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महा:दुख पायो तिहि ठौर, पीडं बहुत जाय कह दौर। दुष्ट कर्मको भोगति भये, कछु काल में तहाँ से चये ||४|| भरतक्षेत्र के पूरन दिश जान, सिद्धकूट हिय वन गिरि जान । मृगपति भयो तहां तें प्राय, तीक्ष्ण दन्त दुष्ट दुखदाय ॥१॥ एक दिना गुग मत तादि, देखो कृपानात मुनि. नादि । चारण ऋद्धि तृप्त सुखधाम, गुणाक्षीण गुणसागर नाम ॥६॥ जिनवर भक्ति जानकर सही, उतर गगन से आये सही। शिला पीठ पर बैठे सोय, कृपावन्त चारण मुनि दोय ॥७॥ मगाधीश घायो मुनि पास, वचनामत सम्बोध्या तास । भो भो भव्य पशुन के राज, मो वच सुनो प्रात्मा काज ।।८।। भिल्लपती पुरवभव जान, भयो धर्म लेशक तुम ज्ञान । फिर सौधर्म स्वर्ग तुम ग, शुभके उदय तहां ते चये ।।६।। भरत चक्रपति सुत सौ जान, नाम मरीचिकुमार महान । वृषभनाथ स्वामी के साथ, दीक्षा ग्रहण कियौ सुख सार्थ ॥१०॥
पद्दरि छन्द 'द्वाबीस परीषह भय अपार, तज जिन मारग संसार सार । गहियो पाखण्डो वेष कर, दुर्गति को करता अधम पूर ॥११॥ बुभ मारग दूपणको प्रवीन, दुरमारग वध विन मलीन । तब आदिनाथ सतके भरोच, धारो कुदृष्ट ता बुद्धि नीच ॥१२॥ तन्मिथ्या उदधि विपाक पाय, जम्मादि मरण पीडौ जू आय । भवसागर भ्रमिया बहकाल, सहियो कुकर्मसों दुःस्त्र जाल ॥१३॥ हं इष्ट वस्तुसी अति वियोग, संजोग दुष्ट आतम विरोग । सम्पूर्ण असाता पराधान, लहि और चिरन्तन निन्द दीन ।। १४॥ कहूं पुण्य उदयवो हेत पाय, राजग्रह विश्व सुनन्द राय । तहं संयम जोर निदान बांध भूपति त्रिपृष्ठ त्रय खंड साध ।।१५।। तह विविध भोग भुगते अपार, सुत नारी हय गय रथ भंडार । कछु दया धरम व्रत गरौ नाहि अतिरुद्रध्यानसों मरण पाहि।।१६।।
दोहा
महा पापके पाक ते, विषम अन्ध बुध हीन । गयौ सप्तमी अवनिसों, दुःख तहाँ बहुलीन ॥१७।। तहं ले वैतरणी नदी, करत प्रवेश पुकार । तुम पूरब भवदुख सहै, पापतन अधिकार ॥१८॥ असीपत्र तरु के तर, बैठत छोड़े प्राण । तप्त लोहको पूतरी, भंटावें तब आन ॥१६॥ पर बनिता के दोषतें, बांधे बन्धन जोर । करण ओष्ठ अर नासिका छेदी बहु विधि घोर।।२०।। कीनी हिंसा जीव की, तातै खण्डी देह। शूलों पर पुनि रोपियो, दीन पातमा गेह ।।२१।।
हुया । यहाँ इसकी आयु एक सागर पर्यन्त हुई और पशु प्रवृत्ति के कारण हिंसा आदि कार्यों में रत हुआ। पर काल लब्धि प्राप्त होने पर उस हिसक जीव सिंह का शरीर पात हो गया। उसने पुनः पश्योनि धारण की। इस बार भी सिन्धु कूट के पूर्व हिमगिरि पर्वत पर सिह उत्पन्न हमा। पूर्व संस्कार के कारण सिंह बड़ा हो र स्वभाव का हुआ। उसके नख और दाँत बड़े ही 'तीक्ष्ण हुए। - एक दिन की घटना है। वह सिंह वन से एक मग को मार कर लिये पा रहा था। वह बार-बार मृग के मांस को नोचता था और उसे भक्षण करता जाता था। उसी समय ज्येष्ठ और अमित तेज नामक दो चारणमुनि आकाश-मार्ग से कहीं जा रहे थे। उन्होंने उस क्र र स्वभावी को देखा। उन्हें तीर्थंकर भगवान के पूर्व बचनों का स्मरण हो पाया। वे दोनों महामुनि पृथ्वी पर उतरे और सुरम्य शिला पर पाकर बैठ गये।
उस समय उन मुनिराजों की शोभा देखते ही बनती थी। सिंह भी थोडी दर पर खड़ा था। कुछ समय बाद खड़ होकर अमिततेज नाम के मुनिराज ने कहा-अरे मगराज! त मेरे बचनों को ध्यान देकर श्रवण कर | जिस समय त्रिपुष्ट नरेश के रूप में था, उस समय समस्त राजा तेरे आश्रय में थे। तू ने राज्य लाभ की आकांक्षा से हिंसादि कार्यों को किया था और धर्म-दान आदि कार्यों की उपेक्षा की थी। केबल यही नहीं तूने श्रेष्ठ मार्ग को दोष लगाकर मिथ्या मार्ग को बढ़ाने में सहायता पहुंचाई थी, ऋषभदेव के वचनों का भरपूर अनादर किया उसी मिथ्यात्व से उत्पन्न पापोदय से जन्म मृत्यु से पीड़ित होकर तुझे अनेक दुःख भोगने पड़े । इप्ट वियोग तथा अनिष्ट संयोग से अनेक वेदनाय सहन करनी पड़ी हैं। पुन: उसी मिथ्यात्व रूपी महान पाप से तू विभिन्न स्थावर और स योनियों में भटकता रहा।
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