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अथानन्तर कोई एक विद्याधर युद्ध करने वाले दोनों भाइयों के बीच प्रवेश कर कहने लगा कि तुम दोनों व्यर्थ ही क्यों यद्ध करते हो? यह तो तुम्हारी छोटी बहिन है। उसके वचन सुनकर दोनों कुमारों ने अाश्चर्य के साथ पूछा कि यह कैसे ? उत्तर में विद्याधर ने कहा कि धातको खण्ड द्वीप के पूर्व भाग में मेरु पर्वत से पर्व को ओर एक पुष्कलावती नाम का देश है। उसमें विजया पर्वत की दक्षिण श्रेणी पर प्रादित्याभ नाम का नगर है। उसमें सुकुण्डरनी नाम का विद्याधर राज्य करता है। सकृण्डली की स्त्री का नाम मित्रसेना है। मैं उन दोनों का मणिकुण्डल नाम का पुत्र हैं। मैं किसी समय पुण्डरीकिणी नगरी गया था, वहा अमितप्रभ जिनेन्द्र से सनातन धर्म का स्वरूप सुनकर मैंने अपने पूर्वभव पछ । उत्तर में वे कहने लगे-कि तीसरे पृष्करवर द्वीप में पश्चिम मेरु पर्वत से पश्चिम की ओर सरिद् नाम का एक देश है। उसके मध्य में वीतशोक नाम का नगर है। उसके राजा का नाम ऋध्वज था, चक्रवज की स्त्री का नाम कनकमालिका था। उन दोनों के कनकलता और पचलता नाम को दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। उसी राजा को एक बिद्युन्मति नाम की दूसरी रानी थी उसके पावती नाम को पूत्री थी। इस प्रकार इन सबका समय सखसे बात रहा था। किस दिन काललब्धि के निमित्त से रानो कनकमाला और उसकी दोनों पत्रियों
भितसेना नाम को गणिनी के वचनरूपी रसायन का पान किया जिसमे वे तीनों ही मरकर प्रयभ स्वर्ग में देव हई। इधर पशादती ने देखा कि एक वेश्या दो कामियों को प्रसन्न कर रही है उसे देख पद्मावती ने भी वैने ही होने की इच्छा की। मरकर वह स्वर्ग में अप्सरा हुई।
तदन्तर कमकमाला का जीव, वहां से चयकर मणिकुण्डली नाम का राजा हुन्मा है और दोनों पुत्रियों के जीव रत्नपुर नगर में राजपूत्र हए हैं। जिरा अप्सरा का उल्लेख ऊपर पा चुका है वह स्वर्ग से चय कर अनन्तमति हई है। इसी प्रान्तमति को लेकर आज तुम दोनों राजपूत्रों का यूद्ध हो रहा है। इस प्रकार जिनेन्द्र देव की कही हुई बाणी सनकर, अन्याय करने वाले पौर धर्म को न जानने वाले तुम लोगों को रोकने के लिए मैं यहां आया हूं । इस प्रकार विद्याधर के वचनों से दोनों का कलह दूर हो गया, दोनों को प्रात्मज्ञन उत्पन्न हो गया, दोनों को शीघ्र ही वैराग्य उत्पन्न हो गया, दोनों ने सुधर्मगुरू के पास दीक्षा ले ली. दोनों ही क्षायिक अनन्तज्ञानादि गुणों के धारक हुए और दोनों ही अन्त में निर्वाण को प्राप्त हुए। तथा अनन्तमति ने भी हृदय में श्रावक के सम्पूर्ण व्रत धारण किये और अन्त में स्वर्ग लोक प्राप्त किया। सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनों के अनुग्रह से कौन-सी बस्तु नहीं मिलती? राजा श्रीषेण का जीव' भोगभूमि से चयकर सौधर्म स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में श्रीप्रभ नामक देव हा, रानी सिंहनन्दिता का जीव उसी स्वर्ग के श्रीनिलय विमान में विद्युत्प्रभा नाम की देवी हई।
सत्यभामा ब्राह्मणी और अनिन्दिता नाम की रानी के जीव क्रमशः विमलप्रभ बिमान में शुक्लप्रभा नाम को देवी और विमलप्रभ नाम के देव हए । राजा श्रीषेण का जीव पांच पल्य प्रमाण आयु के अन्त में वहाँ से चयकर इस तरह की लक्ष्मी से सम्पन्न तू अर्ककीति का पुत्र हुआ है। सिंहनन्दिता तुम्हारी ज्योतिःप्रभ नाम का स्त्री हुई है, देवी अनिन्दिता का जीव श्री विजय हा है, सत्यभामा सतारा हुई है और पहले का दुष्ट कपिल चिरकाल तक दुर्गतियों में भ्रमण नाम के वन में ऐरावती नदी के किनारे तापसियों के आश्रम में कौशिक नामक तापस की चपलबेगा स्त्री से मृगशृग नाम का पुत्र हुआ है। वहां पर उस दृष्ट ने बहत समय तक खोटे तापसियों के व्रत पालन किये । किसी एक दिन चपलबेग विद्याधर की लक्ष्मी देखकर उस मन में, विद्वान जिसकी निन्दा करते हैं ऐसा निदान बन्ध किया। उसी के फल सं यह अशनिघोष हुपा है और पूर्व स्नेह के कारण ही इसने सुतारा का हरण किया है । तेरा जीव आगे वाले नौवें भव में सज्जनों को शान्ति देने वाला पांचवां चक्रवर्ती और शान्तिनाथ नाम का सोलहवाँ तीर्थकर होगा।
इस प्रकार जिनेन्द्ररूपी चन्द्रमा की फैली हुई वचनरूपी चांदनी की प्रभा के सम्बन्ध से विद्याघरों के इन्द्र अमिततेज का हृदयरूपी फूमदों से भरा सरोवर खिल उठा । उसी समय अशनिघोष, उसकी माता स्वयम्प्रभा, सुतारा तथा अन्य कितने ही लोगों ने विरक्त होकर श्रेष्ठ संयम धारण किया । चक्रवर्ती के पुत्र को प्रादि लेकर बाकी के सब लोग जिनेन्द्र भगवान की स्तुति कर तथा तीन प्रदक्षिणाएं देकर अमिततेज के साथ यथायोग्य स्थान पर चले गये। इधर अर्ककीति का पूत्र अमिततेज