के लिये व्हानसांग का भारत भ्रमण ( इण्डियन प्रेस लि.) देखो।
E, "The Li-Hi (Nirgranthas) distinguish themselves by leaving their bodies naked & pulling out their heir. Their skin is all cracked, their feet are hard and chapped like cotting
-( St. Julien, Vicotia. p, 224 ) ७. हुआ०, पृ० १४३ ८. हुआ०, पृ० १८१ १. हुआs, पृ० १८६ १०. हमा, पृष्ट ४७४-४७५
tree.s"
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उपासना करते हैं। अधिक संख्या निर्गन्थ लोगों (दिगम्बर मुनियों) की है।"
समतट (पूर्वी बंगाल) में भी उसने अनेक दिगंबर साध पाये थे। वह लिखता है, "दिगंबर साधु, जिनको निग्रन्थ कहते हैं, बड़ो संख्या में पाये जाते हैं।"
ताम्रलिपि में वह विरोधी और बौद्ध दोनों का निवास बतलाता है । कर्णसुवर्ण के सम्बन्ध में भी यही बात कहता है।
कलिंग में इस समय दिगंबर जैन धर्म, प्रधान पद ग्रहण किए हुए था। हुएनसांग कहता है कि वहां 'सबसे अधिक संख्या निम्रन्थ लोगों की है। इस समय कलिंग में सेनवंश के राजा राज्य कर रहे थे, जिनका जैनधर्म से सम्बन्ध होना बहत कुछ संभव है।
दक्षिण कौशल में वह विधर्मी पौर बौद्ध दोनों को बताता है। आन्ध्र में भी विरोधियों का अस्तित्व वह प्रगट करता है।
बोल देश में वह बहुत से निर्ग्रन्थ लोग बताता है। द्रविड़ के सम्बन्ध में वह कहता है कि "कोई अस्सी देव मन्दिर और असंख्य विरोधी हैं, जिनको निग्रंथ कहते हैं।"
मासकट (मलयदेश) में वह बताता है कि "कई सौ देव-मन्दिर पीर असंख्य विरोधी हैं, जिनमें अधिकतर निग्रन्थ
लोग हैं।
इस प्रकार हुएनसांग के भ्रमण-वृत्तान्त में उस समय प्रायः सारे भारतवर्ष में दिगंबर जैन मुनि निर्वाध विहार और धर्मप्रचार करते हुए मिलते हैं।
(१६) मध्यकालीन हिन्दू राज्य में दिगम्बर मुनि "श्री धाराधिप भोजराज मुकूट प्रोताश्मरश्मिच्छटाच्छाया कुङ्कम-प-लिप्त-चरणाम्भोजात-लक्ष्मीधवः । न्यायाब्जाकरमण्डने दिनमणिशब्दान्जरोदोमणिस्थयात्पण्डित-पुण्डरीक-तरणि श्रीमान्प्रभाचन्द्रमाः ।।"
--चन्द्रगिरि शिलालेख।
राजपूत और दिगम्बर मुनि वर्ष के उपरांत उत्तर भारत में कोई एक सम्राट् न रहा; बल्कि अनेक छोटे-छोटे राज्यों में यह देश विभक्त हो गया। ना में अधिकांश राजपुतों के अधिकार में थे और इनमें दिगम्बर मुनि निर्वाध विहार कर जनकल्याण करते थे। राजपतों में अधिकांश जैसे चौहान, पड़िहार आदि एक समय जैन धर्म-भक्त थे और उनके कुल देवता, चक्रवरी, अम्बा आदि
१. हुआ. पृ० ५२६ २. हुआ० पृ० ५३३ ३. हुया पृ० ५२५-५३७ ४. हुआ०, पृ५४५ ५, वीर वर्ष ४१० ३२८-३३२ ६. हुआ०, पृ. ५४६-५५७ ७. हुआ०, १० ५७० ८. हुना० पृ० ५७२ ६. हुआ पृ० ५७४
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शासन देवियां थीं।
उत्तर भारत में कन्नौज को राजपूत-काल में भी प्रधानता रही है। वहां का राजा भोज परिहार (८४०१०ई०) सारे उत्तर भारत का शासनाधिकारी था। जैनाचार्य बप्पसरि ने उसके दरबार में पादर प्राप्त किया था।
थावस्ती, मथुरा, असाईखेड़ा, देवगढ़, बारानगर, उज्जैन आदि स्थान उस समय भी जैन केन्द्र बने हुए थे। ग्यारहवीं शताब्दि तक श्रावस्ती में जैनधर्म राष्ट्रधर्म रहा था । वहाँ का अन्तिम राजा सुहध्वजा था। उसके संरक्षण में दिगम्बर मुनियों का लोक-कल्याण में निरत रहना स्वाभाविक है।
बनारस के राजा भीमसेन जैन धर्मानुयायी थे और वह अन्त में पिहिताथव नामक जैन मुनि हये थे।
मथरा में रणतु नामक राजा जैन धर्म का भक्त था। वह अपने भाई गुणवर्मा सहित नित्य जिनपूजा किया करता था। आखिर गुणवर्मा को राज्य देकर वह जैन मुनि हो गया था ।
सरीपुर (जिला अागरा) का राजा जितशत्रु भी जैनी था। वह बड़े-बड़े विद्वानों का आदर करता था। अन्त में वह जैन मुनि हो गया था और शान्तिकीति के नाम से प्रसिद्ध हया था।
__ मालवा के परमार राजा और दिगंबर मुनि मालबा के परमारवंशी राजाओं में मुञ्ज और भोज अपनी विद्या रसिकता के लिये प्रसिद्ध हैं। उनकी राजधानी धारानगरी विद्या की केन्द्र थी। मुज के दरवार में धनपाल, पद्यगुप्त, धनञ्जय, हलायुद्ध आदि अनेक विद्वान थे। मुज नरेश से दिगम्बर जैनाचार्य महासेन ने विशेष सम्मान पाया था। मुज के उत्तराधिकारी सिंधुराज के एक सामन्त के अनुरोध से उन्होंने प्रद्युम्न चरित' काव्य की रचना की थी। कवि धनपाल का छोटा भाई जैनाचार्य के उपदेश से जैन हो गया था, किन्तु धनपाल को जैनों से चिढ़ थी। आखिर उनके दिल पर भी सत्य जैन धर्म का सिक्का जम गया और वह भी जैनी हो गये थे।
दिगम्बर जैनाचार्य घी शुभचन्द्र भी राजा मुज के समकालीन थे। उन्होंने राजा का मोह त्यागकर दिगम्बर दीक्षा ग्रहण की थी।
राजा मत के समय में ही प्रसिद्ध दिगम्बराचार्य श्री अमितगति जी हुए थे। वह मथुरा संघ के प्राचार्य माधवसेन के शिष्य थे। 'आचार्यवयं अमितगति बड़े भारी विद्वान् और कवि थे। इनकी असाधारण विद्वता का परिचय पाने को इनके अन्थों का मनन करना चाहिए । रचना सरल और सुखसाध्य होने पर भी बड़ी गम्भीर और मधुर है। संस्कृत भाषा पर इनका अच्छा अधिकार था।
'नीतिबाक्यामृत आदि ग्रन्थों के रचयिता दिगम्बराचार्य श्री सोमदेव सूरि श्री अमितगति आचार्य के समकालीन थे। उस समय इन दिगम्बराचार्यों द्वारा दिगम्बर धर्म की खूब प्रभावना हो रही थी।
१. "वीर" वर्ष ३१० ४७२ एक प्राचीन जैन गुटका में यह बात लिखी हुई है। २. भाइ, प. १०८ दिन, वर्ष २३ १०५४। ३. सप्राजरगा०, ग.० ६५। ४. जैन० प० २४२। ५. पूर्व । ६. पूर्व०, पृ० २४१ । ७. भातारा, भा०१ पृ.१००। ८. मप्रारमा० भूमिका, पृ० २० । ६. भाप्रारा० भा० १ पृ० १२०-१०४ । १०. मजैइ. १०५४-५५ ११. विको०, भा० २ १.० ६५॥ १२. बिर०, . ११५॥
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राजा भोज और दिगम्बर मुनि मुञ्ज के समान राजा भोज के दरबार में भी जैनों को विशेष सम्मान प्राप्त था। भोज स्वयं जव था, परन्तु वह जनों और हिन्दुओं के शास्त्रार्थ का बड़ा अनुरागी था।' श्री प्रभाचन्द्राचार्य का उसने बड़ा आदर किया था। दिगम्बर जैनाचार्य श्री शान्तिसेन ने भोज की सभा में सैकड़ों विद्वानों से वाद करके उन्हें परास्त किया था।
एक कवि कालीदास राजा भोज के दरबार में भी थे। कहते हैं कि उनको स्पर्द्धा दिगम्बराचार्य श्री मानलंग जी से थी। उन्हीं के उकसाने पर राजा भोज ने मानतुगाचार्य को अड़तालीस कोठों के भीतर बन्द कर दिया था, किन्तु श्री भक्तामर स्तोत्र' की रचना करते हये बह प्राचार्य अपने योगबल से बन्धनमुक्त हो गए थे। इस घटना से प्रभावित होकर कहते हैं, राजा भोज जैनधर्म में दीक्षित हो गये थे; किन्तु इस घटना का समर्थन किसी अन्य श्रोत से नहीं होता!
श्री ब्रह्मदेव के अनुसार 'द्रव्यसंग्रह' के कर्ता श्री नेमिचन्द्राचार्य भी राजा भोजदेव के दरबार में थ। श्री नयनन्दि नामक दिगम्बर जैनाचार्य ने अपना "सुदर्शन चरित" राजा भोज के राजकाल में समाप्त किया था।
उज्जैनी का दिगम्बर संघ भोज ने अपनी राजधानी उज्जैनी में स्थापित की थी। उस समय भी उज्जैनी अपने "दि. जैन संघ" के लिए प्रसिद्ध थी। उस समय तक उस संघ में निम्न प्राचार्य हए थे".-.
अनन्तकोति धर्मनन्दि विद्यानन्दि रामचन्द्र रामकीति अभयचन्द्र नरचन्द्र नागचन्द्र हरिनन्दि हरिचन्द्र महीचन्द्र माघचन्द्र लक्ष्मीचन्द्र गुणकीर्ति गुणचन्द्र लोकचन्द्र श्रुतकीति
" १०२२ , भावचन्द्र
" १०३७ , महीचन्द्र
xr wrivam
६७०
१. 'मान.ED, भाग १ पृ० ११८-१२१ । २. भक्तामरकथा-प्र०, पृ० २३६ । ३. द्ररां, पृष्ट १ वृत्ति ४. मप्राजस्मा थुमिका १० २० ५. जहि, भा० ६ अंक ५-८ पृ० ३०-३१ ६. ईहर में प्राप्त पट्टावली में लिखा है कि “इ हाने दश वर्ष विहार किया था और यह स्थिर ती थे।"-द्विजे. बर्ष १४ अंक १० पृ० १५-२४.
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आपके संव में दिग० मनियों की संख्या अधिक थी और आपके धर्मोपदेश के द्वारा धर्म प्रभावना विशेष हुई थो!
इनकी उपाधियां 'त्रिविधविधेश्वरवैयाकरणभास्कर-महा-मंडलाचार्यतर्क वागीश्वर' थी। इनके बिहार द्वारा खूब प्रभावना हुई।
उपरान्त परमार राजाओं के समय में दिगम्बर मुनि मालवा के परमार राजाओं में विन्ध्यवर्मा का नाम भी उल्लेखनीय है । इस राजा के राजकाल में प्रसिद्ध जैन कवि माशाधर ने ग्रन्थ रचना की थी और उस समय कई दिगम्बर मुनि भी राजसम्मान पाये हुए थे। इनमें मुनि उदयमेन और मनि मदनकीर्ति उल्लेखनीय हैं। मुनि मदनकीर्ति ही विन्ध्यवर्मा के पुत्र अर्जुनदेव के राज गुरु मदनोपाध्याय अनुमान किये गये है। इन्हें और मनि विशालकीत्ति, मुनि विनयचन्द्र प्रादि को कविवर पाशाधर ने जैन सिद्धान्त और साहित्य ज्ञान में निपुण बनाया था। नालन्दा उस समय जैन धर्म का केन्द्र था।
श्वेताम्वर ग्रन्थ "चतुर्विशति प्रबन्ध" में लिखा है कि उज्जनी में विशाल कीति नामक दिगम्बराचार्य के शिष्य मदन कीति नामक दिगम्बर साधु थे। उन्होंने वादियों को पराजित करके 'महाप्रामाणिक पदवी पाई और कर्णाटक देश में जा कर विजयपुर नरेश कुन्ति भोज के दरबार में प्रादर पाया था और अनेक विद्वानों को पराजित किया था; किन्तु अन्त में वह मुनि पद से भ्रष्ट हो गए थे।
गुजरात के शासक और दिगम्बर मनि मालवा के अनुरूप गुजरात भी दिगम्बर जैन मुनियों का केन्द्र था । अंकलेश्वर में भूतवलि और पुष्पदन्ताचार्य ने दिगम्बर नागम ग्रन्थों की रचना की थी। गिरि नगर के निकट की गुफाओं में दिगम्बर मुनियों का संघ प्राचीन काल से रहता था। भगुकच्छ भी दिगम्बर जैनों का केन्द्र था।
गजरात में चालूक्य राष्ट्रकुट आदि राजामों के समय में दिगम्बर जैन धर्म उन्नतशोल था । सोलंकियों को राजधानी अणहिलपूरपदन में अनेक दिगम्बर मुनि थ । श्रीचन्द्र मुनि ने वहीं ग्रन्थ रचना की थी। योगचन्द्र मुनि' और मूनि कनकामर भी शायद गुजरात में हुए थे। ईडर के दिगम्बर साधू प्रसिद्ध थे।
सोलकी सिद्धराज ने एक वाद सभा कराई थी। जिसमें भाग लेने के लिए कर्णाटक देश से कुमुदचन्द्र नामक एक दिगम्बर जैनाचार्य आये थे। दिगम्बराचार्य नग्न ही गाल पहुंचे थे। शिद्ध उनका बड़ा आदर किया था। देवसरि नामक श्वेताम्बराचार्य से उनका वाद हुप्रा था | इस उल्लेख से स्पष्ट है कि उस समय भी दिगम्बर जैनों का गुजरात में इतना महत्व था कि शासक राजकुल का भी ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हुआ था।
दिगम्बराचार्य ज्ञानभूषण गुर्जर, सौराष्ट्र प्रादि देशों में जिन धर्म का प्रचार श्री दिगम्बर भट्टारक ज्ञानभूषण जी द्वारा हुआ था। अहीर देश में उन्होंने ऐलक पद धारण किया था और वाग्वर देशों में महाव्रतों को उन्होंने अंगीकार किया था। बिहार करते हुये वह कर्णाटक. तौलव, तिलंग, द्राविड़, महाराष्ट्र सौराष्ट्र, रायदेश, भेदपाद, मालव, मेवात, कुरुजांगल, तुरुव, विराटदेश, नमियाड़ देश, टग. राट, नाग, चोल प्रादि देशों में विचरे थे। तौलव देश के महावादीश्वर विद्वज्जनों और चक्रवतियों के मध्य उन्होंने प्रतिष्ठा पाई थी तरख देश में षट्दर्शन के ज्ञाताओं का गर्व उन्होंने नष्ट किया था । नमियाड़ देश में जिन धर्म प्रचार के लिए नौ हजार उपदेशकों को उन्होंने नियुक्त किया था । दिल्ली पट्ट के वह सिहासनाधीश थे। श्रीदेवराय राज, मुदिपालराय, रामनाथ राय, बोमरसराय, कलपराय, पाण्डराय आदि राजाओं ने उनके चरणों की बन्दना की थी।
१. द्विज०, वर्ष १४ अक प०१७-२४ । २. पूर्व ३. भाप्रारा० भाग १ पृ० १५७ व सागर०, भूमिका पृ०६ ४. जंहि०, भा ११ पृ. ४८५ ५. बीर वर्ष १ पृ० ६३७ ६. वीर, वर्ष १ पृ० ६३५ ७. विको०, भा० ५ पृ. १५५ ८.सिभा०, भाग १ किरण ४५-४६
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दिगम्बर जैनाचार्य श्री शुभचन्द्र श्री ज्ञानभषण जी के प्रशिष्य श्री शुभचन्द्राचार्य भी दिगम्बर मुनि थे । उनका पट्ट भी दिल्ली में रहता था। उन्होंने भी विहार करते हुए गुजरात के वादियों का मद नष्ट किया था । वह एक अद्वितीय विद्वान और वादो थे । अनेक ग्रन्थों को उन्होंने रचना की थी। पट्टावलो में उनके लिए लिखा है कि "बद्द छन्द-अलंकारादि शास्त्र--समुद्र के पारगामो, शुद्धात्मा के स्वरूपचिन्तन करने ही से निद्राको विनिष्ट करने वाले, सब देशों में विहार करने से अनेक काल्याणों को पाने वाले, विवेक विचार, चतुरता, गम्भीरता, धीरता, वीरता और गुणगण के समुद्र, अकृष्ट पात्र बाले, अनेक छात्रों का पालन करने वाले, सभी विद्वतमण्डली में सुशोभित शरीर वाले, गोड़वादियों के अन्धकार के लिए सूर्य के समान, कलिंगवादोरूपी मेष के लिए वायु के से, कर्णाटवादियों के प्रथम वचन खण्डन करने में परम समर्थ, पूर्वबादीरूपी मातंग के लिए सिंह के से, तौल वादियों की विडम्बना के लिए वोर, गुर्जर वादिरूपी समुद्र के लिए अगस्त्य के से, मालववादियों के लिए मस्तकाल, अनेक अभिमानियों के गर्व का नाश करने वाले, स्वसमय तथा परसमय के शास्त्रार्थ को जनाने वाले और महावत अंगीकार करने वाले थे।"
बारा नगर का विगम्बर संघ उज्जैन के उपरान्त दिगम्बर मुनियों का केन्द्र विन्ध्याचल पर्वत के निकट स्थित वारा नगर नामक स्थान हो गया था ।वारा एक प्राचीन काल से ही जनधर्म का गढ़ था। पाठवी या नवों दाताब्दि में वहां श्री पद्मनन्दि मुनि ने 'जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति' की रचना की थी। इस ग्रन्थ को प्रशस्ति में लिखा है कि "यारा नगर में शान्ति नामक राजा का राज्य था। वह नगर धमधान्य से परिपूर्ण था। सम्यग्दृष्टि जनों से, मुनियों के समूह से और जैन मन्दिरों से विभूषित था। राजा शान्तिजिनशासनवत्सल, बीर और नरपति संपूजित था। श्री पद्मनन्दिजी ने अपने गुरु व अन्य रूप इन दिगम्बर मुनियों का उल्लेख किया है। वारनंदिर, बलनंदि, ऋषिविजयगुरु, माघनंदि, सकलचन्द्र और श्रीनन्दि। इन्हीं ऋषियों की शिष्य परम्परा म उपरान्त वारा नगर में निम्नलिखित दिगम्बराचार्यों का अस्तित्व रहा था-- माषचन्द्र
सन् २०५३ ब्रह्मनन्दि
"१०७ १. जैसिभा०, भा०१ कि० ४ १०४६-५०--
'छन्दोलकारादि मास्त्ररिस्पतिवार, प्राप्ताना, शुद्धचिद् पचिन्तन विनाशिनिद्राणा, सर्वदेशविहाराबाजानेकमद्राणं विवेकविचार चातुय्य गाम्भोरबंघर्यवीर्यमुरणमणसमुद्राणा, उत्कृष्टपात्राणां, पालितानेक शच्छात्रारणा, विहितानकोत्तमपात्राणाम् सकलविहज मराभायोभितगाबा गौड़वादितमः सूर्य, कलिंगवादिजलदसदागति, करटवाघ्रिथमवचन' खण्डनसमर्थ, पूर्ववादि मतमातंगमगेन्द्र, तौलबादिबिडम्बननीर, गुर्जर वादिसिन्धकुम्भोद्भव, मालववादिमस्तकशूल, जितानेका खर्वगर्वत्रादन वाधराणां ज्ञानस कलस्वसमयपरसमय शास्त्रार्थानां, अंगीकृतमहावतानाम् ।"
२. IA xx 354-354. ३. "सिरिनिलओ गुगासहियो रिसिविजय गुत्ति बिकवाओ।"
"सब संजमसंपणो विकलाओ माघनदिनुरु ।" 'रणवरिषयमसीलकलिदो गुणउत्तो सयलचन्द गुरु ।" "तस्सेव य वरसिस्सो गिम्मनावरणाचा गंजसो । सम्ममणमुद्रा सिरिणंदिगुरुत्ति बिक्खाओ ।। १५६ ।।" पंचाचार समग्गो छज्जीवदयावरो बिगद मोहो । हरिस-विसाय-विहूणा शामरण य वीरणदिति ॥१२६॥" "सम्मत्त अभिगदमणो णरणतह दसण चरित्ते य । परततिरिणयत्रमणो बलरादि मुत्ति विकलाओ ॥१६१।।" तवरियम जोगजुत्तो उज्जुत्तो पणदसण चरिते। आरम्भकरण हियो णामणे य प मरा दीत्ति ।।१६३।।" "सिरि गुरुविजय सयासे सोऊणं आगमं सुपरिसुद्धं ।"
"जिणसासराषच्छलो नीरो-गरवाद संपूजिओं-वाराणयरस्स पहुणरोत्तमोखति भूगालो सम्मादिठिजणीच मुणिगरपरिणबहेहि मंडियं रम्म।" इत्यादि । —जम्बूद्वीप प्राप्ति; जैसा सं०, भाग १ अंक ४ पृ. १५०
४. जैहि०, भाग. ६ अंक ७-८ १.० ३१ व IA Xx 354
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शिवनन्दि
॥ २०६१ विश्वचन्द्र
।। १०६८ हरिनंदि (सिंहनदि) भावनंदि
सन् ११०३ देवनादि विद्याचन्द्र सूरचन्द्र
, १११६ माघनंदि ज्ञानदि गंगकीति
॥ ११४२ इन दिगम्बराचार्यों द्वारा उस समय मध्यदेश में जन धर्म या खूब प्रचार हुया था। वि० सं० १०२५ में अल्ल नामक राजा की सभा में दिगम्बराचार्य का बाद एक श्वेताम्बर आचार्य से हना था।
चन्देल राज्य में विगम्बर मुनि चन्देल राजा मदनवमदेव के समय (१५३०-११६५ई०) में दिगम्बर धर्म उन्नतरूप रहा था । खजुराहो में घंटाई के मन्दिर बाल शिलालेख से उस समय दिगम्बराचार्य नेमिचन्द्र का पता चलता है।
तेरहवीं शताब्दि में अनन्त वीर्य मामक दिगम्बराचार्य प्रसिद्ध नैयायिक थे। उन्होंने वादियों को गतमद किया था।
इसी समय को लगभग एक गुणकीति नामक महामुनि विशद धर्म-प्रचारक थे। उन्हीं के उपदेश से पद्मनाभ नामक कायस्थ कवि ने 'यशोधर चरित्र' की रचना को थो । ५
राजपूताना, मध्यप्रान्त बंगाल प्रावि देशों के शासक और दिगम्बर मुनि अजमेर के चौहान राजारों में भी दिगम्बर जैन धर्म का आदर था। बीजोलिया के थी पायर्वनाथजी के मन्दिर को दिगम्बर मुनि पद्मनन्दि और शुभचन्द्र के उपदेश से पृथ्वीराज ने मोराकुरी गांव और सोमेश्वर राजा ने रेवाणनामक गांव भेंट
किये थे ।
चित्तौर का जैन कीर्ति स्तम्भ बहां पर दिगम्बर जैन धर्म की प्रधानता का द्योतक है। सम्राट कुमारपाल के समय वहाँ पहाड़ी पर बहुत से दिगम्बर जैन (मुनि) थे।"
दिगम्बर जैनाचार्य श्री धर्मचन्द्र जी का सम्मान और बिनय महाराणा हम्मीर किया करते थे।
झांसी जिले का देवगढ़ नामक स्थान भी मध्यकाल में दिगम्बर मुनियों का केन्द्र था। वहाँ पांचवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक का शिल्प कार्य दिगम्बर धर्म की प्रधानता का द्योतक है।
ग्वालियर में करछपघाट (कछवाहे) और पड़िहार राजाओं के समय में दिगम्बर जैनधर्म उन्नत रहा था। ग्वालियर किले को नग्न जैनमूर्तियां इस व्याख्या की साक्षी हैं । वारानगर के बाद दिगम्बर मुनियों का केन्द्रस्थान ग्वालियर हुआ था । और
१. ADJB.p. 45. २. विको भा० ७१० १६२ । ३. विको भा०५५, ६८० ४. ADJB., p. 86 ५. उपदेदोन सन्योऽयं गुरणकोति महामुनेः । कायस्थ पद्मनाभेन चरितः पूर्व सूत्रतः ।।-प्रशोघर चरित्र । ६. रा०, भा० १ पृ० ३६३ ।।
७. "It (जंन कीतिस्तम्भ ) belongs to the Digambar Jains, many of whom seem to have been upon the Hill in Kumarpal's time."
--मनास्मा०, पृ० १३५ ८. "श्रीधर्मचन्द्रोऽजनिलस्यपट्टे हमीर भूपाल समर्चनीयः ।" जैहि-भा०६ यंक ७-८ १०२६
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वहां के दिगम्बर मुनियों में सं० १२६६ के प्राचार्य रत्मकीर्ति प्रसिद्ध थे। वह स्याद्वादविद्या के समुद्र, बाल ब्रह्मचारी, तपसी और दयालु थे। उनके शिष्य नाना देशों में फैले हुए थे ।'
मध्य प्रान्त के प्रसिद्ध हिन्दू शासक कलचूरी भी दिगंबर जैनधर्म के प्राश्रयदाता थे।
बंगाल में भी दिगम्बर धर्म इस समय मौजद था, यह बात जैन कथानों से सपाट है । 'भक्तामर कथा' में चम्पापर का राजा कर्ण जैनी लिखा है। भ० महावीर की जन्म नगरी विशाला का राजा लोकपाल जनी था। पटना का राजा धावाबालन श्री शिवभूषण नामक मूनि के उपदेश से जनी हया था। गौड़श का राजा प्रजापति वावधर्मों था; परन्तु जनसाध मनि. सागर की वादशक्ति पर मुग्ध होकर प्रजासहित जनी हुया था | इस समय का जी जैन शिल्प बंगाल प्रादि प्रांतों में मिलता है, उससे उक्त जैन कथाओं का समर्थन होता है। प्राज तक वंगाल में प्राचीन श्रावक 'सराक' लोगों का बड़ी सम्या में मिलता वहाँ पर एक समय दिगम्बर जैनधर्म की प्रधानता का द्योतक है।
इस प्रकार मध्यकाल के हिन्दु राज्यों में प्रायः समग्र उत्तर भारत में दि० मुनियों का विहार और धर्म प्रचार होना था पाठवीं शताब्दि के उपरान्त जब दक्षिण भारत में दिगम्बर जैनों के साथ अत्याचार हान लगा, तो उन्होंने अपना केन्द्रस्थान उत्तर भारत की मोर बढ़ाना शुरू कर दिया था। उज्जैन, वारानगर, ग्वालियर यादि स्थानों का जन केन्द्र होना. उस दीवार का द्योतक है । ईस्वी ६-१० शताब्दि में जब अरब का सुलेमान नामक यात्री भारत में आया तो उसने भी यहां नंगे साधनों को एक बड़ी संख्या में देखा था। सारांशतः मध्यकालीन हिन्दू काल में दिगम्बर मुनियों का भारत म वाइल्य था।
भारतीय संस्कृत-साहित्य में दिगम्बर मुनि
"पाणिः पात्रं पवित्र भ्रमणपरिगतं भैक्षमक्षय्यमन्न। विस्तीर्ण बस्त्रमाशा सुदश कममल तल्पमस्वल्पमूवी॥ येषां निःसंग तांगी करणपरिणति: स्वात्मसन्तोषिनास्ते । धन्याः सन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्मनिम लयन्ति ।।
-वैराग्यशतक । भारतीय संस्कृत साहित्य में भी दिगम्बर मुनियों के उल्लेख मिलते हैं। इस साहित्य से हमारा मतलब उस सर्वसाधारणोपयोगी संस्कृत साहित्य से है, जो किसी खास सम्प्रदाय का नहीं कहा जा सकता। उदाहरणतः कविवर भूत हरि के शतकत्रय को लीजिये । उनके 'वैराग्यशतक' में उपरोक्त श्लोक द्वारा दिगम्बर मुनि को प्रसंसा इन शब्दों में की गई है कि "जिनकी हाथ ही पवित्र बर्तन है, मांग कर लाई हुई भीख ही जिनका भोजन है, दशा दिशायें ही जिनके वस्त्र हैं, सम्पूर्ण पथ्वी ही जिनका शय्या है, एकान्त में नि:संग रहना ही जो पसन्द करते हैं, दीनता को जिन्होंने छोड़ दिया है तथा कर्मों को जिन्होंने निर्मल कर दिया है और जो अपने में ही संतुष्ट रहते है, उन पुरुषों को धन्य है ।" आगे इसी 'शतक' में कविवर दिगम्बर मुनिवत् चर्या करने की भावना करते हैं:--
१. हि , भा०६ अंक ७-८ पृ. ७६; २. जपा०, पृ० २४०-२४३
३. “In India there are persons, who, in accordance with their profession, Wander in the woods and mountains and rarely cominunicate with the rest of mankind.........Some of them ga about naked."
-Sulaiman of Arab, Elliot., I. p.6 ४. वेजे०, पृ. ४६
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अशीमहिवय भिक्षामाशा वासोवसीमहि।।
शयी महि मही पृष्ठे कुर्वीमहि किमीश्वरैः ।।१०।। अर्थात-"अब हम भिक्षा हो करके भोजन करेंगे, दिशा ही के वस्त्र धारण करेगे अर्थात् नग्न रहेंगे और भूमि पर ही शयन करेंगे । फिर भला हमें धनवानों से क्या मतलब ?" इस प्रकार के दिगम्बर मुनि को कवि क्षमादि गुणलीन अभय प्रकट करते हैं: --
धर्य यस्य पिता क्षमा च जननी शान्तिपिचरंगेहिदी। सत्य मित्र मिदं दया च भगिनी भ्रातामनः संयमः ।। शय्या भूमितल दिशोऽपि वसनं ज्ञानामृतं भोजन ।
ह्यते यस्यकुटंबिनो बद सखे कस्माद्भयं योगिनः ।।१८।। अर्थात ...-"धर्य जिसका पिता है. क्षमा जिसकी माता है, शान्ति जिसको स्त्री है, सत्य जिसका मित्र है, दया जिसकी बहिन है, संयम किया हुमा मन जिसका भाई है, भूमि जिसकी शय्या है, दशों दिशाय हो जिसके वस्त्र है और ज्ञानामत ही जिसका भोजन है-यह सब जिसके कुटुंबी हो भला उस योगी पुरुष को किसका भय हो सकता है ?"
'वैराग्यशतक' के उपरोक्त श्लोक स्पष्टतया दिगम्बर मुनियों को लक्ष्य करके लिखे गये हैं। इनमें वर्णित सब ही लक्षण जैन मुनियों में मिलते हैं।
'मुद्राराक्षस' नाटक में क्षपणक जीवसिद्धि का पार्ट दिगम्बर मुनि का द्योतक है । वहां जोवसिद्धि के मुख से कहलाया गया है कि
"सासणमलिहंताणं पडिवजह मोहवाहि वेज्जाणं ।
जेमुत्तमात्तकडु पच्छापत्थं मुपदिसन्ति ।।१८॥४॥" अर्थात-"मोहरूपी रोग के इलाज करने वाले अर्हतों के शासन को स्वीकार करो, जो महतं मात्र के लिए कड़वे हैं, किंतु पीछे से पथ्य का उपदेश देते हैं।" इस नाटक के पांचवें अंक में जीवसिद्धि कहता है कि
"अलहताणं पणमामि जेदेगंभीलदाए बुद्धीए ।
लोउत लेहि लोए सिद्धि मग्गेहि गच्छन्दिः ॥२॥ भावार्थ- "संसार में जो बुद्धि की गंभीरता से लोकातीत (अलौकिक मार्ग से मुक्ति को प्राप्त होते हैं, उन प्रहन्तों को मैं प्रणाम करता हूँ।"
'भूद्राराक्षस' के इस उल्लेख से नन्दकाल में क्षपणक-दिगम्बर मुनियों के निर्वाध बिहार और धर्म प्रचार का समर्थन होता है। जैसे कि पहले लिखा जा चुका है।
'वराहमिहिर संहिता' में भी दिगम्बर मुनियों का उल्लेख है। उन्हें वहां जिन भगवान का उपासक बताया है। वराहमिहिर के इस उल्लेख से उनके समय में दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व प्रमाणित होता है। अर्हत् भगवान की मूर्ति को भी वह नग्न ही बताते हैं।
१. वेजै०, पृ०० ४७ २. वेज, पृ० ४७ ३. HDW.. p. १.. ४. वेज, पृ० ४०-४१ ५. "शाक्यान् सर्वहितस्य शान्ति मनसो नग्नान जिनानां विदुः" ।।१६।।६१।। ६. "जाजानु लम्बबाहुः श्रीवत्सांकः प्रशान्तमूर्तिश्च । दिग्यासास्तरुणो रुपवांश्च कार्योऽहंता देवः ।।४५।।१८।।
-वराहमिहिर संहिता।
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कवि दण्डिन (पाठवीं श०) अपने "दशकुमारचरित" में दिगम्बर मनि का उल्लेख 'क्षपणक' नाम से करते हैं। जिससे उनके समय में नग्नमुनियों का होना प्रमाणित है ।।
"पञ्चतन्त्र' (तन्त्र ४) का निम्न श्लोक उस काल में दिगंबर मुनियों के अस्तित्व का द्योतक है :-- "स्त्रीमद्रां मकरध्वजस्य जयिनी सर्वार्थ सम्पत करौं । चे मूढाः प्रविहाय यान्ति बुधियो मिथ्या फलांवेषिणः ।। ते तेनैव निहत्य निर्दयतर नग्नीकृता मण्डिताः । केचिद्रवतपटीकृताश्च जटिला: का पालिकाश्चापरे ।।"
‘पञ्चतन्त्र" के "अपरीक्षितकारक पञ्चमतन्त्र" की कथा दिगम्बर मुनियों से सम्बन्ध रखती है। उससे पाटलिपुत्र (पटना) में दिगंबर धर्म के अस्तित्व का बोध होता है । कथा में एक नाई को क्षपणक विहार में जाकर जिनेन्द्र भगवान की वन्दना और प्रदक्षिणा देते लिखा है। उसने दिगम्बर मुनियों को अपने यहां निमन्त्रित किया, इस पर उन्होंने आपत्ति को कि श्रावक होकर यह कहते हो ? ब्राह्मणों की तरह यहां आमन्त्रण कसा? दि० मुनि तो पाहार वेला पर घूमते हुये भक्त श्रावक के यहां शुद्ध भोजन मिलने पर विधि पूर्वक ग्रहण कर लेते हैं । इस उल्लेख से दिगम्बर मनियों के निमन्त्रण स्वीकार न करन और आहार के लिये प्रभण करने के नियम का समर्थन होता है । इस तन्त्र में भी दिगम्बर मुनि को एकाकी, गृहत्यागो, पाणिपात्र भोजी और दिगम्बर कहा है ।।
"प्रबोधचंद्रोदयनादक" के अंक ३ में निम्नलिखित वाक्य दिगम्बर जैन मुनि की तत्कालीन बाहुल्यता के बोधक हैं :---
''सहि पेक्ख पेक्ख एसो गलतमल पंक पिच्छिलवी-हच्छदेहच्छवीउल्लुञ्चि अचिउरो मुक्कवसणवेसदुद्दसणो सिहिसिहृदपिच्छमाहत्थो इदोज्जेब पडिवहदि ।"
भावार्थ-"हे सखि देख, दन्य, बह इस पोर पा रहा है। उसका शरीर भयंकर और मलाच्छन्न है । शिर के बाल लञ्चित किये हये हैं और वह नंगा है। उसके हाथ में मोरपिच्छिका है और वह देखने में अमनोश है।" इस पर उस सखी ने कहा कि
'प्रां ज्ञातं मया, महामोहप्रवत्तितोऽयं दिगंबर सिद्धांतः।"
(ततः प्रविशति यथानिद्दिष्ट: क्षपणकवेशो दिगम्बर सिद्धांतः) भावार्थ---"मैं जान गई ! यह मायामोह द्वारा प्रवर्तित दिगम्बर (जैन) सिद्धान्त है।" (क्षपणकवेष में दिगम्बर मुनि ने वहां प्रवेश किया।
नाटक के उक्त उल्लेख से इस बात का भी समर्थन होता है कि दिगम्बर मुनि स्त्रियों के सम्मुख घरों में भी धर्मोपदेश के लिये पहुंच जाते थे।
गोलाध्याय" नामक ज्योतिप में दिगम्बर मुनियों की दो सूर्य और दो चन्द्रादि विषयक मान्यता का उल्लेख जसका निर्सन किया गया है। इस उल्लेख से 'गोलाध्याय' के कता के समय में दिगम्बर मनियों का बाहल्य प्रमाणित होता भोलाध्याय के टीकाकार लक्ष्मीदास दिगंबर सम्प्रदाय से भाव "जनों" का प्रकट करते हैं और कहते हैं कि "जैनों में --.-..--.-- -- - - ---- ---- - - - -. .---. .
१. वीर, वर्ष २ पृ० ३१७ २. पल नियसागर प्रेस सं० १६०२ पृ० ११४-IG. XIV 124.
पण बिहारं गत्वा जिनेन्द्रस्य प्रदक्षिरण त्रयं विधाय"""| "भोः श्रावक, धर्मशोषि किमेवं वदसि । कि वयं ब्राह्मणसमाना: यत्र आमन्त्रण करोपि । वयं सदैव तत्काल परिचर्यया भ्रमन्तो भक्तिभाज थावकमवलोक्य तस्य गहे गच्छामः ।.."पत.. ५.२६ JG: XIV. 126-130 ४. 'गवाकीगृहमत्यतः पाणिपाचे दिगम्बरः।' ५. प्रबोध चन्द्रोदय नाटक अंक ३-JG., XIV. pp. 46-50.
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दिगंबर प्रधान थे।"१
संस्कृत साहित्य के उपरोक्त उल्लेखों से दिगंबर मनियों के अस्तित्व और उनके निवांध विहार और धर्म प्रचार करने का समर्थन होता है।
दक्षिण भारत में दिगंबर जैन मुनि । "सरसा पयसा रिक्तेनाति तुच्छजलेन च । जिनजन्मादिकल्याणक्षेत्र तीर्थत्वमाथिते ।।३० नाशमेष्यति सद्धर्मो मारवीर मदच्छिदः । स्थास्यतीह क्वचित्ताते विषये दक्षिणादि के ॥४१॥"
–थी भद्रबाहुचरित्र। विगंबर जैन धर्म दक्षिण भारत में रहना निश्चित है। दिगंबर जैनाचार्य, राजा चन्द्रगुप्त ने जो स्वप्न देखा उसका फल बताते हुये कह गये हैं कि "जलरहित तथा कहीं थोड़े जल से भरे हुये सरोवर के देखने से यह सच जानो कि जहाँ तीर्थकर भगवान के कल्याणादि हुये हैं ऐसे तीर्थ स्थानों में कामदेव के मद का छेदन करने वाला उत्तम जिन धर्म नाश को प्राप्त होगा तथा कहीं दक्षिणादि देश में कुछ रहेगा भी !" और दिगंबराचार्य की यह भविष्यवाणी करीब-करीब ठीक ही उतरी है। जबकि उत्तर भारत में कभी दिगम्बर मुनियों का अभाव भी हमा, तब दक्षिण भारत में आज तक बराबर दिगंबर मनि होते आये हैं । पौर दिगंबर जैनों के श्री कुन्दकुदादि बड़े-बड़े आचार्य दक्षिण भारत में ही हुये हैं । अतः दक्षिण भारत को दिगंबर मुनियों का गढ़ कहना बेजा नहीं है।
ऋषभदेव और दक्षिण भारत अच्छा तो यह देखिये कि दक्षिण भारत में दिगंबर मुनियों का सद्भाव किस जमाने से हुया है ? जन शास्त्र बतलाते हैं कि इस कल्प काल में कर्मभूमि की आदि में श्री ऋषभदेव जी ने सर्वप्रथम धर्म का निरूपण किया था और उनके पुत्र बाहवलि दक्षिण भारत के शासनाधिकारी थे। पोदनपुर उनकी राजधानी थी। भगवान ऋषभदेव हो सर्वप्रथम वहां धर्मोपदेश देते हुये पहुंचे थे। वह दिगंबर मुनि थे, यह पहले ही लिखा जा चुका है। उनके समय में ही बाहुबलि भी राजपाट छोड़कर दिगंबर मनि हो गये थे। इन दिगंबर मुनि की विशालकाय नग्नमतियां दक्षिण भारत में अनेक स्थानों पर आज भी मौजूद हैं। श्रवण वेलगोल में स्थिति मूर्ति ५७ फीट ऊंची प्रति मनोज्ञ है; जिसके दर्शन करने देश-विदेश के यात्री पाते हैं । कारकलवे नर आदि स्थानों में भी ऐसी ही मूर्तियां हैं। दक्षिण भारत में बाहुबलि मनिराज की विशेष मान्यता है।'
१. (Goladhyaya 3, Verses 8-10)--The naked sectarians and the rest affirm that two suns two moons and two sets of stars appeas alternately; against them I allcge this reasoning. How absurd is the notion which you have formed of duplicate suns, moons, and stars, when you see the revolution of the polar fish (Ursa Minor).' The commentator Lakshamidas agree that the Jainas are here meant **& remarks that they are described as 'naked sectarians' etc. because the class of Digambaras is a principal one among these people."
-AR,, Vol. IX. p.317. २२, भन्न, पृ० ३३ ३. आदिपुराण ४. जैनिसं०, भूमिका पृ. १७-३२
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अन्य तीर्थकरों का वक्षिण भारत से सम्बन्ध
ऋषभदेव के उपरान्त अन्य तीर्थङ्करों के समय में भी दिगंबर धर्म का प्रचार दक्षिण भारत में रहा था। तेईसवें तीर्थंकर थी पार्श्वनाथजी के तीर्थ में ये राजा करकण्डु ने आकर दक्षिण भारत के जैन तीथों को वन्दना की थी। मलय पर्वत पर रावण के वंशजों द्वारा स्थापित तीर्थंकरों की विशाल मतियों की भी उन्होंने वन्दना की थी। वहीं बाहबलि की और औपाश्र्वनाथजी की मतियां थीं जिनको रामचन्द्रजी ने लंका से लाकर यहाँ स्थापित किया था। अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने भी अपने पुनीत चरणों से दक्षिण भारत को पवित्र किया था। मलयपर्वतवती हेमांगदेश में जब वीर प्रभ पहने थे तो वहाँ का जीवन्धर नामक राजा उनके निकट दिगंबर मुनि हो गया था । इस प्रकार एक अत्यन्त प्राचीनकाल से दिगंबर मुनियों का सद्भाव दक्षिण भारत में है।
दक्षिण भारत के इतिहास के काल किन्तु प्राधनिक इतिहास-वेत्ता दक्षिण भारत का इतिहास ईसवी पूर्व छठी या चौथी शताब्दि से प्रारम्भ करते हैं और उसे निम्न प्रकार, भागों में विभक्त करते हैं :
(१) प्रारम्भिक काल-ईस्वी ५ वीं शताब्दि तक; (२) पल्लबकाल-ई०५वीं से वीं शताब्दि तक (३) चोल अभ्युदय काल-ई० ६ वों से १४ वीं शताब्दि तक; (४) विजयनगर साम्राज्य का उत्कर्ष-१४ वो से १६ वीं स० (५) मुसलमान और मरहट्ठा काल-१६ वीं से १० वीं श० (६) ब्रिटिश काल-१८ वीं से १६ दी श०ई० दक्षिण भारत के उत्तर सीमावर्ती प्रदेश के इतिहासके छ: भाग इस प्रकार हैं(१) आन्ध्र काल-ई. ५ वी श० तक (२) प्रारम्भिक चालुक्य काल-ई०५ वी से ७ वीं श० पौर राष्ट्रक्ट ७वीं से १० वीं श० (३) अन्तिम चालुक्य काल –ई० १० बों से १४ वीं श० (४) विजयनगर साम्राज्य (५) मुसलमान-मरहट्ठा (६) ब्रिटिश काल ।
प्रारम्भिक काल में दिगम्बर मुनि अच्छा तो उपरोक्त ऐतिहासिक कालों में दिगम्बर जैन मुनियों के अस्तित्व को दक्षिण भारत में देख लेना चाहिये । दक्षिण भारत के "प्रारम्भिक काल" में चेर, चोल, पाण्ड्य-यह तीन राजवंश प्रधान थे। सम्राट अशोक के शिलालेख में भी दक्षिण भारत के इन राजवंशों का उल्लेख मिलता है । चेर, चोल और पाण्ड्य-यह तीनों ही राजवंश प्रारम्भ से जैन धर्मानुयायी थे। जिस समय करकण्ड राजा सिंहल द्वोप से लीट कर दक्षिण भारत-द्राविड़ देश में पहुंचे तो इन राजाओं से उनकी मुठभेड़ हुई थी। किन्तु रणक्षेत्र में जब उन्होंने इन राजाओं के मुकुटों में जिनेन्द्र भगवान की मूत्तियां देखी तो इनसे सन्धि
१. करवण्डु चरित् संधि ५ २. जशिसं, भूमिका पृ०६६ ३. भमब०, पृष्ट १६ ४. SAL., p.31 ५. SAI., P.33 ६. वयोदश शिलालेख
6. "Pandya Kingdom can boast of respectable antiquity. The prevailing religion in early times in their Kingdom was Jain creed. --मर्जस्मा पृ०, १०५
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कर ली' । कलिंगचक्रवर्ती ऐल खारबेल जैन थे। उनकी सेवा में इन राजानों में से पाण्ड्यराज ने स्वतः राज-भट भेजी थी। इससे भी इन राजाओं का न होना प्रमाणित है, क्योंकि एक श्रावक का थावक के प्रति अनुराग होना स्वाभाविक है और जब ये राजा जैन थे तब इनका दिगंबर जैन मुनियों को प्राश्रय देना प्राकृत आवश्यक है।
पाण्ड्यराज उग्रपेरूवलूटी (१२८-१४० ई.) के राजदरबार में दिगंबर जैनाचार्य श्री कुन्दकुन्द विरांचत तामिलग्रन्य "कुरल" प्रगट किया गया था । जैन कथाग्रन्थों से उस समय दक्षिण भारत में अनेक दिगम्बर मुनियों का होना प्रगट है। 'करकण्डु चरित' में कलिंग, तेर, द्रविड़ आदि दक्षिणवर्ती देशों में दिगंबर मुनियों का वर्णन मिलता है। भ० महावीर ने संघसहित इन देशों में विहार किया था, यह ऊपर लिखा जा चुका है । तथा मौर्य चन्द्रगुप्त के समय भूत केवली भद्रबाह का संघ सहित दक्षिण भारत को जाना इस बात का प्रमाण है कि दक्षिण भारत में उनसे पहले दिगम्बर जैनधर्म विद्यमान था। जनग्रन्थ "राजावली कथा" में वहां दिगम्बर जैन मन्दिरों और दिगंबर मुनियों के होने का वर्णन मिलता है। बौद्धग्रन्थ 'मणिमेखले में भी दक्षिण भारत में ईस्वी की प्रारम्भिक शताब्दियों में दिगम्बर धर्म और मुनियों के होने का उल्लेख मिलता है।
'श्रतावतार कथा' से स्पष्ट है कि ईस्वी को पहली शताब्दि में पश्चिम और दक्षिण भारत दिगम्बर जैनधर्म के केन्द्र थे। श्रीधर सेनाचार्य जी का संघ गिरनार पर्वत पर उस समय विद्यमान था। उनके पास पागम ग्रन्थों को अवधारण करने के लिए दो तीक्षण-बुद्धि शिष्य दक्षिण मदरा से उनके पास आये थे और उपरान्त उन्होंने दक्षिण मदुरा में चतुर्मास व्यतीत किया था। इस उल्लेख से उस समय दक्षिण मदुरा को दिगम्बर मुनियों का केन्द्र होना सिद्ध है।
"नाल दियार" और दिगम्बर मुनि
तामिल जैन काव्य "नालदियार", जो ईस्वी पांचवीं शताब्दि की रचना है, इस बात का प्रमाण है कि पाण्डयराज का देश प्राचीन काल में दिगम्बर मुनियों का प्राश्रय स्थान था। स्वयं पाण्ड्यराज दिगम्बर मुनियों के भक्त थे। "नालदियार" की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक दफा उत्तर भारत में दुभिक्ष पड़ा। उससे बचने के लिये आठ हजार दिगम्बर मनियों का संध पाण्ड्यदेश में जा रहा । पाण्ड्य राज उन मुनियों को विद्वत्ता और तपस्या को देखकर उनका भक्त बन गया। जब अच्छे दिन आये तो इस संघ ने उत्तर भारत की ओर लौट जाना चाहा; किन्तु पाण्ड्यराज उनको सत्संगति छोड़ने के लिये तैयार न थे। आखिर उस मुनिसंघ का प्रत्येक साधु एक-एक श्लोक अपने अपने पासन पर लिखा छोड़ कर विहार कर गये। जव ये श्लोक एकत्र किये गपे तो वह संग्रह एक अच्छा खासा काव्यग्रन्थ बन गया। यही "नाल दियार' था। इससे स्पष्ट है कि पाण्ड्य देश उस समय दिग० जैनधर्म का केन्द्र था और पाण्ड्य राज कलभ्रवंश के सम्राट थे। यह कलभ्रवंश उत्तर भारत से दक्षिण में पहुंचा था और इस वंश के राजा दिगम्बर मुनियों के भक्त और रक्षक थे।
१. "तहि अस्थि विकितिय दिरणसराउ-संचल्लिर ताकरकण्डराउ ।
ता दिविढदेसुमहि अलु भमन्तु-संतत्तक नहि मछरुवहन्तु ।। तहि चोडे चोर पंडिय णिवाइ -करणा विखणड ते मिनीयाहि ।" "करकण्डएं धरियाते सिरसो सिरमन मतिय बरणेहि तहो । मउड़ महि देखिवि जिणाणिव करकण्डवोजाय उ बहुलु दुह ॥१०॥
-करकण्डूचरित् संधि २.JBORS., IIl p.446. ३. मजैस्मा०, पृ० १०५ ४. SSIJ., pp. ३२-३३ ५. श्रुता० पृ०१६-२० ६. SSIJ., p. 91 ७. मजस्मार, भूमिका पु० -६
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गङ्गवंश के राजा और दिगम्बर मुनिगण ईस्वी सरी शताब्दि में मैसूर में गंगवंशी क्षश्री राजा माधव कोंगुणिवर्मा राज्य कर रहे थे। उनके गरु दि. जैनाचाय सिंहनन्दि थे। गंगवंश की स्थापना में उक्त प्राचार्य का गहरा हाथ था। शिलाखों से प्रकट है कि इश्वाक ( सूर्य वंश) के राजा धनञ्जय को सन्तति एक गगदा नापका राजा प्रगित हगा पीर उसी के नाम से इस बंश का नाम 'गंग' बंश पड़ा था । इस गंग वंश में एक पद्मनाभ नामक राजा हुआ; जिसका भगड़ा उज्जन के राजा महीपाल से होने के कारण वह दक्षिण भारत की ओर चला गया था। उसके दो पुत्र दिग और माधब भी उसके साथ गये थे । दक्षिण में पेखर नामक स्थान पर उन दोनों भाइयों की भट कणवाण के आचार्य सिंहनन्दि से हुई। जिन्होंने उन्हें निम्न प्रकार उपदेश दिया था -
“यदि तुम अपनी प्रतिज्ञा भंग करोगे, यदि तुम जिन शासन स हटोंगे, यदि तुम पर-स्त्री का ग्रहण करोगे, यदि तुम मद्य व मांस खायोगे, यदि तुम अवमी का संमगं करोगे, यदि तुम अावश्यकता रखने वालों को दान न दोगे और यदि तुम युद्ध में भाग जाओगे तो तुम्हारा वंश नष्ट हो जायगा।'
दिगम्बराचार्य के इस माहरा बढ़ाने वाले उपदंश को दिन और माधव ने शिरोधार्य किया और उन प्राचार्य के सहयोग से वह दक्षिण भारत में अपना राज्य स्थापित करने में सफल हुए थे। उपरान्त इस वंश के सभी राजाओं ने जैनधर्म का प्रभाव बढ़ाने का उद्योग किया था। दिगम्बर जैनाचार्य की कृपा से राज्य पा लेने की याददास्त में इन्होंने अपनी ध्वजा में "मोरपिच्छिका" का चिह्न रक्त्रा था, जो दिगम्बर मुनियों के उपकरणों में से एक है।
गंगवंशी अविनीत कोगुणी ( सन् ४२५-४७८ ) ने गुन्नाट १०००० में जैन मुनियों को भूभिदान दिया था। गंगवंशी दुर्वनीति के गुरु 'शब्दावतार' के का दिगम्बराचार्य धो पूज्यपाद थे।
कादम्ब राजागण दिग० मुनियों के रक्षक थे महाराष्ट्र और कोन्कन देशों को और उस समय कादम्ब वंश के राजा लोग उन्नत हो रहे थे। यह वंश (१) गोग्रा पार ( २) बनवासो, एसे दो शाखाओं में बंटा हुआ था और इसमें जैनधर्म की मान्यता विशेष थी। दिगम्बर गुरुयों को विनय कादम्ब राजा खूब करते थे । एक विद्वान् लिखते हैं कि
"Kadamba Kings of the middle period Mrigesa to Harivarma were unadle to resist the onset of Jainism; as they had to dow to the "Sapreinc Arlats" anb cndow lavishly the Jain ascetic groups. Numerous sects of Jaina priests, such as the Yapiniyas, the Nirgranthas and the Kurchakas are found living at .Palasika. (IA. VI]. 36-37). Again Svetpatas and Aharashti are also mentioned. (lbid. VI. 31) Baravase and Palasika were thus crowded centres of Powerful Jain monks. Four Jaina Mss. named Jayadhavala, Vilaya Dhavala, Atidhavala and Mahadhavia written by Jaina Guaus Virascoa and Jinasena living at Banavase during the rule of the early Badambas were reccitly discovered."
-QJMS. XXII. p. 61-62 अर्थात्-"मध्यकाल के मृगेश से हरियर्मा तक कदम्ब बशी राजागण जनधर्म के प्रभाव से अपने को बचा न सके। 'महान् अहंतदेव' को नमस्कार करते और जेन साधु संधों को खूब दान देते थे। जैन साधुनों के अनेक संघ जैसे यापनीय निग्रन्थ और कर्चक कादम्बों की राजधानी पालाशिक में रह रहे थ । श्वेतपट" और अहराष्टि संघा के वहां होने का उल्लेख भी मिलता है। इस तरह पालाशिक श्रीर बनवासी सबल जन साधुओं से वेष्टित मुख्य जन केन्द्र थे । दिगम्बर जैन
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१. रा०, परिचय, पृ० १६५ २. मर्जस्मा, पृ० १४६.१४७ ३. मजैस्मा०, पृ. १४६ ४. यापनीय संघके मुनिगण दिगम्बर भेष में रहते थे, यद्यपि वे स्त्री मुक्ति आदि मानते थे। देखो दर्शनसार ५. 'निग्न न्य- दिगम्बर मुनि ६. कनक किन जैन साधुओं का शेतक है यह प्रकट नहीं है। ७. मवेतपटः श्वेताम्बर ८. अहराष्टि संभवतः दिगम्बर मुनियों का द्योतक है । शायद 'अह्रीवा' शब्द में इसका निकास हो ।
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गुरु वीरसेन और जिनसेन ने जिन जयधवल, विजयधवल, अतिधवल और महाधवल नामक ग्रन्थों की रचना बनवासी में रहकर प्रारम्भिक कदम्ब राजारों के समय में की थी, उन चारों प्रत्यों की प्रतियां हाल ही में उपलब्ध हुई हैं।"
प्रो० शेषगिरि राउ इन प्रारम्भिक कदम्वों को भी जैनधर्म भक्त प्रकट करते हैं। उनके राज्य में दिगम्बर जैन मुनियों को धर्म प्रचार करने की सुविधायें प्राप्त थीं । इस प्रकार कदम्ब वंशी राजाओं द्वारा दिगम्बर मुनियों का समुचित सम्मान किया गया था।
पल्लबकाल में दिगम्बर मुनि एक समय पल्लव वंश के राजा भी जैनधर्म के रक्षक थे। सातवीं शताब्दि में जब ह्वानसांग इस देश में पहुँचा तो उसने देखा कि यहां दिगम्बर जैन साधुआं ( निग्रन्थों की संख्या अधिक है पल्लव वंश के शिवरकंदवर्मा नामक राज्य के गुरु दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द थे। उपरान्त इस बंश का प्रसिद्ध राजा महेन्द्रसम्मन् पहले जन था धीर दिगम्बर साधनों की विनय करता था।
चोल देश में दिगम्बर मुनि चोल देश में भी उस चीनी यात्री ने दिगंवर धर्म प्रचलित पाया था । मलकट । पाण्ड्यदेश ) में भी उसने नंगे जैनियों को बहुसंख्या में पाया था । सातवीं शताब्दि के मध्यभाग में पाण्ड्यदेश का राजा कुण या मुन्दर पाण्ड्य दिगम्बर मुनियों का भक्त था। उसके गुरु दिगम्बर वार्य श्री अमलकाति थे और उसका विवाह एक चाल राजकुमारी के साथ हुमा था, जो शैव थी। उसी के संसगं समुन्दर पाण्ड्य भी शैव हो गया था ।
वशवीं शतक प्राय: सब राजा दिगा जैनधर्म के प्राश्रयदाता थे सच बात तो यह है कि दक्षिण भारत में दिगम्बर जैनधर्म को मान्यता ईस्वी दसवीं शताब्दि तक खूब रही थी। दिगम्बर मुनिगण सर्वत्र विहार करके धर्म का उद्योत करते थे। उसी का परिणाम है कि दक्षिण भारत में आज भी दिगम्बर मुनियों का सद्भाव है। मि० राइस इस विषय में लिखते हैं कि--
"For more than a thousand years after the begining of the Cliristian cra, Jainism was the religion professed by most of the rulers of the Kanarese people. The Ganga Kings of Talkad, the Rasthitra Kuta Kalachurya Kings of Minyaklct and the early Hoysalas were all Jains. The Brahmapical Kadainha and caily Chalukya Kings were tolerant of Jainism The Pandya Kings of Madura were Jainas and Jainism was dominant in Gujerat and Kathiawar."
भावार्थ-स्विी सन के प्रारम्भ होने से एक हजार से ज्यादा वर्षों तक कन्नट देश के अधिकांश राजानों का मत जैनधर्म था। सलवांड के गंग राजागण, मान्यम्बट के राष्ट्रकट और कलाचयं शाराक और प्रारंभिक होयसल न् । सब हो जनी थे। ब्राह्मण मत को मानने वाले जो कादंव राजा थे उन्होंने और प्रारमा के चालस्यों ने जैन धर्म के प्रति उदारता का परिचय दिया था। मदुरा के पाण्ड्यराजा जैन हः थे और गुजरात तथा काठियावाड़ में भी जैन धर्म प्रधान था। - - --- -
१. SSIJ., pt. ll p.69-72 २. P.S. Hist. Intro., p.XV ३. EHI. p. 495 ४. हुमा०, पृ० ५७० ५. हुश्रा पृ० ५७४-."The nude Jainas were present in multitudes'"-LHI P. 473 ६. ADJBp. 46 ७. EHI p. 475 ८. IKL., p. 16
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मान्ध्र और चालुक्य काल में दिगम्बर मुनि आन्ध्रवंशी राजांगों ने जैन धर्म को आश्रय दिया था, यह पहले लिखा जा चुका है । चोल' और चालुक्य अभ्युदय काल में दिगम्बर धर्म प्रचलित रहा था। चालुक्य राजाओं में पुलकेशी द्वितीय, विनयादित्य, विक्रमादित्य आदि ने दिगम्बर विद्वानों का सम्मान किया था। विक्रमादित्य के समय में विजय पंडित नामक दिगम्बर जैन विद्वान एक प्रतिभाशाली वादी थे। इस राजा ने एक जैन मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था।' चालुक्यराज गोबिन्द तृतीय ने दिगम्बर मुनि अर्कक्रीति का सम्मान किया और दान दिया था। बह मुनि ज्योतिष विद्या में निपण थे। गिराज चौलुक्य विजयादित्य ६म के रूप दिगंवराचार्य पहननन्दि थे । इन प्राचार्य की शिप्या चागेकाम्बा के कहने पर राजा ने दान दिया था। सारांश यह कि चालूक्य राज्य में दिगम्बर मुनियों और विद्वानों ने मिरापद हो धर्मोद्योत किया था।
राष्ट्रकट काल में दिगम्बर मुनि राष्ट्रकट अथवा राठौर राजबंश जैन धर्म का महान् आश्रयदाता था। इस वंश के कई राजारों ने प्रणवतों और महाव्रतों को धारण किया था, जिसके कारण जैन धर्म को विशेष प्रभावना हुई थी। राष्ट्रकूट राज्य में अनेकानेक दिग्गज विद्वान दिगंबर मुनि विहार और धर्मप्रचार करते थे। उनके रचे हुए अनूठे सन्थ रत्न प्राज उपलब्ध हैं। श्री जिमसेनाचार्य का "हरिवंशपुराण', श्री गुणभद्राचार्य का "उत्तर पुराण", श्री महावीराचार्य का 'गणिससार संग्रह" प्रादि ग्रन्थ राष्ट्रकट राजारों के समय की रचनायें हैं। इन राजामों में प्रमोघवर्ष प्रथम एक प्रसिद्ध राजा था। उसकी प्रशंसा अरब के लेखकों ने को है और उसे संसार के श्रेष्ठ राजामों में गिना है । वह दिगंबर जैनाचार्यों का परम भक्त था।
सम्राट् प्रमोघ बर्ष दिगम्बर मुनि थे उसने स्वयं राज-पाट त्याग कर दिगंबर मनि का व्रत स्वीकार किया था। उसका रचा हआ रत्नमालिका एक प्रसिद्ध सभाषित ग्रन्थ है। उसके गुरु दिगम्बराचार्य श्री जिनसेन थे, जैसे कि "उत्तर पुराण' के निम्न श्लोक में मशगया वे श्री जिनसेन के चरणों में नतमस्तक होते थे:
"यस्य प्रांशु नखांशुजाल बिसरद्धारान्तराविर्भवत्पादाम्भोजराज; पिशंगमुकूट प्रत्यग्ररत्नतिः । संस्मर्ता स्वममोघवर्षनगतिः पूतोऽहमद्येत्यलं
स थीमाज्जिनसेन पूज्यभगवत्पातो जगन्मंगलम् ।।" अर्थात-"जिन थी जिनसेन के देदीप्यमान नखों के किरण समूह से फैलती हुई धारा बहती थी और उसके भीतर जो उनके चरणकमल की शोभा को धारण करते थे इनकी रज से जब राजा अमोघवर्ष के मकूट के ऊपर लगे सारी कांति पीली पड़ जाती थी तब वह राजा अमोघवर्ष अापको पवित्र मानता था श्रीर अपनी उसी अवस्था का सदा स्मरण किया करता था, ऐसे थीमान् पूज्यपाद भगवान् श्री जिनसेनाचार्य सदा संसार का मंगल करें।"
अमोघवर्ष के राज्य काल में एकान्तपक्ष का नाश होकर स्थाद्वाद मत को विशेष उन्नति हुई थी। इसलिए दिगम्बरा चार्य श्री महावीर "गणितसार सग्रह" में उनके राज्य की वृद्धि की भावना करते हैं। किन्तु इन राजा के बाद
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- - -- - १. SS]J., pt.1 P. 111 २. ADIB, p, 97 व विको० , भा०५ पृ. ७६ ३. ADJB. P. 68 ४. SSIJ., pp. 11-112
Elliot.. Vol. I PP. 3-24—"The greatest king of India is the Balahara, whose na.oc im
ports 'king of Kings.' "-Ibu Khurdabh, व भाप्रारा०, भाग ३५० १३-१५ ६. 'रत्नमालिका में अमोघवर्ष ने इस बात को इन शब्दों में स्वीकार किया है:'विवेकात्यवतराज्येन राज्ञेयं रत्नभालिका ।
रविताऽमोघवर्षेण सुधियां सदल डुकृतिः ॥" ७. "विघ्तस्तकान्तपक्षस्य स्यावादन्यायवादिनः । देवस्य भूपतुगस्य बर्द्धतां तस्य शासन ॥३॥"
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की शक्ति छिन्न-भिन्न होने लगी थी। यह बात गंगावाडी के जैनधर्मानुयायी गंगराजा नरसिंह को सहन नहीं हुई। उन्होंने तत्कालीन राठौर राजा को सहायता की वो और राठोर राजा इन्द्र चतुर्थ को पुनः राज्यसिंहासन पर बैठाया था राजा इन्द्र दिगंबर जैनधर्म का अनुयायी था और उसने सल्लेखना व्रत धारण किया था ।
गंगराजा और सेनापति चामुण्डराय
इस समय गंगवाडी के गगराजाओं ने जैनोत्कर्ष के लिये खास प्रयत्न किया था। रायमल्ल सत्यवाक्य और उनके पूर्वज मारसिंह के मन्त्री घोर सेनापति दिन धर्मानुयायी वीरमा राजा चामुण्डरा थे। इस राजवंश की राजकुमारी पनिया के व्रत धारण किये थे। श्री अजितमेनाचार्य और नेमिचन्द्राचार्य इन राजाओं के गुरु थे। चामण्डराय जी के कारण इन राजाओं द्वारा जैन धर्म की विशेष उन्नति हुई थी। दिगंबर मुनियों का सर्वत्र आनन्दमई विहार होता था । '
कलचुरी वंश के राजा दिगम्बर मुनियों के बड़े संरक्षक
किन्तु गंवों का साहाय्य पाकर भी राष्ट्रकूट वंश अधिक टिक न सका और पश्चिमीय नानुस् प्रधानता पा गये । किन्तु यह भी अधिक समय तक राज्य में कर सके उनको रिया ने हरा दिया। कलचुरी वंश के राजा जैनधर्म के परम भक्त थे। इनमें दिज्जलराजा प्रसिद्ध और जैन धर्मानुयायी था। इसी राजा के समय में वासक ने "लिंगायत मत स्थापति किया था किन्तु जिन राजा की दिगम्बर जैन धर्म के प्रति स भक्ति के कारण वास अपने मत का बहुप्रचार करने में सफल न हो सका था। आखिर जय बिज्जलराज कोल्हापुर के शिलाहार राजा के विरुद्ध करने गये थे, तब इस वासव में धोखे से उन्हें विष देकर मार डाला था। और तब कहीं लिंगायत मत का प्रचार हो सका था । इस घटना से स्पष्ट है कि विज्जल दिगम्बर मुनियों के लिए कैसा आश्रय था !
होयशाल वंशी राजा और दिगम्बर मुनि
सोर के होयसाल वंश के राजागण भी दिगंबर मुनियों के आश्रयदाता थे । इस वंश की स्थापना के विषय में कहा जाता है कि साल नाम का एक व्यक्ति एक मन्दिर में एक जैन यति के पास विद्याध्ययन कर रहा था, उस समय एक शेर ने उन साधु पर आक्रमण किया। साल ने शेर को मारकर उनकी रक्षा की और वह 'होयसाल' नाम से प्रसिद्ध हुया था । " उपरान्त उन्हीं जैन साधु का आशीर्वाद गाकर उसने अपने राज्य की नींव जमाई थी, जो खूब फला फुला था। इस वंश के सबही राजाओं ने दिगंबर मुनियों का आदर किया था, क्योंकि वे सब जेन थे । होयसाल राजा विनयदित्य के गुरु दिगंबर साधु श्री शान्तिदेव मुनि थे। इन राजाओं में विहिदेव अथवा विष्णुवर्द्धन राजा प्रसिद्ध था वह भी जैन धर्म का दृढ अडानी था। उसकी रानी शान्तलदेवी प्रसिद्ध दिखराचार्य श्री प्रभाचन्द्र की शिव्या थी किन्तु उसकी एक दूसरी रानी वैष्णवज की अनुयायी थी। एक रोज राजा इस रानी के साथ राजमहल के झरोखे में बैठा हुआ था कि सड़क पर एक दिगंबर मुनि दिखाई दिये । रानी ने राजा को बहकाने के लिए यह अवसर अच्छा समझा । उसने राजा से कहा कि “यदि दिगम्बर साधु तुम्हारे गुरु हैं तो भला उन्हें बुला कर अपने हाथ से भोजन करा दो" । राजा दिगंबर मुनियों के धार्मिक नियम को भूल कर कहने लगे कि "यह कौन बड़ी बात है" । अपने हीन अंग का उसे ख्याल न रहा । दिगंबर मुनि ग्रंगहीन, रोगी श्रादि के हाथ से भोजन ग्रहण न करेंगे, इसका उसने ध्यान भी नं दिवा योर मुनिराज को पड़गाह किया। मुनिराज अंतराय हुआ जानकर वापस चले गए राजा इस पर चिढ़ गया और वह वाद धर्म में दीक्षित हो गया । किन्तु उसके वैष्णव हो जाने पर भी दिगंबर मुनियों का बाहुन्य उस राज्य में बना रहा। उसकी समपी पान्त देवी अब भी दिगंबर मुनियों की भक्त थी और उसके सेनापति तथा प्रधानमन्त्री गंगराज भी दिगंबर मुनियों के परसेवक थे उनके संसद ने अन्तिम समय में भी दिगंबर मुनियों का सम्मान किया और जैन मन्दिरों को दान दिया था उनके उत्तराधिकारी नरसिंह प्रथम द्वारा भी दिगंबर मुनियों का सम्मान हुआ था। नरसिंह का प्रधानमन्त्री ल्ल दिगवर मुनियों का परम भक्त था। उस समय दक्षिण भारत
१. SSIJ. Pt 112
३. वीर, वर्ष ७ अङ्क १-२ देखो
2. SSIJ, Pt Ip. 115
9. SSIJ. pt. p. 115 C. AR, VoL. IXp. 266
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२. मर्जेस्मा० पृ० १५० ४. जेमा० १०१५-१६ ६. मजेस्मा० पृ० १५६-१५३
. Ibid. P. 116
१०. मर्जरमा प्रस्तावना पु० १३
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में चामुण्डराय, गंगराज और हुल्ल दिगम्बर धर्म के महान प्रभावक और स्तम्भ समझ जाते थे। बल्लालराय होयसाल के गुरू श्री वासपूज्यवती थे' । राजा पुनिस होयसाल के गुरू अजीत मुनि थे ।'
विजयनगर साम्राज्य में दिगम्बर मुनि विजयनगर साम्राज्य की स्थापना आर्य-सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिये हुई थी। वह हिन्दू संगठन का एक प्रादर्श था । शैव रणव-जैन-सब ही कंधे से कंधा जुटा कर धर्म और देश रक्षा के कार्य में लगे हुए थे । स्वयं बिजयनगर सम्राटों में हरिहर द्वितीय और राजकुमार उग दिगम्बर जैन धर्म में दीक्षित होकर दिगम्बर मुनियों के महान पाश्रयदाता हये थे। दिगम्बर मुनि श्री धर्मभूषणजी राजा देवराय के गुरु थे तथा आचार्य विद्यानन्दि ने देवराज और कृष्णराय नामक राजाओं के दरबार में वाद विया था तथा विलंगी और कार-कल में दिगम्बर धर्म की रक्षा की थी। २
मुस्लिम काल में दिगम्बर मुनि मुस्लिम काल में देश त्रसित और दुखित हो रहा था। आर्यधर्म संकटाकुल थे। किन्तु उस पर भी हम देखते हैं कि प्रसिद्ध मुसलमान शासक हैदरअली ने श्रवणवेलगोल की नग्नदेवमूर्ति श्री गोमट्टदेव के लिये कई गांवों की जागीर भेंट की थी। उस समय श्रवण वेलगोल के जैन मठ में जैन साधु विद्याध्ययन कराते थे । दिगम्बराचार्य विशालकीर्ति ने सिकन्दर और बीर पक्षगय के सामने बाद किया था।
___ मैसौर के राजा और दिगम्बर मुनि मैसौर के प्रोडयरवंशी राजानों ने दिगम्बर जैनधर्म को बिशेष प्राश्रय दिया था और बाद के शासक भी जैन धर्म पर सदय रहे हैं। सत्रहवीं शताब्दि में भट्टाकलंक देव नामक दिगम्बराचार्य हदुवल्ली जैन मठ के गुरु के शिष्य और महाबादी थे। उन्होंने सर्वसाधरण में वाद करके जैन धर्म की रक्षा की थी। वह संस्कृत और कन्नड के विद्वान् तथा छ: भाषायों के ज्ञाता थे। जनरानी भैरवदेवी ने मणिपुर का नाम बदल कर इनकी स्मृति में 'भट्टाकलंकपुर' रक्खा था-वही आजकल का भटकल है।' धी कृष्णराय और अच्युतराय राजा के सम्मुख श्री दिगम्बर मुनि नेमिचन्द्र ने वाद किया था।
पण्डाईवेड राजा और दिगम्बर मुनि पुण्डी (उत्तर प्रर्काट) के तीसरे ऋषभदेव मन्दिर के विषय में कहा जाता है कि पण्डाईवेड राजा की लड़की को भूत बाधा सताती थी। उसी समय कुछ शिकारियों के पास एक दिगम्बर मुनि ने श्री ऋषभदेव की मूर्ति देखी। मुनिजी ने वह मूति उनसे ले ली। इन्हीं शिकारियों ने राजा से मुनिजी की प्रशंसा की । उस पर राजाने मुनिजी की बन्दना की और उनसे भूतबाधा दूर करने का अनुरोध किया। मुनिजी ने लड़की की भूतबाधा दूर कर दी ! राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उक्त मन्दिर बनवाया।११
दो सौ वर्ष पहले दिगम्बर मुनि दक्षिण भारत में दो सौ वर्ष पहले कई दिगम्बर मुनियों का सद्भाव था। उनमें मन्नरगुडी के पर्णकुटिबासी ऋषि प्रसिद्ध हैं। उन्होंने कई मतियों और मन्दिरों की प्रतिष्ठा कराई थी। १२ उनके अतिरिक्त संधि महामुनि और पण्डित महामुनि भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने चिताम्बुर नामक ग्राम में वहां के ब्राह्मणों के साथ वाद किया था और जैन धर्म का डण्का बजाया था। तब से वहां पर एक जैन विद्यापीठ स्थापित है । सचमुच दक्षिण भारत में एक अत्यन्त प्राचीनकाल से सिलसिलेवार दिगम्बर मुनियों का सद्भाव रहा है। प्रो० ए० एन० उपाध्याय इस विषय में लिखते हैं कि दक्षिण भारत में नियमितरूप में दिगम्बर मनि
२. गजैस्मा० पृ. १६२३. ADJB. p. 31 ५. मजैस्मा०, पृ० १६३
१. Ibid ४. SSJ., pt. 1. p. 118 ६. AR, Uol, IX, 267&SSIJ., pt, I p. 117. ७. मजैस्म पृ० १६३ ६. युजैदा भा० ११० १० ११. दिजंडा, नृ० ८५.५ १३. दिजेंडा, पृ० ८५६
C. HKL p. 83 १०. मजैस्मा०, पृ० १६३ १२. Ibid, p. 864
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होते पाये हैं। पिछरने सौ वर्षों में सिद्धरय आदि अनेक दिगम्बर मुनि इस पोर हो गुजरे हैं; किन्तु खेद है, उनकी जीवन संबन्धी बार्ता उपलब्ध नहीं है।
महाराष्ट्र देश के विगम्बर जैन मुनि हमारत की शाही महाराष्ट्र देश भी दम का केन्द्र था। वहां अब तक दिगम्बर जैनों की बाहुल्यता है । कोल्हापुर, बेलमाम आदि स्थान जनों की मुख्य बस्तियाँ थीं। कहते हैं एक मरतबा कोल्हापूर में दिगंबर मुनियों का एक बृहत् सह प्राकर ठहरा था। राजा और रानी गे भक्तिपूर्वक उसकी वन्दना की थी। दैवयोग से सङ्ग जहाँ पर ठहरा था बहाँ प्राग लग गई । मूनिगण उनमें भस्म हो गये। राजा को बड़ा पश्चात्ताप हुप्रा। उसने उनके स्मारक में १०८ दि० मन्दिर बनवाये । संघ में १०५ही दिगंबर मुनि थे। इस घटना से महाराष्ट्र में दिगंबर मुनियों की बाहल्यता का पता चलता है । सचमुच महाराष्ट्र के स्टट, चालक्य, शिलाहार आदि वंश के राजा दिगंबर जैन धर्म के पोषक थे और यही कारण है कि वहां दिगंबर मुनियों का बड़ी संख्या में विहार हा या अठारहवीं शताब्दि में हुये दो दिगंबर मुनियों का पता चलता है। मराठी के एक कवि जिनदास के गुरु विद्धान दिगम्बराचार्य श्री उज्जतकीति थे । दुसरे महतिसागर जी थे। उन्होंने स्वतःक्षल्लकवत् दीक्षा ली थी। उपरान्त देवेन्द्र कीति भट्टारक से विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण की थी। वहाड़देश में उन्होंने खुब धर्मप्रभावना की थी। गूजरों को उन्होंने जैनी बबनाया था। दही गांव उनका समाधिस्थान है, जहां सदा मेला लगता है। उनके रचे हुए ग्रन्थ भी मिलते हैं। (मजइ० पृ० ६५-७२)।
शाके ११२७ में कोल्हापुर के ग्रजरिका स्थान में त्रिभुवनतिलक चैत्यालय में श्रीविशालकोति प्राचार्य के श्री सोमदेवाचार्य ने ग्रन्थ रचना की थी।
दक्षिण भारत के प्रसिद्ध वि० जैनाचार्य दिगंबर जैनियों के प्रायः सब ही दिग्गज विद्वान् और आचार्य दक्षिण भारत में ही हुये हैं। उन सबका संक्षिप्त वर्णन उपस्थित करना यहाँ संभव नहीं है, किन्तु उसमें से प्रख्यात दिगंबराचार्यों का वर्णन यहाँ पर दे देना इष्ट है। अङ्ग-ज्ञान के ज्ञाता दिगंबराचार्यों के उपरान्त जनसङ्ग में श्री कुन्दकुन्दाचार्य का नाम प्रसिद्ध है। दिगंबर जैनों में उनको मान्यता विशेष है। वह महातपस्वी और बड़े ज्ञानी थे। दक्षिण भारत के अधिवासी होने पर भी उन्होंने गिरिनार पर्वत पर जाकर श्वेताम्बरों से बाद किया था। तामिल साहित्य का नीतिग्रन्थ कुर्रल उन्हीं की रचना थी। उन और उन्हीं के समान मन्य दिगंबराचार्यों के विषय में प्रो. रामास्वामी ऐयंगर लिखते है:
"First comes Yatindra Kunda, a Great Jain Guru, who in order to show that both within and withont he could tot be assisted by Rajas, moved about leaving a space or four inches between himself and the earth under his feet'. Uma Svami, the compiler of Tattyartha Sutra Griddhrapinchha, and his disciplc Balakapinchha follow. Then comes Samantabhadra, 'ever fortunate', 'whose discourse lights up the palace of the three worlds filled with the all meaning syadvada'. This Samantabhadra was the first of a series of celebrated Digambara writers who abquired considerable predominance, in the early Rashtrakuta period. Jain tradition assigns him Saka 60 or 138 AD.......... He was a great Jaina missionary who tried to spread far and wide Jaina doctrincs and morals and that he met with no opposition from other sects wherever he went. Samantabhadra's appearance in South India marks an epoch not only in the annals of Digambara tradition, but also in the history of Sanskrit liter ture.........After Samantabhadraa large number of Jain Manis took up the work of proselytism. The more important of them have contributed much for the uplift of the Jain world in literature and secular affairs. There was for example, Simhanandi, thc Jain sage, who, according to tradition, founded the state of
१. Jainism Was specially popular in the Southern Maratha country EHI., P. 444
२. प्राजैमा०, प०७६ .. ३. दिर्जा, पृ०७६५
४. SSILL, pp. 40-44889
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Gangavadi. Other names are those of Pujyapada, the author of the incomparablegraminar. JineIndra Vyakarana and of Akalanka who, in 788 A.D. in believed to have confuted the Buddhists at the court of Hinasitaia in Kanchi, and thereby procured the expulsion of the Buddhists from South India,' SSIJ., pt. 1 pp. 29-31
भार्थि--. "पहले ही महान नगरु यतीन्द्र कुन्द का नाम मिलता है जो राजाओं के प्रति निस्पृहता दिखाते हये अधर चलते थे। 'तत्वार्थ सूत्र' के कर्ता उमास्वामी गद्धपिच्छ और उनके शिष्य बलाव.पिच्छ जनके बाद पाते हैं। तब समन्तभद्र का नाम दृष्टि पड़ता है जो सदा भाग्यवान रहे और जिनकी स्याद्वाद्वाणी सीन लोक को प्रकाशमान करती थी। यह समन्तभद्र प्रारम्भिक राष्ट्रकट काल के अनेक प्रसिद्ध दिगंबर मुनियों में सर्व प्रथम थे। उनका समय जैनमतानुसार सन् १३८ ई० है। यह महान् जन प्रचारक थे, जिन्होंने चहुँ ओर जैन सिद्धान्त और शिक्षा का प्रचार किया और उन्हें कहीं भी किसी विधर्मी सम्प्रदाय के विरोध को सहन न करना पड़ा। उनका प्रादुर्भाव दक्षिण भारत के दिगम्बर जैन इतिहास के लिये ही युगप्रवर्तक नहीं है, बल्कि उससे संस्कृत साहित्य में एक महान परिवर्तन हुआ था। समन्तभद्र के बाद बहुसंख्यक जैन साधुओं ने अजनों को जैनी बनाने का कार्य किया था । उनमें से प्रसद्धि साधुनों ने जैन संसार वो साहित्य और राष्ट्रीय अपेक्षा उन्नत बनाया था। उदाहरणतः जैनाचार्य सिंहनन्दि में गंगवाड़ी का राज्य स्थापित कराया था। अन्य प्राचार्यों में पूज्यपाद, जिनकी रचना अद्वितीय "जिनेन्द्र व्याकरण" है और प्रकलंक देव हैं जिन्होंने कांची के हिमशीतल राजा के दरबार में बौद्धों को बाद में परास्त करके उन्हें दक्षिण भारत से निकल दिनास।
श्री उमास्वामी श्री कुन्दकुदाचार्य के उपरान्त श्री उमास्वामी प्रसिद्ध प्राचार्य थे, प्रो० साल का यह प्रकट करना निस्सन्देह ठीक है। उनका समय वि० सं०७६ है । गुजरात प्रान्त के गिरिनगर में जब यह मुनिराज विहार कर रहे थे और एक पायक नामक श्रावक के घर पर उसकी अनुपस्थिति में प्राहार लेने गये थे, तब वहां पर एक अमृद्ध सूत्र देखकर उसे शुद्ध कर पाये थे । द्वं पायक ने जब घर पाकर यह देखा तो उसने उमास्वामी से "तत्त्वार्थसूत्र' रचने को प्रार्थना की थी 1 तदनुसार यह ग्रन्थ रचा गया था । उमास्वामी दक्षिण भारत के निवासी और प्राचार्य कुन्द काम्द के शिष्य थे, ऐसा उनके गुद्धपिच्छ' विशेषण से बोध होता है।
श्री समन्तभद्राचार्य श्री समन्तभद्राचार्य दिगम्बर जैनों में बड़े प्रतिभाशाली नयायिक और वादी थे। मुनिदशा में उनको भस्मक रोग हो गया था, जिसके निवारण के लिए वह कांचीपुर के शिवालय में शैव-संन्यासी के भेष में जा रहे थे। वहीं 'स्वयंभ स्तोत्र' रचकर शिवकोटि राजा को आश्चर्यचकित कर दिया था। परिमाणतः वह दिगम्बर मुनि हो गया था। समन्तभद्राचार्य ने सारे भारत में विहार करके दिगंबर जैन धर्म का डंका बजाया था। उन्होंने प्रायश्चित लेकर पुनः मुनिवेष और फिर प्राचार्य पद धारण किया था। उनकी ग्रन्थ रचनाएं जैन धर्म के लिए बड़े महत्व को हैं।
श्री पूज्यपादाचार्य-कर्नाटक देश के कोलंगाल नामक गांव में एक ब्राह्मण माधब भद्र बित्रम की चौथी शताब्दी में रहता था। उन्हीं के भाग्यवान पुत्र श्री पूज्यपादाचार्य थे। उनका दीक्षा नाम श्री देवनन्दि था । नाना देशों में विहार करके उन्होंने धर्मोपदेश दिया था, जिसके प्रभाव से सैकड़ों प्रसिद्ध पुरुष उनके शिष्य हुए थे। गंगवंशी दुविनीत राजा उनका मुख्य शिष्य था । “जैनेन्द्रव्याकरण', "शब्दावतार" प्रादि उनकी श्रेष्ठ रचनाये हैं।
श्री वादीसिंह-यतिवर थी बादीभसिंह श्री पुष्पसेन मुनि के शिष्य थे। उनका ग्रहस्थ दशा का नाम 'अड्यदेव' था, जिससे उनका दक्षिण देशवासी होना स्पष्ट है। उन्होंने सातवीं श० में 'क्षत्रचूडामणि", गद्यचिन्तामणि" श्रादि ग्रन्थों की रचना की थी।
श्री नेमिचन्द्राचार्य-श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवती नन्दिसंघ के स्वामी अभयनन्दी के शिष्य थे । वि० सं० ७३५ में द्रविड़ देश के मथुरा नगर में बह रहते थे । उन्होंने जैन धर्म का विशेष प्रचार किया था और उनके शिष्य गंगवंश के राजा श्री राचमल्ल और सेनापति चामण्डराय आदि थे। उनकी रचनामों में "मोमदसार" ग्रन्थ प्रधान है।
श्री अकलंकाचार्य-श्री अकलंकाचार्य देवसंघ के साथ थे । बौद्ध मठ में रह कर उन्होंने विद्याध्ययन किया था। उपरांत
१. मजद०, पृ० ४४ । ३. Ibid पृ. ४६ ५. Ibid पृ० ४७-४८
२. Ibid. पृ० ४५ । ४. lbidge 3
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बौद्धों से वाद' करके उनका पराभव और जैन धर्म का उत्कर्ष प्रकट किया था। कांची का हिमभीतल राजा उनका मुख्य शिष्य था। उनके रचे हुए ग्रन्थ में राजवात्तिक, अष्टशती, न्यायविनिश्चयालंकार आदि मुख्य हैं।'
श्री जिनसेनाचार्य राजाओं से पूजित श्री वीरसेन स्वामी के शिष्य श्री जिनसेनाचार्य सम्राट अमोघवर्ष के गुरू थे। उस समय उनके द्वारा जैन धर्म का उत्कर्ष विशेष हुमा था। वह अद्वितीय कवि थे। उनका "पाश्र्वाभ्युदयकाव्य" कालिदास के मेघदुत काव्य की समस्यापूर्ति रूप में रचा गया था। उसको दूसरो रचना 'महापुराण' भी काव्यदृष्टि से एक श्रेष्ठ ग्रन्थ है। उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने इस पुराण के शेषांश की पूर्ति की थी।
__ श्री विद्यानन्ति प्राचार्य:-श्री विद्यानन्दि प्राचार्य कर्णाटक देशवासी और ग्रहस्थ दशा में एक वेदानुयायी ब्राह्मण थे। 'देवागम' स्तोत्र को सुनकर बह जैन धर्म में दीक्षित हो गये थे। दिगम्बर मुनि होकर उन्होंने राजदरबारों में पहुंच कर ब्राह्मणों पौर बौद्धों से वाद किये थे, जिनमें उन्हें विजय श्री प्राप्त हुई थी। श्रष्टसहस्री, प्राप्तपरीक्षा प्रादि ग्रन्थ उनकी दिव्य रचनायें हैं।
श्री वादिराज-श्री वादिराज सूरि नन्दि संघ के प्राचार्य थे। उनकी 'पटतर्कपण्मुख', स्याद्वादविद्यापति' और 'जगदेकमल्लवादी' उपाधियाँ उनके गौरव और प्रतिभा की सूचक हैं। उनको एक बार कुष्ट रोग हो गया था, किन्तु अपने योगबल से 'एकीभावस्तोत्र रचते हुए उस रोग से वह मुक्त हुए थे। यशोधर चरित्र, पार्श्वनाथ चरित्र आदि ग्रन्थ भी उन्होंने रचे थे।
आप चालुक्य वंशीय नरेश जयसिंह की सभा के प्रख्यात वादी थे। वे स्वयं सिंहपुर के राजा थे। राज्य त्याग कर दिगम्बर मुनि हुए थे। उनके दादा-गुरू श्रीपाल भी सिंहपुराधीश थे । (जैमि०, वर्ष ३३ अंक ५ पृ०७२)
इसी प्रकार श्री मल्लिषणाचार्य, श्री सोमदेव सुरि आदि अनेक लब्धप्रतिष्ठत दिगम्बर जैनाचार्य दक्षिण भारत में हो गुजरे हैं, जिनका वर्णन अन्य ग्रन्थों से देखना चाहिए ।
इन दिगम्बराचार्यों के विषय में उक्त विद्वान् प्रागे लिखते हैं कि 'समग्र दक्षिण भारत विद्वान् जैन साधुनों के छोटेछोटे समूहों से अलंकृत था, जो धीरे-धीरे जैन धर्म का प्रचार जनता की विविध भाषामों में ग्रन्थ रचकर कर रहे थे। किन्तु यह समझना गलत है कि यह साधगण लौकिक कार्यों से विमुख थे। किसी हद तक यह सच है कि वे जनता से ज्यादा मिलतेजुलते नहीं थे। किन्तु ई०पू० चौधा शताब्द में मेगास्थनीजके कथन से प्रगट है कि जन श्रमण, जो जंगलों में रहते थे, उनके पास अपने राजदूतों को भेजकर राजा लोग वस्तुओं के कारण के विषय में उनका अभिप्राय जानते थे। जन गुरुत्रों ने ऐसे कई राज्यों की स्थापना की थी, जिन्होंने कई शताब्दियों तक जैन धर्म को प्राश्रय दिया था।"
प्रो. डा. बी० शेषागिरिराव ने दक्षिण भारत के दिगम्बर मुनियों के सम्बन्ध में लिखा है कि "जैन मुनिगण विद्या और विज्ञान के ज्ञाता थे; आयुर्वेद और मन्त्रशास्त्र के भी वे महा विद्वान थे; ज्योतिष ज्ञान उनका अच्छा खासा था; न्यायशास्त्र सिद्धान्त और साहित्य को उन्होंने रचा था। जैन मान्यता में ऐसे सफल एक प्राचीन आचार्य कुन्दकुन्द कहे गए हैं। जिन्होंने बेलारी जिले के कोनकुण्डल प्रदेश में ध्यान और तपस्या की थी।
------- १. lbid पृ. ४६ । २. Jbid पृ० ५०-५१ ।
३.bid पृ० ५१-५२ । ४. Ibid पृ०५३ ।
4. "The whole of South India strewn with small groups of learned Jain ascetics, who were slowly but surely spreading their morals through the medium of their sacred literature composed in the various vernaculars of the country. But it is a mistake to suppose that these ascetics were indifferent towards secular afairs in general. To a certain extent it is true that they did not mingle with the word. But we know from the account of Megasulines that, so late as the 4th century B. C., "The Sarmanes or the Jain Sarmanes who lived in the woods were frequently consulted by the kings through their messengers regarding the cause of things', Jaina Gurus have been founders of States that for centuries together were tolernat towards the Jain faith."
-SSIJ., I 106. ६. SSIJ. pt. II pp.9-10
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इस प्रकार दक्षिण भारत में दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व का चमत्कारिक वर्णन है और वह इस बात का प्रमाण है कि दक्षिण भारत एक अत्यन्त प्राचीन काल से दिगम्बर मुनियों का प्राश्रय स्थान रहा है तथा वह आगे भी रहेगा, इसमें संशय नहीं।
(२२)
तामिल-साहित्य में दिगम्बर मुनि "Among the systems controvered in the Manimekhalai, the Jain system also figures as one and the words Samanas and Amana are of frequent occurance; as also refrences to their Viharas so that from the earliest times reachable without present mcans, Jainism apparently flourished the Tamil Country":
तामिल साहित्य के मुख्य और प्राचीन लेखक दिगम्बर जैन विद्वान रहे हैं। और उसका सर्व प्राचीन व्याकरण-ग्रंथ "तोल्काप्पियम" (Tolkappiyam) एक जनाचार्य की ही रचना है। किन्तु हम यहां पर तामिल-साहित्य के जैनों द्वारा रचे हये अंग को नहीं छयेंगे। हमें तो नेत्तर तामिल साहित्य में दिगम्बर मुनियों के बर्णन को प्रकट करना इष्ट है।
___ अच्छा तो, तामिल-साहित्य का सर्वप्राचीन समय "संगम-काल" अर्थात् ईस्वी पूर्व दुसरी सताब्दी से ईस्वी पांचवी शताब्दी तक का समय है । इस काल को रचनाओं में बौद्ध विद्वान द्वारा रचित काव्य "मणि मेखल" प्रसिद्ध है "मणिमेखल" में दिगम्बर मनियों और उनके सिद्धान्तों तथा मठों का अच्छा खासा वर्णन है । जैन दर्शन को इस काव्य में दो भागों में विभक्त किया है—(१) आजीविक और (२) निन्थ ३ माजीविका भ० महावीर के समय में एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय था, किन्तु उपरान्तकाल में वह दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में समाविष्ट हो गया था। निग्रंथ सम्प्रदायको 'अरुहन' (अहत) का अनुयायी लिखा है जो जैनों का द्योतक है। इस काव्य के पात्रों में सेठ कोवलन की पत्नी कण्णकि के पिता मानाइकन के विषय में लिखा है कि 'जब उसने अपने दामाद के मारे जाने के समाचार सुने तो उसे अत्यन्त दुख और खेद हुया । और वह जैन संघ में नंगा मुनि हो गया। इस कान्य से यह भी प्रगट है कि चोल और पाण्ड्य राजाओं ने जैन धर्म को अपनाया था।
मणिमेखल" के वर्णन से प्रकट है कि "निम्रन्थगण ग्रामों के बाहर शीतल मठों में रहते थे। इन मठों की दीवाले बहत ऊंची और लाल रंग से रंगी हुई होती थीं। प्रत्येक मठ के साथ एक छोटा सा बगीचा भी होता था। उसके मन्दिर तिराहों और चौराहों पर अवस्थित थे। जैनों ने अपने प्लेटफार्म भी बना रक्खे थे, जिन पर से निग्रन्थाचार्य अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते
जैन साधनों के मठों के साथ २ जैन साध्वीयों के आश्राम भी होते थे । जैन साध्वीयों का प्रभाव तामिल महिला समाज पर विशेष था। कावेरीप्यूमपट्टिनम् जो चोल राजाओं की राजधानी थी, वहां और कावेरी तट पर स्थित उदपुर में जनों के मठ थे मदरा जैन धर्म का मुख्य केन्द्र था । सेठ कोवलन् और उनकी पत्नी कण्णकि जब मदुरा को जा रहे थे तो रास्ते में एक जैन शायिका ने उन्हें किसी जीव को पीड़ा न पहुंचाने के लिए सावधान किया था, क्योंकि मदुरा में निग्रन्थों द्वारा यह एक महान पाप करार दिया गया था। यह निम्रन्थगण तीन छत्रयुक्त और अशोक वृक्ष के तले बैठाये गये । अत् भगवान् की देवीप्यमान मति को विमय करते थे। यह सब जैन दिगम्बर थे, यह उक्त काव्य के वर्णन से स्पष्ट है। पुहर में जब इन्द्रोत्सव मनाया गया तब वहां के राजा ने सब धर्मों के प्राचार्या को बाद और धर्मोपदेश करने के लिए बुलाया था। दिगम्बर मुनि इस अवसर पर
B.Sc. p.32 भावार्थ-तागिल काव्य 'मणिभखने में जंग-संप्रदाय और शब्द "ममण"-"श्रमण" तथा उनके विहारों का उल्लेख्न विशेष है, जिससे सामिल देश में अतीव प्राचीनकाल से जनघमं का अस्तित्व सिद्ध है।" २. SSIJ., Pt I. P. 89
३. BS., P. 15 ४. I bid., P., 681
५. SSIj., Pt. 1. P.47
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बड़ी संख्या में पहने और उनके धर्मोपदेश से अनेकानेक तामिल स्त्री-पुरुप जैन धर्म में दीक्षित हये थे।"
'मणिमेखल" काव्य में उसकी मूख्य पात्री मणिमेखला एक निम्रन्थ माधु से जैन धर्म के सिद्धान्तों के विषय में जिज्ञासा करती भी बताई गई है। इस तथा इस काव्य के अन्य वर्णन से स्पष्ट है कि ईस्वी की प्रारम्भिक शताब्दियों में तामिल देश में दिगम्बर मुनियों की एक बड़ी संख्या मौजद थी और तामिल देश में विशेष मान्य तथा प्रभावशाली थे।
शैव और वैष्णव सम्प्रदायों के तामिल साहित्य में भी दिगम्बर मुनियों का वर्णन मिलता है। शंवों के 'पेरियपुण्णम्' नामक ग्रन्थ में मूर्ति नायनार के वर्णन में लिखा है कि कलभ्र वंश के क्षत्री जैसे ही दक्षिण भारत में पहुंच से ही उन्होंने दिगम्बर जैन धर्म को अपना लिया। उस समय दिगम्बर जैनों की संख्या वहां अत्यधिक थी और उनके माचार्यों का प्रभाव कलभ्रों पर विशेष था! इस कारण शैव धर्म उन्नत नहीं हो पाया था। किन्तु कलभ्रों के बाद सब धर्म को उन्नति करने का अवसर मिला था। उस समय बौद्ध प्राय: निष्प्रभ हो गये थे, किन्तु जैन अब भी प्रधानता लिये हुये थे। शैवाचार्यों का बादशाला में मुकाबला लेने के लिए दिगम्बराचार्य--जैन श्रमण ही अबशेष थे। दर्शवों में सम्बन्दर और अप्पर नामक प्राचार्य जैन धर्म के कट्टर विरोधी थे। इनके प्रचार से साम्प्रदायिक विद्वेष की आग तामिल देश में भड़क उठी थी। जिसके परिणाम स्वरूप उपरान्त के शव ग्रन्थों में ऐसा उपदेश दिया हुआ मिलता है कि बौद्धों और रामणों (दिगम्बर मुनियों) के न तो दर्शन करो और न उनके धर्मोपदेश सुनो । बल्कि शिव से यह प्रार्थना की गई है वह शक्ति प्रदान करें जिससे बौद्धों और समणों (दि. मुनियों के सिर फोड़ डाले जायं ; जिनके धर्मोपदेश को सुनते २ उन लोगों के कान भर गये हैं। इस विद्वेष का भी कोई ठिकाना है ! किन्तु इससे स्पष्ट है कि उस समय भी दि० मुनियों का प्रभाव दक्षिण भारत में काफी था ।
वैष्णव तामिल साहित्य में भी दिगम्बर मुनियों का विवरण मिलता है। उनके 'तेवारम' (Tevaran) नामक ग्रन्थ से ई० सातवीं पाठवीं शताब्दि के जैनों का हाल मालूम होता है। उक्त ग्रन्थ से प्रगट हैं कि “इस समय भी जैनों का मुख्य केन्द्र मदुरा में था। मदुरा के चहुं ओर स्थित अनैमल, पसुमल आदि पाठ पर्वतों पर दिगम्बर मुनिगण रहते थे और बे हो जन संघ का संचालन करते थे। वे प्रायः जनता से अलग रहते थे—उससे अत्यधिक सम्पर्क नहीं रखते थे। स्त्रियों से तो वे विल्कुल दूर २ रहते थे। नासिका स्वर से वे प्राकृत व अन्य मन्त्र बोलते थे। ब्राह्मणों और उनके बेदों का वे हमेशा खला विरोध करते थे। कडी थप में वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर वेदों के विरुद्ध प्रचार करते हुए विचरते थे। उनके हाथ में पीछी, चटाई और एक छत्री होती थी। इन दिगम्बर मुनियों को सम्बन्दर द्वेषवश बन्दरों की उपमा देता है। किन्तु दे सैद्धान्तिक वाद करने के लिये वडे लालायित थे और उन्हें विपक्षी को परास्त करने में आनन्द प्राता था। केशलोच ये मुनिगण करते थे और स्त्रियों के सम्मुख नग्न उपस्थित होने में उन्हें लज्जा नहीं आती थी। भोजन लेने के पहले ये अपने शरीर की शुद्धि नहीं करते थे (अर्थात स्नान नहीं करते थे)। मन्त्र शास्त्र को वे खुब जानते थे और उसकी खूब तारीफ करते थे।"
विज्ञानसम्वन्दर और अप्परने जो उपरोक्त प्रमाण दिगम्बर मुनियों का वर्णन दिया है, यद्यपि वह द्वंप को लिये हुये हैं. परन्तु तो भी उससे उस काल में दिगम्बर मुनियों के बाहुल्य रूप में सर्वत्र बिहार करने, बिकट तपस्वी और उत्कट वादी होने का समर्थन होता है।
.--- .--.- ..- - -.... -- १. Ibid . pp. 47-48 'That these Jains were the Digan haras is clearly scen from their viescription..... The Jains look every advantage of the opportunity and large was the number of those that cmbraced this faith".
3. "Manimekajai asked the Nigantha to state who was luis God and what he was taught in his sacred books. ele. "-"SS]]., pt. I. p. 50
३. bid, P. 55
x. It would appear from a general study of the litcrature of the period that Buddhism had declined as an active religion but Jainism had still its stronghold. The chicf opponents of these saints were the Samanas or the Jainas."-BS. p. 689
५. SSIJ. Pt. pp. 60-66 ६. तिक्ष्मत-BS, P692 ७.SSIJ, Pt. IPP. 68-70
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दक्षिण भारत की 'नन्दयाल कैफियत' (Nandyala kaiphiyat) में लिखा है ? कि 'जैनमुनि अपने सिरों पर बाल नहीं रखते थे कि शायद कहीं जं न पड़ जाय और वे हिंसा के भागी हों। जब वे चलते थे तो मोरपिच्छो से रास्ते को साफ कर लेते थे कि कहीं सूक्ष्म जीवों की विराधना न हो जाय । वे दिगंबर वेषधारण किये थे, क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं उनके कपडे और शरीर के संसर्ग से सूक्ष्म जीवों को पीड़ा न पहुंचे । वे सर्यास्त के उपरान्त भोजन नहीं करते थे, क्योंकि पवन के साथ उडते हए जीवजन्तु कहीं उनके भोजन में गिर कर मर न जाय ।" इस वर्णन से भी दक्षिण भारत म दिगंबर मनियों का बाहुल्य और निर्बाध धर्म प्रचार करना प्रमाणित है।
"सिद्धबत्तम् कैफियत'(Siddhavattam Kaiphiyut) से प्रगट है कि "वरंगल के जन राजा उदार प्रकृति थे। वे दिगंबरों के साथ २ अन्य धर्मों को भी प्राथय देते थे ।" "बरंगल कैफियत" से प्रगट है कि वहां वृषभाचार्य नामक दिगबर मनि विशेष प्रभावशाली थे।
दक्षिणभारत के ग्राम्य-कथा-साहित्य में एक कहानी है। कि "वरंगल के काकतीयवंशी एक राजा के पास ऐसी खड़ाऊ थीं जिसको पहन कर वह उड़ सकता था और रोज बनारस में जाकर गंगा स्नान कर आता था। किसी को भी इसका पता न चलता था। एक रोज उसकी रानी ने देखा कि राजा नहीं हैं बह जैन धर्म परायण थी। उसने अपने मुस्यों मे राजाके संबन्ध में पूछा। जैनगुरु ज्योतिष के विशेष विद्वान थे; उन्होंने राजा का सब पता बता दिया। राजा जब लौटा तो रानी ने उसको बताया कि वह कहां गया था और प्रार्थना को कि वह उसे भी बनारस ले जाया करें। राजा ने स्वीकार कर लिया। वह रानी भी बनारस जाने लगी। एक रोज मार्ग में वह मासिकधर्म से हो गई । फलतः खड़ाऊ की वह विशेषता नष्ट हो गई। राजा को उस पर बड़ा दुःख हुया और उसने जैनों को कष्ट देना प्रारम्भ कर दिया ।" इस कहानी से विधर्मी राजाओं के राज्य में भी दिगंबर मनियों का प्रतिभाशाली होना प्रकट है।
अस्लनन्दि शैवाचार्य कृत "शिवज्ञानसिद्धियार" में परपक्ष संप्रदायों में दिगंबर जैनों का "श्रमणरूप" उल्लेख है।। समाहाजास्यमाहात्म्य ' में जदुरा के शंको और दिगंबर मुनियों के बाद का वर्णन मिलता है।
इस प्रकार तामिलसाहित्य के उपरोक्त वर्णन में दक्षिणभारत में दिगंबर मुनियों का प्रतिभाशाली होना प्रमाणित है। वे वहां एक अत्यन्त प्राचीनकाल से धर्मप्रचार कर रहे थे।
भारतीय पुरातत्य और दिगम्बर मुनि "Chalcolithic civilisation of the Indus Valley was something quite different from the Vediccivilisation" "On the cve of the Aryan immigration the Indus Valley was in possession of a civilized and warlike people".
B. B. Ramprasad Chanda. मोहन-जोदारो का पुरात्व और विर्गवरत्व भारतीय पुरातत्व में सिंघदेश के मोहन जोडरो और पंजाब के हरप्पा नामक ग्रामों से प्राप्त पुरातत्व अतिप्राचीन है। वह ईस्वी सन् मे तीन-चार हजार वर्ष पहले का अनुमान किया है। जिन विद्वानों ने उसका अध्यय किया है, वह इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि सिंधुदेश में उस समय एक अतीव सभ्य और क्षत्रिय प्रकृति के मनुष्य के रहते थे, जिनका धर्म और
- - - - - - - - --- १. lbid., pti pp. 10-11 २. Ibid, p. 17
३. bid p. 18 ४. SSIJ., pt pp. 27-28
५. Sc, p. 243 ६. !RQ.. Vol. IV.p:564
७: SPCIV, I pp. 25
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माता वैदिक-धर्म और सभ्यता से नितान्त भिन्न थी। एक विद्वान् ने उन्हें "ब्रात्य" सिद्ध किया है यौर मनुके अनुसार "ब्रात्य" वह बेद-विरोधी संप्रदाय था जिसके लोग द्विजों द्वारा उनको सजातीय पत्नियों से उत्पन्न हुए थे, किन्तु जो (वैदिक) धार्मिक नियमों का पालन न कर सकने के कारण सावित्री से प्रथक कर दिये गये थे।” (मनु १०।२०) बह मुख्यत: क्षत्री थे। मनु एक व्रात्य क्षत्री से ही भल्ल, मल्ल, लिच्छवि, नात, कारण, खस और द्राविड़ वंशों की उत्पत्ति बतलाते हैं। (मनु १०।२२) यह पहले भी लिखा जा चका है। सिंधुदेश के उपरोक्त मनुष्य इसी प्रकार के क्षत्री थे और वे ध्यान तथा योग का स्वयं अभ्यास करते थे और योगियों की मुर्तियों की पूजा करते थे 1 मोहन-जोदरो से जो कतिपय मुर्तियां मिली हैं उनकी दृष्टि जैनमुर्तियों के सदशनासाग्रदृष्टि' है। किन्तु ऐसी जैनमूर्तियां प्राय: ईस्वी पहली शताब्दि तक की हो मिलती विद्वान् प्रकट करते हैं: यद्यपि जनों की मान्यता के अनुसार उनके मंदिरों में बहुप्राचीनकाल की मुर्तियां मौजूद हैं। उस पर, हाथी गुफा के शिलालेख से कुमारी पर्वतपर नन्दकाल की पियों का होना प्रमाणित है तथा मथुरा के 'देवों' द्वारा निर्मित जैनस्तुप' से भगवान् पार्श्वनाथ के समय में भी ध्यानदष्टिमय मुतियों का होना सिद्ध है। इसके अतिरिक्त प्राचीन जैन साहित्य तथा बौद्धों के उल्लेख से भ० पार्श्वनाथ और भ० महाबीर के पहले के जनोंमें भी ध्यान और योगाभ्यास के नियमोंका होना प्रमाणित है। 'संयुत्तनिकाय' में जैनोंक वितर्क और अविचार धेणी के ध्यानों का उल्लेख है और "दीघनिकाय" के ब्रह्मजालसूत्त' से प्रकट है कि गौतम बुद्ध से पहले ऐसे साध थे जो ध्यान और विचार द्वारा मनुष्य के पूर्वभवों को बतलाया करते थे। जैनशास्त्रों में ऋपभादि प्रत्येक तीर्थडर के शिप्यसमदाय में ठीक ऐसे साधुनों का वर्णन मिलता है तथापि उपनषिदों में जनों के 'शुक्लध्यान' का उल्लेख मिलता है, यह पहले ही लिखा जा चुका है। अत: यह स्पष्ट है जैनसाधु एक अतीव प्राचीनकाल से ध्यान और योग का अभ्यास करते आये हैं। तथा मल्ल, मल्ल, लिच्छवि, ज्ञात् प्रादि व्रात्य क्षत्रिय प्राय: जैन थे। अन्यत्र यह सिद्ध किया जा चुका है कि "व्रात्य" क्षत्रिय बहत कर के जैन थे और उनमें के ज्येष्ठ नात्य सिवाय 'दिगंबरमुनि के' और कोई न थे। इस अवस्थाम सिंधुदेश के उपरोक्त कालवों मनष्यों का प्राचीन जैन ऋषियों का भक्त होना बहुत कुछ संभव है। किन्तु मोहन जोदरो से जो मूर्तियां मिली हैं वह वस्त्र संयुक्त हैं और उन्हें विद्वान् लोग 'पुजारी' (Priest) व्रात्यों का मूर्तियां अनुमान करते हैं। हमारे विकारसे वे होन-व्रात्य (अलावती पावकों की मतियां हैं। व्रात्य-साधकी मूति वह हो नहीं सकती; क्योंकि उसे शास्त्र में नग्न प्रगट किया गया है। वहां जोष्ठयात्य' का एक विशेषण 'समनिचमेद्र' अर्थात् 'पुरुषलिंग' से रहित' दिया हुआ है जो नग्नता का द्योतक है। हीनद्रात्यों की पोशाक के वर्णन में कहा गया है कि वे एक पगड़ी (नियन्नद्ध), एक लाल कपड़ा और एक चांदी का आभूषण 'नश्क' नामक
उक्त मतिकी पोशाक भी इसी ढंग की है। माथे पर एक पट्ट रूप पगड़ी जिसके बीच में एक आभूषण जड़ा है, वह पहने हये प्रगट है और वगल से निकला हुमा एक छीटदार कपड़ा वह ओढ़े हुये है । इस अवस्था में इन मूर्तियों को हीनतात्यों
मातियां मामना ही ठीक है और इस तरह पर यह सिद्ध है कि व्रात्य-क्षत्रिय एक अतीव प्राचीनकाल में अवश्य ही एक वेद-विरोधी संप्रदाय था; जिसमें ज्येष्टवात्य दिगम्बर मुनि के अनुरूप थे। अतः प्रकारान्तर से भारत का सिंघदेशवर्ती सर्वप्राचीन पुरातत्व भी दिगंबर मुनि और उनकी योगमुद्रा का पोषक है।
अशोक के शासन लेख में निर्गन्ध सिंधदेश के पूरातत्व के उपरान्त सम्राट अशोक द्वारा निर्मित पुरातत्व ही सर्व प्राचीन है। वह पुरातत्त्व भी दिगम्बर मनियों के अस्तित्व का द्योतक है । सम्राट अशोक ने अपने एक शासन लेख में आजीविका साधुओं के साथ निग्रंथ साघुओं का भी उल्लेख किया है।
१. Ibid pp. 25-34
२. Ibid. pp. 25-26 ४. वीर बर्ष ४ पु० २६६
३. JBORS. ५. PTS. 17, 287 ६. भमः , पृ० २१--२२० ७. भपा०, प्रस्तावना पृ० ४४-४५
८. SPCIV., Plate 1, Fig, 'b' E. SPCTV. pp. 25-33 में मोहन जोनरो की मूर्तियों को जिन मूतियों के समान और उनका पूर्ववर्ती टाइप प्रकट किया
गया है। १०. स्थंभलेख नं.
