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इस प्रकार के धर्मोपदेश को सुनकर महाराज श्रेणिक को अत्यन्त प्रसन्नता हुई । सत्य ही है-अमृत के घड़े को प्राप्ति से कौन संतुष्ट नहीं होता । अर्थात् सभी सन्तुष्ट होते हैं। पश्चात् महाराज श्रेणिक गणधरों के प्रभु स्वामी सर्वज्ञ देव को नस्कार कर खड़े हो गये और भगवान से गौतम गणधर के पूर्व वृत्तान्त पूछने लगे--भगवान ! ये गौतम स्वामी कौन हैं ? किस पर्याय से यहां आकर इन्होंने जन्म धारण किया है। इन्हें किस कर्म से ये लब्धियां प्राप्त हुई हैं। ये सब क्रमानुसार मुझे बतलाइये । आपके निर्मल वचनों से मेरा सारा सन्देह दूर हो जायगा । आपके वचन रूपी सूर्य के समक्ष मेरे संदेहरूपी अन्धकार का नाश हो जाना निश्चित है।
धर्म के प्रभाव से उच्च कुल की प्राप्ति और मिष्ट वचनों की प्राप्ति होती है। उस पर सबका प्रेम होता है । वह सौभाग्यशाली होता है और उत्तम पद को प्राप्त होता है। उसे सर्वांग सुन्दर स्त्रियां प्राप्त होती हैं और स्वर्ग को प्राप्ति होती है। उसे उत्तम बुद्धि, यश, लक्ष्मी और मोक्ष तक प्राप्त होते हैं । अतः श्रेणिक ने जैन धर्म में निष्ठा कर अपनी सद्बुद्धि का परिचय दिया।
द्वितीय अधिकार
भगवान जिनेन्द्र देव में अपने शुभ वचनों के द्वारा संसार के दूषित मल का प्रक्षालन करते हुए कहा-धणिक! तु निश्चिन्तता पूर्वक श्रवण कर । मैं पाप और पुण्य दोनों से प्रकट होने वाले श्री गौतम गणधर स्वामी के पूर्व भवों का वर्णन करता है। भरत क्षेत्र में अनेक देशों से सुशोभित, अत्यन्त रमणीय अवंती नाम का एक देश है। उस देश में मुनिराजों द्वारा एकत्रित किये हुए यश के समूह की तरह विशाल तथा ऊँचे श्वेतवर्ण के जिनालय शोभित थे । वहां पथिकों को इच्छित फल, फल प्रदान करने वाली वृक्ष पंक्तियां सुशोभित हो रही थीं। वहां समय पर मेघों, द्वारा सींचे हुए खेत, सब प्रकार की सम्पत्ति, फल फूल से लदे हुए थे। उस देश में पुष्पपुर नाम का एक नगर था। वह नगर ऊँचे कोट से घिरा हुमा, सुन्दर उद्यानों से सुशोभित नन्दन बन को भी लज्जित कर रहा था। वहां के देव-मन्दिर जिनालय और ऊँचे-ऊँचे राजमहल अपनी शुभ्र छटा से हंसते हुए जान पड़ते थे । वहाँ के अधिवासी जैन धर्म के अनुयायी थे। वे धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाले थे । वे दानी और बड़े यशस्वी थे। वहाँ की ललनाएं सुन्दर शीलवती, पुत्रवती, चतुर और सौभाग्यवती थीं। इसलिए वे कल्पलताओं की तरह सुशोभित होती थीं। नगर का राजा महीचन्द्र था जो दुसरा चन्द्रमा ही था । उसकी सुन्दरता अपूर्व यी। अनेक राजा तथा जन समुदाय बड़ी भक्ति के साथ उसकी सेवा कर रहे थे। इतना सब कुछ होते हुए भी उसके हृदय में अहंत देव के प्रति बड़ी भक्ति थी । बह धन का भोग करने वाला, दाता, शुभ कर्मों को सम्पन्न करने वाला, नीतिज्ञ और गुणी था । अतः वह महाराज भरत के समान जान पड़ता था। दुष्टों के लिए वह काल के समान और सज्जनों का प्रतिपालक था। राजा महीचन्द्र राजविद्या और बुद्धि विद्या दोनों में निपुण था । राजा की सुन्दरी नाम की रानी थो । वह अत्यन्त गुणवती, रूपवती, पतिव्रता और अनेक गुणों से सुशोभित थी । वह राजा सुन्दरी के साथ राज्य सामग्री का उपयोग करते हुए पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार प्रादि करते हुए सुख पूर्वक समय व्यतीत कर रहा था।
उस नगर के बाहर एक दिन अंगभूपण नाम के मुनिराज का प्रागमन हुआ। वे आम के पेड़ के नीचे एक शिला पर आसन लगा कर बैठ गए। उनके साथ चारों प्रकार का संघ था । वे अवधिज्ञानधारी सम्यग्दर्शन से विभूषित थे। कामरूपी शत्रयों को मर्दन करने वाले थे और सम्यक् चारित्र के आचरण करने में सदा तत्पर थे । तपश्चरण से उनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया था । क्रोध, कषाय, मान रूपी महापर्वत को चूर करने के लिए वे वज के समान तीक्ष्ण थे। मोहरूपी हाथी के लिए सिंह के समान तथा इन्द्रिय रूपी मल्लों को परास्त करने वाले । इसके अतिरिक्त परिषहों को जीतने वाले सर्वोत्तम
और छः प्रावश्यकों में सुशोभित थे । वे मूलगुणों और उत्तर गुणों को धारण करने वाले थे। राजा महीचन्द्र को जब यह बात मालम हुई कि नगर के बाहर मुनिराज का आगमन हुआ है, तब वह अपनी रानी और नगर निवासियों को लेकर उनके दर्शन के लिए चला। वहां पहुंचने पर राजा ने जल चन्दन आदि पाठ द्रव्यों से मुनिराज के चरण कमलों की पूजा की। इसके बाद
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