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याचार्य गुणभद्र जी ने लिखा है कि उनके समवदारण में अमर सादि एक सो सोलह गणधर थे, दो लाल चौधन हजार तीन सो पचास शिक्षक थे ग्यारह हजार अवधिज्ञानी थे, तेरह हजार केवलज्ञानी थे, दश हजार चार सौ मन:पर्ययज्ञानी थे अठारह हजार चार सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक थे, और दस हजार चार सौपचास वादी थे। इस तरह सब मिलाकर तीन लाख बीस हजार मुनि थे । अनन्तमती यदि तीन लाख तीस हजार आर्यिकायें थीं। तीन माल आवक और पांच लाख भाविकाएं थी इनके सिवाय असंख्यात देव देवियों और संख्यात तिथंच थे।
जब उनकी धावु एक माह की वाको रह गयी तब वे सम्मेद स पर आये और वहीं योग निरोध कर विराजमान हो गये। वहां उन्होंने शुक्ल ध्यान के द्वारा प्रवादि चतुष्टय का क्षय कर चैत्र सुदि एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में शाम के समय मुक्ति मन्दिर में प्रवेश किया। देवी ने सिद्ध क्षेत्र सम्मेद शिखर पर ग्राकर उनकी पूजा की और मोक्ष कल्याणक का उत्सव किया।
पचागन्तर जो लोग सुमतिनाथ की वृद्धि को ही बुद्धि मानते है घथवा उनके द्वारा प्रतिपादित मत में ही जिनकी बुद्धि प्रवृत रहती है उन्हें अविनाशी लक्ष्मी को प्राप्ति होती है। इसके सिवान जिनके वचन सज्जन पुरुषों के द्वारा ग्राह्म हैं ऐसे सुमतिनाथ भगवान हम सबके लिए बुद्धि प्रदान करें। अखण्ड धातकी खण्ड ई में पूर्व मेरु पर्वत से पूर्व की ओर स्थित विदेह क्षेत्र में सोता नदी के उत्तर तट पर एक पुष्कलावती नाम का उत्तम देश है। उसकी पुण्डरीकिणी नगरी में रतिषेण नाम का राजा था। वह राजा राज्य सम्पदाओं से सहित था, उसे किसी प्रकार का व्यसन नहीं था और पूर्व भाग में उपार्जित विशाल पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त हुए राज्य का नोति-पूर्वक उपभोग करता था। उसका वह राज्य शत्रुओं से रहित था कोष के कारणों से रहित था और निरन्तर वृद्धि की प्राप्त होता रहता था। राजा रतिषेण की जो राजविद्या वो वह उसी की थी वैसी राजविद्या धन्य राजाओं में नहीं पाई जाती थी । आन्वीक्षिकी, त्रयी वार्ता और दण्ड इन चारों विद्याओं में चौथी दण्ड विद्या का वह कभी प्रयोग नहीं करता क्योंकि उसकी प्रजा प्राणदण्ड आदि अनेक दण्डों में से किसी एक भी दण्ड मार्ग में नहीं जाती थी । इन्द्रियों के विषय में अनुराग रखने वाले मनुष्य 'को जो मानसिक तृप्ति होती है उसे काम कहते हैं। वह काम, अपने इष्ट समस्त पदार्थों की सम्पति रहने से राजा रतिषेण को कुछ भी दुर्लभ नहीं था । वह राजा अर्जन, रक्षण, वर्धन और व्यय इन चारों उपायों से धन संचय करता था और आगम के अनुसार अर्हन्त भगवान को ही देव मानता था। इस प्रकार अर्थ और धर्म को वह काम की अपेक्षा श्रर्थ तथा धर्म पुरुषार्थं का अधिक सेवन करता था। इस प्रकार लीला पूर्वक पृथ्वी का पालन करने वाले और परस्पर की अनुकूलता से धर्म,
काम इस त्रिवर्ग की बृद्धि करने वाले राजा रतिषेण का जब बहुत-सा समय व्यतीत हो गया तब एक दिन उसके हृदय में निम्नांकित विचार उत्पन्न हुआ ।
यह विचार करने लगा कि इस संसार में जीव का कल्याण करने वाला क्या है? और पर्यायरूपी भंवरों में रहने वाले दुर्जन्य तथा दुर्भरण रूपी रूप से दूर रहकर यह जीव सुख को किस प्रकार प्राप्त कर सकता है ? अर्थ और सुख काम से तो हो नहीं सकता क्योंकि उनसे संसार की हो वृद्धि होती है। रहा धर्म, सो जिस धर्म हां पाप रहित एक मुनि धर्म है उसी से इस राजा के हृदय में उत्तम फल देने वाला विचार
में पाप की सम्भावना है उस धर्म से भी सुख नहीं हो सकता। जीव को उत्तम सुख प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार विरक्त उत्पन्न हुआ। तदनन्तर संसार का अन्त करने वाले राजा रतिषेण ने राज्य का भारी भार अपने प्रतिरथ नामक पुत्र के लिए सौंपकर एप का इसका भार धारण कर लिया उसने यहन्नन्दन जिनेन्द्र के समीप दीक्षा धारण की, ग्यारह व गों का अध्ययन
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किया और मोह शत्रु को जीतने की इच्छा से अपने शरीर से भी ममता छोड़ दी। उसने दर्शन विशुद्धि, विनय सम्पन्नता आदि कारणों से तीर्थंकर प्रकृति का बध किया तो ठीक ही है क्योंकि जिससे प्रभीष्ट पदार्थ को सिद्धि होती है बुद्धिमान पुरुष सा ही आवरण करते हैं। उसने अन्त समय में संन्यासमरण कर उत्कृष्ट आयु का बन्ध किया तथा जयन्त विमान में अहम पद प्राप्त किया। वहाँ उसका एक हाथ ऊंचा शरीर था वह सोलह माह तथा पन्द्रह दिन में एक बार श्वास लेता था, तैंतीस
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