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जाता है। और उत्सपिणी का प्रथम अति दुःखमा काया है, जिसमें प्रा. लि होती, इसके प्रारम्भ में क्षोर जाति के मेघ सात दिन तक रात दिन बराबर जल और दूध की वर्षा करते हैं जिससे पृथ्वी का रूखापन नष्ट हो जाता है । इसो से यह पृथ्वी अनुक्रम से वर्णादि गुणों को प्राप्त होती है। इसके बाद अमृत जाति के मेघ सात दिन तक अमृत को वर्षा करते हैं जिससे औषधियां, वृक्ष, पौधे और घास आदि पहले अविसप्पिणी के समान निरंतर होने लगते हैं। तदनंतर रसादि जाति के बादल रस की वर्षा करते हैं जिससे सब चीजों में रस उत्पन्न होता है । उत्सपिली काल में सबसे पहले जो मनुष्य बिलों में घुस जाते हैं ये निकलकर उस रस के संयोग से जीवित रहने लगते हैं। ज्यों-ज्यों काल बीतता जाता है त्यों-त्यों शरीर को ऊंचाई, आयु आदि जिन-जिन चीजों की पहले अविसप्पिणी में कमी होती जाती थी उन सब की वृद्धि होतो है । उपरान्त दूसरे काल में सोलह कुलकर होते हैं। इनके द्वारा क्रमकर धान्यादि और लज्जा, मंत्री आदि गुणों की वृद्धि होती है । लोग अग्नि में पकाकर भोजन करते हैं। दूसरे के बाद तीसरे काल में भी लोगों के शरीर प्रादि वृद्धि को प्राप्त होते हैं। इस समय २४ तीर्थकर आदि महापुरुष जन्म लेते हैं। और प्रथम तीर्थकर द्वारा कर्म क्षेत्र को सृष्टि होती है । फिर चौथे काल में शरीर, प्रायु आदि में और वृद्धि होती है और उसके थोड़े ही वर्ष बाद वहां जघन्य भोगभूमि की स्थिति हो जाती है । इसी तरह पांचवें काल में भो मध्यम भोगभूमि की मृष्टि होती है और छठे काल में उत्तम भोगभूमि की स्थिति रहती हैं। इसके साथ ही उत्सपिणी काल का अन्त और अवप्पिणी काल प्रारम्भ हो जाता है। जिसके प्रारम्भ के साथ ही अवनति क्रम चालू होता है। हम जिस काल में रह रहे हैं यह प्रवप्पिणी का पांचवा काल है। इसके प्रारम्भ के तीन कालों में यहां भोगभूमि थी। भोगभूमि में युगल दम्पत्ति जन्म लेकर आनन्द से जीवन व्यतीत करते थे । कल्पवृक्षों से उनको भोगोपभोग की सब सामग्री प्राप्त होती थी। सूर्य चन्द्र नहीं थे। माता-पिता आदि रिश्ते प्रचलित नहीं थे। यहां से मरकर जीव नियम से देवगति को प्राप्त होते थे। अन्ततः तीसरे काल में अन्त होने के कुछ पहले १६ कुलकर उत्पन्न हुए थे, जिनके समय में जिस-जिस बात को तकलोफ लोगों को हुई उसको उन्होंने व्यवस्था की, क्योंकि ऋमकर कल्प वृक्ष तो ह्रास को प्राप्त होते जा रहे थे। इनका विशद विवरण हमारे 'संक्षिप्त जन इतिहास अथवा अन्य जैनग्रन्थों में देखना चाहिए। आखिर चौथे काल के प्रारम्भ से किंचित् पहले ही प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी का जन्म हो गया था। इन्हीं के द्वारा कर्मभूमि का प्रादुर्भाव हुआ । जनता को असि, मसि, कृषि प्रादि क्रम इन्होंने ही बतलाये। इसी समय चार वर्णो की स्थापना हो गई। जिन्होंने जनता की रक्षा का भार लिया वे क्षत्रो हुए और जो व्यवसाय व शिल्प में व्यस्त हुए वे वैश्य कहलाये और दस्युकर्म करने वाले शूद्र वर्ण के हए। ब्राह्मण वर्ण की स्थापना उपरान्त सम्राट् भरत द्वारा व्रती श्रावकों में से हुई । इस तरह कर्म भूमि का श्रीगणेश हुआ। उपरान्त समयानुसार हर बात की अवनति चाल रही और समयानुसार तीर्थकर भगवान एवं अन्य महापुरुप होते रहे। फिर भगवान महावीर के निर्वाण काल से कुछ महीने बाद से हो यह पंचमकाल प्रारम्भ हो गया था। इसमें ह्रासक्रम चाल है। इसके अन्त में ही जैन धर्म और अग्नि का लोप हो जायगा और जो होगा वह उत्सप्पिणी काल के वर्णन में बतलाया जा चुका है । इस तरह यह कल्पकाल है । यही विधि सर्वथा चालू रहेगी। म० बुद्ध के काल क्रम और इसमें किचित् सदृशता है । बाय रेखायें एक समान है, यद्यपि मूल में अन्तर विशेष है।
यह भेद तो जान लिया, परन्तु भगवान महावीर के मतानुसार लोक का स्वरूप तो अभी तक नहीं जान पाया। प्रतएव प्राइए, अब यहां पर यह देख लें कि भगवान महावीर ने लोक के विषय में क्या कहा था ?
भगवान महावीर ने भी असंख्यात द्वोप समुद्र बतलाये थे, परन्तु उस सबके लिए स्वर्ग-नर्क प्रादि उन्होंने एक ही बतलाए थे उनके अनुसार बह लोक तीन भागों में विभाजित है और उसे तीन प्रकार की बायु से वेष्टित बतलाया गया है। यह तीन भाग ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक कहे गये हैं।
अधोलोक के सर्व अन्तिम भाग में निगोद है। यह वह स्थान है जिसमें निगोद जीब रहते हैं। यह निगोद जोब एकेन्द्री जीव से भी हीन अवस्था में हैं और अनन्त हैं। यहां स्पर्शन इन्द्री भी पूर्ण व्यक्त नहीं है। जीव समुदाय रूप में इकट्ठे एक शरीर में रहते हैं। इनकी प्रायु भी अत्यल्प है। वे एक श्वास में १८ बार जन्मते हैं। इस निगोद में से हमेशा नियमानुसार जीव निकलते रहते हैं और वे उस कमो को पूरी कर देते हैं जो जीवों के मुक्त हो जाने से होती है। इस तरह वह जीवराशि कभी निवटती नहीं। यूं ही अनादि निधन है । जीव अस नाड़ीमें भ्रमण करते हैं।
जैनों के तीन लोक के नक्शे में बताते हए 'मध्यलोक' में ही वे सब संसार क्षेत्र हैं जिनका उल्लेख हम ऊपर कर के हैं। और इसके 'ऊर्ध्व पीर अधो' लोक में क्रमशः स्वर्ग और नर्क अवस्थित है । बुद्ध ने भी लोक को तीन प्रवचारों (regions) में अथवा धातों में विभक्त बतलाया है, (१) काम धातु, (२) रूप धातु और (३) अरूप धातू । यह भी जैन सिद्धान्त की सादृश्यता दृष्टि पड़ती है। इसके अतिरिक्त बौद्ध शास्त्रों में नर्क गति के और नर्को के जो वर्णन, पीड़ाये, वैतरनी नदी, इसे