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दुग्गति बतलाना, प्रेतों-असुरों का स्थान, इत्यादि जैन धर्म के अनुसार बताये हैं। किन्तु इतने पर भी बुद्ध देव ने नर्क उतने ही बतलाये हैं जितने जैन धर्म में स्वीकृत हैं।
भगवान महावीर ने नर्क सात वताये हैं और उनकी पृथ्वीयों के नाम यों कहे हैं:(१) रत्नप्रभा-पालोक इसका रत्न कैसा है और यह गर्म है। (२) शर्कराप्रभा " " " शक्कर " (३) वालुका प्रभा " " " रेत ॥ (४) पंक प्रभा " " " पंक (५) धूम प्रभा
घुएँ "केवल ३ लाख पटलों में शेष ठंडा है। (६) तमप्रभा-पालोक इसका अन्धकार कैसा है और सर्द है । (७) महातमप्रभा-आलोक इसका घोर अन्धकार कैसा है और सर्द है । इन सब में भिन्न २ संख्या में ८४ लाख बड़े बिले हैं जिनमें नारकी जन्म लेते हैं।
म. बुद्ध ने सामान्यतया ८ नर्क बतलाये थे, यद्यपि इनके अतिरिक्त वह और बहुत से छोटे नर्क बतलाते थे । शायद वह इन्हीं पाठ के अन्तर्भाग हो । ये आठ इस प्रकार बताए गए हैं:
१. सज्जीव, २. कालसूत्र, ३. संघात, ४. रौरव, ५. महारौरव, ६. लापन, ७. प्रतापन और द. प्रवीची। उत्तरीय बौद्धों की प्राचीन मानता में इतने हो ठण्ड नर्क भी थे।
इस तरह बौद्धों के नर्क सम्बन्धी विवरण में बहुत-सी बातें जैन धर्म से मिलती-जुलती हैं। वास्तव में जैन धर्म से बौद्ध धर्म की जो सादृश्यता विशेष मिलती है वह म० बुद्ध के प्रारम्भिक जन विश्वास के कारण ही समझना चाहिए । म. बद्ध ने एक माध्यमिक के तरीके उस समय प्रचलित प्रख्यात मतों में से कुछ न कुछ अवश्य ही ग्रहण किया था। ब्राह्मणों के स्वर्ग-नर्क सिद्धान्तों से भी किचित् सदृशता बौद्ध मान्यता की बैठती है । यही कारण है कि सर्व प्रकार के विश्वासों वाले विविध पन्थ अनुयायियों को अपने धर्म में लाने के लिए म. बुद्ध ने इस प्रकार क्रिया की थी, जिसके समक्ष उन्होंने अपने सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता और औचित्य पर भी ध्यान नहीं दिया। किन्तु इसे और उनके धर्म की विशेष सदशता जैन धर्म से बंटती है, जो ठीक भी है, क्योंकि हम देख चुके हैं कि इस जैन धर्म का प्रभाव उनके जीवन पर किस अधिकता से पड़ा था। दोनों मतों में व्यवहृत शब्द भी जेसे आचार्य, उपाध्याय, प्राधव, संवर, गंधकुटी, शासन प्रादि प्रायः एक से हैं, यहापि यह बौद्ध धर्म में बहुत करके अपने शाब्दिक भाव को खो बैठे हैं।
नों के विवरण की तरह स्वर्गलोक के विवरण का भी किचित् सामंजस्य जन मान्यता से बैठ जाता है । भगवान महावीर ने चार प्रकार के देव बतलाये थे (१) भवनवासी, (२) ब्यन्तर, (३) ज्योतिष्क, (४) वैमानिक । इन प्रत्येक के दश दर्जे हैं, इन्द्र, सामानिक, प्रायस्त्रिश, पारिषद, आत्मरक्षक, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, अभियोग्य और किल्बिषक । वौद्धों के यहाँ भी प्रथम प्रकार के देव "भुम्मदेव' के नाम से ज्ञात हैं। दूसरे प्रकार के प्रेत, असुर आदि हैं। तीसरे प्रकार के सूर्य, चन्द्र आदि बतलाये ये और अन्तिम प्रकार के देव यह समझना चाहिए जो कामश्वर लोक आदि के विमानों में मिलते हैं। इनमें अन्तिम प्रकार के देव स्वर्ग लोक के विमानों में रहते हैं। जैन सिद्धान्त में बतलाया गया है कि यह विमान मेरुपर्वत के तनिक अन्तर से ही तराजू के पलड़ों की तरह दो-दो ऊपर-ऊपर अवस्थित हैं। यह कुल १६ हैं। इनके ऊपर प्रैवेयक, अनुदिश, अनुत्तर और सर्वार्थ सिद्धि विमान हैं। इन ग्रेवेयकादि के निवासी देव सब पुरुष लिंग ही हैं और काम वासना से रहित हैं। यह अहमिन्द्र कहलाते हैं। बुद्ध ने जो रूप लोक के स्वर्ग बताये थे, वह भी इस ही प्रकार के हैं। जैन सिद्धान्त के लौकान्तिक देव जो ५वें स्वर्ग के सर्वोपरि भाग में अवस्थित ब्रह्मलोक में रहते हैं और जो आत्मोन्नति विशेष कर चके हैं कि दूसरे भव से ही मोक्ष लाभ करेंगे, वह भी बौद्धों के ब्रह्मलोक के देवों के समान हैं। बौद्ध कहते हैं कि यह देव ब्रह्मलोक में विशेष ध्यान करने के उपरान्त पहुँचते हैं। किन्तु इतनी