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दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य, अनन्तसुखकर पूर्ण हैं, जिनका शरीर अपूर्व प्रभामय और विशुद्ध है। वास्तव में अहंत भगवान के मोहनीयादि कगों के प्रभाव से भूख, प्यास, भय, ईर्ष्या, द्वेष, मोह, जरा, रोग, मृत्यु, पीड़ा, मादि कुछ भी साधारण मानुषिक कमजोरियां शेष नहीं रहती हैं। इस अवस्था में वे साक्षात् जीवित परमात्मा होते हैं, उनके शरीर की प्रभा भी इस उच्चपद के सर्वथा उपयुक्त होती है। यही मालूम होता है मामो एक हजार सूर्य एकदम प्रकट हो गए हैं। यह इच्छाओं रो सर्वथा रहित और बिल्कुल बिशुद्ध होते हैं । यह पंचपरमेष्ठियों में सर्व प्रथम है, जिनकी उपासना आदर्शवत जैनी करते हैं।
___ अतएव जब यह सशरीरी परमात्मा बौदहवें गुणस्थान में पहुंच जाता है, तब वह अयोग केवलो कम्मरहित पूर्ण शुद्ध आत्मा हो जाता है। यह अवस्था उन भगवान को मोक्ष प्राप्ति में इतने अल्प समय पहले प्राप्त होती है। कि, इ, उ, ऋ, ल, इन पांचों अक्षरों का उच्चारण किया जा सके। यह बहुत हो सुक्ष्म समय है। इसके बाद शरीर को त्यागकर आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप में सदा के लिए तिष्ठ जाती है और सिद्ध कहाती है। सिद्ध भगवान फिर कभी लौटकर इस संसारावस्था में नहीं पाते हैं । बह सिद्धि शिला में तिष्ठे अपने स्वाभाविक मानन्द का उपभोग सदा करते रहते हैं।
सिद्ध भगवान एक पूज्यनीय परमात्मा हैं, जिनका यद्यपि संसार से सम्बन्ध कुछ भी नहीं है, तो भी उनका चिन्तवन शुभ भावों और पात्म ध्यान के लिए एक साधन है । आचार्य बाहते हैं :- .
णछैठकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणो दट्ठा ।
पुरिसायारा श्रप्पासिलोझाएह लोयसिहत्थो ॥५१॥ भावार्थ- नष्ट कर दिए हैं अष्ठ कर्म देह से जिसने लोकालोक का जानने वाला देह रहित पुरुष के आकार लोक के अग्रभाग में स्थित ऐसा आत्मा सिद्ध परमेष्ठी है सो नित्य ही ध्याथा जावे अर्थात् स्मरण करने योग्य है।
इस प्रकार भगवान महावीर ने संसार सागर में रुलती हुई आत्माओं को उससे निकलकर सच्चा स्वाधीन सुख पाने का मार्ग सुझाया था, जो पूर्ण स्वावलम्बन कर संयुक्त है । सारांशतः उन्होंने बताया था कि अनादिकाल से कम के कुचक्र में पड़ी हई आत्मा अपनी ही मोहजनित मुर्खता के कारण संसार में भटकती हुई दुःख और पीड़ा का अनुभव कर रही है, अतएवं जब वह अपने निजी स्वभाव' को पीर पर द्रव्यों के स्वरूप को स्वयं अपने अनुभव द्वारा अथवा गुरु के उपदेश से हृदयंगम कर लेती है तब यह रत्नत्रय रूपो मोक्ष मार्ग का अनुसरण करना प्रारम्भ कर देती है। तथापि दृढतापूर्वक उसका अभ्यास किये जाने से एक दिन वह कम रूपी परतन्त्रता की वेड़ियां काट डालती है और स्वयं स्वाधीन होकर परमात्मावस्था के परमोत्कृष्ट स्वराज्य का उपभोग करती है। सच्चा स्वराज्य यही है, इसी को पाने का उपदेश भगवान महावीर ने दिया था। इस हिंसक जमाने में सच्चे भारतवासियों को इस स्वराज्य प्राप्ति के मार्ग में दृढ़ता से कर्तव्यपरायण हो जाना परम उपादेय है । अहिसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, प्रचौर्य, और अपरिग्रह का अभ्यास प्रारम्भ करना स्वयं उनकी आत्मा एवं भारत के हित का कारण है। अहिंसा में गम्भीरता है, शौर्यता है । सत्यता में दृढ़ता है। जहां शौर्यता और दृढ़ता प्राप्त हुई वहां लोभ कषाय को तिलांजलि देते हए प्राकांक्षा और वाक्षा को नियमित किया जाता है और स्वावलम्बी बनने को तीब्र अभिलाषा अपना जोर मारने लगती है जिसकी प्रेरणा से वह यात्माभिमुख हुआ वीर संयम का अभ्यासी हो जाता है और क्रमश: आत्मोन्नति करता हुमा पूर्ण स्वाधीनता को पा लेता है। यही सच्चा सुख है। भारतीयता के लिए भगवान महावीर का उपदेश अतीव कल्याणकारी है। लोक के कल्याण भावना का जन्म उसको पाद देने से होता है।
अब जरा म बुद्ध के विषय में भी किचित और विचार कर लें। दुःख और पीड़ा कहाँ है, कैसे है और किसको है, यह हम उनके बताये मुताबिक पहले देख चुके हैं । उपरान्त उन्होंने इस दु:ख और पीड़ा से छुटने का उपाय यों बतलाया था।
___ "डे राजन ! सब ही अज्ञानी व्यक्ति इन्द्रिय सुख में प्रानन्द मानते हैं, उन्हीं को बासनापूति में मुखी होते हैं, उन्हीं के पीछे लगे रहते हैं। इसलिए वे मानुषिक कषायों की बाढ़ में बहे चले जाते हैं। वे जन्म, जरा, मरण, दुःख, शोक, आशा, निराशा से मबत नहीं हैं। मैं कहता हूँ वे पीड़ा से मुक्त नहीं होते हैं, किन्तु राजन् ! जो ज्ञानवान हैं ? तथागतों के अनयायी हैं. बेन इन्द्रिय बासनात्रों में आनन्द मानते हैं, न उनसे सुखी होते हैं और न उनके पीछे लगे रहते हैं, और जब वे उनके पीछे नहीं लगते हैं तो उनमें तृष्णा का अभाव हो जाता है । तृष्णा के प्रभाव से ग्रहण करना (Graping) बन्द हो जाता है। इसके बन्द होने से भव धारण करने का (Becoming) अन्त हो जाता है और जब भव का ही नाश हो गया तब फिर जन्म, जरा, रोग, शोक,
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