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पार्तध्यान से तिथंच गति होती है और धर्मध्यान के द्वारा मनुष्य गति एवं देवगति होती है तथा शुक्ल ध्यान से केवल ज्ञान के द्वारा उत्कृष्ट भोग प्राप्त होता है। जो लोग शान्ति प्रिय मुनिराज पर क्रोध करते हैं, उन्हें अवश्य नरक मिलता है। और जो उन पर उपसर्ग करते हैं, उनको तो बात ही क्या। अतएव विद्वान् लोगों को चाहिये कि, शास्त्र एवं निर्ग्रन्थ गुरु की स्वप्न में भी निन्दा न करें। कारण इनकी निन्दा करने वालों को नर्क की प्राप्ति होती है और स्तुति करने वालों को स्वर्ग की । अतः हे राजन् ! वे तीनों पशु जीवधारी स्त्रियां अत्यन्त कष्ट से मरी। ठीक ही है, पाप कर्मों के उदय से जीव को प्रत्येक भव में दःख झेलने पड़ते हैं। मृत्यु के पश्चात् उनका जन्म प्रधान धर्म स्थान धवन्ती के समीप अत्यन्त नीच लोगों रो बसे हा एक कुटम्बी के घर कन्याओं के रूप में हुआ। उस कुटुम्बी के लोग मुगियां पालन करते थे। इन कन्याओं के गर्भ में आते ही उनके धन-जन का नाश हो गया। घर के सब लोग मर गये । केवल एक पिता बचा था। उन कन्यानों में एक कानी दुसरी लगडी और तीसरी अत्यन्त कुरूपा काल रग को यो । मुनि को धार के पाप मे उनका जीवन प्रशान्त था । देह सूखी हुई, उनकी अांखें पीले रंग की, नाक टेड़ी और पेट बढ़ा हुया था । दांतों की पक्तियां दूर-दूर पर मोटे और शरीर भी आवश्यकता से अधिक मोटा था। उनके स्तन विषम, हाथ छोटे और होठ लम्बे थे। उनके बाल पोल रंग के, आवाज काय जैसी और उनका हृदय प्रेम से शून्य था। उनकी भौहें मिली थीं और वे सदा असत्य भाषण करती थीं। क्रोध से उनका शरीर जलता रहता था। वे विचार हीन और अनेक रोगों से पीड़ित थीं। वे नगर के जिस कोने से जाती, वहा दुर्गन्ध फैल जाती थी। सत्य ही है, पाप कर्मों के उदय से संसार में क्या नही होता । उच्छिष्ट भोजनों से उनका जीवन निर्वाह होता था, चिथड़ों से शरीर ढकती थी और दुःख से सदा पीड़ित रहती थीं। क्रम से वे तीनों कुरूप कन्याएं जवान हुईं। उनके पूर्व कर्मों के उदय से उन्हीं दिनों देश में भिक्ष पडा। वे तीनों पेट की ज्वाला से प्रशान्त होकर व्यभिचार कराने के उद्देश्य से विदेश को चली । मार्ग में भी उनकी लड़ाई जारी थी। उनके साथ न खाने का सामान था और न उनमें लज्जा ह्या थी। यह पाप कर्म का ही प्रभाव है। जब वह फल देने लगता है तो धन-धान्य रूप, बुद्धि सबके सब नष्ट हो जाते हैं। वे कन्याएं अनेक नगरों में भ्रमण करती हुई घटना वशात इस पुष्पपुर में आ गयी हैं। इस वन में अनेक मुनियों को देखकर धन की इच्छा से यहां उपस्थित हुई हैं, फिर भी बड़ी प्रसन्नता के साथ इन सबों ने मुनियों को नमस्कार किया है। राजन् ! यह ससार अनादि और अनन्त है। जीव का कम है, जन्म और मत्यु प्राप्त करना। इसमें भ्रमण करते हुए कर्मों के उदय से उच्च और निकृष्ट भव प्राप्त होते रहते हैं। बुछ दुःख भोगते हैं और कुछ सुख । यहां तक कि पुण्योदय से स्वर्ग और मोक्ष तक के सुख उपलब्ध होते रहते हैं। वे तीनों कुरूपा कन्याएं अपने पूर्वभव, की वाते सुनकर बड़ी प्रसन्न हुई, जिस प्रकार बाबलों की गर्जना सुनकर मोर प्रसन्न होते हैं।
मुनिराज ने पुनः कहना प्रारम्भ किया-राजन यह श्रेष्ठ धर्म कल्पवृक्ष के तुल्य है। सम्यग्दर्शन इसकी मोटी जड़ और भगवान जिनेन्द्र देव इसकी मोटी रीढ़ हैं । थेष्ठ दान इरा धर्म को शाखायें हैं, अहिंसादि व्रत पत्ते और क्षमादिक गुण इसके कोमल और नवीन पत्ते हैं । इन्द्रादि और चक्रवर्ती की विभूतियां इसके पुष्प हैं। यह वृक्ष श्रद्धारूपी बादलों की बारिससे सिंचित किया जाता है। और मुनि समुदाय रूपी पक्षीगण इसकी सेवा में संलग्न रहते है। अतएव यह धर्म रूपी कल्पवृक्ष तुम्हें मोक्ष सुख प्रदान करे।
तीनों कन्या संसार से भयभीत
ये तीनों कन्यायें संसार से भयभीत हो उठीं। उन सबों ने बड़ी श्रद्धा और पादरभाव से मुनिराज को नमस्कार किया और उनकी प्रार्थना करने लगी :
मुनिराज । मुनि के उपसर्ग से ही हमें मात-पित विहीन होना पड़ा है और हमने भव-भव में अनेक कष्ट भोगे हैं। स्वामिन् ! आप भव संसार में वने उतराने वालों के लिए जहाज के तुल्य हैं । हे संसारी जीवों के परम सहायक । पूर्व भव में हमने जो पाप किये हैं, उनके नाश होने का मार्ग बतलाइये । जिस तरूपी औषधि से यह पाप रूपी विष नष्ट होता है, उसे माज ही बताइये । उनकी करुणवाणी सुनकर मुनिराज का कोमल हृदय दयार्थ हो गया वे कहने लगे-पुत्रियो । तुम्हें विध-विधान व्रत धारण करना चाहिए। यह यत कर्म रूपी' शत्रुओं का विनाशक और संसार सागर से पार उतारने वाला है। इसके पालन