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है, आप लोग भय छोड़िये, इस प्रकार सब समाचार ज्यों के त्यों कह दिये । उस बात को सुनने से, जिस प्रकार दावानल से लता म्लान हो जाती है, अथवा वृझने वाले दीपक की शिखा जिस प्रकार प्रभाहीन हो जाता है, अथवा वर्षा ऋतु के मेघ का शब्द सुनने वाली कलहंसी जिस प्रकार शोक-युक्त हो जाती है। अथवा जिस प्रकार किनो स्थाद्वादो विद्वान के द्वारा विश्वस्त हुई दुःश्रति (मिथ्या-शास्त्र) व्याकुल हो जाती है उसी प्रकार स्वयंप्रभा भी म्लान शरीर, प्रभारहित, शोकयुक्त तथा अत्यन्त प्राकुल हो गई थी। वह उस विद्याघर को तथा पुत्र को साथ लेकर उस वन के बीच पहुंच गई। पोदनाधिपति ने छोटे भाई के साथ आती हुई माता को दूर से ही देखा और सामने जाकर उसके चरणों में नमरकार किया। पुत्र को देखकर स्वयंप्रभा के नेत्र हर्षाश्रमों से व्याप्त हो गये। वह कहने लगी कि हे पुत्र ! उठ, मैंने अपने पुण्योदय से तेरे दर्शन पा लिये, तू चिरंजीव रहे इस प्रकार कहकर उसने श्री विजय को अपनी दोनों भुजाओं से उठा लिया, उसका स्पर्श किया और बहुत भारी संतोष का अनुभव किया। अथान्तर-जब श्री विजय सुख से बैठ गये तब उसने सुतारा हरण आदि का समाचार पूछा।
श्री विजय ने कहा कि यह संभिन्न नामक विद्याधर अमिततेज का सेवक है। हे माता ! आज इसने मेरा जो उपकार किया है बह तक ने भी नहीं किया । ऐसा कहकर उसने जो-जो बात हुई थी यह सब कह सुनाई। तदनन्तर स्वयंप्रभा ने छोटे पत्र को तो नगर की रक्षा के लिए वापिस लौटा दिया और पुत्र को साथ लेकर वह प्राकाश मार्ग से रथनपुर नगर को चलो। अपने देश में घूमने वाले गुप्तचरों के कहने से अमिततेज को इस बात का पता चल गया जिससे उसने बड़े वंभव के साथ उसकी अगवानी की तथा संतुष्ट होकर जिसमें बड़ी ऊंची पताकाएं फहरा रही हैं और तोरण बांधे गये हैं ऐसे अपने नगर में उसका प्रवेश कराया । उस विद्याधरों के स्वामो अमिततेज ने उनका पाहुने के समान सम्पूर्ण स्वागत सलार किया और उनके माने का कारण जानकर इन्द्राशनि के पुत्र अनिघोष के पास मरोचि नाम का दूत भेजा। उसने दूत से असह्य वचन कहे। दून ने वापिस पाकर वे सब वचन अमिततेज से कहे। उन्हें सुनकर अमिततेज ने मन्त्रियों के साथ सलाह कर मद से उद्धत हए उस प्रशनिधोष को नष्ट करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। उच्च अभिप्राय वाल अपने बहनोई को उसने शत्रुनों का विध्वंश करने के लिए वंशपरम्परागत युद्धवीर्य, पहरणावरण और बन्धमोचन नाम की तीन विद्याए बड़े आदर से दी। तथा रश्मिवेग सुवेग प्रादि पांच सौ पूत्रों के साथ-साथ पोदनपुर के राजा श्री विजय से अहंकारी शत्र पर जाने के लिए कहा। और स्वयं सहस्र रश्मि नामक अपने बड़े पुत्र के साथ समस्त विद्याओं को छेदने वाली महाज्वाला नाम की विद्या को सिद्ध करने के लिए विद्याए' सिद्ध करने की जगह ह्रीमन्त पर्वत पर श्री संजयन्त मुनि को विशाल प्रतिमा के समीप गया।
इधर जब अशनिघोष ने सुना कि श्री विजय युद्ध के लिए रश्मिवेग ग्रादि के साथ पा रहा है तब उसने क्रोध से सुघोष शतघोष, सहस्रघोष आदि अपने पुत्र भेजे । उसके वे समस्त पुत्र तथा अन्य लोग पन्द्रह दिन तक युद्ध कर अन्त में पराजित हुए। जिसकी समस्त घोषणाए' अपने नाश को सूचित करने वाली हैं ऐसे अशनिघोष ने जब यह समाचार सुना तब वह कोष से सन्तप्त होकर स्वयं ही युद्ध करने के लिये गया। इधर युद्ध में श्री विजय ने अशनिघोष के दो टुकड़े करने के लिये प्रहार किया उधर, भ्रामरी विद्या ने उसने दो रूप बना लिये। श्री विजय ने नष्ट करने के लिये उन दोनों के दो-दो टुकड़े किये तो उधर अशनिघोष ने चार रूप बना लिये। इस प्रकार वह सारी सेना प्रशनिघोष को माया से भर गई। इतने में ही रथन पुर का राजा अमिततेज विद्या सिद्ध करमा गया और आते ही उसने महाज्वाला नाम की विद्या को आदेश दिया । अशनिघोष उस विद्या को सह नहीं सका। इसलिये पन्द्रह दिन तक युद्ध कर भागा और भय से नाभेयसीम नाम के पर्वत पर मगध्वज के समीपवर्ती विजय तीर्थ करके समवशरण में जा घुसा। अमिततेज तथा श्री विजय प्रादि भी क्रोधित होकर उसका पीछा करते-करते उसी समवसरण में जा पहुंचे। वहाँ मानस्तम्भ देखकर उन सबकी चित्तवृत्तियां शान्त हो गई । सबने जगत्पति जिनेन्द्र भगवान को तीन प्रदक्षिणाए दी, उन्हें प्रणाम किया और बैररूपी विष को उगलकर वे सब वहां साथ-साथ बैठ गये।
उसी समय शीलवती आसुरी देवी मुरझाई हुई लता के समान सुतारा को शीघ्र ही लाई और श्री विजय तथा अमित
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