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खंडगिरि-उदयगिरि के पुरातत्व में दि. मुनि अशोक के पश्चात् खण्डगिरि-उदयगिरि का पुरात्व दिगम्बर धर्म का पोषक है । जैन सम्राट् खारवेल के हाथो गुफा वाले शिलालेख में दिगम्बर मुनियों का "तापस' (तपस्वी) प उल्लेख है । और उन्होंने सारे भारत के दिगम्बर मुनियों का सम्मेलन किया था, यह पहले लिखा जा चुका है। खारवेल की पटरानी ने भी दिगम्बर मुनियों-कलिंग श्रमणों के लिए गुफा निर्मित कराकर उनका उल्लेख अपने शिलालेख में निम्न प्रकार किया है
"अरहन्तपसादायम् कलिंगानम् समनानं लेनं कारितम् राज्ञो लालकसहथीसाहसपपोतस् धुतनाकलिनक्रवतिनो श्री खारवेलस अगहिसिना कारितम् ।"
भावार्थ-'महन्त के प्रासाद या मन्दिर रूप यह गफा कलिग देश के श्रमणों (दिगम्बर मनियों) के लिये कलिंग चक्रवर्ती राजा खारवेल को मुख्य पटरानी ने निर्मित कराई, जो हथीसहस के पौत्र लालकस को पुत्री थी।"
खंडगिरि की तत्व गुफा' पर जो लेख है वह बालमनि का लिखा हुआ है । 'अनन्त गुफा' में लेख है कि "दोहद के दिग० मुनियों श्रमणों की गुफा" (दोहद समनानम् लेनम् ) । इस प्रकार खण्डगिरि-उदयगिरि के शिलालेखों से ईस्वीपूर्व दूसरी शताब्दि में दिगम्बर मुनियों के कल्याणकारी अस्तित्व का पता चलता है।
___ खण्डगिरि-उदयगिरि पर जो मूर्तियां हैं, वे प्राचीन और नग्न हैं और उनसे दिगम्बरत्व तथा दिगंबर मुनियों के यरितत्व का पोषण होता है । वह अब भी दिगंबर मुनियों का मान्य तीर्थ है।
मथुरा का पुरातत्त्व और दिगम्बर मुनि मथरा का प्रात्त्व ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दि तक का है और उससे भी दिगंबर मुनियों का जनता में बहमान्य और कल्याणकारी होना प्रगट है। वहां को प्रायः सब ही प्राचीन मूर्तियां नग्न-दिगंबर हैं। एक स्तूप के चित्र में जैन मनि नग्न पीछी व कमण्डल लिये दिखाये गये हैं। उन पर के लेख दिगंबर मुनियों के हैं, यथा
"नमो अर्हतो वर्धमानस माराये गणिकाये लोण शोभिकाये धितु समण साविकाये नादाए गणिकाये वसु (ये) अहतो देवि कूल पायाग-सभा प्रयाशिल (1) पटो पतिस्ठापितो निगन्थानम् अहंता यतनेसहामातरे भगिनिए धितरे पूत्रेण सर्वनच परिजनेन अर्हत् पुजाये।" ।
अर्थात-"अहंत बर्द्धमान् को नमस्कार । श्रमणों को धाविका मारायगणिका लोणशोभिका की पुत्री नादाय गणिका वसु ने अपनी माता, पुत्री, पुत्र और अपने सर्व कुटुम्ब सहित अर्हत् का एक मन्दिर, एक आयाग सभा, ताल और एक शिला निर्मथ अर्हतों के पवित्र स्थान पर बनवाये।"
इसमें दानशीला श्राविका को श्रमण-दिगंबर मुनियों का भक्त तथा निग्रंथ-दिगंवर मुनियों के लिए एक शिला बनाया जाना प्रगट किया गया है। एक मायागपट पर के लेख में भी श्रमण-दिगंबर मनियों का उल्लेख है। प्लेट नं० २८ पर के लेख में भी ऐसा ही उल्लेख है । तथा एक दिगंवर मूर्ति पर निम्न प्रकार लेख है
...........सं०१५ नि३ दि १ प्रस्था पुर्वाय'' . ""हिका तो प्रार्य जयभूतिस्य शिषीनिनं अर्य सनामिके शिषीन अर्य बसलये (निर्वतं) नं0" "लस्य धोतु.....''३''''''धु वेणि श्रेष्ठिस्य धर्मपस्निये भट्टसेनस्य... (मात) कुमार मितयो दनं भगवतो (प्र) मा सब तो भद्रिका।"
अर्थात .."(सिद्ध ! ) स० १५ ग्रीष्म के तीसरे महीने में पहले दिन को, भगवत की एक चतुर्मखी प्रतिमा कूमरमिता १. सदिसान' नापसानं..."पंति १५. JBoRS. २. वांविओ जैस्मा, पृष्ठ ६१ ३. Ibid. p.94 ४. 1bid P.97 ५. जैसिभा०, वर्ष १ किरण ४ पृ० १२३ ६. होली दरवाजा सं मिला आयागरटीर, वर्ष ४१०३०३ ३. आयंत्रती आयागपट-वीर वर्ष ४ [०३०४ 5, JOAM. Platc No 28.
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के दानरूप, जो ....."ल की पुत्री,........ की बह, थेष्ठि बेणी को प्रथम पत्नी, भट्टिसेन को माता थी, मेहिक कुल के पाये जयभूति की शिष्या अर्य संगमिका को प्रति शिष्या वसुला की इच्छानुसार (अपित हुई थी)।
इसमें दिगंबर मुनि जयभूति का उल्लेख 'आर्य' विशेषण से हुम्रा है। ऐसे ही अन्य उल्लेखों से वहां का पुरातत्व तत्कालीन दिसंबर मुनियों के सम्माननीय व्यक्तित्व का परिचायक है ।
अहिच्छत्र (बरेली) के पुरातत्व में विगम्बर मुनि अहिच्छत्र (बरेली) पर एक समय नागवंशी राजायों का राज्य था और वे दिगंबर जैन धर्मानुयायी थे। वहां के कटारी खेडा की खदाई में डा० फहरर सा० ने एक समूचा सभा मन्दिर खुदवा कर निकलवाया था। यह मन्दिर ई० पूर्व प्रथम शताब्दी का अनुमान किया गया है और यह श्रीपाश्र्वनाथ जी का मन्दिर था। इसमें से मिली हुई मूर्तियां सन् १६ से १५२ तक की हैं, जो नग्न है । यहाँ एक ईंटों का बना हुया प्राचीन स्तूप भी मिला था, जिसके एक स्तम्भ पर निम्न प्रकार लेख था--
"महाचार्य इन्द्रनन्दि शिष्य पार्श्वयतिस्स कोट्टारी।" प्राचार्य इन्द्रनन्दि उस समय के प्रख्यात् दिगंबर मुनि थे ।
कौशाम्बी के पुरातत्व में दिगम्बर-संघ कौशाम्बी का पुरातत्व भी दिगंबर मुनियों के अस्तित्व का पोषक है। वहां से कुशानकाल का मथुरा जसा पाया. गपटट मिला है, जिसे राजा शिवमित्र के राज्य में प्रार्य शिवनन्दि की शिष्या बड़ी स्थाविरा बलदासा के कहने से शिवपालितने अहंत की पूजा के लिए स्थापित किया था । इस उल्लंख से उस समय कौशाम्बो में एक बृहत् दिगंबर जैन संघ को रहने का पता चलता है।
कुहाऊका गुप्तकालीन लेख वि० मुनियों का घोतक है कहाऊ (गोरखपुर) से प्राप्त पुरातत्व गुप्तकाल में दिगम्बर धर्म की प्रधानता का द्योतक है। वहां के पापाण स्तम्भ में नीचे की ओर जैन तीर्थकर और साघुओं की नग्न मूर्तियां और उस पर निम्नलिखित शिलालेख है
"यस्योपस्थानभूमि पति-शत-शिर; पात-वातावधूता । गुप्तानां वंशजस्य प्रविसृतयशसस्तस्य सर्वोत्तमद्धैः ।। राज्ये शक्रोपमस्य क्षितिप शत-पतेः स्कन्दगुप्तस्य शान्तेः। वर्ष त्रिशंदशकोत्तरक-शत तमे ज्येष्ठ मासे प्रपन्ने - स्यातेऽस्मिन् ग्राम-रत्ने ककुभ इति जनस्साधु-- संसर्गपूते पुत्रो यस्सोमिलस्य प्रचुर-गुण निधर्भट्टिसोमो महार्थः तत्सून रुद्रसोमः पृथुलमतियशा व्या घरत्यन्य संशो मद्रस्तस्यात्मजो---भूद्विज-गुरुयतिषु प्रायशः प्रीतिमान्यः ।। इत्यादि"
भाव यही है कि संवत् १४१ में प्रसिद्ध तथा साधुनों के संसर्ग से पवित्र ककुभ ग्राम में ब्राह्मण-गरु और यतियों को प्रिय मद्र नामक विष रहते थे, जिन्होंने पांच अर्हत्-बिम्ब निर्मित कराये थे। इससे स्पष्ट है कि उस समय ककुभ ग्राम में दिगम्बर मुनियों का एक बृहत् संघ रहता था।
राजगृह (बिहार) के पुरातत्व में दि० मुनियों की साक्षी राजगृह (विहार) का पुरातत्व भी गुप्तकाल में वहां दिगंबर मुनियों के बाहुल्य का परिचायक है। वहां पर गुप्तकाल की निर्मित अनेक दिगंबर जैनभूतियां मिलती हैं। और निम्न शिलालेख वहां पर दिगंबर जैन संघ का अस्तित्व प्रमाणित करता है--
"निर्वाणलाभाय तपस्वि योग्ये शुभेगहेऽहत्प्रतिमाप्रतिष्ठे।।
प्राचार्य रत्नम् मुनि वरदेवः विमुक्तये कारय दीर्घतेजः ।" १. वीर, वर्ष ४ १. ३१० २. संप्रजस्मा० पृष्ठ ८१-८२ (General Cunningham) found a number of fragmentary naked Jain statues, some inscribed with dates ranging from 96 to 152 A. d. ३. संप्रास्मा०, पृ. २७ ४. पूर्व०, पृ० ३-४ X. SPC)V., Plate 1l (b)
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अर्थात्-"निर्वाण की प्राप्ति के लिए तपस्वियों के योग्य और श्री अर्हन्त की प्रतिमा से प्रतिष्ठित शुभमुफा में मुनि वरदेव को मुक्ति के लिये परम तेजस्वी प्राचार्य पद रूपी रत्न प्राप्त हुआ यानि मुनि वरदेव को मुनि संघ ने प्राचार्य स्थापित किया।" इस शिलालेख के निकट ही एक नग्न जैन मूर्ति का निम्न भाग उकेरा हुआ है, जिसमे इसका सम्बन्ध दिगम्बर मुनियों से स्पष्ट है 19
बंगाल के पुरातत्व में दिगम्बर मुनि गुप्तकाल और उसके बाद कई शताब्दियों तक बंगाल, आसाम और उड़ीसा प्रान्तों में दिगम्बर जैनधर्म बह प्रचलित था । नग्न जैन मूर्तियां वहां के कई जिलों में बिखरी हुई मिलती हैं। पहाड़पुर (राजशाही) गुप्तकाल में एक जैन केन्द्र था । वहां से प्राप्त एक ताम्र लेख दिगम्बर मुनियों के संघ का द्योतक है। उसमें अंकित है कि "गुप्त सं० १५६ (सन् ४७६ ई०) में एक ब्राह्मण दम्पति न निग्रन्थ बिहार की पूजा के लिये बटगहलो ग्राम में भूमिदान दी। निम्रन्थ संघ प्राचार्य गहनन्दि और उन के शिष्यों द्वारा शासित था !"
कादम्ब-राजाओं के ताम्रपत्रों में दिगम्बर मुनि देवगिरि (धाडवाड़) से प्राप्त कादम्बवंशी राजाओं के ताम्रपत्र ईस्वी पाँचवी शलादि में दिगम्बर मुनियों के वैभव को प्रकट करते हैं। एक लेख में है कि महाराजा कादम्ब र श्र. कृष्णवर्मा के राजकुमार पुत्र देववर्मा ने जैन मन्दिर के लिए यापनोय संघ के दिगम्बर मनियों को एक खेत दान दिया था। दूसरे लेख में प्रगट है कि "काकुष्ठवंशी श्री शान्तिवर्मा के पुत्र कादम्चमहाराज मगेश्वरबर्मा ने अपने राज्य के तीसरे वर्ष में परल रा के आचार्यों को दान दिया था । तोमरे लेख में कहा गया है कि "इसी मृगेश्वरवर्मा ने जैन मन्दिरों और निग्रन्थ (दिगम्बर) तथा श्वेतपट (श्वेतांबर) संघों के साधुओं के व्यवहार के लिये एक कालवंग नामक ग्राम अर्पण किया था।"
उदयगिरि (भिलसा) में पांचवीं शताब्दी की बनी हुई गुफाये हैं, जिनमें जनसाधु ध्यान किया करते थे। उनमें लेख भी हैं।
अजन्ता की गुफानों में दि० मनियों का अस्तित्व अजन्टा (खानदेश) की प्रसिद्ध गुफाओं के पुरातत्व से ईस्वी सातवीं शताब्दि में दिगम्बर जैन मुनियों का अस्तित्व प्रमाणित है। वहां की गुफा नं. १३ में दिगम्बर मुनियों का संघ चित्रित है। नं० ३३ की गुफा में भी दिगम्बर मूर्तियां है ।
बादामो की गुफा बादामो (बीजापुर) में सन् ६५० ई. की जैनगुफा उस जमाने में दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व की द्योतक है। उसमें मुनियों के ध्यान करने योग्य स्थान हैं और नग्न मूर्तियाँ अंकित हैं।"
चालुक्य-राजा विक्रमादित्य के लेख में दिगम्बर मनि लक्ष्मेश्वर (धाड़वाड़) की संखवस्ती के शिला लेख से प्रगट है कि संखतीर्थ का उद्धार पश्चिमीय चालुक्यबंशी राजा विक्रमादित्य द्वितीय (शाका ६५६) ने कराया था और जिन पूजा के लिए श्री देवेन्द्र भट्टारक के शिष्य मुनि एकदेव के शिष्य जयदेव पंडित को भूमिदान दी थी। इसमे विक्रमादित्य का दिगम्बर मुनियों का भक्त होना प्रगट है। वहीं के एक अन्य लेख से मलसंध के श्री रामचन्द्राचार्य आर. श्रीविजयदेव पंडिताचार्य का पता चलता है । सारांशतः वहां उस समय एक उन्नत दिगम्बर जनसंघ विद्यमान था।
१. बंविओजम्मा०, पृ० १६ २. 1HQ., Vol. VII p. 441 ३. Modern Review, August 1931, p. 150 ४. IA. VIL 33-34 व बंप्रास्मा०, पृ. १२६ . . मप्रारमा०, १० ६. बंप्रास्मा०, पृ०५५-५६ ७. Ibid. p. 103 4. ]bid. pp. 124-125
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एलोरा की गुफात्रों में दिगम्बर मुनि ईस्वी पाठवीं शताब्दि की निर्मित एलोरा की जैन गुफायें भी उस समय दिगम्बर मनियों के विहार और धर्म प्रचार को प्रगट करती हैं। वहां की इन्द्र सभा नामक गुफा में जैन मुनियों के ध्यान करने पोर उपदेश करने योग्य बाई स्थान हैं और उनमें अनेक नग्न मूर्तियां अंकित हैं। श्रीवाहुबलि गोमट्टस्वामी को भी खगासन मूति है। "जगन्नाथसभा". - 'छोटा कैलास" आदि गुफायें भी इसो ढंग की हैं और उनसे तत्कालीन दिगम्बरत्व बी प्रधानता का परिचय मिलता है।
राट्टराज प्रादि के शिलालेखों में दिगम्बर मुनि सौंदत्ति (बेलगाम) के पुरातत्व में दिगम्बर मुनियों की मूर्तियां और उनका वर्णन मिलता है । वहाँ एक आठवीं शताब्दि का शिलालेख है, जिससे प्रकट है कि "मलेयतीर्थ की कारेयशास्त्रा में प्राचार्य श्री मूल भट्टारक थे, जिनके शिष्य विद्वान गणकीति थे और उनके शिष्य इच्छा को जीतने वाले श्री मुनि इन्द्रकीर्ति स्वामी थे, उनका शिष्य मेरड़ का बड़ा पुत्र राजा पृथ्वीवर्मा था, जिसने एक जनमंदिर बनवाया था और उसके लिये भूमि का दान दिया था। एक दूसरे सन् १८१ के लेख से विदित है कि कुन्दुर जैन शाखा के गुरु अति प्रसिद्ध थे; उनको चौथे राट्ट राजा शांत ने १५० मत्तर भूमि उस जनमन्दिर के लिये दी जो उन्होंने सौंदत्ति में बनवाया था और उतनी ही भूमि उसी मन्दिर को उनकी स्त्री निजिकदवे ने दी थी । उन दिगम्बराचार्य का नाम थी बाहुबलि जी था और वे व्याकरणाचार्य थे। उस समय श्री रविचन्द्र स्वामी, अर्हनन्दी, शुभचन्द्र, भट्टारकदेव, मौनीदेव, प्रभाचन्द्रदेव, मुनिगण विद्यमान थे । राजाकत्तम की स्त्री पद्मलादेवी जैनधर्म के ज्ञान व श्रद्धान में इन्द्राणी के समान थी । वह दिगम्बर मुनियों की भक्ति में दृढ़ थी।
चालल्य राजा विक्रम के लेख में दि० मनियों का उल्लेख एक अन्य लेख वहीं पर चालुक्य राजा विक्रम के १२ वें राज्य-वर्ष का लिखा हुआ है, जिसमें निम्नलिखित दिगम्बराचार्यों के नाम दिये हुये हैं :
"बलात्कारगण मनि गुणचन्द, शिष्य नयनंदि, शिष्य श्रीधराचार्य, शिग्य चन्द्रकीति, शिष्य थीधरदेव, शिष्य नेमिचन्द्र और वासुपूज्य विधदेव, वासुपूज्य के लघुभ्राता मुनि विद्वान मलपाल थे। वासुपूज्य के शिष्य सर्वोत्तम साध पद्मप्रभ थे। सेरिंगकावंशका अधिकारी गुरु वासुपूज्य का सेवक था ।"
इस प्रकार उपरोक्त लेखों से सौंदत्ति और उसके आस-पास में दिगम्बर मुनियों का बाहुल्य और उनका प्रभावशालो तथा राज्यमान्य होना प्रकट है।
राठौर राजाओं द्वारा मान्य दिल मुनियों के शिलालेख गोबिन्दराय तृतीय राठौर मान्यखेट के सन् ८१३ के ताम्रपत्र से प्रगट है कि गंगवंशी चाकिराज की प्रार्थना पर उन्होंने विजयकीर्ति कुलाचार्य के शिष्य मुनि अर्ककोति को दान दिया था। प्रमोघवर्षे प्रथम ने सन् ८६० में मान्यखेट में देवेन्द्रमुनि को भूमिदान किया था । इनसे दिगम्बर मुनियों का राठौर राजाओं द्वारा मान्य होना प्रमाणित है।
मूलगुड के पुरातत्व में वि० संघ मुलगंड (धारवाड़) का बी-१० शताब्दि का पुरातत्व भी वहां पर दिगम्बर मुनियों के प्रभुत्व का द्योतक है। वहां के एक शिलालेख में वर्णन है कि "चीकारि, जिसने जैन मन्दिर बनवाया था, उस के पुत्र नागार्य के छोटे भ्राता आसार्य ने दान किया । यह प्रासार्य नीति और धर्मशास्त्र में बड़ा विद्वान था । इसने नगर के व्यापारियों को सम्मति से १००० पान के बक्षों के खेत को सेनवंश के प्राचार्य कनकसेन की सेवा में जनमन्दिर के लिये अर्पण किया था। कनकसेनाचार्य के गरु श्री वोर सेनस्वामी थे, जो पूज्यपाद कुमार सेनाचार्य के दिगम्बर मुनियों के संघ के गुरु थे, चन्द्रनाथ मन्दिर के शिलालेख से मलगंड के
१. Ibid., pp. !63-171 २. बंता जैस्मा०, पृ०८३-८६ ३. भाप्रार, भा०३ पु०३०-४१
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राजा मदरसाकी स्त्री भागती की मृत्यु का वर्णन प्रकट है रा यह कि मूलगुण्ड में दिगम्बर मुनियों को एक समय प्रधानपद मिला हुआ था वहां का शासक भी उनका भक्त था ।
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सुन्दी के शिलालेखों में राजमान्य दिगम्बर मुनि
सुन्दी ( धारवाड़ ) के जैन मन्दिर विषयक शिलालेख (१०वीं श० ) में पश्चिमीय गङ्गवंशीय राजकुमार बुटुग का वर्णन है जिसने उस जैनमन्दिर के लिये दिगम्बर गुरु को दान दिया था जिसको उसकी स्त्री दिवलम्बा ने सुन्दो में स्थापित किया था । राजा कुटुग गङ्गमण्डल पर राज्य करता था और श्री नागदेव का शिष्य था। रानी दिवलम्बा दिगम्बर मुनियों और आयिकाओं की परम भक्त थी उसने आयिकाओं को समाधिमरण कराया था। इससे युवी में दिगम्बर मुनियों का राज मान्य होना प्रकट है ।
कुम्भोज बहु पहाड़ (कोल्हापुर) श्री दिगम्बर मुनि बाहय के कारण प्रसिद्ध है, जो वहां हो गये हैं और जिनकी चरण पादुका वहां मौजूद हैं।
कोल्हापुर के पुरातत्व में दिग पुति और शिलाहार राजा
कोल्हापुर का पुरातत्व दिगम्बर मुनियों के उत्प का दोतक है। वहां के परविन म्यूजियम में एक शिलालेख शाका दसवीं शताब्दि का है जिससे प्रगट है कि दण्डनायक दासोमरसने राजा जगदेक मल्ल के दूसरे वर्ष के राज्य में एक ग्राम धर्मार्थ दिया था। उस समय यापनीयसंच पुग्नागवृक्षमुजय राजान्तादि के ज्ञाता परम विद्वान मुनि कुमार कीर्तिदेव विराजित थे। उपरान्त कोल्हापुर के शिलाहार वंशी राजा भी दिगम्बर मुनियों के परम भक्त थे। वहां के एक शिलालेख से प्रकट है कि "शिलाहार वंशीय महामण्डलेश्वर विजयादित्य ने माघ सुदी १५ शाका २०६५ को एक मेत धीर एक मकान श्री पार्श्वनाथ जी के मन्दिर में अन्य पूजा के लिये दिया इस मन्दिर को मूल बंध देशीयवण पुस्तक गच्छ के अधिपति श्री माघनन्दि सिद्धान्त (दिगम्बराचार्य) के शिष्य देवी ने बनवाया था। दान के समय राजा ने पी मानन्द सिद्धान्तदेव के शिष्य माणिक्यनन्दि पं० के चरण धोये थे ।" यमनी ग्राम से प्राप्त शाका १०७३ के लेख से प्रगट है कि "शिलाहार राजा विजयादित्य ने जैन मन्दिर के लिए श्रीन्ान्ययी थी कुलचन्द्र मुनि के शिष्य श्री मामनन्दि सिद्धान्तदेव के शिष्य श्री पनन्दि सिद्धान्तवेव के चरण धोकर भूमिदान किया था । इनसे उस समय दिगम्बर मुनियों का प्रभुत्व स्पष्ट है।
धारटाल शिलालेख में चालुक्य राज पूजित दिगम्बर मुनि
मारा (धावाड़) से एक शिलालेख शाका १००५ का चालुक्यराज भुवनेश के राज्य काल का मिला है उसमें एक जैनमन्दिर बनने का उल्लेख है तथा दिगम्बर मुनि श्री कनकचन्द्र जी के विषय में निम्न प्रकार वर्णन है :स्वस्ति यम-नियम – स्वाध्याय— ध्यान- मौनानुष्ठान-समाधिशील गुण संपन्नर इससे उस समय के दिगम्बर मुनियों की वारिनिष्ठा का पता चलता है।
कनकचन्द्र सिद्धान्त देवः ।"
ग्वालियर और कुण्ड के पुरातत्व में दिगम्बर पुनि
ग्वालियर का पुरातत्व ईस्वी ग्यारहवीं से सोलहवीं शताब्दि तक वहां पर दिगम्बर मुनियों के प्रभ्युदय को प्रगट करता है किले में इस काल की बनी हुई अनेक दिगम्बर मूर्तियां हैं, जो बाघर के विध्वंसक हाथ से बच गई हैं। उनपर कई लेख भी हैं, जिनमें दिगम्बर गुरुमों का वर्णन मिलता है। वालियर के बकुण्ड नामक स्थान से मिला हुआ एक शिलालेख
१. प्राजस्मा १२० – १२१
२.
मा० पू० १२७
३. प्राजस्मा, पृ० १५३
४. जनमित्र वर्ष ३३ अंक ५०७६
५. प्राजेस्मा० पृ० १५३ - १५४
६. दिजैडा०, पृ० ७४१
७. मप्राजेस्मा ८, पृ०६५-६६
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सन् १०८८ में दिगम्बर मुनियो के सघ का परिचायक है। यह लेख महाराज बिक्रमसिंह कछवाहा का लिखाया हुया है, जिसने श्रावक ऋषि को श्रेष्ठीपद प्रदान किया था और जो अपने भुजबिक्रम के लिए प्रसिद्ध था। इस राजा ने दुबकुण्ड के जैनमन्दिर के लिए दान दिया था और दिगम्बर मुनियों का सम्मान किया था। ये दिगम्बर मुनिगण श्रीलाटवागट गण के थे और इनके नाम क्रमशः (१) देवसेन (२) कुलभूषण (३) थीदुर्लभसेन (४) शांतिसेन और (५) विजयकीति थे । इनमें श्री देवसेनाचार्य प्रथरचना के लिए प्रसिद्ध ये और श्रीशांतिसेन अपनी वादकला से विपक्षियों का मद चूर्ण करते थे।
खजराहा के लेखों में वि० मुनि खजराहा के जैन मन्दिर में एक लेख संवत् १०११ का है। उससे दिगम्बर मुनि श्री वासवचन्द्र (महाराज गुरु श्री वासवचन्द्रः) का पता चलता है। वह धांगराजा द्वारा मान्य सरदार पाहिल के गुरु थे।
झालरापाटन में दि० मुनियों की निषिधिकार्य झालरापाटन शहर के निकट एक पहाड़ी पर दिगम्बर मुनियों के कई समाधिस्थान हैं। उन पर के लेखों से प्रगट है कि सं० १०६६ में श्री नेमिदेवाचार्य और थी बलदेवाचार्य ने समाधिमरण किया था।'
अलवर राज्य के लेखों में दि० मुनि अलवर राज्य के नौगमा ग्राम में स्थित दि. जैन मन्दिर में श्री अनन्तनाथ जी की एक कायोत्सर्ग मति है जिनके पासन पर लिखा है कि सं० ११७५ में प्राचार्य विजयकीति के शिष्य नरेन्द्रकीति ने उसकी प्रतिष्ठा को थी।
देवगढ़ (झांसी) के पुरातत्व में दिल मुनि देवगढ़ (झांसी) का पुरातत्त्व वहाँ तेरहवीं शताब्दि तक दिगम्बर मुनियों के उत्काई का द्योतक है। नग्न मूर्तियों से सारा पहाड़ श्रोत प्रोत है। उन पर के लेखों से प्रगट है कि ११वों शताब्दि में वहां एक शुभदेवनाथ नामक प्रसिद्ध मुनि थे। सं० १२०६ के लेख में दिगम्बर गुरुओं को भक्त आयिका धमंधो का उल्लेख है स. १२२४ का शिलालेख पण्डित मुनि का वर्णन करता है। सं० १२०७ में वहां प्राचार्य जयकीर्ति प्रसिद्ध थे। उनके शिष्यों में भावनन्दि मनि तथा कई प्रायिकायें यीं। धर्मनन्दि. कमलदेवाचार्य, नागसेनाचार्य व्याख्याता माघनन्दि, लोकनन्दि और गुणनन्दि नामक दगम्बर मुनियों का भी उल्लेख मिलता है। नं० २२२ को मूर्ति मुनि-यायिका-श्रावक-श्रविका, इस प्रकार चतुर्विधसंघ के लिए बनी थी । गर्ज यह कि देवगढ़ में लगातार कई शताब्दियों तक दिगम्बर मुनियों का दौरदौरा रहा था।
बिजोलिया (मेवाड़) में दिग० साधुनों को मूसियाँ बिजोलिया (पाश्वनाथ–मेवाड़) का पुरातत्व भी वहां पर दिगम्बर मुनियों के उत्कर्ष को प्रगट करता है। वहां पर कई एक दिगम्बर मुनियों की नग्न प्रतिमायें बनी हुई हैं । एक मानस्थम्भ पर तीर्थंकरों की मूर्तियों के साथ दिगम्बर मुनिगण के प्रति विम्व व चरण चिन्ह अंकित हैं । दो मुनिराज शास्त्रस्वाध्याय करते प्रगट किये हैं। उनके पास कमंडल पोछी रक्खे हुए हैं। वे अजमेर के चौहान राजाओं द्वारा मान्य थे । शिलालेखों से प्रगट है कि वहां पर धी मूलसंघ के दिगम्बराचार्य श्री वसन्तकीतिदेव विशालकीत्तिदेव, मदनकी त्तिदेव, धर्मचन्द्रदेव, रत्नकोत्तिदेव, प्रभाचन्द्रदेव, पद्मनन्दिदेव, पोर शुभचन्द्रदेव विद्यमान थे। इनको चौहानरराजा पथ्वीराज और सोमेश्वर ने जैनमन्दिर के लिए ग्राम भेट किए थे । सारांशतः बीजोल्या में एक समय दिगम्बर मनि प्रभावशाली हो गए थे।
अञ्जनेरी गुफाओं में दि० मुनि अंजनेरी और अकई (नासिक जिला) को जैन गुफायें वहां पर १२वीं-१३वौं शताब्दियों में दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व को प्रकट करती हैं। पांडलेना गुफाओं का पुरातत्त्व भी इसी बात का समर्थक है !
बेलगाम के पुरातत्व में राजमान्य दि. मुनि बेलगाम का पुरातत्व वहाँ पर १२वीं-१३ वीं शताब्दियों में दिगम्बर मुनियों के महत्व को प्रगट करते हैं, जो राजमान्य थे। यहां के नाटराजानों ने जनमुनियों का सम्मान किया था, यह उनके लेखों से प्रगट है।
१. मप्रारमा०, पृ. ७३.८४-.-"श्रीलाटवागटपोन्नतरोहणाद्रि माणिक्यभूतचरितागृरु देवसेन । सिद्धान्तोद्विविधोप्यवाघितधिया येन प्रमाण ध्वनि । ग्रंथेष प्रभवः श्रियामवगतो हस्तस्थ मुक्तोपमः "अस्थानानविपती बुधादबिगुगो श्रीभोजदेवे नपे सभ्येवंबर सेन पण्डित शिरोरत्नादिपपदान । योनेकानातसो अजेण्ट पटुताभीष्टोद्यसो दादिनः शास्त्रांभोनिधिपारगो भवदन्तः श्री शान्तिरोनोगुरुः ।" २. मप्राजैग्मा०, १०.११७ ३.lbid. P.191
४. lbid.P 195
५. दे०, पृ० १३-२५ ६. एिजंडा०, पृ० ५०१ ७. मप्रा जस्मा०, पृ. १३३६. राई.' १० ३६३ ६. बंप्राजेस्मा, पृ०५६-५६
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सन् १२०५ के लेख में वर्णन है कि बेलगाम में जब राष्ट्रराजा कीतिवर्मा और मल्किार्जुन राज्य कर रहे थे तब श्री शुभचन्द्र भटारक की सेवा में राजा वीचा के बनाए गए राट्टों के जनमन्दिर के लिये भूमिदान किया गया था। एक दूसरा लेख भी इन्हीं राजाओं द्वारा शुभचन्द्र जी को अन्य भूमि अर्पण किये जाने का उल्लेख करता है इसमें कीर्तवीर्य की रानी का नाम पदमावती लिखा है । सचमुच उस समय वहां पर दिगम्बर मुनियों का काफी प्रभुत्व था।
बेलगामान्तर्गत कोन्नर स्थान से भी राडराजा का एक शिला लेख शाका १००६ का मिला है जिसका भाव है कि "चालुक्य राजा जयकर्ण के आधीन राट्रराज मण्डलेश्वर सेन कोन्नर आदि प्रदेशों पर राज्य करता था, तब बालात्कारगण के वंशधरों को इन नगरों का अधिपति उसने बना दिया था। यहां के जैनमन्दिरों को चालुक्य राजा कौन्न व जयकर्ण द्वारा दान दिये जाने का उल्लेख मिलता है । इनरो दिगम्बर मुनियों का महत्व स्पष्ट है।
वेलगाम जिले के कलहोले ग्राम में एक प्राचीन जैनमन्दिर है, जिसमें एक शिलालेख रादरजा कार्तवीर्य चतर्थ और मल्लिकार्जुन का लिखाया हुआ मौजूद है। उसमें श्रीशांतिनाथ जी के मन्दिर को भूमिदान देने का उल्लेख है। मंदिर के गुरु श्री मूलसंघ कुन्दकुन्दाचार्य की शाखा हणसांगी वंशक थे। इस वंश के तीन गुरु मलधारी थे, जिनके एक शिष्य सैद्धांतिक नेमिचन्द्र थे। श्री नेमिचन्द्र के शिष्य शुभचन्द्र थे। जिन्होंने दिगम्बर धर्म की बहुत उन्नति की थी। उनके शिष्य श्री ललितकीति थे।
वेलगाम जिले में स्थित राथवाग ग्राम में भी एक जैनशिलालेख राडराजा कार्तवीर्य का है। उससे विदित है कि कार्तवीर्य ने भ० शुभचन्द्र को शाका ११२४ में राट्टों के उन जैन मंदिरों के लिए दान दिया था जिन्हें उसको माता चन्द्रिकादेवी ने स्थापित किया था। इससे चन्द्रिका देवी का दि० मुनियों और तीर्थकरों का भक्त होना प्रगट है।
बीजापुर किले की मूर्तियां दि० मुनियों की धोतक बीजापुर के किले की दिगम्बर मुर्तियाँ सं० १००१ में श्री विजयसूरि द्वारा प्रतिष्ठित हैं। उनसे प्रकट है कि बीजापुर में उस समय दिगम्बर मुनियों की प्रधानता थी।
तेवरी को दिगम्बर मुति तेवरी (जबलपूर) के तालाब में स्थित दि. जैनमंदिर की मूर्ति पर बारहवीं शतादिद की लेख है कि "मानादित्य की स्त्री रोज नमन करती है। इससे वहाँ पर जनमुनियों का राजमान्य होना प्रगट है।
दिल्ली के मूति लेखों में दि० मुनि दिल्ली नयामंदिर कटघर की मूर्तियों पर के लेख १५वीं शताब्दी में दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व प्रगट करते हैं। श्री आदिनाथ की मूर्ति पर लेख है कि "सं० १४२५ ज्येष्ठ सुदि १२ सोमवासरे काष्ठासंघे माथुरान्वये भ० थीदेवसेन देवासतत्प त्रयोदशविधचारित्रेनालंकृतः सकल बिमल मुनिमंडली शिष्यः शिखामणय: प्रतिष्ठाचार्यवर्य श्री विमलसेनदेवास्तेषामुपदेशेन जाइसबालान्दये सा० पुरइपति । इत्यादि। इन्हीं मूनि विमलसेन की शिष्या अजिंका गुणश्री विमलथी थी, यह बात उसी मंदिर की एक अन्य मूर्ति पर के लेख से प्रकट है।
लखनऊ के मूति-लेख में निन्थाचार्य लखनऊ चौक के जैनमंदिर में विराजमान श्री आदिनाथ की मूर्ति पर के लेख से विदित है कि सं० १५०३ में श्री भ. सकलकीति के शिष्य श्री निर्ग्रन्थाचार्य विमलकीति थे, जिनका उपदेश और विहार चहुं ओर होता था।
चावलपट्टी (बंगाल) के जैनमन्दिर में विराजमान दशधर्म यन्त्र लेख से प्रकट है कि सं० १५८६ में प्राचार्य श्री रत्नकीति के शिष्य मुनि ललितकीति विद्यमान थे, जिनकी भक्ति भ्रमरीबाई करती थी।
२. Ibid pp 80-81
१. बंताजस्माप० ०७४-७५ २. Ibid pp 82-83 ४. Ibid p 108 ५. दिजडा० पृ० २८७ ६. प्रयलेसं० पृष्ठ २५
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कलकत्ता को मूर्तियां और वि० मुनि यहीं के एक अन्य सम्यकज्ञान यन्त्र के लेख से विदित होता है कि सं० १६३४ में बिहार में भ. धर्मचन्द्र जी के शिष्य मुनि थी बाहुनन्दी का विहार और धर्म प्रचार होता था।'
एटा, इटाया और मैनपुरी के पुरातत्व में दिगम्बर मुनि कुरावली (मैनपुरी) के जैनमन्दिर में विराजमान सम्यकदर्शनयंत्र पर के लेख से प्रगट है कि सं० १५७८ में मनि विशालकोति विद्यमान थे। उनका विहार संयुक्त प्रान्त में होता था। अलोगंज (एटा) के लेखों से मुनिमायनंदि और मुनि धर्मचन्द्र जी का पता चलता है।' इटावा नशियांजी पर कनिपय जनस्तूप हैं और उनपर के लेख मे यहां अठारहवीं शताब्दि में मुनि विनयसागर जी का होना प्रमाणन है। उधर पटना के थी हरकचंद वाले जैनमन्दिर में सं० १६६४ की बनी हुई एक दिगम्बर मुनि की काष्टमूर्ति विद्यमान है।'
सारांशतः उत्तर भारत और महाराष्ट्र में प्राचीन काल से बराबर दिगम्बर मनि होते आये हैं, यह बात उक्त पुरातत्व विषयक साक्षी से प्रमाणित है। अब यह आवश्यक नहीं है कि और भी अनगिनते शिलालेखादि का उल्लेख करके इरा व्याख्या को पूष्ट किया जाय । यदि सबही जनशिलालेख यहाँ लिखे जायें तो इस ग्रन्थ का साकार प्रकार तिगुना-चौगुना बढ़ जाय, जो पाठकों के लिए अरुचिकर होगा!
दक्षिण भारत का पुरातत्व और दि० मुनि अच्छा तो अब दक्षिण भारत के शिलालेखादि पुरातत्व पर एक नजर डाल लीजिए। दक्षिण भारत की पाण्डवमलय प्रादि गफाओं का पुरातत्व एक अति प्राचीन काल में वहां पर दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व प्रमाणित करता है। अनुमनामले (दावनकोर) की गुफामों में दिगम्बर मुनियों का एक प्राचीन ग्राश्रम था। वहां पर दीर्घकाय दिगम्बर मूर्तियां अंकित हैं। दक्षिण देश के शिलालेखों में मदुरा और रामानन्द जिलों में प्राप्त प्रसिद्ध ब्राह्मी लिपि के शिलालेख अति प्राचीन हैं। यह अशोक की लिपि में लिखे हुए हैं। इसलिए इनको ईसवी पूर्व तीसरी शताब्दि का समझना चाहिए। यह जन मन्दिरों के पास बिखरे हुए मिले हैं और इनके निकट ही तीर्थडुरों की नग्न मूर्तियां भी थीं। अतः इनका सम्वन्ध जैन धर्म से होना बहुत कुछ सम्भव है। इससे स्पष्ट है कि ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दी से ही जैन यति दक्षिण भारत में प्रचार करने लगे थे । इन शिलालेखों के प्रतिरिक्त दक्षिण भारत में दिगम्बर मनियों से सम्बन्ध रखने वाले सैकड़ी शिलालेख हैं। उन सबको यहाँ उपस्थित करना असम्भव है। हाँ, उनमें से कुछ एक का परिचय हम यहां अंकित करना उचित समझते हैं। अकेले थवण वेलगोल में ही इतने अधिक शिलालेख हैं कि उनका सम्पादन एक बड़ी पुस्तक में किया गया है। प्रस्तु;
श्रवण वेलमोल के शिलालेखों में प्रसिद्ध दिगम्बर साधुगण पहले श्रवण वेलगोल के शिलालेखों से ही दिगम्बर मुनियों का महत्व प्रमाणित करना श्रेष्ठ है। शक सं०५२२ के शिलालेख से वहां पर श्रुतके वली भद्रबाहु और मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त का परिचय मिलता है। उत दोनों महानुभावों ने दिगम्बर देश में श्रवणबेलगोल को पवित्र किया था ।" शक सं० ६२२ के लेख में मौनि गुरु की शिष्या नागमति को तीन मास का व्रत धारण करके समाधिमरण करते लिखा है। इसी समय के एक अन्य लेख में चरित श्री नामक मुनि का उल्लेख है। धर्मसेन, बलदेव, पट्रिनिगुरु, उग्रसेन गुरु, गुणसेन, पेहभानु, उल्लिकल, तीर्थद, कुलापक आदि दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व भी इसी समय प्रमाणित है। शक सं० ८६६ के लेख से प्रगट है कि गंगराजा मारसिंह ने अनेक लड़ाइयां लड़ कर अपना भुज विक्रम प्रगट किया था और अन्त में अजितसेनाचार्य के निकट बंकापुर में समाधिमरण किया था।
१, उपयलेसं०, पृ. २६ २. प्राज लैस, पृ० ४६ ३. ___३. bid p.70
४. bid pp. 90-91 ५. Mr. Ajitaprasab, Advocate, Lncknow reports. "Patna Jain temple renovated in 1964 V. S. by daughter-in law of Harakchand. On the entrance door is the lifc-size image in wood of a muni with a Kamandal in the right hand & the broken end of what must have been a pichi in the left."
६. SSI7., pt. 1 pp.- 33-35 ७. जैशिस०, पृ० १-२
5, Ibid. p. 3 ६. Ibid. pp. 44--18
१०. Ibid. p. 2
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ताकिक चक्रवर्ती श्री देवकीति शक संवत् १०:५ के लेख में ताकिक चक्रवर्ती श्री देवकीति मुनि का तथा उनके शिष्य लखनन्दि, माधवेन्दु और त्रिभुवन मल्ल का पता चलता है। उनके विषय में कहा :---
"कुर्वेनमः कपिल-वादि-वनोग्न-वन्हये चार्वाक-वादि-मकराकर-बाडवाग्नये । बौद्धोप्रवादितिमिरप्रविभेदभानवे श्रीदेवकीत्तिमनये कविवादिवाग्मिने ॥
"चतुर्म ख चतुर्वक्तूनिर्गमागमदुस्सहा ।
देवकीर्तिमुखाम्भोजे नत्यतीति सरस्वती ।।" सचमुच मुनि देवकी तिजी अपने समय के अद्वितीय काबि, ताकिक और बक्ता थे । वे महामण्डलाचार्य और विद्वान थे और उनके समक्ष सांख्यिक, चावकि, नैयायिक, वेदान्ती, वौद्ध मादि सभी दार्शनिक हार मानते थे।'
महाकवि मुनि श्री श्रुतकीति उक्त समय के एक अन्य शिलालेख में मुनि रेडीत की पुर परमारा दी है। जिससे प्र है कि मनि कनकनन्दि और देवचन्द्र के भ्राता श्रुतकीर्ति विद्यमान ने देवेन्द्र सदश विपक्षबादियों को पराजित किया था और एक चमत्कारी काव्य राघबपाण्डवीय की रचना की थी, जो प्रादि से अन्त को व अन्त से आदि को, दोनों ओर से पढ़ा जा सके । इससे प्रकट है कि उपरोक्त मुनि देवकीर्ति के शिष्य यादव-नरेश नारसिंह प्रथम के प्रसिद्ध सेनापति और मंत्री हुल्लप थे ।
श्री शुभचन्द्र और रानी जवकणचे शक सं० १०६ के लेख में मंत्री नागदेव के गरु श्री नयीति योगीन्द्र व उनकी गुरुपरम्परा का उल्लेख है। शक सं० १०४५ के लेख से प्रगट है कि होयसाल महाराज गंग नरेश विष्णवर्द्धन ने अपने गुरु शुभचन्द्र देव की निषद्या निर्माण कराई थी। इनकी भावज जनक्कणव्वे की जैन धर्म में दढ़ श्रद्धा थी और वह दिगम्बर मुनियों को दानादि देकर सरकार किया करती थी। उनके विषय में निम्न प्रकार उल्लेख है :--
"दोरेये जक्कणिकन्वेगी भुवनदोल चारित्रदोल् शीलदोल परमश्रीजिनपूजेयोल सकलदानाश्चर्यदोल सत्यदोल् । गुरुपादाम्बुजभक्तियोल विनयदोल भव्यक्कलंकन्ददादरिदं मन्निसुतिर्प पेम्पिने डेयोल मत्तन्यकान्ताजनम् ॥"
श्रीगोल्लाचार्य प्रभृत अन्य दिगम्बराचार्य शक सं० १०३७ के लेख में है कि मुनि त्रैकाल्ययोगी के तप के प्रभाव से एक ब्रह्म-राक्षस उनका शिष्य हो गया था। उनके स्मरणमात्र से बड़े-बड़े भूत भागते थे, उनके प्रताप मे करंज का तेल घृत में परिवर्तित हो गया था। गोल्लाचार्य मनि होने के पहले गोल्लदेश के नरेश थे। नत्न चन्दिल नरेश के वंश चूड़ामणि थे। सकलचन्द्र मनि के शिष्य मेषचन्द्र विद्य थे, जो सिद्धान्त में बीरसेन, तर्क में अकलंक और व्याकरण में पुज्यपाद के समान विद्वान थे। शक सं० १०४४ के लेख में दण्डनायक गंग राज की धर्मपत्नी लक्ष्मीमति के गुण, शील और दान की प्रशंसा है वह दिगम्बराचार्य श्री शुभचन्द्रजो की शिन्या थीं। इन्हीं आचार्य की एक अन्य धर्मात्मा शिष्या राजसम्मानित चमुण्डको स्त्री देवमति थी । शक सं० १०६८ के लेख में अन्य दिगम्बर मनियों के साथ श्री शुभकीति प्राचार्य का उल्लेख है, जिनके सम्मुख बाद में बौद्ध, मीमांसकादि कोई भी नहीं ठहर सकता था। इसी में श्री प्रभाचन्द्रजी की शिष्या विष्णुवर्द्धन नरेशकी पटरानी शान्तलदेवी की धर्मपरायणता का भी उल्लेख है। १. शिप्त पृ. २३-.-२४
२. Ibid pp. 24-30 ३.bid. pp. 33-42
४. [bid, pp.43.49 ५. Ibid. pp. 55-66
६. Ibid, pp. 67-70 ७. Ibid. pp. 80-81
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शक सं० १०५० के लेख में श्री महावीर स्वामी के बाद दि० मुनियों की शिष्यपरम्परा का बखान है, जिनमें श्रुतकेवली भद्रबाह और सम्राट चन्द्रगुप्तमौर्य का भी उल्लेख है । कुन्द-कुन्दाचार्य के चारित्र-गुणादि का परिचय भी एक श्लोक द्वारा कराया गया है।
श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्र प्राचार्य इन प्राचार्य को एक अन्य शिला लेख में मूल संघ का अग्रणी लिखा है। उन्होंने चारित्र की श्रेष्ठता से चारणऋद्धि प्राप्त की थी, जिसके बल से वह पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर चलते थे' । श्री समन्तभद्राचार्य जी के विषय में कहा गया है
"पूर्व पाटलिपुत्र-मध्य-नगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहंकरहाटकं बहु-भटं विद्योत्कर्ट संकाट वादाी बिचराम्यहन्नरपते शाई लविक्रीडितम् ।।७।। अवटु-तटमटतिझटिति स्फुट-पटु-वाचाट धूर्जटेरपिजिह्वा ।।
वादिनि समन्तभद्र स्थितबतितदसदसि भूपकास्थान्येषाँ ।।।। भाव यही है कि श्री समन्तभद्रस्वामी ने पहले पाटलिपुत्र नगर में वादभेरी बजाई थी। उपरान्त वह मालव, सिंघ, पजाब, कांचीपुर, विदिशा आदि में बाद करते हुए करहाटक मगर (कराड) पहुंचे थे और वहां की राजसभा में वाद-गर्जना की थी। कहते हैं कि वादीसमन्तभद्र की उपस्थिति में चतुराई के साथ स्पष्ट, शीघ्र और बहुत बोलने वाले धूर्जटि को जिह्ना ही जब शीन अपने बिल में घुस जाती है-उसे कुछ बोल नहीं पाता-तो फिर दुसरे विद्वानों की तो कथा ही क्या है ? उनका प्रस्तित्व तो समन्तभद्र के सामने कुछ भी महत्व नहीं रखता। सच मुच समन्तभद्राचार्य जैनधर्म के अनुपम रत्न थे। उनका वर्णन अनेक शिलालेखों में गौरवरूप से किया गया है। तिरुमकूडलु नरसीपुर ताल्लुके के शिलालेख नं० १०५ के निम्न पद्य में उनके विषय में ठीक ही कहा गया है कि
समन्तभद्र संस्तुत्य: कस्य न स्यान्मुनीश्वरः ।
वाराणसीश्वरस्याग्रे निजिता येन विद्विषः । अर्थात-"वे समन्तभद्र मुनीश्वर जिन्होंने वाराणसी (बनारस) के राजा के सामने शत्रुओं की-मिथ्यकान्तबादियों को-परास्त किया है, किस के स्तुतिपात्र नहीं हैं ? वे सभी के द्वारा स्तुति किये जाने के योग्य हैं।" शिवकोटि नामक राजा ने श्री समन्तभद्रजी के उपदेश से ही जिनेन्द्रीय दीक्षा ग्रहण की थी।
श्री वचनीव प्रावि दिगम्बराचार्य दिगम्बराचार्य श्री वऋग्रीव के विषय में उपरोक्त श्रवणबेलगोलीय शिलालेख बताता है कि वे छ: मास तक 'अथ' शब्द का अर्थ करने वाले थे। श्री पात्रकेसरी गुरु विलक्षण सिद्धान्त के खण्डनकर्ता थे। श्रीवर्णदेव चूड़ामणि काव्य के कर्ता कवि दण्डी द्वारा स्तुत्य थे। स्वामी महेश्वर ब्रह्मराक्षसों द्वारा पूजित थे । अकलंक स्वामी बौद्धों के बिजेता थे। उन्होंने साहस तक नरेश के सम्मुख, हिमशोतल' नरेश की सभा में उन्हें परास्त किया था । विमलचन्द्र मुनि ने संव पाशुपतादिवादियों के लिये 'शत्रभयंकर' के भवनद्वार पर नोटिस लगा दिया था। पर वादिमल्ल ने कुष्णराज के समक्ष वाद किया था । मनि वादिराज ने चालक्यचक्रेश्वर जयसिंह के कटक में कीत्ति प्राप्त की थी। प्राचार्य शान्तिदेव होयशाल नरेश विनयादित्य द्वारा पूज्य थे चतम खदेव मुनिराज ने पाण्ड्य नरेश से 'स्वामों' की उपाधि प्राप्त की थी और पाहवबल्लनरेश ने उन्हें 'चतुर्मखदेव रूपी सम्मानित नाम दिया था। गर्ज यह कि यह शिलालेख दिग० मुनियों के गौरब-गाथा से समन्वित है।
दिगम्बराचार्य श्री गोपनन्दि शक सं० १०२२ (नं० ५५) के शिलालेख से जाना जाता है कि मूल संघ देशीयगण आचार्य गोपनन्दि बह प्रसिद्ध हए थे। वह बड़े भारी कवि और तर्कप्रवीण थे। उन्होंने जैनधर्म की बैसी ही उन्नति की थी जैसी गंगनरेशों के समय में कई थी। उन्होंने धूर्जटि की जिह वा को भी स्थगित कर दिया था। देशदेशान्तर में बिहार करके उन्होंने सांस्य, बौद्ध, चावकि,
१. Ibid,, Jntro, p, 140 २. जैशिसं० पृ० १०१-११४
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जैमिनि, लोकायत आदि विपक्षी मतों को हीनप्रभ बना दिया था। वह परमतप के निधान, प्राणीमात्र के हितैषी और जैन शासन के सकल कलापूर्ण चन्द्रमा थे । होयसलनरेश एरेयंग उनके शिष्य थे, जिन्होंने कई ग्राम उन्हें भेंट किये थे।
धारानरेश पूलित प्रभाचन्द्र इसी शिला लेख में मुनि प्रभाचन्द्र जी के विषय में लिखा है कि वे एक सफल वादी थे और धारानरेश भोज ने अपना शीश उनके पवित्र चरणों में रक्खा था।
श्री दामनन्दि श्री दामनन्दिमुनि को भी इस शिला लेख में एक महावादी प्रगट किया गया है, जिन्होंने बौद्ध, नैयायिक और वैष्णवों को शास्त्रार्थ में परास्त किया था। महावादी 'विष्णु-भट्ट' को परास्त करने के कारण वे 'महावादि विष्णु भट्टघरट्ट' कहे गये हैं।
श्री जिनचन्द्र श्री जिनचन्द्र मुनि को यह शिलालेख व्याकरण में पूज्यपाद, तक में भट्टाकलंक और साहित्य में भारवि बतलाताहै ।
शुभाश-पूजित श्री वासवचन्द्र श्री वासवचन्द्र मुनिने चालूक्य नरेश के कटक में 'बाल-सरस्वती की उपाधि प्राप्त की थी, यह भी इस शिलालेख से प्रगट है । स्याद्वाद और तक शास्त्र में यह प्रवीण थे।
सिंहल नरेश द्वारा सम्मानित यःकोत्ति मुनि श्री यश:कीति मनि को उक्त मिला लेख सार्थक नाम बताता है। व विशाल कीर्ति को लिये हुये स्थाद्वाद-सूर्य ही थे। बौद्धादि वादियों को उन्होंने परास्त किया था। तथा सिहल-नरेश ने उनके पूज्यपादों का पूजन किया था ।
श्री कल्याण कोत्ति थी कल्याण कीर्ति मुनि को उक्त शिलालेख जीवों के लिये कल्याण कारक प्रगट करता है । वह शाकनी प्रादि वाधानों को दूर करने में प्रवीण थे।
श्री त्रिमुष्टि मनीन्द्र बड़े सैद्धान्तिक बताये गये हैं। वे तीन मुट्ठी अन्न का ही प्रहार करते थे। सारांश यह कि उक्त शिलालेख दिगम्बर मुनियों की गौरव-गाथा को जानने के लिये एक अच्छा साधन है ।
१. जैशिसं०, पृ० ११७ 'परमतयो निधान, वसुधैककुटुम्बजनशासनाम्बर-परिपूर्णचन्द्र-सकलागम --तत्त्व-पदार्थ-शास्त्र-विस्तर-वचनाभिराम गुण-रत्नविभूषण गोपणन्दिः ।।
२. जैशिसं० पू० ३६५ ३. जैशिसं० १० ११८ ४. "बौद्रोर्वीधर-शम्बः नव्यायिक-कज-कुश-विधु-बिम्मः । श्री दामनन्दिविबुधः क्षुद्र-पहावादि-विष्णुभट्ट रट्ट ।।१६।।
-जंशिसं०, पृ० ११८ ५. जैनन्द्र पूज्य (पादः) सवालसमयलयके व भट्टाकलंकः ।
साहित्ये भारविस्स्थाकवि-गमक-महावाद-वाग्नित्व-रुन्द्रः । गीते वाद्य च नत्ये दिशि विदिशि च संवति सत्त्रीति मूर्तिः ।
स्थेयाश्छयोगिवृन्दाचितपद जिनचन्द्रो विचन्द्रोमुनीन्द्रः ।। ६. जैशिम पृ० ११६-"चालुक्य-कटक-मध्ये बाल-सरस्वतिरिति प्रसिद्धि प्राप्त: ।" २. "श्रीमान्यशः कीति-विशालकोति स्स्याद्वाद तकब्जि-विबोधनार्कः ।
बौदादि-वादि-द्विप-कुम्भ-भेदी श्री सिंहलाधीश-कृताध्य पाथः ।।२६।।" ८. कल्याणकीति नामाभूभव्य-कल्याण कारफः ।
शाकिन्यादि-प्रहारपांच निर्धाटन-दुदरः -जंशिरा, पृ० १२१ २. "गुष्टि त्रय-अमिताशन-तुष्टः शिष्ट-प्रिय स्त्रिमुष्टि मुनीन्द्रः ।"
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यादीन्द्र अभयदेव शक सं० १३२० (नं० १०५) के शिलालेख में भी अनेक दिगम्बराचार्यों की कीति गाथा का बखान है। बादीन्द्र अभयदेवसूरि ने बौद्धादि परवादियों को प्रतिभाहीन बना दिया था। यही शत प्राचार्य चारुकीति के विषय में कही
होयसाल वंश के राजगुरु दि० मुनि शक सं०१२०५ (नं० १२६) में होयसाल वंश के राजगुरु महामण्डलाचार्य माघनंदि का उल्लेख है। जिनके शिष्य बेल्गोल के जौहरी थे ।
योगी दिवाकरनन्दि नं० १३६ के शिलालेख में योगी दिवाकरनन्दि तथा उनके शिष्यों का वर्णन है। एक गन्ती नामक भद्र महिला ने उनसे दीक्षा लेकर समाधिमरण किया था।
एक सौ पाठ वर्ष तप करने वाले वि० मुनि नं. १५६ शिलालेख प्रगट करता है कि कालन्तुर के एक मुनिराज ने कटवा पर्वत पर एक सो पाठ वर्ष तक तप करके समाधिमरण किया था
गर्ज यह है कि श्रवण बेलगोल के प्रायः सब ही शिला लेख दिगम्बर मुनियों की कोत्ति और यशको प्रगट करते हैं। राजा और रंक सब ही का उन्होंने उपकार किया था। रणक्षेत्र में पहुंच कर उन्होंने वीरों की सन्मार्ग सुझाया था। राजा-रानी, स्त्री-पुरुष, सब ही उनके भक्त थे।
दक्षिण भारत के अन्य शिलालेखों में दिग० मुनि श्रवण बेलगोल के अतिरिक्त दक्षिण भारत के अन्य स्थानों से भी अनेक शिलालेख मिले हैं, जिनसे दिगम्बर मनियों का गौरव प्रकट होता है। उनमें से कुछ का संग्रह प्रो. शेषगिरिराव ने प्रकट किया है। जिससे विदित होता है कि दिगम्बर मुनि इन शिला लेखों में यम-नियम-स्वाध्याय-ध्यानधारण-मौनानुष्टान-जप-समाधि-शीलगुण-सम्पन्न लिखे गये हैं। उनका यह विशेषण उन्हें एक सिद्ध-योगी प्रगट करता है। प्रो० सा० उनके विषय में लिखते हैं कि
"From these epigraphs we learn some details about the great ascetics and acharayas who spread the gospel of Jainism in the Andhra-Karnata desa. They were not only the leaders of lay and ascetic disciples, but of Royal dynasties of warrior clans that held the destinies of the peoples of these lands in their hands."
भावार्थ-"उक्त शिलालेख-संग्रह से उन महान दिगम्बर मुनियों और प्राचार्यों का परिचय मिलता है, जिन्होंने आन्ध्र-कर्णाटक देश में जैन धर्म का संदेश विस्तुत किया था। वे मात्र धावक और साधु शिष्यों के ही नेता नहीं थे, बल्कि उन क्षत्रिय कूलों के राजवंशों के नेता थे कि जिनके हाथों में उन देशों की प्रजा के भाग्य की बागडोर थी।"
दिगम्बरचार्यों का महत्वपूर्ण कार्य सचमुच दिगम्बर मुनियों ने बड़े २ राज्यों की स्थापना और उनके संचालन में गहरा भाग लिया था। पुलल (मद्रास) के पुरातत्त्व से प्रगट है कि एक दिगम्बराचार्य ने असभ्य कुटुम्बों को जैन धर्म में दीक्षित करके सभ्य शासक बना दिया था वे जैन धर्म के महान रक्षक थे और उन्होंने धर्म लगन से प्रेरित होकर बड़ी-बड़ो लड़ाइयां लड़ी थी। उनने ही क्या, बल्कि दिगम्बराचार्यों के अनेक राजवंशी शिष्यों ने धर्म संग्राम में अपना भुज-विक्रम प्रगट किया था। जैन शिलालेख उनकी रण
१. जैशिसं०, पृ० १९८-२०७ २. Ibid p253 ४. lbid p 308 ६. Ibid. p.68
3. Ibid p 289 ५. SSIJ. pt.l] p.6 ७. OII.p. 236
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गाथाओं से अोतप्रोत हैं। उदाहरणतः गङ्गसेनापति क्षत्रचूड़ामणि श्री चामुण्डराय को ही ले लीजिए, वह जैनधर्म के दृढ़ श्रद्धानी ही नहीं, बल्कि उसके तत्व के ज्ञाता थे। उन्होंने जैनधर्म पर कई श्रेष्ठ ग्रन्थ लिखे हैं और बह श्रावक के धर्माचार का भी पालन करते थे; किन्तु उस पर भी उन्होंने एक नहीं अनेक सफल सग्रामों में अपनी तलवार का जौहर जाहिर किया था। सचमुच जैनधर्म मनुष्य को पूर्ण स्वाधीनता का सन्देश सुनाता है। जैनाचार्य निःसड और स्वाधीन होकर वही धर्मोपदेश जनता को देते हैं जो जनकल्याणकारी हो । इसीलिए वह 'वसुधवकुटम्यकम्' कहे गये हैं । भीरता और अन्याय तो जैन मुनियों के निकट फटक भी नहीं सकता है।
प्रो० सा. के उक्त संग्रह में विशेष उल्लेखनीय दिगंबराचार्य श्री भावसेनवेद्य चक्रवर्ती, जो वादियों के लिये महाभयानक (Terror to disputant) थे, वह पोर बवराज के गुरु (Preceptor of Bava king) श्री भावनन्दि मुनि हैं।'
उपरान्त के शिलालेखों में वि० मुनि सन् १४७८ ई० में जिजी प्रदेश में दिगंबराचार्य श्री वीरसेन बहु प्रसिद्ध हुये थे। उन्होने लिंगायत प्रचारकों को समक्ष वाद में विजय पाकर धर्मोद्योत किया था और लोगों को पुनः जैन धर्म में दीक्षित किया था । कारकाल में राजा वीर पाण्डेय ने दिगवराचार्यों को प्राधय दिया था और उनके द्वारा सन् १४३२ में श्री गोम्मट-मति को प्रतिष्ठा कराई थी, जिसे उन्होंने स्थापित कराया था। एक ऐसी ही दिगंबर मुर्तिकी स्थापना देणर में सन् १६०४ में श्री तिम्मराज द्वारा की गई थी। उस समय भी दिगंबराचार्यों ने धर्माद्योत किया था। सन् १५३० के एक शिलालेख से प्रगट है कि श्री रंगनगर का शासक विधर्मी हो गया था, उसे जैन साध विद्यानन्दि ने पुनः जैन धर्म में दोक्षित किया था।
वि० मुनि श्री विद्यानन्दि इसी शिलालेख से यह भी प्रगट है कि 'इन मुनिराज ने नारायण पट्टन के राजा नंददेव की सभा में नंदनमल्ल भट को जीता. सातवेन्द्र राजा केशरी बर्मा की सभा में बाद में विजय पाकर 'वादी' पद पाया, सालुखदेव राजा की सभा में महान विजय पाई विलिगे के राजा नरहिस की सभा में जैनधर्म का माहात्म्य प्रगट किया, कारकल नगर के शासक भैरव राजा की सभा में जैन धर्म का प्रभाव विस्तारा राजा कृष्णराय की राजसभा में विजयी हुए, कोपन व अन्य तीथों पर मार उत्सव कराये, थवण वेलगोल के श्री गोम्मट स्वामी के चरणों के निकट प्रापने अमृत की वर्षा के समान योगाभ्यास सिद्धान्त मनियों को प्रगट किया, जिरसप्पा में प्रसिद्ध हये, उनकी आज्ञानुसार श्रीवरदेव राजा ने कल्याण पूजा कराई और वह संगी राजा और पद्मपुत्र कृष्णदेव से पूज्य थे ।" यह एक प्रतिभाशाली साधु थे और जिनके अनेक शिष्य दिगंबर मुनिगण थे।
सारांशत: दक्षिण भारत के पुरातत्व से वहां दिगंबर मुनियों का प्रभावशाली अस्तित्व एक प्राचीन काल से बराबर सिद्ध होता है । इस प्रकार भारत भर का पुरातत्व दिगंबर जैन मुनियों के महती उत्कर्ष का द्योतक है।
[२४] विदेशों में दिगम्बर मुनियों का विहार
India had pre-cmincntly been the cradle of culture and it was from this country that other natioos bad understood even the rudiments of cultruc. For example, they were told, the
१. बीर वर्ष ७ पृ० २---११ ३. बीर, व ५ पु० २४६ ५. मजस्मा०, पृ. ३२०-३२१
२. SS.IJ.pt, VI Pp61-62 ४. जौघ, पृ० ७० व DG
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Buddhistic missionaries and Jaina monks went forth to Greece and Rome and to places as far as Norway and had spread their culture
-Prof. M.S. Ramaswamy ]yengar जैन पुराणों के कथन से स्पष्ट है कि तीथंकरों और श्रमणों का विहार समस्त प्रार्य खंड में हुआ था। बर्तमान की जानी हुई दुनिया का समावेश ग्रायखंड में हो जाता है। इसलिये यह मानना ठीक है कि अमरीका, यूरोप, ऐशिया आदि देशों में एक समय दिगम्बर धर्म प्रचलित था और वहां दिगम्बर-मनियों का विहार होता था। अाधुनिक विद्वान् भी इस बात को प्रकट करते हैं कि बौद्ध और जैनभिक्षुगण यूनान, रोम और नारवे तक धर्म प्रचार करते हुए पहुंचे थे !
किन्तु जैनपुराणों के वर्णन पर विशेष ध्यान न देकर यदि ऐतिहासिक प्रमाणों पर ध्यान दिया जाय, तो भी यह प्रगट होता है कि दिगम्बर मनि विदेशों में अपने धर्म का प्रचार करने को पहुंचे थे। भ. महाबीर के विषय में कहा गया है कि वे आकनीय, वकार्थप, वाल्हीक, यवनश्रुति, गांधार क्वाधातोय, ताणं और कार्ण देशों में भी धर्म-प्रचार करते हुए पहुंचे थे। ये देश भारतवर्ष के बाहर ही प्रगट होते हैं। प्राकनीय संभवतः श्राकसीनिया (Oxiana) है। यवनश्रुति युनान अथवा पारस्य का द्योतक है। वाल्हीक बल्ख (Bulkh) है। गांधार बंधार है। क्वाथातोप रेड-सी (Red Sea) के निकट के देश हो सकते हैं । ताण-कार्ण तूरान आदि प्रतीत होते हैं। इस दशा में कंधार, यूनान, मिश्र आदि देशों में भगवान का बिहार हुग्रा मानना ठीक है।'
सिकन्दर महान के साथ दिगम्बर मुनि कल्याण मान के लिए यहां से प्रस्थानित हो गये थे और एक अन्य दिगम्बराचार्य यूनान धर्म प्रचारार्थ गरे थे, यह पहले लिखा जा चुका है। यूनानी लेखकों के कथन से वैक्दिया (Bactria) और इथ्यू पिया (Ethiopia) नामक देशों में श्रमणों के विहार का पता चलता है। ये श्रमणगण दि० जैन ही थे, क्योंकि बौद्ध श्रमण तो सम्राट अशोक के उपरान्त विदेशों में पहुंचे थे।
प्रफोका के मिथ और अबीसिनिया देशों में भी एक समय दिगम्बर मनियों का विहार हया प्रगट होता है। क्योंकि वहां की प्राचीन मान्यता में दिगम्बरत्व को विशेष आदर चला प्रमाणित है। मिश्र में नग्न मूर्तियां भी बनी थीं और वहां की कुमारी संटमेरी (St. Mary) दिगम्बर साध के भेष में रहो थी। मालूम होता है कि रावण को लंका अफ्रीका के निकट ही था ओर जैन-पुराणों से यह प्रगट ही है कि वहां अनेक जैन मन्दिर और दिगंबर मुनि थे।
यूनान में दिगम्बर मुनियों के प्रचार का प्रभाव काफी हा प्रगट होता है। वहां के लोगों में जन मान्यताओं का प्रादर हो गया था। यहां तक कि डायजिसेन (Diogenes) ओर सम्भवतः परहो (Pyrroh of Elis) नामक यूनानी तत्व वेता दिगंबर वेप में रहे थे। परहो ने दिगंबर मनियों के निकट शिक्षा ग्रहण की थी। यूनानियों ने नग्न मतियां भी बनायों थी; जैसे कि लिखा जा चुका है।
जय यूनान और नारवे जैसे दूर के देशों में दिगवर मुनिगण पहुंचे थे, तो भला मध्य एशिया के अरव ईरान और अफगास्नितान प्रादि देशों में वे क्यों न पहुंचते ? सनमुच दिगंबर मुनियों का बिहार इन देनों में एक समय में हुआ था। मौर्य सम्राट् सम्प्रति ने इन देशों में जैन श्रमणों का विहार कराया था, यह पहले ही लिखा जा चुका है । मालूम होता है कि
१. Tte "Hindu of 25th July 1919 & JG. XV 27 २. भपा०, १५६-- १५७ ३. हरिवंशपुराण, सर्ग ३ श्लो०३-५ ४. वीर, वर्ष अंक ५. संजैइ०, भा २ पृ० १०२-१०३ ६. A]. p. 104 ७. AR., 13.p6. व जैन होस्टल मैगजीन भाग ११०६ ८. भाषा०, पृ० १६०-२६२
E. NJ., Intro p. 2 and "Diogenes Laertius (17.61 and 63 ) refers to the Gymnosophists and asserts that Pyrrho of Elis, the founder of pure Scepticism came under their influence and on his return the Elis imitated their habits of life "E.B.XJI 753
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दिगम्बर मुनि अपने इस प्रयास में सफल हुये थे, क्योंकि यह पता चलता है कि इस्लाम मजहब की स्थापना के समय अधिकांश जैनी अरब छोड़कर दक्षिण भारत में ग्रा बसे थे' तथा हुएन सांग के कथन से स्पष्ट है कि ईस्वी सातवीं शताब्दि तक दिग म्दर मुनिगण अफगानिस्तान में अपने धर्म का प्रचार करते रहे थे।"
J
दिगम्बर मुनियों के धर्मोपदेश का प्रभाव इस्लाम मजहब पर बहुत कुछ प्रतीत होता है। दिगम्बर के सिद्धान्त का इस्लाम मजहब में मान्य होना इस बात का सबूत है परवी कवि और तत्ववेता अबु-तु मला (Bbal Aia ई० १७३१०१०) की रचनाओं में जनत्व को काफी मिलती है। अमला शाकभोजी तो थे ही परन्तु वह म० गान्धी की तरह यह भी मानते थे कि एक अहिंसक को दूध नहीं पीना चाहिए। मधु का भी उन्होंने जैनों की तरह निषेध किया था । अहिंसा धर्म को पालने के लिए अबुल श्रला ने चमड़े के जूतों का पहनना भी बुरा समझा था और नग्न रहना वह बहुत अच्छा समझते थे। भारतीय साम्रों का अन्त समय यम्भिचिता पर बैठ कर शरीर को भस्म करते देखकर वह बड़े आश्चर्य में पड़ गये थे । इन सब बातों से यह स्पष्ट है कि अबु-अला पर दिगम्बर जैन धर्म का काफी प्रभाव पड़ा था और उसने दिगम्बर मुनियों को यह अवश्य ही दिगंबर मुनियों के संसर्ग में माये
प्रतीत होते हैं उनका अधिक समय बगदाद में व्यतीत हुआ था।
का (Ceylon) में जैन धर्म की गति प्राचीन काल से है। ईस्वी पूर्व चौथी गताब्दि में सिंहलनरेश पाटुका भय ने वहां के राजनगर धनुरुद्धपुर में एक जैन मन्दिर और जैन मठ बनवाया था। निर्व्रन्थ साधु वहां पर निर्वाध धर्म प्रचार करते थे। इक्कीस राजाओं के राज्य तक वह जैग बिहार और मठ वहां मौजूद रहे थे, किन्तु ई० पू० १८ में राजा बटुमिनीने उनको नष्ट करा कर उनके स्थान पर बौद्ध बिहार बनवाया था। उस पर भी दिगम्बर मुनियों ने जैन धर्म के प्राचीन केन्द्र लंका या सिंहलद्वीप को बिल्कुल ही नहीं छोड़ दिया था। मध्यकाल में मुनि यश-कीर्ति इतने प्रभावशाली हुये थे कि तत्कामीन सिंह नरेश ने उनके पाद-पयों की वर्षा की थी।*
सारांशतः यह प्रकट है कि दिगंबर मुनियों का बिहार विदेशों में भी हुआ था मारतेतर जनता का भी उन्होंने
कल्याण किया था ।
( २५ )
मुसलमानी बादशाहत में दिगम्बर मुनि
HO son, the kingdom of India is full of different religions..... It is incumbent of thee to wipe all religious prejudices off the tablet of thy beart; administer Justice according to the ways of every religion. -Badar
मुसलमान और हिन्दुओं का पारस्परिक सम्बन्ध
ई० वी १० वीं शताब्दि से अरव के मुसलमानों ने भारतवर्ष पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया था किन्तु कई शताब्दियों तक उनके पैर यहाँ पर नहीं जमे थे। वह लूट-मार करके जो मिला उसे लेकर अपने देश को सोट जाते थे। इन प्रारंभिक आक्रमणों में भारत के स्त्री-पुरुषों को एक बड़ी संख्या में हत्या हुई थी और उनके वर्ग मन्दिर र मूर्तियां भी खूब सोड़ी गई थीं। तिमूरलंग ने जिस रोज दिल्ली पत को उस रोज उसने एक लाख भारतीय कैदियों को तोप दम करवा दिया
Ar., Ix. $48
३. जै६०, पृ० ४१६ ५. जैसि सं० ११२
२. हुभा०, पृ०
४. महावंश AISJ p. 37
s. QJMS., Vol. XVIII p. 116
७. Flliot III. p. 436 100000 in fidels, impious idolators were on that day slain."
-Malfuzat-i-Timuri.
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सचमुच प्रारम्भ में मुसलमान आक्रमणकारियों ने हिन्दुस्तान को बेतरह तबाह किया; किन्तु जब उनके यहां पर पैर जम गये और वे यहां रहने लगे तो उन्होंने हिन्दुस्तान का होकर रहना ठीक समझा। यहां की प्रजा को संतोषित रखना उन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य माना । बाबर ने अपने पुत्र हुमायूं को यही शिक्षा दी कि “भारत में अनेक मतमतान्तर हैं, इसलिये अपने हृदय को धार्मिक पक्षपात से साफ रख और प्रत्येक धर्म की रिवाजों के मुताबिक इन्साफ कर" परिणाम इसका यह हसा कि हिन्दुनो और मसलमानों में परस्पर विश्वास और प्रेम का बीज पड़ गया। जनों के विषय में प्रो० डा. हेल्मथ वॉन ग्लाजेनाप कहते हैं कि "मसलमानों और जैनों के मध्य हमेशा वैर भरा सम्बन्ध नहीं था.' (वरिक) मुसलमानों और जैनों के बीच मित्रता का भी संबंध रहा है।" इसी मंत्रीपूर्ण संबंध का ही यह परिणाम था कि दिगंबर मुनि मुसलमान बादशाहों के राज्य में भी अपने धर्म का पालन कर सके थे।
ईसवी इसबीं शताब्दि में जब अरब का सौदागर सुलेमान यहाँ पाया तो उसे दिगंबर साधु बहु-संख्या में मिले थे, यह पहले लिखा जा चका है। गज यह कि मुसलदाना पाते हो कहां पर नंगे दरवेशों को देखा । महमूद गजनी (१००१) और महमद गौरी (११७५) ने अनेक बार भारत पर आक्रमण किये; किन्तु वह यहाँ ठहरे नहीं। ठहरे तो यहां पर 'गुलाम खानदान' के सुल्तान और उन्हीं से भारत पर मुसलमानी बादशाहत की शुरुआत हुई समझना चाहिये। उन्होंने सन् १२०६ से १२६० ई. तक राज्य किया और उनके बाद खिलजी, तुगलक और लोदी वंशों के बादशाहों ने सन् १२६० से १५२६ ई० तक यहाँ पर शासन किया ।
मुहम्मद गौरी और दिगम्बर मुनि इन बादशाहों के जमाने में दिगम्बर मुनिगण निर्वाध धर्म-प्रचार करते रहे थे, यह बात जैन एवं अन्य श्रोतों से स्पष्ट है। गुलाम बादशाहों के पहले ही दिगम्बर मुनि सुल्तान महमूद का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर चुके थे। सुल्तान महम्मद गोरी के सम्बन्ध में तो यह कहा जाता है कि उसकी बेगम ने दिगंबर प्राचार्य के दर्शन किये थे । इससे स्पष्ट है कि उस समय दिगंबर मुनि इतने प्रभावशाली थे कि वे विदेशी आक्रमणकारियों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने में समर्थ थे।
गुलाम बादशाहत में दिगम्बर मुनि गुलाम बादशाहत के जमाने में भी दिगंवर मुनियों का अस्तित्व मिलता है। मूलसंघ सेनगण में उस समय श्री दुर्लभ सेनाचार्य, श्री धरसेनाचार्य, श्रीषण, श्री लक्ष्मीसेन, श्रीसीमसेन प्रभूत मुनिपुंगव शोभा को पा रहे थे । श्री दुर्लभसेनाचार्य ने अंग कलिंग, कश्मीर, नेपाल, द्राविड़, गौड़, केरल, तैलग, उडू ग्रादि देशों में विहार करके विधर्मी प्राचार्यों को हतप्रभ किया था । इसी समय में श्री काष्ठासंघ में मनि श्रेष्ठ विजयचन्द्र तथा मुनि यश कीर्ति, अभयकीर्ति, महासेन, कुन्दकीर्ति, त्रिभुवन चन्द्र, राम सेन प्रादि हुये प्रतीति होते हैं ! ग्वालियर में श्री अकलंकचन्द्र जी दिगंबर वेष में सं० १२५७ तक रहे थे।
खिलजी, तुगलक और लोदी बादशाहों के राज्य और दिगम्बर मुनि खिलजी, तुगलक और लोदी बादशाहों के राज्यकाल में अनेक दिगंबर मुनि हुए थे । काष्ठासंघ में श्री कुमारसेन, प्रतापसेन, महातपस्वी माहवसेन प्रादि मुनिगण प्रसिद्ध थे । महातपस्वी श्री माहबसेन अथवा महासेन के विषय में कहा जाता है
१. DJp 66 ond जब०, पृ०, ६८ २. Oxford. pp. 109-130
३. 'अलकेश्वरपुराभरवच्छनगरे राजाधिराज परमेश्वर यवन रायशिरोगरिंग गहम्मदबादशाह सुर घाणसमरया पूर्णादखिलदष्टिनिपातेनाष्टादश वर्षधायप्राप्तदेवलोकधीश्रुतवीरस्वामिनाम् ।"-- अर्थात्-- 'अलकैश्वसुर के भरोचनगर में राजेश्वर स्वामी यवन राजाओं में श्रेष्ठ महम्मद वादशाह के कारण समस्या की पूर्ति से तथा इष्ट होने से १८ वर्ष की अवस्था में स्वर्ग गए हुए थी शुनवीर स्वामी हुए ।
--जैसिभा, भा० १ कि २-३ पृ० ३५ ४. IA., Vol.XXIp.361.--."Wife of Muhammad Ghori desired to see the Chief of the Digambaras,"
५. जैसिभा , भा० १ कि० २-३ प० ३४ ६. Tbid., किरण ४ पृ० १०६ ७. वृजश०, पृ० १०
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कि उन्होंने खिलजी बादशाह अलाउद्दीन से सम्मान पाया था' । इतिहास से प्रगट है कि अलाउद्दीन धर्म को परवाह कुछ नहीं करता था। उस पर राधो और चतन नामक ब्राह्मणों ने उसको ओर भो बरगला रक्खा था । एकदा उन्हीं दोनों ने बादशाह को दिगम्बर मुनियों के विरुद्ध कहा सुना और उनकी बात मान कर बादशाह ने जैनियों से अपने गुरु को राजदरबार में उपस्थित करने के लिये कहा । जैनियों ने नियत काल में प्राचार्य माहबसेन को दिल्ली में अस्थित पाया। उनका विहार दक्षिण को पोर से वहां हुआ था।
सुल्तान अलाउद्दीन और दिगम्बराचार्य प्राचार्य माहवसेन दिल्ली के बाहर श्मशान में ध्यानारूढ़ तिष्ठे थे कि वहां एक सर्प-दंश से अचेत सेठ-पत्र दाह-कर्म के लिये लाया गया। प्राचार्य महाराज ने उपकार भाव से उसका विष-प्रभाव अपने योग-बल से दूर कर दिया। इस पर उनकी प्रसिद्धि सारे शहर में हो गई । बादशाह अलाउद्दीन ने भी यह सुना और उसने उन दिगम्बराचार्य के दर्शन किये । बादशाह राजदरबार में उनका शास्त्रार्थ भी षट्दर्शन वादियों से हमा; जिसमें उनकी विजय रही। उस दिन महासेन स्वामी ने पन बार स्यावाद को प्रखण्ड ध्वजा भारत वर्ष की राजधानी दिल्ली में आरोपित कर दी थी।
इन्हीं दिगम्बराचार्य की शिष्य परम्परा में विजयसेन, नयसेन, श्रेयांससेन, अनन्तकौति, क्षेमकीति, श्रीहेमकीन कुमारसेन, हेमचन्द्र, पद्मनन्दि, यश:कोति, त्रिवभुनकीति, सहस्रकीति, मही शन्द्र प्रादि दिगम्बर मुनि हुये थे । इनमें श्रीकमलको जी विशेष प्रख्यात थे।
सुल्तान अलाउद्दीन का अपरनाम मुहम्मदशाह था। सन् १५३० ई० के एक शिलालेख में मुनि विद्यानन्द के पकपरम्परा में श्री प्राचार्य सिंहनन्दिका उल्लेख है । बह बड़े नैयायिक थे और उन्होंने दिल्ली के बादशाह महमूद सूरित्राण की सभा में बौद्ध व अन्यों को वाद में हराया था। यह बात उक्त शिलालेख में है। यह उल्लेख वादशाह अलाउद्दीन के सम्बन्ध में हमा प्रतिभाषित होता है।'
सारांशतः यह कहा जा सकता है कि वाटयाह बालाजद्दीन सिगर निगाजर गुनियों को विशेष सम्मान प्राप्त हआ था दिल्ली के श्री पूर्णचन्द्र दिगम्बर जैन श्रावक की भी इज्जत अलाउद्दीन करता था और उसने श्वेताम्बराचार्य श्री रामचन्द्र सरि को कई भेटें प्रपंण की पी। सच बात तो यह है कि अलाउद्दीन के निकट धर्म का महत्व कुछ न था। उसे अपने राज्य काही एक मात्र ध्यान था-उसके सामने बह 'शरीअत' को भी कुछ न समझता था । एक दफा उसने नव-मुस्लिमों को तोपदम करा दिया था। हिन्दनों के प्रति वह ज्यादा उदार नहीं था और जैन लेखकों ने उसे 'खूनी' लिखा है। किन्तु पलाउद्दीन में 'मनुष्यत्व' था। उसी के बल पर वह अपनी प्रजा को प्रसन्न रख सका था और विद्वानों का सम्मान करने में सफल या या
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- - १. "(the Jain) Acharyas' by their character attainments and scholarship.........com. manded the respect or even Muhammadun Sovereignis like Allauddin and Auranga Padusha (Aurangazeb)."
SSJ., Pt. I p. 132 २. जैसिभः०, भा० १ कि. ४ गृ० १०६ ३. ]bid.
४. Oxford. p. 130 ५. मजैस्मा०प० ३२२, 'सुल्तान' शब्द को जैनाचार्यों ने सूरित्राण लिखकर बादशाहों को मुनिरक्षक प्रकट किया है। ६. जंहि०, भा० १५ पृ० १३२ 3. जंध०, पृ० १६८
5. flc (Alauddnin) was by nature cruel and implacablo, and his only care was the welfare of his kingdom. No consideration for religion (Islam). ever troubled him. He disreBarded the provisions of the Law".."He now gave commands that the race of "New-Muslims" should be disiroyed."-. Tarikh-i-Firozshahi."
-Elliot, III. p. 205 ६. सुस्तान अलाउदीन ने शराब की बिक्री रुकवा दी थी। नाज, कपड़ा यादि बेहद सस्ते थे। उसके राज में राजभक्ति की बाहल्यता थी। विद्वान काफी हुए थे । (Without the partronage of the Sultan many learned and great men flourished )
-Eliot., 11 206
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तत्कालीन अन्य दिगम्बर मुनि गण सं०१४६२ में ग्वालियर में महामुनि श्री गुण कोतिजी प्रसिद्ध थे । मेदपाद देश में सं० १५३६ में थी मुनि रामसेन जी के प्रशिष्य मुनि सोमकीति जी विद्यमान थे और उन्होंने 'यशोधर चरित' की रचना की थी। थी 'भद्रवाह चरित' के कर्ता मुनि रत्ननन्दि भी इसी समय हुए थे। वस्तुतः उस समय अनेक मुनिजन अपने दिमम्बर वेष में इस देश में विचर रहे थे।
लोदी सिकन्दर निजामखाँ और दिगम्बराचार्य विशालकीति लोदी खानदान में सिकन्दर (निजामखाँ) नादशाह सन् १४८६ में राजसिंहासन पर बैठा था। हमसमठ के गुरु श्री विशालकीति भी लगभग इसी समय हुए थे। उनके विषय में एक शिलालेख से पाया जाता है कि उन्होंने सिकन्दर बादशाह के समक्ष वाद किया था। यह वाद लोदी सिकन्दर के दरवार में हया प्रतीत होता है । अत: यह स्पष्ट है कि दिगम्बर मुनि तब भी इतने प्रभावशाली थे कि वे बादशाह के दरबार में भी पहुंच जाते थे।
तत्कालीन विदेशी यात्रियों ने विगम्बर साधुनों को देखा था जैन साहित्य के उपरोक्त उल्लेखों की पूष्टि अजैन श्रोत से भी होती है। विदेशी यात्रियों के कथन से यह स्पष्ट है कि गुलाम से लोदी राज्यकाल तक दिगम्बर जैनमुनि इस देश में बिहार और धर्मप्रचार करते रहे थे । देखिए तेरहवीं शताब्दी में यूरोपीय यात्री मार्को पोलो (Morco Polo) जब भारत में पाया तो उसे ये दिगम्बर साधु मिले । उनके विषय में वह लिखता
_ "कतिपय योगी मादरजात नंगे घमते थे, क्योंकि, जैसे उन्होंने कहा, बे इस दुनिया में नंगे आये हैं और उन्हें इस दुनियां की कोई चीज चाहिये नहीं । खासकर उन्होंने यह कहा कि हमें शरीर सम्बन्धी किसी भी पाप का भान नहीं है और इसलिये हम अपनी नंगी दशा पर शरम नहीं पाती है, उसी तरह तम अपना मह और हाथ नंगे रखने में नहीं शरमाते हो। तुम जिन्हें शरीर के पापों का भान है, यह अच्छा करते हो कि शरम के मारे अपनी नग्नता ढक लेते हो।"
इस प्रकार की मान्यता दिगम्बर मुनियों की है। मार्कोपोलो का समागम उन्हीं से हुशा प्रतीत होता है । वह उनके संसर्ग में आये हुए लोगों में अहिसा धर्म की बाहुल्यता प्रकट करता है। यहां तक कि वह साग-सब्जी तक ग्रहण नहीं करते थे। सूखे पत्तों पर रखकर भोजन करावे इन में गो-तसला होनः मागरे । हैबेल सा. गुजरात के जेनों में इन मान्यताओं का होना प्रकट करते हैं। किन्तु वस्तुतः गुजरात ही क्या प्रत्येक देश का जैनी इन मान्यतानों का अनुयायी मिलेगा । अतः इसमें सन्देह नहीं कि मार्को पोलो को जो नगे-साधु मिले थे, वह जैन साधु ही थे।
अलबरूनी के आधार पर रशीदुद्दीन नामक मुसलमान लेखक ने लिखा है कि "मलावार के निवासो सब ही श्रमण हैं और मूर्तियों की पूजा करते हैं। समुद्र किनारे के सिन्दबूर, फकनूर, मजरूर, हिलि, सदर्स जंगलि और कुलम नामक नगरों
१. जैहि०, भा० १५ १० २२५
२. 'नदीतटायगच्छे वंशे श्रीगमसेन देवस्य जातोगुणाणं व श्रीमांश्च भीमसेवेति । निगितं तस्य शिष्येण श्री यशोघर राज्ञिक श्री सोमकीर्ति मुनिनानिशोदपाधीपतांबूचावर्षेषट विषशंसपेलिथिपरिगणनायुवतं संवत्सरोति पंचभ्या पोपतष्णदिनकर दिवसे चोत्तरास्पद चन्द्र ॥इत्यादि।" ३. Oxford., p. 130
४. मजन्मा० १० १६३ व ३२२ ५. Some Yogis went stark naked, because, as they said, they had come naked into the world and desired nothing that was of this world 'Moreover, they declared. "we have no sin of the flesh to be conscious of, and, therefore, we are not ashamed of our nakedness, any more than you are to show your hand or face. You, who are conscious of the sins of the flesh, do well to have shame and to cover your nakedness."
-Yule's Morco Polo, I], 366 and HARI, p. 364 & Morco Polo also noticed the customs, which the orthodox Jaina community of Gujerat maintains to the present day. They do not kill an animal on any account, not even a fly or a flea, or a louse, or anything in fact that has lifc, for they say, these have all souls and it would be sin to do so' (Yule's Morco polo. II 366)
-HARI., p. 365
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और देशों के निवासी भी 'धमण' हैं।" यह लिखा ही जा चुका है कि दिगम्बर मुनि 'श्रवण' नाम से भी विख्यात हैं। प्रत: कहना होगा कि रसोदुद्दीन के अनुसार मलावार आदि देशों के निवासी दिगम्बर जैन ही थे, और तब उनमै दिगम्बर मुनियों का होना स्वाभाविक है।
मुगल साम्राज्य में दिगम्बर मुनि उपरान्त सन् १५२६ से १७६१ ई० तक भारत पर मुगल और सूरवंशों के राजाओं ने राज्य किया था। उनके समय में भी दिगम्बर मुनियों का बाहुल्य था। पाटोदी (जयपुर) के वि० सं० १५७५ की प्रशस्ति से प्रगट है कि उस समय श्रीचन्द नामक मुनि विद्यमान थे। लखनऊ चौक के जैन मन्दिर में विराजमान एक प्राचीन गुटका के पत्र १६३ पर दी हुई प्रशस्ति से निर्ग्रन्थाचार्य श्री माणिक्यचन्द्रदेव का अस्तित्व सं० १६११ में प्रमाणित है। 'भावत्रिभंगी' की प्रशस्ति से सं० १६०५ मुनि क्षेमकीति का होना सिद्ध है । सचमुच बादशाह बाबर हुमायं और शेरशाह के समय में दिगम्बर मुनियों का विहार सारे देश में होता था । मालूम होता है कि उन्हीं का प्रभाव मुसलमान दरबेशों पर पड़ा था; जिसके फलस्वरूप वे नग्न रहने लगे थे । मुगल बादशाह शाहजहाँ के समय में वे एक बड़ी संख्या में मौजद थे । शेरशाह के समय में दिगम्बर मुनियों का निर्वाध विहार होता था; यह बात शेरशाह के अफसर मलिक मुहम्मद जायसी के प्रसिद्ध हिन्दी काव्य 'पद्मावत' (२०६०) के निम्नलिखित पद्य से स्पष्ट है
"कोई ब्रह्मचारज पन्थ लागे। कोई सुदिगम्बर प्राछा लागे ।।"
अकबर और दिगम्बर मुनि बादशाह अकबर जलालुद्दीन स्वयं जैनों का परम भक्त था और यदि हम उस समय के ईसाई लेखकों के कथन को मान्यता दें तो कह सकते हैं कि वह जैनधर्म में दीक्षित हो गया था। निस्सन्देह श्वेताम्बराचार्य श्रीहीरविजयसूरि ग्रादि का प्रभाव उस पर विशेष पड़ा था। इस दशा में अकबर दिगम्बर साधनों का विरोधी नहीं हो सकता । बल्कि अबुलफज़ल ने 'प्राईने-इमकबरी' भाग ३ पृष्ट ७ में उनका उल्लेख स्पष्ट शब्दों में किया है और लिखा है कि वे नंगे रहते हैं ।
राट का दिगम्बर संघ वराटनगर में उस समय दिगम्बर मुनियों का संघ विद्यमान था। वहां पर साक्षात् मोक्ष मार्ग की प्रवृति के लिये यथाजात निजलिङ्ग शोभा पा रहा था। यह नगर बड़ा समृद्धशाली था और उस पर अकबर शासन करता था । कवि राजमल्ल ने 'लाटीसंहिता को रचना यहीं के जनमंदिर में की थी। उन्होने अपने 'जम्बूस्वामी चरित' में लिखा है कि भटानियाकोल के निवासी साह टोडर
1. Rashi-uddin from Al-Biruni writes. "The whole country (of Malibar produces the pan... The people are all Samanis and worship idols. Of the cities of the shore the first is Sindabur, the Fakuur, then the contry of Manjarur, then the country of Hili, then the cuntry of Sadarsa, then Jangli then Kulam. The men of all these countries are Samanis."
- -Elliot. Vol. Ip. 68. इलियट सा० ने इन श्रमणों को बौद्ध लिखा है, किन्तु इस समय दक्षिण भारत में बौद्धों का होना असम्भव है। श्रवण शब्द बौद्धभिक्षु के अतिरिक्त दिगम्बर साधुओं के लिये भी व्यवहृत होता है ।
२. Oxford p. 151. ३. ''श्री संघाचार्यसल्फावि शिवण श्री चन्द्रमुगि।"-जमि०, वर्ष २२ मंक ४५ पृष्ठ ६६८
४. "सं० १६११ नेत्र सु० २...." मूल संघ... "भ. श्री विद्यानन्दि तत्पटे श्री बाल्याण कीति तत्स? नर्ग्रन्थाचार्य' 'तपोबललब्मातिशय श्री माणिकचन्द्र देवा.. ....।"
-मि०, वर्षे २२ प्रक४८ पृ. ७४० ५. "०१६०५ वर्षे तस्शिाय सर्वगुणविराजमान मंडलाचा मूनि श्री क्षेमकीर्तिदेवाः।" ६. Bernier pp.314-318
७. पादरी चिन्हे शो (Pinheiro) ने लिखा है कि अकबर जैन धर्मानुयायी है |He (Akbar) follows the sect of the Jainas
सूस०, पृ० १७१-३६८ t, 'वीर" वर्ष ३१०
व "लाटी." प०११:"श्रीमड्डिीरपिण्डपभितमित नभः पाण्डुराखण्डकीया, कृष्टं ब्रह्माण्ड काईनिजभुजयशसा मण्डपाडम्बरोऽस्मिन् ।
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जब तीर्थयात्रा करते हुये मथुरा पहुंचे तो उन्होंने वहां पर ५१४ दिगम्बर मुनियों के समाधि सुचक प्राचीन स्तूपों को जीर्णशाण दशा में देखा। उन्होंने उनका उद्धार करा दिया और उनको प्रतिष्ठा धुमतिथिवार को बहुविधि (१) मुनि (२) यार्यिका (३) धावक (४) श्राविका एकत्र करके कराई थी। इन उस्सों से अकबर के राज्य में अनेक दिगंबर गुनिया और उनका निर्वाध बिहार सारे देश में होता था।
है कि
थे
बादशाह औरंगजेब ने दिगम्बर मुनिका सम्मान किया था
-
अकबर के बाद मुखानदान में जितने भी शासक हुने उन सबके हो शासनकाल में दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व मिलता है । औरङ्गजेब सदृश कट्टर बादशाह को भी सुनियों कि श्रीरङ्गजेब ने उनका सम्मान किया था। उस समय के किन्हीं मुनि महाराजों का उल्लेख इस प्रकार है ।
तत्कालीन दिगम्बर मुनि
दिगम्बर मुनि श्रीसकलचन्द्रजी सं० १६६७ में विद्यमान थे। उनके एक शिष्य ने 'भक्तामर कथा' की रचना की थीं। [सं०] १६०० का लिखा हुआ एक गुटका दि० जैन पंचायती बड़ा मन्दिर मैनपुरी के शास्त्र में विराजमान है। उसमें भी दिगम्बर मुनि महेन्द्रसागर का उल्लेख उस समय में मिलता है। संवत् १७१२ में अकबराबाद में मुनि श्री वैराग्यसेन ने " कर्म की १४८ प्रकृतियों में विचार" चर्चा ग्रन्थ लिखा था । सं० १७५३ में गुरु देवेन्द्र कीर्ति का परितत्व डूंडारिदेश में मिलता है। यहां पर दिगम्बर मुनियों का प्राचीन मादास था। सं० २०५७ में कुण्डलपुर में मुनि श्री गुणसागर और यश कीर्ति थे। उनके शिष्य ने महाराजा छत्रसाल की विशेष सहायता की थी। कवि साममणि ने श्रीरङ्गजेब के राज्य में 'जितपुराण' की रचना की थी। उससे काष्टा में श्री धर्मसेन, भावसेम, सहस्रकोति गुणकीति यशःकीर्ति जिनचन्द्र थुतकीर्ति आदि दिगम्बर
देवियाकोति
जयाद्भोक्ताथ नाथः प्रभुरिति नगरस्यास्य वरानाम्नः ॥ ६२ ॥ नोवो जगति विजयश्यापि सतावत
साम्बरास्ते यत्तयः । तस्तेभ्यो नमो समयनियतं प्रोल्लसत्यसादादमानं इतिविरहि वर्तते मोक्षमार्ग
१. अनेकान्त भा० १० १३० १४१ चतुविधमहासंघ समाहूयाधीमता । " २. SSII, pt. 11 p, 132. जैन कवियों ने औरङ्गजेब की प्रशंसा ही की है :"सावली को राज पायो कविजन परम बाज
चक्रवतिसम जगमें भयो, फेरत मानि उदधि लो गयो |
जाके राज परम सुख पाय, करी कथा हम जिन गुन नाय || "
२००१४३
नीदा।"
"मुनिगाहेन्द्रसेन गुरु सिंह जुग चरन पसाइ "
"मुनि महेंद्रसेन इहं निशि प्रणामा वासो ।
थानि कपस्थलि नीक भनत भगौती दासो || "
कवि वाल
वीर जिनेन्द्र गीत ० राजमतिमिर
-ज्ञानी हाल
५. "संवत १७१६ वर्षे फाल्गुण सुदि १३ सोमे लिखितं मुनि श्री वैराग्य सागरेसा ।"
६.
बाजारात
विकाराभारत
॥
कुन्दकुन्द मुनिरा जिहाद जातीत भए मुनिवविवाही देवेन्द्रकोति चिरावारी ताही ये
I
वहां विनू गुरुरि ॥
- पद्मपुराण भाषा
सतरासेतियासिये पोस सुकुल तिथिजानि 1... " ७.न्हाववान गुणसागर भस्मी संघ संपूग्यो वशः कोतिर्महामुनिः ॥
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-- दि० पू० २५६
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मुनियों का पता चलता है? [सं० २०१२ में कवि सुवानदास जी ने एक मुनि महेन्द्रकीतिजी का उल्लेख किया हैं। मुनि धर्मचन्द्र मुनि विश्वसेन मुनि श्री भूषण का भी इस समय पता चलता है सारांशतः यदि जैन साहित्य और मूर्ति लेखों का और भी परिशीलन और अध्ययन किया जाय तो प्रत्य अनेक मुनिगण का परिचय उस समय में मिलेगा ।
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आमरे में तब दिगम्बर मुनि
कविवर बनारसीदास जी बादशाह शाहजहां के कृपापात्रों में से थे। उनके सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक बार जब कविवर श्रागरे में थे तब वहां पर दो नग्न मुनियों का आगमन हुआ । सब हो लोग उनके दर्शन बन्दना के लिए आते जाते थे । कविवर परीक्षा प्रधानी थे। उन्होंने उन मुनियों की परीक्षा की थी।' इस उल्लेख से उस समय आगरे में दिगम्बर मुनियों का निर्वाध विहार हुआ प्रकट है ।
फ्रेंच यात्री डा० बनियर और दिगम्बर साधु
विदेशी विद्वानों की साक्षी भी उक्त वक्तव्य की पोषक है। शाहजहां और रङ्गजेब के शासनकाल में फांस से एक यात्री डा० बनियर ( Dr. Bernier ) नामक आया था। वह सारे भारत में घूमा था और उसका समागम दिगम्बर मुनियों से भी हुआ था। उनके विषय में वह लिखता है कि :
"मुझे अक्सर साधारणतः किसी राजा के राज्य में, इन नंगे फकीरों के समूह मिले थे। जो देखने में भयानक थे। उसी दशा में मैंने उन्हें मादरजात नाना बड़े-बड़े शहरों में चलते फिरते देखा या मर्द, घोरत और लड़कियां उनको मोर से हो देखते थे जैसे की कोई साधू जन हमारे देश की गलियों में होकर निकलता है तब हम लोग देखते हैं। बरतें अक्सर उनके लिये बड़ी विनय से भिक्षा जातो थीं। उनका विश्वास था कि वे पवित्र पुरुष हैं और साधारण मनुष्यों से अधिक खोलवान बीए धर्मात्मा हैं ।" द्वारनिय बासिन्य विदेशियों ने भी उन दिगम्बर मुनियों को इस में देखा था। इस प्रकार इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि मुसलमान बादशाहों ने भारत की इस प्राचीन प्रथा, कि साधु नंगे रहें और नंगे हो सर्वत्र विहार करें, को सम्मानदृष्टि से देखा था। यहां तक कि कतिपय दिगम्बर जैनाचार्यो का उन्होंने खूब यादर सत्कार किया था। तत्कालीन हिन्दू कवि सुन्दर दास जी भी अपने 'सर्वागयोग' नामक ग्रंथ में इन मुनियों का उल्लेख निम्न शब्दों में करते हैं :
"केचित कर्म स्थापहि जैना, केश लुंचाइ करहिं यति फैना ।"
केशलुंचन क्रिया दिगम्बर मुनियों का एक खास भूलगुण है, यह लिखा ही जा चुका है। इससे तथा सं० १८७० में हुये कवि लालजीवन के निम्न उल्लेख से तत्कालीन दिगम्बर मुनियों का अपने मूलगुणों को पालन करने में पूर्णतः दशषित रहना प्रगट है :--
"धारे दिगम्बर रूप भूप सब पद को परसें हिय परम वैराग्य मोक्षनारम को दरसं ।
१. हि० १२ १६४ श्रीमच्छीकाष्ठासं चेमुलि गणगणनादिमवस्युष्टे ।"
२. " भट्टारक पद सभि जास-मुनि महेन्द्रकोत्ति पट तास ।"
३. श्री मूलसंधेयभारतीये गक्ष बलात्कार गतिरम्ये । ग्रामोन्सुदेवेन्द्रयशोमुनीन्द्रः समधारी मुनि धर्मचन्द्रः ।"
श्री काष्ठाय जिनसे तत्व भी मुनि
विद्याविभूयः मुनिरा वभूव श्रीभूषण वादि केन्द्रसिंहः ॥"
- उत्तरपुराण भाषा -श्रीविनसहभा
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पंचकल्याणक पाठ०
४. बवि०, चरित्र, पृ० ६७-१०२
. "I have often met, generally in the territory of some Raja, bands of these naked fakirs, hideous to behold. In this trim I have scen them, shamelessly welk stark naked, through a large town, men, women and girls looking at them without any more emotion than may be created when a hermit passes through our strects. Females would often bring them alms with much devotion, doubtless believing that they were holy personages, more chaste and discreet than other men." Bernier. p. 317
६. फाह्यान भूमिका
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जे भवि' सर्व चरन तिन्हें सम्यक दरसाचे; करें पाप कल्याण सूवारहभावन भावें !! पंच महाव्रत धरें बरें शिवसुन्दर नारी; निज अनुभौ रसलीन परम-पदके सुविचारी ! दशलक्षण निजधर्म गहैं रत्नत्रयधारी !! ऐसे श्री मुनिराज चरन पर जग-बलिहारी !!!"
ब्रिटिश-शासनकाल में दिगम्बर मुनि "All sliall alike enjoy the equal and in partial protection of ile Law, and We do strictly charge and enjoin all those who may be in authority under us that they abstain from all interfcrance with the religious beliel' or worship ol any of our subjects on pain of our highest displeasure."
-- Queen Victoria महारानी विक्टोरिया ने अपनी १ नवम्बर सन १८५८ की घोषणा में यह बात स्पष्ट कर दी है कि ब्रिटिश शासन की छत्र-छाया में प्रत्येक जाति और धर्म के अनुयायी वो अपनी परम्परागत धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं को पालन करने में पूर्ण स्वाधीनता होगी और कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी के धर्म में हस्तक्षेप न करेगा। इस अवस्था में ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत दिगम्बर मुनियों को अपना धर्मपालन करना सुगम-साध्य होना चाहिए और वह प्रायः सुगम रहा है।
गत ब्रिटिश-शासनकाल में हमें कई एक दिगम्बर मुनियों के होने का पता चलता है। मं. १८७० में ढाका शहर में श्री नरसिंह नामक मुनि के अस्तित्व का पता चलता है । इटावा के आसपास इसी समय मनि विनयमागर व उनके शिष्यगण धर्मप्रचार कर रहे थे। लगभग पचास वर्ष पहले लेखक के पूर्वजों ने एक दिगम्बर मुनि महाराज के दर्शन जयपुर रियासत के फागो नामक स्थान पर किये थे। वह मुनिराज वहां पर दक्षिण की ओर से विहार करते हुये पाये थे।
दक्षिण भारत की गिरी-गुफाओं में अनेक दिगम्बर मुनि इस समय में ज्ञान ध्यान रत रहे हैं। उन सब का ठोक-ठोक पता पा लेना कठिन है। उनमें से कतिपय जो प्रसिद्धि में आ गये उन्हीं के नाम आदि प्रगट हैं। उनमें श्री चन्द्रक.ति महाराज का नाम उल्लेखनीय है । वह सम्भवतः मुरुमंदया के निवासो थे और जैनबद्री में तपस्या करते थे। वह एक महान तपस्वी कहे गये हैं। उनके विषय में विशेष परिचय ज्ञात नहीं है।
किन्तु उत्तर भारत के लोगों में साम्प्रत दिगम्बर मनि श्री चन्द्रसागरजी का ही नाम पहले-पहल मिलता है। वह फलटन (सतारा) निवासी एमड़जातीय पासी नामक धाबक थे । सं० १९६६. में उन्होंने कुरुन्दवाड़ग्राम (सोलापुर) में दिगम्बर मनि श्री जिनप्पास्वामी के समीप क्षल्लक के व्रत धारण किये थे । सं० १९६६ में झालरापाटन के महोत्सव के समय उन्होंने
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--- --- १. Royal proclamation of Ist Nov. 1858 २. "संवत् अष्टादश शतक व सतर बरस ।....."डाका सहर सुहामण, देश बम के मांहि । जैनधर्मधारक जिहां धावक अधिक मुहाहि ।......"तामु शिष्य विनयी वियुग हर्षचन्द गुणवा । मुनि नरसिंह विनयविधि पुस्तक एह लिखत ॥"
–दि जैन बड़ा मन्दिर का एक गुटका ३. दिजे० वर्ष अङ्क १ पृ. २१
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दिगंबर मुनि के महाव्रतों को धारण करके नग्नमुद्रा में सर्वत्र विहार करना प्रारम्भ कर दिया। उनका बिहार उत्तर भारत में मागरा तक हुआ प्रतीत होता है।
सन् १९२१ में एक अन्य दिगंबर मुनि श्री ग्रानन्दसागर जो का अस्तित्व उदयपुर (राजपुताना) में मिलता है ।थी ऋषभदेव केशरिया जी के दर्शन करने के लिए वहां गये थे; किन्तु कर्मचारियों ने उन्हें जाने नहीं दिया था। उस पर उपसर्ग माया जानकर वह ध्यान माढ़कर वहीं बैठ गये थे। इस सत्याग्रह के परिणाम-स्वरूप राज्य को पोर से उनका दर्शन करने देने की व्यवस्था हुई थी।
किन्तु इनके पहले दक्षिण भारत की ओर से श्री अनन्तकीतिजी महाराज का विहार उत्तर भारत को हरा था। वह प्रागरा, बनारस प्रादि शहरों में होते हुए शिखरजी की वंदना को गये थे। आखिर ग्वालियर राज्यान्तर्गत मोरेना स्थान में उनका असामयिक स्वंगवास माघ शुक्ला पंचमी सं० १६७४ को हुया था। जब वह ध्यानलीन थे तब किसो भात ने उसके पास ग्रागको अंगोठी रख दी थी । उस भाग से वह स्थान ही प्राग-मई हो गया और उसमें उन ध्यानारूढ़ मुनिजी का शरीर दग्ध हो गया। इस उपसर्ग को उन धीर वीर मुनिजो ने समभावों से सहन किया था। उनका जन्म सं०१९४० के लगभग निल्लीकार (कारकली में हया था। वह मोरेना में संस्कृत और सिद्धान्त का अध्ययन करने की नियत से ठहरे थे किन्तु अभाग्यवश वह अकाल कालकवलित हो गये।
श्री अनन्तकोतिजी के अतिरिक्त उस समय दक्षिण भारत में श्री चन्द्रसागरजी मुनि मणिहली, श्री सनत्कुमारजी मनि और श्री सिद्धसागरजी मुनि तेलवाल के होने का भी पता चलता है । किन्तु पिछले पाँच-छ वर्ष में दिगंबर मुनि मार्ग को विशेष वद्धि हुई है और इस समय निम्नलिखित संघ विद्यमान हैं, जिनके मुनिगण का परिचय इस प्रकार है :
(१) श्री शान्तिसागरजी का संघ यह संघ इस समय उत्तर में बहुत प्रसिद्ध था। इसका कारण यह है कि उत्तर भारत के कतिपय पण्डितगण इस संघ के साथ होकर सारे भारतवर्ष में घूमे थे । इस संघ ने अपना चातुर्मास भारत की राजधानी दिल्ली में व्यतीत किया था। उस समय इस संघ में दिगंबर-मुद्रा को धारण किए हुए सात मुनिगण और कई क्षुल्लक-ब्रह्मचारी थे। दिगम्बर साधनों में श्री शान्तिसागर ही मुख्य थे । सं० १९२८ में उनका जन्म बेलगाम जिले के ऐनापुर-भोज नामक ग्राम में हुमा था। शान्तिसागर जी को तब लोग सात गोंडा पाटील कहते थे । उनको नौ वर्ष की आयु में एक पांच वर्ष की कन्या के साथ उनका व्याह हया था। और इस घटना के ७ महीने के बाद ही वह बाल-पत्नी मरण कर गई थी। तब से वह बराबर ब्रह्मचर्य का अभ्यास करते रहे। उनका मन वैराग्य-भाव में मग्न रहने लगा ! जब वह अठारह वर्ष के थे, तब एक मुनिराज के निकट ब्रह्मचारी का पद उन्होंने ग्रहण किया था। सं० १९६६ में उत्तरग्राम में विराजरान दिगम्बर मुनि श्री देवेन्द्रकीतिजी के निकट उन्होंने क्षुल्लक का व्रत ग्रहण किया था। इस घटना के चार वर्ष बाद संवत् १९७३ में कुभोज के निकट बाहुबलि नामक पहाड़ी पर स्थित श्री दिगम्बर मूनि प्रकलीक स्वामी के निकट उन्होंने ऐलकपद धारण किया था। सं० १९७३ में येरनाल में पंचकल्याणक महोत्सव हा था। उसमें वह भी गये थे। जिस समय दीक्षाकल्याणक महोत्सव सम्पन्न हो रहा था, उस समय उन्होंने भोसगी के निग्रंथ मुनि महाराज के निकट मनिदीक्षा ग्रहण की थी । तब से वह बराबर एकान्त में ध्यान और तप का अभ्यास करते रहे थे। उस समय वह एक खासे तपस्वी थे। उनकी शान्त मनोवृत्ति और योगनिष्ठा ने उत्तर भारत के विद्वानों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट किया। कई पंडित उनकी संगति में रहने लगे। अाखिर उनके शिष्य कई उदासीन धावक हो गये; जिनमें से कतिपय दिगम्बर मुनि
और ऐलक क्षुल्लक के व्रतों का पालन करने लगे। इस प्रकार शिष्य समुह से वेष्टित होने पर उन्हें 'प्राचार्य' पद से सुशोभित किया गया और फिर वम्बई के प्रसिद्ध सेठ घासी राम पूर्णचन्द्र जौहरो ने एक यात्रा-संघ सारे भारत के तीर्थों की वन्दना के लिये निकालने का विचार किया। तदनुसार आचार्य शान्तिसागर की अध्यक्षता में वह संघ तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़ा। महाराष्ट्र के सांगली-मिरज प्रादि रियासतों में जब यह संघ पहुंचा था तब वहाँ के राजानों ने उसका अच्छा स्वागत किया था । निजाम सरकार ने भी एक खास हुकुम निकाल कर इस संघ को अपने राज्य में कुशलपूर्वक विहार कर जाने दिया था । भोपाल राज्य
१, Ibid. P. 18-20 २. दिज, वर्ष १४ अंक ५-६ पृष्ठ ७ ३. दिल, विशेषांक कीर निसं० २४४३ ४. दिजैन, वर्ष १६ प्रक१-२ पृ०९ ५. हुकुम नं० ६२८ (शोगे इंतजामी) १३३७ 'कसली
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में होकर वह संघ माध्यप्रान्त होता हुमा श्री शिखिरजी फरवरी गन १९२७ में पहुंचा था । वहा पर बड़ा भारी जन सम्मेलन हुया था। शिखिर जो से बह संघ कटनी, जबलपुर, लखनऊ, कानपुर, झांसी, आगरा, धोलपुर, मथुरा, फीरोजाबाद, एटा, हाथरस, अलीगढ़, हस्तनापुर, मुजफ्फरनगर आदि शहरों में होता हुपा दिल्ली पहुंचा था। दिल्ली में वर्षा-यांग पूरा करके यह संघ अलवर की अोर विहार कर गया था और उसमें ये साधुगण मौजूद थे :
(१) श्री शान्ति सागरजी साचार्य (२) मुनि चन्द्रसागर (३) मुनि श्रुतसागर (४) मुनि वीरसागर (५) मुनि नमिसागर (६) मुनि ज्ञानसागर । इनके समय में ही प्राचार्य वीरसागर जो का संघ भी था ।
(२) दूसरा संघ श्री सूर्य सागर जी महाराज का था, जो अपनो सादगी और धार्मिकता के लिए प्रसिद्ध था । खुरई में इस संघ का चातुर्मास व्यतीत हुप्रा था । उस समय इस सघों मुनि सूर्य सागरजो के अतिरिक्त मुनि अजितसागर जी, मुनि धर्मसागर जी मोर ब्रह्मचारी भगवानदास जी थे । ख रई से इस संघका विहार उसो पार हो गया था। मुनि सूर्यसागरजी गहस्थ दशा में श्री हजारीलाल के नाम से प्रसिद्ध थे । वह पोरवाड जाति के कालरापाटन निवासी श्रावक थे । मुनि शान्तिसागरजी छाणी के उपदेश से निग्रन्थ साधु हुए थे।
(३) तीसरा संघ मुनि शान्तिसागर जी छाणी का था, जिसका एक चातुर्मास ईडर में हुआ था। तब इस संघ में मुनि मल्लिसागर जी, और न फतहसागर जी ब्र. लक्ष्मीचन्द जी थे । मुनि शान्निसागरजी एकान्त में ध्यान करने के कारण प्रसिद्ध थे । वह छाणी (उदैपुर) निवासी दशा-हमड़ जाति के रत्न थे। भादव शुक्ल १४ स. १६७६ को उन्होंने दिगम्बर-वेष धारण किया था । उन्होंने मुखिया (बांसवाड़ा) के ठाकुर क्रूरसिंह जी साहब को जैनधर्म में दीक्षित करके एक आदर्श कार्य किया था।
(४) मुनि आदिसागर जी के चौथे सघ ने उदगांव में वर्षा पूर्ण की थी। उस समय इनके साथ मुनि मल्लिसागर जी व क्षुल्लक सूरीसिंह जी थे।
(५) श्री मुनीन्द्रसागर जी का पांचवां संघ मांडवो (सूरत) में मौजूद रहा था। इनके साथ श्री देवेन्द्रसागर जी तथा विजयसागरजी थे। मुनीन्द्रसागर जी ललितपुर निवासी और परवार जाति के थे। उनकी आयु अधिक नहीं थी। वह श्री शिखिरजी प्रादि तीर्थों की वन्दना कर चुके थे।
(६) छठा संघ श्री मुनि पायसागरजी का था जो दक्षिण-भारत की ओर धर्म प्रचार कर रहा था।
इनके अतिरिक्त मुनि ज्ञानसागर जी (खैराबाद), मुनि आनन्दसागर जी आदि दिगम्बर-साधुगण एकान्त में ज्ञानध्यान का अभ्यास करते थे। दक्षिण भारत में उनकी संख्या अधिक थी। ये सब हो दिगम्बर मुनि अपने प्राकृत-वेष में सारे देश में विहार करके धर्म-प्रचार करते रहे हैं ! ब्रिटिश भारत और रियासतों में ये बेरोकटोक घूमते थे; किन्तु एक वर्ष काठियावाड़ के कमिश्नर ने अज्ञानता से मुनीन्द्रसागरजी के संघ पर कुछ प्रादमियों के घेरे में चलने को पाबन्दी लगा दी थी; जिसका विरोध अखिल भारतीय जैन समाज ने किया था और जिसको रद्द कराने के लिए एक कमेटी भी बनी थी।
सातवां संघ प्राचार्य जयकीर्ति जी का हुना, आप दक्षिण भारत के निवासी थे, तप ध्यान तथा चरित्र के परम साधक थे, आपकी शिष्य परम्परा में कुछेक मुनि राज बहुत ही धर्म प्रचार का तथा शिक्षा का प्रचार कर रहे हैं। जीवन के अन्त में अापने समाधि मरण धारण कर लिया था और धर्म ध्यानपूर्वक शरीर त्याग किया, आपके प्रधान शिष्य प्राचार्य रत्न देश भूषण जी मुनिराज हैं।
प्राचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज आपका जन्म मंगसिर सुदी २वि० सं० १९६० को ग्राम कोथलपुर, बेलगांव, मैसुर प्रान्त में एक जमींदार परिवार में हमा था 1 प्रापकी पूज्य माता जी का नाम श्री अक्काबती और पिता जी का नाम श्री सत्य गौड़ जी था, जन्म के समय ज्योतिषी ने भविष्य वाणी की थी कि बालक महान पुरुष होगा, आपका नाम बालगौड़ा रखा मया। तीन माह की अल्पायु में ही माता के वात्सल्य से वंचित हो गये, आपका-लालन पालन आपकी नानी ने किया, किन्तु अभी १२ साल को ही प्रायु हुई थी कि मापके सिर से पिता का साया भी उठ गया, कुछ दिन प्राप अपनी चुप्मा जी के पास और कुछ दिन काकाजी के पास रहे। बचपन से ही माप सच्चरित्र एवं मेधावी रहे । एक बार कोथलपुर में प्राचार्य पायसागर जी महाराज पधारे और उनके सदुपदेश से आपका मन त्याग की और अग्रसर हो गया।
गलतगा ग्राम में प्रापने प्राचार्य महाराज पायसागर जी से सप्त व्यसन का त्याग और अष्टमुल गुणों का नियम ग्रहण
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किया जिसका नापने बड़ी बढ़ता और लगन से पालन किया, आपकी इच्छा त्याग की तरफ ज्यादा रहने लगी, कुछ दिन बाद प्राचार्य पायसागर जी के शिष्य मुनिराज जयकीति जी महाराज स्तवनिधि पधारे, जिनके प्रवचन से विरागबत्ति बलवती हो गई
और आपने महाराज श्री के चरणों में दीक्षा की प्रार्थना की, संसार की असारता से आपका मन व्याकुल हो उठा, महाराज श्री जयकोति जी से सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये । महाराज जयकीति जी ने कुछ समय पश्चात् रामटेक जिला नागपुर में ऐलक दीक्षा दी और बालगौड़ा से देशभूषण नाम रखा गया ।
अपरिग्रह से प्रभावित हो निम्रन्थ दिगम्बर मनि पद की दीक्षा देने की प्रार्थना आपने गुरुवर्य से की, पूज्य महाराज जी ने सिद्ध क्षेत्र कुन्थलगिरि जी पर मुनि दीक्षा प्रदान की। मनि देश भूषण जी संघ सहित सूरत पधारे, समाज की प्रार्थना पर वहीं पर चतुर्मास किया। महाराज की विद्वता, व्यवहार कुशलता संघ के अनुशासन आदि को देखकर समस्त समाज ने निर्णय किया कि मुनि देशभूषण जी को प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया जाय जिससे समाज को सबल नेतृत्व मिल सके । समाज ने चतुर्विध संघ का नेतृत्व और प्राचार्य पद ग्रहण करने की प्रार्थना की, किन्तु आपने कहा कि पूज्यपाद प्राचार्य पायसागर जी महाराज विराजमान हैं वगैर उनकी प्राज्ञा से यह कैसे सम्भव है, महाराज पायसागर जी ने यह सुनते ही सूरत वालों से कहा कि देशभूषण इस पद के सर्वथा उपयुक्त हैं पापको सूरत में भव्य प्रायोजन के मध्य प्राचार्य पद से विभूषित किया गया। इसके पश्चात् दिल्ली की धर्म परायण जनता ने आचार्य देश भूषण जी को प्राचार्य रत्न की उपाधि से अलंकृत किया और गोम्मटेश्वर मस्ताभिषेक के अवसर पर एकत्रित जैन समाज के चतुर्विध संघ ने उन्हें मुख्य प्राचार्य घोषित किया ।
महाराज धी ने असंख्य लोगों को धर्म का लाभ दिया मद्य मांस का त्याग कराया, मापके प्रवचन से जनजीवन में धर्म प्रेम उमड़ने लगता है आपका उपदेश किसी वर्ग, सम्प्रदाय और मान्यताओं तक सीमित नहीं रहता है। धर्म सयका है आप सब
आपने अनेक स्थानों पर मन्दिरों का निर्माण कराया। तथा अनेक मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया । प्रतिष्ठायें कराई हैं। कोल्हापुर में शिक्षा कालेज, श्री अयोध्या जी में भगवान ऋषभदेव जी का भव्य मन्दिर एवं गुरुकुल, कोथलपूर का श्री जिन मन्दिर और गुरुकुल, हाई स्कूल आएकी मह बोलती तस्वीरें हैं । सम्प्रति भगवान महावीर स्वामी के २५००वें निर्माण महोत्सव, दिल्ली में महावीर स्वामी की भव्य उत्तुंग खडगासन प्रतिमा के विराजमान कार्य को पूरा कराने में प्रयत्नशील हैं।
अनेक विदेशी जिज्ञासू बन्धु महाराज श्री के चरणों में धर्म लाभ लेने पाते रहते हैं, वत नियम ग्रहण करते हैं। प्राचार्य श्री ने अनेक मौलिक ग्रन्थों की रचना की है अनुवाद किया है जिनकी संख्या लगभग पचास से भी अधिक है। प्राचीन अप्राप्य अप्रकाशित ग्रन्थों का प्रकाशन करा कर थी जिनवाणी के प्रचार में दत्तचित्त रहते हैं प्रस्तुत ग्रन्य पापके परिश्रम का ही फल है। वस्तुतः प्राचार्य श्री स्वयं में एक जीवित संस्था हैं नवचेतना के सूत्रधार हैं, जागरण के अग्रदूत हैं । महिंसा अपरिग्रह के समर्थ सन्देशवाहक हैं।
७० वर्ष की प्राय में भी आप हमेशा ध्यान, तप और साहित्य सृजन के कार्य में लीन रहते हैं । इस समय माप दिल्ली जन समाज की प्रार्थना पर देहली में ससंघ विराजमान हैं और भगवान महावीर स्वामी के २५००वें निर्वाण महोत्सव की सफलता के लिए पूर्ण प्रयत्नशील हैं, उसी शृंखला में श्री 'भगवान महावीर स्वामी' से सम्बन्धित कई ग्रंथों की रचना तथा सम्पादन के कार्य में संलग्न है।
आपके सरल स्वभाव से मानव के चित्त को बड़ी शांति मिलती है।
सच बात तो यह है कि ब्रिटिश-राज की नीति के अनुसार किसी भी सरकारी कर्मचारी को किसी के धार्मिक मामले में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं था और भारतीय कानून के अनुसार भी प्रत्येक सम्प्रदाय के मनुष्यों को यह अधिकार है कि वह किसी अन्य संप्रदाय या राज्य के हस्तक्षेप बिना अपने वार्मिक रीति-रिवाजों का पालन निर्विघ्न-रूप से करे । दिगम्बर जैन मुनियों का मग्नवेश कोई नई बात नहीं है। प्राचीन काल से जैन धर्म में उसकी मान्यता चली आई है और भारत के मुख्य धर्मों तथा राज्यों ने उसका सम्मान किया है, यह बात पूर्व-पृष्ठों के प्रवलोकन से स्पष्ट है । इस अवस्था में दुनिया की कोई भी सरकार या व्यवस्था इस प्राचीन धार्मिक रिवाज को रोक नहीं सकती। जैन साधुनों का यह अधिकार है कि वह सारे वस्त्रों का त्याग करें और गृहस्थों का यह हक है कि वे इस नियम को अपने साधुनों द्वारा निर्विघ्न पाले जाने के लिये व्यवस्था करें, जिसके बिना मोक्ष सुख मिलना दुर्लभ है।
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इस विषय में यदि काननी नजीरों पर विचार किया जाय तो प्रगट होता है कि प्रिवी-कौंसिल (Privy Council) ने सब-ही सम्प्रदायों के मनुष्यों के लिए अपने धर्म-सम्बन्धी जलसों को आम सड़कों पर निकालना जायफ करार दिया है। निम्न उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं। प्रिवो कौंसिल ने मजूर हसन बनाम मुहम्मद जमन के मुकदमे में तय किया है कि :
"Persons of all sects arc entitled to conduct religious processions through public streets, so that they do not interfere with the ordinary use of such streets by the public and subject to such directions the Magistrate may lawfully give to prevent obstructions of the throngh fare or brcaches of the public peace, and the worshippers in a mosque or temple, which abutted on a highroad could not complc processionists to intermit their worship while passing the mosque or temple on the grond that there was a continuous worship there." (Manzur Hasan Vs. Mohammad Zaman, 23 All, Law Journal. 179).
