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तह ते फिर खर भयो साठ कोडी, पुन तीस कोड़भव खाम जोडि । तब भयौ नपुसक साथ लाख, पुन बोसकोड़ तिय वेद भाख ।। तह रजक भयौ नर मब लाख, सो साठ कोड़ पुन तुरिय साख 1 भवसागर में रुलियो निदान, मनजार भयौ तह दुःख खान ।। तह धरी दहे सो वीस कोड़ि, भ्रमियो चिरकाल प्रजाय छोड़ि । अब साठ लाख भयो जैन राय, तहं कर्म न छोड़े कर उपाय ।। फिर भोगभुमि घर असी लक्ष, तह पायौ सुरुय जु विविध दक्ष । पुन सुरग लोक सुर भयो सोइ, तह असी लक्ष तन धर्यो जोइ॥ क्रम सौ गिर नारी गरभ जान, है साढ लक्ष यायो प्रमान । पुन पुन भ्रमि भ्रमि संसार घोर, बहु बहु प्रजाय धारियो जोर॥ इह कर्म शुखलन पर्यो सोइ, प्रम थावर में तन धरै जोद्द । तहं स दुःख नाना प्रकार, मिथ्यात सु फलियी यह अपार ।। भव भटकि भयौ द्विज थाव रास्य, पूरववत दिशा धरिय साक्ष्य । फिर भयो महेन्द्र ज स्वर्ग देव, देविन कर भुगतै सुख धनेव ।। तीज भव श्र, उप विश्वनन्द, कर मापा धार निवान बन्द । फिर महाशुक्र सूर भए सोइ, सुख कीनै बह वर्णन न होह ।।२५५।। तह त चय पोदनपुर अधीश, केशवपद प्रथम त्रिपुष्ट ईस । पुनि पर्यो सप्तमी नरक जाय, दुख सहे तहां घर दुष्ट काय ॥२५६।। फिर निकस धरी मिह हि प्रजाथ, अति रौद्र ध्यान सौं मरण पाय । तब प्रथम नरक तहं गयौ सोई, तहं जाय सहे बहु कलेश जोई।। पुन भये सिह हिमगिरि गिरीक्षा, तहं संबोधै चारण मुनीश । सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेत, मुर लहे सुख्य देविन समेत १२५८। कनकोज्वल निपान गय, तिन धरीतामा जैन पाय । फिर लांतव' सर भव द्वादशेव, जहं नाम लह्यो जु महर्धदेव ।।२५६।। हरिषेण नृपति तेरम गोव, तजि राजऋद्धि वन में वसेव । पुन महाशुत्र सुर लहिउ वास, सुख भगते नाना विहि जास ॥ प्रियमित्र चक्रवति' गुण गरीश, पूरब विदेश छह खण्ड ईश । सहस्रार स्वर्ग पुन सुख्य जास, अट्ठारह सागर आयु तास ।।२६१।। मत्रमभव में नपनन्द नाम, षोडश कारण भाई सुठाम । अच्युत सुरेश पद लहिउ फेर, सुख कीनौ बाइस जलधि घेर ।।
जय त्रिशला उर वसेय, श्री वीर जनम जग प्रगट धेय । तप केवलज्ञान ज साध एव, निर्वाण गये बन्दों स देव ।।२६३||
बोहा
आदि भवांतर चौदहा, अन्तहि उन विशेष । माध्यम भव' भटके बहुत, थावर अस नर देव ॥२६५।।
पाटनीय उच्चगोत्र और तीर्थकर नाम इन तेरह कर्म प्रकुतियों को चौदहवें गुण-स्थान के अन्तिम समय में शुक्ल ध्यान के प्रभाव से महावीर प्रभ ने नाश कर दिया। इस प्रकार प्रभु ने सम्पूर्ण कर्मरूपी शत्रुओं का पीर प्रौदारिक आदि तीन प्रकार शरीरों का नाश कर स्वभावतः उर्द्धगति होने के कारण एकदम निर्मल होकर मोक्ष स्थान को प्राप्त हो गये। कार्तिक कृष्णा अमावस्या तिथि स्वाति नक्षत्र एवं प्रात: काल के समय में प्रभु को मोक्ष प्राप्त हना था।
महावीर प्रभु ने जब मूर्तिहीन होकर एवं आठ गुणों से युक्त होकर सिद्ध पद को पाया तब वे निर्वाध थे, कर्महीन थे, अनन्त थे, उत्कृत इन्द्रियादि सुखों से परे थे, पर द्रव्य से हीन थे. तथा नित्य दुःखों से नितान्त ही रहित थे। उन्हें अनुपम प्रात्मसख प्राप्त हा मनप्य एवं ससार के अन्य सम्पूर्ण जीव निश्चिन्त होकर जितने प्रकार के सख को वर्तमान में भोग रहे भुत काल में भोगा है या भविष्य में भोगेंगे इन कालिक सुखों को यदि एक स्थान पर एकत्रित किया जाय तो जितना सम्पूर्ण सुख होगा उससे भी अनन्त गुणा अधिक एवं सर्वोकृष्ट सुख को प्रभु ने भोगा । और भविष्य में अनन्त काल पर्यन्त भोगते रहेंगे । इस सिद्ध महापुरुष को मैं सतत नमस्कार करता हूं। उनके मोक्ष प्राप्त हो जाने से देव एवं इन्द्राणियों के चार जाति के देव, प्रभु की निर्वाण प्राप्ति को जानकर, अगने पृथक पृथक चिन्हों से युक्त होकर पाये तथा नृत्य, गीत एवं ऐश्वर्य पूर्ण महोत्सव मनाकर प्रभु की पूजा की। जिस उपवन में प्रभु को निर्वाण प्राप्त हुया था वहां पर आकर उत्सव में श्रद्धाञ्जलि अपित करने से सभी का कल्याण हुप्रा । इसके बाद इन्द्र ने निर्वाण साधक प्रभु के शरीर को अत्यन्त रत्नोज्जवल एवं स्वर्ण निर्मित पालकी में रखा। बाद में अनेक सुगन्धित द्रव्यों को लगाया, पूजा की और माथा टेक कर भक्ति पूर्वक पुनः पुनः प्रणाम किया। फिर अग्निकुमार देव के मुकुट से अन्निकण उत्पन्न हुप्रा और उसी दिव्याग्नि से प्रभु का शरीर जलाया गया। प्रभ के शरीर की सुगन्धी सम्पूर्ण दिशनों में फैल गयी ! अन्त में इन्द्र के साथ सभी देवों ने प्रभु की चिता भस्म को अपने-अपने हाथों में लेकर अपनी-अपनी शीघ्र मोक्ष प्राप्ति की कामनाएं की। उस चिता भस्म को क्रमशः मस्तक, बांह, नेत्र एवं सम्पूर्ण शरीर में
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