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इनमें विविध प्रकार के व्रत जैसे गुणव्रत, शिक्षाव्रत, सामायिक प्रोषध इत्यादि गर्भित हैं। इन प्रतिमाओं को पूर्ण करके वह साधुओं के महाव्रतों का अभ्यासी होता है। इस अवस्था में वह उक्त व्रतों को पूर्ण रूप में पालता है।
ग्रात्म-समाधि की प्राप्ति के लिए गृहस्थों और साधुओं के लिए नित्य के छः श्रावश्यक कर्त्तव्य वतलाये गए हैं । साधुयों के लिए वह इस प्रकार है।
समदा थवो य वंदण पाडिक्कमण तहेब गादव्वं । पचक्खाण विसग्गो करणीयाबासया छप्पि ||२२||
अर्थात् समता सर्व के प्रति सब में समता भाव रखना, (२) स्तव - तीर्थंकर भगवान का स्तवन करना, (३) वन्दना देवशास्त्र गुरु की वंदना करना, (४) प्रतिक्रमण कृत पापों की बालोचना करना, (५) प्रत्यास्थान धनुक २ पदार्थों के त्याग करने का नियम करना घोर (६) परसर्ग अपनी देह से मनता हटाकर उसे तपश्चर्या में लगाना इस प्रकार साधु के लिए यह नित्य प्रति के षडावश्यक बताये गए हैं। श्रावक के लिए भी छः बातों का रोजाना करना लाज़मी बतलाया गया है । जैसे कि आचार्य कहते हैं ।
देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानवेति गृहस्थाणां कर्माणि विनेदिने ।
पद्मनविपविशतिका
अर्थात् - ( १ ) जिन भगवान की पूजा करना, उनके गुणों को स्मरण करके । जिन प्रतिमायें ध्यानाकार होती हैं। जिससे वे पुजारी के हृदय पर बात्म भाव को अकित करने में सहायक हैं (२) गुरुजन-निर्ग्रन्थ मुनि और साधु जन की उपासना करना और उनकी शिक्षाओं को ग्रहण करना (३) संयम का अभ्यास करना जिससे मन और इन्द्रियों पर अधिकार रहे, जैसे नियम करना कि में आज नाटक देखने नहीं जाऊँगा, केवल दो बार ही भोजन करूंगा, इतर फुलेल नहीं लाऊंगा इत्यादि । यह साधारण नियम है, परन्तु प्रात्मोन्नति में सहायक हैं (४) स्वाध्याय वास्त्रों का अध्ययन अध्यापन और मनन करना । (५) सामायिक प्रर्थात् एकान्त स्थान में प्रात: और सायंकाल बैठकर अथवा केवल प्रातः - को बैठ कर एक नियत समय तक तीर्थंकर भगवान के परम स्वरूप का अथवा आत्म गुणों का चित्तवन और ध्यान करना इससे आत्मशक्ति बढ़ती है और समताभाव की प्राप्ति होती है (६) दान-आहार घोषधि शास्त्र और अभय रूपी दान सब ही पात्रों को देना चाहिए। इन छः आवश्यक बातों को करने से उस आत्मदशा की प्राप्ति होती है जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्वारित्र साक्षात् रूप विराजमान हैं। यही वह मार्ग है जिसमें कर्मों का क्षय होता है और आत्मा शुद्ध और स्वतन्त्र होती जाती है।
आत्मस्थिति में अथवा आत्म ध्यान में उन्नति करना गुणस्थान क्रम में बतलाया गया है। यह गुणस्थान कुल १४ हैं । इनका पूर्ण विवरण जैन शास्त्रों में देखना चाहिए, किन्तु यह जान लीजिए १३ वे गुणस्थान में पहुँच कर मुनि चार घातिया कर्मों का अर्थात् ज्ञानावर्णी दर्शनावर्णी, मोहनीय और अन्तराय कर्मों को जो आत्मा के स्वभाव के घातक है, उनका नाश कर देता है और इस अवस्था में केवल ज्ञान सर्वज्ञता को प्राप्त करके महंत सयोग केवली अथवा सकल सशरीरी परमात्मा हो जाता है । यह जीवित परमात्मा दो प्रकार के होते हैं: (१) सामान्य केवली और (२) तीर्थकर सामान्य केवली स्वयं निर्माण लाभ करते हैं एवं अन्यों को भी मोक्ष मार्ग दर्शाते हैं, परन्तु उनके समवसरण आदि की विभूति नहीं होती है। तीर्थकरों के समवसरण होता है और वे वहां से 'तीर्थ' के भव्यों को मोक्ष मार्ग का सनातन उपदेश देते हैं। यह तीर्थ संघ चार प्रकार का होता है । (१) मुनि, (२) आर्यिका (३) श्रावक, (४) श्राविका । इसी चतुर्निकाय संघ को तीर्थकर भगवान अपनी गंधकुटी से प्राकृतिक रूप में उपदेश देते हैं जिसको सब कोई अपनी अपनी भाषा में समझ लेता है।
श्री नेमिचन्द्राचार्य जी महंत भगवान का स्वरूप यों बतलाते हैं :
चदुषाकम्मो दंसणगुणान पीरिय मइयो ।
सुहवो पप्पा सुद्धो अरिहो विचितिजी ||५० ॥
अर्थात् — महंत वह हैं जिन्होंने चार प्रकार के घातिया कर्मों को नष्ट कर दिया है और जो अनन्तचतुष्टय ग्रनन्त
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