भावार्थ-'प्रत्येक सम्प्रदाय के मनुष्य अपने धार्मिक जलू सों को ग्राम रास्ते से ले जाने के मधिकारी हैं, बशर्ते कि उससे साधारण जनता को रास्ते के व्यवहार करने में दिक्कत न हो और मजिस्ट्रेट की उन सूचनाओं को पाबन्दी भी हो गई हो जो उसने रास्ते की रुकावट और अशान्ति न होने के लिये उपस्थित की हों । और किसी मस्जिद या मन्दिर में, जो रास्ते पर स्थित हो, पूजा करने वाले लोग जलूस निकालने वालों को जब कि वह मन्दिर या मस्जिद के पास से निकले, मात्र इस कारण कि उस समय वहां पूजा हो रही है उनकी जलूसी पूजा को बन्द करने पर मजबूर नहीं कर सकते।'
इस सम्बन्ध में "पारथसार्दी प्रार्यगर बनाम चिन्नकृष्ण प्रायंगार" की नजीर भी दृष्टव्य है ।(Indian Law Report, Madras. Vol, Vp. 309) शुद्रम् चेट्री बनाम महाराणी के मुकदमे में यही उसूल साफ शब्दों में इससे पहले भी स्वीकार किया जा चका है (ILR. VIp, 203) इस मकद्दमे के फैसले में पृष्ठ २०६ पर कहा गया है कि जलूसों के सम्बन्ध में यह देखना चाहिये कि अगर वह धामिक हैं और घामिक अंशों का ख्याल किया जाना जरूरी है. तो एक सम्प्रदाय के जलस को दूसरे सम्प्रदाय के पूज्य-स्थान के पास से न निकलने देन। उसी तरह की सख्ती है जैसे कि जलूस के निकलने के वक्त उपासना-मन्दिर में पूजा बन्द कर देना।
__ मुकद्दमा सदागोपाचार्य बनाम रामाराव (ILR. VI p. 376) में भी यही राय जाहिर की गई है। इलाहाबाद ला जर्नल (भा० २३ पृ० १८०) पर प्रिवी कौंसिल के जज महोदयों ने लिखा है कि 'भारतवर्ष में ऐसे जलूसों के जिनमें मजहबी मालदा की जाती है सरेराह निकालने के अधिकारों के सम्बन्ध में एक नजीर' कायम करने की जरूरत मालम होती है, क्योंकि भारतवर्ष में पाला-अदालतों के फैसले इस विषय में एक दूसरे के खिलाफ हैं। सवाल यह है कि किसी धार्मिक जलस को मनासिब व जरूरी विनय के साथ शाह-राह-माम से निकालने का अधिकार है ? मान्य जज महोदय इसका फैसला स्वीकृति में देते हैं अर्थात लोगों को धार्मिक जलूस प्राम-रास्तों से ले जाने का अधिकार है।
मकहमा शंकरसिंह बनाम सरकार कैसरे हिन्द (Al. Law Journal Report. 1929 pp. 180-182) जेर-दफा ३० पुलिस-ऐक्ट नं०५ सन् १८६१ में यह तजवीज़ हुआ कि 'तरतीब'-वयवस्था देने का मतलब 'मनाई' नहीं है। मजिस्ट्रेट जिला की राय थी कि गाने-बजाने की मनाई सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस ने उस अधिकार से की थी जो उसे दफा ३० पुलिस-ऐक्ट की
से मिला था कि किसी त्यौहार या रस्म के मौके पर जो गाने-बजाने प्राम-रास्तों पर किये जावें उनको किसी हद तक सीमित कर दे । मैं (जज हाई कोर्ट) मजिस्ट्रेट-जिला की राय से सहमत नहीं हूं कि शब्द 'व्यवस्था' का भाव हर प्रकार के बाजे की मनाई है। व्यवस्था देने का अधिकार उसी मामले में दिया जाता है जिसका कोई अस्तित्व हो । किसी ऐसे कार्य के लिये जिसका अस्तित्व ही नहीं है, व्यवस्था देने की सूचना बिल्कुल व्यर्थ है। उदाहरणतः पाने-जाने की व्यवस्था के सम्बन्ध में सूचना से याने जाने के अधिकार का अस्तित्व स्वत: अनुमान किया जायगा। उसका अर्थ यह नहीं है कि पुलिस अफसरान किसी व्यक्ति को उसके घर में बन्द रखने या उसका आना-जाना रोक देने के अधिकारी हैं।
दफा ३१ पुलिस ऐक्ट की रू से पुलिस को आम रास्तों, सड़कों, गलियों, घाटों आदि पर आने-जाने के सब ही स्थानों में शान्ति स्थिर रखने का अधिकार है । बनारस में इस प्रधिकार के अनुसार एक हुक्म जारी किया गया था कि खास सम्प्रदाय के लोग यात्रावालों (पण्डों) को, जो इस पवित्र नगर की यात्रा के लिए लोगों का पथ प्रदर्शन करते हैं, रेलवे स्टेशन पर जाने की
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मनाई है। इस मुकद्दमे में हाईकोर्ट इलाहाबाद के योग्य जज महोदय ने तजबीज़ किया कि किसी स्थान पर शान्ति स्थिर रखने के अधिकारों के बल पर किसी खास सम्प्रदाय के लोगों को किसी खास जगह पर जाने की ग्राम मुमानियत करने का सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस को अधिकार था। इस तजबीज के कारण वही थे जो मुकद्दमा सरकार बनाम किशनलाल में दिये गये हैं । ( ILR, Allahabad Vol. 39p. 131) शान्ति स्थिर रखने का भाव भादमियों को घरों में बन्द करने का नहीं है।
यही विज्ञप्तियां दिगम्बर जैन साधुनों से भी सम्बन्ध रखती हैं। वह चाहे अकेले निकलें और चाहे जुलूस की शक्ल में सरकारी अफसरों का कर्तव्य है कि उनके इस हक को न रोके । दिगम्बर जैन साधुगण सारे ब्रिटिश, भारत और देशी रियासतों में स्वतन्त्रता से राजा प्रमते रहे हैं, कहीं कोई रोक-टोक नहीं हुई और न इस सम्बन्ध में किसी की कोई शिकायत हुई। अतएव सरकारी अफसरों का तो यह मुख्य कर्तव्य है कि वे दिगम्बर मुनियों को अपना धर्म पालन करने में सहायता पहुंचायें। गतकाल में जितने भी शासक यहां हुये उन्होंने यही किया; इसलिये अब इसके विरुद्ध ब्रिटिश-शासक कोई भी बर्ताव करने के अधिकारी नहीं हैं। उनको तो जैनों को अपना धर्म निर्वाध पालने देना ही उचित है।
(२७)
विगम्बरत्व और आधुनिक विद्वान् 'मनुष्य मात्र को प्रादर्श-स्थिति दिगंबर हो है । मुझे स्वयं नग्नावस्था प्रिय है।"
महात्मा गांधी संसार के सर्वश्रेष्ठ परुष दिगम्बरत्व को मनुष्य के लिए प्रावृत सुसंगत और यावश्यक समझते हैं। भारत में दिगम्बरत्व का महत्व प्राचीनकाल से माना जाता रहा है । किन्तु अब आधुनिक सभ्यता की लीलास्थलो यूरोप में भी उसको महत्व दिया जा रहा है । प्राचीन यूनान वासियों की तरह जर्मनी, फ्रान्स और इ गलैण्ड आदि देशों के मनुष्य नंगे रहने में स्वास्थ्य और सदाचार की वद्धि हुई मानते हैं । वस्तुतः बात भी यही है । दिगम्बरत्व यदि स्वास्थ्य और सदाचार का पोषक न हो तो सर्वज्ञ जैसे धर्म प्रवर्तक मोक्ष मार्ग के साधन रूप उसका उपदेश ही क्यों देते ? मोक्ष को पाने के लिये अन्य आवश्यकताओं के साथ नंगा तन और नंगा मन होना भी एक मुख्य प्रावश्यकता है । धेष्ठ शरीर ही धर्म साधन का मूल है और सदाचार धर्म की जान है। तथा यह स्पष्ट है कि दिगम्बरत्व' श्रेष्ठ-स्वस्थ्य शरीर और उत्कृष्ट सदाचार का उत्पादक है। अब भला कहिये वह परम धर्म की आराधना के लिये क्यों न अावश्यक माना जाय ? आधुनिक सभ्य संसार आज इस सत्य को जान गया है और वह उसका मनसा, वात्रा, कर्मणा कायल है !
यूरोप में प्राज सैवाड़ों सभायें दिगम्बरत्व' के प्रचार के लिए खुली हुई हैं, जिनके हजारों सदस्य दिगम्बर-वेष में रहने का अभ्यास करते हैं ! बेडल्म स्कूल, पोटर्स फील्ड (हैम्पशायर) में बैरिस्टर, डाक्टर, इन्जीनियर, शिक्षक आदि उच्च शिक्षा प्राप्त महानुभाव दिगम्बर वेष में रहना अपने लिये हितकर समझते हैं। इस स्कूल के मन्त्री श्री वॉर्ड (Mr.N.F. Barford) कहते हैं कि:---.
Next year, as 1 say shall be even more advanced, and in time people will get quite used to the idea of wearing no clothes at all in the opcii and will realise its enormous value 10 liealth. (Amrita Bazar Patrika, 8-8 31)
भाव यही है कि एक साल के अन्दर नंगे रहने की प्रथा विशेष उन्नत हो जायगी और समयानुसार लोगों को खुलेमाम कपड़े पहनने की आवश्यकता नहीं रहेगी। उन्हें नगे रहने से स्वास्थ्य के लिए जो अमित लाभ होगा वह तब ज्ञात होगा।
१, NJ. pp. 19-23
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इस प्रकार संसार में जो सभ्यता पुज रही है उसकी यह स्पष्ट घोषणा है कि मनुष्य जाति को स्वस्थ रखने के लिये वस्त्रों की तिलाञ्जलि देनी पड़ेगी। नग्नता रोगियों के लिये ही केवल एक महान पौषधि नहीं है, बल्कि स्वस्थ जीवों के लिए भी अत्यन्त आवश्यक है ! स्विटजरलैंड के नगर लेयसन (Leysen) निवासी डा रोलियर (Dr. Rollier) ने केवल नग्नचिकित्सा द्वारा ही अनेक रोगियों को मारोग्यता प्रदान कर जगत में हलचल मचा दी है। उनकी चिकित्सा-प्रणाली का मुख्य अङ्ग हैं स्वच्छ वायु अथवा धूप में नंगे रहना, नंगे टहलना और नंगे दौड़ना । जगत् विख्यात् ग्रन्थ 'इनसाइक्लोपीडिया बिटेनिका' में नग्नता का बड़ा भारी महत्त्व वर्णित है। वास्तव में डाक्टरों का यह कहना कि जबसे मनुष्य जाति वस्त्रों के लपेट में लिपटी है तबसे ही सर्दी, जुकाम, क्षय, प्रादि रोगों का प्रादुर्भाव हा है, कुछ सत्य-सा-प्रतीत होता है । प्राचीनकाल में लोग नगे रहने का महत्व जानते थे और दीर्घजीवी होते थे। ।
किन्तु दिगम्बरत्व स्वास्थ्य के साथ-साथ सदाचार का भी पोषक है। इस बात को भी आधुनिक विद्वानों ने अपने अनुभव से स्पष्ट कर दिया है। इस विषय में श्री प्रोलिवर हर्ट सा० "The New Statesman and Nation" नामक पत्रिका में प्रकट करते हैं कि "अन्ततः अब समाज बाईबिल के पहिले अध्याय के महत्व को (जिसमें आदम और हव्वा के नंगे रहने का जिकर है) समझने लगी है और नग्नता का भय अथवा झूठी लज्जा मन से दूर होती जा रही है । जर्मनी भर में बीसों ऐसी सोसाइटियां कायम हो गई हैं जिनमें मनुष्य पूर्ण नग्नावस्था में स्वच्छ वायु का उपयोग करते हए नाना प्रकार के खेल खेलते हैं। वे लोग नग्न रहना प्राकृतिक, पवित्र और सरल समझते हैं । शताब्दियों से जिसके लिये उद्यम हो रहा था, वह यही पवित्रता का आन्दोलन है। यह पवित्रता कसी है ? इसको स्वयं उसके निवास स्थान गेलैन्ड (Gelande) के देखने से जाना जा सकता है, जबकि वहां पर सैकड़ों स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकायें प्रानन्दमय स्वाधीनता का उपभोग करते दृष्टिगत हों! ऐसे दृश्य के देखने से मन पर क्या असर पड़ता है, वह बताया नहीं जा सकता ! जिस प्रकार कोई मैला-कुचला आदमी स्नान करके स्वच्छ दिखाई दे, ठीक उसी तरह यह दृश्य सर्व प्रकार के सूक्ष्म अन्तरंग-विषां से शून्य दिखाई पडगा। ऐसे पवित्र मानवों के सामने जो वस्त्रधारी होगा वह लज्जा को प्राप्त हो जायगा। ऐसे प्रानन्दमय वातावरण में...."ताजी हवा और धूप का जो प्रभाव शरीर पर पड़ता है उसको सर्वसाधारण अच्छी तरह जान सकते हैं, परन्तु जो मानसिक तथा प्रात्मीक लाभ होता है, वह विचार के बाहर है। यह क्रांति दिनों दिन बढ़ रही है और कभी अवनत नहीं हो सकती । मानवों को उन्नति के लिये यह सर्वोत्कृष्ट भट जर्मनी संसार को देगा, जैसे उसने प्रापेक्षिक-सिद्धांत उसे अर्पण किया है। बलिन में जो अभी इन सोसाइटियों की सभा हुई थी उसमें भिन्न-भिन्न नगरों के ३००० सदस्य शरीक हुए थे। उसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों और राष्ट्रीय कौन्सिल के मेम्बरों ने अपनीअपनी स्त्रियों के साथ देखा था। उन स्त्रियों के भाव उसे देखकर बिलकूल बदल गये । नग्नता का विरोध करने के लिए कोई हेतु नहीं है, जिस पर मह टिक सके। जो इसका विरोध करता है, वह स्वयं अपने भावों को गन्दगी प्रगट करता है। किन्तु यदि वह इन लोगों के निवास स्थान को गौर से देखे तो उसे अपना विरोध छोड़ देना होगा । वह देखेगा कि सैकड़ों स्त्री-पुरुपों-माता, पिता और बच्चों ने कैसी पवित्रता प्राप्त कर ली है।
अतएव पाश्चात्य विद्वानों की अनुभव-पूर्ण गवेषणा से दिगम्बरत्व स्पष्ट है। दिगम्बरत्व मनुष्य की प्रादर्श स्थिति है और यह धर्म-मार्ग में उपादेय है, यह पहले भी लिखा जा चुका है। स्वास्थ्य और सदाचार के पोषक नियम का वैज्ञानिक धर्म में आदर होना स्वाभाविक है । जैन धर्म एक धर्म विज्ञान है और वह दिगम्बरत्व के सिद्धांत का प्रचारक अनादि से रहा है । उसके साध इस प्राकृतवेष में शीलधर्म के उत्कट पालक और प्रचारक तथा इंद्रियजयो योगो रहे हैं, जिनके संमुख सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और सिकन्दर महान् जसे शासक नतमस्तक हुये थे और जिन्होंने सदा ही लोक का कल्याण किया, ऐसे ही दिगंबर मुनियों के संसर्ग में पाये हुये अथवा मुनि धर्म से परिचित अाधुनिक विद्वान भी आज इन तपोधन दिगंबर मनियों के चारित्र से अत्यन्त प्रभावित हये हैं। वे उन्हें राष्ट्र की बहुमूल्य वस्तु समझते हैं। देखिये साहित्याचार्य श्री कन्नोमल जी एम० ए० जज उनके विषय में लिखते हैं कि "मैं जैन नहीं हूँ, पर मुझ जैन साधुनों और गृहस्थों से मिलने का बहुत अवसर मिला है। जैन साधुओं के विषय में मैं बिना किसी संकोच के कह सकता हूं कि उनमें शायद ही कोई ऐसा साधु हो, जो अपने प्राचीन पवित्र आदर्श से गिरा हो । मैंने तो जितने साधु देखे उनसे मिलने पर चित्त में यही प्रभाव पड़ा कि वे धर्म, त्याग, अहिंसा तथा सदुपदेश की मूर्ति हैं। उनसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता होती है"। बंगाली विद्वान् श्री वरदाकान्त मुख्योपाध्याय एम० ए० इस
१. दि. मुनि भूमिका, पृ. 'ख' २. जमि०, वर्ष ३२ १० ७१२ ३. दिमु०, पृ० २३
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विषय में कहते हैं :
चौदह आभ्यन्तरिक और दश वाघ पारग्रह परित्याग करने से निर्धन्य होते हैं ... ...""जब वे अपनी नग्नावस्था को विस्मृत हो जाते हैं तब ही भवसिन्धु से पार हो सकते हैं। ...'' ( उनकी) नग्नावस्था और नग्न मुतिपूजा उनका प्राचीनत्व सप्रमाण सिद्ध करती है, क्योंकि मनुष्य प्रादिम अवस्था में नग्न थे।"
महाराष्ट्रीय विद्वान् श्री वासुदेव गोबिन्द आपटे बी० ए० ने एक व्याख्यान में कहा था कि "जैन शास्त्रों में जो यतिधर्म कहा गया है वह अत्यन्त उत्कृष्ट है, इसमें कुछ भी शंका नहीं है।"प्रो. डा. शेषागिरि राव, एम० ए०, पी० एच०डी० बताते हैं कि -
"(The Jaina) faitli helped towards the formation of yood and great character helpful to the progress of Culture and humanity. The leading exponents of that faith continued to live such lives of hardy discipline and spiritual culture cet."
भावार्थ-"जैनधर्म संस्कृति और मानव समाज की उन्नति के लिए उत्कृष्ट और महान चारित्रको निर्माण कराने में सहायक रहा है । इस धर्म के प्राचार्य सदा की भांति तपश्चरण और यात्मविकास का उन्नत जीवन व्यतीत करते
ईसाई मिशनरी ए. डबोई सा० ने दिगम्बर मुनियों के सम्बन्ध में कहा था कि :---
"सबसे उच्च पद जो कि मनुष्य धारण कर सकता है वह दिगम्बर मुनि का पद है । इस अवस्था में मनुष्य साधारण मनुष्य न रहकर अपने ध्यान के बल से परमात्मा का मानो अंश हो जाता है । जब मनुष्य निर्वाणी (दिगम्बर) साध हो जाता है तब उसको इस संसार से कुछ प्रयोजन नहीं रहता और वह पुण्य-पाप, नेको-बदो को एक ही दृष्टि से देखता है-उसको संसार की इच्छाएं तथा तृष्णायें नहीं उत्पन्न होती हैं। न वह किसी से राग और न द्वेष करता है। वह बिना दु:ख मालम किये सर्व प्रकार के उपसर्गों को सहन कर सकता है।"..."अपने प्रात्मिक भावों में जो भीजा हो उसको क्यों इस संसार की और उसकी निस्सार क्रियानों को चिन्ता होगी !"
एक अन्य महिला मिशनरी श्री स्टीवेन्सन ने अपने ग्रन्थ "हार्ट आव जनोज्म" में लिखा है कि:
Being rid of clothes one is also rid of a lot of othero worries, no water is needed in which to wash them. Our knowledge of good and evil, our knowledge of nakedness keeps away from salvation. To obtain it we must forget nakedness. the Jaina Nirgranthas have forvet all knowledge of good and cvil. Why should they require clothes to hide their nakednese (Heart of Jainism, p.35)
भावार्य-"वस्त्रों की झझट से छूटना, हजारों अन्य झंझटों से छूटना है। कपड़े धोने के लिए एक दिगम्बर बेपोको पानी की जरूरत नहीं पड़ती। वस्तुत: पाप-पूण्य का भान ही, नग्नता का ध्यान ही मनुष्य को मुक्त नहीं होने देता । मुक्ति पाने के लिए मनुष्य को नग्नता का ध्यान भुला देना चाहिये । जैन निग्रन्थों ने पाप पुण्य के भान को भुला दिया है। भला उन्हें नग्नता छिपाने के लिये वस्त्रों की क्या जरूरत ?"
सन १९२७ में जब लखनऊ में दिगम्बर मुनि संघ पहुंचा तो श्री अलफोड ने जेकब शा(Alfred Jacab Sensatna एक ईसाई विद्वान ने उसके दर्शन किये थे। वह लिखते हैं कि प्राचीन पुस्तकों में सम्मेदशिखर पर दिगम्बर मनियों के ध्यान करने बाबत पढा जरूर था लेकिन ऐसे साधुओं को देखने का अवसर प्रजिताधम में ही मिला। वहां चार दिगम्बर मनियान
और तपस्या में लीन थे। माग-सी जलती हुई छत पर बिना किसी क्लेश के बह ध्यान कर रहे थे। उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि हम परमात्मास्वरूप आत्मा के ध्यान में लीन रहते हैं। हमें बाहरी दुनियाँ की बातों और दुःख-सख से क्या मतलब? १. जैम०, पृ० १५१
२. जैम०, पृ ५७ ३. SSIJ. pt. II P. 30
४. जैम, पृ० १०५
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यद्यपि मैं पक्का ईसाई हं पर तो भी मैं कहंगा कि इन साधुओं का सम्मान हर सम्प्रदाय के मनुष्यों को करना चाहिये । उन्होंने संसार के सभी सम्बन्धों को त्याग दिया है और एक मात्र मोक्ष की साधना में लीन हैं।"
सचमुच इन विद्वानों का उत्ता कपन दिगम्बस्व सचिमाजन मुनियों की महिमा का स्वतः द्योतक है। यदि विचारशील पाठक तनिक इस विषय पर गम्भीर विचार करेंगे तो वह भी नग्नता के महत्व और नग्न साधुओं के स्वरूप को मोक्ष प्राप्ति के लिये आवश्यक जान जायगे । कविवर वृन्दावन जी के शब्द स्वतः उनके हृदय से निकल पड़ेगे :
"चतुर नगन मुनि दरसत,
भगत उमंग उर सरसत । नुति थुति करि मन हरसत,
तरल नयन जल बरसत ।।"
१. JG. XXIII p. 139
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महावीर शासन को विशेषताएं
- श्री अगरचन्द नाहटा
भगवान महावीर का पावन शासन अन्य सभी दर्शनों से महती विशेषता रखता है। महावीर प्रभु ने अपनी अखंड
,
·
एवं धनुषम साधना द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त कर विश्व के सामने जो नवीन आदर्श र उनकी उपयोगिता विश्व शान्ति के लिए त्रिकालबाधित है। उन्होंने विश्व कल्याण के लिए जो मार्ग निर्धारित किये, वे इतने निभ्रान्ति एवं अटल सत्य हैं कि उनके बिना सम्पूर्ण आत्म-विकास असम्भव-सा है।
वीर प्रभु ने तत्कालीन परिस्थिति का जिस निर्भीकता से सामना करके काया पलट कर दिया वह उनके जीवन की एक प्रसाधारण विशेषता है। सर्व जनमान्य एवं सर्व भाग सिद्धान्तों एवं क्रिया काण्डों का विरोध करना साधारण मनुष्य का कार्य नहीं. इसके लिए बहुत बड़े साहस एवं प्रात्मबल की आवश्यकता होती है और वह प्रात्मबल भी बड़ी कठिन साधना द्वारा ही प्राप्त होता है। भगवान महावीर का सायक जीवन उसका विशिष्ट प्रतीक है जिस प्रकार उनका जीवन एक विशिष्ट साधक जीवन था, उसी प्रकार उनका शासन भी महती विशेषता रखता है। इस विषय पर इस लघु लेख से विचार किया जाता है।
वीरासन द्वारा विश्व कल्याण का कितना घनिष्ठ सम्बन्य है। उत्कालीन परिस्थिति में इस शासन ने क्या काम कर दिखाया ? यह भली-भांति तभी विदित होगा जब हम उस समय के वातावरण से, सम्यक् प्रकार से परिचित हो जायें । अतः सर्व प्रथम तत्कालीन परिस्थिति का दिग्दर्शन करना प्रावश्यक हो जाता है ?
1
जैन एवं बौद्ध प्राचीन ग्रन्थों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि उस समय धर्म के एकमात्र ठेकेदार ब्राह्मण लोग थे, गुरुपद पर वे ही 'सर्वेसर्वा थे उनकी पो आज्ञा राजाज्ञा से भी अधिक मूल्यवान समझी जाती थी राजगुरु भी वे ही थे, अतः उनका प्रभाव बहुत व्यापक था। सभी सामाजिक रीति रहने एवं धार्मिक क्रिया काण्ड उन्हीं के तत्वावधान में होते थे, और इसलिए उनका जातीय अहंकार बहुत बढ़ गया था। वे अपने को सबसे उच्च मानते थे मूद्रादि जातियों के धार्मिक एवं सामाजिक अधिकार प्रायः सभी छीन लिए गए थे. इतना ही नहीं, वे उन पर मनमाना अत्याचार भी करने लगे थे। उनकी दशा मूक पशुओं की थी। उन्हें यज्ञयागादि में ऐसे मारा जाता था मानों उनमें प्राण ही नहीं हो। इतना ही नहीं, इसे महान् धर्म भी समझा जाता था, वेदविहित हिंसा हिंसा नहीं मानी जाती थी ।
इधर स्त्री जाति के अधिकारी भी छीन लिए गये थे। पुरुष लोग उन पर जो मनमाना अत्याचार करते थे, वे उन्हें निर्जीव की भांति सहन कर लेने पड़ते थे। उनकी कोई सुनाई नहीं थी। धार्मिक कार्यों में उनको उचित स्थान नहीं या अर्थात् स्त्री जाति बहुत कुछ पददलित-सी थी।
"
यह तो हुई उच्च-नीच जातिवाद की बात इसी प्रकार वर्णाश्रमवाद भी प्रधान माना जाता था। साधना का मार्ग वर्णाश्रम के अनुसार हो होना श्रावश्यक समझा जाता था। इसके कारण सच्चे वैराग्यवान व्यक्तियों का भी तृतीयाश्रम के पूर्व सन्यास ग्रहण उचित नहीं समझा जाता था ।
इसी प्रकार शुष्क क्रिया-काण्डों का उस समय बहुत प्रास्य था। यज्ञयागादि स्वर्ग के मुख्य साधन माने जाते थे। वाह्य शुद्धि की ओर धक ध्यान दिया जाता था। अान्तरिक शुद्धि की ओर से सोगों का लक्ष्य दिनों दिन हटता जा रहा था । स्थान-स्थान पर तापस लोग तापसिक बाह्य कष्टमय क्रिया काण्ड किया करते थे और जन साधारण को उन पर काफी विश्वास था ।
वेद ईश्वर-कथित शास्त्र है. इस विश्वास के कारण वेदाशा सबसे प्रधान मानी जाती थी। अन्य महर्षियों के मत
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गौण मे वैदिक क्रिया-कायों पर लोगों का बहुत अधिक विश्वास था विशेष लाभ नहीं उठा सकती थी। वेदादि पढ़ने के एक मात्र अधिकारी
शास्त्र संस्कृत भाषा में होने से साधारण जनता उनसे ब्राह्मण ही माने जाते थे
ईश्वर एक विशिष्ट शक्ति है। संसार के सारे कार्य उसी के द्वारा परिचालित हैं। सुख दुख कर्मफल दाता ईश्वर ही है। विश्व की रचना भी ईश्वर ने ही की है इत्यादि बातें विशेष रूप से सर्वजनमान्य थी। इसके कारण लोग स्वावलम्बी न होकर केवल ईश्वर के भरोसे बैठे रह कर सात्मोन्नति के सच्चे मार्ग में प्रयत्नशील नहीं थे। मुक्ति-लाभ ईश्वर की कृपा पर ही माना जाता है। कल्याण पथ में विशेष मनोयोग न देकर लोग ईश्वर की लम्बी-लम्दो प्रार्थना करने में ही निमग्न थे और प्रायः इसी में अपने कर्तव्य की इति श्री समझते थे ।
इस विकट परिस्थिति के कारण लोग बहुत अशान्ति भोग रहे थे शूद्रादि तो अत्याचारों से ऊब गये थे। उनकी आत्मा शान्ति प्राप्ति के लिए व्याकुल हो उठी थी । वे शान्ति की शोध में अातुर हो गये थे । भगवान महावीर ने अशान्ति के कारणों पर बहुत मनन कर शान्ति के वास्तविक पथ का गम्भीर अनुशीलन किया। उन्होंने पूर्व परिस्थिति का कायापलट किये बिना बा को मर समझ अपने अनुभूत सिद्धातों द्वारा क्रान्ति मचा दी ।
उन्होंने जगत के बातावरण की कोई चिन्ता न करके साहब के साथ अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया। उनके द्वारा fare को एक नया प्रकाश मिला। महावीर के प्रति जनता का आकर्षण क्रमशः बढ़ता चला गया। फलतः लाखों व्यक्ति वीर-शासन की पवित्र छत्र-छाया में सान्ति-लाभ करने लगे।
वीर शासन की विशेषतायें
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वीर शासन की सबसे बड़ी विशेषता "विश्व प्रेम" है इस भावना द्वारा पहिला को धर्म में प्रधान स्थान मिला। सब प्राणियों को धार्मिक अधिकार एक समान दिये गये । पापी से पापी और शूद्र एवं स्त्री जाति को मुक्ति तक का अधिकार घोषित किया गया और कहा गया कि मोक्ष का द्वार सबके लिए खुला है। धर्म पवित्र वस्तु है उसका जो पालन करेगा, वह जाति अथवा कर्म से चाहे कितना ही नीच क्यों न हो। प्रवश्य पवित्र हो जाएगा। साथ ही जातिवाद का जोर से खण्डन किया गया घोर उभ्यता और नीचता के सम्बन्ध में जाति के बदले गुणों को प्रधान स्थान दिया गया। सा ब्राह्मण कोन है इसकी विशद व्याख्या की गई जिसकी कुछ रूम रेखा देनों के उत्तराध्ययन सूत्र" एवं बौद्धों के "धम्मपद" में पाई जाती है। लोगों को यह सिद्धान्त बहुत संगत और सत्य प्रतीत हुआ। फलतः लोक-समूह महावीर के उपदेशों को श्रवण करने के लिए उमड़ पड़ा। उन्होंने अपना वास्तविक व्यक्तित्व प्राप्त किया, वीर शासन के दिव्य प्रालोक से चिरकालोन अज्ञानमय भ्रान्त धारणा विलीन हो गई । विश्व ने एक नई शिक्षा प्राप्त की, जिसके कारण हजारों शूद्रों एवं लाखों स्त्रियों ने बारमोद्धार किया। एक सदाचारी शूद्र निगु ब्राह्मण से लाख गुणा उच्च है। अर्थात् उच्च नीच का माप जाति से न होकर गुण सापेक्ष है। कहा भी है।
"गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंग न च वयः " धार्मिक अधिकारों में जिस प्रकार सब प्राणी समान अधिकारी हैं, उसी
प्रकार प्राणि मात्र सुखाकांक्षी है। सब जीने के हैं, मरण से सबको भय एवं कष्ट है, अतएव प्राणिमात्र पर दया रखना वीर शासन का मुख्य सिद्धान्त है। इसके द्वारा यज्ञयागादि में असंख्य मूक पशुओं का जो आये दिन संहार हुआ करता था, वह सर्वथा रुक गया। लोगों ने इस सिद्धान्त की सच्चाई का अनुभव किया कि जिस प्रकार हमें कोई मारने को कहता है तो हमें उस कपन मात्र से रुष्ट होता है उसी प्रकार हम किसी को सतायेंगे तो उसे वन्य कष्ट होगा। पर-पीड़न में कभी धर्म हो ही नहीं सकता मूक पशु चाहे मुख से अपना दुःख व्यक्त न कर सकें पर उनकी चेष्टाओं द्वारा यह भली-भांति ज्ञात होता है कि मारने पर उन्हें भी हमारी भांति कष्ट प्रवश्य होता है । इस निर्मल दयामय उपदेश का जन साधारण पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और ब्राह्मणों के लाख विरोध करने पर भी यज्ञयागादि की हिंसा प्रायः समाप्त हो गई। इस सिद्धान्त से अन्तत जीवों का रक्षण हुआ पौर असंख्य व्यक्तियों का पाप से बचाव हुआ । असंख्य मूक एवं निरपराध प्राणियों को अभयदान मिला ।
अहिंसा की व्याख्या वीर शासन में जिस विद रूप से पाई जाती है, किसी भी दर्शन में बसी उपलब्ध नहीं विश्व शान्ति के लिए इसकी कितनी आवश्यकता है, यह भगवान महावीर ने भली-भांति कर दिखाया कठोर से कठोर हृदय भी कोमल हो गये और विश्व-प्रेम की अखण्ड धारा चारों ओर प्रवाहित हो चली।
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वीर शासन में वर्णाधमवाद को अनुपयुक्त घोषित किया गया। मनुष्य को जीवन का कोई भरोसा नहीं । हजारों प्राणी बाल्यकाल एवं यौवनावस्था में मरण को प्राप्त हो जाते हैं, अत: आश्रमानुसार धर्म पालन उचित नहीं कहा जा सकता। व्यक्तियों का विकास भोके समान नहीं होता । किसी प्रात्मा को अपने पूर्व संस्कारों एवं साधना के द्वारा बाल्यकाल में ही सहज वैराग्य हो जाता है, धर्म को प्रोर उसका विशेष सुझाव होता है । तब किसी को वृद्ध होने पर भी वैराग्य नहीं हो । इस परिस्थिति में वैराग्यवान बालक हो गृहस्थाश्रम पालन के लिए विवश करना अहितकर है और वैराग्यहीन वृद्ध का सन्यास-ग्रहण भी बेकार है। अत: आश्रम व्यवस्था के बदले धर्म-पालन, योग्यता पर निर्भर करना चाहिए। हां, योग्यता की परीक्षा में असावधानी करना उचित नहीं है। स्त्रियों को भी धर्म पालन का पूरा अधिकार मिलना यावश्यक है।
इसी प्रकार ईश्वरवाद के बदले वीर शासन में कर्मवाद पर बल दिया है । जीव स्वयं कर्म का कर्ता है और वह स्व. भावानुसार स्वयं ही उसका फल भोगता है। ईश्वर शुद्ध-बुद्ध है. उसे सांसरिक झंझटों से कोई मतलब नहीं । वह किसी को तारने में समर्थ नहीं . लम्बी पनि ह मुक्ति मिल जाती तो संसार में आज अनंत जीव' शायद ही मिलते । जीव अपने भले-बुरे कर्म करने में स्वयं स्वतन्त्र है । पौरुष के विना मुक्ति लाभ सम्भव नहीं। अतः प्रत्येक प्राणी को अपना निज स्वरूप पहिचान कर अपने घरों पर खड़े होने का अर्थात् स्वावलम्बी बनकर आत्मोद्धार करने का सतत प्रयत्न करना चाहिए। ईश्वर ने सृष्टि-रचयिता है और न कर्म फलदाता वह पूर्ण शुद्ध परम प्रात्मा है।
शुष्क क्रिया-काण्डों और बाह्य शुद्धि के स्थान पर वीर शासन में अन्तः शुद्धि पर बल दिया गया है। अन्तः शुद्धि साध्य है, बाह्य शुद्धि उसका साधन मात्र है । अत: साध्य के लक्ष्य बिना क्रिया फलवता नहीं होती। (केवल "जटा" बढ़ाने से राख लगाने से, नित्य स्नान कर लेने से एवं पंचाग्मि तप मादि से सिद्धो नहीं मिल सकती।) प्रतः क्रिया के साथ चित्त-शद्धि सात्विक भावों का होना नितान्त आवश्यक है।
वीर प्रभुने अपना उपदेश जन-साधारण की भाषा में ही दिया क्योंकि धर्म केवल पण्डों को सम्पत्ति नहीं, उस पर प्राणिमात्र का अधिकार है। यह भी बीर-शासन की एक महान् विशेषता है । इसका एक मात्र लक्ष्य विश्व-कल्याण था। सत्र-कृतांग" से स्पष्ट है कि भगवान महावीर के समय में श्री वर्धमान की भांति अनेकों मत-मतान्तर प्रचलित थे । इस कारण जनता बड़े भ्रम में पड़ी थी कि किसका कहना सत्य एवं मानने योग्य है और किसका असत्य है ? मत-प्रवर्तकों में सर्वदा मुठ-मेड़ हुआ करती थी। एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी शास्त्रार्थ चला करते थे । अपने अपने सिद्धान्तों पर प्रायः सब बड़े हए थे। सत्य की जिज्ञासा मन्द पड़ गई थी। तब भगवान महावीर ने उन सबका समन्वय कर वास्तविक सत्य प्राप्ति के लिए "अनेकांत" को अपने शासन में विशिष्ट स्थान दिया, जिसके द्वारा सब मतों के विचारों को समभाव से तोला जा सके, सत्य को प्राप्त किया जा सके। इस सिद्धान्त द्वारा लोगों का बड़ा कल्याण हया। विचार उदार एवं विशाल हो गये। सत्य को जिज्ञासा पुनः प्रतिष्ठित हुई । सब वित्तंडावाद एवं कलह उपशान्त हो गये। इस शेर शासन का सर्वत्र जय जयकार होने लगा।
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भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध
भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध के समय का भारत
भारतवर्ष वही है जो पहले था। इसके नाम में, इसके रूप में, इसके वेष में, इसके शरीर में ही किसी तरफ से भी विरुद्धता नजर नहीं भाती। वही पृथ्वी है, वहीं बोलाकाश है, वहीं कलकत करयकारिणो सरितायें है, वही निश्वन निस्तस्य गम्भीर पर्वत हैं, सचमुच सब कुछ नही दृष्टि माता है जो जैसा या सा दृष्टिगत हो रहा है कहीं भी अन्तर दिखाई नहीं पड़ता है। मनुष्य वही घाये हैं या के विवास प्रतीत होते हैं। यद्यपि इनके विषय में यह अवश्य साया रमक है कि वस्तुतः क्या इसमें सर्व ही आर्य वंशज हैं? परन्तु इतना तो स्पष्ट हो है कि मूल में भारतवासीमा है बार जब यह आर्य हैं तब इसतिर भी प्राची से होना ही चाहिए। किन्तु यदि यही बात सच है जो दशा पहले मुद्दों युगों पहले घो वहीं आज है तो फिर संसार में परिवर्तनशीलता का अस्तित्व कहां रहा? क्या युगां पहले के भारतai में और आज के भारत वर्ष में कुछ भी अन्तर नहीं है ? भारतवर्ष का ज्ञात इतिहास इस बात का स्पष्ट दिग्दर्शन करा देता है कि नहीं, भारतवर्ष जैसा १५ वीं १६ वीं शताब्दी में था वैसा श्राज नहीं है और जैसा ईसा का प्रारम्भिक शताब्दियां में था वैसा उपरोक्त मध्यकालीन शताब्दियों में नहीं था, तो फिर उसका सनातन रूप कहो रहा? वह जैसा पहले था सा बाज है। यह माना जाय ? बात बिल्कुल ठीक है, भारत का रूप भारत को दक्षा और भारत की प्राकृति समयानुसार रंग बदलतो रही है, परन्तु क्या कभी उस क्षेत्र का अभाव हुआ जो भारतवर्ष कहलाता है अमवा वहां के अधिवासियों का अन्त हुआ जो, भारतवासी कहलाते हैं ? नहीं, यह सब बातें पों को त्यों रही हैं. ऐसी अवस्था में समान्यतः यहां पर एक गोरखधन्यासा नेत्रों के प्रगाड़ी उपस्थित हो जाता है, किन्तु यदि उसका निर्णय यथार्थ सत्य प्रकाश में स्थिति के धवल उज्ज्वल आलोक में करें तो हम स्थिति को सहज समझ जाते हैं ।
संसार में जितनी भी वस्तुयें हैं वह सररूप है। उनका भी नाश नहीं होता, किन्तु उनमें परिवर्तन अवश्य होता रहा है एक अवस्था का जन्म होता है तो उसका अस्तित्व हो जाता है, परन्तु उसके नाथ के साथ ही दूसरी अवस्था उत्पन्न हो जाती है । यह क्रम यों ही चालू रहा है और प्रगाड़ी रहेगा। यही संसार है । हम सहज समझ सकते हैं कि भारतवर्ष मूल में तो वही है जो युगों पहले था, परन्तु उसकी हर अवस्था में अनेकों रूपान्तर समयानुसार अवश्य हुए हैं। यही उसका वास्तविक रूप है। वस्तु
भारतवर्ष मूल में तो वही है जो भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के समय में था, परन्तु तब की दशा और अब की दशा इस प्राचीन भारत की अवश्य ही जमीन आसमान जैसा अन्तर रखती है। इतना महत् अन्तर और फिर एकता । यही यथार्थ सत्य की विचित्रता है। आज कर्णफूलों और गले बन्द से कामिनी की शोभा बढ़ रही थी - कल तवियत बदली - कर्णफूल और गले बन्द नष्ट कर दिये गये - चन्दन हार और कंघन उसके वक्षस्थल एवं करों को अलंकृत करने लगे। यहां तो पूरा काया पलट हो गया, परन्तु सोना तो वहीं का वहीं रहा, मूल उसका जब था सो अब है ।
अस्तु भारतवर्ष वही है जो भगवान महावीर और भगवान बुद्ध के समय में था परन्तु उसमें हर तरफ से उस्ट फेर के चिह्न नजर आते हैं आज यहाँ के मनुष्य ही न उतने प्रतिमा और शक्ति सम्पन्न है और न उतने दीर्घजीवी है। बाज के भारत को नैतिक और धार्मिक प्रवृत्ति न उस समय जैसी है और न उसकी प्रधानता का सिक्का किसी के हृदर पर जमा हुआ हे आज यहाँ के निवासी बिल्कुल दोन हीन रंक बने हुए हैं। बुद्धि बल, ऐश्वर्य सब का दिवाला निकाने बैठे है। तब के भारत का अनुकरण ग्रन्य देश करते थे और उसको अपना गुरु मानकर यूनान सदृश उन्नतशील देश के विद्वान जरे पर्रहो यहां विद्याध्ययन करने खाते थे, परन्तु माज उल्टी गंगा बह रही है। स्वयं भारतीय इन विदेशों में जाकर ज्ञानोपार्जन की मिसाल कायम कर रहे हैं और उन देशों की नकल समीकर किये चले जा रहे हैं इस भौतिक-सभ्यता की उपासना का कितना कटु परिनाम भारत को शीघ्र ही भुगतना पड़ेगा, यह अभी इस देश के अधिवासियों की समझ में नहीं पाया है, परन्तु जमाना उनकी
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आँखें खोलेगा अवश्य । और तब वे प्राचीन भारत की ओर प्राशाभरे नेत्रों से देखेंगे । इसलिए यहां पर प्राचीन और अर्वाचीन भारत की तुलना न करके हम उसकी ईसा से पूर्व छठी शताब्दी में जो दशा थी उसका ही किंचित् दिग्दर्शन करके उस समय के उन दो चमकते हुए रत्नों का परिचय प्राप्त करेंगे, जिनके प्रति आज पश्चिमीय सभ्यता के विद्वान् भरे बने हुए हैं।
किसी भी देश की किसी समय की हालत जानने के लिए उस देश को राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक परिस्थिति को जानना आवश्यक है। जब तक उस देश की इन सब दशाओं का चित्र हमारे नेत्रों के अगाड़ी नहीं खींचा जायगा, तब तक उस देश का सच्चा धौर यथार्थ परिचय पाना कठिन है। बाज भारतीयों के पतन का यह भी एक मुख्य कारण है कि ये प प्राचीन पुरुषों के इतिहास से प्रायः अनभिज्ञ हैं। प्रत्येक जाति का उत्थान उसके प्राचीन पादर्शो को उसके प्रत्येक सदस्य के हृदय में बिठा देने पर बहुत कुछ लम्बित है, मतएव यहां पर हम उस समय के भारत की इन दवाओं का किंचित वृत्त निम्न
में अंकित करते हैं।
ईसा की छठी शताब्दि भारत के लिए ही नहीं बल्कि सारे संसार के लिए एक अपूर्व शताब्दि थी। कोई भी देश ऐसा न बचा था जो इसके क्रान्तिकारी प्रभाव से अछूता रहा हो। भारत में इसका रोमांचकारी प्रभाव खूब हो रंग लाया था। राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक सभी ग्रवस्थानों में इसने रूपान्तर लाकर खड़े कर दिये थे। मनुष्य हर तरह से सच्ची स्वाधीनता के उपासक बन गए थे, परन्तु इसमें उस समय के दो चमकते हुए रत्नों भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध का अस्तित्व मूल कारण था ।
उस समय यहां की राजनैतिक परिस्थिति अजय रंग ला रही थी। साम्राज्यवाद का प्रायः सर्व ठौर एक छत्र राज्य नहीं था. प्रत्युत प्रजातंत्र के ढंग के गणराज्य भी मौजूद थे। एक और स्वाधीन राजाओंों की बाकी धान में भारतीय प्रजा सुख की नींद सो रही थी, तो दूसरी पोर गणराज्यों के उत्तरदायित्वपूर्ण प्रबन्ध मे सब लोग स्वतंत्रता पूर्वक स्वराज्य का उपभोग कर रहे थे। दोनों और रामराज्य छा रहा था। इन गणराज्यों का प्रबन्ध ठोक प्राजकल के ढ़ंग के प्रजातंत्रात्मक राज्यों की तरह किया जाता था । नियमितरूप में प्रतिनिधियों का चुनाव होता था, जो राजकीय मण्डल अथवा "सांथागार" में जाकर जनता के सच्चे हित की कामना से व्यवस्था की योजना करते थे। न्यायालयों का प्रबन्ध भी प्रायः भाजकल के ढंग का था, परंतु उस समय वकील वैरिष्टरों की आवश्यकता नहीं थी। न्यायाधीश स्वयं वादी प्रतिवादों के कथन को जांच करते थे और यही नहीं कि प्रारम्भिक न्यायलय जो जांच कर दे वही बहाल रहे प्रत्युत ऊपर के न्यायालय भो स्वयं स्थित की पड़ताल करते थे। प्रचलित कानूनों की किताब भी मौजूद थी और फुलबेंच की तरह बठकूलक न्यायालय सदृदा न्यायालय भी थे। इस प्रजातन्त्रात्मक गणराज्य का आदर्श हमें उस समय के दियों के विवरण में मिलता है। जैन और बीट ग्रन्थ इनके विषय में प्रकाश उपस्थित करते हैं। इन ग्रन्थों के अध्ययन से मालूम होता है कि उस समय प्रस्यात गणराज्य इस प्रकार थे.
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(१) लिच्छवि गणराज्य इसमें इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रियों का प्राधिक्य था और इसकी राजधानो विशाला अथवा शाली विशेष समृद्धिशाली नगरी थी। इस गणराज्य के प्रधान राजा चेटक थे । बौद्ध ग्रन्थ इस राज्य में आठ कुलों के क्षत्रियों का प्रतिनिधित्व बतलाते हैं, परन्तु जैनों के ग्रंथ में उनकी संख्या नौ है । इस गणराज्य की राजधानी वैशाली के निकट श्रवस्थित कुण्डपुर अथवा कुण्डनगर के क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ थे, जो भगवान महावोर के पिता थे। वे सम्भवत: इसो गणराज्य में सम्मिलित थे और इसी कारण भगवान महावीर का उल्लेख कभी-कभी "वैशालिय के रूप में हुआ है। वह गणराज्य विशेष समृद्धिशाली था और यहां जैन धर्म की मान्यता अधिक थी। काशी और कौशल के गणराज्य, जिनके प्रतिनिधि (जो राजा कहलाते थे वे जैन शास्त्र कल्पसूत्र में अठारह बतलाये गये हैं, सम्भवतः इनसे सम्बन्धित थे। इन सब गणराज्यों को व्यवस्थापक सभा वज्जियन राजसंघ कहलाती थी। उस समय इन लोगों को शक्ति विशेष प्रबल भी यहां तक कि भगवा धिपति भी सहसा इन पर आक्रमण नहीं कर सके थे, बल्कि पहले तो स्वयं चेटक ने एक दर्फ जाकर राजगृह का घेरा डाल दिया था और अन्ततः राजा श्रेणिक और बेटक में समझौता हो गया था।
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- बुद्ध (२) शाक्य गणराज्य इसकी राजधानी कपिलवस्तु थी और वहां के प्रधान राजा शुद्धोदन थे। यही म० बुढ के पिता थे। बुद्ध की जन्मनगरी यही थी। इनकी भी सत्ता उस समय अच्छी थी ।
(३) मल्ल गणराज्य में मल्लवंशीय क्षत्रियों की प्रधानता थी । बौद्ध ग्रन्थों से पता चलता है कि यह दो भागों में विभाजित था । कुसीनारा जिस भाग की राजधानी थी उससे म० बुद्ध का सम्बन्ध विशेष रहा था और दूसरे भाग को राज
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धानी पावा थो, जहाँ से भगवान महावीर ने निर्वाण लाभ किया था । श्वेताम्बरियों के 'बाल्पसूत्र' में यहां के प्रधान राजा हस्तिपाल और नौ प्रतिनिधि राजा बतलाये गये हैं।
(४) कोल्यि गणराज्य था । इसकी राजधानी रामगांग थी और इसमें कोल्यि जाति के क्षत्रियों का प्राबल्य था।
शेष में सुन्समार पर्वत का भाग गणराज्य, प्रल्लका के बुलिगण, पिप्पलिवन के मोरोयगण आदि अन्य कई छोटे मोटे गणराज्य भी थे, जिनका विशेष वर्णन कुछ ज्ञात नहीं है । इनके अतिरिक्त दूसरो प्रकार की राजव्यवस्था स्वाधीन राजाओं को थी। इनमें विशेष प्रख्यात प्रजाधीश निम्न प्रकार थे :
(१) मगध के सम्राट धेणिक बिम्बसार । इनकी राजधानी राजगह थी । यह पहले बौद्ध थे, परन्तु उपरान्त रानी चेलनी के प्रयल से जैनधर्मानुयायी हुए थे।
(२) उत्तरीय कौशल--का राज्य मगध से उत्तर पश्चिम को और था, जिसको राजधानी धीवस्ती थी। यहां के राजा पहले अग्निदत्त (पसेनदी) थे। उपरांत उनके पुत्र विदुदाम राज्याधिकारी हुए थे।
(३) कौशल के दक्षिण की अोर वत्स राज्य था और उसकी राजधानी कौशाम्बी यमुना किनारे थी। यहां के राजा उदेन (उदायन) थे, जिनके पिता का नाम परंतप, बौद्ध शास्त्रों में बतलाया गया है। जैन शास्त्रों में जो राजा उदायन अपने सम्यक्त्व के लिए प्रसिद्ध है, वे इनसे भिन्न है। दवे. शास्त्रों में इनके पिता का नाम शतानीक बतलाया है। तथापि यही नाम दि० सम्प्रदाय के उत्तरपुराण में भी बतलाया गया है ।
(४) इससे दक्षिण की ओर जयन्ती का राज्य स्थित था, जिसकी राजधानी उज्जयनी थी, और यहां के राजा चन्द्रप्रद्योत विशेष प्रख्यात थे । जैन शास्त्रों में इनके विषय में भी प्रचुर विवरण मिलता है ।
(५) कलिंग के राजा जितशत्रु थे और यह भगवान महावीर के फूफा थे।
(६) अंग पहले दधिवाहन राजा के प्राधीन स्वतन्त्र राज्य था, परन्तु उपरान्त मगधाधिप के प्राधीन हो गया था और यहाँ के राजा कुणिक अजातशत्रु हुए थे, जो सम्राट् श्रेणिक के पुत्र थे ।
इनके अतिरिक्त और भी छोटे-छोटे राज्य थे, जिनका विशेष परिचय यहां पर कराना दुष्कार है । इतना स्पष्ट है कि उस समय जो प्रख्यात राज्य थे, फिर चाहे वह गणराज्य थे अथवा स्वाधीन साम्राज्य, उनको संख्या कुल सोलह थी । मि० होस डेविड्स उनकी गणना इस प्रकार करते हैं :
(१) नंग... राजधानी चम्पा, (२) मगध -राजधान। राजगुह, (३) काशो-राजधानी बनारस, (४) कौशल-- (माधुनिक नेपाल)-राजधानी श्रावस्ती, (५) यजिजयन --राजधानी वैशाली, (६) मल्ल-राजधानी पावा और कुसीनारा. (७) चेतीयगण--उत्तरीय पर्वतों में प्रयस्थित था. (4) वन्स या---वत्स-राजधानी कौशाम्बी, (६) कुरु-राजधानी इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली)। इसके पूर्व में पांचाल और दक्षिण में मत्स्य था। रत्थपाल कुरुवंशीय सरदार थे, (१०) पांचाल, यह कुरु के पूर्व में पर्वतों और गंगा के मध्य अवस्थित था और दो विभागों में विभाजित था, राजधानी कतिल्ल और कलौज थी, (११) मत्स्य-कुरु के दक्षिण में और जमना के पश्चिम में था, (१२) सुरसेने-जमना के पश्चिम में और मत्स्य के दक्षिण-पश्चिम में था,-राजधाना मथुरा (१३) अस्सक-प्रवन्ती के उत्तर-पश्चिम में गोदावरी के निकट प्रवस्थित था-राजधानी पोतन या पोतलि, (१४) अवन्ती-राजधानी उज्जयनी, ईशा की दूसरी शताब्चि तक यह प्रवन्तो कहलाई, परन्तु ७वीं या-वों शताब्दि के उपरान्त यह मालव कहलाने लगी, (१५) गान्धार-आजकल का कन्धार है-राजधानो तक्षशिला, राजा पुक्कु साति और (१६) कम्बोज-उत्तर पश्चिम के ठेठ छोर पर थी, राजधानी द्वारिका थी।
इन राज्यों में परस्पर मित्रता थी और बहुधा वे एक दूसरे से सम्बन्धित भी थे, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि इनमें कभी परस्पर रणभेरी न बजती हो । यदा कदा संग्राम होने का उल्लेख भी हमें शास्त्रों से मिलता है, किन्तु इतना स्पष्ट है कि इन राज्यों की प्रजा विशेष शान्ति और सूख का उपभोग करती थी। उसे ऐसा भय नहीं था जो वह अपनी उभय उन्नति सानन्द न कर सकती। साम्राज्य के प्राधीन भी वह सुखी थो और गणराज्यों को छत्रछाया में उसे किसी बात को तकलीफ नहीं थी। इस प्रकार उस समय की राजनैतिक परिस्थिति का वातावरण था। यह सर्वथा प्राचीन पार्यों के उपयुक्त था। सचमुच आज को दुनिया के लिये वह अनुकरणीय आदर्श है।
उस समय की सामाजिक परिस्थिति भी अजीब हालत में थी। उस समय के पहले एक दीर्घकाल से ब्राह्मणों की
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प्रधानतामा निशा समाज में रहा बाह्मणों ने सामाजिक व्यवस्था को एक तरह से अपनी आजीविका का कारण बना लिया था। उसी अपेक्षा उन्होंने धर्मशास्त्रों के पठन-पाठन का अधिकार इतरवर्गा-प्रोत क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रों को नहीं दे रक्खा था, प्रत्युत उनके प्रात्म कल्याण के लिए अपने पापको पुजवाना हो इष्ट रक्खा था। जनता को बतलाया था कि तुम अमुक प्रकार यज्ञ प्रादि क्रियाओं को कराकर हमारी सन्तुष्टि करो तो तुम को स्वर्गसुख को प्राप्ति होगी और इस स्वर्गसुख के लालच में लोग उस समय भो यज्ञवेदी को निरापराध मुक पशुओं के रक्त से रगते नहीं हिचकते थे। यहां भी शूद्रादि मनुष्यों को बहुत ही नीची दृष्टि से देखा जाता था । परिणामतः राजकीय स्वतन्त्रता के उस युग में लोगों को ब्राह्मणों को यह भेद ब्वयस्था और एकाधिपत्य प्रखर उठा । प्रचलित सामाजिक व्यवस्था के बन्धनों का उल्लंघन किया जाने लगा । सचमुच वर्तमान सामाजिक क्रान्ति कुछ अस्पष्ट रूप दिखाई पड़ रही है, ठीक वैसा ही जो क्रांति उस समय के समाज में अपना रंग ला रही थी। ब्राह्मणों ने जहाँ स्वार्थ भरे कठोर नियम रक्खे थे वहां बिल्कूल ढिलाई से काम लिया जाने लगा । सामाजिक नियमों में सबसे मुख्य विवाह नियम है सो उस समय इसका क्षेत्र विशेष बिस्तृत था और इसकी वह दुर्दशा नहीं थी जो आजवल हो रही है। युवावस्था में वर-कन्याओं के सराहनीय विवाह सम्बन्ध होते थे। उनमें गुणों का ही लिहाज किया जाता है । जैन और बौद्ध शास्त्रों में इस व्याख्या की पुष्टि में अनेकों उदाहरण मिलते हैं। ऐसा मालूम होता है कि उस जमाने में व्यक्तिगत विवाह सम्बन्ध की स्वाधीनता इतना उग्ररूप धारण किए था कि किन्हीं २ राज्यों में विवाह सम्बन्ध के खास नियम भी बना लिये गये थे। इस व्याख्या के अनुरूप अभी तक केवल एक वैशाली के लिच्छवियों के विषय में विदित है। उनके यहां यह नियम था कि वैशाली की कन्यायें वैशाली के बाहर न दी जावें । तथापि जिस तरह वैशाली तीन खण्डों-(१) क्षत्रिय खण्ड, (२) ब्राह्मण खण्ड और (३) वश्य खण्ड में विभाजित थी उसी तरह इनके निवासियों में अपने और अपने से इतर खण्ड की कन्या से विवाह करने का नियम नियत था। शायद इसी कारण से 'सम्राट्' श्रेणिक के साथ राजा चेटक अपनी कन्या का विवाह नहीं करेंगे, यह सम्भावना जैन शास्त्रों में की गई है। यद्यपि वहां इसका कारण राजा चेटक का जैनत्व और सम्राट श्रेणिक का बौद्धत्व बतलाया गया है। इसमें भी संशय नहीं है कि राजा चेटक जैन धर्मानुयायी थे, परन्तु इससे वैशाली में उक्त प्रकार नियम होने में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। वस्तुत: वैशाली, जहां जैन धर्म का प्रचार प्रारम्भ से अधिक था, यदि अपनी सामाजिक परिस्थिति को नये सुधार के प्रचलित रिवाजों से कुछ विलक्षण रखने में गर्व करे तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि यह हमको ज्ञात नहीं है कि लिच्छविगण बड़े स्वात्माभिमानी थे और वह अपने उच्चवंशी जन्म के कारण नारी समाज में अपना सिर ऊंचा रखते थे। किन्तु इससे भी उस समय की सामाजिक क्रन्ति के अस्तित्व का समर्थन होता है, जिसके विषय में प्राच्य विद्या महार्णव स्व० मि० होस डेविड्स भी लिखते हैं कि उस समय :
"ऊपर के तीन वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य) तो वास्तव मूल में एक ही थे, क्योंकि राजा, सरदार और विप्रादि तीसरे वर्ण वैश्य के ही सदस्य थे, जिन्होंने अपने को उच्च सामाजिक पद पर स्थापित कर लिया था । वस्तुत: ऐसे परिवर्तन होना जरा कठिन थे परन्तु ऐसे परिवर्तनों का होना सम्भव था । गरीब मनुष्य राजा-सरदार बन सकते थे और फिर दोनों ही ब्राह्मण हो सकते थे। ऐसे परिवर्तनों के अनेकों उदाहरण ग्रन्थों में मिलते हैं।
इसके अतिरिक्त ब्राह्मणों के क्रियाकांड एव सर्व प्रकार की सामाजिक परिस्थिति के पुरुष स्त्रियों के परस्पर सम्बन्ध के भी उदाहरण मिलते हैं और यह उदाहरण केबल उच्च परिस्थिति के ही पुरुष और नीच कन्याओं के सम्बन्ध के नहीं है, बल्किी नीच पुरुष और उच्च स्त्रियों के भी हैं।"
अतएव वस्तुतः उस समय ऐसी सामाजिक परिस्थिति होना कुछ अचरज भरी बात नहीं है। स्वयं म. बुद्ध और भगवान महावीर के उपदेश से सामाजिक परिस्थिति की उल्झी गुत्यो प्रायः सुलझ गई थो । म बुद्ध ने स्पष्ट रोति से कहा था कि कोई भी मनुष्य जन्म से ही नीच नहीं होता है बल्कि वह द्विजगण जो हिसा करते नहीं हिचकते हैं और हृदय में दया नहीं रखते हैं, वह नीच हैं । वासेठसुत्त में जब ब्राह्मणों से वाद हुआ तब बुद्ध ने कहा कि जन्म से ब्राह्मण नहीं होता है,न अब्राह्मण होता है किन्तु कर्म से ब्राह्मण होता है और कम से ही अबाह्मण होता है। भगवान महावीर ने अपने अनेकांत तत्व के रूप में इस परिस्थित को बिल्कुल ही स्पष्ट कर दिया। उन्होने कहा कि जन्म से भी ब्राह्मण आदि होता है और कर्म से भी । पाचरण पर ही उसका महत्व प्रबलंबित बतलाया। स्पष्ट कहा है कि :
संताणकमेणागय जीवयण रस्स गोदमिदि सण्णा। उच्च नीच चरणं नीचं हवे गोदं ।।
-गोमट्टसार
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अर्थात् संताप क्रम से चले आये हुए जीव के आचरण की गोत्र संज्ञा है । जिसका ऊंचा प्राचरण हो उसका उच्च गोत्र और जिसका नीच आचरण हो उसका नीच गोत्र है यह नहीं है कि यदि कोई व्यक्ति नीच वर्ग में उत्पन्न हुआ है और वह सत्संगति को पाकर अपने आचरण को सुधार कर उन्नत बना ले तो भी वह नीच बना रहे, प्रत्युत उसके उच्चाचरणी होने पर उसका गोत्र भी यथा समय उपच हो जावेगा। भगवान् महावीर के इस यथार्थ संदेश से जनता को वास्तविक परिस्थिति का पता चल गया और वह आपस के अमानुषी व्यवहार को तिलान्जली देकर प्रेमपूर्ण व्यवहार करने पर उतारु हो गई । याधुनिक विद्वान् भी इस पूर्व घटना पर आश्चर्य प्रगट करते हैं, किन्तु सत्य के साम्राज्य में ऐसी घटनाओं का घटित होना स्वाभाविक है।
इस तरह उस समय की सामाजिक परिस्थिति भी इस समय से विशेष उदार थी धीर थोथी कोसनेवाली की उसमें स्थान शेष नहीं रहा था भगवान् पार्श्वनाथ के दिव्योपदेश से सामाजिक व्यवस्था में हलचल खड़ी हो गई थी, क्योंकि भगवान नेमिनाथ के दीर्घ अन्तराल काल में ब्राह्मण संप्रदाय का प्राबल्य अधिक बढ़ गया था और विप्रगण अपने स्वार्थमय उद्देश्यों को पूर्ति में मनुष्य समाज के प्रारंभिक स्वस्थों को अपहरण कर चुके थे। इस दशा में जब भगवान् पार्श्वनाथ ने जनता की वस्तुस्थिति बताई तो उसके कान खड़े हो गये और उसमें से प्रभावशाली व्यक्ति प्रगाड़ी चाकर ब्राह्मणों द्वारा प्रचलित सामायिक व्यवस्था के विरुद्ध लोगों को उपदेश देने लगे । फलतः एक सामाजिक क्रान्ति सी उपस्थित हुई। जिसका शमन म० बुद्ध और फिर पूर्णतः भगवान् महावीर के अपूर्व उपदेश से हुआ। जिन सुधारों की आवश्यकता थी, वह सुगमता से पूर्ण हुए श्री मनुष्यों में जो आपसी भेद अधिक बढ़ रहे थे उनका अन्त हुआ । तत्कालीन जैन और बौद्ध विवरणों को ध्यानपूर्व पढ़ने से यही परिस्थिति प्रतिभाषित होती है। सचमुच इस समय भी कार्यत्व की रक्षा के लिए भगवान् महवीर के दिव्य संदेश को दिगन्तब्यापी बनाने की आवश्यकता है। मनुष्य समाज उससे विशेष लाभ उठा सकता है।
जिस तरह हम सामाजिक परिस्थिति के सम्बन्ध में देखते हैं कि उस समय एक क्रान्ति-सी उपस्थिति थी, ठीक यही दशा धार्मिक वातावरण में हो रही थी । सर्वत्र अशान्ति का साम्राज्य था। ईसा से पूर्व आठवीं शताब्दि में भगवान् पार्श्वनाथ ने जो उपदेश दिया उसका जो प्रभावकारी फल हुआ उसका दिग्दर्शन हम ऊपर कर चुके हैं। सचमुच लोगों को राज्यनैतिक और सामाजिक स्वतंत्रता के उस समृद्धशाली जमाने में अपने असली स्वाधीनताग्रात्मस्वतांच्य को प्राप्त करने की धून सवार हो गई थी और यह प्रचलित को क्रियाकाण्डों को हेय दृष्टि से देखने लगे थे। इस दशा में उस समय धार्मिक वातावरण में बो विभाग स्पष्टतः नजर आते थे। एक तो प्राचीन क्रियाओं और यश रोतियों का कायल ब्राह्मण वर्ग का और दूसरा नवीन सुधार को समक्ष लाने वाला "समय" ( अमण ) दल था वह द्वितीय दल अनेक प्रतिज्ञाजाओं में विस्तृत मिलता था। जेन शास्त्र इनकी संख्या तीन सौ त्रेसठ बनाते हैं, परन्तु बौद्ध सिर्फ प्रेस ही इस मतभेद का निष्कर्ष यही प्रतात होता है कि उस समय अनेक विविध पंथ प्रचलित थे। सामाजिक क्रांति के दौरदीरे में जो कोई भी ब्राह्मण के विरुद्ध कितने भी लचर सिद्धान्तों को लेकर खड़ा हो जाता था, उसी को लोग अपनाने लगते थे। विशेषकर क्षत्रिय वर्ष ऐसे विरोधकों का सहायक बन रहा था पोर वह उनके लिए मंदिर, आश्रम श्रादि भी बनवा देता था ।
प्रथम ब्राह्मण वर्ग विशेषकर यह क्रियाओं और पशु बलिदान को मुख्यता देता था और उनमें जो विशेष उन्नति किए हुए परिव्राजक लोग थे, जिनकी उपनिषद आदि रचनायें प्रसिद्ध हैं, वह ज्ञान और ध्यान को ही श्रात्मस्वातंत्र्य के लिए आव श्यक समझते थे। ऋषिगण भगवान् पार्श्वनाथ के पहिले से ही निदान पोषक वित्रों के साथ २ चया रहे थे । प्रततः भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश को सुनकर इनमें से भी ऋषिगण अलग होकर अपनी स्वतंत्र माम्नाय "आजीवक" नामक बना चुके थे इनकी गणना दूसरे दल में की जाती थी यह दूसरा दल ज्ञान धीर ध्यान के साथ चारित्र को विशेष सादर देता था। इनकी मान्यता थी कि बिना चारित्र के मनुष्य ग्रात्मोन्नति कर ही नहीं सकता है। इस दल के प्रख्यात प्रर्वतकों की संख्या म० बुद्ध ने अपने सिवाय छह बतलाई है। इनको वह 'तित्थिय" कहते हैं । इनके नाम इस तरह बताये गये हैं (१) पूर्णकाश्यप ( २ ) मस्करि गोशालीपुत्र ( मक्खलि गोशाल ) ( ३ ) संजय वैरथी पुत्र ( ४ ) अजित केशकम्बल (५) पकुडकायायन और (६) निगन्धनासपुत (महावीर) धौर यह प्रत्येक अपने अपने संघ के नेता गणाचार्य तीर्थकर, तत्ववेत्तारूप में विशेष प्रख्यात, मनुष्यों द्वारा पूज्य अनुभवशील और दीर्घ आयु के समन (भ्रमण) बतलाये गए हैं। इनमें स० बुद्ध पौर भगवान् महावीर विशेष प्रख्यात है। बतए इसके विषय में खास तौर पर परिचय पाने का प्रयत्न निम्न के पृष्ठों में किया जायगा, परन्तु शेष के पांच मत प्रवर्तकों के विषय में भी यहां पर किंचित ज्ञान प्राप्त कर लेना बुरा नहीं है।
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पहले पूर्णकाश्यप के विषय में बतलाया गया है कि वह नग्न श्रमण था । नग्न श्रमण वह कैसे हुआ इसके लिए एक घटपट कथा मिलती है, जिस पर विश्वास करने को जी नही चाहता वस्तुतः उस काल में ममत्व साधुपने का एक मिल माना जाने लगा था, जैसे हम बगाड़ी देखेंगे, परन्तु यहां पर इससे यह स्पष्ट है कि इस समय जो न श्रमण जैसे पूर्णकाश्यप, नक्सल गौपाल आदि मिलते थे वह नग्नमेष इसी जनमान्यता के अनुसार ग्रहण किये हुए थे। बौद्ध ग्रन्थ में पूरण के विषय में यही कहा गया है कि पुरण ने वस्त्र ग्रहण करने से इसीलिए इन्कार कर दिया था कि नग्न नशा में उसकी मान्यता विशेष होगी । अस्तुः पूर्णकाप एवं अन्य चारों मत प्रवर्तक भगवान महावीर और म० बुद्ध से प्रायु में बड़े थे। और यह अपने को तीर्थकर कहते थे, उसका कारण शायद यह था कि भगवान पार्श्वनाथ के उपरान्त एक तीर्थंकर का जन्म लेना और अवशेष पा इसलिए यह लोग अपने को ही तीर्थंकर प्रकट करने लगे थे। इन नामधरों तीर्थकरों में केवल निर्ब्रन्थ नातयुक्त ( महावीर ) को छोड़कर शेष सबका तीव्र खण्डन बौद्ध ग्रन्थों में किया है। वहां पूर्णकाश्यप की मान्यताओं का उल्लेख हमें यह मिलता है कि मनुष्य जो कार्य स्वयं करता है अथवा दूसरे से करवाता है, वह उसकी आत्मा नहीं करती है और करवाती हैं। (एवम् प्रकायु थप्पा)। इस अपेक्षा जैन बीर बौद्ध दोनों ने इसके मत की गणना क्रियावाद में की है। यद्यपि दिगम्बर शास्त्र " दर्शनसार" में मस्करि गौवादि पुत्र ( मखलिगोशाल) पीर पूर्णकास्यप को एक व्यक्ति मानकर इनके गत की गणना अज्ञानवाद में की है। इस मतभेद का कारण प्रत्यत्र देखना चाहिए। पूर्वकाश्यप की इस प्रकार मात्मा के निष्क्रयपने की मान्यता का साधार ब्राह्मण ऋषि भारद्वाज और नचिकेतों के सिद्धान्त में ख्याल किया जाता है, यद्यपि वे टीकाकर शीलांक काश्यप के सिद्धान्तों की सावृश्यता सांख्यमत से बतलाता है (देखो० प्रो० बुद्धिस्टक इन्डियन फिलासफी पृष्ठ २७९) परन्तु यदि हम भगवान पार्श्वनाथ के उपदेश पर दृष्टि डाले तो हम जान जाते हैं कि काश्वव ने भगवान पार्श्वनाथ को निश्चय की महत्व भुलाकर केवल एक पक्ष केवल अपने मत की पुष्टि की थी । निश्चय नय की अपेक्षा मूल में ग्रात्मा सब सांसारिक क्रियाओं से बिलग है, यही भगवान पार्श्वनाथ का उपदेश था। अतएव काश्यप पर उन्हों के उपदेश का प्रभाव पड़ता है।
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इसके बाद दूसरे मतप्रवर्तक मक्खलिगोशल थे। यह भी नग्न रहते थे यह पहले भगवान पार्श्वनाथ भी शिष्यपरम्परा के मुनि थे परन्तु जिस समय भगवान महावीर के समवशरण में इनकी नियुक्ति गणधरपद पर नहीं हुई तो यह रूष्ट होकर श्रावस्ती में ग्राकर धाजीवकों के सम्प्रदाय के नेता बन गये और अपने को तीर्थकर बतलाकर यह उपदेश देने लगे कि ज्ञान से मोक्ष नहीं होता, समान से ही मोक्ष होता है। देव या ईश्वर कोई है ही नहीं इसलिए स्वेच्छापूर्वक शून्य का ध्यान करना चाहिए। भाव संग्रह नामक प्राचीन दि० जैन ग्रन्थ में इसके विषय में यही कहा गया है, परन्तु यहां पर किसी कारणवश मस्करि और पूरण का उल्लेख एक साथ किया है. यथा:
"मसर- पूरणारिसियो उप्पण्णोपासणाहुतित्यम्म
सिरिवीर समवशरणं अमहियभुणिना नियतेण ॥ १७६ ।।
वहिणिग्गएण उत्त मज्भं एयारसांगधारिस्स ।
गिग्ग भूणी व मरुहो निमाय विरसास सोसरस ।। १७७।।
मुणइ जिणकहिय सुर्य संपद्म दिवखाय गहिय गोयमम्रो ।
विप्पो वेभासी तम्हा मोष णानाओ || १७८॥
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अण्णाणाओ मोक्तं एवं लोयाण पतडमाणो हु ।
देवो अगत्य कोई सुगं काह इच्छाए ।। १७९।।
इसके अतिरिक्त दर्शनसार" और गोम्मटसार जीवकाण्ड" में भी मसलिगोपाल की अज्ञानमत में गणना की है। बीढों के समन्त फलत में भी गौशाल की इस मान्यता का उल्लेख इस प्रकार मिलता है कि "अज्ञानी और ज्ञानवान संसार में भ्रमण करते हुए समान रीति से दुःख का अन्त करते हैं (सन्धावित्वा संसारित्वा दुःखस्सान्तम् करिस्सन्ति ) । पतन्जलि ने भी अपने पाणनिसूत्र के भाग्य में गोशाल के सम्बन्ध में कुछ ऐसा ही सिद्धान्त निर्दिष्ट किया है। वहां लिखा है कि वह मस्करि केवल वांस की छड़ी हाथ में लेने के कारण नहीं कहलाता था, प्रत्युत इसलिए कि वह कहता है- 'कर्म मत करो, कर्म मत करो, केवल शान्ति ही वांछनीय है ( माकृत कर्माणि मा कृत कर्माणि इत्यादि)। इस तरह खनियाल की मान्यता थी, परन्तु मन्त में भगवान महावीर के दिव्य उपदेश के धवल प्रकाश में मक्ख लिगोशालक महत्व जाता रहा और वह एक पागल की भांति मृत्यु को प्राप्त हुआ । श्वेताम्बर शास्त्रों में इसे भगवान महावीर का शिष्य बतलाया है, परन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि भगवान
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महाबीर तो छष्यस्थ अवस्था में उपदेश देते अथवा बोलते नहीं थे, यह स्वयं श्वेताम्बर शास्त्र प्रकट करते हैं। ऐसी दशा में उस अवस्था में गौशाल का भगवान का शिष्य होना असंगत है।
श्वे० के इस मिथ्या कथा के प्राधार रो लोगों का ख्याल है कि महावीर जो ने गौशाल से बहुत कुछ सीखा था और वह नग्न इसी के देखा देखी हुए थे, परन्तु ऐसी व्याख्यायें निरी निर्मूल हैं, यह हम अन्यत्र बता चुके हैं (वोर वर्ष ३ अंक १२-१३) स्वयं श्वे० ग्रंथ भगवती सूत्र में कहा गया है कि जब गोशाल महाबीर से मिला था तब वह वस्त्र पहने हुए था और जब महावीर जी ने उसे शिष्य बनाया तब उसने वस्त्रादि उतार कर फेंक दिये थे। (देखो उपाशकदशासूत्र का परिशिष्ट), इस दशा में महावीरजी पर गोशाल का प्रभाव पड़ा ख्याल करना कोरा ख्याल ही है।
तीसरे संजयवरथीपुत्र को बौद्ध शास्त्रों में मोगलान (मौद्गलायन) और सारीपुत्त का गुरु बतलाया गया है । उपरान्त संजय के यह दोनों शिष्य बौद्ध धर्म में दक्षित हो गये थे। नौद्गलायन के विषय में हमें धौ प्रमितगति आचार्य के निम्न श्लोक से विदित होता है कि वह पहिले जैन मुनि था
रुष्ट: श्री वीरनाथस्य तपस्वी मौष्टिलायनः । शिष्यः श्रीपाश्र्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् ।।६।।
शुद्धोदनसुतं बुद्धं परमात्मानमब्रवीत ।" अर्थात पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा में मौडिलायन नाम का तपस्वी था। उसने महावीर भगवान से रुष्ट होकर बुद्ध दर्शन को चलाया और शुद्धोदन के पुत्र बुद्ध को परमात्मा कहा । श्लोक के इस कथन पर शायद कतिपय पाठक एतराज करें, क्योंकि बौद्ध दर्शन के संस्थापक तो स्वयं म० बुद्ध थे, परन्तु बौद्ध शास्त्रों में मौडिलायन (मौद्गलायन) और सारीपुत्त विशेष प्रख्यात थे और वे बौद धर्म के उत्कट प्रचारक थे, ऐसा लेख है। इस अपेक्षा यदि मौदगलायन को ही बौद्ध दर्शन का प्रवर्तक अनलाया गया है तो कुछ अभियुक्ति नहीं है। स्वयं बौद्ध ग्रंथों में भी भगवान महावीर के सम्बन्ध में ऐसी ही गलती को गई है। उनमें एक स्थान पर उनका उल्लेख "अग्गिवेशन" (अग्निवश्यायन) के नाम से किया है, परन्तु हम जानते हैं कि भगवान महावीर का गोत्र काश्यप था और उनके गणधर सुधर्मास्वामो का अग्निवश्यायन गोत्र था। इस तरह महावीर जो के शिष्य की गोत्र अपेक्षा उनका उल्लेख करके बौद्धाचार्य ने भी जैनाचार्य को भांति गलती को हैं ।प्रतएव इसमें संशय नहीं कि मौद्गलायन भगवान पार्श्वनाथ को शिष्य परम्परा का एक जैन मुनि था। जैन ग्रन्थों में इनके गुरु का नाम संजय अथवा संजयवैरसोपत्र बतलाते हैं। जैन शास्त्रों में भी हमें इस नाम के एक जैन मुनि का अस्तित्व उस समय मिलता है। यह चारणऋद्धिधारी मनि थे और उनको कतिपय शंकायें थीं जो भगवान महावीर के दर्शन करते ही दूर हो गयी थी। श्वेताम्बरों के उत्तराध्ययन सत्र में भी एक संजय नामक जन मुनि का उल्लेख है। ऐसी अवस्था में जैन मुनि मौद्गलायन के गुरु संजय का जैन मुनि होना विकल संभव है और यह संभवतः चारणऋद्धिधारी मुनि संजय ही थे। इसको पुष्टि दो तरह से होती है। पहिले तो संजय को
ये जो बौद्ध शास्त्रों में अंकित है वह जैनियों के स्याद्वाद सिद्धान्त को विकृत रूपान्तर ही हैं। इससे इस बात का समर्थन ताकि स्यावाद सिद्धान्त भगवान महावार से पहिले का है, जैसे कि जैनियों को मान्यता है, और उसको गंजय ने पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा के किसी मुनि से सोखा था, परन्तु वह उसको ठीक तीर से न समझ सका और विकृत रूप में ही उसकी घोषणा करता रहा । जैनशास्त्र भी अव्यक्त रूप में ही इसी बात का उल्लेख करते हैं। अर्थात वह कहते हैं कि संजय को शंकायें थीं जो भगवान महावीर के दर्शन करने से दूर हो गई। यदि वह बात इस तरह नहीं थी तो फिर भगवान महावीर और म० बुद्ध के समय में इतने प्रख्यात मतवर्तक का क्या हया, यह क्यों नहीं विदित होता ? इसलिए हम जैन मान्यता को विश्वसनीय पाते हैं और देखते हैं कि संजय वैरत्थी पुत्र को मोगलान (मोगलायन) के गृह थे वह जैन मुनि संजय हो थे । दूसरी ओर इस व्याख्या की पुष्टि इस तरह भी होती है इन संजय की शिक्षा को सदश्यता यूनानो तत्ववेत्ता पर्रहो की शिक्षायों से बतलाई गई है । एक तरह से दोनों से समानता है और इस परहों ने जैम्नोसूफिट्स सूफियों से, जो ईसा से पूर्व की चौथी शताब्दि में यूनानी लोगों को भारत के उत्तर पश्चिम भाग में मिलते थे, यह शिक्षा ग्रहण की थी । यह जैम्नोंसुफिटस तत्ववेत्ता निर्गन्थ दिगम्बर साघुओं के अतिरिक्त कोई नही थे। यूनानियों ने इन जैन साधुओं का नाम "जम्नोसूफिट्स" रखा था, अतएव जैन साधुओं से शिक्षा पाये हुए यूनानो तत्ववेत्ता परहो की शिक्षाओं से उक्त संजय की शिक्षाओं का सामंजस्य बैठ जाना, हमारी उक्त व्याख्या की पुष्टि में एक और स्पष्ट प्रमाण है । इस तरह यह तीसरे प्रख्यात् मतप्रवर्तक जैन मुनि थे इसमें संशय नहीं है, अतएव इनकी गणना अज्ञानमत में नहीं
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हो सकती और न यह कहा जा सकता है कि इनकी शिक्षाओं का संस्कृत रूप भगवान् महावीर का स्याद्वाद सिद्धान्त है, जैसे कि कतिपय विद्वान् ख्याल करते हैं।
___चौथे मत प्रवर्तक अजित के कम्बलि थे यह वादक क्रियाकाण्ड के कट्टर बिरोधी थे। और पुनर्जन्म सिद्धान्त को अस्वीकार करते थे । इनका मत था कि लोक पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु का समुदाय' है और प्रात्मा पुद्गल के कीमयाई ढंग का परिणाम है। इन चारों चीजों के विघटते हो वह भी विघट जाता है। इसलिए वह कहता था कि जीव और शरीर एक हैं (तम् जीवो तम् सरीरम) और प्राणियों की हिंसा करना दुष्कर्म नहीं है। इसकी इस शिक्षा में भी जन सिद्धान्त के व्यवहार नय को अपेक्षा प्रात्मा पीर पुदगल संमिश्रण का विकृत रूप मजर पाता है। भगवान् पार्श्वनाथ ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था ही, उस ही के आधार पर अजित ने अपने इस सिद्धान्त का निरूपण किया, जिसके अनुसार हिंसा करना भी बुरा नहीं था। विद्वान् लोग अजित को ही भारत में केवल पुद्गलवाद का आदि प्रचारक ख्याल करते हैं। चार्वाक मत की सृष्टि अजित के सिद्धान्तों के बल पर हई हो तो आश्चर्य नहीं ।
पांचवे मतप्रवर्तक पकुडकात्यायन थे। प्रश्नोपनिषद् में इनको ब्राह्मण ऋष पिप्पलाद का समकालीन बतलाया गया है और यह ब्राह्मण थे। इनकी मान्यता थी कि 'असत्ता में से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता और जो है उसका नाश नहीं होता (सतो नच्चि विनसो, असतो नच्चि सम्भवो । सूत्रकृतांग २-१२२) इस अनुरूप में इन में सात सनातन तत्व बतलाये, यथाः (१) पृथ्वी (२) जल (३) अग्नि (४) बायु (५) सुख (६) दुःख और (७) प्रात्मा, इन्हीं सात के सम्मिलन और बिच्छेद से जीवन व्यवहार है । सम्मिलन सुखतत्व से होता है और विच्छेद दुखतत्व से। इस कारण इनका परस्पर एक दूसरे पर कुछ प्रभाव है नहीं, जिससे किसी व्यक्ति को खास नुक्सान पहुंचना भी मुश्किल है। पकुड़ की प्रथम मान्यता सांख्य, वैशेषिक, वेदांत, उपनिषध, जैन और बौद्धों के अनुरूप है । यद्यपि अंतिम कुछ अटपटे ही ढंग का बिवेचन है। यह शीत जल में जीव होना भी मानने थे।
इन मत प्रवर्तकों में हम इस बात का खास उद्देश्य देखते हैं कि वह पुण्य पाप को मेटकर हिंसावादी की पुष्टि करते हैं । म बुद्ध ने भी मत पशमों के मांस खाने का निषेध नहीं किया, जैसे कि हम पागाड़ी देखेंगे। अस्तु, इससे जैन धर्म का इनसे पहले अस्तित्व प्रमाणित होता है, अर्थात् भगवान पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा के ऋषिगण भी इस समय मौजद थे और उन्होंने जो अहिंसामई स्याद्वाद का संयुक्त धर्म प्रतिपादन किया था उससे लोग भड़क गये थे, परन्तु वे सहसा अपनी मांसलिप्सा का मोह नहीं त्याग सके थे । इसी कारण उन्होंने भगवान पार्श्वनाथ के उपदेश को विकृत रूप देखकर अपनी जिह्वालम्पटता के उद्देश्य की सिद्धि की थी। यहाँ तक कि ऐसे तापस भी मौजद थे जो वर्ष भर के लिए एक हाथी को मारकर रख छोड़ते थे और उसी द्वारा उदरपूर्ति करते हुए साधु होने की हामी भरते थे।
सारांशतः यह प्रकट है कि उस समय धार्मिक प्रवृत्ति भी बड़ी ही नाजुक अवस्था में हो रही थी। भगवान महावीर और म० बुद्ध के समय में उपरोक्त मत प्रवर्तकों द्वारा इसका सुधार नहीं हो पाया था परिणामतः इस सामाजिक और धार्मिक कान्ति के अवसर पर म. बुद्ध ने परिस्थिति को बहुत कुछ सुधारा और फिर भगवान महावीर के दिव्योपदेश से जनता यथार्थता को पा गई और अपनी सुख समृद्धशाली दशा में सामाजिक उदारता और यात्मिक स्वाधीनता के सुख-स्वप्न में लीन हो गई। अतएव निम्न के पृष्टों में हम तुलनात्मक रीति से म० बुद्ध और भगवान् महावीर के जीवनों और उनके सिद्धान्तों पर एक दृष्टि डालेंगे।
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भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध का प्रारम्भिक जीवन
ईसा से पूर्व छठी शताब्दि के भारत में जो क्रान्ति उपस्थित थी उसके शमन करने के लिये ही मानो भगवान् महावीर पर म० बुद्ध का शुभागमन हुआ था। वह दोनों ही महानुभाव इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रियों के गृह में अवतीर्ण हुए थे। यद्यपि दोनों ही युग प्रधान पुरुष हम साप जैसे मनुष्य थे, परन्तु अपने पूर्व भवों में विशेष पुण्य उपार्जन करने के कारण उनके जीवन साधारण मनुष्यों से कुछ अधिकता लिए हुए थे । यही बात बौद्ध और जैन ग्रन्थ प्रगट करते हैं । बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि जिस समय म० बुद्ध का जन्म हुआ उस समय कतिपय अलौकिक घटनाएं घटित हुई थी और जब वह अपनी माता के गर्भ में माये थे तब उनकी माता ने शुभ स्वप्न देखे थे। भगवान् महावीर के विषय में कहा गया है कि जब वे अपनी माता के गर्भ में आये थे तब उनकी माता ने सोलह शुभ स्वप्न देखे थे जिनके सांकेतिक अर्थ से एवं उस समय स्वर्गलोक के देवगणों द्वारा उत्सव मनाने से यह ज्ञात हो गया था कि अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर का जन्म शीघ्र ही होगा। चैत्रदला त्रयोदशी के रात जब उनका जन्म हुआ तो दिशायें निर्मल हो गई थीं, समुद्र स्तब्ध हो गया था. पृथ्वी किचित् हिल गई थी और सब जीवों को क्षण भर के लिए परम शांति का अनुभव मिल गया था। इस समय भी एवं अन्य दीक्षा धारण केवल ज्ञान प्राप्ति और मोक्ष लाभ के अवसरों पर भी देवगणों ने आकर उत्सव मनाये थे ।
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म० बुद्ध का पूर्ण नाम गौतम बुद्ध था और वह सिद्धार्थ के नाम से भी ज्ञात थे, किन्तु उनकी प्रपाति कल केवल म० बुद्ध के नाम से हो रही है, यद्यपि वस्तुतः यह उनका एक विशेषण ही है, जैसे भगवान् महावीर को तीर्थकर बतलाना । बौद्ध धर्म में बुद्ध शब्द का प्रयोग इसी तरह हुआ है जिस तरह तीर्थकर शब्द का व्यवहार जैन धर्म में होता है तथापि जिस तरह जैन शास्त्रों में भगवान् महावीर के पूर्व भवों का दिग्दर्शन कराया गया है। उसी तरह म० गौतम बुद्ध के भी पूर्व भव की कथायें बौद्ध साहित्य में "जातक कथाओंों के नाम से विख्यात हैं। म० बुद्ध ने भी तिच मनुष्य देव आदि कितनी हो योनियों में जीवन व्यतीत करके अन्ततः देव योनि से चलकर राजा शुद्धोदन के यहां जन्म धारण किया था। कहा जाता है कि इस घटना से बीस “असंख्य-कप-लक्ष" अर्थात् बुद्ध होने के “मनोपरिनिदान " से अपने जन्म तक बुद्ध ने तीस " परिमिताओं" का पूर्ण पालन किया था, तब ही वह बुद्ध हुए थे। यह "परिमितायें" मूल में दस हैं, परन्तु साधारण उप और परमार्थ के भेद से वे ही तीस प्रकार की हैं। बुद्ध पद को प्राप्त होने के लिए उनका पालन कर लेना आवश्यक है। वे यह है (१) दानपारिमिता चौदों के तीन प्रकार का दान देना, (२) शीलपारिमिता बौद्ध व्रतों का पालन करना (३) नैसकर्मचारिमितासंसार से विरक्त होकर त्यागावस्था का धभ्यास करना, (४) प्रज्ञापारिमिता बुद्ध से प्राप्त गुणों को प्रकट करना (५ वीर्यपारिमिता दृढ़ वीरव को प्रकट करने वाला साहस (६) शान्ति पारिमिता उत्कृष्ट प्रकार की सहनशीलता, (७) सत्तपारिमिता सत्य भाषण (८) अदिष्टान पारिमिता दृढ प्रतिज्ञा की पूर्णता, (६) मंत्री पारिमिता प्रेम और दया का व्यवहार करना, और (१०) उपेक्षा पारिमिता - शत्रु मित्र पर समान भाव रखना । म० बुद्ध ने अपने पूर्व भवों में इनके अभ्यास में कमाल हासिल कर लिया था, यह बात बीद्ध पास्त्रों में कही गई है। यह भी कहा गया है कि बुद्ध देवलोक में अधिक नहीं ठहरते थे वह अपने उद्देश्य प्राप्ति के लिए मनुष्य भव को ही बारवार प्राप्त करने का प्रयत्न करते थे क्योंकि देवलोक में रहकर वह अपने उद्देश्य को प्राप्ति नहीं कर सकते थे। जैन धर्म में भी परमार्थ साधन और सर्वश पद पाने के लिए मनुष्य भव लाजमी बहलाया गया है। परन्तु वहाँ तीर्थकर पद पाने के लिए निदान बांधना आवश्यक नहीं है, जैसा कि गौतम बुद्ध ने बुद्ध पद पाने के लिए अपने एक पूर्व भव में किया था निदान बांधना जैन धर्म में एक निःकृष्ट किया है, जबकि बौद्ध धर्म में वह ऐसो नहीं मानी गई है। पारि मिताओं के साथ २ बुद्ध पद को पाने के लिए निम्न ग्राठ गुण भी उस व्यक्ति में होना श्रावश्यक है - ( १ ) वह मनुष्य होना चाहिये न कि देव | इसीलिए बौधिसत् ( बुद्ध पद पाने का इच्छुक दस शील- व्रतों को पालन करते हैं कि उसके फलस्वरूप वह मनुष्य का जन्म धारण करें, (२) वह पुरुष होना चाहिए, न कि स्त्री (३) उनका पुण्य इतना प्रबल होना चाहिए, जिससे वे अर्हत हो सकें, ( ४ ) यह अवसर भी उसको मिल चुका हो जिसमें उसने एक परमोत्कृष्ट बुद्ध की उपासना की हो और उनमें पूर्ण श्रद्धा रखती हो (५) विरक्त गृह त्याग अवस्था में रहना आवश्यक है, (६) ध्यान आदि कियाओं के साधन से प्राप्त
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फल का वह अधिकारी होना चाहिए, (७) उसे विश्वास होना चाहिए कि जिस बुद्ध से वह बातचीत करता है वह शोक से परे है और वह स्वयं उस दशा को प्राप्त होगा, (८) और उसे बुद्ध पद प्राप्ति के निमित्त दृढ़ निश्चय करना चाहिए। इन पाठ गुणों को भी गौतमबुद्ध ने प्राप्त किया था। इस कारण वह बुद्ध पद के अधिकारी हुए थे। अपने वेस्सन्तरभव से वह देव लोक के तुसित विमान में सन्तुतुसित नामक देव हुये थे । वहां वह बड़ी विभूति सहित ५७ कोटि ६० लाख वर्ष तक रहे थे, यह बौद्ध शास्त्र प्रगट करते हैं । इस अन्तराल के अन्त में जब देवों ने जाना कि एक बुद्ध का जन्म होगा और वे सन्तुसित हैं तो वे सब इनके पास जाकर बुद्ध पद को धारण करने के लिए कहने लगे । इस पर बुद्ध ने वहाँ "पंच महाविलोकन" किये अर्थात् उन पांच बातों को जाना कि (१) उस समय मनुष्य को प्रायु १०० वर्ष की थी, जो बुद्ध पद के लिए उपयुक्तकाल था, (२) बुद्ध जम्बुद्वीप में जन्म लेते हैं, (३) मध्य मंडल अथवा मगध का प्रदेश उत्तम क्षेत्र है. (४) उस समय क्षत्रिय वर्ण प्रधान था, इसलिए उसमें जन्म लेना उचित है, (2) और राजा शुद्धोदन की रानी महामाया के मृत्यु दिवस से ३०७ दिन पहले उनके गर्भ में उनको पहुंच जाना चाहिए । इस तरह इन पांच बातों को जानकर उसने नियत समय में राजा शुद्धोदन को रानी महामाया के गर्भ में पदार्पण किया और फिर उनका जन्म हुमा, यह हम ऊपर देख चुके हैं ।
भगवान महावीर ने तीर्थकर पद प्राप्त करने के लिए बैसा कोई निदान नहीं बांधा था जैसा कि म० बुद्ध को करना पड़ा था। हाँ, यह अवश्य है कि जैन धर्म में भी खास भावनायें और विशेष गुण तीर्थकर पद प्राप्त करने के लिए आवश्यक बतलाये गये हैं। इन खास भावनामों और गुणों के पाराधन से उस पुरुष के 'तीर्थकर नाम कर्म" नामक कर्म का बंध होता है, जिससे वह स्वभावतः उस परम पद को प्राप्त करता है । थो तत्वार्थसूत्र जी में इस सम्बन्ध में यहो कहा गया है, यथा--
"दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नताशीलनतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौशक्तितस्त्यागतपसीसाधुसमाधियाबृत्यकरणमहदाचार्यबहश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्ग प्रभाव
नाप्रवचनवत्सलत्यमिति तीर्थकरत्वस्य ।।२४-६।। अर्थात-तीर्थकर कर्म का पाश्रव निम्न १६ भावनाओं द्वारा होता है
(१) दर्शनविशुदिध-सम्यदर्शन की विशवधता.-- (२) विनय सम्पन्नता.. मुक्ति प्राप्ति के साधनों अर्थात रत्नत्रय मार्ग के प्रति विनय और उनके प्रति भी जो उनका अभ्यास कर रहे हैं, (३) शीलबतेष्वनतिचार–प्रतीचार रहित पांच बतों का पालन और कषायों का पूर्ण दमन, (४) अभीक्ष्ण-ज्ञानोश्योग -सम्यग्ज्ञान की सलग्नता में स्वाध्याय में अविरत प्रयास, (५) संवेग-संसार से विरक्तता और धर्म से प्रेम, (६) शक्तितस्स्याग—अपनी शक्ति अनुसार त्याग भाव का अभ्यास, (७) शक्ति तस्तपः-अपनी शक्ति परिणाम तप का पालन करना, (८) साधु समाधि-साधुनों को सेवा सुश्रुषा और रक्षा करना, (8) बेयावत्यकरण-सर्व प्राणियों की खासकर धर्मात्मा पुरुषों की वैयावृत्य करना, (१०) अहंदभक्ति अर्हत भगवान की भक्ति करना, (११) प्राचार्य भक्ति -प्राचार्य परमेष्ठी को उपासना करना, (१२) बहुश्रुतभक्ति-उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना (१३) प्रवचनभक्ति - शास्त्रों का विनय करना, (१४) आवश्यकता परिहाणी-अपने पडावश्यकों के पालन में शिथिल न होना, (१५) मागप्रभावना मोक्ष मार्ग अर्थात् जैन धर्म प्रकाश करना और (१३) प्रबचनवत्सलत्व - मोक्ष मार्गरत साधर्मी भाईयों के प्रति बात्साल्यभाव रखना, इनका पूर्णध्यान हो तीर्थकर पद प्राप्त करने में मूल कारण है । तथापि उनका पुरुष होना, क्षत्रियकुल में जन्म करना, जन्म से ही तीन ज्ञान और मलमूत्रादि रहित शरीर धारण किए हुए होना माता पिता अथवा किसी अन्य व्यक्ति को नमस्कार न करना, आदि विशेषण भी होते हैं। भगवान महावीर ने अपने पूर्व भवों में उक्त भावनामों का पालन समूचित रीति से किया था, जिसके फलस्वरूप बह राजा सिद्धार्थ के गह में तोयंकर पद पर प्रारूढ़ होने के लिए जन्मे थे। अपने सिह के भव से वे देवलोक के पृष्पोत्तर विमान में अपूर्व सम्पति के धारक देव हुए थे। वहां के भोग-भोग कर वे राजा सिद्धार्थ की रानि त्रिशला की कोख में पाए थे और फिर उनका सुखकारी जन्म हुआ था। तीनों लोक इस कल्याणकारी जन्मावतार से मुदित हो गये।
म० वुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था भार वह उस समय शाक्य गणराज के प्रमुख राजा थे। इनकी राजधानी कपिलवस्तु थी। म० बुद्ध का जन्म यही वैशाख शुक्ला २ को हुआ था, किन्तु अभाग्यवश इनके जन्मते ही इनकी माता के प्राणपखेरू इस नश्वर शरीर को छोड़कर चल बसे थे। इनका लालन-पालन इनकी विमाता ने किया था। इनके जन्म होने पर एक अजित नामक ऋषि ने आकर राजा शुद्धोदन को बतलाया था कि उनका पुत्र गौतम राज्य सामग्री का उपभोग नहीं
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करेगा, प्रत्युत वह युवावस्था में ही गृह त्याग के एक नवीन धर्म का नीवारोपण करेगा। पितृगण इस समाचार को सुनकर जरा वेदित हुए थे, परन्तु वे खूब लाड़वाब से पुत्र का पालन पोषण करने लगे अपने पुत्र के निकट कोई भी ऐसा कारण उपस्थित नहीं होने देते थे जिससे उसके कोमल चित्त पर संसार की नश्वरता का चित्र खिंच जायें। म० बुद्ध भी दिनों-दिन हाथोंहाथ बढ़ने लगे ।
दूसरी ओर भगवान महावीर के पिता का नाम नृप सिद्धार्थ था और भगवान की माता चिया प्रियकारिणी वंशाली के वजियन राजसंघ के प्रमुख राजा पेटक की वो धीं नृप सिद्धार्थ के विषय में यह कहा जाता है कि नाथ (जाति) वंशीय क्षत्रियों की ओर से वज्जियन राजस में सम्मिलित थे। इन ज्ञान क्षत्रियों को मुख्य राजधानी कुण्डनगर थी, जो वंशाली के निकट अवस्थित थी नृप सिद्धार्थ स्वयं नाथवंशीय (ज्ञाविवंशीय) काश्यपयोग क्षेत्र में भगवान महावीर अपने इस क्षत्रियवंश - ज्ञात्रि अथवा नायवश के कारण ही बौद्ध ग्रन्थों में निग्रन्थ नातपुत के नाम से उल्लिखत हुए हैं। भगवान का सुखकारी जन्म इन्हीं प्रख्यात् दम्पति के यहां कुण्डनगर में हुआ था। इनके जन्म से पितृगण को बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ था और उनके राज्य में विशेष रीति से हर बात में वृद्धि होते नजर आई थी, इसलिए उन्होंने भगवान का नाम बर्द्धमान रक्खा था । उपरान्त जब सोधर्मेन्द्र ने भगवान के जन्मोत्सव पर उनकी संस्तुति की तो उनका नाम महावीर रक्खा था इसी समय भगवान के जन्म सम्बन्धी शुभ समाचार सुनकर संजय नामक चारण ऋद्धिधारी मुनि, जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। एक अन्य विजय नामक मुनि के साथ भगवान के दर्शन करने पाये थे, और उनके दिव्य रूप के दर्शन से उनकी पकाओं का समाधान हो गया वा इसलिए उन्होंने भगवान का नाम " सन्मति" रखा था। भगवान का इस प्रकार जन्म हो गया और वह देव देवियों की संरक्षता में दिनोंदिन वृद्धिको प्राप्त होने लगे ।
म० बुद्ध के पिता राजा शुद्धोदन किस धर्म के उपासक थे, यह स्पष्टतः ज्ञात नहीं है। किन्तु बोद्ध ग्रन्थों में इन्हें पूर्व के बुद्धों का उपासक बताया है। यह पूर्व बुद्ध कोन पे यह अभी तक पूर्णतः प्रमाणित नहीं हुआ है, क्योंकि म बुद्ध के पहिले बौद्ध धर्म का मस्तित्व किसी तरह भी सिद्ध नहीं होता। बौद्ध शास्त्रों में इन वुद्धों की संख्या २४ बताई है। जनधर्म में भी "बुद्ध" विशेषण तीर्थंकर भगवान के लिए व्यवहृत हुआ है, ऐसी दशा में संभव है कि २४ बुद्ध जैन धर्म में स्वोकृत जैन तीर्थंकर हों और राजा शुद्धोदन उन्हीं के उपासक हों। डा० स्टीवेन्सन साहब इस ही मत की पुष्टि अपने कल्पसूत्र और नवतत्व" की भूमिका में करते हैं। इसके साथ ही राजा शुद्धोदन के गृह में जैन धर्म की मान्यता थी इसकी पुष्टि बौद्ध ग्रन्थ "ललितविस्तर के इस कथन से भी होती है कि "बाल्यावस्था में बुद्ध श्रीवत्स, स्वस्तिका, नन्द्यावर्त श्री वर्द्धमान यह चिन्ह अपने शीश पर धारण करता था । इनमें पहिले तीन चिन्ह तो क्रमशः शीतलनाथ, सुपार्श्वनाथ और अनाथ नामक जैन तीर्थकरों के चिन्ह हैं और अन्तिम वर्द्धमान स्वयं भगवान महावीर का नाम है। ग्रतएव यह कहा जा सकता है कि राजा शुद्धोदन भगवान पार्श्वनाथ के तीर्थ के जैन श्रमकों के भक्त थे । इन्हीं जैन श्रमणों की उपासना भगवान महावोर के पिता राजा सिद्धार्थ किया करते थे । इस प्रकार दोनों समकालीन युग प्रधान पुरुषों के पितृकुल का विवरण है।
इस तरह स्वाधीन गणराज्यों में प्रधान प्रमुख राजाओं के समृद्धिशाली क्षत्रियों कुलों में जन्म लेकर दोनों ही युगप्रधान पुरुष दिनोंदिन चन्द्रमा को भांति बढ़ रहे थे। शीघ्र ही वे कौमार अवस्था को प्राप्त हुए और कौमारकाल की निश्चिन्त रंगरलियों में व्यस्त हो गये, किन्तु आजकल के युवकों की भांति बिलासिता की अधीनता इनके निकट छू भी नहीं गई थी। यह हो भी कैसे सकता था? वे स्वाधीन वातावरण में जन्म लिए प्रधानपुरुप थे, बोर आजकल के युवक परतंत्रता के प्रमोन
भाग्यवान् व्यक्ति है। इसलिए इनके शरीर और मन सर्वधा गुलामों को वू से भरे हुए है। वस्तुतः इन विलासिता के गुलाम युवकों के लिए इन दोनों युगप्रधान पुरुषों के बालपन के चरित्र अनुकरणीय आदर्श हैं।
कौमारावस्था में म बुद्ध अपने कुल के अन्य राजपुत्रों के साथ आनन्द से कीड़ा किया करते थे। स्वाधीन हिसा ' क्रीड़ायें प्रिय कुल में जन्म लेकर उनका हृदय पितृसस्कृति के अनुरूप प्रति कोमल और दयाद्वं था । एक दिवस वह अपने चचेरे भाई देवदत्त के साथ धनुकोशल का अभ्यास कौतूहलवश कर रहे थे । यकायक देवदत्त ने एक बाण उड़ते हुए पक्षी के मार दिया। वह देवारा निरपराध पक्षी पड़ान से इन दोनों के गाड़ी आ गिरा ! बुद्ध के लिए वह करुणाजनक दृश्य सत और असह्य था। वह भट से घायल पक्षी की ओर लपके और देवदत्त के इस दुष्टकृत्य पर घृणा प्रकट करते हुए उस पायल पक्षी के शरीर से बाण खींच लिया और उसकी उचित सुश्रूषा की बया का क्या अच्छा नमूना है। साज के नवयुवकों को भी निरपराध पशुयों के प्राण लेने का शौक चर्राया हुआ है उन्हें म बुद्ध के इस चरित्र से शिक्षा लेना श्रावश्यक है।
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भगवान महावीर के विषय में भी हमें ज्ञात है कि वे अपनी कौमारावस्था में राजकुमारों मन्त्री पुत्र पोर देवसहचरों के साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ायें करते थे। स्वाधीन क्षत्रिय कुल में परमोच्च पदवी को प्राप्त करने के लिए जन्म लेकर उन्होंने अपने बाल्य जीवन से ही महिसा त्याग और शव का पद लोगों के समक्ष रखा या आठ वर्ष की नन्हीं सी अवस्था में ही उन्होंने जानबूझकर किसी के प्राणों को पीड़ा न पहुंचाने का संकल्प कर लिया था दृढ़ निश्चय कर लिया था कि किसी दशा में भी जानबुझकर प्राणि हिंसा नहीं करूंगा और सदैव सत्य का ही अभ्यास करूंगा। पराई वस्तु ग्रहण करके वे किसो को मानसिक दुःख नहीं पहुंचाते थे। पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए, वे विलासिता रूप में श्रावश्यक सामग्री को रखते ये शौक के लिए आवश्यक वस्तुओं के ढेर एकत्रित नहीं करते थे। ऐसा ममय जीवन व्यतीत करते हुए वे वीर भेष में कुमारकालीन कीड़ायें करी विचरते थे एक दिवस राज्योद्यान में वे अपने अन्य सहचरों सहित कोड़ा कर रहे थे कि एक ओर से विकराल सर्प उन पर आ धमका। विचारे अन्य सखा भयभीत होकर इधर-उधर भाग निकले, परन्तु भगवान महावीर जरा भी भयभीत नहीं हुए। उन्होंने बात की बात में उस विषधर को वश में कर लिया और उस पर दया करके उसे बेसा हो छोड़ दिया। वास्तव में यह स्वर्गलोक का एक देव था, जो भगवान के दयालुचित्त और अपूर्व बलशाली शरीर की प्रसिद्धि सुनकर इनकी परीक्षा लेने खाया था। इस तरह भगवान की परीक्षा करके यह विशेष हर्षित हुआ और भगवान की वदना करके अपने स्थान को चला गया। भगवान का यह बाल्यावस्था का चरित्र हमारे लिए एक अत्युतम अनुकरणीय माद है.
