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सुमति होगें । अब कुछ वहाँ का वर्णन सुनिये वहां आगे चल कर उक्त प्रहमिन्द्र जन्म धारण करेंगे।
(5) वर्तमान परिचय पाठकगण जम्बू द्वीप भरत क्षेत्र की जिस अयोध्या से परिचित होते ना रहे हैं उसी में किमो समय मेघरथ नाम के राजा राज्य करते थे उनकी महारानी का नाम मंगला था। मगला सचमुच मंगला हो थी। महाराज मेवरथ के सर्व मंगल मंगला के ही प्राधीन थे। ऊपर जिस अहमिन्द्र का कथन कर पाये हैं । उसको वहां की आयु जब छह माह को वाको रह गई थी तभी से महाराज मेघरथ के घर पर देवों ने रत्नों की वर्षा करनी शुरु कर दी थो । श्रावण शुक्ला द्वितीया के दिन मघा नक्षत्र में मंगला देवी ने पिछले भाग में ऐरावत प्रादि सोलह स्वप्न देखे और फिर मुह में प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा। सवेरा होते ही उसने प्राणनाथ से स्वप्नों का फल पूछा तब उन्होंने अवधिज्ञान से जान कर कहा कि आज तुम्हारे गर्भ में तीर्थकर बालक ने अवतार लिया है-सोलह स्वप्न उसी का विभूति के परिचायक हैं। पति के मुख से स्वप्नों का फल सूनकर और भावी पुत्र के सुविशाल वैभव का स्मरण करके वह बहुत ही सुखी होती थी। उसी दिन देवों ने आकर राजा रानी का खूब यश गाया, खूब उत्सव मनाये। इन्द्र की आज्ञा से सुर कुमारियां महादेवी मंगला की तरह तरह की शुश्रुषा करती थीं और प्रमोदमयी वचनों से उसका मन बहलाये रहती थी।
नौ महीना बाद चैत शुक्ल एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में महारानी ने पुत्र उत्पन्न किया। पुत्र उत्पन्न होते ही तीनों लोकों में मानन्द छा गया। सबके हुण्य प्रानन्द से उल्लसित हो उठे, एक क्षण के लिए नारकी भी मारकाट का दुःख भल गये, भवनवासी देवों के भवनों में अपने आप शंख बज उठे, व्यन्तरों के मन्दिरों में भेरी की आवाज गूजने लगी ज्योतिपियों के विमानों में सिंहनाद हुमा तथा कल्पवासी देवों के विमानों में घन्टा की आवाज फैल गयी। मनप्प लोक में भी दिशायें निर्मल हो गई, प्राकाश निमेघ हो गया, दक्षिण की शीतल और सुगन्धित वायु धोरे-धीरे वहने लगो, नदी, तालाब आदि का पानी स्वच्छ हो गया।
अथान्तर तीर्थकर के पुण्य उदय से देव लोग बालक तीर्थंकर को सुमेरु पर्वत पर ले गये। वहां उन्होंने क्षीर सागर के जल से उनका अभिषेक किया। अभिषेक के बाद इन्द्राणी ने शरीर पोंछ कर उन्हें वालोचित उत्तम प्राभूषण पहिनाये और इन्द्र ने स्तुति की। फिर जय जय शब्द से समस्त आकाश को व्याप्त करते हये अयोध्या आये और बालक को माता पिता के लिए सौंपकर उन्होंने ठाट-बाट से जन्मोत्सव मनाया। उसी समय इन्द्र ने प्रानन्द नाम का नाटक किया था।
पुत्र का अनुपम माहात्म्य देख कर माता-पिता हर्ष से फूले न समाते थे । इन्द्र ने महाराज मेघरथ की सम्मति से बालक का नाम सुमति रक्खा। उत्सव समाप्त कर देव लोग अपने-अपने घर चले गये।
बालक सुमतिनाथ दोयज के चन्द्रमा की तरह धीरे-धीरे बढ़ता गया। वह बाल चन्द्र ज्यों-ज्यां बढ़ता जाता था त्योंस्यों अपनी कलाओं से माता-पिता के हर्ष सागर को बढ़ाता जाता था। भगवान सुमतिनाथ, अभिनन्दन स्वामी के बाद नो लाख करोड सागर समय बीत जाने पर हुए थे। उनकी प्रायु चालीस लाख पूर्व की थी जो उसी अन्तराल में शामिल है। शरीर की ऊंचाई तीन सी धनुप और शरीर की कान्ति तपे हुये स्वर्ण की तरह थी। उनका शरीर बहुत ही सुन्दर था। उनके अंग प्रत्यंग से लावण्य फट-फट कर निकल रहा था । धीरे-धीरे जब उनके कुमार काल के दस लाख पूर्व व्यतीत हो गये तब महाराज मेघरथ उन्हें राज्य भार सौंप कर दीक्षित हो गये।
भगवान सुमतिनाथ ने राज्य पाकर उसे इतना व्यवस्थित बनाया था कि जिससे उनका कोई भी शत्रु नहीं रहा था। समस्त राजा लोग उनकी आज्ञाओं को मालानों की तरह मस्तक पर धारण करते थे। उनके राज्य में हिसा, झूठ, चोरी, जाभिचार प्राधि पाप देखने को न मिलते थे। उन्हें हमेशा प्रजा के हित का ख्याल रहता था इसलिए वे कभी ऐसे नियम नहीं मनाते जिनसे कि प्रजा दुखी हो । महाराज मेघरथ दीक्षित होने के पहले ही उनका योग्य कुलीन कन्यानों के साथ पाणिग्रहण (विवाह) करा गये थे। सुमतिनाथ उन नर देवियों के साथ अनेक सुख भोगते हए अपना समय व्यतीत करते थे।
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