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पद्म आदि षट भूधर शीस, सीता सीतोदा मन बीस । नील निकट अड़तीस जु योर, तिनत' ही निवद्ध नग ठौर ।।७।। उपसमुद्र सत्र है चौतीस, आरज खण्ड हि इक इक दीस । महा नदी नवें सत्र कही, गंगा आदि चतुर्दश लही ।। चौसठ सबहि विदेह मझार, बारह बिपुल विभंगा सार । सत्रह लाख सु है परिवार, ऊपर सहस बानव धार ।।१।। पर्वत नदी कुण्ड लघु बनै, सो राब भेद कहत नहि बनं । जथा युद्धि कु बरणन कहो, सुन बुध हिय में सरधा लहौ ।।२।।
दोहा महिमा जम्बू द्वीप को, को कवि वरननहार । कही किमपि संक्षेप विधि, जिनमत के अनुसार ।।६३॥
चौपाई
अब यह प्रारजखण्ड महान, देश सहस बत्तीस प्रमान । तामें दक्षिण दिश गुणमाल, महा विदेहा देश रसाल ॥५४||| सो बिदेह बत है समुदाय, सत्र शोभा ता कही न जाय । कोई तप फल के परभाय, उपज घर विदेह में प्राय ।।५। उत्तम पद तहं पावै कोई, सार्थ नाम शिवगामी होई । कोई षोडश भावन भाय, बांधे तीर्थकर पद थाय ।।६।। कोई पंचोत्तर पद लहैं, निज समता आतम चित गहैं । कोई दान सुमात्रहि देइ, ता फल भोगभूमि पद लेइ ।।८।। कोई धर्म तने परभाव, लहें इन्द्र पद उत्तम ठाव । जहाँ खान भूम मन रंग, पद पद पर दोसह सरवंग ।।८।। मरपति सुरपति भवन महेश, बंदै ग्राय केवली शेष । वन परवत गिरि गुफा मसान, तहां देई मुनि उत्तम ध्यान IET बिहरै जाति-समूह सम चेत, कर्मबुद्धि के कारण हेत । चार प्रकार संघ मुखदाय, संबोध भविजन मन लाय 1800 देश तनों वरनन बहु येह, कहत ग्रंथ बाद अति केह । ताके मध्य नाभिवत जान, कुण्डलपुर नगरीमु खानख ||११|| तंग कोटा गोपूर वार, बागीः विचार । रिपुकुल तहाँ न पावे जान, बर्णन साकेता परमान ||२|| तीर्थकर कल्याणक जान, हूसही यहाँ गुण खान । यही जान सुर यात्रा करे, परमोत्सव' निज हिरदै धरै ॥३॥ अति उन्नत जहां जिन प्रागार, हेम रत्नमय रहित विकार । बहु प्रकार दोस निरभंग, सर्व बुधजन निज मन रंगा बाद साल जयनन्दन मान, गीता-नत्य शुभ वादहि ठान । ताही में जिनबिम्ब मनोग, हेमवरण उपकरण संजोग ॥१५॥ ते बंद भविजन गणधाम, दिव्यरूप कोमल परिणाम । मनों देवगण उत्तम एह, पूजा कर रहित सन्देह ।।६।। कोई निज गृह द्वारहिं खड़े, वारम्बार भक्ति मन जड़े। देखि जती पड़गाहन कर, मद मत्सर तनत परिहर ।।७। देइ सुपात्रहिं उत्तम दान, रत्नवृष्टि सुर करहि निदान । तिनको देखि मध्य नर कोई, दान देन में तत्पर होई ||६|| तापुर मन्दिर सघनी पात, तुग ध्वजा दीसे बहु भात । बांछे इंद्र लेन अवतार, जाते लहैं उच्च पद सार En
पविराम वर्षा हो रही है । कारण यह है कि, धर्म के प्रभाव में हो तीनों लोकों में पूज्य तीर्थकर जैसे पद प्राप्त पुत्र का जन्म होता है। वस्तुतः संसार को दुर्लभ से दुर्लभ वस्तुएं धर्म से सुलभ हो जाती हैं। किसी-किसी ने यह भी कहा है-यह सर्वथा सत्य है कि धर्म के प्रभाव में पुत्रादि इष्ट वस्तयों को प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। अतएव सुखों की प्राप्ति चाहने वाले लोगों क प्रयल पूर्वक हिसा स्वरूप दया लक्षण रूप धर्म का सर्वदा पालन करते रहना चाहिये । यह धर्म सर्वथा निर्दोष प्रणव्रत और महावतों से दो प्रकार का है।
एक दिन की घटना है। महारानी त्रिशलादेवी रात को कोमल सेज पर सोई थीं। रात्रि के पिछले पहर में पुण्योदय से उन्हें सोलह स्वप्न दीख पड़े, जो सर्वथा कल्याणकारक और सौभाग्यसूचक हैं। सोलह स्वप्नों में सर्व प्रथम उन्होंने मदोन्मत्त हाथी को देखा। बाद में गंभीर शब्द और ऊंचे कंधे वाला चन्द्रमा के सदृश नभ काँतिवाला वैल दिखाई दिया। तीसरा अपूर्वकान्ति बहद शरीर, और लाल कंधे वाला सिंह था । चौथे स्वप्न में कमलरूपी सिंहासन पर ग्रारोहित लक्ष्मोदेवी को उन्होंने देव हस्तियों द्वारा स्नान करती हुई देखा। पांचवां सुगंधित दो मालायें थीं। छठे में तारापों से घिरे हुए चन्द्रमा को देखा, जिससे सारा संसार आलोकित हो रहा था।
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