कुमार काल में दोनों ही युग प्रधान पुरुषों ने किसी प्रकार की शिक्षा ग्रहण की यह ज्ञात नहीं है। भगवान महावीर के विषय में जैन शास्त्रों में कहा गया है कि वह जन्म से ही मति, श्रुति और अवधि ज्ञान से संयुक्त थे। इस अपेक्षा उनका ज्ञान बाल्यावस्था से ही विशिष्ट था। इसमें संभव नहीं कि उस समय जो शिक्षाएं घोर कलायें प्रचलित थीं, उनमें ये दोनों युग प्रधान पुरुष पारंगत थे। साथ ही इन दोनों का शारीरिक बल और सौन्दर्य भी अपनी सानी का निराला था । म० बुद्ध के विषय में कहा गया है वे जन्म से ही महापुरुष के बत्तीस लक्षणों से संयुक्त सुन्दर शरीर के धारी थे। भगवान महावीर के विषय में भी हमें विदित है कि वे एक हजार माउ लक्षणों कर चिह्नित थे और उनके शरीर को आकृति और शोभा अपूर्व थी। उन्होंने अपने पूर्व जन्मों में इतना विशेषग्य उपार्जन किया था कि उनका शरीर बिल्कुल विशुद्ध, मलमूत्र आदि को बाधाओं से रहित था । प्रत्युत उनके शरीर से हर समय एक अच्छो सुगन्ध निकलती रहती थी। उनके शरीर का रुधिर दुग्धवत था । उनका पराक्रम अतुल वा और शरीर में क्षति पहुंचाना असंभव था। म० बुद्ध धौर म महावीर सदैव मिष्ट भाषण करते थे, यह भी दोनों सम्प्रदायों के शास्त्रों से जात है ।
इस प्रकार जब वे सुन्दर शुभग शरीर के धारी राजकुमार बुवावस्था को प्राप्त हुये तो उनके माता-पिता को उनके पाणिग्रहण कराने की शुष भाई राजा सुद्धोदन अपने पुत्र का विवाह करा देने में बड़े पन थे, क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं वराग्य उनके पुत्र के कोमल हृदय पर अपना प्रभाव न जमा ले तदनुसार म बुद्ध का शुभ विवाह यशोदा नाम की एक राज कन्या से हो गया और यह दाम्पत्य सुख का उपभोग करने लगे। इन्ही यशोदा के गर्भ धीर म बुद्ध के औरस से राहुल नाम के पुत्र का जन्म हुआ था भगवान महावोर के माता-पिता को भी उनकी युवावस्था निहार कर विवाह करा देने की योजना करनी पड़ी थी। देशदेशांतरों के राजागण अपनी कम्मों को भगवान के साथ परवाना चाहते थे। इनमें प्रस्थात राजा जितशत्रु अपनी करया अदा को विशेष रीति और बाग्रह से भगवान को समर्पण करना चाहते थे, परन्तु विशिष्ट ज्ञानी त्याग की प्रत्यक्ष मूर्ति भगवान महावीर को यह रमणीरत्न भी न मोह सड़ा ? उन्होने संसार के कल्याण के लिए अपने सर्वस्य का त्याग करना ही परमावश्यक समझा। माता-पिता ने बहुत समझाया परन्तु वैराग्य का हो गाड़ा रंग जिसके हृदय पर चढ़ गया हो, फिर वे उतारे नहीं उतरता भगवान महावीर ने विवाह करना स्वीकार किया। उन्होंने उस समय के राजोन्मत युवा राजकुमारों और जीविकों तथा ब्राह्मण ऋषियों जैसे साधुषों को मानी पूर्ण ब्रह्मचर्य का महत्व हृदयगम कराया जहां ऋषिगण भी इन्द्रिय निग्रह और संयम से विमुख हों वहां ऐसे आदर्श की परमावश्यकता थी। भगवान महावीर के दिव्य चरित्र में जनता को इस भाव के दर्शन हो गये। आज के समंजसमय बीभत्स वातावरण ने प्रत्येक देश के समक्ष ऐसा बादर्श उपस्थित करना परमावश्यक है। जिस पवित्र भारतवर्ष में भगवान महावीर के दिव्य प्रखण्ड ब्रह्मचर्य का अनुपम मादर्श उपस्थित रहा था, वहीं बाज वहाव का प्रायः सर्वथा प्रभाव देखकर हृदय पर्रा जाता है। भारतवर्ष के लिए भगवान महावीर का आदर्श परम शिक्षापूर्ण और हितकारी है।
इस प्रकार दोनों युग प्रधान पुरुष अपने गृहस्थ जीवन में सानन्दकाल यापन कर रहे मे भगवान महावीर ने अपने गृहस्थ जीवन से ही संयम और त्याग का अभ्यास करना प्रारम्भ कर दिया था और म० युद्ध नियमित ढंग से दाम्पत्य सुख का उपभोग कर रहे थे।
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गृह त्याग और साधु जीवन
मनुष्य अपनी जान में अपने को बड़ा कुशल और चतुर समझता है । वास्तव में जीवित संसार में उससे बढ़कर और कोई बुद्धिमान प्राणी है भी नहीं, किन्तु उसकी वुद्धिमत्ता, कुशलता, और चतुरता के भी खट्टे दांत कर देने वाली एक शक्ति भी इस संसार में विद्यमान है। यह शक्ति यद्यपि जीति जागती शक्ति नहीं हैं, परन्तु प्रभाव स्वयं मनुष्य की जीती जागती किया पर ही जमा हुआ है मनुष्य अपनी प्रांतों से देखता रहता है और यह शक्ति अपना कार्य करती चली जाती है उसके जीवन की दशाओं का अन्त यही लाती है। इसी को लोग काल कहते हैं। सचमुच काल की शक्तिप्रति विचित्र है । कालचक्र सांसारिक परिवर्तन में एक प्रमुख कारण है। इस ही कालचक्र की कृपा से प्रत्येक क्षण में ससार का कुछ भी हो जाता है । ऐसे प्रबल कालचक्र का प्रभाव बड़े-बड़े आचार्थी और चक्रवतियों का भी लिहाज नहीं करता है।
भगवान महावीर और म० बुद्ध भी इसी कालचक्र की इच्छानुसार अपने बाल्य और कुमार अवस्था को त्याग कर पूर्ण युवावस्था को प्राप्त हो गये थे । म० बुद्ध रानी यशोदा के साथ सांसारिक सुख का उपभोग कर रहे थे कि एक दिन वे नगर में होते हुए बन बिहार के लिए निकले। उन्होंने एक रास्ते में रोगी को देखकर अपने साथ से उसका हाम पूछा। रोगों के प्रताप पर बूढापे के दुःख सुनकर उनका हृदय व्यथा से व्याकुल हो गया। इस माकुल व्याकुल हृदय को लिए वे गाड़ी बड़े कि मृत पुरुष को लिये विलाप करते स्मशान भूमि को जाते अनेक मनुष्य दिखाई दिये । सार्थी से फिर और हकीकत को जानकर उनका ग्राकुल हृदय एक दम थर्रा गया। उन्होंने कहा जब यह शरीर नश्वर है, युवावस्था हमेशा रहने की नहीं बुढ़ापे के दुःख दर्द सबको सहने पड़ते हैं, तो इससे उत्तम यही है कि उस मार्ग का अनुसरण किया जाय जिससे इन जन्मजरा के दुःखों को न भुगतना पड़े। इसके साथ ही हृदय पर इन विचारों का इतना प्रभाव पड़ा कि म० बुद्ध फिर लौटकर राजमहल में अधिक दिन नहीं ठहरे। एक दिन रात्रि के समय छत्र नामक सार्थी के सुपुर्द सब वस्त्राभूषण किये और आप साधारण वस्त्रों को धारण करके एकाकी वन की एक ओर को चल दिये। इस फिकर से घर से निकल पड़े कि कोई सच्चे सुख के मार्ग का जानकार काबिल पुरुष मिले तो मैं उसके परणों की सेवा करके कार्यों के उत्तम ज्ञान का अधिकारी बनूं। इस ही विचार में निमग्न म० बुद्ध जा रहे थे कि पीछे से इनके पिता के भेजे हुए मनुष्य मिले। उन्होंने म० बुद्ध को घर लौट चलने के लिए बहुत समझाया। परन्तु पिता के अनुरोध और पत्नी को करुण कातर प्रार्थनायें निरर्थक गईं। म० वुद्ध निश्चय में दृढ़ रहे । वे लोग हताश होकर कपिलवस्तु को लौट गये।
अगाड़ी चल कर म० बुद्ध परिव्राजक ब्रह्मचारियों के आश्रम में पहुंचे और वहाँ साधु आराकान्लम की प्रशंसा सुनकर वह उनके पास चले गए। इन साधू का गत दर्शन से बहुत कुछ मिलता जुलता था। म० बुद्ध इस मत का अध्ययन कुछ दिवस करते रहे। किन्तु अन्त में उन्हें विश्वास हो गया कि को कुछ बाराद ने बतलाया है उसने मेरे हृदय को संतुष्टि नहीं हो सकती है। इसलिए में वहां से भी प्रस्थान कर गये और ऋषि उदराम के पास पहुंचे। यहां भी कुछ दिन रहे। उपरान्त वहाँ से भी निराश होकर किसी उत्तम मार्ग को पाने की खोज में गाड़ी चल दिए। धाखिरकार वे पर्वत "क्या ची ( गया-तापसवन) में पहुंचे। यहाँ एक परीषस जय वन नामक ग्राम था यहां पहले से पांच भिक्षु मौजूद थे । म० बुद्ध ने देखा कि ये पांचों भिक्षु अपनी इन्द्रियों को पूर्णतः वश में किये हुए हैं और उत्तम चारित्र के नियमों का पालन कर रहे हैं यथापि तपश्चरण के भी अभ्यासी है। यह देखकर म० वृद्ध विचारमग्न हो गये उपरान्त उन भिक्षुओं का अभिवादन और नियमित क्रियाओं सेवाओं से निवृत होकर उसने नैरज्जरा नदी के निकट एक स्थान पर प्रासन जमा लिया और अपने उद्देश्य सिद्धि के लिए वे तपदचरण करने लगे। शारीरिक विषयका का निरोध करने लगे और शरीर पुष्टि का ध्यान बिल्कुल छोड़ बैठे। हृदय की विशुद्धता पूर्वक वे उन उपवासों का पालन करने लगे, जिनको कोई गृहस्य सहन नहीं कर सकता। मीन और शान्त हुए वे ध्यानमग्न थे। इस रीति से उन्होंने छः वर्ष निकाल दिये ।
म० बुद्ध ने जो इस प्रकार छः वर्ष तक साधु जीवन व्यतीत किया था वह जैन साधु की उपवास और ध्यानमय, मोन
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और कायोत्सर्ग शान्त अवस्था के बिल्कुल समान है। प्रतएव इस अवस्था में यह जैन शास्त्रों को इस मान्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि म बुद्ध अपने साधु जीवन में किसी समय जैन मुनि भी रहे थे। जैन शास्त्रकार कहते हैं कि श्रीपार्श्वनाथ भगवान के तीर्थ में सरयू नदी के तटवर्ती नाश नाग नगर में निशान मधु का शिष्य बुद्धकीर्ति मुनि हुअा जो महायुत का बड़ा भारी शास्त्रज्ञ था । परन्तु मछलियों के आहार करने से वह ग्रहण की हुई दीक्षा से भ्रष्ट हो गया और रक्ताम्बर (लाल वस्त्र धारण करके उसने एकान्त मत की प्रवृत्ति की। फल, दही, दुध, शक्कर आदि के समान मांस में भी जीव नहीं है, अतएव उसकी इच्छा करने और क्षण करने में कोई पाप नहीं है । जिस प्रकार जल एक द्रव द्रव्य अर्थात तरल या बहने वाला पदार्थ है उसी प्रकार शराब है, वह त्याज्य नहीं है। इस प्रकार की घोषणा करके उसने संसार में सम्पूर्ण पाप कर्म की परिपाटी चलाई । एक पाप करता है और दूसरा उसका फल भोगता है, इस तरह के सिद्धान्त की कल्पना करके और उससे लोगों को वश में करके या अपने अनुयायी बनाकर वह मृत्यु को प्राप्त हुना। जैन शास्त्रकार के इस कथन को सहसा हम अस्वीकार नहीं कर सकते हैं । अन्तिम बाक्यों से यह स्पष्ट है कि शास्त्रकार बौद्ध धर्म और म. बुद्ध का उल्लेख कर रहा है, क्योंकि 'क्षणिक बाद' बौद्ध धर्म का मुख्य लक्षण है जिसका ही प्रतिपादन इन वाक्यों में किया है । इतने पर भी जो जैन शास्त्रों ने बौद्धों के प्रति मद्यपान करने का लांछन लगाया है। वह ठीक नहीं है। इसमें किसी प्रकार की भूल नजर प्राली है, किन्तु इसके कारण हम उक्त वाक्यों की अपेक्षा नहीं कर सकते । बेशक यह उस जमाने की ईसा की नवीं शताब्दी की रचना है, जब भारतीय मतों में पारस्परिक स्पर्धा बहुत स्पष्ट और अधिकता पर हो गई थी, प्रतएव' जैनाचायं का तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार म. बद्ध का उक्त प्रकार उल्लेख करना कुछ अनोखी क्रिया नहीं है, परन्तु इस पर जो कुछ उन्होंने लिखा है, उसमें केबल मद्यपान की बात को छोड़कर शेष सब यथार्थ को लिये हुए हैं ! जिस स्थान पर पहिले पहल म० बुद्ध ने जैन मुनि की दीक्षा ग्रहण की थी। उसका नाम ठीक से बतलाया गया है । जैन और बौद्ध दोनों ही उस स्थान को वनग्राम (बौद्ध और जैन पलाशग्राम-- पलाश वनग्राम) बतलाते हैं और कहते हैं कि नदी उसके पास में थी, जैसे कि हम ऊपर देख चुके है। तथापि बौद्ध शास्त्रकार म० बुद्ध की दीक्षा ग्रहण करने की क्रिया का भी उल्लेख ( अभिवादन और नियमित क्रियाओं और सेवाओं से निवृत्त होने में ) रूप में करता है, और अन्तिम वाक्यों द्वारा जो जैनाचार्य ने बौद्ध मान्यतामों का उल्लेख किया है, सो भी बिल्कुल ठीक थे। बौद्धधर्म का क्षणिकबाद विख्यात ही है तथापि बौद्धधर्म में प्रारम्भ से ही मृत मांस को भोजन में ग्रहण करना बुरा नहीं बतलाया गया है। जो जनों के अनुसार एक असक्रिया है । इस दशा में हम जैन शास्त्रकार के कथन को मान्यता देने के लिए बाध्य हैं। इसके साथ ही हमको ज्ञात है कि जब म. बुद्ध सर्वप्रथम अपने धर्म प्रचार के लिए राजगृह में गये थे तो वहां के 'सुप्पतिस्थ' नामक मन्दिर में ठहरे थे। इसके उपरान्त फिर कभी भी उसका उल्लेख हमें इस या ऐसे मन्दिर में ठहरने का नहीं मिलता है। इस मन्दिर का नाम जो 'सुप्पतित्थ' है, सो उसका सम्बन्ध किसी "तित्थिय मतप्रवर्तक से होना चाहिए, परन्तु हम देखते हैं कि उस समय के प्रख्यात छ: मतप्रवर्तकों में इस तरह का कोई नाम नहीं मिलता। हां, जैन तीर्थंकरों में एक सुपारवनाथ जी अवश्य हए हैं और उनके संक्षिप्त नाम की अपेक्षा उनके मूल नायकत्व का मन्दिर अवश्य ही 'सुप्पितित्थ' का मन्दिर कहला सकता है। जैन तीर्थ करों के नामों का उल्लेख ऐसे संक्षिप्त रूप में होता था, यह हमें जैन शास्त्रों के उल्लेखों से मिलता है। 'दर्शनसार' ग्रंथ में 'विपरीत मत' की उत्पत्ति बतलाते हुए प्राचार्य लिखते हैं:
सवयतित्थे उज्झो खोरकादंबुत्ति सुद्धसम्मत्तो। इसमें बीईसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ जी का नामोल्लेख केबल 'सुब्बय' के रूप में किया गया है। इसी तरह लोक ध्यवहारत: संक्षेप में सुपायर्वनाथ जी का नामोल्लेख 'सूप्प' के रूप में किया जा सकता है। इस रीति से जिस 'सूपतित्थ के मन्दिर में म० बुद्ध पहिले पहिल ठहरे थे, वह जैन मन्दिर हो था। और उसमे उसके बाद फिर उनके ठहरने का उल्लेख नहीं मिलता है, उसका यही कारण प्रतीत होता है कि जैनियों ने जान लिया कि बुद्ध अब जिन प्रणीत धर्म के विरुद्ध हो गये हैं. इसलिए उन्होंने भ्रष्ट जैन मुाने को पुनः आश्रय देना उचित नहीं समझा। इस तरह भी जैनों की इस मान्यता का समर्थन होता है कि म० बुद्ध एक समय जैन मुनि भी रहे थे।
अन्ततः म०बद्ध स्वयं अपने मुख से जैनियों की इस मान्यता को स्वीकार करते हैं। एक स्थान पर वे कहते हैं कि मैंने सिर और दाढी के बाल नोचने की भी परिषह सहन की है। यह मुनियों की केशलोंच क्रिया है । अतएव इसका अभ्यास बुद्ध ने तब ही किया होगा जब वह जन मुनि रहे होंगे। इस तरह यह स्पष्ट है कि म बुद्ध अपने धर्म का प्रचार करने के पहिले जन मुनि थे और हम देखते हैं कि उन्होंने किसी एक सम्प्रदाय की मुनि-क्रियाओं का पालन नहीं किया था। एक समय वे वानप्रस्थ संन्यासी थे तो दूसरे समय जैन मुनि थे।
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भगवान महावीर के विषय में जब हम विचार करते हैं तो देखते हैं कि उनका साधु जीवन म० बुद्ध के विपरीत एक निश्चित और सुव्यवस्थित जीवन था। जैन शास्त्रों के अध्ययन से हमको ज्ञात होता है कि भगवान महावीर बाल्यावस्था से ही श्रावक के ब्रतों का अभ्यास करते हुए अपने पिता के राज्यकार्य में सहायक बन रहे थे। वे इस गृहस्थावस्था से ही संयम का विशेष रीति से अभ्यास करते रहे थे। एक दिवस ऐसे ही विचारमग्न थे कि सहसा उनको अपने पूर्व भव' का स्मरण हो पाया। और प्रात्मज्ञान प्रगट हा। उन्होंने विचारा कि स्वर्गों के अपूर्व विषय सुखों मे मेरी कुछ तृप्ति नहीं हुई तो यह सांसारिक क्षणिक इन्द्रियविषयसुख किस तरह मुझे सुखी बना सकते हैं? हां ! वृथा ही मैंने यह अपने तीस वर्ष गवां दिये । मनुष्य जन्म अति दुर्लभ है, उसको वृथा गंवा देना उचित नहीं। यही बात उत्तरपूराण में इस प्रकार कही गई है:
त्रिशंन्छरभिस्तस्यैव कौमारमगमद्वयः । ततोन्या मतिज्ञानक्षयोपशमभेदतः ।।२६६।। समुत्पन्न महाबोधिः स्मतपूर्वभवांतरः । लोकांतिकामरैः प्राप्य प्रस्तुतस्तुतिभिः स्तुतः ।।२६७।। सकलामरसंदोहकृतानिःक्रमण क्रियः ।
स्त्रवाक्प्रीणितसबंधुसंभावितविसर्जनः ॥२६॥ अर्थात-इस प्रकार भगवान के कुमार काल के तीस वर्ष व्यतीत हए । उसके दूसरे ही दिन मतिज्ञान के विशेष क्षयोपशम से उन्हें प्रात्मज्ञान प्रगट हा प्रौर पहिले भव का जातिस्मरण हा। उसी समय लोकांतिक देवों ने पाकर समयानुसार उनकी स्तुति की और इन्द्रादि सब देवों ने पाकर उनके दीक्षा कल्याण का उत्सव मनाया। भगवान ने मीठो वाणी से सब भाईबन्धुओं को प्रसन्न किया और सबसे विदा ली।
इस तरह सबको सन्तुष्ट करके दे भगवान अपनी चन्द्रप्रभा पालकी पर मारूढ़ होकर वनषंड नामक वन में पहुंचे। वहां पर आपने अपने सब वस्त्राभूषण आदि उत्तार कर वितरण कर दिये और सिद्धों को नमस्कार करके उत्तराभिमुख हो पंचमुष्टि लोचकर परम उपासनीय निग्रंथ मुनि हो गये । यह अगहन वदी दशमी का शुभ दिवस था, वास्तव में संसार का कल्याण जिसके निमित्त से होना अनिवार्य था और जिसके भवितव्य में त्रिलोकवन्दनीय होमा अंकित था, उसको प्रत्येक जीबन क्रिया इतनी स्पष्ट और प्रभावशाली हो तो कोई अाश्चर्य नहीं । भगवान महावीर ऐसे ही एक परमोत्कृष्ट महापुरुष थे। वे अपने इस जीवन में ही अनुपम जीवित परमात्मा हुए थे यही हम अगाडी देखेंगे।
भगवान महावीर ने निर्ग्रन्थ मुनि की दिगम्बरीय ( नग्न ) दीक्षा ग्रहण की थी, यह दिगम्बर शास्त्र प्रगट करते हैं, परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय के शास्त्र इससे सहमत नहीं हैं। उनका कथन है कि भगवान ने दीक्षा समय से एक वर्ष और काल महीम उपरान्त तक देवदृष्य वस्त्र धारण किये थे, पश्चात् वे नग्न हो गये थे । देवदूष्य वस्त्र को व्याख्या में कुछ भी स्पष्ट रीति से नहीं बतलाया गया है कि इसका यथार्थभाव क्या है ? इतना स्पष्ट किया है कि इस बस्त्र को पहिने हुए भी भगवान नग्न प्रतीत होते हैं। श्वेताम्बरियों के कथन से एक निष्पक्ष व्यक्ति सहसा उनके कथन पर विश्वास नहीं कर सकता। देवदुष्य वस्त्र पहिने हुए भी वे नग्न दिखते थे, इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि वे नग्न थे।
यदि हम श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों पर इस सम्बन्ध में एक गम्भीर दृष्टि डालें तो उनमें भी हमें नग्नावस्था की विशिष्टता मिल जाती है । अचेलक-नग्न अवस्था को उनके प्राचारांगसूत्र में सर्वोत्कृष्ट बतलाया है। उसमें लिखा है कि उपवास करते हुए नग्न मुनि को जो पुद्गल का सामना करता है, लोग गाली भी देंगे, मारेंगे और उपसर्ग करेंगे और उसकी संसार अवस्था की क्रियाओं को कहकर चिढ़ायेंगे और असत्य साक्षेप करेंगे, इन सब उपसर्गों के कार्यों को चाहे वे प्रियकर हों या अप्रियकर हों, पूर्व कमों का फल जानकर, उसे शांति से सन्तोषपूर्वक विचारना चाहिए । सर्व सांसारिकता को त्यागकर सम्यक्ष्टि रखते हए सब अप्रिय भावनायें सहन करना चाहिए। वही नग्न हैं और सांसारिक अवस्था को धारण नहीं करते, प्रत्युत धर्म पर चलते हैं। यही सर्वोत्कृष्ट किया है । इसके उपरान्त इसी सूत्र में इसकी प्रशंसा करके कहा है कि नीर्थकरों ने भी इस नग्न वेष को धारण किया था। ऐसी अवस्था में स्पष्ट है कि न केवल भगवान महावीर और ऋषभदेव ने ही इस नग्नावस्था को धारण किया था, प्रत्युत प्रत्येक तीर्थकर ने अपने मुनि जीवन में इस परीषह को सहन किया था।
बास्तब में श्वे० ग्रन्थों में भी जैन मुनियों का प्रायः वैसा ही मार्ग निर्दिष्ट किया गया है जैसा दि० शास्त्रों में बतलाया गया है। यदि उसमें अन्तर है तो वह उपरान्त टीकाकारों के प्रयत्नों का फल है उनके इसी प्राचारोंग सूत्र में सर्वोत्कृष्ट नग्न
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अचेलक अवस्था का निरूपण करके अगाड़ी क्रमशः तीन वस्त्रधारी, दो बस्त्रधारी और एक वस्त्रधारी या नग्न साधु का रूप
और उसका कर्तव्य प्रतिपादित किया गया है। एक वस्त्रधारी और नग्न मनि को उसने एक ही कोटि में रखकर प्राकृत अनियमितता प्रगट की है। इनके उपदेश क्रम से यह स्पष्ट है कि वे वस्त्र को त्याग करना आवश्यक समझते थे और यह है भी ठीक, क्योंकि यदि वस्त्रधारी अवस्था से मुक्ति लाभ हो सकती तो कठिन नग्न दशा का प्रतिपादन करना वृथा ठहरता है। इसीलिए वेताम्बर शास्त्रों में वस्त्रधारी साधनों को ऐसे साधु बतलाये हैं जो सांसारिक बन्धनों से छुटने के लिए प्रोत्साहित हो रहे हैं। और एक वस्त्रधारी साधु को नग्नभेष धारण करने का भी परामर्श दिया गया है। दिगंबर पाम्नाय में वस्त्रधारी साधु उदासोन धावक माने गये हैं और उत्कृष्ट थावक क्षुल्लक ऐलक कहलाते हैं। श्वे० के उत्तराध्ययन सूत्र में भी क्षुल्लक को लक्ष्य कर एक व्याख्यान लिखा गया है । अतएव यह शब्द वहाँ भी उदासीन उत्कृष्ट श्रावक के लिए व्यवहृत हुआ प्रतीत होता है। ऐशी दशा में यह स्पष्ट है कि श्वे. आचार्य भी मुनि के लिए नग्न अवस्था आवश्यक समझते हैं और वही सर्वोत्कृष्ट क्रिया है। तथापि तीर्थकर भगवान का जीवन सर्वोत्कृष्ट होता है। इसलिये उनके द्वारा सर्वोत्कृष्ट क्रिया का पालन और प्रचार होना परम युक्तियुक्त और आवश्यक है। इसीलिए अन्तत: श्वे० प्राचार्य को भी भगवान महावीर के विषय में कहना पड़ा है कि उन (भगवान्) के तीन नाम इस प्रकार ज्ञात हैं अर्थात् उनके माता-पिता ने उनका नाम वर्द्धमान रक्खा था, क्योंकि वे रागद्वेष से रहित थे, वे श्रमण इसलिए कहे जाते थे कि उन्होंने भयानक उपसर्ग और कष्ट सहन किये थे, उत्तम नग्न अवस्था का अभ्यास किया था, और सांसारिक दुःखों को सहन किया, और पूज्यनीय श्रमण महावीर, वे देवों द्वारा कहे गये थे।
इसी प्रकार श्वेताम्बर टीकाकारों के कथन का अभिप्राय है। उन्होंने उक्त वर्णन का भाव जिनकल्पी और स्थिविरकल्पी प्रभेद में जो लिया है, वह भी हमारे उक्त कथन की पुष्टि करता है। जिनकल्पी के भाव यही हो सकते हैं कि जिनकल्प के और स्थिविरकल्पी के इसी तरह स्थिविरकल्प के समझना चाहिए, और यह भाव श्वे. मान्यता के अनुकूल है, क्योंकि तीर्थकरों के समय में तो वे नग्न जिनकल्पी साधुओं का होना मानते ही हैं। स्वयं तीर्थंकर भगवान ने नग्न भेषको धारण किया था। अतएव जिनकल्प के तीर्थकर भगवान के समय के साधुओं को जिनकल्पी बतलाना ठीक ही है और उपरान्त स्थिविरकल्पी पंचमकाल में वस्त्रधारी मुनियों को स्थिविरकल्पी संज्ञा अपनी मान्यता के अनुसार देना युक्तियुक्त है । अतएव इस प्रभेद से भी नग्न अवस्था का महत्व और प्राचीनत्व' प्रमाणित है।
वास्तव में सांसारिक बन्धनों से मुक्ति उस ही अवस्था में मिल सकती है जब मनुष्य बाह्य पदार्थों से रंच मात्र भी सम्बन्ध या संसर्ग नहीं रखता है। इसीलिए एक जैन मुनि अपनी इच्छाओं और सांसारिक अाकांक्षाओं पर सर्वथा विजयी होता है। इस विजय में उसे सर्वोपरि लज्जा को परास्त करना पड़ता है। यह एक प्राकृतिक और परमावश्यक क्रिया है । उस व्यक्ति की निस्पृहता और इन्द्रिय निग्रहता का प्रत्यक्ष प्रमाण है । इस अवस्था में सांसारिक संसर्ग छूट ही जाता है। एक आयरलैण्डवासी लेखक के शब्दों में कपड़ों की झंझट से छटने पर मनुष्य अन्य अनेक झझटों से छूट जाता है, एक जैन के निकट विशेष प्रावश्यक जो जल है, सो इस अवस्था में उनको धोने के लिए उसकी जरूरत ही नहीं पड़ती। वस्तुतः हमारी बुराई भलाई की जानकारी ही हमारे मुक्त होने में बाधक है। मुक्ति लाभ करने के लिए हमें यह भूल जाना चाहिए कि हम नग्न हैं। जैन निर्ग्रन्थ इस बात को भूल गये हैं, इसीलिए उनको कपड़ों की आवश्यकता नहीं है। यह परमोत्कृष्ट और उपादेय अवस्था है। दि० और श्वे० शास्त्र ही केबल इस अवस्था की प्रसंसा नहीं करते, प्रत्युत अन्य धर्मों में भी इनको साधुपने का एक चिह्न माना गया है। हिन्दुओं के यहाँ भी नग्नावस्था को कुछ कम गौरव प्राप्त नहीं हुआ है। शुक्राचार्य दिगम्बर ही थे, जिनके राजा परीक्षित की सभा में जाने पर हजारों ऋषि और स्वयं उनके पिता एवं परपिता उठ खड़े हुए थे । हिन्दुनों के देवता शिव और दत्तात्रय नग्न ही हैं। यूनानवासियों के यहाँ भी नग्न देवतामों की उपासना होती थी। ईसाईयों की बायबिल में भी नग्नता साधुता का चिह्न स्वीकार की गई है, यथा
और उसने अपने वस्त्र उतार डाले और सैमूयल के समक्ष ऐसी ही घोषणा की और उस सम्पूर्ण दिवस और रात्रि को वह नग्न रहा । इस पर उन्होंने कहा, क्या प्रात्मा भी पैगम्बरों में से है?
(समुयल, १६-२४) "उसी समय प्रभु ने अमोज के पुत्र ईसाप्या से कहा, जा और अपने वस्त्र उतार डाल और अपने पैरों से जूते निकाल डाल । और उनने यही किया नग्न और नंगे पैरों विचरने लगे।"
(ईसाप्या २०-२)
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मुसलमानों के बारे में भी कहा गया है कि "अरबों के यहां भी नग्न अवस्था संसार त्याग का एक चिन्ह माना जाता था। मि. वाशिंगटन अरबिन्ना अपनी लाइफ ग्राफ मुहम्मद में कहते हैं कि तौफ अर्थात् काबा का परिक्रमा देना महम्मद से पहिले की एक प्राचीन क्रिया थी और स्त्री पुरुष दोनों हो नग्न होकर इस क्रिया को करते थे। मुहम्मद ने इस क्रिया को बन्द किया और इहराम अर्थात यात्री के वस्त्र की व्यवस्था की थी। ईसा मसीह का बिना सिया हुया कोट अलंकृत भाषा में नग्नता का द्योतक है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि एक समय संसार में सर्वत्र नग्नता साधुपने का यावश्यक चिह्न समझी जाती थी। भगवान महावीर के समय में आजीवकः आदि भी नग्न रहते थे, यह हम देख चुके हैं। आज भी हिन्दुषों में नंगे साधु मिलते है । उसी तरह जैन निर्ग्रन्थ साधु भी प्राचीन दिगम्बर भेष में विचरते दृष्टि पड़ते हैं।
इस परिस्थिति में यह सहसा जी को नहीं लगता कि उस प्राचीनकाल में जैन निन्ध मनि वस्त्रधारी होते हों। जैन शास्त्रों के अतिरिक्त बौद्ध शास्त्रों में जैन मुनियों का उल्लेख नग्न रूप में किया गया है। साथ हो उनमें एक वस्त्रधारी और श्वेत वस्त्रधारी निग्रंथ साबकों (श्रावकों०) का भी उल्लेख मिलता है। और यह दिगम्बर जैन शास्त्रों के सर्वथा अनुकल है। व्रती धावकों को श्वेतवस्त्र धारण करने का विधान उनमें मिलता है और ग्यारहवी प्रतिमाधारो धावक एक वस्त्र धारी कहा गया है । इसके अतिरिक्त बौद्ध शास्त्र में जैन मुनियों की कतिपय प्रख्यात् दैनिक क्रियाओं का भी इस प्रकार वर्णन मिलता है
"डायोलाम्स आफ बुद्ध नामक पुस्तक के कस्सप-सिंहनान-सुत्त में विविध साधुओं की क्रियाओं का वर्णन दिया हना है। उनमें एक प्रकार के साधुनों को क्रियाय निम्न प्रकार दी हैं और यह जैन साधनों की क्रियायों से बिल्कूल मिल जाती है । इसलिए हम दोनों को यहां पर देते हैं -
बौद्ध शास्त्र
१-बह नग्न विचरता है। जैन शास्त्र--- १-यह जैन मुनि के २८ मूलगुणों में से एक है और यों है
बत्थाजिणवक्केण य अह्वा पत्ताइणा असंवरणं ।
णिभसण णिगंथं प्रच्चे लक्कं जगदि पूज्ज ॥३०॥--मूलाचार २–बह ढीली आदतों का है । शारीरिक कर्म और भोजन वह खड़े-खड़े करता है, (भले मानसों की भौति झुक कर या बैठ कर नहीं करता ।)
२-इसमें २४ ब (अस्थान) २६ - (अदन्तघर्षण) और २७ वें (स्थित भोजन) मूलगुणों का उल्लेख है।।
३-वह अपने हाथ चाटकर साफ कर लेता है। जैन मुनि हाथों को अंजुलि में जो भोजन रक्खा जावंगा उसे वैसा श्री खा लेते हैं, ग्रास बनाकर नहीं खाते । यहाँ पर बौद्धाचार्य इसी क्रिया को विकृत आक्षेप रूप से बतला रहे हैं।
४-(जब वह अपने प्रहार के लिये जाता है, यदि सभ्यतापूर्वक नजदीक आने को या ठहरने को कहा जाय कि जिससे भोजन उसके पात्र में रख दिया जाय तो) वह तेजी से चला जाता है ।
४-यह मुलाचार को ऐषणा समिति को टीका में स्पष्ट कर दिया गया है, यथा---
भिक्षावेलायाँ ज्ञात्वा प्रशान्ते धममुशलादिशब्दे गोचरं प्रविशेन्म निः ।
तत्र गच्छन्नातिन्द्र तं, न मन्द न विलम्बित गच्छेत् ।।१२१ ॥ ५-वह (उस) भोजन को नहीं लेता है । (जो उसके निकट आहार के लिए निकलने के पहिले लाया गया हो)।
1-ऐषणा समिति में मनिको ४६ दोष रहित, मन, वचन, काय, कृतकारित अनुमोदना के प्रकार के दोषों से रहित भोजन ग्रहण आवश्यक बतलाया है, अतएव लाया हुमा भोजन खास उनके निमित्त से बना जानकर वे ग्रहण नहीं करते।
६-वह (उस भोजन को भी नहीं लेता है (यदि बता दिया जाय कि वह खासकर उसके लिए बनाया है।। ६—इसमें भो कारित अनुमोदना दोप प्रकट है। ७- वह कोई निमन्त्रण स्वीकार नहीं करता। ७–यहाँ भी उक्त दोष है, जैन मुनि निमन्त्रण स्वीकार नहीं करते।
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८-वह नहीं लेगा (भोजन जो उस बर्तन में से निकाला गया होगा) जिसमें वह रांधा गया हो.....
-यह स्थापित "या न्यस्त" दोष है। है-(वह भोजन) नहीं (लेगा) प्रांगन में से (कि शायद वह वहां खासकर उसके लिए ही रक्खा हो)। १०-(वह भोजन) नहीं (लेगा) जो लड़कियों के दरमियान रक्खा गया हो। 8-१०-प्रादुष्कर दोष हैं । ११-(वह भोजन नहीं लेगा) जो सिलवट के दरमियान रक्खा हो। ११-यहाँ “उन्मिश्र अशन दोष" का भाव है। १२-जब दो व्यक्ति साथ-साथ भोजन देते हैं तो वह नहीं लेगा.... केवल एक ही देगा। १२-यह अनीश्वर व्यक्ता-व्यक्त अनीशार्थ दोष का रूपान्तर है। १३–बह दूध पिलाती हुई स्त्री से भोजन नहीं लेगा.....! १४--वह पुरुष क स २०३० करती हुई स्त्री से भोजन नहीं लेगा। १३-१४--यह दायक अशन दोष के भेद हैं। १५-वह भोजन नहीं लेगा (जो अकाल के समय") एकत्रित किया गया हो। १५–यह अभिघट उगद् दोष दीखता है। १६- वह वहां भोजन स्वीकार नहीं करेगा जहां पास में कुत्ता खडा हो। १६-प्रथम पादातर जीव सम्पात या दंशक अन्तराय दोप है । श्वे० के यहां भी यह स्वीकृत है। १७-बह वहाँ भोजन नहीं लेगा जहाँ मक्खियों का ढेर लगा हो। १७–यहाँ पाणिजंतुबध अन्तराय का अभिप्राय है। १८-वह (भोजन में) मच्छो, मास, मद्य, पासव, सोरवा ग्रहण नहीं करेगा। १८-यह स्पष्ट है, यथा
खोरदहिस प्पितेल गुडलवणाणं च जं परिचणं । तित्तकटुकसायबिलमधुररसाणं च जं चयणं ।। १५५ ।। चसारि महावियडी य होंति णबणीद मज्जमांसमधू ।
कखापसंगदप्पा संजमकारीमो एदाभो ।। १५६ ।।--- मूलाचार १६-वह एक घर जाने वाला होता है...'एक ग्रास भोजन करने वाला होता है या वह दो घर जाने वाला होता है. दो ग्रास भोजन करने वाला है, या वह सात घर जाने वाला है-सात ग्रास तक करने वाला है। यह एक आहार निमित्त दो निमित्त या ऐसे ही सात तक जाने का नियमो होता है।
१९---यह वृत्तिपरिसंस्थान लिया है। २०. वह भोजन दिन में एक बार करता है, अथवा दो दिन में एक बार अथवा ऐसे ही सात दिन में एक यार करता है।
इस प्रकार वह नियमानुसार नियमित अन्तराल में अर्ध मास तक में भोजन ग्रहण करता रहता है। २१--यह सांकाक्षानशन नामक व्रत है।
इस क्रियायों के विशद विवेचन के लिए बीर वर्ष २ अंक २३ में जैन मुनियों का प्राचीन काल शीर्षक लेख देखना चाहिए।
इसके साथ ही ब्राह्मणों के शास्त्रों में भी जैन मुनियों का भेद नग्न बतलाया गया है । इन सत्र प्रमाणों को देखते हुए यही उचित मालम होता है कि जैन तीर्थकरों के निम्रन्थ मुनि का भेष नग्न ही बतलाया था। और जब उन्होंने इस तरह इसका प्रतिपादन किया था तो वह स्वयं भी नग्न भेष में अवश्य रहे थे यह प्रत्यक्ष है।
अतएव भगवान महावीर ने परम उपादेय दिगम्बरीय दीक्षा धारण करके ढाई दिन का उपवास (बेला) किया था। उसके उपरांत जब वह सर्व प्रथम मुनि अवस्था में प्राहार निमित्त निकले तो कूलनगर के कूलनृप ने उनको पड़गाह कर भक्तिपूर्वक आहार दान दिया था। यही बात श्री गुणभद्राचार्य जी निम्न श्लोकों द्वारा प्रकट करते है :
अथ भट्टारकोप्यस्मादगात्कायस्थिति प्रति। कुलग्रामपुरीं श्रीमत् व्योमगामिपुरोपमं ।।३१८||
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कूलनामा महीपालो दृष्टवा तं भक्तिभावितः । प्रियंगुकुसुमांगाभ: त्रिः परीत्य प्रदक्षिणं ||३१६।। प्रणम्य पादयोद्धर्ना निधि वा गहमागतं । प्रतीक्ष्यार्घादिभिः पूज्यस्थाने सुस्थाप्य सुश्रुतं ।।३२०।। गंधादिभिविभूष्यतत्पादोपातमहीतलं । परमान्नं विशुद्धध्यास्मै सोदितेष्टार्थसाधनं ।।३२१॥
-उत्तरपुराण अर्थात् प्रथानंतर पारणा के दिन वे भट्टारक महावीर स्वामी आहार के लिए निकले तथा स्वर्ग की नगरी के समान कुलग्राम नाम की नगरी में पहुँचे । प्रियंगु के फूल के समान (कुछ लालवी) कांति को धारण करने वाले उन भगवान को उस राजा ने पूज्य स्थान पर विराजमान कर अर्घादिक से उनकी पुजा की। उनके चरण कमल के समीपवर्ती पथिवी का भाग गंधा दिक से विभूषित किया और बड़ी विशुद्धि के साथ उन्हें अर्थ को सिद्ध करने वाला परमान्न समर्पण किया।
भगवान् पारणा करके पुनः वन में आकर ध्यानलीन और तपश्चरण रत हो गये । वहाँ पर निशंकरीति से रहकर उन्होंने अनेक योगों की प्रवृत्ति की और एकांत स्थान में विराजमान होकर बार बार दश तरह के धर्मध्यान का चितवन किया। उपरांत विचरते हुए वे उज्जयनी के निकट अवस्थित प्रतिमुक्तक नामक श्मशान में पहुंचे और वहाँ प्रतिमायोग धारण करके तिष्ठ गये । उसी समय एक रुद्र ने पाकर उन पर घोर उपसर्ग किया, किन्तु भगवान् जरा भी अपने ध्यान से चलविचल नहीं हए। हठात् रुद्र को लज्जित होना पड़ा और उसने भगवान की उचित रूप में संस्तुति की। सचमुच जो धीर वीर होते हैं वे इस प्रकार उपसर्ग आन पर उद्देश्य-पथ से विचलित नहीं होते हैं। कितनी हा बाधाएं आये, कितने संकट उपस्थित हो. घऔर कितने ही कण्टक मार्ग में बिछे हों, परन्तु धीर वीर मनीषी उनको सहर्ष सहन करके अपने इप्ट स्थान पर पहुंच जाते हैं। उन्हें कोई भी इष्ट पथ से विचलित नहीं कर सकता।
भगवान् महावीर परम धीर-वीर गंभीर महापुरुष थे। बास्तव में वे अनुपमेय थे। उन्होंने नियमित ढंग से बाल्यपने के नन्हें जीवन से संयम या अभ्यास किया था। क्रमानुसार उसमें उन्नति करते हुए वे उसका पूर्ण पालन करने के लिए परम दिगम्बर मुनि वेश म सुशोभित हुए थे और इस अवस्था में उन्होंने लगातार बारह वर्ष का ज्ञान ध्यानमय तपश्चरण किया था। इस तरह महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर के साधु जीवन व्यतीत हए थे। म. बुद्ध ने किसी नियमित साध सम्प्रदाय का ब्यवस्थित अभ्यास नहीं किया था और भगवान महावीर ने प्राचीन निम्रन्थ श्रमणों की क्रियाओं का पालन अपने गह त्याग के प्रथम दिन से ही किया था। अतएव इन दोनों युग प्रधान पुरुषों के साधु जीवन भी बिल्कुल विभिन्न थे।
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ज्ञान प्राप्ति और धर्म प्रचार मनुष्य में पूर्णपने की संपूर्ण शक्ति विद्यमान है यह विश्वास पात्मवाद के सुरभ्य जमाने में प्रत्येक व्यक्ति को हृदयंगम था । किन्तु इस आधनिक पुद्गलवाद के दौरदौरे में यह विश्वास बहत कुछ लुप्त हो रहा है। लोग इस प्राकृतिक श्रद्धान-आत्मविश्वास की ओर से विमुख हो रहे हैं। मात्मवाद की रहस्यमय घटनामों को उपहास की दृष्टि से देख रहे हैं। मनुष्य की अपरिमित प्रात्मशक्ति में आज प्रायः लोगों को अविश्वास ही है, किन्तु सत्य कभी अोझल हो नहीं सकता। धूल की कोटि राशि उस पर डाली जाय, परन्तु उसका प्रखर प्रकाश ज्यों का त्यों रहेगा। आत्मवाद एक प्राकृतिक सिद्धान्त है उसका प्रभाव कभी मिट नहीं सकता। परिणामतः आज इस भौतिक सभ्यता में पालित और शिक्षित दीक्षित हुए विद्वान् हो इसके अनादि निधन सिद्धान्तों को प्रत्यक्ष प्रमाणों द्वारा स्वीकार करने को बाध्य हए हैं। सर मोलीवर लाज महोदय इन विद्वानों में अग्रगण्य हैं। इन्होंने अपने स्वतन्त्र प्रयत्नों और आविष्कारों द्वारा यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य में अनन्त शक्ति है। स्वयं परमात्मा को प्रतिमूर्ति उसके भीतर मौजूद है। इस शरीर के नाश के साथ, उसका अन्त नहीं हो जाता । वह जीवित रहता और परमोच्च जीवन को प्राप्त करता है।
ये उद्गार यथार्थ सत्य हैं। भारत में इनको मान्यता और उपासना युगों पहिले से होती आई है। और आज भी इस पवित्र भूमि में इस मान्यता को ही आदर प्राप्त है, किन्तु नतन सभ्यता के मदमाते नवयुवक प्राज इस प्राचीन सत्य को सहसा गले उतारने में हिचकते दृष्टि पड़ते हैं। अतएव प्रात्मबाद के लिए भौतिक संसार के प्रख्यात् बिद्वान के उक्त उद्गार होत्पादक शुभ चिन्ह हैं । इनमें पाशा की वह रेखा विद्यमान है जो निकट भविष्य में संसार को प्रात्मवाद के सुख मार्ग पर चलते दिखायेगी ! उस समय सारा संसार यदि जैनाचार्य के साथ यह घोषणा करते दिखाई दें तो कोई पाश्चर्य नहीं कि :
यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्तथा।
अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।। भावार्थ-जो परमात्मा है वही मैं हं तथा जो मैं हूँ सो ही परमात्मा है। इसलिए मैं ही मेरे द्वारा भक्ति किये जाने के योग्य हूं और कोई नहीं, ऐसी वस्तु की स्थिति है । वस्तुतः इस यथार्थ वस्तुस्थिति के अनुरूप में यदि मनुष्य निरालम्ब हो पौद्गलिक प्रभाव से मुख मोड़ ले तो वह इस सत्य के दर्शन सुगम कर ले। फिर इसी धुन में उसे शांति और सुख का अनुभव प्राप्त हो और वह इसी सत्य की उच्च तान लगाये और कहे :
जिन घट में परमात्मा, चिन्मूरति मइया ।
ताहि बिलोक सुदृष्टिधर, पंठित परखैय्या ।। यह प्राचीन सत्य है। भारत के पुरुषों ने इसकी ही सर्वथा घोषणा की थी। घोषणा ही नहीं, प्रत्युत तदप प्राचरण करके उन्होंने यथार्थता में वस्तुस्थिति के प्रत्यक्ष दर्शन लोगों को करा दिये थे। भगवान महावीर और म. बुद्ध भी उन्हीं भारतीय पुरातन पुरुषों की गणना में से बाहर नहीं हैं, यद्यपि म० बद्ध के विषय में इतना अवश्य है कि उन्होंने सामयिक परिस्थिति को सुधारने के लिए प्रकट रूप में आत्मा के अस्तित्व से इन्कार किया था, परन्तु अन्ततः अस्पष्ट रूप में उनको उनका अस्तित्व और महत्व स्वीकार करना पड़ा था, यह हम अगाड़ी देखेंगे, अतएव यहाँ पर हमको देखना है कि इन दोनों युग-प्रधान पुरुषों ने किस रीति से इस यथार्थ प्रार्य सत्य के दर्शन किये थे?
म० बुद्ध के विषय में हम देख पायें हैं कि वे परिव्राजक आदि साधनों के मतों का अभ्यास करके, जैन साधु को ज्ञानध्यानमय अवस्था को प्राप्त हुए थे। उस अवस्था में उन्होंने छः वर्ष का कठिन तपश्चरण धारण किया था। इस तपश्चरण में उनका शरीर बिल्कुल सूख गया था। वे बिल्कूल शिथिल हो गये थे परन्तु उनमे यह सब तपश्चरण निदान बांधकर प्रबुद्ध होने की तीन पाकाँक्षा से किया था, इसीलिए वह इच्छित फल को न दे सका। बस, म० बद्ध ने जब देखा कि इस कठिन तपश्चरण द्वारा भी उनको उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती, तो उन्होंने कहा :
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इन कठिनाइयों के सहन करने वाले नागवार मार्ग से मैं उस बनोगे और उत्कृष्टपूर्ण मायों के ज्ञान को, जो मनुष्य की बुद्धि के बाहर है, प्राप्त कर पाऊँगा क्या सम्भव नहीं है कि उसके प्राप्त करने का कोई अन्य मार्ग हो ?"
इसके साथ ही उन्होंने शरीर का पोषण करना पुनः प्रारम्भ कर दिया, परन्तु इस दशा में भी उनका श्रद्धान आयों के उत्कृष्ट एवं विशिष्ट ज्ञान में तनिक भी कम न हुआ। उनको उस उत्कृष्ट ज्ञान के पाने की लालसा अब भी रही और वह उसको अन्य सुगम उपायों द्वारा प्राप्त करने के प्रयत्न में संलग्न हो गये किन्तु इतना दृढ़ थज्ञान भ० बुद्ध को जो श्रात्मा के उत्कृष्ट ज्ञान की शक्ति में हुआ, सो कुछ कम आश्चर्यपूर्ण नहीं है। अवश्य ही इतना दृढ़ श्रद्धान इस उत्कृष्ट ज्ञान में उसी अवस्था में हो सकता है जब उसके साक्षात् दर्शन उस श्रद्धानी की हो गये हों अतएव इसमें संशय नहीं कि म० बुद्ध ने अवश्य ही भगवान पार्श्वनाथ के तीर्थ के किसी केवल ज्ञानी ऋषिराज के दर्शन किये होंगे। इसी कारण उनका इतना दृढ़
श्रद्धान था।
म० बुद्ध अपने इस दृढ श्रद्धान के अनुरूप में अन्य सुगम रीति से इस उपाये ज्ञान की प्राप्त करने में संलग्न थे। इतनी कठिन तप जो उन्होंने की थी वह वृथा ही जाने वाली न थी। परिणामतः उनको बोधि वृक्ष के निकट उस मार्ग के दर्शन हो गये, जिसकी वे खोज में थे। बौद्ध शास्त्रों का कथन है कि इस अवसर पर उनको पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और वे तथागत हो गये थे । बौद्धों के इस कथन में कितना तथ्य है यह हम उन्हीं के शास्त्रों से देखेंगे |
म बुद्ध तथागत हो गये, परन्तु इस अवस्था में भी वे उन सब प्रश्नों का उत्तर नहीं देते थे, को सैद्धान्तिक विवेचन में सर्वप्रथम अगाडी माते हैं और सामान्य लोगों को एक गोरखधंधा सा समझ पड़ते हैं। अतएव इन बातों को प्यान में रखते हुए हम सहसा बौद्धों की उक्त मान्यता को स्वीकार नहीं कर सकते। म० बुद्ध को बोधिवृक्ष के नीचे किसी प्रकार के उच्चज्ञान के दर्शन अवश्य हुए थे, परन्तु क्या वह पूर्ण ज्ञान (केवल ज्ञान ) था, यह विचारणीय है। इसके लिए हम स्वयं कुछ न कहकर केवल बौद्धों के मान्य और प्राचीन ग्रन्थ मिलिन्द पन्ह के शब्द ही उपस्थित करेंगे। यहां ग० बुद्ध के पूर्णज्ञान (केवल ज्ञान या सर्वशता के विषय में पूछे जाने पर बौद्धाचार्य कहते हैं
"वह ज्ञान की दृष्टि उनके निकट हर समय नहीं रहती थी। भगवत् की सर्वज्ञता विचार करने पर अवलम्बित वो और जब वह विचार करते थे तो वह उस बात को जान लेते थे, जिसको वह जानना चाहते थे ।"
इस पर प्रश्नकर्ता राजा मिलिन्द उनसे कहते हैं कि
"इस देश में जब कि विचार करने से बुद्ध किसी बात को जानते थे तो वह सर्वज्ञ नहीं हो सकते ?"
बौद्धाचार्य राजा के इस कथन को किन्हीं ग्रंथों में स्वीकार करते हुए कहते हैं
"यदि ऐसे ही है, सम्राट् ? तो हमारे बुद्ध का ज्ञान अन्य बुद्धों के ज्ञान की अपेक्षा सूक्ष्मता में कम होगा और इसका निश्चय लगाना कठिन है।"
वृक्ष
बौद्ध शास्त्र के इस कथन से यह स्पष्ट प्रकट है कि पूर्णज्ञान सर्वव्यापक और उसके अधिकार में सर्वथा सदा रहना चाहिए। जैन शास्त्रों में सर्वज्ञता की यही व्याख्या की गई है। इस दशा में यह सहसा नहीं कहा जा सकता कि म० बुद्ध को बोधि के निकट "सर्वज्ञता" की प्राप्ति हुई थी। जिस प्रकार सर्वज्ञता की व्याख्या उक्त बौद्ध ग्रन्थ में की गई है उस प्रकार बुद्ध का ज्ञान प्रकट नहीं होता। इसी हतु से हम इतना कहने का साहस कर रहे हैं, वरन् वृथा ही किसी की मान्यता को अस्वीकार करने की धृष्टता नहीं की जाती। तिस पर यह व्याख्या केवल उक्त बौद्ध ग्रन्थ पर ही अवलम्बित नहीं है प्रत्युत म० बुद्ध ने स्वयं इस बात को स्पष्टतः स्वीकार नहीं किया है। जब उनसे सर्वशता के विषय में प्राण हुआ तो उन्होंने टालने की ही कोशिश की थी। एक बार राजा पसेनदी ने उनसे पूछा कि
"अर्हतो ( सर्वज्ञों) में कौन सर्व प्रथम है ?"
बुद्ध ने कहा कि "तुम गृहस्थ हो, तुम्हें इन्द्रिय सुख में ही आनन्द श्राता है । तुम्हारे लिए संभव नहीं है कि तुम इस प्रश्न को समझ सको ।"
इस तरह यह प्रत्यक्ष प्रकट है कि योधिवृक्ष के निकट जिस दिव्य ज्ञान के दर्शन म० बुद्ध को हुए ये वह पूर्णजान श्रथवा सर्वज्ञता नहीं थी, प्रत्युत उससे कुछ हेय प्रकार का वह ज्ञान था। जैन दृष्टि से उसे हम अवधिज्ञान (विभंगाबधि ) कह सकते हैं। पेरीगाथा की भूमिका में बौद्धाचार्य म० बुद्ध की इस ज्ञान प्राप्ति के विषय में कहते हैं कि इस समय रात के
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प्रथम प्रहर में उन्होंने अपने पूर्व जन्मों के वृत्तान्तों को जान लिया, मध्यरात में उनकी दिव्य दृष्टि पवित्र हो गई, और अन्तिम प्रहर में कार्य कारण के सिद्धान्त की तली तक पंठ कर उन्होने उसको जान लिया। इस कथन से हमारे उक्त अनुमान की पुष्टि होती है । अवधिज्ञान द्वारा विचार कर किसी खास विषय की परिस्थिति वतलाई जा सकती है । और अवधिज्ञानी अपने व किसी के भी पूर्वभव जान सकता है। इस प्रकार इसमें संशय नहीं कि म. बुद्ध को बोधिवृक्ष के निकट अवधिज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
इस तरह जब म बुद्ध को साधारण शान से कुछ अधिक की प्राप्ति हुई, जो कि उनके जीवन की एक अलौकिक और प्रख्यात घटना है, तो उनके भक्तों ने उनको तथागत या बुद्ध कहकर ख्याति प्रकट की। भगवान महावीर का भी उल्लेख इस नामों से हरा मिलता है. परन्तु उनकी तीर्थकर उपाधि थी, वह म० बुद्ध से बिल्कुल विलक्षण और सार्थक है । म बुद्ध के निकट उसका भाव विधर्मी मत प्रर्वतक का था।
जब म बुद्ध को सम्बोधी की प्राप्ति हो चुकी तो उन्होंने उस समय से धर्म प्रचार करना प्रारम्भ नहीं किया था, उनको संशय था कि शायद ही जनता उनके संदेश को समझ सके इसलिए वह कुछ समय तक एकान्त में रहकर शान्ति का उपभोग करने लगे। परन्तु अन्तत: वह अपनी इस कमजोरी को दूर करके धर्म प्रचार के लिए उद्यत हुए। बौद्ध कहते हैं कि इस समय स्वय ब्रह्मा ने आकर उनको उत्साहित किया था। अतएव अपने धर्म का प्रचार करने का दढ़ निश्चय जब उन्होंने कर लिया, तो उनको इस बात की फिकर हुई कि किस व्यक्ति को उपदेश देना चाहिए। इस पर उन्होंने अपने पूर्वगुरु पारादकालाम को इस योग्य पाया, किन्तु इसी समय किसी देवता ने उनसे कहा कि पारादकालाम की मृत्यु हो चुकी है। इसके साथ ही उन्होंने अपनी ज्ञान दृष्टि से काम लिया तो यही बात प्रमाणित हुई। फिर दूसरे गुरु उद्दकरामपुत्त के विषय में भी यही घटना उपस्थित हुई । अन्ततः उन्होंने उन पांच ऋषियों को उपदेश देना उचित समझा जिनके साथ उन्होंने छः वर्ष तक घोर तपश्चरण किया था। उस समय उन पांचों को ऋषिपट्टन-बनारस में स्थित जानकर म. बुद्ध उस ही ओर प्रस्थान कर गये। सम्बोधी के पश्चात् म बुद्ध ने अपने आप पाहार करना नियम विरुद्ध समझा था। इसलिए उनका प्रथम प्रहार तपुस्य और भल्लिक वणि कों के यहां मार्ग में हुआ था।
उक्त प्रकार जब म बुद्ध बनारस को अपने धर्म प्रचार के लिए जा रहे थे, तो मार्ग में उनको एक 'उपाक' नामक प्राजीवक भिक्षु मिला था। इसके पूछने पर उन्होंने अपने को 'सम्बद्ध' प्रकट किया था, परन्तु उस भिक्षुक को इस कथन पर संतोष नहीं हुना। उसने कहा, जो प्राप कहते हैं शायद वही ठीक हो । आखिर यह बनारस पहुंच गये । वहाँ ऋषि पट्टन में उन्होंने अपने पूर्व परिचय के पांच ऋषियों को पाया । पहले पहल उन्होंने म० बुद्ध के कथन पर विश्वास नहीं किया
और उसका उल्लेख समान्य रीति से मित्र के रूप में किया। इस पर म० बुद्ध ने विशेष रीति से उनको समझाया और आरवासन दिया एवं अपने को तथागत कहने का आदेश किया। तब उन्होंने म. बुद्ध के कथन को स्वीकार किया और उन्हें अपना गुरु माना। इनमें मुख्य कोन्टिन्य कुल पुत्र को सर्व प्रथम म. बुद्ध के मध्यमार्ग में श्रद्धान हुआ इसलिए वे ही मब के पहिल अनुयायी थे। उपरान्त यहीं यश नामक वणिक पुत्र को भी बुद्ध ने चमत्कार दिखला कर अपने मत में दीक्षित कर भिक्ष बनाया था। इस समय म. बद्ध के अनुयायी सात थे और इनको वे 'अहंत्' कहते थे। भगवान महावीर को भी मनोकर दिव्य शक्ति की प्राप्ति थी, परन्तु उन्होंने न कभी किसी को अपना शिष्य बनाने की इच्छा की और न इस शक्ति का उपयोग इस ओर किया। इस प्रकार जब म बुद्ध के अनुयायी ६१ ( अर्हत ) हो गये तब उनने भिक्षु ग्रों से कहा कि 'हे भिक्षमों ! मैं मानवीय दैवीय सत्र बन्धनों से मुक्त हुआ हूं । हे भिक्षुनो ! तुम भी मानवीय और दैवीय सब बन्धनों से मुक्त हुए हो अब तुम, हे भिक्षयों ! अनेकों शिष्यों के लाभ के लिए, अनेकों की भलाई के लिए, संसार पर दया लाकर, मनुष्यों और देवों के लाभ
और भलाई के लिए जाओ।' इस समय 'मार' नामक देवता ने पाकर पुनः म बुद्ध को अपने धर्म प्रचार करने से रोका, परन्त उन्होंने उपेक्षा की और अपने भिक्षुओं को स्वयं ही अन्य शिष्य दीक्षित करने-"उपसम्पदा" देने का अधिकार देकर चह ओर भेज दिया।
अतएव यह स्पष्ट है कि म० बुद्ध ने तत्कालीन अवस्था को सुधारने के भाव से अपने धर्म का नीवारोपण किया था। उन्होंने प्रचलित रीति रिवाजों को लक्ष्य करके बिना किसी भेदभाव के मनुष्यों को अपने धर्म में दीक्षित करने का द्वार खोल दिया था। इससे सामाजिक वातावरण में भी सुधार हुआ था । तथापि उनका पूर्ण लक्ष्य अपने धर्म को स्थापित करने में प्रचलित साधु धर्म का सुधार करने का था। उस समय सावगण मापसी शास्त्रार्थों और वादों में ही समय को नष्ट कर देते थे। वर्ष भर में वे तीन चार महीनों के सिवाय शेष सर्व दिनों में सर्वथा इधर-उधर विचर कर सैद्धान्तिक वाद-विवादों में ही
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प्रायः व्यस्त रहते थे। इसी कारण म० बुद्ध ने इन साधनों को इस रोग से छुड़ाकर आत्म स्थिति को प्राप्त कराने के लिए सैद्धान्तिक विवेचन का सर्वथा विरोध किया। विरोध होनही प्रत्युत उसको आत्मोन्नति के मार्ग में अर्गला स्वरूप घोषित किया । यह बतलाया कि वाद-विवाद में प्रात्म शुद्धि नहीं है। स्पष्ट कहा :
'या उन्नतीसास्स विधातभूमि, मानातिमानम वदते पनयेसो।
एतमपि दिसवान बिवादयेथ, नहि तेन सुद्धिम् कुसलवदंति ।।५३०॥ सुत्तनिपात भावार्थ---जो वाद एक समय वादी के हर्ष का कारण है, वही उसके परास्त होने का स्थल होगा, इस पर भी वह मान और घमण्ड के प्रावेश में बाद करता है। इसको देखते हुए, किसी को भी बाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि कुशल पुरुष कहते हैं कि इसके द्वारा शुद्धि नहीं होती। इस प्रकार मुख्यतः उस समय की परिस्थिति को लक्ष्य करके उन्होंने सैद्धान्तिक वाद विवाद को अनावश्यक बतलाया, परन्तु उस समय के शास्त्रीय वातावरण को वह एकदम पलट न सके । आखिर स्वयं उनको भी सैद्धान्तिक बातों का प्रतिपादन गौण रूप में करना ही पड़ा, यह हम अगाड़ी देखेगे, किन्तु यह स्पष्ट है कि म० बुद्ध का उद्देश्य सामयिक परिस्थति को सुधार कर लोगों को जाहिरा शान्तिमय जीवन व्यतीत करने का मार्ग सुझाना था । उनका सांसरिक जीवन सुविधामय साधु जीवन हो, यही उनको इष्ट था। सांसारिक बन्धनों में पड़े हुए लोगों को गृहस्थी में से निकाल कर इस मार्ग पर लगाना ही उनका ध्येय था । वह येनकेन प्रकारेण मनुष्यों के वर्तमान जीवन को सुविधापूर्ण सुखमय देखना चाहते थे। थेरगाथा की भूमिका में यही कहा गया है कि 'ये बौद्ध भिक्षु सामयिक सुधार के लिए कटिबद्ध थे। वे जनता को धर्म, प्रेम, सादा जीवन व्यतीत करने, यज्ञ सम्बन्धी हिसा से दूर रहने और जाति-पाति के बन्धनों की उपेक्षा करने के उपदेश देते थे। इस तरह म० बुद्ध ने जिस धर्म की नींव डाली थी, वह वस्तुतः प्रारम्भ में एक सामयिक सुधार की लहर ही थी।
वास्तव में ग० बुद्ध का 'मध्य मार्ग' जिसका प्रतिपादन उन्होंने सर्व प्रथम बनारस में किया था। इस तरह से हिन्दुओं की जाति व्यवस्था और नियों की कठिन तपश्चर्या के विरोध के सिवा और कुछ न था । कम से कम प्रारम्भ में तो वह एक सैद्धान्तिक धर्म नहीं था 1 इसकी घोषणा निम्न रूप में म० बुद्ध ने स्वयं की थी:
___ हे भिक्षुषों, दो ऐसी अति हैं जिनसे गहत्यागियों को बचना चाहिए । यह दो अति क्या हैं ? एक प्रामोद-प्रमोदमय जीवन, यह जीवन जो केवल इन्द्रियजनित सुख और वासना के लिए हो, वह नीच वनाने वाला है। इन्द्रियजनित, उपेक्षा के योग्य और लाभ रहित है और अन्य तपश्चरण जीबनमय है, यह पीड़ामय उपेक्षा के योग्य और लाभ रहित है। इन दोनों अति से बचने पर हे भिक्षुओं, तथागत को 'मध्यमार्ग' का ज्ञान प्राप्त हुन्मा है, जो बद्धि, ज्ञान, शान्ति, सम्बोधि और निर्वाण का कारण है।'
इस कथन से स्पष्ट है कि मः बद्ध ने उस समय प्रचलित मतमतान्तरों में स्वयं माध्यमिक बन कर एक मझोला माध्यम का मत स्थापित किया था। इसमें उनका पूर्ण लक्ष्य अपने लिए एवं उन सबके लिए, जो उनके मत को मानने के लिये तैयार थे, किसी रीति से भी पीड़ा का यन्त कर देना था। इसलिए यथार्थ में 'मध्यमार्ग' एक ओर तो कर्मयोग के रूप में पचलित अनियमित सांसारिक साधु जीवन के, जिसमें सब ही सांसारिक कार्य बिना फल प्राप्ति की इच्छा के लिए किये जाते थे, और दूसरी पोर तपश्चरण के मध्य एक 'राजीनामा' था।
यह भाबित होता है कि म० बद्ध ने अपने मत के सिद्धान्तों की प्रार्षता और वैज्ञानिकता की ओर ध्यान ही नहीं दिया। उन्होंने सैद्धान्तिक विवेचन में पड़ने को एक झंझट समझा । बस उनका ध्येय एक मात्र वर्तमान जीवन को पीड़ा के दारुण क्रन्दन से लोगों को हटाने का था । इसीलिए उन्होंने तपश्चरण को भी एक पोडोत्पादक अति समझा, और कहा कि :-दुःख बुरा है और उससे बचना चाहिए । अति दुःख है। तप एक प्रकार की अति है, और दुःखपूर्वक है। उसके सहन करने में भी कोई लाभ नहीं है । वह फलहीन है।
किन्तु म बुद्ध ने तपश्चरण किस अनियमित ढंग से किया था, वह हम देख चुके हैं। वह श्रावक की आवश्यक क्रियाओं का अभ्यास किये बिना ही साधु जीवन में कमाल हासिल करना चाहते थे। प्रायों के उत्कृष्ट ज्ञान की तीव्र आकांक्षा रखकरउसको पाने का निदान वांधकर वह तपश्चरण पूर्ण कार्यकारी नहीं हो सकता था। पर्वत की शिखर पर पहुँचने के लिये सीढ़ियों की मावश्यकता है और फिर जब संतोषपूर्वक उन सीढ़ियों का सहारा लिया जायेगा तब ही मनुष्य शिखर पर पहुँच
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सकता है । मालूम पड़ता है कि म० बुद्ध ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। इस ही कारण वह उसके द्वारा पूर्णता को प्राप्त न कर सके । परन्तु तो भी उनका यह प्रयास बिल्कुल विफल नहीं गया था, हम यह देख चुके हैं। यदि म० बुद्ध ने इस मोर ध्यान दिया होता तो वस्तुतः हम उनसे और कुछ अधिक ही उत्तम वस्तु पाते । भगवान महावीर ने एक नियमित रीति से साधु जीवन का अभ्यास किया था और व्यवस्थित ढ़ग से तपश्चरण का पालन किया था । इसीलिए वह पूर्ण कार्यकारी हवा, यह हम प्रागे देखगे। वैसे भगवान महावीर ने भी ऐसे थोथे तपश्चरण को बुरा बतलाया है। उनके निकट वह केवल कार्यक्लेश और बालकों का तप है। परन्तु वह जानते थे कि ज्ञानमय अवस्था के साथ-साथ परमपद प्राप्ति के लिए तपश्चरण भी परमावश्यक है। उनके निकट तपश्चर्या वह कोमियाई क्रिया थी जो प्रात्मा में से कर्म मल को दूर करके उसे बिल्कुल शुद्ध बना देती है। यह तपश्चर्या संसारी मनुष्य को पहले-पहले तो अवश्य ही जरा कठिन और नागवार मालम पड़ती है, परन्तु जहाँ मनुष्य को सम्यक् धद्धान हुआ वहां लत्काल ही इसकी आवश्यकता नजर पड़ जाती है और फिर इसके पालन में एक अपूर्व प्रानन्द का स्वाद मिलता है । वस्तुत: मेहनत का फल भी मीठा होता है । तपश्चरण एक परमोत्कृष्ट प्रकार की मेहनत है, जिसका फल भी परमोत्कृष्ट है । अतएव पवित्र साधु जीवन का यह एक भषण है। प्रत्येक मत प्रवर्तक को इस भूषण को किसी न किसी रूप में धारण अवश्य करना पड़ता है। म० बुद्ध ने अवश्य इसका विरोध किया परन्तु अन्ततः उनको भी इसे किंचित न्युन रूप में स्वीकार करना ही पड़ा।
इस तरह म० बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति के तो दर्शन कर लिए, अब पाठकगण पाइये, भगवान महावीर के ज्ञान प्राप्ति के दिच्य अवसर का भी दिग्दर्शन कर लें। भगवान महावीर ने व्यवस्थित रीत्या श्रावक अवस्था से ही संयम का अभ्यास करके मुनि पद को धारण किया था । मुनि अवस्था में भी पहले उन्होंने ढाई दिन (बेला) का उपवास किया था और फिर एक वर्ष के तपश्चरण को परीषह को उन्होंने सहन किया था । इस प्रकार क्रमवार प्रात्म उन्नति करते हुए वे इस १२ वर्ष के तपश्चरण को पूर्ण करके विचर रहे थे, कि वैशाख सुदी दशमी के दिन वे जम्भक ग्राम के बाहर ऋजकूला नदी के बामतट पर एक साल वृक्ष के नीचे विराजमान हुए तिष्ठते थे । ज्ञान-ध्यान में लीन थे। समय मध्यान्ह का हो गया था । सूर्य अपने प्रचन्ड प्रकाश से तनिक स्खलित हो चले थे। उसी समय इन भगवान महावीर को दिव्य केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । मानो इस परम प्रखर प्रात्म प्रकाश का दिव्य उदय जानकर ही उस समय दिनकर महराज का भौतिक प्रकाश फीका पड़ चला था।
भगवान महावीर उस सुवर्ण अवसर पर केवलज्ञानी हो गये, साक्षात् तीर्थकर बन गये। तीनों लोक की घराचर वस्तूय उनके ज्ञान नेत्र में भलकने लगीं। वे सर्वज्ञ हो गये। पिलोकवंदनीय बन गये । ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों का उनके प्रभाव हो गया, इसीलिये संसार में ही साक्षात् परमात्मा हो गये—सयोग केवली बन गये। उस समय से एक क्षण के लिये भी उनका ज्ञान मन्द न पड़ा । वह ज्यों का त्यों प्रकाशमान रहा और यूं ही हमेशा रहेगा। यही दिव्य जीवन है। परमोत्कृष्ट प्रकाश है । साक्षात् ज्ञान, शांति और सुख है।
जिस समय भगवान महावीर सर्वज्ञ हए, उस समय संसार में अलौकिक घटनायें घटित होने लगों, जिससे भगवान को सर्वज्ञता का लाभ हुआ जानकर देवलोक के इन्द्र और देवतागण वहां उनके निकट प्रानन्दोत्सव मनाने आये थे। भगवान को वन्दना उन्होंने अनेक प्रकार की थी। हम भी उस दिव्य अवसर का स्मरण करके मन, वचन, काय की विशुद्धता से भगवान के पवित्र ज्ञानवर्द्धक चरणों में नत मस्तक होते हैं।
उसी समय इन्द्र ने भगवान का सभाभवन-समवशरण रच दिया जिनकी विभूति का वर्णन जैन ग्रन्थों में खूब मिलता है।' समवशरण की गधी कुटीमें अन्तरिक्ष विराजमान होकर भगवान महावीर सर्व जीवों को समान रीति से कल्याणकारी उपदेश देते थे। इस समवशरण में १२ कोठे थे, जिनमें ऋषिगण के उपरान्त स्त्रियों को पासन मिलता था । इसके बाद पुरुष और तिर्यचों के लिए स्थान नियत था। इस रीति से भगवान का उपदेश तिपंचों तक को होता था । वस्तुतः भगवान के दिव्य उपदेश से पशुओं को अपने प्राणों का भय चला गया था। वे सुरक्षित और अभय हो गये थे। इस ही देवी समवशरण सहित भगवान सर्वत्र विहार करते थे। इस बिहार में उनके साथ चतुनिकाय संघ और मुख्य गणधर भी रहते थे। भगवान के सर्व प्रथम शिष्य और मस्य गणधर वेद पारांगत प्रख्यात ब्राह्मण इन्द्रभूति गौतम थे । भगवान महावीर ने सनातन सत्य का उपदेश सर्व प्रथम इन्हीं को दिया था। इनको मनःपर्यय ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और इन्होंने ही मुख्य गणधर के पद पर विराजमान होकर भगवान की द्वादशांग वाणी की रचना की थी।
भगवान महावीर का उपदेश सनातन यथार्थ सत्य के सिवा और कुछ न था । उन्होंने अपनी सर्वज्ञता द्वारा सर्व
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वस्तयों का यथार्थ रूप विचित किया था इसीलिए वस्तुस्थिति के अनुरूप में ही उनका उपदेश था । उन्होंने किसी नबीन मत की स्थापना नहीं की थी, बल्कि प्राचीन जैन धर्म को पूनः जीवित किया था। जैन धर्म का अस्तित्व उनसे भी पहने विद्यमान था, परन्तु भगवान महावीर के समय में उमको विशेष प्रधानता प्राप्त नहीं थी, इसलिए भगवान महावीर के द्वारा समयानुसार उसका पुनः निरूपण हुआ था। यह सनातन धर्म अव्याबाध सर्व सुखकारी और अमर जीवन को प्रदान करने वाला था। जिस तरह वस्तु की मर्यादा थी उसी तरह उसमें बताई गई थी। यहो धर्म प्राज जैन धर्म के नाम से विख्यात है।
इस तरह भगवान महावीर सर्वज्ञ थे और उनका धर्म यथार्थ सत्य था। यह मान्यता केवल जैनों को हो नहीं है, प्रत्यत वौद्ध और ब्राह्मण शास्त्र भी इस ही बात की पुष्टि करते है । एक बार म. बुद्ध ने स्वयं कहा था
भाइयो! कुछ ऐसे सन्यासी हैं, (अचेलक, माजीबिक निग्रंथ मादि) जो ऐसा श्रद्धान रखते और उपदेश करते है कि प्राणी जो कुछ सुख दु:ख व समभाव का अनुभव करता है वह सब पूर्व कर्म के निमित्त से होता है 1 पोर तपश्चरण से पूर्व कर्म के नाम से, और नये कर्मों के न करने से, प्राधव के रोकने से कर्म का क्षय होता है और इस प्रकार पाप का क्षय और सर्व दःख का विनाश है। भाइयो, यह मिर्ग्रन्थ (जन) कहते हैं......मैंने उनसे पूछा क्या यह सच है कि तुम्हारा ऐसा घद्धान है और तम इसका प्रचार करते हो......उन्होंने उत्तर दिया......हमारे गुरु नातपुत्त सवज्ञ है ....उन्होंने अपने गहन ज्ञान से इस का उपदेश दिया है कि तुमने पूर्व में पाप किया है, इसको तुम उग्र पीर दुस्सह आचार से दूर करो और जो आचार मन, वचन, काय से किया जाता है उससे अागामी जन्म में बुरे कर्म कट जाते हैं...इस प्रकार सबं ऋर्म अन्त में क्षय हो जायंग और सारे दुःख का विनाश होगा । इस सत्र से हम सहमत हैं।
(मज्झिम २।२१४) इय उद्धरण में स्पष्ट रीति से भगवान महावीर की सर्वज्ञता और उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म सिद्धान्तों को स्वीकार किया गया है। वास्तव में भगवान महावोर ने इन्हीं बाता का उपदेश दिया था, जिनका उल्लेख उक्त उद्धरण में हैं। इसीलिए यह भी प्रत्यक्ष है कि ग्राज जो जैन धर्म प्राप्त है वह मुल' में वही है जिसका प्रतिपादन भगवान महावीर ने किया था। हां, उसके वाह्यभेष में अन्तर पड़ा हो तो कोई विस्मय नहीं।
भगवान महावीर की सर्वज्ञता के सम्बन्ध में प्राजकल के विद्वान् भी हमारे उपरोक्त कथन का समर्थन करते हैं । डा. विमलचरण लाल एम० ए० पी० एच० डी० आदि बौद्ध ग्रन्थों के सहारे से लिखते हैं कि ये भगवान सर्वज्ञ सर्वदर्शी, अनन्त केवलज्ञान के घारी चलते-बैठते सोते जागते सब समयों में सर्वज्ञ थे । वे जानते थे कि किसने किस प्रकार का पाप किया है और किसने पाप नहीं किया है। वे प्रख्यात ज्ञात्रिक महावीर अपने शिष्यों के पूर्वभव भी बता सकते थे। पाप ही बौद्धों के संयुक्त' निकाय में लिखा बतलाते हैं कि 'ज्ञात्रि क्षत्रिय' महाबीर बहुत ही होशियार और परम विद्वान् एक दातार पुरुष चतुर्पकार से इन्द्रिय निग्रह में दत्तचिन और स्वयं देखी मुनी वस्तुओं को बतलाने वाले थे। जनता उनको बहुत ही पूज्य दृष्टि से देखती थी। एक अन्य विहान बौद्धों के सिहल मान्यता के आधार में, भगवान महावीर के अनन्तज्ञान के सम्बन्ध में कहते हैं कि वे महावीर अपने को पाप रहित बतलाने थमौर वह घोषणा करते थे कि जिस किसी को कोई शंका हो अथवा किसो विषय का समाधान करना दो बस हमारे पास याये, हम उसको अन्छी तरह समझा दंगे। इसका भाव' यही है कि भगवान प्राकृत रूप में अपने धवल केवल ज्ञान में लोगों का पूर्ण समाधान कर देते थे, वे पूर्ण सर्वज्ञ थे—उन्हें सशंक होने को कोई कारण शेष नहीं था।
इस प्रकार भगवान महावीर और म० बुद्ध के धर्म प्रवर्तक रूप में भी एक समान दर्शन नहीं होते। भगवान महावीर ने सर्वज्ञ होने पर किसी नवीन मत की स्थापना नहीं की थी। म० बुद्ध ने 'मध्य मार्ग' को बोधिवृक्ष के निवाट जान लेने पर एक नवीन मत की स्थापना की थी। जिस प्रकार प्रारम्भ से ही इन दोनों युगप्रधान पुरुषों के जीवन में कोई विशेष साम्यता नहीं थी उसी प्रकार अवस्था में भी हमटो कोई समानता देखने को नहीं मिलती म० बुद्ध ने अपनो ३५ वर्ष को अवस्था से ही अपने धर्म का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया था और भगवान महावीर ने तब तक कोई उपदेश नहीं दिया जब तक कि उन्होंने करीब ४३ वर्ष की अवस्था में उक्त प्रकार सर्वज्ञता प्राप्त न कर लो । फिर धर्म प्रचार के लिए जो उन्होंने सर्वत्र बिहार किया था. वह भी एक-दूसरे से बिल्कुल विभिन्न था। म० बुद्ध ने बोधिवृक्ष से चलकर सर्वप्रथम वनारस में उपदेश दिया था। और फिर वे क्रमशः उरुवेला, गयासीस, राजगृह, कपिलवस्तु, थावस्ती, राजगृह, कोदनावत्थु, राजगृह प्रावस्तो, राजगृह बनारस, भद्दिय, श्रावस्ती, राजगृह श्रावस्ती, राजगह, बनारस, अन्धकविन्दु, राजगृह, पाटलिगाम, कोटिगाम नातिका आपन, कुसीनारा मातूम, श्रावस्ती, राजगृह, दक्षिणागिरी, वैशाली, बनारस, श्रावस्ती, चम्पा, कोशालम्बी, परिल व्यक, श्रावस्ती, बालकोलोन्कर- .
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गाम, बेलुव, कुसीनारा में विचरते रहे थे। बनारस में ही उन्होंने शिष्यों को 'उपसम्पदा' देने-शिष्य बनाने की आज्ञा दे दी थी। गयासीस में जब मौजद थे तब उनके शिष्यों की संख्या एक हजार थी। पहिने ही राजगह में जव पहुंचे तब मंजय के शिष्य सारीपुत और मौद्गलायन उनके मत में दीक्षित हुए। इनके विषय में हम पहिले ही लिख चुके हैं। इसके बाद ही उन्होंने 'उपाध्याय और प्राचार्य पद नियुक्त किये परन्तु इन दोनों के कर्तव्य एक थे। यह एवं अन्य श्रियायें म० बुद्ध ने अन्य मतों में प्रचलित रीतियों के प्रभावानुसार स्वीकृत की थीं। इसी समय उन्होंने शाक्यवंशी व्यक्तियों के लिए खास रियायत करने का भो आदेश दिया था। फिर द्वितीय बार जब श्रावस्ती से वे राजगह आये तो राजा श्रेणिक विम्बसार के प्राग्रह से तित्थियों' की भांति अष्टमी, चतुदों और पूर्णमासी के दिनों पर एकत्रित होकर उपदेश देने का आदेश भिक्षयों को दिया। इसके बाद फिर जब वह राजगह माये तब लोगों के बात करने पर उन्होंने वर्षा ऋतु मनाने के लिए भिक्षुओं को एक स्थान पर ठहरने का नियम बनाया। यह नियम भिक्षुओं द्वारा पहिले ही स्वीकृत था। उपरान्त अन्धविन्द में जब म बुद्ध थे तब उनके साथ १२५० भिक्षु थे। फिर जब आप यहां से कुसीनारा को वे गये थे तो उनके साथ केवल २५० भिक्ष रह गये थे । यहां से जब आम होते हुए वे श्रावस्ती पहुंचे, तय भिक्षों में परस्पर मतभेद और विवाद खड़ा हो गया था और जिस समय वे कौशाम्बी में मौजूद थे, उस समय उनके झगड़े ने विकट रूप धारण कर लिया था। यहां तक कि म० बद्ध के समझाने पर भी वे न माने और उनसे कह दिया कि आप शान्ति से अपने प्राप्त सुख का उपभोग कीजिये। हम लोग अपने आप निक्ट लगे। म० बद्ध दनको भला बुरा कहबार वालकलोकारगाम को चले गये। यहां पर एक बागबान ने बगीच में जाने से उनको टोका था। फिर भ०बद्ध पारिययक और श्रावस्ती को गये थे । अन्तिम बस्सा उन्होंने वैशाली के निकट अवस्थित बेलु च में बिताई थी और अन्ततः कसीनारा में वह प्राप्त हुए थे । वेलुव में कोई कठिन रोग से ये पीड़ित हए थे । उस रोग को उन्होंने अपने योगबल से शमन किया था । इस रोग से मुक्त होकर जब वे फुसीनारा की जा रहे थे, तो मार्ग में चंड लुहार को यहां उन्होंने अन्तिम भोजन किया। अंतत: कुसीनारा में उन्होंने शिष्यों को उपदेश दिया था और आनंद से कहा था कि :
'अतएव हे आनंद ! तुम अपने आप अपने तई प्रकाश रूप वनो। अपने आपको ही अपनी शरण समझो। किमो बाह्य शरण का आसरा न ताको । सत्य को प्रकाश रूप जानकर उसको ही अच्छी तरह ग्रहण करो। उसी सत्य को ज्ञानदाता जाना । अपने आपके सिवा किसी अन्य में शरण की लालसा मत रक्खो ।"
इसी अवसर पर प्रानंद ने किसी प्रख्यात नगर चम्पा आदि में अपने अंतिम दिवस व्यतीत करने का आग्रह म० यद्ध से किया था। इस पर म० बुद्ध ने कुसीनारा की पूर्व विभुति का स्मरण कराकर आनंद को शांत किया था। वस्तुतः यहां पर उन्होंने पानंद के तीन मोह को अपने में से हटाने के लिए यह सब उपदेश दिये थे। आखिर उन्होंने अपने अन्तिम जीवन का समय निर्दिष्ट करते हुए ग्रानंद से कहा था :---
'पानंद ! अव तुम कुसीनारा में जाकर कृसीनारा के मल्ल राजानों से कहो, आज के दिन, हे वासेट्ठमण, रात्रि के अन्तिम पहर में तथागत का सर्व अन्तिम मरण होगा। हे बासेट्टगण, कृपालु हो और यहा ऋपाल होगी। इसके बाद अपने यापको यह कहने का अवसर न दो, हमारे ही गाँव में तथागत की मृत्यू हई और हमने तथागत के अंतिम समय में दर्शन न कर पाये।
इस ही के अनुरूप में म० बद्ध का जीव उस रात्रि को इस नश्वर शरीर को त्याग गया। उनके अनुयायियों ने उनके शरीर की अन्याठ क्रिया की। उपरान्त बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि लिच्छबि, मल्ल, कोल्यि, शक्य आदि क्षत्रिय राजाओं ने उनके शरीर की भस्म को मंगवाकर, उसको रमति में स्तूप बनवाये थे। इस तरह म० बद्ध का धर्म प्रचार और अन्तिम समय पूर्ण हुना था।
भगवान महावीर ने भी अपने समवशरण की विभूति सहित सर्वत्र विहार किया था। दिगम्बर और श्वेताम्बर शास्त्रों में इसमें भी अन्तर अवश्य है, परन्तु यह कुछ विशेष महत्व नहीं रखता। श्वेताम्बर शास्त्र उसका उल्लेख वर्षा ऋतू व्यतीत करने के रूप में करते हैं । दिगम्बर कहते हैं कि तीर्थकरावस्था में वर्षा ऋतु व्यतीत करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि तीर्थकर भगवान का शरीर इतना विशुद्ध हो जाता है कि उसके द्वारा किसी प्रकार की हिसा होना बिल्कुल असम्भव है। अतः श्वे के अनुसार भगवान महावीर ने प्रथम चतुर्मास प्रस्थिक ग्राम में, फिर तीन चतुर्मास चम्पा और ष्टष्टि चम्पा ग, बारह वैशाली और वाणिज्यग्राम में, चौदह राजगह और नालन्द में, छै मिथिला में, दो भद्रिका में, एक बालमिका ग, एक पनितभूमि में, एक श्रावस्ती में, एक पावा में राजा हस्तिपाल की कचहरी में व्यतीत किये थे। और दिगम्बरी शास्त्र इस प्रकार बतलाते हैं कि जिस प्रकार भब्यवत्सल भगवान ऋषभदेव ने पहिले अनेक देशों में बिहार कर उन्हें धर्मात्मा बनाया था उसी प्रकार भगवान महावीर ने भी
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मध्य के (काशो, कौशल, कौशल्य, कुसन्ध्य, अश्वष्ट, त्रिगर्तपंचाल, भद्रकार, पाटच्चार, मौक, मत्स्य, कनीय, सूरसेन, एवं वृकार्थक) समुद्र तट के (कलिग, कुरुजांगल, कैकेय, प्रात्रेय, कांबोज, बाल्होक, यवनति, सिंधु, गांधार, मौवोर, सूर, भोरू, दशेरुक, बाडवान, भारद्वाज और क्वाथतोय) और उत्तर दिशा के (ताण, कार्ण, प्रच्छल आदि) देशों में विहार कर उन्हें धर्म को प्रोर ऋजु किया था। महावीर पुराण के अनुसार विदेह में (वज्जियन राजसंघ के) राजा चेटक ने भगवान के चरणों का आथय लिया था। अंगदेश के शासक कुणिक ने भी भगवान को बिनय की थी और वह कौशाम्बी तक भगवान के साथ-साथ गया था। कौशाम्बी में वहां के नृपति शतानोक ने भी भगवान को उपासना को था और वह अन्त में भगवान के अनन्य भक्त थे और इन्हीं की राजधानी राजगह में भगवान ने अधिक समय व्यतीत किया था। राजपुर के सुरमलय उद्यान में जिस समय भगवान विराजमान थे, उस समय वहाँ के राजा जीबंधर ने दीक्षा ग्रहण की थी । तथापि जिस समय भगवान सर्वप्रथम राजगृह में पाये ये, उस समय वेदपारंगत विद्वान इन्द्रभूति गौतम उनके साथ थे। इनके अतिरिक्त और बहुत से ब्राह्मण और क्षत्री राजपुत्र तथा वणिक सेठ ग्रादि भगवान के बिहार और धर्म प्रचार से प्रबुद्ध हए थे। राजकुमार, अभय शतवाहन प्रादि मुनि धर्म में लीन हए धे । ज्येष्ठा, चन्दना सदृश राजकुमारियां भी आर्यिकाएँ हुई थीं। राजगृह के सेठ शालिभद्र, धन्यकुमार प्रीतंकर आदि महानुभाव वणिकों में से परम पुरुषार्थ के अभ्यासो हुए थे। अन्त में धर्म प्रचार करते हुए भगवान पावापुर पहुंचे थे और वहां से उन्होंने मोक्ष लाभ किया था।
नोट-कुछ लोगों का ख्याल है कि भगवान महावीर का धर्म भारत में सीमित रहा था, परन्तु यह उनका कोरा ख्याल ही है। अन्वेषकों ने बतला दिया है कि जैन मुनि युनान, रूस और नार्वे जैसे सूदूर देशों में धर्म प्रचार के लिए गए थे। (देखी भगवान महावीर पृष्ठ ७) अफ्रीका के प्रबेसिनिया प्रदेश में यूनानियों को जैन मुनि मिने थे । एशियाटिक रिसचेंज भाग ३ यूनान में आजतक एक जैन मुनि का समाधिस्थान वहां को राजधानी अथेन्स में मौजूद है। यह जैन मुनि श्रममाचार्य नामक थे और भगुकच्छ से गये थे। मध्य एशिया में भी जैन भारी फैला दया था, यह भी प्रकट है। इण्डोचाइना में भी जैन धर्म के अस्तित्व के चिन्ह मिलते हैं। वहाँ के सन ११५ के एक शिलालेख में राजा भद्रवमन तृतीय को जिनेन्द्र के सागर का एक मीन लिखा है तथा जैनाचार्यकृत काशिकावृत्ति व्याकरण का उसे पारगामो बताया है । तथापि जावा से एक ऐसो मूर्ति के दर्शन वि० वा. चम्पतराय जी ने बरलिन के अजायब घर में किए हैं, जो जैन मूर्तियों के समान है । अतएव इन थोड़े से उदाहरणों से स्पष्ट है कि जैन धर्म भारत में ही सीमित नहीं रहा था। बौद्ध धर्म की तरह वह भी एक समय विदेशों में फैला था ।
इस प्रकार दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही इस बात को प्रगट करते हैं कि भगवान महावीर को मोक्ष प्राप्ति का स्थान पावा है । यह नगरी धनसम्पदा में भरपूर मल्ल राजाओं की राजधानी थी। यहां के लोग और राजा हस्तिपाल भगवान महीवीर के शुभागमन की बाट जोह रहे थे। इसलिए म. बुद्ध को अन्तिम समय के बरमक्स भगवान महावीर को कोई खबर कहीं को नहीं भेजनी पड़ी थी। वस्तुतः भगवान कृतकृत्य हो चुके थे, इच्छा और बाँछा से परे पहुंच चुके थे इसलिये उनके विषय में ऐसी बातें बिल्कुल सम्भव नहीं थी। श्रीगुणभद्राचार्य जी भगवान के अन्तिम दिव्य जीवन काल का वर्णन निम्न प्रकार करते हैं :
मा पावापुर प्राप्य मनोहरवनांतरे । बहूनां सरसां मध्ये महामणिशिलातले ॥५०६।। स्थित्वा दिनद्वयं वीतविहारो वृद्धनिर्जरः । कृष्णकार्तिकपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये ॥५१०१॥ स्वातियोगे तृतीयेद्धशुक्लध्यामपरायणः । कृतत्रियोगसंरोधसमुच्छन्नक्रियां श्रित: ॥५११।। हताधातिचतुष्कः सन्नशरीरो गुणात्मकः ।
गता मुनिसहस्त्रेण निर्वाणं सर्ववाछितं ॥५२२॥ भावार्थ-विहार करते करते अन्त में वे (भगवान) पावापुर नगर में पहुंचे और वहां के मनोहर नाम के वन में अनेक सरोवरों के मध्य महामणियों की शिला पर विराजमान हए। विहार छोड़कर (योगनिरोधकर) निर्जरा को बढ़ाते हए वे दो दिन तक वहां विराजमान रहे और फिर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के अन्तिम समय में स्वाति नक्षत्र में तीसरे शुक्लध्यान
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में तत्पर हए। तदनन्तर तीनों योगों को निरोधकर समूच्छिन्न क्रिया नाम के चौथे शुक्लध्यान का प्राश्रय उन्होंने लिया और चारों अघातिया को को नाशकर नारीर रहि केवल गुण पहोलर एक हजार मुनियों के साथ सबके द्वारा बांछनीय ऐसा मोक्ष पद प्राप्त किया।
इस प्रकार मोक्ष पद को प्राप्त कर पुरुषार्थ के अन्तिम अनन्त सुख का उपभोग वे उसी क्षण से करने लगे। भगवान के इस अन्तिम दिव्य अवसर के समय भी स्वर्गलोक के इन्द्र और देवतागण आये थे और उन्होंने मोह को नाश करने वाले भगवान के शरीर की पूजा वन्दना की थी। इस समय भी अलौकिक घटनायें घटित हुई थी और अंधेरी रात्री में एक अपूर्व प्रकाश चहऔर फैल गया था। अन्तत: उन देवों ने उस पवित्र शरीर को अग्निकुमार देवों के इन्द्र के मुकुट से प्रगट हुई अग्नि की शिखा में स्थापन किया था। इसी अवसर पर आस पास के प्रसिद्ध राजा लोग भी पावापुर में पहुंचे थे और वहां पर दीपोत्सव मनाया था। कल्पसूत्र में इनका उल्लेख इस प्रकार किया गया है:
'उस पवित्र दिवस जब पूज्यनीय श्रमण महावीर सर्व सांसारिक दुःखों से मुक्त हो गये तो काशी और कौशल के १८ राजारों ने, ह मल्ल राजाओं ने और लिच्छवि राजाओं ने दीपोत्सव मनाया था। यह प्रोषध का दिन था और उन्होंने कहा'ज्ञानमय प्रकाश तो लुप्त हो चुका है, आयो भौतिक प्रकाश से जगत को दैदीप्यमान बनायें।'
मानों उस समय आजकल के भौतिकवाद के प्रकाश की ही भविष्यवाणी उन राजानों ने की थी। इस प्रकार उस दिव्य अवसर के अनुरूप अाज तक यह दीपोत्सव का त्यौहार चला आ रहा है।
भगवान महावीर के परमश्रेष्ठ लाभ की पुण्य स्मृति और पवित्रता इस त्योहार में गभित है। इस तरह महावीर और म बुद्ध के अन्तिम जोवन का वर्णन है । भगवान महावीर के दर्शन साक्षात् परमात्मा रूप में होते हैं। वस्तुत: उनका यह जीवन अनुपम था । उनके जीवन से म. बुद्ध के जीवन की तुलना करना एक निष्फल क्रिया है, परन्तु जब संसार दोनों व्यक्तियों को समानता देता है तो तुलनात्मक अध्ययन करना आवश्यक ही था।
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पारस्परकि काल निर्णय
भगवान महावीर और
बुद्ध के पारस्परिक जीवन का हम तुलनात्मक रीति से अध्ययन कर चुके हैं और हमने उसमें कहीं भी साम्यता नहीं पाई है प्रत्युत जीवन घटनाओं की विभिन्नता हो सर्वथा दृष्टि पड़ती रही है। ऐसी अवस्था में यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर और म० बुद्ध एक हो व्यक्ति न होकर दो समकालीन युगप्रवान पुरुष थे। समकालीन अवस्था में भी इनके जीवनों का पारस्परिक सभ्यन्यण. यह जानना भी पाया है परन्तु भारतीय इतिहास जितना स्पष्ट और अंधकारमय है उसको देखते हुए आज से करीब ढाई हजार वर्ष पहले हुए युग प्रधान पुरुषों के पारस्परिक जीवन सम्बन्धों का ठीक पता लगा लेना बिल्कुल सम्भव बात है तो भी जो साहित्य सामग्री उपलब्ध है । उसका प्राश्रय लेकर हम इस विषय में एक निर्णय पर पहुँचने का प्रयत्न करेंगे ।
यह हमको मालूम है कि भगवान महावीर को निर्वाण लाभ उस समय प्राप्त हुआ था जब वे करीब बहत्तर वर्ष के थे और म० बुद्ध का परिनिम्यान जैसा कि बौद्ध कहते हैं, उनकी अस्सी वर्ष की अवस्था में हुआ था। इससे यह बिल्कुल स्पष्ट है कि म० युद्ध की उमर भगवान महावीर से अधिक थी 1 अब इन दोनों युग प्रधान पुरुषों के जन्म समय में कितना अन्तर था. यह जानना है। उनका पारस्परिक जन्म अन्तर प्राप्त होने के साथ ही हमको उसकी अन्य जीवन घटनाओं का सम्वन्ध स्पष्टतः ज्ञात हो जायगा ।
इस विषय में डा० हानले साहब ने विशेष अध्ययन के उपरांत यह निर्णय प्रगट किया है कि भगवान महावीर के निर्माण लाभ के पश्चात् पांच वर्ष तक म० बुद्ध और जीवित रहे थे। इस मान्यता को मान देते हुए हमें म० बुद्ध का जन्म भगवान महावीर के जन्म से तीन वर्ष पहले हुआ प्रमाणित मिलता है। दूसरे शब्दों में डा० हानले साहब की गणना के अनुसार म० बुद्ध भगवान महावीर के जन्म के समय तीन वर्ष के थे, उनके गृह त्याग के अवसर पर वे तैतीस वर्ष के थे और जब भगवान महावीर ने अपनी करीब विद्यालीस वर्ष की अवस्था में सर्वशता प्राप्त कर चुकने पर उपदेश देना प्रारंभ किया तब वे प्रायः तालीस वर्ष के थे । इसी तरह जब म० बुद्ध ने अपनी पैंतीस वर्ष की उमर में “मध्यमार्ग" का उपदेश देना प्रारंभ किया था, तब भगवान महावीर करीब तँतीस वर्ष के थे। इस प्रकार डा० हानले की मान्यता के अनुसार इन दोनों युगप्रधान पुरुषों के पारस्परिक सम्बन्ध ज्ञात होते हैं, किन्तु इनको विशेष प्रमाणिक जानने के लिए डा० हार्वले साहब की गणना के श्रीचित्य पर भी एक दृष्टि डाल लेना आवश्यक है ।
डा० हानले साहय जो इस गणना पर पहुंचे हैं वह विशेष प्रमाणों को लिए हुए हैं। तथापि उनकी इस गणना का समर्थन ऐतिहासिक साक्षी से भी होता है। प्रो० कने सा० के मतानुसार सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार की मृत्यु उस समय हुई थी जब म बुद्ध बहत्तर वर्ष के थे धौर देवदत द्वारा जो बौद्ध सप में विच्छेद सड़ा हुआ था वह इस घटना से कुछ ही काल उपरान्त उपस्थित हुआ था। साथ ही मज्झिमनिकाय के अभय राजकुमार सुत्त से यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर को बीद्ध संघ के विच्छेद का ज्ञान था । दि० जैन शास्त्रों से भी इस व्याख्या की पुष्टि इस तरह होती है उनमें लिखा है कि सम्राट् श्रेणिक विम्बसार की मृत्यु के साथ ही कुणिक अजात शत्रु विधम मिध्यात्वी हो गया और रानी बेसना ने भगवान महावीर के समवशरण में जाकर आर्या चन्दना के निकट दीक्षा ग्रहण की। इससे यह साफ प्रगट है कि भगवान महावीर इस समय विद्यमान थे और बौद्धों के सामयग्राममुत्त और पाकिसुत से यह प्रमाणित ही है कि भगवान महावीर के निर्वाणलाभ के उपरान्त कुछ काल तक म० बुद्ध जीवित रहे थे। इसलिए वह अधिक से अधिक पांच वर्ष ही जीवित रहे होंगे। क्योंकि बौद्ध और जैन दोनों के मत से सम्राट क्षणिक विम्बसार की मृत्यु के समय भगवान महावीर मौजूद थे। और जब म० बुद्ध इस समय ७२ वर्ष के थे तो भगवान महावीर अवश्य ही करीब ६६ वर्ष के थे। इससे यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर के निर्वाणलाभ करने के बाद म० बुद्ध पांच वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहे थे।
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इसके अतिरिक्त हम म० युद्ध के बाल्यपन के विवरण में देख चुके हैं कि म० बुद्ध जो उस मुकुमार अवस्था में चार प्रकार के लक्षण धारण करते थे उनमें तीन तो जैन तीर्थकरों के चिह्न थे, परन्तु चोवा स्वयं भगवान महावीर वर्तमान का नाम या । इससे यह झलकता है कि उस समय भगवान का जन्म नहीं हुआ था। यदि जन्म हुआ होता तो उनका उल्लेख भी चिह्न रूप में होता, क्योंकि जन्म से ही तीर्थंकर भगवान के पग में यह चिह्न होता है। अतएव इससे भी म० बुद्ध का जन्म भगवान महावीर से पहले हुआ प्रमाणित होता है ।
डा० हार्नले साहब की गणना का समर्थन उस कारण को जानने से भी होता है, जिसकी वजह से म० बुद्ध के ५० से ७० वर्ष के मध्य जीवन की घटनाओं का उल्लेख नहीं के बराबर हो मिलता है। रेवरेन्द्र वामनन्ट साहब का कथन है कि यह अन्तराल प्रायः घटनामों के उल्लेख से कोरा है। अतएव इस प्रभाव का कोई कारण अवश्य होना चाहिए। अब यदि वहा भी हम डा० हार्नने साहब की उक्त गणना को मानता देवें तो यह कारण भी ज्ञात हो जाता है, क्योंकि जब भगवान महाबीर ने अपना धर्म प्रचार प्रारम्भ किया था। उस समय म० वृद्ध अपने धर्म को घोषणा कर चुके थे और अनुमानत: ४५ वर्ष के थे जैसे कि हम देख चुके हैं। अतएव पांच वर्ष के भीतर-भीतर महावीर के वस्तुस्थिति रूप उपदेश का दिगन्तव्यापी हो जाना बिल्कुल प्राकृत है इस दशा में यदि इन पांच वर्षों में म० बुद्धका प्रभाव प्रायः उठसा जाये और उनकी ५० वर्ष को उमर से 130 वर्ष तक कोई पूर्ण घटनाक्रम न मिले तो कोई आश्चर्य नहीं है। यही समय भगवान महावीर के धर्म प्रचार का था। इसलिए म० बुद्ध के जीवन के उक्त अन्तराल काल की घटनाओं के प्रभाव का कारण भगवान महावीर का सर्वज्ञावस्था में प्रचार करना ही प्रतिभाषित होता है। इस अवस्था में हमको डा० हानले साहब की उक्त गणना इस तरह भी प्रमाणित मिलती है और यह प्रायः ठीक ही है कि भगवान महावीर के निर्वाणोपरान्त म बुद्ध अधिक से अधिक पांच वर्ष और जिये थे।
किन्तु उक्त प्रकार म बुद्ध की जीवन घटनाओं के का कारण निर्दिष्ट करते हुए बद्ध शास्त्रकार के इस कथन का भी समाधान कर लेना आवश्यक है कि म० बुद्ध के धर्मोपदेश के समक्ष निर्ग्रन्थ नातपुत्त ( महावीर ) का प्रभाव क्षीण हो क्या, जो पहिले विशेष प्रभाव को लिए हुए था बौद्ध शास्त्रकार के इस कथन के समान ही जैनाचार्य ने भी यही बात भगवान महावीर के विषय में कही है कि उनमें धर्मोपदेश के उदय होते ही एकान्तमत अंधकार में विलीन हो गये। इस दशा में यह दोनों कथन एक दूसरे के विरुद्ध पड़ते हैं परन्तु उक्त प्रकार भ० बुद्ध की जीवन घटनाओं के प्रभाव का कारण भगवान महावीर का धवल धर्म प्रभाव मानते हुए हमें जैनाचार्य का कवन पाता को लिए ये मिलता है, परन्तु ऐतिहासिकता के नाते हम बौद्ध शास्त्रकार के कथन को भी एक दम नहीं भुला सकते हैं। बात वास्तव में यों मालूम देती है कि जिस समय भगवान महावीर का धर्म प्रचार होता रहा, उस समय अवश्य ही उनके प्रभाव के समक्ष रोप धर्म अपनी महता को धो बैठे जैसा कि जैनाचार्य कहते हैं और जो म० वृद्ध के सम्बन्ध में ऊपर एवं निम्न की भाँति प्रमाणित होता है, परन्तु जब भगवान महावीर का निर्वाण होने को था तब हमको मालूम है कि राजा कुणिक अजातशत्रु जैन धर्म के विमुख हो गया था। इसके जैन धर्म विमुख होने का कारण सम्राट श्रेणिक की अकाल मृत्यु और वज्जियन राज्य पर आक्रमण करना कहे जा सकते हैं, क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व सम्राट श्रेणिक मरण का कारण वनकर एवं भगवान महावीर के पितृ और मातृ कुलों पर आक्र मण करके सम्राट कुणिक प्रजातशत्रु ग्रवश्य ही जैनियों द्वारा घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा होगा। ऐसे अवसर पर बौद्ध भिक्षु देवदत्त, जिसका सम्बन्ध इनसे पहले का ही था, यदि अजातशत्रु को बौद्धनुयायी बना लें तो कोई श्रद्भुत बात नहीं है, सम्राट कुणिक अजातशत्रु के धीद्ध हो जाने से मगध और पन का राजधर्म जो पहिले जनपथावश्य ही तौद्ध धर्मी हो गया और यह भगवान महावीर के शासन प्रभावना में एक खासा धक्का था। फिर लगभग इस समय के कुछ बाद ही भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था यह हमारे ऊपर के कथन से प्रगट है। इसके साथ ही कुछ समय के उपरान्त आजीवकों के संरक्षक राजा पद्म द्वारा जैनियों का सताया जाना, श्रवश्य ही ऐसे कारण हैं, जो हमें इस बात को मानने के लिए बाध्य करते हैं कि वीर शासन का प्रभाव भगवान महावीर के उपरान्त ही किति फीका पड़ गया था और इस तरह पर बौद्धाचार्य का कचन भी ठीक बैठ जाता है। अतएव जैन और बौद्धाचायों के उपरोल्लिखित मत हमारी इस मान्यता में वायक नहीं है कि भगवान महावीर के दिव्योपदेश के कारण म० बुद्ध का प्रभाव बहुत कुछ कम हो गया था कि जिससे उनके जीवन के उस अन्तराल काल का प्रायः पूरा पता नहीं चलता। उधर भगवान महावीर के दिव्य प्रभाव को वौद्धाचार्य स्वीकार करते ही हैं । भगवान महावीर के धर्मोपदेश का विशेष प्रभाव म० वृद्ध के जीवन में बाड़ा आया था, इसका समर्थन स्वयं बौद्ध ग्रन्थों से भी होता है । देवदत्त द्वारा जो विच्छेद बौद्धसंघ में भगवान महावीर के निर्वाण काल के दो तीन वर्ष पहले ही खड़
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हया था, वह भी हमारी व्याख्या की पुष्टि करता है देवदत्त ने मा बुद्ध से भिक्षों को दैनिक क्रियाओं को अधिक संयममय बनाने को, एवं मांस भोजन की मनाई करने को कहा था । इस ही पर बौद्ध संघ में बिच्छेद खड़ा हुआ था अब यह स्पष्ट ही है कि उस समय सिवाय भगवान महाबोर के कोई प्रख्यान मतप्रवर्तक ऐसा नहीं था जिसने अहिंसा धर्म के महत्व को पूर्ण प्रगट किया हो और मांस खाने को पाप क्रिया बताई हो। बौद्धों के मांस भक्षण और साधु अवस्था में भी शिथिलता रखने के लिए जैन शास्त्रों में उन पर कटाक्ष किये गये हैं। तथापि बौद्ध संघ के इस विच्छेद के कितने ही वर्षों पहले से भगवान अहिंसा और तपस्या का उपदेश दे ही रहे थे। इस अवस्था में यह स्पष्ट है कि बौद्ध संघ में यह विच्छेद भगवान महावीर के दिव्योपदेश के कारण ही खड़ा हुआ था। इसके साथ ही बौद्धों के महावग्म से विदित होता कि इसी समय म० बुद्ध के पास एक बौद्ध भिक्ष नग्न होकर आया था और नग्नावस्था की विशेष प्रशंसा करके बौद्ध साधनों को उसे धारण करने की प्राज्ञा देने की उनसे प्रार्थना करने लगा था। यह भी हमारी व्याख्या का समर्थन करता है, क्योंकि उस समय भ० महाबीर के दिव्योपदेश से दिगम्बरता (नम्नत्व) का प्रभाव विशेष बढ़ा था और यही कारण म बुद्ध के साथ भिक्षुओं की संख्या घटने का मालूम पड़ता है। हम पूर्व परिच्छेद में देख चुके हैं कि जब म० बुद्ध अन्धकविन्द में थे। तब उनके साथ १२५० भिक्ष थे, परन्तु बौद्ध संघ विच्छेद अबसर के लगभग ही जब वे आपन से कुसीनारा को गये थे तब उनके साथ सिर्फ २५० भिक्षु रह गये थे। इससे यह स्पष्ट है कि इस समय भगवान महावीर के धर्म की मान्यता जनता में विशेष हो गई थी, जिसका प्रभाव म० बुद्ध और उनके संघ पर भी पड़ा था ।
वास्तव में जैन तीर्थकर के जीवन में केवलज्ञान (सर्वज्ञता) प्राप्त करके धर्मोपदेश देने का ही एक अवसर ऐसा है जो अनुपम और अद्भुत प्रभावशाली है। इस बात की पुष्टि प्राचीन से प्राचीन उपलब्ध जैन साहित्य से होती है। प्रतएव उक्त जो हम भगवान महावीर के इस दिव्य अवसर का दिव्य प्रभाव म. बुद्ध और उनके संघ पर पड़ा देखते हैं सो उसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं है। तीर्थकर भगवान का विहार समवसरण सहित और उनका उपदेश वैज्ञानिक ढंग पर होता है, क्योंकि वे सर्वज्ञ होते हैं, जैसे कि हम भगवान महावीर के विषय में देख चुके हैं । तथापि सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान की पुण्य प्रकृति के प्रभाव में ४०० कोस तक पहें और दुनिया आदि दूर हो जाते हैं और उनके समवसरण में मानस्तम्भ के दर्शन करते ही लोगों का मिथ्याज्ञान और मान काफूर हो जाता है। इस दशा में अवश्य ही भगवान महावीर का दिव्य प्रभाव सर्वत्र अपना कार्य कर गया होगा, जैसा कि बुद्ध ग्रन्थों से झलकता है, अतएव म बुद्ध के जीवन पर भगवान महावीर का प्रभाव पड़ा व्यक्त करना बिल्कुल युक्तियुक्त मालूम होता है। यही कारण प्रतीत होता है कि म० बुद्ध ७२ वर्ष की अवस्था में सामान्य रूप से राजगृह में प्राकर छुपकर एक कुम्हार के यहाँ रात्रि बिताते हैं।
इसके साथ ही भगवान महावीर के निर्वाण लाभ के समाचार बौद्ध संघ के लिए एक हर्ष प्रद समाचार थे, यह बौद्ध ग्रन्थ के निम्न उद्धरण से प्रमाणित है वहाँ लिखा है कि
- "पावा के चन्ड नामक व्यक्ति ने मल्लदेश के सामगाम में स्थित मानन्द को महान तीर्थकर महावीर के शरीरान्त होने की खबर दी थी । प्रानन्द ने इस घटना के महत्व को झट अनुभव कर लिया और कहा 'मित्र चन्ड' यह समाचार तथा गत के समक्ष लाने के योग्य हैं । प्रस्तु, हमें उनके पास चलकर यह खबर देना चाहिए । वे बुद्ध के पास दौड़े गये, जिन्होंने एक दीर्घ उपदेश दिया।
इस वर्णन के शब्दों में स्पष्टत. एक हर्ष भाव झलक रहा है और हर्ष तब ही होता है जब कोई बाधक वस्तु उद्देश्य मार्ग से दूर हुई हो । इसलिए इससे भी साफ प्रकट है कि भगवान महावीर के धर्म प्रचार के कारण बुद्ध देव को अवश्य ही अपने मध्य मार्ग के प्रचार में शिथिलता सहन करनी पड़ी थी और वह शिथिलता भगवान महावीर के निर्वाणासीन होते ही दूर हो गई, जैसे कि हम पहले देख चुके हैं । इस विषय में एक प्राच्यविद्याविशारद का भी वही कथन है कि भगवान महावीर के निर्वाण लाभ से माहत्मा बुद्ध और उनके मुख्य शिष्य सारीपुत्त ने अपने धर्म का प्रचार करने का विशेष लाभ उठाया था।
अतएव यह स्पष्ट होता है कि म. बुद्ध के ५० से ७० वर्ष के जीवन अन्तराल के घटनाक्रम का प्रायः न मिलना भगवान महावीर के दिव्योपदेश के कारण था इस दशा में डा० हानले साहब को उपरोल्लिखित गणना विशेष प्रमाणिक प्रतिभाषित होती है, जिसके कारण म० बुद्ध और भगवान महावीर के पारस्परिक जीवन सम्बन्ध वैसे ही सिद्ध होते है जैसे कि हम ऊपर देख चुके हैं, किन्तु बौद्ध शास्त्रों में एक स्थान पर महात्मा बुद्ध को उस समय के प्रख्यात मत प्रवर्तकों में सर्व लधु लिखा है, परन्तु उन्हीं के एक अन्य शास्त्र में म० बुद्ध इस बात का कोई स्पष्ट उत्तर देते नहीं मिलते हैं । वह वहाँ प्रश्न को टालने
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का ही प्रयत्न करते हैं । इससे यही विशेष उपयुक्त वसा होता है कि भा में पायान महावीर से सो कम से कम बुद्ध अवश्य ही बड़े थे, परन्तु एक मत प्रवर्तक की भाँति वे जरूर ही सर्व लघु थे, क्योंकि अन्य सर्व मत म० बुद्ध से पहिले के थे। इस तरह भगवान महावीर और म. बुद्ध के पारस्परिक जीवन सम्बन्ध वह ही ठीक जंचते हैं जो हम पूर्व में बतला चुके हैं।
भगवान महावीर और बुद्ध के पारस्परिक जीवन सम्बन्ध तो हमने जान लिए, परन्तु भगवान महावीर को मोक्ष लाभ मोर म० बद्ध का परिनिव्यान, जैसा कि बौद्ध कहते हैं, कब हुना यह जान लेना भी मावश्यक है। भगवान महावीर के निर्वाण काल के विषय में तीन मत पाये जाते हैं। एक के अनुसार यह घटना ईसवी सन् से ५२७ वर्ष पहले घटित हुई बतलायी जाती हैं। दूसरे के मुताबिक यह ४६८ वर्ष पहले मानी जाती है और तीसरा इसको विक्रमावद से ५५० वर्ष पहले घटित हा बतलाता है। इनमें पहले मत की मान्यता अधिक है और जैन समाज में वहीं प्रचलित है। दूसरा डा० जाल चारपेन्टियर का है जिसका समुचित प्रतिवाद मि० काशीप्रसाद जायसवाल ने प्रकट कर दिया है और वस्तुतः बौद्ध शास्त्रों के स्पष्ट उल्लेखों को देखते हए यह जी को नहीं लगता कि भगवान महावीर का निर्वाण म० बुद्ध के उपरान्त हुप्रा हो । यह हमारे पूर्व जीवन सम्बन्धी विवरण से भी बाधित है। और तीसरा मत थीयुत पं० नाथूराम जी प्रेमी का है। उनके आधार देवसेनाचार्य और अमितगत्याचार्य के उल्लेख हैं, जिनमें समय को निर्दिष्ट करते हुए विनाम नप की मृत्यु से ऐसा उल्लेख किया गया है। इसके विषय में जैन विद्वान पं० युगलकिशोर जी लिखते हैं कि यद्यपि, विक्रम की मृत्यु के बाद प्रजा के द्वारा उसका मत्यु संबत प्रचलित किये जाने की बात जी को कुछ कम लगती है, और यह हो सकता है कि अमितगति प्रादि को उसे मत्यु संवत समझने में कुछ गलती हुई हो, फिर भी उल्लेखों से इतना तो स्पष्ट है कि प्रमी जी का यह मत नया नहीं है-आज से हजार वर्ष पहले भी उस मत को मानने वाले मौजूद थे और उनमें देवसेन तथा अमितगति जसे आचार्य भी शामिल थे। इतना होते हुए भी हमें उपरोक्त जीवन सम्बन्ध विवरण को देखते हुए मुख्तार साहब से सहमत होना पड़ता है । इसके साथ ही यह दृष्टव्य है कि त्रिलोक प्रज्ञप्ति में जहां अन्य मत बीर निर्वाण संवत् में बतलाये गये हैं, वहीं इसका उल्लेख नहीं है। इस अवस्था में देवसेनाचार्य और अमितगति प्राचार्य ने भूल से ऐसा उल्लेख किया हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। जिस प्रकार हमने म० बद्ध और भगवान महावीर का सम्बन्ध स्थापित किया है, उसको देखते हुए यही ठीक प्रतीत होता है। अब रहा केवल प्रथम मत जो प्रायः सर्वमान्य और प्रचलित है। इस मत की पुष्टि में निम्न प्रमाण बतलाये जाते हैं
(१) रातरि चदुसदगुत्तो तिणकाला विक्कमो हवइ जम्मो।
अठबरस बाललीला सोडसवासेहि भीम्मए देसे ॥१८॥ यह नन्दि संध की दूसरी पट्टावली की एक गाथा है, और विक्रम प्रबन्ध में भी पायी जाती है (जैन सिद्धान्तभाष्कर किरण ४ पृ०७५)
(२) णिध्वाणे वीरजिणे छठवाससदेसु पंचबरिसेसु ।
पणमासेसु गदेसु संजादो संगणियो अहवा ।।१।। __ यह गाथा आज से करीब १५०० वर्ष पहले की रची हुई 'तिलोयपण्णत्ति' की गाथा है और इसमें वीर निर्वाण प्राप्ति से ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शक राजा हुआ ऐसा उल्लेख है।
(३) पण छस्सयवस्सं पणमास जुदं गमिय वीरणिध्वुइदो ।
सगराजो तो कक्की चदुनवत्तियमहिय सगमास ।।८५०।। यह त्रिलोकसार की गाथा है और इसमें 'तिलोयपण्णत्ति' को उपरोक्त गाथा की भांति वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शक राजा का और ३६४ वर्ष ७ महीने बाद कल्कि का होना बतलाया है। (४) आर्य विद्यासुधाकर में भी लिखा है
ततः कलिनात्र खंडे भारते विक्रमात्पुरा । स्वमुन्यं वोधि विमते वर्षे विराजयो नरः ।।१।।
प्राचारज्जैन धर्म बौद्धधर्मसमप्रभम् ।। (५) सरस्वती गच्छ की भूमिका में भी स्पष्ट रूप से वीर निर्वाण ४७० वर्ष बाद विक्रम का जन्म होना लिखा है, यथा-बहुरि श्री वीर स्वामी को मुक्ति गये पीछे च्यारसंसत्तर ४७० बर्ष गये पीछे श्री सन्महाराज विक्रम राजा का जन्म भया ।
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(६) नेमिचन्द्राचार्य के महाबीर चरिय (देखो, भारत के प्राचीन राजवंश भा०२१-४२) में भी महावीर स्वामी से ६०५ वर्ष ५ मास उपरान्त शक राजा का होना लिखा है।
यहाँ नं. १ और नं. ५ के प्रमाणों में बिल्कुल स्पष्ट रीति से वीर निर्वाण के ४७० वर्ष उपरान्त विक्रम का जन्म होना लिखा है । और यह ज्ञात ही है कि वीर निर्वाण ५२७ वर्ष पहले जो ईसा से माना जाता है यह वीर निर्वाण से ४७० वर्ष बाद नप बिक्रम का सवत् राज्यारोहण मानने से उपलब्ध हुया है क्योंकि यह प्रमाणित है कि नप विक्रम का उनके १८ वर्ष को अबस्था में राज्यारोहण से प्रारम्भ होता है । इस अवस्था में स्वीकृत निर्माणकाल' में १८ वर्ष जोड़ना आवश्यक ठहरता है, क्योंकि उक्त गाथाओं में स्पष्ट रीति से वीर निर्माण से ४७० वर्ष बाद विक्रम का जन्म हुआ लिखा है। इस तरह पर प्रचलित वोर निर्वाण सम्बत् शुद्ध रूप में ईसा से पूर्व ५४५ वर्ष (५२७+ १८) मानना चाहिए। इस ही मत को श्रीयुत काशीप्रसाद जायसवाल और प० विहारीलाल जी बुलन्दशहरो प्रमाणित बतलाते हैं। जैन दर्शन दिवाकर डा० जैकोबी भी इस मत को स्वीकार करते प्रतीत होते हैं, जैसा उनके उस पत्र से प्रकट है जो उन्होंने हमको लिखा था और जो बीर वर्ष २ पृष्ठ ७८-७६ में प्रकाशित हुया है। इसके साथ ही अन्य प्रमाणों में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। ऐसी अवस्था में यदि शक राजा का जन्म भी ६०५ वर्ष ५ महीने बाद वार निर्वाण से माना जाये तो कुछ असगतता नजर नहीं आती। इस दशा में वोर निर्वाण ईसा से पूर्व ५२७ वर्ष पहलं मानने का शुद्ध रूप २४५ वर्ष पहले मानना उचित प्रतीत होता है। वह निर्वाण काल हमारे उक्त पारस्परिक जावन सम्बन्ध से भो ठीक बैठ जाता है, क्योंकि सिंहलबौद्धों की मानता के अनुसार म० बुद्ध का परिनिवान ईसा से पूर्व ५४३ वर्ष में घटित हुआ था । बौद्धों की इस मान्यता को लेकर विशेष गवेपणा के साथ आधुनिक विद्वानों ने इसका शुद्ध रूप ईसा से पूर्व ४८७ बाँ वर्ष बतलाया है, किन्तु खण्डागार की हाथी गुफा से जो सम्राट खारवेल का शिलालेख मिला है उससे बौद्धों को उक्त मान्यता का पूरा समर्थन हाता है। इस दशा में भगवान महावीर का निर्वाण काल ईसा से पूर्व ५४५ वर्ष पूर्व मानने से और म० बुद्ध का परिनिध्वान ईसा से पहले ५४३ बे वर्ष में हुमा स्वीकार करने से हमारे उक्त जीवन सम्बन्ध निर्णय से प्रायः सामन्जस्य ही बैठ जाता है। क्योंकि स्वय दौद्धों के कथन से प्रमाणित है कि म. बुद्ध भगवान महावीर के पहले ही अपने को स्वयं बुद्ध मानकर उपदेश देने लगे थे। संयुक्त निकाय में (भाग ११-६८) में स्पष्ट कहा है कि बद्ध अपने को सम्भासंबद्ध कैसे कहने लगे जव निग्रन्थ नाथपुत्त अपने को वैसे ही नहीं कहते हैं। इससे स्पष्ट है कि हमारी पूर्वोक्त मान्यता के अनुसार म० वुद्ध भगवान महावीर के धर्मोपदेश देने के पहले ही उपदेश देने लगे थे और इस तरह पूर्वोल्लिखित पारस्परिक सम्बन्ध ठीक है। हाँ, एक दो वर्ष का अन्तर गणना की अद्धि के कारण रहा कहा जा सकता है। अतएव अाजकल भगवान महावीर का निर्वाण संवत् २४६६ वर्ष मानना विशेष युक्ति संगत है।
हिन्दी विश्वकोष के निम्न कथन से भी यही प्रमाणित है। वहाँ (भाग २ पृष्ठ ३५०) पर लिखा है कि तोत्थ. गलियययन्न' और 'तीर्थोद्वार प्रकीर्ण' नामक प्राचीन जन शास्त्र के मत से जिस रात को तीर्थकर महाबीर स्वामो ने सिद्धि पायी, उसी रात को पालक राजा अवन्ती के सिंहासन पर बैठे थे 1 पालकवंश ६०, उसके बाद नंदवंश १५५, मर्यवंश पूण मित्र ३० बलभित्र एवं भानुमित्र ६०, नरसेन नरवाहन ४०, गर्दभिल्ल १३ और शवराज ने ४ वर्ष राज्य किया। महावीर स्वामी के परिनिर्वाण से शकराज के अभ्युदयकाल पर्यन्त ४७० वर्ष बोते थे। इधर सरम्वनी गच्छ को पटावलो से देखते, कि विक्रम ने उक्त शकराज को हराया सही, किन्तु सोहल वर्ष तक राज्याभिषिक्त न हुए । उक्त सरस्वतो गच्छ की गाथामें स्पष्ट लिखा है-वीरात ४६२, बिक्रमजन्मान्त वर्ष २२, राज्यान्त वर्ष ४ अर्थात् गकराज के ४७० और विक्रमाभि काब्द के ४८८ अर्थात् सन् ई० से ५४५-४ वर्ष पहले महावीर स्वामी को मोक्ष मिला था। अतएव वही समय निर्वाण काल का ठीक जंचता है।
इस प्रकार म० बुद्ध और भगवान महावीर की जीवन घटनाओं का तुलनात्मक रीति से अध्ययन करने पर हमने उनकी पारस्परिक विभिन्नता को विल्कुल स्पष्ट कर दिया है और जब हम सुगमता से उनके भिन्न व्यक्तित्व एवं ममकालान सम्बन्धों के विषय में एक निश्चित मत स्थिर कर सकते हैं। इस विवेचन के पाठ से पाठकों को उस मिथ्या मान्यता को प्रसारता भी ज्ञात हो जायेगी जो इस उम्नलशील जमाने में भी कहीं-कहीं घर किये हुए है कि जैन धर्म की उत्पत्ति बौद्ध धर्म से हुई थी अथवा म० बुद्ध और भगवान महावीर एक व्यक्ति थे। .
