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आयु करम पंचम विख्यात, चारों गति सी आयु ददात । दुःख सुख्य संपूरण धार, शृखलवत तिहि भाव विचार ।।४।। नाम करम छट्टम जानिये, कि गिरानद लिहि मानचित्रकार त हे गुण सोय, नर सुर नारक पशु जो होय ।।४।। गोत्र करम कहिये सातमा, ऊंच नीच कूल धरं आतमा । उत्तम निद्य लहै जन ताहि, भकार वत कहिये जाहि ॥४२॥ अंतराय है अष्टम कर्म, भंडागारो गुण तिहि चर्म । दान लाभ भोगो उपभोग, बीर्ज सहित पचोनहि जोग ।।४३।।
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इत्यादि बस्तु कर्मको, है स्वभाव वहु वेष । प्रकृति बंध जिनबर कह्यो, बंधे जीव प्रदेश ॥४४॥
स्थितिबन्ध निरूपण
चौपाई
कामावरण दर्शनावरण, वेदनि अंतराय थितिकरण । काडाकोड़ी सागर तीस, सो उत्कृष्ट कही जगदीश ॥४॥ मोहिनी कर्म तनी थिति लिध, कोडाकोड़ी सत्तर सिंध। आयु कर्म उत्कृष्ट बखान, तैतिस सागर को परवान ।।४६।। कोडाकोडी सागर बीस, नाम गोत्र उत्कृष्ट थितीस । अब जघन्य थितिको परवान, जूदी जदी सनिये बधवास की करमवेदनी द्वादश जान कही मुहरत इन उनमान । अष्ट महरस नामहि गोत्त, यह जघन्य थिति तिनको होत ।४।। पंच करम जे शेष जघन्य, अन्त मुहूरत थिति पर मन्य । मध्यम के तिन भेद अनेक, सर्व करम भगत
जिस की अथ त्रिपल्य प्रमाण वर्णन
दोहा अब त्रय पल्य प्रमाण मिति, कहो अर्थ अवधार । श्रद्धा कर भवि जन सुनौ, मन सन्देश निवार ||५०।। ...
चौपाई
उत्तम भोगभूमिके भेड़, सात दिवसके बालक मेड. । तिनको रोम पाठ परवान, मध्यम भोगभूमि इक जान ॥५शा मध्यम भोगभूमि वसु धार, भूमि जघन्य भेड़ इकवार । जघन्य भोगभूमि बसु होइ, कमभुमि इक लाहिये सोईर आठ रोमकी लोक प्रमान, लोख अष्ट इक. राई ठान । राई माठ एक तिल लेह, बसु तिल इक जब उदर गनेह ||१३|| वसु जब उदरं उदर मिलाय, अंगुल एक लहै समुदाय । द्वादश अंगुलको परमान, एक विलाती कहै बखानी दोय विलाती हाथ विशेख, चार हाथ इक दण्ड हि लेख । दण्ड सहस । कोश जुगनौ, चार कोश लघ जोजन भनी । मो इक जोजन कप खनाय, बालयाकृति बिस्तार बनाय । कितनी ही गहरी उनमान, अब सुनिये वह कर सजान का उत्तम भोगभूमि जो भेड़, ताके रोम लेइ सब खेड़ । तेही रोम खड बहु करै, यही कल्पना मनमें वापसी
उपर्यत सम्पर्ण पाप कारणों के विपरीत शुभ माचरणों का अनुष्ठान करने से सम्यक् दर्शन ज्ञान एवं चरित्र से प्रणवत महाव्रतों से कपाय इन्द्रिय योगों को रोकने से नियम मादिके धष्ठदानसे परहन्त के पूजनसे गर-भक्ति एवं सेवा करने से सदभावना पर्वक ध्यान एवं अध्ययनादि शूभ काया से धमापदश से चुदमान पुरुषों को उत्कृष्ट धर्म की प्राप्ति हमा करती बंराग्य यक्त है धर्ममें अन रक्त है पापसे दूर रहता है पर-चिन्ता से रहित होकर ग्राम चिन्ला में लीन है देव गावं शास्त्रोंकी परीक्षा करने में पूर्ण समर्थ है एवं कृपासे परिपूर्ण है वे उत्कृष्ट पुण्याका उपार्जन करते हैं। जिनके वचन पांच परमेष्ठियों के जप स्तोत्र एवं गणों को कहने वाले हैं प्रात्म-निन्दा से युक्त एवं परनिन्दा से होन होते हैं कोमल स्वर में धर्मोपदेश को करने वाले हट मध्यमांदा रुप शुभकर्मों के दाता हैं ऐसे लोग शुभ वचनों के प्रभाव से परम पुण्य को प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार जिन लोगों का शरीर कायोत्सर्ग (खड़ा रहना) आसन (बैठना) रूप है जिनेन्द्र भगवान की पूजा में सदैव तत्पर रहते है गरकी सेवा में प्रयत्न शील रहते हैं पात्र को दान देने वाले विकार हीन होकर शुभ कार्यों को करने वाले हैं एवं समानता को प्राप्त हैं ऐसे बद्धिमानों की शारीरिक पुण्य-कार्योक प्रभावसे राम्पूर्ण आश्चर्यजनक मुखों को देनेवाले महा पुण्यों को प्राप्त करते हैं। जो वस्तू अपने को अनभिहोमी वस्तओं को दूसरों के लिये भी अनिष्ट ही समझना उचित है। जो कि ऐसा समझता है वह निश्चय'रूपेण