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________________ सूत्र सम्यक्त्व तप आचार क्रिया अस्तवन, इन पं रुचि राख बुध वदन । सूत्र सम्यक्त्व कहावै सोइ, भविजनको हित करता होइ ॥११॥ बीज सम्यक्त्व सकल पदारथ बीजसु पाय, सूक्षम अर्थ सुनौ चित लाय । भविजन तस श्रद्धा उर पान, सो वीरज सम्यक्त्व प्रमान ॥१२॥ संक्षेप सम्यक्त्व जो संक्षेप कहै बुद्धिवान, सुनै पदारथ श्रद्धावान । जो सम्यक्त्व जान संक्षेप, भबि जन को मुख करन समेप ।। १३॥ विस्तार सम्यक्त्व नय विस्तार पदारथ कहै, भेदाभेद सबै सरदहै । निश्चय मन इमि करहि बिचार, सो समकित कहिये बिस्तार ॥१४।। अर्थ सम्यक्त्व अंग सिन्धु अवगाहन करें, बहु विस्तार वचन परिहरै । अर्थ मात्र रुचि भारं जबै, अर्थ सम्यक्त्व कहावै तबै ।।१५।। अवगाढ सम्यक्त्व अंग भावना उरमें घरं, मन प्रतीति रुचि श्रखा कर । क्षीण कषाय गहै जुत भार, सो अवगाह सम्यक्त्व जु धार ॥१६॥ परमावगाढ़ सम्यक्त्व केवलज्ञानी बचन प्रमान, करै अर्थ श्रद्धा रुचि ठान । यह सम्यक्त्व परम अवगाढ़, भविजन मन सुख करता बाढ़ ।।१७।। दोहा उतपति समकित चिह्न गुण, भूषण दूषण नाश । प्रतीचार संयुक्त वसु, वरनौ ताहि प्रकाश ॥१८॥ चौपाई के जिय उपज सहज सुभाय, के सतगुरु उपदेश बताय । गति चारों में समफित लहै, यह उत्पत्ति भेद जिन कहै ।।१६।। सत्य प्रतीति अवस्था ठान, समता सब सौ दिन दिन मान । यही लाभ छिन छिन जब होइ, रामकित नाम कहा सोइ ।।२०।। चेतन परको न्यारो जान, तामें कछ विकलप नहि प्रान । रहित प्रपंच सहज हित धार, समकित चिहन यही सुखकार ।।२।। करुणा वातसल्य जुत होइ, स्वाजनता स्वयं निंदा होय । समता भक्ति विराग वखान, धरम राग गुण आठ प्रमान ॥२२॥ चित प्रभाबना भाव सहित, हेय उपादे कहिये मीत । धीरज हरष सहित परवीन, ये ही पांचों भूषण लीन ॥२३॥ अष्ट महामद अष्ट मल, षट ग्रनयातन दोस । तीन मूढ़ संयुक्ता सब, ये दूषण पच्चीस ॥२४॥ चौपाई जाति रूप कुल ईश्वर जुता, तप बल विद्या लाभ जु इता । इन अष्टों को मद जो करें, लहै, दुःख नरकहि संचरै ॥२५॥ श्राशंका अस्थिरता वांछ, ममता दुष्ट दशा दुर गंष्ठ । वात्सल रहित दोष पर भाष, तजि प्रभावना वसु मल शाख ।।२६।। कगुरु श्रत कूधर्महि धर, अरु सराहना इनकी करै। षट प्रनायतन जानी यही, महा दुःखको कारण सही ॥२७॥ और नि:शंकादि गुणोंसे युक्त होकर तत्वार्थीका श्रद्धान है वह व्यवहार सम्यक् दर्शन है और मोक्षका एक अंग है। इस संसारमें अर्हन्तसे बढ़कर कोई उत्कृष्ट देव नहीं, निर्ग्रन्थसे बढ़ कर महत्वशील गुरु नही, अहिसा आदि पञ्चवतोंसे उत्तम अन्य कोई व्रत नहीं, जिनमत से श्रेष्ठ कोई मत नहीं, सबके हृदय को प्रकाशित करनेवाला ग्यारह अंग चौदह पूर्व से बढ़कर दूसरा कोई शास्त्र ज्ञान नहीं, सम्यक्दर्शन इत्यादि रत्नत्रयसे बढ़ कर दूसरा कोई परमोत्कृष्ट मोक्ष का मार्ग ५२०
SR No.090094
Book TitleBhagavana Mahavira aur unka Tattvadarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1014
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Principle, & Sermon
File Size36 MB
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