यद्यपि यहाँ तक के विवेचन से हम मा बुद्ध और भगवान महावीर के पारस्परिक जीवन सम्बन्धों का दिग्दर्शन
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कर चुके हैं, परन्तु इससे दोनों युग प्रधान पुरुषों ने जो शिक्षा जन साधारण को दी थी, उसका पूरा पता नहीं चलता है, इसलिये अगाड़ी के पृष्ठों में हम जैन धर्म और बौद्ध धर्म का भी सामान्य दिग्दर्शन करेंगे।
भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध का धर्म म. बुद्ध ने किस धर्म का निरूपण किया था, जब हम यह जानने की कोशिश करते हैं तो उनके जीवनक्रम पर ध्यान देने से असलियत को पा जाते हैं। वस्तुतः म० बुद्ध का उद्देश्य आवश्यक सुधार को सिरजने का था 1 इसलिए प्रारम्भ में उनका कोई नियमित धर्म नहीं था और न उन्होंने किसी व्यवस्थित धर्म का प्रतिपादन किया था, किन्तु अपने सुधारक्रम में उन्होंने पावश्यकतानुसार जिन सिद्धान्तों को स्वीकार किया था, उनका किंचित् दिग्दर्शन हम यहाँ करेंगे।
सर्वप्रथम उनके धर्म के विषय में पूछते ही हमें बतलाया जाता है कि यह प्रकृति के नियमों को बतलाता है, मनुष्य का शरीर नाश के नियम के पल्ले पड़ता है, यही बुद्ध का प्रनित्यबाद है। जो कुछ अस्तित्व में ग्राता है उसका नाश होना अवश्यम्भावी है। भगवान महावीर ने भी धर्म का वास्तविक रूप वस्तुओं का प्राकुतिक स्वरूप ही बतलाया था। कहा था, "बस्तु स्वभाब ही धर्म है।" और इस तरह जाहिरा यहां पर दोनों मान्यतामों में साम्यता नजर पड़ती है, परन्तु यथार्थ में उनका भाव एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत है। म. बुद्ध के हाथों से इस सिद्धान्त को वह न्याय नहीं मिला जो उसे भगवान महाबोर के निकट प्राप्त था। इसी कारण बौद्धदर्शन का अध्ययन करके सत्य के नाते विद्वानों को यही कहना पड़ा है कि बद्ध के सैद्धान्तिक विवेचन में व्यवस्था और पूर्णता दोनों की कमी है। बुद्ध के निकट सैद्धान्तिक विवेचन संसार दुःख का कारण था ऐसी दशा में इन प्रश्नों का वैज्ञानिक उत्तर मबद्ध से पाना नितान्त असम्भव है। इन प्रश्नों को उन्होंने अनिश्चित वातें ठहराया था। जब उनसे पूछा गया कि :
क्या लोक नित्य है ? ___ क्या यही सत्य है और सव मत मिथ्या हैं। उन्होंने स्पष्ट रीति से उत्तर दिया कि "हे पोत्थपाद, यह वह विषय है जिस पर मैंने अपना मन प्रकट नहीं किया है ।" तब फिर इसी तरह पोत्थपाद ने उनसे यह प्रश्न किये । (२) क्या लोक नित्य नहीं है। (३) क्या लोक नियमित है? (४) क्या लोक अनन्त है ? (५) क्या प्रात्मा वही है जो शरीर है ? (६) क्या शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है ? (७) क्या वह जिसने सत्य को जान लिया है मरणोपरान्त जीवित रहता है? (5) अथवा बह जीवित नहीं रहता है। (8) अथवा वह जीवित भी रहता है और नहीं भी रहता है ? (१०) अथवा वह न जीवित रहता है और वह नहीं जीवित रहता है ? और इन सबका उत्तर म० बुद्ध ने वही दिया जो उन्होंने प्रथम प्रश्न के उत्तर में दिया था। इस परिस्थिति में यह स्पष्ट अनुभव गम्य है कि म बुद्ध ने सैद्धान्तिक विवेचन की प्रारम्भिक बातों का स्थापन प्रकृति के नियमों के रूप में पूर्ण रीति से नहीं किया था जैसा कि बतलाया जाता है। भगवान महावीर के विषय में हम अगाडी देखगे ।
अतएव जब कभी म. बद्ध के निकट ऐसी अवस्था उपस्थित हुई तो उनने उसका समाधान कुछ भी नहीं किया। बोट दर्शन के विद्वान डा. कीथ वद्ध की इस परिस्थिति को बिल्कुल उचित बतलाते हैं। वह कहते हैं कि बुद्ध ने पहले ही कह दिया था कि वह अपने शिष्यों को इन विषयों में शिक्षा नहीं देंगे। म बुद्ध एक ऐसे हकीम है, जो ऐसी शिक्षा देते हैं जिससे शिष्य का वर्तमान जीवन सुखमय बने, किन्तु वास्तव में इन बातों को अस्पष्ट छोड़ देने से बुद्ध ने लोगों को अपने मनोकल निर्णय को मानने की स्वतन्त्रता दी है और यह क्रिया एक 'माध्यमिक के सर्वथा योग्य थी।
ऐसा प्रतिभापित होता है कि बद्ध ने बस्तुमों के स्वभाव पर केवल उनकी सांसारिक अवस्था के अनुसार दुष्टिपात किया था। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि लोक में कोई भी नित्य पदार्थ नहीं हैं पीरन ऐसे ही पदार्थ हैं जिनका सर्वथा नारा हो जाता है, प्रत्युत समस्त लोक एक घटनाक्रम है, कोई भी वस्तु किसी समय में यथार्थ नहीं हो सकती। इसलिए ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो प्रात्मा हो । शरीर (रूप) आत्मा से उसी तरह रहित है जिस तरह गंगा नदी में उतराता हुआ फेन का बदला है। (संयुक्त निकाय ३-१४०) परन्तु विस्मय है कि बुद्ध ने एकान्तवाद-अनित्यता का भी निरूपण पूरी तरह नहीं किया है। तो भी
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यह बतलाया गया है कि चार पदार्थ हैं (१) पृथ्वी, (२) अग्नि, (३) वायु और (४) जल । पाकाश भी कभी २ गिन लिया जाता है। किन्तु म० बुद्ध ने उनको किस ढंग से स्वीकार किया था यह ज्ञात नहीं है। केवल यह प्रगट है कि प्रत्येक पौद्गलिक पदार्थ एक मिश्रण है, जो शरीर की तरह किसी समय तक बना रहेगा, परन्तु अन्त में नष्ट हो जावेगा। पदार्थ अनित्य हैं। प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में वे क्षणिक स्वीकृत नहीं हैं। यह उपरान्स का सुधार है।
विशेषकर बद्ध के निकट लोक केवल अनुभव का एक पदार्थ था। उन्होंने इसकी नित्यता और अनन्तता के सम्बन्ध में कुछ कहने से साफ इन्कार कर दिया था, किन्तु इतने पर भी यह स्पष्ट है कि म० बुद्ध ने जो उक्त चार पदार्थों को स्वीकार किया था सो उसमें उन्होंने यथार्थ वाद को अन्ततः गौण रूप में स्वीकार ही किया था। इससे उनके विवेचन को अनियमितता भी प्रकट है। उक्त चार पदार्थों के अतिरिक्त बुद्ध ने उनके साथ निर्वाण और विज्ञान की गणना करके अपना सैद्धान्तिक मत छ: तत्वों पर प्रारम्भ किया था । विज्ञान में दुःख और सुख को अनुभव करने का भाव गर्भित था। यह सब पदार्थ नित्य ही थे और इन ही के पारस्परिक सम्बन्ध से संसार का अस्तित्व बतलाया था ।
इस सिद्धान्त विवेचन में बुद्ध से प्राचीन मतों का प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होता है। इनमें मुख्यतः ब्राह्मण और जैन धर्म का प्रभाव दृष्टव्य है। जो चार पदार्थ म. बुद्ध ने स्वीकार किये हैं बह ब्राह्मण धर्म में पहले से ही स्वीकृत थे इसलिए वह उहोंने वहां के लिए उन्होंने उनको जिस ढंग से प्रतिपादित किया है वह जैन धर्म की लोकमान्यता से मिलता जुलता है। जैनियों के अनुसार भी छह द्रव्योंकर युक्त यह लोक है परन्तु वह छह द्रव्य महात्मा बुद्ध द्वारा स्वीकृन ६ तत्वों से बिल्कुल भिन्न थे जैसे हम अगाडी देखेंगे। इसके अतिरिक्त बुद्ध ने जो धर्म की व्याख्या को थी वह भी सामान्यतया जैन व्याख्या से मिलती जुलती थी, जैसे कि हम देख चुके हैं। फिर बुद्ध ने जो उसक दो भेद आभ्यन्तिरिक (अज्झत्तिक) और बाह्य (बाहर) किये थे, वह भी सामान्यतः जैन सिद्धान्त के निश्चय और व्यवहार धर्म के समान है। किन्तु फर्क यहाँ भी विशेष मौजद है, क्योंकि बौद्धों के निकट इनका सम्बन्ध सिर्फ बाह्य जगत और मानसिक सम्बन्धों से है, और जैन सिद्धान्त में इनके अलावा पदार्थ के वास्तविक स्वरूप से भी यह सम्बन्धित है। इससे यह साफ प्रगट है कि म. बद्ध ने केवल जैनियों के व्यवहार धर्म का किचित पाश्रय लेकर अपने सिद्धान्तों का निरूपण किया था इसलिए जैन शास्त्रों में म. बुद्ध धर्म की गणना एकान्तवाद में को गई है। श्री गोम्मटसारजी का निम्न इलोक यही प्रगट करता है :
एयंत बुद्धदरसी विवरीयो वंभ तावसो विणयो।
इंदो वि य संसइप्रो मक्कडियो चेव अण्णाणी ।। इसमें बौद्ध को एकान्तवादी, ब्रह्म या ब्राह्मणों को विपरीत मत, तापसों को बैनयिक, इंद्र को सांशयिक और मंखलि या मस्करी को प्रशानी बतलाया है। किन्तु श्वेताम्बर ग्रन्थों में बौद्ध धर्म को प्रक्रियावादी लिखा है, जो स्वयं यौद्धों के शास्त्रों के उस्लेखों से प्रमाणित है। यहां पर श्वेताम्बराचार्य बौद्धों के अनात्मबाद को लक्ष्य करतो ऐसा लिखते हैं, जबकि दिगम्बराचार्य उनके सैद्धान्तिक विवेचन को पूर्णत: लक्ष्य करके उसे एकान्तवादी ठहराते हैं। अक्रियावाद एकान्त मत का एक भेद है। स्वयं दिगम्बर जैनों की तत्वार्थ राजवातिक (८1१1१०) में बौद्ध धर्म के मुख्य प्रेणता मौदंगलायन का उल्लेख प्रक्रियावादियों में किया गया है।
पाइए अब जरा भगवान महावीर के धर्म पर भी एक दृष्टि डाल लें। उन्होंने जिस प्रकार धर्म की व्याख्या की थी, उसी के अनुसार समस्त सत्तावान पदार्थों के विषय में सनातन सत्य का निरूपण किया। उन्होंने कहा कि यह लोक प्रारम्भ और अन्त रहित अनादि निधन है। यह द्रव्यों का लीलाक्षेत्र है, जो द्रव्य अनादि से सत्ता में विद्यमान हैं और अनंतकाल तक वैसे ही रहेंगे। इस तरह इस लोक में न किसी नवीन पदार्थ की सष्टि होती है और न किसी का सर्वथा नाश होता है। केवल द्रव्यों की पर्यायों में उलट फेर होती रहती है, जिससे लोक की खास अवस्था का जन्म अस्तित्व और नाश होता रहता है। इस कार्य कारण सिद्धान्त में इस प्रकार किसी एक सर्व शक्तिवान कर्ता-हर्ता की आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः एक प्रधान व्यक्ति के ऊपर संसार का सर्व भार डालकर स्वयं निश्चिन्त हो जाना कुछ सैद्धान्तिकता प्रकट नहीं करता। संसार का रक्षक होकर संसारी जीव पर वथा ही दुःखों के पहाड़ उलटना कोई भी बुद्धिमान स्वीकार नहीं करेगा। सचमुच सांसारिक कार्यों को अपने जुम्मे लेकर वह ईश्वर स्वयं राग और द्वेष का पिटारा बन जाएगा और इस दशा में वह सांसारिक मनुष्य से भी अधिक बन्धनों में बंध जाएगा। इस अवस्था में ईश्वर को अनादि निधन मानने के स्थान पर स्वयं लोक को ही अनादि निधन मान लेने से यह झंझटें कुछ भी सामने नहीं पाती हैं। बरतुत: भारतीय षदर्शनों का सूक्ष्म अध्ययन करने से उनमें भी एक कर्ताहता ईश्वर की मान्यता के
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कहीं दर्शन नहीं होते। ऐसा प्रतीत होता है कि यह उपरान्त के भीरू और पालसी मनुष्यों की रचना ही है जो परावलम्वी रहने में ही आनन्द मानते हैं ।
इस प्रकार लोक को अनादि निधन प्रकट करके भगवान महावीर ने इस लोक में मुख्य दो द्रव्य ( १ ) जीव और (२) सजीव बतलाये हैं। जीव वह पदार्थ बतलाया जो उपयोग और चेतनामय हो और सजीव वह सब पदार्थ हैं जो इन लक्षणों से रहित हो। यह द्रव्य पांच प्रकार का है (१) पुद्गल, (२) आकाश, (३) काल, (४) धर्म और (५) अधर्म । अतएव भगवान महावीर के अनुसार इस लोक में कुल छः द्रव्य है। इन छह के विशद विवरण से जैन शास्त्र भरे हुए हैं, किन्तु यहाँ पर संक्षेप में विचार करने से हम उनका स्वरूप इस तरह पाते हैं। इनमें (१) आत्मा या जीव एक उपयोग मई अपोद्गलिक, अरूपी और अनन्त पदार्थ हैं (२) पुद्गल एक पौद्गलिक रूपी पदार्थ है, जो स्वर्ण, रस, गंध, वर्ण कर संयुक्त हैं, इसके परमाणु और स्कंध भी अनन्त और विभिन्न हैं, किन्तु संख्यात और असंख्यात रूप में भी मिलते हैं (३) आकाश एक समूचा अनन्त, अमृतोंक और श्रविभाजनीय पदार्थ है । यह सर्व पदार्थों को अवकाश देता है और दो भागों में विभाजित है अर्थात लोकाकाश और लोकाकाश, यह इसके दो भेद है और वह धर्म धर्म द्रव्यों के कारण है। जहां तक ये द्रव्य हैं यहीं तक लोकाकाश है, इसी के भीतर जीव अजीव पदार्थ फिरते हैं (४) काल समूर्तिक और स्थिर द्रव्य है, यह क्यों और उनकी पर्यायों में स्वान्तर उपस्थित करने में एक परोक्ष कारण है। यह कालाजु संख्यात हैं और समस्त लोक इनसे भरा पड़ा है (५) धर्म वह बमूर्तीक द्रव्य है जो लोक के समान व्यापक है मीर जीव अजीब के गमन में उसी तरह सहायक है जिस तरह मछली को जल नलने में सहायक है और (६) अन्तिम अधर्म द्रव्य भी प्रमूर्तीक और सर्वलोकव्यापक है । इसका कार्य द्रव्यों को विश्राम देना है।
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इनमें केवल जीव और पुद्गल ही मुख्य हैं, शेष द्रव्य उनके अनुगामी हैं। इनके मुख्य चार कर्तव्य हैं, अर्थात् वे प्राकाश में स्थान ग्रहण करते हैं, परावर्तन होते हैं और चलते वा स्थिर रहते हैं। प्रत्येक कार्य में दो कारण होते हैं. एक मुख्य उपादान कारण और दूसरा सामान्य निमित्त कारण । सोने की अंगूठी में मुख्य उपादान कारण सोना है, परन्तु उसके सामान्य निर्मित कारण पनि सुनार, औजार आदि कई हैं। इसलिए जीव और संजीव के उन चार कर्तव्यों का मुख्य कारण स्वयं जो घोर जीव है, और सामान्य कारण उपरलिखित श्रेय भारद्रव्य है। इस प्रकार यह लोक कृत्रिम और दवाइयों कर पूर्ण है और इसमें जो कुछ पर्यायें और दशायें उपस्थित होती है यह इन जीव एवं अजीव की पर्यायों के कारण होता हैं जो शेष चार द्रव्यों के साथ हर समय काशील रहती हैं।
इतना जान लेने पर हम भगवान महावीर और म बुद्ध की प्रारम्भिक शिक्षाओं का विशद अन्तर देखने में समर्थ हैं। यद्यपि म० बुद्ध ने अपने सिद्धान्तों को जिस ढंग और क्रम से स्थापित किया है वह जाहिरा भ० महावीर के धर्म निरूपण ढंग से सादृश्यता रखता है, किन्तु इतने पर भी वह भ० महाबीर के ढंग के समान नहीं है। वह अनात्मवाद पर अवलंबित है और स्वयं परिपूर्ण है, परन्तु भगवान महावीर ने उसी सनातन धर्म का प्रतिवान किया था, जिसको उनके पूर्वगामी तीर्थकरों ने वस्तुस्थिति के अनुरूप में बतलाया था, और जिसमें धारमा की मान्यता सर्वाभिमुख थी। सर्वज्ञ तीपंकर द्वारा प्रतिपादित 'हुश्र धर्म किसी दृष्टि में भी अपरिपूर्ण नहीं होता । यही दशा भगवान महावीर के धर्म के विषय में है ।
म० बुद्ध ने अपने सैद्धान्तिक विवेचन में "सांखार" मुख्य बतलाये थे, किन्तु उनका भी एक स्पष्ट रूप नहीं मिलता है । तो भी स्पष्ट है कि जैन सिद्धान्त में वह कहीं नहीं मिलते हैं। अतएव यह वस्तुतः सांख्य दर्शन के संस्कार सिद्धान्त के रूपान्तर ही हैं और प्रायः वहीं से लिए गए प्रतीत होते हैं। इन सांखारों की उत्पत्ति म बद्ध ने चार बातों को अज्ञानता पर प्रवतस्थित बताई है, अर्थात् दुःख उसके मूल उसके नाम पर मार्ग की अजानकारी ही संखारों को जन्मदात्री है। यह संखार मुख्यतः मन, वचन, काय रूप में विभाजित हैं। यदि एक भिक्षु यह निदान बांबे की मैं मृत्यु उपरान्त अमुक कुल में उत्पन्न होऊं तो वह अपने इस तरह के बांधे हुए संसार के कारण सवय ही उस कुल में जन्म लेना। किन्तु डा० को साहब इस मत से सहमत नहीं है । वे कहते हैं कि दूसरा जन्म केवल मानसिक निदान के बल पर नहीं हो सकता। यह सिद्धान्त स्वयं बौद्ध शास्त्रों के कथन से बिलग पड़ता है । बौद्ध शास्त्रों से यह ज्ञात है कि जब शरीर विद्यमान होता है तब ही शारीरिक या कायिक संखार बांधा जा सकता है इसलिए आगामी के लिए संसार बांधना मुश्किल है। तिस पर यह बात भी ध्यान में रखने को है कि बुद्ध ने जिन पांच खण्डों या स्कन्धों का समुदाय व्यक्ति बतलाया है उनमें एक खण्ड संखार भी है। इस अवस्था में संखार का भाव अलग निदान बांधने का नहीं हो सकता। इसलिए डा० कोसाहद भावों को हो संसार बतलाते है, जो सांख्यदर्शन के संस्कार के समान ही है, जिनका व्यवहार वहां पर पहले विचारों और कार्यों द्वारा छोड़े गये संस्कारों के प्रभावफल के रूप में
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हमा है। म० बद्ध के बताये हए जाहिरा कार्य-कारण लड़ी में इन संखारों त्री मुख्यता इसी रूप में मौजूद है। इन्हीं संखारों की प्रधानता को लक्ष्य करते हुए म० बुद्ध ने अपनी कार्य-कारण लड़ी का निरूपण इस तरह किया है
"प्रज्ञान से संस्कार की उत्पत्ति होती है, इससे विज्ञान की, जिससे नाम श्रीर भौतिक देह उत्पन्न होती फिर नाम प्रौर भौतिक देह में षट्-क्षेत्र की सृष्टि होती है जो इन्द्रियों और विपयों को जन्म देती है। इन इन्द्रियों और उनके विषयों के प्रापसी संघर्ष से वेदना उत्पन्न होती है बेदना से तृष्णा होती है, जिससे उपादान पैदा होता है, जो भव का कारण है। भव से जन्म होता है। जन्म से बुढ़ापा, मरण, दुःरन, अनुसोचन, यातना, उद्वेग और नैरास्य उत्पन्न होते हैं। इस तरह दुःख का साम्राज्य बढ़ता है।"
इस विवरण से हमें म० बुद्ध का संसार प्रवाह जाहिरा कार्य कारण के सिद्धान्त पर प्रवलम्बित नजर आता है । इसी कारण उसके अनुसार भी संसार में सनातन और अविच्छन्न प्रवाह मिलते हैं। इस अवस्था में यह जैन सिद्धान्त में स्वीकृत जन्म-मरण सिद्धान्त का रूपान्तर ही है। इनमें जो भेद है वह यहीं है कि बौद्धों के अनुसार प्रारम्भ में सर्व कुछ अज्ञान हो था। जैन सिद्धान्त में संसार परिभ्रमण सिद्धान्त का प्रारम्भ माना ही नहीं गया है। वह वहाँ अनादि निधन है। इस तरह बुद्ध का संसार प्रवाह मूल से ही जैन सिद्धान्त के बिरुद्ध है।
. म० बुद्ध के उक्त विवरण में यदि हम यह जानने की कोशिश करें कि जन्म किसका होता है, तो हमें निराशा ही हाय पाएगी, क्योंकि आत्मा का अस्तित्व म० बुद्ध ने स्वीकार ही नहीं किया था। यद्यपि इस विषय में लोगों को अपनी मर्जी के मताबिक श्रद्धान बांधने की भी छुट्टी म बद्ध ने दे दी थी, जिससे बौद्ध शास्त्रों में भी आत्मवाद की झलक कहीं-कहीं दिखाई पड़ जाती है, परन्तु उन्होंने स्वयं यात्मवाद को ही प्रधानता दी थी। अभिधर्म का निरूपण करते हग बुद्ध ने यही कहा था किन कोई प्रात्मा है, न पुदगल है, न सत्य है और न जीव है।" यहां केवल ब्राह्मण सिद्धान्त में माने हुए आत्मा का ही खड़न नहीं है, बल्कि उस सिद्धान्त का भी जो शरीर से भिन्न एक जीवित पदार्थ मानकर मसार परिभ्रमण को घोषणा करता है। उनके अनुसार मनुष्य पांच स्कन्धों का समुदाय है, अर्थात् रूप संज्ञा, वेदना, संस्कार और विज्ञान । मनुष्य का वर्णन उसके उन भागों के वर्णन में किया गया है जिससे वह वना है और उसकी समानता एव. रथ से की है जो विविध अवयवों का बना, हा है और स्वयं उसका ब्यक्तित्व' कुछ नहीं है। यह मान्यता बद्ध के उपरान्त उनकी हीनयान सम्प्रदाय को अब भी मान्य है किन्तु महायान सम्प्रदाय इससे अगाडी बढ़कर पदाथों के अस्तित्व से ही इन्कार करता है। उसके निकट सब शून्य है, यह उपरान्त का सुधार है। म बद्ध के निकट तो अनित्यवाद ही मान्य था। इस अवस्था में इस प्रश्न या संतोषजनक उत्तर पाना कठिन है कि जन्म किसका होता है?
म. बद्ध ने इस प्रश्न को अधुरा ही छोड़ दिया है। परन्तु जो कुछ उन्होंने कहा है उसका भाव यही है कि एक व्यक्ति जन्म लेता है और यह व्यक्ति केवल पांच बस्तुओं का समदाय है जिनको हम देख चुके । इससे यह व्यक्ति कोई सनातन नित्य पदार्थ नहीं माना जा सकता। सत्ता तो वह है ही नहीं। जिस प्रकार सब अवययों के पहले से मौजद रहने के कारण शब्द 'रथ' कहा जाता है वैसे ही जब उपरोहिलखित पाँच वस्तूय एकत्रित हई तब बद्ध ने "व्यक्ति" शब्द का उच्चारण किया। यह बौद्धों की मान्यता है और इससे हमारा प्रश्न हल नहीं होता, क्योंकि जिन पांचस्कन्धों का समुदाय व्यक्ति बताया गया है वह उस व्यक्ति के साथ ही खत्म हो जाते हैं।
अगाडी इसी कार्य कारण लड़ी के अनुसार कहा गया है कि पर्यायावस्था चाल रहती है और वस्तुतः यहाँ सिवाय पर्यायान्तरित होने के कोई व्यक्ति है ही नहीं। इस पर्यायावस्था में पुरानी और नवीन पर्याय का सम्बन्ध चाल रखने के लिए, महानिदान, सूत्र में, माता के गर्भ में विज्ञान का उतरना बतलाया है। डा० कोथ इस मत को स्वीकार करने हैं और कहते हैं कि इस बक्तव्य-विशेषण से कि विज्ञान का उतराव होता है विज्ञान का पुरानी पर्याय से नवीन में जाना बिल्कुल स्पष्ट है और यह संभव है कि यह विज्ञान किसो प्रकार के शरीर सहित होता हो । म बुद्ध विज्ञान के चाल रहने से बिल्कुल सहमत हैं । इस प्रकार यद्यपि म० बुद्ध ने एक नित्य सत्तात्मक व्यक्ति का अस्तित्व स्वीकार किये बिना ही अपना सिद्धान्त निरूपित करना चाहा और संज्ञा की उत्पत्ति अपने आप पांच स्कन्धों में होती स्वीकार को, जिस तरह सांस्वदर्शन ने बतलाया है, परन्तु अंतत: उनको पर्यायप्रवाह में संज्ञा विज्ञान का चालू रहना मानना ही पड़ा। इस तरह इस निरूपण की कोताई साफ जाहिर है। भला बिना किसी सत्तात्मक नित्य नींब के सांसारिक पर्यायों का किला कैसे बांधा जा सकता है? किन्तु इस निरूपण में भी जैन सिद्धान्त की झिलमिली झलक नजर पड़ रही है। जैनियों के अनुसार इच्छा ही कर्म बंध की कारण है, जिसका मल श्रोत कर्म जनित मोहावस्था में है। इसलिए सत्तात्मक व्यक्ति (जीव)-जिसका लक्षण उपयोग संज्ञा है, इस अवस्था में सांसारिक दुःख और
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पोड़ा को भुनतता संमार में रुलता है। इस संसार परिभ्रमण में जब वह एक शरीर से दूसरे शरीर में जाता है तो उसके साथ मुक्ष्म कार्माण शरीर भी जाता है, जिसके कारण दुसरे दारीर में उसका जन्म होता है। म. बुद्ध के उक्त विवरण में हमें इस सिद्धान्त के विकृत रूप में किचित दर्शन होते हैं।
___ अब जरा और बढ़कर वौद्ध दर्शन में यह तो देखिये कि वह कौन-सी शक्ति है जो विज्ञान को उसका नवीन जन्म देती है ? म. बद्ध ने यह शक्ति कर्म बतलाई है। कर्म में भी उपादान इसके लिए मुख्य कारण है । इस कर्म संबन्ध में भी डा० कोथ साहय हमें विश्वास दिलाते हैं कि इस बात पर बौद्ध शास्त्र प्रायः स्पष्ट है । कर्म का जो किसी रीति से भी टाला नहीं जा सकता। यहान बाजी वहां काम नहीं ती। कर्म का दण्ड अवश्य हो सहन करना पड़ेगा। हा, उस दया में यह निरर्थक हो जाता है जब संमार-प्रवाह की लड़ी को नष्ट करने का साधन मिल गया हो। यहां पर भविष्य के लिए तो कम लागू नहीं हो सकता, किन्त गत कर्मों का कार्य गेले ग्राना ग्रावश्यक है जिससे उनका महत्व हो जाता रहे । अनेक हत्याओं के अपराधी की छुट्टी इस अवस्था में थोड़े से मुक्नों के खाने में ही हो जाती है। इससे स्पष्ट है कि गत संस्कारों और विज्ञान का दूसरे भव में चला आना अवश्यभावी है।
इस तरह जितने भी अपनी व्यक्ति तष्णा के पाधीन हा उसको तृप्त करने की कोशिश करते रहते हैं, उनके विषय में वह कहते हैं, कि संसार में फरहते हैं, और अपने कृतकों के फल के अनुरूप नयोन व्यक्तित्व को जन्म देते हैं । यह कर्मशक्ति किस तरह अपना कार्य करती है, अभाग्यवश यह हमको नहीं बताया गया है। यह भी वुद्ध को 'अनिश्चित बातों में से एक है। म. बद्ध कर्म की कार्य शक्ति तो मानते हैं, परन्तु वह यह नहीं बतलाते कि वह किस तरह काय करतो है । यही कारण है कि रतयं बौद्ध अन्यों में इस विषय पर पूर्वापर विरोधित मत मिलते हैं। जरा "मिलिन्द पन्ह" को ले लीजिए। एक स्थान पर इसमें केवल कर्म को ही दुःख व पीड़ा का कारण नहीं बतलाया है बल्कि पित्त श्लेष्म आदि के ग्राधिक्यरूप आठ कारण और बतलाये हैं वे झूठे हैं। किन्तु इसी ग्रन्थ में अन्यत्र कर्म के प्रभाव को सर्वोपरि स्वीकार किया है। कहा है कि यह कर्म हो है जो शेष सब कालों पर अधिकार जमाये हये है। उसी की तूती सर्वथा बोलती है। इस तरह वौद्ध धर्म में कर्म सिद्धान्त का निरूपण भी पर्ण रूप में नहीं मिलता है। दग कमलाई का दोष म० बुद्ध पर धारोपित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उन्होंने पहले ही संद्धान्तिक वातावरण में ग्राने से इन्कार कर दिया था। वे थे तत्कालीन परिस्थिति के सुधारक और सुधारक भी माध्यमिक कोटि के। इसलिए उनका सैद्धान्तिक विवेचन पूर्णता को लिए हए न हो तो कोई आश्चर्य नहीं। बौद्ध धर्म का सैद्धान्तिक विकास बात करके म. बुद्ध के उपरान्त का कार्य है।
किन्तु इतने पर भी यह स्पष्ट है कि म० बुद्ध के अनुसार भी संसार एक सनातन प्रवाह है, जिसका प्रारम्भ और ग्रन्त अनन्त के गर्त में है, तथापि वह असत्तात्मक और कर्म के आश्रित हैं । कर्म स्वयं किसी मनुष्य का नैतिक कार्य नहीं बतलाया गया है, परन्तु वह एक सार्वभौमिक सिद्धान्त माना गया है। उसे किसी वाह्य हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है जो उसका फल प्रदान करे । कार्म स्वयं स्वाधीन है, इसलिए बुद्ध के निकट भी एक जगत नियंत्रक ईश्वर की मान्यता को आदर प्राप्त नहीं है।
इस प्रकार सामान्यत: भगवान महावीर और म० बुद्ध का कर्म सिद्धान्त विवरण भी किचित वाह्य सादश्यता रखता है। कर्म का स्वभाव और प्रभाव दोनों और एक-साही माना गया है किन्तु यह एकता केवल शब्दों में ही है । मूल में दोनों में आकाश पाताल का अन्तर है। भ० महावीर के अनुसार कर्म एक सूक्ष्म सत्तामय पौद्गलिक पदार्थ है, जो संसारी जीव के बन्धन का कारण है। म० बरक निकट वह असत्तात्मक नियम है। विद्वानों ने परिणामतः खोज करके यह प्रकट किया है कि म बनने कर्मसिद्धान्त यो बहत-शी बातों को जैन धर्म से ग्रहण किया था । आश्रय, संवर, शब्द, जो बौद्ध धर्म में शब्दार्थ में व्यवहत नहीं होते, मूल में जैन धर्म के है।
दूसरी ओर म० बुद्ध के उपदेश के विपरीत भगवान महावीर का सिद्धान्त विवेचन यात्मवाद पर आश्रित था। पारमा उसमें मुख्य मानी गई थी, जैसे हम देख चुके हैं। भगवान ने कहा था कि अनन्त काल से प्रात्मा का पुद्गल से सम्बन्ध है। यद्यपि यह आत्मा अपने स्वभाव में अनन्तदर्शन, अनन्त ज्ञान, अनंतवीर्य और अनन्त सुख पूर्ण स्वाधीन है, किन्तु इसके उक्त सम्बन्ध ने इसके असली रूप को मलिन कर दिया है। इसी मलिनता के कारण वह संसार में अनादिकाल से परिभ्रमण कर रही है। इस तरह जो आत्माय संसार परिभ्रमण में फंसी हुई हैं, वे घोर यातनाय और पोड़ायें सहन करतो हैं । उनका यह पौद्गलिक सम्बन्ध उनमें इन्द्रियजनित इच्छायों और वांछानों की ऐसा जबरदस्त तुप्णा उत्पन्न करता है कि वह दिन रात उसी में जला करती हैं। उनक साथ इस परिभ्रमण में एक कार्माण शरीर लगा रहता है, जो पुण्यमई और पाप मई कर्मवर्गणाओं का बना हना है। इस कर्माण शरीर में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के अनुसार प्रत्येक क्षण नवीन कर्म-वर्गणायें आती रहती हैं और
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साथ ही पुरानी झड़ती रहती है। ये कर्म वर्गणायें जो आत्मा में प्राश्रवित होती हैं वे किसो नियम काल के लिए ही आत्मा से सम्बन्धित होती है । ज्यों ही प्रात्मा को वस्तुस्थिति का भान होता है और उसे भेद विज्ञान की प्राप्ति होती है, त्यों ही वह सांसारिक कार्यों और झठे मोह से ममत्व त्याग देती हैं। इस दशा में बहात्मा ध्यान और तप उपवास का पाश्चय लेती है, जिसके सहारे क्रमश: आत्मोन्नति करते हुए बह एक रोज कर्म बन्धनों से पूर्णत: मुक्त हो जाती है । भगवद् कुन्दकुदाचार्य यही बतलाते हैं:
जीवा पुमालकाया अण्णोण्णागाढ ग्रहण पडिबद्धा।
काले विजुज्जमाणा सुदुक्खं दिन्ति भुजन्ति ।।६७।। भावार्थ-आत्मा और कर्म पुद्गल दोनों एक दूसरे से बार-बार सम्बन्धित होते हैं, किन्तु उचित काल में वे अलग अलग हो जाते हैं । वही दुःख और सुख को उत्पन्न करते हैं जिनका अनुभव प्रात्मा को करना पड़ता है।
इस प्रकार मुख्यत: कर्म ही सर्व सांसारिक कार्यों का मूल कारण है। जो कुछ एक संसारी आत्मा बोता है, वही वह भोगता है। श्रीर जब कि यह कर्मबद्ध आत्मा ही शेष पांच द्रव्यों के साथ कार्य कर रहा है, तब संसार की सब क्रियायें इसी कर्म पर अवलम्बित हैं। इस कम का प्रभाव सारे लोक में व्याप्त है और संसार प्रवाह भी इस ही के बल पर चालू है। इसका फल अटल है। कभी जाहिराह में भले ही उसका फल कार्य करता नजर न आता हो, परन्तु तो भी सामान्यता कम निष्फल नहीं जा सकता । संसार में हम एक पापी को फलता फलता अवश्य देखते हैं और एक पुण्यात्मा को दुःख उठाते, किन्तु इससे भी यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि पाप कर्मों का फल पापी को और पुण्य कर्मों का फल पुण्यात्मा को नहीं मिलेगा। जैनाचार्य कहते हैं:
या हिंसावतोऽपि समृद्धिः अर्हत् पूजावतोऽपि दारिद्याप्तिः साक्रमेण प्रागपात्तस्य पापानुबन्धिनः पुण्यस्य पुण्वानुबन्धिन पापस्य च फलम् । तत् क्रियोपात्तं तु कर्मजन्मान्तरे फलिण्यतीति
नात्र नियतकार्यकारेण व्यभिचारः ।। भावार्थ-पापी मनुष्य की अभिवृद्धि और अहंत पूजारत पुण्यात्मा की दयाजनक स्थिति उन दोनों के पूर्व संचित कमाँ का फल समझना चाहिए। उनके इस जन्म के पाप और पुण्य दूसरे भव में अपना फल दिखावेगे, इसलिए कर्म नियम किसी तरह बाधित नहीं है।
सचमुच भगवान महावीर सर्वज्ञ थे-साक्षात् परमात्मा थे इसलिए उनका उपदेश वैज्ञानिक और व्यवस्थित होना ही चाहिए। इस ही के अनुरूप में जैन शास्त्रों जैसे-गोम्मटसार, पंचास्तिकायसार, प्रादि में कर्म सिद्धान्त का पूर्ण और वैज्ञानिक विवेचन ओतप्रोत भरा हमा है । उसका सामान्य दिग्दर्शन कराना भी यहाँ मुश्किल है। तो भी यह स्पष्ट है कि कर्मसिद्धान्त के अस्तित्व और उसकी क्रिया से इन्कार नहीं किया जा सकता। कार्य कारण सिद्धान्त का प्राकृतिक नियम है, इस विषय में अपना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि आत्मा स्वयं अपने स्वभाव में ही क्रिया करता है और वह अपने पाप अपने भाव का
बह कर्म की बिबिध अवस्थाओं का मूल कारण नहीं है, इसी तरह कर्म भी स्वयं अपनी पर्यायों का कारण है। वह व अपने ग्राप में क्रियाशील है। श्री नेमिचन्द्राचार्य जी उनके पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट प्रकट कर देते हैं:
पुग्गलकम्मादीणं कत्ता वबहारदो दु णिच्चयदो।
चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणम् ।।८।। ---द्रव्य संग्रह । । भावार्थ-व्यवहार नय की अपेक्षा मात्मा कर्म को पर्यायों का कारण है, अशुद्ध निश्चय नय से प्रात्मा स्वयं अपने उपयोगमयी भावों का कारण है और शुद्धनिश्चय नय से बह पवित्र स्वाभाविक दशा का कारण है।
इस प्रकार उक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि संसार अवस्था में भटकती हुई प्रात्मा अपनी स्वाभाविक अवस्था के गुणों का उपभोग करने में असमर्थ है इसकी अशुद्ध अवस्था में राग, द्वेष आदि जैसे विभाव उत्पन्न होते रहते हैं, जो इसके सांसारिक बंधन को और भी बढ़ाते हैं। भगवद कुन्दकुन्दाचार्य यही बतलाते हैं:
भावनिमित्तो बन्धो भावोरदि रागद्वेषमोहजुदो ।
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अर्थात्-बन्ध भाद के आधीन है जो रति, राग द्वेष और मोह कर संयुक्त है। अतएव इस लोक में भरी हुई कर्मवर्ग.णाओं को आत्मा की ओर याकर्षित करते हैं यह भाव है, अर्थात् मिथ्यादर्शन, प्रवरति, प्रमाद, कषाय मौर मन, वचन, काय रूप योग । यही भाव कर्मबद्ध प्रात्मा को शुभ और अशुभ क्रियाओं के अनुसार पाप और पुण्यमय कश्रिव के कारण हैं। इस तरह पर कर्म मुख्यतया दो प्रकार का है :-(१) भावकर्म (२) और द्रव्यकर्म । प्रात्मा में उदय होने वाले भाव भावकर्म हैं और जो कर्मवर्गणायें उसमें प्रावित होती हैं वह द्रव्य कर्म हैं। यह कर्मों का आगम "आश्रब" कहलाता है। यह जैन सिद्धान्त में स्वीकृत सात तत्वों में तीसरा तस्व है। जीव और अजीव प्रथम दो तत्व हैं।
इस संद्धान्तिक विवेचन में जिस प्रकार उक्त तीन तत्व प्राकृत यावश्यक हैं, उसी तरह शेष तत्व हैं। इनमें चौथा तत्व बंध हैं। यह पाश्रवित कर्म को प्रात्मा से एक काल के लिए सम्बन्धित कराने के लिए आवश्यक ही है। इसका कार्य यही है, परन्तु इस बंध की अवधि उस समय के कषायों की तीव्रता र अवलम्बित है, जिस समय कश्रिवा ही रहा हो। इस अवधि में संचित कर्म अपना शुभाशुभ फल देता है और पूर्ण फल को देने पर प्रात्मा से अलग हो जाता है।
यहां तक तो कर्मों के संचय और उनके प्रभाव का दिग्दर्शन किया गया है, किन्तु पांच तत्व से इस कर्म से छुटकारा पाने का भाव शुरू होता है। वह तत्व संवर हैं। कर्मों से छुटकारा पाने के लिए उस नली का मुख बन्द करना आवश्यक है जिसमें से कर्माधव होता है। यह प्रतिरोध ही संवर है। मन वचन, काय के योग और उनके अधीन इन्द्रियजनित विषय वासनारों पर विजय प्राप्त करना मानों प्रागामी कर्मों के प्रागमन का द्वार बन्द करना है। फिर इस अवस्था में केवल यही शेष रह जाता है कि जो कर्म सत्ता में हों उनको निकाल दिया जावे। यह निकालना छठा तत्व निर्जरा है। और इसके द्वारा कर्मों को नियत समय से पहले ही झाड़ देना है। यह समय और तपश्चरण के अभ्यास से होता है। अन्ततः कमी से पूर्ण छुटकारा पाना सातवां तत्व मोक्ष है। मुक्त हुई पात्मा लोक की शिखिर पर स्थित सिद्ध शिला में पहुंच कर हमेशा के लिए अपने स्वभाव का भोक्ता बन जाती है । उस दशा में वह अनन्त दर्शन, अनन्त शान, अनन्त वीर्य और अनन्त मुख का उपयोग करती है। इस प्रकार यह प्राकृतिक सिद्ध सात तत्व है और इनमें किसी प्रकार की कमोवेशो करने की गुजाइश नहीं है। इसलिए आज भी हमको यह उसी रूप में मिलते हैं जिस रूप में भगवान महावीर ने ढाई हजार वर्ष पहले पुनः बतलाये थे। इन्हीं तत्वों में पुण्य और पाप मिलाने से नौ पदार्थ हो जाते हैं।
अब जरा पाठकगण, इन कर्म के भेदों पर भी एक दृष्टि डाल लीजिए, जो संसार प्रवाह में इतना मुख्य स्थान ग्रहण किये हुए हैं। भगवान महावीर ने सामान्यतः यह पाठ प्रकार का बतलाया था, यथा
(१) ज्ञानावर्णीय-ज्ञान को पावरण (ढकने) करने वाला कर्म । (२) दर्शनावर्णीय-देखने की शक्ति में बाधा डालने वाला कर्म । (३) मोहनीय-वह कर्म जो प्रात्मा के सम्यक् श्रद्धान् और पाचरण में बाधक है। (४) अन्तराय-बह कर्म जो आत्मा की स्वतन्त्रता में बाधक है। (५) वेदनीय- बह कर्म जो प्रात्मा के सुख दुःख का अनुभव कराता है। (६) नाम-वह कर्म जो प्रात्मा के संसार की विविध गतियों में ले जाने का कारण है, जैसे देव, मनुष्यादि । (७) गोत्र-- वह कर्म जो प्रात्मा के उच्च नीच कूल में जन्म लेने का कारण है। (८) मायु-वह कर्म जो पात्मा के एक नियत काल तक एक गति में रखता है।
यह पाठ प्रकार के कर्म पुन: अन्तभेदों में विभाजित है, जो कुल १४८ कर्म प्रकृतियों कहलाती हैं। जिस प्रकृति का जिस समय उदय होगा उस समय आत्मा की अवस्था वैसी ही हो जावेगी। इसकी सूक्ष्मता यहां तक व्याप्त है कि जीवित प्राणी के शरीर की हड्डियों को रचने वाला एक अस्थि नाम कर्म है। कोई दशा मौर कोई अवस्था कर्म प्रभाव के अतिरिक्त कुछ नहीं है और जब यह कर्म स्वयं प्राणी के मन, वचन, काय की क्रियानों के अनुसार सत्ता में आता है, तब यह इस प्राणी के आधीन है वह चाहे जिस प्रकार के कर्मको सपने में संचय करे अथवा रसको बिल्कुल ही यायवित न होने देने का उपाय करे । मतलब यह कि मनुष्य का भविष्य उसकी मुट्ठी में है। भगवान महावीर के बताये हुए कर्मवाद का पारगामी बिल्कुल स्वावलम्बी और स्वाधीन होता ही नजर पाएगा। परावलम्बिता और पराश्रिता को यहाँ स्थान प्राप्त नहीं है। इस कर्मवाद का पूर्ण दिग्दर्शन गोम्मटसारादि जैन ग्रन्थों से करना आवश्यक है।
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अव यह तो जान लिया कि इस अनादि निधन लोक में कर्मजमित परिस्थिति में अनन्त आत्माएँ अपने स्वभाव को गंवाये भटक रहीं हैं, परन्तु इस भटकन का भी कोई क्रम है या नहीं ? भगवान महावार ने इसका भी एक क्रम हमको बतलाया है। यह क्रम जीवन के विविध रूप नियत करता है। जैन धर्म में इनका उल्लेख 'गति' के नाम से किया गया है और ये चार प्रकार हैं (१) देवगति, (२) मनुष्य गति, (३) तिर्यंचगति, (४) नरक गति । देवगति में प्रात्मा स्वगों में जन्म लेता है, जहां विशेष ऐश्वर्य और सुख का उपभोग बह करता है, किन्तु यहां भी वह दुःख और पोड़ा से बिल्कुल मुक्त नहीं है। दूसरी गति मनुप्य भव है और इसके भाग्य में मुख और दुःख दोनों ही बदे हैं, तिस पर उसमें दुःख की मात्रा ही अधिक है। तीसरी तिर्यंच गति में पशु, पक्षी, कोई, मकोड़े, वृक्ष, लता, अग्नि, जल, वायु प्राजीवन- भवभित है। इस गति में प्रात्मा को और अधिक दुःख और पीड़ा भुगतनी पड़ती है। अंतिम नरक गति नकं का वास है। यहां घोर दुःख और असह्य पीड़ाय सहन करनी पड़ती हैं। इन चार की भी अन्तर्दशायें हैं, परन्तु इन सब का लक्षण जाना और मरना हो है। इन गतियों में से प्रात्मा किसो भी गति में जाये उसके शुभाशुभ कर्म अपने आप उसके साथ जावेंगे। इसलिए किसो भत्र में भी उपार्जन किया हुआ पुण्य प्रकारथ नहीं जाता है। इनमें से स्वर्ग और नर्क को बासी यात्मायें अपने प्राय के पूरे दिनों का उभाग करतो हैं -इनकी अकाल मृत्यु नहीं होती, परन्तु शेष दो गतियों के जीव अपनी प्रायु के पूर्ण होने के पहले भी मरण कर जाते हैं। नरक गति में शरीर के टुकड़े २ कर दिये जायं, परन्तु वह नष्ट नहीं होता । पारे को तरह बह अलग होकर भी जुड़ जाता है। तिर्थरगति में दो प्रकार के जीव हैं—१) समनस्क अर्थात् मनवाले और (२) अमनस्क अथात् बिना मन वाले जाव । यह फिर स्थावर-जो चल फिर न सके और वस----जो चल फिर सके के रूप से दो प्रकार हैं। जल, वायु, अग्नि, पृथ्वो, वनस्पति ग्रादि के रूप को प्रात्मायें स्थावर हैं। व एक इन्द्री रखते हैं और भय लगने पर भी भाग नहीं सकते हैं। और त्रस, पशु, पक्षो प्रादि हैं। मनुष्य मुख्यतः आर्य और मलच्छ दो भागों में विभाजित हैं।
प्रत्येक संसारी आत्मा के उसकी गति के अनुसार एक प्रकार के प्राण भी हैं। यह प्राण संसारी आत्मा के शरीर द्वारा प्रगट हुए उपयोग का एक रूप है। ये कुल दस हैं (१) पांच इन्द्रिया (स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु, श्रौत्र) (६) मन शक्ति, (७) वचन शक्ति, (८) कायशक्ति, (8) आयु और (१०) श्वासोश्वास। इन प्राणों के अनुसार हा आत्मा कर्म संचय कर सकती है और कषायों को रख सकती है इसीलिए आत्मानों की छ: लेश्याय वताई हैं। इनसे आत्मा के कषायों की तीव्रता ज्ञात होती हैं। यह मनमानि गोशाल केस: अभिजामि मिदान्त के मान नहीं है। उसके अनुसार तो मनुष्य आत्मायें ही छ: प्रकार की ठहरती हैं, परन्तु जैन सिद्धान्त में सब आत्माय अपने असली रूप में एक समान बताई गई हैं।
म. बुद्ध ने भी व्यक्ति के छः प्रकार के जीवन बताये हैं, और यह संभवतः स्वर्ग, नर्क, मनुष्य, पशु, पक्षी, प्रेत और असुर रूप हैं। जल, अग्नि, वायु और पृथ्वी में बुद्ध ने जीव स्वीकार नहीं किया । यद्यपि वनस्पति में जीव स्वीकार किया गया प्रतीत होता है। परन्तु इनमें से किसी का भी पूर्ण मार्मिक विवरण हमें बौद्ध धर्म में सामान्यत: नहीं मिलता है। इतना ज्ञात है कि पुण्य पाप में कर्म जो अज्ञानता के कारण किये जाते हैं उनसे जीवों में व्यक्ति का सद्भाव होता है।
यह जानने का प्रयत्न करने पर कि यह जीवन श्रम लोक में किस तरह पर अवस्थित है, म. बद्ध बतलाते हैं कि इस लोक में प्रगणित ससार क्षेत्र है, जिनके अपने २ स्वर्ग और नर्क हैं।
जहां तक एक सुर्य अथवा चन्द्रमा का प्रकाश पहुंचता है, वहां तक का प्रदेश एक सक्वल कहलाता है। प्रत्येक सक्वल में पृथ्वी, खण्ड, प्रान्त, डीप, समुद्र, पर्वत आदि होते हैं और उसके मध्य में "महामेरू पर्वत होता है। प्रत्येक राक्यल का आधार "अजताकाश' है, जिसके ऊपर "वापोलोव' अर्थात् बायुपटल ६६० योजन मोटा है। वापोलोव के वाद जनपोलोव है जो ४५०,००० योजन मोटाई का है। ठीक इसके ऊपर महापोलोव अर्थात् पृथ्वी है जो २४०,००० योजन माटी है। इस तरह प्रत्येक सक्चल अर्थात क्षेत्र को म बुद्ध ने तीन प्रकार के पटलां से वेष्ठित बतलाया था। यहां भी जैन सिद्धान्त को सादश्यता दष्टव्य है। अगाड़ी पाठक देखेंगे कि जैन सिद्धान्त में भी लोक को तीन वलयों से वेष्टित किस तरह बतलाया गया है। महामेरु जैन धर्म वा सुमेरु पर्वत प्रतीत होता है। बौद्ध इसे १६८००० योजन ऊँचा और इसके शिखर पर "तबुतिश' नामक देवलोक वतलाते है । जैनियों का सुमेरु पर्वत एक लाख योजन ऊंचा है और उसकी शिखिर के किचित अन्तर से स्वर्ग लोक के विमान प्रारम्भ होते बताये गये हैं। इससे एक बाल बराबर अन्तर पर सौधर्म स्वर्ग का विमान है। यहां भी सादृश्यता दृष्टव्य है। उपरान्त प्रत्यक सक्वल या पथ्वी में चार द्वीप की गणना बौद्ध शास्त्रों में की गई है अर्थात (१) उत्तर कुरुदिवयिन जो महामेरु की उत्तर और चौकाने ८००० योजन के विस्तार का है, (२) पूर्व विदेश-जो महामेक को पूर्व को और अर्धचन्द्राकार ७००० योजन विस्तार का है, (३अपरगोदान, जो महामेरु की पश्चिम प्रोर गोल दर्पण के आकार का ७००० योजन के विस्तार
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का है, (४) पोर जम्बूद्वीप जो महामेरु की दक्षिण और त्रिकोन आकार का १०००० योजन के विस्तार का है। जैन विवरण
इससे नहीं मिलता है। वहाँ मध्यलोक में जम्बूद्वीप आदि अनेक द्वीप समुद्र बताये हैं। इन द्वीप समुद्रों के ठीक बीचोंबीच में जम्बूद्वीप बतलाया है जो गोल आकार का है और जिसके मध्य में मनुष्य शरीर में नाभि की भांति मेरु पर्वत है। जम्बू द्वीप एक लाख योजन के विस्तार का है। उत्तर कुरु और पूर्व विदेह उसमें वे क्षेत्र हैं जहां भोग भूमि है, परन्तु बौद्धों के अपरगोदान द्वीप का पता कहीं नहीं लगता है। बौद्धों ने अपने उत्तर कुरुदियिन द्वीप का जो विवरण दिया है उससे स्पष्ट है कि वे भी वहां एक तरह की भोगभूमि मानते हैं उनके धनुसार वहां के निवासी चौकोल मुख के हैं, जो न कभी बीमार होते हैं और न कोई आकस्मिक घटना उन पर घटित होती है स्त्री पुरुष दोनों ही सदा षोडशवर्षीय सुन्दर अवस्था को धारण किये रहते हैं। कोई काम धन्धा नहीं करते हैं, क्योंकि जो कुछ वे चाहते हैं वह उनको कल्पवृक्षों से मिल जाता है। यह वृक्ष १०० योजन ऊंचे हैं। वहां माता, पिता, भाई आदि का कोई रिश्ता नहीं है। स्त्रियां देवों से भी सुन्दर हैं। यहां वर्षा नहीं होती जिससे घरों की भीख नहीं है की एक वर्ष है। यह विवरण जैनियों की भोगभूमि से बहुत मिलता जुलता है। यद्यपि वहाँ भोग भूमियों की धावु बहुत ज्यादा बताई है। इस भेद का कारण यह है कि जैन धर्म में संख्या परिमाण बौद्धों से बहुत अधिक है। बौद्धों की उत्कृष्ट संख्या असंख्यात है, जबकि जैनों को संख्या इससे बढ़ कर धनन्त रूप है । बुद्ध यह मानते हैं कि लोकप्रवाह सनातन है, परन्तु वह इस बात को भी जैनियों के साथ-साथ स्वीकार करते हैं कि उन देशों का नाम मौर उत्पाद भी होता है, जिनमें मनुष्य रहते हैं। नाथ के तरीके वे तीन प्रकार बतलाते हैं अर्थात् सवल सात बार तो अग्नि से नष्ट होते हैं, आठवीं बार पानी से और हर ६४ वीं दफे हवा से । उनमें इस नाशकर्म का व्यवहार कल्पों पर नियत रखखा है। कहा गया है कि जिस अन्तराल काल में मनुष्य की आयु १० वर्ष से बढ़ते-बढ़ते एक असंख्य की हो जाती है वह बौद्धों का एक अन्तःकल्प होता है। इन २० अन्तःकल्पों का एक असंख्य कल्प होता है और चार असंख्य कल्प का एक महाकल्प होता है। जैन धर्म में भी कल्पकाल माने गये हैं, परन्तु उनका परिणाम इनसे कहीं अधिक है। जैनियों ने दस कोड़ाकोड़ी व्यवहार सागरोपमकाल का एक अवसर्पिणीकाल माना है और बीस कोड़ाकोड़ी व्यवहार सागरोपमकाल एक उत्सर्पिणी और एक पण दोनों का एक कल्पवाल माना है तथापि असंख्यात उत्सर्पिणी व वसी का एक महाकरूपकाल माना है इनके विशद विवरण के लिए त्रिलोक-सार वृहद जैन शब्दार्णव यादि ग्रन्थ देखना चाहिए। यहां तो मात्र सामान्य दिग्दर्शन कराना ही संभव है सारांशतः कल्पकाल का भेद जैन और बौद्ध भाग्यता में स्पष्ट है गाड़ी बौद्धशास्त्र एक अन्तः कल्प में पाठ युग बतलाते हैं, जिनमें चार उत्पपिणी और चार विणी कहलाते हैं। उनके उत्सर्पिणी में हर बात की वृद्धि होती है - इसलिए यह उर्द्धमुख भी कहाती है और श्रपिणी में घटती, इस हेतु वह प्रधोमुख कही जाती । यहां भी जैन धर्म का प्रभाव दृष्टव्य है भगवान महावीर ने भी कल्पकाल के दो भेद उत्सर्पिणी और पवणी बतलाये हैं। इनका प्रभाव भी वही बतलाया गया है जो बौद्धों के उत्सर्पिणी और अणिणी युगों का बतलाया गया है। सचमुच नाम घोर भाव की सादृश्यता इस बात की प्रकट साक्षी है कि म० बुद्ध ने अपने कालनिर्णय में भी अपने प्रारम्भिक श्रद्धान के धर्म जैनधर्म से बहुत कुछ लिया था। हां, यहां यह अन्तर बेशक है कि जब म० बुद्ध ने उत्सर्पिणी और अप्पिणी दोनों में प्रत्येक के चार-चार युग बतलाये हैं, तब जैन शास्त्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी अर्ध कल्पी में प्रत्येक में छँ काल होते लिखे हैं, अर्थात् (१) सुखमासुमा (२) सुखमा, (३) सुखमा दुःखमा, (४) दुःखमा सुखमा, (५) दुःखमा र (६) दुःखमा दुःखमा। यह कम अविसर्पिणी अर्धकल्प का है । उत्सपिणी अर्धकल्प में प्रत्येक पदार्थ की उन्नति होती है, इसलिये उसका पहला काल दुःखमा दुःखमा है और फिर इसी क्रम से अन्यकाल समझना चाहिए। बौद्धों ने अपने उत्सप्पिणी के चार युग (१) कलि, (२) द्वापुर, (३) शेता, और (४) कृत बतलायें हैं । एवं उनके श्रमिणी के युगों का क्रम इनसे बरग्रक्स है अर्थात् उसमें प्रथम युग कृत है और शेष भी इसी तरह क्रमवार है। इन युगों के नाम ब्राह्मण धर्म के समान हैं। इस तरह यह अनुमान किया जा सकता है कि यहाँ भी बुद्ध ने अपने से प्राचीन धर्म जैन और ब्राह्मण धर्म से उचित सहायता ग्रहण को थी।
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अब पाठकगण, जरा आइए म० बुद्ध के बताये हुए लोक प्रलय का भी किचित् दिग्दर्शन कर लें। कहा गया है कि एक कल्प के प्रारम्भ में वर्षा होती है-इसे 'सम्पत्ति कर-महा-मेघ' कहते हैं। यह उन सर्व व्यक्तियों के समूहरूण पुण्य के बल से उत्पन्न होता है, जो ब्रह्मलोकों और बाहरी सबलों में रहते हैं। पहले बूंदें ग्रोस की तरह छोटी-छोटी होती हैं, परन्तु वे धीरेधीरे बढ़ते हुए खजूर के पेड़ इतनी बड़ी हो जाती है। वह सब स्थान जहां पहले के केललक्ष लोक अग्नि से नष्ट हो चुके हैं, अब ताजे पानी से भर जाते हैं । यह ध्यान रहे कि बौद्ध जन पहले सात चार ग्रग्नि द्वारा मनुष्य लोक का नाश होना मानते हैं । इसी तरह इस कल्पना में प्रारम्भ में यहां अग्नि द्वारा नाश हुआ था। नष्ट हुए स्थान जहां जल से भरे कि यह वर्षा बन्द हुई । वर्षा
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के बन्द होने पर एक हवा चलती है, जिससे भरा हुआ पानी प्रायः सूख जाता है, केवल समुद्रों के लायक ही पानी रह जाता है। इसके दीर्घकाल उपरान्त यहां शेखर (इन्द्र) का महल प्रकट होता है, जो सर्व प्रथम रचना होती है। महल के बाद नीचे के ब्रह्मलोक और देव लोक की सृष्टि हो जाती है । इन्द्र इसी समय पाकर कमलपुष्पों को देखते हैं। यदि कमलपुष्प हुए तो जान लिया जाता है कि इस कल्प में वुद्ध होंगे। बुद्धों के वस्त्र, कमण्डल आदि भी यहीं उत्पन्न हो जाते हैं। इन्द्र पृथ्वी का अंधकार मेट कर इन वस्त्रादि को उठा ले जाता है। पहले लोक के नाश होते समय यहां के पुण्यात्मा जीव अभस्सर ब्रह्मलोक में जन्म लेते हैं । वही यहां फिर वसते हैं। उनका जन्म छायारूप होता है। इसलिए उनके शरीर में देवलोक के कतिपय लक्षण यहां से शेष रह जाते हैं 1 उन्हें भोजन को आवश्यकता प्रायः नहीं पड़ती, वे आकाश में उड़ सकते हैं। उनके शरीर को प्रभा इतनी विशद होती है कि उस समय सूर्य और चन्द्रमा की आवश्यकता नहीं होती है। इस हेतु वहां ऋतुयं भी नहीं होती हैं। और न दिन-रात का भेद होता है। तथापि उन लोगों में लिंगभेद भो नहीं बतलाया गया है। कई युगों तक यह ब्रह्मलोक के वासी प्रानन्द से इसी तरह यहां रहते हैं। उपरान्त पृथ्वी पर एक ऐसा पदार्थ उता दिखाई पड़ता है जो दूध पर मलाई पड़ता है। एक ब्रह्म उसे उठाकर बाट लेता है। इसके स्वाद की चाट सबको पड़ जाती है और यह अधिक-अधिक खाया जाता है। बस इस ही के बदोलत यह ब्रह्मलोक अपनी बिशुद्धता गंवा देते हैं, जिससे इनकी शरीर की प्रभा मन्द पड़ जाती है । इस पर सूर्य-चन्द्र आदि प्रकाश देने वाले पदाथों का प्रादुर्भाव होता है । इनकी उत्पत्ति भी वे मिलकर अपने पुण्यबल के प्रभाव से कर लेते हैं। बौद्ध धर्म में नाश और उत्पत्ति व्यक्तियों के पाप और पुण्य बल के कारण होते बतलाये गये हैं। इस तरह सूर्य-चन्द्र द्वारा किये गये दिन रात के भेद में रहते हुए और पृथ्वी का पदार्थ खाते हुए इन लोगों के शरीरों की त्वचा कड़ी पड़ जाती है, जिससे किसी का रंग काला
और किसी का जरा स्वच्छ रहता है। इस पर यह आपस में मान-घमण्ड करके लड़ते हैं। परिणामत: वह पदार्थ लुप्त हो जाता है और एक तरह का मक्खन-मिश्री-मिश्रित पदार्थ सिरज जाता है। इस पर भी लड़ाई होती है। आखिर लतादि उत्पन्न होते. होते चाबल उत्पन्न होते हैं, जिनको खाने से इन लोगों के शरीर आजकल के मनुष्यों से होते हैं, जिससे कषाय और विषय बासनायें आकर सताने लगती हैं। इस पर वह ब्रह्मलोग जो पवित्रता से रहते हैं अपने उन साथियों को निकाल बाहर कर देते हैं जो विषयवासना के वशीभूत होकर पवित्रता से हाथ धो बैठते हैं। यह बहिष्कृत ब्रह्मलोग अलग जाकर एकान्त में मकान बनाकर रहने लगते हैं यहाँ रहकर वे आलस्य से प्रेरित कई दिन के लिये इकट्ठे चावल ले आने लगते हैं। इस पर चावल धान रूप में पलट जाते हैं और जहां से एक दफे वे काटे गये वहां फिर वे नहीं उगने लगते हैं। इस दुर्भाग्य से उन्हीं को आपस में खेतों के, बांट लेना पड़ता है, किन्तु कतिपय ब्रह्म अपने भाग से संतुष्ट नहीं होते हैं। सो बे दूसरों के भाग में से धान चुराने लगते हैं । इस पर एक नियन्त्रण की आवश्यकता उत्पन्न होती है जिसके अनुसार सब ब्रह्म एकत्रित होकर अपने में से एक को अपना सरदार दन लेते हैं। यह सम्मत कहलाता है। वह खेतों पर अधिकारी होने के कारण ही पत्तियो' या क्षत्रिय नाम से प्रसिद्ध होता है। उसकी सन्तान भी इसी नाम से विख्यात हुई। और इस तरह राज्यवंश अथवा क्षत्रिय वर्ण की उत्पत्ति हो जाती है। उन ब्रह्मों में कतिपय ऐसे भी होते हैं जो बदमाशों की बदमाशी देखकर अपने को संयम में रखने का अभ्यास करने लगते हैं। इस अभ्यास के कारण वे बाह्मण कहलाते हैं और इस प्रकार ब्राह्मण वर्ण की सुष्टि हो जाती है। उनमें ऐसे भी ब्रह्म होते हैं जो शिल्पादि कलाओं में निपुण होते हैं और इस निपुणता से बे सम्पत्ति एकत्रित करते हैं 1 यही लोग वैश्य नाम से प्रगट होते हैं। अन्तत: ऐसे भी नीच प्रकृति के ब्रह्म हैं जो आखेट खेलते हैं । इसलिए वे लूह या सुद कहलाने लगगे हैं। इस प्रकार प्राकृत चार वर्ण उत्पन्न हो जाते हैं। यद्यपि मूल में वह एक ही जाति ब्रह्मरूप होते हैं। इन्हीं में से जो गह त्यागकर जंगल का वास ग्रहण करते हैं. वे श्रमण कहलाते हैं। इस तरह संसार प्रवाह चल जाता है। उपरान्त नियत संयम में पूनः अग्नि द्वारा पृथ्वी का नाश होता है और इसो ढंग से सृष्टि होती है । इसी तरह नियत समय में अग्नि, जल और वायु से नाश नियमानुसार होता रहता है, जिसका विशद विवरण बौद्ध ग्रन्थों अथवा Manual of Buddhism से जानना चाहिए ।
इस प्रकार म० बुद्ध ने इस पृथ्वी का नाश और उत्पादक्रम बतलाया था। इसमें भी जन सदृशता बहुत कुछ दृष्टि पड़ रही है। जैन शास्त्रों में कहा गया हैं कि प्रत्येक अवप्पिणी अन्तिम काल के अन्त समय में (भरत और ऐरावत क्षेत्रों में हो) पानी सब सुख जाता है-शरीर की भांति नष्ट हो जाता है। इस समय सब प्राणियों का प्रलय हो जाता है। केवल थोड़े से जीव गंगा, सिंधु और विजयाई पर्वत की वेदिका पर विधाम पाते हैं। यह लोग मछली, मेढक प्रादि खाकर रहते हैं। तथापि अन्य दुराचारी जीव छोटे-छोटे बिलों में घुस जाते हैं। साथ ही यह ध्यान रहे कि जैनधर्म और अग्नि का लोप पांचव ही काल में हो चुकता है। तदन्तर सात दिन तक अग्नि की वर्षा, सात दिन तक शांत जल की, सात दिन तक खारे पानी की, सात दिन तक विष को, सात दिन तक दुस्सह अग्नि की, सात दिन तक पूलि को और फिर सात दिन तक धूप की वर्षा होतो है । इसके बाद पृथ्वी का विषमपना सब नष्ट हो जाता है और चित्रा पृथ्वी निकल पाती है। यहां अबप्पिणी के अन्तिमकाल का अन्त हो
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जाता है। और उत्सपिणी का प्रथम अति दुःखमा काया है, जिसमें प्रा. लि होती, इसके प्रारम्भ में क्षोर जाति के मेघ सात दिन तक रात दिन बराबर जल और दूध की वर्षा करते हैं जिससे पृथ्वी का रूखापन नष्ट हो जाता है । इसो से यह पृथ्वी अनुक्रम से वर्णादि गुणों को प्राप्त होती है। इसके बाद अमृत जाति के मेघ सात दिन तक अमृत को वर्षा करते हैं जिससे औषधियां, वृक्ष, पौधे और घास आदि पहले अविसप्पिणी के समान निरंतर होने लगते हैं। तदनंतर रसादि जाति के बादल रस की वर्षा करते हैं जिससे सब चीजों में रस उत्पन्न होता है । उत्सपिली काल में सबसे पहले जो मनुष्य बिलों में घुस जाते हैं ये निकलकर उस रस के संयोग से जीवित रहने लगते हैं। ज्यों-ज्यों काल बीतता जाता है त्यों-त्यों शरीर को ऊंचाई, आयु आदि जिन-जिन चीजों की पहले अविसप्पिणी में कमी होती जाती थी उन सब की वृद्धि होतो है । उपरान्त दूसरे काल में सोलह कुलकर होते हैं। इनके द्वारा क्रमकर धान्यादि और लज्जा, मंत्री आदि गुणों की वृद्धि होती है । लोग अग्नि में पकाकर भोजन करते हैं। दूसरे के बाद तीसरे काल में भी लोगों के शरीर प्रादि वृद्धि को प्राप्त होते हैं। इस समय २४ तीर्थकर आदि महापुरुष जन्म लेते हैं। और प्रथम तीर्थकर द्वारा कर्म क्षेत्र को सृष्टि होती है । फिर चौथे काल में शरीर, प्रायु आदि में और वृद्धि होती है और उसके थोड़े ही वर्ष बाद वहां जघन्य भोगभूमि की स्थिति हो जाती है । इसी तरह पांचवें काल में भो मध्यम भोगभूमि की मृष्टि होती है और छठे काल में उत्तम भोगभूमि की स्थिति रहती हैं। इसके साथ ही उत्सपिणी काल का अन्त और अवप्पिणी काल प्रारम्भ हो जाता है। जिसके प्रारम्भ के साथ ही अवनति क्रम चालू होता है। हम जिस काल में रह रहे हैं यह प्रवप्पिणी का पांचवा काल है। इसके प्रारम्भ के तीन कालों में यहां भोगभूमि थी। भोगभूमि में युगल दम्पत्ति जन्म लेकर आनन्द से जीवन व्यतीत करते थे । कल्पवृक्षों से उनको भोगोपभोग की सब सामग्री प्राप्त होती थी। सूर्य चन्द्र नहीं थे। माता-पिता आदि रिश्ते प्रचलित नहीं थे। यहां से मरकर जीव नियम से देवगति को प्राप्त होते थे। अन्ततः तीसरे काल में अन्त होने के कुछ पहले १६ कुलकर उत्पन्न हुए थे, जिनके समय में जिस-जिस बात को तकलोफ लोगों को हुई उसको उन्होंने व्यवस्था की, क्योंकि ऋमकर कल्प वृक्ष तो ह्रास को प्राप्त होते जा रहे थे। इनका विशद विवरण हमारे 'संक्षिप्त जन इतिहास अथवा अन्य जैनग्रन्थों में देखना चाहिए। आखिर चौथे काल के प्रारम्भ से किंचित् पहले ही प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी का जन्म हो गया था। इन्हीं के द्वारा कर्मभूमि का प्रादुर्भाव हुआ । जनता को असि, मसि, कृषि प्रादि क्रम इन्होंने ही बतलाये। इसी समय चार वर्णो की स्थापना हो गई। जिन्होंने जनता की रक्षा का भार लिया वे क्षत्रो हुए और जो व्यवसाय व शिल्प में व्यस्त हुए वे वैश्य कहलाये और दस्युकर्म करने वाले शूद्र वर्ण के हए। ब्राह्मण वर्ण की स्थापना उपरान्त सम्राट् भरत द्वारा व्रती श्रावकों में से हुई । इस तरह कर्म भूमि का श्रीगणेश हुआ। उपरान्त समयानुसार हर बात की अवनति चाल रही और समयानुसार तीर्थकर भगवान एवं अन्य महापुरुप होते रहे। फिर भगवान महावीर के निर्वाण काल से कुछ महीने बाद से हो यह पंचमकाल प्रारम्भ हो गया था। इसमें ह्रासक्रम चाल है। इसके अन्त में ही जैन धर्म और अग्नि का लोप हो जायगा और जो होगा वह उत्सप्पिणी काल के वर्णन में बतलाया जा चुका है । इस तरह यह कल्पकाल है । यही विधि सर्वथा चालू रहेगी। म० बुद्ध के काल क्रम और इसमें किचित् सदृशता है । बाय रेखायें एक समान है, यद्यपि मूल में अन्तर विशेष है।
यह भेद तो जान लिया, परन्तु भगवान महावीर के मतानुसार लोक का स्वरूप तो अभी तक नहीं जान पाया। प्रतएव प्राइए, अब यहां पर यह देख लें कि भगवान महावीर ने लोक के विषय में क्या कहा था ?
भगवान महावीर ने भी असंख्यात द्वोप समुद्र बतलाये थे, परन्तु उस सबके लिए स्वर्ग-नर्क प्रादि उन्होंने एक ही बतलाए थे उनके अनुसार बह लोक तीन भागों में विभाजित है और उसे तीन प्रकार की बायु से वेष्टित बतलाया गया है। यह तीन भाग ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक कहे गये हैं।
अधोलोक के सर्व अन्तिम भाग में निगोद है। यह वह स्थान है जिसमें निगोद जीब रहते हैं। यह निगोद जोब एकेन्द्री जीव से भी हीन अवस्था में हैं और अनन्त हैं। यहां स्पर्शन इन्द्री भी पूर्ण व्यक्त नहीं है। जीव समुदाय रूप में इकट्ठे एक शरीर में रहते हैं। इनकी प्रायु भी अत्यल्प है। वे एक श्वास में १८ बार जन्मते हैं। इस निगोद में से हमेशा नियमानुसार जीव निकलते रहते हैं और वे उस कमो को पूरी कर देते हैं जो जीवों के मुक्त हो जाने से होती है। इस तरह वह जीवराशि कभी निवटती नहीं। यूं ही अनादि निधन है । जीव अस नाड़ीमें भ्रमण करते हैं।
जैनों के तीन लोक के नक्शे में बताते हए 'मध्यलोक' में ही वे सब संसार क्षेत्र हैं जिनका उल्लेख हम ऊपर कर के हैं। और इसके 'ऊर्ध्व पीर अधो' लोक में क्रमशः स्वर्ग और नर्क अवस्थित है । बुद्ध ने भी लोक को तीन प्रवचारों (regions) में अथवा धातों में विभक्त बतलाया है, (१) काम धातु, (२) रूप धातु और (३) अरूप धातू । यह भी जैन सिद्धान्त की सादृश्यता दृष्टि पड़ती है। इसके अतिरिक्त बौद्ध शास्त्रों में नर्क गति के और नर्को के जो वर्णन, पीड़ाये, वैतरनी नदी, इसे
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दुग्गति बतलाना, प्रेतों-असुरों का स्थान, इत्यादि जैन धर्म के अनुसार बताये हैं। किन्तु इतने पर भी बुद्ध देव ने नर्क उतने ही बतलाये हैं जितने जैन धर्म में स्वीकृत हैं।
भगवान महावीर ने नर्क सात वताये हैं और उनकी पृथ्वीयों के नाम यों कहे हैं:(१) रत्नप्रभा-पालोक इसका रत्न कैसा है और यह गर्म है। (२) शर्कराप्रभा " " " शक्कर " (३) वालुका प्रभा " " " रेत ॥ (४) पंक प्रभा " " " पंक (५) धूम प्रभा
घुएँ "केवल ३ लाख पटलों में शेष ठंडा है। (६) तमप्रभा-पालोक इसका अन्धकार कैसा है और सर्द है । (७) महातमप्रभा-आलोक इसका घोर अन्धकार कैसा है और सर्द है । इन सब में भिन्न २ संख्या में ८४ लाख बड़े बिले हैं जिनमें नारकी जन्म लेते हैं।
म. बुद्ध ने सामान्यतया ८ नर्क बतलाये थे, यद्यपि इनके अतिरिक्त वह और बहुत से छोटे नर्क बतलाते थे । शायद वह इन्हीं पाठ के अन्तर्भाग हो । ये आठ इस प्रकार बताए गए हैं:
१. सज्जीव, २. कालसूत्र, ३. संघात, ४. रौरव, ५. महारौरव, ६. लापन, ७. प्रतापन और द. प्रवीची। उत्तरीय बौद्धों की प्राचीन मानता में इतने हो ठण्ड नर्क भी थे।
इस तरह बौद्धों के नर्क सम्बन्धी विवरण में बहुत-सी बातें जैन धर्म से मिलती-जुलती हैं। वास्तव में जैन धर्म से बौद्ध धर्म की जो सादृश्यता विशेष मिलती है वह म० बुद्ध के प्रारम्भिक जन विश्वास के कारण ही समझना चाहिए । म. बद्ध ने एक माध्यमिक के तरीके उस समय प्रचलित प्रख्यात मतों में से कुछ न कुछ अवश्य ही ग्रहण किया था। ब्राह्मणों के स्वर्ग-नर्क सिद्धान्तों से भी किचित् सदृशता बौद्ध मान्यता की बैठती है । यही कारण है कि सर्व प्रकार के विश्वासों वाले विविध पन्थ अनुयायियों को अपने धर्म में लाने के लिए म. बुद्ध ने इस प्रकार क्रिया की थी, जिसके समक्ष उन्होंने अपने सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता और औचित्य पर भी ध्यान नहीं दिया। किन्तु इसे और उनके धर्म की विशेष सदशता जैन धर्म से बंटती है, जो ठीक भी है, क्योंकि हम देख चुके हैं कि इस जैन धर्म का प्रभाव उनके जीवन पर किस अधिकता से पड़ा था। दोनों मतों में व्यवहृत शब्द भी जेसे आचार्य, उपाध्याय, प्राधव, संवर, गंधकुटी, शासन प्रादि प्रायः एक से हैं, यहापि यह बौद्ध धर्म में बहुत करके अपने शाब्दिक भाव को खो बैठे हैं।
नों के विवरण की तरह स्वर्गलोक के विवरण का भी किचित् सामंजस्य जन मान्यता से बैठ जाता है । भगवान महावीर ने चार प्रकार के देव बतलाये थे (१) भवनवासी, (२) ब्यन्तर, (३) ज्योतिष्क, (४) वैमानिक । इन प्रत्येक के दश दर्जे हैं, इन्द्र, सामानिक, प्रायस्त्रिश, पारिषद, आत्मरक्षक, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्बिषक । वौद्धों के यहाँ भी प्रथम प्रकार के देव "भुम्मदेव' के नाम से ज्ञात हैं। दूसरे प्रकार के प्रेत, असुर आदि हैं। तीसरे प्रकार के सूर्य, चन्द्र आदि बतलाये ये और अन्तिम प्रकार के देव यह समझना चाहिए जो कामश्वर लोक आदि के विमानों में मिलते हैं। इनमें अन्तिम प्रकार के देव स्वर्ग लोक के विमानों में रहते हैं। जैन सिद्धान्त में बतलाया गया है कि यह विमान मेरुपर्वत के तनिक अन्तर से ही तराजू के पलड़ों की तरह दो-दो ऊपर-ऊपर अवस्थित हैं। यह कुल १६ हैं। इनके ऊपर प्रैवेयक, अनुदिश, अनुत्तर और सर्वार्थ सिद्धि विमान हैं। इन ग्रेवेयकादि के निवासी देव सब पुरुष लिंग ही हैं और काम वासना से रहित हैं। यह अहमिन्द्र कहलाते हैं। बुद्ध ने जो रूप लोक के स्वर्ग बताये थे, वह भी इस ही प्रकार के हैं। जैन सिद्धान्त के लौकान्तिक देव जो ५वें स्वर्ग के सर्वोपरि भाग में अवस्थित ब्रह्मलोक में रहते हैं और जो आत्मोन्नति विशेष कर चके हैं कि दूसरे भव से ही मोक्ष लाभ करेंगे, वह भी बौद्धों के ब्रह्मलोक के देवों के समान हैं। बौद्ध कहते हैं कि यह देव ब्रह्मलोक में विशेष ध्यान करने के उपरान्त पहुँचते हैं। किन्तु इतनी
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भाग में राजा
मत यह मानते कि यहाँ भी एक
सदशता होने पर भी बौद्धों ने जितने स्वर्ग बताये हैं उतने जैन सिद्धान्त में स्वीकृत नहीं हैं, यद्यपि एक स्थान पर उनके यहाँ भी १६ ही बताये गये हैं। सचमुच बौद्ध शास्त्रों में इनको कोई निश्चित संख्या नहीं मिलती है। वे सात, पाठ, सोलह और सत्तरह भी बताये गये है। किन्तु इतने पर भी यह स्पष्ट है कि वौद्धों के स्वर्ग विवरण में भी जैन धर्म की छाप लगी दृष्टिगत होती है। यहाँ पर उनका तुलनात्मक पूर्ण विवरण करना कठिन है। यद्यपि यह स्पष्ट है कि अन्ततः बौद्ध और जैन दोनों ही यह स्वीकार करते हैं कि स्वर्ग लोक में वही जीव जन्मते हैं जो विशेष पुण्य उपार्जन करते हैं। प्रात्मवाद परोक्ष रूप में म. वृद्ध को भी अस्पष्ट रूप से स्वीकार करना पड़ा था, यह हम देख चुके हैं। जैन सिद्धान्त में स्वर्ग लोक से मोक्ष लाभ करना असम्भव बतलाया है, यौद्ध देवों द्वारा निर्वाण लाभ मानते हैं। किन्तु यह बात दोनों ही मानते हैं कि देवों में विक्रिया शक्ति है पीर हेय से हेय अवस्था का जीव स्वर्ग सुख का अधिकारी हो सकता है। जैन शास्त्रों में कथा प्रचलित है कि जब राजा श्रेणिक भगवान महावीर की वन्दना को विपुलाचल पर्वत को जा रहे थे, तब एक मेंढक के भी भाव भक्ति से भर गये थे और वह भी भगवान के समवशरण की ओर पूज्य भावों का भरा हुया जा रहा था कि मार्ग में राजा के हाथी के पैर से दब कर मर गया और इस पुण्य भाव से वह देव हुआ । बौद्धों के यहाँ भी एक ऐसी ही कथा 'विशति माग्ग' नामक ग्रन्थ में कही गयी है। फिर दोनों ही मत यह मानते हैं कि देवगति में भी देवगण अपने शुभाशुभ परिणामों के अनुसार सुख-दुख का अनुभव करते हैं, किन्तु दोनों में ऐसे भी देव माने गये हैं जो मोह के अभाव में दुःख का अनुभव करते ही नहीं हैं तथापि दोनों ही धर्मों के देवों के मरण समय का वर्णन भी प्रायः एक-सा है। बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि स्वर्ग से चय होने के कुछ ही पहले उस देव के (१) बस्त्र अपनी स्वच्छता खो बैठते हैं, (२) मालायें और उसके अन्य अलंकार मुरझाने लगते हैं, (३) शरीर से प्रोस की तरह पसीना निकलने लगता है, (४) और महल जिसमें उसका निवास होता है वह अपनी सुन्दरता गंवा देता है।
जैन शास्त्रों में भी मरण के छः महीने पहले से माला मुरझाने का उल्लेख मिलता है । साथ ही जैन सिद्धान्त में देवों के अवविज्ञान का होना माना गया है, परन्तु बौद्धों के यह स्वीकृत नहीं है।
इस प्रकार इन उक्त गतियों में परिभ्रमण करती हुई संसारी आत्मायें दुःख और पीड़ा को भगतती हैं। किन्तु भगवान कहते हैं कि जो सत्य की उपासना करते है और स्वध्यान में लवलीन रहते हैं वे भेद विज्ञान को पा जाते हैं। और भेद-विज्ञान जहाँ एक बार प्राप्त हुआ कि वहां फिर सम्यक्मार्ग में दिवस प्रतिदिवस उन्नति करते जाना अवश्यम्भावी है । जैनाचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी कहते हैं:
गुरुपदेशादभ्यासात्संक्त्तेि स्वपरांतरं ।
जानाति यः स जानाति मोक्षसौख्यं निरन्तरम् ।।३३।। भावार्थ-जिसने पारमा और पुद्गल के स्वरूप को जानकर भेद-विज्ञान प्राप्त कर लिया है चाहे वह गुरु की कृपा से प्राप्त किया हो अथवा वस्तुओं के स्वभाव पर बारम्बार ध्यान करने से या प्राभ्यन्तरिक प्रात्मदर्शन से पाया हो वह पात्मा मोक्ष सुख का उपभोग सदैव करता है।
भगवान महावीर ने संसार जाल से छूट कर मोक्ष लाभ करने का मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यग्चारित्र कर संयुक्त बतलाया था। व्यवहार दृष्टि से सम्यग्दर्शन, पूर्वोल्लिखित जंन तत्वों थद्धान करना है। इन्हों तत्वों का पूर्ण ज्ञान सम्यग्ज्ञान और जैन शास्त्र में बताये हुए पाचार नियमों का पालन करना सम्यग्चारित्र है। किन्तु निश्चय दष्टि से यह तीनों क्रमशः प्रात्मा का श्रद्धान, ज्ञान और स्वरूप की प्राप्ति है। सचमुच निश्चय सम्यक्चारित्र सिवाय पात्म समाधि के और कुछ नहीं है । व्यवहार दृष्टि निश्चय का निमित्त कारण समझना चाहिए।
व्यवहार सम्यग्चारित्र दो प्रकार का है (१) एकदेश गृहस्थों के लिए (२) पूर्ण जो साक्षात् मोक्ष का कारण है साधुओं के लिए । गृहस्थ, सम्यग्दर्शन, और सम्यग्ज्ञान को धारण करता हुआ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह से सम्यग्चारित्र का अभ्यास प्रारम्भ करता है । यद्यपि इससे नीचे दर्जे का गृहस्थ मात्र थद्वानी, मद्य, मांस, मधु और पांच उदम्बर फलों का ही त्यागी होता है। और सबसे नीचे दर्जे का व्यक्ति कोरा श्रद्धानी होता है। परन्तु उक्त पंच अणुव्रतों के पालन से बह व्रती गृहस्थ अथवा थाबक सम्यग्चारित्र के मार्ग में क्रमशः उन्नति करना प्रारम्भ करता है । इस उन्नतिक्रम का विधान, भगवान ने ११ प्रतिमाओं में किया है। इन ११ प्रतिमाओं का अभ्यास करके वह साधु के व्रतों को पालन करने का अधिकारी होता है। इन प्रतिमाओं में भाव, व्यक्ति विशेष को प्रात्मा ने पूर्व प्रतिमा से जो उन्नति को है उसको व्यक्त करना है।
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इनमें विविध प्रकार के व्रत जैसे गुणव्रत, शिक्षाव्रत, सामायिक प्रोषध इत्यादि गर्भित हैं। इन प्रतिमाओं को पूर्ण करके वह साधुओं के महाव्रतों का अभ्यासी होता है। इस अवस्था में वह उक्त व्रतों को पूर्ण रूप में पालता है।
ग्रात्म-समाधि की प्राप्ति के लिए गृहस्थों और साधुओं के लिए नित्य के छः श्रावश्यक कर्त्तव्य वतलाये गए हैं । साधुयों के लिए वह इस प्रकार है।
समदा थवो य वंदण पाडिक्कमण तहेब गादव्वं । पचक्खाण विसग्गो करणीयाबासया छप्पि ||२२||
अर्थात् समता सर्व के प्रति सब में समता भाव रखना, (२) स्तव - तीर्थंकर भगवान का स्तवन करना, (३) वन्दना देवशास्त्र गुरु की वंदना करना, (४) प्रतिक्रमण कृत पापों की बालोचना करना, (५) प्रत्यास्थान धनुक २ पदार्थों के त्याग करने का नियम करना घोर (६) परसर्ग अपनी देह से मनता हटाकर उसे तपश्चर्या में लगाना इस प्रकार साधु के लिए यह नित्य प्रति के षडावश्यक बताये गए हैं। श्रावक के लिए भी छः बातों का रोजाना करना लाज़मी बतलाया गया है । जैसे कि आचार्य कहते हैं ।
देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानवेति गृहस्थाणां कर्माणि विनेदिने ।
पद्मनविपविशतिका
अर्थात् - ( १ ) जिन भगवान की पूजा करना, उनके गुणों को स्मरण करके । जिन प्रतिमायें ध्यानाकार होती हैं। जिससे वे पुजारी के हृदय पर बात्म भाव को अकित करने में सहायक हैं (२) गुरुजन-निर्ग्रन्थ मुनि और साधु जन की उपासना करना और उनकी शिक्षाओं को ग्रहण करना (३) संयम का अभ्यास करना जिससे मन और इन्द्रियों पर अधिकार रहे, जैसे नियम करना कि में आज नाटक देखने नहीं जाऊँगा, केवल दो बार ही भोजन करूंगा, इतर फुलेल नहीं लाऊंगा इत्यादि । यह साधारण नियम है, परन्तु प्रात्मोन्नति में सहायक हैं (४) स्वाध्याय वास्त्रों का अध्ययन अध्यापन और मनन करना । (५) सामायिक प्रर्थात् एकान्त स्थान में प्रात: और सायंकाल बैठकर अथवा केवल प्रातः - को बैठ कर एक नियत समय तक तीर्थंकर भगवान के परम स्वरूप का अथवा आत्म गुणों का चित्तवन और ध्यान करना इससे आत्मशक्ति बढ़ती है और समताभाव की प्राप्ति होती है (६) दान-आहार घोषधि शास्त्र और अभय रूपी दान सब ही पात्रों को देना चाहिए। इन छः आवश्यक बातों को करने से उस आत्मदशा की प्राप्ति होती है जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्वारित्र साक्षात् रूप विराजमान हैं। यही वह मार्ग है जिसमें कर्मों का क्षय होता है और आत्मा शुद्ध और स्वतन्त्र होती जाती है।
आत्मस्थिति में अथवा आत्म ध्यान में उन्नति करना गुणस्थान क्रम में बतलाया गया है। यह गुणस्थान कुल १४ हैं । इनका पूर्ण विवरण जैन शास्त्रों में देखना चाहिए, किन्तु यह जान लीजिए १३ वे गुणस्थान में पहुँच कर मुनि चार घातिया कर्मों का अर्थात् ज्ञानावर्णी दर्शनावर्णी, मोहनीय और अन्तराय कर्मों को जो आत्मा के स्वभाव के घातक है, उनका नाश कर देता है और इस अवस्था में केवल ज्ञान सर्वज्ञता को प्राप्त करके महंत सयोग केवली अथवा सकल सशरीरी परमात्मा हो जाता है । यह जीवित परमात्मा दो प्रकार के होते हैं: (१) सामान्य केवली और (२) तीर्थकर सामान्य केवली स्वयं निर्माण लाभ करते हैं एवं अन्यों को भी मोक्ष मार्ग दर्शाते हैं, परन्तु उनके समवसरण आदि की विभूति नहीं होती है। तीर्थकरों के समवसरण होता है और वे वहां से 'तीर्थ' के भव्यों को मोक्ष मार्ग का सनातन उपदेश देते हैं। यह तीर्थ संघ चार प्रकार का होता है । (१) मुनि, (२) आर्यिका (३) श्रावक, (४) श्राविका । इसी चतुर्निकाय संघ को तीर्थकर भगवान अपनी गंधकुटी से प्राकृतिक रूप में उपदेश देते हैं जिसको सब कोई अपनी अपनी भाषा में समझ लेता है।
श्री नेमिचन्द्राचार्य जी महंत भगवान का स्वरूप यों बतलाते हैं :
चदुषाकम्मो दंसणगुणान पीरिय मइयो ।
सुहवो पप्पा सुद्धो अरिहो विचितिजी ||५० ॥
अर्थात् — महंत वह हैं जिन्होंने चार प्रकार के घातिया कर्मों को नष्ट कर दिया है और जो अनन्तचतुष्टय ग्रनन्त
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दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य, अनन्तसुखकर पूर्ण हैं, जिनका शरीर अपूर्व प्रभामय और विशुद्ध है। वास्तव में अहंत भगवान के मोहनीयादि कगों के प्रभाव से भूख, प्यास, भय, ईर्ष्या, द्वेष, मोह, जरा, रोग, मृत्यु, पीड़ा, मादि कुछ भी साधारण मानुषिक कमजोरियां शेष नहीं रहती हैं। इस अवस्था में वे साक्षात् जीवित परमात्मा होते हैं, उनके शरीर की प्रभा भी इस उच्चपद के सर्वथा उपयुक्त होती है। यही मालूम होता है मामो एक हजार सूर्य एकदम प्रकट हो गए हैं। यह इच्छाओं रो सर्वथा रहित और बिल्कुल बिशुद्ध होते हैं । यह पंचपरमेष्ठियों में सर्व प्रथम है, जिनकी उपासना आदर्शवत जैनी करते हैं।
___ अतएव जब यह सशरीरी परमात्मा बौदहवें गुणस्थान में पहुंच जाता है, तब वह अयोग केवलो कम्मरहित पूर्ण शुद्ध आत्मा हो जाता है। यह अवस्था उन भगवान को मोक्ष प्राप्ति में इतने अल्प समय पहले प्राप्त होती है। कि, इ, उ, ऋ, ल, इन पांचों अक्षरों का उच्चारण किया जा सके। यह बहुत हो सुक्ष्म समय है। इसके बाद शरीर को त्यागकर आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप में सदा के लिए तिष्ठ जाती है और सिद्ध कहाती है। सिद्ध भगवान फिर कभी लौटकर इस संसारावस्था में नहीं पाते हैं । बह सिद्धि शिला में तिष्ठे अपने स्वाभाविक मानन्द का उपभोग सदा करते रहते हैं।
सिद्ध भगवान एक पूज्यनीय परमात्मा हैं, जिनका यद्यपि संसार से सम्बन्ध कुछ भी नहीं है, तो भी उनका चिन्तवन शुभ भावों और पात्म ध्यान के लिए एक साधन है । आचार्य बाहते हैं :- .
णछैठकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणो दट्ठा ।
पुरिसायारा श्रप्पासिलोझाएह लोयसिहत्थो ॥५१॥ भावार्थ- नष्ट कर दिए हैं अष्ठ कर्म देह से जिसने लोकालोक का जानने वाला देह रहित पुरुष के आकार लोक के अग्रभाग में स्थित ऐसा आत्मा सिद्ध परमेष्ठी है सो नित्य ही ध्याथा जावे अर्थात् स्मरण करने योग्य है।
इस प्रकार भगवान महावीर ने संसार सागर में रुलती हुई आत्माओं को उससे निकलकर सच्चा स्वाधीन सुख पाने का मार्ग सुझाया था, जो पूर्ण स्वावलम्बन कर संयुक्त है । सारांशतः उन्होंने बताया था कि अनादिकाल से कम के कुचक्र में पड़ी हई आत्मा अपनी ही मोहजनित मुर्खता के कारण संसार में भटकती हुई दुःख और पीड़ा का अनुभव कर रही है, अतएवं जब वह अपने निजी स्वभाव' को पीर पर द्रव्यों के स्वरूप को स्वयं अपने अनुभव द्वारा अथवा गुरु के उपदेश से हृदयंगम कर लेती है तब यह रत्नत्रय रूपो मोक्ष मार्ग का अनुसरण करना प्रारम्भ कर देती है। तथापि दृढतापूर्वक उसका अभ्यास किये जाने से एक दिन वह कम रूपी परतन्त्रता की वेड़ियां काट डालती है और स्वयं स्वाधीन होकर परमात्मावस्था के परमोत्कृष्ट स्वराज्य का उपभोग करती है। सच्चा स्वराज्य यही है, इसी को पाने का उपदेश भगवान महावीर ने दिया था। इस हिंसक जमाने में सच्चे भारतवासियों को इस स्वराज्य प्राप्ति के मार्ग में दृढ़ता से कर्तव्यपरायण हो जाना परम उपादेय है । अहिसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, प्रचौर्य, और अपरिग्रह का अभ्यास प्रारम्भ करना स्वयं उनकी आत्मा एवं भारत के हित का कारण है। अहिंसा में गम्भीरता है, शौर्यता है । सत्यता में दृढ़ता है। जहां शौर्यता और दृढ़ता प्राप्त हुई वहां लोभ कषाय को तिलांजलि देते हए प्राकांक्षा और वाक्षा को नियमित किया जाता है और स्वावलम्बी बनने को तीब्र अभिलाषा अपना जोर मारने लगती है जिसकी प्रेरणा से वह यात्माभिमुख हुआ वीर संयम का अभ्यासी हो जाता है और क्रमश: आत्मोन्नति करता हुमा पूर्ण स्वाधीनता को पा लेता है। यही सच्चा सुख है। भारतीयता के लिए भगवान महावीर का उपदेश अतीव कल्याणकारी है। लोक के कल्याण भावना का जन्म उसको पाद देने से होता है।
अब जरा म बुद्ध के विषय में भी किचित और विचार कर लें। दुःख और पीड़ा कहाँ है, कैसे है और किसको है, यह हम उनके बताये मुताबिक पहले देख चुके हैं । उपरान्त उन्होंने इस दु:ख और पीड़ा से छुटने का उपाय यों बतलाया था।
___ "डे राजन ! सब ही अज्ञानी व्यक्ति इन्द्रिय सुख में प्रानन्द मानते हैं, उन्हीं को बासनापूति में मुखी होते हैं, उन्हीं के पीछे लगे रहते हैं। इसलिए वे मानुषिक कषायों की बाढ़ में बहे चले जाते हैं। वे जन्म, जरा, मरण, दुःख, शोक, आशा, निराशा से मबत नहीं हैं। मैं कहता हूँ वे पीड़ा से मुक्त नहीं होते हैं, किन्तु राजन् ! जो ज्ञानवान हैं ? तथागतों के अनयायी हैं. बेन इन्द्रिय बासनात्रों में आनन्द मानते हैं, न उनसे सुखी होते हैं और न उनके पीछे लगे रहते हैं, और जब वे उनके पीछे नहीं लगते हैं तो उनमें तृष्णा का अभाव हो जाता है । तृष्णा के प्रभाव से ग्रहण करना (Graping) बन्द हो जाता है। इसके बन्द होने से भव धारण करने का (Becoming) अन्त हो जाता है और जब भव का ही नाश हो गया तब फिर जन्म, जरा, रोग, शोक,
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मृत्यु पीड़ा प्रादि सब बन्द हो जाते हैं । इस प्रकार इस अभाव क्रम से पीड़ा के समुदाय का (Aggregation of pain) का अन्त हो जाता है, बस यही प्रभाव निर्वाण है । मिलिन्दपन्ह ३।४५
यह पीड़ा के अन्त करने का मार्ग है और प्रायः ठीक ही है, परन्तु इसका क्रियात्मक रूप इसका भेद प्रगट कर देगा। इस मत को प्रगट करते हुए भी म० बुद्ध के चरित्र नियम निर्वाण में इसको पूर्ण आदर नहीं दिया गया है। हम अगाडी यही देखेंगे। भगवान महावीर ने भी इन्द्रिय जनित विषय वासनाओं से दूर रहने का उपदेश दिया था, परन्तु म. बुद्ध की तरह उनका उद्देश्य "पूर्ण प्रभाव" नहीं था। उनका उद्देश्य एक वास्तविक पदार्थ था जिसको पाकर प्रात्मा स्वाधीन परमात्मा हो जाता है। भगवान महावीर और म० बुद्ध के मतों से यही विशेष दृष्टव्य अन्तर है। एक रंक से राव बनाने का मार्ग है, दूसरा रंक से प्रगाड़ी उठाकर उसका कुछ भी नहीं रखता है।
इस तरह म बद्ध का सर्वोत्कृष्ट उद्देश्य पुर्ण अभाव (Complete passing away) था और इसी उद्देश्य के लिए उनका चारित्र नियम निर्मित था। इस चारित्र नियम में पाठ बातें गभित थीं, अर्थात् (१) सत्य दृष्टि (Right Views), (२) सत्य उद्देश्य (Right Aspiratinos), (३) सत्यवार्ता (Right speech), (४) सत्य पाचरण (Right Conduct), (५) सत्य जीवन (Right Livelihood), (६) सत्य एकाग्रता (Right Mindfulness), (७) सत्य प्रयास (Right Effect), (८) और सत्य ध्यान अवस्था अर्थात् मानसिक शान्ति (Right Rapture)। इस अष्टांग मार्ग द्वारा ही संसार प्रवाह से व्यक्ति को छुटकारा पाकर अपने उद्देश्य को प्राप्ति होते मानी गई है। किन्तु यह अष्टांग मार्ग केवल भिक्षत्रों और भिक्षुणियों के लिए हैं। गृहस्थ अनुयायियों की गणना बौद्ध संघ में नहीं की गई है। इसका यही कारण है कि बुद्ध ने गृहस्थों के लिये कोई खास प्रात्मोन्नति श्रम नियत नहीं किया था, जैसा कि जैन धर्म में (११ प्रतिमाय) हैं। सचमुच बौद्ध भिक्षयों का जीवन भगवान महावीर के संघ के इन व्रती थावकों से भी सरल था। बुद्ध की मान्यता थी कि सुविधामय सूखी सांसारिक जीवन व्यतीत करने पर भी संसार से मुक्ति मिल सकती है, परन्तु जैन धर्म में यह स्वीकृत नहीं है । वस्तुत: जब तक संसार से बिल्कुल ही सम्बन्ध नहीं त्याग दिया जाएगा तब तक कर्मों से छुटकारा मिलना असम्भव है। बौद्ध साधुओं के सुविधामय जीवन की अपेक्षा ही बौद्ध संघ में व्रती श्रावकों को कोई भी स्थान प्राप्त नहीं था। हां सामान्य गृहस्थ अनुयायी बुद्ध देव के थे, जैसे कि जैन संघ में सम्मिलित व्रती थावकों के अतिरिक्त भगवान महावीर के साधारण श्रद्धानी श्रावक भी थे।
बुद्ध देव के उक्त अष्टांग मार्ग में "साक्यपुत्तीयसमणों" के लिए जो चारित्र नियम नियत थे, वह सब गभित हैं। बौद्ध आचार नियमों में जो "शील" मुख्य माने गये हैं, वह भी इसी में सम्मिलित हैं। वौद्धों के यह "शोल" जनों के १२ शीलव्रतों (५ अणुवत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षायत) से सामान्यत: मिलते जुलते प्रतीत होते हैं। बौद्ध शास्त्रों में यह शील पाठ बतलाए गए हैं और बौद्ध साधुओं के लिये इनका पालन करना आवश्यक है। यह आठ प्रकार हैं: - (१) अहिंसा, (२) प्रचौर्य, (३) पाप और काम सेवन का त्याग, (४) सत्य, (५) मादक वस्तुनों का त्याग (६) अनियमित समयों और रात्रि भोजन करने का त्याग, (७) नाचने, गाने, इतर-फुलैल के व्यवहार आदि का त्याग, प्रौर (८) जमीन पर चटाई बिछाकर सोना इनमें से पहले के चार तो जैनियों के अणुबतों के समान ही दिखते हैं, किन्तु जैनियों का पांचवां अणुव्रत बौद्धों के पांचवें शील से नितान्त विभिन्न और विशुद्ध है। उपरोक्त में शेष तीन जो रहे वे जैनियों के शिक्षा व्रत के हो संक्षिप्त और विकृत रूपान्तर है। यह सामंजस्य जाहिरा इतना स्पष्ट है कि हमें यह कहने में यह संकोच है कि इन नियमों को बुद्ध ने जैन धर्म से ग्रहण किया था किन्तु बुद्ध के निकट इन नियमों का वास्तविक महत्व प्रायः बहुत हल्का हो गया है। बौद्ध शास्त्रों में इनके लिए जो शब्द व्यवहृत हुए हैं वह भी इसी बात के द्योतक है। "दीघनिकाय" में हिंसा के लिए "पाणातिपात' चोरी के लिए "अदिन्नादान" कुशील के लिए "प्रब्रह्मचर्य" और "असत्य" के लिए "मुसाबाद" शब्द व्यवहृत हुए हैं । जैन शास्त्रों में भी ऐसे ही शब्द मिलते हैं । अतएव यह स्पष्ट है कि यहाँ भी जैन प्रभाव वाकी नहीं है। फिर महावा और चल्लवग्ग में जो बौद्ध नियमों का निर्माण क्रम वणित है वह हमारी उक्त व्याख्या की और भी पुष्टि करता है। इससे ज्ञात है कि बौद्ध नियम एकदम एक साथ निर्मित नहीं हुए थे। जैसे-जैसे जिस बात की आवश्यकता पड़ती गई वैसे-वैसे वह स्वीकार की गई। साधुओं को आचार्य, उपाध्याय
आदि में विभाजित करना जैन धर्म से ही मिलता है तथापि "वस्सा" (चातुर्मास) नियम खास जैनियों का है। इसी तरह गंधकुटी, शासन, प्राथव', संवर आदि शब्द मूल में जैनियों के ही हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्राचार नियमों को नियत करने में भी म० बुद्ध मे जैन प्राचार नियमों से सहायता ली थी।
किन्तु इस विषय में यह भूल जाना ठीक नहीं है कि यद्यपि जैन आचार नियमों से बौद्ध नियमों की इतनी सदृशता है,
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परन्तु बौद्ध नियम जैन नियमों के समान ही विशद और गम्भीर नहीं है। एक प्रती आवक के पालन करने योग्य अणुव्रत जितना भी महत्व उनका नहीं है। इस व्याख्या की यर्थाथता दोनों धर्मों के नियमों का तुलनात्मक विवेचन करने से स्वयं प्रमाणित हो जावेगी, किन्तु विस्तारभय के कारण हम यहाँ पर केवल दोनों धर्मों के ग्रहसा नियम को लेते हैं। जाहिरा उसका भाव दोनों धर्मों में एक है, परन्तु एक बौद्ध धम इस का पालन करते हुए भी मांस और गच्छी को भोजन में ग्रहण करने से आया पीछा नहीं करेगा। इसके विपरीत एक जैन गृहस्थ उनका नाम सुनना भी पसन्द नहीं करेगा। यद्यपि यह जैन मुनियों की अपेक्षा बहुत नीचे दर की महिसा का पालन करता है गी भिक्षु स्वयं तो किसी जीव का वध नहीं करेगा, परन्तु यदि कहीं भूत मांस मिल जाये तो उसको ग्रहण करने में संकोच नहीं करेगा। स्वयं महात्मा बुद्ध ने कई बार मांस भोज किया था। वैशाली में सेनापति सिंह के यहां जब मांस भोजन बुद्ध एवं बौद्ध साधुओं को कराया गया तो जैनियों ने उसी समय इसका प्रगटविशेष किया, किन्तु यह समझ में नहीं आया कि जब बौद्ध गृहस्थों के लिए भी हिंसागत लागू है तब वे किस तरह बौद्ध भिक्षुओंों के लिए मांस भोजन तैयार कर सकते हैं ? परन्तु बौद्ध शास्त्रों में अनेक स्थलों पर मांस भोजन तैयार किये जाने का उल्लेख मिलता है और एक स्थल पर जब मांस बाजार में नहीं मिला तो बौद्ध गृहस्थिन ने स्वयं अपनी जांच काटकर मांस तैयार करके बौद्ध संघ को मिलाया था। यह उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि म० बुद्ध की अहिंसा जैन अहिंसा से कितनी हे प्रकार की थी। जैन अपेक्षा वह हिसा ही है। म० बुद्ध ने केवल नीति में एम्पी में होकर पशुओं को नष्ट करने का विशेष किया था सूक्ष्म हिंसा की मोर उन्होंने दृष्टिपात ही नहीं किया। यह ख्याल ही नहीं किया कि मृत मांस में भी कोटि राशि सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती रहती है, जैसे कि आजकल विज्ञान (Science) से भी प्रमाणित है। इस अवस्था में भी मांस को खाना स्पष्टतः हिंसा करना है। इस तरह जैन अहिंसा का महत्व प्रकट है । स्वयं याधुनिक बौद्ध विद्वान् श्री धर्मानंद कौसम्बी का निम्न कथन जैन अहिंसा की विशेषता को प्रकट करता है। वह लिखते हैं कि म० बुद्ध पर यह आरोप था कि लोगों के घर आमंत्रण स्वीकार करके वह मांस भोजन करते थे और गृहस्थ लोग उनके लिए प्राणियों का वध करके वह मांस भोजन तैयार करते थे। जैन श्रमण दूसरे के घर का ग्रामन्त्रण स्वीकार नहीं करते। यदि खास उनके लिए कोई अन्म तैयार किया गया हो तो उसको निषिद्ध सममते थे और अब भी समझते हैं, क्योंकि उसके तैयार करने में अग्नि के कारण थोड़ी बहुत हिंसा होती ही हैं और स्वीकार करने से भ्रमण उस हिंसा का मानों अनुमोदन ही करता है महिंसा की यह व्यापक व्याख्या बुद्ध भगवान को पसन्द नहीं थी। जानबुझकर किसी भी प्राणी को क्रूरता पूर्वक न मारना चाहिए, सिर्फ यही उनका कहना था, अतएव म बुद्ध के चारित्र-नियम जैन धर्म के प्रणुव्रतों से भी समानता नहीं कर सकते यह प्रकट है। वास्तव में जिस प्रकार सिद्धान्त विवेचन में म० बुद्ध ने वैज्ञानिकता और पूर्णता का ध्यान नहीं रखा वैसे ही परिष नियमों के विषय में देखने को मिलता है एक याधुनिक विद्वान् उस विषय में लिखते हैं वह दृष्टव्य है ।
'परीक्षा करने पर यह प्रकट हो जाता है कि बौद्ध धर्म का सुन्दर ग्राचार वर्णन एक कम्पित नींव पर स्थिर हैं। हमें वेदों की प्रमाणिकता का निषेध करना है. अच्छी बात है। हमें महिसा धीर त्याग का पालन करना है, अच्छी बात है। हमें कर्मों के बन्धन तोड़ने हैं, अच्छी बात है, परन्तु सारे संसार के लिए यह तो बताइये हम हैं क्या ? हमारा नया है, सामाजिक उद्देश्य क्या है? इन समस्त प्रश्नों का उत्तर बोद्ध धर्म में अनूठा पर भयावह है, अर्थात् हम नहीं हैं। तो क्या हम छाया में श्रम परिश्रम कर रहे हैं ? और क्या अन्धकार ही ध्येय है ? क्यों हमें कठिन त्याग करना है और हमें क्यों जीवन के साधारण इन्द्रिय सुखों का निरोध करना चाहिए केवल इसलिए कि शोकादि नष्टता और नित्य मीन निकटतर प्राप्त हो जाएं। यह जीवन एक भ्रान्तवाद का मत है और दूसरे शब्दों में उत्तम नहीं है। समय ही ऐसी बात्मा के अस्तित्व को न मानने वाला विनश्वरता का मत सर्व साधारण के मस्तिष्क को संशोषित नहीं कर सकता। बौद्ध मत की याश्चर्यजनक उन्नति उसके सैद्धान्तिक नश्वरवाद (Nibilisn) पर निर्भर नहीं थी, बल्कि उसके नामधारी 'मध्यमार्ग' की तपस्या को कठिनाई के कम होने पर ही थी ।
बौद्ध धर्म में अगाड़ी कहा गया है कि वह व्यक्ति जो बुद्ध धर्म और संघ में खास कर बुद्ध में - श्रद्धा प्राप्त कर लेता है और मोहजनित अज्ञानता ( Delusion) को छोड़ देता है वह आभ्यन्तरिक दृष्टि को ( later sight) पाकर अन्ततः अर्हत हो जाता है । बुद्ध ने जिस समय सर्व प्रथम कोन्डन्स को अपने मत में दीक्षित किया तो उन्होंने कहा कि 'अन्नासि वत भी कोन्डो !' अर्थात् सचमुच कोन्डण्यने जान लिया है ? क्या जान लिया है ? वही मार्ग जिसको बुद्ध ने देखा था ( अन्नात Has that which is perceived ) इसके साथ वह ग्रहंत कहलाने लगा। वास्तव में बुद्ध के प्रारम्भिक शिष्य अपनी उपसम्पदा ग्रहण करने के साथ ही 'अहं' कहलाने लगे थे, जैसे कि हम देख चुके हैं। इस अवस्था में बौद्धों के निकट महंतु शब्द कितने हल्के
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अर्थ में व्यवहृत होता था, यह स्पष्ट है । स्व० मि. हीसडेविड्स हमको यही विश्वास दिलाते हैं कि व्यक्तित्व की प्रज्ञानता के नाश से जो विजय प्राप्त होती है, वह गौतम बुद्ध की दृष्टि से, इसी जीवन में और केवल इसी जीवन में प्राप्त करके भोगी जा सकती है। यही भाव बौद्धों की अर्हतावस्था से है । अर्हत् वह है जिसका जीवन आंतरिक दृष्टि से पूर्ण बन गया है, जो उत्तम अष्टांग मार्ग का बहुत कुछ अभ्यास कर चुका है और जिसने बन्धनों को तोड़ दिया है एवं जिसने बौद्ध धर्म के चरित्र नियम और संयम का पूर्णतः अभ्यास कर लिया है यह बौद्धों के अहंत का स्वरूप है। जिस समय व्यक्ति अष्टांगमार्ग का पूरा अभ्यास कर लेता है और ध्यान आदि में भी उन्नति कर चुकता है. बुद्ध कहते हैं, उसे आर्य ज्ञान का प्रकाश दृष्टि पड़ता है। यह मा बद्ध का निर्वाण है और व्यक्ति के मरण के पहले ही यह प्राप्त होता है। अंतिम मरण परिनिब्बान है। निब्वान अवस्था में आनन्द की प्राप्ति होती है, परन्तु इसके उपरांत व्यक्ति की क्या दशा होती है इस पर बुद्ध चुा है। यदि कहीं यह मौन भग किया गया है तो वहाँ स्पष्टता का अभाव है । कभी पूर्ण नाश का प्रतिपादन है तो कभी किसी यथार्थ दशा का। किन्त पूर्ण प्रभाव को ही प्रधानता प्राप्त है। परिनिव्वान में व्यक्ति का पूर्ण क्षय (खय) हो जाता है। यही मबद्ध का परम उद्देश्य है।
प्रकट रीति से हम मबद्ध के बताये हए अर्हत् और निर्वाण पदों की तुलना जैन सिद्धान्त के क्षायिक सम्यक्व और अहत पद से क्रमशः कर सकते हैं किन्तु यह तुलना केवल बाह्य रूप में ही है । मूल में बौद्धों के अर्हत पद की समानता जैनों के अईत पद से नहीं की जा सकती। प्रत्युत बाह्य रूप में जन अहंतावस्था के समान म. बुद्ध का निधान पद भी है, जिसका विवरण जाहिरा जैन विवरण से सदश्यता रखता है, यद्यपि मूल में वहाँ भी पूर्ण वेद विद्यमान है।
इस प्रकार म० बुद्ध और भगवान महावीर का उपदेश वर्णन है और यहाँ भी दोनों में पूरा पूरा अन्तर मौजूद है। भगवान महावीर का दिव्योपदेश एक सर्वज्ञ परमात्मा के तरीके बिलकुल स्पष्ट, पूर्ण और व्यवस्थित, वैज्ञानिक ढंग का प्रमाणित होता है । म बुद्ध का उपदेश तत्कालीन परस्थिति को सुधारने की दृष्टि से हरा प्रतीत होता है और उसमें प्रायः स्पष्टता का अभाव देखने को मिलता है । वास्तव में न म बुद्ध को ही अपने उपदेश की साद्धांतिकता को ओर ध्यान था और न उसके अनुयायियों को। उनके उपदेश की मान्यता जो इतनी विशद ई थी उसमें उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व कारण था। उनके निकट पहुंच कर व्यक्ति मोहन मंत्र की तरह मुग्ध हो जाता था उसे उनके धर्म के प्रोचित्य को जानने का खबर हो नहीं रहती थी। इसी बात को लक्ष्य करके उनका उपदेश भी विविध मान्यतामों को लिए हुआ था। प्रत्येक मत के अनुयायी का अपना भक्त बनाने के लिए मबद्ध ने अपने सिद्धान्तों को प्रायः सर्व मती में मिलता जुलता रक्खा था, परन्तु इस दशा में भी वह सफल मनोरथ नहीं हुए। लोगों को अनक्यता में ऐक्यता के दर्शन नहीं हुए और न उन्हें वह सुख मार्ग मिला जिससे उनके जीवन पूर्ण सुख के भोक्ता बनते, परन्तु इतने पर भी हम म० बुद्ध के सांसारिक पोड़ानों और दुःखों के वर्णन की प्रशंसा किये विना नहीं रह सकते । उन्होंने इसके प्रकट दर्शन किये और उसकी बड़ी ख्वी से शब्दों में चित्रित किया था।
भगवान महावीर ने वस्तुस्थिति को प्रतिपादित किया था और संसार की प्रत्येक अवस्था के प्राणी के लिए एक सच्चे सुख का मार्ग निर्दिष्ट किया था तथापि इस प्रतिपादन शैला में उनका स्थाबाद सिद्धान्त विशेष महत्व का था। उसके अनुसार वस्तु की प्रत्येक दशा का सच्चा ज्ञान प्राप्त होता था। परिमित बुद्धि और दृष्टि को रखते हए संसारी प्रात्मा पदार्थ के पूर्ण रूप को एक साथ शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं कर सकता । वह पदार्थ के एक देश को ही ग्रहण कर सकता है। इसलिए पदार्थ के पूर्ण स्वरूप को जानने के लिए स्याद्वाद सिद्धान्त परमावश्यक है। प्रात्ममीमांसा, स्याद्वाद मंजरी, सप्तभंगितरंगणी आदि ग्रन्थों में इसका पूर्ण विवेचन दिया हुआ है । यहां पर इसका सामान्य दिग्दन कराना भी कठिन है। इतना जान लेना हो पर्याप्त है कि इसकी सहायता के बिना हमारा किसी पदार्थ का विवरण अधूरा रहेगा। मान लीजिए यदि हमें मोहन के गहस्थी अपेक्षा व्यक्तित्व को प्रकट करना है, तो हम केवल उसको उसके पुत्र की अपेक्षा 'पिता' कहकर पूर्णत: प्रकट नहीं कर सकते, क्योंकि वह अपने पिता की अपेक्षा 'पुत्र' भानजे की अपेक्षा 'मामा' भतीजे की अपेक्षा 'चाचा' प्रादि है । स्याद्वाद सिद्धान्त इन्हीं सब सम्बन्धों को अपनी अपेक्षा 'दृष्टि पूर्ण व्यक्त कर देता है, जिसको सामान्य व्यक्ति अन्यया कहने को समर्थ नहीं है। यह एक सर्वज्ञ परमात्मा के ही संभव है कि वह एक वस्तु का एक-सा पूर्ण वर्णन प्रकट कर सके । जिस तरह सामान्य बातें स्याद्वाद सिद्धान्त से पूर्ण प्रकट होती हैं उसी तरह सैद्धान्तिक विवेचन भी इसी की सहायता से पूर्णता को प्राप्त होता है । बौद्ध दर्शन के न्याय में स्याद्वाद सदृश कोई नियम हमको नहीं मिलता है । यही कारण है कि म० बुद्ध का वक्तव्य एकान्त मत को लिए हुए है। उन्होंने कहा :
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प्राकिचन्नम पेक्खमानो सतीमा उपसीवाति भगवान प्रस्थीति निस्साय तरस्सु मोघम् । कामे पहाय बिरतो कथा हितन्हक्खयम् रत्तमहामि पस्य ॥ १०६६ ।।
सुत्तनिपात् अर्थात हे उपसिव ! दष्टि में शून्य को रखने हुए, विचारवान बनते हुए और किसी वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हुए ध्यान करना चाहिए । इन्द्रियवासनापी आदि के त्याग से ही संसार समुद्र के पार उतर कर इच्छा के प्रभाव का अनुभव किया जायगा । इसी तरह धम्मपद में कहा गया है कि--
दुनिया को पानी का बबूला समझो, वह मृगतृष्णा का नजारा है। जो इस प्रकार दुनिया को देखता है, उसे यमराज का भय नहीं रहता (१३।१७०) सर्व ही पदार्थ नाशवान हैं, जो इसको जानता और देखना है उसके दुःख का अन्त हो जाता है। यही पवित्रता का मार्ग है (२०२७७) भगवान महावीर के स्याद्वाद सिद्धान्त में इनका उपदेश एकान्त दृष्टि से नहीं दिया गया है। उसका श्रद्धानी स्पष्ट प्रकट करता है कि---
एकः सदा शाश्वति को ममात्मा, विनिर्मलः साधिगमस्वभावः । बहिभवाः सन्त्यपरे समस्ता, न शास्वताः कर्भभवाः स्वकीयाः ।। २६।।
सामायिक पाठ अर्थात–मेरा पात्मा अपने स्वभाव में सदैव एक है, नित्य है, विशुद्ध है और सर्वश है। दोष जो हैं वे मेरे से बाहिर हैं, अनित्य हैं और कर्म के ही परिणाम रूप है। इसलिए
संयोगतो दुःखमनेकभेद, यतोऽन्ते जन्मवने शरीरी।।
ततस्त्रिधासौ परिवजनीयो, यियासुना नि तिमात्मनीनाम् ॥२८ अर्थात-शरीर के संयोग में पड़ा हुआ यह आत्मा विविध प्रकार के दुःखों का अनुभव करता है । इसलिए जिन्हें अपनी आत्मा को मुक्ति वांछनीय है उन्हें इस शारीरिक सम्बन्ध को मन, वचन, काय को अपेक्षा त्यागना चाहिए।
इस तरह स्याद्वाद की अपेछा वस्तु का यथार्थ रूप प्रकट हो जाता है। म० बुद्ध की तरह भगवान महावीर ने भी संसार को अनित्य और नाशवान प्रकट किया है, किन्तु यह केवल व्यवहार नय को अपेछा है, जिसके अनुसार संसार में पर्याय उपस्थित होती रहती हैं। मूल में संसार के सामान्य अपेछा संसार नित्य हैं, क्योंकि संसार-प्रवाह का कभी अन्त नहीं होता है । इसीलिए जैन दर्शन में द्रव्य की व्याख्या "सद् द्रव्य नक्षणम् ॥२६॥ उत्पादव्यत्रौव्य-युक्तं सत्" ॥३०॥ ॥शा की है अर्थात द्रव्य सत्तावान नित्य है और यह वही है जो उत्पाद व्यय प्रौव्य कर संयुक्त है । इस तरह बस्तुओं के यथार्थ और व्यवहारिक दोनों रूपों का विवरण वास्तविक रीत्या जैन धर्म में दिया हुआ है। बौद्ध धर्म के समान एकांत वाद को यहाँ आदर प्राप्त नहीं है। इसलिए उचित रीति में ही प्राचार्य मल्लिसेन भगवान महावीर का यशोगान करते हैं---
अन्योन्यपक्षप्रतिपक्षभावात् यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः ।।
नयानशेषा नपिशेषमिच्छन् न पक्षपातो समयस्तथा ते॥ भावार्थ-- भगवान आपको वह पक्षपातमय एकान्त स्थिति नहीं है, जो कि उन लोगों की है जो एक दूसरे के विरोधी और पाप के मत से विपरीत हैं, क्योंकि आप उसी वस्तु को अनेक दृष्टियों से प्रतिपादित करते हैं।
इस तरह जैन सिद्धान्त-स्याद्वाद का महत्व प्रकट है। सचमुच यदि इसका उपयोग हम अपने दैनिक जीवन में करें तो हमारी धार्मिक असहिष्णुता का अन्त हो जावे । सब प्रकार के सिद्धान्तों की मानता की असलियत इसके निकट प्रकट हो जाती है। यही कारण है कि भगवान महावीर के दिव्योपदेश के उपरान्त उस समय में प्रचलित बहुत से मत मतांतर लुप्त हो गये थे और मनुष्य सत्य को जानकर आपसी प्रेम से गले मिले थे। इस प्रकार भगवान महाबीर और म० बुद्ध के धर्मों का दिग्दर्शन करके हम अपने उद्देशित स्थान को प्रायः पहुंच जाते हैं, अर्थात् भगवान महावीर और म० बुद्ध को विभिन्न जीवन घटनाओं का पूर्ण दिग्दर्शन कर चुकते हैं ।
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सिद्धि भूमियाँ श्री सम्मेद शिखर
इस स्थान का दूसरा नाम पार्श्वनाथ पर्वत है, यह जिला हजारीबाग के अन्तर्गत है । गिरीडीह स्टेशन से १८ मील और पारसमाथ (ईसरी) स्टेशन से लगभग १५ मील की दूरी पर है। इस शलराज की उत्तुंग शिखाएं प्राकृतिक और सांस्कृ. तिक गरिमा का गान आज भी गा रही हैं। यह समुद्र गर्भ से ४४८८ फुट ऊँचा है। देखने में बड़ा ही सुन्दर है। धनी बनस्थली से घिरे ढालू संकीर्ण पथ से पहाड़ी पर चढ़ाई आरम्भ होती है, जैसे ही प्रयाण करते हैं, पर्वतराज की विस्मयजनक शोभा उद्भासित होने लगती है और बीच-बीच में नाना रमणीय दृश्य दिखलाई देते हैं। लगभग एक सहस्र फुट ऊंचा जाने पर पाठ चोटियों के बीच पार्श्वनाथ चोटी बादलों के बीच गुम्मज सी प्रतीत होती है। अनेक अंग्रेज यात्रियों ने मुस्तकंठ से इस रमणीय स्थल का वर्णन किया है । सन् १८१६ में कोलोनेस फ्रैंकलिगन ने इसकी यात्रा की थी।
इस पर्वत की सबसे ऊंची चोटी सम्मेद शिखर कहलाती है। यह शब्द-शिखर का रूपान्तर प्रतीत होता है । इसकी निप्पत्ति सम् मद अर्थ में अथवा अच प्रत्यय करने पर हर्ष या हर्षयुक्त होगा। तात्पर्य यह है कि इसकी ऊंची चोटी को मंगलशिखर कहा जाता है । कुछ लोगों का अनुमान है कि जन श्रवण इस पर्वत पर तपस्यायें किया करते थे इसलिए इस पर्वत की ऊंची चोटी का नाम समणशिखर से सम्मेदशिखर हो गया है। इस मैलराज से चोवीस तीर्थंकरों में से अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, पदमप्रम, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, भैयांसनाथ, विमलनाथ, अनन्त नाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ, और पार्श्वनाथ, इन बीस तीर्थंकरों ने कर्मकालिका को नष्ट कर जन्म-मरण से मुक्ति की है।
बर्द्धमान कवि ने अपने दशभक्त्यादि महाशास्त्र में पार्श्वनाथ पर्वत की पवित्रता का वर्णन करते हुए श्री रामचन्द्र जी का निर्वाण स्थान इसे बतलाया है। जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से अन्धकार को नष्ट कर देता है उसी प्रकार इस क्षेत्र की अर्चना करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । कवि ने इस गैलराज को अनन्त केवलियों की निर्वाण भूमि बतलाया है।
श्री पं० आशाधर जी ने अपने त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र में राम और हनुमान का मुक्तिस्थान भी सम्मेदाचल को माना है। रविषणाचार्य ने अपने पद्मपुराण में हनुमान का निर्वाणस्थान भी इसी पर्वत को बतलाया है। श्री गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण में सुग्रीव, हनुमान भौर रामचन्द्र प्रादि को इस शैलराज से मुक्त हुए कहा है ।
श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य में चौबीस तीर्थकरों के तीर्थकाल में इस पवित्र तीर्थ की यात्रा करने वाले उन व्यक्तियों के आख्यान दिये गये हैं , जिन्होंने इस तीर्थ की वंदना से अनेक लौकिक फलों को प्राप्त किया तथा दीक्षा लेकर तपस्या की और इसी शैलराज से निर्वाण पद पाया ।
दिगम्बर आगमों के समान श्वेताम्बरी आगमों में भी इस क्षेत्र की महत्ता स्वीकार की गयी है। विविध तीर्थकल्प में पवित्र तीर्थों की नामाबली बतलाते हुए कहा गया है।
अयोध्या-मिथिला-चम्पा-थावती हस्तिनापुरे । कौशाम्बी-काशि-काकन्दी-काम्पिल्य भद्रलामिवे । चंद्रानना सिंहपुरे तथा राजगृहेपुरे । रत्नवाहे शौर्यपुरे कुण्डनामे प्यपपादया। श्रीरेवतक सम्मेत बेभारा ष्टापदाद्रिषु ।
यात्रायास्मिस्तेषु यात्राफलाच्छातगुणं फलम् ।। इस प्रकार इस तीर्थ की पवित्रता स्वत: सिद्ध है। यह एक प्राचीन तीर्थ है, परन्तु वर्तमान में इस क्षेत्र में एक भी प्राचीन चिन्ह उपलब्ध नहीं है। यहां के सभी जिनालय आधुनिक हैं, तीन-चार सौ वर्ष से पहले का कोई भी मन्दिर नहीं है। प्रतिमायें भी इधर सौ वर्षों के बीच की हैं । केवल दो-तीन दिगम्बर मूर्तियां जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित है, परन्तु इसकी
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प्रतिष्ठा भी मघवन में या इस क्षेत्र से सम्बद्ध किसी स्थान में नहीं हुई है। अतएव यह स्पष्ट है कि बीच में कुछ वर्षों तक इस क्षेत्र में लोगों का प्रावागमन नहीं होता था। इसका प्रधान कारण मुसलमानो सल्तनत से आन्तरिक उपद्रवों का होना तथा यातायात की असुविधाओं का रहना भी है । औरंगजेब के शासन के उपरान्त ही यह पृनः प्रकाश में आया है। तब से अब तक प्रतिवर्ष सहस्रों यात्री इसकी अर्चना, बंदना कर पुण्यार्जन करते हैं । १८वीं शनो में जो अंग्रेज यात्रियों ने भी इस क्षेत्र की यात्रा कर यहां का प्राकृतिक, भौगोलिक एव ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया है तथा तत्कालीन स्थिति का स्पष्ट चित्रण किया है। पर्वत की चढ़ाई, उतराई और वन्दना का क्षेत्र कुल १८ मोल तथा परिक्रमा का क्षेत्र २८ मील है । मधुवन से दो मील चढ़ाई पर मार्ग में गन्धर्व नाला और इससे एक मील प्राग सीता नाला पड़ता है।
ग्राज इस क्षेत्र में दिगम्बर पीर श्वेताम्बर जैनधर्मशालाम मन्दिर एवं अन्य गांस्कृतिक स्थान हैं। पहाड़ के ऊपर २५ गुम्म है, जिनमें निर्वाण प्राप्त २० तीर्थकर, गौतम गणधर एवं अवशेष चार तीर्थकरों की चरण पादुकाए स्थापित हैं । पहाड़ के नीचे मधुवन में भी विशाल जिनमंदिर हैं जिनमें भव्य एवं चित्ताकर्षक मूर्तियां स्थापित की गई हैं। भाव सहित इस क्षेत्र के दर्शन, पूजन करने से ४६ भव में निश्चयतः निर्वाण प्राप्त होता है तथा नरक और तिर्यक् गति का बंध नहीं होता। पावापुरी
अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी की निर्वाण भूमि पावापुरी, जिसे शास्त्रकारों ने पावा के नाम से स्मरण किया है अत्यन्त पवित्र है। इस पवित्र नगरी के पद्म सरोवर से ई०पू०५२७ में ७२ वर्ष को प्रायु में भगवान महावीर ने कात्तिक वदी अमावस्या के दिन उपाकाल में निर्वाण पद प्राप्त किया है। प्रचलित यह पानापुरी, जिसे पूरी भी कहा जाता है, बिहार शरोफ स्टेशन से मील दूरी पर है ।
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय वाले इस तीर्थ को समान रूप से भगवान महावीर की निर्वाण भुमि मानसे हैं। परन्तु ऐतिहासिकों में इस स्थान के सम्बन्ध में मतभेद है। महापण्डित श्री राहुल मांस्कृत्यायन गोरखपुर जिले के पपउर ग्राम को ही पावापुर बताते हैं, यह पडरोना के पास है और कसया से १२ मील उत्तर पूर्व को है। मल्ल लोगों के गणतन्त्र का सभा भवन इसी नगर में था।
मुनिथी कल्याणविजय गणी विहारशरीफ के निकट बाली पाबा को ही भगवान की निर्वाण नगरी मानते हैं। आपका कहना है कि प्राचीन भारत में पावा नाम की तीन नगरियां थीं। जैन मूत्रों के अनुसार एक पावा भंगिदेश की राजधानी थी। यह प्रदेश पाश्वनाथ पर्वत के पास-पास के भूमि भाग में फैला हुआ था, जिसमें हजारीबाग और मानभूमि जिलों के भाग शामिल हैं। बोद्ध साहित्य के मर्मज्ञ कुछ विद्वान् इस पावा को मलय देश की राजधानी बताते हैं। किन्तु जैन सूत्र ग्रन्थों के अनुसार यह भगिदेश की राजधानी ही सिद्ध होती है।
दूसरी पावा कोशल से उत्तर पूर्व कुशीनारा की पोर मल्ल राज्य की राजधानी थी, जिसे राहुल जी ने स्वीकार किया है।
तीसरी पावा मगध जनपद में थी, जो आजकल तीर्थक्षेत्र के रूप में मानी जा रही है। इन तीनों पावायों में से पहले पाबा माग्नेय दिशा में और दूसरी पाया वायव्य कोण में स्थिन थी। अत: उल्लिखित तीसरी पावा मध्यमा के नाम से प्रसिद्ध थी। भगवान महावीर का अन्तिम चातुर्मास्य तथा निर्वाण इसी पाषा में हुआ है।
श्री डा. राजवली पाण्डेय का भगवान महावीर की निर्वाण भूमि' शीर्षक एक निबन्ध प्रकाशित हुया है । आपने इसमें कुशीनगर से वैशाली की ओर जाती हुई सड़क पर कुशीनगर से मील की दूरी पर पूर्व दक्षिण दिशा में सठियाब' के भगनावशेष (फाजिलनगर) को निश्चित किया है। यह भग्नावशेष लगभग इन मील विस्तृत है और भोगनगर तथा कुशीनगर के बीच में स्थित है। यहां पर जंन मूर्तियों के ध्वंसावशेष अभी तक पाये जाते हैं। बौद्ध साहित्य में जो पाबा की स्थिति बतलायी गयी है, वह भी इसी स्थान पर घटित होती है ।
इन तीनों पावाओं की स्थिति पर विचार करने से एसा मालुम होता है कि भगवान महावीर की निर्वाण भूमि पाया डा. राजबली पाण्डेय द्वारा निरूपित है। उनके अनुसार इसी स्थान पर काशी कोशल के नी-लिच्छवी तथा नौ मल्ल एवं प्रठारह गणराजों ने दीपक जलाकर भगवान का निर्वाणोत्सव मनाया था। नन्दिवर्द्धन के द्वारा भगवान के निर्वाण स्थान की पुण्यस्मृति में जिस मंदिर का निर्माण किया गया था, आज वही मदिर फाजिल नगर का ध्वंसावशेष है। इस मंदिर को भी एक मील कं घरे का बताया गया है तथा यह ध्वंसावशेष भी लगभम एक-डेढ़ मील का है। ऐसा मालूम होता है कि मुसलमानी सल्तनत की ज्याद
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तियों के कारण जापानीन तीर्थ को लरेडकर मध्यम पाबा का ही तीर्थ मान लिया गया है। यहां पर क्षेत्र की प्राचीनता का। द्योतक कोई भी चिन्ह नहीं है । अधिक से अधिक तीन सी वा में इस क्षेत्रका तीर्थ स्वीकार किया गया है। यहां पर समवशरण मन्दिर की चरणपादुका ही इतनी प्राचीन है, जिससे इसे मान पाठ सौ वर्ष प्राचीन कह सकते हैं। मेरा तो अनुमान है कि इस चरणपादका को कहीं बाहर से लाया गया होगा। यह अनुमानतः १०वों शतो की मानमहातो है, इस पादका पर किसी भी प्रकार का कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है । इस चरणपादुका का प्राचीनता के अाधार पर ही कुछ लोग इसी पावापुरी को भगवान की निर्वाणभूमि बतलाते हैं। और वास्तव में यही अमला पावा है जलमन्दिर में जो भगवान महावीर स्वामी की चरणपादुका है, वह भी कम से कम छ: सौ वर्ष प्राचीन है। ये चरणचिन्ह भी पुरातन होने के कारण गलने लगे हैं। यद्यपि इन चरणों पर भी कोई लेख नहीं है । भगवान महावीर स्वामी के चरणों के अगल बगल में गुधर्म स्वामो प्रार. गोनम स्वामों के भी चरणचिन्ह है।
पायापुरी में जल मन्दिर मंगमरमर का बनाया गया है। यह मदर एक मालान के मध्य में स्थित है। मंदिर तक जाने के लिए लगभग ६०० फुट लम्बा लाल पत्थर का पुल है। मन्दिर को अपना और शिल्पकारी दर्शनीय है। धर्मशाला में एक विशाल मन्दिर नीचे है, जिसमें कई वेदियां हैं। नीचे सामने वाल। वेदी में शेनवर्ण पाषाण की महावीर स्वामी को मुलनायक प्रतीमा है। इस बंदी में कूल १४प्रतिमाए विराजमान हैं। मामने वाली वेदो के वाहाथ की ओर तीन प्राचीन प्रतिमाए हैं। इन प्रतिमानों में धर्मचक्र के नीचे एक और हाथी पीर दुमरी और वेल के चिन्ह यकिन किये गये हैं । यद्यपि इन मूर्तियों पर कोई शिलालेखादि नहीं है, फिर भी कला की दृष्टि से ये निश्चयतः ८-६ सी वर्ग प्राचीन है । मन्दिर में प्रवेश करने पर दाहिनी घोर प्राचीन पाश्वनाथ की प्रतिमा है। इस प्रतिमा में धर्मच के दोनों ग्रोर दो मिह अविन विये गये हैं।
ऊपर चार मन्दिर है-12) शोलापुर वालों का (२) श्री जगमग बीबी का मन्दिर (३) श्री बा. हरप्रसाद दासजी पारा वालों का मन्दिर और (८) जम्बप्रमाद जी सहारनपुर वालों का मन्दिर । ये मभी मन्दिर आधनिक हैं, प्रतिमा भी प्राधनिक हैं।
चम्पापुरी
चम्पापरीक्षेत्र में बारहवें तीर्थकर बामपूज्य स्वामी ने निर्वाण प्राप्त किया है। बिलोयपणति में बताया गया है कि फाल्गन कृष्णा पंचमी के दिन अपराह्नकाल में अश्विनी नक्षत्र के रहते छ: सौ एक मुनियों से युक्त वासुपूज्य स्वामी ने निर्वाण प्राप्त किया । यद्यपि उत्तरपुराण में वासुपूज्य स्वामी का निर्वाण स्थान मन्दारगिरि बताना गया है। कुछ एतिहासज्ञों का यह कहना है कि प्राचीनकाल में चम्पानगर का अधिक विस्तार था, अतः यह मन्दारगिर उस समय इसी महान् नगर को सीमा में स्थित था। भगवान वासुपूज्य इस चम्पानगर में एक हजार वर्ष तक रहे थे। श्वेताम्बर प्रागम ग्रन्थों में बताया गया है कि भगवान महावीर ने यहां तीन चातुमास व्यतीत किये थे। चम्पा के पास पूर्णभद्र चत्य नामक प्रसिद्ध उद्यान था, जहा महावीर करते थे। श्रोणिक के पुत्र अजातशत्रु ने इसे मगध की राजधानी बनाया था। वासुपूज्य स्वामी के चम्पा में ही अन्य चार कल्याणक भी हुए।
चम्पापुर भागलपुर में ४ मोल और नाथनगर रेलवे स्टेशन से मिला हुआ है। जिस स्थान पर वासुपूज्य स्वामी का निर्वाण हम्रा माना जाता है, उसी स्थान पर एक विशाल मन्दिर और धर्मशाला है। मन्दिर में पांच वेदियां है-चार बेदियां चारों कोनों में और एक मध्य में । मध्य वेदी में प्रतिमानों के आगे बासुपूज्य स्वामी के चरण काले पत्थर पर अंकित किये गये हैं। इन चरणों के नीचे निम्न लेख अंकित हैं।
स्वस्ति श्री जय श्रीमंगल संवत १६६३ दाक: १५५६ मनुनामसम्बत्सरे (संवत्सरे) मार्गशिर (मार्गशीर्ष शुक्ला २ शना भमहतं श्री मुलमंघ सरस्वतीगच्चवलात्कारगणे कुन्दकुन्दान्वये भट्टारक श्री कुमुदचन्द्रस्तत्पटले में श्री धर्मचन्द्रोपदेशात् जयपुर गभस्थानेवघेरवाल जाति से० श्रीपासा भा० से. श्रीमूनोई तथा प्रसथी ५ नामा० श्री सजाईमत चम्पावासुपूज्यस्य शिखरबद्ध प्रासाद कारण्य बिठा व "विद्याभूषणः प्रतिष्ठितं वद्धिता थी जिनधम्यं ।
मेरा अनुमान है कि जिस स्थान पर आजकल यह मन्दिर बना है उस स्थान पर वासुपूज्य स्वामी के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ये चार कल्याणक हुए हैं। निर्वाण स्थान नो मन्दागिरि ही है।
पूर के दो जिनालयों में से बड़े जिनालय के उत्तर-पश्चिम के कोने की वेदी में श्वेत वर्ण पाषाण की वासुपूज्य
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स्वामी की प्रतिमा है। यह प्रतिमा माघ शुक्ला दशमी को संवत् १९३३ में प्रतिष्ठित की गई है। इसी वेदी में ५-६ अन्य प्रतिमाएं हैं।
पूर्वोत्तर के कोने को बेदी में भी मूलनायक वासुपूज्य स्वामी की ही प्रतिमा है, इसकी प्रतिष्ठा भी संवत् १९३२ में ही हई है। इस बेदी में दो प्रतिमाएं पार्श्वनाथ स्वामी की पापाणमयी हैं। एक पर संवत् १५८५ और दूसरी पर संवत् १७४५ का लेख अंकित हैं।
पूर्व दक्षिण कोने को वेदी में मलनायक प्रतिमा पूर्वोक्त समय की वासुपूज्य स्वामी की है। इस वेदो में भगवान ऋषभदेय की एक खगासन प्राचीन प्रतिमा है, जिसमें मध्य में धर्म चक्र और इसके दोनों ओर दो हाथी अंकित है
दक्षिण-पश्चिम कोने की वेदी में भी मलनायक वामपूज्य स्वामी की प्रतिमा संवत ११३२ की प्रतिष्ठित है | इस वेदी मैं एक पार्श्वनाथ स्वामी की पापाणमयी प्रनिमा ब जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित संवत १५५४ की है। वीसवीं शताब्दी की कई प्रतिमाएं भी इस वेदी में है ।
मध्य की मुख्य वेदी में चांदी के भव्य सिंहासन पर ४ फुट ऊंची पीतवर्ण की पाषाणमयी वासुपूज्य स्वामी की प्रतिमा है। मूलनायक के दोनों ओर अनेक धातु प्रतिमा विराजमान हैं। बड़े मन्दिर के मामे मुगलकालीन स्थापत्य कला के ज्वलन्त प्रमाण स्वरूप दो मानस्तम्भ हैं, जिनकी ऊंचाई क्रमशः ५५ और ३५ फोट है।
मन्दिर के मल फाटकः पर नक्सामीदार किबाड़ हैं। मल मन्दिर की दीवालों पर सकौशल मुनि के उपसर्ग, सीता की अग्नि परीक्षा, द्रोपदी का चीर हरण आदि कई भव्य चित्र अकित किये गये हैं। द्रोपदी के चीरहरण और सीता की अग्नि परीक्षा में दरबार का दृश्य भी दिखाया गया है। यद्यपि इन चित्रों का निर्माण हाल ही में हुआ है, पर जैन कला को अपनी विशेषता नहीं आ पायी है।
इस मंदिर में प्राध मील गंगा नदी के नाले के तट पर, जिसको चम्पानाला कहते हैं, एक जैन मंदिर और धर्मशाला है। इसका प्रबन्ध श्वेताम्बरीय भाइयों के प्राधीन हैं। इस मंदिर में नीचे श्वेताम्बरी प्रतिमाएं और ऊपर दिगम्बर आदिनाथ की प्रतिमा विराजमान है। इन प्रतिमानों में में कई प्रतिमाएं, जो चम्पानाला से निकली हैं, बहुत प्राचीन हैं, अन्य प्रतिमाओं में एक खेत पापाण की १५१५ की प्रतिष्ठित तथा एक मंगिया रंग के पाषाण की पद्मासन सं० १९८१ में भट्टारक' जगकीति द्वारा प्रतिष्ठित है। प्रतिष्ठा कराने वाले चम्पापुर के सन्तलाल हैं। यहां अन्य कई छोटी प्रतिमानों के अतिरिक्त एक चरणपादुका भी है। श्वेताम्बर प्रागम में इसी स्थान को भगवान् वासुपूज्य स्वामी के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण इन पंचकल्याणकों का स्थान माना गया है।
श्री डब्लू० इठल हण्टर ने भागलपुर का स्टेटिकल एकाउन्ट देते हुए लिखा है कि जहां प्राजकल चम्पानगर में जैन मंदिर है, उस स्थान को ख्वाजा अहमद ने सन १६२२-३ में आवाद किया था। इस स्थान के पास-पास का मोहल्ला प्रकबरपुर कहलाता है । यह स्थान बहुत प्राचीन है, यहां पर अरण्य हैं। मन्चारगिरि
भागलपुर में ३१ मील दक्षिण एक छोटा सा पहाड़ अनुमानतः ७०० फुट ऊंचा एक ही शिला का है। यह प्राचीन क्षेत्र है। यहां से भगवान् वासुपूज्य ने निर्वाण लाभ किया है। उत्तर पुराण में बताया गया है :
स तैः सह विहृत्याखिलार्यक्षेत्राणि तर्पयन् । धर्मवष्ट्या क्रमाप्राप्य चम्पामब्दसहस्त्रकम् ।। स्थित्वात्र निष्क्रियो मास नद्या राजतमौलिवासंज्ञायाचित्तहारिण्या : पर्यन्तावनिबत्तिनि ।। अग्रमन्दरशैलस्य सानुस्थानविभूषणे । वन मनोहररोद्याने पल्यकासनमाथितः ।। मासे भाद्रपदे ज्योत्स्ने चतुर्दश्यापरान्ह के । विशाखायां ययौ मुक्ति चतुर्मवतिसंयतः ।।
- उत्तरपुराण पर्व ५८ इमो० ५०-५३ ८०६
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इससे स्पष्ट है कि वासुपूज्य स्वामी का निर्वाण स्थान यही है, जहां प्राजकल चम्पापुर का मन्दिर स्थित है, वहां से भगवान का निर्वाण नहीं हुआ है। इन श्लोकों में बताया गया है कि रजतमौलि नामक नदी के किनारे की भूमि पर स्थित मन्दारगिरि के शिखर पर स्थित मनोहर नामक उद्यान से भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी के दिन सन्ध्या समय विशाखा नक्षत्र में ४ मनिराजों के साथ बासुपूज्य स्वामी ने निर्वाण पद प्राप्त किया । भौगोलिक दृष्टि से पता लगाने पर ज्ञात हमा कि प्राचीन रजतमोपल नदी आज कल भी रजत नाम से प्रसिद्ध है। भाषा विज्ञान की अपेक्षा से रजतमोलि का रजत नाम सहज संभव है। अतएव वासुपूज्य स्वामी का यही मन्दारगिरि निर्वाण स्थान है।
पहाड़ के ऊपर दो वहुत प्राचीन जिनालय हैं, इनकी स्थापत्य कला ही इस बात को साक्षी है कि ये मन्दिर आज से कम से कम १० हजार वर्ष प्राचीन है । बड़े मन्दिर की दीवार को चौड़ाई ७ फोट है, जो बौद्ध काल को स्थापत्य कला सूचक
। पहाड के बड़े मन्दिर में वासुपूज्य स्वामी के श्यामवर्ण के चरण चिन्ह हैं। ये चरण भी बहुत प्राचीन हैं, पाषाण एवं शिल्प की दृष्टि से ई० सन की ८-९वीं सदी के अवश्य हैं। पहाड़ पर के छोटे मन्दिर में तीन चरणपादुकाएं है। ये पादुकाएं भी प्राचीन हैं तथा निर्वाण प्राप्त मुनिराजानों की हैं। बड़े मन्दिर के भीतरी दरवाजे के ऊपर एक प्राचीन मूति उत्कोणित है । पास की एक गुफा में मुनिराजों के चरण चिन्ह अंकित हैं।
मन्दारगिरि से लगभग दो मील की दूरी पर बौंसी गांव में दि जैन धर्मशाला एवं विशाल भव्य मन्दिर है। यात्रियों के ठहरने का प्रबन्ध यहीं पर है। धर्मशाला के मन्दिर में वी० सं० २४६६ को गेहुनां वर्ण को वासुपूज्य स्वामी की पद्मासन मति और भी कई मतियां एवं चरण पादुकाएं हैं। मन्दिर के बाहिरी दरवाजे के ऊपर दोनों ओर दो पाषाण के हाथी अपने पडादण्ड को ऊपर की ओर उठाये खड़े हुए हैं, बीच संगमरमर पर दि जैन मन्दिर लिखा गया है। बड़े शिखर के नीचे माजिक में कटी हुई फूल पत्तियों का शिखर बहुत ही भव्य और चित्ताकर्षक है। मंदिर के सामने बना हुआ छोटा संगमरमर का चतरा दूर से देखने पर बहुत ही सुहावना मालूम पड़ता है।
यहां एक अन्य प्रधुरा मन्दिर पड़ा हुआ है। इस मंदिर को पत्थर से बनवाने की व्यवस्था श्री सेठ तिलकचन्द कस्तूर चन्द वारामती (पूना) वालों ने की थी, पर कालचक्र के प्रभाव से यह मंदिर अभी अपूर्ण ही पड़ा है।
नेतरों के लिए भी यह क्षेत्र पबित्र और मान्य है। यहाँ सीताकुण्ड और बोख कुण्ड नामक दो शीतल जल के कुण्ड हैं। पर्वत की तलहटी में पापहरणी पुष्करणी नामक तालाब हैं। कहा जाता है कि समुद्र मन्थन के समय मथानी का कार्य इसी पर्वत से लिया गया था।
बीच में कई शताब्दियों तक जैनों की शिथिलता के कारण यह तीर्थ अन्धकाराछन्न हो गया था। २० अक्टूबर सन् 388 में सबलपूर के जमींदारों से इसकी रजिस्ट्री करायी गई है। इस तीर्थ को पुन: प्रकाश में लाने का श्रेय स्व. वा. देवकमार जी आरा, स्व० राय बहादुर केसरे हिंद सखीचन्द्र जी कलकत्ता एवं श्री बाबू हरिनारायण जी भागलपुर को है। यव यह तीर्थ दिनों दिन उन्नति करता जा रहा है। राजगृह
यह स्थान पटना जिले में है। ई० आर० रेलवे के बख्तियारपुर जंक्शन से विहार लाइट रेलवे का अन्तिम स्टेशन और यहां पंचपहाड़ी की तलहटी में दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन धर्मशालाए एवं जिन मंदिर हैं। पाँचों पहाड़ों पर भी दिगम्बर और श्वेताम्बर मन्दिर हैं ।
राजगह का पूर्व इतिहास अत्यन्त गौरव पूर्ण है। इस नगर को कुशात्मज वसु ने गंगा और सोन नदी के संगम पर घसाया था। महाराज श्रेणिक ने पंचपहाड़ी के मध्य में नवीन राजगृह नगर को बसाया, जो अपनी विभूति और रमणीयता में अद्वितीय था। महाराजबसू से लेकर थेणिक तक यह उत्तर भारत का शासन केन्द्र रहा है। जब श्रेणिक के पुत्र अजानशत्रु ने मगध की राजधानी चम्पा को बनाया, उस समय किसी कारणवश प्राग लग जाने से यह नगर नष्ट हो गया।
राजगृह का भगवान् महावीर से पहले भी जैन धर्म का सम्बन्ध रहा है। रामायण काल में भगवान मुनिसुबत नाथ के गर्भ, जन्म, तप, और ज्ञान ये चार कल्याणक यहीं हुए थे। पश्चात् इसी वंश में अर्द्धचको प्रतिनारायण जरासिन्धु हमा । यह महापराक्रमी और रणशूर था, इसके भय से यादवों ने मथुरा छोड़कर द्वारिका का प्राश्रय ग्रहण किया था। राजगह के साथ जैन धर्म का इतिहास जुड़ा हुआ है। यहां भगवान आदिनाथ पोर वामपूज्य के अतिरिक्त अवशेष २२ तीर्थंकरों
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के समवसरण आये थे । भगवान महावीर ने यहां वर्षाकाल व्यतीत किया था तथा इनके प्रमुख भक्त इसी नगर निवासी थे । राजगृह के पंचहाड़ों का वर्णन तिलोयपण्णति, धवलाटीका, जयधवलाटीका, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण, ऋणुतत्तरोवबाई दांगसूत्र, भगवती सूत्र, जम्बु स्वामी चरित्र, मुनिसुव्रतकाव्य, नायकुमार चरिउ, उत्तरपुराण आदि ग्रन्थों में उपलब्ध हैं । तिलोपत्ति में इसे पंचदौलपुर नगर कहा गया है। बताया गया है कि राजगृह नगर के पूर्व में चतुष्कोण ऋषिशैल, दक्षिण में त्रिकोण वेभार, नैऋत्य में त्रिकोण विपुलाचल, पश्चिम, वायव्य और उत्तर दिशा में धनुषाकार छिन्न एवं ईशान दिशा में पाण्डु नाम का पर्वत है ।
खंडागम की धवला टीका में वीरसेन स्वामी ने पंच पहाड़ियों का उल्लेख करते हुए दो प्रचीन श्लोक उद्धृत किए हैं, जिनमें पंच पहाड़ियों के नाम क्रमशः ऋषिगिरि, वैभारगिरि, विपुल, चन्द्र और पाण्डु आये हैं ।
हरिवंश पुराण में बताया गया है कि पहला पर्वत ऋषिगिरि है, यह पूर्व दिशा की ओर चौकोर है, इसके चारों ओर भरने निकलते हैं । यह इन्द्र के दिग्गजों के समान सभी दिशाओं को सुशोभित करता है। दूसरा दक्षिण दिशा की भोर वैभारगिरि है, यह पर्वत त्रिकोणाकार है। तीसरा दक्षिण पश्चिम के मध्य त्रिकोणाकार विपुलाचल है, चौथा बलाहक नामक पर्वत धनुष के ग्राकार का तीनों दिशाओं को घेरे शोभित है, पाँचवां पाण्डुक नामक पर्वत गोलाकार पूर्वोत्तर मध्य में है । ये पांचों पर्वत फल पुष्पों के समूह से युक्त हैं। इन पर्वतों के बनों में वासुपूज्य स्वामी को छोड़ शेष समस्त तीर्थकरों के समवशरण प्राये हैं। ये वन सिद्धक्षेत्र हैं, इनकी यात्रा को भव्य जीव आते हैं।
राजगृह सिद्ध भूमि है, यहां भगवान महावीर का विपुलाचल पर प्रथम समवशरण लगा था । श्रवसर्पिणी के चतुर्थकाल के अन्तिम भाग में ३३ वर्ष माह और १५ दिन श्रवशेष रहने पर श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के दिन अभिजित नक्षत्र के उदित रहने पर धर्म तीर्थ की उत्पत्ति हुई थी। इस स्थान से अनेक ऋषि मुनियों ने निर्वाण पद प्राप्त किया है। श्रद्धेय श्री नाथूराम प्रेमी ने अपने अनेक प्रमाणों द्वारा नंग अनंग आदि साढ़े पांच करोड़ मुनिराजों का निर्वाण स्थान यहाँ के ऋष्यति को बतलाया है । आजकल यह ऋद्र चतुर्थ पहाड़ स्वर्णगिरि या सोनागिर कहलाता है । श्री प्र ेमी जी ने निर्वाण भक्ति के पद्म को प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत कर यंग अनंग कुमार का मुक्ति स्थान राजगृह की पंच पहाड़ियों में श्रमगिरिसोनागिरि को ही सिद्ध किया है। पूर्वापर सम्बन्ध विचार करने पर यह कथन युक्तिसंगत प्रतीत होता है ।
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राजगृह के विपुलाचल पर्वत से श्री गौतम स्वामी ने निर्वाण लाभ किया है । उत्तर पुराण में बतलाया गया हैगत्वा विपुलशब्दादिगिरी प्राप्स्यामि निर्वृतम् । मन्निवृतिदिने लब्धां सुधर्मा श्रुतपारगः ॥
उत्तर पुराण पर्व ७६ श्लोक ५१
और जम्बू स्वामी ने भी विपुलाचल पर्वत से ही निर्वाण प्राप्त किया है । केवली राजगृह से ही निर्वाण प्राप्त किया है। सेठ प्रीतंकर ने भगवान महावीर से मुनि दीक्षा घोवरी पूत गन्धा ने यहीं की नील गुफा में सल्लेखना व्रत ग्रहण कर शरीर त्याग
अन्तिम केवली श्री सुधर्मस्वामी घनदत्त, सुमन्दर और मेघरथ ने भी लेकर यहीं आत्म कल्याण किया था। किया था।
मन्दिर हैं। नीचे छोटे मन्दिर में श्यामवर्ण कमल पर तीन मन्दिर हैं। पहले मन्दिर में चन्द्रप्रभु की स्वामी की श्वेतवर्ण की मूर्ति वेदी में विराजमान
पहला पहाड़ विपुलाचल है। इस पर्वत पर चार दिगम्बर जैन के ऊपर भगवान महावीर स्वामी की चरण पादुका हैं। थोड़ा ऊपर जाने चरण पादुका प्राचीन है। मन्दिर भी प्राचीन हैं। मध्यवाले मन्दिर में चन्द्रप्रभु हैं। वेदी के नीचे दोनों ओर हाथी खुदे हुए हैं, बीच में एक वृक्ष है। बगल में एक और सं० १५४८ की श्वेतवर्ण की चन्द्र प्रभुस्वामी की मूर्ति है । यह मूर्ति ई० सन् ८ वीं शती की प्रतीत होती है । अन्तिम मन्दिर की वेदिका में श्वेतवर्ण की महावीर की स्वामी की मूर्ति विराजमान हैं। बगल में एक प्रोर श्यामवर्ण मुनिसुव्रतनाथ की मूर्ति और दूसरी ओर उन्हीं के चरण हैं। मूर्ति प्राचीन और चरण नवीन हैं ।
दूसरे रत्नगिरि पर दो मन्दिर हैं एक प्राचीन मंदिर है और दूसरा नवीन नवीन मंदिर को श्रीमती ब्र० पं० चन्दाबाई जी ने बनवाया है इसमें मुनिसुव्रत स्वामी की श्यामवर्ण की भव्य और विशाल प्रतिमा विराजमान है। पुराने मन्दिर में श्यामवर्ण महावीर स्वामी की चरण पादुका है।
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तीसरे उदयगिरि पर एक मन्दिर है। इसमें श्री शालिनाथ और पार्श्वनाथ स्वामी की प्राचीन प्रतिमायें एवं आदिनाथ स्वामी के चरण चिह्न हैं। एका महावीर स्वामी की भी खड्गागन श्यामवर्ण प्राचीन प्रतिमा है। यह नया मन्दिर भी कलकत्ता निवासी श्रीमान सेठ रामबल्लभ रामेश्वर जी की ओर से बना है।
चौथे स्वर्णगिरि पर दो मंदिर है। एक मदिर फिरोजपुर निवासी लाल तुलसीराम ने बनवाया है। इस नये मंदिर में शांतिनाथ स्वामी की श्यामवर्ण की प्रतिमा तथा नेमिनाथ और आदिनाथ स्वामी के चरण चिन्ह हैं । यहाँ एक प्राचीन खड्गासन मति भी है। पुराने मन्दिर में भी भगवान महावीर के नवीन चरण चिन्ह हैं। यह मन्दिर छोटा-सा और पुराना है।
पांचव बंभारगिरि पर एक मन्दिर है। यहाँ पर एक चौबीसी प्रतिमा महावीर स्वामी, नेमिनाथ स्वामी प्रौर मनिसुव्रत स्वामी की श्यामवर्ण की प्राचीन प्रतिमाएं हैं। मेमिनाथ स्वामी के चरण चिन्ह भी हैं।
पहाडी के नीचे दो मंदिर हैं। एक मंदिर धर्मशाला के भीतर है तथा दरारा धर्मशाला के बाहर विशाल बगीचे में । बाहर वाले मंदिर को देहली निवासी लाला न्यादरमल धर्मदास जी ने एक लाख रुपये से ६ फरवरी सन् १९२५ में बनवाया है इस मंदिर में पांच बेदिकाये हैं। पहली बेदी के बीच में श्यामवर्ण नेमिनाथ स्वामी की प्रतिमा है, यह पदमासन मति डेढ़ फुट ऊंची सम्वत् १९८० में प्रतिष्टित की गई है। इसके दायीं ओर शांतिनाथ स्वामी और वायी ओर महावीर स्वामी की प्रतिमाएँ हैं। ये दोनों प्रतिमाएं विक्रम की २० वीं शदी की है। इस वेदिका में धातुमयी कई छोटी-छोटी मतियाँ है. जो सं० १७८१ की है। इस वेदी में दो चाँदी की भी प्रतिमाएं हैं।
दसरी बेदी में चन्द्रप्रभ स्वामी की श्वेतवर्ण की ३ फीट ऊँची प्रतिमा है इसकी प्रतिष्ठा वी० सं० २४४९ में हुई है । चतुर्मुखी धातु प्रतिमा भी इस वेदी में है।
मध्य की वेदी सबसे बड़ी वेदो है, इस पर सुनहला कार्य कलापूर्ण हुमा है । वेदी के मध्य में मुनिसुव्रतनाथ की श्यामवर्ण की प्रतिमा, इसके दाहिनी ओर अजितनाथ की अोर वायीं और संभवनाथ की प्रतिभा है। ये प्रतिमाएँ भी वि० सं० १९८० की प्रतिष्ठिता हैं । चौथी में विक्रम संवत् १९७६ की प्रतिष्ठित चन्द्र प्रभु और शांतिनाथ की प्रतिमाएँ हैं। पांचवीं वेदी के बीच में कमल पर महावीर स्वामी को बादामी रंग की वि० सं० २४६२ की प्रतिष्ठित प्रतिमा है। इसमें ग्रादिनाथ शीतलनाथ की भी प्रतिमाएं हैं।
धर्मशाला के भीतर का छोटा मन्दिर गिरिडीह निवासी सेठ हजारीमल किशोरी लाल जी ने बनवाया है। इस मंदिर की वेदी में मध्यवाली प्रतिमा भगवान महावीर स्वामी को है। इसका प्रतिष्ठा काल माघ सुदी १३ संवत् १८४१ लिखा है। इसके बगल में पार्श्वनाथ स्वामी की दो प्रतिमाएं हैं, जिनका प्रतिष्ठा काल वैशाख सुदी ३ सं० १५४८ लिखा है। इस बेदी में और भी कई प्रतिमाएं हैं। गुणावा
यह सिद्ध क्षेत्र माना जाता है, यहाँ से गौतम स्वामी का निर्वाण हुमा मानते हैं, पर यह भ्रम है। गौतम स्वामी का निर्वाण स्थान विपुलाचल पर्वत है, गुणाबा नहीं। हां, इतनी बात अवश्य है कि गौतम स्वामो नाना देशों में बिहार करते हए गुणाबा पहुंचे थे और यहाँ तपस्या की थी।
यह स्थान नवादा स्टेशन से १-११३ मील की दूरी पर है। यहाँ पर श्रीमान सेठ हकमचन्द जो साहब ने जमीन खरीद कर धर्मशाला एवं भव्य मन्दिर का निर्माण कराया था धर्मशाला के मन्दिर में भगवान कुन्धनाथ स्वामी की ४-११३ फुट ऊंची श्वेतवर्ण की पद्मासन प्रतिमा है। इसकी प्रतिष्ठा चैत्र शुक्लाष्टमी सं० १९६५ में हुई है । वेदी में चार पाश्र्वनाथ स्वामी की प्रतिमायें हैं, जिनका प्रतिष्ठाकाल सं० १५४८ है। इस वेदी में एक वासुपूज्य स्वामी को प्रतिष्ठा सारंगपुर निवासी दाताप्रसाद भावसिंह भार्या अमरादिने करायी है । वेदी में कुन्थनाथ स्वामी की प्रतिमा के पीछे एक सं० १२६८ की एक और प्रतिमा है। यहाँ गौतम स्वामी के चरण वीर सं० २४५३ के प्रतिष्ठत हैं। बेदी सुन्दर संगमरमर की है, इसका निर्वाण कलकत्ता निवासी श्रीमान सेठ माणिकचन्द्र जी की धर्मपत्नी ने कराया है।
. धर्मशाला के दिगम्बर मग्दिर से थोड़ी ही दूर पर जल मन्दिर है। यह मन्दिर एक ६-७ फीट गहरे तालाब के मध्य में बनाया गया है। मन्दिर तक जाने के लिए २०३ फीट लम्बा पुल है। आजकल इस जल मन्दिर पर दिगम्बर और श्वेताम्बर भाइयों का समान अधिकार है, यहाँ एक दिगम्बर पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा तथा गौतम स्वामी की चरणपादुका है। इस
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चरणपादुका को प्रतिष्ठा सं० १६७७ में हुई है। दि० धर्मशाला का पुजारी प्रतिदिन इस जल मन्दिर में अपनी प्रतिमा तथा चरणपादुका का अभिषेक पूजन करता है। इस जल मन्दिर में श्वेताम्वरीय आम्नाय के अनुसार वासुपूज्य स्वामी के चरण, जोबोसी, चरण, चौवीस स्थानों पर पृथक-पृथक भौजीस भगवानों के चरण एवं महावीर स्वामी के चरण कई स्थानों पर हैं। यहाँ मूलनायक प्रतिमा स्वामी महावीर भगवान की है। यह मन्दिर प्राचीन और दर्शनीय है ।
धर्मवाला के मन्दिर के सामने वीर सं० २४०४ में गया निवासी श्रीमान सेठ राम बूलाल जी ने मानस्तम्भ बनवाकर इसकी प्रतिष्ठा करायी है।
कमलदह (गुलजारबाग )
यह सेठ सुवर्धन का निर्वाणस्थान माना गया है। सेठ सुदर्शन ने इस स्थान मुनि श्मशान में ध्यानस्थ थे, आकाशमार्ग में रानी प्रभा जीव जो ही विमान आया कि वह मुनि के योगप्रभाव से आगे नहीं बढ़ पाया । उसने उन्हें भयानक उपसर्ग दिया, परन्तु धीरवीर सुदर्शन मुनिराज ध्नान में सुमेर की तरह अटल रहे। देवों ने उनका उपसर्ग दूर
पर पोर तपश्वरण किया था। जब सुदर्शन हुआ था जा रहा था। मुनि के ऊपर ज्यों कुअवधिज्ञान से पूर्व शत्रुता को वगत कर
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किया
मुनि ने योग निरोध कर गुगल द्वारा घातिया कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया। इन्होंने गुलजारबाग - कमलवह क्षेत्र से पौष शुद्ध ५ के दिन अपराहन में निर्माण पद पाया।
गुलजारबाग स्टेशन से उत्तर की ओर एक धर्मशाला औौन्दिर है। धर्मशाला से थोड़ी ही दूर पर मुनि सुदर्शन का निर्वाण स्थान है ।
कुण्डलपुर ---
यह भगवान महावीर का जन्म स्थान माना जाता है, पर अब अनेक ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर वैशाली का कुण्डलग्राम भगवान की जन्मभूमि सिद्ध हो चुका है। यह स्थान पटना जिले के अन्तर्गत है और नालन्दा स्टेशन से डेढ़-दो मोल को दूरी पर है। यहां पर धर्मशाला के भीतर विशाल मन्दिर है वेदी में मूलनायक प्रतिमा महावीर स्वामी की है, इसको प्रतिष्ठा माघ शुक्ला १३ सोमवार सं० १९८२ में हुई है। तीन प्रतिमाएँ पार्श्वनाथ स्वामी की है, जिनकी प्रतिष्ठा वैशाख सुदी ३ सं० १५४८ में हुई है। इस वेदी में ७ प्रतिमाएं और एक सिद्ध परमेष्ठी की प्राकृति है । स्थान रमणीय और शान्तिप्रद है । आत्म कल्याण करने के लिए यह स्थान सर्वथा उपयोगी है। अब तो नालन्दा में पाली प्रतिष्ठान के खुल जाने से इस स्थान की महत्ता वह गयी है।
वंशाली
भगवान महावीर का जन्मस्थान यही प्रदेश है। वैशाली संघ ने इस स्थान के अन्वेषण में अपूर्व श्रम किया है। यहाँ से खुदाई में भगवान महावीर स्वामी की एक प्राचीन मनोज्ञ प्रतिमा प्राप्त हुई है। श्राजकल यहां पर भगवान महावीर का विशाल मन्दिर बनाने की योजना चल रही है। मन्दिर बनाने के लिए लगभग १३ बीघे जमीन स्थानीय जमींदारों से प्राप्त हो चुकी है। यहाँ मन्दिर प्रादि की व्यवस्था के लिए "वैशाली तीर्थ कमेटी" का संगठन हुआ है। वैशाली संघ के तत्वावधान मैं बिहार सरकार यहाँ "प्राकृत प्रतिष्ठान" खोलने जा रही है। यह स्थान मुजफ्फरपुर जिले में पड़ता है।
कुलुचा पहाड़
यह पर्वत गया से ३८ मील हजारीबाग जिले में है। यह पहाड़ जंगल में है, इसकी चढ़ाई दो मील है। यहाँ सैकड़ों जैन मन्दिरों के भग्नावशेष पड़े हुए हैं। यहां १०वें तीर्थंकर श्री शीतलानाथ ने तप करके केवलज्ञान प्राप्त किया था यहाँ पाप नाथ स्वामी की एक अखण्डित्यन्त प्राचीन पद्मासन् २ फुट ऊंची कृष्णवर्ण की प्रतिमा है। इस प्रतिमा को आजकल जैनेतर द्वारपाल के नाम से पूजते हैं। यहां एक छोटा दि० जैन मन्दिर पांच कलशों का शिखरबन्द बना हुआ है, यह मन्दिर प्राचीन है इसमें सन् १९०१ श्री सुपार्श्वनाथ भगवान की इस मोड़ी पद्मासन मूर्ति विराजमान थी परन्तु अब केवल पासन ही रह गया है । मन्दिर के सामने पर्वत पर एक रमणीय ३००६० गजका सरोवर है। यहाँ पर अनेक खण्डित जैन मूर्तियों के अवशेष पढ़े हुए हैं। एक मूर्ति एक हाथ की पश्चासन है, आसन पर संवत् १४४३ लिखा मालूम होता है। यहां की सब से
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ऊंची चोटी का नाम "आकाशालोकन" है। यह नीचे से डेढ़ मीस ऊंची होगी। इस शिखर पर एक चरणपादुका बहुत प्राचीन है। चरण चिह्न “१२" हैं। शिखर से नीचे उतरने पर महान शिला को एक दीवाल में १० दिनम्बर जैन प्रतिमाएं खण्डित अवस्था में हैं । इन प्रतिमाओं पर नागरीलिपि में लेख हैं, जो घिस जाने के कारण पढ़ने में नहीं आता है केवल निम्न अक्षर पढ़े जा सकते हैं।
श्रीमत् महाचन्द कलिय सुपुत्र संघ घर मई सह सिद्धम
इस स्थान को पण्डों ने दशावतार गुफा प्रसिद्ध कर रखा है। वृशिला की दूसरी ओर भी दीवाल में १० प्रतिमाएं हैं। इस स्थान में प्राकाशलोक शिखर तीन मीज है। मार्च १९०१ को इंडियन एण्डीक्वेटी में इस तीर्थ के सम्बन्ध में जिला गया है
"आकाशलोजन शिला की चरणपादुका को पुरोहित लोग कहते हैं कि विष्णु की है, निश्चय होता है कि यह जैन तीर्थकर की चरणपादुका है और ऐसा ही मान कर इसकी असल में
"पूर्व काल में यह पहाड़ अवश्य जैनियों का एक प्रसिद्ध तीर्थं रहा होगा, यह बात भली प्रकार स्पष्टतया प्रमाणित है। क्योंकि सिवाय दुर्गादेवी की नवीन मूर्ति के और बौद्ध मूर्ति के एक खण्ड के अन्य सर्व पाषाण की रचना के चिह्न चाहे लग पड़े हुए, चाहे शिलाओं पर अंकित हो वे सब तीरों को ही करते हैं "
बाज इस पवित्र क्षेत्रके पुनरुद्धार और प्रचार की आवश्यकता है। भा० द० जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी को इस क्षेत्र कीओर ध्यान देना चाहिए।
परन्तु देखने से ऐसा पूजा होती थी।"
धावक पहाड़
गया के निकट रफीगंज से ३ मील पूर्वं श्रावक नाम का पहाड़ है। यहाँ एक ही शिला का पर्वत है, २ फर्लांग ऊंचा होगा। यहां वृक्ष नहीं है, किनारे-किनारे शिलाएं हैं। पहाड़ के नीचे जो गांव बसा है, उसका नाम भी श्रावकर है। पर्वत के ऊपर १० गज जाने पर एक गुफा है, जो १०६ गज है। इससे एक जीणं दिगम्बर जैन मन्दिर है, जो इस समय ध्वस्त प्रायः है। यहां पर श्री पार्श्वनाथ स्वामी की मनोज मुर्ति है। इसका बायां पैर खण्डित है। गुफा में अन्य भी खण्डित मूर्तियां है, गुफा के भीतर के पाषाण पद में ६ पद्मासन मूर्तियां हैं, नीचे यक्षिणी की मूर्ति लेटी है । इस पद के नीचे एक लेख प्राचीन लिपि में हैं।
प्रचार पहाड़
गया जिले में औरंगाबाद की सीमा के पूर्व की घोर रफीगंज से दो मोल की दूरी पर प्रचार या पछार पहाड़ है। यहां पर एक गुफा के बाहर वेदी में पार्श्वनाथ स्वामी की मूर्ति विराजमान है। इसके आस-पास तीर्थंकरों की अन्य प्रतिमाएं हैं । इस पहाड़ की जैन मूर्तियों के ध्वांसावशेषों को देखने से प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में यह प्रसिद्ध तीर्थ रहा है। सामान्य तीर्थ
धारा की प्रसिद्धि नन्दीश्वरदीप की रचना श्री सम्मेदशिखर की रचना श्री गोम्मटेश्वर की प्रतिमा, मानस्तम्भ, श्री जैन सिद्धान्त भवन और श्री जैन बालाश्राम के कारण है। गया अपने भव्य जैन मन्दिर के कारण, छपरा अपने शिखरबन्द मन्दिर के कारण, भागलपुर अपने भव्य मन्दिर तथा चम्पापुर के निकट होने के कारण, हजारीबाग श्री सम्मेदशिखर के निकट होने के कारण प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार ईसरी, गिरिडीह, कोडरमा, रफीगंज आदि स्थान भी साधारण तीर्थ माने जाते हैं । बिहार शरीफ का छोटा सा पुराना मन्दिर भी प्राचीन है। इस प्रकार बिहार के कोने कोने में जैन तीर्थ हैं। यहां का प्रत्येक वन, पर्वत और नदी तट तीर्थकरों की चरणरज से पवित्र है।
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यजुर्वेद में भगवान महावीर की उपासना
प्रातिथ्यं रूपं मासरं महावीरस्य नग्नहुः रूपपदमेतत्र रात्रीः सुरासुता ।। १४ ।।
- युजवेंद अ० १६। मंत्र १४
अर्थात् प्रतिथि स्वरूप पूज्य मासोपवासी नग्न स्वरूप महावीर की उपासना करो जिससे संयम, विपर्यय, श्रनध्यव साय रूप तीन प्रज्ञान श्रौर धन मद, शरीर मद, विद्या मद की उत्पत्ति नहीं होती ।
श्रीमद्भागवत पुराण में जैन तीर्थकर को नमस्कार
नारसा वृषभ आससु देव सूनुर्योर्विवचार समदृग् जड़ योगचर्याम् । यत्पारमहंस्यमृषयः पदमामनति स्वस्थः प्रशांतकरणः परिमुक्त संग ॥ १०॥
- भागवत, स्कंध २, ०७
अर्थात् — ऋषभ अवतार कहे हैं कि ईश्वर श्रगनीन्ध्र के पुत्र नाभि से सुदेवी पुत्र ऋषभ देव जी हुए समान दृष्टा जड़ की तरह योगाभ्यास करते रहे, जिनके पारमहंस्य पद को ऋषियों ने नमस्कार किया, स्वस्थ शांत इन्द्रिय सब संग त्याग कर ऋषभदेव जी हुए, जिनसे जैन धर्म प्रगट हुआ ।
श्री ऋषभ देव से किसी और महापुरुष का भ्रम न हो सके इसीलिए ग्रन्थ के स्कन्ध ५ के अध्याय ५ में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि श्री ऋषभ देव जी राजपाट को त्याग कर 'नग्नदिगम्बर" हो गये थे और वे अर्हन्त देव होकर परम अहिंसा धर्म का उपदेश देकर मोक्ष गये ।
उपनिषद् में नग्न दिगम्बर त्यागियों के गुण
"यथाजात रूप धरो निर्ग्रन्थो निष्परिग्रहस्तद् ब्रह्मा मार्ग सम्यक् सम्पन्नः शुद्धमानसः प्राणसधारणार्थ यथोक्त कौले विमुक्तो भैक्षमाचरन्नुदरपात्रेण लाभालाभयोः समो भूत्वा शून्यागार देवगृह तृणकूट वल्मीक वृक्षमूल कुलाशालाग्निहोत्र गृह नदी पुलिन गिरि कुहर कंदर कोटर निर्जन स्थडिलेषु तेष्वनिकेत वास्य प्रयत्नो निर्ममः शुक्ल ध्यान परायणो ध्यात्मनिष्ठो शुभकर्म निर्मलन परः संन्यासेन देह त्यागं करोति स परमहंसो नाम परमहंसो नामेति ॥ "
--- श्रष्टा त्रिशयोपनिषध ( जावालोपनिषध ) पृष्ठ २६०-२६१
श्रर्थात् जो "नग्नरूप" धारण रखने वाले अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहों के त्यागी, शुद्ध मन वाले विशुद्धात्मीय मार्ग में ठहरे हुए, लाभ और लाभ में समान बुद्धि रखने वाले, हर प्राणी की रक्षा करने वाले, मन्दिर पर्वत की गुफा दरियाओं के किनारे और एकान्त स्थान पर शुक्ल ध्यान में तत्पर रहने वाले श्रात्मा में लीन होकर अशुभ कर्मों का नाश करके संन्यास सहित शरीर का त्याग करने वाले हैं वे परमहंस कहलाते हैं ।
विष्णु पुराण में जैन धर्म की प्रशंसा
कुरुध्वं मम वाक्यानि यदि मुक्तिममीप्सथ । श्रध्वं धर्ममेतंच मुक्ति द्वारमसवृतम् ॥५॥ धर्मोविमुक्तो रहय नै तस्मादपरोवरः ।
वावस्थिताः स्वर्गं विमुक्तिदागमिष्यथ ||६| श्रध्वं धर्ममे तच सर्व यूयं महावला । एवं प्रकारैवहुभिर्युक्तिदर्शनच चितैः ॥७॥
- विष्णु पुराण, तृतीयांश, अध्याय १७
अर्थात् - यदि आप मोक्ष सुख के अभिलाषी हैं तो अत मत (जैन धर्म) को धारण कीजिये, यही मुक्ति का खुला दरवाजा है। इस जैन धर्म से बढ़कर स्वर्ग और मोक्ष का देने वाला और कोई दूसरा धर्म नहीं है।
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स्कन्ध पुराण में श्री जिनेन्द्र-भक्ति अरिहंत प्रसादेन सर्वत्र कुशलं मम । सा जिह्वा या जिनस्तोति तो करो यो जिनाचंनौ ||७|| सादृष्टिर्या जिने लीना तन्मनो यज्जिनेरतम् । दया सर्वत्र कर्तव्या जीवात्मा पूज्यते सदा ||८||
- स्कन्ध पुराण, तीसरा खंड ( धर्मखंड) ब० ३८
श्री अर्हन्त देव के प्रसाद से मेरे हर समय कुशल है । वह ही जवान है जिससे जिनेन्द्र देव का स्तोत्र पढ़ा जाय और वह ही हाथ है जिनसे जिनेन्द्र देव की पूजा की जाय, वह ही दृष्टि हैं जो जिनेन्द्र के दर्शनों में तल्लीन हो और वही मन है जो जिनेन्द्र में रत हो ।
मुद्राराक्षस नाटक में अर्हन्त-वन्दना
प्राकृत - सासण मलिहताण पडिवज्जहमोहवाहि बेज्जाणं । जेमुत्तमातपच्छापत्थं मुपदिसन्ति ||१८||
संस्कृत - शासनमर्हता प्रतिपद्यध्व मोहव्याधि वैद्यानां । मुहुर्तमा कटुकं पश्चात्पथ्यमुपदिशन्ति || १८ ||
अर्थात् - मोहरूपी रोग के इलाज करने वाले प्रर्हन्तों के शासन को स्वीकार करो जो मुहुर्त मात्र के लिए कडुवे हैं किन्तु पीछे से पथ्य का उपदेश देते हैं।
प्राकृत - धम्म सिद्धि होदु सावगाणाम् संस्कृत-धर्म सिद्धिर्भवतु श्रावकानाम् ।
-मुद्राराक्षस नाटक चतुर्थी अंक पृष्ठ २१३
अर्थात् श्रावकों को धर्म की सिद्धि हो । प्राकृत - श्रहंताणं पणमामि जेथे गंभीलदार बुद्धीए । लाउस लेहि लोए सिद्धि मग्नेहि गछन्दि || २ | संस्कृत - अर्हताना प्रणमामि येते गम्भीरतया बुद्धेः । लोकोत्तरैर्लोके सिद्धि मागेर्गच्छन्ति || २ ||
-मुद्राराक्षस नाटक पंचमो अंक पृष्ठ २२१
अर्थात् - संसार में बुद्धि की गम्भीरता से लोकातीत (अलोकिक) मार्ग से मुक्ति को प्राप्त हैं उन ग्रन्तों को मैं प्रणाम
करता हूँ ।
बौद्ध ग्रन्थों में वीर - प्रशंसा
'मज्झिमनिकाय" में निर्ग्रन्थ ज्ञात पुत्र भगवान महावीर को सर्वज्ञ, समदर्शी तथा सम्पूर्ण ज्ञान और दर्शन का ज्ञाता स्वीकार किया है ।
न्यायविन्दु में भगवान महावीर को श्री ऋषभदेव के समान सर्वज्ञ तथा उपदेश दाता बताया है ।
अंगुत्तरनिकाय में कथन है कि निगंठ नातपुत्र भगवान महावीर सर्वदृष्टा थे, उनका ज्ञान अनन्त था और वे प्रत्येक क्षण, पूर्ण सजग, सर्वज्ञ रूप में ही स्थित रहते थे ।
के संयुक्त निकाय में उल्लेख है कि सर्व प्रसिद्ध भगवान नातपुत्र महावीर यह बता सकते थे कि उनके शिष्य मृत्यु उपरान्त कहाँ जन्म लेंगे ? विशेष मृल व्यक्तियों के सम्बन्ध में जिज्ञासा करने पर उन्होंने बता दिया कि अमुक व्यक्ति ने अमुक स्थान में अथवा रूप में नव जन्म धारण किया है।
"सामगाम सुत्त" में पावापुरी से भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्त करने तथा उनके श्रमण संघ के महात्माओं की जन साधारण की श्रद्धा और आदर के पात्र होने का वर्णन है ।
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महाराजा दशरथ को जिन शासन- प्रशंसा
मैंने पात्र मुनि सर्वभूतहित स्वामी के मुख मे जिन शासन का व्याख्यान सुना वर्जन हारा है। तीन लोक में जिसका चरित्र सूक्ष्म प्रति निर्मल तथा उपमा रहित है और सम्यक्त का मूल जिन शासन है ।
शरीर, स्त्री, धन, माता-पिता, भाई सब को तज कर यह जीव अकेला ही परलोक को जाता है। चिरकाल देव लोक के सुख भोगो । जब उनसे तृप्ति नहीं हुई तो मनुष्य लोक के भोगों में तृप्ति कैसे हो सकती है ? मैं संसार का त्याग करके निश्चित रूप संयम धारूंगा कि कैसा है संयम ? संसार के दुःखों से निकाल कर सुख करणहारा है मैं तो निःसन्देह मुनिव्रत धारूंगा महाराजा दशरथ जिन दीक्षा लेकर जैन साधु हो गये ।
गृहस्थ तथा राज्यकाल में भी जैन धर्मी थे। जैन मुनि हो, साधुका हो गई। महाराजा दया ने भी स्वीकार किया है:
कैसा है जिन शासन ? सकल पापों का सर्व वस्तुओं में सम्यक्त्व परम वस्तु है
श्री महाराजा दशरथ करके वे मोक्ष गये के धमण अर्थात् जैन
तर
जैनी थे और जैन धर्म को पालते थे । इनके सुपुत्र श्री रामचन्द्र जी और सीता जी पृथिवीमती नाम की प्रायिंका से जिन दीक्षा ले जैन मुनियों को नित्य बाहार कराने को महर्षि स्वामी वाल्मीकि जी
तापसा भुजते चापि धमणाश्व भुजते ॥ १२ ॥
- वाल्मीकि रामायण वाल० सं० १४ श्लोक १२
श्री रामचन्द्र जो की जिनेन्द्र भक्ति
दशांगनगर (वर्तमान मन्दसौर) के राजा वर्णक ने प्रतिज्ञा ले रखी थी कि सिवाय जिनेन्द्र भगवान के किसी को मस्तक न झुकाऊंगा। यह बात उन के महाराजा सिहोदर को अनुचित लगी कि उसके ग्राधीन होने पर भी वकर्ण उसकी वन्दना नहीं करता । इसी कारण उसने वज्रकर्ण पर आक्रमण कर दिया। श्री रामचन्द्र जी को पता चला तो तुरन्त श्री लक्ष्मण जी से कहा, वर्ण अणुव्रतों का धारि श्रावक है, वह जिनेन्द्र देव, जैन मुनि और जिनसूत्र के सिवाय दूसरे को नमस्कार नहीं करता है। यदि जिनेन्द्र भगवान् के भक्त को सहायता न की गई तो सिहोदर बड़ा बलवान है वह बचकर्ण को हरा कर उसका राज्य छीन लेगा । इसलिए उसकी सहायता करो, श्री लक्ष्मण जी स्वयं तीर कमान लेकर रणभूमि में पहुंचे, सिंहोदर से लड़कर वज्रकर्ण की विजय कराई जब श्री रामचन्द्र जी के हृदय में एक जिनेन्द्र भक्त के लिए इतनी श्रद्धा थी कि बिना उसके कहे अपने प्राणों से प्यारे श्री लक्ष्मण जी की जान जोखम में डालकर उसकी सहायता की तो पाठक स्वयं विचार कर सकते हैं कि जिनेन्द्र भगवान के सम्बन्ध में उनकी कितनी अधिक भक्ति होगी ?
में
जान की बाजी लड़ी जा रही हो, रावण श्री रामचन्द्र जी की परम प्यारी पत्नी को बुरा कर ले जाये और पुद्ध उनके प्यारे भ्राता को मूति कर दे, वही रावण श्री रामचन्द्र जी के विरुद्ध प्रयोग करने के लिए मंत्र विद्या की सिद्धि के हेत सोलहवें जैन तीर्थकर श्री शान्तिनाथ भगवान के मन्दिर में जाता है और अपने राज्य मंत्रियों की रक्षा देता है "जब तक मैं जिनेन्द्र भगवान की पूजा में मग्न रहूं मेरे राज्य में किसी प्रकार की जीव हत्या न हो मेरे योद्धा लड़ाई तक बन्द रखे धीर मेरा प्रजा जिनेन्द्र भगवान की पूजा करे। जासूसों द्वारा जब इस बात का पता विभीषण को लगा तो उसने भी रामचन्द्र जी से कहा, "रावण इस समय जिनेन्द्र भगवान को पूजा में लीन है और उसने अपने योद्धाओं को शत्रुओंों पर भी वास्ष उठाने से बन्द कर रखा है। इसलिए रावण पर आक्रमण करने का यह बड़ा उचित अवसर है। श्री रामचन्द्र जी ने कहा, विभीषण पह सत्य है कि रावण हमारा शत्रु है, उसने हमारी सीता को चुराया और हमारे भ्राता लक्ष्मण को मूर्छित किया। उसका द करना हमारा कर्तव्य है परन्तु इस समय वह जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में मग्न है, मैं कदापि उसके जिनेन्द्र भक्ति जैसे महान् उत्तम और पवित्र कार्य में बाधा न डालूंगा।
कुलभूषण पर देशभूषण नाम के दो दिगम्बर मुनियों के तप में उनके पिछले जन्म के बैरी राक्षस बाधा डाल रहे थे, श्री रामचन्द्र जी को पता चला तो ये धनुष उठाकर भी लक्ष्मण सहित स्वयं वहाँ गये पीर दोनों जैन साधयों का उपसर्ग दूर किया, उपसर्ग दूर होते ही उनको केवल ज्ञान प्राप्त हो गया और वे जिनेन्द्र हो गये।
श्री रामचन्द्र जी की जिनेन्द्र भक्ति न केवल जैन ग्रन्थों में पाई जाती है बल्कि स्वयं हिन्दू ग्रन्थ भी स्वीकार करते हैं कि श्री रामचन्द्र जी की अभिलाषा जिन जिनेन्द्र) के समान वीतराग होने की थी ।
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नाहं रामो न मे वाम्छा भावेषु न च मे मनः। शांभासितुमिच्छामि स्वात्मनांव जिनो यथा ॥६॥
___---योगवासिष्ठ वैराग्य प्रकरण सर्ग १५ पृष्ठ ३३ मैं न राम है और न मेरी बाञ्छा संसारी पदार्थों में है ।मैं तो जिनेन्द्र भगवान के समान अपनी प्रात्मा में वीतरागता और शान्ति की प्राप्ति का अभिलाषी हूं।
श्री रामचन्द्र जी की यह उत्तम भावना उनके हृदय की सच्ची आवाज थी, राजपाट को लात मार कर चारण ऋद्धि के धारक स्वामी सुव्रत नाम के जैन मुनि से जिन दीक्षा धारण कर ये जैन साधु हो गये और केवल ज्ञान प्राप्त करके जिन (जिनेन्द्र) हुए और संसार को जैन धर्म का उपदेश देकर तुंगीगिरि पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया । इसी कारण जैन भगवान महावीर के समान श्री रामचन्द्र जी की भी भक्ति और वन्दना करते हैं।
उनके पिता महाराजा दशरथ भी जब तक गृहस्थ में रहे, श्रमणों (जैन साधुनों) को प्राहार देते थे और जब जन साधु हए तो घोर तप करने लगे। और सती सीता जी भी जैन साधु का हो गई थीं।
यही कारण है कि भगवान महावीर की दष्टि में श्री रामचन्द्र जी का जीवन चरित्र पाप रूपी अंधेरे को दर करने के लिए कभी मन्द न पड़ने वाले सूर्य के समान बतायाः--
श्री मद्रामचरित्रमुत्तममिदं नानाकथापूरितम् । पापध्वान्तविनाशनकतरणी कारुण्यबल्लीवनम् । भव्यश्रणिमनः प्रमोदसदनं भक्त्याना कीर्तितम् । नानासत्पुरुषलिवेष्ठित युतं पुण्यं शुभं पावनम् ॥१८०।। श्री वर्धमानेन जिनेश्वरेण त्रैलोक्यवन्धेन यदुक्तभादौ ततः परं गौतमसंज्ञकेन गणेश्वरेण प्रथितं जनानां ।।१५।
श्री जिनसेनाचार्यः रामचरित्र अर्थात्-श्री गौतम गन्धर्व के शब्दों में तीन लोक के पूज्य श्री महावीर की दृष्टि में श्री रामचन्द्र जी का चरित्र परम सन्दर, अति मनोहर, महा कल्याणकारी और पाप रूपी अन्धेरे को दूर करने के लिए कभी मन्द न पड़ने वाला चमकता हुआ सर्य है। अहिसा रूपी जहाज को चलाने के लिए बल्ली के समान है। इसमें सीता, सुग्रीव, हनुमान और बाली प्रादि अनेक महापुरुषों के कथन शामिल होने के कारण महापुण्य रूप है और सज्जन पुरुषों के हृदय को शुद्ध व पवित्र करने वाला है।
श्री हनुमान जी की जैन धर्म प्रभावना श्री हनुमान जी आदिपुर के राजा पवनंजय के सुपुत्र थे। इनकी माता का नाम अन्जना सुन्दरी था, जो महेन्द्रपुर के राजा श्री महेन्द्रकुमार की राजकुमारी थी।
हनुमान जी के जन्मते ही उनकी माता सहित उनके मामा श्री अतिसूर्य विमान में बैठाकर अपने हुण देश में ले जा रहे थे कि बे खेलते हुए माता की गोद से उछल कर विमान से गिर पड़े। आकाश से एक जन्मते बालक का नीचे पृथ्वी पर गिरना उसकी माता के लिए कितना दु:खदाई हो सकता है ? परन्तु अन्जना सुन्दरी को गर्भ के समय ही एक जैन मुनि ने वता दिया था कि तुम्हारे चर्म शरीरी महापुरुष उत्पन्न होगा जो इसी भव से मोक्ष जायेगा । इसलिए उसको विश्वास था कि दिगम्बर जैन साधु के वचन कदापि झूठे महीं हो सकते । उसका पुत्र जीवित है, विमान से पृथ्वी पर उतरे तो उन्होंने देखा कि श्री हनुमान जी बड़े आनन्द के साथ अपने पांव का अगंठा चूस रहे हैं और जिस सुदृढ़ तथा विशाल पर्वत पर गिरे थे, बह खण्ड-खण्ड हो गया है । माता अंजना सुन्दरी ने प्रेम से हनुमान जी को छाती से लगाया और उनकी इतनी प्रभावशाली शक्ति को देख कर उनका नाम महावीर रक्खा, परन्तु जब हुण देश की राजधानी में उनका पहला जन्मोन्सव मनाया गया तो हण देश के नाम पर इनका नाम श्री हनुमान जी प्रसिद्ध हो गया।
हनुमान जी वानरबंशी नरेश थे, वानर चिन्ह उनके झण्डे की पहिचान थी। कुछ लोग उनको सचमुच बानर जाति का समझते हैं, परन्तु वास्तव में वे महा सुन्दर कामदेव और मानव जति के ही महापुरुष थे।
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श्री हनुमान जी जैन धर्मी से अब तक वे गृहस्थ में रहे महिया धर्म का पालन करते हुए रावण जैसे शक्तिशाली बहिरंग क्षत्रपों पर विजय प्राप्त की और जब ७५० विद्यावर राजाओंों के साथ घी धर्म रत्न नाम के जैन मुनि से दीक्षा लेकर जैन साधु हुए तो कर्म रूपी अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर तुंगीगिरि से मोक्ष प्राप्त किया और उनको रानी ने भी बंधुमती नाम की आर्थिक से साधुका के व्रत धारे।
श्री कृष्ण जी की भावना
श्रीकृष्ण जी के पिता श्री वासुदेव जी और बाईसवें जैन तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि जी के पिता श्री विजयभद्र बापस में सगे भाई थे। श्री परिष्टनेमि ऐतिहासिक महापुरुष हुए हैं। वेदों और पुराणों तक में इनके गुणों का भक्तिपूर्वक वर्णन है ये बालब्रहाचारी महाबलवान थे। जब तक गृहस्थ में रहे, जैन धर्म का पालन करते हुए भी जरासिन्य जैसे अनेक महायोद्धाओं पर विजय प्राप्त करते रहे और जय जिन दीक्षा लेकर जैन साधु हुए तो कर्म रूपी पत्रुओं पर विजय प्राप्त करके केवलज्ञान (सर्वज्ञता ) प्राप्त किया। जब श्री कृष्ण जी में इनके केवलज्ञान के समाचार सुने तो उसी समय चक्र की प्राप्ति और पुत्र के उत्पन्न होने की सूचना भी मिली थी कृष्ण की तीनों सुखद समाचारों को एक साथ सुनकर विचार करने लगे कि किस का उत्सव प्रथम मनाया जाये, वे धर्मात्मा थे, वे धार्मिक कार्य को विशेषता देते हुए अपने परिवार, चतुरंगी सेना और प्रजा सहित सबसे प्रथम श्री अरिष्टनेमि के केवलज्ञान की कन्दना करने गये और उनको तीन परिक्रमाएं देकर भक्ति पूर्वक नमस्कार कर इस प्रकार स्तुति करने लगे
1
"हे नाथ! आप धर्म चक्र चलाने में चकी के समान हो, केवलज्ञान रूपी सूर्य से लोकालोक को प्रकाशित कर रहे हो, समस्त संसार को रत्नत्रयरूपी मोक्ष मार्ग दिखाने वाले हो, थाप देवों के देव और जगद्गुरु हो, आप देवतागण द्वारा पूज्य हो, भला हमारी क्या शक्ति जो आपकी भली प्रकार स्तुति कर सकें।"
द्वारका नगर में भगवान नेमिनाथ जी का उपदेश हो रहा था - कल्पवृक्ष मांगने पर और चिन्तामणि विचार करने पर ही इच्छित वस्तु प्रदान करते हैं परन्तु धर्म बिना मांगे और बिना इच्छा करे सुख प्रदान करता है। धर्म का साधन युवा अवस्था में ही हो सकता है। इसीलिए सच्चे सुख के अभिलाषियों को भरी जवानी में जिन दीक्षा लेना उचित है। भगवान के उपदेश को सुनकर थावच्चाकुमार नाम के एक बालक को भी वैराग्य उत्पन्न हो गया उसने जैन साधु बनने का दृढ़ निश्चय कर लिया। उसके माता पिता ने बहुत मना किया, परन्तु जब वह न माना तो माता-पिता ने श्री कृष्ण जी के दर बार में दुहाई मचाई। श्री कृष्ण जी बालक को खुद समझाने उसके मकान पर आये और उससे पूछा कि तुम्हें क्या दुःख है, जिस के कारण तुम दीक्षा ले रहे हो? में अवश्य तुम्हारे दुःख को मेदूंगा। चालक ने उत्तर दिया, मुझे कर्मरोग लगा हुषा है जिस के कारण आवागमन के चक्कर में फेस कर अनादि काल से जन्म मरण के दुःख भोग रहा हूँ, मेरा यह दुःख मेट दो। ऐसा सुन्दर उत्तर पाकर श्री कृष्ण जी बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने बालक को आशीर्वाद देकर उसके माता-पिता को सराहा कि धन्य हो ऐसे माता पिता को जिसके बच्चे ऐसे शुभ विचारों और उत्तम भावनाओं वाले होते हैं। माता पिता ने कहा कि यह तो कमा कर हमारा पेट भरता था, अब हम बूढ़ों का गुजर कैसे होगा ? श्री कृष्ण ने कहा- 'उसकी चिता मत करो, जब तक तुम लोग जीवित रहोगे, सरकारी खजाने से तुमको यथेष्ट सहायता मिलती रहेगी । और श्री कृष्ण जी ने समस्त राज्य में मुनादी करा दो कि जो जिन दोक्षा धारेगा, उसके कुछ वालों को सारी उम्र तक राज्य की ओर से खर्च मिला करेगा और उस बालक को अपनी चतुरंग सेना, गाजे बाजों और ठाठ वाट के साथ स्वयं श्री नेमिनाथ जी के समवशरण में ले जाकर दीक्षा दिलवाई।
श्री कृष्ण जो अगले युग में 'मम' नाम के बारहवें तीर्थंकर इसी भारतवर्ष में होंगे, इसीलिए भावी तीर्थकर होने के कारण जैन धर्म वाले कृष्ण को परम पूज्य स्वीकार करते हैं।
लार्ड फ्राइस्ट की हिंसा
श्रमण (जैन साधु) बहुत बड़ी संख्या में फिलिस्तीन के अन्दर अपने मठों में रहते थे हजरत ईसा ने जैन साधुओं में अध्यात्म विद्या का रहस्य पाया था और इनके ही श्रादर्श पर चलकर अपने जीवन की शुद्धि के लिए म्रात्म विश्वास (Self Reliance) विश्व प्रेम (Universal love) तथा जीव दया (Ahinsa ) समता अपरिग्रह आदि धर्मों की साधना की थी।
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यह निश्चय' हो रहा है कि हजरत ईसा जब १३ वर्ष के हए और उनके घर वालों ने उनके विवाह के लिए मजबूर किया तो बह घर छोड़ कर कूछ सौदागरों के साथ सिंघ के रास्ते भारत में चने आये थे। वह ज सत्य के खोजी और सांसारिक भोग बिलासों से उदासीन थे । भारत में आकर बह बहुत दिनों तक जन साधुनों के साथ रहे, प्रभु ईसा ने अपने प्राचार विचार को मूल शिक्षा जैन साधुओं से प्राप्त की थी।
महात्मा ईसा ने जिस पैलस्टाइन में जाकर ४० दिन के उपवास द्वारा प्रात्मज्ञान प्राप्त किया था, वह प्रसिद्ध यहदी मि० जाजक्स के अनुसार जैनियों का प्रसिद्ध तीर्थ पालिताना है जहां हजरत ईसा मसीह ने तपस्या की थी और जैन शिक्षा ग्रहण की थी उसी पालिताना के नाम पर पैलिस्टाइन बस गया था। बहुत दिनों तक जैन साघरों की संगति में रख कर बह फिर नेपाल और हिमालय होते हुए ईरान चले गये और वहां से अपने देश में आकर उन्होंने अहिंसा और विश्व प्रम का प्रचार चालू कर दिया। उन्होंने जिन तीन विशेष सिद्धान्तों (१) प्रात्मा और परमात्मा को एकता (२) आत्मा का अमरत्व, (३) प्रात्मा के दिव्य स्वरूप का उपदेश दिया था, ये यहूदी संस्कृति से सम्बन्ध नहीं रखते, बल्कि जैन संस्कृति के मूलाधार हैं।
जिसने दया नहीं की, कयामत के दिन उस पर भी दया नहीं होगी । जो दूसरों के गले पर छुरियां चलाते हैं, उनको अधिकार नहीं कि पाक अन्जील को अपने नापाक हाथों में ले । धिक्कार है उन पर जो खुदा के नाम पर कुर्बानी करते हैं 1 तु किसी का खून मत कर । यदि जीव की हत्या करने के कारण तुम्हारे हाथ खून से भरे हुए हैं तो मैं तुम्हारी तरफ से अपनी आँखे बन्द कर लगा और प्रार्थना करने पर भी ध्यान न दूंगा । ये शिक्षायें जैन धर्म के सिद्धान्त से मिलती जुलती हैं ।
महात्मा श्री जरदोस्त की हिसामयी शिक्षा बेजबान पशुओं की हत्या करना पारसी धर्म में बहुत बड़ा गुनाह है। पुज्य गुरु श्री जरदोस्त मांस त्यागी थे। और उन्होंने दूसरों को भी मांस त्याग की शिक्षा दी। सेठ रुस्तम ने तो अण्डा तक खाना भी पार बताया है, उनका विश्वास है कि अक्षण मेनु गाभापा तथा प्रेम भावना नष्ट हो जाती है 1 जो दूसरों से अधिक बोझ उठवाते हैं वे ऊँट, घोड़ा, बैल आदि अधिक बोझ के कष्टों को सहन करने वाले पशु होते हैं । जो अपने स्वार्थ या दिल्लगी के कारण भी किसी को सताते हैं, दोजख को पाग में बुरी तरह तड़फते हैं । ईरानी कवि 'फिरदोसी' के शब्दों में पा हत्या म करना, शिकार न खेलना, मांस भक्षण न करना हो पारसी धर्म के गुण हैं। महात्मा जरदोस्त का तो फरमान है कि बच्चा जवान या बुढ़ा किसी भी प्रकार की जीव हिसा उचित नहीं है।
हजरत मोहम्मद साहब का अहिसा से प्रेम अरब में जैनियों द्वारा अहिंसा का प्रचार अवश्य किया गया था। हजरत मोहम्मद अहिंसा धर्म के प्रभाव से अछते नहीं थे । उनका अन्तिम जीवन महा अहिंसक था। वे के बल एक लबादा रखते थे । खुरमा रोटी और दूध का ही उनका भोजन था । उन्होंने अपने अनुयायियों को अहिसामय व्यवहार का उपदेश दिया था। आज भी जो मुसलमान मक्का शरीफ की यात्रा को जाते हैं, जब तक वहाँ रहते हैं, वे मांस नहीं खाते, नंगे पाँव जयारत करते हैं । जू भी कपड़ों में हो जाय तो उसे मारना तो बड़ी बात है कपड़ों तक से नीचे नहीं गिराते ।
अपने कलाम हदीस में हजरत मोहम्मह साहब ने फरमाया कि यदि तुम जग के प्राणियों पर दया (अहिंसा) करोगे तो खुदा तुम पर दया करेगा। थोड़ी-सी दया (अहिंसा) बहुत-सी इबादत (भक्ति से) अच्छी है । कुर्बानी का मांस और खून खुदा को नहीं पहुंचाता, बल्कि तुम्हारी परेजगारी (पवित्रता) पहुँचती है।
एक शिकारी एक हिरणी को पकड़ कर ले जा रहा था । रास्ते में हजरत मोहम्मद साहब मिल गये। हिरणी ने उनसे कहा कि मेरे बच्चे भूखे हैं, थोड़ी देर के लिये मुझे छड़बादो, बच्चों को दूध पिलाकर मैं तुरन्त वापिस आ जाऊँगी। हिरणी के दर्द भरे शब्दों से हज़रत मोहम्मद साहब का हृदय पसीज गया, हिरणी की बेबसी को देखकर उनकी प्रांखों में आंसू मा गये और उन्होंने शिकारी से कहा
"हैवान है पर अन्देशाये वहशत जरा न कर। अाती है वह बच्चों को अभी दूध पिलाकर ।।
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शिकारी हंसा और कहने लगा कि पशुओं का क्या विश्वास ? इस पर हजरत साहब ने फरमाया कि अच्छा हम जामिन हैं। शिकारी ने कहा कि यदि यह वापिस न पाई तो तुम्हें इसकी जगह शिकारे अजल बनना पड़ेगा। इस पर प्राप मुस्कराये और फरमाया
इस वक्त यही शर्त सही, जिसको खुदा दे।
हम पर लगाते हैं, तु ईमान लगा दे।। शिकारी ने हज़रत मोहम्मद साहब की जमानत पर हिरणी को छोड़ दिया, वह भागती हुई अपने बच्चों के पास गई और उन्हें दूध पिलाकर कहा.. -"यह हमारी तुम्हारी आखिरी मुलाकात है, एक शिकारी ने मुझे पकड़ लिया था, एक महापुरुष ने अपने जीवन की जमानत पर छुड़वाया है।" हिरणी ने वापिस आकर हजरत मोहम्मद साहब को धन्यवाद दिया और शिकारी से कहा कि अब मैं जिधे होने को तैयार हैं। शिकारी पर उसके शब्दों का इतना प्रभाव पड़ा कि उसने सदा के लिये हिरणी को छोड़ दिया । बास्तव में हज़रत मोहम्मद साहब बड़े दयाल थे उन्होंने अहिंसा धर्म का प्रचार किया।
यह तो उनके जीवन का केवल एक ही दृष्टान्त है। यदि उनके जीवन की खोज की जाये तो किसी को भी उनके अहिंसा प्रेमी होने में सन्देह न रहे ।
श्री गुरु नानकदेव का हिसा-प्रचार जब कपड़ों पर खून के छोट लग मारवे नमार हो जाने को । से लिप्त मांस खाते है, उनका हृदय कसे शुद्ध और पवित्र रह सकता है। ६८ तोर्थों की यात्रा से भी इतना फल प्राप्त नहीं होता जितना अहिंसा और दया से होता है। जिस के हृदय में दया नहीं वह महा विद्वान् होने पर भी मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है। जब मरे हुए बकरे की खाल से लोहा भस्म हो जाता है, तो जो जीवित बकरे को मार कर खाते हैं उनकी दशा क्या होगी? जहा मांस भक्षण होता है वहां दया धर्म नहीं रह सकता। यह झठी कल्पना है कि थोड़े से पाप' कर लेने में क्या हर्ज हैं, क्योंकि अधिक पुण्य करके उस थोडे से पाप को धोया जा सकता है। पवित्र ग्रन्थ साहब में तो यहां तक उल्लेख है कि यदि जीवों की हत्या करना धर्म है तो अधर्म क्या है।
गुरु नानकदेव मांस भक्षण के विरोधी थे। वे एक दिन घूमते हुए एक जंगल में जा निकले। वहाँ के लोगों ने उनसे भोजन के लिये कहा तो गुरु जी ने फरमाया
"यों नहीं तुमरो खायें कदापि, हो राब जीवन के सन्तापी। प्रथम तजों ग्रामिष का खाना, करो जास हित जीवन हाना ।।"
-मानक प्रकाश पूर्वार्ध अध्याय ५५ अर्थात हम तुम्हारे यहां कदापि भोजन नहीं कर सकते, क्योंकि तुम जीव हिंसा करते हो। जब तक तुम मांस भक्षण का त्याग न करोगे, तुम्हारे जीवन का कल्याण न हो सकेगा।
महाष दयानन्द जी का वीर सिद्धान्त से प्रेम स्वामी दयानन्दजी ने मांस, मदिरा तथा मधु के त्याग की शिक्षा दो' । ओर वस्त्र से पानी छानकर पीने का उपदेश दिया। घेदतीर्थ प्राचार्य श्री नरदेव' जी शास्त्री के शब्दों में स्वामी दयानन्द जी यह स्वीकार करते थे कि श्री महावीर स्वामी ने अहिंसा आदि जिन उच्च कोटि के अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, वे सब वेदों में विद्यमान हैं । और बताया है कि भगवान महावीर की अहिसा दुर्बल अहिसा नहीं थी, किन्तु संसार के प्रवल से प्रबल महापुरुष की अहिंसा थी वैदिक शब्दों में कहा जाये तो "मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे" है।
महाराजा भर्तृहरि को दिगम्बर होने की भावना एको रागिषु राजते प्रियतमा देहाधंधारी हरी, नीरागेष जिना बिभुक्तललना संगो न यस्मास्परः॥
१. सत्यार्थप्रकाश मुल्लास-३-१० | २. "बिन हने जल का त्याग" हण्ट २। ३-४ वेदतीर्थ आचार्य श्री नरदेय : जन संदेश आगरा
(२६ जून १९४५, पृ० १४।) १२१
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रिस्मरधस्मरोरगविषज्वालावादोजन:, शेषोमोह बिज़म्यितो हि विषयान भोक्तु न मोक्तु क्षमः ॥७१।।
–श्रीमत भर्तृहरिकृत शतकत्रय । अर्थात्-प्रेमियों में एक शिवजी मुख्य हैं, जो अपनी प्यारो पार्वती जी को सर्वदा अांग में लिये रहते हैं और त्यागियों में जैनियों के देव जिन भगवान ही मुख्य हैं, स्त्रियों का संग छोड़ने वाला उनसे अधिक कोई दूसरा नहीं है और शेष मनुष्य तो मोह से ऐसे जड़ हो गये हैं कि न तो विषयों को भोग हो सकते हैं और न लोड हो सकते हैं। महाराज भर्तृहरि जी की इच्छा थी कि मैं नग्न दिगम्बर होकर कब कर्मों का नाश करूंगा:
एकांकी निस्पहः शान्त पाणीपात्री दिगम्बरः । कदा शम्भो भविष्यामि कर्म निम्लनक्षमः ।।
-वैराग्य शतक, पृ० १०७ अर्थात-हे शम्भो, मैं अकेला इच्छा रहित, शांत, पाणिपात्र और दिगम्बर होकर कर्मों का नाश कब कर सकूँगा?
