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के बन्द होने पर एक हवा चलती है, जिससे भरा हुआ पानी प्रायः सूख जाता है, केवल समुद्रों के लायक ही पानी रह जाता है। इसके दीर्घकाल उपरान्त यहां शेखर (इन्द्र) का महल प्रकट होता है, जो सर्व प्रथम रचना होती है। महल के बाद नीचे के ब्रह्मलोक और देव लोक की सृष्टि हो जाती है । इन्द्र इसी समय पाकर कमलपुष्पों को देखते हैं। यदि कमलपुष्प हुए तो जान लिया जाता है कि इस कल्प में वुद्ध होंगे। बुद्धों के वस्त्र, कमण्डल आदि भी यहीं उत्पन्न हो जाते हैं। इन्द्र पृथ्वी का अंधकार मेट कर इन वस्त्रादि को उठा ले जाता है। पहले लोक के नाश होते समय यहां के पुण्यात्मा जीव अभस्सर ब्रह्मलोक में जन्म लेते हैं । वही यहां फिर वसते हैं। उनका जन्म छायारूप होता है। इसलिए उनके शरीर में देवलोक के कतिपय लक्षण यहां से शेष रह जाते हैं 1 उन्हें भोजन को आवश्यकता प्रायः नहीं पड़ती, वे आकाश में उड़ सकते हैं। उनके शरीर को प्रभा इतनी विशद होती है कि उस समय सूर्य और चन्द्रमा की आवश्यकता नहीं होती है। इस हेतु वहां ऋतुयं भी नहीं होती हैं। और न दिन-रात का भेद होता है। तथापि उन लोगों में लिंगभेद भो नहीं बतलाया गया है। कई युगों तक यह ब्रह्मलोक के वासी प्रानन्द से इसी तरह यहां रहते हैं। उपरान्त पृथ्वी पर एक ऐसा पदार्थ उता दिखाई पड़ता है जो दूध पर मलाई पड़ता है। एक ब्रह्म उसे उठाकर बाट लेता है। इसके स्वाद की चाट सबको पड़ जाती है और यह अधिक-अधिक खाया जाता है। बस इस ही के बदोलत यह ब्रह्मलोक अपनी बिशुद्धता गंवा देते हैं, जिससे इनकी शरीर की प्रभा मन्द पड़ जाती है । इस पर सूर्य-चन्द्र आदि प्रकाश देने वाले पदाथों का प्रादुर्भाव होता है । इनकी उत्पत्ति भी वे मिलकर अपने पुण्यबल के प्रभाव से कर लेते हैं। बौद्ध धर्म में नाश और उत्पत्ति व्यक्तियों के पाप और पुण्य बल के कारण होते बतलाये गये हैं। इस तरह सूर्य-चन्द्र द्वारा किये गये दिन रात के भेद में रहते हुए और पृथ्वी का पदार्थ खाते हुए इन लोगों के शरीरों की त्वचा कड़ी पड़ जाती है, जिससे किसी का रंग काला
और किसी का जरा स्वच्छ रहता है। इस पर यह आपस में मान-घमण्ड करके लड़ते हैं। परिणामत: वह पदार्थ लुप्त हो जाता है और एक तरह का मक्खन-मिश्री-मिश्रित पदार्थ सिरज जाता है। इस पर भी लड़ाई होती है। आखिर लतादि उत्पन्न होते. होते चाबल उत्पन्न होते हैं, जिनको खाने से इन लोगों के शरीर आजकल के मनुष्यों से होते हैं, जिससे कषाय और विषय बासनायें आकर सताने लगती हैं। इस पर वह ब्रह्मलोग जो पवित्रता से रहते हैं अपने उन साथियों को निकाल बाहर कर देते हैं जो विषयवासना के वशीभूत होकर पवित्रता से हाथ धो बैठते हैं। यह बहिष्कृत ब्रह्मलोग अलग जाकर एकान्त में मकान बनाकर रहने लगते हैं यहाँ रहकर वे आलस्य से प्रेरित कई दिन के लिये इकट्ठे चावल ले आने लगते हैं। इस