________________
का है, (४) पोर जम्बूद्वीप जो महामेरु की दक्षिण और त्रिकोन आकार का १०००० योजन के विस्तार का है। जैन विवरण
इससे नहीं मिलता है। वहाँ मध्यलोक में जम्बूद्वीप आदि अनेक द्वीप समुद्र बताये हैं। इन द्वीप समुद्रों के ठीक बीचोंबीच में जम्बूद्वीप बतलाया है जो गोल आकार का है और जिसके मध्य में मनुष्य शरीर में नाभि की भांति मेरु पर्वत है। जम्बू द्वीप एक लाख योजन के विस्तार का है। उत्तर कुरु और पूर्व विदेह उसमें वे क्षेत्र हैं जहां भोग भूमि है, परन्तु बौद्धों के अपरगोदान द्वीप का पता कहीं नहीं लगता है। बौद्धों ने अपने उत्तर कुरुदियिन द्वीप का जो विवरण दिया है उससे स्पष्ट है कि वे भी वहां एक तरह की भोगभूमि मानते हैं उनके धनुसार वहां के निवासी चौकोल मुख के हैं, जो न कभी बीमार होते हैं और न कोई आकस्मिक घटना उन पर घटित होती है स्त्री पुरुष दोनों ही सदा षोडशवर्षीय सुन्दर अवस्था को धारण किये रहते हैं। कोई काम धन्धा नहीं करते हैं, क्योंकि जो कुछ वे चाहते हैं वह उनको कल्पवृक्षों से मिल जाता है। यह वृक्ष १०० योजन ऊंचे हैं। वहां माता, पिता, भाई आदि का कोई रिश्ता नहीं है। स्त्रियां देवों से भी सुन्दर हैं। यहां वर्षा नहीं होती जिससे घरों की भीख नहीं है की एक वर्ष है। यह विवरण जैनियों की भोगभूमि से बहुत मिलता जुलता है। यद्यपि वहाँ भोग भूमियों की धावु बहुत ज्यादा बताई है। इस भेद का कारण यह है कि जैन धर्म में संख्या परिमाण बौद्धों से बहुत अधिक है। बौद्धों की उत्कृष्ट संख्या असंख्यात है, जबकि जैनों को संख्या इससे बढ़ कर धनन्त रूप है । बुद्ध यह मानते हैं कि लोकप्रवाह सनातन है, परन्तु वह इस बात को भी जैनियों के साथ-साथ स्वीकार करते हैं कि उन देशों का नाम मौर उत्पाद भी होता है, जिनमें मनुष्य रहते हैं। नाथ के तरीके वे तीन प्रकार बतलाते हैं अर्थात् सवल सात बार तो अग्नि से नष्ट होते हैं, आठवीं बार पानी से और हर ६४ वीं दफे हवा से । उनमें इस नाशकर्म का व्यवहार कल्पों पर नियत रखखा है। कहा गया है कि जिस अन्तराल काल में मनुष्य की आयु १० वर्ष से बढ़ते-बढ़ते एक असंख्य की हो जाती है वह बौद्धों का एक अन्तःकल्प होता है। इन २० अन्तःकल्पों का एक असंख्य कल्प होता है और चार असंख्य कल्प का एक महाकल्प होता है। जैन धर्म में भी कल्पकाल माने गये हैं, परन्तु उनका परिणाम इनसे कहीं अधिक है। जैनियों ने दस कोड़ाकोड़ी व्यवहार सागरोपमकाल का एक अवसर्पिणीकाल माना है और बीस कोड़ाकोड़ी व्यवहार सागरोपमकाल एक उत्सर्पिणी और एक पण दोनों का एक कल्पवाल माना है तथापि असंख्यात उत्सर्पिणी व वसी का एक महाकरूपकाल माना है इनके विशद विवरण के लिए त्रिलोक-सार वृहद जैन शब्दार्णव यादि ग्रन्थ देखना