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प्रदेश बंध निरूपण जीव प्रदेश असंख्य प्रमान, पुद्गल नंतानत बखान । तिन परदेशन वेतन वंध्यो, दरशन ज्ञान चरन नहि सध्यौ ॥१८॥
दोहा इहि विधि चारों बंध की, दुल सुख बाकी जीय प्रारका रूपी , बंध काट शिव पीव ।
संबर तत्व का वर्णन
चौपाई रागादिक परिणामन जीव, त्याग तिन्हें सर्वथा सीन । प्रास्रव तनै निरोधन हेत, सो सु भाव संवर कहि देत ।।१०।। द्रव्यासबको करो निरोध, सोही संवर द्रव्य परोध । पंच महावत समिति ज पंच, तीन गुप्ति दश धर्म हि संच ।।१०।। द्वादश अनुपेक्षा चितौन, जय बाईस परीषह मौन । ए संतानव डाट धरै, ऐसी क्रिया द्रव्य सबरं ।।१०२॥
दोहा जैसे नौका छिद्र जत, जल पावे चहं पोर । सो कर्माबरोकिय, संबर डाटै जोर ।।१०३।।
निर्जरा तत्त्व का वर्णन
चौपाई वाहयो निर्जरा दो परकार, सविपाकी अविपाकी सार । सविपाकी सब जीवन होइ, अविपाकी मुनिवरको जोय ॥१०४।। तपकर बल कर्मन भोगव, सोइ भाव निर्जरा तय । बंध कर्म छूट जिहि बार, दर्ब निर्जरा कहिये सार ॥१०५।।
मोक्ष तत्व का वर्णन | सकल करम खय कारण भाव, तासों भाव मोक्ष ठहराव । संपूरण कर्मन खय करै, द्रव्य मोक्ष अविनाशी धरै ।।१०६॥ बंध्यौ कर्म बंधन बहु जीव, ताकी तोड़ भयो जग पीव । लोकशिखर पर कोनो वास, सुख अनंत उपमा नहि जास ॥१०७।। अहमिन्द्रादिय देवधिराज, चक्री खग मादिक नर साज । भोगभुमिया पशु परजाय, व्यंतर और सबै समुदाय ||१०|| इनके सब सूख पिडी करै, एक समय सिद्धनको धरी । तौ जिहि समसर पुरव माहि, सदा सुख्यकी उपमा काहि ॥१०॥ सप्त तत्व संक्षेपहि कहै, पाप पुण्य जत नव पद लहै । ताको भेद सुनी थिर होइ, गर्भित प्रश्न शुभाशुभ सोइ ।।११।।
मानव एवं बन्ध रागयुक्त जीवों के लिये पाप कर्म की अपेक्षा उपादेय कहे गये हैं और मुमानों (मोक्ष चाहने वालों के लिये प्रास्रब एवं बन्ध दोनों ही हेय हैं । पापके जो पानव एवं बन्ध हैं वे तो सर्वथा हेय है क्योंकि इनसे विविध प्रकार के दुःखों को उत्पति होती है और स्वयं भी ये अपने आपही उत्पन्न हो जाते हैं। सम्बर एवं निर्जरा सब अवस्थामें सर्वथैव उपादेय होते हैं। इनके अतिरिक्त मोक्ष तत्व तो अनन्त एवं अक्षय सुखोंका समुद्र है इसीलिये यह सर्वतो भावेन उपादेय है। इस प्रकार हेय एवं उपादेय वस्तुको अच्छी तरह जानकार बुद्धिमान पुरुषोंको उचित है कि यल पूर्वक हेय वस्तुओंसे सदैव दूर रहें और सम्पूर्ण उत्कृष्ट उपादेय वस्तुओंका ग्रहण करें। प्रधानतया पुण्यबन्धका करने वाला सम्यकदृष्टि गृहस्थती एवं सराग संयमी होता है। कभी कभी मिथ्यादष्टि गृहस्थ भी कमों के मन्द उदय होने के कारण काय क्लेश पूर्वक भोग प्राप्तिकी अभिलाषासे पुण्यभत पासव बन्धको करने लग जाता है। मिथ्यावृष्टि जीव दुराचारी होने के कारण कोटि कोटि जघन्य कार्यों का प्राचरण करके मुख्यतया पापानव एवं पाप बन्धका करने वाला होता है। इस धरातल पर केवल मात्र योगी ही संवर आदि तीन तत्वोंके करनेवाले जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमान होकर रत्नत्रयसे सुशोभित हो पाते है। भव्य जीवोंको संवर आदि की सिद्धि प्राप्तिके लिये अपना विकल्परहित आत्मा एवं परमेष्ठी कारण होते हैं। पापाखब एवं पापबन्धके और अपने तथा अन्यान्य प्रज्ञानियोंका कारण मिथ्यादष्टि ही हैं । सम्पूर्ण बुद्धिमान् भव्य जीवों के सम्यक् दर्शन एवं ज्ञान का कारण पांच प्रकार का अजीब तत्व है। पुण्यात्रव एवं पुण्य बन्ध सम्यकदष्टि वालों के लिए तीर्थकरकी विमल विभुतियों को देते हैं तथा मिथ्यादष्टि वालोंके लिये ये दोनों संसारके कारण हो जाते हैं। पापालव और पापबन्ध प्रज्ञानियों को होते हैं। ये दोनों संसारके कारण और सम्पूर्ण दुःखोंके कर्ता हैं।
संवर एवं निर्जरा मोक्षके कारण हैं और मोक्ष अनन्त गुख रूपी समुद्र का कारण है। इस प्रकार जिनेन्द्र प्रभ सब पदार्थोके कारण एवं फलादिको कहकर प्रश्नोंका उत्तर देने लगे। जो जीव सात प्रकारके दुर्व्यसनों में आसक्त हैं परस्त्री एवं
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