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चौपाई एक अंक को एक ही नाम, शुन्य धरै दश कहि अभिराम । तृतिय अंक जुन सय गनि लेउ, चार अबको सहम भनेउ ।।७।। षट् ग्रंकन को लक्ष ज सोय, पाठ अंकबो कोड जु होय । कोडाकोड़ी मोडश अंश, ताको प्रमिति पदम निरसश ।।७।। कोड़ाकोडि दह पदम ज जहां, अंक इकतीसति गनिय तहां । ताको नाम कल्प परवान, इतनी संख्या काहि जिनवान ||७|| कल्प करी सय कोड़ाकोड़ी, तिहि सैताल अंक लिखि जोड़ि । जो व्यवहार पत्य वा सात, मो संख्यात प्रमिति यह ठान ।।८।। आध पल्य याही सौ कहै, अब उद्धार पल्य संग्रहै । संख्य संख्यगुन कीजै जोर, होय असंख्य प्रमाण बहोर ।।।। ते तिरानवे अंकहि गनौ, सागर माब पल्य सो भनी । असंख्य असंख्य गुण अंकहि धरौ, इक सय पचासी ऊपरी ।।दश। प्रजा पल्या नाम है सोय, सो दश कोड़ा कोड़ि होय । प्रद्धा सागर ताहि बखान, दो सब अंक गनौ बघवान ॥३॥ ते दश कोडाकोडि समुद्र, सुची एक गनी धर रुद्र । पन्द्रह उत्तर दो सय अंक, सुइ दश कोडाकोडि बक ॥॥ तासौ कहै जगत धन ऐ४, अंक दोयस तीस परेह । दश कोड़ाकोड़ि धन एह, सो जानौ इक पद कहि एह ||५|| अंक दोयसे ठानि पंताल, सो दश कोडाकोड़ी साल । जो कहिये जग थेणि प्रधान, ग्रंक दोयसै आठ बखान 15६।। ताके भाग सात कर देव, एक भाग राज गनि लेव । अब सब अंकनको परमान, लिखों ताहि भ्रम नाशन जान ||७|| अब मुहर्त को मुनिये भेव, जिहि विधि रययौ बीर जिनदेव । समय असमय प्रावली एक, प्रावलि बारह खाराहि टक मात श्वास को स्तोक भनेइ, सात स्तोकको लब कर लइ । आठ आठ तिस लव परवान, एक घड़ी यो यह उनमान रहा। दोय बड़ी जब बीते सोइ, एक मुहरत काल सु होइ । ताके श्वास सहन वय ठान, सात सया य तिहत्तर जान ||60|| तामें कमो करो वध धार, श्वास सतासी प्रावलि बार । अंत मुहरत ताकी नाम, आगे पीर सुनो अभिराम || नीस महरत निश दिन जोय. पन्द्रह दिवस पक्ष इक होय । दोय पक्ष गत मासहि एक, द्वादश मास वर्ष इनटेक २||
दोहा इहि विधि करमन थिति बंध्यौ, सागर मिति उतकिष्ट 1 पोर जघन्य मुहूर्त गनि, त्यागत भव्य अनिष्ट ||३|| मध्यमके है भेद बहु, तारतम्य कर लेख । जुदी जुदी सब प्रकृति थिति, कर्मकाण्ड में देख ॥१४||
अनुभाग बन्ध निरूपण
चौपाई
अब अनुभाग बन्ध दृइ भेद, पर अशुभ सुव्य दुख खेद । शुभको उदय चार विधि बुधा, गुड़ खांडहि मिश्री जल सूधा ।। || अशा भेद पनि चार प्रकार, कांजी बिम्ब विष त्रय धार । हालाहल जन चारो गेह, इनसौं दुग्न व्या अधिकह ।।६६|| छिनमें सूख छिनमें दुख होइ, यह अनुभाग वंध अग्लोइ। इहि विधि बंध्या जीव' संसार, कर्मनसों पाव नहि पार ॥७॥
सारभत परमोत्तम वस्तु है और वह अत्यन्त दुर्लभ ही क्यों न हो पुण्योदय के प्रभावले तरक्षण ही प्राप्त हो जाती है। इसलिये
प्राणियो ! यदि तुम लोग भी सुख प्राप्तिको अभिलाषा रखते हो तो पूर्वोत्र पुण्योंके अनिर्वचनीय अनेक उत्तमोत्तम फलाको समझकर प्रयत्न पूर्वक उच्चतम पुण्य कमाम प्रवृत हो जायो ! इस प्रकार पाप पुण्य सहित सात तत्वों का स्पष्ट व्याख्यान कचकने के बाद जिनेश्वर महावीर प्रभु ने सम्पूर्ण संसारिक जीवों के हेय त्याज एव उपादय (ग्राह्य) वस्तुओं का उपदेश करना प्रारम्भ किया।
सम्पूर्ण भव्य जीवोंके हितेच्छु अर्हन्त श्रादि पांच परमेष्ठी हैं इसलिये जोब समूहके द्वारा उपादेय है। निविकल्प पद पर पहंचे हर मुनियों के लिये तो गुण सागर एवं सिद्ध पुरुपोंके समान मानवान् अपना यात्मा ही उपादेश है। व्यवहार दष्टि पावद्धिमान पुरुपोंके लिये शुद्ध निश्चय नय के द्वारा सभी जीव उपादेय है । व्यवहार दृष्टि से सम्पूर्ण मिथ्यादष्टि मभव्य Sad सखों में लीन पानी एवं धर्म जीव हेय (त्याज्य) कहे गये हैं। रागयुक्त जीवोंके लिये धर्म ध्यान के निमित्त अजीव पता कहीं तो प्रादेय कहे गये हैं परन्तु विकल्प होन योगियों के लिये तो सकल अजीव तत्व हेय ही हैं। इसी तरह पूण्य कर्मका