चाहिए। यहां तो मात्र सामान्य दिग्दर्शन कराना ही संभव है सारांशतः कल्पकाल का भेद जैन और बौद्ध भाग्यता में स्पष्ट है गाड़ी बौद्धशास्त्र एक अन्तः कल्प में पाठ युग बतलाते हैं, जिनमें चार उत्पपिणी और चार विणी कहलाते हैं। उनके उत्सर्पिणी में हर बात की वृद्धि होती है - इसलिए यह उर्द्धमुख भी कहाती है और श्रपिणी में घटती, इस हेतु वह प्रधोमुख कही जाती । यहां भी जैन धर्म का प्रभाव दृष्टव्य है भगवान महावीर ने भी कल्पकाल के दो भेद उत्सर्पिणी और पवणी बतलाये हैं। इनका प्रभाव भी वही बतलाया गया है जो बौद्धों के उत्सर्पिणी और अणिणी युगों का बतलाया गया है। सचमुच नाम घोर भाव की सादृश्यता इस बात की प्रकट साक्षी है कि म० बुद्ध ने अपने कालनिर्णय में भी अपने प्रारम्भिक श्रद्धान के धर्म जैनधर्म से बहुत कुछ लिया था। हां, यहां यह अन्तर बेशक है कि जब म० बुद्ध ने उत्सर्पिणी और अप्पिणी दोनों में प्रत्येक के चार-चार युग बतलाये हैं, तब जैन शास्त्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी अर्ध कल्पी में प्रत्येक में छँ काल होते लिखे हैं, अर्थात् (१) सुखमासुमा (२) सुखमा, (३) सुखमा दुःखमा, (४) दुःखमा सुखमा, (५) दुःखमा र (६) दुःखमा दुःखमा। यह कम अविसर्पिणी अर्धकल्प का है । उत्सपिणी अर्धकल्प में प्रत्येक पदार्थ की उन्नति होती है, इसलिये उसका पहला काल दुःखमा दुःखमा है और फिर इसी क्रम से अन्यकाल समझना चाहिए। बौद्धों ने अपने उत्सप्पिणी के चार युग (१) कलि, (२) द्वापुर, (३) शेता, और (४) कृत बतलायें हैं । एवं उनके श्रमिणी के युगों का क्रम इनसे बरग्रक्स है अर्थात् उसमें प्रथम युग कृत है और शेष भी इसी तरह क्रमवार है। इन युगों के नाम ब्राह्मण धर्म के समान हैं। इस तरह यह अनुमान किया जा सकता है कि यहाँ भी बुद्ध ने अपने से प्राचीन धर्म जैन और ब्राह्मण धर्म से उचित सहायता ग्रहण को थी।
1
अब पाठकगण, जरा आइए म० बुद्ध के बताये हुए लोक प्रलय का भी किचित् दिग्दर्शन कर लें। कहा गया है कि एक कल्प के प्रारम्भ में वर्षा होती है-इसे 'सम्पत्ति कर-महा-मेघ' कहते हैं। यह उन सर्व व्यक्तियों के समूहरूण पुण्य के बल से उत्पन्न होता है, जो ब्रह्मलोकों और बाहरी सबलों में रहते हैं। पहले बूंदें ग्रोस की तरह छोटी-छोटी होती हैं, परन्तु वे धीरेधीरे बढ़ते हुए खजूर के पेड़ इतनी बड़ी हो जाती है। वह सब स्थान जहां पहले के केललक्ष लोक अग्नि से नष्ट हो चुके हैं, अब ताजे पानी से भर जाते हैं । यह ध्यान रहे कि बौद्ध जन पहले सात चार ग्रग्नि द्वारा मनुष्य लोक का नाश होना मानते हैं । इसी तरह इस कल्पना में प्रारम्भ में यहां अग्नि द्वारा नाश हुआ था। नष्ट हुए स्थान जहां जल से भरे कि यह वर्षा बन्द हुई । वर्षा
&#