पर चावल धान रूप में पलट जाते हैं और जहां से एक दफे वे काटे गये वहां फिर वे नहीं उगने लगते हैं। इस दुर्भाग्य से उन्हीं को आपस में खेतों के, बांट लेना पड़ता है, किन्तु कतिपय ब्रह्म अपने भाग से संतुष्ट नहीं होते हैं। सो बे दूसरों के भाग में से धान चुराने लगते हैं । इस पर एक नियन्त्रण की आवश्यकता उत्पन्न होती है जिसके अनुसार सब ब्रह्म एकत्रित होकर अपने में से एक को अपना सरदार दन लेते हैं। यह सम्मत कहलाता है। वह खेतों पर अधिकारी होने के कारण ही पत्तियो' या क्षत्रिय नाम से प्रसिद्ध होता है। उसकी सन्तान भी इसी नाम से विख्यात हुई। और इस तरह राज्यवंश अथवा क्षत्रिय वर्ण की उत्पत्ति हो जाती है। उन ब्रह्मों में कतिपय ऐसे भी होते हैं जो बदमाशों की बदमाशी देखकर अपने को संयम में रखने का अभ्यास करने लगते हैं। इस अभ्यास के कारण वे बाह्मण कहलाते हैं और इस प्रकार ब्राह्मण वर्ण की सुष्टि हो जाती है। उनमें ऐसे भी ब्रह्म होते हैं जो शिल्पादि कलाओं में निपुण होते हैं और इस निपुणता से बे सम्पत्ति एकत्रित करते हैं 1 यही लोग वैश्य नाम से प्रगट होते हैं। अन्तत: ऐसे भी नीच प्रकृति के ब्रह्म हैं जो आखेट खेलते हैं । इसलिए वे लूह या सुद कहलाने लगगे हैं। इस प्रकार प्राकृत चार वर्ण उत्पन्न हो जाते हैं। यद्यपि मूल में वह एक ही जाति ब्रह्मरूप होते हैं। इन्हीं में से जो गह त्यागकर जंगल का वास ग्रहण करते हैं. वे श्रमण कहलाते हैं। इस तरह संसार प्रवाह चल जाता है। उपरान्त नियत संयम में पूनः अग्नि द्वारा पृथ्वी का नाश होता है और इसो ढंग से सृष्टि होती है । इसी तरह नियत समय में अग्नि, जल और वायु से नाश नियमानुसार होता रहता है, जिसका विशद विवरण बौद्ध ग्रन्थों अथवा Manual of Buddhism से जानना चाहिए ।
इस प्रकार म० बुद्ध ने इस पृथ्वी का नाश और उत्पादक्रम बतलाया था। इसमें भी जन सदृशता बहुत कुछ दृष्टि पड़ रही है। जैन शास्त्रों में कहा गया हैं कि प्रत्येक अवप्पिणी अन्तिम काल के अन्त समय में (भरत और ऐरावत क्षेत्रों में हो) पानी सब सुख जाता है-शरीर की भांति नष्ट हो जाता है। इस समय सब प्राणियों का प्रलय हो जाता है। केवल थोड़े से जीव गंगा, सिंधु और विजयाई पर्वत की वेदिका पर विधाम पाते हैं। यह लोग मछली, मेढक प्रादि खाकर रहते हैं। तथापि अन्य दुराचारी जीव छोटे-छोटे बिलों में घुस जाते हैं। साथ ही यह ध्यान रहे कि जैनधर्म और अग्नि का लोप पांचव ही काल में हो चुकता है। तदन्तर सात दिन तक अग्नि की वर्षा, सात दिन तक शांत जल की, सात दिन तक खारे पानी की, सात दिन तक विष को, सात दिन तक दुस्सह अग्नि की, सात दिन तक पूलि को और फिर सात दिन तक धूप की वर्षा होतो है । इसके बाद पृथ्वी का विषमपना सब नष्ट हो जाता है और चित्रा पृथ्वी निकल पाती है। यहां अबप्पिणी के अन्तिमकाल का अन्त हो
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