________________
त्र, काल, भव, भाव, ये पांचों संसार में हो चुके हैं और अब भी तू बस-स्थाबर योनियों में भ्रमण कर रहा है। पर तुम्हारी यह असावधानी ठीक नहीं है । अव तुझे रत्नत्रय की प्राप्ति में अपना चित्त लगाना चाहिए, क्योंकि संसार का विनाश उसी
लत्रय की प्राप्ति से ही होता। आत्मन् ! तु अकेला ही कर्मों का कर्ता और सुख-दुख का भोक्ता है। तेरे सब भाई-बन्धु तुझ से भिन्न हैं । तुझे अकेला जा. ग्रहण करना पड़ता है और मरना पड़ता है। अतएव कर्म-कलंक से रहित सिद्ध परमेष्ठी के चरणों का निरंतर ध्यान कर । इस जीव की कर्म-क्रियानों और इन्द्रियजन्य विषयों में भी विभिन्नता है, फिर कुटुम्बी और भाई नन्ध तो सर्वथा जग दी । पाालान द लौकिक वस्तुओं से सर्वथा भिन्न है । संसार के सभी लौकिक ऐश्वर्य जड़वत है, किन्तु तु ज्ञान दर्शन और कर्म रहित शुद्ध जीव है। इसलिए प्रात्मा का ध्यान करना चाहिए। यह देख रक्त, मांस, रुधिर हड्डी, विष्ठा, मुत्र, चर्म वीर्य आदि महा अप पदार्थों से निर्मित है, किन्तु भगवान पंच परमेष्ठी इन दोषों से सर्वथा अलग है। अत: तू उन्हीं की आराधना कर । जैसे नाव में छिद्र हो जाने पर उसमें पानी भर जाता है, ठीक वैसे ही मिथ्यात्व अविरत कषाय और योगों से कर्मों का पासव होता रहता है और नाब की तरह यह भी संसार-सागर में डूब जाता है । अतएव कर्मों के प्रास्रव से सर्वथा मुक्त सिद्ध परमेष्ठी का स्मरण किया कर । मिथ्यात्व, अविरत, प्रादि का त्याग कर देने से एवं ध्यान चरित्र आदि धारण कर लेने से आने वाले समस्त कर्म रुक जाते हैं । उसे संवर कहा जाता है। उसी संवर के होने पर जीव मोक्ष का अधिकारी होता है। अत: हे जीव ! तुझे अपने शरीर का मोह त्याग कर शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा का स्मरण करना चाहिए । इस शरीर पर मोहित होना व्यर्थ है । तप और ध्यान में जिन पूर्व-कर्मों का विनाश करना हैं, उसे निर्जरा कहते हैं । बह दो प्रकार की होती हैं-एक भाव निर्जरा और दूसरी द्रव्य निर्जरा । ये दोनों निर्जरायें सविपाक और अविपाक के भेद से दो प्रकार की होती हैं। अतएव मोक्ष प्राप्ति के लिए जीब को सदा कर्मों की निर्जरा करते रहना चाहिए। यह लोक प्रकृत्रिम है। इसका निर्माण का कोई नहीं है। यह चौदह रज्जू ऊंचा और तीन सौ तैतालिस रज्जू बनाकार है। अतः इस लोक में जीव का भ्रमण करते रहना सर्वथा व्यर्थ है। कारण इस संसार में भव्य होना महान कठिन होता है, फिर मनुष्य, मार्य क्षेत्र में जन्म, योग्य काल में उत्पत्ति, योग्य, कूल, अच्छी आयु प्रादि की प्राप्ति सर्वथा दुर्लभ है और इनको प्राप्ति होने पर भी रत्नत्रय को प्राप्ति और भी कठिन है। इसलिए हे जीव ! तू इच्छा पूरक चिन्तामणि के समान सुख प्रदान करने वाले रत्नत्रय को पाकर क्यों समय को नष्ट कर रहा है। अपना कल्याण साधन कर । अहिंसा रूप यह धर्म एक प्रकार का है। मुनि श्रावक भेद से दो प्रकार, क्षमा मार्दव आदि से दश