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तेज को समर्पण कर बोली कि आप दोनों हमारे पुत्र का अपराध क्षमा कर देने के योग्य हैं। तिर्यचों का जो जन्मजात बैर छट नहीं सकता वह भी जब जिनेन्द्र भगवान के समीप पाकर छूट जाता है तब मनुष्यों की तो बात ही क्या कहना है ? जब जिनेन्द्र भगवान के स्मरण से अनादि काल के बंधे हुए कर्म छूट जाते हैं तब उनके समीप बैर छूट जावे इसमें पाश्चर्य ही क्या है ? जो बड़े दुःख से निवारण किया जाता है ऐसा यमराज भी जब जिनेन्द्र भगवान के स्मरण मात्र से अनायास ही रोक दिया जाता है तब दूसरा ऐसा कौन शत्रु है जो रोका न जा सके ? इसलिए बुद्धिमानो को यमराज का प्रतिकार करने के लिए तीनों लोकों के नाथ अर्हन्त भगवान का ही स्मरण करना चाहिये । वही इस लोक तथा परलोक में हित के करने वाले हैं।
अथानन्तर विद्याघरों के स्वामी अमिततेज ने हाथ जोड़कर बड़ी भक्ति से भगवान को नमस्कार किया और तत्वार्थ को जानने की इच्छा से सद्धर्म का स्वरूप पूछा। जिसमें कषायरूपी मगरमच्छ तैर रहे हैं और जो अनेक दुःखरूपी लहरों से भरा हुआ है ऐसे संसार रूपी बिकराल सागर का पार कौन पा सकता है ? यह बात जिनेन्द्र भगवान से ही पूछी जा सकती है किसी दूसरे से नहीं क्योंकि उन्होंने ही संसार रूपी सागर को पार कर पाया है। हे भगवान् ! एक आप ही जगत् के बन्धु है अतः हम सब शिष्यों को आप सद्धर्म का स्वरूप बतलाइये। रत्नत्रय रूपी महाधन को धारण करने वाले पुरुष आपकी दिव्यध्वनि रूपी बड़ी भारी नाक के द्वारा ही इस संसार रूपी समुद्र से निकल कर मुख देने वाले अपने स्थान को प्राप्त करते हैं। ऐसा विद्याधरों के राजा ने भगवान से पूछा । तदनन्तर भगवान् दिव्यध्वनि के द्वारा कहने लगे सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार पर्व वष्टि के द्वारा घातक पक्षी संतोष को प्राप्त होते हैं उसो प्रकार भव्य जीव दिव्यध्वनि के द्वारा संतोष को प्राप्त होते हैं। हे विद्याधर भव्य ! सन, इस संसार के कारण कम हैं और कर्म के कारण मिथ्यात्व असंयम प्रादि हैं।
मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न हुा जो परिणाम ज्ञान को भो विपरीत कर देता है उसे मिथ्यात्व जानो। यह मिथ्यात्व बन्ध का कारण है । अज्ञान, संशय, एकान्त, विपरोत ओर विनय के भेद से ज्ञानो पुरुष उस मिट पात्व को पांच प्रकार का मानते हैं। पाप और धर्म के नाम से दूर रहने वाले जीवों के मिथ्यात्व कर्म के उदय से जो परिणाम होता है वह अज्ञान मिथ्यात्व है। प्राप्त तथा प्रागम प्रादि के नाना भेद होने के कारण जिसके उदय से तत्व के स्वरूप में दोलायमानता-चंचलता बन रही है उसे ये श्रेष्ठ विद्वान् ! तुम संशय मिथ्यात्व जानो। द्रव्य पर्यायरूपी पदार्थ में अथवा मोक्ष का साधन जो सम्यग्दर्शन
और सम्यक चारित्र है उस में किसी एक का ही एकान्त रूप से निश्चय करना सो एकान्त मिथ्यादर्शन है । प्रात्मा में जिसका अशा रहते हए ज्ञान ज्ञायक और ज्ञेय के यथार्थ स्वरूप का विपरीत निर्णय होता है उसे मिथ्यादर्शन जानो । मन, वचन और काय के द्वारा जहां सब देवों को प्रणाम किया जाता है और समस्त पदार्थों को मोक्ष का उपाय माना जाता है उसे विनय
करते हैं। व्रतरहित पुरुष को जो मन वचन काय की क्रिया है उसे असंयम कहते हैं। इस विषय के जानकार मनुष्यों
प्रयम और इन्द्रिय-असंयम के भेद से असंयम के दो भेद कहे हैं। जब तक जीवों के अप्रत्याख्यानावरण चारित्र मोह का उदय रहता है तब तक अर्थात् चतुर्थगुणस्थान तक असंयम वन्ध का कारण माना गया है। छठवें गुणस्थानों में व्रतों में संयम पान करने वाली जो मन वचन काय की प्रवृत्ति है उसे प्रमाद कहते हैं । यह प्रमाद छठवें गूणस्थान तक बन्ध का कारण होता है ।
प्रमाद के पन्द्रह भेद कहे हैं। ये संज्वलन वाषाय का उदय होने से होते है तथा सामायिक, छेदोस्थापना और परिहारविद्धि इन तीन चारित्रों से युक्त जीव के प्रायश्चित के कारण बनते हैं। सातवें से लेकर दश तक चार गुण स्थानों में संज्वलन क्रोध मान माया लोभ के उदय से जो परिणाम होते हैं उन्हें कषाय कहते हैं। इन चार गुणस्थानों में यह कपाय ही बन्ध का कारण है। जिनेन्द्र भगवान् ने इस कषाय के सोलह भेद कहे हैं । यह कषाय उपशान्तमोह गुण स्थान के इसी ओर स्थितिबन्ध तथा अनुभाग बन्ध का कारण माना गया है। आत्मा के प्रदेशों में जो संचार होता है उसे योग कहते हैं । यह योग प्यार वारहवें इन तीन गुणस्थानों में सातावेदनीय के बन्ध के कारण माना गया है। इन गणस्थानों में यह एक