________________
तह जिन तनु मायामय धरयो, अग्निकुमार प्रमाण जु करयो । उठी मुकूट ज्वाला मणि तनी, अति विकराल अगिन की धनी ॥ भस्मीकृत सर भयो प्रभंग, दश ही दिश फेल्यो जु सुगंध । सब सुर जय जयकार जू करें, उर अानन्द भक्ति प्रति धरं ।।। प्रथम इंद्र कर भाल लगाय, भस्म वन्दना किय अधिकाय । अरु सब चतुर निकायी देव, निज निज शीश नवन भुव एव ।। प्रबनि पवित्र जान अधिकाय, फिर पूजा कीनी सुरराय। नाटक रंग कियो समुदाय, देवन सहित परम उत्साय ।।२३४।। यहि अन्तर गौतम गणराय, शुक्ल ध्यान बल कम खिपाय । केवल ज्ञान भयो अवदात, इंद्र यादि सुर गंधकुटी तहं रत्री कुबेर, नाना भांति न लाई देर । भविजन हित सम्बोधन काज. बिहरै सगा सहित गणराज ॥२३६।।
दोहा
अहठ मासकर हीन है, रही वरष जब चार । श्री सन्मति जिन शिव गये, चौधे काल मझार ॥२३॥
मागे बढ गये तब पापोदय भयर वन में जा पहुंचे और मार्ग दिशा को भूल गये। उस जन हीन वन में उनके जीवन धारण करने का कोई आधार नहीं था, निदान, ने दोना शरीर एवं आहार से ममता छोड़कर मोक्ष-प्राप्ति के लिए सन्यासी हो गए। उन दोनों ने धैर्य पूर्वक भूख, प्यास इत्यादि परिषही को सहा और समाधि रूप शुभ ध्यान से शरीर को छोड दिया। इसके बाद अन्तिम पाचरण के प्रभाव से उत्पन्न पुण्य के फल से दोनों ही सौधर्म स्वर्ग में गये और वहां महान् ऋद्धिधारी और देव वन्द्य देब' हुए । चिरकाल पर्यन्त दोनों ने स्वर्ग सुखों को भोगा और अन्त में पुण्योदय के प्रभाव से उसी सुन्दर नाम के ब्राह्मण-कुमार का जीव तुम्हारा पुत्र होकर उत्पन्न हुआ है। यह तप के प्रभाव से कर्मों का नाश करके शीन ही मोक्ष को प्राप्त कर लेगा। इस प्रकार उन दोनों की पूर्व कथा को सुनकर कितने ही लोगों ने विरक्त होकर सयम (यतिधर्म)
दीपार कर लिया और वितरे हो गहस्य धावक-धर्म एवं सम्यक्त्व में तत्पर हो गये। महाराजा श्रेणिक भी अपने पुत्र के साथ धर्मशास्त्र रूपी अमृत को पी चुकने के बाद श्री महावीर जिनेन्द्र प्रभु और अन्य गणधरों को नमस्कार करके अपने नगर को वापस लौट आये।
इसके बाद जिनेन्द्र प्रभु के समावशरण में बहुत से महा-पुरुष रहते हैं, उनका विवरण भी समझ लेना चाहिए। इंद्रात (गौतम) वायुभूति, अग्निभूति, सुधम, माय मोड, पुत्र, मैत्रेय, अकंपन, धवल और प्रभास ये ग्यारह गणधर देव बन्ध हैं और चार ज्ञान के धारक हैं। प्रभु के चतुदंश चौदह पूर्वो को स्मरण रखने वाले तीन सौ मुनि होते हैं। चारित्र हैवीर-समवशरण में मुनीश्वरों, कल्पवासी इन्द्राणियों, शापिकाओं व धाविकायों, ज्योतिषी देयमनाया, व्यबर देवियों, प्रसाद निवासियों की पद्यावती इत्यादि देवियों, भानवापी देवों, अन्तर देनों, चन्द्र-सूर्य इत्यादि ज्योतिपी देवों, कल्प निवासी देवों, विद्याधरों व मनुप्यों, सिंह-हिरण इत्यादि पशु-पक्षिपों व तियनों के बैठकर धर्म उपदेशा सुनने के लिए १२ सभाएँ होती हैं, उसके स्थान पर लीप-पोतकर लकीरें खींचकर कोठे बनाना और वहां मनुरप मोर पशुयों घादि के खिलौने रखना, बीर-समवशरण का चित्र खींचने की चेष्टा करना है। भ. महावीर वहां गन्धकूटी पर विराजमान होते है, उसके स्थान पर हम घडी (हरडी) रखते हैं । वीर निवारण के उत्सव में देवों ने रत्न बरसाये थे, उमके स्थान पर हम खीर पताशे नांटते हैं। उस समय के राजामों-महाराजाओं ने पीर निर्वाण के उपलक्ष में दीपक जलाकर उत्सव मनाया या, उसके स्थान पर हम दीपावली मनाते हैं । यह हो सकता है कि अमावस्या की शुभ र वि में महर्षि स्वामी दयानन्द जी स्वर्ग पधार, श्री रामचन्द्रजी अयोध्या लौटे या भौरों के विश्वास के अनुसार और भी शुभ कार्य हुए हों, परन्तु इस पवित्र त्यौहार पर होने वाली किवा श्री पौर विचार पूर्वक खोज करने से मही सिद्ध होता है कि दीपावली वीर-निर्वाण से ही उनकी यादगार में प्रारम्भ होने वाला पर्व है, जैसे कि लोकमान्य 40 बालगङ्गाधर तिलक, रा. रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि अनेक ऐतिहासिक विद्वान स्वीकार करते हैं।
में सिक्के डाले गये !
ने के कारण उम
केवल दीपावली का त्योहार ही नहीं, बल्कि भ० महावीर की स्मृति में सिक्के डाले गये । वर्द्धमान नाम पर वर्द्धमान और वीर नाम पर वीर-भूमि नाम के नगर आज तक बंगाल में प्रमित हैं । विदेह देश में भ. महावीर का अधिक बिहार होने के कारण उम प्रान्त का नाम ही बिहार प्रान्त पढ़ गया । भारत के ऐतिहासिक युग में सबसे पहला सम्बत् जो वीर-निवारण से अगले दिन ही कार्तिक मुदी १रो चालू होता है, जिस दिन हम अपनी पुरानी बहियो बन्द करके नई चाल करते हैं, अवश्य भर महावीर के सम्मुख भारत निवासियों की थक्षा भोर भक्ति प्रकट करने वाला बीर सम्बत है । इस प्रकार न केवल जैनों पर ही किन्तु अजनों पर भी थी वर्तमान महावीर का गहरा प्रभाव पड़ा।
है, जिस