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पुरजम बह घरमी दातार, व्रत ते शूर शील गुणधार । जिनपति ज्ञानवंत गुप पाय, भक्ति सहित सेवे सुखदाय ।।१०॥ मारग नीति गहै परवीन, हित मित वचन कहै सुख लीन । बुद्धिवंत सब रहित विकार, अरि-मिथ्यामत के क्षयकार ।।१०।। दिव्यरूप नारी नर सबै, कोमल कमलगात मन फवै । तुग सदन निवसे मतिमान, मानो देव सहित विमान ।।१०२।।
राजावर्णन पूरपति महीपाल मतिबान, श्री सिद्धारथ नाम महान । काश्यप गोत्र परम सुख वास, नाथवंश नम किरण प्रयाश ।।१०३॥ तीन ज्ञानभारी बुधवन्त, दोन मार्गग्त दुर्गति हत । जिनवर भक्ति महा दातार, दिव्य सुलक्षण मण्डित सार ॥१०४।। कर्म महा अरिनाशन वीर, शुभ दृष्टि पर वचन महीर । कला ज्ञान चातुर्य विवेक, धर्मवंत गुणसहित अनेक ॥१०॥ शीलवती शुभ ध्यान प्रवीन, भावनादि में निशदिन लीन । भूचर खेचर व्यन्तर सर्व, नृप के चरण कमल को नवं ।।१०६।। दीप्ति कान्ति तन अधिक प्रताप, दिव्य रूप सूरज अबिलाप । नियमवंत गुण ज्ञायक सन्त, एक धर्म को मूल महंत ॥१०७।।
राज्ञी वर्णन
दोहा तिनहि भवन देवी महा, प्रियकारिणी वर नार । गुण सम है उपमा रहित, जग प्रिय कर्ता सार ।।१०८।। कला ज्ञान चातुर्य अति, यथा धारती प्राय । त्रिशला बम रक्षा करण, रूप अधिक परताप ।।१०६॥
राज्ञी रूपवर्णन
सर्वया तेईसा अस्वज सौं जग पाय बने, नख देख नखत्त भयो भय भारी । नपुर की झनकार सून, दुग शोर भयो दशह दिश भारी॥ कलम बने जग जंघ, सबाल चल गज की पिय प्यारी । क्षोन वनौ कटि केहरि सोतन दामिनि होय रहो लज सारी॥११०॥ भिनिबीरियसी निकसी, पटहावत पेट सृकंचन धारी । काम कपिच्छ कियौ पट अन्तर, शील सुधीर धरै अविकारी ॥ मारट भांतिन के अन्त, कण्ठ में ज्योति लस अधिकारी। देखत सूरज चन्द्र छिप, मुख दाडिम देत महा छधिकारी ॥११॥
दिये प्रति सन्दर, नाक मुमा सम चोंच सम्हारी । बन कुरंग समान बन, वर अष्टम इन्दु ललाट निहारी।। केश मनों फणिनायक, रूप अनूप सबै सुखकारी। तीनह लोक तिया नहिं तासम, निरमित सोइ सती सरदारी 1॥११२।।
दोहा पट गण रत्न निधान पति, नव निधि संपति गेह । बहु देवी सेवा करें, धरै घरम सां नेह ॥११३।। कण्हलपुर अमरावती, नृप सुरपति सुखदाय । आप मनों इन्द्रायणी, रहै भूमि अब छाय ॥११४॥
सातव स्वप्न में देवी ने अन्धकार विनाश करने वाले सूर्य को उदयाचल पर्वत से निकलते हुए देखा । पाठवें में कमल के पत्तों से
तिम वाले सोने के दौ कलश देखे । नवें में तालाब में कोड़ा करती हुई मछलियां देखीं । वह तालाब कुमुदिनी और हालिनी लिख रहा था। दसर्व स्वप्न में उन्होंने एक भरपुर ताल देखा, जिसमें कमलों की पोली रज तर रही थी। ग्यारहवें
और गर्जन करताहमा चंचल तरगों से युक्त समुद्र दिखलाई दिया। उन्होंने बारहवें स्वप्न में दैदीप्यमान मणि से यक्त ऊंचा सिंहासम देखा । तेरहवां स्वप्न बहुमूल्य रत्नों से प्रकाशित स्वर्ग का विमान था । चौदहवें स्वप्न में पथ्वी को मारकर की मोर प्राताहमा फणीन्द्र (भवनवासी देव) का ऊंचा भवन दिखाई दिया । पंद्रहवें स्वप्न में उन्होंने रत्नों की विशाल गति देखी जिसकी किरणों से आकाश तक प्रकाशित हो रहा था। सोलहवें स्वप्न में माता ने निर्धम अग्नि देखो।
परीत सोलह स्वप्नों को देखने के पश्चात् त्रिशला महारानी ने पूत्र के आगमन सूचक ऊंचे शरीर वाला उत्तम हाथी
ल में घमते हुए देखा । माता के स्वप्न देखने के थोड़ी देर बाद ही प्रातः काल हुआ । राजमहल में महारानी को लगाने के लिए समधर बाजे बजने लग । बन्दा जना ने कहना प्रारम्भ किया-माता अब जगने का समय आकर उपस्थित मा
पनी शय्या छोडकर अपने योग्य शुभ कार्यों को प्रारम्भ कर देना चाहिए, जिससे कल्याण कारक वस्तये तुम्हें बड़ी सरलता से प्राप्त हों।
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