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हजार वर्ष बाद मानसिक पाहार गण करता था, मुगल श्यामा पारना था, अपने तेज तथा अवधिज्ञान से लोकनाड़ी को व्याप्त करता था, उतनी ही दूर तक वित्रिया कर सकता था, और लोकनाड़ी उखाड़ कर फकने की शक्ति रखता था।
इस संसार में अहिमेन्द्र का सुख ही मुख्य सुख है, वही निर्द्वन्द है, अतीचार से रहित है और राग से शून्य है। ग्रहमिन्द्र का सुख राजा रतिषण के जीव को प्राप्त हुआ था। प्रायु के अन्त में समाधिमरण कर जब वह अहमिन्द्र यहाँ अवतार लेने को हुआ तब इस जम्बूद्वीप-सम्बन्धी भरत-क्षेत्र को अयोध्या नगरी में मेघरथ नाम का राजा राज्य करता था। वह भगबान वृषभदेव के वंश तथा गोत्र में उत्पन्न हुआ था, शत्रुओं से रहित था और अतिशय प्रशंसनीय था । मंगला उसकी पटरानी थी जो रत्नवृष्टि आदि अतिशयों से सम्मान को प्राप्त थी। उसने धावण शुक्ल द्वितीया के दिन मघा नक्षत्र में हाथी आदि सोलह स्वप्न देखकर अपने मुख में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा। उसी समय वह अहमिन्द्र रानी के गर्भ में पाया। अपने पति से स्वप्नों का फल जानकर रानी बहुत ही हर्षित हुई। तदन्तर चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन चित्रा नक्षत्र तथा पित योग में उसने तीन ज्ञान के धारक, सत्पुरुषों में श्रेष्ठ और त्रिभुवन कर्ता उस अहमिन्द्र के जीव को उत्पन्न किया। सदा की भांति इन्द्र लोग जिन-बालक को सुमेरु पर्वत पर ले गये, वहाँ उन्होंने जन्माभिषेक सन्बन्धी उत्सव किया, सुमति नाम रक्खा और फिर घर वापस ले पाये।
अभिनन्दन स्वामी के बाद नौ लाख करोड़ सागर बीत जाने पर उत्कृष्ट पुण्य को धारण करने वाले भगवान सुमति नाथ उत्पन्न हुये थे। उनकी आयु भी इसी काल में शामिल थी। इनकी आयु चालीस लाख पूर्व की थी, शरीर की ऊंचाई तीन सौ धनुष थी, तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्ति थी, और आकार स्वभाव से ही सुन्दर था। वे देवों के द्वारा लाये हर बाल्यकाल के योग्य समस्त पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त होते थे। उनके शरीर के अवयव ऐसे जान पड़ते थे मानों चन्द्रमा की किरणें ही हों। उनके पतले, टेहे, चिकने तथा जामुन के समान कान्ति वाले शिर के केश ऐसे जान पड़ते थे, मानों मुख में कमल की आशंका कर भौरें ही इवाने हए हों। उनको देवों के द्वारा अभिषेक के बाद तीन लोक के राज्य का पद प्राप्त हआ था। तीन ज्ञान को धारण करने वाले भगवान के कान सब लक्षणा से युक्त थे और पांच वर्ष के बाद भी उन्होंने किसी के शिष्य बनने का तिरस्कार नहीं प्राप्त किया था। उनकी भौंहे बड़ी ही सुन्दर थीं, भोंहों के संकेत मात्र से दिये हुए धन-समूह से उन्होंने याचकों को संतुष्ट कर दिया था अतः उनकी भौहों की शोभा बड़े-बड़े विद्वानों के द्वारा भी नहीं कही जा सकती थी। समस्त इष्ट पदार्थों के देखने से उत्पन्न होने वाले अपरिमित सुख को प्राप्त हुए उनके दोनों नेत्र विलास पूर्ण थे, स्नेह से भरे थे, शुक्ल कृष्ण और लाल इस प्रकार तीन वर्ण के थे तथा अत्यन्त सुशोभित होते थे। मुख-कमल को सुगन्धि का पान करने वाली उनकी नाक, 'मेरे बिना मख की शोभा नहीं हो सकती' इस बात का अहंकार धारण करती हुई ही माना ऊची उठ रही थी।
उनके दोनों कपोलों की लक्ष्मी उत्तम माँग अर्थात मस्तक का आश्रय होने तथा संख्या में दो होने के कारण बक्षस्थल पर रहने वाली लक्ष्मी को जीतती हई--सी शोभित हो रही थी। उनके दांतों की पंक्ति कुन्द पूष्प के सौन्दर्य को जीतकर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों मुख कमल में निवास करने से संतुष्ट हो हंसती हई सरस्वती ही हो। जिन्होंने समस्त देवों को तिरस्कृत कर दिया है, सुमेरु पर्वत की शोभा बढ़ाई है और छह रसों के सिवाय सप्तम अलौकिक रस के प्रास्वाद से सशोभित हैं ऐसे उनके प्रधरों (ोठों) की (अधर तुच्छ) संज्ञा नहीं थी। जिससे समस्त पदार्थों का उल्लेख करने वाली दिव्य ध्वनि प्रकट हई है ऐसे उनके मुख की शोभा वचनों से प्रिय तथा उज्जवल थी अथवा वचनरूपी बल्लभा-सरस्वती से देवीप्यमान थी।
जबकि अपनी-अपनी बल्लभानों सहित देवेन्द्र भी उस पर सतष्ण भ्रमर जैसी अवस्था को प्राप्त हो गये थे । लब उनके मुख-कमल के भाव का क्या वर्णन किया जावे। जिन्होंने स्याद्वाद सिद्धान्त से समस्त बादियों को कुण्ठित कर दिया है ऐसे भगवान सुमतिनाथ के कण्ठ में जब इन्द्रों ने तीन लोक के प्रधिपतित्व की कण्ठी बांध रखी थी तब उसकी क्या प्रशंसा की जावे। शिर से भी ऊचे उठे हुए उनकी भुजात्रों के शिखर ऐसे जान पड़ते थे मानों वक्ष स्थल पर रहने वाली लक्ष्मी के कीडा-पर्वत ही हों। घुटनों तक लटकने वाली विजयी सुमतिनाथ की भजाए ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो पृथ्वी की
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