प्रकार, पांच महावत, पाँच समिति, तीन गुप्ति भेद से तेरह प्रकार एवं और ब्रतों के भेद से अनेक प्रकार का है। धर्म की कपा से ही प्रात्मा के परिणाम पवित्र होते हैं और उसी पवित्रता से प्रात्मा प्रबुद्ध होला है एवं प्रबुद्ध होने पर वह रत्नत्रय में स्थिर होने में समर्थ होता है। स्त्रियों द्वारा सताये हुए थे मुनिराज इस प्रकार की बारह अनुप्रेक्षानों पर विचार करने लगे। उन्हें स्त्रियों के उपद्रवका कुछ भो ज्ञान नहीं था । प्रातः काल होते ही वे स्त्रियां माने-जाने वाले लोगों के डर से भाग गयीं। किन्त कर्मों को विनष्ट करने वाले वे मुनिराज उसी प्रकार निश्चल रहे । उनके आत्मध्यान में किसी प्रकार का विक्षेप नहीं हुआ। इसके बाद वहां अनेक धावक एकत्रित हो गये। उन्होंने मन वचन काय से शुद्धतापूर्वक चन्दनादि अष्ट द्रव्यों से मुनिराज की पजा की। उनका शरीर तो क्षीण था हो, उस पर रात के उपद्रव से उनके सर्वांग में घाव ही हो रहे थे। उन्होंने मौन धारण कर लिया था। इन सब कारणों को देखकर उन सत्पुरुषों ने रात्रि का काण्ड समझ लिया। स्त्रियों के कटाक्ष भो सत्पुरुष को चलायमान नहीं कर सकते । क्या प्रलय की बायु मेरु को उड़ा सकती है, संभव नहीं। यद्यपि इस संसार में शेर को मारने वाले और हाथियों को बांधने वाले बहुत मिलगे, पर ऐसे बहुत कम मिलेंगे जिनका चित्त स्त्रियों में न रमा हो । उन दुष्ट स्त्रियों ने मनिराज पर घोर उपसर्ग किये थे, इसलिए उन्हें महापाप का बन्ध हुया । वे पाप कर्म के उदय से कुष्ट रोग से प्रसिद्ध हुई । उन तीनों की बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी। वे सदा पाप कर्म में रत रहती थीं और लोग सदा उनको निन्दा किया करते थे। वे तीनों महादुखी रहती थीं। आयु की समाप्ति होने पर रौद्र ध्यान से उनकी मृत्यु हुई इन सब पाप कर्मों के उदय से वे पांचवें नरक में गयीं। उन्हें पांचों प्रकार के दुःख सहन करने पड़े । उनको कृष्ण लेश्या थी। उन्हें बन्धन' छेदन, कदर्थन, पीड़न, तापन, ताड़न शादि के दःख सहन करने पड़ते थे। उष्ण वायु तथा सर्द वायु सदा उनको उत्पीडित किया करती थीं। उन नारकीयों का अवधिज्ञान दो कोस तक का था, शरीर की ऊंचाई एक सौ पलनीस हाथ और आयु सत्रह सागर की थी। वे सब की सब नपुन्सक थीं। उनका शरीर भयानक और वे स्वभाव से भी भयानक थीं। उनमें धर्म का तो नाम ही नहीं था। वे सबसे ईर्ष्या करती और सदा भार-भार की रट लगाया करती थीं । आयु की समाप्ति पर वे नारको स्त्रियां वहाँ से बाहर हुई और परस्पर विरोधी शरीरों में उत्पन्न हुई । सबों ने एक साथ ही कर्मों का वध किया था, अतः वे बिल्ली सुकरी कुतिया और मुर्गी की योनियों में आयीं। वे हर प्रकार का कष्ट सहतीं और जीवों की हिंसा करती थीं। परस्पर लड़ना और उच्छिष्ट भोजन के द्वारा उनका जीवन निर्वाह होता था। उसके अतिरिक्त जहां भी जाती, वहां से दुत्कार दी जाती थीं। सत्य है रौद्र ध्यान से जीव नर्क में जाते हैं,