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बाजे गीत ग्राम मनु हरें ॥ ४०॥ धर्म हिये नेचच उच्चरे ॥ ४१ ॥ नित प्रति सुर नर सेवा ठपे ॥४२॥
इहि प्रकार प्रस्तुति कर देव, सारथ नाम घरं उर सेव । बार बार प्रणमै शिर ताम, अपने थान गये विश्राम ||३५|| प्रभुहि वचन अमृत सम ऐन, विषयलोक बोधन सुख चैन दिवस सुरवात प्रभु पाय ||३६|| किनर गीत सुकंठ करें, प्रति श्रानन्द सबै मनु हरें । व्यानन्द नृत्य रची बहु इन्द्र, कलश देव ले लीला कंद || ३७ देखे बहुविधि उत्तम रूपाल, माता पिता उर सुक्ा विशाल भूषण बसन माय पहिराय पुन सुरेन्द्र निज धानहि जाय ॥३८॥ कबहूं सुर हर्षित प्रभु पाहि, जलक्रीड़ा वनक्रीड़ा जाहि । नित प्रति देव विनोदहि घरे, धर्महि ले सुख वांछा करें ||३६|| फिर सुरेश सुख कर काज, प्राय सबै विभूति हि साज । प्रति विचित्र वृत्तक विस्तरे स्वर्गजनित जे वस्तु अनेक पहिरावे प्रभु की युति टेक काव्य पढ़े गुण गोष्ठि जुकर, दहि प्रकार बहु पुष्य उपाय सुखसागर अमृत जल पाय क्रम कम सों प्रभु जीवन भयं मणिमव मुकुट शीस पैलरी, भान तिलक शोभा कर बवाल मुक्तागण एम. मेरु प्रदक्षिण उगम जेम ||४३|| मुख कपोल सोह्रै निज तेह, अष्टम इन्द्र लहै द्युति जेह नयन कमल दल शोभा धार, भ्रकुटी चढ़ी धनुष प्रकार ||४४|| मणिमय कुण्डल सोहैं कर्णं, अरु मुखेन्दु सुरजसम किर्ण । कीर नासिका दाडिम दर्शन, बिम्बोष्ठी ठोड़ी को शरन ॥१४५॥ अधर कमल की शोभा सजे, वचन कोकिला वानी लजे । वक्षःस्थल मणिहार बिराज, भुजा दंड सम कोमल राज || ४६ ॥ सुन्दरी भूषित अंगुरी चंग, पोंची कंकण मण्डित नख सूरज किरणावलि घरं को बुध शोभा वरनन करें ||४७|| अंग अंग बहु दोषत जान नाभि वर्तुलाकर प्रभाग वागदेवि इस वचन गहीर, लक्ष्मी कीड़ा विमल सुधीर ॥४५॥ मेखल कटि में शोभा है जुगल जंब कसम है पाद कमल जुग बने सुदार महादोप्त नख है अधिकार ||४|| यह प्रकार भूषण प्रसार केश नागिनो सुन बाकार तोन जगत में पेसा पति पवित्रधनूप ||२०|| तीर्थकर पुदगल वरगना, ओर न होय यही तन दिना । सात हाथ न उत्तर बार नाय जन तारनहार ॥। ५१ ।।
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रंग
दोहा
अति विचित्र सुन्दर सुरभि, परमोदारिक देह । श्रद्भुत वल तीर्थेशको रूपवाक्य गुण नेह || ५२॥
छन्द चाल
मन बल तन व्रत को सोनी, सो धर्म ध्यान सुख भीनों प्रभु सोला बाल फोन वितमात हुर्ष सुख दोनी ॥ ५३ ॥ मुख भूजे सबरस पागे, सपने सम से धनुराये है तीस बरस संजोग वहि तृप्त भये हि भी ॥५८॥ लब्धि को पाई, क्षायिक सम्यतत्त्व सुहाई। चारित मन में अब धारी, सनमति प्रभु बुद्धि विचारी ||१५||
भगवान का वैराग्य वर्णन
वह पूर प्रेक्षा दोनों तब कोटि भ्रमन भ्रम अब रतनत्रय तप लीज, मोहादि करम खय
कोनीं । उतकृष्ट भाव वैरागो, भव भोग सकल अव स्थागी ॥५६॥ कीजै । ए वृथा सकल दिन जांही, व्रत दुर्लभ बहु जग मांही ॥५७॥
हो जाय, पर अतुलित बलशाली होने के कारण वह भगवान के शरीर पर पुष्प जैसी मालूम होने लगी। जल के छोटे श्राकाश में बहुत ऊंचे उछलते हुए ऐसे प्रतीत होते थे मानो वे भगवान के शरीर स्पर्श होने से पापों से मुक्त होकर उर्ध्वं गतिको जा रहे हैं। स्नान जन के कितने ही छोटे मोतियों जैसे मालूम पड़ते थे। स्नान जल का ऊंचा प्रवाह उस पर्वत राज के वनों ने ऐसा बढ़ा कि देखने से मालूम होने लगा कि, पर्वत राज को तैरा रहा हो ।
भगवान के स्नान किये हुए जल से डूबी हुई बनस्थली ऐसी दीखने लगो मानो वह दूसरा क्षीर समुद्र ही हो । महान उत्सवों से सम्पन्न, नृत्य गीतादि से युक्त उस समय का उत्सव देखकर देवों के आनन्द की सीमा न रही। इद्र ने श्रात्म शुद्धि के लिये भगवान को शुद्ध स्नान कराया ।
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