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कार कहा करते थे। शत्रुनों को नष्ट करने वाले उस राजा के राज्य करते समय अपनी अपनी वृत्ति के अनुसार धन का अर्जन तथा उपभोग करना ही प्रजा का व्यापार रह गया था। वहां की प्रजा भी न्याय का उल्लंघन नहीं करती थी, राजा प्रजा का उल्लंघन नहीं करता था, धर्म, अर्थ, काम रूप निवर्ग राजा का उल्लंघन नहीं करता था और त्रिवर्ग परस्पर एक-दूसरे का उल्लंघन नहीं करता था।
किसो एक दिन राजा पद्मसेन ने प्रोतिकर वन में स्वर्गगुप्त केवली के समीप धर्म का स्वरूप जाना और उन्हीं से यह भी जाना कि हमारे सिर्फ दो पागामी भव' बाकी रह गये हैं। उसी समय उसने ऐसा उत्सब मनाया मानों मैं तीर्थकर ही हो गया हं और पद्मनाभ पुत्र के लिये सर देकर उन्मुद ना नना शुरु कर दिया प्यारह अंगों का अध्ययन कर उन पर दृढ़ विश्वास किया, अन्य पुण्य प्रकृतियों का भी यथायोग्य संचय किया और अन्त समय में चार अाराधनाओं की पाराधना कर सहस्रार नाम का इन्द्र पद प्राप्त किया । वहाँ अठारह सागर उसकी आयु थी, धनुष अर्थात् चार हाथ ऊंचा शरीर था, द्रव्य और भाव की अपेक्षा जघन्य शुक्ललेश्या थो, वह नौ माह में एक बार श्वास लेता था, अठारह हजार वर्ष में एक बार मानसिक आहार ग्रहण करता था, देवांगनानों का रूप देखकर ही उसकी काम-व्यथा शान्त हो जाती थी, चतुर्थ पृथ्वी तक उसके अवधिज्ञान का विषय था, वहीं तक उसकी दीप्ति प्रादि फैल सकती थी, वह अणिमा प्रादि गुणों से समुन्नत था, स्नेह रूपो अमृत से सम्पृक्त रहने बाले उसके मुखकमल को देखने से देवांगनाओं का चित्त संतुष्ट हो जाता था। इस प्रकार चिरकाल तक उसने सुखों का अनुभव किया।
वह इन्द्र जब स्वर्ग लोक से चयकर इस पृथ्वी लोक पर पाने वाला हुना तब इसी भरत क्षेत्र के काम्पिल्य नगर में भगवान ऋषभदेव का बंशज कृत वर्मा नाम का राजा राज्य करता था । जय-श्यामा उसकी प्रसिद्ध महादेवो थी । इन्द्रादि देवों ने रनवष्टि प्रादि के द्वारा जयश्यामा की पूजा की । उसने ज्येष्ठ कृष्णा दशमी के दिन रात्रि के पिछले भाग में उत्तरा-भाद्रपद नक्षत्र के रहते हुए सोलह स्वप्न देखे, उसी समय अपने मुख-कमल में प्रवेश करता हुआ एक हाथों देखा, और राजा से इन सबका फल ज्ञात किया । उसी समय अपने ग्रासनों के कम्पन से जिन्हें गर्भ कल्याणक की सूचना हो गई है ऐसे देवों ने स्वर्ग से प्राकर प्रथम-गर्भ कल्याणक किया।
जिस प्रकार बढ़ते धन से किसी दरिद्र मनुष्य के हृदय में हर्ष की वृद्धि होने लगती है उसी प्रकार रानी जयश्यामा के चढते हए गर्भ से वन्धजनों के हृदय में हर्ष की वृद्धि होने लगी थी। इस संसार में साधारण से साधारण पुत्र का जन्म भी हर्ष का कारण है तब जिसके जन्म के पूर्व ही इन्द्र लोग नम्रीभूत हो गये हों उस पुत्र के जन्म को बात ही क्या कहना है? माघशुक्ल चतर्थी के दिन (ख. ग० प्रति पाठ की अपेक्षा चतुर्दशी के दिन) अहिर्ष घन योग में रानी जयश्यामा ने तीन ज्ञान के धारी, तीन जगत के स्वामी तथा निर्मल प्रभा के धारक भगवान को जन्म दिया। जन्माभिषेक के बाद सब देवों ने उनका विमल वाहन नाम रक्खा और सबने स्तुति की। भगवान् वासुपूज्य' के तीर्थ के बाद जब तीस सागर वर्ष बीत गए और पल्य के अन्तिम भाग में धर्म का विच्छेद हो गया तब बिमलवाहन भगवान् का जन्म हुआ था। उनकी आयु सात लाख वर्ष की थी, शरीर साठ धनुष ऊंचा था, कान्ति सुवर्ण के समान थी और ये ऐसे सुशोभित होते थे मानो समस्त पूण्यों की राशि ही हों।
समस्त लोक को पवित्र करने बाले, अतिशय पुण्यशालो भगवान विमल वाहन की प्रात्मा पन्द्रह लाख प्रमाण' कुमारबाल बीत जाने पर राज्यभिषेक से पवित्र हुई थी। लक्ष्मी उनकी सहचारिणी थी, कीर्ति जन्मान्तर से साथ आई थी. सरस्वती साथ ही उत्पन्न हुई थी और बीर-लक्ष्मी ने उन्हें स्वयं स्वीकृत किया था। उस राजा में जो सत्यादिगुण बढ़ रहे थे वे बडेबडे नालियों के द्वारा भी प्रार्थनीय थे इससे बढ़कर उनकी और क्या स्तुति हो सकती थी । अत्यन्त विशुद्धता के कारण थोड़े ही दिन बाद जिन्हें मोक्ष का अनन्त सुख प्राप्त होने वाला है ऐसे विमलबान भगवान के अनन्त सुख' का वर्णन भला कौन कर सकता है ? जन उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुया तब समस्त इन्द्रों ने उनके चरण कमलों की पूजा की थी और इसलिए वे देवाधिदेव कहलाये