महाराजा श्रेणिक बिम्बसार को वीर-भक्ति जै जै केवलज्ञान प्रकाश, लोकालोक करण प्रतिभास ॥४५॥ जय भव कुमुद विकासन चन्द, जय २ सेवत मुनिवर बन्द ।।४६।। आज ही शीश सुफल मो भयो, जब जिन तुम चरणन को नयो ।।४७।। नेत्र युगल मानन्दे जबे, तुम पद कमल निहारु तवे ॥५०।। कानन सुफ़ल मुणि धन धरि, रसना सुफल पावै धुन भरी ।। ५१॥ ध्यान धरत हिरदे अति भयो, कर जुग सुफल पूजते भयो ॥५२॥ जन्म धन्य अव ही मो भयो, पाप कलंक सकल भजि गयो ॥५३।। मो करुणा जिनवर देव, भव भव में पाऊं तुम सव' ।।५४॥
-तरेपन क्रिया, अध्याय १, पृ० ४-५ हे भगवान महावीर । आपकी जय हो। आप केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी से शोभित हैं, जिसके कारण लोक-परलोक के समस्त पदार्थों को हाथ की रेखा के समान दर्शाने वाले हो। भव्य जीवों के हृदय रूपी कमल को खिलाने के लिए आप सूर्य के समान हैं। मुनीश्वर तक भी आपकी सेवा करते हैं । आपके चरणों में भाक जाने के कारण आज मेरा मस्तक भी सफल हो गया। आपके दर्शन करने से मेरी दोनों प्रांखें ग्रानन्दमयी हो गई। प्रापका उपदेश सुनने से मेरे दोनों कान शुद्ध हो गये और आपकी स्तुति करने से मेरी जबान पवित्र हो गई। आपका ध्यान करने से मेरा हृदय निर्मल हो गया, आपकी पूजा करने से मेरे दोनों हाथ सफल हो गये । आपके दर्शनों से मेरे पापों का नाश होकर आज धन्य है कि मेरा नर जन्म सफल हो गया। दया के सागर श्री जिनेन्द्र भगवान अब तो केवल मेरी यह अभिलाषा है कि हर भव और हर जन्म में आपको पाऊं और आपकी सेवा करूं।
श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्य की वर्धमान बन्दना एससुरासुरमण सिव दिद, धोईघाई कम्ममलं । पणमामि बड्ढमाणं तिन्यं धम्मस्स कत्तारं ||१||
-थीमत कुन्दकुन्दाचार्यः प्रवचनसार प०१ भवनबासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी चारों प्रकार के देवों के इन्द्र तथा चक्रवर्ती जिन को भक्ति पूर्वक वन्दना करते हैं और जो ज्ञानावर्णी, दर्शनावणी, मोहनीय और अन्तराय चारों घातिया कर्मों को काटकर अनन्तानन्त ज्ञान, अनन्तानन्त दर्शन अनन्तानन्त सुख और अनन्तानन्त शक्ति को प्राप्त किये हुये हैं और धर्म तीर्थ के प्रवर्तक तीर्थकर भगवान श्री बर्धमान हैं, मैं उनको नमस्कार करता हूं।
१. लक्ष्मीनारायण प्रेस मुरादाबाद की सं० १९९२ की छगी हुई पं. गंगाप्रसाद बृत भाषा टोका के शृंगार शतक का ७१ वां
श्लोक। २. विशेषता के लिए देखिए महाराजा श्रेणिक और जैन धर्म तथा महाराजा अशोक पर वीर प्रभाव ।
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श्री समन्तभन्न प्राचार्य की वीर श्रद्धांजलि देवागम नमोयान चामरादिविभूतयः । माया विष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान ॥१॥
-प्राप्त मीमांसा अर्थात्-देवों का आगमन, आकाश में गमन और त्रामरादिक (दिव्य, चमर, छत्र, सिंहासन, भामण्डलादिक, विभतियों का अस्तित्व तो मायावियों में -इन्द्रजालियों में भी पाया जाता है, इनके कारण हम आपको महान् नहीं मानते और न इनके कारण से यापकी कोई खास महत्ता या बड़ाई ही है।
'भगवान महावोर' की महत्ता और बड़ाई तो उनके मोहनीय ज्ञानावरण, दर्शनावरण अन्तराय नामक कर्मों का नाश करके परम शान्ति को लिये हुये शुद्धि तथा शक्ति की पराकाष्ठा को पहुंचाने और ब्रह्म-पथ का-अहिंसात्मक मोक्ष मार्ग का नेतृत्वग्रहण करने में हैं। अथवा यों कहिये कि आत्मोद्धार के साथ-साथ सच्ची सेवा बजाने में है।
त्वं शुद्धिशक्यत्योरुदयस्य काष्ठां तुला व्यतीता जिमशांति पाम् । अवापिथ ब्रह्मपथस्य नेता महानीतियत् प्रतिवक्तुमीशाः ।।
-श्री समन्तभद्राचार्यः युक्त्यानुशासन । त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं ब्रह्माण्डमीश्वरमनन्तमनंगकेतु । योगिश्वरं विदितयोगमनेकमेक, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ।।२४॥
-मानुतुगाचार्यः भक्तामर स्तोत्र । अर्थात् हे जिनेन्द्र भगवान ! आप अक्षय, परम ऐश्वर्य संयुक्त, सर्वज्ञ, योगेश्वर, सर्वव्यापक, देवों के देव महादेव, अनन्तानन्त गुणों की खान, कर्मरूपी मल से पवित्र, शुद्धचित्त रुप, कामदेव' का नाश करने वाले, अर्हन्त तथा तीनों लोक और तीनों काल के समस्त पदार्थों को एक साथ रहने और जानने नारे केबल ज्ञानी हो । मैं आपकी बार-बार वन्दना करता हूँ।
ब्राह्मण धर्म पर जैन धर्म की छाप जैन धर्म अनादि है । गौतम बुद्ध महाबीर स्वामी ने शिष्य थे। चौबीस तीर्थकरों में महावीर अन्तिम तीर्थकर थे। यह जैन धर्म को पुनः प्रकाश में लाये, अहिंसा धर्म ध्यापक हुआ। इनसे भी जैन धर्म की प्राचीनता मानी जाती है। पूर्वकाल में यज्ञ के लिए असंख्य पशु-हिंसा होती थी, इसके प्रमाण मेघदूत काव्य' तथा और ग्रन्थों से मिलते हैं। रन्तिदेव नामक राजा ने यज्ञ किया था, उसमें इतना प्रचुर पशु-बध हुआ था कि नदी का जल खून से सतवर्ण हो गया था। उसी समय से उस नदी का नाम चर्मवती प्रसिद्ध है। पशु वध से स्वर्ग मिलता है इस विषय में उक्त कथा साक्षी है, परन्तु इस घोर हिंसा का ब्राह्मण धर्म से विदाई ले जाने का श्रेय जैन धर्म को है। इस रीति से ब्राह्मण धर्म अथवा हिन्दू धर्म को जैन धर्म ने अहिंसा धर्म बनाया है। यज्ञ याज्ञादि कर्म केवल ब्राह्मण ही करते थे क्षत्री और वैश्यों को यह अधिकार नहीं था और शूद्र बेचारे तो ऐसे बहुत विषयों में अभागे बनते थे। इस प्रकार मुक्ति प्राप्त करने की चारों वर्गों में एक-सी छूट न थी। जैन धर्म ने इस त्रुटि को भी पूर्ण किया है।
मुसलमानों का शक, इसाईयों का शक, विक्रम शक, इसी प्रकार जैन धर्म में मवीर स्वामी का शक [सन् ] चलता है। शक चलाने की कल्पना जैनी भाइयों ने ही उठाई थी।
आजकल यज्ञों में पशु हिंसा नहीं होती। ब्राह्मण और हिन्दू धर्म में मांस भक्षण और मदिरा पान बन्द हो गया सो यह भी जैन धर्म का ही प्रताप है। जैन धर्म की छाप ब्राह्मण धर्म पर पड़ी।
___ अहिंसा के अवतार भगवान महावीर मेरा विश्वास है कि बिना धर्म का जीवन बिना सिद्धान्त का जीवन है और बिना सिद्धान्त का जीवन वैसा ही है जैसा कि बिना पतवार का जहाज ।'
जहाँ धर्म नहीं वहां विद्या नहीं, लक्ष्मी नहीं, और निरोगता भी नहीं। सत्य से बढ़ कर कोई धर्म नहीं और अहिंसा १. महाकवि कालिदास कुत-मेघदूत श्लोक ४५, २. जैन धर्म का महत्व (सूरत) भाग १ पृ०१-६२, ३. अनेकान्त वर्ष ४, पृ० ११२
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परमोधर्म से बढ़कर कोई प्राचार नहीं है। जिस धर्म में जितनी ही कम हिसा है, समझना चाहिए कि उस धर्म में उतना ही अधिक सत्य है।
भगवान महावीर अहिंसा के अवतार थे उनकी पवित्रता ने संसार को जीत लिया था। महावीर स्वामी का नाम इस समय यदि किसी भी सिद्धान्त के लिए पूजा जाता है तो वह अहिंसा है। प्रत्येक धर्म की उच्चता इसो बात में है कि उस धर्म में अहिंसा तत्व की प्रधानता हो । अहिंसा तत्व को यदि किसों ने अधिक से अधिक विकसित किया है तो वे महावीर स्वामी थे।
जैन धर्म को विशेष सम्पति
___ डा० श्री राजेन्द्र प्रसाद जी मैं सपने को धन्य मानना है कि मुझे महावीर स्वामी ने प्रदेश में रहने का सौभाग्य मिला है। अहिंसा जैनों की विशेष सम्पत्ति है । जगत के अन्य किसी भी धर्म में अहिमा सिद्धान्त का प्रतिपादन इतनी सफलता से नहीं मिलता।
अनेकान्त वर्ष ६, पृ० ३६ भ० महावीर का कल्याण-मार्ग
डा० श्री राधाकृष्णन जी - यदि मानवता को विनाश से बचना है और कल्याण के मार्ग पर चलना है तो भगवान महावीर के सन्देश को और उनके बताये हुए मार्ग को ग्रहण किये बिना और कोई रास्ता नहीं ।
शान्तिदूत महावीर, पृ. ३० भगवान महावीर का त्याग
श्री पंडित जवाहरलाल ने अाशा है कि भगवान् महावीर द्वारा प्रणीत सेवा और त्याग भावना का प्रचार करने से सफलता होगी।
वीर देहली [१५ ज०, ५१] पृ० ४ अहिंसा वोर पुरुषों का धर्म है
सरदार श्री बल्लभ भाई पटेल जैन धर्म पीले कपड़े पहनने से नहीं पाता। जो इन्द्रियों को जीत सकता है, वही सच्चा जैन हो सकता है। अहिंसा वीर पुरुषों का धर्म है । कायरों का नहीं। जैनों को अभिमान होना चाहिए कि कांग्रेस उनके मुख्य सिद्धान्त का अमल समस्त भारत वासियों को करा रही है। जैनों को निर्भय होकर त्याग का अभ्यास करना चाहिए।
अनेकान्त, वर्ष ६, पृ. ३६ संसार के पूज्य भगवान महावीर
(श्री जी० बी० मावलंकर स्पीकर भारत पा०) भगवान महावीर एक महान प्रात्मा हैं जो केवल जैनियों के लिये ही नहीं बल्कि समस्त संसार के लिए पज्य हैं। आज कल के भयानक समय में भगवान महावीर की शिक्षानों की बड़ी जरूरत है। हमारा कर्तव्य है कि हम उनकी याटको ताजा रखने के लिये उनके बताये हुए मार्ग पर चल।
भगवान महावीर का उपदेश शान्ति का सच्चा मार्ग है
श्री राज गोपालाचार्य महावीर भगवान का संदेश किसी खास कौम या फिरके के लिये नहीं है बल्कि समस्त संसार के लिए है। अगर जनता महावीर स्वामी के उपदेश के अनुसार चले तो वह अपने जीवन को प्रादर्श बनाले । संसार में सच्चा सुख और शान्ति उसी सुरत में प्राप्त हो सकती है जब कि हम उनके बतलाये हए मार्ग पर चलें।
जैन संसार देहली मार्च १९४७ पृ. ५
... - - १. अनेकान्त वर्ष ४, पृ० ११२ । २. महावीर स्मृति ग्रन्थ (आगरा) भाग १ पृ. २ । मोहनदास कर्मचन्द गांधी
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तलवार से अधिक अहिंसा
देशभक्त डा० श्री सतपाल जी, स्पीकर पंजाब असेम्बली प्रेम और अहिंसा का व्रत पालना ही आत्मा का सच्चा स्वरूप है। लोग कहते हैं कि तलवार में शक्ति है परन्तु महात्मा गांधी ने अपने जीवन से यह सिद्ध करके दिखा दिया कि अहिंसा की शक्ति तलवार से अधिक तेज है।
-देशभक्त मेरठ (जून सन् ३४) पृ० ५. जैन-धर्म का प्रभाव
श्री प्रकाश जी मंत्री भारत सरकार जैन धर्म और संस्कृति प्राचीन है। भारत वासी जैन धर्म के नेताओं तीर्थंकरों को मुनासिब धन्यवाद नहीं दे सकते । जैन धर्म का हमारे किसी न किसी विभाग में राष्ट्रीय जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव है। जैन धर्म के साहित्यिक ग्रन्थों की स्वच्छ और सुन्दर भाषा है। साहित्य के साथ साथ विशेष रूप से जैन धर्म ने आकर्षण किया है जो मानव को अपनी ओर खींचता है। जैन धर्म कला को पार्ट के नमूने देखकर आश्चर्य होता है । जैन धर्म ने सिद्ध कर दिया है कि लोक और परलोक के सुख की प्राप्ति अहिंसा व्रत से हो सकती है।
-वीर देहली (१५-१-५१) पृष्ठ ५. महान तपस्वी भगवान महावीर
राजर्षि श्री पुरुषोत्तमदास जी टंडन भगवान् महावीर एक महान तपस्वी थे । जिन्होंने सदा सत्य और अहिंसा का प्रचार किया। इनकी जयन्ती का उद्देश्य मैं यह समझता है कि प्रादर्श पर चलने और उसे मजबूत बनाने का यत्न किया जाये।
-वर्द्धमान देहली, अप्रैल, १६५३ पृ०८ विश्व शान्ति के संस्थापक
प्राचार्य श्री काका कालेलकर जी मैं भगवान महावीर को परम प्रास्तिक मानता हूं। धी भगवान महावीर ने केवल मानव जाति के लिये ही नहीं पर समस्त प्राणियों के विकास के लिये अहिंसा का प्रचार किया। उनके हृदय में प्राणी मात्र के कल्याण की भावना सदैव ज्वलंत थी। इसीलिये वह विश्व-कल्याण का प्रशस्त मार्ग स्वीकार कर सके। मैं दृढ़ता के साथ कह सकताहूँ कि उनके अहिंसा सिद्धान्त से ही विश्व-कल्याण तथा शान्ति की स्थापना हो सकती है।
.. –ज्ञानोदय वर्ष १, पृ० ६६. महान् विजेता
आचार्य श्री नरेन्द्रदेव जी महावीर स्वामी ने जन्म-मरण की परम्परा पर विजय प्राप्त की थी। उनकी शिक्षा विश्व मानव के कल्याणके लिये थी। अगर अापकी शिक्षा संकीर्ण रहती तो जैन धर्म अरव मादि देशों तक न पहुंच पाता
-जनोदय वर्ष १, पृ० ८२३. प्रेम के उत्पादक
आचार्य विनोबा भावे जी लोग कहते हैं कि अहिंसा देवी नि: शास्त्र है मैं कहता हूँ यह गलत ख्याल है। अहिंसा देवी के हाथ में अत्यन्त शक्तिशाली शस्त्र है। अहिंसा रूप शस्त्र प्रेम के उत्पादक होते हैं, संहारक नहीं।
--ज्ञानोदय भाग १, पृ० ५६३. वीर उपदेश से भारत सुदृढ़
श्री के० एम० मुन्शी गवर्नर, उ०प्र० कामना है कि भगवान महावीर का उपदेश भारत को सुदृढ़ करे ।
-बीर देहली १५-१-५१ पृ० ३.
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जैन समाज का राजनैतिक भाग
श्री एस० पी० मोदी भूतपूर्व गवर्नर, उ० प्र० जैन समाज ने देश के राजनैतिक तथा आत्मिक जीवन में विशेष भाग लिया है।
-बीर देहली १५-१-५१ प्र०४ विश्व कल्याण के नेता
शेरे पंजाब लाला लाजपतराय भगवान महावीर समस्त प्राणियों का कल्याण करने वाले महापुरुष हए हैं।
जैन संसार मार्च, सन् १९३७, पृ० ५. महा उपकारी और त्यागी
श्री राजा महाराजसिंह गवर्नर बम्बई प्राशा है भगवान महावीर की सेवा और त्याग की भावना का प्रसार होगा।
-बीर देहली १५-१-५२ पृ० ४३ धीर उपवेश को प्रावश्यकता
श्री जपरामदास दौलतराम जो गवर्नर आसाम जिन सिद्धान्तों के लिये भगवान् महावीर ने जो उपदेश दिया उनकी आज के मानव समाज के लिये परम पावश्यकता है।
-वीर देहली १५-१-५१, पृ० ४ मानव जाति का सच्चा सुख
श्री मंगलदास जी गवर्नर उड़ीसा इस समय सारे संसार को अहिंसा धर्म के प्रचार का बड़ा आवश्यकता है जो राष्ट्रीय संहार के शास्त्रों से सुसज्जित है। यदि ग्राज सत्य और अहिंसा को अपना ले, तो मानव जाति सच्चा सुख प्राप्त कर सकती है।
-भगवान महावीर स्मृति ग्रन्थ, आगरा पृ० २८१. भगवान् महाबीर का प्रभाव
श्री लालबहादुर शास्त्री मन्त्री भारत सरकार रिश्वत, बेईमानी अत्याचार अवश्य नष्ट हो जावे यदि हम भगवान् महावीर की सुन्दर और प्रभावशाली शिक्षाओं का पालन करें । बजाय इसके कि हम दूसरा का बुरा कह और उनमें दोष निकाल । अगर भगवान् महावीर के समान हम सब अपने दोषों और कमजोरियों को दूर कर ली तो सारा संसार खुद-ब-खुद सुधर जाये ।
-वर्द्धमान देहली, अप्रैल १९५३, पृ० ५६ मुक्ति का सबसे महान ध्येय
हिज हाइनेस महाराज साहब सिधियां राज-प्रमुख मध्य भारत जैन धर्म में जीवन की सार्थकता का सबसे महान् ध्येय निर्वाण तथा मुक्ति को ही मानते हैं। जिनके प्राप्त करने से सांसारिक बचनों, लौकिक भावनामों तथा जीवन के आवागमन से मोक्ष मिल जाता है।
-जैन गजट देहली ४-५२-५१ जैन धर्म व्यवहारिक, प्रास्तिक तथा स्वतंत्र है
श्रीयुत सक्षमण रघुनाथ भिडे अन्य धमों के विद्वानों ने प्राज्ञानता और ईया होने के कारण टीकायों द्वारा भारत वर्ष में जैन धर्म के अनुसार अज्ञानता फैला दी है हालांकि जैन धर्म पूर्ण रूप से व्यवहारिक और मास्तिक तथा स्वतंत्र धर्म है।
-भ० महावीर का अादर्श जीवन, पृ. ३६. संसार के कल्याण का मार्ग जैन धर्म
माननीय श्री गोविन्दबल्लभ पन्त जैनियों ने लोक सेवा की भावना से भारत में अपना एक अच्छा स्थान बना लिया है। उनके द्वारा देश में कला और
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उद्योग की काफी उन्नति हुई है । उनके धर्म और समाज सेवा के कार्य सार्वजनिक हित की भावना से ही होते रहे हैं और उनके कार्यों से जनता के सभी वर्गों ने लाभ उठाया है ।
जैन धर्म देश का बहुत प्राचीन धर्म है । इनके सिद्धान्त महान हैं, और उन सिद्धान्तों का मूल्य उद्धार, अहिंसा और सत्य है। गांधी जी ने अहिंसा और सत्य के जिन सिद्धान्तों को लेकर जीवन भर कार्य किया वही सिद्धान्त जैन धर्म की प्रमुख वस्तु है । जैन धर्म के प्रतिष्ठापकों ने तथा महावीर स्वामी ने अहिंगा के कारण ही सबको प्रेरणा दी थी।
जैनियों की ओर से कितनी ही संस्थायें खुली हुई हैं उनकी वियोषता यह है कि सब ही बिना किसी भेद भाव के उनसे लाभ उठाते हैं, यह उनकी सार्वजनिक सेवाओं का ही फल है।
जैन धर्म के प्रादर्श बहुत ऊंचे हैं। उनसे ही संसार का कल्याण हो सकता है। जैन धर्म तो करुणा-प्रधान धर्म है। इसलिये जैन चींटी तक की भी रक्षा करने में प्रयत्नशील हैं । दया के लिये हर प्रकार का कष्ट सहन करते हैं । उनमें मनुष्यों के प्रति असमानता के भाव नहीं हो सकते। मैं आशा करता हैं कि देश और व्यापार में जैनियों का जो महत्वपूर्ण भाग है वह सदा रहेगा।
-जैन सन्देश यागरा १२-२-१९५१ पृ०२. जैन विचारों की छाप
डा० सम्पूर्ण नन्द जी मन्त्री उ० प्र० भारतीय संस्कृति के संवर्धन में उन लोगों ने उल्लेखनीय भाग लिया है जिनको जैन शास्त्रों से स्फूति प्राप्त हुई थी। वास्तु कला, मूर्ति कला, वाइमई सब पर ही जैन विचारों की गहरी छाप है। जैन विद्वानों और थावकों ने जिस प्राणपण से अपने शास्त्रों की रक्षा की थी वह हमारे इतिहास की अमर कहानी है। हमें जैन विचार धारा का परिचय करना ही चाहिये ।
-जैन धर्म दि० जै० पृ० ११ जैन धर्म का रूप गांधीवाद
श्री पी० एस० कुमार रथामी राजा प्रधानमन्त्री, मद्रास जैन धर्म ने संसार को अहिंसा का संदेश दिया राष्ट्रपिता श्री महात्मा गांधी के हाथों में यह सद्गुण शक्तिशाली शास्त्र बन गया, जिसके द्वारा उन्होंने ऐसी आश्चर्यजनक सफलतायें प्राप्त की जिन्हें आज तक विश्व ने देखा ही न था। क्या यह कहना उचित न होगा कि गाँधीवाद जैन धर्म का ही दूसरा रूप है। जिस हद तक जैन धर्म में अहिंसा और सन्यास का पालन किया गया है वह त्याग की एक महान् शिक्षा है।
---वीर देहली भगवान महावीर की शिक्षानों से विश्व कल्याण भगवान महावीर स्वामी ने अपने जीवन में पांच महाव्रतों पर ध्यान दिया था । ये पांच महावत अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह हैं । जैन धर्म के साधओं का इस समय में भी जो गौरव' प्रकट होता रहता है उनके अपरिग्रह और कठिन तपस्या का प्रभाव है। श्री महावीर स्वामी ने शील अथवा अपरिग्रह पर विशेष जोर दिया हम इन पांचों व्रतों को अपने जीवन में उतार सकते हैं। मन, वचन, काय से किसी को हिंसा न करना पाचार विचार और सत्य पर दृढ़ रहना इससे आपका स्वयं अपना ही नहीं बल्कि विश्व का कल्याण साधा जा सकता है।
जहरीले जानवरों को जीने का हक
भगवान देव आत्मा जी महाराज किसी जहरीले जानघर सांप, बिच्छु वगैरह को देख कर फौरन उसको मारने के लिए तैयार हो जाना कभी ठीक नहीं है जब कोई जहरीला जानवर तुम पर हमला करे और जान की हिफाजत किसी और तरीके से न हो सकती हो तो जान की हिफाजत की खातिर उसे मारना मुनासिब हो सकता है वरना नहीं । यह जमीन केवल तुम्हारी नहीं है सांप, विच्छ, आदि भी कभी-कभी इस पर से गुजर सकते हैं । इसलिए उनको शान्ति से गुजर जाने दो या डरा कर अपनी जगह से भगा दो । याद रखो सांप, प्रादि को भी तब तक जीने का हक हासिल है जब तक वह स्वयं खुद दूसरे की जान पर हमला न करे।
-म० देवात्मा की जीवन कथा भाग २१०६७
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जैन इतिहास की प्रायश्यकता
प्रो० श्री सत्यफेतु विद्यालंकार, गुगकुल कांगड़ी प्राचीन भारतीय इतिहास का जो पता प्राज-कल चल रहा है, उसमें जैन राजाओं राजमन्त्रियों और सेनापतियों आदि के जबरदस्त कारनामे मिलते जा रहे हैं अब ऐतिहासिक विद्वानों के लिये जैन इतिहास की जरूरत पहले से बहुत बढ़
-अहिंसा और कायरता पृ० २८ महावीर की शिक्षा से शारति
हैदराबाद सत्याग्रह के प्रथम डिक्टेटर श्री महारमा नारायण स्वामी भगवान महावीर ने दुनिया को सच्चा सुख और शान्ति देने वाली अहिंसा धर्म की शिक्षा दी। पश्चिमी देश के लोग अहिंसा पर विश्वास नहीं रखते यही कारण है कि वहाँ लड़ाई के बादल उठते रहते हैं।
अहिसा प्रचारक भ० महावीर लाला दुनीचन्द प्रधान महर्षि स्वामी दयानन्द सानोषण मिशन होशियारपुर भगवान् महावीर उन सबसे बड़े पूज्य महापुरुषों में से हैं जिन्होंने अहिंसा का जबरदस्त प्रचार किया। मेरा तो यह विश्वास है कि संसार में सच्चे सूख की प्राप्ति बगैर अहिंसा के असम्भव है।
बर्द्धमान महावीर के सम्बन्ध में जो भी लिखा जाय कम है
महात्मा मगवानदीन जी भरी जवानी में भरे घर और भरपुर भण्डार को छोड़ चल देने वाले यथा नाम तथा गुण वर्द्धमान् के बारे में जो लिखा मिलता है वह सुनने में बढ़ाकर लिखा गया सा जान पड़ता है। परन्तु असल में उनके भीतर जलती ज्वाला के सामने वह बढ़कर लिखा हुआ भी कम रह जाता है।
- वीर देहली १७-४-१९४८ पृ० ७ जैनधर्म का अपरिग्रहवाद
त्यागमूति श्री गणेशदत्त स्वामी प्रधान मन्त्री सनातन धर्म समा __ इस सच्चाई से कौन इन्कार कर सकता है कि अपरिग्रह से जीवन की उन्नति होती है । ब्राह्मण और संन्यासी का दर्जा समाज की दृष्टि में इसीलिये सबसे ऊंचा है । जैन धर्म में इस अपरिग्रह को बहुत ऊंची पदवी मिल सकी है।
साईन्स के सबसे पहले जन्मदाता भ० महावीर
__ रिसर्च स्कालर पं० माधवाचार्य जैन फलासफरों ने जैसा पदार्थ के सूक्ष्म तत्व का विचार किया है उसको देखकर भाज-कल फलासफर बड़े पाश्चर्य में पड़ जाते हैं, वे कहते हैं कि महावीर स्वामी प्राजकल की साईन्स के सबसे पहले जन्मदाता हैं।
-अनेकान्त सम्वत् १९८६ पृ० १७२। अहिंसा के महान् प्रचारक भगवान महावीर
बौद्ध मिक्षु प्रो० श्री धर्मानन्द जी कोशकी भगवान महावीर ने पूरे बारह वर्ष के तप और त्याग के बाद अहिंसा का सन्देश दिया। उस समय हिंसा का अधिक जोर था। हर घर में यज्ञ होता था। यदि उन्होंने अहिंसा का सन्देश न दिया होता तो आज भारत में अहिंसा का नाम न लिखा जाता।
-भ० म० का आदर्श जीवन पृ० १२ मांस और लहू खुदा को नहीं पहुंचता
हिज हाइनेस राइट आनरेबल सर आगा खां जानवरों का मांस या लह खुदा को नहीं पहुंचता तो उसके नाम पर बेगुनाह जीवों की हत्या क्यों की जावे ?
-मांसाहार भाग २ पृ०६२
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केवल अहिंसा से शान्ति
जा खां साहब मुझे दृढ़ विश्वास है कि केवल अहिंसा से ही मनुष्य को सुख और शान्ति प्राप्त हो सकती है।
-बीर भारत १७-७-४११०८ अहिंसा से सुख और शान्ति
सरहदी गांधी श्री अब्दुल गफ्फार यां यदि जनता सच्चे हृदय से अहिसा का व्यवहार करने लग जाय तो संसार को अवश्य सुख और शान्ति प्राप्त हो जाय।
-जैन संसार, मार्च १९५७१०६ जैन समाज का सहयोग
श्रीमान भाई परमानन्द जी कौमी राष्ट्रीय मजबूत और संगठित बनाने में जैन समाज को मदद करके अपने आपको मजबूत और संगठित समझना चाहिए।
-बीर १२-५-४४ पृ० ५ जैन धर्म की आवश्यकता
सरदार जोगेन्द्र सिंह भूतपूर्व शिक्षामन्त्री भारत सरकार जैन धर्म प्रेम, सहिंसा और संगठन सिखाता है। जिसको अाज के संसार को बड़ी यावश्यकता है।
-वीर देहली २०-५-४३ पृ० १५८ जैन धर्म प्रशंसा योग्य है
स्वामा सम नजामी जैन धर्म प्राचीन धर्म है। मेरी अन्तर आत्मा कहती है कि जैन धर्म के नियम प्रशंसा तथा स्वीकार करने योग्य है।
-मांसाहार भाग २, पृ०६२ कर्मों को जीतने वाले भगवान महावीर
डा. ताराचन्द जी शिक्षामन्त्री भारत सरकार महावीर स्वामी ३० वर्ष की भरी जवानी में घर बार त्याग कर साधु बन गये थे। उन्होंने आत्मध्यान से इन्द्रियों को बश करके घोर तपस्या की और ४२ वर्ष की आयु में राग द्वेष के बन्धनों से मुक्त होकर मार्फत इलाही (केवलज्ञान) प्राप्त किया और कर्म रूपी शत्रुनों को जीतकर महन्त तथा जिनेन्द्र की उत्तम पदवी प्राप्त की।
-महले हिन्द की मुख्तसर तारीख पापों को दूर करने का उपाय
डा० अमरनाथ झा प्रधान यू०पोल सर्विस कमीशान अहिंसा धर्म का पालना दुनिया के पापों को दूर करके सबको बड़ा पुण्य प्राप्त करना है।
-जंन संसार, देहली, मार्च सन् ४७ पृ०६ वीर का तप त्याग और अहिंसा
थोयुत महात्मा आनन्द सरस्वती मझे भगवान महावीर के जीवन में तीन बातें बहुत सुन्दर नजर आती हैंत्याग
अहिंसा भगवान महावीर के बाद लोग इतने प्रमादवश हो गये कि त्याग-तप-अहिंसा उनकी कायरता नजर आने लगी । मैंने जन ग्रन्थों का स्वाध्याय किया है। श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में मुझे तीन श्लोक नजर पड़े जिन में गृहस्थी के लिए स्पष्ट तौर पर केवल एक प्रकार की संकल्पी हिंसा का त्याग बताया गया है जो राग द्वेष के भावों से जान बूझकर की जावे। उद्यम हिंसा जो व्यापार में होती है, प्रारम्भी हिंसा घरेलू कार्यों पर होती है तथा विरोधी हिंसा जो अपने या दूसरे के बचाव माल, धन
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नार
इज्जत की रक्षा या देश सेवा में होती है। उन तीनों प्रकार की हिसा का गहस्थ को त्याग नहीं बताया। वेद भगवान का उपदेश भी यही है कि किसी के साथ राग द्वेप से वात न करो। महर्षि दयानन्द के जीवन में यही तीन बातें रोशन हैं । त्याग, तप और परोपकार।
० महावीर के जीवन के भी यही तीन गुण बहुत प्यारे लगते हैं। ग्राज के संसार को इनकी बहुत जरूरत है, लेकिन दुनिया के सामने इस वक्त ये तीन चीजें हैं
भोग तन यासानी
खुदगर्जी यही ठीक त्याग अहिसा के या परोपकार के उलटे हैं। जब दुनिया उलटी जा रही हो तो इसका दु:खी होना कुदरती बात है। सूख तभी प्राप्त होगा जब संसार फिर उसी त्याग, तप अहिंसा का पालन करे।
देश की रक्षा करने वाले जैनवीर
महामहोपाध्याय रायबहादुर पं. गौरीशंकर हीरा चन्द ओझा जैन धर्म में दया प्रधान होते हुए भी यह लोग वीरता में दसरी जातियों से पीछे नहीं रहे। राजस्थान में मंत्री आदि अनेक ऊंची पदवियों पर सैकड़ों वर्षों तक अधिक जनी ही रहे हैं, और उन्होंने अहिंसा धर्म को निभाते हुये वीरता के ऐसे अनेक कार्य किये हैं जिससे इस देश की प्राचीन उदार कला की उत्तमता की रक्षा हुई। उन्होंने देश को आपत्ति के समय महान सेवायें की और उसकार गौरन बढ़ाया।
-भूमिका राजपूताने के जैनवीर पृ० १४ राष्ट्रीय, सार्वभौमिक तथा लोकप्रिय जैनधर्म
डा० श्री कालिदास नाग वाइस चांसलर कलकत्ता पूनिसिटी . जैन धर्म किसी खास जाति या सम्प्रदाय का धर्म नहीं है बल्कि यह अन्तर्राष्ट्रीय, सार्वभौमिक तथा लोकप्रिय धर्म है।
जैन तीर्थकरों की महान ग्रात्मानों से संसार के राज्यों के जीतने की चिन्ता नहीं की थी, राज्यों को जीतना कुछ ज्यादा कठिन नहीं है, जैन तीर्थंकरों का ध्येय राज्य जीतने का नहीं है बल्कि स्वयं पर विजय प्राप्त करने का है। यही एक महान् ध्येय है, और मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है। लड़ाईयों से कुछ देर के लिए शत्रु दब जाता है, दुश्मनी का नाश नहीं होता । हिंसक युद्धों से संसार का कल्याण नहीं होता। यदि आज किसी ने महान परिवर्तन करके दिखाया है तो वह अहिंसा सिद्धान्त की खोज और प्राप्ति संसार के समस्त खोजों और प्राप्तियों से महान है।
यह मनुष्य का स्वभाव है नीचे की ओर जाना । परन्तु जैन तीर्थकरों ने सर्वप्रथम यह बताया कि अहिंसा का सिद्धान्त मनुष्य को ऊपर उठाना है।
आज के संसार में सबका यही मत है कि अहिंसा सिद्धान्त का महात्मा बुद्ध ने आज से २५०० वर्षों पहले प्रचार किया। किसी इतिहास के जानने वाले को इस बात का बिल्कुल ज्ञान नहीं है कि महात्मा बुद्ध से करोड़ों वर्ष पहले एक नहीं बल्कि अनेक जैन तीर्थंकरों ने इस अहिंसा सिद्धान्त का प्रचार किया है। जैन धर्म बुद्ध धर्म से करोड़ों वर्ष पहिले का है। मैंने प्राचीन जैन क्षेत्रों और शिलालेखों के सलाइड्ज तैयार करके इस बात को प्रमाणित करने का यत्न किया है कि जैनधर्म प्राचीन धर्म है जिसने भारतीय संस्कृति को बहुत कुछ दिया परन्तु अभी तक संसार की दृष्टि में जैन धर्म को महत्व नहीं दिया गया । उनके विचारों में यह केवल बीस लाख आदमियों का एक छोटा-सा धर्म है। हालांकि जैन धर्म एक विशाल धर्म है और अहिंसा पर तो जैनियों को पूर्ण अधिकार प्राप्त है।
-अनेकान्त वर्ष १०५०२२४ जैन धर्म की प्रावश्यकता
डा० राईस डेविड एम० ए० डी० लिट यह बात अब निश्चित है कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से निःसन्देह बहुत पुराना है और बुद्ध के समकालीन महावीर द्वारा उसका पुनः संजीबन हुन्मा है और यह बात भी भली प्रकार निश्चित है जैन मत के मन्तव्य बहुत ही जरूरी और बौद्ध मत के मन्तव्यों से बिल्कुल विरुद्ध हैं।
-इन्साइक्लोपिडीया विटेनिका व्हाल्यम २६
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ज-वर्ग को विशेषता महामहोपाध्याय सत्यसम्प्रदाचार्य श्री स्वामी राममित्र जी शास्त्री प्रोफेसर संस्कृत कालेज बनारस जनमत तब से प्रचलित हआ है जव से संसार में सृष्टि का प्रारम्भ हुया। जैन दर्शन वेदान्त आदि दर्शनों से पूर्व का है। जैन धर्म का स्याद्वादी किला है जिसके अन्दर वादी-प्रतिवादियों के मायामयी गोले नहीं प्रवेश कर सकते । बड़े-बड़े नामी प्राचार्यों ने जो जैन मत का खण्डन किया है वह ऐसा है जिसे, सुनकर हँसी पाती है।
-सम्पूर्ण लेख जैनधर्म महत्व भाग १, पृ० १५३-१६५
महामहोपाध्याय डा० श्री सतीशचन्द्र भूषण प्रिन्सिपल गवर्नमेंट संस्कृत कालेज कलकत्ता भगवान वर्वमान महावीर ने भारतवर्ष में प्रात्मसंयम के सिद्धान्त का प्रचार किया। प्राकृत भाषा अपने सम्पर्ण मध. मय सौन्दर्य को लिये हुए जैनियों को रचना में ही प्रगट हुई है।
जैन साध एक प्रशंसनीय जीवन व्यतीत करते हुए पूर्ण रीति से बत, नियम और इंद्रिय संयम का पालन करता हआ जगत के सन्मुख पात्म संयम का एक बड़ा ही आदर्श प्रस्तुत करता है।
-जैनधर्म पर लोक० तिलक और प्रसिद्ध विद्वानों का अभिमत पृ० १२
वैदिक काल में जैन धर्म श्री स्वामी विरुपाक्ष वडियर धर्ममूवण, पण्डित बेवतीर्थ, विद्यानिधि एम० ए० प्रो. संस्कृत कालिज इन्दौर ईर्षा, द्वेष के कारण धर्म प्रचार को रोकने वाली विपत्ति के रहते हुए जैन शासन कभी पराजित न होकर सर्वत्र विजयी ही होता रहा है। इस प्रकार जिसका वर्णन है वह 'अहंत देव' साक्षात् परमेश्वर (विष्णु) स्वरूप हैं। इसके प्रमाण भी शार्यपत्थों में पाये जाते हैं। उपरोक्त प्रहंत परमेश्वर का वर्णन वेदों में भी पाया जाता है। हिन्दुओं के पूज्य वेद और पुराण साहित्यों में स्थान-स्थान पर तीर्थंकरों का उल्लेख पाया जाता है, तो कोई कारण नहीं कि हम वैदिक काल में जैन धर्म का अस्तित्व न माने।
पीछे से जब ब्राह्मण लोगों ने यज्ञादि में बलिदान कर 'मा हिस्यात् सर्वभूतानि बाले वेद-वाक्य पर हरताल फेर टी उस समय जैनियों ने हिंसामय यज्ञ, यागादि का उञ्छेद करना प्रारम्भ किया था बस, तभी से ब्राह्मणों के चित्त में जनों के प्रति देष बढ़ने लगा, परन्तु फिर भी भागवतादि महापुराणों में ऋषभदेव के विषय में गौरव युक्त उल्लेख मिल रहा है।
-जैन धर्म पर लो० तिलक और प्रसिद्ध विद्वानों का अभिमत पृ० १७ परमहंस श्री बर्द्धमान महावीर
महात्मा श्री शिववतलाल जी वर्मन, एम० ए० हिन्दयो ! जैनी हम से जुदा नहीं है हमारे ही गोस्त पोस्त हैं। उन नादानों की बातों को न सुनो जो गलती से मावाफियत से, या तास्सूव से कहते हैं 'हाथी के पांव तले दब जामो मगर जैन मन्दिर के अन्दर अपनी हिफाजत न करो' रस तास्सब और तगादला का कोई ठिकाना है। हिन्दू धर्म तास्सुब का हामी नहीं है तो फिर इनसे दी
. इनके किसी ख्याल से तुम्हें माफकत नहीं हैं तो सही, कोन सब बातों में किसी से मिलता है? तम न के कहे सने पर न जामो। जैन धर्म तो एक अपार समुद्र है जिसमें इन्सानी हमदर्दी की लहरें जोर शोरजी की श्रुति 'अहिंसा परमो धर्मः' यहां ही असली सूरत अख्तयार करली हुई नजर आती है।
श्री महावीर स्वामी दुनिया के जबरदस्त रिफार्मर और ऊंने दर्ज के प्रचारक हए हैं। यह हमारी कौमी तारीख के कीमती रत्न हैं। तम कहाँ ? और किन में धर्मात्मा प्राणियों की तलाश करते हो? इनको देखो इनसे बेहतर साहिबे कमाल को कहां मिलेगा? इनमें त्याग था, वैराग था, धर्म का कमाल था। यह इंसानी कमजोरियों से बहुत ऊंचे थे। इनका
जिसके जिन्होंने मोह माया, मन और काया को जीत लिया था। ये तीर्थकर हैं। परमहंस हैं। इनमें बनावट नहीं थी. कमजोरियों और ऐबों को छुपाने के लिए इनको किसी पोशाक की जरूरत नहीं हुई। इन्होंने तप, जप और योग का साधन
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करके अपने प्रापको मुकम्मल बना लिया था। तुम कहते हो ये नंगे रहते थे, इस में ऐब क्या ? परमनन्तनिष्ट. परमज्ञानी और कुदरत के सच्चे पुत्र को पोशाक की जरूरत कब थी ? 'सरमद' नाम का एक मुसलमान फकीर देहली की गलियों में घूम रहा था औरंगजेब बादशाह ने देखा तो उसको पहनने के लिये कपड़े भेजे । फकीर वली था कहकहा मार कर हंसा और बादशाह की भेजी हुई पोशाक को वापिस कर दिया और कहला भेजा :
प्राकस कि तुरा कुलाह सुल्तानी दाद । मारा हम प्रो अस्बाब परेशानी दाद। पोलानीद सनास हरकर देवे दीद।
बे ऐबा रा लववास अयानी दाद ।' यह लाख रुपये का कलाम है, फकीरों की नग्नता को देख कर तुम क्यों नाक भौं सुकोड़ते हो? इनके भाव को नहीं देखते । इसमें ऐब की क्या बात है ? तुम्हारे लिए ऐब हो इनके लिये तो तारीफ की बात है।
जार्ज बर्नाडशा को जैनी होने की इच्छा
विश्व के अप्रतिम विद्वान जार्ज बडिशा जैन धर्म के सिद्धान्त मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। मेरी आकांक्षा है कि मृत्यु के पश्चात् में जैन परिवार में जम्म धारण करूं।
जैन धर्म से विरोध उचित नहीं
मुख्योपाध्याय श्री बरवाकान्त एम० ए० हमारे देश में जैन धर्म के सम्बन्ध में बहुत से भ्रम फैले हुए है । साधारण लोग जैन धर्म को सामान्य जानते हैं कुछ इसको नास्तिक समझते हैं, अनेकों की धारणा में जैन धर्म प्रत्यन्त अशुचि तथा नग्न परमात्मा पूजक है। कुछ शंकराचार्य के समय जन धर्म का प्रारम्भ होना स्वीकार करते हैं, कुछ महावीर स्वामी अथवा पार्श्वनाथ को जैन धर्म का प्रवर्तक बताते है. कछ जैन धर्म की हिसा पर कायरता का इलजाम लगाते हैं, कुछ इसको हिन्दू अथवा बौद्ध धर्म का प्रवर्तक बताते हैं, कल इसको हिन्दू अथवा बौद्ध धर्म की शाखा समझते हैं कुछ कहते हैं, कि यदि मस्त हाथी भी तुम पर आक्रमण करे तो भी प्राण रक्षा के लिए जैन मन्दिरों में प्रवेश मत करो। कुछ वेदों और पुराणों को स्वीकार न करने तथा ईश्वर को कर्ता-धर्ता और कर्मों का फल देने वाला न मानने के कारण जैनियों से विरोध करते रहते हैं।
Prof. weber ने History of Indian Literature. में स्वीकार किया है 'जैन धर्म सम्बन्धी जो कुछ हमारा ज्ञान है वह सब ब्राह्मण शास्त्रों से ज्ञात हुआ है।' सब पश्चिमी विद्वान् सरल स्वभाव से अपनी अज्ञानता प्रकाशित करते रहे हैं। इस लिए उनके मत की परीक्षा की कुछ आवश्यकता नहीं है ।
शंकराचार्य के समय जैन धर्म का चाल होना इसलिए सत्य नहीं, क्योंकि यह स्वयं जैन धर्म को अति प्राचीन काल से
१. नग्नता की शिक्षा केवल जैन धर्म में ही नहीं बल्कि हिन्दुओं, सिक्खों, मुसलमानों आदि के साधुओं, दरवेशों में भी है। तफसील
२२ परीषह जय खंड २ में देखिये । २. जिसने तुमको बादशाही ताज दिया, उसी ने हमको परेशानी का सामान दिया। जिस किसी में कोई ऐच पाया, उसको लिबास
पहिनाया और जिसमें ऐब न पाये उनको नंगेपन का निवास दिया। ३. लेखक के पूरे लेख को जानने के लिए जन धर्म का महत्व (सूरत) भाग १ पृ. १-१४ ४. जन शासन पृ० ४३० ५. न पठेद्यावनी भाषा प्राणः कण्ठ शतैरपि ।
हस्तिना पीड़यमानोऽपि न गच्छेज्जिनमंदिरम् । अर्थात्-प्राण भी जाते हों तो भी म्लेच्छों की भाषा न पढ़ो और हाथी से पीड़ित होने पर भी जैन मंदिर में न जाओ।
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प्रचलित होना स्वीकार कहते हैं।'
ऐतिहासिक विद्वान् Lethbridge and Mounstrust Elphinstine का कथन कि जैन धर्म छठी शताब्दी से प्रचलित है, इसलिए सत्य नहीं कि छठी शताब्दी में होने वाले भगवान महावीर जैन धर्म के प्रथम प्रचारक नहीं थे, चौबीसवें तीर्थकर थे। जैन-धर्म उनसे बहुत पहले दिगम्बर ऋषि ऋषभदेव ने स्थापित किया था।'
अंग्रेजी में Wilson lesson Barth and Weber आदि विद्वानों का कहना है कि जैन धर्म वोद्ध धर्म की शाखा है, इसलिए सत्य नहीं कि कोई भी हिन्दू ग्रन्थ ऐसा नहीं कहता। हनुमान नाटक में तो जैन धर्म बौद्ध धर्म को भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय बताये हैं। श्रीमद्भागवत में बुद्ध को बौद्ध धर्म का तथा ऋषभदेव को जैन धर्मका प्रथम प्रचारक कहा है। महर्षि व्यास जी ने महाभारत में जैन और बौद्ध धर्म को दो स्वतन्त्र समुदाय बताये हैं। जब महात्मा बुद्ध स्वयं महावीर स्वामी को जैन धर्म का चौबीसवां तीर्थकर स्वीकार करते हैं, तो जैन धर्म बौद्ध धर्म से अवश्य ही बहुत प्राचीन है और बौद्ध धर्म की शाखा का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता।
जैन धर्म हिन्दू धर्म से बिल्कूल स्वतन्त्र है, उसकी शाखा या रूपान्तर नहीं है, नास्तिक नहीं है। नग्नता तो वीरता का चिन्ह है, अहिंसा वीरों का धर्म है. जैन धर्म के पालने वाले बड़े-बड़े सम्राट् और योद्धा हुये हैं।"
हम कौन है ? कहां से पाये हैं ? कहाँ जायेंगे ? जगत क्या है ? इन प्रश्नों के उत्तर में जैन धर्म कहता है कि आत्मा कर्म और जगत अनन्त है।'२ इनका कोई बनाने वाला नहीं प्रात्मा अपने कर्मफल का भोग करता है, हमारी उन्नति, हमारे कार्यों पर ही निर्भर है। इसलिए जैन धर्म ईश्वर को कर्मानुयायी, पुरस्कार और शान्तिदाता स्वीकार नहीं करता। १४
जैन धर्म इतिहास का खजाना
बाल जे० जी० बाहर, सी० आई०, एल. एल० डी० जैन धर्म के प्राचीन स्मारकों से भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास की बहुत जरूरी और उत्तम सामग्री प्राप्त होती है। जैन धर्म प्राचीन सामग्री का भरपूर खजाना है।
-भारतवर्ष के प्राचीन जमाने के हालात, पृ० ३०७ ।
१. वेदान्त सूत्र ३३ । २. इन धर्म की प्राचीनता खण्ड नं. ३ । ३. जैन धर्म के संस्थापक श्री ऋषभदेव खण्ड ३ । ४. यं शेवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मति वेदान्तिनो।
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नयायिकाः । अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कति भीमांसकाः । सोऽयं वो विदधातु वांछित फलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ।।३।।
-हनुमान नाटक लक्ष्मी बैंकटेश्वर प्रेस अ० १ ५. महाभारत, अश्वमेधपर्व, अनुगीति ४६, अध्याय २, १२ श्लोक । ६. महात्मा बुद्ध पर वीर प्रभाव, खंड २ । ७. जन धर्म और हिन्दु धर्म, खण्ड ३ । ८. जैन धर्म नास्तिक नहीं, खण्ड १ । ६. वाइस परिषपजय, खण्ड २ । १०. जैन धर्म वीरों का धर्म है, खण्ड ३ ।
११. जन सम्राट, खण्ड ३ । १२-१३. भ. महावीर का धर्मोपदेश खण्ड २ ।
१४. "जैन धर्म महारम्य" (सूरत) भाग ११० १११ से १२ ।
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जैन धर्म गुणों का भण्डार
प्रो. डा० मक्समूलर एम० ए० पी० एच० डी० जैन धर्म अनन्तानन्त गुणों का भण्डार है जिसमें बहुत ही उच्च कोटि का तत्व-फिलास्फा भरा हुमा है। ऐतिहासिक, धार्मिक और साहित्यिक तथा भारत के प्राचीन कथन जानने की इच्छा रखने वाले विद्वानों के लिये जन-धर्म का स्वाध्याय बहुत लाभदायक है।
-इन्सालोपीडिया जैन इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है
रेवरेन्ज जे० स्टीवेन्सन महोदय भारतवर्ष का अधःपतन जैन धर्म के अहिंसा सिद्धान्त के कारण ही नहीं हुआ था, बल्कि जब तक भारतवर्ष में जन धर्म की प्रधानता रही थी, तब तक उसका इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है।
-जैन धर्म पर लो. तिलक और प्रसिद्ध विद्वानों का अभिमत, पृ. २७ ।
जैन धर्म से पृथ्वी स्वर्ग हो सकती है
डा० घारो लोटा भोज संस्कृत प्रोफेसर बलिन यूनिवर्सिटी जैन धर्म के सिद्धान्तों पर मुझे दृढ़ विश्वास है कि यदि सब जगह उनका पालन किया जाए तो वह इस पृथ्वी को स्वर्ग बना देंगे। जहाँ तहाँ शान्ति और आनन्द ही आनन्द होगा।
-जैन वीरों का इतिहास और हमारा पतन अन्तिम पृ० ।
यूरोपियन फिलासफर जैन धर्म की सचाई पर नसमस्तक हैं
Prof. Dr. Von Helmuth Von Glasenapp, University Berlin: ने जैन धर्म को क्यों पसन्द किया? जैन धर्म हमें यह सिखाता है कि अपनी आत्मा को संसार के झंझटों से निकाल कर हमेशा की मजात किस प्रकार हासिल की जाये। जैन असूलों ने मेरे हृदय को जीत लिया और मैंने जन फिलास्फो का वाध्याय शरू कर दिया है। आजकल यूरोपियन फ्लासर जैन फलास्फी के कायल हो रहे हैं, और जैन धर्म की सचाई के प्रागे मस्तक झुका रहे हैं।
--रोजाना तेज, देहली २०-१-१९२८.
जैन धर्म की प्राचीनता
डा० फुरहर जैनियों के २२ व तीर्थंकर नेमिनाथ ऐतिहासिक पुरुष माने गये हैं। भगवदगीता के परिशिष्ट में श्रीयुत बरवे इसे स्वीकार करते हैं कि नेमिनाथ श्री कृष्ण के भाई थे जब कि जैनियों के २२वं तीर्थंकर श्री कृष्ण के समकालोन थे तो शेष इक्कीस तीर्थकर श्री कृष्ण के कितने वर्ष पहले होने चाहिए? यह पाठक अनुमान कर सकते हैं।
-एपीग्रेफिका इंडिया व्हाल्यूम २१० २०६-२०७
डा० एन०ए०बी०संट यूरोपियन ऐतिहासिक विद्वानों ने जैन धर्म का भली प्रकार स्वाध्याय नहीं किया इसलिए उन्होंने महावीर स्वामी को जैन धर्म का स्थापक कहा है। हालांकि यह बात स्पष्ट रूप से सिद्ध हो चुकी है कि वे अन्तिम चौवीसव ताथकर थे। इनस पहले अन्य तेईस तीर्थकर हुए जिन्होंने अपने-अपने समय में जैन धर्म का प्रचार किया।
. -जैन गजट मा० १० पृ० ४
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जैन धर्म हो सच्चा और आदि धर्म है
__मि आबे जे० ए. उवाई मियानरी निःसन्देह जैन धर्म ही पृथ्वी पर एक सच्चा धर्म है और यही मनुष्य मात्र का प्रादि धर्म है।
-डिस्क्रिप्सन आफ दो करैक्टर मैसर्ज एण्ड कस्टम्स आफ दी पीपल आफ इण्डिया ।
अलौकिक महापुरुष भगवान महावीर .
म. अनेस्ट लायमैन जर्मनी भगवान् महावीर अलौकिक महापुरुष थे । वे तपस्वियों में आदर्श, विचारकों में महान, पात्म-विकास में अग्रसर दर्शन- कार और उस समय की प्रचलित सभी विद्यानों में पारंगत थे। उन्होंने अपनी तपस्या के बल से उन-उन विद्याओं को रचनात्मक
रूप देकर जन समूह के समक्ष उपस्थित किया था । छः द्रव्य धर्मास्तिकाय (Fulcrum of Motion) अधर्मास्तिकाय (Fulcrun x.of Statiorariness) काल (Time) आकाश (Spacc) पुदगल (Matter) और जीव (Jive) ओर उनका स्वरूप तत्त्व रिया (Ortelks जिलापिया (Ksomology) दृश्य और अदृश्य जीवों का स्वरूप जीवन विद्या (Biology) बताया चैतन्य रूप प्रात्मा का उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास स्वरूप मानस शास्त्र (Psychology) आदि विद्याओं को उन्होंने रचनास्मक रूप देकर जनता के सम्मुख उपस्थित किया। इस प्रकार वीरं केवल साधु अथवा तपस्वी ही नहीं थे बल्कि वे प्रकृति के "अभ्यासक थे और उन्होंने बिद्वतापूर्ण निर्णय दिया।
-भगवान महावीर का अादर्श जीवन पृष्ठ १३-१४ जैन धर्म की विशेषता
जर्मनी के महान विद्वान 370 जीन्ह सहर्टेल एम० ए० पी० एच० ० मैं अपने देशवासियों को दिखलाऊंगा कि केसे उत्तम तत्व पोर विचार जैन धर्म में हैं। जैन साहित्य बौद्धों की अपेक्षा बहत ही बढ़िया है। मैं जितना अधिक जैन धर्म व जैन साहित्य का ज्ञान प्राप्त करता जाता हूँ, उतना ही मैं उनका अधिक प्यार करता हूँ।
—जैन धर्म प्रकाश (सूरत) पृ० ब । भगवान महावीर के समय का भारत
प्रज्ञाचक्षु पं० गोविन्दराय जी काध्यतीर्थ भगवान महावीर के समय में भारतवर्ष कई स्वतन्त्र राज्यों में बंटा हुआ था जिनमें कुछ गणतन्त्र राज्य थे तो कुछ राजतन्त्र । एक भी ऐसा प्रबल सम्राट न था जिसकी छत्रछाया में समस्त भारत रहा हो । उस समय दक्षिण भारत का शासन वीर चूड़ामसि जीवन्धर करते थे जो अपने विद्यार्थी जीवन से ही जैनधर्म के अनुयायी और प्रचारक थे। इनके गुरु प्रार्यानन्दी भी जैनधर्मानुयायी थे जीवन्धर का समस्त जीवन-वृत्तान्त जैन साहित्य में वर्णित है।
मगध देश का शासन महाराजा श्रेणिक बिम्बसार के हाथों में था। जो कुमारावस्था में बौद्ध , परन्तु अपनी पटरानी चेलना के प्रभाव से जैनधर्मानुयायी हो गये थे । इनके दोनों पुत्र अभयकुमार और वारसियन जैन मुनि हो गये थे।
सिन्धुदेवा अर्थात् गंगापार में दो राज्य थे। एक राज्य की राजधानी वैशाली थी। वहां के स्वामी महाराजा चेटक थे, जो तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के तीर्थ के जैन साधुओं के प्रभाव से बड़े पक्के जैनी थे। उन्होंने यहां तक की प्रतिज्ञा कर
१. वीर देहली, १७ अप्रैल सन् १६४८ १०८।
२. 'महाराजा जीवधर पर वीर प्रभाव' खण्ड । ३-४. ऊपर का फुटनोट न०१। ५. 'महाराजा अंगिक और जैन धर्म' का खण्ड २ । ६. 'राजकुमार अभयकुमार पर वीर प्रभाव' खण्ड २१ ७. 'राजकुमार वारशियन पर वीर प्रभाव' खण्ड २।
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रखी थी कि अपनी पुत्रियों का विवाह जैन धर्मावलम्बियों से ही करूंगा। विदेह की दूसरी राजधानी का नाम बरणोतिलका था। जिसके नरेश सम्राट जीवन्धर के नाना गोविन्दराज थे।
उधर कौशल अर्थात अवध के राजा प्रसेनजीत थे। जिनकी राजधानी श्रावस्ती थी। जिन्होंने बौद्ध धर्म को छोड़कर जैन धर्म अंगीकार कर लिया था ।
प्रयाग के आसपास की भूमि बत्सदेश कहलाती थी। इसका राजा शतानीक था, इसकी राजधानी कौशुम्बी थी। यह राजा महावीर स्वामी से भी पहले ही जैनी था। इसकी रानी मुगावती विशाली जैन सम्राट महाराजा चेटक की पुत्री थी। इसलिये महारमा गतातीक भगवान महावीर के मानसा थे और उनके धर्मोपदेश के प्रभाव से यह राजपाट त्याग कर जैन साधु हो गये थे।
कुण्डग्राम के स्वामी राजा सिद्धार्थ थे, जो भगवान महावीर के पिता थे। ये भी वीर, महाप्रतापी और जैनी थे। इसीलिये महाराजा चेटक ने अपनी राजकुमारी त्रिशला देवी का विवाह इनके साथ किया था।
प्रवन्ति देश अर्थात् मालवा राज्य की राजधानी उज्जैन थी। इसका राजा प्रद्योत था, जो जैनी था। इसकी वीरता का कालिदास ने भी अपने मेघदुत में उल्लेख किया है :
'प्रद्योतस्य प्रियदुहितरं वत्सधजोऽत्र जन्है' दर्शाण देश अर्थात् पूर्वी मालवा का राजा दशरथ था। इसका वंश सूर्य और धर्म जैन था, इसकी राजधानी हेरकच्छ थी, जैन धर्मी होने के कारण महाराजा चेटक ने अपनी तीसरी राजकुमारी सुप्रभा का विवाह उनके साथ किया था।
कच्छ अर्थात् पश्चिमी काठियावाड़ का राजा उदयन था। इसकी राजधानी रोरुकनगर थी । राजा चेटक की चौथी पुत्री प्रभावती इनके साथ ब्याही थी। महाराजा उद्दयन भी जैनी था |
गांधार अर्थात् कन्धार का राजा सात्यक था। यह भी जैनधर्मानुयायी था। महाराजा चेटक की पांचवीं राजकन्या ज्येष्ठा की सगाई इनके साथ हुई थी, परन्तु विवाह न हो सका, क्योंकि सात्यक राजपाट को त्याग कर जैन साधु हो गया था।
दक्षिणी केरल का राजा उस समय मृगांक था और हंस द्वीप का राजा रत्नचूल था । कालेग देश (उड़ीसा) का राजा धर्मघोष था। ये तीनों सम्राट जैनधर्मी थे।' : धर्मघोष पर तो जैनधर्म का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि राजपाट त्याग कर वह जैनमुनि हो गया था।
आदेश अर्थात् भागलपुर का राजा अजातशत्रु तथा पश्चिमी भारत सिन्ध का राजा मिलिन्द व मध्य भारत का राजा दढ मित्र था जो जैन सम्राट् श्री जीवन्धर का ससुर था । १२
इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान महावीर के अनुशासन के प्रभाव से उस समय जैन धर्म अतिशय उन्लत रूप में था।
१-२, बोर, देहली, १ अप्रैल १६४८ पृ. । ३. महाराजा शतानीक और उद्दयन चंद्रवंशी थे। इनके अस्तित्व का समर्थन वैष्णव धर्म का भागवत् भी करता है। जिसके अनुसार
इनकी वंशावली वोर देहली (१७-४-४८) के पृष्ठ ८ पर देखिए। ४. आधार का फुटनोट नं० १-२. ५-६. बीर, देहली, १७ अप्रैल, १९४८, पृ०८। ७-८. फुटनोट नं० ३, पृ० ११४.
६. 'महाराजा उदयन पर बीर प्रभाव' खंड २। १२. श्रीर, देहली, १७-४-४८, पृ०८। ११-१२. वीर, दहली, १७-४-४८ ।
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जैनधर्म नास्तिक नहीं है
रा. रा. श्री वासुदेव गोबिन्द आपटे बी० ए. शंकराचार्य ने जैनधर्म को नास्तिक कहा है कुछ और लेखक भी इसे नास्तिक समझते हैं लेकिन यह आत्मा, कर्म और सष्टि को नित्य मानता है। ईश्वर की मौजूदगी को स्वीकार करता है और कहता है कि ईश्वर तो सर्वज्ञ नित्य और मंगलस्वरूप है। पात्माकर्म या सृष्टि के उत्पन्न करने या नाश करने वाला नहीं। और न ही हमारी पूजा, भक्ति और स्तुति से प्रसन्न होकर हम पर विशेष कृपा करेगा। हमें कर्म अनुसार स्वयं फल मिलता है। ईश्वर को कर्ता, या कर्मों का फल देने वाला न मानने के कारण यदि हम जैनियों को नास्तिक कहेंगे तो
'न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्म फलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तले ॥ नादत्ते कस्यचित्पापं न कस्य सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।।
__ -श्रीकृष्ण जी : श्रीमद्भागवदगीता । ऐसा कहने वाले श्रीकृष्णजी को भी नास्तिकों में गिनना पड़ेगा। मास्तिक और नास्तिक यह शब्द ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्ध में व कतत्व सम्बन्ध में न जोड़कर पाणिनीय ऋषि के सूत्रानुसार
परलोकोऽस्तुति मतिर्यस्यास्तीति आस्तिक: परलोको नास्तिती मतिर्यस्यास्तीति नास्तिकः ।
श्रद्धा करें तो भी जैनी नास्तिक नहीं हैं। जैनी परलोक स्वर्ग, नर्क और मृत्यु को मानते हैं इसलिये भी जैनियों को नास्तिक कहना उचित नहीं है। यदि बेदों को प्रमाण न मानने के कारण जैनियों को नास्तिक कहो तो क्रिश्चन, मुसलमान. बद्ध प्रादि भी 'नास्तिक' की कोटि में पा जायेगे। चाहे आस्तिक व नास्तिक का कैसा भी अर्थ ग्रहण करें, जैनियों को नास्तिक
..क-जबसे मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्त का खण्डन पढ़ा है तबसे मुझे विश्वास है कि जैन सिद्धान्त में बहुत कुछ है, जिसे वदाल के आवायों ने नहीं समझा। मेरा यह दह विश्वास है कि यदि वे जनधर्म को उसके असली अन्यों से जानने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैन धर्म से विरोध करने की कोई बात न मिलती।
----डा. गंगानाथ झा : जनदर्शन लिथि १६ दिसम्बर १६५५ पृ० १८१ ख-बडे-बड़े नामी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जो जनमत खंडन किया है, वह ऐसा किया है जिसे सुन, देखकर हंसी आती है। महामहोपाध्याय स्वामी राममित्र, जनधर्म महत्व सूरत भा० १, पृ० १५३ ।
२-३. भ० महावीर का धर्मोपदेश, खंड २ । ४. महन्त भक्ति खंड २। ५. 'कर्मवाद' खंड २।
६. परमेश्वर जगत का कर्ता या कर्मों का उत्पन्न करने वाला नहीं है। कर्मों के फल की योजना भी नहीं करता। स्वभाव से सब होते हैं । परमेश्वर किसी का पाप या पुण्य भी नहीं लेता । अज्ञान के द्वारा ज्ञान पर पर्दा पड़ जाने से प्राणीमात्र मोह में पड़ जाता है।
७. परलोक है ऐसी जिसको मान्यता है वह आस्तिक है ! परलोक नहीं है ऐसी जिसकी गति है वह नास्तिक है। ५. देप्टिकास्तिक नास्तिक:-माकटायनः वैयाकरण ३-२-६१ क-अस्ति परलोकादि मतिरस्य मास्तिकः तद्धिपरीतो नास्तिक:
-अभयचन्द्र सूरि ख-अस्ति नास्तिदिष्ट मति :--पाणिनीय व्याकरण ४-४-६० निम्नलिखित प्रसिद्ध ग्रन्थों से सिद्ध है कि नास्तिक व आस्तिक का चाहे जो अर्थ लें जैनी नास्तिक नहीं हैं:क-शाक्टायन व्याकरण, ३-२-६१ ख-आचार्य पाणिनीयः व्याकरण, ४-४-६० ग-हेमचन्द्राचार्य शब्दानुशासन, ६-४-६६
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सद्ध नहीं किया जा सकता।'
जैन धर्म और विज्ञान
गृ० पृ० संख्या ११६ * Thirthankaras were professors of the spiritual Science, which enables men to become 'God. . .
-What is Jainism ? p. 48. अाजकल दुनिया में विज्ञान (Science) का नाम बहुत सुना जाता है इसने ही धर्म के नाम पर प्रचचित बहुत से ढोंगों की कलई खोली है। इसी कारण अनेक धर्म यह घोषणा करते हैं कि धर्म और विज्ञान में जबरदस्त विरोध है। जैन धर्म तो सर्वज्ञ वीतराग, हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवान् का बताया हुमा वस्तु स्वभाव रूप है। इसलिये यह वैज्ञानिकों की खोजों का स्वागत करता है।
भारत के बहुत से दार्शनिक शब्द (sound) को आकाश का गुण बताते थे और उसे अमतिक बताकर अनेक युक्तियों का जाल फैलाया क्रते थे, किन्तु जैनधर्माचार्यों ने शब्द को जड़ तथा भूतिमान बताया था. आज विज्ञान ने ग्रामोफोन (Gramophon) रेडियो (Radio) आदि ध्वनि सम्बन्धी यन्त्रों के आधार पर शब्द को जैनधर्म के समान प्रत्यक्ष सिद्ध कर दिया।
न्याय और वैशेषिक सिद्धान्तकार पृथ्वी, जल, बायु ग्रादि को स्वतन्त्र मानते हैं किन्तु जैनाचार्यों ने एक पुद्गल तत्व बताकर इनको उसकी अवस्था विशेष बतलाया है। विज्ञान ने हाइड्रोजिन आक्सीजन (Hydrogen Oxygen) नामक वायुओं का उचित मात्रा में मेल कर जल बनाया और जल का पथक्करण करके उपर्युक्त हवानों को स्पष्ट कर दिया। इसी प्रकार पृथ्वी अवस्थाधारी अनेक पदार्थों को जल' और वायु रूप अवस्था में पहुंचाकर यह बताया है कि वास्तव में यह स्वतन्त्र तत्व नहीं है. किन्तु पुद्गल (Matter) को विशेष अवस्थाए हैं। .. आज हजारों मील दूरी से शब्दों को हमारे पास तक पहुंचाने में माध्यम (Medium) रूप से 'ईथर' नाम के प्रदश्य तत्वों की वैज्ञानिकों को कल्पना करनी पड़ी; किन्तु जनाचार्यों ने हजारों वर्ष पहले ही लोकव्यापी 'महास्वन्ध' नामक एक पदार्थ के अस्तित्व को बताया है। इसकी सहायता से भगवान् जिनेन्द्र के जन्मादि की वार्ता क्षण भर में समस्त जगत में फैल
१. शरदतोमहानिधि कोष पृ० १८५ ऊ, अविधान चिन्तामणि, कांड, इलोक ५२६ । घ. प्रोफेसर होरालाल कौशल : जैन प्रचारक, वर्ग २२ अंक, प० २-४
जैन धर्म महत्व (सूरत) भा० १ पृ० ५५-६१
2. (i) Jainism is accused of being a thcitic. but this is not so because jainism believe in Godhead and innumerable Gods.
(ii) "Those who believe in a creater sometimes look upon jainism as an a theistic religion, but jainism can not be so called as it does not deny the existance of God," Mr. Herburt warren-Digamber jain (Surat) vol. ix p. 48-58.
(iii) For further detail see : -
(a) Jainism is not a theism priced -14/- published by Digamber Jain Parished, Dariba kalan, Delhi.
(d) जैन धर्म महत्व सूरत भा० १,१० ५८-६१. (c) Jain parchark (Jain orphanage, Daryaganj, Delhi) vol. XXXII part 1. IX p. 3-4. ३. भ० महावीर का धर्म उपदेश', खण्ड २ ।
7. The Jaina account of sound is a physical concept. All other Indian systems of thoughts spoke of sound as a quality of space, tut Jainism explains sound in relation with material partieles as a result of concussion of atmospheric molecules. To prove this scientific thesis the Jain thinkers employed arguments which are now generally found in the text book of physics.
-Prof. A Chakravarti : Jaina Antiquary. Vol. IX P. 5-15. १. भ. महावीर का धर्म उपदेश खण्ड २ के फुटनोट
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जाती थी। प्रतीत तो ऐसा भी होता है कि नेत्रकम्प, बाहुस्पन्दन आदि के द्वारा इष्ट अनिष्ट घटनाओं के सन्देश स्वतः पहुंचाने में यही महास्कन्ध सहायता प्रदान करता है। यह व्यापक होते हुए भी सूक्ष्म बताया गया है ।
जैन धर्म में पानी छानकर पीने की प्राज्ञा है, क्योंकि इससे जल के जीवों की प्राण विराधना (हिंसा) नहीं होने पाती याज के अणुवीक्षण यन्त्र (Miscroscope) ने यह प्रत्यक्ष दिखा दिया कि जल में चलते-फिरते छोटे-छोटे बहुत से जीव पये जाते हैं। कितनी विचित्र बात है कि जिनजीवों का पता हम अनेक यन्त्रों की सहायता से कठिनता पूर्वक प्राप्त करते हैं, उनको हमारे प्राचार्य अपने अतीन्द्रिय ज्ञान के द्वारा बिना अवलम्बन के जानते थे।
अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए जैन धर्म में रात्रि भोजन त्याग की शिक्षा दी गई है। वर्तमान विज्ञान भी यह बताता है कि सूर्यास्त होने के बाद बहुत से सूक्ष्म जीव उत्पन्न होकर विचरण करने लगते हैं, अतः दिन का भोजन करना उचित है इस विषय का समर्थन बंद्यक ग्रंथ भी करते हैं।
जैन धर्म में बताया गया है कि बनस्पति में प्राण है । इसके विषय में जैनाचार्यों ने बहुत बारीकी के साथ विवेचन किया है। स्त्र विज्ञानाचार्य जगदीशचन्द्र वसू महाशय ने अपने यन्त्रों द्वारा यह प्रत्यक्ष सिद्ध कर दिखाया कि हमारे समान वृक्षों में चेतना है और वे सुख-दुःख का अनुभव करते हैं।
जैन धर्म ने बताया कि बस्तु का विनाश नहीं होता उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन अवश्य हुमा करता है। प्राज विज्ञान भी इस बात को प्रमाणित करता है कि मूल रूप से किसी वस्तु का विनाश नहीं होता, किन्तु उसके पर्यायों में फेरफार होता रहता है।
जैनाचार्यों ने कहा है कि प्रत्येक पदार्थ में अनन्त शक्तियाँ मौजूद हैं, क्या आज वैज्ञानिक एक जड़ तत्व को लेकर ही अनेक चमत्कारपूर्ण चीजें नहीं दिखाते ? लोगों को वे अवश्य प्राश्चर्य में डालने वाली होती हैं, किन्तु जैनाचार्य तो यही कहेंगे कि-अभी क्या होता है, इस प्रकार की शक्तियों का समुद्र छिपा पड़ा है।
p. (a) It is interesting to note that the existence of microscopic organisms were also known to Jain Thinkers, who technically call them 'Sukshina Ekendriya Jivas' or minute organisms with the sense of touch alon-Prof. A Chakravarti.
- Jaina Antiquary Vol. IX P. ,5-15. बिना छाने जल का त्याग', खंड २।
२. रात्रि भोजन का त्याग, खंड २। .. . Turning to Biology, the Jain Thinkers were well acquainted with many important truths that the plant--world is also a living kingdom, which was denied by the scientists prior to the researchcs of Dr. J.C. Bosc. Prof.-AChakarvarti : Jaina Antiquary. Vol. IX P.5-15.
४. (i) उप्पत्तीवविरणासो दध्वस्स यं णस्थि अस्थि सब्भावो । . . विगमप्यादधृवत्त केति तरसेव पज्जावा ॥१॥
-यो कुन्दकुन्दाचार्य : प्रवचनसार । अर्थ-द्रव्य की न तो उत्पत्ति होती है और न उसका नाश होता है। यह तो सत्य स्वरूप है लेकिन इसकी पर्यायें इसके
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को करती हैं । (ii) Nothing is created & nothing is.destroyed. ५. 'भगवान महावीर का धर्म उपदेदा खण्ट २ के फुटनोट ।
6. The Jain works have dealt with matter, its qualities and functions on an elaborate scale. A student of Science. if reads the Jaina treatment of matter, will surprised to find many corresponding ideas. The indestructibility of matter, the conception of atoms and molecules and the view the hcat, lights and shade sound etc. are modifications of matter, are some of the notions that are common to the Jainism and Science,
-C. S. Mallinathan : Sarvartha Sidbhi (Intro) P. XVII.
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जैन दार्शनिकों ने बताया है कि सत्य एक रूप न होकर विविध धर्मों का पूज रूप है। इसी जैन धर्म को महान विभुति को ही अनेकान्तवाद के नाम से स्मरण करते हैं। बड़े २ इतरधर्मीय इसके वैभव और सौन्दर्य को समझने में असमर्थ रहे, किन्तु माज के विख्यात वैज्ञानिक पास्टाइन के अपेक्षावाद के सिद्धान्त (Theory of Reletivity) ने जैन सिद्धान्त को महा विज्ञजनों ने अन्तस्तल पर अंकित कर दी।
जैन प्राचार शास्त्रज्ञों ने मोज्य पदार्थों में शुद्धता एवं प्रशुद्धता का विस्तृत विवेचन किया है। यदि वर्तमान विज्ञान द्वारा इस विषय की बारीकी के साथ जाँच की जाये तो अनेक बातें प्रकाश में पारंगी । और जैनाचार्यों के गम्भीर ज्ञान का पता यथार्थ रूप में चलेगा।
जैन धर्म ने बताया है कि मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होकर आत्म विकास कर सकता है । संसार में प्राकृतिक शक्तियाँ ही संयोग-वियोग के द्वारा विचित्र जगत का प्रदर्शन करती हैं । यह जगत किसी व्यक्ति विशेष की न तो रचना है और न इसके निरीक्षण एवं व्यवस्थापन में किसी सर्वत आनन्दमय एवं बीतराग आत्मा का कोई हाथ है। आधुनिक विज्ञान ने यह बताया कि जगत पदार्थों के मेल या बिछड़ने का काम है। इसमें अन्य शक्ति का हस्तक्षेप मानने की कोई प्रावश्यकता नहीं प्रतीत होती।
जैन धर्म का विज्ञान से इतना अधिक सम्बन्ध है कि जैन कथा ग्रंथों में प्रवैज्ञानिक बात नहीं मिलती |
वर्तमान विज्ञान अभी प्रगतिशील अवस्था में है । यरोपियन विद्वानों ने बहत ठीक कहा है कि प्राधुनिक विज्ञान जैसे-जैसे आगे बढ़ता जायेगा, वैसे वैसे जैन तत्वों की समीचीन्ता प्रकाश में प्राती जायेगी।
!. 'Syadavada or Anekantvaa', Vol II.
R. We can ward off diseases by a judicious choice of food, Sun ligit is another effective weapon. Like vitamins, light helps metabolism. Carbohydrates are not burnt without the action of light. In a tropical country like ours the quality of food taken by an average individual is poor, but the abundance of sunlight undoubtly compensate for this ditcary dificiency.
-Dr. N. R. Dhar. D.Sc. I. E.S. J: H. M. (Nov. 1928) P.31. . The method of approach to truth in Jainism is fairly scientific in the serse that it treats with the problem of life and soul with the well kuown system of classification, analysis and right and accurate understanding.
-Dr. M. Hafiz Syed. V.O.A. Vol. III P.8. ४. The theory of the infinite numbers. As it is dealt with the Lok Prakash (लोकप्रकाश) and which corresponds with the most modern mathematical theorise and the theory of identity of time and space, is one of the problems which are now most discussed by the scientists owing to Einstein's theory, and which are already solved or prepared solution in Jaina metaphysics."
-Dr. O. Pertold, Sramana Bhagvan Mahavira. Voli Part 1 Page 81-88. ५. The entire universe consists of six substances: Soul, Matter, Dhrama, Adharma,
Space and time. Those are all permanent, uncreated and eternal, but their mode (Parvaya) is changcable: so the universe which is comosed of these six. Dravyas is also permanent, uncreated and eternal, under going only modifications.
-C. S. Mallinathan : Sarvartha Siddhi (intro) P.XV-XVI. (ii) "भ० महावीर का धर्म उपदेश' खण्ड २ ।
$. The Jains have always exhibited the highest scnse of respect for nature and almost a sort of mystic rapture, The doctrine of karma is cominon in all the religions in India, but a distinct stamp of scientific and analytical classification is to be found in the Jain interpretation :
-T. K. Tukat: Lord Mahavira Commemoration Vol. I P. 218. ७. 'सरल जैन धर्म (वीर सेवा-मन्दिर सरसावां) पृ० ११७-१२१ ।
ready solve are now most die and the theors (aasta ar
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تجلتت و میر
حلوور
ران ممتاز التراج: جام نبات برمن، صاح ماشینی دلوی) خبرنا ہر کسی کو بھی میں اغیار کی ہ ے
دار ممتاز الشعر جناب حضرت عکرملسیان) باقالی کرنا بتانگا پراجی
اس دنیا میں درد هم نام در نظر مي ما برای نایور کی یادگی
بے زبان زلنکا میبیا نظریا راحتالیکارجناب منی بیشور پرستار صيام من زار عالم کا تاناللعبا
, دانلود اعلی کی اهل نظریا واکنش دکتانتا بار اور منہ میں ہوا رحمت عال
اوتار آہنا ہوا زینت عالم رانی نے علم وسنهاب ملا ملوك الوپچندان آفتابی پا و د ر
مانی و مرمت آزادی کے نثارکبها نادر مگر و به میاد و بیرکر مجارست کمربند
. کچھ چیز تصور نہیں تصویر کے آئے رازقطہ نگار خان پل نشسته بشار مصاعب ندا بيا : کیا رات ہے خورشید کی نوبيرتگ سبلان ملکی کرکوند درومان 4 نے بن کر مسکران
کی کمیل ہے اعجاز مہاویرکے باقی :.
گے دانانہ علوی حباب لالہ امید صاحب قيس النهرى)
اندریگر را با کمی میرید کر لیا
' اس سافت پر ہم سب ان انظروا
دنیا نے جوابتانی داستانها با نت مظنی ہ م ارے علم میں یکتا تھے۔ ایک فنی کال دانہ عندلی گیلان سادھو سنگر ساده و فرید کوٹ
مشهور تز باسنی ئے عالم عامل
ندول کے لئے نشر سال بر پرتابل و صبا کے محنت سے میرا کا حجام کر دی ت
ی ہے
مقبول جہاں فر تسنجر کے حامل پرو بال : رانحصولات مناسباته ام ناقد ساب ساحر را دلی)
ا . وہ آب که آیکن اگر کمینہ 10
شریا سے
ده تواب کہ باقی تکابی ہیرے ک ی کھائے ایک مادیر زمار ده صاحب قدور
مارجر بن ناصر المندر ہے راہبل بوتان جاب الئہ نشینگ ماهيناز بهترین باکتری در باره برلین کا مینا
تا دنیا کو سکھاتا تھا جو پینے کا فرما انشعابد حجاب بالبوشاد صاحبه ولو مارینوم )
ہے جو پہلے وی بنت کا لیبی چو مشر مادی امیری اگر با این میرابال
جنت کا مکین ایکی طوالترح امیں ہو
. پیام سنایا کہ انسان کے بہت سے کنارے پرسفینہ
دنیا کا مرہم اور
نام بر زخمیوں کا مر
"
مد
ی رکل پوره
.
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3535
عقیدت و نیر ران الخلاف جن، شری جنیور پیشادصاحبم گرادہلوی) مورد زبان آج مها و پیر مہاویر
ہ ام القری مهاوير
عالم کی منيا ردح کی
ت
درد پاتے
اور اسی
توصیف اور دان امیرالشعرا جاب شرواجورام ساحب جوش ملسبال خرباں موسم کی منی با تعقیں مر
نیک ملوے نے غیرمله الوارکیا میرے احساسناعی زشتی و : تیرے رونے کی صداقت کا ہوتات
س ے
انکار کیا تا استراليا ران فرقه جناب بیستو چمپیندا اے اے) مشتری اینستے تو ہم ایک بار املت
گلنار ساگر سے ہی ن شر کر پاتے خدا سے دلی ہے۔ پرانا ہے۔ اس تشبه
سید اما همین
نام ہی پر چی گن میں دیری نظر کرم سہیت آنا، کرم رہی پرانا
بجز اس سے نہیں پر مبهم در رانخفائزنگارینهای لبنیورپینا صاحب مستر ك ي
) رنبیه ولوں کیلئے احسن کیای
می
ی میل ئ
ے مددگار نے مجبور کے وا می کون زنده عاویہ نہ بد ذات گرامی
" اور ان کی مسلم کی تصویر اور رازامر الشعر جناب ننی چلیشاد صاحب سیبا د معلوک) وبراگ کا پیکرنا وہ اک گیان کوعرير
چوبیسواں اوتار کے دنیا میں مہاویر بندی سے میراک کریم کے آزاد نے منگی
اعران کی تبلی میں نر مان امور الرجباروفيم جناب شوی بلدیوسنگھو صاحب شگردهلوى)
جا روز دنیا کو اس نے کر دیا خلد بہ ہیں ۔
پی کو بم سے اسی حال میں ویرانانی پیدا فیضرر ہا ہاشم عفان سے
فری اسب میبوار بھی شرم سے پانی ہوا ران نام کا جواب کیا جیت گھوننیلن سنگہ طاہرعلوی) بیسن کے خون کا دریا رو رہنما کی ہیں
و میر آیا پیر کیم کی گنگا انکے لئے
ترین با کلمے اللينك راز گفتاجناب نیند جگر برخپلن صاحب جو انبالوی) و بر کے پیر
نے کل دنیا کو روشن کر دیا . " تک جون نے تیرا نار کرنے پر دیا کیا ، ا سے تو نے کھولا ز ندگی کے رازگیست
مسرح قطرے کرنی نے ایک سمندر کر با رام دمه پری جناب لاداره صاحباپیر جین پارک سان
ہوگئی جانفش بل پر کیا تحت وبری کین ک ے سامنے نناوں گے عورت دوسری
مست ہو کر کیوں نہ ہوں عبده زلیں میریم
گی جبکہ اس درمقید تدبیر کی
جرن فریدی کا شرمناک
ا ن مهسا و ببر سوامی
امر
یا شک ہلال
العاظ حمد وننگ لئے نی
وسمن کے باہر ہی میری دربار سے . راشن کی امین بانی احسا ستارہ ادا کیا تیرا مریدنی کبالتبت ریز ها پیش بار مد برای
رہے قصہ چکایا متیرا ستمبر کا رحم اول رح نرحب بتانی ہے .
فلسفہ پمگر بتایا معالمگیر کا سے دعا آسان گی سنی مسلمان ایکسل س کول پیش ہو کہ میری ترتیر کا
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م
/
ترضنکے مشائیں پانی است کار من فاز به
مران مسلمان
م ربع درونی
ہوئے وینرارا جارواسے
نے دیوانویه
زبان فارسی
اوکھے ا ور ملازران کا
. راز اتنا زیاں جانچل صاحبان ای کیش پایت) دان ديرفهم جناب الرجولة ناقصا محتار بين البشر
د
.
ر و پیشانی کے جہنم سے در کمال بردا انا ضمیر اور تو سستے ریتک ساغر جم
سری کا نظارکینڈل پر کے ہی انوری درین ست فنگرنگر ہر نئے بال
کیوں نفت افلاک پرینت اندر کی ہے تر
را ویرا ے جانی چه افتر اعظم راسته و بین تو باعث مرور آتی
کا راجبر کے بالوں میں ہے پر از ما، سرند نهان ملک جناں خم شدند نہ پائے تو باند تعدازاں بالا گھر باب گریش نیای کبیر
ہے وہ گرین کار ان کے پایوں مرے مرجع دری و بارسته تر . منشی ق نات و خبرخواه تر
ران با حجاب بالورویش چند صاحب بیاری کی ان پت) معبری و محترم را پستاه نزي
شکر آنکھوں ہی آج ہاوسکی کیاضرمت پرامر کی تصویر ہے سريع ملت دی ال ع باه ترکی
باطرتو موسی ہے نے دیکھا ہر ولی مراسم پر فیض کے میاد برکی ہے بانه ای و برند محسنی اور ایک ہی روز بر تربت ی كأطے اب میرے لفاظیرینی
و و برنا دن بہتا ن)
باز کعبه حت پر جلوہ گاو مدم کرگانی خاہنساتی برینگ رول میں ہی یہ بات ایسی اکسمهریه -
بزم میں جان کر ہی ر ہے عذور گردوں کو کھو گورا پن دور کا ترے شعری بلد اسی تیرگی ہے راز فطره نگر تا به این آمار ام صاحب چودھری مار و سایدی) بدلے ما میرک کرتا ہوں ورنن و بیرکا
راز فخر قعر جناب بار چندولا صاحبه اخنزانی و کیٹ بلی پانی نترستاراجہ سداری کنند میرا آج کہوں زره خاک ر میز پر اور بے ر
چنے میت کو زمین کا جلوہ گا ہ طو رہے اچھے اب پینٹ لیٹی اور کلکٹر
میں نے دیکھ کر بار بار جو بند بیرا وقت پر اسد بنوامیہ کی ولادت ہے تو وبې تاسقا ار اصندا کامې اوتارست
نامترژنائی ہے آناق میشمہ ہے پنیر کا حب کا ہر خواہورمیام پشتتیک
به به ک ار بھی جانا جرنین زینور ہے
معرفی به انگے.انگ نے
ک
میر کی سیٹ پر پہر کا
کمبود پتہ نے باغ ما لو نش
ا ن عبارت درشکا سوه
ادھر باپ نے کبیرا پانتارا کھرل کر کشم ی
ر کی تاریک و کوژران و برا این بریانی کھانے سے اندر آ نے دیان " جاسب به برلین ما و بر ا کیا ہے ان کا
جاسب بھلر نے مبا و بی
تان کار مشتریلیا مرد میرا
مردہ روحوں ایک ہی بار ایسا ہوا کہ بائی شہر ہے
کے بام جنت بنے گی کا بریستوره
پھول برسائے د بام چرنے پرلاند
"
و زهر
مار ر
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مہاوی شامی مہا ویروامید رانی افکار جناب پٹیل نرمالیکوله
و بکگران ها و نیروی یار
* رای دیوان وطن جناب تری یا چند صاحب ابر مرداب اپنا احبس دم دار ٹالپ تا زمانے میں امیر بب پیا ر ہو نا او و يا کا طنان منڈا ہوا کتا
آرم نور ما نیز ارسال هلیاں کے پلے کو کون گی تا
مسئولان میان ع کس وسیر آیا
برتر و سیما تا را نام پاره ان مہاویر شای۔ میاورشرامی سید گوزارشتر في حبه با زبانوں بیدادهای
هیتره ی تردیشی گریاند غریب کی راکتی به اداری
بن کے ربری موہنی تصویر آیا مقاسات به منتديات طاری
باران برساني کشن کی" نما پرسکانیا دیاری؟
ب ا کد ملی به من نزن مار لیتا اوپر والی مہارشرامی همراه المسي .
میں دل و په بها وحپا که شکمی ہوا کس کام سے لی محبت کی تعلیتا کر دی ہے
" ۲ نیر
کھوسے کیل گیا این پی کے
رات دنیا را پردا کتا عملی با زرین کہرکرنے کی ہے کی کی بدولت سنسار م انتی ہے
تنها چرا بازار افتاده باشی ی ما میرسقرامی. منها و میرشای کون سی نهارداشیں کرتی ہے تا بیرکس کی زبانی
ا پن بالا و بیشتر بر سی
جنرل وار لی دے وانشروان پاکی
پر کبر مرگش رس دل پر ماهی میلا دیا اور کہے جار میں
تجنٹ امستر اینسارا چناټا مہاویر مخوانی او بیرتدای ساری دنیاوی امون کر اماں جائیں گاندې اب ایسے ہی
بالوائلیے ہم بھر نہیں پتا اپنا کا میدان سرگرسية ا
اوناں گرے پیرو ورهائی بہادر ہوکر گندم به قدم عمر ہے ہیں ومہ کو برا کہ دمک رہے ہیں
ناصربرم دا جوت جگا سالمے م ا ورخرامی باد پیر خواهی
وبیر پر عبور کجی بلای جاواں
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تنتاج بھارت کوگرا اور سوامین
نوم یاد تو امی مہاویرشوانی
د
زامبی ها در شرای
ان زویا تا به اسپرسیار است و شاعرانو په سازی با مام مامور پر ان کا و امام عبت ابر کام کیا
ازمیر کو بھارت کے مطايا ويرشان
اور حقیقت کابل با وب شرلی نے علم نہیں کرنایا دیر تامین
راز پروانه فوتبال مهران متری چپلزجاج) میاں ملی ہی میں کٹ ستی ا ی
رواں برس ایشالا پایا دیر نیابین
تقلین کر رکھی
سراپا خود را بنا کر سلامونوں
کو کون آیا سنا ہ ر
گھر وا؟ س تر کبار کرایا و بیرشوان
به یاد بیرامی. مہار بروامی اسنساکی است که گامی جیسی سنگی
بنا کر امرت کبشرجینال انا بادی بنایا برنامه ما ملودی مشینوں کی روانی تادیرب ی اره کریاران
پای گروهی برای من اندیوں پر نا ہو یا با مدیرشان کہہ کر ان کا مہا پرشرعیان سمت جادو یارکت به نشانی
اور سوامی۔ مہاویر وامی میت کی درشعبایا و میرشای نے اہنسا کا سنښ جلد کرشنا کر زمان بن سکتافایند سے اسی و
کی کزن نادرا سے تبارتجگاکر نبی یا ریفرلگایام پیروانے کیا حسن
روشن میاں نومبر کو کر کریمانہ بنے بر ملا کتناسواہر ر . .
کہ کون اشاره برم کا رہا کر ہے پٹا وہ ساردینایی که با ویرانے ما ویروامی مہاویر مرا می دان مناسب پنتا نراهم اخبار ادب غاضرانی بود بودا سدا سهند باسی ہیں جن کی مالا
پلو با قا عبرے تم مری موبایل نے دیار میر کٹواهی. ما و بینوایی
کہ کون ایسا عقار ہر برانا وہ دکھا بازوخت سے من ول
سور النت کا میسا میں نیب کی حقیقت کی بی اسٹور سے
قبرہم ہوگیا کہ کون سے دیر به بیاندن؟
ها و پرشوا دیامیرشرامی
با بیان پارمین سال به عبارت سایپا ہو گب من را به مراتب بالا به این مقام پر پویا بیا
نہ رکھا ٹی اس
ک ار به جا مانا گیا
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کہاں کبھی غم رہے گر ویرسا غمخوار ہو جاۓ مشہور ڈان اردو اخبارات کا ڈیٹیلمان کی دیر
شردها نجلی *
ران مخزن حلا و با مولوی محمد ایوب سے ایم ایڈوکیٹ سہارنپور) سورگ سے بھی بہت دلکش پنسار ہو جائے۔
(از بلبل من سخن جنا ب حضرت صحرائی ناظم ملاپ) اسناد محرم کا دنیا میں گر پرپار ہو جائے گوبی نماۓ مہرا بنا کے نام لیے حیات کیت کے مہام سے پلاستکی بر کے راکش کلام سے مینارما کا شوق بداماں پیار سے انسانیت کا درس سکھانے کر آگئے۔ ہاد پر از زلیت بنانے کے آگے دار علی قالب فن جناب لال نانک چند صاحب ناز ایڈ ٹراپ) م کی عظمت بھی ہے۔ پیر کے پیغام ہے آسماں کبھی کھا کیا تم اس کے ارنج بام سے
مین
کھر گیا آنکھوں میں تنظیم دو عالم کا شمار کیلئے دو گھونٹ جب اس کے چھلکے بام
فلسفہ اس کا فرشتوں کی زباں پر نقش ہے۔
مٹ نہیں سکتا کبھی یہ گردش ایام سے رازشیار میدان صحافت جنالی کوئی نام مراسٹیٹ پیٹر
زمین عمارت کی گلشن بے خار ہو جاۓ کہاں پھر غم رہے گیریانخوار ہوجاۓ
ران طبل غروی استان باخان بار شیخ قربان علم میں آنریری اسسٹنٹ کلکٹر سہاروی پر کند وہ تلوار سوما کے ملے سے ان کے اس کی دمارات دار ہو جائے
جوا کھٹے خلق
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جنہیں آہوں کے گل اور آنسو دکل نارمول انا محرم کا دنیا میں اگر پیار ہو جائے رانه از عالم فن جناب عین عباد، ماسی پیگیری خرید ساپور) چلائے پریم کی کشتی جو بلی سے اہنا کی تو اس کا مجرم سے کیوں نٹرا پا رہ جائے
قضا کا قوت اس کو اور نہ دشمن کا کو با خطرہ
اپنا دھرم کا اختیار مس کار با ر ہوجائے
رانی استادم وارباب ولی الیں کفرون من عالم منشی فاضل بالی دیوالی کی عالم جگر گام بٹھا چراغاں سے
دی کرا نے پیش کی ایک تعلی کا پرچار ہو جائے ارا اب دیر
ہو
شمع الفت سے
ر باستا و بیۓ جو درس الرده باربراۓ
محبت کا جہاں میں گرم بازار ہوجائے
اہنسا کرنے سے منو نشاں تہوار ہوجائے
ران هندلینانتان من جناب سیدارت میں صاحب کی سارد مسار وادی عشق وطن کا مصیبت کو ہی راحب جانتا ہے چن میں البی رو محبت و ہرے چھوسکی چل مہاویر کے نقش تیم محکومی کو ذلت مانتا ہے یہ کیا ممکن گل تیل میں بھی تکرار ہو جائے کہو کیا حال دل زخمی کہ سب کچھ ۲۰۰ خوب قیامت مانتا ہے
صداقت کا عمل امن کا دور دورہ ہو
اور کور سنتوں سے معمور مینار ہائے راز آستارعلم بکن علامہ وقاتی انباری اپڈیٹ احسان لاہور ) از داران قوم جناب لالہ شیر بیدار صاحب شیر شہد کے سہاردر ) سمیہ کی چوت سے دور اس نے ہر اندھیہ کار کیا باپ کی نگری میں انا کا وہ پرچار کیا
کہ ہم پر اس سے کم اور یہ سنسار کیا
پرایک درہ جہاں کا مطلع انوار ہو جائے۔
اور فون میں بھی نیکی کا کر پیا جاۓ
موسم تھے اس ستان کے رہبر کار کو پینا نا ن کی تھی شمشیر
اس قسم کے کتنے رہنایی : مریم
کے الفا انسان کی دھاک بولتی تصویر
موارد و مخفی در دی مگرلزرع لبشر تک ممتاز ہیں اس طبقہ میں مگران مہاویر راز شگفتہ زبان جنالہ شیو رام مادی نمی پیر دبیر مبارة
کرد و مد کا کا مشن کیا اور انکا ر کیا
ه مها و بیرسٹرالی نے ہر جو کا آپکا ر کیا ؟
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حبر نقلیتری وبیرکا مل ہوگیا رانام نال جانشید نے لال مهاجمان رقلی ملک پارس سطلا مین سے اس بری طرح
حب کی تقلید تیره و مسیر مباح کیا دیر کے انظان کا معه
امه بدن
"وط سیتی برای دل سے خالی ہوگی رازجير القلمرحبا بالجميل اسم ناز فریبکو و آفتاب و روی زمین میری منظور نقیب
و منيار
مان کر تما
مرہوگیا ناخدا پر بربریبرتوس کرنا "
کوریا کا م سے نزدیک ساحل ہوگا رانبارگرانی جناب میل متن پورن چنل صاحب زیر شالوی) بیری اترتی ہے تو اور کام پر تو دیگی اور تصویر تیریدل س ے
دل گیا دوسری مرتبہ جہاد واسط تیرا ت و رانی مشمع نوم جدولی دیپ چنل بیکال اسخن ناشر دینا تو بیوی بہنے کی تقلید بنزی بر امل ہو گی
نے چین کے بناء نمره أن حاصرہ کیا سندرها تبر یخبندش کا مام میرا
س ے
براسائی ہو گیا و رانی گذرا تو معنی بالا درجه پ ادشاهه چې دلوبندی)
وزیر نگرف رخدادلم نازل ہوگیا راند بيوتهم جاب با معمولا ناقصه ای دارای یک تر باتری رات میں بیٹا سجدے کے قابل ہوگیا ۔ حلوه گاه و پر یہ بھی دی ہوئی جب
دبیر بم بنایا، پر اب جب نقش منزلی برگی
تر و بروه زنا سے زائل ہوگپ دبیرها برنول نفت من را لیا
وہ سمندر تیر مرغ تاپس مل گیا اسے درختان و یک زیباترین و بنده ها می می نعش کے قابل ہوگیا۔ راز افتخار جنابه با بسپتال میں پارٹی اورتی
و بر منطقه به شنونه جو و اخروی
س قابل
له کا
هه
و اشرف المخلوق النقال اس کو سندان پر اگر منایا ا و
ر دونوں خونین خرد من بولي اس کی شان لطمت ہے بابا دبیر اگر خدا
دل میں نازل ہوگیا
بات ہے میر نام تراجب یا اسے برے
آبل بار س ے
ہم ان کے بت بل سرگی تھذا ہر باسی نهم انه مکش کا پ ی
ر کی نعلی سے رہ گیا ان ما سنی ہو گی
میں خود اورمتا پر
م
خ الفیراطل ہوگیا
میں خاندان امیر کاردستی اس کاتاگل ہوگیا
" . ماند و دل پر نسلی اقدامات
کرم روی دستمول سے کسی طرح اگات"
راز میں ملا کر مکی کے قابل ہوگیا . راهست فطرت تاجنیرعلینای شما شوخ بڑھ ) ہیرو امی کی محبت کے ترلے کر دیکھ
جو پرانا دل ست سینے میں نیا ولی مرگبا
راز شیوه گفتارنیاس مٹیالوی صاحب نگم دهلوی) و بیرکودیریت سے ایہا لأرحاملگی دل جب پرنظریه با کالا ہوگیا
میری تعلیم سے اشنا راسبوت زه ر بابا روز منزل سلمي اب اپنا اسلام کی بد بودن امام را به او خ یزی ہوگیا
روز خیالشان کی نیت کرنا ہوگی
آب انارس کا
اچھے اور میکنین
جب رمانہ برسے وارفتار
اور ہر بار کیا
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.
و
8
کو جنت نشاں آگرینا دینے از بین رفاقت جب بار الهند البلدان جرش اناری)
ولی کشتی امیری بنیری ساحل راز علامت استانی جناب سید عاری بالایی وباوراخی دومت، علی حشمت حملی
" ایک دانہ و پیر کے خرمن سے گرمامیلا مدح تازه کمېرنک کننده در با به کرا
را در بین مسکو به رو را؟ مل کے مینار ملنے سے کیوں
"
بن کر بتت
نے نیب اخت امام
نقطہ نگار پنجاب کے میٹر پروبیلالہ کش پنل شما زیا)
ہندوستان کی عین بندهارها
ناخدا بر کراس ساعن بلا یا دبرسنے گرم مقاماز الحمرا کشت و تورن **
کا نام ونشاں اس مٹا یا برے دور دوره قفا اوباما م یں میں جهش چاق ظلمتیں کرینات اپنا بعالم کوستا
یا بی مال و زر دولت کر جبرا جانلیوانہ کی ستر اینسا تپسنیم یا بالن کرو بيض بابا سے بننے لن اوپن یونس
ا س کی تعلیم که در با با با و پرے سیده اکرفرشتوں نامی کتاب
مرت سے درجہ نروان بابا میرے تو بھی نئے نادانان ہونے کی میری
بار مسالے لة گردی کڑکا یا مربا
تیار
کر لیا میرے
گرمابری بران و امرا
ر وشنی کا میری لبریری ساحل گرین گر کی وبیرکی شکشا ک ے
انبار " کا دار للألم وہ مراکش میں وزهرا
(از جارو قلم جناب نواب میرحسین صاحب انصاری با نوری
دی اور ایسے الفت کا جوار مولوی اور ایسا جا رہا
انتخابی ادب جناب حضرت ممتاز صاحب انباری) میا ملک قناعت پیاده بادغام می
ایک دریا سے ایک قطرے کا بوساتل ہوا امن کا نام دیاگرا
با دمیرنے حرين فتنہ سے دل س ے
یا میرسنه " آج کے دن درگیہ شریان پرعاملیا وافينا نام خانواع اره نوار .. ان افتقار النعراضا مبلراجها مصاحبه بې له دملی)
معرفت کا نام کالا پل یا دبیرسه اگر مردان پا فی الحقیقت تو ہے دلیران نغمہ عرفانی سے کارسازی پر
سارمرین بد یا پیمان دل کا نذرانہ عالم لورت الکتریسینا با دبیرین مرقع ناگ کا ہے زندگی میامیر سرامیکی :
یہ میرا کے برابر نے نارح وخالاتر کیا
نکلتی ہے تدبیری فرکاندهان عمل معنمور چین برای شیرینیں
.
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وہا8
در وکوه در دنبانا سکھایا ویرے ران مرکز علم وفن جناب برای اقالها ويحننٹ جنرل
سکویی بن مالب االسم کے بالوں کاراں دالوں کو گرد یہ کھیل
' کرشمہ اپنی عظمت کا رکھایا ویر نے هم دل کے مریم کا فریر کی حاجت ہے کیا ہے
درد کو ہمدردن يا ناسکمایا میرے کے عالم کی بنا پر مورد همراه مسبق
بن کر مشتریان آکر بنایا میرے کے دھاگے سے بندھی ان سے دنیا دیکھ لو
معرفت امام کھالیا پا با دیبینه وان منبع فلسفه جاری واحدسا ليختروبینہ ) کے تباده بنام یا کیل لسيا؟ ۔
پرگرپور کی رات بیدار کیا با م ن کباب دار کیا میری بنام یادم اشتركة .
سبار اپنا نازم با زیر بنایا میرے رکھی با جریز به راه ت
دیدار
اینارو به زبان کو بنایا میرے شمع عنان بلافراد نہریں
اس پران را یکی دل کو بابا میرے راز خرسی معنی جناب سلع ملاعب تابان شینپوری)
والی مشین بعشا ضیا پاشی جس کی کویر .
وہ چراغ عمارت میں حالا با دمیرنے
امن کا قیام عالم کو سنایا و میرنے ران منیعملونو جناب ڈاکٹر محمد علی صاحبشار انبالویه ولے نے اس دنیل نا في سے لگا یا ویرے رب
از یاد ہے و در زمان و مکان کھایامین ممبرانت دویست ساکن محراب
تیاگ جبر کا نام ہے وہ کر دکھایا مینے جو چلا اسی راه سایان سوموٹ کی لگو الاکلوتنگرانی کیلے چل ربات جانچ کر دلیر اور
د
بیانیک امت ک ے اور جن کی طرے آنے کی بات می
ر
استقلال ہونگیں دکھایا ویرے سب کوسی بن میرچار کھایا ویرنے
سلوک کر ان کی ہر پی لیا میرے
و
حجب و مستند در با با
طرح پروبنایا میرے
جیدگی سے کشتی رانی کے لئے
و چوسنا اس کی پر الدم لگایا میبرن
امسال با پیام قائم کرنایا د بیرنے جین مت کے بارے میں ناکریٹ ہے خزاں .
تا ابد چلا گیا جمع کرا میرے رانی بیکلغوصناجناب یخ ملاعين صابرواندری) قمه نام کاشان کاشت در دیدار فرمایا میرے
ر
ا پیغام اہنسا اور نبی کی
امین یا کرونگادینے
خواب غفلت میں پیاس
اور ریش تر با دبی
قول برسانے دیوی دیوتا کاش سے
مادر در هر مرعفت لیا و بیرنے
خرمشرکان بسیار کار کنیم
تا با پیرنے
بزم اعداد ہو کہ مہمانوں کی حف ر
ور" خط بنام با کو سنایا دیر
راست کنی کے با
با با و ی ا
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منبع رم و عائیت نشیمن دیرکا انتقاد کیاحیر اعلان نے کام په جریمه
دیدیا ) ارجان فلک کہلاتا ہے کشن دبیر کا
من رحم وهنای
م ن و بیرکا
خفته اند برای
اس
ت خری این کمپین دیرکا
بلکه دمی بیع بھی اور گودا پانی میں پرکھا یا میرے
جیری با نی بی بی بی کا مندر
کر دیا ہے وہ پیٹ بٹن دبیر کا
س
ے مصر پر پیش میره
آئین حق و صداقت کا کھایا میرے رانب گلستان مین جناب مع ام اخت صاحبزادیتنی بیلیر ساپور) جوہر کی تاریکیاں اور اگیا ان کا پردہ ہٹا
پاس ایسا علم و دانش کا پیمایا میرے جانا گیانی شاخیں گوبر کی تیار
رمش البا درمان کا لگایا ویبره کی طرح ان کی ایک ایئر مین سے
، ہم نے بھی متفق ہیں سب کچ بابا میرے ازخودی ها و انا من الصرانی میں ملا سدیق علوي انتشار در کانقشبٹایاویر رگیر یرجین بری امام عالم کو سنایا میرے
اور بی ساحل پر گیا میرے تا قیامت کی نام ہرگان م نا میری
کمی پوری ہوگیا دشت سر
آنند مامتت مایعایا میرے دان نے علم کی اپنی موشتاقتا مشتاق انبالوی) اند بر کارگر و مبلر دیکھایا دین
" ای کندلی کر لوری سنایا میرے ڈال دی حبنظرائنگن ہوتے ہو
بهشان ہو گیان به نام با یا بنے
پی سے باز رہنے
اپنی باکتریال دامن دبیر که
موکول پر جا کر میرا
ان کی نظروں پراکند کا مبہ پیک
چینی کمپنی ہے جب کہ بیرون و بیریا مزاری تو ایسی کیا چیز ہے
كتاب الشی مبنی بر امر دیس کا اس کتاب میں یہ نظاش باہر
کی
" از بابل گلشن من باب نادجمیل صاحب کارگرینٹ انکواریم تل زینالیست برحق ہوسکتا بنی
و نوجوان جی تی ای دبیریا
کی بہن کی کل سے دامنه بیر کا مشتاری دینے پر محنت کی اشی
تاج تامر ہے کا اک نگین مهرا باریاسین کرید کند بادباس
سنگ پارسی برای من نامرد بیرا کو بیان
این ضمیر بی
له برای مهربانی کن و بر کا کرینہ نے منگی کی ہر قسم
باعث مکتی باہنی کاخرین ویرا برای داغ مگر کہیں نہ ہو روئی سوا -
بیا
تا قیامت کی ناکہ ریگان
پ
ی اده ساخطا یا میرے
ایرانی بودند که افراد را دارد اما به این بنا دیا کامیابیوں کا
گرامفاجانب اپنی دن
ی ا سے ہٹا یا مرے
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کہا 8 کارت های این درمان بیرکار سالوں سے یا چلے گھاسن و بیرکا ایرانی نخی با تاب چترودل مانتو شیطان راندهان و جاده روی این پی او مروان) روز عالم کا تارقنتن م یرا
47 سبا کرنے چیندری درش دبیرا بلدة عرفان تا معمورخر من دبرها
سے مرادوں سے مرا س خن مدیر کا جس میں امنتای دی فا رتنا پر بری
مت ہل کر لیا ہے دوست کونسا ہے م کند و بند کر دیا لیکن دیرکا
بہت دیا ہے ایک عالم کو جون دبیر کا
لبان اور میرا کام کیا جن می این کار را ندارند اما برای پر اثر
گمان اور تپسی ممبر کاشت کرنا "
سے بدلہ ہر چار میں محرم در بین ویرا گھر دوعالم ما با کتا شمال المدب کرلیا تھا ، امن دبیر کا
ساری
دنیا سے کیا سی دیر کا " کیوں نہ تالے آپ کے ہیں سب جبال
مردم دنیا میں نے اکتا سنائٹ ویر کا کم ہونے کی تمنا ہے تو چل است راه پس
دیتا ہے دن گتر و مادر و برا میرسی نهم بار لے جوئے بالشو برکا
هههه استعمال کیا اور ارجن کا ازروان بار اس کے دلوں پر نام و در زبان
راشیانگین بیاں جنابه ریاست جاساحبنطلواری) ایک دم سے ان کا قانون
مههممممممممممممه اقيمت و بی تقابل بین من ویران
بل میں والد کے نام نشیمن بر کا راز افكارهاب بانو چترسیاری لالنعاجز دھلوی
برونزافروں کو بے ٹرین کے دامن پریا ہے کر سینہ سب جهان بیشتری مهادیا
- اس کے دل سے وہ بری النتيكل مکانی ہوگیا راے خدشن م یں بال گر .
بریگی آنکھوں نے کہا اک بار و برکا مشمول پر سکه و سیر کی ترقی کا جب گیا نثار میں تو ہو گیا دل باغ باغي تک کتنے دنیا میں پیر کلفت بنانے کے لیے "
ان سے بارہ گلشن می سوسن ومر کیا کر کے ہند جی کو پوران کے لئے . والم کے لئے سب کر یا کد زیر ** کہا بیان ہی سے ان کی شان عالمگیر کا
بال بنا کر سکے لیکن منہ دشمن ویرا گرمیوں کے واسطے ک ا
" حب کے ولی پڑی سے بری الفت کا داغ جو ان کے بر گورست اپاہو
تم مجھے رب سے مظلوم دوشمن دبیر کا پہلا صبری عاجزميلفا.
وه
والے امتحان کا اب اشیه
نشینی درون و بیرا
کبیبی بنا پرے زہر میں
کتابی بی کے دامن میکا
سے مل صبری عاجزی تا .
ن
سعدهم
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اله کاپشن میں جامهریزی متنویر
مجمع نہ کرانے
سے تیار سیٹٹیر کا
جای مت کس کو ہے دنیا میں میر میر کا کر دیا بھارت کو اپنا چوزانہ و برکا انمایی از جناب اولین همودیال اخبار سایبری از مزای استان تجاری ادبی در این ا تهامات علی ہوگیا ہے نام هستیں پورا
ومتا رہتا ہوں وطن میں برابری بیریا " عکسی گاہے نظر تصویر میں تصویر کا و بر سے ہر ویزاخو ول کا کام کی
نام بتا بدین بار براتی برا ی م یں بیٹا دیتا ہوں نیا نام نیکرد برزها چومتے نظن گر با مشنہ لب تقریر کا ا رة الذمت کی ان کو وہ کبھی کسی طرح .
