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बड़ी विनम्रता के साथ उनकी स्तुति कर नमस्कार किया । पुनः उनरो धर्मवृद्धि का प्राशीर्वाद प्राप्त कर उनके समीप ही बैठ गया। उस वन में लोगों का बड़ा समुदाय देख अत्यन्त कुरूपा तीन चूद्र की कन्यायें जो कहीं जा रही थी, आकर बैठ गयीं इसके बाद मुनिराज ने राजा महीचन्द्र और जन समुदाय के लिए भगवान जिनेन्द्र की वाणी से प्रकट हुमा लोक कल्याण कारक धर्मोपदेश देना आरम्भ किया । वे कहने लगे-- देव, शास्त्र और गुरु की सेवा करने से धर्म की उत्पत्ति होती है । एकोन्द्रिय और द्वय इन्द्रिय आदि समस्त प्राणियों की रक्षा करने से धर्म उत्पन्न होता है । जीवों के उपकार रो धर्म उत्पन्न होता है और धर्म के मार्गों को प्रदर्शित करने से सर्वोत्तम धर्म प्रकट होता है। मन, वचन, कायकी शुद्धता पूर्वक सम्यग्दर्शन के पालन करने, व्रतों के धारण करने तथा मद्य मांस मधु त्याग करने से धर्म की अभिवृद्धि होती है। पांचों इन्द्रियों को वश में करने तथा अपनी शक्ति के अनुसार दान करने से धर्म की अभिवद्धि होती है। ऐसे अन्य भी बहत से उपाय हैं, जिनसे जैन धर्म की बद्धि होती है और लोक तथा परलोक में सांसारिक जीवों को उत्तम सुख प्राप्त होता है। फल यह होता है कि धर्म के प्रभाव से मानव जाति को शुद्ध रत्नत्रय की प्राप्ति होती है। रत्नत्रय के प्राप्त होने के बाद मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। यह धर्मरूपी कल्पवृक्ष इच्छा के अनुसार फल देने वाला, हर्ष उत्पन्न करने वाला एवं सौभाग्यशाली बनाने वाला है। इससे कान्ति, यश सभी प्राप्त होते हैं। अपने पुण्य के प्रभाव से भरत क्षेत्र के छः खण्डों की भूमि, नवनिधि, चौदह रत्न और अनेक राजाओं से सुशोभित चक्रवर्ती की विभूति प्राप्त होती है। उसी पुण्य की महिमा से मनुष्य देवांगनाओं के समान रूपवती और अनेक गुणों से सुशोभित ऐसी अनेक स्त्रियों का उपभोग करते हैं। यही नहीं विद्वान, वीर और शोभाग्यशाली पुत्र भी पुण्य के प्रभाव से ही प्राप्त होते हैं । बड़े-बड़े राजा महाराजा तथा धनवान लोग—जो सोने के पात्र में भोजन करते हैं, वह भी पूण्य के प्रभाव के बिना नहीं प्राप्त होता। राजन् ! शरीर का स्वस्थ रहना, उत्तम कुल में जन्म ग्रहण करना, बड़ी आयु को प्राप्त करना तथा सुन्दर रूप का मिलना ये सब पुण्य के प्रभाव हैं । इसे धर्म का ही फल' समझना चाहिए। यह भी स्मरण रहे कि देव, शास्त्र और गुरु की निन्दा से पाप उत्पन्न होता है तथा सम्यग्दर्शन व्रत आदि नियमों को भंग करने से महान पाप का भागी बनना पड़ता है। सातों व्यसनों के सेवन से भी भारी पाप लगता है। पंचेन्द्रियों के विषयों के सेवन से भी पाप लगता है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों के संयोग से अन्य जीवों को पीड़ा पहुँचाने से और निन्ध आचरणों के व्यवहार से पाप उत्पन्न होता है। पर स्त्री सेवन से, दूसरे के धन अपहरण से, किसी