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गीतिका छन्द
इहि भांति वारहभावना, भवि सदा हिरदै भाव ही । अंतत जु अतीत गुण निधि, मुक्ति पंथ सु पावही ।। भवहरण बिमल सिद्धान्त साधक, सूत्र उद्भव जानिये । सुर आदि सकल विभूति दायक 'नवलशाह' वखानिये ॥३३७।। बालपन सुख भोग कीनी, सुर असुर सेवा करें। सुर जनित सकल विभूति क्रीड़ा, करत निशदिन मन हरे ।। पुनि काललब्धि विचार प्रभु जहं परम उर वैरागियो। श्री बोर जिन कर जोर प्रनमौं, चित्त शिवपद लागियो ।।३३८॥
पश्चात् जिनेन्द्र देव की सेवा के लिये देवियों को तथा असुर कुमार देवों को वहां रखकर इन्द्र देवों के साथ बड़ी प्रसन्नता पूर्वक स्वर्ग को गया। इस प्रकार पुण्य के फल स्वरूप तीर्थकर स्वामी सम्पूर्ण सम्पदाओं से पूर्ण हुए। अतएव भव्य जनों को चाहिए कि वे सर्वदा धर्म का पालन करते रहें।
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