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जुदे जुदे तापर सु उतंग, तीन कोट हाटकमय रंग। चारौं दिश गौपुर संबंध, चमर छत्र ध्वज मंडित रंध्र ॥१०॥ मंगल द्रव्य धरी समुदाय, अरु तह रहै देव बहु प्राय । चैत्य वृक्ष तिहि मध्य प्रवान, जम्मू वृक्ष तले उनमान ॥११०|| ताके मूल चहूं दिश चार, श्री जिनवर प्रतिमा भवतार । बाग मध्य चारों दिश जान, वन वेदी हैं चार महान ।।११।। कनकमयी मणिसचित प्रबास, दरवाजे उन्नत चौ पास । ता ऊपर जिन प्रतिमा राज, छत्र चमर प्रादो सब साज ॥११२।। तहां इन्द्र पूजा बिस्तरै, महापुण्य को परगट करे। ऐसे हो सब बन बन मांहि, सबै विभति चैत्यद म पाहि ॥११३॥ अब वन वेदीले कछु मही, रजत कोट लौं जानो सही। तह ते ध्वजा पांति फहराई, कचन खम्भ लगी लहराई ।।११४॥ दश प्रकार है तिन आकार, ताके भेद सुनो निरधार । माता शुक मयूर अरविंद, हंस गरुड़ मृगपति जुगयंद ।।११५।। वषम चक्रवश चिह्न मनोग, ध्वजा दुकलनकी संजोय। एक जाति की सी अर पाठ, दशर्म असी सये हैं ठाठ ॥११६।। चारों दिशकी सब परवान, सत तेताल वीस अधिकान । ध्वजा पवन वश हाल सबै, जिन पूजन भवि पाये सब ।।११७।। पंथ खेद भवि जीव न धरै, सुश्रपा धौं तिनकी करें। ध्वजा यखानी परिणति यही, नानारंग शोभा अति लही ॥११८।। प्रागे रजत मयी है कोट, धवल मही अति उन्नत मोट । श्वेत सुजस प्रभु को वह पारा, फेरी देकर रहिउ प्रकास ।।११।। पुरख सदरमाजे चार, भानावर्ग कन, छवि सार । नवनिधि मंगल दरव समेत, तोरन प्रमुख सफल शोभत ।।१२।। हेम कोट बत वर्णन सबै, भवनपती दरवानी तबै । दरवाजन ने बीथी चली, चारों तरफ एकसी भली ।।१२।। दो दो धूप तने घट तहाँ पुरववत वर्णन सब जहां । इहि विधि चारों दिश जे सही, नाट्यशाल पुरववत कही ।।१२२|| नाटयशाल दोई दिश जान, गीत नृत्य सुर करै प्रमान । तह ते कछ् अंतर वन लह्यो, कल्पवृक्ष नामांकित कह्यौ ॥१२३।। दश विधि तहां कल्पतरु ठीक, अति उतंग छाया रमणीक । फूले फले अधिक मनरंग, वस्त्राभूषण अादिक रंग ॥१२४|| दश विध दान दैन संजोग, मनवांछित पुरवं सब भोग । पूरव बत चर वापी दीठ, बनके मध्य त्रिमेखल पीठ ।।१२।। तीन कोट हैं गिरदाकार, कोट नोट प्रति गोयुर चार । मुक्ता बन्दनवार अपार, घंटा तोरन शोभित सार ।।१२६।। मध्यभाग सिद्धास्थ वृक्ष, ताकी शोभा सुनो प्रतक्ष। चारों दिशा वृक्ष के मल, सिद्ध समान विम्ब जिन थल ॥१२॥ छत्र चमर ध्वज मंडित सोय, पूजा इन्द्र कर तह जोय। और सकल शोभाको जान, चैत्य वृक्ष पूरबवत मान ।।१२८।।
का किरवयं देवकर, उत्तर कुरु भोगमि स्थान ही इन कल्प वृक्षों को साथ लेकर जिनेन्द्र प्रभ को मेवा करने के लिये आ गये हों। कल्प वाक फल ग्राभूषणों की तरह दीख पड़ते थे, पत्ते वस्त्र के समान थे, और शाखाग्री (टालों) से लटकती हई सन्दर मालाएं बटयक्ष जटामों के समान जान पड़ती थीं उनमें से ज्योतिराहकहप वृक्षक नीचे कल्पवासी देव और मालांग कल्प वक्षके नीचे भवनवासी इन्द्र स्वयं रहते थे। कल्प वृक्ष बनके बीच में अतिरम्य सिद्धार्थ वृक्ष थे और उनके मूल में छत्र चामरादिस अलंकृत प्रभकी प्रतिमाएं थीं। पूर्व कथित चैत्य बक्षके समान हो इनकी भी स्थितिको भिन्नता केवल इतनी ही श्री कि वे कलावक्ष अपनी इच्छानुसार अभीष्ट फलको देने वाले थे। इस. कल्प वृक्षवन की वारों ओरसे परकर बहुमूल्य रत्नोंते जड़ी हुई स्वर्ण वेदिका बनी हई थीं और ज्योतियोंसे जगमगा रही थी।
उसमें चांदीके बने हए चार दरवाजे थे। उनके अन्य शिखरों पर मोतियोंकी मालायें गथी हई घण्टिकाएं लटक रही थीं, गान, वाद्य एवं नृत्य हो रहा था, पुष्पमाला इत्यादि मंगल की आय वस्तुएं धरी हुई थी, प्रकाशमान रत्नों के द्वारा बनाये गये तोरण लटक रहे थे। इन दरवाजों के बाद राजपथ पर स्वर्ण-स्तम्भक मागे अनेक प्रकारको ध्वजाएं लटक रही थी और एक अदभत छटाको विखेर रही थी। रत्न जटित पीठासन पर खड़े किये गये उन स्तम्भोंको देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानों बे खडे होकर सम्पूर्ण भव्य जीवों को 'प्रभुने कर्म शत्रुओंको अनायास ही जीत लिया है। इस बातको सुनाने का प्रयत्न कर रहे हों। उन खम्भोंकी मुटाई अट्ठासी अंगुलकी थी। पच्चीस धनुष (पचासगज ) की दूरी थी। इस प्रकार गणधर देवने कहा। तीर्थकर की उंचाईसे मानस्थम्भ, ध्वजा स्तम्भ, सिद्धार्थ, चैत्यवृक्ष, स्तूप, तोरण सहित प्राकार एवं बन बेदिकायोंको ऊंचाई बारह गुनी अधिक थी। बुद्धिमान पुरुषों को इसी के अनुकूल लम्बाई चौड़ाई का अनुमान कर लेना चाहिये । पूर्वोक्त बन श्रेणी,
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