की धरोहर को लेने से कठिन पाप होता है, अर्थात महापाप लगता है। जीवों की हिंसा करने झट बोलने, अधिक परिग्रह की इच्छा रखने और किसी के कर्म में विघ्न उपस्थित करने से भी पाप का भागी होना पड़ता है। मद्य, मांस, मधु भक्षण और हरे कन्द-मूल आदि पदार्थों के भक्षण से भी पाप लगता है। बिना छाने हुए जल के सेवन से भी बड़ा पाप लगता है कुत्ता, बिल्ली आदि दुष्ट जीवों के पालन-पोषण से भी पाप का भागी बनना पड़ता है। इस प्रकार के पाप कर्म के उदय से ये जीव कुरूप, लंगड़े, काने, टौटे, बौने, अन्धे, कम आयु वाले, अगोंपांग रहित तथा मुर्ख उत्पन्न होते हैं। पाप कर्म के उदय से ही दरिद्री नीच अनेक शारीरिक व्याधियों से पीड़ित और दु:खी उत्पन्न होते हैं। जीवों के अपयश बढ़ाने वाले लम्पट दुराचारी तथा नित्य कलह करने वाले पुत्र का उत्पन्न होना भी पाप का ही कारण है। अक्सर पाप कर्म से ही स्त्रियाँ काली, कल्टी तथा दुर्वचन कहने वाली मिलती हैं । साथ ही पाप कर्म से ही लोगों को भीख मांगने के लिए विवश होना पडता है। यहां तक कि उन्हें स्वादहीन मिट्टी के बर्तन में रखा हुआ भोजन करना पड़ता है। प्रतएव राजन् ! इस संसार की जितनी दुःख प्रदान करने वाली वस्तुएं हैं, वे सब की सब पाप कर्मों के उदय से ही प्राप्त होती हैं। संसार में जो कुछ भी बरा है, उसे पाप का ही फल समझना चाहिए । मुनिराज ने इस प्रकार पुण्य और पाप के फल कह सुनाए । महिचन्द्र को अपूर्व संतोष नया। इधर राजा ने तीनों कुरूपा कन्याओं को देखा । बे दोन स्वभाव की, दुखी और मात-पिता भाई प्रादि से रहित थीं। उन्हें देखकर राजा का हृदय दयापूर्ण हो गया। उनके नेत्र खिल उठे तथा मन प्रसन्न हो गया। इस प्रकार का परिवर्तन देख कर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ । वे सद्भाव के साथ उन्ह देखने लगे। इसके पश्चात् उन्होंने मुनिराज की स्तुति कर पूछाभगवन् ! इन कुरूपा कन्याओं को देख मेरे हृदय में प्रेम के भाव क्यों अंकुरित हो रहे हैं। उत्तर में मुनिराज कहने लगेराजन् ! इस स्थल पर प्रेम उत्पन्न होने का कारण पूर्व-भव का सम्बन्ध है । मैं बतलाता हूँ। ध्यान देकर श्रवण करो।
भरत क्षेत्र में ही काशी नाम का एक सुविस्तृत देश है । वह तीर्थंकरों के पंच-कल्याणकों से सुशोभित है। वहां के नगर ग्राम और पत्तन की शोभा अपूर्व है। वह रत्नों की खान के नाम से प्रसिद्ध है। उसी देश में बनारस नाम का एक अत्यन्त मनोहर नगर है। वह इतना सुन्दर है कि मानों विधि ने अलका नगरी को जीतने के लिए ही उसका निर्माण किया हो। आकाशको स्पर्श करने वाले उसके चारों ओर सुविशाल कोट हैं। कोट की ऊंचाई इतनी ऊंची है, जिससे प्रतीत होता है कि क्रोध करने पर वह सर्य के तेज और बादलों के समूह को भी रोक सकती हैं। कोट के चारों ओर खाई थी, जिसे देखकर शत्रयों के छक्के
समूह को भी रोक सकता इतनी ऊंची है, जिनमाण किया हो।
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