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दिगम्बर और निन्द है-वह सन्यास नियमों को भी परवाह नहीं करता। ' तूरियातीत अवस्था में पहुंचकर परमहंस परियाजक को दिगम्बर ही रहना पड़ता है किन्तु उसे दिगम्बर जैन मुनि की तरह केशलंच नहीं करना होता -बह अपना सिर मुड़ाता (मुण्ड) है । पीर अवधुत पद तो रियातीत की मरण अवस्था है। इस कारण इन दोनों भेदों का समावेश परमहंस भेद में ही गभित किन्हीं उपनिषदों में मान लिया गया है। इस प्रकार उपनिषदों के इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि एक समय हिन्दू धर्म में भी दिगम्बरत्व की विशेष आदर मिला था और वह साक्षात मोक्ष का कारण माना गया था । उस पर कापालिक संप्रदाय में तो वह खुब हो प्रचलित रहा; किन्तु वहां वह आनो धामिक पवित्रता खो बैठा; क्योंकि वहां वह भोग की वस्तु रहा । अस्तु,
यहां पर उपनिपदादि बंदिक साहित्य में जो भी उल्लेख दिगम्बर साध के सम्बन्ध में मिलते हैं, उनको उपस्थित कर देना उचित है । देखिये "जाबालोपनिषत्" में लिखा है:
नत्र परमहंसानामराव कारुणिश्वेतकेतु दास ऋभनिदाघजडभरत दत्यायरैवतक प्रभूतोऽत्यक्तलिगा अव्यक्ताचारा अनुन्मत्ता उन्मत्तबदाचरन्तस्त्रिदण्डं कमण्डलु शिक्यं पात्र जलपवित्र शिखां यज्ञोपवीतं च इत्येत्सर्वं भूः स्वाहेत्यप्सु परित्यज्यात्मानमन्विछेत् । यथाजात रूपधरो निर्ग्रन्थी निष्परिग्रहस्तत्तद्ब्रह्ममार्गे सम्यकसंपन्न-इत्यादि ।"
इसमें संवर्तक, आरुणि, श्वेतकेतु आदि को यथाजातरूपधर निर्ग्रन्थ लिखा है अर्थात् इन्होंने दिगम्बर जैन मुनियों के समान अाचरण किया था।
'परमहंसोपनिषत् में निम्न प्रकार उल्लेख है :"इदमन्तरं ज्ञात्वा स परमहम अाकाशाम्बरोन नमस्कारो न स्वाहाकारो न निन्दा न सुतियादृच्छिको भवेत्स भिक्षः।
सचमुच दिगम्बर (परमहस) भिक्षु को अपनी प्रशंसा निन्दा अथवा प्रादर-अनादर से सरोकार ही क्या? आगे 'भारदपरिव्राजकोपनिषत्' में भी देखिये:--
'यथाविधिश्वेज्जात घरो भूत्वा ...'जातरूप बरत्वरेदात्मानमन्विच्छेद्यथा जातरूपधरो निन्द्वो निष्परिग्रहरतत्त्वब्रह्ममार्ग सम्यक सपन्नः । ८६-तृतीयोपदेशः ।"५
"तूरोयः परमो हंस: साक्षान्नारायणो यतिः । एकरात्र बसेन्दग्रामे नगरे पश्चरात्रकम् ।।४।। वर्षाभ्योज्यत्र वाम मासांइच चतगे वसेत । मुनि: कौपीनवासाः रयान्नग्नो वा ध्यानपरः ।३। ज्ञातरूपधरो भूत्वा दिगम्बरः ।"---चतुर्थोपदेशः ।।
इन उल्लेला ममी परिवाजका का नन्न होने का तथा बर्षाऋतु में एक स्थान में रहने का विधान है। "मूनिः कोपीन बस प्रादि वाक्य में छहों प्रकार के सारे ही परिवाजकी का 'मुनि' शब्द से ग्रहण कर लिया गया है। इसलिये उनके सम्बन्ध
जान कर दिया कि चाहे जिस प्रकार का मुनि अर्थात प्रथक अवस्था का अथवा आगे की अवस्थात्रों का । इसका यह तात्पर्य नहीं है कि मुनि बस्त्र भी पहिन सकता है और नग्न रह सकता है। जिससे कि नग्नता पर आपत्ति को जा सके । यह पहले ही पारिवाजकों के पदभेदों में दिखाया जा चुका है कि उत्कृष्ट प्रकार के परिव्राजक नग्न ही रहते हैं और वह श्रेष्ठतम फल को भी पाते हैं जैसे कि कहा है :
यातरो जीवति चेत्क्रम संन्यासः कर्त्तव्यः ।....."अातुर कुटीचकयो लोक भवर्लोको। यहदकस्य स्वर्गलोकः । सस्य तपोलोकः । परम हंसस्य सत्यलोक: तुरीयातीतावधूतयोः स्वस्मन्येव कैवल्यं स्वरूपानुसंधानेन, भ्रमर कीटम्यायवत ।"
अर्थात-"अातुर यानी संसारी मनुष्य का अन्तिम परिणाम (निष्ठा; भूलोक है; कुटीचक संन्यासी का भवर्लोक: स्वर्गलोक हंस संन्यासी का अन्तिम परिणाम है। परम हंस के लिये वही सत्यलोक है और वस्य तूरियातीत और अवघत का परिणाम है।"
अब यदि इन सन्यासियों में वस्त्र परिधान और दिगम्ब रत्व का तात्विक भेद न होता तो उनके परिणाम में इतना गहन अन्तर नहीं हो सकता । दिगम्बर मुनि ही वास्तविक योगी है और बहो कैवल्य-पद का अधिकारी है। इसीलिये उसे 'साक्षात नारायण' कहा गया है । 'नारद परिबाजकोपनिषद्' में पागे और भी उल्लेख निम्न प्रकार हैं :
"ब्रह्मचर्यण संन्तस्थ संन्यासाज्जातरूपधरो वैराग्य संन्यासी ।"
१. अवधूतस्त्वनियमः पतिताभिशस्तवर्जनपूर्वक सर्व वणवजगरवृत्याहार परः स्वरूपानुसंधानगरः ।......... २. सर्व विस्मल्य तुरीया तीतावघुतवेषणाद्वैतनिष्ठा पर: प्रणावात्म करवन बहत्यागं करोति यः सोबधूत: । ३. ईशाद्य०, पृष्ठ १३१ । ४. ईदाय०, पृ० १५० ।
५. ईशाचा पृ० २६७-२६८ । ६. ईशा१०, पृ०२६८-२६६। ७. ईशाद्य, पृष्ट ४१५- सन्यासोपनिषत् ५६ ।
5.ईशाद्य पृष्ठ २७१।