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________________ भाग में राजा मत यह मानते कि यहाँ भी एक सदशता होने पर भी बौद्धों ने जितने स्वर्ग बताये हैं उतने जैन सिद्धान्त में स्वीकृत नहीं हैं, यद्यपि एक स्थान पर उनके यहाँ भी १६ ही बताये गये हैं। सचमुच बौद्ध शास्त्रों में इनको कोई निश्चित संख्या नहीं मिलती है। वे सात, पाठ, सोलह और सत्तरह भी बताये गये है। किन्तु इतने पर भी यह स्पष्ट है कि वौद्धों के स्वर्ग विवरण में भी जैन धर्म की छाप लगी दृष्टिगत होती है। यहाँ पर उनका तुलनात्मक पूर्ण विवरण करना कठिन है। यद्यपि यह स्पष्ट है कि अन्ततः बौद्ध और जैन दोनों ही यह स्वीकार करते हैं कि स्वर्ग लोक में वही जीव जन्मते हैं जो विशेष पुण्य उपार्जन करते हैं। प्रात्मवाद परोक्ष रूप में म. वृद्ध को भी अस्पष्ट रूप से स्वीकार करना पड़ा था, यह हम देख चुके हैं। जैन सिद्धान्त में स्वर्ग लोक से मोक्ष लाभ करना असम्भव बतलाया है, यौद्ध देवों द्वारा निर्वाण लाभ मानते हैं। किन्तु यह बात दोनों ही मानते हैं कि देवों में विक्रिया शक्ति है पीर हेय से हेय अवस्था का जीव स्वर्ग सुख का अधिकारी हो सकता है। जैन शास्त्रों में कथा प्रचलित है कि जब राजा श्रेणिक भगवान महावीर की वन्दना को विपुलाचल पर्वत को जा रहे थे, तब एक मेंढक के भी भाव भक्ति से भर गये थे और वह भी भगवान के समवशरण की ओर पूज्य भावों का भरा हुया जा रहा था कि मार्ग में राजा के हाथी के पैर से दब कर मर गया और इस पुण्य भाव से वह देव हुआ । बौद्धों के यहाँ भी एक ऐसी ही कथा 'विशति माग्ग' नामक ग्रन्थ में कही गयी है। फिर दोनों ही मत यह मानते हैं कि देवगति में भी देवगण अपने शुभाशुभ परिणामों के अनुसार सुख-दुख का अनुभव करते हैं, किन्तु दोनों में ऐसे भी देव माने गये हैं जो मोह के अभाव में दुःख का अनुभव करते ही नहीं हैं तथापि दोनों ही धर्मों के देवों के मरण समय का वर्णन भी प्रायः एक-सा है। बौद्ध शास्त्र कहते हैं कि स्वर्ग से चय होने के कुछ ही पहले उस देव के (१) बस्त्र अपनी स्वच्छता खो बैठते हैं, (२) मालायें और उसके अन्य अलंकार मुरझाने लगते हैं, (३) शरीर से प्रोस की तरह पसीना निकलने लगता है, (४) और महल जिसमें उसका निवास होता है वह अपनी सुन्दरता गंवा देता है। जैन शास्त्रों में भी मरण के छः महीने पहले से माला मुरझाने का उल्लेख मिलता है । साथ ही जैन सिद्धान्त में देवों के अवविज्ञान का होना माना गया है, परन्तु बौद्धों के यह स्वीकृत नहीं है। इस प्रकार इन उक्त गतियों में परिभ्रमण करती हुई संसारी आत्मायें दुःख और पीड़ा को भगतती हैं। किन्तु भगवान कहते हैं कि जो सत्य की उपासना करते है और स्वध्यान में लवलीन रहते हैं वे भेद विज्ञान को पा जाते हैं। और भेद-विज्ञान जहाँ एक बार प्राप्त हुआ कि वहां फिर सम्यक्मार्ग में दिवस प्रतिदिवस उन्नति करते जाना अवश्यम्भावी है । जैनाचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी कहते हैं: गुरुपदेशादभ्यासात्संक्त्तेि स्वपरांतरं । जानाति यः स जानाति मोक्षसौख्यं निरन्तरम् ।।३३।। भावार्थ-जिसने पारमा और पुद्गल के स्वरूप को जानकर भेद-विज्ञान प्राप्त कर लिया है चाहे वह गुरु की कृपा से प्राप्त किया हो अथवा वस्तुओं के स्वभाव पर बारम्बार ध्यान करने से या प्राभ्यन्तरिक प्रात्मदर्शन से पाया हो वह पात्मा मोक्ष सुख का उपभोग सदैव करता है। भगवान महावीर ने संसार जाल से छूट कर मोक्ष लाभ करने का मार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यग्चारित्र कर संयुक्त बतलाया था। व्यवहार दृष्टि से सम्यग्दर्शन, पूर्वोल्लिखित जंन तत्वों थद्धान करना है। इन्हों तत्वों का पूर्ण ज्ञान सम्यग्ज्ञान और जैन शास्त्र में बताये हुए पाचार नियमों का पालन करना सम्यग्चारित्र है। किन्तु निश्चय दष्टि से यह तीनों क्रमशः प्रात्मा का श्रद्धान, ज्ञान और स्वरूप की प्राप्ति है। सचमुच निश्चय सम्यक्चारित्र सिवाय पात्म समाधि के और कुछ नहीं है । व्यवहार दृष्टि निश्चय का निमित्त कारण समझना चाहिए। व्यवहार सम्यग्चारित्र दो प्रकार का है (१) एकदेश गृहस्थों के लिए (२) पूर्ण जो साक्षात् मोक्ष का कारण है साधुओं के लिए । गृहस्थ, सम्यग्दर्शन, और सम्यग्ज्ञान को धारण करता हुआ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह से सम्यग्चारित्र का अभ्यास प्रारम्भ करता है । यद्यपि इससे नीचे दर्जे का गृहस्थ मात्र थद्वानी, मद्य, मांस, मधु और पांच उदम्बर फलों का ही त्यागी होता है। और सबसे नीचे दर्जे का व्यक्ति कोरा श्रद्धानी होता है। परन्तु उक्त पंच अणुव्रतों के पालन से बह व्रती गृहस्थ अथवा थाबक सम्यग्चारित्र के मार्ग में क्रमशः उन्नति करना प्रारम्भ करता है । इस उन्नतिक्रम का विधान, भगवान ने ११ प्रतिमाओं में किया है। इन ११ प्रतिमाओं का अभ्यास करके वह साधु के व्रतों को पालन करने का अधिकारी होता है। इन प्रतिमाओं में भाव, व्यक्ति विशेष को प्रात्मा ने पूर्व प्रतिमा से जो उन्नति को है उसको व्यक्त करना है। ७६६
SR No.090094
Book TitleBhagavana Mahavira aur unka Tattvadarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1014
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Principle, & Sermon
File Size36 MB
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