ح جما ہیں پی کے اوتار ہیں اور ان کے دیوتا " نام ایئر مارش کایا میں روشن کرد "
مکہ سے دنیا میں مبتردیر کا ' تون چهار ستاره دلسوں کی تقدیر کا ہے بتاد ساخادم آبیاء کی سالم" "" تو نے دنیا کو سکھایا ہے انااسبت نه عزیزان و گیتار ربروبیر کا
ی
ری ناک پڑھیں ویبر اثر اکسیر کا بھ
تم کو اسلامی بیماران . . را در گفتار جناب نت گیان چندی را بروی و لسانالی)
په مال ہے تری تنویر کا
تا کاملافضٹیاں سے پیزوالکتری بول بالا ہے زمانے میں جو پرشیو دبیر کا
تنگه
رح کو بری دائرہ القری کا سے منہ آپ کی تعلیم عالمگیر کا ہے نتزی تعمیر نور کر اسکے ۔
به زبانوں کی ز بارہوصله دلگیری اکبر نے ہندور کوتیے دا خزانہ
ران فخم جنا بلا جھولال میں، پتیاںجہ ہری علوی کاری کے بریفظ جب اکیرا کشت و خوری بالکل ہٹایا مین کی تلوار سے
عرب سے گر پیام کو مل کر ہوا نے دپیکا پیاد کتنی گرا جاگت تقدیر ت یری ہی عبارت اپنا چورن بانوی کا تمر ا تنی ہے کیا منہ تان کر سرفراز
و سفیان کی زبردست دلیل بود تا انتها با لگا گنبدتر تعمیرا ت بنیں کے نشان کریم در پی نیر کا نام دنیا میں رہے اس بتسفيرها
بھول برسات سقف دودی رہنا اور ہے د یتے ہیں مگر میری قمریکا ان کا اقا از بدن و لا ریخته و بر کا
. اليا حبله قانہ ادا کرتے دکھا باربار ما دام منزل
درب متتان هرکی میاد سیتم بیرکا مروری ہے کدورتبنگاں الى عالم سے ہی ان کہے لنا "
مارکیٹ کی پشت پرده میان تو و برا
انتا ہے جو کتنے ہی ادا
کیا ہے ان سفيرا
نہ لیتری دره بابایی دق
ی قا مارا واقفه برا
واتر گلوب را در سیسہ) اسے دنیا کی فقیری
مینا سادا ما را در دنیا
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________________
بابا 8
ضیائے دیر سے مورے را کا کاشانہ د از ما دورہ جناب بار برداری کی صاحب نگر منوی)
کھے مانگی تابع دور اوہ ویرا ان عالم من اینجا باید نادال تا متن فارسی و ادبی
یو بل نقشے کے
اور آنکمروں میں سال سے بھی ویرا
پانورد وبیرنے جبس
وحدت کا بیان
ا ن کے بادہ کشرنارتان
"
آپ کی طرزب یرکاری
نمبر کا
بہار آئی بابل مر
"
ربات سے سوا ہر لفظ
بنایا دبیر نے جب ہنس اپناو ر
ی پاس کے ناجانا
جب کے دیدار کی تصویر کسی لفظ ستقامتری کا
بانت وانا اب سوال اب میری ہر جوان و پرکا را کو بازار الی نے سے تو یہ دل کا نشانہ محبت کی اچانک ان کی زندگی بنتی ہے اس نے فن بیاد . مشترک ین نے اس کی بیوی کے بینرز ندفرزانه مزاروں اور کیا اس کا پانسان
: آپ کا زمین
پانی دوم
نے اسے متن ک ے
تابع اور نقاده دبیرکا راپلئی نما جناب مولانانامل صاحب شاکریانیکا)
ہورہا ہے پر جراح کمر کمرمر کا وان شاعرسنیو
کر دیا ہے بریم در سننا پریم ساگریویر کا زبادے جن ٹی ایل میانو وهلوی
کیا . چاہے سنسار کو اس نے برسنے
ہے زمانے سے پالا پرمخنویر کا ترنجبری شدن بساحشا بان د ی
انا سارا زمانه میهنیا بھر کے کتے ن تا ہے در پر جاری در شارستان کیا سبع اغلی عفا الشرابردیر کا خورشی دبیرستان ڈی
کلیب پر ایم پی ایسے دیرگی پ ی کی ایسی نازی تان ت رجیح ہے اس کمیانہ
با بنزوا نمبر جباليا در دبیر کا
ہم میں ڈوبا ہوا ایلیا کی اکثر و بیرکا گروپ آپ کی سنتیں بنا کر میں حقیقت ہو گئی ا
اپنی بنان د لوی ن سے نار بنیامین
وی هم پیا حبہ نے بی بی سوادش بیان
سیاسی ایران ستان بھر سے ہے نیا ریکھا رہے کشتی نکا و برف کنافدا کنم و گوهرم اونا که با من رفتن بیل ما مررنا اسی نے ڈوبا بیرانا باكفا دابران المنبر اور بات کی رو جمال کنار کسانویگی
ر
حالا وقالب کرلیا بالنار"
سیاسی و روانی
در کشور ایران شاهد
و نیشنشاه نمان داری نه ناشی
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843
جنتی ہو مبارک برتری کے سان
تاریکی شب
برفان
ی انبار لگا دبیت
بان افتخار من جناب ابهت وام مسکن بوٹی کلک
رام الى م دعلی
ان کے ل یے تیری الفت کا معیار بیا و بزرگ ترے چور مغل شا بان
مٹور کرد بازار قدم سے سارا و براند
کی دنیا ننظر سے اتنی کامیان میری وی ک ے پرانے کا بیان ہے
با بیان میرے اقوال زتیں کر رہے ہیں سارے عالمی
پل پر ایرانیان - لیقا ن - کرمان قبر اند نیم م ی
ری سب کو سالانه یہ چند ایالات اور ت حقیران ان کاسی خطوات جنات و ابزارها و مادرش از بارداری) - میرفت سے پرنال ی تی بیان می ماند اپنا دھرم کا ترے دکھایا ہے نابلوه
از دیا اب اس کا اثر زالی آن فی تیری نرالی شان ہی تیری
تیریا رکن مفتی شایان میرا مسلک فینز از : وجور بال سنیری عقیدت سن لے کر
ا داری و می بالی به بند بانه مجھے تجھ میں نظرات اپنالیت پیلے کر کے شور میں منڈلاغ عالي د
ده مریونا. الطامشه وکرم ک شیرینی سنا دینا میں اب عام آنے میں امن و عنادور بھرا ہے ویر کی تعلیم میں وہ کیف ستاین راز ندائے قوم حباب بالر رگبوپنا دشت اگر بنا بیکار ماہواری) بسنت کا خالی پانی چین کا خود ہی اس شاد
نن مصر قرطاس پر چلنلهستان کلیب سے کسی کا سانپنے پر مقدم کرے
جوال مردوں من وكلایی که به کار مردان جل سے ڈر اوه امیر آدمی کے تھرکول سے اہنسا کی ہر امارات دریافت اپنے مقصد کا پروان با لطف و کرم اور ان سے ان میں سے باران کباب جاگے بہرائیں وہ سمرا ہو اگه من
کیا اس مېرلن خوشبو سے اپنا دبیرستان
بلال کی فکر میکنند تا جنگل کاربران در برغان کرنے کی ایسی را برای این بازیگری در ایران بیش از اینها برای شاپر میں
برستے ویر کی تقسیم ده کین استان
نے زیادہ داران بود تا پایان می که برای ایشان ایناد
را با سول کو تونے باری مرتکبرکے پیار
ماری ہر سنتا از اخذوهاوی رسیدگی دنا
نقش نیرج ولی
کے بانی
و سایر افراد
مره حبره دلی افروز شادی پر ایک بار گرادیا
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ویری دنیا میں تیار نا پیدا ہوا و میری دنیا میں پیتا پیشوا پیدا ہوا
رانشا عشیری بیاں بنا یو بی ایل گنجو پهلوی راز استادزمان جناب پنڈی شگر چپل صاحب سان
ہ اے۔ ایل ایل بی ایڈوکیٹ لینی شریانیست)
200
ODLOODO
د میر کیا پیدا ہوا دھرماتما پیدا ہوا ۔ مذہبی دنیا کا کامل پیشا پیدا ہوا ہرا مبارک اے عزیزوں پر کیا پیدا ہوا
دور کرنے کے لئے اگپ نیوں کا اندھیکار
تھے یہ ان کے ان پر ان کی مشعل لئے ایک دیر تا پارا جان و دل دونوں ہوں اس پر یاد کس طرح
842
جن کے اب پرتاپ سے
لامات کو بیٹا ویرسا پیدا ہوا وین ڈکھیوں کی مصیبت اس نے سر سے خالدی
رانجادو رقم جب اللہ بلو لوستگی بنگم دهلوی
آسماں پر ورم کے اند را پیدا ہوا
خضری جب رہنمائی کے لئے عاجز ہوئے
بیا نامتوں کے لئے مشکل کشا پیدا ہوا
راستہ سیدھا کھانے رہنا پیدا ہوا چار آنکھیں ہو گئیں دل میں تراوت آگئی منزل مقصود کی سیدھی باری سب کوراه پھول باغ دہر میں کیا خوش نا پیدا ہوا
آج تک میں میں نہ کوئی شرفت پیدا ہوا کاٹ کر رکھیں عالیہ نفس کی سب بڑیاں مرکش کے تانے کی کنجی اب اہنسا ہی تو ہے شور آزادی جہاں میں بانجا پیدا ہوا
و میرے گنج ہی کہتا ہوا پیدا ہوا دشمن ظلمت میں دونوں رفتگران رفتم مپاند به گر با زمین پر دوسرا سامرا ہوا
کیرانہ اے روشن تاریں خوشی سری و میری دنیا میں پا رہنما پیدا ہوا
سیکڑوں برسوں کے پردے میں نے زندہ کردیئے ہند میں وہ چشمۂ آب بقا پیدا ہوا
فرشتوں جب ہو ئی جلوہ نائی کی مشکل کشا پیدا ہوا سب کار آ کہ جس نے دنیا کو دکھائی سات کے اونجات وری دنیا میں ستارہنما پیدا ہوا
دید یا اس نے جہاں کو جو رکھنا کا سبق
بے بالوں کے لئے اک دیوتا پیدا ہوا
ساری دنیا کے لئے سورج نیا پیدا ہوا دان عندلیب گلستاں جناب من الاحترسهار لا عاجز داری
ویر ہی دنیا میں یکتا پیشواہد ا ہوا
کردیا روش جہاں میں اک چراغ معرفت
دیر تا سکتی کاستیا رہنما پیدا ہوا
ها نه تار کا عالمی را پیدا ہوا
خشن ہے جس پر بندا وہ دلربا پیدا ہوا
پریشر کو میرے انسانی بنا یا اسے نکم نام کا انسان مقاوہ روتا پیدا ہوا
رکھٹا کے لئے دھرماتما پیدا ہوا
کردیا پرکاش گھر گھر دمہ کا دیک رکھا
نورہ میرا تم پر نیا پیدا ہوا
رمینہ یا تا تریلا کریں کے بطن پاک سے
اور کھیلاے کر لیا چند ما پیدا ہوا
سبہ کی تصویر بن کر یہ مئی کے روپ میں
دھرنا اور دیر تا کی پریسا پیدا ہوا
مل گئی آپریشیں سے جس کے نسیم جانفرا
گلش کیارستمی الیافرض ادا پیدا ہوا
کارتا ہے تن کے عاجز کر ہی استوار ہے
وری دنیا میں سنتا رہنما پیداہرا
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.
84
حیات و ر از دبیرقد اشوان عجول ناتھ سرشار نور کیش بلند شہر نيستم دیرضا سلیمان کے قدم
ا مام صاحب کا دکر ارفع الیا ملک بھی ہوگیا معدہ میں جم
وہ پادری کے کا زیر تمشيرا تھا کے مالی ورشد
ممتا ت
مرسی طور طرنيت و برینا بے قیل و قالی ظلت عمالٹے کرتارہ اگ آفتاب
مدتی اس کی تقدس اوردل عصمت أب غالب سوبر لتتوافراسیاب
وی یا کونتیاگی دوسایلواء راز منانا شفراجناته في بار۔ ملال صاحب رولند جلوی) کیا کہوں میں دبر کر د یا میں کیا پیدا ہوا اور موسم
کی تصری پلان تیاگ کا بیامول بریسا کون تیاگی دوسرا پیدا ہوا برای میت ی
و ا بزم ارایی بکم مشرا کجاستنه
میری ویب کی سپارنا پیدا ہوا نامے بنتا ہے اس کے قلب مضطر کیوں
' دل کے دروا دیا گیا باپیرا پا ہوئے سیراب قبر سے فتنه کا هم ارزد "
میر اور فیض و عطاپیا با پاک باطن دی سعوں ہ ند و صلنيل نیک طینہ
نیت علییا پارساپيا کرد یا نا بتا یہ نت تي مر ہی م ن
ہم یہاں پیدا ہوا گیر بده تاپا ہوا
اور
شریعت نے اس کو ہادی را به مرداب
ساقی کا ناپ د ے
یا بیٹی کا ناسور که کیا ہی پیش روشنایی با دیا
کلاه
ف
قد
سمعنا
تیره روزی کو بتایا تور دبی پی نیا ۱ اسے
روشن کردبارا وحقیقی که دیا بابا رحمت کعبه عالینی
"- کاشونه از حقیقت رومانی فای وہ شب معراج نجات، اندازه لاعتوبر کے.
پور متن بالابا لفتوبر کے برتر تا ابد زبون منت دیرکے
راز افتنا الستعراء جناب انسٹی مہاراج بهادهابون
لےاےدهلويه درد مند کیسان. در داسشنا پیداهوا
ن ه
جانور کا ضعیفوں کا عصا پیارا غمزدوں کا گر ہوں نا آ را پیدا ہوا "
در دل پر اس قدر بین همراه
کے احسانات
ن بی شادی
اس کی یاد ہے
امن کا پیغام
روال کاناخدا پیارا
بارے
میں اسکی برای تصویر کے
کر را تنها تو چند کلاه مدل لو کیا درختان س اری ہوں و کشت و کمال بڑا مستر باتیں » يصادی نے
مثال
تھی
گو کے دور سے
درد سے اس نے ستاروں کے دل کو ب رپا
خضر نزف منظمصدق و صفا پاسا محرم کی مورته تری دی تا پیاما
میر ی مینی ترستا ریماپیا ہوا
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ऐतिहासिक काल के कुछ जैन सेनापति
'The JAINS used to enlist themselves in Army and distinguished on the battle fields" - Dr. Altekar : Rastrakula & Their Times. जंनधर्मी होने का प्रमाण इसी ग्रंथ में वर्णन
जम्मू स्वामी का चरित्र
बीर, वर्ष ११, पृ० ६८ Anekant Vol. II, p. 104 and Jain S: Bhaskar Vol. 17, p. 1. वीर, वर्ष ११०६०
इसी ग्रन्थ में वर्णन
सेनापति
१. सिंहभद्र
२. जम्बूकुमार
३.
कल्पक
४. चाणक्य
५. मृगेश
६. दुर्गराज
७.
नागवर्मा
८. चामुण्डराय
९. महादेव
१०. विजय
११. गंगराज
१२. तुल
१३. शान्त १४. रविमध्य
१५. वेचण्य
१६. इरुगप्पा
१७. कुलचन्द्र
१५. विमलशाह
१६. आभू
२०. वस्तुपाल २१. तेजपाल
२२. दयालदास
२३. श्राशा शाह
२४. भामाशाह २५. कोठारी जी २६. इन्द्राज
किस राजा के ?
वैशाली के पेटक विशुनाग वंशी विग्यसार
नन्दवंशी नन्दवर्द्धन
मौर्यवंशी सम्राट गुप्त
कदम्यावंशी राजे
चालुक्य सम्पद्वि०
" जगदेकमल्ल द्वि०
गंगावंशी राजमल
"
राष्ट्रकूट इन्द्र तृ होयसल वंशीय विष्णुवर्द्धन
13
एक्कर दि
"
" सोमेश्वर
नरसिंह प्र०
"
वल्लाल
विजयनगर के हरिहर द्वि०
"
परमार वंशी सम्राट भोज
सोलंकी भीमदेव द्वि०
सोलंकी भीमदेव वि०
लवंशी धवल
"
"
महाराणा राजसिंह
महाराणा उदयसिंह
महाराणा प्रतापसिंह
महाराणा संग्रामसिंह अजमेर के विजयसिंह
द
दि० जैन, वर्ष ६, पृ० ७२ बी
Rice, Ep. Car. Inser. St. P. 85 &
SHJK and Heroes PP. 96-100. Guirenot J. B: No. 431. Vir XI p. 70
Ep. Ind. X, PP. 949-10
Ep. car. 11-118 PP. 43-49. Saletore Loc. cit. 141. 142 जैन विलास संग्रह १८
נו
इसी ग्रन्थ में वर्णन
"
Reu. Inc. Cit. Vol. 1, P. 115-121. and Ball. loc. Cit. P. 207
,
माधुरी २ फरवरी १९३८
हमारा पतन पृ० १४०-१४२
सं० जे० इ० भा० २ खं० २ पृ० १३७
11
J
גן
रा०पू०के० जैनवीरों का इ० पृ० ११३
पृ० १० इसी ग्रन्थ में वर्णन
17
"
हमारा पतन, पृ० १३७
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अर्जुन दृष्टि से जैन श्रष्टमूल गुण
शुभ विचार प्रेम व्यवहार, शुद्ध थाहार और निरोगता के उपयोगी मार्ग
१. माँस का त्याग: International commission के अनुसार मनुष्य का भोजन मांस नहीं है। जिन पशुओं का भोजन मांस हैं वे जन्म से ही अपने बच्चों को मांस से पालते हैं, यदि मनुष्य अपने बच्चों को जन्म मे मांस खिलाये तो वे जिन्दा नहीं रह सकते मनुष्य के दांत, आंख, पंजा नाखून नसें हाजमा और शरीर को बनावट, मांस खाने वाले पशुओं से बिल्कुल विपरीत है। मनुष्य का कुदरती भोजन निश्चित रूप से मांस नहीं है।
Royal Commission के अनुसार मांस के लिये मारे जाने वाले पशुओं में साधे उपेदिक के रोगी होते हैं इसलिये उनके मांस भक्षण से मनुष्य की तपेदिक का रोग लग जाता है। उनके अनुसार मांस को उम करने के लिए शाकाहारी भोजन से चार गुणा हाजमे की पति की आवश्यकता है इसलिए संसार के प्रसिद्ध डाक्टरों के शब्दों में बदहज्मी दर्दगुर्दा पन्तड़ियों की बीमारी जिगर की खराबी यादि अनेक भयानक रोग हो जाते हैं। Dr. Josiah Oldfield के अनुसार १६ प्रतिशत मृत्यु नांस भक्षण से उत्पन्न होने वाली बीमारियों के कारण होती है, इसलिए महात्मा गांधी जी के शब्दों में मांस भक्षणं अनेक भयानक बीमारियों की जड़ है।
मांस से शक्ति नहीं बढ़ती । घोड़ा इतना शक्तिशाली जानवर है संसार के इंजनों की शक्ति को इसकी शक्ति से किया जाता है। वह भूखा मर जायेगा परन्तु मांस भक्षण नहीं करेगा। वैज्ञानिक खोज से यह सिद्ध है- 'सम्जी में नांस से पांचगुणा अधिक शक्ति है। Sir (Willian Cooper C. I. E.) के कथनानुसार घी, गेहूं, चावन, फल आदि मांस से अधिक शक्ति उत्पन्न करने वाले हैं। यह भी एक भ्रम ही है कि मांस-मक्षी वीरता से युद्ध लड़ सकता है। प्रो० राममूर्ति, महाराणा प्रताप, भीष्म पितामह, जुन मादि योद्धा क्या मांसभक्षी थे।
मांस भक्षण के लिये न मारा गया हो, स्वयं मर गया हो, ऐसे प्राणियों का मांस खाने में भी पाप है, क्योंकि मुर्दा मांस में उसी जाति के जीवों को हर समय उत्पत्ति होती रहती है जो दिखाई भी नहीं देते और वे जीव मांस भक्षण से मर जाते हैं । वनस्पति भी तो एक इन्द्रिय जीव है फिर अनेक प्रकार की सब्जियां खाकर अनेक जीवों की हिंसा करने की अपेक्षा
1. Inter-Allied Food Commission Report London, July 8, 1918.
2. Prof. Moodia Bombay A, League Publication No. XVII P. 14.
3-4.
Meat Eating A study (South 1.H. League) Vol. I pp. 3-5.
5. Royal Commission on T. B. reports that it is a cognisable fact about 50% of the cattle killed for food are tuberculous and T. B. is infectious-Bombay H. League Tract No. 17. p. 19.
6. Science tells us that 4 times as much energy has to be expended to assinilate meat than vegetable products. --Ibid. p. 15.
7. World-fame Medical Experts Graham, OS. Fyler. J.F. Newton, J. Smith etc. Corroborate the fact that meat cating causes various discases such as Rheumatism, Paralysis, Cancer, Pulminary, Tuberculosis, Constipation, fever, Intestinal worms etc.
-Meat Eating, A study. p. 15.
8. Flesh eating in one of the most scrious causes of diseases, that carry 99% of the people that are born. -Ibid. p. 15.
9. Mahatma Gandhi: Arogya Sadhan.
10. Many people erroneously think that there is more food value in meat. Scientists after careful investiagation have found more food value in one pouud of peanuts that in 5 pounds of flesh food - Health & Longevity (Oriental Watchman, Poona ) p. 35.
८६०
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तो एक बड़े पशु का वध करना उचित है, ऐसा विचार करना भी ठीक नहीं है क्योंकि चल-फिर न सकने वाले एक इन्द्रियं स्थावर जीवों की अपेक्षा चलते-फिरते दो इन्द्रिय त्रस जीवों के वध में असंख्य गुणा पाप है बकरी, गाय, भैंस, बैल आदि पंच इन्द्रिय जीवों का वध करना तो ग्रनन्तानन्त असंख्य गुणा दोष है । अन्न-जल के बिना तो जीवन का निर्वाह असम्भव है, परन्तु जीवन की स्थिरता के लिये मांस की बिल्कुल श्रावश्यकता नहीं है ।
विष्णुपुराण के अनुसार, 'जो मनुष्य मांस खाते हैं वे थोड़ी आयु वाले, दरिद्री होते हैं। महाभारत के अनुसार, 'जो दूसरों के माँस से अपने शरीर को शक्तिशाली बनाना चाहते हैं, वे मर कर नीच कुल में जन्म लेते हैं और महादुखी होते हैं। पार्वती जी शिव जी से कहती हैं- जो हमारे नाम पर पशुओं को मार कर उनके मांस और खून में हमारी पूजा करते हैं, उनको करोड़ों कल्प नरक के महादुख सहन करने पड़ेंगे। महर्षि व्यास जी के कथानुसार - 'जीव हत्या के बिना मांस की उत्पत्ति नहीं होती इसलिए मांस भक्षी जीव हत्या का दोषी है। महर्षि मनु जी के शब्दों में, 'जो अपने हाथ से जीव इत्या करता है, मांस खाता है, देचता है, पकाता है, खरीदता है या ऐसा करने की राय देता है वह सब जीव हिंसा के महापापी है।" भीष्मपितामह के शब्दों में, 'मांस खाने वालों को नरक में गरम तेल के कढ़ाओं में वर्षों तक पकाया जाता है। श्रीकृष्ण जी के शब्दों में, 'यह बड़े दुख की बात है कि फल, मिठाई मादि स्वादिष्ट भोजन छोड़कर कुछ लोग मांस के पीछे पड़े हुए हैं।" महर्षि दयानन्द जी ने भी मांस भक्षण में अत्यन्त दोष बताये है। स्वामी विवेकानन्द जी के अनुसार, 'मांस भक्षण तहजीव के विरुद्ध है।" मौलाना रूमी के अनुसार, 'हजारों खजाने दान देने, ख़ुदा की याद में हजारों रात जागने और हजार सजदे करने और एक-एक सजदे में हजार बार नमाज पढ़ने को भी स्वीकार नहीं करता, यदि तुमने किसी तिर्यंच का भी हृदय दुखाया। शेखसादी के अनुसार, जब मुंह का एक दांत निकालने से मनुष्य को अत्यन्त पीड़ा होती है तो विचार करो कि उस जीव को कितना कष्ट होता है जिसके शरीर से उसकी प्यारी जान निकाली जाये । ११ फिरदौसी के अनुसार, 'कीड़ों को भी अपनी जान इतनी ही प्यारी है, जितनी हमें इसलिये छोटे से छोटे प्राणी को भी कष्ट देना उचित नहीं ।" हाफिज अलया उलरहीम साहिब के अनुसार शराब पी. कुरानशरीफ को जला, काबा को भाग लगा, बुतखाने में रह लेकिन किसी भी जीव का दिल न दुखा हिन्दू मुसलमान, सिख, ईसाई तथा फारसी आदि सब ही धर्म मांस भक्षण का निषेध करते हैं १४ इसलिए महाभारत को कथानुसार सुख-शान्ति तथा supreme peace के अभिलाषियों को मांस का त्यागी होना उचित है,
ג
१. अल्प दराच परकर्मोपजीविनः । दुष्कुलेषु प्रजायन्ते वे नरा मांसभक्षकाः । - विष्णुपुरास
।
॥
अनु. पवं अध्याय ११६
२. स्वां परमानो नास्ति शुतरस्तस्यात सनुतन
३.तामचा जीवन आकल्पकोटि नरके तेषां वासो न संशय ॥
- पद्मपुरा शिवं प्रति दुर्गा
Y. Meat is not produced from grass, wood or stone. Unless life is killed meat can not be obtained. Flesh eating therefore is a great evil. --Mahabharata. Anusasan Parva. 110-13
५. Manu Ji Manusmriti, 5-51.
. Meat eaters take repeated births in various wombs and are put every time to unnatural death through forcible suffocation. After every death they go to 'Kumbhipuka Hell' - M. B. Anu 115-31 where they are baked on fire like the Potters vessel. s. It is pity that wicked discarding sweetmeats and vegetable etc. pure food, hanker. —lbid. 116-1-2 after meat like demohs.
5. Urdu Daily Pratap, Arya SamaJ Edition (Nov. 30. 1653) p. 6. e. "Meat eating is uncivilixed'
mel
- Meat Eating A Study p. 8.
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२- शराब का त्याग शराब खनेक जीवों की योनि है जिसके पीने से वह नर जाते हैं, इसलिए इसका पीना निश्चित रूप से हिंसा है | Dr. A. C. Selman के अनुसार यह गलत है कि शराब से थकावट दूर होती है या शक्ति बढ़ती है।" फ्रांस के experts खोज के अनुसार, "शराब पीने से बीवी-बच्चों तक से प्रेम-भाव नष्ट हो जाते हैं। मनुष्य अपने कर्तव्य को भूल जाता है, चोरी, डकैती आदि की आदत पड़ जाती है। देश का कानून भंग करने से भी नहीं डरता, यही नहीं बल्कि पेट, जिगर, सपेदिक आदि अनेक भयानक बीमारियां लग जाती है। इंग के भूतपूर्व प्रधानमन्त्री Gladstone के शब्दों में युद्ध, फाल और प्लेग की तीनों इकट्ठी महाप्रापत्तियां भी इतनी वाघा नहीं पहुंचा सकती जितनी अकेली शराब पहुंचाती है।"
३. - मधु का त्याग – शहद मक्खियों का उगाल है। यह बिना मक्खियों के छत्ते को उजाड़े प्राप्त नहीं होता इसलिये महाभारत में कहा है, "सात पादों को लाने से जो पाप होता है, वह शहद की एक बूंद खाने में है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जो लोग सदा महदखाते हैं ये भवश्व नरक में जायेंगे ।" मनुस्मृति में भी इनके सर्वथा त्याग का कथन है, जिसके बाधार पर महर्षि स्वामी दयानन्द जी ने भी सत्यार्थ प्रकाश के समुल्लास ३ में शहद के त्याग को शिक्षा दी है। चाणक्य नीति में भी शहद को अपवित्र वस्तु कहा है। इसलिये मधु सेवन उचित नहीं है ।
४. अक्षण का त्याग - जिस वृक्ष से दूध निकलता है उसे क्षीरवृक्ष या उदुम्बर कहते हैं। उदुम्बर फल जस जीवों की त्रस उत्पत्ति का स्थान है इसलिए श्रमरकोष में उदुम्बर का एक नाम 'जन्तु फल' भी कहा है और एक नाम 'हेमदुग्धम है, इसलिये पीपल, गूलर, पिलखन, बड़ और काक ५ उदुम्बर के फलों को खाना असं अर्थात् चलते-फिरते जन्तुयों की संकल्प हिंसा है। गाजर मूली, शलजम आदि कन्द-मूल में भी त्रस जीव होते हैं, शिवपुराण के अनुसार, 'जिस घर में गाजर, मूली शलजम प्रादि कन्द-मूल बकाये जाते हैं वह घर मरघट के समान है। पितर भी उस पर में नहीं पाते और जो कन्दमूल के साथ अन्न खाता है उसकी शुद्धि और प्रायश्चित सौ चान्द्रायण व्रतों से भी नहीं होती। जिसने प्रभक्षण का भक्षण किया उसने ऐसे तेज जहर का सेवन किया जिसके छूने से ही मनुष्य भर जाता है। वेगन आदि अनन्तानन्त बीजों के पिण्ड के खाने से रौरव नाम के महा
१. This books
२. "He who desires to attain Supreme-peace should on no account eat meat".
3. Every class and kind of wine, whisky brandy, gin. beer or today all contain alcohol which is not a food, but is a pawerful poison. Thinking that it is a useful medicine, removes tiredness, helps to think or increases strength is absolutely wrong. It stupefies brain destroys power, spoils health. shortens life and does not cure disease at all".
- Health and Longevity (oriental watchman P.H. Poona) P. 97-101. r. "Wine causes to lose natural effection renders ineficient in work and leads to steal and rob and makes an habitual lawbreaker. It is a prime cause of many serious diseasesParalysis, inflammation, insanity Kidneys tuberculosis etc."
--Ibid. P. 87,
The combined harm of three great scourges-war famine and pestilence is not as terrible as wine drinking."
-Ibid. P. 67
६. ताया।
तत्पापं जायते पुंसां मधु विन्द्वक भक्षणात् ॥ - महाभारत
७. वर्जयेन्मधुमांसंच प्राणितां नंब सिंहनम् । मनु २ लोक १७७
— Mahabharta, Anu 115-55
८. सुरां मरस्यान् मध्मांसमास कृसरोदनम् ।
प्रवर्तितं
वेदेषु कश्वितम् ॥ ११० नीति अ० ४ ० १६
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श्रीकृष्ण जी के शब्दों में अचार, मुरब्बा श्रादि अभक्ष्य आलू -शकरकन्द आदि कन्द वाले को नरक की वेदना सहन करनी पड़ती है।
।"
दुःखदायी नरक में दुःख भोगने पड़ते हैं और गाजर, मूली, गंठा यादि मूल खाने ५. बिना ने जल का त्याग जैन धर्म अनादि काल से कहता चला पाया है कि वनस्पति, जल, अग्नि वायु धौर पृथ्वी एक इन्द्रिय स्थावर जीव हैं परन्तु संसार न मानता था। डा० जगदीशचन्द्र बोस ने वनस्पति को वैज्ञानिक रूप से जीव सिद्ध कर दिया तो संसार को जैन धर्म की सच्चाई का पता चला। इसी प्रकार जल को जीव मानने से इन्कार किया जाता रहा तो कंष्टिनस्वी ने वैज्ञानिक खोज से पता लगाया कि पानी को एक छोटी सी बूंद में ३६४५० सूक्ष्म जन्तु होते हैं, जिसके आधार पर महर्षि स्वामी दयानन्द जी ने भी सत्यार्थ प्रकाश के दूसरे समुल्लास में जल को छान कर पीने के लिये कहा है ।
३६ चौड़े ४८ अंगुल लम्बे मजबूत, मल रहित, गाढ़े हरे शुद्ध खट्टर के वस्त्र से जो कहीं से फटा न हो, पानी छानना उचित है। यदि वरतन का मुंह अधिक चौड़ा है तो उस वरतन के मुँह से तीन गुणा दोहरा खद्दर का प्रयोग करना चाहिये | और छने हुए पानी से उस छनने को धोकर उस धोवन को उसी बावड़ी या कुएं में गिरा देना चाहिये जहां से पानी लिया गया हो । यह कहना कि पम्प का पानी जालों से छन कर आता है, उचित नहीं । क्योंकि जालों के छेद सीधे होने के कारण छोटे सूक्ष्म जीव उन छेदों में से थासानी से पार हो जाते हैं। यह समझना भी ठीक नहीं है-"म्युनिसिपलिटी फिल्टर से शुद्ध पानी भरती है इसलिये टंकी के पानी को छानने से क्या लाभ?" एक बार के छने हुए पानी में ४८ मिनट के बाद फिर जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं इसलिए जीवहिंसा से बचने तथा अपने स्वास्थ्य के लिये छने हुए पानी को भी यदि वह ४८ मिनट से अधिक काल का है, ऊपर लिखी हुई विधि के साथ दोदारा छानना उचित है।
-
६. रात्रि भोजन का त्यागधेरे में जीवों की अधिक उत्पत्ति होने के कारण रात्रि में घोर हिंसा है। यह कहना कि बिजली की तेज रोशनी से दिन के समान चांदना कर लेने पर रात्रि उचित नहीं विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया कि (Oxygen) तन्दुरस्ती को लाभ और ( Carbonic)
भोजन करना या कराना भोजन में क्या हर्ज है? हानि पहुंचाने वानी है।
वृक्ष दिन में कारवॉनिक चूसते हैं घोर श्रावसीजन छोड़ते हैं जिसके कारण दिन में वायु मण्डल शुद्ध रहता है और शुद्ध वायुमण्डल में किया हुआ भोजन तन्दुरुस्ती बढ़ाता है। रात्रि के समय वृक्ष भी कारवोनिक गैस छोड़ते हैं जिसके कारण वायुमण्डल
१. हे निस्पयते जनः मशान तुल्यं तवेश्म पितृभिः परिवजितम् ।। केन समं चान्यस्तु भुक्ते राधन विविधेत् चन्द्रा पर
भुक्तं हताहतेन कृतं मध्यभक्षणम् । वृताकभक्षणं चापि नरो याति च रौरवम् ॥ - शिवपुराण
२. चश्वारो नरकद्वार प्रथम रात्रिभोजनम् । परस्त्रीगमन बंद संपावे ।। ये रात्रौ सर्वदाहरं वर्जयन्ति सुमेधसः । तेषां पक्षोपवासस्य मासमेकेन जायते ॥ लोकपि पातव्यं शव बुधिष्ठिरः ।
तपस्विनो विशेषेण गृहिणां च विवेकिनाम् । महाभारत
अर्थात् श्रीकृष्ण जी ने युधिष्ठिर जी को नरक के जो (१) रात्रि भोजन, ( २ ) परस्त्री-सेवन, (३) अवार- मुरच्या आदि का भक्षण, (४) आलू, शकरकन्दी आदि कन्द अथवा गाजर, मूली, गंठा आदि मूल का खाना, यह चार द्वार बताये और कहा कि रात्रि भोजन के त्याग से १ महीने १५ दिन के उपवास का फल स्वयं प्राप्त हो जाता है ।
३. 'सिद्ध पदार्थ विज्ञ०' यू० पी० गवर्नमेंट प्रेस, सरल जंनधर्म, पृ० ६५-६६
४. 'दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ॥ मनुस्मृति ६ । ६४
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दूषित होता है ऐसे वातावरण में भोजन करना शरीर को हानिकारक है। सूरज की रोशनी का स्वभाव सूक्ष्म जन्तुओं को नष्ट करने और नजर न आने वाले जीवों की उत्पत्ति का है। दीपक, हुण्डे तथा विजली की तेज रोशनी में भी यह शक्ति नहीं बल्कि इसके विरुद्ध बिजली मादि का स्वभाव मच्छर आदि जन्तुओं को अपनी तरफ खींचने वा है, इसलिये तेज से तेज बनावटी रोशनी में भोजन करना वैज्ञानिक दृष्टि से भी अनेक रोगों की उत्पत्ति का कारण है।'
सूर्य की रोशनी में किया हुआ भोजन जल्दी हजम हो जाता है इसलिये आयुर्वेदिक के अनुसार भी भोजन का समय रात्रि नहीं बल्कि सुबह और शाम है।
. रात्रि को तो कबुतर और चिड़िया आदि तिर्यच भी भोजन नहीं करते । महात्मा बद्ध ने रात्रि भोजन को मनाही की . है। श्रीकृष्णजी ने युधिष्ठर जी को नरक जाने के जो चार कारण बताये हैं, रात्रि भोजन उन सब में प्रथम कारण है।' उन्होंने यह भी बताया कि रात्रि भोजन का त्याग करने से १ महीने में १५ दिन के उपवास का फल प्राप्त होता है। महर्षि मार्कण्डेय के शब्दों में रात्रि भोजन करना, मांस खाने और पानी पीना लहू पीने के समान महापाप है।६ महाभारत के अनुसार, 'रात्रि भोजन करने वाले का जप, तप, एकादशी व्रत, रात्रि जागरण, पुष्कर यात्रा तथा चन्द्रायण व्रतादि निष्फल है। इसलिए वैज्ञानिक, प्रायुर्वेदिक, धार्मिक, सब ही दृष्टि से रात्रि भोजन करना पीर कराना आँचत नहीं है।
'७. हिंसा का त्याग-मांस, शराब, शहद, अभक्षण, बिन छाना जल तथा रात्रि भोजन के ग्रहण करने में तो साक्षात् हिसा है ही परन्तु महर्षि पातंजली के अनुसार, यदि हमारी वजह से हिसा हो तो स्वयं हिंसा न करने पर भी हम हिंसा के दोषी हैं, इसलिये ऐसी हिंसा का भी त्याग किया जावे, जिसको हम हिंसा नहीं समझते। (क) फैशन के नाम पर हिंसा-सूत के मजबूत कपड़े, टीन के सुन्दर सूटकेस, प्लास्कि की पेटी, घड़ो के तश्में, बटवे आदि
के स्थान पर रेशमी वस्त्र और चमड़े की वस्तुए खरीदना । (ख) उपकारिता के नाम पर हिंसा-बिच्छ, साँप भिरड़ आदि को देखते ही डण्डा उठाना, चाहे व शान्ति से जा रहे हों या
तुम्हारे भय से भाग रहे हों। महात्मा देवात्मा जी के शब्दों में, जहरीले जानवरों को भी कभी-कभी पृथ्वी पर चलने
का अधिकार है इसलिये अपने जीवन की रक्षा करते हुए उनको शान्ति से जीने देना चाहिये। -- ..... .... - -. -.. ..- ... We can ward off diseases by judicious choice of food light. From our own laboratories
experience, we observe that carbohydrates oxidized by air, only in presence of light. In a tropical country like India, The quality of food taken by an average individual is poor, but the abundance of sunlight undoubtedly compensates for this deitory deficiency.
-Prof. N.R. Dhar D. Sc. J.H.M. (Nov. 1928) P. 28-31. २. सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं श्रुतियोदितम् ।
नान्तरा भोजनं कुर्यादग्निहोत्रसमो विधिः ॥---ऋषि सृथत ३. मभिमनिकाय, लकुटीकोपम मुत्त, जिसका हवाला डा. जगदीशचन्द के महावीर वर्धमान (भ० ज० महामण्डल, वर्धा) पृ० ३२ पर है। ४-५ इसी ग्रन्थ का फुटनोट नं० २। ६. अस्तंगते दिवानाथे, अपां रुधिरमुच्यते ।
भन्न मांससम प्रोक्त मार्कण्डेय महर्षिणा ।। माकं. पु० १० १३ श्लोक २ ७. मद्यमांसशनं रात्री भोजन कन्द भक्षणम् ये कुर्वन्ति वृथा तेषां तीर्थयात्रा जयस्तपः ।। वृथा एकादशी प्रोत्ता वृथा जागरणं हरे । तथा च पुष्करी यात्रा वृथा चांद्रायणं तपः ।। महाभारत s. Personally to kill creatures, to cause creatures lo be killed by others and to support killing are three main forms of Hinsa.
-- Patanjali the Yogdarshana 2/34 ६. This book's.
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(ग) व्यापार के नाम पर हिसा-महाभारत के अनुसार मांस तथा चमड़े की वस्तुए खरीदना, बेचना और ऐसा करने का
मत देना। (घ) अहिंसा के नाम पर हिंसा-कुत्ता प्रादि पशु के गहरा जखम हो रहा है, कीड़े पड़ गये, मवाद हो गया, दुस्ख से चिल्लाता
है तो उसका इलाज करने के स्थान पर, पीड़ा से छुटाने के बहाने से उसे जान से मार देना। यदि यही दया है तो अपने
कुटम्बियों को जो शारीरिक पीड़ा के कारण उनसे भी अधिक दुःखी हैं क्यों नहीं जान से मार देते? (5) सुधार के नाम पर हिंसा-बड़ों का कहना है 'नीयत के साथ बरकत्त होती है। जब से हमने अनाज की बचत के
लिये चहे, कत्ते, बन्दर टिडी आदि जीवों को मारना प्रारम्भ किया अनाज की अधिक पैदावार तथा अच्छी मरत होना
ही बन्द हो गई। (च) धर्म के नाम पर हिसा-देवी-देवताओं के नाम पर तथा यज्ञों में जीव बलि करना और उससे स्वर्ग को
समझना। योजन के नाम पर हिसा-मांस का त्याग करने के स्थान पर मछलियों की काश्त करके मांस भक्षण का प्रचार
करना और कराना। (ज) विज्ञान के नाम पर हिसा-शारीर की रचना और नसें-हड्डी आदि चित्रादि से समझाने की बजाय असंख्यात खरगोश
तथा मेंढक आदि को चीर फेंकना। (क) दिल बहलाव के नाम पर हिंसा-दूसरों की निन्दा करके, गाली देकर, हंसी उड़ाकर, चूहे को पकड़कर दिल्ली के
निकट छोड़कर, शिकार खेलकर, तीतर बटेर लड़वाकर और दूसरों को सत्ताकर मानन्द मानना। 1-1 ग्रहन्त भक्ति-श्री भर्तृहरि कृत, शतकत्रय के अनुसार 'अर्हन्त' समस्त त्यागियों में मुख्य हैं। स्कन्ध पराण अनसार, वही जिह्वा है जिससे जिनेन्द्र की पूजा की जावे वही दृष्टि है जो जिनेन्द्र के दर्शनों में तल्लीन हो और बढी मत जिनेन्द्र में रत हो। विष्णु पुराण के अनुसार, अर्हन्त मत (जैनधर्म) से बढ़कर स्वर्ग मोर मोक्ष का देने वाला कोई दसरा
नहीं है। मदाराक्षस नाटक में अर्हन्तों के शासन को स्वीकार करने की शिक्षा है। महाभारत में जिले का कथन है।' मुहर्त चिन्तामणि नाम के ज्योतिष ग्रन्थ में जिनदेन मी सपना का जाले है। यह सिखाई देव आप विधाता हैं, अपनी बुद्धि से बड़े भारी रथ की तरह संसार चक्र को चलाते हैं। प्रापको बद्धि हमारे का लिये हो। हम आपका मित्र के समान सदा संसर्ग चाहते हैं। प्रहन्तदेव से ज्ञान का अंश प्राप्त करके देवता पवित्र होते देशनिदेव! इस वेदी पर सब मनुष्यों से पहले अर्हन्तदेव का मन से पूजन और फिर उनका माहवान करो। पवनदेवप्रयत देव, इन्द्रदेव और श्री देवताओं की भांति महन्त का पूजन करो ये सर्वश हैं। जो मनुष्य महन्तों की पूजा करता स्वर देव उस मनुष्य की पूजा करते हैं |
- - -- - - -- - 8. He who purchases sells deals cooks or eat flesh comits hiasa.
-Mahabharat (Anu) 115/24 २-४. इसी ग्रन्थ के कुटनोट । ५. 'काल नेमि महावीरः शौरि शुरि जिनेश्वरः (अ० पर्व) अ० १४६ । ६. शिवोन युग्मेद्वितनौ च देव्यः क्षुद्राश्चरे सर्व इमेस्थिरक्षे ।
पुष्यगृहाविप्न पयक्ष सर्प भूतादयोत्ये श्रवणे जिनश्च ।।६३॥ नक्षत्र २ ७. हम तो ममहन्ते जातवेदरो रथमिव संमहेमा मनीषया।
भद्राहिनः प्रेमतिरस्य संघग्ने सत्ये मारिषगमावय तब ॥ऋग्वेद मं० १, म०१५, सुत्र ६४ ८. ता वृधन्तावनु छुम्माय देवावदमा ।
अर्हन्ताचित्पुरो दधेऽशेव देवावर्वते ।।--अ० मं०५, अ०६ सू०१६ १. ईडितो अग्ने सनसानो अर्हन्तदेवात्यक्षि मानुषत्पूर्वो अद्य ।
स आवह ममता शर्थों अच्युतमिन्द्र नरोहिषर्द यजध्वम् ।। ऋग्वेद मंडल २ अ० ११ सूक्त ३ १०. अर्हन्ताये सुदानवो नरो असामि वावसः ।।
प्रवश यज्ञियेम्यो दियो अमरुद्भः ।। - अ० म० ५ अ०४,०५२
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यह तो स्पष्ट है कि अहंन्त''अहन "जिनेन्द्र जिनदेव "जिनेश्वर अथवा तीर्थकर को पूजा का कथन वेदों और पुराणों में भी है। अब केवल प्रश्न इतना रह जाता है कि यह जैनियों के पूज्यदेव हैं या अन्य महापुरुष? हिन्दी शब्दार्थ तथा शब्द कोषों के अनुसार इनका अर्थ जैनियों के 'पूज्यदेव' हैं। यही नहीं बल्कि इनके जो गुण और लक्षण जैनधर्म बताता है वही ऋग्वेद स्वीकार करता है, "अहंन्देव! आप धर्मरूपी बाणों, सदुपदेश (हितोपदेश) रूपी धनुष तथा अनन्तज्ञान आदि आभूषणों के धारी, केवलज्ञानी (सर्वज्ञ) और काम, क्रोधादि कषायों से पवित्र (वीतरागी) हो। आप के समान कोई अन्य बलवान नहीं, पाप अनंतानन्त शक्ति के धारी हो।' फिर भी कहीं किसी दूसरे महापुरुष का भ्रम न हो जाये, स्वयं ऋग्वेद ने ही स्पष्ट कर दिया, "अहंन्तदेव पाप नग्न स्वरूप हो, हम आपको सुख-शांति की प्राप्ति के लिए यज्ञ की बेदी पर बुलाते हैं।
कहा जाता है-मूर्ति जल है इसके अनुराग से या लाभ है ? सिनेमा जड़ है लेकिन इसकी बेजान मतियों का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता, पुस्तक के अक्षर भी जड़ हैं, परन्तु ज्ञान की प्राप्ति करा देते हैं चित्र भी जड़ हैं लेकिन बलवान योद्धा का चित्र देख कर क्या कमजोर भी एक बार मूंछों पर ताव नहीं देने लगते ? क्या वंश्या का चित्र हृदय में बिकार उत्पन्न नहीं करता? जिस प्रकार नक्शा सामने हो तो विद्यार्थी भूगोल को जल्दी समझ लेता है उसी प्रकार अर्हन्तदेव को मूर्ति को देख कर अर्हन्तों के गुण जल्दी समझ में आ जाते है। मूर्ति को केवल निमित्त कारण (object of devotion) है।
.. कुछ लोगों को शंका है कि जब अहंन्तदेव इच्छा तथा रागद्वेष रहित हैं, पूजा से हर्ष और निन्दा से खेद नहीं करते, कर्मानुसार फल स्वयं मिलने के कारण अपने भक्तों की मनोकामना भी पूरी नहीं करते तो उनकी भक्ति और पूजा से क्या लाभ? इस शंका का उत्तर स्वा० समन्त भद्राचार्य जी ने स्वयम्भूस्तोत्र में बताया :
म पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे ने निन्दया नाथ बिवान्तवरे ।
तथापि ते पुण्य-गुण स्मृतिर्नः पुनाति चितं दुरिताजनेभ्यः ॥५७॥ अर्थात्-श्री महन्तदेव । राग-द्वेष रहित होने के कारण पूजा-वन्दना से प्रसन्न और निन्दा से प्राप दुखी नहीं होते पोर न हमारी पूजा अथवा निन्दा से आपको कोई प्रयोजन है। फिर भी प्रापके पुण्य गुणों का स्मरण हमारे चित्त को पापमल से पवित्र करता है। श्रीमानतं गाचार्य ने भी भक्तामर स्तोत्र में इस शंका का समाधान करते हुए कहा :
. आस्तां तव स्तवनमस्त समस्त दोषं त्वत्संकथापि जगा दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्त्र किरणः कुरुते प्रभव पद्माकरेषु जलजानि विकासभांजि । प्रर्थात्-भगवन् ! सम्पूर्ण दोषों से रहित आपकी स्तुति की तो बात दूर है, आपकी कथा भी प्राणियों के पापों का माश करती है। सूर्य की तो बात जाने दो उसकी प्रभामात्र से सरोवरों के कमलों का विकास हो जाता है। प्राचार्य कुमुचन्द्र ने भी बताया :
हद्विर्त्तनि स्वयि विभो शिथिलिप भवन्ति, जन्तीःक्षणेन निविडा अपि कर्मबन्धाः।
सद्यो भुजंगममया इव मध्यभागमभ्यागते बनशिखिण्डिनि चन्दनस्थ ।। अर्थात्-हे जिनेन्द्र ! हमारे लोभी हृदय में आपके प्रवेश करते ही अत्यन्त जटिल कर्मों का बन्धन उसी प्रकार ढीला पड़ जाता है जिस प्रकार बन मयूर से आते ही सुगन्ध की लालसा में चन्दन के वृक्ष से लिपटे हुए लोभी सपो के बन्धन ढीले पड़ जाते हैं।
१. इसी ग्रन्थ के फुटनोट नं० २, और फुटनोट नं०३
अर्हन्विषि सायकानि धन्वाहन्निष्कं यजतं विश्वरूपम् ।
अहन्निदं दर से विश्वभ्व नवाओजीयो रुद्र त्वस्ति ऋ० २।४।३३ २. वैनप्चुर्देववतः शते गोरियाव वधूमन्ता सुदासः । __ अहन्नम्ने पंजवनम्पदानं होतेव सद्ममि रेमन् ।। ऋ० ७/२०१५
3. Great men are still admirable. The unbelieving French Believe in their Voltaire and burst out round him into very curious hero worship. Does not cvery true man Feel that he is himself made higher by doing reverence to what really above him.
-English Thinker Thomas Carlyle
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कुछ लोगों को भ्रम है कि जब माली की अवती कन्या महन्त भगवान के मन्दिर की चौखट पर ही फूल चढ़ाने से सौ धर्म नाम के प्रथम स्वर्ग की महाविभूतियों वाली इन्द्राणी हो गई। धनदस नाम के ग्बाले को ग्रहन्तदेव के सम्मुख कमल का फूल चढ़ाने से राजा पद मिल गया। मेंढ़क पशु तक बिमा भक्ति करे, केवल अर्हन्न भक्ति की भावना करने से ही स्वर्ग में देव, हो गया तो दो घण्टा प्रहन्त वन्दना करने पर भी हम दुःखी क्यों है। इस प्रश्न का उत्तर श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कल्याण मन्दिर स्तोत्र में इस प्रकार दिया है:
प्राकथितोऽपि महितोऽपि निरीक्षतोऽपि नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या ।
जातोऽस्मि तेन जनबान्धवा दुःखपात्रं यस्मात् क्रिया: प्रतिफलन्ति न भावशून्या ।। अर्थात् हे भगवान ! मैंने आपकी स्तुतियों को भी सूना, आपको पूजा भी को, आपके दर्शन भी किये किन्तु भक्तिपूर्वक हृदय में धारण नहीं किया । हे जनबान्धव ! इस कारण ही हम दुःख का पात्र बन गये क्योंकि जिस प्रकार प्राण रहित प्रिय-सेप्रिय स्त्री-पुत्र ग्रादि भी अच्छे नहीं लगते, उसी प्रकार बिना भाव के दर्शन, पूजा आदि सच्ची अर्हन्ति भक्ति नहीं बल्कि निरी मूर्तिपूजा है इसके लिए वैरिस्टर चम्पतराय के शब्दों में जनधर्म में कोई स्थान नहीं ।' भावपूर्वक अर्हन्त भक्ति के पुण्य फल से प्राज पंचभकाल में भी मनवांछित फल स्वयं प्राप्त हो जाते हैं। मानलंगाचार्य की श्री ऋषभदेव की स्तुति से जेल के ४६ लौह कपाट स्वयं खुल गये ।' समन्तभद्दाचार्य की तीर्थकर वन्दना से चन्द्रप्रभु तीर्थकर का प्रतिविम्ब प्रकट हुमा। चालुक्य नरेश जयसिंह के समय वादीराज का काष्ट रोग जिनेन्द्र भक्ति से जाता रहा। जिनेन्द्र भगवान पर विश्वास करने से गंगवशी सम्राट् दिनयादित्य ने प्रथाह जल से भरे दरिया को हाथों से तैर कर पार कर लिया। जैनधर्म को त्याग कर भी होयसल वंशी सम्राट विष्णवर्धन को श्री पार्श्वनाथ का मन्दिर बनाने में, पुत्र सोलंकी सम्राट् कुमारपाल को श्री अजितनाथ को भक्ति से युद्धों में विजय और भरतपुर के दीवान को वोरभक्ति से जीवन प्राप्त हुआ। कदम्बावंशी सम्राट रविवर्मा ने सच कहा है, 'जनता को श्री जिनेन्द्र भगवान की निरन्तर पूजा करनी चाहिए, क्योंकि जहां सदैव जिनेन्द्र पूजा विश्वासपूर्वक की जाती है वहीं अभिवृद्धि होती है, देश आपत्तियों और बीमारियों के भय से मुक्त रहता है और वहां के शासन करने वालों का यश और शक्ति बढ़ती है।
जैन धर्म का प्रभाव?
पू० अ० गणेश प्रसाद जी वर्णी हम वैष्णव धर्म के अनुयायी थे । हमारे घर के सामने जैन मन्दिर जी था । वहाँ त्याग का कथन हो रहा था। मुझ पर भी प्रभाव पड़ा और मैंने सारी उम्र के लिए रात्रि भोजन का त्याग कर दिया। उस समय मेरी प्रायु दस साल की थी।
एक दिन मैं और पिता जी गांव जा रहे थे। रास्ते में घना जंगल पड़ा हम अभी बीच में ही थे कि एक शेर-शेरनी को अपनी ओर पाते देखा। मैं डरा, परन्तु मेरे पिता ने धीरे-धीरे णमोकार मंत्र का जाप ग्रारम्भ कर दिया। शेर-शेरनी रास्ता काट कर चले गये। मैंने पाश्चर्य से पूछा, "पिता जी। वैष्णव-धर्म के अनुयायी होते हए जैनधर्म के मन्त्र पर इतना .. गहरा विश्वास"? पिता जी बोले कि इस कल्याणकारी मंत्र ने मुझे बड़ी-बड़ी प्रापत्तियों से बचाया है। यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो जैन धर्म में दृढ़ श्रद्धा रखना । मुझे जैन धर्म की सचाई का विश्वास हो गया। इसकी सचाई से प्रभाबित होकर समस्त घर बार और कुदम्ब को छोड़ कर फाल्गुण सुदी सप्तमी बीर सं० २४७४ को आत्मिक कल्याण के हेतु मैंने जैन धर्म की क्षुल्लक पदवी ग्रहण कर ली।४
१. आदर्श कथा संग्रह (वीर मेया मन्दिर सरसावा, सहारनपुर) १० ११२ । २. इसी ग्रन्थ का पृ० ३८२-३५३ ।
3. Jaioism is not idolatrous and it has bitterly opposed to idolworship as the iconoclastic religion. The Tirthankars are models of perfection for our soul to copy. Their images are to constantly remind for the ideal. What is Jainism. p. 22.
४. मेरो जीवन गाथा, गणेशप्रसाद वर्णी जैन अन्धमाला, भदैनी घाट, बनारस ।
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जैन धर्म का प्रभाव-२ स्वामी दर्शनानन्द बीमार थे मैं उनसे मिलने गया। उन्होंने कहा, "अब जीवन का भरोसा नहीं।" मैंने कहा, "एक संन्यासी को मृत्यु की क्या चिन्ता ? उन्होंने कहा, "शरीर की नहीं, केवल यह चिता है कि अब जैनियों से शास्त्रार्थ कौन करेगा ?" मैंने जैनियों के साथ शास्त्रार्थ करने का संकल्प कर लिया और प्रथम मोर्चा भिवानी के जैनियों से जमा। फिर देहली, केवड़ी आदि अनेक स्थानों पर शास्त्रार्थ हुए। पानीपत में जबानी और लिखित शास्त्रार्थ पाठ दिन तक चलता रहा । मेरी लिखी पुस्तक 'दिगम्बर जैनों से १०० प्रश्न' का पं. पन्नालाल जी न्यायदिवाकर ने जो उत्तर भेजा, उससे मुझे विश्वास हो गया कि मैंने जैन धर्म को जो समझा था, जैन धर्म उस से भिन्न है। जैन धर्म प्रथमानुयोग में नहीं बल्कि द्रव्यानयोग में है, जो जैन धर्म का प्रमाण है। धीरे-धीरे मेरी आत्मा पर जैन धर्म की सत्यता का प्रभाव पड़ता रहा, जिसका फल यह हुआ कि मुझे जैन धर्म में श्रद्धा हो गई। जैनधर्म का ज्ञान तो पहले से ही था लेकिन श्रद्धा न थी, अब श्रद्धा हो गई तो वही ज्ञान सम्यक् ज्ञान हो गया। मैं अपनी प्रात्मा का वह स्वरूप पहिचान गया और कर्मों में आनन्द मानने वाले कर्मानन्द से निज (आत्मा) में प्रानन्द मानने वाला निजानन्द हो गया।'
१. विस्तार के लिए जैन-सन्देश, आगरा (२२ फरवरी, १९५१) १०३-४ ।
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अहिंसा धर्म और धार्मिक निर्दयता
अब इस बात को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं रह गई है, कि प्रत्येक जीव को रक्षा करना मनुष्य मात्र का कर्तव्य है। मनुष्य प्राधुनिक विज्ञान के द्वारा उन्नति करता हुआ अपने जीवन को जितना ही अधिक से अधिक सुखी बनाता जाता है, उतना ही पशु पक्षियों का भार रूका होतानासाहै। वैर..निक सेती ने बैलों और घोड़ों के हल चलाने के गृहत्तर कार्य को बहत हल्का कर दिया है। रेल, मोटरकार आदि वैज्ञानिक यानों में बोझ ढोने के कार्य से अनेक पशुओं को बचा लिया है। वज्ञानिक लोगों के शोध का कार्य अभी तक बराबर जारी है। उनको अपनी शोध के विषय में बड़ी-बड़ी आशाएं हैं। उनको विश्वास है कि एक दिन वे विज्ञान को इतना ऊंचा पहुंचा देंगे कि संसार का प्रत्येक कार्य विना हाथ लगाये केवल विजली का एक बटन दबाने से ही हो जाया करेगा। भोजन के विषय में उनको आशा है कि वह किसी ऐसे भोजन का आविष्कार कर सकेगे, जो अत्यन्त अल्प मात्रा में खाए जाने पर भी क्षुधा शान्ति के अतिरिक्त शरीर में पर्याप्त मात्रा में रक्त आदि धातुओं को भी उत्पन्न करेगा । तिस पर भी यह भोजन यन्त्रों द्वारा उत्पन्न बिल्कुल निरामिष होगा। इस प्रकार वैज्ञानिक लोग मनुष्य, पशु और पक्षी संभी के बोझ को कम करने के लिए बराबर यत्न कर रहे हैं।
यद्यपि हम भारतबासी यह दावा करते हैं कि संसार के सबसे बड़े धर्मों की जन्मभूमि भारतवर्ष है, किन्तु अत्यन्त दयावान जैन और बौद्ध धर्मों की जन्मभूमि होते हुए भी जीव रक्षा के लिये जो कुछ विदेशों में किया जा रहा है, भारत में अभी उसकी छाया भी देखने को नहीं मिलती। हम समझते हैं कि विदेशी लोग म्लेच्छ खण्ड के निवासी एवं मांसभक्षी होने के कारण
टिन्नेवेली जिले के कई स्थानों में पृथ्वी पर तेज नोक पाले भाले या बड़े कीले सीधे गाड़कर उनके उपर बड़ी भारी ऊंचाई से कई सूपर एक-एक करके इस प्रकार फेंके जाते हैं कि उसमें बिंधकर भाले के नीचे पहुंच जावें। इस प्रकार एक-एक भाले में एक के ऊपर कई एक सूअर जीवित ही बिध जाते है। बाद में उन मूक प्राणियों की बलि दी जाती है।
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हिसाप्रिय होते हैं, किन्तु तथ्य इसके विल्कूल विपरीत है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यूरोप और अमेरिका के अधिकांश निवासी मांसभक्षी हैं, किन्तु वे पशुमों के प्रति इतने निर्दय नहीं है। आप उनकी इस मनोवृत्ति पर पाश्चर्य कर सकते हैं, क्योंकि प्राणघात
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और दया का आपस में कोई मेल नहीं हो सकता। किन्तु पाश्चात्य देशों में आजकल निरामिष भोजन और प्राणियों के प्रति दया का बड़ा भारी आन्दोलन चल रहा है। जिस प्रकार प्राचीन भारतीय क्षत्रिय लोग ब्राह्मणों के सहयोग से हिंसामई यज्ञ या ज्ञ करते-करते हिंसा से इतने ऊब गए थे कि उन्होंने भगवान् महावीर जेसे अहिंसा प्रचारकों को उत्पन्न किया उसा प्रकार अाज कल' पाश्चत्य देशवासी भी व्यर्थ की हिंसा और निर्दयता से ऊब गये हैं। यहां प्रत्येक देश में निरामिष भोजन का प्रचार करने वालो सभाएं हैं। आपको यूरोप तथा अमेरिका के प्रत्येक देश में शाकाहारी होटल तक मिलेंगे। मब वह जमाना टल गया जब पाश्चात्य देशों में जाने पर बिना मांस खाए काम नहीं चलता था।
निरामिष भोजन के प्रचार के अतिरिक्त वहां प्राणियों के साथ निर्दयता का व्यबहार न करने का प्रान्दोलन भी प्रत्येक देश में किया जा रहा है। इस समय यूरोप के प्रत्येक देश तथा अमेरिका में जीव दया प्रचारिणी सभाएं (Humanitarian Leagues) काम कर रही हैं।
जीव दया प्रचारिणी सभाएं प्राणियों पर निर्दयता न करने का प्रचार केवल ट्रेक्ट्रों, व्याख्यानों और मैजिक लालटेनों द्वारा ही नहीं करती, बल्कि वे अपने-अपने देशों में पशु निर्दयता निवारक कानून (Prevention of cruety to Animal Act) भी बनवाती हैं। इसके अतिरिक्त वे जिस देश में प्राणियों के प्रति सामूहिक अन्याय किये जाने की बात सुनतो हैं उसका खला विरोध भी करती हैं। पिछले दिनों अमेरिका की जीव दया सभा ने भारत सरकार के बिना किसो प्रतिबन्ध के अमेरिका में बन्दर भेजने के कार्य का कठोर शब्दों में विरोध किया था। उन्होंने १ सितम्बर, १६३७ से ३१ मार्च, १९३८ तक भारतोय राष्ट्रीय कांग्रेस के पास भी अनेक पत्र भेज कर उससे अनुरोध किया था कि वह भारत सरकार को इस प्रवृत्ति को बन्द करने में सहायता दं। अमरीका में अनेक वैज्ञानिक प्रयोगशालायों में जीवित पशुओं को वीर फाड़ करक अथवा उनका श्रापरेशन कर के वैज्ञानिक प्रयोग किये जाते हैं। इन बन्दरों को भारतवर्ष से उन्हीं प्रयोगशालाओं के लिए भेजा जाता था, वहाँ उनको अनेक
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चिगलेपट जिले के मादमबक्कम नामक स्थान में जीवित भेड़-बकरी के पेट को थोड़ा काटकर उसकी प्रांतें खींच ली जाती हैं और उन्हें सेल्लीयम्मन देवी के सामने गले में हार की तरह पहिना जाता है।
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प्रकार के काटने, फाड़ने, चीरने, छेदने आदि के कष्ट दिये जाते थे। इस कार्य का चिकित्सकों, पादरियों, जीवित प्राणियों के प्रापरेशन का विरोध करने वाली सभाओं तथा अन्य भी अनेक व्यक्तियों ने घोर विरोध किया।
एक अमेरिका निवासी का कहना है कि वहां प्रतिवर्ष साठ लाख प्राणियों का प्रयोगशालाओं में बलिदान किया जाता है। उनमें से केवल पांच प्रतिशत को ही बेहोश करके उनकी चीर-फाड़ की जाती है। शेष सब बिना बेहोश किये ही, चोरेफाड़े जाते हैं। इन प्रयोगशालानों पर किसी प्रकार का निरीक्षण नहीं है। इनमें निर्दयता पूर्ण सभी कार्य प्रयोग करने वालों की
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पूर्ण सहमति से किये जाते हैं। उन प्रयोगों में पशुओं की रीढ़ की हड्डी के ऊपर खाल और मांस को हटाकर उनकी नाड़ियों को उत्तेजित करके उसको फासफोरस से जलाया जाता है। फिर उनको उबलते हुए पानी में डाल दिया जाता है यह सब कुछ उन मूक पशुत्रों को बेहोश किये बिना किया जाता है।
इन प्रयोगों के चिकित्सा में उपयोग के विषय में भी निश्चय से कुछ नहीं कहा जा सकता । इन बन्दरों के खून में से इस प्रकार निर्दयता पूर्वक निकाले हुए पानी (Serum) को शिशु पक्षाघात में दिया जाता है। इस औषधि के विषय में खुब बढ़ा-चढ़ाकर विज्ञापन निकाले जाते हैं। किन्तु संयुक्त राज्य अमेरिका में स्वास्थ्य विभाग का कहना है कि इस प्रकार निर्दयता पूर्वक निकाले हुए किसी भी सीरम ने शिशु पक्षाघात को अच्छा नहीं किया।
प्राणियों पर दया तथा अव्यर्थ महौषधि न होने के कारण बन्दरों के ऊपर इस निर्दय तथा व्यर्थ प्रयोग का विरोध बड़े प्रभावशाली शब्दों में किया गया। इस विषय में निमोनिया की शुरक्षा समिति तथा जीपित पाणी शल्य विरोधी समिति के प्रधान ने लिखा है--'भारत के तीर्थस्थान आध्यात्मिक सौन्दर्य और उन्नति के भण्डार हैं। वह मनुष्यों के अतिरिक्त पशुमों को भी प्रेमभाव से रहने की शिक्षा देते हैं, अतएव ऐसी शिक्षा देने वाला भारत पवित्र नियम का उल्लंघन कुत्सित और नीच
टिन्नेबली जिले में तो इतनी अमानुषिकता की जाती है, कि वहां एक गर्भवती भेड़ के गर्भाशय को फाड़कर उसमें से बच्चों को इसलिए निकाल लिया जाता है कि उन्हें
देबकोट्टा में कोयेमम्मापर, मायावरम में | मरियम्मापर और पालमकोटा में प्रयिर___ थम्मेन पर बलि चढ़ाया जाता है।
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विदेशी पैसे के लिए नहीं कर सकता। हम संसार के सभी धमों के नाम पर आपसे दया, सत्य और न्याय के लिए अपील करते हैं। उन सब लोगों को यह बड़ी भारी अभिलाषा है कि भारतवर्ष के बन्दरों का बाहर भेजा जाना एक दम बन्द हो जावे।
यद्यपि स्पेन आन्तरिक युद्ध के कष्ट से जीवन और मृत्यु के सन्धि स्थल पर खड़ा था, किन्तु उन मक प्राणियों के कष्ट से उसका हृदय भी पिघल गया था। उसकी जीव दया सभा के सितम्बर १९३७ के एक पत्र में स्पेन के उन पशुओं की रक्षा करने की अपील की गई है, जो अपने मालिकों के स्पेन के नगरों की सूनसान गलियों में खाना ढूंढते हुए घूम रहे हैं। खाना न मिलने के कारण उक्त पशुओं के पंजर निकल आए हैं। उन पशुओं में अनेक उच्च नस्ल के कुत्ते भी हैं, जो स्पेन की बम वर्षा में अनाथ हो गए हैं।
माड्रिड में केवल एक समिति पशुरक्षा का कार्य करती है, किन्तु बहु अत्यन्त यत्नशील होती हुई भी उनकी बढ़ी हई संख्या के कारण उनकी प्रावश्यकता की पूर्ति करने में असमर्थ हैं। इसलिए उक्त समिति ने संसार भर के दयालू पुरुषों से अपील की है कि वह अपनी चंचल लक्ष्मी का कुछ भाग स्पेन भेजकर उन पशुओं की रक्षा के कार्य में सहायता दें।
कनाडा में भी पशमों के प्रति निर्दयता पूर्ण व्यवहार के विरुद्ध और पान्दोलन किया जा रहा है । रोटेटो हयुमेन सोसाइटी के मैनेजिंग डाइरेक्टर मिस्टर जान मैकनल ने पशुओं के ऊपर वैज्ञानिक प्रयोग किये जाने का विरोध जोरदार शब्दों
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में किया है। कनाडा की पशरक्षा समिति जीवित प्राणियों का आपरेशन करने के विरुद्ध और पान्दोलनन कर रही है, कनाडा की पश निर्दयता निवारक समिति (Society for the Prevention of cruelty to Animals) की रिपोर्ट को देखने पर
दक्षिणी अरकाट जिले के पूवानर नामक स्थान में बकरे के गले को नेहानी वा छीनी से धीरे-धीरे काटकर उसको असीम वेदना पहुंचाई जाती है। बलिदान का यह कार्य सम्भवतः कसाई के हलाल करने से भी अधिक निर्दयतापूर्ण है।
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पता चलता है कि समिति के पास प्रार्थिक साधनों की कमी नहीं है। उसो वर्ष उसको अकेलो ए. क्राफ्ट सविस स्टेट से हो दस सहस्त्र डालर मिले थे, इसके पदाधिकारी नगर के बाहिर १४५ मौकों पर गये । उन्होंने १८०५ पा निर्दयता की शिकायतें सुनी, जिनमें से उन्होंने १३६८ को चेतावनी देकर छोड़ दिया और ८२ मामलों में सजा कराई । उसने १४५, ५८० बाड़ों में पशुओं का निरीक्षण किया।
पशुजनमें से अनाथ, इसका
विजगापट्टम जिले के अनाकवले नामक स्थान में एक ऐसा बलिदान किया जाता है जिसमें भाले जैसी एक तेज नोकदार छुरी को सुपर के गुदास्थान में डालकर इतने जोर मे दबाया जाता है कि वह अन्दर के भागों को फाइती हुई उसके मह में से निकल पाती है।
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पशओं की अपेक्षा हमारा पक्षियों के प्रति भी कम उत्तरदायित्य नहीं है । जन मन्दिरों में प्रायः कबुतरों को चारा डाला जाता है। वास्तव में हमारा उनके प्रति एक विशेष कर्तव्य है। जिन पक्षियों को मनुष्य अपने प्रेमवश किसी स्थान विशेष में
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लाता है, उसके प्रति तो उसका विशेष कर्त्तव्य हो जाता है । हम लोग अपने अनाजपात को साफ करके घड़ियों गेगल आदि कड़ियों पर फेंक देते हैं, किन्तु यदि हम उसकी किसी सार्वजनिक स्थान पर उलवा दिया करें तो, उससे अनेक पक्षियों को लाभ हो सकता है। अनेक लोग ऐसा रोप्रादा होती है कि वह उन प्रकृति के संगीत बाहकों को लोहे के पिंजरे में बन्द कर देते हैं, अनेक व्यक्ति तोते, मैना, आदि अनेक प्रकार के पक्षियों का पिजरे में बन्द रखते हैं, किन्तु वह यह नहीं समझते कि प्रत्येक पक्षी जितना सुन्दर खुली वायु में स्वतन्त्रता पूर्वक श्वास लेकर गाता है उतना पिंजरे के अन्दर बन्द रह कर कभी नहीं गा सकता वास्तव में हरे-हरे खेतों से उड़कर नीले आकाश में गाते हुए जाने वाले पक्षियों को देखकर कितना प्रानन्द होता है ? इस गीत को सुनकर कभी-कभी मन नहीं भरता । किन्तु स्वार्थी मनुष्य उनको पिंजरे में बन्द करके ही संतुष्ट नहीं होता, वह उनको पकड़ता है उनका शिकार करता है और उनपर अनेक प्रकार के अत्याचार करता है। कई एक व्यक्ति तो इन, निर्बल प्राणियों को मारकाट कर बड़ी शान से कहा करते हैं, कि आज हमने इतने पक्षियों का शिकार किया । शिकारियों की अपेक्षा बहेलिये या चिडिमार लोग इन पर अधिक अत्याचार करते हैं।
कछ वर्ष पूर्व कनाडा के वेल्वेक नामक नगर में एक बहेलिये में एक छोटी लोमड़ी को जीवित ही जाल में पकडलिया। उसने उसको अपने घर ले जाकर उस स्थान पर टांग दिया जहाँ अनेक खाले टंगी हुई थी। उस समय वहां एक फोटोग्राफर भी था । यह उन खालों का फोटो लेना चाहता था। किन्तु उसने लोमड़ी को छटपटाते देखकर बहेलिये के निर्दयतापूर्ण कार्य का विरोध किया और कहा कि लोमड़ी के इधर उधर हिलते समय फोटो किस प्रकार लिया जा सकता है। इस पर बहेलिये ने लोमडी को उतारने के स्थान में उसकी अगली टांगों को एक रस्सी में बांधकर आगे को इसप्रकार खींच कर वांध दिया कि वह हिलाल भी न सके। इसके बाद फोटोग्राफर ने फोटो ले लिया। वह इस फोटो को पशुनिर्दयता निवारक सभा में भेजने वाला था। सारांश यह है कि पशुनिर्दयता निवारक कानून के अनुसार अनेक व्यक्तियों को छोटे-छोटे अपराधों में दण्ड दिया जाता है, किन्तु बहेलियों
दक्षिणी अरकाट के विरुषचलम् तालुक के मदुवेत्तिमंगलम मंदिर में एक साथ सात भैसों को काटकर उनकी बलि दी जाती है।
और यह पूजोत्सव का वहां एक साधारण रूप है।
और शिकारियों पर उक्त कानून लागू नहीं होता । किसी बच्चे के हाथ में तो जब कभी कोई कुत्ते या बिल्ली का बच्चा पड़ जाता है, उसकी आफत ही पा जाती है ।
उन्नीसवीं शताब्दी में बड़े-बड़े चिकित्सकों ने रोग और मृत्यु में कष्ट कम करने का बड़ा भारी उद्योग किया है। एडिनबरो के डाक्टर सिम्पसन को आपरेशन के समय रोगियों का तड़पना और चिल्लाना देखकर बड़ी दया प्राई । प्रतएव उसने बेहोश करने की प्रौषधि को खोज निकाला।
अमेरिका में पशुओं के प्रति दयाभाव प्रदर्शित करने का प्रचार रेडियो, समाचार पत्र और व्याख्यानों द्वारा किया जाता है। वहीं अनेक समितियाँ जीव दया का प्रचार कर रही है। इस विषय में वहां प्रतिवर्ष संकड़ों टैक्ट निकलते हैं। रैबरेंड डाक्टर हान पेनहालरीस ने तो जीव दया के विषय में एक सहस्र से भी अधिक कविताएं लिखी हैं।
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रोरोटी की हयूमेन सोसाइटी तथा इसी प्रकार की अन्य संस्थाए वहां इस विषय में अत्यन्त उपयोगी कार्य कर रहीं हैं। इस विषय में डाक्टर ऐलेन भी बड़ा भारी कार्य कर रहे हैं।
जर्मन वर्णगले प्रगट है कि यद्यपि भारत वर्ष में शेष संसार की अपेक्षा मांसाहार का प्रचार कम है, तथापि वह जीव दया के कार्य में उससे बहुत पीछे है। इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन और अमेरिका मांसाहारी देश होते हुए भी जीव दया के सम्बन्ध में भारत से वहत आगे हैं। भारत वर्ष का दावा है कि वह कई ऐसे विश्व धर्मों की जन्मभूमि है, जिसका प्राधार
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MANTRA
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HARISHNA
टिचनापली के पास पुतुर के कुलुमियायी मंदिर में दो तीन माह के भेड़ के बच्चों की गर्दनें दांतों से काटकर अथवा छरी से छेद करके देवी को सामने उनका रक्त चूसा जाता है इस घोर राक्षसी कृत्य ने तो खूम्बार जंगली जानवरों को भी मात कर दिया है।
அந்தோ ! இந்த அநாகரிகக் கொடுமைகள் று கழியுமா
प्रम और अहिंसा है, तो भी यह अत्यन्त मेद की बात है कि वह जाव दया और प्राणी रक्षा के विषय में संसार के अन्य देशों से बहुत पीछे है । संसार का एक बहुत पिछड़ा हुआ देश है।
भारतवर्ष में अभी तक परमात्मा और धर्म के नाम पर बड़े-बड़े अत्याचार करके प्राणियों को प्राणांतक कष्ट दिया जाता है । दक्षिण भारत इस विषय में शेष भारत से भी बाजी मार ले गया है । वहां मुक पशुओं पर धर्म के नाम पर बड़े-बड़े अमानुपिक अत्याचार किये जाते हैं । जिन्हें देख सुनकर रोंगटे खड़े होते हैं और दिमाग भकरम जाता है । लेख में दिये गये कुछ चित्रों से इन अत्याचारों का आभास मिलता है । उनके वहाँ पुनः उल्लेख करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं
होती।
इनके अतिरिक्त दक्षिण के अनेक जिलों में यज्ञ के लिए बकरों को मारने की प्रथा बहुत जोरों पर है बकरों के अण्डकोषों को किसी भारी वस्तु से दबाकर कुचलने आदि के अमानुषिक कर्म द्वारा उन मुक पशुओं को मरणान्तिक वेदना पहुंचाई जाती है।
इस प्रकार पशुओं को धर्म के नाम पर असह्य यंत्रणा पहुंचाने वाले कुकृत्यों के अथवा धार्मिक निर्दयता के ये कुछ उदाहरण है, जो प्रायः तिलकछाप धारी हिन्दूरों के द्वारा किये जाते हैं, और किये जाते हैं, खबगा बजाकर-हिसानन्दी रौद्र ध्यान में मग्न होकर ! संसार के और भी भागों में इनके जैसे अन्य अनेक ऐसे कुकर्म किये जाते हैं, जिनको सुनकर हृदय काप उठता है और समझ में नहीं पाता कि ऐसे क्रूर कर्मों के करने वाले मनुष्य हैं या राक्षस अथवा जंगली जानवर ।
पाश्चात्य देश यद्यपि मांसाहारी हैं किन्तु वहां प्रयोगशालाओं को छोड़कर अन्यत्र पशुत्रों को यंत्रणा पहुंचाकर नहीं मारा माता। वहां पशुओं के ऊपर निर्दयता पूर्ण व्यवहार करने के विरुद्ध कानून बने हुए हैं, जिनका उल्लंघन करने पर जुर्माने
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से लेकर जेल तक का दण्ड दिया जाता है। पशुओं को गाड़ी में जोत कर अधिक चलाना, उन पर अधिक बोझ लादना, उनको पेट से कम चारा देना, निर्दयतापूर्वक पीटना और पैर बांधकर ले जाना यदि कार्य पाश्चात्य देशों में कानून विरुद्ध घोषित
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दक्षिणी कार्ड जिले के विरुवचनम ताल्लुक के मदुबेति मंगलम् नाम के स्थान में सूर के छोटे २ जीवित बच्चों को भाले से बोधकर और उसे विधे रूप में ही भालों पर उठाए हुए ग्राम सड़कों पर जलूस बनाकर चलते हैं ।
लोर जिले के मोपेडू नामक स्थान पर वेदों के मंदिर के सामने एक चार फुट गहरा गढ़ा खोदकर उसमें एक भैसे को उतार कर मजबूती से बांध दिया जाता है। इसके पश्चात कुछ लोग उसको भाने से देव कर जान से मार डालते हैं ये लोग पहले से उसको इस प्रकार मारने की शपथ लेते हैं ।
कर दिये गये हैं। सन् १८६० में माननीय मिस्टर हचिनसन ने भारतीय कौंसिल में भी पशु निर्दयता निवारक चिन उपस्थित किया था। यद्यपि इस एक्ट के अनुसार पशुओं के साथ किये जाने वाले अनेक निर्दयता पूर्ण कार्यों को अवैध करार दे दिया
गया था, किन्तु धर्म के नाम पर की आने वाली निर्दयता का इसमें भी अन्तर्भाव नहीं किया गया। इस बात को प्रत्येक व्यक्ति समझ सकता है कि मारने पीटने अधिक दोभा सादने आदि में पशुओं को इतना दुःख नहीं होता जितना बांध जुड़कर भालों
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से छेदने, उपर से बौँ भाले पर डालने, गुदा के मार्ग में लकड़ी डालकर मह में से निकालने प्रान्तों को खींचने और अण्डकोषों को कुचलने आदि में होता है। परन्तु खेद है कि कानून निर्माताओं ने इन कार्यों को निर्दयतापूर्ण मानते हुए भी धर्म में हस्ताक्षेप करने के भय से नहीं रोका।।
सितम्बर १९३८ में भारतीय व्यवस्थापिका सभा (Legislative Assembly) ने अपने शिमला सेशन (Session) "पश निर्दयता निवारक कानून" में कुछ और संशोधन किये हैं, किन्तु धर्म के नाम पर की जाने वाली निर्दयता को उससे भी प्रबंध नहीं किया गया, यह खेद का विषय है।
हां इस विषय में ब्रिटिश भारत की अपेक्षा देशी राज्यों ने कुछ अधिक कार्य किया है निजाम हैदराबाद ने जन १९३८ से अपने राज्य में गऊ और ऊंट की कुरबानी करना कानून द्वारा बन्द कर दिया था। मैसूर, ट्राबनकोर तथा उत्तरी भारत के अनेक राज्यों ने भी अपने यहां बलि विरोधी कुछ कानून बनाए थे।
पाठकों से यह छिपा नहीं है कि लोकमत के प्रबल विरोध के कारण ही भारत सरकार ने सती प्रथा को बन्द किया है, बाल विवाहों में कुछ रुकावट डाली हैं, लाहौर में बूचड़खाना बनाने के विचार का परित्याग किया है और बंगाल सरकार ने भी एक कानून बनाकर प्रान्त की फूका प्रथा को बन्द किया है।
इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि सरकार लोक मत प्रबलता को देखकर धर्म में भी हस्ताक्षेप करती है। अतः हमको भारत के कोने-कोने में आन्दोलन करके धर्म के नाम पर पशुओं पर किये जाने वाले इन घोर अत्याचारों को एकदम बन्द करा देना चाहिए। इस समय महात्मा गांधी तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू तक पशुबलि को जंगली प्रथा बतला कर उसका विरोध
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उयनपल्ली जैसे स्थानों में जीवित पशुओं की बलि देते समय उसकी गर्दन को थोड़ा-सा काट लिया जाता है,फिर उस टपकते हए रक्त को कटोरे से देवी के सामने पिया जाता है। बेचारा पशु महावेदना भोगता हुआ तड़प-तड़पकर प्राण दे देता है।
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कर रहे थे और भी कुछ सज्जन प्राणों की बाजी लगाकर पशुबलि के विरोध में उठे हए हैं। अतः यह अवसर प्रान्दोलन के लिए बहुत अनुकूल है।
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अण्डों से दिल की बीमारी, हाई ब्लड प्रेशर पादि
(Eggs Cause Heart Discases, High Blood Pressure etc.) "Even if we had the best of eggs, we would be better of without them as they are too high in cholesterol, one important cause of arteries, heart, brain, kideny diseases and gall stones. Fruits at vegetables and vegetable oils have gone or hardly any Cholesterol." --Dr. Katherine Himno, D. C. R. N. Oceano, California (U.S.A.)
(How Healthy Are Eggs. p.7) अर्थात् यदि बढ़िया अण्डे भी मिल तो भी उनके बिना ही हम अधिक स्वस्थ रहेंगे क्योंकि उन अण्डों में कोलेस्टेरोल की मात्रा इतनी अधिक होती है कि जिनके कारण अण्डों से दिल की बीमारी, हाई ब्लड प्रेशर, गुरदों की बीमारी, पित्त की थैली में पथरी प्रादि रोग पैदा होते हैं । फलों, सब्जियों और वनस्पति तेलों में कोलेस्टरोल बिल्कुल नहीं होता है।
-डा. कैथेराइन निम्मो, डी० सी०आर० एन ओसियनो, कैलीफोरनिया, (य. एस ए.)
ही मात्रा इतनी अधिक होता होते हैं । फलों,
सानिम्मो, डी० सी० आर आदि ऐग्ज ? पृष्ठ ७)
अण्डों संपनियों ने अहम (Eggs Cause Corrosion of Blood Vessels.)
"Engs are also harmful. You may say that the egg and I get along well" but aChemical Analysis proves differently The yoke of the egg contains cholesterol a waxy alcobal, which deposits in the liver and blood vessels, producing Corroission and hardening of the arteries,"
-Dr. J. Ainan Wilkins (England) (How Healthy Are Eggs. p.6-7)
अण्डे हानिकारक हैं। तुम्हारा यह कहना कि अण्डों से मेरा स्वास्थ्य बनता है गलत है क्योंकि रासायनिक परीक्षण का तुम्हारी धारणा के विरुद्ध फैसला है । अण्डे की जरदी में कोलेस्टरोल नामक भयानक तत्व पाया जाता है जो कि एक चिकना ऐल्कोहल (शराब) होता है । वह जिगर में जाकर जमा होता है और फिर रगों (धमनियों) में जरुम और कड़वापन पैदा
मेरा स्वास्थ्य बनता है गल
कलाहल (शराब) होता हैसला है । अण्डे की जरदी में
-डा० जेऐमन विल्किन्ज़ (हौ हैल्दी पार एग्ज़ पष्ठ ? ६-७)
अंडो से पित्ताशय में पथरी
(Eggs Cause Gall-Stones) "An egg contains about 4 grains of cholesterol. When eggs are eaten the cholesterol content of the blood rises and the tendency towards the development of gall stones and perhaps other diseases increases."
-Dr. Robart Gross and Prof. Irving Davidson (England)
(How Healthy Are Eggs. p. 3) एक अण्डे में लगभग ४ ग्रेन कोलेस्ट्रोल होता है। जव अण्डे खाये जाते हैं तो खून में कोलेस्टरोल को मात्रा बढ़ जाती है जिसके कारण पित्ताशय में पत्थरी और दूसरी बीमारियां पैदा हो जाती हैं।
डा. रावर्ट ग्रास और प्रो० इरबिंग डेबिउसन (इंग्लैड)
(हो हैल्दी पार ऐज ? पृष्ठ ३)
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अण्डों से ऐग्जीमा और लकबा
(Eggs Cause Eczema and Paralysis) "The cgg white is the most harmful portion of the egg. Animased on fresh egg-white developed a scvere skin inflammation and paralysis.
- Dr. Robert Gross (England)
(How Healthy Are Eggs ? p. 3-4) अण्डे की सफेदी अण्डे का सबसे ज्यादा खतरनाक भाग है । जिन जानवरों को अण्डे की सफेदी खिलाई गई उन्हें लकबा मार गया और चमड़ी सूज गई।
-डा० राबर्ट ग्रास (इंग्लैण्ड)
(हो हैल्दी आर-ऐग्ज ? पृष्ठ ३-४) "The factor in egg white that cause eczema is 'AVIDIN'"
Dr. R.J. Williams (England)
(How Healthy Are Eggs? p.4) अण्डे की सफेदी में एबीडिन नामक भयानक तत्व होता है जो ऐग्जिमा का कारण होता है ।
-डा० आर जे० विलियम्स इंग्लैंड)
(हो हैल्दी पार ऐग्ज? पृष्ठ ४) अण्डों से पेट में सड़ान (Eggs Cause Putrefaction)
"Eggs are deficient in Calcium and do not contain Carbohydrates. So their tendency is to favous putrefative decomposition in the intestines rather then to encourage fermentative organisms to develop."
--Dr. E.V.Mc. collum-A great Medical Authority.
Ncwer knowledge of Notrition, p. 171.
(How Healthy Are Eggs? p. 6.) प्रण्डों में कैलशियम की कमी और कार्बोहाईड्रेट्स का बिल्कुल प्रभाव होता है इस कारण ये बड़ी प्रांतों में जाकर सड़ान मारते हैं।
डा० इ० बी मैक्कालम न्यू पार नौलेज माफ न्यूट्रिशन, पृष्ठ १७१
__(हो हैल्दी भार एग्ज ? पृष्ठ ६) अण्ड अन्तड़ियों के कीटाणुनों को जहरीला बनाते हैं अधिक अण्डे पैदा करने की योजनायें-भयंकर हैं
(Intensive Eag-laying is Dangerous) "Eggs in many people are a potent factor in rendening the mutation forns of bacillus coli communis pathogenic and this is doubtless due to the intensive egg. Laying to which hens are being subjected."
--Dr. J.E.R Mc. Donagh, E.R.C.S. (England) The Nature of Disease Journal Volume II p. 194
(How Healthy Are Eggs ? p.I.)
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अण्डे बहुत सारे मनुष्यों की अन्तड़ियों में पाये जाने वाले कामन व कीलाई कीटाणुषों को जहरीली बना देते हैं जिससे भयानक रोग उत्पन्न हो जाते हैं । यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि यह अधिक अंडे प्राप्त करने की योजनाओं का फल है। -डॉ जे० इ० आर० मंवडोनाग, एफ० प्रार० सी० एस० (इंग्लैंड) दि नेचेर माफ डिजीज वाल्युम ११
पृष्ठ आफ १६४ (हो हैल्दी आर एग्ज ? पृष्ठ १) अण्डों से टीबी और पेचिश
(Eggs Cause T, B. and white Diarrhoea) "Chicken diseases are very numerous. Eggs may carry tuberculosis from Chickens. If an infected chick survives, it will nature and lay infected eggs. Chicken leukaemia may be transmitted through the cggs. Heus infected with white diarrhoea will lay eggs containing tho germs which usually co-exist with the colitis symptom complexes in human being."
-Dr. Robert Gross (England)
(How Healthy Are Eggs ? p. 1) मुर्गी के बच्चों में बहत-सी बीमारियां होती हैं। अण्डे उन बिमारियों की विशेषतया टी० बी० पेचिश आदि के कीटाणुनों को अपने साथ लाते हैं और इनको खाने वालों में पैदा करते हैं।
-डॉ० राबर्ट ग्रास (इंग्लैंड)
(हो हैल्दी पार एग्ज? पृष्ठ १) अण्डों में तेजाब (ऐसिड) (Eggs contain Phosphoric Acid)
"Eggs are acid forming having an excess of Nitrogen, fat, and phosphoric acid and can not therefore form the Natural diet of man.
--Dr. Govind Rai
(How Healthy Are Eggs. p. 8) अंडों में नाइट्रोजन फास्फोरिक ऐसिड और चरबी की अधिक मात्रा होती है इस कारण शरीर में ये तेजाबी मादा पैदा करते हैं और मनुष्य को रोगी बनाते हैं ।
-डॉ. गोविन्द राय (हो हैल्दो मार एग्ज? पृष्ठ ८)
अण्डे मनुष्य के हाजमे के प्रतिकूल हैं
(Eggs do not suit Human Digestion) "Both the bile and pancrcatic juice are indifferent to egg white. Nearly 30 to 50 percent of tbc egg white passes through the digestive tract undigested,"
-Prof. Okada (England)
(How Healthy Are Eggs. p. 3.) पित्त और लबलबा का रस अंडे की सफेदी के साथ नहीं मिलते हैं। अंडों की सफेदी का ३० से ५० प्रतिशत भाग भोजन प्रणाली से बिना हजम हये ही निकल जाता है।
-प्रो० पोकाडा (इंग्लैंड) (हो हैल्दी आर० एग्ज? पृष्ठ ३)
९०६
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अण्डे खाना उर्फती है . (Egg eating involves Cruelty and Robbery) "The egg is the unborn chick. egg eating is prenatal poultry robbery of Chicken foetus
ciden
- Dr. J. Amon Wilkins.
(How Healthy Are Eggs ? p. 6.) अंडा मब्यक्त मुर्गी का बच्चा है। अंण्डा खाना एक प्रकार का गर्भ में डकैती डालने के समान है या यों कहिये मुर्गी के ही बच्चे की हत्या के बराबर है।
---डा० जे० एमन चिल्किन्ज़
(हो हैल्दी आर. एग्ज? पृष्ठ ६) अण्डे खाना बेहरमी (क्रूरतापूर्ण) है
(Egg Eating-An Evil Act) "Natural Law caunot be changed from time to time. A good act bears good fruit and evii act bears bad fruit. Ta shat destruction of life brings an evil effect on the doer. Hence do not eat meat and eggs which cause destruction of life."
-Dr. W. J. Jayasureyo (Ceylon)
(How Healthy Are Eggs ? p.5.) प्रकृति का नियम अटल है, जैसा बोपोगे वैसा काटोगे । दूसरों को तबाह करके कोई सुखी होना चाहे बिल्कुल असम्भव है बल्कि उसकी तबाही भी यकीनी है। इस कारण अंडे व मांस मत खामो ये दूसरों की जिन्दगियों को तबाह करके मिलते हैं।
-डॉ० डब्ल्यू जया सूरिया (लंका) (हौ हैल्दी आर एग्ज ? पृष्ठ ५)
अण्डे घृणित मादा से भरे हैं। (Eggs are Full of Filthy Substance)
"The origin and growth of eggs is from filthy substance wbich man abhors even to touch Their eating involves cruelly and robbery. They are more harmful to human healthy than anything else. Man can recoup his health and make his palate tasteful by various vegetables, fruits and nuts."
-Dr. Kamta Prashad, Aliganj (Etah) India.
(How Healtby Are Eggs ? p. 81) अंडों की उत्पत्ति और विकास उन पदार्थों के मेल से होता है जो कि बड़े गन्दे और नफरत से भरे हैं । इन पदार्थों को छूना ही मनुष्य के लिए बड़ी घृणा से भरा है, खाने की बात तो बहुत दूर रही। मनुष्य की सेहत को बिगाड़ने के लिए इनसे अधिक और क्या वस्तु हो सकती है ? मनुष्य अपना स्वास्थ्य विभिन्न फलों शाकों व सूखे मेवों से प्राप्त कर सकता है और इन्हीं से जीभ के स्वाद की पूर्ति भी अच्छी तरह से हो सकती है।
-डॉ० कामता प्रसाद, अलीगंज (एटा)
इंडिया (हौ हल्दी पार० एग्ज ? पृष्ठ ८) ९१०
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अभक्ष्य और घृणित अण्डों को त्यागकर बढ़िया प्रोटीन से युक्त दूध, फल, मेवे ग्रहण करिये
"Give up despicable eggs in favour of Nutritious Milk, Fruits of vegetables."
The food value of milk is high as excellent proteine are available in it. There is little that eggs can supply which naik can not in the age of science practically all the minerals and the vitamins can be supplied artificially andt hese could supplement milk where necessary. I feel confident that a lacto vegeterian diet properly constructed is as nourishing as a diet containing meat or eggs. Dependence on meat and eggs for minerals and vitamins is no longer nccessary."
-Dr. Anand Nimal Suria. (How Healthy Are Eggs. ? p. 5.6)
दूध के पौष्टिक तत्व बहुत ही ऊंचे दरजे के होते हैं क्योंकि इसमें बढ़िया किस्म के प्रोटीन्ज पाये जाते हैं। ऐसा कोई पौष्टिक तत्व नहीं है जो अंडे में मिल सकता है परन्तु दूध में न मिल सके। इस वैज्ञानिक जमाने में असली तौर पर विटामिन्ज और खनिज लवण बनावटी तौर पर मिल सकते हैं और वे जहाँ आवश्यक समझा जाय दूध के साथ सहायक रूप के लिए जा सकते हैं। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि सन्तुलित शाकाहारी भोजन उतना ही पोषणकारी है जितना कि मांस और घंडे मतः विटामिन और खनिज के लवणों के लिए अंडे और मांस पर निर्भर रहना व्यर्थ है ।
६११
-४० आनन्द निमरिया ( हो हैल्दी आर० ऐग्ज ? पृष्ठ ५-६ )
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ime
श्री वीरजिन स्तुतिः (रचयित्री-परमविदुषीरत्न प्रायिका श्री ज्ञानमती माताजी)
(बसंततिलका छंदः) सिद्धार्थ राज-कुल-मंडन-वीरनाथ: जातः सुकुण्डलपुरे त्रिशलाजनन्यां । सिद्धिप्रियः सकल-भव्यहितंकरो यः,
श्रीसन्मतिवितनुतात् किल सन्मति मे ॥१॥ श्री सिद्धार्थ नृपति के नंदन, नाथवंशमण्डन महावीर, कुंडलपुर पत्रिशला-माता से जन्म बिना तुप वीर। सिद्ध वधूप्रिय ! सकल भव्य जन के हितकारी वीर प्रभू, श्री सन्मति जिन मुझको सन्मति, दीजे नितप्रति विनय करूं ॥१॥
कैवल्य-बोधरविदीधितिभिः समंतात्, दुष्कर्मपंकिल-भुवं किल शोषयन् यः। भव्यस्य चित्तजलजप्रविबोधकारी,
तं सम्मति सुरनुतं सततं स्तवीमि ।।२।। दुरित पंक से पंकिल पृथ्वी, कीच सहित सर्वत्र प्रहो! केवल ज्ञान सूर्य किरणों से सदा सुखाते रहते हो। भव्य जनों के मन सरोज को सदा खिलाते हो भगवन ! सुरगण पूजित सन्मति जिनका करूं भक्ति से सदा स्तवन ।।२।।
पाबापुरे सरसि पचयुते मनोजे, योगं निरुध्य किल कर्मवनं ह्यधाक्षीत् । लेभे सुमुक्तिललनामुपमाव्यतीताम्,
भेजे त्वनंतसुखधाम नमोस्तु तस्मै ॥३॥ पावापुर के बीच कमल युत, जल से पूर्ण सरोवर है, वहीं योग का निरोध करके, कर्माटवी जलाई है। उपमा रहित मुक्ति ललना को प्राप्त किया शिवपुर जाके, अनंत सुखमय धाम मुक्ति पति, है नमोस्तु तुमको रुचिसे ।।३।।
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(शिखरिणी छंदः)
महावीरो
धीरस्त्रिदशपति संपूज्य चरणः, त्रिलोकेशी व्याप्तो महितशुचिबोधो जिनपतिः । नमामि त्वां नित्यं निखिल जगदातापहरणं, विधेया में शक्तिः सकलकलुषस्यापहरणे ||४|| त्रिदशपति से पूज्यचरण ! हे महावीर ! तुम धीर महान् ।
पति ! हे जनतव्याप्त शुचिमहितज्ञान ! जिनपति गुणखान ॥ निखिल जगत संताप हरण प्रभु तुमको मेरा नित्य नमन । सकल कलुष के नाश करन को मुझे शक्ति दीजे भगवन् ||४|| महा-मोह-व्याधेभिषगिव महाभार विजयी,
भदेर्ष्यासूयाजित्
जगद्द ु:खाम्भोधौ
स्तवीमि त्वां वीरं झटिति भम कुर्याः शुभमतिम् ||५|| महामोह व्याधि नाशन को वैध मदनभट विजयी हो, ईर्ष्या मान प्रसूया विजयी, त्रिभुवनसूर्य मुक्ति पति हो । भवसमुद्र में पतित जनों को अवलंबन दाता तुम हो, करूं संस्तुति सदा वीर प्रभु को मुझको दीजे सुमति ॥ ५॥ विरागद्वेषारिविगतकलुषो मोहरहितः, विजिष्णुर्भ्राजिष्णुर्विजितकरणः स्वस्थहृदयः ।
सदानंदो ज्ञानी जगति परमब्रह्म भगवान्,
प्रवंदे भक्त्या त्वां भवतु मम नेतः शुचितमं ॥ ६ ॥ ! वीतराग ! हे वीतद्वेष ! हे वीतमोह ! हे वीतकलुष ! हे विजिष्णु ! हे भ्राजिष्णु ! हे विजितेन्द्रिय ! हे स्वस्थ सुश्चित ॥ सदानंदमय ज्ञानी ध्यानी जग में परम ब्रह्म भगवन्; भक्ति से मैं करूं वंदना मेरा मन पवित्र हो जिन ! ||६||
(द्रुतविलंबितं)
त्रिभुवनरविर्मुक्तिरमणः ।
पतितजनतालंबन परः,
त्रिविध
बोधयुतः सुदिवश्च्युतः,
न हि जनन्युदरेऽपि च मूढता । विमल - पुण्यकरं शुभतीर्थ कृद्, विधिमुपाज्यं महाविभवः श्रितः ॥७॥
मति श्रुत प्रवधिज्ञान त्रयधारी स्वर्गलोक से च्युत होकर, माता के शुचि उदर गर्भ में भी त्रय ज्ञानी रहे प्रखर । अतिशय विमल पुण्य तीर्थंकर नामकर्म का बंध महान, पंच महाकल्याणक वैभव प्राप्त किया सुरपूज्य प्रधान ॥७॥
२१४
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कनकभूभृति - पांडुकसच्छिला, शदुनार रन करोत्यभिषेचनम् । सुरपतिस्तव जन्ममहोत्सवे,
ह्यतुलशक्ति--युतः शुशुभे प्रभुः ।।।। महाभेरु कनकाचलपर शुभ पांडूकशिला बनी सुन्दर । सुरपति ने तब जन्म महोत्सव में अभिषेक किया उसपर ॥ देव इन्द्र प्रसुरेन्द्र सभी मिल महामहोत्सव नृत्य किया। प्रतुल शक्ति युत बोर प्रभु का जन्मोत्सव कर पुण्य लिया ।।८।।
नुतगणीन्द्रमुनीन्द्रवियच्चरप्रभुनरेन्द्रसुरेन्द्र-सुसन्मतिः । सदसि मध्य-मृगेन्द्रसुविष्ट रे,
प्रविरराज सदा किल नौमि तं ।।। समवशरण में द्वादश परिषद मध्य रत्नसिंहासन पर। चतरंगुल के अन्तराल से, शो) प्रभु शशिसम सुन्दर ।। गणधर मुनिगण विद्याधरपति, नरपति सुरपति से पूजित । प्रसंख्य ज्योतिष व्यंतर सुरनुत उन्हें नम मैं रुचि से नित ।।६।।
(मन्दाक्रांता)
प्रान्त्वा भ्रान्त्वा चितयजगति त्रस्यमानेन काम, लवा दुःख नरककुहरे वाक्पथातीत-घोर। भो वीर । त्वं कथमपि मया दुःखसिंघी सुलब्ध:,
कृत्वेदानीं मयि सुकरुणां पाहि मां पाहि तूर्णं ॥१०॥ । तीन लोक में भटक भटक कर, बहुत दुःखी हो रहा जिनेश !
• नरकों में में वचन अगोचर कष्ट सहे हैं हे परमेश ।
- इस दुःख सागर में प्रभु तुमको पाया बड़ी कठिनता से, ..: रक्षा करो प्रभो! करुणाकर, रक्षा करो झटिति प्राके ||१०॥
यावद्द खं भवभवगतं तन्न पार्येत वक्तुं, तत्तत्सर्व कथमपि महानलेशतः सह्मते हा ! सभ्यग्दृष्टया मरणसमये सत्समाधिन लब्धः,
बार बारं लभत' इति यत्तत् पुनर्जन्मदुःखं ॥११॥ भवभव में जितने दुःख पाये नहीं वचन से कह सकते, हा ! हा ! कर संक्लेश भावधर जैसे तैसे ही सहते । सम्यग्दर्शन सहित समाधि मरण काल में नहिं पाई, बार बार प्रतएव जन्म, मरणादि दुःख भोगें सब ही ॥११॥
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यावज्जीवं विहितशुभदं देवसेवादिकार्य.. तीर्थ गत्वा बहुरुचितया वंदनाया जिनेशाम् । यावत्पुण्यं कथमपि मया संचितं तच्च सर्व ,
यायाच्छी जिनवर ! मम प्राणनिर्याणकाले ॥१२॥ बचपन से अब तक जीवन में, जिनभक्ति दानादि किया, पंचकल्याणक तीर्थों पर जा जिनवंदन स्तवन किया। जितना भी सब पुण्य हुआ वह, एकत्रित मम जीवन में, मेरे प्राण प्रयाण समय प्रभु यह सब पुण्य सहायि बने ।।१२।।
(धीछंधः )
जन्ममृतिभ्यां विविधकुरोगः, अस्तशरीरी कुमृति-निमित्तात् । प्राप्य कदाचिज्जिन ! तव धर्म,
अस्तु समाधिर्मम मृतिकाले ॥१३॥ जन्म मरण से तथा विविध, रोगों से पीडित भववन में, कमरण के ही कारण जिनवर ! दु:खी हुमा तनुधर घर में। प्राज कदाचित् दुर्लभता से जिन ! तव धर्म को पाया है, अंत समय में श्रेष्ठ समाधि होवे यही याचना है ॥१३॥
अंतिमकाले विषयकषायाः, रोगजपीडा मम न भवेयुः। प्रस्तु न कंठो जिन ! मम कंठः,
नाम सुजपतो भवतु सुमृत्युः ॥१४॥ हे प्रभु ! मेरे मरण समय में मोह कषायें प्रगट न हों, रोगजनित पीड़ा नहिं होवे मूर्छा पाशा भी नहि हो । प्राण निकलते समय वीर ! मम कंठ अकुंठित बना रहे, महा मंत्र को जपते जपते प्रभु समाधि उत्तम होवे ॥१४॥
घोर निगोदे व्यसन समुद्र, श्वभ्रगती भीकरतमन्दुःखे । कूरकुतिर्यड्नरसुरमध्ये,
दुःखमवाप्तः शरणमितोऽतः ॥१५॥ घोर निगोद महा सागर में काल प्रनन्त बिताये हैं, भीम भयंकर नरकगति में दुःख अनन्त उठाये हैं। क्रूर कुतियंचों में कुनरों में असुरादिक देवों में, अगणित कष्ट सहे हैं अब तुम शरण लिया ब्याकुल हो मैं ॥१५॥
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क्रुद्ध-महाशीविषकृतमूर्छा, भेषजमत्रव्रजति सुशांति । नाथ ! तथा ते स्तुतिशुभमंत्र
मोहविषैच्छित-जन-शांतिः ।।१६।। क्रुद्ध महामाशीविष सर्प के इसने रो मच्छित जन की, औषधि मंत्र जलादिक से विष दूर भगे शांति होती। तद्वत् मोह महा महि विष से मछित संसारी जन की, तव स्तुति मंत्रों से मूर्छा हटे प्रगट हो सुख शांति ।।१६॥
वर्णनिभा शुनितनुकातिः, चन्द्रनिभा ते विततसुकीर्तिः । ध्यानमहाग्नी ज्वलितशरीरं,
नौम्यतिवीर सुगुणगभीरं ॥१७॥ है प्रभु ! तव हारीर कांति है, सुवर्ण सम अतिशय संदर। चन्द्रसमान धवल तव कीर्ति, व्याप्त हो रही त्रिभुवन भर ।। ध्यान महानल में तुमने, कार्मण शरीर भी भस्म किया, हे अतिधीर ! सुगुण गंभीर! नमू तुम्हें अयशुद्धि सदा ॥१७॥
धर्म-सुधावर्षण-विधु-तुल्यः, पापतमोहृद् दशशतरश्मिः । मोहमहांध्यं त्रिभुवनजंतु,
संततमुन्मीलयति मुनींद्रः ॥१८॥ धर्म सुधा बरसाने में प्रभु पूर्ण चन्द्रमा तुम ही हो, दुरित अंधेरे को हरने में सहस्ररश्मि' तुम ही हो । मोह महातम से अंधे हैं, त्रिभुवन के सब प्राणीगण, शानौषधि से चक्षु खोलते तुम्ही चिकित्सक हो भगवन् ! ||१८||
स्यात्पदचिन्हैर्वचनपवित्रः, सिञ्चति भव्यान् घन इव साक्षात् । सुव्रतशीलं चरितसुपूर्ण,
प्राक् खलु धृत्वा शिवसुखमापः ॥१६॥ स्यात्पद से युत पवित्र वचनामृत से भविजन खेती को, सिंचन करके फलयुत करते मेघसमान विभो ! तुम हो । व्रत गुण शीलादिक चरित्र को, दोष रहित पाला तुमने, उस ही का फल शिवसुख पाकर हे प्रभु ! तुम कृतकृत्य बने ।।१६।।
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( तोटक छेदः) मुनिवंदितपादसरोजयुमं, जनताहृदयाम्बुजभानुसम। जितमोहमहारिपुवीरजिनं
प्रणमामि सुरासुरवंद्यपदं ॥२०॥ मुनिगणवंदित चरण सरोरुह, भविजन हृदय कमल भास्कर। मोह महारिपु जीत बने तुम, वीर तुम्हें वंदन जिनपर! ।। सुर असुरादिक वंद्य श्रेष्ठपद पाया तुमने हे जिनराज। प्रणमन करूं सदा शिरनत कर, जन्म सफल है मेरा प्राज ।।२०।।
जय वीरजिनेश ! सदा जय भोः !, जिनशासनसूर्य ! मुदं कुरू की। कुमति हर भव्य जनस्य विभो !
जय वीर ! सदा जय वीरविभो ! ॥२१॥ जय जयवीर जिनेश्वर हे ! जय, सदा तुम्हारी जग में हो, हे जिनशासन सूर्य ! धरा पर, नित चमको नित हर्ष करो। भव्य जनों की कुमति निवारो, हे जिनवर ! सुमतिप्रद हो, जय हो जय हो बीर प्रभो ! जय वीर प्रभो ! महावीर प्रभो! ॥२१॥
जयताजिनशासन वृद्धिकरः, तनुतात् त्वरितं शिवसौख्यसुधां । कुरुतात् करुणां मयि दुःखगते,
धिनुतान् मम कर्मरज: कलिलं ॥२२॥ . जिनशासन वर्धन में शशिसम, त्रिभुवन में हो जयशील सदा,
भविजन मन पाल्हादनकारी, दीजे मम शिवसौख्य सुधा। हे शरणागत वत्सल ! मुझ दुःखितजन पर करुणा करिये, भव अनंत के संचित अब सब कर्म धूलि झटिति हरिये ॥२२॥
(भुजंगप्रयात)
महाशुक्लसद्ध्यानवैश्वानरेऽस्मिन्, प्रदग्धं समस्ताष्टकर्मारिकक्षम् । श्रितोऽनंतदरज्ञानवीयस्वसौख्यं,
स्तुवे केवलज्ञानभान जिनं तं ।।२३।। महाशुक्ल सद्ध्यान अग्नि में, अष्टकर्म बन भस्म किया, अनंत दर्शन ज्ञान वीर्य सुख-मय अनंत गुण प्राप्त किया। केवलज्ञान सूर्य ! हे भगवन् ! जगत चराचर देख लिया, त्रिभूवन स्वामी अंतर्यामी, नम भक्ति से खोल हिया ।।२३।।
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जिना ये प्रभूता भविष्यति ये च, तथा संति काले च संप्रत्यनंताः। त्रिकालोद्भवांस्तान् सदा नौमि भक्त्या.
त्रिकालस्य दोषस्य शुद्धय त्रिशुद्धया ॥२४॥ भूतकाल में अनंत जिनवर हये अभी जो होते हैं, तथा भविष्यत में अनंत तीर्थकर होंगे इस जग में। कालिक सब तीथंकरों की करू वंदना भक्ति से, कालिक दोषों की शुद्धि हेत नम् त्रयशुद्धि से ॥२४॥
सुनाभयनाथादि-वीरप्रभून् तान्, चतुर्विशति नौमि शिरसा त्रिसंध्यं । विदेहस्थविशा जिनास्तान् प्रवंदे,
जिनेन्द्रान् गणीन्द्रांश्च सर्वाश्च साधून ॥२५।। श्री जिनवृषभदेव से लेकर, अंतिम महावीर जिन सक, चौबीस तीर्थकरों का वंदन, करू त्रिकाल झुका मस्तक । विदेह क्षेत्रज विद्यमान सीमंधर प्रादि बीस जिनकी, करू वंदना त्रयकालिक सब जिनवर गणधर मुनिगण को ।।२५॥
महाधीरधीरं महावीरवीर, महालोकलोकं महाबोधबोध । महापूज्यपुज्यं महावार्यवीर्य,
महादेवदेवं महातं महामि ॥२६॥ महावीर जन में तुम उत्तम-धीर, महावीरों में वीर, सभी लोक को किया बिलोकन महाज्ञान में ज्ञानी वीर । महापूज्य गणधर से पूजित, महावीर्य युत में भी वीर, महादेव के देव तुम्हीं हो महाश्रेष्ठ में नमू सुधीर ॥२६॥
सुकवल्यबोधर्जगद्व्याप्य विष्णुः, महामोह-जिष्णु विष्णुः सहिष्णुः। विनालंकृति श्रीतनुर्ब्रह्मचारी,
नमस्तेऽतिवीराय धर्मस्य भत्रे ॥२७॥ केवलज्ञान किरण से जग को व्यापा प्रतः विष्णु तुम ही, महामोह भट जिष्णु जग में, स्यात भविष्णु सहिष्णु भी। अलंकार से रहित सुशोभित, सुतनु बालब्रह्मचारी हो, 'हे अतिवीर ! धर्म के भर्ता, नमोऽस्तु तमको नित मम हो ॥२१॥
जगद्दोषह जगत्सौख्यकत्रे, सुमार्गस्य धात्रे सुमुक्तिप्रदात्र। जगत्तत्ववेत्रेऽष्टकर्मारिहंत्रे, शिवश्री सुभत्रे त्वजस्रं नमोऽस्तु ॥२७||
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अखिल दोष के हर्ता प्रभ तुम अखिल सौख्य के कर्ता हो। मोक्षमार्ग के तुम्हीं विधाता मक्ति श्री के दाता हो । पाखिल तत्व के तम हो ज्ञाता अष्टकर्म संहारक हो । शिवलक्ष्मी के भर्ता तमको, सदा नमोऽस्तु हमारा हो ॥२७॥
(पृथ्वी छन्वः) अनंतभवसंकटे ज्वलितदुःखदावानले, विचित्रजनसंकुले महति भीकरे संमृतौ । भ्रमति जिन ! देहिनो विविधकर्मपाकोदयात,
त एव खलु यांति भक्तिवशतः सुसोख्यास्पदं ।।२६|| दुःखदावानल की ज्वाला से, ज्वलित अनंते भव वन में, अनंत प्राणिगण से व्यापित, महाभयंकर इस जग में। विविध विविध खलकर्म उदय से, भटक रहे जन झुलस रहें, यदि वे जन तब भक्ति करें निश्चित अनुपम पद प्राप्त करें ॥२६॥
त्रिलोकविहरगिलत्सकलदेहिन भीतिद, मगेन्द्रमिव संमुख खलु विलोक्य भीमं यमं । विभेति न हि भाक्तिकस्तव' भवेद्धि मुत्युंजयः,
नमोऽस्तु मृतिहानये मदनजिच्च मृत्युजय ! ॥३०॥ तीन लोक में घूम घूम कर निगल रहा सब प्राणिगण, क्रूर सिंह सम महाभयंकर काल शत्रु संमुख लखकर। उसको भी तव भक्त जीतकर मृत्युंजय बन जाते हैं, स्मरजित् ! मृत्युञ्जय ! नमोस्तु मम मृत्यु नाश के हेतु है॥३०॥
शरीरसुत-मित्र-सन ललनादयो मे ध्रुवं, विचिन्त्य बहिरात्मक: सततमेव भोगे रतः । अलब्ध-परमात्मना जगति दुःखमाप्तं मया,
जिनेन्द्र ! भवतः सुपाहि शरणागतं सांप्रतं ॥३१॥ तनु, धन, पुत्र, मित्र, भार्या, गह, प्रादि सभी मेरे निश्चित् । 'मैं हूँ उनका, इस विध विषयों में ही फंसा हुया संतत॥ नहि पाकर परमात्मा को में, बहिरात्मा जग में दुःखी, हे जिनेन्द्र अब शरण तुम्हारी, गही करो रक्षा झटिति ॥३१॥
कदाचिदपि लब्धितः स्वयमिहांतरात्माभवम्, तदाहमिह वाह्यजान् सकलपर्ययान वेधिच । विशुद्धपरमात्मवत् स्वमपि बुध्यमानः स्वयं, भवामि नियतं मुनीन्द्र परमात्मरूपः स्वतः॥३२॥
६२.
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चिनाचल पर भगवान लन्द्रप्रभ के नगा
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भानजी रंगे द्वारा बनवाया था १० आदिनाथ मन्दिर
मान ४१ पुदी
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श्री स्थिर नारा
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age 41 मंद श्रीवासपर एक राक में ही दिल्ली पहुंच गये थे।
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श्री मानाय देशपागला
गम्य, मंगु मान
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श्री १०८ धानाय भूपन महिनाश्रम वाचली
नु पानवाली, कंगाटक मंमूर
श्री १०८ पाच देगभूषण जल यांनी
निबाड़ी
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भाग
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किनर के बराबर अपना मांस देकर कबूतर की जान बचाई।
विमान पर भगवान महावी
जल मन्दिर गावा
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