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इक इन्द्रीत दुर्लभ दुर्लभ, पंच इन्द्री अति पाई। नर भव पाय तपस्या कोज, जामें मोक्ष लहाई।। धर्म जिनेश्वर भापित जग में, सुख करता जिय होई । भव दुख हरन करन शिव प्रापति, भविजन पाला सोई ॥११॥ राम्यग्दर्शन ब्रतादि क्षमादिक, दशविध धर्म बखाने। ताहि धरै सुर शिव प्रापति लहि, वांछित सधी सयान ।। सखिया जनको सुक्ख बढ़ावत, दुखिया को दुख घात । धर्म दुविध जति धावक गोचर, होई सकल सिध बातं ॥११॥
है, इसलिये बुद्धिमान लोगों को अपने हित-साधन में सर्वदा सलग्न रहना चाहिये । केवली भगवान ने इस प्रकार त्रैलोक्य का सख प्रदान करनेवाला तथा दुःखों को विनष्ट करने वाला धर्मोपदेश किया। केवलो भगवान ने जिस धर्मका उपदेश किया. वर
८-संवर भावना पंच महादत संचरण, समिति पंच परकार प्रबल पच इन्द्री विजय, घार निर्जरा सार ।। पांच समिति, पांच महाव्रत, दस धर्म, बारह भावना, तीन गुती बाईस परिषय जय रूपी सत्तावन हाटी से में स्वयं मानव (कर्मों का यानका संवर (रोक थाम) कर सकता है और इस प्रकार अपनी प्रात्मा को कम सपी मल से भलीन होने से बचा सकता है।गरा मेरी प्रात्मा का भला-बुरा करने वाला सारे संसार में कोई दात्रु या भित्र नहीं।
--निर्जरा-भावना जाग दीग ता तेल भर, घर सोचे भ्रम छोर। या विध बिन निकस नहीं, बै? पूरव चोर।। जिस प्रकार एक चतुर पोत संचालक टेद हो जाने से जहाज में पानी घुस माने पर पहले रटेदों को बन्द करता है और फिर जबरानो हए पानी को बाहर फेंक कर जहाज को हल्का करता है जिससे उसका जहाज बिना किसी भय के सागर से पार हो सके, उसी प्रकार ज्ञानी जीव पहले मानव रूपी छेदों को संवररूपी डाटों से बन्द करके कर्भ रूपी जल को पाने से रोक देता है, फिर मात्मारूपी जहाज में पहले हकदा हा कर्म रूपी जल को तप रूपी अग्नि से सुखाकर निर्जर (नष्ट) कर देता है, जिससे मात्मारूपी जहाज संसार रूपी मागर को बिना किसी मय पार . कर सके।
१०.-लोक-भावना चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष संठान । तामें जीव अनादित, भरमत है बिन ज्ञाम ।। यह संसार (Universe) जीव (Soul) मजीव (Matter) धर्म (Medium of raotion) अधर्म (Medium of rest) काल (Time) अाकाश (Spacc) छः द्रव्यों (Substances) का समुदाय है । ये मर द्रव्य सत् रूप नित्य हैं, इसलिए जगन भी सत् रूप नित्य, अनादि और प्रकृत्रिम है, जिसमें वे जीव देव, मनुष्प गशु, नरक, चारों गतियों में कर्मानुसार भ्रमण करता हुमा अनादि काल से आवागमन के चक्कर में फस कर जन्म मरण के दुःषों को भोग रहा है। जिरा प्रकार पान से छिलका उतर जाने पर उसमें उगने की शक्ति नहीं रहती, उसी प्रकार जीव भात्मा से कर्महषी छिलका उतर जाने पर पात्मा चावल के समान शुद्ध हो जाती है, पोर उसमें जन्म की शक्ति नहीं रहती और जब जन्म नहीं तो मरण पोर यावागमन कहां? कर्मों का फल भोगने के लिये ही तो जीव संसार में कल रहा है। बच शुभ प्रशभ दोनों प्रकार के कर्मों की निर्जरा हो गई तो फल किसका भोगेगा? इसलिए ससार के अनादि भ्रमण से मुक्त होने के निथ निजराभ भिन्न भौर कोई उपाय नहीं।
११-बोधि-दुलभ भावना धन कन कंचन राजसुख, सबहि सुलभकर जान । दुर्लभ है संसार में एक जथारथ ज्ञान । इस जीव को स्त्री, पुत्र, धन, शक्ति प्रादि तो अनादि काल मे न मालूम कितनी बार प्राप्त हुँ, राज-सुख, चक्रवर्ती पद, स्वगों के उत्तम भोग भी अनेक बार प्राप्त हुये, परन्तु सच्चा सम्यक ज्ञान न मिलने के कारण आज तक संसार में रुल रहा हूं। मैंने पर पदायों को तो तुम जाना, परन्तु अपनी निज प्रात्मा को न समझा कि मैं कौन है ? बार -बार जन्म मरण करके ससार में क्यों भ्रमण कर रहा हूं ? इससे मुक्त होने और सच्दा सुस्त्र प्राप्त करने का क्या उपाय है ? जब संसारी पदार्थों की लालसा में फंस कर उनसे मुक्त होने की विवि पर कभी विचार नहीं किया तो फिर मुक्ति कैसे प्राप्त हो? इसलिए ससारी दुःखों से छूटने के लिये और सच्ची सुख शांति प्राप्त करने के लिये निज पर के भेद-विज्ञान को बिश्वासपूर्वक जानने की अावश्यकता है।
१२--धर्म-भावना जाँचे सुरतरु देव सुख, चितव चिन्ता रैन । बिन जांचे बिन चिन्तये, धर्म सकल सुम्बर्दन ।। अपनी आत्मा का स्वाभाविका गुण ही प्रास्मा का धर्म हैं। प्रात्मा के स्वाभाविक गुण तीनों लोक, तीनों चाल में समस्त पदार्थों को एक साथ जानना, सारे पदार्थों को एक रााथ देखना, अनन्तानन्त शक्ति और अनन्त गुम्न को अनुभव करना है । वह धर्म सम्बकदर्शन, साम्यज्ञान, सम्यकचारित्र, रत्नत्रय रुषी है, अहिमामयो है दवालक्षण स्वरूप है। इनको प्राप्त करने से आठों कयों को काट कर मोक्ष (Silvation) प्राप्त करके सच्चा सुख और घात्मिक शांति प्राप्त कर सकता है।
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