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जानता है कि इस नाम से जनी ही एक प्राचीन काल से प्रसिद्ध हैं। बौद्धों के प्राचीन शास्त्र इस बात का खुला समर्थन करते हैं । जैन धर्म के ही मान्य शब्द को उपनिषदकार ने ग्रहण और प्रयुक्त करके यह अच्छी तरह दर्शा दिया है कि दिगम्बर साघ मार्ग का मूल श्रोत जैन धर्म है। और उधर हिन्दु पुराण इस बात को स्पष्ट करते ही हैं कि ऋषभदेव, जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर ने ही परमहंस दिगम्बर धर्म का उपदेश दिया था। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि श्री ऋषभदेव वेद 'उपनिषद ग्रन्थों के रचे जाने के बहुत पहले हो चके थे। वेदों में स्वयं उनका और १६वें अवतार वामन का उल्लेख मिलता है। अतः निरसन्देह भ० ऋषभदेव ही वह महापुरुष हैं जिन्होंने इस युग के आदि में स्वयं दिगम्बर वेष धारण करके सर्वज्ञता प्राप्त की थी और सर्वज्ञ होकर दिगम्बर धर्म का उपदेश दिया था। बही दिगम्बरत्व के आदि प्रचारक हैं।
हिन्दू धर्म और दिगम्बरत्व “सन्यासः पधिो भवतिः कुटिचक्र-बहूदक-हंस-परमहंस-तूरिया-तीत-अवधूतश्चेति ।"
-सन्यासोपनिषद् १३ भगवान ऋषभदेव जब दिगम्बर होकर वन में जा रमे, तो उनकी देखा-देखी और भी बहत से लोग नगे होकर इधर-उधर घमने लगे। दिगम्वरत्व के मूल तत्व को वे रामझ न सके और अपने मनमाने ढंग से उदर पति करने वाले माध होने का दावा करने लगे। जैन शास्त्र कहते हैं कि इन्हीं मन्यासियों द्वारा सांख्य प्रादि जैनेतर सम्प्रदायोंकीतिमी ,
और तीसरे परिच्छेद में स्वयं हिन्दुशास्त्रों के आधार से यह प्रकट किया जा चुका है कि श्री ऋषभदेव द्वारा ही सर्वप्रथम दिगम्बर धर्म का प्रतिपादन हुआ था। इस अवस्था में हिन्दू ग्रन्थों में भी दिगम्ब रत्व का सम्माननीय वर्णन मिलना यावश्यक है।
यह बात जरूर है कि हिन्दू धर्म के वेद और प्राचीन तथा बृहत् उपनिषदों में साघु के दिगम्बरत्व का वर्णन प्रायः नहीं मिलता। किन्तु उनके छोटे-मोटे उपनिषदों एवं अन्य ग्रन्थों में उसका खास ढंग पर प्रतिपादन किया गया मिलता है। शिकउपनिषद'-'सात्यायनीय उपनिषद्'- 'याज्ञवल्क्य उपनिषद्'-'परमहंस-परिबाजक-उपनिषद' आदि में यद्यपि सत्यामियों के चार भेद-(१) कुटिचक, (२) बहुदक, (३) हंस, (४) परमहंस-बताये गये हैं, परन्तु 'सन्यासोपनिषद' में उनको छ: प्रकार का बताया गया है अर्थात् उपरोक्त चार प्रकार के सन्यासियों के अतिरिक्त (१) तूरियातीत और (२) अवधत प्रकार के सन्यासी और गिनाये हैं। इन छहों में पहले तीन प्रकार के सन्यासो त्रिदण्ड धारण करने के कारण विदण्डी कहलाते हैं और शिखा या जटा तथा वस्त्र कौपोन आदि धारण करते हैं । परमहंस परिव्राजक शिखा और यज्ञोपवीत जैसे विज चिद धारण नहीं करता और वह एक दण्ड ग्रहण करता तथा एक वस्त्र धारण करता है अथवा अपनी देही में भस्म रमा लेता है। हां, तुरियातीत परिव्राजक बिल्कुल दिगम्बर होता है और वह सन्यास नियमों का पालन करता है। अन्तिम अवधत पर्ण
- -...- --. -.१. जैकोबी प्रभूत विद्वानों ने इस बात को सिद्ध कर दिया है। (js. Pt. I. Intro.) २. भवा: की प्रस्तावना तथा 'मज' देखो।
३. "विष्णपुराण' में भी श्री ऋषभदेव को दिगम्बर लिखा है। ["Rishabha Deva.........naked, went the way of the great road." (महाध्यानम)
-wilson's Vishnu purana, Vol ii (Book ii Ch.i) pp. 103.1041 ४. श्रीमदभागयत में पभव को 'स्वयं भगवान् और कैवल्यपति' बतागा है। (विको भा० ३५० ५. आदिपुराण पर्व १८ श्लोक ६२ व (Rishabh P. 112) ६. "अवभिभूगाम् मोक्षार्थीनाम् कुटीवकः- बहुदक -हंस---परमहंमाश्चति चत्वारः ।" ७. "कुटिच को.--.-चहूदको हंसः-परमहंम–इत्येनि परित्राजका: चनृविधा भवन्ति ।" । ८. "स सन्यास. षड्विधो भवति कुटीचक बहूदक हंस परमहंमतरीयातीतायधूताश्चेति ।"
E. "टीचकः शिवायज्ञोपवीतो दण्डकमण्डलुधरः कौपीनशाटीकन्याधरः पितृमातगुर्वा राधनपरः पिठरखनिशिश्यादिमात्रसाधनपर शानादनपर हवेतोब पूण्डूवारी त्रिदण्डः । वहूदक: शिखादि कन्यावरस्त्रिपुण्द्रधारी कुटीचावरसबंसमो मधुकरबत्याप्टकवनाः। हंसोजटाधार त्रिगुण्डोध्वपुण्ड्रयारी असंक्लप्लमाकरान्नाशी कोपीनखण्डतुडधारी।
१०. परमहंमः शिखायज्ञोपवीत रहित: पगृहेगु करपात्री एक कौपीनधारी शाटीमेकामेकं वेगाव दण्डमेव शाटीधरो व भस्मोद्धरन परः । ११. सर्वत्यागी तुरीयातीतो गोमुखवृत्यो फलाहारी अन्नाहारी चेद्गृहत्रये देहमात्रावशिष्टो दिगम्बरः कणपवन्सरीर बत्तिकः ।