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हे राजन ! वहां से चलकर तुम्हें राजा का उत्तम शरीर प्राप्त उन तीनों स्त्रियों की कथा कहता हूं । ध्यान देकर सुन
मागे तुझे भी मुक्ति की प्राप्ति होगी। अब
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बे तीनों बड़ी प्रसन्नता से स्वतन्त्रतापर्बक वन में दिन राणा करने लगी। इस प्रकार भ्रमण करते हुए वे अवन्ती देश में जा पहुंची । उनके साथ कंधा, खडाम, दण्ड और अन्य बहुत-सी योगिनियाँ थीं। उन्हें भिक्षा मांग-मांग कर अपना पेट पालना पड़ता था। यह भी सत्य ही है कि 'बभक्षितः किन करोति पापम्' भूखे मनुष्य कौन-सा पाप नहीं कर डालते अर्थात भूख की ज्वाला शान्त करने के लिए सब कुछ करना पड़ता है। वे सदा प्रमाद करने वाली वस्तुओं का सेवन करती थी। मद्य, मांस मादि उनके दैनिक आहार थे । इसके अतिरिक्त वे मधु एवं अनेक जीवों से भरे हुए उदुम्बरों तक का भक्षण करती थीं। उनकी कामवासना इतनी प्रवल हो उठी थी कि ऊंच-नीच का कुछ भी विचार न कर जो जहां मिलता, उसी के साथ संभोग करती थीं। यही नहीं वे सबके सामने ही ऐसी रागनियाँ गाया करती थीं, जिससे बोगियों को भी काम उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता था। वे यह भी कहा करती थी, कि हमें योग धारण किये १०० वर्ष से भी अधिक हो गये हैं।
शौभाग्यवश नगर में एक दिन धर्माचार्य नाम के मुनि का आगमन हुआ। वे केवल ग्राहार के लिए प्राय थे। मुनि महाराज मौन धारण किये हुए, पर्वत के समान अचल और इन्द्रियों को दमन करने वाले थे। उन्होंने अपने मन को वश में कर लिया था और शरीर से भी ममत्व का नाश हो गया था। कठिन तपश्चर्या से उनके शरीर की क्षीणता बढ़ चली थी। वे शोल संयम को धारण करने और चारित्र-पालन में अत्यन्त तत्पर रहा करते थे। उन्होंने समस्त कषायों का सर्वनाश कर दिया था। वे अपने धर्मोपदेश द्वारा अमृत की वारि वहाया करते थे । वे क्षमा के अवतार और संसारी जोवों पर दया की दृष्टि रखने वाले थे। मुनिराज कठिन दोपहरी में भी योग धारण किया करते थे। वे चोर और लम्पटों के पाप रूपी वृक्ष को काट डालने के लिए कूठारके समान तीक्ष्ण थे। उन्होंने समस्त परिग्रहों का सर्वथा परित्याग कर दिया था। उस समय वे ईर्या पथ की वद्धि से गमन कर रहे थे। उन्हें देखकर वे तीनों स्त्रियां क्रोध से लाल हो गयीं। उन्होंने मुनि को संबोधित करते हुए कहा-अरे नंगे फिरने वाले । तु मानमोहादि शुभकमों से सबंथा रहित है। न जाने हमारे किस पाप कर्म के उदय होने से तेरा साक्षात हा। इस समय हम उज्जैनी के महाराजा के यहां धन मांगने के उद्देश्य से जा रही थीं। वह राजा अत्यन्त धर्मात्मा पोर शत्रों को परास्त करने वाला है। तुने अपना नग्न रूप दिखलाकर अपशकुन कर दिया । तू सर्वथा बरा है अर्थात पापी है। इसलिए हमारे कार्यों की सिद्धि होना संभव नहीं। इस समय तो अभी दिन बाकी है और सभी वस्तुएं अच्छी तरह से दिखाई पड़ती है किन्त रात्रि होने पर हम लोग मार्ग में अपशकून करने का फल तुझं चखावेगी। फिर भी उन स्त्रियों के कठोर वचनों से मनिराज को जरा भी क्रोध नहीं हुआ, कारण वे दयालु स्वभाव के थे। मुनिराज ने इस घटना पर दृष्टिपात न कर बन में जाकर योग धारण कर लिया । वस्तुतः जल में अग्नि का बश नहीं चल सकता, ठीक उसी प्रकार योगियों के पवित्र दृश्य को क्रोध रूपी अग्नि नहीं जला सकती। रात्रि होने पर वे तोनों नीच स्त्रियां मुनि के समीप पहुंची और क्रोधित हो भांति-भांति के उपद्रव करने लगी। एक ने रोना प्रारम्भ किया और दूसरी उनसे लिपट गयी । इसके अतिरिक्त तीसरी धूमाकर मुनिराज को अनंक कष्ट देने लगी। सत्य है काम से पीड़ित व्यक्ति जितना अनर्थ करे वह थोड़ा है।
किन्तु इतने उपद्रव के होते हुए भी मुनिका स्थिर मन चलायमान नहीं हुआ। क्या प्रलय वायु के चलने पर महान मेरु पर्वत कभी चलायमान होता है ? इसके बाद वे दुष्ट स्त्रियां नंगी होकर मुनि के समक्ष नृत्य करने लगीं। वे काम से संतप्त स्त्रियां मनि से कहने लगीं-स्वतंत्र विचरण करने वालों के लिए परलोक में भी स्वतंत्रता प्राप्त होती है और इहलोक में भोग में लिप्त रहने से भोगों की सदैव प्राप्ति होती रहती है। किन्तु नग्न रहने से उसे नंगापन ही उपलब्ध होता है । अतएव तुम्हें चाहिए कि हमारी इच्छात्रों की पूर्ति करो। इस भोग की लालसा चक्रवर्ती, देवेन्द्र और नागेन्द्रों तक ने की है। संसार का सारा मख स्त्रियों की प्राप्ति में होता है । कारण वे इन्द्रिय जन्य सुख प्रदान करने वाली होती हैं। इसलिये जो व्यक्ति स्त्री-सुख से वचित है, उनका जन्म व्यर्थ है । सत्य मानों, यदि तूने हमारी इच्छा की पूर्ति नहीं की तो तेरा यह शरीर चण्डी के समक्ष रख दिया जायगा । इस प्रकार कुवाक्य कहती हुई उन स्त्रियों ने विकार रहित मुनिवर के शरीर को उठाकर चण्डी के समक्ष रख दिया। इसके पश्चात् उन सबों ने मुनिराज पर घोर उपसर्ग किये । पत्थर, लकड़ी, मुक्का, लात, जुते आदि से उनकी ताडना की ग्रोर अन्त में बांध दिया। उस समय मुनिराज ने बारह अनुप्रेक्षामों का चिन्तवन किया। अनुप्रेक्षा ही प्राणी को भवसागर से पार उतारने वाली है। वे विचार करने लगे कि, मानव शरीर क्षण भंगुर हैं, यह जीवन जल का व दबदा है और लक्ष्मी विद्यत की भांति चंचल है । जव भरत आदि चक्रवर्ती तक का जीवन नष्ट हो गया तो उस जीवन की क्या गिनती है ? बिना रहत देवकी शरण गहे इस ज व का निस्तार नहीं । इसलिए हे जीव, तू सदा अरहंत देव' का स्मरण किया कर। तुम्हारी यात्रा द्रव्य
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