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छुट जाते थे। वह खाई निर्मल और गम्भीर जल से परिपूर्ण थी । इसलिए वह एक सुपर कवि की कविता के समान सुशोभित थी। वहां के जिनालय अपनी फहराती हई शुभ्र ध्वजा से भन्य जीवों को पवित्र करने के उद्देश्य से बुला रहे थे । वहां के मकानों की पंक्तियां ऊंची और भव्य थीं। उन पर तरह-तरह के चित्र बने हुए थे। वे बर्फ और चन्द्रमा की तरह शुभ्र थीं। इसीलिए दर्शनीय थीं। उन्हें देखकर यही प्रतीत होता था कि मुक्ता को सुन्दर मूर्तियां प्रस्तुत की गयी हो । वहां के मनुष्य स्वभाव से ही दान करने वाले थे। वे भगवान जिनेन्द्र देव की सेवा में संलग्न रहने वाले थे। परोपकार, धर्मकार्य में उनके आचरण अनकरणीय ये। वहां की स्त्रियों का तो कहना ही क्या ? वे देवांगनाओं को भी रूप में परास्त करती थीं। वे सौभाग्यवती गुणवती पति प्रेम में रादा तत्पर रहने वाली थीं। वहां के बाजार भी अपनी अपूर्व विशेषता रखते थे। दुकानों की पंक्तियां इतनी सन्दरता साथ निमित की गयी थी कि उन्हें देखते रहने की इच्छा होती थी। वह नगर सोने चांदी रत्न और अन्नादि से सर्वथा भरपर था । संध्या के बाद से वहां की स्त्रियां ऐसे मधुर स्वर में गाने लगती घों कि प्राकारा मार्ग में जाते हुए चन्द्रमा को भी उनके लालित्य पर मुग्ध होकर कुछ देर के लिए रुक जाना पड़ता था। इस प्रकार वे चन्द्रमा को भी रोक लेने में समर्थ थीं। रात्रि काल में अपने इच्छित स्थान को गमन करने वाली वेश्याए भी चंचल नदो की भाति लहराती हुई देख पड़ती थों। बावड़ियों से जल भरने वाली पनिहारियां भी क्रीड़ा करती हुई नजर आती थीं। कमलों की मुगन्धि से भ्रमण करते हुए भीरे उन्हें दुखी कर रहे थे। उनकी जलक्रीड़ा से उनके शरीर से जो केसर घुलकर निकल रही थी, उससे भॊरों के शरीर पीले पड़ रहे थे। और उन्हों सरोवरों में कामो पुरुष अपनी रमणियों के साथ जल क्रीड़ा कर रहे थे । नगर की दूसरी ओर खलिहानों में अनाज की राशियां सुशोभित हो रही थीं। वे राशियां किसानों को ग्रानन्द देने वाली थीं वहां के खेतों की विशेषता थी कि वे हर प्रकार के पदार्थ उत्पन्न करते रहते थे। सड़क के दोनों किनारों पर सघन पेड़ों की सुन्दर पंक्तियां लगी हुई थी, जिनकी सुशीतल छाया में श्रान्त पथिक लोग विधाम किया करते थे। उन वृक्षों की डालियां फलों के भार से नत हो रही थीं। नगर के चारों प्रोर मटर और विशाल उद्यान थे, जहां की लताए पुष्प और फलों से सुशोभित थीं । वे लतार मनोहर सरस एवं विलासिनी स्त्रियों के समान सुशोभित थीं।
उस नगर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि, वहां कोई रोगी नहीं था । यदि सरोग था तो राजहंस ही। वहां ताडन का तो नाम नहीं था। हां कपास का ताड़न होता था और उससे रुई निकाली जाती थी। वहां किसी के पतन की भी संभावना नहीं थी।यदि पतन था तो वृक्षों के पत्तों का, क्योंकि वही ऊपर से नीचे गिरते थे। बन्धन भी कशपाशों का ही होता था। वे ही बड़ी सतर्तकता से बांधे जाते थे । वहां दण्ड, ध्वजारों में ही था और किसो को दण्ड नहीं दिया जाता था। भंग भी कवियों के रचे हए छन्दों तक ही सीमित था और किसी का भंग नहीं होता था । हरण स्त्रियों के हृदय में ही था और किसी का हरण नहीं किया जाता था । स्त्रियां ही पुरुषों के हृदय का हरण कर लेती थीं । वहां भय भी नवोढ़ा स्त्रियों को ही होता और कोई भयभीत नहीं होता था। इस नगर के राजा का नाम विश्वलोचन था । वह शत्रु समुदाय के लिए सिंह के समान था और उसकी कांति सर्य को भी परास्त करने वाली थी । वह याचकों को इच्छा के अनुसार दान दिया करता था। अतएव वह मनको उत्कट भावनात्रों को पूर्ण करने वाले करपवक्षों को भी सदा जीतता रहता था। संभवत: विधाता ने इन्द्र से प्रभुत्व लेकर कबेर से धन और चन्द्रमा से शीलता और सुन्दरता लेकर उसका निर्माण किया था। उसके अंग प्रत्यंग ऐसे बने थे, मानों सांचे में डाले हों। जिस प्रकार हरिण सिंह के भय से जंगल का परित्याग कर देता है, उसी प्रकार विश्वजीत के महाप्रताप को देखकर उसके शत्र अपनी प्राण-रक्षा के लिए देश का त्याग कर देते थे । उसका विस्तृत ललाट ऐसा मनोरम प्रतीत होता था, मानों विधि में अपने लिखने के लिए ही उसे बनाया हो । उसके भुजा' रूपी दण्ड सुन्दर और जांघ तक लम्बे थे। वे ऐसे प्रतीत होते थे. जैसे शत्रयों को बांधने के लिए नागपाश हों । उसका सुविस्तृत वक्षस्थल देवांगनाओं को भी मोहित कर लेता था और लक्ष्मीका क्रीडास्थल जान पड़ता था । समुद्रों को धारण करने वाली गंभीर पृथ्वी की तरह उसकी विमल वृद्धि चारों प्रकार की को धारण करने वाली थी । उसकी अत्यन्त उज्जबल और निर्मल कीति सुदूर देशों तक फैली हई थी। विश्वजीत राजाको प्रधान मंत्री सुन्दर देश, किले खजाने, और सेनाएं ग्रादि सब कुछ थे। प्रभाव उत्साह प्रादि तीनों शक्यिां विद्यमान थीं। इसके अतिरिक्त संधि विग्रह, यान प्रासनद्वेधा पाश्रय आदि छ: गुण थे इसीलिए वह राजा शत्रुनों के लिए अजेय हो रहा था। वह विश्व के सभी राजामों में श्रेष्ठ गिना जाता था । नीति निपुण रूपवान मिष्टभाषी और प्रजा हितैषी था। उसके सिंहासन रोहण के बाद से ही राज्य की सारी प्रजा सूखी धर्मात्मा और दानी हो गयी थी।
राजा की विशालाक्षी नाम की पत्नी थी, जो अत्यन्त रूपवती और प्रेम की प्रतिमूर्ति थी। बह इन्द्राणी, रति, नागस्त्री और देवांगनाओं जैसी रूपवती जान पड़ती थी। रानी की गति मदोन्मत्त हाथियों की तरह थी। इसकी अंगुलियों के बीसों
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