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और संसार की माया से भयभीत हैं। ग्राप कर्मरूपी शत्रुनों के संहारक हैं और विषयी विष को दूर करने वाले हैं, अतएव आपको नमस्कार है। हे गुणों के श्रागार हे भगवन है मुनियों में श्रेष्ठ जिनराज भाप कवियों की वाणी से भी परे हैं, आपके सद्गुणों का वर्णन करना सरस्वती की शक्ति के बाहर की बात है। इस प्रकार भगवान की स्तुति कर महाराज कि गौतम गणधर आदि अन्यान्य मुनियों को नमस्कार कर मनुष्यों के कोठे में बैठ गये। थोड़ी देर बाद भगवान महावीर स्वामी ने भव्य जीवों को प्रबुद्ध करने के लिए मनोहर धर्मोपदेश देना बारम्भ किया
मुनि और बावकों के धर्म में दो भेद हैं सुनिधर्म मोक्ष का साधन होता है मीर श्रावक धर्म से स्वर्गसुख की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यग्वारित्र के भेद से मोक्षमार्ग तीन प्रकार का होता है अर्थात् तीनों का समुदाय ही मोक्ष है उनमें सम्यग्दर्शन उसे कहते हैं, जिनमें जीव अजीब आदि सातों तत्वों का यथार्थ श्रद्धान किया जाता हो। वह भी दो प्रकार का होता है— एक निसगंज- बिना उपदेशादि के, श्रीर दूसरा अधिगमज अर्थात् उपदेशादि द्वारा इन दोनों के भी औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक भेव से तीन भेद और कहे गये हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व इन सप्त प्रकृतियों के उपशम होने से चौपामिक सम्यग्दर्शन प्रकट होता है और सातों प्रकृतियों के क्षय होने से क्षायिक सम्यग्दर्शन प्रकट होता है और पूर्व की प्रकृतियों के उदाभावी होने तथा उन्हीं सत्तावस्थित प्रकृतियों के उपशम होने से एवं सम्यक मिध्यात्व प्रकृति के उदय होने से क्षायोपशनिक सम्यग्दर्शन होता है। पदार्थों के सत्य ज्ञान को सम्यान कहते हैं वह सम्यक्ज्ञान मति, भूत, अवधि मनः पर्यय और केवल ज्ञान के भेद से पांच प्रकार का होता है। जैन शास्त्रों के सिद्धान्त के अनुसार पाप रूप कियाओं के त्याग को सम्यग्वारि कहते हैं। वह पांच महाव्रत, पांच समिति पर तीन गुप्त भेद से तेरह प्रकार का होता है। अठारह दोषों से रहित सर्वज्ञदेव में श्रद्धान करना, महिसारूप धर्म में ज्ञान करना एवं परिग्रह रहित गुरु में श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । संवेग, निर्वेद, निंदा, गहू, शम, भक्ति, वात्सल्य और कृपा ये आठ सम्यग्दर्शन के गुण हैं। भूख, ग्यास, बुढ़ापा, द्वेष, निद्रा, भय, क्रोध, राग, श्राश्चर्य, मद, विषाद, पसीना, जन्म, मरण, खेद, मोह, चिन्ता, रति ये मठारह दोष है। सर्वज्ञ देव इन दोषों से सर्वथा रहित होते हैं। माठ मद, तीन मृढ़ता, छः अनायतन और शंका कांक्षा आदि माठ दोष मिलकर सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष है चूत, मांस, मय, वेश्या, परस्त्री, चोरी और शिकार ये सप्त व्यसन हैं । बुद्धिमानों को इनका भी त्याग कर देना चाहिए। मद्य, मांस, मधु के त्याग और पंच उदम्बरों के त्याग से पाठ मूलगुण हैं। प्रत्येक गृहस्थ के लिए इन मूल गुणों का पालन करना बहुत ही यावश्यक है। मद्य का स्पाय करने वाले को छाछ मिले हुए दूध, बासी वही, यादि का भी त्याग कर देना चाहिए। इसी प्रकार मांस का त्याग करने वाले के लिए चमड़े में रखा हुआ घी, तेल, पुष्प, शाक मक्खन, कंद मूल श्रीरघुना हुआ अन्न कदापि नहीं खाना चाहिए। धर्मात्मा लोगों के लिए बैगन, सूरन, हींग, अदरक और बिना छना हुआ जल भी त्याज्य है। घशात फलों को तो सर्वथा त्याग कर ही देना चाहिए। ऐसे ही बुद्धिमान लोगों को चाहिए कि वे मधु का परित्याग कर दें। कारण शहद निकालते समय अनेक जीवों का घात होता है। उसमें मक्खियों का रुधिर और मैला मिला हुआ होता है। इसलिए वह लोक में निन्दनीय हैं। इसके अतिरिक्त धावकों को दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्त त्याग, रात्रिभुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग, और उद्दिष्ट त्याग इन ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करना चाहिए । महिसा तो अणुव्रत, ब्रह्मचर्य अणुक्त परिग्रह परिमाणु प्रणुव्रत कहलाते हैं। श्रावकों को उचित है कि इनका भी पालन करें।
दिवस देश और धनदण्ड त ये तीन गुणदत हैं। श्रावकाचार को जानने वाले धानक इनका उत्तम रीति से पालन करें। छः प्रकार के जीवों पर कृपा करना, पंचेन्द्रियों को वश में करना एवं रौद्र ध्यान तथा भाई ध्यान के त्याग कर देने को सामायिक कहते हैं सामायिक का पालन नियमित रूप से धावकों के लिए अनिवार्य होता है । अष्टमी, चौदश के दिन प्रोषघोपवास अत्यन्त आवश्यक है । प्रोषधोपवास के भी तीन भेद माने गये हैं— उत्तम मध्यम और जघन्य केसर चन्दन आदि पदार्थों के लेपन को भोग कहते हैं और वस्त्राभूषणादि को उपयोग इन दोनों की संख्या मियत करनी चाहिए। इसको भोगोपभोगपरिमाणव्रत कहते हैं। श्रावकों के लिए यह भी आवश्यक है। शास्त्रदान मौदान, अभयवान और माहारदान ये चार प्रकार के दान हैं। प्रत्येक गृहस्थ को चाहिए कि वे अपनी शक्ति के अनुसार इन दोनों को गृह त्यागी मुनियों को दे वाह्य और अभ्यन्तर के भेद से शुद्ध सपचर दो प्रकार के होते हैं। इन्हें सत्व ज्ञानियों को अपने कर्म नष्ट करने के लिए उपयोग में लाना चाहिए।
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