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विशेषण है वह भी जैन तीर्थकर के सर्वथा योग्य है और इस मंत्र का फल भी जैन शास्त्रानुकल है। अतः यह मंत्र भगवान महाबीर को दिगम्बर मुनि प्रकट करता है।
किन्तु भगवान महावीर तो ऐतिहासिक महापुरुष मान लिए गये हैं, इसलिए उनसे पहले के वैदिक उल्लेख प्रस्तुत करना उचित है। सौभाग्य से हमें ऋगसंहिता (१०।१३६-२) में ऐसा उल्लेख निम्न शब्दों में मिल जाता है :
"मनयो वातबसनाः ।" भला यह वातबसन--दिगम्बर मुनि कौन थे ? हिन्दू पुराण ग्रन्थ बताते हैं कि वे दिगम्बर जैन मुनि थे, जैसे कि हम पहले देख चके हैं। और भी देखिए, श्रीमद्भागवत् में जैन तीर्थकर ऋषभ देव ने जिन ऋषियों को दिगम्बरत्व का उपदेश दिया था, वे वातरशनानां श्रमण कहे गये हैं।' ओ० अल्बट बेबर भी उक्त वाक्य को दिगम्बर जैन मुनियों के लिए प्रयुक्त हमा व्यक्त करते हैं।
इसके अतिरिक्त अथर्ववेद ( अ०१५) में जिन "यात्य" पुरुषों का उल्लेख हैं, वे दिगम्बर जैन ही हैं, क्योंकि ब्रात्य वैदिक संस्कार हीन बताये गये हैं और उनकी क्रियायें दिगम्बर जैनोंके समान हैं । वे वेद विरोधी थे। मल्ल, मल्ल, लिच्छवित्र जात, करण खस और द्राविड़ एक वात्य क्षत्री की सन्तान बताये गये हैं और यह सब प्रायः जनधर्मभुक्त थे ज्ञात वंश में तो स्वयं भगवान महावीर का जन्म हुआ था। तथापि मध्य काल में भी जैनी व्रती ( Verteis) नाम से प्रसिद्ध रह चुके हैं, जो व्रात्य से मिलना-जुलता शब्द है।" अच्छा तो इन जैन धर्म भक्त नात्यों में दिगम्बर जैन मुनि का होना लाजमी है। 'अथर्ववेद' भी इस वात को प्रकट करता है। उसमें प्रात्य के दो भेद "हीन नात्य" और "ज्येष्ठ व्रात्य" किये हैं। इनमे ज्येष्ठवात्य दिगम्बर मूनि का द्योतक है, क्योंकि उसे "समनिचमेन्द्र" कहा गया है, जिसका भाव होता है "अपेतप्रजननाः" यह शब्द अह्रीक शब्द के अनुरूप है और इससे ज्येष्ठवात्य का दिगम्बरत्व स्पष्ट है।
इस प्रकार वेदों से भी दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व सिद्ध है। अब देखिये उपनिषद् भी वेदों का समर्थन करते हैं। 'जावालोपनिपद निर्गन्य शब्द का उल्लेख करके दिगम्बर साधु का अस्तित्व उपनिषद् काल में सिद्ध करता है:
"यथाजातरूपधरो निन्थो निष्परिग्रहः.........
शुक्लध्यानपरायणः................।" (सूत्र ६) निन्थ साधु यथाजात रूप धारी तथा शुक्लध्यान परायण होता है। सिवाय निर्ग्रन्थ (जैन) मार्ग के अन्यत्र कहीं भी शुक्ल ध्यान का वर्णन नहीं मिलता । यह पहले भी लिखा जा चुका है। "मैत्रेयोपनिषद्” में दिगम्बर शब्द का प्रयोग भी इसी बात का द्योतक है। मुण्डकोपनिषद् की रचना भृगु अंगरिस नामक एक भृष्ट दिगम्बर जैन मुनि द्वारा हुई थी और उनमें
- - --- १. वेज, प०३ २. [A., Vol; XXX, p. 280
३. अमरकोप २१८ व मनु. १०।२०, सायणाचार्य भी यही कहते हैं-"व्रात्यो नाम उपनयनादि संस्कारहीनः पुरुषः । सोऽर्थाद · यज्ञादिवेद-विहिताः क्रियाः कर्तुनाधिकारी । इत्यादि ।"-अथर्ववेद संहित पृ०२१३
४. मनु०, १०।२२ ५. सृस०, पृ. ३६८ व ३६६ ६. "ब्रात्य" जैनी हैं, इसके लिए "भ० पार्श्वनाथ" को प्रस्तावना देखिए। ७. भपा०, प्रस्तावना पृ. ४४.४५
. जैन ग्रन्धकार प्रातः स्मरणीय स्व. पं० टोडरमल्ल जी ने आज से दो-ढाई सौ वर्ष पहले (1) निम्न वेद मंत्रों का उल्लेख अपने ग्रन्थ 'मोक्षमार्ग प्रकाया में किया है और ये भी दिगम्बर मुनियों के द्योतक हैं:--
(१) ऋग्वेद में आया है-"ओ३म् लोक्य प्रतिष्ठितान चतुर्विशति तीर्थकान ऋषभाद्या व मातान्तात् सिद्धान् शरणं प्रपद्य । ओ३म् पवित्र नम्नमुपबिप्रमामहे ऐषां नाना जातियेषां वीरा इत्यादि ।
(२) यजुर्वेद में है-ओ३म् नमो अर्हतो ऋषभो ॐ ऋषभपवित्र पूरुहूत-मध्वदं यज्ञेषु नग्न परममाह सरतुतं बरं शत्रुजयंत परिद माहतिरिति रवाहा ।"* नग्नं सुधीरं दिग्याससं ब्रह्मगवं सनातनं उपमि वीर पुरुषमई समादित्व वर्णा तमसः परस्तात स्वाहा ।" (पृ० २०२)
है. 'देवाकालविमुक्तोऽस्मि दिगम्बर सुखोस्यहम् ।"-दिम, १०