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सोरठा परब कीनों पाप, सो निहचै वरी भयौं । घातक जानों पाप, और बहत कहिये कहा ।।१४६॥ सुरग मुकत दातार, परम धरम जानों नहीं। पाल्यो व्रत न लगार, सो निहचै अब भोगउ ॥१५॥ किंचित तप नहि कीन, दान सुपात्रै ना दिया। जिन पूजा कर हीन, अशुभ कर्म पोते परै॥१५॥
दोहा संपूरण ते पाप सब, भुगते सब इहि थान । तीब बेदना चित सब, पूर्व पाक सो जान ॥१५२।। कहँ जाऊँ कासौं कहूं, शरण न दोस कोई। काको पूछी बात इह, को रक्षक मुझ होइ ।।१५३।।
चौपाई
इत्यादिक चिन्ता आजी. पश्चाताप करै मन घनी। तावत दग्धमान तब भयौ, अति दुखसौं पीडित उर ठयौ ।।१५४|| तावत ततछिन आये तहां, पापवन्त नारक जिय तहां। मुद्गर आदि कर बहु मार, नूतन नारकि नैन निहार ।।१५५।। क्रोधवन्त कलही सब जान, नेत्र फुलिंग महा दुख खान । पाले कुन्त कृपाण कमान, देख खिरै पारे परवान ॥१५६।। काट कर अरु छेदै पाय, भेदै चरम तीन दुखदाय । अन्त्र मालिका तौरें कोइ, देह विदार इहि विधि सोय ।।१५७|| पल फिर कोलमें घाल, ताते तैल तपाव हाल । पकर पाय पटके भू मांहि, कटक लेश होइ अधिकाए ।।१५।। मुलीपर धर दैहि उठाय, घसिट कंटक तरु सों जाय । तब पुकार कानो बहु जोर, घावनसों पीड्यो तन घोर ॥१५६।। सर्व अंग दग्धौ ता तनौ, अगनि समान ज्वलित अति घनी। वैतरणी जल पैठौ जाय, शान्त देह तह दुख अधिकाय ॥१०॥ तास वारि वारू' दुर्गन्ध, भग्यो वहां से हिरदै अन्ध । असिकपत्र बन पहंचौं ताम, शोकवन्त लीनौ विधाम ॥१६१॥ वायु जोर तीक्षण असिपत्र, छौड़ें तरुभय करता सत्र । छिन्न-भिन्न खंडिल तन पाइ, रकत चुचात भन्यो अकुलाइ ।।१६२॥ पर्वत अन्तर गयौ तुरन्त, लं विश्राम हिये भयवन्त । धरै नारकी तहां विक्रिया, बाघ सिंह आदिक दुर घिया ॥१६३|| केई गिर ते देह गिराय, केई भूमि मध्य सों प्राय । खण्ड खण्ड ततच्छिन तन होय, कायर चित्त शरण नहि कोय ॥१६४|| केई जकर जंजीरन डार, सुध करायकै कैयक मार। लोह तनी लाती पुतली, लाय लगावें तनसों खली ।।१६४।। परभव कीनी प्रीति अपार, पर कामिनसों हठ हिय धार। कोई खेंचि खंभसों बांध, बहु प्रकार प्रायुधको साध ॥१६६।। लोचन दोषी ताको जान, लोचन लेइ निकार अजान । मदिरापानी पूरब पियौ, ताते ताम्र प्रोट मुख दियौ ।।१६७।। परभव पल भक्षण के पाप, तोड़ ताड़ तन खाते पाप । केई पूरब याद दिवाय, केई धाय संग्राम कराय ॥१६॥
बड़े ही पाश्चर्य की बात है कि, ऐसी घणित यह भमि कौनसी है: जिसमें दुःख ही दुःख दृष्टिगोचर हो रहे हैं । दे नारकी कौन हैं, कष्ट पहुंचाने में बड़े प्रवीण हैं । मैं कौन है? जो यहाँ अकेला पा गया है। वह कौन सा बुरा कर्म है जिसके कुफल स्वरूप मुझे यहाँ तक आना पड़ा। इस प्रकार विचार करता हया त्रिपष्ट का नारकी जीव करुण क्रन्दन करने लगा। उसे विभंगा अवधि (खोटी अबधि) उत्पन्न हई। उसने विचार किया--- अहो, मैंने पूर्व जन्म में अनेक जोबो का हत्या की। दूसरी का कठोर तथा खोटे वचनों द्वारा निरादर किया है। अपने स्वार्थ के लिए पराये धन तथा पराई स्त्रियों तक का अपहरण किया है। इस प्रकार मेंने कितना धन एकत्रित किया। मैंने इन्द्रिय तप्ति के लिये खाद्य पदार्थ खाये, असेवनीय पदार्थों का सेवन
र पदाथा का पान किया, इसलिये वे ही सब कूकार्य मूझे नष्ट करने वाले हैं। दुःख है कि मैने स्वर्ग मोक्ष प्रदान करने वाला परम धर्म को धारण नहीं किया तथा कल्याणकारक अहिंसादि व्रतों का भी पालन नहीं किया। साथ ही न कोई तप किया, नपानदान दिया यार न जिनेन्द्र देवकी पूजा ही की। अर्थात एक भी शुभ कार्य करने के लिए तत्पर नहीं हमा।