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साथ जल क्रीड़ा के लिए गये। जल क्रीड़ा करते समय सरोवर की छटा देखने लायक थी । शरीर की केसर घुल-धूल कर सरोवर के जल को पीला करने लगी और पुष्पों की सुगन्ध से वह सरोवर सुगन्धित हो गया । जब उनकी जल क्रीड़ा समाप्त हो गयी तो वे बड़े गाजे बाजे और स्त्रियों के मनोहर गीत के साथ अपने राज महल को लोटे।
संध्या हो चली। जिस कामी जनों के हृदय को रमणियों ने अपना लिया था, मानों उन पर दया करके ही सूर्य प्रस्त होने लगा। समस्त आकाश में लाली दोढ़ गयी। चारों ओर से पक्षियों के कोलाहल सुनाई देने लगे। आकाश में पूर्ण चन्द्रमा का उदय हआ। कुमुदिनी प्रफुल्लित हुई और संभोग करने वाली स्त्रियां अत्यन्त प्रसन्न हो गयीं। राजा भी महल में प्राकर पुन: अपनो रानी के साथ आसक्त हो गये। सत्य ही है, स्त्रियां स्वभाव से हो मोहक होती हैं। साथ ही यदि रूपवती हों तो फिर पूछना ही क्या ? ऐसे ही सुख से समय व्यतीत करते हुए कितने दिन व्यतीत हो गये, राजा को तनिक भी खबर नहीं थी। वस्तुतः सुख का समय एक दिवस की तरह बीत जाता है और दुःख का एक दिवस मास की तरह प्रतीत होता है।
एक दिन की बात है। रानी प्रसन्नचित्त होकर चामरी और रंगिका नाम की दो दासियों के साथ अपने महल के झरोखे पर खड़ी हई बाहरी दृश्य देख रही थी। एक नाटक देखकर उसके हृदय में चंचलता उत्पन्न हो गयी । वह नाटक प्रानन्द बर्वक मनोहर और रसपर्ण था। उसमें अनेक, पात्र अपना अभिनय संपन कर रहे थे। भेरो, मदंग ताल, बीणा, बंशी, डमरू मांझादि अनेक प्रकार के बाजे बज रहे थे। वहां पुरुषों की भीड़ लगी हुई थी। वह नाटक ताल और लयों से सुन्दर था। उसमें स्त्री वेशधारी पुरुषों के नृत्य हो रहे थे। खेल तथा दृश्य के साथ पुरुषों के अंग विक्षेप पीर स्त्रियों के मान हो रहे थे। अर्थात वह नाटक सब के मन को प्रफुल्लित कर रहा था । ऐसे मनोमुग्धकारी अभिनय को देखकर रानी चंचल हो उठी। ठीक ही है, अपूर्व नाटक को देखकर कौन ऐसा हृदय होगा, जिसमें विकार न उत्पन्न होता हो। रानी सोचने लगी इस राज्योपभोग से मुझको क्या लाभ होता है । मैं एक अपराधी की भांति बन्दीखाने में पड़ी हुई हैं। वे स्त्रियां ही संसार में सुखी हैं जो स्वतन्त्रता पर्वक जहां कहीं भी विचरण कर सकती हैं । अवश्य यह पूर्व भव के पाप कर्मों के उदय का ही फल है कि मुझे उस अपूर्व सुख से वंचित होना पड़ा है। अतएव अब से मैं भी उन्हीं की तरह स्वतन्त्रता पूर्वक विचरण करने का प्रयत्न करूंगी और वह भी सदा के लिए। इस सम्बन्ध में लज्जा करना ठीक नहीं।
रानी की चिन्ता उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। किन्तु अपने मनोरथों को पूर्ण करने के लिए उसे कोई मार्ग नहीं सूझ पड़ा। पर एक उपाय उसे सझ पड़ा। उसने अपनी चतुर दासियों से कहा, दासियो! स्वतन्त्रता पूर्वक विचरण करना मानव जन्म को सार्थक करता है एवं काम जन्य भोगादि को प्राप्त कराने वाला होता है। अतएव प्रायो हम लोग स्वतन्त्रता पूर्वक धमने फिरने के उद्देश्य से बाहर निकल चलें । दासियों ने रानी के प्रस्ताव का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि......आपके विचार बहुत ही उत्तम हैं । वस्तुत: मानव जन्म सार्थक करने के लिए इससे बढ़ कर और दूसरा मार्ग नहीं है । इसके पश्चात् काम-वाण से दग्ध अत्यन्त विहल, विलास की कामना करने वाली, वह रानी पूर्वाजित पापों के उदय से दासियों को लेकर वर से बाहर निकलने का प्रयत्न करने लगी। वस्तुतः असत्य भाषण करना, दुर्बुद्धि होना कुटिल होना, और कपटाचार करना ये स्त्रियों के स्वभाविक दोष होते हैं। इन्हीं कारणों से उसने रूई भर कर एक स्त्री का पुतला बनाया और उसे वस्त्राभूषणों से खब सजाया। रानी ने उस पुतले की कमर में करधनी, पैरों में नपुर, सर में तिलक लगाये तथा उसे चन्दन से लिप्त कर फूलों से खब सजाया। उसके स्तनों पर कंचुको, मुख पर पत्तन रथा मोतियों की नथ पहना दी। रानी एक बार उस बने हुए पुतले को देखकर बही परान्न हुई। वह ठीक रानी की प्राकृति का ही बन गया था। पश्चात् रानो ने उस पृतले को चन्दन पादि साधित द्रव्यों से लिप्त और मोती आदि अनेक रत्नों से सुशोभित कर पलंग पर सुला दिया। उसने द्वारपाल प्रादि सब सेवकों
धन देकर अपने वश में कर लिया था। उसके पूर्वभव के पापों के उदय से ही उसकी ऐसी विचित्र वृद्धि हो गयो । वह किसी देवी की पजा व बहाने अपनी दो दासियों को साथ लेकर घर से बाहर निकली। उन तीनों ने अपने वस्त्राभूषण आदि राज्य निदों का सर्वथा परिरयाग कर दिया एवं गेरुया वस्त्र पहन कर योगिनी वेश में हो गयीं । वे राजमहल से चलकर सोधे वन में पोखी । उनका राजभवन में मिलने वाला सुन्दर भोजन तो छूट ही गया था, वे अपनी भूख की ज्वाला मिटाने के लिए वक्षों के फल खाने लगी। यहां विचारणीय है कि कहां तो रानी का पद और कहां पाज योगिनी का वेष । केवल पाप कर्मों के उदय से ही मनुष्य को अशुभ कर्मों की प्राप्ति होती है।
दूसरे दिन काम से पीड़ित राजा मणियों से सजाये हुए रानी के सुन्दर महल में जाने लगा उसने अन्यान्य परिजन वर्ग को महल के बाहर ही छोड़ दिया और स्वयं सुगन्धित पदर्थों से विलेपित महल के अन्दर जा पहुंचा । उस दिन रामी के
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