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उस सुन्दर पलंग को देख कर राजा को अपूर्व प्रसन्नता हुई। उसके रोम रोम पुलकित हो उठे और नेत्र तथा मुह प्रफुल्लित हो रहे थे। उसने मन ही मन विचार किया कि, मैं इन्द्र हूं और मेरी रानी साक्षात् शचि है अर्थात् इन्द्राणी है। आज यह राज भवन इन्द्र भवन सा शोभायमान हो रहा है। यह सुन्दर पलंग शचि की सजा है। इस प्रकार राजा का कोमल कामीहृदय प्रानन्द सागर में गोते लगाने लगा। फिर भी उसने विचार किया कि आज रानी मेरा सत्कार क्यों नहीं करती है। इसका कारण राजा की समझ में नहीं आ रहा था। उसने सोचा–संभवत: उसे कोई रोग अथवा मानसिक कष्ट तो नहीं हो गया है, अथवा मुझ से नाराज तो नहीं। ऐसी ही विकट चिन्ता से व्याकुल होकर राजा कहने लगा-रानी पाज न उठने का कारण शीघ्रता से बतला। इतना कहकर वह पलंग पर बैठ गया और अपने कोमल करों से उसने रानी का स्पर्ण किया। किन्तु उस कृत्रिम अचेतन विशालाक्षी के कुछ भी उत्तर न देने पर राजा समझ गया कि यह कृत्रिम रानी है, वस्तुत: महल में रानी नहीं है। रति के समान सुन्दरी विशालाक्षी का किसी अपार पापी ने हरण कर लिया ! राजा की गादुरता और बढ़ गयो । वह मूछित होकर भूमि पर गिर पड़ा । तत्काल ही सेवकों ने शीतोपचार किया, जिससे राजा की मुर्छा दूर हुई । राजा का हृदय प्रिय रानी के वियोग में व्याकुल हो रहा था। वह बच्चों की तरह विलाप करने लगा वह कहने लगा--हंस जैसी चाल चलने वाली, हे मगननी तु शीघ्रता पूर्वक बतला कहां है। हे गुणों का गौरव बढ़ाने वाली, मेरे हृदय रूपी धन को अपहरण करने बाली, हे विलासिनी तू कहां चली गई।
हे चन्द्र-बदनी सुन्दरी ! तेरी सेवा करने वाली दासियां कहां गयीं। साथ ही मेरे प्रति तेरा प्रेम कहां चला गया। संसार के माया मोह मुझे सुन्दर नहीं जान पड़ते । मेरी समझ में नहीं आता कि, जब इस महल में कोई नहीं पा सकता तो किस प्रकार तु अपहरित की गयो अथवा तु अपने आप ही कहीं चली गयी। क्या तु उस प्रकार से तो नण्ट नहीं हुई, जिस प्रकार बुरी संगति में पड़कर सज्जन पुरुष भी नष्ट हो जाते हैं। स्त्रियां अन्य पुरुषों को अपने यहां बुलाती हैं और किसी अन्य से प्रेम करती हैं एवं नियत समय किसी अन्य को बतला कर अन्य के साथ क्रीड़ा करती हैं । ये सब काम एक साथ ही सम्पन्न होते हैं । जैसा उनका बाहरी स्वरूप होता है बसा भीतरी नहीं होता। इसलिए स्त्रियों के चरित्र का भला कौन वर्णन कर सकता है । शोक से सातप्त राजा का हृदय व्याकुल होकर विचार करने लगा। किसी अभिप्राय, बक्रदृष्टि, बुरी संगति तथा एकांत की बातचीत से स्त्रियां नष्ट हो जाती हैं। राजा ने सोचा-मैंने तो किसी समय भी रानी को प्रसन्न नहीं किया । उसे पटरानी के पद पर बिठाया तथा समस्त रनवास में वह पूज्य समझी जाती थी। फिर उसके नष्ट होने का कोई कारण नहीं दीखता। जिस स्त्री के सदगणी और प्रजापालन में तत्पर १७ वर्ष का पुत्र हो, वह सुन्दरी उसे त्याग कर कैसे चली गयी, यह समझ में नहीं पाता अवश्य ही वह अपनो नीच दासियों को संगति में पड़कर भ्रष्ट हुई है । जब खेत का मेड़ ही उस खेत को खाने लगे तब भला उस खेत की रक्षा हो कैसे की जा सकती है। यह निश्चित है कि कुसंगति में पड़कर सज्जन भी नष्ट हुए बिना नहीं रह सकते । इस भांति अनेक मानसिक चिन्तामों से दुखी होकर राजा ने राज्य कार्य का सारा प्रबन्ध त्याग दिया। उसे राज्य-शासन से एक प्रकार की विरक्ति सी हो गयो। राजा की इस चिन्ता से अन्य सामन्त राजा और प्रजा भी दुखी थी । अनेक राजानों ने सममाया भी पर क्षण भर के लिए भी राजा का शोक कम नहीं हुआ। बात यह थी कि रानी उसके मनको हर ले गयी थी। राजा का वियोग दःख इतना बढ़ गया कि अन्त में उसने उसका प्राण लेकर ही छोड़ा । यह ठीक ही है, क्योंकि कौन सा पुरुष है जिसे स्त्री के वियोग में मरना नहीं पड़ता हो।
राजा की मत्यु हो जाने के पश्चात् उस ऐश्वर्यशाली राज्य शासन का भार उसके पुत्र को सौंपा गया। समस्त मंत्रियों और सामन्त राजाओं ने मिल कर राज्य तिलक की विधि सम्पन्न करायी।
उस राजा के मृत् जीव को अनेक बार संसार का चक्कर काटना पड़ा। इसी जन्म-मृत्यु के चक्कर में वह एक बार विशाल हाथो हुआ । वह हाथी अत्यन्त तेजस्वी और बड़ा ही मदोन्मत्त था। उसकी बिकराल अांखें लाल रंग की थीं। वह इतना उद्दण्ड था कि वन में स्त्री-पुरुषों की हत्या कर डालता था । उस हायी ने इस भव में महापाप का उपार्जन किया। कारण यह कि प्राणियों का घात करना जन्म-जन्म में दुःखदायी हुया करता है। किन्तु उस हाथी के पुण्य-कर्म के उदय से उस वन में किसी मुनिराज का आगमन हो गया। वे मुनि महाराज अवधिज्ञानी और सत्पुरुषों के लिए उत्तम धर्मोपदेशक थे। उनके द्वारा हाथी को धर्मोपदेश मिला। उसने बड़ी प्रसन्नता से श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिए। इसके बाद उस हाथो ने फल फूलादि किसी भी सचित पदार्थों का ग्रहण नहीं किया। अन्त में उसने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर समाधिमरण धारण कर लिया । मृत्यु के समय उसने भगवान महादेव का ध्यान किया, जिससे वह मर कर प्रथम स्वर्ग में देव हुआ।
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