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ब्रह्म स्वर्गपति सारस रूढ़, हंस चल्यो लान्तषिप गूढ़ । शुक्रहि इन्द्र गरुड़ असवार, सामानिक संग सब परिवार ॥५२॥ स्वर्ग शतार ताहि आधीश, चढ़ि मयूर वाइन नभ शीस । आनत आदि इन्द्र चत्वार, पुष्प विमान भये असबार 1॥५३॥ इहि प्रकार द्वादश सुरराज, सब विभूति लीन दस साज । अरु प्रतीन्द्र बारह सम उक्त, अपने-अपने वाहन जुक्त ॥५४।। पटह बजे अति शब्द गंभीर, दशदिशि ध्वनि पूरित वर वीर । छत्र ध्वजा छायो नभ भाग, स्वर्ग विभव जिमि पायौ जाग ॥५५॥ गीत नत्य वाद्यादिक करें, जिनवर ज्ञान महोत्सव धरै। मानों ऋतु बसंत शोभत, कोकिल मधुर वचन घोषत ॥५६|| ज्योतिष पटल देव सब भार, चन्द्र सूर्य ग्रह नखत जु सार । अपने अपने वाहन साज, मंडित सकल विभूति विराज ॥५७।। प्रसंख्यात सत्र सहित जु देव, धर्मराग रस अकित सेव । जिनवर कल्याणक वंदना, चले देव अरु देवांगना ॥५॥ भबनासुर अति आतुर चले, दशहि दिशन दल साज जु मिले । असुरकुमार इन्द्र दो ठान, चामर और विरोचन जान ।।५६॥ नागकुमार दोय गुण धाम, धरणेन्द्र हि अरु आनन्द नाम । विद्युतकुवर दोय तिपन्न, हरिसिंह हरिकान्ता जुवरत्न ।। ६०।। सूपनकुमार दोय स्वामीश, वेणुसिन्धु वेणुतालीस । अग्निकुमार इन्द्र है जुग्म, अग्निवाह पितृवाहन जुग्म ॥६॥ वातकुमार इन्द्र दुइ होय, बालअंजन प्रभजन दोय । स्तनितकुमार भवन के राज, घोष महाघोष दुइ साज ॥६२।। उदधिकमार इन्द्र दो जान, जलकान्ता जलप्रभा बखान । द्वीपकुमार इन्द्र है सोय, पूरण प्रथम विशिष्ट जु दोय ॥६३॥ दिक्कुमार है इन्द्र महान, अमितगति अमितबाह्न ठान । एक दश भबन इन्द्र गन बीस, अरु प्रतीन्द्र गन सब चालीस ॥६४॥ श्री जिन ज्ञान कल्याणक सेवा, देवनि सहित साज सब देव । हर्ष सहित मन वच तन प्रीत, करे महोत्सव धर्म सुरीत ॥६५॥ व्यन्तर देव अष्ट परकार, तिनको भेद कहीं कछ सार । किन्नर प्रथम इन्द्र हैं दोय, किन्नर प्रभ किन्नरमति जोय ॥६६।। अरु किम्पूरुष इन्द्र दो जान, महापुरुष सतपुरुष प्रमान । महोरग इन्द्र जाति दो मही, अतीकाय महकाया यही ॥६७।। गंाकि दो इन नहाना मी लस और सुजान । यक्ष इन्द्र दो नाम प्रताप, पूर्णभद्र मणिभद्र मिलाप ॥६॥ राक्षस इन्द्र कहे जु बखान, भीम प्रथम मह भीम प्रवान । भूतदेव हैं इन्द्र सु दोइ, अप्रतिरूप प्रतिरूप जु होइ ॥६६॥ विशाच अष्ट में इन्द्र महान, काल प्रथम महकाल बखान । ए व्यन्तर है षोडश इन्द्र, अरु प्रतीन्द्र मिलि वत्तिस वृन्द ।।७।। अपनी सब सामग्री जोय, केवल ज्ञान जान प्रभु सोय । पूजाके उर भाव बढ़ाय, चलें भवनतै अति हरषाय ।।७१॥
पर चढ़े थे, महेन्द्र स्वामी बैलोंपर चढ़े थे। ब्रह्म इन्द्र सारसकी-सवारी पर चढ़ा था । लांतवेन्द्र हंस पर, शुक्रन्द्र गरुड़ पर, सामानिकादि देवों और देवियों सहित बल ज्ञानकी पूजाके लिये निकले । अभियोग्य देवों में से शतार इन्द्र भी मोर की सवारी पर निकला। शेष मानत आदि कल्पोंके मालिक चार इन्द्र पुष्पक विमान पर चढ़ कर पहुंचे। कल्प स्वर्गाके १२ इन्द्र १२ प्रतीन्द्रों सहित अपनी सवारी पर चढ़ कर वहां पहुंचे। हजारों ध्वजा पताकाओं छत्र चंबर आदि शादित्रोंको बजाते हुए वहाँ पहुंचे। जय हो ! जय हो !! के नारे लगाते हुए ज्योतिषी देवों के पलटों में पहुंचे। चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र तारे रूप ज्योतिषी देव अपनी अपनो सवारियों पर चढ़कर हर्षं सहित जय जयकार करते हुए पृथ्वी पर स्वर्गसे नीचे उतरे। २० असुर जातिके देव'; १० भवनवासी देवों के इन्द्र भी अपनी देवियों सहित सवारी पर चढ़कर रवाना हो गये।
पश्चात प्रथम इन्द्र, किन्नर किंपुरुष, तत्पुरुष, अतिकाय , महाकाय गीतरति, रतिकोति, मणिभद्र, भीम, महाभीम, सुरूप, प्रतिरूपक काल, महाकाल, ये किन्नरादि आठ तरहके व्यंतर देवों के १६ इन्द्र और इतने ही प्रतीन्द देवों सहित ज्ञान कल्याणकम सम्मलित होने को पृथ्वीपर उत्तरे । ये चार निकाय के इन्द्र और देव' इन्द्रानियों सहित सुशोभित थे। वे भगवान महावीरकी जय बोलते हए दर्शनों की उत्कंठा से सभा-मंडप के पास पहुंचे वह मंडप दूर से चमक रहा था। तमाम ऋद्धियोंसे परिपूर्ण था । रत्नोंसे चारों दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था। ऐसे मंडप को बनाने की सामर्थ्य सिवाय कुवेर के और किसी में भी नहीं हो सकती। उस मंडप की रचना का विस्तार सिवाय गणधर देव के और किसी में भी सामर्थ्य नहीं जो बना सके। फिर भी भव्य जीवों को समझाने के लिए यथा साध्य हम समोशरणका वर्णन करना उचित समझते है । वह समोशरण १ योजन के विस्तार में बनाया गया था। गोलाकार था, इन्द्र नील मणियोंकी चमक से प्रकाशित था । पृथ्वी से दाई कोस ऊपर आकाश में था। किनारे के चारों