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इस तरह राज्य करते हुए जब उनके उन्नीस लाख पूर्व और बारह पूर्वांग बीत चुके तब किसी दिन कारण पाकर उनका चित्त विषय वासनायों से विरक्त हो गया जिससे उन्हें संसार के भोग विरस और दुःखप्रद मालूम होने लगे । ज्योंही उन्होंने अपने प्रतीत जीवन पर दृष्टि डाली त्योंही उनके शरीर में रोमांच खड़े हो गये। उन्होंने सोचा "हाय, मैंने एक मुर्ख की तरह इतनी विशाल आयु व्यर्थ ही गंबा दी दूसरों के हित का मार्ग बतलाऊं । उनका भला करूं --यह जो मैं बचपन में सोचा करता था वह सब इस यौवन और राज्य सुख के प्रवाह में प्रवाहित हो गया । जैसे सैकड़ों नदियों का पान करते हुए भी समुद्र को तप्ति नहीं होती ।वैसे इन विषय सखों को भोगते हुए भी प्राणियों की तृप्ति नहीं होती ये विषयाभिलाषाए' मनुष्य को अात्म हित की ग्रोर कदम नहीं बढ़ाने देतीं। इसलिए अत्र' मैं इन विषय वासनाओं को तिलांजलि देकर प्रात्म हित की ओर प्रवृत्ति करता हूं।
इधर भगवान सुमतिनाथ विरक्त हृदय से ऐसा विचार कर रहे ये उधर प्रासन कांपने मे लौकान्तिक देवों को इनके वैराग्य का ज्ञान हो गया था जिससे वे शीघ्र ही इनके पास प्रागे और अपनी विरक्त वाणी से इनके वैराग्य को बढ़ाने लगे। जब लौकान्तिक देवों ने देखा कि अब इनका हृदय पूर्ण रूप से विरक्त हो च का है तब वे अपनी-अपनी जगह पर वापिस चले गये और उनके स्थान पर असंख्य देव लोग मा गये। उन्होंने पाकर वैराग्य महोत्सव मनाना प्रारम्भ कर दिया । पहिले जिन देवियों की संगीत, नृत्य, तथा अन्य सेष्टायें राग बढ़ाने वाली होती थी आज उन्हीं देवियों की समस्त चेष्टायें वैराग्य बढ़ा होगी।
भगवान सुमतिनाथ पुत्र के लिए राज्य देकर देव निर्मित "अभया पालकी पर बैठ गये। देव लोग "अभया' को अयोध्या के समीपवर्ती सचेतक नामक वन में ले गये वहाँ उन्होंने नर-सूर की साक्षी में जगद्वन्द्य सिद्ध परमेठी को नमस्कार कर बैसाख शुक्ला नवमीके दिन मध्यान्ह के समय मघा नक्षत्र में एक हजार राजानों के साथ दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली। दीक्षा के धारण करते समय ही ये तेला-तीन दिन के उपवास की प्रतिज्ञा कर चुके थे इसलिए लगातार तीन दिन तक एक प्रासन से ध्यान मग्न होकर बैठे रहे। ध्यान के प्रताप से उनकी विशुद्धता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती थो इसलिए उन्हें दीक्षा लेने के बाद ही चौथा मन: पर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया था। जब तीन दिन समाप्त हुए तब वे मध्यान्ह के प्राहार के लिए सौमनस नगर में गये। उन्हें "घुम्न द्युति" राजा ने पडगाह कर योग्य (समयानुकल) आहार दिया। पादान के प्रभाव से राजा झुम्ना ति के घर देवों ने पंचाश्चर्य प्रकट किये । भगवान सुमतिनाथ माहार लेकर वन को वापिस लौट आये और फिर प्रात्म-ध्यान में लीन हो गये।
इरा कुछ-कुछ दिनों के अन्तराल से अाहार ले कठिन तपश्चर्या करते हुए जब बीस वर्ष बीत गये तब उन्हें प्रियंग वृक्ष के नीचे शुक्ल ध्यान के प्रताप से घातिया कर्मों का नाश हो जाने पर चैत्र सुदो एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में सायंकाल के समय लोक आलोक को प्रकाशित करने वाला केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। देव, देवेन्द्रों ने आकर भगवान के ज्ञान कल्याणक का उत्सव मनाया । अलकाधिपति कोर ने इन्द्र की आज्ञा पाते ही समवशरण की रचना की। उनके मध्य में सिंहासन पर अकिचन रूप से विराजमान हो करके बली सुमतिनाथ ने दिव्य ध्वनि के द्वारा उपस्थित जनसमूह को धर्म, अधर्म का स्वरूप बतलाया। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों के स्वरूप का व्याख्यान किया। भगवान के मुखारविन्द से वस्तु का स्वरूप समझ कर वहाँ बैठी हुई जनता के मुह उस तरह हर्षित हो रहे थे । जिस तरह कि सूर्य की किरणों के स्पर्श से कमल हर्षित हो जाते हैं।
__ व्याख्यान समाप्त होते ही इन्द्र ने मधुर शब्दों में उनकी स्तुति की और प्रार्य क्षेत्रों में विहार करने की प्रार्थना की। उन्होंने पावश्यकतानुसार प्रार्य क्षेत्रों में विहारकर समीचीन धर्म का खूब प्रचार किया।
भगवान का विहार उनकी इच्छा पूर्वक नहीं होता था। क्योंकि मोहनीय कर्म का अभाव होने से उनकी हर एक प्रकार की इच्छाओं का अभाव हो गया था। जिस तरफ भव्य जीवों के विशेष पूण्य का उदय होता था उसी तरफ मेघों की नाई उनका स्वाभाविक विहार हो जाता था। उनके उपदेश से प्रभावित होकर अनेक नन-नारी उनकी शिष्य दीक्षा में दीक्षित हो जाते थे।
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