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दोहा अंगुल एक जु रोमके, बीस लाख खण्डान । सहस संतावन एक पुनि बावन अधिक प्रमान ३५८|| ऐसे सूक्षम सा करै, फर खण्ड नहि होय । तिन रोमन कूपहि भर, क्रूट दावि दृढ़ सोय ।।५।। तिन रोमन संख्या कही, अक हि पैतालोस । अब तिनको विवरण सुनी, भाया वीर जिनेश ।।६।।
उक्तं च गाथा
"चद मेग तय चदुरो पण दोण्हं च छक्क तय सुन्न । तय सुन्नं बसु दोण्ह सुन्न तप तुरिय सत्त सत्तं च ।। सत्तं चद् जब पणगं मैग दोण्हं च मेग णव दोण्हं । अग्गो ट्ठारस सुन्नं अंक पणताल रोम लघपल्लं " अब इन अंकनको लिख अर्थ, जिहि विधि जिन शासन लहि ग्रंथ । चार इक बय तुरिय जु पच, दो छः तोन धरि शून्य त्रि पंच !! शन्य पाठ दो शून्य जु तीन, चार सात पुनि सातहि लोन । सात चार नव पंचह एक, दोय एक नव दोय विशेक ।।६।। सात बीस ए अंकहि धरी, ता पर यून्य अठारह करौ । यही अंक हैं पंतालीस, कूप रोम को संख्या दीस ॥६३।।
(४१३४५२६३०३०८२०३४७७७४६५१२१६२००००००००००००००००००) सौ सौ बरस बीत जब जाहि, एक एक काढ़ी बुध ताहि । कूप उदर जब खाली होय, सो व्यवहार पल्य प्रबलोय ॥६४|| भोगमिया नर तिरि एब, ज्योतिष व्यन्तर भावन देव । कल्पवासिनी देवी सोय, वही पल्य जीवत क्रम जोय ॥६५॥ शाय पल्य ऐसी विधि कहीं, सब सुन सागर पल्य जु सही । लघु जोजन' शत पंच प्रमान, जोजन महा एक उनमान ||६६।। ताको कुप जु वे हो भति, लहि विस्तार गंभीर विख्यात । पूरब रोम एक खंडान, ताके अंश शतक परवान ॥३॥ तिहि रोमन सौ कूप भराय, सौ बरषंगत एक कढ़ाय । जब हि कूप वह खालो होय, तब उद्धारपल्य अवलोय ॥६॥ ताके अंक तिरानवै होय, इतनी वरष असख्य जु सोय । सो दश कोडाकोड़ी जाय, सागर आयु कह यो जिनराय ॥६६॥ देवनारको र काल पट काल, कपनकी थितिका गन हाल । अर कोड़ाकोड़ी पच्चीस. पल्यउधार रोम जे दीस ॥७॥ द्वीपोदधिकी संख्या जान, नामावलि सवको पहचान । ताके अंक गुनौ बुधवान, अष्टोत्तर शत सब परवान ।।७।। सागर पल्य जानिये यही, राजू पल्य सुनो अब सही । जोजन महा लाख इक जान, पूरब रोति कूप उनमान ।।७२।। रोम अश बह सौ गुन कर, इहि विधि महा क्रूप को भरै । सौ सौ जब ही वर्ष गतंश, एक एक तब का अंश ||७३।। जयहि कप वह खाली होय, अद्धा पल्य जानिये सोय । ताके अंकनको परमान, इक सय पच्चासी घर ज्ञान ।।७४||
दोहा प्रथम पल्य संख्यात गन, दुतिय, असंख्य बखान । असंख्यात गन तोसरी, यह जिन बचन प्रमान ।।७५।। आव पल्य लघु प्रथम ही, मध्यम सागर पल्य । उत्तम राजू पल्य त्रय, अब तिन गिनती शल्य ।।७६॥
पुण्यशाली है। इस प्रकार तीर्थराज श्री महावीर प्रभु ने उपस्थित जीव समूहों एवं गणधरों के सामने संवेग होने के लिये पुण्यके अनेक प्रकार के कारणों को कहकर पुण्य फलों को कहना प्रारम्भ किया।
सशीला एवं सुन्दरी स्त्री, कामदेव के समान रूपवान पुत्र, मित्र के समान भाई, सूख देनेवाले परिवार पर्वतके समान हाथी इत्यादि वैभव, कवियों के द्वारा भी अवर्णनीय सुख, अतुलनीय भोगोपभोग सौम्य शरीर मधुर वचन दयापूर्ण मन रूप लावण्य तथा अन्यान्य दुष्प्राप्य सुख सम्प्रदाएं पुण्योदय के प्रभाव से ही प्राप्त हुना करती हैं। तीनों लोक में दलभ अनेक पुण्य कों को करने वाली लक्ष्मी स्वयं ही गृहदासी के समान पुण्योदय के प्रभाव से धर्मात्माओं के अधीन हो जाती है । लोक्य पति के द्वारा पूजनीय एवं भव्य जीवों की मुक्ति का कारण उत्कृष्ट सर्वज्ञ का वैभव भी पुण्योदय से ही उत्पन्न होता है। उस इन्द्र पद को भी बुद्धिमान पुरुष पुण्योदय से ही प्राप्त करते हैं जो सम्पूर्ण देवों के द्वारा पूज्य है, सकल प्रकार के भोगों का श्रेष्ठ स्थान है एवं अनेक उत्तम-उत्तम सम्पदाओंसे सुशोभित हैं। निधि एवं बहुमूल्य रत्नराशियों से परिपूर्ण होकर अनेक प्रकार के सखों को देनेवाली छः खंडोंकी लक्ष्मी भी ऐसे ही पुण्यात्माओं की पुण्य योगसे मिल जाती है। इस संसारमें अथवा नीनों जगतमें जो बाछ भी
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