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श्री वर्धमान जिनेन्द्र के पूर्वभवों का समुच्य वर्णन
पद्धडि छन्द
भव प्रयम पुरूरव भील ईश, सम्धीधे बनमें श्री मुनीश । दूजी भव उपजौ भिल्लदेव, सौधर्म स्वर्ग बहु सुख्य लव ।।२३८।। । तौजी भव भरत चक्रेश पुत्र, मारीच कूबर मत थाप उन । चौथे भत्र ब्रह्म जु स्वर्गवास, पंचम भव ब्राह्मण जटिल जास ।।
सौ धरम स्वर्ग छठे जु पाय, पून पहुप गित्र दुज सप्तमाय । अष्टम शीधरम सु स्वर्ग देव, द्विज अग्निसिंघ नवमै गनेव ॥२४॥ दशमें सुर सनत्कुमार होइ, द्विज अगिज मित्र गेरम हि सोइ । माहेन्द्र स्वर्ग द्वाददशम वास, तेरम द्विज भारद्वाज जास ॥२४॥ मिथ्यामत सेयौ बह प्रकार, परिवाणक दोक्षा धरि असार । चौदम भव स्वर्ग महेन्द्र होई, तहं गिर बहु परजाय सोही
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दोहा
इतर निगोद हि सो गयो, सागर एक प्रजन्त । कबई असुर कुमार हो, नरकन माहिं फिरन्त ।।२४३।।
पद्धडि छन्द
तब साठ सहस तरू पाक होइ, बहु पायो दुःख न गनहि कोइ । तहं अमिय सहस भव' सीप जान. फिर नीम वृक्ष भयो दःखखान । सो वीस सहस तन पर उतेह, तहं करम विपाक जु बश परेह । पुनि केल वृक्ष सौ भयौ ग्रान, भव नवं सहस ताको प्रमान ।।
तह चंदन वृक्ष जु सहस तीस, लहि दुःख सहे जानें जिनीश । पुन कनयड़ कोड़ी पंच सोइ, वह तीस कोड़ जनमच्छ सोड। फिर निकसि भयो गनिका ज प्रान, भव नवै सहसतन धरिय जान । पुन पंचकोड़ि सो चिडिमार, तह वीराकोड भव गज दाखभार
धारण करने में तत्पर और शिक्षक मूनि नौ हजार नौ सी हैं 1 तथा अवधिज्ञानी तेरह सौ होते हैं। साथ ही सामान्य केवाली मातमी और बिक्रिया ऋद्धि के धारी नौसौ मुनि और होते हैं तथा रत्नत्रय' से अलकृत रहते हैं इन सब की सम्मिलित संख्या चौदह हजार की है। ये सभी जिनेन्द्र प्रभु के समवशरण में वर्तमान रहा करते हैं। चंदना इत्यादि छत्तीस हजार अनिकाएं भी उस समवशरण सभा में उपस्थित रहती है और मप एवं मुल गुणों से युक्त होकर प्रभु के चरणारविन्द को अहमिय नमस्कार करने में तत्पर रहती हैं। इसके अतिरिक्त दर्शन ज्ञान और उत्तम व्रतों से युक्त एक लाख श्रावक और तीन लाख धाविकाएं प्रभु की पादारविन्द की पूजा में तत्पर रहती हैं । असंख्य देव-देवी समूह प्रभु की अलौकिक स्तुति और पूजा इत्यादि अनेक महोत्सवों की रचना किया करते हैं। सिंह सर्प इत्यादि तिर्यञ्च जीव भी संसार से डरकर तथा श्रद्धा-भक्ति पूर्वक शान्त चित्त होकर श्री महावीर प्रभ की शरण में आ रहे हैं। इस प्रकार के समवशरण में विशेष भक्त हए बारह प्रकार के जीव समहों से एकदम घिरे हुए हैं वलोक्याधिपति एवं जगदगुरु श्रीमहावीर प्रभु शनैः शनै: बिहार करते हुए अनेक देशों और मगरों में रहने वाले भक्त एव श्रद्धा से भव्य जो बों को वोपदेश के द्वारा ज्ञान दिया। तथा मोक्ष मार्ग के निनिडतम प्रज्ञानान्धकार को अपने बचन रूपी किरणों मे अत्यन्त पालोकमय कर दिया। इसी प्रकार छः दिन तथा तीस वर्ष पर्यन्त बिहार कर के अनेक सून्दर फल पुष्पों से सुशोभित नम्पा नगरी के उपवन में पहुंचे । उस उद्यान में प्राकर मन, वचन, काय योग एवं दिव्यबाणी को रोकार बे क्रिया होन हो गये और मोक्ष प्राप्ति के लिए अघातिया कर्मा को नष्ट कर देने वाले प्रतिमा योग धारण किया इसके बाद प्रभ ने देवगति, पांच शरीर, पांच संघात, पात्र बन्धन, तीन पाङ्गपांग, छ: संस्थान, छः संहनन, पांच वर्ण, दो गन्ध, पान रस, पाठ स्पर्श, देवगत्यानुपूर्व, प्रगुरु संधु, उपघात, परघात, उच्छास, दोनों बिहायोगतियां, अपर्याप्ति. प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग दुःस्वर, सुस्वर, आइय, अयस्कोति, असाता वेदनोय, नोचगोत्र और निर्माण दन सक्तिरोधक बहत्तर कर्म प्रकृतियों को अपनी प्रतुलनीय शक्ति से पायोगी नाम के चौदहवें गुणस्थान में प्राप्त होकर चौथे साल ध्यानरूपी तलवार से महायोद्धा की तरह चोदहा गुणस्थान के अन्तिम दो समय के प्रथम काल में शत्रु समझ कर मार डाला। इसके बाद प्रादेय, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्थ, पांच इन्द्रियजाति, मनुष्यायु पर्याप्ति, प्रस, बादर, सुभग यशकोति,
वगन
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