________________
तीन काल सामायिक कर, पापारम्भ सर्व परिहर । निर्जन थान ध्यान को होइ, सामायिक प्रतिमा सो लोइ ।।६७|| पाठे चौदशि प्रोषध सज, चार प्रकार प्रहारहि तजे । पोसह प्रतिमा जानौ सोइ, चौथो सो श्रावक अवलोह || हरित वस्तु को कीनो त्याग, जीव दया पाल बड़भाग । पंचम प्रतिमा यहै बखान, मचित त्याग व्रत श्रावक जान ||६|| निशि अहार त्यागे बुधवंत, सूक्षम थूल भरं जिय जत । मून जानै हिसा सोय, रजनी नीर रुधिर सम होय ।।१०।। भूत पिशाच गमन निश करें, जेवत अन्न अपावन करें। अशुचि वस्तु डार तह आय, नीच स्वभाव न उनकी जाय ॥१०॥ दिवस अन्धकार जहं रहै, रात समान जानिये दहै । निशिजु रसोई करै दिन खाइ, रजनीवत दुषण दुखदाई ॥१०२॥ दिवस हि पुन छोड़े मिज नार, निश त्यागो प्रतिमा अवधार । यह षष्ठी लौं जानों भाइ, है जघन्य श्रावक ठहराय ।।१०३॥ निज पर नारि त्याग गुणवंत, नवधा शील धरं बहुमंत । तज सचिकरण मिष्ट अहार, ब्रह्मचर्य प्रतिमा यह सार ॥१०४१। हिंसा आदि सकल ग्रारम्भ, तजे विवाह बनिज सब दंभ । काटन खनन गिन नहि करै, बस्तर धोइ न कबहुं धरै ।।१०।। पशु राख नहि मन्दिर रच, मित्य नहान कबहूं नहि सचै । वाहन चढ़ न साथ लहेइ, पत्र फल फल नहीं गहेइ ।।१०६॥ जंत्र मंत्र औषधि नहि साध, वैद्यक ज्योतिष धातु न रात्रं । ऐसी क्रिया भव्य चित रमी, यह आरम्भ त्याग अष्टमी ॥१७॥ कट कौपीन बस्त्र इक लेइ, दशविथ संघ त्याग करि देई । इंद्रिय दण्ड मन बच काय, पाप करम किंचित नहि थाय ।।१०।। नवमी प्रतिमा जानो देह. परिग्रह त्याग कहावे तेइ । मध्यम श्रावक धार यही, स्वर्ग पन्थ को कारण सही ॥१०॥ बनिज विवाह भाप पाहार, इनकी अनुमति दे इन सार । भोजन को जु बुलाये जाय, दशमी अनुमति त्याग कहाय ॥११०॥ उदिष्ट त्याग प्रतिमा गैरमी, उत्तम थावक घर शिर नमी । ताके भेद दोय परमान, क्षुल्लक ऐलक कही वखान ।।११।। जो गरु निकट लेइ प्रत जाद, वसै गुफा मठ मंडप पाइ । कटि कोपीन कमंडलु लहे. एक धसन तन पीछी गहैं ।।११२।। राख भिक्षा भाजन पास, चारो परब करें उपवास । ल अनुदिष्ट शुद्ध पाहार, लाभ अलाभ रोष नहिं धार ॥११॥ माथैके कतराव वार, डांडी मुछ न राखै भार । तप विधान धारं गुरु पास, कहैं मुक्ति आगम प्राभास ।।११४॥
दोहा यह क्षल्लक धावक क्रिया, कहौ किमपि अवधार । अब दूजो ऐलक सुनी, है पुनीत अधिकार ।।११५|| कटि कौपीन जु संग्रहै, पिछी कमंडल हाथ । पान पात्र आहार विधि, केश लुचावै माथ ।।११६।। शीत घाम सब तम सहै, ऐलक सदा विराग । एकादश प्रतिमा घरं, सो श्रावक बड़भाग ॥११॥
का मल है, श्रेष्ठ गपों का प्राकार है, एवं धर्म का आदि कारण---मूल बीज है। स्वयं जिनेन्द्र प्रभु ने इस बातको कही है। . जिसमें असत्य एवं निन्दनीय बचनों का घृणा पूर्वक परित्याग कर, हितकारक, साररूपी धर्मके प्राकार सत्य वचनों को कहा जाता है उसको सत्य अणुव्रत कहते हैं और यह दूसरा है। सत्य वचन बोलने से संसार में स्वच्छ कीतिका विस्तार होता है। सरस्वती, कला, विवेक एवं चातुर्यकी अभिवृद्धि होती। यदि कदाचित दूसरेका धन बिना जाने हो कहीं गिर गया है, भूलसे छट गया है, ग्रामके किसी गुप्त स्थान में रखा है तो से धनको नहीं ग्रहण करना अचौर्य नामका अणुव्रत है और यही तीसरा है। जो लोग दसरेके धनों को चुरा लिया करते हैं उन्हें पाप-कर्म के उदय से इसी लोक में वंध उन्धादि दुःखों को प्राप्त करते हैं और दसरे जन्मों में भी नरक मादिकी यन्त्रणाओं को भोगते हैं। जिसमें जो अपनी स्त्री के अतिरिक्त सम्पूर्ण स्त्रियोंको सर्पिणीकी तरह समझ कर उनसे अलग रहते हुए और अपनी यथा प्राप्त स्त्रीसे ही सन्तुष्ट रह जाता है इसे ब्रह्मचर्य नामका अणुव्रत कहते हैं और चौथा है। खेत, गृह, धन, धान्य, दासी, दास, पशु, आसन, शय्या वस्त्र और पात्र ये दस बाह्य परिग्रह हैं इन परिग्रहों की संख्या तथा लोभ और तृष्णाके लिए जिम ब्रतका विधान है उसको परिग्रह परिमाण नामक अणुव्रत कहते हैं और यह पाचवां है। इस परिग्रह प्रमाण के करने से प्राशा और लोभ का नाश होता है, सन्तोष धर्म और सुख सम्पदाएं प्राप्त होती है। दसों दिशाओं में आने जानेके लिये जो योजनादि मार्ग परिमाण या मर्यादा स्थिरकी जाती है वह दिग्बत नामका